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________________ • महावीर : मेरी दृष्टि में मूर्ति पारस की हो सकती है, पारस की नेमि की हो सकती है। सिर्फ नीचे का एक चिन्ह भर है । उसको तुम अलग कर दो तो किसी भी मूर्ति में कोई फर्क नहीं है । क्या ये चौबीस आदमी एक जैसे रहे होंगे ? क्या यह ऐतिहासिक हो सकता है मामला कि इन चौबीस आदमियों की एक जैसी आँख, एक जैसी नाक, एक जैसे चेहरे, एक जैसे बाल रहे हों ? यह तो असम्भव है । दो आदमियों का एक जैसा खोजना मुश्किल है। और ये चौबीस बिल्कुल एक जैसे रहे हों, इनमें भेद ही नहीं कोई ? नहीं, यह ऐतिहासिक तथ्य नहीं है । यह तथ्य ज्यादा आन्तरिक है । क्योंकि जैसे हो व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है, सब भेद विलीन हो जाते हैं, और अभेद शुरू हो जाता है। वहीं सब एक सा चेहरा है, एक सी नाक है और एक सी आँख । मतलब केवल इतना है कि हमारे भीतर एक ऐसी जगह है जहाँ नाक- चेहरे आदि मिल जाते हैं, बिल्कुल एक सा ही रह जाता है। जो लोग एक जैसे हो गए हैं उनको हम कैसे बताएं ? तो हमने मूर्तियाँ एक जैसी बना दी हैं- बिल्कुल एक जैसी । उनमें कोई फर्क ही नहीं दिया है। मूर्तियाँ कभी एक जैसी नहीं रहीं, हो नहीं सकतीं। इसलिए मूर्तियों की चिन्ता ही नहीं करनी पड़ी। महावीर का चेहरा कैसा रहा हो, यह सवाल ही नहीं रहा है । उस चेहरे की हमने बात ही छोड़ दी। अगर फोटोग्राफ लिया होता तो महावीर की मूर्ति से यह कभी मेल ही नहीं खा सकती थी । क्योंकि फोटोग्राफ सिर्फ बाहर को पकड़ता है। मूर्ति में हमने भीतर को पकड़ने को कोशिश की है । भीतर आदमी एक से हो गए हैं । इसलिए अब इनकी बाहर की मूर्तियों को अलग-अलग रखना गलत सूचना हो जाएगी । अब यह बड़े मजे की बात है कि भीतर को हमने बाहर पर जिता दिया है। फोटोग्राफ में बाहर भीतर पर जीत जाता है। फोटोग्राफ अलग-अलग होता है । परन्तु ये चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियाँ अलग नहीं । ये बिल्कुल एक हैं । उनका लेवल एक हो गया । जैसी ही चेतना एक तल पर पहुँच गई है, सब एक हो गया है। यानी उसके चेहरे एक हो गए, चेहरों में फर्क नहीं रहा । आँखें अलग-अलग रही होंगी लेकिन जो उनसे झांकने लगा, देखने वाला था, वह एक हो गया । होंठ अलग-अलग रहे होंगे लेकिन जो वाणी निकलने लगी, वह एक हो गई । भीतर सब एक हो गए । तो एक गोल परिक्रमा है जिसका हम चक्कर अनन्त जीवन तक लगाते रहें तो भी इस गर्भगृह में प्रवेश नहीं कर पाएँगे । परिक्रमा से उतरना पड़ेगा । तो हम वहाँ जाएँगे, जहाँ भगवान् को प्रतिष्ठित किया है । भगवान् को अगर
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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