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________________ महावीर : मेरी दृष्टि में मे मुझे कुछ लाभ होगा? वह बिल्कुल ठीक पूछ रहा था । हम उस पर हंसते है । लेकिन हमारा साधु क्या कर रहा है। महावीर कैसे खड़े हैं, कैसे बैठे हैं, कैसी पिच्छी लिए, केसा कमण्डल लिए, मुंह पर पट्टी बांधे, वह पक्का कर लेता है, फिर वैसा करना शुरू कर देता है। चूक गया वह बुनियादी बात । मैंने उससे कहा कि चादर से क्या सम्बन्ध है ? मेरी मौज आए तो में कोट-टराई पहन लूं, उसमें क्या दिक्कत है। उससे 'मैं' में ही रहूंगा, उससे क्या फर्क पड़ने वाला है। हां, तुम्हें फर्क पड़ सकता है मुझे देखकर । फिर तुम समझोगे कि इस आदमी के पास क्या होगा, यह तो कोट-टाई बांधे हुए है । लेकिन मुझे क्या फर्क पड़ने वाला है। मैं जैसे हूँ वैसा रहूंगा और तुम जैसे हो वैसे रहोगे। चाहे चादर लपेटो, चाहे नग्न हो जायो। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। वह बुनियादी मूल है जो हम सोचते हैं कि बाहर से भीतर की तरफ नाता है जीवन । वास्तव में जीवन सदा भीतर से बाहर की तरफ माता है। और अगर बाहर से किसी ने भीतर को बदलने की कोशिश की तो भीतर वही रह जाएगा, बाहर बदल जाएगा। और उस आदमी के भीतर द्वन्द्व पैदा होगा। जो आदमो आचरण से शुरू करेगा वह पाखण्डी हो जाएगा। प्रश्न : क्या माज का ज्ञान भी पुराने ज्ञान से अलग होगा? उत्तर : दर्शन भर अलग नहीं होगा। वह अशुद्धतम है । ज्ञान अलग होगा क्योंकि आज की भाषा बदल गई है, सोचने के ढंग बदल गए हैं। इसलिए मुश्किल हो जाती है पहचानने में। पुराने को पकड़ लेने वाले के लिए नए को पहचानना मुश्किल हो जाता है। अगर मुझे दर्शन है तो भी मेरी भाषा वह नहीं हो सकती जो महावीर को होगी। महावीर को मानने वाला कहेगा कि इस आदमी से अपना कोई तालमेल नहीं। क्योंकि यह आदमी न मालूम क्या कह रहा है। हमारे महावीर कहते नहीं। वह कह नहीं सकते क्योंकि अढाई हजार साल का फासला हो गया है। . अढाई हजार साल में सब चीजों ने स्थिति बदल ली है। वह कहीं और पहुंच गई है। सारो बात बदल गई है, सोचने के ढंग बदल गए हैं, भाषा बदल गई है। सबके बदल जाने पर ज्ञान भिन्न होगा। पर दर्शन कभी भिन्न नहीं होगा क्योंकि दर्शन होता ही तब है जब हम सब छोड़कर अन्दर जाते हैं । भाषा, समाज, धर्म, शास्त्र, शब्द, विचार सब छोड़ देते हैं । जहाँ सब छूट जाता है, वहाँ दर्शन होता है । इसलिए दर्शन तो हमेगा वही रहेगा क्योंकि कुछ भी छोड़े कोई, सब छोड़ना पड़ेगा। मुझे कुछ और छोड़ना पड़ेगा, महावीर को कुछ और छोड़ना पड़ेगा। महा
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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