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________________ २३२ महावीर मेरी दृष्टि यह मार्य जीवन-दर्शन बड़ी बात है। इसमें श्रमण सम्मिलित है, ब्राह्मण सम्मिलित है। महावीर पर माकर इस धारा ने अपना पृषक् अस्तित्व घोषित किया। महावीर के पहले तक वह धारा पृषक नहीं है। इसलिए नादिनाव का नाम तो वेद में मिल जाएगा लेकिन महावीर का नाम किसी हिन्दू अंथ में नहीं मिलेगा। पहले तीर्थकर का नाम तो वेद में उपलब्ध होगा पूरे समादर के साथ । लेकिन महावीर का नाम उपलब्ध नहीं होगा। महावीर पर आकर विचार की धारा सम्प्रदाय बन गई और उसने आर्य जीवन पथ में अलग पगडंडी तोड़ ली। तब तक वह उसी पथ पर थी। अलग चलती थी, अलग धारा थी चिन्तना की लेकिन थी उसी पथ पर । उस पथ से भेद नहीं खड़ा हो गया था और एकदम से भेद बड़ा होता भी नहीं है। वक्त लग जाता है। जैसे जीसस पैदा हुए तो जीसस के बक में ही इसकी वारा अलग नहीं हो गई। जीसस के मर जाने पर भी दो तीन यो वर्ष तक यहूदी के अन्तर्गत हो जीसस के विचारक चलते रहे। लेकिन जैसे-जैसे भेद साफ होते गए और दृष्टि में विरोध पड़ता गयाजीसस के तीन सी, चार सौ, पांच सौ साल बाद क्रिश्चियन धारा मलम खड़ी हो गई। जीसस तो यहूदी ही पैदा हुए और यहूदी ही मरे । जीसस ईसाई कमी नहीं थे। जैनों के पहले तेईस तीकर आर्य ही थे, मायं ही पैदा हुए और आर्य हो मरे। वे जैन नहीं थे। लेकिन महावीर पर जाकर धारा बिल्कुल पृथक् हो गई, बलशाली हो गई, उसकी अपनी दृष्टि हो गई और इसलिए फिर वह 'श्रमण' न कहलाकर जैन कहलाने लगी। 'जन' कहलाने का और भी एक कारण वा क्योंकि श्रमणों की एक बड़ी धारा थी। सभी श्रमण 'जैन' नहीं हो गये । धम नौर संकल्प पर आस्था रखने वाले आजीवक भी थे, बौद्ध भी ये और दूसरे विचारक भी थे। जब महावीर ने अलग पूरा दर्शन दे दिया तब फिर इस श्रमणधारा को भी एक बारा रह गई। बौद्ध धारा भी श्रमण धारा है। पर वह बलप हो गई। इसलिए फिर इसको एक नया नाम देना जरूरी हो गया। और यह महावीर के साथ जुड़ गया। क्योंकि जैसे बुद्ध को हम कहते है : गौतम बुद्ध, नाग्रत पुरुष वैसे महावीर को हम कहते हैं महावीर जिन : महावीर विजेता, जिसने जीता और पाया। असल में जिन बहुत पुराना शब्द है। वह बुद्ध के लिए भी उपयुक्त हुआ है। जिन का मतलब जीतना ही है। लेकिन फिर भेदक रेखा खींचने के लिए जरूरी हो गया कि जब गौतम बुद्ध के अनुयायी बोर कहलाने लगे तो महावीर के अनुयायो जैन कहलाने लगे। 'जिन'
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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