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________________ ६२२ महावीर : मेरी दृष्टि में मिट जाना, और महावीर को भी जब वह जीवन का नियम नहीं छोड़ता है तो महापीर की वाणी पर भी यह क्यों न लागू हो? हम क्यों आशा बांधे कि हम शब्दों को बचा कर महावीर को बचा लेंगे। क्या बचेगा हमारे हाथ में ? अंधारा कभी नहीं बचता। अंगारा तो बुझ ही जाता है। राख बच जाती है। अंगारे को आप सदा नहीं रख सकते; राख को आप सदा रख सकते हैं । राख बड़ी सुविधापूर्ण है । अंगारे को थोड़ी देर रखा जा सकता है । क्योंकि वह जीवन्त है इसलिए वह बुझेगा । असल में अंगारा जिस क्षण चलना शुरू हुआ है, उसी क्षण बुझना भी शुरू हो गया है। एक पर्त जल गई है, वह राख हो गई है । दूसरी पर्त जल रही है, वह राख हो रही है। तीसरी पतं जलेगी, वह राख हो जाएगी। अंगार जो है वह थोड़ी देर में राख हो जाएगा। राख बचाई जा सकती है करोड़ों वर्षों तक क्योंकि राख मृत है। हम उसे बांध कर रख सकते हैं और खतरा यह है कि कभी हम राख को कहीं अंगार न समझ लें। कभी राख अंगार थी लेकिन राख बनी ही तब जब अंगार 'न' हो गया। अब इसमें सोचने की दो बातें हैं। - राख अंगार थी और राख अंगार नहीं थी। राख अंगार थी-इसका मतलब यह हुआ कि अंगार से ही राख आई है। अंगार के जीने से ही राख का आना हुआ है । लेकिन एक अर्थ में राख कभी भी अंगार नहीं थी क्योंकि जहाँजहाँ राख हो गई थी, वहाँ-वहाँ अंगार तिरोहित हो गया था। राख जो है वह जीवित अंगार की छूटी हुई छाया है । अंगार तो गया, राख हाथ में रह गई। राख को संजोकर रखा जा सकता है। महावीर ने चाहा होगा कि राख को मत बचाना। क्योंकि असली सवाल अंगार का है । वह तो बचेगा नहीं। उसे तो तुम संभाल नहीं सकोगे । राख संभाल कर रख लोगे । और कल यह धोखा होगा तुम्हारे मन को कि यही है संगार । और तब इतनी बड़ी भ्रान्ति पैदा होगी जितनी महावीर को सब वाणी खो जाए तो भी पैदा होने को नहीं है। हिम्मतवर आदमी रहे होंगे। अपनी स्मृति के लिए कोई व्यवस्था न करना बड़े साहस की बात है । मृत्यु के विरोष में हम सभी यह उपाय करते हैं कि किसी तरह तो मरेंगे लेकिन किसी तरह स्मृति की एक रेखा हमारे पीछ रह जाए, बची ही रहे। फिर वह शब्द जो पत्थर पर लगा हुआ नाम है, शास्त्र है, रह जाए। हमारा मन न मरने की आकांक्षा करता है। न मरने के लिए हम कुछ व्यवस्था कर जाते हैं। महावीर ने जीते जी न मरने की कोई व्यवस्था नहीं की
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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