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मैं महावीर का, अनुयायी नहीं हूं, प्रेमी हूं, वैसे ही जैसे क्राइस्ट का, कृष्ण का, बुद्ध का, लाओत्से का ; और मेरी दृष्टि में अनुयायी कभी भी नहीं समझ पाता।
और दुनिया में दो हो तरह के लोग हैं । साधारणतया यां तो काई अनुयायो होता है या कोई विरोध में होता है। न अनुयायी समझ पाता है न विरोधी समझ पाता है।
एक और रास्ता भी है 'प्रेम'; जिसके अतिरिक्त हम और किसी रास्ते से कभी किसी को समझ ही नहीं पाते । अनुयायो को एक कठिनाई है कि वह एक से बंध जाता है और विरोधी को भी कठिनाई है कि वह विरोध में बंध जाता है। सिर्फ प्रेमी को एक मुक्ति है। प्रेमी को बंधने का कोई कारण नहीं है। और जो प्रेम बांधता है, वह प्रेम ही नहीं। ___ तो महावीर से प्रेम करने में महावीर से बंधना नहीं होता। महावीर से प्रेम करते हुए भी बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को प्रेम किया जा सकता है क्योंकि जिस चीज को हम महावीर में प्रेम करते हैं वह हजार-हजार लोगों में उसी तरह प्रकट हुई है । महावीर को थोड़े ही प्रेम करते हैं । वह जो शरीर है वर्धमान का, वह जो जन्मतिथियों में बंधी हुई है एक इतिहास रेखा है, एक दिन पैदा होना, और एक दिन मर जाना ..-उसे तो प्रेम नहीं करते । प्रेम करते हैं उस ज्योति को जो उस मिट्टी के दिये में प्रकट हुई। वह दिया कोन था, यह बहुत अर्थ की बात नहीं।
बहुत दियों में वह ज्योति प्रकट हुई है; जो ज्योति को प्रेम करेगा वह दिये से नहीं बंधेगा। और जो दिये से बंधेगा, उसे ज्योति का कभी पता नहीं लगेगा। क्योंकि दिये से जो बंध रहा है, निश्चित है कि उसे ज्योति का पता