Book Title: Chikitsa Chandrodaya Part 05
Author(s): Haridas
Publisher: Haridas
Catalog link: https://jainqq.org/explore/020158/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir sons 01ms MA र पञ्चम संस्करण दो-चार बातें। पर भक्तवत्सल भक्तभयहारी आनन्दकन्द भगवान् कृष्णचन्द्रको अनेकानेक धन्यवाद हैं, जिनकी असीम कृपासे "चिकित्सा-चन्द्रोदय" भी आज "स्वास्थ्यरक्षा"की तरह घर-घरकी रामायण होता जा रहा है। उनकी कृपा बिना, जनता इस नगण्य तुच्छातितुच्छ लेखकके लिखे ग्रन्थोंका इतना आदर करती हुई इन्हें न अपनाती। जनताकी कृपाका ही फल है कि इस ग्रन्थके संस्करण-पर-संस्करण हो रहे हैं। सन् १८३४ ई० में इस पाँचवें भागका तीसरा संस्करण हुआ। सन् १६३६ में चौथा संस्करण हुआ और सन् १९३७ के आरम्भमें ही इसका पाँचवाँ संस्करण हो गया है । मुझे आशा नहीं थी कि मैं इस भागका पाँचवाँ संस्करण भी अपनी आँखोंसे देख सकूँगा। गत १५ मार्च १६३७ को मुझे यमसदनसे बुलावा आ गया था। घण्टे-आध-घण्टेकी देर थी कि अचानक फिर होश हो गया। यमदूत मुझे ले जाते हुए भी छोड़ गये । मालूम नहीं, भक्तवत्सलकी क्या इच्छा है। मैं उस इच्छामयकी इच्छामें ही सन्तुष्ट हूँ। अब मुझे संसार और संसारी पदार्थोंसे एकदम विरक्ति हो गई है । अब जितने दिन शेष हैं उतने दिन उनकी आराधना और जनता-जनार्दनकी सेवामें बिताऊँगा। लोग चाहे जो समझे, मैं तो परोपकार-जन्य पुण्यको सर्वोपरि समझकर ही, इन दोतीन सालोंमें कई बार अपनी पुस्तकों और दवाओंको आधी कीमतमें दे चुका हूँ। अब मुझे मोटा कपड़ा पहननेको और बेझरकी रोटी खानेको चाहिये। इससे अधिकके लिए तृष्णा नहीं । आशा है, जनता मुझपर और मेरे चिरञ्जीव राजेन्द्रपर इसी तरह दयादृष्टि बनाये रखेगी और इन पुस्तकोंके संस्करण-पर-संस्करण होते रहेंगे। विनीत निवेदक मथुरा ५-४-१९३७ } हरिदास । For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अचूक गर्भदाता योग अगर आपके या आपके किसी मित्र पड़ौसी के सन्तान नहीं होती है तो चिकित्सा - चन्द्रोदय पाँचवें भाग के सफ़ा ४३२ का नं० २७ नुसखा ( छोटी पीपल, सोंठ वग़ैरह ) ऋतु स्नान के चौथे दिन सेवन कराइये । अवश्य सन्तान होगी । a. श्री. कैलाससागर मुरि ज्ञान श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय पृष्ठांक विषय पृष्ठांक पहला अध्याय। दूषी विष क्यों कुपित होता है ? १५ विष-वर्णन दूषी विषकी साध्यासाध्यता १५ विषकी उत्पत्ति कृत्रिम विष भी दूषी विष विषके मुख्य दो भेद गरविषके लक्षण जंगम विषके रहने के स्थान ४ गरविषके काम जंगम विषके सामान्य कार्य ६ स्थावर विषके कार्य स्थावर विषके रहने के स्थान ६ स्थावर विषके सात वेग १७ कन्द-विष । दूसरा अध्याय । कन्द-विषोंकी पहचान सर्व विष चिकित्सामें याद कन्द-विषोंके उपद्रव रखने योग्य बातें ... १६ अाजकल काममें आनेवाले कन्दविष । अशुद्ध विष हानिकारक तीसरा अध्याय। विषमात्रके दश गुण स्थावर विषोंकी सामान्य दशगुणोंके कार्य चिकित्सा ............ दूषी विषके लक्षण वेगानुसार चिकित्सा दूषी विष क्या मृत्युकारक नहीं होता१२ स्थावर विष नाशक नुसन दूषी विषकी निरुक्ति १२ अमृताख्य घृत स्थान विशेषसे दूषी विषके लक्षण १३ महासुगन्धि अगद . दूषी विषके प्रकोपका समय १४ मृत सञ्जीवनी प्रकुपित दूषी विषके पूर्वरूप १४ विषघ्न यवागू प्रकुपित दूषी विषके रूप १४ अजेय घृत दूषी विषके भेदोंसे विकार-भेद १४ महासुगन्ध हस्ती अगद For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ ८ ३ [ २ ] विषय पृष्ठांक विषय पृष्ठांक क्षारागद धतूरा शोधने की विधि संक्षिप्त स्थावर-विष चिकित्सा ३५ औषधि-प्रयोग सर्व विष नाशक नुसने ३६ धतूरेके विषकी शान्तिके उपाय ७५ चौथा अध्याय । चिरमिटी और उसकी शान्ति ७६ औषधि-प्रयोग विष-उपविषोंकी चिकित्सा ३६ | भिलावे और उसकी शान्ति ७८ वत्सनाभ विषकी शान्ति ४० भिलावे शोधनेकी तरकीबें विष-शोधन-विधि विषपर विष क्यों ? भिलावे सेवनमें सावधानी ४२ औषधि-प्रयोग नित्य विष-सेवन-विधि विष सेवनके अयोग्य मनुष्य भिलावा-विष-नाशक उपाय विष सेवनपर अपथ्य भाँगका वर्णन कुछ रोगोंपर विषका उपयोग भाँगके चन्द नुसख वत्सनाभ विषको शान्तिके उपाय ४७ भाँगका नशा नाश करने के उपाय ११ संखिया विषकी शान्ति ४८ जमालगोटेका वर्णन संखियावालेको अपथ्य ११ शोधन-विधि जमालगोटेसे हानि । संखिया-विष-नाशक उपाय शान्तिके उपाय आक और उसकी शान्ति औषधि प्रयोग श्राकके उपयोगी नुसन १७ अफ़ीमका वर्णन थूहर और उसकी शान्ति ६२ औषधि-प्रयोग कलिहारी और उसकी शान्ति ६४ साफ अफ्रीमकी पहचान कलिहारीसे हानि अफीम शोधनेकी विधि ११५ विष-शान्तिके उपाय हमेशा अफ्रीम खानेवालोंकी दशा ११६. औषधि-प्रयोग अफ़ीम छोड़ते समयकी दशा ११६ कनेर और उसकी शान्ति ६७ अफीमका ज़हरीला असर १२० कनेरसे हानि अफ़ीम-छुड़ानेकी तरकीबें - १२२ कनेरके विषकी शान्तिके उपाय ६८ | अफ्रीम-विष-नाशक उपाय १२४ औषधि-प्रयोग . ६६ | कुचलेका वर्णन . १३० धतूरा और उसकी शान्ति : ७० | कुचलेके गुण-अवगुण प्रभृति १३० ou www w w ____६५ ० ० For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३ ४ चिकित्सा पराक्षा १४७ विषय पृष्ठांक | विषय पृष्ठांक कुचलेके विकार और धनुस्तम्भके चिकित्सा लक्षणोंका मुकाबिला १३२ | सवारियोंपर विषके लक्षण १५६ कुचलेका विष उतारनेके उपाय १३४ १५७ औषधि-प्रयोग १३५ नस्य, हुक्का, तम्बाकू और जल-विष-नाशक उपाय १४३ १५७ शराब उतारनेके उपाय १४३ | चिकित्सा कानके तेल में विषके लक्षण । १५८ सिंदूर, पारा, आदिकी शान्ति१४४ चिकित्सा शत्रुओ द्वारा माजनमान, तल अञ्जनमें विषके लक्षण १५८ और सवारी आदिमें प्रयोग चिकित्सा १५८ किये हुए विषोंकी चिकित्सा १४५ खड़ाऊँ, जूते और गहनोंमें विष १५८ विष देनेकी तरकीबें - चिकित्सा विष-मिले भोजनकी परीक्षा विष-दूषित जल गन्ध या भाफसे विष-परीक्षा १४८ | जल-शुद्धि-विधि १६० चिकित्सा १४८ विष-दूषित पृथ्वी ग्रासमें विष-परीक्षा | पृथ्वी-शुद्धिका उपाय १६१ चिकित्सा विष-मिली, धुआँ और हवाकी दाँतुन-प्रभृतिमें विष-परीक्षा १४६ । शुद्धिके उपाय चिकित्सा विष-नाशक संक्षिप्त उपाय १६२ पीने के पदार्थों में विष-परीक्षा ११० साग-तरकारीमें विष-परीक्षा गर-विष-नाशक नुसख आमाशयगत विषके लक्षण .. चिकित्सा १५१ । पक्वाशयगत विषके लक्षण १५२ जंगम विष-चिकित्सा। . . चिकित्सा सर्प-विष चिकित्सा . १६७ मालिश कराने के तेलमें विष-परीक्षा १५४ | साँपोंके दो भेद . १६७ .. चिकित्सा . १५४ दिव्य सों के लक्षण . १६७ अनुलेपनमें विषके लक्षण १५५ पार्थिव सर्पो के लक्षण ... १६८ ____ चिकित्सा १५५ साँपोंकी पैदायश :१६८ मुखलेपगत विषके लक्षण .. १५६ साँपोंके डाढ़-दाँत : १६६ १५० ११० १६४ दूसरा खण्ड १५३ For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४ ] १७१ १७३ १७४ 'विषय पृष्ठांक | विषय पृष्ठांक साँपोंकी उम्र और उनके पैर १७० सात वेगोंके लक्षण १८५ सापिन तीन तरहके बच्चे जनतो है१७० दीकर सपके विषके सात वेग १८७ साँपोंकी किस्में मण्डली ,, , १८८ साँपोंके पाँच भेद राजिल ,, , १८८ साँपोंकी पहचान १७२ पशुत्रोंमें विष-वेगके लक्षण १८६ भोगी पक्षियोंके विष-वेगके लक्षण १८६ मण्डली १७३ मरे हुए और बेहोश हुएकी पहचान१८६ राजिल सर्प-विष चिकित्सामें याद रखनेनिर्विष १७५ ___ योग्य बातें दोगले १७५ सर्प-विषसे बचानेवाले उपाय २१४ साँपोंके विषकी पहचान १७५ सर्प-विष-चिकित्सा देश-कालके भेदसे साँपोंके विष वेगानुसार चिकित्सा असाध्य १७६ । दीकरोंको वेगानुसार चिकित्सा २१८ सर्पके काटनेके कारण १७८ मण्डलीकी वेगानुरूप चिकित्सा २१६ सर्पके काटनेके कारण जाननेके राजिलकी वेगानुसार चिकित्सा २१६ ___ तरीक १७६ दोषानुसार चिकित्सा २२० सर्प-दंशके भेद उपद्रवानुसार चिकित्सा विचरनेके समयसे साँपोंकी विषकी उत्तर-क्रिया २२२ पहचान विष-नाशक अगद २२३ अंवस्था-भेदसे सर्प-विषकी तेज़ी ताय? अगद २२३ - मन्दी महा अगद साँपोंके विषके लक्षण १८२ दशांग धूप २२४ दीकरके विषके लक्षण १८२ अजित अगद 'मण्डली , , १८२ चन्द्रोदय अगद २२१ राजिल , " १८३ ऋषभ अगद 'विषके लक्षण जाननेसे लाभ । अमृत घृत २२६ साँप-साँपिन प्रभुतिके डसनेके नागदन्त्यादि घृत २२६ - लक्षण १८३ ताण्डुलीय घृत २२७ 'विषके सात वेग . १८४ । मृत्युपाशापह घृत २२७ २२२ १८१ १८१ २२४ २२५ २२१ १८३ For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४६ [ ५ ] विषय पृष्ठांक विषय पृष्ठांक सर्प-विषकी सामान्य चिकित्सा २२८ बर-विष-नाशक नुसन २१६ सर्प-विष-नाशक नुसख २२८ चींटियोंके काटेकी चिकित्सा २६६ सर्प-विषकी विशेष चिकित्सा चोटियोंसे बचनेके उपाय . ३०० दर्बीकर और राजिलकी अगद २४६ चींटीके काटने पर नुसख ३०१ मण्डली सर्पकी अगद २४६ गुहेरेके विषकी चिकित्सा २४७ कीट-विष-नाशक नुसख्ने ३०१ कनखजूरेकी चिकित्सा २४८ बिल्लीके काटेकी चिकित्सा ३०४ बिच्छू-विष-चिकित्सा २५० नौलेके काटेकी चिकित्सा ३०४ बिच्छू-विष-चिकित्सामें याद रखने नदीका कुत्ता, मगर, मछली - योग्य बातें __ आदिके काटेका इलाज ३०५ बिच्छू-विष-नाशक नुसखे २६० आदमीके काटेका इलाज ३०५ मूषक-विष-चिकित्सा २७४ लापरवाहीका नतीजा-प्राणनाश २७४ छिपकलीके विषकी चिकित्सा ३०६ चूहे भगानेके उपाय २७८ श्वान-विष-चिकित्सा ३०७ चूहोंके विषसे बचनेके उपाय २७८ बावले कुत्ते के लक्षण ३०७ अाजकलके विद्वानोंकी अनुभूत कुत्त' बावले क्यों हो जाते हैं ? ३०८ बातें पागल कुत्ते के काटेके लक्षण ३०८ चूहेके विषपर आयुर्वेदकी बातें २८३ पागलपनके असाध्य लक्षण ३०८ मूषक विष-चिकित्सामें याद रखने हिकमतसे बावले कुत्ते के काटने के - योग्य बातें २८५ | लक्षण ३०६ मूषक-विष-नाशक नुसन' बावले कुत्ते के काटे हुएकी परीक्षा ३११ मच्छर-विष-चिकित्सा २६० परीक्षा करनेकी विधि ३११ मच्छर भगानेके उपाय २६१ हिकमतसे प्रारम्भिक उपाय ३१२ मच्छर-विष-नाशक नुसन २६२ | आयुर्वेदके मतसे बावले कुत्ते के मक्खीके विषकी चिकित्सा २६३ | काटेकी चिकित्सा ३१४ मक्खी भगानेके उपाय २६४ चन्द अपने-परायेपरीक्षित उपाय ३१६ मक्खी-विष-नाशक नुसन २६४ श्वान-विष-नाशक नुसख्न ३१७ बरके विषकी चिकित्सा _____ २६५ जौंकके विषकी चिकित्सा . ३२२ बरों के भगानेके उपाय २६६ । खटमल भगानेके उपाय ३२३. २८१ २८८ For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra विषय शेर और चीते आदिके किये ज़ख्मोंकी चिकित्सा मण्डूक- विष- चिकित्सा भेड़िये और बन्दरके काटेकी चिकित्सा मकड़ी के विषकी चिकित्सा प्रदर रोगका बयान प्रदर रोग निदान - कारण प्रदर रोगी क़िस्में वातज-प्रदरके लक्षण पित्तज प्रदर के लक्षण कफज-प्रदरके लक्षण त्रिदोषज प्रदरके लक्षण खुलासा पहचान अत्यन्त रुधिर बहने के उपद्रव प्रदर रोग भी प्राण-नाशक है असाध्य प्रदरके लक्षण इलाज बन्द करने को शुद्ध श्रार्त्तवकी पहचान प्रदर रोगकी चिकित्सा-विधि www.kobatirth.org तीसरा खण्ड स्त्री-रोगों की चिकित्सा | प्रदर-नाशक नुस श्रमीरी नुसख कुटजाष्टकावलेह जीरक वह [ ६ ] पृष्ठांक ३२४ ३२६ ३२७ ३२८ ३३६ ३३६ ३३७ ३३७ ३३८ ३३८ ३३८ ३३६ ३३९ ३४० ३४१ ३४१ ३४३ ३४४ ३५७ - ३५७ ३५८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय चन्दनादि चूर्ण पुष्यानुग चूर्ण अशोक घत शीतकल्याण घत प्रदरादि लौह प्रदन्त लौह शतावरी घृत सोम-रोग-चिकित्सा सोम - रोगकी पहचान सोम-रोगसे मूत्रातिसार सोम- रोगके निदान - कारण सोम - रोग नाशक नुसख़ योनि-रोग-चिकित्सा योनि-रोगकी किस्में योनि-रोगोंके निदान - कारण बीसों योनि-रोगोंके लक्षण योनिकन्द-रोगके लक्षण योनि - रोग चिकित्सा में याद रखने डाक्टरीसे निदान - कारण मासिक-धर्मपर होमियोपैथी शुद्ध श्रावके लक्षण पृष्ठांक ३५८ ३५६ ३६० ३६१ ३६२ ३६२ ३६३ ३६४ ३६४. ३६४ ३६४: ३६५ योग्य बातें योनि-रोग-नाशक नुसख े योनि संकोचन योग लोम-नाशक नुसख नष्टार्त्तव चिकित्सा ३६०. मासिक-धर्म बन्द होनेका कारण ३६४: ३६५ प्रत्येक कारणकी पहचान मासिक-धर्म न होने से हानि ४०१ For Private and Personal Use Only ३६७ ३६७, ३६८. ३६६ ३७१. ३७३ ३७४ ३८३. ३८७ ४०१ ४०.२. ४०३. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७ ] विषय पृष्ठाङ्क ! विषय पृष्ठाक मासिक-धर्म जारी करनेवाले नुसन४०३ गर्भस्राव और गर्भपातके निदान ४६० बन्ध्या-चिकित्सा - ४१२ गर्भस्राव और गर्भपातमें फर्क ४६१ गर्भको शुद्ध रजवीर्यकी ज़रूरत ४१२ गर्भस्राव या गर्भपातके पूर्वरूप ४६१ स्त्री-पुरुषोंके बाँझपनेकी परीक्षा ४१४ गर्भ अकालमें क्यों गिरता है ? ४६१ बाँझोंके भेद गर्भपातके उपद्रव ४६२ बाँझ होने के कारण गर्भके स्थानान्तर होनेसे उपद्रव ४६२ फूलमें दोष होनेके कारण ४१७ गर्भपातके उपद्रवोंकी चिकित्सा ४६३ फूलमें क्या दोष है उसकी परीक्षा ४१८ गर्भिणीकी महीने-महीनेकी फूल-दोषकी चिकित्सा-विधि ४१८ चिकित्सा हिकमतसे बाँझ होनेके कारण ४२० वायुसे सूखे गर्भकी चिकित्सा ४६८ बाँझके लक्षण और चिकित्सा ४२२. सच्चे और झूठे गर्भकी पहचान ४६६ गर्भप्रद नुसख ४२६ प्रसवका समय (बच्चा जननेका अमीरी नुसख समय) वृहत् कल्याण घृत प्रसव-विलम्ब-चिकित्सा ४७१ वृहत् फल घृत ४४७ हिकमतसे निदान और चिकित्सा ४७१ बच्चा जननेवालीको शिक्षाएँ ४७४ दूसरा फल घृत तीसरा फल घृत ४४६ शीघ्र प्रसव करानेवाले उपाय ४७५ फलकल्याण घृत ४४६ मरा हुश्रा बच्चा निकालने और प्रियंग्वादि तैल गर्भ गिराने के उपाय ४८४ शतावरी घृत गर्भ गिराना पाप है वृष्यतम घृत गर्भ गिराना उचित है ४८६ ४५१ कुमार कल्पद्रुम घृत पेटमें मरे-जीतेकी पहचान गर्भ गिरानेवाले नुसत बन्ध्या बनानेवाली औषधियाँ या गर्भ न रहने देनेवाली मूढगर्भ-चिकित्सा दवाएँ मूदगर्भके लक्षण मूढगर्भकी चार प्रकारकी गतियाँ ४६४. गर्भिणी-रोग-चिकित्सा मूढगर्भकी पाठ गति ४१४ ज्वर नाशक नुसन' असाध्य मूदगर्भ और गर्भिणीके अतिसार श्रादि नाशक नुसन' ४५१ बक्षण गर्भस्रावऔर गर्भपात ४६० | मृतगर्भके लक्षण . 0 ० 0 0 0 6 ८ Ccccccccccccccccc 0 ० 0 ० * 0 * 0 * 0 * ४८४ ४८७ ४६३ For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ८ ] ५०३ ० ५०८ ० विषय पृष्ठाङ्क | विषय पृष्ठाङ्कः पेटमें बच्चेके मरनेके कारण ४६६ दुग्ध-चिकित्सा गर्भिणीके और असाध्य लक्षण ४६७ | वातदूषित दूधके लक्षण मूढगर्भ-चिकित्सा ४६८ पित्त दूषित दूधके लक्षण ५१६ अपरा या जेर न निकलनेसे हानि ५०२ कफ दूषित दूधके लक्षण जेर निकालनेकी तरीकीबें १०२ त्रिदोष-दूषित दूधके लक्षण ५११ बादकी चिकित्सा | उत्तम दूधके लक्षण प्रसूताके लिये बला तेल बालकोंके रोगोंसे दूधके दोष प्रसूतिका-चिकित्सा ५०५ | जाननेकी तरकीबें सूतिका-रोगके निदान ५०५ दूध शुद्ध करनेके उपाय सूतिका-रोग दूध बढ़ानेवाले नुसख ५२०. स्त्री कबसे कब तक प्रसूता ? ५०६ | ऋतुका रुधिर अधिक बहना सूतिका-रोगोंकी चिकित्सा ___ बन्द करनेके उपाय ५२२ मक्कल शूल नरनारीकी जननेन्द्रियाँ ५२६ सूतिका रोग नाशक नुसख्त ५०६ नरकी जननेन्द्रियाँ ५२६ सौभाग्य शुण्ठी पाक बाहरसे दीखनेवाली जननेन्द्रियाँ ५२६ सौभाग्य शुण्ठी मोदक भीतरी जननेन्द्रियाँ ५२६ ज़ीरकाद्य मोदक शिश्न या लिङ्ग पञ्चज़ीरक पाक शिश्नमणि सूतिकान्तक रस शिश्न शरीर प्रतापलंकेश्वर रस अण्डकोष या फोते वृहत् सूतिका विनोद रस शुक्राशय सूतिका गजकेसरी रस शुक्र या वीर्य हेम सुन्दर तैल ग़रीबी नुसन' शुक्राणु या शुक्रकीट ५१२ योनिके घाव वग़रःका इलाज शुक्रकीट कब बनने लगते हैं ? ५३२ स्त्रीकी जननेन्द्रियोंका वर्णन ५३३ स्तन कठोर करनेके उपाय ५१४ नारीकी जननेन्द्रियाँ । ५३३ स्तन और स्तन्य-रोग उपाय ५१६ स्तन रोगके कारण और मैद ५१७ डिम्ब-ग्रन्थियाँ स्तन-पीड़ा नाशक नुसन' १७ गर्भाशय ५३५ ० ० ५२७. ५१० - ५२८ ५११ भग om m m For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का वद्धि-क्रम ५४२ विषय , पृष्ठांक विषय पृष्ठांक योनि ५३६ अरु षिका-चिकित्सा ५६७. ५३७ वृषण कच्छू चिकित्सा आर्तव-सम्बन्धी बातें कखौरी चिकित्सा ५६८ मैथुन दारुणक-रोग चिकित्सा ५६६ गर्भाधान राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी नाल क्या चीज़ है ? चिकित्सा ५७१ कमल किसे कहते हैं ? ५४१ यक्ष्माके निदान और कारण १७१ ५४२ पूर्वकृत पाप भी क्षयरोगके कारण हैं५७५ गर्भगर्भाशयमें किस तरह रहता है१४४ । यक्ष्मा शब्दकी निरुक्ति ५७५ बच्चा जनने में किन स्त्रियोंको कम और क्षयरोगकी सम्प्राप्ति १७६ किनको ज़ियादा कष्ट होता है ? ५४४ । क्षयके पूर्वरूप बच्चा जननेके समय स्त्रीके दर्द पूर्वरूपके बादके लक्षण ५८० क्यों चलते हैं ? ५४५ राजयक्ष्माके लक्षण ५८० इतनी तंग जगहोंमें-से बच्चा त्रिरूप क्षयके लक्षण प्रासानीसे कैसे निकल आता है? ४४५ पहला दर्जा राजयक्ष्माके लक्षण बाहर आते ही बच्चा क्यों रोता है ? ५४६ षट्रूप क्षयके लक्षण अपराके देरसे निकलने में हानि ५४६ दूसरा दर्जा प्रसूताके लिये हिदायत १४६ दोषोंकी प्रधानता-अप्रधानता २८२ क्षुद्र रोग चिकित्सा ५४८ स्थान-भेदसे दोषोंके लक्षण । ५८३ झाँई वगैरकी चिकित्सा ५४८ साध्यासाध्यत्व ५८३ मस्सोंकी चिकित्सा ५५४ साध्य लक्षण २८३ मस्से और तिलोंकी चिकित्सा ५५६ असाध्य लक्षण क्षय-रोगका अरिष्ट २८४ पलित रोग-चिकित्सा ५५८ क्षय-रोगीके जीवनकी अवधि ५८५ इन्द्रलुप्त या गंजकी चिकित्सा५६२ चिकित्सा करने योग्य क्षयरोगी ५८६ निदान-कारण निदान विशेषसे शोष विशेष १८७ स्त्रियोंको गंज रोग क्यों नहीं होता ५६२ | शोष रोगके और छ भेद ५८७ बाल लम्बे करनेके उपाय ५६६ व्यवाय शोषके लक्षण २८७ iGG iiiiii २८१ १८४ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृष्ठांक w ६४३ ६४३ w २६० w प w w ६४७ ६४८ ६४८ [ १० ] विषय पृष्ठांक विषय शोक शोषके लक्षण २८८ च्यवनप्राश अवलेह वाद्ध क्य शोषके लक्षण २८१ वृहत् वासावलेह अध्व शोषके लक्षण १६० वासावलेह व्यायाम शोषके लक्षण कर्पूराद्य चूर्ण व्रण शोषके निदान-लक्षण षडंगयूष उरःक्षत शोषके निदान ५६१ चन्दनादि तैल उरःक्षतके विशेष लक्षण ५६३ । लाक्षादि तैल निदानं विशेषसे उरःक्षतके लक्षण ५६३ राजमृगांक रस साध्यासाध्य लक्षण ५६३ अमृतेश्वर रस यक्ष्मा-चिकित्सामें याद रखने कुमुदेश्वर रस योग्य बातें ५६४ मृगांक रस रस-रक्त श्रादि धातु बढ़ानेके उपाय ५६५ महा मृगांक रस क्षय-रोगपर प्रश्नोत्तर उक्षत-चिकित्सा यक्ष्मा-नाशक नुसखे एलादि गुटिका धान्यादि क्वाथ ' ६३४ एलादि गुटिका (२री) त्रिफलाद्यावलेह बलादि चूर्ण विडंगादि लेह द्राक्षादि घृत सितोपलादि चूर्ण उरःक्षतपर ग़रीबी नुसख्त मुस्तादि चूर्ण ६३४ छहों प्रकारके शोष-रोगोंकी वासावलेह चिकित्सा वासावलेह ( २ रा) व्यवाय शोषकी चिकित्सा तालीसादि चूर्ण शोक शोषकी चिकित्सा लवंगादि चूर्ण ६३७ व्यायाम शोषकी चिकित्सा .. जातीफलादि चूर्ण अध्व शोषकी चिकित्सा द्राक्षारिष्ट ६३८ द्राक्षारिष्ट (२ रा) व्रण शोषकी चिकित्सा द्राक्षासव . . यक्ष्मा और उरःक्षतमें द्राक्षादि घृत ६४. पथ्यापथ्य w ur w r w ६६१ ६६२ ६६२ w ६६७ ६६८ ६३७ ६६८ ६६८ ६६८ ६६१-६७.. For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निवेदन। FRD ODE गदाधार, जगदात्मा श्रीकृष्णचन्द्रको अनन्त धन्यवाद W ज हैं, कि सैकड़ों विघ्न-वाधा और आपदाओंके होते हुए ODE भी आज "चिकित्सा-चन्द्रोदय" पाँचवें भागको उन्होंने पूरा करा दिया। हिन्दी-प्रेमी पाठकोंको भी हार्दिक धन्यवाद है, जिनकी कद्रदानी और उत्साह-वर्द्धनसे हम अपना धन और समय लगाकर इस ग्रन्थके भाग-पर-भाग निकाल रहे हैं। अगर पबलिककी रुचि न होती, उसे यह ग्रन्थ न रुचता, पसन्द न आता, तो हम इस प्रन्थका दूसरा भाग निकालकर ही रुक जाते। पर पहले और दूसरे भागके, बारह महीनोंमें ही, नवीन संस्करण छप जानेसे मालूम होता है, पबलिकने इस ग्रन्थको पसन्द किया है। अगर सर्वसाधारणकी ऐसी ही कृपा रही, तो इसके शेष तीन भाग भी शीघ्र ही निकल जायँगे। इस भागमें हमारा विचार, आयुर्वेदके और ग्रन्थोंकी तरह, क्रमसे श्वास, खाँसी, हिचकी आदि लिखनेका था, पर हजारों ग्राहकोंमेंसे कितनों ही ने लिखा कि, पाँचवें भागमें स्थावर और जंगम विषचिकित्सा लिखिये। हमारे युक्तप्रान्तमें ही और जहरीले जानवरोंके अलावः केवल सर्पके काटनेसे गतवर्ष प्रायः सत्तावन हजार आदमी कालके कराल गालमें समा गये। कितने ही गाँवोंके लोग बिच्छुओं, कनखजूरों और मैंडक, छिपकली आदिके काटनेसे कष्ट भोगते और बहुधा मर भी जाते हैं। कितने ही ग्राहकोंने लिखा, कि आप इस भागमें स्त्रियोंके रोगोंकी चिकित्सा लिखिये। आजकल जिस तरह LL फ्री सदी पुरुषोंको प्रमेह-राक्षसने अपने भयानक चंगुलोंमें फंसा रखा है, उसी तरह स्त्रियाँ प्रदर-रोग, सोम-रोग और बहुमूत्र आदि For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ख ] रोगोंकी शिकार हो रही हैं। अनेकों स्त्रियोंको मासिक-धर्म समयपर और ठीक नहीं होता, अनेक रमणियाँ गर्भाशयमें दोष हो जानेसे सन्तानके लिये तरसती और ठगोंको ठगाकर घरका धन और इज्जतहुर्मत नष्ट करती हैं और अनेकों स्त्रियाँ प्रदर आदि रोगोंसे ग्रसित होने और आयुर्वेदके नियम न पालनेकी वजहसे क्षय-रोगके फन्देमें फँसकर छोटी उम्र में ही परमधामकी यात्रा करती हैं। __ यद्यपि इस भागमें स्थावर-जंगम विष-चिकित्सा और स्त्री-रोग चिकित्सा लिखनेसे हमारा क्रम बिगड़ता था, पर हमें ग्राहकोंकी सलाह पसन्द आगई। मनमें सोचा, जिन्दगीका भरोसा नहीं, आज है कल न रहे । श्वास, खाँसी, वातरोग आदिककी चिकित्साके लिए तो बहुतसे वैद्य-डाक्टर मिल जायँगे; पर सर्प आदिसे जान बचानेके लिए ग़रीबोंको सवैद्य कहाँ मिलेंगे ? ग़रीब ग्रामीणोंकी स्त्रियाँ जो प्रदर आदि रोगों और यक्ष्मा या क्षय आदिसे असमय या भर-जवानीमें ही मर जाती हैं, अपनी निर्धनताके मारे किन वैद्य-डाक्टरोंसे इलाज कराकर जान बचायेंगी ? अतः इन्हीं रोगोंपर लिखना उचित होगा। . हमने इस भागके तीन खण्ड किये हैं। पहले खण्डमें “स्थावर विष-चिकित्सा" लिखी है। दूसरे खण्डमें "जंगम विष-चिकित्सा" लिखी है। उसमें अफीम, संखिया आदि नाना प्रकारके विषोंके नाश करनेकी तरकीबें मय उनकी पहचान आदिके लिखी गई हैं और इसमें सर्प, बिच्छू, कनखजूरे, मैंडक, छिपकली, बर्र, ततैया, मक्खी, मच्छर आदि प्रायः सभी जहरीले जीवोंके काटनेकी चिकित्सा लिखी है। जो लोग थोड़ी भी हिन्दी जानते होंगे, वे इन खण्डोंको पढ़-समझकर अनेकों प्राणियोंको अकाल मृत्युसे बचा सकेंगे। अगर प्रत्येक गाँवमें इस भागकी एक-एक प्रति भी होगी, तो बहुतोंकी जीवन-रक्षा होगी। हमने विष-चिकित्सापर समस्त प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थोंको मथकर, कौड़ियोंमें तैयार होनेवाले और समय For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ग] पर अक्सर काम करनेवाले अचूक नुसखे लिखे हैं । दिहाती लोग, बिना एक पैसा भी खर्च किये, सब तरहके विषैले जानवरोंसे अपनी जीवन रक्षा कर सकेंगे । तीसरे खण्ड में स्त्रियोंके प्रायः सभी रोगोंके निदान - कारण, लक्षण और चिकित्सा खूब समझा-समझाकर विस्तार से लिखी है। एक-एक बात आगे-पीछे तीन-तीन जगह लिखनेकी भी दरकार समभी है, तो तीन ही जगह लिखी है; विद्वान् लोग पुनरुक्ति-दोष बतलायेंगे, इसकी परवा नहीं की है । पाठकोंको सुभीता हो, वही काम किया है । इस खण्ड में पहले प्रदररोग और सोम-रोगके निदान - लक्षण और चिकित्सा लिखी है। उसके बाद योनिरोगों और मासिक-धर्मकी चिकित्सा लिखी है। उसके भी बाद बाँके दोष नष्ट होकर, बन्ध्या के पुत्र होनेकी पूर्व तरकीबें लिखी हैं और गर्भ गिराने या मरा बच्चा पेटसे निकालने, योनिदोष निवारण करने, मूढगर्भ निकालने, प्रसूताकी चिकित्सा करने, धायका दूध शुद्ध करने और बढ़ानेके अत्युत्तम उपाय लिखे हैं। जो लोग ज़रा भी ध्यान देंगे, वे आसानीसे स्त्रियोंको रोगमुक्त करके उनके आशीर्वाद-भाजन होंगे। जिनके सन्तान नहीं होती, जो पुत्र पानेके लिये मारे-मारे फिरते हैं, उनके सहज में पुत्र होंगे। स्त्रियाँ सहज में, बिना बहुत तकलीफ के बच्चे जन सकेंगी । इसी खण्ड में हमने राजयक्ष्मा के भी निदान-लक्षण और चिकित्सा विस्तार से लिखी है, क्योंकि इस मूँजी रोगसे हमारे देशके लाखों स्त्री-पुरुष बेमौत मरते हैं । जब यह रोग बढ़ जाता है, करोड़ों खर्च करनेवाले सेठ साहूकार और राजा-महाराजा भी अपने प्यारों को बचा नहीं सकते। जो लोग इस खण्डको पढ़ेंगे, वे रोगके कारण जान जानेसे सावधान हो जायँगे और जिन्हें यह रोग होगा, वे सहज में अपना इलाज आप कर सकेंगे । यद्यपि इस रोगका इलाज सद्वैद्यसे ही कराना चाहिये, पर जो वैद्य - डाक्टरको बुला नहीं सकते, दवा के लिए चार पैसे भी खर्च कर नहीं सकते, वे कौड़ियोंकी दवा, जंगलकी For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ घ ] जड़ी-बूटी, घरका दूध, घी और दवा-मात्र सेवन करके अपने-तई रोग-मुक्त कर सकेंगे। इस भागमें रोगोंका सिलसिला ठीक नहीं है एवं अवकाश न मिलने और आफतमें फँसे रहनेके कारण अनेकों दोष भी रह गये हैं, उनके लिये पाठक हमें क्षमा प्रदान करेंगे । अगर हम अपनी ज़िन्दगीमें इस ग्रन्थको पूरा कर सके, तो शेषमें हम इसकी एक कुञ्जी ( Koy ) भी बनायेंगे। जो बातें इन भागोंमें छूट गई हैं, उन सबपर उसमें लिखा जायगा । उस कुञ्जीके होनेसे जो जरा-बहुत संशय खड़ा हो जाता है, वह भी मिट जायगा । यद्यपि वह कुञ्जी तीन-चार सौ पृष्ठोंसे कमकी न होगी, पर उसे हम ग्राहकोंको धेली आठ आना लागतखर्च लेकर ही दे देंगे। उसमें एक कौड़ी भी नफा न लेंगे। यद्यपि यह ग्रन्थ पूर्ण वैद्योंके लिये नहीं है, फिर भी सैकड़ों वैद्यशास्त्री और आयुर्वेद केसरी आदि इसे बड़े शौकसे खरीद रहे हैं। उन्हें ऐसे 'भाषा' के ग्रन्थ देखनेकी जरूरत नहीं। हम समझते हैं, वे साधारण लोगोंके उपकारके लिये या हमारा उत्साह बढ़ानेके लिये ही इसे खरीद रहे हैं। अतः हम उन्हें धन्यवाद देकर, उनसे सविनय प्रार्थना करते हैं कि, वे जहाँ कोई त्रुटि देखें, उसे दयाकर हमें लिख भेजें । क्योंकि एक आदमीके जल्दीके किये काममें अनेकों दोष रह जाते हैं और इस ग्रन्थमें भी अनेकों दोष होंगे। कितनी ही जगह तो अर्थका अनर्थ हुआ होगा । यद्यपि इस ग्रन्थकी आयको हम खाते हैं, तथापि उदार हृदय सज्जन इस बातकी पर्वा न करके, इस ग्रन्थके दोष दूर करानेमें हमारी सहायता करके अक्षय पुण्य और धन्यवादके पात्र होंगे। दोषपूर्ण होनेपर भी, इस ग्रन्थसे पबलिकका बड़ा उपकार हो रहा है और होगा, यह जानकर हमें बड़ी खुशी है, पर यदि यह ग्रन्थ परोपकार-परायण विद्वानोंकी सहायतासे निर्दोष या दोषरहित हो जायगा, तो कितना उपकार होगा और हमारी खुशीका For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ङ ] टेम्परेचर कितना ऊँचा चढ़ जायगा, यह लिखकर बता नहीं सकते। इस भागमें सैकड़ों नये-पुराने ग्रन्थोंके सिवा, “वैद्यकल्पतरु" अहमदाबाद और "हमारी शरीर रचना" से दो-एक जगह काम लिया गया है । अतः हम उनके लेखक और प्रकाशक दोनोंका तहेदिलसे शुक्रिया अदा करते हैं। ___ जो लोग यह समझते हैं कि, इस ग्रन्थके प्रकाशक इसके भागपर-भाग निकालकर मालामाल होना चाहते हैं, उनकी ग़लती है। हम यह नहीं कह सकते, कि हम इसकी आमदनीसे अपना काम नहीं चलाते । ऐसा कहना वृथा असत्य भाषण करना है । “एक पन्थ दो काज" की कहावत-अनुसार, हमारा उद्देश पबलिककी सेवा करना, आयुर्वेद-प्रेम बढ़ाना, देशका पैसा बचवाना और साथ ही अपनी गुजर करना है । काम हम यह करेंगे, तो खायेंगे किसके घर ? भागपर-भाग हम अपनी आमदनी बढ़ानेके लिए नहीं निकाल रहे हैं। यह विषय ही ऐसा है, कि इसे जितना ही बढ़ाओ बढ़ सकता है और जितना ही विस्तारसे लिखा जाता है, उतना ही लाभदायक सिद्ध होता है । हम क्या लिख रहे हैं, होमियोपैथी में एक-एक रोगके निदानलक्षण और चिकित्सा सैकड़ों ही पेजों में है । अगर पाठक आफ़त ही कटवाना चाहते हैं, तो फिर हमसे इसके लिखवानेकी क्या दरकार ? क्या ग्रन्थोंका अभाव है ? इस ग्रन्थमें कुछ भी नूतनता और सरलता तो होनी चाहिये। निन्न्यानवे फ्री सदी ग्राहक "चिकित्सा-चन्द्रोदय"की कीमतपर जरा भी आपत्ति नहीं करते, पर चन्द मिहरबान ऐसे भी हैं जो लिखा करते हैं, कि आपने क़ीमत जियादा रक्खी है । हमारे ऐसे समझदार ग्राहकोंको समझना चाहिये, कि इस राज-नगरीमें सब तरहके खर्च बहुत जियादा हैं । अगर हम इतनी कीमत भी न रखें, जोशमें आकर, अखबारी प्रशंसा लाभ करनेके लिये, हिन्दीके सच्चे सेवककी पदवी प्राप्त करनेके लिये, एकदम कम मूल्य रखें, तो अन्तमें हमें फेल होना For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ च ] पड़ेगा, काम बन्द कर देना होगा। जिन लोगोंने ऐसा किया है, वे हिन्दी-सेवासे रिटायर हो गये और जो ऐसा कर रहे हैं, उनको भी एक-न-एक दिन टाट उलटना ही पड़ेगा । परमात्मा हमें इन बातोंसे बचावे हमारी इज्जत-आबरू बनाये रक्खे ! ___ बहुतसे पाठक, उकताकर लिखते हैं-"आपने यह ग्रन्थ लिखकर बड़ा उपकार किया है । ग्रन्थ निस्सन्देह सर्वाङ्ग सुन्दर है । हमने इससे बहुत लाभ उठाया है । इसके नुसखोंने अच्छा चमत्कार दिखाया है। पर एक-एक भाग निकालना और उसके लिये चातककी तरह टकटकी लगाये राह देखना अखरता है। मूल्यकी परवाह नहीं, आप जल्दी ही सब भाग खतम कीजिये इत्यादि।" हमारे ऐसे प्रेमी और उतावले ग्राहकोंको यह समझकर, कि जल्दीमें काम खराब होता है और आयुर्वेद बड़ा कठिन विषय है, इसका लिखना बालकोंका खेल नहीं, जरा धैर्य रखना चाहिये और देरके लिये हमें कोसना न चाहिये । ____ अगले छठे भागमें हम रक्त-पित्त, खाँसी, श्वास, उदररोग, वायुरोग आदि समस्त रोगोंके निदान, लक्षण और चिकित्सा विस्तारसे लिखेंगे और जगदीश कृपा करें, तो प्रायः सभी रोगोंको उस भागमें खतम करेंगे । सातवें और आठवें भागोंमें औषधियोंके गुण रूप वगैरः मय चित्रोंके लिखेंगे । यह भाग चाहे ग्राहकोंको पसन्द आ जाय और निश्चय ही पसन्द होगा, इससे उनका काम भी खूब निकलेगा और हजारों प्राणी कष्ट और असमयकी मौतसे बचेंगे, इसमें शक नहीं पर हमें इसमें अनेकों त्रुटियाँ दीखती हैं । अतः आयन्दः हम जल्दीसे काम न लेंगे । पाठकोंसे भी कर जोड़ विनय है कि, छठे भागके लिये धैर्य धरें; अगर इस दफाकी तरह विघ्न-बाधायें उपस्थित न हुई, ईश्वरने कुशल रक्खी और वह सानुकूल रहे, तो छठा भाग पाँच-छै महीनोंमें ही निकल जायगा । एवमस्तु । . विनीत-- हरिदास । For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir OPARDA Homwww wwwwww ESS मेरी राम कहानी TER पने दोष-अदोषों, अपने गुण-अवगुणों, अपनी कम जोरियाँ और खामियों, अपनी अल्पज्ञता और बहुज्ञता एवं अपनी विद्वत्ता और अविद्वत्ता प्रभृतिके सम्बन्धमें 7 मनुष्य जितना खुद जानता और जान सकता है, उतना दूसरा कोई न तो जानता ही है और न जान ही सकता है। मैं जब-जब अपने सम्बन्धमें विचार करता हूँ, अपने गुण-दोषोंकी स्वयं आलोचना करता हूँ, तब-तब इस नतीजेपर पहुँचता हूँ, कि मैं प्रथम श्रेणीका अज्ञानी हूँ। मुझमें कुछ भी योग्यता और विद्वत्ता नहीं। जब मुझे अपनी अयोग्यताका पूर्ण रूपसे निश्चय हो जाता है, तब मुझे अपनी “चिकित्सा-चन्द्रोदय" जैसे उत्तरदायित्व-पूर्ण ग्रन्थ लिखनेकी धृष्टतापर सख्त अफसोस और घर-घरमें उसका प्रचार होते देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। मेरी समझमें नहीं आता, कि मेरे जैसे प्रथम श्रेणीके अयोग्य लेखक और आयुर्वेदके मर्मको न समझनेवालेकी कलमसे लिखी हुई पुस्तकोंका अधिकांश हिन्दी-भाषाभाषी जनता इतना आदर क्यों करती है ? अगरेजी विद्याके धुरन्धर पण्डित-आजकलके बाबू और बड़े-बड़े जज, मुन्सिफ, वकील और प्रोफेसर प्रभृति, जो हिन्दीके नामसे भी चिढ़ते हैं, हिन्दीको गन्दी और खासकर वैद्यक-विद्याको जंगलियोंकी अधूरी विद्या समझते हैं, इस आयुर्वेद-सम्बन्धी ग्रन्थको इतने शौक़से क्यों अपनाते और अगले भागोंके लिये क्यों लालायित रहते हैं ? मैं घण्टों इसी उलझनमें उलझा रहता हूँ, पर यह उलझन सुलझती नहीं; समस्या हल होती नहीं। For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ज ] पाठक ! आप ही विचारिये, अगर पङ्कहीन उड़ने लगे, पंगु दौड़ने लगे, नेत्रहीन देखने लगे, बहुरा सुनने लगे, गूँगा बोलने लगे, मूक व्याख्यान फटकारने लगे और निरक्षर लिखने लगे, तो क्या आपको अचम्भा न होगा ? मेरे जैसे आयुर्वेद की ए बी सी डी भी न जाननेवाले विद्या-बुद्धिहीन ढीठ लेखककी लिखी हुई "स्वास्थ्यरक्षा" और "चिकित्सा-चन्द्रोदय" आदि पुस्तकोंको पबलिक इतने चावसे क्यों पढ़ती है ? इस नगण्य लेखककी लिखी हुई पुस्तकोंका प्रचार भारतके घर-घर में, रामायणकी तरह, क्यों होता जा रहा है ? हिन्दी और आयुर्वेदको नफ़रतकी नज़र से देखनेवाले आधुनिक बाबू, जज, डिप्टी कलक्टर, तहसीलदार, मुन्सिफ सदर आला, स्टेशन मास्टर और एम० ए०, बी० ए० की डिग्रियोंवाले प्रजुएट प्रभृति इस तुच्छ लेखककी लिखी हुई “चिकित्सा - चन्द्रोदय" और "स्वास्थ्यरक्षा" को बड़े आदर सम्मान और इज्जतकी नज़र से क्यों देखते हैं ? इन प्रश्नोंका सही उत्तर निकालने की कोशिश में, मैं कोई बात उठा नहीं रखता, पर फिर भी जब मैं इन सवालोंका ठीक जवाब निकाल नहीं सकता, इन सवालोंको हल कर नहीं सकता, तब मेरा अन्तरात्मा - कॉन्शेन्स कहता है - इन ग्रन्थोंकी इतनी प्रसिद्धि, इतनी लोकप्रियता और इज्जतका कारण तेरी योग्यता और विद्वत्ता नहीं, वरन् जगदीशकी कृपामात्र है । अन्तरात्माका यह जवाब मेरे दिल में जँच जाता है, मेरी उलझन सुलभ जाती है और मुझे राई-भर भी संशय नहीं रहता । अगर मैं विद्वान होता, शास्त्री या आचार्य परीक्षा पास होता, आयुर्वेद - मार्त्तण्ड या आयुर्वेद - पञ्चानन प्रभृति पदवियोंको धारण करनेवाला होता, तो कदाचित् मुझे अन्तरात्माकी बातपर सन्देह होता । इस लम्बी-चौड़ी प्रसिद्धि और लोकप्रियताको अपनी योग्यता और विद्वत्ताका फल समझता, पर चूँकि मैं अपनी योग्यताको अच्छी तरह जानता हूँ, For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ 9 ] इसलिये मुझे मानना पड़ता है, कि यह सब उन्हीं अनाथनाथ, असहायोंके सहाय, निरावलम्बोंके अवलम्ब, दीनबन्धु, दयासिन्धु, भक्तवत्सल, जगदीश-कृष्णकी ही दयाका नतीजा है, जो नेत्रहीनको सनेत्र, गूंगेको वाचाल, मूर्खको विद्वान्, अल्पज्ञको बहुज्ञ, असमर्थको समर्थ, कायरको शूर, निर्धनको धनी, रङ्कको राव और फकीरको अमीर बनानेकी सामर्थ्य रखते हैं। हमारे जिन भारतीय भाइयों और अँगरेज़ी-शिक्षा-प्राप्त बाबुओंको देवकीनन्दन, कंसनिकन्दन, गोपीवल्लभ, ब्रजविहारी, मुरारि, गिरवरधारी, परम मनोहर, आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्रपर विश्वास न हो, जो उन्हें महज़ एक जबर्दस्त आदमी अथवा एक शक्तिशाली पुरुषमात्र समझते हों, उनके सर्वशक्तिमान जगदीश होनेमें सन्देह करते हों, वे अबसे उनपर विश्वास ले आवें, उन्हें जगदात्मा परमात्मा समझे, उनकी सच्च और साफ़ दिलसे भक्ति करें और हाथों-हाथ पुरस्कार लूटें। कम-से-कम मेरे ऊपर घटनेवाली घटनाओंसे तो शिक्षा लाभ करें। मैं नकटोंकी तरह अपना दल बढ़ानेकी ग़रज़से नहीं, वरन् अपने भाइयोंके सुख-शान्तिसे जीवनका बेड़ा पार करनेकी सदिच्छामें अपबीती सच्ची बातें यदाकदा कहा करता हूँ। जो शुद्ध-अशुद्ध मंत्र मुझे आता है, जिससे मुझे स्वयं लाभ होता है, उसे अपने भाइयोंको बता देना मैं बड़ा पुण्य-कार्य समझता हूँ। पाठको ! मैं आपसे अपनी सच्ची और इस जीवनमें अनुभव की हुई बातें कहता हूँ। जो सरल, शुद्ध और संशय-रहित चित्तसे जगदात्मा कृष्णको जपते हैं, उनकी भक्ति करते हैं, उनको हर समय अपने पास समझकर निर्भय रहते हैं, अभिमानसे कोसों दूर भागते हैं, किसीका भी अनिष्ट नहीं चाहते, अपने सभी कामोंको उनका किया हुआ मानते हैं, अपने-तई कुछ भी नहीं समझते, घोर संकट-कालमें उनको ही पुकारते और उनसे साहाय्य-प्रार्थना करते हैं, भक्तभयहारी कृष्ण For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ] मुरारि उनको क्षणभरके लिये भी नहीं त्यागते, उनको प्रत्येक संकटसे बचाते, उनके विपदके बादलोंको हवाकी तरह उड़ा देते हैं, उनकी मददके लिये, लक्ष्मीको त्यागकर क्षीर-सागरसे नंगे पैरों दौड़े आते हैं। मैंने जो बातें कही हैं, वे राई-रत्ती सच हैं। इनमें जरा भी संशय नहीं । अगर दो और दो के चार होनेमें सन्देह हो सकता है, तो मेरी इन बातोंमें भी सन्देह हो सकता है। ___एक घटनाके सम्बन्धमें, मैं "चिकित्सा-चन्द्रोदय" दूसरे भागमें लिख ही चुका हूँ। उसी घटनाको बारम्बार दुहराना, पिसेको पीसना और विद्वानोंको अप्रसन्न करना है; पर क्या करूँ जिस घटनासे कृष्णका सम्बन्ध है उसे एक बार, दो बार, हज़ार बार और लाखों-करोड़ों बार सुनानेसे भी मनको सन्तोष नहीं होता। इसके सिवा, उन्हीं कृष्णकी प्रेरणासे मेरे साथ अभूतपूर्व भलाई करनेवाले, मुझे अभयदान देनेवाले सज्जनोंको बारम्बार धन्यवाद दिये विना भी मेरी आत्माको शान्ति नहीं मिलती, इसीसे अपनी लिखी हर पुस्तकमें मैं इस गानको गाया करता हूँ। सुनिये पाठक ! भारतके भूतपूर्व वायसराय और गवर्नर जनरल लार्ड चेम्सफर्ड महोदय जैसे प्रसिद्ध सङ्गदिल बड़े लाटने जो मेरे जैसे एक तुच्छ जीवपर अभूतपूर्व कृपा की, वह सब क्या था ? वह उन्हीं कृष्णकी कृपाका फल था। उन्हीं जगदात्माकी इच्छासे वायसराय मेरे लिये मोमसे भी नर्म हुए। उन्हींकी मर्जीसे वे मुझपर सदय हुए | उन्हींकी इच्छासे, उन्होंने मुझे घोर संकटसे बड़ी ही आसानीसे बचा दिया । इसके लिये मैं जगदीशका तो कृतज्ञ हूँ ही, पर साथ ही वायसराय महोदयकी दयालुताको भी भूल नहीं सकता। परमात्मा करें, हमारे भूतपूर्व वायसराय लार्ड चेम्सफर्ड महोदय और बंगालके लाटके भू० पू० प्रायवेट सेक्रेटरी मिस्टर गोरले महोदय एम० ए०,. सी० आई० ई०, आई० सी० एस० चिरजीवन लाभ करते हुए जगदीशकी उत्तम-से-उत्तम न्यामतीको भोगें।... For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ट] यह घटना तो अब पुरानी हो चली, इसे हुए दो साल बीत गये। 'पाठक ! अब एक नई घटनाकी बात भी सुनें और उसे पागलोंका प्रलाप या मूर्ख बकवादीकी थोथी बकवाद न समझकर, उसपर गौर भी करें अभी गत नवम्बरमें, जब मैं इस पंचम भागका प्रायः आधा काम कर चुका था, मेरी घरवाली सख्त बीमार हो गयी। इधर बच्चा हुआ, उधर महीनोंसे आनेवाले पुराने ज्वरने जोर किया । आँव और खून के दस्तोंने नम्बर लगा दिया, मरीजाकी जिन्दगी खतरेमें पड़ गई। मित्रोंने डाक्टरी इलाजकी राय दी। कलकत्तेके नामी-नामी तजुर्बेकार डाक्टर बुलाये गये। इलाज होने लगा। घण्टे-घण्टे और दो-दो घण्टेमें नुसने बदले जाने लगे। पैसा पानीकी तरह बखेरा जाने लगा; पर नतीजा कुछ नहीं-सब व्यर्थ । “ज्यों-ज्यों दवाकी मर्ज बढ़ता गया" वाली कहावत चरितार्थ होने लगी। न किसीसे बुखार कम होता था और न दस्त ही बन्द होते थे। अच्छे-अच्छे एम० डी० डिग्रीधारी वलायत और अमेरिकासे पास करके आये हुए पुराने डाक्टर दवाओं-पर-दवाएँ बदल-बदलकर किं-कर्त्तव्य विमूढ़ हो गये। उनका दिमाग़ चक्कर खाने लगा। किसीने माथा खुजलाते हुए कहा-"अजी! पुराना बुखार है, ज्वर हड्डियोंमें प्रविष्ट हो गया है, यकृतमें सूजन आ गई है । हमने अच्छी-से-अच्छी दवाएँ तजवीज की, एक्सपर्टोसे सलाह भी ली, पर कोई दवा लगती ही नहीं, समझमें नहीं आता क्या करें।" किसीने कहा-"अजी ! अब समझे, यह तो एनीमिया है, रोगीमें खूनका नाम भी नहीं, नेत्र सफ़ेद हो गये हैं, हालत नाजुक है, ज़िन्दगी खतरेमें है । खैर, हम उद्योग करते हैं, पर सफलताकी आशा नहीं-अगर जगदीशको रोगिणीको जिलाना मंजूर है अथवा मरीज़ाकी ज़िन्दगीके दिन बाकी हैं, तो शायद दवा लग जाय।” बस, कहाँ तक लिखें, बड़े-बड़े डाक्टर आकर मरीजाकी नब्ज़ देखते, स्टेथस For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ 8 ] कोपसे लंग्ज वगैरकी जाँच करते, नुसता लिखते और आठ-आठ, सोलह-सोलह एवं बत्तीस-बत्तीस रूपराम जेबके हवाले करके चलते बनते । यह तमाशा देख हमारी नाकों दम आ गया। एक तरफ तो अनाप-शनाप रुपया व्यर्थ व्यय होने लगा; दूसरी ओर गृहणीके चलबसनेसे घरकी क्या दशा होगी, छोटे-छोटे चार बच्चे किस तरह पलेंगे, इस चिन्ताने हमें चूर कर दिया। हम खुद भी मरीज़ बन गये । बीचबीचमें जब कभी हम निराश होकर डाक्टरी इलाज त्यागकर अपना इलाज करना चाहते, हमारे ही आदमी हम पर फबतियाँ उड़ाते, हमें अव्वल नम्बरका माइज़रया कंजूस या मक्खीचूस कहते । इसीलिहाजसे हम डाक्टरोंको न छोड़ सके । अन्तमें होमियोपैथीके एक सुप्रसिद्ध और अद्वितीय चिकित्सक भी आये। उन्होंने भी अपने सब तीर चला लिये। जब उनके तरकशमें कोई भी तीर रह न गया तब, एक दिन सन्ध्या-समय वह भी सिर पकड़कर बैठ गये। उस दिन रोगीकी हालत अब-तब हो रही थी। हमारी, मरीज़ाकी या छोटे-छोटे बच्चोंकी खुशकिस्मतीसे, उसी दिन हमारे पूज्यपाद माननीय वयोवृद्ध पण्डितवर कन्हैयालालजी वैद्य सिरसावाले, रोगिणीकी खबर पूछनेके लिये तशरीफ़ ले आये। आप रोगिणीको देख-भालकर इस प्रकार कहने लगे-"बेशक मामला करारा है, ज्वर पुराना है, अतिसार भी साथ है, ज्वर धातुगत हो गया है, शरीरमें पहले ही बल और मांस नहीं है, फिर अभी १० दिनकी जच्चा होनेसे कमज़ोरी और भी बढ़ गई है। ईश्वर चाहता है, तो जमीनमें लिया हुआ मनुष्य भी बच जाता है, पर मुझे आपपर सख्त गुस्सा आता है। अफसोस है कि, आप आयुर्वेदमें इतनी गति रखकर भी, डाक्टरोंके जालमें बुरी तरह फंस रहे हो ! मालूम होता है, आपके पास रुपया फालतू है, इसीसे निर्दयताके साथ उसे फेंक रहे हो । डाक्टर तो जवाब दे ही चुके । कहिये, और कोई नामी-ग्रामी डाक्टर बाकी है ? अगर है, तो उसे भी बुला लीजिये । मगर अब देर For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ड] करना सिरपर जोखिम लेना है। अगर आप हमारी बात मानें, तो मरीजाका इलाज बतौर ट्रायलके तीन दिन स्वयं करें, नहीं तो हमारे हाथमें सौंपें । मैं आपकी इस कार्रवाईसे मन-ही-मन बहुत कुढ़ता हूँ। आप तो आजकल कई दिनसे कटरेमें आते ही नहीं। मैं नित्य आपके आफिसमें जाकर, बा. बद्रीप्रसादजीसे समाचार पूछा करता हूँ। वह कहते हैं, आज सवेरे फलाँ डाक्टर आया था, दोपहरको फलाँ आया और अब बाबू रामप्रतापजी अमुकको लेने गये हैं, तब मेरे शरीरका खून खौल उठता है। आज मैं बहुत ही दुखी होकर यहाँ आया हूँ। मित्रवर ! अपने आयुर्वेदमें क्या नहीं है ? आप काञ्चनको त्यागकर काँचके पीछे भटक रहे हैं !" पण्डितजीका तत्वपूर्ण उपदेश काम कर गया, सबके दिलोंमें उनकी बात अँच गई। रोगिणीने हमारी चिकित्साके लिये इशारा किया। बस, फिर क्या था, हम जगदीशका नाम लेकर, इष्टदेव कृष्णके सुपरविजनमें, चिकित्सा करने लगे। अब हम अपने वैद्य-विद्या सीखनेके अभिलाषियोंके लाभार्थ यह बता देना अनुचित नहीं समझते, कि मरीजाको मर्ज़ क्या था और उन्हें किन-किन मामूली दवाओंसे आराम हुआ। यद्यपि जो आयुर्वेदके धुरन्धर विद्वान्, प्राणाचार्य या भिषक्श्रेष्ठ हैं, उन्हें इन पंक्तियोंसे कोई लाभ होनेकी सम्भावना नहीं, उनका अमूल्य समय वृथा नष्ट होगा, पर चूँकि हमारा यह ग्रन्थ बिल्कुल नौसिखियोंके लिये, आयुर्वेदका ककहरा भी न जाननेवालोंके लिये लिखा जा रहा है। अतः इस अनुभूत चिकित्सासे उन्हें लाभकी सम्भावना है, क्योंकि ऐसे ही इलझे हुए रोगियों या पेचीदा केसोंको देखने-सुननेसे चिकित्सा सीखनेवाले अनुभवी बनते हैं। ये बातें कहीं-कहींपर बड़ा काम दे जाती हैं। रोगिणीको गर्भावस्थामें ही ज्वर होता था। वह होमियोपैथी दवा पसन्द करती हैं, अतः उन्हें वही दवा दी जाती और ज्वर दब जाता था। महीनेमें चार बार ज्वर आता और आराम हो जाता। For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ढ ] मरीजा खाने-पीनेके कष्टके मारे, हल्का-हल्का ज्वर होनेपर भी उसे छिपाती और जब ज्वरका जोर होता तब दवा खा लेती और फिर अपनी इच्छासे छोड़ देती । वह कहती, कि ज्वर चला गया, पर वास्तवमें वह जाता नहीं था, भीतर बना रहता था । इस तरह दो-तीन महीनोंमें वह पुराना हो गया, धातुओंमें प्रवेश कर गया । इस समय वह दिन-रात चौबीसों घण्टे बना रहने लगा। महीने भर तक एक क्षणको भी कम न हुआ । ज्वरने शरीरकी सब धातुएँ चर ली। बल और मांस नाममात्रको रह गये। अतिसार भी आ धमका। दम-दमपर आँव और खूनके दस्त होने लगे। अग्नि मन्द हो गयी। भोजनका नाम भी बुरा लगने लगा। हमने सबसे पहले अतिसारका दूर करना उचित समझा, क्योंकि दस्तोंके मारे रोगीकी हालत खतरनाक होती जा रही थी। सोचा गया "कर्पूरादिवटी", जो चिकित्साचन्द्रोदय तीसरे भागके पृष्ठ ३४० में लिखी है, इस मौकेपर अच्छा काम करेंगी। उनसे अतिसार तो नाश होगा ही, पर ज्वर भी कम होगा, क्योंकि ऐसे हठीले ज्वरोंमें, खासकर सिल या उरःक्षतके ज्वरोंमें जब ज्वर सैकड़ों उपायोंसे ज़रा भी टस-से-मस न होता था, हम कपूरके योगसे बनी हुई दवाएँ देकर, उनका अपूर्व चमत्कार देख चुके थे। निदान, छ-छै घण्टोंके अन्तरसे “कर्पूरादिबटी' दी जाने लगीं । पहली ही गोलीने अपना आश्चर्यजनक फल दिखाया। चौबीस घण्टोंमें ज्वर कुछ देरको हटा। दस्त भी कुछ कम आये। दूसरे दिन आँव और खूनका आना बन्द हो गया । ज्वर १८ घण्टेसे कम रहा। तीसरे दिन ८।१० पतले दस्त हुए, जिनमें आँव और खून नहीं था और ज्वर बारह घण्टे रहा। उस दिन हमने हर चार-चार घण्टेपर दो-दो और तीन-तीन माशे बिल्वादि चूर्ण, जो तीसरे भागके पृष्ठ २७० में लिखा है, अर्क सौंफ और अक़ गुलाबके साथ दिया। चौथे दिन दस्त एकदम बँधकर आया, ज्वर ३।४ घण्टे रहा और उतर गया । पाँचवें दिन ज्वर और अतिसार दोनों विदा हो गये। For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ण 1 पाठक ! अब कभी आपको ज्वर और अतिसार या ज्वरातिसारका रोगी मिले, उसे चाहे बड़े-बड़े चिकित्सक न आराम कर सके हों, आप ऊपरकी विधिसे दवा दें, निश्चय ही आराम होगा और लोगोंको आश्चर्य होगा। जिसे केवल ज्वर हो, अतिसार न हो, उसे ये गोलियाँ न देनी चाहियें । हाँ, जिसे केवल आमातिसार या रक्तातिसार हो, ज्वर न हो, उसे भी ये गोलियाँ दी जा सकती हैं । हाँ, मरीजाके हाथपैरों और मुखपर वरम या सूजन भी आ गई थी, अतः शरीरके शोथ या सूजन नाश करनेके लिये, हमने "नारायण तैल" की मालिश कराई और आगे छठे दिनसे, पहलेकी दवाएँ बन्द करके, “सितोपलादि चूर्ण" जो दूसरे भागके पृष्ठ ४४० में लिखा है, खानेको देते रहे और भोजनके साथ "हिंगाष्टक चूर्ण' सेवन कराते रहे । पर एक तरह ज्वरके चले जानेपर भी, मरीजाकी ज़बानका जायका न सुधरा, मुंहका स्वाद खराब रहने लगा, भूख लगनेपर भी खानेके पदार्थ अरुचिके मारे अच्छे न लगते थे। हमने समझ लिया कि, अभी ज्वरांश शेष है, अतः तीन माशे चिरायता रातको दो तोले पानीमें भिगोकर, सवेरे ही उसे छानकर, उसमें दो रत्ती कपूर और दो रत्ती शुद्ध शिलाजीत मिलाकर पिलाना शुरू किया। सात दिनमें रोगिणीने पूर्ण आरोग्य लाभ किया। इस नुसनेने हमारे एक ज्योतिषी-मित्रकी घरवालीको चार ही दिनमें चंगा कर दिया। वह कोई चार महीनेसे ज्वर पीड़ित थीं । कई डाक्टर-वैद्योंका इलाज हो चुका था। इसमें कृष्णकी कृपाका क्या फल देखा गया, यह हमने नहीं कहा । क्योंकि रोगी तो और भी अनेक, हर दिन असाध्य अवस्थामें पहुँच जानेपर भी, आरोग्य लाभ करते हैं। बात यह है, कि जिस दिन रातको दस्तोंका नम्बर लग गया, ज्वर धीमा न पड़ा, अवस्था और भी निराशाजनक हो गई, डाक्टर हताश होकर जवाब दे गये, हमने कृष्णसे प्रार्थना की कि, रोगीका जीवन है, तो रोगी दस-पाँच For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ त ] दिनमें या महीने दो महीनेमें आराम हो ही जायगा। अगर साँस पूरे हो गये हैं, तो किसी तरह बचेगा नहीं और बचनेकी कोई उम्मीद बाक़ी भी नहीं है। ऐसी निराशाजनक अवस्था होनेपर भी, रोगीकी हालत अगर ठीक कल सवेरे सुधर जायगी और चार-पाँच दिनमें रोगी निरोग हो जायगा। नाथ ! हमने आपके कई करिश्मे पहले तो देखे ही हैं, पर आज फिर देखनेकी इच्छा है। हमारी प्रार्थना स्वीकार हुई । हमारी केवल एक गोली खानेके बाद, सवेरे ही मरीजाने कहा"आज मेरी तबियत कुछ ठीक जान पड़ती है।" इसके बाद मरीजा जैसे चंगी हुई, हम लिख ही चुके हैं। पाठक ! इस चमत्कारको देखकर, हम तो उस मोहनपर मोहित हो गये-सब तरह उसके हो गये । कहिये, आप भी उसके होंगे या नहीं ? विनीत हरिदास। For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । * पाँचवाँ भाग * - पहला अध्याय । विष-वर्णन। --:*:---- विषकी उत्पत्ति । घ्रा र चीन कालमें, अमृतके लिये, देवता और राक्षसोंने समुद्र auve मथा। उस समय, अमृत निकलनेसे पहले, एक घोरदर्शन भयावने नेत्रोंवाला, चार दाढ़ोंवाला, हरे-हरे बालोंवाला और आगके समान दीप्ततेजा पुरुष निकला। उसे देखकर जगत्को विषाद हुआ-उसे देखते ही जगत्के प्राणी उदास हो गये। चूँकि उस भयङ्कर पुरुषके देखनेसे दुनियाको विषाद हुआ था, इसलिये उसका नाम “विष" हुआ । ब्रह्माजीने उस विषको अपनी स्थावर और जङ्गम-दोनों तरहकी--सृष्टिमें स्थापन कर दिया, इसलिये विष स्थावर और जङ्गम दो तरहका हो गया। चूँ कि विष समुद्र या पानीसे पैदा हुआ और आगके समान तीक्ष्ण था, इसीलिये वर्षाकालमें--पानीके समयमें For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । विषका क्लेद बढ़ता है और वह गीले गुड़की तरह फैलता है; यानी. बरसातमें विषका बड़ा जोर रहता है। किन्तु वर्षाऋतुके अन्तमें, अगस्त मुनि विषको नष्ट करते हैं, इसलिये वर्षाकालके बाद विष हीनवीर्यकमजोर हो जाता है । इस विषमें आठ वेग और दश गुण होते हैं। इसकी चिकित्सा बीस प्रकारसे होती है। विषके सम्बन्धमें "चरक"में यही सब बातें लिखी हैं । सुश्रुतमें थोड़ा भेद है। . सुश्रुतमें लिखा है, पृथ्वीके आदि कालमें, जब ब्रह्माजी इस जगत्की रचना करने लगे, तब कैटभ नामका दैत्य, मदसे माता होकर, उनके कामोंमें विघ्न करने लगा। इससे तेजनिधान ब्रह्माजीको क्रोध हुआ । उस क्रोधने दारुण शरीर धारण करके, उस कैटभ दैत्यको मार डाला। उस क्रोधसे पैदा हुए कैटभके मारनेवालेको देखकर, देवताओंको विषाद हुआ-रज हुआ, इसीसे उसका नाम "विष" पड़ गया । ब्रह्माजीने उस विषको अपनी स्थावर और जङ्गम सृष्टिमें स्थान दे दिया; यानी न चलने-फिरनेवाले वृक्ष, लता-पता आदि स्थावर सृष्टि और चलने-फिरनेवाले साँप, बिच्छू , कुत्ते, बिल्ली आदि जङ्गम सृष्टिमें उसे रहनेकी आज्ञा दे दी। इसीसे विष स्थावर और जङ्गम-दो तरहका हो गया। ___ नोट-विष नाम पड़नेका कारण तो दोनों ग्रन्थों में एक ही लिखा है; पर "चरक"में उसकी पैदायश समुद्र या पानीसे लिखी है और सुश्रुतमें ब्रह्माके क्रोधसे । चरक और सुश्रुत-दोनोंके मतसे ही विष अग्निके समान गरम और तीक्ष्ण है। सुश्रुतमें तो विषकी पैदायश क्रोधसे लिखी ही है। क्रोधसे पित्त होता है और पित्त गरम तथा तीक्ष्ण होता है। चाकने विषको अम्बुसम्भवपानीसे पैदा हुअा-लिखकर भी, अग्नि व तीक्ष्ण लिखा है। मतलब यह कि विषके गरम और तेज़ होने में कोई मत-भेद नहीं। चरक मुनि उसे जलसे पैदा हुआ कहकर, यह दिखाते हैं, कि जलसे पैदा होनेके कारण हो विष वर्षाऋतुमें बहुत ज़ोर करता है और यह बात देखने में भी आती है। बरसातमें साँपका जहर बड़ी तेज़ीपर होता है । बादल देखते ही बावले कुत्ते का ज़हर दबा हुआ भी-कुपित हो उठता है, इत्यादि। For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-वर्णन । विषकी उत्पत्ति क्रोधसे है। इस पर भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं, कि जिस तरह पुरुषोंका वीर्य सारे शरीरमें फैला रहता है, और स्त्री आदिकके देखने के हर्षसे, वह सारे शरीरसे चलकर, वीर्यवाहिनी नसों में श्रा जाता है और अत्यन्त आनन्दके समय स्त्रीकी योनिमें गिर पड़ता है, उसी तरह क्रोध प्रानेसे साँपका विष भी, सारे शरीरसे चलकर, सर्पकी दाढ़ोंमें आ जाता है और सर्प जिसे काटता है, उसके घावमें गिर जाता है। जब तक साँपको क्रोध नहीं आता, उसका विष नहीं निकलता । यही वजह है, जो साँप बिना क्रोध किये; बहुधा किस को नहीं काटते । साँपोंको जितना ही अधिक क्रोध होता है, उसका दंश भी उतना ही सांघातिक या मारक होता है। सुश्रुतमें लिखा है, चूंकि विषकी उत्पत्ति क्रोधसे है, अतः विष अत्यन्त गरम और तीचण होता है। इसलिये सब तरहके विषोंमें प्रायः शीतल परिषेक करना; यानी शीतल जलके छोटे वगैरः देना उचित है। 'प्रायः' शब्द इसलिये लिखा है, कि कितने ही मौकोंपर गरम सेक करना ही हितकर होता है । जैसे; के डोंका विष बहुत तेज़ नहीं होता, प्रायः मन्दा होता है। उनके विषमें वायु और कफ ज़ियादा होते हैं । इसलिये कीड़ोंके काटनेपर, बहुधा गरम सेक करना अच्छा होता है, क्योंकि वात-कफकी अधिकतामें, गरम सेक करके, पसीने निकालना लाभदायक है । बहुधा, वात-कफके विषसे सूजन आ जाती है, और वह वात-कफकी सूजन पसीने निकालनेसे नष्ट हो जाती है। पर, यद्यपि केड़ोंके विषमें गरम सेककी मनाही नहीं है, तथापि ऐसे भी कई कीड़े होते हैं, जिनमें गरम सेक हानि करता है। दो एक बात और भी ध्यानमें जमा लीजिये। पहली बात यह कि, विषमें समस्त गुण प्रायः तीक्ष्ण होते हैं, इसलिए वह समस्त दोषों-वात, पित्त, कफ और रक्त-को प्रकुपित कर देता है। विषसे सताये हुए वात श्रादि दोष अपनेअपने स्वाभाविक कामोंको छोड़ बैठते हैं-अपने-अपने नित्य कर्मों को नहीं करते -अपने कर्तव्योंका पालन नहीं करते । और विष स्वयं पचता भी नहीं--इसलिये वह प्राणोंको रोक देता है। यही वजह है कि, कफसे राह रुक जानेके कारण, विषवाले प्राणीका श्वास रुक जाता है। कफके आड़े आ जानेसे वायु या हवाके श्राने-जानेको राह नहीं मिलती, इससे मनुष्यका साँस आना-जाना बन्द हो जाता है। चूंकि राह न पानेसे साँसका आवागमन बन्द हो जाता है, इसलिये वह आदमी या और कोई जीव-न मरनेपर भी-भीतर जीवात्माके मौजूद रहनेपर भः–बेहोश होकर मुर्देक तरह पड़ा रहता है। उसके ज़िन्दा होनेपर भी-- For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । उसकी ऊपरी हालत बेहोशी अादि देखकर लोग उसे मुर्दा समझ लेते हैं और अनेक ना-समझ उसे शीघ्र ही मरघट या श्मशानपर ले जाकर जला देते या कबमें दफना देते हैं। इस तरह, अज्ञानतासे, अनेक बार, बच सकनेवाले आदमी भी, बिना मौत मरते हैं । चतुर श्रादमी ऐसे मौकोंपर काकपद करके या उसकी आँखकी पुतलियों में अपनी या दीपककी लौकी परछाँही आदि देखकर, उसके मरने या जिन्दा होनेका फैसला करते हैं। मूर्छा रोग, मृगी रोग और विषकी दशामें अक्सर ऐसा धोखा होता है। हमने ऐसे अवसरकी परीक्षा-विधि इसी भागमें आगे लिखी है । पाठक उससे अवश्य काम लें; क्योंकि मनुष्य-देह बड़ी दुर्लभ है। विषके मुख्य दो भेद । सुश्रुतमें लिखा है:-- स्थावरं जंगमं चैव द्विविधं विषमुच्यते । दशाधिष्ठानं आद्यं तु द्वितीय षोडशाश्रयम् ।। विष दो तरहके होते हैं:-(१) स्थावर, और (२) जंगम । स्थावर विषके रहनेके दश स्थान हैं और जंगमके सोलह । अथवा यों समझिये कि स्थान-भेदसे, स्थावर विष दश तरहका होता है और जंगम सोलह तरहका। ___ नोट--स्थिरतासे एक ही जगह रहनेवाले--फिरने, डोलने या चलनेकी शक्कि न रखनेवाले--वृक्ष, लता-पता और पत्थर आदि जड़ पदार्थों में रहनेवाले विषको "स्थावर" विष कहते हैं। चलने-फिरनेवाले--चैतन्य जीवोंसाँप, बिच्छू, चूहा, मकड़ी आदिमें रहनेवाले विषको "जंगम' विष कहते हैं। ईश्वरकी सृष्टि भी दो तरहकी है:--(१) स्थावर, और (२) जंगम । उसी तरह विष भी दो तरहके होते हैं-(१) स्थावर, और (२) जंगम । मतलब यह कि, जगदीशने दो तरहकी सृष्टि-रचना की और अपनी दोनों तरहकी सृष्टिमें ही विषकी स्थापना भी की। जंगम विषके रहनेके स्थान । जंगम विषके सोलह अधिष्ठान या रहनेके स्थान ये हैं:..(१) दृष्टि, (२) श्वास, (३) दाढ़, (४) नख, (५) मूत्र, For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir “विष-वर्णन। (६) विष्ठा, (७) वीर्य, (८) आर्तव, (६) लार, (१०) मुँहकी पकड़, (११) अपानवायु, (१२) गुदा, (१३) हड्डी, (१४) पित्ता, (१५) शूक, और (१६) लाश । __नोट--शूकका अर्थ है--डंक, काँटा, या रोम। जैसे; बिच्छू, मक्खी और ततैये अादिके डंकोंमें विष रहता है और कनखजूरेके काँटोंमें। . . - चरकमें लिखा है, साँप, कीड़ा, चूहा, मकड़ी, बिच्छू, छिपकली, गिरगट, जौंक, मछली, मेंडक, भौंरा, बरं, मक्खी , किरकेंटा, कुत्ता, सिंह, स्यार, चीता, तेंदुआ, जरख और नौला वगैरकी दाढ़ोंमें विष रहता है। इनकी दाढ़ोंसे पैदा हुए विषको "जंगम विष" कहते हैं। पर भगवान् धन्वन्तरि दाढ़ोंमें ही नहीं, अनेक जीवोंके मल, मूत्र, श्वास आदिमें भी विषका होना बतलाते हैं और यह बात है भी ठीक । वे कहते हैं: (१) दिव्य सोकी दृष्टि और श्वासमें विष होता है। (२) पार्थिव या दुनियाके साँपोंकी दाढ़ोंमें विष होता है। (३) सिंह और बिलाव प्रभृतिके पञ्जों और दाँतोंमें विष होता है। (४) चिपिट आदि कीड़ोंके मल और मूत्रमें विष रहता है। (५) जहरीले चूहोंके वीर्यमें भी विष रहता है। (६) मकड़ीकी लार और चेपादिमें विष रहता है। (७) बिच्छूके पिछले डंकमें विष रहता है । (८) चित्रशिर आदिकी मुंहकी पकड़में विष होता है । (E) विषसे मरे हुए जीवोंकी हड्डियोंमें विष रहता है। (१०) कनखजूरेके काँटोंमें विष होता है। (११) भौरे, ततैये और मक्खीके डंकमें विष रहता है। (१२) विषैली जौंककी मुंहकी पकड़में विष होता है । ... (१३) सर्प या जहरीले कीड़ोंकी लाशोंमें भी विष होता है। ..