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________________ महावीर : मेरी दृष्टि घर को बनाते थे। अब मेरे लोटने की कोई उम्मीद नहीं रही क्योंकि कही लौटूंगा? अब वह घर ही न रहा, जिसमें सदा लोटता था। और वह पर जो है, वह सूक्म शरीर का घर, उस पर हमारे सारे कर्म, हमारे सारे कर्मों के फल, हमारा भोग, हमारा जिया हुवा जीवन-वह सब वैसा बन जाता है जैसे स्लेट की पट्टी पर रेखाएं बन जाती है। उस सूक्ष्म शरीर को गलाना ही साधना है। अमर मुझसे कोई पूछे कि तपश्चर्या का क्या मतलब तो मैं कहूंगा कि सूक्ष्म शरीर को गलाना ही तपश्चर्या है। तप का मतलब होता है-तीन गर्मी, सूर्य की गर्मी ऐसी गर्मी भीतर साक्षी से पैदा करनी है कि सूक्ष्म शरीर पिघल जाए और वह जाए। तप का यही मतलब है। तप का मतलब धूप में खड़े होना नहीं है। वह आदमी पागल है जो धूप में खड़ा होकर तप कर रहा है। अब महावीर को कहते हैं महातपस्वी तो उसका मतलब यह नहीं है कि वह धूप में खड़े होकर शरीर को सता रहे हैं। और जब महावीर को कहते हैं 'काया को मिटाने वाला' तो उस काया का इस काया से कोई मतलब नहीं है। उस काया का मतलब है भीतर की काया से जो असली काया है। बाहरी काया वो बार-बार मिलती है। आप इस कमीज को अपनी काया नहीं कह सकते । क्योंकि आप रोज उसे बदल लेते हैं। आप शरीर को काया कहते है क्योंकि जिन्दगी भर उसे नहीं बदलते। महावीर भली भांति जानते हैं कि यह शरीर भी तो कई बार बदला जाता है लेकिन एक और काया है जो कमी नहीं बदली, बस एक ही बार खत्म होती है, बदलती नहीं। तो उस काया के पिघलने में लगा हुआ जो आम है वही तपश्चर्या है। और उस काया को पिघलाने की जो प्रक्रिया है वही साक्षीभाव, सामायिक का ध्यान है। और वह स्मरण में आ जाए और उसके प्रयोग से हम गुजर जाएं तो फिर कोई फुनर्जन्म नहीं है। पुनर्जन्म रहेगा, सदा रहेगा अगर हम कुछ न करें। लेकिन ऐसा हो सकता है कि पुनर्जन्म न हो। हम विराट् जीवन के साथ एक हो जाएं। ऐसा नहीं कि हम मिट जाते है, ऐसा नहीं कि हम खत्म हो जाते है । बस ऐसा ही हो जाते हैं जैसे बूंद सागर हो जाती है। वह मिटती नहीं, लेकिन मिट भी जाती है, बूंद की तरह मिट जाती है, सागर की तरह रह जाती है। इसलिए महावीर कहते हैं कि आत्मा ही परमात्मा हो जाता है। लेकिन नहीं समझे लोग कि इसका क्या मतलब है। मतलब यह है कि आत्मा कि बूंद खो जाती है परमात्मा में और एक हो जाती है। उस एकता में, उस परम अद्वैत में परम आनन्द है, परम शांति है, परम सौन्दर्य है।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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