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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१५ ७०१ चाहिए स्वतन्त्रता। धार्मिकता बननी चाहिए सहवता। धार्मिकता बननी चाहिए सद्विचार, विवेक । धार्मिकता न हो पाखंग, न हो वमन, न हो पवरदस्ती, न हो जन्म से, न हो क्रिया-काण्ड से। धार्मिकता हो मन से, समझ है, तो पृथ्वी पर धर्म होगा लेकिन मानव धर्म नहीं। कोई आदमी अपने को क्या करता है, इससे क्या प्रयोजन है? यह सवाल नहीं है। वह कैसी प्रार्थनाएं करता है यह सवाल नहीं है। वह किससे प्रार्थना करता है यह सवाल नहीं है । वह प्रार्थनापूर्ण है यह सवाल है । वह आदमी किस शास्त्र को सत्य कहता है, किस परम्परा को सत्य कहता है यह बात व्यर्थ है। सार्थक बात यह है कि वह आदमी किस सत्य के अन्वेषण में संलग्न है, किस प्रकार के प्रेम को, ईसाइयत के प्रेम को,.जैनियों की अहिंसा को, बौद्धों की करुणा को ढूंढने में लगा है, किस का शोरगुल मचाता है, किसका नारा लगाता है यह सवाल नहीं है। सवाल यह है : क्या वह बादमी प्रेमपूर्ण है ? क्या वह आदमी अहिंसक है ? क्या उस भादमी में करुणा है ? करणा का कोई लेवल हो सकता है ? प्रेम पर कोई चाप हो सकती है? कैसा प्रेम ? किताबें हैं ऐसी जिनके शीर्षक है। ईसाई प्रेम । अब ईसाई प्रेम क्या बला होगी? क्या मतलब होगा ईसाई प्रेम का ? प्रेम हो सकता है। मगर ईसाई प्रेम क्या ? ___ मैं किसी मानव धर्म के लिए चेष्टारत नहीं है, पुरानी दो तरह की चेष्टाएं है, दोनों असफल हो गई है। एक चेष्टा यह है कि किसी एक धर्म ने कोशिश की कि वह सबका धर्म बन जाए । वह सफल नहीं हो सकी। उससे बहुत रक्तपात हुआ, बहुत उपद्रव फैला। फिर उससे हार कर दूसरी चेष्टा हुई कि सब धर्मों में जो सारभूत है, उसको निकाल कर, निचोड़ कर इकट्ठा कर लिया जाए। थियोसाफी ने वह प्रयोग किया कि सब धर्मों में जो-जो महत्त्वपूर्ण है, सबको निकाल लो। प्रश्न : अकबर ने भी किया था? उत्तर : हाँ, अकबर ने भी किया था। अकबर ने भी दीने इलाही की शक्ल में उसकी कोशिश की। अकबर भी असफल हुमा, पियोसॉफी भी असफल हुई वह भी सम्भव नहीं हो सका। वह कोशिश भी इसलिए असफल हुई कि उसने भी सब सम्प्रदायों को मान्यता दे दी थी। यानी यह तो कहा नहीं कि साम्प्रदायिक होना भूल है, उसने कहा कि साम्प्रदायिक होने में कोई भूल नहीं है। तुम्हारे पास भी सत्य है वह भी हम ले लेते है। कुरान से भी, बाइबरू से
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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