नोट--(१) कितने ही लोग सभी मरे हुए जीवोंके शरीरमें विषका होना मानते हैं। For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ة مية مية مية مية مية مية مية مي مي م ة مية مية مية مية مية مية مية مية مية مية في ة ب مه ته وه به سه ره م مروة م مرة ي آ یا ما مي مية مية مية مية مية مية مية مية مية مية مية مية مية مية مية مية مية مية مية مية مية ه ي بيه جية ه ي चिकित्सा-चन्द्रोदय । (२) मकड़ियाँ बहुत तरहकी होती हैं। सुनते हैं कि कितनी ही प्रकारको मकड़ियोंके नाखून तक होते हैं। नाखूनवाली मकड़ी कितनी बड़ी होती होंगी ! इस देशमें, घरों में तो ऐसी मकड़ियाँ नहीं देखी जाती; शायद, अन्य देशों और वनोंमें ऐस भयानक मकड़ियाँ होती हों। लारमें तो सभी प्रकारको मकड़ियोंके विष होता है। कितनी ही मकड़ियोंके मल, मूत्र, नाखून, वीर्य, आर्तव और मुंहको पकड़में भी विष होता है। ज़हरीले चूहोंके दाँत और वीर्य-- दोनोंमें विव होता है। चार पैरवाले जानवरोंकी दाढ़ों और नाखूनों दोनों में विव होता है । मक्खी और कणभ आदिकी मुंहकी पकड़में भी विष होता है । विषसे मरे हुए साँप, कण्टक और वरही मछली की हड्डियों में विष होता है। चोंटी, कनखजूरा, कातरा और भौरी या भौंरेके डंक और मुंह दोनों में विष होता है। जंगम विषके सामान्य कार्य । भावप्रकाशमें लिखा है: निद्रां तन्द्रां क्लमंदाह, सम्पाकं लोमहर्षणम् । शोथं चैवातिसारं च कुरुते जंगमं विषम् ॥ जंगम विष निद्रा, तन्द्रा, ग्लानि, दाह, पाक, रोमाञ्च, सूजन और अतिसार करता है। __स्थावर विषके रहनेके स्थान । सुश्रुतमें लिखा है:-. मूलं पत्रं फलं पुष्पं त्वकक्षीरं सार एव च । निर्यासोधातवश्चैव कन्दश्च दशमः स्मृतः॥ स्थावर विष जड़, पत्ते, छाल, फल, फूल, दूध, सार, गोंद, धातु और कन्द--इन दशोंमें रहता है। नोट--किसीकी जड़में विव रहता है, किसीके पत्तोंमें, किसीके फलमें, किसीके फूल में, किसीकी छालमें, किसीके दूधमें, किसीके गोंदमें और किसीके कन्दमें विव रहता है । वृक्षोंके सिवाय, विष खानोंसे निकलनेवाली धातुओंमें भी रहता है । हरताल और सखिया अथवा फेनास्म-भस्म-ये दो विष धातु-विष माने जाते हैं । कनेर और चिरमिटी आदिको जड़में विष होता है । थूहर आदिके दूधमें विष होता है । सुश्रुतने जड़, पत्ते, फल, फूल, दूध, गोंद और सार श्रादिमें For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-वर्णन। कुल मिलाकर पचपन प्रकारके स्थावर विष लिखे हैं; पर बहुतसे नाम अाजकलको भाषामें नहीं मिलते, किसी कोषमें भी उनका पता नहीं लगता; इसलिये हम उन्हें छोड़ देते हैं। जब कोई समझेगा ही नहीं, तब लिखनेसे क्या लाभ ? हाँ, कन्द-विषोंका संक्षिप्त वर्णन किये देते हैं। कन्द-विष । सुश्रुतने नीचे लिखे तेरह कन्द-विष लिखे हैं: (१) कालकूट, (२) वत्सनाभ, (३) सर्षप, (४) पालक, (५) कर्दमक, (६) वैराटक, (७) मुस्तक, (८) शृंगीविष, (६) 'प्रपौंडरीक, (१०) मूलक, (११) हालाहल, (१२) महाविष, और (१३) कर्कटक । इनमें भी वत्सनाभ विष चार तरहका, मुस्तक दो तरहका, सर्षप छै तरहका और बाकी सब एक-एक तरहके लिखे हैं। भावप्रकाशमें विष नौ तरहके लिखे हैं । जैसे,-- (१) वत्सनाभ, (२) हारिद्र, (३) सक्तुक, (४) प्रदीपन, (५) सौराष्ट्रिक, (६) शृंगिक, (७) कालकूट, (८) हालाहल, और (६) ब्रह्मपुत्र । कन्द विषोंको पहचान । (१) वत्सनाभ विष--जिसके पत्ते सम्हालूके समान हों, जिसकी आकृति बछड़ेकी नाभिके जैसी हो और जिसके पास दूसरे वृक्ष न लग सकें, उसे "वत्सनाभ विष" कहते हैं । (२) हारिद्र विष--जिसकी जड़ हल्दीके वृक्षके सदृश हो, वह "हारिद्र विष" है। . (३) सक्तुक विष-जिसकी गाँठमें सत्तू के जैसा चूरा भरा हो, वह “सक्तुक विष" है। (४) प्रदीपन विष--जिसका रङ्ग लाल हो, जिसकी कान्ति अग्निके समान हो, जो दीप्त और अत्यन्त दाहकारक हो, वह "प्रदीपन विष" है। For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । (५) सौराष्ट्रिक विष-जो विष सौराष्ट्र देशमें पैदा होता है, उसे "सौराष्टिक विष" कहते हैं। (६) श्रृंगिक विष--जिस विषको गायके सींगके बाँधनेसे दूध लाल हो जाय, उसे "शृंगिक" या "सींगिया विष" कहते हैं। (७) कालकूट विष--पीपलके जैसे वृक्षका गोंद होता है। यह शृङ्गवेर, कोंकन और मलयाचलमें पैदा होता है। (८) हालाहल विष-इसके फल दाखोंके गुच्छोंके जैसे और पत्ते ताड़के जैसे होते हैं। इसके तेजसे आस-पासके वृक्ष मुझी जाते हैं। यह विष हिमालय, किष्किन्धा, कोंकन देश और दक्षिण महासागरके तटपर होता है। (६) ब्रह्मपुत्र विष-इसका रङ्ग पीला होता है और यह मलयाचल पर्वतपर पैदा होता है। - कन्द-विषोंके उपद्रव । सुश्रुतमें लिखा है:-- (१) कालकूट विषसे स्पर्श-ज्ञान नहीं रहता, कम्प और शरीरस्तम्भ होता है। (२) वत्सनाभ विषसे ग्रीवा-स्तम्भ होता है तथा मल-मूत्र और नेत्र पीले हो जाते हैं। . (३) सर्षपसे तालूमें विगुणता, अकारा और गाँठ होती है । (४) पालकसे गर्दन पतली पड़ जाती और बोली बन्द हो जाती है। (५) कर्दमकसे मल फट जाता और नेत्र पीले हो जाते हैं । __ (६) वैराटकसे अङ्गमें दुःख और शिरमें दर्द होता है । (७) मुस्तकसे शरीर अकड़ जाता और कम्प होता है । (८) शृङ्गी विषसे शरीर ढीला हो जाता, दाह होता और पेट फूल जाता है। (2) प्रपौंडरीक विषसे नेत्र लाल होते और पेट फूल जाता है। For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-वर्णन। ... (९०) मूलकसे शरीरका रंग बिगड़ जाता, कय होती, हिचकियाँ चलती तथा सूजन और मूढ़ता होती है । (११) हालाहलसे श्वास रुक-रुककर आता और आदमी काला हो जाता है। (१२) महाविषसे हृदयमें गाँठ होती और भयानक शूल होता है। (१३) कर्कटकसे आदमी ऊपरको उछलता और हँस-हँसकर दाँत चबाने लगता है। भावप्रकाशमें लिखा है:-- कन्दजान्युग्र वीयाणि यान्युक्तानि त्रयोदशः । सुश्रुतादि ग्रन्थोंमें लिखे हुए तेरह विष बड़ी उग्र शक्तिवाले होते हैं, यानी तत्काल प्राण नाश करते हैं। आजकल काममें आनेवाले कन्द-विष। . आजकल सुश्रुतके तेरह और भावप्रकाशके नौ विष बहुत कम मिलते हैं । इस समय, इनमें से "वत्सनाभ विष" और "सींगिया विष" ही अधिक काममें आते हैं। अगर ये युक्तिके साथ काममें लाये जाते हैं, तो रसायन, प्राणदायक, योगवाही, त्रिदोषनाशक, पुष्टिकारक और वीर्यवर्द्धक सिद्ध होते हैं। अगर बेकायदे सेवन किये जाते हैं, तो प्राण-नाश करते हैं। अशुद्ध विष हानिकारक । अशुद्ध विषके दुर्गुण उसके शोधन करनेसे दूर हो जाते हैं। इसलिये दवाओं के काममें विषोंको शोधकर लेना चाहिये । कहा है ये दुगुणा विषेऽशुद्ध ते स्युहीना विशोधनात् । तस्माद विषं प्रयोगेषु शोधयित्वा प्रयोजयेत ॥ विषमात्रके दश गुण । कुशल वैद्योंको विषोंकी परीक्षा नीचे लिखे हुए दश गुणोंसे करनी चाहिये । अगर स्थावर, जंगम और कृत्रिम विषोंमें ये दशों गुण होते For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय। हैं, तो वे मनुष्यको तत्काल मार डालते हैं। सुश्रुतादिक ग्रन्थोंमें लिखा हैः-- रुक्ष्मुष्णं तथा तीक्ष्णं सूक्ष्ममाशु व्यवायि च । विकाशि विषदश्चैव लध्वपाकि च ततमतम् ।। (१) रुक्ष, (२) उष्ण, (३) सूक्ष्म, (४) आशु, (५) व्यवायी, (६) विकाशी, (७) विषद, (८) लघु, (६) तीक्ष्ण, और (१०) अपाकी,-ये दश गुण विषों में होते हैं। दश गुणोंके कार्य । ऊपरके रुक्ष, उष्ण आदि दश गुणों के कार्य इस भाँति होते हैं: (१) विष बहुत ही रूखा होता है, इसलिये वह वायुको कुपित करता है। (२) विष उष्ण यानी गरम होता है, इसलिये पित्त और खूनको कुपित करता है। (३) विष तीक्ष्ण-तेज़ होता है, इसलिये बुद्धिको मोहित करता, बेहोशी लाता और शरीरके मर्म या बन्धनोंको तोड़ डालता है। ( ४ ) विष सूक्ष्म होता है, इसलिये शरीरके बारीक छेदों और अवयनोंमें घुसकर उन्हें बिगाड़ देता है। (५) विष आशु होता है; यानी बहुत जल्दी-जल्दी चलता है, इसलिये इसका प्रभाव शरीरमें बहुत जल्दी होता है और इससे यह तत्काल फैलकर प्राण-नाश कर देता है। __(६) विष व्यवायी होता है। पहले सारे शरीरमें फैलता और पीछे पकता है, अतः सब शरीरकी प्रकृतिको बदल देता या अपनी-सी कर देता है। (७) विष विकाशी होता है, इसलिये दोषों, धातुओं और मलको नष्ट कर देता है। (८) विष विषद होता है, इसलिये शरीरको शक्तिहीन कर देता या दस्त लगा देता है। For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-वर्णन । (६) विष लघु होता है, इसलिये इसकी चिकित्सामें कठिनाई होती है । यह शीघ्र ही असाध्य हो जाता है। (१०) विष अपाकी होता है, इसलिये बड़ी कठिनतासे पचता या नहीं पचता है; अतः बहुत समय तक दुःख देता है। ___ नोट-चरकमें लिखा है, त्रिदोषमें जिस दोषकी अधिकता होती है, विष उसी दोषके स्थान और प्रकृतिको प्राप्त होकर, उसी दोषको उदीरण करता है; यानी वातिक व्यक्तिके वात-स्थानमें जाकर बादीकी प्यास, बेहोशी, अरुचि, मोह, गलग्रह, वमि और झाग वारः उत्पन्न करता है। उस समय कफ-पित्तके लक्षण बहुत ही थोड़े दीखते हैं। इसी तरह विष पित्त-स्थानमें जाकर प्यास, खाँसी, ज्वर, वमन, क्लम, तम, दाह और अतिसार आदि पैदा करता है । उस समय कफवातके लक्षण कम होते हैं । इसी तरह विष जब कफ-स्थलमें जाता है, तब श्वास, गलग्रह, खुजली, लार और वमन आदि करता है । उस समय पित्त-वातके लक्षण कम होते हैं । दूषी विष खूनको बिगाड़कर, कोढ़ प्रभृति खूनके रोग करता है। इस प्रकार विष एक-एक दोषको दूषित करके जीवन नाश करता है। विषके तेज़से खून गिरता है । सब छेदोंको रोककर, विष प्राणियोंको मार डालता है। पिया हुआ विष मरनेवालेके हृदयमें जम जाता है । साँप, बिच्छू आदिका और ज़हरके बुझे हुए तीर आदिका विष डसे हुए या लगे हुए स्थानमें रहता है। दूषी विषके लक्षण । जो विष अत्यन्त पुराना हो गया हो, विष-नाशक दवाओंसे हीनवीर्य या कमजोर हो गया हो अथवा दावाग्नि, वायु या धूपसे सूख गया हो, अथवा स्वाभाविक दश गुणोंमेंसे एक, दो, तीन या चार गुणोंसे रहित हो गया हो, उसको “दूषी विष" कहते हैं। __खुलासा यह है, कि चाहे स्थावर विष हो, चाहे जंगम और चाहे कृत्रिम-जो किसी तरह कमजोर हो जाता है, उसे “दूषी विष" कहते हैं। मान लो, किसीने विष खाया, वैद्यकी चिकित्सासे वह विष निकल गया, पर कुछ रह गया, पुराना पड़ गया या पच गया.- वह विष “दूषी विष" कहलावेगा; क्योंकि उसमें अब उतना बलवीर्य नहींपहलेसे यह हीनवीर्य या कमजोर है। इसी तरह जो विष धूप, आग For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । या वायुसे सूख गया हो और इस तरह कमजोर हो गया हो, वह भी "दूषी विष" कहलावेगा। इसी तरह जो विष स्वभावसे ही--अपने-आप ही-कमजोर हो, उसमें विषके पूरे गुण न हों, उसे भी “दूषी विष" ही कहेंगे । मतलब यह कि, स्थावर और जंगम विष पुरानेपन प्रभृति कारणोंसे 'दूषी विष" कहलाते हैं । भावप्रकाशमें लिखा है:-- स्थावरं जंगमं च विषमेव जीर्णत्व मादिभिः कारणैर्दुषीविषसंज्ञां लभते । स्थावर और जंगम विष--जीर्णता आदि कारणोंसे “दूषी विष" कहे जाते हैं। दूषी विष क्या मृत्युकारक नहीं होता ? . दूषी विष कमजोर होता है, इसलिये मृत्यु नहीं कर सकता, पर कफसे ढककर बरसों शरीर में रहा आता है । सुश्रुतमें लिखा है: वीर्यल्प भावान निपातयेत्तत कफावृतं वर्षगणानुवन्धि । . दूषी विष वीर्य या बल कम होनेकी वजहसे प्राणीको मारता नहीं, पर कफसे ढका रहकर, बरसों शरीरमें रहा आता है। दृषी विषकी निरुक्ति। सुश्रुतमें लिखा है: दृषितं देशकालान्न दिवास्वम रभीक्ष्णशः । यस्मादुपयते धातून्तस्मादृषी विस्मृतम् ।। यह हीनवीर्य विष अगर शरीरमें रह जाता है, तो देश-काल और खाने-पीनेकी गड़बड़ी तथा दिनके अधिक सोने वगैरः कारणोंसे दूषित होकर धातुओंको दूषित करता है, इसीसे इसे "दूषी विष" कहते हैं। दूषी विष क्या करता है ? - दूषी विष हीन-वीर्य-कमजोर होनेकी वजहसे प्राणीको मारता तो नहीं है, लेकिन बरसों तक शरीरमें रहा आता है । क्यों रहा आता For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-वर्णन। है ? इस विषमें उष्णता आदि गुण कम होनेसे, कफ इसे ढके रहता है और कफकी वजहसे अग्नि मन्दी रहती है। इससे यह पचता भी नहीं--बस, इसीसे यह शरीरमें बरसों तक रहा आता है। जिसके शरीरमें दूषी विष होता है, उसको पतले दस्त लगते हैं, शरीरका रङ्ग बदल जाता है, चेष्टाएँ विरुद्ध होने लगती हैं, चैन नहीं मिलता तथा मूर्छा, भ्रम, वाणीका गद्गदपना और वमन ये रोग घेरे रहते हैं। स्थान विशेषके कारण दूषी विषके लक्षण । अगर दूपी विष आमाशयमें होता है, तो वात और कफ-सम्बन्धी रोग पैदा करता है। अगर विष पक्काशयमें होता है, तो वात और पित्त-सम्बन्धी रोग पैदा करता है। ___ अगर दूषी विष बालों और रोमोंमें होता है, तो मनुष्यको पंखहीन पक्षी-जैसा कर देता है। ___ अगर दूषी विष रसादि धातुओं में होता है, तो रस-दोष, रक्त-दोष, मांस-दोष, मेद-दोष, अस्थि-दोष, मज्जा-दोष और शुक्र-दोषसे होनेवाले रोग पैदा करता है: - ___ दूषी विष रसमें होनेसे अरुचि, अजीर्ण, अङ्गमर्द, ज्वर, उबकी, भारीपन, हृद्रोग, चमड़ेमें गुलझट, बाल सफेद होना, मुँहका स्वाद बिगड़ना और थकान आदि करता है। रक्तमें होनेसे कोढ़, विसर्प, फोड़े-फुन्सी, मस्से, नीलिका, तिल, चकत्ते, झाँई, गंज, तिल्ली, विद्रधि, गोला, वातरक्त, बवासीर, रसौली, शरीर टूटना, जरा खुजलानेसे खून निकलना या चमड़ा लाल हो जाना और रक्त-पित्त आदि करता है। ___ मांसमें होनेसे अधिमांस, अर्बुद, अर्श, अधिजिह्व, उपजिह्व, दन्तरोग, तालू-रोग, होठ पकना, गलगण्ड और गण्डमाला आदि करता है। For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । __- मेदमें होनेसे गाँठ, अण्डवृद्धि, गलगण्ड, अर्बुद, मधुमेह, शरीरका बहुत मोटा हो जाना और बहुत पसीना आना आदि करता है । हड्डीमें होनेसे कहीं हाड़का बढ़ जाना, दाँतकी जड़ों और दाँत निकलना तथा नाखून खराब होना वगैरः करता है। मजामें होनेसे अँधेरी आना, मूर्छा, भ्रम, जोड़ मोटे होना, जाँघ या उसकी जड़का मोटा होना प्रभृति करता है। शुक्रमें होनेसे नपुंसकता, स्त्री-प्रसङ्ग अच्छा न लगना, वीर्यकी पथरी, शुक्रमेह एवं अन्य वीर्य-विकार आदि करता है । दूषी विषके प्रकोपका समय । दूषी विष नीचे लिखे हुए समयों में तत्काल प्रकुपित होता है:(१) अत्यन्त सर्दी पड़नेके समय । (२) अत्यन्त हवा चलनेके समय । (३) बादल होनेके समय। प्रकुपित दूषी विषके पूर्वरूप । दूषी विषका कोप होनेसे पहले ये लक्षण देखने में आते हैं:अधिक नींद आना, शरीरका भारी होना, अधिक जंभाई आना, अङ्गोंका ढीला होना या टूटना और रोमाञ्च होना। प्रकुपित दृषी विषके रूप । जब दूषी विषका कोप होता है, तब वह खाना खानेपर सुपारीकासा मद करता है, भोजनको पचने नहीं देता, भोजनसे अरुचि करता है, शरीरमें गाँठ और चकत्ते करता है तथा मांस-क्षय, हाथ-पैरोंमें सूजन, कभी-कभी बेहोशी, वमन, अतिसार, श्वास, प्यास, विषमज्वर और जलोदर उत्पन्न करता है। यानी प्यास बहुत बढ़ जाती है और साथ ही पेट भी बढ़ने लगता है तथा शरीरका रङ्ग बिगड़ जाता है। दृषी विषके भेदोंसे विकार-भेद । कोई दूषी विष उन्माद करता है, कोई पेटको फुला देता है, कोई. For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-वर्णन। वीर्यको नष्ट कर देता है, कोई वाणीको गद्गद करता है, कोई कोढ़ करता है और कोई अनेक प्रकारके विसर्प और विस्फोटकादि रोग करता है। - नोट-दूषी विष अनेक प्रकारके होते हैं, इसलिए उनके काम भी भिन्नभिन्न होते हैं । दूषो विष-मात्र एक ही तरहके काम नहीं करते। कोई दूषी विष कोढ़ करता है, तो कोई वीर्य क्षीण करता है इत्यादि। दूषी विष क्यों कुपित होता है ? दिन में बहुत ज़ियादा सोने, कुल्थी, तिल और मसूर प्रभृति अन्न खाने, जलवाले देशोंमें रहने, अधिक हवा चलने, बादल और वर्षा होने वगैरः वगैरः कारणों से दूषी विष कुपित होता है। . दूषी विषकी साध्यासाध्यता । पथ्य सेवन करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुषका दूषी विष शीघ्र ही साध्य होता है । एक वर्षके बाद वह याप्य हो जाता है; यानी बड़ी मुश्किलसे आराम होता है या दवा सेवन करते तक दबा रहता है और दवा बन्द होते ही फिर उपद्रव करता है। अगर क्षीण और अपथ्य-सेवी पुरुषको यह दूषी विषका रोग होता है, तो वह आराम नहीं होता। ऐसा अजितेन्द्रिय गल-गलकर मर जाता है। . कृत्रिम विष भी दूषी विष । । जिस तरह स्थावर और जंगम विष दूषी विष हो जाते हैं, उसी तरह कृत्रिम या मनुष्यका बनाया हुआ विष भी दूषी विष हो जाता है; बशर्ते कि, उसका विषसे सम्बन्ध हो। अगर कृत्रिम विषका सम्बन्ध विषसे नहीं होता, पर वह विषके-से काम करता है, तो उसे "गर-विष" कहते हैं। . खुलासा यह है कि कई विषों और अन्य द्रव्योंके संयोगसे, मनुष्य द्वारा बनाया हुआ विष “कृत्रिम विष" कहलाता है। यह कृत्रिम विष दो तरहका होता है: For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ wommmmmmmmmmmmmmmmme चिकित्सा-चन्द्रोदय। (१) दूषी विष, और (२) गर। .. जिस कृत्रिम विषका सम्बन्ध विषसे होता है, उसे दूषी विष कह सकते हैं, जब कि वह हीनवीर्य हो गया हो; पर जिसका सम्बन्ध विषसे नहीं होता, पर वह विषके-से काम करता है, उसे “गर विष" कहते हैं। जैसे; स्त्रियाँ अपने पतियोंको वशमें करनेके लिये, उन्हें अपना आर्तव-मासिक-धर्मका खून, मैल या पसीना प्रभृति खिला देती हैं । वह सब विषका काम करते हैं-धातुक्षीणता, मन्दाग्नि और ज्वर आदि करते हैं । पर वे वास्तवमें न तो विष हैं और न विष वगैरः कई चीजोंके मेलसे बने हैं, इसलिये उनको किसी हालतमें भी “दूषी विष” नहीं कह सकते। गर विषके लक्षण । "चरक में लिखा है, संयोजक विषको “गर विष" कहते हैं। वह भी रोग करता है। "भावप्रकाश" में लिखा है, मूर्खा स्त्रियाँ अपने पतियोंको वशमें करनेके लिये, उन्हें रज, पसीना तथा अनेकानेक मलोंको भोजनमें मिलाकर खिला देती हैं । दुश्मन भी इसी तरहके पदार्थोंको भोजनमें खिला देते हैं। ये पसीने और रज प्रभृति मैले पदार्थ “गर" कहलाते हैं। गर विषके काम । पसीना और रज आदि गर पदार्थोंसे शरीर पीला पड़ जाता है, दुबलापन हो जाता है, भूख बन्द हो जाती है, ज्वर चढ़ आता है, मर्मस्थानों में पीड़ा होती है तथा अझारा, धातुक्षय और सूजन-ये रोग हो जाते हैं। नोट-यहाँ तक हमने मुख्य चार तरहके विष लिखे हैं:-(१) स्थावर विष, . (२) जंगम विष, (३) दूषी विष, और (४) गर विष। आप इन्हें अच्छी तरह For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-वर्णन । ... समझ-समझकर याद कर लें। इनकी उत्पत्ति, इनके लक्षण और इनके गुणकर्म श्रादि याद होनेसे ही आपको "विष-चिकित्सा" में सफलता मिलेगी। अगर कोई शख्स हमारी लिखी “विष-चिकित्सा" को ही अच्छी तरह याद कर ले और इसका अभ्यास करे, तो मनमाना यश और धन उपार्जन कर सके। इसके लिये और ग्रन्थ देखनेकी दरकार न होगी। स्थावर विषके कार्य । उधर हम जङ्गम विषके काम लिख आये हैं, अब स्थावर विषके काम लिखते हैं। ज्वर, हिचकी, दन्त-हर्ष, गलग्रह, झाग आना, अरुचि, श्वास और मूर्छा स्थावर विषके कार्य या नतीजे हैं। यानी जो आदमी स्थावर विष खाता-पीता है, उसे ऊपर लिखे ज्वर आदि रोग होते हैं। स्थावर विषके सात वेग । स्थावर और जङ्गम दोनों तरहके विषोंमें सात वेग या दौरे होते हैं। प्रत्येक वेगमें विष भिन्न-भिन्न प्रकारके काम करते हैं, इससे प्रत्येक वेगकी चिकित्सा भी अलग-अलग होती है। जङ्गम-विष या सर्प-विष प्रभृतिके वेग और उनकी चिकित्सा आगे लिखी है। यहाँ हम “सुश्रुत" से स्थावर विषके सात वेग और अगले अध्यायमें प्रत्येक वेगकी चिकित्सा लिखते हैं: (१) पहले वेगमें, -जीभ काली और कड़ी हो जाती है तथा मूर्छा-बेहोशी होती और श्वास चलता है। - (२) दूसरे वेगमें, शरीर कॉपता है, पसीने आते हैं, दाह या जलन होती और खुजली चलती है । - (३) तीसरे वेगमें,-तालूमें खुश्की होती है, आमाशयमें दारुण शूल या दर्द होता है तथा दोनों आँखोंका रंग और-का-और हो जाता है । वे हरी-हरी और सूजी-सी हो जाती हैं । नोट—याद रक्खो, इन तीनों वेगोंके समय खाया-पिया हुआ विष “श्रामा शय"में रहता है। इस तीसरे वेगके बाद, विष 'पक्वाशय' में पहुँच जाता है। For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । Amma जब विष पक्काशयमें पहुँच जाता है, तब पक्वाशयमें पीड़ा होती है, आँतें बोलती हैं, हिचकियाँ चलती हैं और खाँसी आती है। मतलब यह है, कि पहले तोन वेगोंके समय विष 'आमाशय में और पिछले चारों-चौथेसे सातवें तकवेगोंमें 'पक्वाशय में रहता है। (४) चौथे वेगमें,-सिर बहुत भारी होकर झुक जाता है। (५) पाँचवें वेगमें,-मुँहसे कफ गिरने लगता है, शरीरका रंग बिगड़ जाता है और सन्धियों या जोड़ोंमें फूटनी-सी होती है। इस वेगमें वात, पित्त, कफ और रक्त-चारों दोष कुपित हो जाते हैं और पक्काशयमें दर्द होता है। (६) छठे वेगमें,-बुद्धिका नाश हो जाता है, किसी तरहका होश या ज्ञान नहीं रहता और दस्त-पर-दस्त होते हैं । (७) सातवें वेगमें,--पीठ, कमर और कन्धे टूट जाते हैं तथा साँस रुक जाता है। आजकल भारतकी सभी भाषाओं में बङ्गला भाषा सबसे बढ़ीचढ़ी है। उसका साहित्य सब तरहसे भरा-पूरा है। अतः सभी विद्वान् या विद्या-व्यसनी बङ्गला पढ़ना चाहते हैं। उन्होंके लिये हमने "बँगला-हिन्दी-शिक्षा" नामक ग्रन्थके तीन भाग निकाले हैं। इनसे हजारों आदमी बङ्गला भाषा सीख-सीखकर बङ्गला-ग्रन्थ पढ़ने-समझने लगे। अनेक लोग बङ्गला-ग्रन्थोंका अनुवाद कर-करके, सैकड़ों रुपया माहवारी पैदा करने लगे। इस ग्रन्थमें यह खूबी है, कि यह बिना उस्तादके तीन-चार महीनेमें बङ्गला सिखा देता है। तीन भाग हैं, पहलेका दाम १), दूसरेका १) और तीसरेका १) है। तीनों एक साथ लेनेसे डाकखर्च माक। For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूसरा अध्याय । AT सर्व विष चिकित्सामें चिकित्सकके याद रखने योग्य बातें। (१) नीचे लिखे हुए उपायोंसे विष-चिकित्सा की जाती है: (१) मंत्र, (२) बन्ध बाँधना, (३) डसी हुई जगहको काट डालना, (४) दबाना, (५) खून मिला जहर चूसना, (६) अग्नि-कर्म करना या दागना, (७) परिषेक करना, (८) अवगाहन, (६) रक्तमोक्षण करना यानी फस्द आदिसे खून निकालना, (१०) वमन या कय कराना, (११) विरेचन या जुलाब देना, (१२) उपधान, (१३) हृदायवरण; यानी विषसे हृदयकी रक्षा करनेको घी, मांस या ईखरस आदि पहले ही पिला देना, (१४) अंजन, (१५) नस्य, (१६) धूम, (१७) लेह, (१८) औषधि, (१६) प्रशमन, (२०) प्रतिसारण, (२१) प्रतिविष सेवन कराना; यानी स्थावर विषमें जंगम विषका प्रयोग करना और जंगममें स्थावरका, (२२) संज्ञा-स्थापन, (२३) लेप और (२४) मृतसञ्जीवन देना । (२) विष, जिस समय, जिस दोषके स्थानमें हो, उस समय उसी दोषकी चिकित्सा करनी चाहिये । जब विष वात-स्थानमें--पक्वाशयमें होता है, तब वह बादीकी प्यास, बेहोशी, अरुचि, मोह, गलग्रह, वमि और झाग आदि उत्पन्न करता है। इस अवस्थामें, (१) स्वेद प्रयोग करना चाहिये, और (२) दहीके साथ कूट और तगरका कल्क सेवन करना चाहिये । जब विष पित्त स्थान--हृदय और ग्रहणीमें होता है, तब वह प्यास, खाँसी,ज्वर, वमन, क्लम, तम, दाह और अतिसार आदि उत्पन्न करता For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० نیه بیح بعد ہی یہی سید علی حسی चिकित्सा-चन्द्रोदय । है। इस अवस्थामें, (१) घी पीना, (२) शहद चाटना, (३) दूध पीना, (४) जल पीना और (५) अवगाहन करना हितकारी है । ___ जब विष कफ-स्थानमें-छातीमें- होता है, तब वह श्वास, गलग्रह, खुजली, लार गिरना और वमन होना आदि उपद्रव करता है। इस अवस्थामें, (१) क्षारागद सेवन कराना, (२) स्वेद दिलाना और (३) फस्द खोलना हितकारी है। दूषी विष अगर रक्तगत या खूनमें हो, तो "पंचविधि शिरावेधन" करना चाहिये। . इस तरह वैद्यको सारी अवस्थाएँ समझकर औषधिकी कल्पना करनी चाहिये । पहले तो विषके स्थानको जीतना चाहिये; फिर जिस स्थानके जीतनेसे विष नाश हुआ है, उसपर कोई काम विषचिकित्साके विरुद्ध न करना चाहिये। ___ (३) विषसे मार्ग दूषित हो जाते और छेद रुक जाते हैं, इसलिये वायु रुक जाती है, उसे रास्ता नहीं मिलता। वायुके रुकनेकी वजहसे मनुष्य मरनेवालेकी तरह साँस लेने लगता है। अगर ऐसी हालत हो, पर असाध्य अवस्थाके लक्षण न हों, तो उसके मस्तकपर, तेज चाकू या छुरीसे, चमड़ा छीलकर कव्वेका-सा पञ्जा बनाकर उसपर “चर्मकषा" यानी सिकेकाईका लेप करना चाहिये। साथ ही कटभी- हापरमाली, कुटकी और कायफल-इन तीनोंको पीस. छानकर, इनकी प्रधमन नस्य देनी चाहिये । अगर आदमी, विषसे, सहसा बेहोश हो जाय या मतवाला हो जाय, तो मस्तकपर ऊपरकी लिखी विधिसे काकपद बनाकर, उसपर बकरी, गाय, भैंस, मैंदा, मुर्गा या जल-जीवोंका मांस पीसकर रखना चाहिये । ___ अगर नाक, नेत्र, कान, जीभ और कण्ठ रुक रहे हों, तो जंगली बैंगन, बिजौरा और अपराजिता या मालकाँगनी-इन तीनोंके रसकी नस्य देनी चाहिये। For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra __www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mommom विष-चिकित्सामें याद रखने योग्य बातें। २१ अगर नेत्र बन्द हो गये हों, तो दारुहल्दी, त्रिकुटा, हल्दी, कनेर, कंजा, नीम और तुलसीको . बकरीके मूत्रमें पीसकर, नेत्रों में आँजना चाहिये। काली सेम, तुलसीके पत्ते, इन्द्रायणकी जड़, पुनर्नवा, काकमाची और सिरसके फूल,--इन सबको पीसकर, इनका लेप करने, नस्य देने, अंजन करने और पीनेसे उस प्राणीको लाभ होता है, जो उद्वधन विष और जलके द्वारा मुर्देके जैसा हो रहा हो। . (४) सब विष एक ही स्वभावके नहीं होते; कोई वातिक, कोई पैत्तिक और कोई श्लेष्मिक होता है। भिन्न-भिन्न प्रकारके विषोंकी चिकित्सा भी अलग-अलग होती है, क्योंकि उनके काम भी तो अलग-अलग ही होते हैं। वातिक विष होनेसे हृदयमें पीड़ा, उर्ध्ववात, स्तम्भ, शिरायाम--. मस्तक खींचना, हड्डियोंमें वेदना आदि उपद्रव होते हैं और शरीर काला हो जाता है। इस दशामें, (१) खाँडका व्रण लेप, (२) तेलकी मालिश, (३) नाड़ी स्वेद, (४) पुलक आदि योगसे स्वेद. और वृहण विधि हितकारी है। ... _पैत्तिक विष होनेसे संज्ञानाश--होश न रहना, गरम श्वास निकलना, हृदयमें जलन, मैं हमें कड़वापन, काटी या डसी हुई जगहका फटना और सूजन तथा लाल या पीला रङ्ग हो जाना -ये उपद्रव होते हैं। इस अवस्थामें, शीतल लेप और शीतल सेचन आदि उपचारोंसे काम लेना हित है। ___ श्लेष्मिक विष होनेसे वमन, अरुचि, जी मिचलाना, मुँहसे पानी बहना, उत्क्लेश, भारीपन और सर्दी लगना तथा मुंहका जायका मीठा होना--ये लक्षण होते हैं । इस अवस्थामें, लेखन, छेदन, स्वेदन और वमन-ये चार उपाय हितकारी हैं । . नोट--(१) दर्वीकर या काले फनदार साँपोंके काटनेसे वातका प्रकोप होता है; मण्डली सर्पके काटनेसे पित्तका और राजिलके काटनेसे कफका प्रकोप होता For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .. चिकित्सा-चन्द्रोदय । है । दर्वीकर सर्पका विष वातिक, मंडलीका पैत्तिक और राजिलका श्लेष्मिक होता है। इनके काटनेसे अलग-अलग दोष कुपित होते हैं और ऊपर लिखे अनुसार उनके अलग-अलग उपद्रव होते हैं । जैसे:.. दर्वीकर सर्पो का विष वातप्रधान होता है । उनके काटनेसे वैसे ही लक्षण होते हैं, जैसे ऊपर वातिक विषके लिखे हैं। दर्वीकरके काटनेकी जगह सूक्ष्म, काले रंगकी होती है, उसमेंसे खून नहीं निकलता । इसके सिवा वातव्याधिके उद्मवात, शिरायाम और अस्थिशूल आदि समस्त लक्षण होते हैं । ___मंडली सर्पका विष पित्तप्रधान होता है। उसके काटनेसे वही लक्षण होते हैं, जो ऊपर पैत्तिक विषके लिखे हैं । मंडली सर्पके काटने की जगह स्थूलमोटो होती है । उसपर सूजन होती है और उसका रङ्ग लाल-पीला होता है तथा रक्तपित्तके सारे लक्षण प्रकाशित होते हैं । इसलिए उसके काटनेकी जगहसे खून निकलता है। राजिल सर्पका विष कफप्रधान होता है। उसके काटनेसे वही लक्षण होते हैं, जो कि ऊपर श्लेष्मिक विषके लिखे हैं । राजिलकी काटी हुई जगह लिबलिबी या चिकनी-सी, स्थिर और सूजनदार होती है। उसका रङ्ग पाण्डु या सफ़द-सा होता है । काटे हुए स्थानका खून जम जाता है । इसके सिवा, कफके सब लक्षण अधिकतासे नज़र पाते हैं। बिच्छू और उञ्चिटिङ्गके विषके सिवा और सब तरहके विषोंमें चाहे वे किसी स्थानमें क्यों न हों, प्रायः शीतल चिकित्सा हितकारी है । चरक । सुश्रुतमें लिखा है, चूंकि विष अत्यन्त गरम और तीक्ष्ण होता है, इसलिये प्रायः सभी विषों में शीतल परिषेक करना या शीतल छिड़के देना हितकारी है। पर कीड़ोंका विष बहुत तेज़ नहीं होता, प्रायः मन्दा होता है और उसमें वायुकफके अंश अधिक होते हैं, इसलिये कीड़ोंके विषमें सेकने या पसीना निकालने की मनाही नहीं है । परन्तु ऐसे भी मौक होते हैं, जहाँ कीड़ोंके विषमें गरम सेक नहीं किया जाता। ___ चरक मुनि कहते हैं, बिच्छूके काटनेपर, घी और नमकसे स्वेदन करना और अभ्यङ्ग हितकारी हैं । इसमें गरम स्वेद, घीके साथ अन्न खाना और घी पीना भी हित है । घी पीनेसे मतलब यह है कि, घीकी मात्रा ज़ियादा हो।। सुश्रुतके कल्प-स्थानमें लिखा है, उग्र या तेज़ ज़हरवाले बिच्छुओंके काटेका इलाज साँपोंके इलाजकी तरह करो । मन्दे विषवाले बिच्छूके काटे स्थानपर चक्र तेल यानी कच्ची घानीके तेलका तरड़ा दो अथवा विदार्यादिसे पकाये For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-चिकित्सामें याद रखने योग्य बातें। २३ हुए तेलको निवाया करके सेक करो, अथवा विष-नाशक दवाओंकी लूपरीसे उपानह स्वेद करो । अथवा निवाया-निवाया गोबर काटे स्थानपर बाँधो और उसीसे उस जगहको स्वेदित करो । (५) इस बातको भी ध्यानमें रक्खो कि, विषके साथ काल और प्रकृतिकी तुल्यता होनेसे विषका वेग या ज़ोर बढ़ जाता है । जैसे,--दर्वीकर साँपका विष वातप्रधान होता है। अगर वह वातप्रकृतिवाले प्राणीको काटता है, तो "प्रकृति-तुल्यता" होती है, यानी विषकी और काटे जानेवालेकी प्रकृतियाँ मिल जाती हैं--आदमीका मिजाज बादीका होता है और विष भी बादीका ही होता है; तब विषका जोर बढ़ जाता है। अगर उस वात प्रकृतिवाले मनुष्यको दर्वीकर सर्प वर्षा-कालमें काटता है, तो विषका जोर और भी जियादा होता है, क्योंकि वर्षाकालमें वायुका कोप होता है । विष वातकोपकारक, वर्षाकाल वातकोपकारक और काटे जानेवालेकी प्रकृति वातकी--जहाँ यह तीनों मिल जाते हैं, वहाँ जीवनकी आशा कहाँ ? अगर काटनेवाला दर्वीकर या काला साँप जवान पट्टा हो, तो और भी ग़ज़ब समझिये; क्योंकि जवान काला साँप (दर्वीकर), बूढ़ा मण्डली साँप और प्रौढ़ अवस्थाका राजिल साँप आशीविष-सदृश होते हैं। इधर ये काटते हैं और उधर आदमी खतम होता है। (६) अगर काटनेवाला सर्पको न देख सका हो या घबराहटमें पहचान न सका हो, तो वैद्यको विषके लक्षण देखकर, कैसे साँपने काटा है, इसका निर्णय करना चाहिये । जैसे, दर्वीकर साँप काटेगा तो काटा हुआ स्थान सूक्ष्म और काला होगा और वहाँसे खून न निकलेगा और वह जगह कछुए के जैसी होगी तथा वायुके विकार अधिक होंगे। अगर मण्डलीने काटा होगा, तो काटा हुआ स्थान स्थूल होगा, सूजन होगी, रङ्ग लाल-पीला होगा और काटी हुई जगहसे खून निकला होगा तथा रक्त-पित्तके और लक्षण होंगे। - स्त्री-सर्प-नागनके काटनेसे आदमीके अङ्ग नर्म रहते हैं, दृष्टि For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । नीची रहती है यानी श्रादमी नीचेकी तरफ़ देखता है, बोला नहीं जाता और शरीर काँपता है; पर अगर इसके विपरीत चिह्न हों, जैसे शरीरके अङ्ग कड़े हों, नज़र ऊपर हो, स्वर क्षीण न हो और शरीर काँपता न हो, तो समझना होगा कि, पुरुष-सर्पने काटा है। .. नोट-इस तरहकी पहचान वही कर सकता है, जिसे समस्त लक्षण कण्ठान हो । वैद्यको ये सब बातें हर समय कण्ठमें रखनी चाहिये । समयपर पुस्तक काम नहीं देती । हमने सब तरहके साँपोंके काटेके लक्षण आदि, आगे, जंगम-विषचिकित्सामें खूब समझा-समझाकर लिखे हैं। .. (७) आगे लिखा है, कि साँपके चार बड़े दाँत होते हैं। दो दाँत दाहिनी ओर और दो बाई ओर होते हैं। दाहिनी तरफ़के नीचेके दाँतका रङ्ग लाल और ऊपरके दाँतका काला-सा होता है। जिस रङ्गके दाँतसे साँप काटता है, काटी हुई जगहका रङ्ग वैसा ही होता है। दाहिनी तरफ़के दाँतोंमें बाई तरफ़के दाँतोंसे विष जियादा होता है । बाई तरफ़के दाँतोंका रङ्ग चरकने लिखा नहीं है । बाई तरफ़के नीचेके दाँतमें जितना विष होता है, उससे बाई तरफ़के ऊपरके दाँतमें दूना विष होता है, दाहिनी तरफ़के नीचे के दाँतमें तिगुना और उसी ओरके ऊपरके दाँतमें चौगुना विष होता है । दाहिनी ओरके नीचे-ऊपरके दाँतोंमें, बाई तरफके दातोंसे विष अधिक होता है। दाहिनी ओरके दोनों दाँतोंमें भी, ऊपरके दाँतमें बहुत ही जियादा विष होता है और उस दाँतका रङ्ग भी श्याम या काला-सा होता है। अगर हम काटे हुए स्थानपर, साँपके ऊपरके दाहिने दाँतका चिह्न और रङ्ग देखें, तो समझ जायँगे, कि विष बहुत तेज़ है । अगर दाहिनी ओरके लाल दाँतका रङ्ग और चिह्न देखेंगे, तो विषको उससे कुछ कम समझेंगे। अगर चारों दाँत पूरे बैठे हुए देखेंगे तो भयानक दंश समझेंगे। अगर काटा हुआ निशान ऊपरसे खूब साफ़ न हो, पर भीतरसे गहरा हो, गोल हो या लम्बा हो अथवा काटनेसे बैठ गया हो अथवा For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-चिकित्सामें याद रखने-योग्य बातें। २५ . एक जगहसे फूटकर दूसरी जगह भी जा फूटा हो, तो समझना होगा, यह दंश--काटना सांघातिक या प्राण-नाशक है। __इस तरह काटे हुए स्थानकी रङ्गत और आकार-प्रकार आदिसे वैद्य विषकी तेजी-मन्दी और साध्यासाध्यता तथा काटनेवाले सर्पकी किस्म या जात जान सकता है। जो वैद्य ऐसी-ऐसी बातोंमें निपुण होता है वही विष चिकित्सासे यश और धन कमा सकता है। (८) विषकी हालतमें, अगर हृदयमें पीड़ा और जलन हो और में हसे पानी गिरता हो, तो अवस्थानुसार तीव्र वमन या विरेचन-- कय या दस्त करानेवाली तेज़ दवा देनी चाहिये । वमन विरेचनसे शरीरको साफ़ करके, पेया आदि पथ्य पदार्थ पिलाने चाहियें। _ अगर विष सिरमें पहुँच गया हो, तो बन्धुजीव--गेजुनियाके फूल, भारंगी और काली तुलसीकी जड़की नस्य देनी चाहिये । ___ अगर विषका प्रभाव नेत्रों में हो, तो पीपल, मिर्च, जवाखार, बच, सेंधानमक और सहँजनेके बीजोंको रोहू मछलीके पित्तेमें पीसकर आँखोंमें अंजन लगाना चाहिये ।। अगर विष कंठगत हो, तो कच्चे कैथका गूदा चीनी और शहदके साथ चटाना चाहिये। अगर विष आमाशयगत हो, तो तगरका चार तोले चूर्ण--मिश्री और शहद के साथ पीना चाहिये। ___ अगर विष पक्वाशयमें हो, तो पीपर, हल्दी, दारुहल्दी और मँजीठको बराबर-बराबर लेकर, गायके पित्तेमें पीसकर, पीना चाहिये। ___ अगर विष रसगत हो, तो गोहका खून और मांस सुखाकर और पीसकर कच्चे कैथके रसके साथ पीना चाहिये। अगर विष रक्तगत हो यानी खून में हो, तो लिहसौड़ेकी जड़की छाल, बेर, गूलर और अपराजिताकी शाखोंके अगले भाग--इनको पानीके साथ पीसकर पीना चाहिये । For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ चिकित्सा-चन्द्रोदय। अगर विष मांसगत हो-मांसमें हो, तो शहद और खदिरारिष्ट मिलाकर पीने चाहियें। अगर विष सर्वधातुगत हो--सब धातुओंमें हो, तो खिरेंटी, नागबला, महुआके फूल, मुलहटी और तगर,--इन सबको जलमें पीसकर पीना चाहिये। अगर विषके कारणसे सारे शरीरमें सूजन हो, तो जटामासी, केशर, तेजपात, दालचीनी, हल्दी, तगर, लालचन्दन, मैनसिल, व्याघ्रनख और तुलसी--इनको पानीके साथ पीसकर पीने, इन्हींका लेप और अंजन करने तथा इन्हींकी नस्य देनेसे सूजन और विष नष्ट हो जाते हैं। (६) घोर अँधेरेमें चींटी आदिके काटनेसे भी, मनुप्योंको साँपके काटनेका वहम हो जाता है । इस वहम या आशंकासे ज्वर, वमन, मूर्छा, ग्लानि, जलन, मोह और अतिसार तक हो जाते हैं। ऐसे मौकेपर, रोगीको धीरज देकर उसका झूठा भय दूर करना चाहिये । खाँड, हिंगोट, दाख, क्षीरकाकोली, मुलहटी और शहदका पना बनाकर पिलाना चाहिये । इसके साथ ही मंत्र-तंत्र, दिलासा और दिल खुश करनेवाली बातोंसे भी काम लेना चाहिये। (१०) सब तरहके विषोंमें, खानेके लिये शालि चाँवल, मुलहटी, कोदों, प्रियंगू, सेंधानोन, चौलाई, जीवन्ती, बैंगन, चौपतिया, परवल, अमलताशके पत्ते, मटर और मूगका यूष, अनार, आमले, हिरन, लवा, तीतरका मांस और दाह न करनेवाले पदार्थ देने चाहियें । विष-पीड़ित और विषमुक्त प्राणीको विरुद्ध भोजन, भोजन-परभोजन, क्रोध, भूखका वेग मारना, भय, मिहनत, मैथुन और दिनमें सोना-इनसे बचाना चाहिये । For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय । स्थावर विषोंकीसामान्य चिकित्सा। वेगानुसार चिकित्सा। (१) पहले वेगमें -शीतल जल पिलाकर वमन या कय करानी चाहिये तथा शहद और धीके साथ अगद-विष-नाशक दवा-- पिलानी चाहिये, क्योंकि पिया हुआ विष वमन करानेसे तत्काल निकल जाता है। . (२) दूसरे वेगमें -पहले वेगकी तरह वमन या कय कराकर, विरेचन या जुलाब भी दे सकते हैं। नोट--चरककी रायमें, पहले वेगमें वमन करानी और दूसरे वेगमें जुलाब देना चाहिये । सुश्रुत कहते हैं, पहले और दूसरे--दोनों वेगोंमें वमन कराकर, विषको निकाल देना चाहिये, क्योंकि वह इस समय तक आमाशयमें ही रहता है । पर, अगर ज़रूरत समझी जाय, तो चिकित्सक इस वेगमें जुलाब भी दे सकता है । चरकका अभिप्राय यह है, कि विष सामान्यतया शरीरमें फैला हो या न फैला हो, दूसरे वेगमें जुलाब देकर उसे निकाल देना चाहिये । चरक मुनि इस मौकेपर एक बहुत ही ज़रूरी बातकी ओर ध्यान दिलाते हैं। वह कहते हैं:-- पीतं चमनै सद्योहरेद्विरेकैर्द्वितीयेतु । आदौ हृदयं रक्ष्यं तस्यावरण पिवेद्यथालाभम् ।। पिया हुअा विष नमनसे तत्काल निकल जाता है, अतः शुरूमें किसी वमनकारी दवासे कय करा देनी चाहिये। विषके दूसरे वेग या दौरेमें, जुलाब देकर, For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । विषको निकाल देना चाहिये। लेकिन विष पीनेवाले प्राणीके हृदयको रक्षा सबसे पहले करनी चाहिये । उसके हृदयको विषसे बचाना चाहिये, क्योंकि प्राण हृदयमें हो रहते हैं। अगर तुम और उपायों में लगे रहोगे, हृदय-रक्षाको बात भूल जाओगे, हृदयको विषसे न छिपाश्रोगे, तो तुम्हारा सब किया-कराया वृथा हो जायगा; अतः सबसे पहले हृदयको विषसे छिपायो, हृदयको विषसे छिपानेके लिये मांस, घी, मज्जा, गेरू, गोबर, ईखका रस, बकरी आदिकका खून, भस्म और मिट्टी-इनमें से जो उस समय मिल जाय, उसीको ज़हर पीनेवालेको फौरन खिला-पिला दो। इसका यह मतलब है, कि विव इन चीज़ों में लिपट जायगा और उसकी कारस्तानी इन्हींपर होती रहेगी, हृदयको नुकसान न पहुँचेगा । इतने में तो आप वमन कराकर विषको निकाल ही दोगे। अगर आप पहले ही इनमेंसे कोई चीज़ न पिलानोगे, तो हृदयपर ही विषका सीधा हमला होगा । यही वजह है, कि अनुभवी वैद्य संखिया या अफ़ीम आदि खानेवालेको सबसे पहले 'घी' पिला देते और फिर वमन कराते हैं। घी पी लेनेसे हृदयको रक्षा हो जाती है। संखिया आदि विष, घीमें मिलकर या लिपटकर, कय द्वारा बाहर आ पड़ते हैं। __ (३) तीसरे वेगमें--अगद या विष-नाशक दवा पिलानी चाहिये, नाकमें नस्य देनी चाहिये और आँखोंमें विष-नाशक अञ्जन आँजना चाहिये। (४) चौथे वेगमें--घी मिलाकर अगद-विष-नाशक दवा पिलानी चाहिये। नोट-चरकमें लिखा है, चौथेमें; कैथका रस, शहद और घीके साथ गोबरका रंस पिलाना चाहिये। (५) पाँचवें वेगमें--शहद और मुलहटीके काढ़ेमें अगद-विषनाशक दवा--मिलाकर पिलानी चाहिये ।। (६) छठे वेगमें-दस्त बहुत होते हैं, इसलिये अगर विष बाक़ी हो, तो वैद्यको उसे निकाल देना चाहिये । अगर न हो, तो अतिसारका इलाज करके दस्तों को बन्द कर देना चाहिये। इसके सिवा, अवपीड़ नस्यको काममें लाना चाहिये। क्योंकि नस्य देनेसे होश-हवास ठीक हो सकते हैं। For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थावर विषोंकी सामान्य चिकित्सा । २६ (७) सातवें वेगमें-कन्धे टूट जाते हैं, पीठ और कमरमें बल नहीं रहता और श्वास रुक जाता है, यह अवस्था निराशाजनक है। अतः इस अवस्थामें वैद्यको कोई उपाय न करना चाहिये, पर बहुत बार ऐसे भी बच जाते हैं। 'जब तक साँसा तब तक आसा' इस कहावतके अनुसार अगर उपाय करना हो, तो रोगीके घरवालोंसे यह कहकर कि, अब आशा तो नहीं है, मामला असाध्य है, पर हम राम भरोसे उपाय करते हैं--वैद्यको अवपीड़ नस्यका प्रयोग करना चाहिये और सिरमें कव्वेके पञ्जका-सा चिह्न बनाकर उसपर खून समेत ताजा मांस रखना चाहिये। इसीको “काकपद करना” कहते हैं। यह आखिरी उपाय है । इस उपायसे रोगी जीता है या मर गया है, यह भी मालूम हो जाता है और अगर जिन्दगी होती है, तो साँसकी रुकावट भी खुल जाती है। अगर इस उपायसे साँस आने लगे, तो फिर और उपाय करके रोगीको बचाना चाहिये। अगर "काक. पद"से भी कुछ न हो, तो बस मामला खतम समझना चाहिये या ऐसी निराश अवस्थामें, अगर रोगी जीवित हो, तो जहरीले साँपसे कटाना चाहिये; क्योंकि “विषस्य विषमौषधम्" कहावतके अनुसार, विषसे विषके रोगी आराम हो जाते हैं। अगर साँपसे न कटासको तो साँपका जहर रोगीके शरीरकी शिरा या नसमें पेवस्त करो; यानी शरीरमें, किसी स्थानपर चीरकर, खून बहानेवाली नसपर साँपके जहरको लगा दो। वह विष खूनमें मिलकर, सारे शरीरमें फैल जायगा और खाये-पिये हुए स्थावर विषके प्रभावको नष्ट करके, रोगीको बचा देगा । इसीको “प्रतिविष चिकित्सा" कहते हैं । स्थावर विष जंगम विषके विपरीत गुणोंवाला होता है और जंगम विष स्थावरके विपरीत होता है । स्थावर या मूलज विष ऊपरकी ओर दौड़ता है और जंगम नीचेकी तरफ दौड़ता है। For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय। OEBOOK OSOBO PREDIENTreavenaOEOCHRONOCENCEve स्थावर विष नाशक नुसखे ।। caccarTICCEORGET RECREERIEOCERO अमृताख्य घृत। ___ोगेके बीज, सिरसके बीज, दोनों श्वेता और मकोय--इन पाँचोंको गोमूत्रमें पीसकर, लुगदी बना लो। लुगदीसे चौगुना घी और घोसे चौगुना दूध लेकर, घीकी विधिसे घी पका लो। इस घोके पीनेसे स्थावर और जंगम दोनों तरहके विष शान्त होते हैं। सुश्रुतमें लिखा है, इस घीके पीनेसे विषसे मरे हुए भी जी जाते हैं। सुश्रुतमें स्थावर विष-चिकित्सामें भी इसके सेवन करनेकी राय दी है और जंगम विषकी चिकित्साके अध्यायमें तो यह लिखा ही है । इससे स्पष्ट मालूम होता है, कि यह घी स्थावर विषके सिवा, सर्प प्रभृति अनेक विषैले जानवरोंके विषपर भी दिया जाता है। नोट-दोनों श्वेताओंका अर्थ किसी टीकाकारने मेदा, महामेदा और किसीने कटभी, महाकटभी लिखा है और श्वेता स्वयं भी एक दवा है। महासुगन्धि अगद । सफेद चन्दन, लाल चन्दन, अगर, कूट, तगर, तिलपर्णी, प्रपौंडरीक, नरसल, सरल, देवदारु, सफेद चन्दन, दूधी, भारङ्गी, नीली, सुगन्धिका-नाकुली, पीला चन्दन, पद्माख, मुलेठी, सोंठ, जटा-रुद्र जटा, पुन्नाग, इलायची, एलवालुक, गेरू, ध्यामकतृण, खिरेंटी, नेत्रवाला, राल, जटामासी, मल्लिका, हरेणुका, तालीसपत्र, छोटी इलायची, प्रियंगू , स्योनाक, पत्थरका फूल, शिलारस, पत्रज, कालानुसारिवा-- तगरका भेद, सोंठ, मिर्च, पीपर, कपूर, खंभारी, कुटकी, बाकुची, अतीस, कालाजीरा, इन्द्रायण, खस, वरण, मोथा, नख, धनिया, दोनों श्वेता, हल्दी, दारुहल्दी, थुनेरा, लाख, सैंधानोन, संचरनोन, बिड़नोन,, समन्दरनोन और कधियानोन, कमोदिनी, कमलपद्म, पाकके फूल, चम्पाके फूल, अशोकके फूल, तिल-वृक्षका पञ्चाङ्ग, पाटल, सम्भल, For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थावर विषोंकी सामान्य चिकित्सा । ३१ ल्हिसौड़ा, सिरस, तुलसी, केतकी और सिंभालू--इन सातोंके फूल, धवके फूल, महासर्जके फूल, तिनिशके फूल, गूगल, केशर, कँदूरी, सर्पाक्षी और गन्धनाकुली-इन ८५ दवाओंको महीन कूट-पीसकर छान लो। फिर गोरोचन, शहद और घी मिलाकर, सींगमें भरकर, सींगसे ही बन्द करके रख दो। जिस मनुष्यके कन्धे टूट गये हों, नेत्र फट गये हों, मृत्यु-मुखमें पतित हो गया हो, उसको भी वैद्य इस श्रेष्ठ अगदसे जिला सकता है। यह अगद सब अगदोंका राजा है और राजाओंके हाथोंमें रहने योग्य है। इसके शरीरमें लेपन करनेसे राजा सब मनुष्योंका प्यारा हो सकता है और इन्द्रादि देवताओंके बीचमें भी कान्तिवान मालूम हो सकता है। और क्या, अग्निके समान दुर्निवार्य, क्रोधयुक्त, अप्रमित तेजस्वी नागपति वासुकीके विषको भी यह अगद नष्ट कर सकता है। रोग-नाश--इस अगदसे स्थावर और जंगम सब तरहके विष नाश होते हैं। सेवन विधि-घी, शहद या दूध वगैरहमें मिलाकर इसे रोगीको पिलाना चाहिये। इसको लेप, अञ्जन और नस्यके काममें भी लाते हैं । अपथ्य-राब, सोहंजना, काँजी, अजीर्ण, नया धान, भोजन-परभोजन, दिनमें सोना, मैथुन, परिश्रम, कुल्थी, क्रोध, धूम, मदिरा और तिल--इन सबको त्यागना चाहिये । पथ्य-चिकित्सा होते समय, पृष्ठ ३२ में लिखी “विषन्न यवागू" देनी चाहिये | आराम होनेपर हितकारी अन्न-पान विचारकर देने चाहियें। मृत सञ्जीवनी। स्पृक्का--असबरग, केवटी मोथा गठोना, फिटकरी, भूरिछरीला, पत्थर-फूल, गोरोचन, तगर, रोहिष तृण--रोहिस घास, केशर, जटामासी, तुलसीको मञ्जरी, बड़ी इलायची, हरताल, पँवारके बीज, बड़ी For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AAAAAAAAAAAAna ३२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । . कटेरी, सिरसके फूल, सरलका गोंद--गन्दाबिरोजा, स्थल-कमल, इन्द्रायण, देवदारु, कमल-केशर, सादा लोध, मैनसिल, रेणुका, चमेलीके फूलोंका रस, आकके फूलोंका रस, हल्दी, दारुहल्दी, हींग, पीपर, लाख, नेत्रवाला, मूंगपर्णी, लाल चन्दन, मैनफल, मुलहटी, निर्गुण्डी--सम्हालू , अमलताश, लाल लोध, चिरचिरा, प्रियंगू , नाकुली-रास्ना और बायबिडङ्ग--इन ४३ दवाओंको, पुष्य नक्षत्रमें लाकर, बराबर-बराबर लेकर महीन पीस लो। फिर पानीके साथ खरल करके गोलियाँ बना लो। रोग-नाश--इस 'मृत-सञ्जीवनी के पीने, लेप करने, तमाखूकी तरह चिलममें रखकर पीनेसे सब तरहके विष नष्ट होते हैं। यह विषसे मरे हुए के लिये भी जिलानेवाली है। इसके घरमें रहनेसे ही विषैले जीव और भूत-प्रेत, जादू-टोना आदिका भय नहीं रहता और लक्ष्मी आती है । ब्रह्माने अमृत-रचनाके पहले इसे बनाया था। नोट--यह मृतसंजीवनी चरकमें लिखी है और चक्रदत्तमें भी लिख है। पर चक्रदत्त और चरकमें दो-चार चीज़ोंका भेद है। इस को सभीने बड़ी प्रशंसा की है । इसमें ऐसी कोई दवा नहीं है, जो न मिल सके; अत: वैद्योंको इसे घरमें रखना चाहिये । यह मृतसञ्जीवनी विषकी सामान्य चिकित्सामें काम आती है; यानी स्थावर और जङ्गम दोनों तरहके विष इससे नष्ट होते हैं। गृहस्थ लोग भी इसे काममें ला सकते हैं। विषन यवागू। जंगली कड़वी तोरई, अजमोद, पाठा, सूर्यवल्ली, गिलोय, हरड़, सरस, कटभी, लिहसौड़े, श्वेतकन्द, हल्दी, दारुहल्दी, सफेद और लाल पुनर्नवा, हरेणु, सोंठ, मिर्च, पीपर, काला और सफेद सारिवा तथा खिरेंटी-इन २१ दवाओंको लाकर काढ़ा बना लो। फिर इस काढ़ेके साथ यवागू पका लो। इस यवागूके पीनेसे स्थावर और जङ्गम दोनों तरहके विष नाश होते हैं। पीछे लिखे हुए स्थावर विषके वेगोंके बीचमें, वेगोंका इलाज For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थावर विषोंकी. सामान्य चिकित्सा । करके, घी और शहद के साथ, यह यवागू शीतल करके पिलानी चाहिये । इसी तरह सर्प-विषके वेगोंकी चिकित्साके बीचमें भी, यही यवागू पिलायी जा सकती है। इस यवागूमें शोधन, शमन और विष-नाशक चीजें हैं। - अजेय घृत । मुलेठी, तगर, कूट, भद्र दारु, पुन्नाग, एलवालुक, नागकेशर, कमल, मिश्री, बायबिडङ्ग, चन्दन, तेजपात, प्रियंगू, ध्यामक, हल्दी, दारुहल्दी, छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, काला सारिवा, सफेद सारिवा, शालपर्णी और पृश्नपर्णी--इन सबको सिलपर पीसकर लुगदी या कल्क बना लो। जितना कल्क हो, उससे चौगुना घी लो और घीसे चौगुना गायका दूध लो। पीछे लुगदी, घी और दूधको मिलाकर मन्दाग्निसे पकाओ; जब घी मात्र रह जाय, उतार लो और छानकर रख दो। इस अजेय घृतसे सब तरहके विष नष्ट होते हैं। स्थावर विष खानेवालोंको इसे अवश्य सेवन करना चाहिये। महागन्ध हस्ती अगद । तेजपात. अगर, मोथा, बड़ी इलायची, राल गूगल, अफीम, शिलारस, लोबान, चन्दन, स्मृक्का, दालचीनी, जटामासी, नरसल, नीला कमल, सुगन्धवाला, रेणुका, खस, व्याघ्र-नख, देवदारु, नागकेशर, केशर, गन्धतृण, कूट, फूल-प्रियंगू, तगर, सिरसका पंचाङ्ग, सोंठ, पीपर, मिर्च, हरताल, मैंनशिल, काला जीरा, सफेद कोयल, कटभी, करंज, सरसों, सम्हालू, हल्दी, तुलसी, रसौत, गेरू, मँजीठ, नीमके पत्ते, नीमका गोंद, बाँसकी छाल, असगन्ध, हींग, कैथ, अम्लवेत, अमलताश, मुलहटी, महुआके फूल, बावची, बच, मूबो, गोरोचन और तगरइन सब दवाओंको महीन पीस, गायके पित्तेमें मिला, पुष्य नक्षत्र में, गोलियाँ बनानी चाहियें। रोग-नाश--इस दवाको पीने, आँजने और लेपकी तरह लगानेसे. सब तरहके साँपोंके विष, चूहोंके विष, मकड़ियोंके विष और मूलज, For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । . कन्दज़ आदि स्थावर विष आराम होते हैं। इस दवाको सारे शरीरमें लगाकर, मनुष्य साँपको पकड़ ले सकता है। जिसका काल आ गया है, वह विष खानेवाला मनुष्य भी इसके प्रभावसे बच सकता है। अगर विष-रोगी बेहोश हो, तो इस दवाको भेरी मृदङ्ग आदि बाजोंपर लेप करके, उसके कानोंके पास उन बाजोंको बजाओ। अगर रोगी देखता हो, तो छत्र और ध्वजा-पताकाओंपर इसको लगाकर रोगीको दिखाओ । इस तरह करनेसे हर तरहका भयानक-से-भयानक विषवाला रोगी आराम हो सकता है। यह दवा अनाह--पेट फूलनेके रोगमें मलद्वार--गुदामें, मूढ़ गर्भवाली स्त्रीकी योनिमें और मूर्छावालेके ललाटपर लेप करनी चाहिये। इन रोगोंके सिवा, इस दवासे विषमज्वर, अजीर्ण, हैजा, सफेद कोढ़, विशूचिका, दाद, खाज, रतौंधी, तिमिर, काँच, अर्बुद और पटल आदि अनेकों रोग नष्ट होते हैं। जहाँ यह दवा रहती है, वहाँ लक्ष्मी अचला होकर निवास करती. है, पर पथ्य पालन जरूरी है। -चरक । क्षारागद । ___ गेरू, हल्दी, दारुहल्दी, मुलेठी, सफ़ेद तुलसीकी मञ्जरी, लाख, सेंधानोन, जटामासी, रेणुका, हींग, अनन्तमूल, सारिवा, कूट, सोंठ, मिर्च, पीपर और हींग--इन सबको बराबर-बराबर लेकर पीस लो। फिर इनके वजनसे चौगुना तरुण पलाशके वृक्षके खारका पानी लो। सबको मिलाकर, मन्दाग्निसे पकाओ; जब तक सब चीजें आपसमें लिपट न जाय; पकाते रहो। जब गोली बनाने-योग्य पाक हो जाय, एक-एक तोलेकी गोलियाँ बना लो और छायामें सुखा लो। रोग-नाश--इन गोलियोंके सेवन करनेसे सब तरहके--स्थावर और जंगम-विष, सूजन, गोला, चमड़ेके दोष, बवासीर, भगन्दर, तिल्ली, शोष, मृगी, कृमि, भूत, स्वरभंग, खुजली, पाण्डु रोग, मन्दाग्नि, खाँसी और उन्माद-ये नष्ट होते हैं। नोट-(१) यह क्षारागद "चरक" की है । चरकने विषके तीसरे वेगमें For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थावर विषोंकी सामान्य चिकित्सा । इसको देनेको राय दी है और इसे सामान्य विष-चिकित्सामें लिखा है, अतः यह स्थावर और जंगम दोनों तरहके विषोंपर दी जा सकती है। (२) तरुण पलाश या नवीन ढाकके खारको चौगुने या छै गुने जलमें घोलो और २१ वार छानो । फिर इसमेंसे, दवाओंसे चौगुना, जल ले लो और दवाओंमें मिलाकर पकायो । खार बनानेकी विधि हमने इसी भागमें आगे लिखी है। फिर भी संक्षेपसे यहाँ लिख देते हैं:-जिसका क्षार बनाना हो, उसे जड़से उखाड़कर छायामें सुखा लो। फिर उसको जलाकर भस्म कर लो। भस्मको एक बासनमें दूना पानी डालकर ६ घण्टे तक भीगने दो । फिर उसमेंके पानीको धीरे-धीरे दूसरे बासनमें नितार और छान लो, राखको फेंक दो । एक घण्टे बाद, इस साफ़ पानीको कढ़ाहीमें नितारकर, चूल्हेपर चढ़ा दो और मन्दी आगं लगने दो । जब सब पानी जल जाय, बूंद भी न रहे, कढ़ाहीको उतार लो। कढ़ाहीमें लगा हुआ पदार्थ ही खार या क्षार है, इसे खुरचकर रख लो। संक्षिप्त स्थावर-विष चिकित्सा (१) स्थावर विषसे रोगी हुए आदमीको, “बलपूर्वक" वमन करानी चाहिये; क्योंकि उसके लिये वमनके समान कोई और दवाई नहीं है । वमन कराना ही उसका सबसे अच्छा इलाज है। नोट-चूँकि विष अत्यन्त गरम और तीक्ष्ण है; इसलिये सब तरहके विषोंमें शीतल सेचन करना चाहिये । विष अपनी उष्णता और तीक्ष्णता-गरमी और तेज़ी--के कारण विशेषकर, पित्तको कुपित करता है; अतः वमन कराने के बाद शीतल जलसे सेचन करना चाहिये । (२) विष-नाशक दवाओं अथवा अगदोंको घी और शहद के साथ, तत्काल, पिलाना चाहिये। (३) विषवालेको खट्टे रस खानेको देने चाहियें। शरीरमें गोलमिर्च पीसकर मलनी चाहियें। भोजन-योग्य होनेपर, लाल शालि चाँवल, साँठी चाँवल, कोदों और काँगनी--पकाकर देनी चाहियें। (४) जिन-जिन दोषोंके चिह्न या लक्षण अधिक नज़र आवें, उन For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । उन दोषोंके गुणोंसे विपरीत गुणवाली दवायें देकर, स्थावर विषका इलाज करना चाहिये। (५) सिरसकी छाल, जड़, पत्ते, मूल और बीज, इन पाँचोंको गोमूत्रमें पीसकर, शरीरपर लेप करनेसे विष नष्ट हो जाता है। (६) खस, बालछड़, लोध, इलायची, सज्जी, कालीमिर्च, सुगन्धवाला, छोटी इलायची और पीला गेरू-इन नौ दवाओंके काढ़ेमें शहद मिलाकर पीनेसे दूषी विष नष्ट हो जाता है। - नोट-दूषी विषवाले रोगीको स्निग्ध करके और वमन-विरेचनसे शोधन करके, ऊपरका काढ़ा पिलाना चाहिये। OSD ti titility try trip fiptiDO सर्व विष-नाशक नुमखे । (१) गरम जलसे वमन कराने और बारम्बार घी और दूध पिलानेसे जहर उतर जाता है। (२) हरी चौलाईकी जड़ १ तोले लेकर और पानी में पीसकर, गायके घीके साथ खानेसे गरम जहर उतर जाता है। नोट-अगर चौलाईकी जड़ सूखी हो, तो ६ माशे लेनी चाहिये । (३) गायका घी चालीस माशे और लाहौरी नमक ८ माशे-- इनको मिलाकर पिलानेसे सब तरहके जहर उतर जाते हैं। यहाँ तक कि, साँपका विष भी शान्त हो जाता है । (४) छोटी कटाई पीसकर खानेसे ज़हर उतर जाता है । (५) एक माशे दरियाई नारियल पीसकर खिलानेसे सब तरहके जहर उतर जाते हैं। (६) बिनौलोंकी गिरीको कूट-पीसकर और गायके दूधमें औटाकर पिलानेसे अनेक प्रकारके जहर उतर जाते हैं। (७) कसेरू खानेसे जहर उतर जाते हैं। (८) अजवायन खानेसे अनेक प्रकारके जहर उतर जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थावर विषोंकी सामान्य चिकित्सा। - (६) बकरीकी मैंगनी जलाकर खाने और लेप करनेसे अनेक प्रकारके विष नष्ट हो जाते हैं । (१०) मुर्गे की बीट पानीमें मिलाकर पिलाते ही, कय होकर, विष निकल जाता है। (११) कालीमिर्च, नीमके पत्ते और सेंधानोन तथा शहद और घी-इन सबको मिलाकर पीनेसे स्थावर और जंगम दोनों तरहके विष शान्त हो जाते हैं। - (१२) शुद्ध बच्छनाभ विष, सुहागा, कालीमिर्च और शुद्ध नीलाथोथा - इन चारोंको बराबर-बराबर लेकर महीन पीस लो। फिर खरलमें डाल, ऊपरसे "बन्दाल"का रस दे-देकर घोटो। जब घुट जाय, चार-चार माशेकी गोलियाँ बना लो। इन गोलियोंको मनुष्यके मूत्र या गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे कन्दादिके विषकी पीड़ा तथा और ज़हरोंकी पीड़ा शान्त हो जाती है। इतना ही नहीं, घोर जहरी काले साँपका जहर भी इन गोलियों के सेवन करनेसे उतर जाता है। यह नुसख: साँपके जहरपर परीक्षित है। नोट-विष खाये हुए रोगीको शंतल स्थानमें रखने, शीतल सेक और शीतल उपचार करनेसे विर-वेग निश्चय हो शान्त हो जाते हैं। कहा है:-- शीतोपचारा वा सेकाः शीताः शीतस्थलस्थितिः । विषार्त विषवेगानां शान्त्यै स्युरमृतं यथा ॥ .. (१३) कड़वे परवल घिसकर पिलानेसे तय होती हैं और विष निकल जाता है। : (१४) कड़वी तूम्बीके पत्ते या जड़ पानीमें पीसकर पिलानेसे वमन होकर विष उतर जाता है। परीक्षित है। - (१५) कड़वी घिया तोरई की बेलकी जड़ अथवा पत्तोंका काढ़ा "शहद" मिलाकर पिलानेसे समस्त विष नष्ट हो जाते हैं। परीक्षित है। (१६) कड़वी तोरई के काढ़ेमें घी डालकर पीनेसे वमन होती और विष उतर जाता है। परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (१७) करौंदेके पत्ते पानी में पीसकर पिलानेसे जहर खानेवालेको क़य होती हैं, पर जिसने जहर नहीं खाया होता है, केवल शक होता है, उसे तय नहीं होती। (१८) सत्यानाशीकी जड़की छाल खानेसे साधारण विष उतर जाता है। (१६) नीमकी निबौलियोंको गरम जलके साथ पीसकर पीनेसे संखिया आदि स्थावर विष शान्त हो जाते हैं। . मनुष्यमात्रके देखने-योग्य दो अपूर्वरत्न । नवाब सिराजुद्दौला। यह उपन्यास उपन्यासोंका बादशाह है। सरस्वती-सम्पादक उपन्यासोंको बहुत कम पसन्द करते हैं, पर इसे देखकर तो वे भी मोहित हो गये । इस एक उपन्यासमें इतिहास और उपन्यास दोनोंका आनन्द है । अगर आप नवाब सिराजुद्दौलाके अत्याचारों और नवाबी महलों के परिस्तानोंका चित्र आँखोंके सामने देखना चाहते हैं, तो सचित्र सिराजुद्दौला देखें। दाम ४) डाकखर्च ॥) सम्राट अकबर । यह उपन्यास नहीं जीवनी है, पर आनन्द उपन्यासका-सा आता है । इसमें उस प्रातःस्मरणीय शाहन्शाह अकबरका हाल है, जिसके समान बादशाह भारतमें आजतक और नहीं हुआ। यह ग्रन्थ कोई ५००० रुपयोंके ग्रन्थोंका मक्खन है। ४३ ग्रन्थोंसे लिखा गया है। इसके पढ़नेसे ३०० बरस पहलेका भारत नेत्रोंके सामने आ जाता है । इसको पढ़कर पढ़नेवाला, आजके भारतसे पहलेके भारतका मिलान करके हैरतमें आ जाता और उस ज़मानेको देखनेके लिये लालायित होता है । इसमें प्राचीन भारतकी महिमा प्रमाण दे-देकर गाई गई है। 