SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ महावीर : मेरी दृष्टि में महावीर की पिछले जन्मों की साधना अप्रमाद की साधना है। हमारे भीतर जो जीवन चेतना है वह कैसे परिपूर्ण रूप से जागृत हो ? इस विषय में महावीर कहते हैं : 'हम विवेक से उठे, विवेक से बैठे विवेक से चलें, विवेक से भोजन करें, विवेक से सोएँ भी।' अर्थ यह है कि उठते-बैठते, सोते, खाते-पीते प्रत्येक स्थिति में चेतना जागृत हो, मूच्छित नहीं । थोड़े गहरे में समझना उपयोगी होगा। हम रास्ते पर चलते हों तो शायद ही हमने कभी ख्याल किया हो कि चलने की जो क्रिया हो रही है, उसके प्रति हम जागृत हैं । हम भोजन कर रहे हैं तो शायद ही हमें यह स्मरण रहा हो कि भोजन करते वक्त जो भी हो रहा है उसके प्रति हम सचेत हैं। चीजें यन्त्रवत् हो रही हैं। रास्ते के किनारे खड़े हो जाएं और लोगों को रास्ते से देखें तो ऐसे लगेगा कि मशीनों की तरह वे चले जा रहे हैं। ऐसे भी लोग दिखाई पड़ेंगे जो हाथ हिलाकर किसी से बातें कर रहे हैं और साथ में कोई भी नहीं है। ऐसे लोग भी मिलेंगे जिनके होठ हिल रहे हैं और बात चल रही है लेकिन साथ में कोई भी नहीं है। किसी स्वप्न में खोए हुए, निद्रा में डूबे हुए ये लोग मालूम पड़ेंगे। दूसरे के लिए ही नहीं है ऐसा। हम अपने में भी देखें, अपना भी ख्याल करें तो यही प्रतीत होगा। जीवन में हम ऐसे जीते हैं जैसे किसी गहरी मूर्छा में पड़े हों। हमने जिन्हें प्रेम किया है, वह मूर्छा में, हमें पता नहीं क्यों ? हम नहीं बता सकते कोई कारण । हमने जिनसे घृणा को है, वह मूर्छा में; हम जब क्रोष किए है तब मूर्छा में; हम जैसे भी जिए हैं उस जीने को एक सजग व्यक्ति का जीना तो नहीं कहा जा. सकता। वह एक सोए हुए व्यक्ति का जीना है। कुछ लोग हैं जो रात में भी नींद में उठ पाते हैं। एक बीमारी है निद्रा में चलने की नींद में उठते हैं, खाना खा लेते हैं, घूम लेते हैं, किताब पढ़ लेते हैं, फिर सो जाते हैं। सुबह उनसे पूछिए वे कहेंगे-कौन उठा? कोई भी नहीं उठा। अमेरिका में एक आदमी पा जो रात निद्रा में उठकर अपनी छत से पड़ोसी की छत पर पहुँच जाता था। पाठ-नौ मंजिल के मकानों की छत पर से कूदना और बीच में फासला दस-बारह फुट का। यह रोज चल रहा था। धीरे-धीरे पड़ोसियों को पता चला कि वह रोज रात यह करता है। एक दिन सो-पचास लोग नीचे इकट्ठे हुए देखने के लिए। वह तो नींद में करता था। होश में तो वह छलांग भी नहीं लगा सकता था। जैसे ही छलांग लगाने को हुवा नीचे लोगों ने जोर से आवाज दी और उसकी नोंद टूट गई। वह बीच खड्ड में गिर गया और प्राणान्त हो गया। यह वह वर्षों से कर रहा था लेकिन वह मानता नहीं था कि मैं यह करता हूँ।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy