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महावीर । मेरी दृष्टि में
सकते, उसको कोच रखनी पड़ती क्योंकि मां किसी वक्त बाहर आ सकती है। तो कोचवान बर्फ की ठंड में मर गया है मां के सामने उसकी लाश फिकवा दी गई है और दूसरा कोचवान सड़क से पकड़ कर बैठा दिया गया है और कोच घर की तरफ चली गई है। मां पूरे रास्ते रोती रही है उस फिल्म के लिए, या उस नाटक के लिए जहाँ कोई मर गया था, या जहाँ कोई प्रेमो बिछुड़ गया था, या जहाँ कोई और दुर्घटना घट गई थी।
कई बार ऐसा हो जाता है कि गहर की जिन्दगी हमें उतनी ज्यादा नहीं पकड़ती जितनी चित्र की कहानी पकड़ लेती है क्योंकि बाहर की जिन्दगी बहुत अस्त-व्यस्त है और चित्र की कहानी बहुत व्यवस्थित है और आपके मन को कितना डूबा सके, उसकी सारी व्यवस्था की गई है। बाहर की जिन्दगी में यह सब व्यवस्था नहीं है। तो नाटक तक में, फिल्म तक में, हम साक्षी नहीं रह पाते । बहुत गहरे में हम खोज करेंगे तो फिल्म और जीवन में फर्क ज्यादा नहीं है। यह शरीर उसी तरह विद्युत कणों से बना है, जिस तरह फिल्म के परदे पर बना हुआ शरीर विद्युत कणों से बना है। फिल्म या नाटक की कहानी जितना अर्थ रखती है, उससे ज्यादा हमारे जीवन को कहानी अर्थ नहीं रखती है। हाँ, फर्क इतना ही है कि वह तीन घंटे की मंच है; यह शायद सत्तर साल की, सौ साल की मंच है। इसमें अभिनेता बदलते चले जाते हैं, आते हैं, चले जाते हैं। यह नाटक चलता ही रहता है। इस नाटक में दर्शक और अभिनेता अलगअलग नहीं हैं।
अगर हमें स्मरण आ सके कि यह एक लम्बा नाटक खेला जा रहा है, तो शायद हम भी साक्षी हो सके। और फिर शायद नाटक के इन पात्रों में क्या मैं हो जाऊँ यह ख्याल टूट जाए। जो हम है, शायद हम उसी को चुपचाप निभाकर बिदा हो जाएं। ऐसी चित्त की दशा में जहाँ वासना टूट जाती है, तृष्णा टूट जाती है, जहाँ हम दौड़ से बाहर खड़े हो जाते हैं और दौड़ सिर्फ नाटक रह जाती है व्यक्ति छलांग लगा लेता है। फिर भी क्योंकि हम नाटक में जो खोए हैं, नाटक में जो भटके है, अभिनय ही जीवन रहा, है, तो हमें वास्तविक जीवन की खबर समझ में नहीं आती। जैसे कि नाटक के मंच के पीछे ग्रीन रूम है जहां कोई राम बना था कोई रावण बना था, मंच पर लड़ रहे थे, झगड़ रहे थे, मगर पीछे ग्रीन रूम में जाकर एक दूसरे को चाय पिला रहे हैं और गपशप कर रहे हैं।