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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-६ १८९ करुणा बात ही और है। करुणा से विपरीत कुछ भी नहीं है। कारणा में चन्द्र नहीं है। दया में वन्द है क्योंकि दया सकारणा है। वह आदमी दोन है, इसलिए दया करो; वह आदमी भूखा है, इसलिए रोटी दो, वह आदमी प्यासा है, इसलिए पानी दो। उसमें दूसरे आदमी की शर्त है । करुणा है बिना शर्त । दूसरा कैसा है इससे इसका कोई सम्बन्ध नहीं।. मैं करुणा दे सकता हूँ। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कैसा है, कौन है, क्या है ? अगर कोई भी नहीं तो भी करुणापूर्ण व्यक्ति अकेले में खड़ा है। अगर महावीर एक वृक्ष के नीचे अकेले खड़े हैं, कई दिन बीत जाते हैं और कोई नहीं निकलता वहाँ से तो भी करुणा झरती रहती है। जैसे एक फूल खिला है निर्जन में और उसकी सुगन्ध फैल रही है। रास्ते से कोई निकलता है तो उसे मिल जाती है, अगर कोई नहीं निकला तो भी झरती रहती है। सुगंध देना फूल का स्वभाव है। राहगीर को देखकर नहीं कि कौन निकल रहा है। इसको जरूरत है कि नहीं यह सवाल ही नहीं। यह फूल का आनन्द है। करुणा एक अन्तर अवस्था है, दया अन्तः सम्बन्ध है, अन्तर अवस्था नहीं। मैं किससे जुड़ा है, दया इस पर निर्भर करती है । मैं इधर से भी ले सकता हूँ, उधर से भी ले सकता हूँ। मैं किससे जुड़ा हूँ इस पर निर्भर करेगी यह बात । मगर करुणा अन्तर अवस्था है और वासना का अन्तिम छोर है अन्तिम छोर इन अर्थों में कि उसके बाद फिर निर्वासना का जगत शुरू हो जाता है या निर्वासना का प्रथम छोर है क्योंकि उसके बाद निर्वासना शुरू हो जाती है। वासना का जगत् द्वन्द्व का जगत् है। यह थोड़ा समझने जैसा होगा। वासना द्वैत का जगत् है-जहाँ दो के बिना काम नहीं चलता। सब चोजें विरोषी होंगी। अंधेरा प्रकाश, जन्म मृत्यु-ऐसा जहाँ विरोष होगा । वासना और निर्वासना के बीच में अद्वैत का सेतु है। वासना है द्वैत-जहां हम स्पष्ट कहेंगे : दो हैं । और बीच का सेतु है अद्वैत-जहाँ हम कहेंगे : दो नहीं हैं। अभी हम दो का उपयोग करेंगे। पहले कहते थे, दो हैं, अब हम कहेंगे-'दो नहीं है।' निर्वासना का जो जगत् है वहाँ तो हम यह भी नहीं कह सकते कि अद्वैत है। क्योंकि वहाँ 'दो' का शब्द भी उठाना गलत है। वासना में संख्या का सवाल है: निर्वासना में संख्या का सवाल ही नहीं। यानी यह भी कहना गलत है वहीं कि 'दो नहीं है।' बीच का जो सेतु है, वहां हम कह सकते हैं कि 'दो नहीं हैं' क्योंकि वासना छूट गई है और निर्वासना अभी आ रही है । बीच के अन्तराल में करुणा है। करणा air है। महंत के भी ऊपर एक लोक है,
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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