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महावीर : मेरी दृष्टि में
का त्याग कर दे। यह असम्भव है, क्योंकि जो सत्य उपलब्ध होगा, उसमें जागरण अनिवार्य होगा। यानो वह सत्य भी जागो हुई चेतना का एक रूप ही होगा। इसलिए फिर ऐसा नहीं है कि जागरण छोड़ दिया जाए। सिर्फ वही साधना छोड़ी जा सकती है जो परम उपलब्धि की तरफ न हो बल्कि साधना की तरह उपयोग को हुई हो। जैसे कि आप यहाँ एक बैलगाड़ी में बैठकर आए है । आप उतर कर बैलगाड़ी को छोड़ देंगे। क्योंकि बैलगाड़ी पहुंचाने का साधन थी। इसके बाद व्यर्थ हो जाती है। जो साधन कहीं जाकर व्यर्थ हो जाते हैं, वे साधन के हिस्से नहीं होते इसलिए व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन जो साधन अनिवार्यतः साधन में विकसित होते हैं, वे कभी व्यर्थ नहीं होते। विवेक कभी व्यर्थ नहीं होता। लेकिन महाबोर, बारह वर्ष की साधना के बाद सब छोड़ देते हैं। और उनके पीछे चलने वाले चिन्तक कभी यह विचार नहीं कर पाए कि यह कैसी बात है । इसका कोई उत्तर भी नहीं दे पाए। न दे पाने का कारण है कि वे समझ हो न सके कि यह केवल अनुभूति को अभिव्यक्त करने के साधन खोजने का इन्तजाम था, आयोजन था। वे माध्यम मिल गए हैं और आयोजन व्यर्थ हो गया। यानी आयोजन शाश्वत नहीं था, सामयिक था, जरूरत का था। इससे ज्यादा उसका मूल्य नहीं है।
क्या किया जाए जीवन के समस्त तलों तक अपनी अनुभूति प्रतिध्वनि की तरंग पैदा करने के लिए ? तीन बातें समझ लेनो जरूरी हैं। एक तो अस्तित्व का मूक अंग है। जैसे पत्थर है, पौधा है, पक्षी है, पशु है। ये अस्तित्व के मूक अंग है । फर्क है पत्थर और पशु में बहुत । लेकिन यह विभाग मूक है । अगर इस मूक अंग से सम्बन्धित होना हो किसी व्यक्ति को और अपने अनुभव को इस तक पहुँचाना हो तो उसे परम जड़ अवस्था, परम मूक अवस्था में उतरना पड़ेगा । तभी उसका ताल-मेल, सामंजस्य हो सकेगा। उदाहरण के लिए अगर कोई व्यक्ति वृत्त के पास बैठकर पूर्णतया मूक हो जाए ऐसा जैसे कि जड़ हो गया, जैसे कि उसका शरीर कोई जीवित वस्तु नहीं है, और उसको चेतना परिपूर्ण शान्त होती चली जाए और उस जगह पहुँच जाए, जहाँ एक शब्द नहीं है तो इस परिपूर्ण मूक अवस्था में वृक्ष से संवाद होना सम्भव है। राम कृष्ण निरन्तर ऐसी अवस्था में उतरते रहे, जिसे मैं रामकृष्ण की जड़-समाधि कहता हूँ।
महावीर ने इस दशा में मनुष्य जाति के इतिहास में सबसे गहरे प्रयोग किए हैं। आप जानकर हैरान होंगे कि महावीर को जो अहिंसा को बात है,