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महावीर : मेरी तिम
चिन्ता नहीं है। चित्त को जहां भागना है, भागता है, दौड़ना है दौड़ता है । चित्त फोकस ले रहा है और इस चित्त को बाहर देखने को निरन्तर जरूरत है।
बहिर्मुखता जीवन की व्यर्षता में उलझा देती है एकदम और भीतर से तोड़ देती है। दूसरी बात, अन्तर्मुखता जीवन से तोड़ देती है भीतर डुबो देती है कि सब तरफ से दरवाजे बंद हो गए। पहली बात भी अधूरी है। दूसरी बात भी अधूरी है । असल में एक तीसरी स्थिति है जबकि हम फोकस को तोड़ देते हैं। न हम भीतर देखते हैं न बाहर देखते हैं। सिर्फ देखना रह जाता है, न बाहर की तरफ बढ़ता हुआ, न भीतर की तरफ बढ़ता हुआ। सिर्फ प्रकाश रह जाता है जिसका कोई फोकस नहीं है। जैसे कि एक दिया जल रहा है। सब ओर एक-सा प्रकाश फैलता है। पर दिए से भी हम ठीक से नहीं समझ सकते। क्योंकि दिए का भी बहुत गहरे में छोटा-सा फोकस है। इसलिए दिया छुट जाता है, अपने प्रकाश के बाहर छूट जाता है । एक तीसरी स्थिति है जहाँ न व्यक्ति अन्तर्मुसी है, न बहिर्मुखी है । जहाँ व्यक्ति सिर्फ है, न बाहर की ओर देख रहा है, न भीतर की ओर देख रहा है, बस है। यह बस होना मात्र का नाम है जागति-पूर्ण जागृति ।
तो महावीर कहते हैं : ऐसा जो पूरी तरह जाग गया वह साधु है। जो सोया है वह असाधु है। असाषु दो तरह के हो सकते हैं : एक जो बाहर की ओर सोया हुवा है, एक जो भीतर की ओर सोया हुआ है। साधु एक ही तरह का हो सकता है जो सोया हुआ ही नहीं है, जिसकी मूर्छा कहीं भी नहीं है। और इसलिए एक छोटा सा, फर्क ख्याल में लेना चाहिए कि एकाग्रता और ध्यान में बुनियादी फर्क है। - एकाग्रता का मतलब है कि ध्यान किसी एक बिन्दु पर एकाग्र हो जाए । लेकिन शेष सब जगह सो जाए। जैसा कि महाभारत में कथा है कि द्रोण ने पूछा अपने शिष्यों से कि वृक्ष पर तुम्हें क्या दिखाई पड़ता है। तो किसी ने कहा पूरा वृक्ष । किसी ने कहा कि वृक्ष के पीछे सूरज भी दिखाई पड़ता है। किसी ने कहा कि दूर गांव भी दिखाई पड़ रहा है, पूरा आकाश दिखाई पड़ता है, बादल दिखाई पड़ते हैं, सब दिखाई पड़ता है । अर्जुन कहता है कि कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता । सिर्फ वह जो पक्षी लटकाया हुआ है नकली, उसकी आंख दिखाई पड़ती है।तो द्रोण कहते हैं कि तू ही एका चित्त है।