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________________ १६२ महाबीर : मेरी दृष्टि में क्या है यह बिल्कुल दूसरी बात है। और जब वह खोज पर निकला है तब उसे पूंछ दिखाई पड़ गई है। थोड़ा सा दिखा है। फिर पूंछ के करीब और चला गया है। पूरा घोड़ा दिखाई पड़ गया है। फिर उसने घोड़े को पकड़ लिया है क्योंकि जिसे हम समझ लेते हैं फिर उससे लड़ना नहीं पड़ता है। उसे हम ऐसे ही सहज पकड़ लेते हैं क्योंकि वह आपका ही हिस्सा है। उससे लड़ना क्या है ? वह अपना ही हाथ है। बाएं को दाएं हाथ से लड़ाएं तो क्या फायदा होगा? यह घोड़े को लेकर घर की तरफ चल पड़ा है। उसने घोड़े को लाकर घोड़े को बगह बांध दिया है। उसके पास चुपचाप बैठ गया है। वह लड़ नहीं रहा है, न सवार हो रहा है। अब कोई संघर्ष हो नहीं है। घोड़ा अपनी जगह है। चुपचाप दोनों अपनी जगह पर हैं। दसवें चित्र में दोनों विलीन हो गए हैं। क्रोष भी विलीन हो गया है, क्रोध से लड़ने वाला भी विलीन हो गया है । तब क्या रह गया है ? एक खाली चित्र रह गया है । दसवाँ चित्र बहुत अद्भुत है। वह कोरा चित्र जब किसी को भेंट किए किसी ने तो उसने कहा : नौ तो ठीक हैं। दसवें चित्र को क्या जरूरत है ? क्योंकि वह बिल्कुल खाली कैनवास का टुकड़ा है। तब उससे कहा गया कि दसवां ही सार्थक है। बाकी नौ तो सिर्फ तैयारी है। उसमें कुछ नहीं है। जो है इस दसवें में है। तब आदमी पूछता है लेकिन इसमें तो कुछ भी नहीं है । उस चेतना में कुछ भी नहीं है, सब खो गया। रिक्तता रह गई है; खाली आकाश रह गया है, शून्य रह गया है। कोई द्वन्द्व नहीं है, सब अखण्ड हो गया है। ऐसा अखण्ड व्यक्ति ही देने में समर्थ है। खण्डित व्यक्ति देने में समर्थ नहीं है। ऐसा अखंड व्यक्ति ही तीर्थकर जैसी स्थिति में हो सकता है। मेरा कहना है कि यह महावीर लेकर ही पैदा हुए थे और जो हमें दिखाई पड़ रहा है वह हमारी भ्रान्तियों का गट्ठर है। हम कभी चीजों के बहुत पास जाकर नहीं देखते, सदा दूर से देखते हैं, बहुत फासले से देखते हैं। हम चीजों को पास से देख भी नहीं सकते क्योंकि पास से देखना हो तो खुद ही गुजरना पड़े उनसे । इसके पहले देख भी नहीं सकते। यानी महावीर घर से कैसे गए, इसे हम कैसे देख सकते हैं ? क्योंकि हम कभी अपने घर से गए ही नहीं। यह हमारे लिए देखना मुश्किल है। मुश्किल इसलिए है सिर्फ क्योंकि हम कभी पास से गजरे ही नहीं किसी चीज के कि हम भी देख लेते। बहुत फासला है । कोई गुजरता है और हम देखते हैं, भूल हो जाती है। क्योंकि जब कोई गुजरता है तो केवल उसकी बाह्य व्यवस्था भर दिखाई पड़ती है। उसका भीतरी अनुभव
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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