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________________ प्रश्नोत्तर - प्रबचन -४ - १२५ जगह होते हैं इसलिए दूसरा हमें आकर्षित करता रहता है उल्टा । अगर दो चार जन्मों का यह स्मरण आ जाए कि हम दोनों तरफ घूम चुके हैं तो फिर तीसरा उपाय है । और वह जो तीसरा उपाय है वही महावीर का उपाय हैवीतरागता का । इन दोनों में कोई अर्थ नहीं तो अब क्या करूं ? अगर भोग नहीं, अगर योग नहीं, तो तीसरा क्या रास्ता है ? तीसरा रास्ता सिर्फ यह है कि दोनों के प्रति जाग जाऊं । तो त्रिकोण बन जाता है । उस त्रिकोण की, त्रिभुज की नीचे की एक रेखा है जिस पर दो द्वन्द्व हैं। इधर राग है, उधर विराग है ? जो इषर होता है वह उधर आ जाता है, जो उधर होता है, वह इधर आना चाहता है । और इन्हीं दोनों के बीच हम घूमते रहते हैं । जो इन दोनों से जागता है, वह जो त्रिभुज का ऊपर का छोर है वहाँ पहुँच जाता है। वह वीतराग है । वह दोनों से पार हो गया है। वह न राग में है, न विराग में है । लेकिन जो राग में खड़ा है, जो विराग खड़ा है, उन दोनों के लिए बेबूझ हो जाता है कि यह आदमी कहाँ है ? क्योंकि हमारे होने की परिभाषा में दो ही बिन्दु हैं राग और विराग । यह आदमी कहां है ? तो इस आदमी को समझना मुश्किल हो जाता है। लेकिन समझने का प्रश्न नहीं है । यह आदमी हम दोनों को समझ पाता है और हम दोनों इस आदमी को बिल्कुल नहीं समझ पाते । में जाति-स्मरण का प्रयोग महावीर की बड़ी से बड़ी देन है । और मैं समझता हूँ उस पर कोई काम नहीं हो सका । असली बात वही है । उस साधना से गुजर करके किसी व्यक्ति को वीतरागता में लाया जा सकता है, किसी भी व्यक्ति को । और जब तक उस साधन से नहीं गुजरता तब तक वह यही होगा कि रागी है तो विरागी हो जाएगा और विरागी है तो रायी हो जाएगा । और यह दोनों एक-से मूढतापूर्ण हैं । इन दोनों को कोई चुनाव का सवाल नहीं है । और हमें रोज दिखाई पड़ता है कि हम विरोधी को अनजाने चुनने लगते हैं । महलों में जो आदमी बैठा हुआ है वह निरन्तर यही कहता है कि झोपड़ी का मजा यहाँ कहाँ है । और ईर्ष्या करता है झोपड़ी के आदमी से, और उसकी नींद और उसकी मौज से । झोपड़ी में जो बैठा है वह पूरे वक्त महल के लिए ईर्ष्यालु है कि जो महल में हो रहा है, वह यहाँ कहाँ; झोपड़ी में मरे जा रहे हैं। झोपड़ी वाला महल की तरफ जा रहा है, महल वाला झोपड़ी की तरफ आ रहा है । बड़े शहर वाला छोटे गाँव की तरफ भाग रहा है, छोटे गांव वाला बड़े शहर की तरफ भाग रहा है। पूरे समय जहां हम हैं, उससे विपरीत की तरफ हम
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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