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________________ १९० महावीर : मेरी दृष्टि में जहाँ से यह भी कहना गलत है कि 'अद्वैत' अर्थात् जहाँ हम कहें 'दो नहीं । पहले 'दो हैं ऐसी एक सार्थकता थी; फिर दो नहीं ऐसी एक सार्थकता थी; अब कुछ भी कहना मुश्किल है। मौन हो जाना हो ठीक है। अब 'एक', 'दो' या 'तीन' का कोई सवाल ही नहीं उठता। वह है निर्वासना। लेकिन, इसके पहले कि हम संख्या से असंख्या में पहुंचे, सीमा से असोमा में पहुंचे, बीच में निषेध का एक क्षण, निषेष की एक यात्रा है। वह है करुणा जिसका कोई विरोधी हो नहीं है। दया का विरोधी है, करुणा का विरोधी नहीं है। बुद्ध ने करणा कहा है महावीर उसे अहिंसा कहते हैं। जीसस उसे प्रेम कहते हैं । ये शब्दों की पसंदगियां हैं। ये सभी शब्द सेतु पर इंगित करते हैं करुणा से गुजरना पड़ेगा, बुद्ध कहते हैं । अहिंसा से गुजरना पड़ेगा, महावीर कहते हैं । प्रेम से गुजरना पड़ेगा, जीसस कहते हैं। यह सिर्फ शब्द भेद है; सेतु एक ही है जहाँ से हम द्वन्द्व से छूटते हैं और द्वन्द्व-मुक्त में जाते हैं। बीच में एक जगह है जिसे मैंने कहा है करुणा, अहिंसा, प्रेम । इसका विरोधी कोई भी नहीं। कुछ चीजों के विरोधी होते हैं, कुछ चीजों के विरोधी नहीं होते । जिनके विरोधी नहीं होते, वे सेतु बनते हैं । और फिर आगे तो न पक्ष है, न विपक्ष है; विरोधी का सवाल ही नहीं है क्योंकि वह ही नहीं है जिसका विरोधी हुआ जा सके। प्रश्न : द्रष्टा-भाव में संसार स्वप्न है, ऐसा आपका कहना है। किन्तु यह व्यक्तिपरक दृष्टिकोण की बात हुई। वस्तुपरक दृष्टि से संसार क्या स्वप्न ही है ? इस सम्बन्ध में महावीर की दृष्टि शंकराचार्य के मायावाद से 'कहाँ भिन्न है? उत्तर : मैंने कल रात कहा था कि अगर स्वप्न में कर्ता भाव आ जाए तो स्वप्न सत्य हो जाता है। इससे ठीक उल्टे, अगर सत्य में, यथार्थ में कर्ता भाव आ जाए तो वह सत्य भी स्वप्न हो जाता है। इसमें अहंकार ही सूत्र है। चाहे तो स्वप्न को सत्य बना लो, और चाहो तो सत्य को स्वप्न कर दो। यह मैंने कल कहा था। उसी सम्बन्ध में यह प्रश्न है। इसका यह मतलब हुआ कि अगर हम समझ लें कि जगत् स्वप्न है तो क्या सचमुच ही जगत् नहीं है या कि यह स्वप्न होने का भाव सिर्फ मेरा आत्मपरक हो है। मुझे ऐसा लग रहा है कि यह मकान नहीं है, सपना है तो क्या इसका यह मतलब मान लिया जाए कि सच में ही मकान नहीं है, खाली जगह है यह। जैसा कि रात सपने का मकान खो जाता है ऐसे ही यह मकान भी क्या इतना हो असत्य है ? तो फिर
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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