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श्रुतज्ञानप्रकाशनमाला - पुष्पं प्रथमम्
मोऽत्यु णं समरस भगवओ महावीरस्स | कलिकाल सर्वज्ञ - आचार्यमुकुटमणि - श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिभ्यो नमः । सुविशुद्धमार्गप्ररूपक सुगृहीतनामधेय आचार्य शिरोरत्न श्रीमद्विजयरामचन्द्र सुग्यो नमः ।
कलिकाल सर्वज्ञ - आचार्य शिरोमणिश्रीमद् हेमचन्द्रसूरीश्वरविरचितम्
त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरितम् महाकाव्यम्
[ तत्र च इदम् ] दशमं पर्व
( पाठान्तर- टिप्पण्यादिना अलंकृतम् )
संशोधकः संपादक सुबोधचन्द्र नानालाल शाह इत्याख्यः
KUU
प्रकाशकन्
श्रीमती गंगाबाई जैन चेरिटेबल ट्रस्ट, विलेपारले, मुंबई - ५६
Here
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प्रकाशवीर निवेदन
प्रकाश को य नि वे द न
अनन्त करुगाना महासागर, देवाधिदेव, चरमतीर्थपति, भगवान श्री वर्धमान स्वामीनी तथा मारा धर्मदाता, सुविशुद्ध जिनमाना प्ररूपणया तिलमात्र पण चलित न बनार, आ दु:पमकालमा पण जिनधर्मनी अद्भुत प्रभावना करवा द्वारा प्राचीन आचार्य भगवनोनी स्मृत्तिने ताजी करायता, अनेक जीवोने बोधिबीज प्राप्त करावनार, व्याख्यानवाचस्पनि, मुविशाल मुनिगणना अधिनि, आचार्य शरोमणि, प्रात:स्मरणीय, श्री धी श्री श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजीमहाराजनी आचन्त्य कृपाना योगे श्रुतज्ञानप्रकाशनमालाना प्रथम पुष्प रूप आ श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित दशम पर्व ग्रन्थ ते परमात्मा श्रमणभगवान श्री वर्धमानस्वामी प्रति अनन्यभक्तिभाव धरनारा एबा आ ग्रन्थना अधिकारी महानुभावो समक्ष मूकबानी तक मळवा बदल अनुएम आनंद अनुभवु छु
मारा परमतारक गुरुदेव, आचार्यशिरोमणि, श्रीमद विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज, पोतानी धर्मदेशनामां, पुण्यना योगे प्राप्त थवेला धननो सात क्षेत्रोमां व्यय की लेवानो उपदेश निरंतर आपता ज रह्या छे. ते पैकी जिनागमनी भक्ति र पण एक महत्त्वन क्षेत्र के ते हुं सांभळतो हती, बीजी तरफ त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरिन ग्रन्थन दशमु पर्व छेल्लां केटलांय वर्षोधी अप्राप्य नहीं तो दुष्प्राप्य बनी गयुं हतुं अने गनं पुनर्मुद्रण करावबानी अति जरूरत छे ग पण अवारनवार सांभळवा मळतुं तुं. परन्तु, पन मुद्रण कोड विशिष्ट कोटिए थाय तो ठीक एम पण केटलाक नहानुभावोन मानधुं हतं.
*CKitKARAM
॥ चार।
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अमारा ट्रस्टे निर्णय कर्यो के आ पावन कार्यनो लाभ अमारे ल्यो, परन्तु संपादन केम कर ? जूनी हस्त प्रतो उपरथी पाठान्तरो केबी से ऐसा विषय कोरे का ? ते सर्व विषयोमा अमे अजाण हना अने तेथी कोइ एवी व्यक्तिने शोधना हता के जे आ सर्व कार्योंने सुचारुरूपे संमाळी शके.
छेवटे मारा धर्ममित्र, भाई श्री सुबोधचन्द्रभाईने आ कार्य माटे में विनंति करी के 'आ कार्य तम सुंदर रीने करी आपो 'तेमणे पण केटल्लांक सूचना करना पूर्वक मारी विनंति स्वीकारी. तेमनां सर्व सूचनो अमे स्वीकार्या जे पैकी मुख्य सूचन ए हतुं के आज पूर्वे श्री जैनधर्मप्रसारक सभा - भावनगर तरफथी जे दशम पर्व उपायुं छे तेना परवी ज मुद्रण न करावनां जूनी हस्तप्रतो परथी ज मुद्रण करावयुं
आ रीते मुद्रण कराववानो निर्णय थतां ज जूनी हस्तानतो मेळववानी अमे कोशिश करी अने परमपूज्य, आचार्यभगवंत, श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजना विद्वान् शिव्यरत्न, पूज्यपाद आचार्य श्री विजयकन कन्चन्द्रसूरीश्वरजी महाराजनी कृपाधी अमे संभावना नीतिविजय शास्त्रसंग्रहनी, विक्रमनी मी शताब्दीमा लखायेली प्रति मेवा भाग्यशाली बन्या.
ते पछी परमपूज्य आचार्य भगवंत, श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजना विनयी शिष्यरत्न, पूज्यपाद आचार्य श्रविजयमहोदय सूरीश्वरजी महाराजनी कृपाथी उमोईना आर्यजंबूस्वामीमुक्ताबाई जैन शानमंदिरी विक्रमनी सत्तरमी शताब्दीमां लखायेली प्रति मेळावा असे भाग्यशाली बन्या
॥ पांच
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प्रकाशकी
निवेदन
Re-04-
47
अने त्यारवाद, मारा कल्याणमित्र श्री हर्षदभाई मणिलाल संघयोना सौजन्यथी, अमदाबादना लालभाई दलपतभाई भारतीय विद्यामंदिरनी विक्रमनी सत्तरमी शताब्दीमा लखायेली प्रति मेरवया अमे भाग्यशाली बन्या.
उपरोक्त त्रणेय प्रनो श्री सुबोधचन्द्रदिने आपी अने तेना परथी पाठांतरो बगेरे लेवानी अने सुयोग्य संपादन करवानी अम तेमने विनंति की अने ते कार्य तेमणे संपूर्ण कयु.
सुंदरका नाम सुना अलेशतिर इस मुग आ बधी अमारी अभिलाषाओ पूर्ण करवानी अमे बनती कोशिष करी के छतां अमे तेमा केटला सफल बन्या छीए तेनो निर्णय आ अन्धना पाठको स्वयमेव ज करी ले.
आ प्रन्थ छपातां ज तेना अगाउथी ग्राहक थवा माटे जे जे संघो तथा ट्रन्टोए पोताना हस्तकना ज्ञानखाताओनी रकमो अमने आपका द्वारा सहाय करी छे ते ते संघोना तथा ट्रम्टोना अने आबी प्रेरणा आपनार पूज्य गुरु भगवंतोना अमे अत्यंत उपकृत छोए.
आ ग्रन्थ पूज्य साधु साध्वीजी महाराजोने विनामूल्ये आपी शकाय ते माटेज झानखाताओनी रकमोनो अमे स्वीकार कयों के अन्यथा आवी रकमोनो स्वीकार करयो अमारा माट दोषरात्र हतो एटलो खूलामो करी लषो आवश्यक समजुं हूं,
॥
छ
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आ संपादन पाळ रात दिवस जोया विना ते सुंदरमां सुंदर केम बने तेवो निरंतर प्रयास करनार अने आने पोतानुज कार्य समजी व्यवस्थित रीते पूर्ण करनार मारा धर्ममित्र भाई श्री सुबोधचन्द्र नानालाल शाहना अमे अत्यंत ऋणी छीए.
साईनाथ टाईपोग्राफी प्रेसना सौजन्यभर्या व्यवहारथीज अमे मात्र पांच मासना टुका गाव्यमां आ ३५ फरमानो ग्रंथ प्रकाशित करी शक्या छीए ते बदल तेमना पण अमे आभारी बीए.
प्रान्ते
आ शुभ अने आत्मकल्याणकर कार्य द्वारा कारी पाठक महानुभावो पोताना दुस्तर संसारने
त्रि. सं. २०३३, माघ शुक्ल पूर्णिमा शुक्रवार ता. ४--२-१९७७
अमे, अने आ ग्रन्थना अध्ययन द्वारा आ मन्थना अधिको करो एज एक अभिलापा साधे विरमुं छं.
प्राणलाल सुंदरजी कापडिया
व्यवस्थापक, श्री गं. जै. चे ट्रस्ट
***
॥ सात
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वि ष या नु क्रमः
विषयानुक्र
१-२
।
।
८-१० १०-१५
प्रथमः सर्गः
नग्रसारभववर्णनम् मरीचिभववर्णनम् मध्यवर्तिनो भवाः विश्वभूतिभववर्णनम्, त्रिप्रष्टभवनिम्, मध्यतिनो भयात्र प्रियमित्रचत्रिभववर्णनम् नन्दनराजभववर्णनम्
अन्तिमदेवभववर्णनम, द्वितीयः सर्गः
देवानन्दाकुक्षी प्रमो: अवतरणम् त्रिशलाकुसो गर्भसंहरणम्
गर्भावस्थावर्णनम, प्रभोः अभिग्रह
२६-२७ प्रभोः जन्म, जन्माभिषेका, सिद्धार्थनृपतित उत्सवन
२८-३१ नामस्थापनम, आमलकीक्रीडा, देखशालामयनं च ३२-३३ प्रभोः पाणिग्रहणम, मातापित्रो: देवलोकगमन च ३४-३५ दीक्षार्थ नन्दिवर्धनानुज्ञा,
वार्षिकदानम्, प्रन्नम्याग्रहणं च सृतीयः सर्गः द्विजाय अर्थवस्त्रदानम्
४१-४२ गोपेन कृतः प्रथम उपसर्ग:
४२-४३ दूइज्जंततापसाश्रमे गमनं ततः विहारश्च ४५-४७ शूलपाणियनप्रसंग:
१८-२२ २२-२३
२५-२६
।
॥ आठ।
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१५४-१५६||
अच्छंदकवर्णनम
५४-५८ चण्डकौशिकवृत्तान्त; पुडासुरकृत उपसः पुष्पमामुद्रिकवृत्तान्तः गोशालस्य मिलनम्
विविधोपसर्गवर्णनम "चतुर्थः सर्गः संगमकस्य घोरा उपसर्गाः
१०४-११५ अन्ये अन्ये उपसर्गाः
११५-१२चमरोस्पातवर्णनम
१२०-१२६ चन्दनावृत्तान्तः
१२४-१३६ कर्णयोः कीलकीपणम कर्ष च
१३८-१४ प्रभोः तप:गणना
१४१पंचमः सर्गः
१४२-१५० प्रभोः कवालोत्पत्तिः, इन्द्रभूतः शंका नन्निरासः १४२-१४८
अन्येषां अग्निभूत्यादीनां शंकानिरसनम
चतुर्विधसंघस्थापनम पष्ठः सर्गः श्रेणिकजन्म सुलसावृत्तान्तः श्रेणिकचरित्रम् चेलणाअपहरणम कृणिकस्य जन्म सेचनकवृत्तान्तः मेघकुमारचरित्रम् नन्दिषेणचरित्रम्
१५७-१६० १६१-१६४ १६४-१७२ १७२-२४७ १७८-१८० १८१-१८४
१८८-१९०
सप्तमः सर्गः
चेल्लगाय एकरसंभप्रासादनिर्माणवर्णनम् आत्रफलस्तनस्य वृत्तान्त: दुर्गन्धावृत्तान्तः
१९१-१९६ १९६-२०० २०१-२०४
। नव।।
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विषयानुक्र
२०४-२१८ २०-२६१
२२१.२२६
२२७-२३०
२६२.२६३ ७.६४-२६६ २६६-२४२
आईकुमारचरित्रम अटमः सर्गः देवानन्दा ऋषभदत्तयोः प्रव्रज्या जमालिवृत्तान्तः सुप्रिययन-चित्रकृत-- शतानीकचित्रसभाना वृत्तान्त: चण्डप्रयोतस्य शनानीकोपार आक्रमगम् मृगावत्याः कौशलं च या या मा सा वृत्तान्तः मृगावत्याः दीक्षा भगवतो महावीरस्य दशानां श्रावकाणां चरित्राणि चन्द्रसूर्ययो: मूलविमानेन अवतरणम् श्री महावीरोपरि गोशालकमुक्त तजोलेश्यावनिम्
गोशालम्य पश्चात्तापः, मृत्यु:, आगामिभवाश्च
गोशालामा पूर्वभवाः नवमः सर्गः
हालिकवृत्तान्तः प्रसजनचत्रिम दर्दुराकदेवचरित्रम श्रेगिकभावितीर्थकरत्नवर्णनम पुण्डरीककंडरीकचरित्रम पञ्चदशशततापसानां प्रतित्रोप्रश्न
मुलसासम्यक्त्वपरीक्षा दशमः सर्गः दशार्यभद्रचरिचम
शालिभदधन्ययो: चरित्रम एकादशः सर्गः
रोहिणेयचरित्रम्
२८५-२८६ २८७-३००
२८१-२९०
.४४-२४५
३०१-३४८
॥दस।
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३८१-३८२ ३८३-५०४
३१०-३११ ३१२-३१३ ३१४-३२२ ३२३ २२४-३४८
चण्डप्रद्योतन्य श्रेणिकोपरि आक्रमणम, पलायनं च अभयकुमारस्य अपहरणम अभयकुमारस्य बुद्धिः मुक्तिश्न चण्डप्रयोतस्य अपहरण मोचनं च
उदायनतृपतिचरित्रम द्वादशः सर्गः
उदायननृपतिचरित्रं, मात्रि - कुमारपालदेवचरित्रं च अभयकुमारस्य प्रव्रज्या कूणिकेन कृत. श्रेणिकस्य कारागृहे रोधः श्रेणिकस्य मत्युः, कूणिकम्य शोकश्च चेटकेन सह कणिकाय युद्धं चेटकरय पराजयश्च
कूणिकम्य मृत्युः प्रभोः परिवारवर्णनम त्रयोदशः सर्गः भगवतः अन्तिमा देशना पुण्यपालमण्डलेशन्य अष्टौ स्वानाः तेषां फल च भगवता कथितानां भात्रिभात्रानां वर्णनम प्रभोः निर्वाण, अन्तिम संस्कारश्च प्रभोः निर्वाण श्रुत्वा गौतमम्य विलापः केबलं च महाकाव्यस्य समाप्तिः प्रशस्ति: शुद्धिपत्रकम्
३९९-४०२
४.३-४.४
४०५-४०९ ४१-४१४
३६३-३७८
॥अग्या
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[प्रतावना
प्र . - - स्ता - - - व - - - ना
मोहमयादनुभवपि नाथ ! मर्यो । नूनं गुणान गणचितुं न तव भमेन ।। कल्पान्तबान्तपयसः प्रकटोऽपि यस्मा-। न्मीयत केन जलधर्ननु रत्नराशिः ॥ १॥
(कल्याणमंदिर स्तोत्र) निर्मल आकाशमां सहस्रकिरणोथी प्रकाशी रहेला सूर्यना पूर्ण प्रकाशन वर्णन करवानी शक्ति धूवडने कदी मळी नथी. कारण के, एनी आंखे प्रकाशने ओळखबानी लायकी के-वी नथी.
पूर्ण प्रकाशने ओरखनानी शक्नि जेने मची छे, तेय पूर्ण प्रकाशने वर्णबी शकचा असमर्थ ज रहे छे. कारण के वर्णनना माधननी-शब्दोनी-शक्ति मीमित छे, ज्यारे वर्णन तो अनंतन कर छे अने आ मर्यादा कविने नही रही.
आरीने, घूप अने कवि, आ बनेनी पूर्ण प्रकाशन वर्गवयानी अशक्ति होवा छतां वर्णन करवाना अधिकार अंगे बनेनी योग्यता तहन विरुद्ध छे. पूर्ण प्रकाशन वर्णन करवा घुबड अनधिकारी के, त्यारे कविनो अधिकार अबाधित रहे छे. कारण के घूवड प्रकाशनो शत्रु के ज्यारे कवि प्रकाशनी अर्थी छे.
ब
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वीतराग श्री अरिहंत परमात्माना अनंत गुणवैभवर्नु वर्णन, ए आवाज पूर्ण प्रकाशन गीन के. प्रस्ताबनाना आरंभे आपला पद्यमांए अनन्त गुणवैभवने वर्णनातीत गणावता कविवर्य, अत्यन्त काव्यात्मक शैलीथी शब्द साधननी मर्यादा समजावे छे. "दृष्टिनी आडे आवता सघळाय अंतरायोनो श्रय थवा छतां श्री कवली भगवंत पण वीतरागना गुणोनो ज्ञानात्मक अनुभव करी झके थे, परन्तु शब्दोमां ए गुणवैभवनी गणना आपबार्नु तमने माटेय अशक्य छे. कल्पान्नकाल मघळांय जलने वमी चूकला महासागरनो रत्नवैभव नजरे जोवा छता मापी न शकाय एबी ए परिस्थिति छे." आ रीते गुणवैभवनी निःसीमता समजाववा छता निर्मल नेत्रवाव्य 'श्री कल्याणमंदिर' ना रचयिता तथा अन्य पण अनेक अधिकारी कवीश्वरोए श्री वीतराग भगवंतना नि:मीम एवा पण गुणवैभवन, मीमित एबा पण शब्दोना माधनथी, वर्णन कर्य ज. गुणोना तीव्र अनुरागधी प्रेराईने शुभाने थयेलो-अपूर्ण एवो पण... आ प्रयत्न आशातना नहि. पण, आराधनानी ज प्रकार . कारणके, पूर्णने सव्या वगर अपूर्ण कदी पण पूर्ण बनी शकेज नहि, आ तो थई 'अधिकारी' सवा अशकतोनी वात. परन्तु 'अनधिकारी' एवा अशक्तोनी वात जूदी ज छे. कारणके प्रकाशना शत्रु, पूर्ण प्रकाशन गीत गाय तोय ए गीत, गीत नथी पण, मयनी विटंबणा छे. गुणानुवादन नामे एबा घूघडो पूर्ण प्रकाशन अपमान करना होय के. दुर्भाग्थे आज काल आवा घूवडो अने नेमना प्रशंसकोनो एक वर्ग ज उभो थयो छे.
'सर्वज्ञ'मां ज शंका धरावनाराओं सर्वज्ञोना चरित्रोनी समालोचनाओ के प्रताबनाओ लखी शकता होय, संसारना रसथी रोमेरोम भीजायेला, श्री वीतरागभगवंताने ओरखावधान साहस खेडता होय छे, पग-माथा चिनाना तो उभा करीने पूर्वाचार्योनी रचनाओ अंग पोताना किंमती (१) अभिप्रायोनी प्रसादी
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आपवानी जाये के फॅशन थई पड़ी छे अने आवा बनी बैठेला विद्वानोन एमनुं आंध अनुयायीप करनाराओ 'दार्शनिक' नी पदवी आपता होय छे.
प्रस्तुत ग्रन्थ, श्री महावीर परमात्माना आत्मिक विकासनी तद्दन प्राथमिक भूमिकाथी आरंभी पूर्णविकास सुधीना तमाम तत्रकाओनुं प्रमाणभूत अने आदर्शरूप निरूपण है. भगवान श्री महावीर परमात्मानो चरित्रांनी अनेक अधिकारी विद्वानोष करेली रचनाओमां, आ रचना, एना अनेक वैशिष्टयोने काएंगे अलग तरी आये एवी छे अनेन वा सम्माने को अपनाओने अनुलक्षीने केटलाक अर्वाचीन विद्वानो करेला विधानो अने पोतानी (कु) मति कल्पनाना उन्मादमां भगवान श्री महावीरदेवना जीवन प्रसंगोनी करेली रजूआत, मानी न शकाय पटली हदे परमात्मानी घोर आशातना करनारी के. अने एबी बकरेली विद्वत्ताना संदर्भमांज प्रस्तावनाने प्रारंभे धूवड अने कविनी दृष्टि ग्रेनो भेद चन्यों है.
खरेवर श्री श्रीतराग परमात्मानी लवना साटेनुं पूर्ण सामर्थ्य कोईनुं य नथी, परन्तु एमनी ए वीतरागताने पामवानी तालवेली धरावती व्यक्ति गंभे तेटली अज्ञान होय तोय, वीतरागने तबबानो एनो अधिकार अबाधितज रहे छे. ज्यारे जेने वीतरागनी वीतरागता तरफ लेश पण आदर न होय, श्री नीर्थकर परमात्माओना दिव्य जीवननी टेकडी उडावतां जेमनी जीभ के कलम अचकार्ड न होय, एवाओने - मूखीओ गमे तेटला पंडित गणता होय तोय-- श्रीवीतराग परमात्माओना पावन जीवन अंगे एक शब्द पण लखवा - बोलवानो अधिकार नवी कारके ए घूबडोनी दृष्टि सत्यना प्रकाशने जीरवी शकती नथी, साचुं समजवानी पात्रता केळवबाने
प्रस्तावना
॥ चौद
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बदले, पोताने समजाय ते अने तेटलं ज साचुं मानवानी अहंकारी वृत्तिज सत्यदर्शननी आडेनो सहुर्थी मोटो अंतराय छे. एने दूर कर्या सियाय पोताना बिचारोने 'दर्शन' या 'चिन्तन'नं उजलं नाम आपवाथी, ते विचारोनी किंमत तुकाओथी विशेष वधती नथी. इतिहास अने विज्ञानने नामे चमत्कारोनी हांसी करनाराओए इतिहास अने विज्ञानना क्षणे श्रणे बदलाता अभिगमोनो चमत्कार भूलयो न जोईए..
खरखर तो, कुतकांना कचरा खरखरीन, मनोभूमिने श्रद्धाथी शुद्ध बनाव्या सिवाय आशं चरित्रो बाचन लाभने बदले नुकसान ज करे छे. अने माटे ज ने श्रद्धाने शिथिल करी नास्वनारा बळोने ओळखायचा आटलो प्रतिकार प्रसंगोचित गण्यो छे.
अंतमां, अनन्तउपकारी श्री अरिहंत परमात्माओना पावन-शुद्ध स्वरूपने प्राप्त करवानी झंखना पूर्वक सरकोड आवां पविच चरित्रोनु वाचन करे, ते वाचन द्वारा शुद्ध आत्मस्वरूपने पामवाना उपायोनं ज्ञान मध्य्चे अने ते उपायोने सारी रीते सेवीने पोताना शुद्ध आत्मस्वरूपने पामवानी पोतानी झंखनाने सफल बनावे एवी शुभकामना सेव॒ टुं.
मुनि चन्द्रगुप्तविजय
वि. सं. २०३३, माह सुद १३, बुध कल्याण (जि, था'गा)
पंदर
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प्रतिओनो परिचय अने गंकेतसूचि
प्रतिओनो
परिचय xसंकेतसृषि
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प्रस्तुत विषष्टिशलाकापुरुषचरित दशम पर्वन संपादन त्रण हस्तलिखित प्रत्ओि तथा एक मुदित अन्य एम चारने आंख सामे सवीन करवामां आव्यु छे.
जे प्रतिओने आंख साम राखीन संपादन करायंछते प्रतिओनो परिचय अने संकेत नीचे दर्शावायचे (, संक्षक प्रति
आ प्रति, जैनशाच्या स्थापित श्रीनीतिविजयजी शास्त्रसंग्रह- स्थंभनतीर्थनी थी नं २२६, प्रति नं. १८७७, पत्र ८० प्रमाण के. जेनुं प्रथम एप को छे. अंनिम पृष्ठ पर मात्र एकज पंक्ति छे, जेमा "शुभं भवतु लेखक पाटकयोः ॥ श्री-श्री..श्रीकल्याण मुयात्" आटलो पाठ छे.
आ प्रतिनो अंतिम भाग खवाई जयाथी लेनो लेखनकाल स्पष्ट समजाले नथी. मात्र १३' आटला अक्षरोज पंचायछे जेथी प्रतिनो लेखनकाल चौदमी शतान्दिनो हशे तेम अनुमान थाय ने पनि अतिशय जीर्ण थे., ठेर ठेर जीवात द्वारा प्रति खवाई गई, लगभग कोइज पार्नु अखंडित नथी. लिपि पडिमात्रामा छे. अशुद्धि पण प्रमाणथी वधु, क्यांक चालु पाठो वचमां छूटी गया ले जे २.-३ पृष्ठ पछी लग्बवामां आव्या छ. आ बधु जोता आ प्रति, लखाया बाद परिमार्जन थया विनानी देखाय छे.
*
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दरेक पृष्ठमा लाभग १७ पंक्तिओ छ, दरेक पंक्तिमा ६० थी ६५ अक्षरो छे, दोक पृष्ठमा लखाणना मध्यभागमां थोडो भाग कोरो मूकी बायडीनो आकार आलेखायेलो छे.
दरेक पृष्ठनी बे तरफ काठी शाहीनी बब्बे लीटीओ बे वार आंकी (वो थोडं अंतर राखी) हांसिया पाडवामां आव्या छ हांसियामा डाया हाथ तरफना उपरना भागमा 'त्रि, महावीर च.' लखी तेनी नीचे पृष्ठनो आंक लखायो छे. अने जमणी तरफ नीचेना भागमां पण पृष्ठनो आंक आलेखायो छे. ज्यारे बीजी बाजुना पृष्ठमां हांसियो कोरो रखायो.
ग्रन्थनो प्रारंभ “॥ ॥ अहं ॥" लखीने करायो छे, प्रति कोणे लखावी ? कोणे लखी? ते जाणवार्नु कंइज साधन उपलब्ध नथी. । संक्षक प्रति
लालमाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर-अमदावादनी की-४८२,१०५५० संज्ञक, पत्र २ श्री १७५ पर्यंतनी आ प्रति छ ।
प्रथम पत्र नथी, १७५ मुं पत्र कोरं छे. "लेखन संबत् १७ मी शताब्दि" एवो प्रतिना कवर पर उल्लेख छे, ज्यारे प्रति पर तेवो कोई उल्लेख नथी. १७४ मा पत्रना नीचेना भागमां कागळ चोडी देवायेल के.
प्रति जी छे, दरेक पत्रमा १३ पंक्तिओ छे. दरेक पंक्तिमा ४० लगभग अक्षरो छ प्रतिना दरेक पृष्ठोनी बने तरफ काळी शाहीथी डब्बल हांसिया पाडेल छेअने ते हांसियाओमां जरूरी नोंधो करायेली के जे पाथी उमेरायेली लागे थे.
*
*
॥सत्तर॥
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अोकोना अंको, लाल रंगथी दरेक पत्रना बीजा पृष्ठ पर अंकित कराये छे. हरेक पष्ठनो मध्यभाग कोरो राखी जटकोण बनाकर किस करायो के प्रति परिमात्रामा अने घणे स्थळे अशुद्ध के. प्रतिना पत्र २ थी ११ शाही ढय्याची सरडायेला ले. प्रतिना पत्रों अखंडित है, प्रतिना लेखक के लेखनकाळ अंगे जागवानुं कोइ ज साधन उपलब्ध नथी
D संज्ञक प्रति-
आ प्रति आर्य श्री जम्बूस्वामि जैन मुक्ताबाई आगममंदिर - डभोईनी डाभडा नं. ११६, क्रमांक नं. ३५३२ पत्रसंख्या १६२ संज्ञक छे.
आ प्रतिमां पत्र तथा १५७ नथी. उपरांत पत्र १८ पछी पत्र १९ ने बदले पत्र २० लखवानी भूल पण करायेली ले जेने आगळ पण सुधारी लेवाई नथी जेथी प्रतिनां कुल पत्रो २६२ न होता १५९ ज छे, प्रतिनो लेखनका वि.सं. १६२९ श्रावण सुद १२ नो के प्रति पूर्णिमापना श्रीपूज्य श्री अमर तिलकसूरिखी छे एम प्रतिना प्रान्तभागे करायला उल्लेखथी जणाय पत्र १ नो आगो भाग तथा पत्र २६२ नी पाछनो भाग कोशे थे, प्रतिनी चने बाजु काळी अने लाल शाहीथी हांसिया पडायेला हे प्रतिना हरेक ठनो वचलो भाग कोरो रखायेल के प्रति पडिमात्रामा लखायेल के. दरेक पृष्ठमा १५ पंति.ओ . दरक पंक्तिमा ३० लगभग अक्षरो के प्रतिना हासियामां बीजा धीजा मन्थोना उद्धरणो पण टांकवामां आव्यां छे. प्रति घणी शुद्ध अने सारी स्थितिमा है.
प्रतिओनो परिचच अने संकेतसूचि
॥ अढार ॥
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I/ संशक मुद्रित ग्रन्थ
आ ग्रन्थ श्री जैन धर्म प्रसारक सभा-- भावनगर तरफथी विक्रमसंवत १९६५ मां मुद्रित थयेल छे जे पत्राकारे अने १८३ पत्र प्रमाण छे. आमां स्थळे स्थळे कठिन शब्दोना अर्थो पादनोंधा अपाया छे, परन्तु कोइज पाठभेदो आपवामां आच्या मधी तेमज कयी हस्तलिखित प्रति परथी आ ग्रन्थ उपाबायो तेनो पण उल्लख सांपडतो नथी, एकंदर आ ग्रन्थ घणो शुद्ध छपाबायेलो तेम का विना चाले तेम नथी.
ओगणीस।
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संपादकीय
नि:सीम उपकारी, प्रभुभक्तिना रंगेओतप्रोत थयेला, कलिकालसर्वज्ञ, आचार्यमुकुटमणि, परमपूज्य, आचार्यभगवान् श्रीमद् हेमचन्द्रसूरीश्वरजीए विक्रमनी तेरमी शताब्दिमा परमाईत श्री कुमारपालभूपालनी भक्तिभावभरी प्रार्थनाथी रचेल श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित महाकाव्य दस पर्बोमां व चालुं छे.
उपरोक्त दमेय पर्योन भावपूर्वक वाचन, आपणन असंख्य वर्षोथी आज मधीनो ते इतिहास पूरी पाड़े के के जे वाचतां श्रद्धाळु आत्मा भावविभोर थया मिवाय तो न रहे पटलं ज नहि पाग आवा महामन्थना रचयिता प्रत्ये नतमस्तक धया विना पण न रहे.
आ दसे य पर्बोर्नु मुद्रण अनेक वर्षों पूर्व जैनधर्मप्रसारकसभा-- भावनगर तरफथी करावायु हतुं . परंतु तेना अभ्यासी वाचकोनी संख्या दिन प्रतिदिन बधतां ते दसेय पर्वो मुगमताथी प्राप्त थवा दुर्लभ बनी गयां हां.
रेल्ला केटलांक वर्षों पूर्व आ दुर्लभता आंख साम राखीने जैन आत्मानंद सभा-भावनगर तरफथी प्रस्तुत प्रन्धराजना १ थी ६ पर्यो पाठान्तरो आदिथी परिमार्जित करी प्रकाशित करायां के.
प्रस्तुत ग्रन्थराजनुं दसमुं पर्व तो वपा बीतवा छतांय पुनः मुद्रित थयेल न हतुं अने आ न्यूनता तरफ
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एकवीस
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अनेक मुनि भगवतो तथा महानुभात्र श्रमणोपासको द्वापार अंगुलिविंद बरसा
रहो.
संपादकीय
मुद्रगणना विवागेनु उत्थान
मारा गनजन्मनां पुण्यानुबंधी पुष्योना परिपाकना योगे प्रस्तुत विषष्टिशलाकापुरुषचरित-दशमपर्नु पाठांतरो आदिथी परिमार्जन करी संपादन अने पुनर्मुद्रण करावयानो निर्णय मरा कल्याणमित्र अन तेथी उपकारी एवा सुश्रावक श्रीयुत प्राणलाल मुंदरजी कापडियाए को अने तेनी सर्व जोखमदारी मारा पर मूकी.
तेमणे एक वार मने कहयु के- "आपणा परमगुरुदेव के जमणे आपणने श्री जिनेन्द्र भगवंतो ओन्टयाव्या, धर्मनो मर्म समजावी सम्यग्दर्शन यथास्थिन रूपे ओळखाव्यु अने भवनो भय पेदा कर्यो ते-आचार्यदेव श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज पोतानी धर्मदेशनामां, सतत धननो सात क्षेत्रमा व्यय करी तेने सफल करवान फरमाबे छे अने तेथी मारे पण पुण्यथी प्राप्त थयेल धननो शक्य तेटलो व्यय ते ते क्षेत्रमा करयो छे. जिनमंदिर अने जिनबिम्ब आ बने क्षेत्रोमां यनकिंचित धनव्यय में कों में, त्रीजा क्षेत्र जिनागममा मारी इच्छा, जे प्रन्थराज आजे सुलभ नधी अने जेमा आपणा परमतारक परमेश्वरन विगतपूर्ण जीवनचरित्र छे ते श्री त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित-दशम पर्वर्नु पुनमुद्रण करावी ते ग्रन्थना अधिकारी पाठको माटे ते ग्रन्थ सुलभ थाय तेम करवानी ले.” एटले आ ग्रन्थ आजे वाचकोना करकमलो सुधी पहोंची शक्यो होय तो ते यश, परमगुरुदेव, वर्तमान कालमा अजोड धर्मप्रभावक, सुविशुद्ध जिनमार्गना यथास्थितप्ररूपक
AKADCASEARRIAGRA
गयावीस
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व्याख्यानवाचरपति, आचार्यशिरोमणि, श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजना धर्मोपदेशनेज छे. प्रस्तुत ग्रन्थराजनी महत्ता
अनन्त करुणाना महासागर, त्रय लोकमां जेमना समान कोई उनम नथी एवा महालोकोत्तम, महापुरुष, महाभट्टारक, चरमतीर्थपति, श्रमणभगवान श्री वर्धमानरवामिन आ ग्रन्थराजमां आलेस्थायलं साद्यन्त जीवन, अन्यान्य ग्रन्थकारो द्वारा आलखायेला ते महाप्रभुना जीवनचरित्रो करता अनेक प्रकारनी विशिष्टता घराषनारंछे.
जो के अन्धकारश्रीना बूदना कहेवा अनुसार ज- "त परमेश्वरतुं संपूर्ण जीवन आलेखवा कोइज समर्थ नधी. तो पण, जेतुं रंडाण मपाय तेम नथी एवा प्रवचनरूपी महासागरमाथी कंईक नानकडो अंश लईने आ चरित्र में गूंथ्यू हे" -आ चरित्र पण एक नानकडो अंश जो तो पारी ए.परमतारलन संपूर्ण जीवन के य, महानथीय महान हशे ए विचार पण आनंदविभोर बनाची दे छे. संपादन अंगे
प्रस्तुत ग्रन्थना संपादननी सर्व व्यवस्था, ज्यारे श्रीयुत सुश्रावक प्राणलालभाईना आप्रहधी मारे स्वीकारनी पडी त्यारे आक्षेत्रमा हुँ लगभग नवा जेबो हतो. छताय, आ कार्य अपूर्व कर्मनिर्जरानु के एम समजी में एनो स्वीकार को अने गुरुकृपाना बले हुं आ कार्य पूरु करी शकीश एया विश्वासथी आ कार्य हाथ धर्यु:
आ संपादन करया माटे जेटली प्राचीन हलिखित प्रतिओ अमने मळी शकी, ते अमे मेळवी अने तेना परथी सर्व प्रथम पाठभेदोनो संग्रह को. जैनधर्मप्रसारकसभा द्वारा प्रकाशित दशम पर्वना जे जे पाठो
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।। तेवीस
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संपादक
अशुद्ध लाग्या नेमज हस्तलिखित प्रनिओना पण जे पाठो व्याकरण आदिनी दृष्टिए अशुद्ध लाग्या ने ते पाठोनी पाठभेदोमा अमे नोंघ लीधी नथी, कटलाक पराठा अशुद्ध बा लागवा उनाय विचारणीय हुना ते ते पाठभदोमां संगृहीत कर्या के. पाठभेदो माटे की कयी प्रतिओनो उपयोग करायो नो नामोल्लेख तथा परिचय अन्यन्न आपल के तेथी ने एनति की आ जादी. ____ आ रीत पाठभेदो संगृहीत कर्या पढ़ी ज्या ज्यां कठिनतम शब्दो हता तेनाज अर्थ टक्या छ परन्नु सर्व शब्दोना अर्थो लखवान अमे उचित मान्य नथी.
आ अन्थराज सर्वांगशुद्ध उपाय ते माद में माराथी बनती पूरी चीवट राखी के अने ने माटे मुद्रणालयना व्यवस्थापकोने पण सूचनाओ आपी छ. गुफो वारंवार तपासीने सुधारी आप्या छे, छतांय शुद्धिपत्रक मूकबुंज पडयु ए मारी पोतानी क्षति नमसी पाठको मने श्रमा करशे एबी आश राखु छ.
प्रस्तुत अन्धराजमा आचार्यभगवंत श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजीप पौने पोता तरफथी जे सुभाषितो टाक्यां छे तन अलग बताबवा माटे ते ते मुभापिनो नीचे पाती लौंटी मूकी जदा तारखवानी अमे प्रयास कयों छे. परन्तु कथामां आवतां पात्रो द्वारा प्रसंगे प्रसंगे उच्चारायला सुभापितो मांट नेम करायु नथी ते खास ध्यानमा राबवा योग्य छ,
व्यवस्थित संपादनना अभावे या हत्तप्रतोनी प्राप्तिना अभावे अत्यार पूर्व मुद्रित थ्येला प्रस्तुत चरित्रमा केवी निओ थई छे तनुं मात्र एकज द्रष्टान्त अही रजू करवं पर्याप्त थशे. प्रस्तुत प्रन्थराजना
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त्रीजा सर्गनो ५९२ मो श्लोक नीचे मुजब छे.
जिघांसौ सेवके चापि निर्विशेषस्य ते ननु ।
मेवा को नाम कुर्वीत न योऽहमिव मूढधीः ॥ ५९२ ॥ अहीं संपादके कुर्वीत पछी न यो शब्दनो अर्थ न समजातां एक 'न' उमेरी तनयोऽहमिव मूढधीः एवो पाठ मूकी छापी दीधुं, पण आम करवाथी मात्रामेळ तूटी गयो तेनो ख्याल तो न कर्यो पण 'तनयो' लखवाथी अर्थ पण बद्लाई गयो तेनो य विचार न कर्यो, अने आना परथी भाषांतर करनारे पण 'तनयो नो अर्थ 'पुत्र' करी 'पुत्रनी जेम कोण सेवा करे !' एवो ज अर्थ छाप्यो. आ संपादनमा आ अने आवी क्षतिओनुं यथाशक्य परिमार्जन करवामां आव्यु छे.
परमनिस्तारक, श्रमणभगवान, वर्धमानस्वामी परनी अनन्य श्रद्धा अने भक्तिथी ग्रन्थकारे आ चरित्र लायुंछ एनां दर्शन तो वाचकने डगले ने पगले थाय के एटले ए दृष्टिए जोता आ ग्रन्थ मात्र जीवनचरित्र न रहेतां स्तुतिपूर्ण जीवनचरित्र बनी जाय के ए वस्तु खास नोंधपात्र छे.
39.
उपसंहार
आ ग्रन्थ- अक्षरश: वाचन करी शुद्धिपत्रक तैयार करवाने कार्य पूज्य आचार्य श्री विजयमृगांकसूरीश्वरजी महाराजना विद्वान् शिष्य मुनिराज श्री हेमभूषणविजयजी महाराजे कर्य के तथा आ अन्धनी
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संपादकीय
प्रस्तावना, पूज्य मुनिराज श्री अमरगुप्तविजयमहाराजना शिज्य, न्यायव्याकरणनिपुग मुनि श्री चन्द्रगुप्त विजयजी महाराज लखी आपीछे ते बदल हं ने उभय श्रमण भगवंतोनो अपकार माई.
आ संपादनमा जे कोई क्षतिओ रही गई होय ते अंगे विद्वानोने विनंति के के- सेवी क्षतिओ तरफ ध्यान दौरे के जेथी भविष्यमा ने, थवा न पामे,
आ संपादनमा जे कई जिनाबाविरुद्ध थवा पायु होय तेनो विषिधे मिच्छामिदुकाई आपी, आ ग्रन्थराजना बाचनथी सम्यग्द्रष्टि आत्माओ पोताना बोधिबीजने निर्मल करो एवी भावना साथे विरमुं .
सुबोधचन्द्र नानालाल शाह
वि. सं. २०३३ माघ शुक्ल तृतीया, शनि विलेपारले-मुंबई.
छन्वीस
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श्री श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य स्तुतिः हत्थीमु एरावणमाहु णात, सीहो भिगाणं सलिलाण गंगा । पकखीसु आ गरुले वेणुदेवे, जेव्वाणवादीणिह णातपुत्ते ॥ १॥ दाणाण सेटुं अभयप्पदाणं, मन्चेसु जा अणवजं वदंति । तवेसु आ उत्तम बंभचेरं लोगुत्तमे भगवं णातपुत्ते ॥ २ ॥ ठितीण सिट्ठा लवसत्तमा वा, सभा सुधम्मा व सभाण सेट्ठा । . णेबाणसिधा जध नव्वधम्मा, ण णायपुत्ता परमत्थि णाणी ॥३॥
[सूत्रकृतांग सूत्र नियुक्ति-]
............★★★★A.
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कलिकालसर्वज्ञ-श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं ॥ श्रीत्रिपष्टिशलाकापुरुषचरितम् महाकाव्यम् ॥
॥ दशमं पर्व ॥ ॥ श्रीमहावीरचरितम् ।।
॥ प्रथमः सर्गः ॥ नमो दुर्वाररागादिवैरिवारनिवारिणे । अर्हसे योगिनाधाय महावीराय तायिने ॥१॥ अथास्य देवदेवस्य देवासुरनरार्चितम् । चरितं कीर्तयिष्यामः पुण्यवारिसरोवरम् ॥२|| अस्यैव जम्बूद्वीपस्य प्रत्यग्विदेहभूषणे । विजयेऽस्ति महावने जयन्ती नामतः पुरी ॥शा । दोषीर्येण समुत्पन्न इव नव्यो जनार्दनः । महासमृद्धिस्तत्रासीन्नृपतिः शत्रुमर्दनः ॥४॥ तस्य ग्रामे तु पृथिवीप्रतिष्ठानाभिधेऽभवत् । स्वामिभक्तो नयसाराभिधानो ग्रामचिन्तकः ॥५॥
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नातिनापी यातिनिसागर जी महाराज
प्रथमः सर्ग
साधुसम्बन्धबाह्योऽपि सोऽकृत्येभ्यः पराङ्मुखः । दोषान्वेषणविमुखो गुणग्रहणतत्परः ॥६॥ सोऽन्यदा वरदारुभ्यः पृथिवीपतिशासनात् । सपाथेयो महाटव्यामादाय शकटानगात् ॥७॥ तस्य च्छेदयतो वृक्षान्मध्यन्दिनमुपाययौ । जठरेऽग्निरिव व्योम्नि दिदीपे तपनोऽधिकम् ॥८॥ भृतकैर्नयसारस्य सारा रसवती तदा । समयहरुपनिन्ये मंडपाभतरोरधः ॥९॥ क्षुधितस्तृषितो वापि यदि स्यादतिथिर्मम । तं भोजयामीति नयसारोऽपश्यवितस्ततः ॥१०॥ क्षुधितास्तृषिताः श्रान्ताः सार्यान्वेषणतत्पराः। घर्माम्भःप्लुतसर्वांगाः साधवश्चाययुस्तदा ॥११॥ साध्वमी साधवो मेऽत्रातिथयः समुपस्थिताः । चिन्तयन्निति नत्वा तान् सोऽब्रवीद् ग्रामचिन्तकः ॥१२॥ भगवन्तो भवन्तोऽस्यामटव्यां कथमागताः । एकाकिनः शस्त्रिणोऽपि पर्यटन्ति न खत्विह ॥१३॥ तेऽप्यभ्यधुर्वयं स्थानात् सार्थेन प्रस्थिताः पुरा । ग्राम प्रविष्टा भिक्षायै ययौ सार्थस्तदैव हि ॥१४॥ अनात्तभिक्षाश्चलिताः सार्थस्यानुपदं वयम् । आगच्छन्तो महाटव्यामस्यां निपतितास्ततः॥१५॥ नयसारोऽब्रवीदेवमहो ! सार्थोऽतिनिष्कृपः । अहो पापादप्यभीरूरहो विश्वस्तघातकः ॥१६॥ यत्सह प्रस्थितान् साधून सार्थप्रत्याशया स्थितान् । *अनागमय्य प्रययौ निजकार्यकनिष्टुरः ॥१७॥ पा, भे.-१ सर्वस्त टि.-* अप्रतीक्ष्य।
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मत्पुण्यै!यमायाता वनेऽत्रातिथयो मम । इत्युक्त्वा भोजनस्थानं स निन्ये तान्महामुनीन ॥१८॥ स्वार्थोपनीतः पानाः स मुनीन् प्रत्यलाभयत् । अन्यत्र गत्वा विधिना तेऽप्यमुखत साधवः ॥१॥ ग्रामायुक्तोऽपि हि भुक्त्वा गत्वा नत्वाऽवदन्मुनीन् । चलन्तु भगवन्तोऽद्य पूर्मार्ग दर्शयामि वः ॥२०॥ ने तेन सह चेलम्च मापुश्च नगरीपथम् । तरोरधश्चोपविश्य धर्म तस्याचचक्षिरे ॥२१॥ स प्रत्यपादि सम्यक्त्वं धन्यमन्यः प्रणम्य तान् । वलित्वा दारूणि राज्ञे प्रैषीद ग्रामे स्वयं स्वगात् ॥२२॥ अथाभ्यस्यन सदा धर्म सप्ततत्त्वानि चिन्तयन् । सम्यक्त्वं पालयन् कालमनैषीत् स महामनाः ॥२॥ विहिताराधनः सोऽन्ते स्मृतपश्चनमस्कृतिः । मृत्वा बभूव सौधर्म सुरः पल्योपमस्थितिः ॥२४॥ इतश्चात्रैव भरते विनीतेत्यस्ति पूर्वरा । पुरा युगादिनाथस्य कृते सुरवरः कृता ।।२८॥ तन्न श्रीऋषभस्वामिसूनुर्नवनिधीश्वरः । चतुर्दशरत्नपतिर्भरतश्चक्रवयंभूत् ॥२६॥ ग्रामचिन्तकजीयः स च्युत्वाऽभूत्तस्य नन्दनः । मरीचीन विकिरंस्तेन मरीचिरिति विश्रुतः ॥२७॥ आये समवसरणे ऋषभस्वामिनः प्रभोः। पितृघ्रात्रादिभिः सार्ध मरीचिः क्षत्रियो ययौ ॥२८॥ महिमामं प्रभोः प्रेक्ष्य क्रियमाणं स नाकिभिः । धर्म चाकर्ण्य सम्यक्त्वलन्धधीव्रतमाददे ॥२९॥
१ ग्यात्
॥
HI
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PRAKAR
प्रथमः सर्ग
सम्यग्ज्ञातयतिधर्मः स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः । त्रिगुप्तः पञ्चसमितिर्निष्कषायो महाव्रती ॥३०॥ स्थविराणां पुरोऽङ्गानि पठन्नेकादशापि हि । ऋषभस्वामिना सार्धं मरीचिय॑हरचिरम् ॥३१॥ (युग्मम् ) सोऽपरेदा ग्रीष्मऋतावुषणांशुकरदारुणे। प्रतिमार्ग पान्थपादनखपचरजश्चये ॥३२॥ स्वेदार्टीभूतसर्वाङ्गमललिप्तांशुकद्वयः । तृष्णार्ताऽचिन्तयदिति चारित्रावरणोदयात् ॥३३॥ (युग्मम्) न श्रामण्यगुणान्मेरुसमभारान दुरुद्वहान् । निर्गुणोऽहं भवाकाङ्क्षी वोढुं प्रभुरतः परम् ॥३४॥ किं त्यजामि व्रतं लोके तत्त्यागे लज्ज्यते खलु । लब्धो वाऽयं मयोपायो व्रतं येन क्लमो न च ॥३॥ श्रमणा भगवन्तोऽमी त्रिदण्डविरताः सदा । अस्तु दण्डनिर्जितस्य त्रिदण्डी मम लांछनम् ॥६॥ केशलोचादमी मुण्डाः क्षुरमुण्डः शिखी त्वहम् । महावतधराश्चामी स्यामणुव्रतभृत्त्वहम् ॥३७॥ निष्किंञ्चना मुनयोऽमी भूयान्मे मुद्रिकादि तु । अमी विमोहा मोहेन च्छन्नस्य छन्नमस्तु मे ॥३८॥ उपानद्रहिताश्चामी सञ्चरन्ति महर्षयः । पादत्राणनिमित्त मे भवतामप्युपानहौ ॥३१॥ सुगन्धयोऽमी शीलेन दुर्गन्धः शीलतस्त्वहम् । सौगन्ध्यहेतोर्भवतु श्रीखण्डतिलकादि मे ॥४०॥ अमी शुक्लजरद्वस्त्रा निष्कषाया महर्षयः । भवन्तु मे तु वासांसि काषायाणि कषायिणः ॥४१॥ १ "गुप्तिः ॥ टि.- *कषायवर्णरतानि ।।
, KARXXXSAS
* ॥४॥
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त्यजन्त्यमी जलारम्भं बहुजीवोपमर्दकम् । स्नानं पानं च पयसा मितेन भवताच मे ॥४॥ एवं विकल्प्य स्वधिया लिङ्गनिर्वाहहेतवे । पारिवाज्यं प्रत्यादि मरीचिः परशा . सारग्वेषं च तं दृष्ट्वाऽपृच्छद्धर्म जनोऽखिलः । साधुधर्म समाचख्यौ सोऽपि तेषां जिनोदितम् ॥४४॥ किं त्वं स्वयं नाचरसीत्य*नुयुक्तः पुनर्जनैः । मेरुभारं न तं वोदुमीशोऽस्मीति शशंस सः ॥४२॥ धर्माख्यानप्रतिबुद्धान स तु भव्यानुपस्थितान । शिष्यान् समर्पयामास स्वामिने नाभिसूनवे ॥४६।। इत्याचारो विजहार मरीचिः स्वामिना सह । स्वामी च समवासार्षीद्विनीतायां पुनः पुरि ॥४७॥ तत्र प्रभुनमस्कृत्य पृष्टो भरतचक्रिणा । भाविणोऽहचक्रिविष्णुप्रतिविष्णुपलाञ्जगौ ॥४८॥ पुनः पप्रच्छ भरतः किं कश्चिदिह पर्षदि । भान्यन्त्र भरतक्षेत्रे नाथ ! त्वमिव तीर्थकृत ॥४॥ मरीचिं दर्शयन्नाख्यत् स्वामी सूनुरयं तव । पिश्चिमस्तीर्थकृद्वीरो नाम्ना भाषीह भारते ॥१०॥ भाव्याद्योऽन त्रिपृष्ठाख्यः शाईभृत्पीतने पुरे । मूकापुर्यां विदेहेषु प्रियमित्रश्च चक्रभृत् ॥५१॥ तच्छुत्वा नाथमापृच्छय मरीचिं भरतो ययौ । त्रिश्च प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वैवमवोचत ॥२२॥ स्वामिनोक्तं चरमस्त्वं भाव्यर्हनिह भारते । आदिश्च वासुदेवस्त्वं त्रिपृष्ठः पोतनेश्वरः ॥२३॥ टि.- गृष्टः। चरमः ।
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प्रथमः सर्ग
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चक्री विदेहमूकायां प्रियमित्रोऽभिधानतः । पारिवाज्यं न ते वन्धं भाव्यर्हनिति चन्द्यसे ॥२४॥ तमित्युक्त्वा चक्रवर्ती प्रणम्य स्वामिनं पुनः । विनीतात्मा प्रविवश विनीतां मुदितः पुरीम् ॥१५॥ तदाकर्ण्य मरीचिस्त्रिरास्फोट्य त्रिपदीं मुदा । इत्युवाचोच्चकैर्विष्णुर्भविष्यामि यदादिमः ॥२६॥ मूकानगर्या मे चक्रवर्तित्वं च भविष्यति । भाव्यहं परमश्चाईन पर्याप्तमपरेण मे ॥२७॥ आयोऽहं वासुदेवानां पिना मे चक्रवर्तिनाम् । पितामहस्तीर्घकृतामहो मे कुलमुत्तमम् ॥२८॥ एवं जातिमदं कुर्वन् भुजावास्फोटयन्मुहुः । नीयगोत्राभिधं कर्म मरीचिः समुपार्जयत् ॥१९॥ ऋषभस्वामिनिर्वाणादृर्ध्व* साध स साधुभिः । विहरन प्रयोध्य भन्यान् प्राहिणोत् साधुसन्निधौ ।।६०॥ व्याधिभिशान्यदा ग्रस्तोऽसंयमीति स साधुभिः। अपाल्यमानो ग्लानःसन्मनस्येवं व्यचिन्तयत् ॥६॥ अहो अमी साधवो धिनिर्दाक्षिण्याः कृपोज्झिताः। स्वार्थमात्रोचता लोकन्यवहारपराङ्मुखाः ॥६सा यन्मां परिचितं लिम्धमप्येकगुरुदीक्षितम् । विनीतमपि नेक्षन्ते दूरेऽस्तु मम पालनम् ।।६३॥ यद्वा दुश्चिन्तितं मेऽदो यदमी स्वतनोरपि । परिचयां न कुर्वन्ति भ्रष्टस्य तु कथं मम ॥३४|| अनेन व्याधिना मुक्तस्तत् खस्य प्रतिचारकम् । फश्चिच्छिष्यं करिष्यामि स्वलिङ्गनामुनैव हि ॥६५॥
| दि.- *पश्चात्
१ 'भिः सोऽन्य
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एवं ध्यायन् विधिवशान्मरीचिरभवत् पटुः । अन्यदा मिलितश्चास्य कपिलः कुलपुत्रकः ॥३६॥ धर्मार्थी ज्ञापितस्तेन कपिलो धर्ममार्हतम् । किं स्वयं न करोषीति सोऽपृच्छ कार्पलेन च ॥६७॥ मरीचिरवद्धर्मं नैनं कर्तुमहं क्षमः । कपिलोऽप्यब्रवीत् किं त्वन्मार्गे धर्मो न विद्यते ? ॥६८॥ जनसं ज्ञात्वा शिष्य स तं जग । मार्गे जैनेऽपि धर्मोऽस्ति मम मार्गेऽपि विद्यते ॥ ६९ ॥ तच्छ्रियः कपिलोsथाभून्मिथ्याधर्मोपदेशनात् । मरीचिरप्यन्धिकोटिकोटी संसारमार्जयत् ॥७०॥ मरीचिस्तदनालोच्य विहितानशनो मृतः । ब्रह्मलोके दशोदन्यत्प्रमितायुः सुरोऽभवत् ॥७१॥ शिष्यान् विधायासूर्यादीन् स्वाचारानुपदिश्य च । विपद्य च ब्रह्मलोके कपिलोऽप्यमरोऽभवत् ॥७२॥ स प्राग्जन्मावर्ज्ञात्वा मोहादभ्येत्य भूतले । स्वयं कृतं सांख्यमतमासूर्यादीनबोधयत् ॥७३॥ तदान्नायादत्र सांख्गं प्रावर्तत दर्शनम् । सुखसाध्ये ह्यनुष्ठाने प्रायो लोकः प्रवर्तते ॥७४॥ च्युत्वा मरीचिजीवोsपि कोल्लाके सन्निवेशने । कौशिकाख्यः पूर्वलक्षाशीत्यायुर्ब्राह्मणोऽभवत् ॥ ७५ ॥ स सदा विषयासक्तो द्रव्योपार्जनतत्परः । हिंसादिषु च निःशुकः कालं भूयांसमत्यगात् ॥७६॥ सोऽन्ते त्रिदण्डी भूत्वा च मृत्वा भ्रान्त्वा यहुन् भवान् । स्थूणाख्ये सन्निवेशेऽभूत् पुष्पमित्राभिधो द्विजः ॥ ৩st
१ "चारमुप / ॥
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प्रथमः सा
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भूत्वा त्रिदण्डिका पूर्वलक्षद्वासप्ततिप्रमम् । अतीत्यायुः स सौधर्मे सुरोऽभून्मध्यमस्थितिः ॥७॥ च्युत्वा चैत्ये सन्निधेशोऽरगुद्योतः स हिजोऽभवत् । पूर्वलक्षचतुःषष्ट्यायुष्कः प्राग्वत्रिदण्ज्यभूत् ॥७९॥ मृत्वैशाने मध्यमायुः सोऽभूध्वस्ततश्च्युतः । मन्दिरे सन्निवेशेऽभूदग्निभूतिरिति द्विजः ॥८॥ षट्पश्चाशत्पूर्वलक्षायुषकः सोऽपि त्रिदण्ड्यभूत् । मृत्वा सनत्कुमारे च मध्यमायुः सुरोऽभवत् ॥८॥ च्युत्वा च श्वेतवीपुर्यां भारद्वाजोऽभवद् द्विजः । चतुश्चत्वारिंशत्पूर्वलक्षायुः स त्रिदण्यभूत् ॥८२॥ मृत्वा माहेन्द्रकल्पेऽभूत् स सुरो मध्यमस्थितिः। च्युत्वा भ्रान्त्वा भवं राजगृहेऽभूत्स्थावरो द्विजः ॥८३५ चतुरिंशत्पूर्वलक्षायुष्कः सोऽपि त्रिदण्ड्यभूत् । विपद्य च ब्रह्मलोके मध्यमायुः सुरोऽभवत ॥८॥ ब्रह्मलोकात्परिच्युत्य स बभ्राम घडून भवान् | भवो ह्यनन्तीभवति स्वकर्मपरिणामतः ॥८॥ इतश्चाभूद्राजगृहे विश्वनन्दी महीपतिः। पत्न्यां प्रियंगो विशाखनन्दी तस्याभवत्सुतः ॥८६॥ विशाखभूतिर्युवराड राज्ञस्तस्यानुजोऽभवत् । युवराजस्य तस्याभूद्धारिणी नामतः प्रिया ॥८७ मरीचिजीवः प्राग्जन्मोपार्जितैः शुभकर्मभिः । विशाखभूतेर्धारिण्यां विश्वभूतिः सुतोऽभवत् ।।८८॥ उद्यौवनो विश्वभूतिर्वने पुष्पकरण्डके । रेमे सान्तःपुरो देवकुमार इव नन्दने ॥८९॥ विशाखनन्दी क्रीडेच्छू रापुत्रोऽस्थात्तु तद्वहिः । पुष्पाद्यर्थ गता दास्यो ददृशुस्तौ तथास्थितौ ॥१०॥ १ तपादशौ ।
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ताभ्यो ज्ञात्या प्रियंगुस्तत् कोपौकः कुपिता पौ। तदीपिसना ना वापि समालेमवादयत् ॥११॥ *उवृत्तः पुरुषसिंहः सामन्तस्तज्जयाय तत् । यास्यामीति सभामध्ये मायया चावदन्नृपः ॥१२॥ तच्च श्रुत्वा विश्वभूतिजुरेत्य वनात्ततः। भत्तया निवार्य राजानं प्रयाणमकरोत् स्वयम् ॥१३॥ गतश्च पुरुषसिंहं दृष्ट्वाऽऽज्ञावर्तिनं पुनः । ववले तत्र च ययौ बने पुष्पकरण्डके ॥१४॥ विशाखनन्दी मध्येऽस्तीत्युक्तो द्वाःस्थेन तत्र सः। अचिन्तयन्माययाऽहं कृष्टः पुष्पकरण्डकात् ॥१०॥ क्रद्धः कपित्थं मुष्टयाहंस्तत्फलैः पतितैर्भुवम् | छादितां दर्शयन् सोऽथ जगाद द्वारपालकम् ॥२६॥ पातयामि शिरांस्येवं सर्वेषां भवतां पुनः । ज्यायसि ज्यायसी ताते न चेद्भक्तिर्भवेन्मम ॥१७॥ भोगैरीग्वञ्चनाद्यैर्ममालमिति स ब्रुवन् । संभूतमुनिपादान्ते गत्वा व्रतमुपाददे ॥१८॥ तं च प्रवजितं श्रुत्वा राजा सावरजो ऽप्यगात् । नत्वा च क्षमयित्वा च राज्यायार्थयते स्म च ॥९॥ विश्वभूतिमनिच्छन्तं ज्ञात्वा भूपोऽगमद् गृहम् । ततो व्यहार्षीदन्यत्र स पुनर्गुरुणा सह ॥१०॥ स गुर्वनुज्ञयकाकिविहारेण तपःकृशः । विहरघ्नेकदागच्छन्नगरी मथुराभिधाम् ॥१०॥ तदा विशाखनन्द्यागादुद्वोढुं तन्नृपात्मजाम् । विश्वभूतिश्च मासान्ते पारणायाविशत्पुरीम् ॥१०२॥ * टि.- उद्धृतः। १ अपि C || २ यदि च D || ३ भूतिमु ), || ४ 'ऽभ्ययात् ॥ ५ भूयो ।
॥९॥
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प्रथमः सर्गः
विशाखनन्दिनः सोऽथ शिविराभ्यर्णमागतः। विश्वभूतिः कुमारोऽसावित्यदर्यत पूरुषैः ॥१०॥ विशाखनन्दी तं सद्यः प्रेक्ष्य द्विषमिवाकुपत् । गवैकया विश्वभूतिः पर्यस्तश्च सदाऽपतत् ॥१०॥ पित्थपातनं स्थाम क्वते चेत्यहसच्च सः। धृत्वा गां शंङ्गयोर्विश्वभृतिश्चाभ्रमयत्धा ॥१०५॥ भूयिष्ठवीर्यो भूयासं मृत्यवेऽस्य भवान्तरे । अनेन तपसोग्रेण निदानमिति सोऽकरोत् ॥१०६॥ संपूर्य कोटियर्षायुरनालोच्य च तन्मृतः। विश्वभूतिर्महाशुक्रे प्रकृष्टायुः मुरोऽभवत् ॥१०॥ इतश्चात्रैव भरते नगरे पोतनाभिधे । अभूद्रिपुप्रतिशत्रुनाम राजा महाभुजः ॥ १०८॥ तस्य भद्रेति पत्न्यासीत्तस्यां सूनुरजायत । चतुर्भिः सूचितः स्वप्नैबलभद्रोऽचलाभिधः ॥ १० ॥ मृगावतीति नाम्नाऽभूत् पुत्री च मृगलोचना । सोयौवना रूपवती प्रणन्तुं पितरं ययौ ॥ ११०॥ जातानुरागस्तां प्रेक्ष्य निजोत्संगे न्यवत्त सः । तत्पाणिग्रहणोपायं विचिन्त्य व्यसृजच नाम् ॥ १११ ।। पौरवृद्धानथाहृय पप्रच्छेदं महीपतिः । यदन जायते रत्नं तत्कस्य ब्रूत निर्णयम् ? ॥ ११२॥ तवेति ते समाचख्युस्त्रिरुपादाय तद्वचः । मृगावतीं परिणेतुं तत्र चानाययन्नृपः ॥ ११३ ॥ जग्मुस्ते लज्जिताः सर्वे पार्थिवोऽपि मृगावतीम् । गान्धर्वण विवाहेन स्वयमेव ह्युपायत ॥११४॥ लज्जाक्रोधाकुला भद्रा देवी मुक्त्वा महीपतिम् । सहाचलेन निर्गत्य प्रययौ दक्षिणापथे ॥ ११५ ॥ पुरी माहेश्वरी तन्त्र विरचय्याचलो नवाम् । मातरं तत्र संस्थाप्य जगाम पितुरन्तिके ॥ ११६ ।।
॥१०॥
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तत्पितापि स्वप्रजायाः पतित्वेनाखिलैर्जनैः । प्रजापतिरिति प्रोचे बलीयः कर्म नाम हि ॥ ११७ ॥ विश्वभूतिश्च्युतः शुक्रान्मृगावत्या अथोदरे । सप्तस्वमसमाख्यातविष्णुभावः समागमत् ॥ ११८ ॥ तया च काले सुषुचे सूनुः प्रथमशार्ङ्गभृत् । त्रिकरंडकपृष्ठत्वात् त्रिपृष्ठ इति संजितः ॥ ११ ॥ अशीतिधनुरुत्तुंगो रममाणोऽचलन सः। अधीतसकलकलः क्रमेण प्राप यौवनम् ॥ १२०॥ विशाखनन्दिजीवोऽथ भवं भ्रान्त्वा मृगाधिपः। जातस्तुंगगिरौ शंखपुरदेशमुपाद्रवत् ॥ १२१ ॥ नदानीमश्वग्रीवण भूभुजा प्रतिविष्णुना । मम मृत्युः कुत इति पृष्टो नैमित्तिकोऽवदत् ॥ १२२॥ हन्ता स ते चंडवेगं यो दृतं धर्षयिष्यति । मारयिष्यति यस्तुंगगिरिसिंहं च हेलया ॥ १२३ ॥ अश्वग्रीवस्ततः शंखपुरे शालीनवापयत् । तद्रक्षार्थ चादिदेश वारकेण महीपतीन् ॥ १२४ ॥ सोऽौवीश्च महावीयौँ पुत्री राज्ञः प्रजापतेः । तस्मै द्रुतं चंडवेगं प्रेषीत् 'चार्थेन केनचित् ॥ १२५ ॥ प्रजापतेः कारयतः संगीतं निजपर्षदि । अकस्मात्प्राविशचंडवेगः स्वामिबलोन्मदः ॥ १२६ ॥ आगमाध्ययनस्येयाकालविद्युत्समुद्गमः। स विनभूतो गीतस्याभ्युत्तस्थे तेन भूभुजा ॥ १२७ ॥ मंत्रिणश्च कुमाराभ्यां पृष्टा आख्यन् पुमानयम् । प्रधानभूतोऽश्वग्रीवमहाराजस्य दोषमतः ॥ १२८ ॥ यदा बजत्ययं दृतो ज्ञापनीयस्तदा हि नौ । इति स्वकीयानचलत्रिपृष्ठावूचतुर्नरान् ॥ १२ ॥ १ 'पुरे दे' ८ ॥ २ स्वार्थ ", " ॥
॥११॥
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प्रथमः सर्ग
स प्रजापतिनान्येद्युर्विसृष्टोऽभ्यर्य गौरवात् । ययौ कुमारयोराशु ज्ञापितश्च निजनरः ॥१३॥ गत्वा कुमारी मार्गाधै तमकूयतां भटैः । पलायंचक्रिरे सद्यस्तत्सहायास्तु काकवत् ॥१३१॥ तत्प्रजापतिना ज्ञात्वा भीतनानायिती गृह । सत्कृत्य चाधिक चंडवेग एवमभाष्यत ॥१३२॥ कुमारयोर्दुर्विनयं मा स्माख्यः स्वामिनः खलु । अज्ञानजाद् दुर्विनयान्न कुप्यन्ति महाशयाः॥१३॥ आमेत्युक्त्वा ययौ वृत'स्तत्पौंस्नात्त्वग्रतो गतात् । विदाञ्चकाराश्वग्रीवस्तद्धर्षणमशेषतः ॥१३॥ तद्विदं च हयग्रीवं ज्ञात्वा दूतो यथातथम् । स्वधर्षणं तदाचख्यायलीकाख्यानकातरः ॥१३०॥ अश्वग्रीवेण शिष्ट्वाऽन्यः प्रहितो ना प्रजापतिम् । गत्वावोचद्रक्ष सिंहाच्छालीनाज्ञा प्रभोरियम् ॥१३६॥ प्रजापतिः सुतायूचे युवाभ्यां कोपितः प्रभुः। प्रददौ यदवारेऽपि शासन सिंहरक्षणे ॥१७॥ इत्युत्वा प्रस्थितं भूपं कुमारी प्रतिषिध्य तौ । प्रजग्मतुः शंखपुरं सिंहयुद्धसकौतुकौ ॥१३८॥ अन्येऽरक्षन्नुपाः सिंहं कथंकारं कियच्चिरम् । इति पृष्टस्त्रिपृष्ठेन शशंसुः शालिगोपकाः ॥१३॥ चतुरंगचमूवमं कृत्वाऽरक्षन क्षमाभुजः । अ शालिग्रहणमहो वर्षवारक्रमागताः ॥१४॥ ऊचे त्रिपृष्ठस्तानेवं स्थास्यतीयच्चिरं हि कः । तदर्शयत मे सिंहं यथैकाकी निहन्मि तम् ॥१४॥ ततस्तेऽदर्शयन् सिंहं तुंगाचलगुहागतम् । जग्मतुश्च रथारूढी तां गुदा रामशाह्मणौ ॥ १४२ ॥
टि.-
तस्य चंढवेगस्व पुरुषसमूदात्
॥१२॥
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चक्रुः कलकलं चोश्चैस्तद्गुहापार्श्वयोर्जनाः । तं श्रुत्वा निर्थयौ जम्मादोर्णवस कसरी ।। १४३ ॥ रथिकोऽहमसौ पत्तिरित्याजिन समाऽऽवयोः । इति त्रिपृष्ठः फलकासिधरोऽवातरद्रयात् ॥ १४४ ॥ दंष्ट्राकरजशस्त्रोऽयं फलकासिधरस्त्वहम् । तदप्युचितमिति चर्मासी व्यमुचदरिः ।। १४५॥ तत्प्रेक्ष्य केसरी जातजातिस्मृतिचिन्तयत्। एक धाष्टर्यमहो एको यदागान्मदगुहामसी ।। १४६॥ अन्यद्रथादुत्तरणं तृतीयं शस्त्रमोचनम् । दुर्मदं तन्निहन्म्येष मदान्धमिव सिन्धुरम् ॥ १४७ ॥ विचिन्त्यैवं क्षणं च्यात्ताननः पञ्चाननाग्रणीः। दत्वा फालामत्पपातोपत्रिपाटं पपात च ॥१४८ ॥ एकेन पाणिनोोष्ठमपरेणाधरं पुनः । धृत्वा त्रिपृष्ठस्तं सिंहं जीर्णवस्त्रमियादृणात् ।। १४९ ॥ पुष्पाभरणवस्त्राणि ववृषदेवता हरी। लोकाश्च विस्मयस्मेराः साध साध्विति तपटवः ॥ १० ॥ अहो कथमनेनाहं कुमारेणाद्य मारितः । इत्यमर्षात् स्फुरस्तस्थौ द्विधाभूतोऽपि केसरी ॥ १५१ ॥ गणभृगौतमजीवोऽन्त्याहजीवस्य शाङ्गिणः । तदानीं सारथिः सिंहं तं स्फुरन्तमदोऽवदत् ॥१५२ ।। तृष्वेष सिंहः पशुपु त्वं तु तन्मारितोऽमुना । मुधाऽपमानं किं धत्से न हीनेन हतोऽसि यत् ॥ १५३ ॥ सुधयेव तया वाचा प्रीतो मृत्वा स केसरी । चतुर्थ्यां नरकावन्यां नारकः समजायत ॥ १५४ ॥ तधर्मादाय कुमारी चलितौ स्वपुरं प्रति । ग्राम्यानित्यूचतुर्वाजिग्रीवस्यैतद्धि कथ्यताम् ॥ १५५ ॥ शालीन खाद यथेष्टं त्वं विश्वस्तस्तिष्ठ संप्रति । असौ हृदयशल्यं ते केसरी यन्निपातितः ॥ १५६ ॥
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प्रथमः सर
इत्युक्त्वा पोतनपुरे तो कुमारावुपेयतुः । ग्रामीणास्तेऽपि गत्वाऽऽख्यन् हयग्रीवस्य तत्तथा ॥ १५७ ॥ हयग्रीवोऽपि साशंको जिघांसुर्माययापि तौ । अनुशिष्यादिशद वृत्त प्रजापतिष भति ॥ १५८ ॥ गत्वा स दूतस्तं स्माहोपस्वामि प्रेषयात्मजौ । राज्यं यदनयोः स्वामी प्रदास्यति पृथक् पृथक् ॥ १५९ ।। प्रजापतिर्बभाषेऽहं यास्यामि स्वामिनं स्वयम् । कृतं मम कुमाराभ्यां गताभ्यां तत्र सुन्दर ! ॥ १६० ॥ इतो भूयोऽवदत्पुत्रौ न चेत्त्वं प्रेषयिष्यसि । तत्सब्जीभय युद्धाय मा वादीः कधितं न यत् ॥ १६१॥ इत्युक्तवन्तं तं दृतं तौ कुमारावमर्षणौ । धर्षयित्वा निजपुरान्निरवासयतां क्षणात् ।। १६२ ॥ दृतो गत्वा सवाघख्यो हयग्रीवाय वर्षणम् । हयग्रीवोऽपि कोपेन हुताशन इवाज्वलत् ॥ १६३ ॥ हयग्रीयः ससैन्योऽपि त्रिपृष्ठश्चाचलोऽपि च । युयुत्सवः समभ्येयू रथावर्तमहागिरौ ॥ १६४ ॥ मिथो युयुधिरे सैन्याः पक्षयोरुभयोरपि । सांवर्तिका इवाम्भोदा आस्फलन्तः परस्परम् ॥ १६५॥ क्षीणक्षीणेषु सैन्येषु सैन्ययुद्धं निषिध्य तौ । अश्वग्रीवत्रिपृष्ठश्चायुध्येतां रथिनौ स्वयम् ॥ १६ ॥ मोघीकृतास्त्रोऽश्वग्रीवोऽरिग्रीवोच्छेदलम्पटम् । त्रिपृष्ठायामुचचक्रं हाहाकारिजनेक्षितम् ॥ १६७ ।। त्रिपृष्ठोरःस्थले चक्रं तुम्बेन निपपात तत् । शरभो रभसोभ्रान्त इव पर्वतसानुनि ॥ १६८ ।। वीरप्रष्ठस्त्रिपृष्ठोऽय तेन चक्रेण लीलया । चकर्त हयकंटस्य कंठमभोजनालवत् ॥ १६॥ अचलश्च त्रिपृष्ठश्च प्रथमो हलिशार्जिणौ । इत्याघोषि सुरैव्योंनि पुष्पवृष्टिपुरस्सरम् ॥ १७ ॥
॥१४||
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तयोः सर्वेऽपि राजानः सद्योऽपि प्रणतिं ययुः । ताभ्यां चासाधि भरतक्षेत्रयाम्यार्धमोजसा ॥ १७१ ॥ शिलां कोटिशिलां दोष्णोत्पाट्य मूर्ध्यातपद्मवत् । प्रथमः पुंडरीकाक्षो धारयामास लीलया ॥ १७२ ॥ विक्रमाक्रान्तभूचक्रः स पोतनपुरं ययौ । अभिषिक्तश्चार्धचक्रिपदे देवैर्नृपैरपि ॥ १७३ ॥
द्रनं दूरतोsपि पृष्टं तत्तदाश्रयत् । रत्नीभूता गायनेषु तमेयुः केऽपि सुस्वराः ॥ १७४ ॥ एकदा तेषु गायत्सु शय्यापाल हरिर्निशि । ऊचे मयि शयाने मी विस्रष्टव्यास्त्वया खलु ॥ १७५ ॥ आमेत्यूचे तपपाल आगानिद्रा व शार्ङ्गिणः । नहीतलुब्धो व्यस्राक्षीद्गायनान् सोऽपि तान्न हि ॥ १७६ ।। तेषु गात्सु चत्तस्थौ विष्णुरूचे च ताल्पिकम् । स्वया विसृष्टाः किं नामी सोऽप्यूचे गीनलो भतः ॥ १७७॥ तच्छ्रुत्वा कुपितो विष्णुः प्रभाते तस्य कर्णयोः । अक्षेपयत्रषु तप्तं शय्या पालो मृत सः ॥ १७८ ॥ त्रिपृष्ठः कर्मणा तेन वेद्यं कर्म न्यकाचयत् । प्रभुत्वादन्यदप्युग्रं कर्माऽचनाद् दुरायति ॥ १७९ ॥ अहिंसादिष्वरित महारम्भपरिग्रहः । चतुरशीत्यब्दलक्षी प्राजापत्योऽत्यवायत् ।। १८० ।। मृत्वा च सप्तमायन्यामुदपद्यत नारकः । तद्वियोगात्मत्रजितोऽवलो मृत्वा शिवं ययौ ॥ १८९ ॥ त्रिपृष्टजीवो नरकादुद्धृत्याऽजनि केसरी । केसर्यपि विपन्नः संञ्चतुर्थं नरकं ययौ ॥ १८२ ॥ सोऽथ तिर्यमनुष्यादिभवान् बभ्राम भूरिशः । लब्ध्वा च मानुषं जन्म शुभं कर्मैकदाऽऽजयत् ॥ १८३ ॥ ततोsपरविदेहेषु मूकायां पुरि भूपतेः । धनंजयस्य धारिण्याः पत्न्याः कुक्षाववातरत् ॥ १८४ ॥
I
॥१५॥
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प्रथमः स
चतुर्दशमहास्वप्नाख्यातचक्रधरकिः । काले तया च सुषुवे सूनुः संपूर्णलक्षणः ॥ १८ ॥ मियमित्र इति नाम पितरौ तस्य चक्रतुः । पिम्रोमनोरथैः सार्ध क्रमेण यथधे च सः ॥ १८६ ।। अथ संसारनिर्विण्णो धनञ्जयमहीपतिः। प्रियमित्रं सुतं राज्ये निधाय व्रतमाददे ॥ १८७॥ प्रियामिव भुवं पातुः प्रियमित्रस्य भूपतेः । चतुर्दश महारत्नान्युदपद्यन्त च क्रमात् ॥ १८८ ।। षट्खंडं विजयं जेतुं चक्रमार्गानुगोऽचलत् । गत्वा च पूर्वाभिमुखं मागधं तीर्थमासदत् ॥ १८ ॥ कृत्वाऽष्टमतपस्तत्र चतुरङ्गचमूवृतः । चतुर्थान्ते रथारूढः किश्चिद्गत्वाऽग्रहीद्धनुः ॥ १९॥ मागधतीर्थकुमारं समुद्दिश्य महाभुजः। कंकपनं स्वनामांकं गरुत्मन्तमिवाक्षिपत् ॥ १९१ ॥ योजनानि द्वादशेषः स लंधित्वा विहायसा । परो मागधदेवस्य पपातोत्पातवजवत ।।१०२ ।। बाणो मुमूर्षुणा केन क्षिप्त इत्यभिचिन्तयन् । मागधेशो रुषोत्थाय तं जग्राह शिलीमुखम् ॥ १० ॥ चक्रिनामाक्षरश्रेणी वीक्ष्य शान्तीभवन क्षणात् । उपायनान्युपादाय प्रियमित्रं स आययौ ॥ १९४॥ आज्ञाधरस्तवास्मीति जल्पन व्योमस्थितो नृपम् । पूजयामास विविधोपायनैः स उपायवित् ॥ ११५ ॥ ते सत्कृत्य विसृज्याय वलित्वा पारणं व्यधात् । चक्री मागधदेवस्य चक्रे चाष्टाह्निकोत्सवम् ॥ १९६ ।। ततो जगाम याम्यायां कर्कस्थित इवार्यमा । वरदामानममरं नृपः माग्वदसाधयत् ॥ १२७ ॥ गत्वा प्रतीच्यां प्रभासतीर्थशमपि चक्रभृत् । विधिना साधयामास प्रति सिन्धुं जगाम च ॥ १९८ ॥
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कृताष्टमस्य प्रत्यक्षीभूय सिन्धुर्महीपतेः । रनभद्रासने दिव्य प्रददौ भूषणानि च ॥ १९९ ॥ तां विसृज्य स वैताख्यं चक्ररत्नानुगो ययौ । वैताख्याद्रिकुमारं चासाधयद्विहिसाष्टमः ॥ २०० ॥ गतस्याभितमिस्र चाष्टमस्थस्य महीपतेः । कृतमालः स्त्रीरत्नाईमन्यच्चाभरणं ददौ ॥ २०१॥ उत्तीर्य चर्मणा सिन्धुं सेनानीश्चक्रिशासनात् । लीलया साधयामास सिन्धोः प्रथमनिष्कुटम् ॥ २०२॥ भूयोऽप्यभ्येत्य सेनानीः प्रियमित्रस्य शासनात् । कृताष्टमो दंडघातात्तमिस्रामुदघाटयत् ॥ २०३ ॥ चक्रयारूदो गजरत्नं तत्कुंभे न्यस्य दक्षिणे । मणिरत्नं प्रकाशाय तमिस्रां प्रायिशद् गुहाम् ॥ २०४॥ काकिण्या मंडलान्यर्कमंडलाभानि पार्श्वयोः । लिखन् गुहायां द्योताय चक्री चक्रानुगो ययौ ॥ २०५॥ पद्ययोन्मग्नानिमग्ने नद्यो तीमहीपतिः । स्वयमुद्धटितेनोदग्द्वारेण निरयादिरेः ॥ २०६॥ आपातनानः किरातानजेषीत्तत्र चक्रभृत् । असाधयच्च सेनान्या द्वितीय सिंधुनिष्कुटम् ॥ २०७॥ चक्रानुगो निवृत्याय भूपो वैताट्यमभ्यगात् । वशीचक्रे द्वयोः श्रेण्योस्तत्र विद्याधरांश्च सः ॥ २०८ ॥ साधयित्वा स सेनान्या गांगं प्रथमनिष्कुटम् । स्वयमष्टमभक्तेन गंगादेवीमसाधयत् ॥ २०९॥ खंडमपातया सेनान्युद्धाटितकपाटया। वैताख्यार्निर्जगाम ससैन्योऽपि महीपतिः ॥ २१०॥ अथाष्टमतपःस्थस्य प्रियमित्रस्य चक्रिणः। नवापि निधयोऽभूवनैसर्पाद्या वशंवदाः ॥ २११ ॥ २ 'रगा C॥ २ भूयो C॥
॥१७
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| प्रथम: सर
MVW
H YLMM/VikaMAVM-4H----
सेनान्या साधयित्वा च द्वितीयं गांगनिष्कुटम् । जितषखंडविजयश्चक्री मूकां पुरीं ययौ ॥२१॥ चक्रभृत्त्वाभिषेकोऽस्य पके द्वादशवार्षिकः । अमरैवरैश्चापि महोत्सवपुरःसरम् ॥ २१ ॥ नीत्या पालयतस्तस्य पृथिवीं पृथिवीपतेः। एकदा पोटिलाचार्य उद्याने समवासरत् ।। २१४ ॥ धर्म तदन्तिके श्रुत्वा राज्ये न्यस्य स्वमात्मजम् । स प्रवनाज तेपे च वर्षकोटीं तपः परम् ॥ २१५ ॥ पूर्वलक्षचतुरशीत्यायुः संन्यासपूर्वकम् । मृत्वा शुक्र स सदाविमान निदशोऽभवत् ॥ २१६ ॥ कयुत्वेह भरते छत्रायां पुर्या जितशत्रुतः। भद्रादेव्यां सोऽजनिष्ट नन्दनो नाम नन्दनः ॥ २१७॥ तं न्यस्योयौवनं राज्ये जितशत्रुर्महीपतिः। संसारवासनिर्विषणः परिव्रज्यामुपाददे ॥ २१८ ॥ लोकानां हृदयानन्दो नन्दनोऽपि वसुन्धराम् । यथाविधि शशासनां पाकशासनशासनः ॥ २१९॥ चतुर्विशत्यदलक्षी जन्मतोऽतीत्य नन्दनः । विरक्तः पोटिलाचार्यसमीपे व्रतमावदे ॥ २२०॥ मासोपवासः सततैः श्रामण्यं स प्रकर्षयन् । व्यहार्षीद गुरुणा सार्धं ग्रामाकरपुरादिषु ॥ २२१ ।। उभाभ्यामपध्यानाभ्यां बन्धनाभ्यां च वर्जितः। त्रिभिर्दडैौरवैश्व शल्यैश्च रहितः सदा ॥ २२२ ।। पक्षीणचतुष्कषायश्चतुःसंज्ञाविवर्जितः। चतुर्विकथारहितश्चतुर्धर्मपरायणः ॥२२३॥ चतुर्विधैरुपसर्गरपरिस्खलितोद्यमः । व्रतेषु पञ्चसूद्युक्तो द्वेषी कामेषु पञ्चसु ॥ २२४ ॥ पञ्चप्रकारस्वाध्यायप्रसक्तः प्रतिवासरम् । विभ्राणः समितीः पञ्च जेता पञ्चन्द्रियाणि च ॥ २२५ ॥
NCERXXXAM CACAXARAK
॥१दा
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षड्जीवनिकायनाता सप्तमीस्थानवर्जितः। विमुक्ताष्टमदस्थानः स नवब्रह्मगुप्तिकः ॥ २२६ ॥ दधदशविधं धर्म सम्यगेकादशाङ्गभृत् । तपो द्वादशधा कुर्वन् द्वादशप्रतिमारुचिः ॥ २२७॥ दुःसहामपि सहिष्णुः परीषहपरंपराम् । निरीहो नन्दनमुनिवर्षलक्षं तपोऽकरोत् ॥ २२८ ॥
॥सप्तभिः कुलकम् ॥ अर्हद्भक्त्यादिभिः स्थानविशत्यापि महातपाः । दुरर्जमर्जयामास तीर्थकृन्नामकर्म सः ॥२२९॥ स निष्कलंक श्रामण्यं चरित्वा भूलतोऽपि हि । आयुःपर्यन्तसमये व्यधादाराधनामिति ॥ २३० ॥ ज्ञानाचारोऽष्टया प्रोक्तो यः कालविनयादिकः । तत्र मे कोऽप्यतीचारो योऽभून्निन्दामि तं त्रिधा ॥२३॥ यः प्रोक्तो दर्शनाचारोऽष्टधा निःशंकिताविकः । तत्र मे योऽतिचारोऽभूत्रिधापि व्युत्सृजामि तम् ॥२३२॥ या कृता प्राणिनां हिंसा सूक्ष्मा पा पावरापि वा। मोहाद्वा लोभतो वापि व्युत्सृजामि त्रिधापि ताम् २३३ हास्यभीलोभक्रोधाधैर्यन्मृषा भाषितं मया। तत्सर्वमपि निन्दामि प्रायश्चित्तं चरामि च ॥ २३४॥ अल्प भूरि च यत्क्वापि परद्रव्यमदत्तकम् । आत्तं रागादथ द्वेषात्तत्सर्व व्यत्सृजाम्यहम् ॥ २३६ ॥ तैरश्चं मानुषं दिव्यं मैथुनं मयका पुरा । यत्कृतं त्रिविधेनापि त्रिविधं व्युत्सृजामि तत् ।। २३६ ॥ . बहुधा यो धनधान्यपश्वादीनां परिग्रहः । लोभदोषान्मयाऽकारि व्युत्सृजामि त्रिधापि तम् ॥ २३७॥
॥१९
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पुत्रे कल मित्रे च बन्धौ धान्ये धने गृहे । अन्येष्वपि ममत्वं यत्तत्सर्वं व्युत्सृजाम्यहम् ॥ २३८ ॥ इन्द्रियैरभिभूतेन य आहारचतुर्विधः । मया रात्रावृपाभोज निन्दामि तमपि त्रिधा ॥ २३९ ।। arat मानो माया लोभो रागो द्वेषः कलिस्तथा । पैशून्यं परनिर्वादोऽभ्याख्यानमपरं च यत् ॥ २४० ॥ वारियारविषयं बुलाया। तदहं त्रिविधेनापि व्युत्सृजामि समन्ततः ॥ २४१ ॥ यस्तपःस्पति चारोऽभूद्वायेष्वाभ्यन्तरेषु च । त्रिविधं त्रिविधेनापि निन्दामि तमहं खलु ॥ २४२ ॥ धर्मानुष्ठानविषये यद्वीर्यं गोपितं मया । वीर्याचारातिचारं च निन्दामि तमपि त्रिधा ॥ २४३ ॥ हतो दुरुक्तश्च मया यो यस्याsहारि किञ्चन । यस्याऽपाकारि किंचिद्वा मम क्षाम्यतु सोऽखिलः ॥ २४४ ॥ यत्र मित्रममित्रो वा स्वजनोऽरिजनोऽपि वा । सर्वः क्षम्यतु मे सर्वं सर्वेष्वपि समोऽस्म्यहम् ॥ २४५ ॥ तिर्यक्त्वे सति तिर्यञ्चो नारकत्वे च नारकाः । अमरा अमरत्वे च मानुषत्वे च मानुषाः ॥ २४६ ॥ ये मया स्थापित दुःखे सर्वे क्षाम्यन्तु ते मम । क्षाम्याम्यहमपि तेषां मैत्री सर्वेषु मे खलु ॥ २४७ ॥ जीवितं यौवनं लक्ष्मीः रूपं प्रियसमागमः । चलं सर्वमिदं वात्यानर्तितान्त्रितरंगवत् ॥ २४८ ॥ व्याधिजन्मजरामृत्युग्रस्तानां प्राणिनामिह । विना जिनोदितं धर्मं शरणं कोऽपि नापरः ॥ २४९ ॥ सर्वेऽपि जीवाः स्वजना जाताः परजनाश्च ते । विदधीत प्रतिबन्धं तेषु को हि मनागपि ॥ २५० ॥ एक उत्पद्यते जन्तुरेक एव विपद्यते । सुखान्यनुभवत्येको दुःखान्यपि स एव हि ॥ २२९ ॥
प्रथमः
॥२०
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अन्यद्वपुरिदं तावदन्यद्वान्यधनादिकम् । बन्धवोऽन्येऽन्यश्च जीवो वृथा मुह्यति बालिशः ॥ २५२ ॥ वारुधिरमांसास्थिय कृद्विण्मूत्रपूरिते । वपुष्यशुचिनिलये मूर्च्छा कुर्वीत कः सुधीः ॥ २५३ ॥ अवक्रयात्तवेश्मेव मोक्तव्यमचिरादपि । लालितं पालितं वाऽपि विनश्वरमिदं वपुः || २५४ ॥ धीरेण कातरेणापि मर्तव्यं खलु देहिना । तन्त्रियेत तथा धीमान्न म्रियेत यथा पुनः ।। २५५ ॥ अर्हन्तो मम शरणं शरणं सिद्धसाध्यः । उदीरितः केवलिभिर्धर्मः शरणमुच्चकैः ॥ २५६ ॥ जिन मम माता गुरुरुतातोऽथ सोदराः । साधवः साधर्मिकाश्च बन्धवोऽन्यत्तु जालवत् ॥ २२७ ॥ ऋषभादींस्तीर्थकरान्नमस्याम्यखिलानपि । भरतैरावतविदेहातोऽपि नमाम्यहम् ॥ २५८ ॥ Arya नमस्कारो देहभाजां भवच्छिदे । भवति क्रियमाणः स बोधिलाभाय चोचकैः ॥ २५९ ॥ सिद्धेभ्यश्च नमस्कारं भगवद्भयः करोम्यहम् । कर्मैधोऽदाहि यैर्ध्यानाग्निना भवसहस्रजम् ॥ २६० ॥ आचार्येभ्यः पञ्चविधाचारेभ्यश्च नमो नमः । यैर्धार्यते प्रवचनं भवच्छेदे सदोद्यतैः ॥ २६१ ॥
तं विभ्रति सर्व शिष्येभ्यो व्याहरन्ति च । नमस्तेभ्यो महात्मभ्य उपाध्यायेभ्य उच्चकैः ॥ २६२ ॥ शीलव्रतसनाथेभ्यः साधुभ्यश्च नमो नमः । भवलक्षसन्निबद्धं पापं निर्नाशयन्ति ये ॥ २६३ ॥ सावयं योगमुपधिं श्राह्यमाभ्यन्तरं तथा । यावज्जीवं त्रिविधेन त्रिविधं व्युत्सृजाम्यहम् || २६४ ||
॥२१॥
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प्रथमः स
'चतुर्विधाहारमपि यावजीवं त्यजाम्यहम् । उच्छ्वासे चरमे देहमपि हि व्युत्सृजाम्यहम् ॥ २६५ ।। दुष्कर्मगर्हणां जन्तुक्षमणां भावनापि । चतु:शरणं च नमस्कारं चानशनं नथा ।। २६६ ॥ एवमाराधनां षोढा स कृत्वा नन्दनो मुनिः । धर्मानार्यानक्षगगन साधनहानीश्च सर्वतः ।। २२७ ॥ षष्टिं दिनान्यनशनं पालयित्वा समाहितः । पञ्चविंशत्यदलक्षपूर्णायुः सोऽममो मृतः ॥ २६८ ॥ अथाधिप्राणतं पुप्पोत्तरनामनि विस्तृते । विमाने स उपपदे शय्यायानुदपद्यत ॥ २६९॥ अन्तर्मुहर्तानिष्पन्नः स तु देवो महर्द्धिकः । अपनीय देवदृष्यमुपविष्टो त्र्यलोकयत् ॥ २७० ॥ विमानं देवसंपातं देवर्द्धिं च विलोक्य ताम् । दध्यौ स विस्मितः प्राप्त केनेदं तपसा मया || २७१ ॥ सोऽपश्यच्चावधेः पूर्वभवं तच्च व्रतावनम् । अहो प्रभावोऽईद्धर्मस्येति चेतस्यचिन्तयत् ॥ २७२ ॥ अत्रान्तरे सुराः सर्व तमुत्पन्नं सुरोत्तमम् । संभूय श्रद्धाञ्जलयो जगदुर्मुदिता इति ॥ २७३ ॥ स्वामिञ्जय जगनंद जगद्भद्र चिरं जय । त्वं नः स्वामी जितं त्रायस्याजितं विजयस्व च ॥ २७४ ।। इदं विमानं भवतो वयमाज्ञाकराः सुराः । अमून्युपवनान्युच्चैरभूर्मजनवापयः ।। २७५ ॥ इदं च सिद्धायतनं सुधर्मेयं महासभा । मज्जनौकोऽलंकुरुष्वाभिषेक कुर्महे यथा ॥ २७६ ।। १ नास्ति ८ प्रती अयं लोकः ।। टि.- ब्रितपालनम् ।
॥रा
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एवं तैरमरैरुक्तः स गत्वा मज्जनौकसि । सिंहासने सांघ्रिपीठे निषसादामराग्रणीः || २७७ || दिव्येन पयसा तत्राभिषिक्तः कुंभपाणिभिः । निन्ये च किंकरसुरैः सोऽलंकार निकेतनम् || २७८ ॥ देवदृष्ये न्यधागे वाससी राज सोऽमरः । अंगरागं भूषणानि किरो:प्रभृतीनि च ॥ २७९ ॥ व्यवसायसभां गत्वाऽवाचयत्पुस्तकं च सः । पुष्पादिपूजामादाय सिद्धालय मियाय च ॥ २८० ॥ अष्टोत्तरात्प्रतिमाशतं स्वपयति स्म सः । आनर्च च ववन्दे च तुष्टाव च समाहितः ॥ २८९ ॥ गत्वा सुधर्मामास्थानी संगीतकमकारयत् । विमाने तत्र भोगांश्च भुञ्जानोऽस्थायथारुचि ॥ २८२ ॥ कल्याणकेवर्हतां स विदेहादिषु भूमिषु । अगाजिनान् ववन्दे च सम्यकत्वगुणभूषणः || २८३ || आयुर्विंशतिसागरोपममितं सोऽपूरि देवाग्रणीः, पर्यन्तेऽपि विशेषतः प्रतिकलं देदीप्यमानः श्रिया । मुयन्ति परे त्रिविष्टपसदः षण्मासशेषायुषः, काप्युच्चैर्न तु तीर्थकृद्दिविषदोऽत्यासन्नपुण्योदयाः ॥ २८४॥ इत्याचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये दशमे पर्वणि श्रीमहावीरपूर्वभव वर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ॥
१ "बीरचरिते पू 1),
॥२३॥
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॥ अथ द्वितीयः सर्गः ॥
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इतश्च जंबूद्वीपेऽस्मिन् क्षेत्रेऽस्ति भरताभिये । ब्राह्मणकुंडग्रामाख्यसंनिवेशो द्विजन्मनाम् ॥ १ ॥ तंत्र वर्षमदत्तोऽभूत् कौडालसकुलो द्विजः । देवानन्दा च तद्भार्या जालन्धरकुलोद्भवा ॥ २ ॥ च्युत्वा च नन्दनो हस्तोत्तरर्क्षस्थे निशाकरे । आषाढस्य श्वेतषष्ट्यां तस्याः कुक्षाववातरत् ॥ ३ ॥ देवानन्दा सुखसुप्ता महास्वमांश्चतुर्दश । ददर्श प्रातराख्यच पत्ये सोऽपि व्यचारयत् ॥ ४ ॥ age छन्दसां पारवा परमनैष्ठिकः । सूनुर्भवत्या भविता स्वतैरेभिर्न संशयः ॥ ५ ॥ देवानन्दा गर्भगते प्रभौ तस्य द्विजन्मनः । बभूव महती ऋद्धिः कल्पद्रुम इवागते ॥ ६ ॥ तस्या गर्भस्थिते नाथे यशीतिदिवसात्यये । सौधर्मकल्पाधिपतेः सिंहासनमकंपत || ७ | चावधिना देवानन्दागर्भगतं प्रभुम् । सिंहासनात् समुत्थाय शक्रो नत्वेत्यचिन्तयत् ॥ ८ ॥ 3 त्रिजगद्गुरवोऽर्हन्तो नोत्पद्यन्ते कदाचन । तुच्छकुले रोरकुले भिक्षावृत्तिकुलेऽपि वा ॥ ९ ॥
१ यः CD ॥ २ कोडा CD ॥
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द्वितीयः स
॥२४||
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इक्ष्वाकुवंशप्रभृतिक्षत्रवंशेषु किं त्वमी । जायन्ते पुरुषसिंहा मुक्ताः शुक्त्यादिकेष्विव ॥१०॥ तदसंगतमापनं जन्म नीचकुले प्रभोः । प्राच्य कर्मान्यथा कर्तुं यद्वार्हन्तोऽपि नेशते ॥ ११ ॥ मरीचिजन्मनि कुलमदं नाथेन कुर्वता । अर्जितं नीचकैर्गोत्रकर्माद्यापि युपस्थितम् ॥ १२ ॥ कर्मवशानीचकुलेषूत्पन्नानहतोऽन्यतः । क्षेप्तुं महाकुलेऽस्माकमधिकारोऽस्ति सर्वदा ॥१३॥ कोऽधुनास्ति महावंश्यो राजा राज़ी च भारते । यत्र संचार्यते स्वामी कुन्दाद् भुंग इवांबुजे ॥१४॥ ज्ञातमस्तीह भरते महीमंडलमंडनम् । क्षत्रियकुंडग्रामाख्यं पुरं मत्पुरसोदरम् ॥ १५ ॥ स्थानं विविधचैत्यानां धर्मस्य निबन्धनम् । अन्यायैरपरिस्पृष्टं पवित्रं तच साधुभिः ।। १६॥ मृगयामद्यपानादिव्यसनाऽस्पृष्टनागरम् । तदेव भरतक्षेत्रपावन तीर्थवद् भुवः ॥ १७ ॥ तत्रैवाको ज्ञातवंश्यः सिद्धार्थोऽस्ति महीपतिः । धर्मेणैव हि सिद्धार्थ सदाऽऽत्मानमर्मस्त यः॥१८॥ जीवाजीवादितत्त्वज्ञो न्यायवर्तीमहाध्वगः । प्रजाः पथि स्थापयिता हितकामी पितेव सः॥१९॥ दीनानाथादिलोकानां समुद्धरणबान्धवः । शरण्यः शरणेच्छूनां स क्षत्रियशिरोमणिः ।। २० ॥ तस्यास्ति त्रिशला नाम सतीजनमतल्लिका । पुण्यभूरग्रमहिषी महनीयगुणाकृतिः॥ २१ ॥ निसर्गतो निर्मलया तत्तद्गुणतरंगया । तया पवित्र्यते धात्री मन्दाकिन्येव संप्रति ॥ २२ ॥
॥२५॥
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द्वितीयः
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मायया स्त्रीजन्मसहचारिण्याप्यकलंकिता । सा निसर्गऋजुर्देवी मुगृहीताभिधा मुधि ॥ २३ ॥ सा चास्ति सांप्रतं गुर्वी कार्यः संचारणाद् द्रुतम् । तस्या देवानन्दायाश्च गर्भयोर्व्यत्ययो मया ॥ २४ ॥ विमृश्यैवं शतमखः समाय झगित्यपि । आदिदेश तथा कर्तुं सेनान्यं नैगमेषिणम् ॥ २० ॥ विदधे नैगमेषी च तथैव स्वामिशासनम् । देवानन्दानिशलयोर्गर्भव्यत्ययलक्षणम् ॥ २६॥ देवानन्दा ब्राह्मणी सा शयिता पूर्ववीक्षितान् । मुखान्निःसरलोऽद्राक्षीन्महास्वमांश्चतुर्दश ।। २७ ॥ उत्थाय वक्ष आनाना निःस्थामा ज्वरजर्जरा । केनापि जरे में गर्भ इति चुक्रोश सा चिरम् ॥ २८ ॥ कृष्णाश्चिनत्रयोदश्यां चन्द्र स्तोतरास्थिते ! म देवस्त्रिशलाग. स्वामिनं निभृतं न्यधात् ॥ २९ ॥ गजो वृषो हरिः साभिषेकश्रीः स्रक् शशी रविः। महाध्वजः पूर्णकुंभः पद्मसरः सरित्पतिः ॥ ३०॥ विमान रनपुंजश्च निधूमोऽग्निरिति क्रमात् । ददर्श स्वामिनी स्वप्नान्मुखे प्रविशतस्तदा ॥ ३१ ॥ इन्द्रैः पत्या च तज्ज्ञैश्च तीर्थवजन्मलक्षणे । उदीरिते स्वमफले त्रिशला देव्यमोदत ॥ ३२॥ दधार त्रिशलादेवी मुदिता गर्भमद्भुतम् । अप्रमत्त विहरन्ती लीलासदनभूष्वपि ॥ ३३ ॥ गर्भस्थेऽथ प्रभो शकाऽऽजया जुंभकनाकिनः। भूयो भूयो निधानानि न्यधुः सिद्धार्थवेश्मनि ॥ ३४ ॥ सर्व ज्ञातकुलं भूरिधनधान्याविऋद्धिभिः। गर्भावतीर्णभगवत्प्रभावावृधेतराम् ॥ ३५ ॥ १-२ नेग । २ व्य ८ ॥
ዘኛ፡
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सिद्धार्थस्यापि नृपतेर्दर्पादप्रणताः पुरा । प्रणेमुर्भूभुजोऽभ्येत्य स्वयं प्राभृतपाणयः ॥ ३६ ॥ अयि पदमा तु वेदना हम नूत् । इत्यस्थान्निभृतः स्वामी गर्भवासेऽपि योगिवत् ॥ ३७ ॥ स्वामी संवृतसर्वांग व्यापारोऽस्थात्तथोदरे । नालक्ष्यत यथा मात्राप्यन्तस्तिष्ठति वा न वा । ३८ ॥ तदा च त्रिशला दध्यौ किं गर्भ गलितो मम । केनाप्यपहृतः किं वा विनष्टस्तंभितोऽथवा ॥ ३९ ॥ यदपि सञ्जातं तदलं जीवितेन मे । सयं हि मृत्युजं दुःखं गर्भभ्रंशभवं न तु ॥ ४० ॥ इत्यार्त्तध्यान भाग्देवी रुदती लुलितालका । त्यक्तांगरागा हस्ताब्जविन्यस्तमुखपंकजा ॥ ४१ ॥ त्यक्ताभरणसंभारा निःश्वासविधुराधरा । सखीष्वपि हि तृष्णीका नाशेत बुभुजे न च ॥ ४२ ॥ तत्तु विज्ञाय सिद्धार्थमहीपतिरखिद्यत् । तत्पुत्र भांडे व नन्दिवर्धनोऽथ सुदर्शना ॥ ४३ ॥ पित्रोर्विज्ञाय तद् दुःखं ज्ञानत्रयत्रः प्रभुः । अंगुलिं चालयामास गर्भज्ञापनहेतवे ॥ ४४ ॥
तएवेति ज्ञात्वा स्वामिन्यमोदत । अमोदयच्च सिद्धार्थ गर्भस्पन्दनशंसनात् ॥ ४२ ॥ अचिन्तयच भगवान्मय्यदृष्टेऽपि कोऽप्यहो । मातापित्रोर्महान् स्नेहो जो तोरनयोर्यदि ॥ ४६ ॥ प्रवजिष्याम्यहं स्नेहमोहादेतां तदा ध्रुवम् । आर्तध्यानगतौ कर्माशुभं वर्जयिष्यतः ॥ ४७ ॥ युग्मम् ) अथैवं सप्तमे मासि जग्राहाभिग्रहं प्रभुः । उपादास्ये परिव्रज्यां न पित्रोर्जीवतोरहम् ॥ ४८ ॥
॥२७
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दिक्षु प्रसना स्वोश्वस्थेषु ग्रहेषु च । प्रदक्षिणेऽनुकूले भूमिसर्पिणि मारुते ॥ ४९ ॥ प्रमोदपूर्ण जगति शकुनेषु जयिष्बलम् । अर्घाष्टमदिनाग्रेषु मासेषु नवसूच्चकैः ॥ २० ॥ शुचयोदश्यां चन्दे हस्तोत्तगगते । सिंहांकं काञ्चनरुचिं स्वामिनी सुपुत्रे सुतम् ॥ ५१ ॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥
षट्पञ्चाशदिक्कुमार्योऽभ्येत्य भोगंकरादयः । स्वामिनः स्वामिमातुश्च सूतिकर्माणि चक्रिरे ॥ ५२ ॥ शक्रोऽप्यासनकंपेन तत्कालं सपरिच्छदः । विज्ञाय स्वामिनो जन्म सूतिकागृहमाययौ ॥ ५३ ॥ अर्हन्तमर्हदम्बां च दुरतोऽपि प्रणम्य सः । उपसृत्यागतो देव्यांश्चावस्वापनिकां ददौ ॥ ५४ ॥ देव्याः पार्श्वे च भगवत्प्रतिरूपं निधाय सः । विचके पञ्चधाऽऽत्मानमतृप्तो भक्तिकर्मणि ॥ ५५ ॥ एकः शक्रः स्वपाणिभ्यां भगवन्तमुपाददे । उपरि स्वामिनच्छन्नं द्वैतीयीकरुत्वधारयत् ॥ ५६ ॥ स्वामिनः पार्श्वयो तु विभ्रतुश्रारुचामरे । वज्रमुल्लालयन्नन्यो नृत्यंश्च पुरतो ययौ ॥ ५७ ॥ गत्वा मेरातिपांडु लामासदच्छिलाम् । तत्र सिंहासनं भेजे शक्रोऽङ्कारोपितप्रभुः ॥ ५८ ॥ तदानपयितुं नाथं त्रिषष्टिरपरेऽपि हि । एयुरिन्द्रा आभियोग्यैस्तीर्थाऽऽनायितवारयः ॥ ५९ ॥ इयन्तं वारिसंभारं कथं स्वामी सहिष्यते । इत्याशशंके शक्रेण भक्तिकोमलचेतसा ॥ ६० ॥
I
१८५२ पत्वा C D
द्वितीयः स
॥२८॥
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तदाशङ्कानिरासाय लीलया परमेश्वरः। मेरुशैलं वामपायाऽङ्गुष्ठाग्रेण न्यपीडयत् ॥ ६१ ॥ शिरांसि मेरोरनमन्नमस्कर्तुमिय प्रभुम् । तदन्तिकमिवायातुमचलंश्च कुलाबलाः ॥ ६२ ।। अतुमान छलन्ति हा सा सरितावा विवेपे सत्वरं तत्र नर्तनाभिमुखेव भूः॥ ६३ ॥ किमेतदिति संचिन्त्यावधिज्ञानप्रयोगतः । लीलायितं भगवतो विदाञ्चके विडोजसा ॥ १४ ॥ स्वामिन्ननन्यसामान्यं सामान्यो माशो जनः । विदांकरोतु माहात्म्यं कथंकारं नवदृशम् ॥ ३५॥ तन्मिथ्यादुष्कृतं भूयाच्चिन्तितं यन्मयान्यथा । इतीन्द्रेण वाणेन प्रणमे परमेश्वरः ॥ ६६ ॥ सानन्दं वादितातोयं चक्रे भर्तुः सुरेश्वरैः । तीर्थगन्धोदकैः पुण्यैरभिषेकमहोत्सवः ॥ ६७ ॥ अभिषेकजल सत्तु सुरासुरनरोरगाः। ववन्दिरे मुहुः सर्वांगीणं च परिचिक्षिपुः ॥ ६८॥ प्रभुस्नात्रजलालीढा वन्दनीया मृदयभूत् । गुरूणां किल संसर्गागौरवं स्याल्लघोरपि ॥ ६९ ॥ निवेश्येशाननाथांके सौधर्मेन्द्रोऽप्यथ प्रभुम् । स्नपयित्वार्थयित्वाथ कृत्वाऽऽरात्रिकमस्तवीत् ॥ ७० ॥ नमोऽर्हते भगवते स्वयंबुद्धाय वेधसे । तीर्थंकरायादिकृते पुरुषेपूत्तमाय ते ॥ ७१ ॥ नमो लोकप्रदीपाय लोकप्रद्योतकारिणे । लोकोत्तमाय लोकाधीशाय लोकहिताय ते ॥ ७२ ॥ नमस्ते पुरुषवरपुंडरीकाय शंभवे । पुरुषसिंहाय पुरुषैकगन्धद्विपाय ते ।। ७३ ॥ चक्षुर्दायाभयदाय योधिदायाध्वदायिने | धर्मदाय धर्मदेष्ट्रे नमः शरणदायिने ॥ ७४ ॥
॥२९॥
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धर्मसार धर्म धर्मेकचक्रिणे । व्यावृत्तच्छद्मने सम्यग्ज्ञानदर्शनधारिणे ॥ ७५ ॥
जिनाय ते जापकाय तीर्णाय तारकाय च । विमुक्ताय मोचकाय नमो बुद्धाय योधिने ॥ ७३ ॥ सर्वज्ञाय नमस्तुभ्यं स्वामिने सर्वदार्शने । सर्वातिशयपात्राय कर्माष्टकनिदिने ॥ ७७ ॥ तुभ्यं क्षेत्राय पाचाय तीर्थाय परमात्मने । स्याद्रावादिने वीतरागाय मुनये नमः ॥ ७८ ॥ पूज्यानामपि पूज्याय महद्भयोऽपि महीयसे । आचार्याणामाचार्याय ज्येष्ठानां ज्यायसे नमः ॥ ७९ ॥ नमो विश्वंभुत्रे तुभ्यं योगिनाथाय योगिने । पावनाय पवित्रायानुत्तरायोत्तराय च ॥ ८० ॥ संप्रक्षालना योगाचार्याय प्रवराय च । अग्राय वाचस्पतये 'मंगल्याय नमोऽस्तुते ॥ ८१ ॥ नमः परस्तादुदितायैकवीराय भारवते । ॐ भूर्भुवःस्वरिति वाक्स्तवनीयाय ते नमः ॥ ८२ ॥ नमः सर्वजनीनाय सर्वार्थायामृताय च । उदितब्रह्मचर्यायाताय पारगताय ते ॥ ८३ ॥ नमस्ते दक्षिणीयाय निर्विकाराय तायिने । वज्रऋषभ नाराचवपुषे तत्त्ववने ॥ ८४ ॥ नमः कालत्रयज्ञाय जिनेन्द्राय स्वयंभुवे । ज्ञानबलवीर्यतेजः शक्त्यैश्वर्यमयाय ते ॥ ८५ ॥ आदिपुंसे नमस्तुभ्यं नमस्ते परमेष्ठिने । नमस्तुभ्यं महेशाय ज्योतिस्तत्त्वाय ते नमः ॥ ८६ ॥ तुभ्यं सिद्धार्थराजेन्द्रकुलक्षीरोदधीन्दवे । महावीराय धीराय त्रिजगत्स्वामिने नमः ॥ ८७ ॥
१ मांग M || २ पारंग ॥
द्वितीयः स
॥३०॥
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इति स्तुत्वा गृहीत्वेशं मातुः पार्श्वे निधाय च । संहृत्य तत्प्रतिच्छदमवस्वापनिकामपि ॥ ८॥ निधागोच्छीर्षके क्षौमं कुंडले योपरि प्रभोः । श्रीदामगंडकं शक्रः कृत्वा चागात्स्वमाश्रयम् ॥ ८९॥
(युग्मम् ) सदेन्द्रादिष्टधनदरिता जृम्भकामराः। ववृषुः स्वर्णमाणिक्यवसुधारा नृपौकसि ॥१०॥ काराभ्योऽमोचयजन्तून सूनोर्जन्मोत्सवे नृपः । अर्हजन्म हि मोक्षाय भवभाजां भवादपि ॥ ११ ॥ तृतीये दिवसे सुनोश्चंद्रमार्तडपिचयोः । दर्शनं पितरौ प्रीतौ कारयामासतुः स्वयम् ॥१२॥ षष्ठेऽहन्यविधवाभिः कलमंगलगीतिभिः । सकुंकुमांगरागाभिरनल्पाकल्पचारुभिः ॥ १३ ॥ कंठालंबितमाल्याभिः कुलस्त्रीभिरनेकशः। राजा राजी चाकृषातां रात्रिजागरणोत्सवम् ॥ १४ ॥
(युग्मम्) सिद्धार्थत्रिशलादेव्यो प्राप्त एकादशे दिने । निवर्तयामासतुश्च जातकर्ममहोत्सवम् ॥१५॥ दिने तु द्वादशे राजा सिद्धार्थः सिद्धवांछितः। आजूहवत्समस्तान्स्वाज्ञातिसंयन्धिघान्धवान् ॥१६॥ 'मंगलोपायनकरान सचके तान्महीपतिः । यथोचितप्रतिदानन्यवहारपरो हि सः ॥१७॥ सिद्धार्थस्तानुवाचैत्रं गर्भस्थेऽस्मिन् सुते मम । गृहे पुरे मंडले व व्यवर्धिष्ट धनादिकम् ॥ १४ ॥ १ मांगल्यो ।
...
॥३१॥
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वर्धमान इत्यभिख्या सूनोरस्य तदस्तु भोः । प्रत्यभाषि प्रमुदितैरेवमस्त्विति तैरपि ॥ २९ ॥ युग्मम् ) महोपसर्गेरप्येष न कंप्य इति वज्रिणा । महावीर इत्यपरं नाम चक्रे जगत्पतेः ॥ १०० ॥ सोsकिया भक्तैः सेव्यमानः सुरासुरैः । दृशा पीयूषवर्षिण्या सिश्चनिव वसुन्धराम् ॥ १०१ ॥ अष्टोत्तरसहस्रेण लक्षणैरुपलक्षितः । निसर्गेण गुणैर्वृद्धो वयसा ववृधे क्रमात् ॥ १०२ ॥ राजपुत्रैः सवयोभिः समं न्यूनाष्टवत्सरः । वयोऽनुरूपीडाभिः सोऽन्यदा क्रीडितुं ययौ ॥ १०३ ॥ तदा ज्ञात्वाऽवधिज्ञानान्मध्येसुरसभं हरिः । धीरा अनुमहावीरमिति वीरमवर्णयत् ॥ १०४ ॥ क्षोभयिष्यामि तं वीरमेषोऽहमिति मत्सरी । आजगामामरः कोऽपि यत्र श्रीडन्नभूद्विभुः ॥ १०५ ॥ कुर्वत्यामलकीं क्रीडां राजपुत्रैः सह प्रभौ । सोऽवस्तस्थौ विपिनो भुजगीभूय मायया ॥ १०६ ॥ तत्काल राजपुत्रेषु वित्रस्तेषु दिशो दिशि । स्मित्वा रज्जुमिवोत्क्षिप्य नं चिक्षेप क्षितौ त्रिभुः ॥ १०७ ॥ सत्रीडाः क्रीडितुं तत्र कुमाराः पुनराययुः । कुमारीभूय सोऽन्यागात् सर्वेऽप्यारुरुहुस्तरुम् ॥ १०८ ॥ पादपाग्रं कुमारभ्यः प्राप प्रथमतः प्रभुः । यद्वा कियदिदं तस्य यो लोकाग्रं गमिष्यति ॥ १०९ ॥ शुशुभे भगवांस्तत्र मेरुशृंग इवार्यमा । लम्यमाना वभुः शाखास्वन्ये शाखामृगा इव जिग्ये भगवता तत्र कृतश्चासीदयं पणः । जयेद्य इह स अन्यान् पृष्ठमारुह्य वाहयेत् आरुह्यावा हयद्वाहानिव वीरः कुमारकान् । आरुरोह सुरस्यापि पृष्ठे पृष्ठो महौजसाम् ॥
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११० ॥
१११ ॥
११२ ॥
द्वितीयः स
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ततः करालं वेतालरूपमाधाय दुष्टधीः । भूधरानप्यधरयन् प्रारब्धो वर्धितुं सुरः॥ ११३ ॥ पातालकल्पे तस्यास्ये जिलया पक्षकाधितम् । पिंगणे शिरतले फेशैर्दावानलायितम् ॥ ११४ ॥ तस्यातिदारुणे यंट्रे अभूतां ऋकचाकृती। जाज्वल्यमाने अङ्गारशकटयाविव लोचने ॥ ११५ ॥ घोणारं, महाघोरे महीधरगुहे इच । भृकुटीभगुरे भीमे महोरग्याविष ध्रुवौ ॥ ११६॥ स व्यरंसीद्वर्धनान्न यावत्तावन्महौजसा । आहत्य मुष्टिना पृष्ठे स्वामिना वामनीकृतः ॥ ११७॥ एवं च भगवर्य साक्षात्कृत्येन्द्रवर्णितम् । प्रभु नत्वाऽऽत्मरूपेण निजं धाम जगाम सः॥ ११८ ।। पित्रा साग्राष्टवर्षस्यारब्धेश्याध्यापने प्रभोः। सिंहासनं क्षणेनापि कम्पते स्म बिडौजसः ।। ११९॥ अवधिज्ञानतो ज्ञात्वा पित्रोरार्जवमद्भुतम् । आः सर्वज्ञस्य शिष्यत्वमितीन्द्रस्तमुपास्थितः ॥ १२० ॥ उपाध्यायासने तस्मिन् वासवेनोपवेशितः। प्रणम्य प्रार्थितः स्वामी शब्दपारायणं जगौ ॥१२१॥ इदं भगवतेन्द्राय प्रोक्तं शब्दानुशासनम् । उपाध्यायेन तच्छ्रुत्वा लोकेष्वन्द्रमितीरितम् ॥१२२॥ सप्तहस्तोच्छितवपुः कमात्याप च यौवनम् । वनद्विप इव स्वामी लीलागमनभूषणः ॥ १२३ ॥ रूपं जगत्त्रयोत्कृष्टं प्रभुत्वं त्रिजगत्यपि । यौवनं च नवं भर्तुर्विकारोऽभूत्तथापि न || १२४ ॥ राजा समरवीरोऽथ यशोदां कन्यकां निजाम् । प्रदातुं वर्धमानाय पाहिणोन्मंत्रिभिः सह ॥ १२५ ॥ १"स्थित
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द्वितीयःसर
ते मंत्रिणोऽथ सिद्धार्थ नत्वोचुनः क्षमापतिः । प्रदातुं वर्धमानाय यशोदां प्राहिणोत्सुताम् ॥१२६ ॥ अग्रेऽपि भवतो भृत्योऽस्मत्स्वामी स विशेषतः । सम्बन्धनामुना भूयात् प्रसीदानुगृहाण नः ॥ १७ ॥ ऊचे सिद्धार्थराजोऽपि त्रिशलाया ममापि च । मनोरथो भृशमस्ति कुमारोद्वाहलक्षणः ॥ १२८ ।। परं कुमारः संसारविरक्तो जन्मतोऽपि हि । न शक्यते धक्तुमपि विवाहादिप्रयोजने ॥ १२ ॥ तथापि युपरोधाद्वस्तत्तद्वचनभंगिभिः । ब्रूमस्तन्मित्रमुखन विवाहायाध नन्दनम् ॥ १३० ॥ इत्युक्त्वा त्रिशलादेवीमाच्छ्य च महीपतिः । मेषीदुपवर्धमानं तद्वयस्यान महामतीन् ॥ १३१॥ तेऽपि गत्वा सविनयं नमस्कृत्याचचक्षिरे । वर्धमानकुमाराय सिद्धार्थनृपशासनम् ॥ १३२ ॥ भगवानप्युवाचैवं यूयं मदनुगा अपि । मम भावं न जानीथ गृहवासपराङ्मुखम् ॥ १३३॥ तेऽप्यूचुस्त्वां भवोद्विग्नं मन्महे सर्वदापि हि । आज्ञा पित्रोरलंघ्या ते विश्नः परमदोऽपि च ॥ १३४ ॥ किं च नः प्रणययाचा कदाचिन्नावमन्यसे । कथमेकपदे सर्वानस्मानद्यावमन्यसे ॥ १३५ ॥ अथो श्वभाषे भगवान्मूढाः को वोऽयमादरः। परिग्रहो हि दारादेर्भवभ्रमणकारणम् ॥ १३६ ।। मा स्म भूज्जीवतोदुःख मत्पित्रोर्मद्वियोगजम् । इति हेतो धुनैव प्रव्रजाम्युत्सुकोऽपि हि ॥ १३७॥ एवं प्रभौ भाषमाणे विवाहाय नृपाज्ञया । स्वामिनी त्रिशलादेवी स्वयं तत्र समाययौ ॥ १३८ ॥ पति . M. || २ तु D. AM ||
॥३४॥
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१२.
अभ्युत्तस्थौ जगन्नाथो गौरवेण स्वमातरम् । रत्नसिंहासने चोरासयित्वेत्युवाच च ॥ १३९ ।। दिष्ट्या मातस्त्वमायासीः किमागमनकारणम् ? । आहुतोऽप्यहमायामि सयो युष्माकमाज्ञया ।। १४० ॥ उवाच त्रिशलादेवी सदने नस्त्वमागमः । अस्मत्पुण्यैर्न खल्वल्पैरनल्पोदयकारणम् ।। १४१ ।। भवन्तं वीक्षमाणानां न तृप्तिर्जगतामपि । त्वदर्शनमहायतद्धनानां किमङ्ग नः ॥ १४२ ॥ जानीमश्च सदैवेदमस्माकपनकम्पया ! भवदासविसकोपि गहनासेऽत्र तिष्ठसि ॥ १४३ ॥ अकार्षीर्दुष्करमिदं स्वमनोवृत्तिबाधया । एतावता न तृप्यामो वयं ते विनयालय ! ॥ १४४ ॥ वधूयुक्तं यथाद्य त्वां पश्यामस्त्वं तथा कुरु । राजपुत्रीं यशोदाख्यां समायातां समुद्रह ।। १४५ ॥ उत्कंठितस्ते पितापि त्वद्विवाहोत्सवेक्षणे । कुरुष्व दुष्करमदोऽप्यावयोरुपरोधतः ॥ १४६ ॥ भगवानप्यथो दध्यो किभापतितमय मा साग्रहयमितो माता भवभ्रमणभीरितः॥१४७ गर्भऽपि [संवृताङ्गोऽस्थां मातृदुःखाभिशंकया । स्थास्यामि गृहवासेऽपि तन्मनोवृत्तियाधया ॥ १४८ ॥ कर्म भोगफलं चास्ति मान्यौ च पितरौ मम । एवं विचिन्त्य भगवांस्तन्मने मातृशासनम् ॥ १४९ ॥ गत्वा च त्रिशलादेवी स्वयं सिद्धार्थभूभुजे । विवाहानुमतिं सूनोराचचक्षे प्रमोदभाक् ।। १५० ॥ पुण्येऽहनि महीनाथो जन्मोत्सवसमोत्सवम् । विवाहं कारयामास महावीरयशोदयोः॥१५१॥ १ स्त्रम C. ॥ २ "वृत्त्यबा" 1॥
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द्वितीय:स
त्रिशलासिद्धार्थराजौ तत्पश्यन्तौ वधूवरम् । धन्यंमन्यौ मुमुदाते पीतामृतरसाविव ॥ १५२॥ समं यशोदया देव्या स्वामी वैषयिकं सुखम् । अनासक्तोऽनुयभूव पित्रोनेत्रनिशाकरः ॥ १५ ॥ कालेन गच्छता भर्तुयशोदायामजायत । नामतो रूपतश्चापि दुहिता प्रियदर्शना ॥ १५४ ॥ महाकुलो राजपुत्रो महार्द्धिनषयौचनः। जमालिः परिणिनायोग्रौवनां प्रियदर्शनाम् ।। १५५ ॥ अष्टाविंशे जन्मतोऽब्दे स्वामिनः पितरावथ । विहितानशनी मृत्वा अग्मतुः कल्पमच्युतम् ॥ १५६ ॥ सिद्धार्थराजत्रिशलाजीवावच्युतरायुती । क्षेत्रेऽपविदेशाबाल्पतः पदमव्ययम् ॥ १५७ ॥ पित्रोः कृतेऽङ्गसंस्कारे तम्रालीत च वासरे । सान्तःपुरं शोकमग्नं स्वाम्यूचे नन्दिवर्धनम् ॥ १५८ ॥ सदा सन्निहितो मृत्युर्जीवितं नश्वरं सदा । उपस्थिते वास्तवेऽस्मिन्न हि शोकः प्रतिक्रिया ॥ १५९॥ धैर्यालंयनपूर्व च धर्मानुष्ठानमेव हि । युज्यत न तु शोकादि भ्रातः ! कापुरुषोचितम् ॥ १६०॥ स्वामिना घोधितश्चैवं स्वस्थोऽभूनन्दिवर्धनः । पित्र्यं राज्यमलं कर्तुं सोऽभ्यर्थयत च प्रभुम् ॥ १६१ ।। पिश्यं राज्यं यदा वीरो भवोद्विग्नो न शिश्रिये । राजा चक्रे तदाऽमात्यैः साग्रहैनन्दिवर्धनः ॥ १६२ ॥ चिरेप्सितपरिव्रज्याग्रहणायाथ सादरः । आपप्रच्छे महावीरो भ्रातरं नन्दिवर्धनम् ॥ १६३ ॥ शोकस्खलितवाग्नन्दिवर्धनोऽप्यन्यधादिति । अपापि पितरौ भ्रातर्गच्छतो विस्मृति न हि ।। १६४ ।। १°मय DU२ बासरे 11॥
॥३६।
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सर्वोऽप्यहमिवाचापि स्वजनः शोकपूरितः । क्षते क्षारं निक्षिपसि स्ववियोगेन किं मयि ॥ १६५॥ एवं च ज्यायसो भ्रातुः सशोकस्योपरोधतः। जगत्पतिर्भावयतिरलंकारैरलंकृतः ।। १६६ ॥ कायोत्सर्गघरो नित्यं ब्रह्मचर्यपरायणः । स्नानांगरागरहितो विशुद्धध्यानतत्परः॥१६७ ॥ एषणीयमासुकानप्राणवृत्तिर्महामनाः । वर्षमेकं कथमपि गृहवासेऽत्यवाहयत् ॥ १६८ ॥ तीर्थ प्रवर्तयेत्युक्तस्ततो लोकान्तिकामरैः । यथाकामितर्थिभ्यो दानं स्वाम्याब्दिकं ददौ ॥ १६९॥ देवैः शक्रादिभिनन्दिवर्धनायैश्च पार्थिवः। दीक्षाभिषको विदधे श्रीवीरस्य यथाविधि ॥ १७ ॥ भ्रातुर्विरहदुःखेन राहुणेन्दुरियाकुलः । स्वानादिदेशेति तदा कथंचिन्नन्दिवर्धनः ॥ १७१ ॥ सुवर्णवेदिकास्तंभां घुसदास्थानिकामिव । संतारकामिव दिवं मुक्तास्वस्तिकलाञ्छिताम् ॥ १७२ ॥ स्वर्णसिंहासनगी साको मेरुतटीमिव । प्रक्वणत्किंकिणीमालां पालकस्यानुजामिव ॥१७३॥ समुच्छलध्वजपटां गंगामिव महोर्मिकाम् । पश्चाशद्धनुरायामां षट्त्रिंशद्धनुरुनताम् ॥ १७४ ॥ पश्चाग्रविंशतिधनुर्विस्तृतां शिविकोत्तमाम् । चन्द्रप्रभाख्यां कुर्वन्तु श्रीवीरस्यासनोचिताम् ॥ १७ ॥
॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ त्वरितं कारयामासुः शिषिकां तां तथैव ते । राज्ञां हि वचसाऽर्थः स्यान्मनसा द्युसदामिव ॥ १७६ ॥ १कामीनम ॥२ सतारि LI
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॥३७॥
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द्वितीयः
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तादृशीमेष शिविकां तदा शक्रोऽप्यकारयत् । युग्मजाते इथाऽभाता यथोभे तुल्यया श्रिया ॥१७॥ प्रथमायां शिबिकायां द्वितीयशियिका तदा । देवशक्त्यान्तर्बभूव नद्यामिव नदी क्षणात् ॥१७८ ॥ ततः प्रदक्षिणीकृत्य शिविकामधिरुह्य च । सिंहासनमलंचक्रे सांहिपीटं जगत्प्रभुः ॥ १७९॥ मंगल्यश्वेतवसनः सचन्द्रिक इवोडपः । विभुबभौ भूषणैश्च कल्पद्रुम इवापरः ॥१८॥ प्रभो प्राङ्मुखमासीने शुचीभूताः सुबाससः । विचिबरनालंकाराः सर्वा दक्षिणपार्श्वगाः ॥ १८१ ॥ प्रालयः शाखिन इव शोभिता हस्तशाटकैः । निषेदुरेकमनसस्तदा कुलमहत्तराः ॥ १८२॥ (युग्मम्) धभार मुक्तालंकारा विमलांशुकभृद्विभोः । मूर्धन्येकानना छत्रं 'ज्योत्स्नेव रजनीकरम् ॥ १८३ ॥ धारयामासतु तु पार्श्वयोश्चारुचामरौ । सर्वांगहेमाभैरणे मेरुलेव्यामिवोडणौ ॥ १८४ ॥ तस्थौ वायत्र्यदिश्यका रूप्यशृंगारपाणिका । दिशि दक्षिणपूर्वस्यां तालवृन्तधराऽपरा ॥ १८५ ।। पृष्ठे वैडूर्यदंडानि पांडुच्छन्नाण्यधारयन् । अष्टाग्रसहस्रस्वर्णशलाकान्यमरेश्वराः ॥ १८६ ॥ पार्श्वयोः शिथिकायास्तु सौधर्मशानवासवौ । तोरणस्तंभसदृशौ तस्थतुर्धतचामरौ ॥ १८७ ॥ सहस्रवाह्यामुद्दधुः शिविकामादितो नराः । तप्तः शक्रेशानयलियमराया दिवौकसः॥ १८८ ॥ दक्षिणेनोपरिष्टात्तु शिथिकां शक्र आददे । उपरिष्टादुत्तरेण त्वीशानाधिपतिः स्वयम् ॥ १८९ ॥ १ ते तुल्ये तु 1 11 २ ज्योत्स्नीव C, L || ३ भरण ।। - तट्याथियो , L ||
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11३८
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दधतुश्चमरबली दक्षिणोत्तरयोरधः । अन्ये भुवनपत्याद्या दधिरे तु यथोचितम् ॥ १९ ॥ तदानीं गच्छदागच्छद्देवैरजनि संकुलम् । दिनान्ते पक्षिभिरिचान्तरिक्षमधिकत्वरैः ॥ १९१ ॥ नया शिविक्रया स्वामी विदशैरुह्यमानया । ज्ञातखंडवनं नाम ययावुपवनोत्तमम् ॥ १९२॥ मियस्येव हिमऋतोरागमे कोरकच्छलात् । रोमाञ्चिताङ्गीभिरिव लवलीभिमनोरमम् ॥ १९३॥ कुसुंभरक्तवासोभिरिव न्यस्तैर्वनश्रिया । नागरगवनैः पक्कफलमालिभिरंकितम् ॥ १९४॥ कृष्णेथूणां मिथः पत्राश्लेषसांराविणैः सदा । पथिकानाह्वयदिव तदुद्यानं विवेश सः॥ १२५ ॥
॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ शिविकायाः समुत्तीर्य भूषणान्यत्यजत्प्रभुः । देवदुष्यं देवराजः स्कन्धे च निदधे प्रभोः ॥ १९६॥ मुष्टिभिः पञ्चभिः केशानुः त्रिजगद्गुरुः । प्रतीक्ष्य दृष्ये तान् शक्रश्चिक्षेप क्षीरनीरधौ ॥ १९७॥ तेनागत्य निषिद्धेऽथ तुमुले निजगत्प्रभुः । कृत्वा सिद्धनमस्कारं चारित्रं प्रत्यपद्यत ।। १९८ ॥
ACAMAKARKAXXX
१ प्रतीष्य
॥
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द्वितीयःस
वर्षत्रिंशति जन्मतोऽथ समतीतायां सहे मासि च।
श्यामायां दशमीतिथौ हिमकरे हस्तोत्तरासु स्थिते ॥ यामेऽहश्चरमे तु षष्ठतपसः साक्षात्त्रिलोक्याः प्रभो। __ शारित्रेण समं तदा समभवज्ज्ञानं मनःपर्ययम् ॥ १९९ ॥
KARNiki
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये दशमपर्वणि श्रीमहावीरजन्मप्रव्रज्यावर्णनो नाम
द्वितीयः सर्गः॥
॥४॥
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॥ अथ तृतीयः सर्गः ॥
樂樂
ततश्च त्रिजगन्नाथः सोदर्यं नन्दिवर्धनम् । आपप्रच्छेऽन्यतो गन्तुं ज्ञातवंश्यान् परानपि ॥ १ ॥ चारित्ररथमारूढं विहारप्रस्थितं प्रभुम् । वृद्धः पितृसुहृद्विमः सोमो नत्वेत्यभाषत ॥ २ ॥ स्वामिन् ! संवत्सरवानमदाः स्वान्यानपेक्षया । अदरिद्रं जगज्जज्ञे विना मां मन्दभाग्यकम् ॥ ३ ॥ अहं हि जन्मतो नाथ ! महादारिद्र्यविद्रुतः । परान् प्रार्थयितुं ग्रामाद् ग्रामं भ्राम्याम्यहर्निशम् ॥ ४ ॥ सहे निर्भर्त्सनं क्वापि ग्रीवायां ग्रहणं क्वचित् । क्वचिदप्युत्तरादानं मुखमोटनकं क्वचित् ॥ ५ ॥ नाशया तदाचैर्यहिर्भ्रमत एव मे । अजानतो वात्सरिकं त्वद्दानं निष्फलं गतम् ॥ ६ ॥ संप्रत्यपि कृपां कुर्वन् जगन्नाथ ! प्रयच्छ मे । निर्भर्त्स्य प्रेषितः पत्न्या स्वामिन्नस्मि त्वदन्तिके ॥ ७ ॥ स्वाम्यप्युवाच कारुण्याच्यक्तसंगोऽस्मि संप्रति । तथाप्यंसस्थितस्यास्य वाससोऽर्ध गृहाण भोः ! ॥ ८ ॥ सोऽपि वासोऽर्धमादाय हृष्टो निजगृहं ययौ । दशाबन्धकृतं तुन्नवायस्यादर्शयच्च तत् ॥ ९ ॥
१ "इस / ॥
॥४१॥
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तृतीयः
सर्गः
त्वया क्वेद प्राप्तमिति तुन्नवायेन भाषितः । शशंस श्रीमहावीरादत्राप्तमिति स द्विजः ॥ १० ॥ यभाषे तुन्नवायस्तं द्वितीयमपि वाससः । अस्यार्धमानय मुनेस्तस्यानुपदमभ्याट ॥ ११ ॥ मुनेः पर्यटतस्तस्य लगित्वा कंटकादिषु । तत्पतिष्यति वासो सोऽनीहो न ग्रहीष्यति ।। १२ ॥ तदादायाऽत्रानयेस्त्वं योजयित्वा बल उभे । अहं पूर्णीकरिष्यामि शुक्लपक्ष इवोडपम् ॥१३॥ दीनारलक्ष मूल्येऽस्य भविष्यति विभज्य तत । अर्धमधु नहीच्याचो भ्रातरौ सोदराविध ॥ १४ ॥ आमेत्युत्तथा प्रभुमगात् स द्विजः प्रभुरप्यथ । ईर्यासमितिमान् सायं कूर्मारग्राममासदत् ॥ १५ ॥ नासाग्रन्यस्तनयनः प्रलम्बितभुजद्वयः । प्रभुः प्रितिमया तत्र तस्थौ स्थाणुरिष स्थिरः ॥ १६ ॥ तदा च गोपः कोऽप्येको बाहयित्वा दिनं घृषान् । ग्रामसीमन्युपस्वामि प्राप्त एवमचिन्तयत् ॥१७॥ अत्रैव मे चरन्त्वेते वृषभा ग्रामसीमनि । अहं करिष्ये सामान्तर्गत्वा दोहं पुनर्गधाम् ॥ १८ ॥ ध्यात्वैवं सोऽविशद् ग्राम चरन्तस्तवृषाः पुनः । अटवीं विविशुर्गोपं विना तिष्ठन्ति ते न हि ॥ १९ ॥ स ग्रामात्त्वागतो गोपो मम क्च वृषभा इति । पप्रच्छ स्वामिनं स्वाम्यप्यवोचन्न हि किंचन ॥२०॥ तृष्णीके तु प्रभो नैष किंचिद्वेत्तीति चिन्तयन् । उक्ष्णो मृगयमाणः स्वान् गोपोऽतीयाय तां निशाम् । २१ टि.- कायोत्सर्गे।
|॥४२॥
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भ्रान्त्वा तेऽपि वलीवर्दाः पुनरेयुरुपप्रभु । निषद्य तस्थू रोमन्थायमानाः स्वस्थचेतसः ॥ २२ ॥
T
न्वा सोऽप्यागतो गोपो वृषान् दृष्ट्वेत्यचिन्तयत् । प्रभाते नेतुकामेन नूनं गावोऽमुना हृताः ॥ २३ ॥ एवं विचिन्त्य रभसा समुत्पाटय च दामनीम् । प्रभुं हन्तुमधाविष्ट सकोपो गोपपांसनः ॥ २४ ॥ तदा चाचिन्तयच्छ्रः किं स्वामी प्रथमेऽहनि । विदधातीत्यथाऽपश्यत्तं गोपं हन्तुमुद्यतम् ॥ २५ ॥ स्तम्भविश्याथ तं शक्तयेकागजपत् । किं मायुं घेत्सि रे पाप ! सिद्धार्थन्नृप नन्दनम् ॥ २६ ॥ ततः प्रदक्षिणीकृत्य त्रिर्मूर्ध्ना प्रणिपत्य च । इति विज्ञपयाञ्चक्रे प्रभुः प्राचीनवर्हिषा ॥ २७ ॥ भविष्यति द्वादशाब्दान्युपसर्गपरंपरा । तां निषेधितुमिच्छामि भूत्वाऽहं पारिपार्श्वकः ॥ २८ ॥ * समाधिं पारयित्वेन्द्रं भगवानूचिवानिति । नांपेक्षांचक्रिरेऽर्हन्तः परसाहीयकं कश्चित् ॥ २९ ॥ नैतद् भूतं भवति वा भविष्यति च जातुचित् । यदर्हन्तोऽन्यसाहाय्यावर्जयन्ति हि केवलम् ॥ ३० ॥ केवलं केवलज्ञानं प्राप्नुवन्ति स्ववीर्यतः । स्ववीर्येणैव गच्छन्ति जिनेन्द्राः परमं पदम् ॥ ३१ ॥ बालेन तपसोत्पन्नं व्यन्तरेषु तदामरम् | नाथस्य मातृष्वस्त्रीयं सिद्धार्थ मघवाऽऽदिशत् ॥ ३२ ॥ farartyred यः स्वामिनो मारणान्तिकम् । प्रतिषेध्यः स भवता स्वामिनः पार्श्ववर्तिना ॥ ३३॥
1
१ सुस्थचे C, D ॥ २ "हायिक DD, V॥ ३णात्मकम् D, # ॥ टि. *कायोत्सर्गम् ।
॥४३॥
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तृतीयः
इत्युक्तवागाद्धरिस्तस्थौ सिद्धार्थः प्रतिपद्य तत् । स्वामी षष्ठपारणाय कोल्लाक्रे गान्निवेशने ॥ ३४ ॥ तन्त्र द्विजातेर्षहुलाभिधरा लादले प्रभुः । वो सियभि एनान्नेन पारणम् ॥ ३५ ॥ वसुधाराप्रभृतीनि द्विजातेस्तस्य सद्मनि । पञ्च दिव्यान्याविरासन कृतानि दिविषद्गणैः ॥ ३६ ॥ ततो जगद्गुरुः शीतलेश्यः शीतमयूखवत् । तपरतेजोदुरालोकोऽधिपतिस्तेजसामिव ॥ ३७॥ शौण्डीर्यवान् गज इव सुमेरुरिष निश्चलः । सर्वस्पर्शसहिष्णुश्च यथैव हि वसुन्धराः ॥ ३८ ॥ अम्भोधिरिव गंभीरो मृगेन्द्र इव निर्भयः। मिथ्यादृशां दुरालोकः सुहृतो हव्यवाडिव ॥ ३९ ॥ खड्गिशृंगमिषैकाकी जातस्थामा महोक्षवत् । गुप्तेन्द्रियः कूर्म इवाहिरिवैकान्तदत्तदृक् ॥ ४०॥ निरञ्जनः शंख इव जातरूपः सुवर्णवत् । विप्रमुक्तः खग इव जीथ इवास्खलद्गतिः ॥ ४१ ।। भारंड इवाप्रमत्तो व्योमेव च निराश्रयः । अंभोजिनीदलमिवोपलेपपरिवर्जितः ॥ ४२ ॥ शत्रौ मित्रे तृणे *स्त्रैणे स्वर्णेऽश्मनि मणौ मृदि । इहामुन्न सुखे दुःखे भवे मोक्षे समाशयः ॥ ४ ॥ निष्कारणैककारुण्यपरायणमनस्तया । मजद्भवोदधौ मुग्धमुद्दिधीधुरिदं जगत् ॥ ४४ ॥ प्रभुः प्रभञ्जन इवाऽप्रतिबद्धोऽधिमेखलाम् । नानाग्रामपुरारण्यां विजहार बसुन्धराम् ॥ ४५ ॥
॥ नबभिः कुलकम् ॥ १ तालिम' L || २ भारुण C॥ टि.- *स्वीसमूहे।
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॥४४॥
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दीक्षाक्षणे च यचक्रे विभोर्देवैर्विलेपनम् । गास्तत्सौरभाकृष्टास्तमागत्योपदुद्रुवुः ॥ ४६ ॥ गन्धयुक्तिमयाचन्त ग्रामीणतरुणाः प्रभुम् । अंगसंगं तरुण्यस्तु स्मरज्वरभरोषधम् ॥ ४७ ॥ दीक्षादिनात् प्रभृत्येवं साग्रं मासचतुष्टयम् । उपसर्गाजगन्नाथः संहे गिरिरिव स्थिरः॥ ४८ अन्यदा विहरन स्वामी मोराके सन्निवेशने । ययौ दुइजन्तकाख्यतापसवातसंकुले ॥४९॥ पितृमित जलपतिस्नन नाथापितः । पूर्वाभासात् स्वामिनाऽपि तस्मिन् बाहुः प्रसारितः ॥ ५॥ प्रार्थितः कुलपतिना तत्रैकामवसन्निशाम् । प्रतिमौकरात्रिक्या श्रीमान सिद्धार्थनन्दनः ॥ ५१ ॥ विजिहीर्षु भगवन्तमूचे कुलपतिः प्रगे। वर्षाकालस्त्वया कार्यों विविक्तवसतायिह ॥५२॥ नीरागोऽपि वचस्तस्य प्रतिश्रुत्योपरोधतः । निरञ्जनः शंख इव प्रययौ प्रभुरन्यतः ॥ ५३॥ वायुरिवाप्रतिबद्धो निर्लेपः पद्मपत्रवत् । सर्वत्र विहरन ग्रीष्मकालं स्वाम्यत्यवाहयत् ।। ५४ ॥ सिद्धार्थसुहृदस्तस्य स्मरन् कुलपतेर्वचः । स्वामी प्राथषमत्येतुं मोराकं पुनरभ्यगात् ।। ५५॥ वर्षत्युद्गर्जितं मेघे खंस्थधारागृहोपमे । स्वस्वस्थानाय गच्छत्सु पथिकेष्वपि हंसवत् ॥ ५६ ॥ प्रभोर्धातृव्यतास्नेहसम्बन्धमधुराशयः । गृहमेकं कुलपतिस्तृणाच्छादितमार्पयत् ॥ ५७ ॥ (युग्मम्)
ये ॥ २ "पास्थित C॥"पस्थितःD| ३ स्वंडभा' | टि.- मीकृत्य ॥
॥४॥
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आज्ञानुलम्बितभुजो जटावानिव पादपः । नियंत्रितमनास्तत्र तस्थौ प्रतिमया प्रभुः ॥ ५८ ।। भीष्मग्रीष्मर्तुमाहात्म्यान्निःशेषिततृणे बने । अनुवन्नूतनतृणे नवत्वात्प्रावृषोऽपि च ॥ ५९ ॥ अधावन खादितुं गावस्तापसानां तृणोटजान् । निर्दयास्वापसास्त' गाग्ता गणिभिरताडगन ॥ ६ ॥
(युग्मम् ) तैस्ताडयमाना गावस्तास्तृणीकः स्वाम्यधिष्ठितम् । चखादुः स्तंभनिभृते प्रभौ तासां कुतो हि भीः ॥६॥ तापसा अपि तत्प्रेक्ष्याऽक्रुध्यन्नेवं प्रभु प्रति । रक्षामो वयमुटजान स्वं न रक्षत्यसौ पुनः॥ ६२ ॥ अहो कुलपतेः कोऽयमतिथिर्यस्य पश्यतः । चस्यादुर्गाव उदजनहो स्वार्थंकनिष्ठता ॥ ६३ ॥ किं कुर्महे स्व आत्मेव प्रियः कुलपतेरयम् । तद्भयादेव परुष न वक्तुमिह शक्यते ॥ ६४ ॥ तापसास्तेऽन्यदा नाथे प्ररूढप्रौढमत्सराः । गत्वा कुलपतेः पार्श्व सोपालंभमदोऽवदन् ॥ ६५ ॥ आश्रमे श्रमणः कोऽयमानीतो निर्ममस्त्वया । उटजस्यापि नाशोऽभूद्यदस्मिन्निह तस्थुषि ॥ ६६ ॥ अकृतज्ञ उदासीनो निर्दाक्षिण्योऽलसश्च सः । गोभ्योऽपि रक्षति न यः खाद्यमानं स्वमाश्रमम् ॥ ६७ ॥ मुनिमन्योऽथवा नैष गा रक्षनि समत्वभृत् । गुरुदेवार्चकास्तत्किं वयं न मुनयो मुने ! ॥ ६८ ॥ ततः कुलपतिरगावुपनार्थ ददर्श च । कृत्तपक्षं खगमिव छदिवर्जितमाश्रमम् ॥ ६९ ॥ १ "स्तेऽपि स्ता व
INदा
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निर्भत्सराः सत्यगिरस्तापसा इति चिन्तयन् । स नाथमूचे किं तात ! बातोऽयं नोटजस्त्वया ? ॥ त्वत्पित्रा रक्षिताः सर्वे यावज्जीवं किलाश्रमाः । दुष्टशासनरूपं हि तवापि ब्रतमहति ॥ ७१॥ आत्मानमिव रक्षन्ति स्वनीदं नीडजा अपि । विवेकिना त्वया हन्त किमाश्रम उपेक्षितः ? ॥७२॥ स्वविवेकोचितां शिक्षा स दत्त्वा जीर्णतापसः । स्वमाश्रमं ययौ भूयः स्मरन् सिद्धार्थसौहृदम् ॥ ७३ ॥ दो लैवं विभोपामतीनिलिवन्धना । नत्र स्थातुमुचितं न मे सर्वहितैषिणः ॥ ७४ ।। एवं च चिन्तयन स्वामी वैराग्यमधिकं दधत । अभिग्रहानिमान पञ्च जग्राह करुणानिधिः॥ ७ ॥ नैवाऽनीतिमतो गेहे वसनीयं कदाचन । स्थातव्यं च शरीरेण कायोत्सर्गजुषा सदा ॥ ७६ ॥ स्थेयं मौनेन च प्रायो भोक्तव्यं पाणिभाजने । गृहस्थस्य च विनयो न कार्य इति पञ्च ने ॥ ७ ॥ अभिग्रहान् गृहीत्वामूनर्धमासादनन्तरम् । ग्राम नाम्नाऽस्थिकग्राम ययौ पावृष्यपि प्रभुः ॥ ७८॥ नत्र चैकस्य यक्षस्य शूलपाणेनिकेतने । अधिवस्तुं जगन्नाथो ग्रामीणानन्वजिज्ञपत् ।। ७९॥ ऊचुाम्या न यक्षोऽयं वस्तुं दत्तन कस्यचित् । यक्षस्यामुष्य हि कथा महती सा निशम्यताम् ।। ८०॥ ग्रामोऽयमभवत्पूर्व वर्धमानोऽभिधानतः । नद्यस्ति वेगवत्यत्र पंकिलोभयकूलभूः ॥ ८१॥ तत्र भाण्डभृतैरागादनसां पञ्चभिः शतैः । धनदेवो वणिक् तस्य चाभूदेको महावृषः ।। ८२ ॥ तं महोतं धुरि कृत्वा सर्वाणि शकटानि सः। नया उत्तारयामास विषमाया अपि क्षणात् ॥ ८३ ॥
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अतिभाराकर्षणेन मुखेन रुधिरं वमन् । स महोक्षः पपातोय तेजवाजीव सात्विकः ॥ ८४ ॥ संभाष्य च वणिग्ग्राम्यानुवाच वृषसाक्षिकम् । पाल्योऽयं वृषभो न्यासीकृतजीवितवन्मम ॥ ८५ ॥ वृषस्य तृणपानीयनिमिचं व धर्म टु । प्राणामामपंचांगाल स्वामिघमायं खलु ॥ ८६ ॥ ततो वणिक् स्वयमपि चारिपानीयांकनात् । *प्रियाकृत्य महोक्षाय सास्र परतो गयौ ॥ ८७ ॥ धनमादाय ते ग्राम्यास्तृणवार्यादिना वृषम् । प्रतिचकुर्न तं पापाः कुवैद्या इव रोगिणम् ॥ ८८ ॥ संजातहृदयत्रोटः क्षुत्पिपासाकदर्शितः । चर्मकीकसमात्रांगः स गौरवमचिन्तयत् ॥ ८५ ॥ अहो ! निष्करुणो ग्रामः पापिष्ठो निष्ठुराशयः । चांडालनिर्विशेषोऽयमशेषोऽप्यतिवञ्चकः ॥ ९० ॥ दूरे स्वयं करुणया दीनस्य मम पालनम् । मत्स्वामिदत्तमप्येभिर्जग्धं चार्यादिवेतनम् ॥ ९१ ॥ क्रुद्धोऽकामनिर्जरावान् स गौर्मृत्योदपद्यत । व्यन्तरः शूलपाण्याख्यो ग्रामेऽचैव पुरोवने ॥ ९२ ॥ सोऽथाज्ञासीद्विगेन पूर्वजन्मकथां निजाम्। ददर्श गोवपुस्तच ग्रामायास्मै चुकोप च ॥ ९३ ॥ arragiri मासि मारेरिव दैवतम् । मार्यमाणैरमी ग्राम्यैरभूवन्नस्थिसंचयाः ॥ ९४ ॥ अपृच्छंश्वातुरा ग्राम्या मुहुज्योतिर्विदादिकान् । चक्रुः शान्त्यै तदाज्ञां च वैद्याज्ञामिव रोगिणः ॥ ९५ ॥
१ संभूष्य J, D, AM || २ पुरावने D पुरातने M || ३ "द्यानामि" D | टि. --- * प्रियं कृत्वा ।
लतीयः सर्गः
॥४८॥ ॥
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विदर्ग्रहदेवीनां स्नानपूजादिकं मुहुः । नोपशान्तिरभून्मारेस्तथापि हि मनागपि ॥ १६ ॥ ग्रामास्तराग्याम्या व्यन्तरः स तु कोपनः । युवराजो यमस्येवामारयत्तांस्तथापि हि ॥ ९७ ॥ ग्राम्या व्यचिन्तयंश्चैवं कोऽप्यस्माभिर्विरोधितः । देवो दैत्योऽथवा यक्षः क्षेत्रपालोऽपरोऽपि वा ॥२८॥ ग्रामस्तत्रैव तद्ग्रामे तत्प्रसादनहेतवे । एवं विमृश्य ते भूयः संभूयेह समाययुः ॥ १९ ॥ ते स्नाताः श्वेतवसना उत्तरासंगधारिणः । मुक्तकेशाश्चत्वरेषु त्रिकेषूद्यानभूमिषु ॥ १०० ।। भूतगेहेष्वथान्यत्र क्षिपन्तः परितो बलिम्। ऊर्ध्वाननाः प्राञ्जलयो दीनास्या एवमूचिरे ॥१०१ ।। (युग्मम् ) भोः ! सुरा असुरा यक्षरक्षःकिंपुरुषादयः। यत्प्रमादान्मदाद्वागस्तन्नः क्षाम्यन्तु सर्वथा ॥ १०२ ॥ कोपःप्रणामावधिको महतां हि महानपि । तत्प्रसीदत यः कश्चिदस्त्यस्माभिर्विरोधितः॥१३॥ व्यन्तरः सोऽन्तरिक्षस्थोऽथाब्रवीद्र दराशयाः ।। लुब्धा लब्धकसंकाशाः! क्षमणं कुरुताधना ॥१०४॥ नदानी वृषभस्य क्षत्तषाकान्तस्य तस्य तु । वणिग्दत्तधनेनापि दत्तं नाम्भस्तुणादि यत् ॥१०५॥ स मृत्वा वृषभोऽभूवं शूलपाणिरहं सुरः । तेन वैरण वः सर्वान्मारयामि स्मरन्तु तत् ॥ १०६ ॥ तच्छुत्वा ते पुनस्तस्मै धूपोत्क्षेपणतत्पराः । लुठन्तो भूतले दीना भूयोऽप्येवं पभाषिरे ।। १०७॥ अपराभूमदोऽस्माभिस्तथापि क्षाम्य शाम्य च । शरणं त्वां प्रपन्नाः स्मो हानन्यशरणा वयम् ॥ १०८ ॥ १ पतः । ॥ २ राधि’ L, C || ३ राधि ॥
॥४९॥
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तद्वाचा व्यन्तरः किश्चिदुपशान्तोऽब्रवीदिति । अमूनि मानुपास्थीनि पुञ्जीकुरुत संप्रति ॥ १० ॥ तस्योपरि कुरुध्वं पायतनं तस्य चान्तरे। ममोक्षरूपानुगतां मूर्ति स्थापयतोचकः ॥११०॥ । एवं कृते प्राणितं वः प्रदास्ये नान्यथा पुनः । तथैव तद्वचस्तेऽपि ग्राम्या विदधुरावृताः ॥ ११ ॥ पूजाकरं शूलपाणेरिन्द्रशर्माणमाख्यया । ग्रामः समादिशत्तस्मै कल्पितानल्पवेतनः॥११२॥ अत्रास्थिसंचयोऽस्तीति ग्रामोऽसावस्थिफालयः । तदाप्रभृति लोकेऽभूद्वर्धमानाभिधोऽपि सन् ॥ ११३॥ श्रान्ताः कार्पटिका रात्री वसन्त्यायतनेऽत्र ये । तद्रात्रावेव तान् हन्ति शलराणिः कृतान्तयत् ॥ ११४ ।। स्थित्वा लोको दिनं ह्यनेन्द्रशर्मा च तवर्चकः । सायं स्वसदन याति तद्वस्तुं नेऽन्न नोभितम् ॥ ११ ॥ इत्युक्त्वा ने पृथगपि स्वामिने घसतिं ददुः । प्रतीयेष न तु स्वामी यक्षौकस्तरक्याचत ॥११६ ॥ अथ ग्राम्यैरनुज्ञातो योधाई व्यन्तरं विवन् । तदायतनैककोणे तस्थौ प्रतिमया प्रभुः॥ १२७॥ सायं कृत्वा धूपवेलामिन्द्रशर्मा तदर्चकः । निःसार्य पथिकान् सर्वान् भगवन्तमदोऽवदत् ॥ ११८ ॥ अयि देवार्य ! निर्याहि त्वमप्यायतमावतः । अयं हि व्यन्तरः रो भावी ते निशि मृत्यवे ॥ ११९ ॥ तस्थौ च स्वामी तूष्णीको व्यन्तरः सोऽप्यचिन्तयत् । अहो मुमूर्षुः कोऽप्येष ममायतनमागमत् ॥ १२० ॥ ग्रामेण वार्यमाणोऽपि मुहुर्मत्पूजकेन च । हप्तः कोऽयमिहावात्सीहर्पमस्य हरामि तत् ॥ १२१ ॥ १ हि C॥ २६ D, I, M ||
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देवार्थक ततो यातेऽस्तमिते च दिवाकर । कायोत्सर्गस्थिते नाथेऽट्टहासं व्यन्तरोऽकरोत् ॥ १२२ ॥ पुष्फोटेव नभोभाण्डं तुत्रोटयोडमंडलम् | तेनाट्टहासशब्देनातिरौद्रेण प्रसर्पता ॥ १२३ ॥ ग्रामलोकोऽपि तं शब्दं श्रुत्वाऽवोचत्परस्परम् । नूनं देवार्यकः सोऽय व्यन्तरेण निहन्यते ॥ १२४ ॥ नाना तत्रोत्पलः पार्श्वतीर्थसाधुवरस्तदा । परिवाइष्टांगमहानिमित्तज्ञानपण्डितः ॥ १२५ ॥ लोकादेवार्यवृत्तान्तं श्रुत्वाऽधादधृति हदि । अपश्चिमस्तीर्थकरो मा स्म भूदिति शंकया । १२६ ।। (युग्मम्) अट्टहासस्वरेणापि न चुक्षोभ यदा प्रभुः । हस्तिरूपं तैदाघोरं व्यन्तरो विषकार सः ॥ १७ ॥ स्वामिना हस्तिरूपे चावज्ञाते सति निर्ममे । पिशाचरूपं सोऽप्युबै रोदसीमानदण्डवत् ॥ १२८ ॥ तेनाप्यक्षुभिते नाथे सर्परूपं भयंकरम् । विचकार स दुष्टात्मा यमपाशायुधोपमम् ॥ १२ ॥ प्रभु स सपो दर्पान्धो भोगेनावेष्टयद् दृढम् । दश दशढिममोविषनिरः॥ १३०॥ चक्रे स भुधाभूते भूतराट् सप्त वेदनाः। शिरोनेत्रश्रवोनासावन्तपृष्ठनखे प्रभोः॥ १३१ ॥ एकापि वेदना मृत्युकारणं प्राकृते नरे। अघिसेहे तु ताः स्वामी सप्तापि युगपद्भवाः ॥ १२ ॥ कृत्वा कृत्वेत्युपसर्गानिर्षिण्णो व्यन्तरः स तु । नत्या विज्ञपयामास प्रभुमेवं कृताञ्जलिः ॥ १३३ ॥ मया दुरात्मना नाथ ! तब शक्तिमजानता। नितान्तमपराद्धं यत्तत्क्षमस्व दयानिधे ! ॥ १३४ ॥ १ सर्विगा / ॥ २ महायो D, M || सुषा (', M॥
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तदा च सिद्धार्थसुरः स्वकार्यव्यग्रमानसः । स्वामिसान्निध्यविषयमस्माषर्षीच्छऋशासनम् ॥ १३५ ॥ साटोपमेत्य चेत्यूचे शुलपाणे ! सुराधम ! । अमार्थितमार्थक ! भोः ! किमेतद्भवता कृतम् ॥ १३६ ॥ तीर्थकर भगवन्तं सिद्धार्थनृपनन्दनम् । जगत्त्रयस्यापि पूज्यं किं न जानासि दुर्मते !॥ १३७॥ यदि त्वचरितं शक्रः स्वामिभक्तोऽद्य वेत्स्यति । नदा तत्कुलिशधाराक्षोदपात्रीभविष्यसि ॥ १३८ ।। शूलपाणिस्ततो भीत्या पश्चात्तापेन चाकुलः । पुनरक्षमयन्नाथं नान्यदीपयिक तदा ॥ १३९ ।। तं प्रशान्तं च सिद्धार्थः सानुकंपोऽभ्यधादिदम् । अहो तत्वानभिज्ञोऽसि शृणु तत्त्वं यथातथम् ।। १४० ॥ वीतरागे देवबुद्धिगुरुबुद्धिश साधुषु । धर्म जिनोदिते धर्मबुद्धिरित्यात्मसात् कुरु ॥ १४१ ॥ प्राणिवतः परं पीडां मा कार्षीरात्मनीव भोः । निन्देन्हेंश्च सर्वाणि पूर्वदुश्चरितानि च ॥ १४२ ॥ अप्येकदाऽऽचरितस्य हन्त तीव्रस्य कर्मणः । कोटीकोटिगुणं दुःखविपाकं जन्तुरश्नुते ॥ १४३ ॥ शूलपाणिस्तदाकाऽनेकमाणिक्षयं कृतम् । स्मरन्मुहुनिनिन्द स्वं पश्चात्तापाधिवासितः ॥ १४४ ॥ सम्यक्त्वभृद्भवोद्विग्नः सोऽर्चित्वा चरणौ प्रभोः । आगोमलक्षालनाम्भः संगीतमुपचनामे ॥ १४५ ॥ नवीतशब्दमाकर्ण्य ग्राम्या एवमचिन्तयन् । मन्ये व्यापाद्य देवार्य देवः क्रीडति संप्रति ॥ ५४६ ॥ नाथोऽपि चतुरो यामान किश्चिदूनान कदर्धितः । श्रमान्निद्रामधिगतोऽपश्यत् स्वमानमून दश ॥ १४७ ।। १ कोटि । कोटा 1.॥
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वर्धिष्णुस्तालपिशाचः स्ना नगपादित किल । कोकिलो वेननिनौ च सेवमानौ स्वसन्निधौ ॥ १४८ ॥ दामद्वयं च गन्धाढ्यं गोवर्गः सेवनोद्यतः । पद्माचितं पद्मसरो दोर्ध्या तीर्णश्च सागरः ॥ १४९ ॥ उद्रदिमकं चार्कविम्बमथाद्रिर्मानुषोत्तरः । निजान्नैवेष्टितः स्वेनारूढं मेरुशिरोऽपि च ॥ १५०॥ एवं प्रेक्ष्य दश स्वप्नान् प्राबुद्ध त्रिजगद्गुरुः । उदियाय च मार्तंडो विवन्दिषुरिव प्रभुम् ॥ ११ ॥ नदा चागाजनः सर्व इन्द्रशमोत्पलोऽपि च । अक्षतांगं पूजितं च प्रभु प्रेक्ष्य मुदं ययौ ॥ १५२ ।। साश्चर्याः प्रभुमभ्यर्च्य पुष्पप्रभृतिभिश्च ते । सिंहनादं विदधिरे धीरा इव जिताहवाः ॥ १३ ॥ सिंहनादमुखास्ते तु परस्परमदोऽवदन् । देवार्येणाधुना दिष्ट्योपाशामि व्यन्तरश्चिरात् ॥ १५४ ॥ उत्पलोऽपि परिज्ञाय भगवन्तमवन्दत । निषसाद च तत्पादपनान्ते शिष्यलेशवत् ॥ १५५ ।। कायोत्सर्गावसाने च प्रभु नत्वोत्पलः पुनः। ज्ञानसामर्थ्यनो ज्ञानप्रभुस्वमोऽब्रवीदिदम् ॥ १५ ॥ स्वामिनिशान्ते युष्माभिःसुस्यमाः प्रेक्षिता दश। नत्फलानि स्वयं वेत्मि भत्तयाख्यामि तथाप्यहम् ॥१५॥ हतरसालपिशाचो यत्तन्मोहं निहनिष्यसि । गच्छ्वतः कोकिला शुक्लध्यानमारोक्ष्यसीश ! तत् ॥१८॥ यचित्रः कोकिलस्तद् द्वादशांगी प्रथयिष्यसि । गोवर्गो यत्तु तद्भावी संघस्तव चतुर्विधः ॥ ५९॥ यत्तु पद्मसरो देवनिकायः सेवकस्ततः । यत्तु सागरमुत्तण उत्तरिष्यसि तद्भवम् ॥ १६० ॥ १ वीरा ॥ ॥ २ तु D, if |
॥२३॥
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यच्चार्कः केवलज्ञानं तत्समुत्पत्स्यते तव । यच्चान्त्रैर्वेष्टितोऽद्रिस्तत्समतापं यशस्तव ॥ १६१ ॥ यन्मेरुशृंगमारूढस्त्वं तत्सिंहासनस्थितः । धर्म देक्ष्यसि यद्दाम्नी नयोनि फलं न हि ॥ १६२ ।। अथाचचक्षे भगवान् दामद्वयफलं त्वदः । गृहस्थानां यतीनां च वक्ष्ये धर्म द्विधापि हि ॥ १६३ ॥ अथ नत्था जगन्नाथं ययौ स्वस्थानमुत्पलः । विस्मयप्रमदोन्मुद्रमनसोऽथापरेऽप्ययुः ॥ १६४ ।। तत्रार्धमासक्षपणैश्चतुर्मासीमतीत्य साम् । निरगादस्थिकप्रामाहि.हतु प्रभुरन्यतः ॥ १६५ ॥ अनुगच्छन् शूलपाणिः प्रभु नत्वाऽभ्यधादिदम् । स्वसौख्यनिरपक्षस्त्वमिहागा मेऽनुकम्पया ॥ १६६॥ न पापो मत्समः कोऽपि यस्त्वय्यप्यपकारकृत् । न सार्वस्त्वत्समः कोऽपि यो मय्यप्युपकारकत्॥१६७॥ अद्य यावदार्जयिष्य कामहं नरकावनिम् । नाबोधयिष्यस्त्वं चेन्मां विश्वोपकृतिकर्मठ ! ॥१६८ ॥ इत्युदित्वा भक्तिगंभों भगवन्तं प्रणाम्य च । शूलपाणिनिववृते शान्तो द्विप इवामदः ॥ १६९ ।। दीक्षाधिनादतीतेऽन्दे मोराकं सनिवेशनम् । गत्वा तदहियाने स्वाम्यस्थात् प्रतिमाधरः ॥ १७ ॥ तस्मिन्नच्छन्दको नाम पाखंडी सन्निवशने । ज्योतिष्कमंग्रतंत्रादिकरणेन स्म जीवति ॥ १७१ ॥ सस्यासहिष्णुर्माहात्म्यं स्वाम्यर्चा चाभिलाषुकः । सिद्धार्थव्यन्तरः कृत्या संक्रमं स्वामिवर्मणि ॥ १७२ ।। १ साधुसद ), स्वार्यस्व ॥ ॥ २ गर्भ L!! ३ "पंटी C, D, I. 1. टि.- सर्वेभ्यो हितः।
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॥५४॥
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यान्तमाहूय गोपालमूचे भो ! भुक्तवानसि । कंगुकूरं ससौवीरं वृषांस्त्रातुं च गच्छसि ॥ १७३ ॥ आगच्छेश्राहिमद्राक्षीः स्वमेऽरोदीश्च निर्भरम् । तदेतत्संवदति किं सत्यमाख्याहि गोपक ! ॥ २७४ ॥ सत्यमेवेति तेनोक्ते सिद्धार्थस्तस्य भूरिशः । भूयस्तत्तत्समाचख्यौ प्रत्ययोत्पत्तिकारणम् ॥ १७५ ॥ गोपः सविस्मयो ग्रामे गत्वाऽऽख्यग्रद्बहिर्वने । देवायऽस्ति त्रिकालज्ञः सोऽपूरि प्रत्ययान्मम ॥ १७६ ॥ तच्छ्रुत्वा कौतुकापूर्णस्तु ग्रामजनोखिला । पुष्पाक्षतादिपूजाभृदाययाँ स्वामिसन्निधौ ॥ १७७ ॥ सिद्धार्थः स्वामिसंक्रान्तो ग्रामीणानब्रवीदिदम् । द्रष्टुं मेऽतिशयं यूयं सर्वे स्थ किमिहागताः ? ॥ १७८ ॥ ग्राम्यैरामेत्यभिहिते यत्तैर्दृष्टं कृतं श्रुतम् । उक्तं च प्राक् तदानीं च सिद्धार्थस्तदचीत् ॥ १७९ ॥ सिद्धार्थो भावि वाचख्यौ श्रुत्वा लोकस्तनोऽकरोत् । प्रभोः पूजां वन्दनां च महामहिमपूर्वकम् ॥ १८० ॥ एवं च प्रत्यहं लोकेष्वापतत्सु पतत्सु च । सिद्धार्थव्यन्तरस्याभून्मनःप्रीतिर्गरीयसी ॥ १८१ ॥ ऊचुस्तत्रान्यदा ग्राम्याः स्वामिन्नच्छन्दकाभिषः । ग्रामे परिवसत्यस्मिन् सोऽपि वेत्ति भवानिव ॥ १८२ ॥ सिद्धार्थस्तान भाषिष्ट न स जानाति किञ्चन । ऋजून् प्रतार्य भवतः करोत्युदर पूरणम् ॥ १८३ ॥ ते गत्वाऽच्छन्दकं स्माहुर्न त्वं जानासि किञ्चन । सर्वं जानाति देवाय भावि भूतं भवच्च यत् ॥ १८४|| स्वप्रतिष्ठाभ्रंश भीरु भाषेऽच्छन्दकोऽप्यवः । स वः पुरो वेत्ति परं परमार्थमजानताम् ॥ १८५ ॥
१ तु । स्थः । स्व ८ ॥
| ॥२५॥
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तृतीयः
सर्ग:
पुरो मम यदि ज्ञाता मन्ये ज्ञाता तदा हि सः। गत्वा तस्याऽज्ञनामाविष्करोम्येषोऽद्य पश्यत ॥ १८६ ॥ इत्युक्त्वाऽच्छन्दकः क्रुद्धो वृतो ग्राम्यैः सकौतुकैः । कायोत्सर्गस्थितं नाथं द्रुतं द्रुतमुपाययौ ॥ १८७॥ करांगुलीभिः स तृणं गृहीत्वोभयपार्श्वयोः । ऊच नाथं तृणमिदं किं मया छेत्स्यते न वा ? ।। १८८ ।। भावस्तस्याभवच्चायं देवायों यद्वदिष्यति । तत्प्रतीपं करिष्यामि स्याद्यथाऽमृतवागसौ ॥ १८९॥ आचचक्षे च सिद्धार्थो न छेत्स्यत इदं तृणम् । अच्छन्दकोऽपि तच्छेत्तुमारेभे सज्जितांगुलिः ॥ १९ ॥ दध्यौ शक्रस्तदा स्वामी विहरत्यधुना कथम् । दत्तोपयोगनापश्यत्तदच्छन्दकचेष्टितम् ॥ १९१ ॥ मा भूत्स्वामिमुखोद्गीर्णा गीरसत्येति वज्रभृत् । धज्रेण चिच्छेद दशाप्यच्छन्दककरांगुलीः ।। १९२ ॥ वीक्षापन्नस्तृणाच्छेदाद्धस्यमानोऽखिलैर्जनः । अच्छन्दकोऽन्यतोऽगच्छदुन्मत्त इव मूढधीः ।। १०३ ॥ सिद्धार्थोऽश्रावदद् ग्राम्यांस्तस्करोऽच्छन्दको ह्ययम्। ग्राम्याःप्रत्यूचिरे स्वामिन् ! किं कस्यानेन चोरिनम् १९४ सिद्धार्थोऽप्यब्रवीदत्र वीरघोषोऽस्ति कर्मकृत् । तच्छ्रुत्वा वीरघोषोऽपि प्रणम्य स्वमदर्शयत् ॥ ११५ ॥ आदिशेति च तेनोक्त सिद्धार्थः पुनरभ्यधात् । भाजनं ते दशपलं नष्टपूर्व निकेतनात् ? ॥ १९६ ।।। आमेत्युक्ते च घोषेण सिद्धार्थः स्माह तत्खलु । हृतं पाखण्डिनानेन प्रत्ययोऽत्र निरीक्ष्यताम् ॥ १९७ ॥
१ त्रिकालास्तदा ॥
॥५६॥
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पश्चानिजौकसः प्राच्यां दिशि शिनुमहीरुहः । हस्तमात्रमधः क्षिप्तमस्ति गत्वा गृहाण सत् ॥ १९८ ॥ उत्कौतुकृता लोकरिघोषस्तदालय । भाजनं तत्तथाख्यानं गृहीत्या पुनराययौ ॥ १९९ ॥ ग्राम्यानुत्तुमुलान् भूयः सिद्धार्थः प्रोचिवानिति । भूयोऽपि श्रूयतामिन्द्रशमत्यत्रास्ति किं गृही॥ २००॥ अस्तीत्यभिदधे लोक इन्द्रशर्माप्युपस्थितः। आज्ञापयायमस्मीति वदन प्राञ्जलिरग्रतः ।। २०१॥ सिद्धार्थोऽभिदधे भद्र नष्टः किं ने पुरा *हुड्डः ? । एवमेतदित्याचदिन्द्रशर्मा सविस्मयः ।। २०२॥ सिद्धार्थः स्माह हत्वा स भक्षितो भिक्षुणामुना । पदर्या दक्षिणे पार्श्वेऽवकरेऽस्थीनि नस्य तु ॥ २० ॥ लोकाश्च कौतुकाद्गत्वा तदस्थीनि व्यलोकयन् । सन्तीत्यभिधानास्तु भूयस्तत्र समाययुः ॥ २०४॥ सिद्धार्थः पुनरप्यूचे नृतीयमपि चेष्टितम् । अस्यास्ति तदस्तु परं कथयिष्यामि न ह्यहम् ॥ २० ॥ आख्याहि सर्वथा तन्नः प्रसीदेति पुनः पुनः । ग्राम्यास्तमब्रुवन रम्या स्यादर्थकथिता कथा ॥ २०६ ॥ अथाभाषिष्ट सिद्धार्थो नाख्यास्यामि तथाप्यहम् । कौतृहलं चेत्तद्भार्या गत्वा पृच्छत तद्गृहे ॥ २०७॥ तद्वेश्मनि ययौ लोकः स्वभार्या तेन तहिने । कुहितामर्षवत्येवं साम्रदृक् चिन्तयन्त्यभूत् ।। २०८ ॥ सुष्टु जातं यदेतस्य करांगुल्यो निकर्तिताः । न्यक्कृतश्चाखिलैलोकैलोकः संप्रत्युपैति चत् ॥ २०९ ।। अस्य दुश्चरितं सर्वं तदा प्रकटयाम्यहम् । यथैष लभते पापो मत्कुटन भवं फलम् ।। २१० ॥ टी.- शि :-'सरसावो' इति गुर्जरभाषायाम । * अजः ।
॥१७॥
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अerest ग्रामजनोऽपृच्छत्तचेष्टितं च ताम् । सोच को नामापि ही पापकारिणः ॥ २११ ॥ यदसावात्मनः स्वत्रा समं वैषयिकं सुखम् । भुंक्ते त्रिकर्मचंडालो न मामिच्छति जातुचित् ॥ २१२ ॥ एवं श्रुत्वा कलकलं कुर्वाणा ग्रामवासिनः । ययुर्निज निजं गेहमच्छन्दकविगर्हिणः ॥ २१३ ॥
5 सर्वत्र पाप पापेति भत्र्त्स्यमानः स भिक्षुकः । भिक्षामध्याप न कापि धिक् प्रतिष्ठाच्युतं नरम् || २१४ ॥ hari fara ear नत्वा दीनो जगाद सः । भगवन्नन्यतो याहि पूज्यः सर्वत्र पूज्यते ॥ २१५ ॥ अत्रैवाच्यऽस्मि नान्यत्र नामापि ज्ञायते मम । स्वदयमेव शौर्य हि गोमायोर्न पुनर्बहिः ॥ २१६ ॥ अजानता दुर्विनयो यो मयाञ्कारि नाथ ! ते । संप्राप्तं तत्फलं संप्रत्यनुकम्पस्व मामतः ॥ २१७ ॥ अप्रीतिमत्परीहाराभिग्रही भगवानथ । चचालोत्तरचावालं सन्निवेशं प्रति प्रभुः ॥ २९८ ॥ दक्षिणश्चोत्तरश्चेति चावालौ द्वौ तदन्तरे । सुवर्णवालुका रूप्यवालुका चेति निम्नगे ॥ २१९ ॥ दक्षिणादुत्तरे यानश्चावालेऽथालगत्प्रभोः । कंटके देवदृष्यार्थं सुवर्णवालुकात ॥ २२० ॥ किश्चिद्गत्वा प्रभुर्माभूष्टमस्थंडिले यदः । इति तद्वीक्ष्य वस्त्रार्थं गन्तुं प्रववृते ततः ॥ २२१ ॥ पृष्ठलग्नस्त्रयोदशमास्यन्ते ब्राह्मणस्तु सः । तद्वस्त्रार्थमुपादाय वन्दित्वा च प्रभुं ययौ ॥
२२२ ॥
१ मां तत्तः f ||
तृतीयः
सर्गः
||१८||
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तुन्नवायस्य तस्यैव हृष्टो विप्रस्तदार्पयत् । सोऽपि ते देवदृष्यार्थे अयोजयद संधिवत् ॥ २२३ ॥ दीनारलक्षं तन्मूल्यं बन्धू इव विभज्य तौ । अर्धम जगृहतुस्तुन्नत्रायो द्विजश्च सः ॥ २२४ ॥ इतश्च भगवान् वीरः समीरण इवाञ्स्वछन् । वेतव्यभिमुखं गच्छन्नित्यूचे गोपदारकैः ॥ २२५ ॥ देवार्यामृजुः पन्थाः श्वेतवीमुपतिष्ठते । किं त्वन्तरेऽस्य कनकखलाख्यतापसाश्रमः ॥ २२६ ॥ स हि दृग्विषसर्पणाधिष्ठितो वर्ततेऽधुना । चायुमात्रैकसञ्चारोऽप्रचारः पचिणामपि ॥ २२७ ॥ विहाय तदसुं मार्ग वक्रेणाप्यमुना व्रज । सुवर्णनापि किं तेन कर्णच्छेदो भवेद्यतः ॥ २२८ ॥ तं चाहिं प्रभुरज्ञासीद्यदसौ पूर्वजन्मनि । क्षपकः पारणकार्थं विहर्तुं वसतेरगात् ॥ २२९ ॥ गच्छता तेन मंडूकी पापाताद्विराधिता । आलोचनार्थमेतस्य दर्शिता क्षुल्लकेन सा ॥ २३० ॥ सो प्रत्युत मंडूकीर्दर्शयन लोकमारिताः । ऊचे क्षुल्लं मया क्षुद्र ! किमेता अपि मारिताः १ ॥ २३१ ॥ तृष्णोऽभूत्ततः क्षुल्लो मस्त चैवं विशुद्धधीः । महानुभावो यदसौ सायमालोचयिष्यति ॥ २३२ ॥ आवश्यके ऽप्यनालोच्य यावदेष निषेदिवान् । क्षुल्लकोऽचिन्तयत्तावद्विस्मृताऽस्य विराधना ॥ २३३ ॥ अस्मारयच तां भेकीमालोचयसि किं न हि । क्षपकोऽपि कुधोत्थाय क्षुल्लं हन्मीति धावितः ॥ २३४ ॥ कोपान् ततः स्तं प्रतिर्फल्य व्यपद्यत । विराधितश्रामण्योऽसौ ज्योतिष्केषूपपश्यत || २३५ ॥
१ स्फल्य J ॥
॥५९॥
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| तृतीयः सर्गः
स च्युत्वा फनकखले सहस्रातपस्विनाम् । पत्युः कुलपतेः पत्न्याः पुत्रोऽभूत् कौशिकायः ॥ २३६ ॥ तत्र कौशिमगोववादासशल्यपि गौशिमाः । अत्यन्तकोपनत्वाच स ख्यातचंडकौशिकः ॥२७॥ श्राद्धदेवातिथित्वं च तस्मिन् कुलपतौ गते । असौ कुलपतिस्तत्र तापसानामजायत ॥ २३८॥ भूईया बनखंडस्य सोऽन्ताम्यन्नहर्निशम् । अदात्कस्यापि नादातुं पुष्पं मूलं फलं दलम् ॥ २३९॥ विशीर्णमपि योऽगृह्णाद्वने तत्र फलादिकम् । उत्पाट्य परशुं यष्टिं लोष्टुं वा तं जधान सः । २४० ॥ फलाद्यलभमानास्तु सीदन्तस्ते तपस्विनः । पतिते लगुडे काका इव जग्मुर्दिशो दिशम् ॥ २४१ ॥ अन्येjाटिकाहेतोः कौशिक थहिरीयुषि । अभांक्षुमक्षु राजन्याः श्वेतव्या एल्य तद्वनम् ॥ २४२ ॥ अथ व्यावर्तमानस्य गोपास्तस्य न्यवीविदन् । पश्य पश्य वनं कैश्चिद्भज्यते भज्यते तव ॥ २४३ ।। जाज्वल्यमानः क्रोधेन हविषव हुताशनः । अकुंठधारमुगम्य कुटारं सोऽभ्यधावत ॥ २४४ ॥ राजपुत्रास्ततो नेशुः श्येनादिव शकुन्तयः । स्खलित्वा च पपातायं यमवक्त्र इवावटे ॥ २४॥ पततः पतितस्तस्य संमुखः परशुः शितः । शिरो द्विधा कृतं तेन ही विपाकः कुकर्मणाम् ॥ २४६ ।। स विपद्म वनेनैव चंडोऽहिग्विषोऽभवत् । क्रोधस्तीत्रानुबन्धो हि सह याति भवान्तरे ॥ २४७ ॥ अवश्यं चैष बोधार्ह इति बुद्धया जगद्गुरुः । आत्मपीडामगणयन्नुजुनैद पथा ययौ ॥ २४८ ॥
॥३०॥
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अभवत्पदसञ्चारसुषमीभूतवालुकम् । *उदपानावहत्कुल्यं शुष्कजर्जरपादपम् || २४९॥ जीर्णपर्णचयास्तीर्ण कीर्ण वल्मीकपर्वनैः । स्थलीभूतोटजं जीरण्यं न्यविशन प्रभुः ॥ २५० ॥ (युग्मम् ) सा गाय जागलामो पक्ष पिकासारे । तस्थौ प्रतिमया नासामान्तविश्रान्तलोचनः ।। २२१ ॥ ततो रष्टिविषः सर्पः सदो भ्रमितुं घहिः । बिलान्निरसरजिह्वा कालरात्रिमुखादिव ॥ २५२॥ भ्रमन् सोऽनुवनं रेणुसंक्रामद्धोगलेखया । स्वाऽऽज्ञालेखामिव लिखन्नीक्षाश्चके जगद्गुरुम् ।। २०३॥ अत्र मां किमविज्ञाय किमषज्ञाय कोऽप्यसौ । आः प्रविष्टो निराशंकं निष्कंपः शंकुवस्थितः ।। २५४ ॥ सदेनं भस्मसादय करोमीति विचिन्तयन् । आध्मायमानः कोपेन फटाटोपं चकार सः ।। २५५॥ ज्वालामालामुदमन्त्या निर्दहन्त्या लतादुमान् । भगवन्तं दृशाऽपश्यत् स्फारफत्कारदारुणः॥ २५६॥ दृष्टिज्वालास्ततस्तस्य ज्वलन्त्यो भगवत्तनौ । विनिपेतुर्दुरालोका उल्का इष दिवो गिरौ ॥ २७ ॥ प्रभोर्महाप्रभावस्य प्रभवन्ति स्म नैव ताः । महानपि मरुन्मलं किं कम्पयितुमीश्वरः ॥२८॥ दारुवाहं न दग्धोऽसावद्यापीति क्रुधा ज्वलन् । दर्श दर्श दिनेशं 'द्विदृग्ज्वालाः सोऽमुचत्पुनः ॥ २०॥
टि.-- *हवाडो' इति गुर्जरभाषायाम् । १त्रि DI हि हूँ ॥
॥६॥
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१|| तृतीयः
मर्ग:
संपन्नासु प्रभो वारिधाराप्रायासु मास्वपि । ददंश दन्दशकः स निःशूकः पादपंकजे ॥२०॥ दृष्ट्वा दृष्ट्वापचक्राम स्वविषोद्रेकदुर्मदः। यत्पतन्मद्विषाक्रान्ती मृदुनीयादेष मामपि ।। २६१॥ दशतोऽप्यसकृत्तस्य न विषं प्राभवत्प्रभो । गोक्षीरधाराधवलं केवलं रक्तमक्षरत् ॥ २६६ ।। ततश्च पुरतः स्थित्या किमेतदिति चिन्तयन । वीक्षांचक्रे जगन्नाथं वीक्षापन्नः स पन्नगः ॥२६॥ नतो निरूप्य रूपं तदसरूपं जगद्गुरोः । कान्तसौम्यतया मंक्षु विध्याते नद्विलोचने ।। २६४ ॥ *उपसन्नं न जात्वा बभाष भामानिति । बकौशिक ! बुध्यस्व वुध्यस्व ननु मा मुहः ॥ २० ॥ श्रुत्वा तद्भगवद्वाक्यमूहापोहं वितन्वतः । पन्नगस्य समुत्पदे सारणं पूर्वजन्मनाम् ॥ २६६ ॥ ततः प्रदक्षिणीकृत्य स विस्त्रिभुवनेश्वरम् । निष्कषायः स्वमनसाऽनशनं प्रत्यपद्यत ।। २६७ ।। कृतानशनकर्माणं निष्कर्मार्ण महोरंगम् । प्रशमापन्नमज्ञासीदन्वज्ञासीच्च ने प्रभुः ॥ २६८ ॥ कुत्राप्यन्यत्र मा यासीद् दृष्टिमें विषभीपणा । इति तुण्डं बिल क्षिप्त्वा पपौ स समताऽमृतम् ॥७॥ तस्थौ तथैव तत्रैव स्वामी तदनुकंपया। परेषामुपकाराय महतां हि प्रवृत्तयः ॥ २७ ॥ भगवन्तं तथा दृष्टा विस्मेयस्मरलोचनाः । गोपाला वत्सापालाश्च तत्रोपसरपुर्वृतम् ॥ २७१ ॥ वृक्षान्तरे तिरोभूय यथेष्टं ग्रावलेष्टुभिः । प्रणिजघ्नुरनिघ्नास्ते पन्नगस्य महात्मनः ॥२७२ ॥ दि.-*शन्तम् ।
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नथाप्यविचलं ने तं वीक्ष्य विश्राम भाजिनः । यष्टिभिर्घट्टयामासुर्निकटीभूय तत्तनुम् ॥ २७३ ॥ आख्यञ्जनानां तद्गोपास्ततस्तत्रागमञ्जनाः । क्वन्दिरे महावीरममहंश्च महोरगम् ॥ २७४ ॥ घृतविक्रयकारिण्यो गच्छन्त्यस्तेन वर्त्मना । नार्ग हैयंगवीने नाम्रक्षयन् पस्पृशुश्च तम् ॥ २७५ ॥ आगत्य घृतगन्धेन तीक्ष्णतुण्डाः पिपीलिकाः । चक्रिर *तितउप्रायमहस्तस्य कलेवरम् ॥२७६ ॥ मत्कर्मणां कियदेतदित्यात्मानं निगोगन ! वेदनामधिसेहे तो दुस्साहां मोहिपुंगवः ॥ २७७ ।। वरायो मा स्म पील्यन्त स्वल्पसाराः पिपीलिकाः । इत्यचीचलदंगं न मनागपि महोरगः ।। २७८ ।। सिक्तः कृपासुधावृष्ट्या दृष्ट्या भगवतोरगः । पक्षान्ने पंचतां प्राप्य सहस्रारदिवं ययौ ॥ २७ ॥ एवं कौशिकनागायोपकृत्य निरगादनात् । प्राप चोत्तरचावालसन्निधेशं जगद्गुरुः ॥२८॥ पक्षान्ने पारणार्थं च भ्रमन गोचरचर्यया । गृहिणो नागसेनस्य सदने प्रययौ प्रभुः ॥ २८१ ।। तत्राहनि द्वादशाब्दया गृहिणस्तस्य नन्दनः । अचिन्तितस्तदाऽभ्यागार्षदोऽनभ्रवृष्टिवत् ॥ २८॥ उत्सवो नागमनेन तेनाकारि स्ववेश्मनि । भोजितः स्वजनोऽशेषः स्वाम्यायातश्च वीक्षितः ॥ २८३ ॥ दुरात्स्वामिनमालोक्य प्रमोदमधिकं वहन् । नागसेनोऽपि पयसा भक्तिमान् प्रत्यलाभयत् ॥ २८४ ॥ तत्रामरैरहो दानं सुदानमिति भाषिभिः । वसुधाराप्रभृतीनि पंच दिव्यानि चक्रिरे ॥ २८५ ॥ टि.- *'चाळणी' इति गुर्जर
दा
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पारयित्वा प्रभुरपि श्वेतवीं नगरीं ययौ । प्रदशिना नरेन्द्रेण जिनभक्तेन भूषिताम् ॥ २८६ ॥ पौराऽमात्यचमूपायैः प्रदेशी परिवारितः | मघववापरोऽभ्यत्य जगन्नाथमवन्दत ॥ २८७ ।। प्रदेशी स्वपुरेऽथागात् स्वामी च विहरन क्रमात् । नगरं सुरभिपुरं तपःसुरभिरभ्यगात् ॥ २८८ ॥ मेदिन्या इव *संव्यानं प्रतिमानमिवाम्बुधेः । गंगां तरंगिणीमुच्चतरंगामासदत् प्रभुः ॥ २८ ॥ तो तितीर्घः सिद्धदत्तनाविकमगुणीकृताम् । आरोहद्भगवान्नावं पथिका अपरेऽपि हि ॥ २९ ॥ दण्डाभ्यां चाल्यमानाभ्यां पक्षाभ्यामित्र पक्षिणी । त्वरितं गन्तुमारेभे नौरभ्युशतनाविका ॥ २:१॥ याशित कौशिकेनोच्चैस्तदानीं तटवर्तिना । क्षमिलाख्यः शकुनज्ञोऽवोचक्षम न खल्विह ॥ २९२ ॥ प्राप्तव्यमचिरात् सर्वैर्व्यसनं मरणान्तिकम् । महर्षेरस्य महिम्ना तस्मान्मोक्ष्यामहे परम् ॥ २९३ ॥ ब्रुवाण एव तत्रैवं नौरगाधं जलं ययौ। सुदाढो नागकुमारस्तत्रस्थं चैक्षत प्रभुम् ॥ २९४ ॥ स्मृत्वा प्रारजन्मवरं स क्रुध्यन्नेवमचिन्तयत् । सोऽयं येन त्रिपृष्टत्वे सिंहोऽहं निहतस्तदा ॥ २९५ ।। रातहेशातिदरस्थे गिरौ निवसता मया । नापराद्धं तदा किंचिन्त्रिपृष्ठस्य सतोऽस्य हि ॥ २६ ॥ निजदोवार्यदर्पण कुतुहलचिकीर्षया । गुहामध्ये निलीनोऽहं तदानीं निहतोऽमुना ॥ २९७ ॥ टि.- वस्त्रम् ॥ १ 'दन्त DHE
॥६॥
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annamrinar
दिष्ट्यष गोचरे दृष्ट्यो वैरं स्वं साधयाम्यहम् । वरं हि ऋणवत्पुंसां जन्मान्तरशतानुगम् ॥ २९८॥ आसन्नमप्यवसानं मम खदाय नाधुना । प्राग्वरसाधनादय कृतार्थीकृतजन्मनः ।। २०१॥ एवं विचिन्त्य सामर्षः सुदाढो विकटेक्षणः। एत्योपवीरं व्योमस्थश्चके किलकिलारवम् ॥ ३० ॥ अरे रे ! कुत्र यासीति विब्रुवन विचकार सः। संवर्तकमहावातं संवर्तानिलभीषणम् ॥ ३०१॥ निपतुस्तरवस्तंन पर्वताश्च चकम्पिरे । गांगमुच्छलति स्मोच्चैर्जलमभ्रंलिहोर्मिकम् ॥ ३०२॥ सा च गांगेस्तरंगोंः समुत्पातिनिपातिभिः । उदच्यते न्यच्यते स्म द्विरदोपात्तरूपवत् ॥ ३०॥ निर्भग्नः कृपकस्तम्भः शीर्णः सितपटोऽपि च । आत्मेय नावो मूढोऽभूत् कर्णधारो भयातुरः ॥ ३०४॥ आरभे देवताः स्मर्तु मर्तुकामः समाकुलः । यमजिह्वाग्रवर्तीव नौवर्ती सकलो जनः ।। ३०६ ॥ इतश्च मथुरापुर्या जिनदासो वणिक् पुरा । श्रावकोऽभूत्तस्य भार्या साधुदासीति विश्रुता ॥ ३०६ ॥ प्रत्याख्यातां धार्मिको तोचतपदपरिग्रहम । दध्यादिक चिक्रियतुश्चाभीरीपार्श्वतोऽन्वहम् ॥ ३०७॥ आमीरी काचिदन्येद्यरानिन्ये प्रवरं दधि । क्रीत्वा च साधुदासी ति तामुवाच प्रसन्नवाक।। ३०८॥ त्वया नान्यन्न नेतन्यं दुग्धदध्यादिकं निजम् । अहमेव ग्रहीष्यामि मूल्यं दास्ये तवेप्सितम् ॥३०९ ॥
१ "चरो दृष्ट्याः स्वं वैरं
॥ २ च 1 || ३ तरित्युवाच C । तामित्युवाच
||
॥३५॥
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तथैव प्रत्यहं चक्रे साभीरी प्रीतमानसा । तां *वेषवारदानेन सचक्रे साधुदास्यपि ॥ ३१० ॥ द्वयोः प्रववृते स्नेहः स्वस्रोरिव तयोहार । असीर्गाः सबने ताषा विवाभवदन्यदा ।। ३११ ॥ निमन्त्रितौ तयोद्वारे श्रेष्ठिनावेवमूचतुः । आवामक्षणिक भद्रे ! नागन्तुं तत्र शक्नुवः ॥ ३१२ ॥ यत्तु वस्तु विवाहार्थं तद् गृहाणास्मदालयात् । इत्युक्त्वा ददतुर्वस्त्रधान्यालंकरणादिकम् ॥ ३१३ ॥ तत्तैर्वस्तुभिस्तस्या विवाहः शोभनोऽभवत् । सर्वस्वजन गोपानामेकं शृंगारकारणम् ॥ ३१४ ॥ गोपाः प्रीता रूपवन्तौ द्वावृक्षाणौ त्रिहायणी । नाना कंबलावल श्रेष्ठयर्थमुपनिन्यिरे ।। ३१५ ॥ श्रेष्टिनोऽनादानस्याप्युक्षाणौ ते बलादपि । द्वारे बद्धवा ययुगपा गोपानां स्नेह ईदृशः ।। ३१६ ।। अथ दध्यौ जिनदासो मुच्येते यथम् वृषौ । हलादौ योजयिष्येते तदा हि प्राकृतैर्नरैः ॥ ३१७ ॥ इह चानुपकारित्वाद् दुष्पालौ किं करोमि हा । कीदृशे पातितोऽस्म्येष मूखः स्नेदेन संकटे ॥ ३१८ ॥ इति ध्यात्वा कृपापूर्णः श्रेष्ठी तावपुषद् वृषौ । तृणादिना प्रासुकेन पयसा गलितेन च ॥ ३१९ ॥ श्रेष्ठष्टम्यां चतुर्दश्यामुपवास्यात्तपौषधः । अवाचयद्धर्मशास्त्रपुस्तकं शृण्वतोस्तयोः ॥ ३२० ॥ जज्ञाते भद्रकौ तौ च धर्माकर्ण नतोऽन्वहम् । श्रेष्ठी यवाहि नाभुंक्त नाभुञ्जातां तत्र तौ ।। ३२१ ॥
टि. - * वस्त्रादिदानेन ||
१ बर्तते ॥ २ खस्ने' D, I, M ॥
८२
तृतीयः
सर्ग:
| ।। ६६ ।।
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तृणादिकं दीयमानमपि सम्र दिने यदा। न वृषौ बुभुजाते तो तदा श्रेष्ठीत्यचिन्तयत् ।। ३२२ ।। मयानुकम्पया पुष्टावियत्कालं वृषाविमौ । अतः परं पोषणीयौ बन्धू साधर्मिकाविति ॥ ३२३ ।। तयोवृषभयोरेयं बहुमानं विशेषतः । चक्रे दिने दिने श्रेष्ठी न हि तो तद्धिया पशू ॥३२४ ॥ भंडीरवणयक्षस्य जज्ञे यात्रोत्सवोऽन्यदा । वाहनानां वाहकेली चारेभे ग्रामदारकैः ॥ ३५ ॥ वयस्यो जिनदासस्य कौतुकी तो वृषावुभौ । अनापृच्छ्य गृहीत्वाऽगात लेहे यद्वैतमानिता ॥ ३२६ ॥ कुक्कुटाण्डाविव श्वेतौ सदृक्षा युग्मजाविव । कन्दुकाविव वृत्तांगो चामरोपमवालधी ॥ २७ ॥ उत्पतिष्णू इवौधुर्याद्वेगाद्वायोरिवात्मजी । शकठ्यां योजयामास तौ वृषौ श्रेष्ठिनः सुहृत् ।। ३२८ ।।
(युग्मम्) तत्सौकुमार्यमविदन् माजनाराभिरीरयन् । चित्रीयमाणो लोकानां सोऽकृपस्तावयाहयत् ॥३२॥ वाहकेलीकृतपणान् पौरान सर्वाञ्जिगाय सः । नाभ्यामद्वैतरंहोभ्यां वृषभाभ्यां क्षणादपि ॥ ३३ ॥ आरच्छिद्रोच्छलद्रक्तप्लावितांगौ च ती वृषौ । जातत्रोटौ श्रेष्टिगृहे भूयो बद्धवा जगाम सः ॥ ३३१॥ भोजनावसरे श्रेष्ठी स्वयं यवसपूलभृत् । तयोर्चषभयोः पार्श्वे ययौ तनययोरिव ॥ ३३२ ॥ व्यात्तास्यो निःसही सास्री पहुश्वासी सवेपथू । आरक्षतक्षरगती प्रेक्ष्य तावित्युवाच सः ॥ ३३३ ॥ १ आरा D, I. |
॥६७॥
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1
तौ पापात्मनोक्षाणी प्राणेभ्योऽपि प्रियौ मम । मामनापृच्छय नयता नीनों केनेदृशीं दशाम् ||३३४ ॥ श्रेष्ठिनो मित्रवृत्तान्तमाख्यत् परिजनोऽखिलम् । खेदं श्रेष्ठयपि सोदर्यविपदीवासदद् भृशम् ॥ ३३५ ॥ तौ वृषावप्यनशनं कर्तुकामौ विवेकिनौ । न मनाग्जनतुरपि श्रेष्ठिदत्ते तृणाम्भसी ॥ ३३६ ॥ ततश्चाढोकच्छ्रेटी स्थालमाढ्यान्नपूरितम् । संभावयामासतुस्तद् दुशापि हि ॥ ३३७ ॥ भावं ज्ञात्वा तयोर्भक्त प्रत्याख्यानमदत्त सः । तावपि प्रतिषेदाते साभिलाषौ समाहितौ ॥ ३३८ ॥ तो कृपया श्रेष्ठी स्वयं त्यक्तान्यकर्मकः । नमस्कारान् ददत्तस्थौ बोघर्यश्च भवस्थितिम् ॥ ३३९ ॥ शृण्वन्तौ तौ नमस्कारान् भावयन्तौ भवस्थितिम् । समाधिना मृतौ नागकुमारेषु बभूवतुः ॥ ३४० ॥ अथ कंबलायलाववधेस्तावपश्यताम् । क्रियमाणं सुदादेन स्वामिनस्तमुपद्रवम् ॥ ३४१ ॥ कृतमन्येन कृत्येन कृत्यमेतद्यदर्हतः । उपसर्ग निषेधावी ध्यात्वैवं तावुपेयतुः ॥ ३४२ ॥ एकः प्रववृते योद्धुं सुदादेनाहिना सह । द्वितीयः पाणिनोत्पाट्य निन्ये नावं नदीतटे ॥ ३४३ ॥ महर्द्धिकोऽपि सुदाढ आयुःप्रान्ते गलद्बलः । ताभ्यां नृतनदेवत्ववैभवाभ्यामजीयत ॥ ३४४ ॥ वासुः प्रययौ तौ च नागकुमारकौ । नत्वा प्रभौ ववृषतुः पुष्पगन्धोदके मुदा ।। ३४२ ।। नया इवापदोमुया उत्तीर्णास्त्वत्प्रभावतः । इति ब्रुवाणा नौलोका भक्त्या वीरं ववन्दिर || ३४६ ॥ प्रभुं नत्वेन तर्पा उत्तीर्य च प्रभुः । यथावदैर्या पथिक प्रतिक्रम्यान्यनोऽचलत् ॥ ३४७ ॥
तृतीयः सर्गः
॥ ६८ ॥
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सूक्ष्मामृत्तिके गंगासैकने पदपद्धतिः । चक्रादिलाञ्छिता भर्तुरभूद् भूभूषणं स्फुटा ।। ३४८ ॥ सामुद्रलक्षणाभिज्ञः पुष्पो नाम ददर्श ताम् । एवं च दध्यौ कोऽप्येष एकाकी चक्रवर्त्यगात् ।। ३४९॥ अवाप्यप्राप्तराज्यो वा हृतो वा केनचिच्छलात् । मन्ये संप्रत्यसी याति तं सेवे सेवकैषिणम् ॥ ३५०॥ असावस्यामवस्थायां सेवितः फलदः खलु । सेव्यस्य सेवावसरः पुण्येनैव हि लभ्यते ॥ ३५१ ॥ ध्यात्वेत्यनुपदं सोऽगात् स्थूणाके सन्निवेशने । अधोऽशोकस्य चापश्यत्प्रभु प्रतिमया स्थितम् ॥ ३५२ ।। श्रीवत्सलाञ्छितं वक्षः *शिरोऽप्युष्णीषलाञ्छितम् । चक्रादिलाग्छिती पाणी भुजी 'भुजगरानिभौ॥३५३॥ दक्षिणावर्तगंभीरशुषिरं नाभिमंडलम् । लोकोत्तराणि लक्ष्माणि प्रभोरेवं ददर्श सः ।। ३०४॥ एवं चाचिन्तयत् पुष्पो यथाऽयं पादलक्षणः । लोकोत्तरस्तथान्यैरप्यसौ चक्रीति सूच्यते ॥ ३५५ ।। अप्येभिलक्षणैरेष भिक्षुरित्यस्मि विस्मितः। धिङ्मे शास्त्रश्रमं घिङ मामस्मिन्नाशाविधायिनम् ॥ ३५६ ॥ प्रतारणाय विश्वस्य स्वस्य कौतूहलाय या । अनाप्नरेव शास्त्राणि विहितानीति मन्यते ॥ ३०७ ॥ तेषां वाचा निबद्धाशो धावितोऽस्मि मुधैव हि । मृगतृष्णाजलायेव हरिणो मरुमंडले ॥ ३५८ ।। एवं विमृश्य पुष्पोऽधाद्विषादमधिकं हृदि । तदा चाचिन्तयच्छकः कथं विहरति प्रभुः ॥ ३५९ ॥ अपश्यचावधिद्दशा स्थूणाके स्वामिनं स्थितम् । तं च नैमित्तिकं पुष्पं विषादाच्छास्त्रदूषकम् ॥ ३६० ॥ टि.- भगवतः मस्तकोपरि द्वादशांगुल: उच्चः प्रदेशः । । शेषनागः ।।
॥
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अथ द्रुतमुपैत्येन्द्रो जिनेन्द्रं प्रतिमास्थितम् । अवन्दत महाऋद्धया तस्य पुष्पस्य पश्यतः ॥ ३६९ ॥ शक्रः पुष्पं बभाषे च किं नु शास्त्राणि निन्दसि । तत्कारकांश्च किं तैर्हि न मृषा भाषितं किल ॥ ३६२ ॥ चान्येव हि जानासि लक्षणान्यान्तराणि तु । स्वामिनः क्षौरववले अवित्रे मांसशोणिते ॥ ३६३ ॥ मुखपंकजनिःश्वासः पंकजामोदसोदरः । निरामयं मलस्वेदवर्जितं च प्रभोर्वपुः || ३६४ ॥ अयं हि त्रिजगन्नाथ धर्मचक्री जगद्वितः । विश्वाभयप्रदः स्वामी वीरः सिद्धार्थनन्दनः || ३६५ ।। इन्द्राश्चतुःषष्टिरपि स्वामिनोऽस्य पदातयः । कियन्मानं चक्रिणस्ते येभ्यः फलमभीप्ससि || ३६६ || 5 दत्त्वाऽसौ वार्षिकं दानं तितीर्षुर्भवसागरम् । त्यक्तराज्यः परिव्रज्य विहरत्येवमश्रमः ॥ ३६७ ॥ शास्त्राणि संवदन्त्येव मा विषीद मनागपि । ददाम्यभीप्सितं ते च न सुधा स्वामिदर्शनम् ॥ ३६८ ॥ इत्युक्तवाभीप्सितं तस्मै दत्त्वा च त्रिदशेश्वरः । नमस्कृत्य जगन्नाथं यथास्थानं पुनर्ययौ ॥ ३६९ ॥ कायोत्सर्ग पारयित्वा विहरन् भगवानपि । पादन्यासैः पुनानः क्ष्मां प्राप राजगृहं पुरम् ॥ ३७० ॥ पुरस्यादृरतस्तस्य नालंदाया बहिर्भुवि । विशालां स्वाम्यगाच्छाला तन्तुवायस्य कस्यचित् ॥ ३७२ ॥ तन्तुवायमनुज्ञाप्य वर्षा वस्तुं जगद्गुरुः । शालाया एकदेशेऽस्थान्मासक्षपणमाश्रितः ॥ ३७२ ॥ *erisलखो भद्रा तस्य च गेहिनी । उभौ विजयतुः पृथ्वीं दधानौ चित्रपटिकाम् ॥ ३७३ ॥ दि. - * चित्ररपेन यः स्वां आजीविका करोति |
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तृतीय: | सर्गः
॥७०॥
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प्राप्ते शरवणग्रामे सुभद्राऽसूत चान्यदा । द्विजातेगबहुलस्य गोशालायां तनूरुहम् ॥ ३७४ ॥ स गोशालामसूतत्वाद्गोशाल इति संज्ञितः । क्रमादुद्यौचनो मंखशिल्पमभ्यस्तवान्निजम् ॥ ३७५ ॥ निसर्गतः कलिकरः पित्रोरप्यवशंवदः । निर्लक्षणो जन्मतोऽपि सोऽभूत्कूटविचक्षणः || ३७६ ।। पितृभ्यां कलहं कृत्वा गृहीत्वा चित्रपट्टिकाम् । भ्राम्यन् भिक्षां स एकाकी ययौ राजगृहेऽन्यदा ॥ ३७७ ॥ स्वामिनाऽलंकृते शालाकोणे तत्रानुमान्य तम् । गोशालोऽप्यवसत्सिं हसतिधाविव जम्बुकः ॥ ३७८ ॥ नायोsपि मासक्षपणपारणस्य विधित्सया । विजयश्रेष्ठिनो वेश्म प्राविशत्पाणिभाजनः ॥ ३७९ ॥ भक्त्या महत्या विजयश्रेष्ठी श्रेष्ठमतिः स्वयम् । सम्यग्भोजनविधिना स्वामिनं प्रत्यलाभयत् ॥ ३८० ॥ अहो दानं सुदानं वेत्युचैराघोषिणोऽमराः । रत्नवृष्टयादिदिव्यानि तद्गृहे पञ्च चक्रिरे ॥ ३८९ ॥ आकर्ण्य तत्तु गोशालोऽचिन्तयग्रदयं मुनिः । न सामान्योऽस्यान्नदातुर्गृहे श्रीर्यदभूदियम् ॥ ३८२ ॥ विहाय चित्रफलक पाखण्डं तदमुं निजम् । अस्य शिष्पीभवाम्यण निःफलो नेदृशो गुरुः ॥ ३८३ ॥ तत्रैवं चिन्तयत्येव पारयित्वा जगद्गुरुः । एत्य तत्रैव शालायामस्थात्प्रतिमया प्रभुः ॥ ३८४ ॥ गोशालः स्वामिनं नत्वोवाच वाचंयमस्य ते। मया प्रभावो नाज्ञायि विज्ञेनापि प्रसादतः ॥ ३८५ ॥ शिष्यस्तेऽहं भविष्यामि त्वमेकं शरणं मम । इत्युक्त्वा स तथा चक्रे तृष्णीकोऽस्थात्प्रभुः पुनः ।। ३८६ ॥
१ मेक: CD. M. I
॥७१॥
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तृतीयः
सर्ग:
गोशालो भिक्षया प्राणवृत्ति कुवन् विवानिशम् । नामुञ्चत् स्वामिनः पार्श्व स्यबुद्ध्या शिष्यतां गतः॥३८ द्वितीयमासक्षपणे स्वामी वेश्मन्युपागतः। आनन्देन गृहस्थेन ग्यायकैः प्रत्यलाभ्यन ॥ ३८८ ॥ तृतीयमासक्षपणे सुनन्दगृहिणा प्रभुः । सर्वकामगुणाख्येनाहारेण प्रत्यलाभ्यन ॥ ३८ ॥ गोशालकोऽपि भैक्षण कुक्षिपूरणतत्परः । भगवन्तं महावीरमसेवत दिवानिशम् ॥ ३९० ॥ प्राप्तायामृर्जराकायां गोशालो हृद्यचिन्तयत् । ज्ञान्येष श्रयत इति परीक्ष ज्ञानमस्य हि ॥३९१ ।। जायमाने प्रतिगृहं वार्षिकैस्मिन महोत्सवे। भिक्षायां किमहं लप्स्ये स्थामिन्नाख्याहि मेऽधुना ॥ ३१२॥ सिद्धार्थः स्वामिसंक्रान्तो घभाषे भद्र ! लप्स्यसे । धान्याम्लं कोद्रवकूरमेकं कूटं च रूपकम् ॥ ३१३॥ नदाकयं च गोशालो दिनाऽऽरम्भात्प्रभृत्वपि । विशिष्ट भोजनाभ्यर्थी श्वेवाभ्राम्यद् गृहे गृहे ॥ ३९४ ।। तथापि कुत्रचित् किंनिन्न कश्चिदघाप सः । श्रान्तोऽपराह्न कनापि निन्ये कर्मकृता गृहे ॥ ३१ ॥ धान्याम्लकोद्रबकरे दत्ते तेनापि सोऽपि ते । बुभुजेऽतिक्षुधा लेभे दक्षिणायां च रूपकम् ॥ ३१६॥ परीक्षित रूपकेऽपि कूटे सति स लज्जितः । यद्भावि तद्भवतीति नियतिवादमग्रहीत् ॥ ३९७ ।। दीक्षातः प्रावृषं स्वामी द्वितीयामतिगम्य ताम् । नालन्दाया निरीयाऽगात् कोलाके सन्निवशने ॥१८॥ तदा च बहुलो नाम विप्रो विप्रानभोजयत् । महादरेण स्वगृह भिक्षार्थी चाययौ प्रभुः ॥ ३९९ ॥ टि.- खाजा' इति गुर्जरभाषायाम् । एतमामकेन आहारेण । कार्तिवात्य पूर्णमास्याम् ।
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सशर्कराज्य:रेय्या स प्रभु प्रत्यलाभयत् । चक्रुश्च पञ्च दिव्यानि तदोकसि दिवौकसः ॥ ४०० ॥ चतुर्थमासक्षपणपारणं व्यषित प्रभुः । संसारतारणं दातुः श्रद्धातुरपि जन्मिनः ॥ ४०१ ॥ इतश्च सायं गोशालः शालां हीणोऽविशच्छनैः। अपश्यन स्वामिनं लोकान् क स्वामीत्यन्वयुक्त सः॥४०॥ स्याम्युदन्तं न कोऽप्याख्यत् सोऽन्वेष्टुं स्वामिनं ततः । पर्याट सुचिरं दीनो नालन्दासन्निवेशने ॥ ४०६॥ भूयो वराक एकाकी जातोऽस्मीति विचिन्त्य सः। मुण्डयित्वा शिरस्त्यक्तवस्त्रो निरगमत्ततः॥ ४०४॥ गतश्च कोल्लाकेऽोषीद्वन्योऽयं बहुलो द्विजः । मुनौ दानाद्यस्य गृहे रत्नवृष्टिः सुरैः कृता ॥ ४०५॥ तच्छ्रुत्वाऽचिन्तयत् सोऽपि प्रभातम्तम्य हीदुभाः । पदहरोरेन जान्याय इतमन स तिष्ठति ॥ ४०६॥ एवं विमृश्य सोऽन्वेष्टुं भ्राम्यन्निपुणया दृशा । ऐक्षिष्ट स्थितमेकत्र कायोत्सर्गधरं प्रभुम् ॥ ४०७॥ स प्रणम्य प्रभु स्माह नाहं दीक्षोचितः पुरा । वस्त्रादिसंगादभवं त्यक्तसंगोऽस्मि संप्रति ॥ ४०८ ॥ प्रतिपयस्व मां शिष्यं यावज्जीव गुरुर्भव । त्वां विनेषदपि स्थातुं न क्षमः परमेश्वर !॥ ४०॥ मीरागे त्वयि का लेहो नैकहस्ता हि तालिका । स्वामिन्मन्मनः किं तु बलात्वामनुधावति ॥ ४१०॥ त्वयाभ्युपगतं स्वं तु जानाम्येष तथापि हि । स्मेरारविन्दसधीच्या दृशा मां यन्निरीक्षसे ॥ ४११ ॥ नीरागोऽपि भाव्यनर्थ तद्भवं च विदन्नपि । तद्वचः प्रत्यपादीशो महान्तः क न वत्सलाः १ ॥ ४१२ ।। गोशालेन समं स्वर्णखलाख्यं सन्निवेशनम् । प्रत्यचालीत्मभुर्मागे युगमात्रप्रदत्तदृक् ॥ ४१३ ॥
॥७३॥
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हिनीय:
साः
माग गोपै राध्यमानं पायसं प्रेक्ष्य मंखमूः । ऊतिक्षुधितोऽस्म्येहि कुर्मः पायसभोजनम् ॥ ४१४ ॥ सिद्धार्थः स्माह निष्पत्तिं नेदं यागाति पाय । गोमालोऽप्येत्या गोणलान् दुष्टधीरित्यभाषत ॥ ४१५॥ देवायोऽयं त्रिकालज्ञ आख्याति यदसावुखा । स्फुटिष्यत्यर्धनिष्पन्नपायसवामभांडवत् ॥ ४१६॥ भीता वंशदलैः स्थाली बबन्धुस्तां च गोपकाः । भूयिष्ठैस्तड्डुलैः क्षिप्तैर्विकमद्भिश्च साऽस्फुटत् ॥ ४१७ ॥ आदाय कर्पराण्यादुर्गापास्तदपि पायसम् । तदलामे च गोशालोऽत्यन्तं नियतिमग्रहीत् ॥ ४१८ ॥ स्वाम्यगाद् ब्राह्मणग्रामे द्वौ स्तस्तत्र च पाटको । तयोर्नन्दोपनन्दाख्यो स्वामिनी भ्रातरायुभौ ॥ ४१९ ॥ पष्ठपारणके स्वामी प्राविशन्नन्दपाटके । स दध्युषितकूरेण नन्दन प्रत्यलाभि च ॥ ४२०॥ गोशालः पाटकंन्यस्मिन् प्रविष्टः प्रेक्ष्य वेश्म च । उत्तुंगमुपनन्दस्य ययौ भिक्षार्थमादृतः ॥ ४२१॥ उपनन्दाज्ञया दामी कूरं तस्योषितं ददौ । तचानिच्छनुपनन्दमाचुक्रोश स दुष्टधीः ॥ ४२२॥ उपनन्दोऽवदङ्गक्तं नैष गृह्णाति चेत्तदा । अस्य मूर्ध्नि क्षिप क्षिप्र सापि च तथैव हि ॥ ४२३ ॥ गोशालः कुपितोऽयोचन्मद्गुरोरस्ति चेत्तपः। तेजो वा तर्हि सद्योऽपि दह्यतामस्य मन्दिरम् ॥४२४॥ मा स्वामिनामग्रहणाद्वन्ध्यः शापोऽपि भूदिति । तत्रस्थव्यन्तराः समाधाक्षुस्तत्तृणर्पक्षचत् ॥ ४२५ ॥ टि.- * हांडली' इति गुरभाषायाम् । १ 'राम २ पूल ।
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स्वामी च प्रययौ चस्पां वर्षारात्रं तृतीयकम् । तत्र चाऽस्थात् प्रतिज्ञातद्विमासक्षपणद्वयः ॥ ४२६ ॥ कायोत्सर्गेणोत्कटिकादिभिस्तैस्तैरथासनैः । तस्थौ मुक्त इहापि स्वामी सम्यक्समाधिभृत् ॥ ४२७ ॥ बहिः पुर्या द्वितीयं द्विमासक्षपणपारणम् । कृत्वा स्वामी सगोशालः कोल्लाकेऽगान्निवेशने ॥ ४२८ ॥ नक्तं तत्र गृहे शून्ये तस्थौ प्रतिमया प्रभुः । तद्द्वारेऽस्थात्तु गोशालो लीत्वा कपिरिवाऽस्थिरः ॥ ४२९ ॥ ता ग्रामशमनयः सिंहोऽभिनवयौवनः । विद्युन्मत्या समं दास्या रिरंसुस्तत्र चाविशत् ॥ ४३० ॥ सोsargaकैरेवं योऽत्रास्ति श्रमणो द्विजः । पाल्को वापिस आयाम देवा वयम् ॥४३१॥ कायोत्सर्गप्रपन्नत्वात्तूष्णीकः स्वाम्यभूत्तदा । तत्तु श्रुत्वापि गोशालः कपटानोत्तरं ददौ ॥ ४३२ ॥ अलब्धप्रतिवाक् सिंहश्चित्रं रेमे तया सह । क्षणं स्थित्वा निर्गन्तुं प्रावर्तत ततो गृहात् ॥ ४३३ ॥ गोशालो द्वारदेशस्थः प्रकृत्या दुर्मतिश्चलः । विद्युन्मती विनिर्यान्तीं दासीं पस्पर्श पाणिना ॥ ४३४ ॥ स्वामिन् ! स्टष्टास्मि केनापीत्युचकैर्व्याजहार सा । वलित्वा कुपितः सिंहो धृत्वा गोशालमब्रवीत् ॥४३५ ॥ अरे रे छद्मना छन्नः स्थित्वाऽनाचारमावयोः । पश्यन्नस्था भाषितोऽपि तदा नादास्त्वमुत्तरम् ॥ ४३६ ॥ इत्युक्त्वा कुयित्वा तं सिंहः स्वस्थानमभ्यगात् । गोशालः स्वामिनं स्माह पश्यतां वो हतोऽस्म्यहम् ४३७ सिद्धार्थोऽथावदच्छ्रीलमस्मद्वत्किं न रक्षसि । आचरंश्चापलं चैवं द्वारस्थः किं न कुव्यसे ? ।। ४३८ ।।
१ ₹ ८, , ।
| ॥ ७५ ॥
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सर्गः
निष्क्रम्य स्वाम्यगाद ग्रामे पत्रकालेऽभिधानतः । प्राग्वञ्चास्थाच्छ्न्यगृहे निशायां प्रतिमाधरः ॥ ४३९ ॥ || तृतीयः भयान्निलीय गोशाला कोणेऽस्थात्तत्र वेश्मनि । रन्तुं दन्तिलया दास्याऽऽगात् स्कन्दो ग्रामणीसुतः ॥ ४४०॥ सिंहवद्वधाहरत् सोऽपि न च कोऽप्युत्तरं ददौ । क्रीडित्वा निर्ययो स्कन्दो गोशालोऽहसदुच्चकैः ॥ ४४१ ॥ छन्नः पिशाचवस्थित्वा हसत्युश्चैस्तु को न्विति । जल्पस्तं कुद्दयामास स्कन्दोऽगादथ वेश्मनि ॥ ४४२ ॥ गोशालोऽप्यब्रवीन्नाथं स्वामिधर्मः किमेव । नियाँ हत्यमानस्य आर्ष में पुरषे न यत् ? ॥ ४४३॥ सिद्धार्थः पुनरूचे तं भो मूर्खेवमनेकशः। अनर्थ मुखदोषेण त्वं तित्तिरिरिवाइनुषे ॥ ४४४ ।। कुमारसन्निवेशेऽगाद्भगवानथ तत्र च । चंपकरमणीयाख्योद्यानेऽभूत् प्रतिमाधरः ॥ ४४५ ॥ तत्र चासीद्धनधान्यऋद्धः कूपनयाह्वयः । कुलालः प्रियमदिरो मदिराकीटवत्सदा ॥ ४४६ ॥ तच्छालायां पार्श्वनाथशिष्यः शिष्यगणावृतः । बहुश्रुतो मुनिचन्द्राचार्य आसीत्तदा स्थितः ॥ ४४७॥ शिष्यं गच्छे स्थापयित्वा स सूरिर्वधनाभिधम् । जिनकल्पप्रतिकर्म विदधेऽत्यन्तदुष्करम् ॥ ४४८ ॥ तपःसत्त्वसूत्रैकत्वबलानां तुलनाभिदाम् । भावयन स्वं द्वितीयया सोऽन्यदाऽस्थात्समाहितः॥ ४४. ॥ इतश्चोवाच गोशालो नाथं मध्यन्दिनक्षणे । समयो वर्तते यामो भिक्षायै ग्राममध्यतः ॥ ४५० ॥ सिद्धार्थोऽयात्रवीदद्य वर्तामह उपोषिताः । गोशालस्त्वविशद् ग्रामे भिक्षाहेनोर्बुभुक्षितः ॥ ४२१॥
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सोऽपश्यत्पार्थशिष्यांस्तान विचित्रवसनावृतान् । पात्रादिधारिणः के नु यूयमित्यन्वयुक्त च ॥ ४५२॥ निर्ग्रन्थाः पार्श्वशिष्याः स्मो वयमित्यूचिरेऽय ते । गोशालोऽपि इसमूचे धियो मिथ्याभिभाषिणः ।।४५३|| कथं नु यूयं निग्रन्था वस्त्राविग्रन्थधारिणः। केवलं जीविकाहेतोरियं पाखंडकल्पना ॥ ४५४ ॥ वस्त्रादिसंगरहितो निरपेक्षो वपुष्यपि । धर्माचार्यों हि याहको निम्रन्थास्तादृशाः खलु ॥ ४५५ ॥ ते जिनेन्द्रमजानन्तः प्रत्यूचुर्यादृशो भवान् । धर्माचार्योऽपि ते ताहगात्तलिंगः स्वयं किमु ।। ४५६ ॥ कुभा चुक्रोश गोशालो मम धर्मगुरोर्यदि । तपस्तेजोऽस्ति तदयं दह्यतां व उपाश्रयः ॥ ४२७ ।। नेऽप्यनुवंस्त्वद्वधनान्न हि दह्यामहे वयम् । गोशालोऽपि विलक्षः सन् गत्वा स्वामिनमभ्यधात् ॥४५८॥ दृष्टा मयाऽद्य समन्था निन्दन्तो वस्तपस्विनः । दयतामाश्रमोऽसावित्याक्रुष्टं च रुषा मया ॥ ४५९ ॥ तथापि नाश्रयस्तेषामदलत मनागपि । तत्र किं कारणं ? स्वामिन्नाख्याहि परमार्थतः ॥ ४६०॥ सिद्धार्थोऽप्यवदच्छिष्याः श्रीपार्श्वस्वामिनो हि ते । तेषामुपाश्रयो हन्त त्वगिरा दह्यते कथम् १ ॥ ४६१ ॥ अत्रान्तरे निशा जज्ञे मुनिचन्द्राख्यसूरयः । उपाश्रयावहिर्भूत्वा तस्थुः प्रतिमया सदा ॥ ४६२ ।। स व कूपनयः श्रेणिभक्त पीतसुरो यहिः । मत्तो घूर्णन् समागच्छन्नाचार्यास्तानुवैक्षत ॥ ४६३ ॥ आचार्यांश्चौरबुद्ध्या तान् गृहीत्वा निर्दयं गले । निरुच्छ्वासीचकाराशु कुम्भकारो दुराशयः॥ ४६४ ॥ १स:00
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शुभध्यानादचलिता वेदनां तां सहिष्णवः । सद्यो जातावधिज्ञाना मृत्वाऽऽचार्या दिवं ययुः || ४६५ ॥ तेषामुपरि पुष्पाणि प्रत्यूषपवना इव । प्रवर्षन्तो महिमानमासन्नव्यन्तरा व्यधुः ॥ ४६६ ॥ इतोऽपि स च गोशालो विद्युन्मालाभिवाम्बरे । तेजरूपां देवपक्तिं दृष्ट्वाऽऽचख्यौ इति प्रभोः ॥ ४३७ ॥ स्वास्त्वित्प्रत्यनीकानां दह्यने किं प्रतिश्रयः । व्योम्ना ज्वालाकुलेनानुमीयतेऽदः प्रदीपनम् ॥ ४६८ ।। सिद्धार्थोऽप्यभ्यधान्मैवमभ्यधास्ते हि सूरयः । दिवं गताः शुभध्यानाच्छुभध्यानं हि कामधुकु ॥ ४६९ ॥ तेषां कर्तुं महिमानमेते तेजोमयाः सुराः । यैस्ने प्रदीपन भ्रान्तिरुत्पन्ना स्वल्पमेधसः ॥ ४७० ॥ तद् द्रष्टुं कौतुकात्तत्र गोशालः प्रययौ द्रुतम् । स्वस्थानं च ययुर्देवाः केशां देवदर्शनम् ॥ ४७१ ॥ पुष्पगन्धाम्बुवृष्टिं स तत्र दृष्ट्वा प्रमोदभाक् । गत्वा प्रतिश्रये सुप्तांस्तच्छयानम्यवादिति ॥ ४७२ ॥ किं भवन्तो दुष्टशिष्या मुण्डा भिक्षां यहुच्छया । भुक्त्वा दिने निशां सर्वां शेरतेऽजगरा इव ॥ ४७३ ॥ न हीदमपि जानीथ यत्सूरिः प्राप पञ्चताम् । गुरुषु प्रतिबन्धोऽयमहो वः कुलजन्मनाम् ॥ ४७४ ।। उत्तस्थुस्तेऽपि तच्छन्दात् पिशाच इव को न्वसौ । एवं शब्दायत इति चिन्तयन्तो महर्षयः ॥ ४७५ ॥ तेऽथ जग्मुरुषाचार्यमाचार्य प्रेक्ष्य तं तथा । चिरं निमिन्दुरात्मानं कुलीना इव नन्दनाः ॥ ४७६ ।। नान् गोशालोऽपि निर्भर स्वेच्छालाप विदूषकः । इयाय नाथं नाथोऽपि चोराकेऽगान्निवेशने ॥ ४७७ ॥ १ "मिश्रा CM प्रतौ त्रुटितम् एतत् पद्यम् ||
तृतीयः सर्ग:
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प्रतिचक्रभयात्तत्रारक्षैश्चौरगवेषिभिः । कायोत्सर्गस्थितः स्वामी सगोशालोऽप्यदृश्यत ॥ ४७८ ॥ ब्रूहि कोऽसीति तैः पृष्टः स मौनाभिग्रहः प्रभुः । न किश्चिदभ्यश्राद्वाचंयमा हि बधिरा इव ॥ ४५९॥ कस्यापि हेरिको ह्येष नूनं यन्मौनभागसौ । स्वामिनं ते सगोशालं जगृहुः क्रूरबुद्धयः ॥ ४८० ॥ गोशालं शाकिनीवत्ते बद्ध्या कूपे निचिक्षिपुः । मुहुर्घटीवद्विदधुर्धचनोदंचनानि च ॥ ४८१ ॥ पार्श्वशिध्ये उत्पलस्य जामी सोमाजयन्तिके । साधुवय परिव्राजौ चोराकेऽवसतां तदा ॥ ४८२ ॥ Feat नरौ कौचित क्षेपणोत्क्षेपणैर्जले । आरक्षैः पीड्यमानौ स्तस्ते इत्यशृणुतां जनात् ॥ ४८३ ॥ छद्मश्वरमतीर्थकरोऽसौ नु भवेदिति । उपेत्य ते क्षणान्नार्थं तथावस्थमपश्यताम् ॥ ४८४ ॥ आरक्षानूचतुचैवं किं रे मूर्खा मुमूर्षवः । न जानीथ प्रभुममुं सिद्धार्थन्नृपनन्दनम् ॥ ४८५ ॥ ते भीताः स्वामिनं मुक्त्वा नत्वा चाक्षमयन्मुहुः । महान्तो हि न कुप्यन्ति क्षम्यन्ते स्वात्मशंकितः ॥४८६॥ दिनानि कतिचित्तत्रातिवाह्य परमेश्वरः । तुर्या प्रावृषमत्येतुं पृष्ठचम्पां पुरीं ययौ ॥ ४८७ ॥ चर्तुमासक्षपणक्रुद्विविधप्रतिमाचरः । चतुर्मासीं जगन्नाथस्तन तस्थाववस्थितः ॥ ४८८ ॥ चतुर्मास्यन्नदिवसे पारयित्वा बहिः कवचित् । जगाम त्रिजगन्नाथ नगरं कृतमंगलम् ॥ ४८९ ॥ दरिद्रस्थविराभिख्याः सारम्भाः सपरिग्रहाः । सकलत्राः ससन्तानास्तत्र पाखण्डिनोऽवसन् ॥ ४९० ॥ मध्ये तत्पाटकस्यासीदेकं देवकुलं महत्। तेषां कुलकमाघातदेवताप्रतिमांकितम् ॥ ४९१ ॥
॥। 36 ।। ।
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तस्य देवकुलस्यैककोणे तस्थौ समाहितः । तत्स्तम्भ इव निष्कम्पः कायोत्सर्गधरः प्रभुः ॥ ४९२ ॥ माघमासे तदा रात्रौ शीतमासीत् सुदुस्सहम् । तेषां पाखण्डिनां देवकुले चाभून्महोत्सवः ।। ४९३ ॥ ते पुत्रादिपरीवारास्तस्मिन्नायतने मुदा । तदा संभूय नन्तुर्जगुः परिजजागरुः ॥ ४९४ ॥ हसनचेऽथ गोशालः पाखण्डाः केऽप्यमी बन । येषां पत्न्यो मद्यपानं गीतनृत्तादि योच्चकैः ॥ ४५ ॥ नच्छ्रुत्वा कुपितास्तेऽपि सारमेयमिवालयात् । कण्ठे गृहीत्वा गोशालं तत्काल निरसारयन् ॥ ४२६॥ शीतसंकुचितांगोऽस्थागोशालोऽथ हकारवत् । वादयन्दन्तपंक्तिं च वैणिको वल्लकीमिव ॥ ४९७ ॥ गोशालं सानुकम्पास्ते तत्र मावेशयन पुनः । सोऽपशीतो मुहतेन तथैव पुनरभ्यधात् ॥ ४९८ ॥ स तैनिःसारितो भूयो भूयश्चापि प्रवेशितः । एवं कोपकृपाभ्यां ते तस्य निरिति चक्रिरे ।। ४२०॥ तुर्यवारेऽथ गोशालः प्रविष्टोऽप्यनवीदिति । सद्भतार्थाभिधानेऽपि को वः कोपोऽल्पमेधसाम् ॥ ५०० ॥ निजाय दुश्चरित्राय पाखण्डाः किं न कुप्यथ ? । स्फुटार्थवादिनेऽमुष्मै मस्य द्रुह्यध किं मुहुः ॥ ५०१ ॥ उत्तिष्ठतोऽथ पाखण्डयूनस्तस्कुटनेच्छया । निवारयन्तस्तवृद्धा एवमभ्यधुरुच्चकैः ॥ ५०२॥ देवार्यस्य तपोराशेः कोऽप्यमुष्य महात्मनः । पीठधारइछत्रधारोऽपरो वा स्यादुपासकः ॥ ५०३ ॥ अनेन भाषितेनाऽलं भाषतां स्वेच्छयाप्यसौ । श्रोतुं चेन्न क्षमास्तोः कुरुध्वं वाद्यवादनम् ।। ५०४ ॥ तथैव चक्रिरे तेऽपि जातेऽथ तपनोदये । श्रावस्ती स्वाम्यगात्तस्थौ पहिश्च प्रतिमाधरः ॥ ५०५ ॥
AAAAAAAAGRICANA
॥८॥
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भोजनावसरे प्राप्ते गोशालः प्रभुमभ्यधात् । भिक्षार्थं भगवन्नेहि जन्मसारं हि भोजनम् ॥ २०६ ॥ सिद्धार्थः प्राग्वदित्यूचे हंहो वयमुपोषिताः । गोशालोऽपृच्छदथ स्यान्ममाहारोऽथ कीदृशः ॥ ५०७ ॥ सिद्धार्थोऽप्याख्यदधुना नृमांस भक्षयिष्यसि । गोशाल ऊचे तद्भोक्ष्ये मांसगन्धोऽपि यत्र न ॥ १०८ ॥ एवं निश्चित्य भिक्षायै श्रावस्तीं सोऽविशत्पुरीम् । इतश्च तस्यां नगय पितृदत्तोऽवसद् गृही ॥ ५०९ ।। श्रीभद्रा तत्प्रिया *निन्दुर्नैमित्तं शिवदत्तकम् । अपत्यं मे कथं जीवेदित्यपृच्छत् कृतादरा ॥ ५१० ॥ सोऽप्याचख्यौ जातमृतं पिट्वा सापलं शिशुम् । क्षीरेण पायसीकृत्य सर्पिर्मधुसमन्वितम् ॥ ५११ ॥
धुलितपादाय भोक्तुं दत्से सुभिक्षवे । तज्जीविष्यन्त्यपत्यानि नूनं नश्यत्प्रसूतिके ! | १२|| (युग्मम्) भुक्त्वा तत्र गते गेद्वारं कार्यं त्वयान्यथा । ज्ञात्वा तद्भोजनं क्रुद्धो मा घाक्षीत्स गृहं तव ॥ ५१३ ॥ मृता पायीच स्वं तथैव सुतार्थिनी । गोशालायागतायाऽदात्तदानीं भक्तितश्च सा ॥ ५१४ ॥ भुक्त्वा च गत्वा स्वाम्यग्रेऽवोचद्रान्तचिरादसि । सिद्धार्थोऽप्याख्यदेतस्मै पायसं तत्तथा कृतम् ॥ ५१५ ।। म त गोशालो मुखे क्षिप्त्वा निजांगुलीम् । नखाद्यवयवांस्तत्र ददर्श च चुकोष च ॥ २१६ ॥ यौनश् चान्वेष्टुं तद्द्वारे त्वन्यथा कृते । नाझासीत्तत्तु गोशालो गोपाल इव लक्षणम् ॥ ५१७ ॥ ततोऽप्युवाच गोशालस्तपस्तेजश्च मद्गुरोः । यदि तद्दृह्यतामेष प्रदेशः सकलोऽपि हि ॥ ५१८ ॥ टि. - * निन्दुः मृतापत्यजनयित्री |
| ॥ ८१ ॥
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माsन्यथा जिनमाहात्म्यं भूदिति व्यन्तरामराः । तत्र सन्निहिताः सर्व प्रदेशमदहंस्तकम् ॥ ५१९ ॥ किंचित् स्थित्वा प्रभुरगाद् ग्रामं नाम्ना हरिद्रुकम् । बर्हिरिदुवृक्षस्य तलेऽस्थात् प्रतिमाधरः ॥ २२० ॥ पत्रच्छायातपत्रस्य तले लस्यैव शाखिनः । तदाऽवात्सीन्महासार्थः श्रावस्ती नगरी गमी ॥ १२१ ॥ स तु सार्थः शीतभीतो व्याघ्रभीत इषानलम् । नक्तमज्वालयत्प्रातरुत्थाय च ययौ पुरः ॥ ५२२ ॥ सप्रमादादशान्तोऽभिर्व्याधिवत्प्रसरन् क्रमात् । आगादुपमहावीरंमध्ये भोधीव वाडवः ॥ ५२३ ॥ एत्येष वहिर्भगवन्नश्य नश्येत्यथ ब्रुवन् । काकनाशं प्रणश्यागाङ्गोशालः शीघ्रमन्यतः ॥ २२४ ॥ श्रुत्वापि तद्वचः स्वामी ध्यानानल मिवानलम् । तं कर्मेन्धनदाहाय मन्वानोऽस्थादतिस्थिरः ॥ ५२५ ॥ चरणौ स्वामिनस्तेन वहिना श्यामलीकृनौ । हेमनन तुषारेण पद्मकोशाविवाधिकम् ॥ २२३ ॥ शान्ते वह सगोशालो ग्रामेऽगाल्लांगलाभिधे । स्वाम्यस्थाच प्रतिममा वासुदेवनिकेतने ॥ २२७ ॥ क्रीडायातान् ग्रामडिम्भान् गोशालस्तत्र कौतुकी । प्रेतद्विकृतं रूपं कृत्वाऽभीषयताभितः ॥ २२८ ॥ भयात् केsपि तद्वत्राः स्फुटन्नासाश्च केचन । प्रस्खलगतयो नेशुग्रमाभिमुख मर्भकाः ।। ५२९ ॥ अभ्येत्य पितरस्तेषां गोशालं प्रेक्ष्य तादृशम् । अर्थान् किं त्रासयसीति जल्पन्तोऽकुहयन भृशम् ||३०|| नवृद्धाः स्वामिनं प्रेक्ष्य स्वानूचुर्मुच्यतामयम् । देवार्यस्यास्य संभाव्य एव शुश्रूषकः खलु ॥ ५३१ ॥ १ मध्यम र मध्येमो ॥
तृतीयः वर्ग:
ዘረበ
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तन्मुक्त ऊचे गोशाला स्वामिन्नद्यापि किं नु माम् । उपेक्षसे हन्यमानं वज्रवन्निष्ठुरोऽसि हा ॥ ५३२ ॥ सिद्धार्थस्तमभाषिष्ट मुष्ठ्वद्यापि निहन्यसे । व्याधिनेवांगोस्थितन स्वभावनामुनैव हि ॥ ५३३ ।। कायोत्सर्ग पारयित्वा ग्राम आवर्तनामनि । गत्या स्वामी बलदवौकस्यस्थात् प्रतिमाधरः॥ ५३४ ॥ डिम्भांस्यापि गोशालो भीषयावर पर्वतान् ! तपितृभिः कुट्यते स्म चक्रीवानिष दुर्मदः ॥ ५३५ ।। गतेषु तत्पितृष्वर्भान् पुनीषयते स्म सः। प्राणात्ययेऽपि अन्तूनां प्रकृतिः खलु दुस्त्यजा ॥ ५३६ ।। क्रुद्धास्तत्पितरोऽभ्येत्य परस्परमदोऽवदन् । वराकं बालकुट्टाकं कुट्टयित्वालमेतकम् || ५३७ ॥ स्वाम्यस्य कुट्यतामेष य एनं न निषधति । भृत्यानामपराधे हि भर्तुर्दण्ड इति स्थितिः ।। ५३८ ॥ हित्वागस्यपि गोशालं शालावृकमिवाथ ते । उदस्तदण्डाः श्रीवीरमभ्यढौकन्त दुर्धियः॥५३९॥ नत्रस्थव्यन्तरेणार्हद्गृोणाधिष्ठिता रुषा । साक्षात्सीरीव सीर्यात्सीरोदस्थाच्च तद्गुहे ॥ ५४॥ आशंकाविस्मयाकीर्णाः पतित्वा पादपद्मयोः । स्वामिनं क्षमयामासुस्ते ग्रामीणाः स्वनिन्दिनः ॥ ५४१ ॥ ततश्च प्रययौ स्वामी चोराके सन्निवशने । तत्रैकत्र रहास्थाने तस्थौ च प्रतिमाधरः॥४२॥ गोशालो नाथमित्यचे गन्तव्यं चर्यया न वा ? । सिद्धार्थोऽभिदधेऽस्माकमुपवासोऽय वर्तते ॥४३॥ गोशालः क्षुधितोऽविक्षद् ग्रामे भिक्षार्धमुत्सुकः । गोष्ठीभक्तं तदा तत्र राध्यमानं ददर्श च ॥ २४४ ॥ १ दक्तेनाधि' | ||
॥८॥
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भिक्षाक्षणाऽभूनवान लीनो गोशाल गेक्षत । तत्र ग्रामे तदानीं चाऽभवच्चौरभयं महत् ॥ ५४५ ॥ चोरोऽयं चौरचारो वा निलीनो यदुदीक्षते । एवं वितयं ते ग्राम्या गोशालकमकुट्टयन् ॥ ५४६ ॥ मम धर्मगुरोस्तेजस्तपो वा यदि तद् द्रुतम् । दह्यतां मण्डपोऽमीषामिति गोशालकोऽशपत् ॥ ५४७ ।। व्यन्तरैर्भगवद्भक्तरदायत स मंडपः । जगाम च जगन्नाथः सन्निवेशं कलम्बुकम् ॥ ५४८ ॥ तत्रोभो भ्रातरौ मेघः कालहस्ती चोला । सालाती तदा सैन्यरघावञ्चौरपृष्ठतः ॥ ५४. ।। गोशालसहित नाथमागच्छन्तं ददर्श सः । चौरावित्याशशंके च तादृशामीदृशी हि धीः ।। ५५० ॥ को युवामिति सोऽपृच्छत् स्वामी मौनीत्युवाच न । कलिपियत्वाद्गोशालोऽप्यस्थान्मौनी प्लवंगवत् ॥५१॥ गोशालं स्वामिनमपि स पद्ध्वा भ्रातुरार्पयत् । स्वामिनं दृष्टपूर्वी च मेघः सिद्धार्थसेवकः ।। ५५२ ॥ क्षमयित्वाऽमुचन्मयो नाथं नाथोऽपि चावधेः । ज्ञात्वाऽचिन्तयदचापि 'निर्जार्य बहु कर्म मे ॥५३॥ कर्मासहायैस्तन्मन्ये न हि क्षय्य झगित्यपि । जय्यं महद् द्विषच्चक्रं विना न खलु सैनिकैः ॥ ५४॥ आर्यदेशे विहरता सहाया दुर्लभा मया । तस्मादनार्यदेशेषु विहरिष्यामि संप्रति ॥५५५ ॥ एवं विमृश्य भगवान्निसर्गफूरपूरुषम् । विवेश लाडाविषयं यादोघोरमिषार्णवम् ।। २५६ ।। १ निजाय C, निर्जाय , निर्जयं ॥ १ लाटा CLI लाट'M ||
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मुण्ड इत्यहनन् केपि *स्पश इत्यपरेऽधरन् । यषन्धुदस्युरित्यके श्रीवीरं तत्र पूरुषाः ।। ५५७ ।। भषणान्मुमुचुः केऽपि प्रतिस्वामि कुतुहलात् । चक्रुः हमच्या गितकान्यजनाभा विकणाराः ॥५५८ ॥ अमोदतोपसर्गस्तैः कर्मणां क्षपणात्प्रभुः । अत्युभैषजै रोगी रोगनिग्रहणादिव ॥५५९॥ गोशालोऽप्यनुलनः सन् सेहे विविधवेदनाः । बन्धनताडनात्था बनानीत इव द्विपः ॥ ५६० ॥ तत्रैवं भूरिशः कृत्वा कर्मनिर्जरणां प्रभुः । कृतकृत्य इवाचालीदार्यदेशस्य संमुखम् ॥ ५६१॥ यान्तं च स्वामिनं पूर्णकलशग्रामसन्निधौ । प्रथेष्टुकामौ लादो तस्करौ द्वावपश्यताम् ॥ ५६२ ।। तावसौ दुःशकुनमित्युद्यतासी जिघांसया । प्रति प्रभु दधावाते प्रेतायुत्कम्रिकाविव ॥ ५६३ ॥ वर्ततेऽच कथं स्वामीत्युच्चिन्तो वनभृत्तदा । ददर्शावधिना नाथं जिघांस तौ च तस्करी ॥५६४॥ तो वज्रेणावधीद्वनी धनशैलक्षमौजसा । दन्तिक्षोदक्षमणेव पाणिना हरिणो हरिः ॥ ५६५ ।। क्रमेण महिलपुरे स्वाम्यगात्तत्र पंचमीम् । निन्ये वर्षाचतुर्मासी चतुर्मासीमुपोषितः ॥ ५३६ ॥ पारयित्वा पहिः कापि विहरंश्च प्रभुः क्रमात् । ग्रामे जगाम कदलीसमागम इतीरिते ॥ ५६७ ॥ तत्राथास्तारिकाभक्तं दीयमानं तदाऽर्थिनाम् । विलोक्योवाच गोशालो स्वामिन्नेह्यत्र भुज्यताम् ॥ ५६८॥ सिद्धार्थोऽभिदधेऽस्माकमुपवासोऽद्य वर्तते । भोक्ष्येऽहमेकोऽपीत्युक्त्वा तत्र गोशालको ययौ ॥ ५६९॥
१ लाटो" CILM टि.- स्पशः गुमचरः । । सदावतभोजनम् ॥
F८५॥
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तृतीयः सर्गः
भुञ्जानस्तत्र गोशालः पिशाच इव नाऽतपत् । ग्राम्याः स्थालं महत् सर्वान्नपूर्ण तस्य चार्पयन् ॥ ५७० ॥ तद्भक्तमखिलं भोक्तुं गोशालो न त्यभूत्क्षमः । आर्कटमात्राहारो यदाचामेऽप्यलसायते ॥ ५७१ ॥ स्याहारशक्तेरप्यज्ञः किं दुष्कालोऽसि मूर्तिमान ? । इत्युक्त्तवा चिक्षिपुर्भक्तस्थालं तन्मूर्ति तज्जनाः ॥ ५७२॥ * तुन्दं परामृशंस्तृप्त्या गोशालोऽगाद्यथागतम् । जम्बूखण्डाभिधं ग्रामं जगाम भगवानपि ।। ५७३ ।। प्रतिमास्थे प्रभो तत्रास्तारिकाभक्तलिप्सया । गतो गोशालफः प्राग्वत्प्राप भोजनधर्षणे ॥ ५७४ ॥ क्रमेण प्रययौ स्वामी तुंबाके सन्निवेशने । यहिश्चास्थात्प्रतिमया गोशालो ग्राममभ्यगात् ।। ५७५ ॥ तन्त्र पार्श्वशिष्यानन्दिषणान वृद्धान् बहुश्रुतान् । परिवारभृतो मुरावा गच्छचिन्तामशेषतः ।। ५७६ ॥ जिनकल्पप्रतिकर्म प्रपन्नान्मुनिचन्द्रवत् । दृष्ट्वा जहास गोशालः स्वाम्यभ्यर्णमगात्पुनः ॥ ५७७ ॥ (युग्मम् ) नक्तं चतुष्के ते तस्थुर्नन्दिषेणमहर्षयः । कायोत्सर्गभृतो धर्मध्यानस्थाः स्थाणुवस्थिराः ॥ ५७८ ॥ आरक्षेण च दृष्टास्ते चौरभ्रान्त्या च जनिर । सद्यो जातावधिज्ञाना मृत्वा दिवमुपासवन ॥ ५७९ ॥ प्रेक्ष्य गोशालकस्तेषां महिमानं कृतं सुरैः । तच्छिष्याणामुपेत्याऽख्यदुचैर्भर्सनपूर्वक्रम् ॥५८० ॥ अथाऽगादिष्टरन वीरः कपिकां सन्निवेशनम । मन्त्रारीः सगोशाला स्पशभ्रान्त्या कदर्धितः॥१८॥ देवायों रूपवान् शान्तो युवारक्षः स्पशभ्रमात् । निरागास्ताङ्यमानोऽस्तीत्युल्लापोऽभूजनेऽखिले ॥ ५८२॥ माना MI
11८६॥
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पार्श्वशिष्ये च प्रगल्भाविजये प्रोज्झितव्रते । निर्वाहाय परिवाद्त्वं प्रपन्ने तत्र तिष्ठतः ॥ ५८३ ॥
I
माकर्ण्य तां मा भूद्वीरोऽर्हन्निति शंकया। तत्रेयतुस्तथास्थं च भगवन्तमपश्यताम् ॥ २८४ ॥ ( युग्मम् ) ते स्वामिनं ववन्दा आरक्षांश्चैवमूचतुः । रे मूर्खा । किं न जानीथ वीरं सिद्धार्थनन्दनम् ॥ ५८५ ॥ शीघ्रं मुञ्चत घेज्ज्ञाता शक्रो व्यतिकरं ह्यमुम् । पातयिष्यति वो मूर्ध्नि वज्रं प्राणहरं तदा ।। ५८६ ॥ अथ तैकतैर्मुक्तः क्षमितश्च प्रभुः पुरीम् । वैशालीं प्रति चचाल द्वौ मार्गौ स्तस्तदन्तरे ॥ २८७ ॥ तत्रावोचत गोशालो नायास्यामि त्वया समम् । मां हन्यमानमपि यत्त्वं तटस्थ इवेक्षसे || ५८८ ॥ अन्यत्तयोपसर्गैः स्युरुपसर्गा ममापि हि । यदग्निः शुष्कसंसर्गाहहत्यार्द्रमपि क्षणात् ॥ ५८९ ॥ अन्य लोको मामादौ निहन्ति त्वां ततः खलु । क्लेशाद्भोजनवृत्तिश्च जायते वा न वा मम ।। ५९० ॥ ग्रावखंडे च रत्ने चारण्ये च नगरेऽपि च । आतपे मंडपे चापि वह्नौ च सलिलेऽपि च ॥ ५९१ ॥ जिघांसी सेवके वापि निर्विशेषस्य ते ननु । सेवां को नाम कुर्वीत न योऽहमिव मूढधीः ॥ २९२॥ (युग्मम्) त्वत्सेवा तालसेवेव मया भ्रान्तेन या कृता । सा स्मर्तव्याऽतः परं तां करिष्यामि न खल्वहम् ॥ ५९३ ॥ सिद्वार्थीsesi रोचते यत्कुरुष्व तत् । इयमेव हि नः शैली सा भवेज्जातु नान्यथा ॥ ५९४ ॥ ततो जगाम भगवान वैशालीगामिनाध्वना । प्रचचाल च गोशाल एको राजगृहाध्वना ॥ ५९५ ॥ गोशालोsयान्महारण्यं चौरपंचशतान्वितम् । विवेश नृषक इव सर्पाकीर्णं महाधिलम् ॥ ५९६ ॥
१ संपर्काM ॥
९॥८७॥
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वृक्षारूढश्चौरपुमान गृध्रवद् दूरतोऽपि तम् । ददाख्यच्च चौराणां मग्नः कोऽप्यत्यकिंचनः ॥ ५९.७॥ तेऽप्यूचिरे तथाप्येष न मोच्यः स्याच्चरोऽप्ययम् । किं चैष नः पराभूय यातीदमपि नोचितम् ॥ ५९८ ॥ एवं चाभ्यर्णमायातं गोशालं मातुलेहि भोः । वदन्तः पृथगिति तेऽध्यारुह्य तमवाहयन् ॥५९९ ॥ पृथक् पृथयाइरया तेषां योशालाओनयात् : भासदोषवपुस्ते च चौराः प्रययुरन्यतः ॥ ६००॥ अचिन्तयच्च गोशालो विपत्मथमतोऽप्यसौ । शुनेव स्वामिहीनेन मया लब्धाऽद्य दुःसहा ॥६०१॥ भर्तुश्च विपदं प्रन्ति देवाः शक्रादयोऽपि हि । तत्पादशरणस्थस्य ममापि विपदोऽत्यगुः ॥६०२॥ क्षम स्वयमपि त्रातुमुदासीनं तु कारणात् । मन्दभाग्यो निधिमिव तं प्राप्स्यामि कथं पुनः ॥ ६०३॥ अन्वेष्यामि तमेवेति निश्चित्यातीत्य तनम् । गोशालोऽश्रान्तमभ्राम्यत् प्रभुपाददिदृक्षया ॥६०४॥ स्वामी जगाम वैशाल्यां शालां कर्मारसंश्रिताम् । अनुज्ञाय जनांस्तत्स्थांस्तस्थौ च प्रतिमाधरः ॥ ३० ॥ कर्मारो रोगितश्चैकः षण्मास्या कल्यतां गतः। शुभेऽहनि स्वजनन वृतः शालामियाय ताम् ॥ ६०६॥ तत्राग्रे स्वामिनं दृष्ट्रा सोऽचिन्तयदहो इदम् । प्रथमेऽप्यहि पाखण्डिदर्शनाशकनं मम ॥६०५॥ इहैवामंगलमिदं पातयामीत्ययोधनम् । उत्पाट्य स्वामिनं हन्तुं सोऽधायत दुराशयः ॥६०८ ॥ क स्वामीति तवा ज्ञातुं प्रायुक्त मघवाऽवधिं । जिघांसुं तं च कर्मारमपश्यच्चाजगाम च ॥ २०१॥ २ तुलैव भोः ।। तुलो हि मोः ।।
॥८८॥
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तस्यैव तं घनं मूनि स्वशत्याऽपातयद्धरिः । कथंचिद्रोगमुक्तोऽपि जगाम स यमालयम् ॥ ६१०॥ प्रणम्य स्वामिनं शक्रः कल्पं सौधर्ममभ्यगात् । स्वामी च विहरन माप ग्रामाकं सन्निवेशनम् ॥ ६११॥ विभेलकाभिधानस्य तत्र यक्षस्य सद्मनि । विभेलकोद्यानस्थेऽस्थात् कायोत्सर्गधरः प्रभुः ॥६१२॥ स यक्षः प्राग्भवस्पृष्टसम्यक्त्वोऽपूजयत्प्रभुम् । दिव्यैः पुष्पांगरागायैरनुरागाधिवासितः ।। ६१३ ॥ ग्रामेऽथ शालिशीर्षेऽगात्तत्र च त्रिजगत्मभुः । उद्यानेऽस्थात्मतिमया माधमासस्तदा त्वभूत् ॥६१४॥ वानमन्तरिका तत्र नामतः कटपूतना । त्रिपृष्ठजन्मनि विभोः पत्नी विजयवत्यभूत् ॥ ६१५ ।। सम्यगपतिचरिता सामर्षय सती मृता । भ्रान्त्वा भवान् सा मानुष्यं प्राप्य बालतपोऽकरोत् ॥६१६॥ सा तत्र व्यन्तरीभूता स्वामिनः पूर्ववैरतः । तेजोऽसहिष्णुळकरोत्तापसीरूपमग्रतः ॥ ६१७॥ जटाभृद्वल्कलधरा हिमशीतेन पाथसा । आर्द्रयित्वा वपुस्तस्थावुपरिष्टाजगत्प्रभोः ॥ ६१८॥ ततो वातं विकृत्याङ्गान्यधुनोच्छल्लकीव सा । जिने पेतुः शलानीव दुःसहाश्चाम्बुबिन्दवः ॥ ६१९ ॥ जटाग्राद्वल्कलाग्राच पतन्तस्तोयबिन्दवः । चिक्लिशु थमन्यश्चेद्भवेन्नूनं स्फुटेत्तदा ।। ६२० ॥ भर्तुः शीतोपसर्ग तं सहमानस्य तां निशाम् । विशेषात् कर्मक्षपणं धर्मध्यानमदीप्यत ॥ ३२१॥ "मयों च 1.॥ २ समानु°C. D.L.॥ टि.- *शाहुडी' इति भाषायाम् । । शलकीपिच्छानि ।
॥८
॥
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बभूव चावधिज्ञानं श्रीवीरस्वामिनोऽधिकम् । अनुत्तरस्थितस्येव सर्वलोकावलोकनम् ॥ ६२२ || सहजं त्ववधिज्ञानं यावद्देवभवेऽभवत् । एकादशांगीसूत्रार्थभृत्त्वं च चरमार्हतः ॥ ६२३ ||
शान्ता निशान्ते सा सानुतापा च कटपूतना । पूजयित्वा प्रभुं भक्त्या निजं स्थानमुपायया ॥ ६२४ ॥ अथ गत्वा भद्रिकार्या पुर्या तस्थौ तपः परः । दीक्षायाः प्रावृषं षष्ठीमतिवाहयितुं प्रभुः ॥ ३२५ ॥ गोशालस्तत्र मिलितः षष्ठमासाज्जगद्गुरोः । सेवां कुर्वन् प्राग्वदस्थात् प्रत्यहं प्रीतमानसः ॥ ६२६ ॥ विविधाभिग्रहपूर्वकं चतुर्मासक्षपणं तत्र च प्रभुः । कृत्वा वर्षारात्रनिर्गमे विदधे पारणकं पुरो बहिः ६२७||
॥ इत्याचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरिते महाकाव्ये दशमपर्वणि श्रीमहावीरप्रथम वर्षारविहारवर्णनो नाम तृतीयः सर्गः ॥
*
तृतीय: सर्गः
॥ ९० ॥
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॥ अथ चतुर्थः सर्गः ॥
* ८ %
अथ स्वामी महावीरो गोशालेनानुसेवितः । मासानष्टानुपसर्ग व्याहार्षीन्मगावनौ ॥ १ ॥ पुरीमालभिकां गत्वा सप्तमीं प्रावृषं प्रमुः चतुर्मास परिवारवत्वात् ॥ २ ॥ चतुर्मासावसाने च पारयित्वा बहिः प्रभुः । गोशालसंयुतोऽगच्छत् 'कुंडके सन्निवेशने ॥ ३ ॥ तत्र स्वामी वासुदेवायतनस्यैककोणके । तस्थौ प्रतिमया रत्नप्रतिमेव निवेशिता ॥ ४ ॥ निः प्रकृत्या गोशालश्चिरसंलीनताऽऽतुरः । न्यस्य विष्णुप्रतिमाऽऽस्येऽधिष्ठानं * समवास्थित ॥ ५ ॥ आयातश्चार्यको दृष्ट्वा तं तथास्थमचिन्तयत् । पिशाचः कोऽप्यसौ नूनं ग्रहात्तः कोऽपि वा भवेत् ॥ ६ ॥ एवं विचिन्त्यायतने प्रविष्टस्तं निरीक्ष्य सः । नग्नत्वाच्छ्रमणो मन्ये कोऽप्यसाचित्यलक्षयत् ॥ ७ ॥ एवं च दध्यौ यद्येनं हनिष्यामि तदा जनः । वदिष्यत्यमुना दुष्टेनादोषो धार्मिको हतः ॥ ८ ॥ करोतु ग्राम एवास्योचितमाख्यामि तत्पुरः । इति गत्वा समानैषीद्द्यांमंतदर्शनाय सः ॥ ९ ॥ ( युग्मम् )
कुंडा CJI २ म्यास्त M | टि.- पुरुषचिह्नम् ।
স
| ॥९१॥
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चतुर्थः
सगे:
चपेटाभिर्मुष्टिभिश्च स जघ्ने ग्राम्यदारकैः । हत्वाऽमुं अहिलमलमिति वृद्धरमोच्यत ॥ १० ॥ कर्मारिमर्दनः स्वामी मर्दनाख्ये निवेशने । गत्वा चाऽस्थात्मतिमया बलदेवनिकेतने ॥ ११॥ लिंग यलमुखे दत्त्वा गोशालोऽस्थाच पूर्ववत् । पूर्ववत् कुटितो ग्राम्यैः पूर्ववच्च विमोचितः ॥ १२ ॥ ग्रामेऽगाबहुशालारुये सपाशाली जगदगुरुः । तत्र शालवनोद्याने तस्थौ च प्रतिमाधरः॥ १३॥ शालाया नामतस्तत्र व्यन्तरी कारणं विना । क्रुद्धोपसर्गानकरोत् स्वामिनः कर्मघातकान् ॥ १४ ॥ सा श्रान्ता नाथमानर्च माधोऽपि विहरन् ययो। पुरं लोहागलं राज्ञाऽधिष्ठित जितशत्रुणा ॥ १५॥ तस्य राज्ञोऽन्येन राज्ञा विरोधः समभूत्तदा । आयान् स्वामी सगोशालस्तत्पुंभिश्च पथीक्षितः ॥ १६॥ नोचे किंचिशदा स्वामी पृष्टस्तै राजपूरुपैः। तदानी हेरिक इति जितशत्राः समर्पितः ॥ १७ ॥ पूर्वायातोऽस्थिकग्रामानुत्पलो नाथमैक्षत । ववन्दे च यथावस्थ जितशत्रोः शशंस च ॥ १८ ॥ राज्ञापि वन्दितो भक्त्या विहरन भगवान् ययौ । पुरे पुरिमतालाख्ये तत्र चेदं पुराऽभवत् ॥ १९॥ तम्रासीद्वागुरः श्रेष्ठी धनी भद्रा च तत्मिया। पन्ध्या श्रान्ता सुतकृते दत्तदेयोपयाचितैः ॥ २०॥ श्रेष्ठिनौ शकटमुखोद्याने तावन्यदा गतौ । चिरं चिक्रीडतुर्देवाविव पुष्पोच्चयादिना ॥ २१ ॥ भ्रमन्तौ क्रीया तत्र जीर्णमायतनं महत् । दृष्ट्वा कौतूहलान्मध्येऽविशतां तावुभावपि ॥ २२ ॥
या C. L.!
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प्रतिमा मल्लिनाथस्य सुधावर्तिनिभां दृशोः । अपश्यतां दम्पती तो श्रद्धापूर्व च नेमतुः ॥ २३ ॥ ताबूचतुर्देव ! यदि त्वत्प्रसादाविष्यति । सुतः सुता वा तचैत्यमुद्धरिष्यावहे तव ॥२४॥ त्वद्भक्तौ च भविष्यावस्नतः प्रभृति सर्वदा । इत्युदित्वा जग्मतुस्तौ श्रेष्ठिनो निजमन्दिरम् ॥ २५ ॥ तत्रासन्नाहतव्यन्तर्यनुभावेन चाऽभवत् । भद्राया उदरे गर्भः श्रेष्ठिनः प्रत्ययप्रदः॥ २६ ॥ गर्माहादपि चारभ्य प्रारेभे वागुरो मुदा । तद्देवकुलमुर्तुमात्मानमिव दुर्गः ॥२७॥ तत्र गल्ला इन्दयं मल्लियतिमा मासुरः । निसन्ध्यं विदधे पूजां गृहीताभिग्रहः सुधीः ॥ २८॥ तं ज्ञात्वा जिनभक्तं तु तद्वेश्मनि समाययुः । विहर्तुं साधवः साध्व्यः सोऽप्यानर्च सदैव तान् ॥ २९ ॥ साधूनां नित्यसंसर्गाच्छ्रेष्टिनी श्रेष्ठवुद्धिको । श्रावकत्वं प्रपेदाते विधिज्ञौ च बभूवतुः ॥ ३० ॥ इतश्च भगवान् वीरस्तस्थौ प्रतिमया स्थिरः। अन्तरे शकटमुखोद्यानस्य च पुरस्य च ॥ ३१॥ नत्र वन्दितुमायात ईशानेन्द्रो जिनेश्वरम् । ददर्श वागुरं यान्तं मल्लिषिम्बार्चनेच्छया ॥ ३२॥ ईशानो वागुरं चोचे किं प्रत्यक्षं जिनेश्वरम् । अतिक्रम्याग्रतो यासि तद्विम्बार्चनहेतवे ? ॥ ३३ ॥ अयं हि भगवान् वीरश्चरमस्तीर्थकृत्स्वयम् । छद्मस्थो विहरन्नन्न वर्तते प्रतिमास्थितः ॥ ३४ ॥ मिथ्यादुष्कृतमित्युक्त्वा निश्च कृत्वा प्रदक्षिणाम् । स ववन्दे विभुं भत्तया कूर्मवत्संकुचत्तनुः ॥ ३५ ॥ ईशानो वागुरश्चेशं नत्वा द्वावपि जग्मतुः । उष्णाकं सन्निवेशं च प्रत्यगाद्भगवानपि ॥ ६ ॥
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गच्छतः स्वामिनोऽभूतां संमुखीनो वधूवरौ । तत्कालजातवीयाही सर्वतो विकृताकृती ।। ३७ ॥ प्रेक्ष्य गोशालकोऽवोचवहो द्वावपि तुन्दिली । दन्तुरी दीर्घचियुकग्रीवो चिल्लो कुनासिकौ ॥ ३८ ॥ अहो संयोजनौचित्यं विधातुर्यदिमावुभौ । कृतौ वधूवरत्वेन मन्ये सोऽपि कुतूहली ॥ ३९॥ एवमग्रे तयोर्भूत्वा भूयो भूयो जगाद सः। अट्टहासं च विदधे वैहासिक इवासकृत् ॥ ४० ॥ वधूवरनराः कुद्धास्तं तस्करमिव द्रुतम् । बध्वा मयूरबन्धेन चिक्षिपुर्वशगहरे ॥४१॥ गोशालोऽयोचत स्वामिन् ! किं मां बद्धमुपेक्षसे । कृपालुस्त्वं परजनेऽप्यसि किं न हि सेवके ॥ ४२ ॥ नं बभाग र सिद्धाों दिमसिदा विपट्टि ने । निज दुश्चरितैरेव चपलस्य कपरिव ॥ ४३ ॥ स्वाम्यप्यदूरे गत्वाऽस्थात्तत्प्रतीक्षणकाम्यया । वधूवरनरा नाथं प्रेक्ष्य चैवं व्यचिन्तयन् ॥ ४४ ॥ पीठभूछत्रभृद्वासौ यद्वान्योऽप्यस्य सेवकः । देवार्यस्य तपोराशेर्यदेषोऽमुं प्रतीक्षते ॥ ४५ ॥ एवं विचिन्त्य तेऽमुश्चन् गोशालं स्वाम्यपेक्षया । समं तेन व्रजन स्वामी क्रमागोभूमिमासदत् ।। ४६ ॥ गोशाल ऊचे गोपालाम्लेच्छा घीभत्समूर्तयः । बजशूरा बजत्येष क पन्थाः कथयन्तु भोः ॥४७॥ प्रत्यूधिरे च गोपालाः किमस्मान कारणं विना । आक्रोशस्येवमध्वन्य श्वशुर्यो नासि नः खलु ॥४८॥ गोशालोऽप्यनवीद भ्यो दासेराः पशुपुत्रकाः । सहिष्यध्वे न चेयूयमाक्रोश्याम्यधिक तदा ॥४॥ स्वभावाख्यानमेतद्वो नाक्रोशोऽयं मया कृतः । किं यूयं म्लेच्छवीभत्सा इत्यलीकं मयोदितम् ? ॥ ५० ॥
१९४॥
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ते क्रुद्धाः कुदृयित्वा तं बद्ध्वा वंशवनेऽक्षिपन् । अमोचयंश्च पथिकास्तमन्ये करुणापराः ॥ ५१ ॥ स्वामी राजगृहे गत्वा वर्षारामधाष्टमम् । चतुर्मासक्षपणभृद्विविधाभिग्रहोऽकरोत् ॥५२॥ चतुर्मासावसाने तु स्वामी बहिरपारयत् । निर्जार्य कर्म मेऽक्यापि यहस्तीति व्यचिन्तयत् ॥ ५३ ॥ वजमिशद्धभूमिलादादिम्लेच्छभमिष । कर्मनिर्जरणायाऽगात स्वामी गोशालकान्वितः स्वच्छन्दं तत्र च म्लेच्छाः परमाधार्मिकोपमाः। नानाविधैरुपसर्गः श्रीवीरमुपदुद्रुवुः ॥ २५ ॥ जगहुँः स्वामिन केपि जहसुः फेचिदुचकैः । सारमेयादिभिर्दुष्टसत्त्वैः केचिदवेष्टयन् ॥ १६ ॥ स्वामी कर्मध्वंसकत्यादुपसगै हर्ष तैः । शल्यादित इव च्छेदैः शस्योद्धरणहेतुभिः ॥५७ ॥ कर्मक्षयसहायांस्ताम्लेच्छान् बन्धूनिव प्रभुः । मेने ततोऽधिकान वापि कर्मरोगभिषक् स्वयम् ॥ ५८ ॥ कम्पे साचलो मेरुय॑त्पादांगुष्ठपीडनात् । कर्मभिः पीड्यमानः सोऽप्येवं धीरो व्यवर्तत ॥ ५९॥ शरणापन्निषेधाय यः सिद्धार्थो न्ययुज्यत | गोशालोत्तरखेलायां जजम्भे सोऽपि नान्यदा ॥ ३०॥ यत्पादाने किंकरन्ति लुठन्ति च मुहुर्मुहुः । सुरेन्द्रास्तेऽपि हा सर्व तत्पीडायामुदासते ॥३१॥ यन्नाममंत्रमात्रेण द्रवन्ति दुरुपद्रवाः । सोऽप्युपद्रूयते क्षुद्रैः कस्य पूत्कुर्महे पुरः॥ १२॥ धिक् सुकृतानि जगतो थैः स्वामिप्रभवैरपि । कृतनर्षियनिमात्मा स्वामी जातो न दुर्षिधेः ॥६३ ॥ १ जप 14 । याज्यं 6 | २ लाटा C. I. M. II
KAKKARAXARA
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जगात्त्राणक्षयसहं न स्वौजोऽप्यादृत प्रभुः । स्वौजः फलं हि गृह्णन्ति संसारसुखगृनवः ॥ ३४ ॥ अनाप्नुवन् वसतिमप्युष्णशीतादिभाजनम् । जागरिक वापत् बाणान् स्थाप्यवास्थितः ॥ ६५ ॥ नवमीं प्रावृषं तत्र धर्मध्यानपरायणः । शून्यागारे द्रुतले वा स्थितः स्वाम्यत्यवाह्यत् ॥ ६६ ॥ सगोशालस्ततः स्वामी सिद्धार्थपुरमाययौ । ततोऽपि प्राचलद् ग्रामं कर्मग्रामाभिधं प्रति ॥ ६७ ॥ मार्गे दृष्ट्रा तिलस्तम् गोशालः प्रभुमभ्यवात् । स्वाभिशेष तिलस्तम्यः कच्चिन्निष्पत्स्यते न वा ? ।। ६८ ।। ततो भवितव्यताया वशेन भगवानपि । त्यक्त्वा मौनं स्वयमाख्यद् भद्र निष्पत्स्यते ह्यसी ॥ ६९ ॥ सप्तापि पुष्पजीवास्तु परमस्मिन्नवस्थिताः । एकस्यामेव शिम्बायां तावन्तो भाविनस्तिलाः ॥ ७० ॥ तद्वचनेन गोशालेनोदखानि सः । तिलस्तम्बः समृत्पिंडो मुमुचे चान्यतः कचित् ॥ ७१ ॥ असत्या स्वामिवामा भूवित्यासन्नसुरैस्तदा । वारिवृष्टिर्विष द्राक् तिलस्तम्बोऽप्युदश्वसत् ॥ ७२ ॥ तत्प्रदेशेन गच्छन्त्या गोराक्रान्तः खुरेण सः । प्रविष्टः क्लिन्नभूमध्ये सुप्रतिष्ठोऽभवत्ततः ॥ ७३ ॥ क्रमात्प्ररूढमूलोऽभूत् क्रमाचोद्भिन्नकंदलः । प्रावर्तन्त तिलस्तस्थे तानि पुष्पाणि वर्धितुम् ॥ ७४ ॥ गोशालेनान्वीयमानो दुर्धिया भक्तमानिना । कूर्मग्रामाभिधे ग्रामे जगाम भगवानपि ॥ ७५ ॥ इतश्चास्ति धनापूर्णचम्पाराजगृहान्तरे । नामतो गोबरग्रामो महीमण्डलमण्डनम् ॥ ७६ ॥
१ शम्बा C. D. ॥ २ गोर्बर° C 11 गोवर" Z ||
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चतुर्थः
सर्गः
॥९३६॥
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कुटुंबी तत्र गोशंखी नामाभीराधिपोऽभवत् । वन्ध्या बन्धुमती नाम भार्या तस्यातिवल्लभा ॥ ७७ ॥ ग्रामस्य तस्य चासन्नो ग्रामः खेटकनामकः । हतो दस्युभिरभ्येत्य बन्दा जगृहिरेऽपि च ॥ ७८ ॥ तदा च वेशिका नाम तत्र स्त्री सुषुवे सुतम् । हृते पत्यौ सुरूपेति दस्युभिचालिता च सा ॥ ७९ ॥ सा तु सवरोगार्ता बालपाणिः शशाक न । गन्तुं तैवेगिभिश्रीरैर्गी दुर्दान्तपैरिव ॥ ८० ॥ अथ ताचिरे चौरा यदि त्वं जीवितार्थिनी । तदेनं बालकं मुच मूर्त व्याधिमिवात्मनः ॥ ८१ ॥ साऽभं तरुतले मुक्त्वा भीताऽगादस्युभिः समम् । सर्वस्यापि हि लोकस्य न प्राणेभ्योऽपरं प्रियम् ॥ ८२ ॥ प्रभाते सह गोरूपैगोंशंखी तत्र चागतः । ईक्षा के बालकं तं सुरूप इति चाऽग्रहीत् ॥ ८३ ॥ निजपत्न्याः सुतत्वेन स तं बालकमार्पयत् । अन्य पुत्रोऽप्यपुत्राणां भवत्यत्यन्तबल्लभः ॥ ८४ ॥ छागं निहत्य रक्तेन मिश्रं चक्रे स बालकम् । पत्न्या च सूतिनेपथ्यं ग्राहयामास बुद्धिमान् ॥ ८५ ॥ मद्भार्या गूढगर्भाssसीत् सा सुतं सुषुवेऽधुना । प्रावादीदिति लोके स चकार च महोत्सवम् ॥ ८६ ॥ तन्माता वेशिका चौरैश्चम्पापुर्यां चतुष्पथे । अवास्थाप्यत विक्रेतुं क्रीता योग्येति वेश्यया ॥ ८७ ॥ गणिकाव्यवहारं सा शिक्षिता वेश्यया तया । प्रसिद्धगणिका जज्ञे रुपावगणिताप्राः ॥ ८८ ॥ क्रमेण तरुणीभूतो गोशंखिकसुतोऽपि हि । विक्रेतुं घृतशकटं चम्पायां ससुहृययौ ॥ ८९ ॥ पौरान् विलसतस्तत्र विदग्धरमणीवृतान्। सोऽपि दृष्ट्वा रन्तुमिच्छुर्गणिकापाटकं ययौ ॥ ९० ॥
॥९७॥
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ददर्श वेशिकां वेश्यामध्यस्थां स स्वमातरम् । तामेवैच्छद्रमयितुमज्ञा हि पशुवजनाः॥२१॥ अदापय ग्रहणकं तस्या एव तदैव सः। निशि स्लातविलिप्तांगस्तद्गृहाय चचाल च ॥ १२ ।। पादः शकृति निर्मनो गच्छतस्तस्य वर्त्मनि | न सोऽज्ञामीत् क्वचिन्मग्न इति स्मरविमोहितः ॥ १३ ॥ तं प्रबोधयितं सद्यस्तदीया कलदेवता। विकल्य गां च बसंचाऽन्तरा तस्थौ तदध्वनः॥२४॥ वत्से धर्षितुमारेभे यावत् सोऽधि पुरीषिणम् । वत्मः स तावन्मानुष्या वाचा गामित्यवोचत ॥ ९ ॥ मातः पश्यायमहीकः पुंस्पशुधर्मवर्जिनः । शकृल्लिप्तं निजं पादं मयि घर्षति निघृणः ॥ १६ ॥ गौरप्युवाच मा ताम्य नाकृत्यं किञ्चिदस्य हि । निजां यो जननी रन्तुं त्वरते कामगर्दभः ॥ १७॥ नछुत्वाऽचिन्तयत्सोऽपि गावो नरगिरा कथम् । वदन्त्यमुष्या वेश्यायाः सूनुरस्मि कथं नु वा ॥२८॥ प्रक्ष्यामि वेश्यां तामेवेत्यालोच्याऽगात्तदोकसि । अभ्युत्थानादिना तस्य प्रतिपत्तिं व्यधाच सा ॥ ९९ ।। निरुद्धकामव्यापारः साशंको गोगिराथ सः । स्थित्वा क्षणमवोचत्तां पारम्पर्य निजं वद ॥ १० ॥ साऽनाकर्णितकं कृत्वा हावभावानदर्शयत् । इदं हि पण्यनारीणां मुख्यं मन्मथशासनम् ॥ १०१॥ सोऽप्यवोचत दास्यापि जल्पितद्विगुणं धनम् । स्वकीयं ब्रूहि सदावं स्वपित्रोः शपथश्च ते ॥ १० ॥ एवं मुहुर्मुहुस्तेन पृष्टा साऽऽख्यद्यथातथम् | साशंकः सोऽपि चोत्थाय जगाम ग्राममात्मनः ॥ १०३ ॥ १ द्रक्ष्यामि , प्रक्षामि D, प्रक्षामि, M. II
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सोsपृच्छत् पितरौ तत्र युवयोरंगजोऽस्मि किम् । लब्धः क्रीतोऽथवान्यो वा कथ्यतां मे यथातथम् ॥ १०४॥ आवयोरंगजोऽसीति यदा तौ हि जजल्पतुः । तदा सोऽनशितस्तस्थावयथाख्यानपीडितः ॥ १०५ ॥ यथातथमथाssख्यातां तत्प्राप्तिं पितरावपि । अज्ञासीद्वेशिकां वेश्यां सोऽपि मातरमात्मनः ॥ १०६ ॥ गत्वा चम्पां वेशिका याः स्ववृत्तान्तं शशंस सः । साऽपि तं स्वसुतं ज्ञात्वा रुरोद न्यग्मुखी हिया ॥ १०७ ॥ अमोचयत कुदिन्याम् । ग्रामे नीत्वा निजेऽमुचद्धर्मे चास्थापयत् पथि ॥ १०८ ॥ वेशिसूनुरित्यासीत्स नाम्ना वैशिकायनः । तदैव विषयोद्विप्रश्चाददे तापसवतम् ॥ १०९ ॥ स्वशास्त्राध्ययनपरः स्वधर्मकुशलः क्रमात्। कूर्मग्रामे स आगच्छच्छ्रीवीरागमनाग्रतः ॥ ११० ॥ तहियो दोर्दण्डः सूर्यमंडलदत्त । लम्बमानजटाभारो न्यग्रोधरिव स्थिरः ॥ १११ ॥ निसर्गतो विनीतात्मा दयादाक्षिण्यवान् शमी । आतापनां स मध्याह्ने धर्मध्यानस्थितोऽकरोत् ॥ ११२ ॥ आदित्य करतापेन यूका निपतिता भुवि । ग्राहं ग्राहं स चिक्षेप भूयो मूर्ध्नि कृपानिधिः ॥ ११३ ॥ तं चावलोक्य गोशालः स्वामिपार्श्वादुपेत्य च । ऊचे जानासि किं तत्त्वं यूकाशय्यातरोऽसि वा १ ॥ ११४ ॥ योषिद्वा पुरुषो वासि सम्यग्विज्ञायसे न हि । इत्युक्तोऽपि तपस्वी सक्षमी नोवाच किञ्चन ॥ ११५ ॥ भूयो भूयोऽपि गोशालस्तथैव तमभाषत । यंत्रेऽपि बहुशः क्षिप्तं श्वपुच्छं न ऋजूभवेत् ॥ ११६ ॥
१ चम्बा |
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॥९९॥
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""WW.परमपरा,
तापसः स चुकोपाथ तजोलेश्यां मुमोच च । अत्यन्तघृष्टादहनश्चन्दनादपि जायते ॥ ११७ ॥ तस्या ज्वालाकरालाया भीतो गोशालको ययौ । अभि प्रभु इवत्रस्तोऽभिनदीव वनद्विपः ॥ ११८ ॥ त्रातुं गोशालकं स्वामी शीतलेश्यामथाऽमुचत् । तेजोलेश्या तयाऽशामि वारिणेव हुताशनः ॥ ११९॥ तामृद्धिं स्वामिनः प्रेक्ष्य विस्मिता थेशिकायमः । समुपेत्य नहावीर सप्रश्रयमदोऽवदत् ॥ १२० ॥ न ज्ञातो भवतामेष भगवतिषजनः । तत्सहध्वमिहेदृक्षं प्रतीपाचरणं मम ॥ १२१ ॥ एवमुक्त्वा गते तस्मिन् प्रभुं गोशालकोऽवदत्। तेजोलेश्यालब्धिरियं जायते भगवन् कथम् ? ॥ १२२ ॥ स्वाम्याख्यत्सर्वदा षष्ठं विदध्यायश्च पारयेत् । यमी समखकुल्माषमुष्टयम्बुचुलुकेन च ।। १२३ ॥ नस्य षण्मासपर्यन्ते तेजोलेझ्या गरीयसी । उत्पद्यतास्खलनीया प्रतिपक्षभयकरा ॥ १२४ ॥ कूर्मग्रामाश्च गोशालेनान्वितः परमेश्वरः । प्रतस्थ प्रतिसिद्धार्थपुराख्यं नगरोत्तमम् ॥ १२५ ।। संप्राप्त तत्तिलस्तम्बदेशे गोशालकोऽवदत् । न निष्पन्नस्तिलस्तम्यो यः स्वामिभिरुदीरितः ॥ १२६ ॥ स्वाम्याचल्यो तिलस्तम्बो निष्पन्नः सोऽन्न विद्यते । गोशालोऽश्रद्दधत्तम्र तिलशिम्बां व्यदारयत् । १२७॥ नत्र सप्ततिलान्पश्यनेवं गोशालकोऽवदत । जायन्तेऽत परापत्य पुनस्तत्रैव जन्तवः ॥ १२८॥ तेजोलेश्यां स्वाम्याख्यातां स साधयितुमन्यदा | स्वामिपादान परित्यज्य श्रावस्ती नगरी ययौ ॥१२९॥ १ शम्बां CM
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स कुंभकारशालायां स्थितः षण्मासिकं तपः । अन्वतिष्ठद्यथाख्यातं तेजोलेश्या सिषेध च ॥ १३० ॥ तेजोलेश्या परीक्षार्थं स गत्वा कूपकंठके । स्वस्य कोपकृते दास्याः कर्करेणाऽभिनद् घटम् ॥ १३१ ॥ सातामा नाचे मुके कुवा । तेजोलेश्या तडिदिव च्युता दासीं ददाह सा ॥ १३२ ॥ संजातप्रत्ययश्चैवं कौतुकालोकनप्रियः । गोशालको वृतो लोकैर्विहर्तुमुपचक्रमे ॥ १३३ ॥ श्री पार्श्वशिष्या अष्टांगनिमित्तज्ञानपण्डिताः । गोशालकस्य मिलिताः षडमी प्रोज्झितव्रताः ॥ १३४ ॥ नाना शोणः कलिन्दोऽन्यः कर्णिकारोऽपरः पुनः । अच्छिद्रोऽयाग्निवेशानोज्यार्जुनः पञ्चमोत्तरः ॥ १३५ ॥ तेऽप्यख्रष्टांगमहानिमित्तं तस्य सौहृदात् । पुंसां समानशीलानां सद्यो भवति सौहृदम् ॥ १३६ ॥ तेजोलेश्याऽष्टांगमहानिमित्तज्ञानगर्वितः । अहं जिनोऽस्मीति वदन् वसुधां विजहार सः ।। १३७ ॥ नाथोऽपि सिद्धार्थपुराद्वैशालीं नगरीं ययौ । शंखः पितृसुहृत्ताभ्यानचे गणराट् प्रभुम् ॥ १३८ ॥ ततः प्रतस्थे भगवान् ग्रामं वाणिजकं प्रति । मार्गे गंडकिकां नाम नदीं नायोत्ततार च ॥ १३९ ॥ उत्तीर्णमात्रो भगवान् सैकते तप्तवालुके । अधारि नाविकैर्नद्युत्तारणद्रविणार्थिभिः ॥ १४० ॥ तदा च शंखगणराज्जामेयश्चित्रनामकः । नौसैन्येनागतो तो निवृत्तः प्रभुमैक्षत ॥ १४१ ॥ भर्त्सयत्वा नाविकांस्तान् भगवन्तममोचयत् । भक्त्या चाभ्यर्च्य परया चित्रो निजपुरं ययौ ॥ १४२ ॥
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१ क्षणात् ), M || २ मंड" /, मंडि || ३ दौत्ये D | दूत्ये ८ ॥
||| १०१ ॥
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अथ वाणिजकग्राम जगाम भगवानपि । अहिश्च धर्मध्यानस्थस्तत्राऽस्थात् प्रतिमाधरः॥ १४३ ॥ तदा षष्ठतपास्तत्र नित्यमातापनापरः । आनन्दायको जातावधिः प्रभुमवन्दत ॥ १४४ ।। स प्राञ्जलिर्घभाषे च भगवन्नतिदुस्सहान् । परीषहानसहिष्ठा उपसर्गाश्च दारुणान् ॥ १४५ ।। वज्रसारं शरीरं ते वज्रसारं च ते मनः । परीषहोपसगैरप्येभिर्यज्यते न हि ॥ १४६॥ इदानीं केवलज्ञानमासन्नं वर्तते प्रभो !। इत्युदित्वा प्रभुं भूयो नत्वाऽऽनन्दो ययौ गृहम् ॥ १४७ ।। कायोत्सर्ग पारयित्वा श्रावस्त्यां पर्युपेत्य च । दीक्षातो दशमं वर्षाकाल स्वाम्यत्यवाहयत् ॥ १४८ ॥ पारयित्वा बहिस्तत्र ग्रामेऽगात्सानुयष्टिके । भद्रां च प्रतिमां तत्र भगवान् पत्यपग्रत ॥ १४ ॥ तस्यां घनशितः पूर्व पूर्वाशाभिमुखः प्रभुः । एकपुद्गलविन्यस्तपृक् तस्थौ सकलं दिनम् ॥ १० ॥ दक्षिणाभिमुखो रात्रिं पश्चिमाभिमुखो दिनम् । उत्तराभिमुखो रात्रिं षष्ठेन प्रतिमा व्यधात् ॥ १५१ ॥ अपारितो महाभद्रां प्रतिमा शिश्रिये प्रभुः । तस्थौ चतुरहोरात्रीं तत्र पूर्वादिदिक्रमात् ॥ १५२ ॥ दशमेन महाभद्रां कृत्वैवं प्रतिमां प्रभुः। प्रपदे सर्वतोभद्रा द्वाविंशतितमेन सः ॥ १५ ॥ प्रत्येकमप्यहोरात्रं तस्थौ दिक्षु दशस्वपि । किं तु न्यध्यायाधोद्रव्याण्यूर्वाधराशयोः ॥ १५४ ।। तिम्रोऽपि प्रतिमाः कृत्वा पारणाप जगद्गुरुः । आनन्दनानो गृहिणः प्रविवेश निकेतनम् ॥ १५५ ॥
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भाण्डानि क्षालयन्त्यासीहहुली तंत्र चेटिका । त्यक्तुकामोषितभक्तमपश्यत् प्रभुमागतम् ॥ १५६ ।। किं तुभ्यं कल्पत ? इति सा स्वामिनमभाषत । पाणिं प्रासारयत् स्वामी भक्त्याऽन्नं सापि तद्ददौ ॥१५७॥ स्वामिपारणकमीतः पंचदिव्यानि नाकिभिः । चक्रिरे तत्र सदने भुमुदे च जनोऽखिलः ॥ १५८ ॥ तदैव बहुली राज्ञा दासीभावावमोच्यत । भवादपि हि मुच्यन्ते भव्याः स्वामिप्रसादतः ॥ १५९ ॥ पारयित्वा प्रमुस्तत्र विहरन् पृथिवीमिमाम् । दृढभूमिमनुप्राप बहुम्लेच्छकुलाऽऽकुलाम् ॥ १६०॥ पेढालग्रामं निकषा पेढालाराममन्तरा | कृताष्टमतपःकर्मा पोलासं चैत्यमाविशत् ॥ १६१ ।। जन्तृपरोधरहितमधिष्ठायशिलातलम् । अमानुलोपितमुजोरावनतविग्रहः ॥ १२॥ स्थिरचेता निर्निमेषो रूकद्रव्यदत्तक । तस्थौ तत्रैकरात्रिक्या महाप्रतिमया प्रभुः॥ १६३ ।। तदा शक्रः सुधर्मायां सभायां परिवारितः । सहस्रैश्चतुरशीत्या सामानिकदिवौकसाम् ॥ १६४ ॥ प्रयस्त्रिंशत्त्रायस्त्रिंशः पर्षद्भिस्तिमृभिस्तथा । चतुर्भिलोकपालेश्च संख्यातीतः प्रकीर्णकैः ॥ १६५ ॥ प्रत्येकं चतुरशीत्या सहस्रैरंगरक्षकैः। दृढाबद्धपरिकरैः ककुप्सु चतसृष्वपि ॥ १६६ ॥ सेनाधिपतिभिः सेनापरिवीतश्च सप्तभिः । देवदेवीगणैराभियोग्यैः किल्बिषिकादिभिः ॥ १६७ ॥ नाम D॥ २ ॥ ३ 'मावसत् DU टि.-* किचित् नतशरीरः ।
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तूर्यन्रयादिभिः कालं विनोदैरतिवाहयन । गोप्ता दक्षिणलोकार्थं शकसिंहासने स्थितः ॥ १६८ ॥ अवधिज्ञानतो ज्ञात्वा भगवन्तं तथा स्थितम् । उत्थाय पादुके त्यक्तवोत्तरासंगं विधाय च ॥ १६९ ॥ जान्वसव्यं भुवि न्यस्य सव्यं च न्यंच्य किंचन । शक्रस्तवेनावन्दिष्ट भूतलन्यस्तमस्तकः ॥ १७० ॥ समुत्थाय च सर्वागोदञ्चद्रोमाञ्चकञ्चुकः । शचीपतिरुवाचेदमुद्दिश्य सकलां सभाम् ॥ १७१ ॥ भो भोः सर्वेऽपि सौधर्मवासिनस्त्रिदशोत्तमाः । शृणुत श्रीमहावीरस्वामिनो महिमाद्भुतम् ॥ १७२ ॥ दधानः पञ्चसमितीर्गुप्तिश्रयपवित्रितः । क्रोधमानमायालो भानभिभूतो निराश्रवः ॥ १७३ ॥ द्रव्ये क्षेत्रे च काले च भावे चाऽप्रतिबद्धधीः । रूक्षैकपुद्गलन्यस्तनयनो ध्यानमास्थितः ॥ १७८ ॥ अमरैरसुरैर्यक्षैरक्षोभिरुरगैर्नरैः । त्रैलोक्येनापि शक्येत ध्यानाचालयितुं न हि ॥ १७५ ॥ इत्याकर्ण्य वचः शाकं शक्रसामानिकः सुरः । ललाटपट्टघटितभ्रुकुटी भंग भीषणः ॥ १७६ ॥ कंपमानाधरः कोपालोहितायतलोचनः । अभव्यो गाढमिथ्यात्वसंगः संगमकोऽवदत् ॥ १७७॥ मर्त्यः श्रमणमात्रोऽयं यदेवं देव वर्ण्यते । स्वच्छन्दं सदसद्वादे प्रभुत्वं तत्र कारणम् ॥ १७८ ॥ देवैरपि न चाल्योऽयं ध्यानादित्युद्भटं प्रभो ! । कथं धार्येत हृदये घृतं वा प्रोच्यते कथम् ? ॥ १७९ ॥ रुद्धान्तरिक्षः शिखरैर्मूलै रुद्धरसातलः । यैः किलोदस्यते दोष्णा सुमरुल लीलया ॥ १८० ॥
| चतुर्थः
सर्गः
॥१०४॥
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सकुलाचलमेदिन्याः प्लावनव्यक्तवैभवः । येषामेष सुगंडूषंकरश्च मकराकरः ॥ १८१ ॥ अप्येकभुजदंडेन प्रचण्डा छत्रलीलया । उद्धरन्ति सहानेकभूधरां ये वसुन्धराम् ॥ १८२ ।। तेषामसमऋद्धीनां सुराणाममितौजसाम् । इच्छासंपन्नसिद्धीनां मर्त्यमानं कियानयम् ॥ १८३ ॥ एषोऽहं चालयिष्यामि सं ध्यानादित्युदीर्य सः। करेण भूमिमाहत्योवस्थादास्थानमण्डपात् ॥ १८४ ।। अर्हन्तः परसाहाय्यात्तपः कुर्वन्त्यखंडितम् । मा ज्ञासीदिति दुईद्धिः शक्रेण म उपेक्षितः ॥ १८५ ॥ ततो वेगानिलोत्पातपतापतधनाघनः । रौद्राकृतिदुरालोको भयापसरदप्सराः ॥ १८६ ॥ विकटोरःस्थलाघातपुञ्जितग्रहमण्डलः । स पापस्तत्र गतवान् यत्रासीत्परमेश्वरः॥ १८७॥ ( युग्मम् ) निष्कारणजगद्वन्धु निरायाध तथा स्थितम् । श्रीवीरं पश्यतस्तस्य मत्सरो ववृधेऽधिकम् ॥ १८८ ॥ गीर्वाणपसिनः पांसुवृष्टिं दुष्टोऽतनिष्ट सः। अकांडघटितारिष्टामुपरिष्टाजगत्प्रभोः ॥ १८९॥ विधुर्विधुन्तुदेनेव दुर्दिनेनेव भास्करः । पिदधे पांसुपूरेण सर्वांगीणं जगत्प्रभोः ॥ १९ ॥ समन्ततोऽपि पूर्णानि तथा श्रोतांसि पांसुभिः। यथा समभवत् स्वामी निःश्वासोच्छ्वासवर्जितः ॥१९१॥ तिलमात्रमपि ध्यानान्न चचाल जगद्गुरुः । कुलाचलचलति किं गजैः परिणतैरपि ॥ १९२॥ अपनीय ततः पांशुं वज्रतुण्डाः पिपीलिकाः । स समुत्पादयामास प्रभोः सर्वांगपीलिकाः॥ १९३ ॥ १ सर्ग Dसगंडकक 20
GREAKKACKERACTICE
॥१०॥
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|चतुर्थः सगे:
राविशन्नेकतोऽङ्गेषु स्वैरं निर्ययुरन्यतः। विध्यन्त्यस्तीक्ष्णतुण्डाग्रेः सूच्यो निवसनष्विव ॥ १९४ ॥ नेर्भाग्यस्येव वाञ्छास मोघीभूतासु तास्वपि । स वंशान रचयामास नाकृत्यान्तो दुरात्मनाम् ॥ १९५॥ नेषामेकप्रहारेण रक्तैगोंक्षीरसोदरः । क्षद्भिरभवन्नाथः सनिर्झर इवाद्रिराट् ॥ १०६ ।। नैरप्पक्षोभ्यमाणेऽथ जगन्नाथे स दुर्मतिः । चक्रे प्रचण्डतुण्डाग्रा दुर्निवारा घृतेलिकाः ॥ १९७ ॥ शरीरे परमेशस्य निमग्नमुखमण्डलाः । ततस्ताः समलक्ष्यन्त रोमालीव सहोत्थिता ॥ १९८ ॥ नतोऽप्यविचलश्चित्ते योगवित्ते जगद्गुरौ । स महावृश्चिकांश्चक्रे ध्यानवृश्चननिश्चयी ॥ १९९॥ मलयाग्निस्फुलिंगाभास्तप्ततोमरदारुणैः । तेऽभिन्दन भगवऽहं लांगूलांकुटकण्टः ॥ २०० ।। नैरप्यनाकुले नाथे कूटसंकल्पसंकुलः । सोऽनल्पान कल्पयामास नकुलान् दशनाकुलान् ॥ २०१॥ खिखीति रसमामास्ते दंष्ट्राभिर्भगवत्तनुम् । खण्डखण्डैस्त्रोटयन्तो मांसखण्डान्यपातयन् ॥ २०२ ।। नैरप्यकृतकृत्योऽसौ यमदोर्दण्डदारुणान् । अत्युत्कटफटाटोपान कोपात्यायुक्त पन्नगान ।। २०३ ॥ आशिरःपादमत्यर्थ महावीरं महोरगाः। अवेष्टन्त महावृक्षं कपिकच्छूलता इव ॥ २०४ ॥ जन्हुस्ते तथा तत्र स्फुटन्ति स्म फटा यथा । तथा दशन्ति स्म यथाऽभज्यन्त दशना अपि ॥ २०५ ॥ उद्वान्तगरलेश्वेषु लम्बमानेषु रज्जुबत् । स वज्रदशनानाशु मूषिकानुदपीपदत् ॥ २०६॥ इवाम्यंग खनकावरुनुनखैर्वन्तैर्मुखैः करैः । । मोमूत्र्यमाणास्तत्रैव क्षते क्षारं निविक्षिपुः ॥ २०७॥ ॥
॥१०६॥
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विप्यकिश्चिद्भुतेषु भूतीधूम ३९ कुधाउद इयत्त शुशार इस्मिकई ससर्ज सः ॥ २०८ ॥ सोऽधाचत् पादपातेन मेदिनी नमयनिय । उडून्यदस्तहस्तेन नभस्तस्त्रोटयन्निव ॥ २०९ ॥ कराग्रेण गृहीत्वा च दुर्वारेण स वारणः । दूरमुल्लालयामास भगवन्तं नभस्तले ॥ २१०॥ वेशीर्य कणशो गच्छत्वसाविति दुराशयः। दन्तावुदस्य स व्योन्नः पतन्तं स्म प्रतीच्छति ॥ २१ ॥ तितं दन्तघातेन विध्यति स्म मुहुर्मुहुः । वक्षसो वनकठिनात्समुत्तस्थुः स्फुलिंगकाः ॥ २१२॥
शशाक बराकोऽसौ कर्तुं किंचिदपि द्विपः । यावत्तावत्सुरश्चके करिणीं वैरिणीमिव ॥ २१३ ॥ अखण्डतुण्डवन्ताभ्यां भगवन्तं यिभेद सा । स्वैरं शरीरनीरेण विषेणेव सिषेच च ॥ २१४ ॥ करेणो रेणुसाद्भते तस्याः सारे सुराधमः। पिशाचरूपमकरोन्मकरोत्कटर्दष्ट्रकम् ॥२१५ ॥ ज्वालाजालाकुलं व्यात्तत्र्यायत वक्त्रकोटरम् । अभवद्भीषणं तस्य वह्निकुण्डमिव ज्वलत् ॥ २१६॥ घमौकस्तोरणस्तम्भाविव प्रोत्तंभिती भुजौ । अभूञ्च तस्य जंघोरु तुंगं तालद्रुमोपमम् ॥ २१७ ॥ स साहांसः फेत्कुर्वन् स्फूर्जत्किलिकिलारवः । कृत्तिवासाः कत्रिकाभृद्भगवन्तमुपाद्रवत् ॥ २१८ ॥ नस्मिन्नपि हि विध्याते क्षीणतैलमदीपवत् । व्याघरूपं धा ध्मातः शीघं चक्के स निघृणः ॥ २१९ ॥ अथ पुच्छच्छटाच्छोटैः पाटयन्निव मेदिनीम् । बूत्कारप्रतिशद्वैश्च रोदसी रोदयन्निव ॥ २२० ॥ 'मुंद , D। 'मुंड' .॥ २ ‘हासके C, L॥
॥१०७॥
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दंष्ट्राभिर्वज्रसाराभिर्नखरैः शूलसोदरैः । अव्ययं व्यापिपर्ति स्म व्याघ्रो भुवनभर्तरि ॥ २२९ ॥ तत्र विच्छायां प्राप्ते दवदग्ध इव द्रुमे । सिद्धार्थराजरूपं स विचक्रे विदुषाधमः ॥ २२२ ॥ किमेतद्भवता तात प्रक्रान्तमतिदुष्करम् । प्रव्रज्यां मुञ्च माऽस्माकं प्रार्थनामवजीगणः ॥ २२३ ॥ वार्धके मामशरणं त्यक्तवान्नन्दिवर्धनः । विकृता त्रिशला चैवं विललाप मुहुर्मुहुः ॥ २२४ ॥ युग्मम् ) ततस्तयोर्विलापैरप्यलिप्तमनसि प्रभौ । आवासितं दुराचारः स्कन्धावारमकल्पयत् ।। २२५ ॥ तन्त्रानासाथ दृषदं सूदः सादर ओदने । चुलीपदे प्रभोः पादौ कृत्वा स्थालीं न्यवेदयत् ॥ २२६ ॥ तत्कालं ज्वालितस्तेन जज्वाल ज्वलनोऽधिकम् । पादमूले जगद्भर्तुर्गिरेरिव दवानलः ॥ २२७ ॥ तप्तस्यापि प्रभोः स्वर्णस्येव न श्रीरहीयत । ततः सुराधमा के पक्कणं दारुणकणम् || २२८ || vaणोऽपि प्रभोः कण्ठे कर्णयोर्भुजदण्डयोः । जंघयोश्च क्षुद्रपक्षिपंजराणि व्यलंययत् ।। २२९ ।। खगैश्चुनखाघातैस्तथा दद्रे प्रभोस्तनुः । यथा छिद्रशताकीर्णा तत्पञ्जरनिभाभवत् || २३० || तत्राप्यसारतां प्राप्ते पक्कणे पक्कपत्रवत् । उत्पादित महोत्पातं खरयातमजीजनत् ॥ २३१ ॥ अन्तरिक्षे महावृक्षांस्तृणोत्क्षेपं समुत्क्षिपन् । विक्षिपन पांशुविक्षेपं दिक्षु च ग्रावकर्करान् ॥ २३२ ।। सर्वतो रोदसीगर्भ भस्त्रापूरं च पूरयन् । उत्पाट्योत्पाट्य वातोऽसौ भगवन्तमपातयत् ॥ २३३ ॥ (युग्मम्) १ तावत् ॥ २षद D, M ||
चतुर्थः
सर्गः
| ॥ १०८ ॥
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तेनापि खरवातेनाऽपूर्णकामो विनिर्ममे । घुसत्कुलकलकोऽसौ द्राक् कलंकलिकाऽनिलम् ॥ २३४ ॥ भूभृतोऽपि भ्रमयितुमलंकर्मीणविक्रमः । भ्रमयामास चस्थमृपिंडमिव स प्रभुम् ॥ २३ ॥ भ्रम्यमाणोऽर्णवावर्तेनेव तेन नभस्वता । तदेकतानी न ध्यानं मनागपि जहाँ प्रभुः ॥ २३६ ॥ वज्रसारमनस्कोऽयं बहुधापि कर्थितः । न क्षुभ्यति कथमहं भग्नाग्र्यामि तां सभाम् ॥ २३७ ॥ तदस्य प्राणनाशेन ध्यान नश्यति नान्यथा । चिन्तयित्वेति चक्रे स कालचक्र सुराधमः ॥ २३८ ॥ आहाय तदयोभारसहस्रघटितं ततः । उद्दधार सुरः शैलं कैलासमिव रावणः ॥ २३९॥ पृथिवीं संपुटीकर्तुं कृतं मन्ये पुटान्तरम् । उत्पत्य कालचक्रं स प्रचिक्षेपोपरि प्रभोः॥ २४॥ ज्वालाजालैरुच्छलनिर्दिशः सर्वाः करालयत् । तत्पपात जगद्भर्तौनल इवार्णवे ॥ २४१ ।। कुलक्षितिघरक्षोदक्षमस्यास्य प्रहारतः। ममजाऽऽजानु भगवानन्तर्वसुमतीतलम् ॥ २४२ ॥ एवं भूतेपि भगवानशोचदिदमस्य यत् । तितारयिषवो विश्वं वयं संसारकारणम् ॥ २४३ ॥ कालचक्रहतोऽप्येष प्रपेदे पंचतां न यत् । अगोचरस्तवस्त्राणामुपायः क इहापरः॥२४४ ॥ अनुकूलरुपसर्गः क्षुभ्यधदि कथंचन । इति बुद्ध्या विमानस्थः स पुरोऽस्थादुवाच च ॥२४॥ सिद्यः प्रकाशमानाशं क्रोशस्खगकुलाकुलम् । प्रातःकालमकालेऽपि दर्शयामास दुष्टधीः ॥ २४६ ॥ १ "पाट्य D. M. ॥ २ मुरश्चकै तानाशु त्रिजगद्गुणे: L. 4. ॥ ३ ॥ एञ्चिबान्तर्गताः यः श्लोकाः न सन्ति C D प्रत्योः ।।
०१॥
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तां च देवीमसौ मायां मन्यमानो महामनाः । न मुमोच्च निभानमभिग्रहताग्रहः ।। २४७ ॥ ताडंकहारकेयूरकिरीटयोतिताम्बरः। तत्संहृत्य विमानस्थः स पुरोऽस्थादुवाच चा ।। २४८ ॥ महर्षे ! नव तुष्टोऽस्मि सत्त्वेन तपसौजसा । प्राणानपेक्षभावेनारब्धनिर्वहणेन च ।। २४९ ॥ पर्याप्तं तपसाऽनेन शरीरलेशकारिणा । ग्रूहि याचस्व मा कार्षीः शंकां यच्छामि किं तव ? ॥ २२० । इच्छामात्रेण पूर्यन्ते यत्र नित्यं मनोरथाः । किमनेनैष देहेन त्वां स्वर्ग प्रापयामि तम् १ ॥ २५१ ।। अनादिभवसंरूद्धकर्मनिर्मोक्षलक्षणम् । एकान्तपरमानन्द मोक्षं या त्वां नयामि किम् ? ॥ २२२ ॥ अशेषमंडलाधीशमौलिलालितशासनम् । अथवाऽत्रैव यच्छामि साम्राज्यं प्राज्यमृद्धिभिः ॥ २५३ ॥ इत्थं प्रलोभनावाक्यैरक्षोभ्यमनसि प्रभो । अमाप्तप्रतिवाक् पापः पुनरेवमचिन्तयत् ॥ २५४ ॥ मोचीकृतमनेनैतन्मम शक्तिविजृम्भितम् । तदिदानीममोघं स्याद्ययेकं कामशासनम् ॥ २५५ ।। यतः कामास्त्रभूताभिः कामिनीभिः कटाक्षिताः। दृष्टा महापुमांसोऽपि लुम्पन्तः पुरुषव्रतम् ॥ २६६ ॥ इति निश्चित्य चित्तन निर्दिदेश सुरांगनाः । तद्विभ्रमसहायान् षट् प्रायुक्त स ऋतूनपि ॥ २५७ ॥ कृतप्रस्तावना मत्तकोकिलाकलकूजितैः । कंदर्पनाटकनदी वसन्तश्रीरशोभत ॥ २८ ॥ मुखवासं सज्जयन्ती विकसन्नीपरेणुभिः । सैरन्ध्रीव दिग्वधूनां ग्रीष्मलक्ष्मीरजुभ्भत ॥ २९ ॥ १ वाक्योऽयं पु ८, ॥
॥११०॥
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राज्याभिषेककामस्य मंगल्यतिलकानिव । सर्वांगं केतकव्याजात् कुर्वनी प्रावृडाबभौ ॥ २६० ॥ सहस्रनयनीभूय नवनीलोत्पलच्छलात् । स्वसंपदमिवोदामां पश्यन्ती शुशुभे शरद् ॥ २६९ ॥ जयप्रशस्ति कामस्य श्वेताक्षरसहोदरैः । हेमन्तश्री लिलेखव प्रत्ययैः कुन्दकुट्मलैः ॥ २६६ ॥ गणिवोपजीवन्ती हेमन्तसुरभीसमम् । कुन्दैश्व सिन्दुबारैश्च शिशिरश्रीरचीयत ॥ २६३ ॥ एवमुज्जृम्भमाणेषु सममेवर्तुषु क्षणात् । मीनध्वजपताकिन्यः प्रादुरासन् सुरांगनाः ॥ २६४ ॥ संगीतविगीताग्यः पुरो भगवतस्ततः । ताः प्रचक्रमिरे जैत्रं मंत्रास्त्रमिव मान्मथम् ॥ २६५ ॥ तत्राविसूतिलयं गान्धारग्रामबन्धुरम् । काभिश्चिदुदगीयन्त जातयः शुद्धेबेसराः ॥ २६६ ॥ क्रमत्रयुत्क्रमगैस्तानैर्व्यक्तैर्व्यजनधातुभिः । प्रवीणाऽवादयद्वीणां काचित् सकलनिष्कलाम् ॥ २६७ ॥ स्फुटत्तकारधोंकारप्रकारैर्मेघनिस्वनान् । काविश्व वादयामासुर्मृदंगांस्त्रिविधानपि ॥ २६८ ॥ नभोभूगतचारीकं विचित्रकरणो द्भटम् । दृष्टिभावैर्नवनयैः काचिदप्यननृतुः ॥ २६९ ॥ दृढांगहाराभिनयैः सचस्नुदितकंचुका । यन्ती धम्मिल्ल दोर्मूलं काप्यदीदृशत् ॥ २७० ॥ दंडपादाभिनयनच्छलात् काऽपि मुहुर्मुहुः । चारुगोरोचनागौरमूरुमूलमदर्शयत् ॥ २७१ ॥ चंडात ग्रन्थिदृढीकरणलीलया । काऽपि प्राकाशयद्वापीसनाभि नाभिमंडलम् ॥ २७२ ॥
१ वेतस: DM
॥ १११ ॥
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WOO
व्यपंदिश्येभदन्ताऽऽख्याहस्तकाभिनयं मुहुः । गाढमंगपरिष्वंगसंज्ञा काचिच निर्ममे ॥ २७३ ।। संचारयन्स्यन्तरीयं नीवीनिबिडनच्छलात् । नितम्बार्थिवफलकं काचिदाविरभाश्यत् ॥ २७४ ॥ अंगभंगापदेशेन वक्षः पीनोन्नतस्तनम् । सुचिरं रोचयामास काचिद्रुचिरलोचना ॥ २७५ ॥ यदि त्वं वीतरागोऽसि राग तन्नस्तनोषि किम् ? । शरीरनिरपेक्षश्चेत्से वक्षोऽपि किं न नः ? ।। २७६ ।। दयालुयेदि वाऽसि त्वं तदानीं विषमायुधात् । अकाण्डाकृष्टकोदण्डादस्मान्न नायसे कथम ? ॥ २७७ ॥ उपेक्षसे कौतुकेन यदि नः प्रेमलालसाः । किंचिन्मानं हि तयुक्तं मरणान्तं न युज्यते ॥ २७८ ॥ स्वामिन् ! कठिनतां मुंच पूरयास्मन्मनोरथान् । प्रार्थनाविमुखो मा भूः काश्चिदित्यूचिरे चिरम् ॥ २७॥ एवं गीतातोद्यनृत्तैर्विकारैरांगिकैरपि । चाटुभिश्च सुरस्त्रीणां न घुक्षोभ जगद्गुरुः॥ २८०॥ एवं विंशत्युपसी तत्र रात्रौ सुराधमः। चक्रे संगमका कायोत्सर्गस्थस्य जगद्गुरोः ॥ २८१ ॥ प्रातः संगमकश्चैवमचिन्तयदन्हो अयम् । नेषेदप्यचलद्धधानान्मर्यादाया इवार्णवः ॥ २८२ ॥ तल्कि यामि दिवं भ्रष्टप्रतिज्ञो यामि वा कथम् । क्षोभयिष्याम्युपसर्गः स्थित्वाऽहं चिरमप्यमुम् ॥ २८३ ॥ पथि सूर्यकरस्पृष्टे युगमानप्रदत्तदृक् । भगवान् वालुकाऽभिख्य ग्राम प्रत्यचलत्ततः ॥ २८४ ॥ सुराधमः संगमकः पंचचौरशती पथि । विचक्रे वालुकाः चोच लुकार्णवसन्निभाम् ॥ २८५ ।। २३ DM || ३ न्युसरी D,|
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मातुल ! मातुलेल्युचैजल्फन्तो दस्यवः प्रभुम् । तथा सस्वजिरे गाढं यथा गिरिरपि स्फुटेत् ॥ २८६ ॥ जगाम व
बालुकाग्राम प्रशमामृतसागरः । जानुर्दधन्यां वालुकाया मजत्पादो जगद्गुरुः ॥ २८७ ॥ निसर्गरधीरित्यमुपसर्गान् सुराधमः । पुरे प्रामे वनेऽन्यत्राप्यनुगच्छन् प्रभोळधात् ॥ २८८ ॥ उपसर्गकृतो जग्मुर्मासाः संगमकस्य षट् । अथाऽगागोकुले स्वामी तदाऽऽसीत्तत्र चोत्सवः ॥ २८॥ षडप्युपोषितो मासान भगवानतिलंध्य तान् । कर्तुकामः पारणकं भिक्षार्थ गोकुलेऽविशत् ॥ २९ ॥ यत्र यत्र गृहे स्वामी प्रययौ तत्र तत्र च । अनेषणां प्रविदधे पापधीः स सराधमः॥२०१॥ दत्तोपयोगो ज्ञात्वा तमनिवृत्तं सुराधमम् । स्वामी निवृत्त्य भिक्षायास्तस्थौ प्रतिमया बहिः ॥ २०२॥ किं भग्नपरिणामोऽयमिति सोऽप्यवधेः सुरः । यावदैक्षिष्ट तावच्चापश्यदक्षुभितं प्रभुम् ॥ २९३ ॥ स सुरोऽचिन्तयचैवं षण्मासौं सन्ततः कृतः । नोपसगैः कम्पितोऽसौ सह्योऽर्णवजलैरिव ॥ २९४ ॥ दोघेणाप्येष कालेन ध्यानान्न हि चलिष्यति । वृथा मे प्रक्रमोऽत्राभूगजस्येवाद्रिभेदने ॥ २९५॥ खर्विलाससुखं हित्वा शापभ्रष्ट इवायनिम् । कियच्चिरं ह हाऽनाम्यं निजदुर्बुद्धिवञ्चितः ॥ २९६ ॥ एवं विचिन्त्य स सुरः प्रणम्य च जगद्गुरुम् । कृताञ्जलिम्लानमुखो हीणश्चैवमभाषत ॥ २७ ॥ यथा सभायां शक्रेण कीर्तितोऽसि तथा यसि । तद्दचोऽश्रद्दधानेन मयाऽस्येवमुपद्रुतः ॥ २९८ ।। १ दध्यं । दध्म । । "दने ॥ ॥
C
॥१९
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I
सत्यप्रतिज्ञस्त्वं भ्रष्टप्रतिज्ञोऽहमसौ पुनः । न व्यधायि मया साधु तत्क्षमस्व क्षमानिधे ! ।। २९९ ।। यां ग्रास्याम्युपसन्नोऽहमुपसर्गपराङ्मुखः । ब्रज त्वमपि निःशंको ग्रामाकरपुरादिषु ॥ ३०० ॥ ग्रामेषु विश भिक्षायै सुंश्वाहारमदृषितम् । भिक्षादोषा अपि पुरा विहितास्ते मयैव हि ॥ ३०९ ॥ स्वाम्यवोचत नश्चिन्तां मुञ्ज संगमकामर ! | कस्याप्यधीना न वयं विहरामो निजेच्छया ॥ ३०२ ॥ इत्युक्तवन्तं श्रीवीरं प्रणम्य स सुराधमः । सानुतापः प्रचचाल पुरुहूतपुरीं प्रति ॥ ३०३ ॥ इतश्च कालं तावन्तं सुराः सौधर्मवासिनः । निरानन्दा निरुत्साहा उद्विप्राञ्चावतस्थिरे ॥ ३०४ ॥ शक्रोऽपि मुक्त नेपथ्यांगरागोऽत्यन्नदुःखितः । संगीतकादिविमुखो मनस्येवमचिन्तयत् ॥ ३०५ ॥ इयतामुपसर्गाणां निमित्तमभवं ह्यहम् । मया स्वामिप्रशंसायां कृतायां सोऽकुपत्सुरः ॥ ३०६ ॥ अत्रान्तरे संगमकः पापपंकमलो मसः । प्रणष्टकान्तिप्राग्भारोऽम्भःस्पृष्ट इव दर्पणः ॥ ३०७ ॥ अष्टप्रतिज्ञो मन्दाक्षमन्दीभूताक्षिपंकजः । देवराजाधिष्ठितां तां सुधर्मामाययौ सभाम् ||३०८|| ( युग्मम्) शक्रः संगमकं दृष्ट्वा सग्रो भूत्वा पराङ्मुखः । इत्यूचे भोः सुराः ! सर्वेऽप्याकर्णयत मद्वचः ॥ ३०९ ॥
१ तास्यपं ।
टि.- मन्दाक्षः लज्जा
चतुर्थः
सर्गः
॥ ११४ ॥
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अयं हि कर्मचण्डालः पापः संगमकामरः । दृश्यमानोऽपि पापाय तद् द्रष्टुं नैष युज्यते ॥ ३१०॥ बहलेलापराद्धं हि गावातील गावर्णितः । नास्मभ्यमपि कि भीतो भवाद्रीतो न यद्ययम् ॥३११॥ अर्हन्तो नान्यसाहाय्यात्तप्यन्ते तप इत्यहम् । तयोपसर्गकालेऽपि ना, पापमशिक्षयम् ॥ ३१२॥ अतः परमिह तिष्ठन्नस्माकमपि पाप्मने । निर्वासनीयस्तदसौ कल्पावस्मात्सुराधमः ॥ ३१३ ॥ इत्युदित्वा वज्रपाणिर्वत्रेणेव शिलोच्चयम् । जधान वामपादेन सुराधमममर्षणः ॥ ३१४ ॥ । पर्यस्यमानो विविधायुधैर्माधवनर्भरैः । आक्रुश्यमानस्त्रिदिवस्त्रीभिर्मोटितपाणिभिः ॥ ३१५ ॥ सामानिकैहस्यमानो यानकाख्यविमानगः । स शिष्टकार्णवायुष्को मेरुघलां सुरो ययौ ॥ १६ ॥
(युग्मम् ) महिष्यः संगमकस्य शक्रमेवं व्यजिज्ञपन् । स्वनाथमनुगच्छामस्त्वदादेशो भवेद्यदि ॥ ३१७ ॥ अनुगन्तुं संगम दीनास्या अन्वमस्त ताः । अवारयत्परीवारमशेषमपि वासवः ॥ ३१८ ॥ द्वैतीयिकेऽथ दिवसे तत्र गोचरचर्यया। पाविशद्गोकुलवरे पारणेच्छुर्जगद्गुरुः ॥ ३१९ ॥ सत्रैका भक्तितो वत्सपालकस्थविर प्रभुम् । कल्पेन परमानेनोषितेन प्रत्यलाभयत् ॥ ३२० ॥ चिराज्जातेन भगवत्पारणेन प्रमोदिनः । चक्रिरे पञ्च दिव्यानि तत्र सन्निहिताः सुराः ॥ ३२१ ॥ ततश्च विहरन स्वामी पुरीमालभिकां ययौ । तस्थौ प्रतिमया तत्रालेख्यस्थ इव सुस्थिरः॥३२२ ॥
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चतुर्थः सर्गः
तत्र विद्युत्कुमारेन्द्रो नाम्रा हरिरिति प्रभुम् । एत्य प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्यैवमवोचत ॥ ३२३ ॥ उपसर्गास्त्वया नाथ ! ते सोढा यः श्रुतैरपि । अस्मादृशा विदीयन्ते वज्रादप्यतिरिच्यसे ॥ ३२४ ॥ स्तोकनाप्युपसर्गेण धातिकर्मचतुष्टयम् । हनिष्यस्यचिरादेव केवलं चार्जयिष्यसि ॥ ३२५॥ इत्युदित्वा भगवन्तं नमस्कृत्य च भक्तितः । हरिर्विद्युत्कुमोरन्द्रो ययौ निजनिकतनम् ॥ ३२६ ॥ भगवानपि निर्गत्य नगरी श्वेतवीं ययौ । विद्युदिन्द्रो हरिसहस्तवैत्याऽवन्दत प्रभुम् ॥ ३२७ ॥ आख्याय सोऽपि हरिवज़गाम निजमाश्रयम् । नाथोऽपि गत्वा श्रावस्त्यां तस्थौ प्रतिमया स्थिरः ॥ ३२८ ॥ तस्यां पुर्यां दिने तस्मिन्महाविच्छर्दपूर्वकम् । प्रारब्धोऽभूवनैः स्कन्दरथयात्रामहोत्सवः ॥ ३२९ ॥ प्रतिमास्थमतिक्रम्य भगवन्तं पुरीजनाः । स्कन्दं प्रति ययुश्चैत्यपूजापटलिकाभृतः ।। ३३०॥ । लपयित्वा पूजयित्वा स्कन्दस्य प्रतिमा जनाः । रथमध्यारोपयितुमसज्जन्त यथाविधि ॥ ३३१ ।। तदा चाचिन्तयच्छक्रः कथं विहरति प्रभुः । ददर्श चावधेवार तथास्थं तांश्च नागरान् ॥ ३३२ ॥ कथं नाथमतिक्रम्य निर्विवेको जनो ह्ययम् । स्कन्दपूजां करोतीति सेव्यस्तत्राययौ हरिः ॥ ३३३ ॥ शक्रेणाधिष्ठिता स्कन्दप्रतिमा प्रतिमास्थितम् । भगवन्तं प्रत्यचालीयंत्रपांचालिकेव सा ॥ ३३४ ।। अहो स्कन्दकुमारोऽयं रथमारोक्ष्यति स्वयम् । इत्यूचुर्नागरा यावत्तावत् सा स्वामिनं ययौ ॥ ३३५ ॥ सा त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य भगवन्तं ननाम च । उपासितुं च प्रारेभे निषण्णा पूधिवीतले ॥ ३३६ ॥
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अयमस्यापि देवस्य पूज्यः कोऽपीति सर्वथा । चक्रे न युक्तमस्माभिर्यवस्याऽतिक्रमः कृतः ॥ ३३७ ॥ इति ब्रुवाणास्ते पौरा विस्मयाऽऽनन्दधारिणः । महिमानं प्रमोश्चक्रुः कौशाम्बी च ययौ प्रभुः ॥ ३३८ ॥ तत्राऽन्दू सविमानौ जिनेन्द्र प्रतिमास्थितम् । भक्त्याऽभ्येत्य ववन्दाते सुयात्राप्रश्नपूर्वकम् ॥ ३३९ ॥ क्रमाच विहरन् स्वामी ययौ वाराणसी पुरीम । अभ्येत्य तत्र शक्रेण ववन्दे मुदितात्मना ।। ३४०॥ ततो राजगृहे गत्या स्थितं प्रतिमया प्रभुम् । ईशानेन्द्रोऽनमनत्तया सुयात्राप्रश्नपूर्वकम् ॥ ३४१ ॥ गतोऽथ मिथिलापुर्या स्वामी जनकभूभुजा । धरणेन्द्रेण चाऽपूजि प्रियप्रश्नविधायिना ॥ ३४२ ॥ नतो विहरमाणोऽगाद्वैशाली नगरी प्रभुः । तत्र चैकादशो वर्षाकालो ब्रतदिनादभूत् ॥ ३४३ ॥ तस्यां च समरोद्याने बलदेवनिकेतने । चतुर्मासक्षपणभृत्तस्थौ प्रतिमया प्रभुः ॥ ३४४ ॥ भूतानन्दो नागराजस्तत्रैत्याऽवन्दत प्रभुम् । आसन्नं केवलज्ञानं समाख्याय जगाम च ।। ३४२॥ परमश्रावकस्तत्र जिनदत्ताभिधोऽवसत् । दयावान् विश्रुतो जीर्णश्रेष्ठीति विभवक्षयात् ॥ ३४६ ॥ तत्रोद्याने बलदेवायतने स गतस्तदा । जिनदत्तो जिनपतिं ददर्श प्रतिमास्थितम् ॥ ३४७ ।। छद्मस्थ एष सर्वज्ञोऽस्तीति निश्चित्य स प्रभुम् । भत्तया ववन्दे परया चित्ते चैवमचिन्तयत् ।। ३४८ ॥ उपोषितोऽसौ भगवानद्यास्ति प्रतिमाधरः । श्वः कर्ता पारणं चेन्मे मन्दिरे सुन्दरं तदा ॥ ३४९॥
RIMARIYAR
॥११७
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नित्यमित्याशया नाथं चतुर्मासीमसेवत । तदन्त्याहे निमन्त्र्येशं स ययौ निजवश्मनि ॥ ३५० ॥ पूर्वसंसाधिनामात्मविहितं न बरहालय प्राशुपान्येषणीयानि वरभोज्यान्यचिन्तयत् ॥ ३५१ ॥ जिनदत्तो जिनमार्गदत्तदक प्रांगणे स्थितः । दध्यावतानि भोज्यानि दास्यामि स्वामिने खलः ।। ३५२ ॥ धन्योऽस्मि खलु यस्यौकस्यहन् स्वयमिहेष्यति । करिष्यति पारणं च संसारार्णवतारणम् ॥ ३५३ ।। आगच्छतश्च नाथस्य गमिष्याम्येष संमुखम् । त्रिश्च प्रदक्षिणीकृत्य वन्दिष्ये तत्पदाम्बुजे ।। ३९४ ॥ अपुनर्जन्मने जन्म मम चेदं भविष्यति । मोक्षाय दर्शनमपि किं पुनः पारणं प्रभोः॥ ३५५ ॥ एवं च चिन्तयन यावत्स तस्थौ शुचिमानसः । तावज़गामाऽभिनवश्रेष्ठिनो धामनि प्रभुः ॥ ३५६ ।। स श्रेष्ठी श्रीमदोद्ग्रीवश्चेटी मिथ्यागादिशत् । दत्त्वा भिक्षामसौ भिक्षुर्मश्नु भद्रे ! विसृज्यताम् ॥३५॥ दारुहस्तकहस्ता सा कुल्माषान् समुपानयत् । चिक्षेप च जगहेतुः पाणिपात्रे प्रसारिते ॥ ३५८ ॥ नाडितो दुन्दुभिर्देवैश्वेलोरक्षेपश्च निर्ममे । वसुधारा पुष्पगन्धाभ्भसां वृष्टिश्च तत्क्षणात् ॥ ३५९ ।। लोकैश्च पृष्टोऽभिनवश्रेष्ठी माय्येवमब्रवीत् । स्वयं मया पायसेन पारणं कारितः प्रभुः ॥ ३६० ॥ अहो दानं सुदानं चेत्याकर्ण्य दिविषद्ध्वनिम् । लोको राजा चाभिनवश्रेष्ठिनं तुष्टुवुर्मुहुः ।। ३६१ ॥ स्वाम्यागमनचिन्तावाञ्जीर्णश्रेष्ठी तथा स्थितः । दिविषदुन्दुभिध्वानमाकण्येवं व्यचिन्तयत् ॥ ३६२ ।। 'दन्ताहे CI. ॥ २ ॥
॥११८॥
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धिगहो भन्दभाग्योऽसि मुधा मनोर: पानिमम सवेश्माऽन्यत्र प्रभुरपारयत् ॥ ३६३ ॥ पारयित्वा प्रभुरपि विहरनन्यतो ययौ । तत्रोधाने पार्थशिष्यः केवल्यथ समाययौ ॥ ३६४ ॥ राजा लोकश्च तं गत्वा पप्रच्छ भगवन्निह । नगर्या को महापुण्यसंभारोपार्जको जनः ।। ३६५ ॥ जीणश्रेष्ठीति सोऽप्याख्यल्लोकोऽप्यूचे कथं ह्यसौ । न स्वामी पारितोऽनेनाऽभिनवेन हि पारितः ॥ ३ ॥ वसुधाराप्यभिनवश्रेष्ठिनो मन्दिरेऽपतत् । स कथं न महापुण्यसंभारोपार्जकः प्रभो ! ॥ ३६७ ॥ कंवल्याख्यद्भावतोऽर्हञ्जिनदत्तेन पारितः । तथोपायच्युते कल्पे जन्मानेन भवादितः ॥ ३६८ ॥ ताग्भावस्तदाऽयं चेन्नाश्रोग्यदू दुन्दुभिध्वनिम् । तदा ध्यानान्तरगतः प्राप्स्यत्केवलमुज्वलम् ॥ ३६९ ॥ शुद्धभावविहीनेनाऽभिनवश्रेष्ठिना पुनः । प्राप्तमहत्पारणस्य वसुधारैहिकं फलम् ।। ३७० ॥ भत्त्यभक्तिविहीनं तदहत्पारण फलम् । आकर्ण्य विस्मितो लोकः स्थानं निजनिजं ययौ ॥ ३७१ ॥ इतश्च नगरपामाकरद्रोणमुखादिषु । विहरन भगवान् वीरः सुंसुमारपुरं ययौ ॥ ३७२ ॥ तत्रोधानेऽशोकखंडेयोऽशोकद्रोः शिलातले । कृताष्टमप्रभुभेजे प्रतिमामेकरात्रिकीम् ॥ ३७३ ॥ इतश्चात्रय भरते विन्ध्यपादतलस्थिते । विभेले सनिवेशेऽभूद्धनवान् पूरणो गृही ॥ ३७४ ॥ निशीथे सोऽन्यदा दध्यो नूनं पूर्वभवे मया । कृतं महत्तपो येन श्रीरियं मान्यता च मे ॥ ३७॥ मेले CHU
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फलं प्रार्मणामत्र प्राप्यते हि शुभाशुभम् । सेव्यसेवकभावेन भजनेष्वनुमीयते ।। ३७६ ॥ गृहवासं परित्यज्य स्वजनान्प्रतिबोध्य च । एष्यद्भव फलप्राप्त्यै चरिष्यामि तपो यतः ॥ ३७७ ॥ मासैरष्टभिरला च पूर्वेण वयसाऽऽयुषा । तत्कर्तव्यं मनुष्येण येनान्ते सुखमेधते ॥ ३७८ ॥ एवं विचिन्त्य स प्रात जयित्वा स्वकाञ्जनान् । आपृच्छ्य च व्रतकृते स्वपदे तनयं स्यात् ॥ ३७॥ स्वयं च नाना प्राणामं तापसत्रतमारदे । चतुःपुटं दारुमयं भिक्षापात्रमथाग्रहीत् ॥ ३८०॥ आरभ्य तहिनादेव सदा षष्ठानि सोऽकरोत् । आत्मानमातापनया क्रशयामास चाऽन्वहम् ॥ ३८१ ॥ प्राप्ते च पारणदिने भाजनं तश्चतुःपुटम् । गृहीत्वा प्रययो भिक्षाकृते मध्यंदिनक्षणे ॥ ३८२ ।। क्षिप्तामाये पुटे भिक्षां पान्थादीनामदत्त सः। द्वितीयपुटभिक्षां च काकादिभ्यः पुनर्ददौ ॥ ३८३ ॥ मत्स्यादिजलचारिभ्यस्तृतीयपुटगामदात् । रागद्वषो विनाऽभुंक्त चतुर्थपुटगां स्वयम् ॥ ३८४ ॥ एवं द्वादशवर्षाणि कृत्वा बालतपः स तु । विभेलसनिवेशस्यैशान्यामनशनं ललौ ॥ ८ ॥ मासं सोऽनशनं कृत्वा मृत्वा बालतपोषशात् । अभूञ्चमरचंचायां चमरेन्द्रोऽर्णवस्थितिः ॥ ३८६ ॥ उत्पन्नमात्रो भुवनान्तराण्यवधिचक्षुषा । द्राक् पश्यन्त्यमपि हि सौधर्मेन्द्र ददर्श सः॥ ३८७ ॥ स्थितं विमाने सौधर्मावतंसे वज्रधारिणम् । शक्रं महर्द्धि स प्रेक्ष्य क्रुद्धोऽवोचदिति स्वकान् ॥ ३८८ ॥
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अप्रार्थितप्रार्थकोऽयं को नु मे शिरसि स्थितः । दुरात्मा विलसत्येवं निर्लज्जः सुरपांसनः ॥ ३८॥ सामानिकाद्यास्ते मूर्ध्नि निषद्भाजलयोऽवदन् । अयं सौधर्मकल्पेन्द्रो महौजाश्चण्डशासनः ॥ ३० ॥ तच्छुत्वाऽभ्यधिकं क्रुद्धो भृकुटीभीषणाननः । नासासूत्कारपर्यस्तयामरश्चमरोऽवदत् ॥ ३९१ ॥ मद्विक्रमानभिज्ञाः स्थ तयं तं प्रशंसथ । एष वो दर्शयिष्यामि स्वयलं तस्य पातनात् ॥ ३९२॥ उच्चस्थानस्थितो दैवात् प्रभुनैतावताऽप्ययम् । गजशारीनिविष्टः किं काकोलो रथिकी भवेत् ? ॥ ३९.३ ॥ यत् स्थितस्तत् स्थितोऽसौ भो मयि क्रुद्ध त्वतः परम् । न स्थास्यत्युदिते वर्केन तेजांसि तमांसि च ३९४ अथ सामानिकाः प्रोचुरयं पूर्वभनार्जितैः । प्रायैर्दिविषदीशोऽभवधिकर्चिपराक्रमः ॥ ३९५ ॥ त्वं स्वपुण्यानुमानेन प्रभुरस्मादृशामभूः। पुण्याधीनो हि विभवस्तदीामिह मा कृथाः ॥ ३९६ ॥ विक्रमोपक्रमो ह्यस्मिन् क्रियमाणस्त्वया भवेत् । उपहासाय पाताय शरभस्यांम्बुदेष्विव ।। ३९७ ॥ तत्पशाम्य सुखं तिष्ठ भुंश्व भोगान् यथासुखम् । विनोदान् पश्य विविधान सेव्यमानोऽस्मदादिभिः ३९८ अथ तांश्चमरोऽवोचयूयं तद्भीरवो यदि । ननु तत्तिष्ठतात्रैव यास्याम्येकोऽपि तयुधि ॥ ३९९ ॥ सुराणामसुराणां च स्यादिन्द्रः सोऽयवाऽप्यहम् । प्रत्याकारे यदेकस्मिन् युगपन्न त्यसिद्वयम् ॥ ४० ॥ इत्यूर्जितं स गर्जित्वा समुत्पिपतिपुर्दिवि । किंचिजातविवेकः सन् भूयोऽप्येवमचिन्तयत् ॥ ४०१॥ १ च*D, M॥ २ °धे D M |
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सग
अमी सामानिकाः शक्रं शक्तमाचक्षते यथा । भविष्यति तथा किंचिन्न खल्वेते ममाहिताः॥ ४० ॥ कार्यगतिर्विषमा च देवाचेन्मे पराजयः। तदा के शरणं यास्याम्यमुष्मादधिकोजसः ।। ४०३ ॥ एवं विचिन्त्य प्रायुक्तावधि सोऽथ ददर्श च । सुंसुमारपुरे वीरस्वामिन प्रतिमास्थितम् ॥ ४०४ ॥ निश्चित्य शरणीकार्य श्रीवीरं चमरासुरः । उत्थायाऽगात् प्रहरणशालां तुंबालयाहयाम् ॥ ४०५ ॥ जग्राह तत्र परि मृत्योर्भुजमिवापरम् । द्विस्त्रिश्च चालयामास तिर्यगूर्ध्वं च स द्रुतम् ॥ ४०६ ॥ वीर इत्यसुरस्त्रीभिर्वीक्ष्यमाणः सकामनम् | उत्सायमानो भुवनपतिभिः कौतुकार्थिभिः ॥ ४०७॥ उपेक्ष्यमाणोऽज्ञ इति निजैः सामानिकासुरैः । पुश्चिनरचंधाचा नियों चमरासुरः ।। ४०८ ॥ (युग्मम् ) क्षणाच्छीवीरमासाद्य मुक्त्वा परिघमायुधम् । स निः प्रदक्षिणीकृत्य नत्वा चैवं व्यजिज्ञपत् ॥ ४०९॥ भगवस्त्वत्प्रभावेण शक्रं जेध्यामि दुर्जयम् । सोऽत्यन्तं बाधते मां हि मन्मनः उपरि स्थितः ॥ ४१० ।। इत्युक्त्वाऽऽदाय परिघमैशान्यामुपमृत्य घ । सद्यो विचक्रे स्वं रूपं प्रमाणे लक्षयोजनम् ॥ ४११॥ मूर्तीभूतमिव व्योम श्यामच्छबिमहातनुः । नन्दीश्वरमहाद्वीपाञ्जनादिरिष जंगमः॥ ४१२ ।। दंष्ट्राककचभीमास्यो विलोलश्यामकुन्तलः । वक्त्रकुंडोच्छलज्ज्वालाजालपल्लविताम्बरः ॥ ४१३ ॥ धुवक्षःस्थलाभोगस्थगितादित्यमंडलः । दोर्दडखणभ्रश्यद्ग्रहनक्षत्रतारकः ॥ ४१४ ॥ १ चुपाल CI चुपाल ॥२'तनु ॥
॥१२॥
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नाभीमंडलसंलीनफणिफूत्कारदारुणः । शैलचूलाग्रसंलग्रजानूजनितविस्मयः ॥ ४१५॥ पादावष्टंभविधुरीकृतभूमंडलोऽथ सः। समुत्पपात दर्पान्धः सौधर्माधिपतिं प्रति ॥ ४१६ ।।
(पंचभिः कुलकम् ) ऊर्जितैगर्जितैः सर्वं ब्रह्माण्ड स्फोटयन्निव । व्यन्तरान् भीषयमाणो भीष्मोऽन्तक इवापरः॥ ४१७ ॥ ज्योतिष्कांस्त्रासयन्नुचैः कुरंगानिव केसरी । क्षणात्मापातिसूर्येन्दुमंडलः शक्रमंडलम् ॥ ४१८ ॥ निलिलियर किल्बिषिकास्तत्रसुश्चाभियोगिकाः । सेनान्योऽपि समं सैन्यैरकस्मादपि बुद्रुयुः ॥ ४१९॥ पलायन्ते स्म दिक्पालाः मोमवैश्रवणादयः । बेगेनापततस्तस्माद्भयकरमहातमोः ॥ ४२० ॥ आत्मरक्षरस्खलितो पत्रिणाऽप्यनिवारितः । किमेतदिति संभ्रान्तस्त्रागनिंशोर्निरीक्षितः ॥ ४२१॥ सकोपविस्मयेष्टिः सोऽथ सामानिकैय॑धात् । एक क्रमं पद्मवेयां सुधर्मायामथापरम् ॥ ४२२ ॥ (युग्मम् ) परिघणेन्द्रकीलं त्रिस्ताडयित्वा स दुर्मदः । उत्कटां भ्रकुटिं बिभ्रच्छक्रमेवमवोचत ।। ४२३ ॥ एवंविधानां वृन्देन षिड्गानामिव नाकिनाम् । ओजसा किं विडोजस्त्वं ममोपर्यवतिष्ठसे ? ।। ४२४ ।। अधुना पातयामि त्वामधस्तादात्मनोऽपि हि । मुधा घिरं स्थितोऽसीह शैलाग्र इव मौकुलिः ॥ ४२५ ॥ पुर्याश्चमरचंचायाः स्वामिनं चमरासुरम् । किं मामपि न जानासि विश्वासह्यपराक्रमम् ॥ ४२६ ॥ केसरीव व्याधहका तादृक्षं परुषं वचः । अनाकर्णितपूर्वीन्द्रः सिधिमयेऽथ विसिध्मिये ॥ ४२७ ॥
५॥१२३॥
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चतुर्थः
सर्गः
ज्ञात्वाऽवधेस्तं चमरं रे रे नश्येत्यथ ब्रुवन् । भृकुटीमिव दुर्दर्श शक्रो दंभोलिमुद्दधे ॥ ४२८ ॥ सारं कल्पानलस्येव विद्युतामिव संचयम् । वृन्दीभूतमिवौर्वाग्निज्वालेद्धं सोऽमुचत्पविम् ॥ ४२० ॥ तडत्तडिति कुर्वाणं त्रस्तगीर्वाणवीक्षितम् । गीर्वाणपतिमुक्तं तवमरं प्रत्यधावत ॥ ४३० ॥ अर्कतेज इवोलूको द्रष्टुमप्यक्षमः पविम् । वल्गुलीवोर्ध्वपादोऽधोमौलिभ्रंश सोऽसुरः॥ ४३१ ।। भगवन्तं महावीरं प्रपित्सुः शरणं ततः। द्राक् पलायिष्ट चमरश्चमरश्चित्रकादिव ॥ ४३२ ॥ महाहेरिव मंडूक उरभ्र इव दन्तिनः । कुञ्जरः शरभस्येव गरुडस्येव पन्नगः ॥ ४३३॥ अनात्मज्ञः कथमरे युयुत्सुरसुराधमः । शेक्रस्यास्फलित इति स नश्यञ्जहसेऽमरैः ॥ ४३४ ॥ (युग्मम्) योऽभूत्ताहग्महादेहो लघुदेहः क्षणेन सः । वाताहत इवाम्भोदस्त्वरितत्वरितं ययौ ॥ ४३५ ॥ तस्याणूकृतरूपस्य गोधाया इव पृष्ठतः। समापतनशोभिष्ट ज्वालाजालाकुलोऽशनिः ॥ ४३६ ।। इतश्च वज्रे निर्मुक्तमात्रे वनीत्यचिन्तयत् । नासुराणामिहाऽऽगन्तुं शक्तिः संभवति स्वतः ॥ ४३७ ।।
अर्हन्तमर्हचैत्यं वा महर्षि कंचनाय वा । मन्ये मनसिकृत्याऽसौ जातशनिरिहाययौ ॥ ४३८ ॥ विचिन्त्येत्यवधेः शक्रोऽज्ञासीत् स्वामिप्रभावतः । तत्राऽऽयातं चमरेन्द्र यान्तं च स्वामिनं प्रति ॥ ४३९ ॥ हा हा हतोऽस्मीति वदन्निन्द्रः कुलिशवम॑ना । द्रुतद्रुतमधाविष्ट त्रुटद्धारादिभूषणः ॥ ४४० ॥ १ शक्रेगोलासित इति ॥
॥१२४॥
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अधस्तानिजभूमित्वाचमरस्तत्र चाग्रतः। तत्पृष्टतोऽगादम्भोलिबजी तत्पृष्ठतः पुनः ॥ ४४१॥ पश्चात्प्रचलितोऽपीन्द्रो निजशक्याऽतिवेगवान् । करीव प्रतिकारस्य तयोनिकटवर्त्यभूत् ॥ ४४२ ॥ आसन्नप्रायकुलिशः कथंचित्प्राप सोऽसुरः। प्रतिमाथ महावीरं दवातद्विपवनदीम् ॥ ४४३॥ शरणं शरणमिति ब्रुवाणः स्वामिपादयोः। अन्तरे सूक्ष्मकीभूय कुन्थुवच्चमरोऽविशत् ॥ ४४४ ॥ चतुरंगुलमप्राप्तं स्वामिपादारविन्दयोः । वध मुथ्याऽग्रहीवाही पारजिलो पक्ष । ४४५ ॥ प्रभु प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा अ पुरन्दरः । कृताञ्जलिरुवाचैवं भक्तिनिर्भरया गिरा ॥ ४४६ ॥ नाऽज्ञासिषं यथा स्वामिपादपद्मप्रभावतः। आगमञ्चमरेन्द्रो मामुपद्रोतुं समुद्धतः ॥ ४४७ ॥ अज्ञानादमुचं वज्रं पश्चाचावधिनाऽबुधम् । अमुं त्वत्पादसंलीनं सहस्वाऽऽग इदं मम ॥ ४४८॥ इत्युक्त्वा शक्र ऐशान्यां स्थित्वा वामांघ्रिणा भुवम् । रोषनाशाय भित्त्वा त्रिश्चमरेन्द्रमदोऽवदत् ॥४४९॥ भो भोः ! साधु त्वया चक्रे यद्विश्वाभयदः प्रभुः । शिश्रिये शरणायाऽयं गुरुः सर्वगरीयसाम् ॥ ४२०॥ मया वैरं समुत्सृज्य मुक्तोऽसि चमरासुर ! । गत्वा चमरचंचायां स्वऋद्धिसुखभाग्भव ॥ ४५१ ॥ एवं चमरमाश्वास्य भूयोऽपि परमेश्वरम् । नमस्कृत्य प्रतिययौ निजं स्थानं पुरन्दरः ॥ ४५२॥ गते शक्ने चमरेन्द्रः प्रभोः पादद्वयाऽन्तरात् । निरगावस्तमितेऽकें गुहाया इव कौशिकः ॥ ४५३ ॥ १ "सुर: C, D, I.
॥१२॥
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स प्रणम्य जगन्नाथमित्यूचे रचिताञ्जलिः । अशेषजीवजीवातो! त्वमेव मम जीवदः ॥ ४.४ ॥ अनेकवुःखनिलयाद्विमुच्यन्ते भवादपि । त्वत्पादौ शरणं प्राप्ताः किं पुनः कुलिशादहम् ॥ ४२५ ॥ अहं पूर्वभवेऽप्यज्ञोऽकार्ष घालतपः प्रभो ! । अज्ञतासहितं प्रापमासुरेन्द्रघं च तत्फलम् ॥४६॥ मया स्वयमनर्थोऽयमज्ञानादात्मनः कृतः । इदमेव कृतं सुष्टु यत्त्वं शरणमाश्रितः ॥ ४५७ ॥ शरणं प्राग्भवेऽपि त्वामकरिष्यमहं यदि । प्राफ्यमप्यच्युतेन्द्रत्वमहमिन्द्रत्वमप्यथ ॥ ४५८ ॥ यदि वा कृतमिन्द्रत्वैः सर्व प्राप्तं मया प्रभो! । जगत्त्रितयनाथ ! त्वं नाथः प्राप्तोऽधुनापि यत् ॥ ४५९ ॥ सश्रद्धमभिधायैवं नत्वा च परमेश्वरम् । पुर्यां चमरचंचायां जगाम चमरामुरः ॥ ४६० ॥ तत्र सिंहासनाऽऽसीनश्चमरेन्द्रस्त्रपानतः । अवोचत स्वागतिकान्निजान् सामानिकादिकान् ॥ ४६१ ॥ यथा हि मध्यस्थतया शक्रो युष्माभिरोच्यत । स तथैव परं मोहादज्ञायि न मया तथा ॥ ४३२॥ तत्सभामगर्म सिंहकन्दरामिव जंबुकः । उपेक्ष्यमाणस्तल्लोकैः कौतुकस्य दिदृक्षया ॥ ४६३ ॥ शक्रनिर्मुक्तकुलिशात् कृच्छान्मुक्तो गतोऽस्म्यहम् । शरणं वीरचरणौ सुरासुरनमस्कृतौ ॥ ४६४ ॥ श्रीवीरशरणस्थोऽहं जीवन्मुक्तो विडोजसा । इहाऽऽगच्छं चलत भो ! गत्वा बन्दामहे जिनम् ॥ ४३५ ॥ इत्युक्त्वा सपरीवारश्चमरः प्रभुमाययौ । नत्वा चक्रे च संगीतं जगाम स्यां पुरी ततः ॥ ४६६ ॥ १ अमानस°C,LI
॥१२६ ।।
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प्रातनोऽपि संहृत्य प्रतिमामेकरासिकीम् । कमेण विहरन् प्राप पुरं भोगपुराभिधम् ॥ ४६७ ॥ माहेन्द्र क्षत्रियस्तत्र जिनेन्द्रं प्रेक्ष्य दुर्मतिः । खर्जूरीयष्टिमुद्यम्य प्रजिहीर्षुरघावत ॥ ४६८ ॥ चिरदर्शनसोत्कंठो द्रष्टुं च स्वामिनं तदा । आगात् सनत्कुमारेन्द्रस्तत्राऽपश्यश्च तं शठम् ॥ ४६९ ॥ निर्भत्स्य च क्षत्रियं तमिन्द्रः प्रभुमवन्दत । भक्त्या सुखविहारं चाऽपृच्छत् स्वं च पदं ययौ ॥ ४५० ॥ नन्दिग्रामं ययौ ग्रामं विहरन् भगवानपि । नन्दिना पितृमित्रेण भक्तितस्तत्र चार्च्छत ॥ ४७१ ॥ rase noreग्रामे भगवान् विहरन् ययौ । दधावे तत्र हन्तुं च गोपालो वालरज्जुभृत् ॥ ४७२ ॥ कूर्मारग्रामवत्तमन्तमेत्य पुरन्दरः । गोपं निवारयामास ववन्दे च जगद्गुरुम् ॥ ४७३ ॥ ततो निष्क्रम्य भगवान् कौशाम्बी नगरीं ययौ । राजा तस्यां शतानीकः परानीकभयकरः ॥ ४७४ ॥ change तद्राज्ञी च मृगावती । श्राविका तीर्थकृत्पादपूजानिष्टा सदैव हि ॥ ४७५ ॥ राज्ञस्तस्य च सचिवः सुगुप्तो नाम तत्प्रिया । नन्दा नाम श्राविकेति मृगावत्याः परा सखी ॥ ४७६ ॥ श्रेष्ठ धनावो नाना तत्र चाऽऽसीन्महाधनः । मूलाऽभिधाना तस्यापि गृहिणी गृहकर्मठा ॥ ४७७ ॥ तत्र स्वामी पोषमासबहुलप्रतिपद्दिने । दुराचरं दुर्ग्रहं च जग्राहैवमिमग्रहम् ॥ ४७८ ॥ अयोनिषद्धांडिताऽनशिता सती । रुदती मन्युना राजकन्याऽपि प्रेष्यतां गता ॥ ४७९ ॥
{ "said a* C, L 11
॥ १२७ ॥
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देहल्यन्तः स्थितकांघिबहिः क्षिप्ताऽपरांघिका । गृहात् प्रतिनिवृत्तेषु सर्वभिक्षाचरेषु च ॥ ४८० ॥ यदि मे शूर्पकोणेन कुल्माषान् संप्रदास्यति। चिरेणापि तदैवाऽहं पारयिष्यामि नान्यथा ॥ ४८१ ॥
(त्रिभिर्विशेषकम्) गृहीत्वाऽलक्ष्यमाणाभिग्रहं प्रतिदिनं प्रभुः । उच्चावचेषु गेहेषु भ्रमति स्म यथाक्षणम् ॥ ४८२ ॥ अभिग्रहवशाद्भिक्षां दीयमानामगृह्णति । स्वामिनि प्रत्यहं पौरास्ताम्यन्ति स्मात्मनिन्दिनः ।। ४८३ ॥ अनात्तभिक्षः स्वाम्येवं द्वाविंशतिपरीषहीम् । सहमानोऽनयन्मासांश्चतुरः प्रहरानिव ॥ ४८४ ॥ भिक्षार्थमन्यदा स्वामी सुगुप्तामात्यवेश्मनि । प्रविवेश ददृशे च दूरादपि च नन्दया ॥ ४८५ ॥ अयमहन्महावीरो दिष्ट्या मद्गृहमागतः। इति ब्रुवाणाऽभ्युत्तस्थौ नन्दाऽऽनन्दन पूरिता ॥ ४८६ ॥ कल्पनीयानि भोज्यानि साऽभिज्ञा समुपानयत् । स्वाम्पप्यभिग्रहवशात्तान्यनादाय निर्ययो ॥ ४८७ ।। धिगहं मन्दभाग्याऽस्मि न पूर्णा मे मनोरथः । इति खेदं दधारोवैनन्दा मन्दमनाः सती ॥ ४८८॥ तां सखेदां च दास्यूचे देवार्योऽयं दिने दिने । अनात्तभिक्षो निर्याति न खल्वथैव निर्गतः ॥ ४८९ ॥ एवमाकर्ण्य नन्दाऽपि बुबुधे यदभिग्रहः । विशिष्टः कोऽपि तन्नोपादत्तेऽसौ प्रासुकान्यपि ॥ ४९०॥ स्वामिनोऽभिग्रहो ज्ञेयः कथं न्विति विचिन्तया। निरानन्दैव नन्दाऽस्थात् सुगुप्तस्तां ददर्श च ॥ ४९१ ॥|| १ तु ,Lu
॥१२८॥
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सुगुप्तस्तामुवाचैवं क्रिमुद्विमेव लक्ष्यसे । खंडिताऽऽज्ञाऽसि कि केनाप्यपराद्धं मयाऽथवा ॥ ४९२ ॥ साप्यूचे खंडिता नाज्ञा नापराधस्तयापि च । न पारयामि श्रीवीरमिति खेदाय किन्तु मे ॥४३॥ भिक्षार्थी भगवान् वीरो नित्यमायाति याति च । अनात्तभिक्ष एवायमभिग्रहविशेषतः॥ ४९४ ॥ जानीयभिग्रहं भर्तुर्न चेजानासि तन्मुघा । बुद्धिस्तव महामात्य ! परचित्तोपलक्षिणी ॥ ४५ ॥ सुगुप्तोऽपि जगादेवं जगतुरभिग्रहः । यथा विज्ञास्यते प्रातः प्रयतिष्ये तथा प्रिये ! ॥ ४९६ ॥ नदेवाऽऽगान्मृगावत्या वेत्रिणी विजयाया। तयोः श्रुत्वा तमालापं गत्वा देव्याः शशंस च ॥ ४९७ ॥ सथैव खेदं विदधे मृगावत्यपि तत्क्षणम् । संभ्रान्तश्च शतानीकोऽपृच्छत्तां खेदकारणम् ॥ ४१.८॥ किंचिदुन्नमितभ्रूका व्याजहार मृगावती । अन्तर्विषादकालुष्योद्गारच्छुरितया गिरा ॥ ४९९ ॥ चराचरं जगदिदं चरैर्जानन्ति भूभुजः । त्वं तु स्वपत्तनमपि न वत्सि महेऽत्र किम् ॥ ५०० ॥ त्रैलोक्यपूज्यो भगवान् वीरश्वरमतीर्थकृत् । वसत्यत्रेति किं वेत्सि? राज्यसौख्यप्रमद्वरः ॥५०१॥ वेश्म वेइमानुप्रवेशं भिक्षामपरिगृख्य सः । कुतोऽप्यभिग्रहाद्यातीत्येतजानासि किं ननु १ ॥५०२॥ धिङ् मां धिक् त्वाममात्यान् धिग्यदन्न परमेश्वरः । अज्ञाताऽभिग्रहोऽनात्तभिक्षस्तस्थावियचिरम् ॥५०३॥ प्रत्यभाषिष्ट भूपोऽपि साधु साधु शुभाशये ! । प्रमादी शिक्षितोऽस्म्येष स्थाने धर्मविचक्षणे ! ।। ५०४ ॥ विज्ञायाभिग्रहं प्रातः कारयिष्यामि पारणम् । विश्वस्वामिनमित्युत्तवा राज्ञा (जा) सचिवमाह्नत ॥ ५०५॥
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अमात्यमूचे नृपतिर्मत्पुर्यां त्रिजगद्गुरुः । अनात्तभिश्चतुरो मासांस्तस्थौ धिग नः ॥ ५०६ ॥ ज्ञातव्योऽभिग्रहो भर्तुः संपूर्याऽभिग्रहं यथा । कारयामि पारणकं जगन्नार्थ स्वशुद्धये ॥ ५०७ || अमात्योऽप्यब्रवीद् भर्तुर्ज्ञायतेऽभिग्रहो न हि । इति खियेऽहमप्युच्चैरुपायः कोऽपि सून्यताम् ॥ २०८ ॥ अथ राजा साहाय्य नामतस्तथ्यवादिनम् । उपाध्यायं धर्मशास्त्रविचक्षणमवोचत || ५०९ ॥ आधाराः सर्वधर्माणां शास्त्रे तव महामते ।। कीर्त्यन्ते तत्समाख्याहि जिनभर्तुरभिग्रहम् ॥ ५१० ॥ उपाध्यायोऽप्यभाषिष्ट बहवोऽभिग्रहाः खलु । महर्षीणां द्रव्यक्षेत्रकालभावविभेदतः ॥ २११ ॥ अभिग्रहो भगवता गृहीतोऽयमिति ध्रुवम् । विना विशिष्टज्ञानेन ज्ञायते न हि जातुचित् ।। ५१२ ॥ राजा घोषयत् यदभिग्रहिणः प्रभोः । अनेकधोपनेतव्या भिक्षा भिक्षार्थमेयुषः ॥ ५१३ ॥ राजाऽऽज्ञया श्रद्धया च तथा चक्रे जनोऽखिलः अपूर्णाभिग्रहः स्वामी भिक्षां जग्राह न क्वचित् ॥ ५१४ ॥ अम्लानां गस्तथाप्यस्थाद्विशुद्धज्ञानभाक् प्रभुः । ब्रीडाखेदाकुलैः पौरवक्ष्यमाणो दिने दिने ।। ५१५ ॥ इतश्च पूर्वं नौसैन्यैः शतानीको निशैकया। गत्वाऽरुणत् पुरीं चम्पां झंपासमसमागमः ॥ ५१६ ॥ चम्पापतिः पलायिष्ट ततश्च दधिवाहनः । बलीयसाऽवरुद्धानां त्राणं नान्यत्पलायनात् ॥ ५१७ ॥ *यग्रहो घोषितस्तत्र शतानीकेन भूभुजा । तदनीकभदाचम्पां स्वेछया मुमुषुस्ततः ॥ ५१८ ॥
टि.- * अहीतव्यम् तद् गृह्णातु इति ।
चतुर्थः
सर्गः
॥१३०॥
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दधिवाहनराजस्य धारिणी नामतः मियाम् । वसुमत्या समं पुत्र्या तत्र कोऽप्यौष्ट्रिकोऽग्रहीत् ॥२१॥ कृतकृत्यः शतानीकोऽप्यनीकैः परिवारितः। समाजगाम कौशाम्बी वैरिकैरवभास्करः ।। ५२० ॥
औष्टिकः सोऽपि धारिण्या देव्या रूपेण मोहितः । वजञ्जगाद पुरतो जनानामिदमुच्चकैः ॥ ५२१ ॥ प्रौढा रूपवती चेयं मम भार्या भविष्यति । विक्रेष्ये कन्यका त्वेतां नीत्वा पुर्याश्चतुष्पथे ॥ ५२२ ॥ नछुत्वा धारिणी देवी मनस्येवमधारयत् । जाता महती वंशेऽहं शशांकादपि निर्मले ॥५२३ ।। महावंशप्रसूतस्य दधिवाहनभूपतेः । पत्नी चास्मि परिणतजैनधर्माऽपिहोऽपि ५५४॥ श्रुत्वैतान्यप्यक्षराणि धिग्जीवाम्यघभाजनम् । स्वभावलोल रे जीव ! किमयाप्यवतिष्ठसे ॥ ५२५ ॥ न चेत् स्वयं निःसरसि तथापि हि घलान्मया। निस्सार्यसे सद्य एव नीडादिव विहंगमः ॥५२६॥ इति तद्भर्त्सनोद्विग्ना इव प्राणाः क्षणादपि । तस्या मन्युप्रस्फुटितहृदयाया विनिर्ययुः ।। ५२७ ॥
औष्टिकस्तां मृतां प्रेक्ष्य दध्यावतां सती प्रति । धिग्धिमयैतदुदितं यन्मे पत्नी भविष्यति ॥५२८ ॥ अंगुलीदर्शननेव कूष्मांड दुर्गिरा मम । विपन्नेयं यथा तद्वत् कन्याप्येषा विपत्स्यते ॥५२९ ॥ एवं विमृश्य साम्ना तामालपन्ननयत् पुरि। कौशाम्ब्यां सोऽथ निदधे विक्रेतुं राजवर्त्मनि ॥ ५३० ।। दैवात्तत्रागतः श्रेष्ठी तामपश्यद्धनावहः । दध्यो चेत्यनया मूर्त्या न हि सामान्यपुत्र्यसौ ॥ ५३१ ॥ १ धारिणीस्थाने सर्वत्र L प्रतौ घारणी इति पाठः, अन्यासु प्रतिषु च 'धारिणी' इति ॥ २ “सि ८॥
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LYLLY
VALYS
भ्रष्टा पितृभ्यां प्राप्तेयं निघृणेनामुनाऽधुना । यूथच्युता कुरंगीव लुब्धकेन दुरात्मना ॥ ५३२ ॥ विक्रेतुं पलवच्चेह स्थापिताऽनेन मूल्यतः । हस्ते हीनस्य कस्यापि हा यास्यति वराक्यसौ ।। ५३३ ॥ दत्त्वार्थ बहुमप्यस्य गृह्णाम्येतां कृपास्पदम् । पुत्रीमिव निजां हीमां न क्षमोऽहमुपेक्षितुम् ॥ ५३४ ॥ विनाऽन) मम गृहे तिष्ठन्त्याः क्रमयोगतः । अस्याः स्वजनवर्गेण भविता संगमोऽपि हि ॥ ५३५ ॥ धनावहो विमृश्यैवं दत्त्वा मूल्यं तदीप्सितम् । निन्ये वसुमती बाला सानुकंपः स्ववेदमनि ॥ ५३६ ॥ सोऽपृच्छत् स्वच्छधीस्तां च वत्से ! कस्यासि कन्यका। को वा स्वजनवर्गम्ते मा भैषीर्दुहिताऽसि मे ५३७ महत्वेन समाख्यातुं स्वकुलं सापि माशाला चिम्बार सायं नसिसि त्वधोमुखी॥५३८।। मूलां च श्रेष्ठिनीमूचे मियेऽसौ दुहिताऽऽवयोः । पाल्या लाल्या च तदियमतियत्नेन पुष्पवत् ।। ५३९ ॥ | एवं श्रेष्ठिगिरा तत्र गेहेऽवात्सीत्स्वगेहवत् । बाला बालेन्दुलेखेव सा नेत्राऽऽनन्ददायिनी ॥ ५४॥ तस्या विनयवाकशीलै रजितश्चन्दनोपमैः । चन्दनेत्यभिधां श्रेष्ठी ददौ परिजनैः सह ॥ ५४१॥ ईषच्च यौवनारम्भं करभोरूरवाप सा। राकारात्रिरिवाम्भोधेः श्रेष्ठिनो ददती मुदम् ॥ २४२ ॥ निसर्गतो रूपवतीं यौवनेन विशेषतः । निरीक्ष्य चन्दना मृला दध्यावेवं समत्सरा ॥ ५४३ ॥ पुत्रीवत्प्रतिपद्याऽपि ययेतां रूपमोहितः । श्रेष्ठी परिणयेत्तर्हि जीवन्त्यपि मृताऽस्मि हा ॥ ५४४ ॥ १ भवता C, D, E ||
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N..
-
34
॥१३२॥
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एवं स्त्रैणसुलभेन तुच्छत्वेन दिवाऽनिशम् । तदा प्रभृति ताम्यन्ती तस्थौ भूला दुराशया ॥ ५४५ ॥ ग्रीष्मोष्मातोऽन्यदा श्रेष्ठी वेश्मन्यागमदापणात् । पदाधिक्षालको मासीन कोऽपि दैवात पुरःसरः॥५४ विनीता चन्दनोत्थाय श्रेष्ठिना वारिताऽपि हि । प्रावर्तत क्षालयितुं तत्पादौ पितृभक्तितः ॥ ५४७ ॥ केशपाशस्तदा तस्याः लिग्धश्यामलकोमलः। निःसहांग्याः परिस्रस्तः क्ष्मातले जलपंकिले ।। ५४८ ॥ वत्सायाः केशपाशोऽयं मा भूद् भूपंकभागिति । लीलायष्टयोद्दथे श्रेष्ठी तमघध्नाश्च सादरः ॥ ५४९ ॥ तच्च मूला गवाक्षस्था निरीक्ष्यैवमचिन्तयत् । वितर्कः संवदति स यः पूर्व कल्पितो मया ॥ ५५०॥ अस्याः स्वयं केशबन्धः पत्नीत्वस्य नियन्धनम् । प्रथम श्रेष्ठिनो नूनं नेशी हि पितुः क्रिया ॥ ५५१ ॥ उच्छेदनीया तदियं मूलाद्वयाधिरिवोत्थितः । इति निश्चित्य मूलाऽस्थाच्छाफिनीव दुराशया ॥ ५५२॥ क्षणं श्रेष्ठयपि विश्रम्य पुनरेव बहिर्ययौ । अमुंडयश्चन्दनां च मूलाऽप्यालय नापितम् ॥ ५५३ ।। पादयोर्निगडान् क्षिप्त्वा चन्दनां बहताडयत् । मूला वल्लीमिव वशा विवशा क्रोधरक्षसा ।। ५५४ ॥ गृहैकदेशे दूरस्थे मूला न्यधित चन्दनाम् । कपाटसंपुटं दत्त्वा परिवारमुवाच च ॥५५५ ॥ श्रेष्ठिनः पृच्छतोऽप्येतत् कथनीयं न केनचित् । कथयिष्यति यः कोऽपि मत्कोपाग्नेः स आहुतिः॥ ५५६ ॥ एवं नियन्त्रणां कृत्वा मूला मूलगृहं ययौ । श्रेष्ठी च सायमायातोऽपृच्छत् क ननु चन्दना ? ॥ ५५७ ॥ मूलाभयान कोऽप्याख्यच्छेष्ठी चैयमबुध्यत । वत्सा मे रमते कापि यद्वाऽस्त्युपरि वेश्मनः ॥ ५५८ ॥
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एवं रानावप्यपृच्छन्न कोऽप्याख्यत्तथैव च । प्रसुप्ता चन्दनाऽस्तीति चाज्ञासीहजुधीः स तु ॥ ५५९ ॥ द्वितीयेऽप्यहि नापश्यत्तृतीयेऽपि तथैव ताम् । शंकाकोपाकुलः श्रेष्ठी प्रोचे परिजनं ततः ।। ५६०॥ रे रे कथयत क्वास्ति चन्दना मम नन्दना? । नाऽऽख्यास्यथ विदन्तश्चेन्निग्रहीष्यामि यस्तदा ॥५६१॥ श्रुत्वेदं स्थविरा तत्र काचिचेटीत्यचिन्तयत् । जीविताऽहं चिरतरं प्रत्यासना मृतिर्मम ॥ ५६२॥ कथिते चन्दनोदन्ते किं मूला में करिष्यति ? । एवं विचिन्त्य तामाख्यन्मूलाचन्दनयोः कथाम् ।। ५६३ ॥ श्रेष्ठिनोऽदर्शयद्गत्वा चन्दनारोधवेक्ष्म सा । द्वारं चोद्धाघाटयामास स्वयं श्रेष्ठी धनावहः ॥ ५६४ ॥ तत्र च क्षुत्पिपासा" दवस्पष्टां लतामिव । निगडैर्यन्त्रितामहयोर्नवात्तां करिणीमिव ॥ १६॥ परिमुण्डितमुण्डां च भिक्षुकीमिव चन्दनाम् । अश्रुपूरितनेत्राब्जामीक्षाश्चके धनावहः ।। ५६६ ॥ (युग्मम्) विश्वस्ता भव वन्से ! त्वमिति जल्पनुदश्रुदृक् । तदोज्या रसवतीं ययौ श्रेष्ठी द्रुतद्रुतम् ॥ ५६५ ।। विशिष्टं तत्र घाऽपश्यन् भोज्यं देवाद्धनावहः । कुल्माषान् शूर्पकोणस्थांश्चन्दनायै समार्पयत् ।। ५६८॥ भनीधास्तावदेतांस्त्वं यावत्वन्निगडचिछदे। कारमानयामीति जल्पित्वा श्रेष्ठ्यगारहिः॥५६॥ चन्दनोस्थिता चैवमचिन्तयदल्हो क मे । तस्मिन् राजकुले जन्म क्व चावस्थेयमीशी ॥ ५७० ॥ भवेऽस्मिन्नाटकमाये क्षणाद्वस्त्वन्यथाभवेत् । स्वानुभूतमिदं मे हि किं संप्रति करोमि हा ॥ ५७१ ॥ षष्ठस्य पारणायामी कुल्माषाः सन्ति संपत्ति । यद्यायात्यतिथिस्तस्मै दत्त्वा भुञ्जऽन्यथा न हि ॥ ५७२ ॥
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॥१३४॥
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एवं विचिन्त्य सा द्वारे ददौ दृष्टिमितस्ततः । तदा चाऽऽगान्महाघीरो भिक्षायै पर्यटन् प्रभुः ॥ ५७३ ॥ अहो पात्रमहो पात्रमहो मे पुण्यसंचयः । मुनिर्महात्मा कोऽप्येष भिक्षायै यदुपस्थितः ॥ ५७४ ॥ चिन्तयत्वेति साचालीहाला कुल्माषशूर्पभृत् । एकमंधिं न्यधादन्तर्देहल्या अपरं षहिः ॥ ५५५ ॥ निगडैर्देहलीं सा तु समुल्लंघितुमक्षमा । तत्रस्यैबाऽऽर्द्वया भक्त्या भगवन्तमभाषत ॥ ५७६ ॥ स्वाभिन्ननुचितं भोज्यं यद्यप्येतत्तथापि हि । परोपकारेकर हाण भाजू ।। २७७ ॥ द्रव्यादिभेदसंशुद्धं ज्ञात्वा पूर्णमभिग्रहम् । तस्यै कुल्माषभिक्षायै स्वामी प्रासारयत् करम् || ५७८ ॥ अहो धन्याऽहमेवेति ध्यायन्ती चन्दनापि हि । चिक्षेप शूर्पकोणेन कुल्माषान् स्वामिनः करे ॥ ५५९ ॥ स्वाम्यभिग्रह प्रीतास्तत्राययुः सुराः । वसुधाराप्रभृतीनि पञ्च दिव्यानि च व्यधुः ॥ ५८० ॥ तुनर्निगडास्तस्यास्तत्पदे कांचनानि च । जज्ञिरे नूपुराण्यासीत् केशपाशश्च पूर्ववत् ॥ २८९ ॥ सर्वांगीणं च तत्कालं रत्नालंकारधारिणी । श्रीवीरभक्तैर्विदधे विबुधैरथ चन्दना ॥ ५८२ ॥ उत्कृष्टनादं विदधू रोदः कुक्षिंभरि सुराः । जगुश्ध ननृतुश्च रंगाचार्या इवोन्मुदः ।। ५८३ ॥ मृगावतीशतानीकौ सुगुप्तो नन्दया सह । तत्रैयुः सपरीवाराः श्रुत्वा तं दुन्दुभिध्वनिम् ॥ ५८४ ॥ आयौ देवराजोऽपि शक्रो मुदितमानसः । संपूर्णाभिग्रहं नाथं नमस्कर्तुं द्रुतम् ॥ २८५ ॥ १ "द्रतः । "तं द्रुतं ॥
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दधिवाहनराजस्य संपुलो नाम कंचुकी ।। चम्पावस्कन्द आनीतो राज्ञा मुक्तस्तदेव हि ॥५८६ ॥ तत्रायातो वसुमतीं दृष्ट्वा तत्पादयोनतः । विमुक्तकण्ठमरुदत् सद्यस्तामपि रोदयन् ॥ ५८७ ॥ किं रोदिषीति राज्ञोक्तः साश्रुः प्रोवाच कंचुकी । दधिवाहनराजस्य धारिण्याश्चेयमात्मजा ॥ ५८८ ॥ तादृग्विभवविभ्रष्टा पितृभ्यां रहिता च हा । इयं वसत्यन्यगृहे दासीवत्तेन रोदिमि ॥५८९ ॥ राजाऽप्यूचे न शोच्येयं संपूर्णाभिग्रहो यया। जगत्त्रयाणवीरः श्रीवीरः प्रतिलाभितः ॥ ५९॥ मृगावत्यप्यभाषिष्ट धारिणी भगिनी मम । इयं तद्दुहिता बाला ममापि दुहिता खल्लु ।। ५९१ ॥ पंचाहन्यूनषण्मासतपःपर्यन्तपारणम् । कृत्वा धनावहगृहान्निर्ययो भगवानपि ॥ ५९२ ॥ वसुधारामथाऽऽदित्सु लोभप्रायल्यतो नृपम् । व्याजहार शतानीकं सौधमाधिपतिः स्वयम् ॥ ५९३ ॥ नेह स्वस्वामिभावो यद्रत्नवृष्टिं जिघृक्षसि । यस्मै ददाति कन्येयं स एव लभते नृप ! ॥ ५९४ ॥ गृह्णात्विमां क इत्युक्ता राज्ञा प्रोवाच चन्दना । अयं धनावहः श्रेष्ठी पिता हि मम पालनात् ॥ ५५ ॥ जग्राह वसुधारां तां ततः श्रेष्ठी धनावहः । भूयोऽप्याखण्डलोवोचच्छतानीकनरेश्वरम् ॥ ५९६ ॥ पाला चरमदेहेयं भोगतृष्णापराङ्मुखी । भविष्यत्यादिमा शिष्योत्पन्ने वीरस्य केवले ॥५९७ ॥ आस्वामिकेवलोत्पत्ति रक्षणीया त्वया ह्यसौ । इत्युक्त्वा मघवा नाथं नत्वा च त्रिदिषं ययौ ॥ ५९८ ॥ १ साश्रु CM सास्रः ||
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कन्यकान्तःपुरे निन्ये शतानीकेन चन्दना । सा स्वामिकेवलोत्पत्तिं तत्र ध्यायन्त्यवास्थित ॥ ५९९ ॥ अनर्थमूलं मूला च श्रेष्ठिना निरवास्यत । अपध्यानवती साऽथ विषद्य नरकं ययौ ॥ ६०० ॥ raise विहरन प्राप ग्रामं नाम्ना सुमंगलम् । तस्मिन् सनत्कुमारेन्द्रेणाऽभ्युपेत्याऽभ्यवन्यत ॥ ६०१ ॥ तनो जगाम भगवान् सुक्षेत्रे सनिवेशने । तस्मिन्माहेन्द्रकल्पेन्द्रेत्य भक्त्याऽनमस्यत ॥ ६०२ ॥ raise पालकग्रामे गयौ तत्र त्वश्यत । वणिजा बायलाख्येन यात्रायै चलता सता ॥ ३०३ ॥ असा शकुनं भिक्षुः क्षिपाम्यस्यैव मूर्धनि । इति हन्तुं प्रभुं पापः स कृष्ट्वाऽसिमधावत ॥ ६०४ ॥ सिद्धार्थव्यन्तरस्तस्य स्वयमेवाऽऽच्छ्रिदच्छिरः । स्वामी च विहरन् प्राप चम्पां नाम महापुरीम् || ६०५ ॥ तत्राग्निहोत्रशालायां स्वातिदत्तद्विजन्मनः । तस्थौ वर्षातुर्मासीं द्वादशीं स्वाम्युपोषितः ॥ ६०६ ॥ पूर्णभद्रमाणिभद्रौ यक्षौ तत्र महर्द्धिकौ । रात्रौ रात्रौ समभ्येत्य पर्यपूजयतां प्रभुम् ॥ २०७ ॥ स्वातिदत्तोऽचिन्तयत् किमसौ वेत्ति किंचन । देवार्यो यदमुं देवाः पूजयन्ति प्रतिक्षपम् ॥ ६०८ ॥ एवं विचिन्त्य जिज्ञासुरेत्य पमच्छ स प्रभुम् । देहे शिरःप्रभृत्यंगपूर्णे जीवः क उच्यते १ ॥ ६०९ ॥ स्वाम्यपि व्याहरज्जीवः स योऽहमिति मन्यते । स्वातिदत्तोऽप्युवाचैवं सोऽपि कश्छिन्धि संशयम् ॥ ६१०।। भगवान् श्रीमहावीरः प्रत्यभाषिष्ट भो द्विज । । शिरःकरप्रभृतिभ्यो विभिन्नः स हि सूक्ष्मकः ।। ६११ ॥ १ "माय" D, M ॥ २ वेत्ति तत्त्वं हि किंचन ॥
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स्वातिदत्तद्विजोऽप्यूचे ब्रूहि सूक्ष्मोऽपि को नु सः ? । व्याजहार प्रभुरपि न गृयेत य इन्द्रियैः ॥ ६१२ ॥||४|| चतुर्थः प्रश्नेनानेन विप्रः स ज्ञात्वा तस्यादित प्रभम् । भक्त्याऽनर्च पभणापि स भव्य इति बोधितः ॥ ६१३॥ ॥ चतुर्मास्यत्यये स्वामी जम्भकग्राममाययो । तत्र नाट्यविधि शक्रो दर्शयित्वाऽब्रवीदिति ॥ ६१४ ॥ जगद्गुरो! कतिपयैरद्य प्रभृति वासरैः । उत्पत्स्यतेऽत्रभवतः केवलज्ञानमुज्ज्वलम् ॥ ६१५ ॥ इत्युदित्वा सुनासीरो वीरं नत्वा ययौ दिवम् । श्रीवीरोऽप्यगमद् ग्रामे मेंढकग्रामनामनि ॥ ६१६ ॥ चमरेन्द्रस्तत्र चैत्य भगवन्तमवन्दत । पृष्ट्वा सुखविहारं च जगाम भवनं निजम् ॥ ३१७॥ ग्रामं षण्मानिनामानं जगाम भगवानपि । यहिश्च कायोत्सर्गेण तस्थौ ध्यानपरायणः ॥ ६१८ ॥ वेद्यं कर्म तदोदीर्ण प्रभोर्विष्णुभवाऽर्जितम् । शय्यापालश्रवःक्षिप्ततप्तत्रपुनियन्धनम् ॥ ६१९ ॥ शय्यापालस्य जीवोऽपि गोपालस्तत्र सोऽभवत् । स्वाम्यन्तिके वृषान्मुक्त्वा गोदोहादिकृते ययौ ॥ ३२० ।। चरन्तः स्वेच्छया ते च प्राविशन्नटवीं वृषाः । क्षणात्सोऽप्याययौ गोपोऽपश्यन्नुक्ष्णोऽवदत्मभुम् ॥ ३२१ ॥ देवार्य! क्ष ममोक्षाणः ? किं न ब्रूषे मुनिब्रुव ! । न श्रुणोषि वचः किं वा कर्णरन्ध्र वृधैव तत् ॥ ६२२ ।। अवादिनि प्रभाववमत्यन्तकुपिसोऽध सः। अक्षिपत्काशशलाके स्वामिनः कर्णरन्धयोः ॥ १२३ ॥ शलाके ताडिते तेन तथा ते मिलिते मिथः । अखंडैकशलाकत्वं बिभरांचक्रतुर्यथा ॥ ६२४ ।।
॥२३॥
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मोति स्वविया कुत्रीः । तत्की लेकवहिर्भागं छिस्वा गोपालको ययौ ॥ ६२५ ॥ प्रणष्टमायामिथ्यादिशत्योऽपि श्रुतिशल्य भाग् । अकम्पितः शुभध्यानादपापां मध्यमां ययौ ॥ ६२६ ॥ पारणार्थं प्रभुस्तन्न सिद्धार्थवणिजो गृहे । जगाम भगवांस्तेन भक्त्या च प्रतिलाभितः ॥ ६२७ ॥ पूर्वायातस्तत्र वैद्यः सिद्धार्थस्य सुहृत्प्रियः । खरकाख्यः प्रभुं प्रेक्ष्य सूक्ष्मधीरब्रवीदिदम् ॥ ३२८ ॥ अहो भगवतो मूर्तिः संपूर्णा सर्वलक्षणैः । परं शल्यवती चेयं म्लानत्वेनोपलक्ष्यते ॥ ६२९ ॥ सिद्धार्थः संभ्रमादुचे ययेवं तन्निरूपय । सम्यग्भगवतो देहे क्व शल्यं हन्त तिष्ठति ? ॥ ६३० ॥ drishyagi पन्नखिलं स्वामिनो वपुः । ददर्श कर्णयोः कीलौ सिद्धार्थस्याप्यदर्शयत् ॥ ६३१ ॥ सिद्धार्थोऽथावदत् केनाप्यपवादादभीरुणा । नरकादप्यभीतेन चक्रेऽवः कर्म दारुणम् ॥ ६३२ ॥ कृतं वा तस्य पापस्य कथमाऽप्यनया सखे ! नाथस्य शल्योद्धाराय प्रयतस्व महामते ! ॥ ६३३ ॥ स्वामिनः कर्णयोः शल्ये पीडा तु महती मम । विलम्ब न सहेऽत्रार्थे सर्वस्वमपि यातु मे ॥ ६३४ ॥ कर्णाभ्यां विश्वनाथोद्धृतयोरिह शल्ययोः । मन्ये भवमहाम्भोधेरावामेव समुद्धृतौ ॥ ३३५ ॥ वैद्यsयुवाच नाथोऽयं विश्वत्राणक्षयक्षमः । कर्मक्षयायोपैक्षिष्ट तं नाऽशक्त्याऽपकारिणम् ॥ ३३६ ॥ कथं चिकित्सनीयोऽयं निरपेक्षो वपुष्यपि । यः कर्मनिर्जरालुब्धो वेदनां साधु मन्यते ॥ ६३७ ॥
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| ।। १३९ ॥
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सिद्धार्थोऽप्यवदत् केयं वाचोयुक्तिस्तवाधुना 1 न कालो वचमामेषां चिकित्स्यो भगवान खलु ॥ ६३८ । नयोब्रुवाणयोरेवं निरपेक्षः प्रभुर्ययौ । तस्थौ च अहिरुयाने शुभध्यानपरायणः ॥ ६३९ ॥ सिद्धार्थखरको तौ च गृहीत्या भेषजादिकम् । तत्रोद्याने त्वरावन्तो भगवन्तमुपेयतुः ।। ६४० । तैलद्रोण्यां विनिवेश्य तैलेनाभ्यज्य च प्रभुम् । संवाहकैबलीयोभिस्तावमर्दयतामथ ॥ ६४१॥ श्लथेषु मर्दनात्संधिष्वोजस्विपुरुषैः प्रभोः । संदंशाभ्यामकृष्येतां युगपत्कर्णकीलको ॥ ६४२॥ कीलयं सरुधिरं निर्ययो कर्णरन्भागोः · अवशिष्ट बेननीय मर्म साक्षादिन प्रभोः ॥ ६४३ ।। तथाऽभूद्वेदना कीलकर्षणेन यथा प्रभुः । रराम भैरबारावं वज्राहत इवाचलः ॥ ६४४ ॥ नाऽस्फुटत् स्वामिमाहात्म्यात्तेन नादन मेदिनी। विपद्यपि हि माऽर्हन्तः परोपद्रवकारिणः ॥ ६४५ ॥ संरोहण्या रोहयित्वा कर्णो नाथं प्रणम्य च । क्षमयित्वा च सिद्धार्थखरको गृहमीयतुः ॥ ६४६ ॥ वेदनामपि तो भर्तुः कृतवन्तौ शुभाशयो । बभूवतुः सुरलोकश्रीभाजनमुभावपि ।। ६४७॥ । दुष्टाशयस्तु गोपालो विधाय स्वामिवेदनाम् । सप्तमावनिदुःखानां भाजनं समजायत ॥ ६४८॥ स्वामिनों भैरवारावान्महाभैरवमित्यभूत् । तदुग्रानं तत्र देवकुलं च विदधे जनैः ॥ ६४९ ॥ एवं श्रीवीरनाथस्योपसर्गेष्वखिलेष्वपि । जघन्येषूत्कृष्टं कटपूतनाशीतमुत्कटम् ॥ ६५० ।। कालचक्रं मध्यमेषूत्कृष्टेषूद्धरणं त्विदम् । गोपारब्धा उपसर्गा गोपेनैव च निष्ठिताः॥ ६५१ ॥ (युग्मम्)
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तुर्मासक्षपणानि नव द्विमासिकानि षट् । मासिकानि द्वादशार्धमासिकानि द्विसप्तति ॥ ६५२ ॥ एकं पाण्मासिकं द्वे त्रिमासे द्वे सार्धमासिके । सार्वद्विमासिके द्वे च भद्रादिप्रतिमात्रयम् ॥ ६५३ ।। महानगर्या कौशाम्यामभिग्रहसमन्वितम् । अहोभिः पंचभिन्यूनमेकं षाण्मासिकं तथा । ६५४ ॥ प्रतिमाचैकराचिक्यो द्वादशाष्टमभक्ततः । चरमायां विभावर्यां कायोत्सर्गसमन्विताः ॥ ६६५ ॥ एकोनत्रिंशदधिके द्वे च षष्टशते प्रभोः । नित्यभक्तं चतुर्थं च बभूव न कदाचन ॥ ६५६ ॥ प्रभोरेकोनपंचाशं पारणाहशतत्रयम् । व्रताहाचेत्यभूत् साध द्वादशाब्दी सपक्षिका ।। ६५७ ।। कृत्वा तपो जलविहीनमशेषमित्थं छस्थ एव विहरन् विजितोपसर्गः । स्वामी जगाम ऋजुपालिकया महत्या नया सनाथमथ जृम्भकसन्निवेशम् ॥ ६५८ ॥
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशला कापुरुषचरिते महाकाव्ये दशमपर्वणि श्रीमहावीरद्वितीयसाप्रषड्वार्षिकास्थविहारवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः ॥
॥ १४१
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॥ अथ पंचमः सर्गः ॥
जगन्नाथोऽथ तत्रर्जुपालिकोत्तररोधसि । श्यामाकनाम्नो गृहिणः क्षेत्रे शालतरोस्तले ॥ १ ॥ ashtraस्यासन्ने षष्ठेनोत्कटिकासनी । मुहर्ते विजये स्वामी तस्थावातापनापरः ॥ २ ॥ ( युग्मम् ) शुक्लध्यानान्तरस्थस्य क्षपकश्रेणिवर्तिनः । स्वामिनो घातिकर्माणि तुत्रुदुर्णरज्जुवत् ॥ ३ ॥ वैशाखश्वेतदशम्यां चन्द्रे हस्तोत्तरागते । यामे चतुर्यो भर्तुरुदपद्यत केवलम् ॥ ४ ॥ विज्ञायाssसनकंपन केवलज्ञानमीशितुः । इन्द्राः सह सुरैस्तत्र समाजग्मुः प्रमोदिनः ॥ ५ ॥ केऽप्युत्पेतुः केऽपि पेतुर्ननृतुः केऽपि केऽपि च । जहसुः केऽपि च जगुचकुः केऽपि सिंहवत् ॥ ६ ॥ astra बहुः केऽपि हस्तियत् । रथवत् केऽपि चीचकुः प्रच्चकुः केऽपि नागवत् ॥ ७ ॥ स्वामिनः केवलोत्पत्या हृष्टात्मानोऽपरेऽपि हि । चतुर्विधा दिविषदो विविधं विचिचेष्टिरे ॥ ८ ॥ प्रतिमं चतुर्द्वारं प्रत्रितयभूषितम् । चक्रुः समवसरणं यथाविधि दिवौकसः । ९ ।।
न सर्वविरहः कोऽप्यन्त्रेति विदन्नपि । कल्प इत्यकरोत्तत्र निषण्णो देशनां विभुः ॥ १० ॥ 5 तत्तीर्थजन्मा मातंगो यक्षः करिरथोऽसितः । वीजपूरं भुजे वामे दक्षिणे नकुलं दधत् ॥ ११ ॥
पंचमः सर्ग:
|॥१४२॥
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सिद्धायिका तथोत्पन्ना सिंहयाना हरिच्छविः । समातुर्लिंगयल्लक्यौ वामबाहू च बिभ्रती ॥ १२॥ पुस्तकाऽभययौ चोभी दधाना दक्षिणी भुजौ | अभूतां ते प्रभोर्नित्याऽऽसन्ने शासनदेवते ॥१३॥
(त्रिभिर्विशेषकम्) उपकारार्हलोकानामभावात्तत्र च प्रभुः। परोपकारकपरः प्रक्षीणप्रेमअन्धनः ॥१४॥ तीर्थकृन्नामगोत्राऽऽख्यं कर्म वेद्यं महन्मथा । भव्यजन्तप्रयोधेनानुभाव्यमिति भावयन ॥ १५ ॥ शुसन्निकायकोटीभिरसंख्याताभिरावृतः । सुरैः संचार्यमाणेषु स्वर्णाब्जेषु दधत्क्रमौ ॥ १६॥ स्फुटे मार्गे दिन इव देवोद्योतेन निश्यपि । द्वादशयोजनाऽध्वानां भव्यसत्त्वैरलंकृताम् ।। १७ ॥ गौतमात्रैः प्रयोधाहेंभूरिशिष्यसमावृतैः । यज्ञाय मिलितर्जुष्टामपापामगमत्पुरीम् ॥ १८ ॥
(पंचभिः कुलकम्) तस्या अदूरे पुर्याश्च महासेनवनाभिधे । उद्याने चारुसमवसरणं विवुधा व्यधुः ॥११॥ सञ्जातसर्वातिशयः स्तूयमानः सुरासुरैः । पूर्वद्वारेण समवसरणं प्राविशत्प्रभुः ॥ २० ॥ द्वात्रिंशद्वनुरुत्तुंगं रत्नच्छंदच्छविर्निभम् । ततः प्रदक्षिणीकृत्य चैत्यवृक्षं जगद्गुरुः ॥ २१ ॥ नमस्तीर्थायेत्युदित्या पालयमाईती स्थितिम् । सपादपीठे न्यषदत्पूर्वसिंहासने प्रभुः ॥२२॥ १ स्वमानाद् द्वादशगुणं र' L, D1 दाविशदनु ८ ॥ २ चक्रे C, D, AN II
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पंचमः सर्गः
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स्वामिनः प्रतिरूपाणि तन्महिनैव नाकिनः । विचक्रिरे भक्तिमन्तस्तिस्कृष्वन्यासु दिक्ष्वपि ॥२३॥ यथाद्वारं प्रविश्याथ यथास्थित्यवतस्थिरे । पश्यन्तः स्वामिवदनं सर्वे सुरनरादयः ॥ २४ ॥ नमस्कृत जनाइन्नाधं सभा सि रोसाचितवपुर्भक्त्या स्तोतुमेवं प्रचक्रमे ॥ २५॥ लावण्यपुण्यवपुषि त्वयि नेत्राऽमृतांजने । माध्यस्थ्यमपि दौस्थ्याय किं पुनर्रेषविप्लवः ॥२६ ।। तवापि प्रतिपक्षोऽस्ति सोऽपि कोपादिविप्लुतः । अनया किंवदन्त्याऽपि किं जीवन्ति विवेकिनः ॥२७॥ विपक्षस्ते विरक्तश्चेत् स त्वमेवाऽथ रागवान् । न विपक्षो विपक्षः किं खद्योतो द्युतिमालिनः ? ॥२८॥ सध्यन्ति (ते) त्वद्योगाय यत्तऽपिलवसत्तमाः। योगमुद्रादरिद्राणां परेषां तत्कव का ॥ २९॥ त्वां प्रपद्यामहे नाथं त्वां स्तुमस्त्वामुपास्महे । त्वत्तो हि न परस्त्राता किं ब्रूमः किन कुर्महे ॥३०॥ स्वयं मलीमसाचारैः प्रतारणपरैः परैः । कञ्च्यते जगदप्येतत् कस्य पत्कुर्महे पुरः ॥ ३१ ॥ नित्यमुक्ताञ्जगजन्मस्थेमक्षयकृतोद्यमान् । वन्ध्यास्तनन्धयमायान् को देवांश्चेतनः श्रयेत् ॥ ३२ ॥ कृतार्था जठरोपस्थदुस्थितरपि दैवतैः । भवादृशान्निह्नवते ह हा देवास्तिकाः परे ॥ ३३ ॥ खपुष्पप्रायमुत्प्रेक्ष्य किंचिन्मानं प्रकल्प्य च । संमान्ति देह गेहे वा न गेहेनर्दिनः परे ॥ ३४॥ कामरागरलेहरागावीषत्करनिवारणी । दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेदः सतामपि ॥ ३५॥ प्रसन्नमास्यं मध्यस्थे दृशौ लोकम्पृणं वचः । इति प्रीतिपदे बाद मूढास्त्वय्यप्युदासते ॥ ३६ ॥
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तिष्ठेद्वायुवेदविचलेजलमपि कचित् । तथापि प्रस्तो रागायैर्नाप्नो भवितुमर्हति ॥ ३७॥ इत्यभिष्टुत्य विरते बिडोजसि जगद्गुरुः । सर्वभाषाजुषा वाचा विदधे देशनामिति ॥ ३८ ॥ अहो अपारः संसारः सरस्थानिव दारुणः । कारणं तस्य क्रमैव हन्त वीजं तरोरिव ॥ ३९ ॥ कर्मणा स्वकृतेनैव विवकपरिवर्जितः। कूपकार इवाधस्ताद्गतिमानोति देहभृत् । ४०॥ अप्यूर्ध्वगतिमामोति निजेनैव हि कर्मणा | प्रासादकारक इव शरीरी विशदाशयः॥४१॥ प्राणातिपातं नो कुर्यात् कर्मबन्धनिबन्धनम् । स्वप्राणवत् परमाणपरित्राणपरो भवेत् ॥ ४२ ॥ न मृषा जातु भाषत कि तु भाषेत सुनृतम् । परपीडा परिहरन्नात्मपीडामिवांगवान् ॥ ४३ ॥ अदत्तं नाददीऽतार्थ बाह्यमाणोपमं नृणाम् । अर्थ हि हरता तेषां वध एव कृतो भवेत् ॥ ४४ ॥ मैथुनं न विदध्याञ्च बहुजीवोपमर्दकम् । ब्रह्मैव कुर्यात्तत्माज्ञः परब्रह्मनिबन्धनम् ॥ ४ ॥ परिग्रहं न कुर्याच परिग्रहवशेन हि । गौरिवाधिकभारेण विधुरो निपतत्यधः ।। ४६ ॥ एतान्माणातिपातादीन सूक्ष्मांस्त्यक्तुं न चेत्क्षमाः । त्यजयु दरांस्तर्हि सूक्ष्मत्यागेऽनुरागिणः ॥ ४७ ॥ इत्थं च देशनां भर्तुः शृण्वन्तोऽवहिता जनाः । तस्थुरानन्दनिस्पन्दा आलेख्यलिखिता इथ ॥ ४८ ॥ इनश्च मगधे देशे गोवरग्रामनामनि । ग्रामे गोतमगोत्रोऽभूतसुभूति ति द्विजः ॥ ४५ ॥ , "4" 13,
॥१४५॥
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तस्येन्द्रभृत्यग्निभूतिवायुभूत्यभिधाः सुताः । पत्न्यां पृथिव्यामभवंस्तेऽपि गोत्रेण गोतमाः ॥ ५० ॥ hirsagar धम्मिल्लश्च द्विजस्तयोः । पुत्रौ व्यक्तः सुधर्मा च वारुणी भद्रिलाभवौ ॥ ५१ ॥ arcar मौर्य मौर्याख्ये सन्निवेशने । द्वावभूतां द्विजन्मानौ मातृष्वस्रेको मिथः ॥ ५२ ॥ पन्यां विजयदेवायां धनदेवस्य नन्दनः । मंडिकोऽभूत्तत्र जाते धनदेवो व्यपद्यत ॥ ५३ ॥ लोकाचा mitraभार्यो मौर्यकोऽकरोत् । भार्या विजयदेवां तां देशाचारो हि न ह्रिये ॥ ५४ ॥ क्रमाद्विजयदेवायां मौर्यस्य तनयोऽभवत् । स च लोक मौर्यपुत्र इति नाम्नैव पप्रथे ।। ५५ ।। तथैव 'मिथिलापुर्या देवनाम्नोद्विजन्मनः । अभूदकंपितो नाम जयन्तीकुक्षिजः सुतः ॥ ५६ ॥ अनूच कोशलापुर्यां वसुनानो द्विजन्मनः । सूनुर्नाम्नाऽचलभ्राता नन्दाकुक्षिसमुद्भवः ॥ ५७ ॥ arit reissed सन्निवेशे द्विजन्मनः । दत्तस्य सूनुर्मेतार्थो वरुणाकुक्षिभूरभूत् ॥ ५८ ॥ तथा पुरे राजगृहे चलनान्नो द्विजन्मनः । प्रभासो नाम पुत्रोऽभूदतिमद्रोदरोद्भवः ॥ ५९ ॥ एकादशापि तेऽभूवंश्चतुर्वेदान्धिपारगाः । गौतमाद्या उपाध्यायाः पृथक् शिष्यशतैर्वृताः ॥ ६० ॥ विम: पुर्यामपापायां ष्टुमाय्योऽथ सोमिलः । आनिनाय श्रद्धया तान् यज्ञकर्मविचक्षणान् ॥ ६१ ॥ तदा च तत्र समवसृतं वीरं विवन्दिषून । सुरानापततः प्रेक्ष्य बभाषे गौतमो द्विजान् ॥ ६२ ॥ १ मिलितापु
मिथुलापु 1 बिमय पु" M
पंचमः
सर्गः
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मंत्रेणास्माभिराहूताः प्रत्यक्षा नन्वमी सुराः । इह यज्ञे समायान्ति प्रभावं पश्यत क्रतोः ॥ ६३ ॥ त्यत्तवा चण्डालवेदमेव यज्ञबाट सुरेषु तु । प्रति समवसरणं यात्सु लोकोऽब्रवीदिति ॥ ६४॥ उदाने समवस्तः सर्वज्ञोऽतिशयान्वितः। तं वन्दितुं सुराः यान्ति पौराश्चामी प्रमोदिनः ॥ ६ ॥ मर्वज्ञ इत्यक्षराणि श्रुत्वाऽऽक्रोशमिवोच्चकैः । इन्द्रभूतिः प्रकुपितः स्वानेवमवदजनान् ॥ ६६ ॥ मा त्यत्तवा किममी यान्ति पाखण्डिनममुं जनाः । त्यक्त्वा चूतमिवाऽविज्ञाः करीरं मरुमानुषाः ॥१७॥ ममापि पुरतोऽत्रास्ति सर्वज्ञ इति कोऽपि किम् । पञ्चाननस्य न हाने भयत्यन्यः पराक्रमी ।। ६८ ॥ मनुष्या यद्यमी मूखो यान्त्येनं यान्तु तन्ननु । देवाः कथममी यान्ति दमः कोऽप्यस्य तन्महान् ॥ ६९॥|| याहशो वैष सर्वज्ञो देवा अपि हि तादृशाः । यदि वा यादृशो यक्षो जायते तादृशो यलिः ॥ ७० ॥ अस्य सर्वज्ञतादर्पमसावपहराम्यहम् । देवानां मानवानां च पश्यतामेव संप्रति ॥ ७१ ॥ सोऽहंकारादुदीर्येवं शिष्यपंचशतीतः । ययौ समवसरणे वीरं सुरनरावृतम् ॥ ७२ ॥ नवर्द्धि स्वामिनः प्रेक्ष्य रूपं तेजश्च नादृशम् । किमेतदिति साश्चर्य इन्द्रभूतिरवास्थित ॥ ७३ ॥ भी गौतमेन्द्रभूते ! किं तव स्वागतमित्यथ । सुधामधुरया वाचा तं बभाषे जगद्गुरुः ॥ ७४ ॥ गौतमोऽचिन्तयन्मेऽसौ गोत्रं नाम घ वेत्ति किम् ? । जगत्प्रसिद्धमथवा को जानाति न मामिह ॥ ७ ॥ १ 'मानुषा । || २ || ३ 'रिवा' ॥
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पंचम:
सर्गः
संशयं हृदयस्थं मे भाषते च छिनत्ति च । यद्यसो ज्ञानसंपत्त्या तदाऽऽश्चर्यकरः खलु ॥ ७६ ।। इत्यन्तः संशयधरं तमूचे परमेश्वरः । अस्ति जीवो न येत्युश्चर्विद्यते तव संशयः ॥ ७ ॥ अस्त्येव जीवः स पुन यो गौतम ! लक्षणैः । चित्तचैतन्यविज्ञानसंज्ञाप्रभृतिभिः खलु ॥ ७८ ॥ न जीवोऽवस्थितश्चेत्स्याद्भाजनं पुण्यपापयोः । यागदानादिकं तर्हि किंनिमित्तं नवाप्यहो! ॥ ७९ ॥ इति स्वामिवचः श्रुत्वा मिथ्यात्येन सहैव सः । उज्झानकार सन्देहं स्वामिनं प्रणनाम च ॥ ८० ॥ ऊचे च त्वत्परीक्षार्थ दर्वद्भिरहमागमम् । उत्तंगवृक्षमुदाक्तः प्रमातुमिव वामनः॥ ८ ॥ बोधितोऽस्मि त्वया साध दृष्टोऽप्येषोहमद्य तत । भवाद्विरतं प्रव्रज्यादानेनानगृहाण माम ॥ ८२ आयं गणधरं ज्ञात्वा भाविन तं जगदगुरुः। स्वयं प्रव्राजयामास पञ्चशिष्यशतीयुतम् ॥ . उपनीतं कुबरेण धर्मोपकरणं ततः । त्यक्तसंगोऽप्याददानो गौतमोऽधेत्यचिन्तयत् ॥ ८४ ॥ निरवद्यत्रतत्राणे यदेतदुपयुज्यते । वस्त्रपात्रादिकं ग्राह्य धर्मोपकरणं हि तत् ॥ ८॥ छद्मस्थैरिह पड्जीवनिकाययतमापरः। सम्यक् माणिदयां कर्तुं शक्येत कथमन्यथा ॥ ८॥ यच्छुद्धमुद्गमोत्पादेषणाभिर्गुणसंयुतम् । गृहीतं सदहिंसायै तद्धि ग्राह्यं विवकिना ॥८॥ ज्ञानदर्शनचारित्राऽऽचारशक्तिसमन्वितः । आद्यन्तमध्येष्वमूढसमयार्थ हि साधयेत् ॥८८॥ ज्ञानाञ्चलोकहीनो यस्त्वभिमानधनः पुमान । अस्मिन् परिग्रहाऽऽशंकां कुरुते स हि हिंसकः ॥ ८९॥ |
॥१४८॥
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परिग्रहधियं धत्ते धर्मोपकरणेऽपि यः । चालानविदिततत्त्वान् स रञ्जयितुमिच्छति ॥ ९० ।। जलज्वलनवायीतरुत्रसतया बहन । जीवांस्त्रातं कथमलं धर्मोपकरणं विना ॥२१॥ गृहीतोपकरणोऽपि करणत्रयदूषितः । असंतुष्टः स आत्मानं प्रतारयति केवलम् ॥१२॥ इन्द्रभूतिर्विभाव्यैवं शिष्याणां पञ्चभिः शतैः । सम जग्राह धर्मोपकरणं त्रिदशार्पितम् ॥१३॥ तं च श्रुत्वा प्रव्रजितमग्निभूतिरचिन्तयत् । तेनेन्द्रजालिकनेन्द्रभूतिनं प्रतारितः ॥ ९४॥ गत्वा जयाम्पसर्वज्ञमपि सर्वज्ञमानिनम् । आनयामि भ्रातरं वं माययैव पराजितम्॥१५॥ सर्वशास्त्ररहस्यज्ञमिन्द्रभूति महामतिम् । कोऽलं जेतुं विना मायां माया जैत्री त्वमायिषु ॥ १६ ॥ स चेन्मे संशयं ज्ञाता छेत्ता च हृदयस्थितम् । तदाऽहमपि तच्छिष्यः सशिष्योऽपीन्द्रभूतिवत् ॥१७॥ अग्निभूतिर्विमृश्यैवं पञ्चशिष्यशताऽऽवृतः । ययौ समवसरणे तस्थौ चोपजिनेश्वरम् ॥९८ ॥ तमालपत्प्रभुर्विमाग्निभूने ! गोतमान्वय! । अस्ति वा नास्ति किं कमेत्येष ते संशयो सृदि ॥ १९ ॥ प्रत्यक्षादिप्रमाणानामगम्यं कर्म मूर्तिमत् । कथंकारं स बनीयाजीवो मूर्तत्ववार्जेतः ॥१०॥ उपघाताऽनुग्रहाश्च कथं मूतेन कर्मणा । जीवस्य स्युरमूर्तस्येत्याशंका हि मुधैव ते ॥ १०१ ।। प्रत्यक्ष कर्माऽतिशयज्ञानिनां त्वादृशां पुनः । अनुमानाभिगम्यं तजीववैविध्यदर्शनात् ॥१०॥ कर्मणामेव वैचित्र्याद्भवन्ति च शरीरिणाम् । सुखदुःखादयो भावास्तत्कर्मास्तीति निश्चिनु ॥ १०३॥
१४७
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तथाहि स्युर्नृपाः केपि हस्त्यश्वरथवाहनाः । फपिसम नवे पाप दारिणो जिन्यावहः । १.४॥ सहस्रकुक्षिभरयो भवन्त्येके महर्द्धयः । भिक्षया स्वोदरमपि पूरयन्त्यपरे पुनः ॥ १० ॥ देशकालादितुल्यत्वेऽप्येकस्य व्यवहारिणः । भूयिष्ठो जायते लाभो मूलनाशोऽपरस्य तु ॥ १०६ ।। एवंविधानां कार्याणां ज्ञेयं कर्मेव कारणम् । न विना कारण कार्यवैचित्र्यमुपजायते ॥ १०७॥ मूर्तानां कर्मणां जीवनामूर्तेन च संगमः। समीचीनः सोऽपि नूनमाकाशघटयोरिव ॥ १८ ॥ उपघाताऽनुग्रहाश्च नानाविधमुरौषधैः । अमूर्तेऽपि भवन्तीति निरवद्यमदोऽपि हि । १०९ ॥ एवं च स्वामिना च्छिन्नसंशयस्त्यक्तमत्सरः । अग्निभूतिः प्रववाज शिष्यपञ्चशतीयुतः॥ ११ ॥ तस्मिन्नपि प्रबजिते वायुभूनिय॑चिन्तयत् । जितो मे भ्रातरौ येन सर्वज्ञः खल्वयं ततः ॥ १११ ॥ नदेतस्य भगवतोऽभ्यर्हणावन्दनादिभिः । धौतकल्मषकालुष्यः स्यां छिननि च संशयम् ॥ ११२ ॥ एवं विचिन्त्य सोऽप्यागात् स्वामिनं प्रणनाम च । स्वाम्यप्युवाच जीवः स तद्वपुश्चेति ते भ्रमः॥११३॥ प्रत्यक्षाद्यग्रहणेन जीवो भिन्नस्तनोर्न हि । जलचुबुददत्सोऽङ्गे मूर्च्छतीति तवाशयः ॥ ११४ ॥ मिथ्या सहेशप्रत्यक्षो जीवः सर्वशरीरिणाम् । तद्गुणानामीहादीनां प्रत्यक्षत्वात्स्वसंविदा ॥ ११५ ॥ देहेन्द्रियातिरिक्तः स इन्द्रियाऽपगमेऽपि यत् । इन्द्रियार्थान् संस्मरति मरणं च प्रपद्यते ॥ ११६ ।। १ 'रसौD, I.IN
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इति स्वामिगिराच्छिन्नसंशयो यिमुखो भवात् । पर्यव्राजीद्वायुभूतिः शिष्यपञ्चशतीयुतः ॥ ११७ ॥ व्यक्तोऽप्यचिन्तयद्वयक्तं सर्वज्ञो भगवानयम् । इन्द्रभूत्यादयो येन जिता वेदा इव त्रयः ॥ ११८ ॥ ममापि संशयं छेत्ता निश्चितं भगवानयम्।ततः शिष्यीभविष्यामि ध्यात्वैवं सोऽप्यगात्मभुम् ११९ (युग्मम्) तमप्युवाच भगवान भो व्यक्त ! तव चेतसि । न हि भूतानि विद्यन्ते पृझयादीनीति संशयः ।। १२०॥ तेषां तु प्रतिपत्तिर्या सा भ्रमाज्जलचन्द्रवत् । सर्वशून्यत्वमवैवमिति ते दृढ आशयः॥ १२१ ॥ तन्मिथ्या सर्वशून्यत्वपक्षे भुवनविश्रुताः । स्युः स्वप्नाऽस्वमगन्धर्वपुरेतरभिदा न हि ॥ १२२ ॥ इत्थं च च्छिन्न संदेहो व्यक्तोऽपि व्यक्तवासनः । परिवबाज शिष्याणां शतैः पञ्चभिरन्वितः ॥ १२३ ।। उपाध्यायः सुधर्माऽपि संशयच्छेदवाञ्छया। समाययो महावीरमतुच्छालोकभास्करम् ॥ १४ ॥ तमप्यजल्पद्भगवान् सुधर्मस्तव धीरियम् । यारगन भवे देही तादृक् परभवेऽपि हि ॥ १२५॥ कार्य हि कारणास्यानुरूपं भवति संमृतौ । न युयुप्ते कलमबीजे प्ररोहति यवांकुरः॥ १२६ ॥ तन्न युक्तं यद्भवेऽस्मिन् यो मृदुत्वाऽऽर्जवादिभिः । नरः कर्म नरायुष्क बनाति स पुनर्नरः ॥ १२७ ॥ मायादियुक् पशुर्यस्तु स प्रेत्याऽपि पशुः खलु । कर्माधीना समुत्पत्तिस्तन्नानात्वं च जन्मिनाम् ॥ १२८ ॥ सदृशं कारणस्यैव कार्यमित्यप्यसंगतम् । शृंगप्रभृतिकेभ्योऽपि शरादीनां प्ररोहणात् ॥ १२९ ।। १ भवान् (D.L
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१.
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|पंचम:
सर्गः
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45-4500-5600-
इत्याकण्यं सुधर्माऽपि पश्चशिष्यशतीयुतः। प्रव्रज्यामाददे पाधै स्वामिपादारविन्दयोः ॥ १३ ॥ मंडिकोऽपि जगामाऽथ स्वामिनं संशयच्छिदे । स्वाभ्यप्युवाच तं यन्धमोक्षयोस्तव संशयः॥१३१ ॥ तदसद्वन्धमोक्षौ हि प्रसिद्धौ तत्र चात्मनः । मिथ्यात्वादिकृतः कर्मसंबन्धो पन्ध उच्यते ॥ १३२ ।। रज्जुबद्ध इव श्वभ्रनिर्यग्नसुरभूमिषु । दुःखं तेनानुभवति प्राणी परमदारुणम् ॥ १३३ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रप्रमुखहेतुभिस्तु यः । वियोगः कर्मणां शेयः स मोक्षोऽनन्तशर्मदः ॥ १३४ ॥ अप्यनादिमिथःसिद्धयोगानां जीवकर्मणाम् । ज्ञानादिना स्याद्वियोगोऽग्निना स्वर्णाऽश्मनामिव ॥ १३५ ॥ इति स्वामिगिराच्छिन्नसंशयो मंडिकोऽपि हि । साथैत्रिशत्या शिष्याणां सहिनो व्रतमाददे ।। १३६ ॥ मौर्यपुत्रोऽपि संदेहच्छिदे स्वामिनमाययो । स्वाम्युप्यूचे मौर्यपुत्र ! तव देवेषु संशयः ॥ १३७ ॥ स मिथ्या पश्य नन्वेतान् प्रत्यक्षमपि नाकिनः । अस्मिन् समवसरणे शक्रादीन स्वयमागतान् ।। १३८ ॥ | संगीतकादिवैयग्रयान्मर्त्यगन्धाच दुःसहात् । नायान्ति शेषकालेऽमी तदभावो न तावता ॥ १३९ ॥ अर्हज्जन्माभिषेकादावायान्ति यदमी भुवि । प्रभावः कारणं तत्र गरीयान् श्रीमदर्हताम् ॥ १४ ॥ इति स्वामिगिरा बुद्धो मौर्यपुत्रोऽपि तत्क्षणम् । परिवत्राज शिष्याणां साधु सार्धे शतैत्रिभिः ॥ १४१ ॥ ययावकंपितोऽपीशमीशोऽवोचदकंपित ! न सन्त्यदृश्यमानत्वान्नारका इति ते मतिः ॥ १४२ ॥ सदसनारकाः कामं पारतंत्र्यवशादिह । आगन्तुमक्षमा गन्तुं सत्र च त्वादशा अपि ॥ १४३ ॥
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प्रत्यक्षं नोपलम्यास्ते युक्तिगम्या भवादृशाम् । प्रत्यक्षा एव ते सन्ति क्षायिकज्ञानिनां पुनः ॥ १४४ ॥ क्षायिकज्ञानिनोऽप्यत्र नो सन्तीति स्म मा ब्रवीः । मयैव व्यभिचारोऽस्या आशंकायाः परिस्फुटः ॥ १४५।। इति श्रुत्वा प्रतिबुद्धोऽकंपितः स्वामिनोऽन्तिके । उपाददे परिव्रज्यां त्रिभिः शिष्यशतैः समम् ॥ १४३ ।। अथाऽऽगादचलनाता प्रभुं प्रभुरपि स्फुटम् । ऊचे तवाचलभ्रातः ! सन्देहः पुण्यपापयोः ॥ १४७ ॥ मा कृथाः संशयं तत्र यत्फलं पुण्यपापयोः । प्रत्यक्षं दृश्यते लोके तथैव व्यवहारतः ॥ १४८ ॥ दीर्घमायुः श्रियो रूपमारोग्यं जन्म सत्कुले । इत्यादि पुण्यस्य फलं विपरीतं तु पाप्मनः ॥ १४९ ॥ इत्थं भगवता च्छिन्नसंशयः समुपाददे । प्रव्रज्यामचलभ्राता त्रिभिः शिष्यशतैः सह ॥ १५० ॥ तार्यः स्वामिनमगात् स्वाम्यूचे तव धीरियम् । भवान्तरप्राप्तिरूपः परलोको न विद्यते ॥ १५१ ॥ भूतसंदोहरूपत्वाज्जीवस्येह चिदात्मनः । परलोकः कथं भूताऽभावे तस्याप्यभावतः ॥ १५२ ॥ तदसत् खलु जीवस्य भूतेभ्यो हि स्थितिः पृथक् । पिण्डितेष्वपि भूतेषु चेतनानुपलम्भतः ॥ १५३ ॥ भूतेभ्यश्चेतनाऽप्येवं जीवधर्मतया पृथक् । परलोकगतिस्तत्स्याज्जातिस्मृत्यादितोऽपि च ॥ १५४ ॥ इत्थं प्रबुद्धो मेतार्यः समीपे स्वामिपादयोः । शिष्यत्रिशत्या सहितः परिवज्यामुपाददे ॥ १५५ ॥ प्रभुमागात् प्रभासोऽपि तमूचे भगवानपि । निर्वाणमस्ति नो वेति प्रभास ! तव संशयः ॥ १५६ ॥ मा संशयिष्ठा निर्वाण मोक्षः कर्मक्षयः स तु । वेदात् सिद्धं कर्म जीवाऽवस्थावैचित्र्यतोऽपि च ॥ १५७ ॥
॥ १५३ ॥
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क्षीयते कर्म शुद्धैस्तु ज्ञानचारित्रदर्शनः । प्रत्यक्षोऽतिशयज्ञानभाजां मोक्षस्तदस्ति भोः । ॥१५८ ॥ प्रतिवुद्धा प्रभासोऽपि स्वाम्युपन्यस्तया गिरा । दीक्षामादत्त सहितः *खंडिकानां त्रिभिः शतैः ॥ १५९॥ महाकुला महामाज्ञाः संविग्ना विश्ववंदिताः। एकादशाऽपि सेऽभूवन्मूलशिष्या जगद्गुरोः॥ १६ ॥ इतश्च चन्दना तत्र शतानीकगृहस्थिता । पश्यन्ती यान्तमायान्तं दिविषजनमम्बरे ॥ १६१ ॥ स्वामिनः के गोरगत्तिनिसामाक्षिणी । किदशेरहवीयोभिनिन्ये श्रीवीरपर्षदि । १६२॥ सा निः प्रदक्षिणीकृत्य नत्वा चोपास्थित प्रभुम् । प्रव्रज्या नृपाऽमात्यपुत्र्यो बयोऽपरा अपि ॥१६३॥ चन्दनां धुरि कृत्वा ताः स्वयं प्रावाजयत् प्रभुः । अस्थापच्छ्रावकत्वे नृन्नारीश्च सहस्रशः ॥ १६४ ॥ जाते संघ चतुर्धेवं धौव्योल्पाकव्ययात्मिकाम् । इन्द्रभूतिप्रभृतीनां त्रिपदी ब्याहरत् प्रभुः ॥ १६५ ॥ आचारांग सूत्रकृतं स्थानांगं समवाययुक् । पंचमं भगवत्यंग ज्ञाताधर्मकथापि च ॥ १६६ ॥ उपासकांतकृदनुत्तरोपपातिकाद्दशाः । प्रन्नन्याकरणं चैव विपाफश्रुतमप्यय ॥ १६७ ॥ दृष्टिवादश्चेत्यंगानि तत्रिपद्या कृनानि तैः। पूर्वाणि दृष्टिवादान्तः सूत्रितानि चतुर्दश ।। १६८ ॥ तत्रोत्पादाऽऽग्रायणीये वोर्यप्रवादभित्यपि । अस्तिनास्तिप्रवाई च ज्ञानप्रवादनाम च ॥ १६९॥ टि- *खण्डिकः शिष्यः। १ स्थानकं C.||
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सत्यप्रवादमात्मप्रवादं कर्मप्रवादयुक् । प्रत्याख्यानं च विद्याप्रवादकल्याणके अपि ॥ १७ ॥ प्राणाथायाभिधानं घ क्रियाविशालमित्यपि । लोकविन्दुसारमथ पूर्वाण्येवं चतुर्दश ॥ १७१ ॥ सूषितानि गणधरैरंगेभ्यः पूर्वमेव यत् । पूर्वाणीत्यभिधीयन्ते तेनैतानि चतुर्दश ॥ १७२ ॥ एवं रचयतां तेषां सप्तानां गणधारिणाम् । परस्परमजायन्त विभिन्नास्तन वाचनाः॥ १७३ ॥ अकंपिताऽचल भ्रात्रोः श्रीमेतार्यप्रभासयोः । परस्परमजायन्त सहक्षा एव वाचनाः॥१७४ ॥ श्रीवीरनाथस्य गणधरेष्येकादशस्वपि । वियोषीधनधोः साम्यादासन् गणा नव ॥ १७ ॥ सौगन्धिकरत्नचूर्णपूर्णमादाय भाजनम् । उत्थाय स्वामिपार्थेऽस्थात् समयज्ञोऽथ वज्रभृत् ॥ १७६ ।। तेऽपीन्द्रभूतिप्रमुखाः परिपाट्याऽवतस्थिरे । प्रतीच्छवः स्वाम्यनुज्ञा किंचिन्नमितमौलयः॥१७७।। द्रव्यैर्गुणैः पर्यायैश्चाऽनुज्ञातं तीर्थमित्यथ । जल्पन स्वाम्यक्षिपत् पूर्व चूर्ण गौतममूर्धनि ॥ १७ ॥ अप्यन्येषां फ्रमात् स्वामी चूर्ण चिक्षेप मूर्धसु । पुष्पवर्ष चूर्णवर्ष प्रीता देवाश्च चक्रिरे ॥१७॥ चिरंजीवी चिरं धर्म योतयिष्यत्यसाविति । धुरि कृत्वा सुधर्माणमन्चज्ञासीगणं प्रभुः॥१८॥ साध्वीनां संयमोद्योगघटनार्थ तदैव च । प्रवर्तिनीपदे स्वामी स्थापयामास चन्दनाम् ।। १८१॥ . पूर्णप्रथमपौरुष्यां देशनां व्यसृजत् प्रभुः । राजोपनीतस्तत्र प्रारद्वारेण प्राविशद्वलिः ॥ १८२।।। १ पूर्व प्र° C॥
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उदस्तस्य बलेस्तस्य खेऽप्यर्थ जगृहुः सुराः । अर्धस्य पतितस्थाई राजाशे षं पुनर्जनाः ॥१८३ ॥ अधोत्थाय जगन्नाथो देवच्छन्द उपाविशत् । स्वाम्यधिपीठे चाऽसीनो गौतमो देशनां व्यधात् ॥ १८४ ॥ द्वितीयस्यां तु पौरुष्यां पूर्णायां गौतमोऽपि हि । देशनाधा वितम पृष्टरिय अपाम्बुधः ॥ १८॥
तत्रातिगम्य कतितिदिवसानि विश्व
विश्वोपकारनिरतः प्रतियोध्य लोकम् । स्वामी सुरासुरनरेश्वरसेव्यमान
पादारविन्दयुगलो विज़हार पृथ्व्याम् ॥ १८६ ॥ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुपचरिते महाकाव्ये दशमपर्वणि श्रीमहावीरकेवलज्ञानचतुर्विधसंघोत्पत्तिवर्णनो
नाम पंचमः सर्गः॥
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॥ अथ षष्ठः सर्गः ॥
इतश्चाऽचैव भरते कुशाग्रपुरपत्तने । कुशाग्रीयमतिरभूत् प्रसेनजिदिलापतिः ॥ १ ॥ अलंकृताऽशेषदिकस्तस्यापारो यशोऽर्णवः । जग्रसे विद्विषां कीर्तिनिर्झरिणीः समन्ततः ॥ २ ॥ तस्याऽभूत् केवलं राज्यशोभायै सैन्यसंग्रहः । यत्प्रतापाऽनलेनैव वैरिव्याघ्राननाशयत् ॥ ३ ॥ स्वल्योऽद्रिणा वायुरपि दभोलिरपि वर्द्धिना । आज्ञा तस्य पुनः पृथ्व्यामस्खल्यत न केनचित् ॥ ४ ॥ स प्रसारितपाणिभ्यो याचकेभ्यो ददद्वसु । तेषामिव स्पर्धया स्वं न पार्णि समकोचयत् ॥ ५॥ हित्वा स्वस्वपतीन् जातेऽन्धकारे रणरेणुभिः । तमालिलिंगुः सर्वांगं जयलक्ष्म्योऽभिसारिकाः ॥ ६ ॥ शुद्धे मनसि तस्याभूत्सदाचारशिरोमणेः । जिनधर्मः स्थिरः सान्द्रे केशपाशेऽधिवासवत् ॥ ७ ॥ श्रीमत्पार्श्वजिनाधीशशासनाम्भोजषट्पदः । सम्यग्दर्शन पुण्यात्मा सोऽणुव्रतधरोऽभवत् ॥ ८ ॥ राज्ञां कन्याभिरूढाभिस्तस्योर्वीशशिरोमणेः । अवरोधोऽभवद् भूयान् दिवीव दिविषत्पतेः ॥ ९ ॥ १ वजिणा । २ ख ८ ॥
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पाकशासनतुल्यस्य शासतस्तस्य मेदिनीम् । सूनवो बहवोऽभूवंस्तन्मूर्तय इवापराः ॥ १० ॥ इतश्चात्रैव भरते वसन्तपुरपत्तने । यथार्थनामा समभूज्जितशत्रुर्महीपतिः ॥ ११ ॥ अमरीष भुवं प्राप्ता तस्य चाऽमरसुन्दरी । बभूव पट्टमहिषी गुणरत्नमहाखनिः ॥ १२ ॥ तयोः सुमंगलो नाम मंगलानां निवासभूः । सुतोऽभूद्रकन्दर्पः कलानां निधिरिन्दुवत् ॥ १३ ॥१ सेनको नाम या क्षणानां सर्वेषामुदाहरणमादिमम् ॥ १४ ॥ पिंकेश दावाग्निशृंग इवाचलः । घूकवञ्चिपिटघाणो मार्जार इव पिंगटक् ॥ १५ ॥ उष्वल्लम्बकण्ठौष्ठ आवल्लघुकर्णकः । मुर्खकुन्दांकुराऽकारेच हिर्भूतरदावलिः ॥ १६ ॥ जलोदरी वो दरिलो स्वोरुग्रमकोलवत् । मंडलस्थान केनेव वक्रजं घोऽतिशूर्पपात् ॥ १७ ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) संचार दुराकारो बराको यत्र यत्र सः । जगाम तत्र तत्रापि हास्यमेकाताम् ॥ १८ ॥ 'दूरनोऽपि तमायान्तं राजपुत्रः सुमंगलः । जहास विकृलाssकारं विलोक्येव विदूषकम् ॥ १९ ॥ एवं च राजपुत्रेण हस्यमानो दिवानिशम् । वैराग्यं सेनको भेजेऽपमानमहाफलम् ॥ २० ॥ अथ संजातवैराग्यो मन्दभाग्यस्ततः पुरात् । निरगाच्छून्यहृदय उन्मत्त इव सेनकः ॥ २१ ॥ सुमंगलकुमारोऽपि मन्त्रिपुत्रे निरीयुषि । कालेन कियनाध्यात्मराज्ये पित्रा न्यवेश्यत ॥ २२ ॥ १ "कृ' D २ र ब है,
....
―――
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*%*%*-13
पष्ठः
सर्गः
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सेनकोऽपि भ्रमन्नकं दृष्ट्वा कुलपति घने । तत्पाचे तापसो भूत्वा गृह्णाति स्मोक्ट्रिकाग्रतम् ॥ २३ ॥ तीव्रण बोलतपसा स्वमत्यन्तं कदर्थयन् । घसन्तपुरमेवाऽऽगादपरद्युः स तापसः ॥२४॥ मंत्रिसूस्तापसश्चेति तमानर्च जनोऽखिलः । वैराग्यकारणं पृष्टः कथयामास चेति सः ॥ २५॥ सुमंगलकुमारेण रूपमेतदहासि मे । वैराग्यं तेन मे जानं सत्यंकारस्तपःश्रियः ॥ २६ ॥ नच्छ्रुत्वा तं नमस्कर्तुं सुमंगलनपोऽभ्यगात् । क्षमयित्वा पारणाय न्यमंत्रयत चाऽऽदरात् ॥ २७ ॥ सोऽपि राज्ञे प्रदत्ताशीरनुमेने तदर्थनाम् । कृतकृत्य श्यागाच राजापि निजवेश्मनि ॥ २८ ॥ पूर्णेऽथ मासक्षपणे नृपतेः प्रार्थनां स्मरन् । शान्तात्मा राजभवनद्वारमाप स तापसः ॥ २९॥ शरीराऽसौष्ठवमभूत्तदा च पृथिवीपतेः । द्वारं घ पिदधे द्वास्थः कस्तदा भिक्षुमीक्षते ॥ ३० ॥ स्खलितो द्वारदानेन सेतुनेव जलप्लयः । पंथा यथागतेनैव तपस्वी व्याजुघोट सः ॥३१॥ निश्चित्य मासक्षपणं ययौ च पुनरुष्ट्रिकाम् । नचाकुप्पत्तपोवृद्धो दृष्यन्ति हि महर्षयः ॥ ३२ ॥ स्वस्थीभूतो द्वितीयेऽह्नि भक्तो राजा तपस्विषु । गत्वा नत्वा क्षमयित्वा पुनरेवमुवाच तम् ॥ ३३ ॥ निमन्त्रितोऽसि पुण्याय मयाऽघं पुनर्जितम् । प्रायः पापनिवासानां पापमवातिथीयते ॥ ३४ ॥ तवान्यत्रापि भगवनिषिद्धं पारणं मया । अदातुर्हि प्रियालापोऽन्यत्र लाभान्तरायकृत् ॥ ३५॥ १ तपसा नित्यं स्व। ॥ २ यया C.L || ३ 'चीय" L॥
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तत्प्रसीद द्वितीयेऽपि मासक्षपणपारणे । मत्प्रांगणमलंकुर्याः कल्पशाखीव नन्दनम् ॥ ३६ ॥ तथेति प्रतिपेदाने तापसेऽगानृपो गृहम् । गणयन्नगुलीस्तस्थौ तत्पारणदिनाय च ॥ ३७॥ पूणे च मासक्षपणे स तपस्वी नृपौसि । ययौ देवादभूद्राज्ञः प्राग्वद्वपुरपाटबम् ॥ ३८ ॥ नक्षेत्र पिड़िते द्वारे व्यापुरूषायामा इषिमाम् । स्वस्थीभूतोऽथ तं राजा न्यमंत्रयत पूर्ववत् ॥ ३९ ॥ पूर्णेऽथ मासक्षपणे तृतीयेऽपि स तापसः । तथैवाऽगात्तथैवाऽभूद्राज्ञः पुनरपाटवम् ॥ ४ ॥ राजकीययैरचिन्त्येष तपस्येति यदा यदा । तदा तदा भवत्यस्मत्स्वामिनोशिवमेव हि ॥ ४१॥ ते चारक्षानथादिक्षस्तपस्वी मन्त्रिसूरपि । प्रविशन्नप्यसौ सर्प इव निर्वास्यतामहो ॥ ४२ ॥ कृते तथैवाऽरक्षश्च निदानं तापसोऽकरोत् । भूयासमहमेतस्य वधाय नृपतेरिति ॥ ४ ॥ मृत्वा च तापसो जज्ञे सोऽल्पावनिमन्तरः । राजाऽपि तापसो भूत्वा तामेव गतिमाप सः॥ ४४ ॥ च्युत्वा सुमंगलः सोऽथ प्रसेनजिविलापतेः । सुतोऽभूच्छेणिको नाम धारिणीकुक्षिसंभवः ॥ ४५ ॥ इतश्च तत्रैव पुरे रथिको नाग इत्यभूत् । प्रसेनजिन्महीपालचरणाम्भोजषट्पदः ॥ ४६ ॥ दयावानाहतो दाता परनारीसहोदरः। वीरो धीरोऽधीतकलः स सर्वगुणभूरभूत् ।। ४७ ॥ नामधेयेन सुलसाऽनलसा पुण्यकर्मणि । बभूव गेहिनी तस्य पुण्यश्रीरिव देहिनी ॥ ४८ ॥ १ वास्तथा C. L॥
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॥१६०
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पतिव्रतात्वसम्यक्त्वाऽऽर्जवप्रभृतयो गुणाः । तस्यां युगपदावात्सुः सपांशुकीङका इव ॥ ४९ ॥ एकदा नागरथिकोsपुत्रोऽचिन्तयदुच्चकैः । सनालनलिनाकारकरतल्पशयाननः ॥ ५० ॥ पुत्रमुल्लापयिष्यामि लालमिष्यामि चेति मे । अपुत्रस्याऽवकेशीव निष्फलोऽभून्मनोरथः ।। ५१ । न बाल्याद् ब्रह्म विदधे पुत्रवक्त्रं च नैक्षि यैः । धिक् तेषां कामवैवश्यं लोकद्वितयर्वचकम् ॥ ५२ ॥ इति चिन्ताविवर्णास्यं पंकमग्नमिव द्विपम् । पतिं प्रोवाच सुलसा विनयाद्रचिताञ्जलिः ॥ ५३ ॥ हस्तशय्या मुखस्येयं चिन्तामाख्याति नाथ! ते । किं चिन्तयस्यादिश में मां चिन्ताभागिनीं कुरु ॥ २४ ॥ नागोऽप्यख्यदपुत्रोऽस्मि पुत्रकौतूहलं च मे । न किंचिदस्त्यौपयिकं पुत्रीयं पुत्रकाम्यतः ॥ ५५ ॥ सुलसोवाच कन्यास्त्वं बह्रीः परिणयाऽपराः । पुत्रप्रसविनी तासु किमेकापि न भाविनी १ ॥ ५६ ॥ नागोऽप्यूचे त्वयैवाहं जायावानिह जन्मनि । जायाभिः कृतमन्याभिस्तत्पुत्राणां तु का कथा ॥ २७ ॥ त्वदंगसंभवं पुत्रमिच्छामि प्रियदर्शने ! स आवयोः प्रीतिवल्लेः फलायेत चिरादपि ॥ ५८ ॥ त्वं प्राणास्त्वं प्रतिवपुस्त्वं मन्त्री त्वं च मे सुखा । तद्यतस्व सुतार्थेऽस्मिनुपयाचितकादिभिः ॥ ५९ ॥ सुलसोचे करिष्येऽहमर्हदाराधनां प्रिय ! | अर्हदाराधनैका सर्वकार्येषु कामधुक् ।। ६० ।। आचामाम्लादिभिरथ तपोभिरतिदुस्तपैः । आजन्मापि पवित्रं स्वं पावयन्ती विशेषतः ॥ ३१ ॥
१ पुत्रार्थ || २ "म्मादि C | "स्मात्रि / ॥
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YMYHMhYHAMA..
मितमौक्तिकालंकारा नवोत्फुल्लेव मल्लिका । कौमुंभवसना संध्येवारुणाभ्रा प्रगतनी ॥६२ ।। वीतरागार्चनपरा ब्रह्मचर्यपरायणा । समाहितमनाः साऽस्थात्पतिदुःखार्द्रभानसा ||६३।। (त्रिभिर्विशषकम् इतश्च शक्रः सदसि प्रशंसामिति निर्ममे । श्राधिका उप सुलसां साम्प्रतं भरतावनी ॥ ६४ ॥ एको देवस्तदाकर्ण्य विस्मयोत्कर्णिताननः । सुलसायाः श्राविकात्वं परीक्षितुमुपाययौ ॥ ६ ॥ देवार्चनप्रसक्तायाः सुलसायाः स वेश्मनि । प्राविशत् साधुरूपेण विरचय्य निषेधिकाम् ॥ ६६ ।। सुलसापि हि तं दृष्ट्वाऽनभ्रवृष्टिवदागतम् । भक्त्या ववन्देऽपृच्छच तदागमनकारणम् ॥ ६७ ॥ स उवाच ममाख्यातं वैधेन त्वद्गृहेऽस्ति यत् । लक्षपाकं महातैलं ग्लानार्थ तत्प्रदीयताम् ॥ ६॥ मफलस्तैलपाकोऽयं साधाबुपकरिष्यते । इत्युदीर्य मुदा तैलकुम्भमभ्यानिनाय सा ॥ ६९ ॥ स नैलकुम्भो देवेन स्वशक्त्या पातितः करात् । द्राक् च त्रंटिति पुस्फोट कुलायगलिताण्डवत् ॥ ७० ॥ तैलकुम्भो द्वितीयोऽपि तया पुनरदौक्यत । तथैव सोऽपि स्फुटिनो न पुनर्चिपसाद सा ॥ ७९ ॥ तैलकुम्भस्तृतीयोऽपि तयाऽऽनीतस्तथाऽस्फुटत् । सा दध्यो चाल्पपुण्याऽस्मि मोघयावेन साधुना ॥७॥ देवस्ततो निजं रूपं धृत्वेति निजगाद ताम् । भद्रे ! तव श्राविकात्वं प्रशशंस दिवस्पतिः ॥ ७ ॥ शक्रप्रशंसथा चैष विस्मितः स्वर्गवास्यहम् । त्वत्परीक्षार्थमायातस्तुष्टोऽस्मि च वरं वृणु ।। ७४ ॥ १ को बः सा ।'कः सः यः सा' D॥ २ वरिति ॥
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सुलसा श्राविकाऽप्यूचे यदि तुष्टोऽसि तन्मम । देहि पुत्रमपुत्राया नान्यविष्टमतः परम् ॥ ७ ॥ द्वात्रिंशतं स गुटिका दत्त्वा देवोऽब्रवीदिदम् । क्रमेण भक्षयरेतास्तावन्तः स्युः सुतास्तव ।। ७६ ।। पुनः प्रयोजनवशात् स्मर्तव्योऽहं त्वयाऽनघे । एष्यामि भूय इत्युक्त्वा त्रिदशः स तिरोदधे ।। ७७ ।। अचिन्तयच्च सुलसा क्रमेण गुटिकाऽदनात् । बाहना बालरूमामा मर्दियति हि गोलिम् । तस्मात्प्राश्नाम्यहं सर्वा युगपद् गुटिका इमाः। यथैकोऽपि भवेत् पुत्रो द्वात्रिंशल्लक्षणान्वितः ॥ ७॥ इत्थं विमृश्य स्वधिया सा प्राश गुटिकाः समाः । तथा बुद्धिरियं जज्ञे नान्यथा भवितव्यता ॥ ८ ॥ उत्पेदिरे तदुदरे गर्भा द्वात्रिंशदप्यथ । तैर्गभैरसहा साभूदल्लीव बहुभिः फलैः ।। ८१॥ सा गर्भान धर्तुमसहा वज्रसारान् कृशोदरी । कायोत्सर्गस्थिता देवं सस्मार पुनरेव तम् ॥ ८२ ।। स्मृतमात्रोपस्थितेन सत्यस्तेनाऽमरेण सा । किं स्मृतोऽस्मीति पृष्टाऽऽख्यत्ता तथा गुटिकाकथाम् ॥ ८॥ देवोऽयदत् किं गुटिका युगपद् भक्षितास्त्वया ? । अमोधाः खल्विमास्तेन गर्भास्तावन्त एव ते ॥ ८४ ॥ न साधु विदधे भद्रे ! त्वयेदमृजुचेतसा । पुत्रास्तुल्यायुषो येवं द्वात्रिंशदपि भाविनः ।। ८५ ॥ मा विषीद महाभागे ! बलिष्ठा भवितव्यता । गर्भपीडापहारं तु करिष्ये सुस्थिता भव ॥८६॥ सुलसाया गर्भपीडामपहृत्य स नाकसद । जगाम साऽभूत्स्वस्था च गूढगर्भा च भूरिव ॥८॥ पूणे फाले च सुलसा शुभेऽहनि शुभे क्षणे । द्वात्रिंशल्लक्षणान् पुत्रान् द्वात्रिंशतमजीजनत् ।। ८८ ॥
XXXREAKICKASH
॥१०३
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धात्रीभिर्लाल्यमानास्ते क्रमानुवृधिरे सुताः । कलभा इव विन्ध्याद्रावखण्डितसमीहिताः ॥ ८९ ॥ प्रांगणे ने रुरुचिरे रममाणाः कुमारकाः । गृहलक्ष्मीविहंगम्याः क्रीडाक्षितिरुहा इव ॥ ९० ॥ उत्संगे नागरथिको ग्राहं ग्राहं कुमारकान् । स्नेहादम्लपर्यादिवाऽऽनन्दजैर्षाष्पवारिभिः ॥ ९१ ॥ पादे कोडे शिरोदेशे लगमानैः कुमारकैः । विरजे नागरथिकः सिंहपोतैरिवाचलः ॥ ९२ ॥ सर्वेऽपि नागरथिनः सूनवो वयसा समाः । ते श्रेणिककुमारस्य बभूवुरनुयायिनः ॥ ९३ ॥ अन्यदा च स्वपुत्राणां राज्यार्हत्वं परीक्षितुम् । एकत्र पावसस्थालान्यशनाय नृपोऽर्पयत् ॥ ९४॥ ततो भोक्तुं प्रवृत्तानां कुमाराणाममोचयत् । व्याधानिक व्यात्तवक्चान् सारमेयान् स सारधीः ॥ १५ ॥ कुमारा द्रुतमुत्तस्थुरापतत्सु ततः श्वसु । एकस्तु श्रेणिकस्तस्थौ धियां घाम तथैव हि ॥ ९३ ॥ सोऽन्यस्थालात्पायमान्नं स्तोकं स्तोकं शूनां ददौ । यावल्लिलिहिरे श्वानस्ताचच्च बुभुजे स्वयम् ॥ ९७ ॥ येन केनाप्युपायेन परानेष निरोत्स्यति । भोक्ष्यते च स्वयं पृथ्वीं राजा तनेति रञ्जितः ॥ ९८ ॥ राजा पुनः परीक्षार्थी सुतानामन्यदा ददौ । मोदकानां करण्डांश्च पयस्कुंभांच मुद्रितान् ॥ ९९ ॥ इमां मुद्रामभञ्जन्तो भुञ्जीध्वं मोदकानसून् । पयः पिबत मा कृवं छिद्रमित्यादिशन्नृपः ॥ १०० ॥ विना श्रेणिकतेषां कोsपि नाऽमुक्त नाऽपिवत् । बुद्धिसाध्येषु कार्येषु कुर्युरूर्जस्विनोऽपि किम् ॥ १०१ ॥
पत्रः सर्ग:
॥१६४॥
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चलयित्वा चलयित्वा श्रेणिका करंडक दुजे पोपकासोद शलाकाविवरच्युतम् ॥ १०२ ।। रूप्यशुक्त्या घटस्याधो गलद्वार्थिन्दुपूर्णया । स पयोऽपि पपौ किं हि दुःसाध्यं सुधियां धियः ॥ १०३ ॥ एवं परीक्षानियूदं श्रेणिकं बुद्धिसंपदा । अमस्त राज्याहतया कुशाग्रनगरेश्वरः ॥१०४॥ कुशाग्रे चाभवच्छीघ्रं शीघ्रमग्नरुपद्रवः । ततश्चाघोषणां राजा प्रसेनजिदकारयत् ॥१०॥ उत्थास्यति पुरे वहिर्यस्य यस्य गृहादिह । स स निर्वासनीयोऽस्मात् पुरान्मय इवाऽऽमयी ॥ १०६॥ सूपकारप्रमादेन राज्ञ एवाऽन्यदा ग्रहात् । उदस्थादग्निरग्निर्हि न स्वः कस्यापि विप्रवत् ॥१०॥ तस्मिन् प्रदीपने घृद्धिमुपेयुषि महीपतिः। यो यद् गृह्णाति मद्नेहात्तत्तस्येत्यादिशत् सुतान् ॥ १०८॥ सर्व कुमारा हस्त्यादि समादाय यथारुचि । निर्ययुः श्रेणिकस्त्वेका भम्भामादाय निर्ययौ ॥ १०॥ किमेतत्कृष्टमित्युक्तो नृपेण श्रेणिकोऽवदत् । जयस्य चिहं भम्भेयं प्रथमं पृथिवीभुजाम् ॥११॥ अस्याः शब्देन भूपानां दिग्यात्रामंगलं महत् । रक्षणीया क्षमापालैः स्वामिंस्तदियमेव हि ॥११॥ ततश्चैवं महेच्छत्वप्रसन्नः पृथिवीपतिः। श्रेणिकस्य ददौ भम्भासार इत्यपराभिधाम् ॥ ११२॥ इदं च न विसस्मार तदा राजा प्रसेनजित् । उत्तिष्ठेश्यद्गृहादग्निः स पुरे न वसेदिति ॥ ११३॥ ततश्चाचिंतयन्नाऽहमात्मानमनुशास्मि चेत् । सर्वथा तर्हि पर्याप्तं परेषामनुशासनम् ॥ ११४॥ १-२ वल 1॥
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इति तत्याज नगरं तद्राजा सपरिच्छदः । क्रोशेनैकेन च ततः शिविरं स न्यवेशयत् ॥ ११५ ॥ सञ्चरन्तस्तदा यं वदन्ति स्म मिश्रो जनाः । क तु यास्यथ ? यास्यामो वयं राजगृहं प्रति ॥ ११६ ॥ ततो राजगृहं नाम तत्रैव नगरं नृपः । चकार परिखावप्रचेत्यसौधाऽन्धुरम् ॥ ११७ ॥ राज्याई मानिनो मैनं राज्यार्ह सूनवोऽपरे । ज्ञासिषुरित्यवाऽज्ञासीच्छ्रेणिकं पृथिवीपतिः ॥ ११८ ॥ पृथक् पृथक् कुमाराणां ददौ देशान्नरेश्वरः । न किंचिच्छ्रेणिकस्यास्तु राज्यमस्यायताविति ॥ ११९ ॥ ततोऽभिमानी स्वपुरात् कलभः काननादिव । निःसृत्य श्रेणिकोऽगच्छणातटपुरं क्रमात् ॥ १२० ॥ तत्र च प्रविशन् भद्राऽभिवस्य श्रेष्ठिनोऽथ सः । कर्म लाभोदयं सूर्तमियोपाविशदापणे ॥ १२१ ॥ तदा च नगरे तस्मिन् विपुलः कश्चिदुत्सवः । नव्यदिव्य दुकूलांग रागपौराऽऽकुलोऽभवत् ॥ प्रभूतायकैरासीत् स श्रेष्ठी व्याकुलस्तदा । कुमारोऽप्यापयबद्ध्वा तत्पुटापुटिकादिकम् ॥ द्रव्यं कुमार माहात्म्याच्छ्रेष्टी भूयिष्ठमार्जयत् । पुण्यपुंसां विदेशेऽपि सहचयों ननु श्रियः ॥ १२४ ॥ अद्यावत पुण्यस्य कस्पातिथिरसीत्यथ । श्रेणिकः श्रेष्ठिना पृष्टो भवतामित्यभाषत ॥ १२५ ॥ नायोग्य वरो दृष्टः स्वप्नेऽय निशि यो मया । असौ साक्षात् स एवेति श्रेष्ठी चेतस्यचिन्तयत् ॥२६॥ सोsभाषिष्ट च धन्योऽस्मि यद्भवस्यतिथिर्मम । असावलसमध्येन ननु गंगा समागता ॥ १२७ ॥ १र्तन / ॥
१२२ ॥ १२३ ॥
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षष्ठः
सर्गः
॥ १६३ ॥
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संवृत्याऽहं ततः श्रेष्ठी तं नीत्वा निजवश्मनि । स्नपयित्वा परिधाप्य सगौरवमभोजयत् ॥ १२८ ॥ एवं च तिष्ठस्नद्हे श्रेणिकः श्रेष्ठिनाऽन्यदा । कन्यां परिणयेमां मे नन्दा नाम्नेत्ययाच्यात ॥ १२॥ ममाझातकुलस्यापि कथं वत्से सुनामिति । श्रेणिकेनोक्त ऊचे स ज्ञातं तथ गुणैः कुलम् ।। १३० ॥ ततस्तस्योपरोधेनोदधेरिव सुता हरिः । श्रेणिकः पर्यणैषीतां भवद्धवलमंगलम् ॥ १३१ ॥ भुञ्जानो विविधान् भोगान मह वल्लभ या ना । अनिष्ठच्छेणिकस्तत्र निकुञ्ज इव कुञ्जरः ॥ १३२ ।। श्रेणिकस्य स्वरूपं तद्विवेदाऽऽश प्रसेनजित् । सहस्राक्षा हि राजानो भवन्ति चरलोचनैः॥ १३३ ॥ उग्रं प्रसेनजिद्रोग प्रापाऽथान्तं विदनिजम् । ततः श्रेणिकमानेतुं शीघ्रमादिक्षदौष्ट्रिकान् ॥ १३४ ॥
औष्ट्रिकेभ्यो ज्ञातवातः पितुरत्यर्तिवार्तया | नन्दां सम्बोध्य सस्नेहं प्रतस्थ श्रेणिकस्ततः ॥ १३ ॥ वयं पाण्डुरकुड्या गोपाला राजगृहे पुरे । आह्वान मंत्रप्रतिमान्यक्षराणीनि चार्पयत् ॥ १३६ ॥ माऽन्या तातस्य रोगार्तेर्मदर्तिर्भूदिति दुतम् । उष्ट्रों श्रेणिक आरुह्य ययौ राजगृहं पुरम् ॥ १३७ ॥ तं दृष्ट्वा मुदितो राजा हर्षनेत्राश्रुभिः समम् । राज्येऽभ्यषिञ्चद्विमलैः सुवर्णकलशाम्बुभिः ॥ १८ ॥ राजाऽपि संस्मरन् पार्श्वजिनं पंचनमस्क्रियाम् । चतुःशरणमापनो विपद्य त्रिदिवं ययौ ॥ १३९ ॥ विश्व विश्वंभराभारं बभार श्रेणिकस्ततः । तेन गर्भवती मुक्ता गर्भ नन्दापि दुर्वहम् ।। १४०॥ १ मामाता तस्य रों.LI
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24XXXRANS*
तस्या दोहद इत्यासीगजारूढा शरीरिणाम् । महाभूत्योपकुर्वाणा भवाम्यभयदा यदि ।। १४१ ॥ विज्ञपय्याऽथ राजानं तस्पित्रापरि दोहदः । पूणे काले च साऽसून प्राची रविमिवार्भक्रम् ॥ १४२ ॥ दोहदार्थानुसारेण तस्याथ दिवसे शुभे । चकाराभयकुमार इति मातामहोऽभिधाम् ॥ १४३ ।। स क्रमाद्ववृधे विद्या निरषयाः पपाठ च । अष्टवर्षोऽभवदक्षो द्वासप्तत्यां कलासु च ॥ १४४ ॥ सवयाः कलहकोऽपित कोपादित्यतर्जयत । किवं जल्पसि यस्याऽहो पितापि ज्ञायते न हि १४५ ऊचेऽभयकुमारस्तं ननु भद्रः पिता मम । पिता भद्रो भवन्मातुः प्रत्युवाचेति सोऽभयम् ॥ १४६ ॥ नन्दा प्रत्यभयोऽप्यूचे मातः को मे पिनेत्यथ । अयं तव पिता भद्रश्रेष्ठी नन्देत्यचीकथत् ॥ १४७ ॥ भद्रस्तव पिता शंस मदीयं पितरं ननु । पुरेणेत्युदिता नन्दा निरानन्देदमब्रवीत् ॥१४८ ।। देशान्तरादागतेन परिणीतास्मि केनचित् । मम च त्वयि गर्भस्थे तमापुः केचिदौष्ट्रिकाः ॥ १४ ॥ रहः स किंचिदुक्त्वा तैः सहैव कचिदप्यगात् । अद्यापि तं न जानामि कुतस्त्यः कश्चिदित्यहम् ॥ १५० ।। स यान किंचिज्जल्प त्वामिति पृष्टाऽभयेन सा । अक्षराण्यर्पितान्यतानीति पत्रमदर्शयत् ॥ १५१ ॥ तद्विभाव्याऽभयः प्रीतोऽब्रवीन्मम पिता नृपः। पुरे राजगृहे नत्र गच्छामो ननु संप्रति ॥ १५२॥ आपच्छ्य श्रेष्ठिनं भद्रं सामग्रीसंयुतस्ततः । नान्दयो नन्दया साधं ययौ राजगृहं पुरम् ॥ १५३ ।।
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१ दाय" D.Mu
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१८.LAKAKAKALAK46464K
मातरं पहिरुद्याने विमुच्य सपरिच्छदाम् । तत्र स्वल्पपरीवारः प्रविवशाभयः पुरे ॥ १५४॥ इतश्च मेलितान्यासंस्तवा श्रेणिकभूभुजा । शतानि पंचैकोनानि मन्त्रिां मन्त्रसत्रिणाम् ॥ १५ ॥ मन्त्रिपश्चशती पूर्णां कर्तुं नरपतिस्ततः । लोके गवेषयामास कंचिदुत्कृष्टपूरुषम् ॥ १५६ ।। ततश्च तत्परीक्षार्थ शुष्ककूपे निजोर्मिकाम् । प्रचिक्षेप क्षितिपतिलौकानित्यादिदेश च ।। १५७ ।। आदास्यते करेणैतामूर्मिकां यस्सटस्थितः । तस्य धीकौशलक्रीती मदीया मन्त्रिधुर्यता ॥ १५८ ॥ नेऽप्यूचुर्यदशक्यानुष्ठानमस्मादृशामिदम् । ताराः करेण यः कषेत्स इमामूर्मिकामपि ॥ १५९ ॥ ततोऽभयकुमारोऽपि संप्राप्तस्तत्र सस्मितम् । ऊचे किं गृह्यते नैषा किमेतदपि दुष्करम् ? ॥ १६० ॥ नं दृष्टवा च जना दध्युः कोऽप्यसावतिशायिधीः । समये मुखरागो हि नृणामाख्याति पौरुषम् ॥ १६१ ॥ ऊचुस्ते तं गृहाणेमामूर्मिकां तत्पणीकृताम् । अर्थराज्यश्रियं पुत्री धुर्यतां चषु मंत्रिषु ॥ १३२ ॥ ततोभयकुमारोऽपि मुद्रिकां कृपमध्यगाम् । आर्द्रगोमयपिण्डेन निजघानोपरिस्थितः ॥ १६३ ।। प्रक्षिप्योपरि तत्कालं ज्वलन्नं तृणपूलकम् । सद्यः संशोषयामास गोमयं तन्महामतिः ॥ १६४ । नन्दाया नन्दनः शीघं कारथित्वाऽथ सारणिम् । वारिणाऽपूरयत् कूपं विस्मयन च तं जनम् ॥ १६५ ॥ नद्गोमयं श्रेणिकसूः करेण तरदावदे । धीमद्भिः सुप्रयुक्तस्य किमुपायस्य दुष्करम् ? ॥ १३६ ॥ तस्मिन् स्वरूपे चाऽऽरक्षर्विज्ञप्ते जातविस्मयः । नृपोऽभयकुमारं द्रागाजुहावाऽऽत्मसन्निधौ ॥ १६७ ॥
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CAKKARAN
अभयं श्रेणिकः पुत्रप्रतिपत्त्याथ सस्वजे । बन्धुरज्ञायमानोऽपि दृष्टो मोदयते मनः ॥ १६८ ॥ कुतस्त्वमागतोऽसीति पृष्टः श्रेणिकभूभुजा । आगतोऽस्मि पुरावेणातटादित्यभयोऽवदत् ।। १६९ ॥ राजापृच्छद्रमुख ! 'कि भद्र इति विश्रुतः । श्रेष्ठी तत्रास्ति ? तस्यापि नन्दानाम्नी च नन्दना ? ॥१७॥ अस्त्येव सम्पगित्युको शेम भूयोऽपि भूपतिः । ॐ नन्दोदरिण्यासीत् किमपत्यमजायत ? ।। १७१॥ अथाऽऽख्यत्कान्तदन्तांशुश्रेणिः श्रेणिकसूरिदम् । देवाभयकुमाराख्यं सा नन्दनमजीजनत् ॥ १७२ ॥ | किंरूपः किंगुणः सोऽस्तीत्युक्तेि सति भूभुजा । ऊचेऽभयः स एवाह स्वामिन्नस्मीति चिन्त्यताम् ॥ १७३ ॥ परिष्वज्यांकमारोप्य तमाघ्राय च मूर्धनि । लेहात्स्नपयितुमिव राजाऽसिञ्चद्गंभसा ॥ १७४ ।। कुशलं वत्स! ते मातुरिति पृष्टे महीभुजा । इति विज्ञपयामास बद्धाञ्जलिपुटोऽभयः ॥ १७ ॥ अनुस्मरन्ती गीव त्वत्पादाम्भोजसंगमम् । स्वामिनायुष्मती मेऽम्या पात्योद्यानेऽस्ति संप्रति ॥१७६ ।। नतो नन्दां समानेतुममन्दानन्दकन्दलः । न्ययुंक्त सर्वसामग्रीमग्रेकृत्वा नृपोऽभयम् ।। १७७ ।। ततः स्वयमपि प्राज्योत्कंठोल्लिखितमानसः । नन्दामभिययौ राजा राजहंस इवाब्जिनीम् ॥ १७८ ॥ शिथिलीभूतवलयां कपोलतुलितालकाम् । अनञ्जनाक्षी कयरीधारिणी मलिनांशुकाम् ॥ १७ ॥ तनोस्तनिम्ना वधती द्वितीयेन्दुकलातुलाम् । ददर्श राजा सानन्दो नन्दामुद्यानवासिनीम् ॥ १८० ॥ १ सुम1॥ २ को LI
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नन्दामानन्य नृपतिर्नीत्वा च स्वं निकेतनम् । पट्टराज्ञीपदेऽकार्षीत् सीतामिव रघूद्वहः ॥ १८१॥ ततः स्वसुः सुसेनायाः पुत्री मंत्रिषु धुर्यताम् । राज्यस्यार्धं चाभयाय नृपतिः श्रेणिको ददौ ॥ १८२ ।। भक्तितः पितरि स्वस्य पदातिपरमाणुताम् । मन्वानः साधयामास दुःसाध्यान भूभुजोऽभयः ।। १८३ ॥ इतश्च वसुधावध्वा मौलिमाणिक्यसन्निभा । वैशालीति श्रीविशाला नगर्यस्त्यगरीयसी ॥ १८४ ।। आखण्डल इवाखण्डशासनः पृथिवीपतिः। चेटीकृतारिभूपालस्तत्र चेटक इत्यभूत ॥ १८५ ॥ पृथग्राज्ञीभवास्तस्य बभूवुः सप्त कन्यकाः । सप्तानामपि तद्राज्यांगानां सप्तेष देवताः ॥१८६ ।। प्रभावती पद्मावती मृगावती शिवाऽपि च । ज्येष्ठा तथैव सुज्येष्ठा चेल्लणा चेतिताः फ्रमात् ॥ १८७ ॥ घटकस्तु श्रावकोऽन्यविवाहनियमं वहन् । ददौ कन्या न कस्मैचिवुदासीन इव स्थितः ॥ १८८ ॥ तन्मातर उदासीनमपि ह्यापच्छ्या चेटकम् । वराणामनुरूपाणां प्रददुः पंच कन्यकाः ॥ १८९॥ प्रभावती वीतभयेश्वरोदायनभूपतेः । पद्मावती तु चम्पेशदधिवाहनभूभुजः॥ १९० ॥ कौशाम्बीशशतानीकनृपस्य तु मृगावती । शिया तूज्जयिनीशस्य प्रद्योतथिवीपतेः ॥ १९१ ॥ कुण्डग्रामाधिनाथस्य नन्दिवर्धनभूभुजः। श्रीवीरनाथज्येष्ठस्य ज्येष्ठा दत्ता यथारुचि ॥ १९२॥ सुज्येष्ठा चेल्लणा चापि कुमायोवेव तस्थतुः । रूपश्रियोपमाभूते ते द्वे एष परस्परम् ॥ १९३ ।। ते दिव्याकारधारिण्यौ दिव्यवस्रविभूषणः । अवियुक्त सदाऽभूतां तारे इव पुनर्वसू ॥ १९४ ।।
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कलाकलापकुशले श्रुताधोपनिषद्विदौ । मूर्ती इव सरस्वत्या रेमाने ते परस्परम् ॥ १९५ ॥ सममानर्चतुवं धर्म शुश्रुषतुः समम् । चक्रतुः सम्मन्यच से द्वे एकात्मिके इव ।। १९६ ॥ अपरेधुश्च सुज्येष्ठाचेल्लणाभ्यामलंकृतम् । कन्यान्तःपुरमभ्यागादेका स्थविरतापसी ॥ १९७ ॥ सा च व्याख्यच्छौचमूलं धर्म पापविनाशकम् । उत्फुल्लगल्लमज्ञान पर्षदीप तयोः पुरः॥ १८ ॥ सुज्येष्ठावोचदाः शौचमशुभाश्रवरूपकम् । अशुभश्चाश्रवः पापहेतुः पापच्छिदे कथम् ॥ ११९॥ सुज्येष्ठवं गुणज्येष्ठा तस्या धर्म निराकरोत् । श्रुतकूपनिपानाभैर्वचोभियुक्तिवर्मितैः ॥ २० ॥ ततो निरुत्तरीभूतां तो मुद्रितमुखामिव । शुद्धान्तदास्यो जहमुर्मुखमर्कटिकादिभिः ॥ २०१ ॥ स्वस्वामिनीजयोन्मत्तानामन्तःपुरचेटिकाः । उत्तालतुमुलाः कण्ठे गृहीत्वा निरवासयन् ॥ २०२ ॥ उपादातुं गता दातुं प्रतीतवाथ तापसी। पूजार्थिन्यागता सैवं प्रत्युताऽनर्थमासदत् ॥ २०३ ॥ यान्ती च तापसी दध्याविमा वैदग्ध्यगर्विताम् । भूयसीषु सपत्नीषु दुःस्वपात्रीकरोम्यहम् ॥ २०४ ॥ सुज्येष्ठारूपमथ सा पिण्डस्थध्यानलीलया। कृत्वा मनस्यालिलेख पटेऽखिलकलापटुः ॥ २० ॥ लिखितं तच्च नद्रूपं त्वरिता क्रूरतापसी | गत्वा राजगृहे राज्ञेऽदर्शयच्छेणिकाय सा ॥ २०६॥ मां दृष्ट्वा लिखितां नेत्रमृगैकमृगजालिफाम् । राजा राजगृहाऽधीशः सानुरागमवर्णयत् ॥ २०७ ॥
KARISROCROCHAMATKAR
HIKA
॥१७२०
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यान्त्यस्याः केशदासत्वं ते कलापाः कलापिनाम् । मनोज्ञनयनं वक्त्रं निलीनालीब पंकजम् ॥ २०८ ॥ पत्रावलम्बनं कम्बोः कुरुते कण्ठकन्दलः । क्रीडत्कोकं सर इव वक्षो वक्षोजभूषितम् ॥ २०९ ॥ नितम्बः स्मरधानुष्कयोग्या भूरिव विस्तृतः । आलानविभ्रमहरावूरू च क्रमवर्तुलौ ॥ २१० ॥ बिसकाण्डविडम्बिन्यौ जंघे सरलकोमले । पादौ च ऋजुजंघाका बुन्नालन लिनोपभौ ॥ २११ ॥ अहो सौन्दर्यमद्वैतमहो लावण्यमुज्ज्वलम् । अहो अपरमप्यस्याः सर्वं रम्यं मृगीदृशः ॥ २१२ ॥ अपृच्छन महाभागे ! किमियं स्त्रीमतालिका । अलेखि स्वप्रतिभया रूपदर्शनतोऽथवा ? ॥ २१३ ॥ तापस्यूषे यथाशक्ति दृष्टं रूपमलेख्यदः । यातु वर्तते राजंस्तादृक् स्यादर्पणे यदि ॥ २९४ ॥ चित्रस्थामपि तां राजा प्रपश्यन् प्रेममोहितः । आलिलिंगिषुरिवानूच्चुचुम्बिषुरिवाथवा ॥ २१५ ॥ ऊत्रे च मुक्तावलिवशे कस्मिन्नभूदियम् ? । दिवं मृगांकलेखेव कां चालंकुरुते पुरीम् ? ॥ २१६ ॥ धन्यस्य कस्य वा पुत्री लक्ष्मीः क्षीरोदधेरिव । । यान्त्यस्याः कानि वा पुण्यान्यक्षराण्यभिधानताम् ? २१७ सरस्वत्याऽनुजगृहे कलयेयं कया कया । अस्याः पुंस्पाणिना पाणिश्चुम्बितो यदि वा न वा १ ॥ २१८ ।। तापसी कथयामास वैशाख्यधिपतेः सुता । हैहयान्त्रयजातस्य चेटकस्य कुमार्यसौ ॥ २१९ ॥ निधिः कलानां सर्वासां सुज्येष्ठा नामश्रेयतः । गुणरूपानुरूपेण तत्तामुद्वोदुमर्हसि ॥ २२० ॥ त्वयि सत्यपि चेदस्याः पतिरन्यो भविष्यति । तृतीयपुरुषार्थेन तर्हि त्वमसि वंचितः ।। २२१ ॥
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॥ १७३ ॥
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पष्टः सर्ग:
विसृज्य तापसी तस्थौ कथंचिदथ पार्थिवः । पक्षी विधाय वैशाल्यां यियासुरिव तां स्मरन् ।। २२२॥ मुज्येष्ठाप्रार्थने दत्त्वा शिक्षा राजगृहेश्वरः । अन्येयुः प्रेषयामास दूतं चेटकभूपतेः ॥ २२३ ।। दतोऽपि सद्यो वैशाल्यां गत्वा नत्वा च चटकम् । उवाच वाचिकपटुर्न यच्चटु न वा कटु ॥ २२४ ॥ सुज्येष्ठां याचते त्वत्तो मत्स्वामी मगधाधिपः । न कन्यामार्धनं जातु लज्जायै महतामपि ॥ २२५ ।। चेटकोऽब्रवीदेवमनात्मज्ञस्तव प्रभुः। वाहीककुलजो वाञ्छन् कन्यां हैहयवंशजाम् ॥ २० ॥ समानकुलयोरेव विवाहो हन्त नान्ययोः । तत्कन्यां न हि दास्यामि श्रेणिकाय प्रयाहि भोः ॥ २२७ ॥ दूतेन चागत्य नयाऽऽख्याने श्रेणिभूपतिः । दमासादयामास जिनो भट इवारिभिः ॥ २२८ ॥ अभयोऽपि हि नम्रस्थः पितृपादाजषट्पदः । उवाच तान ! मा शोचीः करिष्ये वः समीहितम् ।। २२० । कलाकलापपाथोविकुभजन्माऽभयोऽपि हि । गृहे गत्वाऽलिखद्रूपं फलके मगधेशितुः ।। २३० ॥ ततो गुटिकया वर्णस्वरभेदं विधाय सः । वणिग्वेशं गृहीत्वा च वैशाली नगरी ययौ ॥ २३१ ॥ उपचेटकराजान्तःपुरं पाऽऽपणमग्रहीत् । तत्रान्तःपुरचेटीनां फ्रेतव्यमधिकं ददौ ॥ २३२ ॥ अभयश्चार्चयन्नित्यं श्रेणिकं लिखितं पटे । दासीपृष्टश्चाऽऽस्यदयं देवो मे श्रेणिको नृपः ॥२६॥ दास्यश्च कथयामासुः सुज्येष्ठायै सविस्मयाः । रूपं तादृग्यथा दृष्टं श्रेणिकस्यातिदैवतम् ॥ २३४ ॥ मुज्येष्ठाऽथ सखीमायां ज्येष्ठदासी समादिशत् । द्रुतमानय तद्रूपं महत्कौतुहलं मम ।। २३५ ।।
॥१७४।
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अभयादुपरोधेन तदुपादाय दास्यपि । स्वामिन्यै दर्शयामास रूपं श्रेणिक भूपतेः ॥ २३३ ॥
रूपमत्यन्तसुभगं सुज्येष्ठा तु विलोक्य तत् । निष्पन्दनेत्र नलिना योगिनीय लयं ययौ ॥ २३७ ॥ जगाद क्षणं स्थित्वा गत्वा रहसि सत्वरम् । गूढाभिप्रायसर्वस्वनिधानवसुधां सखीम् ॥ २३८ ॥ यस्येदं फलके रूपं श्रीमतीच्छामि तं पतिम् । तदेनं संघटयितुं विधिभारकोऽस्तु कः || २३९ ।।
मे पनि स्यात्तदानीं हृदयं मम । पचेलिममित्र * बरु द्विधा भावि न संशयः ॥ २४० ॥ त! क इहोपा उपाय यदि वाऽस्त्ययम् । शरणं वणिगेवैष य एनद्रूपमचंनि ॥ २४९ ॥ तं प्रसादय सत्कार्यधुर्ये । नद्वाचिकं च मे । तृर्णमागत्य कथयेः स्वस्ति तुभ्यं यशस्विनि ! || २४२ ॥ गत्वा दास्या तयाऽत्यन्तमभयोऽभ्यर्थितोऽवदत् । पूरयिष्यामि न चिरात्वत्स्वामिन्या मनोरथम् ॥ २४३ ॥ सुरंगां खानयिष्यामि तमानेष्ये सुरंगया। तत्कालमेवाधिष्ठेयस्त्वत्स्वामिन्याऽपि तद्रथः ॥ २४४ ॥ त्वत्स्वामिनी च तत्कालं दृष्ट्वा श्रेणिकमागतम् । आलेख्यष्टतद्रूपसंवादान्मुदमेष्यति ॥ २४५ ॥ स्थानेऽमुष्मन् दिनेमुष्मिन् क्षणेऽमुष्मिन् सुरंगया। राजेष्यतीति संकेतं तन्मुखेनाभयो ददौ ॥ २४६ ॥ दासी नस्यै तदाख्यायाऽऽगस्य चाभयमब्रवीत् । प्रमाणं त्वद्वच इति पुनश्चान्तःपुरं ययौ ॥ २४७ ॥ अभयोsपि हि संकेत कथा ख्यापनपूर्वकम् । पितृप्रयोजनप्रह्न आहृत् पितरमाश्वपि ॥ २४८ ॥ दिपेचीगडुं इति गुर्जर भाषायाम् ।
षष्ठः सर्ग:
।। १७२ ।
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सुज्येष्ठा तत्प्रभृत्येव स्मरन्ती श्रेणिकं नृपम् । प्रभूतां प्रापदरति रतिनाथवशंषदा ॥ २४९॥ अन्यदा त्वहि निर्णीते श्रेणिकः सुलसासुतैः । द्वात्रिंशता सार्धमागात् सुरंगाद्वारसीमनि ॥ २५० ॥ रथस्थैः सुलसापुत्रैरन्वितोऽथ रथस्थितः । चक्रीव वैताट्यगुहां सुरंगां श्रेणिकोऽविशत् ॥ २५१ ॥ सुरंगानिर्गतं प्रेक्ष्य सुज्येष्ठा मगधेश्वरम् । चित्रदृष्टानुसाराचोपलक्ष्य मुमुदतराम् ।। २५२॥ साऽऽख्याय सर्व वृत्तान्तमापप्रच्छे च चेल्लणाम् । प्रत्यज्ञासीञ्चल्लणापि स्थास्यामि त्वहते न हि ॥ २०३॥ |" रथमारोपयदथ सुज्येष्ठावी हि घेणाम् । इन जगात सामान्तुं द्रुतं रत्नकरंडि काम ।। २५४ ।। ऊचुश्च मुलसापुत्रास्तदा श्रेणिकपार्थिवम् । स्वाभिन्न युज्यते स्थातुं सुचिरं वैरिवेश्मनि ॥ २५५ ॥ आदाय चेल्लणां राजा प्रेरितः मुलसासुतैः । सुरंगग्यैव व्याघुट्य यथाऽऽयातस्तथा गतः ।। २५६ ।। सुज्येष्ठाऽऽगादुपाक्षाय यावद्रत्नकरंडिकाम् । नापश्यच्छ्रेणिकं तावदभ्रान्तर्भूतचन्द्रवत् ॥ २५७ ॥ तदा चापूर्णकामत्वाद्भगिनीहरणादपि । ज्येष्ठाऽरटन्मुषिताऽस्मि हियते हन्त चिल्लणा ॥ २८ ॥ प्राक् चेटकं संनयन्तं रथी वीरंगकस्तदा । उवाच कोऽयमाक्षेपो मयि सत्यपि नाथ! ते ॥ २५९ ॥ ततो वीरंगकः सज्जीभ्य युद्धाय दुर्धरः । सुरंगाद्वारमभ्यागात् कन्याप्रत्याजिहीर्षया ॥ २६ ॥ सुरंगया गच्छतश्च ततश्च सुलसासुतान् । वीरंगको महाबाहुरकैनवेषुणाऽवधीत् ॥ २६१ ।। संकीर्णत्वात् सुरंगायाः स रथी तद्रथानथ । यावदाकप्रयत्तावद्द रेऽगान्मगधाधिपः ।। २६२॥
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ततोऽर्धजरतीयेन कृताकृतसमाहितः । वीरंगकस्तदखिलं चेटकाय व्यजिज्ञपत् ॥ २६३ ॥ दहितहरणात्तेषां रविकानां वधादपि । चेटको पूमरदोषतागाधान्यपूर्ण सृज्येष्ठाऽचिन्तयदहो धिग्धिग्विषयगृध्नुता । सुखकांक्षिभिरीरक्षा यदाप्यन्ने विडम्बनाः ॥ २६५ ॥ इत्थं विरक्ता सुज्येष्ठा स्वयमापृच्छ्य चेटकम् । समीपे चन्दनार्यायाः परिव्रज्यामुपाददे ॥२६६ ।। श्रेणिकोऽपि हि सुज्येष्ठे सुज्येष्ठ इति चिल्लणाम् । अभ्यालपदजानानश्चेल्लणां तत्र तस्थुषीम् ॥ २६७ ॥ खेल्लणाऽकथयत्तस्मै सुज्येष्ठा न समागता । सुज्येष्ठायाः कनिष्ठाऽहं चेल्लणेत्यभिधा मम ।। २६८ ॥ अणिको व्याजहारेवं नायासोऽभून्मुधा मम । सुनु! त्वमपि सुज्येष्ठा तस्या न खस्लु हीयसे ।। २६९ ॥ चेल्लणा पतिलाभेन भगिनीवश्चनेन च । निकामं हर्षशोकाभ्यां समकालमलिप्यत ॥ २७० ॥ श्रेणिकः पवनेनेव रथेनासारंहसा । शीघ्रमाप स्वनगरं पश्चात्तस्याभयोऽपि हि ॥२१॥ गान्धर्वेण विवाहेन परिणीयाथ चेल्लणाम् । राजा नागसुलसयोर्गत्वाऽऽख्यत्तत्सुतान्मृतान् ।। २७२ ।। तो दंपती नृपाच्छ्रुत्वा सुतोदन्तममंगलम् । मुक्तकंठं रुरुदतुर्विलापं चेति चक्रतुः ॥ २७३ ।। रे कृतान्त ! कृतान्तोऽसि पुत्राणां युगपत्कथम् । किमेकशृंखलत्वेन तवाऽभूवन कदाप्यमी ॥ २७४ ।। पक्षिणामप्यपत्यानि भूयास्यपि भवन्ति हि । फ्रमेण तु विपद्यन्ते न ह्येवं युगपत्क्वचित् ॥२७५ ।।
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स्नेहादेकतया किं नु मृताः स्थ युगपत्सुताः । ज्ञातौ किमावां निःस्नेही वश्चितौ सह मृत्युना ॥ २७६ ॥ इति तारं ममन्तौ लावाना इस लक्षाविद । अमयो बोधयामास श्रेणिकेन सहागतः ॥ २०७॥ जन्मिनां प्रकृतिर्मुत्युर्विकृति वितं पुनः । ततः स्वभावसिद्धेऽर्थे को विषादो विवेकिनौ ! ॥२८॥ अभयेनेति दंपत्योस्तयोाधिनयोः सतोः । कृत्वा संभाषनुचितं अणिकः सदनं ययौ ॥ २७१ ।। ततश्च चेल्लणादेव्या सम मगधभूपतिः । निर्विघ्नं बुभुजे भोगान् पौलोम्येव पुरंदरः ॥ २८० ।। अनिवाह्य व्यन्तरायुसष्ट्रिकाक्षपकोऽपि हि । पुत्रत्वेन चेल्लणायाः कुक्षाववततार सः ॥ २८१ ।। नस्य गर्भस्य दोषेण पतिमांसादनेऽभवत् । दुर्दोहदश्चल्लणाया राक्षस्या अपि यो न हि ॥ २८२ ॥ पतिभक्ता घेल्लणा तं नाऽऽख्यत्कस्यापि दोहदम् । अपूर्णवोहदत्वाच क्षीयते स्म दिवेन्दुवत् ॥ २८३ ॥ स गर्भश्वेल्लणादेव्या दुर्दोहदविरक्तया । पापमप्युररीकृत्य पात्यमानोऽपि नापतत् ॥ २८४ ।। शुष्यदंगी च तां दृष्ट्वा वल्लीमसलिलामिव । पप्रच्छ कारणं राजा प्रेमवन्धुरया गिरा ॥ २८५ ॥ मया क्रिमभिभूताऽसि ? खंडिताऽऽज्ञासि था कधित् । दुःस्वमहश्वरी वासि ? भग्नकामासि वा ? प्रिये ! २८६ एवं राज्ञा सोपरोधं पृच्छयमाना कश्चन । नत्ताहगाख्यदापीतविषेष स्खलदक्षरम् ।। २८७ ।। दोहवं पूरयिष्यामीत्याश्वास्य नृपतिः प्रियाम् । कथं पूर्णे दोहदोऽयमित्यादिक्षदथाभयम् ॥ २८८ ॥
**AMXXXKACADER
॥
७८॥
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अभयोऽपि श्रेणिकस्योदरे शशकजंगलम् । तच्चर्माच्छादितं चफ्रेऽथोत्तानं तमशाययत् ॥ २८९ ॥ अणिकस्यानुज्ञया च ततो रहसि चेल्लणा । जघास मांसमव्यग्रा रक्षसामिव देवता ।। २२० ।। नस्यां च मांसं खादन्त्यामेथमेव महीपतिः । अधीनी नटविद्यायामिवामूच्र्छन्मुहुर्मुहुः ॥ २९१ ॥ चिन्तयन्त्यां पति तस्याश्चकंपे हृदयं क्षणात् । गर्भ पुनश्चिन्तयन्त्याः क्षणादुल्लसति स्म च ॥ २९२ ॥ एवं बुद्धिप्रयोगेण घेल्लणा पूर्णदोहदा । आः पतिघ्न्यस्मि पापाहमिति मोहमुपाययौ ॥ २९३ ॥ राजापि राश्य तत्कालं स्वमक्षतमदर्शयत् । तद्दर्शनादहृष्यच्च पशिनीवार्कदर्शनात् ॥ २९४ ॥ गतेषु मासेषु नवस्वथ चेटकनन्दना । नन्दनं सा प्रसुषुवे मलयो/व चन्दनम् ॥ २९५ ॥ आदिदेशाथ सा दासी पितुर्वैर्यप दारकः । तत्क्यापि त्यजतां दूरे पापः पन्नगपोतवत् ।। २९६ ॥ दास्याऽशोकवनं गत्वा परित्यक्तः स भुयभात । उपपादपदोत्पन्नगीवोंण इव भासुरः॥ २९॥ तत्र तं बालकं त्यक्त्वा दास्यायान्ती महीभुजा । अप्रच्छिक गताऽसीति तागेव च साऽब्रवीत् ॥२९८॥ अशोकवनिकां गत्या राजाऽप्यालोक्य तं सुतम् । द्वाभ्यां जग्राह पाणिभ्यां प्रीतः स्वामिप्रसादयत् २९९ आगत्य चेल्लणां चोचे कुलोत्पन्ने ! विवेकिनि ! किमकारिकमैदमकृत्यं श्वपचैरपि ॥ ३०॥ अपि दुश्वारिणी या स्यादधर्मज्ञातिकर्कशा । पुत्रं *कुंड गोलकं वा साऽपि न येवमुज्झति ॥ ३०१ ॥ दि. मांस | * कुंडो नाम पत्थी मृते मति यः बारेण जायते । * गोलको नाम पल्यौ जीवति यः जारेण जायत ।
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चेल्लणा स्माह ते नाथ! पुत्ररूपेण वैर्यसौ । यस्मिन् गर्भस्थिोऽप्यासीहोहदो नरकावहः ॥ ३०॥ जातोऽप्यत्याजि तेनाय कुलजानां हि योषिताम् । पत्युः क्षेमाकांक्षिणीनां किं पुत्रेणापरेण वा ।। ३०३॥ || श्रेणिकोऽथान्वशाद्राज्ञी ज्येष्ठं त्यक्ष्यसि चेत्सुतम् । तदा तवान्ये पुत्राः स्युन स्थिरा बुबुदा इथ ।।३०४।। एवं पत्युर्निदेशेनानिच्छन्त्यपि हि चेल्लणा । स्तन्यदानादहिमिव तं यालकमपालयत् ॥ ३०५ ।। कान्त्या चन्द्र इवाऽशोकवनिकायामदर्यसौ । अशोकचन्द्र इत्याख्यामिति तस्याऽकरोनृपः ॥ ३०६ ॥ तदा वनान्तस्त्यक्तस्यांगुलिस्तस्य कनिष्ठिका । अकाणि कुक्कुटीपिच्छेनाशोकदलकोमला ॥ ३०७॥ तदा रुदतस्तस्यांगुली पूतिमतीमपि । स्नेहान्मुखेऽक्षिपद्राजा स व्यरंसीच्च रोदनात् ॥ ३०८ ।। रूढवणाऽपि सा तस्य कूणिताभयदंगुलिः । ततः सपांशुरमणैः सोऽभ्यधीयत कूणिकः ॥ ३०९ । क्रमेण चेल्लणादेव्या हृदयाम्भोजभास्करी । सुती हल्लविहलाख्यावभूतामपरावपि ॥ ३१ ॥ ते त्रयश्वेलणापुत्रा नित्यं राज्ञोऽनु चरतुः । प्रभुत्वमंत्रोत्साहानां प्रत्यक्षा इव मूर्तयः ॥ ३११ ॥ पितृद्विष कूणिकायाऽम्या पैषीद्गुडमोदकान् । मत्स्यण्डीमोदकान् हल्लविहल्लाभ्यां पुनः सदा ॥ ३१२ ॥ श्रेणिकः कारयत्येषमिति प्राकर्मदृषितः । कूणिको विमृशन्नित्यं प्रपेदे मध्यम वयः ॥ ३१३ ॥ श्रेणिकोऽपि स्नेहलात्मा महेन महताऽन्यदा । पद्मावतीं राजपुत्री कूणिकेनोदवायत् ॥ ३१४ ॥ १ नुगा वभुः M.॥
॥१८॥
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श्रेणिकादय धारिण्या सिन्धुरस्वमसूचितः । गर्भोऽभूज्जनयन्मेघवृष्टौ भ्रमणदोहदम् ॥ ३१५ ॥ राजाऽऽदेशात्सोऽभयेनापूर्यताऽऽराध्य देवताम् । ततो मेधकुमार इत्याख्ययाऽस्त सा सुतम् ॥ ३१६ ॥ इतश्चैकः पुरा विप्रः प्रारेमे यष्टुमध्वरम् । तत्र दासं न्ययुंक्तक दासोऽप्येवं तमब्रवीत् ॥ ३१७ ॥ ददासि यदि मे शेषं तदा स्थास्यामि नान्यथा। विप्रोऽपि तत्पपेदेऽथ दासोऽस्थायज्ञबाटके ॥ ३१८ ॥ शेष लब्य स यासोऽपि साधुन्या पदयौ सदा तत्प्रभावण देवायुर्थद्ध्वा मृत्वा दिवं ययौ ॥ ३१९ ॥ दासजीवो दियश्च्युत्वा श्रेणिकस्य सुतोऽभवत् । नन्दिषेणः स विप्रस्तु षभ्रामानेकयोनिषु ॥ ३२० ॥ इनश्चैकस्मिन्नरण्ये हस्तियूथे महीयसि । एकोऽभूयूथपः स्याम्ना दिग्यारणकुमारवत् ॥ ३२१ ॥ मैष भूचीवनेऽमुष्य वशायूथस्य कामुकः । इति बुद्ध्या स कलभं जातं जातममारयत् ॥ ३२२॥ तयूथगाया एकस्याः करिया उदरेऽन्यदा । स विप्रजीवोऽवातारीद् गुर्विणी साऽप्यचिन्तयत् ॥ ३२३ ॥ पापेनानेन मे पुत्रा बहवोऽपि विनाशिताः । पुत्रं केनाप्युपायेन रक्षिष्याम्यधुना पुनः ॥ ३२४ ॥ इति निश्चित्य सा वातभनपादेव हस्तिनी । बभूव मायया कुण्टा मन्दं मन्द चचार च ॥ ३२५॥ माऽन्ययूथपतेर्भाग्या भवत्वषेति तां वशाम् । स्तोकं स्तोकं ब्रजन यूथनाथस्तां प्रत्यपालयत् ॥ ३२६ ॥ साजीव मन्दगा भूत्वा हस्तिनी तस्य हस्तिनः । अर्धयामेन यामेनामिलदहा दूधहेन वा ।। ३२७ ।। अशक्तैव वराकीयं मिलत्येव चिरादपि । इति हस्ती विशश्वास मारिभिः को न वाच्यते ॥ ३२८ ॥
E१८१
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UNNYM
पष्ठः
सर्गः
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साऽन्यदा दूरगे तस्मिन् यूथनाये मतंगी । तृणपूलं मूर्ध्नि कृत्वा प्रययौ तापसाश्रमम् ॥ ३२९ ॥ पादपु निपतन्ती सा मस्तके न्यस्तपूलका । अज्ञायि तापसरेषा वराकी शरणार्थिनी ॥ ३३० ॥ विश्वस्ता भव वत्से ! त्वमिति तैरुदिते सति । तत्राश्रमे सुखं साऽस्थात् पितृधाम्नीव कन्यका ॥ ३३१ ।। अन्यदा जातपुत्रा सा पुत्रं तत्राश्रमेऽमुचत् । स्वयं त्वरण्ये यूथान्तर्विचचार तथैव हि ।। ३३२ ॥ सा स्तन्यं कलभायादादागत्यागत्य चान्तरा । शनैश्चाश्रमशाखीय ववृधे कलमोऽपि सः ॥ ३३३ ॥ पक्कनीवारकवलैः शल्लकीकवलैरपि । प्रेम्णा निजं पोतमिव तापसास्तमपोषयन् ॥ ३३४॥ अंके पर्यस्तिकां मूर्ध्नि जटामुकुटमुत्कटम् । स करेण व्यरचयत् पाच क्रीडस्तपस्विनाम् ॥ ३३९ ।। कलशैः सिषिचुर्वृक्षांस्तापसास्तानिरीक्ष्य च । सिषेच सोऽपि पयसाऽऽपूर्यापूर्य निजं करम् ॥ ३३६ ॥ एवं चाश्रमजान वृक्षान् सिञ्चतः प्रतिवासरम् । चक्रुः सेवनक इति नाम सस्य तपस्विनः ॥ ३३७ ॥ करसक्तोन्नतदन्तो मधुपिंगललोचनः । भूमिस्टपुष्करकरः पूर्वासनसमुन्नतः ॥ ३३८ ॥ उच्चैःकुंभो लघुग्रीवः क्रमावनतवेणुकः । शुंडेषदूनलांगूलो विंशत्या शोभिनो नखैः ॥ ३३१ ॥ अपराग्देशयोर्नीचैरुच्चकैर्गावदेशयोः। स सर्वलक्षणैर्व्यक्तः क्रमान्मदमुखोऽभवत् ३४० (त्रिभिर्विशेषकम् ) तेनान्यदा पयः पातुं नदीतीरे प्रसर्पता । स पिता यूथपो दृष्टः कृत्वा युद्धममार्यत ॥ ३४१ ॥ १ अपरादे CD. L. || २ युक्तः 11. ।
॥१८॥
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स्वयं यूधपतिर्जज्ञे चिन्तयामास चेतसि । अमुषिमन्नाश्रमे मात्रा मना यस्मि रक्षितः॥ ३४२ ॥ रक्षितेन मयाऽकारि यत्पितुस्तन्ममापि हि । मा कार्षीदाश्रमेऽमुष्मिजातत्रातोऽपरो गजः ॥ ३४३ ।। इति संचिन्त्य निःशेषं भक्त्वा तं तापसाश्रमम् । अकृताऽलक्ष्यसंस्थान स भद्याध इव स्थलम् ।। ३४४ ॥ दास्यते नाश्रमे सौख्यं दुरात्मेति तपस्विनः । तं गजं श्रेणिकायाऽऽख्यन राजाहं सर्वलक्षणैः ॥ ३४५ ।। श्रेणिकोऽपि हृतं गत्वा तं बद्ध्वा करिकुञ्जरम् । समानयत् कौतुकिनः सेनांगेपु हि भूभुजः ॥ ३४६ ॥ प्रसत्यासाह्यस्थामाऽपि संभेऽबध्यत स द्विपः । किमसाध्यं मनुष्याणामभेगमिव पाथसाम् ॥ ३४७ ।। निस्पन्दकरलांगूलकर्णतालः क्रुधा च सः । तस्थावालिखित इव त्रिपदीवर्जितोऽपि सन् ॥ ३४८ ॥ दिष्ट्याऽभूदाश्रमक्षेममिति ते प्रीतचेतसः । तापसा एत्य तं नागमालानितमतर्जयन् ॥ ३४९ ।। लालितः पालितोऽस्माभिः पोषितो वर्धितोऽसि छ । स्वस्थानघातको रे स्वमाश्रयाश इवाभवः ॥ ३५०॥ | अस्मत्कवलदुर्मत्तेनाऽऽश्रमोऽभञ्जि यत्त्वया । तत्कर्मणः फलमिदं प्राप्तोऽस्यालानसौहृदम् ।। ३५१ ।। गजोऽपि चिन्तयामास नूनमेभिस्तपस्विभिः । उपायरचनां कृत्वा प्रापितोऽहमिमां दशाम् ॥ ३५२ ॥ अभांक्षीन्मक्षु स क्रुद्धः स्तंभं कदलीकाण्डवत् । अत्रोटयच्च टिति यन्धनं पिसतन्तुवत् ॥ ३५३ ॥ १ दलि C.D.LI
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सोऽभ्यरण्यं दधावयाऽऽध्मातताम्रारुणाननः । विक्षिपन्नतिरेण तापसान्वमथूनिव* ॥ ३५४ ॥ श्रेणिकोऽपि तमानेतुं हयारूद्वैः सुतैरगात् । मृगयाप्राप्तमृगवत् परिवेष्टयति स्म च ॥ ३५५ ॥ प्रलोभना तर्जन का सादिनां स भर्तमजः । बलवद्वयन्तरग्रस्त इव मेने न किंचन ॥ ३५६ ॥ नन्दिषेणस्य तु वचो निशम्य तमुदीक्ष्य च । स शान्तोऽभूदवधिना जानन् प्राग्जन्म तत्तथा ॥ ३५७ ।। नन्दिषेणोऽपि सपदि कक्षामालम्ब्य तं गजम् । अपरायां दत्तपादोऽध्यारोहन्मुष्टिभित्रिभिः ॥ ३५८ ॥ नन्दिषेणस्य वचसा दन्तघातादिकाः क्रियाः । स कुर्वन् शिक्षित इवाऽऽलानगोचरतां ययौ ॥ ३५९॥ पढें विश्राणयामास श्रेणिकस्तस्य हस्तिनः। प्रसादपानीचक्रे च युवराजमिवाथ तम् ।। ३६० ॥ अपरेऽपि हि कालाद्याः पुत्राः प्रथितविक्रमाः। अभूवन कुलपत्नीषु श्रेणिकस्य महीपतेः ॥ ३६१ ॥ इतश्च विहरन भव्यावयोधाय अगद्गुरुः । सुरासुरपरीवारो ययौ राजगृहं पुरम् ॥ ३६२ ॥ तस्मिन् गुणशिले चैत्ये चैत्यवृक्षोपशोभितम् । सुरप्रकलप्तं समवसरणं शिश्रिये प्रभुः ।। ३६३ ।। श्रुत्वा च समत्रसृतं श्रीवीरं श्रेणिको नृपः । ऋदया महत्या ससुतो वन्दितुं समुपाययो॥ ३६४ ॥ प्रभु प्रदक्षिणीकृत्य नत्वा च श्रेणिको नृपः । निषद्य च यथास्थानमिति तुष्टाव भक्तिमान् ॥ ३६५ ॥ १. सान्मधुपानि' M. रि. *वमथः करसीकरः (शुण्डानिर्गतबिन्दुः)
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जगज्जैत्रा गुणास्त्रातरन्ये तावत्तवासताम् । उदात्तशान्तया जिग्ये मुद्रयैव जगत्त्रयी ॥ ३६६ ॥ एवं मेरुस्तृणतां नीतोऽधिगोष्पदीकृतः । गरिष्ठेभ्यो गरिष्ठो यैः पाप्मभिस्त्वमपोहितः ॥ ३३७ ॥ च्युतश्चिन्तामणिः पाणेस्तेषां लब्धा सुधा सुधा । यैस्ते शासनसर्वस्वमज्ञानैर्नात्मसात्कृतम् ॥ ३६८ ॥ त्वय्यपि दधौ दृष्टिमुल्मुकाकारधारिणीम् । तमाशुशुक्षणिः साक्षादालप्याऽलमिदं हि वा ॥ ३६९ ॥ स्वच्छासनस्य साम्यं ये मन्यन्ते शासनान्तरैः । विषेण तुल्यं पीयूषं तेषां हन्त हतात्मनाम् ॥ ३७० ॥ rasant भूयासुस्ते येषां त्वयि मत्सरः । शुभोदर्काय वैकल्यमपि पापेषु कर्मसु ॥ ३७१ ॥ तेभ्यो नमोऽञ्जलिर सेषां तान्समुपास्महे । त्वच्छासनामृतरसैयैरात्माऽसिच्यतान्वहम् ॥ ३७२ ॥ भुतस्यै नमो यस्यां तव पावनखांशवः । चिरं चूडामणीयन्ते ब्रूमहे किमतः परम् ॥ ३७३ ॥ जन्मवानस्मि धन्योऽस्मि कृतकृत्योऽस्मि यन्मुहुः । जातोऽस्मि त्वद्गुणग्रामरामणीयकलम्पटः ॥ ३७४ ॥ sarsare far श्रेणिके परमेश्वरः । पीयूषवृष्टिदेशीयां विदधे धर्मदेशनाम् ॥ ३७५ ॥
श्रुत्वा तां देशना भर्तुः सम्यक्त्वं श्रेणिकोऽश्रयत् । श्रावकधर्मं त्वभयकुमाराद्याः प्रपेदिरे ॥ ३७६ ॥ देशनान्ते जगन्नाथं प्रणम्य श्रेणिको नृपः । प्रीतः स्वामिगिरा प्रीतैः सुतैः सह ययौ गृहे ॥ ३७७ ॥ श्रेणिकं धारिणीं चाथ भक्त्या विरचिताञ्जलिः । कुमारो मेघकुमार उदारोक्तिजिज्ञपत् ॥ ३७८ ॥ पालितो लालितचास्मि युवाभ्यां सुचिरं ह्यहम् । श्रमायैव भूवं वां प्रार्थये तु तथाऽप्यदः ॥ ३७९ ॥
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अनन्तदुःखसंभारात्संसाराचक्रितोऽस्म्यहम् । संसारोत्तारक आहेन स्वयमेवात्र तिष्ठति ॥ ३८० ॥ तन्मामवाऽनुमन्येषां प्रव्रजामि यथाऽधुना । संसार भीरुशरण श्री बीर चरणान्तिके ॥ ३८१ ॥ तावप्येवं श्रभाषा व्रतं नेवत्करं खलु । कुमार ! सुकुमारस्त्वं कथमेतच्चरिष्यसि ॥ ३८२ ॥ मेघest भवतः सुकुमारोऽप्यहं व्रतम् । करिष्ये दुष्करमपि तदिदानीं प्रसीदतम् ॥ ३८३ ॥ पित्रोरको मृत्युराच्छिनत्ति सुनादिकम् । स्वामिपादानुसरणात्तन्मृत्युं छलयाम्यहम् ॥ ३८४ ॥ अथ तं श्रेणिकोऽवोचद्भवद्विमोऽसि यद्यपि । तथाप्यादस्व में राज्य निर्वापयशी मम ॥ ३८५ ।। एवमस्त्वित्युक्तवन्तं मेघं राज्ये न्यधान्नृपः । भूयस्ने किं करोमीति हर्षावेशादुवाच च ।। ३८६ ॥ तर्हि तातानीयतां कुत्रिकापणात् । रजोहरणपात्रादि मह्यं दीक्षां जिघृक्षवे ॥ ३८७ ॥ राजापि स्वचचोके विमना अपि । मेघोऽपि स्वामिपादान्ते गत्वा दीक्षामुपाददे || ३८८ ॥ नक्तं मेघकुमारोऽथानुज्येष्ठं न्यस्तसंस्तरे । प्रसुप्तो गच्छदागच्छन्मुनिपाद घट्यत ॥ ३८९ ॥ सो दध्यौ निर्विभवं पादम घट्टयन्त्यमी । सर्वत्र विभवाः पूज्याः प्रातस्त्यक्ष्यामि तद् व्रतम् ॥ ३९० ॥ एवं विचिन्तयन् रात्रिं कथंचन मिनाय सः । त्यक्तुकामो व्रतं प्रातर्जगाम स्वामिसन्निधौ ॥ ३९१ ॥ तद्भाव के लाज्ज्ञात्वा सर्वज्ञोऽभिदधेऽथ तम् । भग्नः संयमभारात् किं स्मरसि प्राग्भवान्न किम् ? || ३९२|| १ च चि" D. D. ॥
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पृष्ठ
सर्ग:
॥ १८३
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इतो भवे तृतीये त्वं हस्ती वैताब्यभुव्यभूः । मेरुप्रभाख्यो दावार्तः पयः पातुं सरस्यगाः॥ ३९३ ॥ तत्पंकमनो निःस्थामा प्रतीभेन इतस्ततः । सप्ताहान्ते मृतो विन्ध्ये गजोऽभूराख्यया तया ॥ ३९४ ।। दृष्ट्वा दवानलं जातिं स्मत्वोन्मूल्य द्रुमादिकम् । नद्यां स्वयूथरक्षार्थमकार्षीः स्थण्डिलत्रयम् ।। ३१५ ।। अन्येशुचलिते दावे धावस्त्वं स्थण्डिलान्यभि । तत्र द्वे स्थण्डिले पूर्णे पूर्वायातैर्मृगादिभिः ॥ ३९६ ॥ ते व्यतीत्य तृतीयेऽयाः स्थण्डिले तत्र च स्थितः । गात्रकण्डूयनकृते चरणं समुदक्षिपः ।। ३९७ ॥ अन्योऽन्यसत्त्वसंमर्दपर्यस्तस्तावकस्य तु । समुत्क्षिप्तस्य तस्यांप्रेरधस्ताच्छशकोऽपतत् ॥ ३९८ ॥ तथास्थं शशकं दृष्ट्वा करुणापूर्णमानसः। उत्क्षिप्तपाद एवास्थास्त्रिपदीभृन्मदादिव ॥ ३१९ ॥ सार्धाद् द्वयहाइवे शान्ते जीवा जग्मुः शशादयः । त्वमपि क्षुत्तृषाऽऽक्रान्तः पानीयाय प्रधावितः ॥४०॥ चिरोद्धरणखिन्नैकांघ्रित्वाच न्यपतः क्षितौ । क्षुत्तृष्णाक्लेशविवशस्थ्यहान्मृत्यु त्वमासदः ॥ ४०१॥ शशानुकंपापुण्येनाधुना राजसुमोऽभवः । लब्धं कथंचिन्मानुष्यमिदं नयसि किं मुधा ? ॥ ४०२॥ अप्येकं शशकं त्रातुं कष्टमस्थास्तथा तदा । माध्यघिघटनात्कष्टात् प्रणष्टोऽस्यधुना कथम् ? ॥ ४०३ ॥ एकजीधाभयदानफलमीहक्षमासदः। सर्वजीवाभयदानं प्रतिपन्नोऽसि साधु तत् ॥ ४०४॥ पालय प्रतिपन्न स्वं भवाम्भोधिं समुत्तर । मानुष्यं दुर्लभं हीदं तत्समुत्तारणक्षमम् ॥ ४५ ॥
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इति स्वामिगरा मेघकुमारोऽभूद् व्रते स्थिरः । चक्रे मिथ्यादुष्कृतं च तेपे च विविधं तपः ॥ ४०६ ॥ पालयित्वा व्रतं सम्यग्मुत्वाऽभूद्विजये सुरः । ततच्छ्रुत्वा विदेहेषूत्पथ मोक्षं स यास्यति ॥ ४०७ ॥ स्वामिदेशनाsन्येयुर्बुद्धी व्रतजिघृक्षया । आपप्रच्छे नन्दिषेणः कथंचिच्छ्रेणिकं नृपम् ॥ ४०८ ॥ सपत्रानुमतोऽचाली व्रतादानाय वेश्मतः । ऊचे देवतया चैत्रमन्तरीक्षतलस्थया ॥ ४०९ ॥ किमुत्सुकासे वत्स । प्रव्रज्याग्रहणं प्रति ? | चारित्रावारकं भोगफलं कर्मास्ति यत्तव ॥ ४१० ॥ किंचित्कालं प्रतीक्षस्व गृहे तत्कर्मणः क्षये । प्रवज्यां प्रतिपद्येथा नाकाले फलति क्रिया ॥ ४११ ॥ चारित्रावारकं कर्म साधुसंगजुषो मम । करिष्यति किमित्युक्त्वा स ययौ स्वामिनोऽन्तिके ॥ ४१२ ॥ तथा निषिद्धो भर्नापि रभसेन भृशायितः । प्रत्यपादि परित्रज्यां तत्पादकमलान्तिकं ॥ ४१३ ॥ षष्ठाष्टमप्रभृतीनि तप्यमानस्तपांसि सः । व्यहार्षीत्प्रभुणा सार्धं ग्रामाकरपुरादिषु ॥ ४१४ ॥ स सूत्रमय सूत्रार्थं नित्यमेव व्यभावयत् । निषण्णो गुरुपादान्ते सहमानः परीषहान् ॥ ४१५ ॥ भोग्यकर्मोदयाद्भोगेच्छां भवन्तीं बलादपि । रोद्धुं तपोभिः स्वपुः क्रशयामास सोऽधिकम् ॥ ४१६ ॥ स इन्द्रियविकाराणां निकारायानुवासरम् । चकाराऽऽतापनां घोरां इमशानादिषु भूमिषु ॥ ४१७ ॥ लादपि विकारेषु भवत्स्विन्द्रियशेषणः । स्वमुध्दधुं समारेभे प्रव्रज्या भंगकातरः ॥ ४१८ ॥
१ "येश्वरः ॥ २ नः ८ ॥
२
षष्ठः
सर्ग:
॥ १८८
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are aariस्य देवता व्रतवारणी । स्वमानानस्य शस्त्रेण शस्त्रं कुण्ठीचकार च ॥ ४१९ ॥ विष मुमूषरदतस्तस्यावीर्य चकार सा । वहौ च विशतो वह्निमायाऽकृत शीतलम् ॥ ४२० ॥ आत्मानं सोऽथ शैलाग्रादपातयदधान्तरे । तं धृत्वा देवतोवाच न किं स्मरसि मद्वचः ? ॥ ४२१ ॥ नालं भोग्यफलं कर्माभुक्त्वा क्षेप्तुं जिना अपि । तत्प्रतीपं मुधैव त्वमेवमुत्तिष्ठसेऽन्वहम् ॥ ४२२ || इत्युक्तः स नयैकाविहारपरिकर्मभृत्। भिक्षार्थं निर्जगामैकश्चिकीर्षुः षष्ठपारणम् ॥ ४२३ ॥ rasarasोषेण वेश्यावेश्म विवेश सः । धर्मलाभ इति वाचमुवाच च महामुनिः ॥ ४२४ ॥ rasa sorea द्रम्मलाभोऽस्तु केवलम् । इति वेश्या सोपहासविकारा प्रत्युवाच तम् ॥ ४२५ ॥ असौ वराकी हसति किं मामिति विचिन्त्य सः । कृष्ट्वा नीव्रतृणं लब्ध्या रत्नराशिमपातयत् ॥ ४२६ ॥ sarasafarयुक्त्वा स तस्मान्निर्ययौ गृहात् । ससंभ्रमा साऽपि वेश्याऽनुधाव्येति तमभ्यधात् ॥४२७|| तपो दुष्करमुदं भोगान् भुंक्ष्व मया सह । त्यक्ष्यामि सर्वथा प्राणान् प्राणनाथाऽन्यथा ॥ ४२८ ॥ भूयो भूयस्तयेत्युक्तो भोगान् दुःखान् विदापि । भोग्यकर्मवशात्तस्याः प्रत्यपादि वचोऽथ सः ॥ ४२९ ॥ दशाधिकra asati बोधयिष्यामि नो यदि । तदाऽऽदास्ये पुनर्दीक्षां प्रतिज्ञामिति चाकृत ॥ ४३० ॥ त्यक्तर्षिलिंगः सोsवात्सीत्तद्गृहे चिन्तयन् सदा । दीक्षानिषेधिकां वाचं देवताया जिनस्य च ॥ ४३१ ॥ १ मेऽर्थो / ॥ २ कारं ॥ ३ तीं M.
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250-50
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भोगान सह तयाऽभुक्त सोऽन्वहं च जनान्दश । प्रबोध्य भव्यान दीक्षार्थ प्रेषीदुपजिनेश्वरम् ॥ ४३२ ॥ क्षीणेऽन्यदा भोगफले तस्य बोधयतः सतः । नवात्रुधञ्जनाष्टकजातीयो दशमो न तु ॥ ४३३ ॥ तस्मिन्नबुध्यमाने सा वेश्या रसवती कलाम । आचख्यो नन्दिषणाय समयज्ञा मुहमुंहः॥४३४॥ सोऽपूर्णाभिग्रहो भोक्तुं नोत्तस्थौ किं तु सादरम् | संट बोधयनस्थाद् गीभिर्विविधभंगिभिः ॥ ४३५ ॥ तदा चोवाच तं वेश्या प्राक्सिद्धान्नं विरस्यभूत् । भूयो निष्पन्नमस्त्यन्नं किं विलम्पयसि प्रभो! ॥४३६ ॥ मन्दिषेणोऽप्यवोचत्तां योधितो दशमो न हि । अहमेवाच दशमः प्रजिष्यामि तत्पुनः ॥ ४३७ ॥ इत्युक्त्वा तां नन्दिषेणो भुक्तं भोग्यफल विवन् । निर्गत्य स्वामिनः पार्श्वे प्रव्रज्यां पुनराददे ॥ ४३८ ॥
आलोच्य तद् दुश्चरितं महात्मा। समं जिनेन्द्रेण स नन्दिषेणः॥ कुर्वन्विहारं निशितं व्रतं च ।
प्रपालयन्देषभुवं जगाम ॥ ४३९ ।। ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रसूरिविचिते त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये दशमपर्वणि श्रेणिक
सम्यक्त्वलाभ-मेषकुमारनन्दिषणप्रव्रज्यावर्णनो नाम षष्टः सर्गः॥
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i
॥ अथ सप्तमः सर्गः ॥
in
SH
10/MAYAN
अथाक्रीडज्जलक्रीडादिभिश्चलगाया सह । श्रेणिक प्रेमसूत्रे मियः स्थूतमना इव ॥ १ ॥ श्रेणिकश्चेलणादेव्या रहसि प्रतिवासरम् । स्वौ करो कंकतीकृत्य केशपाशममार्जयत् ॥ २॥ स्वहस्तग्रथितः सद्योऽनवधैः पुष्पदामभिः । तस्या षषन्ध धम्मिल्लं वालबन्ध इव स्वयम् ॥ ३ ॥ स्वयं घृष्टमृगमवद्रव्यैस्तस्याः कपोलयोः । लिलेख चित्रकृदिव विचित्राः पत्रवल्लरीः॥४॥ आसने शयने याने भोजनेऽन्यत्र वा नृपः। तत्पार्श्व नात्यजज्जातु सौविदल्ल इव स्वयम् ॥५॥ एकदा च प्रवकृते शिशिरर्तुर्भयंकरः । हिमवैषधिकोदीच्यपवनो वनदाहकः ॥ ६॥ सन्निधिस्थहसन्तीकाः* कश्मीरजविलेपनाः। श्रीमन्तो गर्भगेहस्थाः कालातिक्रमणं व्यधुः ॥७॥ गजवन्तीकृतकरा वेपमाना भयादिव । रोरार्भका गृहद्वारे दन्तवीणामवादयन् ॥ ८॥ पाणिप- स्वभावोष्णप्रियावक्षसिजाग्निशि । सालाघुवीणादण्डाभं युवानो नापसारयन् ॥९॥ टि. इसन्ती -सगडी इति गुर्जर भाषायाम् ।
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तदा च सभवासात्तित्र श्रीज्ञातनन्दनः । सर्वातिशयसंपन्नः सेव्यमानः सुरासुरैः ॥ १० ॥ देव्या वेल्लणया सार्धमपराह्णेऽन्यदा नृपः । वीरं समवसरणस्थितं वन्दितुमभ्यगात् ॥ ११ ॥ वन्दित्वा श्रीमदन्तं वलितौतौ तु दम्पती । जलोपान्ते ददृशतुः भ्रमणं प्रतिमास्थितम् ॥ १२ ॥ निरुत्तरीयं तं शीत परीषहसहं मुनिम् । तौ दम्पती व दाते सपनुत्तीर्य वाहनात् ॥ १३ ॥ तं क्षमाश्रमणं भक्त्या सह पत्न्या महीपतिः । वन्दित्वा स्वं ययौ हर्म्य पुण्यवार्ताः प्रपंचयन् ॥ १४ ॥ निदग्धागरुकर्पूरधूपधूमान्धकारिते । वासागारे ययौ राजा कृत्वा सायोचितां क्रियाम् ॥ १५ ॥ देव्या वेलणया गंडोपधानीकृतदोर्लतः । तद्वक्षसि न्यस्तकरः सुष्वाप श्रेणिको निशि ।। १६ ।। वामनीकृतवक्षोजं गाढमालिंगितस्तया । राजा निद्रामुपेयाय राज्ञी निद्रायते च सा ॥ १७ ॥ निद्राभरे वेल्लणायाः प्रच्छदात् पाणिपल्लवः । बहिर्वभूव निद्रा हि परिरंभविवहनी ॥ १८ ॥ शीतेन दुःसहेनालिकटकेनेव तत्करः । स्पृष्टश्च तद्वेदनया प्रावुध्यत च चेला ॥ १९ ॥ शीतार्त्ता कृतसीत्कारा सा पाणिकमलं निजम् । प्रच्छदान्तर्नृपहृदि निजं मन इब न्यधात् ॥ २० ॥ तदा निरुत्तरीयं तं महर्षि प्रतिमास्थितम् । स्मृत्योवाचेदृशे शीते स कथं हा भविष्यति ॥ २१ ॥ साssससाद पुनर्निद्रां तथैव सरलाशया । दासीव वश्या प्रायेण निद्रा चक्षुद्रचेतसाम् ॥ २२ ॥
सप्तमः
सर्गः
| ॥ १९२ ॥
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तस्याः सीत्कारमात्रेणाल्पनिद्रः पार्थिवोऽपि हि । प्रबुद्धस्तद्वचः श्रुत्वा चिन्तयामास चेतसि ॥ २३ ॥ नूनमस्या मनस्यन्यः प्रेयानस्ति रिरंसितः । शीताऽऽर्तिसंभावनया यमेवमनुशोचति ॥ २४ ॥ साम्यन्नया चैवं तां निशां जाग्रदत्यगात् । प्रियजानिरकुहनो* न कदापि सचेतनः ॥ २५ ॥ अन्तरन्तःपुरं गन्तुं प्रातरादिश्य चेल्लणाम् । आहूयाभयमित्यूचे श्रेणिकचण्डशासनः ॥ २६ ॥ ज्ञातमन्तःपुरमभूद्रे दुराचारदूषितम् । तत्सर्वं ज्वाल्यतां मा भूर्मातृमोहादनीदृशः ॥ २७ ॥ इत्यादियामयं राजा राजमानोऽनुतश्रिया । अर्हद्भहारकं वीरस्वामिनं वन्दितुं ययौ ॥ २८ ॥ अभयः सभयस्ताते स्वभावाश्च विमृश्यकृत् । मन्त्रविन्मन्त्रयांचक्रे मनीषी मनसा सह ॥ २९ ॥ सनी मल्लिकाः सर्वा मातरो मे स्वभावतः । तास्वहं कृतरक्षोऽस्मि तातस्याऽऽज्ञा च तादृशी ॥ ३० ॥ संभावितं त्वसंभाव्यं तालपादैः करोमि किम् । नदीपूर इवासाः फोपो हि प्रथमं प्रभोः ॥ ३१ ॥ तथाऽपि चित्रमुत्पाग्र कालक्षेपः करिष्यते । कालक्षेपायदि पुनः प्रभोः कोषो निवर्तते ॥ ३२ ॥ शुद्धान्तनिध जीर्णेभकुटीरभयस्ततः । ज्वालयामास निर्दग्धः शुद्धान्त इति घोषयन् ॥ इतश्च श्रेणिकोऽपृच्छत् समये परमेश्वरम् । एकपत्नी किमनेकपत्नी वा चेल्लणा प्रभो !
३३ ॥
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३४ ॥
टि. १५ अकुइनः अनीर्ष्यालुः ।
॥ १९३ ।
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स्वाम्याख्यद्धर्मपत्नी ते चल्लणा हि महासती । तामन्यथा मा शंकिष्ठाः शीलालंकारशालिनीम् ॥ ३५ इदं च श्रेणिकः श्रुत्वा पश्चात्तापमुपागतः । सपदि स्वामिनं नत्वा दधावे नगरं प्रति ॥ ३६ ॥ तथा प्रदीपनं कृत्वाऽभ्यायान्तं चाभयं नृपः । अपृच्छदस्मदादेशो भवता किमनुष्ठितः ? ॥ ७ ॥ अभयोऽपि भयादूचे प्रणम्य रचिताञ्जलिः । स्वास्यादेशोऽपरस्यापि प्रमाणं किं पुनर्मम ॥ ३८ ॥ राजा प्रोवाच रे पाप ! दग्ध्वा मातृजनं निजम् । जीवसि त्यं किमद्यापि किं नापप्तः प्रदीपने ? ॥ ३९ ॥ | अभयोऽप्यभ्यधाव ! तार्हद्वचनस्य मे । पलंगवार नाईक ये साहले बताए । अभविष्यत्तदाऽऽदेशो योयमपि मे प्रभोः । तदा पतंगमृतिमप्यन्वष्ठास्यं न संशयः॥४१॥ अकृत्यं मगिराऽप्येवं क्रिमफार्षीरिति ब्रुवन् । सतः पीतविष इव मूर्छयाऽऽलिंगि पार्थिवः॥ ४२ ॥ राजानमभयोऽसिञ्चत् स्वयं शिशिरवारिणा । स्वस्थीभूते च तम्रोचे क्षेममन्तःपुरे प्रभो ! ॥ ४३ ॥ मन्मातृणामप्रसादं प्रभो ! भाग्यविपर्ययात् । अकार्षीर्निग्रहादेशादपराद्धं मया स्वरः ॥ ४४ ॥ जीर्णाः करिकुटीरतात ! शुद्धान्तस्यादवीयसीः । अधाक्षं युष्मदाज्ञामप्यविमृश्य करोमि न ॥ ४५ ॥ राजोचे मम पुत्रोऽसि बुद्धिमानसि चाभय ! समागच्छत्कलंको मे दूरं येनापसारितः ॥ ४६ ॥ पारितोषिकदानेनाऽनुग्रात्याऽथाऽभयं नृपः । अत्युत्कश्चेल्लणादेवीदर्शने सदनं ययौ ॥ ४७ ॥ १ गच्छन् क D. M.IN
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॥११४॥
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ततो नवनयेनेव प्रेम्णा प्रतिदिन नृपः । अरस्त चेल्लणादेव्या श्रीदेव्येष वृषाकपिः ॥ ४८ ॥ अन्येद्युः पार्थिवो दध्यौ चेल्लणा प्रेयसी मम । कः कर्तव्योऽन्यराज्ञीभ्यः प्रसादोऽस्यां विशेषषान् ॥ ४९ ॥ एकस्तंभं तदेतस्याः प्रासादं कारयाम्यहम् । तत्र स्थिता की तु सा विमानस्थेव खेचरी ॥ ५० ॥ उपायमिति निश्चित्य श्रेणिकोऽभयमादिशत् । एकस्तंभं कारयेथाः प्रासादं वेल्लणाकृते ॥ ५१ ॥ अभयोsपि स्तंभयोग्यदार्वानयनहेतवे । आदिशद्वर्धकिं सोऽपि दार्वर्थमदवीं ययौ ॥ ५२ ॥ पन्नेकैकशो वृक्षानदव्यामथ वर्धकिः । वृक्षमेकमुदैक्षिष्ट सर्वलक्षणलक्षितम् ॥ ५३ ॥ arit च महलच्छायोऽभ्रंलिहः पुष्पितः फली । महाशाखो महास्कन्धः सामान्योऽयं तरुर्न हि ॥ ५४ ॥ याशं तादृशमपि स्थानं निर्देवतं न हि । वृक्षराजः पुनरयं श्रियाऽपि व्यक्तदैवतः ॥ ५५ ॥ आराधयामि तपसा तदेतस्याधिदेवताम् । यथाऽमुं छिन्दतो न स्याद्विनः सस्वामिनो मम ॥ ५६ ॥ तनोपोषितो भूत्वा वर्धकिस्तं महातरुम् । भक्त्याऽध्यवासयद्गन्धधूपमाल्यादिवस्तुभिः ॥ २७ ॥ तदाऽभयकुमाराय व्यन्तरस्तद्दुमाश्रयः । आख्यत्तदर्थसिद्ध्यर्थं रक्षार्थं स्वाश्रयस्य च ॥ ५८ ॥ मदाश्रयदुर्नच्छ्रेग्रस्तं निवारय वर्धकिम् । प्रासादमेकस्तंभं हि करिष्याम्यहमेष भोः ॥ ५९ ॥ सर्वर्तुमंडितं सर्ववनस्पतिसमाकुलम् । उद्यानं नन्दनमिष करिष्ये च तदाश्रितम् ॥ ६० ॥
१ "ध्यपूजय' f ॥
।। १९५
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१. सप्तमः
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भणितो व्यन्तरेणैवमभयो वर्धकि यमात् । आह्वास्त सद्यः सिद्ध नः समीहितमिति ब्रुवन् ।। ११ ।। प्रतिपनं व्यधात् सौघं व्यन्तरोऽपि तथैव तम् । अधिकाः किंकरेभ्योऽपि वाग्त्रद्धा देवयोनयः ॥ ६ ॥ प्रासादमेकस्तंभ तं सर्वर्तुवनमंडितम् । अभयोऽदर्शयद्राज्ञे राजा प्रीतोऽब्रवीददः ।। ६३ ॥ इच्छतां केवलं सौधं सर्वर्तुवनमप्यभूत् । उपक्रान्ते क्षीरपाणे शर्करापतनं ह्यदः ॥ १४ ॥ मुमोच पेलणां नत्र प्रासाद मगधाधिपः । सोऽलंचक्रे तयाऽत्यन्तं पद्महद इव श्रिया ॥ ३५ ॥ राज्ञी तु चेलणा तत्र सर्वप्यानसभवैः । पुष्पैरानर्च सर्वज्ञमुश्चितग्रार्थतः स्वयम् ॥ ६६ ॥ सोऽवचित्य ग्रथितः पुष्पैस्तैरेव चेलणा'सैरंध्रीय स्वयं पन्युः केशपाशमपूरयत् ॥६७ ॥ एवं श्रीवीतरागार्थ पत्यर्थं चावचिन्वती । धर्मकामफलीचक्रे तदनप्रसवानि सा ॥ ६८॥ चलणोपवने नत्र सदापुष्पे सदाफले । श्रेणिकं रमयामास मूतेष वनदेवता॥ ६९॥ विद्यासिद्धस्य मातंगपतेस्तत्पुरवासिनः । पत्न्या अन्येचुरुत्पेदे माकन्दफलदोहदः ॥ ७० ॥ साध्वोचत्पतिमाम्राणि देहि पूरय दोहदम् । मोऽब्रवीदयि ! मूढा त्वमाम्राण्यसमये कुतः ॥ ७१।। मातंगपतिमित्यूचे भार्याय॑सुत ! विद्यते । फलितं घेल्लणोद्याने सहकारवनं सदा ॥ ७२ ॥ सदैव चेल्लणोद्यानसमीपं समुपेयिवान् । अतितुंगान् स मातंगोऽद्राक्षीच तान् सदाफलान् ।। ७३ ॥ १ सौरंधी सैरिधी' D.L.||
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उत्पश्योऽपश्यदागत्य निश्याम्राणि पुनश्च सः। पचेलिमानि गणको नक्षत्राणीव भूस्थितः ॥ ५४॥ क्षणादेवाऽवनामन्या विद्यासिद्धः स विद्यया । आम्रशाखां नमयित्वा स्वैरमाम्राण्युपाददे ॥ ७॥ प्रातहूनफलामानवाटिकां राज्युदैक्षत । चित्रशालामिव भ्रष्टचित्रामरतिदायिनीम् ॥ ७६ ॥ राज्ञी राज्ञे तदाचख्यौ राजाऽप्यभयमादिशत् । अदृष्टपदसंचारमाम्रचौरं गवेषय ॥७७॥ दस्योर्यस्येहशी शक्तिरतिशायिन्यमानुषी । वत्स ! संभाव्यते तस्मादप्यन्तःपुरविप्लवः ।। ७८ ॥ अवादीदभयोऽप्येवमर्पयिष्यामि तस्करम् । अचिरादेव तं देव ! दर्शनप्रतिभूरिव ॥ ७९ ॥ इति प्रतिज्ञां निर्मायाभयस्तदिवसादपि । पुरेऽहर्निशमभ्राम्यत्तस्य दस्योर्दिक्षया ।। ८० ॥ एकदा च पुरे भ्राम्यन्नभयो धीमतां वरः । कार्यमाणे पुरजनैः क्वापि संगीतके ययौ ॥ ८१ ॥ पौरदत्ताऽऽसनाऽऽसीनोऽभयः पौरानभाषत । न यावदायान्ति नटास्तावदाकर्ण्यतां कथा ॥ ८२ ॥ वसन्तपुरवास्तव्यो जीर्णश्रेष्टयतिनिर्धनः । एकोऽभूतस्य च बृहत्कुमार्येका घरोचिता ॥ ८३ ॥ वरवृन्दारकप्राप्त्यै देवं पूजयितुं स्मरम् । क्वाप्युद्याने चौरिकयोचिच्ये पुष्पाणि सान्वहम् ॥ ८४ ॥ पुष्पचौरं धरिष्येऽहमद्येत्युद्यानपालकः । एकदाऽन्तर्हितो भूत्वा तस्थौ व्याध इव स्थिरः ॥ ५॥ प्राग्वदागत्य विश्रंभात्तां पुष्पाण्यवचिन्यतीम् । दृष्ट्वा रूपवती क्षोभमियायारामिकः स तु ॥ ८६ १ 'गि विचिन्द 11.॥
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सनमः सर्ग:
तां धृत्वा याहुनोद्यानपालको जानवेपथुः । सद्यो विस्मृनपुष्पापहारकोपो जजल्प च ॥ ८७ ॥ रमयस्व विरंगु मामागनं बावर्णिवि ! । अन्यथा मां न मोक्ष्यामि पुष्पक्रीता मया यसि ॥ ८८ ॥ तमूचे पुष्पलावी मा मा मा मां स्पृश पाणिना | कुमार्यस्मि न पुंस्पर्शमद्यापहामि मालिक ! ॥ ८९ ।। आरामिकोऽपि तामूचे त्वया तयूंढमात्रया । प्रथमं मम संभोगपात्रीकार्यमिदं वपुः ॥१०॥ नथेति तां प्रपेदानां बालामुद्यानपालकः । मुमोचाक्षतकौमारा साऽपि स्वसदनं ययौ ।। ११ ॥ अन्येयुः परिणीता च सा वरेण वरीयमा । उवाच च पति रात्री वासागारमुपयुषी ॥१२॥ आर्यपत्र ! मया मालाकारस्यास्ति प्रतिश्रतः । उदढमात्रया तस्याभिगमः प्रथम खाल। तस्मान्मामनुमन्यस्व वाग्बाद्वा तं व्रजाम्यहम् । त्वत्मादपि भविष्यामि सकृत्तमभिजग्मुषी ॥१४॥ अहो शुभाशया सत्यसंधेयमिति विस्मयात् । सा पत्याऽनुमता सद्यो निर्ययो वासवेश्मतः ॥ ९५॥ । विचित्ररत्नाभरणा सा यान्ती पथि तथ्यवान् । अरुध्यत धनायद्भिः पाप्मभिः पारिपन्धिकैः ॥ १६॥ सा तथा मालिककथामाख्यायोवाच तस्करान् । हे भ्रातरो ! व्याघुटन्त्या गृह्णीताऽऽभरणानि मे ॥९७ ॥ || स्वभावकथनात्तस्या मन्बानैः सत्यसन्धताम् । आगच्छन्ती ग्रहीष्याम इति चौरैरमोचि सा॥८॥ अग्रे च रक्षसकेन बुभुक्षाक्षामकुक्षिणा । रुरुधे मृगनेत्रा सा मृगीच मृगवैरिणा ॥१९॥ तस्याः स्वभावाऽऽख्यानेन विस्मितो राक्षसोऽपि हि।वलितां मक्षयिष्यामीत्याशयेन मुमोच ताम् ॥१०॥५॥१९८ ।
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सा ययौ च तमाराममारामिकमुवाच च । पुष्पलाव्यस्मि सैषाहं नवोढा त्यामुपागता || १०१॥ अहो महासती सत्यप्रतिज्ञेयं महात्मिका । इति तो मातृधनत्या मालिकोऽपि मुमोच सः ।। १०२।। सा व्याघुरन्ती तत्रैव रक्षसस्तत्र तस्थुषः । मालिकेन यथा मुक्ता तथाऽख्यदखिलां कथाम् ॥ १०३ ।। मालिकादपि किं होनसत्वोऽहमिति चिन्तयन् । मुमोच तां राक्षसोऽपि प्रणम्य स्वामिनीमिव ॥ १०४ ॥ पश्यतां वर्म चौराणां सन्निधानमुपेत्य सा। जगाद भ्रातरः सर्वः सर्वस्वं गृह्यतां मम ॥ १०५ ॥ मालिकेन यथा मुक्ता यथा मुक्ता च रक्षसा । तत् साऽऽख्यदखिलं तेऽपि तदाकार्येवमूचिरे ॥ १०६॥ न वयं हीनसत्वाः स्मो मालिकाकोणपादपि । तद्वच्छ भद्रे! भद्रं ते वन्दिताऽसि भगिन्यसि ॥ १०७ ॥ गत्वाऽऽचख्यौ च सा स्वस्मै वराय वरवर्णिनी। चौरराक्षसमालाकृत्कथामवितयां तथा ॥ १०८॥ विभावरी तामखिला भुक्तभोगस्तया सह । सर्वस्वस्वामिनी चक्रे तां पतिस्तपनोदये ॥ १०९॥ विचार्य नद् ब्रूत जनाः कः स्याद् दुष्करकारकः। किं पतिस्तस्कराःकिंवा? किं रक्षो? मालिकोऽथ किम् ? ११०४ तत्र चालवः मोचुः पतिर्दुष्करकारकः । नवोढाऽनंगलमापि येन प्रेष्यन्यपुंस्कृते ॥ १११ ॥ ऊचे क्षुधातुरै रात्रिंचरो दुष्करकारकः । येनातिक्षुधितेनापि प्राप्ता सा न हि भक्षिता ।। ११२ ॥ जाररभिदधे मालाकारो दुष्करकारकः । न सा येनोपयुभुजे स्वयमेवाऽऽगता निशि ।। ११३ ॥ १ दामंग ..॥
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सप्तमः
यूनचौरेण च प्रोचे चौरा दुष्करकारकाः । अलुण्टितसुवर्णेव नवोढा यैरमोचि सा ॥ ११४ ॥ अभयोऽपि परिज्ञाय तस्करं समधारयत् । पप्रच्छ च कथं चूतापहारो विदधे त्वया ? ॥११५ ॥ यौरोऽप्यकथयद्विद्याबलेनेति मताभयः । रातमधमाचधात व चौरं समार्पयत् ॥ ११६ ॥ अणिकोऽप्यवदत्प्राप्तश्चौरो नान्योऽप्युपेक्ष्यते । शक्तिमान् किं पुनरयं तन्निग्राह्यो ह्यसंशयम् ॥ ११७ ॥ अभयोऽप्यच्छलं मार्य महीनाथं व्यजिज्ञपत् । विद्याऽस्माद् गृह्यतां देव ! पश्चायुक्तं करिष्यते ।। ११८ ॥ नतश्च मातंगपतिमुपवेश्यात्मनः पुरः। विद्यां पठितुमारेभे तन्मुखान्मगधाधिपः॥ ११९ ॥ राज्ञः सिंहासनस्थस्य सा विद्या पठतोऽपि हि । हृदि नावस्थितिं चके वारि च्युतमिवोन्नते ॥ १२०॥ ततश्च तर्जयामास चौरं राजगृहेश्वरः। कूटं किमपि ते विद्या न संक्रामति यन्मयि ।। १२१ ॥ अभयोऽप्यभ्यधाव ! विद्यागुरुरयं हि वः । गुरौ विनयभाजा हि विद्या स्फुरति नान्यथा ॥ १२२ ॥ आस्यतामेष मातंगो देव ! सिंहासने निजे । अस्याग्रे त्वञ्जलिं बद्ध्वा स्वयं भुन्युपविश्यताम् ॥ १२३ ॥ तस्याथ प्रतिपत्तिं तां विद्यार्थी नृपतिय॑धात् । नीचादप्युत्तमा विद्यां गृह्णीयात्मथितं यादः ॥ १२४ ॥ उन्नामन्यवनामन्यो विये तद्वदनाच्छुने । राज्ञो हृयवतस्थाते दर्पणे प्रतिबिंववत् ॥ १५ ॥ अभयोऽपि महीपाल प्रसाद्य रचिताञ्जलिः । विद्यागुरुत्वमापन्नं तं चौरं पर्वमोचयत् ।। १२६ ।। अन्यस्मिन्नहि समवसृतं श्रीज्ञातनन्दनम् । नन्तुं गजघटाघण्टाटंकारैः पूरयन् दिशः ॥ १२७॥
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वर्तयद्भिरिव मिथो हेवाव्याजेन वाजिभिः । निरुन्धानोऽवनितलं वाह्यालीरंगनर्तकैः ॥ १२८ ॥ अम्बरादवतरन्मेघमंडलश्री त्रिम्बकैः । शोभमानमूलोको मायूरात पचारणैः ॥ १२९ ॥ वाहनस्य तुरंगस्य नृत्यतः स्पर्धया ध्रुवम् । प्रनृत्यनताकः सहोद्गत इवासने ॥ १३० ॥ राकानिशाकरस्पर्दिधवलातपवारणः । जाह्नवी यमुनाकल्प वार स्त्री धुत चामरः ॥ १३१ ॥ वैतालिकैः स्तूयमानः स्वर्णालंकार बन्धुरैः । भूमिष्ठ इत्र सुत्रामा जगाम मगधाधिपः ॥ १३२॥ षड्भिः कुलकम्) तदा च वर्त्मन्येकाऽभूज्जातमात्रोज्झिताऽभिका । पूत्यादिभ्योऽपि दुर्गन्धा नरकांश इवागतः ॥ १३३ ॥ तद्वन्धं घातुमसहाः सर्वे घ्राणमपू पुरन् । प्राणायामकृतः सायं गायत्री जापका इव ॥ १३४ ॥ face पृष्ट श्रेणिकेन परिच्छदः । कथयामास दुर्गन्धां जातमात्रोज्झितां च ताम् ॥ १३५ ॥ राजाऽप्यन्मुखान्नित्यं श्रुतद्वादश भावनः । अजुगुप्सापरो बालां तां निरीक्ष्य ययौ स्वयम् ॥ १३६ ॥ गत्वा समवसरणे वन्दित्वा परमेश्वरम् । दुर्गन्धाया कथां तस्याः पप्रच्छ समये नृपः ॥ १३७ ॥ स्वात्पर्यन्तदेशे शालिग्रामेऽभवद्धनी । धनमित्र इति श्रेष्ठी धनश्रीरिति तत्सुता ॥ १३८ ॥
यो विवाहे च प्रारब्धे श्रेष्ठिनाऽन्यदा । विहरन्तः समाजग्मुग्रमत केsपि साधवः ॥ १३९ ॥ प्रतिलाभय साधूनित्यादिदेश च तां पिता । सा सद्वृत्ता प्रवृत्ता व प्रतिलाभयितुं क्षणात् ॥ १४० ॥ महामुनीनां तेषां च स्वेदक्लिन्नांगवासमाम् । मलगन्धस्तया अधे प्रतिलम्भयमानया ॥ १४१ ॥
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| सप्तमः
सुगन्धचोक्षवसना नानालंकारधारिणी । अंगरागविलिमा सा दध्यो शृंगारमोहिता ॥ १४२ ।। अर्हद्भिर्भाषितो धर्मोऽनवद्यः सकलोऽपि हि । लायेत प्रासुकाम्भोभिश्चेदोषः स्यात्तदा हि कः ।। १४३ ।। मुनीनां मलदुर्गन्धजुगुप्सनसमुद्भवम् । दुष्कर्म तदनालोच्याप्रतिक्रम्य च सा मृता॥१४४ ॥ मृत्वा राजगृहे राजञ्जगाम गणिकोवरे । अभून्मातुश्च सा गर्भस्थिताऽप्यरतिदायिनी ॥ १४ ॥ वेश्यया प्रत्यहं पीतैर्गर्भपातौषधैरपि । स गर्भो नापतत् कर्म बलीयः कीरगौषधम् ।। १४६ ॥ साऽस्तेमां सुतां वेश्या दुर्गन्धा तेन कर्मणा । विष्टामिव च तत्याजोदरानिपतितामपि ॥ १४७॥ पप्रच्छ सुनरप्येवं श्रेणिकः परमेश्वरम् । सुखदुखानुभवभाक् कथमेषा भविष्यति ? ॥ १४८ ॥ स्वाम्याख्यदनया सर्वमपि दुःखमभुज्यत । यथा तु सुखभागेषा भविष्यति तथा शृणु ॥ १४९ ॥ अष्टौ वर्षापयसावग्रमहिषी ते भविष्यति । अभिज्ञानमिदं चात्र तत्परिज्ञानकारणम् ॥ १५० ।। शुद्धान्ते रममाणस्य तब पृष्ठे करिष्यति । या हंसलीलां जानीथास्तामिमां मगधाधिप ! ॥१५१ ॥ अहो आश्चर्यमेषा मे कथं पत्नी भविष्यति । चिन्तयन्निति राजाऽगाद् गृहे नत्वा जिनेश्वरम् ॥ १५२ ॥ दुर्गन्धायाश गन्धोऽथ कर्मनिर्जरया ययौ । आभीर्या चैकया दृष्टोपाददे साऽनपत्यया ॥ १५३ ॥ आभीर्योदरजातेव पाल्यमाना क्रमेण सा । बभूव यौवनप्राप्ता रूपलावण्यशालिनी ॥ १५४ ॥
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अन्यदा नगरे कौमुद्युत्सवोऽभून्मनोरमः । शृंगाररससर्वस्वनाटिकासुखसन्निभः ॥ १५ ॥ कुमारयुवतिर्मात्रा सहोत्सदिहक्षया । युवलोचनसारंगयागुरा सा समाययौ ॥ १५६ ॥ शुचिसंव्यानसंवीतसर्वागी श्रेणिकाभयो । विवाहपस्थितवराविय तत्र समेयतुः ॥ १५७ ॥ महत्युत्सवसमर्दे श्रेणिकस्य करोऽलगत् । आभीरीदुहितुस्तस्या हृद्युम्नतकुचस्थले ॥ १५८ ।। राजा जातानुरागो द्राक् तस्या निवसनाचले । निजां बथन्ध संभोगसत्यकारमिवोर्मिकाम् ॥ १५९॥ अभयं चादिशन्नाममुद्रा में व्यग्रचेतसः । केनाप्यहारि तच्छोध्यस्त्वया तदपहारकः ॥१६० ।। रुरोध धीमतां धुर्यों रंगद्वाराण्यथाभयः । लोकानेकैकनारे कष्टुं हाराशिवाक्षियाः ।। १६१ : सर्वेषामपि वस्त्राणि केशपाशान् मुखानि च । अभयः शोधयामास धिषणाधनशेवधिः ॥ १६२ ।। आभीरीपुत्रिकायाश्च तस्या वस्त्रादि शोधयन् । स ददाश्चले बद्धां नृपनामांकितोर्मिकाम् ॥ १६३ ॥ तामपृच्छच्च जगृहे त्वयेयं कथमूर्मिका ? | कर्णी पिधाय साऽप्यूचे न जाने किंचिदप्यदः॥ १६४॥ तां च रूपवती दृष्ट्वा स दध्यौ धीमतां वरः । नूनं तातोऽनुरक्तोऽस्यामाभीरीदुहितर्यभूत् ॥ १६५ ।। अस्याः संग्रहणविधायभिज्ञानं निजोर्मिकाम् । राजा रागपरवशो थबन्ध नियतं स्वयम् ॥ १६६॥ अभयश्चिन्तयन्नेयं तां निन्ये राजसन्निधौ । राजाऽप्यपृच्छत् किं प्राप्तो ? यशस्कर ! स तस्करः ॥ १६७ ॥
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सप्तमः सर्गः
अभयोऽभिदधे देव ! सेयं चौरी यया प्रभोः । अचोरि चित्तं पर्याप्तमूर्मिकाकथया तया ॥ १६८ ॥ स्मितं कृत्वा नृपोऽप्यूचे परिणेष्याम्यमूमपि । किं नाोषीरुपादेयं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ॥ १६९ ॥ इति सद्योऽनवद्यांगी राजा परिणिनाय ताम् । चकार चाममहिषीमनुरागेण भूयसा ॥ १७ ॥ रेमेऽन्यदाऽक्ष राज्ञीभिर्नृपस्तत्रेत्यभूत् पणः । जितस्य पृष्ठेऽश्वस्येवाध्यारोहति जयी हि यः ॥ १७१ ॥ राश्यः सर्वाः कुलोत्पन्ना व्यजयन्त यदा नृपम । तदा न्यधुर्वस्त्रमानं तत्पृष्ठे जयसूचकम् ॥ १७२॥ वेश्यासुता तु सा राज्ञो जिगाय नृपमन्यदा। आरुरोह च निर्शिका तत्पृष्टं कठिनाशया ॥ १७३ ॥ जहास च नृपोऽकस्मात्तत्स्मृत्वा भगवद्वचः । साऽप्युत्तीये च पप्रच्छ हासकारणमादरात् ।। १७४ ॥ राजाऽपि स्वामिनाऽऽख्यात तस्याः पूर्वभवादिकम् । पृष्टारोहणपर्यन्तं वृत्तान्त तमचीकथात् ॥ १७५ ॥ तछुत्वा द्राग्विरक्ता साऽनुज्ञाप्य पतिमादरात् । श्रीमहावीरपादान्ते परिव्रज्यामुपाददे ॥ १७६ ॥ इतश्च मध्येऽम्भोराशि पातालभवनोपमः । आर्द्रको नाम देशोऽस्ति पुरं तत्राकाभिधम् ॥ १७७ ।। राजमानः श्रिया राजा राजेवानन्दको दृशाम् । तत्राभ्दाक इनि महिषी तस्य चाका ॥ १७८ ॥ तयोराककुमारोऽभवदामनाः सुतः। स प्राप्तयौवनो भोगान् भुजानोऽस्थायथारचि ॥ १७ ॥ तस्य चाकराजस्य बभूव श्रेणिकस्य च । पारंपर्यागता प्रीतिस्तन्मनोनिगडोपमा ॥ १८० ।। अन्यदा श्रेणिकः प्रैषीनिजामात्यमुपाकम् । समर्ण्य प्राभृतं प्राज्यं दोहदं स्नेहवीरुधः ॥ १८१ ॥
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स मन्त्री गतमात्रोऽपि तेनाकमहीभुजा । मूर्तिस्थं श्रेणिकाजममिवादृश्यत गौरवात् ॥ १८२ ॥ मन्त्रिणा चोपनीतानि प्राभृतान्याददे नृपः । सौवर्चलनियपत्रकम्बलादीन्यनेकशः ॥ १८३॥ । महत्या प्रतिपत्त्या तं संभाव्याऽऽकम्पतिः । प्रपच्छ कश्चित्कुशलं महन्धोर्मगधेशितुः॥ १८४ ॥ स्वस्वामिकुशलोदन्तः सान्द्रश्चन्द्रातपैरिव । तन्मनःकुमुदानन्दं सचिवन्दुरदत्त सः॥ १८५॥ पप्रच्छाऽऽककुमारस्तात ! को मगधाधिपः १ । तव यनेहशी प्रीतिर्मधुनेव मनोभुवः ॥ १८६॥ राजा प्रोवाच राजाऽस्ति श्रेणिको मगधाधिपः । पारंपर्यागता मैत्री तत्कुले मन्कुलेपि च ॥ १८७ ॥ द्रागाईककुमारोऽपि प्रोन्मीलप्रेमकन्दलः । दशा सुधातरंगिण्या पश्यन्मन्त्रिणमब्रवीत् ।। १८८॥ किमनूनगुणः सूनुस्त्वत्प्रभोरस्ति कश्चन । अमात्य ! कर्तुमिच्छामि तं सभाजनभाजनम् ॥ १८ ॥ मन्त्र्यूचेस्ति धियां धाम पश्चमन्त्रिशताधिपः । वदान्योऽनन्यसामान्यकरुणारससागरः ॥ १९०॥ दक्षः कृतज्ञः सकलकलाजलधिपारगः । अभयो नाम तनयः श्रेणिकस्य महीपतेः ॥ १९१ ॥ (युग्मम्) बुद्धिविक्रमसंपन्नं धर्मज्ञं भयवर्जितम् । अभयं विश्वविदितं न जानासि कुमार ! किम् ? ॥ १९२॥ गुणा न केपि ने सन्ति येऽभये न कृतास्पदाः । जीवाकारा इवाम्भोधौ स्वयंभूरमणाभिधे ॥ ११ ॥ आद्रकेशोऽपि पुत्रं स्वमभये सौहृदार्थिनम् । ऊचे मन्मार्गसंलग्नः कुलीनो नन्दनोऽसि मे ॥ १४ ॥ द्वयोः समान गुणयोः ममानकुलसंपदोः। विवाहसम्बन्ध इव युज्यते वत्स सौहृदम् ॥ १५ ॥
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सप्तमः
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अवाप्य पितुरादेशं स्वमनोरथसन्निभम् । जनान्तिकेन सथि तमुकापाकापुताः । १९६ ॥ मा यासीर्मामनापृच्छय श्रोतव्यं गच्छता त्वया । अभयं प्रति मे स्नेहमयीजनिभं वचः ॥१९७ ॥ मच्यप्येवमिति प्रोचे कुमारं सुकुमारगीः। राज्ञा विमृष्टश्च ययौ वेत्रिदार्शतमाश्रयम् ॥ १९८॥ अन्येगुर्मोक्तिकादीनि प्राभृतान्याकेश्वरः । अर्पयित्वा स्वपुरुषं व्यस्राक्षीन्मन्त्रिणं च तम् ॥ १९९ ॥ अथाककुमारोऽपि हस्ते तस्यवै मन्त्रिणः । भैषी द्विद्रुममुक्तादिवस्तून्य भयहेतवे ॥ २० ॥ स पुमान्मन्त्रिणा साधं गत्वा राजगृहे पुरे । प्राभृतान्यपैयामास श्रेणिकायाभयाय च ॥ २०१॥ अभयस्य समाचख्यौ वाचिकं चेति मन्त्रिराट् । स आर्द्रककुमारस्ते सख्यं सौभ्राथमिच्छति ॥ २०२ ॥ अचिन्तयचेत्यभयः कुशलो जिनशासने । विराधितश्रामण्यत्वाज्जातोऽनार्येषु स ध्रुवम् ।। २०३ ॥ नूनमासन्नभव्यः स महात्मा राजपुत्रकः। अभव्यदूरभव्यानां न मया सख्यकामना ॥ २०४ ॥ समानपुण्यपापानां प्रीतिः प्रायेण देहिनाम् । तेषां ह्येक स्वभावः स्यान्मैत्री चैकस्वभावजा ॥ २०५॥ तदुपायेन केनापि कृत्वा तं जिनधर्मिणम् । आप्तो भवामि स ह्याप्तो योऽग्रेगूधर्मवमनि ॥ २०६॥ तस्याककुमारस्य तीर्थकृतिम्वदर्शनात् । उत्पद्यते यदि पुनर्जातिस्मरणमुत्तमम् ॥ २०७ ।। तत्माभृतच्छलेनाहत्मतिमामहमुत्तमाम् । प्रेषयामि रत्नमयों महाऽऽचार्यप्रतिष्ठिताम् ॥ २०८ ।। इत्यादिनाथदेवस्याप्रतिमा प्रतिमां न्यधात् । पेटामध्ये समुद्गस्थां श्रेयस्कामगवीं स्वयम् ॥ २०९ ।।
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ततश्च धूपदहन घटिकादीनि तत्पुरः । मुमोच देवपूजोपकरणान्यखिलान्यपि ॥ २१०॥ दत्त्वा च तालकं द्वारे ततः श्रेणिकराजसूः । मंजूषां मुद्रयामास मुद्रया निजया स्वयम् ॥ २११॥ आर्द्रफेशपुमांसं तं प्रभूतैः प्राभृतः सह । विससर्ज प्रियाऽऽलापपूर्वकं मगधाधिपः ॥ २१२ ।। अभयोऽपि हि तां पेट सस्य हस्ते समर्पयन् । तमुवाचेति सत्कृत्य वाचा पीयूषसारया ॥ २१३ ॥ एषाऽककुमारस्य पुरः पेटोपढौक्यताम् । मदीयं तस्य महन्धोर्वाच्यमेतत्र वाचिकम् ॥ २१४ ॥ रहस्येकाकिना भूत्वोन्मुद्रय पेटामिमां स्वयम् । तदन्तर्वस्तु संप्रेक्ष्यं दर्शनीयं न कस्यचित् ।। २१५ ॥ इति कर्नव्यमित्युक्त्वा स पुमान स्वपुरं ययौ । उपायनान्यार्पयच स्वस्वामिस्वामिपुत्रयोः ॥ २१६ ॥ सञ्चाककुमारायाचख्यावभयवाचिकम् । ततो रहसि स स्थित्वा तां पेटामुदघाटयत् ॥ २१७ ॥ ददर्श च तदन्तास्थां तमस्युद्योतकारिणीम् । तामादिनाथप्रतिमां ज्योतिर्भिर्घटितामिव ।। २१८ ॥ दध्यौ च किमिदं किंचिदंगाभरणमुत्तमम् ? । किमारोप्यं मूर्ध्नि कण्ठे हृदयेऽन्यत्र वा कचित् ? ॥ २१९ ॥ दृष्टपूर्वमिदं मे क्वापीति प्रतिभासते । न तु स्मृतिपथं याति मन्दाभ्यासस्य शास्त्रवत् ॥ २२० । इत्याककुमारस्य भृशं चिन्तयतः सतः । मूर्छा जातिस्मृतिजनन्यजनिष्ट गरीयसी ॥ २२१ ।। उत्पन्नजातिस्मरणः स्वयमेवाप्तचेतनः । स एवं चिन्तयामास पूर्वजन्मकथा निजाम् ॥ २२२॥ इतो भवात्तृतीयस्मिन् भये मगधनीकृति । कुटुम्धी वसन्तपुरेऽभूवं सामायिकाभिधः॥ २२३ ॥
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भार्या बन्धुमती मेsभूदश्रौषं च तया सह । यथावदार्हतं धर्मं सुस्थिताचार्य सन्निधौ ।। २२४ ॥ धर्मासनापि प्रतिबुद्धस्तदन्तिके । गृहवासविरक्तोऽहं परिब्रज्यामुपात्तवान् ॥ २२५ ॥ पत्तने चाहमेकस्मिन् गुरुणा विहरन्नगाम् । बन्धुमत्यपि तत्राऽऽगात् संयताजनमध्यगा || २२६ ॥ एकस्मिन्नहि तां पश्यन स्मरन् पूर्वरतान्यहम् । अनुरक्तोऽभवं तस्यां तदाख्यं चान्यसाधवे ॥ २२७ ॥ सोऽप्याचख्यौ प्रवर्तिन्यै बन्धुमत्यै च सा पुनः । प्रवर्तिनीं च प्रोवाच विषण्णा बन्धुमत्यदः ॥ २२८ ॥ गीतार्थोऽप्येष मर्यादां लंघेन यदि का गतिः १ मर्यादां पालयन्नब्धिरपि पृथ्वीं न लुंपति ॥ २२९ ॥ देशान्तरमपि गतां यावच्छ्रोष्यति मामसौ । तावन्महानुभावश्च मयि रागं न हास्यति ॥ २३० ॥ तस्मादहं भगवति ! पपत्स्ये मरणं खलु । न चास्य नापि मे शीलखंडनं जायते यथा ॥ २३९ ॥ इति साऽनशनं कृत्वा स्वमुध्य च लीलया । निष्ठ्यूनवज्जहौ प्राणान् देवभूयमियाय च ॥ २३२ ॥ तथा मृतां च तां श्रुत्वा मयाऽप्येतद्विचिन्तितम् । महानुभावाऽमृत सा व्रतभंग भयात् खलु || २३३ ।। भवतः पुनरहं तदलं जीवितेन मे । कृत्वेत्यनशनमहं विषद्य त्रिदशोऽभवम् ॥ २३४ ॥ ततश्च्युत्वाहमुत्पन्नोऽस्म्यनाय धर्मवर्जितः । प्रतिबोधयिता यो मां स बन्धुः स गुरुश्च मे ॥ २३५ ॥ भाग्योदयेन केनापि बोधितोऽभमंत्रिणा । अद्यापि मन्दभाग्योऽस्मि तं द्रष्टुं यदनीश्वरः ॥ २३६ ॥
बोमय्यनुरागं D1.1
सप्तमः
| सर्गः
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तदनुज्ञाप्य पितरमननुज्ञाप्य वाऽप्यहम् । आर्यदेशं गमिष्यामि यत्र मेऽस्त्यभयो गुरुः ॥ २३७ ॥ इत्थं मनोरथं कुर्वन् प्रतिमामादिमार्हतः । पूजयन्नार्द्रकासनुर्व्यतियति स्म वासरान् ॥ २३८ ॥ अन्धेरा कानुनृपमेवं व्यजिज्ञपत् । ताता भयकुमारेण सममिच्छामि दर्शनम् ।। २३९ ।। arthaisy न गन्तव्यं खलु स्वया । वत्स ! स्थानस्थितानां हि सौहृदं श्रेणिकेन नः ॥ २४० ॥ पित्राज्ञया निषद्धश्चोत्कंठितश्चाभयं प्रति । ततश्चाऽऽर्द्रककुमारो न तस्थौ न जगाम च ॥ २४१ ॥ वर्षन्नश्रान्तमस्त्रम्भः स भाद्रपदमेघवत् । अभयोत्कंठितस्तस्थावनुद्वान विलोचनः ॥ २४२ ॥ आसने शयने याने भोजनेऽन्यक्रियास्वपि । अभयालंकुनामाशां दृशोर चकार सः ॥ २४३ ॥ पारापत इव.ड्डीय यियासुरभयान्तिके । न ह्याककुमारोऽगाद्रनिं रोर इवाभवान् ॥ २४४ ॥ की देशः ? कीटग्राजगृहं पुरम् ? । कस्कोऽध्वा तत्र गमने ? ऽपृच्छदेवं च पार्श्वगान् ॥ २४५ ॥ दयावाकराजोऽपि कुमारो मम निश्चितम् । यास्यत्यकथयित्वैव कदाऽप्यभयसन्निधौ ॥ २४६ ॥ ततश्च पञ्च सामन्तशतान्यादिशदार्द्रकः । यदार्द्रककुमारोऽयं रक्ष्यो देशान्तरं व्रजन् ॥ २४७ ॥ देहच्छायेव तत्पार्श्व सामन्तास्तेऽत्यजन्न हि । चन्दे धृतमिवात्मानं कुमारोऽपि मस्त सः ॥ २४८ ॥ आर्द्रकिर्हृदये कृत्वाऽभयोपगमनं सुधीः । प्रत्यहं कर्तुमारेभे वाह्याल्यां वाहवाहनम् ॥ २४९ ॥ अश्वारूढाच पार्श्वेऽस्थुः सामन्तास्तेऽङ्गरक्षकाः । कुमारो वाहयन्नश्वं किञ्चित्वा न्यवर्तत ॥ २५० ॥
।। २०९ ॥
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एवं च वाह्यन्नभ्वं स ययावधिकाधिक्रम । पुनः पुनश्च व्याघुट्याययौ ते च विशश्वसुः ।। २५१ ॥ आकनुरन्येयुः पुंभिः प्रत्ययितैर्निजैः । प्रगुणं कारयामास यानपानं पयोनिधौ ॥ २५२ ॥ रश पूरयामास मानपात्रं तदार्द्रकिः । अग्रेऽप्यारोहयामास नत्रार्हत्प्रतिमां च ताम् ॥ २५३ ॥ तदैव वायन्नश्वमशी (इयो) भूप पूर्ववत् । तत्रारुह्य प्रवहणे स ययावानीवृतम् ॥ २५४ ॥ यानादुत्तीर्य संप्रेष्य प्रतिमामभयाय ताम् । सप्तक्षेत्र्यां धनान्युप्त्वा यतिलिंगमुपाददे ।। २५५ ।। उच्चारयितुमारेभे यावत्सामायिकं च सः । आकाशस्थितया तावदूचे देवतयोश्चकैः ॥ २५६ ॥ महावपि त्वं ग्रहीदीक्षां तथापि मा । अयापि ते भोगफलं कर्मारत्यागमयस्व तत् ॥ २५७ ॥ भुक्त्वा भोगफलं कर्माssवदीथाः समये व्रतम् । अवश्यमेव भोक्तव्यं भोग्यं तीर्थकुनामपि ॥ २५८ ॥ महात्मंस्तद् व्रतेनालं यदात्तमपि हास्यते । भोजनेनापि किं तेन यद् मुक्तमपि वम्यते ॥ २५९ ॥ rass ककुमारोऽपि स्वमृरीकृत्य पौरुषम् | देवीं वाचमनादृत्य प्रव्रज्यां स्वयमाददे ॥ २६० ॥ प्रत्येकबुद्धः स मुनिर्नशितं पालयन् व्रतम् । विहरन्नन्यदा प्राप वसन्तपुरपत्तनम् ॥ २६१ ॥ बाह्यदेवकुले कापि तस्थौ प्रतिमया च सः । सर्वाऽधिपरिहारेण समाधिमधिजग्मिवान् ॥ २६२ ॥ तव तस्मिनगरे वरश्रेष्ठी महाकुलः । देवदत्तोऽभवत्तस्य पत्नी धनवती पुनः ॥ २६३ ॥
I
१ "क्ष्य C. ८. ।।
सप्तमः सर्गः
॥२१० ॥
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स तु बन्धुमतीजीवश्च्युत्वाऽजनि सुता तयोः । सुरूपा श्रीमती नाम श्रीमतीनां शिरोमणिः॥ २६४ ॥ धात्रीभित्ल्यमाना च मालत पुष्पदामयत् । पांशुक्रीडोचितां प्राप बयोऽवस्था क्रमेण सा ॥ २६५ ।। तत्र देवकुलेन्येशुः पौरचालाभिरन्विता । श्रीमती पतिरमणक्रीडया रन्तुमाययौ ॥ २६६ ॥ भर्तारं शुभत्यूचुस्तत्र साश्च वालिकाः । कयाप कोऽपि सर्वाभिर्वरः स्वरुचि बबिरे ॥ २६७ ।। श्रीमत्युवाच सख्योऽसौ वृतो भट्टारको मया । साधु तं साधु वृतमिति चोवाच देवता ।। २८८ ।। तन्वाना गर्जितं रत्नान्यथर्षत् सा च देवता । श्रीमती गर्जिभीता तु तस्य पादेऽलगन्मुनेः ॥ २६१ ॥ सोऽचिन्तयत् क्षणं स्थित्वा ममाऽभूदिह तस्थुषः । उपसर्गोऽनुकूलोऽयं व्रतद्रुममहानिलः ॥ २७० ।। इति ध्यात्वाऽन्यतः सोऽगान्महर्षीणां हि कुत्रचित् । आस्थान्यत्रापि न प्रायः सापायेषु तु का कथा ॥२७१|| नामादातुं रनवृष्टिमाजगाम महीपतिः । अस्वामिक धनं राज्ञोऽर्हतीति कृतनिश्चयः ।। २७२ ॥ तद् द्रव्यं संयुवर्षन्तो दहशू राजपूरुषाः । नागलोकद्वारमिव स्थानं तन्नागसंकुलम् ।। २७३ ।। ऊचे च देवताऽनुष्य दत्तं वरणके मया । द्रव्यमेतदिति श्रुत्वा विलक्षोऽपासरन्नृपः ॥ २७४ ॥ नतश्च तद्धनं सर्वमाददे श्रीमतीपिता । स्थानं ययुश्च सर्व स्वं तदा सायमिवाण्डजाः ॥ २७५ ।। अधोद्रोदुमढौकन्त श्रीमती बहवो वराः । वरं वृग्विति पित्रोक्ता जगाद श्रीमती त्वदः ॥ २७६ ।। १ वृत्त (... | वृत्तः । ॥ वृत इति ।।
॥२१
॥
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सप्तमः
सर्गः
वृतो मया यो महर्षिर्वरस्तात ! म ण्व मे । मम तदरणेऽदाच द्रव्यं तद्गृह्यदेवता ॥ २७७ ।। स्वरुच्याऽपि मश तावन्महर्षिः स वृतो वरः । तद् द्रव्यमाददानेन त्वयाऽप्यनुमतं हि तत् ॥ २७८ ॥ तत्तस्मै कल्पयित्वा मां नान्यस्मै दातुमर्हसि । किं न श्रुतं त्वया तात : बाला अपि वदन्त्यदः ॥२७९ ॥ मकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति साधवः । सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते बीपयेतानि सकृत् स ॥२८॥ श्रठ्यूने स कथं प्राप्यो न लोकत्रावतिष्ठते । अली व पुष्पं स स्थानमातिष्ठति नवं नवम् ॥ २८१ ॥ स किमायास्यति न वाध्यातोऽपि ज्ञास्यते कथम् । किं नाम तस्याभिज्ञानं ? कति नायान्ति भिक्षवः २८२ श्रीमत्युचे मया तान ! तदा गर्जितभीतया। दृष्टं नही लक्ष्मास्ति वानर्येव विलग्नथा ॥ २८३ ॥ तस्मादतः परं तात ! नया कुरु गथाऽखिलान् । यातायातपरान् साधून पश्यामि प्रतिवासरम् ।। २८४ ॥ श्रेष्ठ्यब्रवोदिहाथान्ति ये केचिदिह पत्तने । भिक्षां देहि स्वयं तेभ्यो महर्षिभ्यो दिने दिन ॥ २८५ ॥ चके च प्रत्यहमपि तदाद्यपि नव सा । दिदृक्षमाणा तल्लश्मांहीन्मुनीनामवन्दत ॥ २८६ ॥ द्वादशाब्दे च दिङ्मूढः स महामुनिरन्यदा । तया तत्राऽऽगत उपालक्षि तल्लक्ष्मवी क्षणात् ॥ २८७ ॥ नमृर्षि श्रीमती स्माह तत्र देवकुले तदा | मया वृनोऽसि त्वं नाथ ! त्वमेव हि वरो मम ॥ २८८ ॥ तदा गतोऽसि मां मुग्यां निर्धूय स्वेदविन्दुवत् । क यास्यस्यश्च तु प्राप्तस्त्वमृणं धारयन्निव ॥ २८९ ॥ दृष्टनष्टो यदाऽभूस्त्वं तदाद्यपि हि नाथ ! मे। परासोरिव कालोऽगात्तत्प्रसीद भजस्व माम् ॥ २९॥
२२२॥
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एवं स्थितेऽपि नैष्टुर्यायदि मामवमन्यसे । भूत्वा तदग्निसाहास्ये स्त्रीहत्यापातकं तव ॥ २९१ ।। राज्ञा महाजनेनान्यैरप्युदाहाय सोऽर्थितः । सम्भार तां गिरं दिव्यांशसारम्भनिधिकाम् ॥ २९२ ॥ तां स्मरन्दैवतीं वाचं निर्बन्धेनोदितश्च तैः। महात्मा पर्यणैषीत्तां श्रीमती भावि नान्यथा ॥ २९३ ॥ भुञ्जानस्य चिरं भोगान श्रीमत्या सह तस्य तु । उत्पेदे क्रमयोगेण पुत्रो गार्हस्थ्यकीर्तनम् ॥ २९४ ॥ क्रमेणासादयन् वृद्धि विमुञ्चन् क्षीरकण्ठताम् । स वक्तुमुल्लसज्जितो राजकीर इवाभवत् ।। २९५ ।। पुत्रे तावति स प्रोचे श्रीमती मतिमद्वरः । अतः परं सहायस्ते पुन्नोऽस्तु प्रव्रजाम्यहम् ॥ २९६ ॥ श्रीमती धीमतो तत्रान्तरे ज्ञापयितुं सुतम् । सतृलफूलकं तर्कुमादायासन्युपाविशत् ॥ २७ ॥ सा नर्कुकर्म प्रारभे पप्रच्छ च स बालकः । क्रिमेतदम्ब ! पारब्धं कर्मतरजनोचितम् ॥ २९८ ॥ साऽवोचज्जात : ते तातः प्रव्रज्यार्थ गमिष्यति । गतेऽस्मिन् पतिहीनायाः शरणं तर्कुरेव मे ॥ २०॥ बालकोऽप्यवदद्वाल्यादक्षरैलल्लमन्मनैः। बद्ध्वाऽहं धारयिष्यामि कथं यास्यति में पिता ॥ ३० ॥ इत्युक्त्वा तर्कुसूत्रेण लालयेवोर्णनाभकः । आवेष्टयत् पितुः पादौ स मुग्धमधुराननः ॥ ३०१ ।। उवाच चाम्ब ! मा भैषीः स्वस्था भव मया ह्यसौ । बद्धपादो द्विप इवेशीत यातुं कथं पिता ? ॥ ३०२ ।। श्रीमतीपतिरप्येवमचिन्तयदहो शिशोः । स्नेहानुबन्धः कोऽप्येष मन्मनःपक्षिपाइयभूत् ॥ ३०३ ॥ १ पूलि ॥
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सप्तमः
तन्मदइयोः कृताः सन्ति यावन्तः सूत्रवेष्टकाः । तावन्त्यब्दानि स्थास्यामि पुत्रप्रेम्णा गृहस्थताम् ॥३०॥ पादयोस्तन्तुबन्धाश्च गणिता द्वादशाभवन् । गार्हस्थ्ये द्वादशाब्दानि ततः सोऽप्यत्यवाहयत् ।। ३०५॥ संधाऽवधौ च संपूर्ण वैराग्येणोररीकृतः । थामिन्याः पश्चिम यामे स सुधीरित्यचिन्तयत् ॥ ३०६ ॥ संसारकूपानिर्गन्तुं ब्रतमालम्बरज्जुबत् । मया प्राप्तं च मुक्तं च मनस्तत्रास्म्यहं पुनः ॥ ३०७ ।। मनसैव ब्रतं भग्नं प्राग्जन्मनि लथाप्यहम् । अनार्यत्वं प्रपन्नोऽस्मि का गतिः स्यादतः परम् ॥ ३०८ ॥ भवत्विदानोमप्यात्तपरिवज्यस्तपोऽग्निना । अग्निशौचांशुकभिवात्मानं प्रक्षालयाम्यहम् ॥ ३०९ ॥ प्रातश्च श्रीमती पत्नी स संभाष्यानुमान्य च । यतिलिंगमुपादाय निर्ममो निर्ययो गृहात्॥ ३१॥ स प्रस्थितो राजगृहमन्तराले ददर्श ताम् । स्वां सामन्त पञ्चशती चौर्यवृत्तिपरायणाम् ।। ३११ ॥ उपलक्ष्य स तैर्भत्तथा ववन्दे सोऽवदच नान् । किमया जीविका पापहेतुर्युष्माभिराहता ? ॥ ३१२॥ तेऽचोचन वश्चयित्वाऽस्मान् पलाधिष्टा यदा प्रभो!। दर्शयामः स्म न तदाऽऽत्मानं भूमिपतेहिया ॥३१॥ तवैवान्वेषणे लग्ना भ्रमन्तः सागराम्पराम् । चौर्य त्यैव जीयामः किमन्यन्निःस्वशस्त्रिणाम् ॥ ३१४॥ मुनिरप्यभ्यधाद्भद्राः! कष्टमापतितं यदि । धर्मानुपन्धि तत्कार्य सफलं लोकयोयोः ।। ३१५ ।। केनापि पुण्ययोगेन मानुष्यकमवाप्यते । प्राप्तस्य तस्य च फलं धर्मः स्वर्गापवर्गदः ॥ ३१६ ।। १. मालंबि र ॥ २ष्टा C. D.E. IN
ॐRAKASRAMMARCH
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R-CAREER
जीवेष्वहिंसा सत्योक्तिरस्तेयं ब्रह्मचारिता । अकिंचन्यं च धर्मोऽयमाईतोऽभिमतोऽस्तु वः ॥ ३१७ ।। स्वामिभक्ताः स्थ हे भद्रा राजवत्स्वाम्यहं चे वः। तन्ममैवामुमध्वानं प्रपद्यध्वं सुमेधसः ! ॥ ३१८॥ ते प्रोचुरग्रे स्वामी त्वं सांप्रतं गुरुरप्यसि । त्वया ज्ञापितधर्माः स्मो दीक्षयाऽनुगृहाण नः ।। ३१९ ॥ इत्याककुमारस्तान प्रव्राज्य सहितश्च तैः । वन्दितुं श्रीमहावीरमभिराजगृहं ययौ ॥ ३२०॥ गच्छतश्च मुनेस्तस्य गोशालोऽभिमुखोऽभवत् । अकृतप्रणयस्तस्मै विवादं च प्रचक्रमे ॥ ३२१ ॥ भूचराः खेचराश्चापि तत्रायाताः सहस्रशः । तस्थुः सामाजिकीभूय कौतुकोत्तानितेक्षणाः ।। ३२२ ॥ गोशालोऽभावदत् कष्टं तपोमूलं वृथैव भोः । शुभाशुभफलानां हि कारणं नियतिः खस्लु ॥ ३२३ ॥ प्रत्यूचे स मुनिर्भा स्म मुखमस्तीत्यहो अवीः । कारणं पौरुषमपि मन्यस्वानेन हेतुना ॥ ३२४ ।। कारणं यदि सर्वत्र नियति ननु मन्यसे । तत्तवापीष्टसिद्धयर्थं प्रसज्जेरन् वृथा क्रियाः ॥ ३२५ ॥ तथाहि नियतिनिष्टः स्थानस्थः किं न तिष्टसि ? । भोजनार्थ प्रयतसे भोजनावसरे च किम् ? ॥ ३२६ ।। एवं नियतिवत्साधु पौरुष स्वार्थसिद्धये । नियतेरप्यर्थसिद्धौ पौरुषं त्वतिरिच्यते ॥ ३२७ ॥ तथाहि खात् पतत्यम्भो भूखातादपि तद्भवेत् । यलीयसी हि नियतिनियतेरपि पौरुषम् ॥ ३२८ ॥ एवं निरुत्तरीचक्रे गोशालं स महामुनिः । तुष्टुवे खेचरायैश्च कुर्षद्भिर्जयमंगलम् ॥ ३२९ ॥ १ भक्ता . ॥ २ वचः D || ३ मुख [.. M. II
॥२१५
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KULAM.
आद्रकर्षिर्ययो हस्तितापसानामथाऽऽश्रमम् । *उद्वानायातपक्षिप्तहस्तिमांसाकुलोटजम् ॥ ३३०॥ तत्रस्थास्तापसाश्चैकं सुमहान्तं मतंगजम् । हत्वा तन्मांसमनन्तो ते निन्युर्दिवसान पहून ॥ ३३१॥ ने चैवमूचुर्हन्तव्यो वरमेको मतंगजः । यस्यैकस्यापि मांसेन भूयान कालोऽतिगम्यते ॥ ३३२ ॥ मृगतित्तिरमत्स्याद्यैर्वाऽऽन्या यहुभिश्च किम् । नैरप्याहार एवार्थः पापं तत्रातिरिच्यते ॥ ३३ ॥ तदा च ते दयाभासधर्मनिष्ठास्तपस्विनः । माधुरणाग, महाकाय पसरू ।। ३३४ ॥ स भारशृंखलाबद्धो यत्र चाऽऽसीन्मतंगजः । तेनाध्वना स जगाम महर्षिः करुणाधीः ॥ ३३५ ॥ स च हस्ती महर्षि तं मुनिपंचशती पृतम् । ईक्षामास वन्द्यमानं भूलठन्मौलिभिर्जनैः ॥ ३३६ ॥ लघुकर्मा करी सोऽपि मुनि दृष्ट्वेत्यचिन्तयत् । बन्दे यधहमप्येने बद्धस्तु करवाणि किम् ॥ ३३७ ।। महर्षिदर्शनात्तस्य गरुत्मदर्शनादिव । अयापाशा व्यशीर्यन्त नागपाशा इचाभितः ॥ ३३८ ॥ निरर्गलः सोथ हस्ती वन्दितुं तं महामुनिम् । अभ्यसा|जनस्तृच मुनिरेष हतो हतः॥ ३३ ॥ पलायाश्चक्रिरे लोका मुनिस्तस्थी तथैव सः । इभ्योऽप्यवनमत्कुम्भस्थलः प्रणमति स्म तम् ॥ ३४० स्पर्श स्पर्श च तत्पादौ दाहातः कदलीमिय । परमां निवृति प्राप प्रसारितकरः करी ॥ ३४१ ॥ स हस्ती पुनरुत्थाय भक्तिमन्थरया हशा । पश्यन्महर्षि प्राविक्षदरण्यानीमनाकुलः ।। ३४२ ॥ टि-* उद्वानं - शुष्ककरणम् ।
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तत्प्रभावाद्भुतं दृष्ट्वा परं कोपमुपागताः । तेऽप्याककुमारेण प्रत्ययोध्यन्त तापसाः ॥ ३४३ ॥ श्रीमहावीरसमवसरणे प्रेषिताश्च ते । गत्वोपाददिरे दीक्षां शमसंवेगशालिनः ॥ ३४४ ॥ तत्र श्रेणिकराजोऽपि तत्तथा गजमोक्षणम् । तापसप्रतिबोधं च श्रुत्वाऽऽगादभयान्वितः ॥ ३४ ।। भत्तया वन्दितवन्तं चाऽऽनन्दयामास पार्थिवम् । सर्वकल्याणकारिण्या धर्मलाभाशिषा मुनिः ॥ ३४६ ॥ दृष्ट्वा मुनिमनायाधमासीनं शुद्धभूतले । राजाऽपृच्छन्ममाश्चर्य भगवन् ! हस्तिमोक्षणात् ।। ३४७॥ महर्षिरूचे नोर्वीश ! दुष्करं करिमोक्षणम् । तर्कतन्तुपाशमोक्षो दुष्करः प्रतिभासते ॥ ३४८ ॥ राज्ञा पृष्टश्च स मुनिस्तकुंतन्तुकयां तथा । कथयामास राजाऽपि सलोकोऽपि विसिष्मिये ॥ ३४९ ॥ स आर्द्रककुमारर्षिरभाषत ततोऽभयम् । निःकारणोपकारी त्वं ममाभूधर्मवान्धवः ।। ३५० ॥ त्वया हि प्रेषिता राजपुत्राहमतिमा मम । सदर्शनादहं जातीस्मरीभूयाहतोऽभवम् ॥ ३५१ ॥ किं किं त्वया न दत्तं मे किं किं नोपकृतं ननु । येनाहमाईते धर्मे कृत्वोपायं प्रवर्तितः ॥ ३५२ ।। अनार्यत्वमहापंकनिमग्नोऽहं त्वयोद्धृतः । त्वबुद्ध्युत्पन्नयोधः सन्नार्यदेशे प्युपागमम् ॥ ३५३ ॥ परिव्रज्यां प्रपन्नोऽस्मि त्वयाऽहं प्रतियोधितः । ततोऽभयकुमार ! त्वं श्रेयोभिर्भृशमेधसे ॥ ३५४ ॥
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R
॥२१॥
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श्रेणिकश्चाभयश्चान्ये लोकाश्च तमृर्षि ततः । वन्दित्वा प्रीतमनसः स्वं स्वं प्रययुराश्रयम् ।। ३५५ ॥
तदा पुरे राजगृहेऽभ्युपेतं
श्रीवीरनाथं म मुनिर्ववन्दे । नत्पादपमद्वयसेवया स्वं
कृतार्थयित्वा च शिवं प्रपदे ॥ ३५६ ॥ ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्य दशमपर्वणि चेलणायोग्यैकरतभप्रासादनिर्माणान
फलापहरण-श्रेणिकविद्याग्रहण-दुर्गन्धाकथा-5ऽककुमारकथावर्णनो नाम सप्तमः सर्गः।।
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॥ अथ अष्टमः सर्गः ॥
अथ भव्यानुग्रहाय ग्रामाकरपुरादिषु । विहरन् ब्राह्मणकुण्डग्रामेऽगात् परमेश्वरः ॥ १॥ बहुशालाभिधोद्याने पुरात्तस्माद्बहिःस्थिते । चक्रुः समवसरणं निवप्रं त्रिदशोत्तमाः ॥२॥ न्यषदत्प्राङ्मुखस्तत्र पूर्वसिंहासने प्रभुः । गौतमाया यथास्थानं सुरायाश्चावतस्थिरे ॥ ३ ॥ श्रुत्वा सर्वज्ञमायातं पौरा भूयांस आययुः । देवानन्दार्षभदत्तात्रेयतुस्तौ च दंपती ॥ ४॥ त्रिश्च प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्य च जगद्गुरुम् । श्रद्धावानृषभदत्तो यथास्थानमुपाविशत् ॥५॥ दवानन्दा प्रभु नत्याषेमदत्तस्य पृष्ठतः । शुश्रूषमाणोचेज्ञाऽस्थावानन्दविकचानना ॥६॥ स्तनाभ्यां साक्षरत्स्तन्यं रोमाञ्चश्चाभवत्तनौ । तदा च देवानन्दायाः पश्यन्त्याः परमेश्वरम् ॥ ७॥ तथाविधां च तां प्रेक्ष्य आतसंशयविस्मयः। स्वामिनं गौतमस्वामी पप्रच्छेति कृताञ्जलिः ॥ ८॥
MORMACROCHAR
१वनाऽस्था ।
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HY-४
YPAPLNAML-AVM
उत्प्रस्नवा निर्निमेषदृष्टिदेववधूरिव । देवानन्दा तवाऽऽलोकात्सूनोरिव कथं प्रभो ॥९॥ अधाख्यद्भगवान् वीरो गिरा स्तनितधीरया । देवानां प्रिय ! भो देवानन्दायाः कुक्षिजोऽस्म्यहम् ॥१०॥ दिवश्च्युतोऽहमुषितः कुक्षावस्या द्वयशीत्यहम् । अज्ञातपरमाथापि तनेषा वत्सला मयि ॥ ११ ॥ देवानन्दर्षभदत्तो मुमुदाते निशम्य तत् । सर्वा विसिध्मिये पर्षत्तागश्रुतपूर्विणी ॥ १२ ॥ क सूनु स्त्रिजगन्नाथः क चावां गृहिमात्रको । इत्युत्थाय ववन्दाते दम्पती तो पुन: प्रभुम् ॥ १३ ॥ पितरो दुःप्रतीकारावी ग्धीभगवानपि । तावृष्टिश्य जनांश्चापि विदध देशनामिति ॥१४॥ इयं माता पितेषोऽयं पुत्र इत्यादिको भये । जायते विघटते च संबन्धः प्राणिनामिह ॥ १५ ॥ इन्द्रजालप्रायमेतत्समस्तमपि संमृतौ । न वस्तुं क्षणमप्यत्र श्रदधीत विविक्तधीः ॥ १६ ॥ इदं शरीरं नो यावज्जर्जरीकुरते जरा । न यावदन्तकः प्राणानाच्छेत्तुमुपतिष्ठते ॥ १७ ॥ सुखाद्वैतनिधानस्य निर्वाणस्यैकसाधनीम् । ताबड़ीक्षामाश्रयध्वं प्रमादोऽत्र न युज्यते ॥ १८ देवानन्दर्षभदत्तावथ नत्वैवमृचतुः। आवां विरक्तौ संसारवासादस्मादसारतः ॥ १९ ।। देहि जंगमकल्पद्रो ! दीक्षा संसारनारणीम् | तरीतुं तारयितुं च कोऽपरस्त्वहते क्षमः ॥ २० ॥ अस्त्वेतदिति नाथेन प्रोक्तो तौ धन्यमानिनौ । ईशान्यां दिशि गत्वोझाचक्रतुझ्षणादिकम् ॥ २१ ॥ पञ्चमुष्टिकचोत्पाटं कृत्वा संवेगतस्तु तौ । नाथं प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा चैवमूचतुः ॥ २२ ॥
॥२२०
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स्वाभिजन्मजरामृत्युभीतौ त्वां शरणं श्रितौ । स्वयं दीक्षाप्रदानेन प्रसीदानगृहाण नौ ॥ २३ ॥ ददौ तयोः स्वयं दीक्षां समाचारं शशंस च । आवश्यकविधिं चाख्यनिरवद्यमनस्कयोः ॥ २४ ॥ वसन्त सन्तो यत्राहरपि तत्रोपकारिणः । किं पुनर्भगवान् विश्वकृतज्ञग्रामणीः प्रभुः ॥ २५ ॥ देवानन्दां चन्दनायै स्थविरेभ्यस्त्ववर्षभम् । स्वामी समर्पयामास तौ चाऽपातां परं व्रतम् ॥ २६ ॥ rataraint at नानाविधतपः परौ । अवाप्य केवलज्ञानं मृत्वा शिवमुपेयतुः ॥ २७ ॥ भगवान् वमानोsपि जगदानन्दवर्धनः । विजहार ततो धात्रीं ग्रामाकरपुराकुलाम् ॥ २८ ॥ क्रमाच्च क्षत्रियकुण्डग्रामं स्वामी समाययौ । तस्थौ समवसरणे विदधे चाथ देशनाम् ॥ २९ ॥ स्वामिनं समवसृतं नृपतिर्नन्दिवर्धनः । ऋद्ध्या महत्या भक्त्या च तत्रोपेयाय वन्दितुम् ॥ ३० ॥ स त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा च जगद्गुरुम् । उपाविशयथास्थानं भक्तितो रचिताञ्जलिः ॥ ३१ ॥ जमालिर्नाम जामेयो जामाता च प्रभोस्तदा । प्रियदर्शनया सार्धं तत्र वन्दितुमायौ ॥ ३२ ॥ जमालिर्देशनां श्रुत्वा पितरावनुमान्य च । क्षत्रियाणां पञ्चशत्या सहितो व्रतमाददे ॥ ३३ ॥ जमालिभार्या भगवदुहिता प्रियदर्शना । सहिता स्त्रीसहस्रेण प्राब्राजीत् स्वामिनोऽन्तिके ॥ ३४ ॥ विहर्तुमन्यत्र ततश्च भगवानपि । जमादिरप्यनुचरः सहितः क्षत्रियर्षिभिः ॥ ३५ ॥ एकादशांगीमध्यैष्ट जमालिविंहरन् क्रमात् । सहप्रब्रजितानां च तमाचार्य व्यधात्प्रभुः ॥ ३६ ॥
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[॥ २२६
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चतुर्थषष्ठाष्टमादीन्यतयन तपांसि सः । चन्दनामनुगच्छन्ती सा चापि प्रियदर्शना ॥ ७ ॥ नायं जमालिनत्वोचेऽन्यदाऽहं सपरिच्छदः । विहारेणानियतेन प्रयामि त्वदनुज्ञया ॥ ३८॥ अनर्थ भाविनं ज्ञात्वा भगवान् ज्ञानचक्षुषा । भूयो भूयः पृच्छतोऽपि जमालनोंत्तरं ददौ ॥ ३९॥ अनिषिद्धमनुज्ञातं जमालिरिति बुद्धितः । विहां सपरीवारः प्रभुपाचाद्विनिर्ययौ ॥ ४० ॥ ऋमेण विहरन प्राप श्रावस्ती सोऽन्यदा पुरीम् । बहिश्च समवासादुद्याने कोष्टकाभिधे । ४१ ॥ विरसैः शीतलै रुस्तुच्छरसमयाशितैः । पानान्नस्तस्य चान्येास्तत्र पित्तज्वरोऽभवत् ।। ४२ ।। आमोनः सोऽसहः स्थातुं पंकान्तरिय कोलकः । संस्तरको में क्रियतामित्युषाचान्तिषन्मुनीन् ॥ ४३ ॥ नेऽपि संस्तरकं कर्तुं प्रारमन्त महर्षयः । शिष्याः कुर्वन्ति गुर्वाज्ञां राजाज्ञामिव सेवकाः ॥ ४४॥ पित्तन पोडितोऽत्यन्तं सोऽपृच्छच्च पुनः पुनः । किं संस्तृतः संस्तरको ? न वेति ब्रून साधवः ॥ ४२ ॥ संस्तरकः संस्तृतोऽसावित्यूचुः साधवोऽपि हि । उत्थाय प्रययावाती जमालिश्च तदन्तिकम् ॥ ४ ॥ संस्तरं संस्तीर्यमाणं प्रेक्ष्याक्षमवपुष्ट्या । निषद्योत्पन्नमिथ्यात्वः क्रुद्धः साधूनदोऽवदत् ॥ ४५ ॥ भो भोश्चिरं वय भ्रान्तास्तत्त्वं ज्ञातं चिरादिदम् । क्रियमाणं न हि कृतं कृतमेय कृतं खलु ।। ४८ ॥ संस्तरः संस्तीर्यमाणः संस्तीर्ण इति वर्णितः । यद्भवनिरसत्यं तन्न वक्तुं जातु युज्यते ॥ ४९ ॥ उत्पद्यमानमुत्पन्नं क्रियमाणं कृतं च यत् । ब्रूतेऽर्हस्तन्न घटते प्रत्यक्षेण विरोधतः ॥५०॥
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२२
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परापरक्षणव्यूहयोगनिष्पधमानके । कार्ये कथं कृतमिति प्रारम्भेऽपि निगमते? ॥ ११ ॥ अर्थक्रियाविधालय यस्य तस्येय वस्तुतः । पदार्थ प्रथमकालोत्पन्ने तदपि नास्ति हि ॥५२॥ अप्यारम्भे कृतमिति यदि शेषक्षणेषु तत् । कृतस्य करणे नूनमनवस्था मसज्यते ॥ ५३॥ नयुक्तिसंगतमिदं कृतमेव कृतं स्फुटम् । न स्वजातस्य पुत्रस्य नाम केनापि दीयते ॥५४ ।। प्रत्यक्ष प्रतिपयध्वं निदोष मुनयस्ततः । न युक्तमिति गृधेत युक्तियुक्तं हि गृह्यते ॥ २५ ॥ सर्वज्ञ इनि विख्यातो नाईन्मिथ्या वदेदिति । नैयं सोऽपि वदत्येव स्खलनं महतामपि ॥ ५६ ॥ एवं विभाषमाणं तं मुक्तमर्यादमुत्क्रुधम् । जमालिमूचुः स्थविरा विपरीतं ब्रवीषि किम् ? ॥ ५७ ॥ न जल्पत्यन्यथाऽहन्नो रागद्वेषविवर्जिताः । न प्रत्यक्षविरुद्धादिदोषलेशोऽपि तगिराम् ॥२८॥ यद्याय समये वस्तु निष्पन्नं नोच्यते तदा । समयाविशेषात्तस्योत्पत्तिर्न समयान्तरे ॥५॥ अर्थक्रियामायकत्वं वस्तुनो यच्च लक्षणम् । तदप्यव्यभिचार्येवाभिधाज्ञानोपयोगतः ॥ ६० ॥ नथाहि तादृशं वस्तु लोकैः प्रथमतोऽपि हि । किं करोषीति पृष्टः सन् घटाद्यभिधया वदेत् ॥ ३१ ॥ पूर्वकालकृत यच्चानवस्था करणस्य हि । सायलीकाऽन्यान्यकार्यान्तरसाधनतः खलु ॥ १२ ॥ छद्मस्थानां त्वादृशानां युक्तायुक्तविवेचनम् । कथं भवेयुक्तियुक्तं त्वद्वचो येन गृह्यते ॥ ३३ ॥
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सर्वज्ञः केवलालोकज्ञानत्रैलोक्यवस्तुकः । प्रमाणं भगवान् वीरो युक्त्ययुक्ती मुधैव ते ॥ ६४ ॥ यवादीमाले ! त्वं स्खलनं महतामिति । मत्तस्येव प्रमत्तस्येवोन्मत्तस्येव ते वचः ॥ ६५ ॥
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क्रियमाणं कृतमिति साधु सर्वज्ञभाषितम् । न चेत्तद्वचसा राज्यं संत्यज्य प्राव्रजः कथम् ? ॥ ६६ ॥ अदृष्यं दूषयंस्तस्य वचनं किं न लज्जसे ? । निमज्जसि भवाम्भोधौ किमनेन स्वकर्मणा ॥ ६७ ॥ प्रायश्चित्तं गृहाण त्वं श्रीवीरस्वामिनोऽन्तिके । निजं तपो जन्म चेदं मा स्म नैषीर्निरर्थकम् ॥ ६८ ॥ अप्येकाक्षरमात्रं यः श्रद्दधात्यर्हतां न हि । प्रपद्यते स मिध्यात्वं ततो भवपरंपरांम् ॥ ३९ ॥ बहुवा स्थविरैरेवं जमालियोधितोऽपि हि । न न्यवर्तिष्ट कुमतान्मौनमेव तु शिश्रिये ॥ ७० ॥ कुमनप्रतिपन्नं तं हित्वा केऽपि सदैव हि । स्थविराः स्वामिनं जग्मुः केऽपि तत्रावतस्थिरे ॥ ७१ ॥ मोहन स्त्रीसुलभेन प्राकू स्नेहेन च शिश्रिये । जमालिपक्षं सपरीवाराऽपि प्रियदर्शना ॥ ७२ ॥ क्रमाज्जमालिरुल्लाघ आत्मानमपरानपि । व्युद्ग्राहयन् दुर्मतेन तेन च प्रतिवासरम् ॥ ७३ ॥ हसन् जिनेन्द्रवचनं सर्वज्ञोऽहमिति ब्रुवन् । साहंकारः प्रववृते विहर्तुं सपरिच्छदः ॥ ७४ ॥ युग्मम्) सोऽन्येrः पुरिचंपायां पूर्णभद्राभिषे वने । श्रीवीरं समवसृतं गत्वाऽवादीन्मदोद्धरः ॥ ७५ ॥ छद्मथा असमुत्पन्नचला भगवंस्तव । शिष्या विपन्ना भूयांसस्ताहगस्मि न खल्वहम् ॥ ७६ ॥ १ युक्तायुक्त ( ||२८ ॥
अष्टम
सर्ग:
॥ २२४
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अक्षये मे समुत्पन्ने केवलज्ञानदर्शने । सर्वज्ञः सर्वदर्शी चाह मेयानिह क्षितौ ॥ ७७ ॥
अथोचे गौतमस्त्वं भो ! जमाले ! ज्ञानवान् यदि । किं शाश्वतोऽशाश्वतो वा जीवो लोकश्च शंस तत् ७८ तस्य प्रत्युत्तरं मूढो जमालिर्दातुमक्षमः । प्रसारितमुखस्तस्थौ शून्यो वायसपोतवत् ।। ७९ ।। अधोचे भगवान् बोरो जमाले ! विद्धि तत्त्वतः । शाश्वतोऽशाश्वतश्रायं लोको जीवोऽपि लोकवत् ॥ ८० ॥ araisi aorरूपत्वाच्छाश्वतोऽशाश्वतः पुनः । प्रतिक्षणपरिध्वंसि पर्यायापेक्षया खल ॥ ८१ ॥ जीवोsपि द्रव्यरूपत्वापेक्षत्वेनैष शाश्वतः । अशाश्वतो नृदेवादिपर्यायान्तरसंभवात् ॥ ८२ ॥ एवमाख्यात्यपि नाथे मिथ्यात्वमथिताशयः । निर्ययौ समवसृतेर्जमालिः सपरिच्छदः ॥ ८३ ॥ ततो जमालिः संघेन निह्वत्वाद्वहिष्कृतः । स्वामिनः केवलोत्पत्तेस्तदाऽब्दानि चतुर्दश ॥ ८४ ॥ स्वदर्शनाभिप्रायं स सर्वत्रापि प्ररूपयन् । स्वच्छन्दधारी सर्वज्ञमानी व्यहरतावनिम् ॥ ८५ ॥ जज्ञे प्रसिद्धिः सर्वत्र यज्ञमालिर्जगद्गुरोः । मोहाद्विप्रतिपन्नः सन् मिथ्यात्वं प्रतिपन्नवान् ॥ ८६ ॥ fararver सोऽगाच्छ्रावस्तीं नगरीं पुनः। तस्थावेकत्र घोषाने परिवार समावृतः ॥ ८७ ॥ आर्यासहस्रसहिता साप्यार्या प्रियदर्शना । तस्थौ ढंककुलालस्य शालायामृद्धिशालिनः ॥ ८८ ॥ परमश्रावको कस्ता डा कुमतस्थिताम् । बोधयिष्याम्युपायेन केनापीति व्यचिन्तयत् ॥ ८९ ॥ सभाण्डान्यन्यदोचिन्वन् बुद्धिपूर्वमलक्षितम् । पटे प्रियदर्शनायाश्चिक्षेप हुतभुक्कणम् ॥ ९० ॥
| ॥ २३
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दह्यमानं परं प्रेक्ष्य बभाषे प्रियदर्शना । भो ढंक ! त्वत्प्रमादेन पश्य दग्धः पटो मम ॥ ९१ ॥
युवा मा साध्वि ! मृषा बादीर्मते हि वः । सकलेऽपि पटे दग्धे युज्यते वक्तुमीदृशम् ॥ ९२ ॥ मानोऽपि दग्वोऽयमिति बाक् श्रीमदर्हताम् । युज्यते प्रतिपत्तुं तत्तद्वचोऽनुभवादपि ॥ ९३ ॥ तच्छ्रुत्वा साऽपि चोत्पन्नशुद्धधीरादिति । अनि साध्यस्मि बोधिता ॥ ९४ ॥ ही दूषितत्कालं श्रीरस्वामिनो वचः । तन्मियादुष्कृतं मेऽस्तु तत्प्रमाणमतः परम् ।। ९५ ।। अव ढंको बभाषे तां साधु चेतितवत्यसि । गच्छाधुनापि सर्वज्ञं प्रायश्चित्तं समाचर ॥ ९६ ॥ टंकेनेत्युदिनेच्छामोऽनुशिष्टिमिति भाषिणी । हित्वा जमालिं सपरीवारा वीरं जगाम सा ॥ ९७ ॥ जमालिवर्जमन्येऽपि ढंकेन प्रतिबोधिताः । सर्वेऽपि मुनयो जग्मुः श्रीवीरस्वामिनोऽन्तिके ॥ ९८ ॥ ततो जमालिरेकाकी कुमतेन प्रतारयन् । महीं पर्याट भूयांसि वर्षाणि व्रतमाचरन् ॥ ९९ ॥ अन्तेऽर्धमासानशनं कृत्वा दुष्कर्म तन्निजम् । अनालोच्य मृतः कल्पे षष्ठे किल्बिषिकोऽभवत् ॥ १०० ॥ मृतं जमालिं विज्ञाय वन्दित्वा गौतमः प्रभुम् । पप्रच्छ कां गतिं प्राप ? जमालिः स महातपाः ॥ १०१ ॥ स्वाम्याख्यल्लान्तके कल्पेऽभवत् किल्विषिकामरः । त्रयोदशसमुद्रायुर्जमालिः स तपोधनः ॥ १०२ ॥ भूयोऽपि गौतमोऽपृच्छत्तपोभिस्तादृशैरपि । सोऽभूत् किल्विषकः कस्माच्च्युत्वा च क स यास्यति । १०३ अथाख्यद्भगवान् धर्मगुरूणां शीलशालिनाम् । उपाध्यायकुलगणसंघानां च विरोधिनः ॥ १०४ ॥
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अष्टमः
सर्गः
॥ २२
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तपस्तदाऽपि जायन्ते जीवाः किल्यिधिकादिषु । जमालिरपि दोषेण तेन किल्बिधिकोऽभवत् ॥ १०५ ॥ ( युग्मम्)
चत्वा ततः कृत्वा नि । अचप्तवोधिर्निर्वाणं जमालिः समवाप्स्यति ॥ १०६ ॥ धर्माचार्यप्रभृतीनां तन भाव्यं विरोधिना । एवमाख्याय भगवान् विहरन्नन्यतो ययौ ॥ १०७ ॥ इश्व साकेतपुरे यक्षो नाना सुरमियः । स चित्र्यते च प्रत्यब्दं क्रियते महोत्सवः ॥ १०८ ॥ स चित्रकं चित्रकरं चित्रितः सन्निहन्ति च । अचित्रितः पुनमरिं विकरोति पुरेऽखिले ॥ १०९ ॥ ततो भीताचिकः प्रावर्तन्त पलायितुम् । रुद्धाश्च भूभुजा सर्वे स्वप्रजा मारिभीरुणा ॥ ११० ॥ तेषामात्तप्रतिभुव लिखित्वा पत्रकेषु च । घटे क्षिप्तानि नामानि यमाक्षपटलोपमे ।। १११ ॥ आपातमात्रेणाकृष्टमन्देऽब्दं यस्य पत्रकम् । निर्ययौ चित्रयक्षं स गत्वा तमचियत् ॥ ११२ ॥ एवं व्रजति काले च कौशाम्य्या एकदैककः । चित्रकृद्दारकस्तत्र चित्रशिक्षार्थमाययौ ॥ ११३ ॥ चित्रकृत्स्थविरायाः स तस्थौ कस्याश्चिदोकसि । समं तत्सूनुना मैश्री जज्ञे तस्य क्रमेण च ॥ ११४ ॥ तदा च स्थविरानोर्निर्ययौ नामपत्रकम् । कृतान्नोत्क्षिप्तपत्राभं स्थविरा सा रुरोद च ॥ ११५ ।। कौशाम्बीचित्रकृना पृष्ठा रुदितकारणम् । सा चख्यौ यक्षवृत्तान्तं स्वपुत्रस्य च वारकम् ॥ सोऽप्यभाषिष्ट मा रोदीर्मातस्तिष्ठतु ते सुतः । चित्रकृद्भक्षकं यक्षं चित्रयिष्याम्यहं हि तम् ॥
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उवाच स्थविराऽप्येवं वत्स त्वमपि मे सुतः । सोऽप्युवाचाम्ब ! मे भ्राता मयि सत्यस्तु सुस्थितः ॥११८॥ | स कृत्वा समये षष्टं स्नात्वा चन्दनचर्चितः । शुच्यंाकोऽष्टगुणया पट्या संयमिताननः ॥ ११९ ॥ नूननैः कूर्चकैरग्रयैर्वर्णकैस्तमधिनयत् । चित्रकृहारको यक्ष नत्वा चैवमवोचत ।। १२० ॥ सुरप्रिय सुरश्रेष्ठ निमातु चित्रकर्म ते । कोऽलमत्यन्तनिष्णोऽपि मुग्धः कोऽहं वराककः ॥ १२१ ॥ नथापि हि यथाशिक्षं यक्षराज ! मया कृतम् | युक्तायुक्तं तत्क्षमस्व निग्रहानुग्रहक्षम ! ॥ १२२ ॥ एवं तस्य गिरा तुष्टो यक्षो विनयसारया । ऊचे वरं वृणीष्वेति वने चित्रकृदयदः ॥ १२३ ॥ त्वं देव ! यदि तुष्टोऽसि वराकस्य ममाधुना । वरस्तदयमेवास्तु मार्यों नातः परं जनः ।। १२४ ॥ यक्षोऽप्यूचे सिद्धमेतद्यत्त्वं नैव विनाशितः। अन्यथाचस्व भो भद्र ! स्वार्थसिद्धिनिबन्धनम् ॥ १२५ ॥ चित्रकृत्पुनरूचेऽथ मारिश्चंद्रक्षिता त्वया । संजातः कृतकृत्योऽहं स्वामिनेतायतापि हि ॥ १२६ ॥ विस्मितोऽधायदद्यक्षः परार्थवरयाचया । भूयोऽपि तव तुष्टोऽस्मि घृणु स्वार्थकृते वरम् ॥ १२७ ॥ उवाच चित्रकृदपि तुष्टोऽसि यदि देय ! मे । यस्य द्विपदस्य चतुःपदस्यान्यस्य वापि च ॥ १२८ ॥ पश्याम्येकांशमपि हि तदंशस्यानुसारतः । यथावस्थिततद्रूपालेखने शक्तिरस्तु मे ॥ १२९ ॥ (युग्मम्) एवमस्त्विति यक्षेणोदितः पौरैश्च पूजितः । ययौ पुरी स कौशाम्बीं शतानीकनृपाश्रिताम् ॥ १३० ।।
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१'रज्वेट!
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तत्रान्यदा शतानीका सभास्थो गर्वितः श्रिया । ऊचे दूतं नास्ति किं मे यदस्ति परभूभुजाम् ॥ १३१ ।। तव चित्रसमा नास्तीत्यूचे दूतेन भूपतिः। स चाऽदिशचित्रकरान् सभाचित्रणहतवे ॥ १३२ ॥ चिप्रकृद्भिः सभाभूमिर्विभज्य जगृहे च सा। अन्तःपुरासन्नदेशस्तस्य चित्रकृतस्त्वभूत् ।। १३३ ॥ चित्रं तत्र च कुर्वाणो जालकस्यान्तरेण सः। पादांगुष्ठं मृगावत्या देव्याः सोर्मिकमैक्षत ॥ १३४ ॥ इयं मृगावती देवीत्यनुमानात् स चिनकृत् । आलिखत्तां तथारूपां यक्षराजप्रसादतः ॥ १३५ ॥ उन्मील्यमाने नेत्रे तृरुमूले कूर्चिकामुखात् । निपपात मषीयिन्दुः सोऽपनिन्ये च तं द्रुतम् ॥ १३६ ॥ भूयोऽपतन्मषीविन्दुर्भूयः सोऽपि ममार्ज तम् । भूयश्च पतितं प्रेक्ष्य स चित्रकृदचिन्तयत् ॥ १३७ ।। नूनं लाञ्छनमेतस्याः प्रदेशे ह्यत्र विद्यते । भवितव्यं ततोऽनेन नापनेष्याम्यतः परम् ॥ १३८ ॥ एवं समापिने चित्रे तत्रागादीक्षितुं नृपः । पश्यन् क्रमेण तद्रूपं मृगावत्याः ददर्श च ॥ १३९॥ । ऊरौ प्रेक्ष्य च तं विन्दु क्रुद्धो राजा व्यचिन्तयत् । विध्वस्ता नूनमेतेन पापेन मम पत्न्यसौ ॥ १४ ॥ अन्यथा वस्त्रमध्यस्थं मषग्रन्धि मृगीदृशः । मृगावत्या विजानीयात् कथमेष दुराशयः ।। १४१ ॥ इति कोपेन तं दोषमुदीर्य नृपतिः स्वयम् । आरक्षकाणां तं सद्यो निग्रहाय समार्पयत् ॥ १४२ ।। नृपं चित्रकृतोऽथोचुरसावकाशदर्शनात् । लिखत्यखिलमालेख्यं यक्षदत्तवरौजसा ॥ १४३ ॥ इत्युक्ते तत्परीक्षार्थं श्माभुजा क्षुद्रचेतसा । वरचित्रकृतस्तस्य दर्शितं कुब्जिकामुखम् ॥ १४४ ॥
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farai तां यथारूपां सोऽथ चित्रकरोऽलिखत् । तथाप्यमर्षाद्राजा तत्सवंशकमकर्तयत् ॥ १४५ ॥ चित्रकृत् सोऽपि तं यक्षं गत्वाऽश्रयदुपोषितः । सोऽप्यूचे वामहस्तेन तद्वश्चित्रं करिष्यसि ॥ १४६ ॥ एवं वरश्चित्रकरोऽमर्षादचिन्तयत् । अहं निरागास्तेनेमां किं राज्ञा प्रापितो दशाम् ॥ १४७ ॥ तस्य प्रतिकरिष्येऽहमुपायेनापि केनचित् । कुर्वन्ति विक्रमासाध्यं साध्यं बुद्धधैव श्रीधनाः ॥ १४८ ॥ एवं विमृश्य फलके कल्पिताकल्पभूषणाम् । विश्वैकभूषणं देवीं स लिलेख मृगावतीम् ॥ १४९ ॥ स्त्रीलोलस्य प्रचण्डस्य चण्डप्रद्योत भूपतेः । गत्वा मृगावतीरूपं स मनोज्ञमदर्शयत् ॥ १५० ॥ तत्प्रेक्ष्य चण्डप्रोस्तमूचे चित्रकवर ! | विज्ञानकौशलं मन्ये तवेदं न तु वेधसः ॥ १५१ ॥
दृष्टपूर्वस्मिन् श्रुतपूर्वं न वा दिवि । केथं रूपमलेखीदं प्रतिच्छन्दं विना त्वया ।। १५२ ।। आख्याहि सत्यतः केयं येन गृह्णाम्यसुमहम् । अस्थाने कविदस्त्येषा मय्येवौचित्यमश्चति ॥ १५३ ॥ पूर्णो मनोरथो मेsसाविति हृष्टोऽथ चित्रकृत् । शशंस पुरि कौशास्त्र्यां शतानीकोऽस्ति भूपतिः ॥ १५४ ॥ नानामृगावती पूर्णमृगांकास्या मृगेक्षणा । एषाऽग्रमहिषी तस्य मृगारातिसमौजसः ॥ १५५ ॥ लेखितुं तां यथावस्थां विश्वकर्माऽपि न क्षमः । मया तु किंचिल्लिखिता दूरे सा वचसामपि ॥ १५६ ॥
१ रूपं ॥
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अष्टमः
स्वर्गः
| ॥ २३०
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LAM.MMYAMKV.
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उवाच चण्डप्रयोतः शतानीकस्य पश्यतः । मृगस्येव मृगी सिंहो ग्रहीष्यामि भृगावतीम् ॥ १५७ ॥ राजनीतिस्तथाऽप्यस्तु यातु दृतस्तदर्थने । अनर्थः प्रथमं तस्य मा भूदादेशकारिणः ॥ १५८ ॥ इति प्रेषीद्वनजंघं सोऽनुशिष्य तदन्तिके । गत्वा सोऽपि शतानीकं इतराडेवमब्रवीत् ॥ १५९ ॥ शतानीकादिशति त्वां चण्डप्रद्योतभूतिः । देवी मृगावती लब्धा त्वया देवादियं खलु ॥ १६०॥ स्त्रीरत्नमीदृशं योग्य भामेव त्वं हि कीदृशः । तच्छी प्रेषयास्मभ्यं राज्यं प्राणाश्च चेत्प्रियाः ॥१६१ ॥ शतानीकोऽप्यथोवाच कोपाद्रे तपांशन ! । अनाचारं वदन्नेवं दूनत्वान्नाय हन्यसे ॥ १६२ ॥ ईदृग्मय्यप्यनायत्ते यस्येच्छा तस्य पाप्मनः। स्वाधीनायांक आचार: प्रजायां हन्त वर्तते ॥ १६३ ॥ शतानीकनपेणैवं दूतो निर्भर्त्म निर्भयम् । निर्वासितोऽगादवन्त्यां प्रद्योतस्य शशंस च ॥ १६४ ॥ क्रुद्धोऽय चण्डप्रद्योतः सैन्यैराच्छादयन् दिशः । चचाल प्रतिकौशाम्बि निर्मर्याद इवार्णवः ।। १६५ ॥ श्रुत्वा प्रद्योतमायान्तं गरुत्मन्तमिवोरगः । जातातिसारः प्रक्षोभाच्छतानीको व्यपद्यत ॥ १६६ ॥ देवी मृगावती दध्यो पतिस्तावद्वयपादि मे । यालः स्वल्पबलः सूनुरसावुदयनोऽपि च ॥ १६७ ॥ बलीयसोऽनुसरणं नीतिः स्त्रीलम्पटे त्विह । सा मे कुलफलंकाय तस्माच्छन्नेह युज्यते ॥ १६८॥ वाधिकैरनुकूलैस्तदेतमत्र स्थताऽप्यहम् । प्रलोभ्य कालं नेष्यामि समयप्राप्तिकांक्षया ।। १६९ ॥ १ मृगी C... ||
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अष्टमः सर्गः
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विमृश्यैवमनुशिष्य दृतः प्रस्थापितस्तया । स्कन्धावारस्थितं गत्वा चण्डप्रद्योतमब्रवीत् ॥ १७० ॥ ब्रूते मृगावतीति त्वां शतानीके दिवं गते । त्वमेव शरणं किं तु पुत्रोऽप्राप्तघलो मम ॥ १७१ ॥ मयाऽयं मुक्तः प्रत्यन्तभूपैरभिभविष्यते । भृशं पितृविपत्त्युत्यैः शोकावेगैरिवोल्बणैः ॥ १७२ ॥ प्रद्योतस्तद्गिरा हृष्टोऽभाषिष्ट ननु तत्सुनाम् । पराभवितुमीशः स्यात् को नाम मयि गोप्तरि ॥ १७३ ॥ दूतोऽवदत् पुनर्देव ! देव्यैतदपि भाषितम् । प्रद्योते स्वामिनि सुतं न जेतुं कश्चिदीश्वरः ।। १७४ ।। देवपादाः परं दूरे समीपे सीमभूभुजः । तदोषथ्यो हिमगिराबहिरुच्छीर्षके पुनः ॥ १७५ ॥ त्वं निर्विघ्नं मया योगं यदीच्छसि कुरुष्व तत्। उज्जयिन्या इष्टकाभिः कौशाम्ब्यां वरमुत्कटम् ॥ १७६ ।। प्रद्योतस्तत्प्रपे देऽथ मागें श्रेणितया निजान । चतुर्दशापि नृपतीनमुचत् सपरिच्छदान् ॥ १७७ ॥ पुस्परम्परयाऽवन्त्याः समानीय स इष्टकाः । कौशाम्ब्या वप्रमकरोलिष्ठमचिरादपि ॥ १७८ ॥ भूयो मृगावती दूतमुखेनोचे पुरीमिमाम् । धनधान्येन्धनावीस्त्वं प्रयोत नृप ! पूरय ॥ १७९ ॥ सर्वमाशु तथा चक्रे चण्डप्रद्योतभूपतिः। किं किं करोति न पुमानाशापाशवशीकृतः॥ १८ ॥ पुरी रोधक्षमा ज्ञात्या धीमत्यथ मृगावती । तस्थौ पिधाय द्वाराणि वने चारोपयद्भूटान् ॥ १८१ ।। चण्डप्रद्योतराजोऽपि तस्थौ रुद्ध्वाऽभितः पुरीम् । मालम्बभ्रष्टकपिवत् परं वैलक्षमुद्न् ॥ १८२॥ १ मया स . ॥ २ प्रति C. L. ॥ ३ देमा !... ||
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अन्येयुरुपद्वैराग्या दध्याचेवं मृगावती । यथेति भगवान् वीरः प्रत्रजामि तदा यहम् ॥ १८३ ॥ इमं च तस्याः संकल्पं विज्ञाय परमेश्वरः । सुरासुरपरीवारोऽचिरादेव समापयौ ॥ १८४ ॥
समवतं श्रुत्वाऽर्हन्तं मृगावती । द्वाराण्युद्धाय निर्भीका महाऋद्ध्या समाययौ ॥ १८५ ॥ सा वन्दित्वा जगन्नार्थं यथास्थानमवास्थित । प्रद्योतोऽप्येत्य वन्दित्वा त्यक्तवैरमुपाविशत् ॥ ९८६ ॥ आयोजनविसर्पिण्या सर्व भाषानुयातया । गिरा श्रीषीरनाथोऽथ विदधे धर्मदेशनाम् ॥ १८७ ॥ सर्वज्ञोऽसाविति जनाच्छुत्वको धन्वभृत्पुमान् । संशयं मनसाऽपृच्छद्दूरस्थो जगद्गुरुम् ॥ १८८ ॥ तं बभाषे जगन्नाथ वचसा पृच्छ संशयम् । अन्येऽपि प्रतिबुध्यन्ते भव्यस्वा अमी यथा ॥ १८९ ॥ इत्युक्तेऽपि पानिनो व्यक्तं वक्तुमनीश्वरः । स ऊंचे भगवन् या सा सा सेति प्रमिताक्षरम् ॥ १९० ॥ एवमेतदिति स्वामी प्रोत्रे मुकुलिताक्षरम् । पमच्छ गौतमः स्वामिन् ! या सा सा सेति किं वचः ॥ १९१ ॥ अधाचचक्षे भगवानिहैव भरते पुरि। चम्पायां स्वर्णकारोऽभूदेकः स्त्रीलम्पटः पुरा ॥ ११२ ॥ यां यां रूपवती कन्यामपश्यद्विचरन् भुवि । पञ्चस्वर्णशतीं दत्त्वा तां तां परिणिनाय सः ॥ १९३ ॥ पणैषीत् क्रमादेवं स्त्रीणां पंचशतानि सः । सर्वांगीणाभरणानि तासां प्रत्येकमप्यदात् ॥ १९४ ॥ वारकोऽभूदा यस्याः सर्वालंकारभूत्तदा । स्नानांगरागलिप्तांगी तेन रन्तुं ससज सा ॥ १९५ ॥
CLM. 11
॥ २३३
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अष्टमः
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अन्यदाऽस्थुरुपशान्तवेशाः सर्वाश्च तस्त्रियः। अन्यथाऽशिक्षयत्ताः स तर्जनाताडनादिभिः ॥ १९६ ॥ अतीयोलुनया तासां रक्षणार्थ समुद्यतः । न जातु स गृहद्वारं सौविदल्ल इवामुचत् ॥ १९७ ॥ भोजनं स्वजनेभ्योऽपि न सोऽदत्त निजे गृहे । नामुक्त स्वयमप्यन्यगृहे तासामविश्वमन् ॥ १९८ ॥ अन्यदा प्रियमित्रेणानिच्छन्नपि वाहन ! लिजिगह मोविदं या हि लक्षणम् ॥ ११९॥ तदा च दध्युस्तत्पत्न्यो घिगृद्धिं धिक् च यौवनम् । घिग्जीवितं घतिष्ठामो यद्गुप्ताविव यन्त्रिताः २०० यमदूत इव द्वारं पापः पतिरयं हि नः । न जातु मुंचति चिरादद्य साध्वन्यतो ययौ ॥२०१॥ तिष्ठामः स्वेच्छया तावत् क्षणमद्यति बुद्धितः । स्नात्वांगरागमाकल्पं वरमाल्यादि चादधुः ॥ २० ॥ यावद्दर्पणमादाय स्वं पश्यन्त्योऽवतस्थिरे । तास्तावदाययौ स्वर्णकारो दृष्ट्वा च सोऽकुपत् ।। २०३ ॥ तत्रैका महिलां पापः स तथाऽताडयद् भृशम् | यथा व्यपादि सा दन्तिपादाक्रान्तेष पद्मिनी ॥ २०४।। मन्त्रयाश्चक्रिरेऽथान्या हनिष्यत्येष नोऽपि हि । संभूय हन्मस्तदमुं रक्षितनामुना हि किम् ? ॥ २० ॥ एवं विचिन्त्य तास्तस्मै चाणीव प्रचिक्षिपः। शतानि पंचैकोनानि दर्पणानामशंकिताः ॥ २०६॥ विपदे सोऽपि तत्काल सानुतापाश्च ताः स्त्रियः। चितावज्ज्वालयित्वौको व्यपधन्त क्षणादपि ॥२०७॥ सानुतापतया ताश्चाकामनिर्जरया मृताः । शतानि पंचैकोनानि मनुष्यत्वेन जज्ञिरे ॥ २०८ ।। देवदुर्योगतश्चौर्यजीविनो मिलिताः क्रमात् । एकत्र दुर्ग तिष्ठन्तश्चौर्य संभूय कुर्वते ।। २०९ ॥
-RSAXCASIRAXARKARICA
॥२३४॥
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सोऽप्युत्पेदे स्वर्णकारस्तिर्यक्षु प्राग्मृता तु सा । तत्पत्न्युत्पद्य तिर्यक्षु पुत्रो विप्रकुलेऽभवत् ॥ २१ ॥ पंचाब्दके तत्र जाते निर्यक्त्वात् स्वर्णकृत् स तु । तत्कुले भगिनीत्वेन तस्यैव समजायत ॥२१॥ तस्याश्च पालकश्चक्रे पितृभ्यां स तु दारकः । अतिदुष्टतयाऽरोदीत् पाल्यमानाऽपि तेन सा ।। २१२॥ उदरस्पर्शनं तस्याः कुर्वता तेन चान्यदा । गुो कथमपि स्पृष्टा सा न्यवर्तिष्ट रोदनात् ॥ २१३ ॥ नद्रोदनप्रतीकारं तं ज्ञात्वा स तु दारकः । तस्या रुदल्यास्तत्स्थानस्पर्श चक्र तथैव हि ॥ २१४ ॥ तथा कुर्वन् पितृभ्यां सोऽन्यदा ज्ञातो निहत्य च । निर्वासितो निजगृहाद्ययौ च गिरिगहरे ॥ २१५ ॥ शतानि पंचैकोनानि दस्यवो यत्र तेऽवसन् । तां पल्लीं सोऽगमत्तैश्च चौरैः संयुयुजेतराम् ॥ २१६॥ तस्वसाऽनाप्ततारुण्याऽप्यभवत् कुलदैव सा । स्वेच्छया पर्यटन्ती च ग्रामे काप्यन्यदा ययौ ॥ २१७ ॥ नेस्तस्करः स तु ग्रामस्तदैवागत्य लुण्टितः । गृहोता दारिका सा तु भार्थीचक्रेऽखिलैरपि ॥ २१८ ॥ नेऽन्यदाऽचिन्तयंश्चौरा यदेकेयं वराकिका । सर्वेषां सेवयाऽस्माकं मरिष्यत्यचिरादपि ॥ २१९॥ ते विमृश्येचमानिन्युरपरामपि योषितम् । ईय॑या पूर्वभार्या सा तच्छिद्राणि स्म मार्गति ॥ २२० ॥ चौराचौर्याय चान्येार्ययुः साप्याप्य तच्छलम् । उपकूपं सपत्नी तां निन्ये व्याजेन केनचित् ॥ २२१ ॥ ऊचे च भद्रे ! कूपान्तः किमप्यस्तीह पश्य तत् । साप्यजुद्रष्टुमारेभे मध्ये क्षिप्ता ततस्तया ॥ २२२॥ आगता दस्यवस्ते च तां पप्रच्छुः क सा ननु । साऽचत् किमहं वेद्मि स्वप्रियां किं न रक्षय? ॥ २२३ ॥
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अष्टमः सगे:
.f४५MRKNOMMA-NAMAN
तैातमनया यत्सा वराकी मारितेय॑या । दुःशीला मत्स्वसैषा किं विममर्शेति स द्विजः ।। २२४॥ सर्वज्ञोऽत्रागतोऽस्तीति श्रुत्वा लोकादिहागतः । प्रागेष मनसाऽपृच्छत् स्वमृदुःशीललजया ॥ २२५॥ मयोक्तं पृच्छ वाचेति या सा सा सेति पृष्टवान् । अस्माभिश्चैवमित्युक्त्वा तां जामि ज्ञापितो हासौ २२३|| एवं च रागद्वेषाद्यैर्मुढात्मानो भव भवे । भ्राम्यन्ति भविनो नानादुःखभाजनतां गताः ।। २२७ ॥ एवमाकर्ण्य म पुमान परं संवेगमागतः । स्वामिपार्श्वे प्रवबजे तां पल्ली पुनरप्यगात् ॥ २२८ ॥ प्रबोधिता चौरपुंसा तेन प्रव्रजितेन च । एकोना सा पंचशती चौराणामग्रहीद्वतम् ॥ २२९ ॥ उत्थाय स्वामिन नत्वा जगादाय मृगावती । चण्डप्रद्योतमापृच्छ्य प्रव्रजिष्याम्यहं प्रभो! ॥ २३० ॥ साऽथ प्रद्योतमप्यूचे यदि त्वमनुमन्यसे । प्रव्रजामि भवोद्विग्ना तदा पुत्रस्तु तेऽर्पितः ॥ २३१ ॥ स्वामिमभावानिर्वाणवैरः प्रद्योतभूपतिः । तामनुज्ञाय कौशाम्ब्यां चकारोदयनं नृपम् ॥ २३२॥ सहागृहन्मृगावत्या प्रव्रज्यां स्वामिसन्निधौ । अष्टावंगारवत्याद्याः प्रद्योतनृपतेः प्रियाः ।। २३३ ॥ मृगावत्याद्याः प्रभुणाऽप्यनुशिष्य समर्पिताः । चन्दनायास्तदुपास्त्या सामाचारी च जज्ञिरे ॥ २३४ ॥ इतश्चास्ति निरुपम परमाभिर्विभूतिभिः। नाम्ना वाणिजकग्राम इति ख्यात महापुरम् ॥ २३५॥ तत्र प्रजानां विधिवत्पितेव परिपालकः। जितशत्रुरिति ख्यातो बभूव पृथिवीपतिः ॥ २३६ ॥ आसीद् गृहपतिस्तत्र नयनानन्ददर्शनः । आनन्दो नाम मेदिन्यामायात इव चन्द्रमाः ॥ २३७ ॥
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मधर्मचारिणी तस्य रूपलावण्यहारिणी । बभूव शिवनन्देति शशांकस्येव रोहिणी ॥ २३८ ॥ निधी वृद्धी व्यवहारे चतस्रोऽस्य पृथक् पृथक् । हिरण्यकोटयोऽभूवंश्चत्वारश्च वजा गवाम् ॥ २३९॥ तत्पुरादुत्तरमाच्यां कोल्लाकाख्योपपत्तने । आनन्दस्यातिरहयो बन्धुसंथन्धिनोऽभवन् ॥ २४०॥ तदा च पृथ्वीं विहरञ्जिनः सिद्धार्थनन्दनः । तत्पुरोपवने देतिपलाशे समवासरत् ॥२४१ ॥ जितशत्रुर्महीनाथस्त्रिजगन्नाथमागतम् । श्रुत्वा ससंभ्रमोऽगच्छद्वन्दितुं सपरिच्छदः ॥ २४२॥ आनन्दोऽपि ययौ पद्धयां पादमूले जगत्पतेः । कर्णपीयूषगण्डषकल्पां श्रुत्वा च देशनाम् ॥ २४३ ॥ अथानन्दः प्रणम्यांहो त्रिजगत्स्वामिनः पुरः। जग्राह द्वादशविध गृहिधर्म महामनाः ॥ २४४ ॥ शिवनन्दामन्तरेण स्त्रीः स तत्याज हेम तु । चतस्रश्चतस्रः स्वर्णकोटीर्निध्यादिगा विना ॥ २४५ ॥ प्रत्याचख्यो बजानेष ऋते च चतुरो प्रजान् । क्षेत्रत्यागं च विदधे हलपंचशतीं विना ॥ २४६ ॥ शकटान् वर्जयामास पंच पंचशतान्यते। दिग्यानाव्यापूतानां च वहां चानसां स तु ॥ २४७ ॥ दिग्यात्रिकाणि चत्वारि स सांवाहमिकानि च । विहाय वहनान्यन्यवाहनानि व्यवर्जयत् ॥ २४८ ॥ अपरं गन्धकाषाय्याः स तत्याजांगपुंसनम् । दन्तधावनमाज़्या मधुयष्टेने जहौ ॥ २४९ ॥ वर्जयामास च क्षीरामलकादपरं फलम् । अभ्यंगं च विना तैले सहस्रशतपाकिमे ॥ २५० ।। के दूत । स्ति' 1 ॥
॥ २३॥
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अष्टमः सर्गः
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अन्यत्सुरभिगन्धाढ्यादुद्वर्तनकमत्यजत् । अष्टभ्य औष्ट्रिकप यस्कुंभेभ्योऽन्यच्च मज्जनम् ॥ २१ ॥ अपरं क्षौमयुगलाद्वासः सर्वमवर्जयत् । श्रीखंडागरुघुसृणान्यपास्यान्यद्विलेपनम् २२ ।। ऋने च मालतीमाल्यात् पद्मान कुसुमं जहौ । कर्णिकानाममुद्राभ्यामन्यचाशेषभूषणम् ।। २०३ ॥ तुरुष्कागरुधूपेभ्य ऋस धूपविधि अहो । धृतराखाबादपरं भक्ष्यमत्यजत् ॥ २५४ ॥ काष्टपेयां विना पेयां कलमादन्यदोदनम् । माषमुद्गकलायेभ्य ऋते सूपमपाकरोत् ॥ २० ॥ घृतं च वर्जयामास विना शारदगोघृतात् । शाकं स्वस्तिकमंडूकी पोलक्यां च विना जहाँ ।। २५६ ।। ऋते लहाम्लदाल्यम्लात्तेमनं खाम्बुनोऽम्वु च । पंचसुगन्धितांबूलान्मुखवासं च सोऽमुचत् ॥ २७ ॥ आनन्दः शिवनन्दाया उपेत्याध ससंमदः । अशेषं कथयामास गृहिधर्म प्रतिश्रुतम् ॥ २५८ ॥ शिवाय शिवनन्दापि यानमारुह्य तत्क्षणम् । भगवत्पादमूलेऽगाद गृहिधर्मार्थिनी ततः ।। २२० । नत्र प्रणम्य चरणी जगत्त्रयगुरोः पुरः । प्रपदे शिवनन्दापि गृहिधर्म समाहिता ॥ २६० ॥ अधिरुह्य ततो यानं विमानमिव भासुरम् । भगवद्वाकसुधापानमुदिता सा गृहं ययौ ॥ २६१ ॥ अथ प्रणम्य सर्वज्ञमिति पप्रच्छ गौतमः । महात्माऽयं किमानन्दो यतिधर्म ग्रहीष्यति ? ॥ २२२॥ त्रिकालदर्शी भगवान् कथयामासिवानिति | श्राक्कलमानन्दः सुचिरं पालयिष्यति ॥ २६३ ।। १ वालुक्यां M.॥
६॥ २३८
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YLNMAMTALAYYYY
ततः सौधर्मकल्पेऽसौ विमाने चारुणप्रभे । भविष्यत्यमरवरश्चतुःपल्योपमस्थितिः ॥ २६४ ॥ इतश्च जालवीहंसश्रेणिभिरिव चारुभिः । चैत्यध्वजै राजमाना चम्पेत्यस्ति महापुरी ॥ २६५ ॥ भोगिभोगायतभुजस्तंभः कुलगृहं श्रियः । जितशत्रुरिति नाना तस्यामासीन्महीपतिः ॥ २६६ ।। अभूद् गृहपतिस्तस्यां कामदेवाभिधः सुधीः । आश्रयोऽनेकलोकानां महातरुरिषाध्वनि ॥ २६७ ॥ लक्ष्मोरिव स्थिरीभूता रूपलावण्यशालिनी । अभूगद्राकृतिर्भद्रा नाम तस्य सर्मिणी ॥ २६८ ॥ निधौ षट् स्वर्णकोव्यः षड् वृतौ गड् पारगाः जा रहट् लरूप दशगोसहस्रमितयोऽभवन् ॥२६॥ तदा च विहरन्नुवी तम्रोवामुखमंडने । पूर्णभद्राभिधोद्याने श्रीवीरः समवासरत् ॥ २७ ॥ कामदेवोऽथ पादाभ्यां भगवन्तमुपागमत् । शुश्राव च श्रोत्रसुधां स्वामिनो धर्मदेशनाम् ॥ २७१ ॥ कामदेवस्ततो देवनरासुरगुरोः पुरः। प्रपेदे द्वादशविधं गृहिधर्म विशुद्धधीः ।। २७२ ।। प्रत्याख्यत् स विना भद्रा स्त्रीजान षद्ब्रजी चिना । निधौ वृद्धौ व्यवहारे षट् षट् कोटीविना वसु २७३ | शेषं च वस्तुनियममानन्द इव सोऽग्रहीत् । ततः प्रभुं नमस्कृत्य ययौ निजनिकेतनम् ॥ २७४ ।। स्वयमात्ते श्रावकत्वे तेनाऽऽख्याते च तत्प्रिया । भद्राऽप्युपेत्य जग्राह स्वाम्यग्ने श्रावकवतम् ॥ २७५ ।। इतश्च काशिर्नाम्नाऽनुगंगमस्ति पुरी वरा । विचित्ररचनारम्या तिलकधीरियावनेः ॥ २७६ ॥ १ पुण्यभ" C.|
K॥२३९
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KA+५
अष्टम:
*सर्गः
4C0- 44.MAMAMA
सुत्रामेवामरावत्यामविसूत्रितविक्रमः । जितशत्रुरभूत्तत्र धरित्रीधवपुंगवः ॥ २७॥ आसीद् गृहपतिस्तस्यां मनेभ्यचुलनीपिता। प्राप्तो मनुष्यधर्मेध मनुष्यत्वं कुतोऽपि हि ॥ २७८ ॥ जगदानन्दिनस्तस्यानुरूपा रूपशालिनी । श्यामा नामाभवद्भार्या श्यामेव तुहिनातेः ॥ २७९ ॥ अष्टौ निधानेऽष्टौ वृद्धावष्टौ च व्यवहारगाः । इति तस्याभवन हेनश्रतुर्विशतिकोटयः ॥ २८०॥ एकैकशो गोसहस्रर्दशभिः प्रमितानि तु । तस्याऽऽसन् गोकुलान्यष्टौ कुलवेश्मानि संपदाम् ।। २८१ ॥ तस्या पुर्यामथान्येगुरुद्याने कोष्ठकाभिधे । भगवान समवस्तो विहरंश्चरमो जिनः ॥ २८२ ॥ ततो भगवतः पादवन्दनाय सुरासुराः । सेन्द्राः समाययुस्तन जितशत्रुश्च भूपतिः ॥ २८३ ॥ पद्भ्यां चचाल चुलनीपिताऽप्युचितभूषणः । वन्दितुं नन्दितमनाः श्रीवीरं त्रिजगत्पतिम् ॥२८४ ॥ 'भगवन्तं ततो नत्वोपविश्य चुलनीपिता । शुश्राव परया भक्त्या माञ्जलिर्धर्मदेशनाम् ॥ २८५ ॥ अथोत्थितायां सदसि प्रणम्य चरणौ प्रभोः । इति विज्ञपयामास विनीतइचुलनी पिता ॥ २८६ ॥ स्वामिन्नस्मादृशां बोधहेतोर्विहरसे महीम् । जगद्बोधं विना नान्यो त्यर्थश्चंक्रमणे रवः ॥ २८७ ।। सर्वोऽपि याच्यते गत्वा स दत्ते यदि वा न वा । आगत्याऽयाचितो धर्म दत्से हेतुः कृपाऽत्र ते ॥२८८॥ जानामि यतिधर्मं चेद्गृह्णामि स्वामिनोऽन्तिके । योग्यता परमियती मन्दभाग्यस्य नास्ति मे ॥ २८ ॥ याचे श्रावकधर्म तु स्वामिन् ! देहि प्रसीद मे। आरत्तेऽब्धावप्युवको भरणं निजमेव हि ॥ २९० ॥
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यथासुखं गृहाणेति स्वामिनाऽनुमतस्ततः । प्रतिपेदे श्रावकाई धर्म द्वादशधाऽपि सः ॥ २९१ ॥ अष्टाष्टकोट्यभ्यधिक स्वर्ण निध्यादिषु त्रिषु । ब्रजेभ्योऽन्यानधाष्टभ्यः प्रत्याचख्यो बजानपि ॥ २९२ ॥ नियमं चान्यवस्तूनां कामदेव इयाददे । श्यामा तत्पत्न्यपि स्वामिसमीपे श्रावकवतम् ॥ २९३ ॥ तदा च गौतमो नत्वा पप्रच्छेति जगत्पतिम् । महाव्रतधरः किं स्यान्न बाध्यं चुलनीपिता ? ॥ २९४ ॥ अथोच स्वामिना नैष यतिधर्म प्रपत्स्यते । गृहिधर्मरतः किं तु मृत्वा सौधर्ममेष्यति ॥ २१५ ॥ अरुणाभे विमाने च चतुःपल्योपमस्थितिः। ततश्च्युत्वा विदेहेषूत्पद्य निर्वाणमेष्यति ॥ २९६ ।। तत्रैवाऽऽसीत् सुरादेवो गृही धन्या च तत्प्रिया । आसीत्तस्य हिरण्यादि पुष्कलं कामदेववत् ॥ २९७ ॥ स कामदेववद्गत्वा स्वाम्यग्रे श्रावकवतम् । नियमांश्चाग्रहीत् सार्धं धन्यया धर्मधन्यया ॥ २९८ ॥ ततश्च विहरन स्वामी पुरीमालभिकां ययौ । तत्र शंखवनोद्याने भगवान् समवासरत् ॥ २९९ ॥ पुर्या नत्राभवच्चुल्लशतिको नामतो गृही । कामदेवसमस्त्वृद्ध्या बहलेति च तत्मिया ॥३०० ॥ स कामदेववद्गत्वा श्रीवीरचरणान्तिके । समं बहलया धर्म प्रपेदे नियमानपि ॥३०१ ॥ ततश्च काम्पिल्यपुरे जगाम विहरन प्रभुः । सहस्राम्रवणनामन्युद्याने समवासरत् ॥ ३०२ ।। तत्रासीत्कामदेवर्द्विर्गृहस्थः कुंडकोलिफः । नाम्ना पुष्पेति तद्भार्या शीलालंकारशालिनी ॥ ३०३ ।।
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कामदेव इव स्वामिपादाग्रे श्रावकवतम् । सोऽग्रहीनियमांश्चापि पुष्पया भार्यया सह ॥ ३०४ ॥ इतश्च पोलाशपुरे गोशालोपासकोऽवसत् । शब्दालपुत्रः कुलालोऽग्निमित्रा तस्य च प्रिया ॥ ३० ॥ हिरण्यकोटिस्तस्यैका निधानेऽन्या तु वृद्धिगा । तृतीया व्यवहारेऽभूद् व्रज एकच गोऽयुतम् ॥ ३०६ ॥ यहिश्च पोलांशपुरात् कुम्भकारस्य तस्य तु । कुम्भकारापणशतान्यासन् पंच सदापि च ॥ ३०७ ॥ तमशोकवनेऽवोचत्रिदशः कोऽपि यत्प्रगे । सर्वज्ञोऽहन्महाव्रत्मा त्रैलोक्याय॑ इहैष्यति ॥ ३०८ ।। सेवेवास्तं च फलकपीठस्रस्तरकादिना । गवं द्विस्त्रिर्गदित्वा तं त्रिदशः स तिरोदधे ॥ ३०९॥ आजीवभक्तो दध्यौ स नूनं धर्मगुरुः स मे । सर्वज्ञः खल गोशालः प्रातरत्र समेष्यति ॥ ३१० ॥ विचिन्त्यैवं स्थित तस्मिन् प्रातस्तत्र समागतः । श्रीवीरः समवामार्षीत् सप्टसाम्रचणे धन ॥ ३११ ।। कुम्भकारः सोऽपि गत्वा भगवन्तमवन्दत । कृत्वा च देशनां स्वामी ने कुलालमभाषत ॥ ३१२॥ शब्दालपुत्र ! भो यस्त्वामशोकवनगं सुरः । कोऽप्यूचे यत्प्रगे ब्रह्मा सर्वज्ञोऽहनिहष्यति ॥ १३ ॥ उपास्यः स त्वया पीठफलकादिसमर्पणात् । त्वयाऽपि तद्रािऽचिन्ति यद्गोशाला समेष्यति ॥ ३१४ ॥ इति स्वामिवचः श्रुत्वा सोऽचिन्तयदहो अयम् । सर्वज्ञोऽर्हन्महावीरो महाब्राह्मण आगतः ॥ ३१५॥ तन्नमस्करणीयोऽयमुपास्यः सर्वधाऽपि हि । इत्युत्थाय प्रभुं नत्वा स प्राञ्जलिरदोऽवदत् ॥ ३१६ ।। १-२- 'लासपु .॥
CARRAGACASSAGAR
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बहिरस्मात्पुरात् कुम्भकारापणशतानि मे । पंच सन्ति तेषु पीठाद्यादायाऽनुगृहाण माम् ॥ ३१७ ॥ तद्वयः प्रत्यपादशस्तं च गोशालशिक्षया । उपात्तान्नियनिवादामुक्ति मेविन्यवर्तयत् ॥ ३२८ ॥
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नियनिवास प्रमाणीकृत्य पौरुषम् । आनन्द इव शिश्राय स्वाम्यग्रे श्रवकव्रतम् ॥ ३१९ ।। परं विशेष नियमे निधिवृद्धिनियोगगाः । तिस्रस्तस्य स्वर्णकोट्यो वजस्त्वेको गवामिति ॥ ३२० ॥ अग्निमित्रा च तत्पत्नी तेनैव प्रतिबोधिता । आगत्य स्वामिनः पार्श्वे शिश्रिये श्रवकम् ॥ ३२९ ॥ विहर्तुमन्यतोऽचालीत्ततश्च भगवानपि । गोशालकोऽपि श्रपीज्जन श्रुत्येदमुच्चकैः ॥ ३२२ ॥ आजीवकानां समयं हित्वा शब्दालपुत्रकः । निर्बंधानां श्रमणानां शासनं प्रतिपन्नवान् || ३२३ ।। ततश्चाचिन्तयत्तत्र गत्वा शब्दालपुत्रकम् । आजीवकानां समये स्थापयाम्यद्य पूर्ववत् ॥ ३२४ ॥ इत्यागात्तत्र गोशालस्तद्वेइमाऽऽजीवकैर्वृतः । तं च शब्दालपुत्रो न हशाऽपि समभावयत् ॥ ३२५ ॥ शब्दापुत्रं गोशालः स्वे संस्थापयितुं मते । श्रवकत्वाञ्चलयितुं चांडशक्तो निर्ययौ पुनः || ३२६ || अधिराजगृहं वरये गुणशिलाह्वये । गत्वाऽथ समवासार्षीत् सुरासुरनिषेवितः ॥ ३२७॥ चुलनीपितृतुल्यर्द्धिर्महाशनकनामकः । गृह्यभूत्तस्य पत्न्यश्च रेवत्यायास्त्रयोदश ॥ ३२८ ॥ हिरण्यकोढ्यो रेवत्या अष्टावष्ट व्रजाः पुनः । एका कोटी ब्रजचैकोऽन्यासां प्रत्येकमप्यभूत् ॥ ३२९ ॥
2415 37. 11
॥ २४३ ॥
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अष्टमः सर्गः
ww20-2017-1-44
चुलनीपितृवत्सोऽपि स्वाम्यग्रे श्रावकवतम् । नियमांश्चाग्रहीत्पत्नीस्ता विना त्वमुचत् स्त्रियः ॥ ३३० ॥ श्रावस्त्यामन्यदा पुर्या भगवान् विहरन् ययौ । तत्र कोष्टकसंज्ञे चोपवने समवासरत् ॥ ३३१ ॥ तत्र चानन्दतुल्यर्द्धिवासीनन्दिनीपिता । अश्विनीव शशांकस्य तस्य चाश्चिन्यभूप्रिया ।। ३३२ ।। आकर्य श्रीमहावीरवदनाद्धर्मदेशनाम् । श्रावकत्वं नियमांश्च सोऽप्यानन्द इवाऽग्रहीत् ।। ३३६॥ तत्रैवानन्दतुल्यर्दियासील्लान्तिकापिता । तत्पनी फल्गुनीनामा फल्गु वल्गु प्रजस्पिनी ॥ ३३४ ॥ श्रीवीरस्यामिपादान्ते समाकर्णितदेशनः । श्रावक नियमां सोमाया इमाडो २३ ॥ सुरैरप्यपरिक्षोभ्याः श्रावकत्वाद्भिरिस्थिराः । दशैवं श्रावकवराः श्रीवीरस्वामिनोऽभवन् ॥ ३३६॥ एवं च बोधयन भव्यानम्भोजानीव भास्करः। भूयो जगाम कौशाम्बी नगरी परमेश्वरः ॥ ३३७ ॥ प्रभोश्वरमपौरुष्यां वन्दनायेन्दुभारकरौ । स्वाभाविकविमानस्थौ तस्यां युगपदेयतुः ॥ ३३८ ॥ नयोर्विमानतेजोभिनभस्युद्योतिते सति | लोकस्तथैव तत्राऽस्थात् कौतुकव्यग्रमानसः ॥ ३३९ ॥ विज्ञायोत्थानसमयं चन्दना तु प्रवर्तिनी । वीरं प्रणम्य वसति स्वां ययौ सपरिच्छदा ॥ ३४०॥ मृगावती तु तत्रस्थमार्तण्डोद्यततेजसा । नाज्ञासीद्वात्रिमायातां तत्रैवाऽऽस्थादिनभ्रमात् ॥ ३४१ ॥ चन्द्रार्कयोर्गतवतोत्विा रात्रिं मृगावती । प्रतिश्रयमुपेयाय चकिता काललंघनात् ॥ ३४२ ॥ तामूचे चन्दना साध्वि ! कुलीनायास्तवेदृशम् । किं युज्यते ? यन्निशायां पहिरेकाकिनी स्थिता ।। ३४३
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इत्युक्ते चन्दनां तस्या क्षमयन्त्या मुहुर्मुहुः । घातिक्षयान्मृगावत्या उपपद्यत केवलम् || ३४४ ॥ निद्रान्त्याश्च प्रवर्तिन्या भुत्रो याहुमुद क्षिपत् । तत्पार्श्वे यान्तमुरगं दृष्ट्वा केवलशक्तितः ॥ ३४५ ॥ प्रबुद्धया चन्दनया पृष्ठा किं मातुरुतः १ । महादिहि पानीतिश च मृगावती ॥ ३४६ ॥ भूयोऽपि चन्दनावत्सुश्री मेवे तमस्यपि । मृगायति । कथं दृष्टस्त्वयाऽरिर्विस्मयो मम ॥ ३४५ ॥ मृगावती भगवतीत्याचचक्षे प्रवर्तिनि ! उत्पन्नकेवलज्ञानचक्षुषा ज्ञातवत्यहम् ॥ ३४८ ॥ केवल्याशातनीं धिङ्मामित्यश्रान्तं स्वगर्हया । उत्पेदे केवलज्ञानं चन्दनाया अपि क्षणात् ॥ ३४९ ॥ इतश्च गौतमोऽपृच्छन्नाथ ! भावाः स्वभावतः । किं यान्त्यन्यत्वमर्केन्दुविमाने यदिहेतुः ॥ ३५० ॥ स्वाम्याख्यत् स्युर्दशाश्चर्याण्युपसर्गा प्रदर्हताम् । गर्भापहारचन्द्रार्कविमानावतरस्तथा ॥ ३५१ ॥ चमरोत्पातः परिषदभव्याऽष्टोत्तरं शतम् । सिद्धा अपरकंकायां कृष्णस्य गमनं तथा ॥ ३५२ ॥ असंपताच स्त्रीतीर्थं हरिवंशकुलोद्भवः । ततोऽसौ संगतोऽर्केन्दुविमानावतरः खलु ॥ ३५३ ॥
I
(त्रिभिर्विशेषकम् )
इत्याख्याय ततो नाथः श्रावस्तीं विहरन् ययौ । तस्यां च समवासाषदुधाने कोष्टकाभिये ॥ ३५४ ॥ तस्यां प्रागागतस्तेजोलेश्या हतविरोधिकः । अष्टांगनिमित्तज्ञानज्ञातलो कमनोगतः ॥ ३५६ ॥ अजिनोऽपि जनशब्दमात्मना संप्रकाशयन् । हालाहलाकुंभकार्या गोशालोऽवसदापणे ३५६ ( युग्मम् )
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॥ २४५॥
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तस्य चार्हन्निति ख्यातिं लोक आकर्ण्य मुग्धधीः । उपत्योपेत्य विदधे निरन्तरमुपासनम् ॥ ३५७ ॥ इतश्च समये प्राप्ते गौतमः स्वाम्यनुज्ञया । प्राविशत् पुरि भिक्षार्थं चिकीर्षुः पष्ठपारणम् || ३५८ ।। गोशालास्ति सर्वज्ञोऽर्हनित्याकर्ण्य तत्र च । गौतमः सविषादोऽगादात्तभिक्षोऽन्तिके प्रभोः ॥ ३५९ ॥ यथावत् पारणं कृत्वा गौतमः समये प्रभुम् । पश्यतां पौरलोकानामपृच्छत् स्वच्छधीरिति ॥ ३६० ॥ स्वामिन्नमेतस्यां व्याहरन्त्यखिला जनाः । सर्वज्ञ इति गोशालं किमेतद् घटते न वा ? ॥ ३६१ ।। अथाख्यद्भगवानेष सूनुर्मखस्य मंखलेः । अजिनोऽपि जिनंमन्यो गोशालः कपटालयः || ३६२ ॥ ata दीक्षितश्चार्य शिक्षां च ग्राहितो मया । मिथ्यात्वं प्रतिपन्नो मे सर्वज्ञो नैष गौतम ! ॥ ३६३ ॥ तत्तु स्वाभिवचः श्रुत्वा पौराः पुर्यामितस्ततः । एवं बभाषिरेऽन्योऽन्यं चत्वरेषु त्रिषु च ॥ ३६४ ॥ हे हो अर्हनिहायानो वीरस्वामी वदत्यदः । गोशालो मंखलिसुतो मिथ्या सर्वज्ञमान्यसौ ॥ ३६५ ।। जनश्रुत्वा ततः श्रुत्वा गोशालः कालसर्पवत् । आपूर्यमाणः कोपेन तस्थावाजी कावृतः ॥ ३६६ ॥ इनश्च स्वामिनः शिष्य आनन्दः स्थविराग्रणीः । षष्ठपारणकं कर्तुं भिक्षार्थं प्राविशत् पुरि ।। ३६७ ॥ हालाहला गृहासीनो गोशालस्तत्प्रदेशगम् । आनन्दमुनिमाय साधिक्षेपमदोऽवदत् ॥ ३६८ ॥ भो आनन्द ! तवाचार्या लोकात् सत्कारमात्मनः । इच्छन् वीरः सभान्वक्षं मां तिरस्कुरुतेतराम् ।। ३६९ ।। ?" ( 37. 11
अष्टमः सर्गः
॥२४६
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स्थानमनहन्तमगदई व बक्ति माप । लेजोलेश्यां न म वेत्ति विपक्षदहनक्षमाम् ३७० ॥ भस्मराशीकरिष्यामि तमहं सपरिच्छदम् । त्वामेवैकं विमोक्ष्यामि दृष्टान्तोऽत्र निशम्यताम् ॥ ३७१ ॥ अवसरः प्रसरश्च संवादः कारकस्तथा । भलनो वणिजोऽभूवन क्षेमिलायां पुरा पुरि ॥ ३७२ ।। भाण्डैरापूर्य शकटान्निर्ययुस्त वणिज्यया। यान्तश्च निर्जलारण्यं विविशुः किंचिदध्वनि ॥ ३७३ ॥ ते पञ्चापि तृषाक्रान्ता मरुमार्गगता इव । जलं गवेषयामासुः पर्यटन्तो महाटवीम् ॥ ३७४ ॥ भ्राम्यन्नवसरः पञ्चशिखरं वामलूकम् । ददर्शादर्शयत्तेषां चतुर्णा सुहृदामपि ॥ ३७५ ।। ते तस्य पूर्वशिखरं संभूयाऽस्फोटयन द्रुतम् । तस्माश्च लेभिरे वारि तत्पीत्वा सुस्थतां ययुः ॥ ३७६ ॥ अथोचे प्रसरोऽपाच्यशृंगमप्यस्य दीर्यताम् । लप्स्यामहे नूनमितो वस्त्वन्यदपि किंचन ।। ३७७ ॥ अथाब्रवीदवसरः खननं नास्य युज्यते । उत्थास्यत्यहिरेतस्मानिाकुरोको हि भोगिनाम् ॥ ३७८ ॥ अवादीदथ संवादो विसंवादोऽप्यभूदिह । यत्परिस्फोटितात्पूर्वशिखरान्नाहिरुत्थितः ॥ ३७९ ॥ भूमोऽप्यवसरोऽवोचदेवादिह पयोऽभवत् । अथोचे कारको दैवाद् द्रम्मा इह नु भाविनः ॥ ३८०॥ इत्युदित्वा तत् खनितुं समारभत कारकः । मतं ममेदं नत्युक्त्वा गन्त्रीमवसरो ययौ ॥ ३८१॥ वभाषे भलनो यातोऽवसरो यदि यातु तत् । विनाऽप्यमुं खनिष्याम इति सर्वेऽपि तेऽखनन् ॥ ३८२ ।। टि०- वामदरः - वल्मीकः राफटो इति गुर्जरभाषायाम् ) नाकुः - वन्मीकः ।
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खातात्तस्मान्नाकृशृंगात् सद्यो द्रम्मा विनिर्ययुः । विभज्यावसरवर्ज चत्वारो जगृहुश्च तान् ॥ ३८४ ॥ चख्नुश्चतुर्थमपि ते शृंगं स्वर्णं च लेभिरे । ततो रजतमप्योज्झन सुवर्णादानलोभतः ॥ ३८५ ॥ रत्नानि पश्चमे शृंगे भविष्यन्तीति बुद्धितः । चख्नुस्तदपि लोभान्धा लाभाल्लोभो हि वधत ॥ ३८६ ॥ अत्यन्तमथितादब्धेः कालकूट इचोत्कटः । तस्माच्छंगात् खन्यमानादुत्तस्थौ ग्विषोरगः ।। ३८७ ॥ वल्मीकामस्थितः सोऽहिः प्राक् सूर्य प्रेक्ष्य तान्दशा । भस्मीचकार चतुरः सगन्त्रीवृषभानपि ॥ ३८८ ।। निर्लोभ इत्यवसरं सगन्त्रीवृषमप्यथ । तस्याहेर्देव्यधिष्ठात्री प्रापयत् स्थानमीप्सितम् ॥ ३८९ ॥ धक्ष्यामि त्वद्गुरुं सर्पोऽधाक्षीत्ताश्चतुरो यथा । मोक्ष्यामि त्वामहं सोऽहिर्मुमोचावसरं यथा ।। ३९० ॥ ततोऽसमाप्तभिक्षार्थ एवाऽऽनन्दो ययौ प्रभुम् । भोशालोक्त सदायल्याषच्छच्चति शंकितः ॥ ३९१॥ भस्मराशीकरिष्यामीत्युक्तं गोशालकेन यत् । उन्मत्तभाषित तत् किं तत्कर्तुमथवा क्षमः १ ॥ ३९२ ॥ अथाचचक्षे भगवान हद्भ्यः सोऽन्यतः क्षमः । अहंतामपि सन्तापमानं कुर्यादनार्यधीः ॥ ३९३ ॥ तद्गत्वा गौतमादीनां शंसेदं ते यथा हि तम् । इहागतं नोदनया धर्मायापि नुदन्ति न ॥ ३१४ ॥ तेषां गत्वाऽऽख्यदानन्दस्तदा गोशालकोऽपि हि । तत्रागात् स्वामिनोऽग्रे चावस्थाय व्यब्रवीदिति ३९५ || भोः काश्यप ! वदस्येवं गोशालो मखलेः सुतः । अन्तेवासी ममत्यादि सन्मृषा भाषितं तव ।। ३९६ ॥ १ तु C. L. 1.0 -
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HOM
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गोशालस्तव यः शिष्यः स हि शुक्लाभिजातिकः । धर्मध्यानस्थितो मृत्वा त्रिदशेषूदपथत ॥ ३९७ ।। तहऽस्मिन्नुपसर्गपरीषहसहेऽविशम् । उदायनामाऽहमषिः परित्यज्य निजं वपुः ॥ ३९८ ॥ ततो मामपरिज्ञाय गोशाल मखलेः सुतम् । स्वशिष्यं कथमाख्यासि न खल्वसि गुरुर्मम ।। ३९९ ॥ स्वाम्यथोचे यथाऽऽरक्षः क्रम्यमाणो मलिम्लुचः । गत दुर्ग वनं वाऽपि स्वान्तर्धानमवाप्नुवन् ॥ ४.०॥ ऊर्णालोना शणलोम्ना सूलांशेन तृणन यात मन्धनन्तरदत्तनात्मानमावृतमल्पधीः ॥ ४०१॥ एवं त्वमपि गोशालोऽनन्योऽप्याख्यान स्वमन्यथा । किमर्थं भाषसेऽलीकं स एवास्यपरो न हि ॥ ४०२॥ एवं स्वामिगिरा युद्धो गोशालोप्यब्रवीत् प्रभुम् । अद्य भ्रष्टोऽसि नष्टोऽसि न भवस्येष काश्यप !॥४०३॥ सर्वज्ञशिष्यः सर्वानुभूतिगुवनुरागतः। अक्षमस्तद्वचः सोढुं गोशालकमभाषत ।। ४०४॥ गुरुणा दीक्षितोऽनेन शिक्षितोऽस्यमुनैव हि । निनुषे हेतुना केन गोशाल ! त्वं स एव हि ॥ ४०५॥ अथ गोशालकः कोपात्तेजोलेश्यामनाहताम् । सर्वानुभूतयेऽमुञ्चद् हग्ज्वालामिव इग्विषः॥ ४०६॥ निर्दह्यमानः सर्वानुभूतिगोशाललेश्यया । शुभध्यानपरो मृत्वा सहस्रारे सुरोऽभवत् ॥ ४०७॥ गोशालोऽपि हि तत्कालं स्वलेझ्याशक्तिगर्वितः । निर्भर्त्सयितुमारेभे भगवन्तं पुनः पुनः ।। ४०८ ॥ स्वामिशिष्यः सुनक्षत्रस्तमथ स्वामिनिन्दकम् । गुरुभक्त्याऽनुशास्ति स्म भृशं सर्वानुभूतिवत् ॥ ४०९ ॥ १ नान्यो ८॥
॥२४९॥
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गोशालमुक्तया तेजोलेश्यया प्रज्वलत्ततुः । प्रभुं प्रदक्षिणीकृत्याऽऽदाय भूयो व्रतानि च ॥ ४१० ॥ आलोच्या प्रतिक्रम्य क्षमयित्वाऽखिलान्मुनीन् । सुनक्षत्रमुनिर्मृत्वाऽच्युतकल्पे सुरोऽभवत् ॥ ४११ ॥
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युग्मम् ) जितकाशी च गोशालस्ततोऽनिपरुषाचरम् । समाक्रोशन्निजगदे स्वामिना करुणाजुषा ॥ ४१२ ॥ दीक्षितः शिक्षितश्चामि श्रुतभाक् च मया कृतः । ममैवावर्णवादी त्वं कोऽयं ते धीविपर्ययः १ ॥ ४१३ ॥ स्वामिना स्वयमित्युक्तो गोशालः कुपितो भृशम् । उपेत्य किंचिदमुचत्तेजोलेश्यां प्रभुं प्रति ॥ ४१४ ॥ स्वामिन्यप्रभविष्णुः सा महावात्येव पर्वते । प्रभुं प्रदक्षिणीच भक्तिभागनुहारिणी ॥ ४१५ ॥ संतापमात्रं स्वाम्यंगेऽभूत्तेजोलेश्यया तया । तीरकक्षोद्भवेनेव दावेन सरिदम्सः ॥ ४१६ ॥
काय प्रयुक्ताधिगनेनेति कुधेव सा । तेजोलेश्या निवृत्यांगे गोशालस्याविशडलात् ॥ ४१७ १ तयाऽन्तर्दद्यमानोऽपि गोशालो घाटर्यमाश्रितः । भगवन्तं महावीरमभ्यप्रत्तैवमुद्धतः ॥ ४१८ ॥ मत्तेजोलेश्या ध्वस्तः षण्मासान्ते हि काश्यप । पित्तज्वरपराभूतइद्मस्थोऽपि विपत्स्यसे ॥ ४१९ ॥ स्वास्थोवाच गोशाल ! भूषा से यागहं यतः । अन्यानि षोडशाब्दानि विहरिष्यामि केवली ॥ ४२० ॥ स्वतेजोलेश्ययैव त्वं पुनः पित्तज्वरार्दितः । विपत्स्यसे सप्तदिनपर्यन्ते नात्र संशयः || ४२१ ।।
१ ददे L ||
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अष्टमः
सर्ग:
॥ २५० ॥
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तेजोलेश्याक्लिश्यमानवपुष्को विलपन्नथ । भूमी पपात गोशालः शालगुरिव वायुना ॥ ४२२ ॥ गुर्ववज्ञाप्रकुपिता मुनयो गौतमादयः । एवं मर्माविवा वाचोचकैाँशालमूचिरे ॥ ४२३ ॥ धर्माचार्यपातिकूल्यभाजां भो ! भवतीदृशम् । तेजोलेश्या क तव सा धर्माचा नियोजिता ? ॥ ४२४ ॥ सुचिरं विब्रुवाणोऽपि निवन्नपि महामुनी । कृपयरेक्षितो ग वनलोड विपरस्पते ४२५ ॥ व्यपत्स्यथाः पुराऽपि त्वं वैशिकायनलेश्यया । स्वलेश्यया शीतया त्वां नारक्षिष्यद्यदि प्रभुः ॥ ४२६ ॥ शार्दूल इव गर्ताऽन्तः पनितस्तेषु साधुषु । निः कर्तुं सोऽक्षमस्तस्थाबुद्वेग्लनपरः क्रुधा ॥ ४२७ ।। निःश्वसन दीर्घमुष्णं च दंष्ट्रालोमानि चोत्खनन् । पादाभ्यां ताडयत्नुीं हतोऽस्मीति मुहब्रुवन् ॥ ४२८ ।। निष्क्रम्य स्वामिसदसो दस्युषद्वीक्षिनो जनैः। हालाहलाकुम्भकार्या गोशालोऽगमदापणम् ४२१. (युग्मम्) अथ स्वामी मुनीनूचे तेजो गोशालकेन यत् । अस्मद्वधाय प्रक्षिप्तं तस्येयं शक्तिरूर्जिता ॥ ४३० ।। वत्साच्छकुत्समगधवंगमालवकोशलान् । पाटलाटवज्रिमालिमलयाबाधकांगकान् ॥ ४३१ ॥ काशीन् सुमोत्तरान् देशान् निर्दग्धुं षोडशेश्वरा । तेजोलेश्या गोशालस्य तपसोग्रेण साधिता । ४३२ ॥ ने विसिम्मियिर सर्वे मुनयो गौतमादयः । सन्तः शक्तौ परस्यापि मात्सर्यं न हि विभ्रति ॥ ४३३ ॥ गोशालकोऽपि स्वेनैव दत्यमानोऽथ तेजसा । तापशान्त्यै पपी मयं दधानो मद्यभाजनम् ॥ ४३४ ॥ १ सहोत D. M.॥
॥२५१
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मदोन्मत्त गायति स्म गोशालो नृत्यति स्म च । हालाहलायाः प्रणनिं प्राञ्जलिश्राकरोन्मुहुः || ४३५ ।। अंगरागीचकारांगे 'भाण्डार्थ मृदिमां मुदम् । लुलोठ च गृहस्रोतोजले तच्चापिवन्मुहुः ॥ ४३६ ॥ असंबद्धविरुद्धानि प्रजल्प वचांसि च । शिष्यैः सशोकैः स उपचर्यमाणोऽत्यगाद्दिनम् ॥ ४३७ ॥ गोशालोपाकस्तत्रापु धर्मजागर । पूर्वपररात्रे कुर्वशेयं व्यचिन्तयत् ॥ ४३८ ॥ तृणगोपालका किंसंस्थानेति न हि वेद्म्यहम् । गत्वा पृच्छामि गोशालं सर्वज्ञं गुरुमात्मनः ।। ४३९ ।। एवं निश्चित्य * गोसर्गेऽनभूषणभूययौ हालाहला गृहेऽपोशाल च तथा स्थितम् ॥ ४४० ॥ लज्जाऽथापचक्राम द्रुतद्रुतमयं पुलः । गोशालशिष्यैः स्थविरंदृष्टश्च जगदे च सः ॥ ४४१ ॥ अयंपुल ! निशायां से पश्चिमायामजायत । मृणगोपालिका संस्था विषयः संशयः खलु ।। ४४२ ॥ विस्मितः सोऽप्युवाचैवमेवमेतन्महर्षयः । गोशालचेष्टितं गोप्तुं ते भूयस्तं बभाषिरे ॥ ४४३ ॥ गायनृत्यन् पात्रपाणिरखाले च करोति यत् । निर्वाणप्राप्तिलिंगानि तदाख्यानि गुरुस्तत्र || ४४४ ॥ यत् पश्चिमं गेयं नृत्यमञ्जलिकर्म च । पानं मृदंगरागादि यदन्यदपि किंचन ॥ ४४५ ॥ गोशालस्य चतुर्विशस्यार्हतो मोक्षलक्ष्म तत् । गत्वाऽपृच्छ सन्देहं सर्वज्ञो येष ते गुरुः ॥ ४४६ ॥
टिव- * गोसर्गे प्रभात |
C. L. ||
अष्टग:
सर्ग:
॥२६२॥
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इत्युक्तस्तैरभिगन्तुं स प्रावर्तिष्ट तेऽपि हि । तस्याऽऽगमं संशयं च गोशालस्य पुरोऽवदन् ॥ ४४७ ॥ तेऽन्यतो मद्यपानादि गोशालेन व्यमोचयन् । आसने चासयाश्च स्तदा घाऽऽगादयंपुलः ।। ४४८ ।। तलो निषण्णमग्रे तमूचे गोशालकोऽपि हि । तृणगोपालिका किंसंस्थानति तव संशयः ॥ ४४९ ॥ तृणगोपालिकां विद्धि वंशीमूलसमाकृतिम् । श्रुत्वेति मुदितः सयोऽयंपुलः स्वाश्रयं ययौ ॥ ४५० ॥ अन्येशुश्चेतना लब्ध्वा ज्ञात्वाऽन्तसमयं निजम् । शिष्यानाहू य गोशालो व्याजहारेनि सादरः ॥ ४२१ ।। मृतस्य मे वपुः स्नप्यं गन्धाम्भोभिर्विलेपनैः। सुगन्धिभिविलेप्यं चाऽऽमोच्यं चोत्कृष्टवासमा ॥ ४५२॥ भूध्यं च भूषणर्दिव्यैरारोप्यं तदनन्तरम् । सहस्रवाहां शिबिकां ततो नि:सार्थमत्मवात् ॥ ४.३ ॥ अयमत्रावसर्पिण्यां चतुर्विंशो जिनेश्वरः । गोशालः प्रययौ मोक्षमित्युद्घोष्यं पुरेऽखिले ॥४४॥ ते तथा प्रत्यपद्यन्त गोशालोऽप्यहि सप्तमे । जातशुद्धाशयः पश्चात्तापादेवमचिन्तयत् ।। ४५५ ।। अहो ! पापोऽहमहन्तं वीरं धर्मगुरुं निजम् । निनान्तमाशालितवास्त्रिधाऽप्यत्यन्तदुर्मतिः॥ ४५६ ॥ अभाणयं च सर्वज्ञमात्मानं सर्वतोऽपि हि । मृषोपदशैः सत्याभैः सर्व लोकं प्रतारयन् ॥ ४५७॥ बिङ्मही मया दग्धौ गुरुगृह्यावुभौ च तौ । तेजोलेझ्या स्वदाहायामुच्यत स्वामिने च धिक् ॥ ४५८ ॥ कृते दिनानां स्लोकानां किमकार्य मया कृतम् । भूयिष्टनरकावासविनिवासनियन्धनम् ॥ ४५९ ॥ १ वास्तस C| "त्वा तं सा स्वातं स ।
॥२३॥
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अहमः सर्गः
न केवलमयं स्वात्मा नरकायातिथीकृतः । किं त्वयं सकलो लोकोऽप्यसन्मार्गोपदेशनः ॥ ४६० ॥ भववियत्यपि गने लोको यातु पथैव हि । विमृश्यैवं समाय शिष्यानेवमथावदत् ॥ ४६१ ॥ भो ! भोः ! शृणुन सर्वेऽपि नाहमहन केवली । किं त्वस्मि मंखलिसुतो गोशालो बीरशिष्यकः ॥४६॥ आश्रयाशो वहिरिव प्रत्यनीको गुरोरहम् । मया दंभादियकालमात्मा लोकश्च वंचितः ॥ ४६३॥ छद्मस्थोऽहं मरिष्यामि दस्यमानः स्वतेजसा । वामांनौ रज्जुभिर्यद्ध्वा कर्षणीयः पुरीह भोः ॥ ४६४ ।। निष्ठीवडिर्मम मखे मां कर्षद्रितश्ववत । घोषणीयमिदं पुर्या त्रिक,गाटकादिषु ॥४३०॥ स एप मखलिसुतो गोशालो दंभितप्रजः । मुनिघात्यजिनो दोषनिधानं गुरुतल्पगः ॥ ४६६ ।। जिनस्तु भगवान् व.रः सर्वज्ञः करुणानिधिः। हितोपदेष्टा न्यहोष्ट गोशालस्तं मुधैव हि ।। ४६७ ॥ इत्यर्थे शपथं दत्त्या व्यथया स व्यपयत । तच्छिष्याश्च कुलालोकोद्वाराणि पिदधुर्हिया ।। ४६८ ॥ श्रावस्तीमालिखंस्तत्र शिष्याः शपथमुक्तये । तथा गोशालमाकर्षन कुर्वन्तो घोषणादिकम् ॥ ४६९ ।। ततो निष्कमयामासुस्तद्गोशालकलेवरम् । ऋद्धया महत्या तच्छिष्याश्चक्रुश्च ज्वलनातिथिम् ॥ ४७० ॥ प्रभुः श्रीवर्धमानोऽपि मेंढकग्राममभ्यगात् । चैत्ये च समवासार्षीत्तत्र कोष्टकनामनि ॥ ४७१ ॥ स्वामिनं तत्र चापृच्छत् समये गौतमो मुनिः। गोशालः कां गतिमगात् स्वाम्यूचे सोऽच्युनं गतः॥४७२।।
AAKAASHAKAKKARAN
॥२५४॥
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भूयोऽपि गौतमोऽपृच्छत् स्वामिन्नीहरिभरप्यधैः । स दुरात्मा कथं देवो बभूवाश्चर्यमन मे ॥ ४७३ ॥ स्वाम्याचख्यौ निन्दति योऽवसाने दुष्कृतं निजम् । न दूरे तस्य देवत्वं गोशालोऽपि तथाऽकरोत् ॥४७४६|| पप्रच्छ गौतमोऽथैवं काले च्युत्वा तु सोऽच्युतात् । स्वामिन्नुत्पत्स्यते कुत्र कदा सिद्धिं च यास्यति ४७ स्वाम्युवाचाऽत्रैच जम्बूद्वीपे वर्षे च भारते । भाव्युपविन्ध्यं पुंद्रेषु शतद्वारं महापुरम् ॥ ४७६ ॥ नत्र संमुचिभूपस्य भद्राकुक्षिभवः सुतः । गोशालजीवो भविता महापद्मोऽभिधानतः ॥ ४७७ ।। स च भावी महाराजस्तस्योभी यक्षपुंगवौ । पूर्णभद्रमाणिभद्रौ सेनापत्यं करिष्यतः ॥ ४७८ ।। तस्थापरं गुणोद्भूतं देवसेन इति प्रजाः । नामधेयं करिष्यन्ति भागधेयमहानिधेः ॥ ४७९ ॥ तस्योच्चैश्चक्रिण इवोत्पत्स्यतेऽद्भुततेजसः । हस्ती श्वेतश्चतुरन्त एरावण इवापरः ॥ ४८० ॥ तत्राऽऽरूद्ववतस्तस्य तदृद्धिमुदिता जनाः। विमलवाहन इति करिष्यन्त्यभिधान्तरम् ॥ ४८१ ॥ तस्याऽन्यदा पूर्वभवाभ्यस्तर्षिद्वेषकर्मणा । उत्पत्स्यने श्रमणेषु नितान्तं दुष्टबुद्धिता ॥ ४८२ ॥ निन्दनस्ताडनैर्बन्धैरुडा हैहननैश्च सः। श्रुतमात्रान् दृष्टमात्रान्मुनीन् विनटयिष्यति ।। ४८३ ॥
नं च विज्ञापयिष्यन्ति पौरामात्यादयोऽप्यदः। भूभुजां युज्यते दुष्टनिग्रहः साधुपालनम् ॥ ४८४ ।। । अमूंस्त्वनागसः साधून भिक्षावृत्तींस्तपोधनान। स्वामिन् ! न पासि चेन्मा स्म पासीस्तन्निग्रहस्तु किम ४८५| | न्ते C. L.॥
॥२७
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अष्टमः
कोपिष्यति (च) चेत्कोऽपि निरागस्ताडनान्मुनिः । स्वतेजसा तदा स त्वां सराष्ट्रमपि वक्ष्यति* ॥४८६॥ || ४ तैरित्युक्तो विना भावं तद्वचः प्रतिपत्स्यते । सोऽन्यदा तु रथारूढः क्रीडयोद्यानमेष्यति ॥ ४८७ ॥ स त्रिज्ञानं मुनि सिद्धतेजोलेश्यं सुमंगलम् । कायोत्सर्गस्थितं तत्र द्रक्ष्यत्यातापनापरम् ॥ ४८८ ॥ सोऽथ निष्कारणक्रुद्धो विरुद्धः साधुदर्शने । तं रथाग्रेण पर्यस्य महर्षि पातयिष्यति ॥ ४८९ ॥ स उत्थाय मुनिर्भूयः कायोत्सर्ग करिष्यति । तथैव भूपति यस्तं पृथ्व्यां पातयिष्यति ॥ ४९० ।। उत्थाय स्थास्यति पुनः कायोत्सर्गे सुमगंलः । प्रयुज्य चाऽवधि ज्ञात्वा तद्भवानिति वक्ष्यति ॥ ४२१ ॥
रे! न देवसेनोऽसि न वा निमलवाहनः । स्मर गोशालकोऽसि त्वं सूनुमखस्य मंखलः ॥ ४१२ ॥ येन चाऽऽशातितो धर्मगुरुश्चरमतीर्थकृत् । नच्छिष्यौ च परिप्लुष्टौ दुर्मदन तदा त्वया ॥ १९३ ॥ यथा हि तैस्तदा क्षान्तं क्षमिष्येऽहं तथा न हि । भूयः करिष्यसेऽवश्चेद्धश्यामि त्वां क्षणात्तदा ॥ ४१४ ।। तनेत्युक्तोऽधिकं दीप्तः सर्पिःसिक्त इवानलः । पातयिष्यति भूयोऽपि महापद्मः सुमंगलम् ॥ ४९५ ॥ क्रमानपेत्य सप्ताष्टान् स तेजोलश्यया मुनिः । निधक्ष्यति महापद्मं सरथ्यरथसारथिम् ॥ ४९६ ॥ तत्कर्माऽऽलोच्य स मुनिः पालयित्वा चिरं व्रतम् । अन्ते च मासानशनं कृत्वा सर्वार्थमेष्यति ॥ ४९७ ॥ प्रयास्त्रंशत्सागरस्यायुषोऽन्ते स परिच्युतः । महाविदहेपूत्पद्य दीक्षया मोक्षमेष्यति ॥ ४९८ ॥ *अस्मिन् पादे एकम् अक्षरम् न्यूनं वर्तते । अष्टाक्षरप्रमाणे पादे सप्ताक्षरभवनेन |
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महापद्मोऽपि निर्दग्भः सामोव गमिष्यति । क्रमादुत्पस्यते द्विर्द्विः सर्वेषु नरकेषु सः ॥४९९ ॥ तिर्यग्जातिषु सर्वासुत्पत्स्यतेऽथ मुहुर्मुहुः । स शस्त्रवध्यः सर्वत्र दाहार्तश्च मरिष्यति ।। ५०० ॥ इत्थं कालमनन्तं तु भवान् भ्रान्त्वाऽतिदुःखदान् । स समुत्पत्स्यते वेश्या वही राजगृहात्पुरात् ॥ २०१ ॥ सुप्ता भूषणलुब्धेन कामिना सा हनिष्यते । भूयो राजगृहस्यान्तर्वेश्या भूत्वा विपत्स्यते ॥ २०२॥ सविन्ध्यम्ले वेभेले सन्निवेशे भविष्यति । विप्रकन्याञ्थ विप्रेण केनापि परिणेष्यते ॥ ५०३ ।। वशुरगृहादायान्ती दाववह्निना । मार्गे दग्धोत्पत्स्यतेऽग्निकुमारेषु सुरेषु सा ॥ ५०४ ॥ ततोऽपि मानुषो भावी प्रव्रज्यां च ग्रहीष्यति । विराधितश्रामण्यः सन्नसुरेषु भविष्यति ॥ २०५ ॥ पुनः पुनर्म भवान् कतिचित्प्राप्य सोऽसकृत् । विराधितश्रामण्यः सन् भविष्यत्यसुरादिषु ॥ २०६ ॥ पुनश्च मानुषीभूयातीचाररहितं व्रतम् । पालयित्वा स सौधर्मे कल्पे देवो भविष्यति ॥ २०७ ॥ एवं सप्तभवान् यावच्छ्रामण्यमनुपालय सः । कल्पे कल्पे समुत्पय सर्वार्थमपि यास्यति ॥ २०८ ॥
युवा विदेहेषु भूत्वाऽऽव्यतनयः सुधीः । दृढप्रतिज्ञो नान्ना स विरक्तः प्रब्रजिष्यति ॥ २०९ ॥ स जातकेवल ज्ञात्वाssगोशालक भवानिजान् । गुर्ववज्ञामुनिवधमूलान् शिष्येषु शंसिता ॥ ५१० ॥ 'निर्देक्ष्यति च शिष्येभ्यो गुर्ववज्ञादि सर्वथा । न कार्यमन्चभूयं हि तत्फलानि बहून् भवान् ॥ ५११ ॥
१ नि । निर्देष्य | निदिष्य D
॥ २५७
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स्वशिष्यान् बोधयित्वैवं विहरन्नवनीतलम् । कर्मक्षयेण गोशालजीवो निर्वाणमेष्यति ॥ २१२ ॥ भूयोऽपि गौतमोऽपृच्छत् केन प्राग्जन्मकर्मणा । प्रत्यनीको बभूवैवं गोशालो भगवंस्तव || ५१३ ॥ अrissख्यद्भगवान जंबूद्वीपेऽत्र भारते । प्राक्चतुर्विंशतावर्द्धनुदायो नामतोऽभवत् ॥ २१४ ॥ तस्य मोक्षमहिमानं कर्तुमीयुः सुरासुराः । प्रत्यन्तवासी तानेकः प्रेक्ष्य जातिस्मरोऽभवत् ॥ ५१५ ॥ प्रत्येकबुद्धः प्राब्राजीत् स तदैव महाशयः । आर्पयद् ब्रतिलिंगं च तस्मै शासनदेवता ॥ ५१६ ॥ तप्यमानं तपस्तीव्रं पूज्यमानं वन्यनम् । यमतं तिदुर्मतिः ।। ५१७ ॥ केन त्वं दीक्षितः ? कुत्रोत्पन्नः ? किं वा कुलं तव । । कुतो वा सूत्रमर्थं च समुपार्जितवानसि ? ॥ ५१८ ॥ प्रत्येकबुद्धः स महामुनिराख्यदशेषतः । दध्यौ चेतीश्वरो नूनं दंभेनाति प्रजामसौ ॥ २१९ ॥ मन्ये यागमेनोक्तं ताहग्वक्ता जिनोऽपि हि । यद्वाऽपमोहो नेदृक्षं स वदेशामि तं ततः ।। ५२० ।। प्रव्रज्यामभिनन्दामि सर्वदुःखापहामिति । ध्यात्वैवं स गयौ तत्र न चापश्यज्जिनेश्वरम् ॥ ५२१ ॥ पार्श्वे गणवरस्याथ प्रव्रज्यां स उपाददे । मोहगर्भिनवैराग्यः कपिवन्मन्दबुद्धिकः ॥ ५२२ ।। मोक्षप्राप्ते जिने पर्षद्यासीनो गणभृज्जगौ । यावज्जिनोक्तसूत्रार्थमालापस्तावदित्यभूत् ॥ ५२३ ।। अप्येकं पृथिवीजीवं विनाशयति यः खलु । असंयतः समाख्यातो जैनेन्द्रे स हि शासने || ५२४ ॥
? D. L. H
अष्टमः सर्गः
॥ २५८
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MEMORAVILAYMAA.A.VAATM..
ईश्वरोऽचिन्तयश्चैवं जीवा अवनिकायिकाः । सर्वत्रापि विमृद्यन्ते को हि तान् रक्षितुं क्षमः ।। ५२६ ॥ अश्रद्धेयमिदं वाक्यं लाघवायास्य केवलम् । श्रुत्वाऽप्यदोऽनुतिष्ठेत् क उन्मत्तस्येव भाषितम् ॥ ५२६ ॥ मुक्त्वेदं यद्यसौ किंचिच्छामण्यं मध्यपक्षगम् । समाख्याति तदा नूनं लोकः सर्वोऽपि रज्यति ॥५२७॥ यद्वा हा ! हा ! हतोऽस्मीति नानुतिष्ठाम्यहं यदि ।जनोऽपि नानुतिष्ठेत् किं सर्वज्ञैर्भाषितं ह्यदः ।। ५२८॥ अर्हद्वाक्यान्यथाकारप्रायश्चित्तं मयाऽधुना । ग्रात्यमित्यगमत्तं प्रत्येकवुद्धं महामुनिम् ॥ ५२९ ॥ तस्यापि धर्मव्याख्याने सोऽोषीद्यन्मुनिस्त्यजेत् । पृथिवीकायमुख्यानां समारम्भंत्रिधाऽपि हि ॥ ५३० ॥ ईश्वरोऽचिन्तयत्कोऽमून्नाऽऽरभेत तथा त्यसो । पृथ्व्यां निषीदत्यनाति चाग्निपर्क 'पिषत्यपः ॥ ५३१ ॥ आत्मन्यपि विसंवादि तद्वदत्येष कद्वदः । वरं गणधरः सोऽस्तु यद्वा सोऽपि विरुद्धवाक् ॥ ५३२ ॥ अमूभ्यां तवलं द्वाभ्यां धर्म वक्ष्यामि तं स्वयम् । अविरक्तः सुखसुखमनुष्ठास्थति यं जनः । ॥ ५३३ ॥ एवं चिन्तयतस्तस्य मूर्षि विद्युत् पपात खात् । मृत्वा च सप्तमावन्यामुदपादि स नारकः ॥ ५३४ ॥ श्रुतशासनसम्यक्त्वप्रत्यनीकत्वपापजम् । दुःखं सत्र चिरं भुक्त्वा मत्स्यः सोऽन्धाविहाभवत् ॥ ५३५ ॥ भयोऽगात्सप्तमोा सोऽत्रैत्य काका खगोऽभवत । ततोऽगात प्रथमावन्यां दष्टश्चात्य चाभवत ॥ भूयोऽगात्पथमावन्यां खरोऽभूवन षड्भवान् । ततो मनुष्यः संजज्ञे मृतो नाऽभूनेचरः।। ५३७ ॥ १ पिबेत्ययः C. ॥ २ इत आरम्य अग्रिमसर्गरथ चिह्नपर्यंतः पाठः नास्ति ८ प्रतौ ॥
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ततो मृत्वा विडालोऽभूत्ततोऽपि नरकं ययौ । उद्धृत्य चाक्रिकोऽत्राभूत् कुष्ठी कृम्याकुलस्ततः ॥ ५३८ ॥ स पञ्चाशतमन्दानि भक्षितः कृमिभिमतः । अकामांनेजरायोगांवत्वं प्रत्यपयत ॥ ५३९ ॥ ततश्च्युतो नृपः सोऽभून्मृत्वाऽगात्सप्तमावनिम् । ऋतियङ्नरकेष्वेवं भ्रान्त्वा गोशालकोऽभवत् ।।५४०॥ एवं पूर्व भवाभ्यासवासनावेशतः स तु । तीर्थकृद्धमसाधूनां प्रत्यनीकोऽभवद् भृशम् ॥ ५४१ ॥ इति स्वामिवचः श्रुत्वाऽबुध्यन्त यहयो जनाः । प्रायजश्च भवोद्विनाः श्रावकत्वं च केऽप्यधुः ॥ ५४२ ॥ स्वामी तु रक्तातीसारपित्तज्वरवशात् कृशः । गोशाललेझ्यया जज्ञे चकार न तु भेषजम् ।। ५४३ ।। गोशालतेजसा वीरः षण्मासान्तर्विपत्स्यते । इति लोकपवादोऽभूत्तागामयदर्शनात् ॥ ५४४ ॥ तं च श्रुत्वा स्वामिशिष्यः सिंहो नामानुरागवान् । गत्वैकान्ते कोदोचः क धैर्य ताशा गिरा ॥५४॥ केवलेन प्रभुर्ज्ञात्वा तमाहूयेदमन्त्रवीत् । जनप्रवादात् किं भीतः साधो ! संतप्यसे हृदि ॥५४६ ॥ न ह्यापदा तीर्थकृतो विपद्यन्ते कदाचन । किं न संगमकादिभ्य उपसर्गा वृथाऽभवन् ॥ ५४७ ॥
उवाच सिंहो भगवन् ! यद्यप्य तथापि हि । आपदा वोऽखिलः स्वामिञ्जनः संतप्यतेतराम ॥ ५४८ ।। | मादृशां दुःखशान्त्यै तत् स्वामिन्नादत्स्व भेषजम् । स्वामिन पीडितं द्रष्टुं न हि क्षणमपि क्षमाः २४९॥ तस्योपरोधात्स्वाम्यूये रेवत्या श्रेष्ठि भार्यया । पक: कूष्माण्डकटाहो यो मह्यं तं तु मा ग्रहीः ॥ ५५ ॥ नावश ||
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बीजपूरकटाहोऽस्ति यः पक्को गृहहेतवे । तं गृहीत्वा समागच्छ करिष्ये तेन वो धृतिम् ॥ ५५१ ॥
सिंहोऽगादध रेवतीगृहमुपादत्त प्रदत्तं तया।
कल्प्य मेजपा पार वाष्रे सपा न हृष्टैः सुरैः॥ सिंहानीतमुपास्य भेषजवरं तद्वर्धमानः प्रभुः।
सद्यः संघचकोरपार्वणशशी प्रापद्वपुःपादवम् ॥ ५॥२॥
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते विपष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्ये दशमपर्वणि ऋपभइसदेवानन्दाप्रव्रज्या-जमारिगोशालक विपतिपत्तिविपत्ति-भगवदारोग्यवर्णनो नामाष्टमः सर्गः ।।
॥२६१
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॥ अथ नवमः सर्गः ॥
इतश्च यः सुदंष्ट्राहिकुमारो नौजुषः प्रभोः । उपसर्गानकृत स क्वचिद् ग्रामेऽभवद्बली ॥ १ ॥ कृप्याजीवकोऽन्येयुः सीरेण ऋष्टुमुर्वराम् । यावत्प्रवृत्तस्तावत्तं श्रीवीरो ग्राममाययौ ॥ २ ॥ स्वामिना तस्य बोधाय प्रेषितो गौतमोऽवदत् । किमिदं क्रियते ? दैवनियुक्तमिति सोऽब्रवीत् ॥ ३ ॥ भूयोऽपि गौतमोऽचत् क्षुद्रजीविकयाऽनया । जीवतस्तव किं सौख्यं ? किं वा सुचरितं भवेत् ! ॥४॥ न केवल मिहैवेदं कष्टकृद्र । कर्म ते । प्राणातिपातभूयिष्ठं कष्टायान्यभवेष्वपि ॥ ५ ॥ कर्मणोऽमुष्य कष्टस्य कष्टं लक्षांशतोऽपि हि । क्रियते धर्मकार्ये चेत्कष्टान्तः स्यात्तदा खलु ॥ ६ ॥ इत्यादि गौतमेनोक्तः स ऊचे साध्वहं त्वया । बोधितोऽय भषोद्विनं परिव्राजय मां ततः ॥ ७ ॥ प्रबुद्ध इति विज्ञाय गौतमस्तमवीक्षयत् । गन्तुं श्रीवीरपादान्ते समं तेन चचाल च ॥ ८ ॥ पच्छ हालकर्षिस्तं गन्तव्यं भगवन् ! क्व तु । गौतमोऽप्यवदत् साधो ! मन्तव्यमुपमद्गुरु ॥ ९ ॥ हालकोऽप्यब्रवीदेवं न तुल्यः कोऽपि ते ध्रुवम् । तवापि किं गुरुः कोऽपि ! स च स्यात्कीदृशो ननु ? १०
नवगः
| सर्ग:
।। २६२ ।
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अथाख्यद्गीतमोऽस्तीह मम विश्वगुरुर्गुरुः । चतुस्त्रिंशदतिशयः सर्वज्ञश्चरमो जिनः ॥ ११ ॥ तच्छुत्वा हालिकमुनिः सर्वज्ञे प्रीतिमुद्रहन् । उपार्जयहोधिधीजं प्रययो चानुगौतमम् ॥ ११ ॥ प्रभु प्रेक्ष्य च संक्रुद्धः सिंहादिभववरतः । सोऽवोचद्गौतममुनि भगवन् ! कोऽयमग्रतः ॥ १३ ॥ जगाद गौतमोऽसौ मे धर्माचार्यो जिनेश्वरः । सोऽप्यूचे घेद्गुरुस्तेऽसौ तदा नार्यस्त्वयाऽपि मे ॥ १४ ॥ त्वदीक्षयाऽप्यलमिति स रजोहरणादिकम् । त्यक्त्वा ययौ निजक्षेत्रे सीरादि पुनराददे ॥ १५ ॥ स्वामिनं गौतमो मत्वा पप्रच्छ भगवन्निदम् । आश्चर्यमेष विद्वेषी लोकानन्देऽपि यस्त्वयि ॥१६॥ प्रतिपन्नं स्वयमपि व्रत मोज्झितवानसौ । युष्मदालोकनादेव कारणं तंत्र नाथ ! किम् ? ॥ १७ ॥ मय्यसो प्रीतिमान पूर्व गुरुर्मेऽसावितीरित । त्ययि नाथ ! अगित्येव द्वेष्यजायत मय्यपि ॥ १८ ॥ स्वाम्यथाऽऽख्यन्मया सिंहो यस्त्रिपृष्ठेन दारितः । क्रोधात् स्फुरस्त्वया साना शान्तः सारथिना मंम १९ | नत्प्रभृत्येष मद्वेषी जज्ञे स्निग्धः पुनस्त्वयि । तत्प्रेषयं गौतम ! त्वां योधिघीजकृतेऽस्य हि ॥ २० ॥ एवमाख्याय भगवान् प्रययौ पोतनं पुरम् । मनोरमाभिधोद्याने सहहिः समवासरत् ॥ २१॥ प्रसन्नचन्द्रो जिनेन्द्रं वन्दितुं पोतनेश्वरः । समाजगामाश्रौषीच देशनां मोहनाशिनीम् ॥ २२ ॥ स्वामिवेशनया बुद्धो भवोद्विग्नः स भूपतिः। पालमप्यात्मजं राज्ये निधाय व्रतमाददे ॥२३॥ १ चात्र 1 ॥ २ ततः ॥
RAKAKARMERICANASANA
॥२६॥
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विहरन् स्वामिना सार्धं तप्यमानस्तपः परम् | अजायत स राजर्षिः क्रमात्सूत्रार्थपारगः ॥ २४ ॥ नेनर्षिणापरेचापि ऋषिभिः परिवारितः । विहरन् भगवान् वीरो ययौ राजगृहेऽन्यदा ॥ २५ ॥ तत्र द्रष्टुं जगन्नाथमुत्कः सुतसमावृतः । चचाल श्रेणिकोऽश्वेश्रेणिमण्डित भूतलः ॥ २६ ॥ अग्रrath तस्य चोभौ नगै सुमुखदुर्मुखौ । प्रिभ्याहतपत मिथो नानाकथापरौ ॥ २७ ॥ मार्गे प्रसन्नचन्द्रं तमेकं परादप्रतिष्ठितम् । आतापनां प्रकुर्वाणमूर्ध्वबाहुमपश्यताम् ||२८|( युग्भम् ) तं दृष्ट्वा सुमुखोऽवोचदहो आतापनाजुषः । अस्य स्वर्गीऽपवर्गों वा मुनर्न खलु दुर्लभः ॥ २९ ॥ कर्मतो नामचापि दुर्मुखः प्रत्यभाषत । प्रसनचन्द्रः खल्वेष भूपतिः पोतनेश्वरः ॥ ३० ॥ अस्य धर्मः कुतो येन राज्यभारेऽर्भकः सुतः । नियोजितो वत्सतर इवानसि महीयसि ॥ ३१ ॥ स चास्य सूनुः सचिवैर्दधिवाहनभूभुजा । चम्पानाथेन संभूय राज्यात्प्रच्यावयिष्यते ॥ ३२ ॥ राज्यधर्मः क्षनोऽनेन परन्योऽप्यस्य कचिद्गताः । अदर्शनीयस्तदसौ घृतपाखंडिदर्शनः ॥ ध्यानपर्वतदम्भोलिमेवमाकर्ण्य तद्वचः । प्रसन्नचन्द्रो राजर्षिः सहसेति व्यचिन्तयत् ॥ ३४ ॥ धिगहो अकुनज्ञास्ते मंत्रिणो ये मया सदा । सत्कृता अपि मत्सुनोर्विभेदमधुना व्यधुः ॥ ३५ ॥ अद्याभविष्यं चेत्तत्राशिक्षयिष्यं भृशं हि तान् । विकल्पैरित्यप्रसन्नः प्रसन्नो व्यस्मरद्रुतम् ॥ ३६ ॥ स राजमानी मनसा योद्धुं प्रववृते ततः । तत्र च श्रेणिकः प्राप्तो ववन्दे विनयेन तम् ॥ ३७ ॥
३३ ॥ f
नवमः
सर्ग:
।। २६४
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अहो प्रसन्नचन्द्रस्य ध्यानावस्थेति चिन्तयन् । श्रेणिकोऽगान्महावीरं नत्वा वैषमभाषत ॥ ३८ ॥ प्रसन्नचन्द्रो राजर्षिानस्थो वन्दितो मया। यदा तदा चन्नियेत ततो गच्छेत् क्व शंस मे ॥ ३९॥ सप्तमी भुवमित्याख्यनाथोऽथ श्रेणिकोऽपि हि । दध्यो न साधोनरकस्तन्मया साधु न श्रुतम् ॥ ४० ॥ क्षणान्तरे च भूयोऽपि पप्रच्छ श्रेणिकः प्रभुम् । विपयले प्रसाधुन मस्क मञ्छति ॥४१॥ सर्वार्थसिद्धे यातीति शशंस भगवानपि । द्विधा किं व्याकरणमित्यपृच्छच्छ्रेणिकोऽप्यथ ॥ ४२ ॥ स्वाम्यूचे ध्यानभेदेन द्विधा व्याकरणं ह्यदः । तदा हि दुर्मुखगिरा प्रसन्नः कुपितः खलु ॥ ४३ ॥ जातामर्षश्च सामन्तामात्यायैः सह चेतसा । युध्यमानस्त्वयाऽधन्दि तदा स नरकोचितः ॥ ४४ ॥ त्वय्यायातेऽत्र सोऽमस्त यत् क्षीणान्यायुधानि मे । हन्मि शत्रु शिरस्त्रेणेत्यधिमूर्ध न्यधात्करम् ॥४॥ कृतलुश्च स्पृशन्मौलिं प्रतिबुद्धः स्मरन् व्रतम् । अकार्य धिङ् मयाऽऽरन्धमित्यादि स्वं निनिन्द सः ॥ ४६॥ आलोचितप्रतिक्रान्तः प्रशस्तध्यानमागतः । सर्वार्थसिद्धयोग्योऽभूत्तव प्रश्ने द्वितीयके ॥ ४७ ॥ नम्रान्तरे च प्रसन्नचन्द्रर्षिसविधेऽभवत् । देवदुन्दुभिनि?षमिश्रः कलकलो महान् ॥ ४८ ॥ स्वामिन् ! किमिदमित्युक्ते श्रेणिफेनावदद्विभुः । तस्य ध्यानान्तरस्थस्येदानीमजनि केवलम् ॥ ४॥
नस्य केवलिमहिमामिमां कुर्वन्ति नाकिनः । प्रमोदतुमुलस्तेषां दुन्दुभिध्वानवानयम् ॥ ५० ॥ ॥ १ "प्रियते D. M. ॥ २ "यभिम् 'L.॥
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नवमः
सर्गः
भूयोऽपि श्रेणिकनृपो वभाष भगवनिह । कुत्रेदं केवलज्ञानं व्युच्छेदमुपयास्यति ॥ २१ ॥ तदाऽऽगाद् ब्रह्मलोकेन्द्रसामानिको महाद्युतिः । विद्युन्माली प्रभु नन्तुं चतुर्देवीसमन्वितः ॥५२॥ नं दर्शयन् स्वाम्युवाचोच्छेत्स्यते यत्र केवलम् । भूयोऽपि श्रेणिकोऽपृच्छत् किं स्याइवेषु केवलम् ? ॥२३॥ स्थाम्यथाख्यदसौ च्युत्या सप्तमेऽहि भविष्यति । ओट्यस्यपभदत्तस्य सूनुस्त्वत्पुरवासिनः ॥ ५४॥ भावी जंब्बाख्यया शिष्यो मच्छिष्यस्य सुधर्मणः । ततो नोग्रेसरमसावर्जयिष्यति केवलम् ।। ५५ ।। राजाऽपृच्छत्पुनर्नाथमासन्नच्यवनोऽप्यसो परमान्न मन्दतेजस्को देना बलेपसेजसः॥५६॥ स्वाम्यूचे सांप्रतमयं मन्दतेजाः सुरः खलु । अस्य तेजः पूर्वपुण्यैरत्युत्कृष्टं पुरा घभूत् ॥ ५७ ॥ एवमाख्याय भगवान् सर्वभाषाजुषा गिरा । विदधे दुरितप्रत्यादेशनी धर्मदेशनाम् ॥ ५८ ।। तदा कृष्ठगलत्कायः कश्चिदेत्य प्रणम्य च । निषसादोपतीर्थेशमलर्क इव कुहिमे ॥ ५९॥ ततो भगवतः पादौ निजपूयरसेन सः। निःशंकश्चन्दनेनेव चर्चयामास भूयसा ॥ ६॥ तद्वक्ष्य श्रेणिका कुंद्धो दध्यौ वध्योऽयमुत्थितः। पापीयान् यज्जगतर्येवमाशातनापरः॥ ११॥ अत्रान्तरे जिनेन्द्रेण क्षुते प्रोवाच कुष्ठिकः । म्रियस्वत्यथ जीवेति श्रेणिकेन क्षुते सति ॥१२॥ क्षुतेऽभयकुमारेण जीव वा त्वं नियस्व वा । कालसौफरिफेणापि क्षुते मा जीव मा मृथाः ॥ ६३ ॥ , श्रेष्ठ L...२ नस' C. D. L. II ३ यो ज ..
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जिनं प्रति म्रियस्वेति वचसा रुषितो नृपः । इतः स्थानादुत्थितोऽसौ ग्रात्य इत्यादिशभूटान ॥ ६४ ॥ देशनान्ते महावीरं नत्वा कुष्ठी समुत्थितः । रुरुधे श्रेणिकभदैः किरातैरिव सूकरः ॥६५॥ स तेषां पश्यतामेव दिव्यरूपधरः क्षणात् । उत्पपाताम्बरे कुर्वन्नर्कविम्बविडम्बनाम् ॥ ६६ ॥ पत्तिभिः कथिते राज्ञा स कः कुष्ठीति विस्मयात् । श्चो विज्ञप्तः मभुस्तस्मै देवः स इति शस्तवान् ॥६॥ पुनर्विज्ञपयामास सर्वज्ञमिति भूपतिः । देवः कथमभूदेष कुष्ठी वा केन हेतुना ॥ ६८॥ अथोचे भगवानेवमस्ति विश्लेषु विभुस्या । कौशाम्बी नाम पूरलयां शतानीकोऽभवनृपः ॥ ६९ ॥ तस्यां नगर्यामेकोऽभून्नामतः सेडको द्विजः । सीमा सदा दरिद्राणां मूर्खाणामवधिः परः॥ ७० ॥ गर्भिण्याऽभाणि सोऽन्येचुर्लाह्मण्या सूतिकर्मणे । भट्टानय घृतं मय सत्या न हान्यथा व्यथा ॥ ७१ ॥ सोऽप्यूचे नां प्रिये ! नास्ति मम कुत्रापि कौशलम् । येन किंचिल्लभे कापि कलानाथा यदीश्वराः ॥७२॥ * उवाच सा च तं भट्टै गच्छ 'मेवस्व पार्थिवम् । पृथिव्यां पार्थिवादन्यो न कश्चित् कल्पपादपः ॥ ७३ ।। सथेति प्रतिपद्मासौ नृपं पुष्पफलादिना । प्रवृत्तः सेयितुं विप्रो रत्नेच्युरिष सागरम् ॥ ७४ ॥ कदाचिदथ कोशाम्बी चम्पेशेनामितैलैः । धनतुनेव मेधैरीररुध्यत समन्ततः ॥ ७ ॥ सानीकोऽपि शतानीको मध्येकौशाम्बि सस्थिवान् । प्रतीक्षमाणः समयमन्तर्षिलमिबोरगः॥ ७६॥ १ याचस्व ID.II. I
॥२६७॥
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नवमः
चं५........५ कालन बहुना सन्नसैनिकः । प्राकृषि स्वाश्रयं यातुं प्रवृत्तो राजहंसवत् ॥ ७७ ॥ तदा पुष्पार्थमुद्याने गतोऽपश्यञ्च सेडुकः । तं क्षीणसैन्यं प्रत्यूषे निष्पभोडुमिवोडपम् ॥ ७८ ॥ तूर्णमेत्य शतानीकं व्यजिज्ञपदसाविदम् । याति क्षीणपलस्तेऽरिर्भनदंष्ट्र इवोरगः ।। ७९ ॥ यद्योतिष्ठसे तस्मै सदा ग्राह्यः सुखन सः । बलीयानपि खिन्नः सन्नखिन्नेनाभिभूयते ॥ ८० ॥ तद्वचः साधु मन्यानो राजा सर्वाभिसारतः ! निमसार हारालारा गासीरहरणाः ॥ ८१॥ ततः पश्चादपश्यन्तो नेशुश्चम्पे शसैनिकाः । अचिन्तिततडित्पात को वीक्षितुमपि क्षमः ॥ ४२ ॥ चम्पाधिपतिरेकांगः कांदिशीकः पलायितः । तस्य हस्त्यश्वकोशादि कौशाम्थीपतिरग्रहीत् ॥ ८ ॥ दृष्टः प्रविष्टः कौशाम्बीं शतानीको महामनाः । उवाच सेडुकं विनं ब्रूहि तुभ्यं ददामि किम् ? ॥ ८४ ॥ विप्रस्तमूचे याचिष्ये पृष्ट्वा निजकुटुम्बिनीम् । पर्यालोचपदं नान्यो गृहिणां गृहिणी विना ॥ ५ ॥ भट्टः प्रहृष्टो महिन्यै तदशेषं शशंस सः। चेतसा चिन्तयामास सा चैवं बुद्धिशालिनी ।। ८६॥ यद्यमुना ग्राहयिष्ये नृपाद ग्रामादिकं तदा । करिष्यत्यपरान् वारान्मदाय विभवः खलु ॥ ८७॥ दिनं प्रत्येक आलोचस्तथाऽग्रासनभोजनम् । दीनारो दक्षिणायां च याच्योऽथेत्यन्वशात्पतिम् ॥ ८८॥ टि०- * नासीरम् - अग्रसैन्यम् | १ सेन D||
REGARAXAAR
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यांचे तत्तथा विप्रो राजाऽवात्तद्वदन्निदम् । करंकोऽन्धिमपि प्राप्य गृह्णात्यात्मोचितं पयः ॥ ८९ ॥ प्रत्यहं तत्तथा लेभे प्राप संभावनां च सः । पुंसां राजप्रसादो हि वितनोति महार्घनाम् ॥ ९० ॥ राजमान्योऽयमित्येष लोकैर्नित्यं न्यमंत्र्यत । यस्य प्रसन्नो नृपतिस्तस्य कः स्यान्न सेवकः ॥ ९१ ॥ अग्रे भुक्तं वालयित्वा बुभुजेऽनेकशोऽपि सः । प्रत्यहं दक्षिणा लोभाद्धिग्धिग्लोभो द्विजन्मनाम् ॥ १२ ॥ उपrator forः स चिविधैर्दक्षिणाधनैः । प्रासरत् पुत्रपौत्राद्यैः पावैरिष वद्रुमः ॥ ९३ ॥ स तु नित्यमजीर्णानवमनादूर्ध्वगै रसैः । आमैरभूद् दूषितत्वगश्वत्थ इव लाक्षया ॥ १४ ॥ कुष्ठी क्रमेण संजज्ञे शीर्णघ्राणांधिपाणिकः । तथैवामुक्त राजा सोऽतृप्तो हव्यवाडिव ।। ९५ ।। एकदा मन्त्रिभिर्भूपो विज्ञप्तो देव ! कुष्ठयसौ । संचरिष्णुः कुष्ठरोगो नास्य योग्य मिहाशनम् ॥ ९३ ॥ सन्त्यस्य नीरुजः पुत्रास्तेभ्यः कोऽप्यन्त्र भोज्यताम् । न्यंगितप्रतिमायां हि स्थाप्यते प्रतिमान्तरम् ॥ ९७ ॥ एवमस्त्विति राज्ञोक्तेऽमात्यैर्विप्रस्नथोदितः । स्वस्थानेऽस्थापयत्पुत्रं गृहे तस्थौ स्वयं पुनः ॥ ९८ ॥ मधुमंङकवत्क्षुद्रमक्षिका जालमालितः । पुत्रैर्गृहादपि यहिः कुटीरेऽक्षेपि स द्विजः ॥ ९९ ॥ बहिःस्थितस्य तस्याज्ञां पुत्रा अपि न चक्रिरे । शरुपात्रे ददुः किन्तु शुनकस्येष भोजनम् ॥ १०० ॥ जम्मु सं भोजयितुं सजुगुप्साः स्नुषा अपि । सिष्ठिवुश्च बलग्रीवं मोटनोत्पुनासिकाः ॥ १०१ ॥ 'ता' CM ॥ २ वमयि M. ॥ ३ स्वांगोऽ
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| ४ "सनम् ॥
॥ २६९
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*सर्गः
अथ सोऽचिन्तयद्विप्रः श्रीमन्नोऽमी मया कृताः। एभिर्मुक्तोऽस्म्य नात्य तीर्णाम्भोभिस्तरण्डवत् ॥१०२.४ नवमः तोषयन्नि न वाचाऽपि रोषयन्त्येव माममी । कुष्ठी रुष्टो ने संतुष्टो भव्य इत्यनुलापिनः ॥१३॥ जुगुप्सन्ते यथते मां जुगुप्स्याः स्युरमी अपि । यधा नथा करिष्यामीत्यालोच्यांवोचदात्मजान ॥ १०४ ॥ उद्विग्नो जीवितस्याहं कुलाचारस्त्यसौ सुताः ! । मुमूर्षुभिः कुटुम्बस्य देयो मंत्रोक्षितः पशुः ॥ १०५॥ पशुरानीयतामेक इत्याऽऽकानुमोदिनः । आनिम्यिरे तेऽथ पशुं पशुवन्मन्दबुद्धयः ॥ १०६ ॥ उद्वत्यद्विर्त्य च स्वांगमन्नेन व्याधिवर्तिकाः । तेनाचारि पशुस्तावद्यावत् कुष्ठी अभूद मः ।। १०७ ॥ ददौ विप्रः स्वपुत्रेभ्यस्तं हत्वा पशुमन्यदा । तदाशयमजानन्तो मुग्धा बुभुजिरे च ते ॥ १०८ ॥ तीर्थे स्वार्थाय यास्यामीत्यापृच्छय तनयान द्विजः । ययावूर्ध्वमुखोऽरण्यं शरण्यमिव चिन्तयन् ॥ १० ॥ अत्यन्ततृषितः सोऽटन्नद्रव्यां पयसे चिरम् । अपश्यत् सुहृदमिव देशे नानाद्रुमे हदम् ॥ ११ ॥ नीरं तीरतरुस्रस्तपत्रपुष्पफलं द्विजः । ग्रीष्ममध्यंदिनाांशुक्कथितं काथवत् पपौ ॥ ११ ॥ सोऽपायथा यथा वारि भूयो भूयस्तृषातुरः। तथा नथा-विरेकोऽथ तस्याभृत् कृमिभिः सह ॥ ११२ ॥ स नीरुगासीत्कियद्भिरप्यहोभिह्रदाम्भसा । मनोज्ञावयचो जज्ञे वसन्तेनेय पादपः ॥ ११३ ।। आरोग्यहृष्टो ववले विमः क्षिमं स्ववेदमनि । पुंसां वपुर्विशेषोत्यः शृंगारो जन्मभूमिषु ॥ ११४ ॥ १ न तु तुष्टो ॥
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पुर्यां स प्रविशन् पौशे जातविस्मयैः । देदीप्यमानो निर्मुक्तनिर्मोक इव पन्नगः ॥ ११५ ॥ पौरेः पृष्टः पुनर्जात इवोल्लाघः कथं न्यसि ? | देवताराधनादस्मीत्याचचक्षे स तु द्विजः ॥ ११६ ॥ स गत्वा स्वगृहेऽपश्यत् स्वपुन्नान् कुष्ठिनो मुदा । मयाऽवज्ञाफलं साधु दत्तमित्यवदच तान् ॥ ११७ ॥ सुतास्तमेवमूचुश्च भवता तात ! निर्घृणं । विश्वस्तेषु किमस्मासु द्विषेवेदमनुष्ठितम् ॥ ११८ ॥ लोकेश्यमानः स राजन्नागत्य ते पुरम् । आश्रयज्जीविकाद्वारं द्वारपालं निराश्रयः ॥ ११९ ॥ तदा वयमायाता द्वाःस्थोऽस्मद्धर्मदेशनाम् । श्रोतुं प्रचलितोऽमुञ्चत्तं विमं निजकर्मणि ॥ १२० ॥ द्वारोपविष्टः स द्वारदुर्गाणामग्रतो बलिम् । जन्मादृष्टमिवाभुंक्त यथेष्टं कष्टितः क्षुधा ॥ १२१ ॥ आकण्ठं परिशेषाद् प्रोमो ही पन्ना तृषाऽकारि मरुपान्थ वाऽऽकुलः ॥ १२२ ॥ तच्च द्वास्थाभिया स्थानं त्यक्त्वा नागात् प्रपादिषु । स तु वारिश्वराञ्जीवान् धन्यान्मेने तृषातुरः ॥ १२३ ॥ आस्टन वारि वारीति स तृषातां व्यपद्यत । इहैव नगरद्वारबाप्यामजनि दर्दुरः ॥ १२४ ॥ विहरन्तो वयं भूयोऽप्यागमा मेह पत्तने । लोकोऽस्मद्वन्दनार्थ च प्रचचाल ससंभ्रमः ॥ १२५ ॥ अस्मदागमनोदन्तं श्रुत्वाम्भोहारिणीमुखात् । स भेकोऽचिन्तयदिदं काप्येवं श्रुतपूर्व्यहम् ॥ १२६ ॥ ऊहापोहं ततस्तस्य कुर्वाणस्य मुहुर्मुहुः । स्वमस्मरणवज्जातिस्मरणं तत्क्षणादभूत् ॥ १२७ ॥ स. दध्यौ दर्बुरश्चैवं द्वारे संस्थाप्य मां पुरा । द्वाःस्थो यं वन्दितुमगात् स आगाद्भगवानिह ॥ १२८ ॥
॥ २७१ ॥
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यौते पान्ति तं द्रष्टुं लोका यास्याम्यहं नथा । सर्वसाधारणी गंगा न हि कस्यापि पैतृकी ॥ १२ ॥ ततोऽस्मद्वन्दनाहेतोरुप्लुत्योत्प्लुत्य सोऽध्वनि । आयस्तेिऽश्वखुरक्षुण्णो भेकः पंचत्वमाप्तवान् ॥ १३० ॥ | दर्दुराकोऽयमुत्पदे देवोऽस्मद्भक्तिभाषितः । भावना हि फलन्येष विनानुष्ठानमप्यहो ॥ १३१॥ इन्द्रः सदस्युवाचेदमुपश्रेणिकमाईताः । अश्रधानस्तदसौ त्वत्परीक्षार्थमागतः ॥ १३२॥ गोशीर्षचन्दनेनायमार्चयच्चरणौ मम | स्वदृष्टिमोहनायान्यत्सर्व व्यधित वैक्रियम् ॥ १३३ ॥ अथोचे श्रेणिकः स्वामित्रमंगल्यं प्रभोः क्षुते । एषोऽन्येषां तु मंगल्यामंगल्यानि किमभ्यः ॥ १३४॥ अथाचचक्षे भगवान किं भवेऽद्यापि तिष्ठसि । शीघं मोक्षं प्रयाहीति मां नियस्वेति सोऽवदत् ॥ १३५ ॥ स स्वामवोचज्जीवेति जीवतस्ते यतः सुखम् | मरके नरशार्दूल ! मृतस्य हि गतिस्तव ॥ १३६ ॥ जीवन धर्म विधत्ते स्पाद्विमानेऽनुत्तरे मृतः। जीव नियस्व वेत्येवं तेनाभयमभाषत ॥ १३७ ॥ जीवन् पापपरो मृत्वा सप्तमं नरकं व्रजेत् । कालसौकरिकस्तेन प्रोक्तो मा जीध मा मृथाः ॥ १३८ ।। तच्छुत्वा श्रेणिको नत्वा भगवन्तं व्यजिज्ञपत् । त्वयि नाथे अगनाथ ! कर्थ मे नरके गतिः ? ॥ १३९॥ बभाषे भगवानेवं पुरा त्वमसि भूपते ! बद्धायुर्नरकं मन तनावश्यं गमिष्यसि ।।१४०॥ शुभानामशुभानां वा फलं प्रारबद्धफर्मणाम् | भोक्तव्यं तद्वयमपि नान्यथा कर्चुमीश्महे ॥ १४१॥ मर्च 1. ॥ २ 'चेर ८. L. D. -
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आद्यो भधिजिनचतुशिला स्व भविष्यसि । पद्मनाभाभिधो राजन् ! खेदं मा स्म कृथास्ततः॥१४२॥ श्रेणिकोऽप्यवदन्नाथ ! क्रिमुपायोऽस्ति कोऽपि सः । नरफायेन रक्ष्येऽहमन्धकूपादिवान्धलः ॥ १४३ ॥ भगवान् व्याजहारेदं साधुभ्यो भक्तिपूर्वकम् । ब्राह्मण्या चेत् कपिलया भिक्षा दापयसे मुदा ।। १४४ ॥ कालसौकरिकणाथ सूनां मोचयसे यदि । तदा ते नरकान्मोक्षो राजञ्जायेत नाऽन्यथा ॥ १४५ ॥ सम्यगित्युपदेशं स हृदि हारमिवोद्वहन् । प्रणम्य श्रीमहावीरं घचाल स्वाश्रयं प्रति ॥ १४६ ॥ अत्रान्तरे परीक्षार्थ वर्दुरांकेन भूपतेः। अकार्य विदधत्साधुः कैवर्त इव दर्शितः ॥ १४७॥ तं दृष्ट्वा प्रवचनस्य मालिन्यं मा स्म भूदिति । निवार्याकार्यतः साम्ना स्वगृहं प्रत्यगावृपः ॥ १४८ ॥ म देवो दर्शयामास साध्वीमुदरिणी पुनः । नृपः शासनभक्तस्तां जुगोप निजवेश्मनि ॥ १४॥ प्रत्यक्षीभूय देवोऽपि तभूचे साधु साधु भोः । सम्यक्त्वाचाल्यसे नैव पर्वतः स्वपदादिव ॥ १५० ॥ नृनाथ ! यादृशं शकः सदसि त्वामवर्णयत् । पृष्टस्ताहश एवासि मिथ्यावाचो न साहशाः ॥ १५१ ॥ दिवा निर्मितनक्षत्रश्रेणिक श्रेणिकाय सः । व्याणयत्ततो हारं गोलकद्वितयं तथा ॥ १५२ ॥ योऽमुं संधास्यते हारं श्रुदितं स मरिष्यति । इत्युदीर्य तिरोधत्त स्वमहष्ट इवामरः ॥ १५३ ।। दिव्यं देव्यै ददौ हारं चेलणाथै मनोहरम् । गोलकद्वितयं तत्तु नन्दायै नृपतिर्मुदा ॥ १५४ ॥ दानस्यास्यास्मि योग्येति सेयं नन्दा मनस्विनी । आस्फाल्य स्फोटयामास स्तंभे तद्गोलकद्वयम् ।। १५५ ॥
॥२७३
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एकस्मात् कुण्डलद्वन्द्वं चन्द्रद्वन्द्वमिवामलम् । देदीप्यमानमन्यस्मात् क्षोभयुद्धं नि१५६ ॥ तानि दिव्यानि रत्नानि नन्दा सानन्दमग्रहीत् । अनभ्रवृष्टिवल्लाभो महतां स्यादचिन्तितः ॥ १५७ ॥ राजा ययाच कपिलां साधुभ्यः श्रद्धयाऽन्विना । मिक्षां प्रयच्छ निर्भिक्षां त्वां करिष्ये धनोचयैः ॥ १२८ ॥ कपिलो से मां सर्वां स्वर्णमयीं यदि । हिनस्सि वा तथाप्येतदकृत्यं न करोम्यहम् ॥ १५९ ॥ कालसौकरिकोsप्यूचे राज्ञा सूनां विमुश्च यत् । दास्येऽर्थं बहुमर्थस्य लोभात्वमसि सौनिकः ।। १६० ।। सूनायां ननु को दोषो ? यया जीवन्ति मानवाः । तां न जातु त्यजामीति कालसौकरिकोऽवदत् ॥ १६१ ।। सूनाव्यापारमेषोऽत्र करिष्यति कथं न्विति । नृपः क्षिप्त्वाऽन्धकूपे तमहोरात्रमधारयत् ॥ १६२ ॥ अथ विज्ञापयामास गत्वा भगवते नृपः । सोऽत्याजि सौनिकः सूनामहोरात्रमिदं विभो ! ॥ १६३ ॥ सर्वज्ञोऽभिदधे राजन्नन्धकूपेऽपि सोऽवधीत् । शतान् पञ्च महिषाणां स्वयं निर्माय मृन्मयान् ।। १६४ ।। लग श्रेणिकोऽपश्यत् स्वयमुद्विविजे ततः । घिगहो मे पुराकर्म नान्यथा भगवद्गिरः ॥ १६५ ॥ श्रीवीरोऽपि तनः स्थानाद्विहरन् सपरिच्छदः । सुरासुरैः सेव्यमानः पृष्टम्पापुरीं ययौ ॥ सालो राजा महासालो युवराजश्च बान्धव । त्रिजगद्वान्धवं वीरं तत्र वन्दितुमेयतुः ॥ १६७ ॥ श्रुत्वा तौ देशनां बुद्धौ जामेयं गागलिं स्वयम् | यशोमतीपिठरयोः सुतं राज्येऽभ्यषिञ्चताम् ॥ १६८ ॥ अथ सालमहासालौ विरक्तौ भववासतः । श्रीमहावीर पादाब्जमूले जगृहतुतम् ॥ १६९ ॥
१६६ ॥
नवमः
सर्ग:
॥ २७४
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कालान्तरेण विहरन् भगवान् सपरिच्छदः । चतुस्त्रिंशदतिशयो ययौ चम्पां महापुरीम् ॥ १७० ॥ स्वामिनोऽनुज्ञया साल महासालर्षिसंयुतः । ततः पुरीं पृष्ठचम्पां गौतम गणधयरे ॥ १७१ ॥ ववन्दे गौतमं तत्र भक्तितो गागलिर्नृपः । तन्मातापितरावन्ये पौरामात्यादयोऽपि च ॥ १७२ ॥ तत्रासीनः सुरकृते सौवर्णे कमलासने । इन्द्रभूतिश्चतुर्ज्ञानो विदधे धर्मदेशनाम् ॥ १७३ ॥ गांगलि: प्रतिबुद्धज्य राज्ये न्यस्य निजे सुतम् । दीक्षां गौतमपादान्ते पितृभ्यां सममाददे || १७४ ॥ स तैस्त्रिभिः सालमहासालाभ्यां च समावृतः । चचाल गौतममुनिश्वम्पायां वन्दितुं प्रभुम् ॥ १७५ ॥ अनुगौतममायातां पंचानामपि वर्त्मनि । शुभभाववशात्तेषामुदपद्यत केवलम् ॥ १७६ ॥ प्राप्ताः संवsपि चाय पुर्यां तत्र जिनेश्वरम् । ते प्रदक्षिणयामासुः प्रणनाम तु गौतमः ॥ १७७ ॥ तीर्थ नत्वाऽथ ते पंच बेलुः केवलिपर्षदि । तानूचे गौतमो हन्त वन्दध्वं परमेश्वरम् ॥ १७८ ॥ वायूचे गौतम! मा केवल्याशातनां कृथाः । गौतमोऽप्यक्षमत्तान्मिथ्यादुष्कृतपूर्वकम् ॥ १७९ ॥ खिन्नोऽथ गौतमो दध्यौ न किमुत्पत्स्यते मम । केवलज्ञानमिह च भवे सेत्स्यामि किं न हि ? ॥ १८० ॥ योऽष्टापदे जिनान्नत्वा वसेद्रात्रिं स सिध्यति । भवेऽचैवेत्यर्हदुक्तं वक्तून् सोऽथास्मरत्सुरान् ॥ १८९ ॥ देवतावाक्प्रत्ययेन तदानीं गौतमो मुनिः । इयेषाष्टापदं गन्तुं तीर्थद्वन्द नाकृते ॥ १८२ ॥
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॥ २७६ ॥
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तदिच्छां तापसबोधं चान् विज्ञाय भाविनम् । आदिदेशाष्टापदेऽर्हद्वन्दनायाथ गौतमम् ॥ १८३ ॥ इच्छानुरूपस्वाम्याज्ञामुदितो गौतमो मुनिः । वायुवच्चारणलब्ध्या क्षणादष्टापदं ययौ ॥ १८४ ॥ इतश्चाश्रापदं मोक्षहेतुं श्रुत्वा तपस्विनः । कौडिन्यदेत्तसेवाला आरोढुं समुपस्थिताः ॥ १८५ ॥ चतुर्थकृत्सदाप्याय आर्द्रकन्दादिपारणः । प्रापाऽऽयां मेखलां सार्धं पञ्चशत्या तपस्विनाम् || १८६ ॥ द्वितीयः षष्टकृत्ore शुष्ककन्दादिधारणः । द्वितीयां मेखलां सार्धं पञ्चशत्या तपस्विनाम् ॥ १८७ ॥ तृतीयोऽष्टमकृत्प्राप शुष्क सेवालपारणः तृतीयों मे शाशक सस्विनाम् ॥ १८८ ॥
मादुमहास्ते तस्थुर्यावदुन्मुखाः । ददृशुगौतमं तावत् स्वर्णाभं पीवराकृतिम् ॥ १८९ ॥ ते मिश्रः प्राचिरे शैलं वयमेतं कृशा अपि । न रोदुमीमहे स्थूल आरोक्ष्यत्येष तत्कथम् ? ॥ १९० ॥ एवं तेषु ब्रुवाणेषु गौतमस्तं महाचलम् । समारुरोह जज्ञे चादृश्यः सुर इव क्षणात ।। १९१ ।। srisi जगदुः शक्तिर्महर्षेरस्य काऽप्यसौ । यथायास्यस्यसौ शिष्यी भविष्यामोsस्य तद्वयम् ॥१९२॥ निश्चित्यैवं तापसास्ते प्रत्यायान्तं स्वबन्धुवत् | आबद्धरणरणकाः प्रतीक्षन्ते स्म सादरम् || १९३ ॥ गौतमोऽपि चैत्यं भरतेश्वरकारितम् । नन्दीश्वरस्य चैत्यानं चतुर्विंशजिनांकितम् ॥ १९४ ॥ अन्दिष्टातां तत्र स चतुर्विंशतेरपि । भिंषान्यप्रतिविम्बानि भक्त्या परमया युतः ॥ १९५ ॥
'पस । पसा ओं । पयो ४. ॥ २ दिन ॥
नवमः
सर्ग:
॥ २७६
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निर्गत्य गौतमश्चैत्यात्तलेऽशोकमहातरोः । उपाविशद्वन्धमान समारनभनौः ॥ ११६॥ चक्रे च गौतमस्तेषां यथाई धर्मदेशनाम । संदेहांवादित प्रस्तावित केवलीति तः॥१०॥ देशनां कुर्वता तेन प्रस्तावादिदमौच्यत । अस्थिधर्मावशिष्टांगाः किडिस्किडितसंधयः ॥ १९८ ॥ ग्लानिभाजो ब्रुवन्तोऽपि जीवसत्वेन गामिमः । तपोभिरुगैरीक्षा भवन्ति खलु साधवः ।। १९९ ॥ तत्तु श्रुत्वा वैश्रवणस्तस्य शैल्यं विभावयन् । स्वस्मिन्नपि विसंवादि वचोऽस्येत्यहसन्मनाक् ॥ २० ॥ इन्द्रभूतिमनोज्ञानी ज्ञात्वा तद्भावमब्रवीत् । नांगकार्य प्रमाणं स्यात् किं त्वहो ध्याननिग्रहः ॥ २०१ ॥ नयाहि जम्बूद्वीपेऽस्मिन्महाविदेहभूषणे । विजये पुष्कलावत्यामस्ति पू: पुंडरीकिणी ॥ २०२ ।। महापद्मो नृपस्तत्र तस्य पध्मावती प्रिया । पुंडरीककंडरीको तयोः पुत्रौ बभूवतुः ।। २०३ ॥ अन्यदा नलिनवनोपवने समुपेयुषाम् । साधूनां सन्निधौ धर्म महापद्मन्नृपोऽशृणोत् ॥ २०४ ॥ न्यस्य राज्ये पुंडरीकं महापद्मोऽग्रहीद् व्रतम् । उत्पन्न केवलः कर्मक्षयान्मोक्षमगात् क्रमात् ॥ २०५ ।। साधवः पुंडरीकियां तेऽन्यदा पुनराययुः। पुंडरीककंडरीको धर्म शुश्रुवतुस्ततः ॥ २०६ ॥ नत्र भावयतिर्भूत्या पुंडरीको गृहं ययौ । समक्षं मंत्रिणां चैवं कंडरीकमभाषत ॥ २०७ ॥ ३६ वत्म! समादत्स्व राज्यं पैतृकमुच्चकैः । भवानीतो ग्रहीष्यामि दीक्षां तड्यरक्षिणीम् ॥ २०८ ।। प्रत्यूचे कंडरीकोऽपि किं पातयसि मां भवे ? । तदहं पत्रजिष्यामि तरिष्यामि भवार्णवम् ॥ २० ॥
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ततो द्विस्त्रिश्च राज्यार्थे राज्ञोक्त नाकरोदा । तदा बनेऽनुजज्ञे स शिष्टचैवं हितैषिणा ।। २१० ॥ दुर्जयानीन्द्रियाणीह चंचलं न सदा मनः । विकारधाम तारुण्यं प्रमादः सहजो नृणाम् ॥ २११ ॥ परीषहोपसर्गाश्च दुःसहा वत्स तत्त्वया । भाव्यं दृढप्रतिज्ञेन प्रब्रज्या दुष्करा खलु ॥ २१२ ॥ यदि वा श्रावकधर्मे राज्यं च परिपालय । अतीने यौवने दीक्षामाददीधास्तदोचिताम् ॥ २१३ ॥ कंडोsप्युवाचैवं सत्यमेतत्तथापि हि । प्रजल्पितं विधातव्यं प्रवजिष्यामि निश्चितम् ॥ २१४ ॥ प्रात्राजीत् कंडरीकोऽथ पुंडरीकस्तु भूपतिः । व्रतान्निषिद्धः सचिवैस्तस्थौ भावयतिगृहे ॥ २१५ ॥ isease धैस्तपोभिः क्लिष्टविग्रहः । सामाचारीपालनतः साधूनामभवत् प्रियः ॥ २१६ ॥ वसन्तसमयेऽन्येयुजृम्भमाणे मनोऽचलत् । महर्षेः कंडरीकस्य चारित्रावरणोदयात् ॥ २१७ ॥ अचिन्तयच्च पर्याप्तं मम प्रब्रज्ययाऽनया । गत्वा राज्यमुपादास्ये भ्रात्रा दत्तं पुराऽपि यत् ।। २१८ ॥ हत्यागात्पुंडरीकियां स्थित्वाद्याने तरौ कचित् । पात्राचालम्भ्य हरितस्रस्तरे शीतलेऽलुटत् ॥ २१९ ॥ उद्यानपालेनाऽऽत्मानं स राज्ञेऽज्ञापयद् द्रुतम् । सप्रधानो नृपस्तत्राभ्यागत्य तमवन्दत ॥ २२० ॥ वृक्षबद्धोपकरणो हरित्कायस्थ एककः । मन्येऽसौ व्रतनिर्विषेण इति ज्ञात्वाऽब्रवीनृपः ॥ २२९ ॥ भो ! भोः ! सर्व स्मरथ किं यन्मे वारयतोऽमुना । तथा गृहीतं श्रामण्यं बालेन रभसावशात् ॥ २२२ ॥
नत्रमः
सर्गः
॥२७८
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इत्युदित्वा पुंडरीकः कंडरीकं तदर्धिते । राज्ये निवेशयामास राज्यविह्नानि श्रायत् ॥ २२३ ॥ पुंडरीकन्नृपस्तस्माद्यतिलिंगान्युपाददे । स्वयमात्तपरिव्रज्यः शुद्धधीर्व्यहरत्ततः ॥ २२४ ॥ भवनः कृशो रंक इवान्नार्थीति सेत्रकैः । हस्यमानः कंडरीकश्चुकोप हृदयेऽधिकम् ॥ २२५ ॥ भुञ्जेऽहं प्रथमं तावत्पश्चादेषां प्रहासिनाम् । करिष्यामि वचादीति चिन्तयन् स गृहे ययौ ॥ २२६ ॥ जधन्यमध्यमोत्कृष्टस्त्रिधाऽऽहारो यदृच्छया । प्रातः कपोतयूनंव तेनाकण्ठमभुज्यत ॥ २२७ ॥ भोगजागरणाद्राश्रावत्याहाराच्च दुर्जरात् । जज्ञे विसूचिका तस्य महत्यरतिरप्यभूत् ॥ २२८ ॥ उत्फुल्लमुदरं तस्य भस्त्रेवानिलपूरिता । निरुद्धः पवनस्तृष्णादाहश्च समभून्महान् ॥ २२९ ॥ भ्रष्टप्रतिज्ञः पापोऽसाविति ध्यात्वा नियोगिभिः । अकारितचिकित्सोऽथ सोऽर्तिमानित्य चिन्तयत् ||२३०|| कथंचिद्यद्य रात्रिमत्येष्यामि तदा प्रगे । सकुटुम्बात् हनिष्यामि सर्वांनेनान्नियोगिनः ॥ २३९ ॥ एवं च कृष्णले श्यावान् रौद्रध्यानी व्यपादि सः । उदपाद्यप्रतिष्ठाने नारकः सप्तमावनौ ।। २३२ ॥ चिरेष्ट लब्ध यो धर्मस्तं गुरुसाक्षिकम् । करोमीति पुंडरीकोऽप्यचालीत् सद्गुरुं प्रति ।। २३३ ॥ समीपे सुगुरोर्गत्वा पुनरादाय स व्रतम् । पारणामष्टमस्यान्ते पुंडरीकमुनिर्व्यधात् ॥ २३४ ॥ अतिवेलैः शीतरूक्षैराहारैः पीडितो मृदुः । भूचारविगलत्पादासृगुद्द्भुत परिश्रमः || २३५ ।। १ [र्थिनं / ॥ २ स गुरुं D || ३ नास्ति अयं श्लोक: C D L इत्यत्र ||
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॥ २७९ ॥
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नवमः
सर्गः
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याचित्वोपाश्रयं ग्रामे निषण्णस्तृणसंस्तरे । गुर्वन्ते प्रव्रजिष्यामि कदा न्विति विचिन्तयन् ॥ २३६ ॥ विहिताराधनः सम्यक् शुभव्यानपरायणः । पीनांगोऽपि विपन्नः सन् स सर्वार्थमुपेयिवान् ॥ २३७ ॥
त्रिभिर्विशेषकम् ) तत्पीनत्वं कृशत्य पान प्रमाणे तपारेखमाम् । शुभध्यान हि परमपुरुषार्थनियन्धनम् ।। २३८ ।। एतदर्थ पुंडरीकाध्ययनं गौतमोदितम् । जग्राहकसंस्थयापि श्रीवसामानिकः सुरः ॥ २३९ ।। प्रतिपदे स सम्यक्त्वं नत्वा वैश्रवणः पुनः । स्वाभिप्रायपरिज्ञानान्मुदितः स्वाश्रयं ययौ ॥ २४ ॥ एवं देशनया स्वामी गौतमोऽतीत्य तां निशाम् । प्रभाते चोत्तरन शैलात्तापसस्तैरहश्यत ॥ २४१ ॥ तापसास्तं प्रणम्योचुमहात्मंस्तपसां निधे ! । तव शिष्यीभविष्यामस्त्वमस्माकं गुरुर्भव ॥ २४२ ॥ तानचे गौतनस्वामी गुरुर्मे परमेश्वरः । सर्वज्ञोऽहन्महावीरः स एव गुरुरस्तु वः ॥ २४३ ॥ अथ तानाग्रहपरान् दीक्षयामास गौतमः । सद्यो देवतया तेषां यतिलिंगं समर्पितम् ॥ २४४ ॥ गौतमेन समं चेलुर्गन्तुं ते स्वामिनोऽन्तिके । सह यूथाधिपतिना विन्ध्याद्रौ कुञ्जरा इव ॥ २४ ॥ पथ्येकस्मिन् सन्निवेशे भिक्षाकाले गणाग्रणीः। किं वः पारणकायेष्टमानयामीत्युवाच तान् ॥ २४६ ॥ तैश्च पायसभित्युक्ते गौतमो लब्धिसंपदा । स्वकुक्षिपूरणमात्रं पात्रे कृत्वा नदानयत् ॥ २४७ ॥ इन्द्रभूतिभाषे तान्निषीदत महर्षयः !। पायसेनामुना यूयं सर्वे कुरुत पारणम् ॥ २४८ ॥
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पायसनेयता किं स्यात्तथापि गुरुरेष नः । एवं विमृश्य ने सर्वे मुनयः समुपाविशन् ।। २४९॥ तान्महानसलब्ध्येन्द्रभूतिः सर्वान भोजयत् । स्वयं तु बुभुजे पश्चात्तेषां जनितविस्मयः ॥ २० ॥ दिष्टया धर्मगुरुर्वीरः प्राप्तोऽस्माभिर्जगद्गुरुः । पितृकल्पो मुनिश्चैष पोधिश्चात्यन्तदुर्लभा ॥ २०१॥ सर्वथा कृतपुण्याः स्म इति भावयतामभूत् । भुञ्जानानां केवलं द्राक् तत्र सेवालभक्षिणाम् ॥ २५२ ॥
(युग्मम्) जझे च प्रानिहार्याणि दत्तादीनां प्रपश्यताम् । कौंडिन्यादीनां श्रीवीरं केवलज्ञानमुज्ज्वलम् ॥ २५३ ॥ प्रभु प्रदक्षिणीकृत्य तेऽयुः कवलिपर्षदि । बन्दवं स्वामिन मिति तानभाषिष्ट गौतमः ॥ २५४ ॥ केवल्याशातनां मा स्म कार्षारित्यवदत्प्रभुः। मिश्यादुष्कृतपूर्व तान् क्षमयामास गौतमः ।। २५५ ।। भूयोऽपि गौतमो दध्यो सेत्स्याम्यत्र भवे न हि । गुरुकर्माऽहमेते तु धन्या महीक्षिता अपि ॥ २०६॥ उत्पदे केवलज्ञानं येषामेषां महात्मनाम् । एवं विचिन्तयन्तं तं भगयानित्यभाषत ॥ २७ ॥ (युग्मम्) किं सुराणां वचस्तथ्यं जिनानामथ गौतम ।। जिनानामिति तेनोक्ते मा कारिधृतिं ततः ॥ २८ ॥ तृणद्विदलचर्मोर्णाकटतुल्या भवन्ति हि । लेहा गुरुघु शिष्याणां तयोर्णाकटसनिमः ॥ २५९ ॥ अस्मासु चिरसंसर्गात् स्नेहो दृढतरस्तव । तेन रुद्धं केवलं ते तदभावे भविष्यति ॥ २६०॥ १ पामजनि वि" || २ दिन्नादी 11
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गौतमस्य प्रयोधार्थमन्येषां चानुशिष्टये । व्याकरोद् द्रुमपश्रीयाध्ययनं परमेश्वरः ॥ २६९ ॥ अत्रान्तरे जगद्भर्तुश्वरणोपासकः परः । परिवार्डडस्तत्राययौ छत्री त्रिदंडभृत् ॥ २६२ ॥ स त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्य च जिनेश्वरम् । रोमाञ्चितयपुर्भक्त्या रचिताञ्जलिरस्तवीत् ॥ २६३ ॥ तब चेतसि वर्तेऽहमिति वार्ताऽपि दुर्लभा । मदिते वर्तसे त्वमलमन्येन केनचित् ॥ २६४ ॥ निगृह्य कोपतः कांश्चित् कांश्रित्तुष्टयाऽनुगृह्य च । प्रतार्यन्ते मृदुधियः प्रलम्भनपरैः परैः ॥ २६५ ॥ अप्रसन्नात् कथं प्राप्यं फलमेतदसंगतम् । चिन्तामण्यादयः किं न फलन्त्यपि विचेतना: १ ॥ २६६ ॥ वीतरागसपेर्याभिः तवाज्ञापालनं परम् । आज्ञाऽऽराद्वा विराद्धा च शिवाय च भवाय च ॥ २६७ ॥ आकालमियमाज्ञा ते हेयोपादेयगोचरा । आश्रयः सर्वधा हेय उपादेयश्च संवरः ॥ २६८ ॥ आश्रवो भवहेतुः स्यात्संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमानी मुष्टिरन्यदस्याः प्रपंचनम् ॥ २६९ ॥ इत्याज्ञाराधनपरा अनन्ताः परिनिर्वृताः । निर्वान्ति चान्ये वचन निर्वास्यन्ति तथाऽपरे ॥ २५० ॥ हित्वा प्रसादना दैन्यमेकयैव त्वदाज्ञया । सर्वथैव विमुच्यन्ते जन्मिनः कर्मपञ्जरात् ॥ २७९ ॥ एवं जगद्गुरुं स्तुत्वा यथास्थानं निषद्य च । देशनां स्वामिनोऽश्रौषीत् स्ववसीवानिमेषहरू ॥ २७२ ॥ देशनान्ते प्रभुं नत्वा यावद्राजगृहं प्रति । अचालीदंगडस्तावदित्यूचे स्वामिना स्वयम् ॥ २७३ ॥ १ डम्म ८८ ॥ २ "पर्यापत पर्यान्त' D ॥
नवमः
सर्गः
॥ २८२॥
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सत्र नागरधिपत्न्याः सुलसायास्त्वमादरात् । प्रवृत्तिमस्मदादेशात् पृच्छे पेशलया गिरा ॥ २७४ ।। इच्छामीति भणित्वा स व्योम्ना राजगृहं ययौ । सुलसाया गृहद्वारे स्थित्वा चैवमचिन्तयत् ॥ २७ ॥ सुरासुरनरेन्द्राणां पश्यतां त्रिजगत्पतिः। सुलसापक्षपाती किं ? करिष्ये तत्परीक्षणम् ॥ २७६ ॥ कृत्वा रूपान्तरं सोऽथ जातवैक्रियलब्धिकः । प्रविश्य सुलसागहे सुधीभिक्षामयाचत ॥ २७७ ।। पात्राय साधये भिक्षां ददामीति कृताश्रवा । याचमामायापि तस्मै सुलसा न ददौ तदा ।। २७८ ॥ ततश्च निःमृत्य पुराद् द्वारि प्राग्गोपुरस्य सः । विकृत्य ब्रह्मणो रूपमवतस्थे समाहितः ।। २७ ।। पद्मासनसमासीनश्चतुर्याहुश्चतुर्मुखः। ब्रह्मसूत्र्यक्षसूत्री च जटामुकुटमण्डितः ।। २८० ॥ सावित्रीसंयुतो हंसयानो धर्म दिदेश सः। पौराणां च मनोऽहार्षीत् साक्षाद्ब्रह्मेति मानिनाम् ॥ २८१ ॥ बहिरस्ति स्वयं ब्रह्मत्याहूताऽपि सखीजनैः । न ययौ सुलसा मिथ्यादृष्टिसंस्तवकातरा ॥ २८२ ॥ अम्बडश्च द्वितीयेऽहि याम्यायां गरुडासनः । शंखचक्रगदाशाङ्गौ तस्थौ गोविन्दरूपभृत् ॥ २८ ॥ अपि विष्णुप्रवादेन लोकव्यामोहकारिणा । नाऽऽययौ सुलसा तत्र सम्यग्दर्शननिश्चला ॥ २८४ ॥ अंबडोऽथ तृतीयेऽहि वारुण्यां वृषवाहनः । चन्द्रचूडो युतो गौर्या कृत्तिवासास्त्रिलोचनः ॥ २८ ॥
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२८
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नवमः
भस्मांगरागः खट्वांगी शूलपाणिः पिनाकभृत् । कपाली रुंडमाली च नानागणसमावृतः ॥२८६ ॥ आख्यद्धर्म हरो भूत्वा पौराणां च मनोहरत । परमश्राविका सा तु तं द्रष्टमपि नाययौ ॥ २८७ ॥ चतुर्थेऽहन्युत्तरस्यां स वप्रत्रयशोभितम् । दिव्यं समवसरणं विचके स्फारतोरणम् ॥ २८८ ॥ स्थितं तत्र जिनीभूय श्रुत्वा पौरा विशेषतः । ऋद्धया महत्याऽभ्ययुस्तं ततो धर्म च शुश्रुवुः ॥ २८ ॥ एवं सत्यप्यनायातां सुलसामबडोऽथ ताम् । कंचित् क्षोभयितुं प्रेषीगत्वा सोऽपीत्यवोचत ॥ २१ ॥ सुलसे ! समयमृतो विश्वस्वामी सिन्नरः । ताहि भो ! तास यान् वनितुं किं विलंबसे १ ॥ २९१ ॥ सुलसाऽपि धभाषे तं न खल्वेष जगद्गुरुः । भगवान् श्रीमहावीरश्चतुर्विंशो जिनेश्वरः ।। २९२ ।। सोऽपि च प्रत्युवाचैवं मुग्धे ! नन्वेष वर्तते । पंचर्षिशस्तीर्थकरः प्रत्यक्षमपि वीश्यताम् ॥ २९.३ ॥ सुलसाऽप्यब्रवीज्जातु पंचविंशो जिनो न हि । अयं कार्पटिकः कोऽपि लोकं वश्चयते कुधीः ॥ २९४ ।। सोऽप्यूच मा कृथा भेदं शासनस्थ प्रभावना । भद्रे ! भवत्येहि तत्र का ते हानिर्भविष्यति ? ॥ २५ ॥ अवदत्सुलसाऽप्येवं शासनस्य प्रभावना । नैवं भवत्यलीकेन किं त्वपभ्राजनैव हि ॥ २० ॥ अचालितामेवमपि निरीक्ष्य सुलसां स्थिराम् । अंबडश्चिन्तयामास संजातप्रत्ययो हृदि ॥ २९७ ॥
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स्थाने जगद्गुरुर सभायां समभाषयत् । अघालि तस्याः सम्यक्त्वं माययाऽपि मया न हि ॥ २९८ ॥ ततः संहृत्य निःशेषं प्रपंचं सुलसागृहे । स्वेनैव रूपेणाविक्षद्वदनषेधिफीति सः ॥ २०१॥ अभ्युत्तस्थौ सुलसा नमूचे घ स्वायतब । धर्मषम्यो : अगहन्धोरस्थ श्रावकोत्तम !॥ ३०० ॥
प्रक्षालयामास सस्य मानव वत्सला । निजानि गृहचैत्यानि वन्दयामास चोचकैः ॥ ३०१ ॥ स तश्चेत्यानि वन्दित्वा तामोचन शुद्धधीः । नित्यानित्यानि चैत्यानि त्वं वन्दस्व गिरा मम ॥ ३०२ ॥ ववन्दे भूनलन्यस्तमौलिश्चैत्यानि तानि सा । प्रत्यक्षाणीव पश्यन्ती भक्तिभावितमानसा ।। ३ ।। स भूयः सुलसामूचे त्वमेका पुण्यवत्यसि । यस्या वार्ता स्वयं स्वामी मन्मुखनाद्य पृच्छति ॥ ३०४ ॥ आकर्ण्य तद्वचः साऽपि ववन्दे मुदिता प्रभुम् । रोमाश्चितशरीराऽथ तुष्टाव स्पष्टया गिरा ॥ ३०५ ॥ परीक्षितुमना भूयस्तमचे चतुरोऽथ सः । ब्रह्मादयोऽत्रावरुधर्म च त्र्याचचक्षिरे ॥ ३०६ ॥ नान् वन्दितुं ययुः पौरास्तेभ्यो धर्म च शुश्रुवुः । न कि कौतृहलेनापि सुलसे ! गतवत्यसि ? ॥ ३०७ ॥ सुलसाऽपि वभाषे तं जानन्नपि किमज्ञवत् । जल्पस्येवं महाभाग ! के ब्रह्माधास्तपस्विनः ॥३०८ ।। हिसितुं शस्त्रभाजो ये स्त्रीभाजः सेवितुं च ताः । कमाख्यास्यन्ति ते धर्ममधर्मनिरताः स्वयम् ॥ ३० ॥
॥२८॥
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भगवन्तं महावीरं जगदाप्तं निरीक्ष्य च । तद्धर्म चोररीकृत्य द्रष्टुं तानुत्महत कः ? ॥३१० ।
साधु साध्दिति बदन्नथांबडा
स्वं जगाम सदनं प्रमोदभाक् । धर्ममाहतमनिन्गमुच्चकै
हृयुवाह सुलसाऽपि सर्वदा ॥ ३११ ॥ ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते विषष्टिशलाका पुरुषचरित महाकाव्ये दशमपर्वशि हालिक-प्रसन्नचन्द्र-दर्दुराकदेव श्रेणिकभावितीर्थकरत्व-सालमहासाल-गौतमाष्टापदारोहणावहसुल साचरितवर्णनो नाम नवमः सर्गः ।।
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॥२८६।
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॥ अथ दशमः सर्गः ॥
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इतश्च पुर्याश्चम्पायाः सुरासुरसमावृतः । क्रमेण विहरन् 4. दशार्णविषयं ॥ १ ॥ दशार्णपुरमित्यस्ति नाम्ना तत्र महापुरम् । दशार्णभद्र इत्यासीत्तत्र राजा महर्द्धिकः ॥ २ ॥ सभासीनं तथा सायं तमेत्योचुवरा इदम् । वीरो जिनपतिः प्रातः समेष्यति पुरेऽत्र त ॥ ३ ॥ भारतगिरा हृष्टो राजा रोमाञ्चकंचुकम् । विदूरः स्तनितेनेव रत्नांकुरकदम्बकम् ॥ ४ ॥ सभासमक्षमूचे च तया ऋद्धया प्रगे प्रभुम् । वन्दिष्ये न यया कश्चिद्ववन्दे त्रिजगत्यपि ॥ ५ ॥ इत्युदित्वा च मंग्यादीन् विसृज्य सकलानपि । जगामान्तःपुरगृहं दशार्णपुरभूपतिः ॥ ६ ॥ वन्दिष्य एवमेव च स्तोध्ये प्रातर्जगद्गुरुम् । इति चिन्तापरोऽनैषीत् कथंचिद्यामिनीं स ताम् ॥ ७ ॥ स्वानुदयत्येव स पार्थिवरविस्ततः । आहूय नगराध्यक्ष प्रभूतीनेवमादिशत् ॥ ८ ॥ मद्धान्नः स्वामिसमवसरणस्य तथाऽन्तरे । मयानयोग्यं कर्तव्यं सर्वद्वर्धा मार्गभूषणम् ॥ ९ ॥
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१ "स्पतिः / ।।
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दशमः
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सर्गः
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इतश्च नत्र भगवान् पुराहहिरुपाययो । देवश्च तत्र समवसरणं च व्यरच्यत ॥ १० ॥ नद्राजशासनं नेऽपि राजाऽऽयुक्ताः क्षणाद्वयधुः। वचसा भृभुजां सिद्धिर्मनसेव दिवौकसाम् ॥ ११ ॥ अशामि कुंकुमाम्भोभी रजस्नद्राजवन्मनः । अकारि सन्मार्गमही पुष्पप्रकरदन्तुरा ॥ १२ ॥ स्थाने स्थाने व्यधीयन्त काश्चनस्तम्भतोरणाः । मञ्चाश्च सश्चिमाः स्वर्णभाजनश्रेणिशोभिताः ॥ १३॥ विचित्राश्चित्रकत्वग्भिश्चीनवासोभिराचिताः । उड्डामराचामरैश्च रबादशेः मुदर्शनाः ॥ १४ ॥ उन्नन्धयो गन्धपुटापुटिकाभिः सहस्रशः । स्तम्भवर्माभितो न्यस्तैरबध्यन्त च मालिकाः ॥१५॥ (युग्मम् ) उमडपैर्मेघाडम्बरश्रीविडम्बिभिः । मुक्तोच्चूलबकुल्लोथैरेकच्छायं व्यधीयत ॥ १६ ॥ पदे पदे मुमुचिरे धूपघव्यः सपाचकाः । निक्षिप्तागुरुक'रधूमांकुरिनमण्डपाः ।। १७ ॥ एवं दिवः खंडमिय कृत्वा मार्ग नियोगिनः । राज्ञ यज्ञपयन स्वामिदर्शनोत्सुक्यधारिणे ॥ १८ ॥ लात्वा राजाऽपि दिव्यांगरागः सर्वांगभूषणः । शुचिवस्त्रधरः स्नग्यो गजमारोहदुत्तमम् ॥ १९ ॥ मूर्ध्नि श्वेतातपत्रेण चामराभ्यां च पार्श्वयोः । राजमानो राजवर्यः सुरराज इवाचलत् ॥ २० ॥ महार्यभूषणधरैः सामन्नाद्यैः सहस्रशः । सोऽन्धगम्यत भूपालः स्वं रूपैरिव क्रियैः ॥ २१ ॥ सयस्तमनुचेलुश्च चलवामरराजिताः । पराजितशचीरूपा अन्तःपुरमृगीशः ॥ २२ ॥ १ द्राय ... ॥ २ मिन: L. D. | भितः ॥ ३ विज्ञ स... ||
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चन्दिवृन्दैः स्तूयमानो गीयमानश्च गायनैः । दर्यमानस्वविज्ञानो मार्गालंकारकारिभिः ॥ २३ ॥ निरन्तरैर्नृपच्छत्रैर्भवन्नूननमंडपः । क्रमेण माप समवसरणं स महीपतिः ॥ २४ ॥ स त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य ववन्दे परमेश्वरम् । आसांचके यथास्थानं चाऽऽस्थाने ऋद्धिगर्वितः ।। २५॥ तस्पर्द्धिगर्व विज्ञाय तत्प्रबोधनहेतवे । अम्भोमयं विकृतवान् विमानं पाकशासनः ॥ २६ ॥ स्फटिकाच्छजलपान्तविकटाम्भोजरसुन्दरम् । परालसामान लिम्वादप्तमाकुलम् ॥२७॥ सुरद्रुमलताश्रेणिपतत्कुसुमशोभितम् । नीलोत्पलै राजमानमिन्द्रनीलमणीमयैः ॥ २८ ॥ नलिनीषु भरकतमयीषु परिवर्तिभिः। विभ्राजमानमधिकं स्वणाम्भोजैविक्रस्वरैः ॥ २९ ॥ लोलकल्लोलमालाभिः पनाकामालभारिणम् । जलकान्तविमानं तं शक्रोऽश्यास्त सुरैः सह ॥ ३० ॥
(चतुर्भिः कलापकम्) चामरैरमरस्त्रीभिर्वीज्यमानः सहस्रशः । गन्धर्वारब्धसंगीतदत्तकर्णी मनाग्मनाक् ।। ३१॥ स्वामिपादपवित्रायां दत्तदृष्टिरधो भुवि । मर्त्यलोकमवातारीदमाधिपतिस्ततः ॥ ३२ ॥ (युग्मम् ) नालेन मारकतेन राजितेष्वम्बुजन्मसु । सौवर्णेषु न्यस्तपाद सपादमिव पर्वतम् ।। ३३ ॥ मणीमयदन्तकोशैर्दन्तरष्टभिरूर्जितम् । देवदृष्यच्छन्नपृष्ठं प्रष्ठं त्रिदशवन्तिनाम् ॥ ३४ ॥
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पूर्वारूढसुरस्त्रीभिर्वत्तहस्तावलम्बनः । मर्त्यलोकावतीर्णोऽयाध्यारुरोह पुरन्दरः ॥३५॥ (त्रिभिर्विशेषकम् आगादथोपसमवसरणं भक्तिभावितः । जिनेन्द्रपादान् वन्दारुर्धन्दारकशिरोमणिः ॥ ३६॥ जलकान्तविमानान्तलीलापुष्करिणीषु च । संगीतकानि कमले कमले चाय जज्ञिर ॥ ३७॥ प्रतिसंगीतकं चेन्दानरूपविभवः सरः । सामाजिकोऽभवदिव्यरूपनेपथ्यसुन्दरः ॥ ३८ ॥ एकैकस्य च देवस्य परिवारो महर्द्विकः । मघोन इव संजज्ञे विश्वविस्मयकारणम् ।। ३२॥ विमानद्वर्या तया शकः स्वयमेव विसिध्मिये का कथा पुनरन्येषां तस्मादूनोनसंपदाम् ॥ ४॥ तत्र स्थितैर्नरसुरैर्विस्मितेवीक्षितो हरिः । प्रभु पृथ्वीलुलद्धारः प्रणनाम पुनः पुनः ॥ ४१ ॥ दशार्णभद्रः शक्रस्य तया ऋयाऽथ दृष्टया । नगरद्धर्धा ग्राम्य इव स्तंभितांगोऽभवत् क्षणम् ॥ ४२ ॥ दशार्णभद्रो दध्यौ च विस्मयस्मेरलोचनः । अहो शक्रविमानस्य शोभयं भुवनोत्तरा ॥ ४ ॥ अहो रुचिरगात्रत्वं सुरेन्द्रकरिणोऽस्य च । अहो विभव विस्तारः पुरुहतस्य कोऽप्यसौ ।। ४४ ॥ स्वसंपदोऽभिमानोऽयं व्यधायि धिगहो मया । मम शक्रस्य चैतद्धि गोष्पदाध्योरिवान्तरम् ।। ४५ ।। अमुना ऋद्धिगर्वेण स्वात्मा तुच्छीकृतो मया । कूपभेक इयाभूवं प्रागदृष्टशर्द्धिकः ॥ ४६॥ एव भावयतस्तस्य वैराग्यं गच्छतः शनैः। परिणामः शुभतरो बभूवेत्यल्पकर्मणः ॥ ४७ ।। ऋद्वया यद्यप्यनेनाहं विजितोऽस्मि विडोजसा । प्रव्रज्याग्रहणादध पराजेष्ये तथाऽप्यमुम् ॥ ४८ ॥
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न केवल विजेष्येऽमुं बनादानेन संप्रति । कर्मारीनपि जेष्यामि भषभ्रमणकारिणः ॥ ४॥ विवेकी चिन्तयित्वैवं दशार्णपुरभूपतिः । तत्रस्थ पण याचस् दिकीटकामानिकार ॥ ३० ॥ दशार्णभद्रः कर्मदुमूलानीव समन्ततः । उच्चवानाथ शिरस: पंचभिर्मुष्टिभिः कचान् ।। ५१ ॥ शक्र संपश्यमानेऽथ विस्मयस्मेरचक्षुषि । स गत्वा गणभृत्पार्चे यतिलिंगमुपाददे ।। ५२ ॥ गत्वा प्रदक्षिणापूर्वमपूर्वोत्साहसाहसः । दशार्णभद्रश्रमणो जगन्नाथमवन्दत ॥ ५३॥ शक्रो बभापे महात्मन्नहो क्रिमपि पौरुषम् । तवेदममुनाजैषीर्मामप्यन्यस्य का कथा ॥ ५४॥ इत्युक्त्वा तं नमस्कृत्य शक्रः स्वस्थानमभ्यगात् । मुनिर्दशार्णभद्रोऽपि सम्यग्व्रतमपालयत् ॥ ५५ ॥ जगन्नाथोऽपि भव्यानामुपकारपराणः । विजहार ततः स्थानादन्येषु नगरादिषु ॥५६॥ इतश्च राजगृहस्य शालिग्रामे समाययो । धन्येत्यभिधया योषित् काचिदुच्छिन्नवंशिका ।। ५७ ॥ बालं संगमकं नाम स्वसुतं सा सहाऽऽनयत् । कुक्षिजातमपत्यं हि व्यसनेष्वपि दुस्त्यजम् ॥ ५८ ॥ सोऽर्भकस्तत्र पौराणां वत्सरूपाण्यचारयत् । अनुरूपा ह्यसौ रोरवालानां मृदुजीविका ॥ ५ ॥ अथापरेयः संजाते तत्र करिमश्चिदुत्सव । पायसं संगमोऽपश्यद् भुज्यमानं गृहे गृहे ॥६॥ गत्वा स्वगेहे जननी ययाचे सोऽपि पायसम् । साऽप्युवाच दरिद्राऽस्मि मद्गहे पायसं कुतः ॥ ६१ ॥ बालेनाज्ञतया तेन याच्यमाना मुहुर्मुहुः । स्मरन्नी पूर्वविभवं तारलारं रुरोद सा ॥ ३२ ॥
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दशमः सर्ग:
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तस्या रुदितदुःखेनानुविद्वहृदया इव । आगन्य प्रतिवेदिमन्यः पप्रच्छुर्दुःखकारणम् ॥ ६॥ ताभ्योऽभ्यधत्त सा दुःखकारणं गद्गवाक्षरः । क्षीराद्यदुश्च नास्तस्यै साऽपचत् पायसं ततः ।। ६४ ॥ संसायायसभृत्या स्थाले बालस्य सत्व सा। आर्पयत्प्रययौ चान्तर्गृह कार्येण केनचित् ।। ३ ।। अत्रान्तरे च कोऽप्यागान्मुनिर्माममुपोषितः । पारणाय भयोदन्वत्तारणाय स तस्य नौः ।। ६६ ॥ सोऽचिन्तयदिदं चिन्सामाणिक्यमिव चेतनम । जंगमः कल्पशाखीव कामधेनरिवापशः॥३७॥ साधु साधु महामाधुर्मद्भाग्यैरयमाययौ । कुतोऽन्यथा वराकस्य ममेहपात्रसंगमः ॥ ६८॥ भाग्योदयेन केनापि ममाघ समपद्यत । चित्तं वित्तं च पात्रं च त्रिवेणीसंगमो ह्ययम् ॥६॥ इति स स्थालमुत्पाट्य पायसं साधव ददी । जग्राहानुग्रहकृते तस्य कारुणिको मुनिः ॥ ७० ॥ ययौ च स मुनिर्गेहान्मध्यादन्यापि निर्ययो । मन्ये भुक्तमननति ददौ सा पायसं पुनः ॥ ७१॥ नत्पायसमतृप्तः सन्नाकण्ठं भुजेऽथ सः। तदजीर्णन यामिन्यां स्मरन साधु व्यपद्यत ॥ ७२ ।। तेन दानप्रभावण सोऽथ राजगृहे पुर । गोभद्रभ्यस्य भार्याया भद्राया उदरेऽभवत् ।। ७३ ॥ शालिक्षत्रं सुनिष्पन्नं स्वप्नऽपश्यच्च सा ततः। भर्तुः शशंस तस्याः स सूनुः स्यादित्यचीकथत् ॥ ७४ ॥ चंदानधर्मकर्माणि करोमीति यभार सा । दोहदं तत्तु गोभद्रः पूरयामास भद्धीः ।। ७ ।। पूर्णे काले ततो भद्रा शुनियोतितदिग्मुखम् । अमूत तनयं रत्नं विदूरगिरिभूरिव ॥७६ ॥
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दृष्टस्वमानुसारेण सूनोस्तस्य शुभे दिने । चक्रतुः पितरौ शालिभद्र इत्यभिधां शुभाम् ।। ७७ ॥ पाल्यमानः स धात्रीभिः पंचभिर्ववृधे क्रमात । किंचिदनाष्टवर्षः मन पिमाणगापितः कलाः ॥ ७८ संप्राप्तयौवनः सोऽथ युवतीजनवल्लभः। सवयोभिः समं रेमे प्रद्युम्न इव नूतनः ॥ ७॥ नत्पुरश्रेष्ठिनोऽथैत्य कन्या द्वात्रिंशतं निजाः । प्रदातुं शालिभद्राय भद्रानाथं ययाचिरे ॥ ८॥ अथ प्रहृष्टो गोभद्रः शालिभद्रेण सादरम् । सर्वलक्षणसंपूर्णाः कन्यकाः पर्यणाययत् ॥ ८१ ॥ शालिभद्रस्ततो रम्ये विमान इव मन्दिरे । विललास समं ताभिः पतिर्दिविषदामिव ॥ ८२॥ स विवदाऽऽन्दमम्रो न रात्रिं न च वासरम् । तस्यापूरयतां भोगसामग्री पितरौ स्वयम् ।। ८३ ॥ श्रीवीरपादमूलेऽथ गोभद्रो व्रतमग्रहीत् । विधिनाऽनशनं कृत्वा देवलोकं जगाम च ॥ ८४ ॥ अवधिज्ञानतो ज्ञात्वा शालिभद्रं निजात्मजम् । तत्पुण्याऽवर्जितः सोऽभूत् पुत्रवात्सल्यतत्परः ॥८५।। दिव्यानि घस्रनेपथ्यादीनि तस्यानुवासरम् । सभार्यस्यार्पयामास कल्पशाखीच सोऽमरः ॥ ८६ ॥ यअन्मोचित कार्य भद्रा तत्तदसाधयत् । पूर्वदानप्रभावण भोगान् सोऽभुंक्त केवलम् ॥ ८॥ वणिग्भिः कैश्चिदन्येयुर्गृहीत्वा रत्नकम्बलान् । शिश्रिये श्रेणिकस्तांश्च महात्वन नाग्रहीत् ॥ ८८॥ ततस्ते वणिजो जग्मुः शालिभद्रनिकेतनम् । तदुक्तार्पण तान् भद्राऽप्यग्रहीद्रनकम्बलान् ॥ ८९ ।। मयोग्यो गृह्यतामेको महामूल्योऽपि कम्बलः । इत्यूचे चेलणादेव्या तदा च श्रेणिको नृपः ॥१०॥
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5 राज्ञाऽप्यथैकं मूल्येन कम्बलं वणिजोऽर्थिताः । भद्रा जग्राह तान् सर्वान् कम्बलानिति तवदन् ॥ ९१ ॥ श्रेणिकः प्राहिणोदेकं प्रवीणं पुरुषं ततः । भद्रापार्श्वे मूल्यदानात् कम्बलादानहेतवे ॥ ९२ ॥ याचिता तेन भद्रोचे छित्त्वा तान् रत्नकम्बलान् । शालिभद्रप्रियापादपोंछनीकृतवत्यहम् ॥ ९३ ॥ कार्यं निष्पद्यते किंचिजीर्णैश्चेद्रन कम्बलैः । तद्वत्वाऽऽपृच्छ्य राजानमागच्छामून् गृहाण प || ९४ ॥ आख्यत्वा स तद्राने राजां च रीरिनोरिवान्तरम् ॥ ९५ ॥ तमेव पुरुषं प्रेष्य श्रेणिकेन कुतूहलात् । आकारिते शालिभद्रे भद्रोपेत्य व्यजिज्ञपत् ॥ ९६ ॥
हि महीनाथ ! जातु याति मदात्मजः । प्रसादः क्रियतां देव ! तद् गृहागमनेन मे ॥ ९७ ॥ कौतूहलाच्छ्रेणिकोऽपि तत्तथा प्रत्यपद्यत । तं च क्षणं प्रतीक्ष्याथ साऽग्रे भूत्वा गृहं ययौ ॥ ९८ ॥ विधिश्रवस्त्रमाणिक्यचित्रकत्वङमय ततः । आराजहर्म्यं स्वगृहाददृशोभां व्यधन्त सा ॥ १९ ॥ तयाऽऽहूतस्ततो राजा कृतां सः सुरैरिव । विभावयन् हृहशोभां शालिभद्रगृहं ययौ ॥ १०० ॥ स्वस्तम्भोपरि प्रखदिन्द्रनीलाइमतोरणम् । मौक्तिकस्वस्तिकश्रणिदन्तुरद्वार भूतलम् ॥ १०१ ॥ दिव्यवस्त्रकृतोल्लोचं सुगन्धिद्रव्यधूपितम् । भुवि दिव्यविमानानां प्रतिमानमिवस्थितम् ॥ १०२ ॥ द्विवेश विशामीशो विस्मयस्मेरलोचनः । भूमिकायां चतुर्थ्यां च सिंहासन उपाविशत् ॥ १०३ ॥ सप्तम्यां भुवि भद्रेत्वा शालिभद्रमभाषत । इहायातः श्रेणिकोऽस्ति तं द्रष्टुं क्षणमेहि तत् ॥ १०४ ॥
'दशम:
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।।। २९४ ॥
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अम्ब ! त्वमेव यं वेत्सि तमथ कारय स्वयम् । किं मया तत्र कर्तव्यं स भद्रामित्यवोचत || १०० ॥ ततो भद्रवतव्यं वस्तु न ह्यदः । किं त्वसौ सर्वलोकानां युष्माकमपि च प्रभुः ॥ १०६ ॥ तच्छ्रुत्वा शालिभद्रोऽपि सविषादमचिन्तयत् । धिक् सांसारिकमैश्वर्यं यन्ममाप्यपरः प्रभुः ॥ १०७ ॥ भोग भोगैरिभिर्मे भौगैरलमतः परम् । दीक्षां मंक्षु ग्रहीष्यामि श्रीवीरचरणान्तिके ॥ १०८ ॥ एवं संवेगयुक्तोऽपि स मातुरुपरोधतः । सभार्योऽभ्येत्य राजानमनमद्विनयान्वितः ॥ १०९ ॥ सस्वजे श्रेणिकनाये स्वांक सुत इवाऽऽसितः । स्नेहाच्छिरसि चाऽऽघातः क्षणादश्रूणि सोऽमुचत् ॥ ११० ॥ ततो भद्रा जगादेवं देवायं मुच्यतां यतः । मनुष्यमाल्यगन्धेन मानुषोऽप्येष बाध्यते ॥ १११ ॥ देवभूयं गतः श्रेष्ठी सभार्यस्यास्य यच्छति । दिव्यनेपथ्यवस्त्रांगरागादीन् प्रतिवासरम् ॥ ११२ ॥ ततो राज्ञा विसृष्टः स ययौ सप्तमभूमिकाम् । इहैव भोक्तव्यमिति विज्ञप्तो भद्रया नृपः ॥ ११३ ॥ भद्रादाक्षिण्यतो राजा प्रत्यपद्यत तत्तथा । सद्यः साऽसाधयत्सर्वं श्रीमनां किं न सिध्यति ? ॥ ११४ ॥ सस्तौ नानीयतैलाम्बुचूर्णस्तूर्णं ततो नृपः । अंगुलीयं तदंगुल्या गृहवाप्यां पपात च ॥ ११५ ॥ यावदन्वेषयामास भूपतिस्तदितस्ततः । तावद्भद्राऽऽदिशद्दासीं वाप्यम्भोऽन्यत्र नाय्यताम् ॥ ११६ ॥ तथा कृते तया चित्रदिव्याभरणमध्यगम् | अंगाराभं स्वांगुलीयं दृष्ट्वा राजा विसिष्मिये ॥ ११७ ॥ किमेतदिति राझोता दास्यवोचदिहान्वहम् । निर्माल्यं शालिभद्रस्य सभार्यस्य निधीयते ॥ ११८ ॥
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सर्वथा धन्य एवैव धन्योऽहमपि संप्रति । राज्ये यस्येदृशाः सन्ति विममशेति भूपतिः ॥ ११९ ॥ बुभुजे सपरीवारो भूभुजामग्रणीस्ततः । चित्रालंकारवस्त्राचैरार्चतश्च गृहं ययौ ॥ १२० ॥ इयेष शालिभद्रोऽपि यावत्संसारमोक्षणम् । अभ्येत्य धर्मसुहृदा विज्ञप्तस्तावदीदृशम् ॥ १२१ ॥ आगाश्चतुर्ज्ञानधरः सुरासुरनमस्कृतः । मूतों धर्म इवोद्याने धर्मघोषाभिधो मुनिः ॥ १२२ ॥ शालिभद्रस्ततो हर्षादधिरुह्य रथं ययो । आचार्यपादान वन्दित्वा साधूंश्योपाविशत्पुरः ॥ १२३ ॥ स सूरिर्देशनां कुर्वन्नत्वा तेनेत्यपृच्छ्यत । भगवन् ! कर्मणा केन प्रमुरन्यो न जायते ? ॥ १२४ ॥ भगवानप्युवाचैवं दीक्षां गृह्णन्ति ये जनाः । अशेषस्यापि जगतः स्वामिभावं भजन्ति ते ॥ १२५ ।। यवं नाथ! तद्गत्वा निजामापृच्छय मातरम् । ग्रहीष्यामि व्रतमिति शालिभद्रो व्यजिज्ञपत् ॥ १२६॥ न प्रमादो विधातव्य इत्युक्तः सुरिणा ततः । शालिभद्रो गृहं गत्वा भद्रां नत्वेत्यभाषत ॥ १२७ ॥ धर्मः श्रीधर्मघोषस्य सूरेरण्य मुखाम्वुजात् । विश्वदुःखविमोक्षस्पोपायभूतो मया श्रुतः ॥ १२८ ॥ अकार्षीः साध्वि वत्स ! पितुस्तस्यासि नन्दनः । प्रशशंसेति भद्राऽपि शालिभद्रं प्रमोदतः ॥ १२ ॥ सोऽप्यवोचदिदं मातरेवं चेत्तत्प्रसीद मे । ग्रहीष्यामि व्रतमहं ननु तस्य पितुः सुतः ॥ १३० ॥ साऽप्यवोचदिदं वत्स ! युक्तस्तेऽसौ व्रतोद्यमः। किं त्वत्र लोहचणकाचर्षणीया निरन्तरम् ॥ १३१ ॥ सुकुमारः प्रकृत्याऽपि दिप गैश्च लालितः । स्यन्दनं तर्णक इव कथं त्वं वक्ष्यसि व्रतम् ॥ १३२ ॥
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शालिभद्रोऽप्युवाचैवं पुमांसो भोगलालिताः । असहा व्रतकष्टानां कातरा एवं नेतरे ॥ १३३ ॥ त्यज भोगान् क्रमान्मममाल्यगन्धान सहस्व च । इत्यभ्यासाद् व्रतं वत्स ! गृह्णीया इत्युवाच सा॥१३४॥ शालिभद्रस्ततो भद्रावचनं प्रतिपय तत् । भार्यामेकां तूलिकां च मुञ्चति स्म दिने दिने ॥ १३५ ॥ इनश्च तस्मिन्नगरे धन्यो नाम महाधनः । अभवच्छालिभद्रस्य कनिष्ठभगिनीपतिः॥१३६ ॥ शालिभद्रस्वसा साश्रुः स्नपयन्ती च तं सदा । किं रोदिषीति तेनोक्ता जगादेति सगद्गदम् ॥ १३७ ॥ व्रतं गृहीतुं में भ्राता त्यजत्येका दिने दिने । भार्या च तूलिकां चाहं हेतुना तेन रोदिमि ॥ १३८ ॥ य एवं करुने फेरिव भी.रुस्तपस्यसौ। हीनसत्वस्तच भ्रातेत्यूचे धन्यः सनर्मकम् ।। १३९॥ सुकरं चेद् व्रतं नाथ क्रियते किं न हि स्वयम् । एवं सहासमन्याभिर्भार्याभिर्जगदेऽथ सः॥ १४॥ धन्योऽप्यूचे व्रते विघ्नो भवत्यस्ताश्च पुण्यतः। अनुमंत्र्योऽय मेऽभूवन् प्रनजिष्यामि तद् द्रुतम् ।। १४१॥ ना अप्यूचुः प्रसीदेदमस्माभिर्नर्मणोदितम् । मा स्म त्याक्षीः श्रियोऽस्मांश्च मनस्विप्नित्यलालिताः॥ १४२॥ अनित्यं स्त्रीधनाचतत्पोज्य नित्यपदेच्छया। अवश्य प्रव्रजिष्यामीत्यालपन् धन्य उत्थितः॥ १४३ ।। त्वामनु प्रवजिष्याम एवमुक्तवतीश्च ताः । अन्वमन्यत धन्योऽपि धन्यंमन्यो महामनाः ॥१४४॥ इतश्च वैभारगिरी श्रीवीरः समवासरत् । विदाञ्चकार तं सयो धन्यो धर्मसुहृद्गिरा ॥ १४ ॥ दत्तदानः सदारः सोऽप्यारुह्य शिविकां ततः । भवभीतो महावीरचरणौ शरणं ययौ ।। १४६ ॥
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[दशमः साः
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सवारः सोऽग्रहीदीक्षां ततो भगवदन्तिके । तच्छ्रुत्वा माविद्रोऽधि 'सिसमधा प्रान्वरे ॥ १७ ॥ सोऽन्वीयमानस्तदनु श्रेणिकेन महीभुजा । उपेत्य श्रीमहावीर पादमूलेऽग्रही व्रतम् ।। १४८ ॥ मतः सपरिवारोऽपि स्वामी सिद्धार्थनन्दनः । विहरनन्यतोऽगच्छत् सयूथ इव हस्तिराट् ॥ १४ ॥ धन्यश्च शालिभद्रश्च तावभूनां पहुश्रुतौ । महत्तपश्च तेपाते खङ्गधारासहोदरम् ॥१५० ॥ पक्षान्मासाद् द्विमासात्त्रिमास्था मासचतुष्टयात् । शरीरनिरपेक्षौ तौ चक्रतुः पारणं मुनी ॥ १५१ ॥ तपसा समजायतां निर्मासरुधिरांगको । चर्म भरत्रोपमो धन्यशालिभद्रमहामुनी ॥ १५ ॥ अन्येयुः श्रीमहावीरस्वामिना सहिती मुनी। आजग्मतू राजगृहं पुरं जन्मभुवं निजाम् ॥ १५३ ॥ नतः समवसरणस्थितं नन्तुं जगत्पतिम् । श्रद्धातिशयोगेनाच्छिन्नमीयुर्जनाः पुरात् ॥ १५४ ॥ मासपारणके धन्यशालिभद्रावुभावपि । काले विहां भिक्षार्थ भगवन्तं प्रणेमतुः॥ १५५ ।। मातृपा_त्पारणं तेऽयत्युक्तः स्वामिना ततः । इच्छामीति भणन् शालिभद्रो धन्ययुतो ययौ॥ १५६ ॥ गत्वा भद्रागृहद्वारि तावुभावपि तस्थतुः । तपःक्षामतया तौ च न केनाप्युपलक्षितौ ॥ १५७ ॥ श्रीवीरं शालिभद्रं च धन्यमप्यग्र वन्दितुम् । यामीति व्याकुला भद्राऽप्यज्ञासीवुत्सुका न तौ ॥१५८ ॥ क्षणमेकमषस्थाय नत्र तो जग्मतुस्ततः । महर्षी नगरद्वारप्रतोल्याऽथ निरीयतुः ॥ १५९ ॥ १ जितम C. L. I २ सह तो 1. ॥ ३ 'रगा ।
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तदाऽऽयान्ती पुरे तस्मिन् विक्रतुं दघिसर्पिषी । शालिभद्रस्य प्राग्जन्ममाता धन्याऽभवत्पुरः ॥ १६० ॥ शालिभद्रं च सा प्रेक्ष्य संजातप्रस्रवस्तनी । वन्दित्वा चरणो भक्त्या द्वाभ्यामपि ददौ दधि ॥ १६१ ॥ श्रीवीरस्यान्निके गत्वा तदालोच्य कृताञ्जलिः। शालिभद्रोऽवदत् स्वामिन् ! मातृतः पारणं कथम् ? ॥१६॥ सर्वज्ञोऽप्याचचक्षेऽथ शालिभद्रमहामुनेः । प्रारजन्ममातरं धन्यामन्यदप्यन्यजन्मजम् ।। १६३ ॥ कृत्वा पारणकं दधाऽऽपृच्छय च स्वामिनं ततः । वैभाराद्रिं ययौ शालिभद्रो धन्यसमन्वितः ॥ १६४ ॥ शिलातले शालिभद्रः सधन्यः प्रतिलखिते। पादपोपगमं नाम नत्रानशनमाश्रयत् ॥ १६५ ॥ तदा च भद्रा तन्माता श्रेणिकश्च महीपतिः । आजग्मतुर्भक्तियुक्ती श्रीवीरचरणान्तिके ॥ १६६॥ ततो भद्राऽयदद्धन्यशालिभद्रौ कतौ मुनी। भिक्षार्थ नागतौ कस्मादस्मद्वेश्म ? जगत्पते ॥ १६७ ॥ सर्वज्ञोऽपि वभाषे तो त्वद्वेदमनि गतौ मुनी। ज्ञातौ न तु भवत्येहागमनव्यग्रचित्तया ।। १६८॥ प्राग्जन्ममाता त्वत्सनोन्या यान्ती पुरं प्रति । ददौ दधि तयोस्तेन पारणं चतुश्च ती ॥ १६॥ उभावपि महासत्वौ सत्वरौ भवमुज्झितुम् । वैभारपर्वते गत्वाऽनशनं तो प्रचऋतुः॥१७० ॥ श्रेणिकेन समं भद्रा वैभाराद्रिं ययौ ततः । तथास्थितावपश्यच्च तापमघटिताषिव ॥ १७१ ॥ तत्कष्टमय पश्यन्ती स्मरन्ती तत्सुखानि च । सारोदीद्रोदयन्तीव वैभाराद्रि प्रतिस्वनैः ॥ १७२ ॥ आयातोऽपि गृहं वत्स ! मयका स्वल्पभाग्यया । न ज्ञातोऽसि प्रमादेनाप्रसादं मा कृथा मयि ॥ १७३ ॥४॥
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1.००।
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यद्यपि त्यक्तवान्नस्त्वं तथाऽपि निजदर्शनात् । आनन्दयिष्यसि दृशौ पुरेत्यासीन्मनोरथः ॥ १७४ ॥ आरम्भेणामुना पुत्र ! शरीरत्यागहेतुना । मनोरथं तमपि में भंमस्युद्यतोऽधुना ॥ १७५ ॥ प्रारब्धं यत्तपस्तत्र न ते विनी भवाम्यहम् । किं त्वेतत्कर्कशतरं शिलातलेमिनो भव ॥ १७६ ॥ अथ श्रेणिको हर्षस्थाने किं नाम रोदिषि ? । ईदृग्यस्याः सुतः स्त्रीषु सैका त्वं पुत्रवत्यसि || १७७ ॥ तत्वज्ञोऽयं महासत्त्वस्त्यस्त्वा तृणमिव श्रियम् । प्रपेदे स्वामिनः पादान् साक्षादिव परं पदम् ॥ १७८॥ असौ जगत्स्वामिशिष्यानुरूपं तप्यते तपः । मुधाऽनुतप्यते मुग्धे ! किं त्वया स्त्रीस्वभावतः ॥ १७९ ॥ भवं योषिता राज्ञा वन्दित्वा तौ महामुनी । विमनस्का निजं श्राम जगाम श्रेणिकस्तथा ॥ १८० ॥ उभौ तौ मुनीन्द्र प्रपन्नावसानौ । विमानेऽथ सर्वार्थसिद्धाभिधाने ॥ अभूतां प्रभूतप्रमोदान्धिमनौ ।
refशदध्यायुषौ देववयों ॥। १८१ ॥
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र विरचिते त्रिषष्टिशत्या का पुरुषचरिते महाकाव्ये इमपर्वणि दशार्णभ चरितवर्णनो नाम दशमः सर्गः ॥
१ "मित्रम् ॥
लिभद्र-धन्दक
दशमः
सर्ग:
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॥ अथ एकादशः सर्गः ॥
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इतश्च भगवान् वीरो लोकानुग्रहकाम्यया । व्यहार्षी नगरपामाकरद्रोणमुखादिषु ॥ १ ॥ इतश्च राजगृहस्य वैभारगिरिकन्दरे । चोरो लोहखुराख्योऽभूद्रोद्रो रस इवांगवान ॥२॥ स तु राजगृहे नित्यं पौराणामुत्सवादिषु । लब्ध्या छिद्राणि विदधे पिशाचवदुपद्रवम् ॥ ३ ॥ आददानस्ततो द्रव्यं भुञ्जानश्च परस्त्रियः । भांडागारं निशान्तं वा निजं मेने स तत्पुरम् ॥ ४ ॥ चौर्यमेवाभवत्तस्य प्रीत्यै वृत्तिर्न चापरा । अपास्य व्यं क्रव्यादा भक्ष्यैस्तृप्यन्ति नापरैः ॥ ५ ।। तस्यानुरूपो रूपेण चष्टया च सुमोऽभवत् । भार्यायां रोहिणीनाम्न्यां रोहिणेयोऽभिधानतः ॥ ६ ॥ स्वमृत्युसमये प्राप्त पित्राऽ5 हूयेत्यभाषि सः। यद्यवश्यं करोषि त्वमुपदेशं ददामि तत् ॥ ७ ॥ अवश्यमेव कर्तव्यमादिष्टं भवतां मया । कः पितुः पातयेदाज्ञां पृथिव्यामित्युवाच सः॥ ८॥
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१ 'खरा' || २"त्यमा ष्यत D||
॥३०१
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प्रहृष्टो वसा तेन चौरो लोहखुरस्ततः । पाणिना संस्पृशन् पुत्रमभाषिष्ठेति निष्ठुरम् ॥ १॥ isit समवसरणे स्थितः सुरविनिर्मिते । विवत्ते देशनां वीरो मा श्रीषीस्तस्य भाषितम् ॥ १० ॥ अन्यत्तु स्वेच्छया वत्स ! कुर्यास्त्वमनियंत्रितः । उपदिश्येति पंचत्वं प्राप लोहखुरस्ततः ॥ ११ ॥ मृतकार्य पितुः कृत्वा रौहिणेयो निरन्तरम् । चकार चौरिकां लोहखुरोऽपर इवोद्गतः ॥ १२ ॥ पालघन पितुरादेशं जीवितव्यमिवाऽऽत्मनः । स्वदासेरमिवामुष्णात् स राजगृहपत्तनम् ॥ १३ ॥ सदा नगरमाकरेषु विहरन् क्रमात् । उग्रव्रतमहा ताधुमहस्रपरिवारितः ॥ १४ ॥
सुरैः सचार्यमाणेषु स्वर्णाम्भोजेषु चारुषु । न्यस्यन् पदानि तत्राऽऽगाद्वीरःश्वर मनीर्थकृत् ॥ १५ ॥ (युग्मम्) वैमानिकैज्योतिषिकैरसुरैर्व्यन्तरैरपि । सुरैः समवसरणं चक्रे जिनपतेस्ततः ॥ १३ ॥ आयोजनविसर्पिण्या सर्व भाषानुयातया । भारत्या भगवान् वीरः प्रारेभे धर्मदेशनाम् ॥ १७ ॥ तदान रौहिणेयोsपि गच्छन् राजगृहं प्रति । मार्गान्तराले समवसरणाभ्यर्णमाययौ ॥ १८ ॥ एवं स चिन्तयामास पथाऽनेन व्रजामि चेत् । शृणोमि वीरवचनं तदाऽऽशा भज्यते पितुः ॥ १९ ॥ न चान्यो विद्यते पन्था भवत्वेवं विमृक्ष्य सः । कर्णौ पिवाय पाणिभ्यां द्रुतं राजगृहं ययौ ॥ २० ॥ तस्यैवमन्वहमपि यातायातकृतोऽन्यदा । उपसमवसरणं पादेऽभज्यत कंटकः ॥ २१ ॥ १-२ 'स्वरस्त ं ८ ॥ ३ 'उग्रतपः " L M ॥ ४ तत् ॥ पुनः ॥
एकादेशः सर्गः
॥ ३०२
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औत्सुक्यगमनाद्गाढममं पादे स कंटकम् । अनुद्धत्य समुद्धृतुं न शशाक कमात्कमम् ॥ २२॥ नास्त्युपायोऽपरः कोऽपीत्याकृष्य श्रवणात्करम् । कर्षन कंटकमीषीदिति विश्वगुरोर्गिरम् ॥ २३ ॥ महीतलास्पर्शिपादा निर्निमेषधिलोचनाः । अम्लानमाल्या निम्वदनीरजोऽङ्गाः सुरा इति ॥ २४ ॥ बहु श्रुतमिदं धिग्धिगित्याशघृतकंटकः । पिधाय पाणिना कर्ण तथैवापससार सः ॥ २ ॥ अथान्वहं मुष्पमाणे पत्तने तेन दस्युना | उपत्य श्रेणिकं श्रेष्ठिश्रेष्ठा व्यज्ञपयन्निति ॥ २६ ॥ त्वयि शासति देवान्यन भयं द्रविणं तु नः । आकृष्य गृह्यते चौरैरदृष्टैश्चेटकैरिव ॥ २७ ॥ पन्धूनामिव तेषां तु गृहीतः पीडया ततः । सकोपाटोपमित्यूचे नृपतिर्दण्डपाशिकम् ॥ २८ ॥ किं चौरीभूय दायादीभूय चा मम वेतनम् । गृह्णासि? चौरंयन्त पदेते त्वदुपेक्षितैः ॥ २९ ॥ सोऽप्यूचे देव ! कोऽप्येष चौरः पौरान विस्लुण्यति । रोहिणेयायो धर्तुं दृष्टोऽपि न हि शक्यत ॥३०॥ विशुदुरिक्षतकरणेनोत्प्लुत्य स प्लवंगवत् । गेहाद्हं ततो वप्रमुल्लंघयति हेलया ॥ ३१ ॥ मार्गेण यामस्तन्मार्ग यावत्तावत्स नेक्ष्यते । त्यस्तो येकक्रमेणापि शतेन त्यज्यते क्रमैः ॥ ३२॥ न तं हन्तुं न वा धर्तुमहं शक्नोमि तस्करम् । गृह्णातु तदिमां देवो दाण्डपाशिकतां निजाम् ॥ ३३ ॥ नृपेणोल्लासितैकसंज्ञया भाषितस्ततः । कुमारोऽभयकुमारस्तमूचे दण्डपाशिकम् ॥ ३४ ॥ १ भम्न 1.1.|| २ "न्य कंटकम् 1 | ३ अभाल्योऽम' M. ||
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एकादश
मर्ग:
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चतुरंगच सज्जीकृत्य मुश्च बहिः पुरात् । यदान्तः प्रविशेचौरः पत्तनं वेष्टयेस्तदा ॥ ३ ॥ अन्तश्च त्रासितो विद्युदुरिक्षतकरणेन सः। पतिष्यति यहिः सैन्ये वागुरायां कुरंगवत् ।।६।। प्रतिभूभिरिवाऽऽनीतो निजपादैस्ततश्च सः । ग्रहीतध्यो महादस्युरप्रमत्तः पदातिभिः ॥ ३५॥ तथेत्यादेशमादाय निर्ययो दण्डपाशिकः । तथैव च चमू सज्जां प्रच्छन्न निर्ममे सुधीः ।। ३८ ।। तहिने रोहिणेयोऽपि नामान्तरसमागमात् । अजानानः पुरीं रुद्वा वारी गज इवाविशत् ॥ ३९॥ नैरुपायैस्ततो धृत्वा बद्ध्वा च स मलिम्लुचः । आनीय नृपतेर्दण्डपाशिकन समर्पितः ॥ ४० ॥ यथा न्याययं सतां त्राण मसतां निग्रहस्तथा । निगृह्यतामसौ तस्मादित्यादिक्षन्महीपतिः ।। ४१ ॥ अलोपत्रः प्राप्त इत्येष न हि निग्रहमहति । विचार्य निग्रहीतव्य इत्युवाचाभयस्ततः ॥ ४२॥ अब पमच्छ त राजा कल्यः कोदशजीविकः। कुतो हेतोरिहाऽऽयातो रोहिणेयः स चासि किम् ?॥ ४३ ।। स्वनामशंकितः सोऽपि प्रत्युवाचेति भूपतिम् । शालिग्राम दुर्गचण्डाभिधानोऽहं कुटुम्पिकः ॥ ४४ ॥ प्रयोजनयशेने हायातः सनातकौतुकात् । एकदेवकुले रात्रि महतीमस्मि च स्थितः ॥ ४२ ॥ स्वधाम गच्छन्नारक्षराक्षिप्तो राक्षसैरिव । अलंधयमहं वनं प्राणभीमहती हि भीः ॥ ४६ ।। मध्यारक्षविनिर्यातो बाह्यारक्षगणेष्वहम् । कैवर्त हस्तविस्रस्तो जाले मत्स्य इवापतम् ॥ ४७ ॥ यदि (१॥
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तो निरपराधोऽपि दूध्वा चौर इवाधुना । अहमेभिरिहाऽऽनीतो नीतिसार ! विचारय ॥ ४८ ॥ ari भूपतिर्गुप्त प्रेषयामास तत्क्षणात् । तत्प्रवृत्तिज्ञानहेतोस्तत्र ग्रामे च पूरुषम् ।। ४९ ।। सोऽग्रेऽपि ग्राहितो ग्रामः संकेतं तेन दस्युना । चौराणामपि केषांचिच्चित्रमायतिचिन्तनम् ॥ ५० ॥ तत्स्वरूपं राजपुंसा पृष्टो ग्रामोऽब्रवीदिदम् । दुर्गचण्डोऽत्र वास्तव्यः परं ग्रामान्तरं गतः ॥ ५१ ॥ तत्रार्थे तेन विज्ञप्ते दध्यौ श्रेणिकसूरिदम् । दंभस्य सुकृतस्याहो ब्रह्माप्यन्तं न गच्छति ॥ ५२ ॥ अभयोsसज्जयदथ प्रासादं सप्तभूमिकम् । महार्घ्यरत्नखचितं विमानमिव नाकिनाम् ॥ ५३ ॥ Preseरायमाणाभी रमणीभिरलंकृतः । दिवोऽमरावतीखंडमिव भ्रष्टमतर्कि सः ॥ ५४ ॥ गन्धर्ववर्गप्रारब्य संगीतकमहोत्सवः । सोऽत्रादकस्मादुद्भूतगन्धर्वनगरश्रियम् ॥ ५५ ॥ ततोऽभयो मद्यपानमूढं चौरं विधाय तम् । परिधाप्य देवदृष्ये अधिवल्पमशाययत् ॥ २६ ॥ मदे परिणते यावदुदस्थात्तावक्षत । सोऽकस्माद्विस्मयकारीमपूर्वा दिव्यसंपदम् ॥ ५७ ॥ अन्तरेऽभयादिष्टैर्नरनारीगणैस्ततः । उदचारि जय जगन्नन्देत्यादिकमंगलम् ॥ ५८ ॥ अस्मिन्महाविमाने त्वमुत्पन्नस्त्रिदशोऽधुना । अस्माकं स्वामिभूतोऽसि त्वदीयाः किंकरा वयम् ॥ ६९ ॥ अप्सरोभिः सहैताभी रमस्व स्वैरमिन्द्रवत् । इत्यादि चतुरं चाटुगर्भमूचे स तैस्ततः ॥ ६० ॥
१ जयनंदे / ||
॥ ३०५ ॥
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घ. श. पु.
च. दशमे पर्वणि
जातः सुरः किमस्मीति दध्यौ यावत्स तस्करः । संगीतकार्य तावतैः प्रदत्तः समहस्तकः ॥ ६१ ॥ उपेत्य पुंसा केनापि स्वर्णदण्डभृता ततः । सहसा भोः ! किमारब्धमेतदेवमभाष्यत ॥ ६२ ॥ ततः प्रतिबभाषे तैः प्रतीहारे ! निजप्रभोः । प्रदर्शयितुमारब्धं स्वकं विज्ञानकौशलम् ॥ ६३ ॥ सोsयुवाच स्वनाथस्य दर्श्यतां निजकौशलम् । देवलोकसमाचारः किं त्वसौ कार्यतामिति ॥ ६४ ॥ नैरुक्तं कीहगाचार इति श्रुत्वा स पूरुषः । साक्षेपमित्यभाषिष्ट किमेतदपि विस्मृतम् ? || ६५ ॥ य इहोत्पद्यते देवः स स्वं सुकृतदुष्कृते । आख्यानि प्राक्तने स्वर्गभोगाननुभवेत्ततः ॥ ६६ ॥ विस्मृतं स्वामलाभेन सर्वमेतत्प्रसीद नः । देवलोकस्थितिर्देव ! कार्यतामिति तेऽवदन् ॥ ६७ ॥ स रौहिणेयमित्यूचे निजे हन्न शुभाशुभे । प्राक्तने शंस नः स्वर्गभोगान् भुंक्ष्व ततः परम् ॥ ३८ ॥ तनः सोऽचिन्तयद्दस्युः किमेतत्सत्यमीदृशम् । मां ज्ञातुमभयेनैष प्रपंचो रचितोऽथवा ॥ ६९ ॥ ज्ञेयं कथमिदमिति ध्यायता मेन संस्मृनम् । कंटकोद्धरणकालाकर्णितं भगवद्वचः ॥ ७० ॥ देवस्वरूपं श्रीवीरात् श्रुतं चेत् संवदिष्यति । तत्सत्यं कथयिष्यामि करिष्याम्यन्यथोत्तरम् ॥ ७१ ॥ इम युद्धया मतानीक्षांचक्रे क्षिमितलस्पृशः । प्रस्वेदमलिनान्म्लानमाल्यानिमिषदीक्षणान् ॥ ७२ ॥ तत्सर्वं कपटं ज्ञात्वाऽचिन्तयद्दस्युरुत्तरम् । नेनोचे कथ्यतां देवलोकः सर्वोऽयमुत्सुकः ॥ ७३ ॥ १२ ८ । २ : " CLI ३ राख्यातं ॥
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रौहिणेयस्ततोऽवादीमया पूर्वत्र जन्मनि । अदीयत सुपात्रेभ्यो दानं चैत्यानि चक्रिरे ॥ ७४ ॥ प्रत्यष्ठाप्यन्त बिम्बानि पूजितान्यष्टधाऽचया । विहितास्तीर्थयात्राश्च गुरवः पर्युपासिताः ॥ ७ ॥ इत्यादि सदनुष्ठानं मया कृतमिति ब्रुवन् । ऊचे दण्डभृता शंस दुश्चरित्रमपि स्वकम् ॥ ७६ ॥ रोहिणेयोऽप्युवाचैव साधुसंसर्गशालिना । कदाचिदग्याचरितं किंचिन्नाशोभनं मया ॥ ७७ ॥ व्याजहार प्रतिहारो जन्म नकस्वभावतः । याति तत्कथ्यतां चौर्यपारदारिफ्रतादिकम् ॥ ७८ ॥ रोहिणयोऽभ्यधत्तैवं क्रिमेवंविधचेष्टितः । स्वर्लोकं प्राप्नुयादन्धः किमारोहनि पर्वतम् ? ॥ ७९ ॥ गत्वा ततस्तैस्तत्सर्वमभयाय निवेदितम् । अभयेन च विज्ञप्तं श्रेणिकस्य महीपतेः ॥ ८० ॥ एवंविधैरुपायैर्यश्चौरो शाम शक्य । स चोरोऽपि विभक्तिभ्यः शक्या नीतिन लंधितुम् ।। ८१ ।। इति राजगिराऽमुञ्चद्रौहिणयमथाभयः । बंच्यन्ने वंचनादःदक्षा अपि कदाचन ॥ ८२ ॥ ततः सोऽचिन्तयचौरो धिगादशं पितुर्मम | वंचितोऽस्मि चिरं येन भगवद्रचनामृतात् ।। ८३ ॥ नाऽऽगमिण्यत् प्रभुवचो पदि मे कर्णकोटरम् । तदा विविधमारणागमिष्यं यमगोचरम् ॥ ८४ ॥ अनिच्छयापि हि नदा गृहीतं भगवद्वचः । मम जीवानवे जातं भैषज्यमिव रोगिणः ॥ ८५ ॥ त्यक्त्वाऽहंद्वचनं हा विक् चौरवाचि रतिर्मया । आम्राण्यपास्य निम्बपु काकनव चिरं कृता ।। ८६ ॥ उपदर्शकदशोऽपि यदीयः फलतीदृशम् । तस्योपदेशः सामस्त्यात् सेवितः किं करिष्यति ? ॥ ८ ॥
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एकादशः
सगः
एवं विमृश्य मनसा ययौ भगवतोऽन्तिक । प्रणम्य चरणौ भक्त्या रोहिणेयो व्यजिज्ञपत् ।। ८८ ॥ भवाञ्चों प्राणिनां घोरविपन्नक्रकुलाकुले । महापोतायत ते गीरायोजनविसर्पिणी ॥ ८९ ॥ निषिद्धस्त्वद्वचः श्रोतुमनाप्तेनाऽऽप्तमानिना । इयत्कालमहं पित्रा वंचित रिम्रजगद्गुरो ! ॥ १० ॥ त्रैलोक्यनाथ ! ते धन्याः श्रधानाः पियन्ति ये । भववचनपीयूषं कर्णालिपुटः सा ॥ ११ ॥ अहं तु पापोऽशुश्रुषुर्भवतो भगवन् ! बचः । पिधार कर्णी हा कष्टमिदं स्थानमलंघयम् ॥ १२ ॥ एकदाऽनिच्छताऽप्येकं श्रुतं युष्मद्वषो मया । तेन मंत्राक्षरेणेव रक्षितो राजराक्षसात् ॥ १३ ।। यथाऽहं मरणात्नातस्तथा त्रायस्थ नाथ ! माम् । संसारसागरावर्ने निमजन्तं जगत्पते ! ॥ १४ ॥ ततस्तत्कृपया स्वामी निर्वाणपदायिनीम् । विशुद्धां विदधे साधु साधुधर्मस्य देशनाम् ।। १५ ।। ततः प्रबुद्धः प्रगमन रोहिणेयोऽब्रवीदिदम् । यतिधर्मस्य योग्योऽस्मि न बत्यादिश्यनां ? प्रभो ! ॥१६॥ योग्योऽसीनि स्वामिनोक्तो ग्रहीष्यामि विभो ! व्रतम् । परं किंचिद्वदिष्यामि श्रेणिकनेत्युवाच सः ॥१७॥ निर्विकल्प निर्विशंकं स्ववक्तव्यमुदीरय । इत्युक्तः श्रेणिकपेणोचे लोहखुरात्मजः ॥ १८ ।। इह देव ! भवद्भिर्यः श्रुतोऽहं लोकवार्तया । स एष रोहिणयोऽस्मि भवत्पत्तनमोषकः ॥ १९ ॥ भगवद्वचसकेन दुर्लच्या लंघिता मया । प्रज्ञाऽभयकुमारस्य तरण्डनेव निम्नगा ।। १०० ॥ १ तस्य ।
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अशेषमेनन्मुषितं पत्तनं भवतो. भया । नान्वेषणीयः कोऽप्यन्यस्तस्करी राजभास्कर ! ॥ १.१॥ . कमपि प्रेषय यथा तल्लोप्नं दर्शयाम्यहम् । करिष्ये सफलं जन्म ततः प्रव्रज्यया निजम् ॥ १०२॥ अभयोऽपि समुत्थाय श्रेणिकादेशतः स्वयम् । कौतुकास्पोरलोकश्च सहागात्तेन दस्युना ॥ १०३ ॥ नतो गिरिणदीकुञ्जरमशानादिषु तद्धनम् । स्थगितं दर्शयामास चौरः श्रेणिकसूनवे ॥ १०४॥ . अभयोऽपि हि यद्यस्य तत्तस्य धनमार्पयत् । नोतिज्ञानामलोभानां मंत्रिणां नापरा स्थितिः ॥ १०५ ॥ परमार्थ कथयित्वा प्रयोध्य निजमानुषान् । श्रद्धालुर्भगवत्पार्थे रोहिणेयः समाययौ ।। १०६ ॥ अथ श्रेणिकराजेन कृतनिष्क्रमणोत्सवः । स जग्राह परिव्रज्यां पावें श्रीवीरपादयोः ॥ १०७॥ नतश्चतुर्थादारभ्य षण्मासी यावदुज्ज्वलम् । विनिर्ममे तपाकर्म कर्मनिर्मूलनाय सः॥१०८॥ तपोभिः शितः कृत्वा भावसंलेखनां च सः। श्रीवीरमापृच्छ्य गिरी पादपोपगम व्यधात् ॥ १० ॥ शुभध्यानः स्मरन् पंचपरमेष्टिनमस्क्रियाम् । त्यक्त्वा देहं जगाम यां रौहिणेयो महामुनिः ॥ ११०॥ ततोऽपि भगवान कर्तुं तीर्थकृत्फर्मनिर्जराम् । विजहार धृतो देवैः कोटिसंख्यैर्जघन्यतः ॥ १११ ।। कानपि श्रावकीचक्रे यतीचक्रे च कानपि । धर्मदेशनया राजामात्यप्रभृतिकान प्रभुः ।। ११२॥ इतश्च श्रेणिको राजा तस्मिन् राजगृहे पुरे । सम्यक्त्वं धारयन् सम्यङ्नीत्या राज्यमपालयत् ॥ ११ ॥
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अन्यदोजयिनीपुर्याश्चण्डप्रद्योतभूपतिः । चलितः सर्वसामय्या रोर्बु राजगृहं पुरम् ।। ११४ ॥ प्रद्योतो बद्धमुकुटाश्चान्ये भूपाश्चतुर्दश । सत्रायान्तो जनै दृष्टाः परमाधार्मेिका इव ॥ ११ ॥ पाटूपटप्लुतैरश्वैः पादयन्निव मेदिनीम् । आगच्छन् प्रणिधिभ्योऽध शुभ्रवे श्रेणिकन सः ॥ ११६ ॥ श्रेणिकोऽचिन्तयत् किंचित्प्रयोतोऽत्र समापतन | रग्रह इव छुद्धः कार्यो हतबलः कथम् ? ॥ ११७ ।। नतोऽभयकुमारस्योत्पत्तिक्यादिधियां निधेः । नृपतिर्मुखमैक्षिष्ट सुधामधुरया दृशा ॥ ११८ ।। यथार्थनामा राजानमभयोऽथ व्यजिज्ञपत् । का चिन्नोजयिनीशोऽद्य भवशुद्धातिथिर्मम ॥ ११९ ॥ यदि वा बुद्धिसाध्येऽर्थे शस्त्राशस्त्रिकथा वृथा । वुद्धिमेव प्रयोक्ष्ये तद् बुद्धिहि जयकामधुक् ॥ १२० ॥ अथ बाह्येऽरिसैन्यानामावासस्थान भूमिपु । लोहसंपुटमध्यस्थान दीनारान् स न्यचीखनत् ॥ १२१ ॥ प्रद्योतनृपतेः सैन्यैस्ततो राजगृहं पुरम् । पर्यवष्ट्यत भूगोलः पयोधिसलिलरिव ॥ १२२ ।। अवेत्थं प्रेषयामास लेख प्रयोतभूपतेः । अभयो गुप्तपुरुषैः परुषतरभाषिभिः ॥ १२३ ॥ शिवादेवीचेलणयोर्भेदं नेक्षे मनागपि । तन्मान्योऽसि शिवादेवीसंबन्धेनापि सर्वदा ॥ १२४ ॥ नेनावन्तीश ! वच्मि त्वामेकान्तहितवांछया । सर्व श्रेणिकराजेन भदिनास्तव भूभुजः॥ १२५ ॥ दीनाराः प्रेषिताः सन्ति तेभ्यस्तान कर्तुमात्मसात् । ते तानादाय बद्ध्वा त्वामर्पयिष्यन्ति मत्पितुः १२६ १८. प्रती सर्वत्र 'उज्जयनी' इत्येव प्रयोगः अस्ति ।।
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तवायासेषु दीनारा निखाताः सन्ति तत्कृते । खानयित्वा पश्य को वा दीपे सत्यग्निमीक्षते ? ॥ १२७ ।। विदित्वैवं स भूपस्यैकस्यावासमचीखनत् । लब्धास्तत्र च दीनारास्तान् दृष्ट्वा स पलायितः ॥ १२८ ।। नष्ट तत्र च तत्सैन्यं विलोडयाब्धिमिवाखिलम् । हस्त्यश्वाचावद सारं मगधेन्द्रः समंततः ॥१२९ ॥ नासारूढेन जीवेन वायुवाजेन वांजिना । ततः प्रद्योतनृपतिः कथंचित् स्वां पुरीं ययौ ॥ १३० ।। नृपा ये बद्धमुकुटा ये चान्येऽपि महारथाः। तप नेशुः काकनाशं हतं सैन्यं घनायकम् ॥ १३१ ॥ असंयतलुलत्केशैश्छन्नशून्यैश्च मौलिभिः । राजानमनुयान्तस्तेऽप्यायुरुजयिनी पुरीम् ॥ १३२॥ अभयस्यैव मायेयं वयं नेहशकारिणः । प्रत्यायित: सशपथं नैरथोज्जयिनीपतिः ॥ १३ ॥ कदाचिदूचेऽवन्तीशो मध्येसभममर्षणः । योऽर्पयत्यभयं बद्ध्वा मम संपत्स्यते स क्रिम् ।। १३४ ॥ पताकं हस्तमुक्षिप्य काप्येका गणिका ततः। व्यजिज्ञपश्यन्तीशमलमस्मीह कर्मणि ॥ १३५ ॥ तामादिदेशावन्तीशो यद्येवमनुतिष्ट तत् । करोम्यादिसाहाय्यं हि किं तव संप्रति ? ॥ १३६ ॥ सा च दध्यो यदभयो नोपायल्यतेऽपरैः। धर्मच्छद्म तदादाय साधयामि समीहितम् ॥ १३७ ॥ अयाचत ततश्च द्वे द्वितीयवयसौ स्त्रियो । ते तदैवार्पयद्राजा ददौ द्रव्यं च पुष्कलम् ॥ १३८ ।। कृतादराः प्रतिदिनमुपास्योपास्य संयतीः । बभूवुरुत्कटप्रज्ञास्तास्तिस्रोऽपि बहुश्रुताः ॥ १३९ ।। ,"ष्ट्वाशप CLष्ट्वा च ॥ २ लायत L || ३ क्याधिकाधि ॥ ४ 'युवेगेन D|| ५ हेतुना ॥
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एकादश: सगः
नास्तिस्रोऽपि सतो जग्मुः श्रेणिकालंकृत पुरम् । जगत्त्रयीं वचयितुं मायाया इव मूर्तयः ॥ १४० ॥ पायोग्राने कृतावासा सा पणस्त्रीमतल्लिका । पत्तनान्तर्ययौ चैत्परिपाटीचिफीर्षया ॥ १४१ ॥ .... सा विभूत्याऽतिशायिन्या बस्ये नृपतिकारिते । प्रविवेश समं ताभ्यां कृत्वा नैषेधिकीत्रयम् ॥ १४२ ॥ मालवकौशिकीमुख्यग्रामरागजुषा गिरा । देवं वन्दितुमारेभे सपर्या विरश्चरण सा ॥१४३ ॥ तत्राभयकुमारोऽपि ययौ देवं विवन्दिषुः ! आहे बालातीनां ना बनानामुलन ॥ १४४ ।। देवदर्शनविघ्नोऽस्या मा भूत्प्रविशता मया। द्वार्येवेत्यभयस्तस्थी मंडपान्तर्विवश न ॥ १४ ॥ प्रणिधानस्तुति कृत्वा सा मुक्ताशुक्तिमुद्रया। पाषदुत्तस्थुषी तावदभयोऽभ्याजमाम ताम् ॥ १४६ ॥ ताशी भावनां नस्यास्तं वेषं प्रशमं का तम् । अभयो वर्णयामास सानन्दं च जगाद ताम् ।। १४७ ॥ विष्ट्या भद्रेऽधुना स्वाहासाधर्मिक्रमागमः । साधर्मिकात्परो धन्धुर्न संसारे विवेकिनाम् ॥ १४८ ॥ का त्वं ? किमागमः ! का याऽऽवासभूरिमफे च के। यकाभ्यां स्वातिराधाभ्यामिन्दुलेखेव शोभसे १४० व्याजहाराथ सा व्याजश्राविकाऽवन्तिवासिनः । महभ्यवणिजः पाणिगृहीती विधवा वहम् ॥ १० ॥ इमे च मम पुत्रस्य फलने कालधर्मतः। विच्छाय्यभूतां विधये भग्नवृक्षलने इव ॥ १५१ ॥ व्रतार्थं पृच्छनः स्मैते उभे अपि तदेव माम्। विपक्षपतिकानां हि सतीनां शरणं व्रतम् ॥ १५२ ॥ १ .॥
॥३१२
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मायुक्ते (क्तं ग्रहीष्यामि निर्धीराऽहमपि व्रतम् । गार्हस्थ्यस्य फलं किं तु गृह्यतां तीर्थयात्रा ॥ १७३॥ बने हि भावतः पूजा युज्यते द्रव्यतो न तु । । इत्यहं तीर्थयात्रार्थमेताभ्यां सह निर्गता ॥ १५४ ॥ अथेत्थमभवोचदतिश्रीभवताच नः । आतिथेयं सतीर्थ्याना तीर्थादयतिपावनम् ॥ १५५ ॥ प्रत्युवाचाभयं साऽपि युक्तमाह भवान् परम् । कृततीधपवासाऽहं भवाम्यद्यातिथिः कथम् ॥ १५६ ॥ अथ तनिष्ठा हृष्टोऽभयस्नामवदत् पुनः । अवश्यं मम तत्मातरागन्तव्यं निकेतनम् ॥ १५७ ॥ साऽप्यूचे यत्क्षणेनापि जन्मिनो जन्म परीने । अर्थात सीति सत्त्कथं सुधीः ? ॥ १५८ ॥ अस्त्वदानीमियं भूयः श्वो निर्मथ्येति चिन्तयन् । तां विसृज्यामयश्चैत्यं वन्दित्वा स्वगृहं ययौ ॥ १५९ ॥ तां निमंत्र्याभयः प्रातर्गृहचैत्यान्यवन्दयत् । भोजयामास च प्राज्यवस्त्रदानादि च व्यधात् ॥ १६० ।। निमंत्रितस्तयाऽन्येद्युर्मितीभूया भयोऽप्यगात्। साधर्मिकोपरोधेन किं न कुर्वन्ति तादृशाः ? ॥ १३१ ॥ तया च विविधै भोज्यैर भयोऽकारि भोजनम् । चन्द्रहाससुरामिश्रपानकानि च पायितः ॥ १६२ ॥ भुक्तोत्थितश्च सुष्वाप तत्कालं श्रेणिकात्मजः । आदिमा मद्यपानस्य निद्रा सहचरी खस्तु ॥ १६३ ॥ तं रथेन स्थाने स्थाने स्थापितैश्चापरे रथैः । अवन्तीं प्रापयामास दुर्लक्ष्यच्छद्मसन सा ॥ १६४ ॥ ततोऽभयान्वेषणाय श्रेणिकेन नियोजिताः । स्थाने स्थाने मार्गयन्तस्तत्रययुर्गवेषकाः ॥
१६५ ॥
१ श्रोषेयु M. ॥
॥३१३
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किमिहाभय आयात ? इत्युक्ता नैरुवाच सा । इहाभयः समायातः परं यातस्तदैव हि ।। १६६ ।। वचनप्रत्ययात्तस्या अन्यत्रेयुर्गवेषकाः । स्थाने स्थाने स्थापिताः साऽप्यवन्तीं समाययौ ॥ १६७ ॥ सा प्रचंडाभयं चंडप्रद्योतायाऽऽपर्यन्त्ततः । अभग्रान्यनोपायस्वरूपं च व्यजिज्ञपत् ॥ १६८ ॥ लघु विहितं स्वया। सुं धर्मविश्रयं त्वं धर्मच्छद्मनाऽऽनयः ॥ १३९ ॥ कथासप्ततिसंशंसी मार्जार्येव शुकोऽनया । नीतिज्ञोऽपि गृहीतोऽसि जगादेत्यभयं च सः ॥ १७० ॥ restraiदेवं त्वमेव मतिमानसि। यस्यैवंविधया बुद्ध्या राजधर्मः प्रवर्धते ॥ १७१ ॥ लज्जितः कुपितचा चंडोत भूपतिः । राजहंसमिवाक्षैप्सीद भयं काष्ठपञ्जरे ॥ १७२ ॥
fiorat देवी शिवा नलगिरिः करी । लोहजंघो लेखवाहो राज्ये रत्नानि तस्य तु ॥ १७३ ॥ लोहजं नृपः प्रैषीद् भृगुकच्छे मुहुर्मुहुः । तद्गनाऽऽगत संक्लिष्टास्तत्रत्या इत्यसूत्रयन् ॥ १७४ ॥ आमात्ययं दिनेनापि पंचविंशनियोजनीम् । असकृद्वयाहरत्यस्मान् हन्मः संप्रत्यमुं ततः । १७५ ।। ते विश्येत्यदुस्तस्य शम्बले विषमोदकान् । तद्भस्त्राशम्बलं चान्यत् समन्तादप्यपाहरन् ॥ १७३ ॥ दिल्लंघ्य नदीरोधसि शम्बलम् । तद्भोक्तुमवतस्थे सोऽभूवन्नशकुनान्यथ ॥ १७७ ॥ शकुनज्ञस्तु सोभुक्त्वोत्थाय दूरं ययौ ततः । क्षुधितो मोक्तुकामोऽभूद्वारितः शकुनैः पुनः ॥ १७८ ॥
६ सौ भू८८ ॥ २ दास्तया । नान्यथा 1 ||
एकादश सर्ग:
॥ ३१४
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दूरं गत्वा भोक्तुकामः शकुनैर्वारितः पुनः । ततो गत्वा स तत्सर्व प्रयोतस्य न्यवेदयत् ॥ १७९ ॥ ततो राज्ञा समाहूय तत्पृष्टः श्रेणिकात्मजः । पाययभस्त्रामाघाय जगाद मतिमानिदम् ॥ १८ ॥ अस्ति दृष्टिविषोऽत्राहियसंयोगसंभवः । असौ दग्धो भवेन्नूनं भस्त्रामुद्धाटयेद्यदि ॥ १८१ ॥ ततः पराङ्मुखोऽरण्ये मोच्य इत्यभयोदिते । तथैव मुमुचे सद्यो दग्धा वृक्षा मृतश्च सः ॥ १८२॥ विना बन्धनमोक्षं त्वं वरं याचस्व मामिति । नृपेणोक्तऽभयोऽवादीन्न्यासीभूतोऽस्तु मे वरः॥ १८३ ॥ इनश्च चंडप्रद्योतराजस्य श्रीरिवोदधेः । अभूद्वासवदत्तेति सुताऽगारवतीभवा ॥ १८४ ॥ धात्रीजनैलाल्यमाना वर्धमाना क्रमेण सा । राज्यलक्ष्मीरिव साक्षाद्रेमे राजगृहांगणे ॥ १८५ ।। सर्वलक्षणसंपूर्णा विन यादिगुणान्विताम् । पुत्रादप्यधिको मेने राजा तामतिवत्सलः ॥ १८६ ॥ आत्मानुरूपगुर्वन्ते साध्यैष्ट सकलाः कलाः । गान्धर्ववेद एवैकोऽवाशिष्यत गुरुं विना ॥ १८७॥ राजाऽपृच्छच्च सचिवं बहुदृष्टं बहुश्रुतम् । भावी को नाम दुहितुर्गान्धर्वाध्यापने गुरुः ॥ १८८ ॥ प्रायेण राजपुत्रीणां गतानां पतिवश्मनि । पत्युविनोदे गान्धवकलैय युपयोगिनी ॥ १८९ ।। मन्त्री प्रोवाच गान्धर्वधुरीणानां शिरोमणिः । संप्रत्युदयनो राजा मूर्तिरन्यैच तुम्बरोः ॥ १९ ॥ श्रूयते तस्य गान्धर्वकला काऽप्यतिशागिनी । गीतेन मोहयित्वा यो वने यध्नाति सिन्धुरान् ॥ १९१ ।। १ राम्मु (.1.1 २णोतो DMR -
GAONKARACHAR
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स गायति वने गत्वा गजास्तगीतमोहिताः । अपि बन्धं न जानन्ति पीतस्वादुरसा इव । १९२ ।। गीतोपायेन स यथा वने बानि सिन्धुरान् । तथा तस्याप्युपायोऽस्ति बन्धेऽश्रानयनेऽपि च ॥ १९३ ॥ कार्यtra 'किलिश्च वने सत्य इव द्विपः । कुर्वन् यत्रप्रयोगेण क्रिया गत्यासनादिकाः ॥ १९४ ॥ किलिञ्जहस्तिमध्येच भटाः स्थास्यन्ति शस्त्रिणः । ते गजं चलयिष्यन्ति भेत्स्यन्ति च त एव तम् १०० दूध्वा चैवं वत्सराज इहानीतस्तवाऽऽज्ञया । कन्यां वासवदत्तां ते गान्धर्व शिक्षयिष्यति ॥ १९६ ॥ साधु साध्विति राज्ञाऽनुमतो मन्त्रयपि तं तथा । अकारयङ्गजं सत्यगजादप्यधिकं गुणैः ॥ १९७ ॥ दन्तघातकरोत्क्षेपबृंहितप्रसरादिभिः । तं कुञ्जरं वनचरा विदाञ्चकुरकृत्रिमम् ॥ १९८ ॥
रास्तं करिणमाख्यनुदयनाय ते । तद्बन्धार्थं वने तस्मिन् ययावुदयनोऽपि हि ॥ १९९ ॥ दूरे मुक्त्वा परीवारं परिक्रामञ्च्छनैः शनैः । शकुनान्वेषक हव वनान्तः प्रविवेश सः ॥ २०० ॥ मायाकरटिनस्तस्य समीपमुपसृत्य च । जगावुदयनस्तारमपरीकृतकिन्नरः ।। २०१ ।। जगावुदयनो गीतं सुधास्वादु यथा यथा । तथा तथाऽन्तः पुरुषाः स्तिमितांगं गजं व्यधुः ॥ २०२ ॥ कौशाम्बीशोऽपि नं नागं मन्वानो गीतमोहितम् । शनैः शनैरभ्यसर्पत्तिमिरे संचरन्निव ॥ २०३ ॥ स्तब्धोऽयं मम गीतेनेत्युपसृत्य स पार्थिवः । उत्प्लुत्येभं तमारोहद्विहंग इव पादपम् ॥ २०४ ॥
I
१-२ कलि C. L. ॥ ३ यंति । मत्स्यन्ति । मेत्स्यन्ति D ॥
एकादश
सर्गः
॥३१६
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प्रयोताऽऽयुक्तसुभटा निःसृत्य द्विरदोदरात् । पातयित्वा गजस्कंधावत्सराजमथन्धयन् ।। २०५ ॥ एकाकी च निरस्त्रश्च विश्वस्तश्च शतैर्भटैः । नाकार्षीत् पौरुषं रुद्रः कुक्कुरैरिव सुकरः ॥ २०६ ।। ऊचे च चण्डप्रद्योतो वत्सराज भटार्पितम् । मत्पुत्री शिक्षयकाक्षी त्वं गान्धर्वकलां निजाम् ॥ २०७ ॥ मत्कन्याऽध्यापनेन त्वं सुखं तिष्ठ मदोकसि । अन्यथा तव पद्धस्य मदधीनं हि जीवितम् ॥ २०८ ॥ दध्यावुदयनोऽप्येवं कन्यामध्यापयतहम् । कालं क्षिपामि जीवन हि नरो भद्राणि पश्यति ॥ २०१॥ इति चेतसि निश्चित्य तत्प्रद्योतस्य शासनम्। अनुमेने वत्सराजः स पुमान् यो हि कालवित् ॥ २१०॥ ऊचे च चंडप्रद्योतः काणा हि दुहिता मम। मा जातु तां निरीक्षेथाः सा हि लविष्यतेऽन्यथा ।। २११॥ इत्युक्त्वाऽन्तःपुरे गत्वा तनयामप्युवाच सः। गान्धर्षग़रुरायातो न वीक्ष्यः कुष्टययं यतः ॥ २१२ ॥ वत्सराजोऽपि गान्धर्य तां नर्थवाध्यजीगपत् । प्रद्योतबंचितो तो तु मिथो ददृशतुर्न तु ॥ २१३ ॥ पझ्याम्पमुमिति ध्यायन्त्यन्यदाऽवन्तिनाथसूः । मनःशून्याऽन्यथापाठीन्मनोऽधीनं हि चेष्टितम् ॥ २१४ ॥ वत्सराजस्तदाऽवन्तिराजपुत्रीमतर्जयत् । विनाशयसि किं शास्त्रं काणे ! दुःशिक्षितासि किम् ? ॥२१५॥ मा निरस्कारकुपिता वत्सराजमदोऽवदत् । किं काणामभिधत्से मां कुष्ठिनं स्वं न पश्यसि ? ॥ २१६ ॥ दध्यो चैवं वत्सराजः कुष्ठभाग याहगस्म्यहम् । काणापि ताटगेवैषा पश्यामि तदिमां खल्लु ॥ २१७ ॥ इत्यपासारयत् काण्डपटं स धिषणापटुः । ददर्श मेघनिर्मुक्तामिन्दुलेखामिवाथ ताम् ॥ २१८॥
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तं च वासवदत्ताऽपि सद्यः स्फारितलोचना । सर्वांगसुभगं साक्षादिवाद्राक्षीन्मनोभुवम् ॥ २१९ ॥ दृष्ट्वा वासवदत्ता तं वत्सराजोऽपि तां तदा । परस्परानुरागर्दिसूचकं चक्रतुः स्मितम् ॥ २२० ॥ प्रयोतपुत्री प्रोवाच धिग्धिक् पित्राऽस्मि वंचिता । हुतमिखेन्दुमिव याऽपश्यं त्वां न सुन्दर ! || २२१ ॥ कलाचार्य ! कलाः सम्यति संक्रमिता नोगिन्यः सन्तु भर्ता त्वमेत्रि मे ॥ २२२ ॥ वत्सराजोऽषद ! त्वत्पित्रैवास्मि वंचितः । कार्णत्यन्तरितां कृत्वा त्वां पश्यन्नस्मि वारितः ॥ २२३ ॥ कान्ते ! तदावयोर्योगो भवत्वत्रैव तस्थुषो: । समये त्वां हरिष्यामि वैनतेयः सुधामिव ॥ २२४ ॥ स्वयंदृत्येन वैदग्धीबन्धुरं जल्पतोरिति । मनोयोगस्पर्द्धयेव वपुर्योगोऽप्यभूत्तयोः ॥ २२५ ॥ दासी वासवदत्ताया धात्री विश्रम्भभाजनम् । एका काञ्चनमालैव विवेद चरितं तयोः ॥ २२६ ॥ एकयैवोपास्यमानौ दास्या काञ्चनमालया । केनाप्यज्ञानदाम्पत्यो तो कालमतिनिन्यतुः ॥ २२७ ॥ अन्यदाऽऽलानमुन्मूल्य पातयित्वा निषादिनौ । स्वैरं नलगिरिभ्राम्यन् क्षोभयामास नागरान् ॥ २२८ ॥ असाववशगो हस्ती वशं नेयः कथं न्विति । राज्ञा पृष्टोऽभयोऽशंसद्गायतृधनो नृपः ॥ २२९ ॥ गीतं नगरेर कुर्वित्युक्तोऽथ भूभुजा । जगावुदयनस्तत्र समं वासवदत्तया ।। २३० ।। कर्णनाक्षिप्तो बद्धो नलगिरिः करी । पुनर्ददौ वरं राजा न्यासी चक्रेऽभयस्तथा ॥ २३९ ॥
१ "नेव ॥
एकादश सर्ग:
।। ३१८
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अन्यदोद्यापनिकयोद्याने प्रत्यचलनृपः। सान्तःपुरपरीवारः पौरैः सह महर्द्धिभिः ॥ २३२॥ तदाच वत्सराजस्य मोक्षोपायं विचिन्तयन् । मागें परिभ्रमन्नासीन्मंत्री योगन्धरायणः॥२०॥ स्वबुद्धिविभवोष्माणं हृदन्तर्धक्षमः । स पपाठ यन्मनसि प्रायस्तद्धि वचस्यपि ॥ २३४॥ यदि तां चैव नां चैव नां चैवायतलोचनाम् । न हरामि नृपस्यार्थे नाहं योगन्धरायणः ।। २३५ ॥ गच्छंश्च चंडप्रयोतस्तस्य वाचं ससौष्ठवाम् । आकर्ण्य तं निरैक्षिष्ट दुष्कटाक्षेण चक्षुषा ॥ २३६ ॥ योगन्धरायणोऽप्याशु परेषामिंगितादिभिः । भावज्ञोऽवन्तिनृपति विवेद कुपितं तदा । २३७ ॥ कौशाम्बीपतिगृह्यत्वमपाकर्तुं स आत्मनः । प्रत्युत्पन्नधियां धुर्य इदमौपयिकं मचात् ॥ २३८ ॥ मुक्त्वा संव्यानस्थः प्रेतातिविकृताकृतिः । मूत्रयन् व्यञ्जयामास भूताविष्टत्वमात्मनः ॥ २३॥ पिशाचकी कश्चिदसायिति ज्ञात्वा नृपोऽपि हि । सद्यः कोपं निजग्राह निषादीच मतंगजम् ॥ २४ ॥ ततश्च चण्डप्रद्योतो गत्वोधानेऽनवयवाक । गान्धर्वगोष्ठीमारेभे स्मरद्विपमहौषधम् ॥ २४१॥ गान्धर्वकौशलं द्रष्टुं नवं प्रयोतभूपतिः । आवासवदत्तां च वत्सराजं च कौतुकी ॥ २४२ ॥ ऊचे प्रद्योततनयां यत्सराजः शुभानन !| आरुह्येभी वेगवतीं गन्तुं बालोऽयमावयोः॥२४॥ सयो जिनमरुद्वेगां ततो वेगवतीमिभीम् । आनाययदयन्तीशदुहितोदयनाज्ञया ॥ २४४ ॥ कक्षायां वध्यमानायां सा ररास च हस्तिनी । श्रुत्वा तद्रसितं चैवमन्धमौहर्तिकोऽवदत् ॥२४५।।
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कक्षायां बध्यमानायां यथा रसति हस्तिनी । योजनानां शतं गत्वा प्राणत्यागं करिष्यति ॥ २४६ ॥ वसन्तको हस्तिपकोsपन्नादुदयनाज्ञया । चतस्रो मूत्रघटिकाः करिण्याः पाश्वयोर्द्वयोः ॥ २४७ ॥ वत्सराजो घोषवतीपाणिः प्रयोतनन्दना । काञ्चनमाला वसन्तश्वारोहस्तमथ द्विपीम् ॥ २४८ ॥ योगन्धरायणोऽप्येत्य तुनोद करसंज्ञया । पाहि ग्राहीत्युवयनं सोऽपि गच्छन्दोऽवदत् ॥ २४९ ॥ वासवदत्ता काञ्चनमाला चैव वसन्तकः । वेगवती घोषवती वत्सराजश्व यान्त्यमी ॥ २५० ॥ प्रेरयन् वारणवधू वत्सराजोऽतिरंहसा । आत्मानं ज्ञापयन्नेवं नालुपत्क्षत्रियव्रतम् ॥ २२१ ॥ प्रद्यतोऽपि गतं ज्ञात्वोदयनं पंचभिः सह । करौ जघर्षाक्षद्यूने पाशकान् पातयन्निव ॥ २२२ ॥ अवनीशो नलगिरिं सन्नाह्यासत्यविक्रमः । निषादिभिर्महायोवैरास्थितं पृष्ठतोऽमुचत् ॥ २२३ ॥ पञ्चविंशतियोजन्यामतीतायां स कुञ्जरः । अदवीयानुदयनेनादृश्यत भयंकरः ॥ २५४ ॥ ततो मूत्रघटमेकां स्फोटयित्वा महीतले । तथैव प्रेरयामासोदयनस्तां करेणुकाम् ॥ २५५ ॥ गजोsपि तीसूत्रं जिघन् क्षणमिवास्थित । कष्टेन प्रेर्यमाणस्तु प्रससार पुनस्तथा ॥ २५६ ॥ मार्गे मूत्रघटीरन्या अपि नावति तावति । स्फोटं स्फोटं नलगिरेर्वत्सराजोऽरुणङ्गतिम् ॥ २२७ ॥ योजनानां शतं गत्वा कौशाम्बी प्रविवेश सः । परिश्रान्ता तदा सा च व्यपद्यत करेणुका ।। २५८ ।। यावच मूत्रमाजिघ्रन् प्रससार न वारणः । कौशाम्बी पति सेनाऽपि तावद्योद्धुमठोकत ॥ २५९ ॥
एकादश: सर्ग:
।। ३२०
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निषादिनो नलगिरिं वालयित्वा ततश्च त । पथा यथागतनैव पुनरुज्जयिनी ययुः ॥ २६० ॥ कटकोपक्रम कुर्वन प्रद्योतः कुलमन्त्रिभिः । भक्तः कोपकृतान्तोऽपि युक्तिपूर्वमवार्यत ॥ २६१ ।। वराय यस्मै कस्मैचिदयाऽवश्यं हि कन्यका । तद्वत्सराजादधिकं कं जामातरमाप्स्यसि ॥ २६२ ॥ भेजे वासवदत्ता तं स्वयमेव स्वयंवरा । स्वामिस्त्वदुहितुः पुण्यैरुचितः सोऽभवद्वरः ॥ २६३ ।। नदलं कटकारंभेणानुमन्यस्व तं वरम् । यतो वासवदत्तायाः स कौमारहरोऽभवत् ॥ २६४ ॥ इति तै|धितो राजा वत्सराजाय संमदात् । प्रेषीज्जामातृभावाई वस्तुजातं विधेयवित् ॥ २६५ ॥ अभूदवन्त्यामन्येयुर्निविच्छेदं प्रदीपनम् । पृष्ठश्च तत्प्रतीकारं प्रयोतेनाभयोऽववत् ॥ २६६ ॥ विषस्येव विषं वह्नहिरेव यौषधम् । तदन्यः क्रियतां वह्निर्यथा शाम्येत्प्रदीपनम् ।। २६७ ॥ तत्तथा विदधे राजाऽशाम्यत्ता प्रदीपनम् । तृतीयं च वरं सोऽदान्यासीचक्रेऽभयश्च तम् ।। २६८ ।। अशिव महदन्येगुरुजयिन्यां समुत्थितम् । तत्प्रशान्त्यै नरेन्द्रेण पृष्ट इत्यभयोऽब्रवीत् ॥ २६९ ॥ आगच्छन्त्वन्तरास्थानं देव्यः सर्या विभूषिताः । युष्माञ्जयति या दृष्टया कथनीया तु सा मम ॥ २० ॥ तथैव विदधे 'राज्ञा राज्योऽन्या विजिता दृशा । देव्या तु शिवया राजा कथितं चाभयाय तत् ॥२७१ ॥
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यथा CL.1 R राक्षा D..|| ३ राजा
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एकादश
अभाषताभयोऽप्यवं महाराज्ञी शिवा स्वयम् । करोतु कूरबलिना भूतानामर्चनं निशि ॥ २७२ ॥ यद्यद् भलं शिवारूपेणोनियमनासाको ' इस तस्य मुखे देव्या क्षेप्यः कूरथलिः स्वयम् ॥ २७३ ।। विदधे शिवया तच्चाशिवशान्तिर्षभूव च । तुर्य चादाद्वरं राजा ययाचे चाभयोऽप्यदः ॥ २७४ ॥ स्थितो नलगिरौ 'मिठीभूते त्वयि शिवांकगः । अहं विशाम्यग्मिभीरुरथदारुकृतां चिताम् ॥ २७० ।। नतो विषण्णः प्रद्योतो वरं दातुमशक्नुवन् । विससर्जाञ्जलिं कृत्वा कुमारं मगधेशितुः ॥ २७६ ॥ आशुश्रावाभयोऽप्येवं त्वयाऽऽनीतरच्छलादहम् । दिवा स्टन्तं पूर्मध्ये त्वां तु नेष्याम्यसावहम् ।। २७७ ॥ * ततोऽभयकुमारोऽगात् क्रमाद्राजगृहे पुरे । कथमप्यवतस्थे च कंचित्कालं महामतिः ॥ २७८ ॥ गृहीत्वा गणिकापुत्र्यौ रूपवत्यावथाभयः । वणिग्वेषोऽगादयन्त्यां राजमार्गेऽग्रहीद् गृहम् ॥ २७ ॥ प्रद्योतेनेक्षित ते च दारिके पथि गच्छता । ताभ्यां च सविलासाभ्यां प्रयोतोऽपि निरीक्षितः ॥ २८० ।। प्रयोतेन गृहे गत्वा प्रेषिता रागिणा ततः। दृत्यनुनयन्ती ताभ्यां शुद्धाभ्यामपहस्तिता ॥ २८१ ॥ द्वितीयस्मिन्नपि दिनेऽर्थयमाना मृपाय सा। ताभ्यां शनैः सरोषाभ्यामवामन्यन दृतिका ॥ २८२ ॥ तृतीयेऽप्यन्यनिर्वेदादेत्य ते याचिते तया । अवोचतां सदाचारो भ्राता नावष रक्षति ।। २८३ ।।
ततो बहिर्गतेऽमुधिमन् सप्तमऽहि समागते । इहायातु नृपश्छन्नस्ततः संगो भविष्यति ॥ २८४ ॥ १/१ मी C | मेटो |
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अधाभयेन प्रद्योत सहगेकः पुमान्निजः । उन्मत्तो विदधे तस्य प्रद्योत इति नाम च ॥ २८५ ॥ feats मम भ्राता भ्राम्यतीतस्ततस्ततः । रक्षितव्यो मया हा किं करोमीत्यवदज्जने ॥ २८६ ॥ तं वैसझनयनच्छद्मना प्रत्यहं बहिः । रटन्तं मञ्चकारूढं निनायाऽऽर्तमिवाभयः ॥ २८७ ॥ नीयमानश्च तेनोचैः स उन्मत्तचतुष्पथे । प्रयोतोऽहं हियेऽनेनेत्युदश्रुवदनोऽरटत् ॥ २८८ ॥ सप्तमेऽह्नि नृपोऽयमाच्छमेककः । कामान्धः सिन्धुर इव बद्धश्वाभयपूरुषः ॥ २८९ ॥ atest वैद्यमेत्य भयेनाभिभाषिणा । पर्यकेन समं जट्रे पुरान्तः स रदन् दिवा ॥ २९० ॥ क्रोशे क्रोशे पुरो मुक्त स्थैरथ सुवाजिभिः । पुरे राजगृहेऽनैषीत् प्रद्योतमभयो भयः ॥ २९९ ॥ ततो निनाय प्रयोतं श्रेणिकस्य पुरोऽभयः । दधावे खमाकृष्य तं प्रति श्रेणिको नृपः ॥ २९२ ॥ अभयकुमारेण बोधितो मगधेश्वरः । संमान्य वस्त्राभरणैः प्रद्योतं व्यसृजन्मुदा ॥ २९३ ॥ अन्यदा गणभृद्देव सुधर्मस्वामिनोऽन्तिके । प्रव्रज्यामग्रहीत् कोऽपि विरक्तः काष्ठभारिकः ॥ २९४ ॥ विहरन् स पुरे परैः पूर्वावस्थाऽनुवादिभिः । अभर्त्स्यतो पाहस्यतागतापि पदे पदे ॥ २९५ ॥ नावज्ञां सोडुमीशोऽत्र तनो विहरतान्यतः । इति व्यज्ञपयत् स श्रीसुधर्मस्वामिनं गुरुम् ॥ २९६ ॥ सुधर्मस्वामिनाऽन्यत्र विहारक महेतवे । आपृच्छ्यता भयः पृच्छन् ज्ञापितस्तच कारणम् ॥ २९७ ॥
१ मन्यमे ॥ २ पुरा / ॥
से एक
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१HTRA
सग:
MHKPAYPANTHLY
दिनमेकं प्रसोक्षध्वमूर्ध्व यत्प्रतिभाति वः । तद्विधत्तत्यपाविष्ट प्रणम्य श्रेणिकात्मजः ॥ २९८ ॥ मोऽथ राजकुलात् कृष्ट्वा रत्नकोटित्रयीं बहिः । दास्याम्यतामेत लोकाः ! पटहेनेत्यघोषयत् ॥ २१९ ॥ ततश्चैयुर्जनाः सर्वेऽप्यवोचदभयोऽप्यदः । जलाग्निस्त्रीवर्जको यस्तस्य रलोचयोऽस्त्वयम् ॥ ३०० ॥ लोकोत्तरमिदं लोकः स्वामिन् ! किं कर्तुमीश्वरः ? । इति तेवाभाषमाणेष्वभयोऽपीत्यभाषत ।। ३०१ ॥ यदि वो नेदृशः कश्चिद्रत्नकोटिनयं ततः । जलाग्निस्त्रीमुचः काष्ठभारिणोऽस्तु महामुनेः ॥ ३०२॥ सम्यगीगयं साधुः पात्रदानस्य युज्यते । मुधाऽसौ हसितोऽस्माभिरिति तैर्जगदेऽभयः ॥ ३०३ ॥ अस्य भत्र्सीपहासादि न कर्तव्यमतः परम् । आदिष्टमभयेनेवं प्रतिपद्य ययुर्जनाः॥ ३०४ ॥ एवं बुद्धिमहाम्भोधिः पितृभक्तिपरोऽभयः । निरीहो धर्मसंसक्तो राज्यमन्वशिषत्पितुः ।। ३०५ ॥ वर्तमानः स्वयं धर्मे स प्रजा अप्यवर्तयत् । प्रजानां च पशूनां च गोपायत्ताः प्रवृत्तयः ॥ ३०६ ॥ राजचके जजागार यथा द्वादशधा स्थिते । तथा श्रावकधऽपि सोऽप्रमद्वरमानसः ॥ ३०७ ।। घहिरंगान्यथाऽजैषीद दुर्जयानपि विद्विषः । अन्तरंगानपि तथा स लोकद्वयसाधकः ॥ ३०८ ॥ तमूचे श्रेणिकोऽन्येार्वत्स ! राज्यं त्वमाश्रय । अहं श्रयिष्ये श्रीवीरशुश्रूषासुखमन्वहम् ॥ ३०९ ॥ पिताज्ञाभंगसंसारभीररित्यभयोऽब्रवीत् । यदादिशथ तत्साधु प्रतीक्षध्वं क्षणं परम् ।। ३१० ॥ १ तश्यु र्ज ८.L.V.॥
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३२४
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इतश्च भगवान् वीरः प्रव्राज्योदायनं नृपम् । मरुमंडलतस्तत्राभ्यागत्य समवासरत् ॥ ३११ ॥ दिष्ट्याऽद्य भगवानागादिति हृटो भयोऽपि हि । गत्वा नत्वा भगवन्तं भक्तिमानेवमस्तवीत् ॥ ३१२ ॥ सत्त्वस्यैकान्त नित्यत्वं कृतनाशाकृतागर्भा । स्यातामंकान्तनाशेऽपि कृतनाशाकृतागमौ ॥ ३१३ ॥ आत्मन्येक्रान्तनित्ये स्यान्न भोगः सुखदुःखयोः । एकान्तानित्यरूपेऽपि न भोगः सुखदुःखयोः ॥ ३१४॥ पुण्यपापे बन्धमोक्षौ न नित्यैकान्तदर्शने । पुण्यपापे बन्धमोक्षौ नानित्यैकान्तदर्शने ॥ ३१५ ।। क्रमाक्रमाभ्यां नित्यानां युज्यतेऽर्थक्रिया न हि । एकान्तक्षणिकत्वेऽपि युज्यतेऽर्थक्रिया न हि ॥ ३९६ ॥ यदा तु नित्यानित्यत्वरूपता वस्तुनो भवेत् । यथाऽऽत्थ भगवन्नैव तदा दोषोऽस्ति कश्चन ॥ ३१७ ॥ गुडो हि कफहेतुः स्यानागरं पित्तकारणम् । द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति गुडनागरभेषजे ॥ ३१८ ॥ द्वयं विरुद्धं नैकत्रासत्प्रमाणप्रसिद्धितः । विरुद्धवर्णयोगो हि दृष्टो मेघकवस्तुषु ॥ ३१९ ॥ विज्ञानस्यैकमाकारं नानाऽऽकारकरम्बितम् । इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ ३२० ॥ चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन् । यौगो वैशेषिको वाऽपि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ ३२१ ॥ इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्यैर्विरुद्वैर्गुम्फितं गुणैः । सांख्यः संख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥ ३२२ ॥ मितिः संमतिर्वापि वार्वाकस्य न मृग्यते । परलोकात्ममोक्षेषु यस्य मुश्यति शेमुषी ॥ ३२३ ॥ तेनोत्पादव्ययस्थेमसंभिनं गोरसादिवत् । त्वदुपशं कृतधियः प्रपन्ना वस्तु वस्तु सत् ॥ ३२४ ॥
1
॥ ३२५
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एकादशः सर्ग:
इति स्तुत्वा पुनर्नत्वा पप्रच्छ परमेश्वरम् । राजर्षिः कोऽन्निमोऽथाख्यत् स्वामी नृपमुदायनम् ॥ ३२ ॥ अपृच्छदभयो भूयः कोऽयं स्वामिन्नुशयनः । उदायमस्य चरितं ततश्चाकथयत्प्रभुः ॥ ३२६ ।। सिन्धुसौवीरदेशेऽस्ति पुरं वीतभयाह्वयम् । तत्रोदायननामाऽभूदवनीशो महाभुजः ॥ ३२७ ॥ वीतभयादिनगरविष्टित्रिशतीप्रभुः । सिन्धुसौवीरप्रभृतिनीवृत्षोडशकेश्वरः ॥ ३२८ ॥ महासेनादिकदशकिरीटिकृपनायकः । अन्येषामपि विनेता विजय्यासीन्महीतले ॥ ३२९ ॥ सम्यग्दर्शनपूतात्मा कृततीर्थप्रभावना । प्रभावतीति तस्याभूत् पत्नी नाम्ना प्रभावती ॥ ३० ॥ तस्य प्रभावतीजन्मा यौवराज्यधुरंधरः । जज्ञेऽभीचिः सुतः श्रेष्ठो भागिनेयश्च केश्यभूत् ।। ३३१॥ इतश्च पुरि चंपायामाजन्म स्त्रीषु लंपटः । नाम्ना कुमारनन्दीति स्वर्णकारोऽभवद्धनी ॥ ३३२॥ यां यां कन्यां चारुरूपामपश्यदशृणोदपि । स्वर्णपंचशतीं दत्त्वा तां तां परिणिनाय सः ॥ ३३३॥ शतानि पंच पत्नीनां बभूवुस्तस्य च क्रमात् । स ईर्ष्यालुरेकस्तम्भे सौधे ताभिररस्त च ॥ ३३४ ॥ नागिलो नामधेयेन सुहृत्तस्यातिथल्लभः । श्रमणोपासकः शुद्धपंचाणुव्रतधार्यभूत् ।। ३३५ ॥ एकदा तु पंचशैलद्वीपस्थे व्यन्तरस्त्रियो । प्रास्थिषातां नन्दीश्वरयात्राय शक्रशासनात् ॥ ३३६॥ तत्पतिः पंचशैलेशो विद्युन्माली तदा च्युतः। ते दध्यतुश्च व्युग्रात्यः कोऽद्य नो यः पतिर्भवेत् ।। ३३७ ॥ ततस्ताभ्यां प्रयान्तीभ्यां पत्नीनां पंचभिः शतैः । कुमारनन्दी विलसंश्चम्पापुर्यामहश्यत ॥ ३३८ ॥
॥॥३२॥
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तत्समीपेऽवतीर्णे ते व्युद्ग्राहार्थ पतीच्छया । कुमारनन्यपि प्रोचे ते दृष्ट्वा के युवामिति ॥ ३३९॥ कथयामासतस्ते च देव्यायावां मनुष्यक।। नाम्ना हासा महासाच ते पश्यन्मोहमाप सः॥ ३४॥ लब्धसंज्ञोऽर्थयांचक्रे ते रिरंसुः स हेमकृत् । तेऽवोचतुः समागच्छीपे त्वं पंचशैलके ॥ ३४१ ॥ इत्युक्त्वोत्पतिते ते तु स्वर्णकारोऽपि भूभुजे। दत्त्वा सुवर्ण पटहाघोषणामित्यकारयत् ॥ ३४२ ॥ नेता यः पंचशैले मां द्रव्यकोटि स लप्स्यते । एकश्च स्थविरो धृत्वा पटहं धनमाददे ॥ ३४३ ॥ स्थविरः कारयित्वा च यानपात्रमपूरयत् । भूयसा पथ्यदनेन पुत्रेभ्यस्तु धनं ददौ ॥ ३४४ ॥
नारमनिया सार्य चाणक्योऽपि वर्मनि । गत्वा स दूरमित्यूचे स्थविरः पश्य नन्वितः ॥ ३४२ ॥ अधिकूले शैलपादजातोऽयं दृश्यते क्टः। तदस्मिन् बिलगर्याति यानपात्रमधो यदा ॥ ३४६ ।। पंचशैलादिहेष्यन्ति भारुण्डास्त्रिपदाः खगाः । तेषु सुप्तेपु चैकस्य कस्याप्यंही तु मध्यमे ॥ ३४७ ॥ गाढं बद्ध्वा पटेन स्वं विलगढमुष्टिना । प्रातरुडीनभारुण्डैः पंचशैलं त्वमाप्स्यसि ॥ ३४८ ॥ (युग्मम्) ततः परं यानपात्रं महावर्ते विनंक्ष्यति । अविलमो बटे हन्त त्वमप्येवं विक्ष्यसि ॥ ३४९ ॥ स स्वर्णकृत्तथा चक्रे निन्ये तत्र च पक्षिणा । दृष्टस्ताभ्यां तदृष्ट्या च स विशेषमरज्यत ॥ ३५० ॥ ताभ्यां चोचेमुनांगेन नावां भोग्ये तवानघ ! । अग्निप्रवेशादिना तत् पंचशैलाधिपो भव ॥ ३५१ ॥
SHAR
|| २ बाद
१होद्धोष
ASI
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३२७॥
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ॐ
एकादशः सर्गः
MAKAKAM
किं करोमि क यामीति भाषमाणः स हेमकृत् । ताभ्यां पाणिपुटे कृत्वा चम्पोद्याने व्यमुच्यत ।। ३५२॥ स चोपलक्ष्य लोकेन पृष्ट आख्यन्निजां कथाम् । स्मरन हासां प्रहासां च पारेभेऽथाग्निसाधनम् ॥ ३५३ ॥ स नागिन झुलवा नौज गरगोजल । मरणं युज्यते नैवं तव कापुरुषोचितम् ।। ३५४ ।। दुष्पापं मानुषं जन्म तुच्छभोगफलार्जनात् । मा नैषीस्तन्मुधा प्रेप्सेत् को रमेन वराटिकाम् ? ।। ३५५ ॥ भोगार्थो वाऽसि चद्धर्म तथाप्याहसमाश्रयः । स ह्यर्थकामयोः कामधेनुः स्वर्मोक्षदोऽपि सः ॥ ३५६ ।। स एवं घार्यमाणोऽपि नागिलेन निदानतः । इंगिनीमरणं कृत्वा पंचशैलाधिपोऽभवत् ॥ ३५७ ॥ नागिलोऽपि स्वमित्रस्य तेनापंडितमृत्युना । आसाद्य सद्यो नियंदं परिव्रज्यामुपाददे ॥ ३५८ ॥ प्रवज्यां पालयन्मृत्वा देवोऽभूदच्युते च सः। ददर्शावधिना तं च सुहृदं पंचशैलगम् ॥ ३५९॥ श्रीनन्दीश्वरयात्रायां प्रस्थितानां दिवौकसाम् । हासापहासे चलिते पुरो गातुं तदाज्ञया ॥ ३६०॥ पटग्रहणे ताभ्यां विद्युन्माली प्रवर्तितः । ऊचे ममापि किं नाम कश्चिदादेशदः प्रभुः ॥ ३६१ ॥ इत्यहंकारहुंकारमुखरास्यस्य तस्य तु । मूर्त कर्मेवाऽऽभियोग्यं पटहो व्यलद्गगले ॥ ३६२ ॥ हस्तपादादिवदंगे पटहः सहभूरिव । तेनोत्तारयितुं शके ह्रीमता न कथंचन ॥ ३६३ ॥ ऊचे हासामहासाभ्यां कर्मेदमिहजन्मिनाम् ! मा अपिष्ठाः प्रतिष्ठस्व वाद्योऽवश्यं त्वयाऽऽनकः ॥ ३६४ ॥ ततो हासामहासाभ्यां गायन्तीभ्यां समन्वितः । पटहं वादयन् सोऽगात् पुरतस्त्रिदिवौकसाम् ॥ ३६५ ॥
RAKASHAKAIRCRACHAR
M
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॥३२८
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स नागिलवरो देवो यात्रायां यान् ददर्श च | हासामहासयो न्वे तमानकघरं सुरम् ॥ ३६६ ॥ नं विद्युन्मालिनं दृष्ट्वा पुरः पटहवादकम् । अवधेः सुहृदं ज्ञात्वाऽभिभाषितुमुपासरत् ॥ ३६७ ।। तस्य चांगप्रभालोकमुलूक इथ भास्वतः । सोढुं दुरादप्यशक्तः पलायनमनाटयत् ॥ ३६८ ॥ सायाहार्क इव तेजः स्वं संहृल्याच्युतामरः । विद्युन्मालिनमित्यूचे पश्य जानासि मां न किम् ? ॥३६९। देवः पाहिकोऽप्येवमुवाच ननु कोऽस्यहम् । यन्महीन जानामि देवानिन्द्रादिकानपि ॥ ३७० ॥ अथ श्रावकरूपं तद्विरघय्याच्युतामरः । जाप्यापनासारमण तमेवं पायोधगम् ॥ ३५१ ॥ सखे ! मदुपदेशेनाऽऽर्हतं धर्ममनाश्रयन् । अग्निमृत्यु तदाऽकार्षीः पतंग इव मूढधीः ॥ ३७२ ॥ अहं तु जिनधर्मज्ञः प्रव्रज्या पालयन्मृतः । तदावयोरभूदीहगुदर्कः स्वस्वकर्मणः ।। ३७३ ॥ ततो निर्वेदमापनं पंचशैलेश्वरं सुरम् । यदन्तं किं करोमीति नागिलस्त्रिदशोऽवदत् ॥ ३७४ ॥ गाईस्थ्यचित्रशालायां कायोत्सर्गेण तस्थुषः । प्रभोर्भावयतेभूति महावीरस्य कारयः ॥ ३७५ ॥ अर्हतः प्रतिमायां हि कारितायां सखे ! तव । उत्पत्स्यते भवेऽन्यस्मिन् बोधिधी महाफलम् ।। ३७६ ।। रागद्वेषमोहजितां प्रतिमां श्रीमदर्हताम् । यः कारयेत्तस्य हि स्थाद्धर्मः स्वर्गापवर्गदः॥ ३७७ ।। *जिनार्चाकारकाणां न कुजन्म कुगतिर्न च । न दारिद्रयं न दौर्भाग्यं न चान्यदपि कुत्सितम् ॥ ३७८ ॥ टि. * अर्चा- प्रतिमा ।
॥३२९॥
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विद्युन्माल्यपि तस्वाऽऽज्ञामुररीकृत्य सत्वरः । क्षत्रियकुंडग्रामेऽस्मानपश्यत् प्रतिमास्थितान् ॥ ३७२ ॥ महाहिमवति च्छित्त्वा गोशोर्षचन्दनम् । अस्मन्मूर्ति नथादृष्टां सालंकारां चकार सः ॥ ३८० || जात्येन चन्दनेनाथ स्वयंघटितसंपुटे । प्रतिमां नां स चिक्षेप निधानमिव तद्धनः ॥ ३८९ ॥ तदा चैकस्य पोतस्य षण्मास्युत्पानयोगतः । भ्रमतोऽगात् पयोराशौ विद्युन्माली ददर्श तम् ॥ ३८२ ॥ तमुत्पातं स संहृत्य सद्यः सांयात्रिकाय तम् । समुद्रं प्रतिमागर्भं कथयित्वा समार्पयत् ॥ ३८३ ।। ऊंचे च तं स्वस्ति तुभ्यमिय्या निरुपद्रवम् । सिन्धुसौवीरविषये त्वं वीतभयपत्तनम् ॥ ३८४ ॥ ततश्चतुष्पथे स्थित्वा कुर्वीथा हन्त घोषणाम् । देवाधिदेवप्रतिमा गृह्यतां गृह्यतामिति ॥ ३८५ ॥ सांग्रात्रिकोsपि तत्कालं प्रतिमायाः प्रभावतः । नदीमिव नदीनाथमुत्तीर्य तटमासदत् ॥ ३८६ ।। सिन्धुसौवीरदेशेऽथ गत्वा वीतभये पुरे स्थित्वा चतुष्पथे चक्रे तथैवाघोषणां स ताम् ॥ ३८७ ॥ तापसभ कस्तत्रागाबुदाननुपः स्वयम् । त्रिदंडिनो द्विजन्मानस्तापसा चापरेऽपि च ।। ३८८ ।।
ब्रह्माणमीशानमिष्टं देवमथापरम् । स्मृत्वा लोकाः कुठारेणाजघ्नुस्तं काष्ठसंपुटम् ॥ ३८९ ॥ तत्र स्वरुचि लोकेन मुच्यमाना निरन्तरम् । आयसा अप्यभज्यन्त कुठारास्त्रापुषा इव ।। ३९० ॥ इत्याश्चर्यप्रसक्तस्य राज्ञो दिनमुखादपि । ललाटंत पतपनो मध्याह्नसमयोऽभवत् ॥ ३९१ ॥
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दिः * तद्धनः- कृपण:
एकादश:
सर्ग:
॥ ३३० ॥
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भोजनातिक्रम ज्ञात्वा राज्ञो राज्ञी प्रभावती । आह्वातुमादिशश्चटीं पतिभक्तोचितं यदः ॥ ३९२ ॥ राज्ञाऽपि द्रष्टुमाश्चर्य तदाऽऽज्ञप्ता प्रभावती । तत्रागात्तदपृच्छञ्च राजाऽप्यकथयत्तथा ॥ ३९३ ।। ऊचे च राज्ञी देवाधिदेवा ब्रह्मादयो न हि । देवाधिदेवो भगवानकोऽहन परमेश्वरः ॥ ३५४॥ तदर्हत्प्रतिमैवेह भविष्यति न संशयः । ब्रह्मादिनामस्मरणात् प्रदत्त दर्शनं न सा॥ ३९५ ॥ एषाऽहं दर्शयिष्यामि प्रतिमामहतः प्रभोः । तन्नामस्मरणादेव लोकाः ! पश्यत कौतुकम् ॥ ३१६ ॥ सतश्च संपुटं यक्षकर्दमेनाभिषिच्य तम् । पुष्पाञ्जलिक्षेपपूर्व प्रणम्योचे प्रभावती ॥ ३९७ ॥ गतरागद्वेषमोहः प्रातिहा नृतः : देहातिदेव सर्दशोऽहम वादर्शनं मम ॥ ३९८ ॥ इति देव्या ब्रुवाणायां प्रतिमास्थानसंपुटः । स त्र्यदालीत् स्वयमपि मगे कमलकोशवत् ॥ ३९९ ॥ गोशीर्षचन्दनमयी तदन्तर्देवनिर्मिता । अम्लानमाल्या सर्वांगसंपूर्णा प्रतिमैक्ष्यत ॥ ४.०॥ तदाऽहच्छासनस्याभूदतिमात्रं प्रभावना । प्रभावत्यपि तां नत्वा प्रतिमामस्तवीदिति ॥ ४०१ ॥ सोमदर्शन सर्वज्ञापुनर्भव ! जगद्गुरो !। अर्हन् ! भव्यजनानन्द ! विश्वचिन्तामणे ! जय ।। ४०२॥ सांयात्रिकं ने सत्कृत्य प्रभावत्यपि यन्धुवत् । अन्तरन्तःपुरं निन्ये प्रतिमा रचितोत्सवा ॥ ४०३ ॥ कारयित्वा चैत्यगृहं प्रतिमां न्यस्य तत्र घ । त्रिसंध्यं पूजयामास स्नानपूर्व प्रभावती ॥ ४०४ ।। तामन्यदाऽमिर्चित्वा प्रमोदेन प्रभावती । पत्या समेता संगीतमविगीतं प्रचक्रमे ।। ४०५ ॥
॥३३१॥
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दिकाः
एका
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तत्त्वौधानुगतश्रव्य व्यक्तव्यंजनधातुकम् । व्यक्तस्वरं ब्यक्तरागं राजा वीणामयादयत् ॥ ४०६॥ व्यक्तांगहारकरणं सर्वांगाभिनयोज्ज्वलम् । ननर्त देख्यपि प्रीता लास्यं मांडवपूर्वकम् ।। ४०७ ॥ राजाऽन्यदा प्रभावत्या न ददर्श शिरः क्षणात् । नृत्यंत सत्कवन्धं तु ददर्शाजिकबन्धयत् ॥ ४०८॥ अरिष्टदर्शनेम द्राक् क्षुभितस्य महीपतेः । तदोपसर्पन्निद्रस्येवागलत् कम्बिका करात् ॥ ४०९॥ अकांडतांडवच्छेदकुपिता राज्यथावदत् । तालच्युताऽस्मि किमहं वादनाद्विरतोऽसि यत् ॥ ४१०॥ इत्य पुनः पुनः पृष्टः कम्बिकापातकारणम्। तत्तथाऽऽख्यन्महीपालो बलीयान स्त्रीग्रहः खलु ॥ ४११ ॥ राज्यूचे दुर्निमित्तनामुनाऽल्पायुरहं प्रिय ! ! आजन्माईद्धर्मवत्या मृत्युरप्यस्तु नास्ति भीः ॥ ४१२॥ प्रत्युताऽऽनन्दहेतुर्मे दुर्निमित्तस्य दर्शनम् । तज्ज्ञापनाय भवति यत्सर्वविरती मम ॥ ४१३ ॥ इत्युक्त्वाऽन्तपुरं राज्ञी ययावविकृतशया । अर्हद्धर्माविद्धकी राजा तु व्यमनायत ॥ ४१४ ॥ अन्यदा च कृतस्नानशौचा देवी प्रभावती । देवा वसरेहणि दास्या वासांस्यनाययत् ॥ ४१५ ॥ भाव्यनिष्टवशात्तानि राज्ञी रक्तान्युदैक्षत । समयेऽस्मिन्ननहींणि स्वमूनीति चुकोप च ॥ ४१६ ॥ कोपात्प्रभावती दासीमादर्शन जधान ताम् । तावताऽपि विपदे सा मृत्योहिं विषमा गतिः ॥ ४१७ ॥ तत्कालमुज्ज्वलान्येव वसनानि प्रभावती । दर्शाचिन्तयञ्चैत्र धिङ्मया खण्डिनं व्रतम् ॥ ४१८ ॥ १ तानौघा" M.
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LAYAMARAVINAAM AM. ... ... ..
पंचेन्द्रियस्यान्यस्यापि वधो नरककारणम् । किं पुनः स्त्रीविघातोऽयं श्रेयस्तस्मान्तं मम ।। ४१९ ॥ दुनिमित्तं तवाचख्यो राज्ञे राज्ञी प्रभावती । दासीवधमहापापवैराग्यं च कृताञ्जलिः ॥ ४२० ॥ इति चाभ्यर्थयांचक्रे स्वामिन्नस्पायुरस्म्यहम् । अनुजानीहि मा सर्वविरत्यै नाथ ! संप्रति ॥ ४२१ ॥ अमौलिं मां त्वमद्राक्षीरद्राक्षमधुना त्वहम् । वस्त्रवर्णपरावर्तमनिमित्तद्वयं स्वदः ॥ ४२२ ॥ अनिमित्सद्वयाऽख्याताल्पायुषः समयोचिते । प्रव्रज्याग्रहणे मेऽद्य प्रत्यूहं नाथ! मा कृथाः॥४२३ ॥ एवमुक्तः सनिर्यन्धमभ्यधाद्वसुधाधवः । अनुतिष्ठ महादेवि ! यत्तुभ्यमभिरोचते ॥ ४२४॥ देवत्वमाप्तया देवि ! बोधनीयस्त्वया न्वहम् । स्वर्गसौख्यान्तरायोऽपि सोढत्यो मत्कृते क्षणम् ॥ ४२५ ।। ततश्च सर्वविरतिं प्रपद्यानशन तथा । साऽभूद्विपद्य प्रथमे कल्पे देवो महर्द्धिकः ॥ ४२६॥ देवाधिदेवप्रतिमां तामन्तःपुरचैत्यगाम् । तथैव देवदत्ताऽऽख्या कुजिका दास्यपूजयत् ॥ ४२७ ॥ प्रभावत्यमरेणाथ योध्यमानोऽप्युदायनः । नाचुध्यतावधेात्वा तुपायोऽयं व्यधीयत ॥ ४२८ ॥ तापसीभूय सोऽन्यदुर्युसद्मोदायनं नृपम् । दिव्यामृतफलापूर्णपात्रपाणिरुपाययौ ॥ ४२९॥ तापसचोपदाभृच्च सुवर्णं सुरभीति तम् । राजा तापसभक्तत्वात्तापसं बहमानयत् ॥ ४३० ।। पक्त्रिमाण्यतिकर्पूरगन्धानीष्टाहृतानि च । फलान्याद परानन्दबीजानीवावनीपतिः॥ ४३१ ॥ त्वया प्राप्तान्यपूर्वाणि केशानि फलान्यहो ? । स्थानं दर्शय तन्मह्यमपृच्छदिति तं नृपः ॥ ४३२ ॥
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तपयूचे पुरस्यास्य विद्यते नातिदूरतः । आश्रमो दृष्टिविश्रामः स ईहकूफलजन्मभूः ॥ ४३३ ॥ तमाश्रमं दर्शयेति ब्रुवाणं नृपतिं सुरः । स्वशक्त्यैकाकिनं कृत्वा विद्यां दातुमिवानयत् ॥ ४३४ ॥ किंचित्वा विचक्रे च तादृक्फलमनोरमम् । अनेकतापसाकीर्णमुद्यानं नन्दनोपमम् ॥ ४३५ ॥ तापसानां वनमिदं भकस्नेष्वस्मि तेन मे । पूरिष्यते फलेच्छेति दधावे कपिवनृपः ॥ ४३३ ॥ सक्रोधमथ धावद्भितैर्मायातापसैर्नृपः । कृव्यमानस्तस्करवत् पलाधिष्टाविनष्टधीः ॥ ४३७ ॥ पलामा । शरणं प्रतिपेदे नान्मा भैषीरिति भाषिणः ॥ ४३८ ॥ आश्वासितस्तैनैर्नृपतिः स्वस्थीभूयत्यचिन्तयत् । वंचितोऽस्मि धिगाजन्म तापसैः क्रूरकर्मभिः ॥ ४३९ ॥ साधुभिः सोऽन्वशास्येवं धर्मो हि शरणं भवे । धर्मार्थी च परीक्षेत देवं धर्म गुरुं सुधीः ॥ ४४० ॥ देवोऽदशभिर्मुको धर्मो दयाऽन्वितः । गुरु ब्रह्मचार्येव निरारम्भपरिग्रहः ॥ ४४१ ॥ एवमाद्युपदेशेन प्रत्ययुध्यत पार्थिवः । जिनधर्मश्च तस्याभूद् हृयुत्कीर्ण इव स्थिरः ॥ ४४२ ॥ प्रत्यक्षीभूय देवोऽद्धर्म संस्थाप्य पार्थिवम्। तिरोदधे पार्थिवोऽथ स्वमास्थानीस्थमैक्षत || ४४३ ॥ देवगुरुधर्मस्वाविवासितः । तदाप्रभृत्यभूत्सम्यगुदाय नमहीपतिः ॥ ४४४ ॥
I
इश्व गान्धारदेशजन्मा गान्धारनामकः । शाश्वतीरहेत्यतिमा वैताढ्येाद्विवन्दिषुः ॥ ४४५ ॥ वैनाट्यम्ले तस्थौ चोपवासैस्नद्दिदृक्षया । तुष्टा शासनदेवी च तदीप्सितमपूरयत् ॥ ४४६ ॥
एकादश सर्ग:
॥ ३३४
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कृतकृत्यं च तं देवी वैताट्यस्य तलेऽमुचत् । ददौ चाष्टोत्तरं तस्मै कामदं गुलिकाशतम् ॥ ४४७ ॥ क्षिप्त्वैका गुलिकां वक्त्रे स दध्यो धन्दिषीय यत् । देवाधिदेवप्रतिमां श्रीवीतभयपत्तने ॥ ४४८ ।। इति चिन्तासममपि सोऽय वीतभयं ययौ । देवाधिदेवप्रतिमां तेन कुब्जाऽप्यवन्दयात् ॥ ४४९ ।। शरीरापाटवं चाभूगान्धारस्यापकहनि । न च प्रतिजनामार कुमाधर्मवत्सला ॥ ४० ॥ गान्धारोऽपि स्वमासन्नमवसानं विदन् सुधीः । कुजायै गुलिकाः प्रादात्प्रव्रज्यां स्वयमावदे ॥ ४५१ ।। रूपार्थिनी कुरूपा सा क्षिप्त्वैकां गुलिकां मुखे । उपपादभवेवाभूद् द्राग्दित्र्याकारधारिणी ॥ ४५२ ॥ सुवर्णवर्णसर्वांगा साऽभूद् गुलिकया तया । ततोऽभ्यधत्त सर्वोऽपि सुवर्णगुलिकेति ताम् ॥ ४५३ ।। साऽथ द्वितीयां गुलिका मुखे कृत्वेत्यचिन्तयत् । वृयैष रूपमीहङ् मेऽनुरूपश्चेत् पतिर्न हि ॥ ४५४ ॥ पितेव मेऽयं नृपतिः पत्तयोऽस्यापरे नृपाः । सच्चंडशासनश्चंडप्रद्योतोऽस्तु पतिर्मम ॥ ४६५ ॥ प्रद्योताग्रे च तद्रूपं वर्णयामास देवता । प्रद्योतोऽपि हि कुब्जायाः प्रार्थने दूतमादिशत् ॥ ४५६ ॥ गत्वा सामर्थयांचके दूतस्तं साप्यदोऽवदत् । प्रथोतं दर्शयाथाऽऽख्यात्प्रयोताय तथैव सः॥ ४५७ ॥ तदेवरावतारूढवासवश्रियमाश्रयन् । आरूढोऽनिलवगेभं निशि प्रद्योत आययौ ॥ ४५८ ॥ तस्मै यथा सा रुरुचे तस्यै सोऽपि तदा तथा । प्रद्योतोऽथाववत्कुब्जामब्जाक्ष्योहि मत्पुरीम् ॥ ४५९ ॥ कुब्जाऽब्रवीन जीवामि यां विना क्षणमप्यहम् । देवाधिदेवप्रतिमां तां मुक्त्वा यामि न कचित् ॥४२०
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एकादशः
MAYA YMVYAMVALUWA '
प्रनिमायाः प्रतिकृतिरमुध्यास्तन्नुप ! त्वया । आनेतव्या यथा सेह मुच्यते नीयते त्वसौ ॥ ४६१ ॥ इति तत्प्रतिमारूपं निरूप्यावन्तिपार्थिवः । रजनी तां नया रेमे रजन्यते पुनर्ययौ ॥ ४६२ ॥ प्रद्योतोऽथ गतोऽवन्त्यां यथादृष्टामकारयत् । देवाधिदेवप्रतिमा आत्यश्रीखंडदारुणा ॥ ४६३ ॥ अपृच्छच्च महामात्यान कारितेयं मया नया । देवाधिदेवप्रतिमा प्रतिष्ठास्यति को विमाम् ।। ४६४ ॥ अवोचन्मत्रिणः स्वामिन् ! कौशाम्बीत्यस्ति पूर्वरा । तत्रान्वर्थाभिधानोऽभूजितशत्रुर्महीपतिः ।। ४६५ ॥ पुरोधास्तस्य निःशेषविद्यास्थानाधिपारगः । काश्यपो नाम विनोऽभूत्तस्य जाया पुनर्यशाः॥ ४६६ ॥ कपिलो नाम पुत्रोऽभूत्तयोस्तस्मिच्छिशावपि । फाश्यपः प्राप पंचत्वमनाथ: कैपिलोऽभवत् ॥ ४६७ ॥ राजाऽनादृत्य तं बालं काश्यपस्य पदेऽपरम् । द्विजन्मानं न्ययात् कीदृगन्वयो योग्यतां विना ॥ ४६८ ॥ आदित्यकिरणास्पृष्टशरीरछत्रसंपदा । नृत्यत्तुरंगाऽऽरूढोऽथ पुरे याम स द्विजः ॥ ४६९ ॥ तं दृष्ट्वा कपिलमाता स्मरन्ती पतिसंपदम् । रुरोद मन्दभाग्यानां ह्यसुखे रोदनं सखा ।। ४७० ।। कपिलोऽपि रुरोदोखे रुदती प्रेक्ष्य मातरम् । शोकः संक्रामति ह्याप्ते दर्पणे प्रतिविम्यवत् ॥ ४७१ ।। नेत्राभ्यामश्रुमुग्वक्त्रं द्विधारमिव धारकम् । ऊल्लास्य मातुः कपिलोऽवदत् किमिति रोदिषि ? ॥ ४७२ ॥ जगाद सा यथा ह्येष द्विजमा संपदोदयी । तथाऽभवत्तष पिता स्मृत्वा तज्जात ! रोदिमि ॥ ४७३ ॥ २ मिनायाथ AM. ॥ २ गान्नायो CPाम्नायो D. M. || ३ धारिजम् ..॥
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त्वरिपतुः श्रीयनेनाऽऽप्ताऽनुपार्जितगुणे त्वयि । पितुः श्रियो न रक्ष्यन्त तनयैरपि निर्गुणैः ॥ ४७४ ॥ अजल्प कपिलो मातस्तरधीये गुणाशंदन साऽवासी सोन्यत्र कोऽध्यापयिष्यति ॥ ४७५ ॥ यद्येवमपि ते धुद्धिः श्रावस्ती व्रज तत्पुरीम् । तत्रास्ति त्वत्पितुर्मिश्रमिन्द्रदत्त इति द्विजः ॥ ४७६ ॥ विद्यार्थिनं पुत्रमिव त्वामायातं स सर्ववित् । प्रीतः पितृसमं वत्स ! कलापूर्ण करिष्यति || ४७७ ॥ गत्वेन्द्रदत्तं कपिलो नत्वा च स्वमजिज्ञपत् । उवाच चाध्यापय मां तातान्यः शरणं न मे ॥ ४७८ ॥ उपाध्यायोऽप्यभिदधे भ्रातुषपुत्रोऽसि मे खलु । विद्यामनोरथे नैयं न पिता हेपितस्त्वया ॥ ४७९ ॥ वच्मि किं त्वहमातिथ्येऽप्यशक्तो निष्परिग्रहः । अध्यस्मचागतस्येह क नु ते नित्यभोजनम् ॥ ४८० ॥ | अभोजनस्य च व्यर्थ एव पाटमनोरथः । विना हि भोजनं वत्स मुरजोऽपि न गुंजति ॥ ४८१ ॥ कपिलोऽप्यलपत्तात! भोजनं भावि भिक्षया। भिक्षा देहीति सिद्धं हि मौजीबन्धाद् द्विजन्मनाम् ४८२ हस्त्यारूदोऽप्यग्रजन्मा भिक्षमाणो न लज्जते । भिक्षाधरश्च राजेव नाधीनः कस्यचित् कचित् ॥ ४८३॥ इन्द्रदत्तोऽवदद्वत्स ! भिक्षा श्रेष्ठा तपस्यताम् । तवैकाऽप्यलब्धायां तस्यामध्ययनं कुतः १ ॥ ४८४ ॥ इत्युक्त्वा स द्विजो घालं तमालम्ब्य स्वयाहुना । शालिभद्रमहेभ्यस्य सवः सदनमासदत् ॥ ४८५॥ ॐभूर्भुवः स्वरित्यादि गायत्रीमुच्चकैः पठन् । अजिज्ञपद् द्विजन्मानमात्मानं स बहिःस्थितः ॥ ४८६ ॥ । नैव ॥
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एकादशः
अभ्योऽप्याहय त विप्रभूच कि याचस ननु । स ययाचे बटोरस्य प्रत्यहं देहि भोजनम् ॥ ४८७ ।। इभ्योऽपि प्रतिपदे तद् भुक्त्वा भुक्त्वाऽय तद्गृहे । उपेद्रदत्तं कपिलोऽधिजगे प्रतिवासरम् ।। ४८८ ॥ शालिभद्रगृहे भोक्तुं कपिलस्य गतस्य तु । सर्वदा युवदास्येका विशिष्टं पर्यवेयषत् ॥ ४८९ ॥ युवा च हासशीलश्च स तस्यामन्वरज्यत । स्त्रीसन्निधानं यूनां हि मन्मथदुमदोहदम् ॥ ४९०॥ साऽपि तस्मिन्नभूद्रक्ता रेमाते च क्रमेण तो । दास्यायन्यमनिच्छन्ती रहस्यूचे तमन्यदा ॥ ४९१ ।। त्वमेव प्राणनाथो मे किं तु निःस्वोऽस्यतो नरम् । प्राणयात्रार्थमपरं भजे सोऽप्यन्वमन्यत ॥ ४९२ ॥ अन्येाश्च पुरे तस्मिन् दासीनामुत्सवोऽभवत् । सापि दास्याप निर्वेदं पुष्पपत्रादिचिन्तया ॥ ४९३ ॥ सां निवेदवतीं दृष्ट्वा कपिलः स्माह सुन्दरि ! । किं दृश्यसे विवर्णास्या हिमालीदेव पद्मिनी ॥ ४९४ ।। साऽख्यन्महोऽय दासीनां पुष्पपत्रादि नास्ति मे । विगोपिण्यामि मध्ये च दासीनां का गतिर्मम ॥ ४९५॥ तदुःखव्यन्तराषेशविवशः कपिलोऽपि हि । अवृत्या मौनमालम्ब्य तस्थौ दास्यप्यदोऽवदत् ॥ ४९६ ॥ मा विषीद धनोऽत्रास्ति श्रेष्ठी तं च निशात्यये । प्रयोधयति यस्तस्मै स्वर्णमाषौ ददाति सः ।। ४९७ ॥ गच्छेस्त्वमविभातायां विभावर्या तदोकसि । कल्याणिनेय ! कल्याणं पठेरकठिनोक्तिभिः ॥ ४९८ ॥ तथेति प्रतिपेदानं कपिलं प्रजिघाय सा । तस्यामेव तमस्विन्यां निशीथ धनसमनि ॥ ४९९ ॥ १' क्त्वा तु D.||
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आरक्षैः स व्रजन बेगात् पुरवर्त्मन्यसंचरे । धृत्वा चोरधियाऽवन्धि चोरचर्या हि तादृशी ॥ ५०० ॥ स प्रसेनजितो राज्ञः पुरः प्रातरनीयत । पृष्टश्च कथयामास स्वर्णमापक तथा ॥ २०२ ॥
राजाऽपि तत्तथा श्रुत्वा कृपावारितरंगितः । तं स्माह हं हो ? याचस्व यच्छाम्येव यदिच्छसि ॥ २०२ ॥ fats मार्गष्यामीत्युक्त्वाऽशोकवनान्तरे । गत्वा योगी बैकमना भूत्वा चाचिन्तयद् द्विजः ॥ ५०३ ॥ माया स्यान वस्त्रादि तत्सुवर्णशतं नृपात् । याचे याचितलाभे हि याचना किं तनीयसी ॥ ५०४ ॥ म स्यात्स्वर्णशतेनापि प्रक्रिया वाहनादिका । याचे स्वर्णसहस्रं तदिष्टार्थप्राप्तिवेतनम् ||५०५ ॥ सहस्रेणापि मेऽपत्यविवाहाद्युत्सवः कुतः । इति लक्षमहं याचे याच नाचतुरोऽस्मि हि ॥ ५०६ ।। लक्षेणापि सुहृद्वन्धुदीनाद्युद्धरणं कुतः । कोटि कोटिशतं कोटिसहस्रं वा तदर्थये ॥ २०७ ॥ एवं चिन्तयतस्तस्य शुभकर्मोदयादभूत्। इति धीः सुपरीणामा धीर्हि कर्मानुसारिणी ॥ २०८ ॥ अपि माषद्वयप्राप्तौ यः संतोषोऽभवन्मम । सोऽय कोटेरपि प्राप्तौ मां तङ्गीत इवामुचत् ॥ ५०९ ॥ विद्यार्श्वमागतस्येह मम दुर्व्यसनं यदः । सागरं गन्तुकामस्य हिमवमनोपमम् ॥ ५१० ॥ treat af गुरोःस्थले कमलरोपणम् । यद्दास्यामपि दासत्वमकार्षमकुलोचितम् ॥ १११ ॥ तदलं विषयैरेभिरिति संवेगमाप्तवान् । उत्पन्नजातिस्मरणः स्वयबुद्धो वभूव सः ॥ ५१२ ॥
१ 'बसरोऽस्ति हि ॥
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मूर्धजान्मूर्ध्न उद्धृत्य स्वयं देवतयाऽर्पितम् । रजोहरणवदनवस्त्रिकादिकमाददे ॥ ५९३ ॥ राजानं स गतो राज्ञाऽपृच्छीति किमचिन्तयः १ । स्वनोरथविस्तारायाब्रवीदिति ॥ ५६४ ॥ यथा लाभस्तथा लोभो लाभाल्लोभः प्रवर्धते । द्विमाच्या चिन्तितं कार्य कोट्याऽपि न हि निष्ठितम् ५१५ राजाऽपि विस्मितः प्रोचे कोटीरपि ददाम्यहम् । सुंक्ष्व भोगान् व्रतं च न व्रते प्रतिभूस्तव ॥ ५१६ ॥ कपिलोऽप्यब्रवीदर्थे राजन्नलमनर्थदैः । निर्ग्रन्थी भूतवानस्मि धर्मलाभोऽस्तु भद्र ! ते ॥ ५१७ ॥ इत्युक्त्वा कपिलमुनिस्ततो निर्गत्य निर्ममः । निरीहो निरहंकारो विजहार वसुन्धराम् ॥ ५९८ ॥ एवं व्रतं पालयतः कपिलस्य महामुनेः । षण्मासपर्ययेणाभूत् केवलज्ञानमुज्ज्वलम् ॥ ५१९ ॥ इवासीद्राजगृहनगरस्यान्तरालगा । अष्टादशयोजनानुप्रमाणा दारुणाटवी ॥ ५२० ॥ तत्र 'बेडदासाख्या बलभद्रादयोऽभवन्। शतानि पञ्च चौरास्तान् बोवान् कपिलोऽबुधत् ॥ ५२१ ॥ चौराणामुपकाराय तेषां च स महामुनिः । अभ्यागात्तामरण्यानीं शरण्यः सर्वजन्मिनाम् ॥ ५२२ ॥ एक चौरो वृक्षाग्रमधिरूढः पुत्रंगवत् । ददर्श दूरादायानं कपिलं श्रमणोत्तमम् ॥ ५२३ ॥ सौरोऽचिन्तयत् कोऽयमागच्छत्यभिभूय नः । तमाख्यदिति सेनान्ये सेनान्यं सोऽप्युपाययौ ॥ ५२४ ।। दिया क्रीडनमायातमिति सेनापतिर्बुवन् । नृत्य नृत्य श्रमणकेश्यज्ञ आज्ञापयन्मुनिम् ॥ ५२५ ॥
१.
एकादश सर्गः
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AMAVYALAYA
कपिलर्षिरवोऽवादीद्वादको नास्ति कश्चन । वायं विना कुतो नृत्तं न कार्य कारणं विना ॥ ५२६ ।। तालवाद्यमथाकार्पोराः पञ्च मानमपि ! कपिलोऽपि ननोचैर्जगी च श्रुतिशर्मदम् ॥५२७॥ दुःखानुभवभूयिष्ठे किं भवेऽस्मिन्नशाश्वते । भवेत्तत्कर्म येनाहं गच्छेयं न हि दुर्गतिम् ॥ ५२८ ॥ इत्यादिका धुवाः पश्च शतानि कपिलो जगी । सर्वाः प्राकृतबन्धेन अव्यरागेण पन्धुराः॥५२९॥ ध्रुवासु गीयमानासु कपिलेन महर्षिणा । ते चौराः प्रत्यबुध्यन्त कस्यांचित्कश्चिदेव च ॥ ३० ॥ ततः शतानि पश्चापि चौराणां स महामुनिः । पर्यत्राजयदेतद्धि दृष्टं तज्ज्ञानचक्षुषा ॥ ५३१ ॥ पुरे राजगृहे देवाधिदेषाज्ञां प्रगृह्य सः । ब्रह्मर्षिः कपिलोऽत्रैव स्वत्पुरीमस्ति पावयन् ॥ ५३२ ॥ केवल्येष स्वयंबुद्धः श्वेताम्बरशिरोमणिः । कर्ता प्रतिष्ठा कोऽप्येष पुण्यानामुदयस्तव ॥ ५३३ ॥ ततम्बाषन्तिनाथेन प्रार्थितः कपिलो मुनिः। प्रत्यष्ठात् प्रतिमां मंत्रपूतचूर्णानि निक्षिपन् ॥ ५३४ ॥ चर्चयित्वार्चयित्वा च दोामुद्धृत्य पार्थिवः। तां तद्धनो धनमिव हृद्वारे प्रतिमां दधौ ॥ ५३५॥ न्यधादनिलखेगस्य स्कन्धे तां प्रतिमा नृपः । तदन्तरासनिकवदारूढोऽधारयत् स्वयम् ॥ ५३६ ॥ दिव्याभियोगयानेभ्योऽप्यतिवेगेन पन्तिना । गत्वा वीतभये दास्यै प्रतिमां तां समार्पयत् ॥ ५३७ ॥ साऽपि तां प्रतिमा चैत्ये न्यस्यादाय पुरातनीम् । आगाहासी प्रतिमां च नृपोऽप्यारोपपद् द्विपम् ॥ ३८॥ १ नृपं 1. D. || २ देवाभि M.
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राजाऽपि गजमारुध्यावन्नी प्राप मया द्रुतम् । समागतेवाभिमुख यथा सा पुर्यलक्ष्यत ॥ ५३९ ॥ वणिजो विदिशापुर्या भायलस्वामिनोऽन्यदा। गोशीर्षकाष्ठप्रतिमा विद्युन्मालिप्रकाशिता ।। ५४०॥ राज्ञा कुग्जिकया चापि पूजनाय समर्पिता। तयोस्तदपि वहृतद्विषयासक्तयोः सश ॥५४॥(युग्मम् ) अन्यदा भायलोऽद्राक्षीत्तेजोराशी इवांगिनी । हस्तविन्यस्तपूजोपकरणौ पुरुषावुभौ ॥५४२ ॥ मौ दृष्ट्वा दृष्टिसुखदावाजन्मसुहृदाविध । को युवामिति पप्रच्छ भायलोऽशंसतां च तौ ॥ ५४३ ॥ आव नागकुमारी भोः ! पातालभवनालयो । नाम्ना कंघलशावली धरणेन्द्रस्य शासनात् ॥ ५४४ ॥ देवाधिदेवपतिमा विद्युन्मालिकृतामिमाम् । आयावोऽर्चयितुं चैत्यमेवम!पहारिणौ ॥५४॥ (युग्मम्) अस्या हि विदिशानद्या हदमध्येन वर्मना । मज्जनोन्मत्रने नित्यमावां कुर्वोऽत्र हंसवत् ॥ ५४६ ॥ भायलः स्माह पाताले युवा स्वभवनानि मे । गृहीत भगवन्निश्रस्याध दर्शयतं सुरौ ! ॥ २४७ ॥ शाश्वनीः प्रतिमास्तत्र वन्दितु मे मनोरथः । स पूर्यतां प्रसादाद्वां न मुधा देवदर्शनम् ॥ ५४८ ॥ ताभ्यां प्रपद्य च तथा तन्त्र तेनैव धर्मना । औत्सुक्यावर्धरचितपूजोऽनीयत भायलः ॥ ५४॥ ववन्दे शाश्वतीरहत्मतिमास्तत्र भायल चोचे धरणस्तोषात् प्रसादो याच्यतामिति ॥५५॥ भायलः स्माह मन्नाम सर्वत्र ज्ञायते यथा । तथास्तु नामस्थेमैव पुरुषाणां हि पौरुषम् ॥ ५५१॥ १ मतनैव ..॥
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*AKACOCIRBACHECK****
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धरणेन्द्रोऽप्युवाचैवं चंडप्रद्योतभूपतिः । देवकीयपुरं तत्र त्वन्नान्ना कारयिष्यति ॥ ६५२॥ कृतार्धपूजस्त्वायासीरिति कालेन गच्छता | गुप्तैव मिथ्याग्भिः सा प्रतिमा पूजयिष्यते ॥५३॥ तस्याः प्रतिकृतिस्तैश्च पहिः संस्थापयिष्यते । आदित्यो भायलस्वामिनामाऽयमिति वादिभिः ॥ ५५४ ॥ तनश्र भायलस्वामिसूर्य इत्यखिलो जनः । पूजयिष्यति भोऽपि सुप्रयुक्तो न निष्फलः ॥ ५५५ ॥ अभ्यधादायलोऽप्येवमाः पापोऽस्मि विगेव माम् । अत्यारिलं लापतितमशिधं मस्कृतं यदः ॥ ५५६ ॥ देवाधिदेवप्रतिमाप्रतिकृत्या दुराशयैः मम नानाऽऽदित्य इति कृत्वा यत्पूजयिष्यते ॥ १७ ॥ धरणोऽप्यभ्यधान्मा गाः शुचं किं क्रियतेऽनघ ! । एतद्धि दुःषमाकाललीलायितमनुज्ज्वलम् ॥ ५५८ ॥ ततो नागकुमाराभ्यां पथा तेनैव तत्क्षणम् | नीत्वाऽमुच्यत तत्रैव स्वमदर्शीव भायला ॥ ५५९ ॥ इतश्च नगरे वीतभये राजाऽप्युदायनः । नित्यकर्मरतः प्रातर्देवताऽऽवसथं ययौ ॥ ५६० ॥ ददर्श घाग्रे प्रतिमा म्लानमाल्यामुदायनः । अचिन्तयच काऽप्यन्या प्रतिमेयं न सा पुनः ॥ ५६१ ।। आरोपितानि तस्यां पुष्पाण्यहन्यपरेपि हि । तत्कालावचितानीवादृश्यन्त किमिदं हहा ॥ ५६२ ।। स्तंभलग्ना सदैवास्थादिह पाश्चालिकेव या। सा दासी देववत्तापि विलीनेव न दृश्यते ॥ ५६३ ॥ निदाघे मरुवारीव नष्टश्च करिणां मदः । तदागादनिलवेगो नियतं गन्धसिन्धुरः ॥ ५६४ ॥ १ न्याहि ॥ २ प्रतिश्च .. ||
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एकादश
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आगत्यानिलवेगेन नूनं प्रद्योतभूपतिः। प्रतिमां देवदत्तां च निशि चौर इवाहरत् ॥ ५६५ ॥ उवायनोऽपि प्रद्योतं तत्क्षणादभ्यषेणयत् । वादयन् श्मा हपखुरैर्जयभंभामिवापराम् ॥ ५६६ ॥ दशाथ बद्धमुकुटा राजानोऽपि तमन्वगुः । एकादशापि ते चाभान् रुद्रा इव महौजसः ॥ ५६७ ।। अयोधायन सैन्यानां प्रत्यक्षा जांगलक्षितौ । आसन पयायमानार्करोधिर्मग्यो मरीचिकाः॥५६८ ॥ आस्फलन्तो मियो भूमी लुटतोsपि च सैनिकाः । तृषा न किंचिद्राक्षुर्दिवसेऽपि हि घूकवत् ॥ ५६९॥ सन्यः प्रभावतीदेवं तदाऽस्मार्षीदुदायनः । स्मरति व्यसने प्राप्ते को वा नैवेष्टदेवताम् ।। ५७० ॥ स्मृतमात्रोपस्थितेन तेन देवेन वारिणा | त्रिपुष्कराण्यपूर्यन्त प्रमोदेन च सैनिकाः ॥ ५७१ ॥ कटकं सुस्थितं चाभूत् पाय पायं पयस्तदा । चिनाऽप्यन्नेन जीव्येत जीवनीयं विना न तु ।। ५७२ ॥ ततः प्रभावतीदेवो जगाम निजमालयम् । राजा वीतभयेशोऽपि मापदुज्जयिनी पुरीम् ।। ५७३ ॥ तत्रोदायमराजस्यापन्तिनाथस्य चाचिरात् । मियो दूतमुखेनाभद्रयसंगरसंगरः ॥ ५७४ ॥ उदायनोऽथारुरोह धन्वी सांग्रामिकं रथम् । वादयामास मौर्षी ध रणतूरमियापरम् ।। १७ ॥ प्रद्योतोऽपि हि विज्ञाय रथाजय्यमुदायनम् । आरूढोऽनिलवेगेभं का प्रतिज्ञा बलीयसि ॥ ५७६ ॥ उदायनोऽपि तं दृष्ट्वा गजारूखमदोऽवदत् । पाप्मन्नसत्यसंधोऽसि तथापि न भवस्यरे ॥ ५७७ ॥
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इत्युक्त्वा मंडलिकया भ्रमयन् स्वरथं स्यात् । दोष्मानुवायनो योद्धुं स्मयमानोऽभ्यढौकत ॥ २७८ ॥ शिलीमुखैः सूचिमुखैर्धनुर्धरधुरन्धरः । विव्याधानिलवेगस्य विष्वक् पादतलानि सः ॥ ५७९ ॥ वैर्हिः शलाकासंपूर्णपतद्ग्रहमुखोपमैः । चरणैर्गन्तुमसहस्तद्विपोऽभूत् पपात च ॥ ५८० ॥ उदायनेन प्रद्योतः पातयित्वाऽथ कुञ्जरात् । हस्तेन जगृहे बद्ध्वा यशोराशिरिवोच्चकैः ॥ ५८१ ॥ aers sareासीपतिरित्यक्षरस्थ । उदायनोऽवन्तिपतेः स्वां प्रशास्तै नवामिव ॥ २८२ ॥ मंकि दासमिव कृत्वा वीतभयेश्वरः । तद्दिव्यप्रतिमारनमानेतुं विदिशां ययौ ॥ ५८३ ॥ पूजयित्वा च नत्वा च तां दिव्यां प्रतिमां नृपः । उपादातुमुपाक्रंस्त गिरिवन्न चचाल सा ।। ५८४ ।। देवाधिदेव मर्चित्वा सविशेषमुदायनः । उवाच किमभाग्यं मे यन्नैषि परमेश्वरः (र!) ॥ ५८५ ॥ देवोऽप्युवाच मा शोचीर्यद्वीतभयपत्तनम् । पांशुष्षृष्ट्या स्थलं भाषि तनैष्यामि महाशय ! ॥ ५८६ ॥ देवतादेशमा साचोदायनोऽपि न्यवर्तत । प्रयाणवारणी प्राष्टडन्तराले बभूव च ॥ ५८७ ॥ तत्रैव शिविरं राजा न्यधात्पत्तनसन्निभम् । निवसन्ति हि राजानो यत्र तत्रापि पत्तनम् ॥ ५८८ ॥ तस्थुः कृत्वा धूलिवमं तद्रक्षार्थ नृपा दश । ततस्तच्छिबिरं जज्ञे नाम्ना दशपुरं पुरम् ॥ ५८९ ॥ उदयनोsपि प्रद्योतं रणातं भोजनादिना । अपश्यदात्मानमिव क्षत्रधर्मोऽयमीदृशः ॥ ५९० ॥
१ कयत् D || २ बहिः DM ॥
॥ ३४५
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एकादशः सर्ग:
जाते पर्युषणापर्वण्यन्यदोदायनोऽकृत । उपवासं स हि श्राद्धस्तस्य देवस्य शासनात् ॥ ५९१ ॥ सूदोज्यापृच्छत्पद्योतं किमद्य नृप ! भोक्ष्यसे । तच्छुत्वाऽवन्तिनाथोऽपि क्षोभादिदमचिन्तयत् ॥ ५९२॥ प्रश्नो यकृतपूर्वोऽयमद्य क्षेमावहो न मे । उपहासवचो ह्येतद्वधषन्धादिसूचकम् ॥ ५९३ ॥ सूपकारमपृच्छन्च किमद्य प्रश्नकारणम् ? । विद्याकृष्टेव रसवत्यागाद्धि समये सदा ॥ ५९४ ॥ सूदोऽप्यकथयद्राजन्नद्य पर्युषणोत्सवः । उपोषितोऽस्ति नः स्वामी सान्तःपुरपरिच्छदः ॥ ५५ ॥ राजार्थ या रसवती भोजितोऽसि तया सदा । अधुना तु त्वदर्थे तां करिष्यामीति पृछपसे ॥ ५९६ ॥ प्रद्योतः स्माह हे सुदोपवासोऽद्यास्तु मेऽपि हि । ज्ञापितं साधु पर्वेदं श्रावको पितरौ मम ॥ ५९७ ॥ सूदोऽप्युदायनायाऽऽख्यत्तत्मयोतस्य भाषितम् । उदायनोऽवददसौ धूनों जानाति वैशिकम् ॥ ५९८ ।। यादृशे नादृशे वाऽस्मिन् कारागारनिवासिनि । न मे साध्वी पर्युषणेत्यमुंपत्तमुवायनः ॥ ५११॥ प्रयोनं क्षमयामास पर्वाचितमुदायनः । पट्टबन्धं च विवधे तस्य भालांकगोपनम् ॥ ६०० ॥ पद्यन्धस्तदाद्यासीद्राज्ञां वैभवसूचकः । किरीटमेव ते पूर्व घपन्धुमौलिमंडनम् ।। ६०१ ।। प्रयोतायावन्तिदेशमुदायननृपो ददौ । वर्षारात्रे त्वतिक्रान्ते स्वयं वीतभयं ययौ ॥ ६०२ ।। शिविरे तत्र वणिजस्तस्थिवांसस्तथैव हि । तैरेव वसमानं तज्जातं दशपुरं पुरम् ॥ ६०३ ।। प्रद्योतोऽपि वीतभयप्रतिमाय विशुद्धधीः । शासनेन वशपुरं दस्थाञ्चन्तिपुरीमगात् ॥ ३०४ ।।
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३४६
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अन्येयुर्विदिशां गत्वा भायलस्वामिनामकम् । देवकीयं पुरं चक्रे नान्यथा धरणोदितम् ॥ ६०५ ॥ विद्युन्मालिकृतायै च प्रतिमाय महीपतिः। प्रददौ द्वादश ग्रामसहस्रान शासनेन सः ॥ ६०६ ॥ अनान्तरे वीतभयस्थितं नृपमुदायनम् । एत्य प्रभावतीदेवः लेहेन प्रत्ययोधयत् ॥ ६०७॥ इहापि याऽस्ति प्रतिमा जीवतः स्वामिनो नवा । सापि राजन्नसामान्यप्रभावात्तीर्थमुत्तमम् ॥ ६०८ ॥ ब्रह्मर्षिणा केवलिना कपिलेन महात्मना । श्वेताम्बरेण प्रतिमा घसौ राजन् ! प्रतिष्ठिता ॥ ६०९॥ अग्रेतनी च प्रतिमा प्रतिमेयमपि त्वया । पूज्याऽथ सर्वविरतिरपि ग्राह्या महाफला ॥ ३१ ।। उदायनोऽपि सद्वाचं प्रतिपेदे तथैव नाम् । तन्मनःकदलीमेघः स देवोऽपि तिरोदधे ॥ ६११॥ ततश्चान्येशुरुयुक्तो धर्मे राजाप्युदायनः । जग्राह पौषधौकस्थः पाक्षिक पौषधवतम् ।। ६१२ ॥ रात्रिजागरणे तस्य शुभध्यानेन तस्थुषः । ईगध्यवसायोऽभूद्विवेफस्य सहोदरः ॥ ६१३ ॥ धन्यास्ते नगरपामा ये श्रीवीरेण पाविताः । राजादयोऽपि ते धन्या यैर्धर्मोऽश्रावि तन्मुखात् ॥ ६१४ ॥ तत्पादपद्मसान्निध्यात्पतियोधमवाप्य ये । गृहिधर्म द्वादशधा शिश्रियुः कृतिनो हि ते ॥ ६१५ ॥ सत्प्रसादाच ये सर्वविरतिं प्रतिपेदिरे । ते श्लाघ्या वन्दनीयास्ते तेभ्यो नित्यं नमो नमः ॥ ६१६ ॥ स्वामी वीतभयमपि विहारेण पुनाति चेत् । तत्पादमूले प्रव्रज्यामादाय स्यां तदा कृती ॥ ६१७ ।। १ जीवंत (..॥
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एकादः सर्गः
वयं चाभय ! सज्ज्ञात्वा तदनुग्रहकाम्यया । चम्पापुर्याः प्रचलिताः समवासार्म तत्पुरे ॥ ६१८ ॥ अस्मान् प्रणम्य श्रुत्वा च देशनां गतवान् गृहे । एवं स चिन्तयामास स्वविवेकगुणोचितम् ।। ६१९॥ सूनवेऽभीचये राज्यं व्रतेच्छुश्चेबदाम्यहम् । संसारनाटकनटस्तन्मयैष कृतो भवेत् ॥ ६२० ॥ उशन्ति नरकान्तं हिसायं नीतिविनोऽरिया। नाना दास्ये दास्य चेत्तन्न तद्धितः ॥ ६२१ ॥ इति केशिनि जामेये राज्यश्रियमुदायनः। सद्यः संक्रमयामास तेजोऽर्क इव पावके ॥ ६२२ ।। जीवन्तस्वामिदेवाय पूजार्थमथ पार्थिवः । शासनेन ददौ भूरि ग्रामाकरपुरादिकम् ॥ ६२३ ॥ ततः केशिनरेन्द्रेण कृतनिष्क्रमणोत्सवः । अस्मत्पाचे परिवज्यामुवायन उपात्तवान् ।। ६२४ ॥ स नपोभिः षष्टाष्टमदशमद्वादशादिभिः । ब्रताहादपि कर्मेष स्वमात्मानमशोयषत् ॥ ६२५ ॥
तृणमिव परिहृत्य राज्यलक्ष्मी श्रामण्यं मतिपत्रवान् विशुद्धम् । इत्यभयकुमार ! कीर्तितस्ते चरमो राजर्षिर्युदायनाख्यः ।। ६२६ ।। ॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते विषष्टिशलाकापुरुषचरिते महाकाव्य दशनपर्वणि रौहिणेयचरिता-भयकुमारा
पहारोदायनचरित-प्रद्योतबन्धनोदायनप्रव्रज्यावर्णनो नामैकादशः सर्गः ।।
XII
नास्ति अयं लोकः ।. प्रतौ ।।
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EART
॥ अथ द्वादशः सर्गः ॥
अपृच्छदभयो भूयः प्रणम्य परमेश्वरम् । उदायनस्य राजर्षेः क उदों भविष्यति ? ॥१॥ प्रकृष्टतीर्थकृत्कर्मनिर्जरानिरतस्ततः । कथयामास भगवानिति श्रीज्ञातनन्दनः ॥२॥ एकदोदायनमुके. च्या विहरताः सः । उत्पस्यो महाव्याधिरकालापथ्यभोजनैः ॥ ३ ॥ अनवद्याशयैवैवीः सोऽन्यदा वक्ष्यते मुनिः । मुंव देहनिरीहोऽपि गुणरत्नोदधे ! दधि ॥ ४॥ विहरिष्यत्ययो गोष्टेषूदायनमहामुनिः । सुलभा दधिभिक्षा हि तत्र दोषवियर्जिता ॥५॥ अन्यदोदायनो वीतभयं यास्यति पत्तनम । भभुजा भागिनेयेन केशिना समधिष्ठितम् ॥६॥ झात्वदायनमाया केयमात्यैर्भणिषयते। निर्विण्णस्तपसामेष नियतं तब मातलः॥७॥
दं राज्यं चन्द्रपद नायकत्वाऽनुशयं दधताननं राज्यार्थमेवाऽऽगाद्विश्वसीर्मा स्म सर्वथाका केशी वक्ष्यत्यसौ राज्यं गृह्णात्वापि कोऽस्म्यहम् । गोपालस्य हि का कोपो धनं गृह्णाति द्धनी ॥९॥ वक्ष्यन्ति मंत्रिणः पुण्यस्तव राज्यमुपस्थितम् । प्रदत्तं न हि केनापि राजधर्मोऽपि नेशः ॥ १० ॥
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द्वादशः
१
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पितृातुर्मातुलाद्वा सुहृदो वाऽपरादपि । प्रसह्याप्याहरेद्राज्यं तदत्तं को हि मुञ्चति ॥ ११ ॥ तैरेवमुदिनोऽत्यर्थं त्यक्त्वा भक्तिमुदायने । केशी प्रक्ष्यति किं कार्य ? दापयिष्यन्ति ते विषम् ॥ १२ ॥ विषेण संस्कृन्य दधि पशुपालिकयैकया। केशी दापयिता तस्मै परमेयस्य का मतिः १ ॥१३॥ तद्विषं देवता हृत्वा मुनिमेवं भणिष्यति । सविषो दधिलाभस्त मा कृथास्तविस्टहाम् ॥ १४ ॥ सनः परिहते दनि रोगो वर्धिष्यते मुनेः । व्याघयो हि विजृम्भन्ते छलमासाद्य भूतवत् ॥ १५ ॥ रोगनिग्रहणार्थ स पुनरादास्यते दधि । विषापहारं श्रीन वारान् देवता सा करिष्यति ॥ १६ ॥ अन्यदा तु प्रमादेन तद्विषं देवताऽपि सा । न हरिष्यत्यथ मुनिः सविर्ष दधि सोऽत्स्यति ॥ १७ ॥ तनश्चैतन्यचौरीभिर्विषवीचीमिरात्मनः । ज्ञातावसानोऽनशनं महर्षिः स प्रपत्स्यते ॥ १८ ॥ त्रिंशहिनीमनशनं पालयित्वा समाधिना । उत्पन्नकवलज्ञानो विपय शिवमेष्यति ॥१९॥ उदायने शिवगते देवता पुनरेयुषी । ज्ञात्वा ताहकालरात्रिरिव कोपमुपेष्यति ॥ २० ॥ कोपाच सा वीतमयं पूरयिष्यति पांशुभिः । तदादि पांशुवृष्टिं च करिष्यति निरन्तरम् ॥ २१ ॥ तदैव प्रतिमा साऽपि कपिलर्षिप्रतिष्ठिता । भविष्यति महाभाग ! निधानमिव भूगता ॥ २२ ॥ शय्यातरं कुंभकारमुदायनमहामुनेः । अनागसं ततो ही देवता पांशुवर्षिणी ॥ २३ ॥ १ तत्परम् ... ॥ २ मोश्यते ॥
AMAKAL
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सिनपल्लयां च तं नीत्वा तन्नाम्नेष हि देवता । कुंभकारकृतमिति तत्र स्थानं करिष्यति ॥ २४ ॥ पुनरप्यभयोऽपृच्छत् प्रणम्य परमेश्वरम् । उदायनकुमारस्याभीचे का भाविनी गतिः॥ २५॥ स्वाम्याख्यत् केशिने राज्यं प्रदत्तवति वप्तरि । स हि प्रभावतीसूनुरभीविश्चिन्तयिष्यति ॥ २६ ॥ मयि सत्यपि भक्तेऽपि पुत्रे राज्याधिकारिणि । तातोऽदात् कशिने राज्य राज्यर्णमिव धारयन् ॥ २७ ॥ विवेको मत्पितुः कोऽयं भगिनीनन्दनाय यत् । केशिनेऽदाददो राज्यं हन्त काराधिकारिणे ॥ २८ ॥ तातः प्रभम स स्वैरं यदिच्छति करोत तत । केशिनोऽद्य कथं सेवां करिष्ये तत्सुतोऽस्मि हि॥२९॥ इनि पिताऽभिभूतः सोऽभिगमिष्यति कूणिकम् । अभिमानवतां श्रेयान विदेशो हि पराभवे ॥ ३० ॥ अथ मातृष्वसेयेन कूणिकेन सगौरवम् । वीक्ष्यमाणः सदाऽभीचिः सुखं स्थास्यति तत्र च ॥ ३१ ॥ श्रमणोपासकः सम्यग्जीवाजीवादितत्त्ववित् । अभीधिः श्रावकधर्म यथावत् पालयिष्यति ॥ ३२ ।। गृहिधर्म समा बह्वीः पालयनप्यखंडितम् । पराभवं स्मरन् बैरं न स हास्यत्युदायने ॥ ३३ ॥ कृत्वा संलेखनां सम्यक् पाक्षिकानशनेन सः। पितृवैरममालोच्य मृत्वा भाव्यसुरोत्तमः ॥ ३४ ॥ एवं पल्योपमं तत्र परिपात्यायुरात्मनः । महाविदेहपुत्पद्याभीचिजीवः शिवंगमी ॥ ३५ ॥ पृच्छति स्माभयोऽयवं कपिलर्षिप्रतिष्ठिता। प्रकाशमेष्यति कदा प्रतिमा परमेश्वर ॥३६॥ स्वाम्याख्याति स्म सौराष्ट्रलाटगुर्जरसीमनि । क्रमेण नगरं भाथि नाम्नाऽणहिलपाटकम् ॥ ३७॥
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आर्यभूमेः शिरोरत्नं कल्याणानां निकेतनम् । एकातपम्राहद्धर्म तद्धि तीर्थ भविष्यति ॥ ३८ ॥ चैत्येषु रनमयोऽर्हत्प्रतिमास्तत्र निर्मलाः । नन्दीश्वरादिप्रतिमाकथां नेष्यन्ति सत्यताम् ॥ ३९ ॥ भासुरस्वर्णकलशश्रेण्यलंकृतमौलिभिः । रोचिष्यते च तचैत्यैर्विश्रान्ततपनैरिव ॥ ४० ॥ श्रमणोपासकस्तत्र प्रायेण सकलो जनः । कृतातिथिसंविभागों भोजनाय यतिष्यते ॥४१॥ परसंपद्यनीालुः संतुष्टच स्वसंपदा । पात्रेषु दानशीलच तत्र लोको भविष्यति ॥ ४२ ॥ श्राद्धाश्च धनिनस्तत्रालकायामिव गुटकाः । वस्यन्ति द्रविणं सप्तक्षेव्यामत्यन्तमार्हताः ॥ ४३ ॥ परस्वपरदारेषु सर्वः कोऽपि पराङ्मुखः । भावी तस्मिन् पुरे लोकः सुषमाकालभरिव ॥ ४४ ॥ अस्मन्निर्वाणतो वर्षशतान्यभय षोडश । नवष्टिश्च यास्यन्ति यदा तत्र पुरे तदा ॥ ४ ॥ कुमारपालो भूपालचौलुक्यकुलचन्द्रमाः। भविष्यति महाबाहुः प्रचण्डाखण्डशासनः ॥ ४६॥ स महात्मा धर्मदानयुद्धधीरः प्रजां निजाम् । ऋद्धिं नेष्यति परमां पितेव परिपालयन् ॥ ४७ ॥ ऋजुरप्यतिचतुरः शान्तोऽप्याज्ञाविवस्पतिः । क्षमावानप्यधृष्यश्च स चिरं श्मामविष्यति ॥ ४८ ॥ स आत्मसंघशं लोकं धर्ममिष्ठं करिष्यति । विद्यापूर्णमुपाध्याय इवान्तवासिनं हितः॥४॥ शरण्यः शरणेथूनां परनारीसहोदरः । प्राणेभ्योऽपि धनेभ्योऽपि स धर्म बहु मंस्यते ॥५०॥ पराक्रमेण धर्मेण दानेन दययाऽऽज्ञया । अन्यैश्च पुरुषगुणैः सोऽद्वितीयो भविष्यति ॥ ५१ ॥
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स कौबेरीमातुरुष्कमैन्द्रीमात्रिदशापगम् | याम्यामाविन्ध्यमावार्धि पश्चिमां साधयिष्यति ।। ५२॥ अन्यदा वज्रशाखायां मुनिचन्द्रकुलोद्भवम् । आचार्य हेमचन्द्रं स द्रक्ष्यति क्षितिनायकः ।। ५३ ॥ तदर्शनात्प्रमुदितः केकीवाऽम्बुददर्शनात् । तं मुनि वन्दितुं नित्यं स भद्रात्मा त्वरिष्यते ॥ ५४॥ तस्य सूरेर्जिनचैत्ये कुर्वतो धर्मदेशनाम् । राजा सश्रावकामात्यो वन्दनाय गमिष्यति ॥ ५५ ॥ तत्र दवं नमस्कृत्य स तस्वमविदन्नपि। वन्दिष्यते तमाचार्य भावशुद्धेन घेतसा ॥ १६ ॥ स श्रुत्वा तन्मुखात्पीत्या विशुद्धां धर्मदेशनाम् । अणुव्रतानि सम्यक्त्वपूर्वकाणि प्रपत्स्यते ॥५७॥ स प्राप्तयोधो भविता श्रावकाचारपारगः । आस्थानेऽपि स्थितो धर्मगोष्टया स्य रमयिष्यति ॥ ५८ ॥ अन्नशाकफलादीनां नियमांश्च विशेषतः ! आदागने एयर लगायेण जाणावर्यकृत् ॥ ५ ॥ साधारणस्त्रीन परं स सुधीर्वर्जयिष्यति । धर्मपत्रीरपि ब्रह्म चरितुं योधयिष्यति ॥ ६० ॥ मुनस्तस्योपदेशेन जीवाजीवादितत्त्ववित् । आचार्य इव सोऽन्येषामपि बोधि प्रदास्यति ॥ ६१ ॥ येऽर्हद्धर्मद्विषः केपि पांडरोहद्विजादयः । तेऽपि तस्याऽऽज्ञया गर्भश्रावफा इव भाविनः ॥ ६२ ॥ अजितष चैत्येषु गुरुष्वप्रणतेषु च । न भोक्ष्यते स धर्मज्ञः प्रपन्नश्रावकवतः॥ १३ ॥ अपुत्रमृनपुंसां स द्रविणं न ग्रहीष्यति । विवेकस्य फलं होतदतृप्ता स्वविवेकिनः ॥ ६४ ॥ र सुविसुद्धेन .. ॥ २ 'रागद्वि CL. रांगादि D. ॥ ३ 'तयः L. D.|| ४"विका ८. L. ||
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पांडुप्रभृतिभिरपि या त्यक्ता मृगया न हि । स स्वयं त्यक्ष्यति जनः सर्वोऽपि च तदाज्ञया ॥ ६ ॥ हिंसानिषेधके तस्मिन दूरेऽस्तु मृगयाऽदिकम् । अपि मत्कुणयूकोदि नान्त्यजोऽपि हमिष्यति ॥ ६६ ॥ तस्मिन्निषिद्धपापौवरण्ये मृगजातयः। सदाप्यविनरोमन्था भाविन्यो गोष्ठधेनुवत् ॥ ६७ ॥ जलचरस्थलचरखचराणां स देहिनाम् । रक्षिष्यति सदा मारि शासने पाकशासनः ॥ २८ ॥ ये चाऽऽजन्मापि मांसादास्ते मांसस्य कथामपि । दुःस्वप्नमिव तस्याज्ञावशान्नेष्यति विस्मृतिम् ॥६॥ दशाहने परित्यक्तं यत्पुरा श्रावकैरपि । तन्मद्यमनवद्यात्मा स सर्वत्र निरोत्स्यति ॥ ७॥ स तथा मद्यसन्धानं निरोत्स्यति महीतले । न यथा मद्यभाण्डानि घटयिष्यति चयपि ।। ७१ ॥ मद्यपानां सदा मयन्यसनक्षीणसंपदाम् । तदाज्ञात्यक्तमद्यानां प्रभविष्यन्ति संपदः ।। ७२ ॥ मलादिभिरपि क्षमापर्वातं त्यक्तं न यत्पुरा । तस्य स्ववैरिण इष नामाप्युन्मूलयिष्यति ॥ ७३ ॥ पारापतपणक्रीडाकुक्कुटायोधनान्यपि | न भविष्यन्ति मेविन्यां तस्योदयिनि शासने ॥ ७४ ॥ स प्रायेण प्रतिग्राममपि निःसीमवैभवः। करिष्यति महीमेतां जिनायतनमण्डिताम् ॥ ७ ॥ प्रतिग्राम प्रनिपुरमासमुद्रं महीतले । रथयात्रोत्सव सोऽहत्प्रतिमानां करिष्यति ॥ ७६ ।। दायं दायं द्रषिणानि विरचय्यानृणं जगत् । अंकयिष्यति मेदिन्यां स संवत्सरमात्मनः ॥ ७७॥ १"दीन D.
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प्रतिमां पशुगुप्तां तां कपिलर्षिप्रतिष्ठिताम् । एकया श्रोष्यति फाप्रसंगे स गुरोर्बुखार ॥ ७८ ॥ पांशुस्थ खानयित्वा प्रतिमां विश्वपावनीम् । आनेष्यामीति स तथा करिष्यति मनोरथम् ॥ ७९ ॥ दैव मनउत्साहं निमित्तान्यपराण्यपि । ज्ञात्वा निश्चेष्यते राजा प्रतिमां हस्तगामिनीम् ॥ ८० ॥ ततो गुरुमनुज्ञाप्य नियोज्यायुक्तपूरुषान् । प्रारप्स्यते खानयितुं स्थलं वीतभयस्य तत् ॥ ८१ ॥ सत्त्वेन तस्य परमातस्य पृथिवीपतेः । करिष्यति न सांनिध्यं तदा शासनदेवता ॥ ८२ ॥ राज्ञः कुमारपालस्य तस्य पुण्येन भूयसा । खन्यमाने स्थले मंक्षु प्रतिमाऽऽविर्भविष्यति ॥ ८३ ॥ तदा तस्यै प्रतिमायै यदुदायनभूभुजा । ग्रामाणां शासनं दत्तं तदप्याविर्भविष्यति ॥ ८४ ॥ नृपायुक्तास्तां प्रतिमां प्रनामपि नवामिव । रथमारोपयिष्यन्ति पूजयित्वा यथाविधि ॥ ८५ ॥ पूजाप्रकारेषु पथि जायमानेष्वनेकशः । क्रियमाणेष्वहोरात्रं संगीतेषु निरन्तरम् ॥ ८६ ॥ तालिका सबैर्भवत्सु ग्रामयोषिताम् । पंचशब्देष्वातोथेषु वाद्यमानेषु संमदात् ॥ ८७ ॥ पक्षद्वये चामरेत्पतत्सु च पतत्सुच । नेष्यन्ति प्रतिमां तां धाऽऽयुक्ताः पत्तनसीमनि ॥ ८८ ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् )
सान्तःपुरपरीवारश्चतुरंगचमूवृतः । सकलं संघमादाय राजा नामभियास्यति ॥ ८९ ॥ स्वयं रथात्समुत्तार्य गजेन्द्रमधिरोध च । प्रवेशयिष्यति पुरे प्रतिमां तां स भूपतिः ॥ ९० ॥
॥ ३५५ ॥
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द्वादशः सर्गः
AMAMMYM HYMAYALALPVTMLA
उपस्वभवनं क्रीडाभवने संनिधेश्य ताम् । कुमारपालो विधिवत्त्रिसन्ध्यं पूजयिष्यति ॥ ११ ॥ प्रतिमायास्तथा तस्या वाचयित्वा स शासनम् । उदायनेन यदत्तं तत्प्रमाणीकरिष्यति ॥ ९२ ।। प्रतिमायाः स्थापनार्थ तस्यास्तत्रैव पार्थिवः । पासादं स्फटिकमयममायः कारयिष्यति ॥ १३ ॥ प्रासादोऽष्टापदस्येव युवराजः स कारितः । जनयिष्यति संभाव्यो विम्मयं जगतोऽपि हि ॥ १४ ॥ स भूपतिः प्रतिमया तत्र स्थापितया तया । एविष्यते प्रतापन ऋदया निःश्रेयसेन च ।। १५ ।। देवभक्त्या गुरुभक्त्या त्वपितुः सहशोऽभय ! । कुमारपालो भूपालः स भविष्यति भारते ॥ ९६ ॥ इति श्रुत्वा नमस्कृत्य भगवन्तमथाभयः । उपश्रणिकमागत्य वक्तमेवं प्रचक्रमे ॥२७॥ भवामि तात! राजा चेदपिन स्यामहंमदा। श्रीवीरोऽन्तिमराजर्षि यदशंसदवायनम ॥२८॥ श्रीवीरं स्वाभिनं प्राप्य प्राप्य त्वत्पुत्रतामपि । नोच्छेत्स्ये भषदुःखं चेन्मत्तः कोऽन्योऽधमस्ततः ॥१९॥ नाम्नाऽहमभयस्तात सभयोऽस्मि भवात् पुनः । भुवनाभयदं वीरं सच्छ्यामि समादिश ॥१०॥ तदलं मम राज्येनाभिमानसुखहेतुना । यतः सन्तोषसाराणि सौख्यान्याहुमहर्षयः॥ १०१ ।। निर्यन्धादुच्यमानोऽपि न यदा राज्यमग्रहीत् । तदाऽभयो व्रतायानुजज्ञे राज्ञा प्रमोदतः ।। १०२ ॥ राज्यं तृणमिव त्यक्त्वा संतोषसुखसम सः। दीक्षा घरमतीर्थेशवीरपादान्तिकऽग्रहीत् ॥ १०३ ॥ आत्तव्रते सत्यभयेऽनुज्ञाप्य श्रेणिक नपम् । श्रीमहावीरपादान्ते नन्दाऽपि व्रतमग्रहीत् ॥ १०४॥
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KHATAMATK
परिव्रजन्त्या त्वमयं नन्दया कुंडलद्वयम् । क्षौमद्वयं च तदिव्यं दत्तं हल्लविहल्लयोः ॥ १०५ ।। भन्यानां प्रतिबोधाय नतश्च भगवानपि । सुरासुरैः सेव्यमानो चिजहार वसुन्धराम् ॥ १०६॥ विविधाभिग्रहपूर्व पालयित्वा चिरं व्रतम् । मृत्वा सर्वार्थसिद्धेऽभूदभयः प्रवरः मुरः॥ १०७॥ तदा श्रीवीरपादाब्जमृले प्रबजितेऽभये । इति संचिन्तयामास शुद्धधीर्मगधाधिपः ॥ १०८ ॥ अभयो हि कुमारेषु समस्तगुणभरभत । ब्रतमादाय सक्ती स तु स्वार्थमसाधयत् ॥१०९॥ कुमारे कुत्रचिदोषमन्यायुष्मति वपुष्मति । राज्यमारोपयिष्यामि क्रमो येष महीभुजाम् ॥ ११ ॥ सगुणो निगुणो वापि पुत्रोऽह: पितृसंपदाम् । सगुणः स्याद्यदि तदा पुण्यं हि पितुरुज्ज्वलम् ॥ १११ ॥ विनाऽभयकुमारेण मनोविश्रामधाम मे । कृणिको गुणवानेष राज्यमर्हति नापरः ॥ ११२॥ निश्चित्य कूणिक राज्ये सोऽवाद्धल्लविहल्लयोः । हारमष्टादशचक्रं गज सेचनकं च तम् ॥ ११३ ॥ अत्रान्तर कुमारोऽपि मंत्रयामास कूणिकः । कालादिभिः स्वसहशैर्दशभिर्धातृभिः सह ॥ ११४॥ जरनपि पिनाऽस्माकं राज्यस्य न हि तृप्यति । पुत्रे हि कवचहरे राज्ञोऽधिकुरुने व्रतम् ॥ ११५ ॥ घरं वरीयानभयः श्रियमौज्झदुवाऽपि यः। न तु तातो विषयान्धः स्वां जरां यो न पश्यति ॥ ११६ ।। नदद्य पितरं बद्ध्वा राज्यं स्वसमयोचितम् । गृह्णीमो नापवादोऽत्र विवेकविकलो हि सः ॥ ११७ ॥
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वादशः सर्गः
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कृत्वैकादशधा राज्यं भ्रातरो मुंज्महे वयम् । पिता तु बद्धस्तदनु जीवत्वब्दशतान्यपि ॥ ११८ ॥ इति ने दुर्धियः सर्वे विश्वस्तं पितरं निजम् । बबन्धुदुरपत्यं हि गृहजातो विषद्रुमः ॥ ११९ ।। शुक्रवत्पञ्जरेऽक्षप्सीत् कूणिकः श्रेणिकं ततः । विशेषोऽयं पुनर्भक्तपाने अपि ददौ न हि ॥ १० ॥ पूर्वाह्ने चापराह्ने च कृणिकः पूर्ववैरतः । पितुः कशाघातशतं पापोऽदादनुवासरम् ॥ १२१ ॥ अधिसेहे श्रेणिकस्तां दुर्दशा देवढौकिनाम् । दन्तावलः समर्थोऽपि वारीचद्धः करोतु किम् ॥ १२२ ।। निकषा श्रेणिकं गन्तुं कूणिकोऽदान कस्यचित् । केवलं मातृदाक्षिण्याचेलणां न यवारयत् ॥ १२३ ॥ चेलणाऽपि प्रतिदिनं सुरया शतधौतया। सगास्नातेवाऽऽकशीभूयोपश्रेणिकं ययौ ॥ १२४ ।। कुल्माषपिण्डिकां चैकां केशान्तः पुष्पदामवत् । प्रक्षिप्य चेलणाऽनैषीत् पतिभक्ता तदन्तिक ।। १२५ ॥ पत्ये कुल्माषपिण्डी तां प्रच्छन्नां चलणा ददौ । प्राप्य तामपि दुःमाणं स मेने दिव्य भोज्ययत् ॥ १२६॥ चकार श्रेणिकः प्राणयात्रां पिंडिकया तया । बुभुक्षालक्षणो रोगो विनाऽन्नं खलु मृत्यये ।। १२७ ॥ शतधौतसुराधिन्दून केशपाशाच्च चेलणा । अपातयत् पतिभक्ता सह नेत्राश्रुविन्दुभिः ॥ १२८ ॥ श्रेणिकोऽपि सुराविन्दन पततः पिबति स्म तान् । चातको मेघमुक्ताम्वुपिन्दनिव पिपासितः ।। १२९ ॥ बिन्दुमात्रपीतयाऽपि श्रेणिकः सुरया तया । म विवेद कशाघातांस्कृषया नाप्यपीडयत ॥ १३ ॥ इत्थं च श्रेणिकं बद्ध्वा कुर्वतो राज्यमुत्कटम् । कूणिकस्य पद्मावत्यां पत्न्यां सूनुरजायत ।। १३१ ॥
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१३७ ॥
वर्धापिकास्तदाऽऽयाताः कूणिको दासचेटिकाः । वस्त्राभरणसंछन्नाश्व कल्पलतोपमाः ॥ १३२ ॥ स्वयं चान्तःपुरे गत्वा पाणिभ्यां पुत्रमाददे । अभात्तत्पाणिपद्मस्थः स पोतो हंसपोतवत् ॥ १३३ ॥ कूणितं सुतं पयन्नयनाम्भोजभास्करम् । उन्मुद्रपरमानन्दः श्लोकमेवं तदाऽपठत् ॥ १३४ ॥ अंगाई गात्संभवसि हृदयादभिजायसे । आत्मैव पुत्रनामाऽसि तज्जीव शरदां शतम् ॥ १३५ ॥ भूयो भूयः पठन्नेवं विशश्राम न कूणिकः । तच्छ्लोकच्छ्रद्मना हर्ष हृद्यमान्तं वमन्निव ॥ १३६ ॥ कुमारभृत्यां दक्षाभिवृद्धस्त्रीभिरथार्भकः । अमोच्यरिष्टशय्यायामादाय नृपतेः करात् ॥ चक्रे च नृपतिः सुमोनकर्ममहोत्सवम् । याचकेभ्यो द्विजादिभ्यो ददद्दानं यथारुचि ॥ १३८ ॥ उदायीति ददौ नाम तस्य सुनोश्च कृणिकः । उत्सवेनातिमहता सुदिनीकुर्वता दिनम् ॥ १३९ ॥ अथोदायिकुमारोऽपि स्वर्णच्छायो दिने दिने । वृद्धिं जगामोपवने शाखी वाऽऽरक्षकैर्वृतः ॥ १४० ॥ तेन व्यधिरून कुमारेण निरन्तरम् । दधौ सशालभञ्जिीकस्तम्भशोभां महीपतिः ॥ १४१ ॥ उल्लापयन् कुमारं तं लल्लमन्मनया गिरा । राजाऽपि वक्तुमज्ञस्य शिशोः श्रियमशिश्रियत् ॥ १४२ ॥ आसने शयने याने भोजनेऽपि तमर्भकम् । न मुमोच कराद्राजा मंगल्यामिव मुद्रिकाम् ॥ १४३ ॥ आसाञ्चक्रेऽन्यदा भोक्तुं राजा श्रेणिकनन्दनः । वामोरुमस्तके न्यस्योदायिनं पुत्रवत्सलः ॥
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१] जातोऽसि M. ॥
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सर्गः
अर्धभुक्त कणिक व मूत्रयामास सोऽर्भकः । पपात सर्पिर्धारेष मूत्रधारा च भोजने ॥ १४५ ॥ खूनोर्मा अंगभंगो भूदिति श्रेणिकसूर्तृपः । न जानु चालयामास पुत्रवात्सल्यमीदृशम् ॥ १४६॥ मूत्रप्लावितमन्नं च स्वयमुत्सार्य पाणिना । तथैव बुभुजे पुत्रप्रेम्णैतदपि शर्मणे ॥ १४७॥ पप्रच्छ चेलणां तत्रोपविष्टामथ कूणिकः । मातरचं सुतः प्रेयानभूत्कस्यचिदस्ति वा ? ।। १४८ ॥ चेलणाऽवोचदा पाप भूखट । कुलपसिन ! । न जानासि यथाऽभूस्त्वं पितुरत्यन्तवल्लभः ॥ १४९ ।। दुदोहदेन ज्ञातोऽसि पितुर्वैरी तदा मथा | स्त्रीणामापन्नसत्वानां यथागर्भ हि दोहदाः ।। १५० ॥ गर्भस्थितमपि ज्ञात्वा त्वामरे पितृवैरिणम् । गर्भशातनमारंभि मया पतिशिवेच्छया ॥ १५१ ॥ नथापि न विलीनोऽसि तैस्तैः शादौषधैरपि । किं तु प्रत्युत पुष्टोऽसि सर्व पथ्यं बलीयसाम् ॥ १५२ ॥ सव पित्रा च मे तारगप्यपूरि मनोरथः । कदा द्रक्ष्याम्यहं पुत्रवक्त्रमित्याशयों भृशम् ॥ १५३ ॥ पितुर्वेरीति निश्चित्य त्वं जानोऽपि मनोज्झितः।आनीतोऽसि पुनः पित्रा यत्नात् स्वमिव जीवितम् ॥ १५४ ॥ तदा कुक्कुटिकापिच्छविठ्ठका च तवांगुलिः । कृमिपूयाकुलाऽत्यंतमभूदरतिवायिनी ॥ ५५५ ॥ त्वत्पिताऽधान्मुख क्षिप्त नाशीमपि तेंऽगुलिम् । तावदेव सुखं तेऽभूगावद्वक्त्रांतरंगुली ॥ १५६॥ एवं येनासि पित्रा त्वं रे दुर्ललित ! लालितः । कृते प्रतिकृतं तस्याऽकारि काराप्रवेशनम् ॥ १५७ ॥ याद ..॥
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कूणिकोऽप्यन्नवीन्मयं तातः किं गुडमोदाकान् । अषोल्लविहल्लाभ्यां पुनः किं खंडमोदकान् ॥ १५८ ॥ चलणाऽऽख्यत्पितृद्वेषीत्यनिष्टस्त्वं ममाऽभवः । मयैव दापितास्तुभ्यं तन्मूढ ! गुडमोदकाः ॥ १५९॥ कणिकः स्माह धिग्धिङ्मामविमृश्य विधायिनम् । राज्यं न्यासार्पितमिवार्पयिष्यामि पुनः पितुः ॥ १६०॥ इत्यर्धभुक्तेऽप्याचम्य धात्र्याः पुत्रं समय॑ च । उदस्थास्कृणिकस्तातसमीपे गन्तुमुत्सुकः ॥ १६१ ॥ पितपादेष निगहान भक्ष्यामीति विचिन्तयन् । लोहदंडगृहीत्वा सोऽभिश्रेणिकमधावत ॥ १२ ॥ उपश्रेणिकमादिष्टा यामिकाः पूर्वसंस्तुनाः। दृष्ट्रा कृणिकमायान्तमिति व्याजहराकुलाः॥१६॥ साक्षाइंडधर इव लोहउधरः पुरः। द्रुतमायासि से सून विभः किं करिष्यति ॥ ॥ १६४ ॥ श्रेणिकश्चिन्तयामास जिघांसुनमेष माम् । अन्यदाऽगात् कशाहस्तो दंडहस्तोऽधुनैति तु ॥ १६५ ॥ न वेनि मां कुमारेण मारयिष्यति केनचित् । तस्मादनागनेऽप्यस्मिन्मरण शरणं मम ॥ १६६ ॥ इति तालुपुटविषं जिलाग्ने श्रेणिको ददौ । प्रस्थानस्था इवाग्रेऽपि तत्प्राणाश्च द्रुतं ययुः ॥ १६ ॥ आगाच कूणिको यावत् परासुं तावदग्रतः । ददर्श पितरं वक्ष आघ्नानः पूञ्चकार च ॥ १६८ ॥ विललाप च हा ! तातपादाः ! कर्मभिरीशैः । अद्वैतीयीक एवैष पापोऽहमभवं भुवि ॥ १६ ॥ क्षमयिष्याम्यहं तातपादानिति मनोरथः । यन्मे नाऽपूरि तत्पापतमोऽहमधुना पुनः ॥ १७ ॥ १दाय ॥
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आस्तां प्रसादवचनं तिरस्कारवचोऽपि हि । त्वदीयं नाहमश्रौषमभूद् दुर्दैवमन्तरा ॥ १७१ ॥ भृगुपातेन शस्त्रेण बहिना पयसाऽपि चा । तदात्मानं निगृह्णामि युक्तं मत्कर्मणो यदः ॥ १७२ ॥ इति शोकामयग्रस्तो मुमूर्षुरपि कूणिकः । मंत्रिभिवाधितोऽकार्षीच्छेणिकस्यांगसंस्कृतिम् ॥ १७३ ॥ शोकेन भूयसा राजयक्ष्मणेव दिन दिने । क्षीयमाणं नृपं प्रेक्ष्य मंत्रिणोऽचिन्तयन्नदः ॥ १५४ ॥ नूनं विपत्स्यते शोकादाजा राज्यं च नश्यति । पितृभक्त्यपदेशेन तद्व्यासंगोऽस्य सून्यताम् ॥ १७॥ इनि जीणे ताम्रपत्रेऽक्षराणि लिलिखुः स्वयम् । पिंडादि दत्तं पुत्रेण मृतोऽपि लभते पिता ॥ १७६ ॥ अवाच यंश्च राज्ञोऽग्रे राजाऽपि हि पितुः स्वयम् । तद्वश्चितोऽदात पिण्डादि पिण्डदानं तदाद्यभूत् ॥१७७॥ भुंक्त पिता विपन्नोऽपि मद्दत्तमिति मूढधीः । राजा शोक शनैरोज्झज्ज्वरीव रसविक्रियाम् ॥ १७८ ॥ पितुः शरयासनादीनि पश्यन्तं तु पुनः पुनः । सिंहावलोकनन्यायाच्छोकः कूणिकमभ्यगात् ॥ १७९॥ गडूचीस्तंबवच्छोके मोन्मीलति मुहुर्मुहुः । राजा राजगृहे स्थातुमभूद् भृशमनीश्वरः ।। १८०॥ करिष्ये पुरमन्यत्रेत्यादिदेश विशांपतिः । शस्तभूशोधनायाथ वास्तुविद्याविशारदान ॥ १८१॥ ने च वास्तुविदः शस्तां पश्यन्तः सर्वतो भुवम् । प्रदेशेऽद्राक्षुरेका महान्तं चंपकद्रुमम् ।। १८२ ॥ ऊचुश्च नायमुद्याने दृश्यते नेह सारणिः नायमावालवलयी तथाऽप्यस्याद्भुना लिपिः॥ १८३ ॥ १ पात्रे . L. DI -
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अहो बहुलशाखत्वमहो पत्रलताऽद्भुना । अहो कुसुमसंपत्तिरहो कुसुमसौरभम् ॥ १८४ ॥ अहो चछायैकातपयमातपत्राभिभावुकम् । अहो विश्रामयोग्यत्वमहो सर्व किमप्यदः ॥ १८५॥ निसर्गरमणीयोऽयं यथा श्रीधाम चंपकः । तथाऽत्र नगरमपि भविष्यति न संशयः ॥ १८६ ॥ चंपकेन श्रियः सत्यंकारेणैवोपशोभितम् । स्थानं पुरीनिवेशाई ते तथाऽऽख्यन्महीभुजे ॥ १८७॥ चंपकस्याभिधानेन चंपेति नगरी नृपः । वेगादकारयत् सिद्धिर्वचसाहि महीभुजाम् ॥ १८८ ।। ततश्च पुर्श पंचायां त्या सध-पास ( महीमिमां श्रेणिकसूर्धातृभिः सहितोऽन्वशात् ॥ १८९ ॥ अब सेचनकारूढौ दिव्यकुंडलमंडितो। दिव्यहारांशुकधरौ भूगनौ स्वर्गिणाविव ॥ १९ ॥ अत्यद्भुतश्रियो हल्लविहल्ली निजदेवरी । दृष्ट्वा पद्मावती दध्यो स्वस्य स्त्रीत्वस्य सन्निभम् ॥ १९१ ॥ हारकुंडलचासोभिर्दिव्यैः सेचनकेन च । विना हि मन्यते राज्यं नेत्रहीनमिवाऽऽननम् ।। १९२ ॥ ततो हल्लविहल्लाभ्यां तान्याहर्तुं कृताग्रहा। यभाण कूणिकं राज्ञी कूणिकोऽप्येवमभ्यधात् ॥१९३ ॥ पितृदत्तं वस्त्वनयो हर्तु युज्यते मम । विशषेण प्रसादार्हाविमौ ताते दिवं गते ॥ १९४ ॥ तस्याश्चात्याग्रहाद्राजा मेने हारादियाचनम् । स्त्रीग्रहः खलु मत्कोटग्रहादपि विशिष्यते ॥ १९५ ॥ अन्यस्मिंश्च दिने हल्लविहल्लो पृथिवीपतिः। ययाचे त्यत्तसौभ्रात्रस्तद्धारादिचतुष्टयम् ॥ १९६ ॥ प्रमाणमादेश इति प्रतिपद्य गृहं गतौ । आ(अ)मंत्रयतां तावित्थं बुद्धिमन्तावुभावपि ॥ १९७ ।।
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न शोभनोऽस्याभिप्रायः किमनेन प्रयोजनम् । प्रथायोऽन्यत्र शुत्रापि मिया सर्वत्र पोष्मनाम् ॥ १०८ ॥ इनि निश्चित्य तो सान्तःपुरौ सेचनकद्विपम् । हारावीन्यप्युपादाय वैशाल्यां निशि जग्मतुः ।। १५९ ॥ मातामहश्चेटकस्तौ परिरभ्य समागतौ । स्नेहेन प्रतिपत्त्या च ददर्श युवराजवत् ॥ २०० ॥ वैशाल्यां च गती ज्ञात्वा तो प्रतारितधूनवत् । हस्तविन्यस्तचिबुक्रश्चिन्तयामास कूणिकः ॥ २० ॥ न मे हस्त्यादिरनानि न च तो भ्रातरावपि । जातोऽहमुभयभ्रष्टः स्त्रीप्रधाननया खल्लु ॥ २०२॥ भवतु व्यसने प्राप्तेऽमुस्मिंस्तौ नाऽऽनयामि चेत्। पराभवसहिष्णोर्मे वणिजश्च किमन्तरम् ।। २०३ ॥ अनुशिष्य ततो दूतं वैशाल्यामुपचेटकम् । प्रेषीद् भ्रात्रोर्मार्गणाय रमान्यादाय जग्मुषोः ॥ २०४ ॥ दूनोऽपि पुयाँ वैशाल्यां गत्वा चेटकपर्षदि । प्रणम्य चटक स्थान चाऽऽसित्वोचे ससौष्ठवः । ।। २०५॥ इह नंष्ट्वा समायातौ रत्नैः सह गजादिभिः । कुमारी हल्लविहल्लौ कूफिकस्य समर्पय ॥ २०६ ॥ अनर्पयनिमी राज्यभ्रंशमासादयिष्यमि । कीलिकार्थे देवकुलं न भ्रंशयितुमर्हसि ॥२०॥ घेटकोऽवोचदन्योऽपि नात शरणागतः । दौहित्री किं पुनरिमा विश्वस्तौ पुत्रवत्मियौ । २०८ ॥ दूतोऽब्रवीच्छरण्यस्त्वं न बर्पयसि चेदिमौ । तद्रनान्यनयो त्वा राजन्मस्वामिनेर्पय ॥२०९ ॥ चटकः स्माह धर्मोऽयं समानो राजरंकयोः अन्यस्य वित्तं न ह्यन्यो दातुमीशीत जातुचित् ।। २१० ॥ न प्रसत्य न वा साम्राऽनयोहामि किंचन | धर्मपानं हि दौहित्री दानाहीं मे विशेषतः ॥ २११ ॥
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दूनोऽप्यागत्य चपायां तां गिरं चेटकोदिताम् । आख्यत् स्वस्वामिनः क्रोधवह्निवात्यामनाकुलः ॥ २१२ ॥ कृणिकोऽपि हि तत्कालं जयभभामबीवदत् । सिंहा इव पराक्षेपं न सहन्ते महौजसः ॥ २१३ ॥ 'सैन्यान्यनन्यसामान्यतेजसस्तस्य भूपतेः । सबः सर्वामिसारेण सज्जीभूयात्रतस्थिर ।। २१४ ।। कालादयः कुमाराश्च दशापि हि महाबलाः। पुरो बभूवुः संनय सर्वसनहनन ते॥ २१५॥
त्राणि त्रीणि गजास्तावन्तो वाजिनोऽपि हि । सावन्तश्व रथाः कोट्यस्तिस्रोऽपि च पदातयः ॥२१॥ तेषां दशानां प्रत्येक कुमाराणामिदं पलम् । एतावत्कणिकस्यापि प्रभुत्वं त्वतिरिच्यते॥२१७॥(युग्मम् ) सैन्येनैतावता गच्छपेशश्चटक प्रति निरयामास धरणिं तरणिं च रजोभरः ॥२१ चेटकोऽप्यमितैः सैन्यैः कूणिकायाभ्यषेणयत् । राजभिदिमाकरशाहानिराहतः ॥ २१ ॥ द्विपास्त्रीणि सहस्राणि तावन्तश्च तुरंगमाः । तावन्तश्च स्थास्तिस्रः कोटयश्च पदातयः ॥ २२० ॥ अष्टादशानां प्रत्येक राज्ञां बलमदोऽभवत् । तत्तुल्यसंख्यं नृपतेश्चेटकस्याऽप्यभूलम् ॥ २२१॥ स्वदेशसीन्नि गत्वाऽस्थाचेटकः सेनया तया । दुर्भदं सागरब्यूह रचयामास चोवकैः ॥ २२२ ॥ चंपाधिपोऽपि तत्रागाचम्बा प्रागुक्तसंख्यया । चक्रे घ गरुडव्यूहमभेचं परसेनया । २२३ ॥ रणतुराणि घोराणि सैन्ययोरुभयोरपि । रोदाकुक्षिभरिध्वानान्यनाड्यन्त सहस्रशः ॥ २२४ ।। १ सेनान्योऽन" L.IN
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कीर्तिस्तं भैरिवोत्तन्धैः खटीघवलितैः खरैः । संशप्तकाश्च संचेरुर्द्वयोरपि हि सैन्ययोः ॥ २२५ ॥ कूणिकस्य बले कालः कुमारो वलनायकः । आदावपि प्रववृते योद्धुं चेटक नया ॥ २२६ ॥
युयुधे सादिना सादी निषादी च निषादिना । रथी च रथिना पत्तिः पतिना च बलद्वये ।। २२७ ॥ स्तंर मैस्तुरंगैश्च कुन्तघातनिपातितैः । अजायत तदा शैलगंडशैलवतीव भूः ॥ २२८ ॥ धैर्भव: समरे रुविराऽऽपगाः । सान्तरीपा इव साऽऽम्भोमानुषा इव चाऽऽवभुः ॥ २२९ ॥ स्फुरद्भिरसिभिर्वीरकुञ्जराणां रणाजिरे । असिपत्रवनमिष प्रादुर्भूतमदृश्यत ॥ २३० ॥ असिच्छिनैरुच्छद्भिर्वीराणां पाणिपंकजैः । कौणपाः पूरयामासुरघतंसकुतूहलम् || २३१ ॥ स्वान् रुंडानपि युद्धायाssदिशन्त इव हुंकृतैः । पेतुर्भवानां मूर्धानः खङ्गधाराभिराहताः ॥ २३२ ॥ इत्थं च सागरव्यूहं कालः पोल इवांबुधिम् । अवगाह्य ययौ पारमिव चेटकसन्निधिम् || २३३ || कालं कालमिवाऽकालेऽप्यायान्तं प्रेक्ष्य चेटकः । चिन्तयामास केनापि नैव वज्रमिवाऽस्खलि || २३४ ॥ अभ्यापतन्तं तदिमं रणसागर मन्दरम् । क्षणादपि निगृह्णामि देवनेन पतत्रिणा ।। २३५ ॥ इति दिव्येषुणा वैरिमाणसर्वस्वदस्युना । प्रहृत्य चेटकः कालं प्रापयामास पंचनाम् ॥ २३६ ॥ तदा चास्तमुपेयाय भास्वान कालकुमारवत् । शुभेव चंपेशबलं तमसा जग्रसे जगत् ॥ २३७ ॥
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युद्धं विमृज्य चंपेशवलं जाग्रदवास्थित । निद्रा ह्यभक्तभार्याणामिव वैरवतां कुतः ॥ २३८ ॥ चेटकस्य पुनः सैन्ये वीरा वीरजयन्तिकाम् । कुर्वन्तो जयवावित्रवादनेनात्यगुर्निशाम् ॥ २३९ ॥ चंपानायनाभिषिक्तं सेनानीत्येऽपरेऽहनि । महाकालं कालमिव मारयामास चेटकः ॥ २४० ॥ अष्टौ सेनापतीनन्यानपि श्रेणिकनन्दनान् । एकैकमहन्यककस्मिन् पूर्वषचटकोऽवधीत् ।। २४१॥ भातृष्यात्मसमानेषु कालादिषु दशस्वपि । चेटकेन हतेष्वेवं चंपापतिरचिन्तयत् ॥ २४२ ॥ देवतायाः प्रसादेन जेतैकेनापि पत्रिणा | न द्यायचेटको जय्यो मत्यैः कोटिमितैरपि ॥ २४३ ।। प्रभावं चेटकस्याऽमुं मया हा धिगजानता। मथैव निधनं नीता देवाभा भ्रातरो दश ॥ २४४॥ पभूव या गतिस्तेषां भविष्यति ममापि सा । युज्यते नापसतुं च दृष्टभ्रातृयधस्य मे ॥ २४ ॥ तद्देवता समाराध्य तत्मभावाज्जयाम्यरिम् । दिव्यप्रभावो दिव्येन प्रभावेण हि बाध्यते ॥ २४६॥ उपायमिति निश्चित्य कृत्वा च हृदि देवताम् । तस्थावष्टमभक्तेन राजा श्रेणिकनन्दनः ॥ २४७॥ पूर्वजन्मसंगतेन नुन्नौ तत्तपसापि च । शक्रश्च चमरेन्द्रश्च तत्कालं तमुपयतुः ॥ २४८॥ अचाते सौ च देवेन्द्रासुरेन्द्रौ भोः किमिच्छसि ? । सोऽप्यूचे यदि तुष्टौ स्थश्चेटकस्तनिहन्यताम् ॥२४॥ शको भूयोऽप्यभाषिष्टाऽपरं किमपि याच्यताम् । साधर्मिकश्चेटको मे तं निहन्मि न जातुचित ॥ २०॥ तथापि देहरक्षां ते करिष्यामि महीपते ! । यथा न जीयसे तेन सोऽब्रवीदेवमस्त्विति ॥ २१ ॥
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चमरेन्द्रोऽप्यथ महाशिलाकटकमाहवम् । अन्यं च रथमुशलं जैत्रं कर्तुममन्यत ॥ २५९ ॥ आये शिलासन्निभः स्यात पतितः कर्करोऽपि हि।कंटकोऽपि च जायेत महाशस्त्राधिकः खलु ॥ २५३ द्वितीय रथमुशले भ्राम्यनो भ्रमकं विना । परितः पिष्यते ताभ्यां वैरिसैन्यं रणोत्थितम् ॥ २२४॥ सुरेन्द्रश्चासुरेन्द्रश्च नरेन्द्रश्चापि कूणिकः । नतस्त्रयो युयुधिरे सह घेटकसेनया ॥ २५ ॥ पौत्रोऽथ नागयिनो द्वादशवतपालकः । सभ्यग्दृष्टिः षष्ठभोजी सदा भयविरक्तधीः ॥ २६ ॥ राजाभियोगतः षष्ठभक्तान्तपि कृताष्टमः । श्रीचेटकक्षितीशेन स्वयमत्यर्थमर्थितः ॥ २०७।। संग्रामे रथमुशले दुःसहे ताशेऽपि हि । प्राविगदरुणो नाम सेनानीः सत्यसंगरः२५८ (त्रिभिावशषक स चंपापतिसेनान्यं रणहेतोः समाक्षिपन् । प्रससार महासारो रथेनासधरंहसा ।। २५९॥ तो संमुखीभूतरथी डढोकाते रणेच्छया । वैरायमाणो भूमिष्ठभानुस्वर्भानुभीषणौ ॥ २६ ॥ चंपापतेश्चमूनाथो वरुणं रणमार्गणम् । प्रहर प्रहरेत्युचाजहार पुरःस्थितम् ॥ २६१ ॥ वरुणः स्माह हे दोष्मन् ! श्रावकस्यास्ति मे व्रतम् । अनिघ्नते न प्रहारं करवै वैरिणेऽपि हि ॥ २३२ ॥ साधु साधु महासत्त्वेन्युक्त्या चंपेशसन्यपः । मुमोच वाणं वरुणो विविधे तेन मर्मणि ॥ २६३ ॥ ततः कूणिकसेनान्यं वरुणोऽरुणलोचनः । एवेनैव प्रहारेण निनाय यमसदानि ॥ २६४ ।। १ भ्रामकं ॥
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गाढप्रहारविधुरो निःसृत्य वरुणो रणात् । तृणसंस्तरमासूक्ष्य निषद्येदमचिन्तयत् ॥ २६५ ॥ सर्वात्मना शरीरेण स्वामिकार्यमनुष्ठितम् । इदानीमन्तकालो मे स्वार्थस्यावसरः खलु ॥ २६६ ॥ अर्हद्वारकाः सर्वे सिद्धाः सर्वे च साधवः । केवल्युपज्ञो धर्म भूयासुः शरणं मम ॥ २६७ ॥ क्षमयामि सर्याजीवान् सर्व क्षाम्यन्तु ते मयि । मैत्री मे सर्वभूतेषु वैरं मम न केनचित् ॥ २६८ ॥ मामकीनं न किमपि न वाऽहमपि कस्यचित् । ममकार मकार्ष ग्रं तमपि व्युत्सृजाम्यहम् ॥ २६९ ॥ कानि कानि न दोsहं पापस्थानान्यसेविधि । तन्मिथ्या दुष्कृतं मेऽस्तु गतरागस्य संप्रति ॥ २७० ॥ देवत्वतिर्यक्त्वनारकत्वेषु यन्मया कृतं कर्म तीन गतिर्मम ॥ २७९ ॥ एवमाराधनां कृत्वा प्रत्याचख्यौ चतुर्विधम् । आहारमध दध्यौ च नमस्कारं समाहितः ॥ २७२ ॥ तदा च वरुणस्यैकः सुहृन्मिथ्याहगाहवात् । वहिर्भूत्वोपवरुणमागत्यै बमयो च ॥ २७३ ॥ वयस्य ! तव सौहार्दक्रीतोऽहमपि संप्रति । त्वदासेवितमध्वानं प्रपन्नोऽस्म्यविदन्नपि ॥ २७४ ॥ नमस्कार परावर्ती धर्मध्यानपरायणः । समाधिमरणं प्राप्य सौधर्मे वरुणो ययौ ॥ २७५ ॥ द्विमानेऽरुणाभाख्ये चतुःपस्योपमप्रमम् । पूरयित्वायुरुत्पथ विदेहेषु स सेत्स्यति ॥ २७६ ॥ अज्ञानसेविनेनापि वरुणस्य तु वर्त्मना । विपद्य तत्सुहृद् भूयो मनुष्यः सुकुलेऽभवत् ॥ २७७ ॥ विदेहेषु मनुष्यत्वं पुनरासाद्य सत्कुले । मुक्तिमार्ग समाराध्य स मोक्षपदमाप्स्यति ॥ २७८ ॥
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हने च वरुणेऽभूवंश्चेटकस्य चमूभटाः। युद्धाय द्विगुणोत्साहाः काण्डस्पृष्टवराहवत् ॥ २७९ ॥ गणराजस नास्तश्चेटकस्य चमूभटैः । अकुदि कूणिकचमूर्दशदिरधरं रुषा ॥ २८ ॥ कुट्यमानं बलं दृष्ट्वा स्वकीयमथ कूणिकः । लोष्टाहतः सिंह इव क्रोधोद्धतमघावत ॥ २८६ ।। सरसीव रणे क्रीडन् कूणिको वीरकुञ्जरः। दिशो दिशि परबलं पाखंडमिवाक्षिपत् ॥ २८२ ।। कणिक वर्जयं ज्ञात्वा चेटकोऽधात्यमर्षणः। ते दिव्यं मार्गणं शौर्यधनो धनुषि सन्दधे ॥ २८३ ॥ इतश्च वज्रकवचं कृणिकस्य पुरो हरिः । व्यधत्त चमरन्द्रस्तु पृष्ठे सन्नाहमायसम् २८४ ॥ चापमाकर्णमाकृष्य वैशालीपतिनाऽप्यथ । स मुक्तः सायको वज्रवर्मणा स्खलितोऽन्तरा ॥ २८५ ।। अमोघस्यापि धाणस्य सस्य मोघत्वदर्शनात् । घमुभटाश्चेटकस्य पुण्यक्षयममंसत ॥ २८६ ।। द्वितीयं नाऽमुचढाणं सत्यसन्धस्तु चेटकः । अपमृत्य द्वितीयस्मिन् दिने तद्वदयुध्यत ॥ २८७ ॥ तथैव मोघचाणोऽभूदू द्वितीयेऽपि चेटकः । एवं दिन दिने युद्धमतिघोरमभूत्तयोः ॥ २८८ ॥ लक्षाशीत्याऽधिका कोटिभेटानां पक्षयोर्द्वयोः । विपदे या सोदपादि तिर्यक्षु नरकेषु च ॥ २८९ ॥ नंष्ट्वा स्वस्वपुरं यात्सु गणराजेषु चेटकः । प्रणश्य प्राविशत् पुर्या कूणिकोऽपि झरोध ताम् ॥ २० ॥ तदा सेचनकारूदौ चंपेशस्याखिलं बलम् । वीरो हल्लविहल्लो तौ रात्रावभिवभूवतुः ।। २९१ ॥ न प्रहर्तुं नवा धर्तुं स हस्ती स्वमहस्तिवत् । केनाप्यशाकि चंपेशशिथिरे सौप्तिकागतः ॥ २९२ ॥
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मारयित्वा मारयित्वा निशि हल्लविहल्लयोः । क्षेमेण गच्छतोमंत्रिमंडली स्माऽऽह कूणिकः ॥ २९३ ।। आभ्यां विद्रुतमस्माकं प्रायेण सकलं बलम् । तद् ब्रूत क इहोपायो जये हल्लविहल्लयोः ।। २९४ ॥ मंत्रिणोऽप्यूचिरे तो हि जेतुं शक्यौ न केनचित् । अधिरूढौ हि यावत्तं हस्तिनं नरहस्तिनौ ॥ २९५ ॥ तस्मात्तस्यैव करिणो बधाय प्रयतामहे । खादिरांगारसंपूर्णा कार्यतां पथि खातिका ॥२९॥ छादयित्वा च चारीव दुर्लक्ष्या सा करिष्यते । तस्यां सेचनको वेगादभिधावन् पतिष्यति ॥ २९७ ॥ चंपेशोऽकारयदथ खादिरांगारपूरिताम् । खातिकामुपरिच्छन्नां सदागमनवमनि ॥२९८ ॥ अथ हल्लविहल्लावण्यवस्कन्दकृते निशि । निरीयतुः सेचनकाधिरूढी जितकाशिनौ ।। २९९ ॥ अंगारखातिकोपान्तमेत्य सेचनकोऽपि हि । तां विभंगेन विज्ञाय तस्थौ यतममानयन् ॥ ३०० ।। तनो हल्लविहल्लाभ्यामिति निर्भसितः करी । पशुरस्यकृतज्ञोऽसि कातरो यदभू रणात् ॥ ३०१ ॥ विदेशगमनं बन्धुत्यागश्च त्वत्कृते कृतः। अस्मिन्दुर्व्यसने क्षिप्तस्त्वकृते द्यायचेटकः ॥ ३०२ ॥ वरं श्वा पोषितः श्रेयान् भक्तः स्वामिनि यः सदा । न तु त्वं प्राणवाल्लभ्याद्योऽस्मत्कार्यमुपक्षसे ॥३०॥ इति नि ितो हस्ती कुमारी निजपृष्ठतः । वेगादुत्तारयामास भक्तमन्यो घलादपि ॥ ३०४॥ स्वयं तु तस्मिन्नंगारगर्ते झम्पां ददौ करी । सो विपद्य चाद्यायामुत्पेदे नरकावनी ॥ ३० ॥ १ जितम
॥३७॥
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द्वादशः
सर्ग:
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कुमारौ दध्यतुर्भिग्धिगावाभ्यां किमनुष्ठितम् । पशुत्षमावयोर्व्यक्तं न तु सेचनकः पशुः ।। ३०६॥ । आर्यपादा यस्य कृते क्षिप्ता दुर्व्यसने चिरम् । तं स्वयं निधनं नीत्वा जीवावोऽद्यापि दुर्भियौ ॥ ३०७ ॥ आर्यसैन्यस्य महनो नाशप्रतिभुवाधिध। अकृष्वाहे वृथा नाशं नीतो थन्धुरपन्धुताम् ।। ३०८ ॥ तन्नाऽद्य जीवितुं युक्तं जीवावश्चदतः परम् । शिष्यीभूवाहतो वीरस्वामिनः खलु नान्यथा ॥३०॥ नदा शासनदेव्या तौ भावभ्रमणतां गतौ । नीतौ श्रीवीरपादान्ते परिवव्रजतुतम् ॥ ३१॥ तदा च प्रव्रजिनयोरपि हल्लविहल्लयोः। अशोकचन्द्रो वैशालीमादातुमशकन्न हि ॥ ३११ ॥ एवं सति च चंपेशः प्रतिज्ञामकृतेदृशीम् । प्रतिज्ञया पौरुषं हि दोष्मतां भृशमेधते ॥ ३१८ ॥ न खनामि पुरीमेतां खरयुक्तहलेन चेत् । तदाऽहं भृगुपातेनाग्निमयशेन वा म्रिये ॥ ३१३ ॥ कृतसन्धोऽपि वैशाली पुरी भंक्तुमनीश्वरः । खेदमासादयामास कूणिकः क्रमयोगतः ॥ ३१४॥ नदा चाशोकचन्द्रस्य खिन्नस्य गगनस्थिता । देश्याख्यदीदृशं रुष्टा श्रमण कूलवालके ॥ ३१५ ॥ "गनियं चे मागधियं शमने कुलवालके । लभिन्न कूणि एलाए तो वेशालिं गहिस्सिदि ॥ ३१६॥ आकाशदेवतावाचमिमामाकर्ण्य कूणिकः । यभाण सद्यः सातजयप्रत्याशयोच्छ्चसन् ॥ ३१७॥ बालकानां हि भाषा या भाषा या योषितामपि । औत्पातिकी च भाषा या सावै भवति नाऽन्यथा ॥३१॥ तत्क्वास्ति श्रमणः कूलवालकः प्राप्स्यते कथम् । ? पण्यांगना मागधिकाभिधाना विद्यते क वा १॥३१॥
Xin३७२
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तछ्रुत्वा मैत्रिणः प्रोचुस्तवैव पुरि विद्यते । वेश्या मागधिका देव ! न विद्मः कूलवालकम् ॥ ३२० ॥ तदैव मुक्त्वा सैन्या, वैशालीरोधहेतवे । सैन्यार्धन ययौ चंपां चंपापतिरिलापतिः॥ ३२१ ॥ पण्यांगनां मागधिकां मगधाधिपनन्दनः । आह्रास्त गतमात्रोऽपि त्वरितं वरमंत्रिवत् ।। ३२२ ॥ आदिदेश च भद्रे ! त्वं धीमती त्वं कलावती । त्वया चानकपुंसां धीराजन्माप्युपजीविता ॥ ३२३ ॥ सफलीकुरु मत्कार्ये सद्वैशिककलां निजाम् । रमयित्वा पतित्वेन श्रमणं कूलवालकम् ॥ ३२४ ।। करोम्येवमिति च सा प्रपेदाना मनस्विनी । चंपानाथेन सचक्रे वस्त्रालंकरणादिना ।। ३२५ ॥ विसृष्टा च गृहं गत्वा विमृश्य च धियां निधिः । तदैव मूर्त्ता मायेव सा मायााविकाऽभवत् ॥ ३२६॥ सा गर्भश्रानिकामना गृहिर्ग पथाविधि । अगि द्वादशधा लोके दर्शयामास सत्यवत् ॥ ३२७ ॥ चैत्यपूजादिनिरतां धर्मश्रवणतत्पराम् । ऋज्वाशयाश्च विविदुराचार्याः श्राविकेति ताम् ॥ ३२८ ॥ सान्यदाऽपृच्छदाचार्यान् कः साधुः कूलवालकः । तद्भावमविदन्नश्च कथयन्ति स्म तेऽप्यदः ॥ ३२९ ॥ धर्मज्ञे ! पंचधाऽऽचारनिरतो मुनिपुंगवः । एकोऽस्ति तस्य च क्षुल्ल एकः कपिरिवास्थिरः॥ ३३० ।। सामाचारीपरिभ्रष्टो वारणास्मारणादिभिः । नोद्यमानो याति रोषं स तु क्षुल्लोऽतिदुर्नयः॥ ३३१ ॥ गुरुस्तु तस्य क्षुल्लस्य दुःश्रवामपि सादरः । आचारशिक्षा प्रददौ यदुक्तमिदमागमे ॥ ३३२ ॥ “परो रुप्यतु वा मा वा विषवत्प्रतिभातु वा । भाषितव्या हिता भाषा स्वपक्षगुणकारिणी" ॥ ३३३ ॥
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न कर्कशां न मधुरां गुरोः शिक्षाममस्त सः । लघुकर्मणि शिष्ये हि प्रभवन्ति गुरोर्गिरः ॥ ३३४ ॥ विहरन्तोऽन्दाचार्याने 'गिरेर्नगरं ययुः । उज्जयन्तं चारुरुहुः सह क्षुल्लेन तेन तु ।। ३३५ ।। क्षुल्लेन देवं वन्दित्वा गुरोरुत्तरतो गिरेः । मुमुचे गंडपाषाणः पेषणाय दुरात्मना ।। ३३६ ।। श्रुत्वा खडखडाशब्दं गुरुराकुञ्चिक्षणः । आलोके तमझमानं पतन्तं पत्रिगोलवत् ॥ ३३७ ॥ चक्रे च विघस ग्रायाऽपि तदन्तरे । निरियायापदः प्रायः प्रभवन्ति न धीमति ।। ३३८ ॥ शशाप च गुरुः क्षुल्लं कुपितस्तेन कर्मणा । स्त्रीसकाशादरे पाप ! व्रतभंगमवाप्स्यसि ।। ३३९ || क्षुल्लोऽब्रवीद्गुरो ! शापं करिष्यामि तवान्यथा । तत्र वत्स्याम्यरण्येऽहं यत्र द्रक्ष्यामि न स्त्रियम् ॥ ३४० ॥ इति स गुरुं त्यक्त्वा मर्यादाभित्र दुर्मतिः । निर्मानुषामरण्यानीं स शार्दूल हवाविशत् ॥ ३४१ ॥ गिरिकूलकषामृले स्थितः प्रतिमया सदा । स मासादर्थमासाद्वा पथिकादेरपारयत् ॥ ३४२ ॥ एवं कूलंकषाले मुनेस्तस्य तपस्यतः । प्रावृट् प्रादुर्बभूवान्दवितानितनभस्तला ॥ ३४३ ॥ रसोद्रेकेण लुपन्त्य उभे कूले कुले इव । नय उन्मार्गगामिन्यो बभूवुः कुलटा इत्र || ३४४ ॥ क्षुल्लाधिष्ठितकूलायामुत्पूरायां सरित्यथ । दध्यौ तद्देवता भक्ता शासने श्रीमताम् ॥ ३४५ ॥ कूलस्थितो मुनिरयं कूलद्रुम इवाधुना । नेध्यते वारिपूरेण यद्युपेक्षां करोम्यहम् ॥ ३४६ ॥
१ गिग्नि है.
द्वादशः
सर्गः
।। ३७४
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तनो गिरिणदीदेव्या निज कूल दिशाऽन्यया । प्रावर्ति यत्र तत्रापि क्षेममेव तपोजुषाम् ॥ ३४७ ॥ कूलवालक इत्याख्या तदा नस्य मुनेरभूत् । सांप्रतं धनतेऽमुत्र प्रदेशे स महातपाः ॥ ३४८ ।। कलकत्येव सा सयः स्मयमानेक्षणा ययौ । कूलवालकविज्ञानात् फलितच्छ पादपा ॥ ३४० वन्दमानाऽथ चैल्यानि तीर्थयात्रा लेन सा । तमुहेामपेशाय यन्त्रर्षिः कूलवालकः ॥ ३० ॥ वन्दित्वा ने मुनिवरं सा मायाश्राविकाऽवदत् । उज्जयन्तादितीर्थानि कन्दयेऽहं मुने! त्वया ॥ ३१ ॥ कायोत्सर्ग मुनिर्मुक्त्या धर्मलाभाशिर्ष ददौ । तीर्थान्यवन्दतापृच्छच्चाऽऽगतासि कुतः शुभे?॥ ३.२॥ माऽख्यमहर्ष ! चंपाया आगां तीर्थानि बन्दितुम् । तीर्थेभ्यः परमं तीर्थमिह यूयं च वन्दिताः ॥ ३५३ ॥ तदस्मदीयं पाथर्य भिक्षादोषविवर्जितम् । आदाय पारणं कृत्वा महर्षेऽनुगृहाण ! माम् ॥ ३५४ ।। भक्तिभावनया नस्या मुनिरामनाः स तु । जगाम भिक्षामादातुं तत्सार्थेऽनर्थसद्मनि ॥ ३२५ ॥ ददिरे च स्वयं तस्मै कूटश्राविकया गया। पुरा संयोजितद्रव्या मोदका मोदमानया ।। ३५६ ॥ अभूत्वाशितमात्रैस्तैर्मोदकैः सोऽतिसारकी । रसवीर्यविपाको हि द्रव्याणां जातु नान्यथा ॥ ३५७॥ अतिसारेण स ग्लानो महर्षिरभवत्तथा । संवरीतुं क्षीण क्लो यथांगान्यपि नाशकत ॥ ३॥ तं च मामधिका प्रोचे समयस्मृतवैशिका । कृतपारणकोऽसि त्वं मदनुग्रहकाम्यया ॥ ३५९ ॥ स्वामिन्मदीयपाथेयप्राशनादप्यनन्तरम् । प्राप्तोऽसि दुर्दशामेवं धिग्मां पापतरंगिणीम् ॥ ३० ॥
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॥३७॥
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aarathi मुक्त्वा प्राप्तमेतावतीं दशाम् । न गन्तुमुत्सहते मे पादौ निगडिताविव ।। ३६१ ॥ इत्युक्वा सा स्थिता तंत्रोपससर्प क्षणे क्षणे उद्वर्तयितुमंगानि प्रदातुं भेषजानि च ॥ ३६२ ॥ उनादिकं तस्य तथा मागधिका व्यधात् । यथा तं कारयामास सर्वागस्पर्शमात्मनः ॥ ३६३ ॥ उल्लाघः स शनैश्च तथा शुश्रूषमाणया । चंपकेनांशुकमिव तद्भक्त्या चाध्यवास्यत ॥ ३६४ ॥ कटाक्षवीक्षणैस्तया अंगस्पर्शसदृक्तिभिः । मुनेस्तस्या चलच्चित्तं स्त्रीसंगे हि कियत्तपः ॥ ३६६ ॥ मुनेर्मागधिकायाश्च मिश्रः शय्यासनादिभिः । दम्पतिव्यवहारोऽभूदतिव्यक्तो दिने दिने || ३६६ ॥ निन्ये च मागधिकया चंपायां कूलवालकः । नारीणां किंकर इव कामान्धः किं करोति न ? ॥ ३६७ ।। पेशाय शशंसे च देवायं कूलवालकः । पतीकृत्य मर्याऽऽनीतः किं करोतु समादिश ॥ ३६८ ॥ आदिदेश विशामीशोऽप्यादरात् कूलवालकम् । यथा भज्येत वैशाली मंधु भिक्षो ! तथा कुरु ॥ ३६९ ॥ प्रतिश्रुत्य नृपादेशं धीनिधिः कूलवालकः । जगाम लिंगिरूपेण वैशालीमस्खलगतिः ॥ ३७० ॥ Pinterest area वैशालीमखिलैर्बलैः । रुरोध रुद्वामग्रेऽपि जयप्रत्याशयोत्सुकः ॥ ३७१ ॥ द्रव्याणि द्रष्टुमारेभे पुर्या मागधिकापतिः । श्रीमुनिसुव्रतस्वामिस्तूपमेकं ददर्श च ॥ ३७२ ॥ सोऽचिन्तय तं दृष्ट्वा प्रतिष्ठालनमस्य हि । बलीयस्तत्प्रभावेण निश्चितं पूर्न भज्यते ॥ ३७३ ॥
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| द्वादशः
[ सर्ग:
॥ ३७६
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केनाप्योपथिकनेदं स्तूपमुत्थाप्यते यदि । तदा भज्येत वैशाली नाऽन्यथा वज्रिणाऽपि हि ॥ ३७४ ॥ चिन्तयन्निति यम्राम वैशाल्यां कूलवालकः । अपृच्छयत च तल्लोकैः पुरीरोधकवर्थितः ॥ ३७५ ॥ वयं भदन्त ! दान्ताः स्मः पुरीरोधेन विद्विषा । यदि वेत्सि तदाऽऽख्याहि कदोद्वेष्टो भविष्यति ? ॥३७६॥ सोऽवदद्वेम्यहं सम्यग्यावत् स्तूपमिहास्त्यवः । नगर्यास्तावदुद्वेष्टो न भविष्यति हे जनाः ॥ ३७७ ॥ स्तृपेऽस्मिन् भज्यमानेऽपि भावी प्रत्यय एष वः। द्विट्सैन्यं वार्दिवेलेवाकस्मादपसरिष्यति ॥ ३७८ ॥ उत्कीलिते समन्तात्तु स्तूपे स्वस्त्यस्तु वो जनाः । कुलग्ने स्थापितमिदं मा मोहमिह यात भोः॥ ३७९ ॥ सं स्तूपं भक्तुमारेभे धूर्तधीवश्चितो जनः । सुखप्रसार्यः प्रायेण सर्वोऽपि व्यसनार्दितः ॥ ३८० ॥ भंक्तुमारब्धमानेऽपि स्तुपे मागाधिकापतिः । गत्वाऽपसारयामास द्विकोशीमथ कूणिकम् ॥ ३८१ ॥ उत्पन्नमत्ययो लोकस्तं स्तूपं कूपभेकधीः । कूर्मन्यासशिलां यावन्निर्मूलमुदमूलयत् ॥ ३८२ ॥ यभन्न द्वादशानान्ते वैशाली कणिकस्ततः । स्तपस्यैव प्रभावोऽभूत पुरा हि दरतिक्रमः॥ ३८३॥ विरराम तदा चंपावैशालीनाथयो रणः । एतस्यामवसर्पिण्यामीशो न कदाऽप्यभूत् ॥ ३८४ ।। भाणयामास वैशालीपतिं चंपापतिस्तदा। आर्य चेटक पूज्योऽसि किं करोमि तव प्रियम् ? ॥ ३८५॥ घेटकोऽपि विषण्णात्मा कूणिक प्रत्यभाणयत् । जयोत्सवोत्सुकोऽपि स्वं विलंब्य प्रविशेः पुरीम् ॥ ३८६ ॥ "राम" ॥
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द्वादशः सर्ग:
KAMPANM ILMA-MORALAMA
दृनेन चेटकवचस्याख्याते कूणिकोऽपि हि । किं याचितमिति ह्रीणस्तथैव प्रत्यपद्यत ॥ ३८७ ॥ इतश्च सल्यकिर्नाय सुज्येष्ठासनलमाः। मोहिमोदकस्यागाचिन्तयामास चेति सः॥ ३८८ ॥ मातामहमजामेतां लुट्यमानामरातिभिः । कथं द्रक्ष्यामि तदिमां नयाम्यन्यत्र कुत्रचित् ।। ३८९ ॥ इति तन्नगरीलोकं सर्वमुत्पाट्य विद्यया । निनाय नीलवत्यद्री लालयन पुष्पदामवत् ।। ३९० ।। अथ मृत्युश्रियमिव बद्ध्वाध्यापुत्रिकां गले । चेटकोऽनशनं कृत्वा विक्षदस्ताघवारिणि ॥ ३९१ ॥ स मज्जन धरणेन्द्रेण समीक्ष्य भवने निजे । निन्ये साधर्मिक इति मृत्यु ऽत्रुटितायुषाम् ॥ ३९२ ॥ धरणेन श्लाघ्यमानधर्मध्यानो महामनाः । तस्थौ मृत्योरचकितश्चेटकः प्राग्रणादिव ॥ ३९३ ॥ अहत्सिद्धसाधुधर्मान्मंगल्यान्मंगलात्मनः । लोकोत्तमांश्च चतुरश्चतुरः सोऽस्मरत् स्वयम् ॥ ३९४ ॥ जीवाजीवादितत्वोपदेशकाः परमेश्वराः । बोधिमदाः स्वयंवुद्धा अर्हन्तः शरणं मम ॥ ३९५ ।। ध्यानामिदग्धकर्माणस्तेजोरूपा अनश्वराः। अनन्त केवलज्ञानाः सिद्धाश्च शरणं मम ॥ ३९६ ॥ निरीहा निरहंकारा निर्ममाः समचेतसः। महावतधरा धीराः साधवः शरणं मम ॥ ३९७ ।। अहिंसासूनृतास्तेयब्रह्माचिनतामयः । केवल्युपज्ञः परमो धर्मश्च शरणं मम ॥ ३९८ ॥ अपि जन्मशतैर्य यदपराद्धं शरीरिषु । त्रिविधं त्रिविधेनापि तन्निन्दामि समाहितः ॥ ३९९ ॥ गृहिधर्म द्वादशधा मया पालयता कृता । ये केचिदप्यतीचारास्तान् सर्वान् व्युत्सृजाम्यहम् ॥ ४००।
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क्रोधमाममायालोभाभिभूतेन मया सदा । कृतं यच्च हिंसादि तत्त्रिधापि धिगस्तु मे ॥ ४०१॥ एवमाराधनां कृत्वा नमस्कारपरायणः । विपद्य चेटकः स्वर्गसुखभाजनतां ययौ ॥ ४०२॥ अशोकचन्द्रोऽपि धुरीत हलयुक्तरसमः । खयित्वा क्षेत्रमिव स्वां प्रतिज्ञामपूरयत् ॥ ४०३ ॥ ती प्रतिज्ञा चंपेशो दुस्तरामापगामिव । जगाम चंपानगरीमुत्सवेन गरीयसा ॥ ४०४॥ अन्यदा पाबयन पृथ्वीं विहारेण जगद्गुरुः। जगाम चंपां श्रीवीरस्तत्रैव समवासरत् ॥ ४०५॥ श्रीवीरस्वामिनः पाश्चें तत्र कालादिमातरः। विरक्ताः सूनुनिधनात् प्रानजणिकप्रियाः॥ ४०६॥ त्रलोक्यसंशयच्छेदकारकं परमेश्वरम् । वन्दितुं तत्र समवसरणे कूणिकोऽप्यगात् ।। ४०७ ॥ नत्या नाथं यथास्थानमुपविश्याथ कूणिकः । पप्रच्छ लब्धावसरः शिरस्यारचिताञ्जलिः ॥ ४०८॥ आजन्माप्यपरित्यक्तकामभोगा भवन्ति ये । कां नाम ते गति यान्ति चक्रिणः परमेश्वर ! ॥ ४०९॥ स्वाम्याख्याते हि गच्छन्ति सप्तमी नरकावनिम् । पप्रच्छ कूणिको भूयो भाविनी मम का गतिः? ॥४१॥ आचख्यो भगवान् षष्ठी नरकोबी गमिष्यसि । कूणिकः स्माह किमहं न हि यास्यामि सप्तमीम् ॥४११॥ भगवानप्युवाचैवं चक्रवत्येव न स्यसि । सति धर्मिणि धर्मा हि चिन्त्यन्ते श्रेणिकात्मज ॥ ४१२।। अपृच्छत् कूणिकः किं न चक्रयहं परमेश्वर ! । ममापि चक्रितुल्याऽस्ति चतुरंगा वरूथिनी ॥ ४१३ ॥
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-MAKACITORIAARAKAKAR
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॥३७९
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स्वाम्यूचे तव रत्नानि चक्रादीनि न सन्ति भोः ! । विनैकेनापि रत्नेन चक्रभृन्नाम दुर्घटम् ॥ ४१४ ॥ तच्छुत्वोत्थाय पेशो महाऽहंकार पर्वतः । एकेन्द्रियाणि लौहानि महारत्नान्यकारयत् ॥ ४१५ ॥ पद्मावत स स्त्री रत्नानी भाविकान्यपि । सोऽल्पधीः कल्पयामास मनोरथकदर्पितः ॥ ४१६ ॥ साधयन् भरतक्षेत्रं कूणिकोऽसत्यविक्रमः । क्रमेण वैताढ्यगुहां तमिस्रामासदद्वलैः || ४१७ ॥ अनात्मज्ञः स उन्मत्त इव दुर्दैवदूषितः । गुहाद्वारकपादानि दंडेन त्रिरताडयत् ॥ ४१८ ॥ कृनमालामरः प्रोचे तद्गुहाद्वाररक्षकः । मुमूर्षुः कोऽयमाहन्ति गुहाद्वारमनात्मवित् ॥ ४१९ ।। कूणिकोऽभ्यवदत् किं मां जिगीपुं वेत्सि नागतम् ? | अशोकचन्द्रनामाऽहमुत्पन्नश्ववर्त्यहो || ४२० ॥ कृतमालामरः स्माह चक्रिणो द्वादशाभवन् । अप्रार्थितप्रार्थकोऽसि बुध्यस्व स्वस्ति तेऽस्तु भोः ॥ ४२१ ॥ कूणिकोऽपि भाणैवमहं चत्री प्रयोदशः । उत्पन्नः कृतपुण्योऽस्मि पुण्यैः किं नाम दुर्लभम् ॥ ४२२ ॥ पराक्रमं न मे वेत्सि कृतमाल ! गुहामिमाम् । कुरुष्व विततद्वारामन्यथा न भवस्य हो || ४२३ ॥ आधिदैविकदोषात्तमिवासंबद्धभाषिणम् । कूणिकं कृतमालो द्राग्रोषादकृत भस्मसात् ॥ ४२४ ॥ अशोकचन्द्रो राजैवं विषय नरकावनिम् । षष्ठीमियाय वचनं ह्यर्हतां जातु नान्यथा ॥ ४२५ || आलेख्यशेषतां प्राप्ते कूणिके तु तदात्मजम् । सर्वे प्रधानपुरुषा राज्ये न्यधुरुवायिनम् ॥ ४२६ || उदारयपि प्रजां न्याय्यवर्त्मना पर्यपालयत् । अखंडशासनः पृध्यां प्रथयन् जैनशासनम् ॥ ४२७ ॥
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द्वादवाः सर्गः
॥ ३८०
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तस्य स्थानस्थितस्यापि प्रतापसवितुर्हिषः । तेजोऽमहाः प्रविविशर्षकवट्रिरिंगहरे ॥ ४२८ ॥ धर्मदानयुद्धभेदैस्तस्य वीरत्वमद्भुतम् । निदर्शनतया जज्ञे भूतसद्भाविभूभुजाम् ॥ ४२९ ॥ कदाऽपि तस्य नोत्पेदे भयं स्वपरचक्रजम् । विभाय स पुनर्नित्यं श्रावकवतखंडनात् ॥ ४३० ।। चतुःपा चतुर्थादितपसा शुद्धिमुद्बहन् । सामायिकस्थस्तस्थौ स स्वस्थः पौषधसद्मनि ॥ ४३१ ॥ अहंन्देवो गुरुः साधुरिति तस्य दिवानिशम् । मंत्राक्षरमिव ध्येयं हृदयादुत्ततार न ॥ ४३२॥ अखंडिताशस्त्रिखंडां दयावानपि सर्वदा । शशास जगतीमेतामुदाय्युदयभाग्नृपः ।। ४३३ ॥ श्रीवीरस्वामिनो धर्मदेशनाममृतोपमाम् । आचम्याचम्य स सुधीरात्मानं पर्यपाश्यत् ॥ ४३४ ॥ एवमाकेवलज्ञानोत्पत्तेविहरतो महीम् । षभूवेति परीवारः स्वामिनश्वरमाईतः ॥ ४३५ ॥ समजायन्त साधूनां सहस्राणि चतुर्दश। षट्त्रिंशत्तु सहस्राणि साध्वीनां शान्तचेतसाम् ॥ ४३६ ॥ चतुर्दशपूर्वभृतां श्रमणानां शतत्रयम् । प्रयोदशशत्यवधिज्ञानिनां सप्तशत्यथ ॥ ४३७ ।। चैक्रियलब्ध्यनुत्तरगतिकेवलिनां पुनः ! मनोविदां पंचशती वादिनां तु चतुःशती ॥ ४३८ ॥ श्रावकाणां तु लकैकोनषष्टिसहस्रयुक् । श्राविकाणां तु निलक्षी साष्टादशसहस्रिका ।। ४३९ ।।
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यातेषु गौतमसुधर्मनन्द्रवर्ज ।
मोक्षश्रियं गणधry नवस्वथोच्चैः ॥ स्वामी सुरासुरनभश्वर सेव्यमान ।
पादो जगाम भगवान्नगरं मपापाम् ॥ ४४० ॥
॥ इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिविरचिते त्रिषष्टिशला कापुरुषचरिते महाकाव्ये दशमपर्वणि भाविकुमारपालदेव चरिताभयप्रव्रज्या - कूणिक चरितो- दायिराज्य- श्रीमहावीर के बलिविहारवर्णनो नाम द्वादशः सर्गः ॥
द्वादश: सगः
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॥ अथ त्रयोदशः सर्गः ॥
अथ तन्त्र सुराश्चकुर्वत्रितयभूषितम् । रम्यं समवसरणं स्वामिनो देशनासदः ॥ १॥ ज्ञात्वा निजायुःपर्यन्तमन्तिमा देशनां प्रभुः। कर्तुं तस्मिन्नुपाविक्षत् सुरासुरनिषेवितः ॥२॥ स्वामिन समवसतं ज्ञात्वाऽपापापुरीपतिः । हस्तिपालः समागत्य नत्वा च ममुपाविशत् ॥३॥ शुश्रूषमाणास्तत्रास्थुर्यथास्थानं सुरादयः। एत्य नत्वा सहस्राक्ष इति स्वामिनमस्तवीत् ॥ ४ ॥ धर्माधों विना नांगं विनांगेन मुखं कुतः । मुखाद्विना न वक्तृत्वं तच्छास्तारः परे कथम् ॥५॥ अदेहस्य जगत्सर्गे प्रवृत्तिरपि नोचिता । न च प्रयोजनं किंचित् स्वातंत्र्यान्न पराऽऽज्ञया ॥६॥ क्रीडया चेत्प्रवतेत रागवान् स्यात्कुमारवत् । कृपयाऽथ सृजेत्तर्हि सुख्येव सकलं मुजेत् ॥७॥ दुःखदौर्गत्यदुर्योनिजन्मादिक्लेशविह्वलम् । जनं तु सृजतस्तस्य कृपालोः का कृपालुता ॥ ८॥ कर्मापेक्षः स चेतर्हि न स्वतंत्रोऽस्मदादिवत् । कर्मजन्ये च वैचित्र्ये किमनेन शिखण्डिना ॥१॥ अथ स्वभावतो वृत्तिरविता महेशितुः । परीक्षकाणां तयेष परीक्षाक्षेपडिडिमः ॥ १० ॥
४॥३८३
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ROMA
सर्वभावेषु कर्तृत्वं ज्ञातृत्वं यदि संमतम् । मतं नः सन्ति सर्वज्ञा मुक्ताः कायभृतोऽपि च ॥ ११ । सृष्टिवादकहवाकमुन्मुच्येत्यप्रमाकम् । त्वच्छासने रमन्ते ते येषां नाथ प्रसीदसि ॥१२॥ इति स्तुत्वा सुनासीरे स्थितेऽपापापुरीपतिः । हस्तिपालनपोऽप्येवं वीरस्वामिनमस्तवीत् ॥ १३ ॥ न परं नाम मृदेव कठोरमपि किंचन । विशेषज्ञाय विज्ञप्यं स्वामिने स्वान्तशद्धय॥१४॥ न पक्षिपशुसिंहादिवाहनाऽऽसीनविग्रहः । न नेत्रवानगात्रादिविकारविकृताकृतिः ॥ १५ ।। न शूलचापधादिशस्त्रांककरपल्लवः । नांगनाकमनीयांगपरिष्वंगपरायणः ॥ १६ ।। न गर्हणीयचरितप्रकंपितमहाजनः । न प्रकोपप्रसादादिविडम्बितनरामरः ॥ १७ ॥ न जगज्जननस्थेमविनाशविहितादरः। न लास्यहास्यगीतादिविप्लवोपप्लुत स्थितिः॥१८॥ नदेव सर्वदेवेभ्यः सर्वथा त्वं विलक्षणः । देवत्वेन प्रतिष्टाप्यः कथं नाम परीक्षकै ? ॥ १९॥ अनुश्रोतःसरत्पर्णतृणकाष्ठादि युक्तिमत् । प्रतिश्रोतःप्रयवस्तु कया युक्त्या प्रतीयताम् ॥ २० ॥ अथवाऽलं मन्दबुद्धिपरीक्षकपरीक्षणः । ममापि कृतमेतेन वैयात्येन जगन्प्रभो ! ॥ २१ ॥ यदेव सर्वसंसारिजन्तुरूपविलक्षणम् | परीक्षन्तां कृतधियस्तदेव तव लक्षणम् ॥ २२॥ क्रोधलोभभयाक्रान्तं जगदस्माद्विलक्षणः । न गोचरो मृदुधियां वीतराग ! कथंचन ॥ २३ ॥ एवं स्तुत्वा हस्तिपाल विरतेऽर्हन्नपश्चिमः । अपश्चिमामित्यकरोद्भगवान धर्मदेशनाम् ॥ २४ ॥
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महत्वारः कामार्थी तत्र जन्मिनाम् । अर्थभूतौ नामधेयादनर्थी परमार्थतः ॥ २५ ॥ अर्थस्तु मोक्ष एक धर्मस्तस्य च कारणम् । संयमादिर्दशविधः संसाराम्भोधितारणः ॥ २६ ॥ अनन्तदुःखः संसारो मोक्षोऽनन्तसुखः पुनः । तयोस्त्या गरिमा विना न हि ॥ २७ ॥ मार्ग श्रितो यथा दूरं क्रमात् पंगुरपि व्रजेत् । धर्मस्थो धनकर्माऽपि तथा मोक्षमवाप्नुयात् ॥ २८ ॥ एवं च देशनां कृत्वा चिरते त्रिजगद्गुरौ । मण्डलेशः पुण्यपालः प्रभुं नत्वा व्यजिज्ञपत् ॥ २९ ॥ स्वामिन् स्वप्ना मायाष्टौ दृष्टास्तत्र गजः कपिः । क्षीरदुः काकसिंहाब्जवीजकुंभा इमे क्रमात् ॥ ३० ॥ तदाख्याहि फलं तेषां भीतोऽस्मि भगवन्नहम् । इति पृष्टो जगन्नाथो व्याचकारेति तत्फलम् ॥ ३१ ॥ विवेकता भूत्वाऽपि हस्तितुल्या अतः परम् । वत्स्यन्ति श्रावका लुब्धाः क्षणिकर्द्धिसुखे गृहे ॥ ३२ ॥ न दौस्थ्थे परचक्रे वा प्रवजिष्यन्त्युपस्थिते । आत्तामपि परिव्रज्यां त्यक्ष्यन्ति च कुसंगतः ॥ ३३ ॥ विरलाः पालयिष्यन्ति कुसंगेऽपि व्रतं खलु । इदं गजस्वनफलं कपिस्वमफलं त्वदः || ३४ ॥ प्रायः कपिसमा लोल परिणामाऽल्पसत्त्वकाः । आचार्यमुख्या गच्छस्थाः प्रमादं गामिनो व्रते || ३५ ॥ ते विपर्यासयिष्यन्ति धर्मस्थानितरानपि । भाविनो विरला एव धर्मोद्योगपराः पुनः ॥ ३६ ॥ शिक्षां प्रदास्यन्त्यप्रमादिनः । ते तैरुपहसिष्यन्ते ग्राम्यैर्ग्रामस्थपौरवत् ॥ इत्थं प्रवचनाऽवज्ञातः परं हि भविष्यति । प्लवंगमस्वप्नफलमिदं जानीहि पार्थिव ! ॥
धर्म
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त्रयोदशः सर्ग:
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क्षीरद्रुतुल्याः सुक्षेत्रे दातारः शासनार्चकाः। श्रावकारते तु रोत्स्यन्ते लिंगिभिवंचनापरैः ॥ ३९ ।। तेषां च प्रतिभास्यन्ति सिंहसत्त्वभृतोऽपि हि । महर्षयः सारमेया इवासारमतिस्पृशाम् ॥ ४० ॥ आदास्यन्ते सुविहिनविहारक्षत्रपद्धतिम् ! लिंगिनो यन्लसमा लीग्द्रुफलमीदृशम् ॥ ४ ॥ धृष्टस्वभावा मुनयः प्राया धर्मार्थिनोऽपि हि । रस्यन्ते न हि गच्छषु दीर्घिकांभास्विव द्विकाः ॥ ४२ ॥ ततोऽन्यगच्छिक सूरिप्रमुखैर्वचनापरः। मृगतृष्णानि भैः सार्धं चलिष्यन्ति जडाशयाः॥ ४ ॥ न युक्तमेभिर्गमनमिति तत्रोपदेशकान् । बाधिष्यन्ते नितान्तं से काकस्वमफलं यदः ॥ ४४ ॥ सिंहतुल्यं जिनमतं जातिस्मृत्यावाज्झितम् । विपत्स्यतेऽस्मिन् भरतवने धर्मज्ञवर्जिते ॥ ४ ॥ न कुतीर्थिकतिर्यंचोऽभिभविष्यन्ति जातु तत् । स्वोत्पन्नाः कृमिवत्किं तु लिंगिनोऽशुद्धबुद्धयः ॥ ४६॥ लिंगिनोऽपि प्राक्प्रभावात् श्वापदाभैः कुतीर्थिकः । न जात्वभिभविष्यन्ते सिंहस्वमफलं ह्यदः ॥ ४ ॥ अजाकरेष्वंबुजानि सुगन्धीनीव देहिनः । धार्मिका न भविष्यन्ति संजाताः सुकुलेष्वपि ॥४८॥ अपि धर्मपरा भृत्वा भविष्यन्ति कसंगतः। ग्रामावकरकोत्पन्नगर्दमाजवदन्यथा ॥ ४९॥ कुदेशे कुकुले जाता धर्मस्था अपि भाविनः । हीना इत्यनुपादेयाः पद्मस्वप्नफलं ह्यदः ॥ ५० ।। यथा फलायाधीजानि बीजबुद्ध्योखरे वपेत् । सथा वपस्यन्त्यकल्पानि कुपात्रे कल्पथुद्धितः ॥ ५१ ॥ यद्वा घुणाक्षरन्यायाग्रथा कोऽपि कृषीवलः । अघीजान्तर्गतं धीजं वपेत् क्षेत्रे निराशयः ।। ५२॥
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अकल्पान्तर्गतं कल्पमज्ञानाः श्राधकास्तथा । पानं दान करिष्यन्ति बीजस्वप्नफलं बदः ।। ५३ ।। क्षमादिगुणपद्मांकाः सुचरित्राम्बुपूरिताः । रहःस्था भाविनः कुम्भा इव स्तोका महर्षयः ॥ ५४॥ श्लयाचारचरित्राश्च कलशा मलिना इव । यत्र तत्र भविष्यन्ति बहवो लिंगिनः पुनः ॥ ५५ ॥ समत्सराः करिष्यन्ति कलहं ते महर्षिभिः। उभयेषामपि सेषां साम्यं लोके भविष्यति ॥ ५६ ॥ गीतार्था लिंगिनश्च स्युः साम्येन व्यवहारिणः । जनेन अहिलनेवाग्रहिलहिलो नृपः॥ ५७॥ नथाहि पृथिवीपयाँ प्रणों नाम महीपतिः। सद्धिस्तस्य चामात्यो निधानं बटिसंपदः॥ कालं तेनागमिष्यन्तं पृष्टोऽन्येद्युः सुबुद्धिना । लोकदेवोऽभिधानेन नैमित्तिकवरोऽवदत् ॥ ५९॥ मासादनन्तरं मेघो वर्षिता तज्जलं पुनः । यः पास्यति स सर्वोऽपि ग्रहग्रस्तो भविष्यति ॥ ६॥ कियत्यपि गते काले सुवृष्टिश्च भविष्यति । पुनः सज्जा भविष्यन्ति तत्पयःपानतो जनाः ॥३१॥ राज्ञ मंत्री तारख्यौ राजाऽप्यानकताडनात् । आख्यापयज्जने वारिसंग्रहार्थमथाऽऽदिशत् ॥ १२॥ सर्वोऽपि हि तथा चक्रे वर्षाक्तेऽहि चाम्बुदः। कियत्यपि गते काले संगृहीताम्बु निष्ठितम् ॥ ६३ ।। अक्षीणसंग्रहाम्भस्को राजामात्यौ तु तो विना । नवाम्बु लोकाः सामन्तप्रमुखाश्च पपुस्ततः ॥ ६४ ॥ तत्पानादु अहिलाः सर्वे नन्तुर्जहसुजगुः । स्वैरं चिचेष्टिरेऽन्यत्र विना तौ राजमंत्रिणौ ॥ ६ ॥ राजामात्यो विसदृशो सामन्ताद्या निरीक्ष्य ते । मंत्रयाचक्रिरे नूनं पहिलो राजमंत्रिणौ ॥६६॥
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त्रयोदशाः सर्गः
A-MA... Mhan
अस्मद्विलक्षणाचाराविमकावपसार्य तत् । अपरी स्थापयिष्यामः स्वोचितौ राजमंत्रिणौ ॥ ६७॥ मंत्री ज्ञात्वति तन्मत्रं नृपायाख्यन्नपोऽवदत् । आत्मरक्षा कथं कार्या तेभ्यो वृन्द हि राजवत् ॥ ६८ ॥ मन्यूचे अहिलीभूय स्थातव्यं अहिलैः सह । त्राणोपायो न कोऽप्यन्य इदं हि समयोचितम् ॥ १९ ॥ कृत्रिमं ग्रहिलीभूय ततस्तौ राजमंत्रिणौ । तेषां मध्ये वकृताते रक्षन्तो निजसंपदम् ॥ ७० ॥ नतः सुसमये जाते शुभपृष्टौ नवोदके । पीते सर्वेऽभवन स्वस्था मूलप्रकृतिधारिणः ॥ ७१ ॥ एवं च दुःषमाकाले गीतार्श लिंगिभिः सह । सदृशीभूय वत्स्यंति भाविस्वसमयेच्छवः ॥ ७२ ॥ इति श्रुत्वा स्वप्नफलं पुण्यपालो महामनाः । प्रवुद्धः प्रावजत्तत्र क्रमान्मोक्षमियाय च ।। ७३ । भगवन्तं प्रणम्याथ गणभृगौतमोऽभ्यधात् । तृतीचारकपर्यन्ते भगवानृषभोऽभवत् ।।७४ ॥ प्रयोविशतिरहन्तस्तुरीयारेऽजितादयः । अभवन्नवसर्पिण्यां यावयूयं जगद्गुरो ! ॥ ७ ॥ अतः परं पंचमारे दुःषमानामनि प्रभो ! । यद्भविष्यति सच्छंस प्रसीद परमेश्वर ! ॥ ७६ ॥ स्वाम्याख्यान्मम निर्वाणादतीतैर्वत्सरैत्रिभिः। सार्धाष्टमाससहितः पंचमारः प्रवक्ष्यति ॥ ७७ ॥ मनिर्वाणाद्तेष्वब्दशतेष्वकोनविंशती । चतुर्दशाच्यां च म्लेच्छकुले चैत्राष्टमीदिने ॥ ७८ ॥ विष्टौ भावी नृपः कल्की स रुद्रोऽथ चतुर्मुखः । नामत्रयण विख्यातः पाटलीपुत्रपत्तने ॥ ७९ ॥ १ सुस्था C. L२ मोऽरः .. ||
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तदा च मथुरापुर्यामकस्माद्रामकृष्णयोः। निपतिष्यत्यायतनं वाताहतजरद्रुवत् ॥ ८० ॥ क्रोधमानमायालोभाः सदा काष्ठे चुणा इव । नैसर्गिका भविष्यन्ति तस्मिन् करतराशये ॥ ८१ ॥ चौरा राजविरोधो राभयं गन्धरसक्षयः । दुर्भिक्षमीत्यवृष्टी च भविष्यन्ति तदा खलु ॥ ८२ ॥ कुमारोऽष्टादशाब्दानि तावन्त्येव च डामरी । ततः परं प्रचंडात्मा राजा कल्की भविष्यति ॥ ८३ ॥ नगरे पर्यटस्तत्र पंच स्तूपानिरीक्ष्य सः। परिप्रक्ष्यति पार्श्वस्थान केनते कारिता इति ॥ ८४॥ कथयिष्यन्ति तेऽप्येवं पुराऽऽसीद्विश्वविश्रुतः । नन्दो नाम क्षितिपतिर्धनैर्धनदसनिमः ॥ ८५ ॥ हिरण्यमस्ति स्तूपेषु तेनेह निहितं बहु । नाऽऽदातुं तत्क्षमः कोपि बभूव पृथिवीपतिः ॥ ८६ ॥ कल्किराजस्तदाकर्ण्य भूरिलोभो निसर्गतः । खानयिष्यति नान् स्तूपान् हिरण्यं च ग्रहीष्यति ।। ८७ ॥ सर्वतोऽपि पुरं तच सोऽर्थार्थी खानयिष्यति । अखिलांश्च महीपालांस्तृणवद्गणयिष्यति ॥ ८ ॥ कल्किना खान्यमानायास्तदा च स्वपुरावनेः। नाम्ना लवणदेवो गोरुत्थास्यति शिलामयी ॥ ८॥ चतुष्पधेऽवस्थिता सा भिक्षार्थमटतो मुनीन् । तत्मातिहार्याच्छंगाग्रभागेणाघदयिष्यति ॥२०॥ स्थविराश्च वदिष्यन्ति भाविनं सूचयत्यसौ । जलोपसर्गमत्यन्तं सत् क्वापि बजतान्यतः ॥ ११ ॥ श्रुत्वा तत्केऽपि यास्यन्ति विहारेण महर्षयः । अन्ये तु भक्तवस्त्रादिस्लुब्धा वक्ष्यन्त्यदः खलु ॥ १२ ॥ १ तत्कांत ॥
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कालाकर्मवशाद् भावि शुभं वा यदि वाऽशुभम् । कस्तन्निषेवितुमभूष्णुर्जिष्णुरपि स्वयम् ॥ ९३ ॥ ततः पाखंडिनः सर्वान् कल्को याचिष्यते करम् । तं च तस्मै प्रदास्यन्ति ते सारंभपरिग्रहाः ॥ १४ ॥ अन्यैः पाखंडिभिर्दत्तः करो यूयं न दत्थ किम् ? । इति ब्रुवाणो लुब्धात्मा स साधूनपि रोत्स्यते ॥ २५ ॥ सामस्तं वदिष्यति । मिक्षाभुजो धर्मलाभं विना किं दद्महे तब १ ॥ १६ ॥ पुराणेषूक्तमस्त्येवं ब्रह्मनिष्ठांस्तपोधनान् । रक्षंस्तत्पुण्यषष्ठांश भाग्भवेदवनी पतिः ॥ १७ ॥ अस्माद् दुष्कर्मणस्तस्माद्विरमावनिशासन व्यवसायोऽशुभायायं पुरे राष्ट्रे च सर्वथा ॥ ९८ ॥ एवं मुनिवचः श्रुत्वा कल्की कोपिष्यति हुतम् । उद्भृकुटिः करालास्यः कृतान्त इव भीषणः । ९९ ॥ कमरे ! मर्तुकामोऽसि मययम ! सुनोनपि । याचसंऽर्थं वक्ष्यतीति ततस्तं पुरदेवता ॥ १०० ॥ देवतावचसा तेन सिंहनादेन दन्तिवत् । भीतः कल्की नतिपूर्वं तान् साधून क्षमविष्यति ॥ १०१ ॥ भविष्यन्ति च भूयांसस्तदोत्पाता भयंकराः । अन्वहं कल्किराजस्य नगरक्षय सूचकाः ॥ १०२ ॥ अहोरात्रान् सप्तदश वर्षिष्यत्यथ वारिवः । गंगाप्रवाहचं दूधृत्य तत्पुरं लावयिष्यति ॥ १०३ ॥ तत्राssचार्यः प्रातिपदः कोऽपि संघजनोऽपि च । पुलकः कोऽपि कल्की व स्थास्यन्ति स्थलसूर्वनि ॥ १०४ गंगाप्रवाहपा परितोऽपि प्रसारिणा । यास्यन्ति निधनं सद्यो बहवः पुरवासिनः ॥ १०५ ॥ जोपसर्गेविरते नन्दद्रव्येण तेन तु । कल्किराजः पुनरपि करिष्यति नवं पुरम् ॥ १०६ ॥
त्रयोदश: सर्ग:
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PHARMIKMR
भविष्यन्त्यायतनानि विहरिष्यन्ति साधवः । वर्षिष्यति च कालेऽन्दः सस्यनिष्पत्तिकारणम् ॥ १०७ ॥ द्रम्मेण कुंभलामेऽपि सस्पं न क्रेष्यते जनः । पंचाशदब्दीमेवं च सुभिक्ष भावि कल्किनि ॥ १०८ ॥ आसन्नमृत्युभूयोऽपि करको पाखंडिनोऽखिलान् । त्याजयिष्यति लिंगानि व्युपद्रोष्यति चोचकैः ॥१०॥ ससंधं च प्रातिपदं न्यस्य गोवाटके तदा । याधिष्यते स भिक्षायाः षष्ठं भागं दुराशयः ।। ११०॥ संघः शकाऽऽरावनाय कायोत्सर्ग करिष्यति । शासनदेश्यो वक्ष्यन्ति कल्फिन् ! क्षेमाय न यदः ॥१११॥ संघस्य कायोत्सर्गानुभावन चलितासन. । द्विजयपुत्वा शालमानस्थिति ॥ ११२॥ महासिंहासनासीनं कल्किन पर्षदि स्थितम् । शक्रो वक्ष्यति किं न्वते निरुद्धाः साधवस्त्वया ? ॥ ११३ ।। कल्की भाषिष्यते शकं मत्पुरे निवसन्त्यमी । न मे करं तु यच्छन्ति भिक्षाषष्ठांशमप्यहो ॥११४ ॥ पाखंडाः करदाः सर्वे ममाभूवन्नमी तन । दर्गव बलाहोरचं निरुद्धास्तन वाटके ॥ ११५॥ नं जल्पिष्यति शक्रोऽपि नैतेषामस्ति किंचन | भिक्षांशमपि दास्यन्ति न कस्यापि कदाऽयमी ॥११॥ भिक्षुभ्यो याचमानस्त्वं भिक्षांशं लज्जसे न किम् । तन्मुंचानन्यथा ते भाव्यनों महान् खलु ॥११॥ कुप्यन्निति गिरा कल्की वदिष्यत्यररे भटाः !। कंठे धृत्वा द्विजममुमपसारयत द्रुतम् ॥ ११८ ॥ इत्युक्त कल्किन कल्कपवतं पाकशासनः । चपेटाताडनात् मयो भस्मराशीकरिष्यति ।। ११९ ।। षडशीतिं वत्सराणामायुः संपूर्य कल्किराट् । नारको नरकावन्यां दुरन्तायां भविष्यति ॥ १२० ॥
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अनुशिष्याऽऽर्हतं धर्म दत्ताख्यं कल्किनः सुतम् । राज्ये निवेश्य वन्दित्वा संधं शक्रो गमिष्यति ।। १२१ ॥ पितुः पापफलं घोरं शक्रशिक्षां च संस्मरन् । दत्तः करिष्यति महीमहचैत्यविभूषिताम् ॥ १२२ ॥ पंचमारकपर्यन्तं यावदेवमतः परम् । प्रवृत्तिर्जिनधर्मस्य भविष्यति निरन्तरा । १२३ ॥ इयं हि भरतक्षेत्रं ग्रामाकरपुराऽऽकुलम् । धनधान्याऽऽचितमहत्कालेऽभूत्स्वर्गसन्निभम् ॥ १२४ ॥ ग्रामा नगरवत्स्वर्गसमानि नगराणि च । कुटुंबिनो नृपसमा नृपा वैश्रवणोपमाः ॥ १२५ ॥ आचार्याचन्द्रमस्तुल्याः पितरो देवनासमाः । श्वश्वश्च जननीतुल्याः श्वशुराः पितृसन्निभाः ॥ १२६ ॥ सत्यशौचपरो धर्माश्रर्मज्ञो विनयप्रियः । गुरुदेवार्चकः स्वस्त्रीसंतुष्टश्च तदा जनः ॥ १२७ ॥ अघति स्म व विज्ञानं विद्या शीलं कुलं तथा । परचक्रे निदस्युभ्योऽभून्न भीर्न करो नवः ॥ १२८ ॥ अर्ह काश्च राजानोऽवगीताश्र कुतीर्थिकाः । बभूवुरुपसर्गादीन्याचर्याणि दशापि च ॥ १२९ ॥ अतः परं दुःषमायां कषायैलुप्तधर्मधीः । भावी लोकोऽपमर्यादोऽत्युदकक्षेत्र भूरिव ॥ १३० ॥ यथा यथा यास्यति च कालो लोकस्तथा तथा । कुतीर्थिमोहितमतिर्भाव्यहिंसादिवर्जितः ॥ १३१ ॥ ग्रामाः श्मशानवत्प्रेत लोकवन्नगराणि च । कुटुंचिनश्रेटसमा यमदंडसमा नृपाः ॥ १३९ ॥
धा नृपतयो भृत्यान् ग्रहीष्यन्ति धनं निजान् । तद्भृत्याश्च जनमिति मात्स्यो न्याथः प्रवर्त्स्यति १३३ sure भाविनो मध्ये ये मध्यास्तेऽन्तिमाः क्रमात् । देशाश्च दोलायिष्यन्ते नावोऽसितपटा इव ॥ १३४ ॥
त्रयोदश
सर्गः
॥ ३९६
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चौराः पीडयत्युर्वी भूषणः करेण तु । श्रेण्यो भूतग्रहप्राया लंबालुब्धा नियोगिनः ॥ १३५ ॥ भावी 'विरोधः स्वजने जनः स्वार्थेकतत्परः । परार्थविमुखः सत्यलज्जादाक्षिण्यवर्जितः || १३६ ।। गुरूनाराधयिष्यन्ति शिष्याः शिष्येषु तेऽपि हि । श्रुतज्ञानोपदेशं न प्रदास्यन्ति कथंचन ॥ १३७ ॥ एवं गुरुकुलवासः क्रमादपगमिष्यति । मन्दा धीर्भाविनी धर्मे बहवाऽऽकुला च भूः ॥ १३८ ॥ न साक्षाद्भाविनो देवा विमस्यन्तं सुताः पितॄन् । सर्पभूताः स्नुषाः श्वश्र्वः कालरात्रिसमाः पुनः ॥ १३९ ॥ हविकारैः स्मितैर्जल्पैर्विला सैरपरैरपि । वेश्यामनुकरिष्यन्ति त्यक्तलज्जाः कुलस्त्रियः ॥ १४० ॥ श्रावकश्राविकाहानिश्चतुर्धा धर्मसंक्षयः । साधूनामथ साध्वीनां पर्वस्वप्यनिमंत्रणम् ॥ १४१ ॥ कूटतुला कूटमानं शाव्यं धर्मेऽपि भावि च । सन्तो दुःस्थीभविष्यन्ति सुस्थाः स्थास्यन्ति दुर्जनाः ॥ १४२॥ मणिमंत्रौषधीतंत्रविज्ञानानां धनायुषाम् । फलपुष्परसानां च रूपस्य वपुरुन्नतेः ॥ १४३ ॥ धर्माणां शुभभावानां चान्येषां पंचमे रे । हानिर्भविष्यति ततोऽप्यरे पष्ठेऽधिकं खलु ॥ क्रमादेवं श्रीयमाणपुण्ये काले प्रसर्पति । घमें धीर्भाविनी यस्य सफलं तस्य जीवितम् ॥ आचार्यो दुःप्रसहाख्यः फल्गुश्रीरिति साध्यपि । श्राषको नांयिलो नाम सत्यश्री श्राविका पुनः ॥ १४६॥ विमलवाहन इति रापमंत्री सुमुखाभित्रः । अपश्चिमा भाविनोऽमी दुःषमायां हि भारते ॥ १४७ ॥ विरोधी CL.M. २ नायिये / नागिलो M ॥
१४५ ॥
१४४ ॥
॥ ३९३ ॥
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HAMPA
নীয়: सनः
%95
रनिद्वयप्रमाणांगा विंशत्यब्दायुषश्च ते । तपो दुष्पसहादीनां चतुर्णा षष्ठमुत्कटम् ॥ १४८ ॥ दशवकालिकभनः स चतुर्दशापूर्ववित् । प्रबोधयिष्यति संघं तीर्थ दुष्प्रसहावधि ॥ १४ ॥ ततोऽर्वाग्वयति धर्मो धर्मो नास्तीति यः पुनः । वदिष्यति स संघेन कर्नव्यः संघतो बहिः ॥ १० ॥ द्वादशाब्दी गृहे नीत्वाऽष्टाब्दी दुष्प्रसहो व्रते । पर्यन्तेऽष्टमभक्तेन सौधर्म कल्पमेष्यति ।। १५१ ॥ पूर्वाहेऽथ चरित्रस्य समुच्छदो भविष्यति । मध्याहे राजधर्मस्यापराह्न जातवेदसः ॥ १५२ ॥ इत्यं च दुषमा वर्षसहस्राण्येकविंशतिः । एकान्तदुःषमाकालोऽप्यमानो भविष्यति ॥ १५३ ।। धर्मतत्त्वे प्रणष्टेऽथ हाहाभूतो भविष्यति । पशुवन्मातृपुत्रादिव्यवस्थावर्जितो जनः ॥ १५४ ॥ परुषाः पाशुभूयांसोऽनिष्टा वास्यन्ति वायवः । दिशश्च धूमायिष्यन्ति भीषणाश्च दिवानिशम् ॥ १५ ॥ इन्दुः स्रक्ष्यत्यनिशीतं तप्स्यत्यत्युष्णमर्यमा । अतिशीतोष्णाभिहतो लोकः क्लेशमवाप्स्यति ॥ १५६ ॥ तदा च विरसा मेघाः क्षारमेघालमेघकाः । विषाग्न्यशनिमेघाश्च वर्षिष्यन्त्यात्ममन्निभम् ।। १५७ ।। येन भावी कासः श्वासः शूलं कुष्ठं जलोदरम् । ज्वरः शिरोऽर्तिरन्येऽपि मनुष्याणां महाऽऽमयाः ॥१८॥ दुःखं स्थास्यन्ति तिर्यची जलस्थलखचारिणः । भावी क्षेत्रवनारामलतातरुतृणक्षयः ।। १५९ ॥ वैताख्यऋषभकूटगंगासिन्धूर्विमुच्य च । समीभविष्यत्यखिलं गिरिगर्ताऽऽपगादिकम् ॥ १६० ।।
१ मुत्कटःDI
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YYYLYRIVARIKUMAUM
अंगारमभराभा भूर्भस्मरूपा भविष्यति । कदाचिद् धूलिबहला कदाचित्सान्द्रकर्दमा ॥ १६१ ॥ रनिमानपुरुषांगा दुर्वर्णा निष्ठुरोक्तयः । रोगार्ताः क्रोधना उच्चघाटाश्चिपिटनासिकाः ॥ १६२ ॥ निर्लज्जा वस्त्ररहिता भविष्यन्ति नराः स्त्रियः । आयुर्विशतिरब्दानि नृणां श्रीणां तु षोडश ॥ १६३ ॥ गर्भ वक्ष्यति षड्वर्षा स्त्री दुःखप्रसवा तदा । स्थविरा षोडशाब्वा च भूयिष्ठसुतनष्तृका ॥ १६४ ॥ भाविनो विलधासाश्च गिरी वैतात्यनामनि । द्वासप्ततिर्नाभयतटभूषु बिलानि तु ॥ १६५ ।। कूले कूल कूलिनीनां बिलानि नव तत्र च । तिर्यश्चस्तु भविष्यन्ति बीजमानतयैव हि ॥ १६६ ॥ पललाहारनिरता नृशंसा निर्विवेककाः । तदानीं च भविष्यन्ति मनुष्याया अशेषतः ॥ १६७ ॥ तदा रथपथमात्रं गंगासिन्धुनदीजलम् । प्रवक्ष्यति चलन्मत्स्यकच्छपादिभिराचितम् ।। १६८ ॥ तत्रेय निशि मत्स्यादीन् कृष्ट्वा मोक्ष्यन्ति च स्थल । दिवा सूर्यत्विषा पकान खादिष्यन्ति निशाऽन्तरे एवं सदाऽपि भोक्ष्यन्ते यहध्यादि नदा न हि | न पुष्पं न फलं नान्नं न च शय्याऽऽसनादिकम् ।। १७० ॥ भरतैरवतेष्वेवं दशस्वपि हि दुःषमा । तथाऽतिदुःषमाऽप्येकविंशत्यब्दसहस्रिका ।। १७१ ॥ असे याववसर्पिण्यामन्त्योपान्त्यावुभौ च तौ । उत्सर्पिण्यां स्वकीयानुभावावायद्वितीयको ।। १७२ ॥ उत्सर्पिण्यां दुःषमदुःषमान्तसमयेऽम्बुदाः। भाविनः पश्च सप्ताहवर्षिणस्ते पृथक् पृथक् ॥ १७ ॥ तम्राद्यः पुष्करो नाम महीं निर्वापयिष्यति । द्वितीयः क्षीरमेघाख्यो धान्यान्युत्पादयिष्यति ॥ १७४ ॥
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तृतीयो घृतमेघाख्यः स्नेहं संजनयिष्यति । तुर्यस्त्वमृतमेघाख्य ओपध्यादि करिष्यति ॥ १७ ॥ पृथ्यादीनां रसं का रसमेघश्च पंचमः । पंचविंशहिनी वृष्टि विनी सौम्यदुर्दिना ॥ १७६ ॥ द्रुमौषविलतावल्ली हरितादि निरीक्ष्य च । पिलेभ्यो निःसरिष्यन्ति मुदिना बिलवासिनः॥ १७७ ।। ने वक्ष्यन्ति भरतभूरभूत् पुष्पफुलादिभृत् । भक्ष्यं नाऽतः परं मांसं त्याज्यो मांसादकश्च यः ॥ १७८॥ | यथा ययष्यति कालो वस्यति हि तथा तथा । रूपसंहननायूंषि धान्यादीनि च भारते ॥ १७९ ।। भविष्यन्ति सुखा वाता ऋतवः सलिलानि च । निर्यश्चश्च मनुष्याश्च गतरोगाः क्रमेण च ॥ १८ ॥ दुःषमान्ते भविष्यन्ति मध्येप्राम्भरतावनि | कुलफराः सप्त तत्राऽऽदिमो विमलवाहनः ॥ १८१॥ सुदामा संगमश्चापि सुपार्थश्च चतुर्थंकः । दत्तश्च सुमुखश्चैव संमुचिश्चेति ते क्रमात् ॥ १८२॥ तत्र जातिस्मरः पूर्वी नाना विमलवाहनः । निवेशयिष्यति ग्रामपुरादीन राज्यहेतवे ॥ १८३ ॥ संग्रहीष्यति गोगजाऽश्चायथ व्यञ्जयिष्यति । शिल्पानि ब्यवहारं च लिपीश्च गणितादि च ॥ १८४॥ । उत्पन्ने दुग्धदध्यादौ सस्येषु ज्वलनेऽपि च । हितकामी स प्रजानां रन्धनागुपवेक्ष्यति । १८५ ॥ दुःषमायामतीतायां शतद्वारे महापुरे । भद्रानाम्न्यां महादेव्यां संमुः पृथिवीपतेः ॥ १८६ ॥ नन्दनः श्रेणिकजीवो भविष्यत्पादितीर्थकृत । पद्मनाभाभिधस्तुल्यो जन्ममानादिना मम ॥ १८७ ॥ १"कामः । कारी ||
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अतः परं पूर्ववच भविष्यन्ति जिनेश्वराः। प्रातिलोम्येन पूर्वाहत्समाः सर्वेऽप्यमी क्रमात् ॥ १८८ ॥ नत्र श्रेणिकराड्जीवः पद्मनाभो कि धरः । हुपाईसीय नमान्द शरदेशो द्वितीयकः ।। १८५॥ तृतीयः पोटिलजीवः सुपावों जिनपुंगवः । जीवो दृढायुषस्तुर्यस्तीर्थनाथः स्वयंप्रभुः ॥ १० ॥ कार्तिकस्य जीवः सर्वानुभूतिरिति पंचमः । जीवः शंखस्य षष्ठोऽहन देवश्रुतोऽभिधानतः ॥ १९१ ।। सप्तमो नन्दजीवस्तु जिनेन्द्र उदयाहयः । सुनन्दजीवोऽष्टमोऽहंन पढाल इति नामतः ॥ १२ ॥ नवमः केकसीजीवी जिनेन्द्रः पोटिलाभिधः । दशमो 'रेयलिजीवः शतकीर्तिर्जिनश्वरः ॥११३ ॥ अर्हन् सत्यकिजीवश्चैकादशः सुव्रताभिधः । द्वादशोऽहम्नममाख्यो जीवः कृष्णस्य शाह्मिणः ॥ १४ ॥ बलदेवस्य जीवोऽहनिष्कषायत्रयोदशः। जिनेन्द्रो रोहिण,जीयो निष्पुलाकश्चतुर्दशः ॥ १५ ॥ निर्ममः सुलसाजीवो जिनः पंचदशः पुनः । षोडशो रेवतीजीवश्चित्रगुप्तऽभिधानतः ॥ १९६ ॥ गवालिजीवः समाधिर्नाम्ना सप्तदशो जिनः । जीवस्तु गार्गलेरष्टादशोऽर्हन संवराभिधः ॥ १० ॥ द्वीपाघनजीवस्त्वेकोनविंशोऽर्हन यशोधरः । विजयो विंशतितमः कर्णजीयो जिनेश्वरः ।। १९८ ॥ एकविंशो जिनो मल्लो यः पुरा नारदोऽभवत् । अंबडस्य पुनर्जीयो द्वाविंशो देवतीर्थकृत् ।। १९९ ॥ त्रयोविंशोऽनन्तवीर्यो जीयो द्वारमदस्य तु । स्वामिजीवश्चतुर्विंशो भद्रकृन्नाम तीर्थकृत् ॥ २०० ।।
ति' ।
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दीर्घदन्त गूढवन्तः शुद्धदन्तस्तृतीयकः । तथा श्रीचन्द्रः श्रीभूतिः श्रीसोमः पद्म इत्यपि ॥ २०९ ॥ महापद्मी दशमाख्यस्वथा निमल इस विवाह नोकरियो साविनोऽमी व चक्रिणः ॥ २०२ ॥ युग्मम् ) नन्दिश्च नन्दिभित्र तथा सुन्दरबाहुकः । महाबाहुरनिबलो महाबलबलावपि ॥ २०३ || द्विश्च विश्व नवामी अर्थचक्रिणः । चटत्प्रकर्षा रामाश्च तत्र प्रथमनोबलः ॥ २०४ ॥ जयन्तोऽथाजितो धर्मः सुप्रभा सुदर्शनः । आनन्दो नन्दनः पद्मस्तथा संकर्षणोऽन्तिमः ॥ २०५ ॥ प्रत्यचै तिलको लोहजंघकः । वज्रजंघः केसरी च यदि प्रह्लाद इत्यपि ॥ २०६ ॥ तथाऽपराजितो भीमः सुग्रीवो नवमः पुनः । इत्युत्सायां त्रिषष्टिः शलाकापुरुषा अमी ॥ २०७ ॥ इत्युक्तवन्तं श्रीवीरं सुधर्मा गणभृद्वरः । पप्रच्छ केवलादित्यः किं कुर्याच्छेदनेष्यति १ ॥ २०८ ॥ स्वाम्याख्यन्मम मोक्षागते काले कियत्यपि । जंबूनाम्नस्तव शिष्यात् परं भावि न केवलम् ॥ २०९ ॥ उच्छिन्न केवले भावी न मनःपर्ययोऽपि हि । पुलाकलब्धिश्च नचावधि परमो न हि ॥ २१० ॥ क्षरकोपशमश्रेण्य न च नाऽऽहारकं वपुः । जिनकल्पो न हि न हि संयमन्त्रितयं तथा ॥ २१९ ॥ शिष्यः सेत्स्यति ते जंबूः स चतुर्दशपूर्वभृत् । जंबू शिष्यः प्रभवन भविना सर्वपूर्वभूत् ॥ शय्यं भवस्तुच्छिष्यो द्वादशांगी भविष्यति । दशवैकालिकग्रन्थं सक्ष्यत्युदृत्य स श्रुतात् ॥ २१३ ॥ तस्य शिष्यो यशोभद्रो भविता सर्वपूर्वभृत् । संभूतभद्रवाह व सच्छिष्यौ सर्वपूर्विणौ ॥
२१२ ॥
२१४ ॥
त्रयोदशः सर्वः
।। ३९८ ॥
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स्थूलभद्रोऽथ संभूनान्तवासी सर्वपूर्वभृत् । नन.ऽन्तिमा चतुःपूर्वी व्युच्छदमुपचास्यनि ।। २१५ ॥ महागिरिसुहस्त्पाद्या वान्ता दशपूर्विणः । ततः परं भविष्यन्ति तीर्थस्यास्य प्रवर्तकाः ॥ २१६ ॥ एवमाख्याय समवसरणान्निर्यगो प्रभुः । हस्तिपालनरेन्द्रस्य शुल्कशालां जगाम च ॥ २१७ ।। स्वामी तदिनयामिन्यां विदित्या मोक्षमात्मनः । दध्यावहो गौतमस्य मयि स्नेहो निरत्ययः ॥ २१८ ॥ स एच केवलज्ञानप्रत्यूहोऽस्य महात्मनः । स च्छेद्य इति विज्ञाय निजगादेति गौतमम् ॥ २१९ ॥ दवशर्मा द्विजो ग्रामे परस्मिन्नस्ति स त्वया । बोध प्राप्स्यति तद्वेनोस्तन्न त्वं गच्छ गौतम ! ॥ २२० । यथाऽऽदिशति मे स्वामीन्युदित्वा च प्रणम्य च । जगाम गौतममुनिस्तथा चक्रे प्रभोर्वचः ॥ २२१ ॥ बदा च कार्तिकदर्शनिशायाः पश्चिमे क्षण । स्वालिफ्रक्षे वर्तमाने कृतषष्टो जगद्गुरुः ॥ २२२ ॥ कल्याणफलपाकानि पंचपंचाशतं तथा । तावन्त्ययविपाकानि जगावध्ययनानि तु ॥ २२३ ॥ पत्रिंशतमपनव्याकरणान्यभिधाय च । प्रधानं नामाध्ययनं जगद्गुरुभाषयत् ॥ २२४ ॥ स्वाभिनो मोक्षसमयं विज्ञायाऽऽसनकंपतः । सुरासुरेन्द्रास्तत्रेयुः सपि सपरिच्छदाः ॥ २२ ॥ सहस्राक्षोऽश्रुपूर्णाक्षः प्रणम्याऽथ जगद्गुरुम् । विरचय्यांजलिं मूर्ध्नि ससंभ्रममदोऽवदत् ॥ २२६ ॥ गभ जन्मनि दीक्षायां केवले यसब प्रभो ! । हस्तोत्तरःमधुना तद्गता भस्मकग्रहः ।। २२७ ॥ विपद्यमानस्य जन्मऋक्ष क्रामन् स दुर्ग्रहः । बाधिष्यते ने सन्तानं सहस्रे शरदामुभे ॥ २२८ ।।
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त्रयोदशः
सर्गः
LNEPALNPANY.LAPALNAWALPAL
प्रतिपालय तनाथ ! तस्य संक्रमणक्षणम् । स यथा त्वत्प्रभावण विफलो भयनि ग्रहः ॥ २२९॥ कुस्वमाः कुशकुनानि दुर्घहा यान्ति शस्तताम् । अन्येषामपि सर्वेषां हृदि त्वां धारयन्ति य ।। २२० किं पुनर्यत्र साक्षात्त्वं स्वामिन् ! समयतिष्ठसे । प्रसीद तत् क्षणं तिष्ठ दुग्रहोपशमोऽस्तु तत् ॥ २३१ ।। स्वाम्यथोचे न कोऽप्यायुः शक्र ! सन्धातुमीश्वरः । विदन्नपि बदस्येवं किं तीर्थप्रेममोहितः ॥ २३२ ॥ प्रवर्तनाद् दुःषमागास्तीर्थवाधा भविष्यति । भवितव्यताऽनुसारागस्मकस्योदयोऽग्यभूत् ॥ २३३ । वत्रिणं बोधयित्वैवं सार्वषण्मासवार्जताम् । त्रिंशवदी केवलित्व परिपाल्य जगद्गुरुः ।। २३४॥ पर्यकासननिषण्णो योगे कायस्य चादरे । स्थितो वाऊमनसयोगावरीत्मीदथ धादरौ ॥ २३५ ।। सूक्ष्म च वपुषो योगमास्थाय परमेश्वरः । रुरोध यादरं काययोग योगविचक्षणः ॥ २१॥ नौ च सूक्ष्मौ वाङ्मनसयोगावप्यरुणत्प्रभुः । इति सूक्ष्मक्रियं शुक्लध्यानं चक्र तृतीयकम ॥ २३७ ॥ अपि सूक्ष्म तनूयोग विनिरुध्य जगद्गुरुः । समुच्छिन्नक्रिय शुक्लध्यानं तुर्य दधावथ ॥ २३८ ॥ पंचहस्वाक्षरोचारमिनकालेन तेन तु। ध्यानेन तुयण तुर्भपुमान्यभिचारिणा ।। २३१॥ एरंडषीजवदन्धाभावादृर्ध्वगतिः प्रभुः । पथा स्वभावऋजुना मोक्षमेकमु(उ)पाययौ ॥२४॥ नारकाणामपि तदा क्षणमेकमभूत् सुखम् । न ये सुख लवस्यापि कदाचिदपि भाजनम् ॥ २४१ ॥ घत्सरोऽभूत्तदा चन्द्रो मासस्तु प्रीतिवर्धनः । नन्दिवर्धनका पक्षोऽग्निवेशो नाम वासरः ॥ २४२ ।।
॥४००
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I
सोऽन्येन नाम्नोपशमो देवानन्द सानिया | केतीत्यन्यनाशा तु लबोऽचर्य इति संज्ञया ॥ २४३ ॥ प्राणः शुक्लाभिधानश्च स्मोकः सिद्धाभिधानकः । सर्वार्थसिद्धो मुहतों नागाख्यं करणं पुनः ॥ २४४ ॥ तदानीं च समुत्पन्ना नाम्ना कुंथुरनुद्धरा । अस्पंदा सा न हस्याचा स्पन्दमाना तु दृश्यते ॥ २४५ ॥ संयमतः परं भावी दुष्पाल इति चिन्तया । तां दृष्ट्वा साधवः साध्यो बहवोऽनशनं व्यधुः ॥ २४६ ॥ निर्वाण स्वामिनि ज्ञानदीपके द्रव्यदीपकान् । तदानीं रचयामासुः सर्वेऽपि पृथिवीभुजः ॥ २४७ ॥ तदाप्रभृति लोकेsपि पर्व दीपोत्सवाभिधम् । सर्वतो दीपकरणात्तस्यां रात्रौ प्रवर्तते ॥ २४८ ॥ जगद्गुरोर्व पुर्नत्वा पापातिदृशः सुराः । अरे तस्थुर से शोचन्तः स्वमनाथकम् ॥ २४९ ॥ शक्रोऽथ धैर्य मालव्य नन्दनादिवनाहृतेः । गोशीर्षचन्दनैथोभिरकान्तेऽरचयच्चिताम् ॥ २२० ॥ क्षीरोदसागरां भोभिर्वपुरस्नपयत् प्रभोः । विलिलेप च दिव्येनांगरांगण स्वयं हरिः ॥ २५१ ॥ 'आमोच्य वाससी दिव्ये शक्रः स्वाभिवपुः स्वयम् । उद्दधे नयनां भोभिर्भूयोऽपि स्नपयन्निव ॥ २५२ ॥ विमानवरकल्पायां शिविकायां प्रभोर्वपुः । शको न्यधाद् दृश्यमानः सास्रग्भिः सुरासुरैः ॥ २५३ ॥ स्वामिशासनवन्सून नां स्वामिशिबिकामथ । कथंचिद्धशोकः सन्नुद्दधार पुरन्दरः ।। २५४ ॥ eggers पुष्पाणि दिव्यानि त्रिदिवौकसः । व्याहरन्तो जयजयेत्युच्चकैर्चन्दिवृन्दवत् ॥ २५५ ॥
१ अमोच्य), L. D ॥
॥ ४०१ ।
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त्रयोदः
माः
सुरा स्वनयनांभोजपयोभिः पुनरक्तया । गन्धांबुवृष्टया परितः सिषिचुर्वसुधातलम् ॥ २०६ ।। जगुस्तारं च गन्धर्वा गावी इन चामराः । स्मार मार स्वामिगुणानुद्गृणन्तो मुहुर्मुहुः ॥ २७ ॥ मृदंगपणवादीनि वाद्यानि शनशो मृढम् । शुसवरताडयानासुर्निजोर-स्थलवच्छचा ॥ २८ ॥ स्वामिनः शिधिकाग्रे च नन्तुः सुरयोषितः । स्ख लचारीकनाः शोकान्नक्योऽभिनवा इव ॥ २०९ ।। दिव्यैर्नुकूलहीरायभूषणैः पुष्पदामभिः। आनषुः शिविकां भर्तुश्चतुर्विधदिवौकसः ॥ २६० ॥ श्रावकाः श्राविकाश्चापि भक्तिशोकसमाकुलाः । विदधु रासकगीत रुदितं च सहैव हि ॥ २६१ ॥ नदा साधुषु साध्वीषु चात्यन्तं विदधे पदम् । शोकः को फनदध्वात्यये निद्रव भूयसी ॥ २६२ ।। नतश्चितायां निदधे स्वामिनोऽङ्गं पुरन्दरः । विदीर्यमाणहृदय इवाऽऽत्तः शोकशंकुना ॥ २६३ ॥ अग्निमग्निकुमाराश्च चितामध्ये विचक्रिरे । नदीपनं विचक्रुश्च वायु वायुकुमारकाः ।। २६४ ।। गन्धधूपान् घृतमधुकुंभांश्च शतशोऽपरे । ज्वलन्त्यां नत्र चित्यायां चिक्षिपुस्त्रिदिवौकसः॥ २६५ ।। मांसादिषु पदग्धेषु क्षीरोदादाहर्जलैः । चितां विध्यापयामासुर्सगिनि स्तनिनामराः ।। २६६ ॥ शक्रशानाबूदंष्ट्रे दक्षिणादक्षिणे ततः । अयोदंष्ट्र तु चमरबली जगृहतुः प्रभोः ।। २६७ ।। इन्द्रास्त्वन्ये सुराश्चान्यान्दन्तानस्थीनि च प्रभोः। जगृहुस्तचिताभस्म नरास्तु शिवकांक्षिणः ॥ २६८ ॥ तस्याश्चितायाः स्थानेऽथ स्थानं कल्याणसंपदाम् । अमरा रषयामासुः स्तूपं रत्नमयं परम् ॥ २६॥
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MYAWha.
निर्वाणमहमेवं ने कृत्वा भतुः सुरा ययुः । नन्दीश्वरे विदधुश्चाष्टाह्निकां शाश्वताहताम् ॥ २७० ॥ गत्या स्वः स्वविमानान्तर्माणवस्तंभमूर्धसु । वृत्तवनसमुद्गेषु स्वामिदंष्ट्रा न्यधुः सुराः ॥ २७१ ॥ गार्हस्थ्ये त्रिंशदब्दी द्विवल्याशिसमान इति प्रासततिज्यायुर्वीरमभोरभूत् ॥ २७२ ॥ श्रीपार्श्वनाथनिर्वाणात् सायं वर्षशतद्वये । गते श्रीवरनाथस्य निर्वाणं समजायत ॥ २७३ ।। इतश्च देवशर्माणं बोधयित्वा निवृत्तवान् । शुश्राव गौतमः स्वामिनिर्वाणं सुरवार्तया ॥ २७४ ॥ गौतमस्वाम्यथोत्ताम्यंश्चिन्तयामास चेतसि । एकस्याः कृत भी किमहं प्रेषितोऽस्मि हा ! ।। २७५ ।। जगन्नाथमियत्कालं सेवित्वाऽन्त न दृष्टवान् । अधन्यः सर्वथाऽस्म्येष धन्यास्ते तत्र य स्थिताः ॥ २७६ ॥ गौतम ! त्वं बज्रमयो बजादप्यधिकोऽसि वा । श्रुत्वाऽपि स्वामिनिर्वाणं शतधा यन्न दीर्यसे ॥ २७७॥ यद्वाऽऽदितोऽपि भ्रान्तोऽहं यद्रागं रागवर्जिते । ममत्वं निर्ममे चास्मिन् कृतवानीदृशे प्रभो ॥ २७८ ॥ रागद्वेषप्रभृतयः किं चामी भवहेतवः । हेतुना तेन च त्यक्तास्तेनापि परमेष्टिना ।। २७९ ॥ ईदृशे निर्ममे नाथे ममत्वेन ममाप्यलम् । ममत्वं सममत्वेऽपि मुनीनां न हि युज्यते ।। २८०॥ एवं शुक्लध्यानपरः क्षपकणिभाक् क्षणात् । चातिकर्मक्षयात्प्राप केबलं गौतमो मुनिः ॥ २८१ ।। नत्र द्वादशवत्सरी क्षितितले भन्यान् प्रयोध्योचकः, स्वामीचामलकेवलर्द्धिरमरैरभ्यर्चितो गौतमः। १ महिमानं L॥
।
॥४०३
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त्रयोदः
४|| गत्वा राजगृहे पुरे क्षतभवोपग्राहिकर्मा प्रभु-भूत्वा मासमुपोषितः पदमगादक्षीणशर्मास्पदम् ॥ २८२ ॥
मुक्ते तत्र च पंचमो गणधरो लब्ध्वा सुधर्मप्रभु-ज्ञानं पंचममन्वशाचिरतरं धर्म जनान् क्ष्मातले । प्राप्तो राजगृहाभिधाननगरे निःशेषमप्यन्यदा, जंबूस्वामिमुनेरधनमनघं संघ निजं निर्ममे || २८३ ।। तस्मिन्नेव पुरे सुधर्मगणभृत्क्षणाष्टकर्मा क्रमा-तुर्यध्यानधरोऽपुनर्भवमगादद्वैतसौख्यं पदम् । पश्चादन्तिमकेवली क्षितितले श्रीवोरमार्गाग्रणी-धर्म भव्यजनान् प्रबोध्य सुचिरं जंबूप्रभुश्चान्यदा ॥२८॥
त्रैलोक्येऽपि हि सात्विकवनवधेः प्राग्जन्ममोक्षावधि।
श्रीमद्वीरजिनेश्वरस्य चरितं को व कुर्मीशोऽखिलम् ॥ अस्ताधस्य नथापि हि प्रवचनाम्भोधगृहीत्वा लवं
किंचित्कीर्तितमीदृशं ननु मया स्वान्योपकारेच्छया ॥ २८५ ॥
॥ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रसूरिविरांचते विपष्टिझल्लाकापुरुषचरिते महाकाव्ये दशमपर्वणि श्रीमहावीरनिर्वाणरमन
वर्गनो नाम त्रयोदशः सर्गः ।। समाप्नं चदं दशमं पर्व
१ परिपूर्णमिदं || २ “ग परिपूर्णमिदं त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरितं महाकाव्यमिति ..
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अथ प्रशस्तिः
शिष्यो जंबू महामुनेः प्रभव इत्यासीदमुष्यापि च । श्रीशय्यंभव इत्यमुष्य च यशोभद्राभिधानो मुनिः ॥ संभूतो मुनि भद्रबाहुरिति च द्वौ तस्य शिष्योत्तमौ ।
संभूतस्य च पादपद्ममधुलिद् श्रीस्थूलभद्राह्वयः ॥ १ ॥ वंशक्रमागतचतुर्दशपूर्वरा कोशस्य तस्य दशपूर्वधरो महर्षिः । नाम्ना महागिरिरिति स्थिरतागिरीन्द्रो, ज्येष्ठोऽन्तिषत्समजनिष्ट विशिष्टलब्धिः ॥ २ ॥ शिष्योऽन्यो दशपूर्वभृन्मुनिवृषो, नाम्ना सुहस्तीत्यभूयत्पादांबुजसे वनात्समुदित-प्राज्यप्रयोधर्द्धिकः ॥ चक्रे संप्रतिपार्थिवः प्रतिपुर- ग्रामाकरं भारते ।
जिनचैत्य मंडितमिला- पृष्टं समन्तादपि ॥ ३ ॥
१ नास्ति CI. 1. प्रतिषु प्रशस्तिः ॥
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॥ ४०५
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प्रशस्तिः
HYAMKAKH-
अजनि सुस्थितसुप्रतियुद्ध इत्यभिधयाऽऽर्यसुहस्तिमहामुनेः ।
शमधनो दशपूर्वधरोऽन्तिष-द्भवमहातरुभञ्जनकुञ्जरः ॥ ४ ॥ महर्षिसंसेवितपादसन्निधेः, प्रचारभागालवणोदसागरम् ।। महान गणः कोटिक इत्यभूत्ततो, गंगाप्रवाहो हिमवद्गिरेरिव ॥ ५ ॥ तस्मिन् गणे कतिपयेष्वपि यातयत्सु, साधूत्तमेषु चरमो दशपूर्वधारी। उष्ट्वामतुंबवत्तमवज्रखानि- महामुनिरजायत बलूरिः ॥ ६ ।।
दुर्भिक्ष समुपस्थित प्रलयव-ड्रीमत्वभाज्यन्यदा । भीतं न्यस्य महर्षिसंघमभितो, विद्यावदातः पटे । योऽभ्युद्धृत्य करांबुजेन नभसा, पुर्यामनैषीन्महा-।
पुर्या मंक्षु सुभिक्षधामनि तपोधाम्नामसीम्नां निधिः ॥ ७ ॥ तस्माद्बवाभिधा शाखाऽभूत् कोटिकगणद्रुमे । उच्चनागरिकामुख्यशाखानिलयसोदरा ॥ ८ ॥ तस्यां च वज्रशाखायां निलीनमुनिषट्पदः । पुष्पगुच्छायितो गच्छश्चन्द्र इत्याख्ययाऽभवत् ॥९॥
KARNAKALACHAR
460-62
॥४०
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धर्मध्यान सुभाष शुरमल-ग्रन्थार्थरवाकरो, भन्यांभोरुह भास्करः स्मरकरि प्रोन्माश्रकंठीरवः । गच्छे तत्र बभूव संयमधनः कारुण्यराशिर्यशो-भद्रः सूरिरपूरि येन भुवनं शुभ्रैर्यशोभिर्निजैः ॥ १० ॥ श्रीमन्नेभिजिनेन्द्रपावितशिरस्यद्रौ स संलेखनां कृत्वाऽऽदौ प्रतिपवान्ननशनं, प्रान्ते शुभध्यानभाक् ॥ तिष्ठन् शान्तमनास्त्रग्गोदशदिना न्याधनुत्पारण मुसंगमकथाः सत्यापयामासिवान् ॥ ११ ॥ श्रीमान्प्रद्युम्नसूरिः, समजनि जनिता-नेक भव्यप्रबोध | स्तच्छिष्यो विश्वविश्व प्रश्रित गुणगणः, प्रावृडंभोदवद्यः ॥ प्रीणाति स्माखिलक्ष्मा, प्रवचनजलधे-रुद्धृतैरर्थनीरेरातत्य स्थानकानि श्रुतिविषय सुधा-सारसध्यंचि विष्वक् ॥ १२ ॥ सर्वग्रन्थरस्परनमुकुरः, कल्याणवल्लीतरुः । कारुण्यामृतसागरः प्रवचन- व्योमांगणाहस्करः ॥ 'वारित्रादिक रत्नरोहणगिरिः, क्ष्मां पावयन् धर्मराट्
सेनानीर्गुणमेनसूरिरभव-च्छ्रियस्तदीयस्ततः ॥ १३ ॥
॥ ४०३
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प्रशस्ति
www--
ko-kॐ%,
शिष्यस्तस्य च तीर्धमेकमवनः, पावित्र्यकृज्जंगमं । स्याद्वादत्रिदशापगाहिमगिरि-विश्वपयोधार्यमा ॥ कृन्या स्थानकवृत्तिशान्तिचरिते, प्राप्तः प्रसिद्धिं परां।
सूरि रितपःप्रभाववसतिः, श्रीदेषचन्द्रोऽभवत् ॥१४॥ आचार्यों हेमचन्द्रोऽभूत्तत्पावांपुजषट्पदः । तत्प्रसादावधिगतज्ञानसंपन्म होदयः ॥ १५॥
जिष्णुश्चेविवशार्णमालघमहारा-ष्ट्राऽपरान्नं कुरून् । सिन्धूनन्यनमांश्च दुर्गविषयान् , दोर्वीर्यशक्त्या हरिः ॥ चौलुक्यः परमाईतो विनयवान्, श्रीमूलराजान्वयी। तं नत्यति कुमारपालपृथिवी-पालोऽब्रवीदेकवा ॥ १६ ॥ पापर्द्धिगतमद्य-प्रभृति किमपि यन्नारकायुर्निमित्तं । तत्सर्व निर्निमित्तो-पकृतिकृतधियां प्राप्य युष्माकमाज्ञाम् ॥ स्वामिना निषिद्धं, धनमसुतमृत-स्याथ मुक्तं तथाई। चैस्यैरुत्तसिता भू-रभवमिति समः, संपतेः संप्रतीह ॥ १७ ॥
KAR KARANA
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पूर्व पूर्वजसिद्धराजनृपतेभक्तिस्पृशो याञ्चया, सांगं व्याकरणं सुवृत्तिसुगर्म चक्रुर्भवन्तः पुरा ॥ मद्धेतोरथ योगशास्त्रममलं लोकाय च द्याश्रय छन्दोऽलंकृतिनामसंग्रहमुखान्यन्यानि शास्त्राण्यपि ॥१८॥
लोकोपकारकरणे स्वयमेव यूयं, सज्जाः स्थ यद्यपि तथाप्यामर्थयेऽदः । माइग्जनस्य परियोधकृते शलाका-पुंसां प्रकाशयन वृत्तमपि त्रिषष्टः ।। १९ ॥
तस्योपरोधादिति हमचन्द्राचार्यः शलाकापुरुषेतिवृत्तम् । धर्मोपदेशैकफलप्रधानं, न्यवीविशचारुगिरां प्रपंचे ॥ २० ॥ जंबूदीपारविन्दे, कनकगिरिरसा-बस्नुने कर्णिकात्वं यावद्यावश्च धत्त, जलनिधिरवन-रन्तरीयत्वमुच्चैः । याबद्वयोमाध्वपान्यो, नाणिशशधरी, भ्राम्यनस्तावदेवत् काव्यं नाम्ना शलाका-पुरुषचरितमि-त्यस्तु जैन धरित्र्याम् ॥ २१ ॥
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अशा चौत अम्यतु
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पेणान कुंडाके 'दगुरुः "भृस्त्र 'भृन्यत्र
चकम्पे जगास्त्रा' जगत्त्रा दात्यापि दास्यामि बेदय" वेदाशय बालु काः बालुका नाम्रा नाम्ना
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तिमती'
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स्मृत्व
ततश्च्यु मुद्दधुं अन्चच्छेद
त्रिषं
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तस्यैव
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इभ्यो (भो)
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'साहितौ दुधृत्य
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________________ Romsaxisamoovsnachsaasaram wamasazzewiveditatemartermance // समाप्तमिदं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितं महाकाव्यम् // KAR