'जिसने इसे देखा, वही मुग्ध होगया। जिसने "अकबर" न पढ़ा, जिन्दगीमें कुछ न पढ़ा। अगर आप सोलह आने कंजूस हैं, तो भी "अकबर के लिये तो अण्टी ढीली करदें। इसके पढ़नेसे आपको जो लाभ होगा, अकथनीय है । मूल्य ५०० सफोंके सचित्र ग्रन्थका ४॥) नोट-दोनों ग्रन्थ एक साथ मँगानेसे सात रुपयेमें मिलेंगे। For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौथा अध्याय । विष और उपविषोंकी RE विशेष चिकित्सा। ००००००००००.SNA NO०००००००००००० 10007 AGOVTKE Jaggangana 200000000000 °00800300 11००००००००००n. M . : . स तरह अनेक प्रकारके विष होते हैं, उसी तरह मुख्यतया सात प्रकारके उपविष माने गये हैं। कहा है-- अर्कक्षीरं स्नुहीक्षीरंलांगली करवीरकः । गुजाहिफेनी धत्तूरः सप्तोपविष जातयः ॥ आकका दूध, थूहरका दूध, कलिहारी, कनेर, चिरमिटी, अफ्रीम और धतूरा ये सात उपविष हैं। ये सालों उपविष बड़े कामकी चीज़ हैं और अनेक रोगोंको नाश करते हैं; पर, अगर ये बेकायदे सेवन किये जाते हैं, तो मनुष्यको मार देते हैं। .. . .. नीचे, हम वत्सनाभ विष प्रभृति विष और उपरोक्त उपविषों तथा अन्य विष माने जाने योग्य पदार्थों का वर्णन, उनकी शान्तिके उपायों सहित, अलग-अलग लिखते हैं । हम इन विष-उपविषोंके चन्द प्रयोग या नुसने भी साथ-साथ लिखते हैं, जिससे पाठकोंको डबल लाभ हो । आशा है, पाठक इनसे अवश्य काम लेंगे और विष-पीड़ित प्राणियोंकी प्राण-रक्षा करके यश, कीर्ति और पुण्यके भागी होंगे। For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 00000000 0000000003 चिकित्सा-चन्द्रोदय । 5 वत्सनाभ-विषका वर्णन और उसकी शान्तिके उपाय । 0000000000000 200000.00 क...00000geoa.. ..००००००००००००००० 1000000-0 OcDOC GOOD ........ ...ru PM 10 20.10.." : JOoncea.. 000... ison १०० aaa.pop Seasoor XXXXX जकल सुश्रुतके १३ या भावप्रकाशके १ कन्द-विर्षों मेंसे अ वत्सनाभ विष और शृङ्गी विषका उपयोग जियादा होता XXXX है। ये दोनों विष अलग-अलग होते हैं, पर आजकलके पंसारी दोनोंको एक ही समझते हैं। सींग के आकारकी जड़, जो रङ्गमें काली और तोड़ने में कुछ चमकदार होती है, उसे ही दोनों नामोंसे दे देते हैं। इनको मीठा विष या तेलिया भी कहते हैं। "भावप्रकाश"में लिखा है, बच्छनाभ विष सम्हालूके-से पत्तोंवाला और बछड़ेकी नाभिके समान आकारवाला होता है। इसके वृक्षके पास और वृक्ष नहीं रह सकते। ___ "सुश्रुत" में लिखा है, वत्सनाभ विषसे ग्रीवा-स्तम्भ होता है तथा मल-मूत्र और नेत्र पीले हो जाते हैं। सींगिया विषसे शरीर शिथिल हो जाता, जलन होती और पेट फूल जाता है। ___ बच्छनाभ विष अगर बेक़ायदे या ज़ियादा खाया जाता है, तो सिर घूमने लगता है, चक्कर आते हैं, शरीर सूना हो जाता और सूखने लगता है । अगर विष बहुत ही ज़ियादा खाया जाता है, तो हलकमें सूनापन, झंझनाहट और रुकावट होती तथा क़य और दस्त भी होते हैं । इसका जल्दी ही ठीक इलाज न होनेसे खानेवाला मर भी जाता है। "तिब्बे अकबरी'में लिखा है, बीश--वत्सनाभ विष एक विषैली जड़ है। यह बड़ी तेज़ और मृत्युकारक है। इसके अधिक या अयोग्य रीतिसे खानेसे होठ और जीभमें सूजन, श्वास, मूर्छा, घुमरी और मिर्गी रोग तथा बल-हानि होती है । इससे मरनेवाले मनुष्यके फेंफड़ोंमें घाव और विषमज्वर होते हैं। For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"वत्सनाभ"। ४१ - "वैद्यकल्पतरु" में एक सज्जन लिखते हैं, बच्छनाभको अँगरेजीमें "एकोनाइट' कहते हैं। इसके खानेसे--होठ, जीभ और मुँहमें झनझनाहट और जलन, मैं हसे पानी छूटना और कय होना, शरीर काँपना, नेत्रोंके सामने अँधेरा आना, कानोंमें जोरसे सनसनाहटकी आवाज होना, छूनेसे मालूम न पड़ना, बेहोश होना, साँसका धीरा पड़ना, नाड़ीका कमजोर और छोटी होना, साँस द्वारा निकली हवाका शीलता होना, हाथ-पैर ठण्डे हो जाना और अन्तमें खिंचावके साथ मृत्यु हो जाना,-ये लक्षण होते हैं । शान्तिके उपायः-- (१) कय करानेका उपाय करो। (२) आध-आध घण्टेमें तेज़ काफी पिलाओ । (३) गुदाकी राहसे, पिचकारी द्वारा, साबुन-मिला पानी भरकर आँतें सात करो। (४) घी पिलाओ। यद्यपि विष प्राणनाशक होते हैं, पर वे ही अगर युक्तिपूर्वक सेवन किये जाते हैं, तो मनुष्यका बल-पुरुषार्थ बढ़ाते, त्रिदोष नाश करते और साँप वगैरः उग्र विषवाले जीवोंके काटनेसे मरते हुओंकी प्राण-रक्षा करते हैं; पर विषोंको शोधकर दवाके काममें लेना चाहिये, क्योंकि अशुद्ध विषमें जो दुर्गुण होते हैं, वे शोधनेसे हीन हो जाते हैं। विष शोधन-विधि । . विषके छोटे-छोटे टुकड़े करके, तीन दिन तक, गोमूत्र में भिगो रखो। फिर उन्हें साफ़ पानीसे धो लो। इसके बाद, लाल सरसोंके तेलमें भिगोये हुए कपड़े में उन्हें बाँधकर रख दो। यह विधि "भावप्रकाश में लिखी है। अथवा · विषके टुकड़े करके उन्हें तीन दिन तक गोमूत्र में भिगो रखो; For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ . चिकित्सा-चन्द्रोदय । फिर उन्हें साफ पानीसे धोकर, एक महीन कपड़ेमें बाँध लो। फिर एक हाँडीमें बकरीका मूत्र या गायका दूध भर दो। हाँडीपर एक आड़ी लकड़ी रखकर, उसीमें उस पोटलीको लटका दो । पोटली दूध या मूत्रमें डूबी रहे । फिर हाँडीको चूल्हे पर चढ़ा दो और मन्दाग्निसे तीन घण्टे तक पकाओ। पीछे विषको निकालकर धो लो और सुखाकर रख दो। आजकल इसी विधिसे विष शोधा जाता है। ___ नोट-अगर विषको गायके दूधमें पकानो, तो जब दूध गाढ़ा हो जाय या फट जाय, विषको निकाल लो और उसे शुद्ध समझो । मात्रा चार जौ-भर विषकी मात्रा हीन मात्रा है, छ जौ-भरकी मध्यम और आठ जौ-भरकी उत्कृष्ट मात्रा है । महाघोर व्याधिमें उत्कृष्ट मात्रा, मध्यममें मध्यम और हीनमें हीन मात्रा दो। उग्र कीट-विष निवारणको दो जौ-भर और मन्द विष या बिच्छूके काटनेपर एक तिल-भर विष काममें लाओ। विषपर विष क्यों ? जब तंत्र-मंत्र और दवा किसीसे भी विष न शान्त हो, तब पाँचवें वेगके पीछे और सातवें वेगके पहले, ईश्वरसे निवेदन करके, और किसीसे भी न कहकर, घोर विपके समय, विषकी उचित मात्रा रोगीको सेवन कराओ। ___ स्थावर विष प्रायः कफके तुल्य गुणवाले होते हैं और ऊपरकी ओर जाते हैं। यानी आमाशय वगैरःसे खून वगैरःकी तरफ़ जाते हैं और जंगम विष प्रायः पित्तके गुणवाले होते हैं और खून में मिलकर भीतरकी तरफ़ जाते हैं। इस तरह एक विष दृसरेके विपरीत गुणवाला होता है और एक दूसरेको नाश करता है। इसीसे साँप आदिके काटनेपर जब भयङ्कर अवस्था हो जाती है; कोई उपाय काम नहीं देता, तब बच्छनाभ या सींगिया विष खिलाते, पिलाते और लगाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"वत्सनाभ"। ४३ इसी तरह जब कोई स्थावर विष--बच्छनाभ, अफीम आदि--खा लेता है और किसी उपायसे भी आराम नहीं होता, रोगी अब-तबकी हालतमें हो जाता है, तब साँपसे उसे कटवाते हैं; क्योंकि विषकी अत्यन्त असाध्य अवस्थामें एक विषको दूसरा प्रतिविष ही नष्ट कर सकता है। कहते भी हैं,-"विषस्य विषमौषधम्' अर्थात् विषकी दवा विष है। अनुपान । - तेज़ विष खिला-पिलाकर रोगीको निरन्तर "घी" पिलाना चाहिये । भारङ्गी, दहीके मंडसे निकाला हुआ मक्खन, सारिवा और चौलाई,--ये सब भी खिलाने चाहियें। .. नित्य विष-सेवन-विधि । घीसे स्निग्ध शरीरवाले आदमीको, वमन-विरेचन आदिसे शुद्ध करके, रसायनके गुणोंकी इच्छासे, नित्य, बहुत ही थोड़ी मात्रामें, शुद्ध विष सेवन करा सकते हैं। विष-सेवन करनेवाले सात्विक मनुष्यको, शीतकाल और बसन्त ऋतुमें, सूर्योदयके समय, विष उचित मात्रामें, सेवन कराना चाहिये । अगर बीमारी बहुत भारी हो, तो गरमीके मौसममें भी विष सेवन करा सकते हैं, पर वर्षाकाल या बदलीवाले दिनोंमें तो, किसी हालतमें भी, विष सेवन नहीं करा सकते। विष सेवनके अयोग्य मनुष्य । .... नीचे लिखे हुए मनुष्योंको विष न सेवन कराना चाहियेः (१) क्रोधी, (२) पित्त दोषका रोगी, (३) जन्मका नामर्द, (४) राजा, (५) ब्राह्मण, (६) भूखा, (७) प्यासा, (८) परिश्रम या राह चलनेसे थका हुआ, (६) गरमीसे पीड़ित, (१०) संकर रोगी, (११) गर्भवती, (१२) बालक, (१३) बूढ़ा, (१४) रूखी देहवाला, और (१५) मर्मस्थानका रोगी। . नोट-मर्मस्थानके रोगमें विष न सेवन कराना चाहिये और मर्मस्थानों के ऊपर इसका लेपन श्रादि भी न करना चाहिये । For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___ चिकित्सा-चन्द्रोदय । विष-सेवनपर अपथ्य । यदि विष खानेका अभ्यास भी हो जाय, तो भी लालमिर्च आदि चरपरे पदार्थ, खट्टे पदार्थ, तेल, नमक, दिनमें सोना, धूपमें फिरना और आग तापना या आगके सामने बैठना--इनसे विष सेवन करनेवालेको अलग रहना चाहिये । इनके सिवा, रूखा भोजन और अजीर्ण भी हानिकारक है; अतः इनसे भी बचना उचित है; क्योंकि जो मनुष्य विष सेवन करता है, पर रूखा भोजन करता है, उसकी दृष्टिमें भ्रम, कानमें दर्द और वायुके दूसरे आक्षेपक आदि रोग हो जाते हैं । इसी तरह विष सेवनपर अजीर्ण होनेसे मृत्यु हो जाती है। कुछ रोगोंपर विषका उपयोग । नीचे हम "वृद्धवाग्भट्ट" आदि ग्रन्थोंसे ऐसे नुसने लिखते हैं, जिनमें विष मिलाया जाता है और विषकी वजहसे उनकी शक्ति बहुत जियादा बढ़ जाती है:- (१) दन्ती, निसोथ, त्रिफला, घी, शहद और शुद्ध वत्सनाभ विष--इनके संयोगसे बनाई हुई गोलियाँ जीर्ण-ज्वर, प्रमेह और चर्मरोगोंको नाश करती हैं। . (२) शुद्ध विष, मुलेठी, रास्ना, खस और कमलका कन्दइनको मिलाकर, चाँवलोंके साथ, पीनेसे रक्तपित्त नाश होता है । (३) शुद्ध सींगिया विष, रसौत, भारंगी, वृश्चिकाली और शालिपर्णी-इन्हें पीसकर, उस दुष्ट व्रण या सड़े हुए घावपर लगाओ, जिसमें बड़ा भारी दर्द हो और जो पकता हो। (४) मिश्री, शुद्ध सींगिया विष तथा बड़, पीपर, गूलर, पाखर और पारसपीपर-इन दूधवाले वृक्षोंकी कोंपल, इन सबको पीसकर और शहदमें मिलाकर चाटनेसे श्वास और हिचकी रोग नष्ट हो जाते हैं। । (५) शहद, खस, मुलेठी, जवाखार, हल्दी और कुड़ेकी छाल-- इनमें शुद्ध सींगिया विष मिलाकर चाटनेसे वमन रोगशान्त हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"वत्सनाभ"। ४५ (६) शुद्ध शिलाजीतमें शुद्ध सींगिया विष मिलाकर, गो-मूत्रके साथ, सेवन करनेसे पथरी और उदावत रोग नाश हो जाते हैं। (७) बिजौरे नीबूका रस, बच, ब्राह्मीका रस, घी और शुद्ध सोंगिया विष-इन सबको मिलाकर, अगर बाँझ स्त्री पीवे तो उसके बहुत से पुत्र हों। कहा है स्वरस बीजपूरस्य बचा ब्राह्मी रसं घृतं । बन्ध्या पिवंती सविषं सुपुत्रैः परिवार्यते ॥ (८) दाख, कौंचके बीजोंकी गिरी, बच और शुद्ध सींगिया विष-इन सबको मिलाकर सेवन करनेसे जिसका वीर्य नष्ट हो जाता है, उसके बहुत सा वीर्य पैदा हो जाता है। (E) काकोदुम्बर या कठूमरकी जड़के काढ़े के साथ शुद्ध सींगिया विष सेवन करनेसे कोढ़ जाता रहता है । (१०) पोहकरमूल, पीपर और शुद्ध सींगिया विष- इन तीनोंको गो-मूत्र के साथ पीनेसे शूल-रोग नष्ट हो जाता है। (११) त्रिफला, सज्जीखार और शुद्ध वत्सनाभ विष--इनको मिलाकर यथोचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे गुल्म या गोलेका रोग नाश हो जाता है। (१२) शुद्ध सींगिया विषको आमलोंके स्वरसकी सात भावनायें दो और सुखा लो। फिर उसे शंखके साथ घिसकर आँखों में आँजो। इससे नेत्रोंका तिमिर-रोग नाश हो जाता है। (१३) शुद्ध सींगिया विष, हरड़, चीतेकी जड़की छाल, दन्ती, दाख और हल्दी--इनको मिलाकर सेवन करनेसे मूत्रकृच्छ रोग नाश हो जाता है। (१४) कड़वे तेलमें शुद्ध वत्सनाभ विष पीसकर नस्य लेनेसे पलित रोग और अरु पिका रोग नष्ट हो जाते हैं। ___ नोट-असमयमें बाल सफ़ेद होनेको पलित रोग कहते हैं। कफ, रक्त और कृमि--इनके कोपमें सिरमें जो बहुतसे मुंहवाले और क्लेदयुक्त व्रण होजाते हैं, उनको अरु षिका कहते हैं । नं. १४ नुसख से असमयमें बालोंका सफ़द होना और सिरके अरु षिका नामक व्रण--ये दोनों रोग नष्ट हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . चिकित्सा-चन्द्रोदय । (१५) सज्जीखार, सैंवानोन और शुद्ध सींगिया विष-इन्हें सिरकेमें मिलाकर, कानोंमें डालनेसे कानकी घोर पीड़ा शान्त हो जाती है। (१६) देवदारु, शुद्ध सींगिया या वत्सनाभ विष, गो-मूत्र, घी और कटेहली-इनके पीनेसे बोलने में रुकना या हकलाना आराम होजाता है। ___ सूचना-पूरे अनुभवी वैद्योंके सिवा, मामूली आदमी ऊपर लिखे नुसने न स्वयं सेवन करें और न किसी और को दें अथवा बतलावें । अनुभवी वैद्य भी खूब सोच-विचारकर, बहुत ही हल्की मात्रामें, देने योग्य रोगीको उस अवस्थामें इन्हें दें, जब कि रोग एकदमसे असाध्य हो गया हो और आराम होनेकी उम्मीद जरा भी न हो । विष-सेवन कराने में इस बातका बहुत ही ध्यान रहना चाहिये, कि रोग और रोगीके बलाबल से अधिक मात्रा न दी जाय । जरा-सी भी असावधानीसे मौतका सामान हो जा सकता है। विष सेवन करना या कराना आगसे खेलना है। अच्छे वैद्य, ऐसे विषयुक्त योगोंको बिल्कुल नाउम्मेदीकी हालतमें देते हैं। साथ ही देश, काल, रोगीकी प्रकृति, पथ्यापथ्य आदिका पूरा विचार करके तब देते हैं। वर्षाकाल या बदली के दिनोंमें भूलकर भी विष न देना चाहिये। मतलब यह है, विषोंके देने में बड़ी भारी बुद्धिमानी, तर्क वितर्क, युक्ति और चतुराईकी जरूरत है। अगर खूब सोच-समझकर, घोर असाध्य अवस्थामें विष दिये जाते हैं, तो अनेक बार मरते हुए रोगी भी बच जाते हैं । अतः इनको काममें लाना चाहिये खाली डरकर ही न रह जाना चाहिये । (१७ ) बच्छनाभ विषको पानीके साथ घिसकर बरं, ततैये, बिच्छू या मक्खी आदिके काटे स्थानपर लगानेसे अवश्य लाभ होता है। यह दवा कभी फेल नहीं होती। (१८) बच्छनाभ विषको पानीके साथ पीसकर पसलीके दर्द, हाथ-पैर आदि अंगोंके दर्द या वायुकी अन्य पीड़ाओं और सूजनपर लगानेसे अवश्य आराम होता है । (१६) शुद्ध बच्छनाभ विष, सुहागा, कालीमिर्च और शुद्ध नीला For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा--"वत्सनाभ”। ४७ थोथा--इन चारोंको बराबर-बराबर लेकर महीन पीस लो। फिर खरलमें डाल, ऊपरसे “बन्दाल"का रस दे-देकर खूब घोटो । जब घुट जाय चार-चार माशेकी गोलियाँ बना लो। इन गोलियोंको मनुष्यके मूत्र या गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे कन्दादिक विषकी पीड़ा एवं और जहरोंकी पीड़ा शान्त हो जाती है। इतना ही नहीं, घोर ज़हरी काले साँपका जहर भी इन गोलियोंके सेवन करनेसे उतर जाता है । यह नुसना साँपके जहरपर परीक्षित है। बच्छनाम विषकी शान्ति के उपाय । आरम्भिक उपाय-- ( क ) विष खाते ही मालूम हो जाय, तो तत्काल वमन कराओ । (ख) अगर ज़ियादा देर हो जाय, विष पक्काशयमें चला जाय, तो तेज़ जुलाब दो या साबुन और पानीकी पिचकारीसे गुदाका मल निकालो। अगर जहर खून में हो, तो फस्द खोलकर खून निकाल दो। मतलब यह है, वेगोंके अनुसार चिकित्सा करो। अगर वैद्य न हो, तो नीचे लिखे हुए उपायोंमेंसे कोई-सा करोः (१) सोंठको चाहे जिस तरह खानेसे बच्छनाभ विषके विकार नष्ट हो जाते हैं। __(२) घरका धूआँसा, मँजीठ और मुलेठीके चूर्णको शहद और घीके साथ चाटनेसे विषके उपद्रव शान्त हो जाते हैं। (३) अर्जुनवृक्षकी छालका चूर्ण घी और शहद के साथ चाटनेसे विषके उपद्रव शान्त हो जाते हैं। (४) अगर बच्छनाभ विष खाये देर हो जाय, तो दूधके साथ दो माशे निर्विषी पिलाओ। साथ ही घी दूध आदि तर और चिकने पदार्थ भी पिलाओ। ___नोट- अगर ज़हरका ज़ोर कम हो, तो निर्विषी कम देनी चाहिये । अगर बहुत ज़ोर हो, तो दो-दो माशे निर्विषी दूधके साथ घण्टे-घण्टे या दो-दो घण्टेपर, For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . चिकित्सा-चन्द्रोदय । ... जैसा मौका हो, विचारकर देनी चाहिये । निर्विषीमें विष नाश करनेकी बड़ी शक्ति है । अगर असल निर्विषी मिल जाय, तो हाथमें लेनेसे ही समस्त विष नष्ट हो जायँ, पर याद रक्खो, स्थावर विपकी दवा वमनसे बढ़कर और नहीं है। वमन करानेसे ज़हर निकल जाता है और रोगी साफ़ बच जाता है; पर वमन उसी समय लाभदायक हो सकती है, जबकि विध आमाशयमें हो । (५) असली ज़हरमुद्रा, पत्थरपर, गुलाव-जलमें घिस-घिसकर, एक-एक गेहूँ भर चटाओ । इसके चटानेसे क्रय होती हैं । कप होते ही फिर चटाओ। इस तरह जब तक कय होती रहें, इसे हर एक क़यके बाद गेहूँ-गेहूँ भर चटाते रहो । जब पेटमें जहर न रहेगा, तब इसके चटानेसे क्रय न होगी । बस फिर मत चटाना | इसकी मात्रा दो रत्तीकी है । पर एक बार में एक गेहूँ-भरसे जियादा मत चटाना । इसके असली-नकली होनेकी पहचान और इसके इस्तेमाल "बिच्छू-विषकी चिकित्सा में देखें । स्थावर और जंगम सब तरहके विषोंपर “जहरमुहरा" चटाना और लगाना रामवाण दवा है। (६) घीके साथ सुहागा पीसकर पिलानेसे सब तरहके विष नष्ट हो जाते हैं । संखिया खानेपर तो यह नुप्सखा बड़ा ही काम देता है । असलमें, सुहागा सब तरहके विषोंको नाश कर देता है। * संखिया-विषका वर्णन और उसकी __ शान्तिके उपाय। ODEO खियाका जिक्र वैद्यक-ग्रन्थोंमें प्रायः नहीं के बराबर है। फिर भी, यह एक सुप्रसिद्ध विष है। बच्चा-बच्चा इसका ODE नाम जानता है। यद्यपि संखिया सफ़ेद, लाल, पीला और काला चार रंगका होता है; पर सफ़ेद ही जियादा मिलता है। For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir _ विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"संखिया"। ४६ सफेद संखिया सुहागेसे बिल्कुल मिल जाता है। नवीन संखियामें चमक होती है, पर पुराने में चमक नहीं रहती। इसमें किसी तरहका जायका नहीं होता, इसीसे यूनानी हिकमतके ग्रन्थोंमें इसका स्वादबेस्वाद लिखा है । असलमें, इसका जायका फीका होता है; इसीसे अगर यह दही, रायते प्रभृति खाने-पीनेके पदार्थों में मिला दिया जाता है, तो खानेवालेको मालूम नहीं होता, वह बेखटके खा लेता है। ___ संखिया खानोंमें पाया जाता है। इसे संस्कृतमें विष, फारसीमें मर्गमूरा, अरबीमें सम्बुलफार और करूनुस्सम्बुल कहते हैं। इसकी तासीर गरम और रूखी है। यह बहुत तेज़ ज़हर है। ज़रा भी ज़ियादा खानेसे मनुष्यको मार डालता है। इसकी मात्रा एक रत्तीका सौवाँ भाग है । बहुतसे मूर्ख ताकत बढ़ानेके लिये इसे खाते हैं। कितने ही जरा-सी भी ज़ियादा मात्रा खा लेनेसे परमधामको सिधार जाते हैं। बेकायदे थोड़ा-थोड़ा खानेसे भी लोग श्वास, कमजोरी और क्षीणता आदि रोगोंके शिकार होते हैं। इसके अनेक खानेवाले हमने जिन्दगी. भर दुःख भोगते देखे हैं। अगर धन होता है, तो मनमाना घी-दूध खाते और किसी तरह बचे रहते हैं। जिनके पास धी-दूधको धन नहीं होता, वे कुत्तेकी मौत मरते हैं। अतः यह जहर किसीको भी न खाना चाहिये। हिकमतके ग्रन्थों में लिखा है, संखिया दोषोंको लय करता और सर्दीके घावोंको भरता है। इसको तेल में मिलाकर मलनेसे गीली और सूखी खुजली तथा सर्दीकी सूजन आराम हो जाती है। ___ डाक्टर लोग इसे बहुत ही थोड़ी मात्रामें बड़ी युक्तिसे देते हैं। कहते हैं, हमके सेवनसे भूख बढ़ती और सर्दीके रोग आराम हो जाते हैं। "तिब्बे अकबरी' में लिखा है, संखिया खानेसे कुलंज, श्वासरोध--श्वास रुकना और खुश्की ये रोग पैदा होते हैं । For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । . संखिया जियादा खा लेनेसे पेटमें बड़े जोरसे दर्द उठता, जलन होती, जी मिचलाता और क़य होती है; गलेमें खुश्की होती और दस्त लग जाते हैं तथा प्यास बढ़ जाती है । शेषमें, श्वास रुक जाता, शरीर शीतल हो जाता और रोगी मौत के मुंहमें चला जाता है। - वैद्यकल्पतरुमें एक सज्जन लिखते हैं-संखिया या सोमलको अंगरेजीमें आरसेनिक कहते हैं। संखिया वजनमें थोड़ा होनेपर भी बड़ा जहर चढ़ाता है । उसमें कोई स्वाद नहीं होता, इससे बिना मालूम हुए खा लिया जाता है। अगर कोई इसे खा लेता है, तो यह पेटमें जाने के बाद, घण्टे-भरके अन्दर, पेटकी नलीमें पीड़ा करता है। फिर उछाल और उल्टी या वमन होती हैं। शरीर ठण्डा हो जाता, पसीने आते और अवयव काँपते हैं । नाकका बाँसा और हाथ-पाँव शीतल हो जाते हैं । आँखोंके आस-पास नीले रंगकी चकई-सी फिरती मालूम होती है । पेटमें रह-रहकर पीड़ा होती और उसके साथ खूब दस्त होते हैं । पेशाब थोड़ा और जलनके साथ होता है। पेशाब कभी-कभी बन्द भी हो जाता है और कभी-कभी उसमें खून भी जाता है। आँखें लाल हो जाती हैं, जलन होती, सिर दुखता, छातीमें धड़कन होती, साँस जल्दी-जल्दी और घुटता-सा चलता है। भारी जलन होनेसे रोगी उछलता है। हाथ-पैर अकड़ जाते हैं। चेहरा सूख जाता है । नाड़ी बैठ जाती और रोगी मर जाता है। रोगीको मरने तक चेत रहता है, अचेत नहीं होता। कम-से-कम ॥ ग्रेन संखिया मनुष्यको मार सकता है। __ हैजेके मौसममें, जिनकी जिनसे दुश्मनी होती है, अक्सर वे लोग अपने दुश्मनोंको किसी चीज में संखिया दे देते हैं, क्योंकि हैजेके रोगी और संखिया खानेवाले रोगीके लक्षण प्रायः मिल जाते हैं। हैजेमें दस्त और कय होते हैं, संखिया खानेपर भी कय और दस्त होते है। हैजेवालेका मल चाँवलके धोवन-जैसा होता है और संखिये For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविर्षोंकी विशेष चिकित्सा--"संखिया"। ५१ वालेका मल भी, अन्तिम अवस्थामें, वैसा ही होता है। अतः हम दोनों तरहके रोगियोंका फ़र्क लिखते हैं: हैजेवाले और संखिया खानेवालेकी पहचान । __ हैजे में प्रायः पहले दस्त और पीछे कय होती हैं; संखिया खानेवालेको पहले क़य और पीछे दस्त होते हैं । संखिया खानेवालेके मलके साथ खून गिरता है, पर हैजेवालेके मलके साथ खून नहीं गिरता । हैजेवालेका मल चाँवलोंके धोवन-जैसा होता है; पर संखियावालेका मल, अन्तिम अवस्थामें ऐसा हो सकता है । हैजे में वमनसे पहले गलेमें दर्द नहीं होता, पर संखियावालेके गलेमें दर्द जरूर होता है। इन चार भेदोंसे-हैजा हुआ है या संखिया खाया है, यह बात जानीजा सकती है। संखियावालेको अपथ्य । संखिया खानेवाले रोगीको नीचे लिखी बातोंसे बचाना चाहियेः-- (क) शीतल जल । पैत्तिक विषोंपर शीतल जल हितकारक होता है; पर वातिक विषों में अहितकर होता है । संखिया खानेवालेको शीतल जल भूलकर भी न देना चाहिये । (ख ) सिरपर शीतल जल डालना । (ग ) शीतल जलसे स्नान करना । (घ) चाँवल और तरबूज अथवा अन्य शीतल पदार्थ । चाँवल और तरबूज़ संखियापर बहुत ही हानिकारक हैं। (ङ) सोने देना । सोने देना प्रायः सभी विषों में बुरा है। संखियाका ज़हर नाश करने के उपाय । प्रारम्भिक उपाय:-- (क ) संखिया खाते ही अगर मालूम हो जाय, तो वमन कर दो। क्योंकि विष खाते ही विष आमाशयमें रहता है और वमनसे निकल जाता है । सुश्रुतमें लिखा हैः For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय | पिप्पली मधुक क्षौद्रशर्करेचुरसांबुभिः । छयेद्गुप्तहृदयो भक्षितं यदिवा विषम् ॥ A अगर किसीने छिपाकर स्वयं ज़हर खाया हो, तो वह पीपल, मुलेठी, शहद, चीनी और ईखका रस - इनको पीकर वमन कर दे । अथवा वैद्य उपरोक्त चीजें पिलाकर वमन द्वारा विष निकाल दें | आरम्भ में, जहर खाते ही " वमन " से बढ़कर विष नाश करनेकी और दवा नहीं | ( ख ) अगर देर हो गई हो - विष पक्काशय में पहुँच गया हो, तो दस्तावर दवा देकर दस्त करा देने चाहियें । नोट- बहुधा वमन करा देनेसे ही रोगी बच जाता है । वमन कराकर आगे लिखी दवाओं में से कोई एक दवा देनी चाहिये । ( १ ) दो या तीन तोले पपड़िया कत्था पानी में घोलकर पीने से संखियाका जहर उतर जाता है। यह पेटमें पहुँचते ही संखियाकी कारस्तानी बन्द करता और क्रय लाता है । ( २ ) एक माशे कपूर तीन-चार तोले गुलाबजल में हल करके पीनेसे संखियाका विष नष्ट हो जाता है । ( ३ ) कड़वे नीम के पत्तों का रस पिलाने से संखियाका विष और कीड़े नाश हो जाते हैं। परीक्षित है। ( ४ ) संखिया खाये हुए आदमीको अगर तत्काल, बिना देर किये, कच्चे बेलका गूदा पेटभर खिला दिया जाय, तो इलाज में बड़ा सुभीता हो । संखियाका विष बेलके गूदे में मिल जाता है, अतः शरीरके अवयवोंपर उसका जल्दी असर नहीं होता; बेलका गूदा खिलाकर दूसरी उचित चिकित्सा करनी चाहिये । (५) करेले कूटकर उनका रस निकाल लो और संखिया खानेवालेको पिलाओ। इस उपाय से वमन होकर, संखिया निकल जायगा । संखियाका जहर नाश करनेको यह उत्तम उपाय है । नोट - अगर करेले न मिलें, तो सफ़ ेद पपरिया कत्था महीन पीसकर और For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-“संखिया"। ५३ पानी में घोलकर पिला दो । संखिया खाते ही इसके पी लेने से बहुत रोगो बच गये हैं । कत्थेसे भी क़य होकर ज़हर निकल जाता है। (६) संखियाके विषपर शहद और अञ्जीरका पानी मिलाकर पिलाओ । इससे कय होंगी-अगर न हों तो उँगली डालकर लय कराओ। दस्त करानेको सात रत्ती 'सकमूनिया" शहदमें मिला कर देना चाहिये। ___ नोट-सकमूभियाको मेहमूदह भी कहते हैं । यह सफ़द और भूरा होता है तथा स्वादमें कड़वा होता है। यह एक दवाका जमा हुश्रा दूध है। तीसरे दर्जेका गरम और दूसरे दर्जेका रूखा है । हृदय, श्रामाशय और यकृतको हानिकारक तथा मूछ कारक है । कतीरा, सेब और बादाम-रोगन इसके दर्पको नाश करते हैं । यह पित्तज मलको दस्तोंके द्वारा निकाल देता है। जिस दस्तावर दवामें यह मिला दिया जाता है, उसे खूब ताक़तवर बना देता है। वातज रोगों में यह लाभदायक है, पर अमरूद या बिहीमें भुलभुलाये विना इसे न खाना चाहिये । - (७) तिब्बे अकबरीमें, सफेदे और संखियेपर मक्खन खाना और शराब पीना लाभदायक लिखा है। पुरानी शराब, शहदका पानी, ल्हसदार चीजें, तर खतमीका रस और भुसीका सीरा--ये चीजें भी संखियेवालेको मुफीद हैं। (८) बिनौलोंकी गरी निवाये दूधके साथ पिलानेसे संखियाका विष उतर जाता है। नोट-बिनौलोंकी गरी पानी में पीसकर पिलानेसे धतूरेका विष भी उतर जाता है। बिनौले और फिटकरीका चूर्ण खानेसे अनीमका ज़हर नाश हो जाता है। बिनौलोंकी गरी खिलाकर दूध पिलानेसे भी धतूरेका विष शान्त हो जाता है। ___ सूचना-धतूरेके विषमें जिस तरह सिरपर शीतल जल डालते हैं, उस तरह संखिया खानेवालेके सिरपर शीतल जल डालना, शीतल जल पिलाना, शीतल जलसे स्नान कराना या और शीतल पदार्थ खिलाना-पिलाना, चाँवल और तरबूज़ वारः खिलाना और सोने देना हानिकारक है । अगर पानी देना ही हो, तो गरम देना चाहिये । For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा - चन्द्रोदय | ( ६ ) जिस तरह बहुत-सा गायका घी खाने से धतूरेका ज़हर उतर जाता है, उसी तरह दूधमें घी मिलाकर पिलानेसे संखियेका ज़हर उतर जाता है । (१०) घीके साथ सुहागा पीसकर पिलाने से संखियाका जहर साफ़ हो जाता है । सुहागा सभी तरह के विषोंको नाश करता है । अगर संखियाके साथ सुहागा पीसा जाय, तो संखियाका विष नष्ट हो जाय ! ( ११ ) वैद्यकल्पतरु में संखिया के विषपर निम्नलिखित उपाय लिखे हैं: ( क ) वमन कराना सबसे अच्छा उपाय है । अगर अपने आप वमन होती हों, तो वमनकारक दवा देकर वमन मत कराओ । (ख) घी संखिया में सबसे उत्तम दवा है । घी पिलाकर वमन कराने से सारा विष घी में लिपटकर बाहर आ जाता है और घीसे संखियाकी जलन भी मिट जाती है । अतः घी और दही खूब मिला कर पिलाओ। इससे क्रय होकर रोगी चंगा हो जायगा । अगर क़य होने में विलम्ब हो तो पक्षीका पंख गले में फेरो | थोड़े से पानी में २० प्र ेन सलफेट आफ जिंक (Sulphate of Zine) मिलाकर पिलाओ। इससे भी क्रय हो जाती हैं । राईका पिसा हुआ चूर्ण एक या दो चम्मच पानी में मिलाकर पिलाओ। इससे भी क़य होती हैं । इपिकाकुनाका चूर्ण या पौडर १५ ग्रेन लेकर थोड़े से जल में मिलाकर पिलाओ। इससे भी क्रय होती हैं । नोट - इन चारोंमें से कोई एक उपाय करके क़य करा । अगर ज़ोर से क्रय न होती हों, तो गरम जल या नमक मिला जल ऊपरसे पिलाओ। किसी भी क्रय की दवापर, इस जलके पिलानेसे क़यकी दवाका बल बढ़ जाता है और खूब क़य होती हैं । अफ़ीम या संखिया आदि विषोंपर ज़ोरसे क्रय कराना ही हितकारी है। ( ग ) थोड़ी-थोड़ी देर में दूध पिलाओ। अगर मिले तो दूधमें बर्फ़ भी मिला दो । For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा--"आक"। ५५ (घ) दूध और चूनेका नितरा हुआ पानी बराबर-बराबर मिलाकर पिलाओ। (ङ) जलन मिटानेको बर्फ और नीबूका शर्बत पिलाओ अथवा चीनी मिलाकर पेठेका रस पिलाओ इत्यादि । सूचना-अफ़ीमके विषपर भी कय करानेको यही उपाय उत्तम हैं। हरताल और मैनसिल ये दोनों संखियाके क्षार हैं । इसलिए इनका ज़हर उतारने में संखियाके ज़हरके उपाय ही करने चाहियें। चूनेका छना हुआ पानी और तेल पिलानो और वमनकी दवा दो तथा राईका चूर्ण दूध और पान में मिलाकर पिलायो । शेष, वही उपाय करो, जो संखियामें लिखे हैं। (१२) गर्म घी पीनेसे संखियाका जहर उतर जाता है । (१३) दूध और मिश्री मिलाकर पीनेसे संखियाका विष शान्त हो जाता है। नोट--बहुत-सा संखिया खा लेनेपर वमन और विरेचन कराना चाहिये । ०००००००००००००००.....००० १०००००००००००००००००००००००००००० 04.000000००० "०००. °0000000ona200000000000000000330००%89 00000000sess १० Go-8° °00000ana03200000 P000000000०.००.07.06daar 33000000000000032006 प्राकका वर्णन और उसके विषकी शान्तिके उपाय । 000000 GO00000000000033000 ०००००००० '000,000 ० .. . ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००.००% XXXY कके वृक्ष जंगलमें बहुत होते हैं । आक दो तरहके होते T हैं:-(१) सफ़ेद और (२) लाल । दोनों तरहके आक Xxx दस्तावर, वात, कोढ़, खुजली, विष, व्रण, तिल्ली, गोला, बवासीर, कफ, उदर-रोग और मल या पाखानेके कीड़ोंको नाश करनेवाले हैं। . सफ़ेद आक अत्यन्त गर्म, तिक्त और मल-शोधक होता है तथा मूत्रकृच्छ, व्रण और दारुण कृमि-रोगको नाश करता है। राजार्क कफ, मेद, विष, वातज कोढ़, व्रण, सूजन, खुजली और विसर्पको नाश करता है। For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । . सफेद आकके फूल वीर्यवर्द्धक, हलके, दीपन और पाचन होते हैं तथा कफ, बवासीर, खाँसी और श्वासको नष्ट करते हैं। प्राकके फूलोंसे कृमि-रोग, शूल और पेटके रोग भी नाश होते हैं। लाल आकके फूल मधुर, कड़वे और ग्राही होते हैं तथा कृमि, कफ, बवासीर, रक्तपित्त रोग और सूजन नाश करते हैं। दीपन-पाचन चूर्ण और गोलियोंमें आकके फूल मिलानेसे उनका बल बहुत बढ़ जाता है। अकेले आकके फूल नमकके साथ खानेसे पेटका दर्द और बदहज़मी,-ये रोग आराम हो जाते हैं। आककी जड़की छाल पसीने लाती है, श्वास नाश करती है, उपदंशको हरती है और तासीरमें गरम है। कहते हैं, इससे कफ छूट जाता है और कय भी होती हैं । खाँसी, जुकाम, अतिसार, मरोडीके दस्त, रक्तपित्त, शीतपित्त--पित्ती निकलना, रक्तप्रदर, ग्रहणी, कीड़ोंका विष और कफ नाश करने में आककी जड़ अच्छी है। ___ आकके पत्ते सेककर बाँधनेसे बादीकी सूजन नाश हो जाती है । कफ और वायुकी सूजन तथा दर्दपर आकके पत्ते रामवाण हैं। शरीरकी अकड़न और सूनेपनपर आकके पत्ते घी या तेलसे चुपड़ और सेककर बाँधनेसे लाभ होता है। इनके सिवा और भी बहुतसे रोग इनसे नाश होते हैं । हरे पत्तोंमें भी थोड़ा विष होता है, अतः खानेमें सावधानीकी दरकार है। क्योंकि कच्चे पत्ते खानेसे सिर घूमता है, नशा चढ़ता है तथा कय और दस्त होने लगते हैं। आकका दूध कड़वा, गरम, चिकना, खारी और हलका होता है । कोढ़, गुल्म और उदर-रोगपर अत्युत्तम है। दस्त करानेके काममें भी आता है; पर इसका दूध बहुत ही तेज़ होता है। उससे दस्त बहुत होते हैं। बाज-बाज़ वक्त ज़ियादा और बेकायदे खानेसे आँत कट जाती हैं और आदमी बेहोश होकर मर भी जाता है। आकका दूध घावोंपर भी लगाया जाता है। अगर बेकायदे लगाया जाता है, तो घावको फैला और सड़ा देता है । उस समय उसमें For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषों की विशेष चिकित्सा-"आक"। ५७ दर्द भी बहुत होता है। इसका दूध घावोंपर दोपहर पीछे लगाना चाहिये । सवेरे ही, चढ़ते दिनमें, लगानेसे चढ़ता और हानि करता है; पर ढलते दिन में लगानेसे लाभ करता है।। _आकके विषकी शान्तिके उपाय । आककी शान्ति ढाकसे होती है। ढाक या पलाशके वृक्ष जंगलमें बहुत होते हैं। (१) अगर प्राकका दूध लगानेसे घाव बिगड़ गया हो, तो ढाकका काढ़ा बनाकर, उससे घावको धोओ । साथ ही ढाककी सूखी छाल पीसकर, घावोंपर बुरको। ... (२) अगर आकका दूध, पत्ते या जड़ आदि बेकायदे खाये गये हों और उनसे तकलीफ हो, तो ढाकका काढ़ा पिलाना चाहिये । ODeeDEODEDEDEO आकके उपयोगी नुसखे। ODE (१) आककी जड़की छाल बकरीके दूधमें घिसकर, मृगीवालेकी नाकमें दो-चार बूँद टपकानेसे मृगी जाती रहती है। (२) पीले आकके पत्तोंपर सेंधानोन लगाकर, पुटपाटकी रीतिसे भस्म कर लो। इसमेंसे १ माशे दवा, दहीके पानीके साथ, खानेसे सीहोदर रोग नाश होता है। (३) मदारकी लकड़ीकी राख दो तोले और मिश्री दो तोलेदोनोंको पीसकर रख लो। इसमेंसे छ-छै माशे दवा, सवेरे-शाम, खानेसे गरमी रोग आठ दिनमें आराम होता है।। (४) आककी जड़ १७ माशे और कालीमिर्च चार तोले- इन दोनोंको पीसकर और गुड़में खरल करके, मटर-समान गोली बना लो । सवेरे-शाम एक-एक गोली खानेसे उपदंश या गरमी आराम हो जाती है। For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org .५८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा - चन्द्रोदय | नोट - सफ़ ेद कनेरकी जड़, जलमें घिसकर, इन्द्रियके घावोंपर लगाओ; असाध्य गरमी भी नाश हो जायगी । ( ५ ) मदार के पत्ते पर रेंडीका तेल लगाकर, उसे गरम करो और बदपर बाँध दो । फिर धतूरेके पत्ते आगपर तपा-तपाकर सेक कर दो, बद फौरन ही नष्ट हो जायगी । (६) मदार के पत्तों का रस और सेंहुड़के पत्तों का रस - दोनों को मिलाकर गरम करो और सुहाता - सुहाता गरम कान में डालो । -इससे कानकी सब तरहकी पीड़ा शान्त हो जायगी । (७) मदार के १०० पत्ते, अड़ सेके १०० पत्ते, शुद्ध कुचला १ । तोले, साँभरनोन २॥ तोले, पीपर २|| तोड़े, पीपरामूल २॥ तोले, सोंठ २। तोले, अजवायन २ तोले और काली जीरी २ तोले- इन सब दवाओं को एक हाँडी में भरकर, ऊपर से सराई रखकर, मुँह बन्द कर दो और सारी हाँडीपर कपड़-मिट्टी कर दो। फिर गज-भर गहरे-चौड़ेलम्बे खड्डे में रखकर आरने करडे भर दो और आग दे दो । आग शीतल होनेपर, हाँडीको निकालकर दवा निकाल लो और रख लो । - इनमें से चार-चार रत्ती दवा पानके साथ खानेसे श्वास और खाँसी या दमा - ये रोग नाश हो जाते हैं । (८) मदार के मुँह - बन्द फूल चार तोले, कालीमिर्च चार तोले और कालानोन चार तोले, इन सबको पानी के साथ खरल करके 'बेर- समान गोलियाँ बना लो । सवेरे-शाम एक-एक गोली खानेसे पेटका शूल या दर्द और वायुगोला वग़ैरः अनेक रोग नाश हो जाते हैं । (६) का दूध, हल्दी, सेंधानोन, चीतेकी छाल, शरपुंखी, मँठ और कुड़ाकी छाल, - इन सबको पानी से पीसकर लुगदी बना लो। फिर लुगदीसे चौगुना तेल और तेलसे चौगुना पानी मिलाकर, तेल पका लो। इस तेलको भगन्दरपर लगाने से फौरन आराम होता है । (१०) सफेद मदारकी राख, सफेद मिर्च और शुद्ध नीलाथोथा - ये तीनों बराबर-बराबर लेकर, जल में घोटकर, एक-एक माशेकी For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा - "क" । गोलियाँ बना लो । इनमेंसे एक-एक गोली पानी के साथ खानेसे साँप प्रभृति जीवों का विष नष्ट हो जाता है । ( ११ ) की जड़ और कच्चा नीलाथोथा, दोनों को बराबर-बराबर लेकर पीस छान लो । इसमें से छै छै माशे चूर्ण, साँप के काटे आदमीके दोनों नाक के नथनों में भर दो और फिर एक फूँकनी लगा कर फूँक मारो। ईश्वर चाहेगा, तो फौरन जोरकी क्रय होगी और रोगी व घरमें भला-चङ्गा हो जायगा । ५६ नोट - ऊपरके नुसख के साथ नीचे लिखे काम भी करो तो क्या कहना ? ( १ ) शुद्ध जमालगोटा एक मटर-बराबर खिला दो । ( २ ) सोंजी के बीज घिसकर नेत्रोंमें जो । ( ३ ) साँपकी काटी जगहपर, एक मोटे-ताज़ चूहेका पेट फाड़कर, पेटकी तरफ से रख दो । सुनने मत दो | ( ४ ) बीच-बीचमें प्याज़ खिलाते रहो । (५) सोने मत दो और चक्की की आवाज़ ( १२ ) की जड़को बराबर के अदरख के रस में घोटकर, चने-समान गोलियाँ बना लो। एक-एक गोली, पानी के साथ, थोड़ीथोड़ी देर में देनेसे हैजा नाश हो जाता है। (१३) मदार के पीले पत्तों को कोयलोंकी आगपर जला लो । - इसमें से ४ रत्ती राख, शहद में मिलाकर, नित्य सवेरे, चाटने से बलग़मी तप, जुकाम, बदहजमी, दर्द और तमाम बलरामी रोग नाश होते हैं । (१४) मदार के फूल और पँवाड़के बीज, दोनोंको पीसकर और खट्टे दही में मिलाकर दादोंपर लगानेसे दाद आराम हो जाते हैं । (१५) मदार के हरे पत्ते २० तोले और हल्दी २१ माशे-दोनोंको पीसकर उड़द - समान गोलियाँ बना लो । इनमेंसे चार गोली, पहले दिन ताजा जलसे खाने और दूसरे दिनसे तक, बढ़ा-बढ़ाकर खानेसे जलन्धर रोग नाश हो जाता है । एक-एक गोली सात रोज नोट- पहले दिन चार, दूसरे दिन पाँच, तीसरे दिन छै - बस इसी तरह सातवें दिन दस गोली खानी चाहियें । For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा - चन्द्रोदय | (१६) मदारका १ पत्ता और कालीमिर्च नग २५ - दोनों को पीस-कर गोलमिर्च- समान गोलियाँ बना लो। इनमेंसे सात गोली रोज खानेसे दमा या श्वास रोग आराम हो जाता है । ( १७ ) आकके पत्ते, वन कपासके पत्ते और कलिहारी तीनोंको सिलपर पीसकर रस निचोड़ लो और जरा गरम करलो । इस रसके कान में डालने से कानका दर्द और कानके कीड़े नाश हो जाते हैं । (१८) आके सिरेपरकी नर्म कोंपल एक नग पहले तीन दिन पान में रखकर खाओ। फिर चौथे दिनसे चालीस दिन तक आधी कोंपल या पत्ता नित्य बढ़ाते जाओ। इस उपाय से कैसा ही श्वास रोग हो, नष्ट हो जायगा । (१६) आकके पीले-पीले पत्ते जो पेड़ोंसे आप ही गिर गये हों, चुन लाओ। फिर चूना १ तोले और सैंधानोन १ तोले- दोनों को मिलाकर जल के साथ पीस लो। फिर इस पिसी दवाको उन पत्तों पर दोनों ओर ल्हेस दो और पत्तोंको छाया में सूखने दो । जब पत्ते सूख जायँ, उन्हें एक हाँडीमें भर दो और उसका मुख बन्द कर दो । इसके बाद जंगली कण्डोंके बीच में हाँडीको रखकर आग लगा दो और तीन घण्टे तक बराबर आग लगने दो। इसके बाद हाँडीसे दवाको निकाल लो। इसमें से १ रत्ती राख, पान में धरकर, खानेसे दुस्साध्य दमा या श्वास भी आराम हो जाता है । (२०) दो रत्ती का खार पानमें रखकर या एक माशे शहद में मिलाकर खाने से दमा -- श्वास आराम हो जाता है । इस दवा से गले और छाती में भरा हुआ कफ भी दूर हो जाता है । नोट - अगर ग्राकका चार या खार बनाना हो, तो जंगलसे दश-बीस श्राकके. पेड़ जड़ समेत उखाड़ लाओ और सुखा लो। सूखनेपर उनमें आग लगाकर राख कर लो । फिर पहले लिखी तरकीबसे क्षार बना लो; यानी उस राखको एक बासनमें डालकर, ऊपरसे राखसे दूना जल भरकर घोल दो । ६ घण्टे बाद उसमेंसे पानी नितार लो और राखको फेंक दो। इस पानीको आागपर चढ़ाकर उस वक् For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा--"आक"। ६१ तक पकायो, जब तक कि पानीका नाम भी न रहे। कढ़ाहीमें जो सूखा हुआ पदार्थ लगा मिलेगा, उसे खुरच लो, वही खार या क्षार है । __(२१) मदारकी जड़ ३ तोले, अजवायन २ तोले और गुड़ ५ तोले--इन्हें पीसकर बेर-समान गोलियाँ बना लो । सवेरे ही, हर रोज, दो गोली खानेसे दमा आराम हो जाता है। (२२) आकके दूध और थूहरके दूधमें, महीन की हुई दारुहल्दीको फिर घोटो; जब चिकनी हो जाय, उसकी बत्ती बना लो और नासूरके घावमें भर दो । इस उपायसे नासूर बड़ी जल्दी आराम होता है। नोट - जब फोड़ा आराम हो जाता है, पर वहीं एक सूराखसे मवाद बहा करता है, तब उसे "नासूर" या "नाड़ी व्रण" कहते हैं। (२३) अगर जंगलमें साँप काट खाय, तो काटी जगहका खून फौरन थोड़ा-सा निकाल दो और फिर उस घावपर आकका दूध खूब .डालो । साथ ही आकके २०१२५ फूल भी खा लो। ईश्वर-कृपासे विष नहीं चढ़ेगा। परीक्षित है। (२४) अगर शरीरमें कहीं वायुके कोपसे सूजन और दर्द हो, तो आकके पत्ते गरम करके बाँधो । ( २५) अगर कहींसे शरीर सूना हो गया हो, तो आकके पत्ते घी या तेलसे चुपड़कर सेको और उस स्थानपर बाँध दो। (२६) आकके फूलके भीतरकी फुल्ली या जीरा बहुत थोड़ा-सा लेकर और नमक में मिलाकर खानेसे पेटका दर्द, अजीर्ण और खाँसी आराम हो जाते हैं। एक बारमें ३।४ फुल्लीसे जियादा न खानी चाहिये (२७) आकके पत्ते तेलमें चुपड़कर और गरम करके बाँधनेसे नारू या बाला आराम हो जाता है। (२८) पाकका दूध कुत्तेके काटे और बिच्छूके काटे स्थानपर लगानेसे अवश्य आराम होता है । ( २६ ) सन्निपात रोगमें आककी जड़को पीसकर, घीके साथ खानेसे सन्निपात नाश होता है । कहा है For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । ... सन्निपातेऽर्कमूलं स्यात्साज्यं वा लशुनौपणे ! द्वाविंशल्लंघनं कार्य चतुर्थांश तथोदकम् ।। - सन्निपातमें प्राककी जड़ पीसकर घीके साथ खावे या लहसन और सोंठ मिलाकर खावे, तथा बाईस लंघन करे और सेरका पाव भर रहा पानी पीवे । (३०) मदारकी जड़, कालीमिर्च और अकरकरा--सबको समानसमान लेकर खरलमें डाल, धतूरेकी जड़के रसके साथ घोटो और चने-समान गोलियाँ बनाकर छायामें सुखा लो । हैजेवालेको दिनमें चार-पाँच गोली तक देनेसे अवश्य लाभ होगा। परीक्षित है । 00000000000000०००.००० ४ ००००० * 0000000000 °000maaranbe.०१..8 डंडी मोटी और काट थूहर या सेंहुड़का वर्णन और उसके विषकी शान्तिके उपाय । **** *********** ....०० हर और सेंहुड़ दोनों एक ही जातिके वृक्ष हैं । सेंहुड़की डंडी मोटी और काँटेदार होती है और पत्ते नर्म-नर्म पथरचटेके जैसे होते हैं। दूध इसकी शाखा-शाखा o और पत्ते-पत्तेमें होता है । थूहरकी डण्डी पतली होती है और पत्ते भी छोटे-छोटे, हरी मिर्च के जैसे होते हैं। इसके सभी अङ्गोंमेंसे दूध निकलता है। इसकी बहुत जाति है--तिधारा, चौधारा, पचधारा, षटधारा, सप्तधारा, नागफनी, विलायती, आँगुलिया, खुरासानी और काँटेवाली-ले सब थूहर पहाड़ोंमें होते हैं। ___ थूहरका दूध उष्णवीर्य, चिकना, चरपरा और हलका होता है । इससे वायु-गोला, उदर-रोग, अफारा और विष नाश होते हैं । कोढ़ और उदर-रोग आदि दीर्घ रोगोंमें इसके दूधसे दस्त कराते हैं और लाभ भी होता है; पर थूहरका दूध बहुत ही तेज़ दस्तावर होता है। ज़रा भी जियादा For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"थूहर”। ६३. पीने या बेकायदे पीनेसे दस्तोंका नम्बर लग जाता है और वे बन्द नहीं होते । यहाँ तक कि खूनके दस्त हो-होकर मनुष्य मर जाता है। "चरक” के सूत्रस्थानमें लिखा है, सुख-पूर्वक दस्त करानेवालोंमें निशोथकी जड़, मृदु विरेचकोंमें अरण्ड और तीक्ष्ण दस्त करानेवालोंमें थूहर सर्वश्रेष्ठ है । वास्तवमें, थूहरका दूध बहुत ही तीक्ष्ण विरेचन या तेज़ दस्तावर है । आजकल इसके दूधसे दस्त नहीं कराये जाते । गुल्म, कोढ़, उदर रोग एवं पुराने रोगोंमें इसको देकर दस्त कराना हित है; पर आजकलके कमजोर रोगी इसको सह नहीं सकते । अतः इसको किसी अड़ियल और पुराने रोगके सिवा और रोगोंमें न देना ही अच्छा है। थूहरसे तिल्ली, प्रमेह, शूल, आम, कफ, सूजन, गोला, अष्ठीला, आध्मान, पाण्डुरोग, उदरव्रण, ज्वर, उन्माद, वायु, बिच्छूका विष, दूषी-विष, बवासीर और पथरी आराम हो जानेकी बात भी निघण्टोंमें लिखी है। . हिलते हुए दाँतमें अगर बड़ी पीड़ा हो, तो थूहरका दूध जरा ज़ियादा-सा लगा देनेसे वह गिर पड़ता है । इसके दूधका फाहा दूखती हुई दाढ़ या दाँतमें होशियारीसे लगानेसे दर्द मिट जाता है । दूखती जगहके सिवा, जड़में लग जानेसे यह दाँतको हिला या गिरा देता है । हिकमतवाले थूहरके दूधको जलोदर, पाण्डुरोग और कोढ़पर अच्छा लिखते हैं । वे कहते हैं, यह मसाने--वस्तिकी पथरीको तोड़ कर निकाल देता है । जिस अंगपर लगाया जाता है, उसीको आगकी तरह फूंक देता है । इसके डंठल और पत्तोंकी राख करके, उसमेंसे जरा-जरा-सी नमकके साथ खानेसे अजीर्ण, तिल्ली और पेटके रोग शान्त हो जाते हैं। पर लगातार कुछ दिन खानी चाहिये । थूहरके विकारोंकी शान्तिके उपाय । अगर थूहरका दूध जियादा या बेकायदे पीनेसे खूनके दस्त For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय। होते हों, तो मक्खन और मिश्री खिलाओ या कच्चा भैसका दूध मिश्री मिलाकर पिलाओ । हिकमतमें “दूध" ही इसका दर्प-नाशक लिखा है । शीतल जलमें मिश्री मिलाकर पीनेसे भी थूहरका विष शान्त हो जाता है। - 8 ० aapoo.००० OCCOCO 100000.ponr .०० ० . 00000 Poad.00000000000000०. "°00000000032000 कलिहारीका वर्णन और उसकी विष-शान्ति के उपाय । 1000000000000000000 .00000.......... ह लिहारीका वृक्ष पहले मोटी घासकी तरह होता है tram और फिर बेलकी तरह बढ़ता है। इसके पत्ते अदरखके जैसे होते हैं। इसका पेड़ बाढ़ या झाड़ीके सहारे OSDO लगता है। पुराना वृक्ष केलेके पेड़ जितना मोटा होता है । गर्मी में यह सूख जाता है । फूलोंकी पंखड़ियाँ लम्बी होती हैं । फूल गुड़हरके फूल-जैसे होते हैं । फूलोंका रंग लाल, पीला, गेरुआ और सफ़ेद होता है । फूल लगनेसे वृक्ष बड़ा सुन्दर दीखता है । इसकी जड़ या गाँठ बहुत तेज़ और जहरीली होती है। संस्कृतमें इसको गर्भघातिनी, गर्भनुत, कलिकारी आदि; हिन्दीमें कलिहारी; गुजरातीमें कलगारी; मरहठीमें खड्यानाग, बँगलामें ईशलांगला और लैटिनमें ग्लोरिओसा सुपरबा या एकोनाइटम नेपिलस कहते हैं। __ निघण्टुमें लिखा है, कलिहारीके क्षुप नागबेलके समान और बड़के आकारके होते हैं। इसके पत्ते अन्धाहूलीके-से होते हैं। इसके फूल लाल, पीले और सफेद मिले हुए रंगके बड़े सुन्दर होते हैं । इसके फल तीन रेखादार लालमिर्च के समान होते हैं । इसकी लाल छालके भीतर इलायचीके-से बीज होते हैं। इसके नीचे एक गाँठ होती है । उसे वत्सनाभ और तेलिया मीठा कहते हैं। इसकी जड़ दवाके काम For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविर्षोंकी विशेष चिकित्सा-"कलिहारी"। ६५ में आती है। मात्रा ६ रचीकी है । कलिहारी सारक, तीक्ष्ण तथा गर्भशल्य और व्रणको दूर करनेवाली है। इसके लेपमात्रसे ही शुष्कगर्भ और गर्भ गिर जाता है। इससे कृमि, वस्ति, शूल, विष, कोढ़, बवासीर, खुजली, व्रण, सूजन, शोप और शूल नष्ट हो जाते हैं । इसकी जड़का लेप करनेसे बवासीरके मस्से सूख जाते हैं, सूजन उतर जाती है, व्रण और पीड़ा आराम हो जाती है। कलिहारीसे हानि । अगर कलिहारी बेकायदे या जियादा खा ली जाती है, तो दस्त लग जाते हैं और पेटमें बड़े जोरकी ऐंठनी और मरोड़ी होती है। जल्दी उपाय न होनेसे मनुष्य बेहोश होकर और मल टूटकर मर जाता है; यानी इतने दस्त होते हैं, कि मनुष्यको होश नहीं रहता और अन्तमें मर जाता है। विष-शान्तिके उपाय । (१) अगर कलिहारीसे दस्त वगैरः लगते हों, तो बिना घी निकाले गायके माठेमें मिश्री मिलाकर पिलाओ। (२) कपड़े में दही रखकर और निचोड़कर, दहीका पानी-पानी निकाल दो। फिर जो गाढ़ा-गाढ़ा दही रहे, उसमें शहद और मिश्री मिलाकर खिलाओ । इन दोनों से किसी एक उपायसे कलिहारीके विकार नाश हो जायेंगे। औषधि-प्रयोग। (१) करिहारी या कलिहारीकी जड़को पानीमें पीसकर नारू या बाले पर लगानेसे नारू या बाला आराम हो जाता है। (२) कलिहारीकी जड़ पानीमें पीसकर बवासीरके मस्सोंपर लेप करनेसे मस्से सूख जाते हैं। ___(३) कलिहारीकी जड़के लेपसे व्रण, घाव, कंठमाला, अदीठफोड़ा और बद या बाघी,-ये रोग नाश हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६ . चिकित्सा-चन्द्रोदय । . (४) कलिहारीकी जड़ पानीमें पीसकर सूजन और गाँठ प्रभृतिपर लगानेसे फौरन आराम होता है। .. (५) कलिहारीकी जड़को पानीमें पीसकर अपने हाथपर लेप कर लो। जिस स्त्रीको बच्चा होने में तकलीफ होती हो, उसके हाथको अपने हाथसे छुलाओ--फौरन बच्चा हो जायगा । अथवा कलिहारीकी जड़को डोरेमें बाँधकर बच्चा जननेवालीके हाथ या पैरमें बाँध दो । बच्चा होते ही फौरन उसे खोल लो। इससे बच्चा जननेमें बड़ी आसानी होती है। इसका नाम ही गर्भघातिनी है। गृहस्थोंके घरों में ऐसे मौकेपर इसका होना बड़ा लाभदायक है। (६) कलिहारीके पत्तोंको पीस-छानकर छाछके साथ खिलानेसे पीलिया आराम हो जाता है । (७) अगर मासिक-धर्म रुक रहा हो, तो कलिहारीकी जड़ या औगेकी जड़ अथवा कड़वे वृन्दावनकी जड़ योनिमें रखो। (८) अगर योनिमें शूल हो, तो कलिहारी या ओंगेकी जड़को योनिमें रखो। (६) अगर कानमें कीड़े हों, तो कलिहारीकी गाँठका रस कानमें डालो। ... (१०) अगर साँपने काटा हो, तो कलिहारीकी जड़को पानीमें पीसकर नास लो। (११) अगर गाय बैल आदिको बन्धा हो- दस्त न होता हो, तो उन्हें कलिहारीके पत्ते कूटकर और आटेमें मिलाकर या दाने-सानीमें मिलाकर खिला दो; पेट छूट जायगा। (१२) अगर गायका अंग बाहर निकल आया हो, तो कलिहारीकी जड़का रस दोनों हाथों में लगाकर, दोनों हाथ उसके अंगके सामने ले जाओ। अगर इस तरह अंग भीतर न जाय, तो दोनों हाथ उस अंगपर लगा दो और फिर उन हाथोंको गायके मुँहके सामने करके दिखा दो। फिर वह अंग भीतर ही रहेगा- बाहर न निकलेगा। For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६० विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"कनेर"। 628-388% E3 ** ce कनेरका वर्णन और उसकी विष-शान्तिके उपाय । Swima नेरका पेड़ भारतमें मशहूर है । प्रायःसभी बगीचों और पहाड़ों पर कनेरके वृक्ष होते हैं। इसकी चार क़िस्म हैं (१) सफेद, (२) लाल, (३) गुलाबी, (४) पीली । दवाओंके काममें सफ़ेद कनेर ज़ियादा आती है। इसकी जड़में विष होता है । इस वृक्षके पत्ते लम्बे-लम्बे होते हैं । फूलोंमें गन्ध नहीं होती । जिस पेड़में सफेद फूल लगते हैं, वह सफेद और जिसमें लाल फूल लगते हैं, वह लाल कनेर कहाती है। इसी तरह गुलाबी और पीलीको समझ लो। ___ सफ़ेद कनेरसे प्रमेह, कृमि, कोढ़, व्रण, बवासीर, सूजन और रक्त-विकार आदि रोग नाश होते हैं। यह खानेमें विष है और आँखोंके रोगोंके लिये हितकर है। इससे उपदंशके घाव, विष, विस्फोट, खुजली, कफ और ज्वर भी नाश हो जाते हैं। सफेद कनेर तीखी, कड़वी, कसैली, तेजस्वी, ग्राहक और उष्णवीर्य होती है। कहते हैं, यह घोड़ेके प्राणोंको नाश कर देती है। ___ लाल कनेर शोधक, तीखी और खाने में कड़वी है। इसके लेपसे कोढ़ नाश हो जाता है। पीलापन लिये सुर्ख कनेर सिरका दर्द, कफ और वायुको नाश करती है। कनेरके विषसे हानि ।। कनेरके खानेसे गले और आमाशयमें जलन होती है, मुंह लाल हो जाता है, पेशाब बन्द हो जाता है, जीभ सूज जाती है, पेटमें गुड़ For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६८ चिकित्सा - चन्द्रोदय | गुड़ाहट होती है, अफारा आ जाता है, साँस रुक-रुककर आता और बेहोशी हो जाती हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कनेरकी शोधन - विधि | कनेरकी जड़के टुकड़े करके, गायके दूधमें, दोलायन्त्रकी विधि से पकाने से शुद्ध हो जाती है । कनेरके विषकी शान्ति के उपाय | ( १ ) लिख आये हैं, कि कनेर - खासकर सफ़ेद कनेर विष है । इसके पास साँप नहीं आता। अगर कोई इसे खा ले और विष चढ़ जाय, तो भैंस के दही में मिश्री पीसकर मिला दो और उसे खिलाओ, जहर उतर जायगा । ( २ ) " तिब्बे अकबरी " में लिखा है: - १ - वमन कराओ । इसके बाद ताजा दूधसे कुल्ले कराओ और कच्चा दूध पिलाओ। २- जौ के दलिया में गुल-रोगन मिलाकर पिलाओ। ३ -- जुन्देवेदस्तर सिरके और शहद में मिलाकर दो, पर प्रकृतिका ख़याल करके | ४ -- दूध और मक्खन खिलाओ। यह हर हालत में मुफीद है। ५ - शीतल जल सिरपर डालो । ६ -- शीतल जलके टब या हौज़में रोगीको बिठाओ । नोट -- इसकी जड़ खानेका हाल मालूम होते ही क्रय करा देना सबसे अच्छा उपाय है। इसके बाद कच्चा दूध पिलाना, शीतल जल सिरपर डालना और शीतल जजमें बिठाना - ये उपाय करने चाहियें। क्योंकि सफ़ ेद कनेर बहुत गरमी करती है। खाते ही शरीर में बेतहाशा गरमी बढ़ती और गला सूखने लगता है । अगर जल्दी ही उपाय नहीं किया जाता, तो आदमी बेहोश होकर मर जाता है । यह बड़ा तेज़ ज़हर है । For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा--"कनेर”। ६६ औषधि प्रयोग । (१) सफेद कनेरकी जड़, जायफल, अफीम, इलायची और सेमरका छिलका,-इन सबको छ-छै माशे लेकर, पीस-कूटकर छान लो। फिर एक तोले तिलीके तेलमें गरम करके, सुपारी छोड़, बाक़ी इन्द्रियपर तीन दिन तक लेप करो। इस दवासे लिङ्गमें बड़ी ताक़त आ जाती है। (२) सफेद कनेरकी जड़को पानीके साथ घिसकर साँप-बिच्छू आदिके काटे हुए स्थानपर लगानेसे अवश्य आराम होता है। परीक्षित है। (३) आतशक या उपदंशके घावोंपर सफ़ेद कनेरकी जड़ घिसकर लगानेसे असाध्य पीड़ा भी शान्त हो जाती है। परीक्षित है। (४) रविवारके दिन सफ़ेद कनेरकी जड़ कानपर बाँधनेसे सब तरहके शीतज्वर भाग जाते हैं। शास्त्रमें तो सब ज्वरोंका चला जाना लिखा है, पर हमने जूड़ी ज्वरोंपर परीक्षा की है। (५) सफेद कनेरकी जड़को घिसकर मस्सोंपर लगानेसे बवासीर जाती रहती है। (६) लाल कनेरके फूल और चाँवल बराबर-बराबर लेकर, रातको, शीतल जलमें भिगो दो। बर्तनका मुँह खुला रहने दो। सवेरे फूल और चाँवल निकालकर पीस लो और विसर्पपर लगा दो; अवश्य लाभ होगा। परीक्षित है। (७) दरदरे पत्थरपर, सफेद कनेरकी जड़ सूखी ही पीसकर, जहाँ सिरमें दर्द हो लगाओ; अवश्य लाभ होगा। (८) सफेद कनेरके सूखे हुए फूल ६ माशे, कड़वी तम्बाकू ६ माशे और इलायची १ माशे-तीनोंको पीसकर छान लो। इसको सैं घनेसे साँपका जहर नाश हो जाता है। __(8) सफ़ेद कनेरकी जड़का छिलका, सफेद चिरमिटीकी दाल और काले धतूरेके पत्ते,--इन सबको समान-समान अट्ठाईस For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । अट्ठाईस माशे लेकर, पीस-कूटकर टिकिया बना लो। इस टिकियाको पाव-भर जलमें डालकर खूब घोटो । इसके बाद आगपर रखकर पकाओ। जब मसाला जल जाय, तेलको उतार लो और छानकररख लो। इस तेलके लगानेसे अर्द्धाङ्ग वायु और पक्षाघात रोग निश्चय ही नाश हो जाते हैं। (१०) सफ़ेद कनेरकी जड़को पीसकर, लेप करनेसे दर्द-. खासकर पीठका दर्द और रींगन वायु तत्काल शान्त हो जाते हैं। (११) कनेरके पत्ते लेकर सुखाओ और पीस-छान लो। अगर सिरमें कफ रुका हो या कफका शिरो-रोग हो, तो इसे नस्यकी तरह नाकमें चढ़ाओ; फौरन आराम होगा। - ..... °00000mbaba.००%bodh .००० तूरेका वर्णन और उसके विषकी शान्तिके उपाय । . . ....००० XXXX तूरे के वृक्ष वनोंमें, बागों में और जंगलोंमें बहुत होते हैं । धू धतूरे के फूलोंके भेदसे धतूरा कई प्रकारका माना गया है । KXXI काला, नीला, लाल और पीला, इस तरह धतूरा चार तरहका होता है। काले और सुनहरी फूलोंका धतूरा पुष्प-वाटिकाओं में होता है। इसके पत्ते पानके या बड़के पत्तेके आकारके जरा किंगरेदार होते हैं । फूलोंका आकार मारवाड़ियोंकी सुलफी चिलम-जैसा अथवा घण्टेके आकारका होता है। फूलोंके बीचमें और ऊपर सफ़ेद रंग होता है तथा बीचमें नीला, काला और पीला रंग भी होता है। फल छोटे नीबूके समान और काँटेदार होते हैं । इन गोल-गोल फलोंके भीतर बीज बहुत होते हैं। जिस धतूरेका रंग अत्यन्त काला होता है और जिसकी डंडी, पत्ते, फूल, फल और सर्वाङ्ग काला होता है, उस धतूरेमें विष अधिक होता है । फल सूखकर फूटकी तरह खिल जाते हैं। उनके For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विरोष चिकित्सा--"धतूरा"। ७१ बीजोंको वैद्य दवाके काममें लाते हैं। दवाके काममें 'धतूरेके पत्ते, फल और बीज आते हैं। इसकी मात्रा १ रत्तीकी है। जिस धतूरेके वृक्ष में कलाई लिये फूल होता है, उसे काला धतूरा कहते हैं और जिसके फूनमें से दो-तीन फूल निकलते हैं, उसे “राज धतूरा" या बड़ा धतूरा कहते हैं । * इसके सभी अङ्गों - फूल, पत्ते, जड़ और बीज वगैर:--में कुछ-नकुछ विष होता ही है। विशेष करके जड़ और बीजोंमें ज़ियादा जहर होता है । धतूरा मादक या नशा लानेवाला होता है। इसके सेवनसे कोंढ़, दुष्टत्रण, कामला, बवासीर, विष, कफ-ज्वर, जूं आ, लीख, पामाखुजली चमड़ेके रोग, कृमि और ज्वर नाश हो जाते हैं । यह शरीरके रङ्गको उत्तम या लाल करनेवाला, वातकारक, गरम, भारी, कसैला, मधुर और कड़वा तथा मूर्छाकारक है । .. धतूरके बीज अत्यन्त मदकारक-- नशीले होते हैं। चार-पाँच बीजोंसे ही मूर्छा हो जाती है। जियादा खाने या बेकायदे खानेसे ये खुश्की लाते हैं, सिर घूमता है, चक्कर आते हैं, कय होती हैं, गलेमें जलन होती और प्यास बढ़ जाती है। बहुत ज़ियादा बीज खानेसे उपरोक्त विकारोंके सिवा नेत्रों की पुतलियाँ चौड़ी होकर बेहोशी होती और आदमी मर जाता है। ठग लोग रेल के मूर्ख मुसाफिरोंको इन्हें खिलाकर बेहोश कर देते और उनका माल-मता ले चम्पत होते हैं। . __नोट--इसकी शान्तिके उपाय हम आगे लिखेंगे। धतूरा खाया है, यह मालूम होते ही सिरपर शीतल जल गिरवालो कय करात्री और बिनौलोंकी गरी दूधके साथ खिलानो । अगर बेहोशी हो, तो नस्य देकर होशमें लायो । कपासका जड़, पत्त, बीज (बिनौले ) आदि इसकी सर्वोत्तम दवा हैं। . . ___ हिकमत के ग्रन्थों में लिखा है:--धतूरेका झाड़ बैंगनके भाइ-जैसा होता है । यह अत्यन्त मादक, चिन्ताजनक और उन्माद-कर्ता है । शहद, कालीमिर्च और सोंफ़--इसके दर्प-नाशक हैं । इसके खानेसे अवयवों और मस्तिष्कमें अत्यन्त शिथिलता होती है । यह अत्यन्त निद्राप्रद, For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ चिकित्सा-चन्द्रोदय | शिरः पीड़ाको शान्त करनेवाला, सूजनके भीतरी मलको पकानेवाला, चिकनाईको सोखनेवाला और स्तम्भन करनेवाला है। इसके पत्तोंका लेप अवयवों को गुणकारी है। " तिब्बे अकबरी" में लिखा है, धतूरा खानेसे घुमरी, आँखों के सामने अँधेरा और नेत्रों में सुर्खी होती है। जब यह जियादा खाया जाता है, तब मनुष्य बुद्धिहीन हो जाता है । साढ़े चार माशे धतूरा खानेसे मृत्यु हो जाती है । “वैद्यकल्पतरु' में एक सज्जन लिखते हैं-धतूरेको अँगरेजी में स्ट्रोमोनियम कहते हैं। इसके बीज अधिक जहरीले होते हैं। कभी-कभी इसके ज़हर से मृत्यु भी हो जाती है। दो-चार बीजोंसे ज़हर नहीं चढ़ता । हाँ, अधिक बीज खानेसे ज़हर चढ़ता है । मुख्य लक्षण ये हैं: - सिर घूमना, गले में सूजन, आँखोंकी पुतलियोंका फैल जाना, आँखोंसे कुछ न दीखना, आँखों और चेहरेका लाल हो जाना, रोगीका बड़बड़ाना, हाथोंको इस तरह चलाना जैसे हवा में से कोई चीज़ पकड़ता हो । अन्तमें, बेहोश हो जाना और नाड़ीका जल्दी-जल्दी चलना । जब बहुत ही ज़हर चढ़ जाता है, तब शरीर शीतल होकर मृत्यु हो जाती है । हाथोंका चलाना धतूरेके विषका मुख्य लक्षण है । उपाय- -वमन और रेचन देकर क्रय और दस्त कराओ । आध आध घण्टे में रोगीको काफी पिलाओ और उसे सोने मत दो । तेल मिलाकर गरम पानी पिलाओ। धतूरा शोधन विधि | धतूरेको गाय के मूत्र में, दो घण्टे तक भिगो रखो; धतूरा शुद्ध हो जायगा । श्रौषधि-प्रयोग | चूँकि धतूरा बड़े काम की चीज़ है; अतः हम इसके चन्द प्रयोग लिखते हैं:-- For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा--"धतूरा"। ७३: (१) धतूरेके बीजोंका तेल निकालकर, उसमेंसे एक सींकभर तेल पानमें लगाकर खानेसे स्त्री-प्रसङ्गमें रुकावट होती है। (२) धतूरेकी जड़, गायके माठेमें पीसकर, लगानेसे विद्रधि नाश हो जाती है। _ (३) धतूरेके पत्तेपर तेल चुपड़कर बाँधनेसे स्नायु-रोग नष्ट होता है। __ (४) धतूरेके शोधे हुए बीज १ मिट्टीके कुल्हड़ेमें भरकर, मुंह बन्द करके, ऊपरसे कपड़-मिट्टी करके सुखा लो। फिर आगमें रखकर फूंक दो । पीछे शीतल होनेपर राखको निकाल लो। इस राखके खानेसे जूड़ी-ज्वर और कफ नाश हो जाता है। __ (५) धतूरेकी जड़ जो उत्तर दिशाको गई हो, ले आओ। फिर उसे सुखाकर कूट-पीस और छान लो। इस चूर्णको ४ माशे गुड़ और छै तोले घी मिलाकर खानेसे उन्माद रोग नाश हो जाता है। बलाबलअनुसार, मात्रा लेनेसे निश्चय ही सब तरहका उन्माद रोग आराम हो जाता है। .. (६) धतूरेके शोधे हुए बीज एकसे शुरू करके, रोज एक-एक बढ़ाओ और इक्कीसवें दिन इक्कीस बीज खाओ। पीछे, पहले दिन बीस, फिर उन्नीस, अठारह, सत्रह, इस तरह घटा-घटाकर एकपर आ जाओ। इस तरह इनके सेवन करनेसे कुत्ते का विष शान्त हो जाता है। ___ (७) धतूरेके शुद्ध किये हुए बीज पहले दिन दो खाओ, दूसरे दिन तीन, तीसरे दिन चार, चौथे दिन पाँच पाँचवें दिन छै, छठे दिन सात, सातवें दिन आठ, आठवें दिन नौ, नवें दिन दस और दसवें दिन ग्यारह खाओ। इस तरह करनेसे एक सालका पुराना फीलपाँव या श्लीपद रोग आराम हो जाता है। (८) धतूरेके पाँच पत्तोंपर एक तोले कड़वा तेल लगा दो और पत्तोंको गरम करके फोड़ेपर बाँध दो। ऐसा करनेसे कोडेका दर्द मिट जायगा। For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । (६) काले धतूरके पत्ते चार तोले, सफ़ेद चिरमिटी चार तोले और सफेद कनेरकी जड़की छाल चार तोले-इन तीनोंको महीन पीसकर, सरसोंके पाव-भर तेल में मिलाकर, तेलको मन्दी-मन्दी आगपर औटाओ। जब ये दवाएँ जल जायँ, इन्हें उसी तेलमें घोटकर मिला दो । इस तेलके रोज जोड़ोंपर मलनेसे, पक्षाघात रोग नाश होकर, कामदेव खूब चैतन्य होता है । (१०) शुद्ध काले धतूरेके बीज २ रत्ती और शुद्ध कुचला २ रत्ती-- इनको पानमें रखकर खानेसे अपतंत्रक रोग नाश हो जाता है। (११) काले धतूरके फल, फूल, पत्ते और जड़-सबको कुचलकर, चिलममें रखकर, तमाखूकी तरह पीनेसे हिचकी और श्वास आराम हो जाते हैं। (१२) काले धतूरेका फल और कुड़ेकी छाल बराबर-बराबर लेकर, काँजी या सिरकेमें पीसकर, नाभिके चारों ओर लगानेसे घोर शूल आराम हो जाता है। (१३) काला धतूरा, अरण्डकी जड़, सम्हालू , पुनर्नवा,सहँजनेकी छाल और राई--इनको बराबर-बरावर लेकर, पानीमें पीसकर गरम करो और हाथी-पाँव या श्लीपदपर लेप करो; अवश्य आराम होगा। (१४) धतूरके पत्ते, भाँगरा, हल्दी और सेंधानोन-बराबर-बराबर लेकर पानीमें पीस लो और गरम करके फोड़ेपर लगा दो; फोड़ा फौरन फूट जायगा। (१५) धतूरे के पत्ते ६ माशे, खानेके पान ६ माशे और गुड़ १ तोले,--इन तीनोंको महीन पीसकर पाव-भर जलमें छान लो और पी जाओ । इस शर्बतसे तिजारी और चौथैया ज्वर नष्ट हो जाते हैं। (१६ ) शनिवारकी शामको, जंगलमें जाकर काले धतूरेको न्योत आओ । न्योतनेसे पहले घी, गुड़, पानी और भागसे उसकी 'पूजा करो और कहो--“हे महाराज! कल आकर हम आपको For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी चिकित्सा--"धतूरा"। ७५ ले जायँगे । आप दुश्मनसे हमारा पीछा छुड़ाइयेगा ।" यह कहकर पीछेकी ओर मत देखो और चले आओ। रविवारके सबेरे ही जाकर, उसी धतूरेकी एक छोटी-सी डाली तोड़ लाओ और उसे अपनी बाँहपर बाँध लो । परमात्माकी कृपासे फिर चौथैया न आवेगा। धतूरेकी विष-शान्ति के उपाय । आरम्भिक उपाय (क) धतूरा खाते ही, बिना देर किये, वमन कराकर आमारायसे विषको निकाल दो। (ख) अगर विष पक्वाशयमें पहुँच गया हो, तो जुलाब दो । (ग) शिरपर शीतल पानीकी धारा छोड़ो। (घ) बिनोलोंकी गिरी खिलाकर दूध पिलाओ। (ङ) अगर दिमागी फितूर हो--बेहोशी आदि लक्षण हों, तो नस्य भी दो। (१) तुषोदकमें चाँवलोंकी जड़ पीसकर और मिश्री मिलाकर पिलानेसे धतूरेका विष नाश हो जाता है । परीक्षित है। (२) शं वाहूलीकी जड़ पानीमें पीसकर पिलानेसे धतूरेका ज़हर शान्त हो जाता है । परीक्षित है। (३) बिनौले और कपासके फूलोंका काढ़ा पीनेसे धतूरेका जहर उतर जाता है । परीक्षित है। (४) बैंगनके टुकड़े करके पानीमें खूब मल लो और पीओ । इससे धतूरेका विष नष्ट हो जायगा। ___नोट-अगर बैंगन न मिले तो बैंगनके पत्तों और जड़से भी काम चल सकता है। वे भी इसी तरह पीस-छानकर पिये जाते हैं। (५) चालीस माशे बिनौलोंकी गिरी पानीमें पीसकर पीनेसे धतूरेका जहर उतर जाता है । - नोट--किसी-किसीने छै माशे बिनौलोंकी गिरी खिलाना लिखा है। For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । (६) नमक पानीमें घोलकर पीनेसे धतूरेका जहर उतर जाता है। .. (७) कपासके रसको पीनेसे धतूरेका मद दूर हो जाता है । ____ नोट-धतूरेके बीजोंका विष-कपासके बीज पीसका पीनेसे; धतूरेकी डालीका विष-कपासकी डाली पीसकर पीनेसे; और धतूरेके पत्तोंका विष कपासके पत्ते पीसकर पीनेसे निश्चय ही उतर जाता है । (८) पेठेके रसमें गुड़ मिलाकर खानेसे पिंडालूका मद नाश हो जाता है। (६) बहुतसा गायका घी पिलानेसे धतूरे और रसकपूरका विष उतर जाता है। परीक्षित है। (१०) बैंगनके बीजोंका रस पीनेसे धतूरेके विषकी शान्ति होती है। (११) दूध-मिश्री मिलाकर पीनेसे धतूरेका ज़हर उतर जाता है । .00.. .... ........ ०००ce .. 00.00 ० ०० ० ...saas.9..'o.. ......... 00 0000०००००००००००० 00000000002068 •703 .....१००००००.00000....०००००००००००००००००००००००००० 00000000000 00.. ac.00a ०००'.-000nnaanaas.०० acnaa Unusoo. 0 6000 . ० चिरमिटीका वर्णन और उसकी विष-शान्तिके उपाय । 2000.......००.०० REASE , रमिटी दो तरहकी होती है-(१) लाल, और (२) च । सफ़ेद । निघण्टुमें लिखा है, दोनों तरहकी चिरमिटी केशोंhis as को हितकारी, वीर्यवर्द्धक, बलदायक तथा वात, पित्त, ज्वर, मुंह सूखना, भ्रम, श्वास, प्यास, मद, नेत्ररोग, खुजली, व्रण, कृमि, गंजरोग और कोढ़ नाशक होती हैं। और एक ग्रन्थमें लिखा है, दोनों तरहकी चिरमिटी स्वादिष्ट, कड़वी, बलकारी, गरम, कसैली, चमड़ेको उत्तम करनेवाली, बालोंको For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषकी विशेष चिकित्सा--"चिरमिटी"। ७७ हितकारी तथा विष, राक्षस ग्रह-पीड़ा, खाज, खुजली, कोढ़, मुंहके रोग, वात, भ्रम और श्वास आदि नाशक हैं । बीज वान्तिकारक और शूलनाशक होते हैं । सफ़ेद चिरमिटी विशेषकर वशीकरण है। ___ सफ़ेद चिरमिटीका अर्क बालोंको पैदा करनेवाला तथा वात, पित्त और कफ नाशक है । लाल चिरमिटीका अर्क मुख-शोष, श्वास, श्रम और ज्वर नाश करता है। . हिन्दीमें घुघुची, चिरमिटी, चोंटली और रत्ती कहते हैं। बँगलामें कुच और सादा कुञ्च, संस्कृतमें गुञ्जा और गुजराती में चणोटी कहते हैं । इसके पत्ते, बीज और जड़ दवाके काम आते हैं। मात्रा १ से ३ रत्ती तक। चिरमिटोके जहरकी शान्तिका उपाय । चौलाई के रसमें मिश्री मिलाकर पीने और अरसे दूध पीनेसे चिरमिटीका विष नाश हो जाता है । चिरमिटी-शोधन-विधि । चिरमिटीको काँजीमें डालकर तीन घण्टे तक पकाओ, वह शुद्ध हो जायगी। औषधि-प्रयोग। (१) दो रत्ती कच्ची लाल चिरमिटी गायके आध पाव दूधके साथ पीनेसे उन्माद रोग चला जाता है। (२) सफ़ेद चिरमिटीकी जड़ या फलोंको पानीके साथ पीसकर लुगदी बना लो; जितनी लुगदी हो उससे चौगुना सरसोंका तेल और तेलसे चौगुना पानी लो । इनको मिलाकर मन्दाग्निसे पका लो । जब तेल-मात्र रह जाय, उतार लो। इसका नाम “गुञ्ज तैल" है। इसकी मालिशसे गण्डमाला आराम हो जाती है। (३) सफ़ेद चिरमिटी, उटंगनके बीज, कौंचके बीज. और गोखरू--इन्हें बराबर-बराबर लेकर पीस-छान लो और फिर बराबरकी For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । मिश्री पीसकर मिला दो। इस चूर्णको रोज़ खाकर ऊपरसे दूध पीनेसे बूढ़ा आदमी भी जवान स्त्रियोंके घमण्डको नाश कर सकता है। अगर जवान खाय, तो कहना ही क्या ? __ सफ़ेद चिरमिटी, लौंग और खिरनीके बीज, इनका पाताल-यन्त्रकी विधिसे तेल निकालकर, एक सींक-भर पानमें लगाकर, खाने और ऊपरसे छटाँक-भर गायका घी खानेसे कुछ दिनों में खूब काम-शक्ति बढ़ती और स्तम्भन होता है। * भिलावेका वर्णन और उसके विकारों। की शान्तिके उपाय । ****************** XXXN लावेका वृक्ष बहुत बड़ा होता है। इसके पत्ते बड़के जैसे भि और फूल लाल रंगके बड़े-बड़े होते हैं। इसके फल लम्बाई sxxx लिये गोल-गोल करौंदे या दाखके जैसे होते हैं। दाख नर्म होता है, पर भिलावेका फल कड़ा और टोपीदार होता है। फल पहले काले नहीं होते, पर सूखकर काले हो जाते हैं। परन्तु उनका रस नहीं सूखता-फलोंके ऊपरसे सूख जानेपर भी, भीतर रस बना ही रहता है । छिलकोंके नीचे तेल-जैसा पतला पदार्थ होता है, वही मुख्य गुणकारी चीज़ है। उसीका युक्ति-पूर्वक साधन करना, रसायन सेवन करना है। भिलावेके भीतर गुठली होती है। गुठलीके भीतर जो गिरी होती है, वह अत्यन्त बलकारक, बाजीकरण, वात-पित्त नाशक और कफवर्द्धक होती है। . भिलावेका फल या तेल आगपर डालनेसे या भिलावे पकानेसे जो धूआँ होता है, वह अगर शरीरमें लग जाता है, तो सूजन और घाव कर देता है। ., भिलावेके भीतरका तरल पदार्थ अगर शरीरकी चमड़ी और For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"भिलावे"। ७६. मुंहमें लग जाता है, तो तत्काल फफोले और ज़ख्म हो जाते हैं तथा उपाड़ होता और सूजन आ जाती है। निघण्टु में लिखा है, तिल और नारियलकी गिरी इसके दर्पको नाश करते हैं। हिकमतके निघण्टुमें ताजा नारियल, सफेद तिल और जौ इसके दर्प-नाशक लिखे हैं। वैद्यक-ग्रन्थों में इसके फलकी मात्रा चार रत्तीसे साढ़े तीन माशे तक लिखी है; पर हिकमतमें सवा माशे लिखी है । “तिब्बे अकबरी' में लिखा है, नौ माशे भिलावा खानेसे मृत्यु होती है और बच जानेपर भी चिन्ता बनी ही रहती है । - वैद्यकमें मिलावा विष नहीं माना गया है, पर हिकमतमें तो साफ विष माना गया है। अगर यह बेकायदे सेवन किया जाता है, तो निस्सन्देह विषके-से काम करता है। इसके तेलको सन्धिवात और नस हट जानेपर लगाते हैं । अगर इसमें दूसरी दवा मिलाकर इसकी ताकत कम न की जाय, तो इससे चमड़ीके ऊपर छाले पड़कर फफोले हो जायें। ___ संस्कृतमें भल्लातक, फारसीमें बलादर, अरबीमें हब्बुलकम, बँगलामें भेला, मरहठी में भिलावा और बिबवा तथा गुजरातीमें मिलामाँ कहते हैं। भिलावेका पका फल पाक और रसमें मधुर, हलका, कसैला, पाचक, स्निग्ध, तीक्ष्ण, गरम, मलको छेदने और फोड़नेवाला, मेधाको हितकारी, अग्निकारक तथा कफ, वात, व्रण, पेटके रोग, कोढ़ बवासीर, संग्रहणी, गुल्म, सूजन, अफारा, ज्वर और कृमियोंको नष्ट करता है। भिलावेकी मींगी मधुर, वीर्यवर्द्धक, पुष्टिकारक तथा वात और पित्तको नष्ट करनेवाली है। हिकमतमें लिखा है, भिलावा गरमी पैदा करता, वायुको नाश करता, दोषोंको स्वच्छ करता, चमड़ेमें घाव करता, शीतके रोगपक्षवध, अर्दित-मुंह टेढ़ा हो जाना और कम्प तथा मूत्रकृच्छ्रमें लाभदायक है । इसके सेवनसे मस्से नाश हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय | भिलावे शोधनेको तरकीबें । भिलावेको भी शोधकर सेवन करना चाहिये । भिलावों को जल में डाल दो। जो भिलावे डूब जायें, उन्हें निकालकर उतने ही पानी में भिगो दो। फिर उनको ई टके चूर्ण या कूकुआ से खूब घिसो और उनके नीचेकी ढिपुनी काट-काटकर फेंक दो। इसके बाद उन्हें फिर जलमें धो डालो और सुखाकर काम में लाओ । यही शुद्ध भिलावे हैं । भिलावों को एक दिन-भर पानी में पकाओ। फिर उन्हें निकालकर उनके टुकड़े कर डालो और दूधमें डालकर पकाओ। इसके बाद उन्हें खरलमें डालकर ऊपर से तोले- तोलेभर सोंठ और अजवायन मिला दो और खूब कूटो | ये भिलावे भी शुद्ध होंगे। इनको भी दवा के काम में ले सकते हैं। जिसे भिलावे पकाने हों, उसे अपने सारे शरीरको काली तिलीके तेलसे तर कर लेना चाहिये और भिलावोंसे पैदा हुए धूएँ से बचना चाहिये | भिलावे सेवन में सावधानी । भिलावा खानेवाले अपने हाथों और मुखको घीसे चुपड़कर ● भिलावा खाते हैं। कितने ही पहले तिल या नारियलकी गिरी चबाकर पीछे इन्हें खाते हैं। भिलावा अनेक रोग नाश करता है, बशर्ते कि विधिसे सेवन किया जाय । इसके युक्ति-पूर्वक खानेसे कोढ़ निश्चय ही नष्ट हो जाता है और हिलते हुए दाँत पत्थर की तरह जम जाते हैं । पर अगर यही बेकायदे या मात्रा से ज़ियादा खाया जाता है, तो अत्यन्त गरमी करता है; मुँह, सालू और दाँतोंकी जड़में सूजन पैदा कर देता और दाँतों को हिलाकर गिरा देता तथा खूनमें खराबी कर देता है। इसलिये इस अमृत समान फलको शास्त्र-विधिसे सेवन करना चाहिये For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"भिलावे"। ८१ "तिब्बे अकबरी में लिखा है, भिलावे खानेसे मुख और गलेमें फफोले हो जाते हैं, तेज़ रोग, चिन्ता, भड़कन और अङ्गोंमें तकलीफ होती है । भिलावा किसीको हानि नहीं करता और किसीको हानि करता है। उसके शहद (वही तेल-जैसा तरल पदार्थ) या धूएँ के लगनेसे शरीर सूज जाता है, अत्यन्त खाज चलती है और घाव हो जाते हैं । उन घावोंसे कितने ही आदमी मर भी जाते हैं। औषधि-प्रयोग। शास्त्रमें भिलावेके सैकड़ों प्रयोग लिखे हैं, बतौर-नमूनेके दो-चार हम भी नीचे लिखते हैं,-- (१) भिलावोंसे एक पाक बनता है, उसे “अमृतभल्लातक पाक" कहते हैं। उसके सेवन करनेसे बहुधा रोग चला जाता और हिलते हुए दाँत जमकर बल-वृद्धि होती है । यह पाक कोढ़पर रामवाण है। बनानेकी विधि "चिकित्सा-चन्द्रोदय" चौथे भागके पृष्ठ ३१२ में देखिये। (२) छोटे-छोटे शुद्ध भिलावोंको गुड़में लपेटकर निगल जानेसे कफ और वायु नष्ट हो जाते हैं। (३) शुद्ध भिलावोंको गुड़के साथ कूटकर गोलियाँ बना लो । पीछे हाथ और मुंहको घीसे चुपड़कर खाओ। इस तरह खानेसे शरीरकी पीड़ा, अकड़न या शरीर रह जाना, सर्दी, बवासीर, कोढ़ और नारू या बाला--ये सब रोग जाते रहते हैं। नोट-अपने बलाबल-अनुसार एकसे सात भिलावे तक खाये जा सकते हैं। (४) तीन माशे भिलावेकी गरी, छै माशे शक्करके साथ, खानेसे पन्द्रह दिनमें पक्षाघात-अज्ङ्ग और मृगी रोग नाश हो जाते हैं। (५) शुद्ध भिलावे, असगन्ध, चीता, बायबिडंग, जमालगोटेकी जड़, अमलताशका गूदा और निबौली--इन्हें कॉजीमें पीसकर लेप करनेसे कोढ़ जाता रहता है। ११ For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । भिलावेका विष नाश करनेवाले उपाय । ' (१) कसौंदीके पत्ते पीसकर लगानेसे भिलावोंका विकार शान्त हो जाता है । परीक्षित है। (२) इमलीकी पत्तियोंका रस पीनेसे भिलावोंसे हुई खुजली और सूजन नाश हो जाती है। __(३) इमलीके बीज पीसकर खानेसे भिलावेके विकार--खुजली और सूजन आदि नाश हो जाते हैं। (४) चिरौंजी और तिल--भैंसके दूधमें पीसकर खानेसे भिलावेकी खुजली और सूजन नाश हो जाती है । (५) अगर भिलावा खानेसे विकार हुआ हो, तो अखरोट खाने चाहिये। (६) अगर भिलावोंकी धूआँ लगनेसे सूजन चढ़ आई हो, तो आमाहल्दी, साँठी चाँवल और दूबको बासी पानीमें पीसकर सूजनपर जोरसे मलो। (७) काले तिल पीसकर सिरके और मक्खनमें मिला लो। इनके लगानेसे भिलावोंके धुएं से हुई सूजन नाश हो जायगी। (८) घीकी मालिश करनेसे भिलावोंकी धूआँ या गन्ध आदिसे हुई सूजन या विष नष्ट हो जाते हैं । (६) अगर जियादा भिलावे खानेसे गरमीका बहुत ज़ोर हो जाय, तो दहीमें मिश्री मिलाकर खाओ, फौरन गरमी शान्त होगी। (१०) अगर भिलावेका तेल शरीरपर लग जाने या पकाते समय धूआँ लग जानेसे शरीर पर सूजन, फोड़े-फुन्सी, घाव या फफोले हो जायँ, तो काले तिलोंको दूध या दहीमें पीसकर शरीरपर लेप करो अथवा जहाँ सूजन आदि हों, वहाँ लेप करो।। (११) दही, दूध, तिल, खोपरा और चिरौंजी--भिलावेके विकारोंकी उत्तम दवा हैं। इनके सेवन करनेसे भिलावेके दोष शान्त हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष उपविषों की विशेष चिकित्सा - " भिलावे" । ८३ (१२) अखरोटकी मींगी, नारियलकी गिरी, चिरौंजी और काले तिल, इन सबको महीन पीसकर, भिलावेके विकार - सूजन या घाव वग़ैरः -- पर लेप करो। फिर ४/५ घण्टों बाद लेपको हटाकर, उस जगहको माठेसे धो डालो और कुछ देर तक वहाँ कोई लेप वग़ैरः न करो | घण्टे आध घण्टे बाद, फिर ताज़ा लेप बनाकर लगा दो । इस तरह करने से भिलावेके समस्त विकार नाश हो जायेंगे । (१३) इमलीके साफ़ पानी में नारियलकी गिरी घिसकर लगाने से भिलावेसे हुई जलन और गरमी फौरन शान्त हो जाती है। (१४) सफेद चन्दन और लाल चन्दन पत्थर पर घिसकर लेप करनेसे भी भिलावेकी जलन वग़ैरः शान्त हो जाती है । (१५) अगर शरीर मवादसे भरा हो और वह मवाद बदबूदार हो तथा सूजन किसी उपायसे नष्ट न होती हो, तो कस्द खोलो और जुलाब दो । फ़रुद खोलना हर हालत में मुफीद है। इससे सूजन जल्दी बैठ जाती है । नोट——“तिब्बे अकबरी' में लिखा है -- शीतल पदार्थ, बादामका तेल, लम्बी faयाका तेल और चिकना शोरबा श्रादि भिलावेके विकारवालेको खिलाना लाभदायक है | अखरोटकी मींगी भी -- प्रकृति अनुसार —— इसके विषको नाश करती है । ( १६ ) तिल और काली मिट्टी पीसकर लेप करनेसे भिलावों की सूजन नाश हो जाती है । ( १७ ) चौलाईका रस मक्खन में मिलाकर भिलावोंकी सूजनपर लगानेसे शान्ति हो जाती है । For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८४ www.kobatirth.org चिकित्सा-चन्द्रोदय 1 gootcooooo Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाँगका वर्णन और उसके मद-नाशक उपाय | PROOND ********** 120000 स्कृतमें भंगके गुणावगुण अनुसार, बहुतसे नाम हैं । खूं8 नामोंसे ही भंगके गुण मालूम हो जाते हैं। जैसे—मादिनी, ०००० विजया, जया, त्रैलोक्य-विजया, आनन्दा, हर्षिणी, मोहिनी, मनोहरा, हरा, हरप्रिया, शिवप्रिया, ज्ञानवल्लिका, कामाग्नि, तन्द्रारुचिवर्द्धिनी प्रभृति । संस्कृत में भाँगको भङ्गा भी कहते हैं । उसीका अपभ्रंश "भंग " है । बँगला में इसे सिद्धि, भंग और गाँजा कहते हैं। मरहठी में भाँग और गाँजा, गुजराती में भाँग और अँगरेज़ी में इण्डियन हैम्प कहते हैं । भाँग कफनाशक, कड़वी, ग्राही--काविज, पाचक, हल्की, तीक्ष्ण, गरम, पित्तकारक तथा मोह, मद, वचन और अग्निको बढ़ानेवाली एवं कोढ़ और कफनाशिनी, बलवर्द्धिनी, बुढ़ापेको नाश करनेवाली, मेधाजनक और अग्निकारिणी है । भंगसे अग्नि दीपन होती, रुचि होती, मल रुकता, नींद आती और स्त्री प्रसङ्गकी इच्छा होती है। किसीकिसी ने इसे कफ और वात जीतनेवाली भी लिखा है । हिकमत के एक निघण्टुमें लिखा है: -- भाँग दूसरे दर्जेकी गरम, रूखी और हानि करनेवाली है। इससे सिर में दर्द होता और स्त्री-प्रसंग में स्तम्भन या रुकावट होती है । भाँग पागल करनेवाली, नशा लानेवाली, वीर्यको सोखनेवाली, मस्तिष्क - सम्बन्धी प्राणों को गदला करनेवाली, आमाशय की चिकनाईको खींचनेवाली और सूजनको लय करनेवाली है। भाँगके बीजोंको संस्कृत में भङ्गाबीज, फ़ारसी में तुरूम बंग और अरबी में बजरुल - कनव कहते हैं। इनकी प्रकृति गरम और For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष उपविषों की विशेष चिकित्सा - "भाँग" । v ८५ रूखी होती है । ये आमाशय के लिये हानिकारक, पेशाब लानेवाले, स्तम्भन करनेवाले, वीर्यको सोखनेवाले, आँखों की रोशनीको मन्त्री करनेवाले और पेटमें विभताप्रद हैं। बीज । निर्विषैल होते हैं । भाँगमें भी विष नहीं है; पर कितने ही इसे विष मानते हैं । मानना भी चाहिये; क्योंकि यह अगर बेकायदे और बहुत ही ज़ियादा खा ली जाती है, तो आदमीको सदाको पागल बना देती और कितनी ही बार मार भी डालती है । हमने आँखों से देखा है, कि जैपुरमें, एक मनुष्यने एक अमीर जौहरी भंगड़ के बढ़ावे देनेसे, एक दिन अनाप-शनाप भाँग पी ली। बस, उसी दिन से वह पागल हो गया । अनेक इलाज होनेपर भी उसे आराम न हुआ । गाँझा भी भाँगका ही एक भेद है । भाँग दो तरह की होती है:( १ ) पुरुष के नाम से, और ( २ ) स्त्रीके नामसे । पुरुष जातिके चुपसे भाँग के पत्ते लिये जाते हैं। उन्हें लोग घोटकर पीते और भाँग कहते हैं । स्त्री जाति के पत्तों से गाँझा होता है। इस गाँकेने ही चरस बनता है । रातमें, ओस पड़ने से जब गाँफे के पत्ते ओससे भीग जाते हैं, सवेरे ही आदमी उनके भीतर होकर घूमते हैं। ओस और पत्तों का मैल शरीर में लग जाता है । उसे वे मल-मलकर उतार लेते हैं । बस, इसी मैलको “चरस" कहते हैं । चरस काबुल और बलन बुखारेसे बहुत आता है । दोनों तरह के वृक्ष एक ही जगह पैदा होते हैं। इसलिये उनकी जटाएँ नहीं बाँधी जा सकतीं । वैद्य लोग भंग और भंगके बीजोंके सिवा इसके और किसी अंशको काम नहीं लेते, पर गाँझा किसी-किसी नुसखे में पड़ता है । भाँगकी मात्रा ४ रत्तीकी और गाँकेकी आधी रत्ती की है । - हिकमत में लिखा है: -- गाँको संस्कृतमें गंजा, फारसी में बंगदस्ती और अरबी में कतबबरी कहते हैं । इसे चिलम में रखकर For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । पीते हैं। यह तीसरे दर्जेका गरम और रूखा होता है । यह बेहोशी लाता और दिमागको नुकसान करता है। इसके दर्प-नाशक घी और खटाई हैं। गाँझा यों तो सर्वाङ्गको, पर विशेषकर मस्तिष्कसम्बन्धी अवयवोंको ढीले और सुस्त करता है। यह अत्यन्त रूखा है। शिथिलता करने और सुन्न करनेमें तो यह अफ़ीमका भी बाबा है । ___ चरसको फारसीमें "शबनम बंग" कहते है। शबनम ओसको और बंग भाँगको कहते हैं । भाँगकी पत्तियोंपर ओसके जमनेसे यह बनता है, इसीसे इसे 'शबनम बंग" कहते हैं। यह गरम और रूखा है। दिल और दिमाराको खराब कर देता है। इसका दर्पनाशक “गायका दूध' है; यानी गायका दूध पीनेसे इसके विकार नाश हो जाते हैं। यह भी नशा लानेवाला, रुकावट करनेवाला, सूजनको हटानेवाला, शरीरमें रूखापन करनेवाला और आँखोंकी रोशनीको नाश करनेवाला है.। . "तिब्बे अकबरी"में लिखा है, भाँगके बहुत ही ज़ियादा खानेपीनेसे जीभमें ढीलापन, श्वासमें तंगी, बुद्धिहीनता, बकवाद और खुजली होती है। ___नोट-भंगके बहुत खानेसे उपरोक्त विकार हों, तो फौरन कय करायो तथा दूध और अञ्जीरका काढ़ा पिलानो अथवा बादामका तेल और मक्खन खिलाओ। शराब पिलाना भी अच्छा कहा है। बहुत ही तकलीफ हो, तो शीतल तिरियांक यानी शीतल अगद सेवन करायो। . यहाँ तक हमने भांग, गाँजे और चरसके सम्बन्धमें जो लिखा है, वह अनेक पुस्तकोंका मसाला है। अब हम कुछ अपने अनुभवसे भी लिखते हैं:• पहलेकी बात तो हम नहीं जानते; पर आजकल भारतमें भाँग, गाँजे और चरसका इस्तेमाल बहुत बढ़ा हुआ है। भागको ऊँचे-नीचे सभी दर्जेके लोग पीते हैं। जो कभी नहीं पीते, वे भी होलीके त्यौहारपर स्वयं घोट या घुटवाकर पीते हैं। जो इसका For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा--"आँग"। ८७ उतना शौक नहीं रखते; वे भी मित्रोंके यहाँ जाकर पीते हैं। ऐसे भी लोग हैं, जो इसे नहीं पीते; पर हिन्दुओंको इसके पीनेमें कोई बड़ा ऐतराज नहीं । भंग महादेवजीकी प्यारी बूटी है, यह बात मशहूर है। जो लोग इसे सदा पीते हैं, वे इसे सहजमें छोड़ नहीं सकते; पर अफीमकी तरह इसके छोड़ने में बड़ी-बड़ी मुसीबतोंका सामना नहीं करना पड़ता । छोड़ते समय, दस-पाँच दिन सुस्ती रहती है। समयपर इसकी याद आ जाती है। जिनको इसके पीने बाद पाखाने जानेको आदत हो जाती है, उन्हें कुछ दिन तक बिना इसके पिये दस्त साफ नहीं होता। बहुतसे लोग भाँगका घी निकालकर और घीको चाशनीमें डालकर बरफी-सी बना लेते हैं। भाँगको घीमें मिलाकर औटानेसे भाँगका असर धीमें आ जाता है । उस घीको छान लेनेसे हरे रंगका साफ़ घी रह जाता है । यह घो पाकों में भी डाला जाता है और उससे माजून भी बनती है । बहुतसे लोग भाँगमें, चीनी और तिल मिलाकर खाते हैं। इस तरह खाई हुई भाँग बहुत गरमी करती है। पर जिनका मिजाज बादीका है, जिनको घुटी हुई भाँग नुक़सान करती है, पेट फुलाती या जोड़ोंमें दर्द करती है, वे अगर इस तरह खाते हैं, तो हानि नहीं करती। जाड़ेके मौसममें इस तरह खाना उतना बुरा नहीं, पर गरमीमें इस तरह माँग खाना बेशक बुरा है। - बहुतसे लोग भाँगको भिगोकर और कपड़ेमें रखकर खूब धोते हैं। बारम्बार धोनेसे भाँगकी गरमी और विषैला अंश निश्चय ही कम हो जाता है। इसीलिये कितने ही शौक़ीन इसको पोटलीमें बाँधकर, कुएँ के पानीके भीतर लटका देते हैं और फिर खींचकर धोते और सुखा लेते हैं। जो जहरी भाँग पीनेवाले हैं, वे ताम्बेके बासनमें भाँग और पुरानी चालके मोटे ताम्बेके पैसे डालकर आगपर उबालते हैं। इस तरह ौटाई हुई भाँग बहुत ही तेज़ हो जाती For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा - चन्द्रोदय | है । यह भाँग अत्यन्त गरम होती है । जो नशेबाज इसकी हानियोंको नहीं समझते, वे ही ऐसा करते और नाना प्रकारके रोगों को निमन्त्रण देकर बुलाते हैं । भाँग अगर ठीक मसाला डालकर, कम मात्रामें, घोटी-छानी और पीयी जाय, तो उतनी हानि नहीं करती; वरन् अनेक लाभ करती है । गरमी के मौसम में, सन्ध्या-समय, मसालों के साथ घोट-छानकर पीयी हुई भाँग, मनुष्यको हैज़ेके प्रकोप से बचाती, खूब भूख लगाती और रुचि बढ़ाती है। इसके नशे में सूखा-सर्रा जैसा भी भोजन मिल जाता है, बड़ा स्वाद लगता और जल्दी ही हज़म हो जाता है । इसके शामको पीने और भोजनमें रबड़ी या धौटा दूध मिश्री मिला हुआ पीने से स्त्री-प्रसङ्गकी इच्छा खूब होती है और बेफिक्री या निश्चिन्तता होनेसे आनन्द भी अधिक आता और स्तम्भन भी मामूलसे जियादा होता है; पर अत्यधिक भाँग पीनेवालों को इनमें से कोई भी आनन्द नहीं आता । वे इसके नशेमें बहुत ही ज़ियादा नाक तक हूँ स-हूँ कर खा लेने से बीमार हो जाते हैं। अगर बीमार नहीं होते, तो खाटपर जाकर इस तरह पड़ जाते हैं, कि लोग उन्हें मुर्दा समझने लगते हैं। वही कहावत चरितार्थ होती है, “घरके जाने मर गये और आप नशेके बीच ।" जो इस तरह अँधाधुन्ध भाँग पीते हैं, वे महामूर्ख होते हैं । भाँग गरम-बादी या उष्णवात पैदा करती है और सौंफ गरमबादीको नाश करती है; अतः भाँग पीनेवालोंको भाँगके साथ " सौंफ " अवश्य लेनी चाहिये। सौंफ के सिवा, बादाम, छोटी इलायची, गुलाब के फूल, खीरे, ककड़ीके बीजोंकी मींगी, मुलेठी, खस सके दाने, धनिया और सफेद चन्दन आदि भी लेने चाहियें। इनके साथ पीसकर और मिश्री या चीनी के साथ छानकर भाँग पीनेसे, गरमी के मौसम में, बेइन्तहा फायदे होते हैं। पर एक आदमी के For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविर्षोंकी विशेष चिकित्सा- "भाँग"। हिस्से में एक या दो-तीन रत्तीसे जियादा भाँग न आनी चाहिये । भाँगको खूब धुलवाकर, बीज निकाल देने चाहियें। छानते समय, थोड़ा-सा अर्क गुलाब या अर्क केवड़ा भी मिला दिया जाय, तो क्या कहना ! सफ़ेद चन्दन कड़वा होता है; अतः वह बहुत थोड़ा लेना चाहिये। हमने स्वयं इस तरह भाँग पीकर अनेक लाभ उठाये और बरसों भाँग पीकर भी, रत्ती दो रत्तीसे ज़ियादा नहीं बढ़ायी। एक बार, बलूचिस्तानमें, जहाँ बर्फ पड़ती है, सर्दीके मारे आदमीका करमकल्याण हो जाता है, हमने “विजया पाक" बनाकर खाया था। वहाँ कोई भी जाड़ेमें भंग पी नहीं सकता। पानीके बदले लोग चाय पीते हैं । हाँ, उस “विजया पाक' ने हमारा बल-पुरुषार्थ खूब बढ़ाया। सच पूछो तो जिन्दगीका मज़ा दिखाया । विजया पाक या भाँगके साथ तैयार होनेवाले अनेकों अमृत-समान नुसखे हमने "चिकित्साचन्द्रोदय" चौथे भागमें लिखे हैं। विधिपूर्वक और युक्ति के साथ, उचित मात्रामें खाया हुआ विष जिस तरह अमृतका काम करता है, भाँगको भी वैसी ही समझिये । जो लोग बेकायदे, गाय-भैंसकी तरह इसे चरते या खाते हैं, वे निश्चय ही नाना प्रकारके रोगोंके पञ्जोंमें फँसते और अनेक तरहके दिल-दिमाग़-सम्बन्धी उन्मादादि रोगोंके शिकार होकर बुरी मौत मरते हैं। इसके बहुत ही जियादा खाने-पीनेसे सिरमें चक्कर आते हैं, जी मिचलाता है, कलेजा धड़कता है, जमीनआस्मान चलते दीखते हैं, कंठ सूखता है, अति निद्रा आती है, होशहवास नहीं रहते, मनुष्य बेढंगी बकबाद करता और बेहोश हो जाता है। अगर जल्दी ही उचित चिकित्सा नहीं होती, तो उन्माद रोग हो जाता है। अतः समझदार इसे न लगावें और जो लगावें ही तो अल्प मात्रामें सेवन करके जिन्दगीका मज़ा उठावें । चूँ कि भाँग गरम और रूखी है, अतः इसके सेवन करनेवालोंको घी, दूध, मलाई, १२ For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६० चिकित्सा-चन्द्रोदय । मलाईका हलवा, बादामका हरीरा या शीतल शर्बत आदि ज़रूर इस्तेमाल करने चाहियें। जिन्हें ये चीजें नसीब न हों, वे भाँगको मुंह न लगावें । इनके बिना भाँग पीनेसे हानिके सिवा कोई लाभ नहीं । CoaccaRPOREOVocacaoe है भाँगके चन्द नुसखे । ह UEENSHOCEEDITORErwardwoove (१) भाँग १ तोले और अफीम १ माशे-दोनोंको पानीमें पीस, कपड़ेपर लेपकर, ज़रा गरम करके गुदा-द्वारपर बाँध देनेसे बवासीरकी पीड़ा तत्काल शान्त होती है । परीक्षित है। (२) भाँगकी पत्तियाँ, इमलीकी पत्तियाँ, नीमके पत्ते, बकायनके पत्ते, सम्हालूके पत्ते और नीलकी पत्तियाँ--इनको पाँच-पाँच तोले लेकर, सवा सेर पानी में डाल, हाँडीमें काढ़ा करो। जब तीन पाव जल रह जाय, चूल्हेसे उतार लो। इस काढ़ेका बफ़ारा बवासीरवालेकी गुदाको देनेसे मस्से नाश हो जाते हैं। (३) भाँगको दूं जकर पीस लो। फिर उसे शहदमें मिलाकर, रातको, सोते समय, चाट लो। इस उपायसे घोर अतिसार, पतले दस्त, नोंद न आना, संग्रहणी और मन्दाग्नि रोग नाश हो जाते हैं। परीक्षित है। (४) भाँगको बकरीके दूधमें पीसकर, पाँवोंपर लेप करनेसे निद्रानाश रोग आराम होकर नींद आती है । (५) छै माशे भाँग और छै माशे कालीमिर्च,--दोनोंको सूखी ही पीसकर खाने और इसी दवाको सरसोंके तेल में मिलाकर मलनेसे पक्षाघात रोग नाश हो जाता है ।। (६) भाँगको जलमें पीस, लुगदी बना, घीमें सानकर गरम करो । फिर टिकिया बनाकर गुदापर बाँध दो और लँगोट कस लो। इस उपायसे बवासीरका दर्द, खुजली और सूजन नाश हो जाती है । परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-“भाँग”। १ (७) भाँग और अफीम मिलाकर खानेसे ज्वरातिसार नाश हो जाता है। कहा हैः-- . ज्वरस्यैवातिसारे च योगो भंगाहिफेनयोः॥ (८) वात-व्याधिमें बच और भाँगको एकत्र मिलाकर सेवन करना हितकारक है। पर साथ ही तेलकी मालिश और पसीने लेनेकी भी दरकार है। माँगका नशा या मद नाश करनेके उपाय । प्रारम्भिक उपाय: "वैद्यकल्पतरू" में एक सज्जन लिखते हैं--भाँग या गाँजेका नशा अथवा विष चढ़नेसे आँखें और चेहरा लाल हो जाता है, रोगी हँसता, हल्ला करता और गाली देता या मारने दौड़ता है तथा रह-रहकर उन्मादके-से लक्षण होते हैं। उपाय:-- (१) क़य और दस्त करायो । (२) सिरपर शीतल जलकी धारा छोड़ो। (३) एमोनिया सुँघाओ। (४) रोगीको सोने मत दो। (५) दही या माठेके साथ भात खिलाओ। नोट- हमारे यहाँ भाँगमें सोने देने की मनाही नहीं-उल्टा सुलाते हैं और अक्सर गहरा नशा उतर भी जाता है । शायद "कल्पतरु"के लेखक महोदयने न सोने देनेकी बात किसी ऐसे ग्रन्थके आधारपर लिखी हो, जिसे हमने न देखा हो अथवा भाँगसे रोगीकी मृत्यु होनेकी संभावना हो, उस समय सोने देना बुरा हो । (१) भङ्गका नशा बहुत ही तेज हो, रोगी सोना चाहे तो सो जाने दो । सोनेसे अक्सर नशा उतर जाता है। अगर भाँग खानेवालेके गलेमें खुश्की बहुत हो, गला सूखा जाता हो, तो उसके गलेपर घी For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । चुपड़ो । अरहरकी दाल पानीमें धोकर, वही धोवन या पानी पिला दो। परीक्षित है। (२) पेड़ा पानीमें घोलकर पिलानेसे भाँगका नशा उतर जाता है। (३) बिनौलोंकी गिरी दूध के साथ पिलानेसे भाँगका नशा उतर जाता है। (४) अगर गाँझा पीनेसे बहुत नशा हो गया हो, तो दूध पिलाओ अथवा घी और मिश्री मिलाकर चटाओ। खटाई खिलानेसे भी भाँग और गाँझेका नशा उतर जाता है। (५) इमलीका सत्त खिलानेसे भाँगका नशा उतर जाता है। कई बार परीक्षा की है। (६) कहते हैं, बहुत-सा दही खा लेनेसे भाँगका नशा उतर जाता है । पुराने अचारके नीबू खानेसे कई बार नशा उतरते देखा है। (७) अगर भाँगकी वजहसे गला सूखा जाता हो, तो घी, दूध और मिश्री मिलाकर निवाया-निवाया पिलाओ और गलेपर घी चुपड़ो। कई बार फायदा देखा है। (८) भाँगके नशे की राफलतमें एमोनिया सुँघाना भी लाभदायक है। अगर एमोनिया न हो, तो चूना और नौसादर लेकर, ज़रा-से जलके साथ हथेलियोंमें मलकर सुँघाओ । यह घरू एमोनिया है। (६) सोंठका चूर्ण गायके दहीके साथ खानेसे भाँगका विष शान्त हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३ v imum-ArmmunmunMunny विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा--"जमालगोटा"। CCEED%CED HSCERSECREre जमालगोटेका वर्णन और उसकी शान्तिके उपाय। E0:8 S मालगोटा विष नहीं है; पर यह कभी-कभी विषका-सा काम न करता है। यह दो तरहका होता है। एकको छोटी दन्ती ODO और दूसरेको बड़ी दन्ती कहते हैं। इसकी जड़को दन्ती, फलोंको दन्ती-बीज या जमालगोटा कहते हैं। ये फल अरण्डीके छोटे बीजों-जैसे होते हैं। ये बहुत ही तेज़ दस्तावर होते हैं। बिना शोधे खानेसे भयानक हानि करते और इस दशामें वमन और विरेचन दोनों होते हैं। अतः इन्हें बिना शोधे हरगिज़ न लेना चाहिये। फलोंके बीचमें एक दो परती जीभी-सी होती है, उसीसे कय होती हैं। मीगियोंमें तेल-सा तरल पदार्थ होता है; इसीसे वैद्य लोग शोधकर, उस चिकनाईको दूर कर देते हैं। जब जीभी निकल जाती है और चिकनाई दूर हो जाती है, तब जमालगोटा खानेके कामकाहोता है। __ जमालगोटा भारी, चिकना, दस्तावर तथा पित्त और कफ नाशक है। किसीने इसे कृमिनाशक, दीपक और उदरामय-शोधक भी लिखा है। किसीने लिखा है, जमालगोटा गरम, तीक्ष्ण, कफनाशक, क्लेद-कारक और दस्तावर होता है। जमालगोटेका तेल, जिसे अगरेजीमें, "क्रोटन आयल" कहते हैं, अत्यन्त रेचक या बहुत ही तेज़ दस्तावर होता है। इससे अफारा, उदररोग, संन्यास, शिररोग, धनुःस्तम्भ, ज्वर, उन्माद, एकांग रोग, आमवात और सूजन नष्ट होते हैं। इससे खाँसी भी जाती है । डाक्टर लोग इसका व्यवहार बहुत करते हैं। वैद्य लोग जमालगोटेको शोधकर, उचित औषधियोंके साथ, एक रत्ती अनुमानसे देते हैं। इसके द्वारा दस्त करानेसे उदर-रोग और जीर्णज्वर आदि रोग नाश हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । शोधन-विधि । जमालगोटा शोधनेकी बहुत-सी तरकीबें लिखी हैं: (१) जमालगोटेके बीचमें जो दोपरती जीभी-सी होती है, उसे निकाल डालो। फिर उसे दूधमें, दोलायन्त्रकी विधिसे, पका लो। जमालगोटा शुद्ध हो जायगा।। (२ ) जमालगोटेको भैसके गोबरमें डालकर ६ घण्टे तक पकाओ। इसके बाद, जमालगोटेके छिलके उतारकर, भीतरकी जीभी निकाल फेंको। शेषमें, उसे नीबूके रसमें दो दिन तक घोटो। बस, अब जमालगोटा कामका हो जायगा। जमालगोटेसे हानि । इसके ज़ियादा खा लेनेसे बहुत ही दस्त लगते हैं, मल टूट जाता है, कय होती हैं, ऐंठनी चलती है, आँतोंमें घाव हो जाते हैं और पठे खिंचने लगते हैं। शान्ति के उपाय । (१) धनिया, मिश्री और दही-तीनों मिलाकर खानेसे जमालगोटेके उपद्रव शान्त हो जाते हैं। (२) अगर कुछ भी न हो, तो पहले थोड़ा-सा गरम पानी पिला दो; फौरन दस्त बन्द हो जायँगे। अगर इससे लाभ न हो-दस्त बन्द न हों, तो दो या चार चाँवल-भर अझीम खिलाकर, ऊपरसे घीमिला दूध पिला दो। अगर गरमीका मौसम हो, तो दूध शीतल करके पिलाओ और यदि जाड़ा हो, तो ज़रा गरम पिलाओ। (३) कहते हैं, बिना घी निकाली छाछ पिला देनेसे भी जमालगोटेके उपद्रव शान्त हो जाते हैं। औषधि प्रयोग। (१) केवल जमालगोटेको घीमें पीसकर खाने और ऊपरसे शीतल जल पीनेसे सर्प-विष तत्काल शान्त होता है । कहा है For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा--"अफ्रीम"। ६५ किमत्र बहुनोक्तेन जयपालेनैव तत्क्षणम् । घृतं शीताम्बुना पेयं भञ्जकं सर्पदंशके ॥ (२) जमालगोटेकी जड़, चीतेकी जड़, थूहरका दूध, प्राकका दूध, गुड़, भिलावे, हीरा कसीस और सैंधानोन-इन सबका लेप करनेसे फोड़ा फूट जाता और पीड़ा मिट जाती है । (३) करंजुएके बीज, भिलावा, जमालगोटेकी जड़, चीता, कनेरकी जड़, कबूतरकी बीट, कंककी बीट और गीधी बीट--इन सबका लेप फोड़ेको तत्काल फोड़ देता है। - - - भ अफीमका वर्णन और उसकी विष-शान्तिके उपाय । OCO सखसके दानोंको, कातिकके महीने में, खेतोंमें बो देते हैं, Wख १०।१२ दिन में पेड़ उग आते हैं। फूल निकलने तक खेतोंकी सिंचाई करते हैं । पोस्त के पेड़ कमर या छाती-भर अथवा दोसे चार हाथ तक ऊँचे होते हैं। पत्ते तीन अंगुल चौड़े और लम्बे होते हैं। अगहनके महीने में सीधी डण्डीवाला फूल निकलता है। फूल दो तरहके होते हैं:-(१) लाल, और (२) सफ़ेद । भारतमें सफेद फूलका पेड़ बहुत कम बोया जाता है । फूलसे असंख्य बीजोंवाला फल होता है। उसे बोंडी या डोंडी कहते हैं। फल पकनेसे पहले माघ-फागुनमें, सवेरे ही, डोंडीके ऊपर तीन नोकके औज़ारसे चोंच-जैसा छेद कर देते हैं । उन छेदोंसे धीरे-धीरे रस बहता है। रस डोंडीके बाहर आते ही, हवा लगनेसे, सफ़ेद For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । हो जाता है। फिर इसका गुलाबी या किसी कदर काला रंग हो जाता है । किसान इसको खुरच-खुरचकर इकट्ठा करते और इसीसे अफीम बनाकर भारत सरकारके हवाले कर देते हैं । पोस्ताकी खेतीका पूरा हाल लिखनेसे अनेक सफे भरेंगे। हमें उतना लिखनेकी यहाँ जरूरत नहीं। यह दो-चार बातें इसलिये लिख दी हैं, कि अनजान लोग जान जायें, कि अझीम खेती द्वारा पैदा होती है और यह पोस्तेकी डोंडियोंका रस-मात्र है। इसीसे अफीमको संस्कृत में खसखस-फल-क्षीर, पोस्त-रस या खसखस-रस भी कहते हैं। संस्कृतमें अफीमके बहुतसे नाम हैं। जैसे,—आफूक, अहिफेन, अफेनु, निफेन, नागफेन, भुजङ्गफेन या अहिफेन । अहि साँपको कहते हैं और फेन झागोंको कहते हैं। भुजङ्गका अर्थ सर्प है और फेनका भाग। इन शब्दोंसे ऐसा मालूम होता है, कि अफीम साँपके झागोंसे तैयार होती है, पर यह बात बिलकुल बेजड़ है। ऊपरका पैरा पढ़नेसे मालूम हो गया होगा, कि अफ़ीम खेतमें पैदा होनेवाले एक वृक्षके फलका रस है। अब यह सवाल पैदा होता है, कि भारतके लोगोंने इसका नाम अहिफेन, भुजङ्गफेन या नागफेन क्यों रक्खा ? मालूम होता है, अफीमके गुण देखकर, गुणोंके अनुसार इसका नाम अहिफेन = साँपका फेन रखा गया, क्योंकि साँपके फेन या विषसे मृत्यु हो जाती है और इसके अधिक खानेसे भी मृत्यु हो जाती है । वास्तवमें, यह शब्दार्थ सच्चा नहीं। ___ असलमें, अक्रीम इस देशकी पैदायश नहीं। आलू और तमाखू जिस तरह दूसरे देशोंसे भारतमें आये, उसी तरह अफीम भी दूसरे देशोंसे भारतमें लाई गयी; यानी दूसरे देशोंसे पोस्ताके बीज लाकर, भारतमें बोये गये और फिर कामकी चीज़ समझकर, इसकी खेती होने लगी। “वैद्यकल्पतरु" में एक सज्जनने लिखा है कि, ग्रीक भाषामें "ओपियान" शब्द है। उसका अर्थ "नींद" For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"अफ़ीम"। ६७ लानेवाला" है । उसी ओपियानसे ओपियम, अफियून, अंफून, आफू या अफीम शब्द बन गये जान पड़ते हैं। यह मादक या नशीला 'पदार्थ है । इससे नींद भी गहरी आती है। इसकी गणना उपविषोंमें है, क्योंकि इसके अधिक परिमाणमें खानेसे मृत्यु हो जाती है। ___अफीम यद्यपि विष या उपविष है; प्राणनाशक या घातक है; फिर भी भारतवर्षके करोड़ों आदमी इसे नित्य-नियमित रूपसे खाते हैं । राजपूताने या मारवाड़ देशमें इसका प्रचार सबसे अधिक है। जिस तरह युक्त-प्रान्तमें किसी मित्र या मेहमानके आनेपर पान, तम्बाकू या शर्बतकी खातिर की जाती है, वहाँ इसी तरह अफीमकी मनुहार की जाती है। जो जाता है, उसे ही घुली हुई अफीम हथेलियोंमें डालकर दी जाती है। महफिलों और विवाह-शादी तथा लड़का होनेके समय जो घुली हुई लेता है, उसे घोलकर और जो डली पसन्द करता है, उसे डली देते हैं। खानेवाला पहले तो अपने घरपर अफीम खाता है और फिर दिन-भरमें जितनी जगह मिलने जाता है, वहाँ खाता है। मारवाड़के राजपूत या ओसवाल एवं अन्य लोग इसे खूब पसन्द करते हैं। कोई-कोई ठाकुर या राजपूत दिन-भरमें छटाँक-छटाँक भर तक खा जाते हैं और हर समय नशेमें झूमते रहते हैं । जैपुरमें एक नव्वाब साहब सवेरे-शाम पाव-पाव भर अफीम खाते थे और इसपर भी जब उन्हें नशा कम मालूम होता था, तब साँप मँगवाकर खाते थे। ऐसे-ऐसे भारी अफीमची मारवाड़ या राजपूताने में बहुत देखे जाते हैं। जहाँ देशी राजाओंका राज है, वहाँ अफीमका ठेका नहीं दिया जाता; हर शख्स अपने घरमें मनमानी अफीम रख सकता है । वहाँ अफीम खूब सस्ती होती है और यहाँकी अपेक्षा साफ-सुथरी और बेमैल मिलती है। भारतीय ठेकेदार या सरकार-भगवान् जाने कौन-भारतीय अफीममें कत्था, कोयला, मिट्टी प्रभृति मिला देते हैं । अफीम शोधनेपर दो हिस्से मैला For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । और एक हिस्सा शुद्ध अफीम मिलती है । जो बिना शोधी अफीम खाते हैं, उन्हें अनेक रोग हो जाते हैं । ___ मुसल्मानी राजत्व-कालमें, दरबारके समय, अफीमकी मनुहारकी चाल बहुत हो गई। वहींसे यह चाल देशी रजवाड़ोंमें भी फैल गई । जहाँ अफीमकी मनुहार नहीं की जाती, वहाँकी लोग निन्दा करते हैं। इसलिये ग़रीब-से-गरीब भी घर-आयेको अफीम घोलकर पिलाता है। ये बातें हमने मारवाड़में आँखोंसे देखी हैं। पर इतनी ही .खैर है कि, यह चाल राजपूतों, चारणों या राजके कारबारियोंमें ही अधिक है। मामूली लोग या ब्राह्मण-बनिये इससे बचे हुए हैं । अगर खाते भी हैं, तो अल्प मात्रामें और नियत समयपर । ___ अफीमका प्रचार यों तो किसी-न-किसी रूपमें सारी दुनियामें फैल गया है, पर भारत और खासकर चीन देशमें अफीमका प्रचार बहुत है। भारतमें इसे घोलकर या योंही खाते हैं। एक विशेष प्रकारकी नलीमें रखकर, ऊपरसे आग रखकर, तमाखूकी तरह भी पीते हैं । इसको चण्डू पीना कहते हैं। अफीम पिलानेके चण्डूखाने भारतमें जहाँ-तहाँ देखे जाते हैं । चीनमें तो इनकी अत्यन्त भरमार है। भारत और चीनमें, इसे छोटे-छोटे नवजात शिशुओंको भी उनकी मातायें बालवू टीमें या योंही देती हैं। इसके खिला-पिला देनेसे बालक नशेमें पड़ा रहता है, रोता-झींकता नहीं; माँ अपना घरका काम किया करती है। पर इसका नतीजा खराब होता है। अफीम खानेवाले बच्चे और बच्चोंकी तरह हृष्ट-पुष्ट और बलवान नहीं होते। - योरुपमें अफीमका सत्त निकाला जाता है। इसे मारफिया कहते हैं। इसमें एक विचित्र गुण है। शरीरके किसी भागमें असह्य वेदना या दर्द होता हो, उस जगह चमड़ेमें बहुत ही बारीक छेद करके, एक सुईके द्वारा उसमें मारफियाकी एक बूंद डाल For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष उपविषोंकी विशेष चिकित्सा - अफ़ीम" । हं देनेसे, वहाँका घोर दर्द तत्काल छूमंतरकी तरह उड़ जाता है । परन्तु साथ ही एक प्रकारका नशा चढ़ता है और उससे पूर्व आनन्द बोध होता है । इस तरह दो-चार बार मारफ़िया शरीरके भीतर छोड़ने से इसका व्यसन हो जाता है । रह-रहकर उसी आनन्दकी इच्छा होती है । तब वहाँ के मर्द और औरत, खासकर मेमें, इसे अपने शरीर में छुड़वानेके लिये, डाक्टरोंके पास जाती हैं। फिर जब इसके छोड़नेका तरीक़ा जान जाती हैं, अपने पास हर समय मारया से भरी हुई पिचकारी रखती हैं । उस पिचकारीकी सूईके मुँहको अपने शरीरके किसी भागमें गड़ाती हैं और मारफ़ियाकी एक बूँद उसमें डाल देती हैं । इसके शरीर में पहुँचते ही थोड़ी देर के लिये आनन्दकी लहरें उठने लगती हैं । जब उसका असर जाता रहता है, तब फिर उसी तरह शरीरमें छेद करके, फिर एक बूँद मारकिया उसमें डाल देती हैं । उनके शरीर मारे छेदों या घावोंके चलनी हो जाते हैं । फिर भी उनकी यह खोटी लत नहीं छूटती । इस तरह रोज करनेसे हिन्दुस्तान में जिस तरह गुड़ और तमाखू कूटकर गुड़ाखू बनाई जाती है और छोटी सुलफी चिलमोंमें रखकर पीयी जाती है, उस तरह दक्खन महासागर के सुमात्रा, बोन्यू आदि टापु रहनेवाले अफीम में चीनी और केले मिलाकर गुड़ाखू बनाते और पीते हैं । तुरकिस्तान के रहनेवाले अफीम में गाँजा प्रभृति नशीले पदार्थ मिलाकर या और मसाले मिलाकर माजून बनाकर खाते हैं । कोई-कोई चीनी और अफीम घोलकर शर्बत बनाते और पीते हैं । आसाम, बरमा और चीन देशमें तो अफीमसे अनेक प्रकारके खानेके पदार्थ बनाकर खाते हैं। मतलब यह है, कि दुनियाके सभी देशों में तमाखूकी तरह, इसका प्रचार किसी-न-किसी रूपमें होता ही है। For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra _www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० चिकित्सा-चन्द्रोदय । अफ़ीममें स्तम्भन-शक्ति होती है। भारतमें, आजकल, सौमें नव्वे आदमियोंको प्रमेह, धातु-क्षीणता या धातु-दोषका रोग होता है। ऐसे लोग स्त्री-प्रसंगमें दो-चार मिनट भी नहीं ठहरते; क्योंकि वीर्यके पतले या दोषी होनेसे स्तम्भन नहीं होता। इसलिये अनेक मूर्ख अफीम, गाँजा या चरस आदि नशीले पदार्थ खाकर प्रसंग करते हैं। कुछ दिनों तक इनके खानेसे उन्हें आनन्द आता और कुछ-न-कुछ अधिक स्तम्भन भी होता है । फिर तो उन्हें इसका व्यसन हो जाता है-आदत पड़ जाती है, रोज़ खाये-पिये बिना नहीं सरता । कुछ दिन इनके लगातार सेवन करते रहनेसे फिर स्तम्भन भी नहीं होता। नसें ढीली पड़ जाती और पुरुषत्व जाता रहता है। महीनों स्त्रीकी इच्छा नहीं होती। इसके सिवा, और भी बहुत-सी हानियाँ होती हैं, जिन्हें हम आगे लिखेंगे। __ भारतमें, अफीम दवाओं में मिलाने या और तरह सेवन करानेकी चाल पहले नहींके समान थी । हिकमतकी दवाओंमें अफीमका जियादा इस्तेमाल देखा जाता है । हकीमोंकी देखा-देखी वैद्य भी इसे, मुसल्मानी ज़मानेसे, दवाओंके काममें लाने लगे हैं । योरुपमें अफीमका सत्त- मारफ़िया बहुत बरता जाता है। अफ़ीम हानिकर उपविष होनेपर भी, अनेक रोगोंमें अपूर्व चमत्कार दिखाती है। बेमैल और स्वच्छ अफीम दवाकी तरह काममें लाई जाय, तो बड़ी गुणकारी साबित होती है। अनेक असाध्य रोग जो और दवाओंसे नहीं जाते, इससे चले जाते हैं। चढ़ी उम्र में जब नजलेकी खाँसी होती है, तब शायद ही किसी दवासे पीछा छोड़ती हो । हमने अनेक नजलेकी खाँसीवालोंको तरह-तरहकी दवायें दी, मगर उनकी खाँसी न गई; अन्तमें अफीम खानेकी सलाह दी। अल्प मात्रामें शुद्ध अफीम खाने और उसपर दूध अधिक पीनेसे वह आरोग्य हो गये; खाँसीका नाम भी न रहा। इतना ही नहीं, For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"अफ़ीम"। १०१ वह पहलेसे मोटे-ताज़े भी हो गये। सच पूछो तो चढ़ी उम्रमें नजलेकी खाँसीकी अफीमके सिवा और दवा ही नहीं । बादशाह अकबरको भी बुढ़ापेमें नजलेकी खाँसी हो गई थी। बड़े-बड़े नामी दरबारी हकीमोंने लाखों-करोड़ोंकी दवाएँ बनाकर शाहन्शाहको खिलाई, पर खाँसी न गई; तब लाचार होकर अफीमका आश्रय लेना पड़ा । अन्तकाल तक बादशाहकी जिन्दगीकी नाव अफीमने ही खेयी । कहिये, दिल्लीश्वरके यहाँ क्या अभाव था ! आकाशके तारे भी तोड़कर, लाये जा सकते थे। दुर्लभ-से-दुर्लभ दवाएँ श्रा सकती थीं । हकीम-वैद्य भी अकबरके दरबारसे बढ़कर कहाँ होंगे ! ... शराब या मदिरा भी यदि थोड़ी और कायदेसे पीयी जाय, तो मनुष्यको बड़ा लाभ पहुँचाती है, परन्तु उससे शरीरकी सन्धियाँ पुष्ट न होकर उल्टी ढीली हो जाती हैं; पर अफीमसे शरीरके जोड़ पुष्ट होते हैं । सरकारी कमीशनके सामने गवाही देते समय भी भारतके देशी और योरुपीय चिकित्सकोंने कहा था-"व्यसनके रूपमें भी शराबकी अपेक्षा अफीम ज़ियादा गुणकारी है ।" सरकारने अफीमका प्रचार रोकनेके लिये कमीशन बिठाया था, पर अन्तमें अफीमके सम्बन्धमें ऐसी-ऐसी बातें सुनकर, उसे अपना विचार बदल देना पड़ा। डाक्टरी पुस्तकोंमें अफीमके सम्बन्धमें लिखा है:--"अफीम मस्तिष्कमें उत्तेजना करनेवाली, नींद लानेवाली, दर्द या पीड़ा नाश करनेवाली, पसीना लाने वाली, थकान नाश करनेवाली और नशीली है । अफीमकी हल्की मात्रा लेनेसे, पहले उसकी गरमी सारे शरीरमें फैलती है, पीछे सिरमें नशा होता है। पूरी मात्रा खानेसे १५।२० मिनटमें ही नशा आने लगता है। पहले सिरमें कुछ भारीपन मालूम होता है । इसके बाद शरीर चैतन्य हो जाता है और बदनमें किसी तरहकी वेदना होती है, तो वह भी हवा हो जाती है। इससे बुद्धि खिलती है, क्योंकि बुद्धिं धारण करनेवाली For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । नसें इससे पुष्ट होती हैं। बातें बनानेकी अधिक सामर्थ्य हो जाती है एवं हिम्मत-साहस, पराक्रम और चातुरी बढ़ जाती है। शरीरमें : बल और फुर्ती आ जाती है और एक प्रकारका अकथनीय आनन्द आता है । इस अवस्थाके थोड़ी देर बाद-घड़ी दो घड़ी या ज़ियादा देर बाद सुखकी नींद आती है। अफीमका प्रभाव प्रकृति-भेदसे भिन्न-भिन्न प्रकारका होता है। किसीको इससे दस्त साफ होता है और किसीको दस्तक़ब्ज़ होता है। किसीको इससे नशा बहुत होकर ग़फ़लत होती है और किसीके शरीरमें उत्तेजना फैलनेसे चैतन्यता होती है । दर्दकी हालतमें देनेसे कम नशा आता है । भरे पेटपर अफीम जल्दी नहीं चढ़ती, पर खाली पेट खानेसे जल्दी नशा लाती है। मृत्युकाल नजदीक होनेपर, जरा-सी भी अफीमकी मात्रा शीघ्र ही मृत्यु कर देती है।" आयुर्वेदीय ग्रन्थों में लिखा है, अफीम शोषक, ग्राही, कफनाशक, वायुकारक, पित्तकारक, वीर्यवर्द्धक, आनन्दकारक, मादक, वीर्यस्तम्भक तथा सन्निपात, कृमि, पाण्डु, क्षय, प्रमेह, श्वास, खाँसी, सीहा और धातुक्षय रोग नाशक होती है। अफीमके जारण, मारण, धारण और सारण चार भेद होते हैं। सफेद अफीम अन्नको जीर्ण करती है, इसलिये उसे “जारण" कहते हैं। काली मृत्यु करती है, इसलिये उसे "मारण” कहते हैं। पीली जरा-नाशक है, इसलिये उसे "धारण" कहते हैं । चित्रवर्णकी मलको सारण करती है, इसलिये उसे सारण कहते हैं । अफीमके दर्पको नाश करनेवाले घी और तवासीर हैं और प्रतिनिधि या बदल आसवच है । मात्रा पाव रत्ती या दो चाँवल-भरकी है। __ यद्यपि अफीम प्राण-नाशक विष या उपविष है, तथापि अनेक भयङ्कर रोगोंमें अमृत है। इसलिये हम इसके उत्तमोत्तम प्रयोग या नुसने पाठकोंके उपकारार्थ लिखते हैं । इनमेंसे जो नुसखे For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"अफीम"। १०३ हमारे आजमूदा हैं, उनके सामने "परीक्षित" शब्द लिखेंगे । पर जिनके सामने 'परीक्षित" शब्द न हो, उन्हें भी आप कामके समझ-व्यर्थ न समझें । हमने "चिकित्सा-चन्द्रोदय" के पहलेके भागोंमें जो नुसखे लिखे हैं, उनमेंसे अधिक परीक्षित हैं, पर जिनकी अनेक बार परीक्षा नहीं की--एकाध बार परीक्षा की है- उनके सामने “परीक्षित" शब्द नहीं लिखे । पाठक परीक्षित और अपरीक्षित दानों तरहके नुसखोंसे काम लें। बेकाम नुसने हम क्यों लिखने लगे ? सम्भव है, इतने बड़े संग्रहमें, कुछ बेकाम नुसख्खे भी निकल आवें, पर बहुत कम; क्योंकि हम इस कामको अपनी सामर्थ्य-भर विचार-पूर्वक कर रहे हैं। औषधि-प्रयोग । (१) बलाबल-अनुसार पाव रत्तीसे दो रत्ती तक, अफीम पानमें धरकर खानेसे धनुस्तम्भ रोग नाश हो जाता है। (२) शुद्ध अफीम, शुद्ध कुचला और कालीमिर्च--तीनोंको बराबर-बराबर लेकर बँगला पानोंके रसके साथ घोटकर, एकएक रत्तीकी गोलियाँ बनाकर, छायामें सुखा लो। एक गोली, सवेरे ही, खाकर, ऊपरसे पानका बीड़ा या खिल्ली खानेसे दण्डापतानक रोग, हैजा, सूजन और मृगी रोग नाश हो जाते हैं। इन गोलियोंका नाम “समीरगज-केशरी बटी" है; क्योंकि ये गोलियाँ समीर यानी वायुके रोगोंको नाश करती हैं। वायु-रोगोंपर ये गोलियाँ बराबर काम देती हैं। जिसमें भी दण्डापतानक रोगपर, जिसमें शरीर दण्डेकी तरह अचल हो जाता है, खूब काम देती हैं। इसके सिवा हैजे वगैरः उपरोक्त रोगोंपर भी फेल नहीं होती। परीक्षित हैं।। ____ नोट--अभी एक ग़रीब ब्राह्मण, एक नीम हकीमके कहनेसे, बुखारमें बोतलों शर्बत गुलबनफशा पी गया । बेचारेका शरीर लकड़ी हो गया। सारे जोड़ों में दर्द और सूजन आ गई। हमारे एक स्नेही मित्र और ज्योतिष-विद्याके धुरन्धर विद्वान् पण्डित मन्नीलालजी व्यास बीकानेरवाले, दयावश, उसे उठवाकर हमारे For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । पास ले आये । हमने उसे यही “समोरगज-केशरी बटी” खानेकी और “नारायण तैल" सारे शरीरमें मलने की सलाह दी । जगदीशकी दयासे, पहले दिन ही फायदा नज़र आया और १६ दिनमें रोगी अपने बलसे चलने-फिरने लगा। आज वह अानन्दसे बाजार गया है। ये गोलियाँ गठिया रोगपर भी रामवाण साबित हुई हैं। (३) अफीम और कुचलेको तेलमें पीसकर, नसोंके दर्दपर मलने और ऊपरसे गरम करके धतूरेके पत्ते बाँधनेसे लँगड़ापन आराम हो जाता है। आदमी अगर प्रारम्भमें ही इस तेलको लगाना आरम्भ कर दे, तो लँगड़ा न हो । परीक्षित है । (४) अगर अजीर्ण जोरसे हो और दस्त होते हों, तो आप रेंडीके तेल या किसी और दस्तावर दवामें मिलाकर अफीम दीजिये, फौरन लाभ होगा । परीक्षित है। (५) केशर और अफीम बराबर-बराबर लेकर घोट लो। फिर इस दवामेंसे चार चाँवल-भर दवा "शहद में मिलाकर चाटो। इस तरह कई दफ़ा चाटनेसे अतिसार रोग मिट जाता है । परीक्षित है। (६) एक रत्ती अफीम बकरीके दूधमें घोटकर पिलानेसे पतले दस्त और मरोड़ीके दस्त आराम हो जाते हैं । परीक्षित है। (७) अगर पित्तज पथरीके नीचे उतर जानेसे, यकृतके नीचे, पेटमें, बड़े जोरोंका दर्द हो, रोगी एकदम घबरा रहा हो, कल न पड़ती हो, तो उसे अफीमका करूँ बा या घोलिया-जलमें घोली हुई अफीम दीजिये; बहुत जल्दी आराम होगा। दर्दसे रोता हुआ रोगी हँसने लगेगा। (८) नीबूके रसमें अफीम घिस-घिसकर चटानेसे अतिसार आराम हो जाता है। . (६) बहुतसे रोग नींद आनेसे दब जाते हैं। उनमें नींद लानेको, बलाबल देखकर, अफीमकी उचित मात्रा देनी चाहिये। : नोट---जब किसी रोगके कारण नींद नहीं प्रावी, तब अफीमकी हल्की या For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष उपविषों की विशेष चिकित्सा - " अफ़ीम " । १०५ वाजिब मात्रा देते हैं । नींद आनेसे रोगका बल घटता है । वरके सिवा और सभी रोगों में अफ़ीम से नींद आ जाती है । उन्माद रोग में नींद बहुधा नाश हो जाती है और नींद आने से उन्माद रोग आराम होता है । उन्माद रोगके साथ होनेवाले निद्रानाश रोगको अफीम फौरन नाश कर देती है । उन्मादमें हर बार एक-एक रक्ती अफीम देनेसे भी कोई हानि नहीं होती | उन्माद रोगी अफीम अधिक मात्राको सह सकता है, पर सभी तरहके उन्माद रोगों में अफीम देना ठीक नहीं । जब उन्माद रोगीका चेहरा फीका हो, नाड़ी मन्दी चलती हो और नींद न आने से शरीर कमज़ोर होता हो; तब अफीम देना उचित है । किन्तु जब उन्माद रोगीका चेहरा सुर्ख हो अथवा मुँह या सिरकी नसों में . खून भर गया हो, तब अफीम न देनी चाहिये । इस हालतके सिवा और सब हालतों में— उन्माद रोग में अफीम देना हितकर है । उन्मादके शुरू में अफीम सेवन कराने से उन्माद रोग रुकते भी देखा गया है । (१०) उन्माद रोगके शुरू होते ही, अगर अफीमकी उचित मात्रा दी जाय, तो उन्माद रुक सकता है । जब उन्माद रोगमें जरा-जरा देर में रोगीको जोश आता और उतरता है, उस समय रती - रत्ती भर की मात्रा देनेसे बड़ा उपकार होता है । रत्ती - रत्तीकी मात्रा बारम्बार देनेसे भी हानि नहीं होती - अफीमका ज़हर नहीं चढ़ता । उन्मादमें जो नींद न आनेका दोष होता है, वह भी जाता रहता है. नींद आने लगती है और रोग घटने लगता है । पर जब उन्माद रोगीका चेहरा सुर्ख हो या सिरकी नसों में ख़ून भर गया हो, अफीम देना हानिकर है । परीक्षित है । ( ११ ) अगर नासूर हो गया हो, तो आदमी के नाखून जलाकर राख कर लो। फिर उस राखमें तीन रत्ती अफीम मिलाकर, उसे नासूर में भर दो। इस क्रियाके लगातार करनेसे नासूर आराम हो जाता है । नोट- -यह नुसखा हमारा परीक्षित नहीं है । "वैद्यकल्पतरु " में जिन सज्जन ने लिखा है, उनका श्राजमाया हुआ जान पड़ता है, इससे हमने लिखा है I (१२) छोटे बालकको जुकाम या सर्दी हो गई हो, तो १४ For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । कपाल और नाकपर, अफीम पानी में पीसकर लेप करो। अगर पेटमें कोई रोग हो, तो वहाँ भी अफीमका लेप करो। (१३) अगर शरीरके किसी भागमें दर्द हो, तो आप अफीमका लेप कीजिये अथवा अफीमका तेल लगाइये अथवा अफीम और सोंठको तेलमें पकाकर, उस तेलको दर्दकी जगहपर मलिये, अवश्य लाभ होगा। नोट--शरीरके चमड़ेपर अफीम लगाते समय, इस बातका ध्यान रखो कि, वहाँ कोई घाव, छाला या फटी हुई जगह न हो । अगर फटी, छिली या घावकी जगह अफीम लगानोगे, तो वह खूनमें मिलकर नशा या ज़हर चढ़ा देगी। (१४) अगर पसलीमें जोरका दर्द हो, तो आप वहाँ अफीमका लेप कीजिये अथवा सोंठ और अफीमका लेप कीजिये-अवश्य लाभ होगा। परीक्षित है। (१५) अफीम और कनेरके फूल एकत्र पीसकर, नारू या बालेपर लगानेसे नारू आराम हो जाता है। (१६) अगर रातके समय खाँसी ठहर-ठहरकर बड़े जोरसे आती हो, रोगीको सोने न देती हो, तो जरा-सी अफीम देशी तेलके दीपककी लौपर सेककर खिला दो; अवश्य खाँसी दब जायगी। नोट-एक बार एक आदमीको सर्दीसे जुकाम और खाँसी हुई। मारवाड़के एक दिहातीने जरासी अफीम एक छप्परके तिनकेपर लगाकर आगपर सेकी और रोगीको खिला दी। ऊपरसे बकरीका दूध गरम करके और चीनी मिलाकर पिलाया । इस तरह कई दिन करनेसे उसकी खाँसी नष्ट हो गई। सवेरे हो उसे दस्त भी साफ होने लगा। उसने हमारे सामने कितनी ही डाक्टरो दवाएँ खाई पर खाँसी न मिटी, अन्तमें अफीमसे इस तरह मिट गई। (१७) अनेक बार, गर्भवती स्त्रीके आस-पासके अवयवोंपर गर्भाशयका दबाव पड़नेसे जोरकी खाँसी उठने लगती है और बारम्बार क्रय होती हैं। गर्मिणी रात-भर नींद नहीं ले सकती। इस तरहकी खाँसी भी, अपरके नोटकी विधिसे अफीम सेककर खिलानेसे, फौरन बन्द हो जाती है। परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष उपविषोंकी विशेष चिकित्सा - अफीम” । १०७ नोट -- गर्भवती स्त्रीको अफीम जब देनी हो बहुत ही अल्प मात्रामें देनी चाहिये; क्योंकि बहुत लोग गर्भवतीको अफमीकी दवा देना बुरा समझते हैं; पर हमने ज्वार या आधी ज्वार-भर देनेसे हानि नहीं, लाभ ही देखा । (१८) बहुत से आदमी जब श्वास और खाँसीसे तन आ जाते हैं - खासकर बुढ़ापे में-- अफीम खाने लगते हैं । इस तरह उनकी पीड़ा कम हो जाती है । जब तक अफीमका नशा रहता है, श्वास और खाँसी दबे रहते हैं; नशा उतरते ही फिर कष्ट देने लगते हैं । अतः रोगी सवेरे शाम या दिन-रात में तीन-तीन बार अफीम खाते हैं। इस तरह उनकी जिन्दगी सुखसे कट जाती है । नोट -- ऊपर की बात ठीक और परीक्षित है । हमारी बूढ़ी दादीको श्वास और खाँसी बहुत तङ्ग करते थे । उसने अफीम शुरू कर दी, तबसे उसकी पीड़ा शान्त हो गई, हाँ, जब अफीम उतर जाती थी, तब वह फिर कष्ट पाती थी, लेकिन समयपर फिर अफीम खा लेती थी । न वातेन विना नरकेन विना अगर खाँसी रोगमें अफीम देनी हो, तो पहले छातीपर जमा हुआ बलग़म किसी दवा से निकाल देना चाहिये । जब छातीपर कफ न रहे, तब अफीम सेवन करनी चाहिये । इस तरह अच्छा लाभ होता है; क्योंकि छातीपर कफ न जमा होगा, तो खाँसी होगी ही क्यों ? महर्षि हारीतने कहा है : श्वासः कासो न श्लेष्मणाविना । पित्तं न पित्त-रहितः क्षयः ॥ बिना वायु-कोपके श्वास रोग नहीं होता, छातीपर बलग़म - कफ -- जमे विना खाँसी नहीं होती, रक्के बिना पित्त नहीं बढ़ता और बिना पित्त-कोपके क्षय रोग नहीं होता । खाँसी में, अगर बिना कफ निकाले अफीम या कोई दवा खिलाई जाती है, तो कफ सूखकर छातीपर जम जाता है; पीछे रोगीको खाँसने में बड़ी पीड़ा होती है । छातीपर कफका “घर-घर" शब्द होता है। सूखा हुआ कफ बड़ी कठिनाई से निकलता है और उसके निकलते समय बड़ा दर्द होता है; श्रत: खाँसीमें पहला इलाज कफ निकाल देना है। जिसमें भी, कफकी खाँसीमें अफीम देने से कफ छातीपर जमकर बड़ी हानि करता है । कफकी खाँसी हो या छातीपर चलग़म जम रहा हो, तो पानीमें नमक मिलाकर रोगोको पिला दो और मुखमें For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । पक्षीका पंख फेरकर कय करा दो; इस तरह सब कफ निकल जायगा। अगर कफ छातीपर सूख गया हो, तो एक तोले अलसी और एक तोले मिश्री दोनोंको प्राध सेर पानीमें औटायो। जब चौथाई जल रह जाय, उतारकर छान लो। इसमेंसे एक-एक चमची-भर काढ़ा दिनमें कई बार पिलायो। इससे कफ छूट जायगा । पर जब तक छाती साफ न हो, इस नुसख को पिलाते रहो। इस तरह कफको छुड़ानेवाली बहुत दवाएँ हैं। उन्हें हम खाँसीकी चिकित्सामें लिखेंगे। नोट-कफकी खाँसी और खाँसीके साथ ज्वर चढ़ा हो, तब अफीम मत दो। (१६) श्वास रोगमें अफीम और कस्तूरी मिलाकर देनेसे बड़ा उपकार होता है। रोगीके बलाबल-अनुसार मात्रा तजवीज करनी चाहिये। साधारण बलवाले रोगीको-अगर अफीमका अभ्यासी न हो-तो पाव रत्ती अफीम और चाँवल-भर कस्तूरी देनी चाहिये। मात्रा जियादा भी दी जा सकती है; पर देश, काल--मौसम और. रोगीकी प्रकृति आदिका विचार करके । ___ (२०) अफीमको गुल-रोगन या सिरकेमें घिसकर, सिरपर लगानेसे सिर-दर्द आराम होता है । (२१) अफीम और केशर गुलाब जल में घिसकर आँखों में आँजनेसे आँखोंकी सुखर्जी नाश हो जाती है। (२२) अफीम और केशर जलमें घिसकर लेप करनेसे आँखोंके घाव दूर हो जाते हैं। - (२३) अफीम, जायफल, लौंग, केशर, कपूर और शुद्ध हिंगलू-- इनको बराबर-बराबर लेकर जलके साथ घोटकर, दो-दो रत्तीकी गोलियाँ बना लो। सवेरे-शाम एक-एक गोली गरम जलके साथ लेनेसे आमराक्षसी, आमातिसार और हैजा रोग आराम हो जाते हैं । परीक्षित है। ( २४ ) जरा-सी अफीमको पान खानेके चूनेमें लपेटकर आमातिसार, पेचिश या मरोड़ीके रोगीको देनेसे ये रोग आराम हो जाते हैं और मजा यह कि, दृषित मल भी निकल जाता है। परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा -- “ अफीम” | १०६ नोट -- अफीम और चूना दोनों बराबर हों । गोली पानीके साथ निगलना चाहिये । (२५) अफीम, शुद्ध कुचला और सफेद मिर्च - तीनों को बराबरबराबर लेकर, अदरखके रसमें घोटकर, मिर्च- समान गोलियाँ बना लो। एक-एक गोली सोंठके चूर्ण और गुड़के साथ लेनेसे आम-मरोड़ीके दस्त, पुराने से पुराना अतिसार या पेचिश फौरन आराम हो जाते हैं । परीक्षित है । (२६) नीबू के रस में अफीम मिलाकर और उसे दूधमें डालकर पीने से रक्तातिसार और आमातिसार आराम हो जाते हैं । (२७) जल संत्रास रोग, हड़कवाय या पागल कुत्तेके काटनेपर रोगीको अफीम देने से लाभ होता है । ( २८ ) वातरक्त रोग में होनेवाला दाह अफीम से शान्त हो जाता है । वातरक्त रोगको अफीम समूल नाश नहीं कर देती, पर फायदा अवश्य दिखाती है । (२६ ) अगर सिर में फुन्सियाँ होकर पकती हों और उनसे मवाद गिरता हो तथा इससे बाल झड़कर गंज या इन्द्रलुप्त रोग होता हो, तो आप नीबू के रसमें अफीम मिलाकर लेप कीजिये; गंज रोग आराम हो जायगा । (३०) अगर स्त्री मासिक-धर्म के समय पेड़ में दर्द होता हो, पीठका बाँसा फटा जाता हो अथवा मासिक खून बहुत जियादा निकलता हो, तो आप इस तरह अफीम सेवन कराइये: अफीम दो माशे, कस्तूरी दो रत्ती और कपूर दो रत्ती -- इन तीनोंको पीस-छानकर, पानीके साथ घोटकर, एक-एक रत्तीकी गोलियाँ बना लो | इन गोलियोंसे स्त्रियों के आर्त्तव या मासिक खूनका ज़ियादा गिरना, बच्चा जननेके पहले, पीछे या उस समय अधिक आर्त्तव - खूनका गिरना, गर्भस्राव में अधिक रक्त गिरना तथा सूतिकासन्निपात – ये सब रोग आराम होते हैं । परीक्षित है । For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० चिकित्सा-चन्द्रोदय। . (३१ ) अगर किसी स्त्रीको गर्भ-स्रावकी आदत हो, तीसरे-चौथे महीने गर्भ रहनेपर आर्तव या मासिक खून दिखाई दे, तो आप उसे थोड़ी अफीम दीजिये। नोट--नं. ३० में लिखी गोलियाँ बनाकर दीजिये। (३२) अगर प्रसूतिके समय, प्रसूतिके पहले या प्रसूतिके पीछे अत्यन्त खून गिरे, तो अफीम दीजिये, खून बन्द हो जायगा। नोट-नं० ३० में लिखी गोलियाँ दीजिये। (३३) अगर आँखें दुखनी आई हों, तो अफीम और अजवायनको पोटलीमें बाँधकर आँखोंको सेकिये । अथवा अफीम और तवेपर फुलाई फिटकरी-दोनोंको मिलाकर और पानीमें पीसकर, एकएक बूँद दोनों नेत्रों में डालिये। (३४) अगर कानमें दर्द हो, तो अफीमको पानीमें पतली करके, दो-तीन बूंद कानमें डालो। (३५) अगर दाँतोंमें दर्द हो, तो जरा-सी अफीमको तुलसीके पत्ते में लपेटकर दाँतके नीचे रखो। अगर दाढ़में गड्ढा पड़ गया हो, तो ऊपरकी विधिसे उसे गढ़ेमें रख दो दर्द भी मिट जायेगा और गढ़ा भी भर जायगा। (३६) अगर मुंह आनेसे या और किसी वजहसे बहुत ही लार . बहती हो या थूक आता हो, तो अफीम दीजिये । अगर किसीने आतशक रोगमें मुंह आनेको दवा दे दी हो, मुंह फूल गया हो, लार बहती हो, तो अफीम खिलानेसे वह रोग मिटकर मुँह पहले जैसा साफ हो जायगा। (३७) अगर प्रमेह या सोजाकमें लिंगेन्द्रिय टेढ़ी हो गई हो, बीचमें खाँच पड़ गई हो. इन्द्रिय खड़ी होते समय दर्द होता हो, तो आप अफीम और कपूर मिलाकर दीजिये। इससे सब पीड़ा शान्त होकर, इन्द्रिय भी सीधी हो जायगी। For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ....................... विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा--"अफीम"। १११ (३८) अगर पुरानी गठिया हो, तो आप अफीम खिलावें और अफीमके तेलकी मालिश करावें। नोट-पुराने गठिया-रोगमें नं० २ में लिखी समीरगज-केशरी बटी अत्यन्त लाभप्रद है। (३६) अगर सूतिका सन्निपात हो, तो आप अफीम दीजिये; आराम होगा। नोट--नं. ३० में लिखी गोलियाँ दीजिये। (४०) अगर कम-उम्र स्त्रीको बच्चा होनेसे उन्माद हो गया हो, तो अफीम दीजिये। (४१) अगर प्रमेह-रोग पुराना हो और मधुमेह-रोगी बूढ़ा या ज़ियादा बूढ़ा हो, तो आप अफीम सेवन करावें। आधी रत्ती अफीम और एक रत्ती-भर माजूफल--पहले माजूफलको पीस लो और अफीममें मिलाकर १ गोली बना लो। यह एक मात्रा है। ऐसी-ऐसी एक-एक गोली सवेरे-शाम देनेसे मधुमेहमें बे-इन्तहा फायदा होता है । पेशाबके द्वारा शक्कर जाना कम हो जाता है, कमजोरी भी कम होती है, तथा मधुमेहीको जो बड़े जोरकी प्यास लगती है, वह भी इस गोलीसे शान्त हो जाती है। नोट-याद रखो, प्रमेह जितना पुराना होगा और मधुमेह रोगी जितना बूढ़ा होगा, अफीम उतना ही ज़ियादा फायदा करेगी। मधुमेहीकी प्यास जो किसी तरह न दबती हो, अफीमसे दब जाती है। हमने इसकी अनेक रोगियोंपर परीक्षा की है। ग़रीब लोग जो वसन्त कुसुमाकर रस, मेहकुलान्तक रस,मेहमिहिर तेल, स्वर्णबंग आदि बहुमूल्य दवाएँ न सेवन कर सकते हों, उपरोक्न गोलियोंसे काम लें। अफीमसे गदले-गदले पेशाब होना और मूत्रमें वीर्य जाना श्रादि रोग निस्सन्देह कम हो जाते हैं । पर यह समझना कि, अफीम प्रमेह और मधुमेहको जड़से आराम कर देगी, भूल है। अर्फ म उनकी तकलीफोंको कम ज़रूर कर देगी। ... (४२) अगर किसीको स्वप्नदोष होता हो, तो आप अफीम आधी रत्ती, कपूर दो रत्ती और शीतल मिर्चोंका चूर्ण डेढ़ माशेतीनोंको मिलाकर, रोगीको, रातको सोते समय, शहदके साथ, : For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । कुछ दिन लगातार सेवन करावें, अवश्य और जल्दी लाभ होगा। परीक्षित है। ___ नोट--अगर किसोको सोज़ाक हो, तो आप रातके समय सोते वक्त इस नुसख को रोगीको रोज़ दें। इससे पेशाब साफ़ होता है, घाव मिटता है, स्वप्नदोष नहीं होता और लिङ्गमें तेज़ी भी नहीं आती । सोज़ाक रोगमें रातको अक्सर स्वमदोष होता है या लिंगेन्द्रिय खड़ी हो जाती है, उससे दिन-भरमें श्राराम हुश्रा घाव फिर फट जाता है। इस नुसख से ये उपद्रव भी नहीं होते और सोज़ाक भी आराम होता है; पर दिनमें और दवा देनी ज़रूरी है; यह तो रातको दवा है । अगर दिनके लिये कोई दवा न हो, तो आप शीतल मिर्च १॥ माशे, कलमी शोरा ६ रत्ती और सनायका चूर्ण ६ रत्ती--तीनोंको मिलाकर फंकायो और ऊपरसे औटाया हुअा जल शीतल करके पिलायो। अगर इससे फ़ायदा तो हो, पर पूरा भाराम होता न दीखे, तो चिकित्सा-चन्द्रोदय तीसरे भागमेंसे और कोई अाज़मूदा नुसखा दिनमें सेवन करायो । (४३) शुद्ध अफीम ८ तोले, अकरकरा २ तोले, सोंठ २ तोले, नागकेशर २ तोले, शीतल मिर्च २ तोले, छोटी पीपर २ तोले, लौंग २ तोले, जायफल २ तोले और लाल चन्दन २ तोले,--अफीमके सिवा और सब दवाओंको कूट-पीसकर छान लो, अफीमको भी मिलाकर एक-दिल कर लो । इसके बाद २४ तोले यानी सब दवाओंके वजनके बराबर साफ़ चीनी भी मिला दो और रख दो। इस चूर्णमेसे ३ से ६ रत्ती तक चूर्ण खाकर, ऊपरसे गरम दूध मिश्री मिला हुआ • पीओ। इस चूर्णके कुछ दिन लगातार खानेसे गई शक्ति फिर लौट आती है। नामर्दी नाश करके पुरुषत्व लानेमें यह चूर्ण परमोपयोगी है। परीक्षित है। नोट-अगर अफीम चूर्णमें न मिले, तो अफीमको पानीमें घोलकर चीनीमें मिला दो और श्रागपर रखकर जमने लायक गाढ़ी चाशनी कर लो और थालीमें जमा दो। जम जानेपर चाशनीको थालीसे निकालकर महीन पीस लो और दवाओंके चूर्णमें मिला दो । चाशनी पतली मत रखना, नहीं तो बूरा-सा न होगा । खूब कड़ी चाशनी करनेसे अफीम जमकर पिस जायगी। (४४) काफी, चाय, सोंठ, मिर्च, पीपर, कोको, खानेका पीला रंग, For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषों की विशेष चिकित्सा - - " अफीम” । ११३ शुद्ध पारा, गंधक और अफीम- इन दसोंको बराबर-बराबर लेकर कूट-पीसकर, कपड़-छन कर रख लो । मात्रा १ से २ रत्ती तक । अनुपान रोगानुसार । इस चूर्ण से कफ, खाँसी, दमा, शीतज्वर, अतिसार, संग्रहणी और हृद्रोग ये निश्चय ही नाश हो जाते हैं । (४५) सोंठ, गोलमिर्च, पीपर, लोंग, आक की जड़की छाल और अफीम - इन सबको बराबर-बराबर लेकर, पीस-छानकर, शीशी में रख दो । मात्रा १ से २ रत्ती तक । यथोचित अनुपानके साथ इस चूर्णके सेवन करने से कफ, खाँसी, दमा, अतिसार, संग्रहणी और कफपित्त के रोग अवश्य नाश होते हैं । (४३) सोंठ, मिर्च, पीपर, नीमका गोंद, शुद्ध भाँग, ब्रह्मदण्डी यानी ॐ कटारे के पत्ते, शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक और शुद्ध अफ़ीम - इन सबको एक-एक तोले लेकर, पीस कूटकर छान लो । फिर इसमें अठारह रत्ती कस्तूरी भी मिला दो और शीशी में रख दो । मात्रा १ से २ रत्ती तक । इस चूर्ण से सब तरह की सर्दी और दत्तोंके रोग नाश हो जाते हैं। (४७) अफ़ीम ४ रत्ती, नीबू का रस १ तोले और मिश्री ३ तोलेइन तीनों को पाव भर जल में घोलकर पीनेसे हैजेके दस्त, क्रय, जलन और प्यास एवं छातीकी धड़कन - ये शान्त हो जाते हैं । (४८) अफीम ३ माशे, लहसनका रस ३ तोले और हींग १ तोले - इन सबको आधपाव सरसों के तेल में पकाओ; जब दवाएँ जल जायँ, तेलको छान लो। इस तेलकी मालिश से शीताङ्ग वायु आदि सर्दी और बादीके सभी रोग नाश हो जाते हैं, परन्तु शीतल जलसे बचा रहना बहुत जरूरी है । ( ४६ ) अफ़ीम १ माशे, कालीमिर्च २ माशे और कीकर के कोयले ६ माशे - सबको महीन पीसकर रख लो। मात्रा १ माशे । बलाबल और प्रकृति अनुसार कमोवेश भी दे सकते हो । इस दवा से तप सफरावी आराम होता है । यह तप ख़फीफ रहता १५ For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११४ चिकित्सा - चन्द्रोदय । है और एक दिन बीचमें देकर जोर करता है । तप चढ़ने से पहले शरीर काँपने लगता है। बुखार चढ़नेसे चार घण्टे पहले यह दवा खिलानी चाहिये । रोगीको खानेको कुछ भी न देना चाहिये | दवा खाने के ६ घंटे बाद भोजन देना चाहिये । परमात्मा चाहेगा, तो १ मात्रा में ही ज्वर जाता रहेगा । • (५०) दो रत्ती अफीम खाने से मुँहसे थूकके साथ खून आना बन्द होता है । ऐसा अक्सर रक्त-पित्त में होता है । उस समय अफ़ीमसे काम निकल जाता है । नोट - अड़सेका स्वरस ६ माशे, मिश्री ६ माशे और शहद ६ माशे—इन तीनोंको मिलाकर नित्य पीनेसे भयानक रक्त-पित्त, यक्ष्मा और खाँसी रोग आराम हो जाते हैं । परीक्षित है । (५१) अफ़ीम एक चने-भर फिटकरी दो चने-भर और जलाया हुआ भिलावा एक, इन तीनों को छै नीबुओंके रसमें घोटकर गोलियाँ बना लो और छाया में सुखा लो। इन गोलियोंको नीबू के जरासे रसमें घिस-घिसकर आँजनेसे फूली, फेफरा और नेत्रोंसे पानी आना, ये आँख के रोग अवश्य नाश हो जाते हैं । नोट --- भिलावा जलाते समय उसके धुएँ से बचना; वरना हानि होगी । अधिक बातें भिलावेके वर्णनमें देखिये | (५२) अफीम ३ || माशे, अकरकरा ७ माशे, झाऊ के फूल १४ माशे, सामक १४ माशे और हुब्बुल्लास १४ माशे - इन सबको महीन पीसकर, बबूल के गोंदके रसमें घोटो और दो-दो माशेकी गोलियाँ बना लो। इन गोलियोंमेंसे १ गोली खानेसे १ घण्टे में दस्त बन्द हो जाते हैं । ( ५३ ) अफीम, हींग, ज़हरमुहरा-खताई और कालीमिर्च - इन सबको समान समान लेकर, पानी के साथ पीसकर, चने-समान गोलियाँ. बना लो | नीबू के रसके साथ एक-एक गोली खानेसे संग्रहणी, बादी: और सब तरह के उदर रोग नाश हो जाते हैं । For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"अफ्रीम"। ११५ साफ़ अफ़ीमकी पहचान । अफीमका वजन बढ़ानेके लिये नीच लोग उसमें खसखसके पेड़के पत्ते, कत्था, काला गुड़, सूखे हुए पुराने कण्डोंका चूरा, बालू रेत या एलुआ प्रभृति मिला देते हैं। वैद्यों और खानेवालोंको अफीमकी परीक्षा करके अफीम खरीदनी चाहिये; क्योंकि ऐसी अफीम दवामें पूरा गुण नहीं दिखाती और ऐसे ही खानेवालोंको नाना प्रकारके रोग करती है । शुद्ध अफीमकी पहचान ये हैं: (१) साफ़ अफीमकी गन्ध बहुत तेज़ होती है। (२) स्वाद कड़वा होता है। (३) चीरनेसे भीतरका भाग चमकदार और नर्म होता है। (४) पानीमें डालनेसे जल्दी गल जाती है। (५) साफ अफीम १०५ मिनट सूंघनेसे नींद आती है। (६) उसका टुकड़ा धूपमें रखनेसे जल्दी गलने लगता है। (७) जलानेसे जलते समय उसकी ज्वाला साफ़ होती है, और उसमें धूआँ ज़ियादा नहीं होता। अगर जलती हुई अफीम बुझाई जाय, तो उसमेंसे अत्यन्त तेज़ मादक गन्ध निकलती है। जिस अफीममें इसके विपरीत गुण हों, उसे खराब समझना चाहिये। अफीम शोधनेकी विधि ।। अफीमको खरल में डालकर, ऊपरसे अदरखका रस इतना डालो, जितनेमें वह डूब जाय; फिर उसे घोटो । जब रस सूख जाय, फिर रस डालो और घोटो। इस तरह २१ बार अदरखका रस डाल-डालकर घोटनेसे अफीम दवाके काम-योग्य शुद्ध हो जाती है। .. नोट- हरबार घुटाईसे रस सूखनेपर उतना ही रस डालो, जितनेमें अफीम डूब जाय । इस तरह अफ्रीम साफ़ होती है। For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ११६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा - चन्द्रोदय | हमेशा अफीम खानेवालों की हालत | हमेशा अफीम खानेवालोंका शरीर दिन-व-दिन कमजोर होता जाता है। उनकी सूरत - शकलपर रौनक नहीं रहती, चेहरा फीका पड़ जाता है और आँखें घुस जाती हैं । उनके शरीर के अवयव निकम्मे और बलहीन हो जाते हैं । सदा क़ब्ज़ बना रहता है, पाखाना बड़ी मुश्किल से होता है, बहुत काँखनेसे ॐ टके-से मैंगने या बकरी-की-सी मैंगनी निकलती हैं । पाखाना साफ़ न होने से पेट भारी रहता है, भूख कम लगती है, कभी-कभी चौथाई खुराक खाकर ही रह जाना पड़ता है । जो कुछ खाते हैं, हज़म नहीं होता । हाथ-पैर गिर पड़े-से रहते हैं । शरीर के स्नायु या नसें शिथिल हो जाती हैं । स्त्री - प्रसङ्गको मन नहीं करता । रातको अगर ज़रा भी नशा कम हो जाता है, तो हाथ-पैर भड़कते हैं। मानसिक शक्तिका हास होता रहता है। शारीरिक या मानसिक परिश्रमकी सामर्थ्य नहीं रहती । हर समय आराम करने और पड़े पड़े हुक्का गुड़गुड़ानेको मन चाहता है । क्योंकि अफीम खानेवालोंको तमाखू अच्छी लगती है । बहुत क्याअफीम खानेवाले जल्दी ही बूढ़े होकर मृत्यु मुख में पतित होते हैं। जो लोग डली निगलते हैं, उन्हें घण्टे - भर में पूरा नशा आ जाता है; पर २० मिनट बाद उसका प्रभाव होने लगता है । जो घोलकर पीते हैं, उनको घण्टे में नशा चढ़ जाता है और जो चिलममें धरकर तमाखूकी तरह पीते हैं, उन्हें तत्काल नशा आता है । इसे मादक पीना कहते हैं । यह सबसे बुरा है । इसके पीनेवाला बिल्कुल बे-काम हो जाता है । जो लोग स्तम्भनके लालचसे मदक पीते हैं, उन्हें छ दिन बेशक आनन्द आता है, पर थोड़े दिन बाद ही वे स्त्रीके काम के नहीं रहते; धातु सूखकर महाबलहीन हो जाते हैं - बलका नामोनिशान नहीं रहता । चेहरा और ही तरहका हो जाता है, गाल पिचक जाते हैं और हड्डियाँ निकल आती हैं । जब For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"अफ्रीम"। ११७ नशा उतर जाता है, तब तो वे मरी-मिट्टी हो जाते हैं। उबासियों-परउबासियाँ आती हैं, आँखों में पानी भर-भर आता है, नाकसे मवाद या जल गिरता और हाथ-पैर भड़कने लगते हैं। हाँ, जब वे अफीम खा लेते हैं, तब घड़ी-दो-घड़ी बाद कुछ देरको मर्द हो जाते हैं। उनमें कुछ उत्साह और फुर्ती आ जाती है। हर दिन अफीम बढ़ानेकी इच्छा रहती है। अगर किसी दिन बाजरे-बराबर भी अफीम कम दी जाती है, तो नशा नहीं आता; इसलिये फिर अफीम खाते हैं। अगले दिन फिर उतनी ही लेनी पड़ती है, इस तरह यह बढ़ती ही चली जाती है। अगर अफ़ीम न बढ़े और बहुत ही थोड़ी मात्रा में खाई जाय तथा इसपर मन-माना दूध पिया जाय, तो हानि नहीं करती; बल्कि कितने ही रोगोंको दबाये रखती है। पर यह ऐसा पाजी नशा है, कि बढ़े बिना रहता ही नहीं। अगर यह किसी समय न मिले, तो आदमी मिट्टी हो जाता है, राह चलता हो, तो राहमें ही बैठ जाता है, चाहे फिर सर्वस्व ही क्यों न नष्ट हो जाय। मारवाड़में रहते समय, हमने एक अझोमवी ठाकुर साहबकी सच्ची कहानी सुनी थी। पाठकोंके शिक्षा-लाभार्थ उसे नीचे लिखते हैं:___ एक दिन, रेगिस्तानके जंगलों में, एक ठाकुर साहब अपनी नवपरिणीता बहूको ऊँटपर चढ़ाये अपने घर ले जा रहे थे । दैवसंयोगसे, राहमें उनकी अफ़ीम चुक गई। बस, आप ऊँटको बिठाकर, वहीं पड़ गये और लगे ठकुरानीसे कहने- "अब जब तक अफीम न मिलेगी, मैं एक कदम भी आगे न चल सकूँगा। कहींसे भी अफ़ीम ला । स्त्रीने बहुत-कुछ समझाया-बुझाया कि, यहाँ अफीम कहाँ ? घोर जङ्गल है, बस्तीका नाम-निशान नहीं। पर उन्होंने एक न सुनी । तब वह बेचारी उन्हें वहीं छोड़कर स्वयं अकेली ऊँटपर चढ़, अफ़ीमकी खोजमें आगे गई। कोस-भरपर एक झोंपड़ी मिली । इसने उस झोंपड़ीमें रहनेवालेसे कहा - "पिताजी ! मेरे For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । पतिदेव अफ्रीम खाते हैं, पर आज अफ्रीम निपट गई। इसलिये वह 'यहाँसे कोस-भर पर पड़े हैं और अफीम बिना आगे नहीं चलते । वहाँ न तो छाया है, न जल है और डाकुओं का भय जुदा है। अगर आप कृपाकर थोड़ी-सी अफ़ीम मुझे दें, तो मैं जन्म-भर आपका ऐहसान न भूलू ।" उस मर्द ने उस बेचारी अबलासे कहा-"अगर तू एक घण्टे तक मेरे पास मेरी स्त्रीकी तरह रहे, तो मैं तुझे अफीम दे सकता हूँ।" स्त्रीने कहा - पिताजी ! मैं पतिव्रता हूँ। आप मुझसे ऐसी बातें न कहें ।” पर उसने बारम्बार वही बात कही; तब स्त्री उससे यह कहकर, कि मैं अपने स्वामीसे इस बात की आज्ञा ले आऊँ, तब आपकी इच्छा पूरी कर सकती हूँ, वहाँ से वह ठाकुर साहब के पास आई और उनसे सारा हाल कहा । ठाकुरने जवाब दिया-"बेशक, यह बात बहुत बुरी है, पर अफ्रोम बिना तो मेरी जान ही न बचेगी, अतः तू जा और जिस तरह भी वह अफीम दे ले आ।" स्त्री फिर उसी झोंपड़ीमें गई और उस झोंपड़ीवालेसे कहा-"अच्छी बात है, मेरे पति ने आज्ञा दे दी है। आप अपनी इच्छा पूरी करके मुझे अफीम दीजिये। मैं अपने नेत्रोंके सामने अपने प्राणाधारको दुःखसे मरता नहीं देख सकती । आपसे अफीम ले जाकर उन्हें खिलाऊँगी और फिर आत्मघात करके इस अपवित्र देहको त्याग दूंगी।" यह बात सुनते ही उस आदमीने कहा-“मा ! मैं ऐसा पापी नहीं । मैंने तेरे पतिको शिक्षा देनेके लिये ही वह बात कही थी। तू चाहे जितनी अफीम ले जा । पर अपने पतिकी अफीम छुड़ाकर ही दम लीजो।” कहते हैं, वह स्त्री उसी दिनसे जब वह अपने पतिको अफीम देती, अफ़ीमकी डलीसे दीवारपर लकीर कर देती। पहले दिन एक, दूसरे दिन दो, तीसरे दिन तीन -इस तरह वह लकीरें रोज एक-एक करके बढ़ाती गई। अन्तमें एक लकीर-भर For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"अफ्रीम"। ११६ अफीम रह गई और ठाकुर साहबका पीछा अफीम-राक्षसीसे छूट गया। मतलब यह है, अकीम अनेक गुणवाली होनेपर भी बड़ी बुरी है। यह दवाकी तरह ही सेवन करने योग्य है । इसकी आदत डालना बहुत ही बुरा है। जिन्हें इसकी आदत हो, वे इसे छोड़ दें। ऊपरकी विधिसे रोज़ जरा-जरा घटाने और घी-दूध खूब खाते रहनेसे यह छूट जाती है । हाँ, मनको कड़ा रखनेकी ज़रूरत है। नीचे हम यह दिखलाते हैं कि, अझीम छोड़नेवालेकी क्या हालत होती है। उसके बाद हम अफीम छोड़नेके चन्द उपाय भी लिखेंगे। अफीम छोड़ते समयकी दशा । जरा-जरा घटानेका नतीजा । जब आदमी रोज जरा-जरासी अफ़ीम घटाकर खाता है, तब उसे पीड़ा होती है, हाथ-पैर और शरीरमें दर्द होता है, जी घबराता है, मन काम-धन्धेमें नहीं लगता, पर उतनी ज़ियादा वेदना नहीं होती, जो सही ही न जा सके। अगर अफीम बाजरेके दाने-भर रोज़ घटाघटाकर खानेवालेको दी जाय, पर उसे यह न मालूम हो कि, मेरी अक्रीम घटाई जाती है, तो उतनी भी पीड़ा उसे न हो। यों तो बाजरेके दानेका दसवाँ भाग कम होनेसे भी खानेवालेको नशा कम आता है, पर जरा-जरासी नित्य घटाने और खानेवालेको मालूम न होने देनेसे बहुतोंकी अफीम छूट गई है । इस दशामें अफीम तोलकर लेनी होती है । रोज एक अन्दाजसे कम करनी पड़ती है; पर इस तरह बड़ी देर लगती है। इसलिये इसका एकदम छोड़ देना हो सबसे अच्छा है। एक हाते घोर कष्ट उठाकर, शीघ्र ही राक्षसीसे पीछा छूट जाता है। एकदमसे छोड़ देनेका नतीजा। अगर कोई मनुष्य अपनी अफ्रीमको एकदमसे छोड़ देता है, तो उसके शरीर, हाथ-पैर और पीठके बाँसे में बेहद पीड़ा होती है। For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० चिकित्सा-चन्द्रोदय । पीठका बाँसा फटा पड़ता है, क्षण-भर भी कल नहीं पड़ती । उसे न सोते चैन न बैठे कल । पैरोंमें जरा भी बल नहीं रहता । खड़े होनेसे गिर पड़ता है । चल-फिर तो सकता ही नहीं। उसे हर दम एक तरहका डर-सा लगा रहता है । वह हर किसीसे अफीम माँगता और कहता है कि, बिना अझीमके मेरी जान न बचेगी। पसीने इतने आते हैं, कि कपड़े तर हो जाते हैं, चाहे माघ-पूसके दिन ही क्यों न हों । इन दिनों क़ब्ज़ तो न जाने कहाँ चला जाता है, उल्टे दस्त-पर-दस्त लगते हैं । चौबीस घण्टेमें तीस-तीस और चालीस-चालीस दस्त तक हो जाते हैं। रात-दिन नींद नहीं आती, कभी लेटता है और कभी भडभड़ा कर उठ बैठता है । प्यासका जोर बढ़ जाता है । उत्साहका नाम नहीं रहता । बारम्बार पेशाबकी हाजत होती है । बीमारको अपना मर जाना निश्चित-सा जान पड़ता है; पर अफीम छोड़नेसे मृत्यु हो नहीं सकती। यह अफीम छोड़नेवालेके दिलकी कमजोरी है । लिख चुके हैं कि, १०।५. दिनका कष्ट है। __ अफ्रीमका ज़हरीला असर । . अफ्रीम स्वादमें कड़वी जहर होती है, इसलिये दूसरा आदमी किसीको मार डालनेकी ग़रजसे इसे नहीं खिलाता; क्योंकि ऐसी कड़वी चीज़को कौन खायगा ? हत्या करनेवाले संखिया देते हैं, क्योंकि उसमें कोई स्वाद नहीं होता। वह जिसमें मिलाया जाता है, मिल जाता है। अफीम जिस चीज़में मिलायी जाती है, वह कड़वी होनेके सिवा रङ्गमें भी काली हो जाती है । पर संखिया किसी भी पदार्थ के रूपको नहीं बदलता; अतः अफीमको स्वयं अपनी हत्या करनेवाले ही खाते हैं । बहुत लोग इसे तेलमें मिलाकर खा जाते हैं, क्योंकि तेलमें मिली अफीम खानेसे, कोई उपाय करनेसे भी खानेवाला बच नहीं सकता । कम-से-कम दो For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा--'अफ़ीम"। १२१ रत्ती अफ़ीम मनुष्यको मार डालती है । अफीम लेनेके समयसे एक घण्टेके अन्दर, यह अपना जहरीला असर दिखाने लगती है । इसको खानेवाला प्रायः चौबीस घण्टोंके अन्दर यमपुरको सिधार जाता है। - ज़ियादा अफ्रीम खानेसे पहले तो नींद-सी आती जान पड़ती है, फिर चक्कर आते और जी घबराता है । इसके बाद मनुष्य बेहोश हो जाता है और बहुत जोरसे चीखने-पुकारनेपर बोलता है। इसके बाद बोलना भी बन्द हो जाता है। नाड़ी भारी होनेपर भी धीमी, मन्दी और अनियमित चलती है । खाली होनेसे नाड़ी तेज चलती है। साँस बड़े जोरसे चलता है। दम घुटने लगता है। शरीर किसी कदर गरम हो जाता है। पसीने खूब आते हैं। नेत्र बन्द रहते हैं; आँखोंकी पुतलियाँ बहुत ही छोटी यानी सूईकी नोक-जितनी दीखती हैं । होठ, जीभ, नाखून और हाथ काले पड़ जाते हैं। चेहरा फीका-सा हो जाता है। दस्त रुक जानेसे पेट फूल जाता है। ___ मरनेसे कुछ पहले शरीर शीतल बर्फ-सा हो जाता है । आँखोंकी पुतलियाँ जो पहले सुकड़कर सूईकी नोक-जितनी हो गई थीं, इस समय फैल जाती हैं। हाथ-पैरोंके स्नायु ढीले हो जाते हैं। टटोलनेसे नब्ज या नाड़ी हाथ नहीं आती । थोड़ी देरमें दम घुटकर मनुष्य मर जाता है। ___ कभी-कभी अफीमके जहरसे शरीर खिंचता है, रोगी आनतान बकता है, कय होती और दस्त लगते हैं । इनके सिवा धनुस्तंभ वगैरः विकार भी हो जाते हैं। अगर अफीम बहुत ही अधिक मात्रामें खायी जाती है, तो वान्ति भी होती है। अगर रोगी बचनेवाला होता है, तो उसे होश आने लगता है, क्रय होती और सिरमें दर्द होता है। "तिब्बे अकबरी"में लिखा है-अफ़ीमसे गहरी नींद आती है, For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । जीभ रुकती है, आँखें गड़ जाती हैं, शीतल पसीने आते हैं, हिचकियाँ चलती हैं, श्वास रुक-रुककर आता और नेत्रोंके सामने अँधेरी आती है । सात माशे अफीमसे मृत्यु हो जाती है । अगर अफ़ीम तिलीके तेल में मिलाकर खाई जाती है, तो फिर संसारकी कोई दवा रोगीको बचा नहीं सकती। अफीम खाकर मरनेवालेके शरीरपर किसी तरहका ऐसा फेरफार नहीं होता, जिससे समझा जा सके कि, इसने अफीम खाई है। अफीम खानेवालेकी क़यमें अफ्रीमकी गन्ध आती है। पोष्ट मार्टम या चीराफारी करनेपर, उसके पेटमें अफीम पायी जाती है और सिरकी खून बहानेवाली नसें खनसे भरी मिलती हैं। ____ खाली पेट अफ़ीम खानेसे जल्दी जहर चढ़ता है । अफ़ीम खाकर सो जानेसे जहरका जोर बढ़ जाता है। जियादा अफीम खानेसे तीस मिनट बाद जहर चढ़ जाता है । सो जानेसे जहरका जोर बढ़ता है, इसीसे ऐसे रोगीको सोने नहीं देते। अफ़ीम छुड़ानेकी तरकीबें । पहली तरकीब (१) पहली तरकीब तो यही है कि, नित्य जरा-जरा-सी अफीम कम करें और घी-दूध आदि तर पदार्थ खूब खायँ । जरा-जरा-से कष्टोंसे घबरायें नहीं। कुछ दिनोंको अपने-तई बीमार समझ लें। पीछे अफ्रीम छूटनेपर जो अनिर्वचनीय आनन्द आवेगा, उसे लिखकर बता नहीं सकते । सारी अफ्रीम एक ही दिन छोड़नेसे ८।१० दिन तक घोर कष्ट होते हैं। पर जरा-जरा घटानेसे उसके शतांश भी नहीं । इस दशामें अक्रीमको तोलकर लो और रोज एक नियमसे घटाते रहो। For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष- उपविषोंकी विशेष चिकित्सा - "अफीम” । दूसरी तरकीब | (२) अफीम में आप दालचीनी, केशर, इलायची आदि पदार्थ पीसकर मिला लें। पीछे-पीछे इन्हें बढ़ाते जायँ और अफ़ीम कम करते जायें। साथ ही घी-दूध आदि तर पदार्थ खूब खाते रहें । अगर आप मोहन-भोग, हलवा, मलाई, मक्खन आदि ज़ियादा खाते रहेंगे, तो आपको अफीम छोड़नेसे कुछ विशेष कष्ट नहीं होगा । अगर वदनमें दर्द बहुत हो, तो आप नारायण तैल या कोई और वात-नाशक तैल मलवाते रहें । अगर नींद न आवे, तो जरा-जरा-सी भाँग तवेपर भूँ जकर और शहद में मिलाकर चाटो । पैरोंमें भी भाँगको बकरी के दूध में पीसकर लेप करो । इस तरह छोड़ने से ज़ियादा दस्त तो होंगे नहीं । अगर किसीको हों, तो उसे दस्त बन्द करनेवाली दवा भूलकर भी न लेनी चाहिये । ५/७ दिनमें आप ही दस्त बन्द हो जायँगे । अगर शरीर में बहुत ही दर्द हो, तो जरा-सा - शुद्ध बच्छनाभ विष घी में घिसकर चाटो । पर अतः भूलकर भी एक तिलसे जियादा न लेना । इस तरह हमने कितनों ही की अफीम छुड़ा दी । इस तरह छुड़ाने में इतने उपद्रव नहीं होते; पर तो भी प्रकृति-भेदसे किसीको ज़ियादा तकलीफ़ हो, तो उसे उपरोक्त नारायण तैल, भाँगका चूर्ण, बच्छनाभ विष वग़ैरः से काम लेना चाहिये । इन उपायोंसे एक माशे अफीम १५ दिनमें छूट जाती है । और भी देरसे छोड़ने में तो उपरोक्त कष्ट नाममात्रको ही होते हैं । यह घातक विष है, १२३ तीसरी तरकीब (३) अफीमको अगर एकदम छोड़ना चाहो तो क्या कहना ! कोई हानि आपको न होगी। हाँ, ८ १० दिन सख्त बीमार की तरह कष्ट उठाना होगा; फिर कुछ नहीं, सदा आनन्द है । इस दशा में नीम, परवल, गिलोय और पाढ़ - इन चारोंका काढ़ा दिनमें चार For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । बार पीओ । इस काढ़ेसे अफीमके कष्ट कम होंगे। दिनमें, ८/१० दफ़ा, आध-आध पाव दूध पीओ। हलवा, मोहन-भोग और मलाई खाओ। दिलमें धीरज रखो। दस्तोंके रोकनेको कोई भी दवा मत लो। हाँ, नींद और दर्द वगैररके लिये ऊपर नं० २ में लिखे उपाय करो । काढ़ा ११ दिन पीना चाहिये। अगर सिगरेट, तमाखूका शौक हो, तो इन्हें पी सकते हो। सूखी तली हुई भाँग भी गुड़में मिलाकर खा सकते हो। हमने कई बार केवल गहरी, पर रोगीके बलानुसार, भाँग खिला-खिलाकर और गरमीमें पिला-पिलाकर अफीम छुड़ा दी। इसमें शक नहीं, अफ़ीम छोड़ते समय धीरज, दिलकी कड़ाई और दूधघीकी भरती रखनेकी बड़ी ज़रूरत है । नोट-ये सभी उपाय हमारे अनेक बारके परीक्षित हैं। २५, ३० साल पहले ये सब उत्तम-उत्तम तरीके आयुर्वेदके धुरन्धर विद्वान् स्वर्ग-वासी पण्डितवर शंकरदासजी शास्त्री पदेके मासिक-पत्रसे हमें मालूम हुए थे। हमने उनकी सैकड़ों अनमोल युक्तियाँ रट-रटकर कण्ठाग्र कर ली और उनसे बारम्बार लाभ उठाया । दुःख है, महामान्य शास्त्रीजी इस दुनियामें और कुछ दिन न रहे । यों तो भारतमें अब भी एक-से-एक बढ़कर विद्वान् हैं; पर उन-जैसे तो वही थे । हमें इस विद्याका शौक़ ही उनके पत्रसे लगा । भगवान् उन्हें सदा स्वर्गमें रखें । अफीम-विष नाशक उपाय । (१) पुराने काराजोंको जलाकर, उनकी राख पानीमें घोलकर पिलानेसे, वमन होकर, अफ़ीमका जहर उतर जाता है। (२) कड़वे नीमके पत्तोंका यन्त्रसे निकाला अर्क पिलानेसे अनीमका विष उतर जाता है। ___ (३) मकोयके पत्तोंका रस पिलानेसे अफ़ीमका विष नष्ट हो जाता है । परीक्षित है। (४) बिनौले और फिटकरीका चूर्ण खानेसे अफ़ीमका विष उतर जाता है। For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष- उपविषोंकी विशेष चिकित्सा - " अफीम” । १२५ ( ५ ) बाग़की कपासके पत्तोंका रस पिलानेसे अफीमका विष उतर जाता है । नोट - नं० २-५ तकके नुसखे परीक्षित हैं । ( ६ ) अफीम खानेसे अगर पेट फूल जाय, अक्रीम न पचे, तो फौरन ही नाड़ीके पत्तों के सागका रस निकाल- निकालकर, दो-तीन बार, आध- पाव पिलाओ। इससे क्रय होकर, अफीमका विष शीघ्र ही उतर जायगा । ( ७ ) बहुत देर होने की वजहसे, अगर अफीम पेटमें जाकर पच गई हो, तो आध पाव आमले के पत्ते आध सेर जलमें घोट-छानकर तीन-चार बार में पिला दो । इस नुसखे से अफीम के सारे उपद्रव नाश होकर, रोगी अच्छा हो जायगा । नोट - नं० ६ और नं० ७ नुसख े एक सज्जनके परीक्षित हैं । (८) अरण्डी की जड़ या कोंपल पानी में पीसकर पीनेसे अफीमका विष उतर जाता है । ( ६ ) दो माशे हीरा हींग दो-तीन बारमें खानेसे अफीमका विष उतर जाता है | ( १० ) गायका घी और ताजा दूध पीनेसे अफीमका विष उतर जाता है । (११) अखरोटी गरी खानेसे अफीम उतर जाती है । ( १२ ) तेजबल पानीमें पीसकर, १ प्याला पीनेसे अफीमका विष उतर जाता है | (१३) कमलगट्टे की गिरी १ माशे और शुद्ध तूतिया २ रत्तीइन दोनों को पीसकर, गरम जलमें मिलाकर पीनेसे क्रय होतीं और अफीम तथा संखिया वग़ैरः हर तरहका विष निकल जाता है । (१४) दूध पीने से अफीम और भाँगका मद नाश हो जाता है । For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । . (१५) अरीठेका पानी थोड़ा-सा पीनेसे अफ्रीमका मद नाश हो जाता है। नोट-पाव-भर अफीमपर पाँच-सात बूंदें अरीठेके पान की डालो जायँ, तो उतनी अफ़ीम मिट्टीके समान हो जाय। .. (१६) नर्म कपासके पत्तोंका स्वरस, इमलीके पत्तोंका स्वरस और सीताफल के बीजोंकी गिरी--इनको पानीमें पीसकर पिलानेसे अफ्रीमका विष निस्सन्देह नाश हो जाता है। परीक्षित है। (१७) इमलीका भिगोया पानी, घी और राईके चूर्णका पानीइनके पिलानेसे अफीम उतर जाती है । (१८) फिटकरी और बिनौलोंका चूर्ण मिलाकर खिलानेसे अफीमका विष नाश हो जाता है। (१६) सुहागा घीमें मिलाकर खिलानेसे वमन होती और. अफीम निकल जाती है। (२०) “वैद्यकल्पतरु में एक सज्जनने अफीमका जहर उतारनेके नीचे लिखे उपाय लिखे हैं,--अगर जल्दी ही मालूम हो जाय, तो शीघ्र ही पेटमें गई हुई अफीमको बाहर निकालनेकी चेष्टा करो। डाक्टर आ जावे, तो स्टमक पम्प नामक यन्त्र द्वारा पेट खाली करना चाहिये। डाक्टर न हो तो वमन कराओ । वमन करानेके बहुत उपाय हैं:--(क) गरम पानी पिलाकर गलेमें पक्षीका * स्टमक पम्प (Stomach Pump) घरमें मौजूद हो तो हर कोई उससे काम ले सकता है; अतः उसको विधि नीचे लिखते हैं:___ स्टमक पम्पका लकड़ीवाला भाग दाँतोंमें रखो। पेटमें डालनेको नलीको तेलसे चुपड़कर, उसका अगला भाग मोड़कर या टेढ़ा करके, गलेमें छोड़ो। वहाँसे धीरे-धीरे पेटमें दाखिल करो। पम्पके बाहरके सिरेसे पिचकारी जोड़ दो। फिर उसमें पानी भरकर, ज़रा देर बाद उसे बाहर खींचो । इस तरह बाहर निकलनेवाले पानी में जब तक अफ़ीमकी गन्ध आवे तब तक, इस तरह पेटको बराबर धोते रहो। जब भीतरसे आनेवाले पानीमें अफीमकी गन्ध न पावे, तब इस कामको बन्द कर दो। For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"अफ़ीम"। १२७ पंख फेरकर वमन कराओ । (ख) २० ग्रेन सलफेट आफ जिंक थोड़ेसे जलमें घोलकर पिलाओ । (ग) राईका चूर्ण एक या दो चम्मच पानीमें मिलाकर पिलाओ । (घ) इपिकाकुआनाका पौडर १५ ग्रेन थोड़ेसे पानीमें मिलाकर पिलाओ । ये सब वमन करानेकी दवाएँ हैं । इनमेंसे किसी एकको काममें लाओ। अगर वमन जल्दी और ज़ोरसे न हो, तो गरम जल खूब पिलाओ या नमक मिलाकर जल पिलाओ। वमनकी दवापर नमकका पानी या गरम पानी पिलानेसे बड़ी मदद मिलती है; वमनकारक दवाका बल बढ़ जाता है। यह कय करनेकी बात हुई। . घी पिलाओ। घी विष-नाश करनेका सर्वश्रेष्ठ उपाय है । घीमें यह गुण है कि, वह क़यमें जहरको साथ लिपटाकर बाहर ले आता है। जब अफीमका विष शरीरमें फैल जाय, तब वमन करानेसे उतना लाभ नहीं। उस समय अफीमका विष नाश करनेवाली और अफीमके गुणके विपरीत गुणवाली दवाएँ दो । जैसे: (क) रोगीको सोने मत दो--उसे जागता रखो। सिरपर शीतल जलकी धारा छोड़ो । रोगीको धमकाओ, चिल्लाकर जगाओ और चूँ टीसे काटो। मतलब यह है, उसे तन्द्रा या ऊँघ मत आने दो, क्योंकि सोने देना बहुत ही बुरा है। (ख) वमन होनेके बाद, .पन्द्रह-पन्द्रह मिनटमें कड़ी काफी पिलाओ । उसके अभावमें चाय पिलाओ । इससे नींद नहीं आती। (ग) अगर नाड़ी बैठ जाय, तो लाइकर एमोनिया १० बूंद अथवा स्पिरिट एरोमेटिक ३० से ४० बूंद थोड़े-से जलमें मिलाकर पिलाओ। (घ) चल सके तो थोड़ी-थोड़ी ब्राण्डी पानीमें मिलाकर पिलाओ और दोनों पैरोंपर गरम बोतल फेरो। For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा - चन्द्रोदय | "सद्य कौस्तुभ" में भी यही सब उपाय लिखे हैं, जो ऊपर हमने "वैद्यकल्पतरु " से लिखे हैं । चन्द बातें छूट गई हैं, अतः हम उन्हें लिखते हैं:-- म या और किसी विषैली चीज़का जहर उतारनेके मुख्य दो मार्ग हैं: ( १ ) विष खाने के बाद तत्काल ख़बर हो जाय, तो वमन कराकर, पेटमें गया हुआ विष निकाल डालो । ( २ ) अगर विष खानेके बहुत देर बाद खबर मिले और उस समय विषका थोड़ा या बहुत असर खून में हो गया हो, तो उस विषको मारनेवाली विरुद्ध गुणकी दवाएँ दो, जिससे विषका असर नष्ट हो जाय । डाक्टर लोग वमन कराने के लिये " सलफेट आफ जिंक ३० ग्रेन या "इपिकाकुना पौडर" १५ ग्रेन तक गरम पानी में मिलाकर पिलाते हैं। इन दवाओंके बदले में आककी छालका चूर्ण १५ न देनेसे भी वमन हो जाती हैं। किसी भी वमनकी दवापर, बहुत-सा गरम पानी या नमकका पानी पीनेसे वमनको उत्तेजना मिलती है । अगर वमनसे सारा विष निकल जाय, तो फिर किसी दवा या उपचारकी जरूरत नहीं। अगर वमन होनेके बाद भी पूर्वोक्त विष-चिह्न नज़र आयें, तो समझ लो कि शरीर में विष फैल गया है। इस दशा में रोगीको जागता रखो -- सोने मत दो | जागता रखनेको मुँहपर या शरीरपर गीला कपड़ा रखो । खासकर मुँहपर गीला कपड़ा मारो । नेत्रोंमें तेज़ अञ्जन लगाओ। नाकके पास एमोनिया या कलीका चूना और पिसी हुई नौसादर रखो । रोगीको पकड़कर इधर-उधर घुमाओ और उससे बातें करो। बाद में काफी या चाय घण्टे में चार बार पिलाओ। इससे भी नींद न आवेगी । पिंडलियोंपर राई पीसकर लगाओ। जावित्री, लौंग, दालचीनी, केशर, इलायची आदि गरम और अफीम For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष- उपविषोंकी विशेष चिकित्सा "अफीम” । १२६ के विकार नाशक पदार्थ खिलाओ। अगर आदमी बेहोश हो, तो स्टमक-पम्पसे ज़हर निकालो ।। अगर एकदम बेहोश हो, तो बिजली लगाओ। अगर इससे भी लाभ न हो, तो कृत्रिम श्वास चलाओ । (२२) " तिब्बे अकबरी' में लिखा है: (क) सोया और मूली के काढ़े में शहद और नमक मिलाकर पिलाओ और क्रय कराओ । ( ख ) तेज़ दस्तावर दवा दो । - ( ग ) तिरियाक मसरुदीतूस सेवन कराओ । (घ) हींग और शहद घोले जलमें दालचीनी और कूट मिलाकर पिलाओ। (ङ) कालीमिर्च, हींग और देवदारु महीन कूटकर एक-एक गोली के समान खिलाओ । (च) तिरिया अरवा, अकरकरा और जुदेबेदस्तर लाभदायक हैं। (छ) जुन्देवेदस्तर सुँघाओ । कूटका तेल सिरपर लगाओ । हो सके तो शरीरपर भी ज़रूर मालिश करो । (ज) शराब में अकरकरा, दालचीनी और जुन्दे वेदस्तर - घिसकर पिलाओ। सिरपर गरम सिकताव करो। गरम माजून और कस्तूरी दो । यह हकीम खजन्दी साहबकी राय है । (झ) खाने-पीने की चीज़ोंमें केशर और कस्तूरी मिलाकर दो । जुलाब में तिरियाक और निर्विषी मिलाकर खिलाओ। सरू के फल, राई और अञ्जीर खिलाना भी हितकारी है । यह हकीम बहाउद्दीन साहबकी राय है । (ञ) अगर अफीम खानेवाला बेहोश हो, तो छींक लानेवाली दवा सुँघाओ, शरीरको मलो और पसीने लानेवाली दवा दो । (२३) बड़ी कटेरी के रसमें दूध मिलाकर पीने से अफीमका विष उतर जाता है । १७ For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३० चिकित्सा-चन्द्रोदय । 16 dpx Akadak ७ ' र कुचलेका वर्णन और उसकी व शान्तिके उपाय । कुचलेके गुणावगुण प्रभृति । MEAN चलेको संस्कृतमें कारस्कर, किम्पाक, विषतिन्दु, विषद्रुम, कुरा गरद्रुम, रम्यफल और कालकूटक आदि कहते हैं। इसे ke हिन्दीमें कुचला, बँगलामें कुचिले, मरहठीमें कुचला, गुजरातीमें झेरकोचला, अंग्रेजीमें पाइज़न-नट और लैटिनमें ष्ट्रिकनाँस नक्सवोमिका कहते हैं। कुचला शीतल, कड़वा, वातकारक, नशा लानेवाला, हल्का, पाँवकी पीड़ा दूर करनेवाला, कफपित्त और रुधिर-विकार नाश करनेवाला, कण्डू, कफ, बवासीर और व्रणको दूर करनेवाला, पाण्डु और कामलाको हरनेवाला तथा कोढ़, वातरोग, मलरोध और ज्वरनाशक है। कुचलेके वृक्ष मध्यम आकारके प्रायः वनोंमें होते हैं । इसके पत्ते पानके समान और फल नारङ्गीकी तरह सुन्दर होते हैं । इन फलोंके बीजोंको ही “कुचला" कहते हैं । यह बड़ा तेज़ विष है। ज़रा भी जियादा खानेसे आदमी मर जाता है । कुचलेकी मात्रा दो-तीन चाँवल तक होती है। आजकल विलायतमें कुचलेका सत्त निकाला जाता है। उसकी मात्रा एक रत्तीका तीसवाँ भाग या चौथाई चाँवल-भर होती है। सत्त सेवन करते समय बहुत ही सावधानीकी ज़रूरत है, क्योंकि यह बहुत तेज होता है। अधिक कुचला खानेका नतीजा । इसकी ज़ियादा मात्रा खाने या बेकायदे खानेसे पेटमें मरोड़ी, ऐंठनी, गलेमें खुश्की, खराश और रुकावट होती है । तथा शरीर ऐंठता For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"कुचला"। १३१ और नसें खिंचती हैं । शेषमें कम्प होता और फिर मृत्यु हो जाती है। ___ कुचलेके ज़ियादा खा जानेसे सामान्यतः पाँच मिनटसे लेकर आधे घण्टेके भीतर विषका प्रभाव दिखाई देता है। यानी इतनी देरमेंतीस मिनटमें-कुचलेका जहर चढ़ जाता है। कभी-कभी दस-बीस मिनट में ही आदमी मर जाता है। ज़ियादा-से-ज़ियादा ६ घण्टे तक कुचलेके जियादा खानेवाला जी सकता है। कुचलेके बीजोंका चूर्ण डेढ़ माशे, कुचलेका सत्त आधे गेहूँ-भर और एक्सट्रक्ट तीन-चार रत्ती खानेसे आदमी मर जाता है। ___ कुचलेकी ज़ियादा मात्रा खानेसे अधिक-से-अधिक एक या दो घण्टेमें उसका जहरी प्रभाव नजर आता है । पहले सिर और हाथपैरोंके स्नायु खिंचने लगते हैं । थोड़ी देरमें सारा बदन तनने लगता है तथा हाथ-पैर काँपते और अकड़ जाते हैं। दाँती भिंच जाती है, मुँह नहीं खुलता, मुँह सूखता है, प्यास लगती है, मैं हमें झाग आते हैं तथा मुंहपर खून जमा होता है, अतः चेहरा लाल हो आता है। इतनी हालत बिगड़ जानेपर भी, कुचला जियादा खानेवालेकी मानसिक शक्ति उतनी कमजोर नहीं होती। "वैद्यकल्पतरु"में एक सज्जन लिखते हैं-कुचलेको अँगरेजी में "नक्स-वोमिका" कहते हैं। वैद्य लोग कुचलेको और डाक्टर लोग स्टिकेनिया और नक्सवोमिका--इन दोनोंको बनावटी दवाकी तरह काममें लाते हैं । अगर कुचला जियादा खा लिया जाता है, तो जहर चढ़ जाता है । जहरके चिह्न-सारे चिह्न-धनुर्वातके जैसे होते हैं। खानेके बाद थोड़ी देर में या एकाध घण्टेमें ज़हरका असर मालूम होता है । नसोंका खिंचना, कुचलेके जहरका मुख्य चिह्न है। उपाय:-- (१) नसें ढीली करनेवाली दवाएँ देनी चाहियें । जैसे,--अफीम, कपूर, क्लोरोफार्म या क्लारस हाइड्रेट आदि । For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३२ चिकित्सा - चन्द्रोदय । ( २ ) घी पिलाना मुख्य उपाय है । तुरन्त ही घी पिलाकर क़य करा देने से ज़हर का असर नहीं होता । कुचलेके विकार और धनुस्तंभ के लक्षणों का मुक़ाबला । जियादा कुचला खा जानेसे, जब उसके विषका प्रभाव शरीरपर होता है, तब प्रायः धनुस्तंभ रोगके-से लक्षण होते हैं । पर चन्द बातों में फर्क होता है, अतः हम धनुस्तंभ रोग और कुचलेके विष के लक्षणोंका मुक़ाबला करके दोनोंका अन्तर बताते हैं: ( १ ) कुचले के ज़हरीले लक्षण आरम्भ से ही साफ़ दिखाई देते हैं और जल्दी-जल्दी बढ़ते जाते हैं; पर धनुस्तंभ के लक्षण आरम्भ में अस्पष्ट होते हैं; यानी साफ़ दिखाई नहीं देते, किन्तु पीछे धीरे-धीरे बढ़ते रहते हैं । (२) कुचलेके ज़हरीले असर से पहले, सारे शरीर के स्नायु खिंचने लगते हैं और पीछे मुँह और दाँतोंकी कतार भिंचती है; पर धनुस्तंभ रोग होनेसे पहले मुँह और दाँतोंकी कतार भिंचती है और पीछे शरीर के भिन्न-भिन्न अङ्गों के स्नायु खिंचने या तनने लगते हैं । ( ३ ) कुचले से आरम्भ यानी शुरूमें ही शरीर धनुष या कमानकी तरह नब जाता है; पर धनुस्तंभ रोग होने से शरीर पीछे धीरे-धीरे धनुष या कमानकी तरह नबने लगता है । नोट -- कुचले से पहले ही स्नायु या नसें खिंचने लगती हैं, इससे पहले ही --शुरू में ही शरीर धनुषकी तरह नब जाता है, क्योंकि नसों के खिंचाव या तनाव से ही तो शरीर कमानकी तरह मुकता है और नसों या स्नायुओं को संकुचित करनेवाला वायु है । इसके विपरीत धनुस्तंभ रोग में स्नायु पीछे खिंचने लगते हैं, इसीसे शरीर भी धनुषकी तरह पीछे ही नबता है । For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"कुचला"। १३३ .. (४) कुचला ज़ियादा खा जानेसे जो जहरीला असर होता है, उससे हर दो-दो या तीन-तीन मिनटमें वेग आते और जाते हैं। जब वेग आता है, तब शरीर खिंचने लगता है और जब वेग चला जाता है और दूसरा वेग जब तक नहीं आता, इस बीचमें रोगीको चैन हो जाता है-शरीर तननेकी पीड़ा नहीं होती । जब दूसरा वेग फिर दो या तीन मिनटमें आता है, तब फिर शरीर खिंचने लगता है; पर धनुस्तम्भ रोग होनेसे, वेग एकदम चला नहीं जाता । हाँ, उसका ज़ोर कुछ देरके लिये हल्का हो जाता है । वेगका जोर हल्का होनेसे शरीरका खिंचाव भी हल्का होना चाहिये, पर हल्का होता नहीं, शरीर ज्यों-का-त्यों बना रहता है। खुलासा . कुचलेसे दो-दो या तीन-तीन मिनटमें रह-रहकर शरीर तनता या खिंचता है । जब वेग चला जाता है और जितनी देर तक फिर नहीं आता, रोगी आरामसे रहता है, पर धनुस्तम्भमें खींचातानीका वेग केवल जरा हल्का होता है--साफ नहीं जाता और वेग हल्का होनेपर भी शरीर जैसे-का-तैसा बना रहता है। और भी खुलासा कुचलेके विषैले प्रभाव और धनुस्तम्भ रोग-दोनोंमें ही वेग होते हैं। कुचलेवाले रोगीको दो-दो या तीन-तीन मिनटको चैन मिलता है, पर धनुस्तम्भवालेको इतनी-इतनी देरको भी आराम नहीं मिलता। (५) कुचलेका बीमार दो-चार घण्टोंमें मर जाता है, अथवा आराम हो जाता है; पर धनुस्तम्भका बीमार दो-चार घण्टों में ही मर नहीं जाता--वह एक, दो, चार या पाँच दिन तक जीता रहता है और फिर मरता है या आराम हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३४ - चिकित्सा-चन्द्रोदय । an खुलासा-कुचलेका रोगी एक, दो, चार या पाँच दिन तक बीमार रहकर नहीं मरता । वह अगर मरता है, तो दो-चार घण्टोंमें ही मर जाता है । पर धनुस्तम्भ रोगका रोगी घण्टोंमें नहीं मरता, कम-से-कम एक रोज़ जीता है। धनुस्तंभ रोगी भी १० रात नहीं जीता; यानी १० दिनके पहले ही मरनेवाला होता है तो मर जाता है । कहा है-"धनुस्तंभे दशरात्रौं न जीवति ।" यह भी याद रखो कि, कुचले और धनुस्तंभके रोगी सदा मर ही नहीं जाते; श्रारोग्य-लाभ भी करते हैं। भेद इतना ही है, कि कुचलेवाला या तो दो-चार घण्टोंमें श्राराम हो जाता है या मर जाता है; पर धनुस्तंभवाला एक, चार या पाँच दिनों तक जीता है । फिर या तो मर जाता है या आरोग्य-लाभ करता है । __ नोट-धनुस्तंभ रोगके लक्षण लिख देना भी नामुनासिब न होगा। धनुस्तंभके लक्षण-दूषित वायु नसोंको सुकेड़कर, शरीरको धनुषकी तरह नबा देता है; इसीसे इस रोगको "धनुस्तंभ" कहते हैं। इस रोगमें रङ्ग बदल जाता है, दाँत जकड़ जाते हैं, अङ्ग शिथिल या ढीले हो जाते हैं, मूर्छा होती और पसीने आते हैं । धनुस्तंभ रोगी दस दिन तक नहीं बचता । कुचलेका विष उतारनेके उपाय । प्रारम्भिक उपाय(क) अगर कुचला या संखिया वगैरः जहर खाते ही मालूम हो जाय, तो फौरन वमन कराकर जहरको आमाशयसे निकाल दो; क्योंकि खाते ही विष आमाशयमें रहता है। आमाशयसे विषके निकल जाते ही रोगी आराम हो जायगा। (ख) अगर देरसे मालूम हो या इलाज में देर हो जाय और विष पक्काशयमें पहुँच जाय, तो दस्तोंकी दवा देकर, गुदाकी राहसे विषको निकाल दो। नोट-जहर खानेपर वमन और विरेचन कराना सबसे अच्छे उपाय हैं। इसके बाद और उपाय करो। कहा है:-"विषभुक्रवतेदद्यादूध्वं वा अधश्च शोधनं ।" यानी जहर खानेवालेको वमन और विरेचन दवा देनी चाहिये। वमन या कय कराना इसलिये पहले लिखा है, कि सभी ज़हर पहले आमाशयमें रहते हैं। जहाँ तक हो, उन्हें पहले ही वमन द्वारा निकाल देना चाहिये । For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"कुचला"। १३५ (१) वमन-विरेचन कराकर, कुचलेके रोगीको कपूरका पानी पिलाना चाहिये, क्योंकि कपूरके पानीसे कुचलेका जहर नष्ट हो जाता है। नोट-डाक्टर लोग कुचलेवालेको क्लोरोफार्म सुंघाकर या क्लोरल हायडट पिलाकर नशेमें रखते हैं। क्लोरल हायड्ट कुचलेके विवको नाश करता है। किसी-किसीने अफीम और कपूरकी भी राय दी है। उनकी राय है, कि नसे ढीली करनेवाली दवाएं दी जानी चाहिये । (२) दूधमें घी और मिश्री मिलाकर पिलानेसे कुचलेका जहर नष्ट हो जाता है। (३) कपूर १ माशे और घो १ तोले, - दोनोंको मिलाकर पिलानेसे धतूरे वगैरका ज़हर उतर जाता है। . (४) दरियायी नारियल पानी में पीसकर पिलानेसे सब तरहके विष नष्ट हो जाते हैं। (५) कुचलेके ज़हरवालेको फौरन ही घी पिलाने और कय करानेसे कुछ भी हानि नहीं होती । घी इस जहरमें सर्वोत्तम उपाय है। औषधि प्रयोग । यद्यपि कुचला प्राणघातक विष है, तथापि यह अगर मात्रा और उत्तम विधिसे सेवन किया जाय, तो अनेकों रोग नाश करता है, अतः हम नीचे कुचलेके चन्द प्रयोग लिखते हैं: (१) कुचलेको तेलमें पकाकर, उस तेलको छान लो। इस तेलकी मालिश करनेसे पीठका दर्द, वायुकी वजहसे और स्थानोंके दर्द तथा रींगन वायु वगैरः रोग आराम होते हैं। . (२) हरड़, पीपर, कालीमिर्च, सोंठ, हींग, सेंधानोन, शुद्ध गंधक और शुद्ध कुचला,--इन सबको बराबर-बराबर लेकर पीस-कूटकर छान लो और खरल में डालकर अदरख या नीबूका रस ऊपरसे दे-देकर खूब घोटो। घुट जानेपर दो-दो रत्तीकी गोलियाँ बना लो। सवेरेशाम या जरूरतके समय एक-एक गोली खाकर, ऊपरसे गरम For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ..चिकित्सा-चन्द्रोदय । जल पीनेसे शूल या दर्द आराम होता है। इसके सिवा मन्दाग्निकी यह उत्तम दवा है । इससे खूब भूख लगती और भोजन पचता है। परीक्षित है। कुचला शोधनेकी तरकीब-कुचलेके बीजोंको धीमें भून लो, बस वे शुद्ध हो जायेंगे । अथवा कुचलेको काँजीके पानी में ६ घण्टे तक, दोलायन्त्रकी विधिसे, पकायो । इसके बाद उसे घीमें भून लो । यह शुद्धि और भी अच्छी है । ___ कुचला शोधनेकी सबसे अच्छी विधि यह है--श्राध सेर मुलतानी मिट्टीको दो सेर पानीमें घोलकर एक हाँडीमें भर दो, फिर उसीमें एक पाव कुचला भी डाल दो। इस हाँडीको चूल्हेपर रख दो और नीचेसे मन्दी-मन्दी श्राग लगने दो । जब तीन घण्टे तक आग लग चुके, कुचलेको निकालकर, गरम जलसे खूब धो लो। फिर छुरी या चाकूसे कुचलेके ऊपरके छिलके उतार लो और दोनों परतोंके बीचको पान-जैसी जीभी निकाल-निकालकर फेंक दो । इसके बाद उसके महीन-महीन चाँवल-जैसे टुकड़े कतरकर, छायामें सुखाकर, बोतलमें भर दो। यह परमोत्तम कुचला है। इसमें कड़वापन भी नहीं रहता। इसके सेवनसे ८० प्रकारके वातरोग निश्चय ही प्राराम हो जाते हैं। अनुपान-योगसे यह जलन्धर, लकवा, पक्षाघात, बदनका रह जाना, गठिया और कोढ़ आदिको नाश. कर देता है । नसोंमें ताक़त लाने, कामदेवका बल बढ़ाने और कफके रोग नाश करने में अध्यर्थ महौषधि है। बावले कुत्ते का विष इसके सेवन करनेसे जड़से नाश हो जाता है। (३) शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध बच्छनाभ विष, अजवायन, त्रिफला, सज्जीखार, जवाखार, संधानोन, चीतेकी जड़की छाल, सफ़ेद जीरा, कालानोन, बायबिडङ्ग और त्रिकुटा--इन सबको एक-एक तोले लो और इन सबके वजनके बराबर तेरह तोले शोधे हुए कुचलेका चूर्ण भी लो । फिर इन चौदहों चीजोंको महीन पीस लो। शेषमें, इस पिसे चूर्णको खरल में डालकर नीबूका रस डाल-डालकर घोटो। जब मसाला घुट जाय, दो-दो रत्तीकी गोलियाँ बना लो। इन गोलियोंको यथोचित् अनुपानके साथ सेवन करनेसे मन्दाग्नि, अजीर्ण, आमविकार, जीर्णज्वर और अनेक वातके रोग नाश होते हैं । परीक्षित है। नोट-पारा और बच्छनाभ विष शोधनेकी विधि चिकित्सा-चन्द्रोदय दूसरे, For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषांकी विशेष चिकित्सा-"कुचला"। १३७ भागके पृष्ठ ५७६-७७ में देखिये । पारा, गन्धक, कुचला और बच्छनाभ विष भूलकर भी बिना शोधे दवामें मत डालना । (४) बलाबल-अनुसार, एकसे ६ रत्ती तक कुचला पानीमें डालकर औटाओ और छान लो। इस जलके पीनेसे भोजन अच्छी तरह पचता है । अगर अजीर्णसे बीच-बीच में क़य होती हों, तो यही पानी दो। अगर वात प्रकृतिवालोंको वात-विकारोंसे तकलीफ़ रहती हो, तो उन्हें यही कुचलेका पानी पिलाओ। कुचलेसे वात-विकार फौरन दब जाते हैं। वात-प्रकृतिवालोंको कुचला अमृत है। जिन अफीम खानेवालोंके पैरोंमें थकान या भड़कन रहती हो, वे इस पानीको पिया करें, तो सब तकलीफें रफ़ा होकर आनन्द आवे । इन सब शिकायतोंके अलावा कुचलेके पानीसे मन्दाग्नि, अरुचि, पेटकी मरोड़ी और पेचिश भी आराम होती है । __नोट--शौक़में श्राकर कुचला ज़ियादा न लेना चाहिये । अगर कुचला खाकर गरम पानी पीना हो, तो दो-तीन चाँवल-भर शुद्ध कुचला खाना चाहिये और ऊपरसे गरम पानी पीना चाहिये । अगर प्रौटाकर पीना हो, तो बलाबल-अनुसार एकसे ६ रत्ती तक पानीमें डालकर प्रौटाना और छानकर पानी-मान पीना चाहिए। (५) कुचलेको पानीके साथ पीसकर मुंहपर लगानेसे मुंहकी श्यामता-कलाई और व्यंग आराम होती है। गीली खुजली और दादोंपर इसका लेप करनेसे वे भी आराम हो जाते हैं। (६) कुचलेकी उचित मात्रा खाने और ऊपरसे गरम जल पीनेसे पक्षवध, स्तंभ, आमवात, कमरका दर्द, अकुलनिसाँ- चूतड़से पैरकी अँगुली तककी पीड़ा- और वायु-गोला-ये सब रोग आराम होते हैं। स्नायुके समस्त रोगोंपर तो यह रामवाण है। यह पथरीको फोड़ता, पेशाब लाता और बन्द रजोधर्मको जारी करता है। नोट-हिकमतकी पुस्तकोंमें नं. ६ के गुण लिखे हैं । मात्रा २ रत्तीकी लिखी है। यह भी लिखा है कि, घी और मिश्री पिलाने और कय करानेसे इसका दर्प नाश हो जाता है । यह तीसरे दर्जेका गरम, रूखा, नशा लानेवाला और घातक विष है। स्वादमें कड़वा है। कुचलेका तेल लगाकर और कुचला खिलाकर, For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । हमने अनेक कष्टसाध्य वायु-रोग आराम किये हैं। पर इस बातको याद रखना चाहिये कि नये रोगोंमें कुचला लाभके बजाय हानि करता है। जब रोग पुराने हो जायँ, कम-से-कम चार-छ महीने के हो जायँ, उन रोगोंसे सम्बन्ध रखनेवाले, वात-दोषके सिवा और दोषोंकी शान्ति हो जाय, तभी इसे देनेसे लाभ होता है। मतलब यह है, पुराने वायु-रोगमें कुचला देना चाहिये, उठते ही नये रोगमें नहीं। - (७) शुद्ध कुचलेका चूर्ण गरम जलके साथ लेनेसे खूब भूख लगती है। साथ ही मन्दाग्नि, अजीर्ण, पेटका दर्द, मरोड़ी, पैरोंकी पिंडलियोंका दर्द या भड़कन, ये सब रोग नाश हो जाते हैं। - (८) किसी रोगसे कमजोर हुए आदमीको कुचला सेवन करानेसे बदनमें ताक़त आती है और रोग बढ़ने नहीं पाता । जिन रोगोंमें कमजोरी होती है, उन सबमें कुचला लाभदायक है। • (2) जो बालक शारीरिक या मानसिक कमजोरीसे रातको बिछौनोंमें पेशाब कर देते हैं, उन्हें उचित मात्रामें कुचला खिलानेसे उनकी वह खराब आदत छूट जाती है । (१०) पुराने बादीके रोगोंमें कुचलेकी हल्की मात्रा लगातार सेवन करनेसे जो लाभ होता है, उसकी तारीफ़ नहीं कर सकते । कमरका दर्द, कमरकी जकड़न, गठिया, जोड़ोंका दर्द, पक्षाघात-- एक तरफ़का शरीर मारा जाना, अर्दित रोग-मुंह टेढ़ा हो जाना, चूतड़से पैरकी अँगुली तकका दर्द और झनझनाहट--अगर ये सब रोग पुराने हों, चार-छ महीनेके या ऊपरके हों-इनके साथके मूर्छा कम्प आदि भयङ्कर उपद्रव शान्त हो गये हों, तब आप कुचला सेवन कराइये। आप फल देखकर चकित हो जायँगे। भूरि-भूरि प्रशंसा करेंगे। मात्रा हल्की रखिये। नियमसे बिला नागा खिलाइये और महीने दो महीने तक उकताइये मत ।। . (११) जिस मनुष्यका हाथ लिखते समय काँपता हो और क़लम चलाते समय उँगलियाँ ठिठर जाती हों, उसे आप दो-चार महीने कुचला खिलाइये और आश्चर्य फल देखिये । For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी चिकित्सा - "कुचला"। १३६ (१२) अगर अधिक स्त्री-प्रसंगसे या हस्तमैथुनसे या और कारणसे वीर्य क्षय होकर शरीरमें कमजोरी बहुत ज़ियादा हो गई हो, शरीर और नसें ढीली पड़ गई हों अथवा वीर्यस्राव होता हो, लिंगेन्द्रिय निकम्मी या कमजोर हो गई हो-नामर्दीका रोग हो गया हो, तब आप कुचला सेवन कराइये; आपको यश मिलेगा। कुचला खिलानेसे वीर्य पुष्ट होकर शरीर मजबूत होगा। वीर्यवाहिनी नसोंका चैतन्य स्थान पीठ के बाँसेके ज्ञान-तन्तुओंमें है। वह भी कुचलेसे पुष्ट होता है, अतः वीर्यवाहक नसें जल्दी ही वीर्यको छोड़ नहीं सकतीं; इसलिये वीर्यस्राव रोग भी आराम हो जायगा । लिंगेन्द्रियकी कमजोरी या नामर्दीके लिये तो कुचला बेजोड़ दवा है। (१३) अगर किसीकी मानसिक शक्ति वीर्यक्षय होने या ज़ियादा पढ़ने-लिखने आदि कारणोंसे बहुतही घट गई हो, चित्त ठिकाने न रहता हो, जरासे दिमागी कामसे जी घबराता हो, बातें याद न रहती हों, तो आप उसे कुचला सेवन कराइये । कुचलेके सेवन करनेसे उसकी मानसिक शक्ति खूब बढ़ जायगी और रोगी आपको आर्शीवाद देगा। (१४) स्त्रियोंको होनेवाले वातोन्माद या हिस्टीरिया रोगमें भी कुचला बहुत गुण करता है। (१५) शुद्ध कुचला १ तोले और कालीमिर्च १ तोले--दोनोंको पानीके साथ महीन पीसकर, उड़दके बराबर गोलियाँ बना लो और छायामें सुखाकर शीशीमें रखलो । एक गोली बँगला पानमें रखकर, रोज सवेरे खानेसे पक्षावध, पक्षाघात, एकाङ्गवात, अर्द्धाङ्ग या फालिज,--ये रोग आराम हो जाते हैं। नोट-जब वायु कुपथ्यसे कुपित होकर, शरीरके एक तरफके हिस्सेको या कमरसे नीचेके भागको निकम्मा कर देता है, तब कहते हैं “पक्षाघात" हुआ है। इस रोगमें शरीरके बन्धन ढीले हो जाते हैं और चमड़ेमें स्पर्श-ज्ञान नहीं रहता । वैद्य इसकी पैदायश वातसे और हकीम कफसे मानते हैं। हिकमतके For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४० चिकित्सा-चन्द्रोदय । ग्रन्थोंमें लिखा है, इस रोगमें गरम पानी पीनेको न देना चाहिये । चनेकी रोटी कबूतरके मांस या तीतरके साथ खानी चाहिये । (१६) शुद्ध कुचलेको आगपर रख दो। जब धूआँ निकल जाय, उसे निकालकर तोलो। जितना कुचला हो, उतनी ही कालीमिर्च ले लो। दोनोंको पानीके साथ पीसकर उड़द-समान गोलियाँ बना लो। इन गोलियोंको बँगला पानमें रखकर, रोज सवेरे खानेसे अर्धाङ्ग रोग, पक्षवध या पक्षाघात-फालिज आराम होता है । इसके सिवा लकवा- अर्दित रोग, कमरका दर्द, दिमाग़की कमजोरी-ये शिकायतें भी नष्ट हो जाती हैं । अव्वल दर्जेकी दवा है। (१७) शुद्ध कुचला दो रत्ती और शुद्ध काले धतूरेके बीज दो रत्तीइन दोनोंको पानमें रखकर खानेसे अपतन्त्रक रोग नाश हो जाता है । ___ नोट-वायुके कोपसे हृदयमें पीड़ा प्रारम्भ होकर ऊपरको चढ़ती है और सिरमें पहुँचकर दोनों कनपटियोंमें दर्द पैदा कर देती है तथा रोगीको धनुषकी तरह मुकाकर आक्षेप और मोह पैदा कर देती है । इस रोगवाला बड़ी तकलीफसे ऊँचे-ऊँचे साँस लेता है। उनके नेत्र ऊपरको चढ़ जाते हैं, नेत्रोंको रोगी बन्द रखता है और कबूतरको तरह बोलता है। रोगीको शरीरका ज्ञान नहीं रहता। इस रोगको "अपतंत्रक" रोग कहते हैं । (१८) शुद्ध कुचला, शुद्ध अफीम और कालीमिर्च-तीनों बराबर-बराबर लेकर, महीन पीस लो। फिर खरलमें डालकर बँगला पानके रसके साथ घोटो और रत्ती-रत्ती-भरकी गोलियाँ बनाकर छायामें सुखा लो। इन गोलियोंका नाम "समीरगज-केशरी बटी" है। एक गोली खाकर, ऊपरसे पानका बीड़ा खानेसे दण्डपतानक रोग नाश होता है। इतना ही नहीं, इन गोलियोंसे समस्त वायु रोग, हैजा और मृगी रोग भी नाश हो जाते हैं। ___नोट-जब वायुके साथ कफ भी मिल जाता है, तब सारा शरीर डण्डेको तरह जकड़ जाता और डण्डेकी तरह पड़ा रहता है-हिल-चज नहीं सकता, उस समय कहते हैं "दण्डापतानक" रोग हुआ है। For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष उपविषोंकी विशेष चिकित्सा - " कुचला " । १४१ (१६) शुद्ध कुचला दो रत्ती पानमें नित्य खानेसे आक्षेप या - दण्डाक्षेप नामक वायु रोग नाश होता है । नोट -- जब नसों में वायु घुसकर आक्षेप करता है, तब मनुष्य हाथीपर बैठे श्रादमीकी तरह हिलता है, इसे ही आक्षेप या दण्डाक्षेप कहते हैं । > ( २० ) शुद्ध कुचला और अफीम दोनोंको बराबर-बराबर लेकर तेल में मिला लो और लँगड़ेपनकी तकलीफकी जगह मालिश करके, 'ऊपर से थूहर के या धतूरेके पत्ते गरम करके बाँध दो । नोट -- जब मोटी नसोंमें वायु घुस जाता है, तब नसोंमें दर्द और सूजन पैदा करके मनुष्यको लँगड़ा, लूला या पाँगला कर देता है। इस रोग में दर्द-स्थानपर जीके लगवाकर ख़राब खून निकलवा देना चाहिये । पीछे गरम रुईसे सेक करना और ऊपरका तेल मलकर गरम धतूरेके पत्त े बाँध देने चाहियें । ( २१ ) शुद्ध बु.चला २ रत्ती से आरम्भ करके, हर रोज़ थोड़ाथोड़ा बढ़ाकर दो माशे तक ले जाओ। इस तरह कुचला पानमें रखकर खाने से अकड़ वात रोग नाश हो जाता है। साथ ही दो तोले कुचलेको पाँच तोले सरसों के तेलमें जलाकर और घोटकर, उसकी मालिश करो । नोट- जब बहुत ही छोटी और पतली नसोंमें वायु घुस जाता है, तब हाथपैरोंमें फूटनी या दर्द होता है और हाथ-पैर काँपते तथा कड़ जाते हैं । इसी रोगको अकड़वात रोग कहते हैं। ऐसी हालत में कुचला सबसे उत्तम दवा है, क्योंकि नसोंके भीतरकी वायुको बाहर निकालने की सामर्थ्यं कुचलेसे बढ़कर और दवा नहीं है । (२२) थोड़ा-सा शुद्ध कुचला और कालीमिर्च -- पीसकर पिलाने से साँपका ज़हर उतर जाता है । ( २३ ) अगर साँपका काटा आदमी मरा न हो, पर बेहोश हो, तो कुचला पानी में पीसकर उसके गले में उतारो और कुचलेको ही पीसकर उसके शरीर पर मलो - अवश्य होशमें आ जायगा (२४) कुचला सिरके में पीसकर लगानेसे दाद नाश हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा - चन्द्रोदय | (२५) कुचला २ तोले, अफीम ६ माशे, धतूरेका रस ४ तोले, लहसनका रस ४ तोले, चिरायतेका रस ४ तोले, नीबूका रस ४ तोले, टेकारीका रस ४ तोले, तमाखूके पत्तोंका रस ४ तोले, दालचीनी ४ तोले, अजवायन ४ तोले, मेथी ४ तोले, कड़वा तेल १ सेर, मीठा तेल १ सेर और रेंडीका तेल आध सेर-- इन सबको मिलाकर, आगपर रखो और मन्दी मन्दी आग से पका । जब सब दवाएँ जलकर तेलमात्र रह जाय, उतार लो और छानकर बोतल में भर लो। इस तेल की मालिशसे सब तरहकी वातव्याधि और दर्द आराम होता है । यह तेल कभी फेल नहीं होता । परीक्षित है । (२६) कुचला ३ तोले, दालचीनी ३ तोले, खानेकी सुरती ३ तोले, लहसन ४ तोले, भिलावा ( तोले और मीठा तेल २० तोले -- सबको मिलाकर पकाओ; जब दवाएँ जल जायँ, तेलको उतारकर छान लो । इस तेलके लगानेसे गठिया और सब तरहका दर्द आराम होता है । (२७) शुद्ध कुचला, शुद्ध तेलिया विष और शुद्ध चौकिया सुहागा -- इन तीनोंको समान समान लेकर खरल करके रख लो । इसमेंसे रत्ती - रत्ती भर दवा रोज़ सवेरे शाम खिलाने से २१ दिनमें बावले कुत्तेका विष निश्चय ही नाश हो जाता है । नोट - कुत्ते के काटते ही घावका खून निकाल डालो और लहसन सिरके में पीसकर घावपर लगाम्रो अथवा कुचलेको ही आदमीके मूत्रमें पीसकर लगा दो । (२८) कुचलेका तेल लगानेसे नासूर सिरकी गंज और उकवत रोग आराम हो जाते हैं । For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"मिश्रित"। १४३ CY04 से जल-विष नाशक उपाय । (१) सोंठ, राई और हरड़--इन तीनोंको पीस-छानकर रख लो । भोजनसे पहले, इस चूर्ण के खानेसे अनेक देशोंके जल-दोषसे हुआ रोग नाश हो जाता है । परीक्षित है। (२) सोंठ और जवाखार--इन दोनोंको पीस-छानकर रख लो। इस चूर्णको गरम पानीके साथ फाँकनेसे जल-दोष नाश हो जाता है। परीक्षित है। (६) अनेक देशोंका जल पीना विष-कारक होता है, इसलिये जलको सोने, मोती और मूंगे आदिकी भाफसे शुद्ध करके पीना चाहिये। (४) बकायन और जवाखार-इसको पीस-छानकर, इसमेंसे थोड़ा-सा चूर्ण गरम पानीके साथ पीनेसे अनेक देशोंके जलसे हुए विकार नाश हो जाते हैं। Ka शराबका नशा उतारने के उपाय । (१) ककड़ी खानेसे शराबका नशा उतर जाता है। (२) “वैद्यकल्पतरु में लिखा है:(क) सिरपर शीतल जल डालो। (ख) धनिया पीसकर और शक्कर मिलाकर खिलाओ। (ग) इमलीके पानीमें खजूर या गुड़ घोलकर पिलाओ। (घ) भूरे कुम्हड़ेके रसमें दही और शक्कर मिलाकर पिलाओ। (ङ) घी और चीनी चटाओ। (च) ककड़ी खिलाओ। (३) बिना कुछ खाये, निहार मुंह, शराब पीनेसे सिरमें दर्द होता For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४४ चिकित्सा - चन्द्रोदय | है, गलेमें सूजन आती है, चिन्ता होती है और बुद्धि हीन हो जाती है । इस दशा में नीचे लिखे उपाय करो:-- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (क) स्द खोलो। ( ख ) क़य और दस्त कराओ । ( ग ) खट्टी छाछ पिलाओ। (घ) मेवाओं के रससे मिज़ाज ठण्डा करो । 100000000 „........................oco.. ०००० सिन्दूर, पारा, शिंगरफ, हरताल और नीला थोथा के विकार नाश करने के उपाय | COOCCO 500.000 CONDUC..... ( १ ) जवासेको पानीके साथ पीसकर और रस निकालकर पी। इससे पारे और शिंगरफके दोष नष्ट हो जायँगे । ( २ ) रेंडी का तेल ५ माशे श्रधपाव गाय के दूध में मिलाकर पीनेसे पारे और शिंगरफके विकार शान्त हो जाते हैं। ( ३ ) सात दिनों तक, अदरख और नोंन खाने और हर समय में रखने से सिन्दूरका विष नाश हो जाता है । (४) नोंन १५० रत्ती, तितलीकी पत्ती १५० रत्ती, चाँवल ३०० रती और अखरोट की गिरी ६०० रत्ती -- सबको अञ्जीरोंके साथ कूटपीसकर खानेसे सिन्दूरका ज़हर नाश हो जाता है । ( ५ ) पारेके दोष में शुद्ध गन्धक सेवन करना, सबसे अच्छा इलाज है । For Private and Personal Use Only ( ६ ) अगर कच्ची हरताल खाई हो, तो तत्काल वमन करा दो। अगर देर से मालूम हो, तो हरड़की छाल दूध और घीमें मिलाकर पिलाओ। (७) अगर नीलाथोथा जियादा खा लिया हो, तो घी-दूध मिला-कर पिलाओ और बीच-बीचमें निवाया पानी भी पिलाओ। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाँचवाँ अध्याय । 000000000000000000000000 शत्रुओं द्वारा भोजन-पान-तेल और ४ सवारी आदिमें प्रयोग किये हुए विषोंकी चिकित्सा। 8 000000000000000000000000 अमीरों की जान खतरे में 30 जाओंकी जान सदा खतरे में रहती है। उनके पुत्र और रा, भाई-भतीजे तथा और लोग उनका राज हथियानेके 600 लिये, उनकी मरण-कामना किया करते हैं। अगर उनकी इच्छा पूरी नहीं होती, राजा जल्दी मर नहीं जाता, तो वे लोग राजाके रसोइये और भोजन परोसनेवालोंसे मिलकर, उनको बड़ेबड़े इनामोंका लालच देकर, राजाके खाने-पीनेके पदार्थोंमें विष मिलवा देते हैं। राजाओंकी तरह धनी लोगोंके नज़दीकी रिश्तेदार बेटे-पोते प्रभृति और दूरके रिश्ते में लगनेवाले भाई-बन्धु, उनके माल-मतेके वारिस होनेकी ग़रजसे, उन्हें खाने-पीनेकी चीजों में जहर दिलवा देते हैं। इतिहासके पन्ने उलटनेसे मालूम होता है, कि प्राचीन कालसे अब तक, अनेकों राजा-महाराजा जहर देकर मार डाले गये। पाण्डु-पुत्र भीमसेनको कौरवोंने खाने में जहर खिला दिया था, मगर वे भाग्य-बलसे बच गये। एक मुसलमान शाहजादेको भाइयोंने भोजनमें जहर दिया। ज्योंही वह खाने बैठा, उसकी बहनने इशारा किया और उसने थालीसे हाथ अलग कर लिया। बस, इस तरह मरतामरता बच गया। अपने समयके अद्वितीय विद्वान् महर्षि दयानन्द सरस्वतीने भारतके प्रायः सभी धर्मावलम्बियोंको शास्त्रार्थ में परास्त For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । कर दिया; इसलिये शत्रुओंने उन्हें भोजनमें विष दे दिया। इस तरह एक महापुरुषका देहान्त हो गया। ऐसी घटनाएँ बहुत होती रहती हैं। बाज-बाज़ बदचलन औरतें अपने ससुर, देवर, जेठ और पत्तियोंको, अपनी राहके काँटे समझकर, विष खिला दिया करती हैं। अतः सभी लोगोंको, विशेषकर राजाओं और धनियोंको बेखटके भोजन नहीं करना चाहिये; सदा शंका रखकर, देख-भालकर और परीक्षा करके भोजन करना चाहिये । राजा-महाराजाओं और बादशाहोंके यहाँ, भोजन-परीक्षा करने के लिये, वैद्य-हकीम नौकर रहते हैं। उनके परीक्षा करके पास कर देनेपर ही राजा-महाराजा खाना खाते हैं। विष देने की तरकीबें। जहर देनेवाले, भोजनके पदार्थों में ही जहर नहीं देते । खानेकी चीजोंके अलावा, वे पीनेके पानी, नहानेके जल, शरीरपर लगानेके लेप, अञ्जन और तमाखू प्रभृति अनेक चीजों में जहर देते हैं। अँगरेजी राज्य होनेके पहले, भारतमें ठगोंका बड़ा ज़ोर था। वे लोग पथिकोंको जहरीली तम्बाकू पिलाकर, विष लगी खाटोंपर सुलाकर या और तरह विष-प्रयोग करके मार डाला करते थे। आजकल भी अनेक रेल द्वारा सफर करनेवाले मुसाफिर विषसे बेहोश करके लूटे जाते हैं । भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं, कि नीचे लिखे पदार्थों में बहुधा विष दिया जाता है:--(१) भोजन, (२) पीनेका पानी, (३) नहानेका जल, (४) दाँतुन, (५) उबटन, (६) माला, (७) कपड़े, (८) पलंग, (६) जिरह-बख्तर, (१०) गहने, (११) खड़ाऊँ, (१२) आसन, (१३) लगाने या छिड़कनेके चन्दन आदि, (१४) अतर, (१५) हुक्का, चिलम या तमाखू , (१६) सुरमा या अञ्जन, (१७) घोड़े-हाथीकी पीठ, (१८) हवा और सड़क प्रभृति । इस तरह अगर जहर देनेका मौका नहीं मिलता था, तो बहुतसे लोग अय्याश-तबियत अमीरोंके यहाँ विष-कन्यायें भेजते थे। वे For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शत्रुओं द्वारा दिये हुए विषकी चिकित्सा । १४७ कन्यायें लाजवाब सुन्दरी होती थीं; पर उनके साथ मैथुन करनेसे अमीरोंका खातमा हो जाता था। आजकल यह चाल है कि नहीं, इसका पता नहीं । अब आगे हम हर तरहके पदार्थो की विष-परीक्षा और साथ ही उनके विषनाशक उपाय लिखते हैं। PREPPEECRETOURCENSETTE. Cave विष-मिले भोजनकी परीक्षा। HOSPORNCERIEDEREDEO (१) खानेके पदार्थोंसे थोड़े-थोड़े पदार्थ कव्वे, बिल्ली और कुत्ते प्रभृतिके सामने डालो। अगर उनमें विष होगा, तो वे खाते ही मर जायँगे। (२) विष-मिले पदार्थों की परीक्षा चकोर, जीवजीवक, कोकिला, क्रौंच, मोर, तोता, मैना, हंस और बन्दर प्रभृति पशु-पक्षियों द्वारा, बड़ी आसानीसे होती है; इसीलिये बड़े-बड़े अमीरों और राजा-महाराजाओंके यहाँ उपरोक्त पक्षी पाले जाते हैं । इनका पालना या रखना फ़िजूल नहीं है । अमीरोंको चाहिये, अपने खानेकी चीजोंमेंसे नित्य थोड़ी-थोड़ी इन्हें खिलाकर, तब खाना खावें। विष-मिले पदार्थ खाने या देख लेने ही से चकोरकी आँखें बदल जाती हैं । जीवजीवक पक्षी विष खाते ही मर जाते हैं। कोकिलाकी कण्ठध्वनि या गलेकी सुरीली आवाज़ बिगड़ जाती है । क्रौंच पक्षी मदोन्मत्त हो जाता है । मोर उदास-सा होकर नाचने लगता है । तोतामैना पुकारने लगते हैं। हंस बड़े जोरसे बोलने लगता है । भौंरे गूंजने लगते हैं । साम्हर आँसू डालने लगता है और बन्दर बारम्बार पाखाना फिरने लगता है। (३) परोसे हुए भोजनमेंसे पहले थोड़ा-सा आगपर डालना चाहिये । अगर भोजनके पदार्थों में विष होगा, तो अग्नि चटचट करने लगेगी अथवा उसमेंसे मोरकी गर्दन-जैसी नीली और कठिनसे सहने योग्य ज्योति निकलेगी, धूआँ बड़ा तेज़ होगा और जल्दी शान्त न होगा तथा आगकी ज्योति छिन्न-भिन्न होगी। For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -wwwwwwwwwwww اممية مرة مرة مرة مرة جه می یا مرة ة مية مية مية مرة مرة يه به بيا به به به به تمامی نیا قره سه ر به ته مرة في فیه را به فرا می و امي مية مية مية مية مية مية مية مية ي CEOन्न १४८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । - हमारे यहाँ भोजनकी थालीपर बैठकर पहले ही जो बैसन्दर जिमानेकी चाल रक्खी गई है, वह इसी ग़रज़से कि, हर आदमीको भोजनके निर्विष और विषयुक्त होनेका हाल मालूम हो जाय और वह अपनी जीवन-रक्षा कर सके। पर, अब इस जमाने में यह चाल उठती जाती है। लोग इसे व्यर्थका ढोंग समझते हैं। ऐसी-ही-ऐसी बहुत-सी बेवकूफियाँ हमारी समाजमें बढ़ रही हैं। ecEERIENCEccaocEECCECREENSECRECENCEve है गन्ध या भाफसे विष-परीक्षा ।। UPEPPERCENTENCEDERENCERCENTERCENTER - थाल और थालियोंमें अगर जहर-मिला भोजन परोसा जाता है, तो उससे जो भाफ उठती है, उसके शरीरमें लगनेसे हृदयमें पीड़ा होती है, सिरमें दर्द होता है और आँखें चक्कर खाने लगती हैं। ___"चरक" में लिखा है, भोजनकी गन्धसे मस्तक-शूल, हृदयमें पीड़ा और बेहोशी होती है। विष-मिले पदार्थोंके हाथोंसे छूनेसे हाथ सूज जाते या सो जाते हैं, उँगलियोंमें जलन और चोंटनी-सी तथा नखभेद होता है। यानी नाखून फटे-से हो जाते हैं। अगर ऐसा हो, तो भूलकर भी कौर मुँहमें न देना चाहिये। चिकित्सा। . भाफके लगनेसे हुई पीडाकी शान्तिके लिये नीचे लिखे उपाय करोः (१) कूट, हींग, खस और शहदको मिलाकर, नाकमें नस्य दो और इसीको नेत्रोंमें आँजो। (२) सिरस, हल्दी और चन्दनको-पानीमें पीसकर, सिरपर लेप करो। (३) सफेद चन्दनको, पत्थरपर पानीके साथ पीसकर, हृदयपर लगाओ। For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शत्रुओं द्वारा दिये हुए विषकी चिकित्सा । १४६ (४) प्रियंगूफूल, बीरबट्टी, गिलोय और कमलको पीसकर, हाथोंपर लेप करनेसे उँगलियोंकी जलन, चोंटनी और नाखूनोंके फटनेमें शान्ति होती है। Sooozakosh 0 ग्रासमें विष-परीक्षा । ********26-28-%888 अगर राफलतसे ऊपर लिखे लक्षणोंवाला विष मिला भोजन कर लिया जाय या ग्रास मैं हमें दिया जाय, तो जीभ, अष्ठीला रोगकी तरह, कड़ी हो जाती है और उसे रसोंका ज्ञान नहीं होता। मतलब यह कि, जीभपर विष-मिले भोजनके पहुंचनेसे जीभको खानेकी चीज़ोंका ठीक-ठीक स्वाद मालूम नहीं होता और वह किसी क़दर कड़ी या सखत भी हो जाती है। जीभमें दर्द और जलन होने लगती है । मुंहसे लार बहने लगती है। अगर ऐसा हो, तो भोजनको फौरन ही छोड़कर अलग हो जाना चाहिये और पीड़ाकी शान्तिके लिये, नीचे लिखे उपाय करने चाहियें:-- चिकित्सा। (१) कूट, हींग, खस और शहदको पीस और मिलाकर, गोलासा बना लो और उसे मुँहमें रखकर कवलकी तरह फिराओ, खा मत जाओ। (२) जीभको जरा खुरचकर उसपर धायके फूल, हरड़ और जामुनकी गुठलीकी गरीको महीन पीसकर और शहदमें मिलाकर रगड़ो । अथवा (३) अङ्कोठकी जड़, सातलाकी छाल और सिरसके बीज शहदमें पीस या मिलाकर जीभपर रगड़ो। a@mamMomsung दाँतुन प्रभृति विष-परीक्षा । Jewester Cas अगर दाँतुन में विष होता है, तो उसकी कूँ ची फटी हुई, छीदी या For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । बिखरी-सी होती है । उस दाँतुनके करनेसे जीभ, दाँत और होठोंका मांस सूज जाता है। अगर जीभ साफ़ करनेकी जीभीमें विष होता है, तो भी ऊपर लिखे दाँतुनके-से लक्षण होते हैं । चिकित्सा। (१) पृष्ठ १४६ के ग्रास-परीक्षामें लिखे हुए नं० २ के और नं० ३ के उपाय करो। agar MASONE NE 272 ane na mama । पीनेके पदार्थों में विष-परीक्षा। अगर दूध, शराब, जल, पीने और शर्बत प्रभृति पीनेके पदार्थों में विष मिला होता है, तो उनमें तरह-तरहकी रेखा या लकीर हो जाती हैं और झाग या बुलबुले उठते हैं। इन पतली चीजोंमें अपनी या किसी चीज़की छाया नहीं दीखती। अगर दीखती है, तो दो छाया दीखती हैं । छायामें छेद-से होते हैं तथा छाया पतली-सी और बिगड़ी हुई-सी होती है। अगर ऐसा हो, तो समझना चाहिये कि, विष मिलाया गया है और ऐसी चीजोंको भूलकर भी जीभ तक न ले जाना चाहिये। NUP साग-तरकारीमें विष-परीक्षा । ___ *%%88284-88888888Hos. अगर साग-भाजी, दाल, तरकारी, भात और मांसमें विष मिला होता है, तो उनका स्वाद बिगड़ जाता है। वे पककर तैयार होते ही, चन्द मिनटोंमें ही - बासी-से या बुसे हुए-से हो जाते और उनमें बदबू आती है। अच्छे-से-अच्छे पदार्थों में सुगन्ध, रस और रूप नहीं रहता । पके हुए फलोंमें अगर विष होता है, तो वे फूट जाते या नर्म हो जाते हैं और कच्चे फल पके-से हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शत्रुओं द्वारा दिये हुए विषकी चिकित्सा। १५१ प्रामाशयगत विषके लक्षण । अगर विष आमाशय या मेदेमें पहुँच जाता है, तो बेहोशी, कय, पतले दस्त, पेट फूलना या पेटपर अफारा आना, जलन होना, शरीर काँपना और इन्द्रियोंमें विकार -ये लक्षण होते हैं। "चरक में लिखा है, अगर विष-मिले खानेके पदार्थ या पीनेके दूध, जल, शर्बत आदि आमाशयमें पहुंच जाते हैं, तो शरीरका रंग और-का-और हो जाता है, पसीने आते हैं तथा अवसाद और उत्क्लेश होता है, दृष्टि और हृदय बन्द हो जाते हैं तथा शरीरपर बूंदोंके समान फोड़े हो जाते हैं। अगर ऐसे लक्षण नज़र आवें और विष आमाशयमें हो, तो सबसे पहले “वमन" कराकर, विषको फौरन निकाल देना चाहिये। क्योंकि विषके आमाशयमें होनेपर “वमन"से बढ़कर और दवा नहीं है। चिकित्सा। (१) मैनफल, कड़वी तूम्बी, कड़वी तोरई और बिम्बी या कन्दूरी--इनका काढ़ा बनाकर पिलाओ। (२) एकमात्र कड़वी तूम्बीके पत्ते या जड़ पानीमें पीसकर पिलाओ। इससे वमन होकर विष निकल जाता है। यह नुसखा हर तरह के विषोंपर दिया जा सकता है। परीक्षित है। (३ ) कड़वी तोरई लाकर, पानीमें काढ़ा बनाओ। फिर उसे छानकर, उसमें घी मिला दो और विष खानेवालेको पिला दो। इस उपायसे वमन होकर जहर उतर जायगा। नोट-कड़वी तोरई भी हर तरहके विषपर लाभदायक होती है । अगर पागल कुत्ता काट खावे, तो कड़वी तोरई का गूदा मय रेशेके निकालकर, पावभर पानीमें अाध घण्टे तक भिगो रखो। फिर उसे मसल-छानकर, रोगीकी शक्ति For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । अनुसार पाँच दिन सवेरे ही पिलायो। इसके पिलानेसे क्रय और दस्त होकर सारा ज़हर निकल जाता है और रोगी चंगा हो जाता है। पर आनेवाली बरसात तक पथ्य-पालन करना परमावश्यक है। अगर गलेमें सूजन हो और गला रुका हो, तो कड़वी तोरई को चिलममें रखकर, तमाखुको तरह, पीने से लार टपकती है और गला खुल जाता है । (४) कड़वे परबल घिसकर पिलानेसे, कय होकर, विष निकल जाता है। (५) छोटी पीपर २ माशे, मैनफल ६ माशे और सैंधानोन ६ माशे-इन तीनोंको सेर-भर पानीमें जोश दो; जब तीन पाव पानी रह जाय, मल-छानकर गरम-गरम पिला दो और रोगीको घुटने मोड़कर बिठा दो, कय हो जायँगी। अगर कय होने में देर हो या कय खुलकर न होती हों, तो पखेरूका पंख जीभ या तालूपर फेरो अथवा अरण्डके पत्तेकी डंडी गलेमें घुसाओ अथवा गलेमें अंगुली डालो । इन उपायोंसे कय जल्दी और खूब होती हैं । परीक्षित है। (६) दही, पानी-मिले दही और चाँवलोंके पानीसे भी वमन कराकर जहर निकालते हैं। (७) जहरमोहरा गुलाब जलमें घिस-घिसकर, हर कयपर, एकएक गेहूँ-भर देनेसे कय होकर विष निकल जाता है । परीक्षित है । र पक्वाशयगत विषके लक्षण । जब जहर खाये या जहरके भोजन-पान खाये देर हो जाती है, विषके आमाशयमें रहते-रहते वमन या कय नहीं कराई जाती, तब विष पक्वाशयमें चला जाता है । जब विष पक्वाशयमें पहुंच जाता है, तब जलन, बेहोशी, पतले दस्त, इन्द्रियोंमें विकार, रंगका पीला पड़ जाना और शरीरका दुबला हो जाना-ये लक्षण होते हैं । कितनों हीके शरीरका रंग काला होते भी देखा जाता है। For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir nama शत्रुओं द्वारा दिये हुए विषकी चिकित्सा। १५३ ___"चरक" में लिखा है, विषके पक्वाशयमें होनेसे मूर्छा, दाह, मतवालापन और बल नाश होता है और विषके उदरस्थ होनेसे तन्द्रा, कृशता और पीलिया-ये विकार होते हैं। ___ नोट--विष-मिली खानेकी चीज़ खानेसे पहले कोठेमें दाह या जलन होती है । अगर विष-मिली छूने की चीज़ छुई जाती है, तो पहले चमड़ेमें जलन होती है। चिकित्सा। (१) कालादाना पीसकर और धीमें मिलाकर पिलानेसे दस्त होते और जहर निकल जाता है। (२) दही या शहद के साथ दूषी-विषारि-चौलाई आदि देनेसे भी दस्त हो जाते हैं। (३) कालादाना ३ तोले, सनाय ३ तोले, सोंठ ६ माशे और कालानोन डेढ़ तोले-इन सबको पीस-छानकर, फँकाने और ऊपरसे गरम जल पिलानेसे दस्त हो जाते हैं। विष खानेवालेको पहले थोड़ा घी पिलाकर, तब यह दवा फँकानी चाहिये । मात्रा ६ से ६ माशे तक । परीक्षित है। (४) नौ माशे कालेदानेको घीमें भून लो और पीस लो। फिर उसमें ६ रत्ती सोंठ भी पीसकर मिला दो । यह एक मात्रा है। इसको फाँककर, ऊपरसे गरम जल पीनेसे १७ दस्त अवश्य हो जाते हैं । अगर दस्त कम कराने हों, तो सोंठ मत मिलाओ । कमजोर और नरम कोठे वालोंको कालादाना ६ माशेसे अधिक न देना चाहिये। (५) छोटी पीपर १ माशे, सोंठ २ माशे, सैंधा नोन ३ माशे, बिधाराकी जड़की छाल ६ माशे और निशोथ ६ माशे-इन सबको पीसछानकर और १ तोले शहदमें मिलाकर चटाने और ऊपरसे, थोड़ा गरम जल पिलानेसे दस्त हो जाते हैं । यह जवानकी १ मात्रा है। बलाबल देखकर, इसे घटा और बढ़ा सकते हो । परीक्षित है। ... २० For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । नोट-चमन-विरेचन करानेवाले वैद्यको “चिकित्सा-चन्द्रोदय" पहले भागके अन्तमें लिखे हुए चन्द पृष्ठ और दूसरे भागके १३५-११२ तकके सफे ध्यानसे पढ़ने चाहिये । क्योंकि वमन-विरेचन कराना लड़कोंका खेल नहीं है । HAMIRMIRMIRENIMATHAKRE * मालिश करानके तेल में विष-परीक्षा । अगर शरीरमें मलने या मालिश करानेके तेलमें विष मिला होता है, तो वह तेल गाढ़ा, गदला और बुरे रङ्गका हो जाता है। अगर वैसे तेलकी मालिश कराई जाती है, तो शरीरमें फोड़े या फफोले हो जाते हैं, चमड़ा पक जाता है, दर्द होता है, पसीने आते हैं, ज्वर चढ़ आता है और मांस फट जाता है । अगर ऐसा हो, तो नीचे लिखे उपाय करने चाहियें:-- चिकित्सा। (१) शीतल जलसे शरीर धोकर या नहाकर, चन्दन, तगर, कूट, खस, वंशपत्री, सोमवल्ली, गिलोय, श्वेता, कमल, पीला चन्दन और तज--इन दवाओंको पानीमें पीसकर, शरीरपर लेप करना चाहिये। साथ ही इनको पीसकर, कैथके रस और गोमूत्रके साथ पीना भी चाहिये। नोट--सोमवल्जीको सोमलता भी कहते हैं। थूहरकी कई जातियाँ होती हैं, उनमेंसे सोमजता भी एक तरहकी बेल है । इस लताका चन्द्रमासे बड़ा प्रेम है। शुक्रपक्षकी पड़वासे हर रोज़ एक-एक पत्ता निकलता है और पूर्णमासीके दिन पूरे १५ पत्त हो जाते हैं। फिर कृष्ण पक्षकी पड़वासे हर दिन एक-एक पत्ता गिरने लगता है । अमावसके दिन एक भी पत्ता नहीं रहता। इसकी मात्रा २ माशेकी है । सुश्रुतमें इसके सम्बन्धमें बड़ी अद्भुत-अद्भुत बातें लिखी हैं। इस विषयपर फिर कभी लिखेंगे। सुश्रुतमें लिखा है, सिन्ध नदीमें यह तुम्बीकी तरह बहती पाई जाती है । हिमालय, विन्ध्याचल, सह्याद्रि प्रभृति पहाड़ोंपर इसका पैदा होना लिखा है। इसके सेवन करनेसे काया पलट होती है। मनुष्य-शरीर देवताओंके जैसा रूपवान और बलवान हो जाता For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शत्रुओं द्वारा दिये हुए विषकी चिकित्सा । १५५ है। हजारों वर्षको उम्र हो जाती है । अष्ट सिद्धि और नव निद्धि इसके सेवन करनेवाले के सामने हाथ बाँधे खड़ी रहती हैं। पर खेद है कि यह आजकल दुष्प्राप्य है। सूचना--अगर उबटन, छिड़कने के पदार्थ, काढ़े, लेप, बिछौने, पलँग, कपड़े और ज़िरह-बख्तर या कवचमें विष हो, तो ऊपर लिखे विष-मिले मालिशके तेलके जैसे लक्षण होंगे और चिकित्सा भी उसी तरह की जायगी । * अनुलेपनमें विष के लक्षण । केशर, चन्दन, कपूर और कस्तूरी आदि पदार्थों को पीसकर, अमीर लोग बदन में लगवाया करते हैं; इसीको अनुलेप कहते हैं। अगर विष-मिला अनुलेप शरीरमें लगाया जाता है, तो लगायी हुई जगहके बाल या रोएँ गिर जाते हैं, सिरमें दर्द होता है, रोमोंके छेदोंसे खून निकलने लगता है और चेहरेपर गाँठे हो जाती हैं। चिकित्सा। (१) काली मिट्टीको--नीलगाय या रोझके पित्ते, घी, प्रियंगू, श्यामा निशोथ और चौलाईमें कई बार भावना देकर पीसो और लेप करो । अथवा (२) गोबरके रसका लेप करो। अथवा मालतीके रसका लेप करो। अथवा मूषिकपणी या मूसाकानीके रसका लेप करो अथवा घरके धूएँ का लेप करो। नोट-मूषकपर्णीको मूसाकानी भी कहते हैं । इसके चुप ज़मीनपर फैले रहते हैं। दवाके काम में इसका सर्वाङ्ग लेते हैं । इससे विषैले-चूहेका विष नष्ट होता है। मात्रा १ मारोकी है । रसोईके स्थानों में जो धूसाँ-सा जम जाता है, उसे ही घरका धूआँसा कहते हैं। विष-चिकित्सामें यह बहुत काम आता है। सूचना--अगर सिरमें लगानेके तेल, इत्र, फुलेल, टोपी, पगड़ी, स्नानके जल और मालामें विष होता है, तो अनुलेपन विषकेसे लक्षण होते हैं और इसी ऊपर लिखी चिकित्सासे लाभ होता है। For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । mar मुखलेपगत विष के लक्षण । अगर मुँहपर मलनेके पदार्थों में विष होता है, तो उनके मुंहपर लगानेसे मुंह स्याह हो जाता है और मुहासे-जैसे छोटे-छोटे दाने पैदा हो जाते हैं, चमड़ी पक जाती है, मांस कट जाता है, पसीने. आते हैं, ज्वर होता और फफोले-से हो जाते हैं। चिकित्सा। (१) घी और शहद-नाबराबर-पिलाओ। (२) चन्दन और घीका लेप करो। (३) अर्कपुष्पी या अन्धाहूली, मुलेठी, भारंगी, दुपहरिया और साँठी--इन सबको पीसकर लेप करो। नोट-अर्क-पुष्पी संस्कृत नाम है । हिन्दी में, अन्धाहूली, अर्कहूली, अर्कपुष्प, क्षीरवृक्ष और दधियार कहते हैं। इसमें दूध निकलता है। फूल सूरजमुखीके समान गोल होता है । पत्त गिलोयके समान छोटे होते हैं। इसकी बेल नागर बेलके समान होती है । बंगलामें इसे "बड़क्षीरई" और मरहठीमें 'पहारकुटुम्बी' कहते हैं। दुपहरियाको संस्कृतमें बन्धूक या बन्धुजीव और बँगलामें "बान्धुलि पूलेर गाछ” कहते हैं । यह दुपहरीके समय खिलता है, इस से इसे दुपहरिया कहते हैं । माजी लोग इसे बागों में लगाते हैं । *** * ** * *** * ** * ** * सवारियोंपर विषके लक्षण । ___ अगर हाथी, घोड़े, ऊँट आदिकी पीठोंपर विष लगा हुआ होता है, तो हाथी-घोड़े आदिकी तबियत खराब हो जाती है, उनके मुंहसे लार गिरती है और उनकी आँखें लाल हो जाती हैं। जो कोई ऐसी विष-लगी सवारियोंपर चढ़ता है, उसकी साथलों--जाँघों, लिङ्ग, गुदा और फोतोंमें फोड़े या फफोले हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शत्रुओं द्वारा दिये हुए विषकी चिकित्सा । चिकित्सा। (१) वही इलाज करो जो पृष्ठ १५४ में विष-मिले मालिश करानेके तेलमें लिखा गया है । जानवरोंका भी वही इलाज करना चाहिये। . नोट--"चरक"में लिखा है, राजाके फिरनेकी जगह, खड़ाऊँ, जूते, घोड़ा, हाथी, पलङ्ग, सिंहासन या मेज़ कुरसी आदिमें विष लगा होता है, तो उनके काममें लानेसे सुइयाँ चुभानेकी-सी पीड़ा, दाह, क्लम और अविपाक होता है। =========== ===== I नस्य, हक्का, तम्बाकू और फूलोंमें विष । अगर नस्य या तम्बाकू प्रभृतिमें विष होता है, तो उनको काममें लानेसे मुंह, नाक, कान आदि छेदोंसे खून गिरता है, सिरमें पीड़ा होती है, कफ गिरता है और आँख, कान आदि इन्द्रियाँ खराब हो जाती हैं। चिकित्सा । (१) पानीके साथ अतीसको पीसकर लुगदी बना लो। लुगदीसे चौगुना घी लो और घीसे चौगुना गायका दूध लो। सबको मिलाकर, आगपर पकाओ और घी-मात्र रहनेपर उतार लो। इस घीके पिलानेसे ऊपर लिखे रोग नाश हो जाते हैं। (२) घीमें बच और मल्लिका--मोतिया मिलाकर नस्य दो । अगर फूलों या फूलमालाओंमें विष होता है, तो उनकी सुगन्ध मारी जाती है, रंग बिगड़ जाता है और वे कुम्हलाये-से हो जाते हैं। उनके सूं घनेसे सिरमें दर्द होता और नेत्रोंसे आँसू गिरते हैं। चिकित्सा। (१) मुखलेप-गत विषमें--पृष्ठ १५६ में-जो चिकित्सा लिखी है, वही करो अथवा पृष्ठ १४८ में गन्ध या भाफके विषका जो इलाज लिखा है, वह करो। For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ चिकित्सा-चन्द्रोदय। कानके तेल में विषके लक्षण । अगर कानोंमें डालनेके तेलमें विष होता है और वह कानोंमें डाला जाता है, तो कान बेकाम हो जाते हैं, सूजन चढ़ आती और. कान बहने लगते हैं । अगर सा हो, तो शीघ्र ही कर्णपूरण और नीचेका इलाज करना चाहियेः चिकित्सा । (१) शतावरका स्वरस, घी और शहद मिलाकर, कानोंमें डालो । (२) कत्थेके शीतल काढ़ेसे कानोंको धोओ। Xece: अञ्जनमें विषके लक्षण अगर सुरमे या अञ्जनमें विष होता है, तो उनके लगाते ही नेत्रोंसे आँसू आते हैं, जलन और पीड़ा होती है, नेत्र घूमते हैं और बहुधा जाते भी रहते हैं; यानी आदमी अन्धा हो जाता है। चिकित्सा । (१) ताजा घी पीपल मिलाकर पीओ। (२) मेढ़ासिंगी और वरणेके वृक्षके गोंदको मिलाकर और पीसकर आँजो। (३) कैथ और मेढ़ासिंगीके फूल मिलाकर आँजो। (४) भिलावेके फूल आँजो। (५) दुपहरियाक फूल आँजो। (६) अङ्कोटके फूल आँजो। (७) मोखा और महासर्जके निर्यास, समन्दरफेन और गोरोचन-इन सबको पीसकर नेत्रों में आँजो । For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शत्रुओं द्वारा दिये हुए विषकी चिकित्सा । 0903030303030303080000 am खड़ाऊँ, जूते आसन और गहनों में विष । अगर विष-लगी खड़ाऊँ पहनी जाती हैं, तो पाँवमें सूजन आ जाती है, पाँव सो जाते हैं--स्पर्श-ज्ञान नहीं होता, फफोले या फोड़े हो जाते हैं और पीप निकलता है। जूते और आसन अथवा गद्दोंमें विष होनेसे भी यही लक्षण होते हैं। गहनोंमें विष होनेसे उनकी चमक मारी जाती है । वे जहाँ-जहाँ पहने जाते हैं, वहाँ-वहाँ जलन होती और चमड़ी पक और फट जाती है। चिकित्सा। (१) पीछे मालिश करनेके तेल में जो इलाज लिखा है, वही करना चाहिये अथवा बुद्धिसे विचार करके, पीछे लिखी लगानेकी दवाओंमेंसे कोई दवा लगानी चाहिये । विष-दूषित जल । sewastroGCGoyanwer अगर एक राजा दूसरे राजा पर चढ़कर जाता था, तो दूसरा राजा या राजाके शत्रु राहके जलाशयों-कूएँ , तालाब और बावड़ियोंमें विष घुलवाकर विष-दूषित करा दिया करते थे। “थे" शब्द हमने इसलिये लिखा है, कि आजकल भारतमें अंग्रेजी राज्य होनेसे किसी राजाको दूसरे राजापर चढ़ाई करनेका काम ही नहीं पड़ता। स्वतंत्र देशोंके राजे चढ़ाइयाँ किया करते हैं। सुश्रुतमें लिखा है, शत्रु-राजा लोग घास, पानी, राह, अन्न, धूआँ और वायुको विषमय कर देते थे । हमने ये बातें सन् १८१४ के विश्वव्यापी महासमरमें सुनी थीं । सुनते हैं, जर्मनीने विषैली गैस छोड़ी थी। जर्मनीकी विषैली गैसकी बात सुनकर भारतवासी आश्चर्य करते थे और उसके कितने ही महीनों तक पृथ्वीके प्रायः समस्त नरपालोंकी नाकमें दम कर देने For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० चिकित्सा - चन्द्रोदय | और उन्हें अपनी उँगलियों पर नचानेके कारण उसे राक्षस कहते थे । यद्यपि ये सब बातें भारतीयों के लिये नयी नहीं हैं। उनके देशमें ही ये सब काम होते थे; पर अब कालके फेरसे वे सब विद्याओं को भूल गये और अपनी विद्याओंका दूसरों द्वारा उपयोग होनेसे चकित और विस्मित होते हैं ! धन्य ! काल तेरी महिमा ! अच्छा, अब फिर मतलब की बातपर आते हैं। अगर जल विषसे दूषित होता है, तो वह कुछ गाढ़ा हो जाता है, उसमें तेज़ बू होती है, भाग आते और लकीरें-सी दीखती हैं । जलाशयों में रहनेवाले मैंडक और मछली उनमें मरे हुए देखे जाते हैं और उनके किनारेके पशुपक्षी पागल से होकर इधर-उधर घूमते हैं । ये विष-दूषित जल के लक्षण हैं। अगर ऐसे जलको मनुष्य और घोड़े, हाथी, खच्चर, गधे तथा बैल वग़ैर जो पीते हैं या ऐसे जलमें नहाते हैं, उनको वमन, मूर्च्छा, ज्वर, दाह और शोथ - - सूजन --ये उपद्रव होते हैं । वैद्यको विष- दूषित जलसे पीड़ित हुए प्राणियोंको निर्विष और पानीको भी • शुद्ध और निर्दोष करना चाहिये । जल-शुद्धि-विधि | ( १ ) धव, अश्वकर्ण - शालवृक्ष, विजयसार, फरहद, पाटला, सिन्दुवार, मोखा, फिरमाला और सफेद खैर - इन ६ चीज़ों को जलाकर राख कर लेनी चाहिये । इनकी शीतल भस्म नदी, तालाब, कूएँ, बावड़ी आदिमें डाल देनेसे जल निर्विष हो जाता है । अगर थोड़े से पानी की दरकार हो, तो एक पस्से-भर यही राख एक घड़े-भर पानी में घोल देनी चाहिये । जब राख नीचे बैठ जाय और पानी साफ़ हो जाय, तब उसे शुद्ध समझकर पीना चाहिये । नोट - (१) धाय या धवके वृक्ष वनोंमें बहुत बड़े-बड़े होते हैं। इनकी लकड़ी हल- मूसल बनते हैं । (२) शालके पेड़ भी वनमें बहुत बड़े-बड़े होते हैं । - (३) विजयसारके वृक्ष भी वनमें बहुत बड़े-बड़े होते हैं । (४) फरहद या पारि- भद्रके वृक्ष भी वनमें होते हैं । ( ५ ) पाटला या पाढरके वृत्त भी वनमें बड़े-बड़े For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शत्रुओं द्वारा दिये हुए विषकी चिकित्सा । १६१ हैं होते हैं । (६) सिन्दुवारके वृक्ष वनमें बहुत होते हैं । (७) मोखा के वृत्त भी वनमें होते हैं । ( ८ ) किरमाला यानी अमलताशके पेड़ भी वनमें बड़े-बड़े होते 1 ९ ) सफ़ ेद खैरके वृक्ष भी वनमें बड़े-बड़े होते हैं । मतलब यह कि, ये नौ वृक्ष वनमें होते हैं और बहुतायत से होते हैं । इनके उपयोगी श्रङ्ग छाल आदि लेकर राख कर लेनी चाहिये । विष- दूषित पृथ्वी | विष- दूषित ज़मीन से मनुष्य या हाथी घोड़े आदिका जो अङ्ग छू जाता है, वही सूज जाता या जलने लगता है अथवा वहाँके बाल झड़ जाते या नाखून फट जाते हैं । पृथ्वी की शुद्धिका उपाय । ( १ ) जवासा और सर्वगन्धकी सब दवाओं को शराब में पीस और घोलकर, सड़कों या राहोंपर छिड़काव कर देनेसे पृथ्वी निर्विष हो जाती है । YRKK नोट --तज, तेजपात, बड़ी इलायची, नागकेशर, कपूर, शीतलचीनी, अगर, केशर और लैंग-इन सबको मिलाकर “सर्वगन्ध" कहते हैं। याद रखो, औषधि गन्ध या विषसे हुए ज्वर में, पित्त और विषके नाश करने को, इसी सर्वगन्धका काढ़ा पिलाते हैं । विष - मिली धूत्र और हवा | RRR विषैली धूआँ और विषैली हवासे आकाश के पक्षी व्याकुल होकर ज़मीनपर गिर पड़ते हैं और मनुष्योंको खाँसी, जुकाम, सिर-दर्द और दारुण नेत्र रोग होते हैं । शुद्धिका उपाय | ( १ ) लाख, हल्दी, अतीस, हरड़, नागरमोथा, हरेणु, इलायची, २१ For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । तेजपात, दालचीनी, कूट और प्रियंगू-इनको आगमें जलाकर, धूआँ करनेसे धूएँ और हवाकी शुद्धि होती है। (२) चाँदीका बुरादा, पारा और बीरबहुट्टी,--इन तीनोंको समान-समान लो । फिर इन तीनोंके बराबर मोथा या हिंगलू मिलाओ । इन सबको कपिलाके पित्तमें पीसकर बाजोंपर लेप कर दो। इस लेपको लगाकर नगाड़े और ढोल आदि बजानेसे घोर विषके परिमाणु नष्ट हो जाते हैं। विष-नाशक संक्षिप्त उपाय । (१) “महासुगन्धि" नामकी अगदके पिलाने, लेप करने, नस्य देने और आँजनेसे सब तरहके विष नष्ट हो जाते हैं । “सुश्रुत में लिखा है, महासुगन्धि अगदसे वह मनुष्य भी आराम हो जाते हैं, जिनके कन्धे विषसे टूट गये हैं, नेत्र फट गये हैं और जो मृत्यु-मुखमें गिर गये हैं। इसके सेवनसे नागोंके राजा वासुकिका डसा हुआ भी आराम हो जाता है । मतलब यह है, इस अगदसे स्थावर विष और सर्प-विष निश्चय ही शान्त होते हैं । इसके बनानेकी विधि इसी भागके पृष्ठ ३०-३१ में लिखी है। (२) अगर विष आमाशयमें हो, तो खूब कय कराकर विषको निकाल दो । अगर विष पक्काशयमें हो, तो तेज जुलाबकी दवा देकर विषको निकाल दो। अगर विष खूनमें हो, तो फस्द खोलकर, सींगी लगाकर या जैसे ऊंचे खूनको निकाल दो । चक्रदत्तजी कहते हैं:--अगर विष खालमें हो, तो लेप और सेक आदि शीतल कर्म करो। नोट-(१) अगर विष प्रामाशयमें हो, तो चार तोले तगरको शहद और मिश्री में मिलाकर चाटो । (२) अगर विष पक्वाशयमें हो, तो पीपर, हल्दी, मँजीठ और दारुहल्दी--बराबर-बराबर लेकर और गायके पित्तमें पीसकर मनुष्यको पीने चाहिये। For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शत्रुओं द्वारा दिये हुए विषकी चिकित्सा। १६३ - (३) मूषिका या अजरुहा--असली निर्विषीको हाथमें बाँध देनेसे खाये-पिये विष-मिले पदार्थ निर्विष हो जाते हैं। (४) मित्रोंमें बैठकर दिल खुश करते रहना चाहिये । “अजेय घृत" और "अमृत घृत" नित्य पीना चाहिये । घी, दूध, दही, शहद और शीतल जल-इनको पीना चाहिये। शहद और घी मिला सेमका यूष भी हितकारी है। नोट-पैत्तिक या पित्त-प्रकृतिवाले विषपर शीतल जल पीना हित है, पर वातिक या बादीके स्वभाववाले विषपर शीतल जल पीना ठीक नहीं है। जैसे, संखिया खानेवालेको शीतल जल हानिकारक और गरम हितकारी है। हर एक काम विचारकर करना चाहिये। (५) जिसने चुपचाप विष खा लिया हो, उसे पीपर, मुलेठी, शहद, खाँड़ और ईखका रस--इनको मिलाकर पीना और वमन कर देना चाहिए। गर-विष-चिकित्सा । XXXXXXXXXXXXXX Yes हूदा स्त्रियाँ अपने पतियोंको वशमें करनेके लिये, पसीना, मासिक-धर्मका खून-रज और अपने या पराये शरीरके * * मैलोंको अपने पतियोंको भोजन इत्यादिमें मिलाकर खिला देती हैं । इसी तरह शत्रु भी ऐसे ही पदार्थ भोजनमें मिलाकर खिला देते हैं । इन पसीना आदि मैले पदार्थो को “गर” कहते हैं। __पसीने और रज-प्रभृति गर खानेसे शरीरमें पाण्डुता होती, बदन कमजोर हो जाता, ज्वर आता, मर्मस्थलोंमें पीड़ा होती तथा धातुक्षय और सूजन होती है। सुश्रुतमें लिखा है: योगैर्नानाविधैरेषां चूर्णेन गरमादिशेत् । दृषीविषप्रकाराणां तथैवाप्यनुलेपनात् ॥ विषैले जन्तुओंको पीसकर स्थावर विष आदि नाना प्रकारके For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६४ चिकित्सा - चन्द्रोदय | योगों में मिलाते हैं । इस तरह जो त्रिष तैयार होता है, उसे ही “गरविष" कहते हैं। दूषी विष के प्रकारका अथवा लेपनका विष-पदार्थ भी गरसंज्ञक हो जाता है । कोई लिखते हैं, बहुतसे तेज विषोंके मिलानेसे जो विष बनता है, उसे गर- विष (कृत्रिम विष ) कहते हैं । ऐसा विष मनुष्यको शीघ्र ही नहीं, वरन् कालान्तर में मारता है । इससे शरीर में ग्लानि, आलस्य, अरुचि, श्वास, मन्दाग्नि, कमजोरी और बदहज़मी-ये विकार होते हैं। गर- विष नाशक नुसखे । असा, नीम और परवल - इन तीनों के पत्तों के काढ़े में, हरड़को पानी में पीसकर मिला दो और इनके साथ घी पका लो। इसको “वृषादि घृत" कहते हैं । इस घीके खानेसे गर- विष निश्चय ही शान्त हो जाता है । परीक्षित है । नोट - हरड़को पानी के साथ सिलपर पीसकर कल्क या लुगदी बना लो । वज़नमें जितनी लुगदी हो, उससे चौगुना घी लो और घीसे चौगुना श्रड़ सादिका काढ़ा तैयार कर लो । फिर सबको मिलाकर मन्दाग्नि से पकाश्रो । जब काढ़ा जल जाय और घी मात्र रह जाय, उतारकर छान लो और साफ बर्तन में रख दो । 1 (२) कोलकी जड़का काढ़ा बनाकर, उसमें राव और घी डाल - कर, तेलसे स्वेदित किये गर - विषवालेको पिलानेसे गर नष्ट हो जाते हैं । (३) मिश्री, शहद, सोनामक्खी की भस्म और सोना - भस्म - इन सबको मिलाकर चटानेसे, अत्यन्त उग्र अनेक प्रकारके विष मिलाने से बना हुआ गर- विष नष्ट हो जाता है । ( ४ ) बच, कालीमिर्च, मैनशिल, देवदारु, करंज, हल्दी, दारुहल्दी, सिरस, और पीपर - इनको एकत्र पीसकर नेत्रों में आँजनेसे गरविष शान्त हो जाता है । ( ५ ) सिरसकी जड़की छाल, सिरसके फूल और सिरसके ही बीज -- इनको गोमूत्र में पीसकर व्यवहार करनेसे विष बाधा दूर हो जाती है । For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org -44 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir as at ba दूस खड | For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir adm WARA on जंगम विष-चिकित्सा । ई WwwxC ___ चलने-फिरनेवाले साँप-बिच्छू, कनखजूरे, मैंडक, मकड़ी, छिपकली प्रभृतिके विषको “जंगम विष" कहते हैं। पहला अध्याय । सर्प-विष चिकित्सा। साँपोंके दो भेद से तो साँपोंके बहुतसे भेद हैं, पर मुख्यतया साँप दो Dirone तरहके होते हैं:-(१) दिव्य और (२) पार्थिव । दिव्य सोके लक्षण । वासुकि और तक्षक आदि दिव्य सर्प कहलाते हैं। ये असंख्य प्रकारके होते हैं। ये बड़े तेजस्वी, पृथ्वीको धारण करनेवाले और नागोंके राजा हैं। ये निरन्तर गरजने, विष बरसाने और जगत्को सन्तापित करनेवाले हैं। इन्होंने यह पृथ्वी, मय समुद्र और द्वीपोंके, धारण कर रखी है। ये अपनी दृष्टि और साँससे ही जगत्को भस्म कर सकते हैं। For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । ....... .......... .... ... ... . . .. . .. . . . . . .. . .. . .. . .. . .. ... .............. पार्थिव सोके लक्षण । पृथ्वीपर रहनेवाले साँपोंको पार्थिव साँप कहते हैं। मनुष्योंको यही काटते हैं । इनकी दाढ़ोंमें विष रहता है। ये पाँच प्रकारके होते हैं:- (१) भोगी, (२) मण्डली, (३) राजिल, (४) निर्विष और (५) दोगले । ये पाँचों ८० तरहके होते हैं:(१) दर्बीकर या भोगी........ (२) मण्डली (३) राजिल (४) निर्विष (५) वैकरंज और इनसे पैदा हुए ....... कुल ८० -- साँपोंकी पैदायश । साँपोंकी पैदायशके सम्बन्धमें पुराणों और वैद्यक-ग्रन्थों में बहुतकुछ लिखा है। उसमेंसे अनेक बातोंपर आजकलके विद्याभिमानी बाबू लोग विश्वास नहीं करेंगे, अतः हम समयानुकूल बातें ही लिखते हैं। वर्षाऋतुके आषाढ़ मासमें साँपोंको मद आता है। इसी महीने में वे कामोन्मत्त होकर, निहायत ही पोशीदा जगहमें, मैथुन करते हैं। यदि इनको कोई देख लेता है, तो ये बहुत ही नाराज होते हैं और उसे काटे बिना नहीं छोड़ते। कितने ही तेज़ घुड़सवारोंको भी इन्होंने बिना काटे नहीं छोड़ा। - हाँ, असल मतलबकी बात यह है कि, आषाढ़में सर्प मैथुन करते हैं, तब सर्पिणी गर्भवती हो जाती है। वर्षाभर वह गर्भवती रहती है और कातिकके महीनेमें, दो सौ चालीस या कम-ज़ियादा अण्डे देती है । उनमेंसे कितने ही पकते हुए अण्डोंको वह स्वयं खा जाती है। For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंगम-विष-चिकित्सा-सोका वर्णन। १६६ मशहूर है कि, भूखी नागिन अपने अण्डे खा जाती है। भूखा कौनसा पाप नहीं करता ? शेषमें, उसे अपने अण्डोंपर दया आ जाती है, इसलिये कुछको छोड़ देती और उन्हें छै महीने तक सेया करती है। . सापोंके दाद-दाँत । अण्डोंसे निकलनेके सातवें दिन, बच्चोंका रङ्ग अपने माँ-बापके रङ्गसे मिल जाता है। सात दिनके बाद ही दाँत निकलते हैं और इक्कीस दिनके अन्दर तालूमें विष पैदा हो जाता है। पच्चीस दिनका. बच्चा जहरीला हो जाता है और 2 महीनेके बाद वह काँचली छोड़ने लगता है । जिस समय साँप काटता है, उसका जहर निकल जाता है; किन्तु फिर आकर जमा हो जाता है । साँपके दाँतोंके ऊपर विषकी थैली होती है । जब साँप काटता है, विष थैलीमेंसे निकलकर काटे हुए घावमें आ पड़ता है। ____ कहते हैं, साँपोंके एक मुँह, दो जीभ, बत्तीस दाँत और ज़हरसे भरी हुई चार दाढ़ें होती हैं । इन दाढ़ोंमें हर समय जहर नहीं रहता। जब साँप क्रोध करता है, तब जहर नसोंकी राहसे दाढ़ोंमें आ जाता है । उन दाढ़ोंके नाम मकरी, कराली, कालरात्रि और यमदूती हैं। पिछली दाढ़ यमदूती छोटी और गहरी होती है । जिसे साँप इस दाढ़से काटता है, वह फिर किसी भी दवा-दारू और यन्त्रमन्त्रसे नहीं बचता। ___ कई ग्रन्थोंमें लिखा है , साँपके चार दाँत और दो दाढ़ होती हैं। विषवाली दाढ़ ऊपरके पेमें रहती है। वह दाढ़ सूईके समान पतली और बीचमेंसे विकसित होती है। उस दाढ़के बीचमें छेद होते हैं और उसी दाढ़के साथ जहरकी थैलीका सम्बन्ध होता है। यों तो वह दाढ़ मुँहमें आड़ी रहती है, पर काटते समय खड़ी हो जाती है । अगर साँप शरीरके मुंह लगावे और उसी समय फेंक दिया जाय, तो मामूली घाव होता है । अगर सामान्य घाव हो और विष For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७० चिकित्सा - चन्द्रोदय । भीतर न घुसा हो, तो भयङ्कर परिणाम नहीं होता । अच्छी तरह दाढ़ बैठने से मृत्यु होती है। बिच्छूके एक डंक होता है, पर साँपके दो डंक होते हैं। बिच्छूके डंकसे तेज दर्द होता है, पर साँपके डसे उतना तेज दर्द नहीं होता, लेकिन जगह काली पड़ जाती है । ु "चरक" में लिखा है, साँपके चार दाँत बड़े होते हैं। दाहिनी ओरके नीचे दाँत लाल रङ्गके और ऊपर के श्याम रङ्गके होते हैं। गायकी भीगी हुई पूँछके अगले भागमें जितनी बड़ी जलकी बूँद होती है, सर्पके बाईं तरफके नीचेके दाँतोंमें भी उतना ही विष रहता है । बाई तरफ के ऊपरके दाँतोंमें उससे दूना, दाहिनी तरफके नीचे के दाँतों में उससे तिगुना और दाहिनी तरफके ऊपरके दाँतोंमें उससे चौगुना विष रहता है । सर्प जिस दाँतसे काटता है, उसके डसे हुए स्थानका रङ्ग उसी दाँतके रंगके जैसा होता है। चार तरहके दाँतोंमेंपहले की अपेक्षा दूसरेका, दूसरेकी अपेक्षा तीसरेका और तीसरेकी अपेक्षा चौका दंशन अधिक भयानक होता है । ― साँपको उम्र और उनके पैर । पुराणोंमें सर्पकी आयु हज़ार वर्ष तककी लिखी है, पर अनेक ग्रन्थोंमें सौ या सवा सौ वर्षकी ही लिखी है । कोई कहते हैं, साँपके पैर नहीं होते, वह पेटके बल इतना तेज़ दौड़ता है, कि तेज से तेज घुड़सवार उससे बचकर नहीं जा सकता । कोई कहते हैं, साँपके बालके समान सूक्ष्म २२० पैर होते हैं, पर वह दिखते नहीं । जब साँप चलने लगता है, पैर बाहर निकल आते हैं । साँपिन तीन तरह के बच्चे जनती है । साँपिनके अण्डोंसे तीन तरहके बच्चे निकलते हैं:( १ ) पुरुष, (२) स्त्री और (३) नपुन्सक । जिसका सिर भारी होता है, जीभ मोटी होती है; आँखें बड़ी-बड़ी होती हैं, वह सर्प होता For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंगम-विष-चिकित्सा-सोका वर्णन । १७१ है । जिसके ये सब छोटे होते हैं, वह साँपिन होती है। जिसमें साँप और साँपिन दोनोंके चिह्न पाये जाते हैं और जिसमें क्रोध नहीं होता, वह नपुंसक या हीजड़ा होता है । नपुंसकोंके विषमें उतनी तेजी नहीं होती; यानी उनका विष नर-मादीन साँपोंकी अपेक्षा मन्दा होता है। साँपोंकी किस्में "सुश्रुत' में साँपोंकी बहुत-सी किस्में लिखी हैं। यद्यपि सभी किस्मोंका जानना जरूरी है, पर उतनी किस्मोंके साँपोंकी पहचान और नाम वगैरः सोसे दिलचस्पी रखनेवालों, उनको पकड़ने-पालनेवालों और तन्त्र-मन्त्रका काम करनेवालोंके सिवा और सब लोगोंको याद नहीं रह सकते, इससे हम सॉंके मुख्य-मुख्य भेद ही लिखते हैं। साँपोंके पाँच भेद । ___ यों तो साँप अस्सी प्रकारके होते हैं, पर मुख्यतया तीन या पाँच प्रकारके होते हैं । वाग्भट्टने भी तीन प्रकारके सर्पो का ही जिक्र किया है । शेषके लिये अनुपयोगी समझकर छोड़ दिया है। उन्होंने दर्बीकर, मण्डली और राजिल-तीन तरहके साँप लिखे हैं । भोगी, मण्डली और राजिल-ये तीन लिखे हैं। इनके सिवाय, एक जातिका साँप और दूसरी जातिकी साँपिनसे पैदा होनेवाले "दोगले" और लिखे हैं । असल में, सर्पो के मुख्य पाँच भेद हैं: (१) भोगी . (२) मएडली (३) राजिल (४) निर्विष (५) दोगले । नोट-भोगी सर्पो को कितने ही वैद्योंने “दीकर" लिखा है । ये फनवाले भी कहलाते हैं। बोलचालको भाषामें इनके पाँच विभाग इस तरह भी कर सकते हैं(१) फनवाले (२)चित्तीदार (३) धारीदार (४) बिना ज़हरवाले (५) दोगले । For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १ ) भोगी ( २ ) मण्डली ( ३ ) राजिल ( ४ ) दोगले १७२ चिकित्सा चन्द्रोदय । • बङ्गसेनने चार और वाग्भट्टने तीन विभाग किये हैं। ये विभाग, चिकित्सा के. सुभीते के लिये, वातादिक दोषोंके हिसाबसे किये हैं । जिस तरह दोष तीन होते हैं, उसी तरह साँपोंकी प्रकृति भी तीन होती हैं । वात प्रकृतिवाले, पित्त प्रकृतिवाले, कफ प्रकृतिवाले और मिली हुई प्रकृतिवाले — इस तरह चार प्रकृतियोंवाले साँप होते हैं । जिसकी जैसी प्रकृति होती है, उसके विषका प्रभाव भी काटने वालेपर वैसा हो होता है । जैसे, अगर वात प्रकृतिवाला साँप काटता है, तो काटे जानेवाले आदमी में वायुका प्रकोप होता है; यानी विष चढ़ने में वायु-कोपके लक्षण नज़र आते हैं। अगर पित्त प्रकृतिवाला काटता है, तो पित्तकोपके; कफ प्रकृतिवाला काटता है, तो कफ-कोपके और मिली हुई प्रकृतिवाला काटता है, तो दो दोषोंके कोपके लक्षण दृष्टिगत होते हैं। चारों तरहके साँपोंकी चार प्रकृतियाँ इस तरह होती हैं: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वात प्रकृति । पित्त प्रकृति | ... कफ प्रकृति । 4. द्वन्द्वज प्रकृति | सूचना — गारुड़ो ग्रन्थोंमें साँपोंकी है जाति लिखी हैं -- फणीधर, मणीधर, पत्तरा, भोंकोडीचा, जलसाँप, गड़ीबा, चित्रा, कालानाग और कन्ता । साँपों की पहचान | भोगी । ( १ ) भोगी या फनवाले -- इन साँपोंको " दर्बीकर" भी कहते हैं । इनके तरह-तरह के आकारोंके फन होते हैं, इसीलिये इन्हें फनवाले साँप कहते हैं । ये बड़ी तेज़ी से खूब जल्दी-जल्दी चलते हैं । इनकी प्रकृति वायुप्रधान होती है, इसलिये इनके विषमें भी वायुकी प्रधानता होती है। ये जिस मनुष्यको काटते हैं, उसमें वायुके प्रकोपके विशेष लक्षण देखने में आते हैं। इनका विष रूखा होता है । रूखापन वायुका गुण है। काले साँप, घोर काले साँप और काले पेटवाले साँप इन्हीं में होते हैं । इनकी मुख्य पहचान दो हैं: -- ( १ ) फन और (२) जल्दी चलना । For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंगम-विष-चिकित्सा--सोका वर्णन । १७३ "सुश्रुत” में दर्बीकरोंके ये भेद लिखे हैं:--कृष्ण सर्प-काला साँप, महा कृष्ण--घोर काला साँप, कृष्णोदर-काले पेटवाला, श्वेतकपोतसफेद कपोती, महाकपोत, बलाहक, महासर्प, शंखपाल, लोहिताक्ष, गवेधुक, परिसर्प, खंडफण, कुकुद, पद्म, महापद्म, दर्भपुष्प, दधिमुख, पुण्डरीक, भृकुटीमुख, विष्किर, पुष्पाभिकीर्ण, गिरिसर्प, ऋजुसर्प, श्वेतोदर, महाशिरा, अलगद और आशीविष । इनके सिरपर पहिये, हल, छत्र, साथिया और अंकुशके निशान होते हैं और ये जल्दी-जल्दी चलते हैं। दर्बी संस्कृतमें कलछीको कहते हैं । जिनके फन कलछीके जैसे होते हैं, उन्हें दीकर कहते हैं । इनके काटनेसे वायुका प्रकोप होता है; इसलिये नेत्र, नख, दाँत, मल-मूत्र आदि काले हो जाते हैं, शरीर काँपता है, जंभाई आती हैं तथा राल बहना, शूल या ऐंठन होना वगैरःवगैरः वायु-विकार होते हैं । इनके विषके लक्षण हम आगे लिखेंगे । मण्डली। (२) मण्डली या चित्तीदार-इनके बदनपर चित्तियाँ होती हैं। इसीसे इन्हें चित्तीदार सर्प कहते हैं । ये धीरे-धीरे मन्दी चालसे चलते हैं। इनमेंसे कितनों ही पर लाल, कितनों ही पर काली और कितनों ही पर सफ़ेद चित्तियाँ होती हैं। कितनों ही पर फूलों जैसी, कितनों ही पर बाँसके पत्तों-जैसी और कितनों ही पर हिरनके खरजैसी चित्ती या चकत्ते होते हैं । ये पेटके पाससे मोटे और दूसरी जगहसे पतले या प्रचण्ड अग्निके समान तीक्ष्ण होते हैं। जिनपर चमकदार चित्तियाँ होती हैं, वे बड़े तेज़ ज़हरवाले होते हैं। इनकी प्रकृति पित्त-प्रधान होती है, इसलिये इनके विषमें भी पित्तकी प्रधानता होती है। ये जिसे काटते हैं, उसमें पित्तके प्रकोपके लक्षण नज़र आते हैं । इनका विष गरम होता है और गरमी पित्तका लक्षण है। इनकी मुख्य पहचान ये हैं:-- १) चित्ती, चकत्ते या विन्दु, २) पेटके पाससे मोटापन, और (३) मन्दी चाल । For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४ चिकित्सा-चन्द्रोदय। .."