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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२ हिम्मत जाहिर की है। चौदह सौ साल हो गए। मूर्ति को प्रवेश नहीं करने 'दिया है । खाली जगह छोड़ी। बहुत मुश्किल है, बहुत आसान नहीं है। मन मूर्ति के लिए लालायित हो उठता है। मन कहता है कि कोई रूप ? कैसे ये? मन की इच्छा होती है कोई रूप बने । बहुत रूप बनाकर लोगों ने देख लिए। कुछ लोग हैं, जिनके लिए सब रूपों में मूल विलाई पड़ी है। उन्होंने रूप हटाकर भी देख लिया; रूप नहीं रखा। मुहम्मद को विदा ही कर दिया । मस्जिद खाली रह गई। कुछ लोगों के व्यक्तित्व की दशा बड़ी हो सकती है । बहुत मन्दिर, बहत मस्जिद बन गए। कुछ लोगों ने मन्दिर और मस्जिद को भी विदा करके देख लिया, तीर्थों को भी विदा करके देख लिया। सब तरह के लोग हैं इस पृथ्वी पर, अनन्त तरह के लोग; अनन्त तरह की उनकी इच्छाएँ; अनन्त तरह की उनकी व्यवस्थाएं। और सबके लिए समुचित मार्ग मिल सके; इसलिए उचित ही है कि यह भेद रहे। लेकिन वक्त आएगा जैसे जैसे मनुष्यता विकसित होगी वैसे-वैसे हम खिड़की का प्राग्रह छोड़ देंगे, व्यक्ति का आग्रह छोड़ देंगे। यह पहले भी मुश्किल पड़ा होगा, इतना आसान नहीं है यह । इसलिए, हमने प्रतीक थोड़े से बचा लिए । ___ चौबीस तीर्थकर है जनों के। अच्छा तो यह होता कि उनके अलग-अलग प्रतीक भी न रहते लेकिन मन ने थोड़ा सा इन्तजाम किया होगा कि एकदम कैसे कर दें, कि थोड़ा सा चिन्ह रखो कि ये कौन है, थोड़ा सा चिन्ह बना लो। उतने में भी भेद हो गया। तो पारस का मन्दिर अलग बनता है, महावीर का मन्दिर अलग बनता है। उनके चिन्ह में भी भेद ला दिया। वह चिन्ह भी विदा कर देने की जरूरत है। लेकिन मनुष्य का मन बदले तभी, उसके पहले नहीं हो सकता है। ___ आप ठीक पूछते हैं, जो अनुभव हुआ है वह तो एक ही है। लेकिन उस अनुभव को कहा गया अलग-अलग शब्दों में। महावीर कहते हैं ; आत्मा को पाना परम ज्ञान है। इससे ऊंचा कोई ज्ञान नहीं। और बुद्ध वहीं, उसी समय में, उसी क्षेत्र में मौजूद रहते हैं और कहते हैं कि आत्मा को मानने से बड़ा अज्ञान नहीं है और दोनों ठीक कहते हैं । और मैं जानता हूँ कि न महावीर इसके लिए राजी हो सकते हैं बुद्ध से; और न बुद्ध इसके लिए महावीर से राजी हो सकते हैं। और दोनों जानते हैं भली भांति कि कोई भेद नहीं है । और दोनों राजी नहीं हो सकते हम पर करुणा के कारण। राजी हुए तो हमारे लिए व्यर्थ हैं। महावीर इसीलिए बहुत बड़े व्यापक वर्ग को प्रभावित नहीं कर सके
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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