SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० महावीर : मेरी दृष्टि मैं वृक्ष की भांति हो । कि इस वृक्ष को काटना मुश्किल है। यह वृक्ष बिल्कुल लाओत्से की भांति है तो उसके शिष्यों ने कहा कि हम लाओत्से के शिष्य हैं तब बढ़ई ने कहा यह वृक्ष लाओत्से की भाँति है, बिल्कुल बेकार है, किसी काम का नहीं, लकड़ी कोई सीधी नहीं, सब तिरछी हैं, किसी काम में नहीं आतीं, जलाओ तो धुंआ देती हैं । इसे काटे भी कौन ? इसलिए बचा हुआ है । वे लौटे । उन्होंने लौटकर कहा बड़ी अजीब बात हुई । बढ़ई ने कहा है कि लाओत्से की भाँति है यह वृक्ष | लाओत्से ने कहा : बिल्कुल ठीक इसी जाओ । न कुछ करो, न कुछ पाने की कोशिश करो। क्योंकि जिन वृक्षों ने सीधा होने की कोशिश की, सुन्दर होने की कोशिश की, कुछ भी बनने की कोशिश की उनकी हालतें देख रहे हो । एक भर वह वृक्ष है जिसने कुछ भी बनने की कोशिश नहीं की, जो हो गया हो गया, तिरछा तो तिरछा, माड़ा तो आड़ा, धुंआ निकलता है तो धुंआ निकलता है। देखो वह कैसा बच गया है - बिल्कुल लाओत्से जैसा । और ऐसे ही हो जाओ अगर बचना हो और बड़ी छाया पानी हो और तुम्हारी शाखाओं में बड़े पक्षी विश्राम करें और तुम्हें कभी कोई काटने न आए। फिर शिष्यों ने कहा कि हम ठीक से नहीं समझे कि बात क्या है। यह तो एक पहेली हो गई । वृक्ष से तो नहीं पूछ सके लेकिन जब आप कहते हैं कि मेरे ही भांति यह वृक्ष है तो हम आपसे ही पूछते हैं कि रहस्य क्या है ? तब लाओत्से ने कहा कि रहस्य यह है कि मुझे कभी कोई हरा नहीं सका क्योंकि में पहले से ही हारा हुआ था । मुझे कभी कोई उठा नहीं सका क्योंकि मैं सदा उस जगह बैठा जहां से कोई उठाने आता ही नहीं । मैं जूतों के पास ही बैठा सदा । मेरा कभी कोई अपमान नहीं कर सका क्योंकि मैंने कभी मान की कामना नहीं की। मैंने कुछ होना नहीं चाहा, न घनी होना चाहा, न यशस्वी होना चाहा, न विद्वान् होना चाहा, इसलिए मैं वही हो गया जो मैं है यानी कुछ और होना चाहता तो मैं चूक जाता । यह वृक्ष — ठीक कहते हैं वे लोग, मेरे जैसा इसने कुछ नहीं होना चाहा । इसलिए जो था, वही हो गया । और परम आनन्द है, वही ही जाना जो हम हैं, जो हम हैं उसी में हम जाना मुक्ति है, जो हम हैं उसी को उपलब्ध कर लेना सत्य है । सामायिक को अगर ऐसा जो सामायिक की जा रही है, नहीं आएगा । वे सब करने : देखेंगे तो समझ में आ जाएगा और मन्दिरों में अगर वहाँ समझने गए तो फिर कभी समझ में वाले लोग हैं। वे वहाँ भी सामायिक कर रहे हैं....
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy