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________________ धानोत्तर-प्रवचन-- २५६ से कोई किसी का बन्धन थोड़े ही है कि उनका जैसा आचरण होता है वैसा हमारा हो, जैसा महावीर का आचरण होता, वैसा हमारा हो हो सकता। जैसा हमारा हो सकता है, महावीर लास उपाय करें तो वैसा उनका नहीं हो सकता। इसके कई कारण है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है। यही अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति के आत्मवान् होने का। किसी के आचरण का हिसाब ही मत रखो। वह सम्यक् दृष्टि नहीं है । आवरण से प्रयोजन मत रखो, दर्शन कैसे उपलब्ध हो इसकी फिक्र करो। आचरण तो पोछे से आएगा। जैसे तुम यहाँ आए तो तुम फिक्र नहीं करते कि तुम्हारे पोछे तुम्हारी लम्बी छाया आ रही है । दुपहर में आते तो कैसी छाया आती, सांझ में आते तो कैसी छाया आती, सुबह आते तो कैसी छाया आती, तुम यह फिक्र नहीं करते। तुम आते हो, छाया तुम्हारे पीछे आती है। वह लम्बी हो जाती है, छोटी हो जाती है, चौड़ी हो. जाती है, जैसी होती रहे, तुम्हें फिक्र नहीं उसकी । सवाल तो गहरे दर्शन का है, चरित्र तो उसको छाया है, जैसी धूप होगी वैसी होती रहेगी। उससे कोई सम्बन्ध नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है यानी उसको सोचना ही नहीं है। मेरा कहना यह है कि चरित्र बिल्कुल ही अविचारणीय है। क्योंकि दर्शन का हमें ख्याल नहीं रह गया इसलिए हम चरित्र की फिक्र करते हैं। विचारणीय है दर्शन । और दर्शन, काल एवं परिस्थिति से आबद्ध नहीं है । दर्शन कालातीत, क्षेत्रातीत है। जब भी तुम्हें दर्शन होगा तो वही होगा जो किसी दूसरे को हुआ हो । महावीर से कुछ लेना-देना नहीं। किसी को भी हुआ हो, वह वही होगा। क्योंकि दर्शन तभी होगा, जब न तुम होगे, न कुछ और होगा, सब मिट गया होगा, और जब वह दर्शन होगा तो अपने आप अपने को रूपान्तरित करेगा ज्ञान में। ज्ञान अपने पाप रूपान्तरित होगा चरित्र में। उसको चिन्ता ही नहीं करनी है। नहीं तो फिर दूसरा बन्धन शुरू हो जाता है। जैसा कि अगर मैं तुम्हें कहूँ कि महावीर ऐसा करते तो तुम शायद सोचो कि ऐसा हमें करना चाहिए। नहीं, तुम्हें करने का सवाल ही नहीं है क्योंकि तुम्हें वह दर्शन नहीं है। वही तो जैन साधु और जैन मुनि कह रहा है बेचारा। वह कहता है कि वे ऐसा करते थे, हम भी ऐसा करते हैं। ____ मैं एक गांव में गया। वह गांव था ज्यावर । वहाँ का कलेक्टर आया और मुझसे कहा कि मैं एकान्त में बात करना चाहता हूँ। उसने दरवाजा बन्द कर दिया बिल्कुल, सांकल लगा दी। अन्दर बैठकर मुझसे पूछा कि मुझे दो चार बातें पूछनी है। पहली तो यह कि आप जैसा चादर लपेटते है, ऐसा लपेटने
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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