SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 558
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२१ ६४९ किरण को देखें वहां कोई भेद नहीं है। सूरज की किरण सीधी और साफ है। लेकिन एक प्रिज्म लें और फिर सूरज की किरण को देखें तो प्रिज्म किरण को सात टुकड़ों में तोड़ देता है। प्रिज्म के इस पार सूरज की इकहरी किरण देखनी मुश्किल है। प्रिज्म के उस पार सूरज की सात खण्डों में विभाजित किरण देखनी मुश्किल है। शब्द प्रिज्म का काम कर रहा है। जो जाना गया है वह शब्द के उस पार है, जो कहा गया है वह शब्द के इस पार है। शव के इस पार सब टूट जाता है खण्ड खण । शब्द के उस पार सब अखण्ड है। इसलिए महावीर ने जो जाना है वह तो समग्र है लेकिन जो कहा है वह चाहे महावीर कहें, चाहे कोई भी कहे, समन नहीं हो सकता। वह एकान्त ही होगा, वह खंड ही होगा। और इसीलिए जैन खंडित होगा; वह एकांती होगा। क्योंकि महावीर ने जो कहा है, वह उसे पकड़ेगा। महावीर का समग्र उसकी पकड़ में नहीं आने वाला। इसलिए वह जैन होकर बैठ जाएगा। वह अनेकान्त को भी 'वाद' बना लेगा। वह महावीर के दर्शन को भी दृष्टि बना लेगा और उसको पकड़ कर बैठ जाएगा। इसलिए सभी अनुयायी खंड सत्य को पकड़ने वाले होते हैं। और यह भी समझ लेना जरूरी है कि जिसने खंड सत्य को पकड़ा है, वह जाने-अनजाने अखंड-सत्य का दुश्मन हो जाता है क्योंकि उसका आग्रह होता है कि मेरा खंड ही समग्न है। और सभी खंडवालों का यही आग्रह होता है कि मेरा खंड समग्र है। सभी खंड मिलकर समग्र हो सकते हैं लेकिन प्रत्येक खंड का यह दावा है कि मैं समग्र है, दूसरे खंड का भी यही. दावा है कि मैं समग्र हूँ। यह दावे मिलकर समग्र नहीं हो सकते। यह दावे सारी मनुष्य जाति को खंडखंड में बांट देते हैं। मनुष्य जो कि अखंड है, इसी तरह टुकड़ों में, सम्प्रदायों में बंटकर टूट गया है। दृष्टि पर हमारा जोर होगा तो सम्प्रदाय होंगे। वर्शन पर हमारा जोर होगा तो सम्प्रदायों का कोई उपाय नहीं । मेरा सारा जोर दर्शन पर है, दृष्टि पर जरा भी नहीं। महावीर का भो जोर दर्शन पर है और बड़े मजे की बात है कि जितमी दृष्टियों से हम मुक्त होते चले जाते हैं उतना ही हम दर्शन के निकट पहुंच जाते हैं। आमतौर से शब्दों से ऐसा भ्रम होता है कि दृष्टि ही दर्शन देती है । लेकिन दृष्टि ही सबसे बड़ी बाधा है दर्शन में। अगर मेरी कोई भी दृष्टि है तो मैं सत्य को कभी नहीं जान सकता हूँ। अगर मेरी कोई दृष्टि नहीं है, मैं
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy