Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगमलानमो नमो निम्मलदसणस्साम आजम आगा।
भाग
33 पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नम:
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
आगम - ०१ 'आचार' मूलं एवं वृत्ति: [२]
मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब ___ अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से
''वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
HI
AN
ORIEOHIEO
(
EOSHO
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
ENSE
45
- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885579825306275
~3~
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
ਗਗਸ ਤਕਸ
ਸ ਸ
ਸ ਸ
ਸ ਸ
ਸ ਸ ਸ
ਸ ਸ
ਸ ਕਰ ਸ ਸ :
ਸ
का
आगम
वाचना शताब्दी वर्ष
ਕੰਮ ਨੂੰ ਬਹਾਲ ਰਸ
ਸ
ਸ
ਸ
ਸ
ਸ
ਗਲ
* 4
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
[भाग-०२] श्री आचाराङ्गसूत्रम् भाग-२
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
__ “आचार" मूलं एवं वृत्ति: मलं + भद्रबाहस्वामी कृत नियुक्ति; + शिलांकाचार्य रचित वत्ति:]
श्रुतस्कन्ध- १, अध्ययन- ३ से ९ एवं श्रुतस्कन्ध- २
[आय संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ]
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह)
पुन: संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-१
श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट'
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब
.जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक्-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतर- : तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी गुरुभक्ति बुद्धि से | श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण| न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए।
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े देवदिगणी: | क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ
तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर पालीताणामें आगम | मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचरी, संस्कृत-छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना : भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की |
. ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध | : कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ : | रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
• सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये । ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"....
......मुनि दीपरत्नसागर... |
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या ! शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथ-साथ वे आखिर • 'गच्छाधिपति पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां
'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के : कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य| परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। • ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी । शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं !छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो गया
“अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को | प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
... मुनि दीपरत्नसागर... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शबंजय- गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० समवसरण की | रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण के शास्त्र वर्णन-अनुसार : आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है।
__..मुनि दीपरत्नसागर...:
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवत्तिक-आगम-सत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सुल्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण दव्यराशि प्राप्त हुई उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे । समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति :भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त । लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले :
को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है |
... मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रेजापूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ
.......मुनि दीपरत्नसागर
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
~8~
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूलां
૨૨૦
२६७
२३१
१०६
२८७
१५४
१०६
१६९
मूलाङ्का: ५५२ आचाराङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम भाग-१ और २ नियुक्ति गाथा: ३५६ विषय: | पृष्ठांक | मूलांक:
विषय: पृष्ठांक | | मूलांकः | | विषय:
पृष्ठांक: श्रुतस्कंध-१
१४३ --उद्देशक: २ धर्मप्रवादीपरीक्षणं | ०७७ |--उद्देशक: ३ अंगचेष्टाभाषित:। ર૬૨ अध्ययनं १ शस्त्रपरिज्ञा
१४७ --उद्देशक: ३ निरवदयतप: ०९१ २२४ | --उद्देशक: ४ वेहासनादिमरणं ००१ | --उद्देशक: १ जीवअस्तित्वं १५० | --उद्देशक: ४ संयमप्रतिपादनं ०९८
| --उद्देशक: ५ ग्लानभक्तपरिज्ञा । २७४ ०१४ --उद्देशक: २ पृथ्विकाय
__ -वचनं | --उद्देशक: ६ इंगितमरणं
२७९ ०१९ --उद्देशक: ३ अप्काय: *-* अध्ययनं ५ लोकसार:
२३६ | --उद्देशक: पादपोपगमनमरणं ०३२ -उद्देशक: ४ अग्निकाय:
--उद्देशक: १ एकचर्या
२४०
| --उद्देशक: ८ उत्तममरणविधि: ०४० |--उद्देशक: ५ वनस्पतिकाय: १५९ --उद्देशक: २ विरतमुनि
| अध्ययनं ९ उपधानश्रुतं ०४९ | --उद्देशक: ६ त्रसकाय:
१६४ --उद्देशक: ३ अपरिग्रह १३१ ર૬ક. --उद्देशक: १ चर्या:
३०७ ०५६ | --उद्देशक: ७ वायुकाय:
--उद्देशक:४ अव्यक्त: १४३ २८८ | --उद्देशक: २ शय्या :
૩૨૦ अध्ययनं २ लोकविजय: १७३ --उद्देशक: ५ हृदोपम: १४४ ३०४ | --उद्देशक: ३ परिषहः
३३४ --उद्देशक: १ स्वजन: १७९ --उद्देशक: ६ कुमार्गत्याग: १४७ ३१८ --उद्देशक: ४ रोगातंक:
३३९ --उद्देशक: २ अदृढत्वम्
अध्ययनं ६ दयुतं १७८
श्रुतस्कंध- २ --उद्देशक:३ मदनिषेध: १८६ --उद्देशक: १ स्वजनविधननं
, चूडा-१ -
३५० --उद्देशक: ४ भोगासक्ति: १९४ --उद्देशक: २ कर्मविधुननं
*-* | अध्ययनं १ पिण्डैषणा --उद्देशक: ५ लोकनिश्रा १९८ --उद्देशक: ३ उपकरण एवं २०१ ३३५ |-- (उद्देशका: १...११)
३५७ --उद्देशक: ६ अममत्वं
शरीर-विधनन
आहारग्रहण विधि: एवं निषेध: अध्ययनं ३ शीतोष्णीयं २०१ | --उद्देशक: ४ गौरवत्रिकविधूननं । २१२
आहारार्थे गमनविधिः,सङ्खडी--उद्देशक: १ भावसुप्त: --उद्देशक: ५ उपसर्ग-सन्मान . २२२
दोष:,पानकग्रहण विधि:,भोजन --उद्देशक: २ दुःखानुभव: विधननं
ग्रहण विधिः इत्यादिः। --उद्देशक: ३ अक्रिया
“अध्ययनं ७ व्यच्छिनम्"
अध्ययनं २ शय्यैषणा --उद्देशक: ४ कषायवमनं
* अध्ययनं ८ विमोक्ष
२३३ |-- (उद्देशका: १...३)
४३३ + अध्ययनं १ सम्यक्त्वं २१० --उद्देशक: १ कुशीलपरित्याग: । २४३
शय्या-वसति ग्रहणे निषेध: व --उद्देशक: १ सम्यकवादः | २१५ --उद्देशक: २अकल्प्यपरित्यागः | २५४
विधि:, संस्तारक प्रतिमा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य -कृत् वृत्ति:
३५०
१७९
१९४
३५६
२००
०३१
०४३
५३२
०५५
०६४
०६५
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुलांक
पृष्ठांक
पृष्ठांक
५१२
*
मूलाका: ५५२
आचाराङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम भाग-१ और २ नियुक्ति गाथा: ३५६ विषय:
मूलांक: विषय:
मूलांक: विषय:
पृष्ठांक: श्रुतस्कंध- २ चूडा-१ अध्ययनं ६ पात्रैषणा | ५१२ ४९९ | सप्तैकक ३ उच्चार-प्रश्रवणं
५३२ अध्ययनं ३ इ
४६३ ४८६ -- (उद्देशका: १, २)
५०२ | सप्तैकक ४ शब्दः
५३७ - (उद्देशका: १...३)
४६४ पात्रस्वरूप, पात्रग्रहण विधि:५०५ | सप्तैकक ५ रूप:
५४२ विहार निषेध: व विधि:
निषेधश्च, पात्र पडिमा, पात्र ५०६ | सप्तैकक ६ परक्रिया
५४२ वर्षा-वास:, गमनागमन
प्रमार्जना, पात्र परिग्रहणम् ५०७ | सप्तैकक ७ अन्योन्यक्रिया
५४६ विधि: व निषेध:,पथिना सह अध्ययनं अवग्रह प्रतिमा ५१८
५५० अध्ययनं ४ भाषाजातं
४८४ ४९५ -- (उद्देशका: १, २)
५१८ ५०९ | भगवन् महावीरस्य च्यवन,जन्म, --उद्देशक: १ वचनविभक्ति:
४८५ अवग्रह आदि याचनाविधि:
दीक्षादि वर्णनम्, पंच महाव्रतस्य -उद्देशक: २ क्रोधोत्पतिवर्जनं ४९२ एवं अवग्रह पडिमा(७)
प्ररूपणा, तस्य पंच-पंच भावना अध्ययनं ५ वस्त्रैषणा ४९९
चुडा-२ । ५२८
. चूडा-४ --उद्देशक: १ वस्त्रग्रहणविधि: ४९९ ४९७ | सप्तकक १ स्थानं
૨૮
अनित्यभावना, मुने:हस्ति आदि -उद्देशक: २
४९८ | सप्तैकक २ निषिधिका: 430 -५५२ | उपमा,अन्त्कृत् मोक्षगामी मुनि.
आचाराङ्ग सूत्रस्य संक्षिप्त विषयानुक्रम: परिसमाप्त: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:।
४६६ ४७० * 2
५७२
४७५
४८३
५०८
-10
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
[आचार- मूलं एवं वृत्तिः ] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “आचाराङ्गसूत्र' के नामसे सन १९१६ (विक्रम संवत १९७२) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाइ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है।
__ इसी आचारांग सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से आचार्य श्री नयचंद्रसागरसूरिजीने भी छपवाया है, समुदाय की वफादारी निभाते हुए इस पूज्यश्रीने पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है | अपनी प्रस्तावनामें नयचंद्रसागरसूरिजी ने भी मेरी तरह उक्त बात का उल्लेख किया है।
इसी आचारांगसूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से पूज्य जम्बूविजयजी महाराजजीने श्री मोतीलाल बनारसीदास की तरफसे प्रकाशित करवाई है, जो की पुस्तक रूपसे बाईंडेड है, और परिशिष्टमें पूज्य श्री पुन्यविजयजी संकलित शुद्धि-वृद्धि पत्रक दिया है।
- हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी. ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस ] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट लिखी है |
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-१ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है |
......मुनि दीपरत्नसागर.
~11~
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१०४ ]
दीप
अनुक्रम [ १०८ ]
99
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [-], मूलं [१०४...], निर्युक्तिः [१९८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ... आगमसूत्र [०१] अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
अथ तृतीयमध्ययनं शीतोष्णीयं ।
उक्तं द्वितीयमध्ययनं साम्प्रतं तृतीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, तत्र शस्त्रपरिज्ञायामस्यार्थाधिकारोऽभाणि, यथा शीतोष्णयोरनुकूलप्रतिकूलपरिषहयोरतिसहनं कर्त्तव्यं, तदधुना प्रतिपाद्यते, अध्ययनसम्बन्धस्तु शस्त्रपरिज्ञोतमहाव्रतसम्पन्नस्य लोकविजयाध्ययनप्रसिद्ध संयमव्यवस्थितस्य विजितकषायादिलोकस्य मुमुक्षोः कदाचिदनुलोमप्रतिलोमाः परीषहाः प्रादुष्षन्ति तेऽविकृतान्तःकरणेन सम्यक् सोढव्या इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम् अस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमेऽर्थाधिकारो द्वेधा, तत्राप्यध्ययनार्थाधिकारोऽभिहितः, उद्देशार्थाधिकारप्रतिपादनार्थं तु निर्युक्तिकार आह—
पढमे सुत्ता अस्संजयत्ति १ बिइए दुहं अणुहवंति । तइए न हु दुक्खेणं अकरणयाए व समणुक्ति ३ ॥१९८॥ उद्देसंमि चउत्थे अहिगारो उ वमणं कसायाणं । पावविरईओ विउणो उ संजमो इत्थ मुक्खुत्ति ४ ॥ १९९ ॥ प्रथमोद्देशकेऽयमर्थाधिकारो, यथा-भावनिद्रया सुप्ताः सम्यगविवेकरहिताः, के? - असंयताः - गृहस्थास्तेषां च भात्रसुतानां दोषा अभिधीयन्ते, जाग्रतां च गुणाः, तद्यथा - 'जरामच्चुवसोवणीए नरे' इत्यादि १, द्वितीये तु त एवासंयता यथा भावनिद्रापन्ना दुःखमनुभवन्ति तथोच्यते, तद्यथाकामेसु गिद्धा निचयं करंति' २, तृतीये तु 'न हु' नैव दुःख सहनादेव केवलाच्छ्रमणः अकरणतयैव-अक्रिययैव संयमानुष्ठानमन्तरेणेत्यर्थः, वक्ष्यति च - 'सहिए दुक्खमायाय
Education Internation
तृतीय-अध्ययनं “ शीतोष्णिय” आरब्धः,
never
For Parts Only
~ 12 ~
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०४...], नियुक्ति : [१९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०४]
दीप
श्रीआचा- तेणेव य पुढो नो झंझाए' ३, चतुर्थोद्देशके त्वयमधिकारो, यथा-कषायाणां वमनं कार्य, पापस्य च कर्मणो विरतिः,हामीलो
'विदुषो' विदितवेद्यस्य संयमोऽत्रैव प्रतिपाद्यते, क्षपकश्रेणिप्रक्रमात् केवलं भवोपग्राहिक्षयान्मोक्षश्चेति गाथाद्वयार्थः ॥ (शी०) ||नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे शीतोष्णीयमध्ययनमतः शीतोष्णयोनिक्षेपं निर्दिदिक्षुराह
उद्देशका ॥१४९॥
नाम ठवणा सीयं दब्वे भावे य होइ नायब्वं । एमेव य उपहस्सवि चउविहो होइ निक्खेवो ॥२०॥ सुगमा । तत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यशीतोष्णे दर्शयितुमाहदब्चे सीयलदव्वं दबुण्डं चेव उण्हदव्वं तु । भावे उ पुग्गलगुणो जीवस्स गुणो अणेगविहो ॥२०१॥ ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यशीतं शीतगुणोपेतं गुणगुणिनोरभेदात् शीतकारणं वा यव्यं द्रव्यप्राधान्याच्छीतलद्रव्यमेव द्रव्यशीत-हिमतुषारकरकादि, एवं द्रव्योष्णमपीति । भावतस्तु द्वेधा-पुद्गलाश्रितं जीवाश्रितं च, गाथा-1 ६ शकलेनाचष्टे-तत्र पुद्गलाश्रितं भावशीतं पुद्गलस्य शीतो गुणो गुणस्य प्राधान्यविवक्षयेति, एवं भावोष्णमपि, जीवस्य तु
शीतोष्णरूपोऽनेकविधो गुणः, तद्यथा-औदयिकादयः पडू भावाः, तत्रौदयिका कर्मोदयाविर्भूतनारकादिभवकषायोसत्तिलक्षणः उष्णः, औपशमिकः कर्मोपशमावाप्तसम्यक्त्वविरतिरूपः शीता, क्षायिकोऽपि शीत एव, क्षायिकसम्यक्त्व-|
चारित्रादिरूपत्वाद्, अथवाऽशेषकर्मदाहान्यथानुपपत्तेरुष्णः, शेषा अपि विवक्षातो द्विरूपा अपीति । अस्य च जीवभाव*गुणस्य शीतोष्णविवेक स्वत एवं नियुक्तिकारः प्रचिकटयिषुराह
॥१४९॥ |सीयं परीसहपमायुवसमविरई मुहं चउण्हं तु । परीसहतवुज्जमकसाय सोगाहियेयारई दुक्खं ।। २०२॥ दारं ।
*SKCAKACACACCALCARE
अनुक्रम [१०८]
~13~
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०४...], नियुक्ति: [२०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१०४]
'शीत'मिति भावशीतं, तच्चेह जीवपरिणामस्वरूपं गृह्यते, स चायं परिणामो-मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिपोढव्याः परीषहाः 'प्रमादः' कार्यशैथिल्यं शीतलविहारता 'उपशमो' मोहनीयोपशमः, स च सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतिलक्षणः, उपशमश्रेण्याश्रितो वा, तत्क्षयो वेति, 'विरतिरिति प्राणातिपातादिविरत्युपलक्षितः सप्तदशविधः संयमः 'सुखं च सातावेदनीयविपाकाविर्भूतमिति । एतत् सर्व परीपहादि शीतमुष्णं च गाथाशकलेनाह-परीषहाः-पूर्वव्यावर्णितस्वरूपाः
तपस्युद्यमो-यथाशक्ति द्वादशप्रकारतपोऽनुष्ठानं 'कषायाः क्रोधादयः 'शोक' इष्टाप्राप्तिविनाशोद्भवः आधिः 'वेद' स्त्रीकानपंसकवेदोदयः 'अरतिः' मोहनीयविपाकाचित्तदौःस्थ्य 'दुःखं च' असातावेदनीयोदयादीनि, एतानि परीपहादीनि |
पीडाकारित्वादुष्णमिति गाथासमासार्थः । व्यासार्थ तु नियुक्तिकारः स्वत एवाचष्टे-तत्र परीषहाः शीतोष्णयोईयोरप्यभिहिताः, ततो मन्दबुद्धेरनध्यवसायः संशयो विपर्ययो वा स्याद् अतस्तदपनोदार्थमाह
इत्थी सकारपरीसहो य दो भावसीयला एए। सेसा वीसं उण्हा परीसहा हुंति नायव्वा ॥ २० ॥ स्त्रीपरीषहः सत्कारपरीषहश्च द्वावप्येती शीती, भावमनोऽनुकूलत्वात् , शेषास्तु पुनविंशतिरुष्णा ज्ञातव्या भवन्ति, मनसः प्रतिकूलत्वादिति गाथार्थः॥ यदिवा परीपहाणां शीतोष्णत्वमन्यथा आचष्टेजे तिव्वप्परिणामा परीसहा ते भवंति उपहा उजे मंदप्परिणामा परीसहा ते भवे सीया ॥२०४॥ दारं।
तीबो-दुःसहः परिणामः-परिणतिर्येषां ते तथा, य एवम्भूताः परीषहास्ते उष्णाः, ये तु मन्दपरिणामास्ते शीता इति, इदमुक्तं भवति-ये शरीरदुःखोसादकत्वेनोदीर्णाः सम्यक्सहनाभावाच्चाधिविधायिनस्ते तीत्रपरिणामत्वादुष्णाः, ये पुन
।
* 99*94%AC%
दीप अनुक्रम [१०८]
CE%
~144
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०४...], नियुक्ति: [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
शीतो०३ उद्देशकः१
सूत्रांक
[१०४]
दीप अनुक्रम [१०८]
श्रीआचा-1 रुदीर्णाः शारीरमेव केवलं दुःखमुत्सादयन्ति महासत्त्वस्य न मानसं ते भावतो मन्दपरिणामाः, यदिवा ये तीव्रपरि- रागवृत्तिः णामाः-प्रबलाविर्भूतस्वरूपास्ते उष्णाः, ये तु मन्दपरिणामाः-ईपल्लक्ष्यमाणस्वरूपास्ते शीता इति । यसरीपहानन्तरं प्रमा
IMदपदमुपन्यस्तै शीतत्वेन यच्च तपस्युद्यम इत्युष्णत्वेन तदुभयं गाथयाऽऽचष्टे
धममि जो पमायइ अत्थे वा सीअलुत्ति तं बिति । उज्बुत्तं पुण अन्नं तत्तो उपहंति णं विति ॥ २०५॥ द्वारं । ॥१५ ॥
| 'धर्मे' श्रमणधर्मे यः 'प्रमाद्यति'नोद्यम विधत्ते 'अर्थे वा अर्थ्यत इत्यर्थो-धनधान्यहिरण्यादिस्तत्र तदुपाये वा शीतल इत्येवं तं 'ब्रुवते' आचक्षते, उद्युकं पुनरन्यं ततः-संयमोद्यमात् कारणादुष्णमित्येवं युवते, णमिति वाक्पालङ्कार इति गाथार्थः ॥ उपशमपदव्याचिख्यासयाऽऽहसीईभूओ परिनिव्वुओ य संतोतहेव पण्हाणो (ल्हाओ)होउवसंतकसाओतेणुवसंतो भवे जीचो॥२०६॥दार।। | उपशमो हि क्रोधाद्युदयाभावे भवति, ततश्च कषायान्युपशमात् शीतीभूतो भवति, क्रोधादिज्वालानिर्वाणात् परिनिभावृतो भवति, चः समुच्चये, रागद्वेषपावकोपशमादुपशान्तः, तथा क्रोधादिपरितापोपशमात् 'प्रहादितः' आपन्नसुखो,
यतो ह्युपशान्तकषाय एव एवम्भूतो भवति तेनोपशान्तकषायः शीतो भवतीति, एकार्थिकानि वैतानोति गाथार्थः॥ अधुना विरतिपदव्याख्यामाहअभयकरो जीवाणं सीयघरो संजमो भवह सीओ।अस्संजमो य उपहो एसो अन्नोऽवि पजाओ॥२०७॥दार। | | अभयकरण शीलः, केषां?-जीवानां, शीत-सुखं तद्ह-तदावासः, कोऽसौ-संयमः सप्तदशभेदः, अतोऽसौ शीतो
R
|१५०॥
SARERaunintenariana
~154
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०४...], नियुक्ति: [२०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१०४]
दीप अनुक्रम [१०८]
भवति, समस्तदुःखहेतुद्वन्द्वोपरमाद्, एतद्विपर्ययस्त्वसंयम उष्णः, 'एष' शीतोष्णलक्षणः संयमासंयमयोः पर्यायोऽन्यो। वा सुखदुःखरूपो विवक्षावशाद्भवतीति गाथार्थः॥ साम्प्रतं सुखपदविवरणायाह| निब्याणसुहं सायं सीईभूयं पयं अणाबाहं । इहमवि जं किंचि सुहं तं सीयं दुक्खमवि उपहं ॥ २०८ ॥ I सुखं शीतमित्युक्तं, तच समस्तद्वन्द्वोपरमादात्यन्तिकैकान्तिकानाबाधलक्षणं निरुपाधिकं परमार्थचिन्तायां मुक्तिसु8 खमेव सुखं नापरम्, एतच्च समस्तकम्मोपतापाभावाच्छीतमिति दर्शयति-'निर्वाणसुख'मिति, निर्वाणम्-अशेषकर्मक्ष-18
यस्तदवाप्ती वा विशिष्टाकाशप्रदेशः तेन तत्र वा सुखं निर्वाणसुखम् , अस्य चैकार्थिकानि-सात शीतीभूतं पदमनाबाधमिति । इहापि संसारे यत्किञ्चित् सातावेदनीयविपाकोद्भूतं सात-सुखं तदपि शीतं मनआल्हादाद्, एतद्विपयर्यस्तु दुःखं, तच्चोष्णमिति गाथार्थः ।। कषायादिपदव्याचिख्यासयाह
डज्झइ तिब्वकसाओ सोगभिभूओ उइन्नवेओ य । उण्हयरो होइ तवो कसायमाईवि जं डहइ ॥२०९॥ | 'दह्यते' परिपच्यते, कोऽसौ ?-'तीवा' उत्कटा उदीर्णा विपाकानुभवेन कषाया यस्य स तथा, न केवलं कषायाग्निना दह्यते, 'शोकाऽभिभूतश्च' इष्टवियोगादिजनितः शोकस्तेनाभिभूतः तिरोहितशुभव्यापारोऽसावपि दह्यते, तथा उदीर्णोविपाकापन्नो वेदो यस्य स तथा, उदीर्णवेदो हि पुमान् स्त्रियं कामयते, साऽपीतरं, नपुंसकस्तूभयमिति, तत्राप्त्यभावे कासोद्भूतारतिदाहेन दह्यते, चशब्दादिच्छाकामाप्राप्तिजनितारतिपावकेन दह्यते, तदेवं कषायाः शोको वेदोदयश्च दाहकत्वादुष्णः, सर्व वा मोहनीयमष्टप्रकारं वा कम्मोष्णं, ततोऽपि तदाहकत्वादुष्णतरं तप इति गाथाशकलेन
~16~
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०४...], नियुक्ति : [२०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०४]
दीप
श्रीआचा- दर्शयति-उष्णतरं तपो भवति, किमिति :-यतः कषायादिकमपि दहति, आदिशब्दाच्छोकादिपरिग्रह इति गाथार्थः। शीतो०३ राङ्गवृत्तिः 8| येनाभिप्रायेण द्रव्यभावभेदभिन्ने परीषहप्रमादोयमादिरूपे शीतोष्णे जगादाचार्यस्तमभिप्रायमाविष्करोति
उद्देशका १ (शी०) सीउण्हफासमुहदुहपरीसहकसायवेयसोयसहो । हुज्ज समणो सया उजुओ य तवसंजमोवसमे ।। २१०॥ ॥१५१॥
शीतं चोष्णं च शीतोष्णे तयोः स्पर्शः तं सहत इति सम्बन्धः, शीतस्पर्शोप्णस्पर्शजनितवेदनामनुभवन्नार्तध्यानोकापगतो भवतीतियावत्, शरीरमनसोरनुकूलं सुखमिति, तद्विपरीतं दुःखं, तथा परीषहकसायवेदशोकान् शीतोष्णभूतान् सहत इति । तदेवं शीतोष्णादिसहः सन् भवेत् 'श्रमणः' यतिः सदोद्युक्तश्च, क?-तपःसंयमोपशमे इति गाथार्थः।। साम्प्रतमुपसंहारव्याजेन साधुना शीतोष्णातिसहनं कर्त्तव्यमिति दर्शयतिसीयाणि य उपहाणि य भिक्खूर्ण हुँति विसहियब्वाई। कामा न सेवियब्वा सीओसणिजस्स निल्नुत्ती ॥२११॥ | 'शीतानि' परीषहप्रमादोपशमविरतिसुखरूपाणि यान्यभिहितानि 'उष्णानि च' परीषहतपउद्यमकषायशोकवेदारत्यात्मकानि प्रागभिहितानि तानि 'भिक्षूणां' मुमुक्षूणां विषोढव्यानि, न सुखदुःखयोः उत्सेकविषादौ विधेयौ, तानि चैवं सम्यग्दृष्टिना सह्यन्ते यदि कामपरित्यागो भवतीति गाथाशकलेनाह–'कामा' इत्यादि गाथार्द्धं सुगमं । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतमशेषदोषत्रातविकलं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम्- ID१५१॥
सुत्ता अमुणी सया मुणिणो जागरंति (सू० १०५)
अनुक्रम [१०८]
तृतीय-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'भावसुप्त' आरब्धः,
~17~
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०५], नियुक्ति: [२११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०५]
दीप अनुक्रम [१०९]
अस्य चानन्तरसूत्रेण सम्बन्धो वाच्या, स चायम्-इह दुःखी दुःखानामेवावर्त्तमनुपरिवर्त्तत इत्युक्त, तदिहापि भावसुप्ता अज्ञानिनो दुःखिनो दुःखानामेवावर्त्तमनुपरिवर्तन्ते इति, उक्तं च "नातः परमहं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञानमहारोगो, दुरन्तः सर्वदेहिनाम् ॥१॥" इत्यादि, इह सुप्ता द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र निद्राम|मादवन्तो द्रव्यसुधाः, भावसुप्तास्तु मिथ्यात्वाज्ञानमयमहानिद्राव्यामोहिताः, ततो ये 'अमुनयः' मिथ्यादृष्टयः सततं
भावसुप्ताः सद्विज्ञानानुष्ठानरहितत्वात् , निद्रया तु भजनीयाः, मुनयस्तु सद्बोधोपेता मोक्षमार्गादचलन्तस्ते सततम्-अनसावरतं 'जाग्रति' हिताहितप्राप्तिपरिहारं कुर्वते, अतो द्रव्यनिद्रोपगता अपि क्वचिद्वितीयपौरुष्यादौ सततं जागरूका
एवेति । एनमेव भावस्वापं जागरणं च विषयीकृत्य नियुक्तिकारो गाथा जगाद। सुत्ता अमुणिओ सया मुणिओ सुत्तावि जागरा हुंति । धम्मं पडच एवं निद्दासुत्तेण भइयर्व ॥ २१२॥
सुप्ता द्विधा-द्रव्यतो भावतच, तत्र निद्रया द्रव्यसुतान् गाथान्ते वक्ष्यति, भावसुप्तास्त्वमुनयो-गृहस्था मिथ्यात्वाज्ञानावृता हिंसाद्यानवद्वारेषु सदा प्रवृत्ताः, मुनयस्वपगतमिथ्यात्वादिनिद्रतयाऽवाप्तसम्यक्त्वादिबोधा भावतो जागरूका एव, यद्यपि कचिदाचार्यानुज्ञाता द्वितीयपौरुष्यादी दीर्घसंयमाधारशरीरस्थित्यर्थ निद्रावशोपगता भवन्ति तथापि
सदा जागरा एव,) एवं च धर्म प्रतीत्योक्ताः सुप्ता जाग्रदवस्थाश्च । द्रव्यनिद्रासुप्तेन तु भाज्यमेतदू-धर्मः स्याद्वा न लावा, यद्यसौ भावतो जागति ततो निद्रासुप्तस्यापि धर्मः स्यादेव, यदिवा भावतो जाग्रतो निद्राप्रमादावष्टब्धान्तःकर
णस्य न स्यादपि, यस्तु द्रव्यभावसुप्तस्तस्य न स्यादेवेति भजनार्थः । अथ किमिति द्रव्यसुप्तस्य धर्मो न भवतीति ?,
~18~
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०५], नियुक्ति: २१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०५]
दीप
श्रीआचा|8| उच्यते, द्रव्यसुप्तो हि निद्रया भवति, सा च दुरन्ता, किमिति ?, यतः स्त्यानदित्रिकोदये सम्यक्त्वावाप्तिर्भवसिद्धि-|| शीतो०३ राङ्गवृत्तिः कस्यापि न भवति, तद्वन्धश्च मिथ्यादृष्टिसास्वादनयोरनन्तानुबन्धिबन्धसहचरितः, क्षयस्वनिर्वृत्तिबादरगुणस्थानकालस(शी०) ख्येयभागेषु कियत्स्वपि गतेषु सत्सु भवति, निद्राप्रचलयोरपि उदये प्राग्वदेव, बन्धोपरमस्त्वपूर्वकरणकालसंख्येयभागान्ते
उद्देशक-१ भवति, क्षयः पुनः क्षीणकषायद्विचरमसमये, उदयस्तूपशमकोपशान्तमोहयोरपि भवतीत्यतो दुरन्तो निद्राप्रमादः । यथा | ॥१५२॥
|च द्रव्यसुप्तो दुःखमवामोत्येवं भावसुप्तोऽपि (इति) दर्शयितुमाह
जह सुत्त मत्त मुच्छिय असहीणो पावए बहुं दुक्खं । तिव्वं अपडियारंपि वट्टमाणो तहा लोगो ॥ २१३ ॥
सुप्तो निद्रया मत्तो मदिरादिना मूच्छितो गाढमर्मप्रहारादिना अस्वाधीनः-परायत्तो वातादिदोपोनवमहादिना यथा बहु दुःखमप्रतीकारमवाप्नोति, तथा भावस्वापे-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषायादिकेऽपि 'वर्तमानः' अवतिष्ठमानो 'लोक' पाणिगणो नरकभवादिकं दुःखमयामोतीति गाथार्थः ॥ पुनरपि व्यतिरेकदृष्टान्तद्वारेणोपदेशदानायाहएसेव य उवएसो पदित्त पयलाय पंथमाईसुं । अणुहवइ जह सचेओ सुहाई समणोऽवि तह चेव ॥ २१४ ॥ | 'एष एव' पूर्वोक्त उपदेशो यो विवेकावियेकजनितः, तथाहि-सचेतनो विवेकी प्रदीप्ते सति प्रपलायमानः सुखमनु४ भवति, पथिविषये च सापायनिरपायविवेकज्ञा, आदिग्रहणादन्यस्मिन्बा दस्युभयादी समुपस्थिते सति, यथा विवेकी है॥॥१५२॥
सुखेनैव तमपार्य परिहरन् सुखभाग् भवति, एवं श्रमणोऽपि भावतः सदा विवेकित्वाजायदवस्थामनुभवन् समस्तक
अनुक्रम [१०९]
~19~
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१०५ ]
दीप
अनुक्रम [१०९ ]
99
[भाग-2] “आचार” मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [ १०५ ], निर्युक्ति: [ २१४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
| ल्याणास्पदीभवति । अत्र च सुप्तासुप्ताधिकारगाथाः- “जागरह णरा णिचं जागरमाणस्स चहुए बुद्धी । जो सुअइ न सो घण्णो जो जग्गइ सो सया धन्नो ॥ १ ॥ सुअर सुअंतरस सुअं संकियखलियं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स सुअं थिरपरिचिअमप्पमत्तस्स || २ || नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया । न वेरगं पमाएणं, नारंभेण दयालुया ॥ ३ ॥ जागरिआ धम्मीणं आहम्मीणं तु सुत्तया सेआ । वच्छाहिवभगिणीए अकहिंसु जिणो जयंतीए ॥ ४ ॥ सुयइ य अयगरभूओ सुअंपि से नासई अमयभूअं । होहिइ गोणब्भूओ नईमि सुए अमयभूए ॥ ५ ॥ तदेवं दर्शनावरणीयकर्म्मविपाकोदयेन क्वचित्स्वपन्नपि यः संविग्नो यतनावांश्च स दर्शनमोहनीयमहानिद्रापगमाज्जाग्रदवस्थ एवेति । ये तु सुप्तास्तेऽज्ञानोदयाद्भवन्ति, अज्ञानं च महादुःखं दुःखं च जन्तूनामहितायेति दर्शयति---
लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं, समयं लोगस्स जाणित्ता, इत्थ सत्थोवरए, जस्सिमे सदा य रुवाय रसाय गंधा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति (सू० १०६)
'लोके' पड्जीवनिकाये 'जानीहि ' परिच्छिन्द्या दुःखहेतुत्वाद्दुःखम् - अज्ञानं मोहनीयं वा तदहिताय - नरकादिभ
१] जागृत नरा नि जातो वर्धते बुद्धिः यः खपिति न स धन्यः यो जागर्ति स सदा धन्यः ॥ १ खपिति खपतः श्रुतं शतस्तदितं भवेत्प्रमतस्य जागरतः श्रुतं स्थिरपरिचितमप्रमत्तस्य ॥ २ ॥ नालस्थेन समं सौख्यं न विद्या सह निद्रया न वैराग्यं प्रमादेन नारम्भेण दयालुता ॥ ३ ॥ जामत्ता धर्मिणां अधर्मिणां तु सुप्ता श्रेयसी । वत्साधियभगिन्या अकथयत् जिनो जयन्त्याः ॥ ४ ॥ खपिति चाजगरभूतः श्रुतमपि तस्य नश्यत्यमृतभूतम् । भविष्यति गोभूतो नष्टे श्रुतेऽमृत्तभूते ॥ ५ ॥
Education Internationa
For Parts Only
~20~
org
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०६], नियुक्ति: २१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
शीतो०३
प्रत
सूत्रांक
[१०६]]
%
%
दीप अनुक्रम [११०]
श्रीआचा- चव्यसनोपनिपाताय, इह वा बन्धवधशारीरमानसपीडायै जायत इत्येतज्जानीहि, परिज्ञानाच्चैतत्फलं यदुत-द्रव्यभाव- रामवृत्तिः
स्वापादज्ञानरूपाहुःखहेतोरपसर्पणमिति, किं चान्यत्-'समय'मित्यादि, समयः-आचारोऽनुष्ठानं तं लोकस्यासुमद्रा(शी०) तस्य ज्ञात्वा अन शस्त्रोपरतो भवेदित्युत्तरसूत्रेण सम्बन्धो, लोको हि भोगाभिलाषितया प्राण्युपमदादिकपायहेतुकं क-1
म्र्मोपादाय नरकादियातनास्थानेषूत्पद्यते, ततः कथञ्चिदुदत्त्यावाप्य चाशेषक्लेशवातघ्नं धर्मकारणमार्यक्षेत्रादौ मनुष्य॥१५३॥
जन्म पुनरपि महामोहमोहितमतिस्तत्तदारभते येन येनाधोऽधो ब्रजति, संसारान्नोन्मजतीति, अयं लोकाचारस्तं ज्ञात्वा, |अथवा समभावः समता तां ज्ञात्वा, 'लोकस्येति सप्तम्यर्थे षष्ठी, ततश्चायमर्थो–'लोके' जन्तुसमूहे 'समता' समशत्रुमित्रतां समात्मपरतां वा ज्ञात्वा, यदिवा सर्वेऽप्येकेन्द्रियादयो जन्तवः सदा स्वोत्पत्तिस्थानरिरंसवो मरणभीरवः सुखप्सवो दुःखद्विष इत्येवम्भूतां समतां ज्ञात्वा, किं कुर्यादित्याह-'एत्थ सत्थोवरए', 'अत्र' अस्मिन् पटकायलोके शस्त्राद्रव्यभावभेदादुपरतो धर्मजागरणेन जागृहि, यदिवा यद्यसंयमशस्त्रं प्राणातिपाताद्यास्रवद्वार शब्दादिपञ्चप्रका-15 |रकामगुणाभिष्वङ्गो वा तस्माद्य उपरतः स मुनिरिति, आह च-'जस्सिमें' इत्यादि, यस्य मुनेरिमे-प्रत्यारमवेद्याः
समस्तप्राणिगणेन्द्रियप्रवृत्तिविषयभूताः शब्दरूपरसगन्धस्पर्शा मनोज्ञेतरभेदभिन्ना 'अभिसमन्वागता' इति, अभिः-आKाभिमुख्येन सम्यम्-इष्टानिष्टावधारणतयाऽन्विति-शब्दादिस्वरूपावगमात् पश्चादागता:-ज्ञाता: परिच्छिन्ना यस्य मुनेभै
वन्ति स लोकं जानातीति सम्बन्धः, इदमुक्तं भवति-इष्टेषु न रागमुपयाति नापीतरेषु द्वेषम् , एतदेवाभिसमन्वागमनं वेषां नान्यदिति, यदिवेहव शब्दादयो दु:खाय भवन्त्यास्तां तावत्परलोक इति, उक्तं च-"रका शब्दे हरिणः सर्छ |
-%
१५३॥
~21
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक [१०६ ]
दीप
अनुक्रम [११०]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [ १०६], निर्युक्तिः [२१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
नागो रसे च वारिचरः । कृपणपतङ्गो रूपे भुजगो गन्धे ननु विनष्टः ॥ १ ॥ पञ्चसु रक्ताः पञ्च विनष्टा यत्रागृहीतपरमार्थाः । एकः पञ्चसु रक्तः प्रयाति भस्मान्ततामबुधः ||२||" अथवा शब्दे पुष्पशालाद्भद्रा ननाश रूपे अर्जुनकतस्करः गन्धे गन्धप्रियकुमारः रसे सौदासः स्पर्शे सत्यकिः सुकुमारिकापतिर्वा ललिताङ्गकः, परत्र च नारकादियातनास्थानभयमिति । एवं शब्दादीनुभयदुःखस्वभावानवगम्य यः परित्यजेदसौ के गुणमवाप्नुयादित्याह
से आय नावं वेयवं धमवं वंभवं पन्नाणेहिं परियाणइ लोयं, मुणीति वुच्चे, धम्मविऊ उज्जू, आवसोए संगमभिजाणइ (सू० १०७ )
यो हि महामोहनिद्रावृते लोके दुःखमहिताय जानानो लोकसमयदर्शी शस्त्रोपरतः सन् शब्दादीन् कामगुणान् दुःखेकहेतूनभिसमन्वागच्छति ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यान परिज्ञया च प्रत्याचष्टे 'स' मुमुक्षुरात्मवान्-आत्मा ज्ञानादिकोऽस्यास्तीत्यात्मवान्, शब्दादिपरित्यागेन ह्यात्माऽनेन रक्षितो भवति, अन्यथा नारकै केन्द्रियादिपाते सत्यात्म कार्याकरणात्कुतोऽस्यात्मेति पाठान्तरं वा 'से आयवी नाणवी' आत्मानं श्ववादिपतनरक्षणद्वारेण वेत्तीत्यात्मवित्, तथा ज्ञानंयथावस्थितपदार्थपरिच्छेदकं वेत्तीति ज्ञानवित्, तथा वेद्यते जीवादिस्वरूपम् अनेनेति वेद:- आचाराद्यागमः तं वेत्तीत्ति वेदवित् तथा दुर्गतिप्रसृतजन्तु धरणस्वभावं स्वर्गापवर्गमार्ग धर्म वेत्तीति धर्म्मवित्, एवं ब्रह्म-अशेषमल कलङ्कविकलं योगिशर्म्म वेतीति ब्रह्मवित्, यदिवा अष्टादशधा ब्रह्मेति, एवम्भूतश्चासौ प्रकर्षेण ज्ञायते ज्ञेयं यैस्तानि प्रज्ञानानि - मत्या
For Parts Only
~22~
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०७], नियुक्ति: २१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
शीतो०३
प्रत
(शी०)
सूत्रांक
[१०७]]
दीप अनुक्रम [१११]
श्रीआचा- दीनि तैलॊकं यथावस्थितं जन्तुलोकं तदाधार वा क्षेत्र जानाति-परिच्छिनत्तीत्युक्तं भवति, य एव शब्दादिविषयसङ्गस्य रावृत्तिः परिहर्ता स एव यथावस्थितलोकस्वरूपपरिच्छेदीति । यश्चानन्तरगुणोपेतः स किं वाच्य ? इत्यत आह–'मुणी' त्यादि,
यो ह्यात्मवान् ज्ञानवान् वेदवान् धर्मवान् ब्रह्मवान् प्रज्ञानैयस्तैः समस्तै, लोकं जानाति स मुनिर्वाच्यो, मनुते
मन्यते वा जगतत्रिकालावस्था मुनिरितिकृत्या, किं च-'धम्म' इत्यादि, धर्म-चेतनाचेतनद्रव्यस्वभावं श्रुतचारित्ररूपं ॥१५४॥
वा वेत्तीति धर्मवित्, 'ऋजुरिति ऋजोः-ज्ञानदर्शनचारित्राख्यस्य मोक्षमार्गस्यानुष्ठानादकुटिलो यथावस्थितपदार्थस्वरूपपरिच्छेदाद्वा ऋजुः सर्वोपाधिशुद्धोऽवक्र इतियावत् । तदेवं धर्मविद्दजुर्मुनिः किम्भूतो भवतीत्याह-आवदृ' इत्यादि,
भाषावत्तों-जन्मजरामरणरोगशोकव्यसनोपनिपातात्मकः संसार इति, उक्तं हि-"रागद्वेषवशाविद्धं, मिथ्यादर्शन3. दुस्तरम् । जन्मावर्ते जगक्षिप्त, प्रमादाब्राम्यते भृशम् ॥१॥" भावनोतोऽपि शब्दादिकामगुणविषयाभिलाषः, आवदातश्च श्रोतश्चावर्तश्रोतसी तयो रागद्वेपाभ्यां सम्बन्धः-सङ्गस्तमभिजानाति-आभिमुख्येन परिच्छिनत्ति-यथाऽयं सङ्गः
आवर्तश्रोतसोः कारणं, जानानश्च परमार्थतः कोऽभिधीयते?, योऽनर्थ ज्ञात्वा परिहरति, ततश्चायमर्थः-संसारश्रोत:सङ्गं रागद्वेषात्मकं ज्ञात्वा यः परिहरति स एव आवर्तस्रोतसोः सङ्गस्याभिज्ञाता ॥ सुप्तजाग्रता दोषगुणपरिच्छेदी के गुणभवामुयादित्याह
सीउसिणच्चाई से निग्गंथे अरइरइसहे, फरुसयं नो वेएइ, जागर वेरोवरए, वीरे एवं दुक्खा पमुक्खसि, जरामचुवसोवणिए नरे सययं मूढे धम्म नाभिजाणइ (सू०१०८)
| ॥१५४॥
~23
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०८], नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०८]
दीप
सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहितः सन् शीतोष्णत्यागी सुखदुःखानभिलाषुकः शीतोष्णरूपौ वा परीषहावतिसहमानः संयमासंयमरत्यरतिसहः सन् परुषता-कर्कशता पीडाकारितां परीपहाणामुपसर्गाणां या कर्मक्षपणायोद्यतः साहाय्यं मन्यमानो 'नो वेत्ति' न तान् पीडाकारित्वेन गृह्णातीत्युक्तं भवति, यदिवा संयमस्य तपसो वा परुषतां शरीरपीडोसादनात् कर्मलेपापनयनाद्वा संसारोद्विग्नमना मुमुक्षुनिराबाधसुखोन्मुखो 'न वेत्ति' न संयमतपसी पीडाकारित्वेन गृह्णातीतियावत् । किं च-'जागर' इत्यादि, असंयमनिद्रापगमाजागीति जागरः, अभिमानसमुत्थोऽमर्षावेशः परापकाराध्यवसायो वैरं तस्मादुपरतो वैरोपरतो, जागरश्चासौ वैरोपरतश्चेति विगृह्य कर्मधारयः, क एवम्भूतो? 'वीर' कर्मापन|यनशक्त्युपेतः, एवम्भूतश्च त्वं वीर! आत्मानं परं वा दुःखाहुःखकारणाद्वा कर्मणः प्रमोक्ष्यसीति । यश्च यथोक्ताद्विपरीतः आवर्तश्रोतसोः सङ्गमुपगतोऽजागरः स किमाप्नुयादित्याह-जरा च मृत्युश्च ताभ्यामात्मवशमुपनीतो 'नर' प्राणी 'सततम्' अनवरतं 'मूढो' महामोहमोहितमतिर्द्धम्म-स्वर्गापवर्गमार्ग नाभिजानीते-नावगच्छति, तत् संसारे स्थानमेव
नास्ति यत्र जरामृत्यू न स्तः, देवानां जराऽभाव इति चेत्, न, तत्राप्युपान्त्यकाले लेश्यावलसुखप्रभुत्ववर्णहान्युपपत्तेहा रस्त्येव च तेषामपि जरासद्भावः, उक्तं च-"देवा पण भंते ! सव्वे समवण्णा?, नो इणहे समढे, सेकेण डेणं भंते! एवं
१ देवा भवन्त । स सममणाः १, नेषोऽर्थः समर्षः, तत् केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते ?, गौतम! देवा द्विविधाः पूर्वोत्तम काय पवादुपपन्नकाब । तत्र ये ने पूर्वोत्पन्न कास्तेऽविशुद्धवाः, ये पञ्चाबुत्पन्नास्ते विशुद्धवर्णाः.
अनुक्रम [११२]
~24
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०८], नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०८]
दीप अनुक्रम [११२]
श्रीआचा- बुच्चइ, गोयमा! देवा दुविहा-पुचोवधष्णगा य पच्छोववण्णगा य । तत्थ णं जे ते पुन्योववष्णगा ते णं अविसुद्ध- शीतो०३ रावृत्तिःवण्णयरा, जे णं पच्छोववष्णगा ते णं विसुद्धवण्णयरा" एवं लेश्याद्यपीति, च्यवनकाले तु सर्वस्यैवैतद्भवति, तद्यथा"माल्यम्लानिः कल्पवृक्षप्रकम्पः, श्रीहीनाशो वाससा चोपरागः । दैन्यं तन्द्रा कामरागाङ्गभङ्गो, दृष्टिभ्रान्तिर्वेपथुश्चार-131
उद्देशका (शी०)
तिश्च ॥१॥" यतश्चैवमतः सर्वे जरामृत्युवशोपनीतमभिसमीक्ष्य किं कुर्यादित्याह
पासिय आउरपाणे अप्पमत्तो परिव्वए, मंता य मइम, पास आरंभजं दुक्खमिणंति णञ्चा, माई पमाई पुण एइ गभं, उवेहमाणो सहरूवेसु उज्जू माराभिसंकी मरणा पमुच्चई, अप्पमत्तो कामेहिं, उवरओ पावकम्मेहि, वीरे आयगुत्ते खेयन्ने, जे पजवज्जायसत्थस्स खेयपणे से असत्थस्स खेयन्ने, जे असत्थस्स खेयपणे से पज्जवज्जायसस्थस्स खेयन्ने, अकम्मस्स ववहारो न विजइ, कम्मुणा उवाही जायइ, कम्मं च पडि
लेहाए (सू० १०९) स हि भावजागरस्तैस्तैर्भावस्वापजनितैः शारीरमानसैदुःखैरात्तुरान्-किंकर्त्तव्यतामूढान् दुःखसागरावगाहान् प्राणा- ॥१५५ ॥ नभेदोपचारात् प्राणिनो 'दृष्ट्वा ज्ञात्वाऽप्रमत्तः परिव्रजेद्-उद्युक्तः सन् संयमानुष्ठानं विदध्यात् । भमि त्र-मंता' इ
~250
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०९], नियुक्ति: २१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१०९]
दीप अनुक्रम [११३]
त्यादि, हे मतिमन् ! सश्रुतिक! भावसुधातुरान् पश्य, मत्वा चैतज्जायतसप्तगुणदोषापादनं मा स्वापमतिं कुरु, कि । च-'आरंभज'मित्यादि, आरम्भः-सावधक्रियानुष्ठानं तस्माजातमारम्भजं, किं तद्-दुःखं तत्कारणं वा कम्मे । इद'मिति प्रत्यक्षगोचरापन्नमशेषारम्भप्रवृत्तपाणिगणानुभूयमानमित्येतत् 'ज्ञात्वा' परिच्छिद्य निरारम्भो भूत्वाऽऽत्महिते जागृहि । यस्तु विषयकषायाच्छादितचेता भावशायी स किमाप्नुयादित्याह-'माई' इत्यादि, मध्यग्रहणाचाद्यन्तयोग्रहणं, तेन क्रोधादिकषायवान् मद्यादिप्रमादवान्नारकदुःखमनुभूय पुनस्तिर्यक्षु गर्भमुपैति । यस्त्वकषायी प्रमादरहितः स किम्भूतो भवतीत्याह-उबेह' इत्यादि, बहुवचननिर्देशादाद्यर्थों गम्यते, शब्दरूपादिषु यो रागद्वेषी तावुपेक्षमाणः-अकुर्वन् ऋ-
जुर्भवति-यतिर्भवति, यतिरेव परमार्थत ऋजुः, अपरस्त्वन्यथाभूतः ख्यादिपदार्थान्यथाग्रहणाहूक्रः, किं च-स ऋजुः हा शब्दादीनुपेक्षमाणो मरणं मारस्तदभिशङ्की-मरणादुद्विजस्तत्करोति येन मरणात् प्रमुच्यते । किं तत्करोतीत्याह-अप्पमत्ता
इत्यादि, कामैर्यः प्रमादस्तत्राप्रमत्तो भवेत् । कश्चाप्रमत्तः स्याद्?, य कामारम्भकेभ्यः पापेभ्य उपरतो भवतीति दर्शयति 31-'उबरओ' इत्यादि, उपरतो मनोवाकायैः, कुतः-पापोपादानकर्मभ्यः, कोऽसी-बीर, किम्भूतो?-गुप्तात्मा, कश्च|3||
गुप्तो भवति?, यः खेदज्ञो, यश्च खेदज्ञः स के गुणमवाप्नुयादित्याह-'जे पज्जव' इत्यादि, शब्दादीनां विषयाणां पर्यवा:विशेषास्तेषु-तनिमित्तं जातं शस्त्रं पर्यवजातशत्रं-शब्दादिविशेषोपादानाय यत्प्राण्युपघातकार्यनुष्ठानं तत्पर्यवजातशत्रं तस्य पर्यवजातशत्रस्य यः खेदज्ञो-निपुणः सोऽशस्त्रस्य-निरवद्यानुष्ठानरूपस्य संयमस्य खेदज्ञो, यश्चाशत्रस्य संयमस्य खेदज्ञः स पर्यवजातशस्त्रस्य खेदज्ञः, इदमुक्तं भवति-यः शब्दादिपर्यायानिष्टानिष्टात्मकान् तत्राप्तिपरिहारानुष्ठानं च
~26~
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०९], नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०९]
दीप अनुक्रम [११३]
श्रीआचा- शस्त्रभूतं वेत्ति सोऽनुपघातकत्वात्संयममण्यशखभूतमात्मपरोपकारिणं वेत्ति, शस्त्राशस्त्रे च जानानस्तत्राप्तिपरिहारी बि- शीतो०३ राङ्गवृत्तिः धत्ते, एतत्फलत्वात् ज्ञानस्येति, यदिवा शब्दादिपर्यायेभ्यस्तजनितरागद्वेषपर्यायेभ्यो वा जातं यज्ज्ञानावरणीयादि (शी०)
उद्देशका कर्म तस्य यच्छखं दाहकत्वात् तपस्तस्य यः खेदज्ञः तज्ञानानुष्ठानतः सोऽशस्त्रस्य संयमस्यापि खेदज्ञः, पूर्वोक्तादेव ॥१५६॥
हेतोः, हेतुहेतुमद्भावाच्च योऽशवस्य खेदज्ञः स पर्यवजातशस्त्रस्यापि खेदज्ञ इति, तस्य च संयमतपःखेदज्ञस्थानवनिरोधादनादिभवोपात्तकर्मक्षयः । कर्मक्षयाच्च यद्भवति तदप्यतिदिशति-'अकम्मस्स' इत्यादि, न विद्यते काष्टप्रकारमस्येत्य कर्मा तस्य 'व्यवहारो न विद्यते' नासौ नारकतिर्यग्नरामरपर्याप्तकापर्याप्तकबालकुमारादिसंसारिव्यपदेशभाग
भवति । यश्च सकर्मा स नारकादिव्यपदेशेन व्यपदिश्यत इत्याह-'कम्मुणा' इत्यादि, उपाधीयते-व्यपदिश्यते येनेप्रत्युपाधिः-विशेषणं स उपाधिः कर्मणा-ज्ञानावरणीयादिना जायते, तद्यथा-मतिश्रुतावधिमनःपर्यायवान् मन्दमतिस्ती-18 दक्ष्णो वेत्यादि, चक्षुर्दर्शनी अचक्षुदर्शनी निद्रालुरित्यादि, सुखी दुःखी वेति, मिथ्यादृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिः स्त्री पुमान
|पुंसकः कषायीत्यादि, सोपक्रमायुष्को निरुपक्रमायुष्कोऽल्यायुरित्यादि, नारकः तिर्यग्योनिक एकेन्द्रियो द्वीन्द्रियः पर्याप्तिकोऽपर्याप्तकः सुभगो दुर्भग इत्यादि, उच्चैर्गोत्रो नीचैर्गोत्रो वेति, कृपणस्त्यागी निरुपभोगो निर्वीर्यः, इत्येवं कर्मणा
संसारी व्यपदिश्यते । यदि नामैवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह-'कम्मं च इत्यादि, कर्म-ज्ञानावरणीयादि तत्प्रत्युपेक्ष्य वन्धं वा प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मक पर्यालोच्य, तत्सत्ताविपाकापन्नांश्च प्राणनो यथा भावनिद्रया शेरते तथाऽवग- १५६॥ म्याकर्मतोपाये भावजागरणे यतितव्यमिति, तदभावश्चानेन प्रक्रमेण भवति, तद्यथा-अष्टविधसत्कम्मोपूर्वादिकरणक्ष-||
SCHIXXXS*
XAN*
~27~
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१०९], नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
%
-
प्रत
सूत्रांक
[१०९]
%2595
दीप अनुक्रम [११३]
पकश्रेणिप्रक्रमेण मोहनीयक्षयं विधायान्तर्मुहूर्तमजघन्योत्कृष्ट कालं सप्तविधसत्कर्मा, ततः शेषपातित्रये क्षीणे चतुर्विध-I भवोपग्राहिसरका जघन्यतोऽन्तर्मुहत्तेमुत्कृष्टतो देशानां पूर्वकोटिं यावत्, पुनरूप पञ्चास्वाक्षरोगिरणकालीयां शैलेश्यवस्थामनुभूषाकर्मा भवति । साम्प्रतमुत्तरप्रकृतीनां सदसत्कर्मताविधानमुच्यते-तत्र ज्ञानावरणीयान्तराययोः।। प्रत्येकमुपात्तपश्चभेदयोश्चतुर्दशस्वपि जीवस्थानकेषु गुणस्थानकेषु च मिथ्यादृष्टेरारभ्य केवलिगुणस्थानादारतोऽपरविक-14 ल्पाभावात् पञ्चविधसत्कर्माता। दर्शनावरणस्य त्रीणि सत्कर्मतास्थानानि, तद्यथा-नवविधं निद्रापञ्चकदर्शनचतुष्टयस-8 मन्वयाद् एतत् सजीवस्थानानुयायि, गुणस्थानेष्वष्यनिवृत्तिबादरकालसख्येयभागान् यावत् १, ततः कतिचित्स-रे ख्येयभागावसाने स्त्यानत्रियक्षयात् पट्सत्कर्मतास्थानं २, ततः क्षीणकपायद्विचरमसमये निद्राप्रचलाद्वयक्षयाच्चतु:सत्कर्मतास्थानं, तस्यापि क्षयः क्षीणकषायकालान्त इति ३ । वेदनीयस्य द्वे सत्कर्मतास्थाने, तद्यथा-वे अपि सातासाते इत्येक, अन्यतरोदयारूढशैलेश्यवस्थेतरद्विचरमक्षणक्षये सति सातमसातं वा कम्र्मेति द्वितीय २। मोहनीयस्य | पञ्चदश सत्कर्मतास्थानानि, तद्यथा-पोडश कषाया नव नोकषाया दर्शनत्रये सति सम्यग्दृष्टेरष्टाविंशतिः १, सम्यक्त्वोशाबूलने सम्बगूमिथ्यादृष्टेः सप्तविंशतिः२, दर्शनद्वयोदलनेऽनादिमिथ्यादृष्टेर्वा पड्रिंशतिः ३, सम्यग्दृष्टरष्टाविंशतिसत्क
र्माणोऽनन्सानुषम् युद्धलने क्षपणे वा चतुर्विंशतिः ४, मिथ्यात्वक्षये त्रयोविंशतिः ५, सम्यग्मिथ्यात्वक्षये द्वाविंशतिः ६ क्षायिकसम्यग्दृष्टेरेकविंशतिः ७, अप्रस्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्षये त्रयोदश ८, अन्यतरवेदक्षये द्वादश ९, द्वितीयवेद-|| ये सत्येकादश १०, हास्यादिषट्क्षये पश्च ११, (वेदाभावे चत्वारि १२, सज्वलनकोधक्षये त्रयः १३, मानक्षये द्वौ १४
4%95
%
-
%
-
For P
OW
~28~
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[ १०९ ]
दीप
अनुक्रम [११३]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [ १०९], निर्युक्तिः [२१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
(शी०)
॥ १५७ ॥
श्रीआचा- 2 मायाक्षये सत्येको लोभः १५, तत्क्षये च मोहनीयासत्तेति । आयुषो द्वे सत्कर्म्मतास्थाने सामान्येन तद्यथा-परभवाराङ्गवृत्तिः युष्कबन्धोत्तरकालमायुष्कद्वयमेकं १, द्वितीयं तु तद्बन्धाभाव इति । नानो द्वादश सत्कर्म्मतास्थानानि, तद्यथा-बिनवतिः १ द्विनवतिः २ एकोननवतिः ३ अष्टाशीतिः ४ षडशीतिः ५ अशीतिः ६ एकोनाशीतिः ७ अष्टसप्ततिः ८ पट्सततिः ९ पञ्चसप्ततिः १० नव ११ अष्टौ १२ चेति, तत्र त्रिनवतिः - गतयश्चतस्रः ४ पञ्च जातयः ५ पञ्च शरीराणि ५ पश्च सङ्घाताः ५ बन्धनानि पञ्च ५ संस्थानानि षट् ६ अङ्गोपाङ्गत्रयं ३ संहननानि षट् ६ वर्णपञ्चकं ५ गन्धद्वयं २ रसाः पञ्च ५ अष्टौ स्पर्शा ८ आनुपूर्वीचतुष्टयं ४ अगुरुलघूपघातपराधातोच्छ्रासातपोद्योताः षट् ६ प्रशस्तेतर विहायोगतिद्वयं २ प्रत्येकशरीर त्रस शुभसुभगसुस्वरसूक्ष्मपर्याप्त कस्थिरादेययशांसि सेतराणीति विंशतिः २० निर्माणं तीर्थकरत्वमित्येवं सर्वसमुदाये त्रिनयतिर्भवति ९३, तीर्थकरनामाभावे द्विनवतिः ९२, त्रिनवतेराहारकशरीरसङ्घातबन्धनाङ्गोपाङ्गचतुष्टयाभावे सत्येकोननवतिः ८९, ततोऽपि तीर्थकरनामाभावेऽष्टाशीतिः ८८, देवगतितदानुपूर्वीद्वयोद्बलने षडशीतिः ८६, यदिवा अशीतिसत्कर्मणो नरकगतिप्रायोग्यं बनतः तङ्गत्यानुपूर्वीद्वय वैक्रियचतुष्कवन्धकस्य पडशीतिः देवगतिप्रायोग्यबन्धकस्य वेति, ततो नरकगत्यानुपूर्वीद्वयवैक्रियचतुष्टयोद्वलनेऽशीतिः ८०, पुनर्मनुष्यगत्यानुपूर्वीद्वयोद्वलनेऽष्टससतिः ७८, एतान्यक्षपकाणां सत्कर्म्मतास्थानानि । क्षपकश्रेण्यन्तर्गतानां तु प्रोच्यन्ते, तद्यथा-त्रिनवतेर्नर कतिर्यग्गतितदानुपूर्वीद्वयैकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजात्यातपोद्योतस्थावरसूक्ष्मसाधारणरूपैर्नरकतिर्यग्गतिप्रायोग्यैस्त्रयोदशभिः कर्मभिः क्षपितैरशीतिर्भवति, द्विनवतेस्त्वेभिस्त्रयोदशभिः क्षपितैरेकोनाशीतिः, याऽसावाहारकचतुष्टयापगमेनै कोननवतिः सञ्जाता
Education International
For Penal Use Only
~29~
शीतो० ३ उदेशकः १
॥ १५७ ॥
or
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१०९ ]
दीप
अनुक्रम [११३]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [ १०९], निर्युक्तिः [२१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
ततस्त्रयोदशनानि क्षपिते षट्सप्ततिर्भवति, तीर्थकरनामाभावापादिताऽष्टाशीतिः, अष्टाशीतेस्त्रयोदशनामाभावे पश्वसघतिः, तत्राशीतेः षट्सप्ततेर्वा तीर्थकर केवलिशैलेश्यापन्नद्विचरमसमये तीर्थकरनाम्नः प्रक्षेपात् वेद्यमाननव कर्म्मप्रकृतिव्युदासेन क्षयमुपगते शेषनाम्नि अन्त्यसमये नवसत्कर्म्मतास्थानं, ताश्च वेद्यमाना नवेमाः, तद्यथा-मनुजगति १ पचेन्द्रियजाति २ त्रस ३ बादर ४ पर्याप्तक ५ सुभगादेय ६-७ यशःकीर्त्ति ८ तीर्थकररूपाः ९, एता एव शैलेश्यन्त्यसमये सत्तां विश्वति, शेषास्तु एकसप्ततिः सप्तषष्टिर्वा द्विचरमसमये क्षयमुपयान्ति एता एव नव अतीर्थकरकेवलिनस्तीर्थकर - नामरहिता अष्टौ भवन्ति, अतोऽन्त्यसमयेऽष्टसत्कर्म्मतास्थानमिति । सामान्येन गोत्रस्य द्वे सत्कर्म्मतास्थाने, तद्यथाउच्चनीच गोत्रसद्भावे सत्येकं सत्कर्म्मतास्थानं, तेजोवायूच्चै गोइलने कालंकलीभावावस्थायां नीचैर्गोत्र सत्कर्म्मतेति द्वितीयं यदिवा अयोगिद्विचरमसमये नीचैगोंश्रक्षये सत्युच्चै गोत्रसत्कर्म्मता, एवं द्विरूपगोत्रावस्थाने सत्येकं सत्कर्म्मतास्थान मन्यतर गोत्रसद्भावे सति द्वितीयमित्येवं कर्म्म प्रत्युपेक्ष्य तत्सत्तापगमाय यतिना यतितव्यमिति । किं च
Education Internation
कम्ममूलं च जं छणं, पडिलेहिय सव्वं समायाय दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे तं परिनाय मेहावी विइत्ता लोगं वंता लोगसन्नं से मेहावी परिक्कमिजासि ( सू० ११० ) तिमि ॥ शीतोष्णीयोदेशः १ ॥
कर्मणो मूलं कारणं मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः चः समुच्चये, कर्म्ममूलं च प्रत्युपेक्ष्य 'यत्क्षण' मिति 'क्षणु
For Parts Only
~30~
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११०], नियुक्ति: २१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [११०]
दीप अनुक्रम [११४]
श्रीआचा-हिंसायां' क्षणनं हिंसनं यत्किमपि प्राण्युपपातकारि तत् कर्ममूलतया प्रत्युपेक्ष्य परित्यजेत्, पाठान्तरं वा 'कम्ममाहूयातील राङ्गवृत्तिः जं छणं' य उपादानक्षणोऽस्य कर्मणः तरक्षणं काहूय-कर्मोपादाय तत्क्षणमेव निवृत्तिं कुर्योदू, इदमुक्तं भवति-अ-1 (सी०)
ज्ञानप्रमादादिना यस्मिन्नेव क्षणे कर्महेतुकमनुष्यानं कुर्यात्तस्मिन्नेव क्षणे लब्धचेताः तदुपादानहेतोनिवृत्ति विदध्यादिति, उद्देशका २ ॥१५८॥
पुनरप्युपदेशदानायाह-'पडिलेहि' इत्यादि, 'प्रत्युपेक्ष्य' पूर्वोक्तं कर्म तद्विपक्षमुपदेशं च सर्व 'समादाय गृहीत्वा अन्तहेतुत्वादन्तौ-रागद्वेषी ताभ्यां सहादृश्यमानः ताभ्यामनपदिश्यमानो वा तत्कर्म तदुपादानं वा रागादिकं ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति, रागादिमोहितं लोकं विषयकषायलोकं वा ज्ञात्वा वान्त्वा च 'लोकसंज्ञा विषयपिपासासंज्ञितां धनााग्रहप्रहरूपां वा 'स' मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः सन् 'पराक्रमेत' संयमानुष्ठाने उद्युक्तो भवेत् विषयपिपासामरिषड्ग वाऽष्टप्रकारं वा कर्मावष्टभ्याद् । इतिः परिसमाप्ती अवीमीति पूर्ववत् । इति शीतोष्णीयाध्ययनप्रथमोद्देशकटीका समाप्ता ॥
उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, पूर्वोदेशके भावसुप्ताः प्रदर्शिताः, इह तु हा तेषां स्वापविषाकफलमसातमुच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य सूत्रानुगमे सूत्रमुचारयितव्यं, तच्चेदम्जाई च बुद्धिं च इहऽज्ज ! पासे, भूएहिं जाणे पडिलेह सायं । तम्हाऽतिविजे परमंति
॥॥१५८॥ णच्चा, संमत्तदंसी न करेइ पावं ॥१॥
For P
OW
तृतीय-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'दुःखानुभव' आरब्धः,
~314
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [११०...], नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सूत्राक
||१||
दीप
जाति:-प्रसूतिः बालकुमारयौवनवृद्धावस्थावसाना वृद्धिः 'इह' मनुष्यलोके संसारे वा अधैव कालक्षेपमन्तरेण, जातिं च वृधि च पश्य' अवलोकय, इदमुक्तं भवति-जायमानस्य यदुवं वृद्धावस्थायां च यच्छारीरमानसमुत्पद्यते तद्विवेकचक्षुपा पश्य, उक्तं च-"जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो । तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरइ जाइमप्पणो ॥१॥ विरसरसियं रसंतो तो सो जोणीमुहाउ निम्फिडइ । माऊए अप्पणोऽविध वेअणमउछ जणेमाणो ॥२॥" तथा-'हीणभिष्णसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ । दुबलो दुक्खिओ बसइ, संपत्तो चरिमं दस ॥ ३॥ इत्यादि, अथवा आर्य इत्यामन्त्रणं भगवान् गौतममामन्त्रयति, इह आर्य! जातिं वृद्धिं च तत्कारणं कर्म कार्यं च दुःखं पश्य, दृष्ट्वाऽवबुद्ध्यस्व, यथा च जात्यादिकं न स्यात् तथा विधरस्व । किं चापरं-'भूएहि मित्यादि, भूतानि-चतुर्दशभूतप्रामास्तैः सममात्मनः सात-मुखं 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य जानीहि, तथाहि-यथा त्वं सुखप्रिय एवमन्येऽपीति, यथा च त्वं दुःखद्विडेवमन्येऽपि जन्तवः, एवं मत्वाऽन्येषामसातोसादनं न विदध्याः, एवं च जन्मादिदुःखं न प्राप्स्यसीति, उक्तं च-"यथेष्टविषयाः सातमनिष्टा इतरत्तव । अन्यत्रापि विदित्वैवं, न कुर्यादप्रियं जने ॥ १ ॥" ययेवं ततः | किमित्याह-'तम्हा' इत्यादि, 'तस्माद' जातिवृद्धिसुखदुःखदर्शनादतीव विद्या-तत्त्वपरिच्छेत्री यस्यासावतिविद्यः स
१जायमानस या नियमाणस्व जन्तीः । सेन दुःखेन संतप्तो नसरति जातिमात्मनः ॥1॥ विरसरसितं रसन्, ततःस योनिमुखात् निसारति। मातुरात्मनोऽपि च वेदनामतुला जनयन् ॥ २॥ हीननिमारो दीनो विपरीतो विचित्तकः । दुबलो दुःखितो पसति संप्राप्तः परमा दशाम् ॥ ३॥
अनुक्रम [११५]
--
--
--
C
P
-34
~324
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
+ आग
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [११०/गाथा-१], नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥१५९॥
शीतो०३ उद्देशका २
||१||
दीप अनुक्रम [११५]
परम' मोक्ष ज्ञानादिकं वा तन्मार्ग ज्ञात्वा सम्यक्त्वदर्शी सन् पापं न करोति, सावद्यमनुष्ठानं न विदधातीत्युक्तं भवति । पापस्य च मूलं स्नेहपाशास्तदपनोदार्थमाह
उम्मुंच पासं इह मच्चिपहि, आरंभजीवी उभयाणुपस्सी । कामेसु गिद्धा निचयं क
रंति, संसिच्चमाणा पुरिति गम्भं ॥२॥ 'इह' मनुष्यलोके चतुर्विधकषायविषयविमोक्षक्षमाधारे मत्त्यैः सार्द्ध द्रव्यभावभेदभिन्नं पाशमुत्-प्राबल्येन 'मुच' अपाकुरु, स हि कामभोगलालसस्तदादानहेतोहिंसादीनि पापान्यारभते अतोऽपदिश्यते-आरंभ' इत्यादि, आरम्भेण | जीवितुं शीलमस्येत्यारम्भजीवी-महारम्भपरिग्रहपरिकल्पितजीवनोपायः उभयं-शारीरमानसमैहिकामुष्मिकं वा द्रष्टुं शील|मस्येति स तथा, किं च-'कामेसु' इत्यादि, कामा-इच्छामदनरूपास्तेषु गृद्धा-अध्युपपन्ना निचयं-कर्मोपचयं कुर्वन्ति । यदि नामैवं ततः किमित्याह-'संसिच' इत्यादि, तेन कामोपादानजनितेन कर्मणा 'संसिच्यमानाः' आपूर्यमाणा गर्भाद्गर्भान्तरमुपयान्ति, संसारचक्रवालेऽरघट्टघटीयन्त्रन्यायेन पर्यटन्ते, आसत इत्युक्तं भवति । तदेवमनिभतात्मा किंभूतो भवतीत्याह
अवि से हासमासज्ज, हंता नंदीति मन्नई। अलं बालस्स संगण, वेरं बवेइ अप्पणो॥३॥ हीभयादिनिमित्तश्चेतोविप्लवो हासस्तमासाद्य-अङ्गीकृत्य 'स' कामगृचहत्वाऽपि प्राणिनो 'नन्दीति क्रीडेति मन्यते,
॥१५९॥
~334
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [११०/गाथा-3],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक ||३||
दीप अनुक्रम [११७]
वदति च महामोहावृतोऽशुभाध्यवसायो यथा एते पशवो मृगयार्थ सृष्टाः, मृगया च सुखिना क्रीडायै भवति, इत्येवं मृषावादादत्तादानादिष्वप्यायोज्यं । यदि नामैवं ततः किमित्याह-'अल'मित्यादि, अलं-पर्याप्तं बालस्य-अज्ञस्य यः प्राणातिपातादिरूपः सङ्गो विषयकषायादिमयो वा तेनालं, बालस्य हास्यादिसङ्गेनालं, किमिति चेद् !, उच्यते, 'वर'|मित्यादि, पुरुषादिवधसमुत्थं वैरं तद्वालः सङ्गानुषग्री सन्नात्मनो वर्द्धयति, तद्यथा-गुणसेनेन हास्यानुषङ्गादग्निशाणं | नानाविधैरुपायैरुपहसता नवभवानुषङ्गि वैरं वर्द्धितं, एवमन्यत्रापि विषयसङ्गादावायोज्यं ॥ यतश्चैवमतः किमित्याह
तम्हातिविजो परमंति णञ्चा, आयंकदंसी न करेइ पावं । अग्गं च मूलं च विगिंच
धीरे, पलिच्छिदिया णं निकम्मदंसी ॥४॥ यस्माद्वालसङ्गिनो वैरं वर्द्धते तस्मादतिविद्वान् परम-मोक्षपदं सर्वसंवररूपं चारित्रं वा सम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शनं वा, एतत्परमिति ज्ञात्वा किं करोतीत्याह-आर्यके'त्यादि, आतङ्को-नरकादिदुःखं तद्रष्टुं शीलमस्येत्यातङ्कादशी स 'पाप' पा-11 पानुबन्धि कर्म न करोति, उपलक्षणार्थत्वान्न कारयति नानुमन्यते । पुनरप्युपदेशदानायाह-'अग्गं च'इत्यादि, अग्रंभवोपग्राहिकर्मचतुष्टयं मूलं-घातिकर्मचतुष्टयं, यदिवा मोहनीयं मूलं शेषाणि स्वग्रं, यदिवा मिथ्यात्वं मूलं शेषं त्वग्रं, तदेवं सर्वमग्रं मूलं च विगिंच' इति त्यजापनय पृथक्कर, तदनेनेदमुक्तं भवति-न कर्मणः पौद्गलिकस्यात्यन्तिकः क्षयः, अपि त्वात्मनः पृथक्करणं, कथं मोहनीयस्य मिथ्यात्वस्य वा मूलत्वम् ? इति चेत्, तद्वशाच्छेषप्रकृतिवन्धो यतः,
~34~
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
||8||
दीप
अनुक्रम [१८]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], मूलं [११०/गाथा -४], निर्युक्तिः [२१४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीमाचाराङ्गवृत्तिः
(olyps)
॥ १६० ॥
उक्तं च- "न मोहमतिवृत्त्य बन्ध उदितस्त्वया कर्म्मणां, न चैकविधबन्धनं प्रकृतिबन्धविभयो महान् । अनादिभवहेतुरेष न च बध्यते नासकृत्त्वयाऽतिकुटिला गतिः कुशल ! कर्म्मणां दर्शिता ॥ १ ॥” तथा चागमः - "कर्हण्णं भंते! जीवा अड कम्मपगडीओ बंधंति ?, गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जं कम्मं नियच्छइ, दरिसणावरणिजस्स क|म्मस्स उदपणं दंसणमोहणीयं कम्मं नियच्छइ, दंसणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदयणं मिच्छत्तं नियच्छर, मिच्छत्तेणं उदिष्णेणं एवं खलु जीवे अडकम्मपगडीओ बंधइ", क्षयोऽपि मोहनीयक्षयाविनाभावी, उक्तं च- "नायगंमि हते संते, जहा सेणा विणरसई एवं कम्मा विणस्संति, मोहणिजे खयं गए || १ ||" इत्यादि, अथवा मूलम् - असंयमः कर्म्म वा, अयं संयमतपसी मोक्षो वा ते मूलाग्रे 'धीरः' अक्षोभ्यो धीविराजितो वा विवेकेन दुःखसुखकारणतयाऽवधारय । किं च - 'पलिच्छिदिया णमित्यादि, तपःसंयमाभ्यां रागादीनि बन्धनानि तत्कार्याणि वा कर्माणि छित्त्वा निष्कर्म्मदर्शी भवति, निष्कम्र्माणमात्मानं पश्यति तच्छीलश्च निष्कर्म्मत्वाद्वा अपगतावरणः सर्वदर्शी सर्वज्ञानी च भवति ॥ यश्च निकर्म्मदर्शी भवति सोऽपरं किमाप्नुयादित्याह -
१] मदन्त । जीवा अष्ट कर्मप्रकृतीर्यन्ति ? गौतम ज्ञानावरणीयस्योदयेन दर्शनावरणीयं कर्म कान्ति, दर्शनावरणीयस्य कर्मण उदयेन दर्शनमोहनीयं कर्म वन्ति, दर्शनमोहनीयस्य कर्मण उदयेन मिध्यात्वं वनन्ति मिध्यात्वेनोदितेनैवं खलु जीवा अष्ट कर्मप्रकृतीन्ति ॥ २ नायके हते सति यथा सेना विनश्यति एवं कर्माणि विनश्यन्ति मोहनीये क्षयं गते ॥ १ ॥
Ja Education International
For Parts Only
~35~
शीतो० ३ उद्देशकः २
॥ १६० ॥
waryra
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१११],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१११]
दीप
एस मरणा पमुच्चइ, से हु दिढभए मुणी, लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते
समिए सहिए सया जए कालकंखी परिवए, बहुं च खल्लु पावं कम्मं पगडं (सू० १११) 'एष' इत्यनन्तरोक्तो मूलाग्ररेचको निष्कर्मदशी मरणाद-आयुःक्षयलक्षणात मुच्यते, आयुषो बन्धनाभावाद, य-1* दिवा आजवंजवीभावादावीचीमरणाद्वा सर्व एव संसारो मरणं तस्मात्प्रमुच्यते । यश्चैवं स किम्भूतो भवतीत्याह-से | हु' इत्यादि, 'सः' अनन्तरोक्तो मुनिष्टं संसारायं सप्तप्रकारं वा येन स तथा, हुरवधारणे दृष्टभय एव । किं च'लोयंसि' इत्यादि, लोके द्रव्याधारे चतुर्दशभूतग्रामात्मके वा परमो-मोक्षस्तत्कारणं वा संयमः तं द्रष्टुं शीलमस्येति परमदर्शी, तथा 'विविक्तं' स्वीपशुपण्डकसमन्वितशय्यादिरहितं द्रव्यतः भावतस्तु रागद्वेपरहितमसइक्लिष्टं जीवितुं |शीलमस्येति विविक्तजीवी, यश्चैवम्भूतः स इन्द्रियनोन्द्रियोपशमादुपशान्तो, यश्चोपशान्तः स पश्चभिः समितिभिः सम्यग्वा इतो-गतो मोक्षमार्गे समितः, यश्चैवं स ज्ञानादिभिः सहितः-समन्वितो, यश्च ज्ञानादिसहितः स सदा यतःअप्रमादी । किमवधिश्वायमनन्तरोको गुणोपन्यास इत्याह-'काल' इत्यादि, कालो-मृत्युकालस्तमाकाङ्कितुं शीलमस्येति कालाकाली स एवम्भूतः परिः-समन्तात्बजेपरिव्रजेत् , यावत्सोयागतं पण्डितमरणं तावदाकाडमाणो विविक्तजीवित्वादिगुणोपेतः संयमानुष्ठानमार्गे परिप्वष्केदिति । स्यादेतत्-किमर्थं एवं क्रियते? इत्याह-मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्न प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशवन्धात्मक बन्धोदयसत्कर्मताव्यवस्थामयं तथा बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचितावस्था
अनुक्रम [११९]
-
--
%
-
~36~
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१११],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [११९]
श्रीआचा-Iगतं कर्म तच्च न इसीयसा कालन क्षयमुपयातीत्यतः कालाकाजीत्युक्तं, तत्र बन्धस्थानापेक्षया तावम्मूलोत्तर-17 राङ्गवृत्तिः प्रकृतीना बहत्वं प्रदर्यते, तद्यथा-सर्वमूलप्रकृतीनतोऽन्तमुहूर्त याबदष्टविधं, आयुष्कवर्ज सप्तविध, तजघन्ये-TV
उद्देशकः२ (शी०) नान्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतस्तद्रहितानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि पूर्वकोदित्रिभागाभ्यधिकानि, सूक्ष्मसंपरायस्य मोहनीयबन्धो
परमे आयुष्करन्धाभावात् पड़िधम् , एतच जघन्यतः सामयिकमुत्कृष्टतस्त्वन्तर्मुहुर्तमिति, तथोपशान्तक्षीणमोहसयो॥१६१॥
गिकेवलिनां सप्तविधवन्धोपरमे सातमेकं बनतामेकविधं बन्धस्थानं, तच्च जघन्येन सामयिकमुत्कष्टतो देशोनपूर्वकोदिकालीयं । इदानीमुत्तरप्रकृतिबन्धस्थानान्यभिधीयन्ते-तत्र ज्ञानावरणान्तराययोः पञ्चभेदयोरप्येकमेव ध्रुववन्धित्वादन्धस्थानं, दर्शनावरणीयस्य त्रीणि बन्धस्थानानि-निद्रापञ्चकदर्शनचतुष्टयसमन्वयाद् ध्रुवबन्धित्वान्नवविधं १, ततः स्त्यानदिबिकस्यानन्तानुबन्धिभिः सह बन्धोपरमे पड्डिधं २, अपूर्वकरणसख्येयभागे निद्राप्रचलयोबन्धोपरमे चतु-18 [विधं बन्धस्थानं ३ । वेदनीयस्यैकमेव बन्धस्थान-सातमसातं वा वनता, उभयोरपि योगपद्येन विरोधितया बन्धाभा
वात् । मोहनीयवन्धस्थानानि दश, तद्यथा-द्वाविंशतिः-मिथ्यात्वं १ षोडश कपाया १७ अन्यतरवेदो १८ हास्यरतियुग्माशारतिशोकयुग्मयोरन्यतर २० अयं २१ जुगुप्सा २२ चेति १, मिथ्यात्वबन्धोपरमे सास्वादनस्य सेवैकविंशतिः २, सैव
सम्यगूमिध्यादृष्टेरविरतसम्यग्दृष्टी अनन्तानुवन्ध्यभावे सप्तदशविधं बन्धस्थानं ३, तदेव देशविरतस्याप्रत्याख्यानब
न्धाभावे त्रयोदशविधं ४, तदेव प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानां यतीनां प्रत्याख्यानावरणवन्धाभावानवविधं ५, एतदेव हा- ॥१६॥ हास्यादियुग्मस्य भयजुगुप्सयोश्चापूर्वकरणचरमसमये बन्धोपरमापञ्चविधं ६, ततोऽनिवृत्तिकरणसङ्ख्ये यभागावसाने पुवे
~37~
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१११]
दीप
अनुक्रम [११९]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१११],निर्युक्तिः [२१४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
दवन्धोपरमाच्चतुर्विधं ७, ततोऽपि तस्मिन्नेव सङ्ख्येयभागे क्षयमुपगच्छति सति क्रोधमानमाया लोभसवलनानां क्रमेण बन्धोपरमात्रिविधं ८ द्विविध ९ मेकविधं १० चेति, तस्याप्यनिवृत्तिकरण चरमसमये बन्धोपरमान्मोहनीयस्यावन्धकः । आयुषः सामान्येनैकविधं बन्धस्थानं चतुर्णामन्यतरत्, द्व्यादेर्यौगपद्येन बन्धाभावो विरोधादिति । नाम्नोsष्टौ बन्धस्थानानि तद्यथा - त्रयोविंशतिस्तिर्यग्गतिप्रायोग्यं वनतस्तिर्यग्गतिरे केन्द्रियजातिरौदारिक तैजसकार्म्मणानि | हुण्ड संस्थानं वर्णगन्धरसस्पर्शास्तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी अगुरुलघूपघातं स्थावरं बादरसूक्ष्मयोरन्यतरदपर्याप्तकं प्रत्येकसाधारणयोरन्यतरत् अस्थिरं अशुभं दुर्भगं अनादेयं अयशःकीर्त्तिर्निर्माणमिति, इयमेकेन्द्रियापर्याप्तकप्रायोग्यं बनतो मिथ्यादृष्टेर्भवति १, इयमेव पराघातोच्छ्राससहिता पञ्चविंशतिः, नवरमपर्याप्तकस्थाने पर्याप्तकमेव वाच्यं २, इयमेव चातपोद्योतान्यतरसमन्विता पविंशतिः, नवरं वादरप्रत्येके एव वाच्ये ३, तथा देवगतिप्रायोग्यं बनतोऽष्टाविंशतिः, तथाहि - देवगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ वैक्रिय ३ तैजस ४ कार्म्मणानि ५ शरीराणि समचतुरस्रं ६ अङ्गोपाङ्गं ७ वर्णादिचतुष्टयं आनुपूर्वी १२ अगुरुलघु १३ पघात १४ पराघात १५ उच्छासाः १६ प्रशस्तविहायोगतिः १७त्रसं १८ बाद १९ पर्याप्त २० प्रत्येकं २१ स्थिस्थिरयोरन्यतरत् २२ शुभाशुभयोरन्यतरत् २३ सुभगं २४ सुखरं २५ आदेयं २६ यशः कीर्त्त्ययशः की योरन्यतरत् २७ निर्माणमिति २८, एषैव तीर्थकरनामसहिता एकोनत्रिंशत्, साम्प्रतं त्रिंशत्-देवगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ वैक्रिया ३ हारका ४ ङ्गोपाङ्ग ६ चतुष्टयं तैजस ७ कार्म्मणे ८ संस्थानमाद्यं ९
१ स्थिरं २ शुभं
Eaton Internation
For Parts Only
~38~
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१११],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीआचा- वर्णादिचतुष्क १३ आनुपूर्वी १४ अगुरुलघू १५ पघातं १६ पराधातं १७ उच्छासं १८ प्रशस्तविहायोगतिः १९ त्रसं २०शीतो. रावृत्तिः बादरं २१ पर्याप्तक २२ प्रत्येकं २३ स्थिरं २४ शुभं २५ सुभगं २६ सुस्वरं २७ आदेयं २८ यश-कीर्ति २९ निर्माण(शी०) ३० मिति च बनत एक बन्धस्थानं ६, एषव त्रिंशत्तीर्थकरनामसहिता एकत्रिंशत् ७, एतेषां च बन्धस्थानानामेके
उद्देशकः२ न्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियनरकगत्यादिभेदेन बहुविधता कर्मग्रन्धादवसेया, अपूर्वकरणादिगुणस्थानकत्रये देवगतिप्रायो॥१२॥
ग्यबन्धोपरमाद्यशःकीर्तिमेव बनतः एकविधं बन्धस्थानमिति ८, तत ऊर्ख नाम्नो बन्धाभाव इति । गोत्रस्य सामान्येनैक बन्धस्थानं-उच्चनीचयोरन्यतरत् , योगपधेनोभयोर्बन्धाभावो विरोधादिति । तदेवं वन्धद्वारेण लेशतो बहुत्व
मावेदितं कर्मणां, तञ्च बहु कर्म प्रकृतं बद्धं प्रकटं वा, तत्कार्यप्रदर्शनात्, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारेऽवधारणे वा, बिहेव तत्कर्म । यदि नामैवं ततस्तदपनयनार्थ किं कर्त्तव्यमित्याह
सच्चमि धिई कुव्वहा, एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं जोसइ (सू०११२) सद्भ्यो हितः सत्यः-संयमस्तत्र धृतिं कुरुवं, सत्यो वा मौनीन्द्रागमो यथावस्थितवस्तुस्वरूपाविर्भावनात् , तत्र भगवदाज्ञायां धृति कुमार्गपरित्यागेन कुरुध्वमिति, किं च एत्थोवरए' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन् संयमे भगवद्वचसि वा उपसामीप्येन रतो-व्यवस्थितो 'मेधावी' तत्त्वदर्शी 'सर्वम्' अशेष 'पापं कर्म संसारार्णवपरिभ्रमणहेतुं झोषयति-शोषयति क्षयं नयतीतियावत् । उक्तोऽप्रमादः, तत्प्रत्यनीकस्तु प्रमादः, तेन च कषायादिप्रमादेन प्रमत्तः किंगुणो भव
का॥१६२॥ ट्रतीत्याह
दीप अनुक्रम [११९]
1-%ACKASANCHAR
RASAXSA*XXXSEX
~39~
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[११३]
दीप अनुक्रम [१२१]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [११३],निर्युक्तिः [२१४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
०१% ०%%%%%%%%
अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरिण्णए, से अण्णवहाए अण्णपरियाare अण्णपरिग्गहाए जणवयवहाए जणवयपरियावाए जणवयपरिग्गहाए (सू० ११३) अनेकानि चित्तानि कृषिवाणिज्यावलगनादीनि यस्यासावने कचित्तः, खलुरवधारणे, संसारसुखाभिलाप्यनेकचित्त एव भवति, 'अयं पुरुष' इति प्रत्यक्षगोचरीभूतः संसार्यपदिश्यते, अत्र च प्रागुपन्यस्तदधिघटिकया कपिलदरिद्रेण चं | दृष्टान्तो वाप्य इति । यश्चानेकचित्तो भवति स किं कुर्यादित्याह - 'से केयण मित्यादि, द्रव्यकेतनं चालिनी परिपू र्णकः समुद्रो वेति भावकेतनं लोभेच्छा, तदसावनेकचित्तः केनाप्यभृतपूर्वं पुरवितुमर्हति, अर्थितया शक्याशक्यविचाराक्षमोऽशक्यानुष्ठानेऽपि प्रवर्त्तत इत्युक्तं भवति, स च लोभेच्छापूरणव्याकुलितमतिः किं कुर्यादित्याह --' से अण्णवहाए' इत्यादि, स लोभपूरणप्रवृत्तोऽन्येषां प्राणिनां बधाय भवति, तथाऽन्येषां शारीरमानस परितापनाय तथाऽन्येषां द्विपदचतुष्पदादीनां परिग्रहाय जनपदे भवा जानपदाः कालप्रष्टादयो राजादयो वा तद्बधाय, मगधादिजनपदा वा तद्वधाय तथा जनपदानां लोकानां परिवादाय-दस्युरयं पिशुनो वेत्येवं मर्मोद्घट्टनाय, तथा जनपदानां मगधादीनां परिग्रहाय प्रभवतीति सर्वत्राध्याहारः ॥ किं य एते लोभप्रवृत्ता वधादिकाः क्रियाः कुर्व्वन्ति ते तथाभूता एवासते उतान्यथाऽपीति दर्शयति---
'आसेवित्ता एतं (वं) अटुं इच्चेवेगे समुट्टिया, तम्हा तं बिइयं नो सेवे, निस्सारं पासिय
Education International
For Penal Use Only
~40~
www.anibrary.org
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [११४],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥१३॥
99%
सूत्रांक
[११४]
नाणी, उववायं चवणं णच्चा, अणण्णं चर माहणे, से न छणेन छणावए छणतं नाणु- शीतो०३ जाणइ, निर्दिबद नंदि, अरए पयासु, अणोमदंसी,निसपणे पावेहि कम्मेहिं (सू०११४)
साउदेशकः२ एवम्-अनन्तरोक्तमर्थमन्यवधपरिग्रहपरितापनादिकमासेव्य 'इत्येवेति लोभेच्छाप्रतिपूरणायैव 'एके' भरतराजादयः 'समुस्थिताः' सम्यग्योगत्रिकेणोस्थिताः संयमानुष्ठानेनोद्यतास्तेनैव भवेन सिद्धिमासादयन्ति । संयमसमुत्थानेन च समुत्थाय कामभोगान् हिंसादीनि चास्रबद्वाराणि हित्वा किं विधेयमित्याह-'तम्हा' यस्माद्वान्तभोगतया कृतप्रतिज्ञस्तस्माद्भोगलिप्सुतया तं द्वितीयं मृषावादमसंयम वा नासेवेत । विषयार्थमसंयमः सेव्यते, ते च विषया निःसारा इति दर्शयति-'निस्सारं' इत्यादि, सारो हि विषयगणस्य तत्याप्ती तृप्तिस्तदभावान्निःसारस्तं दृष्ट्वा 'ज्ञानी' तत्त्ववेदी न विषयाभिलापं विदध्यात् । न केवलं मनुष्याणां, देवानामपि विषयसुखास्पदमनित्यं जीवितमिति च दर्शयति-'उववायं चवणं णचा' उपपात-जन्म च्यवनं-पातस्तच ज्ञात्वा न विषयसङ्गोन्मुखो भवेदिति, यतो निःसारो विषयग्रामः| समस्तः संसारो वा सर्वाणि च स्थानान्यशाश्वतानि, ततः किं कर्त्तव्यमित्याह-'अणण्ण'मित्यादि, मोक्षमार्गादन्योऽसंयमो नान्योऽनन्यः-ज्ञानादिकस्तं चर 'माहण' इति मुनिः । किं च से न छणे' इत्यादि, स मुनिरनन्यसेवी प्राणिनो न क्षणुयात्-न हन्यात् नाप्यपरं घातयेत् घातयन्तं न समनुजानीयात् । चतुर्थव्रतसिद्धये विदमुपदिश्यते-निविदा ॥१६३ ॥ इत्यादि, निर्विन्दस्व-जुगुप्सस्व विषयजनितां 'नंदी' प्रमोदं, किम्भूतः सन् ? 'प्रजासु' खीषु अरक्तो-रागरहितो,
दीप अनुक्रम [१२२
NCE
weredturary.com
~414
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [११४],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
%
%
%
प्रत सूत्रांक [११४]
%
5%
दीप
भावयेच्च यथैते विषयाः किम्पाकफलोपमास्त्रपुषीफलनिबन्धनकटवः, अतस्तदर्थे परिग्रहाग्रहयोगपराङ्मुखो भवेदिति, उत्तमधर्मपालनार्थमाह-'अणोम' इत्यादि, अवम-हीनं मिथ्यादर्शनाविरत्यादि तद्विपर्यस्तमनवमं तद्रष्टुं शीलमस्येत्यनवमदशी सम्बद्गर्शनज्ञानचारित्रवान् , एवम्भूतः सन् प्रजानुगां नन्दि निर्विन्दस्वेति सण्टङ्कः । यश्चानवमसंदी स किम्भूतो भवतीत्याह-निसन्न' इत्यादि, पापोपादानेभ्यः कर्मभ्यो निषण्णो-निर्विण्णः पापकर्मभ्यः पापकर्मसु वा कर्तव्येषु निवृत्त इतियावत् ॥ किं च
कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे निरयं महंतं । तम्हा य वीरे विरए वहाओ, लिंदिज सोयं लभूयगामी ॥१॥ गंथं परिणाय इहऽज्ज ! धीरे, सोयं परिण्णाय चरिज दंते । उम्मज लड़े इह माणवेहि, नो पाणिणं पाणे समारभिज्जा ॥२॥
सि तिबेमि । द्वितीय उद्देशकः ३-२॥ क्रोध आदिर्येषां ते क्रोधादयः मीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेति मान-स्वलक्षणं अनन्तानुबन्ध्यादिविशेषः, क्रोधादीनां मानं क्रोधादिमानं, क्रोधादि यो मानो-गर्वः क्रोधकारणस्तं हन्यात् , कोऽसौ?-चीरः, द्वेषापनोदमुक्त्वा रागापनोदार्थमाह -लोहस्स' इत्यादि, लोभस्यानन्तानुबन्ध्यादेश्चतुर्विधस्थापि स्थितिं विपाकं च पश्य, स्थितिमहती सूक्ष्मसम्परायानुयायित्वाद् विपाकोऽप्यातिष्ठानादिनरकापत्तेमहान् , यत आगमः-"मच्छा मणुआ य सत्तर्मि पुढर्षि" ते प महा
%5
अनुक्रम [१२२
%
ॐ-15-
SHARERIEatin international
'कोहाइमाणं'.... एवं 'गंथं परिण्णाय'.... द्वे गाथे गाथा क्रम रहिते सम्पादिते मया तौ द्वे गाथे क्रम-युक्ते कारिते|
~42~
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [११४/गाथा-२],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०)
शीतो. उद्देशकः२
॥१६४।।
गाथा-२
लोभाभिभूताः सप्तमपृथिवीभाजो भवन्तीति भावार्थः । यद्येवं ततः किं कर्तव्यमित्याह-'तम्हा' इत्यादि, यस्माल्लो- भाभिभूताः प्राणिवधादिप्रवृत्तितया महानरकभाजो भवन्ति, तस्माद्वीरो लोभहेतोः-वधाद्विरतः स्यात्, किं चछिंदिज' इत्यादि, शोकं भावोतो वा छिन्द्यात्-अपनयेत्, किम्भूतो?-लघुभूतो-मोक्षः संयमो वा तं गन्तुं शीलमस्येति लघुभूतगामी, लघुभूतं वा कामयितुं शीलमस्येति लघुभूतकामी, पुनरप्युपदेशदानायाह-'गन्थ' मित्यादि, 'ग्रन्ध' बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं झपरिज्ञया परिज्ञाय इहाचैव कालानतिपातेन धीरः सन् प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यजेत् , किं च-'सोय' मित्यादि, विषयाभिष्वङ्गः संसारश्रोतस्तत् ज्ञात्वा दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन संयम चरेदिति, |किमभिसन्धाय संयम परेदित्याह--'उम्मज ल 'मित्यादि, इह मिथ्यात्वादिशैवलाच्छादितसंसारादे जीवकच्छपः श्रुतिश्रद्धासंयमवीर्यरुपमुन्मजनमासाद्य-लब्ध्वा, अन्यत्र सम्पूर्णमोक्षमार्गासम्भवात् मानुष्येष्वित्युक्तं, क्त्वाग्रत्ययस्योत्तरक्रियासव्यपेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह-'नो पाणिण' मित्यादि, प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणनस्तेषां प्राणान-पवेन्द्रियत्रिविधवलोपट्टासनिश्वासायुष्कलक्षणान् 'नो समारभेथाः' न व्यपरोपयः, तदुपघातकार्यनुष्ठानं मा कृथा इत्युक्तं भवति, इतिः। परिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत् । शीतोष्णीयाध्ययने द्वितीयोद्देशकटीका समाप्तेति ।
उक्तो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके दुःखं तरसहनं च प्रति-I पादितं, न च तत्सहनेनैव संयमानुष्ठानरहितेन पापकर्माकरणतया वा श्रमणो भवतीत्येतत् प्रागुदेशार्थाधिकारनिर्दिष्टमुच्यते, ततोऽनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम्
दीप अनुक्रम
H
॥१६४॥
तृतीय-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'अक्रिया' आरब्धः,
~43~
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११५],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११५]]
दीप
संधि लोयस्स जाणित्ता, आयओ बहिया पास, तम्हा न हंता न विघायए, जमिणं अन्न
मन्नवितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पावं कम्मं, किं तत्थ मुणी कारणं सिया? (सू०११५) तत्र सन्धिव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः कुड्यादिविवरं भावतः कर्मविवरं, तत्र दर्शनमोहनीयं यदुदीर्ण तरक्षीण शेषमुपशान्तमित्ययं सम्यक्त्वावाप्तिलक्षणो भावसन्धिः, यदिवा ज्ञानावरणीय विशिष्टक्षायोपशमिकभावमुपगतमित्ययं सम्यग्ज्ञानावाप्तिलक्षणः सन्धिः, अथवा चारित्रमोहनीयक्षयोपशमात्मकः सन्धिस्तं ज्ञात्वा न प्रमादः श्रेयानिति, यथा हि लोकस्य चारकाधवरुद्धस्य कुड्रयनिगडादीनां सन्धि-छिद्रं ज्ञात्वोपलभ्य न प्रमादः श्रेयान् , एवं मुमुक्षोरपि कर्म-IXI विवरमासाद्य लवक्षणमपि पुत्रकलत्रसंसारसुखव्यामोहो न श्रेयसे भवतीति, यदिवा सन्धानं सन्धिः, स च भावसन्धि -
नदर्शनचारित्राध्यवसायस्य कर्मोदयात् त्रुप्यतःपुनः सन्धानं-मीलनम् , एतरक्षायोपशमिकादिभावलोकस्य विभक्तिपरिणाxमाद्वा लोके ज्ञानदर्शनचारिबार्हे भावसन्धि ज्ञात्वा तदक्षुण्णप्रतिपालनाय विधेयमिति, यदिवा सम्धिा-अवसरो धर्मानु-II मानस्य तं ज्ञात्वा लोकस्य-भूतग्रामस्य दुःखोत्पादनानुष्ठानं न कुर्यात् । सर्वत्रात्मौपम्यं समाचरेदित्याह-'आयओ'
इत्यादि, यथा ह्यात्मनः सुखमिष्टमितरत्त्वन्यथा तथा बहिरपि-आत्मनो व्यतिरिकानामपि जन्तूनां सुखप्रियत्वमसुखानि-15 यत्वं च पश्य' अवधारय । तदेवमात्मसमतां सर्वप्राणिनामवधायें किं कर्त्तव्यमित्याह-'तम्हा' इत्यादि, यस्मात्सर्वेऽपि जन्तवो दुःखद्विषः सुखलिप्सवस्तस्मात्तेषां 'न हन्ता' न व्यापादकः स्यान्नाप्यपरैस्तान् जन्तून विविधैः-नानाप्रकाररुपा
अनुक्रम [१२५]
~444
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११५], नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
प्रत सूत्रांक [११५]
॥१६५॥
दीप
यैर्यातयेत् विधातयेदिति, यद्यपि कांश्चित् स्थूलान सत्वान् स्वयं पापण्डिनो न नन्ति तथाऽप्यौदेशिकसन्निध्यादिपरिभो- शीतो०३ गानुमतेरपरैर्घातयन्ति । न चैकान्तेन पापकाकरणमात्रतया श्रमणो भवतीति दर्शयति-'जमिण' मित्यादि, यदिदंयदेतत् पापकर्माकरणताकारणं, किं तद्?, दर्शयति-अन्योऽन्यस्य परस्परं या विचिकित्सा-आशङ्का परस्परतो भयं।
उद्देशकः३ लज्जा वा तया तां वा प्रत्युपेक्ष्य परस्पराशङ्कयाऽपेक्षया वा पाप-पापोपादानं कर्मानुष्ठानं 'न करोति' न विधत्ते, किं प्रश्ने क्षेपे वा, 'तत्र' तस्मिन् पापकर्माकरणे किं मुनिः कारणं स्यात् ?, किं मुनिरितिकृत्वा पापकर्म न करोति?, काका पृच्छति, यदिवा यदि नामासौ यथोक्तनिमित्तालापानुष्ठान विधायी न सञ्जज्ञे किमतावतैव मुनिरसौ ?, नैव मुनिरित्यर्थः, अद्रोहाध्यवसायो हि मुनिभावकारणं, स च तत्र न विद्यते, अपरोपाध्यावशात् , विनेयो वा पृच्छति-यदिदं परस्पराशङ्कया है आधाकादिपरिहरणं तन्मुनिभावाङ्गतां यात्याहोस्विन्नेति?, आचार्य आह-सौम्य ! निरस्तापरब्यापारः शृणु-'जमिण'|मित्यादि, (अपरोपाधिनिरस्त हेयव्यापारत्वमेव मुनिभावकारणमिति भावार्थः, यतः शुभान्तःकरणपरिणामव्यापारापादित| क्रियस्य मुनिभावो नान्यथेति, अयं तावन्निश्चयनयाभिप्रायो व्यवहाराभिप्रायेण/ तूच्यते-यो हि सम्यग्दृष्टिरुत्क्षिप्तपञ्चमहाव्रतभारस्तद्वहने प्रमाद्यन्नप्यपरसमानसाधुलज्जया गुर्वाधाराध्यभयेन गौरवेण वा केनिचिदाधाकर्मादि परिहरन प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रियाः करोति, यदि च तीर्थोद्धासनाय मासक्षपणातापनादिका जनविज्ञाताः क्रियाः करोति, तत्र तस्य | मुनिभाव एव कारणं, तद्व्यापारापादितपारम्पर्य शुभाध्यवसायोपपत्तेः । तदेवं शुभान्तःकरणब्यापारविकलस्य मुनित्वे ॥१६५ ।। सदसद्भावः प्रदर्शितः, कथं तहिं नैश्चयिको मुनिभाव इत्यत आह
अनुक्रम [१२५]
~450
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[११६]
गाथा - १
दीप
अनुक्रम
[१२६ +
१२७]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११६/गाथा - १],निर्युक्तिः [२१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विप्पसायए- अणन्नपरमं नाणी, नो पमाए कयाइवि । आयगुत्ते सया वीरे, जायामायाइ जावए ॥ १ ॥ विरागं रूवेहिं गच्छिजा महया खुएहि य, आगई गई परिष्णाय दोहिवि अंतेहिं अदिस्समाणेहिं से न छिजइ न भिज्जइ न उज्झइ न हमइ कंचणं सव्वलोए ( सू० ११६ )
समभावः समता तां तत्रोत्प्रेक्ष्य पर्यालोच्य समताव्यवस्थितो यद्यत्करोति येन केनचित्कारेणानपणीयपरिहरणं लजादिना जनविदितं चोपवासादि तत्सर्वं मुनिभावकारणमिति, (यदिवा समयम्-आगमं तत्रोत्प्रेक्ष्य यदागमोक्तविधिनानुष्ठानं तत्सर्वं मुनिभावकारणमिति भावार्थ:, तेन चागमोत्प्रेक्षणेन समतोत्प्रेक्षया वाऽऽत्मानं 'विप्रसादयेद्' विविधं प्रसादयेदागमपर्यालोचनेन समतादृष्टया वा आत्मानं विविधैरुपायैरिन्द्रियप्रणिधानाप्रमादादिभिः प्रसन्नं विदध्याद । आत्मप्रसन्नता च संयमस्थस्य भवति, तत्राप्रमादवता भाव्यमित्याह च- 'अणण्णपरम' मित्याद्यनुष्टुप् न विद्यतेऽन्यः परमः - प्रधानोऽस्मादित्यनन्यपरमः - संयमस्तं 'ज्ञानी' परमार्थवित् 'नो प्रमादयेत् तस्य प्रमादं न कुर्यात्कदाचिदपि, | यथा चाप्रमादवत्ता भवति तथा दर्शयितुमाह- 'आयगुत्ते' इत्यादि, इन्द्रियनोइन्द्रियात्मना गुप्तः आत्मगुप्तः 'सदा' सर्वकालं यात्रा - संयमयात्रा तस्यां मात्रा यात्रामात्रा, मात्रा च 'अच्छाहारो न सहे' इत्यादि, तयाऽऽत्मानं यापयेद्यथा विषयानुदीरणेन दीर्घकालं संयमाधारदेहमतिपालनं भवति तथा कुर्यादित्युक्तं भवति, उक्तं च-- "आहारार्थं कर्म कुर्याद निम्यं,
Eucatur intention
For Parts Only
~46~
yor
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११६/गाथा-१],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
गीतो
श्रीआचाराबवत्तिः (शी.)
प्रत सूत्रांक [११६] गाथा-१
-
॥१६६॥
स्यादाहारः प्राणसन्धारणार्थम् । प्राणाः धार्यास्तत्त्वजिज्ञासनाय, तत्त्वं ज्ञेयं येन भूयो न भूयात् ॥१॥” सैवात्मगुप्तता कथं स्यादिति चेदाह-विराग' मित्यादि, विरञ्जनं विरागस्तं विरागं रूपेषु मनोज्ञेषु चक्षुर्गोचरीभूतेषु 'गच्छेद' यायात, रूपमतीवाऽऽक्षेपकारी अतो रूपग्रहणम् , अन्यथा शेषविषयेष्वपि विरागं गच्छेदित्युक्तं स्यात्, महता-दिव्यभावेन यद्य
देशक: ३ वस्थितं रूपं क्षुलकेषु वा मनुष्यरूपेषु सर्वत्र विरागं कुर्यादिति, अथवा दिव्यादि प्रत्येकं महत् क्षुलं चेति क्रिया पूर्ववत्, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"विसयंमि पंचगंमीवि, दुविहमि तियं तियं । भावओ सुहु आणित्ता, से न लिप्पइ दोसुवि |॥१॥" शब्दादिविषयपञ्चकेऽपि इष्टानिष्टरूपतया द्विविधे हीनमध्यमोत्कृष्टभेदमित्येतत् भावतः-परमार्थतः सुष्टु ज्ञात्वा | स मुनिः पापेन कर्मणा द्वाभ्यामपि-रागद्वेषाभ्यां न लिप्यते , तदकरणादिति भावः, स्यात्-किमालम्ब्यतत्कर्त्तव्यमित्याह-आगई' मित्यादि, आगमनम्-आगतिः सा च तिर्यमनुष्ययोश्चतुर्की, चतुर्विधनरकादिगत्यागमनसद्भावाद्, देवनारकयोधा, तिर्यग्मनुष्यगतिभ्यामेवागमनसद्भावाद्, एवं देवगतिरपि, मनुष्येषु तु पञ्चधा, तत्र मोक्षगतिसद्भावाद्, अतस्तामागतिं गतिं च परिज्ञाय संसारचक्रवालेऽरघट्टघटीयनन्यायमवेत्य मनुष्यत्वे च मोक्षगतिसद्भावमाकलय्यान्तहेतुत्वादन्ती-रागद्वेपी ताभ्यां द्वाभ्यामन्ताभ्यामदृश्यमानाभ्यामनपदिश्यमानाभ्यां वा, क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरकियामाह-से' इत्यादि, स-आगतिगतिपरिज्ञाता रागद्वेषाभ्यामनपदिश्यमानो न छिद्यतेऽस्यादिना न भिद्यते कुन्तादिना न दह्यते पावकादिना न हन्यते नरकगत्यानुपूर्व्यादिना बहुशः, अथवा रागद्वेषाभावात् सिद्ध्यत्येव, तदवस्थस्य चैतानि छेदनादीनि ॥१६६॥ विशेषणानि 'कंचण' मिति विभक्तिपरिणामात् केनचित्सर्वस्मिन्नपि लोके न छिद्यते नापि भिद्यते रागद्वेषोपशमादिति,
-
CONG ACASEAC*
दीप अनुक्रम [१२६+ १२७]
-
~474
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११६/गाथा-१],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
22
सुत्रांक
||१||
4
दीप अनुक्रम [१२८]
तदेवमागतिगतिपरिज्ञानाद्रागद्वेषपरित्यागस्तदभावाञ्च छेदनादिसंसारदुःखाभावः। अपरे च साम्प्रतेक्षिणः कुतो वयमागताः कयास्यामः? किं वा तत्र नः सम्पत्स्यते?, नैवं भावयन्त्यतः संसारभ्रमणपात्रतामनुभवन्तीति दर्शयितुमाह
अवरेण पुचि न सरंति एगे, किमस्स तीयं किं वाऽऽगमिस्सं । भासंति एगे इह माणवाओ, जमस्स तीयं तमागमिस्सं ॥१॥नाईयमटुं न य आगमिस्स, अटै नियच्छन्ति
तहागया उ । विहुयकप्पे एयाणुपस्सी, निज्झोसइत्ता खवगे महेसी॥२॥ रूपकं, 'अपरेण पश्चात्कालभाविना सह पूर्वमतिकान्तं न स्मरन्त्ये केऽन्ये मोहाज्ञानावृतबुद्धयो यथा किमस्य जन्तोनरकादिभवोद्भूतं बालकुमारादिवयोपचितं वा दुःखायतीतं किं वाऽऽगमिष्यति आगामिनि काले किमस्य सुखाभिलाषिणो दुःखद्विषो भावीति, यदि पुनरतीतागामिपर्यालोचनं स्यान्न तर्हि संसाररतिः स्यादिति, उक्तं च-"केण ममेथुप्पत्ती कहं इओ तह पुणोऽवि गंतव्वं? । जो एत्तियपि चिंतइ इत्थं सो को न निविष्णो? ॥१॥" एके पुनमहामिथ्याज्ञानिनो भाषन्ते-'इह' अस्मिन् संसारे मनुष्यलोके वा मानवा-मनुष्या यथा यदस्य जन्तोरतीतं स्त्रीपुंनपुंसकसुभगदुर्भगश्वगोमायुब्राह्मणक्षत्रियविशूद्रादिभेदावेशात् पुनरप्यन्यजन्मानुभूतं तदेवागमिष्यम्-आगामीति, यदिवा न विद्यते पर:-प्रधानोऽस्मादित्यपरः-संयमस्तेन वासितचित्ताः सन्तः 'पूर्व' पूर्वानुभूतं विषयसुखोपभोगादि
१ केन ममागोलतिः केतः तथा पुनरपि गन्तव्यम् । य इयदपि चिन्तयति अत्र स क न निर्षिणः ॥१॥
52--52-%
15
%*
र
For P
OW
~48~
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११६/गाथा-२],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी) ॥ १६७॥
उद्दशका
सूत्राक
||२||
दीप अनुक्रम [१२९]
'न स्मरन्ति' न तदनुस्मृतिं कुर्वते, एके रागद्वेषविप्रमुक्ताः, तथाऽनागतदिव्याजनाभोगमपि नाकान्ति, किंच-अस्य | जन्तोरतीतं सुखदुःखादि किं वाऽऽगमिष्यम्-आगामीत्येतदपि न स्मरन्ति, यदिवा कियान कालोऽतिक्रान्तः किया-IN नेष्यति, लोकोत्तरास्तु भाषन्ते-एके रागद्वेषरहिताः केवलिनश्चतुर्दशपूर्वविदो वा यदस्य जन्तोरनादिनिधनत्वात् काल-16 शरीरसुखाद्यतीतमागामिन्यपि तदेवेति, अपरे तु पठन्ति-"अवरेण पुवं किह से अतीतं, किह आगमिस्सं न सरंति एगे। भासन्ति एगे इह माणवाओ, जह स अईअंतह आगमिस्सं ॥१॥" अपरेण-जन्मादिना साई पूर्वम्-अति-IM क्रान्तं जन्मादि न स्मरन्ति, 'कथं वा केन वा प्रकारेणातीतं सुखदुःखादि, कथं चैष्यमित्येतदपि न स्मरन्ति, एके भाषन्ते-किमत्र ज्ञेयं , यथैवास्य रागद्वेषमोहसमुत्थैः कर्मभिवक्ष्यमानस्य जन्तोस्त द्विपाकाश्चानुभवतः संसारस्य यदतिक्रान्तमागाम्यपि तत्प्रकारमेवेति, यदिवा प्रमादविषयकषायादिना कर्माण्युपचित्येष्टानिष्टविषयाननुभवतः सर्वज्ञवाक्सुधास्वादासंविदो यथा संसारोऽतिक्रान्तस्तथागाम्यपि यास्यति, ये तु पुनः संसारार्णवतीरमाजस्ते पूर्वोत्तरवेदिन इत्येतदर्शयितुमाह-'नाईय' मित्यादि, तथैव-अपुनरावृत्त्या गर्त-गमनं येषां ते तथागता:-सिद्धाः, यदिवा यथैव ज्ञेयं तथैव गतं-ज्ञानं येषां ते तथागताः-सर्वज्ञाः, ते तु नातीतमर्थमनागतरूपतयैव नियच्छन्ति-अवधारयन्ति || नाप्यनागतमतिकान्तरूपतयैव, विचित्रत्वात् परिणतः, पुनरर्थग्रहणं पर्यायरूपार्थ, द्रव्यार्थतया त्वेकत्वमेवेति, यदिवा || नातीतमर्थं विषयभोगादिकं नाप्यनागतं दिव्याङ्गनासङ्गादिकं स्मरन्त्यभिलषन्ति वा, के, तथागता-रागद्वेषाभावात् ॥१६७॥ पुनरावृत्तिरहिताः, तुशब्दो विशेषमाह, यथा मोहोदयादेके पूर्वमागामि वाऽभिलषन्ति, सर्वज्ञास्तु नैवमिति । तन्मा-10
ACCOSS
~49~
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११७/गाथा-२],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-[१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११७]
दीप
गर्गानुयाय्यप्येवम्भूत एवेति दर्शयितुमाह-'बिहूय कप्पे' इत्यादि, विविधम्-अनेकधा धूतम्-अपनीतमष्टप्रकारं कर्म | येन स विधूतः, कोऽसौ ? कल्पः-आचारो, विधूतः कल्पो यस्य साधोः स विधूतकल्पः स एतदनुदर्शी भवति, अतीतानागतमुखाभिलाषी न भवतीतियावत्, एतदनुदशी च किंगुणो भवतीत्याह-'निझोस' इत्यादि, पूर्वोपचितक-IN र्मणां निझोपयिता-क्षपकः क्षपयिष्यति वा तृजन्तमेतलुडन्तं वा। कर्मक्षपणायोद्यतस्य च धर्माध्यायिनः शुक्लध्यायिनो या महायोगीश्वरस्य निरस्तसंसारसुखदुःखविकल्पाभासस्य यत्स्यात्तद्दर्शयति
का अरई के आणंदे ?, इत्थंपि अग्गहे चरे, सव्वं हासं परिच्चज आलीणगुत्तो परि
व्बए, पुरिसा!-तुममेव तुम मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि ? (सू० ११७) इष्टाप्राप्तिविनाशोत्थो मानसो विकारोऽरतिः, अभिलषितावातावानन्दः, योगिचित्तस्य तु धर्मशुक्लध्यानावेशा-1 वष्टब्धध्येयान्तरावकाशस्यारत्यानन्दयोरुपादानकारणाभावादनुत्थानमेवेत्यतोऽपदिश्यते-केयमरतिर्नाम को वाऽऽनन्द द इति?, नास्त्येवेतरजनक्षुण्णोऽयं विकल्प इति । एवं तहरतिरसंयमे संबमे चानन्द इत्येतदन्यत्रानुमतमनेनाभिप्रायेण
न विधेयमित्येतदनिच्छतोऽप्यापन्नमिति चेत्, न, अभिप्रायापरिज्ञानाद् यतोऽत्रारतिरतिविकल्पाध्यवसायो निषिषिसितः, न प्रसङ्गायाते अप्यरतिरती, तदाह-'एत्थंपी'त्यादि, अत्राप्यरतावानन्द चोपसर्जनमाये न विद्यते 'ग्रहों लागाय तात्पर्य यस्य सोऽग्रहः, स एवम्भूतश्चरेदू-अवतिष्ठेत, इदमुक्तं भवति-शुक्लध्यानादारतोऽरत्यानन्दी कुतश्चिन्नि-II
अनुक्रम [१३०]
~50
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११७],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०) ॥१६८॥
सूत्रांक
[११७]
दीप
SACRORECASSACROSका
मित्तादायातौ तदाग्रहग्रहरहितस्तावप्यनुचरेदिति । पुनरप्युपदेशदानायाह-सव्व' मित्यादि, (सर्वे हास्यं तदास्पदं वा । शीतो० ३ परित्यज्याङ्-मर्यादयेन्द्रियनिरोधादिकया लीनः आलीनो गुप्तो मनोवाकायकर्मभिः कूर्मवद्धा संवृतगात्रः,)आलीनश्चासौ है
उद्देशकः३ गुप्तथालीनगुप्तः स एवम्भूतः परिः-समन्तादूजेत् परिव्रजेत्-संयमानुष्ठान विधायी भवेदिति । तस्य च मुमुक्षोरात्मसामर्थ्यात् संयमानुष्ठान फलवद्भवति न परोपरोधेनेति दर्शयति-'पुरिसा' इत्यादि, यदिवा त्यक्तगृहपुत्रकलबधनधान्यहिरण्यादितया अकिञ्चनस्य समतृणमणिमुक्तालेष्टुकाञ्चनस्य मुमुक्षोरुपसर्गव्याकुलितमतेः कदाचिन्मित्राद्याशंसा भवेत्तदपनोदार्थमाह-'पुरिसा' इत्यादि, पूर्णः सुखदुःखयोः पुरि शयनाद्वा पुरुषो-जन्तुः, पुरुषद्वारामन्त्रणं तु पुरुषस्यैवोपदेशार्हत्वात्तदनुष्ठानसमर्थत्वाञ्चेति, कश्चित्संसारादुद्विग्नो विषमस्थितो वाऽऽत्मानमनुशास्ति, परेण वा साध्वादिना|ऽनुशास्यते-यथा हे पुरुष-हे जीव! तय सदनुष्ठान विधायित्वात्त्वमेव मित्रं, विपर्ययाञ्चामित्रः, किमिति बहिर्मित्रमिच्छसि ?-मृगयसे, यतो झुपकारि मित्रं, स चोपकारः पारमार्थिकात्यन्तिकैकान्तिकगुणोपेतं सन्मार्गपतितमात्मानं विहाय से नान्येन शक्यो विधात, योऽपि संसारसाहाय्योपकारितया मित्राभासाभिमानस्तम्मोहविजृम्भित, यतो महाव्य|सनोपनिपाताणेवपतनहेतुत्वादमित्र एवासी, इदमुक्तं भवति-आत्मैवात्मनोऽप्रमत्तो मित्रम्, आत्यन्तिकैकान्तिक
परमार्थेसुखोत्पादनात् , विपर्ययाच विपर्ययो, न बहिमित्रमन्वेष्टव्यमिति, यस्त्वयं बाह्यो मित्रामित्रविकल्पः सोऽदृष्टो| दयनिमित्तत्वादौपचारिक इति, उक्तं हि-"दुप्पत्थिओ अमित्तं अप्पा सुपस्थिओ अ ते मित्तं । सुहदुक्खकारणाओ सा॥१६८॥
१ दुपस्थितोऽभिन्न आरमा सुप्रस्थितय ते भित्रम् । सुखदुःखकारणात् आत्मा मित्रमभित्रय ॥1॥
अनुक्रम [१३०]
~514
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११८],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
**
प्रत सूत्रांक [११८]
*
दीप
अप्पा मितं अमित्तं च ॥१॥" तथा-"अप्येकं मरणं कुर्यात्, संक्रुद्धो बलवानरिः । मरणानि त्वनन्तानि, जन्मांनि च करोत्ययम् ॥१॥" यो हि निर्वाणनिर्वर्तकं व्रतमाचरति स आत्मनो मित्रं, स चैवम्भूतः कुतोऽवगन्तव्यः! किंफलश्चेत्याह
जं जाणिज्जा उच्चालइयं तं जाणिज्जा दूरालइयं, जं जाणिजा दूरालइयं तं जाणिज्जा उच्चालइयं, पुरिसा! अत्ताणमेवं अभिणिगिज्झ एवं दुक्खा पमुच्चसि, पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि, सच्चस्स आणाए से उवट्टिए मेहावी मार तरइ, सहिओ धम्म
मायाय सेयं समणुपस्सइ (सू० ११८) 'य' पुरुषं 'जानीयात्' परिच्छिन्द्यारकर्मणां विषयसङ्गानां चोच्चालयितारम्-अपनेतारं तं जानीयाद् 'दूरालयिकमिति, दूरे सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यालयो दूरालयः-मोक्षस्तन्मार्गो वा स विद्यते यस्येति मत्वर्थीयष्ठन् दूरालयिकस्तमिति, |हेतुहेतुमद्भावं दर्शयितुं गतप्रत्यागतसूत्रमाह-जं जाणेजे'त्यादि, यं जानीयादरालयिकं तं जानीयादुच्चालयितारमिति,
एतदुकं भवति-यो हि कर्मणां तदास्रबद्वाराणां चोच्चालयिता-अपनेता स मोक्षमार्गव्यवस्थितो मुक्तो चेति, यो वा |सन्मार्गानुष्ठायी स कर्मणामुच्चालयितेति, सच आत्मनो मित्रमतोऽपदिश्यते-पुरिसा' इत्यादि, हे जीव! आत्मान18| मेवाभिनिगृह्य धर्मध्याना(हिर्विषयाभिष्वङ्गाय निःसरन्तमवरुध्य ततः 'एवम्' अनेन प्रकारेण दुःखारसकाशादात्मानं |
अनुक्रम [१३१]
*45
*
क
~52~
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [११८],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०)
शीतो०३ उद्देशकः३
प्रत सूत्रांक [११८]
॥१६९
दीप
4% ARCANA
मोक्ष्यसि, एवमात्मा कर्मणां उच्चालयिताऽऽत्मनो मित्रं भवति । अपि च-पुरिसा' इत्यादि, हे पुरुष! सो हितः | सत्यः-संयमस्तमेवापरब्यापारनिरपेक्षः समभिजानीहि-आसेवनापरिज्ञया समनुतिष्ठ, यदिवा सत्यमेव समभिजानीहिगुरुसाक्षिगृहीतप्रतिज्ञानिर्वाहको भव, यदिवा सत्यः-आगमस्तसरिज्ञानं च मुमुक्षोस्तदुक्तप्रतिपालनं । किमर्थमेतदिति
चेदाह-सच्चस्से'त्यादि, सत्यस्य-आगमस्याज्ञयोपस्थितः सन् मेधावी 'मारं' संसारं तरति, किंच-'सही'त्यादि, स[हितो-ज्ञानादियुक्तः सह हितेन वा युक्तः सहितः 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं 'आदाय' गृहीत्वा, किं करोतीत्याह-श्रेयः'। पुण्यमात्महितं वा सम्यग-अविपरीततयाऽनुपश्यति समनुपश्यति । उक्तोऽप्रमत्तः तद्गुणाच, तद्विपर्ययमाह
दुहओ जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए, जंसि एगे पमायंति (११९) द्विधा-रागद्वेषप्रकारद्वयेनात्मपरनिमित्तमैहिकामुष्मिकार्थे वा यदिवा द्वाभ्यां-रागद्वेषाभ्यां हतो द्विहतो दुष्टं हतो वा दुर्हतः, स किं कुयाद् ?-जीवितस्य कदलीगर्भनिःसारस्य तडिल्लतासमुल्लसितचञ्चलस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थं हिंसादिषु प्रवर्तते, परिवन्दन-परिसंस्तवस्तदर्थमाचेष्टते, लावकादिमांसोपभोगपुष्टं सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरमालोक्य मां जनाः सुखमेव परिवन्दिप्यन्ते, श्रीमान् जीयास्त्वं बहूनि वर्षशतसहस्राणीत्येवमादि परिवन्दनं, तथा माननार्थं कर्मोपचिनोति, दृष्टीरसवलपराक्रमं मामन्येऽभ्युत्थानविनयासनदानाञ्जलिप्रग्रहर्मानयिष्यन्तीत्यादि माननं, तथा पूजनार्थमपि प्रवर्त्तमानाः कर्मास्रवरात्मानं भावयन्ति, मम हि कृतविद्यस्योपचितद्रव्यप्राग्भारस्य परो दानमानसत्कारप्रणामसेवाविशेषैः पूजा
अनुक्रम [१३१]
का॥१६९
~534
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१२०],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२०
CLEARNA
दीप
करिष्यतीत्यादि पूजनं, तदेवमर्थ कर्मोपचिनोति । किं च-'जसि एगे'इत्यादि, यस्मिन् परिवन्दनादिनिमित्ते एके राग-1 द्वषोपहताः प्रमाद्यन्ति, न ते आत्मने हिताः ॥ एतद्विपरीतं त्वाह
सहिओ दुक्खमत्ताए पुट्ठो नो झंझाए, पासिमं दविए लोकालोकपवंचाओ मुच्चइ
(१२०) तिबेमि ॥ तृतीय उद्देशो ३-३॥ सहितो-ज्ञानादिसमन्वितो हितयुक्तो वा दुःखमात्रया उपसर्गजनितया व्याध्युद्भवया वा स्पृष्टः सन् 'नो झंझाए'सि नो व्याकुलितमतिर्भवेत्, तदपनयनाय नोद्यच्छेद् , इष्टविषयावाप्तौ रागझझाऽनिष्टावाप्तौ च द्वेषझञ्झेति, तामुभयप्र-15 कारामपि व्याकुलतां परित्यजेदिति भावः । किं च-पासिम' मित्यादि, यदुक्तमुद्देशकादेरारभ्यानन्तरसूत्र यावत् तमि
ममर्थ पश्य-परिच्छिन्द्धि कर्त्तव्याकर्त्तव्यतया विवेकेनावधारय, कोऽसौ ?-द्रव्यभूतो-मुक्तिगमनयोग्यः साधुरित्यर्थः, है एवम्भूतश्च के गुणमवामोति ?-आलोक्यत इत्यालोकः, कर्मणि पत्र, लोके चतुर्दशरज्वात्मके आलोको लोकालोक
स्तस्य प्रपश्चः-पर्याप्तकापर्याप्तकसुभगादिद्वन्द्वविकल्पः, तद्यथा-नारको नारकत्वेनावलोक्यते, एकेन्द्रियादिरेकेन्द्रिय(यादि) वेन, एवं पर्याप्तकापर्याप्तकाद्यपि वाच्य, तदेवम्भूतात्मपश्चान्मुच्यते-चतुर्दशजीवस्थानान्यतरव्यपदेशार्हो न भवतीतियावद् । इतिः परिसमाप्ती, बचीमीति पूर्ववत् ।। इति शीतोष्णीयाध्ययने तृतीयोद्देशकटीका समाप्ता ॥
अनुक्रम [१३३]
~544
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२१],नियुक्ति : [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
शीतो०३
प्रत
उद्देशकः४
सूत्रांक
[१२१]
दीप
श्रीआचा- उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके पापकर्माकरणतया दुःखराङ्गवृत्तिः सहनादेव केवलाच्छ्रमणो न भवतीति अपि तु निष्प्रत्यूहसंयमानुष्ठानादित्येतस्रतिपादित, निष्पत्यूहता च कषायवम(शी०) |नाद्भवति, तदधुना प्रागुद्देशार्थाधिकारनिर्दिष्टं प्रतिपाद्यते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य सूत्रानुगमे सूत्रमु
चारयितव्यं, तच्चेदम्॥१७०॥
से वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च, एयं पासगस्स दसणं, उवरयसत्थस्स
पलियंतकरस्स, आयाणं सगडब्भि (सू० १२१) 'स' ज्ञानादिसहितो दुःखमात्रास्पृष्टोऽव्याकुलितमतिर्द्रव्यभूतो लोकालोकप्रपश्चात् मुक्तदेश्यः स्वपरापकारिणं क्रोधं पाच वमिता 'टुवम् उद्भिरणे' इत्यस्मात्ताच्छीलिकस्तृन्, तद्योगे च षष्ठ्याः प्रतिषेधे क्रोधशब्दाद् द्वितीया, लुडन्तं वैतत्,
यो हि यथोक्तसंयमानुष्ठायी सोऽचिरात् क्रोधं वमिष्यति, एवमुत्तरत्रापि यथासम्भवमायोज्यं, तबारमात्मीयोपघातकारिणि क्रोधकम्मविपाकोदयारकोधः, जातिकुलरूपबलादिसमुत्थो गवों मानः, परवञ्चनाध्यवसायो माया, तृष्णापरिग्रहपरिणामो लोभा, क्षपणोपशमक्रममाश्रित्य च क्रोधादिक्रमोपन्यासः, अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसञ्जवलनस्वगतभेदाविभोवनाय व्यस्तनिर्देशः, चशब्दस्तु पर्वतपृथ्वीरेणुजलराजिलक्षणलक्षकः क्रोधस्य, शैलस्तम्भास्थिकाछतिनिशलतालक्षणलक्षको मानस्य, वंशकुडङ्गीमेषशृङ्गगोमूत्रिकाऽवलेखकलक्षणलक्षको मायायाः, कृमिरागकहेमखञ्ज
अनुक्रम [१३४]
॥१७
॥
तृतीय-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'कषायवमन' आरब्धः,
~554
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२१],नियुक्ति : [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२१]
दीप
नहरिद्रालक्षणसूचको लोभस्य, तथा यावज्जीवसंवत्सरचातुर्मासपक्षस्थित्याविर्भावकश्चेति । तदेवं क्रोधमानमायालोभवमनादेव पारमार्थिकः श्रमणभावो, न तत्सम्भवे सति, यत उक्तम्-सामण्णमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा हुंति । मन्नामि उच्छुपुष्फ व निष्फलं तस्स सामण्णं ॥ १॥ अजिअं चरित्तं देसूणाएवि पुचकोडीए । तंपि कसाइयमेत्तो हारेइ नरो मुहुत्तेणं ॥ २ ॥"। स्वमनीषिकापरिहारार्थ गौतमस्वाम्याह-एय' मित्यादि, 'एतद्' यत्कषायवमनमन|न्तरमुपादेशि तत् 'पश्यकस्य दर्शनं' सर्व निरावरणत्वासश्यति-उपलभत इति पश्यः स एव पश्यका-तीर्थकृत् श्रीवर्द्ध
मानस्वामी तस्य दर्शनम्-अभिप्रायो यदिवा दृश्यते यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमनेनेति दर्शनम्-उपदेशो, न स्वमनीषिका, |किम्भूतस्य पश्यकस्य दर्शनमित्याह-'उवरय' इत्यादि, उपरतं द्रव्यभावशस्त्रं यस्यासावुपरतशस्त्रः शस्त्राद्वोपरतः शस्त्रोपरतः, भावे शखं स्वसंयमः कपाया वा, तस्मादुपरतः, इदमुक्तं भवति-तीर्थकृतोऽपि कषायवमनमृते न निरावरणसकलपदार्थयाहिपरमज्ञानावाप्तिः, तदभावे च सिद्धिवधूसमागमसुखाभावः, एवमन्येनापि मुमुक्षुणा तदुपदेशवर्तिना तन्मार्गानुयायिना कषायवमनं विधेयमिति, शस्त्रोपरमकार्य दर्शयन् पुनरपि तीर्थकरविशेषणमाह-'पलियंतकरस्स' पर्यन्तं कर्मणां संसारस्य वा करोति तच्छीलश्चेति पर्यन्तकरस्तस्यैतद् देशनमिति सण्टङ्कः । यथा च तीर्थकृत् संयमापका|रिकषायशस्रोपरमात्कर्मपर्यन्तकृदेवमन्योऽपि तदुक्तानुसारीति दर्शयितुमाह-आयाण' मित्यादि, आदीयते-गृह्यते
१ आमण्यमनुबरतः कषाया यस्योत्कटा भवन्ति । भन्ये इपुष्पयन निष्फलं तस्य श्रामण्यम् ॥ १ ॥ यति चारित्रं देशोनयाऽपि पूर्वकोश्या । तदपि। पायितमात्रो हारयति नरो मुहूर्तेन ॥ २ ॥
अनुक्रम [१३४]
~56~
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२१],नियुक्ति : [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः
सूत्रांक
(शी०)
[१२१]
॥१७१॥
दीप अनुक्रम [१३४]
आत्मप्रदेशैः सह श्लिष्यतेऽष्टप्रकारं कर्म येन तदादानं-हिंसाद्याश्रवद्वारमष्टादशपापस्थानरूपं वा तत्स्थितेनिमित्तत्वा- शीतो.३ कपाया वाऽऽदानं तद्वमिता स्वकृतभिवति, स्वकृतमनेकजन्मोपात्तं कर्म भिनत्तीति स्वकृतभित्, यो ह्यादानं कम्मेणां कषायादि निरुणद्धि सोऽपूर्वकर्मप्रतिषिद्धप्रवेशः स्वकृतकर्मणां भेत्ता भवतीति भावः, तीर्थकरोपदेशेनापिका परकृतकर्मक्षपणोपायाभावात् स्वकृतग्रहणं, तीर्थकरेणापि परकृतकर्मक्षपणोपायो न व्यज्ञायीति चेत्, तन्न, तज्ज्ञानस्य सकलपदार्थसत्ताव्यापित्वेनावस्थानात् ।। ननु च हेयोपादेयपदार्थहानोपादानोपदेशज्ञोऽसौ न सर्वज्ञ इति सङ्गिरामहे, एतावतैव परोपकारकर्तृत्वेन तीर्थकरत्वोपपत्तेः, तदेतन्न सतां मनास्थानन्दयति, युक्तिविकलत्वात्, यतः सम्यज्ञानमन्तरेण हिताहितप्राप्तिपरिहारोपदेशासम्भवो, यथावस्थितैकपदार्थपरिच्छेदश्च न सर्वज्ञतामन्तरेणेति दर्शयितुमाह
जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ (सू० १२२) 'यः कश्चिदविशेषितः 'एक' परमाण्वादि द्रव्यं पश्चात्पुरस्कृतपर्यायं स्वपरपर्याय वा 'जानाति' परिच्छिनत्ति स सर्व स्वपरपर्यायं जानाति, अतीतानागतपर्यायिद्रव्यपरिज्ञानस्य समस्तवस्तुपरिच्छेदाविनाभावित्वातू, इदमेव हेतुहेतुमदावेन लगयितुमाह-जे सब्ब' मित्यादि, यः सर्वं संसारोदरविवरवर्ति वस्तु जानाति स एक घटादि वस्तु जानाति, तस्यैवातीतानागतपर्यायभेदतत्तत्स्वभावापश्याऽनाद्यनन्तकालतया समस्तवस्तुस्वभावगमनादिति, तदुक्तम्-"एगदवियस्स जे
१७१॥ १ एकदव्यस्य गेऽपयवा वचनपर्यना वाऽपि । तीतानागत भूता(वर्तमाना) तावत्तद् भवति द्रव्यम् ॥ १॥
~574
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२२],नियुक्ति : [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२२]
दीप
अत्थपजवा वयणपज्जवा वावि । तीयाणागयभूया तावइयं तं हवइ दव्यं ॥ १॥" तदेवं सर्वज्ञस्तीर्थकृत, सर्वज्ञश्च सम्भविनमेव सर्वसत्त्वोपकारिणमुपदेशं ददातीति दर्शयति
सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं, जे एगं नामे से बहुं नामे, जे बहुं नामे से एगं नामे, दुक्खं लोगस्स जाणित्ता वंता लोगस्स संजोगं जंति धीरा
महाजाणं, परेण परं जंति, नावखंति जीवियं (सू० १२३) । सर्वतः-सर्वप्रकारेण द्रव्यादिना यजयकारि कम्र्मोपादीयते ततः 'प्रमत्तस्य मद्यादिप्रमादवतो 'भयं' भीतिः, तद्यथाप्रमत्तो हि कर्मोपचिनोति द्रव्यतः सर्वैरात्मप्रदेशैः क्षेत्रतः पदिग्व्यवस्थितं कालतोऽनुसमयं भावतो हिंसादिभिः, य-181 | दिवा 'सर्वत्र' सर्वतो भयमिहामुत्र च, एतद्विपरीतस्य च नास्ति भयमिति, आह च-'सब्बओ' इत्यादि, 'सर्वतः' ऐहिकामुमिकापायाद् 'अप्रमत्तस्य' आत्महितेषु जाग्रतो नास्ति भयं संसारापसदात्सकाशात्कर्मणो वा, अप्रमत्तता च क-1 पायाभावानवति, तदभावाचाशेषमोहनीयाभावः, ततोऽप्यशेषकर्मक्षयः, तदेवमेकाभावे सति बहूनामभावसम्भवः, एकाभावोऽपि बहूवभावानान्तरीयक इत्येवं गतप्रत्यागतसूत्रेण हेतुहेतुमनावं दर्शयितुमाह-'जे एग' मित्यादि, यो हि| प्रवर्द्धमानशुभाध्यवसायाधिरूढकण्डका एकम्-अनन्तानुबन्धिनं क्रोधं 'नामयति' क्षपयति स बहूनपि मानादीनामयति | -क्षपयति अप्रत्याख्यानादीन् वा स्वभेदानामयति, मोहनीयं चै यो नामयति स शेषा अपि प्रकृती मयति, यो वा
अनुक्रम [१३५]
~58~
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१२३]
दीप
अनुक्रम [१३६ ]
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२३],निर्युक्तिः [२१४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ १७२ ॥
"
[भाग-2] “आचार” मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
बहून् स्थितिशेषान्नामयति सोऽनन्तानुबन्धिनमेकं नामयति मोहनीयं वा, तथाहि एकोनसप्ततिभिर्मोहनीयकोटीकोदिभिः क्षयमुपागताभिः ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयवेदनीयान्तरायाणामेकोनत्रिंशद्भिः नामगोत्रयोरेकोनविंशतिभिः शेपकोटीकोव्याऽपि देशोनया मोहनीयक्षपणार्हो भवति, नान्य इत्यतोऽपदिश्यते-यो बहुनामः स एव परमार्थत एकनाम इति, नाम इति क्षपकोऽभिधीयते उपशामको वा, उपशमश्रेण्याश्रयेणैकबहूपशमता बहेकोपशमता वा वाच्येति, तदेवं बह्वेककर्माभावमन्तरेण मोहनीयक्षयस्योपशमस्य वाऽभावः, तदभावे च जन्तूनां बहुदुःखसम्भव इति दर्शयति'दुक्ख' मित्यादि, 'दुःखम्' असातोदयस्तत्कारणं वा कर्म तत् 'लोकस्य' भूतग्रामस्य ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च यथा तदभावो भवति तथा विदध्यात् कथं तदभावः ? का वा तदभावे गुणावाप्तिरित्युभयमपि दर्शयितुमाह-- 'बंता' इत्यादि, 'वान्त्वा त्यक्त्वा लोकस्य - आत्मव्यतिरिक्तस्य धनपुत्रशरीरादेः 'संयोगं' ममत्वपूर्वकं सम्बन्धं शारीरदुःखादिहेतुं तद्धेतुकर्मोपादानकारणं वा 'यान्ति' गच्छन्ति 'धीराः' कर्म्मविदारणसहिष्णवः यान्त्यनेन मोक्षमिति यानं -चारित्रं तच्चानेकभवकोटिदुर्लभं लब्धमपि प्रमाद्यतस्तथाविधकम्र्मोदयात् स्वप्नावाप्तनिधिसमतामवाप्नोत्यतो महच्छब्देन विशेष्यते, महच्च तद्यानं च महायानं, यदिवा महद्यानं सम्यग्दर्शनादित्रयं यस्य स महायानो-मोक्षस्तं यान्तीति | सम्बन्धः । स्यात् किमेकेनैव भवेनावाप्तमहायानदेश्य चारित्रस्य मोक्षावाप्तिरुत पारम्पर्येण ?, उभयथाऽपि ब्रूमः, तद्यथाअवाप्ततद्योग्यक्षेत्रकालस्य लघुकर्म्मणस्तेनैव भवेन मुक्त्यवाप्तिरपरस्य स्वन्यथेति दर्शयति- परेण पर' मित्यादि, सम्यक्त्वप्रतिषिद्धनरकगतितिर्य्यग्गतयो ज्ञानावाप्तियथाशक्तिप्रतिपालितसंयमा आयुषः क्षयात् सौधर्मादिकं देवलोकमवाप्नु
Educat Internation
For Parts Only
~59~
शीतो० ३ उद्देशक ४
॥ १७२ ॥
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२३],नियुक्ति : [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२३]
दीप
वन्ति, ततोऽपि पुण्यशेषतया कर्मभूम्यार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्यारोग्यश्रद्धाश्रवणसंयमादिकमवाप्य विशिष्टतरं स्वर्गमनुत्तरो-I
पपातिकपर्यन्तमधितिष्ठन्ति, पुनरपि ततश्युतस्यावाप्तमनुष्यादिसंयमभावस्याशेषकर्मक्षयान्मोक्षः, तदेवं परेण-संयमेनोहादिष्टविधिना 'परं' स्वर्ग पारम्पर्येणापवर्गमपि यान्ति, यदिवा 'परेण' सम्यग्दृष्टिगुणस्थानेन 'परं' देशविरत्याधयोगिके-12 है वलिपर्यन्तं गुणस्थानकमधितिष्ठन्ति, परेण वाऽनन्तानुबन्धिक्षयेणोल्लसत्कण्डकस्थानाः 'पर' दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनी
यक्षयं घातिभवोपग्राहिकर्मणां वा क्षयमवानुवन्ति, एवंविधाश्च कर्मक्षपणोद्यता जीवितं कियगतं किं वा शेषमित्येवं नावकाङ्कन्ति, दीर्घजीवित्वं नाभिलषन्तीत्यर्थः, असंयमजीवितं वा नावकावन्तीति, यदिवा परेण परं यान्तीत्युत्तरोत्तरां तेजोलेश्यामवामुवन्तीति, उक्तं च-"जे ईमे अज्जत्ताए समणा निम्गंथा विहरंति एए णं कस्स तेयलेस वीईवयंति ?, गोयमा!, मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं वीइवयइ, एवं दुमासपरियाए असुरिंदवजियाणं भवणवासीणं देवाणं, तिमासपरियाए असुरकुमाराणं देवाणं चउमासपरियाए गहगणनक्खत्ततारारूवाणं जोइसियाणं देवाण, पंचमासपरियाए चंदिमसूरियाणं जोइसिंदाणं जोइसराईणं तेउलेस, छम्मासपरियाए सोहम्मीसाणाणं देवाणं,
- १ व इमे अद्यतया श्रमणा निर्मन्या विहरन्ति, एते कस्य तेजोलेश्या व्यतिवजन्ति है, गौतम! मासपर्यायः श्रगणो निर्मन्थो व्यन्तराणां देवानां तेजोलेश्या हाव्यतित्रजति, एवं द्विमासपर्यायः असुरेन्द्रवर्जितानां भवनवासिना देवाना, त्रिमासपर्यायोऽमुरकुमाराणां देवानां चतुर्मासपर्यायः प्रहगणनक्षत्रतारारूपाणां ज्योतिष्कानां
देवाना, पचमासपर्यायः चन्द्रसूर्ययोज्योतिषकेन्द्रयोज्योतीराजयोस्तेजोलेश्या, षण्मासपर्यायः सौधर्मशानानां देवाना, सप्तमारापर्यायः सनत्कुमारमाहेन्द्राणां देवाना, अधमासपर्यायो अदालोकलाम्तकानां देवानां, नवमासपर्यायो महाशसहस्राराणां देवानां दशमासपर्याय आ वेषकाणां, द्वादयामासः श्रमको निर्मन्थोऽनुत्तरोपपातिकानां देवानां तेजोलेश्या व्यतिबजाति, ततः परं शुमः शुक्लाभिजाति (खो भूत्वा ततः पवासिध्यति.
अनुक्रम [१३६]
~60~
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२३],नियुक्ति: [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२३]]
दीप
श्रीआचा- सत्तमासपरिआए सणकुमारमाहिंदाणं देवाणं, अहमासपरियाए बंभलोगलंतगाणं देवाणं, नवमासपरिआए महा सुकस- शीतो०३ रामवृत्तिःहस्साराणं देवाणं, दसमासपरियाए आणयपाणयआरणचुआणं देवाणं, एगारसमासपरियाए गेवेज्जाणं, बारसमासे |
उद्देशका ४ (शी०) समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेयलेसं वीयवयइ, तेण पर सुक्के सुक्काभिजाई भवित्ता तो पच्छा सिज्झइ।" ॥ १७३॥
|यश्चानन्तानुबन्ध्यादिक्षपणोद्यतः स किमेकक्षयादेव प्रवर्तते उत नेत्याह
एगं विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ, पुढोवि, सड्ढी आणाए मेहावी लोगं च आणाए
अभिसमिच्चा अकुओभयं, अस्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं (सू० १२४) 'एकम्' अनन्तानुबन्धिनं क्रोधं क्षपक श्रेण्यारूढः क्षपयन् 'पृथग्' अन्यदपि दर्शनादिकं क्षपयति, बद्धायुष्कोऽपि दर्शनसप्तकं यावत्क्षपयति, पृथगन्यदपि क्षपयन्नवश्यमनन्तानुबन्धिनामक क्षपयति पृथग्-अन्यद् क्षयान्यथानुपपत्तेः, किं-| गुणः क्षपकश्रेणियोग्यो भवतीत्याह-सट्ठी' इत्यादि, श्रद्धा-मोक्षमार्गाद्यमेच्छा विद्यते यस्यासौ श्रद्धावान् 'आज्ञया तीर्थकरप्रणीतागमानुसारेण यथोक्तानुष्ठानविधायी मेधावी अप्रमत्तयतिः मर्यादाव्यवस्थितः श्रेण्यहाँ नापर इति । किं
च-'लोगं च' इत्यादि, चः समुच्चये 'लोक' षडीवनिकायात्मकं कषायलोकं वा 'आज्ञया' मौनीन्द्रागमोपदेशेन 'अभिसkमेत्य' ज्ञात्वा षड्रीवनिकायलोकस्य यथा न कुतश्चिन्निमित्ताइयं भवति तथा विधेयं, कषायलोकप्रत्याख्यानपरिज्ञानाच्च Kal|| १७३॥
तस्यैव परिहर्तुर्न कुतश्चिद्भयमुपजायत इति, लोकं वा चराचरमाज्ञया-आगमाभिप्रायेणाभिसमेत्य न कुतश्चिदैहिकामु
अनुक्रम [१३६]
~61~
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२४],नियुक्ति : [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२४]
दीप
मिकापायसन्दर्शनतो भयं भवति।तच भयं शस्त्राद्भवति, तस्य च शस्त्रस्य प्रकर्षगतिरस्त्युत नेति?, अस्तीति दर्शयति'अत्थि' इत्यादि, तत्र द्रव्यशस्वं कृपाणादि तत्सरेणापिपरमस्ति-तीक्ष्णादपि तीक्ष्णतरम स्ति, लोहकर्तृसंस्कारविशेषात् , यदिबा शस्त्रमित्युपघातकारि तत एकस्मात्पीडाकारिणोऽन्यत् पीडाकार्युपद्यते ततोऽप्यपरमिति, तद्यथा-कृपाणाभिघाताद्वातोत्कोपः ततः शिरोऽतिः तस्या ज्वरः ततोऽपि मुखशोषमूच्छोदय इति, भावशस्त्रपारम्पर्य त्वेकसूत्रान्तरितं स्वत एव प्रत्याख्यानपरिज्ञाद्वारेण वक्ष्यति, यथा च शखस्य प्रकर्षगतिरस्ति पारम्पर्य वा विद्यते अशस्त्रस्य तथा नास्तीति दर्शयितुमाह-'नस्थि' इत्यादि, 'नास्ति' न विद्यते, किं तद्-'शस्त्रं' संयमः तत् 'परेण पर मिति प्रकर्षगत्यापन्न मिति, तथाहि-पृथिव्यादीनां सर्व तुल्यता कार्या न मन्दतीत्रभेदोऽस्तीति, पृधिव्यादिषु समभावत्वात् सामायिकस्य, अथवा शैलेश्यवस्थासंयमादपि परः संयमो नास्ति, तदूई गुणस्थानाभावादिति भावः । यो हि क्रोधमुपादानतो बन्धतः स्थितितो विपाकतोऽनन्तानुबन्धिलक्षणतः क्षयमाश्रित्य प्रत्याख्यानपरिज्ञया जानाति सोऽपरमानाविदयपीत्येतदेव प्रतिसूत्रं लगयितव्यमित्याह
जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायादंसी, जे मायादंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पिजदंसी, जे पिजदंसी से दोसदंसी, जे दोसदसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से
अनुक्रम [१३७]
~62~
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२५],नियुक्ति : [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]]
॥१४॥
दीप अनुक्रम [१३८]
श्रीआचा
मारदंसी, जे मारदंसी से नरयदंसी, जे नरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी शीतो०३ राजवृत्तिः
से दुक्खदंसी । से मेहावी अभिणिवद्विजा कोहं च माणं च मायं च लोभं च पिजं (शी०)
उद्देशकः४ च दोसं च मोहं च गभं च जम्मं च मारं च नरयं च तिरियं च दुक्खं च । एयं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स, आयाणं निसिद्धा सगडब्भि, किमस्थि
ओवाही पासगस्स? न विज्जइ ?, नत्थि(सू०१२५) तिबेमिशीतोष्णीयाध्ययनम् ३॥ यो हि क्रोध स्वरूपतो वेत्ति अनर्थपरित्यागरूपत्वाज्ज्ञानस्य परिहरति च स मानमपि पश्यति परिहरति चेति, यदिवा प्रायः क्रोधं पश्यत्याचरति स मानमपि पश्यति, मानाध्मातो भवतीत्यर्थः, एवमुत्तरत्रापि आयोज्यं, यावत् स दुःखदशीति,
सुगमत्वात विवियते । साम्प्रतं क्रोधादेः साक्षान्निवर्त्तनमाह-'से' इत्यादि, स मेधावी अभिनिवर्तयेद् व्यावर्त्तयेत्, लाकिं तत् ?-'क्रोधमित्यादि यावदुःखं', सुगमत्वाव्याख्यानाभावः, स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह-एय' मित्यादि, 'एतद्'
अनन्तरोक्तमुद्देशकादेरारभ्य पश्यकस्य-तीर्थकृतो दर्शनम्-अभिप्रायः, किम्भूतस्य :-उपरतशस्त्रस्य पर्यन्तकृतः, पुनहारपि किम्भूतोऽसौ ?-आयाण मित्यादि, आदानं कर्मोपादानं निषेध्य पूर्वस्वकृतकर्मभिदसाविति, किं चास्य भवजातीत्याह-'किमत्थी'त्यादि, 'पश्यकस्य केवलिनः 'उपाधिः' विशेषणं उपाधीयत इति वोपाधिः, द्रव्यतो हिरण्यादि -६॥ १७४॥
वतोऽष्टप्रकार कर्म, स द्विविधोऽप्युपाधिः किमस्त्याहोस्विन्न विद्यते?, नास्तीति, एतदहं ब्रवीमि, सुधर्मस्वामी जम्बू
~634
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [३], उद्देशक [४], मूलं [१२५...],नियुक्ति : [२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
%
प्रत
सूत्रांक
84-%
[१२५]
8
दीप
IPIस्वामिनं कथयति, यथा सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवत्पादारविन्दमुपास(य)ता सर्वमेतदश्रावि तद्भवते तदुपदिष्टार्थातानसारितया कथयामि, न पुनः स्वमतिविकल्पशिल्परचनयेति । गतः सूत्रानुगमः, तद्गतौ च समाप्तश्चतुर्थोद्देशकः ॥ तत्समाप्ती चातीतानागतनयविचारातिदेशात् समाप्तं शीतोष्णीयाध्ययनमिति ॥ ग्रन्थानम् ७९०॥
अथ चतुर्थ सम्यक्त्वाख्यमध्ययनम् । उक्तं तृतीयमध्ययन, साम्प्रतं चतुर्थमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इह शस्त्रपरिज्ञायामन्वयव्यतिरेकाभ्यां पड्डीवनिकायान् व्युत्सादयता जीवाजीवपदार्थद्वयं व्युत्पादितं, तदधे च बन्धं विरतिं च भणताऽऽस्रवसंवरपदार्थद्वयमूचे, तथा लोकविजयाध्ययने लोको यथा वध्यते यथा च मुच्यत इति वदता बन्धनिजरे गदिते, शीतोष्णीयाध्ययने तु शीतोष्णरूपाः परीपहाः सोढव्या इति भणता तत्फललक्षणो मोक्षोऽभिहितः, ततश्चाध्ययनत्रयेण सप्तपदार्थात्मकं तत्त्वमभिहितं, तत्त्वार्थश्रद्धानं च सम्यक्त्वमुच्यते, तदधुना प्रतिपाद्यते, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि व्यावोपक्रमेऽर्थाधिकारी द्वेधा, तत्राध्ययनार्थाधिकारः सम्यक्त्वाख्यः शत्रपरिज्ञायां प्रागेवाभाणि, उद्दे
शकार्थाधिकारप्रतिपादनाय तु नियुक्तिकार आहहा पढमे सम्मावाओ बीए धम्मप्पवाइयपरिक्खा । तइए अणवजतवो न हु पालतवेण मुक्खुत्ति ॥ २१५ ॥
उद्देसंमि चउत्थे समासवयणेण णियमणं भणियं । तम्हा य नाणदसणतवचरणे होइ जइयत्वं ॥ २१६ ॥
4
अनुक्रम [१३८]
%
CE
चतुर्थ-अध्ययनं 'सम्यक्त्व' आरब्धः,
~644
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२५...,नियुक्ति: [२१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सम्य०४
प्रत सूत्रांक [१२५]
दीप अनुक्रम [१३८]
श्रीआचा- प्रथमोद्देशके सम्यग्वाद इत्ययमर्थाधिकारः, सम्यग्-अविपरीतो वादः सम्यग्वादो-यथावस्थितवस्त्वाविर्भावनं, द्विरावृत्तिः तीये तु धर्मप्रवादिकपरीक्षा, धर्म प्रवदितुं शीलं येषां ते धर्मप्रवादिनस्त एव धर्मप्रवादिकाः, धर्मप्रावादुका इत्यर्थ-18
उद्देशकः१ (शी०) दस्तेषां परीक्षा-युक्तायुक्तविचारणमिति, तृतीयेऽनवद्यतपोव्यावर्णनं, न च बालतपसा-अज्ञानितपश्चरणेन मोक्ष इत्ययमर्था
धिकारः, चतुथोंद्देशके तु 'समासवचनेन' सोपवचनेन 'नियमनं भणितं' संयत उक्त इति । तदेवं प्रथमोद्देशके सम्य-IP ॥१७५॥
ग्दर्शनमुक्त, द्वितीये तु सम्यग्ज्ञानं, तृतीये बालतपोव्युदासेन सम्यक्तपः, चतुर्थे तु सम्यक्चारित्रमिति, तस्माचशब्दो हेती, यतश्चतुष्टयमपि मोक्षाङ्गं प्रागुक्तं तस्मात् ज्ञानदर्शनस्तपश्चरणेषु 'मुमुक्षुणा यतितव्यं तत्प्रतिपालनाय यावज्जीवं गायलो विधेय इति गाथाद्वयार्थः । अधुना नामनिष्पन्ननिक्षेपायातस्य सम्यक्त्वाभिधानस्य निक्षेपं चिकीर्षुराह
नामंठवणासम्म दब्बसम्मं च भावसम्मं च । एसो खलु सम्मस्सा निक्खेवो चविहो होइ ॥ २१७ ॥ अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थ तु सुगमनामस्थापनाब्युदासेन द्रव्यभावगतं नियुक्तिकारः प्रतिपिपादयिषुराहअह दन्चसम्म इच्छाणुलोमियं तेसु तेसु दन्वेसुं। कयसंखयसंजुत्तो पउत्त जढ भिण्ण छिपणं वा ॥२१८॥ 'अर्थ'त्यानन्तर्ये ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यसम्यक्त्वमित्याह, 'ऐच्छानुलोमिक' इच्छा-चेतःप्रवृत्तिरभिप्रायस्तस्यानुलोमम्-अनुकूलं तत्र भवमैच्छानुलोमिकं तच्च तेषु तेष्विच्छा भावानुकूल्यतामाक्षुद्रव्येषु कृताधुपाधिभेदेन सप्तधा ॥ १७५ ॥ 8 भवति, तद्यथा-कृतम्-अपूर्वमेव निर्वर्तितं रथादि, तस्य यथाऽवयवलक्षणनिष्पत्तेब्यसम्यकर्तुस्तन्निमित्तचित्तस्वास्थ्योपत्तेः
SCIENCE
| चतुर्थ-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'सम्यग्वाद' आरब्धः,
~654
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२५...],नियुक्ति: [२१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
दीप अनुक्रम [१३८]
यदर्थ वा कृतं तस्य शोभनाशुकरणतया समाधानहेतुत्वाद्वा द्रव्यसम्यग् १, एवं संस्कृतेऽपि योज्यं, तस्यैव रथादेर्भग्नजी-|
पोढापरावयवसंस्कारादिति २, तथा ययोर्द्रव्ययोः संयोगो गुणान्तराधानाय नोपमर्दाय उपभोक्तुर्वा मनःप्रीत्यै पयःशर्करयोरिव तत्संयुक्तद्रव्यसम्यक् ३, तथा यत्प्रयुक्तं द्रव्यं लाभहेतुत्वादात्मनः समाधानाय प्रभवति तत्प्रयुक्तद्रव्यसम्यक् । ४, पाठान्तरं वा-'उवउत्त'त्ति यदुपयुक्तम्-अभ्यवहुतं द्रव्यं मनःसमाधानाय प्रभवति तदुपयुक्तद्रव्यसम्यक् ४, तथा जढं-परित्यक्तं यद्धारादि तत्यक्तद्रव्यसम्यक् ५, तथा दधिभाजनादि भिन्नं सत् काकादिसमाधानोत्पत्तेभिन्नद्रव्यसम्यक् । ६, तथाऽधिकमासादिच्छेदाच्छिन्नसम्यक् ७, सर्वमप्येतत्समाधानकारणत्वाद्रव्यसम्यक्, विपर्ययादसम्यगिति गाथार्थः ॥8 भावसम्यक्प्रतिपादनाचाहतिविहं तु भावसम्म दसण नाणे तहा चरित्ते य । दसणचरणे तिविहं नाणे दुविहं तु नायब्वं ॥ २१९॥ त्रिविध भावसम्यक्-दर्शनज्ञानचारित्रभेदात्, पुनरप्येकैकं भेदत आचष्टे-तत्र दर्शनचरणे प्रत्येकं त्रिविधे, तद्यथाअनादिमिथ्यादृष्टेरकृतत्रिपुञ्जस्य यथाप्रवृत्तकरणक्षीणशेषकर्मणो देशोनसागरोपमकोटिकोटीस्थितिकस्यापूर्वकरणभिन्नग्रन्थेमिथ्यात्वानुदयलक्षणमन्तरकरणं विधायानिवृत्तिकरणेन प्रथमं सम्यक्त्वमुत्सादयत औपशमिक दर्शनम् १, उक्तं च --"ऊसरदेसं दहेलयं च विज्झाइ वणदवो पप्प । इय मिच्छत्ताणुदए उवसमसम्म लहइ जीवो ॥१॥" उपशमश्रेण्यां चौपशमिकमिति , तथा सम्यक्त्वपुद्गलोपष्टम्भजनिताध्यवसायः क्षायोपशमिकं २, दर्शनमोहनीयक्षयात् क्षायिकं ३,
१ऊपरवेषां दग्धं च विध्याति वनदवः प्राप्य । एवं मियाखानुदये औपयामिकसम्यक्त्वं लभते जीवः ॥ १॥
E4%
~66~
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२५....,नियुक्ति: [२१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]
दीप अनुक्रम [१३८]
श्रीआचा-||3|चारित्रमप्युपशमश्रेण्यामौपशमिक १ कपायक्षयोपशमात् क्षायोपशमिकं चारित्रं २ चारित्रमोहनीयक्षयात्क्षायिकं ३, ज्ञाने सम्य०४ राङ्गवृत्तिः तु भावसम्यग् द्विधा ज्ञातव्यं, तद्यथा-क्षायोपशमिकं क्षायिकं च, तत्र चतुर्विधज्ञानावरणीयक्षयोपशमात् मत्यादि चतु-18| (शी०) विध क्षायोपशमिकं ज्ञानं, समस्तक्षयात्क्षायिक केवलज्ञानमिति । तदेवं त्रिविधेऽपि भावसम्यक्त्वे दर्शिते सति परश्चो-|
दयति-यद्येवं त्रयाणामपि सम्यग्वादसम्भवे कधं दर्शनस्यैव सम्यक्त्ववादो रूढो? यदिहाध्ययने व्यावयेते, उच्यते, ॥ १७६॥
तद्भावभाविवादितरयोः, तथाहि-मिथ्यादृष्टेस्ते न स्तः, अत्र च सम्यक्त्वप्राधान्यख्यापनाय अन्धेतरराजकुमारद्वयेन वालाङ्गनाद्यवबोधार्थ दृष्टान्तमाचक्षते-तद्यथा-उदयसेनराज्ञो वीरसेनसूरसेनकुमारद्वयं, तत्र वीरसेनोऽन्धः, स च त
त्यायोग्या गान्धर्वादिकाः कला ग्राहितः, इतरस्त्यभ्यस्तधनुर्वेदो लोकश्लाध्या पदवीमगमत् , एतच्च समाकर्ण्य वीरसेने&ानापि राजा विज्ञप्तो यथाऽहमपि धनुर्वेदाभ्यासं विदधे, राज्ञाऽपि तदाग्रहमवगम्यानुज्ञातः, ततोऽसौ सम्यगुपाध्यायो
पदेशात् प्रज्ञातिशयादभ्यासविशेषाच शब्दवेधी सञ्जज्ञे, तेन चारूढयौवनेन स्वभ्यस्तधनुर्वेदविज्ञानक्रियेणागणितचक्षुदर्शनसदसद्भावेन शब्दवेधित्वावष्टम्भात्परबलोपस्थाने सति राजा युद्धायादेशं याचितः, तेनापि याच्यमानेन वितेरे, वीरसेनेन च शब्दानुवेधितया परानीके. जजम्भे, परैश्चाबगतकुमारान्धभावैर्मूकतामालम्ब्यासी जगहे, सूरसेनेन च विदितवृतान्तेन राजानमापृच्छ्य निशित शरशतजालावष्टब्धपरानीकेन मोचितः । तदेवमभ्यस्तविज्ञानक्रियोऽपि चक्षु६ विकलत्वान्नालमभिप्रेतकार्यसिद्धये इति । एतदेव नियुक्तिकारो गाथयोपसंहर्तुमाह
॥ १७६॥ कुणमाणोऽवि य किरियं परिचयंतोवि सयणधणभोए। दितोऽपि दुहस्स उरंन जिणइ अंघो पराणीयं ॥२२०॥
~67~
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[ १२५]
दीप
अनुक्रम [१३८]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२५...],निर्युक्तिः [२२०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
कुर्वन्नपि क्रियां परित्यजन्नपि स्वजनधनभोगान् दददपि दुःखस्योरः न जयत्यन्धः परानीकमिति गाथार्थः ॥ तदेवं दृष्टान्तमुपदर्श्य दाष्टन्तिकमाह
कुणमाणोऽवि निवित्ति परिचयतोऽवि सयणधणभोए । दितोऽवि दुहस्स उरं मिच्छद्दिट्ठी न सिज्झइ उ ॥ २२२ ॥ कुर्वन्नपि निवृत्तिम्- अन्यदर्शनाभिहितां, तद्यथा - पञ्च यमाः पञ्च नियमा इत्यादिकां तथा परित्यजन्नपि स्वजनधनभोगान् पञ्चाग्नितपआदिना दददपि दुःखस्योर: मिथ्यादृष्टिर्न सिध्यति, तुरवधारणे, नैव सिध्यति, दर्शन विकलत्वाद्, अन्धकुमारवत् असमर्थः कार्यसिद्धये । यत एवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह
तम्हा कम्माणीयं जेडमणो दंसणंमि पयइज्जा । दंसणवओ हि सफलाणि हुंति तवनाणचरणाई ॥ २२२ ॥
यस्मात्सिद्धिमार्गमूलास्पदं सम्यग्दर्शनमन्तरेण न कर्मक्षयः स्यात् तस्मात्कारणात्कम्मनीकं जेतुमनाः सम्यग्दर्शने प्रयतेत, तस्मिंश्च सति यद्भवति तद्दर्शयति-दर्शनवतो हि 'हिः' हेतौ यस्मात्सम्यग्दर्शननः सफलानि भवन्ति तपोज्ञान चरणान्यतस्तत्र यलवता भाव्यमिति गाथार्थः ॥ प्रकारान्तरेणापि सम्यग्दर्शनस्य तत्पूर्वकाणां च गुणस्थानकानां गुणमाविर्भावयितुमाह
Education International
सम्म पत्ती सावए य विरए अनंतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवए उवसामन्ते य उबसंते ॥ २२३ ॥
वए य खीणमोहे जिणे अ सेढी भवे असंखिज्ञा । तब्बिवरीओ कालो संखिज्जगुणाइ सेढीए ॥ २२४ ॥ सम्यक्त्वस्योत्पत्तिः सम्यक्त्वोत्पत्तिस्तस्यां विवक्षितायामसङ्घयेयगुणा श्रेणिर्भवेदित्युत्तरगाथार्द्धान्ते क्रियामपेक्ष्य स
For Parta Use Only
~68~
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२५....,नियुक्ति: [२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२५]
दीप अनुक्रम [१३८]
श्रीआचा-म्बन्धो लगयितव्यः, कथमसख्येयगुणा श्रेणिर्भवेदिति?, अत्रोच्यते, इह मिथ्यादृष्टयो देशोनकोटीकोटिकर्मस्थितिका सम्य०४ रामवृत्तिः ग्रन्थिकसत्त्वास्ते कर्मनिर्जरामाश्रित्य तुल्याः, धर्मप्रच्छनोत्पन्नसंज्ञास्तेभ्योऽसख्येयगुणनिर्जरकाः, ततोऽपि पिपृच्छिषुः ।
उद्देशकः१ (शी०)। सन् साधुसमीपं जिगमिषुस्तस्मादपि क्रियाविष्टः पृच्छन् , ततोऽपि धर्म प्रतिपित्सुः, अस्मादपि कियाविष्टः प्रतिपद्यमानः,18
| तस्मादपि पूर्वप्रतिपन्नोऽसङ्ख्येयगुणनिर्जरक इति सम्यक्त्वोत्पत्तिाख्याता, तदनन्तरं विरताविरतिं प्रतिपित्सुप्र॥१७७॥
तिपद्यमानपूर्वप्रतिपन्नानामुत्तरोत्तरस्यासङ्ख्येयगुणा निर्जरा योज्या, एवं सर्वविरतावपीति, ततोऽपि पूर्वप्रतिपन्नसर्वविरतेः। | सकाशात् 'अणंतकम्मसे'त्ति 'पदैकदेशे पदप्रयोग' इति यथा भीमसनो भीमः सत्यभामा भामा एवमनन्तशब्दोपल-1 |क्षिता अनन्तानुबन्धिना, ते हि मोहनीयस्यांशा-भागाः तांश्चिक्षपयिपुरसख्येयगुणनिर्जरकः, ततोऽपि क्षपकः, तस्मादपि । क्षीणानन्तानुवन्धिकपायः, एतदेव दर्शनमोहनीयत्रयेऽभिमुखक्रियारूढापवर्गत्रयमायोज्यं, ततोऽपि क्षीणसप्तकारक्षीणसप्तक एवोपशमश्रेण्यारूढोऽसङ्ख्येयगुणनिर्जरकः, ततोऽप्युपशान्तमोहा, तस्मादपि चारित्रमोहनीयक्षपकः, ततोऽपि क्षीणमोहः, अत्र चाभिमुखादित्रयं यथासम्भवमायोजनीयम्, अस्मादपि 'जिनो' भवस्थकेवली, तस्मादपि शैलेश्यवस्थोऽसख्येयगुणनिर्जरकः । तदेवं कर्मनिर्जरायै असख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणनिष्पादितसंयमस्थानप्रचयोपात्तश्रेणिः सोत्तरोत्तरेषामसख्येयगुणा, उत्तरोत्तरप्रवर्द्धमानाध्यवसायकण्डकोपपत्तेरिति, कालस्तु तद्विपरीतोऽयोगिकेवलिन आरभ्य प्रतिलोमतया सख्येयगुणया श्रेण्या ज्ञेयः, इदमुक्तं भवति-यावत्कालेन यावत्कर्मायोगिकेवली क्षपयति ताव- IN॥१७७॥ मात्र कर्म सयोगिकेवली सख्येयगुणेन कालेन क्षपयति एवं प्रतिलोमतया यावद्धर्म पिपृच्छिषुस्तावन्नेयमिति गाथा-I
~69~
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२५...],नियुक्ति: [२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
*
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
दीप
द्वयार्थः ॥ एवमन्तरोक्तया नीत्या दर्शनवतः सफलानि तपोज्ञानचरणान्यभिहितानि, यदि पुनः केनचिदुपाधिना विदधाति ततः सफलत्वाभावः, कश्चासावुपाधिस्तमाह
आहारउवहिपूआ इहीसु य गारवेसु कइतवियं । एमेव वारसविहे तवंमि न हु कइतवे समणो ॥ २२५ ॥
आहारश्च उपधिश्च पूजा च ऋद्धिश्च-आमर्पोषध्यादिका आहारोपधिपूजर्द्धयस्तासु निमित्तभूतासु ज्ञानचरणक्रियां करोति, तथा गारवेषु त्रिषु प्रतिबद्धो यत्करोति तस्कृत्रिममित्युच्यते, यथा च ज्ञानचरणयोराहाराद्यर्थमनुष्ठानं कृत्रिम सन्न फलवद्भवति एवं सबाह्याभ्यन्तरे द्वादशप्रकारे तपस्यपीति, न च कृत्रिमानुष्ठायिनः श्रमणभावो, न चाश्रमणस्यानुष्ठानं गुणवदिति, तदेवं निरुपधेर्दर्शनवतस्तपोज्ञानचरणानि सफलानौति स्थितमतो दर्शने यतितव्यं, दर्शनं च तत्त्वार्थश्रद्धानं, तत्त्वं चोत्पन्नापगतकलङ्काशेषपदार्थसत्ताव्यापिज्ञानैस्तीर्थकृद्भिर्यदभाषि, तदेव सूत्रानुगमायातेन सूत्रेण दर्शयति
से बेमि जे अईया जे य पडुपन्ना आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खन्ति एवं भासंति एवं पण्णविंति एवं परूविंति-सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा न अजावेयव्वा न परिचित्तव्वा न परियावेयब्वा न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे निइए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए, तंजहा-उद्विपसु वा अणुट्टिएसु
अनुक्रम [१३८]
SEXSAGAR
~70
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२६],नियुक्ति: [२२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सम्य०४
प्रत
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥१७८ ॥
उद्देशका
सूत्रांक [१२६]
दीप अनुक्रम [१३९]
RASADARA
वा उवट्टिएसु वा अणुवटिएसु वा उवरयदंडेसु वा अणुवरयदंडेसु वा सोवहिएसु वा अणोवहिपसु वा संजोगरपसु वा असंजोगरएसु वा, तच्चं चेयं तहा चेयं अस्सि
चेयं पवुच्चइ (सू० १२६) गौतमस्वाम्याह-यथा सोऽहं ब्रवीमि योऽहं तीर्थकरवचनावगततत्यः श्रद्धेयवचन इति, यदिवा शौद्धोदनिशिष्याभिमतक्षणिकरवच्युदासेनाह-येन मया पूर्वमभाणि सोऽहमद्यापि ब्रवीमि नापरो, यदिवा सेशब्दस्तच्छब्दार्थे यच्छ्रद्धाने सम्यक्त्वं भवति तदहं तत्त्वं ब्रवीमीति, येऽतीता:-अतिक्रान्ता ये च प्रत्युत्पन्नाः-वर्तमानकालभाविनो ये चागामिनः त एवं प्ररूपयन्तीति सम्बन्धः, तत्रातिकान्तास्तीर्थकृतः कालस्यानादित्वादनन्ता अतिकान्ता अनागता अप्यनम्ता आगामिकालस्यानन्तत्वात्तेषां च सर्वदेव भावादिति, वर्तमानतीर्थकृतां च प्रज्ञापकापेक्षितया अनवस्थितत्वे सत्यध्युत्कृष्टजघन्यपदिन एव कथ्यन्ते, तत्रोत्सर्गतः समयक्षेत्रसम्भविनः सप्तत्युत्तरशतं, तश्चैवं-पञ्चस्वपि विदेहेषु प्रत्येक द्वात्रिंशत्क्षेबात्मकत्वादेकैकस्मिन् द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशत् पञ्चस्वपि भरतेषु पश्चैवमरावतेष्वपीति, तत्र द्वात्रिंशत्पश्चभिर्गुणिताः षष्ट-घुत्तरशतं (१६०) भरतैरावतदशप्रक्षेपेण सप्तत्यधिक शतमिति, जघन्यतस्तु विंशतिः, सा चैवं-पञ्चस्वपि महाविदेहेषु महाविदेहान्तमहानद्युभयतटसनावात्तीर्थकृतां प्रत्येकं चत्वारः, तेऽपि पञ्चभिर्गुणिता विंशतिर्भरतैरावतयोस्त्वेकान्तसुषमादावभाव एवेति, अन्ये तु व्याचक्षते-मेरोः पूर्वापरविदेहयोरेकैकसद्भावान्महाविदेहे दावेव, ततः पञ्चस्वपि दशैवेति, तथा च ते
॥१७८॥
~714
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२६],नियुक्ति: [२२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२६]
दीप
आहा-"सत्तरसयमुकोसं इअरे दस समयखेत्तजिणमाणं । चोत्तीस पढमदीये अणंतरऽद्ध य ते दुगुणा इमे 'अर्हन्तो' अईन्ति पूजासत्कारादिकमिति, तथा ऐश्वर्याद्युपेता भगवन्तः, ते सर्व एव परप्रश्नावसरे एवमाचक्षते यदुत्तरत्र वक्ष्यते, वर्तमाननिर्देशस्योपलक्षणार्थत्वादिदमपि द्रष्टव्यम्-एवमाचचक्षिरे एवमाख्यास्यन्ति, एवं सामान्यतः सदेवमनुजाय परिषदि अर्द्धमागधया सर्वसत्त्वस्वभाषानुगामिन्या भाषया भाषन्ते, एवं प्रकर्षेण संशोत्यपनोदायान्ते-1 वासिनो जीवाजीवानवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षपदार्थान् ज्ञापयन्ति प्रज्ञापयन्ति, एवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगा बन्धहेतवः स्वपरभावेन सदसती तत्त्वं सामान्यविशेषात्मकमित्यादिना प्रकारेण प्ररूपयन्ति, एकार्थिकानि वैतानीति, किं तदेवमाचक्षते इति दर्शयति-यथा 'सर्वे प्राणाः' सर्व एव पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाश्चेन्द्रियबलोच्छासनिश्वासापुष्कलक्षणप्राणधारणात् प्राणाः, तथा सर्वाणि भवन्ति भविष्यन्त्यभवनिति ||
च भूतानि चतुर्दशभूतग्रामान्तःपातीनि, एवं सर्व एव जीवन्ति जीविष्यन्ति अजीविषुरिति जीवाः-नारकतिर्यग्नरामरलदिक्षणाश्चतुर्गतिकाः, तथा सर्व एव स्वकृतसातासातोदयसुखदुःखभाजः सत्त्वाः, एकार्था वैते शब्दाः 'तत्त्वभेदपर्यायः ।
प्रतिपादन मितिकृत्वेति, एते च सर्वेऽपि प्राणिनः पर्यायशब्दावेदिता न हन्तव्याः दण्डकशादिभिः नाज्ञापयितव्याः प्रसह्याभियोगदानतो न परिग्राह्या मृत्यदासदास्यादिममत्वपरिग्रहतो न परितापयितव्याः शारीरमानसपीडोसादनतो नापद्रावयितव्याः प्राणव्यपरोपणतः 'एषः' अनन्तरोक्तो 'धर्मों' दुर्गत्यर्गलासुगतिसोपानदेश्यः, अस्य च प्रधानपुरुपार्थत्वाद्विशेषणं दर्शयति-'शुद्ध' पापानुबन्धरहितः न शाक्यधिग्जातीनामिवैकेन्द्रियपश्चेन्द्रियवधानुमतिकलङ्काङ्किता,
अनुक्रम [१३९]
CAX
~72~
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२६],नियुक्ति: [२२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२६]
दीप
श्रीआचा- तथा 'नित्यः' अपच्युतिरूपः, पञ्चस्वपि विदेहेषु सदाभवनात्, तथा 'शाश्वतः शाश्वतगतिहेतुत्वात् यदिवा नित्यत्वाच्छा-1 सम्य०४ राङ्गवृत्तिःश्वतो, न तु नित्यं भूत्वा न भवति, भव्यत्ववत्, अभूत्वा च नित्यं भवति घटाभाववदिति, अयं तु त्रिकालावस्थायीति, (शी०) अमुं च 'लोक' जन्तुलोकं दुःखसागरावगार्ड ‘समेत्य' ज्ञात्वा तदुत्तरणाय 'खेदज्ञैः' जन्तुदुःखपरिच्छेत्तृभिः 'प्रवेदितः
उद्देशका ॥१७९॥
प्रतिपादित इति, एतच्च गौतमस्वामी स्वमनीषिकापरिहारेण शिष्यमतिस्थैर्यार्थ बभापे ॥ एनमेव सूत्रोक्तमर्थं नियुक्तिकारः सूत्रसंस्पर्शकेन गाथाद्वयेन दर्शयति
जे जिणवरा अईया जे संपइ जे अणागए काले। सब्वेवि ते अहिंसं वर्दिसु वदिहिति विवदिति ॥२२६॥ छप्पिय जीवनिकाए णोवि हणे णोऽवि अहणाविजा।नोऽवि अअणुमन्निजा सम्मत्तस्सेस निजुत्ती॥२२७॥ [चतुर्थेऽध्ययने प्रथमोद्देशकनियुक्तिः] गाथाद्वयमपि कण्ठ्यं । तीर्थकरोपदेशश्च परोपकारितया तत्स्वाभाव्यादेव
प्रवर्तमानो भास्करोदय इव प्रबोध्यविशेषनिरपेक्षतया प्रवर्त्तते(तत्)तद्यथेत्यादिना दर्शयति-तंजहा-उद्विएम पा' इत्यादि,8 दधर्मचरणायोद्यता उत्थिता-ज्ञानदर्शनचारित्रोद्योगवन्तः, तद्विपर्ययेणानुस्थिताः तेषु निमित्तभूतेषु तानुदिश्य भगवता
सर्ववेदिना त्रिजगत्पतिना धर्मः प्रवेदितः, एवं सर्वत्र लगयितव्यं, यदिवा उस्थितानुस्थितेषु द्रव्यतो निषण्णानिषण्णेषु, | तत्रैकादशसु गणधरेपूस्थितेष्वेव वीरवर्द्धमानस्वामिना धर्मः प्रवेदितः, तत उपस्थिता धम्मै शुश्रूषवो जिवृक्षवो वा तद्विपर्ययेणानुपस्थितास्तेष्विति, निमित्तसप्तमी चेयं, यथा चर्मणि दीपिनं हन्तीति, ननु च भावोपस्थितेषु चिलातिपु-I|| १७९ ।। त्रादिष्विव धर्मकथा युक्तिमती अनुपस्थितेषु तु के गुणं पुष्णाति?, अनुपस्थितेष्वपीन्द्रनागादिषु विचित्रत्वात्कर्म
अनुक्रम [१३९]
~73~
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१२६]
दीप
अनुक्रम [१३९ ]
99
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२६],निर्युक्ति: [२२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
परिणतेः क्षयोपशमापादनागुणवत्येवेति यत्किञ्चिदेतत् प्राणिन आत्मानं वा दण्डयतीति दण्डः, स च मनोवाक्कायलक्षणः, उपरतो दण्डो येषां ते तथा, तद्विपर्ययेणानुपरतदण्डाः, तेषूभयरूपेष्वपि तत्रोपरतदण्डेषु तत्स्थैर्यगुणान्तराधानार्थ देशना, इतरेषु तूपरतदण्डस्वार्थमिति, उपधीयते सङ्गृह्यत इत्युपधिः द्रव्यतो हिरण्यादिः भावतो माया, सह उपधिना वर्त्तन्त इति सोपधिकास्त द्विपर्ययेणानुपधिकास्तेष्विति, संयोगः-सम्बन्धः पुत्रकलत्रमित्रादिजनितस्तत्र रताः संयोगरतास्तद्विपर्ययेणैकत्वभावनाभाविता असंयोगरतास्तेष्विति, तदेवमुभयरूपेष्वपि यद्भगवता धर्मदेशनाऽकारि तत् 'तथ्यं' सत्यमेतदिति, चशब्दो नियमार्थः, तथ्यमेवैतद्भगवद्वचनं यथाप्ररूपितवस्तुसद्भावात्तथ्यता वचसो भवतीत्यतो वाच्यमपि तथैवेति दर्शयति तथा चैतद्वस्तु यथा भगवान् जगाद, यथा-सर्वे प्राणा न हन्तव्या इत्यादि, एवं सम्यग्दर्शनं श्रद्धानं विधेयम्, एतच्चास्मिन्नेव मौनीन्द्रप्रवचने सम्यगमोक्षमार्गविधायिनि समस्तदम्भप्रबन्धोपरते प्रकर्षेणोच्यते प्रोच्यत इति, न तु यथा अन्यत्र 'न हिंस्यात्सर्वभूतानी' त्यभिधायान्यत्र वाक्ये यज्ञपशुवधाभ्यनुज्ञानात् पूर्वोत्तरबाधेति ॥ तदेवं सम्यक्त्वस्वरूपमभिधाय तदवाप्तौ यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह
आइन नि ननिक्खिवे जाणित्तु धम्मं जहा तहा, दिट्ठेहिं निव्वेयं गच्छिज्जा, नो लोगस्सेसणं चरे ( सू० १२७ ) 'तत्' तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनमादाय गृहीत्वा तत्कार्याकरणतो 'न निहेति न गोपयेत् तथाविधसंसर्गा
For Parts Only
~74~
www.landbrary or
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२७],नियुक्ति : [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२७]
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥१८॥
दीप अनुक्रम [१४०]]
दिनिमित्तोत्थापितमिथ्यात्वोऽपि जीवसामर्थ्यगुणान्न त्यजेदपि, यथा वा शैवशाक्यादीनां गृहीत्वा ब्रतानि पुनरपि सम्यक व्रतेश्वरयागादिविधिना गुरुसमीपे निक्षिप्योत्सब्रजनं, एवं गुर्वादेः सकाशादवाप्य सम्यग्दर्शनं 'न निक्षिपेत् न त्यजेत् , किं कृत्वा-यथा तथाऽवस्थितं धर्म ज्ञात्वा श्रुतचारित्रात्मकमवगम्य, वस्तूनां वा धर्म-स्वभावमवबुध्येति । तदवगमे तु किं चापरं कुर्यादित्याह-दिहिं' इत्यादि, दृष्टैरिष्टानिष्टरूपानेवेदं गच्छेद्, विरागं कुर्यादित्यर्थः, तथाहिशब्दैः श्रुतैः रसैरास्वादितैर्गन्धेराधातैः स्पर्शः स्पृष्टैः सद्भिरेवं भावयेत्-यधा शुभेतरतापरिणामवशाद्भवतीत्यतः कस्तेषु रागो द्वेषो वेति । किं च--'नो लोयस्स' इत्यादि, 'लोकस्य प्राणिगणस्यैषणा-अन्वेषणा इष्टेषु शब्दादिषु प्रवृत्तिरनिष्टेषु |तु हेयबुद्धिस्ता 'न चरेत्' न विदध्यात् ।। यस्य चैषा लोकैषणा नास्ति तस्यान्याप्यप्रशस्ता मतिर्नास्तीति दर्शयति
जस्स नत्थि इमा जाई अण्णा तस्स कओ सिया?, दिटुं सुयं मयं विषणायं जं एवं
परिकहिजइ, समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाई पकप्पति (सू० १२८) यस्य मुमुक्षोरेपा ज्ञातिः-लोकैषणाबुद्धिः 'नास्ति' न विद्यते, तस्यान्या सावद्यारम्भप्रवृत्तिः कुतः स्यात् ?, इदमुक्त || भवति-भोगेच्छारूपां लोकपणां परिजिहीर्षों व सायद्यानुष्ठानप्रवृत्तिरुपजायते, तदर्थत्वात्तस्या इति, यदिवा 'इमा' अनन्तरोक्तत्वात् प्रत्यक्षा सम्यक्त्वज्ञातिः प्राणिनो न हन्तव्या इति वा यस्य न विद्यते तस्यान्या अविवेकिनी बुद्धिः ॥१८॥ कुमार्गसावद्यानुष्ठानपरिहारद्वारेण कुतः स्यात् ।। शिष्यमतिस्थैर्यार्थमाह-दिडमित्यादि, यदेतन्मया परिकथ्यते तत्स-IA
~754
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१२८],नियुक्ति : [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२८]
दीप अनुक्रम [१४१]
बः केवलज्ञानावलोकेन दृष्टं, ततः शुश्रुषुभिः श्रुतं, लघुकर्मणा भव्यानां मतं, ज्ञानावरणीयक्षयोपशमाद्विशेषेण ज्ञातं | &|| विज्ञातम् , अतो भवताऽपि सम्यक्त्वादिके मत्कथिते यत्नवता भवितव्यमिति । ये पुनर्यथोक्तकारिणो न स्युः ते कथम्भूता भवेयुरित्याह-'समेमाणा' इत्यादि, तस्मिन्नेव मनुष्यादिजन्मनि 'शाम्यन्तो' गायेनात्यर्थमासेवां कुर्वन्तः तथा प्रलीयमानाः' मनोजेन्द्रियार्थेषु पौनःपुन्येनैकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिका जाति प्रकल्पयन्ति, संसाराविच्छित्तिं विदधतीत्यर्थः॥ यद्येवमविदितवेद्याः साम्प्रतक्षिणो यथाजन्मकृतरतय इन्द्रियार्थेषु प्रलीनाः पौनःपुन्येन जन्मादिकृतसन्धाना जन्तवस्ततः किं कर्त्तव्यमित्याह
अहो अराओ य जयमाणे धीरे सया आगयपषणाणे पमत्ते बहिया पास अप्पमत्ते
सया परिक्कमिजासि तिबेमि (सू० १२९) ॥ सम्यक्त्वमध्ययने प्रथमोद्देशकः ४-१॥ अहवरात्रि च यतमान एवं यत्नवानेव मोक्षाध्वनि 'धीर' परीपहोपसर्गाक्षोभ्यः 'सदा सर्वकालम् 'आगतं' स्वीकृत 'प्रज्ञानं' सदसद्विवेको यस्य स तथा, 'प्रमत्तान्' असंयतान् परतीर्थिकाम्या धर्मादहियवस्थितान् पश्य, ताश्च तथा-1 भूतान् दृष्ट्वा किं कुर्यादित्याह-अप्पमत्ते' इत्यादि, अप्रमत्तः सन्निद्राविकथादिप्रमादरहितोऽक्षिनिमेपोन्मेषादावपि सदोपयुक्तः पराक्रमेथाः कर्मरिपून मोक्षाध्वनि वा । इतिरधिकारसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत् । इति सम्यक्त्वाध्ययने प्रथमोद्देशकटीका परिसमाप्ता।
~76~
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१३०]
दीप
अनुक्रम [१४२ ]
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३०],निर्युक्तिः [२२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ १८१ ॥
ॐ
99
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः)
उक्तः प्रथमोद्देशकः । साम्प्रतं द्वितीयव्याख्या प्रतन्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इह अनन्तरोदेश के सम्यग्वादः प्रतिपादितः, स च प्रत्यनीकमिथ्यावादन्युदासेनात्मलाभं लभते, व्युदासश्च न परिज्ञानमन्तरेण, परिज्ञानं च न विचारमृते, अतो मिथ्यावादभूततीर्थिक मत विचारणायेदमुपक्रम्यते अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योदेशकस्येदमादिसूत्रं - 'जे आसवा' इत्यादि, यदिवेह सम्यक्त्वमधिकृतं तच्च सप्तपदार्थश्रद्धानात्मकं तत्र मुमुक्षुणाऽवगतशस्त्रपरिज्ञाजीवाजीवपदार्थेन संसारमोक्षकारणे निर्णेतव्ये, तत्र संसारकारणमात्रवस्तग्रहणाच्च बन्धग्रहणं, मोक्षकारणं तु निर्जरा तग्रहणाच्च संवरस्तत्कार्यभूतश्च मोक्षः सूचितो भवतीत्यत आश्रवनिर्जरे संसारमोक्षकारणभूते सम्यक्त्वविचारायाते दर्शयितुमाह
जे आसवा ते परिस्तवा जे परिस्सवा ते आसवा, जें अणासवा ते अपरिस्सवा जे अपरिस्सवा ते अणासवा, एए पए संबुज्झमाणे लोयं च आणाए अभिसमिच्चा पुढो पवेइयं ( सू० १३० )
'य' इति सामान्यनिर्देशः, आश्रवत्यष्टप्रकारं कर्म यैरारम्भैस्ते आस्रवाः, परिः समन्तात्स्रवति - गलति यैरनुष्ठानविशेषैस्ते परिस्रवाः य एवासवाः-कर्म्मबन्धस्थानानि त एव परिस्रवाः कर्मनिर्जरास्पदानि इदमुक्तं भवति यानि इतरजनाचरितानि खगङ्गनादीनि सुखकारणतया तानि कर्म्मबन्धहेतुत्वादास्रवाः, पुनस्तान्येव तत्त्वविदां विषयसुखपरामुखानां निःसारतया संसारसरणिदेश्यानीतिकृत्वा वैराग्यजनकानि अतः परिस्रवाः - निर्जरास्थानानि । सर्ववस्तूना
Educatin internation
चतुर्थ अध्ययने द्वितीय उद्देशकः 'धर्मप्रवादी- परीक्षा आरब्धः,
For Pale Only
~77~
सम्य० ४
उद्देशका २
॥ १८१ ॥
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१३०]
दीप
अनुक्रम [१४२ ]
99
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३०],निर्युक्ति: [२२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
मनैकान्तिकतां दर्शयितुमेतदेव विपर्ययेणाह -- 'जे परिस्सवा' इत्यादि, य एव परिश्रवाः - निर्जरास्थानानि - अर्हत्साधुतपश्चरणदशविधचक्रवालसामाचार्यनुष्ठानादीनि तान्येव कम्मोदयावष्टब्धशुभाध्यवसायस्य दुर्गतिमार्गप्रवृत्तसार्थवाहस्य जन्तोर्महाशातनावतः सातर्द्धिरसगारवप्रवणस्यास्रवा भवन्ति पापोपादानकारणानि जायन्ते इदमुक्तं भवति यावन्ति कर्मनिर्जरार्थं संयमस्थानानि तद्बन्धनायासंयमस्थानाम्यपि तावन्त्येव, उक्तं च---"यथाप्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासान्निर्वाणमुखहेतवः ॥ १ ॥” तथाहि रागद्वेषवासितान्तःकरणस्य विषयसुखोन्मुखस्य दुष्टाशयत्वात्सर्वं संसाराय, पिचुमन्दरसवासितास्यस्य दुग्धशर्करादिकटुकत्वापत्तिवदिति, सम्यग्दृष्टस्तु विदितसंसारोदम्बतः न्यक्कृतविषयाभिलाषस्य सर्वमशुचि दुःखकारणमिति च भावयतः सञ्जातसंवेगस्येतरजनसंसारकारणमपि मोक्षायेति भावार्थः । पुनरेतदेव गतप्रत्यागतसूत्रं सप्रतिषेधमाह - 'जे अणासवा' इत्यादि, प्रसज्यप्रतिषेधस्य क्रियाप्रतिषेधपर्यवसानतया परिस्रवा इत्यनेन सह सम्बन्धाभावात् पर्युदासोऽयम्, आस्रवेभ्योऽन्येऽनास्रवाः - प्रतविशेषाः, तेऽपि कम्र्मोदयादशुभाध्यवसायिनोऽपरिस्रवाः कर्म्मणः, कोङ्कणार्यप्रभृतीनामिवेति, तथाऽपरिस्रवाः - पापोपादानकारणानि केनचि - दुपाधिना प्रवचनोपकारादिना क्रियमाणाः कणवीरलता भ्रामक क्षुल्लकस्येवानास्स्रवाः - कर्म्मबन्धनानि न भवन्ति, यदिवा आस्रवन्तीत्यास्रवाः, पचाद्यच, एवं परिस्रवन्तीति परिस्रवाः, अत्र चतुर्भङ्गिका-तत्र मिथ्यात्वाविरतिप्रमाद कषाययोगैर्य | एव कर्म्मणामास्त्रया:-बन्धकाः त एवापरेषां परिस्रवाः-निर्जरकाः, एते च प्रथमभङ्गपतिताः सर्वेऽपि संसारिणञ्चतुर्गतिकाः, सर्वेषां प्रतिक्षणमुभयसद्भावात्, तथा ये आस्रवास्तेऽपरिस्रवा इति शून्योऽयं द्वितीयभङ्गको, बन्धस्य शाटावि
For Parts Only
~78~
www.adra.org
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३०],नियुक्ति : [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३०]
दीप अनुक्रम [१४२]
नाभावित्वाद्, एवं येऽनासवास्ते परिस्रवाः, एते चायोगिकेवलिनस्तृतीयभङ्गपतिताः, चतुर्थभङ्गपतितास्तु सिद्धाः, ते-18
सम्य० रावृत्तिःतावामनानववादपरिस्रवत्वाचेति, अत्र चाद्यन्तभङ्गको सूत्रोपात्ती, तदुपादाने च मध्योपादानस्यावश्यंभावित्वात् मध्यभ-II (शी०) ङ्गकद्वयग्रहणं द्रष्टव्यमिति । यद्येवं ततः किमित्याह-'एए पए' इत्यादि, एतानि-अनन्तरोक्तानि पद्यते-गम्यते येभ्यो
उद्देशकार धस्तानि पदानि, तद्यथा-ये आस्रवा इत्यादीनि, परस्य चार्थावगत्यर्थे शब्दप्रयोगादेतपदवाच्यानर्थीच सम्यगू-अविपर्या-1 ।।१८२॥
सेन बुध्यमानस्तथा 'लोक' जन्तुगणमानवद्वारायातेन कर्मणा बध्यमानं तपश्चरणादिना च मुच्यमानमाज्ञया-तीर्थकरप्रणीतागमानुसारेणाभिसमेत्य-आभिमुख्येन सम्यक् परिच्छिद्य चशब्दो भिन्नक्रमः पृथक् प्रवेदितं चाभिसमेत्य पृथगा-II सवोपादानं निर्जरोपादानं चेत्येतच्च ज्ञात्वा को नाम धर्मचरणं प्रति नोद्यच्छेदिति ?, कथं प्रवेदितमिति चेत्, तदुच्यते, आस्रवस्तावज्ज्ञानप्रत्यनीकतया ज्ञाननिहवेन ज्ञानान्तरायेण ज्ञानप्रद्वेषेण ज्ञानात्याशातनया ज्ञानविसंवादेन ज्ञानावरणीयं कर्म वध्यते, एवं दर्शनप्रत्यनीकतया यावद्दर्शनविसंवादेन दर्शनावरणीयं कर्म बध्यते, तथा प्राणिनामनुकम्पनतया भूतानुकम्पनतया जीवानुकम्पनतया सत्त्वानुकम्पनत्वेन बहूनां प्राणिनामदुःखोसादनतया अशोचनतया अजूरण-1 तया अपीडनतया अपरितापनतया सातावेदनीयं कर्म वध्यते, एतद्विपर्ययाचासातावेदनीयमिति, तथाऽनन्तानुवन्ध्यु-1 स्कटतया तीव्रदर्शनमोहनीयतया प्रबलचारित्रमोहनीयसद्भावान्मोहनीयं कर्म वध्यते, महारम्भतया महापरिग्रहतया पञ्चेन्द्रियवधात् कुणिमाहारेण नरकायुष्कं बध्यते, मायावितया अनृतवादेन कूटतुलाकूटमानव्यवहारात्तिर्यगायुर्वध्यते, ४॥ १८२॥ प्रकृतिविनीततया सानुकोशतया अमात्सर्यान्मनुष्यायुष्कं, सरागसंयमेन देशविरत्या बालतपसा अकामनिर्जरया देवायु
~79~
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३०],नियुक्ति : [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३०]
दीप
कमिति, काय तया भाव तया भाषर्जुतया अविसंवादनयोगेन शुभनाम बध्यते, विपर्ययाच विपर्यय इति, जातिकुलबलरूपतप:श्रुतलाभैश्वर्येमदाभावादुर्गोत्रं, जात्यादिमदात् परपरिवादाच्च नीचैर्गोत्रं, दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायविधानादान्तरायिकं कर्म वध्यते, एते ह्यास्रवार, साम्प्रतं परिस्रवाः प्रतिपाद्यन्ते-अनशनादि सबाह्याभ्यन्तरं तप इत्यादि, एवमास्रवकनिर्जरकाः सप्रभेदा जन्तवो वाच्या, सर्वेऽपि च जीवादयः पदार्था मोक्षावसाना वाच्याः। एतानि |च पदानि सम्बुध्यमानैस्तीर्थकरगणधरैर्लोकमभिसमेत्य पृथक् पृथक् प्रवेदितम्, अन्योऽपि तदाज्ञानुसारी चतुर्दशपूर्वविदादिः सत्त्वहिताय परेभ्य आवेदयतीत्येतद्दर्शयितुमाह
आघाइ नाणी इह माणवाणं संसारपडिवपणाणं संबुज्झमाणाणं विन्नाणपत्ताणं, अहावि संता अदुवा पमत्ता अहा सच्चमिणं तिबेमि, नाणागमो मच्चमुहस्स अस्थि, इच्छा
पणीया वंकानिकेया कालगहिया निचयनिविट्ठा पुढो पुढो जाई पकप्पयंति (सू० १३१) ज्ञानं सकलपदार्थाविर्भावक विद्यते यस्थासौ ज्ञानी स 'आख्याति' आचष्टे 'इहे'ति प्रबचने केषां?-मानवाना, सर्वसंवरचारित्रार्हत्वात्तेषाम् , अथवोपलक्षणं चैतद्देवादीनां, तत्रापि केवल्यादिव्युदासाय विशेषणमाह-संसार' इत्यादि, संसार-चतुर्गतिलक्षणं प्रतिपन्नाः संसारप्रतिपन्नाः, तत्रापि ये धर्म भोत्स्यन्ते ग्रहीयन्ते च मुनिसुव्रतस्वामिघोटकदृष्टान्तेन तेषामेवाख्यातीत्येतद्दर्शयति-'सम्बुध्यमानानां' यथोपदिष्टं धर्म सम्यगवबुध्यमानानां, छद्मस्थेन त्वज्ञात
अनुक्रम [१४४]
~80~
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१३१]
दीप
अनुक्रम [१४४]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३१],निर्युक्तिः [२२७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
(शी०)
॥ १८३ ॥
श्री आचा- ४ बुध्यमानेतरविशेषेण यादृग्भूतानां कथयितव्यं तान् सूत्रेणैव दर्शयति--' विज्ञानप्राप्तानां' हिताहितप्राप्तिपरिहाराध्यव राङ्गवृत्तिः सायो विज्ञानं तत्प्राप्ता विज्ञानप्राप्ताः समस्तपर्याप्तिभिः पर्याप्ताः, संज्ञिन इत्यर्थः, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - "आघाइ धम्मं खलु से जीवाणं, तंजहा - संसारपडिवन्नाणं माणुस भवस्थाणं आरंभविणईणं दुक्खुब्वेअसुहेसगाणं धम्मसवणगवेसयाणं सुस्सूसमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं विष्णाणपत्ताणं" एतच्च प्रायो गतार्थमेव, नवरमारम्भविनयिनामित्यारम्भविनयः- आरम्भाभावः स विद्यते येषामिति मत्वर्थीयस्तेषामिति । यथा च ज्ञानी धर्म्ममाचष्टे तथा दर्शयति- 'अट्टावि' इत्यादि, विज्ञानं प्राप्ता धर्म्म कथ्यमानं कुतश्चिन्निमित्तादार्त्ता अपि सन्तः चिलातिपुत्रादय इव अथवा प्रमत्ता विष| याभिष्वङ्गादिना शालिभद्रादय इव तथाविधकर्म्मक्षयोपशमापत्तेर्यथा प्रतिपद्यन्ते तथाऽऽचष्टे - यदिवाऽऽर्त्ताः -- दुःखिनः | प्रमत्ताः- सुखिनः, तेऽपि प्रतिपद्यन्ते धर्म्म, किं पुनरपरे ?, अथवा आर्त्ताः- रागद्वेषोदयेन प्रमत्ता विषयैः ते च तीर्थिका गृहस्था वा संसारकान्तारं विशन्तः कथं भवतां विज्ञातज्ञेयानां करुणास्पदानां रागद्वेषविषयाभिलाषोन्मूलनाय न प्रभवन्ति । एतच्चान्यधा मा संस्था इति दर्शयितुमाह-'अहा सच्च' मित्यादि, इदं यन्मया कथितं कथ्यमानं च तद्यथासत्यं, याथातथ्यमित्यर्थः इत्येतदहं ब्रवीमि यथा दुर्लभमवाप्य सम्यक्त्वं चारित्रपरिणामं वा प्रमादो न कार्यः स्यात्किमालम्ब्य प्रमादो न कार्यस्तदाह - 'नाणागमो' इत्यादि, न ह्यनागमो मृत्योर्मुखस्य कस्यचिदपि संसारोदरवर्त्तिनोऽस्तीति, उक्तं च- " वदत यदीह कश्चिदनुसंततसुखपरिभोगलालितः । प्रयलशतपरोऽपि विगतव्यथमायुरवाप्तवान्नरः ॥ १ ॥ न खलु नरः सुरौधसिद्धासुर किन्नर नायकोऽपि यः । सोऽपि कृतान्तदन्तकुलिशाक्रमेण कुशितो न नश्यति ॥२॥”
Eucation Internation
For Parts Only
~81~
सम्य० ४
उद्देशकार
॥ १८३ ॥
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१३१]
दीप
अनुक्रम [१४४ ]
99
[भाग-2] “आचार” मूलं - अंगसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३१],निर्युक्ति: [२२७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र - [०१] अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
तथोपायोऽपि मृत्युमुखप्रतिषेधस्य न कश्चिदस्तीति उक्तं च--" नश्यति नौति याति वितनोति करोति रसायनक्रियां, | चरति गुरुन्नतानि विवराण्यपि विशति विशेषकातरः । तपति तपांसि खादति मितानि करोति च मन्त्रसाधनं, तदपि कृतान्तदन्तयन्त्रक्रक चक्र मणैर्विदार्यते ॥ १ ॥” ये पुनर्विषयकषायाभिष्वङ्गात् प्रमत्ता धर्मं नावबुध्यन्ते ते किम्भूता भवन्तीत्याह - 'इच्छा' इत्यादि, इन्द्रियमनोविषयानुकूला प्रवृत्तिरिहेच्छा तया विषयाभिमुखमभिकर्म्मबन्धं संसाराभिमुखं वा प्रकर्षेण नीता इच्छाप्रणीताः, ये चैवम्भूतास्ते 'वंकानिकेता' वङ्कस्य असंयमस्य आ-मर्यादया संयमावधिभूतया निकेतभूताः- आश्रया वङ्कानिकेताः वङ्को वा निकेतो येषां ते वङ्कानिकेताः, पूर्वपदस्य दीर्घत्वं, ये चैवम्भूतास्ते 'कालगृहीताः कालेन -मृत्युना गृहीताः कालगृहीताः, पौनःपुन्यमरणभाज इत्यर्थः, धर्मचरणाय वा गृहीतः - अभिसन्धितः कालो यैस्ते कालगृहीताः, आहिताग्निदर्शनादापत्वाद्वा निष्ठान्तस्य परनिपातः, तथाहि —पाश्चात्ये वयसि परुत्परारि वा अपत्यपरिणयनोत्तरकालं वा धर्मै करिष्याम इत्येवं गृहीतकालाः, ये चैवम्भूतास्ते निचये निविष्टा-निचये कर्म्मनिचये तदुपादाने वा सावद्यारम्भनिचये निविष्टाः - अध्युपपन्नाः, ये चेच्छाप्रणीता वङ्कानिकेताः कालगृहीता निचये निविष्टास्ते तद्धर्माणः किमपरं कुर्वन्तीति दर्शयितुमाह- 'पुढो पुढो' इत्यादि, पृथक्पृथगेकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिकां जातिमनेकशः 'प्रकल्पयन्ति' प्रकुर्वन्ति, पाठान्तरं वा 'एत्थ मोहे पुणो पुणो' 'अत्र' अस्मिन्निच्छाप्रणीतादिके हृषीकानुकूले मोहे कर्म्मरूपे वा मोहे निमग्नाः पुनः पुनस्तत्कुर्वन्ति येन तदप्रच्युतिः स्यात् ॥ तदप्रच्युतौ च किं स्यादित्याह-इहमेगेसिं तत्थ तत्थ संथवो भवइ अहोववाइए फासे पडिसंवेयंति, चिट्ठ कम्मेहिं
Education Internation
For Parts Only
~82~
wor
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३२],नियुक्ति : [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सम्य०४
प्रत
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥१८४॥
उद्देशकार
सूत्राक [१३२]]
दीप अनुक्रम [१४५]
कूरेहिं चिटुं परिचिटइ, अचिढ़े कूरेहि कम्मेहिं नो चिटुं परिचिट्टइ, एगे वयंति अदु
वावि नाणी नाणी वयंति अदुवावि एगे (सू० १३२) 'इह' अस्सिंश्चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके 'एकेषां' मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषायवतां 'तत्र तत्र' नरकतिर्यग्गत्यादिषु यातनास्थानकेषु 'संस्तवः' परिचयो भूयोभूयोगमनाद्भवति, ततः किमित्याह-'अहोववाइए' इत्यादि, त एवमिच्छया प्रणीतत्वादिन्द्रियवशगास्तद्वशित्वात्तदनुकूलमाचरन्तो नरकादियातनास्थानजातसंस्तवास्तीथिका अप्यौदेशिकादि निर्दोषमाचक्षाणा 'अधऔपपातिकान् नरकादिभवान् 'स्पर्शान्' दुःखानुभवान् 'प्रतिसंवेदयन्ति' अनुभवन्ति, तथाहि-लोकायतिका अवते-"पिव खाद च चारुलोचने !, यदतीतं वरगात्रि! तन्न ते । न हि भीरु ! गतं निवर्त्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥१॥" वैशेषिका अपि सावद्ययोगारम्भिणः, तथाहि ते भाषन्ते–'अभिषेचनोपवासब्रह्मचर्यगुरुकुलवासवानप्रस्थयज्ञदानमो(प्रो)क्षणदिनक्षत्रमन्त्रकालनियमाः' इत्यादि, अन्येऽपि सावद्ययोगानुपायिनोऽनया दिशा वाच्याः, स्यात् किं सर्वोऽपीच्छाप्रणीतादिर्यावतत्र तत्र कृतसंस्तवोऽधऔपपातिकान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयत्याहोस्वित्कश्चिदेव
तद्योग्यकर्मकार्येवानुभवति !, न सर्व इति दर्शयति-चिटुं' इत्यादि, चिट्ठ-भृशमत्यर्थ 'क्रूरैः' वधबन्धादिभिः 'कमार्मभिः' क्रियाभिः चिढ'मिति भृशमत्यर्थमेव विरूपां दशां वैतरणीतरणासिपत्रवनपत्रपाताभिघातशाल्मलीवृक्षालिङ्ग
नादिजनितामनुभवंस्तमस्तमादिस्थानेषु परितिष्ठति, यस्तु नात्यर्थे हिंसादिभिः कर्मभिर्वर्त्तते सोऽत्यन्तवेदनानिचिते
M॥१८४॥
~83~
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३२],नियुक्ति : [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३२]
दीप
वपि नरकेषु नोत्पद्यते, स्थात्-क एवं वदतीत्याह-एगे वयंती' त्यादि, 'एके' चतुर्दशपूर्वविदादयो 'वदन्ति' ब्रुवतेऽथवाऽपि ज्ञानी वदति, ज्ञान-सकलपदार्थाविर्भावकम् अस्यास्तीति ज्ञानी, स चैतद् ब्रवीति, यदिव्यज्ञानी केवली भाषते श्रुतकेवलिनोऽपि तदेव भाषन्ते, यच्च श्रुतकेवलिनो भाषन्ते निरावरणज्ञानिनोऽपि तदेव वदन्तीत्येतद्गतप्रत्यागतसूत्रेण दर्शयति-'नाणी' इत्यादि, 'ज्ञानिनः' केवलिनो यद्वदन्त्यथवाऽप्येके-श्रुतकेवलिनो यद्वदन्ति तद्यथार्थभाषिवादेकमेव, एकेषां सर्वार्थप्रत्यक्षवादपरेषां तदुपदेशप्रवृत्तेरिति, वक्ष्यमाणेऽप्येकवाक्यतेति । तदाह
आवंती केयावंती लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवायं वयंति, से दिटुं च णे सुयं च णे मयं च णे विण्णायं च णे उई अहं तिरियं दिसासु सवओ सुपडिलेहियं च णे-सव्वे पाणा सव्वे जीवा सव्वे भूया सव्वे सत्ता हन्तव्वा अजावेयव्वा परियावेयव्वा परिघेत्तव्वा उद्देवयव्वा, इत्थवि जाणह नस्थित्थ दोसो अणारियवयणमेयं, तत्थ जे आरिआ ते एवं वयासी-से दुद्दि, च मे दुस्सुयं च मे दुम्मयं च मे दुविण्णायं च भे उड्डे अहं तिरियं दिसासु सव्वओ दुप्पडिलेहियं च भे, जं णं तुब्भे एवं आइक्खह एवं भासह एवं परूवेह एवं पण्णवेह-सव्वे पाणा ४
अनुक्रम [१४५]
~844
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३३],नियुक्ति : [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सम्य०४
प्रत
सूत्रांक
[१३३]
दीप अनुक्रम [१४६]
श्रीआचा
हंतव्वा ५, इत्थवि जाणह नत्थित्थ दोसो, अणारियवयणमेयं, वयं पुण एवमाइक्खामो राङ्गवृत्तिः (शी०) एवं भासामो एवं परूवेमो एवं पण्णवेमो-सव्वे पाणा ४ न हंतव्वा १ न अज्जावेयव्वा
उद्देशकार २ न परिचित्तव्वा ३ न परियावेयव्वा ४ न उद्दवेयव्वा ५, इत्थवि जाणह नत्थित्थ ॥१८५॥
दोसो, आयरियवयणमेयं पुव्वं निकाय समयं पत्तेयं पत्तेयं पुच्छिस्सामि, हंभो पवाइया! किं भे सायं दुक्खं असायं? समिया पडिवण्णे यावि एवं बूया-सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सब्बेसि सत्ताणं असायं अपरिनिव्वाणं
महब्भयं दुक्खं तिबेमि (सू० १३३)॥ चतुर्थाध्ययने द्वितीय उद्देशकः ४-२॥ 'आवन्ती'ति यावन्तः 'केआवन्तीति केचन 'लोके' मनुष्यलोके 'श्रमणाः' पाण्डिकाः 'ब्राह्मणा' द्विजातयः पृथक्पृथग् विरुद्धो वादो विवादस्तं वदन्ति, एतदुक्तं भवति-यावन्तः केचन परलोकं ज्ञीप्सबस्ते आत्मीयदर्शनानुरागितया है
पाराक्यं दर्शनमपवदन्तो विवदन्ते, तथाहि-भागवता ब्रुवते-"पञ्चविंशतितत्त्वपरिज्ञानान्मोक्षा, सर्वव्याप्यात्मा निद क्रियो निर्गुणश्चैतन्यलक्षणो, निर्विशेष सामान्यं तत्त्व"मिति, वैशेषिकास्तु भाषन्ते-"द्रव्यादिषट्पदार्थपरिज्ञाना- ॥१८५॥ न्मोक्षः, समवायिज्ञानगुणेनेच्छाप्रयत्नद्वेषादिभिश्च गुणगुणवानात्मा, परसरनिरपेक्षं सामान्यविशेषात्मकं तत्त्व"मिति
~85
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३३],नियुक्ति : [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [१४६]
शाक्यास्तु वदन्ति-"यथा परलोकानुयाय्यात्मैव न विद्यते, निःसामान्य वस्तु क्षणिक "ति, मीमांसकास्त मोक्षद सर्वज्ञाभावेन व्यवस्थिता इति, तथा केपाश्चित् पृथिव्यादय एकेन्द्रिया जीवा न भवन्ति, अपरे बनस्पतीनामप्यचेत|नतामाहुः, तथा द्वीन्द्रियादीनामपि कृम्यादीनां न जन्तुस्वभावं प्रतिपद्यन्ते, तद्भावे वा न तद्वधे बन्धोऽल्पबन्धता वेति, तथा हिंसायामपि भिन्नवाक्यता, तदुक्तम्-प्राणी प्राणिज्ञानं घातकचित्तं च तद्गता चेष्टा । प्राणैश्च विप्रयोगः। पञ्चभिरापद्यते हिंसा ॥१॥" इत्येवमादिक औद्देशिकपरिभोगाभ्यनुज्ञादिकश्च विरुद्धो वादः स्वत एवाभ्यूह्यः । यदिवा ब्राह्मणाः श्रमणा धर्मविरुद्धं वादं यद्वदन्ति तत्सूत्रेणैव दर्शयति-से दिहं चणे इत्यादि यावत् 'नत्थित्थ दोसो'त्ति, |'से'त्ति तच्छब्दार्थे यदहं वक्ष्ये तत् 'दृष्टम्' उपलब्ध दिव्यज्ञानेनास्माभिरस्माकं वा सम्बन्धिना तीर्थकृता आगमप्रणा-|| यकेन चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, श्रुतं चास्माभिर्गुर्वादेः सकाशात् , अस्मद्गुरुशिष्यैर्वा तदन्तेवासिभिर्वा मतम्अभिमतं युक्तियुक्तत्वादस्माकमस्मतीर्थकराणां वा विज्ञातं च तत्त्वभेदपर्यायैरस्माभिरस्मत्तीर्थकरेण वा, स्वतो न परोपदेशदानेन, एतच्चोर्ध्वाधस्तियक्षु दशस्वपि दिक्षु सर्वतः सर्वैः-प्रत्यक्षानुमानोपमानागमार्थापत्त्यादिभिः प्रकारैः सुष्टु प्रत्युपेक्षितंच-पर्यालोचितं च, मनःप्रणिधानादिना अस्माभिरस्मत्तीर्थकरेण वा, किं तदित्याह-सर्वे प्राणाः सर्वे जीवाः सर्वे भूताः सर्वे सत्त्वा हन्तव्या आज्ञापयितव्याः परिगृहीतव्याः परितापयितव्या अपद्रापयितव्याः, 'अत्रापि धर्मचिन्तायामप्येवं जानीथ, यथा नास्त्यत्र यागार्थ देवतोपयाचितकतया वा प्राणिहननादौ 'दोषः' पापानुबन्ध इति, एवं यावन्तः केचन पाषण्डिका औद्देशिकभोजिनो ब्राह्मणा वा धर्मविरुद्धं परलोकविरुद्धं वा वादं भाषन्ते । अयं
SARSAADस्टस
RE
~86
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३३],नियुक्ति : [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३३]]
दीप अनुक्रम [१४६]
श्रीआचा-बच जीवोपमर्दकत्वात् पापानुबन्धी अनार्यप्रणीत इति, आह च-आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्यः इत्यार्या- सम्य०४ राङ्गवृत्तिः स्तद्विपर्यासादनार्याः-क्रूरकर्माणस्तेषां प्राण्युपघातकारीदं वचनं, ये तु तथाभूता न ते किम्भूतं प्रज्ञापय(शी) न्तीत्याह-तत्थ' इत्यादि, 'तत्रे'ति वाक्योपन्यासार्थे निर्धारणे था, ये ते आर्या देशभाषाचारित्रार्यास्त
उद्देशका एवमवादिषुर्यथा यत्तदनन्तरोक्तं दुईष्टमेतहुष्टं दृष्टं दुर्दष्टं 'भे' युस्माभिर्युष्मत्तीर्थकरेण वा, एवं यावदुष्यत्युपेक्षितमिति । तदेवं दुर्दष्टादिकं प्रतिपाद्य दुष्प्रज्ञापनानुवादद्वारेण तदभ्युपगमे दोषाविष्करणमाह-'जण'मित्यादि, णमिति वाक्यालङ्कारे, यदेतद्वक्ष्यमाणं यूयमेवमाचध्वमित्यादि यावदत्रापि यागोपहारादौ जानीथ यूयं यथा नास्त्येवात्र-प्राण्यु
पमर्दानुष्ठाने दोषः-पापानुबन्ध इति, तदेवं परवादे दोषाविर्भावनेन धर्मविरुद्धतामाविर्भाव्य स्वमतवादमार्या आवि-15 गर्भावयन्ति-'वय' मित्यादि, पुन शब्दः पूर्वस्माद्विशेषमाह, वयं पुनर्यथा धर्मविरुद्धवादो न भवति तथा प्रज्ञापयाम | इति, तान्येष पदानि सप्रतिषेधानि हन्तब्यादीनि यावन्न केवलमत्र-अस्मदीये वचने नास्ति दोषोऽत्रापि-अधिकारे जानीथ
यूयं यथा 'अत्र' हननादिप्रतिषेधविधी नास्ति दोषः-पापानुबन्धः, सावधारणत्वाद्वाक्यस्य नास्त्येव दोषः, प्राण्युपधातिप्रतिषेधाचार्यवचनमेतत्, एवमुक्ते सति ते पापण्डिका ऊचुः-भवदीयमार्यवचनमस्मदीयं बनायमित्येतन्निरन्तराः
सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, युक्तिविकलत्वात् , तदत्राचार्यों यथा परमतस्यानार्यता स्यात्तथा दिदर्शयिषुः स्ववाग्यन्त्रिता वादिनो न विचलयिष्यन्तीतिकृत्वा प्रत्येकमतप्रच्छनार्थमाह-'पुवं मित्यादि, 'पूर्वम् आदावेव 'समयम्' आगमं यद्यदीयाग
H ॥१८६॥ हि मेऽभिहितं तत् 'निकाच्य' व्यवस्थाप्य पुनस्तद्विरूपापादनेन परमतानार्यता प्रतिपाद्येत्यतस्तदेव परमतं प्रश्नयति,
~87
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३३],नियुक्ति : [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
*%
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [१४६]
यदिवा पूर्व प्राश्निकान्निकाच्य ततः पाण्डिकान् प्रश्नयितुमाह-पत्तेय' मित्यादि, एकमेकं प्रति प्रत्येक भोः प्रावादुकाः! भवतः प्रश्नयिष्यामि, किं 'भे' युष्माकं 'सात' मनआहादकारि दुःखमुतासात-मन:प्रतिकूलं, एवं पृष्टाः सन्तो यदि सातमित्येवं ब्रूयुः ततः प्रत्यक्षागमलोकवाधा स्याद्, अथ चासातमित्येवं ब्रूयुः ततः 'समिया' सम्यक् प्रतिपन्नांस्तान् प्रावादुकान् स्ववाग्यन्त्रितानप्येवं ब्रूयात्-'अपिः' सम्भावने, सम्भाव्यते एतगणनं-यथा न केवलं भवतां दुःखमसात, सर्वेपामपि प्राणिनां दुःखमसातं मनसोऽनभिप्रेतम् अपरिनिर्वाणम्-अनिवृत्तिरूपं महदयं दुःखमित्येतत् परिगणय्य सर्वेऽपि प्राणिनो न हन्तव्या इत्यादि वाच्यं, तद्धनने च दोषः, यस्त्वदोषमाह तदनार्यवचनम् । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् , तदेवं प्रावादुकानां स्ववाग्नियन्त्रणयाऽनार्यता प्रतिपादिता, अत्रैव रोहगुप्तमन्त्रिणा विदितागमसद्भावेन माध्यस्थ्यमवलम्बमानेन तीथिकपरीक्षाद्वारेण यथा निराकरणं चक्के तथा नियुक्तिकारो गाथाभिराचष्टे
खुड्डग पायसमासं धम्मकहंपि य अपमाणेणं । छन्नेण अन्नलिंगी परिच्छिया रोहगुत्तेणं ॥ २२७॥ अनया गाथया सझेपतः सर्वं कथानकमावेदितं क्षुल्लकस्य, 'पादसमासो' गाथापादसङ्केपस्तमजल्पता धर्मकथां च 'छन्नेन' प्रकटेन 'अन्यलिङ्गिन' प्रावादुकाः 'परीक्षिता' निरूपिताः 'रोहगुप्तेन' रोहगुप्तनाना मन्त्रिणेति गाथासमासार्थः । भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-चम्पायां नगर्यो सिंहसेनस्य राज्ञो रोहगुप्तो नाम महामन्त्री, स चाई
दर्शनभावितान्तःकरणो विज्ञातसदसद्वादः, तत्र च कदाचिद्राजाऽऽस्थानस्थो धर्मबिचारं प्रस्तावयति, तत्र यो यस्या| भिमतः स तं शोभनमुवाच, सच तूष्णीभावं भजमानो राज्ञोक्ता-धर्मविचारं प्रति किमपि न ब्रूते भवान् ?, स वाह
%*-51-53-
5
NCCEPECAR
-5
मुद्रण-दोषात् '२२७' इति नियुक्ति: क्रम द्वितीय वारं लिखितं |
~88~
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३३],नियुक्ति : [२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
उद्देशकार
श्रीआचारावृत्तिः
(शी) ॥१८७॥
सूत्रांक
[१३३]]
दीप
CCESCIEOSSAX
किमेभिः पक्षपातवचोभिः।, विमर्शामः स्वत एव धम्मै परीक्षामहे तीथिकानित्यभिधाय राजानुमत्या 'सकुण्डलं वा सम्य० ४ वदनं न बत्ति, अयं गाधापादो नगरमध्ये आललम्बे, सम्पूणों तु गाथा भाण्डागारिता, नगर्यां चोष्ट, यथाय एनं| गाथापादं पूरयिष्यति तस्य राजा यथेप्सितं दानं दास्यति तद्भक्तश्च भविष्यतीति, तं च गाथापादं सर्वेऽपि गृहीत्वा | प्राचादुका निर्जग्मुः, पुनश्च सप्तमेऽहनि राजानमास्थानस्थमुपस्थिताः, तत्रादावेव परिवाइब्रवीति
भिक्खं पविद्वेण मएऽज्ज दिलु, पमयामुहं कमलविसालनेतं ।
वक्खित्तचित्तेण न सुद्दु नार्य, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ।। २२८ ॥ सुगम, नवरमपरिज्ञाने व्याक्षेपः कारणमुपन्यस्तं न पुनवर्वीतरागतेति पूर्वगाथाविसंवादादसी तिरस्कृत्य निर्वाटितः।। पुनस्तापसः पठति
फलोदएणं मि गिहं पविट्ठो, तत्थासणस्था पमया मि विट्ठा।
वक्खित्तचित्तेण न सुड नायं, सकुंडलं वा चयर्ण म यत्ति ॥ २२९ ॥ सुगम पूर्ववत् । तदनन्तरं शौद्धोदनिशिष्यक आह
का॥१८॥ मालाविहारंमि मएज्ज दिट्ठा, उवासिया कंचणभूसियंगी। वक्खित्तचिसेण न सुट्ठ नायं, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥ २३०॥
अनक्रम
~89~
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३३,नियुक्ति: [२३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३३]
AARAKAR
दीप
पूर्ववद्, एवमनया दिशा सर्वेऽपि तीथिका वाच्या, आईतस्तु पुनर्न कश्चिदागत इति राज्ञाभाणि, मन्त्रिणा वाई-13 तक्षलकोऽप्येवम्भूतपरिणाम इत्येवं संप्रत्यय एषां स्यादित्यतो भिक्षार्थ प्रविष्टः प्रत्युषस्येव क्षुल्लकः समानीतः, तेनापि| गाथापादं गृहीत्वा गाथा बभाषे, तद्यथा
खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स ।
किं मजा एएण विचिंतपणं?, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ।। २३१ ।। सुगमा, अत्र च क्षान्त्यादिकमपरिज्ञाने कारणमुपन्यस्तं न पुनाक्षेप इत्यतो गाथासंवादात् शान्तिदमजितेन्द्रियत्वाध्यात्मयोगाधिगतेश्च कारणाद्राज्ञो धर्म प्रति भावोल्लासोऽभूत् , क्षुल्लकेन च धर्मप्रश्नोत्तरकालं पूर्वगृहीतशुष्केतरकईमगोलकद्वयं भित्तौ निक्षिप्य गमनमारेभे, पुनर्गच्छन् राज्ञोकं-किमिति भवान् धर्म पृष्टोऽपि न कथयति, स चाबो|चत्-हे मुग्धा ननु कथित एव धर्मो भवतः शुष्केतरगोलकदृष्टान्तेन । एतदेव गाथाद्वयेनाहउल्लो सुक्को य दो छुढा, गोलया मटियामया । दोवि आवडिया करे, जो उल्लो तत्थ (सोऽस्थ) लग्गइ ।। एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गति, जहा से मुझगोलए ॥ २३३ ॥ ला अयमन भावार्थ:-ये बङ्गप्रत्यङ्गनिरीक्षणव्यासङ्गात् कामिनीनां मुखं न पश्यन्ति तदभावे तु पश्यन्ति ते कामगृन
तया सार्द्राः, साईतया च संसारपक्के कर्मकर्दमे वा लगन्ति, ये तु पुनः क्षामत्यादिगुणोपेताः संसारसुखपराङ्मुखाः
अनक्रम
~90~
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३४],नियुक्ति : [२३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
काष्ठमुनयस्ते शुष्कगोलकसन्निभा न क्वचिल्लगन्तीति गाथाद्वयार्थः । सम्यक्त्वाध्ययने द्वितीयोद्देशकनियुक्तिः । इति । सम्य०४ |सम्यक्त्वाध्ययने द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥४-२॥
उद्देशका
सूत्रांक
[१३४]
॥१८८॥
दीप
उक्तो द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके परमतव्युदासद्वारेण सम्यक्त्वमविचलं प्रतिपादयता तत्सहचरितं ज्ञान तत्फलभूता च विरतिरभिहिता, सत्यपि चास्मिंस्त्रये न पूर्वोपात्तकर्मणो निरवद्यतपोऽनुष्ठानमन्तरेण क्षयो भवतीत्यतस्तदधुना प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादि | सूत्रम्
उवेहि णं बहिया य लोगं, से सव्वलोगंमि जे केइ विष्णू , अणुवीइ पास निक्खित्तदंडा, जे केइ सत्ता पलियं चयंति, नरा मुयच्चा धम्मविउत्ति अंजू, आरंभजं दुक्खमिणंति णच्चा, एवमाहु संमत्तदंसिणो, ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण
मुदाहरंति इय कम्मं परिणाय सव्वसो (सू० १३४) योऽयमनन्तरं प्रतिपादितः पापण्डिलोकः एनं धर्माद्वहिर्व्यवस्थितमुपेक्षस्व-तदनुष्ठानं मा अनुमंस्थाः, चशब्दोऽनु-||॥१८॥ तसमुच्चयार्थः, तदुपदेशमभिगमनपर्युपासनदानसंस्तवादिकं च मा कृथा इति । यः पापण्डिलोकोपेक्षकः स के गुणमवाप्नु
卒??宗?赤帝已中文言文中
अनुक्रम [१४७]
| चतुर्थ-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'अनवद्यतप' आरब्धः,
~91~
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [३], मूलं [१३४],नियुक्ति : [२३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१३४]
दीप
Fयादित्याह-'से सब्बलोए' इत्यादि, यः पापण्डिलोकमनार्यवचनमवगम्य तदुपेक्षां विधत्ते स सर्वस्मिंलोके-मनुष्यलोके ये|
केचिद्विद्वांसस्तेभ्योऽप्रणीविंद्वत्तम इति स्यात्, लोके केचन विद्वांसः सन्ति? येभ्योऽधिकः स्यादित्यत आह 'अणुवीई [इत्यादि, ये केचन लोके 'निक्षिप्तदण्डाः' निश्चयेन क्षिप्तो निक्षिप्तः-परित्यक्तः कायमनोवाङमया प्राण्युपपातकारी दण्डो का यैस्ते विद्वांसो भवन्त्येव एतदनुविचिन्त्य-पर्यालोच्य पश्य-अवगच्छ । के चोपरतदण्डा इत्यत आह-'जे केई' इत्यादि, ये
केचनावगतधर्माणः सत्त्वाः-प्राणिनः 'पलित'मिति कर्म तत्त्यजन्ति, ये 'चोपरतदण्डा भूत्वाऽष्टप्रकारं कर्म नन्ति ते || विद्वांस इत्येतदनुविचिन्त्य-अक्षिनिमीलनेन पर्यालोच्य 'पश्य' विवेकिन्या मत्याऽयधारय । के पुनरशेषकर्मक्षयं कुर्वन्ति ? ट्रा इत्यत आह-'नरे' इत्यादि, नरा:-मनुष्यास्त एवाशेषकर्मक्षयायालं नान्ये, तेऽपि न सर्वे अपि तु मृतार्चा-मृतेव मृता
संस्काराभावाद, शरीरं येषां ते तथा, निष्प्रतिकर्मशरीरा इत्यर्थः, यदिवा अर्जा-तेजः, स च क्रोधः, स च कषायोप
लक्षणार्थः, ततश्चायमों-मृता-विनष्टा अर्चा कषायरूपा येषां ते मृतार्चाः, अकषायिण इत्यर्थः, किं च-'धम्मै श्रुट्रिातचारित्राख्यं विदन्तीति धर्मविदः, इति हेतो, यत एव धर्मविदोऽत एव ऋजवः-कौटिल्यरहिताः । स्थादेतत्-किमाल*म्ब्यतद्विधेयमित्यत आह-आरंभज' मित्यादि, सावधक्रियानुष्ठानमारम्भस्तस्माजातमारम्भज, किं तद्-दुःखमिद
II मिति सकलपाणिप्रत्यक्षं, तथाहि-कृषिसेवावाणिज्याद्यारम्भप्रवृत्तो यच्छारीरमानसं दुःखमनुभवति तद्वाचामगोचरमि-| तात्यतः प्रत्यक्षाभिधायिनेदमोक्तम्, 'इतिः' उपप्रदर्शने, इत्येतदनुभवसिद्धं दुःखं ज्ञात्वा मृताची धर्मविद ऋजवश्च भवसन्तीति । एतच्च समस्तवेदिनो भाषन्त इति दर्शयति-'एवमित्यादि, 'एवं' पूर्वोक्तप्रकारेण 'आहुः' उक्तवन्तः, के एव
अनुक्रम [१४७]
~92~
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [३], मूलं [१३४],नियुक्ति : [२३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सम्ब०४ उद्देशका३
सूत्रांक
[१३४]
दीप
श्रीआचा-1 माहुः१-समत्वदर्शिनः सम्यक्त्वदर्शिनः समस्तदर्शिनो वा, यदुदेशकादेरारभ्योक्तं तदेवमूरित्यर्थः, कस्मात अचुरित्याह रावृत्तिः
-ते सव्वे' इत्यादि, यस्मात्ते सर्वेऽपि सर्वविदः 'प्रावादिका' प्रकर्षण मर्यादया वदितुं शीलं येषां ते प्रायादिनः, त (शी०) एव प्रावादिकाः-यथावस्थितार्थस्य प्रतिपादनाय बावजूकाः, 'दुःखस्य' शारीरमानसलक्षणस्य ससुपादानस्य वा कर्मणः
'कुशवा' निपुणास्तदपनोदोपायवेदिनः सन्तः ते सर्वेऽपि झपरिझया परिज्ञाय हेयार्थस्य प्रत्याख्यानपरिज्ञामुदाहरन्ति, ॥१८९॥
'इतिः' उपप्रदर्शने, इत्येवं पूर्वोक्तनीत्या फर्मबन्धोदयसत्कर्मसाविधानतः परिज्ञाय 'सर्वशः सव्वा प्रकारः कुशलाः प्रत्याख्यानपरिज्ञामुदाहरन्ति, यदिवा मूलोत्तरप्रकृतिप्रकारैः सर्वैः परिज्ञायेति मूलप्रकारा अष्टौ उसरप्रकृतिप्रकारा अष्टपचाशदुत्तरं शतम् , अथवा प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशप्रकारैः, यदिवोदयप्रकारैर्बन्धसत्कर्माताकार्यभूवैरागामिवन्धसत्कनेताकारणैश्च कर्म परिज्ञायेति, ते चामी उदयप्रकाराः, तद्यथा-मूलप्रकृतीनां श्रीण्युदयस्थानानि, अष्टषिधं सप्तविध चतुर्विधमिति, तत्राष्टापि कर्मप्रकृतीयौंगपद्येन वेदयतोऽष्टविधं, तथ कालतोऽनादिकमपर्यवसितमभव्यानां भव्यानां त्वनादिसपर्यवसितं सादिसपर्यवसितं चेति, मोहनीयोपशमे क्षये वा सप्तविध, घातिक्षये चतुर्विधमिति । साम्प्रतमुत्सरप्रकृतीनामुदयस्थानान्युच्यन्ते, तन्त्र ज्ञानावरणीयान्तराययोः पश्चप्रकारं एकमुदयस्थानं, दर्शनावरणीयस्य दे, दर्शनचतुष्कस्योदयाच्चत्वारि अन्यसरनिद्रया सह पञ्च, वेदनीयस्य सामान्थेनैकमुदयस्थानं सातमसाप्तं वेति, विरोधाधौगपद्योदयाभावः, मोहनीयस्थ सामान्येन नवोदयस्थानानि, तद्यथा-दश नव अष्टौ सप्त षटू पञ्च चत्वारि द्वे एकं चेति, तत्र दश मिथ्यात्वं १ अनन्तानुबन्धी क्रोधोऽप्रत्याख्यानः प्रत्याख्यानावरणः सज्वलनश्चेत्येतत्क्रोधचतुष्टयम् ५ एवं मानादि
अनुक्रम [१४७]
||१८९॥
~93~
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१३४]
दीप
अनुक्रम [१४७ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [३], मूलं [१३४],निर्युक्ति: [२३३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
चतुष्टयमपि योज्यं अन्यतरो वेदः ६ हास्यरतियुग्मम् अरतिशोकयुग्मं वा ८ भयं ९ जुगुप्सा १० चेति, भयजुगुप्तचोरन्यतराभावे नव, द्वयाभावेऽष्टी, अनन्तानुबन्ध्यभावे सप्त, मिथ्यात्वाभावे पटू, अप्रत्याख्यानोदयाभावे पञ्च, प्रत्याख्यानावरणाभावे चत्वारि, परिवर्त्तमानयुगलाभावे सवलनान्यतरवेदोदये सति द्वे, वेदाभावे एकमिति, आयुषोऽप्येकमेवोदयस्थानं चतुर्णामायुषामन्यतरदिति, नाम्नो द्वादशोदयस्थानानि, तद्यथा-विंशतिः एकविंशतिः चतुर्विंशतिः पञ्चविंशतिः षड्विंशतिः सप्तविंशतिः अष्टाविंशतिः एकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् नव अष्टौ चेति, तब संसारस्थानां सयोगिनां जीवानां दशोदयस्थानानि नाम्रो भवन्ति, अयोगिनां तु चरमद्वयमिति, अत्र च द्वादश ध्रुवोदयाः कर्म्मप्रकृतयः, तद्यथा - तैजसकार्मणे शरीरे २ वर्णगन्धरसस्पर्शचतुष्टय ६ अगुरुलघु ७ स्थिरं ८ अस्थिरं १ शुभं १० अशुभं ११ निर्माण १२ मिति, तत्र | विंशतिरतीर्थकर केवलिनः समुद्घातगतस्य कार्मणशरीरयोगिनो भवति, तद्यथा-मनुष्यगतिः १ पश्लेन्द्रियजातिः २त्रसं ३ वादरं ४ पर्याप्तकं ५ सुभगं ६ आदेयं ७ यशःकीर्त्तिरिति ८ ध्रुवोदय १२ सहिता विंशतिः २०, एकविंशत्यादीनि तूदयस्थानानि एकत्रिंशत्पर्यन्तानि जीवगुणस्थानभेदादनेकभेदानि भवन्ति, सानि चेह प्रन्थगौरवभवात् प्रत्येकं नोच्यन्त इत्यत एकैकभेदावेदनं क्रियते, तत्रैकविंशतिः गतिः १ जातिः २ आनुपूर्वी २ त्रसं ४ बादरं ५ पर्याप्तापर्याप्त योरन्यतरत् ६ सुभगदुर्भगयोरन्यतरत् ७ आदेयानादेययोरन्यतरत् ८ यशःकी यशःकी स्योरन्यतरत् ९, एसाश्च नव वोदय १२ सहिता एकविंशतिः २१, चतुर्विंशतिस्तु तिर्यग्गतिः १ एकेन्द्रियजातिः २ औदारिकं र हुण्डसंस्थानं ४ उपघातं ५ प्रत्येकसाधारणयोरन्यतरत् ६ स्थावरं ७ सूक्ष्मवादरयोरन्यतरत् ८ दुर्भगं ९ अनादेयं १० अपर्याप्तकं ११ यशःकीयशः
Education Intentional
For Pale Only
~94~
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१३४]
दीप
अनुक्रम [१४७ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [३], मूलं [१३४],निर्युक्ति: [२३३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ १९० ॥
कीत्यरन्यतर १२ दिति, तत्रैवापर्याप्त कापनयने पर्याप्तकपराधाताभ्यां प्रक्षिप्ताभ्यां पञ्चविंशतिः २५, पशितिस्तु याऽसौ केवलिनो विंशतिरभिहिता सैौदारिकशरीराङ्गोपाङ्गद्वयान्यतरसंस्थानाद्य संहननोपधात प्रत्येक सहिता वेदितव्या मिश्रकाययोगे वर्त्तमानस्य २६, सैव तीर्थकरनामसहिता केवलिसमुद्घातवतो मिश्रकाययोगिन एव सप्तविंशतिः २७, सैव प्रशस्तविहायोगतिसमन्विताऽष्टाविंशतिः २८, तत्र तीर्थकरनामापनयने उच्छास १ सुस्वर २ पराघात ३ प्रक्षेपे सति त्रिंशद्भवति ३०, तत्र सुस्वरे निरुद्धे एकोनत्रिंशत् २९, सैव त्रिंशत्तीर्थकरनामसहिता एकत्रिंशत् ३१, नवोदयस्तु मनुध्यगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ व ३ बादरं ४ पर्याप्तकं ५ सुभगं ६ आदेयं ७ यशःकीर्त्ति ८ स्तीर्थकरमिति ९, एता अयोगितीर्थकर केवलिनः, एता एव तीर्थकरनामरहिता अष्टाविति ८, गोत्रस्यैकमेव सामान्येनोदयस्थानं, उच्चनीचयोरन्यतरद्, यौगपद्येनोदयाभावो विरोधादिति, तदेवमुदयभेदैरनेकप्रकारतां कर्म्मणः परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञामुदाहरन्तीति ॥ यदि नाम कर्म्मपरिज्ञामुदाहरन्ति ततः किं कार्यमित्याह
Etication Internationa
इह आणाखी पंडिए अणिहे, एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पार्ण, जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ । एवं अत्तसमाहिए अणिहे, विगिंच कोहं अविकंपमाणे ( सू० १३५ )
'इह' अस्मिन् प्रवचने आज्ञामाकाङ्क्षितुं शीलमस्येति आज्ञाकाङ्क्षी - सर्वज्ञोपदेशानुष्ठायी, यश्चैवम्भूतः स 'पण्डितो'
For Parts On
~95~
सम्य० ४
उद्देशका
॥ १९० ॥
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [३], मूलं [१३५],नियुक्ति : [२३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
%
%
%
प्रत सूत्रांक [१३५]
%
दीप अनुक्रम [१४८]
विदितवेद्यः अस्निहो भवति, स्निह्यते-श्लिष्यतेऽष्टप्रकारेण कर्मणेति निहो न निहोऽस्त्रिहः, यदिवा स्निह्यतीति निहोरागवान् यो न तथा सोऽस्त्रिहः, उपलक्षणार्धत्वाचास्य रागद्वेषरहित इत्यर्थः, अथवा निश्चयेन हन्यत इति निहतः भाव|रिपुभिरिन्द्रियकषायकर्मभिः यो न तथा सोऽनिहतः, इह प्रवचने आज्ञाकानी पण्डितो भावरिपुभिरनिहतो, नान्यत्र. यश्चानिहतः स परमार्थतः कर्मणः परिज्ञाता । यश्चैवम्भूतः स किं कुयोंदित्याह-एगमप्पाण' मित्यादि, सोऽनिहतोडस्निहो वा आत्मानमेकं धनधान्यहिरण्यपुत्रकलत्रशरीरादिव्यतिरिकं 'संप्रेक्ष्य' पर्यालोच्य धुनीयाच्छरीरक, सम्भावनायां लिए, सर्वस्मादात्मानं व्यतिरिक्तं पश्यतः सम्भाव्यत एतच्छरीरविधूननमिति, तच्च कुर्वता संसारस्वभावकत्वभावनैवरूपा भावयितव्येति-"संसार एवायमनर्थसारः, कः कस्य कोऽत्र स्वजनः परो वा ? | सर्वे भ्रमन्तः स्वजनाः परे च,
भवन्ति भूत्वा न भवन्ति भूयः॥१॥ विचिन्त्यमेतद्भवताऽहमेको, न मेऽस्ति कश्चित्पुरतो न पश्चात् । स्वकर्मभिर्धादन्तिरियं ममैव, अहं पुरस्तादहमेव पश्चात् ॥ २॥ सदैकोऽहं न मे कश्चित् , नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि
यस्याहं, नासौ भावीति यो मम ॥३॥" तथा-एकः प्रकुरुते कर्म, भुनत्त्येकश्च तत्फलम् । जायते बियते चैक, एको याति भवान्तरम् ॥१॥ इत्यादि, किं च-कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं' परव्यतिरिक्त आत्मा शरीरं तत् कष्टतपश्चरणादिना कृशं कुरु, यदिवा 'कष' कस्मै कर्मणेऽलमित्येवं पर्यालोच्य यच्छक्कोपि तत्र नियोजयेदित्यर्थः, तथा 'जर' शरीरकं जरीकुरु, तपसा तथा कुरु यथा जराजीणमिव प्रतिभासते, विकृतिपरित्यागद्वारेणात्मानं निःसारतामापादयदित्यर्थः, | किमर्थमित्येतदिति चेदाह-'जहा' इत्यादि, यथा 'जीर्णानि' निःसाराणि काष्ठानि 'हव्यवाहो' हुतभुक्मममाति-शीनं
weredturary.com
~96~
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१३५]
दीप
अनुक्रम
[१४८]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [३], मूलं [१३५],निर्युक्ति: [२३३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः (शी ० )
॥ १९९ ॥
भस्मसात् करोति, दृष्टान्तं प्रददयं दाष्टन्तिकमाह - ' एवं अत्तसमाहिए' 'एवम्' अनम्बरो कटान्तक्कारेणात्मना समाहितः आत्मसमाहितः, ज्ञानदर्शनचारित्रोपयोगेन सदोपयुक्त इत्यर्थः आत्मा वा समाहितोऽस्येत्यात्मसमाहितः, सदा : शुभव्यापारवानित्यर्थः, आहितान्यादिदर्शनादार्थत्वाद्वा निष्ठान्तस्य परनिपातः, यदिवा प्राकृते पूर्वोत्तरनिपातोऽतन्त्रः, समाहितात्मेत्यर्थः, 'अस्तिहः' स्नेहरहितः संस्तपोऽग्निना कर्म्मकाएं दहतीति भाषार्थः ॥ एतदेव दृष्टान्तदार्शन्तिकगतमर्थ निर्मुक्तिकारी गाथयोपसञ्जिघृक्षुराह
जह खलु सिरं कहं सुचिरं सुकं लहुं डहर अग्गी। तह खलु खवंति कम्मं सम्मचरणे ठिया साहू ॥ २३४ ॥ गतार्था । अत्र चातिपदेन रागनिवृत्तिं विधाय द्वेषनिवृत्तिं विधित्सुराह— 'विगिंच कोह' मित्यादि, कारणेऽकारणे वाऽतिक्रूराध्यवसायः क्रोधः तं परित्यज, तस्य च कार्य कम्पनं तत्प्रतिषेधं दर्शयति-अविकम्पमानः ॥ किं विगणय्यैतत्कुर्या दित्याह --
इमं निरुद्धाउयं संपेहाए, दुक्खं च जाण अदु आगमेस्सं, पुढो फासाई व फासे, लोयं च पास विफंदमाणं, जे निव्वुडा पावेहिं कस्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया, तम्हा अतिविज्जो नो पडिसंजलिज्जासि तिबेमि (सू० १३६) चतुर्थे तृतीयः ॥ ४-३ ॥ 'इदं' मनुष्यत्वं 'निरुद्धायुष्कं निरुद्धं परिगलितमायुष्कं 'सम्प्रेक्ष्य' पर्यालोच्य क्रोधादिपरित्यागं विदध्यात् किं
Education nation
For Parts Only
~97~
सम्य० ४ उद्देशक ३
॥ १९१ ॥
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [३], मूलं [१३६],नियुक्ति: [२३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
%
सूत्रांक
[१३६]]
7
-दुक्ख' मित्यादि, क्रोधादिना दन्दह्यमानस्य यन्मानसं दुःखमुत्पद्यते तज्जानीहि, तज्जनितकर्मविपाकापादितं चागामि दुःखं सम्प्रेक्ष्य क्रोधादिकं प्रत्याख्यानपरिज्ञया जानीहि, परित्यजेरित्यर्थः, आगामिदुःखस्वरूपमाह-'पुढो' इत्यादि, पृथक् सप्तमनरकपृथिवीसम्भवशीतोष्णवेदनाकुम्भीपाकादियातनास्थानेषु 'स्पर्शान्' दुःखानि, चः समुच्चये, न केवलं क्रोधामातस्तस्मिन्नेव क्षणे दुःखमनुभवतीत्यागामीनि पृथग् दुःखानि च स्पृशेद्-अनुभवेत् , तेन चातिदुःखेनापरोऽपि लोको दुःखित इत्येतदाह-'लोयं च' इत्यादि, न केवलं क्रोधादिविपाकादास्मा दुःखान्यनुभवति, लोकं च शारीरमानसदुःखापन्नं विस्सन्दमानमस्वतन्त्रमितश्वेतश्च दुःखप्रतीकाराय धावन्तं पश्य' विवेकचक्षुषाऽवलोकय । ये त्वेवं न ते| किम्भूता भवन्तीत्यत आह-'जे निव्वुडा' इत्यादि, ये तीर्थकरोपदेशवासितान्तःकरणा विषयकषायाभ्युपशमानिर्वता:शीतीभूताः पापेषु कर्मसु 'अनिदानाः' निदानरहितास्ते परमसुखासदतया व्याख्याताः, औपशमिकसुखभाक्त्वेन प्रसिद्धा इत्यर्थः, यत एवं ततः किमित्याह –'तम्हा' इत्यादि, यस्माद्रागद्वेषाभिभूतो दुःखभाग्भवति तस्मादतिविद्वान्विदितागमसझावः सन्न प्रसिसवले:-क्रोधाग्निनाऽऽत्मानं नोद्दीपयेः, कषायोपशमं कुर्वित्यर्थः । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत्, सम्यक्त्वाध्ययने तृतीयोदेशकटीका समाप्तेति ।।
दीप
**
*
%
अनुक्रम [१४९]
उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके निरवद्यं तपोऽभिहितं, तञ्चाविकलं सत्संयमव्यवस्थितस्य भवतीत्यतः संयमप्रतिपादनाय चतुर्थोद्देशक इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशस्यादि सूत्रम्
NAE%
Surasurare.org
चतुर्थ-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'संक्षेप वचन' आरब्ध:,
~98~
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [४], मूलं [१३७],नियुक्ति: [२३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सम्य०४ उद्देशका
सूत्रांक
[१३७]
श्रीआचा- आवीलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुब्वसंजोगं हिच्चा उवसम, तम्हा अविमणे राजवृत्तिः
वीरे, सारए समिए सहिए सया जए, दुरणुचरो मग्गो वीराणं अनियहगामीणं, (शी०)
विगिंच मंससोणिय, एस पुरिसे दविए वीरे, आयाणिजे वियाहिए, जे धुणाइ ॥१९॥
समुस्सयं वसित्ता बंभचेरंसि (सू० १३७) आडीपदर्थे, ईपत्पीडयेद् अविकृष्टेन तपसा शरीरकमापीडयेद्, एतच्च प्रथमप्रव्रज्याऽवसरे, सत ऊ मधीतागमः परिणतार्थसद्भावः सन् प्रकर्षेण विकृष्टतपसा पीडयेत्पीडयेत् , पुनरध्यापितान्तेवासिवर्गः सङ्क्रामितार्थसारः शरीरं तित्यक्षु
सार्द्धमासक्षपणादिभिः शरीरं निश्चयेन पीडयेन्निष्पीडयेत्, स्यात्-कर्मक्षयार्थ तपोऽनुष्ठीयते, स च पूजालाभख्यात्यर्थेन तपसा न भवत्यतो निरर्थक एव शरीरपीडनोपदेश इत्यतोऽन्यथा व्याख्यायते-कम्मैव कार्मणशरीरं वा आपीडयेत्प्रपीडये
निष्पीडयेत् ,अत्रापीपदादिका प्रकर्षगतिरवसेया,यदिवा आपीडयेत्कर्म अपूर्वकरणादिकेषु सम्यग्दृष्ट्यादिषुगुणस्थानकेषु, दततोऽपूर्वकरणानिवृत्तिवादरयोः प्रपीडयेत् , सूक्ष्मसम्परायावस्थायां तु निष्पीडयेत् , अथवा आपीडनमुपशमश्रेण्यां प्रपी-1 साडनं क्षपक श्रेण्यां निष्पीडनं तु शैलेश्यवस्थायामिति । किं कृत्वैतत्कुर्यादित्याह-'जहित्ता' इत्यादि, पूर्वः संयोगः पूर्व
संयोगो-धनधान्यहिरण्यपुत्रकलबादिकृतस्तं त्यक्त्वा, यदिवा पूर्वः-असंयमोऽनादिभवाभ्यासात्तेन संयोगः पूर्वसंयोगस्तं दात्यक्त्वा 'आवीलये दित्यादिसम्बन्धः, किं च-हिच्चा इत्यादि, हि गता वित्यस्मात् पूर्वकाले क्वा 'हित्वा' गत्वा, किं
HAKAA%CE%%
दीप
अनुक्रम [१५०
4॥१९२॥
~99
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [४], मूलं [१३७],नियुक्ति: [२३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३७]
दीप
तत-उपशम-इन्द्रियनोइन्द्रियजयरूपं संयम वा 'गत्वा प्रतिपद्यापीडयेदिति वर्त्तते, इदमुक्तं भवति-असंयम त्यक्त्वा संयम ट्रा प्रतिपद्य तपश्चरणादिनाऽऽत्मानं कर्म वाऽऽपीडयेत् प्रपीडयेन्निष्पीडयेदिति, यतः कर्मापीडनार्थमुपशमप्रतिपत्तिस्तन-13 तिपत्तौ चाविमनस्कतेत्याह-'तम्हा' इत्यादि, यस्मात्कर्मक्षयायासंयमपरित्यागस्तत्परित्यागे चावश्यंभावी संयमस्तत्र च न चित्तवैमनस्यमिति, तस्मादविमना विगतं भोगकपायादिवरती वा मनो यस्य स विमना यो न तथा सोऽविमनाः, कोऽसौ?, वीर:-कर्मविदारणसमर्थः, । अविमनस्कत्वाच्च यत्स्यात्तदाह-'सारए' इत्यादि, सुष्टा-जीवनमर्यादया संयमानुछाने रतः स्वारतः, पञ्चभिः समितिभिः समितः, सह हितेन सहितो ज्ञानादिसमन्वितो वा सहितः, 'सदा सर्वकालं सकृदारोपितसंयमभारः संस्तत्र 'यतेत' बलवान् भवेदिति । किमर्थं पुनः पौनःपुन्येन संयमानुष्ठानं प्रत्युपदेशो दीयते? इत्याह-'दुरनुचरों' इत्यादि, दुःखेनानुचर्यत इति दुरनुचरः, कोऽसौ ?-मार्गः-संयमानुष्ठानविधिः, केषां ?-'वीराणाम्' अप्रमत्तयतीना, किम्भूतानामित्याह-'अणियह' इत्यादि, अनिवा-मोक्षस्तत्र गन्तुं शीलं येषां ते तथा तेषामिति, यथा च तन्मार्गानुचरणं कृतं भवति तद्दर्शयति-विगिंच' इत्यादि, मांस' शोणितं दर्पकारि विकृष्टतपोऽनुष्ठानादिना 'विवेचय' पृथकुरु, तद्भासं विधेहीतियावत्, एवं वीराणां मार्गानुचरणं कृतं भवतीति भावः । यश्चैवम्भूतः स के गुणमवामुयादित्याह-'एस' इत्यादि, 'एप' मांसशोणितयोरपनेता पुरि शयनात् पुरुषः द्रवः-संयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविकः, मत्वर्थीयष्ठन्, द्रव्यभूतो वा मुक्तिगमनयोग्यत्वात, कर्मरिपुविदारणसहिष्णुत्वाद्वीर इति, मांसशोणितापचयप्रतिपादनाच्च Pातदत्तरेषामपि मेदादीनामपचय उक्त एव द्रष्टव्यः, तद्भावभाविस्वात्तेषामिति । किं च 'आयाणिज्जे' इत्यादि, स वी
अनुक्रम [१५०]
SAMAC.
~100~
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [४], मूलं [१३७],नियुक्ति: [२३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
-NE*
सम्ब०४
प्रत
उद्देशका
(शी.)
सूत्रांक
5
-E
[१३७]
R
दीप
श्रीआचा-राणां मार्ग प्रतिपन्नः मांसशोणितयोरपनेता मुमुक्षूणामादानीयो-माह्य आदेयवचनश्च व्याख्यात इति। कश्चैवम्भूत इत्याह रावृत्तिः 81-जे धुणाई' इत्यादि, 'ब्रह्मचर्ये संयमे मदनपरित्यागे वोषित्वा यः 'समुच्छ्रयं' शरीरकं कर्मोपचयं वा तपश्चरणा
दिना 'धुनाति' कृशीकरोति स आदानीय इति विविधमाख्यातो व्याख्यात इति सम्बन्धः । उक्का अप्रमत्तार, तद्विध॥ १९ ॥ शर्मणस्तु प्रमत्तानभिधिरसुराह
नित्तेहिं पलिच्छिन्नेहिं आयाणसोयगढिए बाले, अब्बोच्छिन्नबंधणे अणभिकंतसंजोए
तमंसि अवियाणओ आणाए लंभो नत्थि तिबेमि ( सू० १३८) नयंत्यर्थदेशम्-अर्थक्रियासमर्थमर्थमाविर्भावयन्तीति नेत्राणि-चक्षुरादीनीन्द्रियाणि तैः परिच्छिन्नः यथास्वं विषयग्रहणं प्रति निरुद्धैः समिरादानीयोऽपि भूत्वोषित्वा ब्रह्मचर्ये पुनर्मोहोदयादादानस्रोतोगृद्धः-आदीयते-सावद्यानुष्ठानेन स्वीक्रि-1 यत इत्यादानं-कर्म संसारबीजभूतं तस्य स्रोतांसि-इन्द्रियविषया मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगा वा तेषु गृद्धः
अभ्युपपन्नः स्यात्, कोऽसौ-यालः' अज्ञः रागद्वेषमहामोहाभिभूतान्तःकरणः। यश्चादानस्रोतोगद्धः स किम्भूतः स्यादिसत्याह-'अब्बोच्छिन्नबंधणे' इत्यादि, अव्यवच्छिन्नं जन्मशतानुवृत्ति बन्धनम्-अष्टप्रकारं कर्म यस्य स तथा, किं च
-अणभिकत' इत्यादि, अनभिकान्त:--अनतिलद्धितः संयोगो धनधान्य हिरण्यपुत्रकलबादिकृतोऽसंयमसंयोगो वा हायेनासावनभिकान्तसंयोगः तस्य चैवम्भूतस्येन्द्रियानुकूल्यरूपे मोहात्मके वा तमसि वर्तमानस्यात्महितं मोक्षोपायं वाऽ
**09
अनुक्रम [१५०]
*
||॥१९
॥
~1014
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [४], मूलं [१३८],नियुक्ति : [२३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
*
%
प्रत सूत्रांक [१३८]
Niv22
%
%
%
विजानत आज्ञाया:-तीर्थकरोपदेशस्य लाभो नास्तीत्येतदहं ब्रवीमि तीर्थकरवचनोपलब्धसद्भाव इति, यदिवाऽऽज्ञा बोधिः सम्यक्त्वम्, अस्तिशब्दश्चायं निपातखिकालविषयी, तेनायमर्थः-तस्यानभिक्रान्तसंयोगस्य भावतमसि वर्तमानस्य बोधिलाभो नासीन्नास्ति न भावीति । एतेदवाह
जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कुओ सिया?, से हु पन्नाणमंते बुद्धे आरंभोवरए, संममेयंति पासह, जेण बंधं वहं घोरं परियावं च दारुणं पलिछिंदिय बाहिरगं च सोयं, निकंमदंसी इह मच्चिएहि, कम्माणं सफलं द?ण तओ निजाइ वेयवी (सू० १३९) यस्य कस्यचिदविशेषितस्य कर्मादानस्रोतोगृद्धस्य बालस्याव्यवच्छिन्नवन्धनस्यानभिकान्तसंयोगस्याज्ञानतमसि वर्चमानस्य 'पुरा' पूर्वजन्मनि बोधिलाभो नास्ति-सम्यक्त्वं नासीत् 'पश्चादपि एण्येऽपि जन्मनि न भावि 'मध्ये मध्यजन्मनि तस्य कुतः स्यात् इति ?, एतदुक्तं भवति-यस्यैव पूर्व बोधिलाभः संवृत्तो भविष्यति वा तस्यैव वर्तमानकाले भवति, येन हि सम्यक्त्वमास्वादितं पुनर्मिथ्यात्वोदयात्ताच्यवते तस्यापार्द्धपुद्गलपरावर्नेनापि कालेनावश्यं तत्सद्भावात्, न ह्ययं सम्भवोऽस्ति प्रच्युतस्य सम्यक्त्वस्य पुनरसम्भव एवेति, अथवा निरुद्धेन्द्रियोऽपि आदानस्रोतोगृद्ध इत्युक्तः, तद्विपर्ययभूतस्य त्वतिकान्तसुखस्मरणमकुर्वतः आगामि च दिव्यागानाभोगमनभिकासतो वर्तमानसुखाभिष्वङ्गोऽपि नैव स्यादित्येतदर्शयितुमाह-'जस्स नस्थि' इत्यादि, यस्य भोगविपाकवेदिनः पूर्वभुक्तानुस्मृतिनास्ति नापि पाश्चात्यकाल
दीप अनुक्रम [१५१]
%
~102~
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [४], मूलं [१३९],नियुक्ति : [२३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीबाचा
प्रत
राजवृत्तिः
(शी०)
सूत्राक [१३९]]
॥१९४॥
दीप अनुक्रम [१५२
भोगाभिलाषिता विद्यते तस्य व्याधिचिकित्सारूपान् भोगान भावयतो 'मध्ये वर्तमानकाले कुतो भोगेच्छा स्यात्,18
सम्य.४ मोहनीयोपशमान्नैव स्यादित्यर्थः । यस्य तु त्रिकालविषया भोगेच्छा निवृत्ता स किम्भूतः स्यादित्याह-'से हु' इत्यादि, 'हु' यस्मादर्थे यस्मानिवृत्तभोगाभिलापस्तस्मात्स प्रज्ञानवान-प्रकृष्टं ज्ञानं प्रज्ञानं-जीवाजीवादिपरिच्छेतृ तद्विद्यते य
उद्देशका स्थासौ प्रज्ञानवान्, यत एवं प्रज्ञानवानत एव बुद्धः-अवगततत्त्वो, यत एवम्भूतोऽत एवाह-आरंभोवरए' सावद्यानुष्ठानमारम्भस्तस्मादुपरत आरम्भोपरतः। एतच्चारम्भोपरमणं शोभनमिति दर्शयन्नाह सम्म'मित्यादि, यदिदं सावद्यारम्भोपरमणं सम्यगेतत्-शोभनमेतत् सम्यक्त्वकार्यत्वाद्वा सम्यक्त्वमेतदित्येवं पश्यत-एवं गृहीत यूयमिति । किमि-| त्यारम्भोपरमणं सम्यगिति चेदाह-'जेण' इत्यादि, येन कारणेन सावद्यारम्भप्रवृत्तो बन्धं निगडादिभिः वधं कशा-14 दिभिः 'घोरं' प्राणसंशयरूपं 'परिताप शारीरमानसं 'दारुणं' असह्यमवाप्नोत्यत आरम्भोपरमणं सम्यग्भूतं कुर्यात्, किं. कृत्वेत्याह- पलिच्छिन्दि इत्यादि, 'परिच्छिन्द्य' अपनीय, किं तत्? 'स्रोतः' पापोपादानं, तच्च बाह्यं धनधान्यहिरण्यपुत्रकलत्रादिरूपं हिंसाद्याश्रवद्वारात्मक वा, चशब्दादान्तरं च रागद्वेषात्मकं विषयपिपासारूपं वेति, किं च-णिकम्मदसी'त्यादि, निष्कान्तः कर्मणो निष्का -मोक्षः संवरो वा तं द्रष्टुं शीलमस्येति निष्कर्मदशी, 'इहे'ति संसारे मत्त्येषु मध्ये य एव निष्कर्मदी स एव बाह्याभ्यन्तरस्रोतसश्छेत्तेति स्यात् । किमभिसन्ध्य स बाह्याभ्यन्तरसंयोगस्य छेत्ता| निष्कर्मदशी वा भवेत् इत्यत आह-कम्माण इत्यादि, मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगैः क्रियन्ते-बध्यन्त इति क-1 ॥१९४॥ माणि-ज्ञानावरणीयादीनि तेषां सफलत्वं दृष्ट्वा स वा निष्कर्मदर्शी वेदविद्वा कर्मणां फलं दृष्टा, तेषां च फलं-ज्ञाना
antaram
For P
OW
~103~
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [४], मूलं [१३९],नियुक्ति : [२३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३९]
दीप अनुक्रम [१५२]
वरणीयस्य ज्ञानावृतिः दर्शनावरणस्य दर्शनाच्छादनं वेदनीयस्य विपाकोदयजनिता वेदनेत्यादि, ननु च न सर्वेषां कर्मणां विपाकोदयमिच्छन्ति, प्रदेशानुभवस्यापि सद्भावात् तपसा च क्षयोपपत्तेरित्यतः कथं कर्मणां सफलत्वं?, नैप दोषो, नात्र प्रकारकाय॑मभिप्रेतम् , अपितु द्रव्यकाय, तच्चास्त्येव, तथाहि-यद्यपि प्रतिबन्धव्यक्ति न विपाकोदयस्त-11 थाप्यष्टानामपि कर्मणां सामान्येन सोऽस्त्येवेत्यतः कर्मणां सफलत्वमुपलभ्यते, तस्मात्-कर्मणस्तदुपादानादावाद्वा निश्चयेन याति निर्याति-निर्गच्छति, तन्न विधत्त इतियावत् , कोऽसौ? -'वेदविद्' वेद्यते सकलं चराचरमनेनेति वेदःआगमस्तं वेत्तीति वेदवित् , सर्वज्ञोपदेशवतीत्यर्थः ॥ न केवलस्य ममैवायमभिप्रायः, सर्वेषामेव तीर्थकराणामयमाशय इति दर्शयितुमाह
जे खलु भो! वीरा ते समिया सहिया सयाजया संघडदंसिणो आओवरया अहातहं लोयं उवेहमाणा पाईणं पडिणं दाहिणं उईणं इय सच्चंसि परि (चिए) चिडिंस, साहिस्सामो नाणं वीराणं समियाणं सहियाणं सयाजयाणं संघडदंसीणं आओवरयाणं अहातहं लोयं समुवेहमाणाणं किमस्थि उवाही?, पासगस्स न विजइ नस्थित्तिबेमि
(सू०१४०)॥ चतुर्थे चतुर्थः ४-४ । इति सम्यक्त्वाध्ययनम् ॥४॥ यदिवा उक्तः सम्यग्वादो निरवद्यं तपश्चारित्रं च, अधुना तत्फलमुच्यते-जे खलु' इत्यादि, खलुशब्दो वाक्याल
A
asurary.com
~104~
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [४], उद्देशक [४], मूलं [१४०],नियुक्ति: [२३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीआचा- राजवृत्तिः (श्री०)
[१४०]
॥१९५॥
कारे, ये केचनातीतानागतवर्तमानाः 'भो' इत्यामन्त्रणे 'वीराः' कर्मविदारणसहिष्णवः समिताः समितिभिः सहिता | सम्य० ४ ज्ञानादिभिः सदा यताः सत्संयमेन 'संघडदसिणो'त्ति निरन्तरदर्शिनः शुभाशुभस्य आत्मोपरताः पापकर्मभ्यो यथा तथा
उद्देशका३ अवस्थितं 'लोक' चतुर्दशरज्यात्मकं कर्मलोकं बोपेक्षमाणाः पश्यन्तः सर्वासु प्राच्यादिषु दिक्षु व्यवस्थिता इत्येवंप्रकाराः 'सत्य'मिति ऋतं तपः संयमो वा तत्र परिचिते-स्थिरे तस्थुः-स्थितवन्तः, उपलक्षणार्थत्वात् त्रिकालविषयता द्रष्टव्या, तत्रातीते काले अनन्ता अपि सत्ये तस्थुः वर्तमाने पञ्चदशसु कर्मभूमिषु सङ्ख्येयास्तिष्ठन्ति अनागते अनन्ता अपि स्थास्यन्ति, तेषां चातीतानागतवर्त्तमानानां सत्यवतां यज्ज्ञानं योऽभिप्रायस्तदहं कथयिष्यामि भवतां शृणुत यूयं, किम्भूतानां तेषां?'वीराणा'मित्यादीनि विशेषणानि गतार्थानि, किम्भूतं ज्ञानमिति चेदाह-किं प्रश्ने 'अस्ति' विद्यते ?, कोऽसौ ?-'उपाधिः' कर्मजनितं विशेषणं, तद्यथा-नारकस्तिर्यग्योनः सुखी दुःखी सुभगो दुर्भगः पर्याप्तकोऽपर्याप्तक इत्यादि, आहोस्विन्न विद्यत इति परमतमाशक्य त ऊचुः पश्यकस्य' सम्यग्वादादिकमर्थं पूर्वोपात्तं पश्यतीति पश्यः स एव पश्यकस्तस्य कर्मजनितोपाधिर्न विद्यते, इत्येतदनुसारेणाहमपि ब्रवीमि न स्वमनीषिकयेति । गतः सूत्रानुगमः, तगतौ च समाप्तश्चतुर्थोद्देशको, नयविचारातिदेशात् समाप्तं सम्यक्त्वाध्ययनं चतुर्थमिति ॥ ०६२०॥
दीप
अनुक्रम [१५३]
P4
॥१९५॥
~105~
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक H], मूलं [१४०...],नियुक्ति: [२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४०]
दीप अनुक्रम [१५३]
अथ लोकसाराख्यं पञ्चममध्ययनम् । उक्तं चतुर्धमध्ययन, साम्प्रतं पश्चममारभ्यते, अस्प चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने सम्यक्रवं प्रतिपादितं तदन्तर्गत Bाच ज्ञानं, तदुभयस्य च चारित्रफलत्वात् तस्यैव च प्रधानमोक्षाङ्गतया लोकसारत्वात् तत्प्रतिपादनार्थमिदमुपक्रम्यत
इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमेऽर्थाधिकारी द्वेधा, तत्राप्यध्ययनार्धाधिकारोऽभिहितः, उद्देशार्थाधिकारं तु नियुक्तिकारः प्रतिपिपादयिषुराहहिंसगविसयारंभग एगचरुति न मुणी पढमगंमि । विरओ मुणित्ति पिइए अविरयवाई परिग्गहिओ ॥२३६॥ दतहए एसो अपरिग्गहो य निम्विन्नकामभोगो य । अव्वत्तस्सेगचरस्स पचवाया चउत्थंमि ॥ २३७॥ हरओवमो य तवसंयमगुत्ती निस्संगया य पंचमए । उम्मग्गवजणा छट्ठगंमि तह रागदोसे य ।। २३८ ॥
हिनस्तीति हिंसकः आरम्भणमारम्भो विषयाणामारम्भोऽस्येति विषयारम्भकः, व्यधिकरणस्यापि गमकत्वात्समासः, 2 दावुलन्तस्य वा याजकादिदर्शनात् समासो, विषयाणामारम्भको विषयारम्भक इति, हिंसकश्च विषयारम्भकश्चेति विगृह्य ?
समाहारद्वन्द, प्राकृतत्वात्पुंलिङ्गता, अयमों-हिंसकः प्राणिनां विषयारम्भकश्च विषयार्थं सावधारम्भप्रवृत्तश्च न मुनिः। तथा विषयार्थमेव एक एव चरत्येकचरः स च न मुनिरिति, एतदधिकारत्रयं प्रथमोद्देशके १, द्वितीये तु हिंसादिपापस्था-1 नकेभ्यो विरतो मुनिर्भवतीत्ययमर्थाधिकारः, वदनशीलो वादी अविरतस्य वादी अविरतवादी परिग्रहवान् भवतीत्येत
नियुक्ति: क्रम-२३५ न दृश्यते पंचम-अध्ययनं 'लोक्सार' आरब्धः,
~106~
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४०...],नियुक्ति : [२३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
लोक०५
प्रत
उद्देशका
सूत्रांक
[१४०]
दीप अनुक्रम [१५३]
श्रीआचा- चात्रोद्देशके प्रतिपादयिष्यत इति २, तृतीये त्वेष एव विरतो मुनिरपरिग्रहो भवतीति निर्विणकामभोगश्चेत्ययमर्थाधि- रावृत्तिः कारः ३, चतुर्थे त्वव्यक्तस्य-अगीतार्थस्य सूत्रार्थापरिनिष्ठितस्य प्रत्यपाया भवन्तीत्ययमर्थाधिकारः ४, पञ्चमके तु दो(शी०) पमेन साधुना भाव्यं, यथा हि दो जलभृतोऽप्रतिस्रवः प्रशस्यो भवति, एवं साधुरपि ज्ञानदर्शनचारित्रभृतो विस्रोत
सिकारहित इति, तथा तपःसंयमगुप्तयो निःसङ्गता चेत्ययमर्थाधिकारः ५, षष्ठे तून्मार्गवर्जना-कुदृष्टिपरित्यागः, तथा राग॥१९॥
द्वेषौ च त्याज्यावित्ययमर्थाधिकारः ६, इति गाथात्रयार्थः ॥ नामनिष्पन्ने तु निक्षेपेऽत्र द्विधा नाम-आदानपदेन गौणं दाचेति, एतत् द्विविधमपि नियुक्तिकारः प्रतिपादयितुमाह
आयाणपएणावंति गोण्णनामेण लोगसारुत्ति । लोगस्स य सारस्स य चउकओ होड निक्षेवो ॥ २३९ ॥
आदीयते-प्रथममेव गृह्यत इत्यादानं तच्च तत्पदं च आदानपदं तेन करणभूतेनावन्तीत्येतनाम, अध्ययनादावावन्तीशब्दस्योच्चारणाद् , गुणैर्निष्पन्न गौणं तच्च तन्नाम च गौणनाम तेन हेतुना लोकसार इति, लोकस्य-चतुर्दशरज्चा-1 रमकस्य सार:-परमार्थों लोकसारः द्विपदं नामेत्यतः लोकस्य सारस्य च प्रत्येकं चतुष्कको निक्षेपो भवति, तद्यथा-नामलोको यस्य कस्यचिल्लोक इति नाम क्रियते, स्थापनालोकश्चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्य स्थापना गाथात्रयादवसेया, तच्चैतत्-तिरिअं चउरो दोसुं छद्दोसुं अट्ठ दस य एकेके । बारस दोसु सोलस दोसु वीसा य चउसुं तु ॥१॥ पुणरवि सोलस दोसुं बारस दोसुं तु हुंति नायव्चा । तिसु दस तिसु अकृच्छ य दोसु दोसुं तु चत्तारि ॥२॥ ओयरिअ लोअ-| मज्झा चउरो चउरो य सबहिं णेया । तिअ तिअ दुग दुग एकेकगं च जा सत्तमीए उ॥३॥ द्रव्यलोको जीवपुद्ग
M
॥१९६॥
PRIORasurary.orm
~107~
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४०...],नियुक्ति: [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
5*5
प्रत सूत्रांक [१४०]
दीप अनुक्रम [१५३]
लधर्माधर्माकाशकालात्मकः षड्विधः भावलोकस्त्वौदयिकादिषड्भावात्मकः सर्वद्रव्यपर्यायात्मको वा । सारोऽपि नामादि चतुर्विधः, तत्र नामस्थापने सुगमत्वादनादृत्य द्रव्यसारप्रतिपादनायाह-- सव्वस्स थूल गुरुए मज्झे देसप्पहाण सरिराई । धण एरंडे वहरे खहरं च जिणादुरालाई ॥ २४० ॥
अत्र पूर्वार्द्धपश्चार्द्धयोर्यथासङ्ख्यं लगनीयं, सर्वस्वे धनं सारभूतं, तद्यथा-कोटिसारोऽयं पञ्चकपर्दकसारो वा, स्थूले एरण्डः सारः, सारशब्दोऽत्र प्रकर्षवाची, स्थूलानां मध्ये एरण्डो भिण्डो वा प्रकर्षभूतः, गुरुत्वे वज्र, मध्ये खदिरः, देशे |
आम्रवृक्षो वेणुर्वा, प्रधाने यो यत्र प्रधानभावमनुभवति सचित्तोऽचित्तो मिश्रश्चेति, सचित्तो द्विपदश्चतुष्पदोऽपदश्चेति, है। द्विपदेषु जिनः चतुष्पदेषु सिंहः अपदेषु कल्पवृक्षः, अचित्तेषु वैडूर्यो मणिः, मिश्रेषु तीर्थकर एव विभूषितः, शरीरेष्वी
दारिक मुक्तिगमनयोग्यत्वाद्विशिष्टरूपापत्तेश्च, आदिग्रहणात् स्वामित्वकरणाधिकरणेषु सारता योज्या, तद्यथा-स्वामित्वे पू गोरसस्य घृतं सारभूतं, करणत्वे मणिसारेण मुकुटेन शोभते राजा, अधिकरणे दनि घृतं जले पद्ममस्थितमित्यादि-IX गाथार्थः ॥ भावसारप्रतिपादनायाह
भावे फलसाहणया फलओ सिद्धी महत्तमवरिट्ठा । साहणय नाणदसणसंजमतवसा तहिं पगयं ।। २४१ ।। I 'भावे' भावविषये सारे चिन्त्यमाने फलसाधनता सारः फलम्-अर्थक्रियावाप्तिस्तस्य साधनता फलसाधनता-फला-४ वार्थमारम्भे प्रवर्तनं ततः फलावाप्तिः प्रधान, फलतोऽप्यनैकान्तिकानात्यन्तिकरूपात् सांसारिकासकाशात्तद्विपर्यस्तं फलं
सारः, किं तत् !-सिद्धिः, किम्भूताऽसौ ?-'उत्तमसुखवरिष्ठा' उत्तमं च तदात्यन्तिकैकान्तिकानावाधत्वात् सुखं च
*35*35*****
~108~
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४०...],नियुक्ति : [२४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४०]]
दीप
श्रीआचा- उत्तमसुखं तेन वरिष्ठा-वरतमा, तत्साधनानि च गाथाशकलेन दर्शयति–साधनकानि' प्रकृष्टोपकारकाणि ज्ञानदर्शनसंराङ्गवृत्तिःशयमतपसि, तसिख भावसारे सिद्धाख्यफलसाधने ज्ञानादिके प्रकृतं ज्ञानदर्शनचारित्रेण भावसाररूपेणात्राधिकार इति|H (सी०)
उद्देशकार गाधार्थः । तस्यैव ज्ञानादेः सिक्युपायस्य भावसारतां प्रतिपादयन्नाह॥१९७॥
लोगंमि कुसमएसु य कामपरिग्गहकुमग्गलग्गेसुं । सारो हु नाणदंसणतवचरणगुणा हियट्ठाए ॥२४२॥ 'लोके' गृहस्थलोके कुत्सिताः समयाः कुसमयाः तेषु च, किम्भूतेषु-कामपरिग्रहेग ये कुत्सिता मार्गास्तेषु लग्नेषु, हुहेतौ, यस्माल्लोकः कामपरिग्रहामही गृहस्थभावमेव प्रशंसति, वक्ति च-गृहाश्रमसमो धर्मों, न भूतो न भविष्यति । पालयन्ति नराः शूराः, क्लीबाः पापण्डमाश्रिताः ॥१॥ गृहाश्रमाधाराश्च सर्वेऽपि पाषण्डिनः इत्येवं महामोहमोहितइच्छामदनकामेषु प्रवर्तते, तथा तीथिका अप्यनिरुद्धेन्द्रियप्रसरा द्विरूपकामाभिध्वङ्गिणः इत्यतस्तेषु सारो ज्ञानदर्शनतपश्चरणगुणा, उत्तमसुखवरिष्ठसिद्धिहेतुत्वात्, हिता-सिद्धिस्तदर्थत्वादिति गाथार्थः ॥ यतो ज्ञानदर्शनतपश्चरणगुणा हितार्थतया सारस्तस्मात्किं कर्त्तव्यमित्याह
चइऊणं संकपयं सारपयमिणं दढेण चित्तब्वं । अत्थि जिओ परमपयं जयणा जा रागदोसेहिं ॥ २४३ ॥ 'त्यक्त्वा' प्रोग्य, किंतता-शापद' किमेतन्मदारब्धमनुष्ठानं निष्फलं स्थादित्येवम्भूतो विकल्पः शङ्का तस्याः। पद-निमित्तकारणं तबाईलोक्तेष्वत्यन्तसूक्ष्मेष्वतीन्द्रियेषु केवलागमग्राह्येष्वर्थेषु या संशीतिः-सन्देह इत्येतद्रूपं तच्छ
अनुक्रम [१५३]
RKOT
~109~
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४०...],नियुक्ति : [२४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
E
प्रत सूत्रांक [१४०]
दीप अनुक्रम [१५३]
पदं विहाय सारपद-इदं ज्ञानादिकं प्रागुपन्यस्तं दृढेन-अनन्यमनस्केन तीर्थिकदम्भप्रतारणाक्षोभ्येन ग्राह्यं, तदेव शङ्कापदव्युदासकार्य गाथाशकलेन दर्शयति-अस्ति जीवः, अस्य च पदार्थानामादावुपन्यासाजीवपदार्थस्य च प्राधान्यादुपलक्षणार्थत्वाद्वा शेषपदार्थग्रहण, अस्ति-विद्यते जीवेतवान् जीवति जीविष्यतीति वा जीवः शुभाशुभफलभोक्तति, स च प्रत्यक्ष एवाहप्रत्ययसाध्यः, इच्छाद्वेषप्रयत्नादिकार्यानुमानसाध्यो वा, तथा अजीवा अपि धमाधम्मोकाशपुद्गला गतिस्थित्यवगाहल्यणुकादिस्कन्धहेतवः सन्ति,एवमानवसंवरवन्धनिर्जरा अपि विद्यन्ते, प्रधानपुरुषार्थत्वाद् आद्यन्तग्रहणे मध्यग्रहणस्यावश्यंभाविवादाचं जीवपदार्थ साक्षादुपन्यस्यान्त्यं मोक्षपदार्थमुपम्यस्यति-परमं च तत्पदं च परमपदं, तथास्तीति सम्बन्ध इति, अस्ति मोक्षः शुद्धपदवाच्यत्वाद् बन्धस्य संप्रतिपक्षत्वान्मोक्षाविनाभावित्वाद्वा बन्धस्येति, सत्यपि मोक्षे यदि तदवाप्तावुपायो न स्यात्ततो जनाः किं कुर्युरित्यतस्तत्कारणास्तित्वं दर्शयति-'यतना'यत्नो रागद्धेपेषु, रागद्वेषोपशमाधः संयमोऽसावप्यस्तीति । तदेवं सति जीवे परमपदे च शङ्कापदव्युदासेन ज्ञानादिकं सारपदं दृढेन ग्राह्यमिति गाथार्थः । ततोऽप्यपरापरसारणकर्षगतिरस्तीति दर्शयच्छुपक्षेपमाहलोगस्स उ को सारो? तस्स य सारस्स को हवइ सारो।तस्स यसारो सारं जह जाणसि पुडिओ साह२४४
'लोकस्य चतुर्षभरल्यास्मकस्य कः सारः, तस्यापि सारस्य कोऽपरः सारः, तखापि सारसारस्य सारं यदि जानासि ततः पृष्टो मया कथवेति गावार्थः ॥ प्रश्नपतिवचनार्थमाह
लोगस्स सार धम्मो धम्मपि य नाणसारिपं चिंति । नाणं संजमसारं संजमसारंच निव्वाणं ॥ २४५ ॥
~1104
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४१],नियुक्ति: [२४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४१]
दीप अनुक्रम [१५४]
श्रीआचा- समस्तस्यापि लोकस्य तावद्धर्मः सारो, धर्ममपि ज्ञानसारं अवते, ज्ञानमपि संयमसारं, संयमस्यापि सारभूतं निर्वाण- लोक०५ राजवृत्तिःपदामिति गाथार्थः। उक्को नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं, तचेदम्(शी०)
उद्देशक आवंती केयावंती लोयंसि विप्परामुसंति अट्टाए अणट्राए, एएसु चेव विप्परामुसंति, गुरु से ॥१९॥
कामा, तओ से मारते, जओ से मारते तओ से दूरे, नेव से अंतो नेव दूरे (सू०१४१)
'आवन्ती'त्ति यावन्तो जीवा मनुष्या असंयता वा स्युः, 'केआवंति'त्ति केचन 'लोके' चतुर्दशरज्वात्मके गृहस्थान्यटातीथिकलोके वा षड्जीवनिकायान् आरम्भप्रवृत्ता विविधम्-अनेकप्रकारं विषयाभिलाषितया 'परामृशन्ति' उपताप
यन्ति, दण्डकशताडनादिभिर्यातयन्तीत्यर्थः, किमर्थं विपरामृशन्तीति दर्शयति-'अर्थाय' अर्थार्थ अर्थाद्वा अर्थ:-प्रयो-12 जनं धर्मार्थकामरूपं, कर्माणि ल्यब्लोपे पञ्चमी, अर्थमुद्दिश्य-प्रयोजनमुठोक्ष्य प्राणिनो घातयन्ति, तथाहि-धर्मनिमित्तं शौचा) पृथिवीकार्य समारभन्ते, अर्थार्थ कृष्यादि करोति, कामार्थमाभरणादि, एवं शेषेष्वपि कायेषु यथायोगं वाच्यं, अनर्थाद्वा-प्रयोजनमनुद्दिश्यैव तच्छीलतयैव मृगयाद्याः प्राण्युपघातकारिणीः क्रियाः कुर्वन्ति, तदेवमर्थादनाद्वा प्राणिनो हत्वा एतेष्वेव-पजीवनिकायस्थानेषु विविधम्-अनेकप्रकारे सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकादिभेदेन तानेकेन्द्रिदायीन् प्राणिनस्तदुपधातकारिणः परामृशन्ति, तान् प्रपीब्य तेष्वेवानेकश उत्पद्यन्त इतियावत् , यदिवा तत्पडूजीवनिकायबाधाऽवाप्तं कर्म तेष्वेव कायेषूत्पद्य ते तैस्तैः प्रकारैरुदीर्ण विपरामृशन्ति-अनुभवन्तीति, नागार्जुनीयास्तु पठन्तिा बा॥१९८॥ -"जावंति केइ लोए छकायवहं समारभंति अहाए अणढाए वा" इत्यादि, गतार्थ, स्याद्-असी किमर्थमेवंविधानि क-1
पंचम-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'एकचर' आरब्ध:,
~1114
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१४१]
दीप अनुक्रम [१५४ ]
29
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१४१],निर्युक्ति: [२४५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
म्र्माणि कुरुते यान्यस्य कायगतस्य विपच्यन्ते ?, तदुच्यते- 'गुरू से कामा' 'से' तस्यापरमार्थविदः काम्यन्त इति कामा:शब्दादयस्ते गुरवो दुस्त्यजत्वात्, कामा ह्यल्पसखैर नवाप्तपुण्योपचयैरुङ्घयितुं दुष्करमित्यतस्तदर्थं कायेषु प्रवर्त्तते तत्प्रवृत्ती च पापोपचयस्तदुपच्याच्च यत्स्यात्तदाह - 'ततः' पजीवनिकाय विपरामर्शात् परमकामगुरुत्वाच्चासौ मरणं मारः- आयुषः क्षयस्तस्यान्तर्वर्त्तते, मृतस्य च पुनर्जन्म जन्मनि चावश्यंभावी मृत्युरेवं जन्ममरणात् संसारोदन्वति | मज्जनोन्मज्जनरूपान्न मुच्यते । ततः किमपरमित्याह - 'जओ से' इत्यादि, यतोऽसौ मृत्योरन्तस्ततोऽसौ 'दूरे' परमपदोपायात् ज्ञानादित्रयात् तत्कार्याद्वा मोक्षाद्, यदिवा सुखार्थी कामान्न परित्यजति, तदपरित्यागे च मारान्तर्वर्त्ती, यतश्च | मारान्तर्वतीं ततो जातिजरामरणरोगशोकाभिभूतत्वादसी सुखाद्दूरे। यस्मादसौ कामगुरुस्तद्गुरुत्वान्मारान्तर्वतीं तदन्तर्वर्त्तित्वात्किम्भूतो भवतीत्यत आह- 'नेव से' इत्यादि, नैवासी विषयसुखस्यान्तर्वर्त्तते, तदभिलाषापरित्यागाच्च नैवासौ दूरे, यदिवा यस्य गुरवः कामाः स किं कर्मणोऽन्तर्बहिर्वेति प्रश्नावसरे सत्याह-- 'णेव से' इत्यादि, नैवासौ कर्मणोऽन्तः- मध्ये भिन्नग्रन्थित्वात्सम्भावितावश्यंभाविकम्र्मक्षयोपपत्तेः, नाप्यसौ दूरे देशोन कोटीकोटिकर्म्मस्थितिकत्वात्, चारिनावाप्तावपि नैवान्तनैव च दूरे इत्येतच्छक्यते वक्तुं पूर्वोक्तादेव कारणादिति, अथवा येनेदं प्राणायि किमसावन्तर्भूतः संसारस्याहोश्विद्बहिर्वर्त्तते इत्याशङ्कयाह -- 'णेव से' इत्यादि, नैवासौ संसारान्तः घातिकर्म्मक्षयात् नापि दूरे अद्यापि भवोपग्राहिक सद्भावादिति ॥ यो हि भिन्नग्रन्थिको दुरापावातसम्यक्त्वः संसारारातीयतीरवर्ती स किमध्यवसायी स्यादित्याह
Eucation Internation
For Pernal Use On
~112~
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४२],नियुक्ति: [२४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराजवृत्तिः (शी०)
सूत्रांक
[१४२]
॥१९९॥
दीप अनुक्रम [१५५]
से पासइ फुसियमिव कुसग्गे पणुन्नं निवइयं वाएरियं, एवं बालस्स जीवियं मंदस्स
लोक०५ अवियाणओ, कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परिआसमुवेइ, उद्देशका
मोहेण गभं मरणाइ एइ, एत्थ मोहे पुणो पुणो (सू० १४२) 'से पासईत्यादि, 'सः' अपगतमिथ्यात्वपटलः सम्यक्त्वप्रभावावगतसंसारासारः पश्यति' दृशिरुपलब्धिक्रिय इत्यत उपलभते-अवगृच्छति, किं तत्-'फुसियमिव'त्ति कुशाग्र उदकविन्दुमिव बालस्य जीवितमिति सम्बन्धः, तत्किम्भूतमित्याह-'पणुन्न'मित्यादि, प्रणुन्नम्-अनवरतापरापरोदकपरमाणूपचयात् प्रणुन्नं-प्रेरितं वातेनेरितं सन्निपतितं भाविनि भूतवदुपचारानिपतदेव निपतितं, दाष्टोन्तिकं दर्शयति-एव मिति यथा कुशाग्ने विन्दुः क्षणसम्भावितस्थितिकः एवं बालस्यापि जीवितम्, अवगततत्त्वो हि स्वयमेवावगच्छति नाप्यसौ तदभिकाङ्गति अतो बालग्रहणं, वालो ह्यज्ञः, स चाज्ञानत्वादेव जीवितं बहु मन्यते, यत एव बालोऽत एव मन्दः-सदसद्विवेकापटुः, यत एवं बुद्धिमन्दोऽत एव परमार्थे न जानाति, अतः परमार्थमविजानत एवम्भूतं जीवितमित्येवं पश्यति । परमार्थमजानंश्च यत्कुर्यात्तदाह-'कूराणि'इ-15 त्यादि, 'क्रूराणि' निर्दयानि निरनुक्रोशानि 'कर्माणि' अनुष्ठानानि हिंसानृतस्तेयादीनि सकललोकचमत्कृतिकारीणि अ
॥१९९॥ टादश वा पापस्थानानि 'बालः' अज्ञः प्रकर्षेण कुर्वाणः, कत्रंभिप्राये क्रियाफले आत्मनेपदविधानात्तस्यैव तक्रियाफल-II |विपाकं दर्शयति-'तेन' क्रूरकर्मविपाकापादितेन दुःखेन 'मूढः' किंकर्त्तव्यताऽऽकुलः, केन कृतेन ममैतदुश्खमुपशमं या
For P
OW
~1134
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक [१४२ ]
दीप
अनुक्रम [१५५ ]
29
[भाग-2] “आचार” मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१४२],निर्युक्ति: [२४५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
व्यादिति मोहमोहितो विपर्यासमुपैति यदेव प्राण्युपघातादि दुःखोसादने कारणं तदुपशमाय तदेव विदधातीति । किंच -- 'मोहेण' इत्यादि, 'मोहः' अज्ञानं मोहनीयं वा मिथ्यात्वकषायविषयाभिलाषमयं तेन मोहेन मोहितः सन् कर्म बनाति, तेन च गर्भमवाप्नोति, ततोऽपि जन्म पुनर्वालकुमारयौवनादिवयोविशेषाः, पुनर्विषयकपायादिना कम्मपादायायुषः क्षयात् मरणमवाप्नोति, आदिग्रहणात्पुनर्गर्भमित्यादि, नरकादियातनास्थानमेतीत्यतोऽभिधीयते - 'एत्थ' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन्ननन्तरोके 'मोहे' मोहकार्ये गर्भमरणादिके पौनःपुन्येनानादिकमपर्यन्तं चतुर्गतिकं संसारकान्तारं पर्यटति, नास्मादपैतीतियावत् कथं पुनः संसारे न बम्भ्रम्यात् ?, तदुच्यते-मिथ्यात्वकषायविषयाभिलाषाभावाद्, असावेव कुतो ?, विशिष्टज्ञानोसत्तेः १, सैव कुतो ?, मोहाभावात्, यद्येवमितरेतराश्रयत्वं तथाहि - मोहोऽज्ञानं मोहनीयं वा तदभावो विशिष्टज्ञानोत्पत्तेः साऽपि तदभावादिति भणता स्पष्टमेव इतरेतराश्रयत्वमुक्तं, ततश्च न यावद्विशिष्टज्ञानोत्पत्तिः संवृत्ता न तावत्कर्म्मशमनाय प्रवृत्तिः स्यात्, नैष दोषः, अर्थसंशयेनापि प्रवृत्तिदर्शनादिति । आह च
संसयं परिआणओ संसारे परिन्नाए भवइ, संसयं अपरियाणओ संसारे अपरिनए भवइ ( सू० १४३ )
'संसय' मित्यादि, ' संशीतिः संशयः- उभयांशावलम्बा प्रतीतिः संशयः स चार्थसंशयोऽनर्थसंशयश्च, इह चार्थो मोक्षो मोक्षोपायश्च तत्र मोक्षे न संशयोऽस्ति, परमपदमितिप्रतिपादनात् तदुपाये तु संशयेऽपि प्रवृत्तिर्भवत्येव, अर्थसंश
Eucation International
For Parts Only
~114~
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४३],नियुक्ति: [२४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४३]
(शी०)
उद्देशका
दीप अनुक्रम [१५६]
श्रीआचा
[दा यस्य प्रवृत्त्यङ्गत्वात् । अनर्थस्तु संसारः संसारकारणं च, तत्सन्देहेऽपि निवृत्तिः स्यादेव, अनर्थसंशयस्य निवृत्त्यङ्गयात्रा राति अतः संशयमर्थानर्थगतं परिजानतो हेयोपादेयप्रवृत्तिः स्यादित्येतदेव परमार्थतः संसारपरिज्ञानमिति दर्शयति-तेन संशय
परिजानता संसारश्चतुर्गतिकः तदुपादानं वा मिथ्यात्वाविरत्यादि अनर्थरूपतया परिज्ञातं भवति ज्ञपरिज्ञया, प्रत्याख्या
नपरिज्ञया तु परिहृतमिति, यस्तु पुनः संशयं न जानीते स संसारमपि न जानातीति दर्शयितुमाह-संसयं' इत्यादि, ॥२०॥ 'संशयं' सन्देहं द्विविधमप्यपरिजानतो हेयोपादेयप्रवृत्तिर्न स्यात्, तदप्रवृत्तौ च संसारोऽनित्याशुचिरूपो व्यसनोपनि
कापातबहुलो निःसारो न ज्ञातो भवति ॥ कुतः पुनरेतन्निश्चीयते? यथा तेन संशयवेदिना संसारः परिज्ञात इति ?, किमत्र। निश्चेतव्यं ?, संसारपरिज्ञानकार्यविरत्युपलब्धः, तत्र सर्वविरतिप्रष्ठां विरतिं निर्दिदिक्षुराह
जे छेए से सागारियं न सेवइ, कटु एवमवियाणओ बिइया मंदस्स बालया, लद्धा
हुरत्था पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासेवणय त्ति बेमि (सू०१४४) 'जे छेए' इत्यादि यश्छेको-निपुण उपलब्धपुण्यपापः स 'सागारिय'ति मैथुनं न सेवते मनोवाकायकर्मभिः, स एव , यथावस्थितसंसारवेदी, यस्तु पुनर्मोहनीयोदयापार्श्वस्थादिः तत्सेवते, सेवित्वा च सातगौरवभयात् किं कुर्यादित्याह-कट्ट' इत्यादि, रहसि मैथुनप्रसङ्गं कृत्वा पुनर्गुदिना पृष्टः सन्नपलपति, तस्य चैवमकार्यमपलपतोऽविज्ञापयतो वा किं स्यावित्याह-'विइया' इत्यादि, 'मन्दस्य' अबुद्धिमत एकमकार्यासेवनमियं बालता-अज्ञानता, द्वितीया तदपहवनं मृषा
X
॥२०
॥
~1154
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१४४]
दीप
अनुक्रम [१५७ ]
39
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१४४],निर्युक्तिः [२४५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
वादः सदकरणतया वा पुनरनुत्थानमिति, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति – “जे खलु विसए सेवई सेवित्ता वा णालोएइ, परेण वा पुट्ठो निण्हवइ, अहवा तं परं सएण वा दोसेण पाविद्वयरेण वा दोसेण उवलिंपिज्ज' सि" सुगमं । यद्येवं ततः किं कुर्यादित्याह 'लद्धा हु' इत्यादि, लब्धानपि कामान् 'हुरत्थेति वहिश्चित्रक्षुल्लकादिवत्तद्विपाकं प्रत्युपेक्ष्य चित्ताद्बहिः कुर्यात्, यदिवा हुशब्दोऽपिशब्दार्थे, रेफागमः सुव्यत्ययेन द्वितीयार्थे प्रथमा, ततोऽयमथ - उन्धानप्यर्थ्यन्ते -अभिलम्यन्त इत्यर्था:- शब्दादयस्तानुपनतानपि तद्विपाकद्वारेण 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य ततः 'आगम्य' ज्ञात्वा दुरन्तं शब्दादिविषयानुषङ्ग, क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासव्यपेक्षत्वात्तां दर्शयति-तदनासेवनतया परानाज्ञापयेत् स्वतोऽपि परिहरेदिति, एतदहं ब्रवीमि येन मया पूर्वार्थव्यावर्णनमकारि स एवाहमव्यवच्छिन्नसम्यग्ज्ञानप्रवाहः शब्दादिविषयस्वरूपो|पलम्भात् समुपजनितजिनवचनसंमद इति । एतच्च वक्ष्यमाणं ब्रवीमीति, तदाह
पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिजमाणे, इत्थ फासे पुणो पुणो, आवंती केयावंती लोयंसि आरंभजीवी, एएस चेव आरंभजीवी, इत्थवि वाले परिपञ्चमाणे रमई पावेहिं कम्मेहिं असरणे सरणंति मन्नमाणे, इहमेगेसिं एगचरिया भवइ, से बहुको हे बहुमाणे बहुमाए बहुलोभे बहुरए बहुनडे बहुसढे बहुसंकप्पे आसवसची पलिउ - च्छन्ने उट्ठियवायं पवयमाणे, मा मे केइ अदक्खू अन्नायपमायदोसेणं, सययं मूढे
Ja Eucation Internationa
For Par Use Only
~116~
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४५],नियुक्ति: [२४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४५]
दीप अनुक्रम [१५८]
श्रीआचा- धम्म नाभिजाणइ, अट्टा पया माणव ! कमकोरिया जे अणुवरया अविजाए पलिमु- लोक०५ रावृत्तिः
क्खमाह आवद्दमेव अणुपरियति तिबेमि (१४५)॥ लोकसारे प्रथमोद्देशकः ५-१॥ (शी०)
उद्देशका 'पासह' इत्यादि, हे जनाः पश्यत यूयमेकान्तपुष्टधर्माणो, बहुवचननिर्देशादाद्यर्थो गम्यते, 'रूपेषु' रूपादिष्विन्द्रिय-14 ॥२०१॥
| विषयेषु निःसारकटुफलेषु 'गृद्धान्' अध्युपपन्नान् सतः इन्द्रियविषयाभिमुखं संसाराभिमुखं वा नरकादियातनास्थानकेषु वा परिणीयमानान् प्राणिन इति । ते च विषयगृभव इन्द्रियवशगाः संसारार्णवे किमामुयुरित्याह-एत्थ फासे'इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन् संसारे हृषीकवशगः सन् कर्मपरिणतिरूपान् स्पर्शान् पौनःपुन्येन-आवृत्त्या तानेव तेषु तेष्वेव स्थानेषु || प्रामुयादिति । पाठान्तरं वा 'एत्थ मोहे पुणो पुणो' 'अत्र' अस्मिन् संसारे 'मोहे' अज्ञाने चारित्रमोहे वा पुनः पुनर्भव-1 तीति । कोऽसावेवम्भूतः स्थादित्यत आह-'आवंती'त्यादि, यावन्तः केचन 'लोके' गृहस्थलोके 'आरम्भजीविनः' साव-13 द्यानुधानस्थितिकाः, ते पौनःपुन्येन दुःखान्यनुभवेयुरिति । येऽपि गृहस्थाश्रिताः सारम्भास्तीथिकादयस्तेऽपि तदुःखभा-15 जिन इति दर्शयति-'एएसु'इत्यादि, एतेषु' सावद्यारम्भप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु शरीरयापनार्थं वर्तमानस्तीर्थिकः पावस्थादिवा | x'आरम्भजीवी' सावद्यानुष्ठानवृत्तिः पूर्वोक्तदुःखभाग् भवति । आस्तां तावद्हस्थस्तीथिको वा, योऽपि संसारार्णवतटदेश-15 कामवाप्य सम्यक्त्वरलं लब्ध्वाऽपि मोक्षककारणं विरतिपरिणाम सफलतामनीत्वा कम्मोदयात् सोऽपि सावद्यानुष्ठायी ॥२०१॥ शास्यादित्याह-एस्थवि बाले इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन्नप्यहाणीतसंयमाभ्युपगमे 'बालो' रागद्वेषाकुलितः परितप्यमानः
~117
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१४५ ]
दीप
अनुक्रम [१५८ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
39
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१४५],निर्युक्ति: [२४५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
परिपच्यमानो वा विषयपिपासया रमते, कैः १-पापैः कर्मभिः, विषयार्थं सावद्यानुष्ठाने धृतिं विधसे, किं कुर्वाण इत्याह - 'असरण' मित्यादि, कामाग्निना पापैर्वा कर्म्मभिः परिपध्यमानः सावद्यानुष्ठानमशरणमेव शरणमिति मन्यमानो भोगेच्छाऽज्ञानतमिस्राच्छादितदृष्टिविपर्ययः सन् भूयो भूयो नानारूपावेदना अनुभवेदिति । आस्तां तावदन्ये, प्रव्रज्यामध्यभ्युपेत्य केचिद्विषयपिपासार्त्तास्तांस्तान् कल्काचाराना चरन्तीति दर्शयितुमाह- 'इहमेगेसि मित्यादि, 'इह' मनुष्यलोके एकेषां न सर्वेषां चरणं चर्यते वा चर्या एकस्य चर्या एकचर्या, सा च प्रशस्तेतरभेदेन द्विधा-साऽपि द्रव्यभावभेदात् प्रत्येकं द्विधा, तत्र द्रव्यतो गृहस्थपापण्डिकादेर्विषय कषायनिमित्तमेकाकिनो विहरणं, भावतस्तु अप्रशस्ता न विद्यते, सा हि रागद्वेषविरहाद्भवति, न च तद्रहितस्याप्रशस्ततेति । प्रशस्ता तु द्रव्यतः प्रतिमाप्रतिपन्नस्य गच्छनिर्गतस्य स्थविरकल्पि कस्य चैकाकिनः सङ्घादिकार्यनिमित्तान्निर्गतस्य भावतरंतु पुना रागद्वेषविरहाद्भवति, तत्र द्रव्यतो भावतश्चैकचर्या अनुत्यन्नज्ञानानां तीर्थकृतां प्रतिपन्नसंयमानाम्, अन्ये तु चतुर्भङ्गपतिताः, तत्राप्रशस्तद्रव्यैकचर्यादाहरणं, तद्यथा- पूर्वदेशे धान्यपूरकाभिधाने सन्निवेशे एकस्तापसः प्रथमवया देवकुमारसदृशविग्रहः षष्ठभक्तेन तद्भामनिर्गमपथे तपस्तेपे, द्वितीयोऽप्युपग्रामं गिरिगह्वरेऽष्टमभक्तेन तपःकर्म्मणाऽऽतापनां विधत्ते तस्मै च ग्रामनिर्गमपथवर्त्तिने शीतोष्णसहिष्णवे गुणैराकृष्टो लोक आहारादिभिः सपर्ययोपतिष्ठते, स च तथा लोकेन पूज्यमानो वाग्भिरभिष्ट्रयमानः आहारादिनोपचर्यमाणो जनमूचे-मत्तोऽपि गिरिपरिसरातापी दुष्करकारकः, ततोऽसौ लोकस्तेन भूयो भूयः प्रोच्यमानस्तमेकाकिनं तापसमद्रिकुहरवासिनं पर्यपूजयद्, दुष्करं च परगुणोत्कीर्त्तनमितिकृत्वा तस्यापि सपर्यादिकं व्यधात्, तदेवमाभ्यां पूजाख्या
For Par Use Only
~118~
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४५...],नियुक्ति : [२४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
लोक०५ उद्देशका
सूत्रांक
[१४५]
दीप अनुक्रम [१५८]
श्रीआचा- त्यर्थमेकचर्या विदधे, अतोऽप्रशस्ता, एवमनया दिशाऽन्येऽप्यप्रशस्तैकचर्याश्रिता दृष्टान्ता यथासम्भवमायोज्या इति । राजवृत्तिः तदेवं सूत्रार्थे व्याख्याते सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या नियुक्तिकारो ग्याचिख्यासुराह(शी०)
चारो चरिया चरणं एगद वंजणं तहिं छकं दब्वं तु दारुसंकम जलथलचाराइयं बहुहा ॥ २४६॥
'चार' इति 'चर गतिभक्षणयोः भावेघञ्, चयेति 'गदमदचरयमश्चानुपसर्गे' (पा०३-१-१००) इत्यनेन कर्मणि भावे वा] ॥२०॥
यत् , चरणमिति वा, भावे युद, एकः-अभिन्नोऽर्थोऽस्येत्येकार्थ, किं तत्-'व्यञ्जनं' व्यग्यते-आविष्क्रियतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जन-शब्द इत्येतत्पूर्वोक्तं शब्दत्रयमेकार्थ, एकार्थत्वाच्च न पृथर निक्षेपः, 'तत्र' चारनिक्षेपे पटूं, चारस्य पट्पकारो निक्षेप इत्यर्थः, तद्यथा-नामस्थापनेत्यादि, तत्र सुगमत्वान्नामस्थापने अनादृत्य ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यचार गाथाशकलेन दर्शयति-'दच्वं तु' ति तुशब्दः पुनःशब्दार्थे द्रव्यं पुनरेवम्भूतं भवति, दारुसङ्कमश्च जलस्थलचारश्च दारुसमजलस्थलचारी तावादी यस्य तदारुसङ्कमजलस्थलचारादिकं 'बहुधा' अनेकधा, तब दारुसङ्कमो जले सेत्वादिः
क्रियते, स्थले वा गर्तलानादिका, जलचारो नावादिना, स्थलचारो रथादिना, आदिग्रहणात् प्रासादादी सोपानपसावधादिरिति, यद्यद्देशादेशान्तरावाप्तये द्रव्यं स स द्रव्यचार इति गाथार्थः । साम्प्रतं क्षेत्रादिकमाह
खितं तु जंमि खित्ते कालो काले जहिं भवे चारो भामि नाणदसणचरणं तु पसत्थमपसत्यं ॥२४७॥ I क्षेत्र पुनर्यस्मिन् क्षेत्रे चारः क्रियते यावद्वा क्षेत्रं चर्यते स क्षेत्रचारः, कालस्तु यस्मिन् काले चरति यावन्तं वा कालं स कालचारः, भावे तु द्विधा चरण-प्रशस्तमप्रशस्तं च, तत्र प्रशस्तं ज्ञानदर्शनचरणानि, अतोऽन्यदप्रशस्तं गृहस्थान्य
॥२०२॥
~119~
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४५...],नियुक्ति: [२४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४५]]
दीप अनुक्रम [१५८]
तीर्थकाणामिति गाधार्थः । तदेवं सामान्यतो द्रव्यादिकं चार प्रदर्य प्रकृतोपयोगितया यते वचार प्रशस्त प्रश्नद्वारेणll दर्शयितुमाह| लोगे चउब्विहमी समणस्स चउबिहो कहं चारो?। होई धिई अहिगारो विसेसओ खित्तकालेसुं ॥२४॥
'लोके' चतुर्विधे द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपे 'श्रमणस्य' श्राम्यतीति श्रमणो-यतिस्तस्य कथम्भूतो द्रव्यादिश्चतुर्विधश्चारः स्या, इति प्रश्ने निर्वचनमाह-भवति धृतिरित्येषोऽधिकारः, द्रव्ये तावदरसविरसपान्तरूक्षादिके धृतिर्भावयितव्या, क्षेत्रेऽपि कुतीर्थिकभाविते प्रकृत्यभद्रके वा नोद्वेगः कार्यः, कालेऽपि दुष्कालादौ यथालाभं सन्तोषिणा भाव्यं, भावेड-IM प्याक्रोशोपहसनादी नोद्दीपितव्यं, विशेषतस्तु क्षेत्रकालयोरवमयोरपि धृतिर्भाव्या, द्रध्यभावयोरपि प्रायस्तनिमित्तखात् ॥ पुनरपि द्रव्यादिकं विशेषतो यतेश्चारमाहपावोवरए अपरिग्गहे अ गुरुकुलनिसेवए जुत्ते । उम्मग्गवजए रागदोसविरए य से बिहरे ॥ २४९॥ 'पापोपरतः' पापात्-पापहेतोः सावधानुष्ठानाद्धिंसाऽनृतादत्तादानाब्रह्मरूपादुपरतः पापोपरतः, तथा न विद्यते परिग्रहोऽस्येत्यपरिग्रहः, पापोपरतोऽपरिग्रहश्चेति द्रव्यचारः, क्षेत्रचारमाह-गुरोः कुलं गुरुकुलं-गुरुसान्निध्यं तत्सेवको-युक्तः समन्वितो यावज्जीचं गुरूपदेशादिनेति, अनेन कालचारः प्रदर्शितः, सर्वकालं गुरुपदेशविधायित्वोपदेशाद्, भावचारमाह-उगतो मार्गादुन्मार्ग:-अकार्याचरणं तदर्जकः, तथा रागद्वेषविरतः स साधुर्विहरेत्-संयमानुष्ठानं कुर्यादिति, गता नियुक्तिः । साम्प्रतं सूत्रमनुश्रियते-तत्र विषयकषायनिमित्तं यस्यैकचर्या स्थात् स किम्भूतः स्यादित्याह-'से बहु कोहे'
~120
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१४५...],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
लोक०५
प्रत
सूत्रांक
[१४५]
दीप अनुक्रम [१५८]
श्रीआचा- इत्यादि, 'स' विषयगृधुरिन्द्रियानुकूलवत्येकचर्याप्रतिपन्नस्तीथिको गृहस्थो वा परैः परिभूयमानो बहुः क्रोधोऽस्येति राङ्गवृत्तिः | बहुक्रोधः, तथा वन्द्यमानो मानमुबहत इति बहुमानः, तथा कुरुकुचादिभिः कल्कतपसा च बहुमायी, सर्वमेतदाहारा(शी०) दिलोभास्करोतीत्यतो बहुलोभः, यत एवमतो बहुरजाः-बहुपापो बहुषु वाऽऽरम्भादिषु रतो बहुरतः, तथा नटवदोगार्थ |
बहुन् वेषान् विधत्त इति बहुनटः, तथा बहुभिः प्रकारैः शठो बहुशठः, तथा बहवः सङ्कल्पाः कर्त्तव्याध्यवसाया यस्य स ॥२०३॥
बहुसङ्कल्पः, इत्येवमन्येषामपि चौरादीनामेकचों वाच्येति, स एवम्भूतः किमवस्थः स्यादित्याह-'आसव' इत्यादि, आनवाः-हिंसादयस्तेषु सक्तं-सॉ आश्रवसतं तद्विद्यते यस्यासावाश्रवसक्ती-हिंसाधनुषङ्गवान् पलितं-कम्में तेनाव|च्छन्नः, कर्मावष्टब्ध इतियावत् , स चैवम्भूतोऽपि किं ब्रूयादित्याह-'उद्विय इत्यादि, धर्माचरणायोयुक्तः उत्थितस्तद्वाद उत्थितवादस्त प्रवदन , तीथिकोऽप्येवमाह-यथा अहमपि प्रबजितो धर्मचरणायोद्यत इत्येवं प्रवदन कर्मणाऽवच्छा-11 चत इति । स चोत्थितवादी आस्रवेषु प्रवर्त्तमानः आजीविकाभयात् कथं प्रवर्तत इत्याह-'मा में'इत्यादि, मा मां केचन' अन्येऽद्राभुरवद्यकारिणमित्यतः प्रच्छन्नमकार्य विदधाति, एतच्चाज्ञानदोषेण प्रमाददोषेण वा विधत्त इति । किं|
च-'सयय'मित्यादि, 'सततम्' अनवरतं मूढो मोहनीयोदयादज्ञानाद्वा 'धम्मै श्रुतचारित्राख्यं नाभिजानाति, न वि-1 KIवेचयतीत्यर्थः । यद्येवं ततः किमित्याह-'अट्टा' इत्यादि, आर्ता विषायकपायैः 'प्रजायन्त' इति प्रजा:-जन्तवः हे।
मानव!, मनुजस्यैवोपदेशाहत्वान्मानवग्रहणं, 'कर्मणि' अष्टप्रकारे विभत्सिते 'कोविदाः' कुशलाः, न धर्मानुष्ठान इति, के पुनः ते ये सततं धर्म नाभिजानन्ति कर्मबन्धकोविदाश्चेति ?, अत आह-जे अणुवरया' इत्यादि, ये केचनानि
~121~
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१४५...],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
दिष्टस्वरूपाः 'अनुपरता' पापानुष्ठानेभ्योऽनिवृत्ता ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षमार्ग इत्येषा विद्या अतो विपर्ययेणाविद्या
तया परि-समन्तात् मोक्षमाहुः ते धर्म नाभिजानन्त इति सम्बन्धः, धर्ममजानानाश्च किमानुयुरित्याह-आवद्दे| भइत्यादि, भावावर्तः-संसारस्तमरघट्टघटीयन्त्रन्यायेनानुपरिवर्तन्ते, तास्वेव नरकादिगतिषु भूयो भूयो भवन्तीतियावत् ।
इतिरधिकारपरिसमाप्ती, अवीमीति पूर्ववत् । लोकसाराध्ययने प्रथमोदेशक इति ॥१॥
सूत्रांक
[१४५]]
PROGRSRIGANGACCC
दीप अनुक्रम [१५८]
उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्पतं द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इह प्रागुद्देशके एकचर्याप्रतिपन्नोऽपि सावद्यानुष्ठानाद्विरतेरभावाच्च न मुनिरित्युक्तम् , इह तु तद्विपर्ययेण यथा मुनिभावः स्यात्तथोच्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादि सूत्रम्
आवन्ती केयावन्ती लोए अणारंभजीविणो तेसु, एत्थोवरए तं झोसमाणे, अयं संधीति अदक्खू, जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणेत्ति अन्नेसी एस मग्गे आरिपहिं पवेइए, उठ्ठिए नो पमायए, जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, पुढोछंदा इह माणवा पुढो दुक्खं पवेइयं से अविहिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्ठो फासे विपणुन्नए (सू० १४६)
AAAAAAAECENCE
पंचम-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'विरत मुनि' आरब्धः,
~122~
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१४६ ]
दीप
अनुक्रम [१५९ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], मूलं [१४६],निर्युक्तिः [२४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा 'यावन्तः' केचन 'लोके' मनुष्यलोके 'अनारम्भजीविनः' आरम्भः सावयानुष्ठानं प्रमत्तयोगो वा उक्तं च- “आदाणे राङ्गवृत्तिः निकूखेवे भासुरसग्गे अ ठाणगमणाई । सब्बो पमत्तजोगो समणस्सवि होइ आरंभो ॥ १ ॥” तद्विपर्ययेण खनारम्भस्तेन (शी०) * जीवितुं शीलं येषां इत्यनारम्भजीविनो यतयः समस्तारम्भनिवृत्ताः तेष्वेव गृहिषु पुत्रकलत्रस्खशरीराद्यर्थमारम्भप्रवृत्तेष्व
॥ २०४ ॥
नारम्भजीविनो भवन्ति, एतदुक्तं भवति - सावद्यानुष्ठानप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु देहसाधनार्थमनवद्यारम्भजीविनः साधवः पङ्काॐ धारपङ्कजवन्निर्लेपा एव भवन्ति । यद्येवं ततः किमित्याह - 'अत्र' अस्मिन् सावद्यारम्भे कर्त्तव्ये 'उपरतः ' सङ्कुचितगात्रः, अत्र वाऽऽर्हते धर्मे व्यवस्थित उपरतः पापारम्भात्, किं कुर्यात् स ? - 'तत्' सावधानुष्ठानायातं कर्म 'झोषयन्न क्षपयन् मुनिभावं भजत इति । किमभिसन्धायात्रोपरतः स्यादित्याह - 'अयं संधी' इत्यादि, अविवक्षितकर्म्मका अप्यकर्मका धातवो यथा पश्य मृगो धावति, एवमत्राप्यद्राक्षीदित्येतत्क्रियायोगेऽप्ययं सन्धिरिति प्रथमा कृतेति, 'अय' मिति प्रत्यक्षगोचरापन्न आर्यक्षेत्र सुकुलोसत्तीन्द्रियनिर्वृत्तिश्रद्धासंवेगलक्षणः 'सन्धिः' अवसरो मिथ्यात्वक्षयानुदयलक्षणो वा सम्यक्त्वावाप्तिहेतुभूतकर्म्मविवरलक्षणः सन्धिः शुभाध्यवसायसन्धानभूतो वा सन्धिरित्येनं स्वात्मनि व्यवस्थापितमद्राक्षीद्भवानित्यतः क्षणमप्येकं न प्रमादयेत् न विषयादिप्रमादवशगो भूयात् । कश्च न प्रमत्तः स्यादित्याह - 'जे इमस्स' इत्यादि, 'य' इत्युपलब्धतस्त्वः 'अस्य' अध्यक्षस्य विशेषेण गृह्यते अनेनाष्टप्रकारं कर्म तद्वेतरशरीरविशिष्टं वाह्येन्द्रियेण गृह्यत इति विग्रह:- औदारिकं शरीरं तस्य 'अयं' वार्त्तमानिकक्षणः एवम्भूतः सुखदुःखान्यतररूपश्च गतः एवम्भूतश्च भावीत्येवं
आदाने निक्षेपे भाषायामुत्सर्गे च स्थाने गमनादौ सर्वः प्रमत्तयोगः श्रमणस्यापि भवत्वारम्भः ॥ १ ॥
For Parts Only
~123~
लोक० ५ उद्देशकः २
॥ २०४ ॥
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक [१४६ ]
दीप
अनुक्रम [१५९ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], मूलं [१४६],निर्युक्तिः [२४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
यः क्षणान्वेषणशीलः सोऽन्वेषी सदाऽप्रमत्तः स्यादिति । स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह--' एस मग्गे' इत्यादि, 'एषः' अनन्तरोको 'मार्गो' मोक्षपथः 'आर्यैः' सर्वहेयधर्म्मारातीय (तीर) वर्त्तिभिस्तीर्थ करगणधरैः प्रकर्षेणादौ वा वेदितः कथितः | प्रवेदित इति । न केवलमनन्तरोको वक्ष्यमाणश्च तीर्थकरैः प्रवेदित इति तदाह- 'उद्दिए' इत्यादि, सन्धिमधिगम्योत्थितो धर्म्मचरणाय क्षणमप्येकं न प्रमादयेत् । किं चापरमधिगम्येत्याह - ' जाणिन्तु' इत्यादि, ज्ञात्वा प्राणिनां प्रत्येकं दुःखं तदुपादानं वा कर्म्म तथा प्रत्येकं सातं च-मन आह्रादि ज्ञात्वा समुत्थितो न प्रमादयेत् । न केवलं दुःखं कर्म्म वा प्रत्येकं, तदुपादानभूतोऽध्यवसायोऽपि प्राणिनां भिन्न एवेति दर्शयितुमाह - 'पुढो' इत्यादि, पृथग्-भिन्नः छन्द:- अभिप्रायो येषां ते पृथग्छन्दाः, नानाभूतबन्धाध्यवसायस्थाना इत्यर्थः, 'इहे 'ति संसारे संज्ञिलोके वा, के ते ? - 'मानवाः' मनुष्याः, उपलक्षणार्थत्वादन्येऽपि, संज्ञिनां पृथक्सङ्कल्पत्वाच्च तत्कार्यमपि कर्म्म पृथगेव, तत्कारणमपि दुःखं नानारूपमिति, कारणभेदे कार्यभेदस्य अवश्यंभावित्वादिति, अतः पूर्वोक्तं स्मारयन्नाह - 'पुढो' इत्यादि, दुःखोपादानभेदाद् दुःखमपि प्राणिनां पृथकू प्रवेदितं सर्वस्य स्वकृतकर्म्मफलेश्वरत्वात् नान्यकृतमन्य उपभुङ्क्ते इति । एतन्मत्वा किं कुर्यादित्याह -- 'से' इत्यादि, 'सः' अनारम्भजीवी प्रत्येक सुखदुःखाध्यवसायी प्राणिनो विविधैरुपायैरहिंसन् तथाऽनपवदन् - अन्यथैव व्यवस्थितं वस्त्वन्यथा वदन्नपवदन् नापवदन् अनपवदन्, मृषावादमनुवन्नित्यर्थः पश्य च त्वं तस्यापि प्राकृतत्वादार्षत्वाद्वा लोपः, एवं परस्वमगृह्णन्नित्याद्यप्यायोज्यम् । एतद्विधायी च किमपरं कुर्यादित्याह - 'पुट्ठो' इत्यादि, स पञ्चमहाव्रतन्यव| स्थितः सन् यथागृहीतप्रतिज्ञानिर्वहणोद्यतः स्पृष्टः परीषहोपसर्गैस्तान् तत्कृतान् शीतोष्णादिस्पर्शान् दुःखस्पर्शान् वा त
Education International
For Parts Only
~124~
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१४६],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४७]
॥२०५॥
दीप अनुक्रम [१६०]
श्रीआचा- त्सहिष्णुतया अनाकुलो विविधैरुपायैः-प्रकारैः संसारासारभावनादिभिः प्रेरयेत्, तोरणं च सम्यक्सहन, न तस्कृतया राङ्गवृत्तिः||5|दुःखासिकयाऽऽत्मानं भावयेदितियावत् ॥ यो हि सम्यक्करणतया परीषहान सहेत स किंगुणः स्यादित्याह
उद्देशका (शी०) एस समिया परियाए वियाहिए, जे असत्ता पावहिं कम्मेहिं उदाहु ते आयंका फु
संति, इति उदाहु धीरे ते फासे पुटो अहियासइ, से पुब्वियं पच्छापेयं भेउरधम्म विद्धंसणधम्ममधुवं अणिइयं असासयं चयावचइयं विप्परिणामधम्म, पासह एवं
रूवसंधि । (सू०१४७) 'एषः' अनन्तरोत्तो यः परीषहाणां प्रणोदकः 'समिया' सम्यक् शमिता वा शमोऽस्यास्तीति शमी तदावार शमिता 'पर्यायः प्रत्रग्या सम्यक् शमितया वा पर्यायः-प्रव्रज्याऽस्येति विगृह्य बहुव्रीहिः स सम्यकपर्यायः शमितापर्यायो | वा व्याख्यातो नापर इति । तदेवं परीषहोपसर्गाक्षोभ्यता प्रतिपाद्य व्याधिसहिष्णुता प्रतिपादयन्नाह-'जे असत्ता'
इत्यादि, येऽपाकृतमदनतया समतृणमणिलेष्टुकाश्चनाः समतापन्नाः पापेषु कर्मस्वसक्ताः-पापोपादानानुष्ठानारता: 'उदाहु' Iklकदाचित्तान् तथाभूतान् साधून 'आतङ्का' आशुजीवितापहारिणः शुलादयो व्याधिविशेषाः 'स्पृशन्ति' अभिभवन्ति ||
पीडयन्ति । यदि नामैवं ततः किमित्याह-इति उदाहु' इत्यादि, 'इति' एतद्वक्ष्यमाणमुदाहृतवान-व्याकृतवान्, IM] कोऽसौ-धीरों' धी:-बुद्धिस्तया राजते, स च तीर्थकृद्गणधरो वा, किं तदुदाहृतवान :-तेरातकः स्पृष्टः सन्
AGROG
~1254
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१४७],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४७]
तान् स्पर्शान-दुःखानुभवान् व्याधिविशेषापादितानध्यासयेत्-सहेत । किमाकलय्येत्याह-से पुव' मित्यादि, स| स्पृष्टः पीडितः आशुकारिभिरातकैरेतद्भावयेद् यथा पूर्वमप्येतद्-असातावेदनीयविषाकजनितं दुःखं मयैव सोढव्यं, पश्चा
दप्येतन्मयैव सहनीयं, यतः संसारोदरविवरवर्ती न विद्यत एवासी यस्यासातावेदनीयविपाकापादिता रोगातङ्का न द भवेयुः, तथाहि-केवलिनोऽपि मोहनीयादिधातिचतुष्टयक्षयादुत्पन्नज्ञानस्य वेदनीयसद्भावेन तदुदयात्तत्सम्भव इति, य| तश्च तीर्थकरैरप्येतद्बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकांचनावस्थायातं कर्मावश्यं वेद्यं नान्यथा तन्मोक्षः, अतोऽन्येनाप्यसातावेदनीयोदये सनत्कुमारदृष्टान्तेन मयैवैतत्सोढव्यमित्याकलय्य नोद्विजितव्यमिति, उक्तं च-"स्वकृतपरिणतानां दुर्नयानां विपाकः,
दीप
अनुक्रम [१६०]
1-३-३-४ कर्मवन्यपतुर्विधा, तद्यथा-प्रकृतिबन्धः स्थितिबन्धः २ अनुभागवन्धः प्रदेशबन्धः ४, तत्र प्रतिबन्धोऽविधः ज्ञानावरणीयाद्यन्तरायान्तः, एतेऽद्यावपि मूलभेदाः, उत्तरभेदास्तु शानावरणीये पश्च, दर्शनावरणीये नव, वेदनीये द्वौ, मोहनीयेऽष्टाविंशतिः, आयुषश्चत्वारः, नान्नः द्विचत्वारिंशत् सप्तपष्टिा त्रिनवतिचा शुत्तरपात वा, गोत्रे ही, अन्तराये पच, इति मूलोत्तरप्रकृतिवन्धः । स्थितिबन्धे हानावरणीयदर्शनावरणीयवेदनीयान्तरायेषु त्रिंशरकोटीकोव्य उत्कृष्टया स्थितिः, मोहनीये सप्ततिकोटाकोव्यः, नामगोत्रयोविंशतिः, भायुषि ३३ सागरोपमाणि पूर्वकोटित्रिभागोनानि, नामगोप्रयोजघन्या स्थितिरष्टौ मुहूर्ताः, वेदनीरस्स बारसमुत्ता, अंतोमुहुत्ता सेसाणं इति स्थितिबन्धः, शुभाशुभकर्म पुगधु-"जो रसो अशुभागो बुबह तत्व मभेमु मदुरो अमुभे अमहुरो रसो तस्स | |बन्धो अणुभागबंधो" अणुभागबन्धो समत्तो । प्रदेशा:-कर्मवर्गणास्वान्धाः तेषां बन्धः जीवप्रदेशैः समं ववषयःपिण्डवत्क्षीरनीरसम्बन्धबहा, उच-"जीयकर्मप्रदेशाना, यः सम्बन्धः परस्परम् । कशानुलोइयखेतोः, तं बन्धं जगदुर्बुधाः ॥१॥" पृष्टवविधत्तनिकाचितकारणभेदात् स पुनश्चतुर्विधः, तथाहि| समूहगतायःसूचिसम्बन्धवत् स्पृष्टकर्मबन्धः, दक्रकबद्धसूचिसम्बन्धबद्दकर्मबन्धः, वर्षान्तरितदपरकबद्धसूचिकासम्बन्धवनियतकर्मबन्धा, अग्निमातविकासमचायमेलकवनिकाचितकम्वन्धः,
~1264
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१४७],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शी०) ॥२०६॥
लोक०५ उद्देशकार
सूत्रांक
[१४७]
दीप अनुक्रम [१६०]
पुनरपि सहनीयोऽन्यत्र ते निर्गुणस्य । स्वयमनुभवतोऽसौ दुःखमोक्षाय सद्यो, भवशतगतिहेतुर्जायतेऽनिच्छतस्ते ॥१॥" अपि च एतदौदारिकं शरीरं सुचिरमप्यौषधरसायनाधुपबृंहितं मृन्मयामघटादपि निःसारतरं सर्वथा सदा विशराब्धिति दर्शयन्नाह-भिदुरधम्म'मित्यादि, यदिवा पूर्व पश्चादप्येतदौदारिकं शरीरं वक्ष्यमाणधर्मस्वभावमित्याह-भिदुरधम्म'मित्यादि, स्वयमेव भिद्यत इति भिदुरः स धर्मोऽस्य शरीरस्येति भिदुरधम्मै, इदमौदारिकं शरीरं सुपोषितमपि वेदनोदयाच्छिरोदरचक्षुरुरप्रभृत्यवयवेषु स्वत एव भिद्यत इति भिदुरं, तथा विध्वंसनधर्म पाणिपादाद्यवयवविध्वंसनात्, तथा अवश्यंभावसम्भावितं त्रियामान्ते सूर्योदयवत् ध्रुवं न तथा यत्तदधुवं, तथा अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावतया कूटस्थनित्यत्वेन व्यवस्थितं सन्नित्यं नैवं यत्तदनित्यमिति, तथा तेन तेन रूपेणोदकधारावच्छश्वद्भवतीति शाश्वतं ततोऽन्यदशाश्वतं, तथेष्टाहारोपभोगतया धृत्युपष्टम्भादौदारिकशरीरवर्गणापरमाणूपचयाच्चयः तदभावेन तद्विचटनादपचयः, |चयापचयौ विद्येते यस्य तच्चयापचयिकम् , अत एव विविधः परिणामः-अन्यथाभावारमको धर्मः-स्वभावो यस्य तद्धिपरिणामधर्म । यतश्चैवम्भूतमिदं शरीरकमतोऽस्योपरि कोऽनुबन्धः का मूछा, नास्य कुशलानुष्ठानमृतेऽन्यथा साफल्यमित्येतदेवाह-पासह' इत्यादि, पश्यतैनं पूर्वोक्तं रूपसन्धि, भिदुरधर्माद्याघातौदारिकं पञ्चेन्द्रियनिर्वृत्तिलाभावस|रात्मक, दृष्ट्वा च विविधातङ्कजनितान् स्पर्शानध्यासयेदिति ॥ एतत्पश्यतश्च यत्स्यात्तदाह
समुप्पेहमाणस्स इक्काययणरयस्स इह विप्पमुक्कस्स नत्थि मग्गे विरयस्स तिबेमि । (सू०१४८) सम्यगुत्प्रेक्षमाणस्य-पश्यतोऽनित्यताप्रातमिदं शरीरमित्येवमवधारयतो नास्ति मार्ग इति सम्बन्धः, किं च-आर-1
%
-
॥२०६॥
~1274
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१४८]
दीप
अनुक्रम [१६१]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], मूलं [१४८],निर्युक्तिः [२४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
अभिविधौ समस्तपापारम्भेभ्यः आत्मा आयत्यते-आनियम्यते यस्मिन् कुशलानुष्ठाने वा यज्ञवान् क्रियत इत्यायतनंज्ञानादित्रयम् एकमू-अद्वितीयमायतनमेकायतनं तत्र रतस्तस्य किं च' इह' शरीरे जन्मनि विविधं परमार्थभावनया शरीरानुबन्धात् प्रमुक्तो विप्रमुक्तस्तस्य 'नास्ति' न विद्यते, कोऽसौ ?' मार्गो' नरकतिर्यङनुष्य गमनपद्धतिः, वर्त्तमानसामीप्ये वर्त्तमानदर्शनान्न भविष्यतीति नास्तीत्युक्तं यदिवा तस्मिन्नेव जन्मनि समस्त कर्मक्षयोपपत्तेर्नास्ति नरकादिमांर्गः, कस्येति दर्शयति- 'विरतस्य' हिंसाद्याश्रवद्वारेभ्यो निवृत्तस्य, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् सुधस्वाम्यात्मानमाह, यद्भगवता वीरवर्द्धमानस्वामिना दिव्यज्ञानेनार्थानुपलभ्य वाम्योगेनोकं तदहं भवतां ब्रवीमि न स्वमतिविरचनेनेति । विरत एव मुनिर्भवत्येतत्प्रतिपाद्य साम्प्रतम् 'अविरतवादी परिग्रहवानिति यदुक्तं तत्प्रतिपादयन्नाह
आवंती यावंती लोगंसि परिग्गहावंती, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चिततं वा अचित्तमं वा एएसु चैव परिग्गहावंती, एतदेव एगेसिं महन्भयं भवइ, लोगवित्तं च णं उबेहाए, एए संगे अवियाणओ । ( सू० १४९ )
यावन्तः केचन लोके 'परिग्रहवन्तः परिग्रहयुक्ताः स्युस्तत (त्र) एवम्भूतपरिग्रहसद्भावादित्याह - 'से अप्पं वा' इत्यादि, तद्द्रव्यं यत्परिगृह्यते तदल्यं वा स्तोकं वा स्यात् कपर्दकादि, बहु वा स्यात् धनधान्यहिरण्यग्रामजनपदादि, अणु वा स्यात् मूल्यतस्तृणकाष्ठादि प्रमाणतो वज्रादि, स्थूलं वा स्यात् मूल्यतः प्रमाणतश्च हस्त्यश्वादि एतच्च चित्तवद्वा स्याद
Education Internation
For Parts Only
~128~
narra
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१४९ ]
दीप
अनुक्रम [१६२ ]
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [२], मूलं [१४९],निर्युक्तिः [२४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ २०७ ॥
29
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
चित्तवद्वेति । एतेन च परिग्रहेण परिग्रहवन्तः सन्त एतेष्वेव परिग्रहवत्सु गृहस्थेष्वन्तर्वर्त्तिनो प्रतिनोऽपि स्युः, यदि वैतेष्वेव पट्सु जीवनिकायेषु विषयभूतेष्वल्पादिषु वा द्रव्येषु मूर्च्छा कुर्व्वन्तः परिग्रहवन्तो भवन्ति, तथा चाविरतो विरतिवादं वदझल्पादपि परिग्रहात् परिग्रहवान् भवति, एवं शेपेष्वपि व्रतेष्वायोज्यम्, एकदेशापराधादपि सर्वापराधितासम्भवः, अनिवारितास्रवत्वात् । यद्येवमस्पेनापि परिग्रहेण परिग्रहवत्त्वमतः पाणिपुटभोजिनो दिगम्बराः सर जस्कोटिकादयोऽपरिग्रहाः स्युः तेषां तदभावात्, नैतदस्ति, तदभावादित्यसिद्धो हेतुः तथाहि - सरजस्कानामरथ्यादि| परिग्रहाद्घोटिकानामपि पिच्छिका दिपरिग्रहाद् अन्त (न्तत ) च शरीराहारादिपरिग्रहसद्भावात्, धर्मोपष्टम्भकत्वाददोष इति चेद् तद् इतरत्रापि समानं, किं दिगम्बराग्रहग्रहेणेति । एतच्चाल्पादिपरिग्रहेण परिग्रहवत्त्वमपरिग्रहाभिमानिनां चाहारशरीरादिकं महतेऽनर्थायेति दर्शयन्नाह - 'एतदेवे' त्यादि, एतदेव अल्पबहुत्वादिपरिग्रहेण परिग्रहवत्त्वमेकेषां परिग्रहवतां नरकादिगमन हेतुत्वात् सर्वस्थाविश्वासकारणाद्वा महाभयं भवति, प्रकृतिरियं परिग्रहस्य, यदुत-तद्वान् सर्व्वस्माञ्च कति, | यदिवैतदेव शरीराहारादिकमपरस्यात्पस्यापि पात्रत्वक्त्राणादेर्द्धम्मोपकरणस्याभावाद् गृहिगृहे सम्यगुपायाभावादविधिनाऽशुद्धमाहारादिकं भुञ्जानस्य कर्मबन्धजनितमहाभयहेतुत्वान्महाभयं तथैतद्धर्मशरीरं समस्ताच्छादनाभावाद्वीभत्सं परेषां महाभयं तन्निरवद्यविधिपालनाभावाच्च महाभयमिति । यतः परिग्रहो महाभयमतोऽपदिश्यते— 'लोगं' इत्यादि, 'लोकस्य' असंयतलोकस्य 'वित्तं' द्रव्यमल्पादिविशेषणविशिष्टं चशब्दः पुनः शब्दार्थे णमिति वाक्यालङ्कारे, लोकवित्तं लोकवृत्तं वा आहार भय मैथुनपरिमहोत्कटसं ज्ञात्मकं महते भयाय पुनरुत्प्रेक्ष्य-ज्ञात्वा ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरि
Eucation International
For Praise Only
~129~
लोक० ५
उद्देशकः २
॥ २०७ ॥
wor
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१४९],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
SC+C
सूत्रांक
[१४९]
दीप
ज्ञया परिहरेत् । तत्परिहर्जुश्च यत्स्यात्तदाह-एए संगे' इत्यादि, 'एतान्' अल्पादिद्रव्यपरिग्रहसङ्गान् शरीराहारादिसजान् वा 'अविजानतः अकुर्वाणस्य वा तत्परिग्रहजनितं महाभयं न स्यात् ॥ किंच--
से सुपडिबद्धं सूवणीयंति नच्चा पुरिसा परमचक्खू विपरिक्कमा, एपसु चेव बंभचेरं तिबेमि, से सुयं च मे अज्झत्थयं च मे-बंधपमुक्खो अज्झत्थेव, इत्थ विरए अणगारे दीहरायं तितिक्खए, पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए, एवं मोणं सम्म अ
णुवासिजासि तिबेमि (सू० १५०)। लोकसाराध्ययने द्वितीयोदेशकः ५-२॥ 'से' तस्य परिग्रहपरिहर्तुः सुष्टु प्रतिबद्धं सुप्रतिबद्धं सुष्टुपनीतं सूपनीतं ज्ञानादि इत्येतत् ज्ञात्वा 'हे पुरुष' मानव परमं ज्ञानं चक्षुर्यस्यासौ परमचक्षुः मोक्षकदृष्टिवा सन् विविधं तपोऽनुष्ठानविधिना संयमे कर्मणि वा पराक्रमस्वेति ।। अध किमर्थ पराक्रमणोपदेश इत्यत आह-एएसु चेवे' त्यादि, य इमे परिग्रहविरताः परमचक्षुषश्चैतेष्वेव परमार्थतो ब्रह्मचर्य नान्येषु, नवविधब्रह्मचर्यगुप्त्यभावाद्, यदिवा ब्रह्मचर्याख्योऽयं श्रुतस्कन्धः, एतद्वाच्यमपि ब्रह्मचर्य तदेतेब्वेवापरिग्रहवत्सु, इतिरधिकारपरिसमाप्ती, अवीम्यहं यदुक्तं वक्ष्यमाणं च सर्वज्ञोपदेशादित्याह-से सुअंच में इत्यादि, तद्यत् कथितं यच्च कथयिष्यामि तच्छ्रतं च मया तीर्थकरसकाशात् तथा आत्मन्यधि अध्यात्मं ममैतञ्चेतसि | व्यवस्थितं, किं तदध्यात्मनि स्थितमिति दर्शयति-बन्धात्सकाशालामोक्षः बन्धप्रमोक्षस्तथा 'अध्यात्मन्येव' ब्रह्मचर्ये
अनुक्रम [१६२]
ANA
SCRkRA%
~130~
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१५०],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
राजवृत्तिः (शी०)
सूत्रांक
व्यवस्थितस्यैवेति । किं च-'इत्थ' इत्यादि, 'अत्र' अस्मिन् परिग्रहे जिघृक्षिते विरतः, कोऽसौ ? नास्यागार-गृहं विद्यता लोक०५ इत्यनगारः, स एवम्भूतो 'दीर्घरात्रं' यावज्जीवं परिग्रहाभावात् यत् क्षुत्पिपासादिकमागच्छति तत् 'तितिक्षेत सहेत । पुनरप्युपदेशदानायाह-पमत्ते' इत्यादि, प्रमत्तान्-विषयादिभिः प्रमादैर्वहिर्द्धर्माब्यवस्थितान् पश्य गृहस्थतीर्थिका-18
उद्देशका दीन् । दृष्ट्वा च किं कुर्यादिति दर्शयति-अप्रमत्तः सन् संयमानुष्ठाने परिव्रजेदिति । किंच-'एय' मित्यादि, 'एतत् | पूर्वोक्तं संयमानुष्ठानं मुनेरिदं मौनं-सर्वज्ञोक्तं सम्यग् 'अनुवासयेः' प्रतिपालयेः 'इति' अधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । लोकसाराध्ययने द्वितीयोद्देशकः समाप्तः
॥२०८॥
[१५०]
दीप
अनुक्रम [१६३]
उक्तो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोक्तोद्देशकेऽविरतवादी परिग्रह[वानित्यभिहितम् , इह तु तद्विपर्यय उच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्थास्योदेशकस्यादिसूत्रम्
आवंती केयावती लोयंसि अपरिग्गहावंती एएसु चेव अपरिग्गहावंती, सुच्चा वई मेहावी पंडियाण निसामिया समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए जहित्य मए संधी झो
सिए एवमन्नत्थ संधी दुजोसए भवइ, तम्हा बेमि नो निहणिज वीरियं । (सू० १५१) । यावन्तः केचन लोकेऽपरिग्रहवन्तो विरता यतय इत्यर्थः, ते सर्वे एतेष्वेव-अल्पादिषु द्रव्येषु त्यकेषु सत्स्वपरिग्रह
॥२०८
| पंचम-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'अपरिग्रह' आरब्धः,
~131~
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [३], मूलं [१५१],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१५१]
दीप अनुक्रम [१६४]
वन्तो भवन्ति, यदिवैतेष्वेव पटूसु जीवनिकायेषु ममत्वाभावादपरिग्रहा भवन्ति । स्यात्-कथमपरिग्रहभावः स्यादित्याह-'सोचा' इत्यादि 'वईत्ति सुव्यत्ययेन द्वितीयार्थे प्रथमाऽतो वाचं-तीर्थकराज्ञामागमरूपां 'श्रुत्वा' आकये। 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितः सश्रुतिको हेयोपादेयपरिहारप्रवृत्तिज्ञः, तथा 'पण्डितानां' गणधराचार्यादीनां विधिनियमात्मक वचनं निशम्य सचित्ताचित्तपरिग्रहपरित्यागादपरिग्रहो भवति । स्यादेतत्-कदा पुनरुत्पन्ननिरावरणज्ञानानां तीर्थकृतां वाग्योगो भवति येनासावाकर्ण्यते ?, उच्यते, धर्मकथाऽवसरे, किम्भूतस्तैः पुनर्धर्मः प्रवेदित इत्यारेकापनोदार्थमाह-'समिय'त्ति 'समता' समशत्रुमित्रता तयाऽऽयर्द्धर्मः प्रवेदित इति, उक्तं च "जो चंदणेण बाहुं आलिंपइ वासिणा व तच्छेति । संथुणइ जो अजिंदति महेसिणो तत्थ समभावा ॥१॥" यदिवाऽऽर्येषु-देशभाषाचरित्राऽऽर्येषु समतया भगवता धर्मः प्रवेदितः, तथा चोक्तम्-"जहा पुण्णस्स कथइ तहा तुच्छस्स कत्थई"त्यादि, अथवा शमिनो। भावः शमिता तया सर्वहेयधारातीयवर्तिभिः आयेंः प्रकर्षणादौ वा धर्मों वेदितः प्रवेदितः, इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमेन तीर्थकृद्भिर्द्धर्मः प्रज्ञापित इतियावत्। स्याद्-अन्यैरपि स्वाभिप्रायेण धर्माः प्रवेदिता एवेत्यतस्तव्युदासाथै भगवानेवाह'जहेत्थे'त्यादि, सदेवमनुजायां पर्षदि भगवानेवमाह-यथाऽत्र मया ज्ञानादिको मोक्षसन्धिः 'झोसिओ'त्ति सेवित इति, यदिवा 'अत्र' अस्मिन् ज्ञानदर्शनचारित्रात्मके मोक्षमार्गे समभावात्मके इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमरूपे मया मुमुक्षुणा स्वत एव सन्धान सन्धिः-कर्मसन्ततिः सन्धीयत इति वा भवानवान्तरमनेनेति सन्धिः-अष्टप्रकारकर्मसन्ततिरूपः स
यचन्दनेन बार मालिम्पति वास्या वा तक्ष्णोति । संस्तीति यश्च निन्दति महर्षयतत्र समभावाः ॥ १॥
For P
OW
~132~
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [३], मूलं [१५१],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०) ॥२०९॥
[१५१]
दीप अनुक्रम [१६४]
झोषित:-क्षपितः अतो य एव तीर्थकृद्भिर्द्धर्मोऽभिहितः स एव मोक्षमार्गों नापर इत्येतदेवाह-यथाऽत्र मया सन्धि- लोक०५ Pोपितः एवमन्यत्र-अन्यतीर्थिकप्रणीते मोक्षमार्गे सन्धिः कर्मसन्ततिरूपः दुोप्यो भवति-दुःक्षयो भवति, असमीची-1
उद्देशकः३ नतया तदुपायाभावाद्, यदि नाम भगवताऽत्र कर्मसन्धिोषितस्ततः किमित्याह-यस्मादस्मिन्नेव मार्गे व्यवस्थितेन मयाऽपि विकृष्टतरेण तपसा कर्म क्षपितं ततोऽन्योऽपि मुमुक्षुः संयमानुष्ठाने तपसि च वीर्य 'नो निहन्यात्' नो निगूह-| येद् अनिगृहितबलवीर्यो भूयाद्, एतदहं ब्रवीमि परमकारुण्याकृष्टहृदयः परहितकोपदेशदायीत्येतद्वीरवर्द्धमानस्वाम्याह, सुधर्मस्वामी स्वशिष्याणां कथयति स्म ॥ कश्चैवम्भूतः स्यादित्याह
जे पुखुट्राई नो पच्छानिवाई, जे पुवुदाई पच्छानिवाई, जे नो पुवुटायी नो पच्छानिवाई, सेऽवि तारिसिए सिया, जे परिन्नाय लोगमन्नेसयंति । (सू० १५२) यः कश्चिद्विदितसंसारस्वभावतया धर्मचरणैकमवणमनाः पूर्व-प्रवज्याऽयसरे संयमानुष्ठानेनोत्थातुं शीलमस्येति पूर्वो-16 स्थायी पश्चाच श्रद्धासंवेगतया विशेषेण बर्द्धमानपरिणामो नो निपाती, निपतितुं शीलमस्येति विगृह्य णिनिः निपतन || दावा निपातः सोऽस्यास्तीति निपाती, सिंहतया निष्क्रान्तः सिंहतया विहारी च गणधरादिवत् प्रथमो भङ्गः । द्वितीय-18 |भर सूत्रेणैव दर्शयन्नाह-पूर्वमुत्थातुं शीलमस्येति पूर्वोत्थायी, पुनर्विचित्रत्वात् कर्मपरिणतेस्तथाविधभवितव्यतानियो- २० गात्पश्चान्निपाती स्थात्, नन्दिषेणवत्, कश्चिद्दर्शनतोऽपि गोठामाहिलवदिति । तृतीयभङ्गस्य चाभावादनुपादानं,
~133~
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [३], मूलं [१५२],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५२]
RASHTRA
दीप
स चायम्-'जे नो पुख्खुद्वायी पच्छानिवाती', तथाहि-उत्थाने सति निपातोऽनिपातो वा चिन्त्यते, सति धम्मिणि धर्मचिन्ता, तदुस्थानप्रतिषेधे च दूरोत्सादितैव निपातचिन्तेति । चतुर्थभङ्गदर्शनाय त्वाह-यो हि नो पूर्वोत्थायी न च पश्चान्निपाती सोऽविरत एवं गृहस्थः सन्नोत्थायी भवति सम्यग्विरतेरभावात् नापि पश्चान्निपाती उत्थानाविनाभावि
त्यान्निपातस्य, शाक्यादयो वा चतुर्थभङ्गपतिता द्रष्टव्याः, तेषामप्युभयासद्भावादिति । ननु च गृहस्था एवं चतुर्थभ-15 लाङ्गपतिता युक्ता वक्तुं, तथाहि-तेषां सावद्ययोगानुष्ठानेनानुत्थानतया प्रतिज्ञामन्दरारोपाभावान्निपाताभावः, शाक्या-16
दिरपि चतुर्थभङ्गपतित इत्यत आह–'सोऽपि' शाक्यादिर्गणः पञ्चमहावतभारारोपणाभावेन सावद्ययोगानुष्ठानतया ४ नो पूर्वोत्थायी निपातस्य च तत्पूर्वकत्वान्नोपश्चाग्निपातीत्यतस्तादृश एव-गृहस्थतुल्य एव स्याद्,आम्रवद्वाराणामुभयेषाम-13 दाप्यसंवृतत्वात् , उदायिनृपमारकवत् । अन्येऽपि ये सावद्यानुष्ठायिनस्तेऽपि तादृक्षा एवेति दर्शयन्नाह-येऽपि स्वयूथ्याः
पावस्थादयो द्विविधयाऽपि परिज्ञया लोकं परिज्ञाय पुनः पचनपाचनाद्यर्थ तमेव लोकमन्याश्रिता अन्वेषयन्ति वा तेऽपि गृहस्थतुल्या एव भवेयुः ॥ स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह
एयं नियाय मुणिणा पवेइयं, इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, पुव्वावररायं जयमाणे, सया सील सुपेहाए सुणिया भवे अकामे अझंझे, इमेण चेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ ? (सू०१५३)
अनुक्रम [१६५]
~134~
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [३], मूलं [१५३],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५३]
श्रीआचा- 'एतद' यदुत्थाननिपातादिकं प्रागुपन्यस्तं तत्केवलज्ञानावलोकनेन 'नियाय'त्ति ज्ञात्वा 'मुनिना' तीर्थकृता 'प्रवेदितं'। लोक०५ राङ्गवृत्तिः॥ कथितम् । इदं चान्यत्प्रवेदितमित्याह-इह' अस्मिन् मौनीन्द्रे प्रवचने व्यवस्थितः सन् 'आज्ञां' तीर्थकरोपदेशमाका
उद्देशका (शी०) नितुं शीलमस्येत्याज्ञाकाली-आगमानुसारप्रवृत्तिका, कश्चैवम्भूतः?-पण्डितः' सदसद्विवेकज्ञः 'अस्निहः' स्नेहरहितः ।
रागद्वेषविप्रमुक्तोऽहर्निशं गुरुनिर्देशवी यलवान् स्यादित्येतदाह-पूर्वरात्रं-रात्रेः प्रथमो यामोऽपररात्र-रात्रेः पाश्चात्यः ॥२१॥
एतद्यामद्वयमपि यतमानः' सदाचारमाचरेत् , मध्यवर्तियामद्वयमपि यथोक्तविधिना स्वपन्न वैरात्रादिकं विदध्यात्, रा-118|| त्रियतनाप्रतिपादनेन चाहृयपि प्रतिपादितैय भवति, आद्यन्तग्रहणे मध्यग्रहणस्यावश्यंभावित्वात् । किं च-'सदा' |सर्वकालं 'शीलम् अष्टादशभेदसहस्रसख्यं संयम वा यदिवा चतुर्दो शीलं-महाव्रतसमाधानं तिम्रो गुप्तयः पञ्चेन्द्रियदमः कषायनिग्रहश्चेत्येतच्छीलं सम्प्रेक्ष्य मोक्षाणतयाऽनुपालयेत् नाक्षिनिमेषमात्रमपि कालं प्रमादवशगो भूयात् । कश्च शीलसम्प्रेक्षकः स्यादित्याह-यो हि श्रुत्वा शीलसम्प्रेक्षणफलं निःशीलनिव्रतानां च नरकादिपातविपाकमाकागमात्, 'भवेत् स्यात् 'अकाम' इच्छामदनकामरहित इति, तथा नास्य 'झञ्झा' माया लोभेच्छा वा विद्यत इत्यझन्झा, कामझन्झाप्रतिषेधाच मोहनीयोदयः प्रतिषिद्धः, तत्प्रतिषेधाच्च शीलवान् स्यादिति, एतदुक्तं भवति-धर्म श्रुत्वा स्यात् अकामोऽझझश्चेत्यनेन चोत्तरगुणा गृहीताः, उपलक्षणार्थत्वाच्च मूलगुणा अपि गृहीताः, ततः स्यात् अहिंसकः सत्यवादीत्याद्यपि द्रष्टव्यं । ननु चान्यज्जीवाच्छरीरमित्येवंभावनायुक्तस्यानिगूहितबलवीर्यस्य पराक्रममाणस्याष्टादशशीलाङ्गसहस्र
॥२१०॥ साधारिणोऽपि मे यथोपदेशं प्रवर्त्तमानस्यापि नाशेषकर्ममलापगमोऽद्यापि भवतीत्यतस्तथाभूतमसाधारणकारणमाचक्ष्व
%2525%95%75%
दीप अनुक्रम [१६६]
25
~135
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१५४ ]
दीप
अनुक्रम [१६७ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [३], मूलं [१५४],निर्युक्तिः [२४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
येनाहमाश्वेवाशेषमलकलङ्करहितः स्याम् अहं च भवदुपदेशाद् अपि सिंहेनापि सह युद्धे, न मे कर्म्मक्षयार्थी प्रवृत्तस्य किविदशक्यमस्तीत्यत्रोत्तरं सूत्रेणैवाह- अनेनैवोदारिकेण शरीरेणेन्द्रियनोइन्द्रियात्मकेन विषयसुखपिपासुना स्वैरिणा सार्द्ध युध्यस्व, इदमेव सन्मार्गावतारणतो वशीकुरु, किमपरेण वाह्यतस्ते युद्धेन ?, अन्तरारिषङ्घर्गकर्मरिपुजयाद्वा सर्व सेत्स्यति भवतो, नातोऽपरं दुष्करमस्तीति ॥ किंत्वियमेव सामग्री अगाधसंसारार्णवे पर्यटतो भयकोटिसहस्रेष्वपि दुष्प्रापेति दर्शयितुमाह
जुद्धारिहं खलु दुलहं, जहित्थ कुसलेहिं परिन्नाविवेगे भासिए, बुए हु बाले गभाइसु रज्जइ, अस्सि चेयं पच्चइ, रूवंसि वा छणंसि वा, से हु पगे संविद्धप मुणी, अनहा लोगमुवेहमाणे, इय कम्म परिण्णाय सव्वसो से न हिंसइ, संजमई नो पभइ, उवेहमाणो पत्तेयं सायं वण्णाएसी नारभे कंचणं सव्वलोए एगप्पमुहे विदिसम्पन्ने निव्विण्णचारी अरए पयासु ( सू० १५४ )
एतदौदारिकं शरीरं भावयुद्धार्ह, खलुरवधारणे, स च भिन्नक्रमो दुर्लभमेव - दुष्प्रापमेव, उक्तं च- " ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥ १ ॥" इत्यादि, पाठान्तरं
Eucation International
For Parata Use Only
~136~
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [३], मूलं [१५४],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१५४]
दीप अनुक्रम [१६७]
श्रीआचा- वा-"जुद्धारियं च दुलई" तत्रानार्य सञ्चामयुद्ध परीपहादिरिपुयुद्धं त्वार्य तद् दुर्लभमेव तेन युयस्व, ततो भवतोऽशे-IIलोक० राङ्गवृत्तिः कर्मक्षयलक्षणो मोक्षोऽचिरादेव भावीति भावार्थः । तच्च भावयुद्धाहै दारीरं लब्ध्या कश्चित्तेनैव भवेनाशेषकर्मक्षयं या (शी०) विधत्ते, मरुदेवीस्वामिनीव, कश्चित् सप्तभिरष्टभिर्वा भवैर्भरतवत्, कश्चिदपार्द्धपुद्गलपरावन, अपरो न सेत्स्यत्येव,
किमित्येवं यत आह-यथा येन प्रकारेण 'अत्र' अस्मिन् संसारे 'कुशलैः' तीर्थकृद्भिः 'परिज्ञाविवेकः' परिज्ञानविशिष्टता, ॥२११॥
|कस्यचित् कोऽप्यध्यवसायः संसारवैचित्र्यहेतुः 'भाषितः' प्रज्ञापितः, स च मतिमता तथैवाभ्युपगन्तव्य इति । तदेव परिज्ञाननानात्वं दर्शयन्नाह लब्ध्वाऽपि दुर्लभ मनुजत्वं प्राप्य च मोकगमनहेतुं धर्म पुनरपि कर्मोदयात्तस्मात् च्युतो | बालः' अज्ञः 'गर्भादिषु रज्यते' गर्भ आदिर्येषां कुमारयौवनावस्थाविशेषाणां ते गर्भादयः तेष्वेव गायमुपयाति, यथैभिः सार्द्ध मम वियोगो मा भूत इत्यध्यवसायी भवति, यदिवा धर्माच्युतस्तत्करोति येन गर्भादिषु यातनास्थानेषु सङ्गमुपयाति, 'रिजइत्ति वा क्वचित्पाठः, रीयते-गच्छतीत्यर्थः । स्यात्-कोक्तमिदं यत् प्राग् व्यावर्णितमित्याह-अस्मिनिति आर्हते प्रवचने 'एतत् पूर्वोक्तं प्रकर्षणोच्यते प्रोच्यते । एतच्च वक्ष्यमाणमत्रैवोच्यते इति दर्शयन्नाह-रूपे' चक्षुहरिन्द्रियविषयेऽध्युपपन्नो, वाशब्दादन्यत्र वा स्पर्शरसादौ 'क्षणे' प्रवर्तते, 'क्षणु हिंसायां' क्षणनं क्षणो-हिंसा तस्यां -
प्रवर्तते, वाशब्दादन्यत्र चानृतस्तेयादाविति, रूपप्रधानत्वाद्विषयाणां रूपित्याच रूपोपादानं, आस्रवद्वाराणां च हिंसाप्रधानत्वात्तदादित्वाच तदुपादानमिति । वालो रूपादिविषयनिमित्तं धर्माच्युतः सन् गर्भादिषु रज्यते, अनाहते।
॥२११॥ मार्गे इदमुच्यते, यस्तु पुनर्गर्भादिगमनहेतुं ज्ञात्वा विषयसङ्गं धर्मादच्युतो हिंसाद्याश्रवद्वारेभ्यो निवर्त्तते स किंभूतः
-137
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [३], मूलं [१५४],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१५४]
दीप अनुक्रम [१६७]
स्यादित्याह-स' जितेन्द्रियो, हुरवधारणे, स एवैक:-अद्वितीयो 'मुनिः' जगत्रयमन्ता 'संविद्धपथः' सम्पग्विद्धःताडितः क्षुण्णः पन्थाः-मोक्षमार्गो ज्ञानदर्शनचारित्राख्यो येन स तथा, 'संविद्धभयेत्ति वा पाठः, संविद्धभयो दृष्टभय इत्यर्थः, यो ह्यानवद्वारेभ्यो हिंसादिभ्यो निवृत्तः स एव मुनिः क्षुण्णमोक्षमार्ग इति भावार्थः । किं च-अन्येन प्रकारेणान्यथा-विषयकषायाभिभूतं हिंसादिकर्मसु प्रवृत्तं 'लोक' गृहस्थलोक पाखण्डिलोकं वा पचनपाचनौद्देशिकसञ्चित्ताहारादिप्रवृत्तमुत्प्रेक्षमाणोऽन्यथा वा आत्मानं निवृत्ताशुभव्यापारमुत्प्रेक्षमाणः संविधुपथो मुनिः स्यात् इति । लोकं चान्यथोत्प्रेक्ष्य किं कुर्यादित्याह-इति' पूर्वोक्तहेतुभिर्यद्वद्धं कर्म तदुपादानं च सर्वतः परिज्ञाय ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञयाऽपि सर्वतः परिहरेत् । कथं परिहरतीत्याह-'स' कर्मपरिहत्तों कायवायनोभिने हिनस्ति जन्तून न घातयत्यपरैनाप्यनुमन्यते । किं च-पापोपादानप्रवृत्तमात्मानं संयमयति, सप्तदशप्रकारं वा संयमं करोति संयमयति, आचारकिबन्तं वैतत् संयम इवाचरति संयमयति । किं च-नो पगभइ' 'गल्भ धार्थे' असंयमकर्मसु प्रवृत्तः सन् न प्रगल्भत्वमायाति, रहस्यप्यकार्यप्रवृत्तो जिइति न धृष्टतां अवलम्बत इति, उपलक्षणार्थत्वादस्य क्षुण्णमोक्षपथो मुनिने क्रुध्यति, न जात्यादिमानमुदहति, न पश्चनां विधत्ते, न लुभ्यति । किमाकलय्यतत्कुर्यादित्याह-'उत्प्रेक्षमाणः' अवगच्छन् प्रत्येक
माणिनां सातं मनोऽनुकूलं नान्यसुखेनान्यः सुखीति नापि परदुःखेन दुःखीत्यतः प्राणिनो न हिंस्यादिति । प्राणिनां & प्रत्येकं सातमुत्प्रेक्षमाणश्च किं कुर्यादित्याह-वर्ण्यते-प्रशस्यते येन स वर्ण:-साधुकारस्तदादेशी वर्णादेशी-वर्णाभिलाषी
सन् नारभते कञ्चन पापारम्भं सर्वस्मिन्नपि लोके, यदिवा-तपःसंयमादिकमप्यारम्भं यशःकीयर्थ नारभते, प्रवचनो
ऊ
SARERaininannatural
~138~
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [३], मूलं [१५४],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१५४]
दीप
श्रीआचा-1 भावनार्थ स्वारभते, तदुदायकाश्चामी-"प्रावचनी धर्मकथी बादी नैमित्तिकस्तपस्वी च । विद्यासिद्धः ख्यातः कवि- लोक०५ राङ्गवृत्तिः
रपि चोद्भावकास्त्वष्टौ ॥१॥" यदिवा वर्णो-रूपं तदादेशी-तदभिलाषुकः नोद्वर्तनादिकाः क्रिया आरभेत, किम्भूतः (शी०) सन्नेतत्कुर्यादित्याह-'एको' मोक्षोऽशेषमलकलङ्करहितत्वात् संयमो वा रागद्वेषरहितस्वात् तत्र प्रगतं मुखं यस्य स तथा
उद्देशका -मोक्षे तदुपाये वा दत्तकदृष्टिर्न कञ्चन पापारम्भमारभेत इति, किं च-मोक्षसंयमाभिमुखा दिक् ततोऽन्या विदिक् तां ॥२१२॥
प्रकर्षेण तीणों विदिक्प्रतीर्णः, स चैवम्भूतः सन्नारम्भी स्यात्, कुमार्गपरित्यागेन न पापारम्भान्वेपी भवतीत्यर्थः, किं च-चरणं चार:-अनुष्ठान निविण्णस्य चारो निर्विष्णचारः सोऽस्यास्तीति निर्विण्णचारी, कुत इति चेत् , यतः 'प्रजा-15 स्वरतः' प्रजायन्त इति प्रजाः-प्राणिनस्तत्रारत:-तदारम्भाप्रवृत्तो निर्ममत्वो वा, यश्च शरीरादिष्वपि ममत्वरहितः स |निर्विष्णचार्येव भवति, यदिवा प्रजाः-स्त्रियस्तास्वरतः आरम्भेऽपि निर्वेदमागच्छति, कारणाभावे कार्यस्याप्यभावादिति ॥ यश्च प्रजास्वरक्तः आरम्भरहितः स किम्भूतः स्यादित्याह--से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज पावकम्मं तं नो अन्नेसी, जं
संमंति पासहा तं मोणंति पासहा जं मोणंति पासहा तं संमंति पासहा, न इमं सकं सिढिलेहिं अद्दिजमाणेहिं गुणासाएहिं वंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं,
॥॥२१२॥ मुणी मोणं समायाए धुणे सरीरगं, पंतं लूहं सेवंति वीरा सम्मत्तदंसिणो, एस ओ
अनुक्रम [१६७]
SAREauraton international
~139~
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [३], मूलं [१५५],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५५]
दीप अनुक्रम [१६८]
हन्तरे मुणी, तिपणे मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि (सू० १५५)॥ लोकसारे तृती
योद्देशकः ॥ ५-३॥ वसु-द्रव्यं, स चात्र संयमस्तद्विद्यते यस्य स निवृत्तारम्भो मुनिर्वसुमान् सर्व सम्यगन्वागतं प्रज्ञानं पदार्थाविर्भावक यस्थात्मनस्तेनात्मना सर्वसमन्वागतप्रज्ञानरूपापन्नेन यदकर्तव्यं पापकर्म तन्नो कदाचिदप्यन्बपति, उपलब्धपरमार्थरूपेणात्मना न सावद्यानुष्ठान विधायी स्यादिति भावार्थः । यदेव सम्यक् प्रज्ञानं तदेव पापकर्मवर्जनं, यदेव च पापकर्मवर्जनं तदेव च सम्यक् प्रज्ञानमित्येतद्गतप्रत्यागतसूत्रेणैव दर्शयितुमाह-सम्यगिति-सम्यग्ज्ञानं सम्यक्त्वं वा तत्सहचरितं,४ अनयोः सहभावादेकग्रहणे द्वितीयग्रहणं न्याय्यं, यदिदं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्त्वं वेत्येतत्पश्यत तन्मुनेर्भावो मौन-संयमानुछानमित्येतत्पश्यत, यच्च मौनमित्येतत् पश्यत तत्सम्बग्ज्ञानं नैश्चयिकसम्यक्त्वं वा पश्यत, ज्ञानस्य विरतिफलत्वात्
सम्यक्त्वस्य चाभिव्यक्तिकारणत्वात् सम्यक्त्वज्ञानचरणानामेकताऽध्यवसेयेति भावार्थः । एतच्च न येन केनचिच्छक्य-र दामनुष्ठातुमित्याह-नैतत्सम्यक्त्वादित्रयं सम्यगनुष्ठातुं शक्यं, कैः?–'शिथिलैः अल्पपरिणामतया मन्दवीयः संयमतप
सोधृतिहाढिमरहितैरिति, किं च-आद्रैः-पुत्रकलत्राद्यनुषङ्गजनितस्नेहादाद्रींक्रियमाणैरेतत्पूर्वोक्तमशक्यमिति सम्बन्धः, किं च-गुणाः-शब्दादयस्तेष्वास्वादो येषां ते गुणास्वादास्तैरिति, किं च-वक्रः समाचारो येषां ते तथा तैः, मायाबिभिरित्यर्थः, तथा-विषयकषायादिप्रमादैः प्रमत्तैरिति, किं च-अगारं-गृहं तद् आद्यक्षरलोपागारमित्युक्तं तदगारमा
~1404
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [३], मूलं [१५५],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
प्रत
सूत्रांक [१५५]
रावृत्तिः
(शी०) ॥२१३॥
वसनिः-सेवमानैः, पापकर्मवर्जनरूपं मौनमनुष्ठानमशक्यमिति सर्वत्र योजनीयं । कथं तर्हि शक्यमित्याह-मुनिः। जगत्रयस्य मन्ता मौनं-मुनित्यमशेषसावद्यानुष्ठानवर्जनरूपं 'समादाय' गृहीत्वा धुनीयाच्छरीरकमौदारिकं कर्मदारीरं वेति । कथं च तडुननमित्याह-पान्तं-पर्युषितं बल्लचनकाद्यल्पं वा, तदपि रूक्षं विकृतेरभावात् , तत् 'सेक्न्ते तदभ्य-14 वहरन्ति, के ते?-वीरा' कर्मविदारणसहिष्णवः, किंभूताः?-सम्यक्त्वदर्शिनः समत्वदर्शिनो वा । यश्च प्रान्तरूक्षसेवी | स किंगुणः स्यादित्याह--'एषः' अनन्तरोक्तविशेषणविशिष्टः ओघो-भावौधः संसारस्तं तरतीति, कोऽसौ ?-मुनिः, वर्तमानसामीप्ये वा वर्तमानबद्वेति तीर्ण एवासौ, सवाह्याभ्यन्तरसङ्गाभावान्मुक्तवन्मुक्तः, कश्चैवम्भूतो?-यः सावद्यानुष्ठानाद्विरत इत्येवं व्याख्यातः । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । लोकसाराध्ययने तृतीयोद्देशकः परिसमाप्त इति ॥
दीप अनुक्रम [१६८]
उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहाद्योद्देशके हिंसकस्य विषयारम्भकस्यैकचरस्य मुनित्याभावः प्रदर्शितो, द्वितीयतृतीययोस्तु हिंसाविषयारम्भपरिग्रहच्युदासेन तद्वतो दोषं प्रदश्य विरत एष । मुनिर्भवतीत्येतत्प्रतिपादितम् , अस्मिंश्च एकचरस्यामुनिभावे दोषोद्भावनतः कारणमाह, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योदेशकस्यादिसूत्रम्
गामाणुगाम दूइज्जमाणस्स दुजायं दुप्परकंतं भवइ अवियत्तस्स भिक्खुणो (सू० १५६)
4%A5
॥२१३॥
| पंचम-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'अव्यक्त' आरब्धः,
~141~
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५६],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५६]
दीप अनुक्रम [१६९]
9425940450-45445
ग्रसति बुद्ध्यादीन गुणानिति ग्रामः, ग्रामादनु-पश्चादपरो ग्रामो ग्रामानुग्रामस्तं, 'दूयमानस्य' अनेकार्थत्वादातूनां विहरतः एकाकिनः साधोयेंत्स्यात् तद्दर्शयति-दुष्टं यातं दुर्यातं, गमनक्रियाया गरे, गच्छत एवानुकूलपतिकूलोपसर्ग-12 सद्भावादहनकस्येव कृतगतिभेदस्य दुष्टव्यन्तरीजहाच्छेदवत्, तथा दुष्टं पराक्रान्तम्-आकान्तं स्थानमेकाकिनो भवति,
स्थूलभद्रेयाश्रितोपकोशागृहसाधोरिवेति, यदिवा-चतुष्पोषितभर्तृकागृहोषितसाधोरिव, तस्य महासत्त्वतया अक्षोहै भेऽपि दुष्पराकान्तमेवेति, एतच्च न सर्वस्यैव दुर्यातं दुष्पराक्रान्तं च भवतीत्यतो विशिनष्टि-अव्यक्तस्य भिक्षो-19
रिति, भिक्षणशीलो भिक्षुस्तस्य, किम्भूतस्य ?-अव्यक्तस्य, स चाव्यक्तः श्रुतवयोभ्यां स्यात् , तत्र श्रुतान्यक्तो येनाचारप्रकल्पोऽर्थतो नाधिगतो भवति गच्छगतानां तन्निर्गतानां तु नवमपूर्वतृतीयवस्त्विति, वयसा चाव्यक्त आषोडशवर्षाद्गच्छगतानां तन्निर्गतानां च त्रिंशत इति, अत्र चतुर्भङ्गिका, श्रुतवयोभ्यामव्यक्तस्यैकचर्या न कल्पते, संयमात्मविराधनातः इत्याद्यो भङ्गः, तथा श्रुतेनाव्यक्तो वयसा च व्यक्तः, अस्याप्येकचर्या न कल्पते, अगीतार्थत्वादुभयविराधनासद्भावादिति द्वितीयः, तथा श्रुतेन व्यक्तो वयसा चाव्यक्तः, तस्यापि न कल्पते, बालतया सर्वपरिभवास्पदत्वाद् विशेषतः स्तेनकुलिङ्गादीनामिति तृतीयः, यस्तूभयव्यक्तः स सति कारणे प्रतिमामेकाकिविहारित्वमभ्युद्यतविहारं वा प्रतिपद्यताम् , अस्थापि कारणाभावे एकचर्या नानुमता, यतस्तस्यां गुप्तीभाषेषणादिविषया बहवो दोषाः प्रादुष्पन्ति, तथाहि-ए-18 काकी पर्यटन यदीर्यापथं शोधयति ततः श्वायुपयोगानश्यति तदुपयुक्तश्चेन्नेर्यापर्थ शोधयेदित्यादिकाः शेषा अपि समितयो वाच्याः, अन्यच-अजीर्णेन वातादिक्षोभेण वा व्याध्युद्भवे संयमात्मविराधना प्रवचनहीलना च, तत्र यदि|
कर
~1424
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५६],नियुक्ति: [२४९]
प्रत
(शी०)
सूत्रांक
25
[१५६]]
श्रीआचा- करुणापन्ना गृहस्थाः प्रतिजागरणं कुर्युस्तह्मज्ञानतया षट्कायोपमर्दनं कुर्वाणाः संयमवाधामापादयेयुः, अथ न कश्चित्तत्र लोक०५ रावृत्तिः तथाभूतः कर्तव्योद्यतः स्यात् तत आत्मविराधना, तथाऽतिसारादौ मूत्रपुरीषजम्बालान्ततित्वात् प्रवचनहीलना,IPLL | अपि च-प्रामादिव्यवस्थितः सन् धिगजात्यादिना केशलुचिताद्यधिक्षेपेणाधिक्षिप्तः सन् परस्परोपमर्दकारि दण्डादण्डिटू
उद्देशका भण्डनं विदध्यात् , तच्च गच्छगतस्य न सम्भवति, गुर्वाधुपदेशसम्भवात्, तदुक्तं च-"अकोसहणणमारणधम्मभंसाण ॥२१४॥
बालसुलभाणं । लाभ मण्णइ धीरो जहुत्तराणं अभावंमि ॥१॥" इत्येवमादिनोपदेशेन गच्छान्तर्गतो गुरुणाऽनुदास्यते, गच्छनिर्गतस्य पुनर्दोषा एव केवला इति, उक्तं च-"साहमिएहिं संमुज्जएहिं एगागिओ अ जो विहरे । आर्यकपउरयाए छक्कायवहंमि आवडइ ॥१॥ ऐगागिअस्स दोसा इत्थी साणे तहेव पडिणीए । भिक्खऽविसोहि महब्वय तम्हा स|बिइज्जए गमणं ॥२॥" इत्यादि, गच्छान्तर्वर्तिनस्तु बहवो गुणाः, तनिश्नया अपरस्यापि बालवृद्धादेरुद्यतविहाराभ्युपगमात् , यथाहि उदके समर्थस्तरन्नपरमपि काष्ठादि विलग्नं तारयति, एवं गच्छेऽप्युद्यतविहार्यपरं सीदन्तमुद्यमयति, तदेवमेकाकिनो दोषान् वीक्ष्य गच्छान्तर्विहारिणश्च गुणान् कारणाभावे व्यक्तेनापि नैकचर्या विधेया, कुतः पुनरव्यक्के
नेति स्थितं । ननु च सति सम्भवे प्रतिषेधो युक्तो, न चास्ति सम्भवः एकाकिविहारितायाः, को हि नाम बालिशः सहादायान् विहाय समस्तापायास्पदमेकाकिविहारितामभ्युपेयादिति, अत्रोच्यते, न किशिदपि कर्मपरिणतेरशक्यमस्ति, तथाहि || १बाकोशवधमारणधर्मभ्रंशाना बालसुलभानाम् । लाभं मन्यते धीरः ययोत्तराणामभावे ॥१॥ २ साधर्मिकेषु सम्यगुएतेषु एकाकी च यो विहरेत् ।
AIR१४॥ आतप्रचुरतायो षदायवधे स पतति ॥ १॥ ३ एकाकिनो दोषाः स्त्री श्वा तथैव प्रखनीकः । भिक्षाऽलिशोधिः महावतेषु तस्मात्सद्वितीयेन गमनम् ॥२॥
दीप अनुक्रम [१६९]
JABERatinintamational
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
~1434
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५६],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५६]]
-स्वातल्यगदागदकल्पस्य समस्तव्यसनप्रवाहसेतुभूतस्याशेषकल्याणनिकेतनस्य शुभाचाराधारस्य गच्छस्यान्तर्वत्र्तिनः। कचिन्नमादस्खलिते चोदिताः अवगणय्य सदुपदेशमपर्यालोच्य सद्धर्ममविचार्य कषायविपाककटुकतामनवधार्य परमार्थ | पृष्ठतः कृत्वा कुलपुत्रतां वाङमात्रादपि केचित्कोपनिघ्नाः सुखैषिणोऽगणितापदो गच्छान्निर्गच्छन्ति, तत्र चैहिकामुष्मिकापायानवाप्नुवन्तीति, उक्कं च-"जह सायरंमि मीणा संखोहं सायरस्स असहंता । णिति तओ सुहकामी णिग्गयमित्ता | विणस्संति ॥१॥ एवं गच्छसमुद्दे सारणवीईहिं चोईया संता । णिति तओ सुहकामी मीणा व जहा विणस्सति ॥२॥ गच्छमि केइ पुरिसा सउणी जह पंजरंतरणिरुद्धा । सारणवारणचोइय पासत्थगया परिहरंति ॥ ३ ॥ जहा दियापोयमपक्खजायं, सवासया पविउमणं मणागं । तमचाइया तरुणमपत्तजार्य, ढंक्कादि अव्वत्तगर्म हरेजा ॥४॥" एवमजातसूअवय पक्षस्तीर्थिकध्यानादिभिर्विलुप्यते गच्छालयान्निर्गतो वाङ्मात्रेणापि चोदितः सन् इति । एतद्दर्शयितुमाह
वयसावि एगे बुइया कुप्पंति माणवा, उन्नयमाणे य नरे महया मोहेण मुज्झइ, संबाहा बहवे भुज्जो २ दुरइक्कम्मा अजाणओ अपासओ, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स
दीप अनुक्रम [१६९]
१ यथा सागरे मीनाः संक्षोभं सागरस्यासहमानाः । निर्गच्छन्ति ततः सुखकामिनो निर्गतमात्रा विनश्यन्ति ॥१॥ एवं गच्छसमुदे स्मारणवीचिभि:दिदिताः सन्तः । निर्गच्छन्ति ततः मुखका मिनो मीना इन यथा विनश्यन्ति ॥ २॥ गच्छे केचित् पुरुषाः शकुनयो यथा पत्रारान्तरनिरुद्धाः । मारणवारणचोदिताः
पार्थस्थतां गताः परित्यजन्ति ॥३॥ यथा द्विजपोतमजातपक्ष खकादावासकात् प्लवितुमनसं मनाग । तनाशकं तरुणमजातपत्रं, कादयोऽव्यकगर्म हरेयुः (रन्ति)
~1444
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५७],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
लोक०५ उद्देशका४
सूत्रांक [१५७]
दीप अनुक्रम [१७०]
श्रीआचा
दसणं, तबिट्टीए तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तस्सन्नी तन्निवेसणे, जयं विहारी चित्तनिवाई राङ्गवृत्तिः । (शी०)
पंथनिज्झाई पलिवाहिरे, पासिय पाणे गच्छिज्जा (सू० १५७) ॥२१५॥
क्वचित्तपःसंयमानुष्ठानादाववसीदन्तः प्रमादस्खलिता वा गुर्यादिना धर्मेण वचसाऽपि 'एके' अपुष्टधर्माणः अनवगतपरमार्थाः 'उक्ताः' चोदिताः कुप्यन्ति, के ते?-'मानवा' मनुजाः क्रोधवशगा भवन्ति, ब्रुवते च-कथमहमनेनेयतां साधूनां मध्ये तिरस्कृतः, किं मया कृतम् ?, अथवाऽन्येऽप्येतत्कारिणः सन्त्येव, ममाप्येवम्भूतोऽधिकारोऽभूत्, धिग्मे जीवितमित्यादि, महामोहोदयेन क्रोधतमिस्राच्छादितदृष्टयः उज्झितसमुचिताचारा उभयान्यतराव्यक्ता मीना इव गच्छसमुद्राभिंगत्य विनाशमामुवन्ति, यदिवा वचसाऽपि यथा क इमे लुञ्चिताः मलोपहतगात्रयष्टयः प्रगेतनावसर एवास्मा
भिर्द्रष्टव्या इत्यादिनोक्ता एके क्रोधान्धाः कुप्यन्ति मानवाः, अपिशब्दारकायेनापि स्पृष्टाः कुप्यन्ति, कुपिताश्चाधिकरNणादि कुर्वन्तीत्येवमादयो दोषा अव्यक्कैकचर्यायां गुर्वादिनियामकाभावात्यादुष्प्युरिति, गुरुसान्निध्ये चैवम्भूत उपदेशः
सम्भवेत् , तद्यथा-"आक्रुष्टेन मतिमता तत्त्वार्थान्वेषणे मतिः कार्या । यदि सत्यं का कोपः स्यादनृतं किं नु कोपेन ? ॥१॥" तथा-"अपकारिणि कोपश्चेत्कोपे कोपः कथं न ते? | धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रसह्य परिपन्धिनि ॥२॥"इत्यादि, किं पुनः कारणं वचसाऽप्यभिहिता ऐहिकामुष्मिकापकारकारिणः स्वपरवाधकस्य क्रोधस्यावकाशं ददतीत्याह-उन्नतो मानोऽस्येत्युन्नतमानः, उन्नतं वाऽऽत्मानं मन्यत इति, स चैवम्भूतो 'नरो' मनुष्यो महता मोहेन-प्रबलमोहनीयोदयेन
॥२१५॥
~1454
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१५७]
दीप
अनुक्रम [१७०]
[भाग-2] “आचार” मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
39
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [४], मूलं [१५७],निर्युक्तिः [२४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
अज्ञानोदयेन वा 'मुह्यति' कार्याकार्यविचार विवेक विकलो भवति, स च मोहमोहितः केनचिच्छिक्षणार्थमभिहितो मिथ्याहष्टिना वा बाचा तिरस्कृतो जात्यादिमदस्थानान्यतरसद्भावेनोन्नतमानमन्दरारूढः कुप्यति, मामध्येवमयं तिरस्करोति, धिग्मे जातिं पौरुषं विज्ञानं चेत्येवमभिमानग्रहगृहीतो वाडयात्रादपि गच्छान्निर्गच्छति, तन्निर्गतो वाऽधिकरणादिविडम्ब नयाऽऽत्मानं विडम्बयति, अथवोन्नम्यमानः केनचित् दुर्विदग्धेनाहोऽयं महाकुलप्रसूत आकृतिमान् पटुप्रज्ञो मृष्टवाक् समस्तशास्त्रवेता सुभगः सुखसेव्यो वेत्यादिना वचसा तथ्येनातथ्येन वोत्प्रास्यमान उन्नतमानो गर्वाध्मातो महता चारित्रमोहन मुह्यति संसारमोहेन बोह्यत इति । तस्य चोन्नतमानतया महामोहेन मुह्यतो मोहाच्च वाड्यात्रेणापि कुप्यतः कोपाच्च गच्छनिर्गतस्यानभिव्यक्तस्य भिक्षोर्ग्रामानुग्राममेकाकिनः पर्यटतो यत्स्यात्तदाह-तस्याव्यक्तस्यैकचरस्य पर्यटतः | सम्बाधयन्तीति सम्बाधाः पीडाः उपसर्गजनिता नानाप्रकारातङ्कजनिता वा भूयो भूयो वह्नयः स्युः, ताश्चैकाकिनाऽव्यक्तेन निरवद्यविधिना 'दुरतिक्रमा' दुरतिलङ्घनीयाः किम्भूतस्य दुरतिक्रमा इत्याह-तासां नानाप्रकारनिमित्तोत्या| पितानां बाधानामतिसहनोपायमजानानस्य सम्यकरणसहनफलं चापश्यतो दुरतिक्रमणीयाः पीडा भवन्ति, ततश्चातपीडाकूलीभूतः सन्नेषणामपि लङ्घयेत्, प्राण्युपमर्दमप्यनुमन्येत वाकण्टकनुदितः सन्नव्यक्ततया प्रज्वलेत, नैतद्भावयेद् यथा मत्कर्म्मविपाकापादिता एताः पीडाः परोऽत्र केवलं निमित्तभूतः, किं च " आत्मद्रोहममर्यादं मूढमुज्झितसत्पथम् । सुतरामनुकम्पेत, नरकाञ्चिष्मदिन्धनम् ॥ १ ॥" इत्यादिका भावना आगमापरिमलितमतेर्न भवेदिति । एतत्प्रदर्श्य भगवान् विनेयमाह - 'एतद्' एकचर्याप्रतिपन्नस्य बाधादुरतिक्रमणीयत्वमजानानस्यापश्यतश्च 'ते' तव
Education Internation
For Parts Only
~ 146~
nary.org
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५७],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
लोक. ५ उद्देशका
सूत्रांक [१५७]
दीप अनुक्रम [१७०]
मदुपदेशवर्तिनो मा भवतु, आगमानुसारितया सदा गच्छान्तर्वती भवेत्यर्थः । सुधर्मस्वाम्याह-एतत्' पूर्वोक्तं तत् राङ्गवृत्तिः 'कुशलस्य श्रीवर्द्धमानस्वामिनो 'दर्शनम्' अभिप्रायो यथाऽव्यक्तस्यैकचरस्य दोषाः सततमाचार्यसमीपवर्तिनश्च गुणा (शी) इति । आचार्यसमीपवर्तिना च किं विधेयमित्याह-तस्य-आचार्यस्य दृष्टिस्तदृष्टिस्तया सततं वर्तितव्यं हेयोपादेयार्थेषु,
यदिवा तस्मिन् संयमे दृष्टिस्तदृष्टिः, स एव वाऽऽगमो दृष्टिस्तदृष्टिस्तया सर्वकार्येषु व्यवहर्त्तव्यम् , तथा-तेनोक्ता सर्व-5 ॥२१६॥
सङ्गेभ्यो विरतिमुक्तिस्तया सदा यतितव्यम्, तथा पुरस्करणं पुरस्कारः-सर्वकार्येष्वग्रतः स्थापने, तस्य-आचार्यस्य पुरस्कारस्तत्पुरस्कारस्तस्मिन्-तद्विषये यतितव्यम् , तथा तस्य संज्ञा तत्संज्ञा-तज्ज्ञानं तद्वांस्तत्संज्ञी सर्वकार्येषु स्यात्, न स्वमतिविरचनया कार्य विदध्यात्, तथा तस्य-गुरोनिवेशन-स्थानं यस्यासौ तन्निवेशनः, सदागुरुकुलवासी स्यादिति भावः । तत्र गुरुकुले निवसन् किम्भूतः स्थादित्याह-यतमानो-यतनया विहरणशीलो विहारी स्यात्, यतमानः पाण्यु
पमर्दनमकुर्वन् प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रियाः कुर्यादिति, किं च-चित्तम्-आचार्याभिप्रायस्तेन निपतित-क्रियायां प्रवर्तित ४|| शीलमस्येति चित्तनिपाती सदा स्यादिति, तथा गुरोः क्वचिद्गतस्य पन्थानं निर्यातुं--प्रलोकितुं शीलमस्येति पथनि-15
र्यायी, उपलक्षणं चैतत् तेन सुषुप्सो संस्तारकप्रलोकी बुभुक्षोराहारान्वेषीत्यादिना गुरोराराधकः सदा स्यात, किं चपरिः-समन्तात् गुरोरवग्रहात् पुरतः पृष्ठतो वाऽवस्थानात्सदा कार्यमृते बाह्यः स्यात्, एतस्माच सूत्राश्रयः ईर्योद्देशका निर्गता इति । किं च-कचित्कार्यादी गुदिना प्रेषितः सन् दृष्ट्वा प्राणिनो युगमात्राष्टिस्तदुपधातं परिहरन् गच्छेत् । किं च
से अभिक्कममाणे पडिकममाणे संकुचमाणे पसारेमाणे विणिवट्टमाणे संपलिज्जमाणे,
2015
॥२१६॥
~1474
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५८],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५८]
दीप अनुक्रम [१७१]
एगया गुणसमियस्स रीयओ कायसंफासं समणुचिन्ना एगतिया पाणा उद्दायंति, इहलोगवेयणविजावडियं, जं आउहिकयं कंमं तं परिन्नाय विवेगमेइ, एवं से अप्प
माएण विवेगं किइ वेयवी (सू०१५८) 'स' भिक्षुः सदा गुर्वादेशविधायी एतद्व्यापारवान् भवति, तद्यथा-अभिकामन्-गच्छन् प्रतिक्रामन-निवर्तमानः सङ्घचन् हस्तपादादिसङ्कोचनतः प्रसारयन् हस्तादीनवयवान् विनिवर्तमानः समस्ताशुभव्यापारात्, सम्यक् परिःसमन्ताद्धस्तपादादीनवयवांस्तन्निक्षेपस्थानानि वा रजोहरणादिना मृजन्-परिमृजन गुरुकुलवासे बसेदिति सर्वत्र सम्बधनीयं, तत्र निविष्टस्य विधिः-भूम्यामेकमूलं व्यवस्थाप्य द्वितीयमुत्क्षिप्य तिष्ठेत्, निश्चलस्थानासहिष्णुतया भूमी प्रत्युपेक्ष्य प्रभाय॑ च कुक्कुटीविजृम्भितदृष्टान्तेन सङ्कोचयेत् प्रसारयेद्वा, स्वपन्नपि मयूरवत्स्वपिति, स किलान्यसत्वभया-2 देकपाशायी सचेतनश्च स्वपिति, निरीक्ष्य च परिवर्तनादिकाः क्रिया विधत्ते, इत्येवमादि संपरिमृजन् सर्वाः क्रियाः करोति । एवं चाप्रमत्ततया पूर्वोक्ताः क्रियाः कुर्वतोऽपि कदाचिदवश्यंभावितया यत्स्यात्तदाह-एकदा' कदाचित् , 'गुणसमितस्य' गुणयुक्तस्याप्रमत्ततया यतेः 'रीयमाणस्य' सम्यगनुष्ठानवतोऽभिकामतः परिक्रामतः सचतः प्रसारयतो विनिवर्तमानस्य संपरिमृजतः कस्याञ्चिदवस्थायां कायः-शरीरं तत्संस्पर्शमनुचीर्णाः-कायसङ्गमागताः सम्पातिमादयः प्राणिनः एके परितापमाप्नुवन्ति एके ग्लानतामुपयान्ति एकेऽवयवविध्वंसमापद्यन्ते, अपश्चिमावस्थां तु सूत्रणेव दर्श
~148~
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१५८ ]
दीप
अनुक्रम [१९७१]
39
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [४], मूलं [१५८],निर्युक्तिः [२४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
॥ २१७ ॥
श्रीआचा-यति- एके 'प्राणाः' प्राणिनः 'अपद्रान्ति' प्राणैर्विमुच्यन्ते, अत्र च कर्म्मबन्धं प्रति विचित्रता, तथाहि शैलेश्यवस्थायां राङ्गवृत्तिः मशकादीनां कायसंस्पर्शेन प्राणत्यागेऽपि बन्धोपादानकारणयोगाभावान्नास्ति बन्धः, उपशान्तक्षीणमोहसयोगिकेवलिना (शी०) स्थितिनिमित्तकपायाभावात् सामयिकः, अप्रमत्तयतेर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतश्चान्तःकोटी कोटी स्थितिरिति, प्रम * त्तस्य त्वनाकुट्टिकयानुपेत्यप्रवृत्तस्य क्वचित्साण्याद्यवयवसंस्पर्शात् प्राण्युपतापनादौ जघन्यतः कर्म्मबन्ध उत्कृष्टतश्च प्राक्तन एव विशेषिततरः । स च तेनैव भवेन क्षिप्यत इति सूत्रेणैव दर्शयितुमाह- इह-अस्मिन् लोके - जन्मनि वेदनम्अनुभवनमिहलोकवेदनं तेन वेद्यम् - अनुभवनीय मिलोकवेदनवेद्यं तत्रापतितमिहलोकवेदनवेद्यापतितं इदमुक्तं भवति - प्रमत्तयतिनाऽपि यदकामतः कृतं कर्म कायसङ्घट्टनादिना तदैहिकभवानुबन्धि, तेनैव भवेन क्षप्यमाणत्वाद्, आकुट्टीकृतकर्मणि तु यद्विधेयं तदाह-यत्तु पुनः कर्म्माकुट्टया कृतम्-आगमोक्तकारणमन्तरेणोपेत्य प्राण्युपमर्देन विहितं तत्परि ज्ञाय ज्ञपरिज्ञया 'विवेकमेति' विविच्यतेऽनेनेति विवेक:- प्रायश्चित्तं दशविधं तस्यान्यतरं भेदमुपैति तद्विवेकं वा-अभावाख्यमुपैति तस्करोति येन कर्म्मणोऽभावो भवति । यथा च कर्म्मणो विवेको भवति तथा दर्शयितुमाह-- 'एव' मिति वक्ष्यमाणेन प्रकारेण 'से' तस्य कर्म्मणः साम्परायिकस्य सदा वेदविद् 'अप्रमादेन' प्रमादाभावेन दशविधप्रायश्चित्तान्यतरभेदसम्यगनुष्ठानेन 'विवेकम्' अभावं कीर्त्तयति 'वेदवित्' तीर्थकरो वेदविद्वा-आगमविद्वणधरश्चतुर्दश पूर्वविद्वेति ॥ किम्भूतः पुनरप्रमादवान् भवतीत्याह
से पभूयदंसी पभूयपरिन्नाणे उवसंते समिए सहिए सयाजए, दडुं विप्पडिवेएइ अ
Education Interna
For Parts Only
~149~
लोक० ५
उदेशक ४
॥ २१७ ॥
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५९],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५९]
दीप
प्पाणं किमेस जणो करिस्सइ?, एस से परमारामो जाओ लोगमि इत्थीओ, मुणिणा हु एवं पवेइयं, उब्बाहिज्जमाणे गामधम्मेहिं अवि निब्बलासए अवि ओमोयरियं कुज्जा अवि उहूं ठाणं ठाइजा अवि गामाणुगामं दूइजिजा अवि आहारं वुञ्छिदिजा अवि चए इत्थीसु मणं, पुव्वं दंडा पच्छा फासा पुव्वं फासा पच्छा दंडा, इच्चेए कलहासंगकरा भवंति, पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासेवणाए त्तिबेमि, से नो काहिए नो पासणिए नो संपसारणिए नो मामए णो कयकिरिए वइगुत्ते अज्झप्पसंवुडे परिवजइ सया पावं एवं मोणं समणुवासिज्जासित्तिबेमि
(सू० १५९)॥५-४॥ लोकसारे चतुर्थः ॥ 'स' साधुः प्रभूतं प्रमादविपाकादिकमतीतानागतवर्तमानं वा कर्मविपाक द्रष्टुं शीलमस्येति प्रभूतदी, साम्प्रतेक्षितया न यकिञ्चनकारीत्यर्थः, तथा प्रभूतं सत्त्वरक्षणोपायपरिज्ञानं संसारमोक्षकारणपरिज्ञानं वा यस्य स प्रभूतपरिज्ञानः, | यथावस्थितसंसारस्वरूपदशीत्यर्थः, किंच-उपशान्तः कपायानुदयादिन्द्रियनोइन्द्रियोपशमावा, तथा पञ्चभिः समि-3 तिभिः समितः सम्यग्वा मोक्षमार्गमितः समितः, तथा ज्ञानादिभिः सहितः-समन्वितः सह हितेन वा सहितः, 'सदा।
अनुक्रम [१७२
A
asurary.com
~150~
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५९],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
लोक०५
राजवृत्तिः
प्रत सूत्रांक
उद्देशकार
MOLESCENCE
[१५९]]
दीप अनुक्रम [१७२
श्रीआचा
सर्वकालं यतः सदायतः, स एवम्भूतोऽप्रमत्तो गुरोरन्तिकमावसन प्रमादजनितस्य कर्मणोऽन्तं विधत्ते । स च ख्या
धनुकूलपरीषहोपपत्ती किं विदध्यादित्याह-'दृष्ट्वा' अवलोक्य स्त्रीजनमुपसर्गकरणायोद्यतमात्मानं 'विप्रतिवेदयति' (शी०)
पर्यालोचयति, तद्यथा-सम्यग्दृष्टिरस्मि, तथोत्क्षिप्तमहावतभारः शरच्छशाङ्कनिर्मलकुललब्धजन्मा अकार्याकरणतयो॥२१८॥
त्थित इत्येवमात्मानं पर्यालोचयति, तं च स्त्रीजनं किमेष स्त्रीजनो मम त्यक्तजीविताशस्योज्झितैहिकमुखाभिलाषस्योपस
ग्गादिकं कुर्यात्, अथवा वैषयिकसुखस्य दुःखप्रतीकाररूपत्वात् किमेष स्त्रीजनः सुखं विदध्याद् ? अन्यो वा पुत्रकलत्रादिको तजनो मम मृत्युना जिघृक्षितस्य व्याधिना वाऽऽदित्सितस्य किं तत्प्रतीकारादिकं कुर्यादिति? । यदिवैयं स्त्रीजनस्वभावं|
चिन्तयेदिति सूत्रेणैव दर्शयति स एष स्त्रीजन आरमयतीत्यारामः परमश्चासावारामश्च परमारामः ज्ञाततत्त्वमपि जनं हासविलासोपाङ्गनिरीक्षणादिभिर्विव्योकर्मोहयतीत्यर्थः, याः काश्चनास्मिन् लोके खियः ता मोहरूपा विज्ञाय यावन्न परित्यजन्ति तावत्स्वत एव परित्यजेत् । एतच्च तीर्थकरेण प्रवेदितमिति दर्शयितुमाह-'मुनिना' श्रीवर्द्धमानस्वामिनोसन्नज्ञानेनैव 'एतत्' पूर्वोक्तं, यथा स्त्रियो भावबन्धनरूपाः, 'प्रवेदित' प्रकर्षणादौ वा व्याख्यातमिति । एतच्च वक्ष्यमाणं प्रवेदितमित्याह-उत्-प्राबल्येन मोहोदयाद् बाध्यमानः-पीड्यमानः उद्घाध्यमानः, कैः-पामधर्मः प्रामाः-इन्द्रियग्रामास्तेषां धर्माः-स्वभावा यथास्वं विषयेषु प्रवर्तनं तैरुद्धाध्यमानो गच्छान्तर्गतः सन् गुर्वादिनाऽनुशास्यते, कधमनुशास्थत इत्यत आह-अपिः सम्भावनायां, निर्बलं-निःसारमन्तप्रान्तादिकं यद्रव्यं तदाशकः-तदोजी स्यात्, यदिवा निर्गतं वलं-सामर्थ्यमस्येति निर्बलः एवम्भूतः सन्नाशीत, बलाभावे च ग्रामधर्मोपशमदर्शनाद्, बलाभावश्चाहारहान्या स्यादिति
S
॥२१८॥
~151~
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५९],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५९]
दीप अनुक्रम [१७२
दर्शयति--अप्यवमौदर्यं कुर्याद्, यदि ह्यन्तप्रान्ताशिनोऽपि न मोहोपशमः स्यात् ततस्तदपि वल्लचनकादिना द्वात्रिंश-11
कवलमात्र गृह्णीयात् , तेनाप्यनुपशमे कायोत्सर्गादिना कायक्लेशं कुर्यादित्येतदर्शयति-अप्यूर्व स्थानं तिष्ठेत् , शीदातोष्णादी कायोत्सर्गेणातापनां कुर्यात् , तेनाप्यनुपशमे ग्रामानुग्राममपि विहरेत् , निष्कारणे विहारो निषिद्धो मोहोपशमनार्थं तु कुर्यात् , किं बहुना?, येन येनोपायेन विषयेच्छा निवर्त्तते तत्तत्कुर्यात् , पर्यन्ते आहारमपि व्यवच्छिन्द्याद्, अपि पातं विदध्यात् अप्युद्धन्धनं कुर्यात् न च स्त्रीषु मनः कुर्यादित्याह च-अपिः समुच्चये, स्त्रीषु यन्मनः प्रवृत्तं तत् परित्यजेत् , तत्परित्यागे हि कामा द्विरूपा अपि दूरत एव परित्यक्ता भवन्तीति, उक्तं च-"काम! जानामि ते रूपं, संकल्पास्किल जायसे । न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥१॥" किं पुनः कारणं स्त्रीषु मनो न विधेय-12 मित्याह-स्त्रीसङ्गप्रवृत्तानामपरमार्थदृशां 'पूर्व प्रथममेव तत्सङ्गाविच्छेदार्थमर्थोपार्जनप्रवृत्तस्य कृषिवाणिज्यादिक्रियाः ६ कुर्वतोऽगणितक्षुत्पिपासाशीतोष्णादिपरीषहस्यैहिकदुःखरूपा दण्डाः, ते च खीसम्भोगात्प्रथममेव क्रियन्त इति पूर्वमित्युक्तं, पश्चाच्च विषयनिमित्तजनितकर्मविपाकापादितनरकादिदुःखविशेषाः स्पर्शा भवन्ति, यदिवा ख्याद्यकार्यप्रवृत्तस्य पूर्व दण्डपाताः पश्चाद्धस्तपादच्छेदादिकाः स्पर्शा भवन्ति, यदिवा पूर्व स्पर्शाः पश्चाद्दण्डपाता इति, अथवा पूर्व दण्डाः| ताडनादिकाः पश्चात्स्पर्शाः-सम्बाधनालिङ्गनचुम्बनादिकाः, तद्यथा-वन्द्यानीतावरुद्धराजकुमारीगवाक्षक्षिप्तपतदावील
ग्रहणाद्राजपुरुषावलोकनताडनेन मूछितराजकुमारीतद्दर्शनतो वणिगिन्द्रदत्तस्याग्रतो दण्डाः पश्चात्पर्शा इति, पूर्व वा |सुखादिस्पर्शाः पश्चाद्दण्डा ललिताङ्गकस्येवान्येषां चोपपतीनामिति । किं च-इत्येते स्त्रीसम्बन्धाः कलहः-सङ्ग्रामस्त
~152
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१५९]
दीप
अनुक्रम [१७२]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [४], मूलं [१५९],निर्युक्तिः [२४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ २१९ ॥
त्रासङ्गः- संबन्धस्तत्करा भवन्ति, यदिवा कलह-क्रोधः आसङ्गो राग इत्यतो रागद्वेषकारिणो भवन्ति, यद्येवं ततः किं कुर्यादित्याह ऐहिकामुष्मिकापायतः स्त्रीसङ्गप्रत्युपेक्षया 'आगमेत्त 'ति ज्ञात्वा आज्ञापयेदात्मानमनासेवनयेति, इतिरधिकारपरिसमाप्ती, ब्रवीम्यहं तीर्थकरवचनानुसारेण दुःखं च ताः परिहर्तुमिति पुनरपि तत्परिहरणोपायमाह - 'स' ४ स्त्रीसङ्गपरित्यागी स्त्रीनेपथ्यकथां शृङ्गारकथां वा नो कुर्यात् एवं च तास्त्यक्ता भवन्ति, तथा तासां नरकचीथीनां स्वर्गा| पवर्गमार्गार्गलानामङ्गप्रत्यङ्गादिकं न पश्येत् यतस्तन्निरीक्ष्यमाणं महतेऽनर्थाय भवतीति उक्तं च- "सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्ताव देवेन्द्रियाणां लज्जां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव । धूचापाकृष्टमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, यावलीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति ||१||” तथा-ताभिर्नरकविस्रम्भभूमिभिः सार्द्धं न सम्प्रसारणं पर्यालोचनमेकान्ते निजस्वस्रादिभिरपि कुर्यादिति, उक्तं च - "मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत् । चलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ॥ १ ॥ इत्येवमादि, तथा-न तासु स्वार्थपरासु ममत्वं कुर्यात्, तथा - कृता - अनुष्ठिता तदुपकारिणी मण्डनादिका क्रिया येन स कृतक्रिय इत्येवम्भूतो न भूयात्, न स्त्रीणां वैयावृत्त्यं कुर्यात्, काययोगनिरोध इति भावः, तथा तथैताः शुभानुष्ठानपरिपन्थिनीर्न वाङ्मात्रेणा प्यालपेदिति वाग्योगनिरोधः, तथा-आत्मन्यधि अध्यात्मं- मनस्तेन संवृत्तोऽध्यात्मसंवृत्तः - स्त्रीभोगादत्तमनाः सूत्रार्थोपयुक्तनिरुद्धमनोयोगः, एवम्भूतश्च ४ ॥ २१९ ॥ किमपरं कुर्यादित्याह - परि:- समन्तात् वर्जयेत् परिहरेत् 'सदा' सर्वकालं 'पाप' किल्विषं तदुपादानं वा कर्म्म, उपसं
Educatuny Internationa
For Penal Use Only
लोक० ५
उद्देश ४
~153~
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [४], मूलं [१५९],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
हरणार्थमाह-एतद' यदुद्देशकादेरारभ्योक्तं, मुनेरिदं मौनं मुनिभावो वा तदात्मनि समनुवासयेः-आत्मनि विदध्याः॥ इतिरधिकारपरिसमाप्ती, बबीमीति पूर्ववत् । लोकसाराध्ययने चतुर्थोद्देशकः परिसमाप्तः॥
प्रत
DED
सूत्रांक
[१५९]
दीप अनुक्रम [१७२
उक्तश्चतुर्थोद्देशकः, साम्प्रतं पञ्चम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशकेऽव्यक्तस्यैकचरस्य प्रत्यपायाः प्रदर्शिताः, अतस्तान् परिजिहीर्षुणा सदाऽऽचार्यसे बिना भवितव्यम् , आचार्येण च दोपमेन भाव्यं, तदन्तेवासिना च|| | तपःसंयमगुप्तेन निःसङ्गेन च विहर्त्तव्यमिति, एतत्प्रतिपादनसम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
से बेमि तंजहा-अवि हरए पडिपुण्णे समंसि भोमे चिट्रइ उवसंतरए सारक्खमाणे, से चिट्ठइ सोयमज्झगए से पास सब्बओ गुत्ते, पास लोए महेसिणो जे य पन्नाणमंता पबुद्धा आरम्भोवरया सम्ममेयंति पासह, कालस्स कंखाए परिव्वयंति
तिमि (सू० १६०) सेशन्दस्तच्छब्दार्थे, यद्गुण आचार्यों भवति तदहं तीर्थकरोपदेशानुसारेण ब्रवीमीति, तद्यथेति वाक्योपन्यासार्थे, अपिशब्दो भनसमुच्चयार्थः, ते चामी भङ्गाः-एको ह्रदो-जलाशयः परिगलस्रोताः पर्योगलतस्रोताच, सीतासीतो
SARERatininemarana
पंचम-अध्ययने पंचम-उद्देशक: 'हद-उपमा' आरब्धः ,
~154~
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [५], मूलं [१६०],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राजवृत्तिः (शी०)
सूत्रांक
॥२२०॥
[१६०]
दाप्रवाहहदवत् , अपरस्तु परिगलतुस्रोता: नो पर्यागलस्रोता: पद्माइदवत् , तथा परो नो परिगलत्स्रोताः पर्यागल-18| लोक०५ स्रोताच, लवणोदधिवत्, अपरस्तु नो परिगलस्रोता नो पोंगलस्रोताच, मनुष्यलोकाबहिः समुद्रवत् । तत्राचाय || श्रुतमङ्गीकृत्य प्रथमभङ्गपतितः, श्रुतस्य दानग्रहणसद्भावात् , साम्परायिककम्मापेक्षया तु द्वितीयभङ्गपतितः, कषायो
उद्देशक:५ दयाभावेन ग्रहणाभावात्तपःकायोत्सर्गादिना क्षपणोपपत्तेश्चेति, आलोचनामङ्गीकृत्य तृतीयभङ्गपतितः, आलोचनाया अप्रतिश्रावित्वात् , कुमार्ग प्रति चतुर्थभङ्गपतितः, कुमार्गस्य हि प्रवेशनिर्गमाभावात्, यदिवा धम्मिभेदेन भङ्गा योज्यन्ते-तत्र स्थविरकल्पिकाचार्याः प्रथमभङ्गपतिताः, द्वितीयभङ्गपतितस्तीर्थकृत् , तृतीयभङ्गस्थस्त्वहालन्दिकः, सच कचिदर्थापरिसमाप्तावाचार्यादेन्निर्णयसद्भावात् , प्रत्येकबुद्धास्तूभयाभावाच्चतुर्थभङ्गस्था इति, इह पुनः प्रथमभङ्गपति-18 तेनोभयसद्भाविनाऽधिकारः, तथाभूतस्यैवायं ददृष्टान्तः, स च हृदो निर्मलजलस्य 'प्रतिपूर्णो' जलजैः सर्वनुजैरुपशोभितः समे भूभागे विद्यमानोदकनिर्गमप्रवेशो नित्यमेव तिष्ठति, न कदाचिच्छोषमुपयाति, सुखोत्तारावतारसमन्वितः, उपशान्तम्-अपगतं रजः कालुथ्यापादकं यस्य स तथा, नानाविधांश्च यादसां गणान् संरक्षन् सह वा यादोगणैरात्मानमारक्षन्-प्रतिपालयन् सारक्षन् तिष्ठतीत्येषा क्रिया प्रकृतैव । यथा चासौ इदस्तथाऽऽचार्योऽपीति दर्शयति-'सः'
१ उदकार करो यावतकालेन शुष्यति रामपन्य धन्वं तत आरभ्योत्कृष्ट पश्वराग्निदिवलक्षणं लन्दं, तदा गाते, उत्कृष्टलन्दस्यानतिकमेण चरन्तीति यथालन्दिकाः, पञ्चको गणोऽमुं कर्ष प्रतिपद्यते, मासकल्पोत्रं च गृहपडिहाराभिः पतिथीभिर्जिनकल्पिकवरपरिकल्पयन्ति. २ पर्शगलखोतोवदर्यापेक्षया ग्राहकलात् |
l॥२२ ॥ तृतीयभापतित इति गम्यम्,
अनुक्रम [१७३]
~155~
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६०]
दीप
अनुक्रम [१७३]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [१६०],निर्युक्तिः [२४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
आचार्यः प्रथमभङ्गपतितः पञ्चविधाचारसमन्वितोऽष्टविधाचार्यसम्पदुपेतः, [ तद्यथा - " आयीर सुअ सरीरे वयणे वायण मई पओगमई। एए सुसंपया खलु अडमिआ सङ्गहपरिन्ना ॥ १ ॥ " ] पत्रिशगुणगणाधारो हृदकल्पो निर्मलज्ञानप्रतिपूर्णः समे भूभाग इति संसक्तादिदोषरहिते सुखविहारे क्षेत्रे समो वा ज्ञानदर्शनचारित्राख्यो मोक्षमार्गः उपशमवतां तत्र तिष्ठति-समध्यास्ते, किंभूतः ? - 'उपशान्तरजा' उपशान्तमोहनीय इति, किं कुर्वन् ? - जीवनिकायान् रक्षन् स्वतः परतश्च सदुपदेशदानतो नरकादिपाताद्वेति, 'स्रोतोमध्यगत' इत्यनेन प्रथमभङ्गपतितं स्थविराचार्यमाह, तस्य हि श्रुतार्थदानग्रहणसद्भावात् स्रोतोमध्यगतत्वम्, स च किम्भूतः स्यादित्याह - 'सः' आचार्योऽक्षोभ्यइदकल्पः 'सर्वतः' सर्वप्रकारतयेन्द्रियनोइन्द्रियरूपया गुध्या गुप्त इत्येतत्पश्य आचार्यव्यतिरेकेणान्येऽप्येवम्भूता बहवः साधवः सम्भवन्तीत्येतन्निर्दिदिक्षुराह-इह मनुष्यलोके पूर्वव्यावर्णितस्वरूपाः 'महर्षयो' महामुनयः सन्ति, इत्येतत्पश्य, किम्भूतास्ते महर्षय इत्यत आह-न केवलमाचार्या हदकल्पा ये चान्ये साधवस्तेऽपि इदकल्पाः, किम्भूताः १-प्रकर्षेण ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानं स्वपरावभासकत्वादागमस्तद्वन्तः प्रज्ञानवन्तः आगमस्य बेत्तार इत्यर्थः, तज्ज्ञा अपि मोहोदयात् कचिद्धेतूदाहरणासम्भवे ज्ञेयगहनतया संशयानाः न सम्यक् श्रद्धानं विदध्युरित्यतो विशिनष्टि - 'प्रबुद्धाः' प्रकर्षेण यथैव तीर्थकृदाह तथैवावगतत्तत्त्वाः प्रबुद्धाः, तथाभूता अपि कर्म्मगुरुत्वान्न सावद्यानुष्ठानविरतिं कुर्युरित्यतो विशेषयति- 'आरम्भोपरताः' आरम्भः - सावद्यो योगस्तस्मादुपरता आरम्भोपरताः, एतच्च न मदुपरोधेन ग्राह्यम् अपि तु स्वत एव कु
१] आचारः श्रुतं शरीरं वचनं वाचना मतिः प्रयोगमतिः । एताः सुसंपदः सतु अष्टमी संग्रहपरिक्षा ॥ १ ॥
Education International
For Pasta Use Only
~156~
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [५], मूलं [१६०],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१६०]
दीप
श्रीआचा-|| शानीयया बुझ्या विचार्यमित्याह-एतद्यन्मया प्रोक्तं तत्सम्यग् मध्यस्था भूत्वा समर्यादं यूयमपि पश्यत । अपि चैतस- लोक० ५ राङ्गवृत्तिः श्यत-काल' समाधिमरणकालस्तदभिकान्या साधवो मोक्षाध्वनि संयमे परिः-समन्ताद्बजन्ति परिव्रजन्ति-उद्य
उद्देशका (शी०) च्छन्ति, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीत्येतत्प्रकरणोद्देशकाध्ययनश्रुतस्कन्धाङ्गपरिसमाप्तौ प्रयुज्यते, तदिहाधिकारपरि-IA
समाप्तौ द्रष्टव्यमिति ॥ आचार्याधिकारं परिसमापय्य विनेयवक्तव्यतामाह॥२२१॥
वितिगिच्छसमावन्नेणं अप्पाणेणं नो लहइ समाहि, सिया वेगे अणुगच्छंति असिता
वेगे अनुगच्छंति, अणुगच्छमाणेहिं अणणुगच्छमाणे कहं न निविजे ? (सू० १६१) विचिकित्सा या चित्तविप्लुतिः यथा इदमप्यस्तीत्येवमाकारा युक्त्या समुपपन्नेऽप्यर्थे मतिविधमो मोहोदयाद्भवति, तथाहि-अस्य महतस्तपःक्केशस्य सिकताकणकवलनिःस्वादस्य स्यात् सफलता न बेति? कृषीवलादिक्रियाया उभयथा|ऽप्युपलब्धेरिति, इयं च मतिमिथ्यात्वांशानुवेधाद्भवति ज्ञेयगहनत्वाच्च, तथाहि-अर्थस्त्रिविधः-सुखाधिगमो दुरधिगमोऽनधिगमश्च श्रोतारं प्रति भिद्यते, तत्र सुखाधिगमो यथा चक्षुष्मतश्चित्रकर्मनिपुणस्य रूपसिद्धिः दुरधिगमस्त्वनिपु
णस्य अनधिगमस्त्वन्धस्य, तत्रानधिगमरूपोऽवस्त्वेव, सुखाधिगमस्तु विचिकित्साया विषय एव न भवति, देशकालस्वसाभावविप्रकृष्टस्तु विचिकित्सागोचरीभवति, तस्मिन् धर्माधर्माकाशादी या विचिकित्सेति, यदिवा 'विइगिच्छत्ति बिद्व- ॥२२१ ।।
ज्जुगुप्सा, विद्वांसः-साधवो विदितसंसारस्वभावाः परित्यक्तसमस्तसङ्गास्तेषां जुगुप्सा-निन्दा अनानात् प्रस्वेदजलक्लिन
अनुक्रम [१७३]
~157~
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [५], मूलं [१६१],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६१]
मलत्यादुर्गन्धिवपुषस्तान्निन्दति-को दोषः स्याद्यदि प्रासुकेन वारिणाऽङ्गक्षालनं कुर्वीरन्नित्यादि जुगुप्सा तां विचिकित्सां * विद्वज्जुगुप्सां वा सम्यगापन:-प्राप्तः आत्मा यस्य स तथा तेन विचिकित्सासमापन्नेनात्मना नोपलभते 'समाधि' चित्तस्वास्थ्यं ज्ञानदर्शनचारित्रात्मको वा समाधिस्तं न लभते, विचिकित्साकलुपिन्तान्तःकरणो हि कथयतोऽप्याचार्यस्य सम्यक्त्वाख्यां बोधि नावामोति । यश्चावाप्नोति स गृहस्थो वा स्याद्यतिति दर्शयितुमाह-'सिताः' पुत्रकलत्रादिभिरवबद्धाः, वाशब्द उत्तरापेक्षया पक्षान्तरमाह, 'एके' लघुकर्माणः सम्यक्त्वं प्रतिपादयन्तमाचार्यमनुगच्छन्ति-आचार्योक्तं प्रतिपद्यन्ते, तथा 'असिता वा' गृहवासविमुक्का वा 'एके' विचिकित्सादिरहिता आचार्यमार्गमनुगच्छन्ति । तेषां च मध्ये | यदि कश्चित् कटुकदेश्यः स्यात् स तान् प्रभूताननपाचीनमार्गप्रतिपन्नानवलोक्यासावपि कम्मवियरतः प्रतिपघेतापीति | दर्शयितुमाह-आचायोक्तं सम्यक्त्वमनुगच्छद्भिर्विरताविरतैः सह संबसंस्तैर्वा चोद्यमानोऽननुगच्छन्-अप्रतिपद्यमानः कथं न निर्वेदं गच्छेद्?, असदनुष्ठानस्य मिथ्यात्वादिरूपां विचिकित्सा परित्यज्याचार्योक्तं सम्यक्त्वमेव प्रतिपद्यतेत्यर्थः, यदिवा सितासितैराचार्योक्तमनुगच्छद्भिः-अवगच्छद्भिर्बुध्यमानैः सद्भिः कश्चिदज्ञानोदयान्मतिजाध्यतया क्षपकादिश्चिरप्रवजितोऽप्यननुगच्छन्-अनवधारयन् कथं न निर्विद्येत?, न निर्वेद तपःसंयमयोर्गच्छेत् , निर्विष्णश्चेदमपि भाव
येत्, यथा-नाहं भव्यः स्यां न च मे संयतभावोऽप्यस्तीति, यतः स्फुटविकटमपि कथितं नावगच्छामि, एवं च निर्विMण्णस्याचार्याः समाधिमाहुः-यथा-भोः साधो! मा विषादमवलम्बिष्ठा, भव्यो भवान् , यतो भवता सम्यक्त्वमभ्युपगतं,
तच न ग्रन्थिभेदमृते, तद्भेदश्च न भव्यत्वमृते, अभव्यस्य हि भव्याभव्यशङ्काया अभावादिति भावः॥ किं चायं विर
44RRCCCRAC+
दीप अनुक्रम [१७४]
~158~
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [५], मूलं [१६१],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
राङ्गवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [१६१]]
दीप अनुक्रम [१७४]
श्रीआचा-ला |तिपरिणामो द्वादशकषायक्षयोपशमाद्यन्यतमसद्भावे सति भवति, स च भवताऽवाप्तः, तदेवं दर्शनचारित्रमोहनीये लोक०५
भवतः क्षयोपशमं समागते, दर्शनचारित्रान्यथानुपपत्तेः, यत्पुनः कथ्यमानेऽपि समस्तपदार्थावगतिर्न भवति तज्ज्ञानाव(शी०) रणीयविजृम्भितं, तत्र च श्रद्धानरूपं सम्यक्त्वमालम्बनमित्याह
उद्देशकः५ ॥ २२२॥
तमेव सञ्चं नीसंकं जंजिणेहिं पवेइयं (सू० १६२) यत्र क्वचित्स्वसमयपरसमयज्ञाचार्याभावात् सूक्ष्मव्यवहितातीन्द्रियपदार्थे पूभयसिद्धदृष्टान्तसम्यगहेत्वभावाच्च ज्ञानावरणीयोदयेन सम्यग्ज्ञानाभावेऽपि शङ्काविचिकित्सादिरहित इदं भावयेत् , यथा-तदेवैकं सत्यम्-अवितथं, 'निःशङ्क|मिति अहंदुक्तेष्वत्यन्तसूक्ष्मेष्वतीन्द्रियेषु केवलागमग्राह्येष्वर्थेष्वेवं स्यात् एवं वा इत्येवमाकारा संशीतिः शङ्का निर्गता| शङ्का यस्मिन् प्रवेदने तन्निःशवं, यत्किमपि धर्माधर्माकाशपुद्गलादि प्रवेदितं, कैः?-जिनः'तीर्थकर रागद्वेषजयनशीलैः, तत्तथ्यमेवेत्येवम्भूतं श्रद्धानं विधेयं सम्यक्पदार्थानवगमेऽपि, न पुनर्विचिकित्सा कार्येति । किं यतेरपि विचिकित्सा स्थायेनेदमभिधीयते?, संसारान्तवेर्त्तिनो मोहोदयात्ततिको यन्न स्यादिति, तथा चागमः-"अस्थि र्ण भंते! समणावि निग्गंथा कंखामोहणिज कम्मं वेदेति?, हंता अस्थि, कहनं समणावि णिग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेयंति ?, गोअमा!
१ अस्ति भदन्त । श्रमणा अपि नियन्याः काहामोहनीय कर्म वैदयन्ति !, हन्त अस्ति, कथं श्रमणा अपि निर्मन्याः काहामोहनीयं कर्म वैदयन्ति ?, गौतम । तेषु तेषु ज्ञानान्तरेषु चरित्रान्तरेयुशहिताः काहिता विचिकित्सासमापना भेदसमापमाः कालध्यसमापनाः, एवं खल गौतम। श्रमणा अपि निग्रन्थाः काहामोहनीय
॥२२२॥ | कर्म वेदयन्ति, तमालम्बन 'तदेव सवं निदाई यविनैः प्रवेदितम् । अथ नूनं भदन्त ! एवं मनो धारयन् बाहाया आराधको भवति !, हन्त गौतम! एवं मनो साधारयन् आशाया आराधको भवति.
ला
~159~
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६२ ]
दीप
अनुक्रम [ १७५]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [१६२],निर्युक्तिः [२४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
तेसु तेसु नाणन्तरेषु चरितंतरेसु संकिया कंखिया विइगिच्छासमावन्ना भेयसमावन्ना कलुससमावन्ना, एवं खलु गोयमा ! समणावि निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदंति, तत्थालंवणं 'तमेव सचं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं' से णूर्ण भंते! एवं मणं धारेमाणे आणाए आराहप भवति ?, हंता गोअमा ! एवं मणं धारेमाणे आणाए आराहए भवति " किं चान्यत् ? - " वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न ब्रुवते कचित्। यस्मात्तस्माद्वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थदर्शनम् ॥ १ ॥” इत्यादि ॥ सा पुनर्विचिकित्सा प्रविव्रजिषोर्भवत्यागमापरि कम्तिमतेः, तत्राप्येतत्पूर्वोक्तं भावयितव्यमित्याह
Educatuny Internationa
सहिस्स णं समणुन्नस्स संपव्वयमाणस्स समियंति मन्नमाणस्स एगया समिया होइ १, समियंति भन्नमाणस्स एगया असमिया होइ २, असमियंति मन्नमाणस्स एगया समिया होइ ३, असमियंति मन्नमाणस्स एगया असमिया होइ ४, समियंति मन्नमामाणस्स समिया वा असमिया वा समिआ होइ उवेहाए ५, असमियंति मन्नमाणस्स समिया वा असमिया वा असमिया होइ उवेहाए ६, उवेहमाणो अणुवेहमाणं या उवेहाहि समियाए, इश्चेवं तत्थ संधी झोसिओ भवइ, से उट्टियस्स ठियस्स गई समणुपासह, इत्थवि बालभावे अप्पाणं नो उवदंसिज्जा ( सू० १६३)
For Parts Only
~ 160~
nary
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६३ ]
दीप
अनुक्रम [१७६ ]
[भाग-2] “आचार” मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
39
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [१६३],निर्युक्तिः [२४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचारानवृत्तिः (शी०)
॥ २२३ ॥
श्रद्धा- धर्मेच्छा सा विद्यते यस्यासौ श्रद्धावांस्तस्य 'समनुज्ञस्य' संविग्नविहारिभिर्भावितस्य संविग्नादिभिर्वा गुणैः प्रत्रज्यार्हस्य 'संप्रव्रजतः' सम्यक्प्रव्रज्यामभ्युपगच्छतो विचिकित्सा- शङ्का भवेत्, तत्रैतस्य सम्यग्जीवादिपदार्थावधारणाशतस्येदमुपदेष्टव्यम्, यथा-तदेव सत्यं निःशङ्कं यज्जिनैः प्रवेदितमिति, तदेवं प्रव्रज्यावसरे तदेव निःशङ्कं यज्जिनैः प्रवे | दितमित्येवं यथोपदेशं प्रवर्त्तमानस्य प्रवर्द्धमानकण्डकस्य सत उत्तरकालमपि तदधिकता तत्समता तन्यूनता तदभावो वा स्यादित्येवंरूपां विचित्र परिणामतां दर्शयितुमाह-तस्य श्रद्धावतः समनुज्ञस्य संप्रव्रजतस्तदेव निःशङ्कं यज्जिनः प्रवेदितमित्येतत्सम्यगित्येवं मन्यमानस्य 'एकदा' इत्युत्तरकालमपि शङ्काकाङ्गाविचिकित्सा दिरहिततया सम्यगेव भवति-न तीर्थकरभाषिते सङ्कायुपद्यत इति १ । कस्यचित्तु प्रब्रज्यावसरे श्रद्धानुसारितया सम्यगिति मन्यमानस्य तदुत्तरकालमधीतान्वीक्षिकीकस्य दुर्गृहीतहेतुदृष्टान्तलेशस्य ज्ञेयगहनताव्याकुलितमतेः 'एकदे'ति मिथ्यात्वांशोदयेऽसम्यगिति भवति, तथाहि असौ सर्वनय समूहाभिप्रायतया अनन्तधर्माध्यासितवस्तुप्रसाधने सति मोहादेकनयाभिप्रायेणैकांशसाधनाय प्रक्रमते, यदि नित्यं कथमनित्यमनित्यं चेत्कथं मित्यमिति, परस्परपरिहारलक्षणतयाऽनयोरवस्थानात्, तथाहि अप्रच्युतानुपन्नस्थिरैकस्वभावं हि नित्यम् अतोऽन्यत्प्रतिक्षणविशरारुरूपमनित्यमित्येवमादिकमसम्यग्भावमुपयाति न पुनर्वि वेचयति यथा अनन्तधर्म्माध्यासितं वस्तु सर्वनय समूहात्मकं च दर्शनमतिगहनं मन्दधियां श्रद्धागम्यमेव न हेतुक्षोभ्यमिति, उक्तं च- "सर्वैर्नयैर्नियतनैगमसङ्ग्रहाद्यैरेकैकशो विहिततीर्थिकशासनैर्यत् । निष्ठां गतं बहुविधैर्गमपर्ययैस्ते, श्रद्धेयमेव वचनं न तु हेतुगम्यम् ॥ १ ॥” इत्यादि, यतो हेतुः प्रवर्त्तमानः एकनयाभिप्रायेण प्रवर्त्तते, एकं च धर्म्म
For Park Use Only
~161~
लोक० ५ उद्देशका
॥ २२३ ॥
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [५], मूलं [१६३],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
1
प्रत सूत्रांक [१६]
दीप अनुक्रम [१७६]
साधयेत् , सर्वधर्मप्रसाधकस्य हेतोरसम्भवादिति २ । पुनरपि विचित्रभावनामाह- कस्यचित् मिथ्यात्वलेशानुविद्धस्य कथं । पौगलिकः शब्द इत्यादिकमसम्यगिति मन्यमानस्य 'एकदेति मिथ्यात्वपरमाणूपशमतया शताविचिकित्साद्यभावे गुर्वाधुपदेशतः सम्यगिति भवति, यदि हि पौगलिकः शब्दो न स्यात् ततस्तत्कृतावनुग्रहोपघाती श्रवणेन्द्रियस्य न स्याताम् , अमूर्त्तत्वादाकाशवदित्यादिकं सम्यग् भवति३ । कस्यचित्त्वागमापरिमिलितमतेः कथमेकेनैव समयेन परमाणोर्लोकान्तगमनमित्यादिकमसम्यगिति मन्यमानस्यैकदेति-कुहेतुवितर्काविर्भावावसरे नितरामसम्यगेव भवति, तथाहि-चतुर्दशरज्वात्मकस्य लोकस्याद्यन्ताकाशप्रदेशयोः समयाभेदतया यौगपद्यसंस्पर्शात् तावन्मात्रता परमाणोः स्यात्, प्रदेशयोर्लोकान्तद्वयगतयोर्वैक्यमित्यादिकमसम्यगिति भवति, न त्वसौ स्वाग्रहाविष्ट एतद्भावयति, यथा-विनसापरिणामेन शीघ-14 |गतित्वात् परमाणोरेकसमयेनासख्येयप्रदेशातिक्रमणं, यथा हि अङ्गलिद्रव्यमेकसमयेनासल्येयानप्याकाशप्रदेशानतिलङ्यति, एतदेव कुत इति चेत्, न हि दृष्टेऽनुपपन्न नाम, न च सकलप्रमाणप्रष्ठप्रत्यक्षसिद्धेऽर्थेऽनुमानमन्वेष्टव्यं, तथाहियधनेकप्रदेशातिक्रमणं सामयिकं न भवेत् ततोऽङ्गलमात्रमपि क्षेत्रमसख्ययसमयातिकमणीयं स्यात्, तथा च सति |दृष्टेष्टबाधाऽऽपद्यतेति यत्किश्चिदेतत् ४ । साम्प्रतं भङ्गकोपसंहारद्वारेण परमार्थमाविर्भावयन्नाह सम्यगित्येवं मन्यमानस्य शङ्काविचिकित्सादिरहितस्य सतस्तद्वस्तु यत्नेन तथारूपतयैव भावितं तत्सम्यग्वा स्यादसम्यग्वा, तथापि तस्य तत्र सम्यगुप्रेक्षया-पर्यालोचनया सम्यगेव भवति, ईर्यापथोपयुक्तस्य क्वचित्प्राण्युपमर्दवत् ५। साम्प्रतमेतद्विपर्ययमाह-असम्यगिति |किश्चिद्वस्तु मन्यमानस्य शङ्का स्यादग्दर्शितया छद्मस्थस्य सतस्तद्वस्तु सम्यग्वा स्यादसम्यग्वा, तस्य तदसम्यगेवोत्ने
~162
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६३ ]
दीप
अनुक्रम [१७६ ]
29
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [१६३],निर्युक्तिः [२४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
॥ २२४ ॥
श्रीआचा क्षया, असम्यगूपर्यालोचनतयाऽशुद्धाध्यवसायतयेतियावत्, 'बद्यथा शङ्कयेत्तत्तथैव समापद्येते 'ति वचनादिति ६ ॥ यदिवा राङ्गवृत्तिः – “समिबंति मन्नमाणस्स” इत्याद्यन्यथा व्याख्यायते - शमिनो भावः शमिता 'इतिः' उपप्रदर्शने तामेतां शमितां मन्य(शी०) ४ मानस्य शुभाध्यवसायिनः 'एकदे'त्युत्तरकालमपि शमितैव भवति-उपशमवत्तैवोपजायते, अन्यस्य तु शमितामपि मन्यमानस्य कषायोदयादशमितोपजायत इति, अनया दिशोत्तरभङ्गेष्वपि सम्यगुपयुज्यायोज्यमिति । तदेवं सम्यगसम्यगित्येवं पर्यालोचयन्नपर स्थाप्युपदेशदानायालमिति, आह च-आगमपरिकम्मितमतित्वाद्यथावस्थितपदार्थस्वभावदर्शितया सम्यगसम्यगिति चोत्प्रेक्षमाणः-पर्यालोचयन्नपरमनुत्प्रेक्षमाणं गडरिकायूथप्रवाहप्रवृत्तं गतानुगतिकन्यायानुसारिणं शङ्कया * वाऽपधावन्तं ब्रूयाद्, यथा- 'उत्प्रेक्षस्व' पर्यालोचय सम्यग्भावेन माध्यस्थमवलम्ब्य किमेतदर्हदुक्तं जीवादितत्त्वं घटामियहोश्चिनेत्यक्षिणी निमील्य चिन्तयेति भावः । यदिवा उत्प्रेक्षमाणः संयममुत्- प्राबल्येनेक्षमाणः- संयमे उद्यच्छन्ननुलेक्षमाणं ब्रूयात्, यथा-सम्यग्भावापन्नः सन् संयममुत्प्रेक्षस्व-संयमे उद्योगं कुरु । किमवलम्ब्येत्याह-' इत्येवं' पूर्वोकेन प्रकारेण 'तत्र' तस्मिन् संयमे 'सन्धिः' कर्म्मसन्ततिरूपो 'शोषितः' क्षपितो भवति, यदि संयमे सम्यग्भावे वोलेक्षणं स्यात्, नान्यथेति । सम्यगुत्प्रेक्षमाणस्य च यत्स्यात्तदाह - 'से' तस्य सम्यगुस्थानेनोत्थितस्य निःशङ्कस्य श्रद्धावतः स्थितस्य गुरुकुले गुरोराज्ञायां वा या गतिर्भवति-या पदवी भवति तां सम्यगनुपश्यत यूयं तद्यथा-सकललोक श्लाध्यता ज्ञानदर्शनस्थैर्य चारित्रे निष्प्रकम्पता श्रुतज्ञानाधारता च स्यादिति, यदिवा स्वर्गापवर्गादिका गतिः स्यात्, तां पश्यतेति सम्बन्धः, अथवा उत्थितस्य- संयमोद्योगवतः तदभावेन च स्थितस्य पार्श्वस्थादेर्गतिं सकलजनोपहा स्वरूपामधमस्थान
For Parks Use Only
~163~
लोक० ५ उद्देशक:५
॥ २२४ ॥
org
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [५], मूलं [१६३],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
2
प्रत सूत्रांक [१६]
दीप अनुक्रम [१७६]
गतिं वा पश्यतेति । तदेवमुद्युक्ततरयोगतिमुपलभ्य पश्चविधाचारसारे प्रक्रमितव्यं, यदि नामानुपस्थितस्य विरूपा गतिर्भवति ततः किमित्याह-'अत्रापि'असंयमे बालभावरूपे इतरजनाचरिते आत्मानं सकलकल्याणास्पदं नोपदर्शयेत् , बालानुधानविधायी मा भूदिति यावत्, तथाहि-मालाः शाक्यकापिलादयस्तद्भावितो बालभावमाचरति, वक्ति च--नित्यत्वादमूर्त्तत्वाच्चारमनः प्राणातिपात एव नास्त्याकाशस्येव, न हि वृक्षादिच्छेदे दाहे वाऽऽकाशस्य भिदा लोपो वा स्यात् , एवमात्मनोऽपि शरीरविकारेऽविकारित्वम् , उक्तं च-"न जायते न वियते कदाचिन्नायं भूत्वा भवितेति ॥ नैनं छिन्दन्ति
शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥ १ ॥ अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयमषिकारी Mस उच्यते । नित्यः सततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२॥” इत्यादि । अध्यवसायात्तद्धननादौ प्रवृत्तस्य तातिधार्थमाह
तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वंति मनसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परियावेयव्वंति मन्नसि, एवं जं परिचित्तव्वंति मन्नसि, जं उद्दवेयंति मन्नसि, अंजू चेयपडिबुद्धजीवी, तम्हा न हंता नवि घायए, अणुसंवेय
णमप्पाणेणं जं हंतव्वं नाभिपत्थए (सू०१६४) योऽयं हन्तव्यत्वेन भवताऽध्यवसितः स त्वमेव, नामशब्दः सम्भावनायां, यथा भवान् शिरस्पाणिपादपार्श्वपृष्ठोरूद
4-%A5%8-45-45%95%25%
~1644
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६४]
दीप
अनुक्रम
[१७७]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [१६४],निर्युक्तिः [२४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ २२५ ॥
रवान् एवमसावपि यं हन्तव्यमिति मन्यसे, यथा च भवतो हननोद्यतं दृष्ट्वा दुःखमुत्पद्यते एवमन्येषामपि तद्दुःखापोंदनाच्च किल्बिषानुषङ्गः, इदमुक्तं भवति - नात्रान्तरात्मनः आकाशदेशस्य व्यापादनेन हिंसा, अपि तु शरीरात्मनः, तस्य | हि यत्र कचित्स्वाधारं शरीरं नितरां दयितं तद्वियोजीकरणमेव हिंसेति, उक्तं च- “पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुतास्तेषां वियोजी करणं तु हिंसा ॥ १ ॥" न च संसारस्थस्य सर्वथा अमूर्त्तत्वावाप्तिः, येनाकाशस्येव विकारो न स्यात्, सर्वत्रैव च प्राण्युपमर्दचिकीर्षितायामात्मतुल्यता भावयितव्येत्येतदुत्तरसूत्रैर्दर्शयितुमाह-त्वमपि नाम स एव यं प्रेषणादिना आज्ञापयितव्यमिति मन्यसे तथा त्वमपि नाम स एव यं परितापयितव्यमिति मन्यसे, एवं यं परिगृहीतव्यमिति मन्यसे यमपद्रावयितव्यमिति मन्यसे असौ श्वमेव, यथा भ वतोऽनिष्टापादनेन दुःखमुत्यद्यते एवमस्यापीत्यर्थः, यदिवा यं कार्यं हन्तव्यादितयाऽध्यवस्यसि तत्रानेकशो भवतोऽपि भावात्वमेवासी, एवं मृषावादादावप्यायोज्यम् । यदि नाम हन्तव्यघातकयोरुक्तक्रमेणैक्यं ततः किमित्याह- 'अञ्जु'रिति ऋजुः प्रगुणः साधुरितियावत् चशब्दोऽवधारणे, एतस्य हन्तव्यघात के कत्वस्य प्रतिबोधः प्रतिबुद्धमेतत्प्रतिबुद्धं तेन जीवितुं शीलमस्येत्येतत्प्रतिबुद्धजीवी साधुरेव तत्परिज्ञानेन जीवति नापर इत्युक्तं भवति । यदि नामैवं ततः किमित्याह - 'तस्माद्' हन्यमानस्यात्मन इव महद्दुःखमुखद्यते तस्मादात्मौपम्यादन्येषां जन्तूनां न हन्ता स्यात्, नाप्यपरैर्घातयेत् न च नतोऽनुमन्येत, किं च संवेदनम् - अनुभवनं अनु-पश्चात्संवेदनं केन ? - आत्मना यत्परेषां मोहोदयाद्धननादिना दुःखोत्पादनं विधीयते तत्पश्चादात्मना संवेद्यमित्याकलय्य यत्किमपि हन्तव्यमिति चिकीर्षितं तन्नाभिप्रार्थयेत्-नाभिल
For Pasta Lise Only
~165~
लोक० ५ उद्देशकः५
।। २२५ ।।
wor
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [५], मूलं [१६५],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
45
प्रत सूत्रांक [१६५]]
AAKAR
दीप अनुक्रम [१७८]
ननु चारमनाऽनुसंवेदनमित्युक्त, संवेदनं च सातासातरूपं, तच्च यथा नैयायिकवैशेषिकाणामात्मनो भिन्नेन गुणभूतेनैकार्थसमवायिना ज्ञानेन भवति तथा भवतामप्याहोस्विदभिन्नेनात्मन इत्यस्य प्रतिवचनमाह
जे आया से विनाया जे विन्नाया से आया जेण वियाणइ से आया तं पडुच्च पडि
संखाए, एस आयावाई समियाए परियाए वियाहिए तिबेमि (सू० १६५) ॥ ५-५॥ य आत्मा नित्य उपयोगलक्षणः विज्ञाताऽप्यसावेब, न तु पुनस्तस्मादात्मनो भिन्नं ज्ञानं पदार्थसंवेदक, यश्च विज्ञाता |-पदार्थानां परिच्छेदक उपयोगः आत्माऽप्यसावेव, उपयोगलक्षणत्वाज्जीवस्य उपयोगस्य च ज्ञानात्मकत्वादिति । ज्ञाना
मनोरभेदाभिधानाद्वौद्धाभिमतं ज्ञानमेवैकं स्यादिति चेत्, तन्न, भेदाभावोऽत्र केवलं चिकीर्षितो नैक्यं, एतदेवैक्यं यो भेदाभाव इति चेत्, वार्तमेतत्, तथाहि-पटशुक्लत्वयो देनावस्थानाभावेऽपि नैकत्वापत्तिः, अत्रापि शुक्लत्वव्यतिरेकेण नापरः पटः कश्चिदष्यस्तीति चेद्, अशिक्षितस्योल्लापो, यतः शुक्लगुणविनाशे सर्वथा पटाभावापत्तिः स्यात्, तदात्मना विनष्ट एवेति चेत्, भवतु का नो हानिः, अनन्तधात्मकत्वाद्वस्तुनोऽपरमृद्वादिधर्मसद्भावे तद्धर्मविनाशेऽप्यविनष्ट एव, इत्येवमात्मनोऽपि प्रत्युत्पन्नज्ञानात्मकतया विनाशेऽप्यपरामूर्तत्वासख्येयप्रदेशताऽगुरुलध्वादिधर्मसद्भावादविनाश एवेत्यले प्रसङ्गेन । ननु च व आत्मा स विज्ञातेत्यत्र तृजन्तेन कर्तुरभिधानादात्मनश्च कर्तृत्वात्ततश्च य एवात्मा स एव विज्ञातेत्यत्र विप्रतिपत्त्यभावो, येन चासौ जानाति तद्भिन्नमपि स्यात्, तथाहि-तत्करणं क्रिया वा भवेद्?, यदि
~166~
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [५], मूलं [१६५],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१६५]
सीमापा-काकरण तहानादिवद्भिनं स्यात्, अथ क्रिया सा यथा कर्तृस्था सम्भवत्येवं कर्मस्थापीत्येवं भेदसम्भवे कुत ऐक्य-1॥ रावृत्तिः मिति यश्चोदयेत्तं प्रति स्पष्टतरमाह-'येन' मत्यादिना ज्ञानेन करणभूतेन क्रियारूपेण वा विविध-सामान्यविशेषाका
उद्देशक:५ (सी) रतया वस्तु जानाति विजानाति स आत्मा, न तस्मादात्मनो भिन्नं ज्ञानं, तथाहि-न करणतया भेदः, एकस्यापि कर्तृ
कर्मकरणभेदेनोपलन्धेः, तद्यथा-देवदत्त आत्मानमात्मना परिच्छिनत्ति, क्रियापक्षे पाक्षिको ह्यभेदो भवताऽप्यभ्युपगत ॥२२६॥ एव, अपि च-'भूतिर्येषां क्रिया सैव, कारक सैव चोच्यत' इत्यादिनैकत्वमेवेति । ज्ञानात्मनोश्चकत्वे यद्भवति तद्दर्श
यितुमाह-तं' ज्ञानपरिणाम 'प्रतीत्य'आश्रित्यात्मा तेनैव 'प्रतिसङ्खचायते' व्यपदिश्यते, तद्यथा-इन्द्रोपयुक्त इन्द्र
इत्यादि, यदिवा मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी यावत्केवलज्ञानीति, यश्च ज्ञानात्मनोरेकत्वमभ्युपगच्छति स किंगुणः स्यादि-15 द त्याह-एषः' अनन्तरोक्तया नीत्या यथावस्थितात्मवादी स्यात्, तस्य च सम्यग्भावेन शमितया वा 'पर्यायः' संय
मानुष्ठानरूपो व्याख्यातः । इत्यधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ लोकसाराध्ययने पञ्चमोद्देशकः ।।
दीप अनुक्रम [१७८]
-
eculasaI उक्तः पञ्चमोद्देशकः, साम्प्रतं षष्ठ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके हृदोपमेनाचार्येण भाव्य-12 समित्येतदुक्तं, तथाभूताचार्यसंपर्काच कुमार्गपरित्यागो रागद्वेषहानिश्चावश्यंभाविनीत्यतस्तत्प्रतिपादनसम्बन्धेनागतस्या
स्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
॥
२६॥
पंचम-अध्ययने षष्ठ-उद्देशक: 'उन्मार्गवर्जन' आरब्धः,
~167~
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक [१६६ ]
दीप
अनुक्रम [१७९]
29
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [६], मूलं [१६६],निर्युक्तिः [२४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
Eaton Intention
अणाणाए एगे सोवट्टाणा आणाए एंगे निरुवट्टाणा, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं, तहिट्टीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सन्नी तन्निवेसणे ( सू० १६६ )
इह तीर्थकरगणधरादिनोपदेशगोचरीभूतो विनेयोऽभिधीयते, यदिवा सर्वभावसम्भवित्वाद्भावस्य सामान्यतोऽभिधानम्, अनाज्ञा-अनुपदेशः स्वमनीषिका चरितोऽनाचारस्तयाऽनाज्ञया तस्यां वा 'एके' इन्द्रियवशगा दुर्गतिं जिगमिषवः स्वाभिमानग्रहग्रस्ताः सह उपस्थानेन धर्म्मचरणाभासोद्यमेन वर्त्तन्त इति सोपस्थानाः, किल वयमपि प्रत्रजिताः सदसद्धर्मविशेषविवेकविकलाः सावद्यारम्भतया प्रवर्त्तन्ते, एके तु न कुमार्गवासितान्तःकरणाः, किन्तु आलस्यावर्णस्तम्भाद्युपबृंहितबुद्धयः, 'आज्ञायां' तीर्थकरोपदेशप्रणीते सदाचारे निर्गतमुपस्थानम् उद्यमो येषां ते निरुपस्थाना:- सर्वज्ञमणीतसदाचारानुष्ठानविकलाः । एतत्कुमार्गानुष्ठानं सन्मार्गावसीदनं च द्वयमपि 'ते' तव गुरुविनेयोपगतस्य दुर्गतिहेतुत्वान्मा भूदिति । सुधर्म्मस्वामी स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह-'एतद्' यत्पूर्वोक्तं यदिवा अनाज्ञायां निरुपमस्थानत्वमाज्ञायां च सोपमस्थानत्वमित्येत् 'कुशलस्य' तीर्थकृतो दर्शनमभिप्रायः, यदिवैतद्वक्ष्यमाणं कुशलस्य दर्शनमित्याह कुमार्गे परित्यज्य सदाऽऽचार्यान्तेवासिना एवंभूतेन भाव्यं तस्य - आचार्यस्य दृष्टिस्तदृष्टिस्तया वर्त्तितव्यं, सा वा तीर्थकरप्रणीतागमदृष्टिस्तदृष्टिस्तयेति, तथा तस्य- आचार्यस्य तीर्थकृतो वा मुक्तिस्तन्मुक्तिस्तया, तथा तमाचार्य सर्वकार्येषु पुरः करोतीति तत्पुरस्कारः- आचार्यानुमत्या क्रियानुष्ठायीत्यर्थः तथा तत्संज्ञी - तज्ज्ञानोपयुक्तः, तथा तन्निवेशन:- सदा गुरुकुलनिवासी ॥ स एवंभूतः किंगुणः स्यादित्याह
For Parts Only
~168~
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१६७],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
+
प्रत
+
सूत्रांक
[१६७]]
दीप
श्रीआचा
अभिभूय अदक्खू अणभिभूए पभू निरालंबणयाए जे महं अबहिमणे, पवारण पराजवृत्तिः (शी०) वायं जाणिजा, सहसंमइयाए परवागरणेणं अन्नेसि वा अंतिए सुच्चा (सू० १६७)
उद्देशका ॥२२७॥ 'अभिभूय' पराजित्य परीषहोपसर्गान् घातिचतुष्टयं वा तत्त्वमद्राक्षीत् , किं च-नाभिभूतोऽनभिभूतः अनुकूलपति
कूलोपसगैः परतीर्थिकैर्वा, स एवम्भूतः 'प्रभुः' समर्थो निरालम्बनताया नात्र संसारे मातापितृकलत्रादिकमालम्बनहामस्तीति तीर्थकृवचनमन्तरेण नरकादौ पततामित्येवम्भूतभावनायाः समर्थों भवति, कः पुनः परीपहोपसर्गाणां जेता केन-18
चिदनभिभूतो निरालम्बनतायाः प्रभुर्भवति? इत्येवं पृष्टे तीर्थकृत् सुधर्मस्वाम्यादिको वाऽऽचार्योऽन्तेवासिनमाह-याला ६ पुरस्कृतमोक्षो 'महान' महापुरुषो लघुकर्मा ममाभिप्रायान्न विद्यते बहिर्मनो यस्यासावबहिर्मनाः, सर्वज्ञोपदेशवतीति
यावत् , कुतः पुनस्तदुपदेशनिश्चय इति चेदाह-प्रकृष्टो वादः प्रवादः-आचार्यपारम्पर्योपदेशः प्रवादस्तेन प्रवादेन प्रवाद
सर्वज्ञोपदेशं 'जानीयात्' परिच्छिन्द्यादिति । यदिवाऽणिमाद्यष्टविधैश्वर्यदर्शनादपि न तीर्थकृद्धचनाबहिर्मनो विधत्ते, हातीर्थिकानिन्द्रजालिककल्पानिति मत्वा तदनुष्ठानं तद्वादांश्च पर्यालोचयति, कथमित्याह-पवारण पवार्य जाणिजा' प्र-13
कृष्टो वादःप्रवादः-सर्वज्ञवाक्यं तेन मौनीन्द्रेण प्रवादेन तीर्थिकप्रवाद 'जानीयात्' परीक्षयेत् , तद्यथा-वैशेषिकाः तनु
भुवनकरणादिकमीश्वरकर्तृकमिति प्रतिपन्नाः, तदुक्तम्-"अन्यो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुःखयो। ईश्वरप्रेरितो R॥२२७॥ IX गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव च ॥१॥" इत्यादिकं प्रवादमात्मीयप्रवादेन पयालोचयेत्, तद्यथा-अभेन्द्रधनुरादीनां विन
अनुक्रम [१८०]]
सरकार
+
+
+
~169~
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१६७],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१६७]
दीप अनुक्रम [१८०]]
सापरिणामलब्धात्मलाभानां तदतिरिक्तेश्वरादिकारणपरिकल्पनायामतिप्रसङ्गः स्यात् , तथा घटपटादीनां दण्डचक्रचीवरसलिलकुलालतुरीवेमशलाकाकुविन्दादिव्यापारानन्तरावाप्तात्मलाभानां तदनुपलब्धव्यापारेश्वरस्य कारणपरिकल्पनायां रासभादेरपि किं न स्यात् ।, तनुकरणादीनामप्यवन्ध्यस्वकृतकापादितं वैचित्र्यं, कर्मणोऽनुपलब्धेः कुत एतदिति चेत्, समानः पर्यनुयोगः, अपि च-तुल्ये मातापित्रादिके कारणेऽपत्यवैचित्र्यदर्शनात्तदधिकेन निमित्तेन भाव्यं, तच्चेश्वराभ्युपगमेऽप्यदृष्टमेवेष्टव्यं, नान्यथा सुखदुःखसुभगदुर्भगादि जगद्वैचित्र्यं स्यादिति। तथा साङ्ख्या एवमाहुः-यथा 'सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रकृतेमहांस्ततोऽहङ्कारः, तस्मादेकादशेन्द्रियाणि पश्च तन्मात्राणि, तन्मात्रेभ्यः पञ्चभूतानि, बुद्ध्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते, स चाकर्त्ता निर्गुणश्चेति, तथा प्रकृतिः करोति पुरुष उपभुते ततः कैवल्याव-13 स्थायां द्रष्टाऽस्मीति निवर्त्तते' इत्यादिकं युक्तिविकलत्वान्निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, तथाहि-प्रकृतेरचेतनत्वात् कुत आमोपकाराय क्रियाप्रवृत्तिः स्यात् ?, कुतो वा दृष्टेत्यात्मोपकाराय प्रवृत्तिर्न स्यात् ?, अचेतनायास्तद्विकल्पासम्भवात् , नित्यायाश्च प्रवृत्तिनिवृत्त्यभावात् , पुरुषस्याप्यकर्तृत्वे संसारोद्वेगमोक्षीत्सुक्यभोक्तृत्वायभावः स्यादिति, उक्कं च-"न विरक्तो न निर्विणो, न भीतो भवबन्धनात् । न मोक्षसुखकाही वा, पुरुषो निष्क्रियात्मकः॥१॥ का प्रनजति साख्यानां, निष्क्रिये क्षेत्रभोक्तरि । निष्क्रियत्वात्कथं वाऽस्य, क्षेत्रभोक्तृत्वमिप्यते ॥२॥” इति । तथा शौद्धोदनिशिष्यका यत्सत्तत्सर्वे क्षणिकमित्येवं व्यवस्थिताः, तत्रोत्तरम्, यदि निरन्ययो विनाशः स्यात् ततः प्रतिनियतः कार्यकारणभाव एव न स्यात्, एकसन्तानान्तर्गतत्वात्स्यादिति चेत्, अशिक्षितस्योल्लापः, तथाहि-न सन्ताभिव्यतिरेकेण कश्चित्सन्तानोऽस्ति,
~170~
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१६७],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१६७]
दीप अनुक्रम [१८०]]
श्रीआचा-15 तथा च सति पूर्वकालक्षणावस्थायित्वमेव कारणत्वम्, एवं च सर्व सर्वस्य कारणं स्यात् , सर्वस्य पूर्वकालक्षणावस्थायि- लोक. ५ रामवृत्तिः
वाद्यत्किञ्चिदेतदिति, किं च-"यज्जातमात्रमेव प्रध्वस्तं तस्य का क्रिया कुम्भे ? । नोत्पन्नमात्रभन्ने क्षिप्तं सन्तिष्ठते वारि (शी०) IPu१॥ कर्तरि जातविनष्टे धर्माधर्मक्रिया न सम्भवति । तदभावे बन्धः को बन्धाभावे च को मोक्षः॥२॥" इ-| ॥२२८॥
त्यादि । बार्हस्पत्यानां तु भूतवादेनात्मपुण्यपापपरलोकाभाववादिनां निर्मर्यादतया जनतातिगानां न्यकारपदव्याधानमनुत्तरमेवोत्तरमिति । अपि च-"अब्रह्मचर्यरक्कैः परदारघर्षणाभिरतैः । मायेन्द्रजालविषयवार्तितमसक्किमप्येतत् ॥१॥" तथा "मिथ्या च दृष्टिर्भवदुःखधात्री, मिथ्यामतिश्चापि विवेकशून्या । धर्माय येषां पुरुषाधमाना, तेषामधर्मो भुवि कीदृशोऽन्यः १ ॥२॥” इत्यनया दिशा सर्वेऽपि तीथिंकवादाः सर्वज्ञवादमनुश्रित्य निराकार्या इति8 स्थितं । तन्निराकरणं च सर्वज्ञप्रवादं निराकार्य च तीर्थिकप्रवादमेभिखिभिः प्रकारैर्जानीयादित्याह-मननं मतिः-ज्ञानं ज्ञानावरणीयक्षयक्षयोपशमान्यतरसझावानन्तरमेव सहसा-तत्क्षणमेव मत्या प्रातिभबोधावध्यादिज्ञानेन परिच्छिन्द्यात सह वा ज्ञानेन ज्ञेयं सच्छोभनया मिथ्यात्वकलङ्काङ्करहितया मत्याऽवगच्छेत्, खपरावभासकत्वान्मतेरिति, कदाचित्सरव्याकरणेनाप्यवगच्छेत् परः-तीर्थकृत्तस्य तेन वा व्याकरण-यथावस्थितार्थप्रज्ञापनम् आगमः परव्याकरणं तेन वा जानीयात् , तथाऽप्यनवगमेऽन्येषामाचार्यादीनां अन्तिके श्रुत्वा यथावस्थितवस्तुसद्भावमवधारयेत् ॥ अवधार्य च किं कुर्यादित्याह
~171~
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६८ ]
॥१॥
दीप
अनुक्रम
[१८१]
[१८२]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१६८/ गाथा-१],निर्युक्तिः [२४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
निदेसं नावज्जा मेहावी सुपडिलेहिया सव्वओ सव्वप्पणा सम्मं समभिण्णाय, इह
आरामो परिव्वए निट्टियट्ठी वीरे आगमेण सया परक्कमे ( सू० १६८ )
निर्दिश्यत इति निर्देश:- तीर्थकराद्युपदेशस्तं नातिवर्तेत 'मेधावी' मर्यादावानिति । किं कृत्वा निर्देशं नातिवर्तेतेत्यत आह-सुष्ठु प्रत्युपेक्ष्य हेयोपदेयतया तीर्थिकवादान् सर्वज्ञवादं च 'सर्वतः सर्वैः प्रकारैर्द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपैः सर्वात्मना - | सामान्यविशेषात्मकतया पदार्थान् पर्यालोच्य सहसन्मत्यादित्रिकेण परिच्छिद्य सदाऽऽचार्यनिर्देशवर्ती तीर्थिकप्रवादनिराकरणं कुर्यात् किं च कृत्वेत्यत आह-सम्यगेव स्वपरतीर्थिकवादान् 'समभिज्ञाय' बुद्धा ततो निराकरणं कुर्यात् किं च' इह' अस्मिन् मनुष्यलोके आरमणमारामो रतिरित्यर्थः स चारामः परमार्थचिन्तायामात्यन्तिकैकान्तिकरतिरूपः संयमः तमासेवनपरिज्ञया परिज्ञाय आदीनो गुप्तश्च 'परिव्रजेत्' संयमानुष्ठाने विहरेत्, किंभूत इत्याह-निष्ठितोमोक्षस्तेनार्थी यदिवा निष्ठितः परिसमाप्तः अर्थः- प्रयोजनं यस्य स निष्ठितार्थः 'वीरः' कर्मविदारणसहिष्णुः सन् 'आगमेन' सर्वज्ञप्रणीताचारादिना 'सदा' सर्वकालं 'पराक्रमेथाः' कर्मरिपून् प्रति मोक्षाध्वनि वा गच्छेः । इत्यधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् । किमर्थं पुनः पौनःपुन्येनोपदेशदानमित्याह
उ सोया अहे सोया, तिरियं सोया वियाहिया । एए सोया विअक्खाया, जेहिं संगंति पासह ॥ १ ॥
Education Internation
For Parts Only
~ 172~
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१६८/गाथा-१],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
लोक०५ उद्देशकः६
प्रत सूत्रांक [१६] ॥॥
॥२२९||
दीप
श्रोतांसि-कानवद्वाराणि तानि च प्रतिभवाभ्यासाद्विषयानुबन्धादीनि गृह्यन्ते, तत उर्दू श्रोतांसि-वैमानिका-| झनाऽभिलाषेच्छा वैमानिकसुखनिदानं वा, अधो भवनपतिसुखाभिलाषिता, तिर्यग् व्यन्तरमनुष्यतियग्विषयेच्छा, यदिवा प्रज्ञापकापेक्षयोद्धे गिरिशिखरप्राग्भारनितम्बप्रपातोदकादीनि अधोऽपि श्ववनदीकूलगुहालयनादीनि तिर्यगप्यारामसभाऽऽवसथादीनि प्राणिनां विषयोपभोगस्थानानि विविधमाहितानि-प्रयोगविनसाभ्यां स्वकर्मपरिणत्या वा जनितानि च्याहितानि, एतानि च कर्माम्रबद्वाराणीतिकृत्वा श्रोतांसीव स्रोतांसि, एभिश्च त्रिभिः प्रकारैरप्यन्यैश्च पापोपादानहेतुभूतयः 'सङ्गं प्राणिनामासक्तिं कर्मानुषङ्ग वा पश्यत, इतिहेतो, तस्मात्कर्मानुपङ्गात् कारणादेतानि स्रोतांसीत्यतोऽपदिश्यते, आगमेन सदा पराक्रमेथा इति ॥ किंच
आवदं तु पेहाए इत्थ विरमिज वेयवी, विणइत्तु सोयं निक्खम्म एसमहं अकम्मा
जाणइ पासइ पडिलेहाए नावकंखइ इह आगई गई परिन्नाय (सू० १६९) रागद्वेषकषायविषयावर्त्त कर्मबन्धावर्त वा तुशब्दः पुनःशब्दार्धे भावावर्त पुनरुत्प्रेक्ष्य 'अत्र' अस्मिन् भावावर्ते विषयरूपे 'वेदविद्' आगमविद् 'विरमेदू' आस्रवद्वारनिरोधं विदध्यात्, पाठान्तरं वा "विवेगं किट्टइ वेदवी" आस्रवद्वारनिरोधेन तजनितकर्मविवेकम्-अभावं 'कीर्तयति' प्रतिपादयति वेदविदिति । आनवद्वारनिरोधेन च यत्स्यात्त-| दाह-स्रोतः-आस्रवद्वारं तद्विनेतुम्-अपनेतुं 'निष्कम्य' प्रव्रज्य 'एष' इति प्रत्यक्ष प्रस्तुतार्थस्य चावश्यंभावित्वादेष इति |
अनुक्रम [१८१] [१८२]
॥२२९।।
~173~
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१६९],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६९]
दीप अनुक्रम [१८३]
प्रत्यक्षवाचिना सर्वनानोक्तो यः कश्चिदित्यर्थः 'महान्' महापुरुषः अतिशयिककर्मविधायी, एवम्भूतश्च किंविशिष्टः स्यादिति दर्शयति-'अकर्मा'नास्य कर्म विद्यत इत्यकर्मा, कर्मशब्देन चात्र घातिकर्म विवक्षितं, तदभावाच्च जा-1 नाति विशेषतः पश्यति च सामान्यतः, सर्वाश्च लब्धयो विशेषोपयुक्तस्य भवन्तीत्यतः पूर्वं जानाति पश्चाच्च पश्यति, अ-| नेन च क्रमोपयोग आविष्कृतः, स चोत्पन्नदिव्यज्ञानत्रैलोक्यललामचूडामणिः सुरासुरनरेन्द्रकपूज्यः संसारार्णवपारवीं | विदितवेद्यः सन् किं कुर्यादित्याह-स हि ज्ञातज्ञेयः सुरासुरनरोपहिता पूजामुपलभ्य कृत्रिमामनित्यामसारां सोपाधिका से च 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य हषीकविजयजनितसुखनिःस्पृहतया तां नाकाङ्कति-नाभिलपतीति । किं च-'इह' अस्मिन् | मनुष्यलोके व्यवस्थितः सन् उत्पन्नज्ञानः प्राणिनामागतिं गतिं च संसारभ्रमणं तत्कारणं च ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया निराकरोति ॥ तन्निराकरणे च यत्स्यात्तदाह
अच्चेइ जाईमरणस्स बद्दमग्गं विक्खायरए, सब्बे सरा नियति, तका जत्थ न विजइ, मई तत्थ न गाहिया, ओए, अप्पइटाणस्स खेयन्ने, से न दीहे न हस्से न वढे न तंसे न चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिद्दे न सुकिल्ले न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे न तित्ते न कडुए न कसाए न अंबिले न महुरे न कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न उण्हे न निद्धेन लुक्खे न काऊ न रुहे न
~1744
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१७०],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
उद्देशका
प्रत सूत्रांक [१७०]
दीप
श्रीआचा-18 संगे न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा परिन्ने सन्ने उवमा न विजए, अरूवी सत्ता, अपरावृत्तिः
यस्स पयं नस्थि, (सू० १७०) (शी०)
'अत्येति' अतिक्रामति जातिश्च मरणं च आतिमरणं तस्य 'वट्टमग्गति पन्धानं मार्ग उपादानं कर्मेतियावत् , तद॥२३०॥
त्येति-अशेषकर्मक्षयं विधत्ते, तक्षयाञ्च किंगुणः स्यादित्याह-विविधम्-अनेकप्रकारं प्रधानपुरुषार्थतयाऽऽरब्धशास्त्रार्धतया तपःसंयमानुष्ठानार्थत्वेन (आख्यातो) व्याख्यातो मोक्षः-अशेषकर्मक्षयलक्षणो विशिष्टाकाशप्रदेशाख्यो वा तत्र रतो व्याख्यातरतः, आत्यन्तिकैकान्तिकानाबाधसुखक्षायिकज्ञानदर्शनसंपदुपेतोऽनन्तमपि कालं संतिष्ठते । किम्भूत इति | चेत्, न तत्र शब्दानां प्रवृत्तिा, न च सा काचिदवस्थाऽस्ति या शब्दैरभिधीयेत इत्येतत्प्रतिपादयितुमाह-'सर्वे' निरवशेषाः 'स्वरा'ध्वनयस्तस्मानिवर्तन्ते, तद्वाच्यवाचकसम्बन्धे न प्रवर्त्तन्ते, तथाहि-शब्दाः प्रवर्तमाना रूपरसगन्धस्पर्शानामन्यतमे विशेषे सङ्केतकालगृहीते तत्तुल्ये वा प्रवर्तेरन् , न चैतत्तत्र शब्दादीनां प्रवृत्तिनिमित्तमस्ति, अतः शब्दानभिधेया मोक्षावस्थेति । न केवलं शब्दानभिधेया, उठोक्षणीयाऽपि न सम्भवतीत्याह-सम्भवपदार्थविशेषास्तित्वाध्यवसाय अहस्तकः-एवमेवं चैतत्स्यात् , स च यत्र न विद्यते ततः शब्दानां कुतः प्रवृत्तिः स्यात् । किमिति तत्र तर्काभाव इति चेदाहमननं मतिः-मनसो व्यापारः पदार्थचिन्ता सौत्पत्तिक्यादिका चतुर्विधाऽपि मतिस्तत्र न ग्राहिका, मोक्षावस्थायाः सकलविकल्पातीतत्वात् , तत्र च मोक्षे कौशसमन्वितस्य गमनमाहोश्चिनिष्कर्मणः ?, न तत्र कर्मसमन्वितस्य गमनमस्तीत्येत
अनुक्रम [१८४]
॥२३०
~1754
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१७०],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७०]
दीप
६ दर्शयितुमाह-'ओजः' एकोऽशेषमलकलङ्काङ्करहितः, किंच-न विद्यते प्रतिष्ठानमौदारिकशरीरादेः कर्मणो वा यत्र
सोऽप्रतिष्ठानो-मोक्षस्तस्य 'खेदज्ञो' निपुणो, यदिवा अप्रतिष्ठानो-नरकस्तत्र स्थित्यादिपरिज्ञानतया खेदज्ञो, लोकनाडिपर्यन्तिपरिज्ञानावेदनेन च समस्तलोकखेदज्ञता आवेदिता भवति । सर्वस्वरनिवर्तनं च येनाभिप्रायेणोक्तांस्तमभिप्रायमा-|
विष्कुर्वन्नाह- 'स' परमपदाध्यासी लोकान्तकोशषड्भागक्षेत्रावस्थानोऽनन्तज्ञानदर्शनोपयुक्तः संस्थानमाश्रित्य न दीर्घो न इस्वो न वृत्तो न व्यस्रो न चतुरस्रो न परिमण्डलो वर्णमाश्रित्य न कृष्णो न नीलो न लोहितो न हारिद्रो न शुक्लो गन्धमाश्रित्य न सुरभिगन्धो न दुरभिगन्धो रसमाश्रित्य न तितो न कटुको न कषायो नाम्लो न मधुरः स्पर्शमाश्रित्य न कर्कशो न मृदुर्न लघुर्न गुरुर्न शीतो नोष्णो न स्निग्धो न रुक्षो 'न काऊ' इत्यनेन लेश्या गृहीता, यदिवा न कायवान यथा वेदान्तवादिनाम्-'एक एव मुक्तात्मा तस्कायमपरे क्षीणक्लेशा अनुपविशन्ति आदित्यरश्मय इवांशुमन्तमिति, तथा न रुहः 'रुह पीजजन्मनि प्रादुर्भावे च रोहतीति रुहः, न रहोऽरुहः, कर्मबीजाभावादपुनभावीत्यर्थः, न पुनर्यथा शा-II
क्यानां दर्शननिकारतो मुक्तात्मनोऽपि पुनर्भवोपादानमिति, उक्तं च-"दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमध्य, निर्वाणमप्यनविधारितभीरुनिष्ठम् । मुक्तः स्वयंकृतभवश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेविह मोहराज्यम् ॥१॥" तथा च न विद्यते
सङ्गोऽमूर्त्तत्वाद्यस्य स तथा, तथा न खी न पुरुषो नान्यथेति-न नपुंसकः, केवलं सधैरात्मप्रदेशैः परिः-समन्ताद्विशेषतो जानातीति परिज्ञः, तथा सामान्यतः सम्यग्जानाति-पश्यतीति संज्ञः, ज्ञानदर्शनयुक्त इत्यर्थः, यदि नाम स्वरूपतो न ज्ञायते मुक्तात्मा तथाऽप्युपमाद्वारेणादित्यगतिरिष ज्ञायत एवेति चेत्, तन्न, यत आह-उपमीयते सादृश्यात् परिच्छि
अनुक्रम [१८४]
140%
~1764
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [५], उद्देशक [६], मूलं [१७०],नियुक्ति: [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७१]
लोक०५ उद्देशकः६
दीप अनुक्रम [१८५]
श्रीआचा-
पद्यते यया सोपमा-तुल्यता सा मुक्तात्मनस्तम्ज्ञानसुखयोर्वा न विद्यते, लोकातिगत्वात्तेपा, कुत एतदिति चेदाह-तेषां राजवृत्तिः
मुक्तात्मनां या सत्ता सा अरूपिणी, अरूपित्वं च दीर्यादिप्रतिषेधेन प्रतिपादितमेव । किं च न विद्यते पदम्-अवस्था(शी०) विशेषो यस्य सोऽपदः, तस्य पद्यते-गम्यते येनार्थस्तत्पदम्-अभिधानं तच्च 'नास्ति' न विद्यते, वाच्यविशेषाभावात्,
तथाहि-योऽभिधीयते स शब्दरूपगन्धरसस्पर्शान्यतरविशेषेणाभिधीयते, तस्य च तदभाव इत्येतदर्शयितुमाह, यदिवा| ॥२३॥॥
दीर्घ इत्यादिना रूपादिविशेषनिराकरणं कृतं, इह तु तत्सामान्यनिराकरणं कर्तुकाम आह
से न सके न रूवे न गंधे न रसे न फासे, इच्चेव त्तिवेमि (सू० १७१)॥ षष्ठ उद्देशकः।
लोकसाराध्ययनं समाप्तं ॥ ५-६॥ 'स' मुक्तात्मा न शब्दरूपः न रूपात्मा न गन्धः न रसः न स्पर्श इत्येतावन्त एव वस्तुनो भेदाः स्युः, तत्प्रतिषेधाच्च नापरः कश्चिद्विशेषः सम्भाव्यते येनासौ व्यपदिश्यतेति भावार्थः । इतिरधिकारपरिसमाप्ती, अबीमीति पूर्ववत् । गतः सूत्रानुगमः, तद्गती चापवर्गमाप्त उद्देशका, तदपवर्गावाप्तौ च नयवक्तव्यताऽतिदेशारसमाप्तं लोकसाराख्यं पश्चममध्ययन|मिति ॥ ग्रन्धान०१११५॥
॥२३१
+
-
--
----
~1774
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [-], मूलं [१७१...],नियुक्ति: [२५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
अथ धुताख्यं षष्ठमध्ययनम्
प्रत सूत्रांक [१७१]
दीप
अनुक्रम [१८५]
उक्तं पञ्चममध्ययनं, साम्प्रतं षष्ठमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने लोकसारभूतः संयमो मोक्षश्च प्रतिपादितः, स च निःसङ्गताव्यतिरेकेण कर्मधुननमन्तरेण च न भवतीत्यतस्तत्प्रतिपादनार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन | सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमेऽर्थाधिकारी द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारच, तत्राध्ययनार्थाधिकारः प्रागभाणि, उद्देशार्थाधिकारं तु नियुक्तिकारो विमणिपुराहपठमे नियगविणणा कम्माणं वितियए तइयगंमि । उवगरणसरीराणं चउत्थए गारवतिगस्स ॥ २५०॥ । प्रथमोद्देशके निजका:-स्वजनास्तेषां विधूननेत्ययमर्थाधिकारः, द्वितीये कर्मणां, तृतीये उपकरणशरीराणां, चतुर्थे गौरवत्रिकस्य, विधूननेति सर्वत्र सम्बन्धनीयम् , उपसर्गाः सन्माननानि च, यथा साधुभिर्विधूतानि तथा पञ्चमोद्देशके प्रतिपाद्यत इत्यर्थाधिकारं परिसमापय्य निक्षेपमाह-स च त्रिधा, तत्रौघनिष्पन्नेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने तु धूतं, तच चतुद्धों, तत्रापि नामस्थापने सुगमत्वादनादत्य द्रव्यभावधूतप्रतिपादनाय गाथाशकलम्जवसग्गा सम्माणयविदआणि पञ्चमंमि उहेसे । दव्यधुयं वत्थाई भावधुयं कम्म अट्ठविहं ॥ २५१॥ द्रव्यधूतं द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीर
षष्ठ-अध्ययनं 'दयुत आरब्ध:,
~178~
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७१....,नियुक्ति: [२५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
धुता०६ उद्देशका
राङ्गवृत्तिः
प्रत सूत्रांक [१७१]
दीप अनुक्रम [१८५]
श्रीआचा-1 व्यतिरिक्तं द्रव्यधूतं द्रव्यं च तद्वस्खादि धूतं च रजोऽपनयनार्थ द्रव्यधूतं, आदिग्रहणाद्वृक्षादि फलार्थ, भावधूतं क-
ष्टिविध, तद्विमोक्षार्थं धूयत इति गाथाशकलार्थः ॥ पुनरप्येनमेवार्थ विशेषतः प्रतिपादयितुमाह(शी०) अहियासिनुवसग्गे दिब्वे माणुस्सए तिरिच्छे य । जो विहुणइ कम्माई भावधुयं तं वियाणाहि ॥ २५२॥ ॥२३२॥
अधिकमासह्यात्यर्थं सोढ़वा, कानतिसह्य ?--उपसर्गान, किंभूतान् ?-दिव्यान्मानुपस्तैिरश्चांश्च यः कर्माणि संसाभारतरुवीजानि विधुनाति-अपनयति तनावधुतमित्येयं जानीहि, क्रियाकारकयोरभेदाद्वा कर्मधूननं भावधूतं जानीहीति | भावार्थः ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम्
ओबुज्झमाणे इह माणवेसु आघाइ से नरे, जस्स इमाओ जाइओ सव्वओ सुपडिलेहियाओ भवंति, आघाइ से नाणमणेलिसं, से किइ तेसिं समुट्टियाणं निक्खित्तदण्डाणं समाहियाणं पन्नाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं, एवं (अवि) एगेमहावीरा विप्परिकमंति, पासह एगे अवसीयमाणे अणत्तपन्ने से बेमि, से जहावि (सेवि) कुंमे हरप विणिविटुचित्ते पच्छन्नपलासे उम्मग्गं से नो लहइ भंजगा इव संनिवेसं नो चयंति एवं (अवि) एगे अणेगरूवेहिं कुलेहिं जाया रूवेहिं सत्ता कल्लुणं थणंति नियाणओ ते न लभंति मुक्खं,
॥२३२॥
षष्ठ-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'स्वजन विधुनन आरब्धः,
~179~
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक [ १७२ ] गाथा
१...३
दीप
अनुक्रम
| [१८६...
१९०]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [१], मूलं [ १७२ / गाथा - १], निर्युक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
अह पास तेहिं कुलेहिं आयत्ताए जाया, -गंडी अहवा कोढी, रायंसी अवमारियं । काणियं झिमियं चैव, कुणियं खुज्जियं तहा ॥ १ ॥ उदरिं च पास मूयं च, सूणीयं च गिलासणिं । वेवई पीढसपि च, सिलिवयं महुमेहणिं ॥ २ ॥ सोलस एए रोगा अक्खाया अणुपुव्वसो । अह णं फुसंति आयंका, फासा य असमंजसा ॥ ३ ॥ मरणं तेसिं संपेहाए उबवायं चवणं च नच्चा, परियागं च संपेहाए (सू० १७२ ) avari aartणानि च तथा संसारं तत्कारणानि चावबुध्यमानोऽनावारकज्ञानसद्भावाद् 'इहेति मर्त्यलोके मानवेषु विषयभूतेषु धर्ममाख्याति स नरो भवोपग्राहि कर्म्मसद्भावात् मनुष्य भावव्यवस्थितः सन् धर्ममाचष्टे, न पुनयेथा शाक्यानां कुण्यादिभ्योऽपि धर्म्मदेशनाः प्रादुष्ष्यन्ति, यथा वा वैशेषिकाणामुलुकभावेन पदार्थाविर्भावनम्, एवमस्माकं न, कथं?-घातिकर्म्मक्षये तुत्पन्ननिरावरणज्ञानो मनुष्यभावापन्न एव कृतार्थोऽपि सस्वहिताय सदेवमनुजायां पर्षदि कथयतीति । किं तीर्थकर एव धर्म्ममाचष्टे उतान्योऽपि ?, अन्योऽपि यो विशिष्टज्ञानः सम्यकपदार्थपरिच्छेदी स धर्मावि भवनं करोतीति दर्शयितुमाह-यस्यातीन्द्रियज्ञानिनः श्रुतकेवलिनो वा 'इमाः' शस्त्रपरिज्ञायां साधितत्वात् प्रत्यक्षवाचिनेदमाऽभिहिताः 'जातयः' एकेन्द्रियादयः 'सर्वतः सर्वैः प्रकारैः सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्तकरूपैः सुधु-शङ्कादिव्यु
Eucation Internation
For Parts Only
~180~
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७२],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
धुता०६
प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा
उद्देशका
दीप अनुक्रम [१८६...
श्रीआचा- दासेन 'प्रत्युपेक्षिताः' प्रति उप-सामीप्येन ईक्षिताः-ज्ञाता भवन्ति स धर्ममाचष्टे नापर इति । इदमेवाह-आख्याति' राङ्गवृत्तिः कथयति 'स' तीर्थकृत्सामान्यकेवली अपरो वाऽतिशयज्ञानी श्रुतकेवली वा, किमाख्याति?'ज्ञान' ज्ञायन्ते परिच्छि-13 (शी.) | धन्ते जीवादयः पदार्थाः येन तज्ज्ञानं-मत्यादि पञ्चधा, किम्भूतं ज्ञानमाख्याति?-'अनीदृशं नान्यत्रेदशमस्तीत्यनी
दृशं, यदिवा सकलसंशयापनयनेन धर्ममाचक्षाण एव स आत्मनो ज्ञानमनन्यसदृशमाख्याति । केषां पुनः स धर्म॥२३३॥
माचष्ट इत्यत आह–'स' तीर्थकृद्गणधरादिः 'कीर्तयति' यथावस्थितान् भावान् प्रतिपादयति 'तेषां' धर्मचरणाय सम्यगुस्थितानां, यदिवा उत्थिता द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः शरीरेण भावतो ज्ञानादिभिः, तत्र खियः समवसरणस्था उभयथाऽप्युस्थिताः शृण्वन्ति, पुरुषास्तु द्रव्यतो भाज्याः, भावोस्थितानां तु धर्ममावेदयति उत्तिष्ठासूनां च देवानां तिरश्चांच, येऽपि कौतुकादिना शृण्वन्ति तेभ्योऽप्याचष्टे, भावसमुत्थितान् विशिशेषयिषुराह-निक्षिप्ता-संयमिताः मनोवाकायरूपाः प्राण्युपमर्दकारित्वाद्दण्डा इय दण्डा येस्ते तथा तेषां निक्षिप्तदण्डाना, तथा 'समाहिताणं' सम्यगाहिता:-तपःसं-18 यम उद्युक्ताः समाहिता अनन्यमनस्कास्तेषां, तथा प्रकर्षेण ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानं तद्वतां सश्रुतिकानाम् 'इह' अस्मि-11
न्मनुष्यलोके 'मुक्तिमार्ग' ज्ञानदर्शनचारित्रात्मक कीर्तयतीति सम्बन्धः । तस्य च तीर्थकृतः साक्षाद्धर्ममावेदयतः केचन ४ लघुकर्माणस्तथैव प्रतिपद्य धर्मचरणायोद्यच्छन्त्यपरे त्वन्यथेत्येतत्प्रतिपादयितुमाह-अपिशब्दश्चार्थे, चशब्दश्च वाक्योपन्यादासाथै, एवं च तीर्थकृताऽऽवेदिते सत्येके-लब्धकर्मविवरा विविधं संयमसङ्ग्रामशिरसि पराक्रमन्ते, परान् वा इन्द्रियक
मरिपून आक्रमन्ते पराक्रमन्त इति । एतद्विपर्ययमाह-साक्षात्तीर्थकरे सकलसंशयच्छेत्तरि धर्ममावेदयति सत्येकान्
१९०]
R-5453
॥२३३॥
~181~
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७२],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा
॥ प्रबलमोहोदयावृतान् संयमेऽवसीदतः पश्यत यूयं, किम्भूतानित्याह-नात्मने हिता प्रज्ञा येषां ते अनात्मप्रज्ञास्तानिति, द कुतः पुनः संयमानुष्ठानेऽवसीदन्ति इत्यारेकायां सोऽहं ब्रवीमि । अत्र दृष्टान्तद्वारेण सोपपत्ति-फि कारणमित्याह
सेशब्दस्तच्छब्दार्थे, अपिशब्दश्चार्थे, स च वाक्योपन्यासार्थः, तद्यथा च कूर्मों महाद्दे विनिविष्टं चित्तं यस्यासी विनिविष्टचित्तो-गायमुपगतः पलाशैः-पत्रैः प्रच्छन्नः पलाशप्रच्छन्नः, सूत्रे तु प्राकृतत्वाद्यत्ययः, 'उम्मग्गति विवर उन्मज्यतेऽनेनेति वोन्मज्यम् , ऊर्द्ध वा मार्गमुन्मार्ग, सर्वथा अरन्ध्रमित्यर्थः , तदसौ न लभतः इत्यक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम्कश्चिद् इदो योजनशतसहस्रविस्तीर्णः प्रवलशेषालघनकठिनवितानाच्छादितो नानारूपकरिमकरमत्स्यकच्छपादिजलचराश्रयः, तन्मध्ये चैक विस्रसापरिणामापादितं कच्छपग्रीवामात्रप्रमाणं विवरमभूत, तत्र चैकेन कूर्मेण निजयूथात् है। प्रचष्टेन बियोगाकुलतयेतस्ततश्च शिरोधरां प्रक्षिपता कुतश्चित्तथाविधभवितव्यतानियोगेन तद्न्ने प्रीवानिर्गमनमाप्त, तत्र चासौ शरच्चन्द्रचन्द्रिकया क्षीरोदसलिलप्रवाहकल्पयोपशोभितं विकचकुमुदनिकरकृतोपचारमिव तारकाकीण नभस्तलमीक्षाञ्चके, दृष्ट्वा चातीव मुमुदे, आसीच्चास्य मनसि-यदि तानि मर्याण्येतत्स्वर्गदेश्यमद्दष्टपूर्व मनोरथानामप्यविष-18 यभूतं पश्यन्ति ततः शोभनमापद्यत इत्येतदवधार्य तूर्णमन्वेषणाय बन्धूनामितश्चेतश्च बभ्राम, अवाप्य च निजान्
पुनरपि तद्विवरान्वेषणार्थं सर्वतः पर्यटति, न च तद्विवरं विस्तीर्णतया इदस्य प्रचुरतया यादसामीक्षते, तत्रैव च विनादशमुपयात इति । (अस्यायमर्थोपनयंः-संसारहूदे जीवकूर्मः कर्मशेवालविवरतो मनुष्यार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तिसम्यक्त्वावसा-18
ननभस्तलमासाद्य मोहोदयात् ज्ञात्यर्थं विषयोपभोगाय वा सदनुष्ठानविकलो न सफलतां नयति, तत्त्यागे कुतः पुनः
COCOCCEOCRACROSRANAM
CANCHORECACANCS
दीप अनुक्रम [१८६... १९०]
~182
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१७२]
गाथा
१...३
दीप
अनुक्रम
[१८६...
१९०]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७२],निर्युक्ति: [२५२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
॥ २३४ ॥
संसारदान्तर्वर्त्तिनस्तदवाप्तिः १, तस्मादवाप्य भवशतदुरापं कर्म्मविवरभूतं सम्यक्त्वं क्षणमप्येकं तत्र न प्रमादवता भाराङ्गवृत्तिः व्यमिति तात्पर्यार्थः । पुनरपि संसारानुषङ्गिणां दृष्टान्तान्तरमाह - 'भञ्जगा' वृक्षास्त इव शीतोष्णप्रकम्पनच्छेदनशाखाक(शी०) ★षणक्षोभामोटनभञ्जनरूपानुपद्रवान् सहमाना अपि 'सन्निवेशं' स्थानं कर्म्मपरतया न त्यजन्ति, एवमित्यादिना दान्तिकमर्थ * दर्शयति- 'एवमिति वृक्षोपमया 'अपिः' सम्भावने, 'एके' कर्म्मगुरवोऽनेकरूपेषु कुलेषूच्चावचेषु जाता धर्म्मचरणयोग्या अपि रूपेषु चक्षुरिन्द्रियानुकूलेषूपलक्षणार्थत्वाच्छन्दादिषु च विषयेषु 'सक्ताः' अभ्युपपन्नाः शारीरमानसदुःखदुःखिता राजोपद्रवोपद्रुताः अग्निदाहदग्धसर्वस्वा नानानिमित्ताहिताधयोऽपि न सकलदुःखावासं गृहवासं कम्र्म्मनिज्ञास्त्य कुमलम्, अपि तु तत्स्था एव तेषु तेषु व्यसनोपनिपातेषु सत्सु 'करुणं स्तनन्ति' दीनमाक्रोशन्ति, तद्यथा हा तात ! हा मातः हा दैव ! न युज्यते भवत एवंविधेऽवसरे एवम्भूतं व्यसनमापादयितुं, तदुक्तम् - " किमिदमचिन्तितमसदृशमनिष्टमतिकष्टमनुपमं दुःखम् । सहसैवोपनतं मे नैरयिकस्येव सत्त्वस्य १ ॥ १ ॥" इत्यादि, यदिवा रूपादिविषयासक्ता उपचितकर्माणो नरकादिवेदनामनुभवन्तः करुणं स्तनन्तीति न च करुणं स्तनन्तोऽप्येतस्मात् दुःखान्मुच्यन्ते इत्येतद्दर्शयितुमाह-दुःखस्य निदानम् - उपादानं कर्म्म ततस्ते विलपन्तोऽपि न लभन्ते 'मोक्ष' दुःखापगमं मोक्षकारणं वा संयमानुष्ठानमिति । दुःखविमोक्षाभावे च यथा नानाव्याध्युपसृष्टाः संसारोदरे प्राणिनो विवर्त्तन्ते तथा दर्शयितुमाह - 'अथ' इति वाक्योपन्यासार्थे पश्य त्वं तेपूच्चावचेषु कुलेषु, आत्मत्वाय - आत्मीय कर्म्मानुभवाय जाताः, तदुदयाच्चेमां अवस्थामनुभवन्तीत्याह - षोडशरोगवक्तव्यानुगतं श्लोकत्रयं वातपित्तश्लेष्मसन्निपातजं चतुर्द्धा गण्डं तदस्यास्तीति गण्डी- गण्ड
Education International
For Para Use Only
~183~
धुता० ६ उद्देशक १
॥ २३४ ॥
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७२],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
-*
-*
*
प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा१...३ दीप अनुक्रम
-5-15654584%A5%
K-95
मालावानित्यादि, अथवेत्येतत्प्रतिरोगमभिसम्बध्यते, अथवा राजांसी अपस्मारीत्यादि, अथवा तथा-'कुष्ठी कुष्ठमष्टादशभेदं तदस्यास्तीति कुष्ठी, तत्र सप्त महाकुष्ठानि, तद्यथा-अरुणोदुम्बरनिश्यजिहकपालकाकनादपीण्डरीकदद्रुकुष्ठा-1
नीति, महत्त्वं चैषां सर्वधात्वनुप्रवेशादसाध्यत्वाचेति, एकादश क्षुद्रकुष्ठानि, तद्यथा-स्थूलारुष्क १ महाकुठे २ ककुष्ठ ३||चर्मदल ४ परिसर्प ५ विसर्प ६ सिम ७ विचर्चिका ८ किटिभ ९पामा १० शतारुक ११ संज्ञानीति, सर्वोण्यप्यष्टादश, सामान्यतः कुष्ठं सर्व सन्निपातजमपि वातादिदोषोत्कटतया तु भेदभाग्भवतीति। तथा-राजांसो-राजयक्ष्मा सोऽस्यास्तीति राजांसी, क्षयीत्यर्थः, स च क्षयः सन्निपातजश्चतुभ्यः कारणेभ्यो भवति इति, उक्तं च-"त्रिदोषो जायते यक्ष्मा, गदो हेतुचतुष्टयात् । वेगरोधात् क्षयाच्चैव, साहसाद्विषमाशनात् ॥ १॥" तथा-अपस्मारो वातपित्तश्लेष्मसन्निपातजत्वाच्चतुर्की, तद्वानपगतसदसद्विवेकः भ्रममूर्छादिकामवस्थामनुभवति प्राणीति, उक्तं च-"भ्रमावेशः ससंरम्भो, द्वेषोद्रेको हृतस्मृतिः । अपस्मार इति ज्ञेयो, गदो घोरश्चतुर्विधः॥१॥" तथा 'काणिय'ति अक्षिरोगः, स च द्विधा-गर्भगतस्योत्पद्यते जातस्य च, तत्र गर्भस्थस्य दृष्टिभागमप्रतिपन्नं तेजो जात्यन्धं करोति,तदेवैकाक्षिगतं काणं विधत्ते, तदेव रक्तानुगतं रक्काक्षं पित्तानुगतं पिङ्गाक्षं श्लेष्मानुगत शुक्लाक्षं वातानुगतं विकृताक्ष, जातस्य च वातादिजनितोऽभिष्यन्दो भवति, तस्माच्च सर्वे रोगाः प्रादुष्ण्यन्तीति, उक्तं च "वातात्पित्तात्कफाद्रक्तादभिष्यन्दश्चतुर्विधः । प्रायेण जायते घोरा, सर्वनेत्रामयाकरः॥१॥" इति, तथा-'झिमिय'ति जाब्यता सर्वशरीरावयवानामवशित्वमिति, तथा 'कुणिय'ति गर्भाधानदोषाद्र
१ अपगतः स्मारः स्मरणं गसमान सः अपस्मारः तस्मिन्सति तद्रोगिणः सर्वविषया स्पतिः नश्यति.
[१८६...
5
१९०]
-5-
4
~184~
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७२],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
जा
प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा
श्रीआचा- रानवृत्तिः (शी०)
॥२३५॥
हस्वैकपादो न्यूनकपाणिर्वा कुणिः, तथा 'खुजिय'ति कुब्जं पृष्ठादावस्यास्तीति कुब्जी, मातापितृशोणितशुक्रदोषेण गर्भ- धुता० ६ स्थदोषोद्भवाः कुब्जवामनकादयो दोषा भवन्तीति, उ च-"गर्भे वातप्रकोपेन, दौहृदे वाऽपमानिते । भवेत् कुब्जा
उद्देशका कुणिः पङ्गुको मन्मन एव वा ॥१॥" मूको मन्मन एवेत्येतदेकान्तरिते मुखदोषे लगनीयमिति । तथा-'उदरिं
चत्ति चः समुच्चये वातपित्तादिसमुत्थमष्टधोदरं तदस्यास्तीत्युदरी, तत्र जलोदर्यसाध्यः शेषास्त्वचिरोत्थिताः साध्या ४ इति, ते चामी भेदाः-"पृथक् समस्तैरपि चानिलाद्यैः, प्लीहोदरं बद्धगुदं तथैव । आगन्तुकं सप्तममष्टमं तु, जलोदरं
चेति भवन्ति तानि ॥१॥" इति, तथा 'पास मूयं चत्ति पश्य-अवधारय मूकं मन्मनभाषिणं वा, गर्भदोषादेव जातं तदुत्तरकालं च, पञ्चषष्टिर्मुखे रोगाः सप्तस्वायतनेषु जायन्ते, तत्रायतनानि ओष्ठौ दन्तमूलानि दन्ता जिह्वा तालु कण्ठः। सर्वाणि चेति, तत्राष्टावोष्ठयोः पञ्चदश दन्तमूलेष्वष्टौ दन्तेषु पश्च जिह्वायां नव तालुनि सप्तदश कण्ठे त्रयः सर्वेष्वा-10 यतनेविति, 'सूणियं च त्ति शूनत्वं-श्वयथुर्वातपित्तश्लेष्मसन्निपातरक्ताभिघातजोऽयं पोढेति, उक्तं च-"शोफः स्यात् पड्डिधो घोरो, दोषैरुत्सेधलक्षणः । व्यस्तैः समस्तैश्चापीह, तथा रक्ताभिघातजः ॥१॥" इति, तथा 'गिलासणि ति भस्मको व्याधिः, स च वातपित्तोत्कटतया श्लेष्मन्यूनतयोपजायत इति, तथा 'वेवईति वातसमुत्थः शरीरावयवानां कम्प इति, उक्तं च-"प्रकामं बेपते यस्तु, कम्पमानश्च गच्छति । कलापखजं तं विद्यान्मुक्तसन्धिनिबन्धनम् ॥१॥” इति, तथा 'पीढसप्पिं बत्ति जन्तुर्गर्भदोषात् पीढसर्पित्वेनोत्पद्यते, जातो वा कर्मदोषादवति, स किल |
R ॥२३५॥ पाणिगृहीतकाष्ठः प्रसप्र्पतीति, तथा 'सिलिवयं'ति श्लीपद-पादादौ काठिन्यं, तद्यथा-प्रकुपितवातपित्तश्लेष्माणोऽधः प्रपन्ना
दीप अनुक्रम
[१८६...
१९०]
~185
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७२],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
- M -
प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा१...३ दीप अनुक्रम [१८६... १९०]
COACESSASSAGAROO
वक्ष्णो(वक्षो)रुजङ्घास्ववतिष्ठमानाः कालान्तरेण पादमाश्रित्य शनैः शनैः शोफमुपजनयन्ति तच्छलीपदमित्याचक्षते -"पुराणोदकभूमिष्ठाः, सर्व षु च शीतलाः । ये देशास्तेषु जायन्ते, श्लीपदानि विशेषतः॥१॥ पादयोर्हस्तयोश्चापि, श्लीपदं जायते नृणाम् । कर्णोष्ठनाशास्वपि च, केचिदिच्छन्ति तद्विदः॥२॥" तथा 'महुमेहणि ति मधुमेहो-वस्तिरोगः स विद्यते यस्यासौ मधुमेही, मधुतुल्यप्रस्राववानित्यर्थः, तत्र प्रमेहाणां विंशतिर्भेदाः, स्तत्रास्यासाध्यत्वेनोपन्यासः, तत्र सर्व एव प्रमेहाः प्रायशः सर्वदोषोत्थास्तथापि वाताद्युत्कटभेदाद्विशतिर्भदा भवन्ति, तत्र कफादश षट् पितात्
वातजाश्चत्वार इति, सर्वेऽपि चैतेऽसाध्यावस्थायां मधुमेहत्वमुषयान्तीति, उक्तं च-"सर्व एव प्रमेहास्तु, कालेनाप्रतिहै कारिणः । मधुमेहत्वमायान्ति, तदाऽसाध्या भवन्ति ते ॥१॥” इति । तदेवं पोडशाप्येते-अनन्तरोक्ताः 'रोगा' व्या
धयो व्याख्याताः 'अनुपूर्वशो' अनुक्रमेण 'अर्थ' अनन्तरं 'ण' इति वाक्यालङ्कारे 'स्पृशन्ति' अभिभवन्ति 'आतङ्का' आशुजीवितापहारिणः शूलादयो व्याधिविशेषाः 'स्पर्शाश्च' गाढप्रहारादिजनिता दुःखविशेषाः 'असमञ्जसाः' क्रमयोग-12 पद्यनिमित्तानिमित्तोपन्नाः स्पृशन्तीति सम्बन्धः । न रोगातकैरेव केवलैर्मुच्यते, अन्यदपि यत् संसारिणोऽधिकं स्यात्तदाह-तेषां कर्मगुरूणां गृहवासासक्तमनसामसमजसरोगैः क्लेशितानां 'मरणं' प्राणत्यागलक्षणं 'संप्रेक्ष्य' पर्यालोच्य |पुनरुपपातं च्यवनं च देवानां कर्मोदयात् सचितं ज्ञात्वा तद्विधेयं येन गण्डादिरोगाणां मरणोपपातयोश्चात्यन्तिको|ऽभावो भवति, किं च-कर्मणां मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाहितानामबाघोत्तरकालमुदयावस्थायां परिपाकं च 'सम्प्रेक्ष्य' शारीरमानसदुःखोत्पादकं पर्यालोच्य तदुच्छित्तये यतितव्यं ।। स च करुणं स्तनन्तीत्यादिना ग्रन्धेनोपपात
%
~186
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७७],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राजवृत्तिः
सूत्रांक
(शी)
[१७७]
॥२३६॥
दीप अनुक्रम
यवनायसानेनावेदितोऽपि पुनरपि तद्गरीयस्त्वख्यापनाय प्राणिनां संसारे निर्वेदवैराग्योत्पत्त्यर्थमभिधिर सुकाम आह- धुता०६ तं सुणेह जहा तहा संति पाणा अंधा तमसि वियाहिया, तामेव सई असई अइअ
18 उद्देशका च उच्चावयफासे पडिसंवेएइ, बुद्धेहिं एयं पवेइयं-संति पाणा वासगा रसगा उदए
उदएचरा आगासगामिणो पाणा पाणे किलेसंति, पास लोए महब्भयं (सू० १७७) 'त' कर्मविपाकं यथावस्थितं तथैव ममावेदयतः शृणुत यूर्य, तद्यथा-नारकतिर्यइनरामरलक्षणाश्चतस्रो गतयः, तत्र नरकगतौ चत्वारो योनिलक्षाः पञ्चविंशतिकुलकोटिलक्षाः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कृष्टा स्थितिः वेदनाश्च परमाधार्मिकपरस्परोदीरितस्वाभाविकदुःखानां नारकाणां या भवन्ति ता वाचामगोचराः, यद्यपि लेशतश्चिकथयिषोरभिधेयविपियं न वागवतरति तथाऽपि कर्मविपाकावेदनेन प्राणिनां वैराग्यं यथा स्यादित्येवमर्थं श्लोकैरेव किश्चिदभिधीयते-- "श्रवणलवन नेत्रोद्धारं करक्रमपाटनं, हृदयदहनं नासाच्छेदं प्रतिक्षणदारुणम् । कटविदहनं तीक्ष्णापातत्रिशूलविभेदन, दहनवदनैः कङ्कोरैः समन्तविभक्षणम् ॥शा तीक्ष्णैरसिभिदीप्तैः कुन्तै विषमैः परश्वधैश्चकैः । परशुत्रिशूलमुद्गरतोमरवासीमुषण्ढीभिः ॥ २॥ सम्भिन्नतालुशिरस शिछन्नभुजाश्छिन्नकर्णनासौष्ठाः । भिन्नहृदयोदरान्ना भिन्नाक्षिपुटाः सुदुःखार्ताः॥ ३ ॥ निपतन्त उत्सतन्तो विचेष्टमाना महीतले दीनाः । नेक्षन्ते त्रातारं नैरयिकाः कर्मपटलान्धाः ॥४॥ ॥२३॥ छिद्यन्ते कृपणाः कृताम्तपरशोस्तीक्ष्णेन धारासिना, क्रन्दन्तो विषवीचि(वच्छ)भिः परिवृताः संभक्षणव्यापूतः । पाव्यन्ते ||
[१९०]
25*-25
मूल सम्पादकेन अत्र सूत्रक्रम- १७७ अलिखित, तन्मध्ये सूत्र-क्रम १७३ - १७६ न दृश्यते। (आद्य संपादक यहाँ सिर्फ सूत्र १७३ से १७६ का क्रम देना भूल गए है, मेटर के सम्पादनमे कोई भूल नहीं है)
~187
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७७],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१७७]
दीप
कचेन दारुवदसिन प्रच्छिन्नबाहुद्वयाः, कुम्भीषु त्रपुपानदग्धतनवो मूषासु चान्तर्गताः ॥ ५॥ भृज्यन्ते ज्वलदम्बरीषह-४॥ तभुगज्वालाभिराराविणो, दीप्ताङ्गारनिभेषु वज्रभवनेष्वङ्गारकेपुत्थिताः । दह्यन्ते विकृतोर्यवाहुवदनाः कन्दन्त आर्तस्वनाः, पश्यन्तः कृपणा दिशो विशरणास्त्राणाय को नो भवेत् ॥ ६॥" इत्यादि । तथा तिर्यग्गतौ पृथिवीकायजन्तूनां सप्त योनिलक्षा द्वादश कुलकोटिलक्षाः स्वकायपरकायशखाणि शीतोष्णादिका वेदनाः, तथाऽप्कायस्यापि सप्त योनिलक्षाः सप्त च कुलकोटिलक्षाः वेदना अपि नानारूपा एव, तथा तेजस्कायस्थ सप्त योनिलक्षाः त्रयः कुलकोटीलक्षाः पूर्ववद्धेदनादिकं, वायोरपि सप्त योनिलक्षाः सप्त च कुलकोटीलक्षाः वेदना अपि शीतोष्णादिजनिता नानारूपा एव, प्रत्ये|| कवनस्पतेर्दश योनिलक्षाः साधारणबनस्पतेश्चतुर्दश उभयरूपस्याप्यष्टाविंशतिः कुलकोटीलक्षाः, तत्र च गतोऽसुमाननन्तKामपि कालं छेदनभेदनमोटनादिजनिता नानारूपा वेदना अनुभवन्नास्ते, विकलेन्द्रियाणामपि द्वौ द्वौ योनिलक्षी कुलको
व्यस्तु द्वीन्द्रियाणां सप्त त्रीन्द्रियाणामष्टौ चतुरिन्द्रियाणां नव, दुःखं तु क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिजनितमनेकधाऽध्यक्षमेव | तेषामिति, पञ्चेन्द्रियतिरश्चामपि चत्वारो योनिलक्षाः कुलकोटीलक्षास्तु जलचराणामर्द्धत्रयोदश पक्षिणां द्वादश चतुप्पदानां दश उरम्परिसर्पाणां दश भुजपरिसप्पाणां नव वेदनाश्च नानारूपा यास्तिरश्चां सम्भवन्ति ताः प्रत्यक्षा एवेति, उक्कं च-"धुत्तहिमात्युष्णभयार्दिताना, पराभियोगव्यसनातुराणाम् । अहो ! तिरथामतिदुःखितानां, सुखानुषगः किल वार्तमेतद् ॥१॥” इत्यादि । मनुष्यगतावपि चतुर्दश योनिलक्षा द्वादश कुलकोटीलक्षाः, वेदनास्त्वेवम्भूता इति-"दुःखं स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवे गर्भवासे नराणां, बालत्वे चापि दुःखं मललुलिततनुस्त्रीपयःपानमिनम् । तारुण्ये चापि दुःखं
अनुक्रम [१९०]
~188~
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७७],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
*
धुता
प्रत सूत्रांक [१७७]
*%
श्रीआचा- भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे रे मनुष्या! वदतः यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किश्चित् ॥ १॥ बाल्याप्रभृति राङ्गवृत्तिःच रोगैर्दष्टोऽभिभषश्च यावदिह मृत्युः । शोकवियोगायोगैदुर्गतदोषैश्च नैकविधैः ॥२॥ क्षुत्तुहिमोष्णानिलशीतदादा
उद्देशका (शी०) रिधशोकप्रियविप्रयोगैः । दौर्भाग्यमानभिजात्यदास्यवैरूप्यरोगादिभिरस्वतन्त्रः ॥३॥" इत्यादि । देवगतावपि
चत्वारो योनिलक्षाः षड्डिंशतिः कुलकोटीलक्षाः तेषामपीाविषादमत्सरच्यवनभयशल्यवितुद्यमानमनसा दुःखानुषङ्ग ॥३७॥
एव, सुखाभासाभिमानस्तु केवल मिति, उक्तं च-"देवेषु च्यवनवियोगदुःखितेषु, क्रोधेामदमदनातितापितेषु । आर्या ! नस्तदिह विचार्य संगिरन्तु, यत्सौख्यं किमपि निवेदनीयमस्ति ॥१॥" इत्यादि । तदेवं चतुर्गतिपतिताः संसारिणो नाना-IS रूपं कर्मविपाकमनुभवन्तीत्येतदेव सूत्रेण दर्शयितुमाह-'सन्ति' विद्यन्ते 'प्राणाः' प्राणिनः 'अन्धाः' चक्षुरिन्द्रियविकला भावान्धा अपि सद्विवेकविकलाः 'तमसि' अन्धकारे नरकगत्यादौ भावान्धकारेऽपि च मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपायादिके कर्मविपाकापादिते व्यवस्थिता व्याख्याताः । किं च-तामेवावस्थां कुष्ठाद्यापादितामेकेन्द्रियापर्याप्तकादिकां वा सकृदनुभूय कर्मोदयात्तामेव असकृद्-अनेकशोऽतिगत्योचावचान-तीत्रमन्दान् स्पर्शान-दुःखविशेषान् 'प्रतिसंवेदयति' अनुभवति । एतच्च तीर्थकृद्भिरावेदितमित्याह-'बुद्धः' तीर्थकृद्भिः 'एतद् अनन्तरोक्तं प्रकर्षणादौ वा वेदितं प्रवेदितम् । एतच्च वक्ष्यमाणं प्रवेदितमित्याह-'सन्ति' विद्यन्ते 'प्राणाः' प्राणिनो 'वासकाः' 'वासू शब्दकुत्सायां' त वासन्तीति वासकाः-भाषालब्धिसम्पन्ना द्वीन्द्रियादयः, तथा रसमनुगच्छन्तीति रसगा:-कटुतिक्तकषायादिरसवेदिनः C ॥२३७।।
संजिन इत्यर्थः, इत्येवम्भूतः कर्मविपाकः संसारिणां सम्प्रेक्ष्य इति सम्बन्धः, तथा-'उदके उदकरूया एवैकेन्द्रिया
दीप अनुक्रम
%EC
[१९०]
%ASSOCOM
~189~
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७७],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१७७]
दीप अनुक्रम
जन्तवः पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन व्यवस्थिताः, तथा उदके चरन्तीत्युदकचराः-पूतरकच्छेदनकलोदुणकनसा मत्स्यकच्छपादयः, तथा स्थलजा अपि केचन जलाश्रिता महोरगादयः पक्षिणश्च केचन तद्गतवृत्तयो द्रष्टव्याः, अपरे तु आकाशगामिनः पक्षिणः, इत्येवं सर्वेऽपि 'प्राणाः' प्राणिनोऽपरान् प्राणिनः आहाराद्यर्थे मत्सरादिना वा 'क्लेशयन्ति' उपतापयन्ति । यद्येवं ततः किमित्यत आह-'पश्य' अवधारय 'लोके' चतुर्दशरज्वात्मके, कर्मविपाकासकाशात् 'महद्भय नानागतिदुःखक्लेशविपाकात्मकमिति ॥ किमिति कर्मविपाकान्महद्यमित्याह
बहुदुक्खा हु जन्तवो, सत्ता कामेसु माणवा, अबलेण वहं गच्छन्ति सरीरेणं पभंगुरेण अढे से बहुदुक्खे इइ बाले पकुव्बइ एए रोगा'बहू नच्चा आउरा परियावए
नालं पास, अलं तवेपार्ह, एयं पास मुणी! महब्भयं नाइवाइज कंचणं (सू० १७८) बहूनि दुःखानि कर्मविपाकापादितानि येषां जन्तूनां ते तथा, हुर्यस्मादेवं तस्मात्तत्राप्रमादवता भाव्यं । किमित्येवं भूयो भूयोऽपदिश्यत इत्यत आह-यस्मादनादिभवाभ्यासेनागणितोत्तरपरिणामाः 'सक्ताः' गृद्धाः 'कामेषु' इच्छामदनरूपेषु 'मानवाः' पुरुषा इत्यतो न पुनरुक्तदोषानुषङ्गः । कामासक्ताश्च यदवामुवन्ति तदाह-बलरहितेन निःसारेण तुषमुष्टिकल्पेनौदारिकेण शरीरेण 'प्रभङ्करेण' स्वत एव भङ्गशीलेन तत्सुखाधानाय कम्मोपचित्याऽनेको वधं गच्छन्ति, का पुनरसी विषाककटुकेषु कामेषु यो रतिं विदध्यादित्याह-मोहोदयादातः अगणितकार्याकार्योववेकः सोऽसुमान्बहु
[१९०]
wraturasurary.org
~190~
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७८],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
धुता०
उद्देशका
प्रत सूत्रांक [१७८]
दीप अनुक्रम [१९१]
श्रीआचा
दुःखं प्राप्तव्यमनेनेति बहुदुःख इत्येनं कामानुषङ्ग प्राणिनां क्लेश वा 'बालो' रागद्वेषाकुलितः प्रकर्षेण करोति प्रकरोति, राङ्गवृत्तिः शतजनितकर्मविपाकाच अनेकशी वधं गच्छति, यदिवा रोगेषु सत्सु इत्येतद्वक्ष्यमाणं बालोऽज्ञः प्रकरोति तदाह(शी०) |एतान्-गण्डकुष्ठराजयक्ष्मादीन् रोगान् बहुनूत्पन्नानिति ज्ञात्वा तद्रोगवेदनया आतुराः सन्तः चिकित्सायै प्राणिनः परि
तापयेयुः, 'लावकादिपिशिताशिनः किल क्षयव्याध्युपशमः स्यादित्यादिवाक्याकर्णनाजीविताशया गरीयस्यपि प्राण्युप॥२३८॥
मर्दे प्रवर्तेरन्, नैतदवधारयेयुः यथा-स्वकृतावन्ध्यकर्मविपाकोदयादेतत् , तदुपशमाच्चोपशमः, प्राण्युपमर्दचिकित्सया च किल्विषानुषङ्ग एवेति, एतदेवाह-पश्यैतद्विमलविवेकावलोकनेन यथा 'नालं' न समर्थाः चिकित्साविधयः कर्मोदयोपशमं विधातुं, यद्येवं ततः किं कर्तव्यमिति दर्शयति–अलं' पर्याप्तं तव' सदसद्विवेकिनः 'एभिः' पापोपादानभूवैश्चिकित्साविधिभिरिति । किं च-एतत् प्राण्युपमर्दादिकं 'पश्य' अवधारय हे 'मुने! जगत्रयस्वभाववेदिन, महद्-वृहद्भयहेतुत्वानयं, यद्येवं ततः किं कुर्यादिति दर्शयति–नातिपातयेत् न हन्यात् कश्चन प्राणिनं, यत एकस्मिन्नपि प्राणिनि-हन्यमानेऽष्टप्रकारमपि कर्म बध्यते, तच्चानुत्तारसंसारगमनायेत्यतो महाभयमिति, यदिवा एए
रोगे बहू णच्चेत्यादिको ग्रन्थः कामानधिकृत्य नेया, एतान् रोगरूपान् कामान् बहून् ज्ञात्वा आसेवनाप्रज्ञयेति आतुरा:है कामेच्छान्धा अपरान् प्राणिनः परितापयेयुः इत्यादिना प्रक्रमेणेति ॥ तदेवं रोगकामातुरतया सावद्यानुष्ठानप्रवृत्तानामु|पदेशदानपुरस्सरं महाभयं प्रदर्श्य तद्विपर्यस्तानां सस्वरूपां गुणवत्ता दिदर्शयिषुः प्रस्तावमारचयन्नाह
आयाण भो सुस्सूस! भो धूयवायं पवेयइस्सामि इह खलु अत्तत्ताए तेहिं तेहिं कु
॥२३८॥
~1914
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७९],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
*
प्रत सूत्रांक [१७९]
**
*
दीप
लेहिं अभिसेपण अभिसंभूया अभिसंजाया अभिनिव्वुडा अभिसंवुढा अभिसंबुद्धा
अभिनिकता अणुपुट्वेण महामुणी (सू० १७९) भोः' इति शिष्यामन्त्रणं, यदहमुत्तरत्रावेदयिष्यामि भवतस्तद् ‘आजानीहि'-अवधारय, 'शुश्रूषस्व' श्रवणेच्छां वि|घेहि 'भो।' इति पुनरप्यामन्त्रणमर्थगरीयस्त्वख्यापनाय, नात्र भवता प्रमादो विधेयो, धूतबादं कथयिष्याम्यह, धूतम्-11 8 अष्टप्रकारकर्मधूननं ज्ञातिपरित्यागो वा तस्य वादो धूतवादः तं प्रवेदयिष्यामि, अवहितेन च भवता भाव्यमिति ।
|नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"धुतोवायं पवेयंति"अष्टप्रकारकर्मधूननोपायं निजधूननोपार्य या प्रवेदयन्ति तीर्थकराPादयः। कोऽसावुपाय इत्यत आह–'इह' अस्मिन् संसारे 'खलुः' वाक्यालङ्कारे आत्मनो भाव आत्मता-जीवास्तिता स्व
कृतकर्मपरिणतिर्वा तयाऽभिसम्भूताः-सञ्जाताः, न पुनः पृथिव्यादिभूतानां कायाकारपरिणामतया ईश्वरप्रजापतिनियोगेन वेति, तेषु तेपूच्चावचेषु कुलेषु यथास्वं कर्मोदयापादितेषु 'अभिषेकेण' शुक्रशोणितनिषेकादिक्रमेणेति, तत्रायं क्रमः-"सप्ताह कललं विन्यात्ततः सप्ताहमव॒दम् । अर्बुदाजायते पेशी, पेशीतोऽपि धनं भवेत् ॥ १॥" इति, तत्र यावत्कललं तावदभिसम्भूताः, पेशी यावदभिसञ्जाताः, ततः साङ्गोपाङ्गस्नायुशिरोरोमादिक्रमाभिनिवर्चनादभिनिवृत्ताः, ततः प्रसूताः सन्तोऽभिसंवृद्धाः, धर्मश्रवणयोग्यावस्थायां वर्तमाना धर्मकथादिकं निमित्तमासाद्योपलब्धपुण्यपापतयाऽभिसम्बुद्धाः, ततः सदसद्विवेकं जानानाः अभिनिष्क्रान्ताः, ततोऽधीताचारादिशास्त्रास्तदर्थभावनोपबृंहितचर
अनुक्रम [१९२]
**
**
*
~192~
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१७९]
दीप
अनुक्रम [१९२]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१७९],निर्युक्ति: [२५२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ २३९ ॥
णपरिणामा अनुपूर्वेण शिक्षकगीतार्थक्षपक परिहारविशुद्धि कै का किविहारिजिन कल्पिकावसाना मुनयोऽभूवन्निति ॥ अभिसम्बुद्धं च प्रवित्रजिषुमुपलभ्य यन्निजाः कुर्युस्तद्दर्शयितुमाह
तं परिकमंतं परिदेवमाणा मा चयाहि इय ते वयंति-छंदोवणीया अज्झोववन्ना अकंदकारी जणगा रुयंति, अतारिसे मुणी (णय) ओहं तरए जणगा जेण विप्पजढा, सरणं तत्थ नो समेइ, कहं नु नाम से तत्थ रमइ ?, एयं नाणं सया समणुवासिज्जासि तिमि (सू० १८० ) धूताध्ययनोदेशकः ६-९ ॥
'तम्' अवगततत्त्वं गृहवासपराङ्मुखं महापुरुषसेवितं पन्धानं पराक्रममाणमुपलभ्य मातापितृपुत्रकलत्रादयः परिदेवमाना माऽस्मान् परित्यज 'इति' एतत् ते कृपामापादयन्तो वदन्ति, किं चापरं वदन्तीत्याह-छन्देनोपनीताः छ|न्दोपनीताः तवाभिप्रायानुवर्त्तिनस्त्वयि चाभ्युपपन्नाः, तदेवम्भूतानस्मान्मावमंस्था इत्येवमाक्रन्दकारिणो 'जनका' | मातापित्रादयो जना वा रुदन्ति । एवं च वदेयुरित्याह-न तादृशो मुनिर्भवति, न चौधं संसारं तरति, येन पाखण्डविप्रलब्धेन 'जनका' मातापित्रादयः 'अपोढा:' त्यक्ता इति । स चात्रगत संसारस्वभावो यत्करोति तदाह-न ह्यसावनुरक्तमपि बन्धुवर्ग 'तत्र' तस्मिन्नवसरे शरणं समेति, न तदभ्युपगमं करोतीत्यर्थः । किमित्यसौ शरणं नैतीत्याहकथं नु नामासी 'तत्र' तस्मिन् गृहवासे सर्वनिकारास्पदे नरकप्रतिनिधौ शुभद्वारपरिधे रमते ?, कथं गृहवासे द्वन्द्वै
Educatory Internationa
For Penal Use On
~ 193~
धुता० ६ उद्देशकः १
॥ २३९ ॥
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१८०],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
कहेतौ विघटितमोहकपाटः सन् रतिं कुर्यादिति ? । उपसंहारमाह-एतत् पूर्वोक्तं ज्ञानं सदा आत्मनि 'सम्यगनुवादासयेः' व्यवस्थापयेः, इतिरधिकारपरिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववत् । धूताध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ।।
प्रत सूत्रांक [१८०]
दीप
अनुक्रम [१९३]
। उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके निजकविधूनना प्रतिपादिता, सा चैवं फलवति स्याद्यदि कम्मविधूननं स्याद् , अतः कर्मविधूननार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादि सूत्रम्
आउरं लोगमायाए चइत्ता पुब्वसंजोगं हिच्चा उवसमं वसित्ता बंभचेरंसि वसु वा अ
णुवसु वा जाणित्तु धम्मं अहा तहा अहेगे तमचाइ कुसीला (सू० १८१) 'लोक' मातापितृपत्रकलत्रादिकं तमातुरं स्नेहानुषणतया वियोगात् कार्यावसादेन वा यदिवा जन्तुलोक कामरा-|| गातुरम् 'आदाय' ज्ञानेन 'गृहीत्वा' परिच्छिद्य तथा त्यक्त्वा च 'पूर्वसंयोग' मातापित्रादिसम्बन्धं, तथा हित्वा गत्वोपशमं उषित्वापि ब्रह्मचर्ये, किम्भूतः सन्निति दर्शयति-वसु द्रव्यं तद्भूतः कषायकालिकादिमलापगमाद्वीतराग इत्यर्थः, तद्विपर्ययेणानुबसु सराग इत्यर्थः, यदिवा वसुः-साधुः अनुवसुः-श्रावकः, तदुक्तम्-"वीतरागो वसुइँयो, जिनो वा संयतोऽथवा । सरागो ह्यऽनुवमुः प्रोक्तः, स्थविरः श्रावकोऽपि वा ॥ १॥" तथा ज्ञात्वा 'धर्मे श्रुतचारित्राख्यं
| षष्ठं-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'कर्मविधुनन' आरब्ध:,
~194~
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८१],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
धुता०६
प्रत
सूत्रांक
[१८१]
दीप
श्रीआचा- यथातथावस्थितं धर्म प्रतिपद्याप्यथैके मोहोदयात्तथाविधभवितव्यतानियोगेन 'त' धर्म प्रति पालयितुं न शकवन्ति, रावृत्तिः किंभूताः?-कुत्सितं शीलं येषां ते कुशीला इति, यत एव धर्मपालनाशक्ता अत एव कुशीलाः ॥ एवम्भूताश्च सन्तः किंग
कुर्युरित्याह(शी०)|
उद्देशकार वत्थं पडिग्गह कंबलं पायपुंछणं विउसिजा, अणुपुव्वेण अणहियासेमाणा परीसहे ॥२४॥
दुरहियासए, कामे ममायमाणस्स इयाणिं वा मुहत्तेण वा अपरिमाणाए भेए, एवं
से अंतराएहिं कामेहिं आकेवलिएहिं अवइन्ना चेए (सू०१८२) केचिद्भवशतकोटिदुरापमवाप्य मानुषं जन्म समासाद्यालब्धपूर्वी संसारार्णवोत्तरणप्रत्यलां बोधिद्रोणीमङ्गीकृत्य मोक्षतरुबीजं सर्वविरतिलक्षणं चरणं पुनर्दुर्निवारतया मन्मथस्य पारिप्लवतया मनसो लोलुपतयेन्द्रियग्रामस्थानेकभवाभ्यासा-|
पादितविषयमधुरतया प्रवलमोहनीयोदयादशुभवेदनीयोदयासन्नप्रादुर्भावादयशःकीर्तुत्कटतया अवगणय्याऽऽयतिमविI||चार्य कार्याकार्य उररीकृत्य महाव्यसनसागरं साम्प्रतेक्षितयाऽधःकृतकुलकमाचारास्तत्त्यजेयुः, तत्त्यागश्च धम्मोपकरण
परित्यागाद्भवतीत्यतस्तद्दर्शयति-वस्त्रमित्यनेन क्षौमिकः कल्पो गृहीतः, तथा 'पतहः' पात्रं 'कम्बलं' औणिक कल्पं पा
निर्योग वा 'पादपुञ्छनक' रजोहरणं एतानि निरपेक्षतया व्युत्सृज्य कश्चिद्देशविरतिमभ्युपगच्छति, कश्चिद्दर्शनमेवाल- yan, |म्बते, कश्चित्ततोऽपि भ्रश्यति । कथं पुनर्दुर्लभं चारित्रमवाप्य पुनस्तत्त्यजेदित्याह-परीपहान दुरधिसहनीयान 'अनुक-1||
अनुक्रम [१९४]
Halnaturary.orm
~195~
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८२],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१८२]]
दीप अनुक्रम [१९५]
रक
मेण' परिपाट्या योगपद्येन वोदीर्णाननधिसहमानाः-परीषदर्भग्ना मोहपरवशतया पुरस्कृतदुर्गतयो मोक्षमार्ग परित्यजन्ति । भोगार्थं त्यक्तवतामपि पापोदयाद्यत्स्यात्तदाह-कामान् विरूपानपि 'ममायमाणस्स'त्ति स्वीकुर्वतो भोगाध्यवसायिनोऽन्तरायोदयात् 'इदानी तत्क्षणमेव प्रत्रज्यापरित्यागानन्तरमेव भोगप्राप्तिसमनन्तरमेव वा अन्तर्मुहूर्तेन वा कण्डरीकस्येवाहोरात्रेण वा ततोऽप्यूचं शरीरभेदो भवत्यपरिमाणाय, एवम्भूत आत्मना सार्द्ध, विवक्षितशरीरभेदो भवति येनानन्तेनापि कालेन पुनः पञ्चेन्द्रियत्वं न प्राप्नोति । एतदेवोपसञ्जिहीर्षराह-एवं' पूर्वोक्तप्रकारेण 'स' भोगाभिलाषी आन्तरायिकः कामैः-बहुप्रत्यपायैः न केवलमकेवलं तत्र भवा आकेवलिका:-सद्वन्द्वाः सप्रतिपक्षा इतियावत् असम्पूर्णा वा, तैः सद्भिरवतीर्णाः संसारं तान् वा द्वितीयाथें तृतीया, 'चः' समुच्चये, 'एत' इति भोगाभिलाषिणः, कामैरतृप्ता एव शरीरभेदमवाप्नुवन्तीति तात्सर्यार्थः । अपरे त्वासन्नतया मोक्षस्य कथञ्चित्कुतश्चित् कदाचिदवाप्य चरणपरिणामं प्रतिक्षणं लघुकर्मतया प्रवर्द्धमानाध्यवसायिनो भवन्तीति दर्शयितुमाह
अहेगे धम्ममायाय आयाणप्पभिइसु पणिहिए चरे, अप्पलीयमाणे दढे सव्वं गिद्धिं परिन्नाय, एस पणए महामुणी, अइअच्च सव्वओ संग न महं अथित्ति इय एगो अहं, अस्सि जयमाणे इत्थ विरए अणगारे सव्वओ मुंडे रीयंते, जे अचेले परिवुसिए संचिक्खइ ओमोयरियाए, से आकुटे वा हए वा लुचिए वा पलियं पकत्थ अ
~196~
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८३],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
दाधुता०६
प्रत
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
सूत्रांक
[१८३]
॥२४१॥
दीप अनुक्रम [१९६]
दुवा पकत्थ अतहेहिं सदफासेहिं इय संखाए एगयरे अन्नयरे अभिन्नाय तितिक्खमाणे परिव्वए जे य हिरी जे य अहिरीमाणा (सू० १८३)
उद्देशका 'अथ' अनन्तरमेके विशवपरिणामतया आसन्नापवर्गतया 'धम्मै श्रुतचारित्राख्यं 'आदाय' गृहीत्वा वस्त्रपतदहा-18 दिधम्मोपकरणसमन्विता धर्मकरणेषु प्रणिहिताः परीषहसहिष्णवः सर्वज्ञोपदिष्टं धर्म चरेयुरिति । अत्र च पूर्वाणि: प्रमादसूत्राण्यप्रमादाभिप्रायेण पठितव्यानीति, उक्तं च-“यत्र प्रमादेन तिरोऽपमादः, स्याद्वाऽपि यलेन पुनः प्रमादः। |विपर्ययेणापि पठन्ति तत्र, सूत्राण्यधीकारवशाद्विधिज्ञाः॥१॥"। किम्भूताः पुनर्धम चरेयुरित्याह-कामेषु मातापिवादिके वा लोके न प्रलीयमाना अप्रलीयमानाः-अनभिषक्का धर्मचरणे 'दृढाः' तपःसंयमादौ द्रढिमानमालम्बमाना | धर्म चरन्तीति, किं च-सर्वी 'गृद्धि' भोगका दुःखरूपतया ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यजेत् ।। तत्परित्यागे गुणमाह-एष' इति कामपिपासापरित्यागी प्रकर्षेण नतः-ग्रहः संयमे कर्मधुननायां वा महामुनिर्भवति | नापर इति । किं च-'अतिगत्य' अत्येत्यातिक्रम्य 'सर्वतः' सर्वैः प्रकारैः 'सझं सम्बन्धं पुत्रकलवादिजनितं कामानु
षटं वा, किं भावयेदित्याह-न मम किमप्यस्तीति यत्संसारे पतत आलम्बनाय स्यादिति, तदभावाच 'इति' उक्तक्रमे-18 ठाणकोऽहमस्मिन् संसारोदरे, न चाहमन्यस्य कस्यचिदिति । एतद्भावनाभावितश्च यत्कुर्यात्तदाह-अत्र' अस्मिन् मौ-INT॥२४१ ॥
नीन्द्रे प्रवचने विरतः सन् सावद्यानुष्ठानाद्दश विधचक्रवालसामाचार्या यतमानः, कोऽसौ?-अनगारः' प्रत्रजितः, एक-II
FarPranaswamincom
~197~
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८३],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१८३]
SACRACSC
दीप अनुक्रम [१९६]
त्वभावना भावयन्नवमौदर्ये संतिष्ठत इत्युत्तरसूत्रेण सम्बन्धः, इयमेव क्रिया अनन्तरस्त्रेष्वपि लगयितव्येति.किंच'सर्वतः' द्रव्यतो भावतश्च मुण्डो 'रीयमाणः संयमानुष्ठाने गच्छन् , किम्भूत इत्याह-यः अचेलः' अल्पचेलो जिनकल्पिको || वा 'पर्युषितः' संयमे उद्युक्तविहारी अन्तप्रान्तभोजी, तदपि न प्रकामतयेत्याह-'संचिक्खई' संतिष्ठते अवमौदर्ये । न्यूनोदरतायां वर्तमानः सन् कदाचित्प्रत्यनीकतया ग्रामकण्टकैस्तुद्यतेत्येतद्दर्शयितुमाह-स' मुनिवाग्भिराक्रुष्टो वा दण्डादिभिहतो वा लुश्चितो वा केशोत्पाटनतः पूर्वकृतकर्मपरिणत्युदयादेतदवगच्छन् सम्यक्तितिक्षमाणः परिव्रजेदिति, एतच्च भावयेत्, तद्यथा-"पावाणं च खलु भो कडाणं कम्माणं पुबिदुनिन्नाणं दुप्पडिकंताणं वेदयित्ता मुक्खो, |नस्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता" इत्यादि । कथं पुनर्वाग्भिराक्रुश्यत इत्याह-'पलिअंति कर्म जुगुप्सितमनुष्ठान तेन पूर्वाचरितेन कुविन्दादिना प्रकथ्य जुगुप्स्यते, तद्यथा-भो कोलिक ! प्रबजित! त्वमपि मया सार्धमेवं जल्पसीति, अथवा जकारचकारादिभिरपरैः प्रकारैः प्रकथ्य निन्दा विधत्ते, एभिर्वा वक्ष्यमाणैः प्रकाररित्याह-'अतथ्यः' वितभैरसद्भूतैः शब्दैवीरस्वं पारदारिक इत्येवमादिकैः स्पर्शश्च असद्भूतैः साधोः कर्तुमयुक्तः करचरणच्छेदादिभिः स्वकृतादृष्ट-15 | फलमित्येतत् 'सङ्ख्याय' ज्ञात्वा तितिक्षमाणः प्रनजेदिति, यदिवा एतत् सख्याय, तद्यथा-"पंचहिं ठाणेहिं छउ-18
पापानां च खळ भोः कृतानां कर्मणा पूर्व तुषीणांना दुप्पराकान्तानां वेदविला मोक्षः, नास्त्यवेदविला, तपसा वा क्षपयित्वा. २ पञ्चभिः स्थानवछप्रस्थ उत्पमानुपसर्गान् सहते क्षमते तितिक्षते अभ्यासयति, तयथा-यक्षाविद्योऽयं पुरुषः, उन्मादप्राप्तोऽयं पुरुषः, सचिसोऽयं पुषः मम च तद्भपवेदनीयानि कर्माण्युदोर्णानि | भवन्ति यदेष पुरुष आकोशति बन्नाति तेपते पिश्यति परितापयरी, मम चसम्यक् सहमानस्य यावदध्यासीनस्सैकान्ततः कर्मनिर्जरा भवति । पञ्चभिः स्थानः केवली उदीन परीवहानुपसर्मान् यावदध्यासयेत् यावत् ममायासरतः वहबश्या प्रस्थाः श्रममा निर्मन्या उपोर्णान् परीपहोपसर्गान् सम्यक सहिपन्ते यावअध्याति पन्ते.
50%%94%A4
%%
SC-06-2-%
~198~
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८३],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
धुता०६ उद्देशकार
सूत्रांक
(सी)
[१८३]
दीप अनुक्रम [१९६]
श्रीआचा- मत्थे उप्पन्ने उवसग्गे सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ, तंजहा-जक्खाइढे अयं पुरिसे १, उम्मायपत्ते अयं पुरिसे २, राङ्गवृत्तिः II दित्तचित्ते अयं पुरिसे ३, ममं च णं तब्भववेअणीयाणि कम्माणि उदिन्नाणि भवंति-जन्नं एस पुरिसे आउसइ बंधइ तिप्पड |
पिट्टइ परितावेइ ४, ममंचणं सम्म सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स एगंतसो कम्मणिजरा हवइ ५। पंचहिं ठाणेहिं केवली
उदिन्ने परीसहे उवसन्गे जाव अहियासेज्जा, जाव ममं च णं अहियासेमाणस्स बहवे छउमत्था समणा निग्गंथा उदिन्ने ॥२४२॥
परीसहोवसग्गे सम्म सहिस्संति जाव अहियासिस्संति" इत्यादि, परीपहाश्चानुकूलप्रतिकूलतया भिन्ना इत्येतद्दर्शयितुमाह -एकतरान्-अनुकूलान् अन्यतरान्-प्रतिकूलान् परीपहानुदीनभिज्ञाय सम्यक्तितिक्षमाणः परिव्रजेत् यदिवाऽन्यथा परीषहाणां द्वैविध्यमित्याह-ये च परीषहाः सत्कारपुरस्कारादयः साधोहारिणो-मनआहादकारिणो ये तु प्रतिकूलतया अहारिणो-मनसोऽनिष्टा, यदिवा हीरूपाः-याचनाऽचेलादयः, अहीमनसश्च अलज्जाकारिणः शीतोष्णादयः इत्येतान् द्विरूपानपि परीषहान् सम्यक् तितिक्षमाणः परिव्रजेदिति ।। किं च
चिच्चा सव्वं विसुत्तियं फासे समियदंसणे, एए भो णगिणा वुत्ता जे लोगसि अणागमणधम्मिणो आणाए मामगं धम्म एस उत्तरवाए इह माणवाणं वियाहिए, इत्थोवरए तं झोसमाणे आयाणिजं परिन्नाय परियाएण विगिचइ, इह एगेसिं एगचरिया होइ तत्थियरा इयरेहिं कुलेहिं सुद्धेसणाए सव्वेसणाए से मेहावी परिव्वए सुभि
॥२४२॥
SAREauratoninternational
~199~
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८४],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१८४]
दीप अनुक्रम [१९७]
अदुवा दुभि अदुवा तत्थ भेरवा पाणा पाणे किलेसंति, ते फासे पुट्रो धीरे अहियासिजासि तिबेमि (सू० १८४)॥धूताध्ययने द्वितीयोदेशकः ॥६-२॥ त्यक्त्वा सा परीपहकृतां विनोतसिका परीषहापादितान् स्पर्शान-दुःखानुभवान् 'स्पृशेत्' अनुभवेत् सम्यगधिसहेत, स किम्भूतः?-सम्यग् इत-गतं दर्शनं यस्य स समितदर्शनः, सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः । तत्सहिष्णवश्च किम्भूताः स्युरित्याह-भोः' इत्यामन्त्रणे 'एते' परीषहसहिष्णवो निष्किञ्चना निर्ग्रन्था भावनग्ना 'उक्ताः' अभिहिताः, यस्मिन्मनुष्यलोके अनागमनं धर्मो येषां तेऽनागमनधर्माणः, यथाऽऽरोपितप्रतिज्ञाभारवाहित्वान्न पुनर्गृहं प्रत्यागमनेप्सव इति, किं च-आज्ञाप्यतेऽनयेत्याज्ञा तया मामकं धर्म सम्यगनुपालयेत् तीर्थकर एवमाहेति, यदिवा धर्मानुष्ठाय्येवमाह-धर्म एवैको मामकः अन्यत्तु सर्वं पारक्यमित्यतस्तमहमाज्ञया-तीर्थकरोपदेशेन सम्यकरोमीति, किमित्याज्ञया धर्मोऽनुपाल्यत इत्यत आह--'एषः' अनन्तरोक्तः 'उत्तरवाद' उत्कृष्टवाद इह मानवानां व्याख्यात इति । किं च
-'अत्र' अस्मिन् कर्मधुननोपाये संयमे उप-सामीप्येन रत उपरतः तद्-अष्टप्रकारं कर्म 'झोषयन्' क्षपयन धर्म चरेदिति, किं चापरं कुर्यादित्याह-आदीयत इत्यादानीयं-कर्म तत्परिज्ञाय मूलोत्तरप्रकृतिभेदतो ज्ञात्वा 'पर्यायेण' श्रामण्येन विवेचयति, क्षपयतीत्यर्थः । अत्र चाशेषकर्मधुननासमर्थं तपस्तद्वाह्यमधिकृत्योच्यते-'इह' अस्मिन् प्रवचने 'एकेषां' शिथिलकर्मणामेकचर्या भवति-एकाकिविहारप्रतिमाऽभ्युपगमो भवति, तत्र च नानारूपाभिग्रहविशे
For
A
asurary.com
~200~
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [२], मूलं [१८४],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०)
प्रत सूत्रांक [१८४]
॥२४३॥
दीप अनुक्रम [१९७]
पास्तपश्चरणविशेषाश्च भवन्तीत्यतस्तावनाभृतिकामधिकृत्याह-'तत्र' तस्मिन्नेकाकिविहारे 'इतरे' सामान्यसाधुभ्यो वि-1 धुता०६ | शिष्टतरा 'इतरेषु' अन्तमान्तेषु कुलेषु शुद्धपणया दशैषणादोपरहितेनाहारादिना 'सर्वैपणयेति सर्वा याऽऽहारायुगमो
उद्देशका त्पादनग्रासैषणारूपा तया सुपरिशुद्धेन विधिना संयमे परिव्रजन्ति, बहुत्वेऽप्येकदेशतामाह-स मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः संयमे परिव्रजेदिति, किं च-प्स आहारस्तेष्वितरेषु कुलेषु सुरभिर्वा स्यात् अथवा दुर्गन्धः, न तत्र रागद्वेषौ विदध्यात्, किं च-अथवा तत्रैकाकिबिहारित्वे पितृवनप्रतिमाप्रतिपन्नस्य सतो 'भैरवा' भयानका यातुधानादिकृताः शब्दाः प्रादुर्भवेयुः, यदिवा 'भैरवा' बीभत्साः 'प्राणाः' प्राणिनो दीप्तजिह्वादयोऽपरान् प्राणिनः 'केशयन्ति' उपतापयन्ति, त्वं तु पुनस्तैः स्पृष्टस्तान् स्पशान् दुःखविशेषान् 'धीरः' अक्षोभ्यः सन्नतिसहस्व । इतिरधिकारपरिसमाप्ती, बीमीति पूर्ववत् । धूताध्ययने द्वितीयोद्देशकः परिसमाप्तः ॥
उक्तो द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके कर्मधूननाऽभिहिता, सा च नोपकरणशरीरविधूननामन्तरेण, इत्यतस्तद्विधूननार्थमिदमारभ्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य सूत्रमुच्चारयितव्यम्, तच्चेदम्एयं खु मुणी आयाणं सया सुयक्खायधम्मे विद्यकप्पे निज्झोसइत्ता, जे अचेले प
X ॥२४३॥ रिखुसिए तस्स णं भिक्खुस्स नो एवं भवइ-परिजुण्णे मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि सुत्तं
sans
षष्ठं-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'उपकरण-शरीर विधुनन' आरब्धः,
~2014
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८५],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१८५]
दीप अनुक्रम [१९८]
जाइस्सामि सूई जाइस्सामि संधिस्सामि सीविस्सामि उक्कसिस्सामि वुक्कसिस्सामि परिहिस्सामि पाउणिस्सामि, अदुवा तत्थ परिक्कमंतं भुजो अचेलं तणफासा फुसंति सीयफासा फुसंति तेउफासा फुसंति दसमसगफासा फुसंति एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ अचेले लाघवं आगममाणे, तवे से अभिसमन्नागए भवइ, जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए संमत्तमेव समभिजाणिज्जा, एवं तेसिं महावीराणं चिररायं पुवाई वासाणि रीयमाणाणं दवियाणं पास
अहियासियं (सू० १८५) 'एतत्' यत्पूर्वोकं वक्ष्यमाणं वा 'खुः' वाक्यालङ्कारे, आदीयते इत्यादानं-कर्म आदीयते वाऽनेन कम्र्मेत्यादानकम्मोपादानं, तच धर्मोपकरणातिरिक्तं वक्ष्यमाणं वस्त्रादि तन्मुनिः निझापयितेति सम्बन्धः, किम्भूतः-'सदा। सर्वकालं सुष्ट्वाख्यातो धम्मोऽस्येति स्वाख्यातधर्मा-संसारभीरुत्वाद्यथारोपितभारवाहीत्यर्थः, तथा विधूत:-क्षुण्णः सम्यगस्पृष्टः कल्पः-आचारो येन स तथा, स एवम्भूतो मुनिरादानं झोषयित्वा आदानमपनेष्यति, कथं पुनस्तदादानं वस्त्रादि स्थायेन तत् झोपयितव्यं भवेदित्याह-अल्पार्थे नञ्, यथाऽयं पुमान ज्ञा, स्वस्पज्ञान इत्यर्थः, यः साधुनोस्य
~ 202~
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८५],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
भाधुता०६
उद्देशका
प्रत सूत्रांक [१८५]
(शी०)
दीप अनुक्रम [१९८]
श्रीआचा- चेलं-वखमस्तीत्वचेला, अल्पचेल इत्यर्थः, संयमे 'पर्युषितो' व्यवस्थित इति, तस्य भिक्षोः 'नैतद्भवति' नैतत्कल्पते यथा राजवृत्तिः परिजीर्ण मे वस्त्रमचेलकोऽहं भविष्यामि न मे त्वक्राणं भविष्यति, ततश्च शीताद्यर्दितस्य किं शरणं मे स्यादिति वस्त्रे
विनेत्यतोऽहं कश्चन श्रावकादिकं प्रत्यग्रं वखं याचिष्ये, तस्य वा जीर्णस्य वखस्य सन्धानाय सूत्रं याचिष्ये, सूचिंच
Moयाचिण्ये, अवाप्ताभ्यां च सूचिसूत्राभ्यां जीर्णवस्वरन्ध्र सन्धास्यामि-पाटितं सेविष्यामि, लघु वा सदपरशकललगनत ॥२४४॥
उत्कर्षयिष्यामि, दीर्घ वा सत् खण्डापनयनतो व्युत्कपयिष्यामि, एवं च कृतं सत्परिधास्यामि तथा प्रावरिष्यामीत्याद्यार्तध्यानोपहता असत्यपि जीर्णादिवत्रसद्भावे यद्भविष्यत्ताऽध्यवसायिनो धम्मैकप्रवणस्य न भवत्यन्तःकरणवृत्तिरिति, यदिवा जिनकल्पिकाभिप्रायेणैवैतत्सूत्रं व्याख्येयं, तद्यथा-'जे अचेले' इत्यादि, नास्य चेल--वस्त्रमस्तीत्यचेल:अच्छिद्रपाणित्वात् पाणिपात्रः, पाणिपात्रत्वात् पात्रादिसप्तविधतन्नियोगरहितोऽभिग्रहविशेषात् त्यक्तकल्पत्रयः केवलं रजोहरणमुखवस्त्रिकासमन्वितस्तस्याचेलस्य भिक्षो तद्भवति, यथा-परिजीण मे वस्त्रं छिद्र पाटितं चेत्येवमादि वस्त्रगत|मपध्यानं न भवति, धम्मिणोऽभावाद्धाभावः, सति तु धम्मिणि धर्मान्वेषणं न्याय्यमिति सत्पथः, तथेदमपि तस्य
न भवत्येव यथा-अपरं वस्त्रमहं याचिष्ये इत्यादि पूर्ववन्नेयं, योऽपि छिद्रपाणित्वात् पात्रनिर्योगसमन्वितः कल्पत्रयान्य| तरयुक्तोऽसावपि परिजीर्णादिसद्भावे तद्गतमपध्यानं न विधत्ते, यथाकृतस्याल्पपरिकर्मणो ग्रहणात्सूचिसूत्रान्वेषणं न क-1
रोति । तस्य चाचेलवाल्पचेलस्य वा तृणादिस्पर्शसद्भावे यद्विधेयं तदाह-तस्य ह्यचेलतया परिवसतो जीर्णवस्त्रादिकृ- | तमपध्यानं न भवति, अथवैतत्स्यात्-तत्राचेलवे पराक्रममाणं पुनस्तं साधुमचेलं कचिङ्गामादी त्वकाणाभावात् तृण
२४४५
~203~
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८५],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१८५]
दीप अनुक्रम [१९८]
शय्याशायिनं तृणानां स्पर्शाः परुषास्तृणैर्वा जनिताः स्पर्शा:-दुःखविशेषास्तुणस्पर्शास्ते कदाचित् स्पृशन्ति, तांश्च सम्यम् अदीनमनस्कोऽतिसहत इति सम्बन्धः, तथा शीतपाः स्पृशन्ति-उपतापयन्ति, तेजः-उष्णस्तत्स्पर्शाः स्पृशन्ति, तथा दंशमशकस्पर्शाः स्पृशन्ति, एतेषां तु परीपहाणामेकतरेऽविरुद्धा दंशमशकतॄणस्पर्शादयः प्रादुर्भवेयुः, शीतोष्णादिपरीषहाणां वा परस्परविरुद्धानामन्यतरे प्रादुष्प्युः, प्रत्येक बहुवचननिर्देशश्च तीवमन्दमध्यमावस्थासंसूचकः, इत्येतदेव दर्शयति-विरूपं-बीभत्सं मनोऽनाहादि विविध वा मन्दादिभेदादूपं-स्वरूपं येषां ते विरूपरूपाः, के ते?-स्पर्शाः' दुःखविशेषाः, तदापादकास्तृणादिस्पर्शा वा, तान् सम्यकरणेनापध्यानरहितोऽधिसहते, कोऽसौ?-'अचेलः' अपगतचेलोअल्पचेलो वा अचलनस्वरूपो वा सम्यक्तितिक्षते, किमभिसन्ध्य परीषहानधिसहत इत्यत आह-लघोर्भावो लाघवं, द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो झुपकरणलाघवं भावतः कर्मलाघवं 'आगमयन्' अवगमयन बुध्यमान इतियावद् अधिसहते परीपहोपसम्र्गानिति, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"एवं खलु से उवगरणलापचियं तवं कम्मक्खयकारणं करेइ" 'एवम्' उक्कक्रमेण भावलाघवार्थमुपकरणलाघवं तपश्च करोति इति भावार्थः । किं च-से' तस्योपकरणलाघवेन कर्मलाघवमागमयतः कर्मलाघवेन चोपकरणलाघवमागमयतस्तृणादिस्पर्शानधिसहमानस्य 'तपः' कायक्लेशरूपतया बाह्यमभिसमन्वागतं भवति-सम्यम् आभिमुख्येन सोढं भवति । एतच्च न मयोच्यते इत्येतद्दर्शयितुमाह-'यथा' येन प्रकारेण |'इद'मिति यदुक्तं वक्ष्यमाणं चैतनगवता-वीरवर्द्धमानस्वामिना प्रकर्षणादौ वा वेदितं प्रवेदितमिति, यदि नाम भगवता || प्रवेदितं ततः किमित्याह-तद्-उपकरणलाघवमाहारलाघवं वा 'अभिसमेत्य' ज्ञात्वा एवकारोऽवधारणे, तदेव लापर्व |
~ 204~
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८५],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०)
धुता० उद्देशका
सूत्रांक [१८५]
॥२४५॥
दीप अनुक्रम [१९८]
ज्ञात्वेत्यर्थः, कथमिति चेत् तदुच्यते-'सर्वत' इति द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः आहारोपकरणादी क्षेत्रतः सर्वत्र ग्रामादी कालतोऽहनि रात्री वा दुर्भिक्षादौ वा सर्वात्मनेति भावतः कृत्रिमकल्कायभावेन, तथा 'सम्यक्त्व'|मिति प्रशस्तं शोभनं एक समतं वा तत्त्वं सम्यक्त्वं, यदुक्तम्-"प्रशस्तः शोभनश्चैव, एकः सङ्गत एव च । इत्येतैरुप
सृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते ॥ १॥" तदेवम्भूतं सम्यक्त्वमेव समत्वमेव वा 'समभिजानीयात्' सम्यगाभिमुख्येन| जानीयात्-परिच्छिन्द्यात्, तथाहि-अचेलोऽप्येकचेलादिक नावमन्यते, यत उक्तम्-"जोऽवि दुवत्थतिवत्थो एगेण अचेलगो व संघरइ । ण हु ते हीलंति परं सब्वेऽवि य ते जिणाणाए ।।१॥" तथा-"जे खलु विसरिसकप्पा संघयणधियादिकारणं पप्प । णऽवमन्नइ ण य हीणं अप्पाणं मन्नई तेहिं ॥ २ ॥ सव्वेऽवि जिणाणाए जहाविहिं कम्मखवणअहाए । विहरति उज्जया खलु सम्म अभिजाणई एवं ॥३॥" ति, यदिवा तदेव लाघवमभिसमेत्य सर्वतो द्रव्यादिना सर्वात्मना नामादिना सम्पक्त्वमेव सम्यगभिजानीयात् , तीर्थकरगणधरोपदेशात् सम्यकुयादिति तात्सयार्थः । एतच नाशक्यानुष्ठानं ज्वरहरतक्षकचूडालङ्काररनोपदेशवद्भवतः केवलमुपन्यस्यते, अपि त्वन्यै बहुभिश्चिरकालमासेवितमित्येतदर्शयितुमाह-'एवम्' इत्य चेलतया पर्युषितानां तृणादिस्पर्शानधिसहमानानां तेषां महावीराणां सकललोकचमत्कृतिकारिणां 'चिररात्रं' प्रभूतकालं यावज्जीवमित्यर्थः, तदेव विशेषतो दर्शयति-'पूर्वाणि' प्रभूतानि वर्षाणि 'रीयमाणानां'
योऽपि द्विवनविनत्र एकेन अचेलकी या निर्षदति । नैव हीलयति पर सर्वेऽपि च ते जिनाशायाम् ॥१॥ ये सल विसरशकल्पाः संहननभृत्यादिकारणं | प्राप्य । नाचमन्यते न च हीनमात्मानं मन्यते तेभ्यः ॥२॥ सर्वेऽपि जिनाशायां यथाविधि कर्मक्षपणाएँ । विहरन्युयताः खल सम्बगभिजानास्येवम् ॥३॥
॥२४५॥
~205~
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८५],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
%
प्रत सूत्रांक [१८५]
%432-%
CRACKCARE
%
संयमानुष्ठानेन गच्छता, पूर्वस्य तु परिमाणं वर्षाणां सप्ततिः कोटिलक्षाः षट्पञ्चाशच कोटिसहस्राः, तथा प्रभूतानि वपाणि रीयमाणानां, तत्र नाभेयादारभ्य शीतलं दशमतीर्थकरं यावत्पूर्वसङ्ख्यासद्भावात् पूर्वाणीत्युक्तं, ततः आरतः श्रेयांसादारभ्य वर्षसङ्ख्यामवृत्तेर्वषाणीत्युक्तमिति, तथा 'द्रव्याणां' भव्यानां मुक्तिगमनयोग्यानां 'पश्य' अवधारय | यत्तुणस्पर्शादिकं पूर्वमभिहितं तदधिसोढव्यमिति सम्यकरणेन स्पर्शातिसहनं कृतमेतदवगच्छेति ॥ एतच्चाधिसहमानानां यत्स्यात्तदाह
आगयपन्नाणाणं किसा बाहवो भवंति पयणुए य मंससोणिए विस्सेणिं कद्दु परिन्नाय, एस तिपणे मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि (सू० १८६) आगतं प्रज्ञानं पदार्थाविर्भावक येषां ते तथा तेषामागतप्रज्ञानानां तपसा परीपहातिसहनेन च कृशा 'बाह्यः' भुजा भवन्ति, यदिवा सत्यपि महोपसर्गपरीपहादावागतप्रज्ञानत्वाद् 'बाधाः' पीडाः कृशा भवन्ति, कर्मक्षपणायोस्थितस्य शरीरमात्रपीडाकारिणः परीपहोपसर्गान सहायानिति मन्यमानस्य न मनःपीडोत्पद्यत इति, तदुक्तम्-"णिम्मा
णेइ परो चिय अप्पाण उण वेयणं सरीराणं । अप्पाणो चिअ हिअयस्स ण उण दुक्खं परो देह ॥ १॥" इत्यादि, M|शरीरस्य तु पीडा भवत्येवेति दर्शयितुमाह-प्रतनुके च मांसं च शोणितं च मांसशोणिते द्वे अपि, तस्य हि रूक्षाहार
विदधाति परो नैवात्मनो वेदनां शरीराणाम् । आत्मन एव हृदयस्य न पुनर्तुःख परो ददाति ॥ १॥
दीप अनुक्रम [१९८]
%
%-2-%
0-0-%
1
~206~
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८६],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा राङ्गवृत्तिः
(शी०)
प्रत सूत्रांक [१८६]
॥२६॥
दीप अनुक्रम [१९९]
वादल्पाहारत्वाच्च प्रायशः खलत्वेनैवाहारः परिणमति, न रसत्वेन, कारणाभावाच प्रतन्वेव शोणितं तत्तनुत्वान्मांस-||
| धुता०६ मपीति ततो मेदादीन्यपि, यदिवा प्रायशो रूक्षं वातलं भवति, वातप्रधानस्य च प्रतनुतैव मांसशोणितयोः, अचेलतया च तृणस्पर्शादिप्रादुर्भावेन शरीरोपतापात् प्रतनुके मांसशोणिते भवत इति सम्बन्धः, 'संसारश्रेणी' संसाराव
उद्देशकः३ तरणी रागद्वेपकषायसंततिस्तां क्षान्त्यादिना विश्रेणी कृत्वा, तथा 'परिज्ञाय' ज्ञात्वा च समत्वभावनया, तद्यथा-जिनकल्पिकः कश्चिदेककल्पधारी द्वौ त्रीन् या विभर्ति, स्थविरकल्पिको वा मासार्द्धमासक्षपकः तथा विकृष्टाविकृष्ट-| तपश्चारी प्रत्यहं भोजी कूरगडुको वा, एते सर्वेऽपि तीर्थकृवचनानुसारतः परस्परानिन्दया समत्वदर्शिन इति, उक्तं च-"जोवि दुवत्थतिवत्थो एगेण अचेलगो व संथरइ । न हु ते हीलेंति परं सब्वेवि हु ते जिणाणाए ॥१॥" तथा जिनकल्पिकः प्रतिमाप्रतिपन्नो वा कश्चित्कदाचित् षडपि मासानात्मकल्पेन भिक्षां न लभेत तथाऽप्यसौ कूरगडुकमपि यथौदनमुण्डस्त्वमित्येवं न हीलयति । तदेवं समत्वदृष्टिप्रज्ञया विश्रेणीकृत्य 'एष' उक्तलक्षणो मुनिः तीर्णः संसारसागर एष एव मुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो विरतः सर्वसावद्यानुष्ठानेभ्यो व्याख्यातो नापर इति । ब्रवीमीतिशब्दौ पूर्ववत् ॥ तदेवं सं-I सारश्रेणी विश्लेषयित्वा यः संसारसागरतीर्णवत्तीर्णो मुक्तवन्मुक्तो विरतो व्याख्यातः, तं च तथाभूतं किमरतिरभिभवेदुत नेति, अचिन्त्यसामर्थ्यात् कर्मणोऽभिभवेदित्येतदेवाह
॥२४६॥ विरयं भिक्खू रीयंत चिरराओसियं अरई तत्थ किं विधारए?, संधेमाणे समुट्रिए,
~207~
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८७],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
95
प्रत सूत्रांक [१८७]
दीप अनुक्रम [२००]
जहा से दीवे असंदीणे एवं से धम्मे आरियपदेसिए, ते अणवकखमाणा पाणे अणइवाएमाणा जइया मेहाविणो पंडिया, एवं तेसिं भगवओ अणुद्वाणे जहा से दियापोए एवं ते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुब्वेण वाइय तिबेमि (सू०१८७) धूता
ध्ययने तृतीयोद्देशकः ॥६-३॥ विरतमसंयमाद् भिक्षणशीलं भिक्षु रीयमाणं' निस्सरन्तमप्रशस्तेभ्योऽसंयमस्थानेभ्यः प्रशस्तेष्वपि गुणोत्कर्षापर्युपरि वर्तमानं चिररात्रं-प्रभूतं कालं संयमे उषितश्चिररात्रोषितस्तमेवंगुणयुक्तम् 'अरतिः' संयमोद्विग्नता 'तत्र तस्मिन् संयमे प्रवर्त्तमानं "कि विधारयेत्' किं प्रतिस्खलयेत् !, किंशब्दः प्रश्ने, किं तथाभूतमपि मोक्षप्रस्थितं प्रणाय्य विषयमरतिविधारयेत, ओमित्युच्यते, तथाहि-दुर्बलान्यविनयवन्ति चेन्द्रियाण्यचिन्त्या मोहशक्तिर्विचित्रा कर्मपरिणतिः किं न कुर्यादिति, उक्तं च-"कम्माणि पूर्ण घणचिकणाई गरुयाई वइरसाराई । णाणहिअपि पुरिसं पंथाओ उप्पह णिति ॥॥" यदिवा किंक्षेपे, किं तथाभूतं विधारयेदरतिः?, नैव विधारयेदित्यर्थः, तथाहि-असौ क्षणे क्षणे विशुद्धतरचरणपरिणामतया विष्कम्भितमोहनीयोदयत्वाल्लघुकमा भवतीति, कुतस्तमरतिवि(न वि)धारयेदित्याह-क्षणे क्षणेऽन्यवच्छे । देनोत्तरोत्तरं संयमस्थानकण्डकं संदधानः सम्यगुत्थितः समुत्थितः उत्तरोत्तरं गुणस्थानकं वा संदधानो यथाख्यातचा
कर्माणि नूनं पनकठोराणि गुरुकानि बसाराणि । हानस्थितमपि पुरुष पथ उत्पयं नयन्ति ॥1॥
SHESELECRAC%
~208~
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८७],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः । (शी०)
सूत्रांक [१८७]
॥२४७॥
दीप
रित्राभिमुखः समुत्थितोऽसावतस्तमरतिः कथं विधारयेदिति । स चैवम्भूतो न केवलमात्मनखाता परेषामप्यरतिविधार- धुता०६ कत्वात् त्राणायेत्येतदर्शयितुमाह-द्विर्गता आपोऽस्मिन्निति द्वीपः, स च द्रव्यभावभेदात् द्वेधा-तत्र द्रव्यद्वीप आश्वासद्वीपः, आश्वास्यतेऽस्मिन्नित्याश्वासः आश्वासश्चासौ द्वीपश्चाश्वासद्वीपो, यदिवा आश्वसनमाश्वासः, आश्वासाय द्वीप
उद्देशकः३ आश्वासद्वीपः, तत्र नदीसमुद्रबहुमध्यप्रदेशे भिन्नबोहित्थादयस्तमवाप्याश्वसन्ति, असावपि वेधा-सन्दीनोऽसन्दीन-13 श्चेति, यो हि पक्षमासादावुदकेन प्लाव्यते स सन्दीनो, विपरीतस्त्वसन्दीनः सिंहलद्वीपादिः, यथा हि सांयात्रिकात द्वीपमसन्दीनमुदन्वदादेरुत्तितीर्षवः समवाप्याश्वसन्ति एवं तं भावसंधानायोत्थितं साधुमवाप्यापरे प्राणिनः समाश्वस्युः, यदिवा दीप इति प्रकाशदीपः, प्रकाशाय दीपः प्रकाशदीपः, स चादित्यचन्द्रमण्यादिरसन्दीनोऽपरस्तु विद्युदुल्कादिः सन्दीनो, यदिवा प्रचुरेन्धनतया विवक्षितकालावस्थाय्यसन्दीनो विपरीतस्तु सन्दीन इति, यथा ह्यसौ स्थ-15 पुटाद्यावेदनतो हेयोपादेयहानोपादानवतां निमित्तभावमुपयाति तथा कचित्समुद्राद्यन्तर्वत्तिनामाश्वासकारी च भवति एवं ज्ञानसंधानायोत्थितः परीषहोपसग्गांक्षोभ्यतयाऽसन्दीनः साधुर्विशिष्टोपदेशदानतोऽपरेषामुपकारायेति, अ-IMI परे भावद्वीपं भावदीपं वा अन्यथा व्याचक्षते-तद्यथा-भावद्वीपः सम्यत्क्वं, तच्च प्रतिपातित्यादौपशमिकं क्षायोपश|मिकं च संदीनो भावद्वीपः, क्षायिकं त्यसन्दीन इति, तं द्विविधमवाप्य परीतसंसारत्वात् प्राणिन आश्वसन्ति, भावदीपस्तु सन्दीनः श्रुतज्ञानम् असंदीनस्तु केवलमिति, तच्चावाप्य प्राणिनोऽवश्यमाश्वसन्त्येवेति, अथवा धर्म संद-1 P २४७॥ धानः समुत्थितः सन्नरतेर्दुष्प्रधृष्यो भवतीत्युक्त कश्चिच्चोदयेत्-किम्भूतोऽसौ धर्मो ? यत्सन्धानाय समुत्थित इति,
अनुक्रम [२००]
~209~
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८७],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१८७]
45-4-25
दीप अनुक्रम [२००]
अत्रोच्यते, यथाऽसौ द्वीपोऽसन्दीनः असलिलप्लुतोऽवरुग्णवाहनानामितरेषां च बहूनां जन्तूनां शरण्यतयाऽऽश्वासहेतुर्भवत्येवमसावपि धर्मः 'आर्यप्रदेशितः' तीर्थकरप्रणीतः कषतापच्छेदनिर्घटितोऽसन्दीनः, यदिवा कुतर्काप्रधृष्यत
याऽसन्दीन:-अक्षोभ्यः प्राणिनां त्राणायाश्वासभूमिर्भवति । तस्य चार्यदेशितस्य धर्मस्य किं सम्यगनुष्ठायिनः केचन | सन्ति ?, ओमित्युच्यते, यदि सन्ति किम्भूतास्त इत्यत आह 'ते' साधवो भावसन्धानोद्यताः संयमारतेः प्रणोदका
मोक्षनेदिष्ठा भोगाननवकासन्तो धमें सम्यगुत्थानवन्तः स्युरिति, एतदुत्तरत्रापि योज्यम्, तथा प्राणिनोऽनतिपातभयन्ता, उपलक्षणार्थत्वात् शेषमहाव्रतग्रहणमायोज्य, तथा कुशलानुष्ठानप्रवृत्तत्वाद्दयिताः सर्वलोकानां, तथा 'मेधा| विनो' मर्यादाव्यवस्थिताः 'पण्डिताः' पापोपादानपरिहारितया सम्यक्पदार्थज्ञा धर्मचरणाय समुस्थिता भवन्तीति । ये
पुनस्तथाभूतज्ञानाभावात् सम्यग्विवेकविकलतया नाद्यापि पूर्वोक्तसमुत्थानवन्तः स्युः ते तथाभूता आचार्यादिभिः सकम्यगनुपाल्या यावद्विवेकिनोऽभूवन्नित्येतदर्शयितुमाह-एवम् उक्तविधिना 'तेषाम्' अपरिकर्मितमतीनां 'भगवतो' वीरवर्द्धमानस्वामिनो धर्मे सम्यगनुत्थाने सति तसरिपालनतस्तथा सदुपदेशदानेन परिकर्मितमतित्वं विधेयमिति, अत्रैव दृष्टान्तमाह-द्विजा-पक्षी तस्य पोतः-शिशुः द्विजपोतः स यथा तेन द्विजेन गर्भप्रसवात् प्रभृत्यण्डकोच्छूनो
छूनतरभेदादिकास्ववस्थासु यावन्निष्पन्नपक्षस्तावत्पाल्यते एवमाचार्येणापि शिक्षकः प्रव्रज्यादानादारभ्य सामाचार्युप-8 | देशदानेनाध्यापनेन च तावदनुपाल्यते यावद्गीतार्थोऽभूत् , यः पुनराचार्योपदेशमुलकय स्वैरित्वाद्यथा कथश्चिक्रियासु प्रवर्तते स उज्जयिनीराजपुत्रवद्विनश्येदिति, तद्यथा-उज्जयिन्यां जितशत्रो राज्ञो द्वौ पुत्री, तत्र ज्येष्ठो धर्मयो
~210~
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [३], मूलं [१८७],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१८७]]
दीप अनुक्रम [२००]
पाचार्यसमीपे संसारासारतामवगम्य प्रवनाज, क्रमेण चाधीताचारादिशास्त्रोऽवगततदर्थश्च जिनकल्पं प्रतिपित्सुः द्वि-|| राङ्गवृत्तिः दतीयां सत्त्वभावनां भावयति, सा च पञ्चधा-तत्र प्रथमोपाश्रये द्वितीया तबहिः तृतीया चतुष्के चतुर्थी शून्यगृहे प(शी०) शमी श्मशाने, तत्र पञ्चमी भावनां भावयतः स कनिष्ठो भ्राता तदनुरागादाचार्यान्तिकमागत्योवाच-मम ज्यायान् ||
धाता कास्ते ?, साधुभिरभाणि-किं तेन, स आह-प्रत्रजाम्यहं, आचार्येणोक्तो-गृहाण तावत् प्रवज्यां पुनष्यसि, स ॥२४८॥
तु तथैव चके, पुनरपि पृच्छत आचार्या ऊचुः-किं तेन दृष्टेन', नासी कस्यचिदुल्लापमपि ददाति, जिनकल्पं प्रतिप-| तुकाम इति, असावाह-तथाऽपि पश्यामि तावदिति, निर्वन्धे दर्शितः, तूष्णीभावस्थित एव वन्दितः, तदनुरागाच्च निपिद्धोऽप्याचार्येण निवार्यमाणोऽप्युपाध्यायेन ध्रियमाणोऽपि साधुभिरसाम्प्रतमेतद्भवतो दुष्करं दुरध्यवसेयमित्येवं कथ्यमानेऽप्यहमपि तेनैव पित्रा जात इत्यषष्टम्भेन मोहात्तथैव तस्थौ यथा ज्येष्ठो धातेति, इतरो देवतयाऽऽगत्य वन्दितः, शिक्षकस्तु न वन्दितः, ततोऽसावपरिकर्मितमतित्वात्कुपितः, अविधिरितिकृत्वा देवताऽपि तस्योपरि कुपिता सती तलप्रहारेणाक्षिगोलको बहिनिश्चिक्षेप, ततस्तज्यायान् हृदयेनैव देवतामाह-किमित्ययमज्ञस्त्वया कदर्थितः, तद| स्याक्षिणी पुनर्नवीकुरु, सा स्ववादीत्-जीवप्रदेशैर्मुक्ताविमौ गोलको न शक्यौ पुनर्नवीकर्नु इत्युक्त्वा ऋषिवचनमल
नीयमित्यवधार्य तत्क्षणश्वपाकव्यापादितैलाक्षिगोलको गृहीत्वा तदक्ष्णोश्चकार । इत्येवमनुपदेशप्रवर्तनं सापायमित्यव४ धार्य शिष्येण सदाऽऽचार्योपदेशवर्तिना भाव्यम्, आचार्येणापि सदा स्वपरोपकारवृत्तिना सम्यक् स्वशिष्या यथो-13॥२४८।। तिविधिना प्रतिपालनीया इति स्थितम् । इत्येतदेवोपसंहरन्नाह-यथा द्विजपोतो मातापितृभ्यामनुपाल्यते एवमाचा
४-५२
~211~
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१८८],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
येणापि शिष्या अहर्निशम् 'अनुपूर्वेण' क्रमेण 'वाचिताः' पाठिताः शिक्षा ग्राहिताः समस्तकार्यसहिष्णवः संसारोत्तरkणसमर्थाश्च भवन्ति । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । धूताध्ययने तृतीयोदेशकः परिसमाप्त इति ॥
प्रत सूत्रांक [१८८]
दीप अनुक्रम [२०१]
उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके शरीरोपकरणधूननाKI भिहिता, सा च परिपूर्णा न गौरवत्रिकसमन्वितस्येत्यतस्तननार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशक-| स्थास्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
एवं ते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुव्वेण वाइया तेहिं महावीरेहिं पन्नाणमन्तेहिं तेसिमंतिए पन्नाणमुबलब्भ हिच्चा उवसमं फारुसियं समाइयंति, वसित्ता बंभचेरंसि आणं तं नोत्ति मन्नमाणा आघायं तु सुच्चा निसम्म, समणुन्ना जीविस्सामो एगे निक्खमंते असंभवंता विडज्झमाणा कामेहिं गिद्धा अज्झोववन्ना समाहिमाघायमजोसयंता
सत्थारमेव फरुसं वयंति (सू०१८८) 'एवम्' इति द्विजपोतसंवर्द्धनक्रमेणैव ते शिष्या' स्वहस्तप्रवाजिता उपसम्पदागताः प्रातीच्छकाश्च दिवा च रात्री च
SAMEmirahi
| षष्ठं-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'गौरवत्रिक विधुनन' आरब्धः,
~212~
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१८८],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचारावृत्तिः (शी.)
सूत्रांक
[१८८]
॥२४९।।
दीप अनुक्रम [२०१]
'अनुपूर्वेण क्रमेण 'वाचिताः' पाठिताः, तत्र कालिकमहः प्रथमचतुर्थपौरुष्योरध्याप्यते उत्कालिकं तु कालवेलावज धुता सकलमप्यहोरात्रमिति, तच्चाध्यापनमाचारादिक्रमेण क्रियते, आचारश्च त्रिवर्षपर्यायोऽध्याप्यत इत्यादिक्रमेणाध्यापिताः
उद्देशका शिष्याश्चारित्रं च ग्राहिताः, तद्यथा-युगमात्रदृष्टिना गन्तव्यम् कूर्मवत्सङ्कचिताऊन भाव्यमित्याद्येवं शिक्षा ग्राहिता वाचिताः-अध्यापिताः, कैरिति दर्शयति-तैर्महावीरैः-तीर्थकरगेणधराचार्यादिभिः, किम्भूतैः-प्रज्ञानवद्भिः, ज्ञानिभिरेवोपदेशादि दत्तं लगतीत्यतो विशेषणं, ते तु शिष्याः द्विप्रकारा अपि प्रेक्षापूर्वकारिणस्तेषाम्-आचार्यादीनाम् 'अन्तिके' समीपे प्रकर्षेण ज्ञायते अनेनेति प्रज्ञानं-श्रुतज्ञानं, तस्यैवापरस्मादाप्तिसद्भावादित्यतस्तद्, 'उपलभ्य' लब्धा बहुश्रुतीभूताः[5] प्रबलमोहोदयापनीतसदुपदेशोरकटमदत्वात् त्यक्त्वोपशमं, स च द्वेधा-द्रव्यभावभेदात् , तत्र द्रव्योपशमः कतर्कफलाद्यापादितः कलुषजलादेः भावोपशमस्तु ज्ञानादित्रयात् , तत्र यो येन ज्ञानेनोपशाम्यति स ज्ञानोपशमः, तद्यथा-आक्षे-14 पण्याद्यन्यतरया धर्मकथया कश्चिद् उपशाम्यतीत्यादि, दर्शनोपशमस्तु यो हि शुद्धेन सम्यग्दर्शनेनापरमुपशमयति, यथा श्रेणिकेनाश्रधानो देवः प्रतिबोधित इति, दर्शनप्रभावकैर्वा सम्मत्यादिभिः कश्चिदुपशाम्यति, चारित्रोपशमस्तु क्रोधाद्युपशमो विनयनम्रतेति, तत्र केचन क्षुद्रका ज्ञानोदन्वतोऽद्याप्युपर्येव प्लवमानास्तमेवंभूतमुपशर्म त्यक्त्वा ज्ञान|लवोत्तम्भितगाध्माताः 'पारुष्य' परुषतां 'समाददति' गृह्णन्ति, तद्यथा-परस्परगुणनिकायां मीमांसायां वा एकोऽपरमाह-त्वं न जानीषे न चैषां शब्दानामयमर्थो यो भवताऽभाणि, अपि च-कश्चिदेव मादृशः शब्दार्थनिर्णयायालं, न सर्व Mil२४९ इति, उक्तं च-"पृष्टा गुरवः स्वयमपि परीक्षितं निश्चितं पुनरिदम् नः । वादिनि च मलमुख्ये च माहगेवान्तरं ग
~213~
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१८८],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
9655
[१८८]
दीप अनुक्रम [२०१]
|च्छेत् ॥१॥" द्वितीयस्त्वाह-नन्वस्मदाचार्या एवमाज्ञापयन्तीत्युक्ते पुनराह-सोऽपि वाचिकुण्ठो बुद्धिविकलः किं जा-|
नीते?, त्वमपि च शुकवत्साठितो निरूहापोह इत्यादीन्यन्यान्यपि दुर्गृहीतकतिचिदक्षरो महोपशमकारणं ज्ञानं विपरीत| तामापादयन् स्वौद्धत्यमाविर्भावयन भाषते, उक्तं च-"अन्यैः स्वेच्छारचितानर्थविशेषान् श्रमेण विज्ञाय । कृत्स्नं वाडबयमित इति खादत्यङ्गानि दर्पण ॥१॥ क्रीडनकमीश्वराणां कुकुटलावकसमानवाल्लभ्यः । शास्त्राण्यपि हास्यकथा लघुतां वा क्षुल्लको नयति ॥२॥" इत्यादि, पाठान्तरं वा “हेच्चा उवसम अहेगे पारुसियं समारुहंति" त्यक्त्वोपशमम् 'अथ' अनन्तरं बहुश्रुतीभूताः एके न सर्वे परुषतामालम्बन्ते, ततश्चालप्ताः शब्दिता वा तूष्णीभावं भजन्ते हुङ्कारशिरः
कम्पनादिना वा प्रतिवचनं ददति । किं च-एके पुनर्ब्रह्मचर्य-संयमस्तत्रोषित्वा आचारो वा ब्रह्मचर्य तदर्थोऽपि ब्रह्मच४ यमेव तत्रोपित्वा आचारार्थानुष्ठायिनोऽपि तद्भसिंतास्तामाज्ञां-तीर्थकरोपदेशरूपां 'नो इति मग्यमानाः' नोशब्दो देश-II
प्रतिषेधे देशतस्तीर्थकरोपदेशं न बहु मन्यमानाः सातागौरवबाहुल्याच्छरीरवाकुशिकतामालम्बन्ते, यदिवा अपवादमालिम्ब्य वर्तमाना उत्सर्गचोदनाचोदिताः सन्तः नैषा तीर्थकराज्ञेत्येवं मन्यन्ते, दर्शयन्ति चापवादपदानि "कुज्जा भिक्खू 15 गिलाणस्स, अगिलाए समाहियं” इत्यादि, ततश्च यो येन ग्लायति तस्य तदपनयनार्थमाधाकांद्यपि कार्य, स्यादेतत्किं तेषां नाख्याताः कुशीलानां प्रत्यपायाः यथाऽऽशातनाबहुलानां दीर्घः संसार इति?, तदुच्यते-'तुः' अवधारणे, आख्यातमेवैतत्कुशीलविपाकादिकं श्रुत्वा 'निशम्य अवबुध्य च शास्तारमेव परुषं बदन्तीति सम्बन्धः । किमर्थं तर्हि |
१ कुर्याद्भिक्षुग्लानस्य अग्लान्या समाहितं.
%
8-%
%
For P
LOW
~214~
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१८]
दीप
अनुक्रम
[२०१]
"
[भाग-2] “आचार” मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१८८],निर्युक्ति: [२५२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ २५० ॥
| शृण्वन्तीति चेत्तदाह- 'समनोज्ञा' लोकसम्मता जीविष्याम इतिकृत्वा प्रश्नव्याकरणार्थमेव शब्दशास्त्रादीनि शास्त्राव्यधीयते, यदिवा अनेनोपायेन लोकसम्मता जीविष्याम इतिकृत्वैके निष्क्रम्य, अथवा समनोज्ञा उद्युक्तविहारिणः सन्तो जीविष्यामः संयमजीवितेनेत्येवं निष्क्रम्य पुनर्मोहोदयाद् असम्भवन्तः- ते गौरवत्रिकान्यतरदोषात् ज्ञानादिके मोक्षमार्गे न सम्यग्भवन्तो-नोपदेशे वर्त्तमाना विविधं दह्यमानाः कामैर्गृद्धा गौरवत्रिकेऽभ्युपपन्ना विषयेषु 'समाधि' इन्द्रियमणिधानमाख्यातं तीर्थकृदादिभिः यमा (आ) वेदितं (तः) तं 'अजोषयन्तः' असेवमाना दुर्विदग्धा आचार्यादिना शास्त्राभिप्रायेण चोद्यमाना अपि तच्छास्तारमेव परुषं वदन्ति-नास्मिन्विषये भवान् किञ्चिज्जानाति, यथाऽहं सूत्रार्थ शब्दं गणितं निमित्तं | वा जाने तथा कोऽम्यो जानीते ?, इत्येवमाचार्यादिकं शास्तारं हीलयन्तः परुषं वदन्ति, यदिवा शास्ता तीर्थकृदादिस्तमपि परुषं वदन्ति, तथाहि क्वचित्स्खलिते चोदिता जगदुः- किमन्यदधिकं तीर्थकृद्वक्ष्यत्यस्मद्गलकर्त्तनादपीति, इत्यादिभिरपाचीनैरालापैरलीकविद्यामदावलेपाच्छास्त्रकृतामपि दूषणानि वदेयुः ॥ न केवल शास्तारं परुषं वदन्त्यपरानपि
साधूनपवदेयुरित्येतदाह
सीमंता वसंता संखाए रीयमाणा असीला अणुवयमाणस्स बिइया मंदस्त बालया ( सू० १८९ )
शीलम् - अष्टादशशीलाङ्गसहस्रसङ्ख्यं यदिवा महान्न त समाधानं पञ्चेन्द्रियजयः कषायनिग्रहस्त्रिगुप्तिगुप्ठता चेत्येतच्छील विद्यते येषां ते शीलवन्तः, तथा उपशान्ताः कषायोपशमात्, अत्र शीलवग्रहणेनैव गतार्थत्वादुपशान्ता इत्येतद्विशे
For Parts Only
~215~
धुता० ६ उदेशकः४
॥ २५० ॥
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१८९],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[१८९]
दीप अनुक्रम
पणं कषायनिग्रहप्राधान्यख्यापनार्थ, सम्यक् ख्यायते-प्रकाश्यतेऽनयेति संख्या-प्रज्ञा तया 'रीयमाणाः' संयमानुष्ठाने पराक्रममाणाः सन्तः कस्यचिद्विश्रान्तभागधेयतया अशीला एत इत्येवमनुवदतोऽनु-पश्चाद्वदतः पृष्ठतो वदतोऽन्येन
वा मिथ्यादृष्ट्यादिना कुशीला इत्येवमुक्तेऽनुवदतः पावस्थादेः द्वितीयैषा 'मन्दस्य' अज्ञस्य 'बालता' मूर्खता, एक ताहै वत्खतश्चारित्रापगमः पुनरपरानुयुक्तविहारिणोऽपवदत इत्येषा द्वितीया बालता, यदिवा शीलवन्त एते उपशान्ता
वेत्येवमन्येनाभिहिते वैषां प्रचुरोपकरणानां शीलवत्तोपशान्तता वा इत्येवमनुवदतो हीनाचारस्य द्वितीया बालता भवतीति ॥ अपरे तु वीर्यान्तरायोदयात् स्वतोऽवसीदन्तोऽप्यपरसाधुप्रशंसान्विता यथावस्थितमाचारमावेदयेयुः, इत्येतद्दर्शयितुमाह
नियमाणा वेगे आयारगोयरमाइक्खंति, नाणब्भट्टा दसणलूसिणो (सू० १९०) एके-कर्मोदयात् संयमान्निवर्तमाना लिङ्गाद्वा, वाशब्दादनिवर्तमाना वा, यथावस्थितमाचारगोचरमाचक्षते, वयं तु कर्तुमसहिष्णव आचारस्त्वेवम्भूत इत्येवं वदतां तेषां द्वितीया वालता न भवत्येव, न पुनर्वदन्ति-एवंभूत एवाचारो योऽस्माभिरनुष्ठीयते, साम्प्रतं दुष्षमानुभावेन बलाद्यपगमान्मध्यभूतैव वर्तनी श्रेयसी नोत्सर्गावसर इति, उक्तं हि -"नात्यायतं न शिथिलं, यथा युञ्जीत सारथिः । तथा भद्रं वहन्त्यश्वा, योगः सर्वत्र पूजितः॥१॥" अपि च जो जत्थ होइ भग्गो, ओवासं सो परं अविंदतो । गंतु तत्थऽचयंतो, इमं पहाणंति घोसेति ॥१॥" इत्यादि । किम्भूताः
१ यो यन्त्र भवति भमोऽनकाशं सोऽपरमविन्दन् । गन्तुं तवासमर्थ इदं प्रधानमिति पोषयति ॥१॥
[२०२]
~216~
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१९०],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः
धुता०६ उद्देशका
सूत्रांक
[१९०]
॥२५१॥
दीप अनुक्रम
पुनरेतदेवं समर्थयेयुरित्याह-सदसद्विवेको ज्ञानं तस्माद्भष्टा ज्ञानभ्रष्टाः, तथा 'दसणलूसिणोत्ति सम्यग्दर्शनविध्वंसिनोसदनुष्ठानेन स्वतो विनष्टा अपरानपि शङ्कोत्पादनेन सन्मागोक्यावयन्ति ॥ अपरे पुनबाह्यक्रियोपपता अप्यात्मानं | नाशयन्तीत्याह
नममाणा वेगे जीवियं विप्परिणामंति पुट्रा वेगे नियति जीवियस्सेव कारणा, निक्खंतपि तेसिं दुन्निक्खंतं भवइ, बालवयणिज्जा हु ते नरा, पुणो पुणो जाई पकम्पिति अहे संभवंता विदायमाणा अहमंसीति विउक्कसे उदासीणे फरुसं वयंति, पलियं प
कथे अदुवा पकथे अतहेहि, तं वा मेहावी जाणिज्जा धम्म (सू० १९१) नमन्तोऽप्याचार्यादेव्यतः श्रुतज्ञानार्थं ज्ञानादिभावविनयाभावात् कम्मोदयाद् एके न सर्वे संयमजीवितं 'विप-| |रिणामयन्ति' अपनयन्ति, सच्चरितादात्मानं ध्वंसयन्तीत्यर्थः । किं चापरमित्याह-एके-अपरिकर्मिमतमतयो गौरवत्रिकप्रतिबद्धाः स्पृष्टाः परीपहैर्निवर्तन्ते संयमात् लिङ्गाद्वेति, किमर्थ -जीवितस्यैव-असंयमाख्यस्य कारणात्-निमित्तात् सुखेन वयं जीविष्याम इतिकृत्वा सावद्यानुष्ठानतया संयमानिवर्तन्ते । तथाभूतानां च यत्स्यात्तदाह-तेषां गृहवासान्निएकान्तमपि ज्ञानदर्शनचारित्रमूलोत्तरगुणान्यतरोपघाताहुनिष्क्रान्तं भवति । तद्धर्मणां च यरस्यात्तदाह-हुर्हेती यस्माद- सम्यगनुष्ठानात् दुनिष्क्रान्तास्तस्माद्बालानां-प्राकृतपुरुषाणामपि वचनीयाः-गा बालवचनीयास्ते नरा इति । किं च
[२०३]
॥२५
॥
~217
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१९१],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१९१]
दीप
पौनःपुन्येनारहट्टघटीयन्त्रन्यायेन जातिः-उत्पत्तिस्तां कल्पयन्ति, किम्भूतास्ते इत्याह-अधःसंयमस्थानेषु सम्भवन्तोवर्तमाना अविद्यया वाऽधो वर्तमानाः सन्तो विद्वांसो वयमित्येवं मन्यमाना लघुतयाऽऽत्मानं व्युत्कर्षयेयुरिति-आत्मनःपमा श्लाघां कुर्वते, यत्किश्चिज्जानानोऽपि मानोन्नतत्वाद्रससातागौरवबहुलोऽहमेवात्र बहुश्रुतो यदाचार्यों जानाति तन्मयास्पेनैव कालेनाधीतमित्येवमात्मानं व्युत्कर्षयेदिति । नात्मश्लाघतयैवासते, अपरानप्यपवदेयुरित्याह-'उदासीनाः' रागद्वेषरहिता मध्यस्था बहुश्रुतत्वे सत्युपशान्तास्तान स्खलितचोदनोद्यतान् परुषं वदन्ति, तद्यथा-स्वयमेव तावत्कृत्यमकृत्यं |वा जानीहि ततोऽन्येषामुपदेश्यसीति । यथा च परुष वदन्ति तथा सूत्रेणैव दर्शयितुमाह-'पलिय'ति अनुष्ठानं तेन पूर्वाचरितेनानुष्ठानेन तृणहारादिना प्रकथयेद्-एवम्भूतस्त्वमिति, अन्यथा वा कुण्टमण्टादिभिर्गुणर्मुखविकारादिभिर्वा | प्रकथयेदिति । किम्भूतैः?- अतथ्यः' अविद्यमानैरिति । उपसंहरन्नाह-तद्' वाच्यमवाच्यं वा 'त' वा धर्म श्रुतचारित्राख्यं 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितो 'जानीयात्' सम्यक् परिच्छिन्द्यादिति ॥ सोऽसभ्यवादप्रवृत्तो बालो गुर्वादिना यथाऽनुशास्यते तथा दर्शयितुमाह
अहम्मट्टी तुमंसि नाम वाले आरंभट्ठी अणुवयमाणे हण पाणे घायमाणे हणओ यावि समणुजाणमाणे, घोरे धम्मे, उदीरिए उवेहइ णं अणाणाए, एस विसन्ने वियदे वियाहिए तिमि (सू० १९२)
अनुक्रम [२०४]
~218~
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१९२],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
धुता.६ उद्देशका
सूत्रांक
[१९२]
॥२५२॥
दीप
अर्थोऽस्यास्तीत्यर्थी, अधर्मेणार्थी अधर्मार्थी, यतो नाम त्वमेवम्भूतोऽतोऽनुशास्यसे, कुतोऽधर्मार्थी ? यतो 'बाल अज्ञः, कुतो वालो?, यत 'आरम्भार्थी' सावद्यारम्भप्रवृत्तः, कुतः आरम्भार्थी ?, यतः प्राण्युपमर्दवादाननुवदन्तद् ब्रूषे, तद्यथा-जहि प्राणिनोऽपरैरेवं घातयन् प्रतश्चापि समनुजानासि गौरवत्रिकानुबद्धः पचनपाचनादिक्रियाप्रवृत्तांस्तपिण्डतकी तत्समक्षं ताननुवदसि कोऽत्र दोषो', न ह्यशरीरैर्द्धर्मः कर्तुं पायेते, अतो धर्माधारं शरीरं यत्नतः पालनीय|मिति, उक्तं च-"शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराज्जायते धर्मों, यथा बीजारसदबूरः॥१॥" इति, किं चैवं ब्रवीपि त्वं, तद्यथा-'घोरः' भयानको धर्मः सर्वानवनिरोधात् दुरनुचरः उत्-प्रावल्येनेरितः कथितः प्रतिपादितस्तीर्थकरगणधरादिभिरित्येवमध्यवसायी भवांस्तमनुष्ठानत 'उपेक्षते' उपेक्षां विधत्ते, 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे, 'अ-1 नाज्ञया' तीर्थकरगणधरानुपदेशेन स्वेच्छया प्रवृत्त इति, क एवम्भूत इति दर्शयति-'एष' इत्यनन्तरोक्तोऽधर्मार्थी बाल
आरम्भाधी प्राणिनां हन्ता घातयिता नतोऽनुमन्ता धम्मोंपेक्षक इति, विषण्णः कामभोगेषु, विविधं तदतीति वितर्दो[हिंसकः 'तर्द हिंसाया'मित्यस्मात् कर्तरि पचाद्यच , संयमे वा प्रतिकूलो वितर्दः इत्येवंरूपस्त्वमेष व्याख्यात इत्यतोऽहं| प्रवीमि-वं मेधावी धर्म जानीया इति ॥ एतच्च वक्ष्यमाणमहं ब्रवीमीत्यत आह
किमणेण भो! जणेण करिस्सामित्ति मन्नमाणे एवं एगे वइत्ता मायरं पियरं हिच्चा नायओ य परिग्गहं वीरायमाणा समुट्टाए अविहिंसा सुव्वया दंता पस्स दीणे
अनुक्रम
[२०५]
॥२५२
~219~
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१९३],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति: ।
प्रत
सूत्रांक [१९३]
दीप
4%AAAAA%
उप्पइए पडिवयमाणे वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति, अहमेगेसिं सिलोए पावए भवइ, से समणो भबित्ता विभंते २ पासहेगे समन्नागरहिं सह असमन्नागए नममाणेहिं अनममाणे विरपहिं अविरए दविएहिं अदविए अभिसमिच्चा पंडिए मेहावी निट्टिय? वीरे आगमेणं सया परकमिजासि तिबेमि (सू० १९३) ॥ इति
धूताध्ययने चतुर्थ उद्देशकः ६-४॥ केचन-विदितवेद्या वीरायमाणाः सम्यगुत्थानेनोत्थाय पुनः प्राण्युपमर्दका भवन्तीति, कथमुस्थाय:-किमहमनेन 'भोः' इत्यामन्त्रणे 'जनेन' मातापितृपुत्रकलत्रादिना स्वार्थपरेण परमार्थतोऽनर्थरूपेण करिष्यामीति, न ममायं कस्यचिसादपि कार्यस्य रोगापनयनादेरलमित्यतोऽनेन किमहं करिष्ये', यदिवा प्रविब्रजिषुः केनचिदभिहितः किमनया सिकताक
वलसन्निभया प्रत्रज्यया करिष्यति भवान् ?, अदृष्टवशायातं तावदोजनादिकं भुड्क्ष्वेत्यभिहितो विरागतामापन्नो ब्रवीतिकिमहमनेन भोजनादिना करिष्ये?, भुक्तं मयाऽनेकशः संसारे पर्यटता तथापि तृप्ति भूत्, तकिमिदानीमनेन जन्मना | भविष्यतीत्येवं मन्यमाना एके विदितसंसारस्वभावा उदित्वाऽप्येवं ततो 'मातरं जननीं 'पितरं' जनयितारं 'हित्वा' त्यक्त्वा 'ज्ञातयः' पूर्वोपरसम्बन्धिनः स्वजनास्तान् परिगृह्यत इति परिग्रहः-धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदादिः तं, |किम्भूताः-चीरमिवात्मानमाचरन्तो वीरायमाणाः, सम्यक् संयमानुष्ठानेनोत्थाय समुत्थाय विविधैरुपायैहिंसा विहिंसा
अनुक्रम [२०६]
~220
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१९३]
दीप
अनुक्रम [२०६]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१९३],निर्युक्ति: [२५२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा राङ्गवृत्तिः
(शी०)
उद्देशकः४
॥ २५३ ॥
न विद्यते विहिंसा येषां तेऽविहिंसाः, तथा शोभनं व्रतं येषां ते सुत्रताः, तथेन्द्रियदमाद्दान्ताः इत्येवं समुत्थाय, नागा-धुता० ए र्जुनीयास्तु पठन्ति - "समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसूया अविहिंसगा सुब्वया दंता परदत्तभोइणो पावं कम्मं न करेस्सामो समुद्वाप" सुगमत्वान्न वित्रियते, इत्येवं समुत्थाय पूर्व पश्चात् 'पश्य' निभालय 'दीनान' | शृगालत्वविहारिणो वान्तं जिघृक्षून् पूर्वमुखतितान् संयमारोहणात् पश्चासापोदयात् प्रतिपतत इति, किमिति दीना ४ भवन्तीति दर्शयति-यतो 'वशार्त्ता' वशा इन्द्रियविषयकषायाणां तत आर्त्ता वशार्त्ताः तथाभूतानां च कर्मानुषङ्गः, तदुक्तम्--"सोइंदियवसट्टेणं भंते! कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?, गोयमा ! आउअवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ जाव अणुपरिअट्टइ। कोहवसट्टेणं भंते! जीवे एवं तं चेव" एवं मानादिष्वपीति, तथा 'कातराः' परीषहोपसग्गपनिपाते सति विषयलोलुपा वा कातराः, के ते १-जनाः, किं कुर्वन्ति १- ते प्रतिभग्नाः सन्तः 'लूषका भवन्ति' व्रतानां विध्वंसका भवन्ति, को अष्टादशशीलाङ्गसहस्राणि धारयिष्यतीत्येवमभिसन्धाय द्रव्यलिङ्गं भावलिङ्गं वा परित्यज्य प्राणिनां विराधका भवन्ति । तेषां च पश्चात्कृतलिङ्गानां यत्स्वात्तदाह - 'अथ' आनन्तर्ये 'एकेषां भग्नप्रतिज्ञानामुत्प्रब्रजितानां तत्समनन्तरमेवान्तर्मुहूर्त्तेन वा पञ्चत्वापत्तिः स्याद्, एकेषां तु 'श्लोको' श्लाघारूपः पापको भवेत्, स्वपक्षात्परपक्षाद्वा महत्ययश:कीर्त्तिर्भवति, तद्यथा स एष पितृवनकाष्ठसमानो भोगाभिलाषी व्रजति तिष्ठति वा, नास्य विश्वसनीयं यतो नास्याकर्त्तव्यमस्तीति, उक्तं च- "परलोकविरुद्धानि कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् । आत्मानं यो न संधत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात्कथं १ श्रोत्रेन्द्रियवशात भदन्त ! कति कर्मप्रकृती भाति ?, गौतम आयुर्वजाः सप्त कर्मप्रकृतीर्याथत् अनुपरिवर्तते। क्रोधवशान्त भदन्त जीवः एवमेव तद्.
Ja Eucation Internationa
For Parta Use Only
~ 221~
॥ २५३ ॥
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [४], मूलं [१९३],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९३]
वहितः॥१॥” इत्यादि, यदिवा सूत्रेणैवाश्चाध्यतां दर्शयितुमाह-सोऽयं श्रमणो भूत्वा विविध भ्रान्तो-भग्नः श्रमण
विभ्रान्तो, वीप्सयाऽत्यन्तजुगुप्सामाह, किंच-पश्यत यूयं कर्मसामर्थ्यम् 'एके' विश्रान्तभागधेयाः समन्वागतैरुधुक्तविहारिभिः सह वसन्तोऽप्यसमन्वागता:-शीतलविहारिणः, तथा 'नममानैः संयमानुष्ठानेन विनयवद्भिः 'अनममानान्' निपुणतया सावद्यानुष्ठायिनो, विरतैरविरता द्रव्यभूतैरद्रव्यभूताः पापकलङ्काङ्कितत्वादेवम्भूतैरपि साधुभिः सह वसन्तोऽपि, एवम्भूतान् 'अभिसमेत्य' ज्ञात्वा किं कर्त्तव्यमिति दर्शयति-पण्डितः' त्वं ज्ञातज्ञेयो 'मेधाची' मर्यादाव्यवस्थितो 'निष्ठितार्थः' विषयसुखनिष्पिपासो 'वीर' कर्मविदारणसहिष्णुर्भूत्वा 'आगमेन' सर्वज्ञप्रणीतोपदेशानुसारेण 'सदा' सर्वकालं परिकामयेरिति । इतिरधिकारपरिसमाप्ती, ब्रवीमीति पूर्ववद् ॥ धूताध्ययनस्य चतुर्थोद्देशकः परिसमाप्तः॥
-DD| उक्तश्चतुर्थोद्देशकः, साम्प्रतं पश्चम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोदेशके कर्मविधूननार्थ गौरवत्रयविधूननाऽभिहिता, सा च कर्मविधूननोपसर्गविधूननामन्तरेण न सम्पूर्णभावमनुभवति, नापि सत्कारपुरस्कारात्मकसन्मानविधूननामन्तरेण गौरवत्रयविधूनना सम्पूर्णतामियादित्यत उपसर्गसन्मानविधूननार्थमिदमुपक्रम्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यास्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
से गिहेसु वा गिहतरेसु वा गामेसु वा गामंतरेसु वा नगरेसु वा नगरंतरेसु वा जण
********
दीप
अनुक्रम [२०६]
*
SARERatunintamational
षष्ठं-अध्ययने पंचम-उद्देशक: 'उपसर्ग-सन्मान विधुनन' आरब्धः,
~222
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [५], मूलं [१९४],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
धुता०६ उदेशका
(शी०)
सूत्रांक [१९४]
दीप
श्रीआचा-18
वयेसु वा जणवयंतरेसु वा गामनयरंतरे वा गामजणवयंतरे वा नगरजणवयंतरे वा रावृत्तिः
संतेगइया जणा लूसगा भवंति अदुवा फासा फुसति ते फासे पुढे वीरो अहियासए,
ओए समियदंसणे, दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं आइक्खे, ॥२५४॥ विभए किहे वेयवी, से उठ्ठिएसु वा अणुट्टिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेयए संतिं वि
रई उवसमं निव्वाणं सोयं अज्जवियं मद्दवियं लापवियं अणइवत्तियं सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं सत्ताणं सव्वेसिं जीवाणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइ
क्खिज्जा (सू० १९४) । 'स' पण्डितो मेधावी निष्ठितार्थो वीरः सदा सर्वज्ञप्रणीतोपदेशानुविधायी गौरवत्रिकाप्रतिबद्धो निर्ममो निष्किञ्चनो | निराश एकाकिविहारितया ग्रामानुग्रामं रीयमाणः क्षुद्रतिर्यग्नरामरकृतोपसर्गपरीषहापादितान् दुःखस्पर्शान् निर्जरार्थी सम्यगधिसहेत, क पुनर्व्यवस्थितस्य ते परीपहोपसर्गा अभिपतेयुरिति दर्शयति-आहाराद्यर्थं प्रविष्टस्य गृहेषु था, उचनीचमध्यमावस्थासंसूचकं बहुवचनं, तथा गृहान्तरेषु वा, असन्ति बुद्ध्यादीन गुणानिति ग्रामाः तेषु वा तदन्तरालेषु वा, नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि तेषु वा तदन्तरालेषु वा, जनानां-लोकानां पदानि-अवस्थानानि येषु ते जनपदाः
अनुक्रम [२०७]
॥२५४ ।।
~223~
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [५], मूलं [१९४],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१९४]
COM
दीप
अवन्त्यादयः साधुविहरणयोग्याः अर्द्धपड़िशतिर्देशास्तेषु तदन्तरालेषु वा, तथा ग्रामनगरान्तरे या ग्रामजनपदान्तरे| वा नगरजनपदान्तरे वा उद्याने वा तदन्तरे वा विहारभूमिगतस्य वा गच्छतो वा, तदेवं तस्य भिक्षो मादीनधिशयानस्य कायोत्सर्गादि वा कुर्वत एके कालुष्योपहतात्मानो ये जना लूपयन्तीति लूषका भवन्ति, 'लूप हिंसाया'मित्यस्मात् ल्युद्ध, ते 'सन्ति' विद्यन्ते, तत्र नारकास्तावदुपसर्गकरणं प्रत्यवस्तु, तिर्यगमरयोरपि कादाचित्कत्वान्मानुष्याणा| मेवानुकूलप्रतिकूलसद्भावाजनग्रहणं, यदिवा जायन्त इति जनाः, ते च तिर्यग्नरामरा एव जनशब्दाभिहिताः, ते च जना अनुकूलप्रतिकूलान्यतरोभयोपसर्गापादानेनोपसर्गयेयुरिति, तत्र दिव्याश्चतुर्विधाः, तद्यथा-हास्यात् १ प्रवेषा २ विमर्शात् ३ पृथग्विमात्रातो ४ वा, तत्र केलीकिलः कश्चिद्यन्तरो विविधानुपसर्गान् हास्यादेव कुर्यात्, यथा भिक्षार्थं प्रविष्टैः क्षुलकर्भिक्षालाभार्थं पललविकटतर्पणादिनोपयाचितकं व्यन्तरस्य प्रपेदे, भिक्षावाप्तौ च तद्याचमानस्य कुतश्चिदुपलभ्य विकटादिकं तैहुंढोके, तेनापि केल्यैव ते क्षुल्लकाः क्षीबा इव व्यधाविपत १, प्रद्वेषेण यथा भगवतो माघमासरजन्यन्ते तापसीरूपधारिण्या व्यन्तर्योदकजटाभारवल्कलविषुभिस्सेचनमकारि २, विमर्शाकिमयं दृढधर्मान वेत्यनुकूलप्रतिकूलोपसगैः परीक्षयेत्, यथा संविग्नसाधुभावितया कयाचिढ्यन्तर्या खीवेषधारिण्या शून्यदेवकुलिकावासितः
'पुरछिमेणं फापद निर्मचाण का निर्गधीण वा जाव मगहाओ एत्तए, दक्षिणेक कप्पद निम्गंधाण वा निम्गंधीण या आप कोसंबीमो एसए, पश्चिमेणं जाव थूगाविसभी, उत्तरेणं जाय कुणाला विसओ, ताव मारिए खिसे, नो कप्पद इत्तो याहिं 'ति, अस्यां च आर्यभूमिकायाँ साईपञ्चविंशतिर्जनपदा धर्मक्षेत्राण्यईब्रिाकानि ॥
अनुक्रम [२०७]
SAREauratoninternational
~2244
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [५], मूलं [१९४],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१९४]
दीप अनुक्रम [२०७]
श्रीआचा-15 साधुरनुकूलोपसग्गैरुपसम्गितो दृढधम्र्मेति च कृत्वा वन्दित इति ३, तथा पृथग् विविधा मात्रा येषूपसर्गेषु ते पृथग्वि- 8 धुता०६ राङ्गवृत्तिः मात्राः-हास्यादित्रयान्यतरारम्धा अन्यतरावसायिनो भवन्ति, तद्यथा भगवति सङ्गमकेनेव विमारब्धाः प्रद्वेषेण पर्यव(शी०) सिता इति, मानुषा अपि हास्यप्रद्वेषविमर्शकुशीलप्रतिसेवनाभेदाच्चतुर्दा, तत्र हास्यादेवसेनागणिका क्षुल्लकमुपसर्गयन्ती
पदण्डेन ताडिता राजानमुपस्थिता, क्षुल्लकेन तदाहूतेन श्रीगृहोदाहरणेन राजा प्रतिबोधित इति १, प्रद्वेषागजसुकुमार-18 ॥२५५॥
स्यैव श्वशुरसोमभूतिनेति २, विमर्शाच्चन्द्रगुप्तो राजा चाणाक्यचोदितो धर्मपरीक्षार्थमन्तःपुरिकाभिर्धर्ममावेदयन्तं साधुमुपसर्गयति, साधुना च प्रताव्य ताः श्रीगृहोदाहरणं राज्ञे निवेदितमिति ३, तत्र कुत्सितं शीलं कुशीलं तस्य प्रतिसेवनं कुशीलप्रतिसेवनं तदर्थ कश्चिदुपसर्ग कुर्यात् , तद्यथा-ईर्ष्यालुगृहपर्युषितः साधुश्चतसृभिः सीमन्तिनीभिः प्रोषितभर्तृकाभिः सकलां रजनीमेकैकया प्रतियाममुपसम्गितो न चासौ तासु लुलुभेमन्दरवन्निष्प्रकम्पोऽभूदिति । तैर्यग्योना अपि भयप्रद्वेषाहारापत्यसंरक्षणभेदाचतुर्दुव, तत्र भयात्सर्पादिभ्यः, प्रद्वेषाद्यथा भगवतश्चण्डकौशिकात्, आहारात् सिंहव्याघ्रादिभ्यः, अपत्यसंरक्षणात् काक्यादिभ्य इति । तदेवमुक्तविधिनोपसग्गांपादकत्वाजना लूपका भवन्ति, अथवा
तेषु प्रामादिषु स्थानेषु तिष्ठतो गच्छतो वा स्पर्शा:-दुःखविशेषा आत्मसंवेदनीयाः स्पृशन्ति-अभिभवन्ति, ते चतुर्विधाः 181-तद्यथा-पहनताऽक्षिकणुकादेः पतनता भ्रमिमूर्छादिना स्तम्भनता वातादिना श्लेषणता तालुनः पातादगुल्यादेवों दास्यात्, यदिवा वातपित्तश्लेष्मादिक्षोभात् स्पर्शाः स्पृशन्ति, अथवा निष्किञ्चनतया तृणपदंशमशकशीतोष्णाचापा-I5॥२५५॥ |दिताः सीर-दुःखविशेषाः कदाचिस्पृशन्ति-अभिभवन्ति, तैश्च स्पृष्टः परीपहस्तान् सन्-िदुःखविशेषान् 'धीरः।
~225~
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [५], मूलं [१९४],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१९४]
दीप
अक्षोभ्योऽधिसहेत नरकादिदुःखभावनयाऽवन्ध्यकम्मोदयापादितं पुनरपि मयैवैतत्सोढव्यमित्याकलय्य सम्यक् तितिक्षेतेति । कीरक्षोऽधिसहेतेत्यत आह, यदिवा स एवम्भूतो न केवलमात्मनखाता सदुपदेशदानतः परेषामपीति | दर्शयितुमाह-'ओजः' एको रागादिविरहात् सम्यग् इत-गतं दर्शनमस्येति समितदर्शनः, सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः, यदिवा 'शमितम्' उपशमं नीतं 'दर्शन' दृष्टिानमस्येति शमितदर्शनः, उपशान्ताध्यवसाय इत्यर्थः, अथवा समतामितगतं दर्शन-दृष्टिरस्पेति समितदर्शनः, समदृष्टिरित्यर्थः, एवम्भूतः स्पर्शानधिसहेत, यदिवा धर्ममाचक्षीतेत्युत्तरक्रियया 8 सह सम्बन्धः, किमभिसन्धाय धर्ममाचक्षीतेति दर्शयति–'दयां' कृपां 'लोकस्य जन्तुलोकस्योपरि द्रव्यतो ज्ञात्वा : क्षेत्रतः प्राचीनं प्रतीचीनं दक्षीणमुदीचीनमपरानपि दिग्विभागानभिसमीक्ष्य सर्वत्र दयां कुर्वन धर्ममाचक्षीत, का-|| लतो यावज्जीचं, भावतोऽरकोऽद्विष्टः, कथमाचक्षीत?-तद्यथा-सर्वे जन्तवो दुःखद्विषः सुखलिप्सवः आरमोपमया 8 सदा द्रष्टव्या इति, उक्तं च+“न तत्परस्य संदध्यात्, प्रतिकूलं यदात्मनः । एष सङ्क्राहिको धर्मः, कामादन्यः प्रवर्तते ॥१॥") इत्यादि, तथा धर्ममाचक्षाणो 'विभजेत् द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदैराक्षेपण्यादिकथाविशेषैर्वा प्राणा-1 तिपातमृपावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहरात्रीभोजनविरतिविशेषैर्वा धर्म विभजेत्, यदिवा कोऽयं पुरुषः कं नतो देवताविशेषमभिगृहीतोऽनभिगृहीतो वा? एवं विभजेत् , तथा कीर्तयेद्रतानुष्ठानफलं, कोऽसौ कीर्तयेद् ?-वेदविद्, आगमविदिति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"जे खलु समणे बहुस्सुए बज्झागमे आहरणहेउकुसले धम्मकहालद्धिसम्पन्ने | खेत्तं कालं पुरिसं समासज्ज केऽयं पुरिसे कं वा दरिसणमभिसम्पन्नो? एवंगुणजाइए पभू धम्मस्स आघवित्तए" इति,
अनुक्रम [२०७]
Nrwasurary.org
~226~
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१९४]
दीप
अनुक्रम [२०७]
"
[भाग-2] “आचार” मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [५], मूलं [१९४],निर्युक्ति: [२५२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
॥ २५६ ॥
कण्ठ्यं । स पुनः केषु निमित्तभूतेषु कीर्त्तयेदित्याह - 'स' आगमवित् स्वसमयपरसमयज्ञः 'उत्थितेषु वा' भावोत्थानेन राङ्गवृत्तिः यतिषु, वाशब्दः उत्तरापेक्षया पक्षान्तरद्योतकः, पार्श्वनाथशिष्येषु चतुर्यामोत्थितेष्वेव वर्द्धमानतीर्थाचार्यादिः पश्चयामं (शी०) : धर्म्म प्रवेदयेदिति, स्वशिष्येषु वा सदोत्थितेष्वज्ञात ज्ञापनाय धर्मे प्रवेदयेदिति, 'अनुत्थितेषु वा' आवकादिषु 'शुश्रूष* माणेषु धर्मे श्रोतुमिच्छत्सु गुर्वादेः पर्युपास्ति कुर्वत्सु वा संसारोत्तारणाय धर्म्म प्रवेदयेत् । किम्भूतं प्रवेदयेदित्याह-शॐ मनं शान्तिः, अहिंसेत्यर्थः, तामाचक्षीत, तथा विरतिम्, अनेन च मृषावादादिशेषत्रतसग्रहः, तथा 'उपशमं ' क्रोधजॐ याद्, अनेन चोत्तरगुणसङ्ग्रहः, तथा निर्वृतिः निर्वाणं मूलगुणोत्तरगुणयोरैहिकामुष्मिक फलभूतमाचक्षीत, तथा 'शौचं ' सर्वोपाधिशुचित्वं निर्वाच्यव्रतधारणं, तथा आर्जवं मायावक्रतापरित्यागात्, तथा मार्दवं मानस्तब्धतापरित्यागात्, तथा लाघवं सवाह्याभ्यन्तरग्रन्थपरित्यागात् कथमाचक्षीतेति दर्शयति- 'अनतिपत्य' यथावस्थितं वस्वागमाभिहितं तथाऽनतिक्रम्येत्यर्थः केषां कथयति ? - 'सर्वेषां प्राणिनां दशविधाः प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिनस्तेषां सामान्यतः संज्ञिपश्चेन्द्रियाणां तथा 'सर्वेषां भूतानां' मुक्तिगमनयोग्येन भव्यत्वेन भूतानां व्यवस्थितानां तथा 'सर्वेषां जीवानां' संयमजीवितेन जीवतां जिजीविषूणां च, तथा 'सर्वेषां सत्त्वानां' तिर्यङ्नरामराणां संसारे क्लिश्यमानतया करुणास्पदानामेकार्थिकानि वैतानि प्राणादीनि वचनानि इत्यतस्तेषां क्षान्त्यादिकं दशविधं धर्म्म यथायोगं प्रागुपन्यस्तं शान्त्यादिपदाभिहितम् 'अनुविचिन्त्य' स्वपरोपकाराय भिक्षणशीलो भिक्षुर्धर्म्मकथालब्धिमान् 'आचक्षीत' प्रतिपादयेदिति । यथा | च धर्मे कथयेत्तथाऽऽह
Education Internationa
For Parts Only
~ 227~
धुता० ६ उद्देशकः५
।। २५६ ॥
www.ra
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [५], मूलं [१९५],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१९५]
दीप
अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे नो अत्ताणं आसाइजा नो परं आसाइजा नो अन्नाइं पाणाइं भूयाई जीवाई सत्ताई आसाइजा से अणासायए अणासायमाणे वज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं जहा से दीवे असंदीणे एवं से भवइ सरणं महामुणी, एवं से उट्टिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अबहिल्लेसे परिव्वए संक्खाय पेसलं धम्म दिट्रिमं परिनिव्वुडे, तम्हा संगति पासह गंथेहिं गढिया नरा विसन्ना कामकता तम्हा लूहाओ नो परिवित्तसिज्जा, जस्सिमे आरंभा सव्वओ सव्बप्पयाए सुपरिन्नाया भवंति जेसिमे लूसिणो नोपरिवित्तसंति, से वंता कोहं च माणं
य मायं च लोभं च एस तुट्टे वियाहिए त्तिबेमि (सू० १९५) स भिक्षुर्मुमुक्षुरनुविचिन्त्य-पूर्वापरेण धर्म पुरुष वाऽऽलोच्य यो यस्य कथनयोग्यस्तै धर्ममाचक्षाणः आजिति मयोदया यथाऽनुष्ठानं सम्यग्दर्शनादेः शातना आशातना तया आत्मानं नो आशातयेत्, तथा धर्ममाचक्षीत य. थाऽऽस्मन आशातना न भवेत्, यदिवाऽऽत्मन आशातना द्विधा-द्रव्यतो भावत्तश्च, द्रव्यतो यथाऽऽहारोपकरणा-| दे.व्यस्य कालातिपातादिकृताऽऽशातना-बाधा न भवति तथा कथयेद् , आहारादिद्रव्यवाधया च शरीरस्यापि पीडा
अनुक्रम [२०८]
4
%
~228~
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [५], मूलं [१९५],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९५]]
राङ्गवृत्तिः (शी०)
॥२५७॥
दीप
भावाशातनारूपा स्यात्, कथयतो वा यथा गात्रभङ्गरूपा भावाशातना न स्यात् तथा कथयेदिति, तथा नो परं शुश्रूर्षु आशातयेद्-हीलयेद् , यतः परो हीलनया कुपितः सन्नाहारोपकरणशरीरान्यतरपीडायै प्रवर्तेतेति, अतस्तदाशातनां वजयन् धर्म ब्रूयादिति, तथाऽन्यान् वा सामान्येन प्राणिनो भूतान् जीवान् सत्वानो आशातयेद्-बाधयेत् , त-150
उद्देशका५ देवं स मुनिः स्वतोऽनाशातकः परैरनाशातयन् तथाऽपरानाशातयतोऽननुमन्यमानो परेषां वध्यमानानां प्राणिनां | भूतानां जीवानां सत्त्वानां यथा पीडा नोत्पद्यते तथा धर्म कथयेदिति, तद्यथा-यदि लौकिककुपावचनिकपार्श्वस्थादिदानानि प्रशंसति अवटतटागादीनि या ततः पृथिवीकायादयो व्यापादिता भवेयुः, अथ दूषयति ततोऽपरेषां अ-| न्तरायापादनेन तत्कृतो बन्धविपाकानुभवः स्यात्, उक्तं च-"जे उ दाणं पसंसंति, वहमिच्छति पाणिणं । जे उ णं | पडिसेहिंति, वित्तिच्छेअं करिति ते ॥१॥" तस्मात्तदानावेटतडागादिविधिप्रतिषेधब्युदासेन यथावस्थितं दानं शुद्ध प्ररूपयेत् सायद्यानुष्ठान चेति, एवं च वक्षुभयदोषपरिहारी जन्तूनामाश्वासभूमिर्भवतीति, एतदृष्टान्तद्वारेण दर्श-| यति-यथाऽसौ द्वीपोऽसन्दीनः शरणं भवत्येवमसावपि महामुनिः तद्रक्षणोपायोपदेशतः वध्यमानानां धधकानां च तदध्यवसायविनिवत्तेनेन विशिष्टगुणस्थानापादनाच्छरण्यो भवति, तथाहि-यथोद्दिष्टेन कथाविधानेन धर्मकथा कथयन् काश्चन प्रवाजयति काश्चन श्रावकान् विधत्ते काश्चन सम्यग्दर्शनयुजः करोति, केषाश्चित्प्रकृतिभद्रकतामापादयति । किंगुणश्चासौ द्वीप इव शरण्यो भवतीत्याह-एवं मिति वक्ष्यमाणप्रकारेण 'स' शरण्यो महामुनिर्भावोत्थानेन
ये तु दानं प्रशंसन्ति वधमिच्छन्ति प्राणिनाम् । ये चैतत् प्रतिषेधयन्ति वृत्तिच्छेदं कुर्वन्ति ते ॥ १॥
अनुक्रम [२०८]
॥२५७॥
SARERatininemarana
~229~
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [५], मूलं [१९५],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१९५]
दीप
संयमानुष्ठानरूपेण उत्-प्राबल्येन स्थित उत्थितः, तथा स्थितो ज्ञानादिके मोक्षाध्वन्यात्मा यस्य स स्थितात्मा, तथा स्निह्यतीति निहो न स्निहोऽस्त्रिहा-रागद्वेषरहितत्वात् अप्रतिबद्धः, तथा न चलतीत्यचलः परीषहोपसर्गवातेरिलो |ऽपीति, तथा चल: अनियतविहारित्वात्, तथा संयमावहिनितंगा लेश्या-अध्यवसायो यस्य स बहिर्लेश्यः यो न तथा
सोऽबहिर्लेश्यः, स एवम्भूतः परि-समन्तात् संयमानुष्ठाने ब्रजेत् परिव्रजेत्, न कचितिवध्यमान इतियावत्, स |च किमिति संयमानुष्ठाने परिव्रजेदित्याह-'संख्याय' अवधार्य 'पेशल' शोभनं 'धर्म' अविपरीतार्थं दर्शन-दृष्टिः सदनुष्ठानं वासा यस्यास्त्यसौ दृष्टिमान्, स च कषायोपशमात् क्षयाद्वा, परिः-समन्तानिर्वृतः-शीतीभूतो । यस्त्वसन्ख्यातवान् पेशलं धर्म मिथ्यादृष्टिरसी न निर्वातीति दर्शयितुमाह-इतिहेतौ यस्माद्विपरीतदर्शनो मिथ्यादृष्टिः सङ्गवान्न निर्वाति तस्मात् 'सङ्गं मातापितृपुत्रकलत्रादिजनितं धनधान्यहिरण्यादिजनितं वा सङ्गविषाकं वा पश्यत यूयं विवेकेनावधारयत, सूत्रेणैव सङ्गमाह-त एवं सङ्गिनो नराः सबाह्याभ्यन्तरैर्घन्धैर्ग्रथिता अवबद्धा विषण्णा अन्धसङ्गे निमनाः कामैः-इच्छामदनरुपैराक्रान्ता अवष्टब्धा न निर्वान्ति, यद्येवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह-यस्मात्कामाद्यासक्तचेतसः स्वजनधनधान्यादिमूर्षिताः कामजैः शारीरमानसादिभिर्युःखैरुषतापितास्तस्माद् सक्षात्-संयमानिःसङ्गात्मकात् 'नो परिचित्रसेत्' न संयमानुष्ठानाविभीयात्, यतः प्रभूततरदुःखानुषङ्गिणो हि सङ्गिन इति । कस्य पुनः संयमान परि
वित्रसनं सम्भाव्यत इत्याह-यस्य महामुनेरवगतसंसारमोक्षकारणस्येमे सङ्गा:-आरम्भा अनन्तरोक्ता अबिगानतः सर्वजलनाचरितत्वात् प्रत्यक्षासन्नवाचिनेदमाऽभिहिताः 'सर्वतः' सर्वात्मकतया सुपरिज्ञाता भवन्ति, किम्भूता आरम्भाः-ये
अनुक्रम [२०८]
~230~
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [५], मूलं [१९५],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१९५]
दीप अनुक्रम [२०८]
श्रीआचा-विमे ग्रन्थग्रथिता विषण्णाः कामभराक्रान्ता जना 'लूषिणो' लूषणशीलाः हिंसका अज्ञानमोहोदयात् 'न परिवित्रसन्ति'
|धुता०६ राङ्गवृत्तिः
न बिभ्यति, यो ह्येवम्भूतांश्चारम्भान् ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहरति तस्यैते सुपरिज्ञाता भवन्ति । (शी०) यश्चारम्भाणां परिज्ञाता स किमपरं कुर्यादित्याह-'स' महामुनिः पूर्वव्यावर्णितस्वरूपो 'वान्त्वा' त्यक्त्वा क्रोधं च मानं च
उद्देशकः५ मायां च लोभं चेति, स्वगतभेदसंसूचनार्थों व्यस्तनिर्देशः, सर्वानुयायित्वात् क्रोधस्य प्रथमोपादानं तत्सम्बद्धत्वान्मा-3 ॥ २५८॥
नस्य लोभार्थ मायोपादीयत इत्यतस्तत्कारणत्वान्मायाया लोभस्यादावुपन्यासः ततः सर्वदोपाश्रयत्वात् सर्वगुरुत्वाच्च सर्वोपरि लोभस्य, क्षपणाक्रम वाऽऽश्रित्यायमुपन्यास इति, चकारो हीतरेतरापेक्षया समुच्चयार्थः । स एवं क्रोधादीन् वान्त्वा मोहनीय त्रोटयति, स चैपोऽपगतमोहनीयः संसारसन्ततेस्तुट्टः-अपमृतो व्याख्यातस्तीर्थकृदादिभिरितिरधिकार|परिसमाप्ती, बबीमीत्येतत् पूर्वोक्तं ॥ यदि वैतद्वक्ष्यमाणमित्याह
कायस्स वियाघाए एस संगामसीसे वियाहिए से हु पारंगमे मुणी, अविहम्ममाणे फलगावयट्ठी कालोवणीए कंखिज कालं जाव सरीरभेउत्तिबेमि (सू० १९६)६-५॥
धूताध्ययनम् ॥ ६॥ 'कायः' औदारिकादित्रयं घातिचतुष्टयं वा तस्य 'व्याघातो' विनाशः, अधवा चीयत इति कायस्तस्य विशेषेणाङ्गम- २५८॥ दियाऽऽयुष्कक्षयावधिलक्षणया घातो व्याघातः-शरीरविनाशः एप सट्टामशीर्षरूपतया व्याख्यातो, यथा हि सङ्ग्राम
~231
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [६], उद्देशक [५], मूलं [१९६],नियुक्ति: [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९६]
शिरसि परानीकनिशिताकृष्टकृपाणनिर्यत्प्रभासवलितोद्यत्सूर्यविडुजूतविद्युन्नयनचमत्कृतिकारिणि कृतकरणोऽपि सुभटश्चित्तविकारं विधत्ते, एवं मरणकालेऽपि समुपस्थिते परिकर्मितमतेरप्यन्यथाभावः कदाचित्स्याद् अतो यो मरणकाले
न मुह्यति स पारगामी मुनिः संसारस्य कर्मणो वा उत्क्षिप्तभारस्य वा पर्यन्तयायीति । किं च-विविधं परीपहोपसगैईकान्यमानो विहन्यमानः न विहन्यमानोऽविहन्यमानः न निर्विण्णः सन् वैहानसं गार्द्धपृष्ठमन्यद्वा बालमरणं प्रतिपद्यत |
इति, यदिवा हन्यमानोऽपि सबाह्याभ्यन्तरतया तपःपरीपहोपसग्गैः फलकवदवतिष्ठते न कातरीभवति, तथा कालेनो-II पनीतः कालोपनीतो-मृत्युकालेनान्यवशतां प्रापितः सन् द्वादशवर्षसंलेखनयाऽऽत्मानं संलिख्य गिरिगहरादिस्थण्डिल
पादपोपगमनेङ्गितमरणभक्तपरिज्ञान्यतरावस्थोपगतः 'कालं' मरणकालमायुष्कक्षयं यावच्छरीरस्य जीवेन सार्द्ध भेदो भर वति तावदाकाडे, अयमेव च मृत्युकालो यदुत शरीरभेदो, न पुनर्जीवस्यात्यन्तिको विनाशोऽस्तीति । इतिरधिकारपरिसमाप्ती, वीमीत्यादिकं पूर्ववदिति, पञ्चमोद्देशकः, तत्समाप्तौ समाप्तं धूताख्यं षष्ठमध्ययनमिति ॥ ०८३५ ।।
दीप अनुक्रम [२०९]
+
-
-
पूर्वकालात् अध्ययन - ७ व्युच्छिन्नम्, स्वयं वृत्तिकारेण अस्य अध्ययन-विषये न किंचित् अपि कथितम् |
~2324
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक H], मूलं [१९६...,नियुक्ति: [२५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१९६]]
दीप अनुक्रम [२०९]
श्रीआचाअथाष्टमं विमोक्षाध्ययनम् (सप्तमं व्युच्छिन्नम्)
विमो०८ रावृत्तिः
उद्देशका (शी०)
उक्तं षष्ठमध्ययन, अथ सप्तमाष्टमाध्ययनमारभ्यते, अधुना सप्तमाध्ययनस्य महापरिज्ञाख्यस्यावसरः, तच व्यवच्छि-| ॥२५९॥ नमितिकृत्वाऽतिलचाष्टमस्य सम्बन्धो वाच्यः, स चायम्-इहानन्तराध्ययने निजकर्मशरीरोपकरणगौरवत्रिकोपसर्ग-18
सन्मानविधूननेन निःसङ्गताऽभिहिता, सा चैवं साफल्यमनुभवति यद्यन्तकालेऽपि सम्यग्निर्याणं स्थादित्यतः सम्यग्निर्या
णप्रतिपादनायेदमारभ्यते, यदिवा निःसङ्गविहारिणा नानाविधाः परीषहोपसर्गाः सोढव्या इत्येतत्प्रतिपादितं, तत्र मारदाणान्तिकोपसर्गनिपाते सति अदीनमनस्केन सम्यग्नियोणमेव विधेयमित्यस्यार्थस्य प्रतिपादनायेदमारभ्यते इत्यनेन स-18 INम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमद्वारायातोर्थाधिकारी द्वधा, तत्रा जाप्यध्ययनार्थाधिकारः प्रागभिहितः, उद्देशार्थाधिकारं तु नियुक्तिकारो विभणिषुराह
असमणुन्नस्स विमुक्खो पढमे बिइए अकप्पियविमुक्खो। पडिसेहणा य रहस्स चेव सम्भावकहणा य ॥२५३॥ तइयंमि अंगचिट्ठाभासिय आसंकिए य कहणा य । सेसेसु अहीगारो उवगरणसरीरमुक्खेसु ॥ २५४ ॥ उसंमि चउत्थे बेहाणसगिद्धपिट्ठमरणं च । पंचमए गेलन्नं भत्तपरिक्षा य बोद्धब्बा ।। २५५ ॥ ण्ट्ठमि उ एग इंगिणिमरणं च होइ बोद्धव्वं । सत्तमए पडिमाओ पायवगमणं च नायब्वं ।। २५६ ॥
॥ २५९॥
अष्टम-अध्ययनं 'विमोक्ष' आरब्धः,
~2334
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...],नियुक्ति: [२५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९६]
दीप अनुक्रम [२०९]
|| अणुपुब्बिविहारीणं भत्तपरिन्ना य इंगिणीमरणं । पायवगमणं च तहा अहिगारो होइ अट्ठमए ॥ २५७ ॥ ML अत्रायोद्देशकेऽयमर्थाधिकारः, तद्यथा-असमनुज्ञानाम-समनोज्ञानां वा प्रयाणां त्रिपश्यधिकानां प्रावादुकशतानां विमोक्षः-परित्यागः कार्यः, तथा तदाहारोपधिशय्यातदृष्टिपरित्यागश्च, पार्श्वस्थादयः पुनश्चारित्रतपोविनयेष्वसमनोज्ञाः, यथाच्छन्दास्तु पञ्चस्वपि ज्ञानाचारादिष्वसमनोज्ञास्तेषां यथायोगं त्यागो विधेय इति ।। द्वितीये तु अकल्पिकस्य-आधाकर्मादेविमोक्षः-परित्यागः कार्यो, यदिवाऽऽधाकर्मणा कश्चिन्निमन्त्रयेत् , ततः प्रतिषेधो विधेयः, तत्प्रतिषेधे च रुष्टस्य। सतः सिद्धान्तसद्भावः कथनीयो यथैवम्भूतं दानं तव मम च न गुणायेति २। तृतीये तूदेशकेऽयमाधिकारः, तद्यथागोचरगतस्य यतेः शीतादिना कम्पनादिकायामङ्गचेष्टायां सत्यां गृहस्थस्येयमारेका स्याद् यथा-ग्रामधम्मैरुद्वाध्यमानस्य शृङ्गारभावावेशादस्य यतेः कम्पनमित्येवं भाषिते आशङ्कितवा तदाशङ्काव्युदासाय यथावस्थितार्थकथना क्रियत इति३ । शेषेषु तूद्देशकेषु पञ्चस्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा-उपकरणशरीराणां विमोक्षः-परित्यागस्तद्विषयः समासतो व्यासतस्तूच्यतेचतुथोंद्देशके त्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा-वहानसम्-उद्बन्धनं गार्द्धपृष्ठम्-अपरमांसादिहृदयन्यासाद्द्धादिनाऽऽत्मव्यापा-1 दनम् , एतत् प्रकारद्वयं मरणं वाच्यं ।। पञ्चमके तुम्लानता भक्तपरिज्ञा च बोद्धव्या ५। षष्ठे त्वेकत्वम्-एकत्वभावना तथेगितमरणं च बोद्धव्यं । सप्तमकेषु प्रतिमा:-भिक्षुप्रतिमा मासादिका वाच्याः, तथा पादपोपगमनं च ज्ञातव्यमिति ७।अटमके त्वयमाधिकारः, स्तद्यथा-अनुपूर्वविहारिणां-प्रतिपालितदीर्घसंयमानां शास्त्रार्थग्रहणप्रतिपादनोत्तरकालमवसीदत्संयमाध्ययनाध्यापनक्रियाणां निष्पादितशिष्याणामुत्सर्गतः द्वादशसंवत्सरसंलेखनाक्रमसंलिखितदेहानां भक्तपरिज्ञेशित
Auditurary.com
~234~
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...],नियुक्ति: [२५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
विमो०८ उद्देशकार
प्रत सूत्रांक [१९६]
राङ्गवृत्तिः
(शी०) ॥२६॥
मरणं पादपोपगमनं वा यथा भवति तथोच्यत इति गाथापञ्चकसमासार्थो, व्यासार्थस्तु प्रत्युद्देशकं वक्ष्यते । निक्षेपस्तु त्रिधा-ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नश्चेति, तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययन, नामनिष्पन्ने तु विमोक्ष इति | नाम, तत्र विमोक्षस्य निक्षेपं चिकीर्षुः नियुक्तिकार आह
नामंठवणविमुक्खो दव्वे खित्ते य काल भावे य । एसो उ विमुक्खस्सा निक्खेवो छविहो होइ ॥२५८॥ | नामविमोक्षः स्थापनाविमोक्षो द्रव्यविमोक्षः क्षेत्रविमोक्षः कालविमोक्षो भावविमोक्षश्चेत्येवं विमोक्षस्य निक्षेपः षोढा भवतीति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थप्रतिपादनाय तु सुगमनामस्थापनाव्युदासेन द्रव्यादिविमोक्षप्रतिपादनद्वारेणाह
दव्वविमुक्खो नियलाइएम खित्तंमि चारपाईसुं। काले चेइयमहिमाइएमु अणघायमाईओ ॥२५९ ॥ द्रव्यविमोक्षो द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्को निगडादिकेषु विषयभूतेषु यो विमोक्षः स द्रव्यविमोक्षः, सुव्यत्ययेन वा पञ्चम्यर्थे सप्तमी, निगडादिभ्यो द्रव्येभ्यः सकाशाद्विमोक्षो द्रव्यविमोक्षः, अपरकारकवचनसम्भवस्तु स्वयमभ्यूद्यायोज्यः, तद्यथा-द्रव्येण द्रव्यात् सचित्ताचित्तमिश्राद्विमोक्ष इत्यादि, क्षेत्रविमोक्षस्तु यस्मिन् क्षेत्रे चारकादिके व्यवस्थितो विमुच्यते क्षेत्रदानाद्वा यस्मिन्या क्षेत्रे व्यावयेते स क्षेत्रविमीक्षा, कालविमोक्षस्तु चैत्यमहिमादिकेषु कालेवनाधातादिघोषणापादितो यावन्तं कालं मुच्यते यस्मिन्या काले व्याख्यायते सोऽभिधीयते इति गाथार्थः ॥ भावविमोक्षप्रतिपादनायाहदुविहो भावविमुक्खो देसविमुक्खो य सब्वमुक्खो य । देसविमुक्खा साहू सव्वविमुक्खा भवे सिद्धा ॥२६०॥
दीप अनुक्रम [२०९]
--
%
॥२६
॥
6
~2354
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...],नियुक्ति: [२६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९६]
-
दीप अनुक्रम [२०९]
भावविमोक्षो द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चोपयुक्तो, नोआगमतस्तु द्विधा-देशतः सर्वदातच, तत्र देशतोऽविरतसम्यग्दृष्टिनामाद्यकषायचतुष्कक्षयोपशमाद्देशविरतानामाद्याष्टकषायक्षयोपशमाद्भवति, साधूनां
च द्वादशकषायक्षयोपशमात् क्षपकरेण्यां च यस्य यावन्मात्रं क्षीणं तस्य तत्क्षयादेशविमुक्ततेल्यतः साधवो देशविमुक्ता, भवस्थकेवलिनोऽपि भवोपनाहिसद्भावाद्देशविमुक्ता एव, सर्वविमुक्ताश्च सिद्धा भवेयुः इति गाथार्थः ॥ ननु वन्धपूर्वकत्वामोक्षस्य निगडादिमोक्षवदित्याशङ्काव्यवच्छेदार्थ बन्धाभिधानपूर्वकं मोक्षमाहकम्मयव्वेहि समं संजोगो होइ जो उ जीवस्स । सो बंधो नायब्बो तस्स विओगो भवे मुक्खो ॥ २६१ ॥
कर्मद्रव्यः' कर्मवर्गणाद्रव्यैः 'सम' सार्द्ध यः संयोगो जीवस्य सवन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपो बद्धस्पृष्ट|निधत्तनिकाचनावस्थश्च ज्ञातव्यः, तथैकैको ह्यात्मप्रदेशोऽनन्तानन्तः कर्मपुद्गलैबंद्धः, बध्यमाना अप्यनन्तानम्ता एव, शेषाणामग्रहणयोग्यत्वात्, कथं पुनरष्टप्रकारं कर्म बनातीति चेद्, उच्यते, मिथ्यात्वोदयादिति, उक्कं च-"केहं णं भंते ! जीवा अह कम्मपगडीओ बंधति?, गोअमा! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जं कम्मं निअ-| च्छन्ति, दसणमोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छन्ति, मिच्छत्तेणं उइन्नेणं एवं खलु जीवे अढकम्मपगडीओ वं
पत्र कथमन्यथा? इत्येवंरूपा. २ क भदन्त । जीवा अष्टकर्मप्रकृतीनन्ति !, गीतम! ज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदयेन दर्शनावरणीय कर्म बनन्ति RI(उदयते), दर्शनमोहनीयस्य कर्मण उदयेन मिश्यात्वं चनन्ति (उदयते), मिथ्यावेन अदितेन एवं बळ जीवोऽटकर्मप्रकृतीमाति.
~2364
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...],नियुक्ति : [२६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९६]
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
॥२६१॥
दीप अनुक्रम [२०९]
धइ" यदिवाणेहतुप्पिअगत्तस्स रेणुओ लग्गई जहा अंगे। तह रागदोसणेहालियस्स कम्मपि जीवस्स ॥१॥"-13 विमो०८ त्यादि, तस्यैवम्भूतस्याष्टप्रकारस्य कर्मणः आस्रवनिरोधात् तपसाऽपूर्वकरणक्षपकश्रेणिप्रक्रमेण शैलेश्यवस्थायां वा योऽसौ
उद्देशकः१ हा वियोग:-क्षयः स मोक्षो भवेदिति गाथार्थः ॥ अस्य च प्रधानपुरुषार्थत्वात् प्रारब्धासिधाराबतानुष्ठानफलत्वात् तीथिकैः।
सह विप्रतिपत्तिसद्भावाच्च यथावस्थितमव्यभिचारि मोक्षस्य स्वरूपं दर्शयितुमाह, यदिवा पूर्व कर्मवियोगोद्देशेन मोक्षस्वरूपमभिहितं, साम्प्रतं जीववियोगोद्देशेन मोक्षस्वरूपं दर्शयितुमाहजीवस्स अत्तजणिएहि चेच कम्मेहिं पुत्ववद्धस्स । सब्वविवेगो जो तेण तस्स अह इत्तिओ मुक्खो ॥२२॥ | जीवस्यासण्येयप्रदेशात्मकस्य स्वतोऽनन्तज्ञानस्वभावस्यात्मनैव-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगपरिणतेन जनितानि-बानि यानि कर्माणि तैः पूर्वबद्धस्यानादिवन्धबद्धस्य प्रवाहापेक्षया तेन कर्मणा 'सर्वविवेकः' सर्वाभावरूपतया यो विश्लेषस्तस्य-जन्तोः 'अथे'त्युपप्रदर्शने एतावन्मात्र एव मोक्षो नापरः परपरिकल्पितो निर्वाणप्रदीपकल्पादिक इति गाथार्थः । उक्तो भावविमोक्षा, स च यस्य भवति तस्यावश्यं भक्तपरिज्ञादिमरणत्रयान्यतरेण मरणेन भान्यं, तत्र कार्ये कारणोपचारात् तन्मरणमेव भावविमोक्षो भवतीत्येतत्प्रतिपादयितुमाह
भत्तपरिन्ना इंगिणि पायवगमणं च होइ नायव्वं । जो मरइ चरिममरणं भावविमुक्खं वियाणाहि ॥२६॥ भक्तस्य परिज्ञा भक्तपरिज्ञाऽनशनमित्यर्थः, तत्र त्रिविधचतुर्विधाहारनिवृत्तिमान् सप्रतिकर्मशरीरो धृतिसंहननवान १हमक्षितगात्रमा रेणुलंगति यथाओ । तथा रागद्वेषन्नेहाईस्स कर्मापि जीया ॥१॥
6454
Gil||२६१॥
~237
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...],नियुक्ति: [२६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९६]
दीप अनुक्रम [२०९]
4MASSOSRASACROSORROS
यथा समाधिर्भवेत्तथाऽनशनं प्रतिपद्यते, तथेङ्गिते प्रदेशे मरणमिङ्गितमरणमिदं चतुर्विधाहारनिवृत्तिस्वरूपं विशिष्टसंह
ननवतः स्वत एचोद्वर्तनादिक्रियायुक्तस्यावगन्तव्यं, तथा परित्यक्तचतुर्विधाहारस्यैवाधिकृतचेष्टाध्यतिरेकेण चेष्टान्तरम*धिकृत्यैकान्तनिष्पतिकर्मशरीरस्य पादपस्येवोप-सामीप्येन गमनं- वर्तनं पादपोपगमनमेतच ज्ञातव्यं भवति, यो हि
भवसिद्धिकश्चरम-अन्तिम मरणमाश्रित्य म्रियते स एतत्पूर्वोक्तत्रयान्यतरेण मरणेन बियते, नान्येन वैहानसादिना वालमरणनेत्येतच्चानन्तरोक्तं मरणं चेष्टाभेदोपाधिविशेषात् त्रैविध्यमनुभवझायमोक्षं विजानीहीति गाथार्थः।। साम्प्रतमेतदेव मरणं सपराक्रमेतरभेदाद् द्विविधमिति दर्शयितुमाह| सपरिकमे य अपरिकमए य वाघाय आणुपुवीए । सुत्तत्थजाणएणं समाहिमरणं तु कायव्वं ॥ २०४॥ || 'पराक्रमः' सामर्थ्य सह पराक्रमेण वर्त्तत इति सपराक्रमस्तस्मिंश्च मरणं स्थात्, तद्विपर्यये चापराक्रमे-जावलपरिक्षीणे तद्भक्तपरिज्ञेङ्गितमरणपादपोपगमनभेदात्रिविधमपि मरणं सपराक्रमेतरभेदात् प्रत्येक द्वैविध्यमनुभवति, तदपि व्याघातिमेतरभेदात् द्विधा भवेत्, तत्र व्याघातः सिंहव्याघ्रादिकृतोऽव्याघातस्तु प्रव्रज्यासूत्रार्थग्रहणादिकयाऽऽनुपूव्यों || विपक्रिममायुष्कक्षयमनुभवतो यो भवति सोऽव्याघात इहानुपूर्वीत्युकं, तत्र परमार्थोपक्षेपेणोपसंहरति-व्याघातेनानुp वा सपराक्रमस्यापराक्रमस्य वा मरणे समुपस्थिते सति सूत्रार्थज्ञेन कालज्ञतया समाधिमरणमेव कर्तव्यं, भक्तपरिज्ञेजितमरणपादपोपगमनानामन्यतरद् यथासमाधि विधेयं, न वेहानसादिक बालमरणं कर्त्तव्यमिति गाथार्थः ॥ तत्र || सपराक्रममरणं दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह
I
Julturary.com
~238~
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...],नियुक्ति: [२६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराजवृत्तिः (शी०)
विमो०८ उहेशकार
सूत्रांक [१९६]
॥२६२॥
दीप अनुक्रम [२०९]
सपरकममाएसो जह मरणं होह अजवइराणं । पायवगमणं च तहा एयं सपरकर्म मरणं ॥२६५ ॥ सह पराक्रमेण वर्तत इति सपराक्रम, किं तत्-मरणं आदिश्यते-इत्यादेशः आचार्यपारम्पर्यश्रुत्यायातो वृद्धवादो यमैतिह्यमाचक्षते, स आदेशो 'यथे'त्युदाहरणोपन्यासार्थः, यथैतत्तथाऽन्यदप्यनया दिशा द्रष्टव्यं, 'आर्यवैरा'वैरस्वामिनो यथा तेषां मरणमभूत् तथा पादपोपगमनं च, एतच्च सपराक्रम मरणमन्यत्राप्यायोज्यमिति गाथार्थः।। भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तत्र प्रसिद्धमेव यथाऽऽर्यवैरैविस्मृतकर्णाहितशृङ्गाबेरैः प्रमादादवगतासन्नमृत्युभिः सपराक्रमैरेव रचावःशिखरिणि पादपोपगमनमकारीति । साम्प्रतमपराक्रम दर्शयितुमाह
अपरक्कममाएसो जह मरणं होइ उदहिनामाणं । पाओवगमेऽवि तहा एयं अपरक्कम मरणं ॥ २६६ ॥ आ न विद्यते पराक्रमः-सामर्थ्यमस्मिन्नित्यपराक्रम, किं तत्?-मरणं, तच्च यथा जङ्काबलपरिक्षीणानामुदधिनानाम्-आर्यसमु द्राणां मरणमभूद्, अयमादेशो-दृष्टान्तो वृद्धवादायात इति, पादपोपगमनेऽपि तथैवादेशं जानीयाद् यथा पादपोपगमनेन तेषां मरणमभूदिति, एतद्-अपराक्रम मरणं यदार्यसमुद्राणां सञ्जातमेवमन्यत्राप्यायोज्यमिति गाथाऽक्षरार्थः॥ भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-आर्यसमुद्रा आचार्याः प्रकृतिकृशा एवासन् , पश्चाच्च तैर्जावलपरिक्षीणः शरीराल्लाभमनपक्ष्य तत्तित्यक्षुभिर्गच्छस्थैरेवानशनं विधाय प्रतिश्रयैकदेशे निहारिमं पादपोपगमनमकारि ।। साम्प्रतं व्यापातिममाह
वाघाइयमाएसो अवरडो हुज्ज अन्नतरएणं । तोसलि महिसीह हओ एयं वाघाइयं मरणं ॥ २६७॥ विशेषेणाघातो व्याघातः-सिंहादिकृतः शरीरविनाशस्तेन निवृत्तं तत्र वा भयं व्याघातिम, कश्चिरिसंहाद्यन्यतरेणाप
॥२६२॥
~239~
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...],नियुक्ति : [२६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९६]
दीप अनुक्रम [२०९]
राद्धो भवेद्-आरब्धो भवेत् तेन यन्मरणं तद्व्याघातिमं, तत्र वृद्धवादायात आदेशो-दृष्टान्तः, यथा-तोसलिनामा-1 चार्यों महिण्याऽऽरव्यश्चतुर्विधाहारपरित्यागेन मरणमभ्युपगतवान् एतद्व्याघातिमं मरणमिति गाथाऽक्षरार्थो, भावार्थस्तु। कथानकादवसेयः, तवेदम्-तोसलिनामाचार्योऽरण्यमहिषीभिः प्रारब्धः, तोसलिदेशे वा बहुचो महिष्यः सम्भवन्ति, ताभिश्च कदाचिदेकः साधुरटव्यन्तर्वारब्धः, स च ताभिः क्षुद्यमानोऽनिर्वाहमवगम्य चतुर्विधाहारं प्रत्याख्यातवा-1 निति ॥ साम्प्रतमव्याधातिमप्रतिपादनेच्छयाऽऽह
अणुपुब्बिगमाएसो पव्वजामुत्सअस्थकरणं च । वीसजिओ(य)निन्तो मुको तिविहस्स नीयस्स ॥२६८॥ । आनुपूर्वी-क्रमस्तं गच्छतीत्यानुपूर्वीगा, कोऽसौ?-आदेशो-वृद्धवादः, स चाय, तद्यथा-पूर्वमुत्थितस्य प्रव्रज्यादान, ततः सूत्रकरणं पुनरर्थग्रहणं, ततस्तदुभयनिर्मातः सुपात्रनिक्षिप्तसूत्रार्थः गुर्वादिनाऽनुज्ञातोऽभ्युद्यतो मरणत्रिकान्यतराय 'निर्यन्' निर्गच्छन् त्रिविधस्याहारोपधिशय्याख्यस्य नित्यपरिभोगान्नित्यस्य मुक्तो भवति, तत्र यद्याचार्यस्तदा शिष्यान्निष्पाद्याऽपरमाचार्य विधायोत्सर्गेण द्वादशसांवत्सरिक्या संलेखनया संलिख्य ततो गच्छविसर्जितो गच्छानुज्ञया स्वस्थापिताचार्यविसर्जितो वा अभ्युद्यतमरणायापराचार्यान्तिकमियात्, एवमुपाध्यायः प्रवर्तिः स्थविरो गणावच्छेदकः सामान्यसाधुर्वाऽऽचार्यविसर्जितः कृतसंलेखनापरिका भक्तपरिज्ञादिकं मरणमभ्युपेयात्, तत्रापि भावसंलेखनां कुर्यात् ।। द्रव्यसंलेखनायां तु केवलायां दोषसम्भवादित्याहपडिचोइओ य कुविओ रपणोजह तिक्ख सीयला आणा। तंबोले य विवेगो घणया जा पसाओ य ॥२६९॥
~240
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...,नियुक्ति: [२६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराजवृत्तिः (शी०)
सूत्रांक
॥२६३॥
[१९६]
दीप अनुक्रम [२०९]
प्रतिचोदितः सन्नाचार्येण पुनरपि संलिखेत्येवमभिहितः 'कुपितः' क्रुद्धो यथा च राज्ञः पूर्व तीक्ष्णाज्ञा पश्चाच्छी-16 विमो०८ तलीभवति एवमाचार्यस्यापि, 'तम्बोले' नागवल्लीपत्रे च कुथिते शेषरक्षणाय 'विवेकः' परित्यागः कार्यः, ततः 'घ
उद्देशकार हना' कदर्थना कायों, तत्सहिष्णोः पश्चाद्यावत् प्रसाद इति गाथाऽक्षरार्थः, भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तवेदम्-ए-15 केन साधुना द्वादशवर्षसंलेखनयाऽऽत्मानं संलिख्य पुनरभ्युद्यतमरणायाचार्यों विज्ञप्तः, तेनाप्यभाणि-यथाऽद्यापि संलिख, ततोऽसौ कुपितः त्वगस्थिशेषामङ्गली भक्त्वा दर्शयति, किमत्राशुद्धमिति !, आचार्योऽपि येनाभिप्रायेणोक्तवाँस्तमाविष्करोति-अत एवाशुद्धो भवान्, यतो वचनसमनन्तरमेवाङ्गलीभङ्गद्वारेण भावाशुद्धतामाविष्कृतवानित्युक्त्वा-16 |ssचार्यस्तत्प्रतिबोधनाय दृष्टान्तं दर्शयति, यथा-कस्यचिद्राज्ञो नित्यं निष्पन्दिनी लोचने, ते च स्ववैद्योपन्यस्तानुष्ठानवतोऽपि न स्वस्थतामियातां, पुनरागन्तुकेन वैद्यनाभिहितः-स्वस्थीकरोमि भवन्तं यदि मुहूर्त वेदनां तितिक्षसे वेदनार्तश्च न मां घातयसीति, राज्ञा चाभ्युपगतं, अञ्जनप्रक्षेपानन्तरोद्भूततीनवेदनातैनापगते ममाक्षिणी इत्येवंवादिना व्यापादयितुमारेभे, ततो राज्ञस्तीक्ष्णाज्ञा, यतश्च पूर्वमव्यापादनमभ्युपगतमतः शीतलेति, मुहूर्ताच्चापगतवेदनः पटुनयनश्च पूजितवैद्यो मुमुदे राजेति, एवमाचार्यस्यापि तीक्ष्णा प्रतिचोदनादिकाऽऽज्ञा परमार्थतस्तु शीतलेति, यदि पुनरेवं कथितेऽपि नोपशाम्यति ततः शेषसंरक्षणार्थ विकृतनागवल्लीपत्रस्येव विवेकः क्रियते, अथाचार्योपदेशं प्रतिपद्यते ततो गच्छ एव ति
तो घटना दुर्वचनादिभिः कदर्थना क्रियते, यदि च तथापि न ज्वलति ततः शुज इतिकृत्वाऽनशनदानेन प्रतिजा- ॥२६३। गरणेन च प्रसादः क्रियत इति ।। किम्भूतः पुनः कियन्तं वा कालं कथं वाऽऽत्मानं संलिखेदित्येतत् हदि व्यवस्थाप्याह
amitaram.org
~241~
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...],नियुक्ति: [२७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९६]
दीप अनुक्रम [२०९]
निफाईया य सीसा सजणी जह अंडगं पयत्तेणं । बारससंवच्छरियं सो संलेह अह करेइ ।। २७० ॥ चत्तारि विचित्ताई पिगईनिज्जूहियाई चत्तारि । संवच्छरे य दुन्नि उ एगंतरियं तु आयाम ॥ २७१॥ नाइविगिट्ठो उ तवो छम्मासे परिमियं तु आयामं । अन्नेऽवि य छम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्मं ॥२७२॥ वासं कोडीसहियं आयाम काउ आणुपुब्बीए । गिरिकंदरंमि गंतुं पायवगमणं अह करेइ ॥ २७३ ॥ सूत्रार्थतदुभयैः स्वशिष्याः प्रातीच्छका वा 'निष्पादिता' योग्यतामापादिताः शकुनिनेवाण्डक प्रयलेन, ततोऽसौ | अथ अनन्तरं द्वादशसांवत्सरिकी संलेखनां करोति, तद्यथा-चत्वारि वर्षाणि 'विचित्राणि' विचित्रतपोऽनुष्ठानवन्ति । भवन्ति, चतुर्थषष्ठाष्टमदशमद्वादशादिके कृते पारणकं सविकृतिकमन्यथा वेति, पञ्चमादारभ्य संवत्सरादपराणि चत्वारि वर्षाणि निर्विकृतिकमेव पारणकमिति, नवमदशमसंवत्सरद्वयं त्वेकान्तरितमाचाम्लमेकस्मिन्नहनि चतुर्थमपरेधुराचाम्लेन पारणकमिति, तत एकादशसंवत्सरं द्विधा विधत्ते-तत्राचं षण्मासं नातिविकृष्टं तपः करोति, चतुर्थ षष्ठं वा || विधाय परिमितेनाचाम्लेन पारण विधत्ते, न्यूनोदरतां करोतीत्यर्थः, अपरषण्मासं तु विकृष्टतपश्चरणवतः पूर्वोक्त-15 मेव पारणक, द्वादशं तु संवत्सरं कोटीसहितमाचाम्लं करोति, प्रतिदिनमाचाम्लेन भुले, आचाम्लस्य कोव्याः कोटिं| मीलयत्यतः कोटीसहितमित्युक्तं, चतुर्मासावशेषे तु संवत्सरे तैलगण्डूषानस्खलितनमस्काराद्यध्ययनायापगतवातमुखय
प्रचारार्थ पौनःपुन्येन करोतीति, तदेवमनयाऽऽनुपूर्त्या सर्व विधाय सति सामर्थे गुरुणाऽनुज्ञातो गिरिकन्दरं Mगत्वा स्थण्डिलं प्रत्युपेक्ष्य 'अर्थ' अनन्तरं पादपोपगमनं करोति, इङ्गितमरणं वा भक्तप्रत्याख्यानं वा यथासमाधि
घर
RERATrana
murary.orm
~242~
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९६...,नियुक्ति: [२७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
(शी)
सूत्रांक [१९६]
दीप अनुक्रम [२०९]
श्रीआचा- विधत्त इति गाथाचतुष्टयार्थः । अनया च द्वादशसंवत्सरसलेखनाऽऽनुपूर्व्या क्रमेण आहारं परितर्नु कुर्वत आहाराभिला- विमो०८ राजवृत्तिःपोच्छेदो भवतीत्येतद्गाथाद्वयेन दर्शयितुमाह____कह नाम सो तचोकम्मपंडिओ जो न निचुजुत्तप्पा । लहुवित्तीपरिक्खेवं बच्चइ जेमंतओ चेव ? ॥२७४ ॥
उद्देशकः१ आहारेण विरहिओ अप्पाहारो य संवरनिमित्तं । हासंतोहासंतो एवाहारं निरूभिजा ।। २७५॥ ॥२६४॥
कथं नामासी तपःकर्मणि पण्डितः स्यात् ?, यो न नित्यमुद्युक्तात्मा सन् वर्त्तनं वृत्तिः-द्वात्रिंशत्कवलपरिमाणल-13 दक्षणा तस्याः परिक्षेपः-संक्षेपो वृत्तिपरिक्षेपः लघुर्वृत्तिपरिक्षेपोऽस्येति लघुवृत्तिपरिक्षेपः तद्भावं यो भुञ्जान एव न व्रजति
कथमसौ तपःकर्मणि पण्डितः स्यात्, तथाऽऽहारेण विरहितो द्वित्रान् पञ्चषान् वा वासरान् स्थित्वा पुनः पारयति त-15
त्राप्यल्पाहारोऽसौ भवति, किमर्थ ?-'संवरनिमित्तम्' अनशननिमित्तं, एवमसावुपवासैः प्रतिपारणकमल्पाहारतया च | हाहासयन् हासयन्नाहारमुक्तविधिना पश्चान्निरुन्ध्याद्-भक्तप्रत्याख्यानं कुर्यादिति गाथाद्वयार्थः ।। उक्तो नामनिष्पन्नो नि|क्षेपस्तनियुक्तिश्च, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
से बेमि समणुन्नस्स वा असमणुनस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंच्छणं वा नो पादेजा नो निमंतिजा नो कुज्जा
॥२६४ वेयावडियं परं आढायमाणे तिबेमि (सू० १९७)
अष्टम-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'असमनोज्ञ विमोक्ष' आरब्धः,
~243~
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९७],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९७]
दीप
Kा सोऽहं ब्रवीमि योऽहं भगवतः सकाशात् ज्ञातज्ञेय इति, किं तद्वीमि ?-वक्ष्यमाण, तयथा-'समनोज्ञस्य था । दावाशब्द उत्तरापेक्षया पक्षान्तरोद्योतकः, समनोज्ञो दृष्टितो लिङ्गतो न तु भोजनादिभिः तस्य, तद्विपरीतस्त्वसमनोज्ञः-IIX
शाक्यादिस्तस्य था, अश्यत इत्यशनं-शाल्योदनादि, पीयत इति पानं-द्राक्षापानकादि, खाद्यत इति खादिम नालि-| केरादि, स्वाद्यत इति स्वादिम-कर्पूरलवङ्गादि, तथा वखं वा पात्रं वा पतदहं वा कम्बलं वा पादपुन्छनं वा, नो प्रदद्यात्-मासुकमप्रासुकं वा तद्न्येषां कुशीलानामुपभोगाय नो वितरेत् , नापि दानार्थं निमन्त्रयेत् , न च तेषां वैया|वृत्त्यं कुर्यात्, परम्-अत्यर्थमाद्रियमाण इति, अत्यर्थमादरवान तेभ्यः किमपि दद्यात् नापि तानामन्त्रयेत् न च तेषां चैयावृत्त्यमुच्चावचं कुर्यादिति, ब्रवीमीत्यधिकारपरिसमाप्तौ ॥ एतच्च वक्ष्यमाणमहं अबीमीत्याह
धुवं चेयं जाणिज्जा असणं वा जाव पायपुंछणं वा लभिया नो लभिया भुंजिया नो भुंजिया पंथं विउत्ता विउक्कम्म विभत्तं धम्म जोसेमाणे समेमाणे चलेमाणे पाइजा
वा निमंतिज वा कुज्जा वेयावडियं परं अणाढायमाणे तिबेमि (सू० १९८) KI ते हि शाक्यादयः कुशीला अशनादिकमुपदश्वं ब्रयुः, यथा-भू चैतज्जानीयात्-नित्यमस्मदावसथे भवति लभ्यते |
वाऽतो भवद्भिरेतदशनादिकमन्यत्र लब्ध्वावाऽलब्ध्वा वा भुवया बाऽभुक्त्या वा अस्मदृतयेऽवश्यमागन्तव्यं, अलब्धे
अनुक्रम २१०]
था. सू.४५
CARE
~244~
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९८],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
-%
प्रत
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
विमो०८ उद्देशक
सूत्रांक [१९८]
--00-00
॥२६५॥
दीप
लाभाय लब्धेऽपि विशेषाय भुक्ते पुनः पुनर्मोजनायाभुक्तेऽपि प्रथमालिकार्थमस्मद्धृतये यथाकथञ्चिदागन्तव्यं, यद्यथा वा भवतां कल्पनीयं भवति तत्तथा दास्याम इति, अनुपथ एवास्मदावसथो भवतां वर्तते, अन्यथाऽप्यस्मत्कृते पन्थानं व्यावापि चक्रपथेनाप्यागन्तब्यमपक्रम्य वाऽन्यगृहाणि समागन्तव्यं, नात्रागमने खेदो विधेयः, किम्भूतोऽसौ शाक्यादिरिति दर्शयति-'विभक्त' पृथग्भूतं धर्म 'जुपन्' आचरन् , एतच्च कदाचित्पतिश्रयमध्येन 'समेमाणे'त्ति समागच्छन् तथा 'चलेमाणे'त्ति गच्छन् ब्रूयाद् यदिवाऽशनादि प्रदद्यात् अशनादिदानेन वा निमन्त्रयेदन्यद्वा प्रश्रयबद्वैयावृत्त्यं कुर्यात् , तस्य कुशीलस्य नाभ्युपेयात् न तेन सह संस्तवमपि कुर्यात् , कथं परम्-अत्यर्थमनाद्रियमाणः-अनादरवान्, एवं हि दर्शनशुद्धिर्भवतीति ब्रवीमीत्येतत्पूर्वोक्तं ॥ यदि वैतद्वक्ष्यमाणमित्याह
इहमेगेसिं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवति ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हण पाणे घायमाणा हणओ यावि समणुजाणमाणा अदुवा अदिन्नमाययंति अदुवा वायाउ विउजंति, तंजहा-अस्थि लोए नत्थि लोए धुवे लोए अधुवे लोए साइए लोए अणाइए लोए सपज्जवसिए लोए अपज्जवसिए लोए सुकडेति वा दुक्कडेत्ति वा कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा साहुत्ति वा असाहुत्ति वा सिद्धित्ति वा असिद्धित्ति वा नि
अनुक्रम [२११]
200-09-122
81२६५॥
~2454
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९९],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९९]]
दीप अनुक्रम [२१२]
रएत्ति वा अनिरएत्ति वा, जमिणं विप्पडिवन्ना मामगं धम्म पन्नवेमाणा इत्थवि जा
णह अकस्मात् एवं तेसिं नो सुयक्खाए धम्मे नो सुपन्नत्ते धम्मे भवइ (सू० १९९) 'हा' अस्मिन्मनुष्यलोके 'एकेषां' पुरस्कृताशुभकर्मविपाकानामाचरणमाचारो-मोक्षार्थमनुष्ठानविशेषस्तस्य गोचरो-18|| विषयःनो सुष्ठ निशान्तः-परिचितो भवति, ते चापरिणताचारगोचरा यथाभूताः स्युः तथा दर्शयितुमाह-'ते' अनधी-12 ताचारगोचरा भिक्षाचर्याऽस्मानस्वेदमलपरीपहतर्जिताः सुखविहारिभिः शाक्यादिभिरात्मसात्परिणामिताः 'इह' मनुष्यलोके आरम्भार्थिनो भवन्ति, ते वा शाक्यादयोऽन्ये या कुशीलाः सावद्यारम्भार्थिनः, तथा विहारारामतडागकूपकरणोदेशिकभोजनादिभिर्धम्म वदन्तोऽनुवदन्तः, तथा जहि प्राणिन इत्येवमपरैर्घातयन्तो नतश्चापि समनुजानन्तः, अथवा अदत्तं परकीयं द्रव्यमगणितविपाकास्तिरोहितशुभाध्यवसायाः 'आददति' गृह्णन्तीति, किं च-तत्र प्रथमतृतीयत्रते अल्पवक्तव्यत्वात् पूर्व प्रतिपाद्य ततो बहुतरवक्तव्यत्वात् द्वितीयव्रतोपन्यास इति, 'अथवेति' पूर्वस्मात् पक्षान्तरोपक्षेपकः, तद्यथा अदत्तं गृह्णन्त्यथवा वाचो विविध-नानाप्रकारा युञ्जन्ति, 'तद्यथे' युपक्षेपार्थः, अस्ति 'लोक' स्थावरजङ्गमात्मका, तत्र नवखण्डा पृथ्वी सप्तद्वीपा वसुन्धरेति वा, अपरेषां तु ब्रह्माण्डान्तर्वती, अपरेषां तु प्रभूतान्येवम्भूतानि ब्रह्माण्डान्युदकमध्ये प्लवमानानि संतिष्ठन्ते, तथा सन्ति जीवाः स्वकृतफलभुजः, अस्ति परलोकः, स्तो बन्धमोक्षी, सन्ति पञ्च महाभूतानि इत्यादि, तथाऽपरे चार्वाका आहुः-नास्ति लोको मायेन्द्रजालस्वप्रकल्पमेवैतत्सर्वं, तथा ह्यविचारितरमणी
For P
OW
~246~
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९९],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [१९९]]
दीप
श्रीआचा- यतया भूताभ्युपगमोऽपि तेषामतो नास्ति परलोकानुयायी जीवो, न स्तः शुभाशुभे, किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद्भूतेभ्य PA विमो०८ राजवृत्तिः एव चैतन्यमित्यादिना सर्व मायाकारगन्धर्वनगरतुल्यम्, उपपत्त्यक्षमत्वादिति, उक्तं च-"यथा यथाऽथोश्चिन्त्यन्ते, (शी०) | विविच्यन्ते तथा तथा । यद्येतत्स्वयमर्थेभ्यो, रोचते तत्र के वयम् ॥१॥ भौतिकानि शरीराणि, विषयाः करणानि |
उद्देशका च । तथापि मन्दैरन्यस्य, तत्वं समुपदिश्यते ॥ २ ॥” इत्यादि, तथा साङ्ख्यादय आहुः-'ध्रुवों' नित्यो लोकः, | आविर्भावतिरोभावमात्रत्वादुत्पादविनाशयोः, असतोऽनुत्पादात् सतश्चाविनाशात्, यदिवा 'ध्रुवः' निश्चलः, सरि
समुद्रभूभूधराभ्राणां निश्चलत्वात् , शाक्यादयस्त्वाहुः-अधुवो लोकोऽनित्यः, प्रतिक्षणं विशरारुस्वभावत्वात्, विनाश-| दहतोरभावात् नित्यस्य च क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियायामसामर्थ्यात् , यदिवा 'अध्रुवः' चलः, तथाहि-भूगोलः केषा
चिन्मतेन नित्यं चलन्नेवास्ते, आदित्यस्तु व्यवस्थित एव, तत्रादित्यमण्डलं दूरत्वाचे पूर्वतः पश्यन्ति तेषामादित्योदयः आदित्यमण्डलाधो व्यवस्थितानां मध्याह्नः ये तु दूरातिक्रान्तत्वान्न पश्यन्ति तेषामस्तमित इति, अन्ये पुनः सादिको
लोक इति प्रतिपन्नाः, तथा चाहः-"आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतयमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः Pu१॥ तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजङ्गमे । नष्टामरनरे चैव, प्रनष्टोरगराक्षसे ॥२॥ केवलं गहरीभूते, महाभूतवि-|
वर्जिते । अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः॥३॥ तस्य तत्र शयानस्य, नाभेः पं विनिर्गतम् । तरुणरवि-1 मण्डलनिर्भ, हयं काशनकर्णिकम् ॥ ४॥ तस्मिन् पझे तु भगवान् दण्डी यज्ञोपवीतसंयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोपनस्तेन जग- ॥ २६६॥ न्मातरा सृष्टाः॥५॥ अदितिः सुरसानां दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणाम् । विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकारा
अनुक्रम [२१२]
CCCCCC
~247
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९९],नियुक्ति: [२७५]
प्रत सूत्रांक [१९९]]
णाम् ॥ ६॥ कद्रूः सरीसृपाणां सुलसा माता तु नागजातीनाम् । सुरभिश्चतुष्पदानामिला पुनः सर्वबीजानाम् ॥ ७॥" इत्यादि, अपरे तु पुनरनादिको लोक इत्येवं प्रतिपन्नाः, यथा शाक्या एवमाहुः-अनवदनोऽयं भिक्षवः! संसारः, पूर्वा च कोटी न प्रज्ञायते, अविद्या निरावरणानां सत्त्वानां न विद्यते, न च सत्त्वोसाद इति, तथा सपर्यवसितो लोको, जगालये सर्वस्य विनाशसद्भावात्, तथाऽपर्यवसितो लोकः, सतः आत्यन्तिकविनाशासम्भवात् , 'न कदाचिदनीदृशं जगदिति वचनात् , तत्र येषां सादिकस्तेषां सपर्यवसितो येषां त्वनादिकस्तेषामपर्यवसित इति, केषाश्चित्तूभयमपीति, तथा चोक्तम्-"द्वावेव पुरुषी लोके, क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१॥" इत्यादि, तदेवं परमार्थमजानाना अस्तीत्याद्यभ्युपगमेन लोकं विवदमानाः नानाभूता वाचो नियुञ्जन्ति, तथाऽऽत्मानमपि प्रति विवदन्ते, तद्यथा-सुप्तु कृतं सुकृतमिति वा दुष्कृतमिति वेत्येवं क्रियावादिनः संप्रतिपद्यन्ते, तथा सुष्ट कृतं यत् सर्व-14 सङ्गपरित्यागतो महानतमनाहि, तथाऽपरे दुष्कृतं भवता यदसौ मुग्धमृगलोचना पुत्रमनुत्पाद्योज्झितेति, तथा य एव कश्चित्वज्योद्यतः कल्याण इत्येवमभिहितः स एवापरेण पाखण्डिकविप्रलब्धः क्लीवोऽयं गृहाश्रमपालनासमर्थोऽनपत्यः पाप इत्येवमभिधीयते, तथा साधुरिति वा असाधुरिति वा स्वमतिविकल्पितरुचिभिरभिधीयते, तथा सिद्धिरिति वा असिद्धिरिति वा नरक इति वा अनरक इति वा, एवमन्यदप्याश्रित्य स्वाग्राहिणो विवदन्त इति दर्शयति, 'यदिदं विप्रतिपन्ना' यत्पूर्वोक्तं लोकादिकं तदिदमाश्रित्य विविधं प्रतिपन्ना-विप्रतिपन्नाः, तथा चोक्तम्-"इच्छंति कृत्रिमं सृष्टिवादिनः सर्वमेव मितिलिङ्गम् । कृत्स्नं लोकं माहेश्वरादयः सादिपर्यन्तम् ॥१॥ नारीश्वरजं केचित् केचित्सोमाग्निसम्भव
दीप अनुक्रम [२१२]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
~248~
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९९],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
विमो०८
प्रत
श्रीआचा- राजवृत्तिः (शी०)
उद्देशकः१
सूत्राक [१९९]
॥२६७॥
दीप अनुक्रम [२१२]
लोकम् । द्रव्यादिषड़िकल्पं जगदेतत्केचिदिच्छन्ति ॥२॥ ईश्वरप्रेरितं केचित्केचिब्रह्मकृतं जगत् । अव्यक्तप्रभवं सर्व, विश्वमिच्छन्ति कापिलाः ॥ ३॥ यादृच्छिकमिदं सर्व, केचिद्भूतधिकारजम् । केचिच्चानेकरूपं तु, बहुधा संप्रधाविताः ॥४॥" इत्यादि, तदेवमनवगाहितस्याद्वादोदन्वतामेकांशावलम्बिनां मतिभेदाः प्रादुफ्ष्यन्ति, तदुक्तम्-"लोकक्रिया- ऽऽत्मतत्त्वे विवदन्ते वादिनो विभिन्नार्थम् । अविदितपूर्व येषां स्याद्वादविनिश्चितं तत्त्वम् ॥१॥" येषां तु पुनः स्याद्वादमतं निश्चितं तेषामस्तित्वनास्तित्वादेरर्थस्य नयाभिप्रायेण कथञ्चिदाश्रयणात् विवादाभाव एवेति, अत्र च बहु वक्तव्यं तत्त नोप्यते, अन्धविस्तरभयाद्, अन्यत्र च सूत्रकृतादौ विस्तरेण सुविहितत्वादिति । ते च विवदन्तः परस्परतो विप्रतिपन्नाः। |'मामकम्' इत्यात्मीयं धर्म प्रज्ञापयन्तः स्वतो नष्टाः परानपि नाशयन्ति, तथाहि केचित्सुखेन धर्ममिच्छन्ति अपरे
दुःखेनान्ये स्नानादिनेति, तथा मामक एवैको धर्मो मोक्षायानिर्वाच्यश्च नापर इत्येवं वदन्तोऽपुष्टधर्माणोऽविदितपर8 मार्थान् प्रतारयन्ति, तेषामुत्तरं दर्शयति-'अत्रापि' अस्ति लोको नास्ति वेत्यादी जानीत यूयम् 'अकस्मादिति मागधदेशे।
आगोपालाङ्गनादिना संस्कृतस्यैवोच्चारणादिहापि तथैवोच्चारित इति, कस्मादिति हेतुर्न कस्मादकस्माद् हेतोरभावादित्यर्थः, तत्रास्ति लोक इत्युक्तेऽत्राप्येवं जानीत यथा न भवत्येवमकस्माद्, हेतोरभावादिति, तथाहि-यद्येकान्तेनैव लोकोऽस्ति ततोऽस्तिना सह समानाधिकरण्याद्यदस्ति तल्लोकः स्याद् एवं च तत्प्रतिपक्षोऽप्यलोकोऽस्तीतिकृत्वा लोक एवालोकः स्याद्, व्याप्यसद्भावे व्यापकस्यापि सद्भावादलोकाभावः, तदभावे च तत्प्रतिपक्षभूतस्य लोकस्य प्रागेवाभावः सर्वगतत्वं वा लोकस्य स्यादिति, अथवा लोकोऽस्ति, न च लोको भवति, लोकोऽपि नामास्ति, न च लोकोऽलोकाभाव इत्येवं
॥२६७॥
~249~
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१९९],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९९]]
दीप अनुक्रम [२१२]
स्थाद्, अनिष्टं चैतत् , किंच-अस्तेापकत्वे लोकस्य घटपटादेरपि लोकत्वप्राप्तिः, व्याप्यस्य व्यापकसद्भावनान्तरीयकर त्वात् , किं च-अस्ति लोकः इत्येषापि प्रतिज्ञा लोक इतिकृत्वा हेतोरप्यस्तित्वात्, प्रतिज्ञाहेत्वोरेकत्वावाप्तिः, तदेकत्वे हेत्व
भावः, तदभावे किं केन सिक्ष्यतीति?, उतास्तित्वादन्यो लोक इत्येवं च प्रतिज्ञाहानिः स्यात्, तदेवमेकान्तेनैव लोकास्तित्वेऽभ्युपगम्यमाने हेत्वभावः प्रदर्शितः, एवं नास्तित्वप्रतिज्ञायामपि वाच्यं, तथाहि-नास्ति लोक इति ब्रुवन् वाच्यःकिं भवानस्त्युत नेति ?, यद्यस्ति किं लोकान्तर्वी न वेति, यदि लोकान्तर्गतः कथं नास्ति लोक इति ब्रवीषि?, अथ बहिर्भूतस्ततः खरविषाणबदसद्भूत एवेति कस्य मयोत्तरं दातव्यम् , इत्यनया दिशैकान्तवादिनः स्वयमभ्यूह्य प्रतिक्षेप्तव्या
इति, 'एव' मिति यथाऽस्तित्वनास्तित्ववादस्तेषामाकस्मिको-नियुक्तिका, एवं ध्रुवाववादयोऽपि वादा नियुक्तिका एदावति, अस्माकं तु स्याद्वादवादिनां कश्चिदभ्युपगमान्न यथोक्तदोषानुपङ्गो, यतः स्वपरसत्ताच्युदासोपादानापाद्यं हि
वस्तुनो वस्तुत्वम् , अतः स्वद्रव्यक्षेत्रकालस्वभावतोऽस्ति परद्रव्यादिचतुष्टयान्नास्तीति, उक्तं च-"सदेव सर्व को नेच्छेत् , स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन व्यवतिष्ठते ॥१॥" इत्यादि, अलमतिप्रसङ्गेनाक्षरगमनिकार्थत्वात् प्रयासस्य, एवं ध्रुवाध्रुवादिष्वपि पञ्चावयवेन दशावयवेन वाऽन्यथा वैकान्तपक्षं विक्षिप्य स्याद्वादपक्षोऽभ्यूह्यायोज्य इति । साम्प्रतमुपसंहरति एवं' उक्तनीत्या तेषामेकान्तवादिनां न स्वाख्यातो धर्मो भवति, नापि शास्त्रप्रणयनेन सुप्रज्ञा|पितो भवति ॥ किं स्वमनीषिकया भवतेदमभिधीयते?, नेत्याह-यदिवा किम्भूतस्तहि सुप्रज्ञापितो धर्मो भवतीत्याह
से जहेयं भगवया पवेइयं आसुपन्नेण जाणया पासया अदुवा गुत्ती वओगोयरस्स
~250~
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [२००],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
प्रत सूत्रांक [२००]
॥२६८॥
दीप अनुक्रम २१३]
त्तिबेमि सव्वत्थ समयं पावं, तमेव उवाइक्कम्म एस महं विवेगे वियाहिए, गामे वा | विमो०८ अदुवा रणे नेव गामे नेव रपणे धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया, जामा
दाउद्देशकः१ तिन्नि उदाहिया जेसु इमे आयरिया संबुज्झमाणा समुट्ठिया, जे णिव्वुया पावेहिं
कम्मेहि अणियाणा ते वियाहिया (सू० २००) तद्यथा 'इव' स्याद्वादरूपं वस्तुनो लक्षणं समस्तव्यवहारानुयायि कचिदप्यप्रतिहतं 'भगवता' श्रीवर्धमानस्वामिना प्रवेदितम् , एतद्वाऽनन्तरोक्तं भगवता प्रवेदितमिति, किम्भूतेनेति दर्शयति-आशुप्रज्ञेन, निरावरणत्वात् सततोषयुक्तनेत्यर्थः, किं यौगपद्येन ?, नेति दर्शयति-जानता' ज्ञानोपयुक्तेन, तथा 'पश्यता' दर्शनोपयुक्तेनैतत्प्रवेदितं, यथा नैपामेकान्तवाविना धर्मः स्वाख्यातो भवति, अथवा गुप्तिर्वाग्गोचरस्य-भाषासमितिः कार्येत्येतत्पवेदितं भगवता, यदिवा अस्ति नास्ति ध्रुवाचवादिवादिना वादायोस्थितानां त्रयाणां त्रिपध्याधिकानां ग्रावादुकशतानां बादलब्धिमतां प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपन्यासद्वारेण तदुपन्यस्तदूषणोपन्यासेन च तसराजयापादनतः सम्बगुत्तरं देयम्, अथवा गुप्तिांग्गोचरस्य विधेयेत्येतदहं प्रवीमि, वक्ष्यमाणं चेत्याह-तान् वादिनो वादायोत्थितानेवं ब्रूयाद्न्यथा भवतां सर्वेषामपि पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पत्यारम्भः कृतकारितानुमतिभिरनुज्ञातोऽतः सर्वत्र 'सम्मतम्' अभिप्रेतमप्रतिपिद्धं 'पाप' पापानुष्ठानं, NIR६८॥ मम तु नैतत्सम्मतमित्येतद्दर्शयितुमाह-'तदेव' एतत्पापानुष्ठानमुप-सामीप्येनातिक्रम्य-अतिलध्य यतोऽहं व्यवस्थि
SAREarathinintinational
~2514
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [२००],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२००]]
दीप
तोऽत एष मम विवेको व्याख्यातः, तत्कथमहं सर्वाप्रतिषिद्धास्रबद्वारैः संभाषणमपि करिष्ये !, आस्तां तावद्वाद इत्येवमसमनुज्ञविवेकं करोतीति, अत्राह चोदकः कथं तीथिकाः सम्मतपापा अज्ञानिनो मिथ्यादृष्टयोऽचरित्रिणोऽतपस्विनो वेति !, तथाहि-तेऽप्यकृष्टभूमिवनवासिनो मूलकन्दाहारा वृक्षादिनिवासिनश्चेति, अत्राहाचार्यः-नारण्यवासादिना धर्मः, अपि तु जीवाजीवपरिज्ञानात् तत्पूर्वकानुष्ठानाच्च, तच्च तेषां नास्तीत्यतोऽसमनोज्ञास्ते इति । किं च-सदसद्विवेकिनो हि धर्मः, स च ग्रामे वा स्यात् अथवाऽरण्ये, नैवाधारो ग्रामो नैवारण्यं धर्मनिमित्तं, यतो भगवता न बसिममितरद्वाऽऽश्नित्य धर्मः प्रवेदितः, अपि तु जीवादितत्त्वपरिज्ञानात् सम्यगनुष्ठानाच्च, अतस्तं धर्ममाजानीत 'प्रवेदित' कथितं 'माहणेण'त्ति भगवता, किम्भूतेन ?-'मतिमता' मननं-सर्वपदार्थपरिज्ञानं मतिस्तद्वता मतिमता केवलिनेत्यर्थः । किंभूतो धर्मः प्रवेदित इत्याह-'यामा व्रतविशेषाः त्रय उदाहृताः, तद्यथा-प्राणातिपातो मृषावादः परिग्रहश्चेति, अदत्तादानमैथुनयोः परिग्रह एवान्तर्भावात् त्रयग्रहणं, यदिवा यामा-वयोविशेषाः, तद्यथा-अष्टवर्षादात्रिशतः प्रथमस्तत अर्द्धमाषष्टेः द्वितीयस्तत ऊर्द्ध तृतीय इति अतिवालवृद्धयोयुदासो, यदिवा यम्यते-उपरम्यते संसारभ्रमणादेभिरिति यामाः-ज्ञानदर्शनचारित्राणीति ते 'उदाहुता' व्याख्याताः, यदि नामैवं ततः किमित्याह-'येषु' अ-12 वस्थाविशेषेषु ज्ञानादिषु वा इमे देशार्या अपाकृतहेयधर्मा वा सम्बुध्यमानाः सन्तः समुत्थिताः, के ?-ये 'निर्वृताः' क्रोद्याद्यपगमेन शीतीभूताः पापेषु कर्मसु 'अनिदाना' निदानरहिताः ते 'व्याख्याताः' प्रतिपादिता इति ॥ क च पुनः पापकर्मस्वनिदाना इत्यत आह
अनुक्रम २१३]
SARELatunintamatkarma
~252~
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [२०१],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराजवृत्तिः (शी०) ॥२६॥
सूत्रांक
[२०१]
दीप अनुक्रम [२१४]
उड्डे अहं तिरियं दिसासु सव्वओ सव्वावंति च णं पाडियक जीवेहि कम्मसमारम्भे
विमो०८ णं तं परिन्नाय मेहावी नेव सयं एएहिं काएहिं दंडं समारंभिजा नेवन्ने एएहिं काएहिं
उद्देशका दंडं समारंभाविजा नेवन्ने एएहिं काएहिं दंडं समारंभंतेऽवि समणुजाणेजा जेवऽन्ने एएहिं काएहिं दंडं समारंभंति तेसिपि वयं लज्जामो तं परिन्नाय मेहावी तं वा दंड अन्नं वा नो दंडभी दंड समारंभिजासि तिबेमि (सू० २०१)॥ विमोक्षाध्ययनो
देशकः ८-१॥ अर्द्धमपस्तिर्यग्दिक्षु 'सर्वतः' सः प्रकारैः सर्वा याः काश्चन दिशः चशब्दादनुदिशश्च 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'प्रत्येक है जीवेषु' एकेन्द्रियसूक्ष्मेतरादिकेषु यः कर्मसमारम्भः-जीवानुद्दिश्य य उपमर्दरूपः क्रियासमारम्भः 'णम्' इति वाक्या
लङ्कारे तं कर्मसमारम्भं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याचक्षीत, कोऽसौ ?-'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थित इति, कथं प्रत्याचक्षीतेत्याह-नैव स्वयमात्मना 'एतेषु' चतुर्दशभूतनामावस्थितेषु 'कायेषु' पृथिवीकायादिषु 'दण्डम्' उ-12 पमर्दै समारभेत, न चापरेण समारम्भयेत्, नेवान्यान् समारभमाणान् समनुजानीयात् , ये चान्ये दण्डं समारभन्ते, सुन्व्यत्ययेन तृतीयार्थे षष्ठी, तैरपि वयं लज्जाम इत्येवं कृताध्यवसायः सन् तजीवेषु कर्मसमारम्भं महतेऽनर्थाय 'परि
-5921
॥२६९॥
~253~
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [२०१],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०१]
18 ज्ञाय' ज्ञात्वा 'मेधावी' मर्यादावान् , तथा पूर्वोक्तं दण्डमन्यद्वा मृपावादादिकं दण्डाद्विभेतीति दण्डभीः सन् नो 'दण्ड
प्राण्युपमर्दादिक समारभेथाः, करणत्रिकयोगत्रिकेण परिहरेदिति, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् । विमोक्षाध्ययने प्रथमोद्देशक इति ॥
दीप अनुक्रम [२१४]
। उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोदेशकेऽनघसंयमप्रतिपालनाय कशीलपरित्यागोऽभिहितः, स चैतावताऽकल्पनीयपरित्यागमृते न सम्पूर्णतामियादू अतोऽकल्पनीयपरित्यागार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
से भिक्खू परिक्कमिज वा चिटिज वा निसीइज्ज वा तुयहिज वा सुसाणंसि वा सुनागारंसि वा गिरिगुहंसि वा रुक्खमूलंसि वा कुंभाराययणंसि वा हुरत्था वा कहिचि विहरमाणं तं भिक्खुं उवसंकमित्तु गाहावई बूया-आउसंतो समणा! अहं खलु तव अटाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुच्छणं वा पाणाइं भूयाई जीवाइं सत्ताई समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिचं
For P
OW
अष्टम-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'अकल्पनीय विमोक्ष' आरब्धः,
~2544
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [२], मूलं [२०२],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचारामवृत्तिः (शी०) ॥२७॥
विमो०८ उद्देशकार
सूत्रांक
[२०२]
दीप अनुक्रम [२१५]
अच्छिज्जं अणिसटुं अभिहडं आहहु चेएमि आवसहं वा समुस्सिणोमि से भुंजह वसह, आउसंतो समणा! भिक्खू तं गाहावई समणसं सवयसं पडियाइक्खे-आउसंतो! गाहावई नो खलु ते वयणं आढामि नो खलु ते वयणं परिजाणामि, जो तुम मम अटाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ पाणाई वा ४ समारम्भ समुदिस्स कीयं पामिचं अच्छिज अणिसटुं अभिहडं आह१ चेएसि आवसह वा समुस्सिणासि, से
विरओ आउसो गाहावई! एयस्स अकरणयाए (सू० २०२) 'स' कृतसामायिकः सर्वसावद्याकरणतया प्रतिज्ञामन्दरमारूढो भिक्षणशीलो भिक्षुः भिक्षार्थमन्यकार्याय वा 'पराक्रमेत' [विहरेत् तिष्ठेद्वा ध्यानव्यग्रो निपीदेवा अध्ययनाध्यापनश्रवणश्रावणाहतः, तथा श्रान्तः कचिदध्यानादी खगवत्तेनं वा विदध्यात्, कैतानि विदध्यादिति दर्शयति-'श्मशाने वा' शबानां शयनं श्मशान-पितृवनं तस्मिन् वा, तत्र च त्वग्वत्तेनं न सम्भवत्यतो यथासम्भव पराक्रमणाद्यायोज्यं, तथाहि-गच्छवासिनस्तत्र स्थानादिकंन कल्पते, प्रमादस्खलि| तादी व्यन्तराद्युपद्रवात् , तथा जिनकल्पा) सत्त्वभावनां भावयतोऽपि न पितृवनमध्ये निवासोऽनुज्ञाता, प्रतिमाप्रतिपन्नस्य तु यत्रैव सूर्योऽस्तमुपयाति तत्रैव स्थानं, जिनकल्पिकस्य वा, तदपेक्षया श्मशानसूत्रम्, एवमन्यदपि यथासम्भव
D॥२७॥
~255~
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [२], मूलं [२०२],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०२]
दीप
मायोज्यं, शून्यागारे वा गिरिगुहायां वा 'हुरत्था वत्ति अन्यत्र वा ग्रामादेवहिस्तं भिक्षु क्वचिद्विहरन्तं गृहपतिरुपसंक्रम्य विनेयदेशं गत्वा 'घूयाद्' वदेदिति, यच भूयात्तद्दर्शयितुमाह-साधुं श्मशानादिषु परिक्रमणादिकां क्रियां कुर्वाणमुपस
इम्य-उपेत्य पूर्वस्थितो वा गृहस्थः प्रकृतिभद्रकोऽभ्युपेतसम्यक्त्वो वा साध्वाचाराकोविदः साधुमुद्दिश्यैतद्रूयात्-यधैते पलब्धापलब्धभोजिनः त्यक्तारम्भाः सानुक्रोशाः सत्य शुचय एतेषु निक्षिप्तमक्षयमित्यतोऽहमेतेभ्यो दास्यामीत्यभिसन्धाय
साधुमुपतिष्ठते, वक्ति च-आयुष्मन्! भोः श्रमण! अहं संसारार्णवं समुत्तितीर्घः 'खलुः' वाक्यालङ्कारे 'तवार्थाय' युष्म
निमित्तं अशनं वा पानं वा खादिम वा स्वादिमं वा तथा वस्त्रं वा पतनहं वा कम्बलं वा पादपुञ्छनं वा समुद्दिश्यKIआश्रित्य किं कुर्यादिति दर्शयति-पश्शेन्द्रियोच्छासनिश्वासादिसमन्विताः प्राणिनस्तान, अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति ।
चेति भूतानि तानि, तथा जीवितवन्तो जीवन्ति जीविष्यन्तीति वा जीवाः तान् , सक्ताः सुखदुःखेष्विति सत्यास्तान समारभ्य-उपमर्य, तथाहि-अशनाद्यारम्भे प्राण्युपमर्दोऽवश्यंभावी, एतच्च समस्तं व्यस्तं वा कश्चित्प्रतिपद्येत, इयं चाविशुद्धिकोटिहीता, सा चेमा-"आहाकम्मुद्देसिअ मीसज्जा वायरा य पाहुडिआ । पूइअ अज्झोयरगो उग्गमकोडी अ छब्भेआ॥१॥" विशुद्धिकोटिं दर्शयति-'क्रीत' मूल्येन गृहीतं 'पामिच्छति अपरस्मादुच्छिन्नमुद्यतकं गृहीतं, बलास्कारितया वाऽन्यस्मादाच्छिद्य राजोपसृष्टो वाऽन्येभ्यो गृहिभ्यः साधोर्दास्यामीत्याच्छिन्द्यात्, तथा 'अनिसृष्टं परकीय यत्तदन्तिके तिष्ठति न च परेण तस्य निसृष्टं-दत्तं तदनिसृष्टं, तदेवंभूतमपि साधोर्दानाय प्रतिपद्यते, तथा स्वगृहादाहृत्य
आधाकमरिषिके मिश्रजातं बादरा च प्रामतिका । पूतिश्च अध्यवपूरक उद्गमकोटी व पदभेदा ॥१॥
ASSES
अनुक्रम [२१५]
~256~
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२०२]
दीप
अनुक्रम [२१५]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [२], मूलं [२०२],निर्युक्ति: [२७५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ २७१ ॥
उद्देशकः २
'चेएमि'त्ति ददामि तुभ्यं वितरामि, एवमशनादिकमुद्दिश्य ब्रूयात्, तथा 'आवसथं वा' युष्मदाश्रयं समुच्छृणोमि -आ- २ विमो० ८ देरारभ्यापूर्व करोमि संस्कारं वा करोमीत्येवं प्राञ्जलिरवनतोत्तमाङ्गः सन् अशनादिना निमन्त्रयेत् यथा - भुङ्क्ष्वाशना दिकं मत्संस्कृतावसथे वसेत्यादि, द्विवचनबहुवचने अध्यायोज्ये । साधुना तु सूत्रार्थविशारदेनादीनमनस्केन प्रतिषेधितव्यमित्याह -- आयुष्मन् ! श्रमण ! भिक्षो! तं गृहपतिं समनसं सवय समन्यथाभूतं वा प्रत्याचक्षीत, कथमिति चेद्दर्शयति -यथा आयुष्मन् ! भो गृहपते! न खलु तवैवंभूतं वचनमहमाद्रिये, खलुशब्दोऽपिशब्दार्थे, स च समुच्चये, नापि तवैतद्वचनं 'परिजानामि' आसेवनपरिज्ञानेन परिविदधेऽहमित्यर्थः, यस्त्वं मम कृतेऽशनादि प्राण्युपमर्देन विदधासि यावदावसथसमुच्छ्रयं विदधासि भो आयुष्मन् गृहपते ! विरतोऽहमेवम्भूतादनुष्ठानात् कथम् ?- एतस्य-भवदुपन्यस्तस्याकरणतयेत्यतो भवदीयमभ्युपगमं न जानेऽहमिति ॥ तदेवं प्रसह्यांशनादिसंस्कारप्रतिषेधः प्रतिपादितो, यदि पुनः कश्चिद्विदितसाध्वभिप्रायः प्रच्छन्नमेव विदध्यात्तदपि कुतश्चिदुपलभ्य प्रतिषेधयेदित्याह
Ja Education International
से भिक्खु परिकमिज्ज वा जाव हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्तु गाव आगया पेहा असणं वा ४ वत्थं वा ४ जाव आहद्दु चेएइ आवसहं वा समुसिाइ भिक्खू परिघासेडं, तं च भिक्खू जाणिज्जा सहसम्मइयाए परवागरणेणं अन्नेसिं वा सुच्चा - अयं खलु गाहावई मम अट्ठाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ जाव
For Pernal Use Only
~257~
॥ २७१ ॥
war
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [२], मूलं [२०३],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२०३]
दीप अनुक्रम [२१६]
आवसहं वा समुस्सिणाइ, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासे
वणाए तिबेमि (सू० २०३) तं भिक्षु क्वचित् श्मशानादौ विहरन्तमुपसङ्क्रम्य प्राञ्जलिर्वन्दित्वा गृहपतिः प्रकृतिभद्रकादिकः कश्चिदात्मगतया प्रेक्षयाऽनाविष्कृताभिप्रायः केनचिदलक्ष्यमाणो यथाऽहमस्य दास्यामीत्यशनादिकं प्राण्युपमर्देनारभेत, किमर्थमिति चेद्दर्शयति-तदशनादिकं भिक्षु परिघासयितुं' भोजयितुं, साधुभोजनार्थमित्यर्थः, आवसथं च साधुभिरधिवासयितुमिति, तदशनादिकं साध्वर्थ निष्पादितं भिक्षुः 'जानीयात्' परिच्छिन्द्यात्, कथमित्याह-वसन्मत्या परव्याकरणेन वा तीर्थकरोपदिष्टोपायेन वा अन्येभ्यो वा तत्सरिजनादिभ्यः श्रुत्वा जानीयादिति वर्त्तते, यथाऽयं खलु गृहपतिर्मदर्थमशनादिकं प्रा|ण्युपमर्दैन विधाय मह्यं ददात्यावसथं च समुच्छृणोति, तद्भिक्षुः सम्यक् 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्यावगम्य च ज्ञात्वा 'ज्ञापयेत्' तं गृहपतिमनासेधनया यथाऽनेन विधानेनोपकल्पितमाहारादिकं नाहं भुजे एवं तस्य ज्ञापनं कुर्याद्, यद्यसी श्रावकस्ततो लेशतः पिण्डनियुक्तिं कथयेद्, अन्यस्य च प्रकृतिभद्रकस्योद्गमादिदोषानाविर्भावयेत् प्रासुकदानफलं च प्ररूपयेत् , यथाशक्तितो धर्मकां च कुर्यात् , तद्यथा-"काले देशे कल्प्यं श्रद्धायुक्तेन शुद्धमनसा च । सत्कृत्य च दातव्यं दानं प्रयतात्मना सन्यः ॥१॥" तथा-"दानं सत्पुरुषेषु स्वल्पमपि गुणाधिकेषु विनयेन । वटकणिकेव महान्तं न्यग्रोधं सत्फलं कुरुते ॥ २ ॥ दुःखसमुद्रं प्राज्ञास्तरन्ति पात्रार्पितेन दानेन । लघुनेव मकरनिलयं वणिजः सद्यानपात्रेण ॥३॥” इत्यादि, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीत्येतत्पूर्वोक्तं वक्ष्यमाणं चेत्याह
For P
OW
~258~
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [२], मूलं [२०४],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०४]
॥२७२॥10
दीप अनुक्रम [२१७]
श्रीआचा- भिक्खं च खलु पुट्टा वा अपुट्टा वा जे इमे आहच्च गंथा वा फुसंति, से हंता हणह विमो०८ राङ्गवृत्तिः
खणह छिंदह दहह पयह आलुपह विलुपह सहसाकारह विप्परामुसह, ते फासे धीरो (शी०)
उद्देशकार पुटो अहियासए अदुवा आयारगोयरमाइक्खे, तकिया णमणेलिसं अदुवा वइगुत्तीए
गोयरस्स अणुपुव्वेण संमं पडिलेहए आयतगुत्ते बुद्धेहिं एयं पवेइयं (सू० २०४) 'चः' समुच्चये 'खलु' वाक्यालङ्कारे भिक्षणशीलो भिक्षुस्तं भिक्षु पृष्ट्वा कश्चिद्यथा भो भिक्षो! भवदर्थमशनादिकमाविसर्थ वा संस्करिष्येऽननुज्ञातोऽपि तेनासौ तस्करोत्यवश्यमयं चादुभिर्बलात्कारेण वा ग्राहयिष्यते, अपरस्त्वीपत्सा
ध्वाचारविधिज्ञोऽतोऽपृष्ट्वैव छद्मना ग्राहयिष्यामीत्यभिसन्धायाशनादिकं विदध्यात् , स च तदपरिभोगे श्रद्धाभङ्गाच्चाटुशताग्रहणाच्च रोषावेशान्निःसुखदुःखतयाऽलोकज्ञा इत्यनुशयाच राजानुसृष्टतया च न्यकारभावनातः प्रद्वेषमुपगतो हननादिकमपि कुर्यादिति दर्शयति-एकाधिकारे बद्दतिदेशाद्य इमे प्रश्नपूर्वकमप्रश्नपूर्वकं वा आहारादिकं 'ग्रन्थात्' महतो द्रव्यव्ययाद् 'आहृत्य' ढौकित्वा आहृतग्रन्था वा-व्ययीकृतद्रव्या वा तदपरिभोगे 'स्पृशन्ति' उपतापयन्ति, कथ|मिति चेदर्शयति-'स' ईश्वरादिः प्रद्विष्टः सन् हन्ता स्वतोऽपरांश्च हननादौ चोदयति, तद्यथा-हतेनं साधु दण्डाभि-3॥२७२ ॥ 'क्षणुत'व्यापादयत छिन्नहस्तपादादिकं दहत अग्यादिना पचत उरुमांसादिकं आलुम्पत वखादिकं विलुम्पत सर्वेस्वाः
~259~
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [२], मूलं [२०४],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२०४]
दीप
पहारेण सहसात् कारयत-आशु पञ्चत्वं नयत तथा विविध परामृशत-नानापीडाकरणैर्वाधयत, तांश्चैवम्भूतान् 'स्स-| पर्शान्' दुःखविशेषान 'धीरः' अक्षोभ्यः तैः स्पर्शः स्पृष्टः सन्नधिसहेत, तथा परैः क्षुत्पिपासापरीपहः स्पृष्टः सन्नधिसहेत,
न तु पुनरुपसग्गैः परीषहर्वा तर्जितो विक्लवतामापन्नस्तदुद्देशिकादिकमभ्युपेयादनुकूलैर्वा सान्त्ववादादिभिरुपसर्गितो नादद्याद्, अपि तु सति सामर्थ्य जिनकल्पिकादन्यः आचारगोचरमाचक्षीतेत्याह-नानाविधोपसर्गजनितान् स्पर्शानधिसहेत, अथवा साधूनामाचारगोचरम्-आचारानुष्ठानविषयं मूलोत्तरगुणभेदभिन्नमाचक्षीत, न पुनर्नयैर्द्रव्यविचार, तत्रापि
मूलगुणस्थैर्यार्थमुत्तरगुणान् तत्रापि पिण्डैपणाविशुद्धिमाचक्षीत, अत्र च पिण्डैपणासूत्राणि पठितव्यानि, अपि च-"यदि स्वयमदुःखितं स्याम च परदुःखे निमित्तभूतमपि । केवलमुपग्रहकर धम्मकृते तद्भवेद्देयम् ॥ १॥" किं सर्वस्य सर्वं कथ-|
येत् !, नेति दर्शयति-तर्कयित्वा' पर्यालोच्य पुरुष, तद्यथा-कोऽयं पुरुषः कश्च नतोऽभिगृहीतोऽनभिगृहीतो मध्यस्थः प्रकृतिभद्रको वेत्येवमुपयुज्य यथार्ह यथाशक्ति चावेदयेत्, सत्यां च शक्तौ पञ्चावयवेनान्यथा वा वाक्येनानीदृशम्-अनन्यसदृशं स्वपरपक्षस्थापनाब्युदासद्वारेणावेदयेदिति, अथ सामथ्यविकलः स्यात् कुप्यति वा कथ्यमानेऽसावनुकूलप्रत्यनीकस्ततो वाग्गुप्तिर्विधेयेत्याह-सति सामर्थे शृण्वति वा दातरि आचारगोचरमाचक्षीत, 'अथवे'त्यन्यधाभावे तु वागुप्त्या व्यवस्थितः सन्नात्महितमाचरन् 'गोचरस्य' पिण्डविशुद्ध्यादेराचारगोचरस्य 'आनुपूर्व्या' उद्गमप्रश्नादिरूपया सम्यगशुद्धिं प्रत्युपेक्षेत, किम्भूतः?-आत्मगुप्तः सन् , सततोपयुक्त इत्यर्थः, नैतन्मयोच्यत इत्याह-'बुद्धैः' कल्प्याकल्प्यविधि ः एतत्' पूर्वोकं प्रवेदितम् ॥ एतद्बा वक्ष्यमाणमित्याह
अनुक्रम [२१७]
~260~
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [२], मूलं [२०५],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
-
सूत्रांक
[२०५]]
॥२७३॥
दीप
से समणुन्ने असमणुन्नस्स असमणं वा जाव नो पाइजा नो निमंतिजा नो कुजा वे- विमो०० यावडियं परं आढायमाणे तिबेमि (सू० २०५)
उद्देशकार न केवलं गृहस्थेभ्यः कुशीलेभ्यो वा अकल्प्यमितिकृत्वाऽऽहारादिकं न गृह्णीयात् , स समनोज्ञोऽसमनोज्ञाय तत् पूर्वोक्तमशनादिकं न प्रदद्यात् , नापि परम्-अत्यर्थमाद्रियमाणोऽशनादिनिमन्त्रणतोऽन्यथा वा तेषां वैयावृत्त्यं कुर्यादिति, विवीमीतिशब्दावधिकारपरिसमाप्त्यथौं । किम्भूतस्तहिं किम्भूताय दद्यादित्याह
धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया समणुन्ने समणुनस्स असणं वा जाव कुज्जा
वेयावडियं परं आढायमाणे (सू० २०६) तिबेमि ॥८-२॥ 'धम्म' दानधर्म जानीत यूयं 'प्रवेदित' कथितं, केन ?-श्रीवर्द्धमानस्वामिना, किम्भूतेन ?-'मतिमता' केवलिना, किम्भूतं धर्ममिति दर्शयति-यथा समनोज्ञः-साधुरुधुक्तविहारी अपरस्मै-समनोज्ञाय चारित्रवते संविनाय साम्भोगि-1 कायैकसामाचारीप्रविष्टायाशनादिकं चतुर्विधं तथा वस्त्रादिकमपि चतुर्की 'प्रदद्यात्' प्रयच्छेत् , तथा तदर्थं च निमन्त्रयेत् , पेशलमन्यद्वा वैयावृत्त्यम्-अङ्गमर्दनादिकं कुर्यात् , नैतद्विपर्यस्तेभ्यो गृहस्थेभ्यः कुतीर्थिकेभ्यः पार्श्वस्थादिभ्योसंविग्नेभ्योऽसमनोज्ञेभ्यो वेत्येतत्पूर्वोक्तं कुर्यादिति, किन्तु समनोज्ञेभ्य एव परम्-अत्यर्थमाद्रियमाणस्तदर्थसीदने परमु- ॥२७३॥ त्तप्यमानः सम्यग्वैयावृत्त्यं कुर्यात्, तदेवं गृहस्थादयः कुशीलादयस्त्याज्या इति दर्शितम्, अयं तु विशेषो-गृहस्थेभ्यो ?
अनुक्रम [२१८]
~261~
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [२], मूलं [२०६],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
यावल्लभ्यते तावद्भुह्यते, केवलमकल्पनीयं प्रतिषिध्यते, असमनोज्ञेभ्यस्तु दानग्रहणं प्रति सर्वनिषेध इति । इतिब्रवीमिशब्दौ पूर्ववद् । विमोक्षाध्ययने द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ।।८-२॥
प्रत
सूत्रांक [२०६]]
दीप अनुक्रम २१९]
_उक्तो द्वितीयोदेशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशकेऽकल्पनीयाहारादिप्रतिधोऽभिहितस्तत्प्रतिषेधकुपितस्य दातुर्यथावस्थितपिण्डदानप्ररूपणा च, तदिहाप्याहारादिनिमित्तं प्रविष्टेन शीताद्यङ्गोत्कम्पदर्शनान्यथाभाववतो गृहपतेर्यथावस्थितपदार्थावेदनतो गीतार्थेन साधुनाऽसदारेकाऽपनेयेत्यनेन सम्बन्धेनायातस्या|स्योद्देशकस्य सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम्
मज्झिमेणं वयसावि एगे संबुज्झमाणा समुट्टिया, सुच्चा मेहावी वयणं पंडियाणं निसामिया समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए ते अणवकंखमाणा अणइवाएमाणा अपरिग्गहेमाणा नो परिग्गहावंती सव्वावति च णं लोगसि निहाय दंडं पाणेहिं पावं कम्मं अकुबमाणे एस महं अगंथे वियाहिए, ओए जुइमस्स खेयन्ने उववायं चवणं च नच्चा (सू० २०७)
REauranthamasana
Auditurary.com
अष्टम-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: 'अंगचेष्टाभाषित' आरब्धः,
~262
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२०७]
दीप
अनुक्रम [२२०]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [३], मूलं [२०७],निर्युक्ति: [२७५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ २७४ ॥
Eticati
४
इह त्रीणि वयांसि - युवा मध्यमवया वृद्धश्चेति, तत्र मध्यमवयाः परिपक्कबुद्धित्वाद्धम्र्म्माई इत्यादौ दर्शयति-मध्यमेन वयसाऽप्येके सम्बुध्यमानाः धर्मचरणाय सम्यगुत्थिताः समुत्थिता इति, सत्यपि प्रथमचरमवयसोरुत्थाने यतो बाहुल्यायोग्यत्वाच्च प्रायो विनिवृत्तभोगकुतूहल इति निष्प्रत्यूहधर्म्माधिकारीति मध्यमवयोग्रहणं । कथं सम्बुज्यमानाः समुत्थिता 4 इत्याह-इह त्रिविधाः सम्बुध्यमानका भवन्ति, तद्यथा - स्वयंवृद्धाः प्रत्येकबुद्धाः बुद्धबोधिताश्च तत्र बुद्धबोधितेनेहाधिकार इति दर्शयति- 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितः 'पण्डितानां' तीर्थकृदादीनां 'वचनं'' हिताहितप्राप्ति परिहारप्रवर्त्तकं 'श्रुत्वा' आकर्ण्य पूर्व पश्चात् 'निशम्य' अवधार्य समतामालम्बेत, किमिति :-यतः समतया - माध्यस्थ्येनायैः - तीर्थकृद्भिर्धर्मः श्रुतचा रित्राख्यः 'प्रवेदितः' आदी प्रकर्षेण वा कथित इति, ते च मध्यमे वयसि श्रुत्वा धर्म्म सम्बुध्यमानाः समुत्थिताः सन्तः किं | कुर्युरित्याह-ते निष्क्रान्ताः मोक्षमभि प्रस्थिताः कामभोगानभिकाङ्क्षन्तः तथा प्राणिनोऽनतिपातयन्तः परिग्रहमपरिगृहन्तः, आद्यन्तयोर्ग्रहणे मध्योपादानमपि द्रष्टव्यम्, तथा (तो) मृषावादमवदन्त इत्याद्यपि वाच्यम्, एवम्भूताः स्वदेहेऽप्यममत्वाः 'सब्बावंति'त्ति सर्वस्मिन्नपि ठोके, चः समुच्चये स च भिन्नक्रमः, 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे, नो परिग्रहवन्तश्च भवन्तीतियावत् किं च प्राणिनो दण्डयतीति दण्डः परितापकारी तं दण्डं प्राणिषु प्राणिभ्यो वा 'निधाय' क्षिस्वा त्यक्त्वा 'पाप' पापोपादानं 'कर्म्म' अष्टादशभेदभिन्नं तत् 'अकुर्वाणः' अनाचरन्नेषु महान्, न विद्यते ग्रन्थः सबाह्याभ्यन्तरोऽस्येत्यग्रन्थः 'व्याख्यातः' तीर्थकरगणधरादिभिः प्रतिपादित इति । (कश्चैवम्भूतः स्यादित्याह - 'ओजः' अद्वितीयो रागद्वेषरहितः 'द्युतिमान् संयमो मोक्षो वा तस्य 'खेदज्ञो' निपुणो देवलोकेऽप्युपपातं च्यवनं च ज्ञात्वा सर्वस्थानानि
For Parts Only
~263~
विमो० ८
उद्देशकः ३
॥ २७४ ॥
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [३], मूलं [२०८],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२०८]
दीप
त्यताहितमतिः पापकर्मवी स्यादिति । केचित्तु मध्यमवयसि समुत्थिता अपि परीपहेन्द्रियैग्लानतां नीयन्त इति दर्श|यितुमाह
आहारोवचया देहा परीसहपभंगुरा पासह एगे सबिदिएहिं परिगिलायमाणेहिं (सू० २०८)
आहारेणोपचयो येषां ते आहारोपचयाः, के ते!-दिह्यन्त इति देहास्तदभावे तु म्लायन्ते म्रियन्ते वा, तथा 'परीपहप्रभञ्जिनः' परीषहै। सद्भिर्भरा देहा भवन्ति, ततश्चाहारोपचितदेहा अपि प्राप्तपरीपहा वातादिक्षोभेण वा पश्यत
यूयमेके क्लीवाः सर्वैरिन्द्रियग्लायमानैः क्लीवतामीयुः, तथाहि-क्षुसीडितो न पश्यति न शृणोति न जिघ्रतीत्यादि, तत्र ला केवलिनोऽप्याहारमन्तरेण शरीरं ग्लानभावं यायाद् आस्तां तावदपरः प्रकृतिभङ्गुरशरीर इति, स्थान्मत-अकेवल्यकृतासार्थत्वात् क्षुद्वेदनीयसद्भावाच्चाहारयति दयादीनि व्रतान्यनुपालयति, केवली तु नियमात् सेत्स्यतीत्यतः किमर्थं शरीरं
धारयति । तद्धरणार्थ चाहारयतीति?, अत्रोच्यते, तस्यापि चतुःकर्मसद्भावान्नैकान्तेन कृतार्थता, तत्कृते शरीरं विभयात्, तद्धरणं च नाहारमन्तरेण, क्षुद्वेदनीयसद्भावाञ्चेति, तथाहि-वेदनीयसद्भावात्तस्कृता एकादशापि परीषहाः केवलिनो व्यस्तसमस्ताः प्रादुपयन्ति इत्यत आहारयत्येव केवलीति स्थितम् , अत आहारमृते ग्लानतेन्द्रियाणामिति प्रतिपादितं । विदितवेद्यश्च परीपहपीडितोऽपि किं कुर्यादित्याह
ओए दयं दयइ, जे संनिहाणसत्थस्स खेयन्ने से भिक्खू कालन्ने बलन्ने मायने
अनुक्रम [२२१]
RRCcche
----
~2644
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [३], मूलं [२०९],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः | (शी०)
विमो०८ उद्देशका३
सूत्रांक
[२०९]
॥२७५॥
दीप अनुक्रम [२२२]
खणन्ने विणयन्ने समयन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालेणुटाइ अपडिन्ने दुहओ छित्ता
नियाई (सू० २०९) 'ओजः' एको रागादिरहितः सन् सत्यपि क्षुत्पिपासादिपरीषहे 'दयामेव दयते' कृपां पालयति, न परीषहैः तर्जितो दयां खण्डयतीत्यर्थः । कः पुनर्दयां पालयतीत्याह-यो हि लघुकम्मों सम्यङ् निधीयते नारकादिगतिषु येन तस्सन्निधानकर्म तस्य स्वरूपनिरूपकं शास्त्रं तस्य खेदज्ञो-निपुणो, यदिवा सन्निधानस्य-कर्मणः शस्त्रं-संयमः सन्निधानशस्त्रं तस्य खेदज्ञः-सम्यक् संयमस्य वेत्ता, यश्च संयमविधिज्ञः स भिक्षुः कालज्ञः-उचितानुचितावसरज्ञः, एतानि च सूत्राणि लोकविजयपञ्चमोदेशकव्याख्यानुसारेण नेतव्यानीति, तथा बलज्ञो मात्रज्ञःक्षणज्ञो विनयज्ञः समयज्ञः परिग्रहममत्वेन अचरन् कालेनोत्थायी अप्रतिज्ञः उभयतश्छेत्ता, स चैवम्भूतः संयमानुष्ठाने निश्चयेन याति निर्यातीति ॥ तस्य च संयमानुछाने परिप्रजतो यत्स्यात्तदाह
तं भिक्खू सीयफासपरिवेवमाणगायं उवसंकमित्ता गाहावई बूया-आउसंतो समणा ! नो खलु ते गामधम्मा उव्वाहंति ?, आउसंतो गाहावई ! नो खलु मम गामधम्मा उव्वाहंति, सीयफासं च नो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए, नो खल्लु मे कप्पड़
C
॥२७५॥
~265
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [३], मूलं [२१०],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२१०]
दीप
अगणिकायं उजालित्तए वा (पजालित्तए वा) कायं आयावित्तए वा पयावित्तए वा अन्नेसि वा वयणाओ, सिया स एवं वयंतस्स परो अगणिकार्य उज्जालित्ता पजालित्ता कार्य आयाविज वा पयाविज्ज वा, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा
अणासेवणाए तिबेमि (सू० २१०)॥८-३॥ 'तम्' अन्तप्रान्ताहारतया निस्तेजसं निष्किञ्चनं भिक्षणशीलं भिक्षुमतिकान्तसोध्मयौवनावस्थं सम्यक्त्वकाणाभावतया | |४||शीतस्पर्शपरिवेपमानगात्रं उपसङ्कम्य-आसन्नतामेत्य गृहपतिः-ऐश्वर्योष्मानुगतो मृगनाभ्यनुविद्धकश्मीरजबहलरसानुलि-15
प्सदेहो मीनमदागुरुघनसारधूपितरलिकाच्छादितवपुः प्रौढसीमन्तिनीसन्दोहपरिवृतो वातीभूतशीतस्पर्शानुभवः सन् किमयं मुनिरुपहसितसुरसुन्दरीरूपसम्पदो मत्सीमन्तिनीरवलोक्य सात्त्विकभावोपेतः कम्पते उत शीतेनेत्येवं संशयानो
यात्-भो आयुष्मन् ! श्रमण ! कुलीनतामात्मन आविर्भावयन् प्रतिषेधद्वारेण प्रश्नयति-नो भवन्तं ग्रामधाः -विषया र उत्-प्रावल्येन बाधन्ते , एवं गृहपतिनोक्ते विदिताभिप्रायः साधुराह-अस्य हि गृहपतेरात्मसंविच्याऽजनावलोकनाऽऽवि|कृतभावस्यासत्याशङ्काऽभूद् अतोऽहमस्थापनयामीत्येवमभिसन्धाय साधुर्वभाषे-आयुष्मन् ! गृहपते ! 'नो खलु' नैव ग्रामधा मामुराधन्ते, यत्पुनर्वेपमानगात्रयष्टिं मामीक्षांचकृषे तच्छीतस्पर्शविजृम्भितं, न मनसिजविकारः, शीतस्पर्शमहं न खलु शक्नोम्यधिसोढुं, एवमुक्तः सन् भक्तिकरुणारसाक्षिप्तहृदयो ब्रूयात्-सुप्रज्वलितमाशुशुक्षणिं किमिति न सेवसे !,
अनुक्रम [२२३]
--
-
~266~
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२१०]
दीप
अनुक्रम
[२२३]
११___
[भाग-2] “आचार”मूलं
- अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [३], मूलं [२१०],निर्युक्तिः [२७५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
(शी०)
श्रीआचा-४ महामुनिराह-भो गृहपते ! न खलु मे कल्पतेऽग्निकार्य मनागू ज्वालयितुं (उज्वालयितुं प्रकर्षेण ज्वालयितुं प्रज्वालयितुं राङ्गवृत्तिः स्वतो ज्वलितादी 'कार्य' शरीरमीपत् तापवितुमातापयितुं वा प्रकर्षेण तापयितुं प्रतापयितुं वा अन्येषां वा वचनात् ममैतत्कर्त्तु न कल्पते, यदिवाऽग्निसमारम्भायान्यो वा वक्तुं न कल्पते ममेति । तं चैवं वदन्तं साधुमवगम्य गृहपतिः कदाचिदेतत्कुर्यादित्याह - स्यात् कदाचित्स - परो गृहस्थ एवमुक्तनीत्या वदतः साधोरग्निकार्यमुज्वालय्य प्रज्वालय्य वा कायमातापयेत् प्रतापयेद्वा तच्चोज्वालनातापनादिकं भिक्षुः 'प्रत्युपेक्ष्य' विचार्य स्वसम्मत्या परव्याकरणेनान्येषां वाडन्तिके श्रुत्वा अवगम्य ज्ञात्वा तं गृहपतिमाज्ञापयेत् प्रतिबोधयेत् कया ? - अनासेवनया, यथैतत् ममायुक्तमासेवितुं, भवता तु पुनः साधुभक्त्यनुकम्पाभ्यां पुण्यप्राग्भारोपार्जनमकारीति, ब्रवीमीतिशब्दायुक्तार्थो । विमोक्षाध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः परिसमाप्तः ।
॥ २७६ ॥
४.
उक्तस्तृतीयोदेशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोदेश के गोचरादिगतेन शीताद्यङ्गविकारदर्शनान्यथाभावापन्नस्य गृहस्थस्यासदारेका व्युदस्ता, यदि पुनर्गृहस्थाभावे योषित एवान्यथाभावाभिप्रायेणोपसर्गयेयुः ततो वैहानसगार्द्धपृष्ठादिकं मरणमप्यवलम्वनीयं, कारणाभावे तु तन कार्यमित्येतत्प्रतिपादनार्थमिदमारभ्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् -
अष्टम अध्ययने चतुर्थ उद्देशक : 'वेहासनादि मरण' आरब्धः,
For Parts Only
~267~
विमो० ८
उद्देशकः४
॥ २७६ ॥
wor
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [४], मूलं [२११],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२११]
दीप अनुक्रम [२२४]
HERE
जे भिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायचउत्थेहिं तस्स णं नो एवं भवइ-चउत्थं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिजाई वत्थाई जाइज्जा अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारिजा, नो धोइजा नो धोयरत्ताई वत्थाई धारिजा, अपलिओवमाणे गामंतरेसु ओमचेलिए,
एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं (सू० २११) इह प्रतिमाप्रतिपन्नो जिनकल्पिको वा अच्छिद्रपाणिः, तस्य हि पात्रनिर्योगसमन्वितं पात्रं कल्पत्रयं चायमेवौषोपधिभवति नौपग्रहिकः, तत्र शिशिरादौ क्षौमिक कल्पद्वयं सार्द्धहस्त व्यायामविष्कम्भ तृतीयस्त्वौर्णिकः, स च सत्यपि शीते। नापरमाकान्तीत्येतद्दर्शयति-यो भिक्षुः त्रिभिर्वस्त्रैः 'पर्युपितो' व्यवस्थितः, तत्र शीते पतत्येक क्षौमिक प्रावृणोति, ततो|ऽपि शीतासहिष्णुतया द्वितीयं क्षौमिकं, पुनरपि अतिशीततया क्षौमिककल्पद्वयोपयौर्णिकमिति, सर्वधौर्णिकस्य बाह्याच्छादनता विधेया, किम्भूतैस्त्रिभिर्वस्वैरिति दर्शयति-पात्रचतुर्थैः पतन्तमाहारं पातीति पात्रं, तग्रहणेन च पात्रनिर्योगः सप्तप्रकारोऽपि गृहीतः, तेन विना तब्रहणाभावात् , स चायम्-"पत्तं पत्ताबंधो पायडवणं च पायकेसरिआ । पडलाइ रयत्ताणं च गोच्छओ पायणिज्जोगो ।।१॥" तदेवं सप्तप्रकारं पात्रं कल्पत्रयं रजोहरणं १ मुखवस्त्रिका २ चेत्येवं द्वादशधोपधिः, स्तस्यैवम्भूतस्य भिक्षोः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'नैवं भवति' नायमध्यवसायो भवति, तद्यथा-न ममास्मिन्
पात्र पात्रबन्धः पात्रस्थापनं च पात्रकेशरिका । पटलानि रजनाणं च गोच्छकः पात्र नियोगः ॥ १॥
~268~
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [४], मूलं [२११],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- राजवृत्तिः (शी०)
विमो०८ उद्देशका४
प्रत सूत्रांक [२११]
॥२७७॥
दीप
काले कल्पत्रयेण सम्यक् शीतापनोदो भवत्यतश्चतुर्थ वस्त्रमहं याचिष्ये, अध्यवसायनिषेधे च तद्याचनं दूरोत्सादितमेव, यदि पुनः कल्पत्रयं न विद्यते शीतकालश्चापतितस्ततोऽसौ जिनकल्पिकादिर्यथैषणीयानि वस्त्राणि याचेत-उत्कर्षणापकर्षणरहितान्यपरिकर्माणि प्रार्थयेदिति, तत्र "उद्दिड १ पहे २ अंतर ३ उज्झियधम्मा ४ य” चतम्रो वस्त्रषणा भवन्ति, तत्र चाधस्तन्योयोरग्रह इतरयोस्तु ग्रहः, तत्राप्यन्यतरस्यामभिग्रह इति, याजावाप्तानि च वस्त्राणि यथापरिगृहीतानि धारयेत्, न तत्रोत्कर्षणधावनादिक परिकर्म कुर्याद् ॥ एतदेव दर्शयितुमाह-नो धावेत
प्रासुकोदकेनापि न प्रक्षालयेत्, गच्छवासिनो ह्यप्राप्तवर्षादौ ग्लानावस्थायां वा प्रासुकोदकेन यतनया धावनमनुज्ञातं, KIन तु जिनकल्पिकस्येति, तथा-न धौतरक्कानि वस्त्राणि धारयेत्, पूर्व धौतानि पश्चाद्वक्तानीति, तथा ग्रामान्तरेषु
गच्छन् वखाण्यगोपयन बजेद्, एतदुक्तं भवति तथाभूतान्यसावन्तप्रान्तानि विभर्ति यानि गोपनीयानि न भवन्ति, तदेवमसाववमचेलिका, अवमं च तच्चेलं चावमचेलं प्रमाणतः परिमाणतो मूल्यतश्च, तद्यस्यास्त्यसाववमचेलिक इत्येतत्-पूर्वोक्तं 'खुः' अवधारणे, एतदेव वस्त्रधारिणः सामग्यं भवति-एपैव त्रिकल्पास्मिका द्वादशनकारोधिकोपध्यामिका वा सामग्री भवति, नापरेति ॥ शीतापगमे तान्यपि वस्त्राणि त्याज्यानीत्येतद्दर्शयितुमाह
अह पुण एवं जाणिजा-उवाइकंते खल्लु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिदृविजा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले (सू० २१२)
अनुक्रम [२२४]
॥२७७॥
~269~
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [४], मूलं [२१२],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[०१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२१२]
दीप
| यदि तानि वस्त्राण्यपरहेमन्तस्थितिसहिष्णूनि तत उभयकालं प्रत्युपेक्षयन् विभर्ति, यदि पुनजीर्णदेश्यानि जीर्णानीति जानीयात् ततः परित्यजतीत्यनेन सूत्रेण दर्शयति, अथ पुनरेवं जानीयाद्यथाऽपक्रान्तः खल्वयं हेमन्तो ग्रीष्मी प्रतिपन्नः अपगता शीतपीडा यथापरिजीर्णान्येतानि वखाणि, एवमवगम्य ततः परिष्ठापयेत्-परित्यजेदिति, यदि पुनः सर्वाग्यपि न जीर्णानि ततो यद्यजीर्ण तत्तत्परिष्ठापयेत्, परिष्ठाप्य च निस्सङ्गो विहरेत् , यदि पुनरतिक्रान्तेऽपि शिशिरे क्षेत्रकालपुरुषगुणाभवेच्छीतं ततः किं कर्तव्यमित्याह-अपगते शीते वखाणि त्याज्यानि, अथवा क्षेत्रादिगुणाद्धिमकणिनि वाते वाति सत्यात्मपरितुलनार्थ शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत्-सान्तरमुत्तरं-प्रावरणीयं यस्य स तथा, कचिल्लावृणोति क्वचित्पावर्ति बिभर्ति, शीताशङ्कया नाद्यापि परित्यजति, अथवाऽवमचेल एककल्पपरित्यागात् द्विकल्पधा-1
रीत्यर्थः, अथवा शनैः शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयमपि कल्पं परित्यजेत् तत एकशाटकः संवृतः, अथवाऽऽत्य-12 दान्तिके शीताभावे तदपि परित्यजेदतोऽचेलो भवति, असौ मुखबस्त्रिकारजोहरणमात्रोपधिः॥ किमर्थमसावेकैकं वस्त्रं परि-1 त्यजेदित्याह
__ लापवियं आगममाणे, तवे से अभिसमन्नागए भवइ (सू० २१३) II लघोर्भायो लाघवं लाघवं विद्यते यस्यासी लापविक(स्त)मात्मानमागमयन्-आपादयन् वस्त्रपरित्यागं कुर्यात्, शरी-1 हारोपकरणकर्मणि वा लाघवमागमयन् वस्त्रपरित्यागं कुर्यादिति । तस्य चैवम्भूतस्य किं स्यादित्याह-'से' तस्य वस्त्रप
अनुक्रम [२२५]
~270~
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [४], मूलं [२१३,नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२१३]]
दीप
श्रीआचा-18रित्यागं कुर्वतः साधोस्तपोऽभिसमन्वागतं भवति, कायक्लेशस्य तपोभेदत्वात्, उक्तं च-"पंचहिं ठाणेहिं समणाणं नि-3 विमो०८ राङ्गवृत्तिः गथाणं अचेलगत्ते पसत्थे भवति, तंजहा-अप्पा पडिलेहा १ वेसासिए रूबे २ तवे अणुमए ३ लाघवे पसत्थे ४ विउले|| (शी०) इंदियनिग्गहे ५" ॥ एतच्च भगवता प्रवेदितमिति दर्शयितुमाह
उद्देशका ॥२७८॥
जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव सम
भिजाणिज्जा (सू० २१४) l यदेतद्भगवता-वीरवर्द्धमानस्वामिना प्रवेदितं तदेवाभिसमेत्य-ज्ञात्वा 'सर्वतः सर्वैः प्रकारैः सर्वात्मतया सम्यक्त्वमेव समत्वं वा-सचेलाचेलावस्थयोस्तुल्यता 'समभिजानीयात्' आसेवनापरिज्ञया आसेवेतेति ॥ यः पुनरल्पसत्यतया भगवदु पदिष्टं नैव सम्यग् जानीयात्स एतदध्यवसायी स्यादित्याह
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-पुटो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए, से वसुमं सबसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउद्दे तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थावि तस्स कालपरियाए, सेऽवि तत्थ
॥२७८॥ १ पञ्चभिः कारणः अमणानां निग्रन्थानामचेलकत्वं प्रशस्तं भवति, तद्यथा-अल्या प्रतिलेखना । वैश्वसिक रूपं २ तपोऽनुमतं १ लाघवं प्रशस्त - विपुल | इन्द्रियनिग्रहः ५.
अनुक्रम २२६]
~2714
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [४], मूलं [२१५],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
*
प्रत
**
सूत्रांक [२१५]
*%%
दीप
विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहायतणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं तिबेमि
(सू० २१५)॥८-४॥ विमोक्षाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः ॥ 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे यस्य भिक्षोर्मन्दसंहननतया एवम्भूतोऽध्यवसायो भवति, तद्यथा-स्पृष्टः खल्वहमस्मि रोगातकैः शीतस्पर्शादिभिर्वा ख्याद्युपसर्गा, ततो ममास्मिन्नवसरे शरीरविमोक्षं कर्तुं श्रेयो 'नालं' न समर्थोऽहमस्मि, WI'शीतस्पर्श' शीतापादितं दुःखविशेष भावशीतस्पर्श वा ख्याधुपसर्गम् 'अध्यासयितुम्' अधिसोमित्यतो भक्तपरिशेषि
तमरणपादपोपगमनमुत्सर्गतः कर्तुं युक्तं, न च तस्य ममास्मिन्नवसरेऽवसरो यतो मे कालक्षेपासहिष्णुरुपसर्गः समुस्थितो रोगवेदनां वा चिराय सोई नालमतो वेहानसं गाईपृष्ठ वा आपवादिकं मरणमत्र साम्प्रतं, न पुनरुपसर्गितस्तदेवाभ्युपेयादित्याह-स' साधुः वसु-द्रव्यं स चात्र संयमः स विद्यते यस्यासी वसुमान, सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेनात्मना कश्चिदर्घकटाक्षनिरीक्षणादुपसर्गसम्भवे सत्यपि तदकरणतया आ-समन्तादत्तो व्यवस्थित आवृत्तो, यदिवा शीतस्पर्शवातादिजनितं दुःखविशेषमसहिष्णुस्तचिकित्साया अकरणतया वसुमान् सर्वसमन्वागतमज्ञानेनात्मना आवृत्तो-व्यवस्थित इति, स चोपसर्गितो वातादिवेदनां चासहिष्णुः किं कुर्यादित्याह-हुहेती यस्माचिराय वातादिवेदनां सोढुमसहिष्णुः, यदिवा यस्मात् सीमन्तिनी उपसर्गयितुमुपस्थिता विषभक्षणोद्वन्धनाडुपन्यासेनापि न मुञ्चति ततस्तपस्विनः प्रभूततरकालनानाविधोपायोपार्जिततपोधनस्य तदैव श्रेयो यदैका कश्चिन्निजैः सपत्नीकोऽपवरके प्रवेशितः आरूढप्रण
अनुक्रम [२२८]
%%
%%AKAR
~272~
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [४], मूलं [२१५],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
*
प्रत सूत्रांक [२१५]
-964-6
दीप
यप्रेयसीमार्थितस्तनिर्गमोपायमलभमान आत्मोद्वन्धनाय विहायोगमनं तदाऽऽदद्याद्विषं वा भक्षयेत् पतनं वा कुर्याद राङ्गवृत्तिः
दीर्घकालं वा शीतस्पर्शादिकमसहिष्णुः सुदर्शनवत् प्राणान् जह्यात् । ननु च वेहानसादिकं बालमरणमुक्तं, तच्चानाय, (शी०) तत्कथं तस्याभ्युपगमः, तथा चागमः-"इच्चेएणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अर्णतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं अप्पाणं
उद्देशकः४ संजोएइ जाव अणाइयं च णं अणवयग्गं चाउरंत संसारकतारं भुजो भुजो परियट्टइ'त्ति, अत्रोच्यते, नैष दोपोऽत्रास्मा॥२७९॥
कमाईताना, नैकान्ततः किश्चित्प्रतिषिद्धमभ्युपगतं वा मैथुनमेकं विहाय, अपितु द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य तदेव प्रतिपिध्यते तदेव चाभ्युपगम्यते, उत्सर्गोऽप्यगुणायापवादोऽपि गुणाय कालज्ञस्य साधोरिति, एतद्दर्शयितुमाह-दीर्घकालं संय-15 मप्रतिपालनं विधाय संलेखनाविधिना कालपर्यायेण भक्तपरिज्ञादिमरणं गुणायेति, एवंविधे खवसरे तत्रापि हानसगा
प्रष्ठादिमरणे अपि कालपर्याय एव, यत्कालपर्यायमरणं गुणाय एवं वेहानसादिकमपीत्यर्थः, बलुनाऽपि कालपर्यायेण| यावन्मात्र कर्मासी क्षपयति तदसावल्पेनापि कालेन कर्मक्षयमवामोतीति दर्शयति-'सोऽपि' वेहानसादेविधाता, न केवलमानुपूर्व्या भक्तपरिज्ञादेः कर्तेत्यपिशब्दार्थः, 'तत्र' तस्मिन् वेहानसादिमरणे 'विअंतिकारए'त्ति विशेषेणान्तिय॑न्तिः
-अन्तक्रिया तस्याः कारको व्यन्तिकारकः, तस्य हि तस्मिन्नवसरे तद्वेहानसादिकमौत्सर्गिकमेव मरणं, यतोऽनेनाप्याप-12 लावादिकेन मरणेनानन्ताः सिद्धाः सेत्स्यन्ति च, उपसञ्जिहीर्घराह-इत्येतत्' पूर्वोक्तं वेहानसादिमरणं विगतमोहानामाय-18 तनम्-आश्रयः कर्त्तव्यतया तथा हितम् अपायपरिहारतया तथा सुखं जन्मान्तरेऽपि सुखहेतुत्वात् तथा 'क्षम' युक्तं ॥२७९ ॥
१ इत्येतेन वासमरणेन स्त्रियमाणो जीवोऽनन्तरविकभवप्रहणैरात्मानं संयोजयवि यावदनादिकं चानपदपं चातुरन्तं संसारकान्तारं भूयो भूयः परिवर्तते.
अनुक्रम [२२८]
%25-45-4
~273~
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [४], मूलं [२१५],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्राप्तकालत्वात् तथा निःश्रेयसं कर्मक्षयहेतुत्वात् तथा 'आनुगामिक' तदर्जितपुण्यानुगमनात्, इतिबधीमिशब्दी पूर्ववद् । विमोक्षाध्ययनस्य चतुर्थोद्देशकः समाप्तः॥
प्रत
सूत्रांक [२१५]]
दीप
अनुक्रम [२२८]
उक्तश्चतुर्थोद्देशकः, साम्प्रतं पञ्चम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके बालमरणं गार्द्धपृष्ठादिकमुपन्यस्तम् , इह तु तद्विपर्यस्त ग्लानभावोपगतेन भिक्षुणा भक्तपरिज्ञाख्यं मरणमभ्युपगन्तव्यमित्येतत्प्रतिपाद्यते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायतइएहिं तस्स णं नो एवं भवइ-तइयं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिजाई वत्थाई जाइजा जाव एवं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं, अह पुण एवं जाणिजा-उवाइकते खलु हेमन्ते गिम्हे पडिवण्णे, अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिविजा, अहापरिजुन्नाइं परिट्रवित्ता अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव स
SaintainRAL
For P
OW
अष्टम-अध्ययने पंचम-उद्देशक: 'ग्लान-भक्त-परिज्ञा' आरब्धः,
~2744
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [५], मूलं [२१६],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
विमो०८ उद्देशका
सूत्रांक
[२१६]]
॥२८
॥
दीप अनुक्रम २२९]
मभिजाणिया, जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-पुट्ठो अवलो अहमसि नालमहमंसि गिहतरसंकमणं भिक्खायरियं गमणाए, से एवं वयंतस्स परो अभिहडं असणं वा ४ आहहु दलइजा, से पुवामेव आलोइजा-आउसंतो! नो खलु मे कप्पइ अभिहडं
असणं ४ भुत्तए वा पायए वा अन्ने वा एयप्पगारे (सू० २१६) तत्र विकल्पपर्युषितः स्थविरकल्पिको जिनकल्पिको वा स्यात् , कल्पद्वयपर्युषितस्तु नियमाजिनकल्पिकपरिहारविशुMIद्धिकयथालन्दिकप्रतिमाप्रतिपन्नानामन्यतमः, अस्मिन् सूत्रेऽपदिष्टो यो भिक्षुर्जिनकल्पिकादिर्वाभ्यां वस्त्राभ्यां पर्युषितो
वस्त्रशब्दस्य सामान्यवाचित्वादेका क्षौमिकोऽपर औणिक इत्याभ्यां कल्पाभ्यां पर्युषितः-संयमे व्यवस्थितः, किम्भूताभ्यां कल्पाभ्यां ?-पात्रतृतीयाभ्यां पर्युषित इत्याद्यनन्तरोद्देशकवन्नेयं यावत् 'नालमह मंसि'त्ति स्पृष्टोऽहं वातादिभी रोगैः 'अबलः असमर्थः 'नालं' न समर्थोऽस्मि गृहाग्रहान्तरं सङ्कमितुं, तथा भिक्षार्थ चरणं चर्या भिक्षाचर्या तद्गमनाय 'नालं' न समर्थ इति, तमेवम्भूतं भिक्षुमुपलभ्य स्याद्गृहस्थ एवम्भूतामात्मीयामवस्थां वदतः साधोरवदतोऽपि परो गृहस्थादिरनुकम्पाभक्तिरसाहृदयोऽभिहृतं-जीवोपमर्दनिवृत्त, किं तद्-अशनं पानं खादिम स्वादिमं चेत्यारादाहृत्य तस्मै साधवे 'दलएजत्ति दद्यादिति । तेन च ग्लानेनापि साधुना सूत्रार्थमनुसरता जीवितनिपिपासुनाऽवश्यं मर्त्तव्यमित्यध्यवसानायिना किं विधेयमित्याह-स जिनकल्पिकादीनां चतुर्णामप्यन्यतमः पूर्वमेव-आदावेव 'आलोचयेत्' विचारयेत् , कतरे
~2754
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [५], मूलं [२१६],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
%
प्रत सूत्रांक [२१६]
दीप अनुक्रम २२९]
माणोद्मादिना दोषेण दुष्टमेतत् ?, तत्राभ्याहृतमिति ज्ञात्वाऽभ्याहृतं च प्रतिषेधयेत् , तद्यथा--आयुष्मन् गृहपते! न खल्वे-15
तम्ममाभिहतमभ्याहृतं च कल्पते अशनं भोक्तुं पानं पातुमन्यद्वैताकारमाधाकम्मादिदोषदुष्ट न कल्पते, इत्येवं तं गृहपतिं दानायोद्यतमाज्ञापयेदिति, पाठान्तरं वा "तं भिक्खु केइ गाहावई उवसंकमित्तु बूया-आउसंतो समणा! अहन्नं| तव अढाए असणं वा ४ अभिहर्ड दलामि, से पुवामेव जाणेजा-आउसंतो गाहाबई। जन्नं तुम मम अडाए असणं वा ४ अभिहई चेतेसि, णो य खलु मे कप्पइ एयप्पगारं असणं वा ४ भोत्तए वा पायए वा, असे वा तहप्पगारे"त्ति,
कण्ठय, तदेवं प्रतिषिद्धोऽपि श्रावकसंज्ञिप्रकृतिभद्रकमिध्यादृष्टीनामन्यतम एवं चिन्तयेत्, तद्यथा-एष तावत् ग्लानो टन शक्नोति भिक्षामटितुं न चापरं कञ्चन ब्रवीति तदस्मै प्रतिषिद्धोऽप्यहं केनचिच्छझना दास्यामीत्येवमभिसन्धायाहारादिकं ढौकयति, तत्साधुरनेषणीयमितिकृत्वा प्रतिषेधयेत् ॥ किं च- .
जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे-अहं च खल पडिन्नत्तो अपडिन्नत्तेहिं गिलाणो अगिलाणेहिं अभिकंख साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइजिस्सामि, अहं वावि खलु अप्पडिन्नत्तो पडिन्नत्तस्स अगिलाणो गिलाणस्स अभिकंख साहम्मियस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए आहहु परिन्नं अणुक्खिस्सामि आहडं च साइज्जिस्सामि १, आहदु परिन्नं आणक्खिस्सामि आहडं च नो साइज्जिस्सामि २, आहहु परिन्नं नो आण
%
Auditurary.com
~276
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [५], मूलं [२१७],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२१७]]
दीप
श्रीआचा
क्खिस्सामि आहडं च साइजिस्सामि ३, आहटु परिन्नं नो आणक्खिस्सामि आहडं विमो०८ राजवृत्तिः
च नो साइजिस्सामि ४ एवं से अहाकिट्टियमेव धम्म समभिजाणमाणे संते विरए उद्देशका५ (शी०)
सुसमाहियलेसे तत्थावि तस्स कालपरियाए से तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहाय॥ २८१॥
यणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं तिबेमि (सू० २१७) ८-५। विमोक्षाध्य
यने पञ्चम उद्देशकः॥ 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे यस्य भिक्षोः परिहारविशुद्धिकस्य यथालन्दिकस्य वाऽयं-वक्ष्यमाणः 'प्रकल्पः' आचारो भवति, तद्यथा-अहं च खलु 'चः' समुच्चये 'खलु' वाक्यालङ्कारे अहं क्रियमाणं वैयावृत्त्यमपरैः 'स्वादयिष्यामि' अभिलपियामि, किम्भूतोऽहं?-प्रतिज्ञप्तो-वैयावृत्त्वकरणायापरैरुक्ता-अभिहितो यथा तव वयं वैयावृत्त्यं यथोचितं कुर्म इति, किम्भूतैः परैः?-अप्रतिज्ञप्तैः-अनुक्कैः, किम्भूतोऽहं-लानो-विकृष्टतपसा कर्त्तव्यताऽशक्तो वातादिक्षोभेण वा ग्लान इति, किम्भूतैरपरैः-अग्लानैः-उचितकर्त्तव्यसहिष्णुभिः, तत्र परिहारविशुद्धिकस्यानुपारिहारिकः करोति कल्पस्थितो वा परो, यदि पुनस्तेऽपि ग्लानास्ततोऽन्ये न कुर्वन्ति, एवं यथालन्दिकस्यापीति, केवलं तस्य स्थविरा अपि कुर्वन्तीति ||
दर्शयति-निर्जराम् 'अभिकाक्ष्य' उद्दिश्य 'साधम्मिकैः सदृशकल्पिकैरेककल्पस्थैरपरसाधुभिर्वा क्रियमाणं वैयावृत्त्यमहं ॥२८१॥ Pol'स्वादयिष्यामि' अभिकाहयिष्यामि यस्यायं भिक्षोः प्रकल्पा-आचारः स्यात् स तमाचारमनुपालयन् भक्तपरिज्ञयाऽपि
अनुक्रम [२३०]]
SHRELIEatunintentmathurna
~2770
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [५], मूलं [२१७],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२१]
दीप अनुक्रम [२३०]
जीवितं जह्यात्, न पुनराचारखण्डनं कुर्यादिति भावार्थः । तदेवमन्येन साघम्मिकेण वैयावृत्त्वं क्रियमाणमनुज्ञातं, साम्प्रतं स एवापरस्य कुर्यादिति दर्शयितुमाह-'चः' समुच्चये अपिशब्दः पुनःशब्दार्थे, सच पूर्वस्माद्विशेषदर्शनार्थः, 'खलु' वाक्यालङ्कारे, अहं च पुनरप्रतिज्ञप्ता-अनभिहितः प्रतिज्ञप्तस्य-वैयावृत्त्यकरणायाभिहितस्य अग्लानो ग्लानस्य निर्जरामभिकाक्ष्य साधम्मिकस्य वैयावृत्त्यं कुर्या, किमर्थ?-'करणाय' तदुपकरणाय तदुपकारायेत्यर्थः, तदेवं प्रतिज्ञा | परिगृह्यापि भक्तपरिज्ञया प्राणान् जह्यात्, न पुनः प्रतिज्ञामिति सूत्रभावार्थः । इदानी प्रतिज्ञाविशेषद्वारेण चतुर्भङ्गि
कामाह-एकः कश्चिदेवम्भूतां प्रतिज्ञा गृह्णाति, तद्यथा-लानस्यापरस्य साधर्मिकस्याहारादिकमन्वेषयिष्यामि, अपरं च ४ वैयावृत्त्यं यथोचितं करिष्यामि, तथाऽपरेण च साधर्मिकेणाहृतमानीतमाहारादिकं स्वादयिष्यामि-उपभोक्ष्ये, एवम्भूतां |
प्रतिज्ञामाहृत्य-गृहीत्वा वैयावृत्त्यं कुर्यादिति १, तथाऽपर आहृत्य-प्रतिज्ञा गृहीत्वा यथाऽपरनिमित्तमन्वीक्षिष्ये आहारादिकमाहृतं चापरेण न स्वादयिष्यामीति २, तथाऽपर आहृत्य प्रतिज्ञामेवम्भूतां, तद्यथा-नापरनिमित्तमन्वीक्षिष्याम्याहारादिकमाहृतं चान्येन स्वादयिष्यामीति ३, तथाऽपर आहृत्य प्रतिज्ञामेवम्भूता, तद्यथा-नान्वीक्षिष्येऽपरनिमित्तमाहा-15 रादिकं नाप्याहृतमन्येन स्वादयिष्यामीति ४, एवम्भूतां च नानाप्रकारांप्रतिज्ञा गृहीत्वा कुतश्चिद् ग्लायमानोऽपि जीवितपरित्यागं कुर्यात्, न पुनः प्रतिज्ञालोपमिति । अमुमेवार्थमुपसंहारद्वारेण दर्शयितुमाह-'एवम्' उक्तविधिना 'स' भिक्षुरवगततत्वः शरीरादिनिष्पिपासुः यथाकीर्तितमेव धर्मम्-उक्तस्वरूपं सम्यगभिजानन्-आसेवनापरिज्ञया आसेवमानः, तथा लापविकमागमयन्नित्यादि यच्चतुर्थोद्देशकेऽभिहितं तदत्र वाच्यमिति, तथा 'शान्तः कषायोपशमाच्छ्रान्तो वा अ
SARERuralordNT
aurwancharary.orm
~278~
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२१७]
दीप
अनुक्रम [२३०]
"
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [५], मूलं [२१७],निर्युक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचानादिसंसारपर्यटनाद् विरतः सावधानुष्ठानात् शोभनाः समाहृता-गृहीता लेश्याः - अन्तःकरण वृत्तयस्तैजसीप्रभृतयो वा येन स सुसमाहत लेश्यः, एवम्भूतः सन् पूर्वगृहीत प्रतिज्ञापालनासमर्थो ग्लानभावोपगतस्तपसा रोगातङ्केन वा प्रतिज्ञालोपू मकुर्वन् शरीरपरित्यागाय भक्तप्रत्याख्यानं कुर्यात्, 'तत्रापि' भक्तपरिज्ञायामपि 'तस्य' कालपर्यायेणानागतायामपि * कालपर्याय एव निष्पादितशिष्यस्य संलिखित देहस्य यः कालपर्यायो-मृत्योरवसरोऽत्रापि ग्लानावसरेऽसावेव कालपर्याय इति, कर्म्मनिर्जराया उभयत्र समानत्वात् स भिक्षुस्तत्र - ला नतयाऽनशनविधाने व्यन्तिकारकः- कर्मक्षय विधायीति । उद्देश कार्थमुपस जिहीर्षुराह सर्वं पूर्ववद् । विमोक्षाध्ययनस्य पश्च मोद्देशकः परिसमाप्तः ॥
॥ २८२ ॥
राङ्गवृत्तिः (शी०)
XXX
उक्तः पञ्चमोदेशकः, साम्प्रतं षष्ठ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोदेशके ग्लानतया भक्तप्रत्याख्यानमुक्तम्, इह धृतिसंहननादिवलोपेत एकत्वभावनां भावयन्निङ्गितमरणं कुर्यादित्येतत्प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योदेशकस्यादौ सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम्
जे भिक्खू एगेण वस्थेण परिवुसिए पायविईएण, तस्स णं नो एवं भवइ-बिइयं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिजं वत्थं जाइजा अहापरिग्गहियं वत्थं धारिजा जाव गिम्हे
अष्टम अध्ययने षष्ठ उद्देशक: 'एकत्व भावना / इंगित मरण' आरब्ध:,
For Pasta Use Only
~279~
विमो० ८ उद्देशकः५
॥ २८२ ॥
org
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [६], मूलं [२१८],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
-
प्रत सूत्रांक [२१८]
--
दीप
पडिवन्ने अहापरिजुन्नं वत्थं परिदृविजा २ ता अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघ
वियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभिजाणीया (सू० २२८) गतार्थ ।। तस्य च भिक्षोरभिग्रहविशेषात् सपात्रमेकं वस्त्र धारयतः परिकम्तिमतेलघुकर्मतया एकत्वभावनाऽध्यवसायः स्यादिति दर्शयितुमाह
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-एगे अहमंसि न मे अस्थि कोइन याहमवि कस्सवि, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा, लावियं आगममाणे तवे से अभि
समन्नागए भवइ जाव समभिजाणिया (सू० २१९) 'णम्' इति वाक्यालयपारे, यस्य भिक्षोः एव मिति वक्ष्यमाणं भवति, (तद्यथा-एकोऽहमस्मि संसारे पर्यटतो न मे पारमार्थिक उपकारकर्तृत्वेन द्वितीयोऽस्ति, न चाहमन्यस्य दुःखापनयनतः कस्यचिद् द्वितीय इति, स्वकृतकर्मफलेश्व
रत्वात्प्राणिनां, एवमसौ साधुरेकाकिनमेवात्मानम्-अन्तरात्मानं सम्यगभिजानीयात्, नास्यात्मनो नरकादिदुःखत्राणतया ४ शरण्यो द्वितीयोऽस्तीत्येवं संदधानो यद्यद्रोगादिकमुपतापकारणमापद्यते तत्तदपरशरणनिरपेक्षो मयैवैतत्कृतं मयैव सोढव्य|मित्येतदध्यवसायी सम्यगधिसहते। कुत एतदधिसहत इत्यत आह-लापवियमित्यादि, चतुर्थोदेशकवद्गतार्थं, यावत् सम्मत्तमेव समभि जाणिय'त्ति। इह द्वितीयोद्देशके उद्गमोसादनैषणा प्रतिपादिता, तद्यथा-'आउसंतो समणा! अहं खलु
अनुक्रम २३१]
मा.सू. ४८
~280
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [६], मूलं [२१९],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२१९]
दीप अनुक्रम [२३२]
श्रीआचा- तव अवाए असणं वा ४ वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दिस्स विमो०८ रावृत्तिःकीय पामिर्च अच्छेज अणिसिट्ठ आहट्ट चेएमि' इत्यादिना अन्धेनेति, तथाऽनन्तरोदेशके ग्रहणैषणा प्रतिपादिता, (शी०) “सिया य से एवं वयंतस्सवि परो अभिहर्ड असणं वा ४ आहहु दलएज्जा" इत्यादिना ग्रन्थेन, ततो ग्रासपणाऽवशिष्यते,
उद्देशक अतस्तत्प्रतिपादनायाह॥२८३॥
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा ४ आहारेमाणे नो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं संचारिज्जा आसाएमाणे, दाहिणाओ वामं हणुयं नो संचारिजा आसाएमाणे, से अणासायमाणे लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ, ज. मेयं भगवया पवेइयं तमेवं अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव अ(सम)भि
जाणिया (सू० २२०) _ 'स' पूर्वव्यावर्णितो 'भिक्षुः साधुः साध्वी वा अशनादिकमाहारमुद्गमोसादनेषणाशुद्धं प्रत्युत्पन्नं ग्रहणैषणाशुद्धं च
गृहीतं सदङ्गारिताभिधूमितवर्जमाहारयेत्, तयोश्चाङ्गारिताभिधूमितयो रागद्वेषौ निमित्तं, तयोरपि सरसनीरसोपलब्धिः, साकारणाभावे च कार्याभाव इतिकृत्वा रसोपलब्धिनिमित्तपरिहारं दर्शयति-स भिक्षुराहारमाहारयन्नो वामतो हनुतो द-II दक्षिणां हर्नु रसोपलब्धये सञ्चारयेदास्वादयन्नशनादिकं, नापि दक्षिणतो वामां सञ्चारयेदास्वादयन् , तत्सञ्चारास्वादनेन
ARRAKASHS
IDI|| २८३॥
भा
~281~
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [६], मूलं [२२०],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२२०]
दीप
हि रसोपलब्धौ रागद्वेषनिमित्ते अङ्गारितत्वाभिधूमितत्वे स्थातामतो यत्किञ्चिदप्यास्वादनीयं नास्वादयेत्, पाठान्तरं वा 'आढायमाणे' आदरवानाहारे मूच्छितो गृद्धो न सञ्चारयेदिति, हन्वन्तरसङ्कमवदन्यत्रापि नास्वादयेदिति दर्शयति-स ह्याहारं चतुर्विधमप्याहारयन् रागद्वेषौ परिहरन्नास्वादयेदिति, तथा कुतश्चिन्निमित्ताद्धन्वन्तरं सञ्चारयन्नप्यनाखादयन् | सञ्चारयेदिति। किमिति यत आह-आहारलाघवमागमयन्-आपादयन् नो आस्वादयेदित्यास्वादनिषेधेन चान्तप्रान्ताहाराभ्यु-द पगमोऽभिहितो भवति, एवं च तपः 'से' तस्य भिक्षोरभिसमन्वागतं भवतीत्यादि गतार्थ यावत् 'सम्मत्तमेव समभिजाणिय'त्ति ॥ तस्य चान्तप्रान्ताशितयाऽपचितमांसशोणितस्य जरदस्थिसन्ततेः क्रियाऽवसीदत्कायचेष्टस्य शरीरपरित्यागबुद्धिः स्यादित्याह
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि च खलु अहं इममि समए इमं सरीरगं अणुपुब्वेण परिवहित्तए, से अणुपुट्वेणं आहारं संवहिज्जा, अणुपुट्वेणं आहारं संवहित्ता कसाए पयणुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्टी उट्ठाय भिक्खू अभिनि
वुडच्चे (सू० २२१) 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे यस्यैकत्यभावनाभावितस्य भिक्षोराहारोपकरणलाघवं गतस्य 'एव'मिति वक्ष्यमाणोऽभिप्रायो भवति, 'से' इति तच्छब्दार्थे तच्छन्दोऽपि वाक्योपन्यासार्थे, 'चः' शब्दसमुच्चये 'खलु' अवधारणे, अहं चास्मिन् 'समये
अनुक्रम [२३३]
~ 282
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [६], मूलं [२२१],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२२१]
दीप अनुक्रम [२३४]
श्रीआचा- अवसरे संयमावसरे ग्लायामि ग्लानिमेव गतो रूक्षाहारतया तत्समुत्थेन वा रोगेण पीडितोऽतो न शक्नोमि रूक्षतपो- विमो०८ रावृत्तिः | भिरभिनिष्टप्तं शरीरकमानुपूा-यथेष्टकालावश्यकक्रियारूपया परिवोढुं-नालमहं क्रियासु व्यापारयितुम् , अस्मिन्नवसरे (शी०)
उद्देशका *इदं प्रतिक्षणं शीयमाणत्वाच्छरीरकमिति मत्वा स भिक्षुरानुपूयो-चतुर्थषष्ठाचाम्लादिकया आहारं 'संवर्तयेत्' संक्षिपेत् । कान पुनदिशसंवत्सरसंलेखनाऽऽनुपूर्वीह गृह्यते, ग्लानस्य तावन्मात्रकालस्थितेरभावाद्, अतस्तत्कालयोग्ययाऽऽनुपूया
द्रव्यसलेखनामाहारं निरुन्ध्यादिति । द्रव्यसंलेखनया संलिख्य च यदपरं कुर्यात्तदाह-षष्ठाष्टमदशमद्वादशादिकयाऽऽनुपूर्व्याऽऽहारं संवर्य कषायान् प्रतनून कृत्वा सर्वकालं हि कपायतानचं विधेयं विशेषतस्तु संलेखनावसरे इत्यतस्तान् प्रतनून
कृत्वा सम्यगाहिता-व्यवस्थापिता अर्चा-शरीरं येन स समाहिताचे, नियमितकायच्यापार इत्यर्थः, यदिवा अर्चा-13 हालेश्या सम्यगाहिता-जनिता लेश्या येन स समाहितार्चः, अतिविशुद्धाध्यवसाय इत्यर्थः, यदिवाऽर्चा-क्रोधाद्यध्यवसाया
त्मिका ज्याला समाहिता-उपशमिताऽर्चा येन स तथा, 'फलं' कर्मक्षयरूपं तदेव फलकं तेनापदि-संसारचमणरूपाया
मर्थः-प्रयोजनं फलकापदर्थः स विद्यते यस्यासौ फलकापदर्थी, यदिवा फलकबद्धास्यादिभिरुभयतो बाह्यतोऽभ्यन्तरहातचावकृष्टः फलकावकृष्ट इत्येवं विगृह्मार्पत्वात् 'फलगावयवी' इत्युक्तं, यदिवा तक्ष्यमाणोऽपि दुर्वचनवास्यादिभिः क-IC
पायाभावतया फलकवदवतिष्ठते तच्छीलश्चेति फलकावस्थायी, वासीचन्दनकल्प इत्यर्थः, स एवम्भूतः प्रतिदिनं साकारभक्तप्रत्याख्यायी बलवति रोगावेगे उत्थाय-अभ्युद्यतमरणोद्यमं विधायाभिनिर्वृत्तार्थ:-शरीरसन्तापरहितो धृतिसं-18॥२८४ ॥ हननायुपेतो महापुरुषाचीर्णमार्गानुविधायीङ्गितमरणं कुर्यात् ॥ कथं कुर्यादित्याह
~283~
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [६], मूलं [२२२],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२२२]
545453
दीप अनुक्रम [२३५]
अणुपविसित्ता गाम वा नगरं वा खेडं वा कब्बडं वा मडंबं वा पट्टणं वा दोणमुहं वा आगरं वा आसमं वा सन्निवेसं वा नेगमं वा रायहाणिं वा तणाई जाइजा तणाई जाइत्ता से तमायाए एगतमवक्कमिज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंगपणगदगमडियमकडासंताणए पडिलेहिय २ पमजिय २ तणाई संथरिजा, तणाई संथरित्ता इत्थवि समए इत्तरियं कुज्जा, तं सच्चं सञ्चवाई ओए तिन्ने छिन्नकहकहे आईयट्टे अणाईए चिच्चाण भेउरं कार्य संविहूय विरूवरूवे परीसहोबसग्गे अस्सि विस्संभणयाए भेरवमणुचिन्ने तस्थावि तस्स कालपरियाए जाव अणुगामियं तिबेमि (सू० २२२)८-६॥ विमो
क्षाध्ययने षष्ट उद्देशकः ॥८॥ प्रसति बुझ्यादीन् गुणानिति गम्यो वाऽष्टादशानां कराणामिति ग्रामः, सर्वत्र वाशब्दः पक्षान्तरदर्शनार्थः, नात्र करो विद्यत इति नकर, पांशुमाकारबद्धं खेट, क्षुल्लकप्राकारवेष्टितं कर्बट, अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तर्यामरहितं मडम्ब, पत्तनं ६
ॐॐॐॐ
REnratna
~284
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२२२]
दीप
अनुक्रम [२३५]
११___
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [६], मूलं [२२२],निर्युक्ति: [२७५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा- तु द्विधा - जलपत्तनं स्थलपत्तनं च, जलपत्तनं यथा काननद्वीपः, स्थलपत्तनं यथा मथुरा, 'द्रोणमुखं' जलस्थलनिर्गमराङ्गवृत्तिः प्रवेशं यथा भरुकच्छं तामलिप्ती वा, 'आकरो' हिरण्याकरादिः, 'आश्रमः' तापसावसथोपलक्षित आश्रयः, 'सन्निवेशः' यात्रा(शी०) ४ समागतजनावासो जनसमागमो वा 'नैगमः' प्रभूततरवणिग्वर्गावासः 'राजधानी' राजाधिष्ठानं राज्ञः पीठिकास्थानमि* त्यर्थः, एतेष्वेतानि वा प्रविश्य तृणानि याचेत, ततः किमित्याह -संस्तारकाय प्रासुकानि दर्भवीरणादिकानि कचिद्रामादौ ॥ २८५ ॥ ४| तृणस्वामिनमशुषिराणि तृणानि याचित्वा स तान्यादायैकान्ते गिरिगुहादावपक्रामेद्गच्छेदेकान्तं-रहोऽपक्रम्य च प्रासुकं ॐ महास्थण्डिलं प्रत्युपेक्षते, किम्भूतं तद्दर्शयति-अल्पान्यण्डानि कीटिकादीनां यत्र तदल्पाण्डं तस्मिन् अल्पशब्दोऽत्राभावे वर्त्तते, अण्डकरहित इत्यर्थः, तथाऽल्पाः प्राणिनो द्वीन्द्रियादयो यस्मिन् तत्तथा, तथा अल्पानि बीजानि नीवारश्यामाकादीनां यत्र तत्तथा, तथा अल्पानि हरितानि दूर्वाप्रवालादीनि यत्र तत्तथा, तथाऽल्पावश्याये - अधस्तनोपरितनावश्यायविप्रुवर्जिते, तथाऽल्पोदके-भौमान्तरिक्षोदकरहिते, तथोत्तिङ्गपनकोदकमृत्तिका मर्कटसन्तानरहिते, तत्रोत्तिङ्गः- पिपीलिकासन्तानकः पनको भूम्यादावुल्लिविशेषः उदकमृत्तिका -अचिराप्कायाद्रीकृता मृत्तिका मर्कटसन्तानको लूतातन्तुजालं, तदेवम्भूते महास्थण्डिले तृणानि संस्तरेत्, किं कृत्वा । - तत् स्थण्डिलं चक्षुषा प्रत्युपेक्ष्य २, वीप्सया भृशभावमाहू, | एवं रजोहरणादिना प्रमृज्य २, अत्रापि वीप्सया भृशार्थता सूचिता, संस्तीर्य च तृणाम्युच्चारप्रस्त्रवणभूमिं च प्रत्युपेक्ष्य पूर्वाभिमुखसंस्तारकगतः करतलललाटस्परिधृतरजोहरणः कृतसिद्धनमस्कारः आवर्त्तितपञ्चनमस्कारोऽत्रापि समये अपिशदादन्यत्र वा समये 'इत्वर' मिति पादपोंपगमनापेक्षया नियतदेशप्रचाराभ्युपगमादिङ्गितमरणमुच्यते, न तु पुनरित्वरं
Eaton Interivationa
For Penal Use Only
~285~
-विमो० ८ उद्देशकः ६
॥ २८५ ॥
www.landbrary.org
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [६], मूलं [२२२],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२२२]
दीप अनुक्रम [२३५]
साकारं प्रत्याख्यानं, साकारप्रत्याख्यानस्यान्यस्मिन्नपिकाले जिनकल्पिकादेरसम्भवात, किं पुनर्यावरकथिकभक्तप्रत्याख्यानावसर इति, इत्वरं हि रोगातुरः श्रावको विधत्ते, तद्यथा-यद्यहमस्माद्रोगात् पञ्चषैरहोभिर्मुक्तः स्यां ततो भोक्ष्ये, नान्यथेत्यादि, तदेवमित्वरम्-इङ्गितमरणं धृतिसंहननादिबलोपेतः स्वकृतत्वग्वर्तनादिक्रियो यावजीवं चतुर्विधाहारनियम |
कुर्यादिति, उक्तं च-"पञ्चक्खइ आहारं चन्विहं णियमओ गुरुसमीवे । इंगियदेसंमि तहा चिवपि हु नियमओ कुमाणइ ॥१॥ उम्वत्तइ परिअत्तइ काइगमाईऽवि अप्पणा कुणइ । सबमिह अप्पणचित्रण अन्नजोगेण धितिबलिओ Pl२॥" तच्चेङ्गित्तमरणं किम्भूतं किम्भूतश्च प्रतिपद्यत इत्याह-'तद्' इङ्गितमरणं सद्भधो हितं सत्यं, सुगतिगमनावि
संवादनात्सर्वज्ञोपदेशाच्च सत्य-तथ्यं, तथा स्वतोऽपि सत्यं वदितुं शीलमस्येति सत्यवादी, यावज्जीवं यथोक्तानुष्ठानाद्यद थाऽऽरोपितप्रतिज्ञाभारनिर्वहणादित्यर्थः, तथा 'ओजः' रागद्वेषरहितः, तथा 'तीर्णः' संसारसागरं, भाविनि भूतवदुपचा
रात्तीर्णवत्तीर्ण इत्यर्थः, तथा 'छिन्ना' अपनीता 'कथं' कथमपि या 'कथा' रागकथादिका विकथारूपा येन स छिन्नकथंकथः, यदिवा कथमहमिद्भितमरणप्रतिज्ञा निर्वहिष्ये इत्येवरूपा या कथा सा छिन्ना येन स छिन्नकथंकथा, दुष्करानुष्ठान विधायी हि कथंकथी भवति, स तु पुनर्महापुरुषतया न व्याकुलतामियादिति, तथा आ-समन्तादतीव इताज्ञाता परिच्छिन्ना जीवादयोऽर्था येन सोऽयमातीतार्थः आदत्ताथों वा, यदिवाऽतीता:-सामस्त्येनातिक्रान्ताः अर्था:
१ प्रयाख्याति माहार चतुर्विध नियमाद् गुरुसमीपे । इङ्गितदेशे तथा चेष्टामपि निवमतः करोति ॥ ॥ उतते परिवर्तते कायिक्यायपि आत्मना करोति । & सर्वमिहात्मनैव नान्ययोगेन धृतिबलिकः ॥ २॥
~286
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [६], मूलं [२२२],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२२२]]
दीप अनुक्रम [२३५]
श्रीआचा- प्रयोजनानि यस्य स तथा, उपरतव्यापार इत्यर्थः, तथा आ-समन्तादतीय इतो-गतोऽनाधनन्ते संसारे आतीतः न
विमो०८ रामवृत्तिः आतीतः अनातीतः, अनादत्तो वा संसारो येन स तथा, संसारार्णवपारगामीत्यर्थः, स एवम्भूत इङ्गितमरणं प्रतिपद्यते,
उद्देशक (शी०) || विधिना 'त्यक्त्वा' प्रोज्झ्य स्वयमेव भिद्यते इति भिदुरं-प्रतिक्षणविशरारं 'कार्य' कर्मवशाग्रहीतमौदारिकं शरीरं त्यक्त्वा,
तथा 'संविधूय' परीपहोपसर्गान् प्रमध्य 'विरूपरूपान्' नानाप्रकारान् सोढ़ा 'अस्मिन् सर्वज्ञप्रणीत आगमे 'विस्रम्भ-15 ॥२८॥
णतया' विश्वासास्पदे तदुक्तार्थाविसंवादाध्यवसायेन भैरवं-भयानकमनुष्ठानं कीवर्दुरध्यवसमिङ्गितमरणाख्यमनुचीर्णवान्18 अनुष्ठितवानिति, तच्च तेन यद्यपि रोगातुरतया व्यधायि तथापि तत्कालपर्यायागततुल्यफलमिति दर्शयितुमाह-'त-15
त्रापि' रोगपीडाऽऽहितेङ्गितमरणाभ्युपगमेऽपि, न केवलं कालपर्यायेणेत्यपिशब्दार्थः, 'तस्य' कालज्ञस्य भिक्षोरसावेव कालपर्यायः, कर्मक्षयस्योभयत्र समानत्वादिति, आह च-'सेवि तत्थ वियंतिकारए' इत्यादि पूर्ववद्गतार्थम् , इतिअवी[मिशब्दावपि क्षुण्णार्थाविति विमोक्षाध्ययनस्य षष्ठोदेशकः समाप्तः॥
उक्तः षष्ठोद्देशकः, साम्प्रतं सप्तमव्याख्या प्रतन्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोदेशके एकत्वभावनाभावि-13 |तस्य धृतिसंहननायुपेतस्येङ्गितमरणमभिहितम्, इह तु सैवैकत्वभावना प्रतिमाभिनिष्पाद्यत इतिकृत्वाऽतस्ताः प्रतिपा-15 द्यन्ते, तथा विशिष्टतरसंहननोपेतश्च पादपोपगमनमपि विदध्यादित्येतच्चेत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
| २८६॥ जे भिक्खू अचेले परिखुसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-चाएमि अहं तणफासं
अष्टम-अध्ययने सप्तम-उद्देशक: 'पादपोपगमन' आरब्ध:,
~287
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [७], मूलं [२२३],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२२३]
*%%*%
दीप
अहियासित्तए सीयफासं अहियासित्तए तेउफासं अहियासित्तए दंसमसगफासं अहियासित्तए एगयरे अन्नतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छायणं चऽहं
नो संचाएमि अहिआसित्तए , एवं से कप्पेइ कडिबंधणं धारित्तए ॥ (सू० २२३) यो भिक्षुः प्रतिमाप्रतिपन्नोऽभिग्रहविशेषादचेलो-दिग्वासाः 'पर्युषितः' संयमे व्यवस्थितो 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'तस्य' भिक्षोः 'एव'मिति वक्ष्यमाणोऽभिप्रायो भवति, तद्यथा-शक्नोम्यहं तृणस्पर्शमपि सोढुं धृतिसंहननायुपेतस्य | & वैराग्यभावनाभावितान्तःकरणस्यागमेन प्रत्यक्षीकृतनारकतिर्यग्वेदनाऽनुभवस्य न मे तृणस्पर्शो महति फलविशेषेऽभ्युद्य
तस्य किञ्चित् प्रतिभासते, तथा शीतोष्णादंशमशकस्पर्शमधिसोदुमिति, तथा एकतरान् अन्यतरांश्चानुकूलप्रत्यनीकान् ६ विरूपरूपान् 'स्पर्शान्' दुःखविशेषानध्यासयितु-सोढुमिति, किं त्वहं ही-लज्जा तया गुह्यप्रदेशस्य प्रच्छादनं हीमच्छा-11
दन, तच्चाहं त्यक्तुं न शक्नोमि, एतच प्रकृतिलजालुकतया साधनविकृतरूपतया वा स्यात्, एवमेभिः कारणैः 'से' तस्य 'कल्पते' युज्यते 'कटिबन्धनं चोलपट्टकं कर्नु, स च विस्तरेण चतुरङ्गुलाधिको हस्तो दैर्येण कटिप्रमाण इति गणनापमाणेनैकः, पुनरेतानि कारणानि न स्युः ततोऽचेल एव पराक्रमेत, अचेलतया शीतादिस्पर्श सम्यगधिसहेतेति ॥ एतातिपादयितुमाह
अदुवा तत्थ परकमतं भुजो अचेलं तणफासा फुसन्ति सीयफासा फुसन्ति तेउफासा
अनुक्रम [२३६]
5वल
~288
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२२४]
दीप
अनुक्रम
[२३७]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [७], मूलं [२२४],निर्युक्ति: [२७५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ २८७ ॥ ७
फुसन्ति दंसमसगफासा फुसन्ति एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अ
चेले लाघवियं आगममाणे जाव समभिजाणिया ( सू० २२४ )
स एवं कारणसद्भावे सति वस्त्रं विभृयादथवा नैवासी जिह्रेति, ततोऽचेल एव पराक्रमेत, तं च तत्र संयमेऽचेलं पराक्रममाणं भूयः पुनस्तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति-उपतापयन्ति, तथा शीतोष्णदंशमशकस्पर्शाः स्पृशन्तीति तथैकतरानन्यतरांश्च विरूपपान् स्पर्शानुदीर्णानधिसहते असाव चेलोऽचेल लाघवमागमयन्नित्यादि गतार्थं यावत् 'सम्मत्तमेव समभिजाणिय'त्ति ।। किं च-प्रतिमाप्रतिपन्न एव विशिष्टमभिग्रहं गृह्णीयात्, तद्यथा-अहमन्येषां प्रतिमाप्रतिपन्नानामेव किञ्चिद्दास्यामि, तेभ्यो वा ग्रहीष्यामीत्येवमाकारं चतुर्भङ्गिकयाऽभिग्रहविशेषमाह
Eucation Internation
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा ४ आहड दलइस्सामि आहडं च साइजिस्सामि १ जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ- अहं च खल अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा ४ आहद्दु दलइस्सामि आहडं च नो साइस्सामि २ जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ- अहं च खल्लु असणं वा ४ आहद्दु नो दलइस्लामि आहडं च साइजिस्सामि ३ जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ- अहं च खलु अन्नेसिं
For Parts Only
~289~
विमो० ८
उद्देशका ७
॥ २८७ ॥
any org
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [७], मूलं [२२५],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२२५]
दीप
भिक्खूणं असणं वा ४ आहहु नो दलइस्सामि आहडं च नो साइजिस्सामि १, अहं च खलु तेण अहाइरित्तेण अहेसणिजेण अहापरिग्गहिएणं असणेण वा ४ अ. भिकङ्ग साहम्मियस्स कुजा वेयावडियं करणाए, अहं वावि तेण अहाइरित्तेण अहेसणिजेण अहापरिग्गहिएणं असणेण वा पाणेण वा ४ अभिकल साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइजिस्सामि लाघवियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभि
जाणिया (सू० २२५) एतच्च पूर्व व्याख्यातमेव, केवलमिह संस्कृतेनोच्यते-यस्य भिक्षोरेवं भवति-वक्ष्यमाणम् , तद्यथा-अहं च खल्वन्येभ्योभिक्षुभ्योऽशनादिकमात्य दास्याम्यपराहृतं च स्वादयिष्यामीत्येको भङ्गका १, तथा यस्य भिक्षोरेवं भवति, तद्यथा-अहं| च खल्वन्येभ्योऽशनादिकमाहृत्य दास्याम्यपराहतं च नो स्वादयिष्यामीति द्वितीयः २ यस्य भिक्षोरेवं भवति, तद्यथाअहं च खल्वन्येभ्योऽशनादिकमाहृत्य नो दास्याम्यपराहृतं च स्वादयिष्यामीति तृतीयः ३ तथा यस्य भिक्षोरेवं भवति, तद्यथा-अहं च खल्वन्येभ्यो भिक्षुभ्योऽशनादिकमाहृत्य नो दास्थाम्यपराहृतं च नो स्वादयिष्यामीति चतुर्थः ४ । इत्येवं| चतुर्णामभिग्रहाणामन्यतरमभिग्रहं गृह्णीयात् , अथवा एतेषामेवाद्यानां त्रयाणां भङ्गानामेकपदेनैव कश्चिदभिग्रहं गृह्णी
CCCCXX
अनुक्रम [२३८]
SC-CACAकटकन
~290~
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [७], मूलं [२२५],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०)
विमो०८ उद्देशक
सूत्रांक [२२५]
॥२८८॥
दीप अनुक्रम [२३८]
CCESSACROCESRAS
यादिति दर्शयितुमाह-यस्य भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहविशेषो भवति, तद्यथा-अहं च खलु तेन यथाऽतिरिक्तेन-आत्मपरि-| भोगाधिकेन यथैषणीयेन यत्तेषां प्रतिमाप्रतिपन्नानामेषणीयमुक्तम् , तद्यथा-पञ्चसु प्राभृतिकासु अग्रहः द्वयोरभिग्रहः | तथा यथापरिगृहीतेनात्मार्थ स्वीकृतेनाशनादिना निर्जरामभिकाय साधर्मिकस्य वैयावृत्यं कुर्याद्, यद्यपि ते प्रतिमाप्रतिपन्नत्वादेकत्र न भुञ्जते तथाप्येकाभिग्रहापादितानुष्ठानत्वात्साम्भोगिका भण्यन्ते, अतस्तस्य समनोज्ञस्य करणाय| उपकरणार्थ वैयावृत्यं कुर्यामित्येवंभूतमभिग्रहं कश्चिद्हाति । तथाऽपरं दर्शयितुमाह-वाशब्दः पूर्वस्मात्पक्षान्तरमाहअपिशब्दः पुनःशब्दार्थे, अहं वा पुनस्तेन यथातिरिक्तेन यथैषणीयेन यथापरिगृहीतेनाशनेन ४ निर्जरामभिकाझ्य साधम्मिकैः क्रियमाणं वैयावृत्त्यं स्वादयिष्यामि-अभिलषिष्यामि, यो वाऽन्यः साधर्मिकोऽन्यस्य करोति तं चानुमोदयिष्यामि-यथा सुष्टु भवता कृतमेवभूतया वाचा, तथा कायेन च प्रसन्नदृष्टिमुखेन तथा मनसा चेति, किमित्येवं करोति?-लाघविकमित्यादि, गतार्थ ॥ तदेवमन्यतराभिग्रहवान् भिक्षुरचेलः सचेलो वा शरीरपीडायां सत्यामसत्यां वा आयुःशेषतामवगम्योद्यतमरणं विदध्यादिति दर्शयितुमाह
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि खलु अहं इमम्मि समए इमं सरीरगं अणुपुट्वेणं परिवहित्तए, से अणुपुट्वेणं आहारं संवहिजा २ कसाए पयणुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिनिव्वुडच्चे अणुपविसित्ता गाम वा नगरं
॥२८८॥
~291
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [७], मूलं [२२६],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२२६]
वा जाव रायहाणिं वा तणाई जाइजा जाव सन्धरिजा, इत्थवि समए कार्य च जोगं च ईरियं च पञ्चक्खाइजा, तं सच्चं सच्चावाई ओए तिन्ने छिन्नकहकहे आइयट्रे अणाईए चिच्चाणं भेउरं कार्य संविहुणिय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सि विस्संभणाए भेरवमणुचिन्ने तत्थवि तस्स कालपरियाए, सेवि तत्थ विअन्तिकारए, इच्चेयं विमोहाययणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं तिबेमि (सू० २२६)८-७॥ णमिति वाक्यालङ्कारे, यस्य भिक्षोरेवंभूतो-वक्ष्यमाणोऽभिप्रायो भवति, तद्यथा-लायामि खत्वहमित्यादि यावत्तणानि संस्तरेत्, संस्तीर्य च तृणानि यदपरं कुर्यात्तदाह-अत्रापि समये-अवसरे न केवलमन्यत्रानुज्ञाप्य संस्तारकमारुह्य | सिद्धसमक्ष स्वत एवं पञ्चमहावतारोपणं करोति, ततश्चतुर्विधमप्याहारं प्रत्याचष्टे, ततः पादपोपगमनाय कार्य च-शरीरं| प्रत्याचक्षीत, तद्योगं च-आकुश्चनप्रसारणोन्मेनिहमेषादिकम् , तधेरणमीर्या तां च सूक्ष्मां कायवाग्गतां मनोगतां वाडप्रशस्तां प्रत्याचक्षीत, तब सत्यं सत्यवादीत्यायनन्तरोद्देशकवनेयम् । इतिब्रवीमिशब्दावपि क्षुण्णार्थाविति विमोक्षाध्ययनस्य सप्तमोद्देशकः समाप्तः ८-७॥
दीप अनुक्रम [२३९]
--
~292
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-१],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
||१||
श्रीआचा- उक्तः सप्तमोद्देशकः, साम्पतमष्टम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशकेषु रोगादिसम्भवे कालपर्याया-|| विमो०८ रावृत्तिःगतं परिजेङ्गितमरणपादपोपगमविधानमुक्तम् , इह तु तदेवानुपूर्वीविहारिणां कालपर्यायागतमुच्यते इत्यनेन सम्बन्धेना(शी०) यातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रमुच्यते
उद्देशकद अनुष्टुप् ॥ अणुपुत्वेण विमोहाई, जाई धीरा समासज्ज । वसुमन्तो मइमन्तो, सव्वं ॥२८९॥
नच्चा अणेलिसं ॥ १॥ दुविहंपि विइत्ता णं, बुद्धा धम्मस्स पारगा । अणुपुव्वीइ सलाए, आरम्भाओ(य)तिउद्दई ॥२॥ कसाए पयणू किच्चा, अप्पाहारे तितिक्खए। अह भिक्खू गिलाइज्जा, आहारस्सेव अन्तियं ॥३॥ जीवियं नाभिकलिज्जा, मरणं नोवि
पत्थए । दुहओऽवि न सज्जिज्जा, जीविए मरणे तहा ॥४॥ आनुपूर्वी-क्रम, तद्यथा-प्रवज्याशिक्षासूत्रार्थग्रहणपरिनिष्ठितस्यैकाकिविहारित्वमित्यादि, यदिवा आनुपूर्वी-संलेखनाक्रमश्चत्वारि विकृष्टानीत्यादि तया आनुपूा यान्यभिहितानि, कानि पुनस्तानि?-'विमोहानि' विगतो मोहो येषु येषां वा येभ्यो वा तानि तथा भक्तपरिशेङ्गितमरणपादपोपगमनानि यान्येवभूतानि यथाक्रममायातानि धीराः-अक्षोभ्याः|| समासाद्य-प्राप्य वसु-द्रव्यं संयमस्तद्वन्तो वसुमन्तः, तथा मननं मतिः-हेयोपादेयहानोपादानाध्यवसायस्तद्वन्तो मतिमन्तः, तथा 'सर्व' कृत्यमकृत्यं च ज्ञात्वा यद्यस्य वा भक्तपरिज्ञानादिकं मरणविधानमुचितं धृतिसंहननाद्यपेक्षयाऽनन्यस-13
CATECA***
दीप अनुक्रम २४०]
WIn
FHP
ON
अष्टम-अध्ययने अष्टम-उद्देशक: 'अनशन-मरण' आरब्ध:,
~293~
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-१],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-[१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||४||
दशम्-अद्वितीयम्, सर्व ज्ञात्वा समाधिमनुपालयेदिति ॥१॥किं च-द्वे विधे प्रकारावस्येति द्विविधं तपो बाह्यमभ्यन्तरं च, तद्विदित्वा-आसेव्य यदिवा मोक्षाधिकारे विमोक्तव्यं द्विविधं, तदपि बाह्य शरीरोपकरणादि आन्तरं रागादि, तद्धेयतया विदित्वा त्यक्त्वेत्यर्थः, हेयपरित्यागफलत्वात् ज्ञानस्य, 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, के विदित्वा-'बुद्धा' अव-10 गततत्त्वा धर्मास्य-श्रुतचारित्राख्यस्य पारगाः-सम्यग्वेत्तारः, ते बुद्धा धर्मस्वरूपवेदिनः 'आनुपूा' प्रव्रज्यादिक्रमेण
संयममनुपाल्य मम जीवतः कश्चिद्गुणो नास्तीत्यतः शरीरमोक्षावसरः प्राप्तः तथा कस्मै मरणायालमहमित्येवं 'संख्याय' 8||ज्ञात्वा, आरम्भणमारम्भः-शरीरधारणायान्नपानाद्यन्वेषणात्मकस्तस्मात् त्रुव्यति-अपगच्छतीत्यर्थः, सुब्व्यत्ययेन पञ्चम्यर्थे चितीं, पाठान्तरं वा 'कम्मुणाओ तिअट्टई' कर्माष्टभेदं तस्मात् त्रुटयिष्यतीति शुव्यति 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वे'-11 (पा०३-३-१३१)त्यनेन भविष्यत्कालस्य वर्तमानता॥२॥ स चाभ्युद्यतमरणाय संलेखनां कुर्वन् प्रधानभूतां भावसंलेखनां कुर्यादित्येतद्दर्शयितुमाह-कषः-संसारस्तस्यायाः कषाया:-क्रोधादयश्चत्वारस्तान् प्रतनून कृत्वा ततो यत्किञ्चनाश्नीयात् , तदपि न प्रकाममिति दर्शयति-'अल्पाहारः स्तोकाशी षष्ठाष्टमादि संलेखनाक्रमायातं तपः कुर्वन् यत्रापि पारयेत्तत्राप्यल्प-18 मित्यर्थः, (अल्पाहारतया च क्रोधोद्भवः स्यादतस्तदुपशमो विधेय इति दर्शयति-तितिक्षते-असदृशजनादपि दुर्भाषि
तादि क्षमते, रोगातङ्क वा सम्यक् सहत इति, तथा च संलेखनां कुर्वन्नाहारस्याल्पतया 'अर्थ'त्यानन्तर्ये 'भिक्षुः' मुदमुक्षुः 'ग्लायेत्' आहारेण विना ग्लानतां ब्रजेत् , क्षणे मूच्छेन्नाहारस्यैवान्तिक-पर्यवसानं ब्रजेदिति, चत्वारि विकृष्टानी
त्यादि संलेखनादन विहायाशनं विदध्यादित्यर्थः, यदिवा ग्लानतामुपगतः सन्नाहारस्यान्तिक-समीपं न व्रजेत् , तथाहि
SORSAR
दीप अनुक्रम [२४३]
ForParaaEEDROIN
~294~
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-५],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-[१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा-
राङ्गवृत्तिः
प्रत सूत्रांक ||५||
(शी०)
॥२९
॥
ASARDAR
दीप
अनुक्रम २४४]
आहारयामि तावत्कतिचिदिनानि पुनः संलेखनाशेष विधास्वेऽहमित्येवं नाहारान्तिकमियादिति ॥शा किंच-तत्र लेखनायां व्यवस्थितः सर्वदा वा साधुर्जीवितं-प्राणधारणलक्षणं नाभिकाङ्केत्, नापि शुढेदनापरीषहमनधिसहमानो मरणं प्रार्थये 'उभयतोऽपि' जीविते मरणे वा न सङ्गं विदध्यात् जीविते मरणे तथा ॥४॥ किं भूतस्तर्हि स्थादित्याह
ভয়া मज्झत्थो निजरापेही, समाहिमणुपालए । अन्तो बहिं विऊस्सिज, अज्झत्थं सुद्धमेसए ॥५॥ जं किंचुवकम जाणे, आऊखेमस्समप्पणो। तस्सेव अन्तरद्धाए, खिप्पं सिक्खिज पण्डिए ॥६॥ गामे वा अदुवा रणे, थंडिलं पडिलेहिया । अप्पपाणं तु विनाय, तणाई संथरे मुणी ॥७॥ अणाहारो तुयट्टिजा, पुट्ठो तत्थऽहियासए ।
नाइवेलं उवचरे, माणुस्सेहि विपुटवं ॥८॥ रागद्वेषयोर्मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थः, यदिवा जीवितमरणयोनिराकाइक्षतया मध्यस्थो निर्जरामपेक्षितुं शीलमस्येति |निजेरापेक्षी, स एवंभूतः समाधि-मरणसमाधिमनुपालयेत्-जीवितमरणाशंसारहितः कालपर्यायेण यन्मरणमापद्यते तत् समाधिस्थोऽनुपालयेदिति भावः । अन्तः कषायान् बहिरपि शरीरोपकरणादिकं ब्युसण्यात्मन्यध्य-18/ ध्यात्मम्-अन्तःकरणं तच्छुद्धं सकलद्वन्द्वोपरमाद्विस्रोतसिकारहितमन्वषयेत-प्रार्थयेदिति ॥ ५॥ किंच- ॥२९ ॥ उपक्रमणमुपक्रमः-उपायस्तं यं कश्चन जानीत, कस्योपक्रमः-'आयुःक्षेमस्य' आयुषः क्षेम-सम्यक्षालनं तस्य,
wjanwroran.ary
~295
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-८],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-[१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||८||
दीप अनुक्रम [२४७]
कस्य सम्बन्धि तदायु:-आत्मनः, एतदुक्तं भवति-आत्मायुषो यं क्षेमप्रतिपालनोपाय जानीत तं क्षिप्रमेव शिक्षेत्-व्यापारयेत् पण्डितो-बुद्धिमान्, 'तस्यैव' संलेखनाकालस्य 'अन्तरद्धाएंति अन्तरकालेऽर्द्धसंलिखित एव देहे देही यदि कश्चित् धातादिक्षोभात् आतङ्क आशुजीवितापहारी स्यात् ततः समाधिमरणमभिकाश्चन् तदुपशमोपायमेषणीयविधिनाऽभ्यङ्गादिकं विदध्यात्, पुनरपि संलिखेत् , यदिवाऽऽत्मनः आयु-क्षेमस्य-जीवितस्य यत्किमप्युपक्रमणम्-आयुःपुद्ग-11
लानां संवर्त्तनं समुपस्थितं तज्जानीत, ततस्तस्यैव संलेखनाकालस्य मध्येऽव्याकुलितमतिः क्षिप्रमेव भक्तपरिज्ञानादिकं शिक्षेत ol-आसेवेत पण्डितो-बुद्धिमानिति ॥६॥ संलेखनाशुद्धकायश्च मरणकालं समुपस्थितं ज्ञात्वा किं कुर्यादित्याह-ग्रामः
प्रतीतो, मामशब्देन चात्र प्रतिश्रय उपलक्षितः, प्रतिश्रय एव स्थण्डिल-संस्तारकभुवं प्रत्युपेक्ष्य, तथा अरण्ये वेत्यनेन चो-| पाश्रयावहिरित्येतदुपलक्षितम् , उद्याने गिरिगुहायामरण्ये वा स्थण्डिलं प्रत्युपेक्ष्य विज्ञाय चाल्पप्राण-प्राणिरहितम् , ग्रामा-17 दियाचितानि मासुकानि दर्भादिमयानि तृणानि संस्तरेत् 'मुनिः' यथोचितकालस्य वेत्तेति॥७॥संस्तीर्य च तृणानि यत्कुर्यात्तदाह-न विद्यते आहारोऽस्येत्यनाहारः तत्र यथाशक्ति यथासमाधानं च त्रिविधं चतुर्विध वाऽऽहारं प्रत्याख्यायारोपितपञ्चमहाव्रतः क्षान्त:-क्षामितसमस्तपाणिगणः समसुखदुःखः आवर्जितपुण्यप्राग्भारतया मरणादविभ्यत् संस्तारके त्वग्वर्त्तनं कुर्यात् , तत्र च स्पृष्टः परीषहोपसर्गस्त्यक्तदेहतया सम्यक्तानध्यासयेद्-अधिसहेत, तत्र मानुष्यैरनुकूलप्रतिकूलैः परीषहोपसगैः स्पृष्टो-व्याप्तो नातिवेलमुपचरेत् न मर्यादोलङ्घनं कुर्यात्, पुत्रकलत्रादिसम्बन्धानार्तध्यानवशगो भूयात् , प्रतिकूलैर्वा परीषहोपसगर्ने क्रोधनिघ्नः स्यादिति ॥ ८॥ एतदेव दर्शयितुमाह
JALEDuraEntrintantracha
ForParaaEEDROIN
~296~
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
||९||
दीप
अनुक्रम [२४८]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा -९],निर्युक्तिः [२७५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र - [०१] अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ २९१ ॥
** % %%%
संसप्पगा य जे पाणा, जे य उड्डमहाचरा । भुञ्जन्ति मंससोणियं, न छणे न पमजए ॥ ९ ॥ पाणा देहं विहिंसन्ति, ठाणाओ नवि उन्भमे। आसवेहिं विवित्नेहिं, तिप्पमाणोऽहियास ॥ १० ॥ गन्धेहिं विवित्तेहिं, आउकालस्स पारए । पग्गहियतरगं चेयं, दविस्स वियाणओ ॥ ११ ॥ अयं से अवरे धम्मे, नायपुत्तेण साहिए। आयवज्जं पडीयारं, विजहिजा तिहा तिहा ॥ १२ ॥
संसर्पन्तीति संसकाः- पिपीलिकाक्रोष्ट्रादयो ये प्राणाः प्राणिनो ये चोर्द्धचरा-गृध्रादयो ये चाधश्वराः बिलवासित्वात्सर्पादयस्त एवंभूता नानाप्रकाराः 'भुञ्जन्ते' अभ्यवहरन्ति मांसं सिंहव्याघ्रादयः तथा शोणितं मशकादयः, तांश्च प्राणिन आहारार्थिनः समागतानवन्ति सुकुमारवद्धस्तादिभिर्न्न क्षणुयात् न हन्यात् न च भक्ष्यमाणं शरीरावयवं रजोहरणादिना प्रमार्जयेदिति ॥ ९ ॥ किं च-प्राणाः प्राणिनो देहं मम (वि) हिंसन्ति, न तु पुनर्ज्ञानदर्शनचारित्राणीत्यतस्त्यक्तदेहाशिनस्तानन्तरायभयान्न निषेधयेत्, तस्माच्च स्थानान्त्राप्युद्धमेत् नान्यत्र यायात्, किंभूतः सन् १आश्रवैः प्राणातिपातादिभिर्विषयकषायादिभिर्वा 'विविक्तैः' पृथग्भूतैर विद्यमानैः शुभाध्यवसायी तैर्भक्ष्यमाणोऽध्यमृतादिना तृप्यमाण इव सम्यतत्कृतां वेदनां तैस्तप्यमानो वाऽध्यासयेद् अधिसहेत ॥ १० ॥ किंचग्रन्थैः सबाह्याभ्यन्तरैः शरीररागादिभिः 'विविक्तैः' त्यक्तेः सद्भिर्ग्रन्थैर्वा-अङ्गानङ्गप्रविष्टेरात्मानं भावयन् धर्मशुक्ल
Jain Education national
For Personal & Prat Use Ont
~297~
विमो० ८ उद्देशकः
॥ २९१ ॥
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-१२],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-[१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम २५१]
SSCRACTRESS
ध्यानान्यतरोपेतः 'आयुःकालस्य मृत्युकालस्य 'पारगः' पारगामी स्थात्-यावदन्त्या उच्छासनिश्वासास्तावत्तद्विदध्यावर, एतन्मरणविधानकारी सिद्धिं त्रिविष्टपं वा प्रामुयादिति गतं भक्तपरिज्ञामरणं । साम्प्रतमिङ्गितमरणं श्लोका दिनोच्यतेतद्यथा-'प्रगृहीततरकं चेदं प्रकर्षण गृहीततरं प्रगृहीततरं तदेव प्रगृहीततरकम् , 'इद'मिति वक्ष्यमाणमिङ्गितमरणम्, एतद्धि भक्तप्रत्याख्यानात्सकाशानियमेन चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानादिमितप्रदेशसंस्तारकमात्रविहाराभ्युपगमाच विशिष्ट
तरधृतिसंहननाद्युपेतेन प्रकर्षण गृह्यत इति, कस्यैतद्भवति ?-द्रव्यं-संयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविकस्तस्य 'विजामानतो' गीतार्थस्य जघन्यतोऽपि नवपूर्वविशारदस्य भवति, नान्यस्येति, अत्रापीनितमरणे यत्संलेखनातृणसंस्ताराविकमभिहितं तत्सर्व वाच्यम् ॥ ११ ॥ अयमपरो विधिरित्याह-अयं स' इति सोऽयम् 'अपरः' अन्यो। भक्तप्रत्याख्यानाभिन्न इङ्गितमरणस्य 'धर्मो' विशेषो 'ज्ञातपुत्रेण' वीरवर्द्धमानस्वामिना सुप्ताहितः-उपलब्धः स्वाहितः, अस्य चानन्तरं वक्ष्यमाणत्वात्प्रत्यक्षासन्नवाचिनेदमाऽभिधानं, अत्रापीङ्गितमरणे प्रत्यादिको विधिः संलेखना च पूर्वबद्रष्टव्या, तथोपकरणादिकं हित्वा स्थण्डिलं प्रत्युपेक्ष्यालोचितप्रतिक्रान्तः पञ्चमहाव्रतारूढश्चतुर्विधमाहारं प्रत्याख्याय संस्तारके तिष्ठति, अयमत्र विशेषः-आत्मवर्ज प्रतिचारम्-अङ्गव्यापार विशेषेण जह्यात्-त्यजेत् 'त्रिविधत्रिविधेने'ति मनोवाकायैः कृतकारितानुमतिभिः स्वव्यापारव्यतिरेकेण परित्यजेत् , स्वयमेव चोद्वर्तनपरिवर्तनं कायिकायोगादिक || विधत्ते ॥ १२ ॥(सर्वथा प्राणिसंरक्षणं पौनःपुन्येन विधेयमिति दर्शयितुमाह
हरिपसु न निवजिजा, थण्डिलं मुणिया सए । विओसिज अणाहारो, पुटो तत्था
JAREauratollinalnnational
ForParaaEEDROIN
~298~
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-१३],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-[१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
विमो०
प्रत सूत्रांक ||१३||
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥२९२॥
दीप अनुक्रम [२५]
हियासए ॥ १३ ॥ इन्दिएहिं गिलायन्तो, समियं आहरे मुणी। तहावि से अगरिहे, अचले जे समाहिए ॥ १४ ॥ अभिक्कमे पडिक्कमे, सङ्कुचए पसारए। कायसाहार उद्देशका णट्राए, इत्थं वावि अचेयणो ॥ १५॥ परिकमे परिकिलन्ते, अदुवा चिट्टे अहायए ।
ठाणे ण परिकिलन्ते, निसीइजा य अंतसो ॥ १६ ॥ | हरितानि-दर्वाङ्करादीनि तेषु न शयीत स्थण्डिलं मत्वा शयीत तथा सबाह्याभ्यन्तरमुपधि व्युत्सृज्य-त्यक्त्वाऽनाहारः सन् स्पृष्टः परीषहोपसगैः 'तत्र' तस्मिन् संस्तारके व्यवस्थितः सन् सर्वमध्यासयेद्-अधिसहेत ॥ १३ ॥ किं चसानाहारतया मुनिलायमान इन्द्रियैः शमिनो भावः शमिता-समता तां साम्यं वा आत्मन्याहारयेद्-व्यवस्था|पयेत् नार्तध्यानोपगतो भूयादिति, यथासमाधानमास्ते, तद्यथा-सङ्कोचननिविण्णो हस्तादिकं प्रसारयेत् तेनापि निर्विण्ण उपविशेत् यथेजितदेशे सञ्चरेद्वा, तथाप्यसौ स्वकृतचेष्टत्वादगी एव, किंभूत इति दर्शयति-अचलो यः समाहितः। यद्यप्यसाविङ्गितप्रदेशे स्वतः शरीरमात्रेण चलति तथाप्यभ्युद्यतमरणान चलतीत्यचलः सम्यगाहितं-व्यवस्थापितं धर्मध्याने शुक्लध्याने वा मनो येन स समाहितः, भावाचलितश्चेजितप्रदेशे चकमणादिकमपि कुर्यादिति ॥१४॥ एतद्दर्शयितुमाह -प्रज्ञापकापेक्षयाऽभिमुखं कमणमभिक्रमणं, संस्तारकाद्गमनमित्यर्थः, तथा प्रतीपं-पश्चादभिमुख कमणं प्रतिक्रमण- ||२९२॥ मागमनमित्यर्थः, नियतदेशे गमनागमने कुर्यादितियावत्, तथा निष्पन्नो निषण्णो वा यथासमाधानं भुजादिकं सङ्को-|४||
~299~
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-१६],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-[१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
*
*
प्रत सूत्रांक ||१६||
*
चयेत्प्रसारयेद्वा, किमर्थमेतदिति चेद्दर्शयति-कायस्य-शरीरस्य प्रकृतिपेलवस्य साधारणार्थ, कायसाधारणाच्च तसीडाकजतायुष्कोपक्रमपरिहारेण स्वायुःस्थितिक्षयान्मरणं यथा स्यात्, न पुनस्तेषां महासत्त्वतया शरीरपीडोत्थापितचित्तस्यान्य
थाभावः स्यादिति भावः, ननु च निरुद्धसमस्तकायचेष्टस्य शुष्ककाष्ठवदचेतनतया पतितस्य प्रचुरतरपुण्यप्राग्भारोऽभिहित इति, नायं नियमः, संविशुद्धाध्यवसायतया यथाशक्त्यारोपितभारनिर्वाहिणः तत्तुल्य एव कर्मक्षयः अत्राप्यसौ वाशब्दात्तत्र वा पादपोपगमनेऽचेतनवत्सक्रियोऽपि निष्क्रिय एव, यदिवा 'अत्रापि' इङ्गित्तमरणेऽचेतनवच्छुष्ककाष्ठवत्सवक्रियारहितो यथा पादपोपगमने तथा सति सामर्थे तिष्ठेद् ॥१५॥ एतत्सामथ्योभावे चैतत्कुर्यादित्याह-यदि निषण्णस्यानिषण्णस्य वा गात्रभङ्गः स्यात् , ततः परिकामेत्-चङ्कम्याद् यथानियमिते देशेऽकुटिलया गत्या गतागतानि कुर्यात् , तेनापि श्रान्तः सन् अथवोपविष्टस्तिष्ठेत् , 'यथावतो' यथाप्रणिहितगात्र इति, यदा पुनः स्थानेनापि परिक्कममियात् तद्यथा-निषण्णो वा पर्यङ्केण वा अपयक्रेण वोत्कुटुकासनो वा परिताम्यति तदा निषण्णः स्थात्, तत्राप्यु-| तानको वा पार्श्वशायी वा दण्डायतो वा लगण्डशायी वा यथा समाधानमवतिष्ठेत् ॥ १६ ॥ किं च
आसीणेऽणेलिसं मरणं, इन्दियाणि समीरए । कोलावासं समासज, वितहं पाउरे सए ॥ १७ ॥ जओ वजं समुप्पजे, न तत्थ अवलम्बए । तउ उकसे अप्पाणं, फासे तत्थऽहियासए ॥ १८॥ अयं चाययतरे सिया, जो एवमणुपालए। सव्वगायनिरो
*
दीप अनुक्रम
*
[२५५]
*
ForParaaEEDROIN
~300~
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-१९],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-[१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१९||
दीप
श्रीआचा- हेऽवि, ठाणाओ नवि उब्भमे ॥ १९॥ अयं से उत्तमे धम्मे, पुव्वट्ठाणस्स पग्गहे। विमो०८ राङ्गवृत्तिः (शी०) अचिरं पडिलेहिता, विहरे चिट्ठ माहणे ॥२०॥
उद्देशकार ॥२९३॥
'आसीनः' आश्रितः किं तत्-मरणम् , किंभूतम् -'अनीशम्' अनन्यसदृशमितरजनदुरध्यवसेयम् , तथाभूतश्च किं कुर्यादिति दर्शयति-इन्द्रियाणीष्टानिष्टस्वविषयेभ्यः सकाशाद्रागद्वेषाकरणतया सम्यगीरयेत्-प्रेरयेदिति, कोलाघुणकीटकास्तेषामावासः कोलावासस्तमन्तघुणक्षतमुद्देहिकानिचितं वा 'समासाद्य'लब्ध्या तस्माद्यद्वितथम्-आगन्तुकतदुत्थजन्तुरहितमवष्टम्भनाय प्रादुरेषयेत्-प्रकटं प्रत्युपेक्षणयोग्यमशुपिरमन्वेषयेत् ॥१७॥ इङ्गितमरणे चोदनामभिधाय यन्निषेध्यं तद्दर्शयितुमाह–'यतो' यस्मादनुष्ठानादवष्टम्भनादेवज्रवद्वज्र-गुरुत्वात्कर्म अवयं वा-पापं वा तत्समुत्पद्येत
प्रादुष्ष्यात्, न तत्र घुणक्षतकाष्ठादाववलम्बेत-नावष्टम्भनादिकां क्रियां कुर्यात् , तथा 'ततः' तस्मादुत्क्षेपणापक्षेपणादेः का-13 टाययोगादुष्पणिहितवाग्योगादार्सध्यानादिमनोयोगाच्चावद्यसमुत्पत्तिहेतोरात्मानमुत्कर्षेद्-उकामयेत्, पापोपादानादात्मानं ।
निवर्तयेदितियावत् , तत्र च धृतिसंहननाद्युपेतोऽप्रतिकर्मशरीरः प्रवर्धमानशुभाध्यवसायकण्डकोऽपूर्वापूर्वपरिणामारोही | सर्वज्ञप्रणीतागमानुसारेण पदार्थस्वरूपनिरूपणाहितमतिः अन्यदिदं शरीरं त्याज्यमित्येवंकृताध्यवसायः सर्वान् स्पर्शान-1 दुःखविशेषाननुकूलप्रतिकूलोपसर्गपरीषहापादितान् तथा वातपित्तश्लेष्मद्वन्वंतरप्रोद्भूतान् कर्मक्षयायोद्यतो मयैवैतदवयं ॥२९३ ॥ कृतं सोढव्यं चेत्येतदध्यवसायी अध्यासयेद्-अधिसहेत, यतो यन्मया त्यक्तं शरीरकमेतदेवोपद्रवन्ति न पुनर्जिघृक्षित
अनुक्रम [२५८]
~301~
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-२०],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-[१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||२०||
दीप अनुक्रम [२५९]
धर्माचरणमित्याकलय्य सर्वपीडासहिष्णुर्भवेदिति ॥ १८॥ गत इङ्गितमरणाधिकारः, साम्प्रतं पादपोपगमनमाश्रित्याहअनन्तरमभिधास्यमानत्वाद्योऽयं प्रत्यक्षो मरणविधिः, स चाऽऽयततरो, (न केवलं भक्तपरिज्ञाया इङ्गितमरणविधिरायततरः, अयं च तस्मादायततर इति चशब्दार्थः, आयततर इत्याइभिविधी सामस्त्येन यत आयतः, अयमनयोरतिशयेनायत आयततरः, यदिवाऽयमनयोरतिशयेनात्तो-गृहीत आत्ततरः, यलेनाध्यवसित इत्यर्थः, तदेवमयं पादपोपगमनमरणविधिरात्ततरो-दृढतरः स्याद्भवेत् , अत्रापि यदिङ्गितमरणे प्रत्रज्यासलेखनादिकमुक्तं तत्सर्व द्रष्टव्यमिति, यद्यसावायततरः ततः किमिति दर्शयतिन्यो भिक्षुः 'एवम् उक्तविधिनैव पादपोपगमनविधिमनुपालयेत् 'सर्वगात्रनिरोधेऽपि' उत्तप्यमानकायोऽपि मूच्र्छन्नपि मरणसमुद्घातगतो वा भक्ष्यमाणमांसशोणितोऽपि क्रोष्टुगृद्रपिपीलिकादिभिर्महासत्त्वतयाऽऽशंसितमहाफलविशेषः संस्तस्मात्स्थानात्-प्रदेशात् द्रव्यतो भावतोऽपि शुभाध्यवसायस्थानान्न व्युद्धमेत्-न स्थानान्तरं यायात् ॥ १९॥ किं च-'अय' मित्यन्तःकरणनिष्पन्नत्वात्प्रत्यक्षः 'उत्तमः' प्रधानो मरणविधिः सर्वो-| |त्तरत्वाद्धर्मो-विशेषः पादपोपगमनरूपो मरणविशेष इति, उत्तमत्वे कारणं दर्शयति-'पूर्वस्थानस्य प्रग्रह' इति पञ्चम्यर्थे षष्ठी पूर्वस्थानाद्भक्तपरिज्ञेजितमरणरूपाप्रकर्षण अहोऽत्र पादपोपगमने, प्रगृहीततरमेतदित्यर्थः, तथाहि-अत्र यदिङ्गि
तमरणानुमतं कायपरिस्पन्दनं तदपि निषेध्यतें अच्छिन्नमूलपादपवन्निश्चेष्टो निष्कियो दह्यमानश्छिद्यमानो वा विषमप४ तितो वा तथैवास्तेन तस्मात्स्थानाञ्चलति, चिलातपुत्रवत्, एतदेव दर्शयति-अचिरं स्थानं, तच्च स्थण्डिलं तत्पूर्वविधिना
प्रत्युपेक्ष्य तस्मिन् प्रत्युपेक्षिते स्थण्डिले बिहरेदिति, अत्र पादपोपगमनाधिकाराद्विहरणं तद्विधिपालनमुक्त, तच्च स्थाना
ForParaaEEDROIN
~ 302~
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-२०],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचारानवृत्तिः (शी०)
सूत्रांक
||२१||
।।२९४॥
दीप अनुक्रम
स्थानान्तरसंक्रमणम्, एतदेव च दर्शयति-तिष्ठेत् सर्वगात्रनिरोधेऽपि, स्थानान्तरासङ्क्रमणं कुर्यादित्यर्थः, कोऽसौ ?-5 विमो०८ 'माहणेत्ति साधुः, स हि निषण्णोपनिषण्ण ऊर्ध्वस्थितो वा निष्पतिका यद्ययानिक्षिप्तमङ्गमचेतन इव न चालयेदितियावत् X॥२०॥ एतदेव प्रकारान्तरेण दर्शयितुमाह
उद्देशक अचित्तं तु समासज, ठावए तत्थ अप्पगं । वोसिरे सव्वसो कार्य, न मे देहे परीसहा ॥ २१ ॥ जावज्जीवं परीसहा, उवसग्गा इति सङ्ख्या । संवुडे देहभेयाए, इय पन्नेऽहियासए ॥ २२ ॥ भेउरेसु न रजिजा, कामेसु बहुतरेसुवि । इच्छा लोभ न सेविजा, धुववन्नं सपेहिया ॥ २३ ॥ सासएहिं निमन्तिजा, दिव्वमायं न सरहे । तं
पडिबुज्झ माहणे, सव्वं नूमं विहृणिया ॥२४॥ न विद्यते चित्तमस्मिन्नित्यचित्तम्-अचेतनं जीवरहितमित्यर्थः, तच्च स्थण्डिलं फलकादि वा 'समासाद्य' लब्ध्वा फल-1 केऽपि समर्थः कश्चित्काष्ठे वाऽवष्टभ्य तत्रात्मानं स्थापयेत्, व्यवस्थाप्य च त्यक्तचतुर्विधाहारो मेरुरिव निष्पकम्पः कृता|लोचनादिपरिकमी गुरुभिरनुज्ञातो व्युत्सृजेत् , 'सर्वशः' सर्वात्मना 'कार्य'देहं, व्युत्सृष्टदेहस्य च यदि केचन परी
पहोपसगोंः स्युस्ततो भावयेत् 'न मे देहे परीषहाः' मत्सम्बन्धी देह एव न भवति, परित्यकत्वात्, तदभावे कुतः|| ॥२९४ ॥ हा परीषहाः १, यदिवा न मम देहे परीपहाः, सम्यकरणेन सहमानस्य तत्कृतपीडयोद्धेगाभावात्, अतः परीषहान् |
[२६०]
F
ON
~303~
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-२४],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
-%85-%
84-0-9
||२४||
दीप अनुक्रम [२६३]
कर्मशत्रुजयसहायानितिकृत्वाऽपरीपहानेव मन्यते ॥ २१ ॥ ते पुनः कियन्तं कालं सोढव्या इत्याशङ्काब्युदासार्धमाह'यावज्जीवं' यावत्प्राणधारणं तावसरीषहा उपसर्गाश्च सोढव्या इत्येतत् 'सङ्ख्याय' ज्ञात्वा तानध्यासयेदिति, यदिवा न मे यावज्जीवं परीषहोपसर्गा इत्येतत्सङ्ख्याय-ज्ञात्वाऽधिसहेत, यदिवा यावज्जीवमिति-यावदेव जीवितं तावत्परीषहोपसर्गजनिता पीडेति, तत्पुनः कतिपयनिमेषाऽवस्थायि एतदवस्थस्य ममात्यन्तमल्पमेवेत्यत एतत्सङ्ख्याय-ज्ञात्वा संवृतो यथानिक्षिप्तत्यक्तगात्रो 'देहभेदाय' शरीरत्यागायोस्थित इतिकृत्वा 'प्राज्ञः' उचितविधानवेदी, यद्यत्कायपीडाकार्यु
पतिष्ठते तत्तत्सम्यगधिसहेत ॥ २२ ॥ एवंभूतं च साधुमुपलभ्य कश्चिद्राजादि गैरुपनिमन्त्रयेत् , तत्प्रतिविधानार्थमाहदभेदनशीला भिदुराः-शब्दादयः कामगुणास्तेषु प्रभूततरेष्वपि 'न रण्येत्' न राग यायात्, पाठान्तरं वा 'कामेसु
बहुलेसुवि' इच्छामदनरूपेषु कामेषु बहुलेषु-अनल्पेष्वपीत्यर्थः, यद्यपि राजा राज्यकन्यादानादिनोपप्रलोभयेत् तथापि तत्र न गायमियात्, तथा इच्छारूपो लोभ इच्छालोभः-चक्रवतींन्द्रत्वाधभिलाषादिको निदानविशेषस्तमसौ निर्जरापेक्षी न सेवेत, सुरद्धिदर्शनमोहितो बह्मदत्तवन्निदानं न कुर्यादित्यर्थः, तथा चागमः-'इहलोगासंसप्पओगे १ परलोगासंसप्पओगे २ जीवियासंसप्पयोगे ३ मरणासंसप्पयोगे ४ कामभोगासंसप्पयोगे ५ इत्यादि, 'वर्णः' संयमो मोक्षो
वा स च सूक्ष्मो दुर्जेयत्वात् , पाठान्तरं वा-धुववन्नमित्यादि, ध्रुवः-अव्यभिचारी स चासौ वर्णश्च ध्रुववर्णस्तं संप्रेक्ष्य जाधवां वा शाश्वती यशकीर्ति पालोच्य कामेच्छालोभविक्षेपं कुर्यादिति ॥ २३ ॥ किंच-शाश्वता-यावज्जीचमपरिक्षया
%A4k
का.स.५.
~ 304~
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-२४],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
||२४||
दीप
श्रीआचा- प्रतिदिनदानाद्वार्थास्तैस्तथाभूतविभवैः कश्चिन्निमन्त्रयेत् तत्प्रतिबुध्यस्व यथा शरीरार्थं धनं मृग्यते तदेव शरीरमशाश्व
विमो० रावृत्तिःतमिति, तथा दिव्यां मायां न श्रद्दधीत, तद्यथा-यदि कश्चिद्देवो मीमांसया प्रत्यनीकतया वा भक्त्या वाऽन्यथा वा
उद्देशकद (शी०) कौतुकादिना नानर्द्धिदानतो निमन्त्रयेत्, तां च तत्कृतां मायां न श्रद्दधीत, तथा बुध्यस्व यथा देवमायैषा, अन्यथा
कुतोऽयमाकस्मिकः पुरुषो दुर्लभमेतद्रव्यं प्रभूततरमेवंभूते क्षेत्रे काले भावे च दद्यात्, एवं द्रव्यादिनिरूपणया देवमायां ॥२९५॥
बुध्यस्व इति, तथा देवाङ्गना वा यदि दिव्यं रूपं विधाय प्रार्थयेत् तामपि बुध्यस्वेति, 'माहणे'त्ति साधुः 'सर्वम्' अशेष | 'नूमति कर्म मायां वा तत् तां वा 'विधूय' अपनीय देवादिमायां बुध्यस्वेति क्रिया ॥ २४ ॥ किं च
सव्वद्वेहिं अमुच्छिए, आउकालस्स पारए । तितिक्खं परमं नच्चा, विमोहन्नयरं हियं
॥२५॥ तिबेमि ॥ विमोक्षाध्ययनमष्टमं समाप्तम् । उद्देशः ॥ ८-८॥ सर्वे च तेऽर्थाश्च सर्वार्थाः-पञ्चप्रकाराः कामगुणास्तत्सम्पादका वा द्रव्यनिचयास्तैस्तेषु वा अमूञ्छितः--अनध्युपपन्नः । आयुःकालस्य यावम्मानं कालमायुः संतिष्ठते असी आयुःकालस्तस्य पारम्-आयुष्कपुद्गलानां क्षयो मरणं तद्गच्छतीति पारगः, यथोक्तविधिना पादपोपगमनव्यवस्थितः प्रवर्द्धमानशुभाध्यवसायः स्वायुःकालान्तगः स्यादिति । तदेवं पादपोपगमनविधि परिसमापय्योपसंहारद्वारेण त्रयाणामपि मरणानां कालक्षेत्रपुरुषावस्थाश्रयणातुल्यकक्षतां पश्चार्डेन दर्शयति-|
॥२९५॥ तितिक्षा-परीपहोपसर्गापादितदुःखविशेषसहनं तत्रयाणामपि परम-प्रधानमस्तीति 'ज्ञावा' अवधायें 'विमोहान्यतरं
अनुक्रम [२६४]
~305~
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [८], उद्देशक [८], मूलं [२२६/गाथा-२४],नियुक्ति: [२७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||२४||
हित'मिति विगतो मोहो येषु तानि विमोहानि-भक्तपरिज्ञङ्गितमरणपादपोपगमनानि तेषामन्यतरत्कालक्षेत्रादिकमाश्रित्य तुल्यफलत्वाद्धित अभिप्रेतार्थसाधनादतो यथाशक्ति त्रयाणामन्यतरत्तुल्यबलस्वाद्यथावसरं विधेयं, इति अधिकारपरिसमाप्ती अवीमीति पूर्ववत्, नयविचारादिकमनुगतं वक्ष्यमाणं च द्रष्टव्यमिति विमोक्षाध्ययनस्याष्टमोद्देशकः समाप्तः । समाप्त च विमोक्षाध्ययनमष्टममिति ॥ ग्रन्थानम् ॥१०२०॥
-
-
दीप अनुक्रम [२६४]
wireluctaram.org
~306~
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक H], मूलं [२२६...,नियुक्ति: [२७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
254
प्रत सूत्रांक
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
[२२६]
॥२९६॥
दीप अनुक्रम [२६४]
अथोपधानश्रुताख्यं नवममध्ययनम्
उपधा०९
पाउद्देशकः१ उक्तमध्ययनमष्टर्म, साम्प्रतं नवममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययनेष्वष्टसु योऽर्थोऽभिहितः स दातीर्थकृता वीरवर्द्धमानस्वामिना स्वत एवाचीर्ण इत्येतन्नवमेऽध्ययने प्रतिपाद्यते, अनन्तराध्ययनसम्बन्धस्त्वयम्-इहाम्यु
द्यतमरणं त्रिप्रकारमभिहितं, तत्रान्यतरस्मिन्नपि व्यवस्थितोऽष्टाध्ययनार्थविधायिनमतियोरपरीषहोपसर्गसहिष्णुमाविष्कृतसन्मार्गावतारं तथा घातितघातिचतुष्टयाविर्भूतानन्तातिशयाप्रमयमहाविषयस्वपरावभासककेवलज्ञानं भगवन्तं श्रीवर्द्धमानस्वामिनं समवसरणस्थं सत्त्वहिताय धर्मदेशनां कुर्वाणं ध्यायेदित्येतत्प्रतिपादनार्थमिदमध्ययनमुच्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमेऽर्थाधिकारो द्वेधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च, तत्राध्ययनार्थाधिकारो लेशतोऽभिहितस्तमेव नियुक्तिकारः स्पष्टतरं विभणिपुराह- .
जो जइया तित्थयरो सो तझ्या अप्पणो य तित्थम्मि । वण्णेइ तवोकम्म ओहाणसुमि अजायणे ॥२७॥ PL यो यदा तीर्थकृदुत्पद्यते स तदाऽऽत्मीये तीर्थे आचारार्थप्रणयनावसानाध्ययने स्वतपःकर्म व्यावर्णयतीत्ययं सर्वतीवार्थकृतां कल्पः, (इह पुनरुपधानश्रुताख्यं चरममध्ययनमभूत् अत उपधानश्रुतमित्युक्तमिति ॥ किमेकाकारं केवलज्ञानव
सर्वतीर्थकृतां तपःकर्मोतान्यथेत्यारेकाव्युदासार्थमाह
॥२९
SARERatininemarana
नवम-अध्ययनं 'उपधानश्रुत' आरब्धः,
~ 307~
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [-], मूलं [२२६...],नियुक्ति : [२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२२६]
दीप अनुक्रम [२६४]
सबसि तवोकम्मं निरुवसग्गं तु वपिणय जिणाणं । नवरं तु वद्धमाणस्स सोवसर्ग मुणेयब्वं ॥ २७७॥ तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झियब्वय धुवम्मि । अणिग्रहियबलचिरिओ तवोविहाणंमि उज्जमइ ।।
किं पुण अवसेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । होइ न उज्जमियब्वं सपञ्चवायंमि माणुस्से १ ॥२७९ ॥ | गाथात्रयमप्युत्तानार्थम् ॥ अध्ययनार्थाधिकार प्रतिपाद्योदेशार्थाधिकार प्रतिपादयन्नाहचरिया १सिज्जा य२ परीसहा य ३ आयकिया(ए)चिगिच्छा ४ यातवचरणेणऽहिगारो चउमुद्देसेसुनायव्यो।।२८०॥
चरणं चर्यत इति वा चर्या-श्रीवीरवर्द्धमानस्वामिनो विहारः, अयं प्रथमोद्देशकेऽर्थाधिकारः १, द्वितीयोद्देशके त्वयमहाधिकारः, तद्यथा-शय्या-वसतिः सा च याहग्भगवत आसीत् ताहग्वक्ष्यते २, तृतीये त्वयमर्थाधिकारः-मार्गाच्यवन
|निर्जराय परिषोढव्याः परीपहाः, उपलक्षणार्थत्वादुपसर्गाश्चानुकूलप्रतिकूला वर्द्धमानस्वामिनो येऽभूवन् तेऽत्र प्रतिपामद्यन्ते ३, चतुर्थे त्वयमाधिकारः, तद्यथा-'आतङ्किते' क्षुत्पीडायामातकोत्पत्ती विशिष्टाभिग्रहावाप्ताहारेण चिकित्से
दिति ४, तपश्चरणाधिकारस्तु चतुर्वप्युदेशकेष्वनुयायीति गाथार्थः॥ निक्षेपस्त्रिधा-ओघनिष्पनो नामनिष्पन्नः सूत्रालापत कनिष्पन्नश्च, तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययन, नामनिष्पन्ने तूपधानश्रुतमिति द्विपदं नाम, तत्रोपधानस्य श्रुतस्य च यथाक्रम निक्षेपः कर्तव्य इति न्यायादुपधाननिक्षेपचिकीर्षयाऽऽहनामंठवणुवहाणं दब्बे भावे य होइ नापब । एमेव य सुत्तस्सवि निक्खयो चउचिहो होइ ॥२८१॥ नामोपधानं स्थापनोपधानं द्रव्योपधानं भावोपधानं च, श्रुतस्याप्येवमेव चतुओं निक्षेपः, तत्र द्रव्यश्रुतमनुपयुक्तस्य
~ 308~
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६...],नियुक्ति: [२८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचाराजवृत्तिः
प्रत
उपधा०९ उद्देशका
सूत्रांक
(शी.)
[२२६]
॥२९७॥
ACCORICAL
दीप अनुक्रम [२६४]
यत् श्रुतं द्रव्यार्थं वा यत् श्रुतं कुपावचनिकश्रुतानि चेति द्रव्यश्रुतम् , भावश्रुतं त्वङ्गानङ्गप्रविष्टश्रुतविषयोपयोगः॥ तत्र सुगमनामस्थापनाव्युदासेन द्रव्याद्युपधानप्रतिपादनायाह
दन्बुवहाणं सपणे भावुवहाणं तवो चरित्तस्स । तम्हा उ नाणदसणतवचरणेहिं इहाहिगयं ॥ २८२ ॥ उप-सामीप्येन धीयते-व्यवस्थाप्यत इत्युपधानं द्रव्यभूतमुपधानं द्रव्योपधानं, तत्पुनः शय्यादी सुखशयनार्थं शिरो|ऽवष्टम्भनवस्तु, 'भावोपधान मिति भावस्योपधानं भावोपधानं, तत्पुननिदर्शनचारित्राणि तपो वा सबाह्याभ्यन्तरं, तेन हि चारित्रपरिणतभावस्योपष्टम्भनं क्रियते, यत एवं तस्मात् ज्ञानदर्शनतपश्चरणैरिहाधिकृतमिति गाथार्थः ॥ किं पुनः कारणं चारित्रोपष्टम्भकतया तपो भावोपधानमुच्यते इत्याह
जह खलु मइलं वत्थं सुज्झइ उदगाइएहिं दव्वेहिं । एवं भावुवहाणेण सुज्झए कम्ममढविहं ।। २८३ ॥ 'यथे'त्युदाहरणोपन्यासार्थः यथैतत्तथाऽन्यदपि द्रष्टव्यमित्यर्थः, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, यथा मलिनं वस्त्रमुदकादिभिर्द्रव्यैः शुद्धिमुपयाति एवं जीवस्यापि भावोपधानभूतेन सबाह्याभ्यन्तरेण तपसा अष्टप्रकारं कर्म शुद्धिमुपयातीति । अस्य च कर्मक्षयहेतोस्तपस उपधानश्रुतत्वेनात्रोपात्तस्य 'तत्त्वभेदपर्यायाख्ये तिकृत्वा पर्यायदर्शनायाह-यदिवा तपोऽनुष्ठानेनापादिता अवधूननादयः कपिगमविशेषाः सम्भवन्तीत्यतस्तान् दर्शयितुमाहओपूणण धुणण नासण विणासणं झवण खवण सोहिकरं। छयण भेयण फेडण डहणं धुवणं च कम्माणं ॥२८॥ तत्रावधूननम्-अपूर्वकरणेन कर्मग्रन्थे दापादनं, तच्च तपोऽन्यतरभेदसामर्थ्याद्भवतीत्येषा क्रिया शेषेष्वप्येकादश
॥२९७॥
~309~
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६...],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२२६]
CASSACREC%ACANCS
सु पदेवायोज्या, तथा 'धूनन भिन्नग्रन्थेरनिवर्तिकरणेन सम्यक्त्वावस्थान, तथा 'नाशनं' कर्मप्रकृतेः स्तिबुकसङ्कमेण प्रकृत्यन्तरगमनं, तथा 'विनाशन' शैलेश्यवस्थायां सामस्त्येन काभावापादनं, तथा ध्यापनम्-उपशमश्रेण्या कर्मानुदयलक्षणं विध्यापन, तथा 'क्षपणम्' अप्रत्याख्यानादिप्रक्रमेण क्षपक श्रेण्या मोहाद्यभावापादनं, तथा 'शुद्धिकर'मित्यनन्तानुबन्धिक्षयप्रक्रमेण क्षायिकसम्यक्त्वापादनं, तथा 'छेदनम् उत्तरोत्तरशुभाध्यवसायारोहणास्थितिहासजनन, तथा 'भेदन बादरसम्परायावस्थायां सञ्जबलनलोभस्य खण्डशो विधानं, तथा 'फेडण'न्ति अपनयनं चतुःस्थानिकादीनामशुभप्रकृतीनां रसतख्यादिस्थानापादनं, तथा 'दहन केवलिसमुद्घातध्यानामिना वेदनीयस्य भस्मसारकरणं, शेषस्य च दग्धरजुतुल्यत्वापादनं, तथा 'धावनं शुभाध्यवसायान्मिथ्यात्वपुद्गलानां सम्यक्त्वभावसंजननमिति, एताश्च कर्मणोऽवस्थाः प्रायश उपशमश्रेणिक्षपकश्रेणिकेवलिसमुद्घातशैलेश्यवस्थाप्रकटनेन प्रभूता आविर्भाविता भवन्तीत्यतस्तत्प्रकटनाय प्रक्रम्यते, तत्रोपशमश्रेण्यामादावेवानन्तानुवन्धिनामुपशमना तावत्कथ्यते, इहासंयतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तानामन्यतरोऽन्यतरयोगे वर्तमान आरम्भको भवति, तत्रापि दर्शनसप्तकमेकेनोपशमयति, तद्यथा-अनन्तानुबन्धिनश्चतुरः, उपरितनलेश्यात्रिके च विशुद्धे साकारोपयोग्यन्तःकोटीकोटीस्थितिसत्कर्मा परिवर्समानाः शुभप्रकृतीरेव बनन् प्रतिसमयमशुभप्रकृतीनामनुभागमनन्तगुणहान्या हासयन् शुभानां चानन्तगुणवृझ्याऽनुभागं व्यवस्थापयन् पस्योपमासम्ख्येयभागहीनमुत्तरोत्तरं स्थितिबन्धं कुर्वन् करणकालादपि पूर्वमन्तर्मुहुर्त विशुध्यमानः करणत्रयं विधत्ते, तच्च प्रत्येकमान्तमौहर्तिक, तद्यथा-यथाप्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं चेति, चतुर्युप
दीप अनुक्रम [२६४]
REatining
FOLLO
~310~
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६..., नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
उपधा०९ उद्देशका
सूत्रांक
[२२६]
॥ २९८॥
दीप अनुक्रम [२६४]
श्रीआचा- शान्ताद्धा, तत्र यथाप्रवृत्तकरणे प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्ध्या विशुद्धिमनुभवति, न तत्र स्थितिघातरसघातगुणश्रेणीगुण- राजवृत्तिः सङ्क्रमाणामन्यतमोऽपि विद्यते, तथा द्वितीयमपूर्वकरणं, किमुक्तं भवति ?-अपूर्वामपूर्वी क्रियां गच्छतीत्यपूर्वकरणं, तत्र (शी०) च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसङ्कमा अन्यश्च स्थितिवन्ध इत्येते पश्चाप्यधिकारा योगपद्येन पूर्वम
प्रवृत्ताः प्रवर्तन्त इत्यपूर्वकरणं, तथाऽनिवृत्तिकरणमित्यन्योऽन्यं नातिवर्त्तन्ते परिणामा अस्मिन्नित्यनिवृत्तिकरणं, एतदुक्तं भवति-प्रथमसमयप्रतिपन्नानां तत्करणमसुमतां सर्वेषां तुल्यः परिणामः, एवं द्वितीयादिष्वप्यायोज्य, अत्रापि पूवोक्ता एव स्थितिघातादयः पञ्चाप्यधिकारा युगपत्प्रवर्त्तन्त इति, तत एभित्रिभिरपि करणैर्यथोक्तक्रमणानन्तानुवन्धिनः द कषायानुपशमयति, उपशमनं नाम यथा धूलिरुदकेन सिक्का द्रुघणादिभिर्हता न वाय्वादिभिः प्रसर्पणादिविकारभा
ग्भवति, एवं कर्मधूल्यपि विशुद्ध्युदकाींकृता अनिवृत्तिकरणक्रियाहता सत्युदयोदीरणसङ्कमनिधत्तनिकाचनाकरणानामयोग्या भवति, तत्रापि प्रथमसमयोपशान्तं कर्मदलिकं स्तोकं द्वितीयादिषु समयेष्वसङ्ख्येयगुणवृद्ध्योपशम्यमानमन्तर्मुहत्तेन सर्वमप्युपशान्तं भवति, एवमेकीयमतेनानन्तानुवन्धिनामुपशमोऽभिहितः, अन्ये त्वनन्तानुबन्धिनां विसंयोजनामेवाभिदधति, तद्यथा-क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टयश्चतुर्गतिका अप्यनन्तानुबन्धिनां विसंयोजकाः, तत्र नारका देवा अविरतसम्यग्दृष्यस्तियञ्चोऽविरतदेशविरता मनुष्या अविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्ताः, एते सर्वेऽपि यथासम्भवं विशो-TC धिविवेकेन परिणता अनन्तानुबन्धिविसंयोजनार्थ प्रागुक्त करणत्रयं कुर्वन्ति, तत्राप्यनन्तानुबन्धिनां स्थितिमपवयनपवर्तयन् यावत्सल्योपमासङ्ख्येयभागमात्रा तावद्विधत्ते, तमपि पल्योपमासख्येयभागं वध्यमानासु मोहप्रकृतिषु
॥२९८
~3114
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२२६...],नियुक्ति : [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२२६]
दीप अनुक्रम [२६४]
प्रतिसमयं सङ्कामयति, तत्रापि प्रथमसमये स्तोक द्वितीयादिष्वसङ्ख्येयगुणं एवं यावच्चरमसमये सर्वसङ्क्रमेणावलिकागतं मुक्त्या सर्व सङ्कामयति, आवलिकागतमपि स्तिबुकसङ्कमेण वेद्यमानास्वपरप्रकृतिषु सङ्कामयति, एवमनन्तानुबन्धिनो Pl विसंयोजिता भवन्ति । इदानी दर्शनत्रिकोपशमना भण्यते-तत्र मिथात्वस्योपशमको मिथ्यादृष्टिवेदकसम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोस्तु वेदक एवोपशमकः, तत्र मिथ्यात्वस्योपशमं कुर्वस्तस्यान्तरं कृत्वा प्रथमस्थितिं विपाके-| नानुभूयोपशान्तमिथ्यात्वः सन्नुपशमसम्यग्दृष्टिर्भवतीति । साम्प्रतं वेदकसम्यग्दृष्टिरुपशमणि प्रतिपद्यमानोऽनन्तानुबन्धिनो विसंयोज्य संयमे वर्तमानो दर्शनत्रिकमुपशमयत्यनेन विधिना, तत्र यथाप्रवृत्तादीनि प्राग्वत्रीणि करणानि कृत्वाऽन्तरकरणं कुर्वन् वेदकसम्यक्त्वस्य प्रथमस्थितिमान्तमौहर्तिकी करोति, इतरां त्वावलिकामात्रां, ततः किश्चिन्यूनमुहूर्त्तमात्रां स्थिति खण्डयित्वा बध्यमानानां प्रकृतीनां स्थितिवन्धमात्रेण कालेन तत्कर्मदलिकं सम्यक्त्वप्रथमस्थितौ प्रक्षिपन्नेत्येवमनया प्रक्रियया सम्यक्त्वबन्धाभावादन्तरं क्रियमाणं कृतं भवति, मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वप्रथमस्थितिदलिकमावलिकामात्रपरिमाणं सम्यक्त्वप्रथमस्थितौ स्तिबुकसङ्कमेण सङ्कमयति, तस्यामपि सम्यक्त्वप्रथमस्थिती क्षीणायां सत्यामुपशान्तदर्शनत्रिको भवतीति । तदनन्तरं चारित्रमोहनीयमुपशमयन् पूर्ववत् करणत्रयं करोति, नवरं यथाप्रवृत्तकरण-12 मप्रमत्तगुणस्थान एव भवति, द्वितीयं त्वपूर्वकरणमष्टममेव गुणस्थानक, तस्य च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसङ्कमापूर्वस्थितिबन्धा योगपद्येन पञ्चाप्यधिकाराः प्रवर्त्तन्ते, तत्रापूर्वकरणसङ्ख्येयभागे गते निद्राप्रचलयोर्वन्धव्यवच्छेदो भवति, ततोऽपि बहुपु स्थितिकण्डकसहस्रेषु गतेषु सत्सु परभविकनाम्नां चरमसमये त्रिंशतो नाम
~312~
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२२६...],नियुक्ति : [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
उपधा०९
प्रत
उद्देशका
सूत्रांक
[२२६]
दीप अनुक्रम [२६४]
श्रीआचा-1 प्रकृतीनां पन्धव्यवच्छेदं विधत्ते, ताश्चेमा:-देवगतिस्तदानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिक्रियाहारकेशरीरतदङ्गोपाङ्गानि तैजसरावृत्ति कार्मणशेरीरे चतुरस्रसंस्थानं वर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलेधूपघातपराधांतोच्छासप्रशस्तविहायोगैतित्रसंवादरंपर्याप्तकप्रत्येक
(शी०) स्थिरैशुभैसुभगंसुस्वरादेयनिर्माणतीर्थकरनामानि चेति, ततोऽपूर्वकरणचरमसमये हास्यरतिभयजुगुप्सानां बन्धन्यवच्छेदः, ॥२९९॥
हास्यादिषट्कस्य तूदयव्यवच्छेदश्च, सर्वकर्मणामप्रशस्तो (णां देशो) पशमनानिधत्तनिकाचनाकरणानि च व्यवच्छिद्यन्ते, तदेवमसंयतसम्यग्दृष्ट्यादिष्वपूर्वकरणान्तेषु सप्त काण्युपशान्तानि लभ्यन्ते, तत ऊर्यमनिवृत्तिकरणं, सच नवमो गुणः, तत्र व्यवस्थित एकविंशतीनां मोहप्रकृतीनामन्तरं कृत्वा नपुंसकवेदमुपशमयति, तदनन्तरं स्त्रीवेर्द, ततो| हास्यादिसप्तकं (पद), पुनः पुंवेदस्य बन्धोदयव्यवच्छेदः, तत ऊर्ध्वं समयोनावलिकाद्वयेन पुंवेदोपशमः, ततः क्रोधद्वयस्य पुनः सञ्चलनक्रोधस्यैवं मानत्रिकस्य मायात्रिकस्य च, ततः सवलनलोभं सूक्ष्मखण्डानि विधत्ते, तस्करणकालचरमसमये लोभद्यमुपशमयति, एवं चानिवृत्तिकरणान्ते सप्तविंशतिरुपशान्ता भवति, ततः सूक्ष्मखण्डान्यनुभवन् सूक्ष्मसम्परायो भवति, तदन्ते ज्ञानान्तरायदशकदर्शनावरणचतुष्कयशाकीत्युच्चैर्गोत्राणां बन्धव्यवच्छेदः, तदेवमष्टाविंशतिमोहप्रकृत्युपशमे सत्युपशान्तवीतरागो भवति, स च जघन्यत एक समयमुत्कृष्टतोऽन्तर्मुहर्स, तत्प्रतिपातश्च भवक्षयेणाद्धाक्षयेण वा स्यात् , स च यथाऽऽरूढो बन्धादिव्यवच्छेदं च यथा कृतवांस्तथैव प्रतिपतन्विधत्ते, कश्चित्र मिथ्या-1 स्वमपि गच्छेदिति, यस्तु भवक्षयेण प्रतिपतति तस्य प्रथमसमय एव सर्वकरणानि प्रवर्तन्ते, एकभव एव कश्चिद् वारद्वयमुपशमं विदध्यादिति । साम्प्रतं क्षपकनेणिव्वर्ण्यते-अस्याश्च मनुष्य एवाष्टवर्षोपरि वर्तमान आरम्भको भवति, स च
%
॥२९९॥
%
*
~313~
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२२६...],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२२६]
IPIप्रथममेव करणत्रयपूर्वकमनन्तानुबन्धिनो विसंयोजयति, ततः करणत्रयपूर्वकमेव मिथ्यात्वं तच्छेषं च सम्यगमिथ्यात्वे
प्रक्षिपन् क्षपयति, एवं सम्यग्मिध्यात्वं, नवरं तच्छेषं सम्यक्त्वे प्रक्षिपति, एवं सम्यक्त्वमपि, तच्चरमसमये च वेदकसम्यग्दृष्टिर्भवति, तत ऊर्व क्षायिकसम्यग्दृष्टिरिति, एताश्च सप्तापि कर्मप्रकृतीरसंयतसम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्ताः क्षपयन्ति, बद्धायुष्कश्चात्रैवावतिष्ठते, श्रेणिकवद् , अपरस्तु कषायाष्टक क्षपयितुं करणत्रयपूर्वकमारभते, तत्र यथाप्रवृत्तकरणमप्रमत्तस्यैव, अपूर्वकरणे तु स्थितिघातादिकं प्राग्वन्निद्राद्विकस्य देवगत्यादीनां च त्रिंशतां हास्यादिचतुष्कस्य (च) यथाक्रम |
बन्धव्यवच्छेद उपशमश्रेणिकमेण वक्तव्यः, अनिवृत्तिकरणे तु स्त्यानर्द्धि त्रिकस्य नरकतिर्यग्गतितदानुपूर्येकेन्द्रियादिजाIIतिचतुष्टयातपोद्योतस्थावरसूक्ष्मसाधारणानां षोडशप्रकृतीनां क्षयः, ततः कषायाष्टकस्यापि, अन्येषां तु मतं-पूर्व कषायाष्टक
क्षप्यते, पश्चात् षोडशेति, ततो नपुंसकवेदं, तदनन्तरं हास्यादिषट्क, पुनः पुंवेद, ततः स्त्रीवेद, ततः क्रमेण क्रोधादीन् | सडवलनान् क्षपयति, लोभं च खण्डशः कृत्वा क्षपयति, तत्र बादरखण्डानि क्षपयन्ननिवृत्तिवादरः सूक्ष्मानि तु सूक्ष्मसम्पराय इति, तदन्ते च ज्ञानावरणीयादीनां पोडशप्रकृतीनां बन्धव्यवच्छेदं विधत्ते, ततः क्षीणमोहोऽन्तर्मुहर्त स्थित्वा तदन्ते द्विचरमसमये निद्राद्वयं क्षपयति, अन्तसमये च ज्ञानान्तरायदशकं दर्शनावरणचतुष्कं च क्षपयित्वा निरावरणज्ञानदर्शनसमन्वितः केवली भवति, स च सातावेदनीयमेवैकं बनाति यावत्सयोग इति, स चान्तर्मुहर्त देशोनां| पूर्वकोटिं वा यावद्भवति, ततोऽसावन्तर्मुहूर्तावशेषमायुर्ज्ञात्वा वेदनीयं च प्रभूततरमतस्तयोः स्थितिमाम्यापादनार्थं समुद्घातमेतेन क्रमेण करोति, तद्यथा-औदारिककाययोगी आलोकान्तादूर्वाधःशरीरपरिणाहप्रमाणं प्रथमसमये
NACKSSSC
कटर
दीप अनुक्रम [२६४]
IES
For P
OW
~314~
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६..., नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
(शी०)
[२२६]
दीप
श्रीआचा- दण्डं करोति, पुनर्द्वितीयसमये तिरश्चीनमालोकान्तात्कायप्रमाणमेवौदारिककार्मणशरीरयोगी कपाटयरकपाट विधत्ते, राङ्गवृत्तिः तृतीयसमये त्वपरदिक्तिरश्चीनमेव कार्मणशरीरयोगी मन्यानवन्मन्थानं करोति, अनुश्रेणिगमनाच्च लोकस्य प्रायशो | बहु पूरितं भवति, ततश्चतुर्थसमये कार्मणकाययोगेनैव मन्धान्तरालव्यापनात्सह निष्कुटैर्लोकः पूरितो भवति, पुनरने
उद्देशकः१ नैव क्रमेण पश्चानुपूर्ध्या समुद्घातावस्थां चतुभिरेव समयैरुपसंहरंस्तद्व्यापारवांस्तत्तद्योगो भवति, केवलं पष्ठसमये मन्धानमुपसंहरन्नौदारिकमिश्रयोगी स्यादिति, तदेवं केवली समुद्घातं संहृत्य प्रत्यर्य च फलकादिकं ततो योगनिरोधं विधत्ते, तद्यथा-पूर्व मनोयोगं बादरं निरुणद्धि, पुनर्वाग्योगं काययोगं च बादरमेवेति, पुनरनेनैव क्रमेण सूक्ष्ममनोयोगं निरु
णद्धि, ततः सूक्ष्मवाग्योग निरुणद्धि, ततः सूक्ष्मकाययोगं निरुन्धन् सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति तृतीय शुक्लध्यानभेदमा-18 ट्रारोहति, तन्निरोधे च व्युपरतक्रियमनिवर्ति चतुर्थ शुक्लध्यानमारोहति, तदारुढचायोगिकेवलिभावमुपगतः सन्नन्तमहत्तर है यावत्कालमजघन्योत्कृष्टमास्ते, तत्र चासौ येषां कर्मणामुदयो नास्ति तानि स्थितिक्षयेण क्षपयन् वेद्यमानासु चापरप्र
कृतिषु सङ्कामयन् क्षपयंश्च तावद्गतो यावविचरमसमयं, तत्र च द्विचरमसमये देवगतिसहगताः कर्मप्रकृतीक्षपयति, ताश्वेमाः-देवगतिस्तदानुपूर्वी वैक्रियाहारकशरीरतदङ्गोपाङ्गचतुष्टयमेतद्वन्धनसाताविति च, तथा तत्रैवापरा इमाः। क्षपयति, तद्यथा-औदारिकतैजसकार्मणानि शरीराणि एतद्वन्धनानि त्रीणि सङ्घातांश्च षट् संस्थानानि षट् संहननानि औदारिकशरीराङ्गोपाझं वर्णगन्धरसस्पर्शा मनुष्यानुपूर्व्यगुरुलघूपधातपराघातोच्छासप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतयस्तथाऽपयों-15 कप्रत्येकस्थिरास्थिरशुभाशुभसुभगदुर्भगसुस्वरदुःस्वरानादेयायश कीर्निनिर्माणानि तथा नीचैर्गोत्रमन्यतरवेदनीयमिति,
अनुक्रम [२६४]
Al३०
~315~
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-१],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
||१||
दीप अनुक्रम [२६५]
X4%85%E
चरमसमये तु मनुष्यगतिपश्चेन्द्रियजातित्रसवादरपर्याप्तकसुभगादेययशःकीर्तितीर्थकरत्वान्यतरवेदनीयायुष्कोचैर्गोत्राण्येता द्वादश तीर्थकृत् केषांचिन्मतेनानुपूर्वीसहितास्त्रयोदश अतीर्थकृच्च द्वादशैकादश वा क्षपयति, अशेषकर्मक्षयसमनन्तरमेव चास्पर्शवद्गत्या ऐक्कान्तिकात्यन्तिकानावाधलक्षणं सुखमनुभवन् सिद्धा(व्याख्यं लोकाप्रमुबतीत्ययं गाथातात्पर्यार्थः । साम्प्रतमुपसंहरस्तीर्थकरासेवनतः प्ररोचनता दर्शयितुमाहएवं तु समणुचिन्नं वीरवरेणं महाणुभाषेणं । जं अणुचरितु धीरा सिवमचलं जन्ति निव्वाणं ॥ २८४ ॥ 'एवम्' उक्तविधिना भावोपधानं-ज्ञानादि तपो वा वीरवर्द्धमानस्वामिना स्वतोऽनुष्ठितमतोऽन्येनापि मुमुक्षुणैतदनुष्ठेयमिति गाथार्थः ॥ समाप्ता ब्रह्मचर्याध्ययननियुक्तिः ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्- .
अहासुयं वइस्सामि जहा से समणे भगवं उट्टाए । संखाए तंसि हेमंते अहुणो पव्वइए रीइत्था ॥१॥णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमंते । से पारए आवकहाए, एयं खु अणुधम्मियं तस्स ॥२॥ चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाणजाइया आगम्म । अभिरुज्झ कायं विहरिंसु, आरुसिया णं तत्थ हिंसिंसु ॥३॥ संवच्छरं साहियं मासं जं न रिकासि वत्थगं भगवं। अचेलए तओ चाइ तं वोसिज्ज वत्थमणगारे ॥४॥
मुद्रणदोषात् अत्र नियुक्ति: क्रम- २८४ पुन: लिखितम् नवम-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: 'चर्या' आरब्धः,
~316~
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-४],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
॥४॥
दीप अनुक्रम [२६८]
श्रीआचा- आर्यसुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिने पृच्छते कथयति, यथाश्रुतं यथासूत्रं वा वदिष्यामि, तद्यथा-स श्रमणो भगवान् उपधा०९ राङ्गवृत्तिः वीरवर्द्धमानस्वाभ्युत्थाय-उद्यतविहारं प्रतिपद्य सर्वालङ्कारं परित्यज्य पञ्चमुष्टिकं लोचं विधायैकेन देवदृष्येणेन्द्रक्षिप्तेन |
उद्देशकः१ (शी०) युक्तः कृतसामायिकप्रतिज्ञ आविर्भूतमनःपर्यायज्ञानोऽष्टप्रकारकर्मक्षयार्थ तीर्थप्रवर्तनाथ चोरथाय 'संख्याय'ज्ञात्वा
तस्मिन् हेमन्ते मार्गशीर्षदशम्यां प्राचीनगामिन्यां छायायां प्रव्रज्याग्रहणसमनन्तरमेव 'रीयते स्म' विजहार,) तथा च ॥३०१॥
ट्राकिल कुण्डमामान्मुहूर्तशेषे दिवसे कारग्राममाप, तत्र च भगवानित आरभ्य नानाविधाभिग्रहोपेतो घोरान् परीपहो-15
पसर्गानधिसहमानो महासत्त्वतया म्लेच्छानप्युपशमं नयन् द्वादश वर्षाणि साधिकानि छद्मस्थो मौनव्रती तपश्चचार, अत्र
च सामायिकारोपणसमनन्तरमेव सुरपतिना भगवदुपरि देवदूध्यं चिक्षिपे, तत् भगवताऽपि निःसङ्गाभिप्रायेणैव धर्मोपकरणदामृते न धर्मोऽनुष्ठातुं मुमुक्षुभिरपरैः शक्यत इति कारणापेक्षया मध्यस्थवृत्तिना तथैवावधारित, न पुनस्तस्य तदुपभोगे-18 |च्छाऽस्तीति । एतद्दर्शयितुमाह-न चैवाहमनेन वस्त्रेणेन्द्रप्रक्षिप्तेनात्मानं पिधास्यामि-स्थगयिष्यामि तस्मिन् हेमन्ते
तद्वा वखं त्वत्राणीकरिष्यामि, लज्जापच्छादनं वा विधास्यामि, किंभूतोऽसाविति दर्शयति-'स' भगवान् प्रतिज्ञायाः || दापरीपहाणां संसारस्य वा पारं गच्छतीति पारगः, कियन्तं कालमिति दर्शयति-यावत्कथं यावज्जीवमित्यर्थः, किमर्थं पुनरसी| विभीति चेद्दर्शयति-खुरवधारणे स च भिन्नक्रमः, एतद्वस्त्रावज्ञावधारणं तस्य भगवतोऽनु-पश्चाद्धामिकमनुधार्मिकमेवेति, अपरैरपि तीर्थकृद्धिः समाचीर्णमित्यर्थः, तथा चागमः-"से बेमि जे य अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आग-1 मेस्सा अरहंता भगवन्तो जे य पव्वयन्ति जे अ पब्बइस्सन्ति सव्वे ते सोवही धम्मो देसिअन्योत्तिकट्ठ तित्थधम्मयाए
~317
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-५],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
दीप अनुक्रम [२६९]
साऽणुधम्मिगत्ति एर्ग देवदूसमायाए पब्वईसु वा पव्वयंति वा पब्वइस्सन्ति व"त्ति, अपि च-गरीयस्त्वात्सचेलस्य, धर्मास्यान्यैस्तथागतः। शिष्यस्य प्रत्ययाच्चैव, वस्त्रं दधे न लजया॥१॥"इत्यादि ॥ तथा भगवतः प्रबजतो ये दिव्याः सुगन्धिपटवासा आसंस्तद्गन्धाकृष्टाश्च भ्रमरादयः समागत्य शरीरमुपतापयन्तीति, एतदर्शयितुमाह-चतुरः समधिकान् मासान् बहवः प्राणिजातयो-भ्रमरादिका समागत्य आरुह्य च 'कार्य' शरीरं 'विजहुः' काये प्रविचारं चक्रुः, तथा मांसशोणितार्थितयाऽऽरुह्य तत्र' काये 'ण मिति वाक्यालङ्कारे, 'हिंसिंसु' इतश्चेतश्च विलुम्पन्ति स्मेत्यर्थः ॥ कियन्मात्रं कालं तद्देवदूष्यं भगवति स्थितमित्येतदर्शयितुमाह-तदिन्द्रोपाहितं वखं संवत्सरमेकं साधिक मास ज ण रिकासि'त्ति यन्न त्यक्तवान् भगवान तत्स्थितकल्प इतिकृत्वा, तत ऊर्ध्वं तद्वखपरित्यागी, व्युत्सृज्य च तदनगारो भगवानचेलोडभूदिति, तच्च सुवर्णवालुकानदीपूराहतकण्टकावलग्नं धिगजातिना गृहीतमिति ॥ किं च
अदु पोरिसिं तिरियं भित्तिं चक्खुमासज्ज अन्तसो झायइ । अह चक्खुभीया संहिया ते हन्ता हन्ता बहवे कंदिसु ॥५॥ सयणेहिं वितिमिस्सेहिं इथिओ तत्थ से परिन्नाय । सागारियं न सेवेइ य, से सयं पवेसिया झाइ ॥ ६॥ जे के इमे अगारत्था मीसीभावं पहाय से झाई । पुट्ठोवि नाभिभासिंसु गच्छइ नाइवत्तइ अंजू
For P
OW
aurasaram.org
~318~
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
||||
दीप
अनुक्रम [२७२]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [ २२६ / गाथा- ८ ], निर्युक्तिः [२८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ ३०२ ॥
॥ ७ ॥ णो सुकरमेयमेगेसिं नाभिभासे य अभिवायमाणे । हयपुव्वे तत्थ दण्डेहिं लूसियपुवे अप्पपुण्णेहिं ॥ ८ ॥
Education International
'अर्थ' आनन्तर्ये पुरुषप्रमाणा पौरुषी- आत्मप्रमाणा वीथी तां गच्छन् ध्यायतीर्यासमितो गच्छति, तदेव चात्र ध्यानं | यदीर्यासमितस्य गमनमिति भावः किंभूतां तां ? -तिर्यग्भित्तिं शकटोर्द्धिवदादौ सङ्कटामग्रतो विस्तीर्णामित्यर्थः, कथं ध्यायति ? - 'चक्षुरासाय' चक्षुर्दत्त्वाऽन्तः मध्ये दत्तावधानो भूत्वेति तं च तथा रीयमाणं दृष्ट्वा कदाचिदव्यक्तवयसः कुमारादय उपसर्गयेयुरिति दर्शयति--'अथ' आनन्तर्ये चक्षुः शब्दोऽत्र दर्शनपर्यायो, दर्शनादेव भीता दर्शनभीताः | संहिता-मिलितास्ते बहवो डिम्भादयः पांसुमुयादिभिर्हत्वा हत्वा चक्रन्दुः, अपरांश्च चुकुशुः पश्यत यूयं नग्नो मुण्डितः, तथा कोऽयं कुतोऽयं किमीयो वा अयमित्येवं हलबोलं चक्रुरिति ॥ किं च शय्यत एष्विति शयनानि - वसतयस्तेषु कुतश्चिन्निमित्ताद्व्यतिमिश्रेषु गृहस्थतीर्थिकः, तत्र व्यवस्थितः सन् यदि स्त्रीभिः प्रार्थ्यते ततस्ताः शुभमार्गाला इति ज्ञात्वा ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरन् सागारिक-मैथुनं न सेवेत, शून्येषु च भावमैथुनं न सेवेत, इत्येवं स भगवान् स्वयम् आत्मना वैराग्यमार्गमात्मानं प्रवेश्य धर्म्मध्यानं शुक्रुध्यानं वा ध्यायति ॥ तथा-ये केचन इमेऽगारं गृहं तत्र तिष्ठन्तीति अगारस्थाः - गृहस्थास्तैर्मिश्रीभावमुपगतोऽपि द्रव्यतो भावतश्च तं मिश्रीभावं प्रहाय त्यक्त्वा स भगवान् धर्मध्यानं ध्या- १ ॥ २०२ ॥ यति, तथा कुतश्चिनिमित्ताद्गृहस्यैः पृष्टोऽपृष्टो वा न वक्ति, स्वकार्याय गच्छत्येव, न तैरुक्तो मोक्षपथमतिवर्त्तते ध्यानं वा,
For Parts Only
उपधा० ९
उद्देशकः १
~319~
waryru
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-८],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
||९||
दीप अनुक्रम [२७३]
अंजु'त्ति काजुः ऋजोः संयमस्यानुष्ठानात, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-'पुट्ठो य सो अपुट्ठो व णो अणुचाइ पावगं भगवं'।
कण्ठयम् ॥ किं च-नैतद्वक्ष्यमाणमुक्कं वा एकेषाम्-अन्येषां सुकरमेव, नान्यैः प्राकृतपुरुषः कर्तुमलं, किं तत्तेन कृतमिति IC दर्शयति अभिवादयतो नाभिभापते, नाप्यनभिवादयन्यः कुप्यति, नापि प्रतिकूलोपसगैरन्यथाभावं यातीति दर्शयति
-दण्डैहतपूर्वः 'तत्र' अनार्यदेशादौ पर्यटन तथा 'लूषितपूर्वो हिंसितपूर्वः केशलुचनादिभिरपुण्यैः-अनार्यैः पापाचारैरिति॥ किं च
फरसाई दुत्तितिक्खाइ अइअच्च मुणी परकममाणे । आघायनहगीयाई दण्डजुद्धाई मुट्ठिजुद्धाइं ॥९॥ गढिए मिहुकहासु समयंमि नायसुए विसोगे अदक्खु । एयाइ से उरालाई गच्छइ नायपुत्ते असरणयाए ॥१०॥ अवि साहिए दुवे वासे सीओदं
अभुच्चा निक्खन्ते । एगत्तगए पिहियच्चे से अहिन्नायदंसणे सन्ते ॥ ११ ॥ 'परुषाणि' कर्कशानि बाग्दुष्टानि तानि चापरैर्दुःखेन तितिक्ष्यन्त इति दुस्तितिक्षाणि तान्यतिगत्य-अविगणय्य 'मुनिः' भगवान् विदितजगत्स्वभावः पराक्रममाणः सम्यक्तितिक्षते, तथा आख्यातानि च तानि नृत्यगीतानि च आख्यातनृत्यगीतानि तानि उदिश्य न कौतुकं विदधाति, नापि दण्डयुद्धमुष्टियुद्धान्याकर्ण्य विस्मयोत्फुल्ललोचन उबूषितरोमकूपो भवति, तथा 'प्र
~320
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-११],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
उपधार
प्रत
सूत्रांक
||११||
दीप अनुक्रम [२७५]
श्रीआचा- थितः अवबद्धो 'मिथः' अन्योऽन्य 'कथासु' स्वैरकथासु समये वा कश्चिदवबद्भस्तं स्त्रीद्वयं वा परस्य कथायां गृद्धमपेक्ष्य तस्मिराङ्गवृत्तिःनवसरे 'ज्ञातपुत्रो' भगवान विशोको विगतहर्षश्च तान्मिथःकथाऽववद्धान मध्यस्थोऽद्राक्षीत् , एतान्यन्यानि चानुकूलपति(शी०) कूलानि परीषहोपसर्गरूपाण्युरालानि दुष्प्रधृष्याणि दुःखान्यस्मरन् 'गच्छति' संयमानुष्ठाने पराक्रमते, ज्ञाता:-क्षत्रियास्तेषां
पुत्रः-अपत्यं ज्ञातपुत्रः-वीरवर्द्धमानस्वामी स भगवान्सद्दुःखस्मरणाय गच्छति-पराक्रमत इति सम्बन्धः, यदिवा शरणं॥३०॥
गृहं नात्र शरणमस्तीत्यशरणः-संयमस्तस्मै अशरणाय पराक्रमत इति, तथाहि-किमत्र चित्रं यद्भगवानपरिमितवलपराक्रमः प्रतिज्ञामन्दरमारूढः पराक्रमते इति?, स भगवानप्रनजितोऽपि प्रासुकाहारानुवासीत् , श्रूयते च किल पञ्चत्वमुपगते मातापितरि समाप्तप्रतिज्ञोऽभूत्, ततः प्रवित्रजिषुः ज्ञातिभिरभिहितो, यधा-भगवन्! मा कृथाः क्षते क्षारावसेचनमित्येवमभिहितेन भगवताऽवधिना व्यज्ञायि, यथा-मय्यस्मिन्नवसरे प्रव्रजति सति बहवो नष्टचित्ता विगतासवश्च स्युरित्यवधार्य तानुवाच-कियन्तं कालं पुनरत्र मया स्थातव्यमिति?, ते ऊचुः-संवत्सरद्वयेनास्माकं शोकापगमो भावीति, भट्टारकोऽप्योमित्युवाच, किं स्वाहारादिकं मया स्वेच्छया कार्य, नेच्छाविधाताय भवद्भिरुपस्थातव्यं, तैरपि यथाकथञ्चिदयं तिष्ठत्वितिमत्वा तैः सर्वैस्तथैव प्रतिपेदे ॥ ततो भगवांस्तद्वचनमनुवयात्मीयं च निष्क्रमणावसरमवगम्य संसारासारता| विज्ञाय तीर्थप्रवर्तनायोद्यत इति दर्शयितुमाह-अपि साधिके द्वे वर्षे शीतोदकमभुक्त्वा-अनभ्यवहृत्यापीत्वेत्यर्थः, अपरा अपि पादधावनादिकाः क्रियाः प्रासुकेनैव प्रकृत्य ततो निष्क्रान्तो, यथा च प्राणातिपातं परिहतवान् एवं शेषव्रतान्यपि पालितवानिति, तथा 'एकत्व मिति तत एकत्वभावनाभावितान्तःकरणः पिहिता-स्थगिताऽर्चा-क्रोधज्वाला येन स तथा,
ANCHAR
॥३३॥
~3214
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-११],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||११||
दीप अनुक्रम [२७५]
PRAKASHAN
यदिवा पिहिता -गुप्ततनुः स भगवान् छद्मस्थकालेऽभिज्ञातदर्शन:-सम्यक्त्वभावनया भाषितः शान्तः इन्द्रियनो| इन्द्रियैः । स एवंभूतो भगवान् गृहवासेऽपि सावद्यारम्भत्यागी, किं पुनः प्रव्रज्यायामिति दर्शयितुमाह
पुढविं च आउकायं च तेउकायं च वाउकायं च । पणगाई बीयहरियाई तसकायं च सव्वसो नच्चा ॥ १२ ॥ एयाई सन्ति पडिलेहे, चित्तमन्ताइ से अभिन्नाय । परिवजिय विहरित्था इय सङ्खाय से महावीरे ॥ १३ ॥ अदु थावरा य तसत्ताए, तसा य थावरताए । अदुवा सव्वजोणिया सत्ता कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला ॥ १४ ॥ भगवं च एवमन्नेसिं सोवहिए हु लुप्पई बाले । कम्मं च सव्वसो नच्चा तं पडियाइक्खे पावगं भगवं ॥ १५॥ दुविहं समिच्च मेहावी किरियमक्खायऽणेलिसं नाणी । आयाणसो
यमइवायसोयं जोगं च सव्वसो णची ॥ १६ ॥ श्लोकद्वयस्याप्ययमर्थः-एतानि पृथिव्यादीनि चित्तमत्यभिज्ञाय तदारम्भं परिवर्ण्य विहरति स्म, क्रियाकारकसम्बन्धः, तत्र पृथिवी सूक्ष्मबादरभेदेन द्विधा, सूक्ष्मा सर्वगा, बादराऽपि श्लक्ष्णकठिनभेदेन द्विधैव, तत्र श्लक्ष्णा शुक्लादिपञ्चवर्णा,
SARERatinimmational
~322
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
||१६||
दीप
अनुक्रम [ २८०]
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा १६],निर्युक्ति: [२८४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचा राङ्गवृत्तिः
(शी ० )
॥ ३०४ ॥
Ise
2
99
[भाग-2] “आचार” मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
कठिना तु पृथ्वीशर्करावालुकादि पत्रिंशद्भेदा शस्त्रपरिज्ञानुसारेण द्रष्टव्या, अष्कायोऽपि सूक्ष्मबादरभेदाद्विधा, तत्र सूक्ष्मः पूर्ववद्वादरस्तु शुद्धोदकादिभेदेन पञ्चधा, तेजःकायोऽपि पूर्ववत् नवरं बादरोऽङ्गारादि पञ्चधा, वायुरपि तथैव, नवरं बादर उत्कलिकादिभेदेन पञ्चधा, वनस्पतिरपि सूक्ष्मबादरभेदेन द्विधा, तत्र सूक्ष्मः सर्वगो बादरोऽप्यग्रमूलस्कन्धपर्वबीजसम्मूर्छन भेदात्सामान्यतः षोढा, पुनर्द्विधा प्रत्येकः साधारणश्च तत्र प्रत्येको वृक्षगुच्छादिभेदाद्वादशधा, साधारणस्त्वनेकविध इति, स एवं भेदभिन्नोऽपि वनस्पतिः सूक्ष्मस्य सर्वगतत्वादतीन्द्रियत्वाच्च तद्व्युदासेन बादरो भेदत्वेन संगृहीतः, तद्यथा-पनकग्रहणेन बीजाङ्कुरभावरहितस्य पनकादेरुल्यादिविशेषापन्नस्य ग्रहणं, बीजग्रहणेन त्वग्रबीजादेरुपादानं, हरितशब्देन शेषस्येत्येतानि पृथिव्यादीनि भूतानि 'सन्ति' विद्यन्त इत्येवं प्रत्युपेक्ष्य तथा 'चित्तवन्ति' सचेतना - न्यभिधाय-ज्ञात्वा 'इति' एतत्सङ्ख्याय- अवगम्य स भगवान्महावीरस्तदारम्भं परिवर्ज्य विहृतवानिति ॥ पृथिवीकायादीनां जन्तूनां त्रसस्थावरत्वेन भेदमुपदर्श्य साम्प्रतमेषां परस्परतोऽनुगमनमप्यस्तीत्येतद्दर्शयितुमाह- 'अर्थ' आनन्तर्ये 'स्थावराः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः ते 'त्रसतया' द्वीन्द्रियादितया 'विपरिणमन्ते' कर्मवशाद् गच्छन्ति चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, तथा 'त्रसजीवाश्च' कृम्यादयः 'स्थावरतया' पृथिव्यादित्वेन कर्म्मनिघ्नाः समुत्पद्यन्ते, तथा चान्यत्राप्युक्तम्- ""अयण्णं भन्ते ! जीवे पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उबवण्णपुब्बे ?, हन्ता गोभमा ! असई अदुवाऽणंतखुत्तो जाव उववण्णपुच्चे"त्ति, अथवा सर्वा योनयः- उत्पत्तिस्थानानि येषां सत्त्वानां ते सर्वयोनिकाः अयं भदन्त । जीवः पृथ्वीकायिकता यावत् सामिकतयोत्पन्नपूर्वः १, इन्त गौतम] असकृत् अनन्तकृत्यो यादुत्पन्नपूर्वः.
Eaton International
For Parts Only
~323~
उपधा० ९
उद्देशकः१
॥ ३०४ ॥
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-१६],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
HI
-
-
प्रत सूत्रांक ||१६||
-
दीप
सत्त्वाः सर्वगतिभाजः, ते च 'बाला'रागद्वेषाकलिताः स्वकृतेन कर्मणा पृथक्तया सर्वयोनिभाक्त्वेन च 'कल्पिताः' व्यवस्थिता इति, तथा चोक्तम्-"णस्थि किर सो पएसो लोए वालग्गकोडिमित्तोऽवि । जम्मणमरणाबाहा अणेगसो जत्थ णवि पत्ता ॥१॥" अपि च-रङ्गभूमिर्न सा काचिच्छुद्धा जगति विद्यते । विचित्रैः कर्मनेपथ्यैर्यत्र सवैन नाटितम् ॥२॥" इत्यादि । किं च-भगवांश्च-असौ वीरवर्द्धमानस्वाम्येवममन्यत-ज्ञातवान् सह उपधिना वर्तत इति सोपधिका-द्रव्यभावोपधियुक्तः, दुरवधारणे, लुप्यत एव-कर्मणा क्लेशमनुभवत्येव 'अज्ञों' बाल इति, यदिवा हुइँतौ यस्मात्सोपधिकः कर्मणा लुप्यते बालस्तस्मात्कर्म च सर्वशो ज्ञात्वा तत्कर्म प्रत्याख्यातवांस्तदुपादानं च पापकमनुष्ठान भगवान् वर्द्धमानस्वामीति ।। किं च-द्वे विधे-प्रकारावस्येति द्विविध, किं तत्-कर्म, तच्चेर्याप्रत्ययं साम्परायिकं च, तद्विविधमपि 'समेत्य' ज्ञात्वा 'मेधावी सर्वभावज्ञा, 'क्रियां' संयमानुष्ठानरूपां कर्मोच्छेत्रीमनीदृशीम्-अनन्यसहशी|माख्यातवान , किंभूतो?-ज्ञानी, केवलज्ञानवानित्यर्थः, किं चापरमाख्यातवानिति दर्शयति-आदीयते कर्मानेनेति
आदान-दुष्पणिहितमिन्द्रियमादानं च तत् स्रोतश्चादानस्रोतस्तत् ज्ञात्वा तथाऽतिपातस्रोतश्च उपलक्षणार्थत्वादस्य मृषावादादिकमपि ज्ञात्वा तथा 'योगं च मनोवाकायलक्षणं दुष्पणिहितं 'सर्वशः' सर्वेः प्रकारैः कर्मबन्धायेति ज्ञात्वा क्रियां संयमलक्षणामाख्यातवानिति सम्बन्धः ।। किं -
. अइवत्तिय अणाउहि सयमन्नेसिं अकरणयाए । जस्सिस्थिओ परिन्नाया सव्वकम्मावहा१ नास्ति किल स प्रदेशो लोके वालापकोटीमात्रोऽपि । जन्ममरणाबाया भनेकशो यत्र नैव प्राप्ताः ॥ १ ॥
अनुक्रम [२८०]
~324
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
||१७||
दीप
अनुक्रम [ २८१]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा १७],निर्युक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ ३०५ ॥
Eaton Inte
उसे 'अदक्खु ॥ १७ ॥ अहाकर्ड न से सेवे सव्वसो कम्म अदक्खू । जं किंचि पावगं भगवं तं अकुव्वं वियडं भुञ्जित्था ॥ १८ ॥ णो सेवइ य परवत्थं परपाएवी से न भुञ्जत्था । परिवज्जियाण उमाणं गच्छइ संखडिं असरणयाए ॥ १९ ॥ मायणे असणपाणस्स नाणुगिद्धे रसेसु अपडिने । अच्छिपि नो पमज्जिज्जा नोवि य कंड्रयए मुणी गायं ॥ २० ॥
आकुट्टिः - हिंसा नाकुट्टिनाकुट्टिर हिंसेत्यर्थः किंभूताम् ? - अतिक्रान्ता पातकादतिपातिका निर्दोषा तामाश्रित्य, | स्वतोऽन्येषां चाकरणतया अव्यापारतया प्रवृत्त इति, तथा यस्य स्त्रियः स्वरूपतस्तद्विपाकतश्च परिज्ञाता भवन्ति, सर्व कमवहन्तीति सर्वकर्मावहाः सर्वपापोपादानभूताः स एवान्द्राक्षीत् स एव यथावस्थितं संसारस्वभावं ज्ञातवानिति, एतदुक्तं भवति स्त्रीस्वभावपरिज्ञानेन तत्परिहारेण च स भगवान् परमार्थदर्श्यभूदिति ॥ मूलगुणानाख्यायोत्तरगुण( णान् ) प्रचिकटयिषुराह - 'यथा' येन प्रकारेण पृष्ट्वा वाष्पृष्ट्वा वा कृतं यथाकृतम्-आधाकर्मादि नासौ सेवते, किमिति १ ५ यतः 'सर्वशः' सर्वैः प्रकारैस्तदासेवनेन कर्म्मणाऽष्टप्रकारेण बन्धमद्राक्षीत् दृष्टवान्, अन्यदप्येवंजातीयकं न सेवत * ॥ ३०५ ॥ | इति दर्शयति-यत्किञ्चित्यापकं पापोपादानकारणं तद्भगवान कुर्वन् 'विकटं' प्रासुकमभुङ्क-उपभुक्तवान् ॥ किंच-नो से
For Para Use Only
उपधा० ९
उद्देशका १
~325~
rary.org
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-२०],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||२०||
दीप अनुक्रम [२८४]
वते च-भोपभुते च परवखं-प्रधानं वस्त्रं परस्य वा वस्त्र परवस्त्रं नासेवते, तथा परपात्रेऽप्यसौ न भुक्के, तथा परिवज्यापमानम्-अवगणय्य गच्छति असावाहाराय सङ्खण्ड्यन्ते प्राणिनोऽस्यामिति सङ्कण्डिस्तामाहारपाकस्थानभूतामशरणाय शरणमनालम्बमानोऽदीनमनस्कः कल्प इतिकृत्वा परीपहविजयार्थ गच्छतीति ॥ किं च-आहारस्य मात्रां जानातीति मात्राज्ञः, कस्य?-अश्यत इत्यशनं-शाल्योदनादि पीयत इति पानं-द्राक्षापानकादिः तस्य च, तथा नानुगृद्धो 'रसेषु' विकृतिषु, भगवतो हि गृहस्थभावेऽपि रसेषु गृद्धिर्नासीत् , किं पुनः प्रवजितस्येति?, तथा रसेष्वेव ग्रहणं प्रत्य: प्रतिज्ञो, यथा-मयाऽद्य सिंहकेसरा मोदका एवं ग्राह्या इत्येवंरूपप्रतिज्ञारहितोऽन्यत्र तु कुल्माषादी सप्रतिज्ञ एव, तथाऽश्यपि रजःकणुकाद्यपनयनाय नो प्रमार्जयेशापि च गात्रं मुनिरसौ कण्डूयते-काष्ठादिना गात्रस्य कण्डूव्यपनोदं न | |विधत्त इति । किं च
अप्पं तिरियं पेहाए अप्पि, पिटुओ पेहाए । अप्पं बुइएऽपडिभाणी पंथपेहि चरे जयमाणे ॥ २१ ॥ सिसिरंसि अद्धपडिवन्ने तं वोसिज वत्थमणगारे । पसारितु बाहुं परकमे नो अवलम्बियाण कंधमि ॥ २२ ॥ एस विही अणुकन्तो माहणेण मईमया । बहुसोअपडिन्नेण भगवया एवं रियति ॥२३॥ तिबेमि ॥ उपधानश्रुताध्ययनोदेशः१॥९-१॥
REnahidimana
For P
OW
~326~
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [१], मूलं [२२६/गाथा-२३],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
उपधा०९ उद्देशकः१
सूत्रांक
ॐ
||२३||
दीप अनुक्रम [२८७]
श्रीआचा- अल्पशब्दोऽभावे वर्तते, अल्पं तिर्यक्-तिरश्चीनं गच्छन् प्रेक्षते, तथाऽल्पं पृष्ठतः स्थित्वोत्प्रेक्षते, तथा मार्गादि केनचि- राङ्गवृत्तिः
स्पृष्टः सन्नप्रतिभाषी सन्नल्पं ब्रूते, मानेन गच्छत्येव केवलमिति दर्शयति-पथिप्रेक्षी 'चरेद्' गच्छेद्यतमानः-प्राणिविषये (शी०) यित्नवानिति ।। किं च-अध्वप्रतिपन्ने शिशिरे सति तद्देवदृष्यं वस्त्रं व्युत्सृज्यानगारो भगवान् प्रसार्य बाहू पराक्रमते,
न तु पुनः शीतादितः सन् सङ्कोचयति, नापि स्कन्धेऽवलम्ब्य तिष्ठतीति ।। साम्प्रतमुपसञ्जिहीर्षुराह-एप चर्या विधि।।३०६॥
हरनन्तरोक्तोऽनुक्रान्तः-अनुचीर्णः 'माहणेण'त्ति श्रीवर्द्धमानस्वामिना 'मतिमता' विदितवेद्येन 'बहुशः' अनेकप्रकारम
प्रतिज्ञेन-अनिदानेन 'भगवता' ऐश्वर्यादिगुणोपेतेन, 'एवम् अनेन पथा भगवदनुचीर्णेनान्ये मुमुक्षवोऽशेषकर्मक्षयाय साधवो 'रीयन्ते' गच्छन्तीति । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववद्, उपधानश्रुताध्ययनस्य प्रथमोद्देशक ४ इति । उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके भगवतश्चर्याऽभिहिता,
तत्र चावश्यं कयाचिच्छय्यया-बसत्या भाव्यमतस्तत्प्रतिपादनायायमुदेशकः प्रक्रम्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योइंशकस्यादि सूत्रम्
चरियासणाई सिजाओ एगइयाओ जाओ बुइयाओ। आइक्ख ताई सयणासणाई जाई सेवित्था से महावीरे ॥ १ ॥ आवेसणसभापवासु पणियसालासु एगया वासो । अदुवा पलियठाणेसु पलालपुञ्जेसु एगया वासो ॥२॥ आगन्तारे आरा
नवम-अध्ययने द्वितीय-उद्देशक: 'शय्या' आरब्धः,
~327
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [२], मूलं [२२६/गाथा-२],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
||१||
दीप अनुक्रम [२८८]
मागारे तह य नगरे व एगया वासो।सुसाणे सुण्णगारे वा रुक्खमूले व एगया वासो ॥३॥ एएहिं मुणी सयणेहि समणे आसि पतेरसवासे । राइं दिवपि जयमाणे अ.
पमत्ते समाहिए झाइ ॥४॥ 'चर्यायामवश्यंभावितया यानि शय्यांसनान्यभिहितानि सामर्थ्यायातानि तानि शयनासनानि-शय्याफलकादीन्याचक्ष्व सुधर्मस्वामी जम्बूनाम्नाभिहितो यानि सेवितवान् महावीरो-वर्द्धमानस्वामीति, अयं च श्लोकश्चिरन्तनटीका-II कारेण न व्याख्यातः, तत्र किं सुगमत्वादुताभावात् , सूत्रपुस्तकेषु तु दृश्यते, तदभिप्रायं च वयं न विद्म इति ॥ प्रश्नपतिवचनमाह-भगवतो ह्याहाराभिग्रहवत् प्रतिमाव्यतिरेकेण प्रायशो न शय्याऽभिग्रह आसीत्, नवरं यत्रैव चरमपौरुषी भवति तत्रैवानुज्ञाप्य स्थितवान्, तद्दर्शयति-आ-समन्ताद्विशन्ति यत्र तदावेशनं-शून्यगृहं सभा नाम ग्रामनगरादीनां तद्वासिलोकास्थायिकार्थमागन्तुकशयनार्थं च कुड्याद्याकृतिः क्रियते, 'प्रपा' उदकदानस्थानम् आवेशनं च सभा च प्रपा |च आवेशनसभाप्रपास्तामु, तथा 'पण्यशालासु' आपणेषु 'एकदा' कदाचिद्वासो भगवतोऽथवा 'पलिय'न्ति कर्म तस्य स्थानं कर्मस्थानं-अयस्कारवर्द्धकिकुब्यादिक, तथा पलालपुञ्जेषु मश्योपरि व्यवस्थितेष्वधो, न पुनस्तेष्वेव, अपिरत्वादिति ॥ किं च-प्रसझायाता आगत्य वा यत्र तिष्ठन्ति तदागन्तारं तत्पुनामानगराद्वा बहिः स्थानं तत्र, तथा आरामेऽगारं-गृहमारामागारं तत्र वा तथा नगरे वा एकदा वासः, तथा श्मशाने शून्यागारे वा, आवेशनशून्यागारयोर्भेदः
SAREauratonininthiational
~328~
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [२], मूलं [२२६/गाथा-४],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
उपधा०९
श्रीआचा-I राजवृत्तिः (शी०)
उद्देशका
॥४||
॥३०७॥
दीप अनुक्रम २९१]
सकुन्याकुण्यकृतो, वृक्षमूले वा एकदा वास इति । किं च-एतेषु' पूर्वोक्तेषु 'शयनेषु' वसतिषु स 'मुनिः' जगप्रयवेत्ता| ऋतुबद्धेषु वर्षासु वा 'श्रमणः' तपस्युद्युक्तः समना वाऽऽसीत् निश्चलमना इत्यर्थः, कियन्तं कालं यावदिति दर्शयतिपतेलसवासे'त्ति प्रकर्षण त्रयोदर्श वर्ष यावत्समस्तां रात्रिं दिनमपि यतमानः संयमानुष्ठान उद्युक्तवान् तथाऽप्रमत्तो-निद्रादिप्रमादरहितः 'समाहितमनाः' विस्रोतसिकारहितो धर्मध्यानं शुक्लध्यानं या ध्यायतीति ॥ किं च
णिदंपि नो पगामाए, सेवइ भगवं उट्टाए । जग्गावइ य अप्पाणं इसिं साई य अपडिन्ने ॥ ५॥ संबुज्झमाणे पुणरवि आसिंसु भगवं उट्ठाए । निक्खम्म एगया राओ बहि चंकमिया मुहुत्तागं ॥ ६॥ सयणेहिं तत्थुवसग्गा भीमा आसी अणेगरूवा य । संसप्पगा य जे पाणा अदुवाजे पक्खिणो उवचरन्ति ॥७॥ अदु कुचरा उवचरन्ति
गामरक्खा य सत्तिहत्था य । अदु गामिया उवसग्गा इत्थी एगइया पुरिसा य ॥८॥ निद्रामप्यसावपरप्रमादरहितो न प्रकामतः सेवते, तथा च किल भगवतो द्वादशसु संवत्सरेषु मध्येऽस्थिकयामे व्यन्तरोपसर्गान्ते कायोत्सर्गव्यवस्थितस्यैवान्तर्मुहूर्त यावरस्वमदर्शनाध्यासिनः सकृन्निद्राप्रमाद आसीत्, ततोऽपि चोत्थायात्मानं 'जागरयति' कुशलानुष्ठाने प्रवर्तयति, यत्रापीपच्छय्याऽऽसीत् तत्राप्यप्रतिज्ञा प्रतिज्ञारहितो, न त
॥३०७॥
~329~
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [२], मूलं [२२६/गाथा-८],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
A%ACRO
||८||
दीप अनुक्रम [२९५]
त्रापि स्वापाभ्युपगमपूर्वक शयित इत्यर्थः ॥ किं च-स मुनिनिंद्राप्रमादाद् ब्युस्थितचित्तः 'सबुध्यमानः' संसारपातायायं । प्रमाद इत्येवमवगच्छन् पुनरप्रमत्तो भगवान् संयमोत्थानेनोत्थाय यदि तत्रान्तर्व्यवस्थितस्य कुतश्चिन्निद्राप्रमादः स्यात् ।। ततस्तस्मान्निष्क्रम्यैकदा शीतकालरात्रादौ बहिश्चक्रम्य मुहूर्तमानं निद्राप्रमादापनयनाथ ध्याने स्थितवानिति ॥ किं च-शय्यते-स्थीयते उत्कुटुकासनादिभिर्येष्विति शयनानि-आश्रयस्थानानि तेषु तैर्वा तस्य भगवत उपसर्गा 'भीमा' भयानका आसन् अनेकरूपाश्च शीतोष्णादिरूपतयाऽनुकूलप्रतिकूलरूपतया वा, तथा संसर्पन्तीति संसर्पका:-शून्यगृहादावहिनकुलादयो ये प्राणिनः 'उपचरन्ति'उप-सामीप्येन मांसादिकमश्नन्ति अथवा श्मशानादौ पक्षिणो गृध्रादय उपचरन्तीति वर्त्तते ।। किंच-'अथ' अनन्तरं कुत्सितं चरन्तीति कुचरा:-चौरपारदारिकादयस्ते च कचिच्छून्यगृहादौ 'उपचरन्ति' उपसर्गयन्ति, तथा ग्रामरक्षादयश्च त्रिकचत्वरादिव्यवस्थितं शक्तिकुन्तादिहस्ता उपचरन्तीति, अथ 'ग्रामिका'| ग्रामधम्माश्रिता उपसगों एकाकिनः स्युः, तथाहि-काचित्स्त्री रूपदशेनाध्युपपन्ना उपसगेयेत् पुरुषो वेति ॥ किं च
इहलोइयाई परलोइयाई भीमाई अणेगरूवाई। अवि सुब्भि दुभिगन्धाइं सदाई अणेगरूवाई ॥९॥ अहियासए सया समिए फासाइं विरूवरूवाई। अरई रई अभिभूय रीयइ माहणे अबहुवाई ॥१०॥ स जणेहिं तत्थ पुञ्छिसु एगचरावि एगया राओ । अव्वाहिए कसाइत्था पेहमाणे समाहिं अपडिन्ने ॥ ११॥ अयमंतरंसि
ctoCSAKS
~330~
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
||१२||
दीप
अनुक्रम [२९९ ]
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [२], मूलं [२२६/गाथा १२],निर्युक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ३०८ ॥
99
[भाग-2] “आचार” मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
hi इत्थ? अहमंसित्ति भिक्खु आहद्दु । अयमुत्तमे से धम्मे तुसिणीए कसाइए झाई ॥१२॥ इहलोके भवा ऐहलौकिकाः - मनुष्यकृताः के ते? 'स्पर्शाः' दुःखविशेषा दिव्यास्तैरश्चाश्च पारलौकिकास्तानुपसर्गापादितान् दुःखविशेषानध्यासयति-अधिसहते, यदिवा इहैव जन्मनि ये दुःखयन्ति दण्डप्रहारादयः प्रतिकूलोपसर्गास्त ऐहलीकिकाः, तद्विपर्यस्तास्तु पारलौकिकाः, 'भीमा' भयानका 'अनेकरूपाः' नानाप्रकाराः, तानेव दर्शयति-अपि सुरभिगन्धाः-कूचन्दनादयो दुर्गन्धाः कुथितकडेवरादयः, तथा शब्दाश्चानेकरूपा बीणावेणुमृदङ्गादिजनिताः, तथा क्र* मेलकर सिताद्युत्थापितास्तांश्चाविकृतमना 'अध्यासयति' अधिसहते, 'सदा' सर्वकालं सम्यगितः समितः - पञ्चभिः समितिभिर्युक्तः, तथा स्पर्शान- दुःखविशेषानरतिं संयमे रतिं चोपभोगाभिष्वङ्गेऽभिभूय तिरस्कृत्य 'रीयते' संयमानुष्ठाने व्रजति, 'माहणे'त्ति पूर्ववद् 'अबहुवादी' अबहुभाषी, एकद्विव्याकरणं क्वचिन्निमित्ते कृतवानिति भावः ॥ 'स' भगवानर्द्धत्रयोदश पक्षाधिकाः समा एकाकी विचरन् तत्र शून्यगृहादौ व्यवस्थितः सन् 'जनैः' ठोकैः पृष्टः, तद्यथा को भवान् ? किमन्त्र स्थितः ? कुतस्त्यो वेत्येवं पृष्टोऽपि तूष्णींभावमभजत्, तथोपपत्याद्या अप्येकचरा-एकाकिन एकदा-क दाचिद्रात्रावहि वा पप्रच्छुः अव्याहृते च भगवता केषायिताः ततोऽज्ञानावृतदृष्टयो दण्डमुष्ट्यादिताडनतोऽनार्यत्वमाचरन्ति, भगवांस्तु तत्समाधिं प्रेक्षमाणो धर्म्मध्यानोपगतचित्तः सन् सम्यक्तितिक्षते किंभूतः १ - 'अप्रतिज्ञों' नास्य वैरनिर्यातनप्रतिज्ञा विद्यत इत्यप्रतिज्ञः । कथं ते पप्रच्छुरिति दर्शयितुमाह-अयमन्तः- मध्ये कोऽत्र व्यवस्थितः १, एवं सङ्केतागता दुचारिणः पृच्छन्ति कर्म्मकरादयो वा तत्र नित्यवासिनो दुष्प्रणिहितमानसाः पृच्छन्ति, तत्र चैवं पृच्छतामेषां वां
Ja Eucation International
For Parts Only
~331~
उपधा० ९ उद्देशका
॥ ३०८ ॥
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
||१३||
दीप
अनुक्रम
[ ३००]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [२], मूलं [२२६/गाथा १३],निर्युक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
स्तूष्णीभावमेव भजते, कचिद्वहुतरदोषापनयनाय जल्पत्यपि, कथमिति दर्शयति-अहं भिक्षुरस्मीति एवमुक्ते यदि तेऽवधारयन्ति ततस्तिष्ठत्येव, अधाभिप्रेतार्थव्याघातात् कपायिता मोहान्धाः साम्प्रतेक्षितयैवं ब्रूयुः, यथा - तूर्णमस्मात्स्थानान्निर्गच्छ ततो भगवानचियेत्तावग्रह इतिकृत्वा निर्गच्छत्येव, यदिवा न निर्गच्छत्येव भगवान् किंतु सोऽयमुत्तमः प्रधानो धर्म्म आचार इतिकृत्वा स कषायितेऽपि तस्मिन् गृहस्थे तूष्णीभावव्यवस्थितो यद्भविष्यत्तया ध्यायत्येव-न ध्यानात्प्रच्यवते । किं च
Education Internation
जंसियेगे पवेयन्ति सिसिरे मारुए पवायन्ते । तंसिप्पेगे अणगारा हिमवाए निवायमेसन्ति ॥ १३ ॥ संघाडीओ पवेसिस्सामो एहा य समादहमाणा । पिहिया व
खामो अइदुखे हिमगसंफासा ॥ १४ ॥ तंसि भगवं अपडिने अहे विगडे अहीयासए । दविए निक्खम्म एगया राओ ठाइए भगवं समिया ॥ १५ ॥ एस विही • अणुकन्तो माहणेण मईमया । बहुसो अपडिण्णेण भगवया एवं रीयन्ति ॥ १६ ॥ तिमि || नवमस्य द्वितीय उद्देशकः ९-२ ॥
यस्मिन् शिशिरादावप्येके त्वक्त्राणाभावतया 'प्रवेपन्ते' दन्तवीणादिसमन्विताः कम्पन्ते, यदिवा 'प्रवेदयन्ति'
For Pale Only
~332~
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [२], मूलं [२२६/गाथा-१६],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
3-48
||१६||
श्रीआचा-1 द शीतजनितं दुःखस्पर्शमनुभवन्ति, आर्तध्यानवशगा भवन्तीत्यर्थः, तस्मिंश्च शिशिरे हिमकणिनि मारुते च प्रवाति स-1 उपधा०९
त्येके न सर्वे 'अनगाराः' तीर्थिकप्रजिता हिमवाते सति शीतपीडितास्तदपनोदाय पावकं प्रज्वालयन्ति-अङ्गारशक(शी०)
उद्देशका | टिकामन्वेषयन्ति, प्रावारादिकं याचन्ते, यदिवाऽनगारा इति-पार्श्वनाथतीर्थप्रवजिता गच्छवासिन एव शीतार्दिता
दानिवातमेषन्ति-घवशालादिकावसतीर्वातायनादिरहिताः प्रार्थयन्ति ॥ किं च-इह सङ्घाटीशब्देन शीतापनोदक्षम कल्प-15 ॥३०९॥
द्वयं त्रयं वा गृह्यते, ताः सङ्घाटीः शीतार्दिता वयं प्रवेक्ष्यामः, एवं शीतार्दिता अनगारा अपि विदधति, तीर्थिकप्रजितास्त्वेधाः-समिधः काष्ठानीतियावद् एताश्च समादहन्तः शीतस्पर्श सोढुं शक्ष्यामः, तथा संघाच्या वा पिहिताः-स्थ-IN गिताः कम्बलायोवृतशरीरा इति, किमर्थमेतत्कुर्वन्तीति दर्शयति यतोऽतिदुःखमेतद्-अतिदुःसहमेतद्यदुत हिमसंस्पर्शाः
शीतस्पर्शवेदना दुःखेन सह्यन्त इतियावत् ॥ तदेवमेवभूते शिशिरे यथोक्तानुष्ठानवत्सु च स्वयूथ्येतरेष्वनगारेषु यन्न४ गवान् व्यधात्तदर्शयितुमाह-'तस्मिन्' एवंभूते शिशिरे हिमवाते शीतस्पर्श च सर्वकषे 'भगवान् ऐश्वर्यादिगुणोपेतस्तं ||
शीतस्पर्शमध्यासयति-अधिसहते, किंभूतोऽसौ?-'अप्रतिज्ञो' न विद्यते निवातवसतिप्रार्थनादिका प्रतिज्ञा यस्य स तथा, काध्यासयति ?-'अधो विकटे' अधा-कुब्यादिरहिते छन्नेऽप्युपरि तदभावेऽपि चेति, पुनरपि विशिनष्टि-रागद्वेषविर|हाद्रव्यभूतः कर्मग्रन्थिद्रावणाद्वा द्रवः-संयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविका, स च तथाऽध्यासयन् यद्यत्यन्तं शीतेन बाध्यते ततस्तस्मात् छन्नानिष्क्रम्य बहिरेकदा-रात्री मुहूर्तमान स्थित्वा पुनः प्रविश्य स भगवान् शमितया सम्यग्वा सम-16॥३०९॥ तया वा व्यवस्थितः सन् तं शीतस्पर्श रासभदृष्टान्तेन सोढुं शक्नोति-अधिसहत इति ॥ एतदेवोद्देशकार्थमुपसंजिहीर्घ
%25A4%2
दीप
--
अनुक्रम [३०३]
%
4% 82
~333~
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [३], मूलं [२२६/गाथा-१],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
राह-एस विही इत्याद्यनन्तरोद्देशकवनेयमिति । इतिब्रवीमीतिशब्दौ पूर्ववद् । उपध्यानश्रुतस्य द्वितीयोद्देशकः परिसमाप्त इति ॥
सूत्रांक
||१||
दीप अनुक्रम [३०४]
उक्को द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके भगवतः शय्याः प्रतिपादिताः, तासु च व्यवस्थितेन ये यथोपसगाः परीपहाश्च सोडास्तत्प्रतिपादनार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
तणफासे सीयफासे य तेउफासे य दंसमसगे य । अहियासए सया समिए फासाई विरुवरूवाई ॥१॥ अह दुच्चरलाढमचारी वजभूमिं च सुब्भभूमिं च । पंतं सिर्ज सेविंस आसणगाणि चेव पंताणि ॥२॥ लाडेहिं तस्सुवसग्गा बहवे जाणवया लूसिंसु । अह लूहदेसिए भत्ते कुकुरा तत्थ हिंसिंसु निवइंसु ॥ ३॥ अप्पे जणे निवा
रेइ लूसणए सुणए दसमाणे । छुच्छुकारिति आहेसु समणं कुक्कुरा दसंतुत्ति ॥४॥ तृणानां-कुशादीनां स्पर्शास्तृणस्पर्शाः तथा शीतस्पर्शाः तथा तेजःस्पर्शा-उष्णस्पर्शाश्चातापनादिकाले आसन यदिवा गच्छतः किल भगवतस्तेजःकाय एवासीत् , तथा दंशमशकादयश्च, एतान् तृणस्पर्शादीन 'विरूपरूपान्' नानाभूतान्ह
| नवम-अध्ययने तृतीय-उद्देशक: परीषह' आरब्धः,
~334~
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [३], मूलं [२२६/गाथा-४],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
उपधा०९ उद्देशकः३
||४|
दीप अनुक्रम [३०७]
श्रीआचा- भगवानध्यासयति, सम्यगिता-सम्यग्भावं गतः समितिभिः समितो वेति ॥ किं च-'अथ' आनन्तर्ये दुःखेन चर्यते- राङ्गवृत्तिः स्मिन्निति दुश्चरः स चासौ लाढश्व-जनपदविशेषो दुश्वरलाढस्तं चीर्णवान-विहृतवान् , स च द्विरूपो-वज्रभूमिः शुधभू(शी०)
PR मिश्च, तं द्विरूपमपि विहृतवान् , तत्र च प्रान्तां 'शय्या' वसतिं शून्यगृहादिकामनेकोपद्रवोपद्रुता सेवितवान् , तथा प्रान्तानि ॥३१०॥
टचासनानि-पांशूत्करशर्करालोष्टाद्युपचितानि च काष्ठानि च दुर्घटितान्यासेवितवानिति ॥ किं च-लाढा नाम जनप
दविशेषास्तेषु च द्विरूपेष्वपि लाढेषु 'तस्य' भगवतो बहन उपसर्गाः प्रायशः प्रतिकूला आक्रोशश्वभक्षणादय आसन् , तानेव दर्शयति-जनपदे भवा जानपदा-अनार्याऽऽचारिणो लोकाः ते भगवन्तं लूपितवन्तो-दन्तभक्षणोल्मुकदण्डमहारा-15 दिभिर्जिहिंसुः, अथशब्दोऽपिशब्दार्थे, स चैवं द्रष्टव्यः, भक्तमपि तत्र 'रूक्षदेश्य' रूक्षकल्पमन्तप्रान्तमितियावत् , ते चानार्यतया प्रकृतिकोधनाः कर्पासाद्यभावत्वाच्च तृणप्रावरणाः सन्तो भगवति विरूपमाचरन्ति, तथा तत्र 'कुर्कुरा श्वानस्ते च जिहिंसुः, उपरि च निपेतुरिति ॥ किं च-'अल्पः' स्तोकः स जनो यदि परं सहस्राणामेको यदिवा नास्त्येवासाविति यस्तान् शुनो लूषकान् दशतो 'निवारयति' निषेधयति, अपि तु दण्डमहारादिभिर्भगवन्तं हत्वा तोरणाय सीत्कुर्वन्ति, कथं नामैनं श्रमणं कुर्कुराः श्वानो दशन्तु-भक्षयन्तु !, तत्र चैवंविधे जनपदे भगवान् षण्मासावधि कालं स्थितवानिति । किं च
॥३१०॥
एलिक्खए जणा भुजो बहवे वजभूमि फरुसासी। लढेि गहाय नालियं समणा तत्थ य
25
FaPranaamaan unconm
~3354
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [३], मूलं [२२६/गाथा-५],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [३०८
विहरिंसु ॥५॥ एवंपि तत्थ विहरन्ता पुटपुव्वा अहेसि सुणिएहिं । संलुञ्चमाणा सुणएहिं दुच्चराणि तत्थ लाहिं ॥ ६॥ निहाय दण्डं पाणेहिं तं कायं वोसज्जमणगारे । अह गामकण्टए भगवन्ते अहिआसए अभिसमिच्चा ॥७॥ नागो संगामसीसे वा पारए तत्थ से महावीरे । एवंपि तत्थ लाहिं अलद्धपुब्बोवि एगया
गामो ॥८॥ ___ 'इटक्षः' पूर्वोक्तस्वभावो यत्र जनस्तं तथाभूतं जनपदं भगवान् 'भूयः' पौनःपुन्येन विहृतवान् , तस्यां च वनभूमौ । बहवो जनाः परुपाशिनो रूक्षाशिनो रूक्षाशितया च प्रकृतिकोधनास्ततो यतिरूपमुपलभ्य कदर्थयन्ति, ततस्तत्रान्ये श्रमणाः शाक्यादयो यष्टि-देहप्रमाणां चतुरङ्गलाधिकममाणां वा नालिकां गृहीत्वा श्वादिनिषेधनाय विजहरिति । किच-एवमपि यध्यादिकया सामग्या श्रमणा विहरन्तः 'स्पृष्टपूर्वा' आरब्धपूर्वाःश्वभिरासन् , तथा 'संलुच्यमाना' इतश्चेतच भक्ष्यमाणाः श्वभिरासन् , दुर्निवारत्वात्तेषां, 'तत्र' तेषु लाढेवार्यलोकानां दुःखेन चर्यन्त इति दुश्चराणि-मामादीनीति ॥तदेवंभूतेष्वपि लाढेषु कथं भगवान् विहृतवानिति दर्शयितुमाह-प्राणिषु यो दण्डनाइण्डो-मनोवाकायादिकस्तं भगवान् निधाय' त्यक्त्वा, तथा तच्छरीरमप्यनगारो व्युत्सृज्याथ 'ग्रामकण्टकान् नीचजनरूक्षालापानपि भगवांस्तांस्तान् सम्यकरणतया निर्जरामभिसमेत्य-ज्ञात्वाऽध्यासयति-अधिसहते ॥ कथमधिसहत इति दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह-नागो'हस्ती य
ACCAS
~336~
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [३], मूलं [२२६/गाथा-९],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
(सी०)
दीप अनुक्रम [३११]
श्रीआचा- थाऽसौ संग्राममूर्द्धनि परानीकं जित्वा तत्सारगो भवति, एवं भगवानपि महावीरस्तत्र लादेषु परीपहानीक विजित्य।
उपधा०९ झवृत्तिः पारगोऽभूत्, किं च-'तत्र' लादेषु विरलत्वाद्रामाणां कचिदेकदा वासायालब्धपूर्वो ग्रामोऽपि भगवता ॥ किं च
उद्देशका उवसंकमन्तमपडिन्नं गामंतियम्मि अप्पत्तं । पडिनिक्खमित्तु लूसिंसु एयाओ परं पलेहित्ति ॥९॥ हयपुवो तत्थ दण्डेण अदुवा मुट्टिणा अदु कुन्तफलेण । अदु लेलणा कवालेण हन्ता हन्ता बहवे कन्दिसु ॥ १० ॥ मंसाणि छिन्नपुव्वाणि उटुंभिया एगया कायं । परीसहाई लुंचिंसु अदुवा पंसुणा उवकरिंसु ॥ ११॥ उच्चालइय निहणिंसु अदुवा आसणाउ खलइंसु । वोसट्टकायपणयाऽऽसी दुक्खसहे भगवं
अपडिन्ने ॥ १२॥ 'उपसामन्त' भिक्षायै वासाय वा गच्छन्त, किंभूतम् ?--'अप्रतिज्ञ' नियतनिवासादिप्रतिज्ञारहितं प्रामान्तिकं प्राप्त-IP मप्राप्तमपि तस्माद्धामात्प्रतिनिर्गत्य ते जना भगवन्तमलूषिषुः, एतच्चोचुः-इतोऽपि स्थानात्परं दूरतरं स्थानं 'पर्येहि' ग
च्छेति ॥ किं च-तत्र ग्रामादेर्बहिर्व्यवस्थितः पूर्व हतो हतपूर्वः, केन?-दण्डेनाथवा मुष्टिनाऽथवा कुन्तादिफलेनाथवा ॥११॥ शालेष्टुना कपालेन-घटखर्परादिना हत्वा हत्वा बह्वोऽनार्याश्चक्रन्दुः-पश्यत यूर्य किंभूतोऽयमित्येवं कलकलं चक्रुः ॥ किंग
~337
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
||23||
दीप
अनुक्रम
[३१६]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [३], मूलं [२२६/गाथा १२],निर्युक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
च-मांसानि च तत्र भगवतच्छिन्न पूर्वाणि एकदा कायमवष्टभ्य - आक्रम्य तथा नानाप्रकाराः प्रतिकूलपरीपहाश्च भगवन्तमलुचिपुः, अथवा पांसुनाऽवकीर्णवन्त इति । किं च भगवन्तमूर्ध्वमुत्क्षिप्य भूमौ 'निहतवन्तः' क्षिप्तवन्तः, अथवा 'आसनात्' गोदोहिकोत्कुडुकासनवीरासनादिकात् 'स्खलितवन्तो' निपातितवन्तः, भगवांस्तु पुनर्युत्सृष्टकायः परीषहसहनं प्रति प्रणत आसीत्, परीषहोपसर्गकृतं दुःखं सहत इति दुःखसहो भगवान्, नास्य दुःखचिकित्साप्रतिज्ञा विद्यत इत्यप्रतिज्ञः ॥ कथं दुःखसहो भगवानित्येतद्दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह
सूरो सङ्गामसीसे वा संबुडे तत्थ से महावीरे । पडिसेवमाणे फरुसाई अचले भ गवं रीत्थिा ॥ १३ ॥ एस विही अणुक्कन्तो० जाव रीयं ॥ १४ ॥ तिबेमि ९ - ३ ॥
यथा हि संग्रामशिरसि 'शूरः' अक्षोभ्यः परैः कुन्तादिभिर्भिद्यमानोऽपि वर्म्मणा संवृताङ्गो न भङ्गमुपयातीति, एवं स भगवान्महावीरः 'तंत्र' लाढादिजनपदे परीषहानी कतुद्यमानोऽपि प्रतिसेवमानश्च 'परुपान्' दुःखविशेषान् मेरुरिवाचलो - निष्प्रकम्पो धृत्या संवृताङ्गो भगवान् 'रीयते स्म ज्ञानदर्शन चारित्रात्मके मोक्षाध्वनि पराक्रमते स्मेति ॥ उद्देशकार्थमुपसंजिहीर्षुराह - 'एस विहीत्यादि पूर्ववद् । उपधानश्रुताध्ययनस्य तृतीयोदेशकः परिसमाप्तः ॥
Education Internationa
For Parts Only
~338~
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-१],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
उपधा०
उद्देशका४
॥१॥
दीप अनुक्रम [३१८
श्रीआचा-ID उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके भगवतः परीषहोपसर्गाराजवृत्तिः
घिसहनं प्रतिपादितं, तदिहापि रोगातङ्कपीडाचिकित्साब्युदासेन सम्यगधिसहते तदुत्पत्तौ च नितरां तपश्चरणायोद्य(शी०) च्छतीत्येतत्प्रतिपाद्यते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्॥३१२॥
ओमोयरियं चाएइ अपुढेऽवि भगवं रोगेहिं । पुढे वा अपुढे वा नो से साइजई तेइच्छं ॥१॥ संसोहणं च वमणं च गायब्भंगणं च सिणाणं च । संबाहणं च न से - कप्पे दन्तपक्खालणं च परिन्नाए ॥२॥ विरए गामधम्मेहिं रीयइ माहणे अबहुवाई। सिसिरंमि एगया भगवं छायाए झाइ आसीय ॥३॥ आयावइ य गिम्हाणं अच्छइ
उक्कुडुए अभित्तावे । अदु जाव इत्थ लूहेणं ओयणमंथुकुम्मासेणं ॥४॥ I अपि शीतोष्णदंशमशकाकोशताडनाद्याः शक्याः परीषहाः सोढुं न पुनरवमोदरता, भगवास्तु पुना रोगैरस्पृष्टोऽपि वातादिक्षोभाभावेऽप्यवमौदर्य न्यूनोदरतां शक्नोति कर्तु, लोको हि. रोगैरभिद्रुतः संस्तदुपशमनायावमोदरतां विधत्ते भगवास्तु तदभावेऽपि विधत्त इत्यपिशब्दार्थः, अथवाऽस्पृष्टोऽपि कासश्वासादिभिव्यरोगैः अपिशब्दास्पृष्टोऽप्यसद्धेदनीयादिभिर्भावरोगैन्यूनोदरतां करोति, अथ किं द्रव्यरोगातङ्का भगवतो न प्रादुष्ष्यन्ति येन भावरोगैः स्पृष्ट इत्युक्तं ?, तदुच्यते, भगवतो हि न प्राकृतस्येव देहजाः कासश्वासादयो भवन्ति, आगन्तुकास्तु शस्त्रमहारजा भवेयुः, इत्येतदेव
॥३१२॥
नवम-अध्ययने चतुर्थ-उद्देशक: 'आतंकित' आरब्ध:,
~339~
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-५],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत गाथा
FAC2X0
दीप अनुक्रम [३२२]
दर्शयति-सच भगवान् स्पृष्टो वा श्वभक्षणादिभिरस्पृष्टो वा कासन्धासादिभिर्नासौ चिकित्सामभिलपति, न द्रव्योषधाधुपयोगतः पीडोपशमं प्रार्थयतीति । एतदेव दर्शयितुमाह-गात्रस्य सम्यक् शोधनं संशोधन-विरेचनं निःसोत्रादिभिः तथा वमनं मदनफलादिभिः, चशब्द उत्तरपदसमुच्चयार्थो, गात्राभ्यङ्गनं च सहस्रपाकतैलादिभिः स्नानं चोद नादिभिः संबाधनं च हस्तपादादिभिस्तस्य-भगवतो न कल्पते, तथा सर्वमेव शरीरमशुच्यात्मकमित्येवं परिज्ञाय' ज्ञात्वा दन्तकाष्ठादिभिदन्तप्रक्षालनं च न कल्पत इति । किं च-विरतो' निवृत्तः केभ्यो?-'ग्रामधर्मेभ्यो' यथास्वमिन्द्रियाणां शब्दादिभ्यो विषयेभ्यो 'रीयते' संयमानुष्ठाने पराक्रमते, 'माहणे'त्ति, किंभूतो भगवान् ? असावबहुवादी, सकृयाकरणभावाद्वहुशब्दोपादानम् , अन्यथा हि अवादीत्येव ब्रूयात् , तथैकदा शिशिरसमये स भगवांश्छायायां धर्मशुक्लध्यानध्याय्यासीच्चेति ॥ किं| च-सुब्व्यत्ययेन सप्तम्यर्थे षष्ठी, ग्रीष्मेवातापयति, कथमिति दर्शयति-तिष्ठत्युत्कुटु कासनोऽभिताप-तापाभिमुखमिति, 'अथ' आनन्तर्ये धर्माधारं देहं यापयति स्म रूक्षेण-स्नेहरहितेन केन?-'ओदनमन्धुकुल्माषेण' ओदनं च-कोद्रबौदनादि मन्थु च-बदरचूर्णादिकं कुल्माषाश्च-माषविशेषा एवोत्तरापथे धान्यविशेषभूताः पर्युपितमाषा वा सिद्धमाषा वा ओदनमन्थुकुल्मापमिति समाहारद्वन्द्वः तेनात्मानं यापयतीति सम्बन्ध इति ॥ एतदेव कालावधिविशेषणतो दर्शयितुमाह... एयाणि तिन्नि पडिसेवे अट्ठ मासे अ जावयं भगवं । अपि इत्थ एगया भगवं अद्ध
मासं अदुवा मासंपि ॥५॥ अवि साहिए दुवे मासे छप्पि मासे अदुवा विह
kicM9%*
-०८-CANCE
~340~
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-६],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
गाथा
(शी०)
[६] दीप अनुक्रम [३२३]
श्रीआचा- रित्था । राओवरायं अपडिन्ने अन्नगिलायमेगया भुझे ॥६॥ छट्रेण एगया भुले उपधा०९ रावृत्तिः। अदुवा अट्टमेण दसमेणं । दुवालसमेण एगया भुले पेहमाणे समाहिं अपडिन्ने ॥७॥
उद्देशका णच्चा णं से महावीरे नोऽविय पावगं सयमकासी । अन्नेहिं वा ण कारित्था कीरंतंपि ॥३१३॥
नाणुजाणित्था ॥८॥ 'एतानि ओदनादीन्यनन्तरोक्तानि प्रतिसेवते, तानि च समाहारद्वन्द्वेन तिरोहितावयवसमुदायप्रधानेन निर्देशा-18 स्कस्यचिन्मन्दबुद्धेः स्यादारेका यथा-त्रीण्यपि समुदितानि प्रतिसेवत इति, अतस्तद्युदासाय त्रीणीत्यनया सख्यया है निर्देश इति, त्रीणि समस्तानि व्यस्तानि वा यधालाभं प्रतिसेवत इति, कियन्तं कालमिति दर्शयति-अष्टी मासान् ऋतुबद्धसंज्ञकानात्मानं अयापयद्-वर्तितवान भगवानिति, तथा पानमप्यर्द्धमासमथवा मासं भगवान् पीतवान् | अपि च-1 मासद्वयमपि साधिकम् अथवा पडपि मासान् साधिकान् भगवान्यानकमपीत्वाऽपि 'रात्रोपरात्र'मित्यहर्निशं विहुत-IN
वान्, किंभूतः -'अप्रतिज्ञः' पानाभ्युपगमरहित इत्यर्थः, तथा 'अन्नगिलाय'न्ति पर्युषितं तदेकदा भुक्तवानिति ॥ हैकिं च-षष्ठेनैकदा भुते, षष्ठं हि नामैकस्मिन्नहन्येकभक्तं विधाय पुनर्दिनद्वयमभुक्त्वा चतुर्थेऽहथेकभक्कमेव विधत्ते,
ततश्चाद्यन्तयोरेकभक्तदिनयोक्तद्वयं मध्यदिवसयोश्च भक्तचतुष्टयमित्येवं पण्णां भक्तानां परित्यागात्पष्ट भवति, एवं ॥३१३॥ दिनादिवृद्ध्याऽष्टमाद्यायोज्यमिति, अथाष्टमेन दशमेनाथवा द्वादशमेनैकदा कदाचिद्भुक्तवान्, 'समाधि' शरीरसमा
~341~
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-९],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-[१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
गाथा
दीप अनुक्रम [३२६]]
राधानं 'प्रेक्षमाणः' पर्यालोचयन न पुनर्भगवतः कथंचिद्दौर्मनस्य समुत्पद्यते, तथाऽप्रतिज्ञः-अनिदान इति ॥ किं च-ज्ञात्वा | II हेयोपादेयं स महावीरः कर्मप्रेरणसहिष्णुर्नापि च पापकं कर्म स्वयमकार्षीत् न चाप्यन्यैरचीकरत् न च क्रियमाणमपर-1 रनुज्ञातवानिति ॥ किं च
गाम पविसे नगरं वा घासमेसे कडं परटाए । सुविसुद्धमेसिया भगवं आयतजोगयाए सेविस्था ॥९॥ अदु वायसा दिगिंछत्ता जे अन्ने रसेसिणो सत्ता । घासेसणाए चिट्ठन्ति सययं निवइए य पेहाए ॥ १०॥ अदुवा माहणं च समणं वा गामपिण्डोलगं च अतिहिं वा। सोवागमूसियारिं वा कुकुरं वावि विट्रियं पुरओ ॥ ११ ॥ वित्तिच्छेयं वजन्तो तेसिमप्पत्तियं परिहरन्तो । मन्दं परक्कमे भगवं अहिंसमाणो
घासमेसित्था ॥ १२॥ ग्राम नगरं वा प्रविश्य भगवान् ग्रासमन्वेषयेत् , परार्थाय कृतमित्युद्गमदोपरहितं, तथा सुविशुद्धमुत्पादनादोषरहितं, तथैषणादोपपरिहारेणैपित्वा-अन्वेष्य भगवानायतः-संयतो योगो-मनोवाकायलक्षणः आयतवासी योगश्चायतयोगो|| -ज्ञानचतुष्टयेन सम्यग्योगप्रणिधानमायतयोगस्य भाव आयतयोगता तया सम्यगाहारं शुद्धं ग्रासैपणादोषपरिहारेण से
~342~
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
गाथा
[१२]
दीप
अनुक्रम [ ३२९]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा १२],निर्युक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
( शी०)
॥ ३१४ ॥
वितवानिति ॥ किं च-अथ भिक्षां पर्यटतो भगवतः पथि वायसाः- काका 'दिगिंद्य'त्ति वुभुक्षा तयाssर्त्ता बुभुक्षार्त्ता ये चान्ये रसैषिणः- पानार्थिनः कपोतपारापतादयः सत्त्वाः तथा ग्रासस्यैषणार्थम् अन्वेषणार्थं च ये तिष्ठन्ति तान् सततम् - अनवरतं निपतितान् भूमौ 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्रा तेषां वृत्तिव्यवच्छेदं वर्जयन्मन्दमाहारार्थी पराक्रमते ॥ किं च-अथ ब्रा५ ह्मणं लाभार्थमुपस्थितं दृष्ट्वा तथा श्रमणं शाक्याजीवकपरिव्राट्तापस निर्ग्रन्थानामन्यतमं 'ग्रामपिण्डोलक' इति भिक्षयोदरभरणार्थ ग्राममाश्रितस्तुन्दपरिमृजो द्रमक इति, तथाऽतिथिं वा - आगन्तुकम् तथा श्वपाकं चाण्डालं मार्जारी वा कुकुरं वापि श्वानं विविधं स्थितं 'पुरतः' अग्रतः समुपलभ्य तेषां वृत्तिच्छेदं वर्जयन् मनसो दुष्प्रणिधानं च वर्जयन् मन्दं मना तेषां त्रासमकुर्वन् भगवान् पराक्रमते, तथा परांश्च कुन्थुकादीन् जन्तून अहिंसन् ग्रासमन्वेषितवा - निति । किं च-
Education Internationa
अवि सूइयं वा सुक्कं वा सीयं पिंडं पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कसं पुलागं वा लहें पिंडे अल दवि ॥ १३ ॥ अवि झाइ से महावीरे आसणत्थे अकुक्कुए झाणं । उ अहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपनेि ॥ १४ ॥ अकसाई विगयगेही य सदरूवेसु अमुच्छि झाई । छउमत्थोऽवि परक्कममाणो न पमायं सइपि कुव्वित्था ॥ १५ ॥ सयमेव अभिसमागम्म आयतजोगमायसोहीए । अभिनिव्वुडे अमाइछे आवकहं भगवं
For Parts Only
~343~
उपधा०९
उद्देशकः४
॥ ३१४ ॥
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-१६],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
गाथा [१६] दीप अनुक्रम [३३३]
समियासी ॥ १६ ॥ एस विही अणु० रीयइ ॥ १७ ॥ तिबेमि ९-४ ब्रह्मचर्यश्रुतस्कन्धे
नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः ॥९॥ 'सूइय'त्ति दध्यादिना भक्तमाद्रीकृतमपि तथाभूतं शुष्कं वा-बल्लचनकादि शीतपिण्डं वा-पर्युषितभक्तम् तथा 'पुराणकुल्मापं वा बहुदिवससिद्धस्थितकुल्माष, 'बुक्कसति चिरन्तनधान्यौदनं, यदिवा पुरातनसक्नुपिण्डं, यदिवा बहुदिवससम्भृतगोरसं गोधूममण्डकं चेति, तथा 'पुलाक' यवनिष्पावादि, तदेवम्भूतं पिण्डमवाप्य रागद्वेषविरहाद् द्रविको भगवान् तथाऽन्यस्मिन्नपि पिण्डे लब्धेऽलब्धे वा द्रविक एवं भगवानिति, तथाहि-लब्धे पर्याप्ते शोभने वा नोत्कर्ष याति, नाप्यलब्धेऽपर्याप्तेऽशोभने वाऽऽत्मानमाहारदातारं वा जुगुप्सते ॥ किं च तस्मिंस्तथाभूत आहारे लब्ध उप-IN भुक्तेऽलब्धे चापि ध्यायति स महावीरो, दुष्प्रणिधानादिना नापध्यानं विधत्ते, किमवस्थो ध्यायतीति दर्शयति-आसनस्थ:उत्कुटुकगोदोहिकावीरासनायवस्थोऽकौत्कुचः सन्-मुखविकारादिरहितो ध्यान-धर्मशक्लयोरग्यतरदारोहति, किं पुनस्सन ध्येयं ध्यायतीति दर्शयितुमाह-ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्लोकस्य ये जीवपरमाण्वादिका भावा व्यवस्थितास्तान् द्रव्यपर्यायनित्यानित्यादिरूपतया ध्यायति, तथा समाधिम्-अन्तःकरणशुद्धिं च प्रेक्षमाणोऽप्रतिज्ञो ध्यायतीति ॥ किं च-न कषाय्यक-| पायी तदुदयापादितभ्रकुट्यादिकार्याभावात् , तथा विगता गृद्धिः-गाय यस्यासी विगतगृद्धिा, तथा शब्दरूपादिष्वि|न्द्रियार्थेवमूच्छितो ध्यायति, मनोऽनुकूलेषु न रागमुपयाति नापीतरेषु द्वेषवंशगोऽभूदिति, तथा छानि-ज्ञानदर्शना
RELIGunintentration
~344~
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-१७],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
गाथा [१७]
दीप अनुक्रम [३३४]
श्रीआचा-1 वरणीयमोहनीयान्तरायात्मके तिष्ठतीति छद्मस्थ इत्येवंभूतोऽपि विविधम्-अनेकप्रकारं सदनुष्ठाने पराक्रममाणो न प्रमाद | उपधा०९ राङ्गवृत्तिः -कषायादिकं सकृदपि कृतवानिति ॥ किं च-स्वयमेव-आत्मना तत्त्वमभिसमागम्य विदितसंसारस्वभावः स्वयंबुद्धः सं
उद्देशका४ (शी०) |स्तीर्थप्रवर्त्तनायोद्यतवान् , तथा चोक्तम्-"आदित्यादिविबुधविसरः सारमस्यां त्रिलोक्यामारकन्दन्तं पदमनुपमं यच्छिवं
हावामुवाच । तीर्थ नाथो लघुभवभयच्छेदि तूर्ण विधत्स्वेत्येतद्वाक्यं त्वदधिगतये नो किमु स्थानियोगः ॥ १॥" इत्यादि,IRI ॥३१५॥
कथं तीर्थप्रवर्त्तनायोद्यत इति दर्शयति-'आत्मशुझ्या' आत्मकर्मक्षयोपशमोपशमक्षयलक्षणयाऽऽयतयोग-सुप्रणिहितं मनोवाकायात्मकं विधाय विषयकषायाद्युपशमादिभिनिवृत्तः-शीतीभूतः, तथा अमायावी-मायारहित उपलक्षणार्थवादस्याक्रोधाद्यपि द्रष्टव्यं, 'यावत्कथ मिति यावज्जीवं भगवान् पञ्चभिः समितिभिः समितः तथा तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तश्चासीदिति॥श्रुतस्कन्धाध्ययनोदेशकार्थमुपसंजिहीर्घराह-एषः-अनन्तरोक्तःशस्त्रपरिज्ञादेरारभ्य योऽभिहितः सोऽनुक्रान्त:अनुष्ठित आसेवनापरिज्ञया सेवितः, केन ?-श्रीवर्द्धमानस्वामिना 'मतिमता' ज्ञानचतुष्टयान्वितेन बहुशः-अनेकशोऽअति-|
ज्ञेन-अनिदानेन भगवता-ऐश्वर्यादिगुणोपेतेन, अतोऽपरोऽपि मुमुक्षुरनेनैव भगवदाचीर्णेन मोक्षप्रगुणेन पथाऽऽत्महित-18 समाचरन् रीयते-पराक्रमते, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिने कथयति-सोऽहं ब्रवीमि येन
मया भगवद्वदनारविन्दादर्थजातं निर्यातमवधारितमिति ॥ उक्तोऽनुगमः सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपश्च ससूत्रस्पर्शनियुक्तिकः, साम्प्रतं नयाः, ते च नैगमसङ्ग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूदैवभूतभेदभिन्नाः सामान्यतः सप्त, ते चान्यत्र ॥३१५॥ सम्मत्यादी लक्षणतो विधानतश्च न्यक्षेणाभिहिता इति, इह पुनस्त एव ज्ञानक्रियानयान्तर्भावद्वारेण समासतःप्रो
~345
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-१७],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
गाथा [१७] दीप अनुक्रम [३३४]
440404GCACCORDCLOCAL
च्यन्ते, अधिकृताचाराङ्गस्य ज्ञानक्रियात्मकतयोभयरूपत्वात् ज्ञानक्रियाधीनत्वान्मोक्षस्य तदर्थं च शास्त्रप्रवृत्तेरिति भावः, अत्र च परस्परतः सव्यपेक्षावेव ज्ञानक्रियानयो विवक्षितकार्यसिद्धयेऽलं नान्योऽन्यनिरपेक्षावित्येतत्पश्यते, तत्र ज्ञाननयाभिप्रायोऽयम्-यथा ज्ञानमेव प्रधानं न क्रियेति, समस्तहेयोपादेयहानोपादानप्रवृत्तेानाधीनत्वात् , तथा हि-सुनिश्चितात् सम्यग्ज्ञानात्प्रवृत्तोऽर्थक्रियार्थी न विसंवाद्यते, तथा चोक्तम्-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनाद् ॥ १॥" इत्यादि, संविनिष्ठत्वाच्च विषयव्यवस्थितीनां तत्पूर्वकसकलदुःखपहीणत्वाचान्वयव्यतिरेकदर्शनाच्च ज्ञानस्य प्राधान्यं, तथाहि-ज्ञानाभावेऽनर्थपरिहाराय प्रवत्तमानोऽपि तत्करोति | येन नितरां पतङ्गवदनर्थेन संयुज्यते, ज्ञानसद्भावे च समस्तानप्यानर्थसंशयांश्च यथाशक्तितः परिहरति, तथा चागमः | ४-पडमं नाणं तओ' इत्यादि, एवं तावत्क्षायोपशमिकं ज्ञानमाश्रित्योक्तं, क्षायिकमप्याश्रित्य तदेव प्रधान, यस्माद्भगवतः
प्रणतसुरासुरमुकुटकोटिवेदिकाङ्कितचरणयुगलपीठस्य भवाम्भोधितटस्थस्य प्रतिपन्नदीक्षस्य त्रिलोकबन्धोस्तपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः सञ्जायते यावजीवाजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं घनघातिकर्मसंहतिक्षयात्केवलज्ञानं नोत्पन्नमित्यतो ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्वादिति । अधुना क्रियानयाभिप्रायोऽभिधीयते, तद्यथा-क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्वात्, यस्माद्दर्शितेऽपि ज्ञानेनाकियास-| मर्थेऽथे प्रमाता प्रेक्षापूर्वकारी यदि हानोपादानरूपां प्रवृत्तिक्रियां न कुर्यात् ततो ज्ञानं विफलतामियात्, तदर्थत्वात्त-1 खेति, यस्य हि यदर्थ प्रवृत्तिस्तत्तस्य प्रधानमितरदप्रधानमिति न्यायात्, संविदा विषयव्यवस्थानस्याप्यर्थक्रियार्थत्वास्क्रि
~346~
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-१७],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
गाथा
[१७]
दीप
अनुक्रम [३३४]
श्रीआचा- यायाः प्राधान्यम् , अन्वयव्यतिरेकावपि क्रियायां समुपलभ्येते, यतः-सम्यचिकित्साविधिज्ञोऽपि यथार्थोंषधावाप्ता
नयवि. राङ्गवृत्तिः बिपि उपयोगक्रियारहितो नोल्लाघतामेति, तथा चोकम्-"शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूखों, यस्तु क्रियावान् पुरुषः॥ठा (शी०) स विद्वान् । संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि, किं ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ॥१॥" तथा "क्रियैव फलदा पुसां, न ज्ञान
फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥१॥” इत्यादि, तरिक्रयायुक्तस्तु यथाऽभिलषितार्थ॥३१६॥
भाग्भवत्यपि, कुत इति चेत् न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम, न च सकललोकप्रत्यक्षसिद्धेऽर्थेऽन्यत्प्रमाणान्तरं मृग्यत इति, तथाऽऽमुष्मिकफलप्रात्यर्थिनाऽपि तपश्चरणादिका क्रियैव कर्तव्या, मौनीन्द्रं प्रवचनमप्येवमेव व्यवस्थितं, यत उक्तं'चेइयकुलगणसझे आयरियाणं च पवयण सुए य । सव्येसुऽवि तेण कयं तवसञ्जममुजमन्तेणं ॥१॥" इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यं, यतस्तीर्थकृदादिभिः क्रियारहितं ज्ञानमप्यफलमुक्तं, उक्तं च-सुबहु पि सुअमधीतं किं काहि चरणविप्पडण(मुक)स्स। अंधस्स जह पलित्ता दीवसतसहस्सकोडीवि ॥१॥" इशिक्रियापूर्वकक्रियाबिकलत्वात्तस्येति भावः, न केवलं क्षायोपशमिकाग्ज्ञानाकिया प्रधाना, क्षायिकादपि, यतः सत्यपि जीवाजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदके ज्ञाने समुलसिते न व्युपरतक्रियानिवर्तिध्यानक्रियामन्तरेण भवधारणीयकर्मोच्छेदः, तदच्छेदाच न मोक्षावाप्तिरित्यतो न ज्ञानं प्रधान, चरणक्रियायां पुनरैहिकामुष्मिकफलावाप्तिरित्यतः सैव प्रधानभाषमनुभवतीति, तदेवं ज्ञानमृते सम्यक्रियाया अभावः, तदभावाच तदर्थप्रवृत्तस्य ज्ञानस्य वैफल्यम् । एवमादीनां युक्तीनामुभयत्राप्युपलब्धेयाकुलितमतिः
IPL||३१६॥ १ चैत्यकुलगणसके आचार्ये च प्रवचने श्रुते च । सर्वेयपि तेन कृतं तपःसंयमयोग्यच्छता ॥१॥२ सुबद्दपि श्रुतमधीतं किं करिष्यति विहीणचरणस्य ।। Dअन्धस्य यथा प्रदीता दीपशतसइलकोव्यपि ॥१॥
~347~
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
गाथा
[१७]
दीप
अनुक्रम [३३४]
99
[भाग-2] “आचार” मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा १७],निर्युक्ति: [२८४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
| शिष्यः पृच्छति - किमिदानीं तत्त्वमस्तु ?, आचार्य आह- नन्वभिहितमेव विस्मरणशीलो देवानांप्रियो यथा ज्ञानक्रियानयाँ परस्परसव्यपेक्षौ सकलकर्मकन्दोच्छेदात्मकस्य मोक्षस्य कारणभूताविति, प्रदीप्त समस्त नगरान्तर्वर्त्तिपरस्परोपकार्यो|पकारकभावावाप्तानाबाधस्थानौ पवन्धाविवेति, तथा चोक्तम्- " संजोयसिद्धीऍ फलं वदन्ती' त्यादि, स्वतन्त्रप्रवृत्तौ तु न विवक्षितकार्य साधयत इत्येतच्च प्रसिद्धमेव यथा 'हयं णाण'मित्यादि, आगमेऽपि सर्वनयोपसंहारद्वारेणायमेवार्थोऽभिहितो, यथा- 'सैब्वेसिंपि णयाणं बहुविह्वत्तवयं णिसामेत्ता । तं सच्चणयविसुद्धं जं चरणगुणडिओ साहू ॥ १ ॥ त्ति', तदेतदाचाराङ्गं ज्ञानक्रियात्मकं अधिगतसम्यकूपधानां कुश्रुतसरित्कषायझपकुलाकुलं प्रियविप्रयोगाप्रियसंप्रयोगाद्यनेक व्यसनोपनिपात महावर्त्त मिथ्यात्वपवनेरणोपस्थापितभयशोकहा स्यरत्यरत्यादितरङ्गं विश्वसावेलाचितं व्याधिशतनक्रचक्रालयं महागम्भीरं भयजननं पश्यतां त्रासोत्पादकं महासंसारार्णवं साधूनामुत्तितीर्षतां तदुत्तरणसमर्थमव्याहतं यानपात्रमिति, अतो मुमुक्षुणाऽऽत्यन्तिकै कान्तिकानाबाधं शाश्वतमनन्तमजरममरमक्षयमन्यावाधमुपरतसमस्तद्वन्द्वं सम्यग्दर्शनज्ञानत्रतचरण क्रियाकलापोपेतेन परमार्थपरमकार्यमनुत्तमं मोक्षस्थानं लिप्सुना समालम्बनीयमिति तदात्मकस्य ब्रह्मचर्याख्यश्रुतस्कन्धस्य निर्वृतिकुलीनश्री शीलाचार्येण तत्त्वादित्या परनाम्ना वाहरिसाधुसहायेन कृता टीका परिसमाप्तेति । श्लोकतो ग्रन्थमानम् ॥ ९७६ ॥
१] संयोगसिद्धेः फलं वदन्ति (नैवैकचक्रेण रथः प्रयाति अन्य पक्ष बने समेल तो संप्रयुक्तो नगरं प्रविष्टौ ॥ १ ॥ २ इतं ज्ञानं धामपि नयानां बहुविधयां निशम्य तत्सर्व नवविशुद्धं यमचरणगुणस्थितः साधुः ॥ १ ॥
Ja Education intemational
For at Use Only
~348~
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [१.], अध्ययन [९], उद्देशक [४], मूलं [२२६/गाथा-१७],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
गाथा
द्वासप्तत्यधिकेषु हि शतेषु सप्तसु गतेषु गुप्तानाम् । संवत्सरेषु मासि च भाद्रपदे शुरू शीलाचार्येण कृता गम्भूतायां स्थितेन टीकैषा । सम्यगुपयुज्य शोध्यं मात्सर्यविनाकृतैरायः । कृत्वाऽऽचारस्य मया टीका यत्किमपि संचितं पुण्यम् । तेनामुयाजगदिदं नितिमतुला सदाचारम् ।। वर्णः पदमथ वाक्यं पधादि च यन्मया परित्यक्तम् । तच्छोधनीयमत्र च व्यामोहः कस्य नो भवति? ॥४॥
तत्त्वादित्यापराभिधानश्रीमच्छीलाचार्यविहिता वृत्तिब्रह्मचर्यश्रुतस्कन्धस्य आचाराङ्गस्य समाप्ता।
॥३१७॥
[१७]
दीप
अनुक्रम [३३४]
564
इति श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसंहधनियुक्तिसंकलिताचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धस्य वृत्तिः श्रीवाहरिगणिविहितसाहाय्यकेन श्रीशीलाङ्काचार्येण तत्त्वा
दित्यापराभिधानेन विहिताऽऽयाता संपूर्तिम् ।
।।३१७॥
JANEaication intamanand
EmpunamIAFTMatrumore
wwwjararam
प्रथम श्रुतस्कंध: परिसमाप्त:
~349~
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [२२६...],नियुक्ति: [२८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-[१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२२६/ गाथा
A
॥ अहम् ॥ • जयत्यनादिपर्यन्तमनेकगुणरत्नभूत् । न्यत्कृताशेषतीर्थेशं तीर्थ तीर्थाधिपैर्नुतम् ॥१॥ नमः श्रीवर्द्धमानाय, सदाचारविधायिने । प्रणताशेषगीर्वाणचूडारत्नार्चितहिये ॥२॥
आचारमेरोर्गदितस्य लेशतः, प्रवच्मि तोषिकचूलिकागतम् ।
आरिप्सितेऽर्थे गुणवान् कृती सदा, जायेत निःशेषमशेषितक्रियः ॥ ३॥ उक्तो नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मक आचारभुतस्कन्धः, साम्प्रतं द्वितीयोऽयश्रुतस्कन्धः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-उक्तं प्रागाचारपरिमाणं प्रतिपादयता, तद्यथा-"नबंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ ओ । हवह य सपंचचूलो बहुबहुअयरो पयग्गेणं ॥१॥" तत्राये श्रुतस्कन्धे नवब्रह्मचर्याध्ययनानि प्रतिपादितानि, तेषु चन समस्तोऽपि विवक्षितोऽर्थोऽभिहितः अभिहितोऽपि सद्धेपतोऽतोऽनभिहितार्थाभिधानाय सझेपोक्तस्य च प्रपश्चाय तदनभूताश्चतन्त्रशूडा उक्तानुक्तार्थसमाहिकाः प्रतिपाद्यन्ते, तदात्मकश्च द्वितीयोऽयश्रुतस्कन्धः, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या प्रतन्यते, तत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्याग्रनिक्षेपार्थं नियुक्तिकृदाह
१ "तविशेष. २ मतम् ३ वीरनाथाय ४ भये ५ नपब्रह्मचर्यमयोऽयदशापवसदनको मैदः । भनात न सपाचूलो बहुबातरः पदामेण ॥३॥
१७)
दीप अनुक्रम [३३४]
For more
Fora uwong
| अत्र द्वितीय श्रुतस्कंध आरभ्यते, .....[उपोद्घात गाथाएँ), प्रथम श्रुतस्कंधेन सह सम्बन्धस्य निरूपणं . प्रथम चूलिका आरब्धा,
~350~
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [२२६...],नियुक्ति: [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः
(शी०)
प्रत सूत्रांक [२२६/ गाथा१७]
॥३१८॥
दबोगाहण आएस काल कमगणणसंचए भावे । अग्गं भावे उ पहाणयदुर्य उवगारओ तिविहं ॥४॥ श्रुतस्कं०२ तत्र द्रव्यानं द्विधा-आगमतो नोआगमत इत्यादि भणित्वा व्यतिरिक्त विधा-सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्यस्य वृक्षकुन्ता
उपक्रमः || देयंदप्रमिति, अवगाहनानं यद्यस्य द्रव्यस्याधस्तादवगाद तदवगाहना, तद्यथा-मनुष्यक्षेत्रे मन्दरवर्जानां पर्वतानामु-18 |च्छ्रयचतुर्भागो भूमाववगाढ इति मन्दराणां तु योजनसहनमिति, आदेशाग्रम् आदिश्यत इत्यादेशः-व्यापारनियोजना, अपशब्दोऽत्र परिमाणवाची, ततश्च यत्र परिमितानामादेशो दीयते तदादेशाग्रं, तद्यथा-त्रिभिः पुरुषैः कर्म कारयति तान् वा भोजयतीति, कालाग्रम्-अधिकमासकः, यदिवाऽनशब्दः परिमाणवाचकस्तत्रातीतकालोऽनादिरनागतोऽनन्तः सर्वाद्धावा, क्रमाग्रं तु क्रमेण-परिपाट्याऽय क्रमानं, एतद् द्रव्यादि चतुर्विध, तत्र द्रव्याग्रमेकाणुकाद् व्यणुकं दूधणुकाद् त्र्यणुकमित्येवमादि । क्षेत्राग्रम्-एकप्रदेशावगाढाद् द्विप्रदेशावगाई, द्विप्रदेशावगाढात्रिप्रदेशावगाढमित्यादि । कालाममेकसमयस्थितिकाद् द्विसमयस्थितिकं द्विसमयस्थितिकात्रिसमयस्थितिकमित्यादि, भावाप्रमेकगुणकृष्णाद् द्विगुणकृष्णं द्विगुणकृष्णात्रिगुणकृष्णमित्यादि, गणना तु सङ्ख्याधर्मस्थानात्स्थानं, दशगुणमित्यर्थः, तद्यथा-एको दश शतं सहस्रमित्यादि, सञ्चयानं तु सञ्चितस्य द्रव्यस्य यदुपरि तत्सञ्चयागं, यथा साम्रोपस्करस्य सथितस्योपरि शङ्कः, भावाग्रं तु त्रिविध-प्रधानामं १ प्रभूतानम् २ उपकारामं ३ च, तत्र प्रधानाग्रं सचित्तादि विधा, सचित्तमपि द्विपदा|दिभेदानिधैव, तत्र द्विपदेषु तीर्थकरश्चतुष्पदेषु सिंहः अपदेषु कल्पवृक्षः, अचित्तं वैडूर्यादि मिनं तीर्थकर एवालङ्कृत
दीप
अनुक्रम [३३४]
॥३१८॥
अत्र निर्युक्ते: क्रमस्य मुद्रण-शुद्धिः न दृश्यते..... [यहाँ नियुक्ति के क्रममें ४,...५,...६,... इत्यादि लिखा है, ये गलती है, ये क्रमांक- २८५,...२८६,...२८७,.. इत्यादि होना चाहिए क्योंकि पिछला नियुक्ति क्रम २८४ था, और आगे जाकर इसी सम्पादनमें द्वितीय अध्ययन से नियुक्ति गाथा क्रम २९८ से आरम्भ होता है |
~3514
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [२२६...],नियुक्ति: [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२२६/ गाथा
*
इति, प्रभूतानं त्यापेक्षिक, तद्यथा-"जीवा पोग्गल समया दव पएसा य पजवा चेव । थोवाणताणता विसेसभहिया दुवे पंता॥ १॥" अत्र च यथोत्तरमग्रं, पर्यायानं तु सर्वाग्रमिति, उपकाराग्रं तु यत्पूर्वोक्तस्य विस्तरतोऽनुक्तस्य च प्रतिपादनादुपकारे वर्तते तद् यथा दशकालिकस्य चूडे, अयमेव वा श्रुतस्कन्ध आचारस्येत्यतोऽत्रोपकाराप्रेणाधिकार | इति ॥ आह च नियुक्तिकारः
उबयारेण उ पगयं आयारस्सेव उवरिमाइं तु । रुक्खस्स य पब्वयस्स य जह अम्गाई तहेयाइं ॥५॥ I उपकाराप्रेणात्र प्रकतम-अधिकार: यस्मादेतान्याचारस्यैवोपरि वर्तन्ते, तदुक्तविशेषवादितया तत्संबद्धानि, यथा वृक्ष-18 पर्वतादेरमाणीति । शेषाणि त्वग्राणि शिष्यमतिव्युत्पत्यर्थमस्य चोपकाराग्रस्य सुखप्रतिपत्त्यर्थमिति, तदुक्तम्-"पचारि
अस्स सरिसं जं केणइस परूवए विहिणा । जेणऽहिगारो तंमि उ परूविए होइ सुहगेज्झं ॥१॥" तत्रेदमिदानीं छावाच्यं-केनैतानि निर्मूढानि ? किमर्थं ? कुतो वेति ?, अत आह
थेरेहिष्णुग्गहहा सीसहि होउ पागडत्थं च । आयाराओ अत्थो आयारंगेसु पविभत्तो ॥६॥ 'स्थविरैः' श्रुतवृद्धश्चतुर्दशपूर्वविद्भिनिढानीति, किमर्थं !, शिष्यहितं भवत्वितिकृत्वाऽनुग्रहार्थ, तथाऽप्रकटोऽर्थः।
जीवाः पुदला: समयाः (कालिकाः) व्याणि प्रदेशाष पर्यवाव । सरकाः अनन्तगुणा अनन्तगुणा विशेषाधिकाः दयेऽनन्ताः (अनन्तगुणाः अनन्तगुणाः) भा.सू. ५४
Follu0॥२ गाथायां पञ्जवा इसनेनोपातं. ३ उचारितस्य सरयां यत्केनचित् तत् प्ररूप्यते विधिना । येनाधिकारस्तस्मिस्तु प्ररूपिते भवति मुखमालाम् ॥१॥
*
04-
दीप अनुक्रम [३३४]
-
-
4
a
%
अत्र निर्युक्ते: क्रमस्य मुद्रण-शुद्धिः न दृश्यते..... [यहाँ नियुक्ति के क्रममें ४,...५,...६,... इत्यादि लिखा है, ये गलती है, ये क्रमांक- २८५,...२८६,...२८७,.. इत्यादि होना चाहिए क्योंकि पिछला नियुक्ति क्रम २८४ था, और आगे जाकर इसी सम्पादनमें द्वितीय अध्ययन से नियुक्ति गाथा क्रम २९८ से आरम्भ होता है |
~352
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2| “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [२२६...],नियुक्ति: [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२२६/
गाथा
१७]
श्रीआचा- प्रकटो यथा स्यादित्येवमर्थ च, कुतो नियूढानि?, आचारात्सकाशात्समस्तोऽप्यर्थ आचाराग्रेषु विस्तरेण प्रविभक्त इति श्रुतस्क०२ रावृत्तिः साम्प्रतं यद्यस्मानियूढं तद्विभागेनाचष्ट इति
उपोद्घातः (शी०)
विइअस्स य पंचमए अट्ठमगस्स विदयंमि उद्देसे । भणिओ पिंडो सिज्जा वत्थं पाजग्गहो चेव ॥७॥ १३१९।।
पंचमगस्स चउत्थे इरिया वणिजई समासेणं । छट्ठस्स य पंचमए भासजायं वियाणाहि ॥८॥ सत्तिकगाणि सत्तवि निजूदाई महापरिन्नाओ । सत्थपरिन्ना भावण निज्जूढा उ धुप विमुत्ती ॥९॥ आयारपकप्पो पुण पञ्चक्खाणस्स तइयवत्थूओ। आयारनामधिजा वीसइमा पाहुडच्छेया ॥१०॥ ब्रह्मचर्याध्ययनानां द्वितीयमध्ययनं लोकविजयाख्यं, तत्र पञ्चमोद्देशक इदं सूत्रम्-"सम्वामगंध परिमाय निरा-12 मगंधो परिष्वए" तत्रामग्रहणेन हननाद्यास्तिस्रः कोव्यो गृहीता गन्धोपादानादपरास्तिस्रः, एताः षडप्यविशोधिकोव्यो। गृहीताः, ताश्चमा:-स्वतो हन्ति घातयति नन्तमन्यमनुजानीते, तथा पचति पाचयति पचन्त (मन्य) मनुजानीत इति, तथा
तत्रैव सूत्रम्-"अदिस्समाणो कयविकरहिं"ति, अनेनापि तिस्रो-विशोधिकोव्यो गृहीताः, ताश्चेमा:-क्रीणाति कापयति हाकीणन्तमन्यमनुजानीते, तथाऽष्टमस्य-विमोहाध्ययनस्य द्वितीयोद्देशक इदं सूत्रम्-"भिक्खू परक्कमेज्जा चिडेज वा
४ ॥३१९॥ निसीएज वा तुयट्टिज वा सुसाणंसि वे"त्यादि यावद् "बहिया विहरिजा तं भिक्खं गाहावती उबसंकमित्तु वएजाअहमाउसंतो समणा! तुन्भहाए असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारम्भ
दीप अनुक्रम [३३४]
अत्र निर्युक्ते: क्रमस्य मुद्रण-शुद्धिः न दृश्यते..... [यहाँ नियुक्ति के क्रममें ४,...५,...६,... इत्यादि लिखा है, ये गलती है, ये क्रमांक- २८५,...२८६,...२८७,.. इत्यादि होना चाहिए क्योंकि पिछला नियुक्ति क्रम २८४ था, और आगे जाकर इसी सम्पादनमें द्वितीय अध्ययन से नियुक्ति गाथा क्रम २९८ से आरम्भ होता है |
~353~
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२२६/
गाथा
१७]
दीप
अनुक्रम
[३३४]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [२२६...], निर्युक्तिः [१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
समुद्दिस्स कीयं पामिच्च" मित्यादि, एतानि सर्वाण्यपि सूत्राण्याश्रित्यैकादश पिण्डेपणा निर्यूढाः, तथा तस्मिन्नेव द्वितीयाध्ययने पञ्चमोद्देशके सूत्रम् - "से वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंडणं उग्गहं च कडासण" मिति, तत्र वखकम्बलपादपुञ्छनग्रहणाद् वस्त्रैषणा निर्यूढा, पतग्रहपदात् पात्रैषणा निर्यूढा, अवग्रह इत्येतस्मादवग्रहप्रतिमा निर्यूढा, कटासनमित्येतस्माच्छय्येति, तथा पञ्चमाध्यायनावन्त्याख्यस्य चतुर्थोद्देशके सूत्रम् - "गामाणुगामं दूइजमाणस्स दुजायं दुष्परिकंतं" इत्यादिनेर्या सङ्क्षेपेण व्यावर्णितेत्यत एव ईर्याध्ययनं निर्यूहम्, तथा षष्ठाध्ययनस्य धूताख्यस्य पचमोद्देशके सूत्रम् - " आइक्खइ बियर किइ धम्मकामी” त्येतस्माद्भाषाजाताध्ययनमाकृष्टमित्येवं विजानीयास्त्वमिति । तथा महापरिज्ञाध्ययने सप्तोदेशकास्तेभ्यः प्रत्येकं सप्तापि सकका निर्यूढाः, तथा शस्त्रपरिज्ञाध्ययनाद्भावना निर्यूढा, तथा धूताध्ययनस्य द्वितीयचतुर्थोदेशकाभ्यां विमुक्त्यध्ययनं निर्यूडमिति, तथा 'आचारप्रकल्पः' निशीथः, सच प्रत्याख्यानपूर्वस्य यतृतीयं वस्तु तस्यापि यदाचाराख्यं विंशतितमं प्राभृतं ततो निर्यूड इति ॥ ब्रह्मचर्याध्ययनेभ्य आचाराम्राणि निर्यूढान्यतो निर्यूहनाधिकारादेव तान्यपि शस्त्रपरिज्ञाध्ययनान्निर्यूढानीति दर्शयति
अबोगडो उ भणिओ सत्यपरिन्नाय दंडनिक्खेवो । सो पुण विभज्नमाणो तहा तहा होइ नायव्वो ॥ ११ ॥ 'अव्याकृतः' अव्यक्तोऽपरिस्फुट इतियावत् 'भणितः' प्रतिपादितः कोऽसी -- 'दण्ड निक्षेपः' दण्डः - प्राणिपीडालक्षणस्तस्य निक्षेपः-परित्यागः संयम इत्यर्थः, स च शस्त्रपरिज्ञायामव्यक्तोऽभिहितो यतस्तेन पुनः विभज्यमानः अष्टस्वप्यध्ययनेष्वसावेव तथा तथा अनेकप्रकारो ज्ञातव्यो भवतीति ॥ कथं पुनरयं संयमः सङ्क्षेपाभिहितो विस्तार्यते ? इत्याह
Eucation International
For Pernal Use On
wor
अत्र निर्युक्तेः क्रमस्य मुद्रण-शुद्धिः न दृश्यते ......
[यहाँ निर्युक्ति के क्रममें ४, ५, ६, इत्यादि लिखा है, ये गलती है, ये क्रमांक- २८५, २८६, २८७.. इत्यादि होना चाहिए क्योंकि पिछला निर्युक्ति क्रम २८४ था, और आगे जाकर इसी सम्पादनमें द्वितीय अध्ययन से नियुक्ति गाथा क्रम २९८ से आरम्भ होता है ।
~354~
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], अध्ययन [-], उद्देशक [H], मूलं [२२६...],नियुक्ति: [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा
श्रुतस्कं०२
राङ्गवृत्तिःला
सूत्रांक
GAHAR
उपोद्घातः
[२२६/ गाथा
(शी०) ॥३२॥
१७
एगविहो पुण सो संजमुत्ति अज्झत्थ बाहिरो यदुहा । मणवयणकाय तिविहो चउन्विहो चाउजामो ॥१२॥ पंच य महव्वयाई तु पंचहा राइभोअणे छट्ठा । सीलंगसहस्साणि य आयरिस्सप्पवीभागा ॥१३॥
अविरतिनिवृत्तिलक्षण एकविधः संयमः, स एवाध्यात्मिकबाह्यभेदाद् द्विधा भवति, पुनर्मनोवाकाययोगभेदानिविधः, स एव चतुर्यामभेदाचतुओं, पुनः पञ्चमहावतभेदात्पञ्चधा, रात्रीभोजनविरतिपरिग्रहाच पोढा, इत्यादिकया प्रक्रियया भिद्यमानो यावदष्टादशशीलाङ्गसहस्रपरिमाणो भवतीति ।। किं पुनरसी संयमस्तत्र तत्र प्रवचने पञ्चमहाव्रत-|| रूपतया भिद्यते ? इत्याह
आइक्खिउं विभइ विना चेव सुहतरं होई । एएण कारणेणं महब्बया पंच पन्नत्ता ॥ १४ ॥ संयमः पश्चमहात्रतरूपतया व्यवस्थापितः सन्नाख्यातुं विभक्तुं विज्ञातुं च सुखेनैव भवतीत्यतः कारणारंपञ्चमहानतानि प्रज्ञाप्यन्ते ॥ एतानि च पच महाव्रतानि अस्खलितानि फलवन्ति भवन्त्यतो रक्षायलो विधेयस्तदर्थमाह
तेसिं च रक्खणट्ठा य भावणा पंच पंच इकिक्के । ता सत्यपरिन्नाए एसो अभितरो होई ॥१५॥ हा 'तेषां च' महानतानामेकैकस्य तद्वृत्तिकल्पाः पञ्च पञ्च भावना भवन्ति, ताश्च द्वितीयाग्रश्रुतस्कन्धे प्रतिपाद्यन्तेऽतोऽयं शत्रपरिज्ञाध्ययनाभ्यन्तरो भवतीति ॥ साम्प्रतं चूडानां यथास्वं परिमाणमाहजावोग्गहपडिमाओ पढमा सत्तिकगा बिहअचूला। भावण विमुत्ति आयारपकप्पा तिन्नि इअ पंच ॥१६॥ १ अहारसगस्त निष्फत्ती प्र. एसो उ अब्भन्तरो होइ प्र.
अनुक्रम [३३४]
ASENACASS
|| ३२०॥
अत्र निर्युक्ते: क्रमस्य मुद्रण-शुद्धिः न दृश्यते..... [यहाँ नियुक्ति के क्रममें ४,...५,...६,... इत्यादि लिखा है, ये गलती है, ये क्रमांक- २८५,...२८६,...२८७,.. इत्यादि होना चाहिए क्योंकि पिछला नियुक्ति क्रम २८४ था, और आगे जाकर इसी सम्पादनमें द्वितीय अध्ययन से नियुक्ति गाथा क्रम २९८ से आरम्भ होता है |
~3554
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१],नियुक्ति: [१६/२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
*-%
84-%
%
दीप
BI पिण्डैषणाध्ययनादारभ्यावग्रहमतिमाध्ययनं यावदेतानि सप्ताध्ययनानि प्रथमा चूडा, सप्तसप्तैकका द्वितीया, भावना
तृतीया, विमुक्तिश्चतुर्थी, आचारप्रकल्पो निशीथः, सा च पञ्चमी चूडेति । तत्र चूडाया निक्षेपो नामादिः पडियः, नाम| स्थापने क्षुण्णे, द्रव्यचूडा व्यतिरिक्ता सचित्ता कुकुंटस्य अचित्ता मुकुटस्य चूडामणिः मिश्रा मयूरस्य, क्षेत्रचूडा लोकनिष्कुटरूपा, कालचूडाऽधिकमासकस्वभावा, भावचूडा त्वियमेव, क्षायोपशमिकभाववर्तित्वात् । इयं च सप्ताध्ययनामिका, तत्राद्यमध्ययनं पिण्डैषणा, तस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे पिण्डैषणाऽध्ययनं, तस्य निक्षेपद्वारेण सर्वा पिण्डनियुक्तिरत्र भणनीयेति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अगुपविठू समाणे से जं पुण जाणिजा-असणं वा पाणं वा साइमं वा साइमं वा पाणेहिं वा पणगेहिं वा बीपहिं बा हरिएहि वा संसप्तं उम्मिरस सीओदएण वा ओसित्तं रयसा वा परिचोसियं वा तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं या परहत्थंसि वा परपायसि वा अफासुयं अणेसणिअंति मन्नमाणे लाभेऽवि संते नो पडिग्गाहिजा ।। से य आहच पडिग्गहे सिया से तं आयाय एर्गतमवकमिजा, एगंतमवकमित्ता अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे अप्पपाणे अप्पवीए अप्पहरिए अप्पोसे अपुदए अप्पुलिंगपणगद्गमट्टियमकाडासंताणए विगिंचिय २ उम्मीसं विसोहिय २ तओ संजयामेव अँजिज वा पीइज्ज वा, जं च नो संचाइमा भुत्तए वा पायए वा से तमावाय एगंतमवक्कमिजा, अहे झामथंडिलंसि वा अद्विरासिंसि वा किट्टरासिसि वा तुसरा१ परिवासियं प्र. एवं वृत्तावपि प्र.
%
अनुक्रम [३३५]
%%%
%
CROS
अत्र नियुक्ति-क्रम १६/२९७ दृश्यते,......[ यहाँ हमने १६/२९७ ऐसा इसीलिए लिखा है कि--- इस प्रतके सम्पादनमे भूलसे १६ लिखा है, मगर आगे पीछे के क्रम को जोड़कर देखा तो यहाँ आखरी नियुक्ति का क्रम २९७ ही होता है, (हमारे अपने सम्पादन “आगम सत्ताणि सटिक "में हमने नियुक्ति का क्रम सुधार कर नया क्रम दे दिया •प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा" आरब्धं
~3564
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
ॐ
दीप
श्रीआचा- सिसि वा गोमयरासिसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि पडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय पमजिय तो संज- श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः थामेव परिदृविजा ।। (सू०१)
चूलिका १ (शी०) 'से' इति मागधदेशीवचनतः प्रथमान्तो निर्देशे वर्त्तते, यः कश्चिद्भिक्षणशीलो भावभिक्षुर्मूलोत्तरगुणधारी विवि
पिण्डेप०१
| उद्देशः१ धाभिग्रहरतः 'भिक्षुणी वा' साध्वी, स भावभिक्षुर्वेदनादिभिः कारणराहारग्रहणं करोति, तानि चामूनि-"वेअण १४ ॥३२१॥
|वेआवच्चे २ इरियडाए य ३ संजमाए ४ । तह पाणवत्तियाए ५ छह पुण धम्मचिंताए ६ ॥१॥" इत्यादि, अमीषां मध्येऽन्यतमेनापि कारणेनाहारार्थी सन् गृहपतिः-गृहस्थस्तस्य कुलं-गृहं तदनुप्रविष्टः, किमर्थं ?-'पिंडवायपडियाए'त्ति पिण्डपातो-भिक्षालाभस्तत्प्रतिज्ञया-अहमन्न भिक्षा लप्स्य इति, स प्रविष्टः सन् यत्पुनरशनादि जानीयात् , कथमिति दर्शयति-प्राणिभिः' रसजादिभिः 'पनकैः' उल्लीजीवैः संसक्तं 'बीजैः' गोधूमादिभिः 'हरितैः' दूर्वाङ्करादिभिः 'उन्मिनं' शबलीभूतं, तथा शीतोदकेन वा 'अवसिक्तम्' आर्द्राकृतं 'रजसा वा' सचित्तेन 'परिघासियंति परिगुण्डितं, कियद्वा वक्ष्यति ? 'तथाप्रकारम्' एवंजातीयमशुद्धमशनादि चतुर्विधमप्याहारं 'परहस्ते' दातृहस्ते परपात्रे वा स्थितम् 8 |'अप्रासुक' सचित्तम् 'अनेषणीयम्' आधाकर्मादिदोषदुष्टम् 'इति' एवं मन्यमानः 'स' भावभिक्षुः सत्यपि लाभे KIन प्रतिगृह्णीयादित्युत्सर्गतः, अपवादतस्तु द्रव्यादि ज्ञात्वा प्रतिगृह्णीयादपि, तत्र द्रव्यं दुर्लभद्रव्यं क्षेत्रं साधारण-18 द्रव्यलाभरहितं सरजस्कादिभावितं वा कालो दुर्भिक्षादिः भावो ग्लानतादिः, इत्यादिभिः कारणैरुपस्थितैरल्पबहुत्वं ॥ ३२१ ॥
१वेदना वैयावत्वं इयर्थि च संयमार्थ च । तथा प्राणप्रत्ययाय प पुनधर्मचिन्तायै ॥ १॥
अनुक्रम [३३५]
| प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", प्रथम-उद्देशक: आरब्ध:
~357~
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[3]
दीप
अनुक्रम [३३५ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१], निर्युक्तिः [२९७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
Eucation International
पर्यालोच्य गीतार्थी गृह्णीयादिति ॥ अथ कथञ्चिदनाभोगात्संसक्तमागामिसत्त्वोन्मिश्रं वा गृहीतं तत्र विधिमाह'से आह चे 'त्यादि स च भावभिक्षुः 'आहच्चे 'ति सहसा संसक्तादिकमाहारजातं कदाचिदना भोगात्प्रतिगृह्णीयात् स चानाभोगो दातृप्रतिगृहीतृपदद्वयाच्चतुर्धा योजनीय इति 'तम्' एवंभूतमशुद्धमाहारमादायैकान्तम् 'अपक्रामेत्' गच्छेत् तं 'अपक्रम्य, गत्वेति । यत्र सागारिकाणामनालोकमसम्पातं च भवति तदेकान्तमनेकधेति दर्शयतिअधारामे वा अथोपाश्रये वा अथशब्दोऽनापातविशिष्टप्रदेशोपसन्नहार्थः, वाशब्दो विकल्पार्थः शून्यगृहाद्युपसङ्ग्र हार्थो वा, तद्विशिनष्टि- 'अल्पाण्डे' अल्पशब्दोऽभाववचनः, अपगताण्ड इत्यर्थः एवमल्पवीजेऽल्पहरिते 'अल्पाव श्याये' अवश्याय उदकसूक्ष्मतुपारः, अल्पोदके, तथा 'अल्पोत्तिङ्गपनकदगमृत्तिकामर्कटसन्तानके' तत्रोत्तिङ्गस्तृणाउदकबिन्दुः [ भुञ्जीतेत्युत्तरक्रियया सम्बन्धः ] पनकः-उल्लीविशेषः, उदकप्रधाना मृत्तिका उदकमृत्तिकेति, मर्कटः-सूक्ष्मजीवविशेषस्तेषां सन्तानः, यदिवा मर्कटकसन्तानः - कोलियकः, तदेवमण्डादिदोषरहिते आरामादिके स्थण्डिले गत्वा प्राग्गृहीताहारस्य यत्संसक्तं तद् 'विविच्य विविच्य' त्यक्त्वा त्यक्त्वा, क्रियाऽभ्यावृत्त्याऽशुद्धस्य परित्यागनिःशेषतामाह, 'उन्मिश्रं वा' आगामुकसत्त्वसंवलितं सक्तुकादि ततः प्राणिनः 'विशोध्य विशोध्य' अपनीयापनीय 'ततः' तदनन्तरं शेषं शुद्धं परिज्ञाय सम्यग्यत एव भुञ्जीत पिवेद्वा रागद्वेषविप्रमुक्तः सन्निति, उक्तश्च - "बायालीसेसणसंकर्डमि
१ द्वाचत्वारिंशदेषणासंकटे गहने जीव ! नैव छलितः । इदानीं यथा न छत्यसे भुजन् रागद्वेषाभ्यां ( तथा प्रवर्तस्व ) ॥ १ ॥ रागेण साहारं द्वेषेण सधूमक विजानीहि रागद्वेषविमुक्तो मुञ्जीत वा निर्जराप्रेक्षी ॥ २ ॥
For Parts Only
~358~
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- रामवृत्तिः (शी०) ।। ३२२॥
दीप
गहणमि जीव ! ण हु छलिओ । इण्हि जह न छलिजसि भुंजतो रागदोसेहिं ॥ १॥ रागेण सइंगालं दोसेण सधूमगं श्रुतस्कं०२ वियाणाहि । रागहोसविमुक्को भुंजेज्जा निजरापेही ॥२॥" यच्चाहारादिकं पातुं भोक्तुं वा न शक्नुयात्प्राचुर्यादशुद्ध- चूलिका १ ४ पृथक्करणासम्भवाद्वा स भिक्षुः 'तद्' आहारजातमादायकान्तमपक्रामेत् , अपक्रम्य च तदाहारजातं 'परिष्ठापयेत्' त्यजे- पिण्डैष०१ दिति सम्बन्धः, यत्र च परिष्ठापयेत्तदर्शयति-'अर्थ' आनन्तार्थे वाशब्द उत्तरापेक्षया विकल्पार्थः 'झामेति दग्धं उद्देशः१ तस्मिन् वा स्थण्डिलेऽस्थिराशी वा किट्टो-लोहादिमलस्तद्राशौ वा तुषराशी वा गोमयराशी वा, कियद्वा वक्ष्यते इत्यु-3 पसंहरति-अन्यतरराशी वा 'तथाप्रकारे पूर्वसदृशे प्रामुके स्थण्डिले गत्वा तत् प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य अक्षणा प्रमृज्य २|| रजोहरणादिना, अत्रापि द्विवचनमादरख्यापनार्थमिति, प्रत्युपेक्षणप्रमार्जनपदाभ्यां सप्त भङ्गका भवन्ति, तद्यथा-अ-11 प्रत्युपेक्षितमप्रमार्जितम् १, अप्रत्युपेक्षितं प्रमार्जितं २, प्रत्युपेक्षितमप्रमार्जितं ३, तत्राप्यप्रत्युपेक्ष्य प्रमृजन स्थानात्स्थानसङ्क्रमणेन ब्रसान् विराधयति, प्रत्युपेक्ष्याप्यप्रमृजन्नागन्तुकपृथ्वीकायादीन् विराधयतीति, चतुर्थभङ्गके तु चत्वारोऽमी, तद्यथा-दुष्प्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं ४, दुष्प्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितं ५, सुप्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं ६, सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितमिति ७, स्थापना । तत्रैवंभूते सप्तमभङ्गायाते स्थण्डिले 'संयत एवं' सम्यगुपयुक्त एव शुद्धाशुद्धपुञ्जभागपरिकल्पनया 'परिष्ठापयेत्' त्यजेदिति ॥ साम्प्रतमौषधिविषयं विधिमाह
से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावइ जाव पविढे समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिजा-कसिणाओ सासियाओ अविदलकढाओ अतिरिच्छच्छिन्नाओ अबुरिछण्णाओ तरुणियं वा छिवाहिँ अणभितभजिय पैहाए अफासुयं अणेसणि
अनुक्रम [३३५]
॥३२२॥
~359~
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२]
दीप
अनुक्रम [३३६]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], निर्युक्तिः [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
अंति मन्त्रमाणे लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा ।। से भिक्खू वा० जाव पविट्ठे समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिजा-अकसिणाओ असासियाओ विदुलकडाओ तिरिच्छच्छिन्नाओ बुच्छिन्नाओ तरुणियं वा छिवाडिं अभिकतं भज्जियं पेहाए फासुयं एसणिति मन्नमाणे लाभे संते पडिग्गाहिला ॥ ( सू० २ )
भावभिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् याः पुनः “औषधीः " शालिवीजादिकाः एवंभूता जानीयात्, तद्यथा - 'कसि - णाओ'त्ति 'कृत्स्नाः' सम्पूर्णा अनुपहताः, अत्र च द्रव्यभावाभ्यां चतुर्भङ्गिका, तत्र द्रव्यकृत्स्ना अशस्त्रोपहताः, भावकृत्स्नाः सचित्ताः, तत्र कृत्स्ना इत्यनेन चतुर्भङ्गकेष्वाद्यं भङ्गत्रयमुपात्तं, 'सासियाओत्ति, जीवस्य स्वाम्-आत्मीयामुत्यत्तिं प्रत्याश्रयो यासु ताः स्वाश्रयाः, अविनष्टयोनय इत्यर्थः आगमे च कासाशिदौषधीनामविनष्टो योनिकालः पठ्यते, तदुक्तम् - " एतेसि णं भंते! सालीणं केवइअं कालं जोणी संचिइ ?” इत्याद्यालापकाः, 'अविदलकडाओ'त्ति न द्विदलकृताः अद्विदलकृताः, अनूर्ध्वपाटिता इत्यर्थः, 'अतिरिच्छच्छिन्नाओ' त्ति तिरश्चीनं छिन्नाः कन्दलीकृतास्तत्प्रतिषेधादतिरश्चीनच्छिन्नाः, एताश्च द्रव्यतः कृत्स्ना भावतो भाज्याः, 'अब्बोच्छिन्नाओ'त्ति व्यवच्छिन्ना-जीवरहिता न व्यवच्छिन्नाः अव्यवच्छिन्नाः, भावतः कृत्स्ना इत्यर्थः, तथा 'तरुणियं वा छिवाडिं'ति, "तरुणीम्' अपरिपक्कां 'छिवाडि न्ति मुद्गादेः फलिं, तामेव विशिनष्टि - 'अणभिकतभजियन्ति, नाभिक्रान्ता जीविताद् अनभिक्रान्ता, सचेतनेत्यर्थः, 'अभजियं' | अभग्नाम्-अमर्दितामविराधितामित्यर्थः इति 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वा तदेवंभूतमाहारजातमप्रासुकमनेषणीयं वा मन्यमानो लाभे १ एतेषां भदन्त शालीनां कियन्तं कालं योनिः संतिष्ठति
Education Internationa
For Parts Only
~360~
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२], नियुक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
ॐ
(सी)
दीप अनुक्रम [३३६]
श्रीआचा- & सति न प्रतिगृह्णीयात् । साम्प्रतमेतदेव सूत्रं विपर्ययेणाह-स एव भावभिक्षुर्याः पुनरौषधीरेवं जानीयात् , तद्यथा-'अ- श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः कृत्स्नाः' असम्पूर्णा द्रव्यतो भावतश्च पूर्ववचर्चः, 'अस्वाश्रयाः' विनष्टयोनयः, 'द्विदल कृता' ऊर्ध्वपाटिताः 'तिर
श्चीनच्छिन्नाः' कन्दलीकृताः तथा तरुणिकां वा फली जीवितादपक्रान्ता भन्नां चेति, तदेवंभूतमाहारजातं प्रासुक-1 पिण्डेष०१ मेषणीयं च मन्यमानो लाभे सति कारणे गृह्णीयादिति ॥ ग्राह्याग्राह्याधिकार एवाहारविशेषमधिकृत्याह
उद्देशः१ ॥३२३ ॥
से भिक्खू वा. जाप समाणे से जं पुण जाणिज्जा-पिहुयं वा बहुरयं वा भुंजियं वा मंथु वा चाउल वा चाउलपलंबं वा सई संभजियं अफामुयं जाव नो पडिगाहिज्जा ।। से भिक्खू बा० जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा-पिहुयं वा जाव चाउलपलंब
वा असई भजियं दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा भज्जियं फासुयं एसणिजं जाव पढिगाहिज्जा ।। (सू०३)
स भावभिक्षुहपतिकुलं प्रविष्टः सन् इत्यादि पूर्ववद्यावत् 'पिहुयं वत्ति पृथुकं जातावेकवचनं नवस्य शालिनीह्या४ देरग्निना ये लाजाः क्रियन्ते त इति, बहु रजा-तुषादिकं यस्तिद्वहुरजः, 'भुजिय'न्ति अग्यद्धपक्कं गोधूमादेः शीर्षक
मन्यद्वा तिलगोधूमादि, तथा गोधूमादेः 'मन्धुं' चूर्ण तथा 'चाउलाः' तन्दुलाः शालिबीह्यादेः त एव चूर्णीकृता-IN स्तत्कणिका वा चाउलपलंबंति, तदेवंभूतं पृथुकाद्याहारजातं सकृद् एकवारं 'संभजिय'ति आमदितं किञ्चिदग्निना किश्चिदपरशस्त्रेणापासुकमनेषणीयं मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् ॥ एतद्विपरीतं ग्राह्यमित्याह-पूर्ववत् , नवरं यदसकृद्-अनेकशोऽज्यादिना पक्वमामर्दितं वा दुष्पक्वादिदोषरहितं प्रासुकं मन्यमानो लाभे सति गृह्णीयादिति ॥6॥३२३ ॥ साम्प्रतं गृहपतिकुलप्रवेशविधिमाह
~ 361~
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[४]
दीप
अनुक्रम
[३३८]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४], निर्युक्तिः [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
%% *% *
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहाबदकुलं जाव पविसितकामे नो अन्नउत्थियण या गारत्थियण वा परिहारिओ वा अपरिहारिएणं सद्धिं गाहाबइकुलं पिंढवायपडियाए पविसिज्ज वा निक्खमिज्ज वा ।। से भिक्खू वा० बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खममाणे वा पविसमाणे वा नो अन्नउत्थिरण वा गारत्थिएण वा परिहारिओ वा अपरिहारिएण सद्धिं बहिया बियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खभिज वा पविसिन वा ।। से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइजमाणे नो अन्नउत्थिएण बा जाव गामाणुगामं दूइबिजा ॥ ( सू० १४ )
स भिक्षुर्यापतिकुल प्रवेष्टुकाम एभिर्वक्ष्यमाणैः सार्द्धं न प्रविशेत् प्राक् प्रविष्टो वा न निष्क्रामेदिति सम्बन्धः । यैः सह न प्रवेष्टव्यं तान् स्वनामग्राहमाह - तत्रान्यतीर्थिकाः - सरजस्कादयः 'गृहस्थाः पिण्डोपजीविनो धिगूजातिप्रभृतयः, तैः सह प्रविशताममी दोषाः, तद्यथा-ते पृष्ठतो वा गच्छेयुरग्रतो वा तत्राप्रतो गच्छन्तो यदि साध्वनुवृत्त्या गच्छेयुस्ततस्तत्कृत ईर्याप्रत्ययः कर्मबन्धः प्रवचनलाघवं च तेषां वा स्वजात्याद्युत्कर्ष इति, अथ पृष्ठतस्ततस्तत्पद्वेषो दातुर्वाSभद्रकस्य, लाभं च दाता संविभज्य दद्यात्तेनायमौदर्यादी दुर्भिक्षादों प्राणवृत्तिर्न स्यादित्येवमादयो दोषाः, तथा परिहरणं - परिहारस्तेन चरति पारिहारिक:- पिण्डदोषपरिहरणादुद्युक्तविहारी साधुरित्यर्थः, स एवंगुणकलितः साधुः 'अपरिहारिकेण' पार्श्वस्यावसन्नकुशीलसंसकयथाच्छन्दरूपेण न प्रविशेत् तेन सह प्रविष्टानामनेषणीय भिक्षाग्रहणाग्रहणकृता दोषाः, तथाहि -अनेषणीयग्रहणे तत्प्रवृत्तिरनुज्ञाता भवति, अग्रहणे तैः सहासङ्घडादयो दोषाः, तत एतान् दोषान् ज्ञात्वा साधुर्गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया तैः सह न प्रविशेनापि निष्क्रामेदिति ॥ तैः सह प्रसङ्गतोऽम्य
For Parts Only
~362~
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [४], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रुतस्क०२ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्देशः १
॥३२४॥
दीप अनुक्रम [३३८]
श्रीआचा- त्रापि गमन प्रतिषेधमाह-स भिक्षुर्बहिः 'विचारभूमि' सज्ञाच्युत्सर्गभूमि तथा 'विहारभूमि स्वाध्यायभूमि तैरन्यती- रामवृत्तिःक्षार्थिकादिभिः सह दोषसम्भवान प्रविशेदिति सम्बन्धः, तथाहि-विचारभूभौ पासुकोदकस्वच्छास्वच्छवह्वल्पनिर्लेपनकृतो- (शी०) पघातसद्भावाद्, विहारभूमौ वा सिद्धान्तालापकविकत्थनभयात्सेहाद्यसहिष्णुकलहसद्भावाच साधुस्तां तैः सह न
प्रविशेन्नापि ततो निष्क्रामेदिति ॥ तथा-स भिक्षु मादामो प्रामान्तरमुपलक्षणार्थत्वान्नगरादिकमपि 'दूइज्जमाणो'त्ति गच्छन्नेभिरन्यतीथिकादिभिः सह दोषसम्भवान्न गच्छेत् , तथाहि-कायिक्यादिनिरोधे सत्यात्मविराधना, व्युत्सर्गे च प्रासुकामासुकग्रहणादावुपघातसंयमविराधने भवतः, एवं भोजनेऽपि दोषसम्भवो भावनीयः सेहादिविप्रतारणादिदोपश्चेति ॥ साम्प्रतं तहानप्रतिषेधार्थमाह
से भिक्खू वा भिक्खूणी बा० जाव पविढे समाणे नो अन्नउस्थिवस्स वा गारस्थिवस्स वा परिहारिओ वा अपरिहारियस्स
असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दिजा वा अणुपइज्जा वा ।। (सू०५) । स भिक्षुर्यावद्हपतिकुलं प्रविष्टः सन्नुपलक्षणत्वादुपाश्रयस्थो वा तेभ्योऽन्यतीधिकादिभ्यो दोषसम्भवादशनादिकं ४ न दद्यात् स्वतो नाप्यनुप्रदापयेदपरेण गृहस्थादिनेति, तथाहि-तेभ्यो दीयमानं दृष्ट्वा लोकोऽभिमन्यते-एते ह्येवंविधानामपि दक्षिणार्हाः, अपि च-तदुपष्टम्भादसंयमप्रवर्त्तनादयो दोषा जायन्त इति ॥ पिण्डाधिकार एवानेषणीयविशेषप्रतिषेधमधिकृत्याह
से भिक्खू वा० जाव समाणे असणं वा ४ अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुहिस्स पाणाई भूयाई जीवाई सचाई समा
॥२४॥
~363~
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
ཙྪཱ ཙྪཱ བྷྱཱ ཎཉྙོ, བློ
रम्भ समुहिसकीय पामिर्थ अच्छिनं अणिसद्ध अभिहढं आहट्ट चेएइ, तं तहष्पगारं असणं वा ४ पुरिसंतरकळ वा अपुरिसंतरकडं वा बहिया मीहई वा अनीहडं वा अचट्ठियं वा अणचट्ठियं वा परिनुत्तं वा अपरिभुतं वा आसेवियं वा अणासेवियं वा अफासुर्य जाव नो पडिग्गाहिज्जा, एवं बहवे साहम्मिया ए साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीओ समुहिस्स चत्तारि आलाक्पा भाणियव्वा ।। (सू०६) स-भिक्षुर्यावद्गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन्नेवंभूतमाहारजातं मो प्रतिगृह्णीयादिति सम्बन्धः, 'अस्संपडियाए सि, न विद्यते स्व-द्रव्यमस्य सोऽयमस्वो-निर्गन्ध इत्यर्थः, तत्प्रतिज्ञया कश्चिद्गृहस्थः प्रकृतिभद्रक एक 'साधर्मिक' साधु 'समुविश्य' अस्वोऽयमित्यभिसन्धाय 'पाणिनो भूतानि जीवाः सत्त्वाच' एसेषां किश्चिद्भेदाभेदः, तान समारभ्येत्यनेन मध्यग्रहणात्संरम्भसमारम्भारम्भा गृहीताः, एतेषां च स्वरूपमिदम्--"संकप्पो संरभो परियावकरो भवे समारंभो । आ-X रंभो उद्दवओ सुद्धनयाणं तु सव्वेसि ॥ १॥" इत्येवं समारम्भादि 'समुद्दिश्य' अधिकृत्याधाकर्म कुर्यादिति, अनेन सर्वाऽविशुद्धिकोटिगृहीता, तथा 'क्रीत' मूल्यगृहीतं 'पामिच्च' उच्छिन्नकम् 'आच्छेचे परस्माद्धलादाच्छिन्नम् 'अणि-15 सिहति 'अनिसृष्टं तत्स्वामिनाऽनुत्सङ्कलित चोलकादि 'अभ्याहृतं गृहस्थेनानीतं, तदेवंभूतं क्रीताद्याहृत्य 'चेएइत्ति
ददाति, अनेनापि समस्ता विशुद्धिकोटिBहीता, 'तद्' आहारजातं चतुर्विधमपि 'तथाप्रकारम्' आधाकर्मादिदोषदुष्ट
भयो ददाति तस्मात्पुरुषादपरः पुरुषः पुरुषान्तरं तत्कृतं वा अपुरुषान्तरकृतं वा-तथा तेनैव दाना कृतं, तथा गृहानि-1 मा.सू.५५४ १ संकल्पः संरम्भः परितापको भवेत् समारम्भः । आरम्न उपवक्ता शुलनयानां च सर्वेषाम् ॥ १॥
दीप
CARSAMACHAR
LOCALS450-
अनुक्रम [३४०]
%
For P
OW
wirelaunaitirary.orm
~364~
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [६], नियुक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
॥३२५॥
श्रीआचा-
1 र्गतमनिर्गतं वा, तथा तेनैव दात्रा स्वीकृतमस्वीकृतं वा, तथा तेनैव दात्रा तस्माद्बहुपरिभुक्तमपरिभुक्तं वा, तथा स्तोक- श्रुतस्कं०२ रावृत्तिःमास्वादितमनास्वादितं वा, तदेवमप्रासुकमनेषणीयं च मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति । एतच्च प्रथमच- चूलिका १ (शी०) दारमतीर्थकृतोरकल्पनीयं, मध्यमतीर्थकराणां चान्यस्य कृतमन्यस्य कल्पत इति । एवं बहन साधर्मिकान् समुद्दिश्य प्राग्व- पिण्डैष०१ चर्चः । तथा साध्वीसूत्रमप्येकत्वबहुत्वाभ्यां योजनीयमिति ॥ पुनरपि प्रकारान्तरेणाविशुद्धिकोटिमधिकृत्याह
उद्देशः १ ___से भिक्खू पा० जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ बहवे समणा माहणा अतिहि किवणवणीमए पगणिय २
समुधिस्स पाणाई वा ४ समारम्भ जाव नो पडिग्गाहिजा ।। (सू०७) स भावभिक्षुर्यावद्गृहपतिकुलं प्रविष्टस्तद्यत्पुनरेवंभूतमशनादि जानीयात्, तद्यथा-बहून् श्रमणानुद्दिश्य, ते च* पञ्चविधा:-निर्गन्धशाक्यतापसगैरिकाजीविका इति, ब्राह्मणान् भोजनकालोपस्थाय्यपूर्वो वाऽतिथिस्तानिति कृपणाहै दरिद्रास्तान् वणीमका-बन्दिपायास्तानपि श्रमणादीन् बहून् 'उद्दिश्य' प्रगणय्य प्रगणय्योद्दिशति, तद्यथा-द्वित्राः
श्रमणाः पञ्चषाः ब्राह्मणा इत्यादिना प्रकारेण श्रमणादीन् परिसइख्यातानुद्दिश्य, तथा प्राण्यादीन् समारभ्य यदशनादि संस्कृतं तदासेवितमनासेवितं वाऽमासुकमनेषणीयमाधाकर्म, एवं मन्यमानी लाभे सति न प्रतिगृहीयादिति ॥ विशोधिकोटिमधिकृत्याह
से भिक्खू वा भिक्खूणी पा० जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा-असणं वा ४ बहवे समणा मारणा अतिहिं किवण- MI||३२५ वणीमए समुदिस्स जाव चेएइ तं तहप्पगारं असणं वा ४ अपुरिसलरकर्ड वा अबहियानीहडं अगत्तद्वियं अपरिनुत्तं
KESAR
दीप अनुक्रम [३४०
~365
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[C]
दीप
अनुक्रम [ ३४२ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [८], निर्युक्तिः [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
अणासेवियं अफायं अणेसणिलं जाव नो पडिग्गाहिज्जा । अह पुण एवं जाणिज्या पुरिसंतरकर्ड बहियानीहडं अत्तट्टियं परिभुक्तं आसेवियं फासूयं एसणिज्जं जाव पडिग्गाहिज्जा ।। (सू० ८ )
स भिक्षुर्यत्पुनरशनादि जानीयात् किंभूतमिति दर्शयति- बहून् श्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवणीमकान् समुद्दिश्य श्रमणाद्यर्थमिति यावत् प्राणादींश्च समारभ्य यावदाहृत्य कश्चिद् गृहस्थो ददाति तत्तथाप्रकारमशनाद्यपुरुषान्तरकृतबहिर्निर्गतमनात्मी कृतमपरिभुक्तमनासेवितमप्रासुकमनेषणीयं मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् ॥ इयं च "जावंतिया भिक्ख"त्ति, एतद्व्यत्ययेन ग्राह्यमाह - अथशब्दः पूर्वापेक्षी पुनःशब्दो विशेषणार्थः, अथ स भिक्षुः पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा - 'पुरुषान्तरकृतम्' अन्यार्थं कृतं वहिर्निर्गतमात्मीकृतं परिभुक्तमासेवितं प्रासुकमेषणीयं च ज्ञास्वा लाभे सति प्रतिगृह्णीयात्, इदमुक्तं भवति-अविशोधिकोटिर्यथा तथा न कल्पते, विशोधिकोटिस्तु पुरुषान्तरकृतात्मीयकृतादिविशिष्टा कल्पत इति । विशुद्धिकोटिमधिकृत्याह
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे से जाई पुण कुलाई जाणिजा--इमेसु खलु कुलेसु निइए पिंडे दिजइ अग्गपिंडे दिलाइ नियए भाए दिज नियए अवडभाए दिजइ, तहप्पगाराई कुलाई निइयाई निमाणाई नो भत्ता वा पाणाए वा पविसिन वा निक्खमिज वा । एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणी वा साम ग्गियं जं सबहिं समिए सहिए सवा जए (सू० ९ ) त्तिमि ।। पिण्डैषणाध्ययन आद्योदेशकः ।। १-१-१ ॥ [१] यावलो भिक्षाः
For Parts Only
~366~
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [८], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
का
दीप
श्रीआचा- स भिक्षुर्यावद्गृहपतिकुलं प्रवेष्टुकामः से-तच्छब्दार्थे स च वाक्योपन्यासार्थः, यानि पुनरेवंभूतानि कुलानि जानीयात् श्रुतस्कं०२ रामवृत्तिः तद्यथा-इमेषु कुलेषु 'खलु' वाक्यालङ्कारे 'नियं' प्रतिदिनं 'पिण्डः' पोषो दीयते, तथा अग्रपिण्डः-शाल्योदनादेः प्रथम- चूलिका १ (शी०) मुद्धृत्य भिक्षार्थ व्यवस्थाप्यते सोऽअपिण्डो नित्यं भागः-अर्धपोषो दीयते, तथा नित्यमुपार्द्धभागः-पोषचतुर्थभागः, पिण्डैष०१
तथाप्रकाराणि कुलानि 'नित्यानि' नित्यदानयुक्तानि नित्यदानादेव 'निइउमाणाइ'न्ति नित्यम् 'उमाण'ति प्रवेशः स्वप- रदेशः क्षपरपक्षयोर्येषु तानि तथा, इदमुक्त भवति-नित्यलाभात्तेषु स्वपक्ष:-संयतवर्गः परपक्ष:-अपरभिक्षाचरवर्गः सर्वो भिक्षा)
प्रविशेत्, तानि च बहुभ्यो दातव्यमिति तथाभूतमेव पाकं कुर्युः, तत्र च पहायवधः, अल्पे च पाके तदन्तरायः कृतः। हास्यादित्यतस्तानि नो भक्ताथै पानार्थ वा प्रविशेन्निष्कामेद्वेति ॥ सर्वोपसंहारार्थमाह
'एतदिति यदादेरारभ्योक्तं खलुशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, एतत्तस्य भिक्षोः 'सामग्य' समग्रता यदुद्गमोसादनग्रहण-17 षणासंयोजनाप्रमाणेङ्गालधूमकारणैः सुपरिशुद्धस्य पिण्डस्योपादानं क्रियते तज्ज्ञानाचारसामभ्यं दर्शनचारित्रतपोवीर्याचारसंपन्नता चेति, अथवैतत्सामग्यं सूत्रेणैव दर्शयति-यत् 'सर्वार्थः सरसविरसादिभिराहारगतैः यदिवा रूपरसगन्धस्पर्शगतैः सम्यगितः समितः, संयत इत्यर्थः, पञ्चभिर्वा समितिभिः समितः शुभेतरेषु रागद्वेषविरहित इतियावत् । एवंभूतश्च सह हितेन वर्तत इति सहितः, सहितो वा ज्ञानदर्शनचारित्रैः, एवंभूतश्च सदा 'यतेत' संयमयुक्तो भवेदित्युपदेशः, वीमीति जम्बूनामानं सुधर्मस्वामीदमाह-भगवतः सकाशाच्छ्रुत्वाऽहं ब्रवीमि, न तु स्वेच्छयेति । शेष पूर्व
॥३२६॥ वदिति ॥ पिण्डैषणाध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥
अनुक्रम [३४३]
and
~367~
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१०]
दीप
अनुक्रम
[ ३४४]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१०], निर्युक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
उक्तः प्रथमोदेशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोदेश के पिण्डः प्रतिपादितस्तदिहापि सङ्गतामेव विशुद्धकोटिमधिकृत्याह
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपधिट्ठे समाणे से जं पुण जाणिजा असणं वा ४ अहमि पोसहिएसु वा अनुमासिएसु वा मासिएस वा दोमासिएस वा तेमासिएस वा चाउम्मासिएसु वा पंचमासिएस वा छम्मासिए वा उऊ वा उसंधीसु वा उउपरियट्टेषु वा बहवे समणमाहण अतिहि किवणवणीमगे एगाओ उक्खाओ परिएसिजमाणे पेहाए दोहिं उक्खाहिं परिएसिजमाणे पेहाए तिहिं उक्खाहिं परिएसिजमाणे पेहाए कुंभीमुहाओ वा कलोवाइओ वा संनिहिसंनिचयाओ वा परिएसिजमाणे पेहाए तहपगारं असणं वा ४ अपुरिसंतरकडं जाव अशासेविवं अफामुयं जब नो डिग्गाहिया || अह पुण एवं जाणिजा पुरिसंतरकडं जाव आसेवियं फासूयं पडिग्गाहिज्जा | ( सू० १० )
स भाषभिक्षुर्यत्पुनरशनादिकमाहारमेवंभूतं जानीयात् तद्यथा-अष्टम्यां पौषधः-उपवासादिकोऽष्टमीपौषधः स विद्यते येषां तेऽष्टमीपौषधिका उत्सवाः तथाऽर्द्धमासिकादयश्च ऋतुसन्धिः - ऋतोः पर्यवसानम् ऋतुपरिवर्ती ऋत्वन्तरम्, इत्यादिषु प्रकरणेषु बहून् श्रमणत्राह्मणातिथिकृपणवणी मगाने कस्मात्पिठर का गृहीत्वा कूरादिकं 'परिएसिजमाणेति सहीयमानाहारेण भोज्यमानान् 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वा, एवं द्विकादिकादपि पिठरकाद् गृहीत्वेत्यायोजनीयमिति, पिठरक एव सङ्कटमुखः कुम्भी, 'कठोबाइओ व'ति विच्छी पिटकं वा तस्माद्वैकस्मादिति, सन्निधेः-गोरसादेः संनिचयस्तस्माद्वेति, ['तओ एवंविहं जातिवं पिंडं समणादीणं परिए सिज्जमानं पेहाए ति ] एवंभूतं पिण्डं दीयमानं दृष्ट्वा अपुरुषा
For Parts Only
प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं “पिण्डैषणा”, द्वितीय- उद्देशक: आरब्धः
~368~
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [११], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्देशः २
सूत्राक
॥३२७॥
[११]
दीप
न्तरकृतादिविशेषणमप्रासुकमनेषणीयमिति मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एतदेव सविशेषणं ग्राह्यमाह- अथ पुनः स भिक्षुरेवंभूतं जानीयात्तत्तो गृह्णीयादिति सम्बन्धः, तद्यथा-पुरुषान्तरकृतमित्यादि ॥ साम्प्रतं येषु कुलेषु भिक्षार्थं प्रवेष्टव्यं तान्यधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जाई पुण कुलाई जाणिज्जा, जहा–जग्गाकुलाणि वा भोगकुलाणि वा राइन्नकुलाणि वा सत्तियकुलाणि वा इक्खागकुलाणि वा हरिवंसकुलाणि वा एसियकुलाणि वा वेसियकुलाणि वा गंडागकुलाणि वा कोट्टागलाणि वा गामरक्खकुलाणि वा बुकासकुलाणि वा अनयरेसु वा तहप्पगारेसु कुलेसु अदुगुंछिएसु अगरहिएमु असणं
वा ४ फामुयं जाव पडिमगाहिजा ।। (सू०११) | स भिक्षुर्भिक्षार्थं प्रवेष्टुकामो यानि पुनरेवंभूतानि कुलानि जानीयात्तेषु प्रविशेदिति सम्बन्धः, तद्यथा-उग्रा-आर|क्षिकाः, भोगा-राज्ञः पूज्यस्थानीयाः, राजन्याः-सखिस्थानीयाः, क्षत्रिया-राष्ट्रकूटादयः, इक्ष्वाकवा-ऋषभस्वामिवंशिकाः, हरिवंशाः-हरिवंशजाः अरिष्टनेमिवंशस्थानीयाः, 'एसित्ति गोष्ठाः, वैश्या-वणिजः, गण्डको-नापितः, यो हि ग्राम उद्घोषयति, कोडागाः-काष्ठतक्षका बर्द्धकिन इत्यर्थः, बोकशालिया:-तन्तुबायाः, कियन्तो वा वक्ष्यन्ते इत्युपसं
हरति-अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेप्वजुगुप्सितेषु कुलेषु, नानादेशविनेयसुखप्रतिपत्त्यर्थं पर्यायान्तरेण दर्शयति-अगषेषु, है यदिवा जुगुप्सितानि चर्मकारकुलादीनि गाणि-दास्यादिकुलानि तद्विपर्ययभूतेषु कुलेषु लभ्यमानमाहारादिकं प्रासुक
मेषणीयमिति मन्यमानो गृह्णीयादिति ॥ तथा
अनुक्रम [३४५]
~369~
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक [१२]
दीप
अनुक्रम [ ३४६ ]
22
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१२], निर्युक्ति: [२९७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
Eucation International
सेभिक्खु बा २ ज समाणे से जं पुण जाणिज्ञा-असणं वा ४ समवायसु वा पिंडनियरेसु वा इंदमहेसु वा खंदमहेसु वा एवं रुदमहेसु वा मुकुंदमहेसु वा भूयमहेसु वा जक्त्रमहेसु वा नागमहेसु वा धूभमहेसु वा चेइयमहेसु वा रुक्खमहेसु वा गिरिमसु वा दरिमहेसु वा अगडमहेसु वा तलागमहेसु वा दहमहेसु वा नइमहेसु वा सरमहेसु वा सागरमहेसु वा आगरमहेसु वा अन्नयरेसु वा सहप्पगारेसु विरूवरूवेसु महामहेसु वट्टमाणेसु बहवे समणमाहणअतिहि किवणवणीमगे एगाओ उक्खाओ परिएसिनमाणे पेहाए दोहिं जाव संनिहिसंनिचयाओ वा परिएसिजमाणे पेहाए वहप्पगारं असणं वा ४ अपुरिसंवरकडं जाव नो पढिग्गाहिजा || अह पुण एवं जाणिजा दिनं जं तेसिं दायव्वं, अह तत्थ भुंजमाणे पेहाए गाहावइभारियं वा गाहावइभगिनि वा गाहावइपुतं वा धूयं वा सुन्हं वा धाई वा दासं वा दासि वा कम्मकरं वा कम्मर वा से पुव्वामेव आलोइजा आउसित्ति वा भगिणित्ति वा दाहिसि मे इसो अन्नयरं भोवणजायं, से सेवं वयं तस्स परो असणं वा ४ आहद्दु दलइजा तहप्पगारं असणं वा ४ सयं वा पुण जाइना परो वा से दिजा फासूर्य जाव पडिग्गाहिजा || (सू० १२ )
भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतमाहारादिकं जानीयात्तदपुरुषान्तर कृतादिविशेषणमप्रासुकमनेषणीयमिति मन्यमानो नो गृह्णीयादिति सम्बन्धः, तत्र समवायो-मेलकः शखच्छेदश्रेण्यादेः पिण्डनिकरः- पितृपिण्डो मृतकभक्तमित्यर्थः, इन्द्रोत्सवःप्रतीतः स्कन्दः-स्वामिकार्त्तिकेयस्तस्य महिमा-पूजा विशिष्टे काले क्रियते, रुद्रादयः - प्रतीताः नवरं मुकुन्दो - पलदेवः, तदेवंभूतेषु नानाप्रकारेषु प्रकरणेषु सत्सु तेषु च यदि यः कश्चिच्छ्रमणत्राह्मणातिधिकृपणवणीमगादिरापतति तस्मै स
For Parts Only
~370~
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१२]
दीप
अनुक्रम [ ३४६ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१२], निर्युक्ति: [२९७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०)
।। ३२८ ।।
|र्वस्मै दीयत इति मन्यमानोऽपुरुषान्तरकृतादिविशेषणविशिष्टमाहारादिकं न गृह्णीयात्, अथापि सर्वस्मै न दीयते तथा ऽपि जनाकीर्णमिति मन्यमान एवंभूते सङ्घडिविशेषे न प्रविशेदिति ॥ एतदेव सविशेषणं ग्राह्यमाह
अथ पुनरेवंभूत माहारादिकं जानीयात् तद्यथा-दत्तं यत्तेभ्यः श्रमणादिभ्यो दातव्यम्, 'अथ' अनन्तरं तत्र स्वत एव तान् गृहस्थान् भुञ्जानान् 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वाऽऽहारार्थी तत्र यायात्, तान् गृहस्थान् स्वनामग्राहमाह, तद्यथा-गृहपतिभार्यादिकं भुञ्जानं पूर्वमेव 'आलोकयेत्' पश्येत् प्रभुं प्रभुसंदिष्टं वा ब्रूयात्, तद्यथा - आयुष्मति ! भगिनि । इत्यादि, १ दास्यसि मह्यमन्यतरद्भोजनजातमिति, एवं वदते साधवे परो-गृहस्थ आहृत्याशनादिकं दद्यात्, तत्र च जनसङ्कुलस्वात्सति वाऽन्यस्मिन् कारणे स्वत एव साधुर्याचेत्, अयाचितो वा गृहस्थो दद्यात् तत्प्रासु कमेषणीयमिति मन्यमानो गृह्णीयादिति ॥ अन्यग्रामचिन्तामधिकृत्याह
Education internationa
से भिक्खू वा २ परं अद्धजोयणमेराए संखडि तथा संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । से भिक्खू वा २ पार्ङ्गणं संखडि नचा पडीणं गच्छे अणाढायमाणे, पडीणं संखार्ड नथा पाईणं गच्छे अणाढायमाणे, दाहिणं संखा तथा उदीर्ण गच्छे अणाढायमाणे, उईणं संखडिं नथा दाहिणं गच्छे अणाढायमाणे, जत्थेव सा संसडि सिया, तंजा—गामंसि वा नगरंसि वा खेडंसि वा कच्चसि वा मयंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा नेगमंसि वा आसमंसि वा संमिवेसंसि वा जाब रायहाणिसि वा संखार्ड संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए, केवली धूया --- आयाणमेवं संखद्धिं संखडिपडियाए अभिधारेमाणे आहाकम्मियं वा उद्देसियं वा मीसजायं वा कीयगडं वा पा
For Par Lise Only
* श्रुतस्कं० २
१
*
चूलिका १ पिण्डैष०१
उद्देश: २
~371~
॥ ३२८ ॥
or
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३...], नियुक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३]
दीप
मिच्च वा अच्छिज्ज वा अणिसिह वा अभिहडं वा आहङ विजमाण भुजिज्जा ।। स भिक्षुः 'पर' प्रकर्षेणार्द्धयोजनमात्रे क्षेत्रे संखण्ज्यन्ते-विराध्यन्ते प्राणिनो यत्र सा सङ्कडिस्तां ज्ञात्वा तत्प्रतिज्ञया || नाभिसंधारयेत्' न पर्यालोचयेत्तत्र गमनमिति, न तत्र गच्छेदितियावत् ॥ यदि पुनर्मामेषु परिपाव्या पूर्वप्रवृत्तं गमनं ४
तत्र च सङ्खडिं परिज्ञाय यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाहIPI स भिक्षुर्यदि 'प्राचीनां' पूर्वस्यां दिशि संखडि जानीयात्ततः 'प्रतीचीनम्' अपरदिग्भागं गच्छेत् , अथ प्रतीचीनां
जानीयात्ततः प्राचीन गच्छेत् , एवमुत्तरत्रापि व्यत्ययो योजनीयः, कथं गच्छेत् -'अनाद्रियमाणः' सङ्कडिमनादरयन्नित्यर्थः, एतदुक्तं भवति यत्रैवासी सङ्खडिः स्यात्तत्र न गन्तव्यमिति, व चासौ स्यादिति दर्शयति, तद्यथा-ग्रामे वा प्राचुर्येण ग्रामधर्मोपेतत्वात्, करादिगम्यो वा ग्रामः, नास्मिन् करोऽस्तीति नकर, धूलिप्राकारोपेतं खेटं, कर्ब-कुन8|गरं, सर्वतोऽर्द्धयोजनासरेण स्थितमाम मडम्बं पत्तनं यस्य जलस्थलपथयोरन्यतरेण पयोहारप्रवेशा, आकररा-ताम्रा-13
देरुत्पत्तिस्थानं, द्रोणमुख-यस्य जलस्थलपथावुभावपि, निगमा-वणिजस्तेषां स्थान नैगमम् , आश्रमं यत्तीर्थस्थानं, राज-14 धानी-यत्र राजा स्वयं तिष्ठति, सन्निवेशो यत्र प्रभूतानां भाण्डानां प्रवेश इति, सौतेषु स्थानेषु सर्दि ज्ञात्वा सजडिप्रतिज्ञया न गमनम् 'अभिसंधारयेत्' न पर्यालोचयेत्, किमिति !, यतः केवली ब्रूयात् 'आदानमेतत् कर्मोपादानमेतदिति, पाठान्तरं वा 'आययणमेय'ति आयतनं-स्थानमेतद्दोर्षाणां यत्सङ्खडीगमनमिति, कथं दोषाणामायतनमिति दर्शयति-'संखडिं संखडिपंडियापत्ति, या या सङ्खडिस्तां ताम् 'अभिसन्धारयतः' तन्नतिज्ञया गच्छतः साधोरवश्यमे
अनुक्रम [३४७..]
28%ARINARY
~372~
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [...१३], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
%
प्रत
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०)
%
सूत्रांक [१३]
॥३२९॥
दीप
3645-4-%%%25625
तेषां मध्येऽन्यतमो दोषः स्यात्, तद्यथा-आधाकर्म वा औद्देशिकं वा मिश्रजातं वा क्रीतकृतं वा उद्यतकं वा आच्छेद्यं श्रुतस्कं०२ वा अनिसृष्टम (टं वाऽ )भ्याहृतमि( तं वेति,) एतेषां दोषाणामन्यतमदोषदुष्टं भुजीत, स हि प्रकरणकत्र्तवमभिसंधार- चूलिका १ येत्-यथाऽयं यतिर्मताकरणमुद्दिश्यहायातः, तदस्य मया येन केनचित्प्रकारेण देयमित्यभिसन्धायाधाकर्मादि विदध्या-18 पिण्डैष०१ दिति, यदिवा यो हि लोलुपतया सङ्खडिप्रतिज्ञया गच्छेत् स तत एवाधाकर्माद्यपि भुञ्जीतेति ॥ किश्च-सङ्खडिनिमि-1 उद्देशः २ तमागच्छतः साधूनुद्दिश्य गृहस्थ ऐवंभूता वसतीः कुर्यादित्याह
अस्संजए भिक्खुपडियाए खुड़ियदुवारियाओ महल्लियदुवारियाओ कुज्ञा, महल्लियदुवारियाओ खुड़ियदुवारियाओ कुजा, समाओ सिजाओ विसमाओ कुजा, विसमाओ सिजाओ समाओ कुजा, पवायाओ सिनाओ निवायाओ कुजा, निवायाओ सिजाओ पवायाओ कुजा, अंतो वा बहिं वा उवस्सथस्स हरियाणि छिदिय छिंदिय दालिय दालिय संथारगं संधारिजा, एस विलुंगयामो सिजाए, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं पुरेसंखा वा पच्छासंखर्षि वा संखडि संखडिपडियाए नो अभिसं
धारिजा गमणाए, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स जाव सया जए (सू०१३) त्तिवेमि ।। पिण्डैषणाध्ययने द्वितीयः १-१-२ 'असंयतः' गृहस्थः स च श्रावकः प्रकृतिभद्रको वा स्यात्, तत्रासौ साधुप्रतिज्ञया क्षुद्रद्वारा:-सङ्कटद्वाराः सत्यस्ता | महाद्वाराः कुर्यात्, व्यत्ययं वा कायोपेक्षया कुर्यात् , तथा समाः शय्या-बसतयो विषमाः सागारिकापातभयात् कुर्यात् । साधुसमाधानार्थ वा व्यत्ययं कुर्यात् , तथा प्रवाताः शय्याः शीतभयानिवाताः कुर्यात्, ग्रीष्मकालापेक्षया वा व्यत्यय | ॥३२९॥ विदध्यादिति, तथाऽन्तः-मध्ये उपाश्रयस्य बहिर्वा हरितानि छित्त्वा छित्त्वा विदार्य विदार्य उपाश्रयं संस्कुयोत्, संस्ता
अनुक्रम [..३४७]
~373~
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१३]
दीप
अनुक्रम
[ ३४७]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], मूलं [१३], निर्युक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
रकं वा संस्तारयेत्, गृहस्थश्चानेनाभिसन्धानेन संस्कुर्याद्यथैषः - साधुः शय्यायाः संस्कारे विधातव्ये 'विलुंगयामो' ति निर्ग्रन्थः अकिञ्चन इत्यतः स गृहस्थः कारणे संयतो वा स्वयमेव संस्कारयेदित्युपसंहरति-तस्मात् 'तथाप्रकाराम्' अनेकदोषदुष्टां सङ्घडिं विज्ञाय सा पुरःसङ्घडिः पश्चात्सङ्घडिर्वा भवेत्, जातनामकरणविवाहादिका पुरःसङ्घडिः तथा मृतकसङ्घडिः पश्चात्सङ्घडिरिति यदिवा पुरः- अग्रतः सङ्घडिर्भविष्यति अतोऽनागतमेव यायात्, वसतिं वा गृहस्थः संस्कुर्यात, वृत्ता वा सङ्घडिरतोऽत्र तच्छेषोपभोगाय साधवः समागच्छेयुरिति, सर्वथा सर्वो सङ्घडि सङ्घडिप्रतिज्ञया 'नोऽभिसंधारयेत्' न पर्यालोचयेद्गमनक्रियामिति, एवं तस्य भिक्षोः सामग्र्यं सम्पूर्णता भिक्षुभावस्य यत्सर्वथा सङ्घ डिवर्जनमिति ॥ प्रथमस्य द्वितीयः समाप्तः ॥
उक्त द्वितीयः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोद्देशके दोषसंभवात्सङ्घडिगमनं निषिद्धं, प्रकारान्तरेणापि तद्गतानेव दोषानाह
से एगइओ अन्नयरं संखार्ड आसित्ता पिबित्ता छट्टिज वा वमिज वा भुत्ते वा से नो सम्मं परिणमित्रा अन्नयरे वा से दुक्खे रोगार्थके समुपजिजा केवली बूया आयाणमेयं ॥ ( सू० १४ ) इह खलु भिक्खू गाहावईहिं वा गाहावईणीहिं वा परिवायएहि वा परिवाईया हिं वा एगळं सद्धिं सुंडं पाउं भो वइमिस्सं हुरत्या वा उवस्तयं पडिलेहेमाणो नो लभिना तमेव उवस्यं संमिस्सीभावमावजिज्जा, अन्नमणे वा से मत्ते विप्परिवासियभूए इत्थिविग्ग वा किलीने वा तं भिक्खुं
For Parata Lise Only
प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं “ पिण्डैषणा”, तृतीय-उद्देशक: आरब्धः
~374~
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१५]
दीप
अनुक्रम [ ३४९ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१५], निर्युक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ३३० ॥
उवसंकमित्तु वृथा — आउसंतो समणा ! अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा राओ वा वियाले वा गामधम्मनियंतियं कटु रहस्तियं मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टामो, तं चेवेगईओ सातिजिज्ञा-अकरणिजं चेयं संखाए एए आयाणा (आयतणाणि) संति संविजमाणा पञ्चवाया भवंति तम्हा से संजए नियंठे वहपगारं पुरेसंखडिं वा पच्छासंखडि वा संखf संखपिडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए || ( सू० १५)
स भिक्षुः 'एकदा ' कदाचिद् एकचरो वा 'अन्यतरां' काञ्चित्पुरःसङ्घडिं पश्चात्सङ्घडिं वा 'सङ्घडि 'मिति सङ्घडिभक्तम् 'आस्वाद्य' भुक्त्वा तथा पीत्वा शिखरिणीदुग्धादि, तच्चातिलोलुपतया रसगृद्ध्याऽऽहारितं सत् 'छड्डेज वा छाँदै विदध्यात् कदाचिश्चापरिणतं सद्विशुचिकां कुर्यात्, अन्यतरो वा रोगः- कुष्ठादिकः आतङ्कस्त्वाशुजीवितापहारी शूलादिकः समुत्पद्येत, केवली - सर्वज्ञो ब्रूयात् यथा 'एतत्' सबडीभक्तम् 'आदानं' कर्मोपादानं वर्त्तत इति । यथैतदादानं भवति तथा दर्शयति — 'इहेति सङ्घडिस्थानेऽस्मिन् वा भवेऽमी अपायाः आमुष्मिकास्तु दुर्गतिगमनादयः, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, भिक्षणशीलो भिक्षुः स गृहपतिभिस्तद्भार्याभिर्वा परिव्राजकैः परिव्राजिकाभिर्वा सार्द्धमेकद्यम्-एकवाक्यतया संप्रधार्य 'भो' इत्यामन्त्रणे एतानामव्य चैतद्दर्शयति-सङ्घडिगतस्य लोलुपतया सर्व संभाव्यत इत्यतस्तैर्व्यतिमिश्रं 'सॉर्ड'ति सीधुमन्यद्वा प्रसन्नादिकं 'पातुं' पीत्वा ततः 'हुरवत्था वा' बहिर्वा निर्गत्योपाश्रयं याचेत, यदा च प्रत्युपेक्षमाणो विवक्षितमुपाश्रयं न लभेत ततस्तमेवोपाश्रयं यत्रास सङ्घडिस्तत्रान्यत्र वा गृहस्थ परिव्राजिकादिभिर्मिश्रीभावमापद्येत, तत्र चासावन्यमना मत्तो गृहस्थादिको विपर्यासीभूत आत्मानं न स्मरति, स वा भिक्षुरात्मानं न स्मरेत्,
For Parts Only
~375~
श्रुतस्कं० २ चूलिका १ पिण्डैप० १
प्रदेशः ३
॥ ३३० ॥
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१५], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
52515282
[१५]
अस्मरणाचैवं चिन्तयेदू-यथाऽहं गृहस्थ एव, यदिवा-स्त्रीविग्रहे शरीरे 'विपर्यासीभूतः' अध्युपपन्नः 'क्लीचे वा' नपुंसके
वा, सा च स्त्री नपुंसको वा, ते भिक्षुम् 'उपसङ्कम्य' आसन्नीभूय ब्रूयात् , तद्यथा-आयुष्मन् ! श्रमण ! खया सहै-| लाकान्तमहं प्रार्थयामि, तद्यथा-आरामे वोपाश्रये वा कालतश्च रात्री वा विकाले वा, तं भिक्षु प्रामधः-विषयोपभोगगतै-S
व्यापारैनियन्त्रितं कृत्वा, तद्यथा-मम त्वया विप्रियं न विधेयं, प्रत्यहमहमनुसर्पणीयेति, एवमादिभिर्नियम्य ग्रामासन्ने । 18 वा कुत्रचिद्रहसि मिथुनं-दाम्पत्यं तत्र भवं मैथुनम्-अब्रह्मेति तस्य धर्माः-तद्गता व्यापारास्तेषां परियारणा-आसेवना।
तया 'आउट्टामोत्ति प्रव महे, इदमुक्तं भवति-साधुमुद्दिश्य रहसि मैथुनप्रार्थनां काचित्कुर्यात् , तां चैकः कश्चिदेकाकी वा 'साइजेजत्ति अभ्युपगच्छेत् , अकरणीयमेतद् एवं 'सङ्घचाय' ज्ञात्वा सङ्घडिगमनं न कुर्याद्, यस्मादेतानि
'आयतनानि कर्मोपादानकारणानि 'सन्ति' भवन्ति 'संचीयमानानि' प्रतिक्षणमुपचीयमानानि, इदमुक्कं भवति-अ-13 दन्यास्यपि कर्मोपादानकारणानि भवेयुः, यत एवमादिकाः प्रत्यपाया भवन्ति तस्मादसौ संयतो निम्रन्थस्तथाप्रकारां सPावडिं पुरःसङ्खडिं पश्चात्सङ्कडिं वा सङ्घडिं ज्ञात्वा सङ्घडिप्रतिज्ञया 'नाभिसंधारयेद् गमनाय' गन्तुं न पर्यालोचयेदित्यर्थः ॥ तथा
से भिक्खू वा २ अन्नयरि संखटि सुचा निसम्म संपहावइ उस्सुयभूएण अप्पाणेणं, धुवा संखडी, नो संचाएन तत्व इयरेयरेहि
कुलेहि सामुदाणिय एसियं चेसिव पिंडवार्य पडिग्गाहित्ता आहार आहारित्तए, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिजा ॥ से तत्थ भा.सू. ५६
कालेण अणुपविसित्ता तस्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणिय एसियं वेसियं पिंडवायं पडिगाहित्ता आहार आहारिणा ॥ (सू. १६)
दीप अनुक्रम [३४९]
कर
%2564-251-5
SAREastatinintenmatland
~376
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१६], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
*
CE195
[१६]
दीप अनुक्रम [३५०
श्रीआचा-| IPI स भिक्षुरन्यतरां पुरःसङ्कटिं पश्चात्सङ्खडिं वा श्रुत्वाऽन्यतः स्वतो वा 'निशम्य' निश्चित्य कुतश्चि तोस्ततस्तदभिमुख श्रुतस्कं०२ राजवृत्तिः संप्रधावत्युत्सुकभूतेनात्मना-यथा ममात्र भविष्यत्यद्भुतभूतं भोज्य, यतस्तत्र 'भुवा' निश्चिता सलडिरस्ति, 'नो संचाए- चूलिका १ (शी०) इत्ति न शक्नोति 'तत्र' सङ्खडिग्रामे इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः सङ्खडिरहितेभ्यः 'सामुयाणिय'ति भैक्षं, किम्भूतम् -'एषणी- पिण्डे५०१ यम्' आधाकर्मादिदोषरहितं 'वेसियंति केवलरजोहरणादिवेषाल्लब्धमुत्पादनादिदोषरहितम् , एवंभूतं पिण्डपातम्-आहार
उद्देशः ३ ॥३३१॥
परिगृह्याभ्यवहर्तुं न शक्नोतीति सम्बन्धः, तत्र चासौ मातृस्थानं संस्पृशेत्, तस्य मातृस्थानं संभाब्येत, कथं ? यद्यपी-14 तरकुलाहारप्रतिज्ञया गतो, न चासौ तमभ्यवहर्तुमलं पूर्वोक्तया नीत्या, ततोऽसौ सङ्खडिमेव गच्छेत् , एवं च मातृस्थान
तस्य संभाव्येत, तस्मान्नैवं कुर्याद्-पेहिकामुष्मिकापायभयात् सङ्घडिग्रामगमनं न विदध्यादिति ॥ यथा च कुर्यात्तथाऽऽहF'सा' भिक्षुः तत्र' सङ्खडिनिवेशे कालेनानुप्रविश्य तत्रेतरेतरेभ्यो गृहेभ्यः उग्रकुलादिभ्यः 'सामुदानिक' समुदान-भिक्षा
तत्र भवं सामुदानिकम् 'एषणीय' प्रासुकं 'वैषिक' केवलवेषावाप्तं धात्रीपिण्डादिरहितं पिण्डपातं प्रतिगृह्याहारमाहारयेदिति ॥ पुनरपि सङ्घडिविशेषमधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणिजा गाम वा जाव रावहाणि वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा संखडी सिया तंपि य गार्म वा जाव रायहाणिं वा संखडि संखडिपडियाए मो अभिसंधारिजा गमणाए ॥ केवली घूया आवाणमेवं आइनाऽवमा णं संखर्टि अणुपचिस्समाणस्स-पाएण वा पाए अर्कतपुष्वे भवइ, हत्येण वा हत्थे संचालित H ॥३३१॥ यपुख्ने भवेश, पाएण वा पाए आवडियपुव्वे भवइ, सीसेण चा सीसे संघट्टियपुल्वे भवइ, कारण वा काए संस्रोमियपुग्वे
*
*
~377
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१७]
दीप
अनुक्रम
[३५१]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१७], निर्युक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
भव, दंडेण वा अट्ठी वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेण वा अमिहयपुत्र्वेण वा भवर, सीओदएण वा उस्सित्तपुब्वे भवद्द, रयसा का परिघासियपुव्वे भवइ, अणेसणिजे वा परिमुत्तपुब्वे भवइ, अन्नेसिं वा विजमाणे पडिग्गाहियपुल्बे भवर, तन्हा से संजए नियंठे तहप्पारं आइन्नावमा णं संखार्ड संखडिपडियाए नो अभिसंधारिका गमणाए । ( सू. १७ ) स भिक्षुर्यदि पुनरेवंभूतं प्रामादिकं जानीयात्, तद्यथा-ग्रामे वा नगरे वा यावद्राजधान्यां वा सङ्घडिर्भविष्यति, तत्र च चरकादयोऽपरे वा भिक्षाचराः स्युरतस्तदपि प्रामादिकं सङ्घडिप्रतिज्ञया 'नाभिसन्धारयेद्गमनाय' न तत्र गमनं कुर्यादित्यर्थः ॥ तद्वतांश्च दोषान् सूत्रेणैवाह - केवली ब्रूयाद्यथैतदादानं कर्मोपादानं वर्त्तत इति दर्शयति-सा च सङ्घडिः आकीर्णा वा भवेत् - चरकादिभिः सङ्कुला 'अबमा'हीना शतस्योपस्कृते पञ्चशतोपस्थानादिति, तां चाकीर्णामवमां चानुप्रविशतोऽमी | दोषाः, तद्यथा- पादेनापरस्य पाद आक्रान्तो भवेत् हस्तेन वा हस्तः संचालितो भवेत्, 'पात्रेण वा' भाजनेन वा 'पात्रे' भाजनमापतितपूर्वं भवेत्, शिरसा वा शिरः सङ्घट्टितं भवेत्, कायेनापरस्य यरकादेः काय: सोभितपूर्वी भवेदिति, स च चरकादिरारुपितः कलहं कुर्यात्, कुपितेन च तेन दण्डेनास्मा वा मुष्टिना वा छोष्टेन वा कपालेन वा साधुरभिहतपूर्वो भवेत्, तथा शीतोदकेन वा कश्चित्सिश्चेत्, रजसा वा परिधर्षितो भवेत् । एते तावत्सङ्कीर्णदोषाः, अवमदोषाश्चामी -अनेषणीयपरिभोगो भवेत्, स्तोकस्य संस्कृतत्वात्मभूतत्वाच्चार्थिनां, प्रकरणकारस्यायमाशयः स्याद् यथा माकरणमुद्दिश्यैते समायातास्तत एतेभ्यो मया यथाकथचिद्देयमित्यभिसन्धिनाऽऽधाकर्माद्यपि कुर्याद्, अतोऽनेषणीयपरिभोगः स्यादिति, कदाचिद्वा दात्राऽन्यस्मै दातुमभिवान्छितं तच्चान्यस्मै दीयमानमन्तराले साधुगृह्णीयात्, तस्मादेतान् दोषानभिसंप्रधार्य
For Parts Only
~378~
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [१७], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सूत्राक
[१७]]
दीप अनुक्रम [३५१]
श्रीआचा-15 संयतो निर्ग्रन्थस्तथाप्रकारामाकीर्णामवमा वा सङ्घडिं विज्ञाय सङ्कडिप्रतिज्ञया नाभिसंधारयेद् गमनायेति ॥ साम्प्रतं श्रुतस्क०२ राङ्गवृत्तिः सामान्येन पिण्डशङ्कामधिकृत्याह
चूलिका १ (शी०) से मिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिजा असणं वा ४ एसणिजे सिया अणेसणिजे सिया वितिगिछसमाव- पिण्डैष०१ नेण अप्पाणेण असमाहडाए लेसाए तहपगार असणं वा ४ लाभे संते नो पडिगाहिजा ।। (सू. १८)
| उद्देशः३ ॥३३२॥
KI स भिक्षुहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुनराहारजातमेषणीयमप्येवं शक्रेत, तद्यथा-विचिकित्सा-जुगुप्सा वाऽनेषणी
याशङ्का तया समापन्न:-शङ्कागृहीत आत्मा यस्य स तथा तेन शङ्कासमापन्नेनात्मना 'असमाहडाए' अशुद्धया ले8| श्यया-उद्गमादिदोषदुष्पमिदमित्येवं चित्तविप्लुत्याऽशुद्धा लेश्या-अन्तःकरणरूपोपजायते तया सत्या 'तथाप्रकारम्' अने-13
पणीयं शङ्कादोषदुष्टमाहारादिकं सति लाभे"'जं संके तं समावजे" इति वचनान्न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ साम्प्रतं गच्छनिशैतानधिकृत्य सूत्रमाह
से मिक्खू० गाहावइकुलं पविसिउकामे सर्व भंडगमायाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज वा निक्समिज चा ।। से मिक्खू वा २ बहिया विहारभूमि वा विधारभूमि वा निक्खममाणे वा पविसमाणे वा सव्वं भंडगमायाए बहिया बिहारभूमि वा वियारभूमि वा निक्समिज वा पविसिज वा ।। से भिक्खू वा २ गामाणुगाम दूइज्जमाणे सव्वं भंडगमावाए गामाणुगामं दूइजिज्जा ।। (सू. १९) १ यं शङ्केत तं समापद्येत.
~379~
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], मूलं [१९], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सूत्राक
[१९]
दीप अनुक्रम [३५३]
स भिक्षुर्गच्छनिर्गतो जिनकल्पिकादिगृहपतिकुल प्रवेष्टुकामः सर्वे' निरवशेष भण्डक' धर्मोपकरणम् 'आदाय' गृहीत्वा गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविशेद्धा ततो निष्कामेद्वा । तस्य चोपकरणमनेकधेति, तद्यथा-"दुग तिग चक पंचग नव दस एकारसेव वारसहे"त्यादि । तत्र जिनकल्पिको द्विविधः-छिद्रपाणिरच्छिद्रपाणिच, तत्राच्छिद्रपाणे शक्त्यनुरूपाभिग्रहविशेषाद् द्विविधमुपकरणं, तद्यथा-रजोहरणं मुखवस्त्रिका च, कस्यचित्त्वक्त्राणार्थ क्षौमपटपरिग्रहात्रिविधम् , अपरस्योदकबिन्दुपरितापादिरक्षणार्थमौर्णिकपटपरिग्रहाच्चतुर्की, तथाऽसहिष्णुतरस्य द्वितीयक्षौमपटपरिग्रहासञ्चधेति । छिद्रपाणेस्तु जिनकल्पिकस्य सप्तविधपात्रनिर्योगसमन्वितस्य रजोहरणमुखवस्तिकादिग्रहणक्रमेण यथायोगं नवविधो दशविध एकादशविधो द्वादशविधश्चोपधिर्भवति, पात्रनिर्योगश्च-"पत्तं १ पत्ताबंधो २ पायट्ठवणं ३ च पायकेसरिया ४ । पडलाइ ५ रयत्ताणं ६ च गोच्छओ ७ पायनिज्जोगो ॥१॥" अन्यत्रापि गच्छता सर्वमुपकरणं गृहीत्वा गन्तव्यमित्याह-स भिक्षु मादेर्बहिर्विहारभूमि स्वाध्यायभूमि वा तथा 'विचारभूमि विष्ठोत्सर्गभूमि सर्वमुपकरणमादाय प्रविशेन्निष्कामेद्वा, एतद्वितीय, एवं ग्रामान्तरेऽपि तृतीयं सूत्रम् ॥ साम्प्रतं गमनाभावे निमित्तमाह
से मिक्खू० अह पुण एवं जाणिज्जा-तिबदेसियं वासं वासेमाणं पहाए तिव्वदेसियं महियं संनिचयमाणं पेहाए महवाएण वा रयं समुदुर्थ पहाए तिरिच्छसंपाइमा वा तसा पाणा संथडा संनिचयमाणा पेहाए से एवं नया नो सव्वं भंडग१ पात्रं पात्रबन्धः पात्रस्थापनं च पात्रकेशरिका । पटलानि रजखाणं च गोच्छकः पात्रनियोगः ॥ १॥
कर
~380~
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२०], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ पिण्डैप०१
सूत्राक
[२०]
दीप
श्रीआचा-दा मायाए गाहावाकुलं पिंउवायपडियाए पविसिज वा निक्समिज वा बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा निक्खमिल राजवृत्तिः। वा पविसिज वा गामाणुगामं दूइजिजा ।। (सू०२०) (शी०) स भिक्षुरथ पुनरेवं विजानीयात्, तद्यथा-तीनं-वृहद्वारोपेतं देशिकं-बृहत्क्षेत्रव्यापि तीनं च तद्देशिकं चेति समास:
बृहद्वारं महति क्षेत्रे वर्षन्तं प्रेक्ष्य, तथा तीनदेशिका-महति देशेऽन्धकारोपेतां 'महिकां वा' धूमिका संनिपतन्तीं 'प्रेक्ष्य ॥३३३॥
उपलभ्य, तथा महावातेन वा समुद्भूतं रजः प्रेक्ष्य तिरश्चीनं वा संनिपततो-गच्छतः 'प्राणिनः' पतनादीन 'संस्क(स्त)तान्' धनान् प्रेक्ष्य स भिक्षुरेवं ज्ञात्वा गृहपतिकुलादौ सूत्रत्रयोद्दिष्टं सर्वमादाय न गच्छेनापि निष्कामेवेति, इदमुक्त भवति-सामाचार्येषा यथा गच्छता साधुना गच्छनिर्गतेन तदन्तर्गतेन चा उपयोगो दातव्यः, तत्र यदि वर्षमहिकादिक। |जानीयात्ततो जिनकल्पिको न गच्छत्येव, यतस्तस्य शक्तिरेषा यया षण्मास यावत्पुरीपोत्सर्गनिषे(रो), विदध्यात्, इतरस्तु || सति कारणे यदि गच्छेत् न सर्वमुपकरणं गृहीत्वा गच्छेदिति तात्पर्याथैः ।। अधस्ताज्जुगुप्सितेषु दोषदर्शनाप्रवेशप्रतिषेध उक्तः, साम्प्रतमजुगुप्सितेष्वपि केषुचिद्दोषदर्शनाप्रवेशप्रतिषेधं दर्शयितुमाह
से भिक्खू वा २ से जाई पुण कुलाई जाणिज्जा संजहा-खत्तियाण वा राईण वा कुराईण वा रायपेसिवाण वा रायसट्ठियाण वा अंतो वा वाहि वा गच्छंताण वा संनिविट्ठाण वा निमंतेमाणाण वा अनिमंतेमाणाण वा असणं वा ४ लाभे
संते नो पडिगाहिजा (सू० २१ )॥ १-१-३ ।। पिण्डैषणायां तृतीय उद्देशकः ॥ स भिक्षुर्यानि पुनरेवंभूतानि कुलानि जानीयात् , तद्यथा-क्षत्रिया:-धक्रवर्तिवासुदेवबलदेवप्रभृतयस्तेषां कुलानि,
अनुक्रम [३५४]
॥३३३॥
~ 381~
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], मूलं [२१], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
6-2564-9
सूत्राक
[२१]
दीप अनुक्रम [३५५]
राजानः-क्षत्रियेभ्योऽन्ये, कुराजानः-प्रत्यन्तराजानः, राजप्रेष्या:-दण्डपाशिकप्रभृतयः, राजवंशे स्थिता-राज्ञो मातुलभागिनेयादयः, एतेषां कुलेषु संपातभयान प्रवेष्टव्यं, तेषां च गृहान्तबहिवों स्थिताना 'गच्छता' पथि बहतां 'संनिविधानाम' आवासितानां निमन्त्रयतामनिमन्त्रयतां वाऽशनादि सति लाभे न गृह्णीयादिति ॥ प्रथमस्याध्ययनस्य तृतीय उद्देशकः समाप्तः ॥ १-१-३॥
sareउक्तस्तृतीयोदेशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके सङ्खडिगतो विधिरभिहितस्तदिहापि तच्छेषविधेः प्रतिपादनार्थमाह
से भिक्खू वा० जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा भंसाइयं वा मरुछाइयं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा आहेणं वा पहेणं वा हिंगोलं वा संमेलं वा हीरमाणं पेहाए अंतरा से मांगा बहुपाणा बहुधीया बहुहरिया बहुओसा बहुउदया बहुउत्तिंगपणगदगमट्टीयमकडासंताणया बहवे तत्थ समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा उवागया उवागमिस्संति (उवागतछंति ) तत्थाइन्ना वित्ती नो पन्नस्स निक्खमणपवेसाए नो पन्नस्स वायणपुच्छणपरियट्टणाणुप्पेहधम्माणुओगचिंताए, से एवं नया तहप्पगारं पुरेसंखडि वा पच्छासंखडि वा संखडि संखडिपडिआए नो अभिसंधारिजा गमणाए । से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिजा भंसाइयं वा मच्छाइयं वा जाव हीरमाणं वा पेहाए अंतरा से मम्मा अप्पा पाणा जाव संताणगा नो जत्थ बहवे समण जाव उवागमिस्संति अप्पाइन्ना वित्ती पन्नस्स निक्षमणपवेसाए पन्नस्स बायणपुच्छणपरियट्टणाणुप्पेहधम्माणुगोगचिंताए, सेवं नचा तहप्पगारं पुरेसंखडि वा० अभिसंधारिज गमणाए ॥ (सू० २२)
SARERatininemarana
प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", चतर्थ-उद्देशक: आरब्ध:
~382
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [२२], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[२२]
+KC
श्रीआचा- स भिक्षः कचिदामादौ भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् ययेवभूता सङ्कुडिं जानीयात् तत्पतिज्ञया नाभिसंधारयेद गमनाये- श्रुतस्कं०२
त्यन्ते क्रिया, यादग्भूतां च सङ्खडिं न गन्तव्यं तां दर्शयति-मांसमादौ प्रधानं यस्यां सा मांसादिका तामिति, इद- चूलिका १ (शी०) मुक्तं भवति-मांसनिवृत्तिं कर्तुकामाः पूर्णायां वा निवृत्ती मांसप्रचुरां सङ्घडिं कुर्युः, तत्र कश्चित्स्वजनादिस्तदनुरूपमेव पिण्डैष०१
किञ्चिन्नयेत्, तच्च नीयमानं दृष्ट्वा न तत्र गन्तव्यं, तत्र दोषान् वक्ष्यतीति, तथा मत्स्या आदौ प्रधानं यस्यां सा तथा, ॥३३४॥
उद्देशा ४ एवं मांसखलमिति, यत्र सङ्कडिनिमित्तं मांसं छित्त्वा छित्त्वा शोष्यते शुष्कं वा पुञ्जीकृतमास्ते तत्तथा, क्रिया पूर्ववत्,
एवं मत्स्यखलमपीति, तथा 'आहेणं ति यद्विवाहोत्तरकालं वधूप्रवेशे वरगृहे भोजनं क्रियते, 'पहेणं ति वध्वा नीयमा-18 हानाया यत्पितृगृहभोजनमिति, "हिंगोलंति मृतकभकं यक्षादियात्राभोजनं वा, 'संमेलं ति परिजनसन्मानभक्तं गोष्ठीभक्त
वा, तदेवंभूतां सङ्कडिं ज्ञात्वा तत्र च केनचित्स्वजनादिना तन्निमित्तमेव किश्चिद् 'ह्रियमाणं' नीयमानं प्रेक्ष्य तत्र भिक्षार्थ
न गच्छेद् , यतस्तत्र गच्छतो गतस्य च दोषाः संभवन्ति, तांश्च दर्शयति-गच्छतस्तावदन्तरा-अन्तराले 'तस्य' भिक्षोः Cl'मार्गाः पन्थानो बहवः प्राणाः-प्राणिनः-पतङ्गादयो येषु ते तथा, तथा बहुवीजा बहुहरिता बहुवश्याया बहूदका
बहुत्तिङ्गपनकोदकमृत्तिकामर्कटसन्तानकाः, प्राप्तस्य च तत्र सङ्कडिस्थाने बहवः श्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवणीमगा उपा४गता उपागमिष्यन्ति तथोपागच्छन्ति च, तबाकीणों चरकादिभिः 'वृत्तिः पर्सनम् अतो न तत्र प्राज्ञस्य निष्क्रमण
प्रवेशाय वृत्तिः कल्पते, नापि प्राज्ञस्य वाचनाप्रच्छनापरिवर्त्तनाऽनुप्रेक्षाधर्मानुयोगचिन्तायै वृत्तिः कल्पते, न तत्र जनाकीर्णे गीतवादित्रसम्भवात् स्वाध्यायादिक्रियाः प्रवर्त्तन्त इति भावः, स भिक्षुरेवं गच्छगतापेक्षया बहुदोषां तथाप्रकारां
दीप अनुक्रम [३५६]
+
+
+
Mu॥३४॥
~ 383
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [२२], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[२२]
दीप अनुक्रम [३५६]
मांसप्रधानादिकां पुरःसबर्षि पश्चात्सङ्कर्डि वा ज्ञात्वा तातिज्ञया नाभिसन्धारयेद्गमनायेति ॥ साम्प्रतमपवादमाह
स भिक्षुरध्वानक्षीणो ग्लानोत्थितस्तपश्चरणकर्षितो वाऽवमौदर्य वा प्रेक्ष्य दुर्लभद्रव्यार्थी वा स यदि पुनरेवं जानीयात्-मांसादिकमित्यादि पूर्ववदालापका यावदन्तरा-अन्तराले 'से' तस्य भिक्षोर्गच्छतो मार्गा अल्पप्राणा अल्पवीजा है अल्पहरिता इत्यादि व्यत्ययेन पूर्ववदालापका, तदेवमल्पदोषां सङ्खडिं ज्ञात्वा मांसादिदोषपरिहरणसमर्थः सति कारणे तत्पतिज्ञयाऽभिसंधारयेद्गमनायेति ॥ पिण्डाधिकारेऽनुवर्तमाने भिक्षागोचरविशेषमधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ जाव पविसिजकामे से जं पुण जाणिज्जा खीरिणियाओ गावीओ खीरिजमाणीओ पेहाए असणं वा ४ वसंखडिजमाणं पेहाए पुरा अपजूहिए सेवं नचा नो गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए निक्खमिज वा पविसिज्ज वा ।। से तमादाय एर्गतमवकमिजा अणावायमसलोए चिडिजा, अह पुण एवं आणिजा-खीरिणियाओ गावीओ खीरियाओ पेहाए असणं वा ४ उपक्सडियं पेहाए पुराए जूहिए सेवं नच्चा तओ संजयामेव गाहा. निक्खमिज वा ॥ (सू० २३), स भिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रवेष्टुकामः सन्नथ पुनरेवं विजानीयाद् , यधा क्षीरिण्यो गावोऽत्र दुह्यन्ते, ताश्च दुह्यमानाः प्रेक्ष्य तथाऽशनादिकं चतुर्विधमप्याहारमुपसंस्क्रियमाणं प्रेक्ष्य तथा 'अप्पजूहिए'त्ति सिद्धेऽप्योदनादिके 'पुरा' पूर्वमन्येषाम
दत्ते सति प्रवर्त्तमानाधिकरणापेक्षी पूर्वत्र च प्रकृतिभद्रकादिः कश्चिद्यतिं दृष्ट्वा श्रद्धावान् बहुतरं दुग्धं ददामीति वत्सPकपीडां कुर्यात् त्रसेयुर्वा दुह्यमाना गावस्तत्र संयमात्मविराधना, अर्द्धपक्कौदने च पाकार्थ त्वरयाऽधिकं यतं कुर्यात् |
~ 384~
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२३]
दीप
अनुक्रम [ ३५७]
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [२३], निर्युक्तिः [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ३३५ ॥
22
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः)
ततः संयमविराधनेति, तदेवं ज्ञात्वा स भिक्षुर्गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया न प्रविशेनापि निष्क्रामेदिति ॥ यच्च कुर्या ५ तद्दर्शयितुमाह
९
'सः' भिक्षुः 'तम्' अर्थ गोदोहनादिकम् 'आदाय' गृहीत्वाऽवगम्येत्यर्थः, तत एकान्तमपक्रामेद्, अपक्रम्य च गृहस्थानामनापातेऽसंलोके च तिष्ठेत्, तत्र तिष्ठन्नथ पुनरेवं जानीयाद् यथा क्षीरिण्यो गावो दुग्धा इत्यादि पूर्वव्यत्ययेनालापका नेया यावन्निष्क्रामेत्प्रविशेद्वेति ॥ पिण्डाधिकार एवेदमाह
Education Internation
भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु-समाणा वा वसमाणा वा गांमाणुगामं दूइजमाणे खुडाए खलु अयं गामे संनिरुद्धाए नो महालए से हंता भयंतारो बाहिरगाणि गामाणि भिक्खायरियाए वयह, संति तत्थेगइयस्स भिक्खुस्स पुरेसंधुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, वंजा—गाहावई वा गाहावइणीओ वा गाहावइपुत्ता वा गाहावइभूयाओ वा गाहावईसुहाओ वा वाइओ वा दासा वा दासीओ वा कम्मकरा वा कम्मकरीओ वा, तहप्पगाराई कुलाई पुरेसंधुवाणि वा पच्छासंधुयाणि वा पुवामेव निक्खायरियाए अणुपविसिस्सामि, अविय इत्थ लमिस्सामि पिंडं वा लोयं वा खीरं वा दहिं वा नवणीयं वा घयं वा गुलं वा तिलं वा महुं वा मज्जं वा मंसं या सकुलिं वा फाणियं वा पूर्व वा सिहिरिणि या, तं फुवामेव भुवा पिचा पडिंग च संलिहिय संमजिय तओ पच्छा निक्खुहिं सद्धिं गाहा० पविसिस्सामि वा निक्सनिस्सामि वा, माइहाणं संफासे, तं नो एवं करिजा ॥ से तत्थ भिक्खुद्धिं सद्धि कालेण अणुपविसित्ता तत्त्रियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं
For Park Use Only
~385~
श्रुतस्कं० २
चूलिका १ पिण्डेष०१
उद्देशः ४
॥ ३३५ ॥
war
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [२४], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[२४]
दीप
वेसिय पिंडवार्य पडिगाहित्ता आहारं आहारिजा, एवं खलु तस्स मिक्खुस्स वा मिक्मणीए वा सामग्गियं० (सू०२४)।
१-१-४॥ पिण्डैषणायो चतुर्थ उद्देशकः॥ भिक्षणशीला भिक्षुका नामैके साधवः केपनवमुक्तवन्तः, किम्भूतास्ते इत्याह-समाना' इति जतबलपरिक्षीणतयै-15 कस्मिन्नेव क्षेत्रे तिष्ठन्तः, तथा 'वसमानाः' मासकल्पविहारिणः, त एवंभूताः प्राघूर्णकान् समायातान ग्रोमानुप्रामं दूयमानान्-च्छत एवमूचुः-यथा क्षुल्लकोऽयं ग्रामोऽल्पगृहभिक्षादो वा, तथा संनिरुद्धः-सूतकादिना, नो महानिति पुनवचनमादरख्यापनार्थम् , अतिशयेन क्षुल्लक इत्यर्थः, ततो हन्त ! इत्यामन्त्रणं, यूयं भवन्तः-पूज्या बहिामेषु भिक्षाचर्या) व्रजतेत्येवं कुर्यात् , यदिवा तत्रैकस्य वास्तव्यस्य भिक्षोः 'पुरससंस्तुताः' भावव्यादयः 'पश्चात्संस्तुता' श्वशुरकुलसंबद्धाः परिवसन्ति, तान् स्वनामग्राहमाह, तद्यथा-गृहपतिर्वेत्यादि सुगम यावत्तथाप्रकाराणि कुलानि पुरःपश्चात्संस्तुतानि पूर्वमेव भिक्षाकालादहमेतेषु भिक्षार्थ प्रवक्ष्यामि, अपि चैतेषु स्वजनादिकुलेवभिप्रेतं लाभ लप्स्ये, तदेव दर्शयति-पिण्ड' शाल्योदनादिकं 'लोयम्' इतीन्द्रियानुकूलं रसायुपेतमुच्यते, तथा क्षीरं वेत्यादि सुगम यावत्सिहरिणीं वेति, नवर मद्यमांसे छेदसूत्राभिप्रायेण व्याख्येये, अथवा कश्चिदतिप्रमादावष्टन्धोऽत्यन्तगृभुतया मधुमद्यमांसान्यप्याश्रयेदतस्सदुपादानं, 'फाणिय'ति उदकेन द्रवीकृतो गुडः कथितोऽकथितो वा शिखरिणी मार्जिता, तल्लब्धं पूर्वमेव भुक्त्वा पेयं च पीत्वा पतनहं संलिह्य निरवयवं कृत्वा संमृज्य च वखाविनाऽऽर्द्रतामपनीय ततः पश्चादुपागते भिक्षाकालेऽविकृत
अनुक्रम [३५८
~ 386
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], मूलं [२४], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- वदनः प्राघूर्णकभिक्षुभिः सार्द्ध गृहपतिकुलं पिण्डपातपतिज्ञया प्रवेश्यामि निष्क्रमिष्यामि चेत्यभिसन्धिना मातृस्थानं रावृत्तिः। संस्पृशेदसावित्यतः प्रतिषिध्यते-नैवं कुर्यादिति ॥ कथं च कुर्यादित्याह(शी०) KI 'स' भिक्षुः 'तत्र' ग्रामादौ प्राघूर्णकभिक्षुभिः सार्द्ध 'कालेन' भिक्षावसरेण प्राप्तेन गृहपतिकुलमनुप्रविश्य तत्र 'इत
नरेतरेभ्यः' उच्चावचेभ्यः कुलेभ्यः 'सामुदानिक' भिक्षापिण्डम् 'एषणीयम्' उद्गमादिदोषरहितं 'वैषिक' केवलवेषावाप्त ॥३३६॥
दधात्रीदूतनिमित्तादिपिण्डदोषरहितं "पिण्डपात' भैसं प्रतिगृह्य प्राघूर्णकादिभिः सह ग्रासैषणादिदोषरहितमाहारमाहा
रयेद्, एतत्तस्य भिक्षोः 'सामग्य' संपूर्णो भिक्षुभाव इति ॥ प्रथमस्य चतुर्थः समाप्तः १-१-४ ॥
श्रुतस्क०२ चूलिका १ पिण्डैप०१ उद्देशः४
सूत्राक
[२४]
दीप अनुक्रम [३५८
8उक्तश्चतुर्थोद्देशकः, अधुना पशमः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धा-इहानन्तरोदेशके पिण्डग्रहणविधिरभिहितः, अत्रापि स एवाभिधीयत इत्याह
से भिक्खू वा २ जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा-अग्गपिड उक्खिप्पमाणं पेहाए अग्गपिंडं निक्खिप्पमाणं पहाए अग्गपिंड हीरमाण पेहाए अग्गपिंडं परिभाइजमाणं पेहाए अम्गपिंडं परिभुंजमाणं पेहाए अम्गापिंड परिहविजमाणं पेहाए. पुरा असिणाइ वा अबहाराइ वा पुरा जस्थऽण्णे समण वणीमगा खर्च २ उपसंकमंति से हंता अहमवि खद्धं २ उवसंक
मामि, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करेजा ॥ (सू०२५) स भिक्षुर्ग्रहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवं जानीयात्तद्यथा-अग्रपिण्डो-निष्पन्नस्य शाल्योदनादेराहारस्य देवताद्यर्थ |
॥३३६
REaratun
wiumstaram.org
| प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", पंचम-उद्देशक: आरब्ध:
~ 387
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [२५], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
*%
%
प्रत
%
सूत्राक
[२५]
%
दीप अनुक्रम [३५९]
सस्तोकस्तोकोद्धारस्तमुक्षिप्यमाणं दृष्ट्वा, तथाऽन्यत्र निक्षिप्यमाणं, तथा 'हियमाण' नीयमानं देवतायतनादौ, तथा 'परि
भज्यमानं' विभज्यमानं स्तोक स्तोकमन्येभ्यो दीयमानं, तथा परिभुज्यमानं, तथा परित्यज्यमानं-देवायतनाच्चतुर्दिा क्षिष्यमाणं, तथा 'पुरा असिणाइ वत्ति-'पुरा'पूर्वमन्ये श्रमणादयो येऽमुमग्रपिण्डमशितवन्तः, तथा पूर्वमपहृतवन्तो-व्यवस्थयाऽव्यवस्थया वा गृहीतवन्तः, तदभिप्रायेण पुनरपि पूर्वमिव वयमत्र लप्स्यामह इति यत्रामपिण्डादौ श्रमणादयः 'खद्धं खड़'ति त्वरितं त्वरितमुपसंक्रामन्ति, स भिक्षुरेतदपेक्ष्य कश्चिदेवं 'कुर्यादू' आलोचयेद्, यथा 'हन्त' इति वाक्योपन्यासार्थः अहमपि त्वरितमुपसंक्रमामि, एवं च कुर्वन् भिक्षुर्मातृस्थानं संस्पृशेदित्यतो नैवं कुर्यादिति ॥ साम्प्रतं भिक्षा-1 टनविधिप्रदर्शनार्थमाह
से भिक्खू वा० जाव समाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणाणि या अगलाणि वा भग्गलपासगाणि वा सति परकमे संजयामेव परिकमिजा, नो उजुयं गच्छिजा, केवली चूया आयाणमेयं, से तत्व परकममाणे पयलिज वा पक्षलेज वा पबडिज वा, से तत्थ पबलमाणे वा पक्खलेत्रमाणे वा पवढमाणे वा, तस्थ से काए उच्चारण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणेण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूरण वा सुकेण वा सोणिएण वा उबलिसे सिया, तहप्पगार कार्य नो अणंतरहियाए पुढवीए नो ससिणिद्वाए पुढवीए नो ससरक्खाए पुढवीए नो चित्तमंत्ताए सिलाए नो चित्तमंताए लेलूए कोलाबासंसि वा दारुए जीवपइटिए सअंडे सपाणे जाव ससंताणए नो आमजिन वा पमजिज वा संलिहिज्ज वा निलिहिज वा उब्वलेज वा उच्चट्टिज वा आयाविज वा पवाविज वा, से पुवामेव अप्पससरक्खं तणं वा
%-
0-57-582%
भा.सु.५७
~ 388~
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२६]
दीप
अनुक्रम
[ ३६० ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [२६], निर्युक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्री आचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ३३७ ॥
पतं वा कट्टु वासकरं वा जाइज्जा, जाइत्ता से तमायाय एगतमवकमिज्जा २ अहे सामथंडिलंसि वा जाव अन्नयरंसि वा तहपणारंसि पडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय पमजिय तो संजयामेव आमजिज वा जाब पचाविन्द वा ।। (सू० २६)
स भिक्षुभिक्षार्थं गृहपतिकुलं पाटकं रथ्यां ग्रामादिकं वा प्रविष्टः सन् मार्ग प्रत्युपेक्षेत, तत्र यदि 'अन्तरा' अन्तराले 'से' तस्य भिक्षोर्गच्छत एतानि स्युः, तद्यथा - 'वप्राः' समुन्नता भूभागा ग्रामान्तरे वा केदाराः, तथा परिखा वा प्राकारा वा गृहस्य पत्तनस्य या, तथा तोरणानि वा, तथाऽर्गला वाऽर्गलपाशका वा यत्रार्गलाऽग्राणि निक्षिपन्ते, एतानि चान्तराले ज्ञात्वा प्रक्रम्यतेऽनेनेति प्रक्रमो मार्गस्तस्मिन्नन्यस्मिन् सति संयत एव तेन 'पराक्रमेत' गच्छेत्, नैवर्जुना गच्छेत्, किमिति?, यतः 'केचली' सर्वज्ञो ब्रूयाद् 'आदानं' कर्मादानमेतत् संयमात्मविराधनातः, तामेव दर्शयति- 'स' भिक्षुः 'तत्र' तस्मिन् वप्रादियुक्ते मार्गे 'पराक्रममाणः' गच्छन् विषमत्वान्मार्गस्य कदाचित् 'प्रचलेत्' कम्पेत् प्रस्खलेद्वा तथा प्रपतेद्वा स तत्र प्रस्खलन प्रपतन् वा षण्णां कायानामन्यतमं विराधयेत्, तथा तत्र 'से' तस्य काय उच्चारेण वा प्रस्रवणेन वा श्लेष्मणा वा सिङ्घानकेन वा वान्तेन वा पित्तेन वा पूतेन वा शुक्रेण वा शोणितेन वा उपलिप्तः स्यादित्यत एवंभूतेन पथा न गन्तव्यम्, अथ मार्गान्तराभावात्तेनैव गतः प्रस्खलितः सन् कर्दमाद्युपलिप्तकायो नैवं कुर्यादिति दर्शयति स यतिस्तथाप्रकारम्-अशुचिकर्दमाद्युपलितं कायमनन्तर्हितया - अव्यवहितया पृथिव्या तथा 'सस्निग्धया' आर्द्रया एवं सरजस्कया वा, तथा 'चित्तवत्या' सचित्तया शिलया, तथा चित्तवता 'लेलुना' पृथिवीशकलेन वा, एवं कोला-घुणास्तदावासभूते दारुणि जीवप्रतिष्ठिते साण्डे सप्राणिनि यावत्ससन्तानके 'नो' नैव सकृदामृज्यान्नापि पुनः पुनः
For Parts Only
~389~
श्रुतस्कं० २ चूलिका १ पिण्डैप०१
उद्देशः ५
॥ ३३७ ॥
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक [२६]
दीप
अनुक्रम
[ ३६० ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [२६], निर्युक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
प्रमृज्यात्, कर्दमादि शोधयेदित्यर्थः तथा तत्रस्थ एव 'न संलिहेजा' न संलिखेत्, नोद्वर्त्तनादिनोद्वलेत्, नापि तदेवेषच्छुष्कमुद्वर्त्तयेत् नापि तत्रस्थ एवं सकृदातापयेत् पुनः पुनर्वा प्रतापयेत्, यत्कुर्यात्तदाह-स भिक्षुः 'पूर्वमेव' तदनन्तरमेवाल्परजस्कं तृणादि याचेत, तेन चैकान्तस्थण्डिले स्थितः सन् गात्रं 'प्रभृज्यात्' शोधयेत् शेषं सुगममिति ॥ किञ्च - से मिक्लू बा से जं पुष्प जाणिज्जा गोणं वियालं पडिप पेहाए महिसं वियालं पढिपछे पेहाए, एवं मणुस्सं आसं हथि सीहं वयं विगं दीवियं अच्छं तरच्छं परिसरं सियालं विरालं सुणयं कोलसुणयं कोकंतियं चित्ताचिङडयं वियालं पडिपहे पेहाए सइ परकमे संजयामेव परकमेज्जा, नो उज्जुयं गच्छिना से भिक्खू वा० समाणे अंतरा से उवाओ वा खाए वा कं वा घी वा भिलुगा वा विसमे वा विज्ञले वा परियाबञ्जिज्जा, सइ परकमे संजयामेव, नो उज्जयं
गच्छा || (सू० २७ )
स भिक्षुर्भिक्षार्थी प्रविष्टः सन् पथ्युपयोगं कुर्यात्, तत्र च यदि पुनरेवं जानीयाद् यथाऽत्र किञ्चिद्गवादिकमास्त इति तन्मार्ग रुन्धानं 'गां' बलीवर्द 'व्यालं' दृप्तं दुष्टमित्यर्थः पन्थानं प्रति प्रतिपथस्तस्मिन् स्थितं प्रत्युपेक्ष्य, शेषं सुगमं, यावत्सति पराक्रमे - मार्गान्तरे ऋजुना पथाऽऽत्मविराधनासम्भवान्न गच्छेत्, नवरं 'विगं'ति वृकं 'द्वीपिनं' चित्रकम् 'अच्छंति ऋक्षं 'परिसरन्ति सरभं 'कोलसुणयं' महासूकरं 'कोकंतियन्ति शृगालाकृतिलोंमटको रात्री को को इत्येवं रारटीति, 'चित्ताचिल्लड'ति आरण्यो जीवविशेषस्तमिति ॥ तथा-स भिक्षुर्भिक्षार्थं प्रविष्टः सन् मार्गोपयोगं दद्यात्, तत्रान्तराले यद्येतत्पर्यापद्येत- स्यात्, तद्यथा - 'अवपातः' गर्त्तः स्थाणुर्वा कण्टको वा घसी नाम-स्थलादधस्तादवतरणं
Jain Education international
For Pal Pal Use Only
~390~
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२७]
दीप
अनुक्रम [३६१]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [२७], निर्युक्तिः [२९७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ३३८ ॥
Jan Educator
'भिलुग'त्ति स्फुटितकृष्णभूराजिः विषमं निम्नोन्नतं विज्जलं कर्दमः तत्रात्मसंयमविराधनासम्भवात् 'पराक्रम' मार्गान्तरे श्रुतस्क ०२ सति ऋजुना पथा न गच्छेदिति ॥ तथा
चूलिका १ पिण्डैष०१
से भिक्खु बा० गाहाइकुलरस दुवारबाई कंटगबुंदियाए परिपिहियं पेहाए तेसिं पुत्र्वामेव उग्गहं अणणुन्नविय अपडिलेहिय अप्पमज्जिय नो अवगुणिज्ज वा पबिसिन वा निक्लमिज्ज वा, तेसिं पुण्वामेव उम्म अणुन्नविय पडिलेहिय पडिलेहिय मजिय पमजिय तो संजयामेव अदंगुणिज वा पविसेज वा निक्खमेज वा ॥ ( सू० २८ )
स भिक्षुर्भिक्षार्थं प्रविष्टः सन् गृहपतिकुलस्य 'दुवारबाई'ति द्वारभागस्तं कण्टकशाखया 'पिहितं' स्थगित प्रेक्ष्य येषां तगृहं तेषामवग्रहं पूर्वमेव 'अननुज्ञाप्य' अयाचित्वा, तथा अप्रत्युपेक्ष्य चक्षुषाऽप्रमृज्य च रजोहरणादिना 'नोऽवंगुणेजत्ति नैवोद्घाटयेद्, उद्घाट्य च न प्रविशेन्नापि निष्क्रामेत्, दोषदर्शनात्, तथाहि गृहपतिः प्रद्वेषं गच्छेत्, नष्टे च वस्तुनि साधुविषया शङ्कोपद्येत, उद्घाटद्वारे चान्यत् पश्वादि प्रविशेदित्येवं च संयमात्मविराधनेति । सति कारणेऽपवादमाह-स भिक्षुर्येषां तद्गृहं तेषां सम्बन्धिनमवग्रहम् 'अनुज्ञाप्य' याचित्वा प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य च गृहोद्घाटनादि कुर्या दिति, एतदुक्तं भवति-स्वतो द्वारमुद्घाट्य न प्रवेष्टव्यमेव, यदि पुनर्द्धानाचार्यादिप्रायोग्यं तत्र लभ्यते वैद्यो वा तत्रास्ते दुर्लभं वा द्रव्यं तत्र भविष्यति अवमौदर्ये वा सत्येभिः कारणैरुपस्थितैः स्थगितद्वारि व्यवस्थितः सन् शब्दं कुर्यात्, स्वयं वा यथाविध्युद्धाव्य प्रवेष्टव्यमिति । तत्र प्रविष्टस्य विधिं दर्शयितुमाह
सेक्२ि से जंपुर्ण जाणिजा समणं वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा अतिहिं वा पुव्यपविद्धं पेहाए नो वेसिं सं
For PalPrata Use Only
~391~
५ उद्देशः ५
।। ३३८ ॥
waryra
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [२९], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[२९]
दीप अनुक्रम [३६३]
लोए सपडिदुवारे चिडिजा, से तमावाय एगतमवकमिजा २ अणावायमसलोए चिडिजा, से से परो अणावायमसंलोए चिट्ठमाणस्त असणं वा ४ आहहु दलइजा, से य एवं वइजा-आउसंतो समणा! इमे भे असणे या ४ सम्बजणाए निसट्टे तं भुजह वा णं परिभाएह या णं, तं गइओ पहिगाहित्ता तुसिणीओ उबेहिजा, अवियाई एवं मममेव सिया, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा, से तमायाए नत्थ गच्छिज्जा २ से पुवामेव आलोइजा--भाउसंतो समणा ! इमे भे असणे या ४ सम्बजणाए निसिढे न मुंजह वा णं जाव परिभाएह वा णं, सेणमेवं वयंत परो वइजा-आउसंतो समणा ! तुम चेव णं परिभाएहि, से तत्व परिभाएमाणे नो अप्पणो सहूं २ डार्य २ ऊसढं २ रसिय २ मणुनं २ निद्धं २ लुक्खं २, से तत्थ अमुच्छिए अगिद्धे अग(ना)ढिए अणझोवबन्ने बहुसममेव परिभाइजा, से णं परिभाएमाणं परो वइजा--आउसंतो समणा! मा णं तुमं परिभापहि सध्ये वेगइभा ठिया उ भुक्खामो वा पाहामो चा, से तत्थ भुंजमाणे मो अपणा खड़
खद्धं जाव लुक्खं, से तत्थ अमुच्छि ए ४ बहुसममेव अँजिजा वा पाइजा था ।। (सू०२९) स भिक्षु मादौ भिक्षार्थ प्रविष्टो यदि पुनरेवं विजानीयाद् यथाऽत्र गृहे श्रमणादिः कश्चित्मविष्टः, तं च पूर्वप्रविष्टं प्रेक्ष्य दातृप्रतिग्राहकासमाधानान्तरायभयान्न तदालोके तिछेत्, नापि तन्निर्गमद्वारं प्रति दातृप्रतिग्राहकासमाधानान्तरायभयात्, किन्तु स भिक्षुस्तं श्रमणादिकं भिक्षार्थमुपस्थितम् 'आदाय' अवगम्यैकान्तमपकामेत्, अपक्रम्य चान्येषां चानापाते-विजनेऽसंलोके च संतिष्ठेत् , तत्र च तिष्ठतः स गृहस्थः 'से' तस्य भिक्षोश्चतुर्विधमयाहारमाहत्य | दद्यात्, प्रयच्छंश्चैतद्भूयाद्-यथा यूयं बहवो भिक्षार्थमुपस्थिता अहं च व्याकुलत्वान्नाहारं विभाजयितुमलमतो हे
For P
OW
Hrwasaram.org
~392~
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[२९]
दीप
अनुक्रम [ ३६३]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [२९], निर्युक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ३३९ ॥
४
आयुष्मन्तः ! श्रमणाः ! अयमाहारश्चतुर्विधोऽपि 'भे' युष्मभ्यं सर्वजनार्थं मया निसृष्टो - दत्तस्तत्साम्प्रतं स्वरुच्या तमाहारमेकत्र वा भुध्वं परिभजध्वं वा विभज्य वा गृह्णीतेत्यर्थः, तदेवंविध आहार उत्सर्गतो न ग्राह्यः, दुर्भिक्षे वाऽध्याननिर्गतादौ वा द्वितीयपदे कारणे सति गृह्णीयाद्, गृहीत्वा च नैवं कुर्याद् यथा तमाहारं गृहीत्वा तूष्णीको गच्छ नेवमुत्प्रेक्षेत - यथा ममैवायमेकस्य दत्तोऽपि चायमल्पत्वान्ममैवैकस्य स्याद्, एवं च मातृस्थानं संस्पृशेद्, अतो नैवं कुर्यादिति, यथा च कुर्यात्तथा च दर्शयति-स भिक्षुस्तमाहारं गृहीत्वा तत्र श्रमणाद्यन्तिके गच्छेद्, गत्वा च सः 'पू- ४ |र्वमेव' आदावेव तेषामाहारम् 'आलोकयेत्' दर्शयेत् इदं च ब्रूयाद्-यथा भो आयुष्मन्तः ! श्रमणादयः । अयमशनादिक आहारो युष्माकं सर्वजनार्थमविभक्त एवं गृहस्थेन निसृष्टो दत्तस्तद्ययमेकत्र भुवं विभजध्वं वा, 'से' अथैनं साधुमेवं ब्रुवाणं कश्चिच्छ्रमणादिरेवं श्रूयाद्-यथा भो आयुष्मन् ! श्रमण ! त्वमेवास्माकं परिभाजय, नैवं तावत्कुर्यात्, अथ सति कारणे कुर्यात् तदाऽनेन विधिनेति दर्शयति-स भिक्षुर्विभाजयन्नात्मनः 'खद्धं २' प्रचुरं २ 'डागं'ति शाकम् 'ऊस'ति उच्छ्रितं वर्णादिगुणोपेतं, शेषं सुगमं यावद्र्क्षमिति न गृह्णीयादिति । अपि च- 'सः' भिक्षुः 'तंत्र' आहारेमूर्छितोऽगृद्धोऽनादृतोऽनभ्युपपन्न इति एतान्यादरख्यापनार्थमे कार्थिकान्युपात्तानि कथञ्चिद्भेदाद्वा व्याख्यातव्यानीति, 'बहुसम' मिति सर्वमत्र समं किञ्चित्सिकथादिना यद्यधिकं भवेदिति, तदेवं प्रभूतसमं परिभाजयेत् तं च साधुं परिभाजयन्तं कश्चिदेवं ब्रूयाद्, यथा-आयुष्मन् ! श्रमण ! मा त्वं परिभाजय, किन्तु सर्व एव चैकत्र व्यवस्थिता वयं भोश्यामहे पास्यामो वा, तत्र परतीर्थिकैः सार्द्धं न भोक्तव्यं, स्वयूथ्यैश्च पार्श्वस्थादिभिः सह सम्भोगिकैः सहौघा -
Education Internationa
For Praise Only
~393~
श्रुतस्कं० २
चूलिका १
पिण्डैप० १ उद्देशः ५
॥ ३३९ ॥
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [२९], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[२९]
लोचना दत्त्वा भुञ्जानानामयं विधिः, तद्यथा--नो आत्मन इत्यादि, सुगममिति । इहानन्तरसूत्रे बहिरालोकस्थानं निषिद्धं, साम्प्रतं तत्प्रवेशप्रतिषेधार्थमाह
से भिक्खू वा से जं पुण जाणिजा समर्ण वा माहणं वा गामपिंडोलग वा अतिहि या पुचपचिट्ट पेहाए नो ते उवाइवाम्म पविसिका वा ओभासिज बा, से तमायाय एगतमवक्वमिज्जा २ अणावायमसंलोए चिट्ठिजा, अह पुणेवं जाणिज्जा-पडिसेहिए वा दिने वा, तो तंमि नियत्तिए संजयामेव पविसिज वा ओभासिज वा एवं० सामग्गिय० (सू०३०)
॥२-१-१-५ ॥ पिण्डैषणायां पञ्चम उद्देशकः ॥
स भिक्षुर्भिक्षार्थ ग्रामादौ प्रविष्टः सन् यदा पुनरेवं विजानीयात् , तद्यथा-अत्र गृहपतिकुले श्रमणादिकः प्रविष्टः, तं च दापर्वप्रविष्टं श्रमणादिकं प्रेक्ष्य ततो न तान् श्रमणादीन् पूर्वप्रविष्टानतिक्रम्य प्रविशेत , नापि तत्स्थ एव 'अवभाषेत दा-11
तारं याचेत् , अपि च-स तम् 'आदाय' अवगम्यैकान्तमपकामेद् अनापातासंलोके च तिष्ठेत् तावद्यावच्छ्रमणादिके प्रतिपिडे पिण्डे वा तस्मै दत्ते, ततस्तस्मिन् 'निवृत्ते' गृहान्निर्गते सति ततः संयत एवं प्रविशेदवभाषेत बेति, एवं च। | तस्य भिक्षोः 'सामग्य' सम्पूणों भिक्षुभाव इति ॥ प्रथमस्य पञ्चमोद्देशकः समाप्तः ।।
क
दीप अनुक्रम [३६३]
teaders
| पञ्चमोद्देशकानन्तरं षष्ठः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके श्रमणाद्यन्तरायभयाद्गृहप्रवेशो निपिद्धः, तदिहाप्यपरप्राण्यन्तरायप्रतिषेधार्थमाह
प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययन पिण्डैषणा", षष्ठ:-उद्देशक: आरब्धः
~ 394~
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [३१], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
प्रत
राङ्गवृत्तिः
सूत्राक
(शी०) ॥३४०॥
[३१]
दीप अनुक्रम [३६५]
से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिजा-रसेसिणो बहवे पाणा घासेसणाए संथडे संनिवइए पेहाए, तंजहा-कुकुरजाइयं वा श्रुतस्कं०२ सूयरजाइयं वा अग्गपिंडसि वा वायसा संबडा संनिवश्या पेहाए सइ परकमे संजया नो उज्जुयं गच्छिना (सू० ३१)
चूलिका | स भिक्षभिक्षार्थ प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं विजानीयात् , तयथा-बहवः 'प्राणाः' प्राणिनः रस्यते-आबाटात तिस-INT' s
आस्वाद्यत इति रस उद्देशः६ स्तमेष्टुं शीलमेषां ते रसैषिणः, रसान्वेषिण इत्यर्थः, ते तदर्थिनः सन्तः पश्चाद् प्रासार्थ क्वचिद्रथ्यादौ संनिपतितास्ताचाहारार्थ संस्कृ(स्तु)तान्-धनान् संनिपतितान् प्रेक्ष्य ततस्तदभिमुखं न गच्छेदिति सम्बन्धः, तांश्च प्राणिनः स्वनाममाहमाह-कुकुटजातिकं वेत्यनेन च पक्षिजातिरुद्दिष्टा, सूकरजातिकमित्यनेन च चतुष्पदजातिरिति, 'अग्रपिण्डे वा' काक-| पिण्ड्यां वा बहिः क्षिप्तायां वायसाः संनिपतिता भवेयुः, तांश्च दृष्ट्वाऽग्रतः, ततः सति पराक्रमे-अन्यस्मिन् मार्गान्तरे| 'संयतः सम्यगुपयुक्तः संयतामन्त्रणं वा ऋजुस्तदभिमुखं न गच्छेद् , यतस्तत्र गच्छतोऽन्तरायं भवति, तेषां चान्यत्र संनिपतितानां वधोऽपि स्यादिति ।। साम्प्रतं गृहपतिकुलं प्रविष्टस्य साधोर्विधिमाह
से भिक्खू वा २ जाव नो गाहावइकुलस वा दुवारसाहं अवलंबिय २ चिडिजा, नो गा० दगच्छद्रणमत्तए चिडिजा, नो गा० चंदणिउयए चिहिज्जा, नो गा. सिणाणरस वा वच्चस्स वा संलोए सपडिदुबारे चिट्ठिज्जा, नो. आलोयं वा थिम्गलं वा संधि वा दगभवणं वा बाहामो पगिझिय २ अंगुलियाए वा उदिसिय २ उपणमिय २ अवनमिय २ निया
|| ३४०॥ इजा, नो गाहावइअंगुलियाए उरिसिय २ जाइजा, नो गा० अंगुलिए चालिय २ जाइया, नो गा. ० तजिय २
~ 395
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [५], मूलं [३२], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[३२]
दीप अनुक्रम [३६६]
जाइजा, नो गा० अ० उक्खुलंपिय [ उत्खलुदिय ] २ जाइजा, नो गाहावई बंदिय २ जाइज्जा नो वयणं फरुसं वइना ॥ (सू. ३२) स भिक्षुर्भिक्षार्थ गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन्नैतत्कुर्यात् , तद्यथा-नो गृहपतिकुलस्य द्वारशाखाम् 'अवलम्ब्यावलम्ज्य' पौनःपुन्येन भृशं वाऽवलम्ब्य तिष्ठेद् , यतः सा जीर्णत्वात्पतेद् दुष्पतिष्ठितत्वाद्वा चलेत् ततश्च संयमात्मविराधनेति, तथा 'उदकप्रतिष्ठापनमात्रके' उपकरणधावनोदकप्रक्षेषस्थाने प्रवचनजुगुप्साभयान्न तिष्ठेत् , तथा 'चंदणिउदय'त्ति आचमनोदकप्रवाहभूमी न तिष्ठेद् , दोषः पूर्वोक्त एव, तथा स्नानवर्चःसंलोके तत्प्रतिद्वारं वा न तिष्ठेत्, एतदुक्तं भवति-12 यत्र स्थितैः स्नानवर्च:क्रिये कुर्वन् गृहस्थः समवलोक्यते तत्र न तिष्ठेदिति, दोपश्चात्र दर्शनाशङ्कया निःशङ्कतरिक्रयाया अभावेन निरोधप्रद्वेषसम्भव इति, तथा नैव गृहपतिकुलस्य 'आलोकम्' आलोकस्थान-गवाक्षादिक, 'थिग्गल'ति प्रदेशपतितसंस्कृतं, तथा 'संघित्ति चौरखातं भित्तिसन्धि वा, तथा 'उदकभवनम्' उदकगृह, सर्वाण्यप्येतानि भुजां 'प्रगृह्य प्रगह्य पौनःपुन्येन प्रसार्य तथाऽगुल्योद्दिश्य तथा कायमवनम्योन्नम्य च न निध्यापयेत्-न प्रलोकयेन्नाप्यन्यस्मै प्रदर्शयेत्, सर्वत्र द्विवचनमादरख्यापनार्थ, तत्र हि हृतनष्टादौ शङ्कोत्पद्यत इति ॥अपि च-स भिक्षुर्गहपतिकुलं प्रविष्टः सन्नैव गृहपतिमङ्गल्याऽत्यर्थमुद्दिश्य तथा चालयित्वा तथा 'तर्जयित्वा' भयमुपदर्य तथा कण्डूयनं कृत्वा तथा गृहपति। 'वन्दित्वा' वाग्भिः स्तुत्वा प्रशस्य नो याचेत, अदत्ते च नैव तद्गृहपति परुष वदेत्, तद्यथा-पक्षस्य परगृह रक्षसि, कुतस्ते
SARERainintamarana
~396~
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [३३], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
प्रत
राङ्गवृत्तिः
(शी०) ॥३४१॥
सूत्रांक [३३]
दीप अनुक्रम [३६७]]
दानं , वात्सेव भद्रिका भवतो न पुनरनुष्ठानम् , अपि च-"अक्षरद्वयमेतद्धि, नास्ति नास्ति यदुच्यते । तदिदं देहि श्रुतस्क०२ देहीति, विपरीतं भविष्यति ॥ १॥ अन्यच्च
चूलिका अह तत्व कपि मुंजमाण पेहाए गाहावई बा० जाव कम्मकरि वा से पुब्बामेव आलोइजा-भाउसोत्ति वा भइणित्ति वा पिण्डैप०१ दाहिसि मे इत्तो अन्नयर भोवणजाय', से सेवं वयंतस्स परो हत्थं वा मर्च वा दयि वा भायणं वा सीओदगवियडेण उद्देशः वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिन वा पहोइन वा, से पुवामेव आलोइजा-आउसोत्ति वा भइणित्ति वा! मा एवं तुम इत्य वा० ४ सीओदगवियढेण वा २ उच्छोलेहि वा २, अभिकंखसि मे दाउँ एवमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो हत्यं वा ४ सीओ० उसि० उच्छोलित्ता पहोइत्ता आ९ि दलइजा, वहपगारेणं पुरेफम्मकएणं हत्थेण वा ४ असणं वा ४ अफासुयं जाव नो पडिगाहिजा । अह पुण एवं जाणिजा नो पुरेकम्मकएणं उदउल्लेणं तहप्पगारेणं वा उदउल्लेण वा हत्येण वा ४ असणं वा ४ अफासुर्य जाव नो पडिगाहिजा । अह पुणेवं जाणिना-नो उदउल्लेण ससिणिद्धेण सेसं तंचेच एवं-ससरक्खे उदउल्ले, ससिणिद्धे मट्टिया उसे। हरियाले हिंगुलुए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥१॥ गेल्य वन्निय सेढिय सोरट्ठिय पिट्ठ कुकुस उकुट्ठसंसटेण । अह पुणेवं जाणिज्जा नो असंसट्टे संसढे तहपगारेण संसहेण हत्थेण वा ४ असणं वा ४ फासुर्य जाव पडिगाहिजा ॥ (सू० ३३) अध भिक्षुस्तत्र गृहपतिकुले प्रविष्टः सन् कञ्चन गृहपत्यादिकं भुञ्जानं प्रेक्ष्य स भिक्षुः पूर्वमेवालोचयेद्-यथाऽयं ॥३४१॥ गृहपतिस्तद्भार्या वा यावत्कर्मकरी वा भुङ्क्ते, पर्यालोच्य च सनामग्राहं याचेत, तद्यथा-'आउसेत्ति वेत्ति, अमुक इति ।
For P
OW
~397
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[33]
दीप
अनुक्रम [३६७ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [३३], निर्युक्ति: [२९७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
गृहपते ! भगिनि ! इति वा इत्याद्यामत्रय दास्यसि मेऽस्मादाहारजातादन्यतरनोजनजातमित्येवं याचेत, तच न वर्त्तते कर्त्तुं कारणे वा सत्येवं वदेत् अथ 'से' तस्य भिक्षोरेवं वदतो याचमानस्य परो गृहस्थः कदाचिद्धस्तं मात्रं दव भाजनं वा 'शीतोदकविकटेन' अप्कायेन 'उष्णोदकविकटेन' उष्णोदकेनाप्रासुकेनात्रिदण्डोद्वृत्तेन पश्चाद्वा सचित्तीभूतेन 'उच्छोले 'ति सकृदुदकेन प्रक्षालनं कुर्यात्, 'पहोएजत्ति प्रकर्षेण वा हस्तादेर्द्धावनं कुर्यात् स भिक्षुर्हस्तादिकं पूर्वमेव प्रक्षाल्यमानमालोचयेद्, दत्तावधानो भवेदित्यर्थः तच्च प्रक्षाल्यमानमालोच्यामुक इत्येवं स्वनामग्राहं निवारयेद्, यथा-मैवं कृथास्त्वमिति, यदि पुनरसौ गृहस्थो हस्तादिकं सचित्तोदकेन प्रक्षाल्य दद्यात्तदप्रासुकमिति ज्ञाखा न प्रतिगृहीयादिति ॥ किञ्च -- अथासौ भिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं विजानीयात्, तद्यथा— 'नो' नैव साधुभिक्षादानार्थ पुरः- अग्रतः कृतं प्रक्षालनादिकं कर्म क्रिया यस्य हस्तादेः स तथा तेनोदकेनार्द्रेणेति-गलद्विन्दुनेति, एतदुक्तं भवति-साधुभिक्षादानार्थं नैव हस्तादिकं प्रक्षालितं किन्तु तथाप्रकार एक स्वतः कुतोऽप्यनुष्ठानादुदकाद्र हस्तस्तेन, एवं मात्रादिना ऽपि गलद्विन्दुना दीयमानं चतुर्विधमप्याहारमप्रासुकमनेपणीयमिति मत्वा नो गृह्णीयादिति ॥ अथ पुनरेवं विजानीयात्, तद्यथा-नैव 'उदकार्येण' गउद्विन्दुना हस्तादिना दद्यात्, किन्तु 'सस्निग्धेन' शीतोदकस्तिमितेनापि हस्तादिना दीयमानं न प्रतिगृह्णीयात्, 'एव'मिति प्राक्तनं न्यायमतिदिशति यथोदकस्निग्धेन हस्तेन न ग्राह्यं तथाऽम्येन रजसाऽपि एवं मृत्तिकाद्याप्यायोज्यमिति, तत्रोषः - क्षारमृत्तिका हरिताल हिङ्गलकमनःशिलाऽञ्जनल- + वणगेरुकाः प्रतीताः, सचित्ताश्च खनिविशेषोसत्तेः वर्णिका - पीतमृत्तिका, सेटिका खटिका, सौराष्ट्रका - तुवरिका, पि
Education Internationa
For Parts Only
~398~
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [३३], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा-
ष्टम्-अच्छा
प्रत
राङ्गवृत्तिः (शी)
सूत्रांक [३३]
॥३४२॥
दीप अनुक्रम [३६७]]
टम्-अच्छटिततन्दुलचूर्णः, कुकुसाः-प्रतीताः, 'उक्कुटुंति पीलुपर्णिकादेरुदूखलचूर्णितमार्द्रपर्णचूर्णमित्येवमादिना सस्नि-5 ग्धेन हस्तादिना दीयमानं न गृह्णीयात्, इत्येवमादिना तु असंसृष्टेन तु गृह्णीयादिति । अथ पुनरेवं जानीयान्नोऽसंसृष्टःचूलिका १ किं तहि?-संसृष्टस्तजातीयेनाहारादिना तेन संसृष्टेन हस्तादिना प्रासुकमेषणीयमिति गृह्णीयात् , अन चाटी भङ्गाः, त- पिण्डैष०१
द्यथा-"असंसढे हत्थे असंसट्टे मत्ते निरवसेसे दब्वे” इत्येकैकपदव्यभिचारान्नेयाः, स्थापना चेयम्-अथ पुनरसौ ॥ | उद्देशः६ x भिक्षुरेवं जानीयात्, तद्यथा-उदकादिनाऽसंसृष्टो हस्तादिस्ततो गृह्णीयात्, यदिवा तथाप्रकारेण दातव्यद्रव्यजातीयेन | संसृष्टो हस्तादिस्तेन तथा प्रकारेण हस्तादिना दीयमानमाहारादिकं प्रासुकमेषणीयमितिकृत्या प्रतिगृह्णीयादिति । किञ्च
से भिक्खू वा २ से ज पुण जाणिज्जा पिहुयं वा बहुरयं वा जाव चाउलपलंबं या असंजए भिक्खुपडियाए चित्तमंताए सिलाए जाव संशाणाए कुर्दिसु वा कट्टिति वा कुट्टिसति वा जुफणिसु वा ३ तहप्पगार पिहुयं वा अफामुयं नो
पडिगाहिजा ।। (सू० ३४)
स भिक्षुर्भिक्षार्थ गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं विजानीयात् , तद्यथा-'पृथुक' शाल्यादिलाजान 'बहुर-18 हायति पहुंकं 'चाउलपलंब ति अर्द्धपक्कशाल्यादिकणादिकमित्येवमादिकम् 'असंयतः' गृहस्थः 'भिक्षुप्रतिज्ञया' भिक्षुमु
द्दिश्य चित्तमत्यां शिलायां तथा सबीजायां सहरितायां साण्डायां यावन्मर्कटसन्तानोपेतायाम् 'अकुट्टिषुः' कुट्टितवन्तः ॥३४२॥ तथा कुदृन्ति कुटिष्यन्ति वा, एकवचनाधिकारेऽपि छान्दसत्वात्तिव्यत्ययेन बहुवचनं द्रष्टव्यं, पूर्वत्र का जातावेकवचनं,
~399~
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [३४], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[३४]]
दीप
तच्च पृथुकादिकं सचित्तमचित्तं वा चित्तमत्यां शिलायां कुट्टयित्वा 'उप्फणिंसुत्ति साध्वर्थ वाताय दत्तवन्तो ददति दास्यन्ति वा, तदेवं तथाप्रकारं पृथुकादि ज्ञात्वा लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयादिति ॥ किश्च
से भिक्खू वा २ जाव समाणे से ज० बिलं वा लोणं उम्भिय वा लोणं अस्संजए जाच संताणाए भिदिसु ३ रुचिसु । वा ३ बिलं वा लोणं उभियं वा लोणं अफासुर्य० नो पशिगाहिज्जा ।। (सू० ३५) स भिक्षुर्यदि पुनरेवं विजानीयात् , तद्यथा-बिलमिति खनिविशेषोत्पन्नं लवणम् , अस्य चोपलक्षणार्थत्वात्सैन्धवसौवर्चलादिकमपि द्रष्टव्यं, तथोभिजमिति समुद्रोपकण्ठे क्षारोदकसम्पर्का यदुनियते लषणम्, अस्याप्युपलक्षणार्थत्वाक्षारोदकसेकायद्भवति रुमकादिकं तदपि ग्राह्यं, तदेवंभूतं लवणं पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टायां शिलायामभैरसुः-कणि-IN
काकारं कुर्युः, तथा साध्वर्थमेव भिन्दन्ति भेत्स्यन्ति वा तथा श्लक्ष्णतरार्थं 'रुचिंसुव'त्ति पिष्टवन्तः पिंपन्ति पेक्ष्यन्ति | M||वा, तदपि लवणमेवंप्रकारं ज्ञात्वा नो (प्रति) गृह्णीयात् ।। अपि च
से भिक्खू वा० से ज० असणं वा ४ अगणिनिक्खित्तं तहप्पगारं असणं वा ४ अफासुर्य नो०, फेवली चूया आयाणमेयं, अस्संजए मिक्खुपटियाए उसिचमाणे वा निस्सिंचमाणे वा आमज्जमाणे षा पमजमाणे वा ओयारेमाणे वा उच्चसमाणे वा अगणिजीवे हिसिज्जा, अह भिक्खूर्ण पुम्वोवइट्ठा एस पइन्ना एस हेऊ एस कारणे एसुबएसे जं तहपगार असणं वा ४
अगणिनिक्खित्तं अफामुयं नो० पढि० एयं० सामग्गियं ॥ (सू०३६) । पिण्डैषणायां पा उद्देशकः २-१-१-६॥ श्रा सू.५८10
स भिक्षुहपतिकुलं प्रविष्टश्चतुर्विधमप्याहारमन्नावुपरि निक्षिप्तं तथाप्रकारं ज्यालासंवर्च लाभे सति न प्रतिगृह्णी
अनुक्रम [३६८]
~400
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [६], मूलं [३६], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रुत चूलिक पिण्डैष०१ | उद्देशः ७
सुधाक
[३६]
दीप
श्रीआचा- यात् । अत्रैव दोषमाह-केवली ब्रूयात् 'आदान' कर्मादानमेतदिति, तथाहि 'असंयतः' गृहस्थो भिक्षुप्रतिज्ञया तत्रा- राङ्गवृत्तिःम्युपरिव्यवस्थितमाहारम् 'उत्सिञ्चन्' आक्षिपन् 'निःसिञ्चन्' दत्तोद्वरितं प्रक्षिपन्, तथा आमजयन्' सकृद्धस्तादिना
(शी०) शोधयन, तथा प्रकर्षण मार्जयन्-शोधयन् , तथाऽवतारयन् , तथा 'अपवर्तयन्' तिरश्चीनं कुर्वन्नग्निजीवान् हिंस्या॥३४३॥
दिति । 'अथ' अनन्तरं 'भिक्षूणां' साधूनां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा एप हेतुरेतत्कारणमयमुपदेशः यत्तथाप्रकारमग्निसंबद्धमशनायग्निनिक्षिप्तममासुकमनेषणीयमिति ज्ञात्वा लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात्, एतत्खलु भिक्षोः 'सामग्य' समग्रो भिक्षुभाव इति ॥ प्रथमाध्ययनस्य षष्ठ उद्देशकः समाप्तः ॥२-१-१-६॥
Decषष्ठोद्देशकानन्तरं सप्तमः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धा-इहानन्तरोदेशके संयमविराधनाऽभिहिता, इह तु संयमारमदातृविराधना तया च विराधनया प्रवचनकुत्सेत्येतदत्र प्रतिपाद्यत इति
से भिक्ख या २ से जं. असणं वा ४ खधंसि वा थंभसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि उबनिक्खित्ते सिया तहपगार मालोहर्ट असणं वा ४ अफासुयं नो०, केवली बूया आयाणमेयं, असंजए भिक्खुपडियाए पीढं वा फलगं वा निस्सेणि वा उबूहल वा आहह उस्सविय दुरूहिज्जा, से तत्थ दुरूहमाणे पयलिज वा पवडिज बा, से तत्थ पयलमाणे वा २ हत्थं वा पायं वा बाहुं वा ऊरं वा उपर वा सीसं
अनुक्रम [३७०]
D
॥३४३॥
SARERaininumaana
प्रथम चुलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", सप्तम-उद्देशक: आरब्धः
~401~
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [३७], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[३७]]
दीप
वा अन्नयर वा कार्यसि इंपियजालं लूसिज वा पाणाणि वा ४ अभिहणिज वा वित्तासिज वा लेसिज वा संघसिज वा संघट्टिज वा परियाविज वा किलामिज वा ठाणाओ ठाणं संकामिज वा, तं तह पगार मालोहडं असणं वा ४ लाभे संते नो पडिगाहिज्जा, से भिक्खू वा २ जाव समाणे से ज० असणं वा ४ कुट्ठियाओ वा कोलेजाउ वा अस्संजए मिक्खुपडियाए उकुजिय अवउजिय ओहरिय आहटु दलइना, तहप्पगारं असणं वा ४ लाभे संते नो पडिगाहिजा ।। (सू०३७)। स भिक्षुर्भिक्षार्थं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं चतुर्विधमप्याहारं जानीयात् , तद्यथा-'स्कन्धे' अर्द्धप्राकारे 'स्तम्भे वा शैलदारुमयादौ, तथा मञ्चके वा माले वा प्रासादे वा हर्म्यतले वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारेऽन्तरिक्षजाते स आहारः॥2 'उपनिक्षिप्तः' व्यवस्थापितो भवेत् , तं च तथाप्रकारमाहारं मालाहृतमिति मत्वा लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् , केवली
याद्यत आदानमेतदिति, तथाहि-असंयतो भिक्षुप्रतिज्ञया साधुदानार्थ पीठकं वा फलक वा निश्रेणिं वा उदूखलं वाऽऽहत्य-उर्व व्यवस्थाप्यारोहेत् , स तत्रारोहन प्रचलेद्वा प्रपतेद्वा, स तत्र प्रचलन् प्रपतन् वा हस्तादिकमन्यतरद्धा काये इन्द्रियजातं 'लूसेज'त्ति विराधयेत्, तथा प्राणिनो भूतानि जीवान् सत्त्वानभिहन्याद्वित्रासयेद्वा लेषयेद्वा-संश्लेष
वा कुर्यात् तथा संघर्ष वा कुर्यात् तथा सङ्घट्ट वा कुर्यात्, एतच्च कुर्वस्तान् परितापयेद्वा क्लामयेद्वा स्थानात्स्थान ४| सङ्कामयेद्वा, तदेतज्ज्ञात्वा यदाहारजातं तथाप्रकारं मालाहृतं तल्लामे सति नो प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुयदि पुनरेव-12
भूतमाहारं जानीयात् , तद्यथा-कोष्ठिकातः' मृन्मयकुशूलसंस्थानायाः तथा 'कोलेजाओ'त्ति अधोवृत्तखाताकाराद्री Pअसंयतः 'भिक्षुप्रतिज्ञया' साधुमुद्दिश्य कोष्ठिकातः 'उकुन्जियत्ति ऊर्द्धकायमुन्नम्य ततः कुब्जीभूय, तथा कोलेजाओ
अनुक्रम [३७१]
Humstaram.org
~402~
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [३७], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[३७]
दीप
श्रीआचा-13 अवउजित्ति अधोऽवनम्य, तथा 'ओहरिय'त्ति तिरश्चीनो भूत्वाऽऽहारमाहृत्य दद्यात्, तच्च भिक्षुस्तथाप्रकारमधो- श्रुतस्क०२ रावृत्तिःमालाहृतमितिकृत्वा लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ अधुना पृथिवीकायमधिकृत्याह
चूलिका १ (शी०)
से भिक्खू वा० से ० असणं वा ४ मट्टियाउलितं तहप्पगारं असणं वा ४ लाभे सं०, केवली०, अस्संजए मि० म- पिण्डैष०१
टिओलितं असणं वा० उभिदमाणं पुढविकार्य समारंभिजा तह तेउवाउवणस्सइतसकार्य समारंभिजा, पुणरवि उलिंपमाणे उद्देशः७ ॥३४४॥
पच्छाकम्म करिजा, अह भिक्खूणं पुब्बो जं तहप्पगारं मट्टिओलितं असणं वा लाभे० । से भिक्खू० से ज० असणं वा ४ पुढविकायपट्ठियं तहप्पगारं असणं वा अफासुर्य । से भिक्खू.जे. असणं था ४ आउकायपइडियं चेब, एवं अगणिकायपाहियं लाभे० केवली०, अरसंज० मि० अगणि उस्सकिय निस्सकिय ओहरिय आह९ दलइजा अह भिक्खूर्ण० जाब नो पडि० ॥ (सू० ३८)। स भिक्षुहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं जानीयात् , तद्यथा-पिठरकादौ मृत्तिकयाऽवलिप्तमाहारं 'तथाप्रकार'मित्यवलिप्तं केनचित्सरिज्ञाय पश्चारकर्मभयाच्चतुर्विधमप्याहारं लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात, किमिति ?, यतः केवली -1|| यात्कर्मादानमेतदिति, तदेव दर्शयति-'असंयतः' गृहस्थो भिक्षुप्रतिज्ञया मृत्तिकोपलिप्तमशनादिकम्-अशनादिभाजनं तच्चोगिन्दन् पृथिवीकार्य समारभेत, स एव केवल्याह, तथा तेजोवायुवनस्पतित्रसकार्य समारभेत, दत्ते सत्युत्तरकालं पुनरपि शेषरक्षार्थ तद्भाजनमवलिम्पन् पश्चात्कर्म कुर्यात् , अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा एष हेतुरेतत्कारणमय- ३४४ ॥ मुपदेशः यत्तथाप्रकारं मृत्तिकोपलिप्तमशनादिजातं लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुहपतिकुलं प्रविष्टः सन् ||
अनुक्रम [३७१]
~403~
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [३८], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[३८]
दीप
यदि पुनरेवंभूतमशनादि जानीयात् , तद्यथा-सचित्तपृथिवीकायप्रतिष्ठित' पृथ्वीकायोपरिव्यवस्थितमाहारं विज्ञाय पृथिवीकायसनादिभयालाभे सत्यमासुकमनेषणीयं च ज्ञात्वा न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एवमष्कायप्रतिष्ठितमग्निकायप्रति-| |ष्ठितं लाभे सति न प्रतिगृह्णीयाद्, यतः केवली ब्रूयादादानमेतदिति । तदेव दर्शयति-असंयतो भिक्षुप्रतिज्ञयाऽग्निकायमुल्मुकादिना 'ओसकिय'त्ति प्रज्वाल्य (निषिच्य), तथा 'ओहरियत्ति अग्निकायोपरि व्यवस्थितं पिठरकादिकमाहारभाजनमपवृत्त्य तत आहृत्य-गृहीत्वाऽऽहारं दद्यात्, तत्र भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा यदेतत्तथाभूतमाहारं नो| प्रतिगृह्णीयादिति ॥
से भिक्खू वा २ से ज० असणं वा ४ अशुसिणं अस्संजए भि० सुप्पेण वा विहुयणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा साहाए चा साहाभंगेण या पिहुणेण वा पिङ्गुणहत्थेण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्येण वा मुहेण वा फुमिज वा वीइज वा, से पुब्बामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति वा भइणित्ति वा! मा एतं तुर्म असणं वा अथुसिणं सुप्पेण वा जाब फुमाहि वा बीयाहि वा अभिकखसि मे दाउं, एमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो सुप्पेण वा जाब वीइत्ता आइट्ट दलइजा तहप्पगारं असणं वा ४ अफासुयं वा नो पडि०॥ (सू०३९)॥ स भिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यदिपुनरेवं जानीयाद् यथाऽत्युष्णमोदनादिकमसंयतो भिक्षुप्रतिज्ञया शीतीकरणार्थ सूर्पण वा वीजनेन वा तालवृन्तेन वा मयूरपिच्छकृतव्यजनेनेत्यर्थः, तथा शाखया शाखाभड्रेन पल्लवेनेत्यर्थः, तथा बहेण वा बर्हकलापेन वा, तथा वस्त्रेण वस्त्रकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा तथाप्रकारेणान्येन वा केनचित् 'फुमेजा वेति
अनुक्रम [३७२
For P
OW
~404~
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [३९], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
रावृत्तिः। (शी०)
CE195
[३९]
॥३४५॥
***********
दीप
मुखवायुना शीतीकुर्याद् वस्त्रादिभिर्वा धीजयेत् , स भिक्षुः पूर्वमेव 'आलोकयेत्' दत्तोपयोगो भवेत् , तथाकुर्वाणं च श्रुतस्क०२ दृष्ट्वैतद्वदेत् , तद्यथा-अमुक! इति वा भगिनि! इति वा इत्यामन्त्र्य मैवं कृथा यद्यभिकासि मे दातुं तत एवंस्थितमेव चूलिका १ ददस्व, अथ पुनः स परो-गृहस्थः 'से' तस्य भिक्षोरेवं वदतोऽपि सूर्येण वा यावन्मुखेन वा वीजयित्वाऽऽहत्य तथाप्रकार-18| पिण्डेष०१ मशनादिकं दद्यात् , स च साधुरनेषणीयमिति मत्वा न परिगृह्णीयादिति ॥ पिण्डाधिकार एवैषणादोषमधिकृत्याह
उद्देशः ७ से भिक्खू वा २ से ज० असणं वा ४ वणस्सइकायपइट्ठिय तहष्पगारं असणं का ४ वण छामे संते नो पडिक । एवं तसकाएवि ॥ (सू०४०)॥ स भिक्षुहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवं जानीवाद्-वनस्पतिकायप्रतिष्ठितं, तं चतुर्विधमप्याहारं न गृहीयादिति ॥ एवं त्रसकायसूत्रमपि नेयमिति । अत्र च वनस्पतिकायप्रतिष्ठितमित्यादिना निक्षिप्ताख्य एषणादोपोऽभिहितः, एवमन्ये-18 |ऽप्येषणादोषा यथासम्भवं सूत्रेष्वेवायोज्याः। ते चामी-“संकिय १ मक्खिय.२ निक्खित्त ३ पिहिय ४ साहरिय ५ दायगु ६ म्मीसे ७ । अपरिणय ८ लित्त ९ छड्डिय १० एसणदोसा दस हवंति ॥१॥" तत्र शङ्कितमाधाकर्मादिना १, बक्षितमुदकादिना २, निक्षिप्तं पृथिवीकायादौ ३, पिहित बीजपूरकादिना ४, 'साहरियति मात्रकादेस्तुषाद्यदेयमन्यत्र सचित्तपृथिव्यादौ संहृत्य तेन मात्रकादिना यद्ददाति तत्संहृतमित्युच्यते ५, 'दायग'त्ति दाता बालवृद्धाद्ययोग्यः ६, उमिश्र-सचित्तमिश्रम् ७, अपरिणतमिति यद्देयं न सम्यगचित्तीभूतं दातृग्राहकयोवो न सम्यग्भावोपेतं ८, लिप्तं वसा- W ॥३४५॥ दिना ९, 'छडियंति परिशाटव १० दित्येषणादोषाः॥ साम्प्रतं पानकाधिकारमुद्दिश्याह१ शखित प्रक्षितं निक्षिप्त पिहित संहृतं दायकदोषदुष्ट उन्मित्रम् । अपरिश्तं लिप्त छर्दित एषणादोषा दश भवन्ति ॥१॥
अनुक्रम [३७३]
**
~405~
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [४१], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[४१]
दीप
से भिक्खू वा २ से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा-उस्सेइमं बा १ संसेइमं वा २ चाउलोदगं वा ३ अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं अहुणाधोयं अणविलं अन्बुकंतं अपरिणयं अविद्वत्थं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा । अह पुण एवं जाणिवा चिराधोयं अंबिलं वुक्तं परिणयं विद्धत्थं फासुयं पडिगाहिज्जा । से भिक्खू वा० से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा-तिलोदगं वा ४ तुसोदगं वा ५ जवोदर्ग वा ६ आयामं वा ७ सोवीरं वा ८ सुद्धवियर्ड वा ९ अन्नयरं या तहप्पगारं वा पाणगजायं पुब्बामेव आलोइजा-आउसोति वा भइणित्ति वा! दाहिसि मे इत्तो अन्नयर पाणगजायं', से सेवं वर्वतस्स परो वइजा-आउसंतो समणा ! तुमं वेयं पाणगजायं पडिगहेण वा उरिसचिया णं उयत्तिया णं
गिण्हाहि, तहष्पगार पाणगजाय सर्व वा गिहिजा परो वा से दिज्जा, फासुर्य लाभे संते पडिगाहिजा ।। (सू०४१) स भिक्षुहपतिकुलं पानकार्थे प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवं जानीयात् तद्यथा-'उस्सेइमं वेति पिष्टोत्स्वेदनार्थमुदकं १ 'संसेइमं वेति तिलधावनोदकं, यदिवाऽरणिकादिसंस्विन्नधावनोदकं २, तत्र प्रथमद्वितीयोदके प्रासुके एव, तृतीयचतुर्थे | तु मिश्रे, कालान्तरेण परिणते भवतः, 'चाउलोदय'ति तन्दुलधावनोदकम् ३, अत्र च त्रयोऽनादेशाः, तद्यथा-बुद्द-16 विगमो वा १ भाजनलग्नविन्दुशोषो वा २ तन्दुलपाको वा ३, आदेशस्त्वयम्-उदकस्वच्छीभावः, तदेवमायुदकम् 'अनाम्लं' स्वस्वादादचलितम् अव्युत्क्रान्तमपरिणतमविध्वस्तमप्रासुकं यावन्न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एतद्विपरीतं तु ग्राह्यमि-3 त्याह-अहेत्यादि सुगमम् । पुनः पानकाधिकार एव विशेषार्थमाह-स भिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रविष्टो यत्पुनः पानकजातमेवं
अनुक्रम [३७५]
~406~
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [७], मूलं [४१], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०)
सूत्राक
[४१]
॥३४६॥
दीप अनुक्रम [३७५]
जानीयात् , तद्यथा-'तिलोदक' तिलैः केनचित्प्रकारेण प्रासुकीकृतमुदकम् ४, एवं तुपैया ५-६, तथा 'आचाम्लम् श्रुतस्कं०२ अवश्यानं ७, 'सौवीरम्' आरनालं ८ 'शुद्धविकट' प्रासुकमुदकम् ९, अन्यद्धा तथाप्रकारे द्राक्षापानकादि 'पानकजातं' चूलिका १ पानीयसामान्य पूर्वमेव 'अवलोकयेत्' पश्येत्, तच्च दृष्ट्वा तं गृहस्थम् अमुक! इति वा भगिनि! इति बेत्यामन्यैवं ||पिण्डैप०१ ब्रूयाद्-यथा दास्यसि मे किश्चित्यानकजातं, स परस्तं भिक्षुमेवं वदन्तमेवं श्रूयाद्-यथा आयुष्मन्! श्रमण! त्वमेवेदं उद्देशा पानकजातं स्वकीयेन पतहेण टोप्परिकया कटाहकेन वोत्सिच्यापवृत्त्य वा पानकभाण्डकं गृहाण, स एवमभ्यनुज्ञातः|| स्वयं गृह्णीयात् परो वा तस्मै दद्यात्, तदेवं लाभे सति प्रतिगृह्णीयादिति । किञ्च
से भिक्खू वा० से जं पुण पाणगं जाणिजा-अणंतरहियाए पुढवीए जाव संताणए उद्घहुँ २ निक्खित्ते सिया, असंजए मिक्खुपडियाए उदडलेण वा ससिणिद्वेण वा सकसाएण वा मतेण वा सीओदगेण वा संभोइत्ता आहट्ट दलाइजा, तहप्पगारं पाणगजायं अफासुर्य० एवं खलु सामग्गिय० ॥ (सू०४२) ॥ पिण्डैषणायां सप्तमः २-१-१-७ । स भिक्षुर्यदि पुनरेवं जानीयात् तत्यानकं सचित्तेष्वव्यवहितेषु पृथिवीकायादिषु तथा मर्कटकादिसन्तानके वाऽन्यतो |भाजनादुमृत्योद्धृत्य 'निक्षिप्त व्यवस्थापितं स्यात्, यदिवा स एव 'असंयतः' गृहस्थः 'भिक्षुपतिज्ञया' भिक्षुमुद्दिश्य 'उदकाट्टैण' गलद्विन्दुना 'सस्निग्धेन' गलदुदकबिन्दुना 'सकषायेण' सचित्तपृथिव्याद्यवयवगुण्ठितेन 'मात्रेण' भाजनेन शीतोदकेन वा 'संभोएत्ता' मिश्रयित्वाऽऽहृत्य दद्यात्, तथाप्रकार पानकजातममासुकमनेषणीयमिति मत्वा न परिगृही
॥३४६॥ यात्, एतत्तस्य भिक्षोभिक्षुण्या वा 'सामय' समग्रो भिक्षुभाव इति ॥ प्रथमस्य सप्तमः समाप्तः ॥२-१-१-७॥
~407~
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], मूलं [४३], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
-
-
प्रत सूत्रांक [४३]]
-
X---
उक्तः सप्तमोद्देशकः, साम्प्रतमष्टमः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके पानकविचारः कृतः, इहापि तद्गतमेव विशेषमधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा-अंबपाणगं वा १० अंबाडगपाणगं वा ११ कविठ्ठपाण० १२ माउलिंगपा० १३ मुदियापा० १४ दालिमपा०१५ खजूरपा० १६ नालियेरपा० १७ फरीरपा० १८ कोलपा० १९ आमलपा० २० चिंचापा० २२ अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजातं सअद्वियं सकणुयं सबीयगं अस्संजए भिक्खुपतियाए छरषेण वा दूसेण वा बालगेण वा आविलियाण परिवीलियाण परिसावियाण आहृदु दलइजा तहप्पगारं पाणगजायं
अफा० लामे संते नो पडिगाहिज्जा ।। (सू०४३) ।। स भिक्षुर्ग्रहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवंभूतं पानकजातं जानीयात् , तद्यथा-'अंगपाणगं वे'त्यादि सुगम, नवरं 'मुद्दिया' द्राक्षा कोलानि-बदराणि, एतेषु च पानकेषु द्राक्षाबदराम्बिलिकादिकतिचिसानकानि तत्क्षणमेव संमर्य कियन्ते अपराणि त्वाम्बाम्बाडकादिपानकानि द्वित्रादिदिनसन्धानेन विधीयन्त इत्येवंभूतं पानकजातं तथाप्रकारमन्यदपि सास्थिक' सहास्थिना कुलकेन यद्वर्तते, तथा सह कणुकेन-त्वगाद्यवयवेन यद्वर्तते, तथा बीजेन सह यद्वर्तते, अस्थिबीजयोश्चामलकादौ प्रतीतो विशेषः, तदेवंभूतं पानकजातम् 'असंयतः' गृहस्थो भिक्षुमुद्दिश्य-साध्वर्थ द्राक्षादिकमामधी पुनवेशत्वग्निष्पादितच्छब्बकेन वा, तथा दूस-वस्त्रं तेन वा, तथा 'वालगेण ति गवादिवालधिवालनिष्पन्नचालनकेन सुधरिकागृहकेन वा इत्यादिनोपकरणेनास्थ्याद्यपनयनार्थ सकृदापीब्य पुनः पुनः परिपीड्य, तथा परिस्राव्य निगोल्याहृत्य
दीप अनुक्रम [३७७]]
-
4-
%
प्रथम चलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", अष्टम-उद्देशक: आरब्धः
~408~
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], मूलं [४३], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[४३]
दीप
श्रीआचा- च साधुसमीपं दद्यादिति, एवंप्रकारं पानकजातमुद्गमदोषदुष्टं सत्यपि लाभे न प्रतिगृह्णीयात् , ते चामी उद्गमदोषाः- श्रुतस्क०२ राङ्गवृत्तिः
P"आहाकम्मु १ हेसिअ २ पूतीकम्मे ३ अ मीसजाए अ४ । ठवणा ५ पाहुडियाए ६ पाओअर ७ कीय ८ पामिच्चे ९ चूलिका १ (शी०) ॥१॥ परियट्टिए १० अभिहडे ११ उभिने १२ मालोहडे १३ इअ । अच्छेजे १४ अणिसढे १५ अझोअरए १६ अ31
पिण्डैष०१ सोलसमे ॥२॥" साध्वर्थ यत्सचित्तमचित्तीक्रियते अचित्तं वा यसच्यते तदाधाकर्म १। तथाऽऽरमार्थ यत्पूर्वसिद्धमेव ॥३४७॥
उद्देशः८ लडकचूर्णकादि साधुमुद्दिश्य पुनरपि [संत] गुडादिना संस्क्रियते तदुद्देशिकं सामान्येन, विशेषतो विशेषसूत्रादवगन्तव्य
मिति २। यदाधाकर्माद्यवयवसम्मिनं तत्पूतीकर्म । संयतासंयताद्यर्थमादेरारभ्याहारपरिपाको मिश्रम् ४ । साध्वर्थ दिक्षीरादिस्थापनं स्थापना भण्यते ५ । प्रकरणस्य साध्वर्थमुत्सर्पणमवसर्पणं वा प्राभूतिका ६ । साधूनुद्दिश्य गवाक्षादिप्रका
शकरणं बहिर्वा प्रकाशे आहारस्य व्यवस्थापन प्रादुष्करणम् ७ । द्रव्यादिविनिमयेन स्वीकृतं क्रीतम् ८ । साध्वर्थ यदन्यस्मादुच्छिन्नकं गृह्यते तत्सामिचंति ९ । यच्छाल्योदनादि कोद्रवादिना प्रातिवेशिकगृहे परिवर्त्य ददाति तत्परिवर्तितम् १०। यद्गुहादेः साधुवसतिमानीय ददाति तदाहृतम् ११ । गोमयाद्युपलिप्तं भाजनमुद्भिद्य ददाति तदुभिन्नम् १२ । मालाद्यवस्थितं निश्रेण्यादिनाऽवतार्य ददाति तन्मालाहृतम् १३ । भृत्यादेराच्छिद्य यद्दीयते तदाच्छेद्यम् १४ । सामान्य श्रेणीभक्तकाघेकस्य ददतोऽनिसृष्टम् १५ । स्वार्थमधिश्रयणादौ कृते पश्चात्तन्दुलादिप्रसृत्यादिप्रक्षेपादध्यवपूरका १६ ॥ तदेवमन्यतमेनापि दोषेण दुष्टं न प्रतिगृह्णीयादिति । पुनरपि भक्तपानविशेषमधिकृत्याह
-
अनुक्रम [३७७]]
-
-
~409~
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], मूलं [४४], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[४४]]
दीप
से मिक्खू वा०२ आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावईगिहेसु वा परियावसहेसु वा अन्नगंधाणि वा पाणगंधाणि या सुरभिगंधाणि वा आपाय २ से तत्थ आसायपडियाप मुन्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने अहो गंधो २ नो गंधमाघाइजा (सू०४४)
'आगंतारेसु वत्ति पत्तनाबहिर्गृहेषु, तेषु ह्यागत्यागत्य पथिकादयस्तिष्ठन्तीति, तथाऽऽरामगृहेषु वा गृहपतिगृहेषु वा 'पपर्यावसथेषु' इति भिक्षुकादिमठेषु वा, इत्येवमादिष्वन्नपानगन्धान सुरभीनाघ्रायाघ्राय स भिक्षुस्तेष्वास्वादनप्रतिज्ञया मूर्छितो| &ागृद्धो अथितोऽध्युपपन्नः सन्नहो! गन्धः अहो! गन्ध इत्येवमादरवान् न गन्धं जिप्रेदिति ॥ पुनरप्याहारमधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ से जं० सालुयं वा बिरालियं वा सासवनालियं वा अन्नवरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं अ. फामु० । से भिक्खू वा० से जं पुण• पिपलि वा पिप्पलचण्णं वा मिरियं वा मिरियचुण्णं वा सिंगबेर वा सिंगवेरचण्णं वा अन्नयर वा तहपगारं वा आमर्ग वा असत्थ प० । से भिक्खू वा० से अंपुण पलंबजायं जाणिज्जा, तंजहाअंबपलंब वा अंबाडगपलं या तालप० झिझिरिप० सुरहि० सल्लरप० अन्नयर तहपगार पलंबजाय आमर्ग असस्थप० । से भिक्खू ५ से जं पुण पवालजावं जाणिजा, तंजहा-आसोपवालं वा निग्गोहप० पिलखुप० निपूरप० सल्लदप० अन्नवरं वा सहप्पगार पवालजायं आमर्ग असस्थपरिणयं० । से भि० से जं पुण सरॉयजायं जाणिज्जा, तंजहा-सरयं वा कविट्ठसर० दाडिमसर० विलस० अन्नयरं वा तहपगार सरदुयजायं आमं असत्य परिणयं० । से निक्लू वा० से जं पु० तंजहा-वरमंथु वा नग्गोहम० पिलुसुमं० आसोत्थमं० अन्नयरं वा तहष्पगारं वा मधुजायं आमयं दुरुकं साणुवीयं अफासुर्य० ।। (सू०४५)॥
अनुक्रम [३७८]
~410~
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], मूलं [४५], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
तस्क०२ चूलिका १ पिण्डैष०१ | उद्देशः८
SCREAKS
CE195
[४५]
॥३४८॥
दीप
सुगम, 'सालुकम्' इति कन्दको जलजः, 'बिरालिय' इति कन्द एव स्थलजः, 'सासवणालिन्ति सर्वपकन्दल्य इति किञ्च-पिप्पलीमरिचे-प्रतीते 'शृङ्गाबेरम्' आर्द्रकं तथाप्रकारमामलकादि आमम्-अशस्त्रोपहतं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥
सुगम, नवरं पलम्बजातमिति फलसामान्य झिग्झिरी-बल्ली पलाशः सुरभिः-शतमुरिति ॥ गतार्थ, नवरम् 'आसोडे'त्ति अश्वत्थः 'पिलुंखुत्ति पिप्परी णिपूरो-नन्दीवृक्षः ॥ पुनरपि फलविशेषमधिकृत्याहसुगम, नवरं 'सरडुरं वेति अबद्धास्थिफलं, तदेव विशिष्यते कपित्यादिभिरिति ॥ स्पष्ट, नवरं 'मधु'न्ति चूर्णः 'दुरुकं ति ईषत्विष्ट 'साणुवीयन्ति अविध्वस्तयोनिचीजमिति ॥
से भिक्खू वा० से जं पुण० आमडागं वा पूइपिन्नागं वा महुं वा मर्ज वा सप्पि वा खोलं वा पुराणगं वा इत्थ पाणा अणुप्पसूबाई जायाई संधुलाई अन्वुफलाई अपरिणया इत्थ पाणा अविद्धस्था नो पडिगाहिजा । (सू०४६ )।
स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयत्, तद्यथा-'आमडागं वेति 'आमपत्रम्' अरणिकतन्दुलीयकादि तञ्चार्द्धपक्कमपक्कं वा, 8 पूतिपिनाग'न्ति कुथितखलं मधुमद्ये-प्रतीते 'सपि' घृतं 'खोलं' मद्याधःकर्दमः, एतानि पुराणानि न माह्याणि, यत एC|तेषु प्राणिनोऽनुप्रसूता जाताः संवृद्धा अव्युत्कान्ता अपरिणता:-अविध्वस्ताः, नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमेकाथिकान्येवतानि किश्चिद्भेदाद्वा भेदः॥
से भिक्खू वा० से जं० उच्छुमेरगं या अंककरेलुगं वा कसेरुगं वा सिंघाडगं वा पूइआलुगं वा अन्नयरं वा० । से भिक्खू वा० से जं० उप्पलं वा उप्पलनालं वा भिसंवा भिसमुणाल वा पुक्खळ वा पुक्खलविभंग वा अन्नयर चा तहपगारं०। (सू०४७)
अनुक्रम [३७९]
॥३४८॥
JMEmirational
~411~
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[ ४७ ]
दीप
अनुक्रम
[३८१]
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], मूलं [४७], निर्युक्ति: [२९७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
आ. स. ५९
22
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
Ja Eucation International
'उच्छुमेरगं'ति अपनीतत्वगिधुगण्डिका 'अंककरेलुअं वा' इत्येवमादीन् वनस्पतिविशेषान् जलजान् अन्यद्वा तथाप्रकारमामम्-अशस्त्रोपहतं नो प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा- 'उसलं' नीलोत्पलादि नालं तस्यैवाधारः, 'भिसं' पद्मकन्दमूलं 'भिसमुणाल' पद्मकन्दोपरिवर्त्तिनी लता 'पोक्खल' पद्मकेसरं 'पोक्खलविभंगं' पद्मकन्दः अन्यद्वा तथाप्रकारमामम्-अशस्त्रोपहतं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥
से भिक्खू वा २ से जं पु० अग्गवीयाणि वा मूलवीयाणि वा खंधवीयाणि वा पोरवी० अगजायाणि वा मूलजा० संधजा ० पोरजा० नन्नत्य वकमित्थए ण वा तकलिसीसे ण वा नालियेरमत्थरण वा खच्चूरिमत्थष्ण वा तालम० अन्नयरं वा तह० । से भिक्खू बा २ से जं० उच्छु वा काणगं वा अंगारियं वा संमिस्तं विगदूद्भियं वित्त (त) ग्गगं या कंदलीकसुगं अन्नयरं वा तहप्पा० । से भिक्खू वा० से जं० लमुणं वा लसुणपत्तं वा नालं वा लसुणकंदं वा ल० चोयगं वा अनयरं वा० । से भिक्खू वा० से जं० अच्छियं या कुंभिपकं विंदुगं वा वेलुगं वा कासवनालियं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थप० । से भिक्खू वा० से जं० कर्ण वा कणकुंडगं वा कणपूयलियं वा चाडलं था चाउलपिडं वा तिलं वा तिलपिट्टे वा तिलपप्प
डगं वा अन्नयरं वा तपगारं आमं असत्थप० लाभे संते नो प०, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं ॥ ( सू० ४८ ) २-१-१-८ ।। पिण्डैषणायामष्टम उद्देशकः ||
भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा- 'अग्रवीजानि' जपाकुसुमादीनि 'मूलबीजानि' जात्यादीनि 'स्कन्धवीजानि' सहक्यादीनि 'पर्वबीजानि' इक्ष्वादीनि, तथा अप्रजातानि मूलजातानि स्कन्धजातानि पर्वजातानीति, 'णन्नत्थ'ति नान्य
For Pernal Use On
~ 412~
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[४८]
दीप
अनुक्रम
[३८२]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [८], मूलं [४८], निर्युक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ३४९ ॥
पिण्डैष०१ उद्देशः ८
स्मादग्रादेरानीयान्यत्र प्ररोहितानि किन्तु तत्रैवाग्रादौ जातानि तथा 'तक्कलिमरथरण वा' तकली-कन्दली 'पण' इति वा- २ श्रुतस्कं० २ | क्यालङ्कारे तन्मस्तकं- तन्मध्यवर्त्ती गर्भः, तथा 'कन्दलीशीर्ष' कन्दलीस्तवकः, एवं नालिकेरादेरपि द्रष्टव्यमिति, अथवा १ चूलिका १ कन्दल्यादिमस्तकेन सदृशमन्यद्यच्छिन्नानन्तरमेव ध्वंसमुपयाति तत्तथाप्रकारमन्यदामम्-अशस्त्रपरिणतं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-इधुं वा 'काणगं'ति व्याधिविशेषात्सच्छिद्रं, तथा 'अंगारकितं' विवर्णीभूतं, तथा 'सम्मिश्रं' स्फुटितत्वकू 'विगदूमियं'ति वृकैः शृगालैर्वा ईषद्भक्षितं, न ह्येतावता रन्धाद्युपद्रवेण तत्प्रासुकं भवतीति सूत्रोपन्यासः, तथा वेत्रानं 'कंदलीऊसुयंति कन्दलीमध्यं, तथाऽन्यदप्येवंप्रकार मामम्-अशस्त्रोपहतं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एवं लशुनसूत्रमपि सुगमं, नवरं 'चोअगं'ति कोशिकाकारा लशुनस्य बाह्यत्वकू, सा च यावत्सार्द्रा तावत्सचित्तेति । 'अच्छियं'ति वृक्षविशेषफलं 'तेंदुयं'ति टेम्बख्यं 'वेलुयं'ति बिल्वं 'कासवनालियंति श्रीपर्णीफलं, कुम्भीपक्कशन्द: प्रत्येकमभिसंबध्यते, एतदुक्तं भवति-यदच्छिकफलादिगर्त्तादावप्राष्ठपाककालमेव बलात्पाकमानीयते तदामम्- अपरिणतं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ 'कणम्' इति शाल्यादेः कणिकास्तत्र कदाचिन्नाभिः संभवेत् 'कणिककुण्डं' कणिकाभिर्मिश्राः कुक्कुसाः 'कणपूयलिअं'ति कणिकाभिर्मिश्राः पूपलिकाः कणपूपलिकाः, अत्रापि मन्दपक्वादौ नाभिः संभाव्यते, शेषं सुगमं यावत्तस्य भिक्षोः 'सामग्र्यं' सम्पूर्णो भिक्षुभाव इति ॥ प्रथमस्याष्टमोदेशकः समाप्तः ॥
For Parts Only
~413~
॥ ३४९ ॥
war
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [९], मूलं [४९], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सुनाक
[४९
दीप
उकोऽष्टमोद्देशकः, साम्प्रतं नवम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरमनेषणीयपिण्डपरिहार उक्तः, इहापि प्रकारान्तरेण स एवाभिधीयते
इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया सडा भवंति, गाहावई वा जाव कम्मकरी वा, तेसिं च णं एवं बुतपुज्वं भवइ-जे इमे भवंति समणा भगवंता सीलबंतो क्यवंतो गुणवंतो संजया संबुडा बंभयारी उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसि कप्पद आहाकम्मिए असणे वा ४ भुत्तए वा पायए वा, से जं पुण इमं अम्हं अपणो अट्ठाए निद्वियं तं असणं ४ संवमेयं समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अपणो अट्ठाए असणं वा ४ चेइस्सामो, एयपगारं निग्योसं सुचा
निसम्म तहप्पगार असणं वा ४ अफासुर्य० ॥ (सू०४९) will 'इहे ति वाक्योपन्यासे प्रज्ञापकक्षेत्रे वा, खलुशब्दो वाक्यालकारे प्रज्ञापकाद्यपेक्षया प्राच्यादौ दिशि सन्ति-विद्यन्ते । ४ पुरुषाः तेषु च केचन श्रद्धालवो भवेयुः ते च श्रावकाः प्रकृतिभद्रका वा, ते चामी-गृहपतिर्यावत्कर्मकरी वेति, तेषां । दाचेदमुक्तपूर्व भवेत्-'णम्' इति वाक्यालङ्कारे, ये इमे 'श्रमणाः साधवो भगवन्तः 'शीलवन्तः' अष्टादशशीलाङ्गसहस्र
धारिणः 'व्रतवन्तः रात्रिभोजनविरमणषष्ठपञ्चमहाव्रतधारिणः 'गुणवन्तः पिण्डविशुयाद्युत्तरगुणोपेताः 'संयताः' इन्द्रियनोइन्द्रियसंयमवन्तः 'संवृताः' पिहितानवद्वाराः 'ब्रह्मचारिणः' नवविधब्रह्मगुप्तिगुप्ताः 'उपरता मैथुनाखर्मात्' अष्टादशविकल्पब्रह्मोपेता(संयता);, एतेषां च न कल्पते आधाकर्मिकमशनादि भोक्तुं पातु वा, अतो यदात्मार्थमस्माकं निष्ठित सिद्धमशनादि ४ तत्सर्वमेतेभ्यः श्रमणेभ्यः 'णिसिरामोत्ति प्रयच्छामः, अपि च-वयं पश्चादात्मार्थमशनाद्यन्यत् 'चेत
अनुक्रम [३८३]
SARERatininemarana
प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययन "पिण्डैषणा", नवम-उद्देशक: आरब्ध:
~4144
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [९], मूलं [४९], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रुतस्क०२ चलिका पिण्डैष०१ उद्देशः९
[४९
दीप
श्रीआचा- यिष्यामः' सङ्कल्पयिष्यामो निर्वर्तयिष्याम इतियावत्, तदेवं साधुरेवं 'निर्घोष' ध्वनि स्वत एव श्रुत्वाऽन्यतो वा कुत- रावृत्तिःश्चित् 'निशम्य' ज्ञात्वा तधाप्रकारमशनादि पश्चारकर्मभयादग्रासुकमित्यनेपणीयं मत्वा लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ (शी०)
किश्च
से भिक्खू वा० वसमाणे वा गामाणुगामं वा दूइजमाणे से जं. गाम वा जाव रायहाणि वा इमंसि खलु गामंसि वा राय॥३५॥
हाणिसि वा संतेगइयस्स भिक्खुस्स पुरेसंधुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, जहा-गाहावई वा आप कम्म० तहप्पगाराई कुलाई नो पुब्बामेव भत्ताए वा निक्खमिज वा पविसेज वा २, केवली बूया-आयाणमेयं, पुरा पेहाए तस्स परो अडाए असणं वा ४ उबकरिज वा उवक्रनडिन बा, अह भिक्खूणं पुष्योवट्ठा ४ जं नो तहप्पगाराई कुलाई पुच्चामेव भत्ताए वा पाणाए वा पविसिज वा निक्वामिन बा २, से तमायाय एगंतमयकामिजा २ अणावायमसंलोए चिडिजा, से तस्थ कालेणं अणुपविसिज्जा २ सवियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहारं आहारिजा, सिया से परो कालेण अणुपविट्ठस्स आहाफम्मियं असणं वा उवकरिज वा उवक्सडिज वा तं गइओ तुसिणीओ उवेहेजा, आदमेव पचाइक्खिस्मामि, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा, से पुब्बामेव आलोहना-आउसोशि वा भइणित्ति वा ! नो खलु मे कप्पद आहाकम्मियं असणं वा ४ भुत्तए का पायए वा, मा उपकरेहि मा उपक्सरेहि, से सेवं वयं
तस्स परो आहाकम्मियं असणं वा ४ उवक्खडावित्ता आटु दलइजा तहप्पगारं असणं वा० अफासुर्य० ॥ (सू०५०) स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-ग्रामं वा यावद्राजधानी वा, अस्मिंश्च प्रामादौ 'सम्ति विद्यन्ते कस्यचिनियः
अनुक्रम [३८३]
2962
x
॥३५०॥
~4154
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [९], मूलं [५०], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[५०]
दीप
'पूर्वसंस्तुताः' पितृव्यादयः 'पश्चात्संस्तुता वा' श्वशुरादया, ते च तत्र बद्धगृहाः प्रबन्धेन प्रतिवसन्ति, ते चामी-गृहपतिर्वा यावत्कर्मकरी वा, तथाप्रकाराणि च कुलानि भक्तपानाद्यर्थ न प्रविशेत् नापि निष्कामेत् , स्वमनीषिकापरिहारा
र्थमाह-केवली व्याकर्मोपादानमेतत्, किमिति?, यतः पूर्वमेवैतत् 'प्रत्युपेक्षेत' पर्यालोचयेत , तथा 'एतस्य' भिक्षोः कृते |'परः' गृहस्थोऽशनाद्यर्थम् 'उपकुर्यात्' ढोकयेदुपकरणजातम् , 'उवक्खडेज'त्ति तदशनादि पचेद्वेति, 'अथ' अनन्तरं भिदाणां पूर्वोपदिष्टमेतप्रतिज्ञादि, यथा-नो तथाप्रकाराणि स्वजनसम्बन्धीनि कुलानि पूर्वमेव-भिक्षाकालादारत एव भक्ता
द्यर्थ प्रविशेद्वा निष्कामेद्वेति । यद्विधेयं तदर्शयति-से तमादायेति 'सः' साधुः एतत्' स्वजनकुलम् 'आदाय' ज्ञात्वा केनचिरस्वजनेनाज्ञात एवैकान्तमपकामेद्, अपक्रम्य च स्वजनाद्यनापातेऽनालोके च तिष्ठेत् , स च तत्र स्वजनसम्बद्धग्रामादौ 'कालेन' भिक्षाऽवसरेणानुप्रविशेत् , अनुप्रविश्य च 'इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः' स्वजनरहितेभ्यः 'एसिय'ति एषणीयम्-उद्गमादिदोषरहितं 'वेसिय'ति वेषमात्रादवाप्तमुत्पादनादिदोषरहितं 'पिण्डपात' भिक्षाम् 'एषित्वा' अन्विष्य एवं-1 भूतं ग्रासैषणादोषरहितमाहारमाहारयेदिति । ते चामी उत्पादनादोषाः, तद्यथा-"धाई १ दूइ २ निमित्ते ३ आजीव ४ वणीमगे ५ तिगिच्छा ६ य । कोहे ७ माणे ८ माया ९ लोभे १० य हवन्ति दस एए॥१॥ पुब्धिपच्छासंथव ११ विजा १२ मते १३ अ चुण्ण १४ जोगे १५ य । उप्पायणाय दोसा सोलसमे मूलकम्मे य १६ ॥२॥" तत्राशनाद्यर्थं दातुरपत्योपकारे वर्तत इति धात्रीपिण्डः १, तथा कार्यसङ्घद्दनाय दौत्यं विधत्ते इति दूतीपिण्डः २, निमित्तम्-अष्टप्रश्नादि तदवाप्तो निमित्तपिण्डः ३, तथा जात्याचाजीवनादवाप्त आजीविकापिण्डः ४, दातुर्यस्मिन् भक्तिस्तत्रशंसयाऽवाप्तो व
अनुक्रम [३८४]
~4164
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[५० ]
दीप
अनुक्रम [३८४]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [९], मूलं [५० ], निर्युक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ ३५१ ॥
णीमगपिण्डः ५, सूक्ष्मेतरचिकित्सयाऽवाप्तश्चिकित्सा पिण्डः ६, एवं क्रोधमानमायालो भैरवाप्तः क्रोधादिपिण्डः १०, भिक्षादानात्पूर्व पश्चाद्वा दातुः 'कर्णायते भवानि'त्येवं संस्तवादवाप्तः पूर्वपश्चात्संस्तवपिण्डः ११, विद्ययाऽवाप्तो विद्यापिण्डः १२, तथैव मन्त्रजापावाप्तो मन्त्रपिण्डः १३, वशीकरणाद्यर्थ द्रव्यचूर्णादवाप्तवर्णपिण्डः १४, योगाद्-अञ्जनादेरवातो योगपिण्डः १५, यदनुष्ठानाद्गर्भशातनादेर्मूलमवाप्यते तद्विधानादवाधो मूलपिण्डः १६, तदेवमेते साधुसमुत्थाः षोडशोत्पादनादोषाः । ग्रासैषणादोषाश्चामी - “संजोअणा १ पमाणे २ इंगाले ३ धूम ४ कारणे ५ चेव ।" तत्राहारलोलुपतया दधिगुडादेः संयोजनां विदधतः संयोजनादोषः १, द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणातिरिक्तमाहारमाहारयतः प्रमाणदोषः २ तथाssहाररागाद्गार्थ्याद् भुञ्जानस्य चारित्राङ्गारत्वापादनादङ्गारदोषः ३, तथाऽन्तप्रान्तादावाहारद्वेषाञ्चारित्रस्याभिधूमनाजूप्रदोषः ४, वेदनादिकारणमन्तरेण भुञ्जानस्य कारणदोषः ५, इत्येवं वेषमात्रावासं ग्रासैषणादिदोषरहितः सन्नाहारमा| हारयेदिति । अथ कदाचिदेवं स्यात्, सः 'परः' गृहस्थः कालेनानुप्रविष्टस्यापि भिक्षोराधाकर्मिकमशनादि विदध्यात्, तच्च कश्चित्साधुस्तूष्णीभावेनोलेक्षेत, किमर्थम्?, आहृतमेव प्रत्याख्यास्यामीति, एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत्, न चैवं कुर्यात्, यथा च कुर्यात्तद्दर्शयति-स पूर्वमेव 'आलोकयेत्' दत्तोपयोगो भवेत्, दृष्ट्वा चाहारं संस्क्रियमाणमेवं वदेद्यथा अमुक ! इति वा भगिनि ! इति वा न खलु मम कल्पत आधाकर्मिक आहारो भोक्तुं वा पातुं वाऽतस्तदर्थं यलो न विधेयः, अथैवं वदतोऽपि पर आधाकर्मादि कुर्यात्ततो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥
Eucation International
For Parts Only
~417~
श्रुतस्कं० २ चूलिका १ पिण्डैष०१
उद्देशः ९
।। ३५१ ।।
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [९], मूलं [५१], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[५१]
दीप अनुक्रम [३८५]
से भिक्खू वा से जं० मंस वा मच्छं बा भजिजमाणं पेहाए तिल्लपूयं वा आएसाए उवक्खडिजमाणं पेहाए नो खर्च २ जवसंकमित्तु ओभासिज्जा, नन्नत्व गिलाणणीसाए ॥ (सू०५१)
स पुनः साधुर्यदि पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-मांस वा मत्स्यं वा 'भज्यमान'मिति पच्यमानं तैलप्रधानं वा प्रपं, तच्च ४/किमर्थ क्रियते इति दर्शयति-यस्मिन्नायाते कर्मण्यादिश्यते परिजनः स आदेशः-प्राघूर्णकस्तदर्थ संस्क्रियमाणमाहारं प्रेक्ष्य दालोलुपतया 'नो' नैव 'खद्धं ति शीघ्रं २, द्विर्वचनमादरख्यापनार्थमुपसंक्रम्यावभाषेत-याचेत, अन्यत्र ग्लानादिकार्यादिति ॥
से मिक्खू वा० अन्नयर भोयणजार्य पडिगाहिता सुभि सुभि भुगा दुभि २ परिहवेइ, माइट्ठाण संफासे, नो एवं करिजा । सुभि वा दुभि वा सव्वं भुंजिजा नो किंचिवि परिविजा ॥ (सू०५२) स भिक्षुरन्यतरदू भोजनजातं परिगृह्य सुरभि सुरभि भक्षयेत् दुर्गन्धं २ परित्यजेत् , बीप्सायां द्विवचनं, मातृस्थान चैवं संस्पृशेत् , तच्च न कुर्यात् , यथा च कुर्यात् तद्दर्शयति-सुरभि वा दुर्गन्ध वा सर्वं भुञ्जीत न परित्यजेदिति ।।
से भिक्खू वा २ अन्नयरं पाणगजायं पडिगाहित्ता पुएर्फ २ आविइत्ता कसायं २ परिहवेइ, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा । पुएर्फ पुप्फेइ वा कसायं कसाइ वा सब्बमेयं मुंजिजा, नो किचिवि परि० ॥ (सू०५३)
एवं पानकसूत्रमपि, नवरं वर्णगन्धोपेतं पुष्पं तद्विपरीतं कषाय, वीप्सायां द्विर्वचनं, दोषश्चानन्तरसूत्रयोराहारगाहै अर्थात् सूत्रार्थहानिः कर्मबन्धश्चेति ॥
~418~
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [९], मूलं [१४], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ पिण्डैप०१ उद्देशः९
सुनाक
[५४]]
दीप
श्रीआचा- से भिक्खू वा बहुपरियावन भोषणजायं पडिगाहित्ता बहवे साहम्मिया तत्थ वसंति संभोइया समणुन्ना अपरिहारिया राङ्गवृत्तिः
अदूरगया, तेसि अणालोया अणामंते परिवेइ, माइहाणं संफासे, नो एवं करेजा, से तमायाए तत्व गच्छिज्जा २ से (शी०) पुवामेव आलोइजा-आउसंतो समणा ! इमे मे असणे वा पाणे वा ४ बहुपरियावन्ने तं भुंजह णं, से सेवं वयंत परो व
इजा-आपसंतो समणा ! आहारमेयं असणं वा ४ जावइयं २ सरह तावइयं २ भुक्खामो वा पाहामो वा सबमेयं परिस॥३५२॥
डइ सब्वमेयं भुक्खामो वा पाहामो वा ।। (सू०५४) स भिक्षुर्बह्वशनादि पर्यापन्न-लब्धं परिगृह्य बहुभिर्वा प्रकारैराचार्यग्लानप्राघूर्णकाद्यर्थ दुर्लभद्रव्यादिभिः पर्यापन्नमाहारजातं परिगृह्य तद्बहुत्वानोक्नुमसमर्थः, तत्र च साधर्मिकाः सम्भोगिकाः समनोज्ञा अपरिहारिका एकार्थाश्वालापकाः,
इत्येतेषु सत्स्वदूरगतेषु वा ताननापृच्छच प्रमादितया 'परिष्ठापयेत्' परित्यजेत् , एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत् , नैवं कुर्यात्, कायच कुर्यात्तदर्शयति-स भिक्षुस्तदधिकमाहारजातं परिगृह्य तत्समीपं गच्छेद् , गत्वा च पूर्वमेव 'आलोकयेत्' दर्शयेत् , ४ एवं च ब्रूयाद्-आयुष्मन् ! श्रमण! ममैतदशनादि बहु पर्यापन्नं नाहं भोक्तुमलमतो यूयं किश्चिद् भुवं, तस्य चैवं वदादतः स परो ब्रूयाद्-यावन्मात्रं भोक्तुं शक्नुमस्तावन्मानं भोक्ष्यामहे पास्यामो वा, सर्व वा 'परिशटति उपयुज्यते तत्सर्व भोश्यामहे पास्याम इति ।
से भिक्खू वा २ से ज० असणं वा ४ पर समुहिस्स बहिया नीहरं जं परेहिं असमपुकार्य अणिसिह अफा जाब में
*
अनुक्रम [३८८]
॥५२॥
~419~
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[44]
दीप
अनुक्रम [३८९]
22
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [९], मूलं [ ५५ ], निर्युक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
पडिगाहिला जं परेहिं समणुष्णायं सम्भं णिसिद्धं फासूयं जान पडिगाहिज्जा एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं ( सू० ५५ ) | २-१-१-९ ॥ पिण्डैषणायां नवम उद्देशकः ।
स पुनर्यदेवंभूतमाहारजातं जानीयात्, तद्यथा-'परं' चारभटादिकमुद्दिश्य गृहान्निष्क्रान्तं यच्च परैर्यदि भवान् कस्मैचिद्ददाति ददात्वित्येवं समनुज्ञातं नेतुर्दातुर्वा स्वामित्वेनानिसृष्टं वा तद् हुदोषदुष्टत्वादप्रासुकमनेषणीयमिति मत्वा न प्रतिगृह्णीयात्, तद्विपरीतं तु प्रतिगृह्णीयादिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ प्रथमाध्ययनस्य नवमोद्देशकः परि
समाप्तः ॥
उको नवमोऽधुना दशम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरं पिण्डग्रहणविधिः प्रतिपादितः, इह तु साधारणादिपिण्डावाप्तौ वसतौ गतेन साधुना यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह
इच्छइ तस्स तस्स खद्धं ख
आउसंतो समणा ! संति मम
से एगइओ साधारणं वा पिंडवायं पडिगाहिता ते साहम्भिए अणापुच्छित्ता जस्स जस्स दुलई, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिना से तमायाय तत्थ गच्छिल्ला २ एवं वइया पुरेसंधुया वा पच्छा० तंजहा आयरिए वा १ उवज्झाए वा २ पवित्ती वा ३ थेरे वा ४ गणी वा ५ गणहरे वा ६ गणावच्छेइए वा ७ अवियाई एएसि खद्धं खद्धं दाहामि, सेणेवं वयंतं परो वइज्जाकामं खलु आउसो ! अहापज्जतं निसिराहि, जावइयं २ परो वदइ तावइयं २ निसिरिजा, सव्वमेवं परो वयइ सव्वमेयं निसिरिजा || (सू० ५६ )
For Pasta Use Only
प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं “पिण्डैषणा”, दशम-उद्देशक: आरब्धः
~420~
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१०], मूलं [१६], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[१६]
दीप
श्रीआचा-II 'सः भिक्षः 'एकतर।' कश्चित् 'साधारणं' बहूनां सामान्येन दत्तं वाशब्दः पूर्वोत्तरापेक्षया पक्षान्तरद्योतकः पिण्डपातं श्रुतस्कं०२ राङ्गवृत्तिःपरिगृह्य तान् साधर्मिकाननापृच्छय यस्मै यस्मै रोचते तस्मै तस्मै स्वमनीषिकया 'खद्धं खद्धंति प्रभूतं प्रभूतं प्रयच्छति, चूलिका १ (शी०) पद एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत् तस्मान्नैवं कुर्यादिति । असाधारणपिण्डावाप्तावपि यद्विधेयं तद्दर्शयति
पिण्डैप०१ ॥३५३ ॥ 'सः' भिक्षुः 'तम्' एषणीयं केवलवेषावाप्तं पिण्डमादाय 'तत्र' आचार्याद्यन्तिके गच्छेत् , गत्वा चैवं वदेद्, यथा
आयुष्मन् ! श्रमण ! 'सन्ति' विद्यन्ते मम 'पुर संस्तुताः' यदन्तिके प्रबजितस्तत्सम्बन्धिनः 'पश्चात्संस्तुता वा' यदन्तिके-I ऽधीतं श्रुतं वा तत्सम्बन्धिनो वाऽन्यत्रावासिताः, तांश्च स्वनामग्राहमाह, तद्यथा-'आचार्य' अनुयोगधरः १ 'उपा-1 ध्यायः' अध्यापकः २ प्रवृत्तियथायोग वैयावृत्त्यादौ साधूनां प्रवर्तकः ३, संयमादी सीदतां साधूनां स्थिरीकरणात्स्थ-18 विरः ४, गच्छाधिपो गणी ५, यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वादेशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग्विहरति स गणधरः ६, गणावच्छे-* दकस्तु गच्छकार्यचिन्तक ७, 'अवियाईति इत्येवमादीनुद्दिश्यैतद्वदेद्-यथाऽहमेतेभ्यो युष्मदनुज्ञया 'खद्धं खद्धति प्र-11 भूतं प्रभूतं दास्यामि, तदेवं विज्ञप्तः सन् 'परः' आचार्या दिर्यावन्मात्रमनुजानीते तावन्मात्रमेव 'निसृजेत्' दद्यात् सर्वा-18 नुज्ञया सर्व वा दद्यादिति । किञ्चसे एगइओ मणुन्नं भोयणजार्य पडिगाहित्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएइ मा मेयं दाइयं संतं दट्टणं सयमाइए आयरिए
C ॥३५३॥ वा जाव गणावच्छेए वा, नो खलु मे कस्सइ किंचि दायत्वं सिया, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा । से तमायाए
अनुक्रम [३९०]
SPERIOTunintentSTOnel
~421
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१०], मूलं [१७], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[५७]]
*
दीप
तत्य गच्छिज्जा २ पुज्यामेव उत्ताणए हत्थे पडिमाई कटु इमं खलु इम खलुत्ति आलोइजा, नो किचिवि णिमूहिजा।
से एगइओ अन्नयरं भोयषजाय पडिगाहित्ता भयं २ भुशा विवन्नं विरसमाहरइ, माइ०, नो एवं० ॥ (सू०५७) सुगर्म, यावन्नैवं कुर्यात् , यच्च कुर्यात्तद्दर्शयति-'स' भिक्षुः 'त' पिण्डमादाय 'तत्र' आचार्याद्यन्तिके गच्छेद्, गत्वा | च सर्व यथाऽवस्थितमेव दर्शयेत्, न किश्चित् 'अवगृहयेत्' प्रच्छादयेदिति ।। साम्प्रतमटतो मातृस्थानप्रतिषेधमाह
'सः' भिक्षुः 'एकतरः कश्चित् 'अन्यतरत्' वर्णाद्युपेतं भोजनजातं परिगृह्याटन्नेव रसगृभुतया भद्रकं २ भुक्त्वा यद् 'विवर्णम्' अन्तप्रान्तादिकं तत्प्रतिश्रये 'समाहरति' आनयति, एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत्, न चैवं फुयोंदिति ।। किश्च
से भिक्खू वा० से जं० अंतरुच्छियं वा उच्छुगंडियं वा उच्छुचोयगं वा उच्छुमेरगं वा उच्छुसालगं वा उच्छुदालगं वा सिंबलिं वा सिंबलथालगं वा अस्सि खलु पडिग्गहियंसि अप्पे भोवणजाए बहुउझियधम्मिए तहप्पगारं अंतकच्छुयं वा० अफा०॥से मिषखू वा २ से जं. बहुअट्ठियं वा मंसं वा मच्छं वा बहुकटयं अस्सि खलु तहपगार बहुअट्ठियं वा मंसं० लाभे संतो। से भिक्खू बा० सिया णं परो बहुअहिएणं मंसेण वा मच्छेण वा उवनिमंतिजा-आउसंतो समणा! अभिकंखसि बहुअद्वियं मंस पडिगाहित्तए? एचप्पगारं निग्धोसं सुच्चा निसम्म से पुत्वामेव आलोइजा-आउसोति पा २ नो खलु मे कप्पइ बहु० पढिगा०, अभिकंखसि मे दाउं जावइयं तावइयं पुग्गलं दलयाहि, मा य अट्ठियाई, से सेवं वयंतस्स परो अभिहटू अंतो पडिग्गहगंसि बहु० परिभाइत्ता निहट्ट दलइजा, तहप्पगारं पडिग्गई परहत्यसि वा परपायसि वा अफा० नो० । से आहच पडिगाहिए सिया तं नोहित्ति बहज्जा नो अणिहित्ति बदजा, से तमायाय एगतम
अनुक्रम [३९१]
ORE%%
%
~422
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१०], मूलं [१८], नियुक्ति : [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[५८]
दीप
श्रीआचा- बकमिजा २ अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे जाव संताणए मंसगं मच्छर्ग भुचा अद्वियाई कंटए गहाय श्रुतस्क०२ राङ्गवृत्तिः से तमायाय एगतमवकमिज्जा २ अहे झामथंडिलंसि वा जाब पमधिय पमजिय परद्वविजा ॥ (सू०५८)
चूलिका १ (शी०) | स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतमाहारजातं जानीयात् , तद्यथा-'अंतरुच्छुअं वत्ति इक्षुपर्वमध्यम् 'इक्षुगंडिय'ति सपर्वेक्षुशकलंपिण्डैप०१
'चोयगो' पीलितेक्षच्छोदिका 'मेरुक' त्यानं 'सालगति दीर्घशाखा 'डालगंति शाखैकदेशः 'सिंघलिन्ति मुद्रादीनां विध्वस्ता उद्देशः१० ॥३५४॥
फलिः 'सिंबलिथालगं'ति वल्यादिफलीनां स्थाली फलीनां वा पाकः, अत्र चैवंभूते परिगृहीतेऽप्यन्तरिश्वादिकेऽल्पमशनीयं बहुपरित्यजनधर्मकमिति मत्वा न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एवं मांससूत्रमपि नेयम्, अस्य चोपादानं कचिलूताद्युपश
मनार्थ सद्वैद्योपदेशतो बाह्यपरिभोगेन स्वेदादिना ज्ञानाद्युपकारकत्वात्फलबद्दष्टं, भुजिश्चात्र बहिःपरिभोगार्थे नाभ्यव-13 सहारार्थे पदातिभोगवदिति । एवं गृहस्थामन्त्रणादिविधिपुद्गलसूत्रमपि सुगममिति, तदेवमादिना छेदसूत्राभिप्रायेण ग्रहणे सत्यपि कण्टकादिप्रतिष्ठापनविधिरपि सुगम इति ॥
से भिक्खू० सिया से परो अभिहट्ट अंतो पडिग्गहे बिलं वा लोणं उभियं वा लोणं परिभाइत्ता नीहट्ट दलाजा, तहपगार पडिगई परराहत्थंसि वा २ अफासुर्य नो पडि०, से आहश्च पडिगाहिए सिया तं च नाइदूरगए जाणिज्जा, से तमावाए तस्थ गछिजा २ पुष्वामेव आलोइजा-आउसोत्ति वा २ इमं किं ते जाणया दिन्नं उगाह अजाणया ?, से व भणिजानो खलु मे जाणया विनं, अजाणया दिन्नं, काम खलु आउसो ! इयाणि निसिरामि, तं मुंजह वा गं परिभाएह वा गं तं
३५४॥ परेहि समणुचार्य समणुसहूं तओ संजयामेव अँजिज वा पीइज वा, जंच नो संचाएइ भोत्तए वा पायए था साहम्मिया
अनुक्रम [३९२]
~423~
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[ ५९ ]
दीप
अनुक्रम [३९३]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१०], मूलं [५९], निर्युक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
आ. सू. ६०
Education Internation
तत्य वसंत संभोइया समणुन्ना अपरिहारिया अदूरगया, तेसिं अणुष्पयायध्वं सिया, नो जत्थ साहम्मिया जहेब बहुप रियानं कीर सहेब कायव्यं सिया, एवं खलु० ॥ ( सू० ५९ ) ॥ २-१-१-१० ॥ पिण्डैषणायां दशम उद्देशकः ॥
स भिक्षुर्गृहादौ प्रविष्टः, तस्य च स्यात् कदाचित् 'परः' गृहस्थः 'अभिहट्टु अंतो' इति अन्तः प्रविश्य पतन हे काष्ठच्छय्वकादौ ग्लानाद्यर्थे खण्डादियाचने सति 'बिडं वा लवणं' खनिविशेषोत्पन्नम् 'उद्भिजं वा' लवणाकराद्युत्पन्नं 'परिभाएत त्ति दातव्यं विभज्य दातव्यद्रव्यात्कञ्चिदंशं गृहीत्वेत्यर्थः, ततो निःसृत्य दद्यात्, तथाप्रकारं परहस्तादिगतमेव प्रतिषेधयेत्, तच्च 'आहच्चे 'ति सहसा प्रतिगृहीतं भवेत् तं च दातारमदूरगतं ज्ञात्वा स भिक्षुस्तलवणादिकमादाय तत्समीपं गच्छेद्, गत्वा च पूर्वमेव तलवणादिकम् 'आलोकयेत्' दर्शयेद्, एतच्च ब्रूयाद्-अमुक ! इति वा भगिनि ! इति वा, एतच्च लवणादिकं किं स्वया जानता दत्तमुताजानता?, एवमुक्तः सन् पर एवं वदेद्यथा पूर्व मयाऽजानता दत्तं, साम्प्रतं तु यदि भवतोऽनेन प्रयोजनं ततो दत्तम्, एतयरिभोगं कुरुध्वं तदेवं परैः समनुज्ञातं समनुसृष्टं सत्मासुकं कारणवशादमासुकं वा भुञ्जीत पिवेद्वा यच्च न शक्नोति भोक्तुं पातुं वा तत्साधर्मिकादिभ्यो दद्यात्, तदभावे बहुपर्या पन्नविधिं प्राक्तनं विदध्यात्, एतत्तस्य भिक्षोः सामय्यमिति ॥ प्रथमस्य दशमः समाप्तः ॥ २-१-१-१० ॥
उक्त दशमः, अधुनैकादशः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोदेशके लब्धस्य पिण्डस्य विधिरुक्तः, | तदिहापि विशेषतः स एवोच्यते
For Pealise Only
प्रथम चूलिकायाः प्रथम अध्ययनं “ पिण्डैषणा”, एकादशम उद्देशक: आरब्धः
~424~
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [११], मूलं [६०], नियुक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा-1 राङ्गवृत्तिः (शी०)
श्रुतस्क०२ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्देशः११
सूत्राक
॥३५५॥
[६०]
दीप अनुक्रम [३९४]
भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं वा दूइजमाणे मणुन्नं भोयणजायं लभित्ता से भिक्खू गिलाइ, से हंदह णं तस्साहरह, से व मिक्लू नो भुजिजा तुमं चेव णं भुजिजासि, से एगइओ भोक्खामित्तिकटु पलिलंचिय २ आलोइजा, तंजहा-इमे पिंडे इमे लोए इमे तित्ते इमे कबुयए इमे कसाए इमे अंपिले इमे महुरे, नो खलु इचो किंचि गिलाणस्स सयइत्ति माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा, तहाठियं आलोइला जहाठियं गिलाणस्स सयइत्ति,
तं तित्तयं तित्तएत्ति वा कडुयं कडुयं कसायं कसायं अविलं अंबिलं महुरं महुरं० ॥ (सू०६०) भिक्षामटन्ति भिक्षाटाः भिक्षणशीलाः साधव इत्यर्थः, नामशब्दः सम्भावनायां, वक्ष्यमाणमेषां संभाव्यते, 'एके' केचन एवमाहुः-साधुसमीपमागत्य वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः, ते च साधवः 'समाना वा' साम्भोगिका भवेयुः, वाशब्दादसाम्भोगिका वा, तेऽपि च 'वसन्तः' वास्तव्या अन्यतो वा ग्रामादेः समागता भवेयुः, तेषु च कश्चित्साधुः ग्लायति' ग्ला|निमनुभवति, तत्कृते तान् सम्भोगिकादींस्ते भिक्षाटा मनोज्ञभोजनलाभे सत्येवमाहुरिति सम्बन्धः, 'से' इति एतन्मनोज्ञमाहारजातं 'हन्दह' गृहीत यूयं णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'तस्य' ग्लानस्य 'आहरत' नयत, तस्मै प्रयच्छत इत्यर्थः, ग्लानश्चेन्न मुळे ग्राहक एवाभिधीयते त्वमेव भुक्ष्वेति, स च भिक्षुभिक्षोहस्ताद ग्लानार्थं गृहीत्वाऽऽहारं तत्राध्युपपन्नः। सन्नेक एवाहं भोक्ष्य इतिकृत्वा तस्य ग्लानस्य 'पलिउंचिअ पलिउंचिय'त्ति मनोज्ञं गोपित्वा गोपित्वा वातादिरोगमुद्दिश्य तथा तस्य 'आलोकयेत्' दर्शयति यथाऽपथ्योऽयं पिण्ड इति बुद्धिरुत्पद्यते, तद्यथा-अग्रतो ढौकयित्वा वदति |-अयं पिण्डो भवदर्थ साधुना दत्तः, किन्त्वयं 'लोए'ति रूक्षः, तथा तिक्तः कटुः कषायोऽम्लो मधुरो वेत्यादि दोषदुष्ट
॥ ३५५ ॥
SAREauratonintimational
~4254
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [११], मूलं [६१], नियुक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६१]
दीप अनुक्रम [३९५]
तत्वान्नातः किञ्चिद् ग्लानस्य 'स्वदतीति' उपकारे न वर्तत इत्यर्थः, एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत्, न चैतत्कुर्यादिति । यथा
च कुर्यात्तदर्शयति-तथाऽवस्थितमेव ग्लानस्यालोकयेद्यथाऽवस्थितमिति, एतदुक्तं भवति-मातृस्थानपरित्यागेन यथाऽवस्थितमेव व्यादिति, शेष सुगमम् ॥ तथा
भिक्खागा भामेगे एवमाहंसु-समाणे वा बसमाणे वा गामाणुगामं दूइजमाणे वा मणुन्नं भोवणजाय लमिता से य । भिक्खू गिलाइ से हंदह णं तस्स आहरह, से य भिक्खू नो भुजिजा आहारिजा, सेणं नो खलु मे अंतराए आहरिस्सामि,
इचेयाई आवतणाई उवाइकम्म ॥ (सू०६१) - 'भिक्षादा साधवो मनोज्ञमाहारं लब्ध्वा समनोज्ञांस्तांश्च वास्तव्यान् प्राघूर्णकान् वा ग्लानमुद्दिश्यैवमूचुः-एतन्मनोज्ञमाहारजातं गृहीत यूयं ग्लानाय नयत, स चेन्न भुङ्क्ते ततोऽस्मदन्तिकमेव ग्लानाद्यर्थम् 'आहरेत् आनयेत् , स चैवमुक्तः सन्नेवं वदेद्-यथाऽन्तरायमन्तरेणाहरिष्यामीति प्रतिज्ञयाऽऽहारमादाय ग्लानान्तिकं गत्वा प्राक्तनान् भक्तादिरू
शादिदोषानुद्घाट्य ग्लानायादत्त्वा स्वत एव लोल्या क्त्वा ततस्तस्य साधोनिवेदयति, यथा मम शूलं वैयावृत्त्यकालापपर्याप्त्यादिकमन्तरायिकमभूदतोऽहं तद् ग्लानभक्तं गृहीत्वा नायात इत्यादि मातृसंस्थानं संस्पृशेत्, एतदेव दर्शयति
इत्येतानि-पूर्वोक्तान्यायतनानि-कर्मोपादानस्थानानि 'उपातिक्रम्य' सम्यक् परिहत्य मातृस्थानपरिहारेण ग्लानाय वा द-| यादातृसाधुसमीपं वाऽऽहरेदिति ॥ पिण्डाधिकार एव सप्तपिण्डैषणा अधिकृत्य सूत्रमाह
अह भिक्खू जाणिज्जा सत्त पिंडेसणाओ सत्त पाणेसणाओ, तत्व खलु इमा पढमा पिंडेसणा-असंसट्टे हत्थे असंसट्टे
For P
OW
~426~
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६२]
दीप
अनुक्रम [३९]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२], चुडा [१] अध्ययन [१] उद्देशक [११] मूलं [६२ ] निर्युक्तिः [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित..आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गतिः (शी०)
।। ३५६ ।।
Eaton International
मत्ते, सहपगारेण असंसण हत्थेण वा मत्तेण वा असणं वा ४ सयं वा णं जाइज्जा परो वा से दिजा फासुयं पडिगाहिला, पढमा पिंडेसणा १ ॥ अहावरा दुच्चा पिंडेसणा-संसट्टे हत्थे संसट्टे गत्ते, तहेव दुधा पिंडेसणा २ ॥ अ हावरा तथा पिंडेसणा — इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया सड्डा भवंति - गाहावई वा जाव कम्मकरी वा, तेसिं चणं अन्नयरेसु विरूवरूत्रेसु भायणजाए उवनिक्खित्तपुब्वे सिया, तंजा - धालंसि वा पिढरंसि वा सरांसि वा परगंसि वा वरगंसि वा, अह पुणे जाणिज्जा - असंसट्टे हत्ये संसट्टे मत्ते, संसद्वे वा हत्ये असंस मत्ते से य पडिम्गहधारी सिया पाणिपडिग्ाहिए वा से पुव्वामेव० - आउसोत्ति वा ! २ एएण तुभं असंसद्वेण हत्येण संसद्वेण मत्तेणं संसद्वेण वा हत्येण असंसण भत्तेण अस्सि पडिग्गहगंसि वा पाणिसि वा निहद्दु उचितु दलयाहि तहप्पगारं भोयणजायं सवं वा णं जाइज्जा २ फासू० पढिगाहिज्जा, तइया पिंडेसणा ३ || अहावरा चवत्था पिंडेसणा-से भिक्खू वा० से जं०पिडुयं वा जाव चापलं वा अरिंस खलु पडिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पे पजबजाए, तहृप्पगारं पिठुयं वा जाव चापलं या सयं वा पं० जाव पडि० चत्था पिंडेसणा ४ || अहावरा पंचमा पिंडेसणा-से भिक्खू वा २ उग्गहयमेव भोयणजायं जाणिना, तंजहा—सरावंसि वा डिंडिमंसि वा कोसगंसि वा, अह पुणेवं जाणिजा बहुपरियाबने पाणी दगलेवे, तहप्पगारं असणं वा ४ सयं० जान पडिगाहि०, पंचमा पिंडेसणा ५ || अहावरा छडा पिंडेसणासे मिक्खू वा २ माहियमेव भोयणजायं जाणिज्जा, जं च सबहाए पग्गाहियं, जं च पराए पग्गाहियं तं पायपरियावनं तं पाणिपरियावन्नं फासूर्य पढि०, छट्टा पिंडेसणा ६ || अहावरा सत्तमा पिंडेसणा-से भिक्खू बा० बहुउज्झि
1
For PaPa Lise Only
~ 427 ~
श्रुतस्कं०२
चूलिका १ निष्टेष
उद्देशः ११
।। ३५६ ॥
yor
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [११], मूलं [६२], नियुक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६२]
दीप
यधम्मियं भोवणजार्य जाणिजा, जं चऽने बहवे दुपयचउप्पयसमणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा नावखंति, तहपगार उझियधम्मियं भोवणजायं सर्व वा णं जाइजा परो वा से दिजा जाव पडि०, सत्चमा पिंडेसणा ७ ॥ दयामो सत्त पिंडेसणाओ, अहावराओ सत्त पाणेसणाओ, तत्व खलु इमा पढमा पाणेसणा-असंसढे हत्थे असंसट्टे मत्ते, सं चेव भाणियव्वं, नवरं चउत्थाए नाणत्तं । से मिक्खू वा० से जं. पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा–तिलोदगं वा ६,
अस्सि खलु पडिग्गहियसि अप्पे पछाकम्मे तहेव पडिगाहिज्जा ।। (सू०६२) अथशब्दोऽधिकारान्तरे, किमधिकुरुते?, सप्त पिण्डैषणाः पानैषणाश्चेति, 'अर्थ' अनन्तरं भिक्षुर्जानीयात् , काः-सप्तपिण्डैषणाः पानैषणाच, ताश्चेमाः, तद्यथा-"असंसहा १ संसहा २ उद्धडा ३ अप्पलेवा ४ उग्गहिआ ५ पग्गहिया ६| नि उझियधम्मे"ति, अत्र च द्वये साधबो-गच्छान्तर्गता गच्छविनिर्गताच, तत्र गच्छान्तर्गतानां सप्तानामपि ग्रहणमनुज्ञातं,
गच्छनिर्गतानां पुनराद्ययोयोरग्रहः पञ्चस्वभिग्रह इति, तत्राद्यां तावद्दर्शयति-तत्र' तासु मध्ये 'खलु' इत्यलङ्कारे, इमा
प्रथमा पिण्डषणा, तद्यथा-असंसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं च मात्रं, द्रव्यं पुनः सावशेष वा स्यान्निरवशेषं चा, तत्र निरवशेषे| सापश्चात्कर्मदोषस्तथाऽपि गच्छस्य बालाद्याकुलत्वात्तन्निषेधो नास्ति, अत एव सूत्रे तचिन्ता न कृता, शेष सुगमम् ॥ तथा
अपरा द्वितीया पिण्डेपणा, तद्यथा-संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रकमित्यादि सुगमम् ।। अथापरा तृतीया पिण्डेपणा, तद्यथा| इह खलु प्रज्ञापकापेक्षया प्राच्यादिषु दिक्षु सन्ति केचित् श्रद्धालवः, ते चामी-गृहपत्यादयः कर्मकरीपर्यन्ताः, तेषां च गृहेष्वन्यतरेषु नानाप्रकारेषु भाजनेषु पूर्वमुत्क्षिप्तमशनादि स्यात्, भाजनानि च स्थालादीनि सुबोध्यानि नवरं 'सरगम्' इति ।
अनुक्रम [३९६]
~428~
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६२]
दीप
अनुक्रम [३९६]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [११], मूलं [६२], निर्युक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ ३५७ ॥
| शरिकाभिः कृतं सूर्पादि 'परगं' वंशनिष्पन्नं छब्बकादि 'वरगं' मण्यादि महार्घमूल्यं, शेषं सुगमं यावत्परिगृह्णीयादिति अत्र च संसृष्टा संसृष्टसावशेषद्रव्यैरष्टौ भङ्गाः, तेषु चाष्टमो भङ्गः संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं सावशेषं द्रव्यमित्येष गच्छनिर्गतानामपि कल्पते, शेषास्तु भङ्गा गच्छान्तर्गतानां सूत्रार्थहान्यादिकं कारणमाश्रित्य कल्पन्त इति ॥ अपरा चतुर्थी | पिण्डेषणाऽल्पलेपा नाम, सा यत्पुनरेवमल्पलेपं जानीयात् तद्यथा-'पृथुकम्' इति भुशाल्याद्यपगततुषं यावत् 'तन्दुउपलम्' इति भुग्नशाल्यादितन्दुलानिति, अत्र च पृथुकादिके गृहीतेऽप्यल्पं पश्चात्कर्मादि, तथाऽल्पं पर्यायजातमल्यं तुषादि त्यजनीयमित्येवंप्रकारमल्पलेपम्, अन्यदपि वलचनकादि यावत्परिगृह्णीयादिति ॥ अथापरा पञ्चमी पिण्डेषणावगृहीता नाम, तद्यथा-स भिक्षुर्यावदुपहतमेव भोक्तुकामस्य भाजनस्थितमेव भोजनजातं ढौकितं जानीयात् तत्पुनर्भाजनं दर्शयति, तद्यथा - 'शरावं' प्रतीतं 'डिण्डिम' कंश (कांस्य) भाजनं 'कोशकं' प्रतीतं, तेन च दात्रा कदाचित् पूर्वमेवोदकेन हस्तो मात्रकं वा धौतं स्यात्, तथा च निषिद्धं ग्रहणम्, अथ पुनरेवं जानीयाद्व हुपर्यापन्नः परिणतः पाण्यादिषूदकलेपः, तत एवं ज्ञात्वा यावद् गृह्णीयादिति ॥ अथापरा पष्ठी पिण्डैषणा प्रगृहीता नाम-स्वार्थ परार्थ वा पिठरकादेरुवृत्त्य चट्टकादिनोत्क्षिप्ता परेण च न गृहीता प्रत्रजिताय वा दापिता सा प्रकर्षेण गृहीता प्रगृहीता तां तथाभूतां प्राभृतिकां 'पात्रपर्यापन्नां वा' पात्रस्थितां 'पाणिपर्यापन्नां वा' हस्तस्थितां वा यावत्प्रतिगृह्णीयादिति ॥ अथापरा सप्तमी पिण्डैपणा उज्झितधर्मिका नाम, सा च सुगमा ॥ आसु च सप्तस्वपि पिण्डैपणासु संसृष्टाद्यष्टभङ्गका भणनीयाः, नवरं चतु| नानात्वमिति, तस्या अलेपत्वात्संसृष्टाद्यभाव इति ॥ एवं पानैषणा अपि नेया भङ्गकाश्चायोज्याः, नवरं चतुर्थ्यां
Education Internationa
For Parts Use Only
~429~
श्रुतस्कं० २ २ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्देशः ११
॥ ३५७ ॥
waryra
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [११], मूलं [६२], नियुक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६२]
दीप
नानात्वं, स्वच्छत्वाच्च तस्या अल्पलेपत्वं, ततश्च संसृष्टाधभाव इति, आसां चैषणाना यथोत्तरं विशुद्धितारतम्यादेष एव क्रमो न्याय्य इति ॥ साम्प्रतमेताः प्रतिपद्यमानेन पूर्वप्रतिपन्नेन वा यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह
इश्चयासि सत्तहं पिंडेसणाणं सत्तण्डं पाणेसणाणं अन्नयरं पडिमं पडिवजमाणे नो एवं पहजा–मिच्छापडिवन्ना खलु एए भयंतारो, अहमेगे सम्म पडिबन्ने, जे एए भयंतारो एयाओ पडिमाओ पडिवजिचा ण विहरति जो य अहमसि एवं पडिम पडिवजित्ताणं विहरामि सम्बेऽवि ते उ जिणाणाए उवडिया अन्नुभसमाहीए, एवं च ण विहरति, एवं खलु
तस्स मिक्खुस्स भिक्षुणीए वा सामग्गियं ।। (सू० ६३)२-१-१-११ पिण्टेषणायामेकादश उद्देशकः ॥ इत्येतासां सप्तानां पिण्डैषणानां पानैषणानां वाऽन्यतरां प्रतिमा प्रतिपद्यमानो नैतद्वदेत् , तद्यथा-'मिथ्याप्रतिपन्नाः' न सम्यक् पिण्डैपणाद्यभिग्रहवन्तो भगवन्तः-साधवः, अहमेवैकः सम्यक्प्रतिपन्नो, यतो मया विशुद्धः पिण्डैषBाणाभिग्रहः कृत एभिश्च न, इत्येवं गच्छनिर्गतेन गच्छान्तर्गतेन वा समदृष्ट्या द्रष्टव्याः, नापि गच्छान्तर्गतेनोत्तरोत्तरपिदण्डैषणाभिग्रहवता पूर्वपूर्वतरपिण्डैषणाभिग्रहवन्तो दृष्या इति, यच्च विधेयं तदर्शयति-य एते भगवन्तः-साधव एताः
प्रतिमाः पिण्डैषणाद्यभिग्रहविशेषान् 'प्रतिपद्य' गृहीत्वा ग्रामानुग्राम 'विहरन्ति' यथायोग पर्यटन्ति, यां चाहं प्रतिमा प्रतिपद्य विहरामि, सर्वेऽप्येते जिनाज्ञायां जिनाज्ञया वा 'समुत्थिताः' अभ्युद्यतविहारिणः संवृत्ताः, ते चान्योऽन्यसमाधिना यो यस्य गच्छान्तर्गतादेः समाधिरभिहितः, तद्यथा-सप्तापि गच्छवासिना, तन्निर्गतानां तु द्वयोरग्रहः पञ्चस्वभिग्रहः
अनुक्रम [३९६]
~430~
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [११], मूलं [६३], नियुक्ति: [२९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०)
इत्यनेन 'विहरन्ति' यतन्त इति, तथाविहारिणश्च सर्वेऽपि ते जिनाज्ञां नातिलवन्ते, तथा चोक्तम्-"जोऽवि' दुवत्थ- तिवत्थो बहुवत्थ अचेलओव्व संथरइ । न हु ते हीलंति परं सब्वेवि अ ते जिणाणाए ॥१॥" एतत्तस्य भिक्षोभिक्षुण्या वा 'सामग्य' सम्पूर्णो भिक्षुभावो यदात्मोत्कर्षवर्जनमिति २-१-१-११॥ द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमाध्ययनटीका परिसमाता॥
श्रुतस्क०२ चूलिका १ पिण्डैष०१ उद्देश:११
सुत्राक
[६३]
॥३५८॥
--
--
दीप
---
अनुक्रम [३९७]
-
॥३५८॥
१.योपि द्विवस्त्रनिवस्रो बहुवलोडचेलको वा संतरति । नैव ते हीलन्ति परान सर्वेऽपि च ते जिनामायाम् ॥१॥
~431~
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[ ६३ ]
दीप
अनुक्रम
[३९७ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [-], मूलं [६३...], निर्युक्ति: [२९८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
अथ द्वितीयं शय्यैषणाख्यमध्ययनम्
उक्तं प्रथममध्ययनं साम्प्रतं द्वितीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तराध्ययने धर्माधारशरीरपरिपालनार्थमादावेव पिण्ड ग्रहण विधिरुक्तः, स च गृहीतः सन्नवश्यमल्पसागारिके प्रतिश्रये भोकव्य इत्यतस्तद्गतगुणदोषनिरूपणार्थ द्वितीयमध्ययनम् अनेन च सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि व्यावर्णनीयानि, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे शय्यैषणेति, तस्या निक्षेपविधानाय पिण्डेषणा निर्युक्तिर्यत्र संभवति तां तत्रातिदिश्य प्रथमगाथया अपरासां च नियुक्तीनां यथायोगं संभवं द्वितीयगाथया आविर्भाव्य निक्षेपं च तृतीयगाथया शय्यापटू निक्षेपे प्राप्ते नामस्था| पने अनाहत्य निर्युक्तिकृदाह
दवे खिते काले भावे सिजा य जा तहिं पगयं । केरिसिया सिज्जा खलु संजयजोगत्ति नायव्वा ? ।। २९८ ।। द्रव्यशय्या क्षेत्रशय्या कालशय्या भावशय्या, अत्र च या द्रव्यशय्या तस्यां प्रकृतं तामेव च दर्शयति-कीदृशी सा द्रव्यशय्या ? संयतानां योग्येत्येवं ज्ञातव्या भविष्यति ॥ द्रव्यशय्याच्या चिख्यासयाऽऽह
तिविहाय दव्वसिजा सचित्ताऽचित्त मीसगा चैव । वित्तंभि जंमि खित्ते काले जा जंमि कालंमि ।। २९९ ।। त्रिविधा द्रव्यशय्या भवति, तद्यथा-सचित्ता अचित्ता मिश्रा चेति, तत्र सचित्ता पृथिवीकायादौ, अचित्ता तत्रैव प्रा
प्रथम चूलिकायाः द्वितीय अध्ययनं “शयैषणा”, आरब्धं
For Parts Only
~432~
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2| “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६३...], नियुक्ति: [२९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[६३]
दीप
श्रीआचा-लसुके, मिश्राऽपि तत्रैवार्द्धपरिणते, अथवा सचित्तामुत्तरगाधया स्वत एवं नियुक्तिकृद् भावयिष्यति । क्षेत्र मिति तु क्षेत्र- श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः शय्या, सा च यत्र ग्रामादिके क्षेत्रे क्रियते, कालशय्या तु या यस्मिन्नृतुबद्धादिके काले क्रियते ॥ तत्र सचित्तद्रव्यशय्यो-
I चूलिका १ (शी०) दाहरणार्थमाह
६ शय्यैष०२ | उक्कलकलिंग गोअम वग्गुमई चेव होइ नायव्वा । एयं तु उदाहरणं नायव्वं दव्वसिजाए ॥ ३०॥
उद्देशः १ ॥३५९॥
अस्या भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-एकस्यामटव्यां द्वौ भ्रातरावुत्कलकलिङ्गाभिधानी विषमप्रदेशे पल्लिं निवेश्य | चौर्येण वर्तेते, तयोश्च भगिनी वल्गुमती नाम, तत्र कदाचिद् गौतमाभिधानो नैमित्तिकः समायातः, ताभ्यां च प्रतिपन्नः, तया च बल्गुमत्योक्तं-यथा नायं भद्रकः, अत्र वसन यदा तदाऽयमस्माकं पलिविनाशाय भविष्यत्यतो निर्डाव्यते,
ततस्ताभ्यां तद्वचनान्निाटितः, स तस्यां प्रद्वेषमापन्नः प्रतिज्ञामग्रहीद्, यथा-नाहं गीतमो भवामि यदि वल्गुमत्युदरं ४ विदार्य तत्र न स्वपिमीति, अन्ये तु भणन्ति-सैव बल्गुमत्यपत्यानां लघुत्वात्पल्लिस्वामिनी, उत्कलकलिङ्गी नैमित्तिको, ४
सा तयोर्भया गौतम पूर्वनैमित्तिकं निर्वाटितवती, अतस्तत्रद्वेषाप्रतिज्ञामादाय सर्षपान् वपन्निर्गतः, सर्पपाच वर्षाकालेन |
जाताः, ततस्तदनुसारेणान्यं राजानं प्रवेश्य सा पल्ली समस्ता लुण्टिता दग्धा च, गौतमेनापि वल्गुमत्या उदरं पाटयित्वा ६ सावशेषजीवितदेहाया उपरि सुप्तमित्येषा वा सचित्ता द्रव्यशय्येति ।। भावशय्याप्रतिपादनार्थमाह
दुबिहा य भावसिज्जा कायगए छविहे य भावंमि । भावे जो जस्थ जया सुहदुहगन्भाइसिज्जासु ॥३०१॥ ॥३५९।। हे विधे-प्रकारावस्याः सा द्विविधा, तद्यथा-कायविषया बद्भावविषया च, तत्र यो जीवः 'यत्र' औदयिकादौ भावे
अनुक्रम [३९७]
~433~
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2| “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६३...], नियुक्ति : [३०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६३]]
दीप
'यदा' यस्मिन् काले वर्तते सा तस्थ षड्भावरूपा भावशय्या, शयनं शय्या स्थितिरितिकृत्वा, तथा ख्यादिकायगतो गर्भत्वेन स्थितो यो जीवस्तस्य ख्यादिकाय एव भावशय्या, यतः स्यादिकाये सुखिते दुःखिते सुप्ते उत्थिते वा तादृगवस्थ एव तदन्तर्षी जीवो भवति, अतः कायविषया भावशय्या द्वितीयेति ॥ अध्ययनार्थाधिकारः सर्वोऽपि शय्याविषयः॥ उद्देशार्थाधिकारप्रतिपादनाय नियुक्तिकृदाह
सब्वेवि य सिजविसोहिकारगा तहवि अस्थि उ विसेसो । उद्देसे उद्देसे वुच्छामि समासओ किंचि ॥३०२|| 'सर्वेऽपि' प्रयोऽप्युदेशका यद्यपि शय्याविशुद्धिकारकास्तथाऽपि प्रत्येकमस्ति विशेषस्तमहं लेशतो वक्ष्य इति ॥ एतदेवाहउग्गमदोसा पढमिल्लयंमि संसत्तपञ्चवाया य१। बीयंमि सोअवाई बहुविहसिज्जाविवेगो २ य ॥ ३०३ ॥
तत्र प्रथमोद्देशके वसतेरुङमदोषा:-आधाकर्मादयस्तथा गृहस्थादिसंसक्तप्रत्यपायश्च चिन्त्यन्ते ?, तथा द्वितीयोदेशक | शौचवादिदोषा बहुप्रकारः शय्याविवेकश्च-त्यागश्च प्रतिपाद्यत इत्ययमर्थाधिकारः २॥
तइए जयंतछलणा सज्झायस्सऽणुवरोहि जइयब्वं । समविसमाईएसु य समणेणं निजरवाए ३ ॥ ३०४॥ | तृतीयोद्देशके यतमानस्य-उद्गमादिदोषपरिहारिणः साधोर्या छलना स्यात्तत्सरिहारे यतितव्यं, तथा स्वाध्यायानुपरोधिनि समविषमादौ प्रतिश्रये साधुना निर्जरार्थिना स्थातव्यमित्ययमर्थाधिकारः ३॥ गतो निर्युक्त्यनुगमः, अधुना सूत्रानुगमे लसूत्रमुचारयित्तव्यं, तच्चेदम्
अनुक्रम [३९७]
X
प्रथम चूलिकाया: द्वितीय-अध्ययनं "शयैषणा", प्रथम-उद्देशक: आरब्ध:
~434~
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[ ६४ ]
दीप
अनुक्रम
[३९८ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६४], निर्युक्तिः [३०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ ३६० ॥
सेभिक्खू वा० अभिकंखिला उवस्सयं एसित्तए अणुपविसित्ता गामं वा जाब रायहाणिं वा, से जं पुण उवरस्यं जापिज्जा सअंडं जाब ससंताणयं तद्दप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा सिज्जं वा निसीहियं वा इजा ॥ से भिक्खू वा० से जं पुण उवस्सयं जाणिना अपडं जाव अप्पसंताणयं तप्पगारे उबस्सए पडिलेहिता पमजित्ता तत्र संजयामेव ठाणं वा ३ इजा || से अं पुण उवस्सयं जाणिज्जा अरिंस पडियाए एवं साहम्मियं समुदिरस पाणाई ४ समारम्भ समुद्दिस्स की पामिचं अछि अणिसङ्कं अभिडं आह चेपइ, तपगारे उवस्सए पुरिसंतरकडे वा जाव अणासेविए वा नो ठाणं वा ३ चेजा । एवं बहवे साहम्मिया एवं साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीओ ॥ से निक्खू वा० से जं पुण ४० बहवे समणवणीमए पगणिय २ समुदिस्स तं चैव भाणियध्वं ॥ से मिक्लू वा० से जं० बहुवे समण० समुद्दिस्स पाणाई ४ आव चेपति, तहपगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए नो ठाणं वा ३ चेइना ३, अह पुणेवं जाणिजा पुरिसंतरकडे जाव सेविए पडिलेहित्ता २ तओ संजयामेव चेइज्जा ॥ से भिक्खू वा० से जं पुण अस्संजय भिक्खुपडियाए कडिए वा उक्कंचिए वा छने वा लित्ते वा घट्टे वा मट्टे वा संमट्टे वा संपधूभिए वा तहप्पगारे उबस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए नो ठाणं वा से वा निसीहिं या चेइला, अह पुण एवं जाणिजा पुरिसंतरकडे जाव आसेविए पडिलेहित्ता २ तओ बेदना || (सू० ६४ )
स भिक्षुः 'उपाश्रयं' वसतिमेपितुं यद्यभिकाङ्गेत्ततो ग्रामादिकमनुप्रविशेत्, तत्र च प्रविश्य साधुयोग्यं प्रतिश्रयमन्वेपयेत्, तत्र च यदि साण्डादिकमुपाश्रयं जानीयात्ततस्तत्र स्थानादिकं न विदध्यादिति दर्शयति-सुगमं, नवरं
Eucation International
For Parts Only
~435~
श्रुतस्कं० २ चूलिका १ शय्यैष० २ उद्देशः १
॥ ३६० ॥
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६४], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[६४]
दीप
स्थान कायोत्सर्गः शय्या' संस्तारकः 'निषीधिका' स्वाध्यायभूमिः णो चेइज'त्ति नो चेतयेत्-नो कुर्यादित्यर्थः॥ एतद्विपरीते तु प्रत्युपेक्ष्य स्थानादीनि कुर्यादिति ॥ साम्प्रतं प्रतिश्रयगतानुद्गमादिदोषान् विभणिषराह-'स' भाव-15 भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं प्रतिश्श्रयं जानीयात् , तद्यथा-'अस्सिंपडियाए'त्ति एतत्प्रतिज्ञया एतान् साधून प्रतिज्ञाय-उद्दिश्य का प्राण्युपमर्दैन साधुपतिश्रयं कश्चिच्छाद्धः कुर्यादिति । एतदेव दर्शयति-एकं साधर्मिक 'साधुम्' अर्हरणीतधर्मानष्ठायिन | दासम्यगुद्दिश्य-प्रतिज्ञाय प्राणिनः 'समारभ्य' प्रतिश्रयार्थमुपमर्च प्रतिश्रयं कुर्यात् , तथा तमेव साधु सम्यगुद्दिश्य 'क्रीत
मूल्येनावाप्त, तथा 'पामिर्चति अन्यस्मादुच्छिन्नं गृहीतम् 'आच्छेद्यमिति भृत्यादेर्बलादाच्छिच गृहीतम् 'अनिसृष्टं'। स्वामिनाऽनुत्सङ्कलिलम् 'अभ्याहृत' निष्पन्नमेवान्यतः समानीतम्, एवंभूतं प्रतिश्रयम् 'आहृत्य' उपेत्य 'चेपइति || साधवे ददाति, तथाप्रकारे चोपानये पुरुषान्तरकृतादौ स्थानादि न विदध्यादिति ॥ एवं बहुवचनसूत्रमपि नेयम् ॥ तथा साध्वीसूत्रमप्येकवचनबहुवचनाभ्यां नेयमिति ॥ किश्च-सूत्रद्वयं पिण्डैषणानुसारेण नेयं, सुगम च ॥ तथा
स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात्, तद्यथा-भिक्षुप्रतिज्ञया 'असंयतः' गृहस्थः प्रतिश्रयं कुर्यात् , स चैवंभूतः हास्यात्, तद्यथा-'कटकितः' काष्ठादिभिः कुख्यादी संस्कृतः 'उकंबिओ'त्ति वंशादिकम्बाभिरवबद्धः 'छन्ने वत्ति दर्भा
दिभिश्छादितः लिप्तः गोमयादिना घृष्टः सुधादिखरपिण्डेन मृष्टः स एव लेवनिकादिना समीकृतः 'संसृष्टः' भूमिकर्मा-17
दिना संस्कृतः 'संप्रधूपितः' दुर्गन्धापनयनार्थ धूपादिना धूपितः, तदेवभूते प्रतिश्रयेऽपुरुषान्तरस्वीकृते यावदनासेविते सस्थानादि न कुर्यात्, पुरुषान्तरकृतासेवितादौ प्रत्युपेक्ष्य स्थानादि कुर्यादिति ॥
अनुक्रम [३९८]
For P
OW
~436~
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [१५], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रुतस्क०२ चूलिका १ शय्यैष०२ उद्देशः १
सूत्राक
दीप अनुक्रम [३९९]
श्रीआचा- से मिक्सू पा० से जं० पुण उवस्सयं जा० अस्संजए मिक्खुपडियाय खुडियाओ दुवारियाओ महल्लियाओ कुजा, जहा राजवृत्तिः पिंडेसणाए जाव संधारगं संथारिजा बहिया वा निनक्खु तहप्पगारे उवस्सए अपु० नो ठाणे० ३ अह पुणेवं पुरि(शी०) संतरकडे आसेविए पडिलेहित्ता २ तओ संजयामेव आव चेइज्जा ।। से मिक्खू वा० से जं. अस्संजए भिक्खुपडियाए
उदगप्पसूयाणि कंदाणि वा मूलाणि वा पत्ताणि वा पुष्पाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा ठाणाओ ठाणं ॥ ३१॥
साहरद बहिया वा निण्णक्खू त. अपु० नो ठाणं वा चेइज्जा, अह पुण. पुरिसंतरकर्ड चेइज्जा ॥ से मिक्ख वा से जं. अस्संज० भि० पीढं वा फलग वा निस्सेणि वा उदूखलं वा ठाणाओ ठाणं साहरइ पहिया वा निष्णक्खू सहप्पगारे
उ. अपु० नो ठाणं वा चेइज्जा, अह पुण० पुरिसं० चेइला ।। (सू०६५) स भिक्षुर्य पुनरेवंभूतं प्रतिश्श्रयं जानीयात् , तद्यथा-'असंयतः' गृहस्थः साधुपतिज्ञया लघुद्वारं प्रतिश्रयं महाद्वार | विदध्यात्, तत्रैवंभूते पुरुषान्तरास्वीकृतादौ स्थानादि न विदध्यात्, पुरुषान्तरस्वीकृतासेवितादौ तु विदध्यादिति, अत्र सूत्रद्वयेऽप्युत्तरगुणा अभिहिताः, एतद्दोषदुष्टाऽपि पुरुषान्तरस्वीकृतादिका कल्पते, मूलगुणदुष्टा तु पुरुषान्तरस्वीकृतापिन कल्पते, ते चामी मूलगुणदोषाः-"पट्टी वंसो दो धारणाउ चत्तारि मूलवेलीओ" एतैः पृष्ठवंशादिभिः साधु-I
प्रतिज्ञया या वसतिः क्रियते सा मूलगुणदुष्टा ॥ स भिक्षुर्य पुनरेवम्भूतं प्रतिश्रयं जानीयात् , तद्यथा-गृहस्थः साधुप-| IDIतिज्ञया उदकप्रसूतानि कन्दादीनि स्थानान्तरं सङ्कामयति बहिर्वा 'निण्णक्ख'त्ति निस्सारयति तथाभूते प्रतिश्रये पुरुषा8. ष्ठिवंशो द्वे धारणे चतस्त्रो मूलवेल्यः.
-437
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६५], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[६५]
दीप अनुक्रम [३९९]
दन्तरास्वीकते स्थानादि न कुर्यात्, पुरुषान्तरस्वीकृते तु कुयोदिति ॥ एवमचित्तनिःसारणसूत्रमपि नेयम् , अत्र च सादिविराधना स्यादिति भावः॥ किश्च
से भिक्ख वा से ज० तंजहा-खंधसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासा० हम्मि० अन्नयरंसि वा सहपगारंसि अंतलिक्सजायसि, नन्नत्य आगाढाणागाडेहिं कारणेहिं ठाणं वा नो चेइज्जा ॥ से आइच्च चेइए सिया नो तत्थ सीओदगवियण वा २ हत्थाणि वा पायाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा मुई वा उच्छोलिज वा पहोइज वा, नो तत्व ऊसडं पकरेजा, संजहाउभार वा पा० खे० सिं० वंतं वा पित्तं वा पूर्व वा सोणियं वा अन्नयरं वा सरीरावयवं वा, केवली चूया आयाणमेयं, से तत्थ ऊसदं पगरेमाणे पयलिज वा २, से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा हत्थं वा जाव सीसं वा अन्नयर वा कार्यसि इंदियजालं लूसिज वा पाणि ४ अमिहणिज्ज वा जाव ववरोविज वा, अथ मिक्खूणं पुष्वोवइट्ठा ४ जं तहप्पगार उवस्सए अंतलिक्खजाए नो ठाणंसि वा ३ चेइना । (सू०६६) स भिक्षुर्य पुनरेवंभूतमुपाश्रयं जानीयात् , तद्यथा-स्कन्धः-एकस्य स्तम्भस्योपर्याश्रयः, मनमाली-प्रतीती, प्रासादोद्वितीयभूमिका, हर्म्यतलं-भूमिगृहम् , अन्यस्मिन् वा तथाप्रकारे प्रतिश्रये स्थानादि न विदध्यादन्यत्र तथाविधप्रयोजनादिति, स चैवंभूतः प्रतिश्रयस्तथाविधप्रयोजने सति यद्याहृत्य-उपेत्य गृहीतः स्यात्तदानीं यत्तत्र विधेयं तद्दर्शयति-न तत्र शीतोदकादिना हस्तादिधावनं विदध्यात् , तथा न च तत्र व्यवस्थितः 'उत्सृष्टम्' उत्सर्जनं-त्यागमुच्चारादेः कुर्यात्, केवली यात्कर्मोपादानमेतदात्मसंयमविराधनातः, एतदेव दर्शयति-स तत्र त्यागं कुर्वन् पतेद्वा पतंश्चान्यतरं शरीराव
~438~
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६६], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०)
श्रुतस्क०२ चूलिका १ शय्यैष०२
CE195
[६६]
॥३६२॥
दीप
यवमिन्द्रियं वा विनाशयेत् , तथा प्राणिनश्चाभिहन्याद्यावज्जीविताद् 'व्यपरोपयेत्' प्रच्यावयेदिति, अथ भिक्षूणां पूर्वोप- दिष्टमेतप्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूतेऽन्तरिक्षजाते प्रतिश्रये स्थानादि न विधेयमिति ॥ अपि च
से भिक्खू वा० से जं. सहस्थियं सखुई सपसुभत्तपाणं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए नो ठाणं वा ३ इजा । आयाणमेयं मिक्खुस्स गाहावइकुलेण सद्धिं संवसमाणस्स अलसगे वा विसूइया वा छड़ी वा जल्वाहिजा अन्नयरे वा से दुक्खे रोगायके समुपजिजा, अस्संजए कलुणपडियाए तं मिक्खुस्स गायं तिहेण वा धरण या नवणीएण वा वसाए वा अन्भगिन वा मक्विज वा सिणाणेण वा ककेण वा लुद्धेण वा वण्णेण वा चुण्णेण वा परमेण वा आचंसिज वा पपंसिज वा उच्चालिज चा उच्चट्टिज वा सीओदगवियडेण वा उसिणोद्गवियडेण वा उच्छोलिन वा पक्खालिज्ज वा सिणाविज वा सिंचिज वा दारुणा वा दारुपरिणाम कटु अगणिकार्य उजालिज वा पजालिज बा उचालित्ता कार्य आयाविजा बाप.
अह मिक्खूर्ण पुचोवइट्ठा जं तहप्पगारे सामारिए उवस्सए नो ठाणं वा ३ चेजा ॥ (सू०६७) स भिक्षुर्य पुनरेवभूतमुपाश्रयं जानीयात् तद्यथा-यत्र स्त्रियं तिष्ठन्तीं जानीयात् , तथा 'सखुड्डन्ति सबालं, यदिवा सह क्षुदैरवबद्धः-सिंहश्वमार्जारादिभिर्यो वर्तते, तथा पशवश्च भक्तपाने च, यदिवा पशूनां भक्तपाने तद्युक्तं, तथाप्रकारे सागारिके गृहस्थाकुलपतिश्रये स्थानादि न कुर्याद्, यतस्तत्रामी दोषाः, तद्यथा-आदानं कर्मोपादानमेतद्, भिक्षो-18 गृहपतिकुटुम्बेन सह संबसतो यतस्तत्र भोजनादिक्रिया निःशङ्का न संभवति, व्याधिविशेषो वा कश्चित्संभवेदिति दर्शयति-'अलसगेत्ति हस्तपादादिस्तम्भः श्वयथुर्वा, विशूचिकाछदी प्रतीते, एते व्याधयस्तं साधुमुद्बाधेरन् , अभ्यतरद्वा
अनुक्रम [४००]
~439~
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[६७]
दीप
अनुक्रम [ ४०१ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [६७], निर्युक्तिः [३०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
दुःखं 'रोग' ज्वरादिः 'आतङ्कः' सद्यः प्राणहारी शूलादिस्तत्र समुत्यद्येत, तं च तथाभूतं रोगातङ्कपीडितं दृष्ट्वाऽसंयतः कारुण्येन भक्तया वा तद्भिक्षुगात्रं तैलादिनाऽभ्ययात् तथेपन्त्रक्षयेद्वा पुनश्च स्नानं सुगन्धिद्रव्यसमुदयः, कल्क:-कपायद्रव्यकाथः, लोभं प्रतीतं, वर्णकः- कम्पिलकादिः, चूर्णो यवादीनां पद्मकं प्रतीतम्, इत्यादिना द्रव्येण ईषत्पुनः पुनर्वा धर्षयेत्, घृष्ट्वा चाभ्यङ्गापनयनार्थमुद्वर्त्तयेत् ततश्च शीतोदकेन वा उष्णोदकेन वा 'उच्छोलेज'त्ति ईषदुच्छोलनं विदध्यात् प्रक्षालयेत् पुनः पुनः स्नानं वा-सोत्तमाङ्गं कुर्यात्सिद्वेति तथा दारुणा वा दारूणां परिणामं कृत्वा-संधर्षं कृत्वाऽग्निमुज्वालये प्रज्वालयेद्वा, तथा च कृत्वा साधुकायम् 'आतापयेत्' सकृत् प्रतापयेत्पुनः पुनः । अथ साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूते ससागारिके प्रतिश्रये स्थानादिकं न कुर्यादिति ॥
आयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए उबस्सए संवसमाणस्स इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरी वा अन्नमन्नं अकोसंति
वा पचति वा संभंति वा उद्दविंति वा, अह भिक्खूणं उच्चावयं मणं नियंहिना, एए खलु अन्नमन्नं अकोसंतु वा मावा अक्कोसंतु जाब मा बा उद्दर्विंतु, अह भिक्खूणं पुव्व० जं तहप्पगारे सा० नो ठाणं वा ३ चेइना || (सू०६८) कर्मोपादानमेतद्भिक्षोः ससागारिके प्रतिश्रये वसतो, यतस्तत्र वहवः प्रत्यपायाः संभवन्ति, तानेव दर्शयति-' इह' इत्थंभूते प्रतिश्रये गृहपत्यादयः परस्परत आक्रोशादिकाः क्रियाः कुर्युः, तथा च कुर्वतो दृष्ट्वा स साधुः कदाचिदुच्चावचं मनः कुर्यात्, तत्रोचं नाम मैवं कुर्वन्तु, अवचं नाम कुर्वन्त्विति शेषं सुगममिति ॥
आयाणमेयं भिक्खु गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावई अप्पणो सयट्ठाए अगणिकार्य उज्जालिजा वा
Education International
For Park Use Only
~440~
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [१९], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचाराजवृत्तिः
(शी०)
AA
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ शय्यैष०२ उद्देशः १
CE195
॥३३॥
[६९]
दीप
. पजालिज वा विज्झविज बा, अह भिक्खू उच्चावयं मणं नियंछिज्जा, एए खलु अगणिकार्य उ० वा २ मा वा उ० पज्जा लिंतु
वा मा वा ५०, विज्झावितु वा मा वा वि०, अह भिक्खूणं पु० जं सहपगारे उ० नो ठाणं वा ३ पेदजा ।। (सू०६९) एतदपि गृहपत्यादिभिः स्वार्थमग्निसमारम्भे क्रियमाणे भिक्षोरुच्चावचमनःसम्भवप्रतिपादक सूत्र सुगमम् ॥ अपिच
आयाणमेवं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संघसमाणस्स, इह खलु गाहावइस्स कुंडले वा गुणे वा मणी वा मुत्तिए या हिरण्णेसु वा सुवष्णेसु वा कडगाणि वा तुहियाणि वा तिसराणि वा पालंबाणि वा हारे वा अद्वहारे वा एगावली वा कणगावली वा मुत्तावली वा रयणावली वा तरुणीयं वा कुमारि अलंकियविभूसियं पेहाए, अह भिक्खू उणाव० एरिसिया वा सा नो वा एरिसिया इय वा र्ण घूया इय वा णं मणं साइजा, अह भिक्खूणं पु०४ जं सहपगारे उवस्सए नो० ठा० ।। (सू०७०) गृहस्थैः सह संवसतो भिक्षोरेते च वक्ष्यमाणा दोषाः, तद्यथा-अलपरजातं दृष्ट्वा कन्यकां वाऽलङ्कता समुपलभ्य ईशी तादृशी या शोभनाऽशोभना वा मद्भार्यासरशी चा तथाऽलङ्कारो वा शोभनोऽशोभन इत्यादिकां वाचं ब्रूयात् । तथोचावचं शोभनाशोभनादी मनः कुयोंदिति समुदायार्थः, तत्र गुणो-रसना हिरण्यं-दीनारादिद्रव्यजातं त्रुटितानिमृणालिकाः पालम्बा-आमदीपन आभरणविशेषः, शेष सुगमम् ॥ किश्च-.
आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावइणीओ वा गाहावइयाओ वा गा० सुहाओ वा गा० धाईजो पा गा० दासीओ वा गा० कम्मकरीओ वा तासिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवद-जे इमे भवंति समणा
अनुक्रम [४०३]
~441~
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [७१], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
७१]
दीप अनुक्रम [४०५]
भगवंतो जाव उवरया मेहुणाभो धम्माओ, नो खलु एएसि कप्पइ मेहुणधम्म परियारणाए आउट्टित्तए, जाय खलु एएहिं सर्वि मेहुणधम्यां परिवारणाए आउटाविजा पुत्तं खलु सा लभिज्जा उयसि सेयरिंस वचसि जसस्सिं संपराश्य आलोयणदरसणिनं, एयपगारं निग्धोसं सुचा निसम्म तासिं च णं अन्नयरी सड्डी तं तवस्सि भिक्खु मेहुणधम्मपडियारणाए आउहाविजा, अह भिक्खूर्ण पु० जं तहप्पगारे सा० उ० नो ठा ३ चेइज्जा एवं खलु तस्स० ॥ (सू०७१) पढमा सिजा
सम्मत्ता २-१-२-१॥ पूर्वोक्ते गृहे वसतो भिक्षोरमी दोषाः, तंद्यथा-गृहपतिभार्यादय एवमालोचयेयुः-यथैते श्रमणा मैथुनादुपरताः, तदेतेभ्यो यदि पुत्रो भवेत्ततोऽसौ 'ओजस्वी' बलवान् 'तेजस्वी' दीप्तिमान् 'वर्चस्वी रूपवान् 'यशस्वी' कीर्तिमान , इत्येवं | संप्रधार्य तासां च मध्ये एवंभूतं शब्द काचित्पुत्रश्नद्धालुः श्रुत्वा तं साधुं मैथुनधर्म(स्य) 'पडियारणाए'त्ति आसेवनार्थम् 'आउट्टावेजत्ति अभिमुखं कुर्यात् , अत एतद्दोषभयात्साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूते प्रतिश्रये स्थानादि न कार्यमिति, एतत्तस्य भिक्षोभिक्षुण्या वा 'सामग्र्यं सम्पूर्णी भिक्षुभाव इति ॥ द्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः
समाप्तः ॥२-१-२-१॥ al उक्तः प्रथमोद्देशकः, अधुना द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके सागारिकप्रतिबद्धवस-10 हा तिदोषाः प्रतिपादिताः, इहापि तथाविधवसतिदोपविशेषप्रतिपादनायाह
प्रथम चूलिकाया: द्वितीय-अध्ययनं “शयैषणा", द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध:
~4424
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७२], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रुतस्कं०२ चूलिका १
CE195
(शी०)
शय्यैष०२ उद्देशः २
७२
दीप
श्रीआचा- गाहावई नामेगे मुइसमायारा भवति, से भिक्खू य असिणाणए मोयसमायारे से तगंधे दुग्गंधे पडिफूले पहिलोमे यावि राङ्गवृत्तिः
भवइ, जं पुर्व कर्म तं पच्छा कम्म ज पन्छा कम्मं तं पुरे कम्म, तं सिक्युपडियाए वट्टमाणा करिजा वा नो करिजा
वा, अह भिक्खूर्ण पु० ज तहप्पगारे उ० नो ठाणं० ॥ (सू०७२)
'एके' केचन गृहपतयः शुचिः समाचारो येषां ते तथा, ते च भागवतादिभक्ता भवन्ति भोगिनो वा-चन्दनागुरुकुडा॥३६४॥
मकरादिसेविनः, भिक्षुश्चास्नानतया तथाकार्यवशात् 'मोया'त्ति कायिका तत्समाचरणात्स भिक्षुस्तद्वन्धो भवति, तथा |च दुर्गन्धः, एवंभूतश्च तेषां गृहस्थानां प्रतिकूल' नानुकूलोऽनभिमतः, तथा 'प्रतिलोमः' तद्गन्धाद्विपरीतगन्धो भवति, एकाधिको वैतावतिशयानभिमतत्वख्यापनार्थावुपात्ताविति, तथा ते गृहस्थाः साधुप्रतिज्ञया यत्तत्र भोजनस्वाध्यायभूमी
स्नानादिकं पूर्व कृतवन्तस्तत्तेषामुपरोधात्पश्चात्कुर्वन्ति यद्वा पश्चात्कृतवन्तस्तत्पूर्व कुर्वन्ति, एवमवसर्पणोत्सर्पणक्रियया हासाधूनामधिकरणसम्भवः, यदिवा ते गृहस्थाः साधूपरोधाप्राप्तकालमपि भोजनादिकं न कुयुः, ततश्चान्तरायमनःपीडा-| दिदोषसम्भवः, अथवा त एव साधवो गृहस्थोपरोधाद्यत्पूर्व कर्म-प्रत्युपेक्षणादिकं तत्पश्चात्कुयुर्विपरीतं वा कालातिक्रमेण | कुर्युर्न कुर्युर्वा, अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाविधे प्रतिश्रये स्थानादिकं न कार्यमिति । किञ्च
आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धि सं०, इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयट्ठाए विरूवरूवे भोयणजाए उवक्यदिए सिया, अह पच्छा मिक्खुपडियाए असणं वा ४ उवक्खडिज वा उनकरिज वा, तं च भिक्खू अभिकंखिजा भुतए वा पायए वा वियट्टित्तए वा, अह भि० जं नो तह ॥ (सू०७३) आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइणा सद्धिं संव०
अनुक्रम [४०६]
॥३६४॥
~443~
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७४], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[७४]]
दीप
इह खलु गाहावइस्स अपणो सयवाए विरूवरूवाई दारुयाई भिन्नपुष्वाई भवंति, अह पच्छा भिक्खुपटियाए विरूवरूवाई दारुयाई भिविज वा किणिज वा पामिचेज वा दारुणा वा दारुपरिणाम कट्ट अगणिकार्य उ० ५०, तस्थ भिक्खू
अभिकखिजा आयावित्तए वा पयावित्तए वा वियट्टित्तए वा, अह भिक्खू० जं नो तहप्पगारे ।। (सू०७४) कर्मोपादानमेतद्भिक्षोर्यगृहस्थाववद्धे प्रतिश्रये स्थानमिति, तद्यथा-'गाहावइस्स अप्पणो'त्ति, तृतीयार्थे षष्ठी, गृहपतिना आत्मना स्वार्थ 'विरूपरूपः' नानाप्रकार आहारः संस्कृतः स्यात्, 'अर्थ' अनन्तरं पश्चात्साधूनुद्दिश्याशनादिपाक वा कुर्यात् , तदुपकरणादि वा ढोकयेत् , तं च तथाभूतमाहारं साधु क्तुं पातुं वाऽभिकाङ्केत, विअद्वित्तए वत्ति तत्रैवाहारगृद्ध्या विवर्तितुम्-आसितुमाकाङ्केत् , शेषं पूर्ववदिति ॥ एवं काष्ठाग्निप्रज्वालनसूत्रमपि नेयमिति ॥ किश्च
से भिक्खू बा० उन्नारपासवणेण उब्वाहिजमाणे राओ वा विवाले वा गाहाबईकुलस्स दुवारबाई अवगुणिज्जा, तेणे य तस्संधिचारी अणुपविसिजा, तस्स भिक्खुस्स नो कप्पइ एवं वइत्तए-अयं तेणो पविसइ वा नो वा पविसइ उवल्लियइ वा नो पा० आवयह वा नो वा० बबइ वा नो वा० तेण हर्ड अन्नेण हर्ड तस्स हडं अन्नरस हई अयं तेणे अयं उवचरण अयं इंता अयं इत्थमकासी तं तबस्सि भिक्यूँ अतेणं तेणंति संकइ, अह भिक्खूणं पु० जाव नो ठा० ।। (सू० ७५) स भिक्षुस्तत्र गृहस्थसंसक्ते प्रतिश्रये वसन्नच्चारादिना बाध्यमानो विकालादौ प्रतिश्श्रयद्वारभागमुद्घाटयेत्, तत्र च सेनः' चौरः 'तत्सन्धिचारी' छिद्रान्वेषी अनुप्रविशेत् , तं च दृष्ट्वा तस्य भिक्षो.वं वक्तुं कल्पते-यथाऽयं चौरः प्रविशति न वेति, तथोपलीयते न वेति, तथाऽयमतिपतति न बेति, तथा वदति वा न वदति वा, तेनामुकेनापहृतम् अन्येन वा,
अनुक्रम [४०८]
~4444
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[ ७५ ]
दीप
अनुक्रम
[ ४०९ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७५], निर्युक्तिः [३०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ३६५ ॥
तस्यापहृतमन्यस्य वा, अयं स स्तेनस्तदुपचारको वा, अयं गृहीतायुधोऽयं हन्ता अयमत्राकार्षीदित्यादि न वदनीय, यत एवं तस्य चौरस्य व्यापत्तिः स्यात् स वा प्रद्विष्टस्तं साधुं व्यापादयेदित्यादिदोषाः, अभणने च तमेव तपस्विनं भिक्षुमस्तेनं स्तेनमित्याशङ्केतेति शेषं पूर्ववदिति ॥ पुनरपि वसतिदोषाभिधित्सयाऽऽह
से भिक्खू बा से जं० तणपुंजेसु वा पलालपुंजेसु वा सअंडे जाव ससंताणए तहप्पगारे उ० नो ठाणं वा० || ३ || से भिक्खू वा० से जं० त० पलाल० अप्पंडे जाव चेदला || (सू० ७६ ) सुगमम् एतद्विपरीतसूत्रमपि सुगमं, नवरमल्पशब्दोऽभाववाची ॥ साम्प्रतं वसतिपरित्यागमुद्दे शका र्थाधिकारनिर्दिष्टमधिकृत्याह
से आगंतारेसु आरामागारेषु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अभिक्खणं साहम्मिएहिं उबयमाणेहिं नो उबइजा || (सू० ७७) यत्र ग्रामादेर्बहिरागत्यागत्य पथिकादयस्तिष्ठन्ति तान्यागन्तागाराणि तथाऽऽराममध्यगृहाण्यारामागाराणि, पर्याव सथा-मठाः, इत्यादिषु प्रतिश्रयेषु 'अभीक्ष्णम्' अनवरतं 'साधर्मिकैः' अपरसाधुभिः 'अवपतद्भिः आगच्छद्भिर्मासादिविहारिभिश्छर्दितेषु 'नावपतेत्' नागच्छेत्-तेषु मासकल्पादि न कुर्यादिति ॥ साम्प्रतं कालातिक्रान्तवसतिदोषमाहसे आगंतारेसु वा ४ जे भयंतारो उडुवद्वियं वा वासावासियं वा कप्पं उवाइणित्ता तत्थेव भुज्जो संवसंति, अयमाउसो ! कालाइतकिरियावि भवति १ ॥ ( सू० ७८ ) वागन्तागारादिषु ये भगवन्तः 'ऋतुबद्धम्' इति शीतोष्णकालयोर्मासकल्पम् 'उपनीय' अतिवाह्य वर्षासु वा चतु
Education International
For Parts Only
~445~
| श्रुतस्कं० २
चूलिका १ शय्यैष०२
उद्देशः २
।। ३६५ ।।
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[ ७८ ]
दीप
अनुक्रम [४१२]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [७८], निर्युक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
रो मासानतिवाह्य तत्रैव पुनः कारणमन्तरेणासते, अयमायुष्मन् ! कालातिक्रमदोषः संभवति, तथा च रूयादिप्रतिबन्धः स्नेहादुद्गमादिदोषसम्भवो बेत्यतस्तथा स्थानं न कल्पत इति १ ॥ इदानीमुपस्थानदोषमभिधित्सुराह
से आगंतारेसु वा ४ जे भयंतारो उडु० वासा० कप्पं उवाइणावित्वा तं दुगुणा दु(ति) गुणेण वा अपरिहरित्ता तत्थेव भुजो० अयमाउसो ! बाणकि० २ ॥ ( सू० ७९ )
ये 'भगवन्तः साधव आगन्तागारादिषु ऋतुबद्धं वर्षो वाऽतिवाद्यान्यत्र मासमेकं स्थित्वा 'द्विगुणत्रिगुणादिना' मास(सादि) कल्पेन अपरिहृत्य - द्वित्रैर्मासैर्व्यवधानमकृत्वा पुनस्तत्रैव वसन्ति, अयमेवंभूतः प्रतिश्रय उपस्थानक्रियादोषदुष्टो भवत्यतस्तत्रावस्थातुं न कल्पत इति २ ॥ इदानीमभिक्रान्तवसतिप्रतिपादनायाह
इह खलु पाईणं वा ४ संवेगइया सडा भवति, तंजहा — गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा, तेसि च णं आयारगोयरे नो निसंभव, तं समाहिं पत्तियमाणेहिं रोयमाणेहिं बहवे समण माण अति हि किवणवणीमए समुद्दिस्स तत्य २ अगारीहिं अगाराई वेश्याई भवति, जहा आएसणाणि वा आवतणाणि वा देवकुलाणि वा सहाओ वा पत्राणि वा पणियगिहाणि वा पणियसालाओ वा जागिहाणि वा जाणसालाओ वा सुहाकम्मैताग वा दव्भकम्मैताणि वा बद्धकं० वकयकं० इंगाकम्मं० कटुक० सुसाणक० सुष्णागारगिरिकंदरसंति सेलोयडाणकम्मताणि वा भवणगिहाणि वा, जे भयंतारो तहष्पगाराई आसणाणि वा जाव गिहाणि वा तेहि उवयमाणेहिं उवयंति अयमासो ! अभितकिरिया यावि भवइ ३ ॥ ( सु० ८० ) इह प्रज्ञापकाद्यपेक्षया प्राच्यादिषु दिक्षु श्रावकाः प्रकृतिभद्रका वा गृहपत्यादयो भवेयुः तेषां च साध्वाचारगोचरः 'णो
For Parts Only
~446~
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८०], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः (शी०)
सूत्राक
SARASHKOCOC
[८०]
॥३६६॥
दीप
सुणिसंतो भवइति न सुष्ठ निशान्तः-श्रुतोऽवगतो भवति, साधूनामेवंभूतः प्रतिश्रयः कल्पते नैवंभूत इत्येवं न ज्ञातं श्रुतस्क०२ |भवतीत्यर्थः, प्रतिश्रयदानफलं च स्वर्गादिकं तैः कुतश्चिदवगतं, तच्छ्रद्दधानः प्रतीयमानै रोचयद्भिरित्येकार्थी एते किञ्चि-1|3||
एत किश्चि- चूलिका १ दाद्वा भेदः, तदेवंभूतैः 'अगारिभिः' गृहस्थैहुन् श्रमणादीन उद्दिश्य तत्र तत्रारामादी यानशालादीनि स्वार्थ कुर्वनिः शय्यैप०२ श्रमणाद्यवकाशार्थं 'चेइयाई महान्ति कृतानि भवन्ति, तानि चागाराणि स्वनामग्राहं दर्शयति, तद्यथा-'आदेशनानि' उद्देशः २ लोहकारादिशालाः 'आयतनानि' देवकुलपापियरकाः 'देवकुलानि' प्रतीतानि 'सभाः' चातुर्वेचादिशालाः 'प्रपाः' उदकदानस्थानानि 'पण्यगृहाणि वा' पण्यापणाः 'पण्यशाला घडशालाः 'यानगृहाणि' रथादीनि यत्र यानानि तिष्ठन्ति । 'यानशाला' यत्र यानानि निष्पाद्यन्ते 'सुधाकान्तानि यत्र सुधापरिकर्म क्रियते, एवं दर्भवर्धवल्कजाङ्गारकाष्ठकम[का-181
गृहाणि द्रष्टव्यानि, 'श्मशानगृह' प्रतीतं (शून्यागारं-विविक्तगृह) शान्तिकर्मगृह-यत्र शान्तिकर्म क्रियते गिरिगृह-पर्वतोपरिगृहं कन्दरं-गिरिगुहा संस्कृता शैलोपस्थापन-पापाणमण्डपः, तदेवंभूतानि गृहाणि तेश्वरकबाह्मणादिभिरभिकान्तानि पूर्व पश्चाद् भगवन्तः' साधवः 'अवपतन्ति' अवतरन्ति, इयमायुष्मन् ! विनेयामन्त्रणम् , अभिकान्तक्रिया वस-1 तिर्भवति, अल्पदोषा चेयम् ३॥
इह खलु पाईणं वा जाव रोयमाणेहिं वहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणिमए समुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारिहिं अगाराई झ्याई भवंति, सं०-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा, जे भयंतारो नहप० आएसणाणि जाव गिहाणि वा
॥३६६॥ तेहिं अणोषयमाणेहिं उवयंति अवमाउसो! अणभिकतकिरिया यावि भवा ।। (सू०८१)
अनुक्रम [४१४]
AS
SAREauratonintinational
~4474
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[८]
दीप
अनुक्रम [ ४१५]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८१], निर्युक्तिः [३०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
आ. सू. ६२
Internation
सुगर्म, नवरं चरकादिभिरनवसेवितपूर्वा अनभिक्रान्तक्रिया वसतिर्भवति, इयं चानभिक्रान्तत्वादेवा कल्पनीयेति ४ ॥ साम्प्रतं वर्ज्याभिधानां वसतिमाह
इह खलु पाईणं वा ४ जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं एवं बुत्तपुब्वं भवइ जे इमे भवंति समणा भगवंतो जाव वरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसिं भयंताराणं कप्पर आहाकंम्मिए उवस्सए पत्थर से जाणिमाणि अम्हं अप्पणी सट्टाए चेयाई भवति, तं० आएसणाणि वा जव गिहाणि वा सव्वाणि ताणि समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अप्पणी सबद्वाए चेइस्लामो, सं० आएसणाणि वा जाव०, एवप्पगारं निग्पोसं सुधा निसम्म जे भयंतारो तप्प०
आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं वति, अयमाउसो ! वजकिरियावि भवद्द ५ ॥ (सू०८२)
इह खल्वित्यादि प्रायः सुगमं, समुदायार्थस्वयम्-गृहस्थैः साध्वाचाराभिज्ञैर्यान्यात्मार्थं गृहाणि निर्वर्त्तितानि तानि साधुभ्यो दस्वाऽऽत्मार्थ त्वन्यानि कुर्वन्ति, ते च साधवस्तेष्वितरेतरेपूञ्चावचेषु 'पाहुडेहिं 'ति प्रदत्तेषु गृहेषु यदि वर्त्तन्ते ततो वर्ज्यक्रियाभिधाना वसतिर्भवति सा च न कल्पत इति ५ ॥ इदानीं महावर्ज्याभिधानां वसतिमधिकृत्याह
इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइआ सट्टा भवति, तेसिं च णं आयारगोयरे जाव तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहण जाव वणीमगे पगणिय २ समुदस्स तत्थ २ अगारीहिं अगाराई चेइयाई भवंति ० – आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा, जे भयंतारो तप्पगाराई आएखणाणि वा जाब गिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं०, अयमाउसो! महावाकिरियादि भवइ ६ ॥ (सू० ८३)
For Parts Only
~448~
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८३], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [८३]
दीप अनुक्रम [४१७]
श्रीआचा-IKI इहेत्यादि प्रायः सुगममेव, नवरं श्रमणाद्यर्थे निष्पादिताया यावन्तिकवसतौ स्थानादि कुर्वतो महावाभिधाना ब-IKIश्रुतस्कं०२ राङ्गवृत्तिःसतिर्भवति, अतः अकल्प्या चेयं विशुद्धकोटिश्चेति ६ ॥ इदानीं सावद्याभिधानामधिकृत्याह
चूलिका १ (शी०) इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया जाव तं सद्दहमाणेहिं तं पत्तियमाणेहिं तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहणअतिहि किवण
| शय्यैष०२ वणीमगे पगणिय २ समुहिस्स तत्थ २ अगाराई चेइयाइं भवंति तं०-आएसणाणि वा जाब भवणगिहाणि वा, जे भ
| उद्देशः २ ॥३६७॥
यंतारो तहप्पगाराणि आएसणाणि वा जाब भवणगिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहि, अयमाउसो! सावजकिरिया यावि भवइ ७ ॥ (सू० ८४)
इहेत्यादि प्रायः सुगम, नवरं पञ्चविधश्रमणाद्यर्थमेवैषा कल्पिता, ते चामी श्रमणा:-"निग्गंथ १ सक २ तावस ३ गेK ४ आजीव ५ पंचहा समणा ।" इति, अस्यां च स्थानादि कुर्वतः सावधक्रियाऽभिधाना वसतिर्भवति, अकल्पनीया, चेयं विशुद्धकोटिश्चेति ७॥ महासावद्याभिधानामधिकृत्याह
इह खलु पाईणं वा ४ जाव त रोयमाणेहिं एग समणजायं समुहिस्स तत्थ २ अगारीहिं अगाराई चेइयाई भवन्ति, सं० आएसणाणि जाब गिहाणि वा महया पुढविकायसमारंभेणं जाव महया तसकायसमारंभेणं महया विरुवरुवेहिं पावकम्मकिचेहि, तंजहा---छायणओ लेवणओ संथारदुवारपिहणओ सीओदए वा परहबियपुव्वे भवइ अगणिकाए वा उजालियपुवे
॥३६७॥ १निर्यन्याः शाक्याः तापसा गैरिका भाजीविकाः पञ्चधाः श्रमणाः,
AGRONACAXC
~449~
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८५], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [८५]]
दीप
भवइ, जे भयंतारो तह आएसणाणि वा. लबागच्छति इयराइयरेहि पाहुडेहिं दुपक्खं ते कम्मं सेवंति, अयमाउसो!
महासावञ्जकिरिया यावि भवइ ८॥ (सू०८५) इह कश्चिद्गृहपत्यादिरेक साधर्मिकमुद्दिश्य पृथिवीकायादिसंरम्भसमारम्भारम्भैरन्यतरेण वा महता तथा 'विरूपरूपैः नानारूपैः पापकर्मकृत्यैः-अनुष्ठानैः, तद्यथा-छादनतो लेपनतस्तथा संस्तारकार्थ द्वारढकनार्थ च, इत्यादीनि प्रयोज-2 नान्युद्दिश्य शीतोदकं त्यक्तपूर्व भवेत् अग्निर्वा प्रचालितपूर्वो भवेत् , तदस्यां वसतौ स्थानादि कुर्वन्तस्ते द्विपक्षं कर्मा| सेवन्ते, तद्यथा-प्रव्रज्याम् आधाकर्मिकवसत्यासेवनागृहस्थत्वं च रागद्वेषं च ईयोपथं साम्परायिकं च, इत्यादिदोषान्महासावधक्रियाऽभिधाना वसतिर्भवतीति ८॥ इदानीमल्पक्रियाऽभिधानामधिकृत्याह
इह खलु पाईणं वा० रोवमाणेहिं अप्पणो सबढाए तत्थ २ अगारीहिं जाव उज्जालियपुब्वे भवइ, जे भयंतारो तहप० आएसणाणि वा० उवागरुळंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं एगपक्खं ते कम्म सेवंति, अयमाउसो! अप्पसावजकिरिया यावि भवद ९ ॥ एवं खलु तस्स० (सू०८६)॥२-१-२-२ ॥ शप्यैषणायां द्वितीयोदेशकः ॥ सुगम, नवरमल्पशब्दोऽभाववाचीति ९ । एतत्तस्य भिक्षोः 'सामग्र्यं संपूर्णो भिक्षुभाव इति ॥ "कालाइकंतु १ वठाण २ अभिकंता ३ चेव अणभिकंता ४ य । वजा य ५ महावज्जा ६ सावज ७ मह ८ अप्पकिरिआ ९ य ॥१॥"
१कालातिकान्ता उपस्थाना अभियान्ता चैवानभिकान्ता च । वा च महावा सावद्या महासावया अल्पक्रिया च ॥1॥
अनुक्रम [४१९]
C
~450~
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[८६]
दीप
अनुक्रम [४२०]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], मूलं [८६], निर्युक्तिः [३०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचा राङ्गवृतिः
(शी०)
॥ ३६८ ॥
| एताश्च नव वसतयो यथाक्रमं नवभिरनन्तरसूत्रः प्रतिपादिताः, आसु चाभिक्रान्तात्पक्रिये योग्ये शेषास्त्वयोग्या इति ॥ द्वितीयाध्ययनस्य द्वितीयः ॥ २-१-२-२ ॥
उक्त द्वितीयोदेशकोsधुना तृतीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः इहानन्तरसूत्रेऽल्पक्रिया शुद्धा वसतिर - भिहिता, इहाप्यादिसूत्रेण तद्विपरीतां दर्शयितुमाह
सेय नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिजे नो य खलु सुद्धे इमेहिं पाहुडेहिं तंजा—छायणओ लेवणओ संधारदुवारपणओ fisareeणाओ से य भिक्खू चरियारए ठाणरए निसीहिवारए सिज्जासंथारपिंडवाएसणारए, संति भिक्खुणो एवमक्खाइणो उज्जुया नियागपडिवन्ना अमायं कुव्वमाणा वियाहिया, संतेगइया पाहुडिया उक्त्तिपुण्वा भवइ, एवं निक्खित्तपुल्वा भवइ, परिभाइयपुव्वा भवइ, परिमुत्तपुव्वा भवइ परिद्ववियपुव्वा भवइ, एवं वियागरेमाणे समियाए बियागरेइ ?, हंता भवइ ॥ ( सू० ८७ )
अत्र च कदाचित्कश्चित्साधुर्वसत्यन्वेषणार्थ भिक्षार्थं वा गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् केनचिच्छ्रद्धालुनै वमभिधीयते, त द्यथा प्रचुरान्नपानोऽयं ग्रामोऽतोऽत्र भवतां वसतिमभिगृह्य स्थातुं युक्तमित्येवमभिहितः सन्नेवमाचक्षीत न केवलं पि ण्डपातः प्रासुको दुर्लभस्तदवाप्तावपि यत्रासौ भुज्यते स च प्रासुकः-आधाकर्मादिरहितः प्रतिश्रयो दुर्लभः, 'उछ' इति ॥ ३६८ ॥ छादनाद्युत्तरगुणदोषरहितः, एतदेव दर्शयति-- 'अहेसणिज्जे' त्ति यथाऽसौ मूलोत्तरगुणदोषरहितत्वेनैषणीयो भवति तथा
For Park Use Only
प्रथम चूलिकायाः द्वितीय अध्ययनं “शयैषणा”, तृतीय-उद्देशक: आरब्धः
श्रुतस्कं०२ चूलिका १
शय्यैष ०२ उद्देशः र
~451~
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [८७], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[८७]
दीप
भूतो दुर्लभ इति, ते चामी मूलोत्तरगुणा:-"पंडी वंसो दो धारणाओ चत्तारि मूलवेलीओ । मूलगुणेहिं विसुद्धा |
एसा आहागडा बसही ॥१॥ वंसगकडणोकंपण छायण लेवण दुवारभूमीओ। परिकम्मविष्पमुक्का एसा मूलुत्तरगुणेसु Dilu२॥ दूमिअधूमिअवासिअउज्जोवियबलिकडा अ वत्ता य । सित्ता सम्मावि अविसोहिकोडीगया वसही ॥३॥"
अत्र च प्रायशः सर्वत्र सम्भवित्वादुत्तरगुणानां तानेव दर्शयति, न चासौ शुद्धा भवत्यमीभिः कर्मोपादानकर्मभिः, तबधा-छादनतः' दोदिना, 'लेपनतः' गोमयादिना संस्तारकम्-अपवर्तकमाश्रित्य, तथा द्वारमाश्रित्य बृहलघुत्वापादानतः, तथा द्वारस्थगनं-कपाटमाश्रित्य, तथा पिण्डपातैषणामाश्रित्य, तथाहि-कस्मिंश्चित्प्रतिश्रये प्रतिवसतः साधून शय्यातरः पिण्डेनोपनिमन्त्रयेत्, तनहे निषिद्धाचरणमग्रहे तबद्वेषादिसम्भव इत्यादिभिरुत्तरगुणैः शुद्धः प्रतिश्रयो दुरापः, शुद्धे च प्रतिश्रये साधुना स्थानादि विधेयं, यत उक्तम्-“मूवुत्तरगुणसुद्धं थीपसुपंडगविवज्जियं वसहिं । सेवेज सव्वकालं विवजए हुंति दोसा उ॥१॥" मूलोत्तरगुणशुद्धावाप्तावपि स्वाध्यायाविभूमीसमन्वितो विविक्तो दुराप इति दर्शयति-'से' इत्यादि, तत्र च भिक्षवः चर्यारता:-निरोधासहिष्णुत्वाच्चङ्कमणशीलाः, तथा 'स्थानरताः' कायोत्सर्गकारिणः 'निषीधिकारताः' स्वाध्यायध्यायिनः शय्या-सोगिकी संस्तारका-अर्द्धतृतीयहस्तप्रमाणः, यदिवा शयनं शय्या
पृष्ठिकोटे धारणे चतसो मूलवेल्यः । मूलगुणैशिद्धा एषा यथाक्ता वसतिः ।। १ वंशककटनोत्कम्पनच्छादनपन द्वारभूमे। । परिकर्मविप्रमुत्ता एषा | मूलोत्तरगुणैः ॥ ३ ॥ पालिता धूपिता बासिता उद्योतिता कृतबलिका च व्यका च । सिक्का संमृष्टाऽपि च विशोधिकोटीगता यसतिः ॥३॥ २ मूलोत्तरगुणशुद्धा बीपशुपण्डकविवर्जिता वसतिम् । सेवेत सदाकालं विपर्यये तु भवन्ति दोषाः ॥१॥
अनुक्रम [४२१]
~452
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [८७], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
चूलिका १
सूत्राक
[८७]
दीप
श्रीआचा-13 तदर्थ संस्तारकः शय्यासंस्तारकस्तत्र केचिद्रताः ग्लानादिभावात् , तथा लब्धे पिण्डपाते ग्रासपणारतास्तदेवं 'सन्ति । राजवृत्तिः भवन्ति केचन भिक्षवः 'एवमाख्यायिनः' यथाऽवस्थितवसतिगुणदोषाख्यायिनः ऋजवो नियागः-संयमो मोक्षो वा (शी०) तं प्रतिपन्नाः, तथा अमायाविनः, एवंविशिष्टाः साधवः 'व्याख्याताः' प्रतिपादिताः, तदेवं वसतिगुणदोषानाख्याय गतेषु
शय्यैष०२ तेषु तैश्च श्रावकैरेवंभूतैषणीयवसत्यभावे साध्वर्थमादेरारभ्य वसतिः कृता पूर्वकृता वा छादनादिना संस्कृता भवेत्।
उद्देशः३ ।। ३६९ ॥
पुनश्च तेष्वन्येषु वा साधुषु समागतेषु 'सन्ति' विद्यन्ते तथाभूताः केचन गृहस्थाः य एवंभूतां छलनां विदध्युः, तट बधा-प्राभृतिकेव प्राभृतिका-दानार्थं कल्पिता वसतिरिह गृह्यते, सा च तैर्गृहस्थैः 'उरिक्षप्तपूर्वा' तेषामादौ दर्शिता| यथाऽस्यां बसत यूयमिति, तथा 'निक्षिप्तपूर्वा' पूर्वमेव अस्माभिरात्मकृते निष्पादिता, तथा 'परिभाइयपुर'त्ति पूर्वमेवास्माभिरिय भ्रातृव्यादेः परिकल्पितेत्येवंभूता भवेत् , तथाऽन्यैरपीयं परिभुक्तपूर्वा, तथा पूर्वमेवास्माभिरिय परित्यक्तेति, यदि |च भगवतां नोपयुज्यते ततो वयमेनामपनेष्यामः, इत्येवमादिका छलना पुनः सम्यग विज्ञाय परिहर्तव्येति, ननु किमेवं | छलनासम्भवेऽपि यथाऽवस्थितवसतिगुणदोषादिकं गृहस्थेन पृष्टः साधुळकुर्वन-कथयन् सम्यगेव व्याकरोति ?, यदि-| वैवं व्याकुर्वन् सम्यग् व्याकर्ता भवति?, आचार्य आह-हन्त इति शिष्यामन्त्रणे सम्यगेव व्याकत्तों भवतीति ॥ तथा-1 विधकार्यवशाचरककार्पटिकादिभिः सह संवासे विधिमाह
से मिक्खू वा० से जं पुण उवस्मयं जाणिजा खुडियाओ खुदुवारियानो निययाभो संनिरुद्धाओ भवन्ति, तहप्पगा० उवस्सए राओ वा चियाले वा निक्खममाणे वा प० पुरा हत्येण वा पच्छा पाएण वा तो संजयामेव निक्समिज वा २,
-25%
अनुक्रम [४२१]
5
॥३६९
5
~453~
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८८], नियुक्ति : [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
1८८]
दीप अनुक्रम [४२२]
केवली व्या आयाणमेयं, जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा छत्तए वा मत्तए वा दंडए वा लट्ठिया वा भिसिया वा नालिया वा चेलं वा चिलिमिली वा चम्मए वा चम्मकोसए वा चम्मछेयणए वा दुब्बड़े दुनिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले भिक्खू व राओ वा वियाले वा निक्सममाणे वा २ पयलिज वा २, से तत्थ पयलमाणे वा० हरथं वा० लूसिज्ज वा पाणाणि वा ४ जाव ववरोविज वा, अह मिक्खूणं पुल्योवइटुं जं तह० उबस्सए पुरा हत्येण निक्ख० वा पच्छा पाएणं तओ संज
यामेव नि० पबिसिज वा ।। (सू०८८) ___स भिक्षुर्य पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात्, तद्यथा-'क्षुद्रिकाः' लध्व्यः तथा क्षुद्रद्वाराः 'नीचा' उच्चस्त्वरहिताः 'संनिरुद्धाः' गृहस्थाकुला वसतयो भवन्ति, ताश्चैवं भवन्ति-तस्यां साधुवसतौ शय्यातरेणान्येषामपि कतिपयदिवसस्थायिनां
चरकादीनामवकाशो दत्तो भवेत् , तेषां वा पूर्वस्थितानां पश्चात्साधूनामुपाश्रयो दत्तो भवेत् , तत्र कार्यवशादसता दाराव्यादी निर्गच्छता प्रविशता वा यथा चरकाद्युपकरणोपघातो न भवति तदवयवोपघातो वा तथा पुरो हस्तकरणादि
कया गमनागमनादिक्रियया यतितव्यं, शेषं कण्ठ्यं, नवरं 'चिलिमिली' यमनिका 'धर्मकोशः' पाणित्रं खल्लकादिः॥ इदानीं वसतियाजाविधिमधिकृत्याह
से आगंतारेसु वा अणुवीय उवस्मयं जाइजा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिट्ठाए ते उबस्सय अणुनविजा-काम खलु आउसो! अहालंद महापरिनार्य वसिस्सामो जाव आउसंतो! जाव आउसंतस्स उपस्सए जाव साहम्मियाई ततो उवस्सयं गिहिस्सामो तेण परं विहरिस्सामो ॥ (सू०८९)
~454~
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [८९], नियुक्ति : [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सूत्राक
[८९]
दीप अनुक्रम [४२३]
HAI स भिक्षुरागन्तागारादीनि गृहाणि पूर्वोक्तानि तेषु प्रविश्यानुविचिन्त्य च-किंभूतोऽयं प्रतिश्रयः? कश्चानेश्वरःइ- श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः त्येवं पर्यालोच्य च प्रतिश्रयं याचेत, यस्तत्र 'ईश्वरः' गृहस्वामी यो वा तत्र 'समधिष्ठाता' प्रभुनियुक्तस्तानुपाश्रयमनु
चूलिका १ (शी०)
ज्ञापयेत् , तद्यथा-'काम' तवेच्छया आयुष्मन् ! त्वया यथापरिज्ञातं प्रतिश्रयं कालतो भूभागतश्च तथैवाधिवत्स्यामः, शय्यैष०२
एवमुक्तः स कदाचिद् गृहस्थ एवं ब्रूयाद्-यथा कियत्कालं भवतामत्रावस्थानमिति, एवं गृहस्थेन पृष्टः साधुः वसति- उद्देशः ३ ॥३७०॥
प्रत्युपेक्षक एतद् ब्रूयाद्-यथा कारणमन्तरेण ऋतुबद्धे मासमेक वर्षासु चतुरो मासानवस्थानमिति, एवमुक्तः कदाचि-18 परो भूयात्-तावन्तं कालं ममात्रावस्थानं वसतिर्वा, तत्र साधुस्तथाभूतकारणसद्भावे एवं ब्रूयाद्-यावत्कालमिहायुष्मन्त आसते यावद्वा भवत उपाश्रयस्तावत्कालमेवोपाश्रयं गृहीष्यामः, ततः परेण विहरिष्याम इत्युत्तरेण सम्बन्धः, |साधुप्रमाणप्रश्ने चोत्तरं दद्याद् यथा समुद्रसंस्थानीयाः सूरयो, नास्ति परिमाणं, यतस्तत्र कार्यार्थिनः केचनागच्छन्ति दाअपरे कृतकार्या गच्छन्त्यतो यावन्तः साधर्मिकाः समागमिष्यन्ति तावतामयमाश्रयः, साधुपरिमाण न कथनीयमिति भावार्थः ॥ किञ्च
से मिक्खू वा० जस्सुवस्सए संवसिजा तस्स पुब्बामेव नामगुत्तं जाणिज्जा, तओ पच्छा तस्स गिहे निमंतेमाणस्स वा
अनिमंतेमाणस्स वा असणं वा ४ अफासुर्य आव नो पडिगाहेजा ॥ (सू० ९०) सुगम, नवरं साधूनां सामाचार्येषा, यदुत शय्यातरस्य नामगोत्रादि ज्ञातव्यं, तत्परिज्ञानाच्च सुखेनैव प्राघूर्णिका- ॥ ३७० ॥ दयो भिक्षामटन्तः शय्यातरगृहप्रवेशं परिहरिष्यन्तीति ॥ किञ्च
~455~
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [९१], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[९१]
दीप
से मिक्लू वा० से ० ससागारियं सागणियं सउद्यं नो पन्नस्स निक्खमणपवेसाए जावऽणुचिताए तहपगारे उबस्सए
नो ठा०॥ (सू०९१) स भिक्षुर्य पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात् , तद्यथा-ससागारिकं साग्निकं सोदक, तत्र स्वाध्यायादिकृते स्थानादि न विधेयमिति ॥ तथा
से मिक्सू वा० से जं० गाहावहकुलस्स मामजोणं गंतु पंथए पडिबद्धं वा नो पन्नस्स जाव चिंताए तब उ० नो ठा०॥ (सू०९२) यस्योपाश्रयस्य गृहस्थगृहमध्येन पन्थास्तत्र बलपायसम्भवात्तत्र न स्थातव्यमिति ॥ तथा
से भिक्खू वा० से जं०, इह खलु गाहावई वा० कम्मकरीओ वा अनमन्नं अकोसंति या जाप उर्वति वा नो पन्नस्स०, सेवं नचा तहप्पगारे उ० नो ठा० ॥ (सू० ९३) से मिक्खू वा० से जं पुण० इह खलु गाहाबई या सम्मअरीओ बा अन्नमन्त्रस्म गार्य तिलेण वा नव०प० बसाए वा अन्भंगेति वा मक्खेंति वा नो पण्णस्स आप तहप्प. उव० नो ठा० (सू० ९४) से मिक्सू वा० से जं पुण-इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ अनमनस्स गायं सिणाणेण वा कलु. चु० ५० आपसंति वा पसंति वा उज्वलंति वा उब्बदिति वा नो पन्नस्स० (सू०९५) से भिक्खू० से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा, इह खलुगाहावती वा जाव कम्मकरी वा अण्णमण्णस्स गार्य सीओदग० उसिणो० उच्छो० पहोयंति सिंचंति सिणावंति वा नो पन्नस्स जाव नो ठाणः ॥ (सू० ९६)
अनुक्रम [४२५]
~4564
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [९६], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
श्रुतस्क०२
चूलिका १
CE195
(सी०)
शय्यैष०२ उद्देशः ३
[९६]
॥३७१॥
दीप अनुक्रम [४३०]
8 सुगम, नवरं यत्र प्रातिवेशिकाः प्रत्यहं कलहायमानास्तिष्ठन्ति तत्र स्वाध्यायाधुपरोधान्न स्थेयमिति ॥ एवं तैलाद्य- भ्यङ्गकल्कायुद्धत्तनोदकप्रक्षालनसूत्रमपि नेयमिति ॥ किच
से भिक्खू वा० से जं. इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा निगिणा ठिया निगिणा उल्लीणा मेहुणधम्म विश्नर्षिति रहस्सियं वा मंतं मतंति नो पन्नस्स जाव नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ।। (सू०९७) यत्र प्रातिवेशिकखियः 'णिगिणा'त्ति मुक्तपरिधाना आसते, तथा 'उपलीनाः' प्रच्छन्ना मैथुनधर्मविषय किशिद्रहस्य | रात्रिसम्भोगं परस्परं कथयन्ति, अपरं वा रहस्यमकार्यसंबद्धं मन्त्रं मन्चन्यते, तथाभूते प्रतिश्रये न स्थानादि विधेयं, | यतस्तत्र स्वाध्यायक्षितिचित्तविप्लुत्यादयो दोषाः समुपजायन्त इति ॥ अपि च
से मिक्खू वा से जं पुण उ० आइन्नसंलिक्खं नो पन्नस्स० ॥ (सू० ९८) कण्ठ्यं, नवरं, तत्रायं दोषः-चित्रभित्तिदर्शनात्स्वाध्यायक्षितिः, तथाविधचित्रस्थख्यादिदर्शनात्पूर्वक्रीडिताक्रीडितस्मरणकौतुकादिसम्भव इति ॥ साम्प्रतं फलहकादिसंस्तारकमधिकृत्याह
से भिक्खू वा० अभिकंखिज्जा संथारग एसित्तए, से जं० संथारगं जाणिज्जा सई जाब ससंताणयं, तहप्पगार संधार लामे संते नो पहि०१॥ से भिक्खू वा से जं. अप्पंडं जाव संताणगरुयं तहप्पगारं नो ५०२ ॥ से भिक्खू वा० अप्पंडं लहुयं अपाविहारियं तह नोप०३॥ से भिक्खू वा० अप्पंड जाव अपसंताणगं लहुभं पाडिहारिच नो अहापर्व
SAX
॥३७१॥
~457~
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], मूलं [९९], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
९ि९
दीप
तहप्पगार लाभे संते नो पडिगाहिज्जा ४ ॥ से मिक्खू वा २ से जं पुण संधारगं जाणिज्जा अपंडं जाव संताणगं लहुअं पाखिहारिअं अहाबद्ध, तहप्पगारं संथारगं लाभे संते पडिगाहिज्जा ५॥ (सू०९९) स भिक्षुर्यदि फलहकादिसंस्तारकमेपितुमभिकासयेत्, तच्चैवंभूतं जानीयात्, तद्यथा-प्रथमसूत्रे साण्डादित्वात्संयमविराधनादोषः १, द्वितीयसूत्रे गुरुत्वादुत्क्षेपणादावात्मविराधनादिदोषः २, तृतीयसूत्रेऽप्रतिहारकत्वात्तपरित्यागादि-1 दोषः ३, चतुर्थसूत्रे त्वबद्धत्वात्तद्वन्धनादिपलिमन्थदोषः ४, पश्चमसूत्रे त्वल्पाण्डं यावदल्पसन्तानकलघुपातिहारिकावब-| द्धत्वात्सर्वदोषविप्रमुकत्वात्संस्तारको ग्राह्य इति सूत्रपञ्चकसमुदायार्थः ५॥ साम्प्रतं संस्तारकमुद्दिश्याभिग्रहविशेषानाह
इथेयाई आयतणाई उवाइकम-अह भिक्खू जाणिज्जा इमाइं चउहि पडिमाहिं संधारगं एसित्तए, तस्थ खलु इमा पढमा पडिमा से भिक्खू वा २ उदिसिय २ संथारगं जाइजा, तंजहा-दकडं वा कढिणं वा जंतुयं वा परग वा मोरगं वा तणगं वा सोरगं वा कुस वा कुच्चगं वा पिप्पलगं वा पलालगं वा, से पुब्वामेव आलोइजा-आउसोति या भ. दाहिसि मे इत्तो अन्नयर संधारगं १ तह संधारगं सर्व वा णं जाइज्जा परो वा देजा फासुयं एसणिज जाव पडि०,
पढमा पडिमा ।। (सू० १००) 'इत्येतानि' पूर्वोक्तानि 'आयतनादीनि दोषरहितस्थानानि वसतिगतानि संस्तारकगतानि च 'उपातिक्रम्य परिहत्य पक्ष्यमाणांश्च दोषान् परिहत्य संस्तारको ग्राह्य इति दर्शयति-'अर्थ' आनन्तर्ये स भावभिक्षुर्जानीयात् 'आभिः करणभूताभिश्चतसृभिः 'प्रतिमाभिः' अभिग्रहविशेषभूताभिः संस्तारकमन्वेष्टुं, ताश्चेमा:-उद्दिष्ट १ प्रेक्ष्य २ तस्वैव ३
अनुक्रम [४३३]
~458~
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१००], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०)
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ शय्यैष०२ उद्देशः ३
सूत्रांक
[१००]
॥३७२॥
दीप
यथासंस्तृत ४ रूपाः, तत्रोद्दिष्टा फलहकादीनामन्यतमनहीष्यामि नेतरदिति प्रथमा १, यदेव प्रागुद्दिष्टं तदेव द्रक्ष्यामि ततो ग्रहीष्यामि नान्यदिति द्वितीया प्रतिमा २, तदपि यदि तस्यैव शय्यातरस्य गृहे भवति ततो ग्रहीष्यामि नान्यत आनीय तत्र शयिष्य इति तृतीया ३ तदपि फलहकादिकं यदि यथासंस्तृतमेवास्ते ततो गृहीप्यामि नान्यथेति चतुर्थी | प्रतिमा ४ । आसु च प्रतिमास्वाद्ययोः प्रतिमयोगच्छनिर्गतानामग्रहः, उत्तरयोरन्यतरस्यामभिग्रहः, गच्छान्तर्गतानां तु चतम्रोऽपि कल्पन्त इति, एताश्च यथाक्रम सूत्रदर्शयति-तत्र खल्विमा प्रथमा प्रतिमा तद्यथा-उदिश्योदिश्येकडादीनामन्यतमबहीष्यामीत्येवं यस्याभिग्रहः सोऽपरलाभेऽपि न प्रतिगृह्णीयादिति, शेष कण्ठ्यं नवरं 'कठिन' वंशकटादि
जन्तुक' तृणविशेषोत्पन्नं 'परक' येन तृणविशेषेण पुष्पाणि प्रथ्यन्ते 'मोरगति मयूरपिच्छनिष्पन्नं 'कुच्चगति येन कूर्चकाः | | क्रियन्ते, एते चैवंभूताः संस्तारका अनूपदेशे सार्दादिभूम्यन्तरणार्थमनुज्ञाता इति ॥
अहावरा दुचा पडिमा-से भिक्खू वा० पेहाए संथारगं जाइजा, तंजहागाहावई वा कम्मकरि वा से पुच्चामेव आलोइज्जा-आउ०! भइ०! दाहिसि मे ? जाव पडिगाहिज्जा, दुचा पडिमा २ ॥ अहावरा तथा पडिमा-से भिक्खू वा० जस्सुवस्सए संवसिज्जा जे तत्थ महासमन्नागए, तंजहा-इकडे इ वा जाव पलाले इ वा तस्स लाभे संवसिजा तस्सालाभे उक्कडुए वा नेसजिए वा विहरिजा तच्चा पडिमा ३ ॥ (सू०१०१) अत्रापि पूर्ववत्सर्व भणनीयं, यदि परं तमिकडादिक संस्तारकं दृष्ट्वा याचते नादृष्टमिति ॥ एवं तृतीयाऽपि नेया,
अनुक्रम [४३४]
॥३७२।
~459~
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१०१], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१०१]
दीप
इयांस्तु विशेषः-गच्छान्तर्गतो निर्गतो वा यदि वसतिदातैव संस्तारकं प्रयच्छति ततो गृह्णाति, तदभावे उत्कटुको वा निषण्णो वा पद्मासनादिना सर्वरात्रमास्त इति ॥
अहावरा जत्था पडिमा-से भिक्खू या अहासंथडमेव संथारगं जाइजा, तंजहा-पुढविसिलं वा कट्टसिलं वा अहासंथढमेव, तरस लाभे संते संबसिज्जा, तस्स अलाभे उक्कडुए का २ विहरिजा, चउस्था पडिमा ४ ॥ (सू०१०२)
एतदपि सुगमं, केवलमस्यामयं विशेषः-यदि शिलादिसंस्तारकं यथासंस्तृतं शयनयोग्यं लभ्यते ततः शेते नान्यहाथेति ॥ किञ्च
इथेयार्ण चउण्हं पढिमाणं अन्नयरं पटिम पडिबजमाणे तं चेव जाब अन्नोऽन्नसमाहीए एवं च णं विहरति ॥ (सू०१०३) आसां चतसृणां प्रतिमानामन्यतरां प्रतिपद्यमानोऽन्यमपरप्रतिमाप्रतिपन्नं साधु न हीलयेद्, यस्मात्ते सर्वेऽपि जिना-1 ज्ञामाश्रित्य समाधिना वत्तंन्त इति ।। साम्प्रतं प्रातिहारकसंस्तारकप्रत्यपणे विधिमाह
से भिक्खू वा० अमिकंखिजा संथारगं पञ्चप्पिणित्तए, से जं पुण संथारगं जाणिज्जा सअंडं जाय ससंताणयं तहप्प सं
थारगं नो पञ्चप्पिणिज्जा ।। (सू० १०४) I स भिक्षुः प्रातिहारिक संस्तारक यदि प्रत्यर्पयितुमभिकालेदेवंभूतं जानीयात् तद्यथा-गृहकोकिलकाद्यण्डकसंबद्धमप्रत्युसापेक्षणयोग्यं ततो न प्रत्यर्पयेदिति ॥ किञ्च
अनुक्रम [४३५]
सू.
~460~
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१०५], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ शय्येष०२ उद्देशः ३
सूत्रांक
[१०५]
दीप अनुक्रम [४३९]
श्रीआचा- से मिक्स अभिकंखिजा सं० से जं. अपं० तहप्पगारं० संथारगं पडिलेहिय २ ५०२ आयाविय २ विहुणिव २ रामवृत्तिः तओ संजयामेव पञ्चप्पिणिज्जा ॥ (सू० १०५) (शी०) सुगमम् । साम्प्रतं वसती वसतां विधिमधिकृत्याह
से मिक्खू वा० समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे वा पुवामेव पन्नस्स उधारपासवणभूमि पडिलेहिजा, के॥३७३॥
बली बूया आयाणमेयं---अपडिलेहियाए उचारपासवणभूमीए, से भिक्खू वा० राओ वा विवाले वा उच्चारपासवर्ण परिडवेमाणे पयलिज वा २, से तत्थ पवलमाणे वा २ हत्थं वा पायं वा जाव लुसेजा व पाणाणि वा ४ ववरोविजा, अह
भिक्खू ण पु० जं पुवामेव पन्नस्स उ० भूमि पडिलेहिजा ।। (सू० १०६) II सुगम, नवरं साधूनां सामाचार्येषा, यदुत-विकाले प्रश्रवणादिभूमयः प्रत्युपेक्षणीया इति ॥ साम्प्रतं संस्तारकभूद मिमधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ अभिकखिजा सिज्जासंथारगभूमि पडिलेहित्तए नन्नत्थ आयरिएण या उ० जाव गणावच्छेएण वा बालेण या युरेण वा सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा मज्झेण वा समेण वा विसमेण वा पवारण वा निवाणए वा, तओ संजयामेव पडिलेहिय २ पमजिय २ तओ संजयामेव बहुफासुयं सिज्जासंथारगं संथरिजा ।। (सू० १०७) स भिक्षुराचार्योपाध्यायादिभिः स्वीकृतां भूमि मुक्त्वाऽन्यो स्वसंस्तरणाय प्रत्युपेक्षेत, शेषं सुगम, नवरमादेशः- प्राघूर्णक इति, तथाऽन्तेन येत्यादीनां पदानां तृतीया सप्तम्यर्थ इति ॥ इदानीं शयनविधिमधिकृत्याह
३७३ ॥
~461~
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [१०८], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०८]
दीप अनुक्रम [४४२]
से मिक्ख वा बहुसंधरिता अभिकंखिजा बहुफासुए सिज्जासंधारए दुरुहितए । से भिक्खू० बहु० दुरूहमाणे पुवामेव ससीसोबरियं कार्य पाए य पमजिय २ तओ संजयामेव बहु० दुरुहिता तओ संजयामेव बहु० सइज्जा ।। (सू०१०८) से इत्यादि स्पष्टम् । इदानीं सुप्तविधिमधिकृत्याहसे निक्लू वा० बहु० सयमाणे नो अन्नमन्नस्स हत्येण हत्थं पाएण पार्य-कारण कार्य आसाइजा, से अणासायमाणे तओ संजयामेव बहु० सइना ।। से भिक्खू वा उस्सासमाणे बा नीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डोए वा वायनिसर्ग वा करेमाणे पुवामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहिता तओ संजयामेव ऊससिज्जा वा
जाव वायनिसर्ग वा करेज्जा ।। (सू० १०९) निगदसिद्धम् , इयमत्र भावना-स्वपद्भिहस्तमात्रव्यवहितसंस्तारकैः स्वप्तव्यमिति ॥ एवं सुप्तस्य निःश्वसितादिविधिसूत्रमुत्तानार्थं, नवरम् 'आसयं वत्ति आस्य 'पोसयं वा' इत्यधिष्ठानमिति ।। साम्प्रतं सामान्येन शय्यामङ्गीकृत्याह
से भिक्खू वा० समा वेगया सिजा भविजा विसमा वेगया सि० पबाया वे० निवाया वे० ससरक्खा वे० अप्पससरक्खा वे० सदसमसगा वेगया अपदसमसगा० सपरिसाडा वे० अपरिसाडा. सउबसग्गा वे० निरुवसग्गा वे० तहप्पगाराहि सिलाहिं संविजमाणाहिं पगहियतरागं विहार विहरिजा नो किंचिबि गिलाइजा, एवं खलुजं सबढेहिं सहिए सया जएत्तिबेमि (सू०११०)२-१-२-२ ।।
अत्र यत् २-१-२-२ लिखितं, तत् मुद्रण दोषः। (यहाँ २/९/२/३ होना चाहिए, क्योंकि दूसरे श्रुतस्कंध की पहेली चुडा के दूसरे अध्ययन का ये तीसरा उद्देशक समाप्त हुआ है।
~462~
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], मूलं [११०], नियुक्ति: [३०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११०]
श्रीआचाराजवृत्तिः (शी०)
aaDD
॥३७४॥
दीप अनुक्रम [४४४]
सुखोन्नेयं, यावत्तथाप्रकारासु वसतिषु विद्यमानासु 'प्रगृहीततर मिति यैव काचिद्विषमसमादिका वसतिः संपन्नातक०२ तामेव समचित्तोऽधिवसेत्-न तत्र व्यलीकादिकं कुर्यात् , एतत्तस्य भिक्षोः सामयं यत्सर्वाः सहितः सदा यतेतेति ॥ चलिका १ द्वितीयमध्ययनं शय्याख्यं समाप्तम् ॥२-१-२-२॥
ईयप०३
उद्देशः १ । उक्तं द्वितीयमध्ययनं, साम्प्रतं तृतीयमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहायेऽध्ययने धर्मशरीरपरिपालनार्थ पिण्डः प्रतिपादितः, स चावश्यमैहिकामुष्मिकापायरक्षणार्थ वसतौ भोक्तव्य इति द्वितीयेऽध्ययने वसतिः प्रतिपादिता, साम्प्रतं तयोरन्वेषणार्थ गमनं विधेयं, तच्च यदा यथा विधेयं यथा च न विधेयमित्येतत्प्रतिपाद्यम् , इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमे नामनिक्षेपणार्थ नियुकिकृदाहनाम १ ठवणाइरिया २ दब्वे ३ खित्ते ४ यकाल ५ भावे ६ या एसो खलु इरियाए निक्खेयो छव्यिहो होइ॥३०॥16 | कण्ठयं । नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यर्याप्रतिपादनार्थमाह
दब्वहरियाओं तिविहा सचित्ताचित्तमीसगा चेव । खित्तमि जमि खित्ते काले कालो जहिं होड ॥३०६ ॥1
तत्र द्रव्यों सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्रिविधा, ईरणमीर्या गमनमित्यर्थः, तत्र सचित्तस्य-वायुपुरुषादेव्यस्य यद्गमनं ||सा सचित्तद्रव्यर्या, एवं परमाण्वादिद्रव्यस्य गमनमचित्तद्रव्या, तथा मिश्रद्रव्यर्या रथादिगमनमिति, क्षेत्रेयों यस्मिन
1 ३७४॥ क्षेत्रे गमनं क्रियते ईयों वा वयेते, एवं कालेोऽपि द्रष्टव्येति ॥ भावेर्याप्रतिपादनायाह
अत्र यत् २-१-२-२ लिखितं, तत् मुद्रण दोष:। (यहाँ २/१/२/३ होना चाहिए, क्योंकि दूसरे श्रुतस्कंध की पहेली चुडा के दूसरे अध्ययन का ये तीसरा उद्देशक समाप्त हुआ है। अब यहाँ तीसरा अध्ययन आरम्भ हो रहा है। प्रथम चूलिकाया: तृतीय-अध्ययनं "ईर्या", प्रथम-उद्देशक: आरब्ध:
~463~
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११०...], नियुक्ति : [३०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११०]
दीप
भावइरियाओ दुविहा चरणरिया चेव संजमरिया य । समणस्स कहं गमणं निहोस होइ परिसुद्धं ? ॥ ३०७॥
भावविपर्या द्विधा-चरणेर्या संयमेर्या च, तत्र संयमेर्या सप्तदशविधसंयमानुष्ठान, यदिवाऽसइख्येयेषु संयमस्थाने-10 | ब्वेकस्मात्संयमस्थानादपरं संयमस्थानं गच्छतः संयमेर्या भवति, चरणर्या तु 'अन्न वन्न मन चर गत्यर्थाः' चरतेभावे|3| ल्युट् चरणं तद्रूपेर्या चरणे, चरणं गतिर्गमनमित्यर्थः, तच श्रमणस्य 'कथं' केन प्रकारेण भावरूपं गमनं निर्दोष भवति ? इति ॥ आह
आलंबणे य काले मग्गे जयणाइ चेव परिसुद्धं । भंगेहिं सोलसविहं जं परिसुद्धं पसत्थं तु ॥३०८ ॥ 'आलम्बनं' प्रवचनसागच्छाचार्यादिप्रयोजनं 'कालः' साधूनां विहरणयोग्योऽवसरः 'मार्गः' जनैः पयो क्षुण्णः | पन्थाः 'यतना' उपयुक्तस्य युगमात्रदृष्टित्वं, तदेवमालम्बनकालमार्गयतनापदरेकैकपदव्यभिचाराद ये भङ्गास्तैः पोडश-14 विधं गमनं भवति ।। तस्य च यत्परिशुद्धं तदेव प्रशस्तं भवतीति दर्शयितुमाह
चउकारणपरिसुद्धं अहवावि (हु)होज कारणलाए। आलंबणजयणाए काले मग्गे य जइयब्वं ॥ ३०९॥
चतुर्भिः कारणैः साधोर्गमनं परिशुद्धं भवति, तद्यधा-आलम्बनेन दिवा मार्गेण यतनया गच्छत इति, अथवाऽका|लेऽपि ग्लानाद्यालम्बनेन यतनया गच्छतः शुद्धमेव गमनं भवति, एवंभूते च मार्गे साधुना यतितव्यमिति ॥ उक्तो नामदा निष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतमुद्देशार्थाधिकारमधिकृत्याह
सब्वेवि ईरियविसोहिकारगा तहवि अस्थि उ विसेसो । उहेसे उसे बुच्छामि जहफार्म किंचि ॥ ३१०।।
अनुक्रम [४४४]
~464
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११०...], नियुक्ति : [३१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
प्रत
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ ईयेष०३ उद्देशः १
सूत्रांक
[११०]
दीप
'सर्वेऽपि योऽपि यद्यपीर्याविशुद्धिकारकास्तथाऽपि प्रत्युद्देशकमस्ति विशेषः, तं च यथाक्रम किश्चिद्वक्ष्याम इति ॥ राङ्गवृत्तिः
यथाप्रतिज्ञातमाह(शी०)
पढमे उवागमण निग्गमो य अद्भाण नावजयणा य । विइए आरूढ छलणं जंघासंतार पुच्छा य ॥ ३११॥ II प्रथमोदेशके वर्षाकालादावुपागमनं-स्थान तथा निर्गमश्च शरत्कालादौ यथा भवति तदत्र प्रतिपाद्यमध्वनि यतना
चेति, द्वितीयोद्देशके नावादावारूढस्य छलनं-प्रक्षेपणं व्यावयेते, जङ्कासन्तारे च पानीये यतना, तथा नानाप्रकारे च प्रश्ने साधुना यद्विधेयमेतच प्रतिपाद्यमिति ॥
तइयमि अदायणया अप्पडिबंधो य होइ उवहिंमि । वज्जेयव्वं च सया संसारियरायगिहगमणं ॥ ३१२॥ तृतीयोद्देशके यदि कश्चिदुदकादीनि पृच्छति, तस्य जानताऽष्यदर्शनता विधेयेत्ययमधिकारः, तथोपधावप्रतिबन्धो विधेयः, तदपहरणे च स्वजनराजगृहगमनं च बजेनीयं, न च तेषामाख्येयमिति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
अभुवगए खलु वासावासे अभिपवुढे बहवे पाणा अमिसंभूया बहवे बीया अहुणाभिन्ना अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया जाव ससंताणगा अणमिकता पंथा नो विन्नाया ममा सेवं नच्चा नो गामाणुगानं दूइजिजा, तओ संजयामेव वासाबासं उबल्लिइज्जा ।। (सू० १११) आभिमुख्येनोपगतासु वर्षासु अभिप्रवृष्टे च पयोमुचि, अत्र वर्षाकालवृष्टिभ्यां चत्वारो भङ्गाः, तत्र साधूनां सामा
अनुक्रम [४४४]
॥३७५॥
~465~
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१११]
दीप
अनुक्रम
[ ४४५]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [१११], निर्युक्ति: [३१२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
चार्येवैषा, यदुत-निर्व्याघातेनाप्राप्त एवाषाढ चतुर्मास के तृणफलकडगलकभस्ममात्र कादिपरिग्रहः किमिति १, यतो जातायां वृष्टौ बहवः प्राणिन:' इन्द्रगोपकचीयावक गर्दभकादयः 'अभिसंभूताः' प्रादुर्भूताः, तथा बहूनि 'बीजानि' अभिनवाडरितानि, अन्तराले च मार्गास्तस्य - साधोर्गच्छतो बहुप्राणिनो बहुवीजा यावत्ससन्तानका अनभिकान्ताश्च पन्थानः, अत एव तृणाकुलत्वान्न विज्ञाताः मार्गः, स साधुरेवं ज्ञात्वा न ग्रामाड्रामान्तरं यायात्, ततः संयत एव वर्षासु यथाऽवसरप्राप्तायां वसतावुपलीयेत वर्षाकालं कुर्यादिति ॥ एतदपवादार्थमाह
से भिक्खू वा० सेज्जं गामं वा जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव राय० नो महई विहारभूमी नो महई बियारभूमी नो सुलमे पीढफलगसिज्जासंथारगे नो सुलभे फासुए उँछे अहेसणिज्जे जत्थ बहवे समण० वणीमगा उवागया arreic य अचाइना बित्ती नो पत्ररस निक्खमणे जाव चिंताए, सेवं नचा तहष्पगारं गामं वा नगरं वा जाव यहाणि वा नो वासावासं उबलिजा || से भि० से जं० गामं वा जाव राय० इमसि खलु गामंसि वा जाय महई विहारभूमी महई वियार० सुलभे जत्थ पीड ४ सुलभे फा० नो जत्थ बहवे समण उवागमिस्संति वा अप्पाइन्ना वित्ती जावरायहाणि वा तओ संजयामेव वासावासं उवलिइज्जा | ( सू० ११२ )
स भिक्षुर्यत्पुनरेवं राजधान्यादिकं जानीयात्, तद्यथा-अस्मिन् ग्रामे यावद् राजधान्यां वा न विद्यते महती 'विहारभूमिः' स्वाध्यायभूमिः, तथा 'विचारभूमिः' बहिर्गमनभूमिः, तथा नैवात्र सुलभानि पीठफलहकशय्यासंस्तारकादीनि, तथा न सुलभः प्रासुकः पिण्डपातः, 'मुंडे'त्ति एषणीयः, एतदेव दर्शयति- 'अहेसणीजेत्ति यथाऽसावुदमादिदोषर
For Penal Use Only
~466~
wor
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११२], नियुक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०)
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ ईयष० ३ उद्देशः १
सूत्रांक [११२]
॥३७६॥
दीप अनुक्रम [४४६]
हित एषणीयो भवति तथाभूतो दुर्लभ इति, यत्र च ग्रामनगरादौ बहवः श्रमणब्राह्मणकृपणवणीमगादय उपागता अपरे चोपागमिष्यन्ति, एवं च तत्रात्याकीणों वृत्तिः, वर्तनं-वृत्तिः, सा च भिक्षाटनस्वाध्यायध्यानवहिर्गमनकार्येषु जनसङ्क- लत्वादाकीर्णा भवति, ततश्च न प्राज्ञस्य तत्र निष्क्रमणप्रवेशी यावचिन्तनादिकाः क्रिया निरुपद्रवाः संभवन्ति,
स साधुरेवं ज्ञात्वा न तत्र वर्षाकालं विध्यादिति । एवं च व्यत्ययसूत्रमपि व्यत्ययेन नेयमिति ॥ साम्प्रतं गतेऽपि वर्षा- काले यदा यथा च गन्तव्यं तदधिकृत्याह
अह पुणेवं जाणिजा-चत्तारि मासा वासावासाणं वीइक्ता हेमंताण य पंचदसरायकप्पे परिखुसिए, अंतरा से मग्गे बहुपाणा जाब ससंताणगा नो जत्व बहवे जाव उवागमिस्संति, सेवं नचा नो गामाणुगामं दूइजिजा । अह पुणेवं जाणिजा चत्तारि मासा० कप्पे परिचुसिए, अंतरा से मग्गे अप्पंडा जाव ससंताणगा बहवे जत्थ समण उवागमिस्संति,
सेव नचा तओ संजयामेव० दूइजिज ॥ (सू० ११३) | अधैवं जानीयाद् यथा चत्वारोऽपि मासाः प्रावृटकालसम्बन्धिनोऽतिकान्ताः, कार्तिकचातुर्मासिकमतिक्रान्तमित्यर्थः, तत्रोत्सर्गतो यदि न वृष्टिस्ततः प्रतिपद्येवान्यत्र गत्वा पारणकं विधेयम्, अथ वृष्टिस्ततो हेमन्तस्य पञ्चसु दशसु वा दिनेषु 'पर्युषितेषु' गतेषु गमनं विधेयं, तत्रापि यद्यन्तराले पन्थानः साण्डा यावत्ससन्तानका भवेयुर्न च तत्र बहवः श्रमणब्राहाणादयः समागताः समागमिष्यन्ति वा ततः समस्तमेव मार्गशिरं यावत्तत्रैव स्थेय, तत ऊ यथा तथाऽस्तु न स्थेयमिति ।। एवमेतद्विपर्ययसूत्रमयुक्तार्थम् ॥ इदानी मार्गयतनामधिकृत्याह
॥३७६॥
~467~
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११४], नियुक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [११४]
दीप अनुक्रम [४४८]
से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइजमाणे पुरओ जुगमावाए पेहमाणे दवण तसे पाणे उद्धट्ट पार्द रीजा साह पायं रीइजा वितिरिन्छ वा कटू पायं रीइजा, सइ परकमे संजयामेव परिकमिजा नो उज्जुयं गच्छिज्जा, तओ संजयामेव गामाणुगाम दूइजिजा ॥ से भिक्खू बा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से पाणाणि वा बी० हरि० उदए वा मट्टिा वा अविद्वत्थे
सह परकमे जाप नो उज्जुयं गच्छिज्जा, तओ संजया० गामा० दूइजिला ।। (सू०११४) स भिक्षुर्यावद् ग्रामान्तरं गच्छन् 'पुरतः' अग्रतः 'युगमात्रं' चतुर्हस्तप्रमाणं शकटोसिंस्थितं भूभागं पश्यन् गच्छेत् , तत्र च पथि दृष्ट्वा 'सान् प्राणिनः' पतङ्गादीन् 'उद्धट्टत्ति पादमुद्धृत्त्याग्रतलेन पादपातप्रदेश वाऽतिक्रम्य गच्छेत् , एवं संहत्य-शरीराभिमुखमाक्षिप्य पादं विवक्षितपादपातप्रदेशादारत एव विन्यस्य उरिक्षप्य वाऽप्रभाग पाणिकया गच्छेत, तथा तिरश्चीनं वा पादं कृत्वा गच्छेत् , अयं चान्यमार्गाभावे विधिः, सति स्वन्यस्मिन् पराक्रमे-वामनमार्गे संयतः संस्तेनैव 'पराक्रमेत्' गच्छेत् न ऋजुनेत्येवं ग्रामान्तरं गच्छेत् सर्वोपसंहारोऽयमिति ॥ से इत्यादि, उत्तानार्थम् ॥ अपि च
से भिक्खू वा० गामा० दूइजमाणे अंतरा से विरूवरूवाणि पञ्चतिगाणि दसुगाययाणि मिलक्खुणि अणायरियाणि दुसनप्पाणि दुप्पन्नवणिजाणि अकालपडिबोहीणि अकालपरिभोईणि सइ लाडे विहाराए संथरमाणेहिं जाणवएहिं नो विहाखडियाए पवजिजा गमणाए, केवली या आयाणमेचं, तेणं वाला अयं तेणे अयं उवचरए अयं ततो आगएत्तिकट्ट तं मिक्तुं अकोसिज वा जाव उद्दविज वा वत्थं प० के० पाय. अछिदिज वा भिदिज वा अवहरिज वा परिढविज
~468~
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[११५]
दीप
अनुक्रम [ ४४९ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११५], निर्युक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ ३७७ ॥
अ भिक्खूणं पु० जं तहप्पगाराई बिरु० पर्वतियाणि दस्सुगा० जाव विहारवत्तियाए नो पवज्जिन वा गमणाए तओ संजया गा० दू० ॥ ( सू० ११५ )
स भिक्षुर्ग्रामान्तरं गच्छन् यत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा- 'अन्तरा' ग्रामान्तराले 'विरूपरूपाणि' नानाप्रकाराणि प्रात्यन्तिकानि दस्यूनां चौराणामायतनानि - स्थानानि 'मिलक्खूणि'त्ति वर्वरशबरपुलिन्द्रादिम्लेच्छप्रधानानि 'अना-र्याणि' अर्द्धषड्विंशजनपदवाह्यानि 'दुः सञ्ज्ञाप्यानि दुःखेनार्यसञ्ज्ञां ज्ञाप्यन्ते, तथा 'दुष्प्रज्ञाप्यानि' दुःखेन धर्मसञ्ज्ञो|पदेशेनानार्यसङ्कल्पान्निवर्त्यन्ते 'अकालप्रतिवोधीनि' न तेषां कश्चिदपर्यटनकालोऽस्ति, अर्द्धरात्रादावपि मृगयादौ गमनसम्भवात्, तथाऽकालभोजीन्यपीति, सत्यन्यस्मिन् ग्रामादिके विहारे विद्यमानेषु चान्येष्वार्यजनपदेषु न तेषु म्लेच्छ* स्थानेषु विहरिष्यामीति गमनं न प्रतिपद्येत, किमिति ?, यतः केवली ब्रूयात्कमपादानमेतत्, संयमात्मविराधनातः, तत्रात्मविराधने संयमविराधनाऽपि संभवतीत्यात्मविराधनां दर्शयति--'ते' म्लेच्छाः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे एवमूचुः, तद्यथा-अयं स्तेनः, अयमुपचरकः- चरोऽयं तस्मादस्मच्छत्रुग्रामादागत इतिकृत्वा वाचाऽऽक्रोशयेयुः, तथा दण्डेन ताडयेयुः यावज्जीविताद्व्यपरोपयेयुः, तथा वस्त्रादि 'आच्छिन्द्युः' अपहरेयुः, ततस्तं साधुं निर्द्धादयेयुरिति । अथ साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूतेषु म्लेच्छस्थानेषु गमनार्थं न प्रतिपद्यते, ततस्तानि परिहरन् संयत एवं ग्रामान्तरं गच्छेदिति ॥ तथा
से निक्खू० दुइजमाणे अंतरा से अरायाणि वा गणरायाणि वा जुबरायाणि वा दोरजाणि वा वेरजाणि वा विरुद्धरज्जाणि
Education International
For Parts Only
~469~
श्रुतस्कं० २ चूलिका १ ई५०३ उद्देशः १
॥ ३७७ ॥
waryra
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[११६]
दीप
अनुक्रम [ ४५० ]
29
[भाग-2] “आचार” मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११६], निर्युक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
Ja Education International
वा सइ लाढे विहाराए संथ० जण० नो विहारवडियाए०, केवली वूया आयाणमेयं, तेणं बाला तं चैव जाव गमणाए
तो सं० गा० दू० ॥ ( सू० ११६ )
कण्ठ्यं, नवरम् 'अराजानि' यत्र
से भिक्खू वा गा० दूइजमाणे अंतरा से बिहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा एगाहेण वा दुआहेण वा तिआहेण वा च आहेण वा पंचाण वा पाउणिज्ज वा नो पाउणिज्य वा तहृप्पगारं विहं अणेगाहगमणि सइ ढाढे जाव गमणाए, केवली वूया आयाणमेयं, अंतरा से वासे सिया पाणेसु वा पणएसु वा वीएसु वा हरि० उ० मट्टियाए वा अविद्वत्थाए,
अह भिक्खू जं तह० अणेगाह० जाब नो पत्र०, तओ सं० गा० ० ॥ ( सू० ११७ )
राजा मृतः 'युवराजानि यत्र नाद्यापि राज्याभिषेको भवतीति । किच
'भिक्षुर्ग्रामान्तरं गच्छन् यत्पुनरेवं जानीयात् 'अन्तरा' ग्रामान्तराले मम गच्छतः 'वि'ति अनेकाहगमनीयः पन्थाः 'स्यात्' भवेत्, तमेवंभूतमध्वानं ज्ञात्वा सत्यन्यस्मिन् विहारस्थाने न तत्र गमनाय मतिं विदध्यादिति शेषं सुगम् ॥ साम्प्रतं नौगमनविधिमधिकृत्याह-
से भि० गामा० दूइजिज्जा० अंतरा से नावासंतारिने उदए सिया से जं पुण नावं जाणिजा असंजय अ मिक्खुपडियाए किणिन वा पामिवेज्ज वा नावाए वा नावं परिणामं कट्टु थलाओ वा नावं जलंसि ओगाहिज्या जलाओ वा नावं थलंसि उक्कसिज्जा पुण्णं वा नावं उस्सिंचिज्ञा सन्नं वा नावं उप्पीलाविला तहृप्पगारं नावं उद्धृगामिणिं वा आहे -
For Palata Use Only
~470~
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११८], नियुक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
IN
प्रत सूत्रांक [११८]
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
एकदम
दीप अनुक्रम [४५२]
गा० तिरियगामि० परं जोयणमेराए अद्वजोयणमेराए अप्पतरे या भुजतरे वा नो दूरुहिजा गमणाए । से भिवख वा०
श्रुतस्कं०२ पुण्यामेव तिरिच्छसंपाइम नावं जाणिना, जाणित्ता से तमायाए एगतमवकमिज्जा २ भण्डगं पडिलेहिज्जा २ एगओ भो
चूलिका १ यणभंडगं करिजा २ ससीसोवरियं कार्य पाए पमजिजा सागार भत्तं पञ्चक्साइजा, एग पार्य जले किया एगं पायं थले किच्चा तओ सं० नावं दूरूहिज्जा ।। (सू० ११८)
उद्देशः १ स भिक्षुामान्तराले यदि नौसंतार्यमुदकं जानीयात्, नावं चैवंभूतां विजानीयात् , तद्यथा-असंयतः' गृहस्थोल भिक्षुप्रतिज्ञया नावं क्रीणीयात् , अन्यस्मादुच्छिन्नां वा गृह्णीयात्, परिवर्तनां वा कुर्यात्, एवं स्थलाद्यानयनादिक्रियोपेतां नावं ज्ञात्वा नारुहेदिति, शेष सुगमम् ॥ इदानीं कारणजाते नावारोहणविधिमाह-सुगमम् ॥ तथा
से मिक्खू बा० नावं दुरूहमाणे नो नावाओ पुरओ दुरूहिजा नो नावाओ मग्गओ दुरूहिज्जा नो नावाओ मझओ दुरूहिजा नो बाहाओ पगिज्झिय २ अंगुलियाए उद्दिसिय २ ओणमिय २ उन्नमिय २ निज्झाइजा । से गं परो नावागओ नावागयं वइजा-आउसंतो! समणा एवं ता तुमं नावं उकसाहिज्जा वा धुक्कसाहि वा खिवाहि वा रजयाए वा गहाय आकासाहि, नो से तं परिन्नं परिजाणिज्जा, तुसिणीओ उवेहिज्जा । सेणं परो नावागओ नावाग० वइ०-आउसं० नो संचाएसि तुम नावं उकसित्तए वा ३ रजूयाए वा गहाय आकसिचए वा आहर एवं नावाए रज्जूयं सर्व चेव णं वयं नावं उकासिस्सागो वा जाव रजूए वा गहाय आकसिस्सामो, नो से तं प० तुसि० । से गं प० आउसं० एअंता तुम नावं
॥३७८॥ थालिनेण वा पीढएण वा वसेण वा बलएण वा अवलुएण वा बाहेहि, नो से तं प० तुसि० से परो० एवं ता तुम
~471~
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], मूलं [११९], नियुक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
*SARSA
सूत्रांक [११९]
दीप अनुक्रम [४५३]
नावाए उदय हत्येण वा पाएण वा मत्तेण वा पढिग्गहेण वा नावाउस्सिचणेण वा उस्सिचाहि, नो से तं० सेणं परो० समणा! एयं तुम नावाए जत्तिन हत्येण वा पाएण वा बाहुणा वा ऊरुणा का उदरेण वा सीसेण वा कारण वा उसिधणेण वा लेण पा मट्टियाए वा कुसपत्तएण वा कुदिएण वा पिहेहि, नो से सं० ॥ से भिक्खू वा २ नावाए अतिंगेण पदयं आसवमाणं पेहाए जवरुवरि नावं कजलावेमाणि पेहाए नो परं उबसंकमित्तु एवं बूया-आउसंतो! गाहावइ एवं ते नावाए उदयं जत्तिगेण आसवइ उवरुवार नावा वा कजलावेइ, एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरो कट्ट विहरिजा अपुस्मुए अप•हिलेसे एर्गतगएण अप्पाणं विउसेजा समाहीए, तो सं० नावासंतारिमे व्यउदए आहारियं रीइजा, एवं खलु सया जइ
जासि तिबेमि ॥ इरियाए पढ़मो उद्देसो (सू० ११९) २-१-३-१ ॥ स्पष्टं, नवरं नो नावोऽयभागमारुहेत् निर्यामकोपद्रवसम्भवात् , नावारोहिणां वा पुरतो नारोहेत्, प्रवर्तनाधिकरणसम्भवात् , तत्रस्थश्च नौव्यापारं नापरेण चोदितः कुर्यात्, नाप्यन्य कारयेदिति । 'उत्तिंग'ति रन्ध्र 'कज्जलावेमाण'ति प्लाव्यमानम् 'अप्पुस्सुए'त्ति अविमनस्कः शरीरोपकरणादौ मूर्छामकुर्वन् तस्मिंश्चोदके नावं गच्छन् 'अहारिय'मिति यथाऽऽयं भवति तथा गच्छेद्, विशिष्टाध्यवसायो यायादित्यर्थः, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्यमिति ॥ तृतीयस्याध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्त:२-१-३-१॥
बा.सू.६४
Halariasaram.org
प्रथम चूलिकाया: तृतीय-अध्ययनं "ईर्या”, द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध:
~4724
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१२०], नियुक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२०]]
दीप अनुक्रम [४५४]
श्रीआचा-17 उक्तः प्रथमोद्देशकोऽधुना द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानम्तरोद्देशके नावि व्यवस्थितस्य विधि- श्रुतस्कं०२ राजपत्तिःपारभिहितस्तदिहापि स एवाभिधीयते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
चूलिका १ (शी०) से णं परो णावा० आउसंतो! समणा एवं ता तुमं छत्तर्ग वा जाव चम्मडेयणगं वा गिण्हाहि, एयाणि तुमं विरूवरूवाणि
पर्याध्य०३ सत्यजावाणि धारेहि, एयं ता तुमं दारगं वा पजेहि, नो से तं० ।। (सू०१२०)
उद्देशः २ ॥३७९॥
सः परः' गृहस्थादिर्नावि व्यवस्थितस्तत्स्थमेव साधुमेवं ब्रूयात् , तद्यथा-आयुष्मन् ! श्रमण ! एतन्मदीयं तावच्छ-1 प्रकादि गृहाण, तथैतानि 'शखजातानि' आयुधविशेषान् धारय, तथा दारकाधुदक पायय, इत्येतां 'परिज्ञां' पार्थनां| परस्य न शृणुयादिति ॥ तदकरणे च परः प्रद्विष्टः सन् यदि नावः प्रक्षिपेत्तत्र यत्कर्त्तव्यं तदाह
से गं परो मावागए मावागवं वएना--आउसंतो! एस णं समणे नावाए भंभारिए भवइ, सेणं बाहाए गहाय ना• वाओ उदगंसि पक्विविजा, एयप्पगारं निग्धोसं सुचा निसम्म से 2 चीवरधारी सिया खिप्पामेव चीवराणि उज्बेदिन बा निवेढिज वा अफेसं वा करिजा, अह अभिकतकूरकम्मा खलु बाला बाहाहि गहाय ना० पक्विविजा से पुब्बामेव वइजा-आउसंतो! गाहावई मा मेत्तो बाहाए गहाय नावाओ उद्गंसि पक्खियह, सयं चेव णे अहं गावाओ उदगंसि ओगाहिस्सामि, से णेवं वयंर्त परो सहसा बलसा बाहार्हि ग० पक्खिविजा तं नो सुमणे सिया नो दुम्मणे सिया नो उचावयं मणं नियंछिजा नो तेसिं बालाणं घायाए वहाए समुडिजा, अप्पुस्सुए जाब समाहीए तओ सं० उदगंसि पविजा ॥ (सू० १२१)
|| P98 ||
~473~
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१२१], नियुक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२१]
दीप
स परः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे नौगतस्तत्स्थं साधुमुद्दिश्यापरमेवं ब्रूयात् , तद्यथा-आयुष्मन् ! अयमत्र श्रमणो| भाण्डवन्निश्चेष्टत्वाद् गुरुः भाण्डेन वोपकरणेन गुरुः, तदेनं च बाहुग्राहं नाव उदके प्रक्षिपत यूयमित्येवंप्रकारं शब्दं श्रुत्वा । तथाऽन्यतो वा कुतश्चित् 'निशम्य' अवगम्य 'सः' साधुर्गच्छगतो निर्गतो वा तेन च चीवरधारिणेतद्विधेय-क्षिप्रमेव |चीवराण्यसाराणि गुरुत्वान्निहितुमशक्यानि च 'उद्वेष्टयेत्' पृथक् कुर्यात्, तद्विपरीतानि तु 'निर्वेष्टयेत्' सुवद्धानि कु-13
र्यात् , तथा 'उप्फेसं वा कुजत्ति शिरोवेष्टनं वा कुर्याद् येन संवृतोपकरणो निाकुलत्वात्सुखेनैव जलं तरति, तांश्च | |धर्मदेशनयाऽनुकूलयेत्, अथ पुनरेवं जानीयादित्यादि कण्ठ्यमिति ।। साम्प्रतमुदकं प्लवमानस्य विधिमाह
से मिक्खू बा० उदगंसि पवमाणे नो हत्थेण हत्थं पाएण पायं कारण कार्य आसाइजा, से अणासायणाए अणासायमाणे सो सं० उदगंसि पविजा ।। से मिक्खू वा० उद्गंसि पवमाणे नो उम्भुग्गनिमुग्गियं करिज्जा, मामेयं उद्गं कन्ने वा अच्छीमु वा नकसि वा मुहंसि वा परियावजिजा, तओ० संजयामेव उद्गंसि पविजा ॥ से भिक्खू वा उदगंसि पवमाणे दुबलियं पाउणिला खिप्पामेव उवहिं विगिंचिज वा विसोहिज वा, नो चेव साइजिजा, अह पु० पारए सिया उदगाओ तीरं पाउणित्तए, तओ संजयामेव उदउल्लेण वा ससिणद्वेण वा कारण उदगतीरे चिट्ठिज्जा ॥ से भिक्खु वा० उदउह वा २ कार्य नो आमजिजा वा णो पमलिजा वा संलिहिज्जा वा निलिहिजा वा उन्बलिज्जा वा उव्वट्टिजा वा 'आयाविज वा पया०, अह पु० विगओदओ मे काए छिन्नसिणेहे काए तहप्पगार कार्य आमजिज वा पयाविज या तओ सं० गामा० दूइजिज्जा ॥ (सू० १२२)
अनुक्रम [४५५]
CRACT
SARERatininanatana
~4744
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१२२], नियुक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
तस्क०२ नलिका
प्रत सूत्रांक [१२२]
दीप अनुक्रम [४५६]
स भिक्षुरुदके प्लवमानो हस्तादिकं हस्तादिना 'नासादयेत्' न संस्पृशेद् , अकायादिसंरक्षणार्थमिति भावः, ततस्तथा कुर्वन् संयत एवोदकं लवेदिति ॥ तथा-स भिक्षुरुदके प्लवमानो मजनोन्मजने नो विदध्यादिति (शेष) सुगममिति किञ्च स भिक्षुरुदके प्लवमानः 'दौर्बल्यं श्रमं प्रामुयात् ततः क्षिप्रमेवोपधिं त्यजेत् तद्देशं वा विशोधयेत्-त्यजेदिति, नैवोपधावासको भवेत् । अथ पुनरेवं जानीयात् 'पारए सित्ति समर्थोऽहमस्मि सोपधिरेवोदकपारगमनाय ततस्तस्माद्द-14 कादुत्तीर्णः सन् संयत एवोदकाइँण गलद्विन्दुना कायेन सस्निग्धेन चोदकतीरे तिष्ठेत्, तत्र चेर्यापथिकां च प्रतिकामेत् ॥ न चैतत्कुर्यादित्याह-स्पष्ट, नवरमत्रेयं सामाचारी-यदुदका वखं तत्स्वत एव यावन्निष्पगलं भवति तावदुदकतीर एव स्थेयम्, अथ चौरादिभयाद्गमनं स्यात्ततः प्रलम्बमानं कायेनास्पृशता नेयमिति ॥ तथा
से भिक्खू वा गामाणुगामं दूइजमाणे नो परेहिं सद्धिं परिजविय २ गामा० दूइ०, तो० सं० गामा० दूइ०॥(सू०१२३) कठयं, नवरं 'परिजवियर'त्ति परैः सार्द्ध भृशमुल्लापं कुर्वन्न गच्छेदिति ॥ इदानी जहासंतरणविधिमाह
से भिक्खू वा गामा० दू० अंतरा से जंघासंतारिमे उद्गे सिया, से पुस्वामेब ससीसोपरियं कार्य पाए व पमजिजा २ एगं पायं जले किचा एनं पायं थले किवा तओ सं० उदगंसि आहारियं रीएज्जा ॥ से मि० आहारियं रीयमाणे नो हत्येण हत्थं जाव अणासाथमाणे तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीएजा ।। से भिक्खू वा० जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीयमाणे नो सायावडियाए नो परिदाहपडियाए महामहालयंसि उदयसि कायं वितसिजा, तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीएजा, अह पुण एवं जाणिता पारए सिवा उद्गाओ तीर पाउणिचए, तो संजयामेव
LOCACROG
॥३८॥
~4754
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१२४], नियुक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१२४]
दीप अनुक्रम [४५८]
उदउल्लेग वा २ कारण दगतीरए चिट्ठिज्जा ॥ से भि० उदउल्लं वा कार्य ससिक कार्य नो आमजिज वा नो० अह पु० विगोदए मे काए छिन्नसिणेहे तहप्पगारं कार्य आमजिज बा० पयाविज वा तओ सं० गामा० दूइ० ॥ (सू० १२४) 'तस्य भिक्षोमान्तरं गच्छतो यदा अन्तराले जानुदनादिकमुदकं स्यात्तत ऊ कायं मुखवखिकया अध:कार्य च रजोहरणेन प्रमृज्योदकं प्रविशेत् , प्रविष्टश्च पादमेकं जले कृत्वाऽपरमुत्क्षिपन् गच्छेत् , न जलमालोडयता गन्तव्यमिदत्यर्थः, 'अहारियं रीएज्ज'त्ति यथा ऋजु भवति तथा गच्छेन्नादेवितर्दै विकारं वा कुर्वन् गच्छेदिति ॥ स भिक्षुर्यथाऽऽयमेव
गच्छन् महत्युदके महाश्रये वक्षःस्थलादिप्रमाणे जङ्घातरणीये नदीहदादौ पूर्वविधिनैव कार्य प्रवेशयेत् , प्रविष्टश्च यधुपकरणं निर्वाहयितुमसमर्थस्ततः सर्वमसारं वा परित्यजेत् , अथैवं जानीयाच्छक्तोऽहं पारगमनाय ततस्तथाभूत एवं गच्छेत् , उत्तीर्णश्च कायोत्सर्गादि पूर्ववत्कुर्यादिति ॥ आमर्जनप्रमार्जनादिसूत्र पूर्ववन्नेयमिति ॥ साम्प्रतमुदकोत्तीर्णस्य | गमनविधिमाह
से मिक्खू वा० गागा दूइजमाणे नो भट्टियागएहिं पाएहिं हरियाणि हिंदिय २ विकुजिय २ विफालिय २ उम्मग्गेण हरियवहाए गच्छिज्जा, जमेयं पाएहिं मट्टियं खिप्पामेव हरियागि अवहरंतु, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिजा, से पुब्बामेव अप्पहरियं मग्गं पडिलहिज्जा तओ० सं० गामा० ॥ से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से वष्पाणि वा फ० पा० तो० अ० अगलपासगाणि वा गड्ढाओ वा दरीओ वा सइ परकमे संजयामेव परिकमिजा नो उज्जु०, फेवली, से तत्थ परकममाणे पयलिज वा २, से तत्थ पयलमाणे वा २ रुक्खाणि वा गुच्छाणि वा गुम्माणि वा लयाओ वा वल्लीओ
*5*5555425*5**
~4764
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१२५]
दीप
अनुक्रम [ ४५९ ]
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१२५], निर्युक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ३८१ ॥
29
[भाग-2] “आचार” मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
Education Internation
वा तणाणि वा ग्रहणाणि वा हरियाणि वा अवलंबिय २ उत्तरिया, जे तत्थ पाडिपहिया उवागच्छति ते पाणी जाइजा २, तओ सं० अवलंबिय २ उत्तरिया तओ स० गामा० दू० ॥ से भिक्खु बा० गा० दूइखमाणे अंतरा से जवसाणि वा सगडाणि वा रहाणि वा सचकाणि वा परचकाणि वा से णं वा विरूवरूवं संनिरुद्धं पेहाए सइ परमे सं० नो उ०, से णं परो सेणागओ वइजा आउसंतो! एस णं समणे सेणाए अभिनिवारियं करेइ, से घं वाहाए गहाय आगसह, से णं परो बाहाहिं हाय आगसिजा, तं नो सुमणे सिया जाव समाहीए तओ सं० गामा० दू० ॥ ( सू० १२५ )
स भिक्षुरुदकादुत्तीर्णः सन् कर्दमाविलपादः सन् (नो ) हरितानि भृशं छित्त्वा तथा विकुब्जानि कृत्वा एवं भृशं पाटयिवोन्मार्गेण हरितवधाय गच्छेद्यथैनां पादमृत्तिकां हरितान्यपनयेयुरित्येवं मातृस्थानं संस्पृशेत्, न चैतत्कुर्याच्छेषं | सुगममिति ॥ स भिक्षुर्ग्रामान्तराले यदि वप्रादिकं पश्येत्ततः सत्यन्यस्मिन् सङ्क्रमे तेन ऋजुना पथा न गच्छेद्, यतस्तत्र गर्त्तादौ निपतन् सचित्तं वृक्षादिकमवलम्बेत, तच्चायुक्तम्, अथ कारणिकस्तेनैव गच्छेत्, कथञ्चित्पतितश्च गच्छगतो वहयादिकमप्यवलम्ब्य प्रातिपथिकं हस्तं वा याचित्वा संयत एव गच्छेदिति ॥ किञ्च स भिक्षुर्यदि ग्रामान्तराले 'यवसं' गोधूमादिधान्यं शकटस्कन्धावारनिवेशादिकं वा भवेत् तत्र वहुपायसम्भवात्तन्मध्येन सत्यपरस्मिन् पराक्रमे न गच्छेत्, शेषं सुगममिति ॥ तथा
से मिक्लू बा० गामा० दूइजमाणे अंतरा से पाडिवहिया उबागच्छिना, ते णं पाडिवहिया एवं वइबा - आउ० समा! केवइ एस गावा जाव रायहाणी वा केवईया इत्थ आसा हल्मी गामपिंडोलगा मणुस्सा परिवसंति ! से बहुभसे
For Parts Only
~477~
श्रुतस्कं० २ चूलिका १ ईर्याध्य० ३ उद्देशः २
॥ ३८१ ॥
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], मूलं [१२६], नियुक्ति : [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
बहुउदए बहुजणे बहुजबसे से अप्पभत्ते अप्पुदए अप्पजणे अप्पजवसे ?, एयप्पगाराणि पसिणाणि पुच्छिजा, एवपक
पुट्ठो वा अपुट्ठो वा नो वागरिजा, एवं खलु० जं सव२हिं० ॥ (सू० १२६) ॥२-१-३-२ 'से' तस्य भिक्षोरपान्तराले गच्छतः 'प्रातिपथिकाः' संमुखाः पथिका भवेयुः, ते चैव वदेयुर्यथाऽऽयुष्मन् । श्रमण | किम्भूतोऽयं प्रामः ? इत्यादि पृष्टो न तेषामाचक्षीत, नापि तान् पृच्छेदिति पिण्डार्थः, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्यमिति ॥ तृतीयस्याध्ययनस्य द्वितीयः ॥२-१-३-२
[१२६]]
दीप
अनुक्रम [४६०]
उक्तो द्वितीयोद्देशकः साम्प्रतं तृतीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरं गमनविधिः प्रतिपादितः, इहापि स एव प्रतिपाद्यते, इत्वनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
से भिक्खू पा गागा दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा जाव दरीओ वा जाव कूडागाराणि वा पासायाणि वा नूमगिहाणि वा रुपखगिहाणि वा पव्वंयगि रुक्सं वा चेइयकई थूभ वा चेयकडं आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा नो बाहामो पगिझिय २ अंगुलिआए उदिसिय २ ओगमिय २ उन्नमिय २ निझाइजा, तओ सं० गामा० ॥ से मिक्सू बा० गामा० दू० माणे अंतरा से कच्छाणि वा दवियाणि वा नूमाणि वा बलयाणि वा गहणाणि वा गहणविदुग्गाणि षणाणि या वणवि० पब्वयाणि वा पचयवि० अगडाणि वा तलागाणि वा दहाणि वा नईओ वा बानीभो वा
प्रथम चूलिकाया: तृतीय-अध्ययनं "ईर्या”, तृतीय-उद्देशक: आरब्ध:
~478~
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१२७], नियुक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२७]
दीप अनुक्रम [४६१]
श्रीआचा- पुक्खरिणीसो वा दीहियाओ वा गुंजालियाओ वा सराणि वा सरपंतियाणि वा सरसरपंतियाणि वा नो बाहाओ पगि- श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः
झिय २ जाप निमाइजा, केवली०, जे तत्थ मिगा वा पसू वा पंखी वा सरीसिवा वा सीहा था जलचरा वा थलचरा वा चूलिका १ (शी०) खाहचरा वा सत्ता ते उत्तसिज वा वित्तसिज्ज वा वार्ड वा सरणं वा कंखिज्जा, चारित्ति मे अयं समणे, अह भिक्खू णं पु० दर्याध्य०३
जं नो बाहाओ पगिझिय २ निझाइज्जा, तओ संजयामेव आयरिउवज्झाएहिं सद्धिं गामाणुगार्म दूइजिजा ॥ (सू०१२७) है उद्देशः ३ ॥३८२॥
स भिक्षुामावामान्तरं गच्छन् यद्यन्तराले एतत्पश्येत्, तद्यथा-परिखाः प्राकारान् 'कूटागारान्' पर्वतोपरि गृ18 हाणि, 'नूमगृहाणि भूमीगृहाण, वृक्षप्रधानानि तदुपरि वा गृहाणि वृक्षगृहाणि, पर्वतगृहाणि-पर्वतगुहा, 'रुक्खं वा| लाचेइअकर्ड'ति वृक्षस्थापो व्यन्तरादिस्थलकं 'स्तूपं वा व्यन्तरादिकृतं, तदेवमादिकं साधुना भृशं बाई 'प्रगृह्य' उत्क्षिप्य है। तथाऽङ्गलीः प्रसार्य तथा कायमवनम्योन्नम्य वा न दर्शनीयं नाप्यवलोकनीयं, दोषाश्चात्र दग्धमुपितादौ साधुराश
घेताजितेन्द्रियो वा संभाव्येत तत्स्थः पक्षिगणो वा संत्रासं गच्छेत् , एतद्दोषभयात्संयत एव 'दूयेत्' गच्छेदिति ॥ तथास भिक्षुामान्तरं गच्छेत् , तस्य च गच्छतो यद्येतानि भवेयुः, तद्यथा-कच्छा' नद्यासन्ननिम्नप्रदेशा मूलकवालकादिवाटिका वा 'दवियाणि त्ति अटव्यां घासाथै राजकुलावरुद्धभूमयः 'निम्नानि' गर्लादीनि 'वलयानि नद्यादिवेष्टितभूमिभागाः 'गहन' निर्जलप्रदेशोऽरण्यक्षेत्र वा 'गुञ्जालिका 'दीर्घा गम्भीराः कुटिलाः श्लक्षणाः जलाशयाः 'सरम्पतयः प्रतीताः 'सरःसरःपतयः' परस्परसंलग्नानि बहूनि सरांसीति, एवमादीनि बाह्लादिना न प्रदर्शयेद् अवलोकयेद्वा, यतः ॥ ३८२॥ केवली ब्रूयात्कोपादानमेतत् , किमिति ?, यतो ये तत्स्थाः पक्षिमृगसरीसृपादयस्ते त्रास गच्छेयुः, तदावासितानां वा
ॐ
SARERaunintenmarana
~479~
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१२७], नियुक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२७]
दीप अनुक्रम [४६१]
साधुविषयाऽऽशङ्का समुत्पद्येत, अथ साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथा न कुर्यात् , आचार्योपाध्यायादिभिश्च गीतार्थैः सह विहरेदिति ॥ साम्प्रतमाचार्यादिना सह गच्छतः साधोर्विधिमाह
से भिक्खू वा २ आयरिउवज्झा गामा० नो आयरियउवझायस्स हत्येण वा हत्वं जाव अणासायमाणे तो संजयामेव आयरिउ सद्धि जाप दूइन्जिना ॥ से भिक्खू वा आय० सद्धि दूराजमाणे अंतरा से पाडिवहिया पागच्छिजा, ते णं पा० एवं वइजा-आउसंतो! समणा! के तुन्भे ? कओ वा एह ? कहिं वा गच्छिहिह ?, जे तत्थ आयरिए वा उवज्झाए वा से भासिज्ज वा वियागरिज वा, आयरिउवझायस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणरस वा नो अंतरा भासं करिजा, तओ० सं० अहाराईणिए वा० दूजिजा ॥ से भिक्खू वा अहाराइणियं गामा० दू० नो राईणियस्स हत्येण हत्थं जाव अणासायमाणे वओ सं० अहाराणियं गामा० दू०॥ से भिक्खू वा २ अहाराइणिों गामाणुगाम दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिवाहिया उवागरिछना, ते णं पाडिपहिया एवं वइजा-आउसंतो! समणा! के तुभे?, जे तत्थ सव्वराइणिए से भासिज वा वागरिज बा, राइणियस्स भासभाणरस वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं भासिज्जा, तओ संजयामेष अहाराइणियाए गामाणुगाम दूइजिज्जा ।। (सू० १२८)
स भिक्षुराचार्यादिभिः सह गच्छस्तावन्मात्रायां भूमौ स्थितो गच्छेद् यथा हस्तादिसंस्पर्शो न भवतीति ॥ तथासि भिक्षुराचार्यादिभिः सार्द्ध गच्छन् प्रातिपथिकेन पृष्टः सन् आचार्यादीनतिक्रम्य नोत्तरं दद्यात्, नाण्याचार्यादी
जल्पत्यन्तरभाषां कुर्यात्, गच्छंश्च संयत एव युगमात्रया दृष्ट्या यथारलाधिकं गच्छेदिति तात्सयार्थः ॥ एवमुत्तरसू
ACADASCANCER
~480
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१२८], नियुक्ति : [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२८]
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ ईर्याध्य उद्देशः ३
(शी०)
दीप अनुक्रम [४६२]
श्रीआचा- यमष्याचार्योपाध्यायैरिवापरेणापि रक्षाधिकेन साधुना सह गच्छता हस्तादिसाटोऽन्तरभाषा च वर्जनीयेति द्रष्ट- रावृत्तिः व्यमिति ॥ किश्च
से भिक्खू पाइपमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागरिछज्जा, ते णं पा० एवं बहजा-माध० स०! अवियाई इत्तो पडिवहे पासह, सं०-माणुरस वा गोणं वा महिसं वा पसुं वा पक्खि वा सिरीसिवं वा जलयर वा से आइक्खह दंसेह, तं नो आइक्विजा नो दंसिज्जा, नो तस्स तं परिनं परिजाणिज्जा, तुसिणीए उहिजा, जाणं वा नो आणति बइजा, तो सं० गामा० दू०॥ से भिक्खू वा० गा० दू० अंतरा से पाडि० उवा०, ते ण पा० एवं वइज्जा-आउ० स०! अवियाई इत्तो पनिवहे पासह उद्गपसूयाणि कंदाणि वा मूलाणि वा तया पत्ता पुष्फा फला बीया हरिया उदर्ग वा संनिहिवं अगणिं वा संनिखित्तं से आइक्खह जाव दूइजिज्जा ।। से भिक्खू वा० गामा० दूइजमाणे अंतरा से पानि उवा०, ते णं पाहि० एवं आउ० स० अवियाई इत्तो पडिबहे पासह जवसाणि वा जाव से णं पा विरूवरूवं संनिविट्ठ से आइक्सह जाव दूइजिजा ।। से मिक्खु वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा पा० जाव आउ० स० फेवइए इत्तो गामे वा जाव रायहाणिं वा से आइक्खह जाव दूइजिजा ॥ से मिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइजेजा, अंतरा से पाठिपहिया आउसंतो
समणा ! केवइए इत्तो गामस्स नगरस्स वा जाव रायहाणीए वा मग्गे से आइक्खह, तहेब जाव दूइजिज्जा ।। (सू०१२९) 'से' तस्य भिक्षोर्गच्छतः प्रातिपथिकः कश्चित्संमुखीन एतयात्, तद्यथा-आयुष्मन् ! श्रमण ! अपिच किं भवता पथ्यागच्छता कश्चिन्मनुष्यादिरुपलब्धः १, तं चैवं पृच्छन्तं तूष्णीभावेनोपेक्षेत, यदिवा जानन्नपि नाहं जानामीत्येवं
NORMALCC445
कस्कल
M
~481~
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१२९], नियुक्ति : [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२९]]
दीप
|वदेदिति ॥ अपि च-स भिक्षु मान्तरं गच्छन् केनचिमुिखीनेन प्रातिपथिकेन पृष्टः सन् उदकप्रसूतं कन्दमूलादि नैवाचक्षीत, जाननपि नैव जानामीति वा यादिति ।। एवं यवसासनादिसूत्रमपि नेयमिति ॥ तथा कियहरे प्रामादिप्रश्न-| सूत्रमपि नेयमिति ॥ एवं कियान् पन्था इत्येतदपीति ॥ किश्व
से भिक्खू० गा. दू० अंतरा से गोणं वियालं पडिवहे पहाए जाच चित्तचिल्लई वियालं प० पेहाए नो तेसि भीओ उ. म्ममोणं गच्छिन्ना नो ममाओ सम्मगं संकमिज्जा नो गहणं वा वणं वा दुग्ग वा अणुपविसिजा नो रुपखंसि दूरुहिज्जा । नो महइमहालयसि उदयंसि कार्य विउसिज्जा नो वार्ड वा सरणं वा सेणं वा सत्यं वा कंखिजा अप्पुस्सुए जाव समाहीए तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइबिजा । से निक्खू० गामाणुगार्म दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिजा इमंसि खलु विहंसि बहवे आमोसगा उवगरणपडियाए संपिडिया गच्छिज्जा, नो सेसि भीओ उम्मग्गेण
गच्छिला जाव समाहीए तो संजयामेव गामाणुगाम दूइजेजा ।। (सू० १३०) स भिक्षुामान्तरं गच्छन् यद्यन्तराले “गां' वृषभं 'व्याल' दर्पितं प्रतिपथे पश्येत् , तथा सिंह व्यानं यावचित्रकं तदपत्यं वा व्यालं तरं दृष्ट्वा च तद्यान्नैवोन्मार्गेण गच्छेत्, न च गहनादिकमनुप्रविशेत् , नापि वृक्षादिकमारोहेत्, न चोदकं प्र-न |विशेत् , नापि शरणमभिकाङ्गेल, अपि स्वल्पोत्सुकोऽविमनस्क संयत एव गच्छेत् , एतच्च गच्छनिर्गतैर्विधेयं, गच्छान्तर्गतास्तु व्यालादिकं परिहरत्यपीति ॥ किश्च-'से' तस्य भिक्षो मान्तराले गच्छतः 'विहति अटवीमायो दीर्घोऽध्वा भवेत् , तत्र च 'आमोषकाः' स्तेनाः 'उपकरणप्रतिज्ञया' उपकरणार्थिनः समागच्छेयुः, न तस्यादुन्मार्गगमनादि कुर्यादिति ।।
अनुक्रम [४६३]
Hrwasaram.org
~482
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], मूलं [१३१], नियुक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
श्रुतस्क०२ चूलिका १ ईर्याध्य०३ उद्देशः ३
सूत्रांक
[१३१]
॥३८४॥
दीप अनुक्रम [४६५]
से मिक्खू वा० गा० दू० अंतरा से आमोसगा संपिंडिया गच्छिज्जा, ते णं आ० एवं बहज्जा--आव० स०! आहर एवं वत्थं वा ४ देहि निक्खिवाहि, तं नो दिजा निक्खिविजा, नो बंदिय २ जाइजा, नो अंजलि कट जाइजा, नो कलुपपडियाए जाइजा, धम्मियाए जायणाए जाइजा, तुसिणीयभावेण वा ते णं आमोसगा सर्य करणिजतिकट्ठ अकोसंति वा जाव उद्दविंति वा वत्थं वा ४ अञ्छिदिज वा जाव परिवविज वा, तं नो गामसंसारियं कुजा, नो रायसंसारियं कुजा, नो पर उबसंकमित्तु बूया-आउसंतो! गाहावई पए खलु आमोसगा उवगरणपडियाए सयंकरणिजतिक? अकोसंति वा जाव परिट्ठवंति वा, एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरओ कट्ट विहरिजा, अप्पुस्सुए जाव समाहीए तओ संजथामेव गामा० दूइ० ।। एयं खलु० सया जइ० (सू० १३१) त्तिबेमि ॥ समाप्तमीर्याख्यं तृतीयमध्यवनम् ॥२-१-३-३ स भिक्षुामान्तरे गच्छन् यदि स्तेनैरुपकरणं याच्येत तत्तेषां न समर्पयेत् , बलाग़लतां भूमौ निक्षिपेत् , न च चौरगृहीतमुपकरणं वन्दित्वा दीनं वा वदित्वा पुनर्याचेत, अपि तु धर्मकथनपूर्वकं गच्छान्तर्गतो याचेत तूष्णीभावेन वो|पेक्षेत, ते पुनः स्तेनाः स्वकरणीयमितिकृत्वैतत्कुर्युः, तद्यथा-आक्रोशन्ति वाचा ताडयन्ति दण्डेन यावजीवितात्त्याजहो यन्ति, वस्त्रादिकं वाऽऽच्छिन्युर्यावत्तत्रैव 'प्रतिष्ठापयेयुः' त्यजेयुः, तच्च तेषामेवं चेष्टितं न ग्रामे 'संसारणीय' कथनीय,
नापि राजकुलादी, नापि परं-गृहस्थमुपसंक्रम्य चौरचेष्टितं कथयेत्, नाप्येवंप्रकारं मनो वार्च वा सङ्कल्प्यान्यत्र गच्छे|| दिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामन्यमिति ॥ तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥
XSAXAS******
I||३८४॥
SARERatunintamational
~4834
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१३१]
दीप
अनुक्रम
[४६५]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], मूलं [१३१...], निर्युक्ति: [३१२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
आ. सू. ६५
अथ चतुर्थ भाषाजातमध्ययनम् ।
उक्तं तृतीयमध्ययनं, साम्प्रतं चतुर्थमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तराध्ययने पिण्डविशुद्धसर्थ गमनविधिरुक्तः, तत्र च गतेन पथि वा यादृग्भूतं वाच्यं न वाच्यं वा अनेन च सम्बन्धेनायातस्य भाषाजाताध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्र निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमे भाषाजातशब्दयोर्निक्षेपार्थं निर्बुक्तिकृदाह
जह वकं तह भासा जाए छक्कं च होइ नायव्यं । उत्पत्तीए १ तह पज्जवं २ तरे ३ जायगहणे ४ य ॥ ३१३ ॥
यथा वाक्यशुयध्ययने वाक्यस्य निक्षेपः कृतस्तथा भाषाया अपि कर्त्तव्यः, जातशब्दस्य तु पटुनिक्षेपोऽयं ज्ञातव्योनाम १ स्थापना २ द्रव्य ३ क्षेत्र ४ काल ५ भाव ६ रूपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यजातं तु आगमतो नोआगमतः, व्यतिरिक्तं नियुक्तिकारो गाथापश्चार्द्धेन दर्शयति तच्चतुर्विधम् उत्पत्तिजातं १ पर्यवजातम् २ अन्तरजातं ३ ग्रहणजातं ४, तत्रोत्पत्तिजातं नाम यानि द्रव्याणि भाषावर्गणान्तःपातीनि काययोगगृहीतानि वाग्योगेन निसृष्टानि भाषात्वेनोत्पद्यन्ते तदुत्पत्तिजातं यद्रव्यं भाषावेनोत्पन्नमित्यर्थः १, पर्यवजातं तैरेव वाग्निसृष्टभाषाद्रव्यैर्व्यानि विश्रेणिस्थानि भाषावर्गणान्तर्गतानि निसृष्टद्रव्यपराघातेन भाषापर्यायत्वेनोत्सद्यन्ते तानि द्रव्याणि पर्यवजातमित्युच्यन्ते २ यानि त्वन्तराले समश्रेण्यामेव निसृष्टद्रव्यमिश्रितानि भाषापरिणामं भजन्ते तान्यन्तरजातमित्युच्यन्ते ३, यानि पुनर्द्र
प्रथम चूलिकायाः चतुर्थ-अध्ययनं “भाषाजात”, आरब्धं
For Pernal Use On
~484~
wor
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३१...], नियुक्ति : [३१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३१]
दीप
श्रीआचा- व्याणि समश्रेणिविश्रेणिस्थानि भाषात्वेन परिणतानि कर्णशष्कुलीविवरप्रविष्टानि गृह्यन्ते तानि चानन्तप्रदेशिकानि |
श्रुतस्कं०२ राजवृत्तिःहा द्रव्यतः क्षेत्रतोऽसख्येयप्रदेशावगाढानि कालत एकद्वियादियावदसइख्येयसमयस्थितिकानि भावतो वर्णगन्धरस- चूलिका १ शीस्प र्शवन्ति तानि चैर्वभूतानि ग्रहणजातमित्युच्यन्ते ४ । उक्त द्रव्यजातं, क्षेत्रादिजातं तु सष्टत्वान्नियुक्तिकारेण नोक्त, भाषा तश्चैवंभूत-यस्मिन् क्षेत्रे भाषाजातं व्यावयेते यावन्मानं वा क्षेत्रं स्पृशति तत्क्षेत्रजातम् , एवं काल जातमपि, भाव
| उद्देशः १ ॥३८५॥
जातं तु तान्येवोत्पत्तिपर्यवान्तरमहणद्रव्याणि श्रोतरि यदा शब्दोऽयमिति बुद्धिमुत्पादयन्तीति । इह त्वधिकारो द्रव्यभापाजातेन, द्रव्यस्य प्राधान्यविवक्षया, द्रव्यस्य तु विशिष्टावस्था भाव इतिकृत्वा भावभाषाजातेनाप्यधिकार इति ।। उद्देशार्थाधिकारार्थमाहसब्वेवि य वयणविसोहिकारगा तहवि अस्थि उ विसेसो । वयणविभत्ती पढमे उष्पत्ती बजणा बीए ॥३१४॥ | यद्यपि द्वावप्युदेशको वचनविशुद्धिकारको तथाऽप्यस्ति विशेषः, स चाय-प्रथमोद्देशके वचनस्य विभक्तिः वचनविभक्तिः-एकवचनादिषोडशविधवचनविभागः, तथैवंभूतं भाषणीयं नैर्वभूतमिति व्यावय॑ते, द्वितीयोद्देशके तूत्पत्तिः-कोधाद्युत्पत्तियथा न भवति तथा भाषितव्यम् । साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
से भिक्खू वा २ इमाई व्यायाराई सुच्चा निसम्म इमाई अणायाराई अणारियपुबाई जाणिज्जा-जे कोहा वा वायं विउंजंति जे माणा वा० जे मायाए वा जे लोभा वा वायं विचंति जाणओ वा फरुसं वयंति अजाणो वा फ० सव्यं चेय
PM ॥३८५॥ सावज वजिज्जा विवेगमायाए, धुर्व चेयं जाणिज्जा अधुर्व चेयं जाणिजा असणं वा ४ लभिय नो लभिय भुंजिय नो भु
अनक्रम
| प्रथम चूलिकाया: चतुर्थ-अध्ययनं “भाषाजात”, प्रथम-उद्देशक: आरब्ध:
~485
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३२], नियुक्ति: [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३२]
दीप अनुक्रम [४६६]
जिय अदुवा आगओ अदुवा नो आगो अदुवा एछ अदुवा नो एइ अदुवा एहिर अदुवा नो एहिइ इत्यवि आगए इस्थवि नो आगए इत्थवि पद इत्थवि नो एति इत्यवि एहिति इत्थवि नो एहिति ।। अणुधीइ निहाभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा, तंजहा-एगवयणं १ दुवयणं २ बहुव० ३ इथि० ४ पुरि० ५ नपुंसगवयणं ६ अझस्थव० ७ उवणीयवयर्ण ८ अवणीयवयणं ९ उवणीयभवणीयव० १० अवणीयउवणीयव० ११ तीयव० १२ पडप्पन्नव० १३ अणागयव०१४ पञ्चक्खवयणं ९५ परुक्खव० १६, से एगवयणं वईस्सामीति एगवयर्ण वइजा जाव परुक्खवयणं वइस्सामीति परुक्षवयणं वइजा, इत्थी वेस पुरिसो वेस नपुंसगं वेस एवं वा चेयं अन्नं चा चेयं अणुवीइ निवाभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा, इचेयाई आययणाई उवातिकम्म । अह मिक्खू जाणिजा चत्तारि भासजायाई, तंजहा-सच्चमेगं पढर्म भासज्जायं १ बीयं मोसं २ तईयं सचामोसं ३ जं नेव सर्च नेव मोसं नेव सचामोसं असच्चामोसं नाम तं चउत्थं भासजायं ४ ॥ से बेमि जे अईया जे य पडुप्पन्ना जे अणागया अरहंता भगवंतो सब्चे ते एयाणि चेव चत्तारि भासनायाई भासिंसु वा भासंति वा भासिस्संति वा पन्नविंसु वा ३, सव्वाई च णं एयाई अचित्ताणि वण्णमंताणि गंधमंताणि
रसमंताणि फासमंताणि चओवचइयाई विप्परिणामधम्माइं भवतीति अक्खायाई । (सू० १३२) स भावभिक्षुः 'इमान्' इत्यन्तःकरणनिष्पन्नान, इदमः प्रत्यक्षासन्नवाचित्वात्समनन्तरं वक्ष्यमाणान् वाच्याचारा वागाचाराः-वाग्ख्यापारास्तान् श्रुत्वा, तथा 'निशम्य' ज्ञात्वा भाषासमित्या भाषां भाषेतोत्तरेण सम्बन्ध इति । तत्र याद्दण्भूता भाषा न भापितन्येति तत्तावद्दर्शयति-'इमान्' वक्ष्यमाणान् 'अनाचारान्' साधूनामभाषणयोग्यान पूर्व
~486~
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३२], नियुक्ति: [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
ANA
प्रत सूत्रांक [१३२]]
दीप अनुक्रम [४६६]
श्रीआचा-8 साधुभिरनाचीर्णपूर्वान् साधुर्जानीयात् , तद्यथा-ये केचन क्रोधाद्वा वाचं 'विउंजन्ति' विविधं व्यापारयन्ति-भाषन्ते | श्रुतस्कं०२ रामवृत्तिः यथा चौरस्त्वं दासस्त्वमित्यादि तथा मानेन भाषन्ते यथोत्तमजातिरह हीनस्त्वमित्यादि तथा मायया यथा ग्लानो- चूलिका १ (शी.) हमपरसन्देशकं वा सावद्यकं केनचिदुपायेन कथयित्वा मिथ्यादुष्कृतं करोति सहसा ममैतदायातमिति तथा लोभे- |भाषा०४
नाहमनेनोकेनातः किचिल्लप्स्य इति तथा कस्यचिद्दोषं जानानास्तद्दोषोद्घटनेन परुषं बदन्ति अजानाना वा, सर्व चैत-| उद्देशः १ ॥३८६॥
क्रोधादिवचनं सहावद्येन-पापेन गर्येण वा वर्तत इति सावधं तद्वर्जयेत् विवेकमादाय, विवेकिना भूत्वा सावधं वचनं । वर्जनीयमित्यर्थः, तथा केनचित्साई साधुना जल्पता नैव सावधारणं वचो वक्तव्यं यथा 'भवमेतत' निश्चितं वृष्ट्यादिकं भविष्यतीत्येवं जानीयाद् अध्रुवं वा जानीयादिति । तथा कथञ्चित्साधु भिक्षार्थ प्रविष्टं ज्ञातिकुलं वा गतं चिरयन्तमुद्दिश्यापरे साधव एवं ब्रवीरन् यथा-भुमहे वर्ष स तत्राशनादिकं लब्ध्वैव समागमिष्यति, यदिवा ध्रियते तदर्थं किञ्चित् नैवासौ तस्माल्लब्धलाभः समागमिष्यति, एवं तत्रैव भुक्त्वाऽभुक्त्वा वा समागमिष्यतीति सावधारणं न वक्तव्यम् , अथ चैवंभूतां सावधारणां वाचं न ब्रूयाद् यथाऽऽगतः कश्चिद्राजादिनों का समागतः तथाऽऽगच्छति न वा समागच्छति एवं समागमिष्यति न वेति, एवमत्र पत्तनमठादावपि भूतादिकालत्रयं योज्यं, यमर्थ सम्यग् न जानीयात्तदेवमेवैतदिति न ब्रूयादिति भावार्थः, सामान्येन सर्वत्रगः साधोरयमुपदेशो, यथा-'अनुविचिन्त्य' विचार्य सम्यग्निश्चित्यातिशयेन श्रुतोपदेशेन वा प्रयोजने सति 'निष्ठाभाषी' सावधारणभाषी सन् 'समित्या' भाषासमित्या R ॥३८६॥ 'समतया वा' रागद्वेषाकरणलक्षणया षोडशवचनविधिज्ञो भाषा भाषेत । यादृग्भूता च भाषा भाषितव्या तां षोडश
*
*
~487
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३२], नियुक्ति: [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३२]
दीप अनुक्रम [४६६]
वचनविधिगतां दर्शयति-तद्यथे' त्ययमुपदर्शनार्थः, एकवचनं वृक्षः १, द्विवचनं वृक्षौ २, बहुवचनं वृक्षां इति ३, Kखीवचनं वीणा कन्या इत्यादि ४, पुंवचनं घटः पट इत्यादि ५, नपुंसकवचनं पीठं देवकुलमित्यादि ६, अध्यात्मव-18
|चनम् , आरमन्यधि अध्यात्म-हदयगतं तत्परिहारेणान्यद्भणिष्यतस्तदेव सहसा पतितम् ७, 'उपनीतवचनं प्रशंसावचनं यथा रूपवती स्त्री ८, तद्विपर्ययेणापनीतवचनं यथेयं रूपहीनेति ९, 'उपनीतापनीतवचनं' कश्चिद् गुणः प्रशस्यः कश्चिनिन्धो, यथा-रूपवतीयं स्त्री किन्त्वसद्वृत्तेति १०, 'अपनीतोपनीतवचनम्' अरूपवती स्त्री किन्तु सद्वृत्तेति ११, 'अतीतवचनं कृतवान् १२ 'वर्तमानवचन' करोति १३ 'अनागतवचन' करिष्यति १४ 'प्रत्यक्षवचनम् एष देवदत्तः ४ १५, 'परोक्षवचनं' स देवदत्तः १६, इत्येतानि पोडश वचनानि, अमीषां स भिक्षुरेकार्थविवक्षायामेकवचनमेव ब्रूयाद् है यावत्परोक्षवचनविवक्षायां परोक्षवचनमेव ब्यादिति । तथा ख्यादिके रटे सति ख्येवैषा पुरुषो था नपुंसकं वा, एवमेवै
तदन्यद्वैतत्, एवम् 'अनुविचिन्त्य' निश्चित्य निष्ठाभाषी सन् समित्या समतया संयत एवं भाषा भाषेत, तथा 'इत्ये
तानि' पूर्वोक्कानि भाषागतानि वक्ष्यमाणानि वा 'आयतनानि दोषस्थानानि 'उपातिक्रम्य' अतिलहन्ध भाषां भाषेत । अथ दास भिक्षुर्जानीयात् 'चत्वारि भाषाजातानि' चतम्रो भाषाः, तद्यथा-सत्यमेकं प्रथम भाषाजातं यथार्थम्-अवितर्थ, तद्यथा
गौगोरेवाश्योऽश्व एवेति १, एतद्विपरीता तु मृषा द्वितीया, यथा गौरश्वोऽश्वो गौरिति २, तृतीया भाषा सत्यामृषेति,17 यत्र किश्चित्सत्यं किश्चिन्मृषेति, यथाऽश्वेन यान्तं देवदत्तमुष्ट्रेण यातीत्यभिदधाति ३, चतुर्थी तु भाषा योच्यमाना न सत्या नापि मृपा नापि सत्यामृषा आमन्त्रणाज्ञापनादिका सानासत्याऽमृति ४॥ स्वमनीपिकापरिहारार्थमाह
9%
%
~488~
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३२], नियुक्ति: [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [१३२]]
दीप अनुक्रम [४६६]
श्रीआचा- सोऽहं यदेतद्रवीमि तत्सर्वैरेव तीर्थकृद्भिरतीतानागतवर्तमानैर्भाषितं भाष्यते भाषिश्यते च, अपि चैतानि-सर्वाण्य- श्रुतस्क०२ राजवृत्तिः प्येतानि भाषाद्रव्याण्यचित्तानि च वर्णगन्धरसस्पर्शवन्ति चयोपचयिकानि विविधपरिणामधर्माणि भवन्तीति, एवमाख्यातं चूलिका १ (शी०) तीर्थकृद्भिरिति, अत्र च वर्णादिमत्त्वाविष्करणेन शब्दस्य मूर्त्तत्वमावेदितं, न ह्यमूर्तस्याकाशादेर्वर्णादयः संभवन्ति तथा लाभापा
चयोपचयधर्माणीत्यनेन तु शब्दस्यानित्यत्वमाविष्कृत, विचित्रपरिणामत्वाच्छब्दद्रव्याणामिति ॥ साम्पतं शब्दस्य कृत॥३८॥
|कत्वाविष्करणायाह
से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिज्जा पुचि भासा अभासा भासिज्जमाणी भासा भासा भासासमयवीइकता च णं भासिया भासा अभासा ॥ से भिक्खू बा० से जं पुण जाणिज्जा जा य भासा सवा १ जा य भासा मोसा २ आ य भासा सच्चामोसा २ जा य भासा असच्चाऽमोसा ४, तहप्पगारं भासं सावज सकिरियं ककसं कदुयं निहुरे फरुसं अण्यकरि छेयणकरि भेवणकरि परियावणकरि उहवणकरि भूओवघाइयं अभिकख नो भासिज्जा ।। से भिक्खू वा मिक्सुणी वा से ' जं पुण जाणिज्जा, जा य भासा सच्चा सुहुमा जा व भासा असञ्चामोसा तहप्पगार भासं असावज जाव अभूओवधाइयं अभिकख भासं भासिज्जा ॥ (सू० १३३)
स भिक्षुरेवंभूतं शब्द जानीयात् , तद्यथा-भाषाव्यवर्गणानां वाग्योगनिस्सरणात् 'पूर्व प्रागभाषा भाष्यमाणैव' द वाग्योगेन निसृज्यमानैव भाषा, भाषाद्रव्याणि भाषा भवति, तदनेन ताल्वोधादिव्यापारेण प्रागसतः शन्दस्य निष्पाद
IA||३८७॥ नात्स्फुटमेव कृतकत्वमावेदितं, मृस्पिण्डे दण्डचक्रादिनेव घटस्येति, सा वोच्चरितप्रध्वंसित्वाच्छब्दानां भाषणोत्तरकालमप्य
~489~
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३३], नियुक्ति: [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३३]
दीप अनुक्रम [४६७]
भाषैव, यथा कपालावस्थायां घटोऽघट इति, तदनेन प्रागभावप्रध्वंसाभावी शब्दस्यावेदिताविति ॥ इदानी चतसृणां भाषाणामभाषणीयामाह-स भिक्षु- पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-सत्यां १ मृपा २ सत्यामृषाम् ३ असत्यामृषा ४, तत्र मृषा सत्यामृषा च साधूनां तावन्न वाच्या, सत्याऽपि या कर्कशादिगुणोपेता सा न बाच्या, तां च दर्शयति-सहावद्येन वर्चत इति सावद्या तां सत्यामपि न भाषेत, तथा सह क्रियया-अनर्थदण्डप्रवृत्तिलक्षणया वर्तत इति सक्रिया तामिति तथा 'कर्कशां' चविताक्षरां तथा 'कटुका चित्तोद्वेगकारिणी तथा 'निष्ठुरां हक्काप्रधानां 'परुषां' मर्मोद्घाटनपराम् |'अण्हयकरि'न्ति कर्माश्रवकरीम्, एवं छेदनभेदनकरी यावदपद्रावणकरीमित्येवमादिकां 'भूतोपघातिनी प्राण्युपताप
कारिणीम् 'अभिकारच' मनसा पर्यालोच्य सत्यामपि न भाषेतेति ॥ भाषणीयां त्वाह-स भिक्षुर्या पुनरेवं जानीयात्, हतद्यथा-या च भाषा सत्या 'सूक्ष्मे ति कुशाग्रीयया बुद्ध्या पर्यालोच्यमाना मृषाऽपि सत्या भवति यथा सत्यपि मृगदर्शने
लुब्धकादेरपलाप इति, उक्तञ्च-"अलिअंन भासिअव्वं अस्थि हु सच्चंपि जंन वत्तव्वं । सच्चंपि होइ अलिअंज | परपीडाकरं वयणं ॥ १॥" या चासत्यामृषा-आमन्त्रण्याज्ञापनादिका तां तथाप्रकारां भाषामसावद्यामक्रियां यावदभूतोपघातिनी मनसा पूर्वम् 'अभिकारच' पर्यालोच्य सर्वदा साधुर्भाषां भाषेतेति । किञ्च
से भिक्खू वा पुमं आमंतेमाणे आमंतिए वा अपडिसुणेमाणे नो एवं वइजा होलित्ति वा गोलित्ति वा वसुलेत्ति वा कुपक्षेत्ति वा पडदासिति वा साणेत्ति वा तेणित्ति वा चारिएत्ति वा माईत्ति वा मुसाबाइत्ति वा, एयाई तुम ते जणगा वा, १ भलीक न भाषितव्यं अस्लोव सत्यमपि गन्न बक्तव्यम् । सल्यमपि भवसलीके यत् परपीडाकर वचनम् ॥ १॥
For P
OW
~490~
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३४], नियुक्ति: [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३४]
श्रीआचा- एअप्पगार भासं सावजं सकिरियं जाव भूओवघाइयं अमिकंख नो भासिजा ॥ से मिक्खू वा० पुमं आमंतेमाणे आम- श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः
तिए वा अपढिसुणेमाणे एवं वइजा-अमुगे इ वा आउसोत्ति वा आउसंतारोत्ति बा साबगेत्ति वा उवासगेति या ध- चूलिका १ (शी०) म्मिएति वा धम्मपिएत्ति वा, एयप्पगारं भासं असावज जाव अभिकंख भासिजा ।। से भिक्खू वा २ इथि आमंतेमाणे भाषा०४ आमंतिए य अप्पडिसुणेमाणे नो एवं वइजा-होली इ वा गोलीति वा इत्थीगमेणं नेयब्वं ॥ से भिक्खू चा २ इत्यि
उद्देशः १ ॥३८८॥
आमतेमाणे आमंतिए य अपखिसुणेमाणी एवं वइजा-आउसोति वा भइणित्ति वा भोईति वा भगवईति वा साविगेति वा उवासिएत्ति वा धम्मिएत्ति वा धम्मप्पिएत्ति वा, एयप्पगारं भासं असावजं जाव अभिकख भासिज्जा ॥ (सू० १३४) स भिक्षुः पुमांसमामन्त्रयन्नामन्त्रितं वाऽशृण्वन्तं नैवं भाषेत, तद्यथा-होल इति वा गोल इति वा, एतौ च देशान्तरेऽवज्ञासंसूचकी, तथा 'वसुले'त्ति वृषलः 'कुपक्षः' कुत्सितान्वयः घटदास इति वा श्वेति वा स्तेन इति वा चारिक | इति वा मायीति वा मृषावादीति वा, इत्येतानि-अनन्तरोक्कानि त्वमसि तव जनकी वा-मातापितरावेतानीति, एवं-18 प्रकारां भाषां यावन्न भाषेतेति ॥ एतद्विपर्ययेण च भाषितव्यमाह-स भिक्षुः पुमांसमामन्त्रयन्नामन्त्रितं वाऽशृण्वन्तमेवं|
ब्रूयाद् यथाऽमुक इति वा आयुष्मन्निति वा आयुष्मन्त इति वा तथा श्रावक धर्मप्रिय इति, एवमादिकां भाषां भाषे६ तेति ॥ एवं त्रियमधिकृत्य सूत्रद्वयमपि प्रतिषेधविधिभ्यां नेयमिति ॥ पुनरप्यभाषणीयामाहसे भि० नो एवं वइजा-नभोदेवित्ति वा गजदेवित्ति वा विजुदेवित्ति वा पवुट्टदे० नियुट्ठदेवित्तए वा पडत चा वासं
।।३८८ मा वा पडउ निष्फजउ वा सस्सं मा वा नि० विभाउ वा रवणी मा वा विभाउ उदेउ बा सूरिए मा वा उदेउ सो वा
दीप अनुक्रम [४६८]
*
~4914
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], मूलं [१३५], नियुक्ति: [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३५]
राया जयउ वा मा जयत, नो एयपगार भासं भासिज्जा ॥ पन्नवं से भिक्खू वा २ अंतलिक्खेत्ति वा गुल्माणुचरिएत्ति वा समुच्छिए वा निवइए वा पभो वइजा वुट्टबलाहगेत्ति वा, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गिय जं स
बवहिं समिए सहिए सया जइजासि तिबेमि २-१-४-१॥ भाषाध्यवनस्य प्रथमः ।। (सू० १३५) स भिक्षुरेवंभूतामसंयतभाषां न वदेत् , तद्यथा-नभोदेव इति वा गर्जति देव इति वा तथा विद्युदेवः प्रपृष्टो देवः निवृष्टो देवः, एवं पततु वर्षा मा वा, निष्पद्यतां शस्यं मेति वा, विभातु रजनी मेति वा, उदेतु सूर्यो मा वा, जयत्वसौ राजा मा वेति, एवंप्रकारां देवादिकां भाषां न भाषेत ॥ कारणजाते तु प्रज्ञावान् संयतभाषयाऽन्तरिक्षमित्यादिकया भाषेत, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्यमिति ॥ चतुर्थस्य प्रथमोद्देशकः समातः २-१-४-१॥
दीप अनुक्रम [४६९]
उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तगद्देशके वाच्यावाच्यविशेषोऽभि5 हितः, तदिहापि स एव शेषभूतोऽभिधीयते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
से मिक्खू वा जहा वेगईयाई रूवाई पासिज्जा तहाचि ताई नो एवं वइजा, तंजहा-नाडी गंडीति वा कुट्टी कुट्ठीति वा जाव महुमेहुणीति वा हत्यक्छिन्नं हत्यच्छिन्नेत्ति वा एवं पायछिन्नेत्ति वा नकछिण्णेइ वा कण्णछिन्नेइ का उद्दछिन्नेति वा, जेयाबन्ने तहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासाहि बुझ्या २ कुप्पंति माणवा ते यावि तहप्पगाराहिं भासाहिं अभिकंख नो भासिज्जा ।।
प्रथम चूलिकाया: चतुर्थ-अध्ययनं “भाषाजात”,द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध:
~492~
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३६], नियुक्ति : [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३६]
दीप अनुक्रम [४७०]
श्रीआचा- से भिक्खू वा० जहा वेगइयाई रूवाई पासिज्जा तहावि ताई एवं वइजा-तंजहा-ओयंसी ओयंसित्ति वा तेवंसी तेयं- श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः
सीति वा जसंसी जसंसीइ वा वचंसी वर्चसीइ वा अभिरूयंसी २ पडिरूवंसी २ पासाइयं २ दरिसणिज दरिसणीयत्ति चूलिका (शी०) वा, जे यावन्ने तहप्पगारा तहपगाराहिं भासाई बुझ्या २ नो कुप्पंति माणवा तेयावि तहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासादि
भाषा०४ ॥३८९॥
अभिकंस भासिज्जा ।। से मिक्खू वा० जहा वेगइयाई रूवाई पासिज्जा, तंजहा-वप्पाणि वा जाव गिहाणि वा, तहावि उद्देशः २ ताई नो एवं वइजा, तंजहा-सुक्कड़े इ वा सुटुकडे इ वा साहुकडे इ वा कल्लाणे इ वा करणिजे इ वा, एयपगारं भासं सावजं जाव नो भासिज्जा ।। से भिक्खू वा० जहा वेगईयाई रूबाई पासिज्जा, तंजहा-वप्पाणि वा जाव गिहाणि या तहावि ताई एवं वइजा, तंजहा-आरंभकडे इ वा सावजकडे इ वा पयत्तकडे इ वा पासाइयं पासाइए वा दरिसणीयं
दरसणीयंति वा अभिरुवं अभिरूवंति वा पडिरूवं पडिरूवंति वा एयरपगारं भासं असावजं जान भासिना ॥ (सू० १३६) | स भिक्षुर्यद्यपि 'एगइयाइ'न्ति कानिचिद्रूपाणि गण्डीपदकुष्ट्यादीनि पश्येत् तथाप्येतानि स्वनाममाहं तद्विशेषणविशि-13 राष्टानि नोच्चारयेदिति, तयथेत्युदाहरणोपप्रदर्शनार्थः, 'गण्डी' गण्डमस्यास्तीति गण्डी यदिवोच्छूनगुल्फपादः स गण्डी-16 कत्येवं न व्याहर्त्तव्यः, तथा कुट्यपि न कुष्ठीति ब्याहर्त्तव्यः, एवमपरव्याधिविशिष्टो न ब्याहर्त्तव्यो यावन्मधुमेहीति
मधुवर्णमूत्रानवरतप्रश्रावीति, अत्र च धूताध्ययने व्याधिविशेषाः प्रतिपादितास्तदपेक्षया सूत्रे यावदित्युक्तम्, एवं छिन्न-18 हस्तपादनासिकाकर्णोष्ठादयः, तथाऽन्ये च तथाप्रकाराः काणकुण्टादयः, तद्विशेषणविशिष्टाभिर्वाग्भिरुवा उकाः कु- ॥३८९ ॥ प्यन्ति मानवास्तांस्तथाप्रकारांस्तथाप्रकाराभिर्वाग्भिरभिकाय नो भाषेतेति ॥ यथा च भाषेत तथाऽऽह-स भिक्षुर्यद्यपि
~493~
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३६], नियुक्ति : [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३६]]
दीप
गण्डीपदादिव्याधिप्रस्तं पश्येत्तथाऽपि तस्य यः कश्चिद्विशिष्टो गुण ओजस्तेज इत्यादिकस्तमुद्दिश्य सति कारणे वदेदिति, केशववत्कृष्णश्वशुक्लदन्तगुणोद्घाटनवद्गुणग्राही भवेदित्यर्थः ॥ तथा स भिक्षुर्यद्यष्येतानि रूपाणि पश्येत्तद्यथा-वप्राः
प्राकारा यावद्गृहाणि, तथाऽप्येतानि नैवं वदेत् , तद्यथा-सुकृतमेतत् सुष्टु कृत्तमेतत् साधु-शोभनं कल्याणमेतत्, कर्त1||व्यमेवैतदेवंविधं भवद्विधानामिति, एवंप्रकारामन्यामपि भाषामधिकरणानुमोदनात् नो भाषेतेति ॥ पुनर्भाषणीयामाह-1
स भिक्षुर्वप्रादिकं दृष्ट्वाऽपि तदुद्देशेन न किञ्चिद् ब्रूयात्, प्रयोजने सत्येवं संयतभाषया ब्रूयात् , तद्यथा-महारम्भकृतमेतत् सावद्यकृतमेतत् तथा प्रयत्नकृतमेतत् , एवं प्रसादनीयदर्शनादिकां भाषामसावद्या भाषेतेति ॥
से भिक्खू वा २ असणं वा० उवक्खडियं तहाविहं नो एवं वइज्जा, तं० सुकडेत्ति वा सुकडे इ वा साहुकड़े इ वा कहाणे इ वा करणिजे इ वा, एयप्पगार भासं सावजं जाब नो भासिजा ॥ से भिक्खू वा २ असणं वा ४ उपक्सडियं पेहाय एवं वइजा, तं०-आरंभकडेत्ति वा सावजकडेत्ति वा पयत्तकडे इ वा भयं भदेति वा ऊसदं उसढे इ वा रसियं
२ मणुनं २ एयप्पगारं भासं असावजं जाव भासिज्जा ।। (सू० १३७) एवमशनादिगतप्रतिषेधसूत्रद्वयमपि नेयमिति, नवरम् 'ऊसढ'न्ति उच्छ्रितं वर्णगन्धाधुपेतमिति ॥ पुनरभाषणीयामाहकिञ्च
से मिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा गोणं वा महिसं बा मिर्ग वा पसु वा पक्खि वा सरीसिर्व वा जलचर वा से तं परिवूढकार्य पहाए नो एवं बइजा-थूले इ वा पमेइले इ वा बट्टे इ वा वझे इ वा पाइमे इ वा, एयप्पगारं भासं सा
अनुक्रम [४७०]
~494~
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३८], नियुक्ति: [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
प्रत
रावृत्तिः
श्रुतस्क०२ चूलिका १ भाषा०४ | उद्देशः २
सूत्रांक
(शी०) ॥३९॥
[१३८]
दीप
बज जाव नो भासिज्जा ॥ से मिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा जाव जलयरं वा सेत्तं परिवूढकार्य पेहाए एवं वइजा
-परिवूढकाएत्ति वा उपचिवकाएसि वा विरसंघयणेत्ति वा चियमंससोणिएत्ति वा बहुपडिपुनइंदिइएत्ति था, एयपगारं भासं असावज जाव भासिना ।। से मिक्खू वा २ विरूवरूवाओ गाओ पेहाए नो एवं बहना, तंजहा-गाओ दुज्झा
ओत्ति वा दम्मेत्ति वा गोरहत्ति वा बाहिमत्ति वा रहजोग्गत्ति वा, एयप्पगारं भासं सावजं जाब नो भासिना । से मि० विरूवरूवाओ गाओ पहाए एवं बइजा, तंजहा-जुवंगवित्ति वा घेणुत्ति वा रसवइति वा हस्से इ वा महले इ वा महन्वएइ वा संवहणित्ति वा, एअप्पगारं भासं असावज जाव अमिकस भासिज्जा ।। से भिक्खू वा० सहेव गंतुमुज्जाणाई पव्वयाई वणाणि वा रुक्खा महले पेहाए नो एवं वइज्जा, तं०-पासायजोग्गाति वा तोरणजोगाइ चा गिहजोम्गाइ वा फलिहजो० अग्गलजो० नावाजो० उदग० दोणजो० पीढचंगबेरनंगळकुलियतलट्ठीनाभिगंडीआसणजो० सयणजाणउवस्सयजोगाई वा, एयप्पगारं नो भासिज्जा ।। से भिक्खू वा तहेव गंतु० एवं वइजा, तंजहा-आइमंता इ वा दीदवट्ठा इ वा महालया इ वा पयायसाला हवा विडिमसाला इ वा पासाइया इ वा जाव पडिरूवाति वा पथप्पगार भासं असाबज जाव भासिज्जा ।। से भि० बहुसंभूया वणफला पेहाए तहावि ते नो एवं वइजा, तंजहा-पका इ वा पायखज्जा इ वा बेलोइया इवा टाला इ वा वेहिया इ बा, एथप्पगारं भासं सावजं जाव नो भासिजा ।। से मिक्खू० बहुसंभूया वणफला अंबा पेहाए एवं बइजा, सं०-असंथडा इ वा बहुनिवट्टिमफला इ वा बहुसंभूया इ या भूवरुचित्ति बा, एयप्पगार भा० असा० ॥ से बहुसंभूया ओसही पेहाए तहावि ताओ न एवं वइजा, तंजहा-पणा वा नीलीया इ वा छवी
अनुक्रम [४७२]
RKARRERAKAKAKAL
।।३९०
~495
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३८], नियुक्ति: [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३८]
दीप
इया इवा लाइमा दवा भजिमा इवा बहुखज्जा इवा, एयप्पगा० नो भासिज्जा ।। से बहु०पेहाए तहावि एवं वइजा, तं०-कढा इ वा बहुसंभूया इ वा थिरा इ वा ऊसढा इ वा गम्भिया इ वा पसूया इ वा ससारा इवा, पयप्पगारं
भासं असावज जाव भासि०॥ (सू० १३८) | स भिक्षुर्गवादिकं परिवृद्धकार्य' पुष्टकार्य प्रेक्ष्य नैतद्वदेत् , तद्यथा-स्थूलोऽयं प्रमेतुरोऽयं तथा वृत्तस्तथा बध्यो वहनयोग्यो वा, एवं पचनयोग्यो देवतादेः पातनयोग्यो वेति, एवमादिकामन्यामप्येवंप्रकारां सावा भाषां नो भाषेतेति ॥ भाषणविधिमाह-स भिक्षुर्गवादिकं परिवृद्धकार्य प्रेक्ष्यैवं वदेत् , तद्यथा-परिवृद्धकायोऽयमित्यादि सुगममिति ॥ तथा-स भिक्षुः | विरूपरूपाः' नानाप्रकारा गाः समीक्ष्य नैतद्वदेत् , तद्यथा-दोहनयोग्या एता गावो दोहनकालो वा वर्तते तथा 'दम्य दमनयोग्योऽयं 'गोरहकः कल्होटका, एवं वाहनयोग्यो रथयोग्यो वेति, एवंप्रकारां सावद्या भाषां नो भाषतेति ॥ सति कारणे भाषणविधिमाह-स भिक्षुर्नानाप्रकारा गाः प्रेक्ष्य प्रयोजने सत्येवं भूयात् , तद्यथा-'जुवंगवे'त्ति युवाऽयं गौः धेनुरिति| वा रसवतीति वा, (इस्वः महान् महाव्ययो वा) एवं संवहन इति, एर्वप्रकारामसावद्या भाषां भाषेतेति ॥ किश्श-स भिक्षु|| रुद्यानादिकं गत्वा महतो वृक्षान् प्रेक्ष्य नैवं वदेत्, तद्यथा-प्रासादादियोग्या अमी वृक्षा इति, एवमादिकां सावद्या भाषां नोभाषेतेति ॥ यत्तु वदेत्तदाह-स भिक्षुस्तथैवोद्यानादिकं गत्वैवं वदेत् , तद्यथा-'जातिमन्तः' सुजातय इति, एवमादिका भाषामसावद्यां संयत एव भाषेतेति ॥ किश्च-स भिक्षुबहुसंभूतानि वृक्षफलानि प्रेक्ष्य नैवं वदेत्, तद्यधा-एतानि फलानि | 'पक्कानि' पाकप्राप्तानि, तथा 'पाकखाद्यानि' बद्धास्थीनि गोप्रक्षेपकोद्रवपलालादिना विपच्य भक्षणयोग्यानीति, तथा
अनुक्रम [४७२]
~4964
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३८], नियुक्ति : [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३८]
श्रीआचा- बेलोचितानि' पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि, अतः परं कालं न विषहन्तीत्यर्थः, 'टालानि' अनवबद्धास्थीनि कोम- श्रुतस्कं०२ राजवृत्तिःलास्थीनीति यदुक्तं भवति, तथा 'वैधिकानि' इति पेशीसम्पादनेन द्वैधीभाषकरणयोग्यानि वेति, एवमादिकां भाषां हालिका र (शी०) फलगतां सावद्यां नो भाषेत ॥ यदभिधानीयं तदाह-स भिक्षुबहुसम्भूतफलानावान् प्रेक्ष्यैवं वदेत्, तद्यथा-'अस-1
|भाषा०४
उद्देशः २ ॥३९१॥
मर्थाः' अतिभरेण न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः, एतेन पक्वार्थ उक्तः, तथा 'बहुनिवर्तितफलाः' बहूनि निर्वतितानि फलानि येषु ते तथा, एतेन पाकखाद्यार्थ उक्तः, तथा 'बहुसम्भूताः' बहुनि संभूतानि पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथा, अनेन वेलोचितार्थ उक्तः, तथा 'भूतरूपाः' इति वा भूतानि रूपाण्यनववद्धास्थीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते तथा, अनेन टालाद्यर्थ उपलक्षितः, एवंभूता एते आघाः, आम्रग्रहणं प्रधानोपलक्षणम् , एवं भूतामनवद्यां भाषा भाषेतेति ॥ किश्च-स भिक्षुर्बहुसम्भूता ओषधीवीक्ष्य तथाऽप्येता नैतद्वदेत् , तद्यथा-पक्का नीला ||| आर्द्राः छबिमत्यः 'लाइमाः' लाजायोग्या रोपणयोग्या वा, तथा 'भजिमाओ'त्ति पचनयोग्या भञ्जनयोग्या वा 'बहु-18 खजा' बहुभक्ष्याः पृथुककरणयोग्या वेति, एवंप्रकारां सावद्यां भाषां नो भाषेत । यथा च भाषेत तदाह-स भिधुबहुसंभूता ओषधी प्रेक्ष्यैतद् यात् , तद्यथा-रूढा इत्यादिकामसावद्या भाषां भाषेत ॥ किश्च
से भिक्खू वा० तहपगाराई सहाई सुणिज्जा तहावि एयाई नो एवं बइज्जा, तंजहा-सुसद्देत्ति वा दुसद्देति वा, एयप्प- ID॥ ३९१॥ गार भासं सावजं नो भासिब्बा ।। से मि० बहावि ताई एवं वइज्जा, तंजा-मुसई सुसद्दित्ति वा दुसई दुसदित्ति
टस
दीप अनुक्रम [४७२]
~497
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], मूलं [१३९], नियुक्ति : [३१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३९]
वा, एयपगार असावजं जाव भासिज्जा, एवं रूवाई किण्हेचि वा ५ गंधाई सुरमिगंधित्ति वा २ रसाई तित्ताणि वा ५ फासाई कक्खडाणि वा ८॥ (सू०१३९)
स भिक्षुर्यद्यष्येतान् शब्दान् शृणुयात् तथाऽपि नैवं वदेत्, तद्यथा-शोभनः शब्दोऽशोभनो वा माङ्गलिकोऽमाजप्रालिको वा, इत्ययं न व्याहतेंव्यः ॥ विपरीतं त्वाह-यथाऽवस्थितशब्दप्रज्ञापनाविषये एतद्वदेत् , तद्यथा-'सुसईति | शोभनशब्दं शोभनमेव ब्रूयाद्, अशोभनं वशोभनमिति ॥ एवं रूपादिसूत्रमपि नेयम् । किञ्च
से मिक्खू वा० बंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च अणुधीर निहाभासी निसम्मभासी अतुरियभासी विवेगमासी समियाए संजए भासं भासिज्जा ५॥ एवं खलु० सया जइ (सू० १४०) तिमि ।। २-१-४-२ ॥ भाषाऽध्ययन
चतुर्थम् ॥३-१-४॥ स भिक्षुः क्रोधादिकं वान्त्वैवंभूतो भवेत् , तद्यथा-अनुविचिन्त्य निष्ठाभाषी निशम्यभाषी अत्वरितभाषी विवेकभाषी | भाषासमित्युपेतो भाषा भाषेत, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ चतुर्थमध्ययन भाषाजाताख्यं २-१-४ समाप्तमिति ।
दीप
अनुक्रम [४७३]
~498~
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१४०]
दीप
अनुक्रम [४७४]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], मूलं [१४०...], निर्युक्तिः [३१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ ३९२ ॥
अथ वस्त्रेषणाऽध्ययनम् ।
चतुर्थाध्ययनानन्तरं पञ्चममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तराध्ययने भाषासमितिः प्रतिपादिता, तदनन्त| रमेषणासमितिर्भवतीति सा वस्त्रगता प्रतिपाद्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽध्ययनार्थाधिकारो वषणा प्रतिपाद्येति, उद्देशार्थाधिकारदर्शनार्थं तु नियुक्ति- २
.
कार आह
पढमे गहणं बीए धरणं पगयं तु दव्बवत्थेणं । एमेव होइ पायं भावे पायं तु गुणधारी ॥ ३१५ ॥ प्रथमे उद्देश वस्त्रग्रहणविधिः प्रतिपादितः, द्वितीये तु धरणविधिरिति ॥ नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे वस्त्रैषणेति, तत्र वस्त्रस्य नामादिश्चतुर्विधो निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यवस्त्रं त्रिधा, तद्यथा - एकेन्द्रियनिष्पन्नं कार्पासिकादि, विकलेन्द्रियनिष्पन्नं चीनांशुकादि, पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नं कम्बलरलादि, भागवस्त्रं त्वष्टादशशीलाङ्गसहस्राणीति, इह तु द्रव्यवस्त्रेणाधिकारः, तदाह नियुक्तिकार:- 'पगयं तु दव्ववत्थेणं'ति । वस्त्रस्येव पात्रस्यापि निक्षेप इति मन्यमानोऽत्रैव पात्रस्थापि निक्षेपातिनिर्देशं नियुक्तिकारो गाथापश्चार्द्धनाह - 'एवमेव' इति वस्त्रवत्यात्रस्यापि चतुर्विधो निक्षेपः, तत्र द्रव्यपात्रमेकेन्द्रियादिनिष्पन्नं, भावपात्रं साधुरेव गुणधारीति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्छेदम् — १ ॥ ३९२ ॥ से भि० अभिकंखिज्जा वत्थं एसित्चए, से जं पुण वत्थं जाणिज्जा, तंजहा - जंगियं वा भंगियं वा साणियं वा पोत्तगं वा
For Pernal Use On
प्रथम चूलिकायाः पंचम अध्ययनं “ वस्त्रैषणा", आरब्धं प्रथम चूलिकाया: पंचम अध्ययनं “ वस्त्रैषणा, प्रथम उद्देशक: आरब्धः
४
~499~
श्रुतस्कं०२
चूलिका १
वस्त्रेष० ५
उद्देशः १
wor
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [१४१], नियुक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१४१]
दीप
खोमियं वा तूलकई वा, तहपगार वत्थं वा जे निग्गथे तरुणे जुगब बलवं अपायके थिरसंघयणे से एम वत्थं धारिजा नो वीर्य, जा निगंथी सा चत्तारिसंघाडीओ धारिजा, एग दुहत्ववित्थारं दो तिहत्ववित्थाराओ एणं चउहत्यवित्थार,
सहप्पगारेहिं वत्येहि असंधिजमाणेहिं, अहं पच्छा एगमेगं संसिविजा ।। (सू० १४१) स भिक्षुरभिकाङ्गेद्धस्त्रमन्वेष्टुं तत्र यत्पुनरेवंभूतं वस्त्रं जानीयात् , तद्यथा-'जंगिय'ति जगमोष्ट्राचूर्णानिष्पन्न, तथा| भंगिय'ति नानाभङ्गिकविकलेन्द्रियलालानिष्पन्नं, तथा 'साणय'ति सणवल्कलनिष्पन्नं 'पोत्तगं'ति ताब्यादिपत्रसङ्घातनिप्पन्नं 'खोमिय'ति कार्पासिक 'तूलकडंति अर्कादितूलनिष्पन्नम् , एवं तथाप्रकारमन्यदपि वस्त्र धारयेदित्युत्तरेण सम्ब
न्धः । येन साधुना यावन्ति धारणीयानि तदर्शयति-तत्र यस्तरुणो निर्ग्रन्थः-साधुयौवने वर्त्तते 'बलवान्' समर्थः 'अपाल्पातङ्कः' अरोगी 'स्थिरसंहननः दृढकायो दृढधृतिश्च, स एवंभूतः साधुरेक वर्ख' प्रावरणं त्ववाणार्थं धारयेत् नो द्वि
तीयमिति, यदपरमाचार्यादिकृते विभर्ति तस्य स्वयं परिभोग न कुरुते, यः पुनर्बालो दुर्वलो वृद्धो वा यावदल्पसंहननः
स यथासमाधि यादिकमपि धारयेदिति, जिनकल्पिकस्तु यथाप्रतिज्ञमेव धारयेत् न तत्रापवादोऽस्ति । या पुनर्निन्थी दिसा चतस्रः संघाटिका धारयेत्, तद्यथा-एकां द्विहस्तपरिमाणां यां प्रतिश्रये तिष्ठन्ती प्रावृणोति, द्वे त्रिहस्तपरिमाणे,
तत्रेकामुज्वलां भिक्षाकाले प्रावृणोति, अपरां बहिर्भूमिगमनावसर इति, तथाऽपरां चतुर्हस्तविस्तरां समवसरणादी सर्वेश-1 रीरमच्छादिकां प्रावृणोति, तस्याश्च यथाकृताया अलाभे अथ पश्चादेकमेकेन सार्द्ध सीव्येदिति ॥ किश्व
से भि० परं अद्धजोयणमेराए वत्थपडिया० नो अमिसंधारिज गमणाए ॥ (सू०१४२)
अनुक्रम [४७५]
~500~
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [9], उद्देशक [१], मूलं [१४२], नियुक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीवाचाराजवृत्तिः
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ वस्वैष०५ उद्देशः १
सूत्रांक
(शी०)
[१४२]]
॥३९३॥
दीप अनुक्रम [४७६]
स भिक्षुर्वस्वार्थमर्चयोजनासरतो गमनाय मनो न विदध्यादिति ॥
से मि० से ज० रिंसपडिपाए एगं साहम्मियं समुदिस्स पाणाई जहा पिंडेसणाएभाणिव ॥ एवं बहवे साहम्मिया
एग साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीमो बहवे समणमाण तहेब पुरिसंतरकडा जहा पिंडेसणाए ।। (सू० १४३) सूत्रद्वयमाधाकर्मिकोद्देशेन पिण्डैषणावन्नेयमिति ॥ साम्प्रतमुत्तरगुणानधिकृत्याह
से मि० से जं. असंजए भिक्खुपढिवाए कीयं वा धोयं वा रत्तं वा घटुं वा मटुं वा संपधूमियं वा तहप्पगार पत्थं अपुरिसंतरकडं जाव नो०, अह पु० पुरिसं० जाव पढिगाहिजा ।। (सू० १४४) 'साधुप्रतिज्ञया' साधुमुद्दिश्य गृहस्थेन. क्रीतधौतादिक वनमपुरुषान्तरकृतं न प्रतिगृह्णीयात्, पुरुषान्तरस्वीकृतं तु गृह्णीयादिति पिण्डार्थः ॥ अपि च
से भिक्खू वा २ से जाई पुण बत्थाई जाणिज्जा विरूवरूवाई महरणमुल्लाई, तं०-आईणगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकलाणाणि वा आयाणि वा कायाणि वा खोमियाणि वा दुगुकाणि वा पट्टाणि वा मलयाणि या पनुनाणि वा असुयाणि वा चीणंमुयाणि वा देसरागाणि वा अमिलाणि वा गजफलाणि वा फालियाणि वा कोयवाणि वा कंबलगाणि वा पावराणि वा, अन्नवराणि वा सहक बत्थाई महतणमुल्लाई लाभे संते नो पङिगाहिज्जा ॥ से मि० आइण्णपाउरणाणि वत्थाणि जाणिज्जा, ०-उहाणि वा पेसाणि ना पेसलागि वा किण्हमिगाईणगाणि वा नीलभिगाईणगाणि ना गोरमि० कणगाणि
CASSAGACASSSC
॥३९३॥
SARERatininemarana
~501
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४५], नियुक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
%95%
[१४५]]
दीप
का कणगकताणि वा कणगपट्टाणि वा कणगखझ्याणि वा कणगफुसियाणि वा वाघाणि वा विवग्याणि वा [ विगाणि वा] .
आभरणाणि वा आभरणविचित्ताणि वा, अन्नयराणि तह. आईणपाउरणाणि वत्वाणि लाभे संते नो० ॥ (सू० १४५) | स भिक्षुर्यानि पुनर्महाधनमूल्यानि जानीयात् , तद्यथा-'आजिनानि मूषकादिचर्मनिष्पन्नानि श्लक्ष्णानि-सूक्ष्माणि |च तानि वर्णच्छव्यादिभिश्च कल्याणानि-शोभनानि वा सूक्ष्मकल्याणानि, 'आयाणिति क्वचिद्देशविशेषेऽजाः सूक्ष्मरो-11 मवत्यो भवन्ति तत्पश्मनिष्पन्नानि आजकानि भवन्ति, तथा क्वचिद्देशे इन्द्रनीलवर्णः कर्पासो भवति तेन निष्पन्नानि | कायकानि, 'क्षौमिक' सामान्यकाासिकं 'दुकूल' गौडविषयविशिष्टकार्पासिक पट्टसूत्रनिष्पन्नानि पट्टानि 'मलयानि' मल
यजसूत्रोत्पन्नानि 'पन्नुन्नति वल्कलतन्तुनिष्पन्नम् अंशुकचीनांशुकादीनि नानादेशेषु प्रसिद्धाभिधानानि, तानि च महाघ8 मूल्यानीतिकृत्वा ऐहिकामुष्मिकापायभयाल्लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुर्यानि पुनरेवंभूतानि अजिननिष्प-18
मानि 'प्रावरणीयानि वस्त्राणि जानीयात् , तद्यथा-'उद्दाणि वत्ति उद्भाः-सिन्धुविषये मत्स्यास्तत्सूक्ष्मचर्मनिष्पन्नानि उद्राणि 'पेसाणित्ति सिन्धुविषय एव सूक्ष्मचर्माणः पशवस्तवर्मनिष्पन्नानीति 'पेसलाणि'त्ति तच्चर्मसूक्ष्मपक्ष्मनिष्पन्नानि कृ-है। ष्णनीलगौरमृगाजिनानि-प्रतीतानि 'कनकानि च' इति कनकरसच्छुरितानि, तथा कनकस्येव कान्तिर्येषां तानि कनककान्तीनि तथा कृतकनकरसपट्टानि कनकपट्टानि एवं 'कनकखचितानि' कनकरसस्तबकाश्चितानि कनकस्पृष्टानि तथा व्याघ्रचर्माणि एवं 'वग्याणि'त्ति व्याघ्रधर्मविचित्रितानि 'आभरणानि आभरणप्रधानानि 'आभरणविचित्राणि' गिरिषि
अनुक्रम [४७९]
~502
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४५], नियुक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०)
श्रुतस्कं०२ चूलिका १
सूत्रांक
वखैष०५ उद्देश
[१४५]
॥३९४॥
दीप
डकादिविभूषितानि अन्यानि वा तथाप्रकाराण्यजिनप्रावरणानि लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ साम्प्रतं वस्त्रग्रहणाभिग्रहविशेषमधिकृत्याह
इबेहयाई आयतणाई उबाइकम्म अह भिक्खू जाणिजा चरहिं पडिमाहिं वत्थं एसित्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा, से मि० २ उदेसिय वत्थं जाइजा, तं०-जंगियं वा जाव तूलकडं वा, वह० वत्थं सयं वा ण जाइज्जा, परो० फासुयं० पडि०, पढमा पडिमा १ अहावरा दुचा पडिमा से मि० पेहाए पत्थं जाइजा गाहावई वा० कम्मकरी वा से पुब्बामेष आलोइज्जा-आउसोत्ति वा २ दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं वयं ?, तहप्प० वत्थं सर्व बा० परो फासुयं एस० लाभे० पडि०, दुचा पडिमा २। अहावरा तच्चा पडिमा-से भिक्खू वा० से जं पुणः तं अंतरिज वा उत्तरि वा सहप्पगारं वत्थं सयं० पडि०, तच्चा पडिमा ३ । अहावरा चउत्था पडिमा-से० उझियधम्मियं वत्थं जाइब्जा जंचऽन्ने बहने समण वणीमगा नायकसंति तहष. उझिव० चत्वं सयं० परो० फासुर्य जाव ५०, उत्थापढिमा ४ ॥ इश्चयाणं चउहं पडिमाणं जहा पिंडेसणाए । सिया णं एताए एसणाए एसमाणं परो यहळा-आउसंसो समणा! इजाहि तुमं मासेण वा दसराएण वा पंचराएण वा सुते सुततरे वा तो ते वयं अन्नयर वत्थं दाहामो, एयप्पगार निग्धोसं सुधा नि० से पुवामेव आलोइज्जा–आउसोत्ति वा! २ नो खलु मे कप्पइ एयप्पगार संगार पंडिसुणित्तए, अभिकखसि मे दाउँ इयाणिमेव दलयाहि, से णेवं वयंत परो बइज्जा-आउ० स०! अणुगच्छाहि तो ते वयं अन्न० वत्थं दाहामो, से पुण्यामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति! वा २ नो खलु मे कप्पइ संगारवयणे पडिसुणित्तए०, से सेवं वयंत परोणेया वजा
अनुक्रम [४७९]
॥३९४
~503~
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४६], नियुक्ति : [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
2904%ोट
सूत्रांक
[१४६]
दीप
-आउसोति वा भइणित्ति या! आहरेयं वत्वं समणस्स दाहामो, अवियाई वयं पच्छावि अप्पणो सबढाए पाणाई ४ समारंभ समुदिस्स जाव चेइस्सामो, एयप्पगारं निग्योसं सुधा निसम्म तहप्पगारं वर्थ अफासु आव नो पडिगाहिजा ॥ सिमा णं परो नेता वळजा-माउसोत्ति! वा २ आहर एयं बत्यं सिणाणे वा ४ आपंसित्ता वा ५० समणस्स णं दाहामो, एयपगार निग्धोसं सुच्चा नि० से पुब्बामेव आउ० भ० मा एवं तुमं वत्थं सिणाणेण वा जाय पधंसाहिवा, अभि० एमेव दलयाहि से सेवं वयंतस्स परो सिणाणेण या पघंसित्ता दलज्जा, सहप्प० वत्थं अफा० नो प०॥ से णं परो नेता बज्जा-म०! आहर एवं वत्थं सीओदगवियडेण वा २ उच्छोलेत्ता वा पहोलेत्ता पा समणस्स णं दाहामो०, एय. निग्धोसं तहेव नवरं मा एयं तुमं वत्थं सीओदग० उसि० उच्छोलेहि बा पहोलेहि वा, अभिखसि, सेसं तहेव जाव नो पडिगाहिजा ॥ से णं परो ने० आ० भ०! आहरेवं वत्थं कंदाणि या जाव हरियाणि वा विसोहित्ता समणस्स ण दाहामो, एय० निम्पोस तहेव, नवरं मा एयाणि तुमं कंदाणि वा जाब विसोहेहि, नो खलु मे कप्पड़ एयप्पगारे वत्ये पडिग्गाहित्तए, से सेवं वयंतस्स परो जाव विसोहित्ता दलइजा, तहप्प० वत्थं अफासु नो ५० ॥ सिया से परो नेता वत्वं निसिरिजा, से पुब्बा० आ० भ०! तुम चेव णं संतियं वत्थं अंतोअंतेणं पडिलेहि जिस्सामि, फेवली धूया आ०, वत्थंतेण बढे सिवा कुंडले वा गुणे वा हिरणे वा सुवण्णे वा मणी वा जाव रयणावली वा पाणे वा बीए वा हरिए वा,
अह मिक्खू णं पु० जं पुष्वामेव वत्थं अंतोअंतेण पहिले हिज्जा ।। (सू० १४६) 'इत्येतानि' पूर्वोक्तानि वक्ष्यमाणानि वाऽऽयतनान्यतिक्रम्याथ भिक्षुश्चतसृभिः 'प्रतिमाभिः' वक्ष्यमाणैरभिग्रहविशेष
अनुक्रम [४८०]]
हर
~504~
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४६], नियुक्ति : [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
राङ्गवृत्तिः
चूलिका १
सूत्रांक
[१४६]]
दीप
श्रीआधा- स्त्रमन्वेष्टुं जानीयात् , सद्यथा-'उद्दिष्टं प्राक् सङ्कल्पित वस्त्रे याचिष्ये, प्रथमा प्रतिमा १, तथा 'प्रेक्षित' दृष्टं सद् श्रुतस्क०२
वस्त्रं याचिष्ये नापरमिति द्वितीया २, तथा अन्तरपरिभोगेन उसरीयपरिभोगेन वा शय्यातरेण परिभुक्तमार्य वस्त्रं (सी.)
ग्रहीष्यामीति तृतीया ३, तथा तदेवोत्कृष्टधार्मिक वस्खं ग्रहीष्यामीति चतुथीं प्रतिमेति ४ सूत्रेचतुष्टयसमुदायार्थः । वस्त्रेष०५ ॥३९५॥ |आसां चतसृणां प्रतिमानां शेषो विधिः पिण्डैषणावन्नेय इति ॥ किश्च-स्यात्' कदाचित् 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'ए-1
दउद्देशः १ तया' अनन्तरोक्तया वस्लेषणया वस्त्रमन्वेषयन्तं साधु परो वदेद् , यथा-आयुष्मन् ! श्रमण! त्वं मासादौ गते समागच्छ
ततोऽहं वस्त्रादिकं दास्यामि, इत्येवं तस्य न शृणुयात् , शेषं सुगमं यावदिदानीमेव ददस्वेति, एवं वदन्तं साधु परो - दियाद्, यथा-अनुगच्छ तावत्पुनः स्तोकवेलायां समागताय दास्यामि, इत्येतदपि न प्रतिशृणुयाद्, वदेच्चेदानीमेव दद
खेति, तदेवं पुनरपि वदन्तं साधु 'परो' गृहस्थो नेताऽपरं भगिन्यादिकमाहूय वदे यथाऽऽनयतद्, वस्त्रं येन श्रमणाय |
दीयते, वयं पुनरात्मार्थं भूतोपमर्दैनापरं करिष्याम इति, एतत्प्रकारं वस्त्रं पश्चात्कर्मभयाल्लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ || तथा स्थायर एवं वदेद्, यथा-स्नानादिना सुगन्धिद्रव्येणाघर्षणादिकां क्रियां कृत्वा दास्यामि, तदेतन्निशम्य प्रतिषेध
विदध्यात्, अथ प्रतिषिद्धोऽप्येवं कुर्यात् , ततो न प्रतिगृह्णीयादिति । एवमुदकादिना धावनादिसूत्रमपि ॥ स परो वदेद्याचितः सन् यथा कन्दादीनि वस्त्रादपनीय दास्यामीति, अत्रापि पूर्ववनिषेधादिकश्चर्च इति ॥ किश्च-स्यात्सरो याचितः ॥३९५ ॥ सन् कदाचिद्वखं 'निसृजेत्' दद्यात्, ते च ददमानमेवं बयान, यथा स्वदीयमेवाहं वश्वमम्तोपान्तेन प्रत्युपेक्षिष्ये, नैवा
अनुक्रम [४८०]]
SAREauratonintamariand
~505~
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४७], नियुक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४७]]
दीप
प्रत्युपेक्षितं गृहीयाद, यतः केवली यात्कर्मोपादानमेतत्, किमिति !, यतस्तत्र किश्चित्कुण्डलादिकमाभरणजातं बद्धं || दाभवेत् , सचित्तं वा किंचिद् भवेद्, अतः साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यहां प्रत्युपेक्ष्य गृह्णीयादिति ॥ कि
से मि० से ० स० ससंताण तहप्प० वत्थं अफा० नो प०॥ से मि० से जे अप्पडं जाब संताणगं अनलं अधिर अधुर्व अधारणिनं रोइजंतं न रुचाइ तह अफा० नो प० । से मि० से ० अप्पड जाव संताणगं अलं विरं घुवं धारणिजं रोइजतं रुभइ, तह. वत्वं फासु. पहि० ॥ से मि० नो नवए मे वत्येत्तिकट्ट नो बहुदेसिएण सिणाणेण वा जाव पसिना । से मि० नो नवए मे वत्येत्तिकट्ट नो बहुदे० सीओदगवियडेण वा २ जाप पहोइजा ॥ से मिक्खू वा २
दुन्भिगंधे मे बरिथसिक? नो बहु० सिणाणेण तहेव बहुसीओ० उस्सिा आलायो॥ (सू० १४७) स भिक्षर्यत्पुनः साण्डादिक वस्खे जानीयात् तन्न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं वस्त्रं जानीयात्, तद्यथा-12 अल्याण्डं यावदल्पसन्तानकै किन्तु 'अमलम्' अभीष्टकार्यासमर्थ हीनादित्वात् , तथा 'अस्थिरं' जीर्णम् 'अधुर्व' स्वKल्पकालानुज्ञापनात्, तथा 'अधारणीयम्' अप्रशस्तप्रदेशखञ्जनादिकलकाङ्कितस्वात् , तथा चोक्तम्-"चत्तारि देविया दिभागा, दो य भागा य माणुसा। आसुरा य दुवे भागा, मज्झे वत्थस्स रक्खसो॥१॥ देविएसुत्समो लाभो, माणुसेसु अमज्झिमो । आसुरेसु अ गेली, मरणं जाण रक्खसे ॥२॥" स्थापना चेयम् ॥ किन-"लक्षणहीणो उवही उवहणई|
चत्वारो देषिका भागा द्वौ च भागौ च मानुजी । आसुरीची भागी मध्ये वक्षस्य राक्षसौ ॥ १॥ दैषिकेयूत्तमो लाभो मानुष्ययोष मध्यमः । मासरबायोब ग्लानत्वं मरणं जानीहि राकसे ॥१॥ २ लक्षणहीम उपधिरुपहन्ति शानदर्शनचारित्राणि.
अनुक्रम [४८१]
~506~
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४७], नियुक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
चूलिका
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०) ॥ ३९६॥
सूत्रांक
उद्देशः
[१४७]
दीप
नाणदसणचरित्" इत्यादि, तदेवभूतमप्रायोग्यं रोच्यमान' प्रशस्यमानं दीयमानमपि वा दात्रा न रोचते, साधवे न | कल्पत इत्यर्थः॥ एतेषां चानलादीनां चतुर्णी पदानां षोडश भङ्गा भवन्ति, तत्राद्याः पञ्चदशाशुद्धाः, शुद्धस्वेकः षोडशस्तमधिकृत्य सूत्रमाह-स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं वस्त्रं चतुष्पदविशुद्धं जानीयात्तच्च लाभे सति गृह्णीयादिति पिण्डार्थः ॥ किच-स भिक्षुः 'नवम्' अभिनवं वखं मम नास्तीतिकृत्वा ततः 'बहुदेश्येन' ईषद्बहुना 'स्नानादिकेन' सुगन्धिद्रव्येणाघृष्य प्रघृष्य वा नो शोभनत्वमापादयेदिति ॥ तथा-स भिक्षुः 'नवम्' अभिनवं वस्त्रं मम नास्तीतिकृत्वा ततस्तस्यैव
'नो' नैव शीतोदकेन बहुशो न धावनादि कुर्यादिति ॥ अपि च-स भिक्षुर्यद्यपि मलोपचितत्वादुर्गन्धि वस्त्रं स्यात् तथाalsपि तदपनयनार्थ सुगन्धिद्रव्योदकादिना नो धावनादि कुर्याद् गच्छनिर्गतः, तदन्तर्गतस्तु यतनया प्रासुकोदकादिना लोकोपघातसंसक्तिभयात् मलापनयनार्थ कुर्यादपीति ।। धौतस्य प्रतापनविधिमधिकृत्याह
से भिक्खू वा० अभिकखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा प०, तहप्पगारं वत्वं नो अणंतरहियाए जाव पुढवीए संताणए आयाविज्ज वा ५० ॥ से मि० अमि० वत्थं आ० ५० त० वत्थं थूणसि वा गिहेलुगंसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि या अन्नयरे तहप्पगारे अंतलिक्खजाए दुबद्धे दुन्निक्खित्ते अणिकंपे चलाचले नो आ० नो प०॥ से भिक्खू वा० अभि० आयावित्तए वा तह० वत्थं कुकियंसि वा मित्तंसि वा सिलंसि वा लेलुसि वा अन्नयरे वा तह अंतलि जाव नो आयाविज वा प०॥ से मि० वत्थं आया. ५० तह. चत्वं खधंसि वा मं० मा० पासा. ह. अन्नयरे वा तह. अंतलि. नो आयाविज वा०प०॥से तमायाए एगंतमवकमिज्जा २ अहे झामथंडिहंसि वा जाव अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि विहसि पडिले
अनुक्रम [४८१]
॥३९६॥
~507~
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], मूलं [१४८], नियुक्ति : [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
*3
प्रत
सूत्रांक [१४८]
हिव २ पमजिव २ तओ सं० वत्यं आयाबिज वा पया०, एवं खलु सया जइब्वासि (सू०१४८) तिमि ॥
२-१-५-१ ।। वत्थेसणस्स पड़मो उदेसो समत्तो । __स भिक्षुरव्यवहितायां भूमौ वस्त्रं नातापयेदिति॥ किच-स भिक्षुर्यद्यभिकासयेद्वस्त्रमातापयितुं ततः स्थूणादौ चलाचले स्थूणाविवस्त्रपतनभयानातापयेत्, तत्र गिहेलुका-उम्बरः 'उसूयालं' उखलं 'कामजल' खानपीठमिति ॥ स भिक्षुभित्ति-1 शिलादौ पतनादिभयाद्वखं नातापयेदिति ॥ स भिक्षुः स्कन्धमञ्चकमासादादावन्तरिक्षजाते वस्त्र पतनादिभयादेव नातापयेदिति ॥ यथा चातापयेत्तथा चाह-स भिक्षुस्तद्वनमादाय स्थण्डिलादि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य च रजोहरणादिना तत आतापनादिकं कुर्यादिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ पश्चमस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥२-१-५-१॥
%A9-%
KASSAR
दीप अनुक्रम [४८२]
%
%
उक्त प्रथमोदेशकः, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके वस्त्रग्रहणविधिरमिहिदतस्तदनन्तरं धरणविधिरभिधीयते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्-.
से मिक्खू वा० आहेसणिण्याई वत्थाई जाइज्जा अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारिजा नो धोइला नो रएज्जा नो धोयरत्ताई वत्थाई धारिता अपलिलंचमाणो गामवरेसु. ओमचेलिए, एयं खलु वत्थधारिस्स साममिमयं ।। से मि गाहावइकुलं पविसिउकामे
सब चीवरमायाए गाहापाकाल निक्खमिज या पविसिज वा, एवं वहिय विहारभूमि का वियारभूमि वा गामाणुगाम वा WL
%
मा. सू."
प्रथम चूलिकाया: पंचम-अध्ययनं “वस्त्रैषणा", दवितीय-उद्देशक: आरब्ध:
~508~
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [9], उद्देशक [२], मूलं [१४९], नियुक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-[१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
दीप अनुक्रम [४८३]
दूइजिजा, अह पु० तिब्बदेसियं वा वासं वासमाण पेहाए जहा पिंडेसणाए नवरं सर्व चीवरमायाए ॥ (सू० १४९) श्रुतस्कं०२
I स भिक्षुः 'यथैषणीयानि अपरिकर्माणि वखाणि याचेत यथापरिगृहीतानि च धारयेत्, न तत्र किश्चित्कुर्यादिति चिलिका १ (शी०) दर्शयति, तद्यथा-न तहस्रं गृहीतं सत् प्रक्षालयेत् नापि रञ्जयेत् तथा नापि बाकुशिकतया धौतरक्तानि धारयेत् , तथा
जवष०५ भूतानि न गृह्णीयादित्यर्थः, तथाभूताधौतारक्तवस्त्रधारी च ग्रामान्तरे गच्छन् 'अपलिउंचमाणे'त्ति अगोपयन् सुखेनैव ॥ ३९७ ॥ गच्छेद, यतोऽसौ-'अवमचेलिका' असारवस्त्रधारी, इत्येतत्तस्य भिक्षोर्वसधारिणः 'सामयं' सम्पूर्णो भिक्षुभावः यदे
भवभूतवखधारणमिति, एतच सूत्रं जिनकल्पिकोद्देशेन द्रष्टव्यं, वस्त्रधारित्वविशेषणाद् गच्छान्तर्गतेऽपि चाविरुद्धमिति ॥
किच-से इत्यादि पिण्डेपणावन्नेयं, नवरं तत्र सर्वमुपधिम् , अत्र तु स सर्व चीवरमादायेति विशेषः ॥ इदानीं प्रातिहारिकोपहतवस्त्रविधिमधिकृत्याह
से एगइओ मुहुत्तर्ग २ पाडिहारियं वत्यं जाइजा जाब एगाहेण वा दु. ति० चन० पंचाहेण वा विषवसिय २ उवागचिछज्जा, नो तह वत्वं अप्पणो गिहिज्जा नो अन्नमन्नस्स दिजा, नो पामिचं कुजा, नो वत्येण वत्थपरिणाम करिजा, नो पर उवसंकमित्ता एवं वइजा-आउ० समणा! अभिकंससि वत्वं धारित्तए वा परिहरित्तए वा?, विरं वा संतं नो पलिपिछविय र परदुविजा, तहप्पगारं नत्वं ससंधियं वत्वं तस्स चेव निसिरिजा नो णं साइजिन्जा ॥से एगइओ एयप्पगार निग्धोसं सुचा नि० जे भयंतारो तहप्पगाराणि वस्थाणि ससंधियाणि मुहुत्तर्ग २ जाव एगाहेण वा०५ विपवसिय २ उ
३२७॥ पागच्छति, तह. बत्थाणि नो अप्पणा गिण्हंति नो अन्नभन्नस्स दलयंति तं चेव जाव नो साइज्जति, बहुवयणेण भाणि
~509~
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१५०], नियुक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५०]
दीप अनुक्रम [४८४]
यव्य, से हता अहमवि मुहत्तगं पाडिहारियं वत्वं जाइत्ता जाव एगाहेण वा ५ विप्पबसिय २ उबागच्छिस्सामि, अबियाई एवं ममेव सिया, माइहाणं संफासे नो एवं करिजा ।। (सू० १५०) स कश्चित्साधुरपरं साधु मुहर्तादिकालोदेशेन प्रातिहारिक वस्त्रं याचेत, याचित्वा चैकाक्येव प्रामान्तरादौ गतः, तत्र | चासावेकाहं यावत्पश्चाहं वोषित्वाऽऽगतः, तस्य चैकाकित्वात्स्वपतो वस्त्रमुपहतं, तच्च तथाविधं वस्त्रं तस्य समर्पयतो|ऽपि वस्त्रस्वामी न गृह्णीयात् , नापि गृहीत्वाऽन्यस्मै दद्यात्, नाप्युच्छिन्नं दद्याद् , यथा गृहाणेदं, त्वं पुनः कतिभिरहोभिर्ममान्यद्दद्यात्, नापि तदैव वस्त्रेण परिवर्तयेत्, न चापरं साधुमुपसंक्रम्यैतद्वदेत्, तद्यथा-आयुष्मन् ! श्रमण
'अभिकासि' इच्छस्येवंभूतं वस्त्रं धारयितुं परिभोक्तुं चेति ?, यदि पुनरेकाकी कश्चिद्गच्छेत्तस्य तदुपहतं वस्त्रं समर्पयेत् | Pान स्थिर-दं सत् 'परिच्छिन्द्य परिच्छिन्द्य' खण्डशः २ कृत्वा 'परिष्ठापयेत्' त्यजेत् , तथाप्रकारं वखं 'ससंधिय'न्ति उपKाहतं स्वतो वस्त्रस्वामी 'नास्वादयेत्' न परिभुञ्जीत, अपि तु तस्यैवोपहन्तुः समर्पयेत् , अन्यस्मै वैकाकिनो गन्तुः सम
येदिति । एवं बहुवचनेनापि नेयमिति ।। किश्च-'सः' भिक्षुः एकः कश्चिदेवं साध्वाचारमवगम्य ततोऽहमपि प्रातिहारिक वस्त्रं मुहर्तादिकालमुद्दिश्य याचित्वाऽन्यत्रैकाहादिना वासेनोपहनिष्यामि, ततस्तद्वस्वं ममैव भविष्यतीत्येवं मातृस्थानं संस्पृशेत्, न चैतत्कुर्यादिति ॥ तथा
से मि० नो वष्णमंताई वत्थाई विवण्णाई करिजा विवण्णाई न वण्णमंताई करिजा, अन्नं वा वत्वं लभिस्सामित्तिक? नो अन्नमन्नरस दिजा, नो पामिर्च कुजा, नो बस्थेण वत्थपरिणामं कुजा, नो पर उवसंकमित्तु एवं पदेजा-भाउसो!
~510~
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], मूलं [१५१], नियुक्ति : [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५१]
श्रीआचाराजवृत्तिः (शी०)
श्रुतस्क०२ चूलिका १ विस्वैष०५
॥ ३९८॥
उद्देशः २
दीप अनुक्रम [४८५]
सममिकखसि मे वत्वं धारित्तए वा परिहरित्तए वा?, थिरं वा संतं नो पलिच्छिदिय २ परिहविजा, जहा मेयं वत्थं पावर्ग परो मन्नइ, परं च णं अवत्तहारी पडिपहे पेहाए तस्स वत्थस्स नियाणाय नो तेसि भीमो उम्मग्गेणं गच्छिज्जा, जाव अप्पुस्मुए, तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइजिज्जा ।। से मिक्खू वा० गामाणुगाम दूइजमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा इमंसि खलु विहंसि बहवे आमोसगा वत्थपडियाए संपिडिया गच्छेज्जा, णो तेसिं.भीभी उम्मगोणं गच्छेजा जाब गामा० दूइजेजा ॥ से भि० दूइज्जमाणे अंतरा से आमोसगा पडियागच्छेजा, ते णं आमोसगा एवं वदेजा-आउसं.! आहरेयं वत्थं देहि णिक्खिवाहि जहा रियाए णाणत्रं वत्थपडियाए, एयं खलु सया जगजासि (सू० १५१) तिबेमि वत्थेसण समत्ता ॥२-१-५-२ स भिक्षुर्वर्णवन्ति वस्त्राणि चौरादिभयानो विगतवर्णानि कुर्यात् , उत्सर्गतस्तादृशानि न पाह्याण्येव, गृहीतानां वा| परिकर्म न विधेयमिति तात्पर्याधः, तथा विवर्णानि न शोभनवर्णानि कुर्यादित्यादि सुगममिति ॥ नवरं 'विहति अटवीप्रायः पन्थाः। तथा तस्य भिक्षोः पथि यदि 'आमोषकाः' चौरा वस्त्रग्रहणप्रतिज्ञया सभागच्छेयुरित्यादि पूर्वोक्तं यावदेतत्तस्य भिक्षोः सामग्यमिति ॥ पञ्चममध्ययनं समाप्तम् ॥२-१-५॥
X
॥३९८॥
~511~
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१५१...], नियुक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
अथ पात्रैषणाख्यं षष्ठमध्ययनम् ।
प्रत
सूत्रांक [१५१]
दीप
अनुक्रम [४८५]
पश्चमाध्ययनानन्तरं षष्ठमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इह प्रथमेऽध्ययने पिण्डविधिरुक्तः, स च वसतावागमोकेन विधिना भोकव्य इति द्वितीये वसतिविधिरभिहितः, तदन्वेषणार्थं च तृतीये ईर्यासमितिः प्रतिपादिता, पिण्डाद्यर्थं प्रवृत्तेन कथं भाषितव्यमिति चतुर्थे भाषासमितिरुक्का, सच पटलकैर्विना न ग्राह्य इति तदर्थं पक्षमे वीषणा प्रति-18 पादिता, तदधुना पात्रेणापि विना पिण्डो न ग्राह्य इत्यनेन सम्बन्धेन पावैषणाऽध्ययनमायातम् , अस्य च चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे पात्रषणाऽध्ययनम् , अस्य च निक्षेपोऽर्थाधिकारश्चानन्तराध्ययन एव लाघवार्थ नियुचिकृताऽभिहितः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्छेदम्
से भिक्खू वा अमिकसिब्बा पार्य एसिचए, से जं पुण पादं जाणिब्बा, संजहा-भलाउयपाय ना दारुपायं वा मट्टियापार्य वा, तहप्पगारं पाये जे निगंथे तरुणे जाव विरसंघयणे से एगं पायं धारिजा नो विइयं ॥ से मि० परं अवजोयणमेराए पायपडियाए नो अभिसंधारिना गमणाए । से मि० से जं० अस्सि पडियाए एग साहम्मियं समुहिस्स पाणाई ४ जहा पिंडेसणाए बचारि आलावगा, पंचमे बहवे समण पगणिय २ तहेव ।। से मिक्खू वा असंजए भिक्पडियाए बहवे समणमाहणे० वत्येसणाऽऽळावओ।।से मिक्खू वा० से जाई घुण पाया जाणिवा विरूवरूवाई महद्धणमुखाई, तं०-अयपा
प्रथम चूलिकाया: षष्ठ-अध्ययनं “पाषणा", आरब्धं प्रथम चूलिकाया: षष्ठं-अध्ययनं “पात्रैषणा", प्रथम-उद्देशक: आरब्ध:
~512~
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१५२], नियुक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराजवृत्तिः (शी०)
श्रुतस्क०२ चूलिका ३ पात्रैप०६ ट्र उद्देशः १
सूत्रांक
॥३९९॥
[१५२]]
दीप अनुक्रम [४८६]
याणि वा तपाया तंबपाया० सीसगपा० हिरण्णपा० सुवण्णपारीरिअपाया. हारपुडपा० मणिकायकंसपाया. संखसिंगपा० तपा० चेलपा० सेलपा० पम्मपा० अन्नयराई वा तह. विस्वरूवाई महद्धणमुलाई पायाई अफासुयाई नो०॥से मि. से जाई पुण पाया विरूव महद्धणबंधणाई, त-अयवंधणाणि वा जाव चम्मपंधणाणि वा, अन्नयराई तहप्प. महद्धणबंधणाई अफा० नो प० ॥ श्याई आयतणाई उवाइफम्म आह भिक्खू जाणिज्जा चाहिं पडिमाहिं पार्य एसित्तए, तत्य खलु इमा पढमा पडिमा से मिक्खू उदिसिय २ पायं जाएजा, तंजहा-अलाउयपायं वा ३ तह० पायं सयं या णं जाइजा जान पडि० पढमा पढिमा १ । अहावरा० से० पेहाए पायं जाइजा, तं०-गाहावई वा कम्मकरी वा से पुवामेव आलोइजा, आज० भ० ! दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं पादं तं०-लाग्यपायं वा ३, तह. पायं सयं वा जाव पडि०, दुचा पडिमा २ । महा० से भि० से जं पुण पायं जाणिज्जा संगइयं चा वेजइयंतियं वा तहप्प० पायं सयं वा जाव पडि०, तथा पढिमा ३ । अहावरा चउत्था पडिमा-से मि० उझियधम्मियं जाएजा आवऽने बहबे समणा जाव नावकखंति तह जाएजा जाव पडि०, चउत्था पडिमा ४ । इथेइयाणं चउण्डं पडिमाणं अन्नयरं पटिम जहा पिंडेसणाए ॥ से णं एयाए एसणाए एसमाणं पासित्ता परो वइजा, आउ० स०! एजासि सुमं मासेण वा जहा बस्थेसणाए, से गं परो नेता ब०-आ० भ०! आहारेयं पायं तिल्लेण वा घ० नव० वसाए वा अन्भंगित्ता वा तहेव सिणाणादि तहेव सीओदगाई कंदाई तहेव ।। से णं परो ने-आउ० स०! मुहुत्तर्ग २ जाव अच्छाहि ताव अम्हे असणं वा उपकरेंसु वा उबक्खसु वा, तो ते वयं आउसो०! सपार्ण सभोयणं पडिग्गई दाहामो, तुच्छए पडिग्गहे दिने समणस्स नो सुव
।।३९९०
RELIGuninternational
~513~
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [८], उद्देशक [१], मूलं [१५२], नियुक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५२]
दीप अनुक्रम [४८६]
सादु भवइ, से पुवामेव आलोइजा-आउ० भइ०! नो खलु मे कप्पइ आहाकम्मिए असणे वा ४ भुत्तए वा०, मा उबकरेहि मा उवक्सडेहि, अभिकंससि मे दाउं एमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो असणं वा ४ उवकरित्ता उबक्खडित्ता सपाणं समोयणं पडिग्गहगं दलइजा तह. पडिग्गहर्ग अफासुयं जाव नो पङिगाहिज्जा ।। सिया से परो उवणित्ता पडिग्गहगं निसिरिजा, से पुच्चामे आउ० भ०! तुमं चेव णं संतियं पडिग्गहगं अंतोअंतेणं पडिलेहिस्सागि, केबली. आयाण, अंतो पडिग्गहगंसि पाणाणि वा बीया० हरि०, अह मिक्खूर्ण पु० जं पुब्बामेव पतिग्गाहर्ग अंतोअंतेणं पडिक सअंडाई सब्वे आलावगा भाणियब्वा जहा वत्थेसणाए, नाणतं तिल्लेण वा घय० नव० वसाए वा सिणाणादि जाव अन्नवरंसि वा तहप्पगा० थंडिलंसि पडिलेहिय २ पम० २ तओ० संज. आमजिजा, एवं खलु० सया जएजा तिबेमि ॥
(सू. १५२)२-१-६-१ ___स भिक्षुरभिकाङ्ग्रेत् पानमन्वेष्टुं, तत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-अलाबुकादिकं तत्र च यः स्थिरसंहननायुपेतः स| ॥ एकमेव पात्रं विभूयात् न च द्वितीयं, स च जिनकल्पिकादिः, इतरस्तु मात्रकसद्वितीयं पात्र धारयेत्, तत्र सङ्घाटके | द सत्येकस्मिन् भक्तं द्वितीये पात्रे पानकं, मात्रकं त्वाचार्यादिप्रायोग्यकृतेऽशुद्धस्य वेति ॥ से भिक्खू' इत्यादीनि सूत्राणि
सुगमानि यावन्महार्घमूल्यानि पात्राणि लाभे सत्यप्रासुकानि न प्रतिगृह्णीयादिति, नवरं हारपुडपाय'त्ति लोहपात्रमिति ॥ 8 एवमयोबन्धनादिसूत्रमपि सुगम । तथा प्रतिमाचतुष्टयसूत्राण्यपि वस्वैषणावन्नेयानीति, नवरं तृतीयप्रतिमायां 'संगइयंति
दातुः स्वाङ्गिक-परिभुक्तप्रायं 'वेजयंतियंति द्वित्रेषु पात्रेषु पर्यायेणोपभुज्यमानं पात्रं याचेत ॥ एतया' अनन्तरोक्तया
~514~
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [८], उद्देशक [२], मूलं [१५२], नियुक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- राजवृत्तिः (शी)
प्रत सूत्रांक [१५२]]
शः २
॥४००॥
दीप अनुक्रम [४८६]
पात्रषणया पात्रमन्विषन्तं साधु प्रेक्ष्य परो ब्रूयाद् भगिन्यादिकं यथा-सैलादिनाऽभ्यज्य साधवे ददस्वेत्यादि सुगममिति॥ श्रुतस्कं०२ तथा-स नेता तं साधुमेवं ब्रूयाद्, यथा-रिकं पात्रं दातुं च वर्तत इति मुहूर्तकं तिष्ठ त्वं यावदशनादिकं कृत्वा पाचकं चूलिका ३
भृत्वा ददामीत्येवं कुर्वन्तं निषेधयेत्, निषिद्धोऽपि यदि कुर्यात्ततः पात्रं न गृह्णीयादिति ॥ यथा दीयमानं गृहीयात्तथा- पात्रैप०६ |ऽह-तेन दात्रा दीयमानं पात्रमन्तोपान्तेन प्रत्युपेक्षतेत्यादि वस्त्रवन्नेयमिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्यमिति ॥ षष्ठस्याध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः परिसमासः ॥२-१-६-१॥
उद्देशकाभिसम्बन्धोऽयम्-इहानन्तरसूत्रे पात्रनिरीक्षणमभिहितमिहापि तच्छेषमभिधीयते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्येदमादिसूत्रम्
से मिक्खू वा २ गाहावदकुलं पिंड. पविढे समाणे पुब्वामेव पेहाए पडिग्गहगं अवहटु पाणे पमजिय रयं तमे सं० गाहावई० पिंड निक्स. ५०, केवली०, आउ०! अंतो पडिग्गासि पाणे वा बीए वा हरि० परियावजिजा, अह मिक्खूणं
पु० जं पुब्बामेव पेहाए पडिम्यहं अवहटू पाणे पमजिय रयं तओ सं० गाहावइ० निक्समिज का २॥ (सू० १५३) | स भिक्षुहपतिकुल पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविशन् पूर्वमेव भृशं प्रत्युपेक्ष्य पतनहं, तत्र च यदि प्राणिनः पश्येत्तत-15 स्तान 'आहुत्य' चिष्कृष्य त्यक्त्वेत्यर्थः, तथा प्रमृज्य च रजस्ततः संयत एवं गृहपतिकुलं प्रविशेद्वा निष्कामेद्वा इत्येषोsपि पाचविधिरेव, यतोऽत्रापि पूर्व पात्रं सम्यक् प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य च पिण्डो ग्राह्य इति पात्रगतैव चिन्तेति, किमिति | ॥४००॥ पात्रं प्रत्युपेक्ष्य पिण्डो माझ इति 1, अप्रत्युपेक्षिते तु कर्मबन्धो भक्तीत्याह-केवली याद् यथा कर्मोपादानमेतत् , यथा
प्रथम चूलिकाया: षष्ठं-अध्ययनं “पात्रैषणा", दवितीय-उद्देशक: आरब्ध:
~5154
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [८], उद्देशक [२], मूलं [१५३], नियुक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५३]
ॐ
दीप
च कर्मोपादानं तथा दर्शयति-अन्तः' मध्ये पतहकस्य प्राणिनो-द्वीन्द्रियादयः, तथा बीजानि रजो वा 'पर्यापचेरन्' भवेयुः, तथाभूते च पात्रे पिण्डं गृह्णतः कर्मोपादानं भवतीत्यर्थः, साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्पूर्वमेव । पात्रप्रत्युपेक्षणं कृत्वा तद्गतप्राणिनो रजश्चापनीय गृहपतिकुले प्रवेशो निष्क्रमणं वा कार्यमिति ॥ किश्च
से मि० जाव समाणे सिया से परो आइटु अंतो पडिग्गहगंसि सीओदगं परिभाइत्ता नीहट्टु दलइज्जा, तहस्प० परिगहा परहत्यसि वा परपायंसि वा अफासुर्य जाव नो प०, से य आहच पडिग्गहिए सिया खिप्पामेव उदगंसि साहरिजा, से पडिग्गाहमायाए पाणं परिढविजा, ससिणिद्धाए वा भूमीए नियमिज्जा । से० उदउहं या ससिणि वा पडिग्गई नो आमजिज वा २ अह पु० विगओदए मे पडिग्गहए छिन्नसिणेहे तह. पडिग्गहं वओ० सं० आमजिज वा जाव पयाविन वा ॥ से मि० गाहा० पविसिउकामे पडिग्गहमायाए गाहा पिंड० पविसिज वा नि०, एवं बहिया विधारभूमी विहारभूमी वा गामा० दूइजिज्जा, तिन्वदेसीयाए जहा विइयाए वत्येसणाए नवरं इत्थ पडिग्गहे, एवं खलु तस्स जं सनद्वेर्हि
सहिए सया जएज्जासि (सू०१५४) तिबेमि ॥ पाएसणा सम्मत्ता ।। २-१-६-२॥ स भिक्षुर्ग्रहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टः सन् पानकं याचेत, तस्य च स्यात्-कदाचित्स परो गृहस्थोऽनाभोगेन प्रत्यनीकतया, तथाऽऽनुकम्पया विमर्षतया वा गृहान्ता-मध्य एवापरस्मिन् पतबहे स्वकीये भाजने आहृत्य शीतोदक परिभाज्य' विभागीकृत्य 'पीडति निःसार्य दद्याद, स-साधुस्वामकारं शीतोदकं परहस्तगत परपात्रमतं पायामुक
अनुक्रम [४८७]
~516~
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१५४]
दीप
अनुक्रम
[४८८]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [६], उद्देशक [१], मूलं [१५४], निर्युक्ति: [३१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ४०१ ॥
मिति मत्वा न प्रतिगृह्णीयात्, तद्यथाऽकामेन विमनस्केन वा प्रतिगृहीतं स्यात् ततः क्षिप्रमेव तस्यैव दातुरुदकभाजने प्रक्षिपेत् अनिच्छतः कूपादौ समानजातीयोदके प्रतिष्ठापनविधिना प्रतिष्ठापनं कुर्यात्, तदभावेऽन्यत्र वा छायागर्त्तादी प्रक्षिपेत् सति चान्यस्मिन् भाजने तत् सभाजनमेव निरुपरोधिनि स्थाने मुश्चेदिति ॥ तथा-स भिक्षुरुद्कार्द्रादेः पतब्रहस्यामर्जनादि न कुर्यादीपच्छुष्कस्य तु कुर्यादिति पिण्डार्थः ॥ किञ्च स भिक्षुः क्वचिद् गृहपतिकुलादौं गच्छन् सपतङ्ग्रह एव गच्छेदित्यादि सुगमं यावदेतत्तस्य भिक्षोः सामय्यमिति ॥ षष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥ २-१-६ ॥
Educatin internationa
For Parts Only
~517~
श्रुतस्कं० २ चूलिका १ पात्रैष० ६ उद्देशः २
॥ ४०१ ॥
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक ], मूलं [१५४...], नियुक्ति: [३१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
अथ सप्तममवग्रहप्रतिमाख्यमध्ययनम् ।
प्रत
सूत्रांक [१५४]
दीप अनुक्रम [४८८
उक्तं पष्ठमध्ययनमधुना सप्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-पिण्डशय्यावस्त्रपात्रादयोऽवग्रहमाश्रित्य भवन्तीत्यतोऽसावेव कतिविधो भवतीत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं यथा साधुना विशुद्धोऽवग्रहो ग्राह्य इति, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपेऽवग्रहमतिमेति नाम, तत्रावग्रहस्य नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादत्य द्रव्यादिचतुर्विधं निक्षेपं दर्शयितुकामो नियुक्तिकार आहदव्वे खित्ते काले भावेऽविय जग्गहो चउद्धाउादेविंद रायउग्गह २ गिहवइ ३ सागरिय ४ साहम्मी ॥३१॥ | द्रव्यावग्रहः क्षेत्रावग्रहः कालावग्रहो भावावग्रहश्चेत्येवं चतुर्विधोऽवग्रहः, यदिवा सामान्येन पञ्चविधोऽवग्रहा तद्यथा-देवेन्द्रस्य लोकमध्यवर्तिरुचकदक्षिणार्द्धमवग्रहः १, राजश्चक्रवोदेर्भरतादिक्षेत्रं २, गृहपतेाममहत्तरादेयामपाटकादिकमवग्रहः ३, तथा सागारिकस्य-शय्यातरस्य घनशालादिक ४, साधर्मिकाः-साधवो ये मासकल्पेन तत्रावस्थितास्तेषां वसत्यादिरवग्रहः सपादं योजनमिति ५, तदेवं पञ्चविधोऽवग्रहः, वसत्यादिपरिग्रहं च कुर्वता सर्वेऽप्येते यथाऽवसरमनुज्ञाप्या इति ॥ साम्प्रतं द्रव्याद्यवग्रहप्रतिपादनायाह
दब्बुग्गहो उतिविहो सचित्ताचित्तमीसओ चेव । खित्तुग्गहोवि तिविहो दुविहो कालुग्गहो होई ॥३१७॥ द्रव्याद्यवग्रहस्त्रिविधः, शिष्यादेः सचित्तो रजोहरणादेरचित्तः शिष्यरजोहरणादेमिश्रः, क्षेत्रावग्रहोऽपि सचित्तादि
SAKA4-%%%%*
| प्रथम चूलिकाया: सप्तम-अध्ययनं “अवग्रह प्रतिमा", आरब्धं
~518~
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [H], मूलं [१५४...], नियुक्ति: [३१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचारामवृत्तिः (शी०)
श्रुतस्क०२ चूलिका १ अवग्र०७ उद्देशः
सूत्रांक
[१५४]
॥४०२॥
दीप अनुक्रम [४८८
त्रिविध एव, यदिवा ग्रामनगरारण्यभेदादिति, कालावग्रहस्तु ऋतुबद्धवर्षाकालभेदाद्विधेति ॥भावावग्रहप्रतिपादनार्थमाहx मइउग्गहो य गहणुग्गहो य भावुग्गहो दुहा होइ। इंदिय नोइंदिय अत्यवंजणे उग्गहो दसहा ।। ३१८॥ । भावावग्रहो द्वेषा, तद्यथा-मत्यवग्रहो ग्रहणावग्रहश्च, तत्र मत्यवग्रहो द्विधा-अर्थावग्रहो व्यञ्जनावग्रहश्च, तत्रार्थीवग्रह इन्द्रियनोइन्द्रियभेदात् पोढा, व्यञ्जनावग्रहस्तु चक्षुरिन्द्रियमनोवर्जश्चतुर्धा, स एष सर्वोऽपि मतिभावावग्रहो दशधेति ॥ ग्रहणावग्रहार्थमाहगहणुग्गहम्मि अपरिग्गहस्स समणस्स गहणपरिणामो। कह पाडिहारियाऽपाडिहारिए होइ? जइयव्वं ३१९॥ । अपरिग्रहस्य साधोयदा पिण्डवसतिवस्त्रपात्रग्रहणपरिणामो भवति तदास ग्रहणभावावग्रहो भवति, तस्मिंश्च सति कर्थ | केन प्रकारेण मम शुद्धं वसत्यादिकं प्रातिहारिकममातिहारिक वा भवेदित्येवं यतितव्यमिति, प्रागुक्तश्च देवेन्द्राद्यवग्रहः पञ्चविधोऽप्यस्मिन् ग्रहणावग्रहे द्रष्टव्य इति ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
समणे भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते अपसू परवत्तभोई पावं कम्मं नो करिस्सामित्ति समुठ्ठाए सव्वं भंते! अदिनादाण पञ्चक्खामि, से अणुपविसित्ता माझ वा जाव रावहाणिं वा नेव सयं अविन गिहिजा नेवऽनेहिं अदिन गिहाविमा अविनं गिण्हंतेकि भन्ने न समणुजाणिज्जा, जेहिवि सविं संपन्वइए तेसिपि जाई छत्तमं वा आव चम्मछेयणगं वा तेसि पुन्नामेव उम्गहं अणणुनविय अपडिलेहिब २ अपमजिव २ नो उग्गिहिज्जा वा परिगिहिन वा, तेसिं पुल्वामेव जग्गह जाइजा अणुनविय पढिलेहिय पमज्जिय वमो सं० डम्मिणियन स०॥ (सू०१५५)
॥४०२॥
प्रथम चूलिकाया: सप्तम-अध्ययनं “अवग्रह प्रतिमा", प्रथम-उद्देशक: आरब्ध:
~519~
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१५५]
दीप
अनुक्रम [४८९ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], मूलं [१५५], निर्युक्ति: [ ३१९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
आ. सु. ६८
Ja Education International
श्राम्यतीति श्रमणः- तपस्वी यतोऽहमत एवंभूतो भविष्यामीति दर्शयति- 'अनगारः' अगा - वृक्षास्तैर्निष्पक्षमगारं तन्न विद्यत इत्यनगारः त्यक्तगृहपाश इत्यर्थः तथा 'अकिञ्चनः' न विद्यते किमप्यस्येत्यकिश्चनो, निष्परिग्रह इत्यर्थः, तथा 'अपुत्रः' स्वजनबन्धुरहितो, निर्मम इत्यर्थः एवम् 'अपशुः द्विपदचतुष्पदादिरहितः, यत एवमतः परदत्तभोजी सन् पापं कर्म न करिष्यामीत्येवं समुत्थायैतत्प्रतिज्ञो भवामीति दर्शयति-यथा सर्वे भदन्त ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि, दन्तशोधनमात्रमपि परकीय मदत्तं न गृहामीत्यर्थः, तदनेन विशेषण कदम्बकेनापरेषां शाक्यसरजस्कादीनां सम्यक् श्रमणत्वं निराकृतं भवति, स चैवंभूतोऽकिञ्चनः श्रमणोऽनुप्रविश्य ग्रामं वा यावद्राजधानीं वा नैव स्वयमदत्तं गृहीयात् नैवापरेण ग्राहयेत् नाप्यपरं गृहन्तं समनुजानीयात् यैर्वा साधुभिः सह सम्यक् प्रब्रजितस्तिष्ठति वा तेषामपि सम्बन्ध्युपकरणमननुज्ञाप्य न गृह्णीयादिति दर्शयति, तद्यथा-छत्रकमिति 'छद अपवारणे' छादयतीति छत्रं-वर्षा कल्पादि यदिवा कारणिकः कचित्कुङ्कणदेशादावतिवृष्टिसम्भवाच्छन्त्रकमपि गृह्णीयाद् यावच्चर्मच्छेदनकमप्यननुज्ञाध्याप्रत्युपेक्ष्य च नावगृह्णीयात् सकृत् प्रगृह्णीयादनेकशः । तेषां च सम्बन्धि यथा गृह्णीयात्तथा दर्शयति- पूर्वमेव ताननुज्ञाप्य प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य रजोहरणादिना सकृदनेकशो वा गृह्णीयादिति ॥ किञ्च
से मि० आगंतारेसु वा ४ अणुवी उगाई जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिद्वए ते उग्गहूं अणुन्नविजा — कामं खलु आउसो ० ! अहां अहापरिन्नायं वसामो जाव आउसो ! जाव आउसंतस्स उग्गहे जाव साइम्मिया एइवावं उगई उग्गिसामो, तेण परं विहरिस्सामो || से किं पुण तत्वोगाइंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ साइम्मिया संभोश्या समणुन्ना चारा
For Penal Use On
~520~
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१५६ ]
दीप
अनुक्रम
[ ४९० ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [१], मूलं [१५६], निर्युक्ति: [३१९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ४०३ ॥
च्छिना जे तेण सयमेसिस असणे वा ४ तेण ते साहम्मिया ३ उवनिमंतिजा, नो चेव णं परवडयाए ओगियि २ उवनि० || (सू० १५६ )
भिक्षुरागन्तागारादौ प्रविश्यानुविचिन्त्य च-पर्यालोच्य यतिविहारयोग्यं क्षेत्रं ततोऽवग्रहं वसत्यादिकं याचेत, यश्च याच्यस्तं दर्शयति-यस्तत्र 'ईश्वरः' गृहस्वामी तथा यस्तत्र 'समधिष्ठाता' गृहपतिना निक्षिप्तभरः कृतस्तानवग्रहं क्षेत्रावग्रहम् 'अनुज्ञापयेत्' याचेत, कथमिति दर्शयति-- 'काम' मिति तवेच्छया 'खलु' इति वाक्यालङ्कारे आयुष्मन् ! गृहपते ! 'अहालंद' मिति यावन्मात्रं कालं भवाननुजानीते 'अहापरिन्नायं'ति यावन्मात्रं क्षेत्रमनुजानीषे तावन्मात्रं कालं तावन्मात्रं च क्षेत्रमाश्रित्य वयं वसाम इति यावत्, इहायुष्मन् ! यावन्मात्रं कालमिहायुष्मतोऽवग्रहो यावन्तश्च साधर्मिकाः साधवः समागमिष्यन्ति एतावन्मात्रमवग्रहिष्यामस्तत ऊर्ध्वं विहरिष्याम इति ॥ अवगृहीते चावग्रहे सत्युत्तरकाल विधिमाह-तदेवमवगृहीतेऽवग्रहे स साधुः किं पुनः कुर्यादिति दर्शयति-ये तत्र केचन प्राघूर्णकाः 'साधर्मिकाः' साधवः 'साम्भो गिकाः' एकसामाचारीप्रविष्टाः 'समनोज्ञाः' उद्युक्तविहारिणः 'उपागच्छेयुः' अतिथयो भवेयुः, ते चैवंभूता ये तेनैव साधुना परलोकार्थिना स्वयमेषितव्याः, ते च स्वयमेवागता भवेयुः, तांश्चाशनादिना स्वयमाहृतेन स साधुरुपनिमन्त्रयेद्, यथा-गृहीत यूयमेतन्मयाऽऽनीतमशनादिकं क्रियतां ममानुग्रहमित्येवमुपनिमन्त्रयेत् न चैव 'परवडियाए'त्ति परानीतं यदशनादि तद्भृशम् 'अवगृह्य' आश्रित्य नोपनिमन्त्रयेत्, किं तर्हि ?, स्वयमेवानीतेन निमन्त्रयेदिति ॥ तथा
से आगंतारे वा ४ जाब से किं पुण तत्थोग्गाहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ सादम्मिआ अन्नसंमोहना समणुना उबाग
Eucation International
For Pass Use Only
~521~
2 श्रुतस्कं० २
चूलिका १
अवग्र० ७
उद्देशः १
॥ ४०३ ॥
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [१], मूलं [१५७], नियुक्ति : [३१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५७]
दीप अनुक्रम [४९१]
छिना जे तेण सयमेसित्तए पीढे वा फलए वा सिज्जा वा संधारए वा तेण ते साहम्मिए अन्नसंभोइए समणुन्ने उबनिमंतिजा नो वर्ण परवंडियाए ओगिझिय लवनिमंतिज्ना ॥से आगंतारेसु वा ४ जाव से किं पुण तत्धुम्गहंसि एवोग्राहियंसि जे तत्थ गाहावईण वा गादा० पुत्ताण वा सूई वा पिप्पलए वा कण्णसोहणए वा नहच्छेयणए वा तं अप्पणो एगस्स अट्टहाए पादिहारिवं जाइता नो अन्नममस्स दिज वा अणुपइज वा, सयंकरणितिक?, से तमायाए तत्थ गरिछज्जा २ पुवामेव उत्ताणए हत्ये कट्ट भूमीए वा उवित्ता इमं खलु २ ति आलोइला, नो चेक णं सर्व पाणिणा परपाणिसि पञ्चप्पिणिजा ॥ (सू० १५७) पूर्वसूत्रवत्सर्व, नवरमसाम्भोगिकान पीठफलकादिनोपनिमन्त्रयेद, यतस्तेषां तदेव पीठिकादिसंभोग्य नाशनादीनि ॥ किञ्च-तस्मिन्नवग्रहे गृहीते यस्तत्र गृहपत्यादिको भवेत् तस्य सम्बन्धि सूच्यादिकं यदि कार्यार्थमेकमात्मानमुद्दिश्य गृह्णीयात् तदपरेषां साधूनां न समर्पयेत् , कृतकार्यश्च प्रतीपं गृहस्थस्यैवानेन सूत्रोकेन विधिना समर्पयेदिति ॥ अपि च
से नि० से जं. उपगई जाणिना अणंतरहियाए पुढवीए जाव संताणए तह० जग्गई नो गिहिजा बा २ ॥ से भि से जं पुण उगह चूर्णसि वा ४ तह अंतालिक्खजाए दुव्बद्धे जाव नो उगिहिजा बा २॥ से मि० से ज० कुलियसि वा ४ जाव नो उगिहिज वा २ ॥ से नि० खंधसि वा ४ अन्नयरे बा तह ० जाब नो उग्गहं उगिणिहज वा २ ॥ से भि० से जं. पुण ससागारियं० सखुपसुभत्तपाणं नो पन्नस्स निक्खमणपवेसे जाव धम्माणुओगचिताए, सेवं नच्चा तह उपस्सए ससागारिए० नो उबगाई उगिहिजा या २॥ से मि० से जं. गाहावइकुलस्स मज्झमज्ोणं गंर्नु पंधे पडिबद्ध वा नो
~522
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [१], मूलं [१५८], नियुक्ति : [३१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराझवृत्तिः (शी०)
पन्नास जाव सेवं न० ॥ से मि० से जं. इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अन्नमनं अकोसंति वा तहेष तिशापि
श्रुतस्क०२ सिणाणादि सीओदगवियदादि निगिणाइ वा जहा सिजाए आलावगा, नवरं सागहवत्तव्वया ।। से भि० से ० आइम
चूलिका १ संलिक्से नो पास उगिव्हिज वा २, एवं खलु०॥ (सू०१५८) सग्गहपडिमाए पढमो परेसी ॥२-१-७-१॥ । 18 अवम०७ यत्पुनः सचित्तपृथिवीसम्बन्धमवग्रहं जानीयात्तन्न गृह्णीयादिति ॥ तथा-अन्तरिक्षजातमध्यवग्रहं न गृह्णीयावित्यादि |
| उद्देशः २ शय्यावन्नेयं यावदुदेशकसमाप्तिः, नवरमवग्रहामिलाप इति ॥ सप्तमस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥२-१-७-१॥
सूत्रांक
॥४०४॥
[१५८]
माता
दीप अनुक्रम [४९२]
उक्तः प्रथमोदेशका, अधुना द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-पूर्वोदेशकेऽवग्रहः प्रतिपादितस्तदिहापि तच्छेपप्रतिपादनायोद्देशकः, तस्य चादिसूत्रम्
से आगंतारेसु वा ४ अणुबीइ नगाई जाइजा, जे तत्थ ईसरे० ते उग्गहं अणुघ्नविना कामं खलु आरसो! अहालंदं अहापरिनार्य वसामो जाव आनसो! जाव आनसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मिआए ताव अम्गहं पग्गिहिस्सामो, सेण पर घि०, से किं पुण तत्व सग्गइंसि एवोगगहियंसि जे तत्थ समणाण चा माह. छत्तए वा जाव चम्मछेदणए वा तं नो अंतोहितो पाहिं नीणिज्जा पहियाओ वा नो अंतो पविसिज्जा, सुत्तं वा नो पडिवोहिना, नो सेसि किंचिषि अप्पत्तियं परिणीय करिज्जा ॥ (सू० १५९) स भिक्षुरागन्तागारादावपरब्राह्मणाद्युपभोगसामान्य कारणिकः सन्नीश्वरादिकं पूर्वप्रक्रमेणावग्रहं याचेत, तस्मिंश्चाव
XXX
॥४०४॥
प्रथम चूलिकाया: सप्तम-अध्ययनं “अवग्रह प्रतिमा", द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध:
~523~
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [२], मूलं [१५९], नियुक्ति : [३१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५९]
दीप अनुक्रम [४९३]
8 गृहीतेऽवग्रहे यत्तत्र श्रमणब्राह्मणादीनां छत्राद्युपकरणजातं भवेत्तन्नैवाभ्यन्तरतो बहिनिष्कामयेत नापि . ततोऽभ्यन्तर प्रवेशयेत् नापि ब्राह्मणादिकं सुप्त प्रतिबोधयेत् न च तेषाम् 'अप्पत्तियति मनसः पीडां कुर्यात् तथा 'प्रत्यनीकतां प्रतिकूलतां न विदध्यादिति ॥
से मि० अभिकंखिजा अंबवणं स्वागपिछत्तए जे तत्थ ईसरे २ ते उग्गहं अणुजाणाविजा-काम खलु जाव विहरिस्सामो, से कि पुण० एवोग्राहियंसि अह मिक्खू इच्छिज्जा अयं मुत्तए वा से जं पुण अंचं जाणिना स ससत्ताणं तह. अवं अफा० नो १०॥ से मि० से ० अप्पड अप्पसंताणगं अतिरिच्छछिन्नं अन्बोच्छिन्नं अफासुर्य जाव नो पढिगाहिजा । से भि० से अं० अपंडं वा जाब संताणगं तिरिच्छछिन्नं वुच्छिनं फा० पडि० ॥ से मि० अंबभित्तगं चा अंथपेसियं वा अंबचोयगं वा अंवसालगं वा अंबडालगं वा भुत्तए वा पायए वा, से जं० अंबमित्तगंवा ५ सडं अफा० नो पनि०॥से मिक्सू वा २ से जं. अब वा अंधमित्त वा अप्पंढं० अतिरिच्छछिन्नं २ अफा० नो प०॥से जं० अंघडालगं वा अप्पंड ५तिरिच्छच्छिन्नं बुनिछन्नं फासुर्य पढि० ॥ से मि० अमिकखिजा सच्छुवर्ण उवागच्छित्तए, जे तत्थ ईसरे जाव इम्यहंसि० ॥ अह भिक्खू इच्छिज्जा उच्छु मुत्तए वा पा०, से जं. उर्छ जाणिब्बा सभडं जाव नो प०, अतिरिच्छहिनं तद्देव, तिरिच्छछिमेऽपि तदेव ॥ से मि० अभिकखि० अंतरुच्छुयं वा उच्छुगंडियं वा नच्छुचोयगं वा सकछुसा० सच्छुडा० भुत्तए या पाय०, से जं पु० अंतरच्यं वा जाव डाळगं वा स० नो प० ॥ से मि० से जं. अंतहार्य वा. अपंड वा० जाव पडि०, अतिरिच्छच्छिन्न तहेव ।। से मि. ल्हसणवणं उवागठित्तर, तहेब तिनिधि आलावगा, नवरं
~5244
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [२], मूलं [१६०], नियुक्ति: [३१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६०]
दीप अनुक्रम [४९४]
श्रीआचालहसुणं ।। से मि० लहसुणं वा ल्हमुणकद वा ह. चोयगं वा लहसुणनालग वा भुत्तए वा २ से ज० लसुणं वा जाव
श्रुतस्कं०२ रावृत्तिः लमुणधीयं वा सडं जाव नो प०, एवं अतिरिच्छच्छिन्नेऽवि तिरिच्छछिन्ने जाव प०॥ (सू०१६०) .
चूलिका १ (शी०) स भिक्षुः कदाचिदानयनेऽवग्रहमीश्वरादिकं याचेत, तत्रस्थश्च सति कारणे आनं भोक्तुमिच्छेत् , तच्चायं साण्ड
अवग्र०७
उद्देशः २ ॥४०५॥
राससन्तानकमप्रासुकमिति च मत्वा न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ किञ्च-स भिक्षुर्यत्पुनराम्रमल्पाण्डमल्पसन्तानकं वा जानी
यात् किन्तु 'अतिरश्चीनच्छिन्नं तिरश्चीनमपाटितं तथा 'अव्यवच्छिन्नम्' अखण्डितं यावदप्रासुकं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥
तथा-स भिक्षुरल्पाण्डमल्पसन्तानकं तिरश्चीनच्छिन्नं तथा व्यवच्छिन्नं यावयासुकं कारणे सति गृहीयादिति । एवमा-13 राम्राषयवसम्बन्धि सूत्रत्रयमपि नेयमिति, नवरम्-'अंचभित्तय'ति आखार्द्धम् 'अंबपेसी' आरमफाली 'अंबचोयग'ति
आपछली सालगं-रसं 'डालगं'ति आवश्लक्ष्णखण्डानीति ॥ एवमिक्षुसूत्रत्रयमध्यानसूत्रवन्नेयमिति, नवरम् 'अंतरुच्छुयंति पर्वमध्य मिति ॥ एवं लशुनसूत्रत्रयमपि नेयमिति, आचादिसूत्राणामवकाशो निशीथपोडशोदेशकादवगन्तव्य इति ॥॥ साम्प्रतमवग्रहाभिग्रहविशेषानधिकृत्याह
से मि० आगंतारेसु वा ४ जावोग्गहियसि जे तत्व गाहाबईण वा गाहा. पुत्ताण वा इन्चेयाई आयतणाई उवाइवाम्म अह भिक्खू जाणिजा, इमाहि सत्तहिं पडिमाहिं उग्गहँ उग्गिणिहत्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा-से आगंतारेसु बा ४ अणुवीइ उग्गई जाइजा जाव विहरिस्सामो पढमा पडिमा १ । अहावरा० जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवई-अहं च खलु ला॥४०५॥ अनेसि भिक्खूणं अट्ठाए उग्गह उग्गिहिस्सामि, अण्णेसि मिक्खूणं उग्गहे उग्गहिए उवल्लिसामि, दुना पडिमा २ । अहा
SAREastatininternational
~525~
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६१]
दीप
अनुक्रम
[ ४९५ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [२], मूलं [१६१], निर्युक्ति: [३१९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
बरा० जस्स णं भि० अहं च० उग्गिहिस्साभि अन्नेसि च उग्गहे उम्ाहिए तो उबहिस्सामि तथा पडिमा ३ । अहा
चउत्था पडिमा ४ |
वरा० जस्स णं मि० अहं च० नो उम्महं उग्गहिस्सामि, अन्नेसिं च उग्गहे उग्गद्दिए उबहिस्सामि अहावरा ० जस्स णं अहं च खलु अध्यणो अट्टाए उग्गहं चड०, नो दुण्हं नो तिन्हं नो चउण्डं नो पंच पंजमा पडिमा ५। अहावरा ० से मि जस्स एव उग्गहे उबलिइा जे तत्थ अहासमन्नागए इकडे वा जाव पळाले तस्स लाभे संबसिज्जा, तस्स अलाभे उकुडुओ या नेसझिओ वा विहरिजा, छडा पडिमा ६ अहावरा स० जे मि० अहासंघडमेव उग्गहं जाइज्जा, तंजा - पुढविसिलं वा कसिलं वा अहासंघडमेव तस्स लाभे संते०, तरस अलाभे उ० ने० विरिजा, सत्तमा पढिमा ७ । इचेयासिं सत्तण्हं पडिमाणं अन्नयरं जहा पिंडेसणाए || (सू० १६१)
स भिक्षुरागन्तागारादावग्रहे गृहीते ये तत्र गृहपत्यादयस्तेषां सम्बन्धीन्यायतनानि पूर्वप्रतिपादितान्यतिक्रम्यैतानि च वक्ष्यमाणानि कर्मोपादानानि परिहृत्याग्रहमवग्रहीतुं जानीयात्, अथ भिक्षुः सप्तभिः प्रतिमाभिरभिग्रहविशेषैरवग्रहं गृह्णीयात्, तत्रेयं प्रथमा प्रतिमा, तद्यथा-स भिक्षुरागन्तागारादौ पूर्वमेव विचिन्त्यैयंभूतः प्रतिश्रयो मया ग्राह्यो नान्यथाभूत इति प्रथमा । तथाऽन्यस्य च भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति, तद्यथा-अहं च खल्वन्येषां साधूनां कृतेऽवग्रहं 'गृहीष्यामि' याचिष्ये, अन्येषां वाऽवग्रहे गृहीते सति 'उपालयिष्ये' वत्स्यामीति द्वितीया । प्रथमा प्रतिमा सामान्येन, इयं तु गच्छान्तर्गतानां साधूनां साम्भोगिकानामसांभोगिकानां चोद्युक्तविहारिणां यतस्तेऽन्योऽन्यार्थे याचन्त इति । तृतीया स्वियम्-अन्यार्थमवग्रहं याचिष्येऽन्यावगृहीते तु न स्थास्यामीति, एषा त्वाहालन्दिकानां यतस्ते सूत्रार्थविशेष
For Parts Only
~526~
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [१], अध्ययन [७], उद्देशक [२], मूलं [१६२], नियुक्ति: [३१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रुतस्क०२ पूलिका १ अवन०७ उद्देशः २
सूत्रांक
[१६२]
दीप अनुक्रम [४९६]
श्रीआचा- माचार्यादभिकाजन्त आचार्या याचन्ते । चतुर्थी पुनरहमन्येषां कृतेऽवग्रहं न याचिष्ये अन्यावगृहीते च वत्स्यामीति, राजवृत्तिः इयं तु गच्छ एवाभ्युद्यतविहारिणां जिनकल्पाद्यर्थं परिकर्म कुर्वताम् । अथापरा पञ्चमी-अहमात्मकृतेऽवग्रहमवग्रही- (शी०) प्यामि न चापरेषां द्वित्रिचतुष्पश्चानामिति, इयं तु जिनकल्पिकस्य । अथापरा पष्ठी-यदीयमवग्रहं ग्रहीष्यामि तदीयमे-1
वोत्कटादिसंस्तारकं ग्रहीष्यामि, इतरथोत्कुटुको वा निषण्णः उपविष्टो वा रजनी गमिष्यामीत्येषा जिनकल्पिकादेरिति ।
अथापरा सप्तमी-एव पूर्वोक्ता, नवरं यथासंस्तृतमेव शिलादिक ग्रहीष्यामि नेतरदिति, शेषमात्मोत्कर्षवर्जनादि पिण्टेप-1 तणावन्नेयमिति ॥ किश
सुर्य मे आसतेणं भगवया एवमक्खायं-दह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं पंचषिहे जग्गहे पनत्ते, २० देविंदरगहे १ रायसन्गहे २ गाहावइजमग ३ सागारियजग्गहे ४ साइम्मियजग्ग० ५, एवं खलु सस्स भिक्तुस्स भिक्षुणीए वा सामग्गियं (सू० १६२) सग्गट्पढिमा सम्मत्ता । अध्ययनं समाप्तं सप्तमम् ॥ २-१-७-२॥ श्रुतं मयाऽऽयुष्मता भगवतवमाख्यातम्-इह खलु स्थविरैर्भगवद्भिः पञ्चविधोऽवग्रहो व्याख्यातः, तद्यथा-देवेन्द्रावग्रह इत्यादि सुखोनेयं यावदुद्देशकसमाप्तिरिति ॥ अवग्रपतिमाख्यं सप्तममध्ययनं समाप्त, तत्समाप्तौ प्रथमाऽऽचारागचूला समाप्ता ॥२-१-७॥
~527
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [१], उद्देशक [-], मूलं [१६२...], नियुक्ति: [३२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
सप्तसप्तिकाख्या द्वितीया चूला।
प्रत सूत्रांक [१६२]
दीप अनुक्रम [४९६]
उक्तं सप्तममध्ययनं, तदुक्तौ च प्रथमचूलाऽभिहिता, इदानी द्वितीया समारभ्यते, अस्याश्चायमभिसम्बन्धः-इहानXन्तरचूडायां वसत्यवग्रहः प्रतिपादितः, तत्र च कीदृशे स्थाने कायोत्सर्गस्वाध्यायोचारमश्रवणादि विधेयमित्येतति|पादनाय द्वितीयचूडा, सा च सप्ताध्ययनात्मिकेति नियुक्तिकृद्दर्शयितुमाह
सत्तिकगाणि इफस्सरगाणि पुब्व भणियं तहिं ठाणं । उद्धट्ठाणे पगयं निसीहियाए तहिं छकं ॥ ३२० ॥ 'सप्तककाम्येकसराणी'ति सप्ताध्ययनान्युद्देशकरहितानि भवन्तीत्यर्थः, तत्रापि 'पूर्व प्रथम स्थानास्यमध्ययनमभिहितमित्यतस्तल्याख्यायते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपकमान्तर्गतोऽ-13 थोधिकारोऽयम्-किंभूतं साधुना स्थानमाश्रयितव्यमिति, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे स्थानमिति नाम, तस्य च नामादिश्चतुर्धा निक्षेपः, तत्रेह द्रव्यमाश्रित्योर्द्धस्थानेनाधिकारः, तदाह नियुक्तिकारः-अर्द्धस्थाने 'प्रकृत' प्रस्ताव इति, द्वितीयदूमध्ययनं निशीथिका, तस्याश्च पट्को निक्षेपः, तं च स्वस्थान एव करिष्यामीति । साम्प्रतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
से भिक्खू वा० अभिकखेजा ठाणे ठाइत्तए, से अणुपविसिज्जा गाम वा जाव रायहाणि का, से जं पुण ठाणं जाणिज्जा--- सअंडं जाव मकडासंताणयं संसह ठाणं अफासुयं अणेस० लाभे संते नो प०, एवं सिजागमेण नेयवं जाव उदयपसू
द्वितीया चूलिका- “सप्तसप्तिका" द्वितीया चूलिकाया: प्रथमा सप्तसप्तिका- 'स्थान-विषयक'
~528~
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६३ ]
दीप
अनुक्रम [४९७ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [१], उद्देशक [-], मूलं [१६३ ], निर्युक्तिः [३२०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ४०७ ॥
याइति ॥ इचेयाई आयतणाई उबाइकम्म २ अ भिक्खू इच्छिला चउहिं पडिमाहिं ठाणं ठाइत्तए, तत्थिमा पढमा पडिमा —अचित्तं खलु उवसजिला अवलंबिज्जा कारण विप्परिकम्माइ सवियारं ठाणं ठाइस्सामि पढमा पडिमा । अहावरा दुजा पडिमा — अचित्तं खलु उवसजेज्जा अवलंबिज्जा कारण विप्परिकम्माइ नो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि दुबा पडिमा । अहावरा तथा पडिमा अचिन्त्तं खलु उवसज्जेज्जा अवलंबिजा नो कारण विपरिकम्माई तो सविवारं ठाणं ठाइस्सामित्ति तथा पडिमा । अहावरा चत्था पडिमा अचित्तं खलु उवसजेजा नो अवलंबिला कारण नो परकम्माई नो सविवारं ठाणं ठाइस्सामित्ति बोसकाए बोस केसमंसुलोमनहे संनिरुद्धं वा ठाणं ठाइस्सामित्ति चउत्था पडिमा इलेयासि चउ पडिमा जात्र पहियतरायं विहरिजा, नो किंचिवि बज्जा, एवं खलु तस्स० जाव जइज्जासि त्तियेमि (सू० १६३ ) ॥ ठाणासत्तिवायं सम्मतं ।। २-२-८ ।।
'स' पूर्वोat भिक्षुर्यदा स्थानमभिकाङ्क्षत् स्थातुं तदा सोऽनुप्रविशेङ्ग्रामादिकम्, अनुप्रविश्य च स्थानमूर्द्धस्थानाद्यर्थमन्त्रेषयेत्, तच्च साण्डं यावत्ससन्तानकमप्रासुकमिति लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति इत्येवमन्यान्यपि सूत्राणि शय्याद्रष्टव्यानि यावदुदकप्रसृतानि कन्दादीनि यदि भवेयुस्तत्तथाभूतं स्थानं न गृह्णीयादिति ॥ साम्प्रतं प्रतिमोद्देशेनाह'इत्येतानि' पूर्वोक्तानि वक्ष्यमाणानि वा 'आयतनानि' कर्मोपादानानि 'उपातिक्रम्य २' अतिलघ्याथ भिक्षुः स्थानं स्थातुमिच्छेत् 'चतसृभिः प्रतिमाभिः' अभिग्रहविशेषैः करणभूतैः, तांश्च यथाक्रममाह, तत्रेयं प्रथमा प्रतिमा - कत्यचिद्भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति, यथाऽहमचित्तं स्थानमुपाश्रयिष्यामि, तथा किञ्चिदचित्तं कुख्यादिकमवलम्बयिष्ये कायेन, तथा
For Park Use Only
~529~
श्रुतस्कं०२ चूलिका २
स्थाना०१
॥ ४०७ ॥
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [१], उद्देशक [-], मूलं [१६३], नियुक्ति: [३२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६]
'विपरिक्रमिष्यामि' परिस्पन्दं करिष्यामि, हस्तपादाद्याकुश्चनादि करिष्यामीत्यर्थः, तथा तत्रैव सविचारं स्तोकपादादिलाविहरणरूपं स्थानं 'स्थास्यामि' समाश्रयिष्यामि, प्रथमा प्रतिमा । द्वितीयायां स्वाकुञ्चनप्रसारणादिक्रियामवलम्बनं च
करिष्ये न पादविहरणमिति । तृतीयायां त्वाकुञ्चनप्रसारणमेव नावलम्बनपादविहरणे इति । चतुर्थी पुनस्वयमपि न वि-18 ४ धत्ते, स चैवंभूतो भवति-व्युत्सृष्टः-त्यक्तः परिमितं कालं कायो येन स तथा, तथा व्युत्सृष्टं केशश्मश्रुलोमनखं येन स तथा, एवंभूतश्च सम्यग्निरुद्धं स्थानं स्थास्थामीत्येवं प्रतिज्ञाय कायोत्सर्गव्यवस्थितो मेरुवन्निष्पकम्पस्तिष्ठेत् , यद्यपि कश्चि
केशाधुसाटयेत्तथाऽपि स्थानान्न चलेदिति, आसां चान्यतमा प्रतिमा प्रतिपद्य नापरमप्रतिपन्नप्रतिमं साधुमपवदेन्नात्मोतात्कर्ष कुर्यान किश्चिदेवंजातीयं वदेदिति ॥ प्रथमः सप्तककः समाप्तः ॥२-२-१॥
दीप
अनुक्रम [४९७]
प्रथमानन्तरं द्वितीयः सप्तककः, सम्बन्धश्चास्य-इहानन्तराध्ययने स्थानं प्रतिपादितं, तच्च किंभूतं स्वाध्याययोग्यं ?, तस्यां | च स्वाध्यायभूमौ यद्विधेयं यच्च न विधेयमित्यनेन सम्बन्धेन निषीधिकाऽध्ययनमायातम् , अस्य च चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे निषीथिकेति नाम, अस्य च नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावैः पडिधो निक्षेपः, नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यनिषीथं नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं यद्रव्यं प्रच्छन्नं, क्षेत्रनिपीथं तु ब्रह्मलोकरिष्ठविमानपार्श्ववर्तिन्यः कृष्णराजयो यस्मिन् वा क्षेत्रे तद्व्याख्यायते, कालनिषीर्थ कृष्णरजन्यो यत्र वा काले निषीर्थ व्या
निशीथनिधीषयोः प्राकृते एकेन निसीधशब्देन वाच्यत्वात् एवं निक्षेपवर्णनं तथा च निषीपिका निशीथिकेयुभयमपि संमतमभिधानयोः ।
द्वितीया चूलिकाया: द्वितीया सप्तसप्तिका- 'निषिधिका-विषयक'
~530~
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [२], उद्देशक [-], मूलं [१६४], नियुक्ति: [३२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६४]
SEARSA
दीप अनुक्रम [४९८]
श्रीआचा- ख्यायत इति, भावनिषीथं नोआगमत इदमेवाध्ययनम् , आगमैकदेशत्वात् , गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रा- श्रुतस्क०२ राङ्गवृत्तिः नुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
चूलिका २ (शी०) से मिक्खू वा २ अभिक. निसीहिचं फासुर्य गमणाए, से पुण निसीहिवं आणिजा-सअर्ड तह ० अफा० नो इस्सामि निषि०२
॥से भिक्खू० अमिकखेज्जा निसीहियं गमणाए, से पुण नि. अप्पपाणं अप्पवीयं जाव संताणयं तह निसीहियं फासुयं ॥४०८।।
इस्सागि, एवं सिजागमेणं नेयन्वं जाव उदयप्पसूयाई । जे तत्थ दुवग्गा तिवग्गा चउबग्गा पंचवग्गा वा अभिसंधारिंति निसीहियं गमणाए ते नो अन्नमन्नस्स कार्य आलिंगिज वा विलिंगिज वा थुविज वा दंतेहिं या नहेहिं वा अञ्छिदिन या बुझ्छि०, एयं खलु० जं सबढेहिं सहिए समिए सया जएज्जा, सेयमिण ममिजासि त्तिमि ।। (सू० १६४) निसीहियासत्तिकयं ।। २-२-९॥
स भावभिक्षुर्यदि वसतेरुपहताया अन्यत्र निषीधिका-स्वाध्यायभूमिं गन्तुमभिकाङ्केत् , तां च यदि साण्डा यावत्सससन्तानका जानीयात्ततोऽप्रासुकत्वान्न परिगृह्णीयादिति ॥ किश्व-स भिक्षुरल्पाण्डादिकां गृह्णीयादिति ॥ एवमग्यान्यपि KAIसूत्राणि शय्यावन्नेयानि यावत् यत्रोदकप्रसूतानि कन्दादीनि स्युस्तां न गृह्णीयादिति ॥ तत्र गतानां विधिमधिकृत्याह-15
ये तत्र साधयो नैपेधिकाभूमी द्विवाद्या गच्छेयुस्ते नान्योऽन्यस्य 'कार्य' शरीरमालिङ्गयेयु:-परस्परं गात्रसंस्पर्श न कुयु-गा ISI रित्यर्थः, नापि 'विविधम्' अनेकप्रकारं यथा मोहोदयो भवति तथा विलिङ्गेयुरिति, तथा कन्दर्पप्रधाना वसंयोगादिकाः||॥४०८॥
क्रिया न कुर्युरिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्यं यदसौ 'सर्वाथैः' अशेषप्रयोजनैरामुष्मिकैः ‘सहितः' समन्वितः तथा 'स
RELIGuninternational
Inditurary.com
~5314
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [२], उद्देशक [-], मूलं [१६४], नियुक्ति: [३२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
मितः पञ्चभिः समितिभिः 'सदा' यावदायुस्तावत्संयमानुष्ठाने यतेत, एतदेव च श्रेय इत्येव मन्येतेति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ निपीधिकाऽध्ययनं द्वितीयमादितो नवम समाप्तमिति ॥२-२-२॥
सूत्रांक
*
[१६४]
%
C
दीप अनुक्रम [४९८]
साम्प्रतं तृतीयः सप्तककः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरे निषीधिका प्रतिपादिता, तत्र च कथम्भूतायां भूमावुच्चारादि विधेयमिति, अस्य च नामनिष्पन्ने निक्षेपे उच्चारप्रश्रवण इति नाम, तदस्य निरुक्त्यर्थं नियुक्तिकृदाहउच्चवह सरीराओ उच्चारो पसवइत्ति पासवणं । तं कह आयरमाणस्स होइ सोही न अइयारो ? ॥३२१॥
शरीरादुत्-पावल्येन च्यवते-अपयाति चरतीति वा उच्चार:-विष्ठा, तथा प्रकर्षेण श्रवतीति प्रश्रवणम्-एकिका, दातच कथमाचरतः साधोः शुद्धिर्भवति नातिचार इति? | उत्तरगाधया दर्शयितुमाह- .
मुणिणा छकायदयावरेण सुसभणियंमि ओगासे । उच्चारविउस्सग्गो काययो अप्पमत्तेणं ॥३२२।।। 'साधुना' षड्जीवकायरक्षणोद्युक्तेन वक्ष्यमाणसूत्रोक्त स्थण्डिले उच्चारप्रश्रवणे विधेये अप्रमत्तेनेति ।। निर्युक्त्यनुगमानन्तरं सूत्रानुगमे सूत्र, तच्चेदम्
से मि० उच्चारपासवणकिरिवाए उब्बाहिजमाणे सबस्स पायपुंछणस्स असईए तओ पच्छा साहम्मियं जाइजा ।। से मि०
से जं पु. थंडिलं जाणिजा सअंडे तह. थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरिजा ।। से मिजं पुण थं० अप्पपाणं जाव भा.मू.SIM
संताणयं तह० ० उच्चा० वोसिरिजा ॥ से भि० से जं० अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुहिस्स वा अस्सि० बहवे
ENCESCHESCHACTCSCORK
ic-
M
| द्वितीया चूलिकायाः तृतीया सप्तसप्तिका- 'उच्चार प्रश्रवण-विषयक'
~532
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[ १६५ ]
टीप
अनुक्रम [४९९]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” - अंगसूत्र - १ - अंगसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [३], उद्देशक [ - ], मूलं [ १६५ ], निर्युक्ति: [ ३२२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
राजवृत्तिः (शी०)
॥ ४०९ ॥
साहम्मिया स० असि प० एवं साहम्मिणि स० अस्सिप बहवे साहम्मिणीओ स० अस्सिं० बहवे समण० पगणिय २ समु० पाणाई ४ जाव उद्देसियं चेपइ, तह० थंडिलं पुरिसंतरकडं जाव बहियानीहड वा अनी० अन्नयरंसि वा तप्पगारंसि बं० उच्चारं नो वोसि० ॥ से मि० से जं० बहुवे समणमा० कि० व० अतिही समुहिस्स पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई जान उद्देसियं चेद्द, तह० थंडिलं पुरिसंतरगडं जाव बहियाअनीडं अन्नयरंसि वा तह० थंडिशंस नो उच्चारपासवण०, अह पुण एवं जाणिजा - अपुरिसंतरगडं जाव बहिया नीहढं अन्नयरंसि वा तत्पगारं० थं० उच्चार० बोसि० ॥ से० अं० अस्सिंपडियाए कथं या कारियं वा पामिचियं वा छन्नं वा घट्ट वा महं वा लित्तं वा संमद्धं वा संपधूबियं वा अन्नयरंसि वा तह० थंडि० नो उ० ॥ से भि० से जं पुण थं० जाणेजा, इह खलु गाहावई वा गाहा० पुत्ता वा कंदाणि वा जाव हरियाणि वा अंतराओ वा वाहिं नीहरंति बहियाओ वा अंतो साहरंति अन्नयरंसि वा तह० थं० नो उचा० ॥ से मि० से जं पुण० जाणेजा-संघंसि वा पीढंसि वा मंचसि वा मालंसि वा अहंसि वा पासायंसि वा अन्नयरंसि वा० थं० नो उ० ॥ से भि० से जं पुण० अणंतरहियाए पुढवीए ससिणिद्धाए पु० ससरक्खाए पु० मट्टियाए मकडाए चिसमंता सिलाए चित्तमंताए लेलुयाए कोलावासंसि वा दारुयंसि वा जीवपट्टियंसि वा जाव मकडासंताणयंसि अन्न० त० थं० नो उ० ॥ ( सू० १६५ )
स भिक्षुः कदाचिदुच्चारप्रश्रवणकर्त्तव्यतयोत् प्राबल्येन वाध्यमानः स्वकीयपादपुञ्छनसमाध्यादावुच्चारादिकं कुर्यात्, स्वकीयस्य स्वभावेऽन्यं 'साधर्मिक' साधुं याचेत पूर्वप्रत्युपेक्षितं पादपुञ्छनकसमाध्यादिकमिति, तदनेनैतत्प्रतिपादितं
Education Internation
For Pale Only
०२
चूलिका २
उच्चारण
~533~
श्रवणा.
३- (१०)
।। ४०९ ।।
r
अत्र आद्य संपादक महोदयेन ३ (१०) लिखितं, तत् हेतु सह कथनं । ( ३- अर्थात् सप्तैकक ३, एवं १० अर्थात् प्रथम और दूसरी चुडा के अध्ययन मिलाकर ये दसवां अध्ययन हुआ, [चुडा १ के ७ अध्ययन और दूसरी चुडा का यह तीसरा अध्ययन ] | इसी तरह आगे भी समझ लेना |
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६५ ]
दीप
अनुक्रम [ ४९९ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [३], उद्देशक [-], मूलं [१६५], निर्युक्तिः [३२२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
भवति-वेगधारणं न कर्त्तव्यमिति । अपि च-स भिक्षुरुच्चारप्रश्रवणाशङ्कायां पूर्वमेव स्थण्डिलं गच्छेत्, तस्मिंश्च साण्डा- दिकेऽप्रासुकत्वादुच्चारादि न कुर्यादिति ॥ किञ्च - अल्पाण्डादिके तु प्रासुके कार्यमिति ॥ तथा स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात्, तद्यथा - एकं बहुन् वा साधर्मिकान् समुद्दिश्य तत्प्रतिज्ञया कदाचित्कश्चित्स्थण्डिलं कुर्यात् तथा श्रवणादीन् प्रगणय्य वा कुर्यात्, तच्चैवंभूतं पुरुषान्तरस्वीकृतमस्वीकृतं वा मूलगुणदुष्टमुद्देशिकं स्थण्डिलमाश्रित्योच्चारादि न कुर्यादिति ॥ किस भिक्षुर्यावन्तिके स्थण्डिलेऽपुरुषान्तरस्वीकृते उच्चारादि न कुर्यात्, पुरुषान्तरस्वीकृते तु कुर्या दिति ॥ अपि च-ल भिक्षुः साधुमुद्दिश्य क्रीतादावुत्तरगुणाशुद्धे स्थण्डिले उच्चारादि न कुर्यादिति ॥ किञ्च स भिक्षुर्गृहपत्यादिना कन्दादिके स्थण्डिलान्निष्काश्यमाने तत्र वा निक्षिप्यमाणे नोवारादि कुर्यादिति ॥ तथा-स भिक्षुः स्कन्धादी स्थण्डिले नोच्चारादि कुर्यादिति ॥ किञ्च स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात्, तद्यथा - अनन्तरितायां सचित्तायां पृथिव्यां तत्रोच्चारादि न कुर्यात्, शेषं सुगमं, नवरं 'कोलावासं 'ति घुणावासम् ॥ अपि च
से भि० से जं० जाणे व इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्ता वा कंदाणि वा जाव बीयाणि वा परिसाडिँसु वा परिसा डिंति वा परिसाडिस्संति वा अन्न० तह० नो उ० ॥ से भि० से जं० इह खलु गाहावई वा गा० पुत्ता वा सालीणि वा वणवा मुगाणि वा मासाणि वा कुलत्याणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा पइरिंसु वा पइरिंति वा पइरिस्संति वा अन्नरंसि वा तह० थंडि०नो उ० ॥ से भि० २जं० आमोयाणि वा घासाणि वा भिलुयाणि वा बिज्जुलवाणि वा खाणुयाणि वाकडयाणि वा पगडाणि वा दरीणि वा पदुग्गाणि वा समाणि वा २ अन्नयरंसि तह० नो उ० ॥ से भिक्खू० से जं०
For Pasta Use Only
~534~
wor
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [३], उद्देशक [-], मूलं [१६६], नियुक्ति: [३२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
श्रुतस्कं०२ चूलिका २ उच्चारमश्रवणा.
सूत्रांक [१६६]]
॥४१॥
दीप अनुक्रम [५००]
पुण थंडिलं जाणिज्जा माणुसरंधणाणि वा महिसकरणाणि वा वसहक अस्सक० कुकक्षक० मकडक हयक० लावयक बट्टयक० तित्तिरक० कबोयक. कविंजलकरणाणि वा अन्नयरंसि वा तह नो उ० ॥ से मि० से जं० जाणे. वेहाणसट्ठाणेसु वा गिद्धपट्टठा वा तरुपडणहाणेसु वा० मेरुपडणठा० विसभक्खणयठा. अगणिपडणवा० अन्नयरंसि वा तह नो उ० ॥ से मि० से जं. आरामाणि वा उजाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वा देवकुलाणि वा सभाणि वा पवाणि वा अन्न तह नो उ० ।। से भिक्खू० से जं पुण जा० अट्टालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अन्नयरंसि वा तह० ० नो ३० ॥ से मि० से जं० जाणे. तिगाणि वा चउकाणि वा पञ्चराणि वा चउम्मुहाणि वा अन्नयरंसि वा तह ० नो उ० ॥ से मि० से जं० जाणे० इंगालदाहेसु खारदाहेसु बा मडयदाहेसु वा मडयथूमियासु वा भड्याइएसु वा अन्नयरंसि वा तह० ० नो उ० ॥ से जं जाणे० नइयायतणेसु वा पंकाययणेसु वा भोपाययणेसु वा सेयणवहंसि वा अन्नपरंसि वा तह ५० नो उ०॥ से मि० से जं जाणे० नवियासु वा मट्टियखाणिमासु नवियासु गोप्पहेलियासु वा गवाणीसु वा खाणीसु वा अन्नयरंसि वा तह. थं० नो उ० ॥ से जं जा० डागवथंसि वा सागव० मूलग० हत्थंकरवयंसि वा अन्नयरंसि वा तह० नो उ० बो० ॥ से मि० से जं असणवणंसि वा सणव० धायइव० केयइवर्णसि वा अंबव० असोगव० नागव० पुन्नागव० चुलगव० अन्नयरेसु वह पत्तोवेएसु वा पुष्फोबेएसु वा फलोवेएम
वा बीओवेपसु वा हरिओबेएसु वा नो उ० बो० ॥ (सू० १६६) स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात्-तद्यथा यत्र गृहपत्यादयः कन्दबीजादिपरिक्षेपणादिक्रियाः कालत्रयव
॥४१०॥
SARERatunintamatkomal
-535
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [३], उद्देशक [-], मूलं [१६६], नियुक्ति: [३२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
C
प्रत
सूत्रांक [१६६]]
दीप अनुक्रम [५००]
तिनीः कुर्युस्तहिकामुष्मिकापायभयादुच्चारादि न कुर्यादिति ॥ तथा यत्र च गृहपत्यादयः शाल्यादीन्युप्तवन्तो वपन्ति |वस्यन्ति वा तत्राप्युच्चारादिन विदध्यादिति ॥
किस भिक्षर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात्, तद्यथा-आमोकानि' कचवरपुञ्जाः 'धासाः' बृहत्यो भूमिराजयः 'भिलुगाणि' लक्षणभूमिराजयः 'विजलं' पिच्छल 'स्थाणुः' प्रतीतः 'कडवाणि' इक्षुयोन्नलकादिदण्डकाः 'प्रगर्ताः' महागाः 'दरी प्रतीता 'प्रदुर्गाणि' कुच्चप्राकारादीनि, एतानि च समानि || वा विषमाणि वा भवेयुस्तदेतेष्वात्मसंयमविराधनासम्भवानोच्चारादि कुर्यादिति । किञ्च-स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात्, तद्यथा-'मानुपरन्धनानि' चुल्यादीनि तथा महिण्यादीनुद्दिश्य यत्र किश्चिक्रियते ते वा यत्र स्थाप्यन्ते तत्र लोकविरुद्धप्रवचनोपघातादिभयानोच्चारादि कुर्यादिति ॥ तथा-स भिक्षुः 'वेहानसस्थानानि' मानुषोलम्बनस्थानानि |'गृध्रपृष्ठस्थानानि' यत्र मुमूर्षवो गृध्रादिभक्षणार्थ रुधिरादिदिग्धदेहा निपत्यासते 'तरुपतनस्थानानि' यत्र मुमूर्षव एकावानशनेन तरुवत्पतितास्तिष्ठन्ति तरुभ्यो वा यत्र पतन्ति, एवं मेरुपतनस्थानान्यपि, मेरुश्च-पर्वतोऽभिधीयत इति, एवं ||2|| विषभक्षणाग्निप्रवेशस्थानादिषु नोच्चारादि कुर्यादिति ॥ अपि च-आरामदेवकुलादौ नोच्चारादि विदध्यादिति ॥ तथाप्राकारसम्बन्धिन्यट्टालादी नोचारादि कुर्यादिति ॥ किञ्च-त्रिकचतुष्कचत्वरादी च नोचारादि व्युत्सृजेदिति ।। किश्च-स भिक्षुरङ्गारदाहस्थानश्मशानादौ नोच्चारादि विदध्यादिति ॥ अपि च-'नद्यायतनानि' यत्र तीर्थस्थानेषु लोकाः पुण्यार्थ स्नानादि कुर्वन्ति 'पङ्कायतनानि' यत्र पक्किलप्रदेशे लोका धर्मार्थ लोटनादिक्रियां कुर्वन्ति 'ओघायतनानि' यानि प्रवा-14 हत एवं पूज्यस्थानानि तडागजलप्रवेशीषमागों वा 'सेचनपथे वा' नीकादी नोच्चारादि विधेयमिति ॥ तथा-स भि
%
CCCX
For P
OW
~536~
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [३], उद्देशक [-], मूलं [१६६], नियुक्ति: [३२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- राङ्गवृत्तिः
(शी०) ॥४११॥
सूत्रांक [१६६]
३-(१०)
क्षुरभिनवासु मृत्खनिघु, तथा नवासु गोप्रहेल्यासु 'गवादनीषु' सामान्येन वा गवादनीषु खनीषु वा नोच्चारादिश्रुतस्क०२ विदध्यादिति ॥ किश्च-डाग'त्ति डालप्रधानं शाकं पत्रप्रधानं तु शाकमेव तद्वति स्थाने, तथा मूलकादिवति च नोच्चा- चूलिका २ जारादि कुर्यादिति ॥ तथा-अशनो-बीयकस्तद्वनादौ च नोच्चारादि कुर्यादिति, तथा पत्रपुष्पफलाद्युपेतेष्विति ॥ कथं चो- उच्चारप्रचारादि कुर्यादिति दशर्यति
श्रवणा. से मि० सयपाययं वा परपाययं वा गहाब से तमायाए एगतमवक्कमे अणावायंसि असंलोयंसि अप्पपाणसि जाव मकडासंताणयसि अहारामंसि वा उवस्सयसि तओ संजयामेव उन्नारपासवर्ण वोसिरिजा, से तमायाए एगंतमवकमे अणाबाहंसि जाव संताणयंसि अहारामंसि वा शामथंडिल्लंसि वा अन्नयरंसि वा तह. थंडिलंसि अचित्तंसि तओ संजयामेव उपचारपासवर्ण बोसिरिज्जा, एवं खलु तस्स० सया जइजासि (सू० १६७)त्तिबेमि ।। उच्चारपासवणसत्तिको सम्मत्तो ॥२-२-३ ॥ स भिक्षुः स्वकीय परकीयं वा 'पात्रक' समाधिस्थानं गृहीत्वा स्थण्डिलं वाऽनापातमसलोकं गत्वोच्चार प्रस्रवर्ण वा 1'कुर्यात् प्रतिष्ठापयेदिति, शेपमध्ययनसमाप्तिं यावत्पूर्ववदिति॥तृतीर्य सप्तकैकाध्ययनमादितो दशमं समाप्तम् ॥२-२-३-१०॥
दीप अनुक्रम [५००]
| तृतीयानन्तरं चतुर्थः सप्तककः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहाये स्थान द्वितीये स्वाध्यायभूमिस्तृतीये उच्चारादिविधिः प्रतिपादितः, तेषु च वर्तमानो यद्यनुकूलप्रतिकूलशब्दान् शृणुयात्तेष्वरक्तद्विष्टेन भाव्यम्, इत्यनेन |
॥४११॥
द्वितीया चूलिकाया: चतुर्था सप्तसप्तिका- 'शब्द-विषयक'
~5373
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६७]
दीप
अनुक्रम [५०१]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [४], उद्देशक [-], मूलं [ १६७ ], निर्युक्तिः [३२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
सम्बन्धेनायातस्यास्य नामनिष्पन्ने निक्षेपे शब्दसप्तैकक इति नाम, अस्य च नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यनिक्षेपं दर्शयितुं निर्युक्तिकृद्गाथापश्चार्द्धेनाह
[दव्वं संठाणाई भावो वनकसिणं स भावो य] । दव्वं सद्दपरिणयं भावो उ गुणा य कित्ती य ॥ ३२३ ॥ द्रव्यं नोआगमतो व्यतिरिक्तं शब्दत्वेन यानि भाषाद्रव्याणि परिणतानि तानीह गृह्यन्ते, भावशब्दस्त्वागमतः शब्दे उपयुक्तः, नोआगमतस्तु गुणा-अहिंसादिलक्षणा यतोऽसौ हिंसाऽनृतादिविरतिलक्षणैर्गुणैः श्लाघ्यते, कीर्त्तिश्च यथा भगवत एव चतुस्त्रिंशदतिशयाद्युपेतस्य सातिशयरूपसंपत्समन्वितस्येत्यर्हन्निति लोके ख्यातिरिति, निर्युक्त्यनुगमादनन्तरं सूत्रानुगमे सूत्रं तच्चेदम्
Jan Eucation International
संधारिजा गमणाए । से भि० अहावेगइयाई सदाई सुणेइ, तं
से भि० मुगसहाणि वा नंदीस० झल्लरीस० अन्नयराणि वा तह० विरूवरूवाई सद्दाई वितताई कन्नसोयणपडियाए नो अभिवीणासदाणि वा विपंचीस० पिप्पी (बद्धी) सगस० तूणसहा वणयस० तुंबवीणियसदाणि वा ढंकुणसद्दाई अन्नयराई तह० विरूवरूवाई० सदाई वितताई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए || से भि० अहावेगइयाई सद्दाई सुणेइ, वं० तालसद्दराणि वा कंसतालसदाणि वा लत्तियसद्दा० गोधियस० किरकिरिवास अन्नवरा० तह० विरूव० सहाणि कण्ण० गमणाए । से भि० अहावेग० सं० संखसदाणि वा वेणु वंसस० खरमुहिस० परिपिरियास० अन्नय० तह० बिरुव० सद्दाई झुसिराई कन्न० ॥ ( सू० १६८ ) 'स' पूर्वाधिकृतो भिक्षुर्यदि विततततघनशुपिररूपांश्चतुर्विधानातोद्यशब्दान् श्रृणुयात्, ततस्तच्छ्रवणप्रतिज्ञया 'ना
For Parts Only
~538~
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१६८ ]
दीप
अनुक्रम [५०२ ]
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [४], उद्देशक [-], मूलं [१६८ ], निर्युक्तिः [३२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
29
[भाग-2] “आचार”मूलं - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
'श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ४१२ ॥
रु
* भिसन्धारयेद्गमनाथ' न तदाकर्णनाय गमनं कुर्यादित्यर्थः, तत्र विततं - मृदङ्गनन्दीझलर्यादि, ततं - वीणाविपचीबद्धीसकादितन्त्रीवाद्यं, वीणादीनां च भेदस्तन्त्रीसङ्ख्यातोऽवसेयः, धनं तु-हस्ततालकंसालादि प्रतीतमेव नवरं लत्तिका-कंशिका गोहिका - भाण्डानां कक्षाहस्तगतातोद्यविशेषः 'किरिकिरिया' तेषामेव वंशादिकम्बिकातोद्यं, शुषिरं तु शङ्खवेण्वादीनि प्रतीतान्येव, * नवरं खरमुही - तोहाडिका 'पिरिपिरियत्ति कोलियकपुटावनद्धा वंशादिनलिका, इत्येष सूत्रचतुष्टयसमुदायार्थः ॥ किञ्च - से मि० अहावेग० सं० वप्पाणि वा फलिहाणि वा जाव सराणि वा सागराणि वा सरसरपंतियाणि वा अन्न० तह विसहाई कण्ण० ॥ से मि० अहावे० तं० कच्छाणि वा णूमाणि वा ग्रहणाणि वा वणाणि वा वणदुगाणि पब्वयाणि वा पव्वयदुग्गाणि वा अन्न० || अहा० त० गामाणि वा नगराणि वा निगमाणि वा रायहाणाणि वा आसमपट्टणसंनिवेसाणि वा अन्न० तह० नो अभि० ॥ से मि० अहावे० आरामाणि वा उज्जाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वा देवकुलाणि वा सभाणि वा पत्राणि वा अन्नय० तहा० सहाई नो अभि० || से मि० अहावे० अट्टाणि वा अट्टाल्याणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अन्न० तह० सद्दाई नो अभि० ॥ से मि० अहावे० तंजहा — वियाणि वा चकाणि वा च वराणि वा चउम्मुहाणि वा अन्न० तह० सहाई नो अभि० ॥ से मि० अहावे० संजहा— महिसकरणद्वाणाणि वा बसभक० अस्सक० हत्थिक० जाब कविजलकरणट्ठा० अन्न० तह० नो अभि० ॥ से भि० अहावे० तंज० महिसजुद्धाणि वा जावकविजलजु ० अन्न० तह० नो अभि० ॥ सेमि० अहावे० तं० जूहियठाणाणि वा हयजू० गयजू० अन्न० तह० नो अमि० । ( सू० १६९ )
Education International
For Penal Use On
~539~
श्रुतस्कं० २ चूलिका २ शब्दसकका.
४- (११)
॥ ४१२ ॥
wor
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [४], उद्देशक [-], मूलं [१६९], नियुक्ति : [३२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६९]
दीप अनुक्रम [५०३]
स भिक्षुरथ कदाचिदेकतरान् कांश्चित् शब्दान् शृणुयात् , तद्यथा-'वष्पाणि वेति वप्रः-केदारस्तदादिर्वा, तद्वर्णकाः शब्दा वप्रा एवोक्ताः, वादिषु वा श्रव्यगेयादयो ये शब्दास्तच्छ्रवणप्रतिज्ञया वपादीन्न गच्छेदित्येवं सर्वत्रायोज्यम् ।। |अपि च-यावन्महिषयुद्धानीति पडपि सूत्राणि सुबोध्यानि । किञ्च-स भिक्षुथमिति-द्वन्द्वं वधूवरादिकं तत्स्थानं वेदि-II कादि, तत्र श्रव्यगेयादिशब्दश्रवणप्रतिज्ञया न गच्छेत्, वधूवरवर्णनं वा यत्र क्रियते तत्र न गच्छेदिति, एवं हयगजयूधादिस्थानानि द्रष्टव्यानीति ॥ तथा
से मि० जाव सुणेइ, तंजहा-अक्खाइयठाणाणि वा माणुम्माणिवट्ठाणाणि वा महताऽऽहयनहगीयवाईयतीतलतालतुद्धियपदुप्पवाइयहाणाणि वा अन्न तह सहाई नो अमिसं० ॥ से मि० जाव सुणेइ, तं०-फलहाणि वा डिवाणि वा - मराणि या दोरजाणि वा बेर० विरुद्धर० अन्न तह सहाई नो०॥ से मि० जाव मुणेइ खुड़ियं दारियं परिभुत्तमडियं भलंकिवं निबुज्झमाणि पहाए एर्ग वा पुरिसं बहाए नीणिजमाण पेहाए अन्नयराणि वा तह नो अमि० ॥ से मि० अन्नयराई विरुव० महासवाई एवं जाणेजा तंजहा-बहुसगडाणि वा बहुरहाणि वा बहुमिलक्खूणि वा बहुपर्यताणि वा अन्न तह विरूव० महासवाई कन्नसोयपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए ।। से मि. अन्नवराई विरूव० महूरसवाई एवं जाणिज्जा, संजहा-इत्थीणि वा पुरिसाणि वा बेराणि वा डहराणि वा मविप्रमाणि वा आभरणविभूसियाणि बा गार्यताणि वा वार्यताणि वा नचंताणि वा हसंताणि वा रमताणि वा मोहंताणि वा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइम परिभुजंताणि मा परिभायंताणि वा विछद्रियमाणाणि या वियोवयमाणाणि वा अन्नय तह विरूव० महु० कन्नसोय
%25%
%
~540
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१७०]
दीप
अनुक्रम [५०४ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [४], उद्देशक [-], मूलं [१७० ], निर्युक्तिः [३२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ४१३ ॥
॥ से भि० नो इहलोइपहिं सदेहिं नो परलोइएहिं स० नो सुएहिं स० नो असुरहिं स० नो दिट्ठेहिं सहेहिं नो अदिहिं स० नो कंतेहिं सहिं सजिना नो गिज्झिना नो मुझिजा नो अज्झोववज्जिज्जा, एवं खलु० जाव जएलासि ( सू० १७० ) तिबेमि ॥ सहसत्तिक ।। २-२-४ ॥
स भिक्षुः 'आख्यायिकास्थानानि' कथानकस्थानानि, तथा 'मानोन्मानस्थानानि' मानं प्रस्थकादिः उन्मानंनाराचादि, यदिवा मानोन्मानमित्यश्वादीनां वेगादिपरीक्षा तत्स्थानानि तद्वर्णनस्थानानि वा, तथा महान्ति च तानि आहतनृत्यगीतवादित्रतन्त्रीतलतालत्रुटितप्रत्युत्पन्नानि च तेषां स्थानानि - सभास्तद्वर्णनानि वा श्रवणप्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद्गमनायेति ॥ किञ्च - कलहादिवर्णनं तत्स्थानं वा श्रवणप्रतिज्ञया न गच्छेदिति ॥ अपि च-स भिक्षुः क्षुल्लिकां 'दारिकां' डिक्करिकां मण्डितालङ्कृतां बहुपरिवृतां 'णिवुज्झमाणि'ति अश्वादिना नीयमानां तथैकं पुरुषं वधाय नीयमानं प्रेक्ष्याहमत्र किश्चिच्छ्रोष्यामीति श्रवणार्थं तत्र न गच्छेदिति ॥ स भिक्षुर्यान्येवं जानीयात्, महाअन्त्येतान्याश्रवस्थानानि - पापोपादानस्थानानि वर्त्तन्ते, तद्यथा - बहुशकटानि बहुरथानि बहुम्लेच्छानि बहुप्रात्यन्तिकानि, इत्येवंप्रकाराणि स्थानानि श्रवणप्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद् गन्तुमिति ॥ किञ्च स भिक्षुर्महोत्सवस्थानानि यान्येवंभूतानि जानीयांत्, तद्यथा-स्त्रीपुरुषस्थविरवालमध्यवयांस्येतानि भूषितानि गायनादिकाः क्रिया यत्र कुर्वन्ति तानि स्थानानि श्रवणेच्छया न गच्छेदिति ॥ इदानीं सर्वोपसंहारार्थमाह-सः 'भिक्षुः' ऐहिकामुष्मिकापायभीरुः 'नो' नैव 'ऐहलौकिकैः' मनुष्यादिकृतैः 'पारलोकिकैः पारापतादिकृतैरैहिकामुष्मिकैर्वा शब्दैः, तथा श्रुतैरश्रुतैर्वा, तथा साक्षादुपलब्धै
For Parts Only
~541~
श्रुतस्कं० २ चूलिका २ शब्दसंत
कका.
४- (११)
॥ ४१३ ॥
Page #542
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [४], उद्देशक [-], मूलं [१७०], नियुक्ति: [३२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
रनुपलब्धैर्वा 'न सङ्गं कुर्यात्' न रागं गच्छेत् न गाय प्रतिपद्येत न तेषु मुह्येत नाध्युपपन्नो भवेत् , एतत्तस्य भिक्षोः सामग्यं, शेष पूर्ववत्, इह च सर्वत्रार्य दोष:-अजितेन्द्रियत्वं स्वाध्यायादिहानी रागद्वेषसम्भव इति, एवमन्येऽपि दोषा| ऐहिकामुष्मिकापायभूताः स्वधिया समालोच्या इति॥ चतुर्थसप्लैककाध्ययनमादित एकादशं समाप्तम् ॥२-२-४-११॥
प्रत सूत्रांक [१७०]
दीप
अथ पञ्चमं रूपसप्तैककमध्ययनम् । चतुर्थसप्तककानन्तरं पञ्चमं समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरं श्रवणेन्द्रियमाश्रित्य रागद्वेपोत्पत्तिनिषिद्धा तदिहापि चक्षुरिन्द्रियमाश्रित्य निषिध्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्य-10 यनस्य नामनिष्पन्ने निक्षेपे रूपसप्तैकक इति नाम, तत्र रूपस्य चतुर्धा निक्षेपः, नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यभावनिक्षेपार्थ | नियुक्तिकृद् गाथाऽर्द्धमाह
दव्वं संठाणाई भावो वन्न कसिणं सभावो य। [दव्वं सहपरिणयं भावो उ गुणा य कित्ती य] ॥३२४ ॥ तत्र द्रव्यं नोआगमतो व्यतिरिक्तं पश्च संस्थानानि परिमण्डलादीनि, भावरूपं द्विधा-वर्णतः स्वभावतश्च, तत्र वर्णतः कृत्स्नाः पञ्चापि वर्णाः, स्वभावरूपं त्वन्तर्गतक्रोधादिवशाङ्गभङ्गललाटनयनारोपणनिष्ठुरवागादिकम् , एतद्विपरीतं प्रसनस्येति, उक्तश्च-"रुहस्स खरा दिड्डी उप्पलधवला पसन्नचित्तस्स । दुहियस्स ओमिलायइ गंतुमणस्सुस्सुआ होइ ॥॥" सूत्रानुगमे सूत्रं, तच्चेदम्
१पष्टस्य खरा दृष्टिः उत्पलभपला प्रसन्नचित्तस्य । दुःखितस्यावम्लायति गन्तुमनस उत्सुका भवति ॥१॥
SAGARCASAR-4-5%5
अनुक्रम [५०४]
द्वितीया चूलिकाया:पंचमा सप्तसप्तिका- 'रूप-विषयक'
~542~
Page #543
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [५], उद्देशक [-], मूलं [१७१], नियुक्ति: [३२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रुतस्कं०२ चूलिका २ रूपसबै
कका५-(१२)
[१७१]
श्रीआचा- से मि० अहावेगइयाई रूबाई पासइ, तं० गंथिमाणि वा वेढिमाणि वा पूरिमाणि वा संघाइमाणि वा कट्टकम्माणि या पोरावृत्तिः त्वकम्माणि वा चित्तक मणिकम्माणि वा दंतक पत्तछिजकम्माणि वा विविहाणि वा वेढिमाई अन्नवराई० विरू० (शी०) चक्खुदसणपडियाए नो अभिसंधारिज गमणाए, एवं नायव्वं जहा सहपडिमा सव्वा वाइत्तवज्जा रुवपडिमावि ॥ (सू०
१७१) पञ्चमं सत्तिकयं ॥ २-२-५ ॥ ॥४१४॥
4 स भावभिक्षुः क्वचित् पर्यटन्नथैकानि-कानिचिन्नानाविधानि रूपाणि पश्यति, तद्यथा-प्रथितानि' ग्रथितपुष्पादि-
निवर्तितस्वस्तिकादीनि 'वेष्टिमानि' वस्त्रादिनिर्वर्तितपुत्तलिकादीनि पूरिमाणि'त्ति यान्यन्तः पूरणेन पुरुषाधाकृतीनि भवन्ति 'संघातिमानि चोलकादीनि 'काष्ठकर्माणि' रथादीनि 'पुस्तकर्माणि' लेष्यकर्माणि 'चित्रकर्माणि' प्रतीतानि 'मणिकर्माणि' विचित्रमणिनिष्पादितस्वस्तिकादीनि, तथा 'दन्तकर्माणि' दन्तपुत्तलिकादीनि, तथा पत्रच्छेद्यकर्माणि, इत्येवमादीनि विरूपरूपाणि चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद्गमनाय, एतानि द्रष्टुं गमने मनोऽपि न विदध्यादित्यर्थः । एवं शब्दसप्दै
ककसूत्राणि चतुर्विधातोद्यरहितानि सर्वाण्यपीहायोज्यानि केवलं रूपप्रतिज्ञयेत्येवमभिलापो योज्यः, दोषाश्चात्र प्राग्वत्ससमायोज्या इति ॥ पञ्चमं सप्लैककाध्ययनमादितो द्वादशं समाप्तमिति ॥२-२-५-१२॥
दीप अनुक्रम [५०५]
SACRACASAGA
४१४॥
|| अथ षष्ठं परक्रियाभिधं सप्सैककमध्ययनम् । साम्प्रतं पश्चमानन्तरं षष्ठः सप्तैककः समारभ्यते, अस्य चायमभि
सम्बन्धः-अनन्तरं रागद्वेषोत्पत्तिनिमित्तप्रतिषेधोऽभिहितः, तदिहापि स एवान्येन प्रकारेणाभिधीयते इत्यनेन सम्बन्धे
SARERatunintamarana
द्वितीया चूलिकाया:षष्ठा सप्तसप्तिका- 'परक्रिया-विषयक'
~543~
Page #544
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [६], उद्देशक [-], मूलं [१७१...], नियुक्ति: [३२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७१]
दीप अनुक्रम [५०५]
नायातस्यास्य नामनिष्पन्ने निक्षेपे परक्रियेत्यादानपदेन नाम, तत्र परशब्दस्य पड्डिधं निक्षेपं दर्शयितुं नियुक्तिकारो गाथाऽर्द्धमाह
छक परहकिर्फत १दन्न २ माएस ३ कम ४ बहु५ पहाणे ६। | षटू 'पर' इति परशब्दविषये नामादिः षड्डियो निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यादिपरमेकैकं षड्डिधं भवतीति दर्शयति, तद्यथा-तत्परम् १ अन्यपरम् २ आदेशपरं ३ क्रमपरं ४ बहुपरं ५ प्रधानपर ६ मिति, तत्र द्रव्यपरं तावत्तद्रूपतयैव वर्तमानं-परमन्यत्तत्परं यथा परमाणोः परः परमाणुः १, अन्यपरं त्वन्यरूपतया परमन्यद् , यथा एकाणुकाद्
वणुकत्र्यणुकादि, एवं पणुकादेकाणुकत्र्यणुकादि २, 'आदेशपरम्' आदिश्यते-आज्ञाप्यत इत्यादेशः-यः कस्यांचि-18 तिक्रियायां नियोज्यते कर्मकरादिः स चासौ परश्चादेशपर इति ३, क्रमपरं तु द्रव्यादि चतुद्धा, तत्र द्रव्यतः क्रमपरमे
कप्रदेशिकद्रव्याद् द्विप्रदेशिकद्रव्यम् , एवं व्यणुकाध्यणुकमित्यादि, क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढाद् द्विप्रदेशावगाढमित्यादि, |४||कालत एकसमयस्थितिका द्विसमयस्थितिकमित्यादि, भावतः क्रमपरमेकगुणकृष्णाद्विगुण कृष्णमित्यादि ४, बहुपरं बहु-18
त्वेन पर बहुपरं यद्यस्माद्बहु तद्बहुपरं, तद्यथा-"जीवा पुग्गल समया दब्ब पएसा य पजवा चेव । थोवाणताणता विसेसअहिया दुवेऽणता ॥१॥" तत्र जीवाः स्तोकाः तेभ्यः पुद्गला अनन्तगुणा इत्यादि ५, प्रधानपरं तु प्रधानत्वेन परः, द्विपदानां तीर्थकरः चतुष्पदानां सिंहादिः अपदानामर्जुनसुवर्णपनसादिः ६, एवं क्षेत्रकालभावपराण्यपि तसर
आ.स.७०
wirelaunaitirary.orm
~544~
Page #545
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [६], उद्देशक [-], मूलं [१७२], नियुक्ति: [३२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०)
सूत्रांक
[१७२]]
दीप अनुक्रम [५०६]
दिषनिधत्वेन क्षेत्रादिप्राधान्यतया पूर्ववत्स्वधिया योग्यानीति, सामान्येन तु जम्बूद्वीपक्षेत्रात्पुष्करादिक क्षेत्रं परं, काल- श्रुतस्कं०२ परं तु प्रावृटकालाच्छरत्कालः, भावपरमौदयिकादीपशमिकादिः॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
चूलिका २ परकिरियं अजालियं संसेसियं नो तं सायए नो च नियमे, सिया से परो पाए आमजिज वा पमजिज वा नो तं सायए
परक्रि०६ नो सं नियमे । से सिया परो पायाई संवाहिज वा पलिमदिशा वा नो तं सायए नो सं नियमे । से सिया परो पायाई कुसिज पा रहा वा नो तं सायए मोतं नियमे । से सिया परो पायाई तिल्लेण वा घ० वसाए वा मक्खिन वा अम्भिगिज वा नो २२ । से सिवा परो पाथाई लुद्धेण वा ककेण वा चुन्नेण वा वण्णेण वा उल्लोडिज वा उव्यलिज वा नो तं २॥ से सिया परी पायाई सीओदगवियडेण वा २ उच्छोलिज का पहोलिज वा नो तं० । से सिया परो पायाई अन्नयरेण विलेवणजाएण आलिंपिज वा विलिंपिज वा नो तं० । से सिवा परो पायाई अन्नवरेण धूवणजाएण भूविज या पधू० नो त २। से सिया परो पायाओ आणुयं वा कंटयं वा नीहरिज वा विसोहित्र वा नो तं०२ । से सिया परो पायाभो पूर्व वा सोणियं वा नीहरिज वा विसो० नो तं०२। से सिया परो कार्य आमज्जेज वा पमजिज्ज वा नो तं सायए नो तं नियमे । से सिया परो कार्य लोट्टेण वा संवाहिज वा पलिमदिन वा नो तं० २ से सिवा परो कार्य तिलेण वा घ० बसा. मक्खिज बा अभंगिज वा नो तं०२ से सिया परो कार्य लुढेण वा ४ उल्लोदिज वा उल्बलिज वा नो तं० २ । से सिया परो कार्य सीओ. उसिणो० उच्छोलिन वा प० नो तं० २। से सिया परो कार्य अन्नयरेण IN|४१५॥ विलेवणजाएण आलिंपिजपा २ नो तं०२ से कार्य अन्नयरेण धूवणजाएग धूविज वा प० नो तं०२ । से० का
~5453
Page #546
--------------------------------------------------------------------------
________________
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [८], उद्देशक [-], मूलं [१७२], नियुक्ति: [३२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७]
55
दीप अनुक्रम [५०६]
यंसि वर्ण आमजिज वा २ नो तं२ से० वर्ण संवाहिज वा पलि० नो तं० से. वर्ण तिल्लेण वा घ०२मक्सिज वा अभं० नो तं० २ । से० वर्ण लुण वा ४ उल्लोढिज वा उठवलेज वा नो तं० २ । से सिया परो कार्यसि वर्ण सीओ० उ० उच्छोलिता वा प० नो तं० २। सेकसि वर्ण वा गंडं वा अरई वा पुलयं वा भगदलं वा अन्नयरेणं सस्थजाएणं अपिछदिन वा विछिदिज वा नो तं०२ । से सिया परो अन्न जाएण आच्छिदित्ता या विक्टिवित्ता वा पूर्व वा सोणिय वा नीहरिज वा वि० नो तं०२।से० कार्यसि गंड वा अरई वा पुलइयं वा भगदलं वा आमजिज वा २ नो तं० २ । से० गढ़ वा ४ संवाहिज वा पलि. नो तं० २। से० कार्य० गंडं वा ४ तिलेण वा ३ मक्खिज वा २ नो २० २ । से गंड वा लुद्धेण वा ४ जल्लोदिका वा उ० नो २०२। से० गंडं वा ४ सीओदग २ उच्छोलिज वा प० नो तं०२। से० गंड वा ४ अन्नयरेणं सत्थजाएणं अपिछदिज वा वि० अन्न सस्थ० अपिछदित्ता वा २ पूर्व वा २ सोणियं वा नीह, विसो० नो तं सायए २ । से लिया परो कार्यसि सेयं वा जल्लं वा नौहरिज वा वि० नो तं० २। से सिया परो अग्छिमलं वा कण्णमलं वा ईतमलं वा नहम नीहरिज वा २ नो तं० २ । से सिया परो दीहाई वालाई दीहाई वा रोमाई दीहाई भमुहाई दीहाई कक्खरोमाई दोहाई बत्थिरोमाई कपिज वा संठविज वा नो तं०२।से सिया परो सीसाओ लिक्खं वा जूयं वा नीहारिज वा वि० नो तं० २। से सिया परो अंकसि वा पलियंकसि वा तुयट्ठावित्ता पायाई आमजिज वा पम०, एवं हिटिमो गमो पायाइ भाणियब्बो । से सिया परो अंकसि वा २ तुयट्टावित्ता हार वा अद्वहारं वा उरत्यं वा गेवेयं वा मउवा पालंब वा सुवनसुत्तं वा आविहिज वा पिणहिज वा नो तं०२। से० परो आ
R-
5
~546~
Page #547
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [६], उद्देशक [-], मूलं [१७२], नियुक्ति: [३२५]
प्रत सूत्रांक [१७२]]
श्रीआचा
रामंसि वा उताणसि वा नीहरित्ता वा पविसित्ता वा पायाई आमजिज वा ५० नो तं साइए || एवं नेयव्वा अन्नमन्न- श्रुतस्कं०२ राङ्गवृत्तिः किरियावि ॥ (सू० १७२)
चूलिका २ (शी०) । पर-आत्मनो व्यतिरिक्तोऽन्यस्तस्य क्रिया-चेष्टा कायव्यापाररूपा तां परक्रियाम् 'आध्यात्मिकीम' आत्मनि क्रिय- परक्रि०६
माणां, पुनरपि विशिनष्टि-'सांश्लेषिकी' कर्मसंश्लेषजननीं 'नो' नैव 'आस्वादयेत्' अभिलपेत् , मनसा न तत्राभिलाषं ॥४१६॥
द कुर्यादित्यर्थः, तथा न तां परक्रियां 'नियमयेत्' कारयेद्वाचा, नापि कायेनेति । तां च परक्रिया विशेषतो दर्शयति । NI-से' तस्य साधोनिष्पतिकर्मशरीरस्य सः 'पर' अन्यो धर्मश्रद्धया पादौ रजोऽवगुण्ठिती आमृज्यात् कर्पटादिना.
वाशब्दस्तूत्तरपक्षापेक्षः, तन्नास्वादयेन्नापि नियमयेदिति, एवं स साधुस्तं परं पादौ संबाधयन्तं मर्दयन्तं वा स्पर्शयन्तंरञ्जयन्तं, तथा तैलादिना प्रक्षयन्तमभ्यञ्जयन्तं वा, तथा लोध्रादिना उद्धर्तनादि कुर्वन्तं, तथा शीतोदकादिना
उच्छोलनादि कुर्वाणं, तथाऽन्यतरेण सुगन्धिद्रव्येणालिम्पन्त, तथा विशिष्टधूपेन धूपयन्तं, तथा पादात्कण्टका18 दिकमुद्धरन्तम्, एवं शोणितादिकं निस्सारयन्तं 'नास्वादयेत् मनसा नाभिलपेत् नापि नियमयेत्-कारयेद्वाचा
कायेनेति ॥ शेषानि कायव्रणगतादीनि आरामप्रवेशनिष्क्रमणप्रमार्जनसूत्रं यावदुत्तानार्थानि ॥ एवममुमेवार्थमुत्तरसप्तकेऽपि तुल्यत्वात्सझेपरुचिः सूत्रकारोऽतिदिशति-'एवम्' इति याः पूर्वोक्ताः क्रिया-रजःप्रमार्जनादिकास्ताः 'अन्योऽन्यः | परस्परतः साधुना कृतप्रतिक्रियया न विधेया इत्येवं नेतव्योऽन्योऽन्यक्रियासप्तकक इति ॥ किश
से सिया परो सुद्धेणं असुद्धेणं वा वइबलेण वा तेइच्छं आउट्टे से० असुद्धेणं वइबलेणं तेइच्छं आउट्टे से सिया परो गिलाणस्स
दीप अनुक्रम [५०६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१] अंग सूत्र-०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
~547~
Page #548
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [६], उद्देशक [-], मूलं [१७३], नियुक्ति: [३२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७३]
सचित्ताणि वा कंचाणि वा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि वा खणित्तु कड़ित्तु वा कडावित्तु वा तेइकई आउट्टाविज नो तं सा. २ कडवेपणा पाणभूयजीवसत्ता वेयणं वेइंति, एवं खलु० समिए सया जए. सेयमिणं मन्त्रिजासि (सू० १७३) त्तिबेमि ।। छडओ सत्तिकओ ॥२-२-६ ॥ 'से' तस्य साधोः स परः शुद्धनाशुद्धेन वा 'वाग्बलेन' मन्त्रादिसामर्थ्येन चिकित्सा व्याध्युपशमम् 'आउट्टे'त्ति कर्नु-1४ मभिलषेत्। तथा स परो ग्लानस्य साधोश्चिकित्सा) सचित्तानि कन्दमूलादीनि 'खनित्वा' समाकृष्य स्वतोऽन्येन वा खानयित्वा चिकित्सां कर्तुमभिलषेत् तच्च 'नास्वादयेत्' नाभिलपेन्मनसा, एतच्च भावयेत्-इह पूर्वकृतकर्मफले|श्वरा जीवाः कर्मविपाककृतकटुकवेदनाः कृत्वा परेषां शारीरमानसा वेदनाः स्वतः प्राणिभूतजीवसवास्तत्कर्मविपा-18 कजां वेदनामनुभवन्तीति, उक्तय-"पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्तवार्य, न खलु भवति नाशः कर्मणां सश्चितानाम्। इति सहगणयित्वा यद्यदायाति सम्यक् , सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्ते ? ॥१॥" शेषमुक्तार्थं यावदध्ययनपरिसमाप्तिरिति ॥ षष्ठमादितखयोदशं सप्तैककाध्ययनं समाप्तम् ॥२-१-६-१३॥
दीप अनुक्रम [५०७]
अथ सप्तममन्योऽन्यक्रियाभिधमध्ययनम् । षष्ठानन्तरं सप्तमोऽस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने सामा-| न्येन परक्रिया निषिद्धा, इह तु गच्छनिर्गतोद्देशेनान्योऽन्यक्रिया निषिध्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य दानामनिष्पन्ने निक्षेपे अन्योऽन्यक्रियेति नाम, तत्रान्यस्य निक्षेपार्थ नियुक्तिकृद् गाथापश्चार्द्धमाह
Hereumstaram.org
अत्र एक मुद्रण-दोषः, “२-१-६-१३,” तस्य सुध्धि: - २-२-६/१३.( क्योंकि ये दूसरे श्रुतस्कंध की दूसरी चुडा का छट्ठा सप्तैकक है।) द्वितीया चूलिकाया: सप्तमा सप्तसप्तिका- 'अन्योन्य क्रिया-विषयक'
~548~
Page #549
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [२], सप्तैकक [७], उद्देशक [-], मूलं [१७४], नियुक्ति: [३२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रुतस्क०२
प्रत
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
सूत्रांक
अन्यो०७
[१७४]
॥४१७n
दीप अनुक्रम [५०८]
अन्ने छकं तं पुण तदन्नमाएसओ चेव ॥ ३२५ ॥ अन्यस्य नामादिषनिधो निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यान्यनिधा-तदन्यद् अन्यान्यद् आदेशान्यञ्चेति द्रव्यपरवन्नेयमिति ॥ अत्र परक्रियायामन्योऽन्यक्रियायां च गच्छान्तर्गतैर्यतना कर्तव्येति, गच्छनिर्गतानां त्वेतया न प्रयोज-I नमिति दर्शयितुं नियुक्तिकृदाहजयमाणस्स परो जं करेइ जयणाएँ तत्थ अहिगारो । निप्पडिकम्मस्स उ अन्नमन्नकरणं अजुत्तं तु ॥ ३२६ ॥
॥सत्तिकाणं निजुत्ती सम्मत्ता ॥ जयमाणस्सेत्यादि पातनिकयैव भावितार्था । साम्प्रतं सूत्र, तच्चेदम्
से भिक्खू वा २ अन्नमन्नकिरियं अज्झत्थियं संसेश्यं नो तं सायए २ ॥ से अन्नमन्नं पाए आमज्जिन वा० नो त०, सेसं त चेव, एवं खलु० जइजासि (सू० १७४) तिबेमि ।। सप्तमम् ॥ २-२-७॥ अन्योऽन्यस्य-परस्परस्य क्रिया-पादादिप्रमार्जनादिका सर्वां पूर्वोक्तां क्रियाव्यतिहारविशेषितामाध्यात्मिकी सांश्लेषिकी नास्वादयेदित्यादि पूर्ववन्नेयं यावदध्ययनसमाप्तिरिति ॥ सप्तममादितश्चतुर्दश, सप्तैककाध्ययनं समाप्तं, द्वितीया च समाप्ता चूलिका ॥२-२-७-१०॥
H
॥४१७॥
SAREaratunintimational
~549~
Page #550
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन H], उद्देशक [-], मूलं [१७४...], नियुक्ति: [३२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७४]
दीप अनुक्रम [५०८]
अथ भावनाख्या तृतीया चूलिका । उक्ता द्वितीया चूला, तदनन्तरं तृतीया समारभ्यते, अस्याश्चायमभिसम्बन्धः-इहादितः प्रभृति येन श्रीवर्द्धमान-|| स्वामिनेदमर्थतोऽभिहितं तस्योपकारित्वात्तद्वक्तव्यतां प्रतिपादयितुं तथा पञ्चमहाव्रतोपेतेन साधुना पिण्डशय्यादिकं ग्राह्यमतस्तेषां महाव्रतानां परिपालनार्थं भावनाः प्रतिपाद्या इत्यनेन सम्बन्धेनायातेयं चूडेति, अस्याश्चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपकमान्तर्गतोऽयमर्थाधिकारः, तद्यथा-अप्रशस्तभावनापरित्यागेन प्रशस्ता भावना भावयितव्या इति, नामनिष्पन्ने निक्षेपे भावनेति नाम, तस्याश्च नामादि चतुर्विधो निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादत्य द्रव्यादिनिक्षेपार्थे। | नियुक्तिकृदाह
दवं गंधंगतिलाइएसु सीउण्हविसहणाईसु । भावंमि होइ दुविहा पसस्थ तह अप्पसस्था य ॥ ३२७॥
तत्र 'द्रव्य'मिति द्रव्यभावना नोआगमतो व्यतिरिक्ता गन्धाङ्कः-जातिकुसुमादिभिद्रेव्यैस्तिलादिषु द्रव्येषु या वासना 8सा द्रव्यभावनेति, तथा शीतेन भावितः शीतसहिष्णुरुष्णेन वा उष्णसहिष्णुर्भवतीति, आदिग्रहणाव्यायामक्षुण्णदेहो
व्यायामसहिष्णुरित्याद्यन्येनापि द्रव्येण द्रव्यस्य या भावना सा द्रव्यभावनेति, भावे तु-भावविषया प्रशस्ताऽप्रशस्तभेदेन | द्विरूपा भावनेति ॥ तत्राप्रशस्तां भावभावनामधिकृत्याह
पाणिवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव । कोहे माणे माया लोभे य हवंति अपसत्था ॥ ३२८ ॥ प्राणिवधाद्यकार्येषु प्रथम प्रवर्त्तमानः साशङ्कः प्रवर्तते पश्चात्पौनःपुन्यकरणतया निशङ्कः प्रवर्तते, तदुक्तम्-"क
SC
-S
-
-36
तृतीया चूलिका- “भावना" आरब्धा:
~550~
Page #551
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१७४]
दीप
अनुक्रम [५०८ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [ १७४...], निर्युक्तिः [३२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित ..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
॥ ४१८ ॥
रोत्यादौ तावत्सघृणहृदयः किञ्चिदशुभं, द्वितीयं सापेक्षो विमृशति च कार्यं च कुरुते । तृतीयं निःशङ्को विगतघृणमन्यत्प्रकुरुते ततः पापाभ्यासात्सततमशुभेषु प्ररमते ॥ १ ॥ ॥ प्रशस्तभावनामाहदंसणनाणचरिते तववेरग्गे य होइ उ पसत्था । जा य जहा ता य तहा लक्खण वुच्छं सलक्खणओ ॥ ३२९ ॥ दर्शनज्ञान चारित्र तपोवैराग्यादिषु या यथा च प्रशस्त भावना भवति तां प्रत्येकं लक्षण तो वक्ष्य इति ॥ दर्शनभावनार्थमाह---- तित्थगराण भगवओ पवयणपावयणिअइसइडीणं । अभिगमणनमणदरिसणकित्तणसंपूणाणणा ॥ ३३० ॥ तीर्थकृतां भगवतां प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्य गणिपिटकस्य, तथा प्रावचनिनाम् - आचार्यादीनां युगप्रधानानां, तथाऽतिशयिनामृद्धिमतां - केवलिमनःपर्यायावधिमच्चतुर्दशपूर्वविदां तथाऽऽमर्षौषध्यादिप्राप्तऋद्धीनां यदभिगमनं गत्वा च दर्शनं तथा गुणोत्कीर्त्तनं संपूजनं गन्धादिना स्तोत्रैः स्तवनमित्यादिका दर्शनभावना, अनया हि दर्शनभावनयाऽनवरतं भाव्यमानया दर्शनशुद्धिर्भवतीति ॥ किच
जम्माभि सेयनिक्खमणचरणनाणुप्पया य निव्वाणे । दियलोअभवण मंदरनंदीसर भोमनगरे सुं ।। ३३१ ॥ अद्वावयमुचिंते गयग्गपयए य धम्मचक्के य । पासरहावत्तनगं चमरुप्पायं च चंदामि ॥ ३३२ ॥
तीर्थकृतां जन्मभूमिषु तथा निष्क्रमणचरणज्ञानोत्पत्तिनिर्वाणभूमिषु तथा देवलोकभवनेषु मन्दरेषु तथा नन्दीश्वरद्वीपादौ भौमेषु च पातालभवनेषु यानि शाश्वतानि चैत्यानि तानि वन्देऽहमिति द्वितीयगाथायामन्ते क्रियेति, एवमष्टापदे, तथा श्रीमदुज्जयन्तगिरी 'गजाग्रपदे' दशार्णकूटवर्त्तिनि तथा तक्षशिलायां धर्मचक्रे तथा अहिच्छत्रायां
Education International
For Parts Only
~551~
श्रुतस्कं० २ चूलिका ३
भावनाध्य.
॥ ४१८ ॥
Page #552
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन H], उद्देशक [-], मूलं [१७४...], नियुक्ति: [३३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
-
प्रत सूत्रांक [१७४]
-
-
5
दीप अनुक्रम [५०८]
पार्श्वनाथस्य धरणेन्द्रमहिमास्थाने, एवं रथावतें पर्वते वैरस्वामिना यत्र पादपोपगमनं कृतं यत्र च श्रीमद्बर्द्धमानमाश्रित्य चमरेन्द्रेणोखतनं कृतम् , एतेषु च स्थानेषु यथासम्भवमभिगमनवन्दनपूजनोत्कीर्तनादिकाः क्रियाः कुवेतो दर्श-17 नशुद्धिर्भवतीति ॥ किश्व
गणियं निमित्त जुत्ती संदिट्ठी अवितहं इमं नाणं । इय एगंतमुवगया गुणपञ्चइया इमे अत्था ।। ३३३ ॥ गुणमाहप्पं इसिनामकित्तणं सुरनरिंदपूया य । पोराणचेइयाणि य इय एसा दंसणे होइ ॥ ३३४ ॥ प्रवचनविदाममी गुणप्रत्ययिका अर्था भवन्ति, तद्यथा-गणितविषये-बीजगणितादौ परं पारमुपगतोऽयं, तथाऽष्टाअस्य निमित्तस्य पारगोऽयं, तथा दृष्टिपातोक्ता नानाविधा युक्ती:-द्रव्यसंयोगान् हेतून्वा वेत्ति, तथा सम्यग-अविप-I रीता दृष्टिः-दर्शनमस्य त्रिदशैरपि चालयितुमशक्या तथाऽवितधमस्येदं ज्ञानं यथैवायमाह तत्तथैवेत्येवं प्रावचनिकस्या-1 चार्यादेः प्रशंसां कुर्वतो दर्शनविशुद्धिर्भवतीति, एवमन्यदपि गुणमाहात्म्यमाचार्यादेर्वर्णयतः तथा पूर्वमहर्षीणां च नामो
कीर्तनं कुर्वतः तेषामेव च सुरनरेन्द्रपूजादिकं कथयतः तथा चिरन्तनचैत्यानि पूजयतः इत्येवमादिकां क्रियां कुर्वतस्तकाद्वासनावासितस्य दर्शनविशुद्धिर्भवतीत्येपा प्रशस्ता दर्शनविषया भावनेति ।। ज्ञानभावनामधिकृत्याह| तत्तं जीवाजीचा नायब्वा जाणणा इहं दिट्ठा । इह कजकरणकारगसिद्धी इह बंधमुक्खो य ॥ ३३५ ॥
बद्धो य बंधहेऊ बंधणबंधष्फलं सुकहियं तु । संसारपवंचोऽवि य इहयं कहिओ जिणवरेहिं ॥ ३३६ ॥ नाणं भविस्सई एवमाइया बायणाइयाओ य । सज्झाए आउत्तो गुरुकुलवासो य इय नाणे ॥ ३३७ ।।
~552~
Page #553
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन H], उद्देशक [-], मूलं [१७४...], नियुक्ति: [३३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रुतस्कं०२ चूलिका ३ भावनाध्य.
सूत्रांक
[१७४]
दीप अनुक्रम [५०८]
श्रीआचा- तत्र ज्ञानस्य भावना ज्ञानभावना-एवंभूतं मौनीन्द्र ज्ञान प्रवचनं यथाऽवस्थिताशेषपदार्थाविर्भावकमित्येवरूपति, रामवृत्तिः
अनया च प्रधानमोक्षाङ्गं सम्यक्त्वमाधिगमिकमाविर्भवति, यतस्तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं, तत्त्वं च जीवाजीवादयो नव (शी०) पदार्थाः, ते च तत्त्वज्ञानाधिना सम्यग् ज्ञातव्याः, तत्परिज्ञानमिहैव-आहेते प्रवचने दृष्टम्-उपलब्धमिति, तथेहैव-आईते
प्रवचने कार्य-परमार्थरूपं मोक्षाख्यं तथा करणं-क्रियासिद्धौ प्रकृष्टोपकारकं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, कारका-साधुः ॥४१९॥
सम्यग्दर्शनाद्यनुष्ठाता, क्रियासिद्धिश्च-इहैव मोक्षावाप्तिलक्षणा, तामेव दर्शयति-बन्धा-कर्मबन्धनं तस्मान्मोक्षः-कर्मविचटनलक्षणः, असावपीहेव, नान्यत्र शाक्यादिकप्रवचने भवति, इत्येवं ज्ञानं भावयतो ज्ञानभावना भवतीति ॥ तथा बद्धः' अष्टप्रकारकर्मपुद्गलैः प्रतिप्रदेशमवष्टब्धो जीवः, तधा 'बन्धहेतवः' मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः तथा बन्धनम्-अष्टप्रकारकर्मवर्गणारूपं तत्फलं-चतुर्गतिसंसारपर्यटनसातासाताद्यनुभवनरूपमिति, एतत्सर्वमत्रैव सुकथितम् , अन्यद्वा यत्किश्चित्सुभाषितं तदिहैव प्रवचनेऽभिहितमिति ज्ञानभावना, तथा विचित्रसंसारप्रपञ्चोऽत्रैव जिनेन्द्रैः कथित इति ॥ तथा ज्ञानं मम विशिष्टतरं भविष्यतीति ज्ञानभावना विधेया, ज्ञानमभ्यसनीयमित्यर्थः, आदिग्रहणादेकाग्रचित्ततादयो गुणा भवन्तीति, तथैतदपि ज्ञाने भावनीयं, यथा-"जं अन्नाणी कम्म खवेइ" इत्यादि, तथैभिश्च कारणैज्ञानमभ्यसनीय, तद्यथा-ज्ञानसङ्ग्रहार्थ निर्जरार्थम् अव्यवच्छित्त्यर्थ स्वाध्यायार्थमित्यादि, तथा ज्ञानभावनया नित्यं | गुरुकुलवासो भवति, तथा चोक्तम्-"णाणस्स होइ भागी थिरयरओ देसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुललावासं न मुञ्चन्ति ॥१॥", इत्यादिका ज्ञान विषया भावना भवतीति ॥ चारित्रभावनामधिकृत्याह
१ज्ञानस्य भवति भागी स्थिरतरो पर्शने चारित्रे व ! पन्या यावत्कर्ष गुरुकुलवासे न मुञ्चन्ति ॥१॥
XXCAKAMK
॥४१९
~553
Page #554
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१७४]
दीप
अनुक्रम [५०८ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७४...], निर्युक्ति: [ ३३८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
* *
साहुमहिंसाधम्मो सचमदत्तविरई य वंभं च । साहु परिग्गहविरई साहु तवो बारसंगो य ॥ ३३८ ॥ arrierमाओ एगता (गे) भावणा य परिसंगं । इय चरणमणुगयाओ भणिया इतो तवो वुच्छं ॥ ३३९॥ साधु-शोभनोऽहिंसादिलक्षणो धर्म इति प्रथमत्रतभावना, तथा सत्यमस्मिन्नेवार्हते प्रवचने साधु-सोभनं नान्यत्रेति द्वितीयत्रतस्य, तथाऽदत्तविरतिश्चात्रैव साध्वीति तृतीयस्य, एवं ब्रह्मचर्यमप्यत्रैव नवगुप्तिगुप्तं धार्यत इति, तथा परिग्रहविरतिश्चेव साध्वीति, एवं द्वादशाङ्गं तप इहैव शोभनं नान्यत्रेति ॥ तथा वैराग्यभावना-सांसारिक सुखजुगुप्सारूपा, | एवमप्रमादभावना - मद्यादिप्रमादानां कर्मबन्धोपादानरूपाणामनासेवनरूपा, तथैकाग्रभावना - "ऍको मे सासओ अप्पा, णाणदंसणसंजुओ सेसा मे बहिरा भावा, सच्चे संजोगलक्खणा ॥ १ ॥" इत्यादिका भावनाः ( इति प्रकृष्टमृषित्वाङ्गं) 'चरणमुपगताः' चरणाश्रिताः, इत उर्ध्वं तपोभावनां 'वक्ष्ये' अभिधास्य इति ॥
हि मे हविवंझो दिवसो? किं वा पट्ट तवं काउं ? । को इह दब्बे जोगो खित्ते काले समयभावे ? ||३४० ॥ 'कथं केन निर्विकृत्यादिना तपसा मम दिवसोऽवन्ध्यो भवेत् ? कतरद्वा तपोऽहं विधातुं 'प्रभुः' शक्तः १, तञ्च कत रत्तपः कस्मिन् द्रव्यादौ मम निर्वहति ? इति भावनीयं तत्र द्रव्ये उत्सर्गतो वलचणकादिके क्षेत्रे स्निग्धरूयादी का शीतोष्णादौ भावेऽग्लानोऽहमेवंभूतं तपः कर्त्तुमलम्, इत्येवं द्रव्यादिकं पर्यालोच्य यथाशक्ति तपो विधेयं “ शक्तितस्त्यागतपसी" ( तत्त्वार्थे अ०६ सू० २३ दर्शन० ) इति वचनादिति ॥ किच
१ एको मे शाश्वत आत्मा शनदर्शनसंयुतः । शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥ १ ॥
Eucation International
For Pasta Lise Only
~554~
waryru
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन H], उद्देशक [-], मूलं [१७४...], नियुक्ति: [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
श्रुतस्कं०२ चूलिका ३ भावनाध्य.
सूत्रांक
कटक
[१७४]
॥४२०॥
दीप
उच्छाहपालणाए इति (एव) तवे संजमे य संघयणे । वेरग्गेऽणिचाई होइ चरित्ते इह पगयं ॥ ३४१॥
तथाऽनशनादिके तपस्यनिगूहितबलवीर्येणोत्साहः कर्त्तव्यः, गृहीतस्य च प्रतिपालनं कर्त्तव्यमिति, उक्तञ्च-"तित्थ- यरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झिअव्वयधुवम्मि । अणिगूहिअबलविरिओ सव्वत्थामेसु उज्जमइ ॥१॥ किं पुण अव- सेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । होइ न उज्जमिअव्वं सपञ्चवायमि माणुस्से ? ॥२॥" इत्येवं तपसि भावना विधेया । एवं 'संयमें' इन्द्रियनोइन्द्रियनिग्रहरूपे, तथा 'संहनने' बज्रर्षभादिके तपोनिर्वाहनासमर्थे भावना विधेयेति, वैराग्यभावना त्वनित्यत्वादिभावनारूपा, तदुक्तम्-"भावयितव्यमनित्यत्व १ मशरणव २ तथैकता ३ ऽन्यत्वे ४ । अशुचित्वं ५ संसारः ६ कर्माश्रव ७ संवर ८ विधिश्च ॥१॥ निर्जरण ९ लोकविस्तर १० धर्मस्वाख्याततत्त्वचिन्ता च ११॥ बोधेः सुदुर्लभत्वं च १२ भावना द्वादश विशुद्धाः॥२॥" इत्यादिका अनेकप्रकारा भावना भवन्तीति, इह पुनश्चारित्रे प्रकृत-चरित्रभावनयेहाधिकार इति ॥ नियुक्त्यनुगमानन्तरं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंचहत्युत्तरे यावि हुत्या, तंजहा-हत्थुत्तराई चुए चइत्ता गम्भ वचते हत्थुतराहिं गम्भाओ गम्भं साहरिए हत्थुत्तराहि जाए हत्युत्तराहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पञ्चइए हत्युत्तराहि कसिणे पडिपुग्ने अब्बाधाए निरावरणे अणंते अणुत्तरे केवलवरनाणदसणे समुप्पन्ने, साइणा भगवं परिनिम्बुए । (सू० १७५)
१ तीर्थंकर श्वानी सुरमहितो धुवै सैधितव्ये । अनिगृहितबलवीयः सर्वस्थानोयग्छति ॥ १॥ किं पुनरवशेषैर्दुःसक्षयकारगात सुविहितः । भवति नोद्यमितव्यं सप्रलपावे मानुष्ये ॥२॥
अनुक्रम [५०८]
हा॥४२०॥
~555
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७६], नियुक्ति: [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१७६]
दीप अनुक्रम [५१०]
समणे भगवं महावीरे इमाए ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए वीइकताए सुसमाए समाए पीइकताए सुसमदुस्समाए समाए पीइकताए दूसमसुसमाए समाए बहु विकताए पन्नहत्तरीए वासेहिं मासेहि य अद्धनवमेहि सेसेहिं जे से गिम्हाणं घनत्थे मासे अहमे पक्खे आसाढसुद्धे तस्स णं आसाढसुद्धस्स छट्ठीपक्खेण हत्युत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं महाविजयसिद्धत्वपुएफुत्तरवरपुंडरीयदिसासोवत्थियवद्धमाणाओ महाविमाणाओ वीसं सागरोवमाई आउय पालइचा आजक्खएण ठिइक्खएणं भवरखएणं चुए चइत्ता इह खलु जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे दाहिणभरहे दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसंमि उसभइत्तरस माहणस्स कोडालसगोत्तस्स देवाणंदाए माहणीए जालंधरस्स गुत्ताए सीहुम्भवभूएणं अप्पाणेणं कुञ्छिसि गर्भ वर्कते, समणे भगवं महावीरे तिन्नाणोवगए याबि हुत्था, चहस्सामित्ति जाणइ एमित्ति जाणइ चयमाणे न याणेइ, सुहुमेणं से काले पत्नत्ते, तो णं समणे भगवं महावीरे हियाणुकंपएणं देवेणं जीयमेयतिकटू जे से वासाणं तचे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहुले तस्स णं आसोयबाहुलस्स तेरसीपक्खेणं हत्थुत्तराहि नक्षत्तेणं जोगमुवागएणं वासीहिं राइदिएहि बइफ्तेहिं तेसीइमस्स राइदियस्स परियाए व?माणे दाहिणमाणकुंडपुरसंनिवेसामओ उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेससि नायाण खत्तियाण सिद्धत्वरस खत्तियस्स कासवगुत्तस्स तिसलाए खत्तियाणीए पासिट्ठसगुत्ताए असुभाणं पुग्गलाणं अवहार करिता सुभाणं पुमंगलाणं पक्खेवं करित्ता कुञ्छिसि गम्भ साहरद, जेवि य से तिसलाए खत्तियाणीप कुञ्छिसि गमे तंपि य दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसंलि उस० को० देवा जालंधरायणगुत्ताए कुरिछसि गम्भ साहरद, समणे भगवं महावीरे तिन्नाणोवगए यावि होत्था-साहरिजिस्सामित्ति जाणइ साहरिजमाणे न यागइ साह
भा.सू.७१
~5564
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक F], मूलं [१७६], नियुक्ति: [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी)
श्रुतस्कं०२ चूलिका ३ भावनाध्य.
सूत्रांक
॥४२१॥
[१७६]
दीप
रिएमित्ति जाणइ समणाउसो! । तेणं कालेणं तेणं समपर्ण तिसलाए खत्तियाणीए अहऽन्नया कयाई नवहं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणराईदियाणं वीइकनाणं जे से गिम्हाणं पढमे मासे दुने पक्खे चित्तसुद्धे तस्स णं चित्तसुद्धस्स तेरसीपक्सेणं हत्थु० जोग० समणं भगवं महावीरं अरोग्गा अरोग्ग पसूया । जपणं राई तिसलाख. समणं० महावीर अरोया अरोयं पसूया तण्णं राई भवणवइवाणमंतरजोइसियविमाणवासिदेवेहिं देवीहि य अवयंतेहिं उप्पयंतेहि य एगे महं दिव्वे देवुजोए देवसन्निवाए देवकहकहए उपिंजलगभूए यावि हुत्था । जण्णं रयणि तिसलाख० समर्ण० पसूया नणं रयणि बहवे देवा य देवीओ य एगं महं अभयवासं च १ गंधवासं च २ चुन्नवासं च ३ पुष्फवा० ४ हिरनवासं च ५ रयणवासं च ६ वासिंसु, जण्णं रयणि तिसलाख० समणं० पसूया तण्णं रयणि भवणवदवाणमंतरजोइसियविमाणवासिणो देवा व देवीओ व समणस्स भगवओ महावीरस्स सुइकम्माई तित्थयराभिसेयं च करिसु, जो पभिइ भगवं महावीरे तिसलाए ख० कुञ्छिसि गम्भं आगए तो णं पनिइ तं कुलं विपुलेणं हिरनेणं सुवनेणं धणेणं धनेणं माणिकणं मुत्तिएणं संखसिलप्पवालेणं अईव २ परिवइ, तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो एयमढ जाणित्ता निव्वत्तदसाइंसि चुकतंसि सुइभूयंसि विपुलं असणपाणखाइमसाइमं उबक्खडाविति २ ता मित्तनाइसयणसंबंधिवगं उवनिमंतंति मित्त० उवनिमंतित्ता बद्दवे समणमाहणकिवणवणीमगाह मिकछुडगपंडरगाईण विच्छ ति विग्गोर्विति विस्साणिति दायारेसु दाणं पजभाइति विच्छट्टित्ता विग्गो० विस्साणित्ता दाया० पजभाइत्ता मित्तनाइ भुंजाविति मित्त. भुंजाविता मित्त० बगेण इममेयारूवं नामधिज कारविंति-जओ णं पभिइ इमे कुमारे ति० ख० कुपिछसि गम्भे आहुए
अनुक्रम [५१०]
॥ ४२१॥
~557
Page #558
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७६], नियुक्ति: [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७६]
तो पमिद इमं कुलं विपुलेणं हिरनेणं० संखसिलप्पवालेणं अतीव २ परिवडा ना होउ णं कुमारे बद्धमाणे, समो समणे भगवं महावीरे पंचधाइपरिखुडे, सं०-वीरधाईए १ मजणधाईए २ मंडणधाईए ३ खेलावणधाइए ४ अंकथा०५ अंकाभो अंकं साहरिजमाणे रम्मे मणिकुट्टिमतले गिरिकंदरसमुल्लीणेविव चंपथपायवे अहाणुपुब्बीए संवडइ, तो णं समणे भगवं० विनायपरिणय ( मित्ते) विणियत्तबालभावे अप्पुस्सुयाई उरालाई माणुस्सगाई पंचलपखणाई कामभोगाई सरफरिसरसरूवगंधाई परिवारेमाणे एवं च णं विहरइ । (सू०१७६)। समणे भगवं महावीरे कासवगुत्ते तस्स णं इमे तिन्नि नामधिज्जा एवमाहिति, तंजहा-अम्मापिउसंति वद्धमाणे १ सहसंमुइए समणे २ भीमं भयभेरवं उरालं अवेलयं परीसहसहत्तिकटु देवेहि से नाम कर्य समणे भगवं महावीरे ३, समणस्स गं भगवओ महावीरस्स पिया कासवगुत्तेणं तस्स गं तिन्नि नाम० त०-सिद्धत्थे इ वा सिजसे इ वा जसंसे इवा, समणस्स णं. अम्मा वासिहरसगुत्ता तीसे तिन्नि ना०, तं-तिसला इ वा विदेहदिन्ना इ वा पियकारिणी इ वा, समणस्स णं भ० पित्तिअए सुपासे कासवगुत्तेणं, समण जितु भाया नंदिवद्धणे कासवगुप्तेणे, समणस्स णं जेट्ठा भइणी सुदंसणा कासवगुत्तेणं, समणस्स णं भग० भज्जा जसोया कोडिमागुत्तेणं, समणस्स f० धूया कासवगोचेणं तीसे णं दो नामधिज्जा एवमा०-अणुज्जा इ वा पियदसणा इ बा, समणस्स णं भ० नत्तूई कोसिया गुत्तेणं तीसे थे दो नाम० सं०-सेसवई इ वा जसवई इवा, (सू०१७७)। समणस्स पं० ३ अम्मापियरो पासावश्चिजा समणोवासगा यावि हुत्या, ते णं बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पालइत्ता छण्हं जीवनिकायाणं सारक्खणनिमित्तं आलोइत्ता निंदित्ता गरिहित्ता पटिकमित्ता अहारिहं उत्तरगुणपायच्छित्ताई पडिवजित्ता कुससंथारगं दुरू
*CAR
दीप अनुक्रम [५१०]]
~558~
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९, गाथा-१...६], नियुक्ति: [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीआचा-18 रामवृत्तिः (शी०)
श्रुतस्कं०२ चूलिका ३ भावनाध्य.
[१७९+ गाथा
॥४२२॥
दीप अनुक्रम [५१३...
हित्ता भत्तं पञ्चक्वायंति २ अपच्छिमाए मारणंतियाए संलेहणासरीरए झुसियसरीरा कालमासे कालं किच्चा तं सरीरं विष्पजहित्ता अबुए कप्पे देवताए उववन्ना, तओ णं आउक्खएणं भव० ठि० चुए चदत्ता महाविदेहे वासे चरमेणं उस्सासेणं सिजिासंति बुझिसति मुचिस्संति परिनिव्वाइस्संति सब्बदुक्खाणमंतं करिस्संति (सू० १७८) । तेणं कालेणं २ समणे भ० नाए नायपुत्ते नायकुलनिव्वचे विदेहे विदेह दिन्ने विदेहजचे विदेहसूमाले तीसं वासाई विदेसित्तिक? अगारमज्झे बसित्ता अम्मापिऊदि कालाएदि देवलोगमणुपत्तेहिं समत्तपइन्ने चिच्चा हिरनं चिच्चा सुवन्नं चिचा बलं चिचा वाहणं चिचा धणकणगरयणसंतसारसावइज्जं विच्छडिता विम्गोवित्ता विस्साणित्ता दायारेसुण दाइत्ता परिभाइत्ता संवच्छर दलदत्ता जे से हेमताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं हत्युत्तरा० जोग० अभिनिक्समणाभिपाए यावि हुत्था, संवच्छरेण होहिइ अभिनिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स। तो अत्थसंपयाणं पवत्तई पुरुषसूरामओ ॥१॥ एगा हिरनकोडी अद्वेव अणूणगा सयसहस्सा । सूरोदयमाईवं दिजइ जा पायरासुत्ति ॥ २॥ तिन्नेव य कोढिसया अद्वासीईच हुंति कोडीभो । असिई च सवसहस्सा एवं संवच्छरे दिन्नं ॥ ३ ॥ घेसमणकुंडधारी देवा लोगतिया महिजीया । बोहिति व तित्यपरं पन्नरसमु कम्मभूमीसु ॥ ४ ॥ भमि य कप्पंमी बोद्धव्या कण्हराइणो मझे । लोगतिया विमाणा अहसु वत्या असंखिज्जा ॥ ५॥ एए देवनिकाया भगवं बोहिंति जिणबरं वीर । सबजगजीवहियं अरिहं ! तित्वं पयत्तेहि ॥ ६॥ तओ ण समणस्स भ० म० अभिनिक्षमणामिप्पायं जाणित्ता भवणवइवा०जी०विमाणवासिणो देवा य देवीभो य सरहिं २ रूबेहिं सएहिं २ नेवस्थेहिं सए०२ विधेहिं सब्बिडीए सबजुईए सम्वबल
५४०]
॥४२२॥
~559~
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७९]
%
%
दीप
समुदएण सयाई २ जाणविमाणाई दुरुहंति सया० दुरुहिता अहाबायराई पुग्गलाई परिसाङति २ अहासुहमाई पुग्गलाई परियाईति २ उई उप्पयंति उर्छ उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्याए चवलाए तुरियाए दिवाए देवगईए अहेणं ओवयमाणा र तिरिएणं असंखिजाइंदीवसमुदाई वीइकममाणा २ जेणेव जंबुद्दीवे दीवे तेणेव उवागच्छंति २ जेणेव उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसे तेणेव उवागच्छंति, उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए तेणेव झत्ति वेगेण ओवइया, तओ णं सके देविंद देवराया सणिय २ जाणविमाणं पट्टवेति सणिय २ जाणविमाणं पहवेत्ता सणिय २ जाणविमाणाभो पचोरुहाइ सणियं २ एरातमवक्कमइ एगतमवकमित्ता महया वेउबिएणं समुग्घाएणं समोहणइ २ एग महं नाणामणिकणगरवणभत्तिचित्तं सुभं चार कंतरूवं देवच्छंदयं वितब्बइ, तस्स णे देवरछंदयस्स बहुममसभाए एगं मई सपायपीढं नाणामणिकणयरवणभत्तिचित्तं सुभं चारुकतरूवं सीहासणं विउव्वद, २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद २ समर्ण भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ समणं भगवं महावीर बंदर नमसइ २ समण भगवं महावीर गहाय जेणेव देवच्छंदए तेणेव उवागच्छद सणिय २ पुरस्थाभिमुहं सीहासणे निसीयावेइ सणियं २ निसीयाविता सयपागसहस्सपागेहिं तिलेहि अभंगेइ गंधकासाईएहिं उल्लोलेइ २ सुद्धोदएण मजावेइ २ जस्स णं मुखं सयसहस्सेणं तिपडोलतित्तिएणं साहिएणं सीतेण गोसीसरत्तचंदणेणं अणुलिंपइ २ ईसि निस्सासवायवोजसं वरनयरपट्टणुमायं कुसलनरपसंसियं अस्सलालापेलवं छेयारियकणगखइयंतकम्मं हंसलक्खणं पट्टजुयलं नियंसावेद २ हार अवहार उरत्थं नेवत्वं एगावलि पालंबसुत्तं पट्टमजहरयणमालाउ आविंधावेइ आविधावित्ता गंधिमवेढिमपूरिमसंघाइमेणं
%
अनुक्रम [५१३...
५४०
~560~
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९, गाथा-१...११], नियुक्ति: [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
-25%
87
श्रुतस्क०२
चूलिका ३ ४भावनाध्य.
प्रत सूत्रांक [१७९+ गाथा१...११]
॥४२३॥
महेणं कप्परुक्ममिव समलंकरेह २त्ता दुर्लपि महबा वेचब्वियसमुग्घाएणं समोहणइ २ एग महं चंदप्पाहं सिबियं सहस्सवाहणियं विउल्वति, तंजहानहामिगउसमतुरगनरमकरविहगवानरकुंजररुरुसरभचमरसहलसीहवणलयभत्तिचित्तलयविज्जाहरमिहुणजुयलजंतजोगजुतं अच्चीसहस्समालिणीयं सुनिरूवियं मिसिमिसितस्वगसहस्सकलियं इंसि भिसमाण मिम्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेस मुत्ताहलमुत्ताजालंतरोवियं तवणीयपवरलंधूसपलंबतमुत्तदामं हारहारभूसणसमोणय अहियपिच्छणिज पतमलयभत्तिचित्तं असोगलयभत्तिचित्तं कुंदलयभत्तिचित्तं नाणालयभत्ति विरइयं मुभं चारकंतरूवं नाणामणिपंचवन्नघटापडायपडिमंडियग्गसिहर पासाईयं दरिसणिजं सुरूवं,-सीया उवणीया जिणवरस्स जरमरणविष्पमुकास्स । ओसत्तमलदामा जलथलयदिव्वकुसुमेहिं ॥१॥ सिधियाइ मज्झयारे दिव्वं वररयणरूवचिंचइयं । सीहासणं महरिहं सपायपीदं जिणवरस्स ।। २॥ आलइयमालमउडो भासुरवुदी वराभरणधारी । खोमियवस्थनियत्यो जस्स य म सयसहस्सं ॥ ३ ॥ छहण उ भत्तेणं अज्झवसाणेण सुंदरेण जिणो । लेसाहिं विसुझंतो आरुहई उत्तम सीयं ॥ ४ ॥ सीहासणे निविट्ठो सगीसाणा व दोहि पासेहिं । वीयंति चामरादि मणिरयणविचित्तदंडाहिं ॥ ५ ॥ पुषि उक्वित्ता माणुसेहिं साहटु रोमकूवेहिं । पच्छा बहंति देवा सुरअसुरा गरुलनागिंदा ॥ ६॥ पुरओ सुरा वहती असुरा पुण दाहिणमि पासंमि । अवरे वहति गरुला नागा पुण उत्तरे पासे ॥ ७॥ वसई व कुसुमियं परमसरो वा जहा सरयकाले । सो. हइ कुसुमभरेणं इय गगणयलं सुरगणेहिं ॥ ८॥ सिद्धत्थवणं व जहा कणयारवणं व चंपयवणं वा । सोहइ कु० ॥ ९॥ वरपडहरिशहरिसंखसयसहस्सिएहि तूरेहिं । गयणयले धरणियले तूरनिनाओ परमरम्मी ।। १०॥ ततविततं पणा
दीप
अनुक्रम [५१३... ५४०
॥४२३॥
aureturasurare.org
~5614
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं ”-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९, गाथा-१...११], नियुक्ति: [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
A
प्रत सूत्रांक [१७९+ गाथा१...११]
सिर आउजं चउम्बिई बहुविहीयं । वाइंति तत्व देवा बहूहिँ आनट्टगसहि ॥ ११॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं जे से हेमंताणं पढ़मे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं सुब्बएणं दिवसेणं विजएणं गुहत्तेणं इत्युत्तरानक्खत्तेणं जोगोवगएणं पाईणगामिणीए छायाए विझ्याए पोरिसीए छटेणं भत्तेणं अपाणएणं एगसाडगमायाए चंदप्पभाए सिबियाए सहस्सवाहिणियाए सदेवमणुयासुराए परिसाए समणिजमाणे उत्तरवत्तियकुंडपुरसंनिवेसस्स मज्ज्ञमजोणं निगच्छा २ जेणेव नाथसंडे उजाणे तेणेव उवागच्छइ २ ईसिं रयणिष्पमाणं अच्छोपेणं भूमिभारण सणिय २ चंदपमं सिषियं सहस्सवाहिणि ठवेइ २ सणियं २ चंदप्पभाओ सीयाओ सहस्सवाहिणीओ पचोयरइ २ सणियं २ पुरत्याभिमुहे सीहासणे निसीयइ आभरणालंकारं ओमुअइ, तओ ण वेसमणे देवे भतुव्यायपडिओ भगवओ महावीरस्स हंसलक्षणेणं पड़ेणं आभरणालंकार पडिच्छद, तओ णं समणे भगवं महावीरे वाहिणणं वाहिणं वामेणं वाम पंचमुद्वियं लोयं करेइ, तओ णं सके देविंदे देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स जन्नवायपडिए बहरामएणं थालेण केसाई पडिक्छद २ अणुजाणेसि भंतेत्तिकटु वीरोयसागरं साहरइ, तो णं समणे जाव लोयं करिता सिद्धार्थ नमुकार करेइ २ सब मे अकरणिज पावकम्मंतिकट्ट सामाइयं चरितं पडिबाइ २ देवपरिसं च मणुषपरिसं घ आलिक्वचित्तभूयमित ठवेइ-दिव्यो मणुस्सपोसो तुरियनिनाओ व सवयणेणं । खिप्पामेव निलुको जाहे परिवजा चरितं ॥१॥ परिवजितु चरितं अहोनिसं सव्वपाणभूयहियं । साहट्ट लोमपुलया सत्वे देवा निसामिति ॥ २ ॥ तओ ण समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खओवसमियं चरित्तं पडिकन्नस्स मणपजवनाणे नामं नाणे समुष्पन्ने अड्डाइज्जेहि
दीप
ccAAA%
अनुक्रम [५१३... ५४०
~562~
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
श्रुतस्कं०२ चूलिका ३ भावनाध्य.
सूत्रांक
RAKAR
[१७९]]
॥४२४॥
दीप
दीवहिं दोहि व समुदेखि सन्नीर्ण पंचिदियाणं पजत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाई भावाई जाणेइ । तमो ण समणे भगवं महावीरे पव्यइए समाणे मित्तनाई सयणसंबंधिवगं पंडिविसज्जेइ, २ इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-पारस पासाई वोसट्टकाए चियत्तदेहे जे केइ उबसम्गा समुष्पजति, तंजहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा तेरिच्छिया वा, ते सव्ये उक्सग्गे समुप्पन्ने समाणे सम्म सहिस्सामि खमिस्सामि अहिआसइस्सामि, तओ णं स० भ० महावीरे इमं एयारूवं अभिग्गई अभिगिण्हित्ता बोसिट्टचत्तदेहे दिवसे मुहुत्तसेसे कुम्मारगाम समणुपत्ते, तओ णं स० भ० म० बोसिट्ठचत्तदेहे अणुत्तरेणं आलएर्ण अणुत्तरेणं विहारेणं एवं संजमेर्ण पग्गहेगं संवरेणं तवेणं बभचेरखासेणं खंतीए मुसीए समिईए गुत्तीए तुट्ठीए ठाणेणं कमेणं सुचरियफलनिव्वाणमुत्तिमग्गेणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ, एवं वा विहरमाणस्स जे केइ उवसम्मा समुप्पमंति-दिव्या बा माणुस्सा वा तिरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे अणाउले अव्वहिए अद्दीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते सम्म सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ, तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स बारस वासा वीइकता तेरसमस्स य वासस्स परियाए वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दुथे मासे चउत्थे पक्से वइसाहसुद्धे तस्स णं वेसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं सुबएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं हत्युत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगोवगएणं पाईणगामिणीए छायाए वियत्ताए पोरिसीए जंमिवगामस्स नगरस्स बहिया नईए उम्जुवालियाए उत्तरकूले सामागस्स गाहावइस्स कहकरणंसि उडुजाणूअहोसिरस्स झाणकोट्ठोवगयस्स वेयावत्तस्स चेइवस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसी. भागे सालरुक्खस्स अदूरसामंते उकुडुवस्स गोदोहियाए आयावणाए आवावेमाणस्स छटेणं भत्तेणं अपाणएणं सुखज्माण
अनुक्रम [५१३...
7.5%
%
५४०
॥४२४॥
CRECE5
~563~
Page #564
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
TKII
+
प्रत सूत्रांक [१७९]
दीप
तरियाए बढ़माणस्स निवाणे कसिणे पडिपुन्ने अब्बाहए निरावरणे अणंते अणुत्तरे केवलपरनाणदसणे समुष्पन्ने, से भगवं अरहं जिणे केवली सम्बनू सबभावदरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पजाए जाणइ, तं०-आगई गई ठिई चयण खबवायं भुत्तं पीयं कर्ड पडिसेवियं आविकम्म रहोकम्म लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरह, जण्णं दिवसं समणस्स भगवओ महावीरस्स निवाणे कसिणे जाव समुप्पाने तणं दिवस भवणवइवाणमंतरजोइसियविमाणवासिदेवेहि य देवीहि य उवयंतेहिं जाव उपिजलगभूए यावि हुत्था, तो णं समणे भगवं महावीरे अप्पन्नवरनाणदसणधरे अप्पाणं च लोग च अभिसमिक्ख पुर्व देवाणं धम्ममाइक्खद, ततो पच्छा मणुस्साणं, सो णं समणे भगवं महावीरे उष्णननाणदंसणधरे गोयमाईणं समणाणं पंच महत्वयाई सभावणाई छनीवनिकाया आतिक्सति भासइ परूबेद, तं-पुढविकाए जाब तसकाए, पढम भंते ! महब्वयं पचक्यामि सवं पाणाइवायं से मुहुभं वा वायर वा तसं वा थावरं वा नेव सयं पाणाइवायं करिजा ३ जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणसा बयसा कायसा तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति, तस्थिमा पढमा भावणा'तेणं कालेण'मित्यादि तेन कालेन' इति दुष्षमसुषमादिना 'तेन समयेन' इति विवक्षितेन विशिष्टेन कालेन सतोत्स-18 स्यादिकमभूदिति सम्बन्धः, तत्र 'पंचहत्थुत्तरे यावि हुत्था' इत्येवमादिना आरोग्गा आरोग्ग पसूर्य'त्ति, इत्येवमन्तेन ग्रन्थेन I भगवतः श्रीवर्द्धमानस्वामिनो विमानच्यवन ब्राह्मणीगर्भाधानं ततः शक्रादेशात्रिशलागर्भसंहरणमुत्पत्तिश्चाभिहिता, 'तत्थ
अनुक्रम [५१३...
५४०
45564
~564~
Page #565
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१७९]
दीप
अनुक्रम
[५१३...
५४०]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [१७९], निर्युक्ति: [ ३४१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शी०)
॥ ४२५ ॥
| पंचहत्थुत्तरेहिं होत्य'त्ति हस्त उत्तरो यासामुत्तरफाल्गुनीनां ता हस्तोत्तराः, ताश्च पञ्चसु स्थानेषु - गर्भाधानसंहरणजन्मदीक्षाज्ञानोत्पत्तिरूपेषु संवृत्ता अतः पशहस्तोत्तरो भगवानभूदिति, 'चवमाणे ण जाणइति आन्तर्मुहूर्त्तिकत्वाच्छद्मस्थो|पयोगस्य च्यवनकालस्य च सूक्ष्मत्वादिति, तथा 'अण्णं रयणी अरोया अरोयं पसूयन्ती' त्येवमादिना 'उप्पन्ननाणदंसणघरे गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं पञ्च महव्वयाई सभावणाई छज्जीवनिकायाई आइक्खई'त्येवमन्तेन ग्रन्थेन भगवतो वीरवर्द्धमानस्वामिनो जातकर्माभिषेकसंवर्द्धनदीक्षा केवलज्ञानोत्पत्तयोऽभिहिताः, प्रकटार्थे च सर्वमपि सूत्रं, साम्प्रतमुखन्नज्ञानेन भगवता पञ्चानां महाव्रतानां प्राणातिपातविरमण्णादीनां प्रत्येकं याः पञ्च पञ्च भावनाः प्ररूपितास्ता ब्याख्यायन्ते तत्र प्रथममहाव्रतभावनाः पञ्च तत्र प्रथमां तावदाह
Education Internation
इरियासमिए से निग्गंथे नो अणइरियासमिपत्ति, केवली बूया० - अणइरियासमिए से निम्गंथे पाणाई भूवाई जीवाई स ताई अभिनि वा बत्तिज वा परियाबिज वा लेसियन वा उद्दविज्ज वा, इरियासमिए से निग्गंधे नो इरियाअसमिइति पढमा भावणा १ । अहावरा दुधा भावणा-मणं परियाणइ से निमगंधे, जे य मणे पावए सावजे सकिरिए अण्ह्यकरे छेयकरे भेवकरे अहिगरणिए पाउसिए पारियाबिए पाणाइवाइए भूओवघाइए, तहत्यगारं मणं नो पधारिना गमणाए, मणं परिजाणइ से निग्गंथे, जे थ भणे अपावपत्ति दुचा भावणा २ । अहावरा तथा भावणा-वई परिजाणइ से निग्थे, जाय वई पाविया सावजा सकिरिया जान भूओवघाइया तहृप्पगारं वई नो उच्चारिजा, जे वई परिजाणइ से निग्गंथे, जाब व अपावियत्ति तथा भावणा ३ अहावरा चउत्था भावणा भयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए से निगंधे, नो
For Para Use Only
~565~
श्रुतस्कं०२ चूलिका ३
भावनाध्य.
।। ४२५ ।।
wor
Page #566
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७९]
दीप
अणायाणभंडमत्तनिक्सेवणासमिए, केवली वूया-आयाणभंङमत्तनिक्षेषणाअसमिए से निर्माथे पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई अभिहणिज्जा वा जाव उदविज वा, तम्हा आयाणभंडमत्तनिक्वेवणासमिए से निर्माथे, नो आयाणभंडनिक्खेवणाअसमिएत्ति चउत्था भावणा ४ । अहावरा पंचमा भावणा-आलोइयपाणभोयणभोई से निग्गथे नो अणालोइयपाणभोयणभोई, केवली बूया-अणालोईयपाणभोयणभोई से निगथे पाणाणि वा ४ अभिहणिज वा जाव उद्दविज वा, तम्हा आलोइयपाणभोयणभोई से निरगंथे नो अणालोईयपाणभोयणभोईत्ति पंचमा भावणा ५ । एयावता महव्वए सम्मं कारण फासिए पालिए तीरिए किट्टिए अवट्ठिए आणाए आराहिए यावि भवइ, पढमे भंते ! महब्बए पाणाइवायाओ वेरमणं ॥ अहावरं दुषं महब्वयं पञ्चक्खामि, सव्वं मुसाबार्य वइदोस, से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा नेव सर्व गुसं भासिज्जा नेवनेणं मुसं भासाविज्जा अन्नपि मुसं भासंतं न समणुमन्निज्जा तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते ! पडिकमामि जाव वोसिरामि, तस्सिमाओ पंच मावणाओ भवंति-तथिमा पढमा भावणा-अणुवीइभासी से निग्गंथे नो अणणुवीइभासी, केवली चूया०-अणणुवीइभासी से निगंथे समावजिज मोसं वयणाए, अणुवीइभासी से निम्नथे नो अणणुबीइभासित्ति पढमा भावणा । अहावरा दुचा भावणा-कोई परियाणइ से निग्गंथे नो कोहणे सिया, केवली बूयाकोहपत्ते कोहत्तं समावइजा मोसं वयणाए, कोहं परियाणइ से निग्गंथे न य कोहणे सियत्ति दुचा भावणा । अहावरा तथा भावणा-लोभ परियाणा से निगंथे नो अ लोभणए सिया, केवली बूया-लोभपत्ते लोभी समावइजा मोसं वयणाए, लोभं परियाणइ से निगाथे नो य लोभणए सियत्ति तथा भावणा । अहवरा चउत्था भावणा-भयं परिजाणइ से
अनुक्रम [५१३...
५४०
~566~
Page #567
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
श्रुतस्क०२
श्रीआचारावृत्तिः (शी०)
सूत्रांक
चूलिका ३ भावनाध्य.
[१७९]
॥४२६॥
दीप
निग्गंथे नो भयभीरुए सिया, केवली वूया-भयपत्ते भीरू समावइजा मोसं वयणाए, भयं परिजाणइ से निग्गये नो भयभीरुए सिया चउत्था भावणा ४ । अहावरा पंचमा भावण्या-हासं परियाणइ से निग्गंधे नो य हासणए सिया, केव० हासपत्ते हासी समावइजा मोसं वयणाए, हासे परिवाणइ से निमांथे नो हासणए सियत्ति पंचमी भावणा ५। एतावता दोचे महत्वए सम्म कारण फासिए जाव आणाए आराहिए यावि भवइ दुचे भंते ! महत्वए ।। अहावरं तचं भंते ! महत्वयं पञ्चक्खामि सव्वं अदिनादाणं, से गामे वा नगरे वा रत्ने वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंत वा नेव सयं अदिनं गिहिजा नेवन्नेहिं अदिन्नं गिहाविजा अदिन्नं अन्नपि गिण्हतं न समणुजाणिज्जा जावजीषाए जाव बोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति, तत्थिमा पढमा भावणा-अणुवीइ मिउग्गहं जाई से निग्गंधे नो अणणुवीइमिउगई जाई से निर्गथे, केवली बूया-अणणुवीइ मिउग्गई जाई निगंथे अदिनं गिण्हेजा, अणुवीइ मिजग्गहं जाई से निमाथे नो अणणुवीइ मिउम्गहं जाइत्ति पडमा भावणा १ । अहवरा दुशा भावणा-अणुनविय पाणभोयणभोई से निगथे नो अणणुनविज पाणभोवणभोई, केवली बूया-अणणुनविय पाणभोषणभोई से निगथे अदिन्नं मुंजिजा, तम्हा अणुनविय पाणभोषणभोई से निगधे नो अणणुनविय पाणभोयणभोईत्ति दुचा भावणा २ । अहवरा तच्चा भावणा-निग्गंथेणं उम्गहंसि उम्गहियंसि एतावताव उग्गहणसीलए सिया, केवली धूया-निम्माथेणं उम्गहसि अणुग्गहियसि एतावता अणुमाहणसीले अदिन्नं ओगिव्हिज्जा, निग्गंथेणं उग्गई उग्गहियंसि एतावताव उमाणसीलएति तथा भावणा । अहावरा चउत्था भावणा-निग्गयेणं उग्गहंसि उग्गहियंसि अभिक्खणं २ उग्गहणसीलए सिया, केवली बूया-निांघेणं
अनुक्रम [५१३...
५४०
॥४२६॥
~567
Page #568
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक [१७९]
दीप
अनुक्रम
[993...
५४०]
[भाग 2] “आचारमूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२. ], चुडा [३], अध्ययन [-] उद्देशक [-] मूलं [१७९] निर्मुक्तिः [ ३४१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
आ. सू. ७२
Education Internation
उग्गइंसि उ अभिक्खणं २ अणुग्गहणसीले अदिन्नं गिरिजा, निम्गंधे उग्गहंसि उग्गहियंसि अभिक्खणं २ उम्हणसीलपति चउत्था भावणा । अहावरा पंचमा भावणा- अणुवीर मिउग्गहजाई से निम्गंधे साहम्मिएसु नो अणणुवीई मिमाहजाई, केवली बूया --- अणणुबीइ मिउग्गहजाई से निम्मांधे साहम्मिएस अदिनं उगिदिला अणुवीइमिङमाहजाई से निग्गंथे साहम्मिएस नो अणणुबीइमिङगाइजाती इइ पंचमा भावणा, एतावया तचे महत्वए सम्मं० जाव आणाए आराहुए यावि भवइ, तयं भंते! महव्वयं । अहावरं चत्यं महत्वयं पशक्खामि सव्वं मेहुणं, से दिव्यं वा माणुस्सं वा तिरिक्खजोणियं वा नेव सयं मेहुणं गच्छेजा तं चेवं अदिन्नादाणवत्तन्वया भाणियव्वा जाव वोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणा भवति, तत्यिमा पढमा भावणानो निगंधे अभिक्खणं २ इत्थीणं कहूं कहिए सिया, केवली बूयानिग्थे णं अभिक्खणं २ इत्थीणं कहूं कहेमाणे संतिभेया संतिविभंगा संतिकेवलीपन्नत्ताओ धम्माओ भंसिना, नो निमगंथे णं अभिक्खणं २ इत्थीणं कहं कहित्तए सियति पढमा भावणा १ । अहावरा दुवा भावणानो निगांचे इत्थीणं मणोहराई २ इंदियाई आलोत्तर निज्झाइए सिया, केवली वूया-निमांचे णं इत्थीणं मणोहराई २ इंदियाई आलोएमाणे निव्झाएमाणे संतिभेया संतिविभंगा जाव धम्माओ भंसिज्जा, नो निग्ये इत्थीणं मणोहराई २ इंदियाई आलोइत्तर निज्झाइत्तए सियति दुवा भाषणा २ । अद्दावरा तथा भावणानो निग्गंथे इत्यीणं पुथ्वरयाई पुष्वकीलियाई सुमरित्तए सिया, केवली वूया - निम्गंचे णं इत्थीणं पुव्वरवाई पुञ्वकीलियाई सरमाणे संतिभेया जाव मंसिज्जा, नो निगंधे इत्थीगं पुव्वरयाई पुष्यकी - लियाई सरितर सियत्ति तथा भावणा ३ अहावरा चउत्था भावणानामत्तपाणमोयणभोई से निमांचे न पणीयर
For PaPa Lise Only
~568~
এ%%%%%%%%%%
Page #569
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[ १७९]
टीप
अनुक्रम
[973...
५४०]
[भाग 2] “आचारमूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२. ], चुडा [३], अध्ययन [-] उद्देशक [-] मूलं [१७९] निर्मुक्तिः [ ३४१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शी०)
॥ ४२७ ॥
Education Internationa
सभोवणभोई से निमांथे, केवली थूया -- अइमत्तपाणभोयणभोई से निमथे पणियरसभोयणभोई संतिभेया जाव भंसिना, नाझ्मत्तपाणभोयणभोई से निग्गंथे तो पणीयरसभोवणभोइत्ति चउत्था भावणा । अहावरा पंचमा भावणा-नो निगांथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्तए सिया, केवली बूया निमथे णं इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवेमाणे संविभेया जाब सिना, नो निग्गंथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्तए सियत्ति पंचमा भावणा ५, एतावया च महत्वए सम्मं कारण फासेइ जाव आराहिए यावि भवइ, वत्थं भंते! महस्वयं । अहावरं पंचमं भंते! महत्वयं सव्वं परिग्गदं पचक्खामि से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा धूलं वा चित्तमंतमचित्तं वा नेव सयं परिग गिव्हिजा नेवन्नेहिं परिग्गहं गिन्हाविजा अनंपि परममहं गिण्हतं न समणुजाणिज्जा जाव वोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवति, तत्थिमा पढमा भावणा-सोयओ णं जीवे [मणुन्ना ] मणुन्नाई सदाई सुणेइ मणुनामणुन्नेहिं सहेहिं नो
सजिजा नो रजिजा नो गोजा नो मुज्झि (च्छे )जा नो अज्झोववजिला नो विणिधाय मावा, केवली 'बूया निग्गंथे णं मणुनामणुन्नेहिं सद्देहिं सज्जमाणे रज्ञमाणे जाव विणिघायगावज्रमाणे संतिभेवा संतिविभंगा संतिकेवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसिना, न सका न सोड सद्दा, सोतविसयमागया । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ १ ॥ सोयओ जीवे मणुनामणुन्नाई सद्दाई सुणेइ पढमा भावणा १। अहावरा दुवा भावणा- चक्लूओ जीवो मणुन्नामणुन्नाई रुवाई पासइ मणुन्नामणुन्नेहिं रूवेहिं सजमाणे जाव विणिघायगावज्रमाणे संतिभेया जाव भंसिजा, नसका रुवनद, चक्लुविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्य, ते भिक्खु परिवज्जए ॥ १ ॥ चक्खूओ जीवो मणुन्ना २ रुवाई पासइ, दुवा भावणा ।
For Panal Lise Only
~569~
श्रुतस्कं० २ चूलिका ३
भावनाध्य.
।। ४२७ ।।
ar
Page #570
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
*
*-
प्रत सूत्रांक [१७९]
%--
0
R
दीप
%252%25A5%20%2595%%*
अहावरा तथा भावणा-पाणओ जीवे मणुना २ इं गंधाई अग्घायइ मणुनामणुनेहिं गंधेहि नो सजिजानो रजिजा जाव नो विणिधायमावज्जिज्जा केवली बूया-मणुनामणुन्नेहिं गंधेहिं सज्जमाणे जाब विणिधायमावजमाणे संतिभेया जाव भंसिज्जा, सका गंधमधाउं, नासाविसयमागयं । रागदोसा उ जे तस्थ, ते भिक्खू परिवजए ॥ १॥ पाणओ जीवो मणुन्ना २ई गंधाई अग्धायइत्ति तथा भावणा ३ । अहावरा चउत्था भावणा-जिब्भाओ जीवो मणुना २ ई रसाई अस्साएइ, मणुनामणुनेहिं रसेहिं नो सजिजा जाव नो विणिपायमावजिज्जा, केवली बूया-निगथे णं मणुनामणुनहिं रसेहि सजमाणे जाब विणिधायमावजमाणे संतिभेया जाव भंसिना, न सका रसमस्साउं, जीहाविसयमागयं । रागदोसा उजे तत्थ, ते भिक्खू परिवजए ॥१॥ जीहाओ जीवो मणुन्नारई रसाई अस्साएइत्ति चढत्या भावणा ४ । अहाबरा पंचमा भावणा-फासओ जीवो मणुना २ ई फासाई पडिसेवेएइ मणुनामणुनेहिं फासेहि नो सजिजा जाव नो विणिघायमावजिजा, केवली चूधा-निर्गधे णं मणुनामणुन्नेहिं फासेहिं सजमाणे जाव विणिधायमावजमाणे संतिभेया संतिविभंगा संतिकेवलीपन्नताओ धम्माओ भंसिना, सका फासमवेएड, फासविसयमागयं । रागहोसा० ॥ १॥ फासो जीवो मणुना २ ई फासाई पडिसंवेएति पंचमा भावणा ५। एतावता पंचमे महब्बते सम्म अवट्ठिए आणाए आराहिए यावि भवइ, पंचम भंते ! महत्वयं । इचएहिं पंचमहत्वएहिं पणवीसाहि य भावणाहिं संपन्ने अणगारे अहासुर्य अहाकप्पं अहामार्ग
सम्म कारण फासित्ता पालित्ता तीरित्ता किट्टित्ता आणाए आराहित्ता यादि भवइ ।। (सू०१७९) भावनाऽध्ययनम् ॥२-३॥ 'इरिया समिए' इत्यादि, ईरणं गमनमीर्या तस्यां समितो-दत्तावधानः पुरतो युगमात्रभूभागन्यस्तदृष्टिगामीत्यर्थः,
अनुक्रम [५१३...
44
५४०
~570~
Page #571
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
[१७९]
दीप
अनुक्रम
[५१३...
५४०]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [ - ], उद्देशक [-], मूलं [१७९], निर्युक्ति: [ ३४१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित..आगमसूत्र -[०१], अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शी०)
४२८ ॥
न त्वसमितो भवेत्, किमिति १, यतः केवली ब्रूयात्कर्मोपादानमेतद्, गमन क्रियायामसमितो हि प्राणिनः 'अभिहन्यात्' पादेन ताडयेत् तथा 'वर्त्तयेत्' अन्यत्र पातयेत्, तथा 'परितापयेत्' पीडामुत्पादयेत्, 'अपद्रापयेद्वा' जीविताद्व्यपरोपयेदित्यत ईर्यासमितेन भवितव्यमिति प्रथमा भावना, द्वितीयभावनायां तु मनसा दुष्प्रणिहितेन न भाव्यं तद्दर्शयति-यन्मनः 'पापकं' सावयं सक्रियम् 'अण्ड्यकरं ति कर्माश्रयकारि, तथा छेदनभेदनकरं अधिकरणकरं कलहकरं प्रकृष्टदोषं प्रदोषिकं तथा प्राणिनां परितापकारीत्यादि न विधेयमिति, अथापरा तृतीया भावना दुष्प्रसक्ता या वाकू प्राणिनामपकारिणी सा नाभिधातव्येति तात्पर्यार्थः तथा चतुर्थी भावना - आदानभाण्डमात्र निक्षेपणासमितिः, तत्र च निर्ग्रन्थेन साधुना समितेन भवितव्यमिति, तथाऽपरा पश्चमी भावना - 'आलोकित' प्रत्युपेक्षितमशनादि भोक्तव्यं, | तदकरणे दोषसम्भवादिति, इत्येवं पञ्चभिर्भावनाभिः प्रथमं व्रतं स्पर्शितं पालितं तीर्ण कीर्त्तितमवस्थितमाज्ञयाऽऽराधितं भवतीति । द्वितीयव्रतभावनामाह, तत्र प्रथमेयम् - अनुविचिन्त्यभाषिणा भवितव्यं तदकरणे दोष सम्भवात्, द्वितीय भावनायां तु क्रोधः सदा परित्याज्यो, यतः क्रोधान्धो मिथ्याऽपि भाषत इति, तृतीयभावनायां तु लोभजयः कर्त्तव्यः, तस्यापि मृषावादहेतुत्वादिति हृदयम्, चतुर्थ्यां पुनर्भयं त्याज्यं पूर्वोक्तादेव हेतोरिति पञ्चमभावनायां तु हास्यमिति, एवं पञ्चभिर्भावनाभिर्यावदाज्ञयाऽऽराधितं भवतीति । तृतीयत्रते प्रथमभावनैषा-अनुविचिन्त्य शुद्धोऽवग्रहो याचनीय इति द्वितीयभावना त्वाचार्यादीननुज्ञाप्य भोजनादिकं विधेयम्, तृतीया त्वेषा - अवग्रहं गृह्णता निर्मन्थेन साधुना ॥ ४२८ ॥ परिमित एवावग्रहो ग्राह्य इति, चतुर्थभावनायां तु 'अभीक्ष्णम्' अनवरतमवग्रहपरिमाणं विधेयमिति, पञ्चम्यां त्वनु
For Parts Only
श्रुतस्कं०२ चूलिका ३ भावनाध्य.
~571~
Page #572
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९], नियुक्ति: [३४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१७९]
विचिन्त्य मितमवग्रहं साधर्मिकसम्बन्धिनं गृह्णीयात् , इत्येवमाज्ञया तृतीयवतमाराधितं भवतीति । चतुर्थत्रते प्रथमेKायम्-स्त्रीणां सम्बन्धिनी कथां न कुर्यात्, द्वितीयायां तु तदिन्द्रियाणि मनोहारीणि नालोकयेत् , तृतीयायां तु पूर्व-14
क्रीडितादिन स्मरेत् , चतुर्थी नातिमात्रभोजनपानासेवी स्यात् , पञ्चम्यां तु खीपशुपण्डकविरहितशय्याऽयस्थानमिति । 18| पञ्चमन्नतभावना पुनरेपा श्रोत्रमाश्रित्य मनोज्ञान् शब्दान् श्रुत्वा न तत्र गाडी विदध्यादिति, एवं द्वितीयतृतीयच
तुर्थपश्चमभावनासु यथाक्रम रूपरसगन्धस्पर्शेषु गाय न कार्यमिति, शेष सुगम यावदध्ययनं समाप्तमिति ॥ भावनाख्यं| पञ्चदशमध्ययनं । तृतीया चूडा समातेति ॥ २-३-१५।
दीप
अनुक्रम [५१३...
उकं तृतीयचूडात्मकं भावनाख्यमध्ययनं, साम्प्रतं चतुर्थचूडारूपं विमुक्त्यध्ययनमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धःइहानन्तरं महाव्रतभावनाः प्रतिपादिताः तदिहाप्यनित्यभावना प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य च| त्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतमर्थाधिकार दर्शयितुं नियुक्तिकृदाह__ अणिचे पब्वए रुप्पे भुयगस्स तहा (या) महासमुद्दे य। एए खलु अहिगारा अज्झयणंमी विमुत्तीए ३४२
अस्थाध्ययनस्यानित्यत्वाधिकारः तथा पर्वताधिकारः पुना रूप्याधिकार तथा भुजगत्वगधिकार एवं समुद्राधिकारश्च, इत्येते पश्चार्थाधिकारास्तांश्च यथायोग सूत्र एव भणियाम इति ॥ नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे विमुक्तिरिति नाम, अस्य दाच नामादिनिक्षेपः उत्तराध्ययनान्त:पातिविमोक्षाध्ययनवदित्यतिदेष्टुं नियुक्तिकार आह
85%258
५४०
चतुर्था चूलिका- “विमुक्ति
~5724
Page #573
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
||||
दीप
अनुक्रम [५४१]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९...गाथा-१], निर्युक्ति: [३४३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः (afte)
॥ ४२९ ॥
जो चैव होइ मुक्खो सा उ विमुत्ति पगयं तु भावेणं । देसविमुक्का साह सव्वविमुका भवे सिद्धा ३४३ श्रुतस्कं०२ य एव मोक्षः सैव विमुक्तिः, अस्याश्च मोक्षवनिक्षेप इत्यर्थः प्रकृतम् - अधिकारो भावविमुक्तयेति, भावविमुक्तिस्तु ४ चूलिका ४ देशसर्व भेदाद्वेधा, तत्र देशतः साधूनां भवस्थकेवलिपर्यन्तानां सर्वविमुक्तास्तु सिद्धा इति, अष्टविधकर्मविघटनादिति ॥ ४ विमुक्तम्य. सूत्रानुगमे सूत्रमुञ्चारयितव्यं तथेदम्
अणिचमावासमुबिंति जंतुणो, पलोयए सुचमिणं अणुचरं । बिउसिरे चिन्नु अगारबंधणं, अभीर आरंभपरिग्राहं घर ॥ १ ॥ 'आवसन्त्यस्मिन्नित्यावासी - मनुष्यादिभवस्तच्छरीरं वा तमनित्यमुप - सामीप्येन यान्ति गच्छन्ति जन्तवः प्राणिन इति, चतसृष्वपि गतिषु यत्र यत्रोत्पद्यन्ते तत्र तत्रानित्यभावमुपगच्छन्तीत्यर्थः एतच्च मौनीन्द्रं प्रवचनमनुत्तरं श्रुत्वा 'प्रलोकयेत्' पर्यालोचयेद्, यथैव प्रवचनेऽनित्यत्वादिकमभिहितं तथैव लक्ष्यते दृश्यते इत्यर्थः एतच्च श्रुत्वा प्रलोक्य च विद्वान् 'व्युत्सृजेत्' परित्यजेत् 'अगारबन्धनं' गृहपाशं पुत्रकलत्रधनधान्यादिरूपं किम्भूतः सन् ? इत्याह'अभीरुः' सप्तप्रकारभयरहितः परीषहोपसर्गाप्रधृष्यश्च 'आरम्भ' सावद्यमनुष्ठानं परिग्रहं च सवाह्याभ्यन्तरं त्यजेदिति ॥ १ ॥ साम्प्रतं पर्वताधिकारे, -
तहागयं भिक्खुमणंतसंजयं, अणेलिसं विन्न चरंतमेसणं । तुदंति वायाहि अभिदवं नरा, सरेहिं संगामगयं व कुंजरं ॥ २ ॥ तथाभूतं साधुम् - अनित्यत्वादिवासनोपेतं व्युत्सृष्टगृहबन्धनं त्यकारम्भपरिग्रहं तथाऽनन्तेष्वेकेन्द्रियादिषु सम्यग् यतः संयतस्तम् 'अनीदृशम्' अनन्यसदृशं 'विद्वांसं' जिनागमगृहीतसारम् 'एषणायां चरन्तं' परिशुद्धाहारादिना वर्त्तमानं,
Eaton International
For Para Use Only
~573~
॥ ४२९ ॥
war
Page #574
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
||R||
दीप
अनुक्रम [५४२ ]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” - अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९...गाथा-२], निर्युक्ति: [३४३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र [०१], अंग सूत्र [०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य कृत् वृत्तिः
तमित्थंभूतं भिक्षं 'नरा': मिथ्यादृष्टयः पापोपहतात्मानः 'वाग्भिः' असभ्यालापैः 'तुदन्ति' व्यथन्ते, पीडामुत्सादयन्तीत्यर्थः तथा लोष्टप्रहारादिभिरभिद्रवन्ति च कथमिति दृष्टान्तमाह- शरैः सङ्ग्रामगतं कुञ्जरमिव ॥ २ ॥ अपिचतहपगारेहिं जणेहिं हीलिए, ससदफासा फरसा उईरिया । तितिक्खए नणि अदुद्वचेयसा, गिरिव्व वाएण न संपवेयर ॥ ३ ॥
' तथाप्रकारैः' अनार्यप्रायैर्जनैः 'हीलितः' कदर्शितः, कथं १, यतस्तैः परुषास्तीब्राः सशब्दाः-साक्रोशाः स्पर्शाः शीतो ष्णादिका दुःखोसादका उत्-प्राबल्येनेरिता जनिताः कृता इत्यर्थः, तांश्च स मुनिरेवं हीलितोऽपि 'तितिक्षते' सम्यकुसहते, यतोऽसौ 'ज्ञानी' पूर्वकृतकर्मण एवायं विपाकानुभव इत्येवं मन्यमानः, 'अदुष्टचेताः' अकलुषान्तःकरणः सन् 'न तैः संप्रवेपते' न कम्पते गिरिरिव वातेनेति ॥ ३ ॥ अधुना रूप्यदृष्टान्तमधिकृत्याह
उबेहमाणे कुसलेहिं संबसे, अकंतदुक्खी तस्थावरा दुही । अलूस सव्वसहे महामुनी, तहा हि से सुस्समणे समाहिए ॥ ४ ॥ 'उपेक्षमाणः' परीषहोपसर्गान् सहमान इष्टानिष्टविषयेषु वोपेक्षमाणो - माध्यस्थ्यमवलम्बमानः 'कुशलैः' गीतार्थैः सह संवसेदिति, कथम् ?, अकान्तम्- अनभिप्रेतं दुःखम् - असातावेदनीयं तद्विद्यते येषां त्रसस्थावराणां तान् दुःखिनस्त्रसस्थावरान् 'अलूषयन्' अपरितापयन् पिहिताश्रवद्वारः पृथ्वीवत् 'सर्वसहः' परीषहोपसर्गसहिष्णुः 'महामुनिः' सम्यगूजगत्रयस्वभाववेत्ता तथा ह्यसौ सुश्रमण इति समाख्यातः ॥ ४ ॥ किञ्च --
Education Internation
विऊ नए धम्मपदं अणुत्तरं, विणीयत्तहस्स मुणिस्स झायओ । समाहियस्सऽग्निसिहा व तेयसा, तवो य पन्ना य जसो य बढइ ||५|| ‘विद्वान्' कालज्ञः ‘नतः' प्रणतः प्रह्नः, किं तत् ? - 'धर्मपद' क्षान्त्यादिकं किंभूतम् -'अणुतरं' प्रधानमित्यर्थः,
For Penal Use On
~574~
www.anibrary or
Page #575
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९...गाथा-9], नियुक्ति: [३४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा- रावृत्तिः (शी०)
॥४३०॥
सूत्राक ||५|| दीप अनुक्रम [५४५]]
तस्य चैवंभूतस्य मुनेविंगततृष्णस्य ध्यायतो धर्मध्यानं 'समाहितस्य' उपयुक्तस्याग्निशिखावत्तेजसा ज्वलतस्तपः प्रज्ञा यशश्च श्रुतस्क०२ वर्द्धत इति ॥ ५॥ तथा
चूलिका ४ दिसोदिसंऽणंतजिणेण ताइणा, महन्वया खेमपया पवेइया । महागुरू निस्सयरा उईरिया, तमेव तेउत्तिदिसं पगासगा ॥६॥ | विमुक्त्य. | "दिशोदिशमिति सर्वास्वप्येकेन्द्रियादिषु भावदिक्षु 'क्षेमपदानि' रक्षणस्थानानि 'प्रवेदितानि' प्ररूपितानि, अनन्त-|
चासौ ज्ञानात्मतया नित्यतया वा जिनश्च-रागद्वेषजयनादनन्तजिनस्तेन, किंभूतानि ब्रतानि?-'महागुरूणि' कापुरुष-| |दुर्वहत्वात् 'निःस्वकराणि' स्व-कर्मानादिसम्बन्धात्तदपनयनसमर्थानि निःस्वकराणि 'उदीरितानि' आविष्कृतानि तेजस | इव तमोऽपनयनानिदिशं प्रकाशकानि, यथा तेजस्तमोऽपनीयोधिस्तिर्यक् प्रकाशते एवं तान्यपि कर्मतमोऽपनयनहेतुत्वात्रिदिर्श प्रकाशकानीति ।। ६॥ मूलगुणानन्तरमुत्तरगुणानिधित्सयाऽऽहसिएहिं भिक्खू असिए परिव्वए, असजमित्थीसु चइज पूयणं । अणिस्सिओ लोगमिणं तहा पर, न मिजई कामगुणेहिं पंडिए । KI सिताः-बद्धाः कर्मणा गृहपाशेन रागद्वेषादिनिबन्धनेन वेति गृहस्था अन्यतीथिका वा तैः 'असितः' अबद्धः-तैः साई| सङ्गमकुर्वन् भिक्षुः 'परिव्रजेत् संयमानुष्ठायी भवेत् , तथा स्त्रीषु 'असजन्' सङ्गमकुर्वन पूजनं त्यजेत्-न सत्कारासिलापी भवेत् , तथा 'अनिश्रितः' असंबद्धः 'इहलोके' अस्मिन् जन्मनि तथा 'परलोके' वर्गादाविति, एवंभूतश्च 'कामगुणः'। मनोज्ञशब्दादिभिः 'न मीयते' न तोल्यते न स्वीक्रियत इतियावत् 'पण्डितः' कटुविपाककामगुणदशीति ॥७॥
M॥४३॥ तहा विमुखस्स परिभचारिणो, थिईमओ दुक्खसमस्स भिक्खुणो। विसुज्झई जंसि मलं पुरेकर्ड, समीरियं रुपमलं व जोषणा |pl
~5754
Page #576
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९...गाथा-८], नियुक्ति: [३४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-०१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
ACASSAC+
||८||
दीप अनुक्रम [५४८]
KI 'तथा' तेन प्रकारेण मूलोत्तरगुणधारित्वेन विमुक्तो-निसङ्गस्तस्य, तथा परिज्ञानं परिज्ञा-सदसद्विवेकस्तया चरितुं
शीलमस्येति परिज्ञाचारी-ज्ञानपूर्व क्रियाकारी तस्य, तथा धृतिः-समाधानं संयमे यस्य स धृतिमांस्तस्य, दुःखम्-असा-|| तावेदनीयोदयस्तदुदीर्ण सम्यक् क्षमते-सहते, न वैलव्यमुपयाति नापि तदुपशमार्थ वैद्यौषधादि मृगयते, तदेवभूतस्य भिक्षोः पूर्वोपात्तं कर्म 'विशुध्यति' अपगच्छति, किमिव ?- समीरितं' प्रेरितं रूप्यमलमिव 'ज्योतिषा' अग्निनेति ॥८॥ साम्प्रतं भुजङ्गत्वगधिकारमधिकृत्याह
से हु परिनासमयंमि वहई, निराससे उवरय मेहुणा चरे । भुयंगमे जुन्नत्यं जहा भए, विमुचई से दुहसिज माहणे ॥ ९॥ | 'स' एवंभूतो भिक्षुर्मूलोत्तरगुणधारी पिण्डैपणाध्ययनार्थकरणोयुक्तः परिज्ञासमये वर्तते, तथा 'निराशंसः' ऐहिका-| मुष्मिकाशंसारहितः, तथा मैथुनादुपरतः, अस्य चोपलक्षणत्वादपरमहाव्रतधारी च, तदेवंभूतो भिक्षुर्यथा सर्पः कचुकं
मुक्त्वा निर्मलीभवति एवं मुनिरपि 'दुःखशय्यातः' नरकादिभवाद्विमुच्यत इति ॥९॥ समुद्राधिकारमधिकृत्याह-|| * जमाहु ओहं सलिलं अपारवं, महासमुई व भुयाहि दुत्तरं । अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुणी अंतकडेत्ति बुचई ॥ १०॥ । का 'य' संसारं समदमिव भुजाभ्यां दुस्तरमाहुस्तीर्थकृतो गणधरादयो वा, किम्भूतम् -ओषरूपं, तत्र द्रव्यौपः सलिलप्रवेशो भावौष आस्रवद्वाराणि, तथा मिथ्यात्वाद्यपारसलिलम् , इत्यनेनास्य दुस्तरत्वे कारणमुक्तम् , अथैनं संसारसमुद्रमेवंभूतं ज्ञपरिज्ञया सम्यग जानीहि प्रत्याख्यानपरिज्ञया तु परिहर 'पण्डितः' सदसद्विवेकज्ञः, स च मुनिरेवंभूतः कर्मणोऽन्तकृदुच्यते ॥१०॥ अपिच
For P
OW
~576~
Page #577
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [H], मूलं [१७९...गाथा-११], नियुक्ति: [३४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रुतस्कं०२ चूलिका ४
+
विमुक्तय.
प्रत सूत्रांक ||११||
+
दीप अनुक्रम [५५१]
श्रीआचा- जहा हि बद्धं इह माणवेडिं, जहा व तेसिं तु विमुक्ख आहिए । अहा तहा बन्धविमुक्त जे विऊ, से हु मुणी अंतकडेत्ति बुच्चई ॥११॥ रावृत्तिः 'यथा' येन प्रकारेण मिथ्यात्वादिना 'बझं कर्म प्रकृतिस्थित्यादिनाऽऽस्मसात्कृतम् 'इह' अस्मिन् संसारे मानवैः'
(शी०) | मनुष्यैरिति तथा यथा च सम्यग्दर्शनादिना तेषां कर्मणां विमोक्ष आख्यातः इत्येवं याथातथ्येन बन्धविमोक्षयोर्यः सम्य-| ॥४३१॥
वेत्ता स मुनिः कर्मणोऽन्तकृदुच्यते ॥ किश्च
इममि लोए परए य दोसुवि, न विजई बंधण जस्स किंचिति । से हु निरालंबणमप्पट्ठिए, कलंकलीभावपहं
विमुपद ॥ १२ ॥ त्तिवेमि ।। विमुत्ती सम्मत्ता ॥२-४ ॥ आचाराङ्गसूत्रं समाप्तं ।। प्रन्था २५५४॥ MI अस्मिन् लोके परत्र च द्वयोरपि लोकयो यस्य बन्धनं किञ्चनास्ति सः 'निरालम्बन' ऐहिकामुष्मिकार्शसारहितः। IPII अप्रतिष्ठितः' न कचित्प्रतिबद्धोऽशरीरी वा स एवंभूतः 'कलंकलीभावात्' संसारगर्भादिपर्यटनाद्विमुच्यते ॥ अवीमीति
पूर्ववत् ॥ उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नया, ते च ज्ञानक्रियानययोरवतरन्ति, तत्र ज्ञाननयः प्राह-यथा ज्ञानमेवैहिकामुदष्मिकार्थावाप्तये, तदुक्तम् -"णायम्मि गिहिअब्वे अगिहिअव्वंमि चेव अत्थंमि । जइअव्वमेव इइ जो उबएसो|
सो णओ नाम ॥१॥" यतितव्यमिति ज्ञाने यलो विधेय इति य उपदेशः स नयो नामेति-स ज्ञाननयो नामेत्यर्थः । X|| क्रियानयस्विदमाह-"क्रियेव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत Kilm१॥" तथा "शाखाण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि
किं ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ॥१॥" तथा-णायमित्यादि, ज्ञातयोरपि ग्राह्यग्राहकयोरधयोस्तथाऽपि यतितव्यमेवेति
+
+%ES
~5773
Page #578
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०१)
प्रत
सूत्रांक
||१२||
दीप
अनुक्रम [५५२]
[भाग-2] “आचार”मूलं ” – अंगसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन [-], उद्देशक [-], मूलं [१७९... गाथा- १२], निर्युक्तिः [३४३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित.. आगमसूत्र - [०१] अंग सूत्र -[०१] "आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्तिः
Jain Education Internati
क्रियैवाभ्यसनीयेति, इति यो नयः स क्रियानयो नामेति, एवं प्रत्येकमभिसन्धाय परमार्थोऽयं निरूप्यते— 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति, तथा चागमः- “सब्बेसिंपि नयाणं बहुविहवत्तन्वंय निसामित्ता । तं सध्वनयविसुद्धं जं चरणगुणडिओ साह ॥ १ ॥" चरणं क्रिया गुणो-ज्ञानं तद्वान् साधुर्मोक्षसाधनायालमिति तात्पर्यार्थः ॥
आचारटीकाकरणे यदा, पुण्यं मया मोक्षगमैकहेतुः । तेनापनीयाशुभराशिमुचैराचारमार्गप्रवणोऽस्तु लोकः ॥ १ ॥ अन्त्ये निर्युक्तिगाथाः
आपारस्स भगवओ चउत्थचूलाइ एस निज्जुक्ती । पंचमचूलनिसीहं तस्स य उवरिं भणीहामि ॥ ३४४॥ सतहिं छहिं चञ्चहिय पंचहि अट्ठट्ठचउहि नायव्वा । उद्देसएहिं पढमे सुयखंधे नव य अज्झयणा ३४५ इकारस तिति दोदो दोदो उद्देसएहिं नायब्वा । सत्तयअट्ठयनवमा इक्कसरा हुंति अज्झयणा ॥ ३४६ ॥
॥ इतिश्रीआचाराङ्गनिर्युक्तिः ॥
पाहणे महसदो परिमाणे चेव होइ नायव्वो । पाहणे परिमाणे य छन्विहो होइ निक्खेवो ॥ १ ॥ दब्बे खेते काले भावमि य होंति या पहाणा उ । तेसि महासदो खलु पाहण्णेणं तु निष्पन्नो ॥ २ ॥ दव्वे खेते काले भावंभि य जे भवे महंता उ । तेसु महासदो खलु पमाणओ होंति निष्कन्नो ॥ ३ ॥ दच्चे खेत्ते काले भावपरिण्णा य होइ बोद्धव्वा । जाणणओववक्खणओ य दुबिहा पुणेक्केका ॥ ४ ॥
For Pets Use Ony
~578~
Page #579
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०१)
[भाग-2] “आचार"मूलं "-अंगसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:)
श्रुतस्कंध [२.], चुडा [३], अध्ययन ], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [३४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित..आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[१] “आचार" "मूलं एवं शिलांकाचार्य-कृत् वृत्ति:
श्रीआचा
राजवृत्तिः (शी०)
भावपरिण्णा दुविहा गूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे पंचविहा दुविहा पुण उत्तरगुणेसु ॥५॥ पाहपणेण उ पगयं परिण्णाएय तहय दुविहाए । परिणाणेसु पहाणे महापरिण्णा तओ होइ ॥६॥ देवीणं मणुईणं तिरिक्खजोणीगयाण इत्थीणं । तिविहेण परिश्चाओ महापरिणाए निज्जुत्ती ॥७॥
अविवृता नियुक्तिरेषा महापरिज्ञायाः, अविवृता इत्यत्रोपन्यस्ताः ।
श्रुतस्क०२ चूलिका ४ | विमुत्स्य.
॥४३२॥
॥ इत्याचार्यश्रीशीलाङ्कविरचितायामाचारटीकायां द्वितीयश्रुतस्कन्धः समाप्तः,
समाप्तं चाचाराङ्गामिति ॥ ॥ ग्रन्थानम् १२०००॥ इति श्रीमदाचाराङ्गाविवरणं श्रीशीलाङ्काचायीयं समाप्तम् ।
॥४३२॥
आचाराङ्गसूत्र श्रुतस्कन्ध-१, अध्यननानि ३ से ९ एवं श्रुतस्कन्ध-२ मूलं एवं शीलांकाचार्य रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्यपाद् आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि)
~579~
Page #580
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नम:
भाग-2
पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “आचारागसूत्र" [मूलं, भद्रबाहूस्वामी रचित निर्यक्ति: एवं शिलांकाचार्य विहित वृत्ति:]
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित:
"आचार" मूलं एवं वृत्ति:” नामेण श्रुतस्कंध-१,अध्ययन ३-९ एवं श्रुतस्कंध-२ परिसमाप्त:
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि श्रेणि, भाग-2
~580
Page #581
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग
कुलपृष्ठ ३१४
૮૬
४९८
३९२
५९४
४९४
३३८ ५९२
सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मुलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११
| आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक-१२ से २० 11 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
५५२ ५१४ ३८४
५२२
५३८
३८४ ३१४ ४८० ४८८ ૪૨૬ ५१४ ३३६ ६१०
~581~
Page #582
--------------------------------------------------------------------------
________________
कलपृष्ठ
६१४
३७६
४२६
३४४
३१२
३३०
४६६
४४२
सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 22 | आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. 23 | आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. 24 | आगम१८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मुलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४.
| आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से ७. 26 | आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,
____ भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया 27 | आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मुलं एवं छाया, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मुलं एव 28 | | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति- १ से ५२१ 29 | | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, निर्यक्ति- ५२२ से ९५१ 30 | | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण) 31 | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) 32 | | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति..
| आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. 34 | | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 | | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन-१ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ 38 आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति.
| आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसासूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
४६४
।
४२६
४७२
३७६
५९०
५२२
४८२
४६६
५२८
39 |
५६०
३९४
~582
Page #583
--------------------------------------------------------------------------
________________
ਹਾਲ ਸਭਾ ਵਾਲ
ਵਾਰ
ਕਰ ਕਰ
I
ਕ30TH
वाचना शताब्दी वर्ष
ਨੂੰ ਉਹ ਤਲ ਤਕ ਪੜਨ ਰੈਲ ਨੂੰ ਕਸ ਕਸ
ਚ ਬਸ ਸਾਲ ਬੂਝੇ
ਸਭ
ਨ
* 583 ~
Page #584
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमो नमो निम्मलदसणस्स -
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
Sentenera
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] ,
dowlnawwaitani
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855198253062751
~584~
Page #585
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
COFITE OFF OE
QUO
~585~
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
Page #586
--------------------------------------------------------------------------
________________ | आजम आजम आजम आम आगम आद मागम आजम मूल संशोधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आग आम आजम आजम आगम आगम आजम आगम आगम - 01 'आचार' मूलं एवं वृत्ति: 2 आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आजम आजम आजम आजम आजम आजम आजम आज ~586