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________________ प्रश्नोत्तर-वचन-६ १९७ हम एक जिन्दगी में जीते हैं, जो हमारे बनाए हुए नियमों, बनाई हुई मान्यताओं, बनाई हुई व्यवस्थाओं की है। उन्हें जैसे ही हम जानेंगे, एकदम , झूठी मालूम पड़ेंगी । पत्नी एकदम झूठी मालूम पड़ेगी। स्त्री सत्य रह जाएगी। वह हमारी बनाई हुई व्यवस्था है। युवक रह जाएगा लेकिन उसका बेटा होना खो जाएगा। मकान रह जाएगा लेकिन 'मेरा होना' चला जाएगा। धन का ढ़ेर रह जाएगा लेकिग गिनती का रस खो जाएगा। जगत् होगा वस्तुपरक लेकिन उसकी आत्मपरकता कि वह यहां है, वहाँ है, तिरोहित हो जाएगी जैसे कोई जादू की दुनिया है एकदम जग गया हो और सब खो जाए। जैसे वृक्ष हो, वृक्ष में लगें फल और सब बिदा हो जाएं और चीजें जैसी हैं वैसी रह जाएं। वस्तु रह जाएगी लेकिन हमारी कल्पित वस्तु एकदम बिदा हो जाएगी। इस अर्थ में मैंने कहा कि स्वप्न भी सत्य बन जाता है, अगर हम उसमें लीन हो जाते हैं और जिसे हम सत्य कहते हैं, वह भी स्वप्नवत् हो जाएगा अगर हम अपनी लोनता को तोड़ लेते हैं ।। प्रश्न : महावीर पूर्व जन्म में ही पूर्ण हो गए यह मापका कहना है। किन्तु वर्तमान जगत् में अभिव्यक्ति के साधन खोजने के लिए उन्हें तपश्चर्या करनी पड़ी। पूर्ण में यह अपूर्णता कैसी ? क्या पूर्णता में अभिव्यक्ति के साधनों की उपलब्धि शामिल नहीं ? उत्तर : ठोक है। नहीं; पूर्णता को उपलब्धि में अभिव्यक्ति के साधन सम्मिलित नहीं हैं। अभिव्यक्ति की पूर्णता उपलब्धि की पूर्णता से बिल्कुल अलग है। असल में पूर्णता भी एक नहीं है, अनन्त पूर्णताएँ हैं । इससे हमें बड़ी कठिनाई होती है । एक दिशा में एक आदमी पूर्ण हो जाता है, इसका मतलब यह नहीं कि वह सब दिशाओं में पूर्ण हो जाता है। एक आदमी चित्र बनाता है। वह चित्र बनाने में पूर्ण हो गया है। इसका यह मतलब नहीं कि वह संगीत में भी पूर्ण हो जाएगा यानी कि वह वीणा बजा सकेगा। वीणा को अपनी पूर्णता है, अपनी दिशा है। अगर कोई आदमो वोणा बजाने में पूर्ण हो गया तो उसका यह मतलब नहीं है कि वह नाचने में भी पूर्ण हो जाए। नाचने की अपनी पूर्णता है । बहुत मायाम है पूर्णता के । क्या सर्वतोमुखी पूर्णता किसी को मिली है ? नहीं, कोई व्यक्ति समस्त पूर्णताओं में पूर्ण नहीं हुआ। कई पूर्णताएं ऐसी हैं कि एक में होंगे तो फिर दूसरे में हो हो नहीं सकते। वे विरोधी पूर्णताएँ है । एक व्यक्ति पुण्य में पूर्ण हो जाए तो फिर वह पाप को पूर्णता में पूर्ण नहीं हो सकता। पाप को भी अपनी पूर्णता है। और अगर वह पाप में पूर्ण हो
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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