सुश्रुत में मण्डली सॉंके ये भेद लिखे हैं:-आदर्शमण्डल, श्वेतमण्डल, रक्तमण्डल, चित्रमण्डल, पृषत, रोध्र, पुष्य, मिलिंदक, गोनस, वृद्ध गोनस, पनस, महापनस, वेणुपत्रक, शिशुक, मदन, पालिहिर, पिंगल, तन्तुक, पुष्प, पाण्डु षडंग, अग्निक, वभ्र, कषाय, कलुश, पारावत, हस्ताभरण, चित्रक और ऐणीपद । इनके २२ भेद होते हैं, पर ये ज़ियादा हैं, अतः आदर्शमण्डलादि चारोंको १, गोनस-वृद्धगोनस को १ और पनस-महापनसको १ समझिये। चूँ कि ये पित्त-प्रकृति होते हैं, अतः इनके काटनेसे चमड़ा और नेत्रादि पीले हो जाते हैं, सब चीजें पीली दीखती हैं, काटी हुई जगह सड़ने लगती है तथा सर्दीकी इच्छा, सन्ताप, दाह, प्यास, ज्वर, मद और मूर्छा आदि लक्षण होते और गुदा आदिसे खून गिरता है। इनके विषके लक्षल. हम आगे लिखेंगे। राजिल । (३) राजिल या धारीदार-इन्हें राजिमन्त भी कहते हैं । किसीके शरीरपर आड़ी, किसीके शरीरपर सीधी और किसीके शरीरपर बिन्दियोंके साथ रेखा या लकीरें-सी होती हैं। इन्हींकी वजहसे ये धारीदार और गण्डेदार कहलाते हैं। इनका शरीर खूब साफ, चिकना और देखने में सुन्दर होता है। इनकी प्रकृति कफ-प्रधान होती है, इसलिये इनके विषमें भी कफकी प्रधानता होती है । ये जिसे काटते हैं, उसमें कफ-प्रकोपके लक्षण नज़र आते हैं । इनका विष शीतल होता है और शीतलता कफका लक्षण है। ___"सुश्रुत में लिखा है, राजिल या राजिमन्तोंके ये भेद होते हैं:-- पुण्डरीक, राजिचित्रे, अंगुलराजि, विन्दुराजि, कर्दमक, तृणशोषक, सर्षपक, श्वेतहनु, दर्भपुष्पक, चक्रक, गोधूमक और किकिसाद । इनके दस भेद होते हैं, पर ये अधिक हैं; अतः राजिचित्रे, अंगुलराजि और विन्दुराजि, इन तीनोंको एक समझिये । चूँकि इनकी प्रकृति कफकी For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंगम-विष-चिकित्सा-सोका वर्णन। १७५ होती है, अतः इनके विषसे चमड़ा और नेत्र-प्रभृति सफ़ेद हो जाते हैं । शीतज्वर, रोमांच, शरीर अकड़ना, काटे स्थानपर सूजन, मुँहसे गाढ़ा कफ गिरना, कय होना, बारम्बार नेत्रोंमें खुजली और श्वास रुकना प्रभृति कफ-विकार देखने में आते हैं। इनके विषके लक्षण भी आगे लिखेंगे । इनकी मुख्य पहचान इनके गण्डे, रेखायें या धारियाँ एवं शरीर-सौन्दर्य या खूबसूरती है । निर्विष। (४) निर्विष या विषरहित--जिनमें विषकी मात्रा थोड़ी होती या होती ही नहीं, उनको निर्विष कहते हैं। अजगर, दुमुही या दुम्बी तथा पनिया-साँप इन्हीं में हैं। अजगर मनुष्य या पशुओंको निगल जाता है, काटता नहीं। दुम्बी खेतोंमें आदमियोंके शरीरसे या पैरोंसे लिपट जाती है, पर कोई हानि नहीं करती। पनिया साँपके काटनेसे या तो विप चढ़ता ही नहीं या बहुत कम चढ़ता है। पानीके साँप नदी-तालाब आदिके पानीमें रहते हैं । अजगर बड़े लम्बे-चौड़े में हवाले और बोझमें कई मनके होते हैं। यह साँप चपटा होता है और उसके एक मुँह होता है; पर दुमुही-दुम्बीका शरीर गोल होता है और उसके दोनों ओर दो मुंह होते हैं। दोगले। . (५) दोगले--इन्हें वैकरंज भी कहते हैं। जब नाग और नागिन दो जातिके मिलते हैं, तब इनकी पैदायश होती है। जैसे, राजिल जातिका साँप और भोगी जातिकी साँपिन संगम करेंगे, तब दोगला पैदा होगा । उसमें माँ और बाप दोनोंके लक्षण पाये जायँगे । वाग्भट्टने लिखा है-राजिल, मण्डली अथवा भोगी प्रभृतिके मेलसे “व्यन्तर" नामके साँप होते हैं । उनमें इनके मिले हुए लक्षण पाये जाते हैं और वे तीनों दोषोंको कुपित करते हैं । परन्तु कई आचार्योंने लिखा है कि, दोगले दो दोषोंको कुपित करते हैं, क्योंकि उनकी प्रकृति ही द्वन्द्वज होती है। For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । साँपोंके विषकी पहचान । (१) दर्बीकर--भोगी या फनवाले साँपका काटा हुआ स्थान "काला” पड़ जाता है और वायुके सब विकार देखनेमें आते हैं । बङ्गसेनमें लिखा है--“दीकराणां विषमाशु घातिः” यानी दीकर या फनवाले साँपोंका ज़हर शीघ्र ही प्राण नाश कर देता है। काले साँप दर्बीकरोंके ही अन्दर हैं । मशहूर है, कि कालेका काटा फौरन मर जाता है। (२) मण्डली या चित्तीदार साँपका काटा हुआ स्थान “पीला" पड़ जाता है । काटी हुई जगह नर्म होती और उसपर सूजन होती है तथा पित्तके सब विकार देखने में आते हैं। (३) राजिल या धारीदार साँपके काटे हुए स्थानका रङ्ग “पाण्डु वर्ण या भूरा-मटमैला-सा" होता है। काटी हुई जगह सख्त, चिकनी, लिबलिबी और सूजनयुक्त होती है तथा वहाँसे अत्यन्त गाढ़ा-गाढ़ा खून निकलता है। इन लक्षणोंके सिवा, कफ-विकारके सारे लक्षण नज़र आते हैं। नोट-भोगीका डसा हुआ स्थान काला, मण्डलीका डसा हुश्रा स्थान पीला और राजिलका डसा हुआ पाण्डु रंग या भूरा-मटमैला होता है। मण्डलीकी सूजन नर्म और राजिलकी सख्त होती है। राजिलके किये घावसे निहायत गाढ़ा खून निकलता है । ये लक्षण हमने बंगसेनसे लिखे हैं । और कई ग्रन्थोंमें लिखा है, कि साँपमात्रकी काटी हुई जगह 'काली' हो जाती है। देश-कालके भेदसे साँपोंके विषकी असाध्यता । - पीपलके पेड़के नीचे, देव-मन्दिरमें, श्मशानमें, बॉबीमें और चौराहेपर अगर साँप काटता है, तो काटा हुआ मनुष्य नहीं जीता । ___ भरणी, मघा, आर्द्रा, अश्लेषा, मूल और कृत्तिका नक्षत्र में अगर सर्प काटता है, तो काटा हुआ आदमी नहीं बचता। इनके सिवा, पञ्चमी तिथिमें काटा हुआ मनुष्य भी मर जाता है-यह ज्योतिषके ग्रन्थोंका मत है। For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंगम-विष-चिकित्सा--सोका वर्णन। १७७ मघा, आर्द्रा, कृत्तिका, भरणी, पूर्वाफाल्गुनी और पूर्वाभाद्रपदाइन नक्षत्रों में सर्पका काटा हुआ कदाचित् ही कोई बचता है। नवमी, पञ्चमी, छठ, कृष्णपक्षकी चौदस और चौथ-इन तिथियों में काटा हुआ और सवेरे-शाम,-दोनों सन्धियों या दोनों काल मिलने के समय काटा हुआ तथा मर्मस्थानों में काटा हुआ मनुष्य नहीं बचता है। ____एक और ज्योतिष-ग्रन्थमें लिखा है:--पार्दा, पूर्वाषाढ़ा, कृत्तिका, मूल, अश्लेषा, भरणी और विशाखा--इन सात नक्षत्रों में सर्पका काटा हुआ मनुष्य नहीं बचता। ये मृत्यु-योग हैं। ____अजीर्ण-रोगी, बढ़े हुए पित्तवाले, थके हुए, आग या घामसे तपे हुए, बालक, बूढ़े, भूखे, क्षीण, क्षतरोगी, प्रमेह-रोगी, कोढ़ी, रूखे शरीर वाले, कमजोर, डरपोक और गर्भवती,--ऐसे मनुष्योंको अगर सर्प काटे तो वैद्य इलाज न करे, क्योंकि इनमें सर्प-विष असाध्य हो जाता है। ____ नोट-ऐसे मनुष्योंमें,मालूम होता है, सर्प-विष अधिक ज़ोर करता है। इसी से चिकित्साकी मनाही लिखी है; पर हमारी रायमें ऐसे रोगियोंको देखते ही त्याग देना ठीक नहीं। अच्छा इलाज होनेसे, ऐसे मनुष्य भी बचते हुए देखें गये हैं। इसमें शक नहीं, ऐसे लोगोंकी सर्प-दंश-चिकित्सामें वैद्यको बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है और सभी रोगी बच भी नहीं जाते; हाँ, अनेक बच जाते हैं। ___ मर्मस्थानों या शिरागत मर्मस्थानों में अगर साँप काटता है, तो केस कष्टसाध्य या असाध्य हो जाता है। शास्त्रकार तो असाध्य होना ही लिखते हैं। _ अगर मौसम गरमीमें, गरम मिज़ाजवाले या पित्त-प्रकृतिवालेको साँप काटता है, तो सभी साँपोंका जहर डबल जोर करता है। अतः ऐसा काटा हुआ आदमी असाध्य होता है। वैद्यको ऐसे आदमीका भी इलाज न करना चाहिये । ____ उस्तरा, छुरी या नश्तर प्रभृतिसे चीरनेपर जिसके शरीरसे खून न निकले; चाबुक, कोड़े या कमची आदिसे मारनेपर भी जिसके शरीरमें निशान न हों और निहायत ठण्डा बर्फ-समान पानी डालनेपर २३ For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७८ . चिकित्सा-चन्द्रोदय । भी जिसे कँप-कँपी न आवे-रोएँ खड़े न हों, उसे असाध्य समझकर वैद्यको त्याग देना चाहिये। यानी उसका इलाज न करना चाहिये। जिस साँपके काटे हुए आदमीका मुँह टेढ़ा हो जाय, बाल छूते ही टूट-टूटकर गिरें, नाक टेढ़ी हो जाय, गर्दन झुक जाय, स्वर भंग हो जाय, साँपके डसनेकी जगहपर लाल या काली सूजन और सख्ती हो, तो वैद्य ऐसे साँपके काटेको असाध्य समझकर त्याग दे। - जिस मनुष्यके मुंहसे लारकी गाढ़ी-गाढ़ी बत्तियाँ-सी गिरें या कफकी गाँठे-सी निकलें; मुख, नाक, कान, नेत्र , गुदा, लिंग और योनि प्रभृतिसे खून गिरे सब दाँत पीले पड़ जायँ और जिसके बराबर चार दाँत लगे हों, उसको वैद्य असाध्य समझकर त्याग दे-इलाज न करे। ___ "हारीत-संहिता"में लिखा. है, जिस मनुष्यका चलना-फिरना अजीब हो, जिसके सिरमें घोर वेदना हो, जिसके हृदयमें पीड़ा हो, नाकसे खून गिरे, नेत्रों में जल भरा हो, जीभ जड़ हो गई हो, जिसके रोएँ बिखर गये हों, जिसका शरीर पीला हो गया हो और जिसका मस्तक स्थिर न हो यानी जो सिरको हिलाता और घुमाता होउत्तम वैद्य ऐसे साँपके काटे हुए मनुष्योंकी चिकित्सा न करे। हाँ, जिन सर्पके काटे हुओंमें ये लक्षण न हों, उनका इलाज करे । जो मनुष्य विषके प्रभावसे मतवाला या पागल-सा हो जाय, जिसकी आवाज़ बैठ जाय, जिसे ज्वर और अतिसार प्रभृति रोग हों, जिसके शरीरका रंग बदल गया हो, जिसमें मौतके-से लक्षण मौजूद हों, जिसके मल मूत्र या टट्टी-पेशाब बन्द हो गये हों और जिसके शरीरमें वेग या लहरें न उठती हों--ऐसे साँपके काटे हुए मनुष्यको वैद्य त्याग दे--इलाज न करे। सर्पके काटनेके कारण । " सर्प बिना किसी वजह या मतलबके नहीं काटते। कोई पाँवसे दबकर काटता है, तो कोई पूर्व-जन्मके वैरका बदला लेनेको काटता है। कोई डरकर काटता है, कोई मदसे काटता है, कोई भूखसे For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंगम-विष-चिकित्सा-सोका वर्णन। १६ काटता है, कोई विषका वेग होनेसे काटता है और कोई अपने बच्चोंकी जीवन-रक्षा करनेके लिये काटता है । वाग्भट्टमें लिखा है:-- आहारार्थ भयात्पादस्पर्शादतिविषात्क्रुधः । पापवृत्तितया वैराह वर्षियमचोदनात् ॥ पश्यन्ति सस्तेषक्तं विषाधिक्यं यथोत्तरम्। भोजनके लिये, डरके मारे, पैर लग जानेसे, विषके बाहुल्यसे, क्रोधसे, पापवृत्तिसे, वैरसे तथा देवर्षि और यमकी प्रेरणासे साँप मनुष्योंको काटते हैं। इनमें पीछे-पीछेके कारणोंसे काटनेमें, क्रमशः विषकी अधिकता होती है। जैसे-डरके मारे काटता है, उसकी अपेक्षा पैर लगनेसे काटता है तब जहरका जोर ज़ियादा होता है। विषकी अधिकतासे काटता है, उसकी अपेक्षा क्रोधसे काटनेपर जहरकी तेजी और भी जियादा होती है। जब सर्प देवर्षि या यमराजकी प्रेरणासे काटता है तब और सब कारणोंसे काटनेकी अपेक्षा विषका जोर अधिक होता है और इस दशामें काटनेसे मनुष्य मर ही जाता है । नोट-किस कारणसे काटा है-यह जानकर यथोचित चिकित्सा करनी चाहिये । लेकिन साँपने किस कारणसे काटा है, इस बातको मनुष्य देखकर नहीं जान सकता, इसलिये किस कारणसे काटा है, इसकी पहचानके लिए प्राचीन प्राचार्यांने तर . बतलाई हैं । उन्हें हम नीचे लिखते हैं सर्पके काटनेके कारण जाननेके तरीके । (१) अगर सर्प काटते ही पेटकी ओर उलट जाय, तो समझो कि उसने दबने या पैर लगनेसे काटा है। (२) अगर साँपका काटा हुआ स्थान या घाव अच्छी तरह न दीखे, तो समझो कि भयसे काटा है । (३ ) अगर काटे हुए स्थानपर दाढ़से रेखा-सी खिंच जाय, तो समझो कि मदसे काटा है। (४) अगर काटे हुए स्थानपर दो दाढ़ोंके दाग़ हों, तो समझो कि घबराकर काटा है। For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८० चिकित्सा-चन्द्रोदय । (५) अगर काटे हुए स्थानमें दो दाढ़ लगी हों और घाव खूनसे भर गया हो, तो समझो कि विष-वेगसे काटा है । सर्पदंशके भेद । _ 'सुश्रुत"-कल्पस्थानके चतुर्थ अध्यायमें लिखा है। -पैरसे दबनेसे, क्रोधसे रुष्ट होकर अथवा खाने या काटनेकी इच्छासे सर्प महाक्रोध करके प्राणियोंको काटते हैं । उनका वह काटना तीन तरहका होता हैः-- ___ (१) सर्पित, (२) रदित और (३) निर्विष । विष-विद्याके जाननेवाले चौथा भेद “सपींगाभिहत" और मानते हैं । ___ सर्पितका अर्थ पूरे तौरसे डसा जाना है । साँपकी काटी हुई जगहपर एक, दो या अधिक दाँतोंके चिह्न गड़े हुए-से दीखते हैं। दाँतोंके निकलनेपर थोड़ा-सा खून निकलता और थोड़ी सूजन होती है । दाँतोंकी पंक्ति पूरे तौरसे गड़ जानेके कारण, साँपका विष शरीरके खून में पूर्ण रूपसे घुस जाता और इन्द्रियोंमें शीघ्र ही विकार हो आता है, तब कहते हैं कि यह “सर्पित" या पूरा डसा हुआ है। ऐसा दंश या काटना बहुत ही तेज़ और प्राणनाशक समझा जाता है। (२) रदितका अर्थ खरौंच आना है। जब साँपकी काटी जगहपर नीली, पीली, सफेद या लाली लिये हुए लकीर या लकीरें दीखती हैं अथवा खरौंच-सी मालूम होती है और उस खरौंचमेंसे कुछ खून-सा निकला जान पड़ता है, तब उस दंश या काटनेको “रदित" या खरौंच कहते हैं। इसमें जहर तो होता है, पर थोड़ा होता है, अतः प्राणनाशका भय नहीं होता; बशर्ते कि उत्तम चिकित्सा की जाय । (३) निर्विषका अर्थ विष-रहित या विष-हीन है। चाहे काटे स्थानपर दाँतोंके गड़नेके कुछ चिह्न हों, चाहे वहाँसे खून भी निकला हो, पर वहाँ सूजन न हो तथा इन्द्रियों और शरीरकी प्रकृतिमें विकार न हों, तो उस दंशको "निर्विष" कहते हैं। For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंगम-विष-चिकित्सा-सों का वर्णन | १८१ . (४) सर्पाङ्गाभिहत । जब डरपोक आदमीके शरीरसे सर्प या सर्पका मुँह खाली लग जाता है-सर्प काटता नहीं-खरौंच भी नहीं आती, तो भी मनुष्य भ्रमसे अपने-तई सर्प द्वारा डसा हुआ या काटा हुआ समझ लेता है । ऐसा समझनेसे वह भयभीत होता है। भय के कारण, वायु कुपित होकर कदाचित् सूजन-सी उत्पन्न कर देता है। इस दशामें भयसे मनुष्य बेहोश हो जाता है और प्रकृति भी बिगड़ जाती है । वास्तवमें काटा नहीं होता, केवल भयसे मूर्छा आदि लक्षण नजर आते हैं, इससे परिणाममें कोई हानि नहीं होती । इसीको "सर्पाङ्गाभिहित" कहते हैं । इस दशामें रोगीको तसल्ली देना, उसको न काटे जानेका विश्वास दिलाकर भय-रहित करनाऔर मन समझानेको यथोचित चिकित्सा करना आवश्यक है। विचरनेके समयसे साँपोंकी पहचान । रातके पिछले पहरमें प्रायः राजिल, रातके पहले तीन पहरोंमें मण्डली और दिनके समय प्रायः दर्बीकर घूमा करते हैं । खुलासा यों समझिये, कि दिनके समय दर्बीकर, सन्ध्या-कालसे रातके तीन बजे तक मण्डली और रातके तीन बजेसे सवेरे तक राजिल सर्प प्रायः फिरा करते हैं। . _ नोट--काटे जानेका समय मालूम होनेसे भी, वैद्य काटनेवाले सर्पकी जातिका क़यास कर सकता है । ये सर्प सदा इन्हीं समयों में घूमने नहीं निकलते, पर बहुधा इन्हीं समयोंमें निकलते हैं। अवस्था-भेदसे साँपोंके जहरको तेजी और मन्दी। नौलेसे डरे हुए, दबे हुए या घबराये हुए, बालक, बूढ़े, बहुत समय तक जलमें रहनेवाले, कमजोर, काँचली छोड़ते हुए, पीले यानी पुरानी काँचली ओढ़े हुए, काटनेसे एकाध क्षण पहले दूसरे प्राणीको काटकर अपनी थैलीका विष कम कर देनेवाले साँप अगर काटते हैं, तो उनके विषमें अत्यल्प प्रभाव रहता है, यानी इन हालतोंमें काटनेसें For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । उनका जहर विशेष कष्ट-दायक नहीं होता । वाग्भट्टने-रतिसे क्षीण, जलमें डूबे हुए, शीत, वायु, घाम, भूख, प्यास और परिश्रमसे पीड़ित, शीघ्र ही अन्य देशमें प्राप्त हुए, देवताके स्थानके पास बैठे हुए या चलते हुए, ये और लिखे हैं, जिनका विष अल्प होता है और उसमें तेजी नहीं होती। दीकर या फनवाले चढ़ती उम्र या भर जवानीमें, मण्डली ढलती अवस्था या बुढ़ापेमें और राजिल बीचकी या अधेड़ अवस्थामें अगर किसीको काटते हैं, तो उसकी मृत्यु हो जाती है। साँपोंके विषके लक्षण । दीकर। यह हम पहले लिख आये हैं, कि दर्वीकर साँपोंकी प्रकृति वायुकी होती है; इसलिये दीकर-कलछी जैसे फनवाले काले साँप या घोर काले साँपोंके डसने या काटनेसे चमड़ा, नेत्र, नाखून, दाँत, मल-मूत्र काले हो जाते और शरीरमें रूखापन होता है; इसलिये जोड़ोंमें वेदना और खिंचाव होता है, सिर भारी हो जाता है; कमर, पीठ और गर्दनमें निहायत कमजोरी होती है; जभाइयाँ आती हैं; शरीर काँपता है; आवाज़ बैठ जाती है; कण्ठमें घर-घर आवाज़ होती है; सूखी-सूखी डकारें आती हैं; खाँसी, श्वास, हिचकी, वायुका ऊँचा चढ़ना, शूल, हड़फूटन, ऐंठनी, जोरकी प्यास, मुँ हसे लार गिरना, झाग आना और स्रोतोंका रुक जाना प्रभृति वात-व्याधियोंके लक्षण होते हैं। ___ नोट-जोड़ोंमें दर्द, जंभाई, चमड़ा और नेत्र श्रादिका काला हो जाना प्रभुति वायु-विकार हैं। चूँ कि दीकरोंकी प्रकृति वातज होती है, अतः उनके विषमें भी वायु ही रहती है। इससे जिसे ये काटते हैं, उसके शरीरमें वायुके अनेक विकार होते हैं। मण्डली। मण्डली सर्प पित्त-प्रकृति होते हैं, अतः उनके विषसे चमड़ा, नेत्र, नाख, दाँत, मल और मूत्र- ये सन पीले या सुर्जी माइल पीले हो जाते For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंगम-विष-चिकित्सा-सोका वर्णन। १८३ हैं। शरीरमें दाह-जलन और प्यासका जोर रहता है, शीतल पदार्थ खाने-पीने और लगानेकी इच्छा होती है। मद, मूर्छा-बेहोशी और बुखार भी होते हैं। मुंह, नाक, कान, आँख, गुदा, लिंग और योनि द्वारा खून भी आने लगता है। मांस ढीला होकर लटकने लगता है। सूजन आ जाती है । डसी हुई या साँपकी काटी हुई जगह गलने और सड़ने लगती है । उसे सर्वत्र सभी चीजें पीली-ही-पीली दीखने लगती हैं.। विष जल्दी-जल्दी चढ़ता है । इनके सिवा और भी पित्त-विकार होते हैं। राजिल । खाजिल या राजिमन्त साँकी प्रकृति कफ-प्रधान होती है । इसलिये ये जिसे काटते हैं उसका चमड़ा, नेत्र, नख, मल और मूत्र--ये सब सफ़ेदसे हो जाते हैं । जाड़ा देकर बुखार चढ़ता है,रोएँ खड़े हो जाते हैं, शरीर अकड़ने लगता है, काटी हुई जगहके आस-पास एवंशरीरके औरभागोंमें सूजन आ जाती है, मैं हसे गाढ़ा-गाढ़ा कफ गिरता है, कय होती हैं, आँखोंमें बारम्बार खुजली चलती है; कण्ठ सूख जाता है और गलेमें घर-घर घर-घर आवाज़ होती है तथा साँस रुकता और नेत्रोंके सामने अँधेरा-सा आता है। इनके सिवा, ककके और विकार भी होते हैं। नोट-८० तरहके साँके काटे हुएके लक्षण इन्हीं तीन तरहके साँपोंके लक्षणों के अन्दर आ जाते हैं; अतः अलग-अलग लिखनेकी ज़रूरत नहीं। विषके लक्षण जाननेसे लाभ। ऊपर सर्पो के डसने या विषके लक्षण दंशकी शीघ्र मारकता जाननेके लिये बताये हैं, क्योंकि विष तीक्ष्ण तलवारकी चोट, वजू और अग्निके समान शीघ्र ही प्राणीका नाश कर देता है। अगर दो घड़ी भी ग़फ़लस की जाती है, तत्काल इलाज नहीं किया जाता, तो विष मनुष्यको मार डालता है और उसे बातें करनेका भी समय नहीं देता। .. ... साँप-साँपिन प्रभृति साँपोंके डसनेके लक्षण । (१) नर-सर्पका काटा हुआ आदमी ऊपरकी ओर देखता है। For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । . (२) मादीन सर्प या नागिनका डसा हुआ आदमी नीचेकी तरफ़ देखता है और उसके सिरकी नसें ऊपर उठी हुई-सी हो जाती हैं। (३) नपुंसक साँपका काटा हुआ आदमी पीला पड़ जाता और उसका पेट फूल जाता है। (४) ब्याई हुई साँपनके काटे हुए आदमीके शूल चलते हैं, पेशाबमें खून आता है और उपजिह्विक रोग भी हो जाता है। - (५) भूखे साँपका काटा हुआ आदमी खानेको माँगता है। (६) बूढ़े सर्पके काटनेसे वेग मन्दे होते हैं। (७) बच्चा सर्पके काटनेसे वेग जल्दी-जल्दी, पर हल्के होते हैं। . (८) निर्विष सर्पके काटनेसे विषके चिह्न नहीं होते । (E) अन्धे साँपके काटनेसे मनुष्य अन्धा हो जाता है । (१०) अजगर मनुष्यको निगल जाता है, इसलिए शरीर और प्राण नष्ट हो जाते हैं। यह निगलनेसे ही प्राण नाश करता है, विषसे नहीं। (११) इनमेंसे सद्यः प्राणहर सर्पका काटा हुआ आदमी ज़मीनपर शस्त्र या बिजलीसे मारे हुएकी तरह गिर पड़ता है। उसका शरीर शिथिल हो जाता और वह नींदमें ग़र्क हो जाता है। विषके सात वेग । __ “सुश्रुत में लिखा है, सभी तरहके साँपोंके विषके सात-सात वेग होते हैं। बोलचालकी भाषामें वेगोंको दौर या मैड़ कहते हैं। साँपका विष एक कलासे दूसरीमें और दूसरीसे तीसरीमें--इस तरह सातों कलाओंमें घुसता हैं। जब वह एकको पार करके दूसरी कलामें जाता है, तब वेगान्तर या एक वेगसे दूसरा वेग कहते हैं। इन कलाओंके हिसाबसे ही सात वेग माने गये हैं। इस तरह समझियेः-- (१) ज्योंही सर्प काटता है, उसका विष खून में मिलकर ऊपरको चढ़ता है--यही पहला वेग है। For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंगम-विष-चिकित्सा--सोका वर्णन । १८५ (२) इसके बाद विष खूनको बिगाड़कर मांसमें पहुँचता हैयह दूसरा वेग हुआ। (३) मांसको पार करके विष मेदमें जाता है- यह तीसरा वेग हुआ। (४) मेदसे विष कोठेमें जाता है--यह चौथा वेग हुआ। (५) कोठेसे विष हड्डियों में जाता है, यह पाँचवाँ वेग हुआ। (६) हड्डियोंसे विष मज्जामें पहुँचता है, यह छठा वेग हुआ। (७) मज्जासे विष वीर्यमें पहुँचता है, यह सातवाँ वेग हुआ। नोट-सर्पके विषका कौनसा वेग है, इसके जाननेकी चिकित्सकको ज़रूरत होती है, इसलिये वेगोंकी पहचान जानना और याद रखना ज़रूरी है । नीचे हम यही दिखलाते हैं कि, किस वेगमें क्या चिह्न या लक्षण देखने में आते हैं। सात वेगोंके लक्षण । पहला वेग--साँपके काटते ही, विष खून में मिलकर ऊपरकी तरफ़ चढ़ता है । उस समय शरीरमें चींटी-सी चलती हैं। फिर विष खूनको खराब करता हुआ चढ़ता है, इससे खून काला, पीला या सफेद हो जाता है और वही रंगत ऊपर झलकती है। नोट-दीकर साँपोंके विषके प्रभावसे खूनमें कालापन; मण्डलीके विषसे पीलापन और राजिलके विषसे सफ़दी आ जाती है । - दूसरा वेग--इस वेगमें विष मांसमें मिल जाता है, इससे मांस खराब हो जाता है और उसमें गाँठे-सी पड़ी दीखती हैं । शरीर, नेत्र, मुख, नख और दाँत प्रभृतिमें कालापन, पीलापन या सफेदी ज़ियादा हो जाती है। नोट-दीकर साँपके विषसे कालापन; मण्डलीके विषसे पीलापन और राजिलके विषसे सफ़ दी होती है । ___ तीसरा वेग-इस वेगमें विष मेद तक जा पहुँचता है, जिससे For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । मेद खराब हो जाती है । उसकी खराबीसे पसीने आने लगते हैं, काटी जगहपर क्लेद-सा होता है और नेत्र मिचे जाते हैं--तन्द्रा घेर लेती है । - चौथा वेग-इस वेगमें विष पेट और फेफड़े प्रभृतिमें पहुँच जाता है । इससे कोठेका कफ खराब हो जाता है, मुंहसे लार या कफ गिरता है और सन्धियाँ टूटती हैं; यानी जोड़ोंमें पीड़ा होती है और घुमेर या चक्कर आते हैं। .. ___नोट--चौथे वेगमें मण्डली सर्पके काटनेसे ज्वर चढ़ पाता है और राजिलके काटनेसे गर्दन अकड़ जाती है । . पाँचवाँ वेग--इस वेगमें विष हड्डियोंमें जा पहुँचता है, इससे शरीर कमजोर होकर गिरा जाता है, खड़े होने और चलने-फिरनेकी सामर्थ्य नहीं रहती और अग्नि भी नष्ट हो जाती है। नोट--अग्नि नष्ट होनेसे-अगर दीकर काटता है, तो शरीर ठण्डा हो जाता है, अगर मण्डली काटता है, तो शरीर निहायत गर्म हो जाता है और अगर राजिल काटता है, तो जाड़ेका बुखार चढ़ता और जीभ बँध जाती है । . छठा वेग--इस वेगमें विष मज्जामें जा पहुँचता है, इससे छठी पित्त-धरा कला, जो अग्निको धारण करती है, निहायत बिगड़ जाती है । ग्रहणीके बिगड़नेसे दस्त बहुत आते हैं । शरीर एकदम भारी-सा हो जाता है, मनुष्य सिर और हाथ-पाँव आदि अंगोंको उठा नहीं सकता । उसके हृदयमें पीड़ा होती और वह बेहोश हो जाता है। . सातवाँ वेग--इस वेगमें विषका प्रभाव सातवीं शुक्रधरा या रेतोधरा कला अथवा वीर्यमें जा पहुंचता है, इससे सारे शरीरमें रहनेवाली व्यान वायु कुपित हो जाती है । उसकी वजहसे मनुष्य कुछ भी करने योग्य नहीं रहता । मुंह और छोटे-छोटे छेदोंसे पानी-सा गिरने लगता है। मुख और गलेमें कफकी गिलौरियाँ-सी बँधने लगती हैं। कमर और पीठकी हड्डीमें जरा भी ताकत नहीं रहती । मुँहसे लार बहती है। सारे शरीरमें, विशेषकर शरीरके ऊपरी हिस्सों में, बहुत ही पसीना आता और साँस रुक जाता है, इससे आदमी बिल्कुल मुर्दा-सा हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंगम-विष-चिकित्सा--सोका वर्णन । १८७ - नोट-एक और ग्रन्थकार अाठ वेग मानते हैं और प्रत्येक वेगके लक्षण बहुत ही संक्षेपमें लिखते हैं। पाठकोंको उनके जाननेसे भी लाभ ही होगा, इसलिये उन्हें भी लिख देते हैं। - (१) पहले वेगमें सन्ताप, (२) दूसरेमें शरीर काँपना, (३) तीसरेमें दाह या जलन, (४) चौथेमें बेहोश होकर गिर पड़ना, (५) पाँचवेंमें मुंहसे झाग गिरना, (६) छठेमें कन्धे टूटना, (७) सातवेंमें जड़ीभूत होना ये लक्षण होते हैं, और (८) आठवें में मृत्यु हो जाती है। दीकर या फनदार साँपोंके विषके सात वेग । द:कर साँपोंका विष पहले वेगमें खूनको दूषित करता है, इससे खून बिगड़कर “काला" हो जाता है। खूनके काले होनेसे शरीर काला पड़ जाता है और शरीरमें चींटी-सी चलती जान पड़ती हैं। - दूसरे वेगमें--वही विष मांसको बिगाड़ता है, इससे शरीर और भी जियादा काला हो जाता और सूज जाता है तथा गाँठे हो जाती हैं । __ तीसरे वेगमें--वही विष मेदको खराब करता है, जिससे डसी हुई जगहपर क्लेद, सिरमें भारीपन और पसीना होता है तथा आँखें मिचने लगती हैं। चौथे वेगमें--वही विष कोठे या पेटमें पहुँचकर कफ-प्रधान दोषों-लेदन, कफ, रस, ओज आदि--को खराब करता है, जिससे तन्द्रा आती, मैं हसे पानी गिरता और जोड़ोंमें दर्द होता है। 'पाँचवें वेगमें--वही विष हड्डियोंमें घुसता और बल तथा शरीरकी अग्निको दृषित करता है, जिससे जोड़ोंमें दर्द, हिचकी और दाह ये उपद्रव होते हैं। .. छठे वेगमें-वही विष मज्जामें घुसता और ग्रहणीको दूषित करता है, जिससे शरीर भारी होता, पतले दस्त लगते, हृदयमें पीड़ा और मूर्छा होती है। ... For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । ' सातवें वेगमें-वही विष वीर्यमें जा पहुँचता और सारे शरीरमें रहनेवाली 'व्यान वायु"को कुपित कर देता एवं सूक्ष्म छेदोंसे कफको झिराने लगता है, जिससे कफकी बत्तियाँ-सी बँध जाती हैं, कमर और पीठ टूटने लगती हैं, हिलने-चलनेकी शक्ति नहीं रहती, मुँ हसे पानी और शरीरसे पसीना बहुत आता और अन्तमें साँसका आना-जाना बन्द हो जाता है। मण्डली या चकत्तेदार साँपोंके विषके सात वेग । - मण्डली साँपोंका विष पहले वेगमें खूनको बिगाड़ता है, तब वह खून 'पीला" हो जाता है, जिससे शरीर पीला दीखता और दाह होता है। दूसरे वेगमें--वही विष मांसको बिगाड़ता है, जिससे शरीरका पीलापन और दाह बढ़ जाते हैं तथा काटी हुई जगहमें सूजन श्रा जाती है। ___ तीसरे वेगमें--वही विष मेदको बिगाड़ता है, जिससे नेत्र मिचने लगते हैं, प्यास बढ़ जाती है, पसीने आते हैं और काटे हुए स्थानपर लेद होता है। चौथे वेगमें वही विष कोठेमें पहुँचकर ज्वर करता है। पाँचवें वेगमें--वही विष हड्डियोंमें पहुँचकर, सारे शरीरमें खूब तेज़ जलन करता है। छठे और सातवें वेगोंमें दीकरोंके विषके समान लक्षण होते हैं। राजिल या गण्डेदार साँपोंके विषके सात वेग।। राजिल साँपोंका विष पहले वेगमें खूनको बिगाड़ता है। इससे बिगड़ा हुआ खून “पाण्डु' वर्ण या सफेद-सा हो जाता है, जिससे आदमी सफेद-सा दीखने लगता है और रोएँ खड़े हो जाते हैं। दूसरे वेगमें--यही विष मांसको बिगाड़ता है, जिससे पाण्डुता For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५: जंगम-विष-चिकित्सा -सोका वर्णन । या सफेदी और भी बढ़ जाती, जड़ता होती और सिर में सूजन चढ़ आती है। - तीसरे वेगमें--वही विष मेदको खराब करता है, जिससे आँखें बन्द सी होती, दाँत अमलाते, पसीने आते, नाक और आँखोंसे पानी आता है। चौथे वेगमें--विष कोठेमें जाकर, मन्यास्तम्भ और सिरका भारीपन करता है। पाँचवें वेगमें-बोल बन्द हो जाता और जाड़ेका ज्वर चढ़ आता है। छठे और सातवें वेगोंमें--दीकरोंके विषके-से लक्षण होते हैं । पशुओंमें विषवेगके लक्षण । .. पशुओंको सर्प काटता है, तो चार वेग होते हैं । पहले वेगमें पशुका शरीर सूज जाता है । वह दुखित होकर ध्या-ध्या करता अथवा ध्यान-निमग्न हो जाता है। दूसरे वेगमें, मुँ हसे पानी बहता, शरीर काला पड़ जाता और हृदयमें पीड़ा होती है। तीसरे वेगमें, सिरमें दुःख होता है तथा कंठ और गर्दन टूटने लगती हैं । चौथे वेगमें, पशु मूढ़ होकर काँपने लगता और दाँतोंको चबाता हुआ प्राण त्याग देता है। नोट--कोई-कोई पशुओंके तीन ही वेग बताते हैं। पक्षियोंमें विषवेगके लक्षण । प्रथम वेगमें पक्षी ध्यान-मग्न हो जाता है और फिर मोह या मूर्छाको प्राप्त होता है। दूसरे वेगमें वह बेसुध हो जाता और तीसरे वेगमें मर जाता है। ... नोट--बिल्ली, नौला और मोर प्रभुतिके शरीरों में साँपोंके विषका प्रभाव नहीं होता। For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० चिकित्सा-चन्द्रोदय । .. मरे हुए और बेहोश हुएकी पहचान । ____ अनेक बार ऐसा होता है, कि मनुष्य एक-दमसे बेहोश हो जाता है, नाड़ी नहीं चलती और जहरकी तेजीसे साँसका चलना भी बन्द हो जाता है, परन्तु शरीरसे आत्मा नहीं निकलता-जीव भीतर रहा आता है। नादान लोग, ऐसी दशामें उसे मरा हुआ समझकर गाड़ने या जलानेकी तैयारी करने लगते हैं, इससे अनेक बार न मरते हुए भी मर जाते हैं । ऐसी हालतमें, अगर कोई जानकार भाग्यबलसे आ जाता है, तो उसे उचित चिकित्सा करके जिला लेता है। अतः हम सबके जाननेके लिये, मरे हुए और जीते हुएकी परीक्षा-विधि लिखते हैं:-- (१) उजियालेदार मकानमें, बेहोश रोगीकी आँख खोलकर देखो। अगर उसकी आँखकी पुतलीमें, देखनेवालेकी सूरतकी परछाई दीखे या रोगीकी आँखकी पुतलीमें देखनेवालेकी सूरतका प्रतिबिम्ब या अक्स पड़े, तो समझ लो कि रोगी जीता है। इसी तरह अँधेरे मकानमें या रातके समय, चिराग़ जलाकर, उसकी आँखोंके सामने रखो । अगर दीपककी लौकी परछाई उसकी आँखोंमें दीखे, तो समझो कि रोगी जीता है। (२) अगर बेहोश आदमीकी आँखोंकी पुतलियोंमें चमक हो, तो समझो कि वह जीता है। (३) एक बहुत ही हल्के बर्तनमें पानी भरकर रोगीकी छातीपर रख दो और उसे ध्यानसे देखो। अगर साँस बाकी होगा या चलता होगा, तो पानी हिलता हुआ मालूम होगा। (४) धुनी हुई ऊन, जो अत्यन्त नर्म हो, अथवा कबूतरका बहुत ही छोटा और हल्का पंख, रोगीकी नाकके छेदके सामने रक्खो । अगर इन दोनों से कोई भी हिलने लगे, तो समझो कि रोगी जीता है। For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सामें याद रखने योग्य बातें। १६१ नोट--यह काम इस तरह करना चाहिये जिससे लोगोंके साँसकी हवा या बाहरी हवासे उन या पंखके हिलनेका वहम न हो । (५) पेड़ , चड्ढे, लिंगेन्द्रिय, योनिके छेद और गुदाके भीतर, पीछेको झुकी हुई, दिलकी एक रग आई है । जब तक रोगी जीता रहता है, वह हिलती रहती है। पूरा नाड़ी-परीक्षक इस रगपर अंगुलियाँ रखकर मालूम कर सकता है, कि यह रग हिलती है या नहीं। नोट-तजुबेकार या जानकार आदमी किसी प्रकारके विषसे मरे हुए और पानी में डूबे हुओंकी, मुर्दा मालूम होनेपर भी, तीन दिन तक राह देखते हैं और सिद्ध यत्न प्राप्त हो जानेपर जीवनकी उम्मीद करते हैं । सकतेकी बीमारीवाला मुर्देके समान हो जाता है, लेकिन बहुतसे जीते रहते हैं और मुर्दै जान पड़ते हैं। उत्तम चिकित्सा होनेसे वे बच जाते हैं । इसीसे हकीम जालीनूस कहता है, कि सकतेवालेको ७२ घण्टे या तीन दिन तक न जलाना और न दफनाना चाहिये । RED6555555526866666666SEN सर्प-विष-चिकित्सामें याद रखने योग्य बातें। 2 0999999999999999999 (१) अगर साँपके काटते ही, आप रोगीके पास पहुँच जाओ, तो साँपके काटे हुए स्थानसे चार अंगुल ऊपर, रेशमी कपड़े, सूत, डोरी या सनकी डोरी आदिसे बन्ध बाँध दो। एक बन्धपर भरोसा मत करो । एक बन्धसे चार अंगुलकी दूरीपर दूसरा और इसी तरह तीसरा बन्ध बाँधो। बन्ध बाँध देनेसे खून उपरको नहीं चढ़ता और आगेकी चिकित्साको समय मिलता है । कहा है अम्बुवत्सेतुबन्धेन बन्धेन स्तभ्यते विषम् । न वहन्ति शिराश्चास्य विषबन्धाभिपीडिताः ॥ For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । — बन्द बाँधनेसे विष इस तरह ठहर जाता है जिस तरह पुल बाँधनेसे पानी । बन्ध से बंधी हुई नसोंमें विष नहीं जाता। ___ बहुधा साँप हाथ-पैरकी अँगुलियों में ही काटता है। अगर ऐसा हो, तब तो आपका काम बन्ध बाँधनेसे चल जायगा। हाथ-पैरों में भी आप बन्ध बाँध सकते हैं, पर अगर साँप पेट या पीठ आदि ऐसे स्थानोंमें काटे जहाँ बन्ध न बँध सके, तब आप क्या करेंगे ? इसका जवाब हम आगे नं० २ में लिखेंगे। हाँ, बन्ध ऐसा ढीला मत बाँधना कि, उससे खूनकी चाल न रुके । अगर आपका बन्ध अच्छा होगा, तो बन्धके ऊपरका खून, काटकर देखने से, लाल और बन्धके नीचेका काला होगा । यही अच्छे बन्धकी पहचान है। ___ बन्धके सम्बन्धमें दो-चार बातें और भी समझ लो । बन्ध बाँधनेसे पहले यह भी देख लो, कि खूनमें मिलकर विष कहाँ तक पहुँचा है । ऐसा न हो कि, ज़हर ऊपर चढ़ गया हो और आप बन्ध नीचे बाँधे । इस भूलसे रोगीके प्राण जा सकते हैं। अतः हम 'जहर कहाँ तक पहुँचा है' इस बातके जाननेकी चन्द तरकीबें बतलाये देते हैं पहले, काटे हुए स्थानसे चार अंगुल या ६७ अंगुल ऊपर आप सूत, रेशम, सन, चमड़ा या डोरीसे बन्ध बाँध दो। फिर देखो, बन्धके आस-पास कहींके बाल सो तो नहीं गये हैं। जहाँके बाल आपको सोते दीखें, वहीं आप ज़हर समझे। क्योंकि जहर जब बालोंकी जड़ोंमें पहुँचता है, तब वे सो जाते हैं और विषके आगे बढ़ते ही पीछेके बाल, जो पहले सो गये थे, खड़े हो जाते हैं और आगेके बाल, जहाँ विष होता है, सो जाते हैं। दूसरी पहचान यह है कि, जहाँ विष नहीं होता, वहाँ चीरनेसे लाल खून निकलता है; पर जहाँ जहर होता है, काला खून निकलता है। ज्यों-ज्यों ज़हर चढ़ता है, नसोंका रंग नीला होता जाता है। नसोंका रंग For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सामें याद रखने योग्य बातें। १६३ नीला करता हुआ विष-मिला खून चढ़ा या नहीं या कहाँ तक चढ़ा,यह बात बालोंसे साफ जानी जा सकती है। अगर इन परीक्षाओंसे भी आपको सन्देह रहे, तो आप निकलते हुए .खूनको आगपर डाल देखें। अगर खूनमें जहर होगा और खून बदबूदार होगा, तो आगपर डालते ही वह चटचट करेगा। कहा है: दुर्गन्धं सविषं रक्कमग्नौं चटचटायते । अगर आपका बाँधा हुआ बन्ध ठीक हो, तब तो कोई बात ही नहीं-नहीं तो फौरन दूसरा बन्ध उससे ऊपर, जहाँ विष न हो, बाँध दो। बन्ध बाँधनेका यही मतलब है कि, जहर खून में मिलकर ऊपर न चढ़ सके, अतः बन्धको ढीला हरगिज़ मत रखना । बन्ध बाँधकर, बन्धके नीचे चीरा देना भी न भूलना । बन्ध बाँधते ही जहर पीछेकी तरफ बड़े जोरसे लौटता है । अगर आप पहले ही चीर देंगे, तो जोरसे लौटा हुआ जहर खूनके साथ बाहर निकल जायगा। (२) अगर साँपकी काटी जगह बन्ध बाँधने-लायक न हो, तो नसमें जहर घुसनेसे पहले, फौरन ही, काटी हुई जगहपर जलते हुए अङ्गारे रखकर जहरको जला दो। अथवा काटी हुई जगहको छुरीसे छीलकर, लोहेकी गरम शलाकासे दाग दो-जला दो। अगर यह काम, बिना क्षणभरकी भी देरके, उचित समयपर किया जाय, तब तो कहना ही क्या ? क्योंकि ऐसी क्या चीज़ है, जो आगसे भस्म न हो जाय ? वाग्भट्टने कहा है: दंशं मण्डलिनां मुक्त्वा पित्तलत्वादथापरम् । प्रतप्तहेमलोहाद्यैर्दहेदाशूल्मुकेन वा। करोति भस्मसात्सद्योवहिनः किं नाम न क्षणात् ॥ अगर मण्डली साँपने काटा हो, तो भूलकर भी मत दागना; क्योंकि मण्डली साँपके विषकी प्रकृति पित्तकी होती है; अतः For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६४ . चिकित्सा-चन्द्रोदय । दागनेसे विष उल्टा बढ़ेगा। हाँ, मण्डलीके सिवा और साँपोंने काटा हो, तो आप दाग दें; यानी लोहे या सोनेकी किसी चीजको आगमें तपाकर, आग-जैसी लाल करके, उसीसे काटे हुए स्थानको जला दें। आग क्षणमात्रमें सभीको भस्म कर देती है। घावको भस्म करना कौनसा बड़ा काम है। नोट-दागनेसे पहले, आपको काटनेवाले साँपकी किस्मका पता लगा लेना ज़रूरी है । काटे हुए स्थान यानी घाव और सूजन प्रभुति तथा अन्य लक्षणोंसे, किस प्रकारके सर्पने काटा है, यह बात अासानीसे जानी जा सकती है । अगर उस समय कोई तेजाब पास हो, तो उसीसे काटी हुई जगहको जला दो । कार्बोलिक ऐसिड या नाइट्रिक ऐसिडकी २।३ बूंद उस जगह मलनेसे भी काम ठीक होगा । अगर तेजाब भी न हो और आग भी न हो, तो दो-चार दियासलाईकी डिब्बियाँ तोड़कर काटे हुए स्थानपर रख दो और उनमें आग लगा दो। मौकेपर चूकना ठीक नहीं; क्योंकि दंश-स्थानके जल्दी ही जला देनेसे विषैला रक्त जल जाता है। (३) बन्ध बाँधना और जलाना जिस तरह हितकर है उसी तरह जहर-मिले .खूनको मुंहसे या एअर-पम्पसे चूस लेना या खींच लेना भी हितकर है। ज़हर चूसनेका काम स्वयं रोगी भी कर सकता है और कोई दूसरा आदमी भी कर सकता है। ___ दंश-स्थान या काटी हुई जगहको जरा चीरकर, खुरचकर या पछने लगाकर, दाँतों और होठोंकी सहायतासे, खून-मिला जहर चूसा जाता है; और खून मुँहमें आते ही थूक दिया जाता है । इसलिये जो आदमी खूनको चूसे, उसके दन्तमूल-मसूढ़े पोले न होने चाहियें। उसके मुखमें घाव या चकत्ते भी न होने चाहिये। अगर मसूढ़े पोले होंगे या मैं हमें घाव वगैरः होंगे, तो चूसनेवालेको भी हानि पहुँचेगी । घावोंकी राहसे ज़हर उसके खूनमें For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प विष चिकित्सा में याद रखने योग्य बातें | १६५ मिलेगा और उसकी जान भी खतरे में हो जायगी । अतः जिसके मुख में उपरोक्त घाव आदि न हों, वही दंश स्थानको चूसे। इसके सिवा, चूसा हुआ खून और ज़हर गलेमें न चला जाय, इसका भी पूरा ख्याल रखना होगा । इसके लिये, अगर मुँ हमें कपड़ा, राख, औषधि, गोबर या मिट्टी भर ली जाय तो अच्छा हो । ज़हर चूस चूसकर थूक देना चाहिये । जब काम हो चुके, साफ़ जलसे कुल्ले कर डालने चाहियें । इस तरह, कभी-कभी ख़तरा भी हो जाता है, अतः बारीक झिल्लीकी पिचकारी या एअर - पम्प ( Air Pump ) से खून मिला जहर चूसा जाय, तो उत्तम हो । कोई-कोई सींगीपर मकड़ीका जाला लगाकर भी ज़हर चूसते हैं, यह भी उत्तम देशी उपाय है । ( ४ ) अगर साँपने उँगली - प्रभृति किसी छोटे अवयव में दाँत मारा हो, तो उसे साफ़ काटकर फेंक दो । यह उपाय, डसने के साथ ही, एक दो सैकिण्डमें ही किया जाय, तब तो पूरा लाभदायक हो सकता है, क्योंकि इतनी देर में जहर ऊपर नहीं चढ़ सकता । जब ज़हर उस अवयव से ऊपर चढ़ जायगा, तब कोई लाभ नहीं होगा । अगर विष ऊपर न चढ़ा हो, अवयव छोटा हो, तो वहाँकी जितनी ज़रूरत हो उतनी चमड़ी फौरन काट फेंको। अगर खून में मिलकर ज़हर आगे बढ़ रहा हो, तो साँपके इसे हुए स्थानको तेज़ नश्तर या चाकू-छुरीसे चीर दो; ताकि वहाँका खून गिरने लगे और उसके साथ विष भी गिरने लगे । अथवा साँपके डसे हुए स्थानको दो अँगुलियोंसे, चिमटीकी तरह पकड़कर, कोई चौथाई इंच काट डालो; यानी उतनी खाल उतारकर फेंक दो । काटते ही उस स्थानको गरम जलसे धोओ या गरम जलके तरड़े दो, ताकि खून बहना बन्द न हो और खूनके साथ * वाग्भट्ट ने कहा है, कि सर्प विष डसे हुए स्थानमें १०० मात्रा काल तक ठहरकर, पीछे खून में मिलकर शरीरमें फैलता है । For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । ज़हर निकल जाय । साँपके काटते ही डसी हुई जगहका खून बहाना और जहरको बन्धसे आगे न बढ़ने देना--ये दोनों उपाय परमोत्तम और जान बचानेवाले हैं। (५) साँपकी डसी हुई जगहसे तीन-चार इंच या चार अंगुल ऊपर रस्सी आदिसे बन्ध बाँधकर, डसी हुई जगहको चीर दो और उसपर पिसा हुआ नमक बुरकते या मलते रहो । इस तरह करनेसे खून बहता रहेगा और ज़हर निकल जायगा । बीच-बीचमें भी कई बार डसी हुई जगहको चीरो और उसपर गरम पानी डालो। इसके बाद नमक फिर बुरको । ऐसा करनेसे खूनका बहना बन्द न होगा । जबतक नीले रंगका खून निकले, तब तक जहर समझो। जब काला, पीला या सफ़ेद पानी-सा खून निकलना बन्द हो जाय और विशुद्ध लाल खून आने लगे, तब समझो कि अब जहर नहीं रहा । जब तक विशुद्ध लाल खून न देख लो, तब तक भूलकर भी बन्ध मत खोलना । अगर ऐसी भूल करोगे, तो सब किया-कराया मिट्टी हो जायगा । याद रखो, साँपका विष अत्यन्त कड़वा होता है । वह आदमी के खूनको प्रायः काला कर देता है । अगर मण्डली साँपका विष होता है, तो खून पीला हो जाता है। इसीसे हमने लिखा है, कि जब तक काला, नीला, पीला या सफेद पानी-सा खून गिरता रहे, विष समझो और खूनको बराबर निकालते रहो। सविष और निर्विष खूनकी परीक्षा इसी तरह होती है। (६) अगर नसोंमें जहर चढ़ रहा हो, तो उन नसोंमें जिनमें जहर न चढ़ा हो अथवा जहरसे ऊपरकी नसोंमें जहाँ कि ज़हर चढ़कर जायगा, दो आड़े चीरे लगा दो । फिर नसके ऊपरी भागको-चीरेसे ऊपर--अँगूठेसे कसकर दबा लो । जब ज़हर चढ़कर वहाँ तक आवेगा, तब, उन चीरोंकी राहसे, खूनके साथ, बाहर निकल जायगा। यह बहुत ही अच्छा उपाय है। (७) साँपकी डसी हुई जगहको रेतकी पोटली या गरम जलकी For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सामें याद रखने योग्य बातें। १६७ भरी बोतलसे लगातार सेकनेसे जहरकी चाल धीमी हो जाती है। जरूरतके समय इस उपायसे भी काम लेना चाहिये। () अगर साँपका विष बन्धोंको न माने, उन्हें लाँघकर ऊपर चढ़ता ही जाय; जलाने, खून निकालने आदिसे कोई लाभ न हो, तब जीवन-रक्षाका एक ही उपाय है । वह यह कि, जिस बन्ध तक ज़हर चढ़ा हो, उसके ऊपर, मोटे छुरेके पिछले भागसे, चीरकर और आगसे जलाकर उस डसे हुए अवयवके चारों ओर, पाव इञ्च गहरा और गोल चीरा बना दो। इस तरह जलाकर, नसोंका सम्बन्ध या कनैक्शन तोड़ देनेसे, ज़हर चीरके खड्डेको लाँधकर ऊपर नहीं जा सकेगा। पर इतना खयाल रखना कि, ज्ञान-तन्तु न जल जाय, अन्यथा वे झूठे हो जायँगे --काम न देंगे । जब काम हो जाय, घावपर गिरीका तेल लगाओ। इसे "बैरीकी क्रिया” कहते हैं। इस उपायसे अवश्य जान बच सकती है। (६) मरण-कालके उपाय-जब किसी उपायसे लाभ न हो, तब रोगीको खाटपर महीन रजाई या गद्दा बिछाकर, बड़े तकियेके सहारे बिठा दो और ये उपाय करोः-- (क) रोगीको सोने मत दो। उससे बातें करो। (ख ) चारपाईके नीचे धूनी दो और खाटके नीचेकी धूनीवाली आगसे सेक भी करो । रोगीको खूब गर्म कपड़े उढ़ाकर, ऊपरसे सेक करो । इन उपायोंसे पसीना आवेगा । पसीनोंसे विष नष्ट होता है, अतः हर तरह पसीने निकालने चाहियें। रोगीको शीतल जल भूलकर भी न देना चाहिये। (१०) रोगीको-साँपके काटे हुएको-घरके परनालेके नीचे बिठा दो। फिर उस परनालेसे सहन हो सके जैसा गरम जल खूब बहाओ । वह जल आकर ठीक रोगीके सिरपर पड़े, ऐसा प्रबन्ध करो। अगर १५-२० मिनटमें, रोगी काँपने लगे, उसे कुछ होश हो, तो यह काम करते रहो । जब होश हो जाय, उसे उठाकर और पोंछकर For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । अन्यत्र बिठा दो और खूब सेक करो। ईश्वरकी इच्छा होगी तो रोगी बच जायगा। “वैद्यकल्पतरु"। (११) जब देखो कि, मंत्र-तंत्र, दवा-दारू और अगद एवं अन्य उपाय सब निष्फल हो गये; रोगी क्षण-क्षण असाध्य होता जाता है- मृत्युके निकट पहुँचता जाता है; तब, पाँचवें वेगके बाद और सातवेंसे पहले, उसे “प्रतिविष" सेवन कराओ, यानी जब विषका प्रभाव हड्डियोंमें पहुँच जाय, शरीरका बल नष्ट हो जाय, उठा-बैठा और चला-फिरा न जाय, शरीर एकदम ठण्डा हो जाय अथवा एक दमसे गरम हो जाय अथवा जाड़ा लगकर शीतज्वर चढ़ आवे, जीभ बध जाय, शरीर बहुत ही भारी हो जाय और बेहोशी आ जाय-तब "प्रतिविष” सेवन कराओ। प्रतिविषका अर्थ है, विपरीत गुणवाला विष । स्थावर विषका प्रतिविष जंगम विष है और जंगम विषका प्रतिविष स्थावर विष है । क्योंकि एककी प्रकृति कफकी है, तो दूसरेकी पित्तकी। एक विष सर्द है, तो दूसरा गरम । एक बाहर से भीतर जाता है, तो दूसरा भीतरसे बाहर आता है। एक नीचे जाता है, तो दूसरा ऊपर । स्थावर विष कफप्रायः और जंगम विष पित्तप्रायः होते हैं । स्थावर विष आमाशयसे खूनकी ओर जाते हैं और जंगम विष, रुधिरमें मिलकर, आमाशय और फेफड़ोंकी ओर जाते हैं । इसीसे स्थावर विष जंगमका दुश्मन है और जंगम स्थावरका दुश्मन है । स्थावर विषके रोगीको जंगम विष सेवन करानेसे और जंगम विषवालेको स्थावर विष सेवन करानेसे आराम हो जाता है। साँपबिच्छू प्रभृतिके जंगम विषोंपर "वत्सनाभ' आदि स्थावर विष और संखिया, वत्सनाभ आदि स्थावर विषोंपर साँप-बिच्छू आदिके जंगम विष अमृतका काम कर जाते हैं। अन्तमें “विषस्य विषमौषधम्" जहरकी दवा जहर है, यह कहावत सच्ची हो जाती है। मतलब यह, साँपके काटे हुएकी असाध्य अवस्थामें किसी तरहका For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सा में याद रखने योग्य बातें। १६ बच्छनाभ या सींगिया आदि विष देना ही अच्छा है, क्योंकि इस समय विष देनेके सिवा और दवा है ही नहीं। ... पर “प्रतिविष" देना बालकोंका खेल नहीं है। इसके देने में बड़े विचार और समझ-बूझकी दरकार है। रोगीकी प्रकृति, देश, काल आदिका विचार करके प्रतिविषकी मात्रा दो। ऊपरसे निरन्तर घी पिलाओ । अगर सर्पविष हीन अवस्थामें हो या रोगी निहायत कमजोर हो, तो विषकी हीन मात्रा दो; यानी चार जौ-भर वत्सनाभ विष सेवन कराओ। अगर विष मध्यावस्थामें हो या रोगी मध्य बली हो, तो छ जौ-भर विष दो और यदि रोग या ज़हर उग्र यानी तेज़ हो और रोगी भी बलवान हो, तो आठ जौ-भर विष-वत्सनाभ विष या शुद्ध सींगिया दो। साथ ही “घी" पिलाना भी मत भूलो; क्योंकि घी विषका अनुपान है। विष अपनी तीक्ष्णतासे हृदयको खींचता है; अतः उसी हृदयकी रक्षाके लिए, रोगीको घी, घी और शहद मिली अगद अथवा घी-मिली दवा देनी चाहिये । जब संखिया खानेवालेका हृदय विषसे खिंचता है, उसमें भयानक जलन होती है, तब घी पिलानेसे ही रोगीको चैन आता है। इसीसे विष-चिकित्सामें "घी" पिलाना ज़रूरी समझा गया है। कहा हैः विषं कर्षति तीक्ष्णत्वाद्धृदयं तस्य गुप्तये । पिबेघृतं घृतक्षौद्रमगदं वा घृतप्लुतम् ॥ नोट - विष सम्बन्धी बातोंके लिये पीछे वत्सनाभ विषका वर्णन देखिये । (१२ ) अगर विष सारे शरीरमें फैल गया हो, तो हाथ-पाँवके अगले भाग या ललाटकी शिरा बेधनी चाहिये-इन स्थानोंकी फस्द खोल देनी चाहिये। क्योंकि शिरा-बेधन करने या फस्द खोल देनेसे खून निकलता है और खूनके साथ ही, उसमें मिला हुआ जहर भी निकल जाता है। इससे साँपके काटेकी परम क्रिया खून निकाल देना है। सुश्रुतमें लिखा है:-- For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०० चिकित्सा-चन्द्रोदय । "जिसके शरीरका रंग और-का-और हो गया हो, जिसके अङ्गोंमें दर्द या वेदना हो और खूब ही कड़ी सूजन हो, उस साँपके काटेका खून शीघ्र ही निकाल देना सबसे अच्छा इलाज है।" ठीक यही बात, दूसरे शब्दोंमें, वाग्भट्टने भी कही है-- __ "विषके फैल जानेपर शिरा बींधना या फस्द खोलना ही परमोत्तम क्रिया है, क्योंकि निकलते हुए खूनके साथ विष भी निकल जाता है।" शिरा या नस न दीखेगी, तो फस्द किस तरह खोली जायगी, इसीसे ऐसे मौकेपर सींगी लगाकर या जौंक लगाकर खून निकाल देनेकी आज्ञा दी गई है, क्योंकि खूनको किसी तरह भी निकालना परमावश्यक है। गर्भवती, बालक और बूढ़ेको अगर सर्प काटे, तो उनकी शिरा न बेधनी चाहिये-उनकी फस्द न खोलनी चाहिये। उनके लिए मृदु चिकित्साकी आज्ञा है। (१३) अगर पहले कहे हुए शिराबेधन या दाह आदि कर्मोंसे जहर जहाँ-का-तहाँ ही न रुके, खूनके साथ मिललर, आमाशयमें पहुँच जाय-नाभि और स्तनोंके बीचकी थैलीमें पहुँच जाय, तो आप फ़ौरन ही वमन कराकर विषको निकाल देनेकी चेष्टा करें। क्योंकि जब विष आमाशयमें पहुँचेगा, तो रोगीको अत्यन्त गौरव, उत्क्लेश या हुल्लास होगा; यानी जी मचलावे और घबरावेगाक्रय करनेकी इच्छा होगी। यही विषके आमाशयमें पहुँचनेकी पहचान है । इस समय अगर क़य कराने में देर की जायगी, तो और भी मुश्किल होगी, क्योंकि विष यहाँसे दूसरे प्राशय--पक्काशयमें पहुँच जायगा। वमन करा देनेसे विष निकल जायगा और रोगी चङ्गा हो जायगा-- विषको आगे बढ़नेका मौका ही न मिलेगा। कहा है: वमनेर्विषहद्भिश्च नेव व्याप्नोति तद्वपुः।। - वमन करा देनेसे विष निकल जाता है और सारे शरीर में नहीं फैलता। For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सामें याद रखने योग्य बातें। २०१ स्थावर-संखिया और अफीम प्रभृतिके विषमें तथा जंगमसाँप-बिच्छू प्रभृति चलनेवालोंके विषमें, वमन सबसे अच्छा जान बचानेवाला उपाय है । वमन करा देनेसे दोनों तरहके विष नष्ट हो जाते हैं। स्थावर विष खाये जानेपर तो वमन ही मुख्य और सबसे पहला उपाय है। जंगम विषमें यानी साँप आदिके काटनेपर, जरा ठहरकर वमन करानी पड़ती है और कभी-कभी तत्काल भी करानी पड़ती है, क्योंकि बाजे साँप के काटते ही जहर बिजलीकी तरह दौड़ता है। अनेक साँपोंके काटनेसे, आदमी काटनेके साथ ही गिर पड़ता और खतम हो जाता है। ये सब बातें चिकित्सककी बुद्धिपर निर्भर हैं। बुद्धिमान मनुष्य ज़रा-सा इशारा पाकर ही ठीक काम कर लेता है और मूढ़ आदमी खोल-खोलकर समझानेसे भी कुछ नहीं कर सकता । बहुतसे अनाड़ी कहा करते हैं, कि संखिया या अफीम आदि विष खा लेनेपर तो वमन कराना उचित है, पर सर्प-विच्छू प्रभृतिके काटनेपर वमनकी ज़रूरत नहीं। ऐसे अज्ञानियोंको समझना चाहिये, कि वमन करानेकी दोनों प्रकारके विषों में ही ज़रूरत है। (१४) अगर किसी वजहसे वमन कराने में देर हो जाय और विष पक्काशयमें पहुँच जाय, तो फौरन ही तेज़ जुलाब देकर, जहरको, पाखानेकी राहसे, पक्काशयसे निकाल देना चाहिये । जब ज़हर आमाशयमें रहता है, तब जी मिचलाने लगता है; किन्तु जहर जब पक्काशयमें पहुँचता है, तब रोगीके कोठेमें दाह या जलन होती है, पेटपर अफारा आ जाता है, पेट फूल जाता और मल-मूत्र बन्द हो जाते हैं । विषके पक्काशयमें पहुंचे बिना, ये लक्षण नहीं होते, अतः ये लक्षण देखते ही, जुलाब देना चाहिये। ___(१५) जिस साँपके काटे हुए आदमीके सिरमें दर्द हो, आलस्य हो, मन्यास्तम्भ हो- गर्दन रह गई हो और गला रुक गया हो, उसे शिरोविरेचन या सिरका जुलाब देकर, सिरकी मलामत निकाल २६ For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । देनी चाहिये। सिरमें विषका प्रभाव होनेसे ही उपरोक्त उपद्रव होते हैं । जब दिमाग़में विषका खलल होता है, तभी मनुष्य बेहोश होता है । इसीसे विषके छठे वेगमें अत्यन्त तेज अञ्जन और अवपीड़ नस्यकी शास्त्राज्ञा है । कहा है षष्ठेऽजनं ततस् तीक्ष्णमवपीडं च योजयेत् ॥ मतलब यह है, इस हालतमें नेत्रों में तेज अञ्जन लगाना और नस्य देनी चाहिये, जिससे रोगीकी उपरोक्त शिकायतें रफ़ा हो जायँ । (१६) बहुत बार ऐसा होता है, कि मनुष्यको सर्प नहीं काटता और कोई जीव काट लेता है; पर उसे साँपके काटनेका खयाल हो जाता है। इस कारणसे वह डरता है। डरनेसे वायु कुपित होकर सूजन वगैरः उत्पन्न कर देता है। अनेक बार ऐसा होता है, कि साँप आदमीके काटनेको आता है, उसका मुँह शरीरसे लगता है, पर वह आदमी उसे झटका देकर फेंक देता है। इस अवस्थामें, सर्पका दाँत अगर शरीरके लग भी जाता है, तो भी जल्दी ही हटा देनेसे दाँत-लगे स्थानमें जहर डालनेका साँपको मौका नहीं मिलता, पर वह आदमी अपने-तई काटा हुआ समझता और डरता है- अगर ऐसा मौका हो, तो आप रोगीको तसल्ली दीजिये । उसके मनमें साँपके न काटने या विष न छोड़नेका विश्वास दिलाइये, जिससे उसका थोथा भय दूर हो जाय । साथ ही मिश्री, वैगन्धिक-इ गुदी, दाख, दूधी, मुलहटी और शहद मिलाकर पिलाइये और मतरा हुआ जल दीजिये । यद्यपि इस दशामें साँपका दाँत लग जानेपर भी, जहर नहीं चढ़ता, क्योंकि घावमें विष छोड़े बिना विषका प्रभाव कैसे हो सकता है ? ऐसे दंशको “निर्विष दंश" कहते हैं। ' (१७) कर्केतन, मरकतमणि, हीरा, वैडूर्यमणि, गर्दभमणि, पन्ना, विष-मूषिका, हिमालयकी चाँद बेल--सोमराजी, सर्पमणि, द्रोण For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प विष-चिकित्सामें याद रखने योग्य बातें। २०३ मणि और वीर्यवान विष--इनमेंसे किसी एकको या दो-चारको शरीरपर धारण करनेसे विषकी शान्ति होती है। अतः जो अमीर हों, जिनके पास इनमेंसे कोई-सी चीज़ हो, उन्हें इनके पास रखनेकी सलाह दीजिये। इनको व्यर्थका अमीरी ढकोसला मत समझिये । इनमें विषको हरण करनेकी शक्ति है। 'सुश्रुत'के कल्प-स्थानमें लिखा है, विष-मूषिका और अजरुहामेंसे किसी एकको हाथमें रखनेसे साँप आदि तेज़ ज़हरवाले प्राणियोंका जहर उतर जाता है। अजरुहा शायद निर्विषीको कहते हैं। निर्विषीमें ऐसी सामर्थ्य है, पर वैसी सच्ची निर्विषी आज-कल मिलनी कठिन है । द्रव्योंमें अचिन्त्य गुण और प्रभाव हैं; पर अफसोस है कि, मनुष्य उनको जानता नहीं। न जाननेसे ही उसे सी-ऐसी बातोंपर आश्चर्य या अविश्वास होता है और वह उन्हें झूठी समझता है । एक चिरचिरेको ही लीजिये। इसे रविवारके दिन कानपर बाँधनेसे शीत-ज्वर भाग जाता है। जिन्होंने परीक्षा न की हो, कर देखें; पर विधि-पूर्वक काम करें। बिच्छूके काटे आदमीको आप चिरचिरा दिखाइये और छिपा लीजिये । २-४ बार ऐसा करनेसे बिच्छूका विष उतर जाता है। __(१८) ऊपरके १८ पैरोंमें, हमने साँपके काटेकी “सामान्य चिकित्सा" लिखी है, क्योंकि “विशेष चिकित्सा" उत्तम और शीघ्र फल देनेवाली होनेपर भी, सब किसीसे बन नहीं आती-ज़रा-सी. ग़लतीसे उल्टे लेने के देने पड़ जाते हैं । आगे हम विशेष चिकित्साके सम्बन्धकी चन्द प्रयोजनीय--कामकी बातें लिखते हैं । साँपके काटे हुएका इलाज शुरू करनेसे पहले, वैद्यको बहुत-सी बातोंका विचार करके, खूब समझ-बूझकर, पीछे इलाज शुरू करना चाहिये। जो वैद्य बिना समझे-बूझे इलाज शुरू कर देते हैं, उन्हें कदाचित् कभी सिद्धि-लाभ हो भी जाय, तो भी अधिकांश रोगी उनके हाथोंमें आकर वृथा मरते और उनकी सदा बदनामी होती है । पर जो वैद्य हरेक बातको समझ-बूझकर, पीछे इलाज करते हैं, उन्हें For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । बहुधा सफलता होती रहती है-बिरले ही केसोंमें असफलता होती है । वाग्भट्टमें लिखा है:-- भुजंग दोष प्रकृति स्थान वेग विशेषतः । सुसूक्ष्मं सम्यगालोच्य विशिष्टां माचरेत् क्रियाम् ।। साँप, दोष, प्रकृति, स्थान और विशेषकर वेगको सूक्ष्म बुद्धि या बारीकीसे समझ और विचारकर, “विशेष चिकित्सा" करनी चाहिये । इन पाँचों बातोंका विचार कर लेनेसे ही काम नहीं चल सकता। इनके अलावा, नीचे लिखी चार बातोंका भी विचार करना जरूरी है:--- (१) देश। (२) सात्म्य । (३) ऋतु। (४) रोगीका बलाबल । और भी विचारने योग्य बातें । काटनेवाले सर्पोके सम्बन्धमें भी वैद्यको नीचे लिखी बातें मालूम करनी चाहिये:-- (क) किस जातिके सर्पने काटा है ? जैसे,--दीकर और मण्डली इत्यादि । . (ख) किस अवस्थामें काटा है ? जैसे, घबराहट में या काँचली छोड़ते हुए इत्यादि। (ग) किस अवस्थाके सर्पने काटा है ? जैसे,--बालक या बूढेने । (घ) साँप नर था या मादीन अथवा नपुंसक इत्यादि ? (ङ) सपने क्यों काटा ? दबकर, क्रोधसे, पूर्वजन्मके वैरसे अथवा ईश्वरके हुक्मसे इत्यादि । वाग्भट्टने कहा है:-- आदिष्टात् कारणं ज्ञात्वा प्रतिकुर्याद्यथायथम् । किस कारणसे काटा है, यह जानकर यथोचित चिकित्सा करनी चाहिये। For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सामें याद रखने-योग्य बातें । २०५ (च) सर्पने दिन-रातके किस भागमें काटा ? जैसे,- सवेरे, शामको, पहली रातको या पिछली रातको । (छ) सर्पदंश कैसा है ? जैसे,- सर्पित, रदित इत्यादि । ___ इन बातोंके जाननेसे लाभ । इन बातोंके जान जानेसे ही हम अच्छी तरह चिकित्सा कर सकेंगे। अगर हमें मालूम हो कि, द:करने काटा है, तो हम समझ जायेंगे कि, इस साँपका विष वात-प्रधान होता है। इसके सिवाय, इसका काटा आदमी तत्काल ही मर जाता है । चूँ कि द:करने काटा है, अतः हमें वातनाशक चिकित्सा करनी होगी। इतना ही नहीं, फिर हमें विचारना होगा कि, हमारे रोगीके साथ सर्प-विषकी प्रकृति-तुल्यता तो नहीं है; यानी सर्प-विष वातप्रधान है और रोगी भी वातप्रधान प्रकृतिका तो नहीं है । अगर विष और रोगी दोनोंकी प्रकृति एक मिल जायँगी, तब तो हमको कठिनाई मालूम होगी। अगर विष और रोगीकी प्रकृति जुदी-जुदी होगी, तो हमको उतनी कठिनाई न मालूम होगी। फिर हमको यह देखना होगा कि, आजकल ऋतु कौनसी है। किस दोषके कोपका समय है। अगर हमारे रोगीको दीकर साँपने वर्षा-कालमें काटा होगा, तो ऋतु-तुल्यता हो जायगी । क्योंकि दर्वीकर साँपका विष वातप्रधान होता ही है और वर्षा-ऋतु भी वात-कोपकारक होती है । इस दशामें हम कठिनाईको समझ सकेंगे। वर्षाकालमें या बादल होनेपर विष स्वभावसे ही कुपित होते हैं, इससे कठिनाई और भी बढ़ी दीखेगी। फिर हमको देखना होगा, यह कौन देश है, इसकी प्रकृति क्या है । अगर हमारे रोगीको वात-प्रधान दर्बीकर सर्पने बङ्गालमें काटा होगा, तो देश-तुल्यता हो जायगी, क्योंकि बङ्गाल देश अनूप For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ चिकित्सा-चन्द्रोदय। देश है। इसमें स्वभावसे ही वात-कफका कोप रहता है, यह भी एक कठिनाई हमको मालूम हो जायगी । आप ही गौर कीजिये, इतनी बातोंको समझे बिना वैद्य कैसे उत्तम इलाज कर सकेगा ? उदाहरण । अगर हमसे कोई आकर पूछे कि, कलकत्तेमें, इस सावनके महीनेमें, एक वात-प्रकृतिके आदमीको जवान दीकर या काले साँपने काटा है, वह बचेगा कि नहीं; तो हम यह समझकर कि, सर्पकी प्रकृति वातप्रधान है, रोगी भी वात प्रकृति है, ऋतु भी वात-कोपकी है और देश भी वैसा ही है, कह देंगे कि, भाई भगवान् ही रक्षक है, बचना असम्भव है । पर हमें थोड़ा सन्देह रहेगा, क्योंकि यह नहीं मालूम हुआ कि, सर्प-दंश कैसा है ? सर्पित है, रदित है या निर्विष अथवा क्यों काटा है ? दबकर, क्रोधमें भरकर अथवा और किसी वजहसे ? अगर इन सवालोंके जवाब भी ये मिलें, कि सर्प-दंश सर्पित है-पूरी दाढ़ें बैठी हैं और पैर पड़ जानेसे क्रोधमें भरकर काटा है, तब तो हमें रोगीके मरनेमें जो ज़रा-सा सन्देह था, वह भी न रहेगा। प्रश्नोत्तरके रूपमें दूसरा उदाहरण । अगर कोई शख्स आकर हमसे कहे, कि वैद्यजी ! जल्दी चलिये, एक आदमीको साँपने काटा है । हम उससे चन्द सवाल करेंगे और वह उनके जवाब देगा। पीछे हम नतीजा बतायेंगे । वैद्य - कैसे सर्पने काटा है ? दूत--मण्डली साँपने। वैद्य--साँप जवान था कि बूढ़ा ? दूत-साँप अधेड़ या बूढ़ा-सा था। For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सामें याद रखने योग्य बातें। २०७ वैद्य-रोगीकी प्रकृति कैसी है ? दूत-पित्त-प्रकृति । वैद्य--आजकल कौन-सा महीना है ? दूत-महाराज ! वैशाख है। वैद्य--सर्पदंश कैसा है ? दृत--सर्पित । वैद्य-किस समय काटा ? दूत-रातको १० बजे। वैद्य--क्यों काटा ? दूत-पैरसे दबकर। वैद्य--किस जगह साँप मिला ? दूत--अमुक गाँवके बाहर, पीपलके नीचे । वैद्य - रोगीका क्या हाल है ? दूत-बड़ी प्यास है, जला-जला पुकारता है और शीतल पदार्थ माँगता है। वैद्य-उसके मल-मूत्र, नेत्र और चमड़ेका रङ्ग अब कैसा है ? दूत--सब पीले हो गये हैं । ज्वर भी चढ़ आया है। अब तो होश नहीं है । पसीनोंसे तर हो रहा है। वैद्य--भाई ! हमें फुरसत नहीं है और किसीको ले जाओ। ___ दूत--क्यों महाराज ! क्या रोगी नही बचेगा ? अगर नहीं बचेगा तो क्यों ? वैद्य-अरे भाई ! इन बातोंमें क्या लोगे ? जाओ, देर मत करो। किसी औरको ले जाओ। दूत--नहीं महाराज ! मैं वैद्य तो नहीं हूँ; तो भी चिकित्सा-ग्रन्थ देखा करता हूँ । कृपया मुझे बताइये कि, वह क्यों न बचेगा ? वैद्य--भाई ! उसके न बचनेके बहुत कारण हैं, (१) उसे बूढ़े मण्डली साँपने काटा है, और बूढ़े मण्डली साँपका काटा For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । आदमी नहीं जीता । (२) रोगीकी प्रकृत्ति पित्तकी है और साँपके विषकी प्रकृति भी पित्त प्रधान है। फिर मौसम भी गरमीका है। गरमीकी ऋतुमें गरम मिजाजके आदमीको कोई भी साँप काटता है, तो वह नहीं बचता; जिसमें साँपकी प्रकृति भी गरम है, अतः रोगी डबल असाध्य है। (३) चारों दाढ़ बराबर बैठी हैं, दंश सर्पित है और दबकर क्रोधसे काटा है। ये सब मरनेके लक्षण हैं। (४) काटा भी पीपलके नीचे है। पीपल या श्मशान आदि स्थानोंपर काटा हुआ आदमी नहीं बचता। (५) इस समय विषका छठा-सातवाँ वेग है । वाग्भट्टने पाँचवें वेगके बाद चिकित्सा करनेकी मनाही की है। उन्होंने कहा है:-- कुर्यात्पञ्चसु वेगेषु चिकित्सां न ततः परम् । पाँच वेगों तक चिकित्सा करो; उसके बाद चिकित्सा न करो। हमने उदाहरण देकर जितना समझा दिया है, उतनेसे महामूढ़ भी सर्प-विष-चिकित्साका तरीका समझ सकेगा। अब हम स्थानाभावसे ऐसे उदाहरण और न दे सकेंगे। (१६) बहुतसे सर्पके काटे हुए आदमी मुर्दा जैसे हो जाते हैं, पर वे मरते नहीं । उनका जीवात्मा भीतर रहता है, अतः इसी भागमें पहले लिखी विधियोंसे परीक्षा अवश्य करो। उस परीक्षाका जो फल निकले, उसे ही ठीक समझो । वैद्यक-शास्त्रमें भी लिखा है:-- न नस्यैश्चेतनां तीक्ष्णै क्षतात्क्षतजागमः । दण्डाहतस्य नोराजिःप्रयातस्य यमान्तिकम् ।। अगर आप किसीको तेज-से-तेज नस्य सुँघावें, पर उससे भी उसे होश न हो; अगर आप उसके शरीरमें कहीं घाव करें, पर वहाँ खून न निकले और अगर आप उसके शरीरपर बेंत या डण्डा मारें, पर उसके शरीरपर निशान न हो--तो आप समझ लें, कि यह धर्मराजके पास जायगा। For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सामें याद रखने-योग्य बातें । २०६ सातवें वेगमें, साँपके काटे हुएके सिरपर 'काकपद" करते हैं। उसके सिरका चमड़ा छीलकर कव्वेका-सा पञ्जा बनाते हैं। अगर उस जगह खून नहीं निकलता, तो समझते हैं, कि रोगी मर गया। अगर खून निकलता है, तो समझते हैं, कि रोगी जीता है-मरा नहीं।। (२०) अगर साँप किसीको सामनेसे आकर काटता है, तब तो रोगी कहता है, कि मुझे साँपने काटा है । परन्तु कितनी ही दफा साँप नींदमें सोते हुएको या अँधेरेमें काटकर चल देता है; तब पता नहीं लगता, कि किस जानवरने काटा है । ऐसा मौका पड़नेपर, आप दंशस्थानको देखें; उसीसे आपको पता लगेगा। याद रखो, अगर जहरीला सर्प काटता है, तो उसकी दो दाढ़े लगती हैं। अगर काटी हुई जगहपर इक? दो छेद दीखें, तो समझो कि साँपने दाँत लगाये, पर दाँत ठीक बैठे नहीं और वह ज़रूममें जहर छोड़ नहीं सका । इस अवस्थामें, यथोचित मामूली उपाय करने चाहिए। . अगर ज़हरीला साँप काटता है और घावमें विष छोड़ जाता है, तो रोगीके शरीरमें झनझनाहट होती और वह बढ़ती चली जाती है, चक्कर आते हैं, शरीर काँपता है, बेचैनी होती है और पैर कमजोर हो जाते हैं । पर जब विष और आगे बढ़ता है, तब साँस लेने में कष्ट होता है, गहरा साँस नहीं लिया जाता, नाड़ी जल्दी-जल्दी चलती है; पर ठहर-ठहरकर । बोली बन्द होने लगती है, जीभ बाहर निकल आती है, मैं हमें झाग आते हैं, हाथ-पैर तन जाते हैं, शरीर शीतल हो जाता है और पसीने बहुत आते हैं । अन्तमें रोगी बेहोश होकर मर जाता है। मतलब यह है, कि अगर अनजानमें, सोते हुए या अँधेरेमें साँप काटे, तो आप दंश-स्थान और लक्षणोंसे जान सकते हैं, कि साँपने काटा या और किसी जीवने । (२१) अगर आप साँपके काटेकी चिकित्सा करो, तो दवा सेवन कराने, बन्ध बाँधने, फस्द खोलने, लेप लगाने प्रभृति क्रियाओंपर विश्वास और भरोसा रखो, पर मन्त्रोंपर विश्वास न करो। अगर २७ For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .२१० चिकित्सा-चन्द्रोदय । मन्त्र जाननेवाले आवें, बन्ध खोलें और दवा देना बन्द करें, तो भूलकर भी उनकी बातोंमें मत आओ। कई दफा, बन्ध बाँधनेसे साँपके काटे हुए आदमी आराम होते-होते, दुष्टोंके बन्ध खुला देनेसे, मर गये और मन्त्रज्ञ महात्मा अपना-सा मुंह लेकर चलते बने । __ आजकल मन्त्र-सिद्धि करनेवाले कहाँ मिल सकते हैं, जब कि सुश्रुतके ज़मानेमें ही उनका अभाव-सा था । सुश्रुतमें लिखा है: मंत्रास्तु विधिना प्रोक्ता हीना वा स्वरवर्णतः । यस्मान सिद्धिमायान्ति तस्माद्योज्योऽगदक्रमः ॥ मन्त्र अगर विधिके बिना उच्चारण किये जाते हैं तथा स्वर और वर्णसे हीन होते हैं, तो सिद्ध नहीं होते; अतः साँपके काटेकी दवा ही करना चाहिये। जब भगवान् धन्वन्तरि ही सुश्रुतसे ऐसा कहते हैं, तब क्या कहा जाय ? उस प्राचीन काल में ही जब सच्चे मन्त्रज्ञ नहीं मिलते थे, तब अब तो मिल ही कहाँ सकते हैं ? मन्त्र सिद्ध करनेवालोंको स्त्री-सङ्ग, मांस और मद्य आदि त्यागने होते हैं, जिताहारी और पवित्र होकर कुशासनपर सोना पड़ता है एवं गन्ध, माला और बलिदानसे मन्त्र सिद्ध करके देव-पूजन करना होता है। कहिये, इस समय कौन इतने कर्म करेगा? नवनीत या निचोड़। ( २२ ) सर्प-विष-चिकित्सामें नीचेकी बातोंको कभी मत भूलोः-- (१) मण्डली सर्पके डसे हुए स्थान को आगसे मत जलाओ। ऐसा करनेसे विषका प्रभाव और बढ़ेगा। (२) खून निकालनेके बाद, जो उत्तम खून बच रहे, उसे शीतल सेकोंसे रोको। (३) सर्पके काटेके आराम हो जानेपर भी, डसे हुए स्थानको खुरचकर, विष-नाशक लेप करो; क्योंकि अगर जरा-सा भी विष शेष रह जायगा, तो फिर वेग होंगे। For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सामें याद रखने योग्य बातें। २११ .. (४) गरमीके मौसममें, गरम मिजाजवालेको साँप काटे, तो आप असाध्य समझो। अगर मण्डली सर्प काटे, तो और भी अस ध्य समझो। (५) साँपके काटे आदमीको घी, घी और शहद अथवा घी मिली दवा दो; क्योंकि विषमें “घी पिलाना" रोगीको जिलाना है। (६) तेल, कुल्थी, शराब, काँजी आदि खट्टे पदार्थ साँपके काटेको मत दो। हाँ, कचनार, सिरस, आक और कटभी प्रभृति देना अच्छा है। (७) अगर आपको साँपकी क़िस्मका पता न लगे, तो दंश-स्थानकी रङ्गत, सूजन और वातादि दोषोंके लक्षणोंसे पता लगा लो। ___(८) इलाज करनेसे पहले पता लगाओ, कि साँपके काटे हुएको प्रमेह, रूखापन, कमजोरी आदि रोग तो नहीं हैं, क्योंकि ऐसे लोग असाध्य माने गये हैं। () किस तिथि और किस नक्षत्रमें काटा है, यह जानकर साध्यासाध्यका निर्णय कर लो। (१०) इलाज करनेसे पहले इस बातको अवश्य मालूम कर लो कि, सर्पने क्यों काटा ? इससे भी आपको साध्यासाध्यका ज्ञान होगा। (११) सर्प-दंशकी जाँच करके देखो, वह सर्पित है या रदित वगैरः । इससे आपको साध्यासाध्यका ज्ञान होगा। (१२) दिन-रातमें किस समय काटा, इसका भी पता लगा लो । इससे आपको साँपकी किस्मका अन्दाजा मालूम हो जायगा। (१३) पता लगाओ, साँपने किस हालतमें काटा। जैसे-घबराहटमें, दूसरेको तत्काल काटकर अथवा कमजोरीमें। इससे आपको विषकी तेजी-मन्दीका ज्ञान होगा। (१४) रोगीको देखकर पता लगाओ कि, किस दोषके विकार हो रहे हैं । इस उपायसे भी आप सर्पकी किस्म जान सकेंगे। For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । . (१५) इसकी भी खोज करो, कि नरने काटा है या मादीनने अथवा नपुंसक या गर्भवती, प्रसूता आदि नागिनोंने । इससे विषकी मारकता आदि जान सकोगे। - (१६) अच्छी तरह देख लो, विषका कौनसा वेग है। हालत देखनेसे वेगको जान सकोगे। (१७ ) याद रखो, अगर दर्बीकर सर्प काटता है, तो चौथे वेगमें वमन कराते हैं । अगर मण्डली और राजिल काटते हैं, तो दूसरे वेगमें ही वमन कराते हैं। (१८) गर्भवती, बालक, बूढ़े और गर्म मिजाजवालेको साँप काटे तो फस्द न खोलो; किन्तु शीतल उपचार करो। . (१६) अगर जाडेका मौसम हो, रोगीको जाड़ा लगता हो, राजिल सर्पने काटा हो, बेहोशी और नशा-सा हो, तो तेज़ दवा देकर क्रय कराओ। (२०) अगर प्यास, दाह, गरमी और बेहोशी आदि हों, तो शीतल उपचार करो- गरम नहीं । (२१) अगर रोगी भूखा-भूखा चिल्लाता हो और दीकर या काले साँपने काटा हो तथा वायुके उपद्रव हों, तो घी और शहद, दही या माठा दो। . . . (२२) जिसके शरीरमें दर्द हो और शरीरका रङ्ग बिगड़ गया हो उसकी फस्द खोल दो। (२३) जिसके पेटमें जलन, पीड़ा और अफारा हो, मल-मूत्र रुके हों और पित्तके उपद्रव हों, उसे जुलाब दो। - (२४) जिसका सिर भारी हो, ठोड़ी और जाबड़े जकड़ गये हों तथा कण्ठ रुका हो, उसे नस्य दो। अगर रोगी बेहोश हो, आँखें फटीसी हो गई हों और गर्दन टूट गई हो, तो प्रधमन नस्य दो। (२५) आराम हो जानेपर "उत्तर क्रिया" अवश्य करो। For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विषसे बचानेवाले उपाय । (१) एक साल तक, विधि-सहित “चन्द्रोदय रस" सेवन करनेसे मनुष्यपर स्थावर और जङ्गम- दोनों प्रकारके विषोंका असर नहीं होता। आयुर्वेद में लिखा है: स्थावरं जगम विषं विषमं विषवारिवा । न विकाराय भवति सिद्धचन्द्रस्यवत्सरात् ॥ स्थावर और जंगम विष तथा जलका विष एक वर्ष तक "चन्द्रोदय रस" सेवन करनेसे नहीं व्यापते । सोने के वर्क ४ तोले | *(१) इन तीनोंको खरल में डालकर खूब घोटो, जब शटपारा ३० तोले निश्चन्द्र कजली हो जाय, (२) नरम कपासके फूलोंका शुद्ध गंधक ६४ तोले रस डाल-डालकर घोटो । जब यह घुटाई भी हो जाय, तब _ (३) घीग्वारका रस डाल-डालकर घोटो । जब यह घुटाई भी हो जाय, मसालेको (४) सुखा लो। जब सूख जाय, उसे एक बड़ी प्रातिशी शीशीमें भरकर, शीशीपर सात कपड़-मिट्टी कर दो और शीशीको सुखा लो। (५) सूखी हुई शीशीको बालुकायन्त्रमें रखकर, बालुकायन्त्रको चूल्हेपर चढ़ा दो और नीचेसे मन्दी-मन्दी आग लगने दो । पीछे, उस आगको और तेज़ कर दो। शेषमें, श्रागको खूब तेज़ कर दो। क्रमसे मन्द, मध्यम और तेज़ आग लगातार २४ पहर या ७२ घण्टों तक लगनी चाहिये। (६) जब शीशीके | मुंहसे धुआँ निकल जाय, तब शीशीके मुंहपर एक ईटका टुकड़ा रखकर, मुंह बन्द कर दो; पर नीवे आग लगती रहे। __जब चन्द्रोदय सिद्ध हो जायगा, तब शीशीकी नली काली स्याह हो जायगी। यही सिद्ध-असिद्ध "चन्द्रोदय" की पहचान है । सिद्ध चन्द्रोदयका रंग नये पत्ते की ललाईके समान लाल होता है । ऐसा चन्द्रोदय सर्व रोग-नाशक होता है। सेवन-विधि-चन्द्रोदय ४ तोले, भीमसेनी कपूर १६ तोले, और जायफल, कालीमिर्च, लैंौग तीनों मिलाकर १६ तोले तथा कस्तूरी ४ माशे--इन सबको For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (२) “वैद्य सर्वस्व"में लिखा है, मेषकी संक्रान्तिमें, मसूरकी दाल और नीमके पत्ते मिलाकर खानेसे एक वर्ष तक विषका भय नहीं होता। नोट -दूसरे ग्रन्थों में लिखा है, मेषकी संक्रान्तिके प्रारम्भमें, एक मसूरका दाना और दो नीमके पत्ते खाने से एक वर्ष तक विषका भय नहीं होता। (३) हर दिन, सवेरे ही सदा-सर्वदा कड़वे नीमके पत्ते चबानेवालेको साँपके विषका भय नहीं रहता। (४) “वैद्यरत्नमें लिखा है, जिस समय वृष राशिके सूर्य हों, उस समय सिरसका एक बीज खानेसे मनुष्य गरुड़के समान हो जाता है, अतः सर्प उसके पास भी नहीं आते- काटना तो दूरकी बात है। ___ (५) बंगसेनमें लिखा है, आषाढ़ के महीने के शुभ दिन और शुभ नक्षत्रमें, सफेद पुनर्नवा या विषखपरेकी जड़, चाँवलोंके पानी में पीसकर, पीनेसे साँपोंका भय नहीं रहता। नोट-चक्रदत्तने पुष्य नक्षत्र में इसके पीनेकी राय दी है। (६) "इलाजुलगुर्वा" में लिखा है- बारहसिंगेका सींग, बकरीका खुर और अकरकरा,--इन तीनोंको मिलाकर, धूनी देनेसे साँप भाग जाते हैं। (७) राई और नौसादर मिलाकर घरमें डाल देनेसे साँप घरको छोड़कर भाग जाता है और फिर कभी नहीं आता। (८) बारहसिंगेका सींग लटका रखनेसे सर्प प्रभृति ज़हरीले जानवर नहीं काटते । (६) गोरखरके सींग, बकरीके खुर, सौसनकी जड़, अकरकराकी जड़ और धनिया--इन चीजोंसे साँप डरता है। खरलमें डाल, खरल कर लो और शोशीमें भरकर रख दो । इसमें से १ माशे रस निकालकर, पानोंके रसके साथ नित्य खाश्रो। इस तरह एक वर्ष तक इसके सेवन करनेसे स्थावर और जंगम विषका भय नहीं रहेगा। इसके सिवा, इस रसका खानेवाला अनेकों मदमाती नारियोंका मद भञ्जन कर सकेगा। For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विषसे बचानेवाले उपाय । (१०) साँपकी राहमें अगर राई डाल दी जाय, तो साँप उस राहसे नहीं निकलता । राई और नौसादर साँपके बिल या बाँबीमें डाल देनेसे साँप उन्हें छोड़ भागता है। ____ नोट-निराहार रहनेवाले मनुष्यका थूक अगर साँपके मुंहमें डाल दिया जाय, तो सौप मर जायगा । अगर उस आदमीके मुंहमें नौसादर हो, तो उसके थूकसे साँप और भी जल्दो मर जायगा । राई भी सर्पको मार डालती है । (११) वृन्द वैद्यने लिखा है:-आषाढ़ के महीने के शुभ दिन और शुभ मुहूर्तमें, सिरसकी जड़को चाँवलोंके पानीके साथ पीनेवालेको सर्पका भय कहाँ ? अर्थात् साँपका डर नहीं रहता। यदि ऐसे आदमीको कोई साँप दर्प या मोहसे काट भी खाता है, तो उसी समय उसका विष, शिवजीकी आज्ञानुसार, सिरसे मूल स्थानपर जा पहुँचता है; अतः जिसे वह काटता है, उसकी कोई हानि नहीं होती । चक्रदत्त लिखते हैं, कि वह सर्प उसी स्थानपर मर जाता है। लिखा है: मूलं तण्डुलवारिणा पिबति यः प्रत्यंगिरासंभवम् ।। उद्धृत्याऽऽकलितं सुयोगदिवसे तस्याऽहिभीतिः कुतः ? . नोट--सिरसकी जड़को भाषाढ़ मासके शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में ही उखाड़कर लाना चाहिये, पहलेसे लाकर रखी हुई जड़ कामकी नहीं । हाँ, चक्रदत्तने लिखा है कि, इस जड़को बिना पीसे चाँवलोंके पानीके साथ पीना चाहिये । (१२) मसूर और नीमके पत्तोंके साथ “सिरसकी जड़"को पीसकर, वैशाखके महीने में पीनेवालेको, एक वर्ष तक विष और विषमज्वरका भय नहीं रहता। चक्रदत्तने लिखा है: मसूरं निम्बपत्राभ्यां खादेन्मेषगते रखौं । अब्दमेकं न भीतिः स्यद्विषार्तस्य न संशयः ॥ मसूरको नीमके पत्तों के साथ जो आदमी मेषके सूर्यमें खाता है, उसे एक साल तक साँपोंसे भय नहीं होता, इसमें संशय नहीं। For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१६ - चिकित्सा-चन्द्रोदय । - (१३) जो मनुष्य दिनमें या मध्याह्न-कालमें सदा छाता लगाकर चलता है, उसे गरुड़ समझकर सर्प भाग जाते हैं। उनका विष-वेग शान्त हो जाता है और वे किसी हालतमें भी उसके सामने नहीं आते हैं। __ नोट-वर्षा और धूपमें तो सभी छाता लगाते हैं, पर इनके न होने पर भी छाता लगाना मुफीद है। छातेसे ईट-पत्थर गिरनेसे मनुष्य बचता है। साँप छातेवालेको गरुड़ समझकर भाग जाता है। एक बार एक जंगलमें एक मेमसाहिबा अकेली जा रही थीं। सामनेसे एक चीता आया और उनपर हमला करना चाहा । उनके पास उस समय छातेके सिवा और कोई हथियार न था । उन्होंने झटसे छाता खोल दिया। चीता न जाने क्या समझकर नौ दो ग्यारह हो गया और मेम साहिबाके प्राण बच गये। इसीसे किसी कविन बहुत सोचविचारकर ठीक ही कहा है: छुरी छड़ी छतुरी छला, छबडा पाँच छकार । इन्हें नित्य टिंग राखिये, अपने अहो कुमार ।। नोट---इन पाँचों छकारोंको यानी छुरी, छड़ी, छत्री, छल्ला और लोटाको सदा अपने पास रखना चाहिये। इनसे काम पड़नेपर बड़ा काम निकलता है । अनेक वार जीवन-रक्षा होती है। (१४) घरको खूब साफ रखो; विशेषकर वर्षामें तो इसका बहुत ही खयाल रखो। इस ऋतुमें साँप जियादा निकलते हैं। इसके सिवा बादल और वर्षाके दिनोंमें सर्प-विषका प्रभाव भी बहुत होता है। अतः घरके बिले, सूराख्न या दगज बन्द कर दो। अगर साँपका शक हो, तो घरमें नीचे लिखी धूनी दो: ( क ) घरमें गन्धककी धूनी दो। (ख) साँपकी काँचलीकी धूनी दो। इससे साँप भाग जाता है; बल्कि जहाँ यह होती है, वहाँ नहीं आता। (ग) कार्बोलिक एसिडकी बूसे भी सर्प नहीं रहता; अतः इसे जहाँ-तहाँ छिड़क दो। For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Sona...८०००००००००००००००० 000000 ००००००००००००००००००००००० 000000 0000000000000000000000000, ०००००००० 2200०६०० . 5 900coacco००००० Foto06००००००००००० सर्प-विष चिकित्सा। . ०० ० . acc0000000000..००% 00000000000038 100000.0000 20000000 ....00 ०...00CEDGoBoo. . ०० . onao. 300800 POTO. 0.00 3000 ..००Pon. . .. ..... वेगानुरूप चिकित्सा । (१) किसी तरहका साँप काटे, पहले वेगमें खून निकालना ही सबसे उत्तम उपाय है, क्योंकि खूनके साथ जहर निकल जाता है । (२) दूसरे वेगमें - शहद और घीके साथ अगद पिलानी चाहिये अथवा घी-दूधमें कुछ शहद और विषनाशक दवाएँ मिलाकर पिलानी चाहियें। (३) तीसरे वेगमें- अगर दर्बीकर या फनवाले सर्पने काटा हो, तो विष-नाशक नस्य और अञ्जन ( घाने और नेत्रोंमें लगाने चाहिये। (४) चौथे वेगमें - वमन कराकर, पीछे लिखी विषघ्न यवागू पिलानी चाहिये। (५-६ ) पाँचवे और छठे वेगमें शीतल उपचार करके, तीक्ष्ण विरेचन या कड़ा जुलाब देना चाहिये। अगर ऐसा ही मौका हो, तो पिचकारी द्वारा भी दस्त करा सकते हो। जुलाबके बाद, अगर उचित जंचे, तो वही यवागू देनी चाहिये । ___ (७) सातवें वेगमें - तेज़ अवपीड़न नस्य देकर सिर साफ करना चाहिये । साथ ही तेज़ विष-नाशक अंजन आँखोंमें लगाना चाहिये और तेज़ नस्तरसे मूर्द्धा या मस्तकमें कव्वेके पंजे के आकारका * काकपद करना--सातवें वेगमें मूर्द्धा या मस्तकके ऊपर, तेज़ नश्तरसे. खुरच-खुरचकर, कव्वेका पञ्जा-सा बनाते हैं। उसमें मांसको इस तरह छोलते हैं कि, खून नहीं निकलता और मांस छिल जाता है। फिर उस काकपद या कव्वेके पंजेके निशानपर, खूनसे तर चमड़ा या किसी जानवरका ताज़ा मांस रखते हैं। यह मांस सिरमेंसे विषको खींच लेता है। For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । निशान करके उस निशानपर खून-मिला चमड़ा या ताज़ा मांस रखना चाहिये। नोट-इन तीनों तरहके साँपोंकी वेगानुरूप चिकित्सामें कुछ फर्क है । दर्बीकरकी चिकित्सामें, चौथे वेगमें वमन कराते हैं: पर मण्डली और राजिलकी चिकित्सामें, दूसरे वेगमें ही वमन कराते हैं। क्योंकि मण्डली साँपका विष पित्तप्रधान और राजिलका कफप्रधान होता है । राजिलकी चिकित्सामें, दूसरे वेगमें वमन कराने के सिवा और सब चिकित्सा २१७ पृष्ठमें लिखी वेगानुरूप चिकित्साके समान ही करनी चाहिये । मण्डलीकी चिकित्सा करते समय-दूसरे वेगमें वमन करानी, तोसरे वेगमें तेज़ जुलाब देना और छठे वेगमें काकोल्यादिगणसे पकाया दूध देना और सातवें वेगमें विष-नाशक अवपोड़ नस्य देना उचित है । अगर गर्भवती, बालक और बूढ़ेको साँप काटे, तो उनका शिरावेधन न करना चाहिये । यानी फ़द न खोलनी चाहिये । अगर ज़रूरत ही हो-काम न चले, तो कम खून निकालना चाहिये । इनकी फस्द न खोलकर, मृदु उपायोंसे विष नाश करना अच्छा है। इसके सिवाय, जिनका मिज़ाज गर्म हो, उनका भी खून न निकालना चाहिये; बल्कि शीतल उपचार करने चाहिये । दर्बीकरोंकी वेगानुरूप चिकित्सा । ( १ ) पहले वेगमें - खून निकालो । (२) दूसरे वेगमें-शहद और घोके साथ अगद दो। (३) तीसरे वेगमें-विषनाशक नस्य और अञ्जन दो । (४) चौथे वेगमें- वमन कराकर, विषनाशक यवागू दो। (५-६ ) पाँचवें और छठे वेगमें-तेज जुलाब देकर, यवागू दो । (७) सातवें वेगमें--खूब तेज अवपीड़ नस्य देकर सिर सान करो और मस्तकपर, काकपद करके, ताजा मांस या खून-आलूदा चमड़ा रखो। . नोट--गर्भवती, बालक, बूढ़े और गरम मिज़ाजवालेका खून न निकालो; निकाले बिना न सरे तो कम निकालो और मृदु उपायोंसे विष नाश करो। गरम मिज़ाजवालेको शीतल उपचार करो। For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सा । २१६ मण्डली सोकी वेगानुरूप चिकित्सा । (१) पहले वेगमें- खून निकालो। (२) दूसरे वेगमें-शहद और घीके साथ अगद पिलाओ और वमन कराकर विषनाशक यवागू दो। (३) तीसरे वेगमें तेज़ जुलाब देकर, यवागू दो। (४-५) चौथे और पाँचवें वेगमें-द/करके समान काम करो। (६) छठे वेगमें - काकोल्यादिके साथ पकाया हुआ दूध पिलाओ . या महाऽगद आदि तेज़ अगद पिलाओ। (७) सातवें वेगमें--असाध्य समझकर अवपीड़ नस्य नाकमें चढ़ाओ, विषनाशक दवा खिलाओ और सिरपर, काकपद करके, ताजा मांस या खून-मिला चमड़ा रखो। ___ नोट-गर्भवती, बालक और बूढ़ेकी फ़स्द खोलकर खून मत निकालो। अगर निकालो ही तो कम निकालो। मण्डलीके ज़हरमें पित्त प्रधान होता है। अगर ऐसा साँप पित्त प्रकृतिवाले-गरम मिज़ाजवालेको काटता है, तो ज़हर डबल ज़ोर करता है, अतः खून न निकालकर खूब शीतल उपचार करो। राजिल सौकी वेगानुरूप चिकित्सा । (१) पहले वेगमें- खून निकालो और शहद-घीके साथ अगद या विषनाशक दवा पिलाओ । (२) दूसरे वेगमें-वमन कराकर, विष-नाशक अगद--शहद और घीके साथ पिलाओ। (३-४-५) तीसरे, चौथे और पाँचवें वेगमें--सब काम दीकरोंके समान करो। (६) छठे वेगमें-तेज़ अंजन आँखों में आँजो । (७) सातवें वेगमें--तेज़ अवपीड़ नस्य नाकमें चढ़ाओ। For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२० चिकित्सा-चन्द्रोदय । नोट-गर्भवती, बालक और बूढ़ेका खून मत निकालो, यानी फस्द मत खोलो । जहाँ तक हो सके, यथोचित नर्म उपायोंसे काम करो । कहा है: गर्भिणी बालवृद्धानां शिराव्यधविवर्जितम् । विषार्तानां यथोद्दिष्टं विधानं शस्यतेमृदु ॥ सूचना-इवा सेवन कराते समय--देश, काल, प्रकृति, सात्म्य, विष-वेग और रोगीके बलाबलका विचार करके दवा देना ही चतुराई है। दोषानुरूप चिकित्सा। जिस साँपके काटे हुएके शरीरका रंग विषके प्रभावसे बिगड़ गया हो, शरीरमें वेदना और सूजन हो-उसका खून फौरन निकाल दो। _ अगर विषार्त भूखा हो और वातप्रायः उपद्रव हों, तो उसे शहद और घी, मांसरस, दही या माठा पिलाओ। अगर प्यास, दाह, गरमी, मूर्छा और पित्तके उपद्रव हों तथा पित्तज ही विष हो, तो शीतल पदार्थों का स्पर्श, लेप, स्नान-अवगाहन आदि शीतल क्रिया करो। अगर सर्दीकी ऋतु हो, कफके उपद्रव-शीत कम्प आदि हों, कफका ही विष हो और मूर्छा तथा मद हो, तो तेज़ वमनकारक दवा देकर वमन कराओ। नोट--यह ढंग स्थावर और जंगम दोनों विषोंकी चिकित्सामें चलता है। __उपद्रवोंके अनुसार चिकित्सा । (१) जिसके कोठेमें दाह या जलन हो, पीड़ा हो, अफारा हो, मल, मूत्र और अधोवायु रुके हों, पैत्तिक उपद्रवोंसे पीड़ा हो, तो ऐसे विषातको विरेचन या जुलाब दो। (२) जिसके नेत्रोंके कोये सूजे हुए हों, नींद बहुत आती हो, For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सा। नेत्रोंका रंग और-का-और हो गया हो तथा नेत्र गड़-से गये हों, त्रिपरीत रूप दीखते हों यानी कुछ-का-कुछ दीखता हो- ऐसे विषार्त्तके नेत्रोंमें विषनाशक अंजन लगाओ। ___ (३) जिसके सिरमें दर्द हो, सिर भारी हो, आलस्य हो, ठोड़ी और जाबड़े जकड़ गये हों, गला रुका हुआ हो, गर्दन ऐंठ गई होमुड़ती न हो-मन्यास्तम्भ हो, तो ऐसे विषातको तेज़ नस्य देकर उसका सिर साफ करो। (४) जो रोगी विषके प्रभावसे बेहोश हो, नेत्र फटे-से हों, गर्दन टूट गई हो, उसे प्रधमन नस्य दो; यानी फॅकनीसे दवा नाकमें फॅ को। इधर यह काम हो, उधर बिना देर किये ललाटदेश और हाथ-पैरोंकी शिरा वेधन करो-फस्द खोलो । अगर उनमेंसे खून न निकले, तो झट नश्तरसे मूर्द्धा या दिमारामें कव्वेके पंजेका चिह्न करके ताजा मांस या खून-मिला चमड़ा उसपर रख दो। यह विषको खींच लेगा। अगर यह न हो सके, तो भोजपत्र आदि बल्कलवाले वृक्षोंका ताजा निर्यास या सार अथवा अन्तरछाल रखो । विषनाशक दवाओंसे लिपे हुए ढोल-डमरू आदि बाजे रोगीके कानोंके पास बजाओ। (५) जब उपरोक्त उपाय करनेसे चैतन्यता और ज्ञान हो जाय, तब वमन-विरेचन द्वारा नीचे-ऊपरसे खूब शोधन करो-परम दुर्जय विषको क़तई निकाल दो। अगर विषका कुछ भी अंश शरीरमें रह जायगा, तो फिर वेग होने लगेंगे तथा विवर्णता, शिथिलता, ज्वर, खाँसी, सिर-दर्द, रक्तविकार, सूजन, क्षय, जुकाम, अंधेरी आना, अरुचि और पीनस प्रभृति उपद्रव होने लगेंगे। अगर फिर उपद्रव हों या जो शेष रह जायँ, उनका इलाज विषन्न दवाओं या उपायोंसे "दोषानुसार" करो; यानी विष के जो उपद्रव हों, उनका यथायोग्य उपचार करो। For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । विषकी उत्तर क्रिया । जब विषके वेगोंकी शान्ति हो जाय, पूरी तरहसे आराम हो जाय, तब बन्ध खोलकर, शीघ्र ही डाढ़ लगी या काटी हुई जगहपर पछने लगा--खुरचकर--विषनाशक लेप कर दो, क्योंकि अगर जरा भी विष रुका रहेगा, तो फिर वेग होने लगेंगे। अगर किसी तरह दोषोंके कुछ उपद्रव बाक़ी रह जायें, तो उनका यथोचित उपचार करो, क्योंकि शेष रहा हुआ विषका अंश फिर उपद्रव और वेग कर उठता है । विषके जो उपद्रव ठहर जाते हैं, सहजमें नहीं जाते। अगर वातादि दोष कुपित हों, तो बढ़े हुए वायुका स्नेहादिसे उपचार करो। वे उपाय-तेल, मछली और कुल्थीसे रहित-वायुनाशक होने चाहिये। अगर पित्तप्रधान दोष कुपित हों, तो पित्तज्वर-नाशक काढ़े, स्नेह और बस्तियोंसे उसे शान्त करो। __ अगर कफ बढ़ा हो, तो पारग्वधादिगणके द्रव्योंमें शहद मिलाकर उपयोग करो । कफनाशक दवा या अगद और तिक्त-रूखे भोजनोंसे शान्त करो। विषके घाव और विष-लिपे शस्त्रके घावोंके लक्षण । कड़ा बन्ध बाँधने, पछने लगाने-खुरचने या ऐसे ही तेज़ लेपों आदिसे विषसे सूजा हुआ स्थान गल जाता है और विषसे सड़ा हुआ मांस कठिनतासे अच्छा होता है। नश्तर आदिसे चीरते ही काला खून निकलता है, स्थान पक जाता है, काला हो जाता है, बहुत ही दाह होता है, घावमें सड़ा मांस पड़ जाता है, भयंकर दुर्गन्ध आती है, घावसे बारम्बार बिखरा For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सा--विषनाशक अगद । २२३: मांस निकलता है, प्यास, मूर्छा, भ्रम, दाह और ज्वर--ये लक्षण जिस क्षत या घावमें होते हैं, उसे दिग्धविद्ध (विष-लिपे शस्त्रके बिंधनेसे हुआ घाव ) घाव कहते हैं। - जिन घावोंमें ऊपरके लक्षण हों, विषयुक्त डंक रह गया हो, मकड़ी लड़के-से घाव हों, दिग्धविद्ध घाव हों, विषयुक्त घाव हों और जिन घावोंका मांस सड़ गया हो, पहले उनका सड़ा-गला मांस दूर कर दो; यानी नश्तरसे छीलकर फेंक दो । फिर जौंक लगाकर खून निकाल दो; और वमन-विरेचनसे दोष दूर कर दो। ___ फिर दूधवाले वृक्ष--गूलर, पीपर, पाखर आदिके काढ़ेसे घावपर तरड़े दो और सौ बारके धुले हुए घीमें विष-नाशक शीतल द्रव्य मिलाकर, उसे कपड़ेपर लगाकर, मल्हमकी तरह, घावपर रख दो। अगर किसी दुष्ट जन्तुके नख या कण्टक आदिसे कोई घाव हुआ हो, तो ऊपर लिखे हुए उपाय करो अथवा पित्तज विषमें लिखे उपाय करो। विष-नाशक अगद। ताक्ष्यों अगद । पुण्डेरिया, देवदारु, नागरमोथा, भूरिछरीला, कुटकी, थुनेर, सुगन्ध रोहिष तृण, गूगल, नागकेशरका वृक्ष, तालीसपत्र, सज्जी, केवटी मोथा, इलायची, सफेद सम्हालू, शैलज गन्धद्रव्य, कूट, तगर, फूलप्रियंगू, लोध, रसौत, पीला गेरू, चन्दन और सैंधानोन-इन सब दवाओंको महीन कूट-पीस और छानकर शहदमें मिलाकर, गायके सींगमें भरकर, ऊपरसे गायके सींगका ढक्कन देकर, For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । १५ दिन तक रख दो। इसको "तायोगद" कहते हैं । और तो क्या, इसके सेवनसे तक्षक साँपका काटा हुआ भी बच जाता है। नोट-"अगद" ऐसी दवाओंको कहते हैं, जो कितनी ही यथोचित औषधियोंके मेलसे बनाई जाती हैं और जिनमें विष नाश करने की सामर्थ्य होती है। हकीम लोग ऐसी दवाओंको "तिरयाक" कहते हैं । ___ महा अगद। निशोथ, इन्द्रायण, मुलेठी, हल्दी, दारुहल्दी, मञ्जिष्टवर्गकी सब दवाएँ, सैंधानोन, विरिया संचरनोन, विड़नोन, समुद्र नोन, काला नोन, सोंठ, मिर्च और पीपर-इन सब दवाओंको एकत्र पीसकर और "शहद में मिलाकर, गायके सींगमें भर दो और ऊपरसे गायके सींगका ही ढक्कन लगाकर बन्द कर दो। १५ दिन तक इसे न छेड़ो । इसके बाद काममें लाओ । इसे "महाऽगद" कहते हैं । इस दवाको घी, दूध या शहद प्रभृतिमें मिलाकर पिलाने, आँजने, काटे हुए स्थानपर लगाने और नस्य देनेसे अत्यन्त उग्रवीर्य सोका विष, दुर्निवार विष और सब तरहके विष नष्ट हो जाते हैं । यही बड़ी उत्तम दवा है। गृहस्थ और वैद्य सभीको इसे बनाकर रखना चाहिये क्योंकि समयपर यह प्राण-रक्षा करती है। ____ नोट-बंगसेन, चक्रदत्त और वृन्द प्रभूति कितने ही प्राचार्यों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। प्राचीन-कालके वैद्य ऐसी-ऐसी दवाएँ तैयार रखते थे और उन्हींके बलसे धन और यश उपार्जन करते थे। दशाङ्ग धूप। बेलके फूल, बेलकी छाल, बालछड़, फूलप्रियंगू, नागकेशर, सिरस, तगर, कूट, हरताल और मैनसिल--इन सब दवाओंको बराबर-बराबर लेकर, सिलपर रख, पानीके साथ खूब महीन पीसो और साँपके काटे हुए आदमीके शरीरपर मलो। इसके लगाने या For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www सर्प-विष-चिकित्सा--विष-नाशक अगद। २२५ मालिश करनेसे अत्यन्त तेज़ विष और गर विष नष्ट हो जाता है। इस धूपको शरीरमें लगाकर कन्याके स्वयम्बर, देवासुर-युद्ध-समानयुद्ध और राजदरबारमें जानेसे विजय-लक्ष्मी प्राप्त होती है; अर्थात् फतह होती है। जिस घरमें यह धूप रहती है, उस घरमें न कभी आग लगती है, न राक्षस-बाधा होती है और न उस घरके बच्चे ही मरते हैं। अजित अगद । बायबिडंग, पाठा, अजमोद, हींग, तगर, सोंठ, मिर्च, पीपर, हरड़, बहेड़ा, आमला, सेंधानोन, विरिया नोन, बिड़नोन, समन्दर नोन, कालानोन और चीतेकी जड़की छाल--इन सबको महीन पीस-छानकर, “शहद" में मिलाकर, गायके सींगमें भरकर, ऊपरसे सींगका ही ढकना लगा दो और १५ दिन तक रक्खी रहने दो। जब काम पड़े, इसे काममें लाओ। इसके सेवन करनेसे स्थावर और जङ्गम सब तरहके विष नष्ट होते हैं। ..... नोट--जब इसे पिलाना, लगाना या श्राँजना हो, तब इसे घी, दूध या शहदमें मिला लो। । चन्द्रोदय अगद। चन्दन, मैनशिल, कूट, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागरमोथा, सरसों, बालछड़, इन्द्रजौ, केशर, गोरोचन, असवण, हींग, सुगन्धवाला, लामज्जकतृण, सोया और फूलप्रियंगू-इन सबको एकत्र पीसकर रख दो । इस दवासे सब तरहके विष नाश हो जाते हैं। ऋषभागद । जटामासी, हरेणु, त्रिफला, सहजना, मजीठ, मुलेठी, पद्माख, बायबिडंग, तालीसके पत्ते, नाकुली, इलायची, तज, तेजपात, चन्दन, For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२६ चिकित्सा-चन्द्रोदयः। भारङ्गी, पटोल, किणही, पाठा, इन्द्रायणका फल, गूगल, निशोथ, 'अशोक, सुपारी, तुलसीकी मञ्जरी और भिलावेके फूल--इन सब दवाओंको बराबर-बराबर लेकर महीन पीस लो। फिर इसमें सूअर, गोह, मोर, शेर, बिलाव, साबर और न्यौला- इनके "पित्ते" मिला दो। शेषमें "शहद मिलाकर, गायके सींगमें भरकर, सींगसे ही बन्द करके १५ दिन रक्खी रहने दो। इसके बाद काममें लाओ।... जिस घरमें यह अगद होती है, वहाँ कैसे भी भयङ्कर नाग नहीं रह सकते । फिर बिच्छू वगैरःकी तो ताकत ही क्या जो घरमें रहें। अगर इस दवाको नगाड़ेपर लेप करके, साँपके काटे आदमीके सामने उसको बजावें, तो विष नष्ट हो जायगा। अगर इसे ध्वजापताकाओंपर लेप कर दें, तो साँपके काटे आदमी उनकी हवा-मात्र शरीरमें लगने या उनके देखनेसे ही आराम हो जायँगे। अमृत घृत । चिरचिरेके बीज, सिरसके बीज, मेदा, महामेदा और मकोयइनको गोमूत्रके साथ महीन पीसकर कल्क या लुगदी बना लो। इस घीसे सब तरहके विष नष्ट होते और मरता हुआ भी जी जाता है। - नोट-कल्कके वज़नसे चौगुना गायका घी और घीसे चौगुना गोमूत्र लेना । फिर सबको चूल्हेपर चढ़ाकर मन्दाग्निसे घी पका लेना। . नागदन्त्याद्य घत । नागदन्ती, निशोथ, दन्ती और थूहरका दूध--प्रत्येक चार-चार तोले, गोमूत्र २५६ तोले और उत्तम गो-घृत ६४ तोले,--सबको मिलाकर चूल्हेपर चढ़ा दो और मन्दाग्निसे धी पका लो । जब गो-मूत्र आदि जलकर घी-मात्र रह जाय उतार लो। इस घीसे साँप, बिच्छू और कीड़ोंके विष नाश होते हैं। . For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विष-चिकित्सा-विष-नाशक अगद । २२७ तण्डुलीय घृत । चौलाईकी जड़ और घरका धूआँ, दोनों समान-समान लेकर पीस लो। फिर इनके वज़नसे चौगुना घी और घीसे चौगुना दूध मिलाकर, घी पकनेकी विधिसे घी पका लो । इस घीसे समस्त विष नाश हो जाते हैं। . मृत्युपाशापह घृत । । लोध, हरड़, कूट, हुलहुल, कमलकी डण्डी, बेंतकी जड़, सींगिया विष (शुद्ध), तुलसीके पत्ते, पुनर्नवा, मंजीठ, जवासा, शतावर, सिंघाड़े, लजवन्ती और कमल-केशर-इनको बराबर-बराबर लेकर कूट-पीस लो । फिर सिलपर रख, पानीके साथ पीस, कल्क या लुगदी बना लो। फिर कल्कके वज़नसे चौगुना उत्तम गो-घृत और घीसे चौगुना गायका दूध लेकर, कल्क, घी और दूधको मिलाकर कढ़ाहीमें रक्खो और चूल्हे पर चढ़ा दो । नीचेसे मन्दी-मन्दी आग लगने दो। जब दूध जलकर घी-मात्र रह जाय, उतार लो । घीको छानकर रख दो। जब वह आप ही शीतल हो जाय, घीके बराबर "शहद" मिला दो और बर्तनमें भरकर रख दो। ___ इस घीकी मालिश करने, अंजन लगाने, पिचकारी देने, नस्य देने, भोजनमें खिलाने और बिना भोजन पिलानेसे सब तरहके अत्यन्त दुस्तर स्थावर और जंगम विष नष्ट हो जाते हैं। सब तरहके कृत्रिम गरविष भी इससे दूर होते हैं । बहुत कहनेसे क्या, इस घीके छूने-मात्र से विष नष्ट हो जाते हैं । साँपका विष, कीट, चूहा, मकड़ी और अन्य जहरीले जानवरोंका विष इससे निश्चय ही नष्ट हो जाता है । यह घी यथा नाम तथा गुण है । सचमुच ही मृत्यु-पाशसे मनुष्यको छुड़ा लेता है। For Private and Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * सर्प-विषको र सामान्य चिकित्सा। उधर हमने तीनों किस्मके साँपोंकी वेगानुरूप, दोषानुरूप और उपद्रवानुसार अलग-अलग चिकित्साएँ लिखी हैं । उन चिकित्साओंके लिये सोकी किस्म जानने, उनके वेग पहचानने और दोषोंके विकार समझ की जरूरत होती है। ऐसी चिकित्सा वे ही कर सकते हैं, जिन्हें इन सब बातोंका पूरा ज्ञान हो; अतः नीचे हम ऐसे नुसने लिखते हैं, जिनसे गँवार आदमी भी सब तरहके साँपोंके काटे आदमियोंकी जान बचा सकता है । जिनसे उतना परिश्रम न हो, जो उतना ज्ञान सम्पादन न कर सकें, वे कमसे-कम नीचे लिखे नुसखोंसे काम लें । जगदीश अवश्य प्राणस्ता करेंगे। XDED सर्प-विष नाशक नुसखे । .... ...... .......... * __(१) घी, शहद, मक्खन, पीपर, अदरख, कालीमिर्च और सैंधानोन-इन सातों चीजोंमें जो पीसने लायक हों, उन्हें पीस-छान लो । फिर सबको मिलाकर, साँपके काटे हुएको पिलाओ। इस नुसनेके सेवन करनेसे क्रोधमें भरे तक्षक-साँपका काटा हुआ भी आराम हो जाता है । परीक्षित है। ००० For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विषकी सामान्य चिकित्सा। २२६. (२) चौलाईकी जड़, चाँवलोंके पानीके साथ, पीसकर पीनेसे मनुष्य तत्काल निर्विष होता है; यानी उसपर जहरका असर नहीं रहता। (३) काकादिनी अर्थात् कुलिकाकी जड़की नास लेनेसे कालका काटा हुआ भी आराम हो जाता है। (४) जमालगोटेकी मींगियोंको नीमकी पत्तियोंके रसकी २१ भावना दो। इन भावना दी हुई मीगियोंको, आदमीकी लारमें घिस कर, आँखोंमें आँजो । इनके आँजनेसे साँपका विष नष्ट हो जाता और मरता हुआ मनुष्य भी जी जाता है । (५) नीबूके रसमें जमालगोटेको घिसकर आँखोंमें आँजनेसे साँपका काटा आदमी आराम हो जाता है। __नोट-इलाजुलगुर्बा में लिखा है-कालीमिर्च सात माशे और जमालगोटेकी गिरी सात माशे-इन दोनोंको तीन काग़ज़ी नीबुओंके रसमें घोटकर, कालीमिर्च-समान गोलियाँ बना लो। इनमेंसे एक या दो गोली पत्थरपर रख पानीके साथ पीस लो और साँपके काटे हुए श्रादमीकी आँखोंमें आँजो और इन्हींमेंसे २।३ गोलियाँ खिला भी दो । अवश्य आराम होगा। (६) अकेले जमालगोटेको “घी' में पीसकर, शीतल जलके साथ, पीनेसे साँपका काटा हुआ आराम हो जाता है। "वैद्यसर्वस्व"में लिखा है: किमत्र बहुनोक्नेन जयपालनेनैव तत्क्षणम् । घृतं शीताम्बुना पेयं भंजनं सर्पदंशके ॥ बहुत बकवादसे क्या लाभ ? केवल जमालगोटेको धीमें पीसकर, शीतल जलके साथ, पीनेसे साँपका काटा हुआ तत्काल आराम हो जाता है। नोट-जमालगोटेको पानीमें पीसकर, बिच्छूके काटे स्थानपर लेप करने से बिच्छूका ज़हर उतर जाता है। "मुजरंबात अकबरी में लिखा है-अगर साँपका काटा आदमी बेहोश हो, तो उसके पेटपर-नाभिके उपर--इस तरह उस्तरा लगाश्रो कि चमड़ा छिल जाय, पर खून न निकले। फिर उस जगहपर, जमालगोटा पानीमें पीसकर For Private and Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . ..... : २३०० - चिकित्सा-चन्द्रोदय । ... लगा दो। इसके लगानेसे क़य या वमन शुरू होंगी और साँपका काटा आदमी होशमें आ जायगा। होशमें आते ही और उपाय करो। — "तिब्बे अकबरी"में लिखा है:--साँपके काटे हुएको दो या तीन जमालगोटे छीलकर खिलायो । साथ ही छिला हुआ जमालगोटा, एक मूंगकी बराबर पीस कर, रोगीकी आँखोंमें ऑजो । जमालगोटा खिलाकर, जहाँ साँपने काटा हो उस जगह, सींगीकी तरह खूब चूसो, ताकि शरीरमें ज़हरका असर न हो । हकीम साहब इसे अपना आज़मूदा उपाय लिखते हैं। - जमालगोटेका सेवन अनेक हकीम-वैद्योंने इस मौक पर अच्छा बताया है । यद्यपि हमने परीक्षा नहीं की है, तथापि हमें इसके अक्सीर होने में सन्देह नहीं । (७) दो या तीन जमालगोटेकी मीगियोंकी गिरी और १ तोले जंगली तोरई-इन दोनोंको पानीके साथ पीसकर और पानी में ही घोलकर पिला देनेसे साँपका जहर उतर जाता है। - नोट -दन्तीके बीजोंको जमालगोटा कहते हैं। ये अरण्डीके बीज-जैसे होते हैं। इनके बीचमें जीभी-सी होती है, उसीसे क्रय होती हैं। मीगियों में तेल होता है । वैद्य लोग जमालगोटेकी चिकनाई दूर कर देते हैं, तब वह शुद्ध और खानेयोग्य हो जाता है। दवाके काममें बीज ही लिये जाते हैं। जमालगोटा कोठेको हानिकारक है, इसीसे हकीम लोग इसके देनेकी मनाही करते हैं। घी, दूध, माठा या केवल घी पीनेसे इसका दर्प नाश होता है । इसकी मात्रा १ चाँवलकी है। जमालगोटा कफ-नाशक, तीक्ष्ण, गरम और दस्तावर है। जमालगोटेके शोधने की विधि हमने इसी भागमें लिखी है। (८) बड़के अंकुर, मँजीठ, जीवक, ऋषभक, मिश्री और कुम्भेरइनको पानीमें पीसकर, पीनेसे मण्डली सर्पका विष शान्त हो जाता है। (६) रेणुका, कूट, तगर, त्रिकुटा, मुलेठी, अतीस, घरका धूआँ और शहद-इन सबको मिला और पीसकर पीनेसे साँपका विष नाश हो जाता है। । (१०) बालछड़, चन्दन, सेंधानोन, पीपर, मुलेठी, कालीमिर्च, कमल और गायका पित्ता-इन सबको एकत्र पीसकर, आँखोंमें आँजनेसे विषप्रभावसे मूछित या बेहोश हुआ मनुष्य भी होशमें आ जाता है । For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विषकी सामान्य चिकित्सा । (११) करञ्जके बीज, त्रिकुटा, बेल-वृक्षकी जड़, हल्दी, दारुहल्दी; तुलसीके पत्ते और बकरीका मूत्र-इन सबको एकत्र पीसकर, नेत्रों में आँजनेसे, विषसे बेहोश हुआ मनुष्य होशमें आ जाता है। (१२) सेंधानोन, चिरचिरके बीज और सिरसके बीज-इन सबको मिलाकर और पानीके साथ सिलपर पीसकर कल्क या लुगदी बना लो। इस लुगदीकी नस्य देने या सुंघानेसे विषके कारणसे मूच्छित हुआ मनुष्य होशमें आ जाता है । - (१३) इन्द्रजौ और पाढ़के बीजोंको पीसकर नस्य देने या सुँघाने या नाकमें चढ़ानेसे बेहोश हुआ मनुष्य चैतन्य हो जाता है। . . . नोट--नस्यके सम्बन्धमें हमने चिकित्सा-चन्द्रोदय, दूसरे भाग के पृष्ठ २६७-२७२ में विस्तारसे लिखा है। उसे अवश्य पढ़ लेना चाहिये। . (१४) सिरसकी छाल, नीमकी छाल, करञ्जकी छाल और तोरई-इनको एकत्र, गायके मूत्रमें, पीसकर प्रयोग करनेसे स्थावर और जङ्गम-दोनों तरहके विष शान्त हो जाते हैं। __ नोट-मुख्यतया विष दो प्रकारके होते हैं--(१) स्थावर और (२) जङ्गम । जो विष ज़मोनकी खानों और वनस्पतियोंसे पैदा होते हैं, उन्हें स्थावर विष कहते हैं । जैसे, संखिया और हरताल वारः तथा कुचला, सींगीमोहरा, कनेर और धतूरा प्रभुति । जो विष साँप, बिच्छू, मकड़ी, कनखजूरे प्रभुति चलनेफिरनेवाले जन्तुओं में होते हैं, उन्हें जगम विष कहते हैं। (१५) दाख, असगन्ध, गेरू, सफेद कोयल, तुलसीके पत्ते, कैयके पत्ते, बेलके पत्ते और अनारके पत्ते-इन सबको एकत्र पीसकर और "शहद में मिलाकर सेवन करनेसे "मण्डली" सोका विष नष्ट हो जाता है। - नोट-यह खानेकी दवा है । सर्प-विषपर, ख़ासकर मण्डली सर्पके विषपर, अत्युत्तम है । इसमें जो "सक द कोयल" लिखी है, वह स्वयं सर्प-विव-नाशक है । कायल दो तरहकी होती हैं--(१) नोली और (२) सनद । हिन्दीमें साद कोयल और नीली कोयल कहते हैं । संस्कृतमें अपराजिता, नील अपराजिता और विष्णुकान्ता आदि कहते हैं । बंगलामें हापरमाली, अपराजिता या For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । नील अपराजिता कहते हैं। मरहठीमें गोकर्ण और गुजरातीमें धाली गरणी कहते हैं । इसके सम्बन्धमें निघण्टुमें लिखा है। आमं पित्तरुजं चैव शोथं जन्तून् वणं कफम् । ग्रहपीडां शीर्षरोगं विषं सर्पस्य नाशयेत् ॥ सनद कोयल--प्राम, पित्तरोग, सूजन, कृमि, घाव, कफ, ग्रहपीड़ा, मस्तक-रोग और साँपके विषको नाश करती है। . . (१६) सिरसके पत्तोंके रसमें सफेद मिर्चीको पीसकर मिला दो और मसलकर सुखा लो। इस तरह सात दिन में सात बार करो। जब यह काम कर चुको; तब उसे रख दो । साँपके काटे हुए आदमीको इस दवाके पिलाने, इसकी नस्य देने और इसीको आँखोंमें आँजनेसे निश्चय ही बड़ा उपकार होता है । परीक्षित है । नोट-केवल सिरसके पत्तोंको पीसकर, साँपके काटे स्थानपर लेप करनेसे साँपका ज़हर उतर जाता है। इसको हिन्दी में सिरस, बँगलामें शिरीष गाछ, मरहठीमें शिरसी और गुजरातीमें सरसडियो और फारसीमें दरख्ते जकरिया कहते हैं । निघण्टुमें लिखा है:-- शिरीषो मधुरोऽनुष्णस्तिक्तश्च तुवरो लघुः । . दोषशोथविसर्पनः कासव्रणविषापहः ॥ सिरस मधुर, गरम नहीं, कड़वा, कसैला और हल्का है। यह दोष, सूजन, विसर्प, खाँसी, घाव और ज़हरको नाश करता है। (१७) बॉझ-ककोड़ेकी जड़को बकरीके मूत्रकी भावना दो। फिर इसे काँजीमें पीसकर, साँपके काटे हुएको इसकी नस्य दो। इस नस्यसे साँपका विष दूर हो जाता है। नोट-बाँझ-ककोड़ेकी गाँठ पानीमें घिसकर पिलाने और काटे हुए स्थानपर लगानेसे साँप, बिच्छू, चूहा और बिल्लीका ज़हर उतर जाता है । परीक्षित है। (१८) घरका धूआँ, हल्दी, दारुहल्दी और चौलाईकी जड़-इन चारोंको एकत्र पीसकर, दही और घीमें मिलाकर, पीनेसे वासुकि साँपका काटा हुआ भी आराम हो जाता है । For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विषकी सामान्य चिकित्सा । २३३ (१६) ल्हिसौड़ा, कायफल, बिजौरा नीबू , सफ़ेद कोयल, सफेद पुनर्नवा और चौलाईकी जड़--इन सबको एकत्र पीस लो। इस दवाके सेवन करनेसे दीकर और राजिल जातिके साँपोंका विष नष्ट हो जाता है । यह बड़ी उत्तम दवा है। (२०) सम्हालूकी जड़के स्वरसमें निर्गुण्डीकी भावना देकर पीनेसे सर्प-विष उतर जाता है। (२१) सैंधानोन, कालीमिर्च और नीमके बीज--इन तीनोंको बराबर-बराबर लेकर, एकत्र पीसकर, फिर शहद और घीमें मिलाकर, सेवन करनेसे स्थावर और जंगम दोनों तरह के विष नष्ट हो जाते हैं। ( २२ ) चार तोले कालीमिर्च और एक तोले चाँगेरीका रसइन दोनोंको एकत्र करके और घीमें मिलाकर पीने और लेप करनेसे साँपका उग्र विष भी शान्त हो जाता है । नोट-चाँगेरीको हिन्दीमें चूका, बँगलामें चूकापालङ, मरहठीमें पांवटचुका और फ़ारसीमें तुरशक कहते हैं। यह बड़ा खट्टा स्वादिष्ट शाक है। इसके प्रतिनिधि जरश्क और अनार हैं। (२३) बंगसेनमें लिखा है, मनुष्यका मूत्र पीनेसे घोर सर्प-विष नष्ट हो जाता है। (२४) परवलकी जड़की नस्य देनेसे कालरूपी सर्पका डसा. हुआ भी बच जाता है। नोट-इस नुसख को वृन्द और बङ्गसेन दोनोंने लिखा है। (२५) पिण्डी तगरको, पुष्य नक्षत्रमें, उखाड़कर, नेत्रोंमें लगानेसें साँपका काटा हुआ आदमी मरकर भी बच जाता है। इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है। नोट--तगर दो तरहकी होती है-(१) तगर, और (२) पिण्डी तगर ।। पिण्डी तगरको नन्दी तगर भी कहते हैं। दोनों तगर गुणमें समान हैं। पिण्डी. For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३४ . चिकित्सा-चन्द्रोदय । .... तगरके वृक्ष हिमालय प्रभुति उत्तरीय पर्वतोंपर बहुत होते हैं। वृक्ष बड़ा होता है, पत्त कनेरसे लम्बे-लम्बे और फूल छोटे-छोटे, पीले रङ्गके, पाँच पंखड़ीवाले होते हैं । यद्यपि दोनों ही तगर विष-नाशक होती हैं, पर सर्प-विषके लिये पिण्डी तगर विशेष गुणकारी है। बंगलामें तगर पादुका, गुजरातो और मरहठीमें पिण्डीतगर और लैटिनमें गारडिनियाफ्लोरिबण्डा कहते हैं। - (२६ ) बाग़की कपासके पत्तोंका चार या पाँच तोले स्वस्त साँपके काटे आदमीको पिलाने और उसीको काटे स्थानपर लगानेसे जहर नष्ट हो जाता है। अगर यही स्वरस पिचकारी द्वारा शरीरके भीतर भी पहुँचाया जाय, तो और भी अच्छा। एक विश्वासी मित्र इसे अपना परीक्षित नुसखा बताते हैं। हमें उनकी बातमें ज़रा भी शक नहीं। - नोट-कपासके पत्ते और राई--दोनोंको एकत्र पीसकर, बिच्छूके काटे स्थानपर लेप करनेसे बिच्छूका विष नष्ट हो जाता है। रविवारके दिन खोदकर लाई हुई कपालकी जड़ चबानेसे भी बिच्छूका ज़हर उतर जाता है। . (२७ ) सफ़ेद कनेरके सूखे हुए फूल ६ माशे, कड़वी तम्बाकू ६ माशे और इलायचीके बीज २ माशे,--इन तीनोंको महीन पीसकर कपड़ेमें छान लो। इस नस्यको शीशीमें रख दो। इस नस्यको सैं घनी तमाखूकी तरह सूघनेसे साँपका विष उतर जाता है। परीक्षित है। - (२८) साँपके काटे आदमीको नीमके, खासकर कड़वे नीमके, पत्ते और नमक अथवा कड़वे नीमके पत्ते और कालीमिर्च खूब चबवाओ । जब तक ज़हर न उतरे, इनको बराबर चबवाते रहो। जब तक जहर न उतरेगा, तब तक इनका स्वाद साँपके काटे हुएको मालूम न होगा, पर ज्योंही जहर नष्ट हो जायगा, इनका स्वाद उसे मालूम देने लगेगा । साँपने काटा है या नहीं काटा है, इसकी परीक्षा करनेका यही सर्वोत्तम उपाय है । दिहातघालोंको जब सन्देह होता है, तब वह नीमके पत्ते चबवाते हैं। अगर ये कड़वे लगते हैं, तब तो समझा जाता है कि For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विषकी सामान्य चिकित्सा । २३५ साँपने नहीं काटा, खाली वहम है । अगर कड़वे नहीं लगते, तब निश्चय हो जाता है कि, साँपने काटा है। इन पत्तोंसे कोरी परीक्षा ही नहीं होती, पर रोगीका विष भी नष्ट होता है । साँपके काटेपर कड़वे नीमके पत्ते रामवाण दवा है । यद्यपि नीमके पत्तोंसे सभी साँपोंके काटे हुए मनुष्य आराम नहीं हो जाते, पर इसमें शक नहीं कि, अनेक आराम हो जाते हैं । परीक्षित है ।। नोट-नीमके पत्तोंका या छालका रस बारम्बार पिलानेसे भी साँपका ज़हर उतर जाता है। अगर आप यह चाहते हैं, कि साँपका ज़हर हमपर असर न करे, तो आप नित्य--सवेरे ही-कड़वे नीमके पत्त सदा चबाया करें । (२६ ) सेंधानोन १ भाग, कालीमिर्च १ भाग और कड़वे नीमके फल २ भाग,-इन तीनोंको पीसकर, शहद या घीके साथ खिलानेसे स्थावर और जंगम दोनों तरहके विष उतर जाते हैं । .. (३०) साँपके काटे आदमीको बहुत-सा लहसन, प्याज और राई खिलाओ । अगर कुछ भी न हो, तो यह घरेलू दवा बड़ी अच्छी है। . - नोट- राईसे साँप बहुत डरता है। अगर आप साँपकी राहमें राईके दाने फैला दें, तो वह उस राहसे न निकलेगा। अगर आप राईको नौसादर और पानीमें घोलकर साँपके बिल या बाँबीमें डाल दें तो वह बिल छोड़कर भाग जायगा । ___ (३१) हिकमतके ग्रन्थोंमें लिखा है:-अगर साँपका काटा हुआ बेहोश हो, पर मरा न हो, तो “कुचला" पानीमें पीसकर उसके गलेमें डालो और थोड़ा-सा कुचला पीसकर उसकी गर्दन और शरीरपर मलो; इन उपायोंसे वह अवश्य होशमें आ जायगा। (३२) एक हकीमी पुस्तकमें लिखा है, मदारकी तीन कोंपलें गुड़में लपेटकर खिलानेसे साँपका काटा आराम हो जाता है; पर मदारकी कोंपलें खिलाकर, ऊपरसे घी पिलाना परमावश्यक है। । (३३ ) मदारकी चार कली, सात कालीमिर्च और एक माशे इन्द्रायण - इन तीनोंको पीसकर खिलानेसे साँपका काटा आराम हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । - (३४) साँपके काटेको मदारकी जड़ पीस-पीसकर पिलानेसे साँपका जहर उतर जाता है। नोट-कोई-कोई मदारकी जड़ और मदारकी रूई-दोनों ही पीसकर पिलाते हैं । हाँ, अगर यह दवा पिलाई जाय, तो साथ-साथ ही साँपके काटे हुए स्थानपर मदारका दूध टपकाते भी रहो । जब तक टपकाया हुश्रा दूध न सूखे, दूध टपकाना बन्द मत करो । जब ज़हरका असर न रहेगा या ज़हर उतर जायगा; टपकाया हुश्रा मदारका दूध सूखने लगेगा। (३५) गायका घी ४० माशे और लाहौरी नमक ८ माशे-दोनोंको मिलाकर खानेसे साँपका ज़हर एवं अन्य विष उतर जाते हैं। (३६) थोड़ा-सा कुचला और कालीमिर्च पीसकर खानेसे साँपका जहर उतर जाता है। (३७) कालीमिर्च और जमालगोटेकी गरी सात-सात माशे लेकर, तीन काराजी नीबुओंके रसमें खरल करके, मिर्च-समान गोलियाँ बना लो । इन गोलियोंको पानीमें पीसकर आँजने और दोतीन गोली खिलानेसे साँपका काटा आदमी निश्चय ही आराम हो जाता है। (३८) कसौंदीके बीज महीन पीसकर आँखोंमें आँजनेसे साँपका जहर उतर जाता है। (३६) “इलाजुलगुर्बा में लिखा है, एक खटमल निगल जानेसे. साँपका जहर उतर जाता है। (४० ) तेलिया सुहागा २० माशे भूनकर और तेलमें मिलाकर पिला देनेसे साँपका काटा आदमी आराम हो जाता है। ___ नोट-संखियाके साथ सुहागा पीस लेनेसे संखियाका विष मारा जाता है, इसीलिये विष खाये हुए श्रादमीको घीके साथ सुहागा पिलाते हैं। कहते हैं, सुहागा सब तरहके ज़हरोंको नष्ट कर देता है। (४१) चूहेका पेट फाड़कर साँपके काटे स्थानपर बाँध देनेसे जहर नष्ट हो जाता है। कहते हैं, यह जहरको सोख लेता है। For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३७ सर्प-विषकी सामान्य चिकित्सा । (४२) सिरसके पेड़की छाल, सिरसकी जड़की छाल, सिरसके बीज और सिरसके फूल चारों,-पाँच-पाँच माशे लेकर महीन पीस लो। इसे एक-एक चम्मच गोमूत्रके साथ दिनमें तीन बार पिलानेसे साँपका ज़हर उतर जाता है। नोट-सिरसकी छाल, जो पेड़में ही काली हो जाती है, बड़ी गुणकारी होती है। सिरसकी ८ माशे छाल, हर रोज़ तीन दिन तक साँठो चाँवलोंके धोवनके साथ पीनेसे एक साल तक ज़हरीले जानवरोंका विष असर नहीं करता । ऐसे मनुष्योंको जो जानवर काटता है, वह खुद ही मर जाता है। (४३) जामुनकी अढ़ाई पत्ती पानीमें पीसकर पिला देनेसे सर्पविष उतर जाता है। (४४) दो माशे ताजा कैंचुआ पानीमें पीसकर पिला देनेसे सर्पविष नष्ट हो जाता है। (४५) साँप या बावले कुत्ते अथवा अन्य जहरीले जानवरोंके काटे हुए स्थानोंपर फौरन पेशाब कर देना बड़ा अच्छा उपाय है। वैद्य और हकीम सभी इस बातको लिखते हैं। (४६) समन्दर-फल महीन पीसकर, दोनों नेत्रोंमें आँजनेसे साँपका ज़हर उतर जाता है। (४७) महुआ और कुचला पानीमें पीसकर, काटे हुए स्थानपर इसका लेप करनेसे साँपका जहर उतर जाता है। (४८) गगन-धूल पीसकर नाकमें टपकानेसे साँपका जहर उतर जाता है। (४६) कसौंदीकी जड़ ४ माशे और कालीमिर्च २ माशे--पीसकर खानेसे साँपका जहर उतर जाता है। (५०) कमलको कूट-पीस और पानीमें छानकर पिलानेसे क़य होती और सर्प-विष उतर जाता है । (५१) सँभालूका फल और हींगके पेड़की जड़--इन दोनोंके सेवन करनेसे साँपका जहर नष्ट हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३८ चिकित्सा-चन्द्रोदय। " ...(५२) “तिब्बे अकबरी' में लिखा है, तुरन्तकी तोड़ी हुई ताजा ककड़ी साँपके काटेपर अद्भुत फल दिखाती है । (५३) बकरीकी मैंगनी सभी जहरीले जानवरोंके काटेपर लाभदायक है। (५४) "तिब्बे अकबरी” में लिखा है, लाशियाका दूध काले साँपके काटनेपर खूब गुण करता है। - नोट-“लाग़िया” एक दुधारी औषधिका दूध है । इसके पत्ते गोल और पीले तथा फूल भी पीला होता है। यह दूसरे दर्जेका गर्म और रूखा है तथा बलवान, रेचक और अत्यन्त वमनप्रद है, यानी इसके खानेसे कय और दस्त बहुत होते हैं । कतीरा इसके दर्पका नाश करता है। ..(५५) नीबूके नौ माशे बीज खानेसे समस्त जानवरोंका विष उतर जाता है। (५६) करिहारीकी गाँठको पानीमें पीसकर नस्य लेनेसे साँपका जहर उतर जाता है। __ (५७) घरका धूआँ, हल्दी, दारुहल्दी और जड़ समेत चौलाईइन सबको दहीमें पीसकर और घी मिलाकर पिलानेसे साँपका ज़हर उतर जाता है । परीक्षित है। (५८ ) बड़के अंकुर, मँजीठ, जीवक, ऋषभक, बला--खिरेंटी, गम्भारी और मुलहटी,--इन सबको महीन पीसकर पीनेसे साँपका विष नष्ट हो जाता है । परीक्षित है। नोट-इस नुसख और नं. ८ नुसत्र में यही भेद है, कि उसमें बला और मुलहटीके स्थानमें "मिश्री' है। ___ (५६) पण्डित मुरलीधर शर्मा राजवैद्य अपनी पुस्तकमें लिखते हैं, अगर बन्ध बाँधने और चीरा देकर खून निकालनेसे कुछ लाभ दीखे तो खैर, नहीं तो "नागन बेल"की जड़ एक तोले लेकर, आधपाव पानीमें पीसकर, साँपके काटे हुएको पिला दो। इसके पिलानेसे क्रय होती हैं और विष नष्ट हो जाता है। अगर इतनेपर भी कुछ जहर रह जाय, For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विषकी सामान्य चिकित्सा । २३६. तो ६ माशे यही जड़ पानीके साथ पीसकर और आधपाव पानीमें घोलकर फिर पिला दो। इससे फिर वमन होगी और जो कुछ विष बचा होगा, निकल जायगा । अगर एक दफा पिलानेसे आराम न हो, तो कमोवेश मात्रा घण्टे-घण्टेमें पिलानी चाहिये । इस जड़ीसे साँपका काटा हुआ निस्सन्देह आराम हो जाता है । राजवैद्यजी लिखते हैं;. हमने इस जड़ीको अनेक बार आजमाया और ठीक फल पाया । वह इसे कुत्ते के काटे और अफीमके विषपर भी आजमा चुके हैं। सूचना-दीकर या फनवाले साँपके लिये इसकी मात्रा १ तोलेकी है । कम ज़हरवाले साँपोंके लिये मात्रा घटाकर लेनी चाहिये । १ तोले जड़को दस तोले पानी काफी होगा । जड़ीको पानी के साथ सिलपर पीसकर, पानीमें घोल लेना चाहिये । अगर उम्र पूरी न हुई होगी, तो इस जड़ीके प्रभावसे हर तरहके . साँपका काटा हुअा मनुष्य बच जायगा। नोट-नागनबेल एक तरहकी बेल होती है। इसकी जड़ बिल्कुल साँपके. प्राकारकी होती है । यह स्वादमें बहुत ही कड़वी होती है । मालवेमें इसे "नागनबेल" कहते हैं और वहींके पहाड़ोंमें यह पाई भी जाती है। एक निघण्टुमें "नागदस" नामकी दवा लिखी है । लिखा है-यह बिल्कुल साँपके समान लकड़ी है, जिसे हिन्दुस्तानके फ़कीर अपने पास रखते हैं । इसका स्वरूप काला और स्वाद कुछ कड़वा लिखा है। लिखा है-यह साँपके ज़हरको नष्ट करती है। हम नहीं कह सकते, नागन बेल और नागदस-दोनों एक ही चीज़के नाम हैं या अलग-अलग । पहचान दोनोंकी एक ही मिलती है। नागदमनी, जिसे नागदौन, या नागदमन कहते हैं, इनसे अलग होती है। यद्यपि वह भी सर्प-विष, मकड़ीका विष एवं अन्य विष नाशक लिखी है, पर उसके वृक्ष तो अनन्नासके जैसे होते हैं । दवाके काममें नाग नबेलकी जड़ ली जाती है, पर नागदौनके पत्त लिये जाते हैं। नागनबेलके अभावमें सफ़ेद पुनर्नवासे काम लेना बुरा नहीं है । इससे भी अनेक सर्पके काटे श्रादमी बच गये हैं, पर यह नागनबेलकी तरह १०० में १०० को पाराम नहीं कर सकता। . (६०) सफ़ेद पुनर्नवा या विषखपरेकी जड़ ६ माशेसे १ तोले तक पानीमें पीस और घोलकर पिलानेसे और यही जड़ी हर समय मैं हमें For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४० चिकित्सा-चन्द्रोदय । रखकर चूसते रहने तथा इसी जड़को पीसकर साँपके काटे स्थानपर लेप करनेसे अनेक रोगी बच जाते हैं। नोट-हिन्दीमें सफ़द पुनर्नवा, विषखपरा और साँठ कहते हैं । बंगलामें श्वेतपुण्या कहते हैं । इसके सेवनसे सूजन, पाण्डु, नेत्ररोग और विष-रोग प्रभूति अनेक रोग नाश होते हैं। (६१ ) आकके फूलोंके सेवन करनेसे हल्के ज़हरवाले साँपोंका जहर नष्ट हो जाता है। (६२ ) अगर जल्दीमें कुछ भी न मिले, तो एक तोले फिटकिरी पीसकर साँपके काटेको फंकाओ और ऊपरसे दूध पिलाओ। इससे बड़ा उपकार होता है, क्योंकि खून फट जाता है और जल्दी ही सारे शरीरमें नहीं फैलता। (६३) ज़हर-मुहरेको गुलाब-जलके साथ पत्थरपर घिसो और एक दफामें कोई एक रत्ती बराबर साँपके काटे हुएको चटाओ । फिर इसीको काटे स्थानपर भी लगा दो। इसके चटानेसे तय होगी, जब कय हो जाय, फिर चटाओ । इस तरह बार-बार कय होते ही इसे चटाओ। जब इसके चटानेसे कय न हो, तब समझो कि अब जहर नहीं रहा। नोट-स्थावर और जंगम दोनों तरहके ज़हरोंके नाश करनेकी सामर्थ्य जैसी ज़हरमुहरेमें है वैसी कम चीज़ोंमें है। इसकी मात्रा २ रत्तीकी है, पर एक बारमें एक गेहूंसे ज़ियादा न चटाना चाहिये। हाँ, क्रय होनेपर, इसे बारम्बार चटाना चाहिये । ज़हर नाश करनेके लिये कय और दस्तोंका होना परमावश्यक है। इसके चाटनेसे खूब कय होती हैं और पेटका सारा विष निकल जाता है। जब पेटमें ज़हर नहीं रहता, तब इसके चाटनेसे क्रय नहीं होती। ज़हरमुहरा दो तरहके होते हैं-(१) हैवानी, और (२)मादनी । हैवानी ज़हरमुहरा मैंडक वग़रःसे निकाला जाता है और मादनी ज़हरमुहरा खानोंमें पाया जाता है । यह एक तरहका पत्थर है। इसका रंग ज़र्दी माइल सफेद होता है। नीमकी पत्तियों और ज़हरमुहरेको एक साथ मिलाकर पीसो और फिर चक्खो । अगर नीमका कड़वापन जाता रहे, तो समझो कि ज़हरमुहरा असली है। यह पसारियों और अत्तारोंके यहाँ मिलता है । ख़रीद कर परीक्षा अवश्य कर लो, जिससे समयपर धोखा न हो। For Private and Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्प-विषकी सामान्य चिकित्सा । २४१ Samanthamaniaunuhunmun सूचना--विष खानेवाले और हैज़ वालेको ज़हरमुहरा बड़ी जल्दी आराम करता है । हैज़ा तो २।३ मात्रामें ही आराम हो जाता है । देने की तरकीब वही, जो ऊपर लिखी है। (६४) साँपके काटे आदमीको, बिना देर किये, तीन-चार माशे नौसादर महीन पीसकर और थोड़ेसे शीतल जलमें घोलकर पिला दो। इसके साथ ही उसे तीन-चार आदमी कसकर पकड़ लो और एक आदमी ऐमोनिया सुँघाओ । ईश्वर चाहेगा, तो रोगी फौरन ही आराम हो जायगा । कई मित्र इसे आजमूदा कहते हैं। नोट-ऐमोनिया अँग्रेज़ी दवाखानों में तैयार मिलता है। लाकर घरमें रख लेना चाहिये । इससे समयपर बड़े काम निकलते हैं। अभी इसी सालकी घटना है। हमारी ज्येष्ठा कन्या चपलादेवीका विवाह था। हमारे एक मित्र मय अपनी सहधर्मिणीके लखनऊसे आये थे। फेरोंके दिन, औरोंके साथ, उनकी पत्नीने भी निराहार व्रत किया । रातके बारहसे ऊपर बज गये । सुना गया कि, वह बेहोश हो गई हैं। हमारे वह मित्र और उनके चचा घबरा रहे थे। रोगिणीका साँस बन्द हो गया, शरीर शीतल और लकड़ी हो गया । सब कहने लगे, यह तो ख़तम हो गई। हमने कहा, घबराओ मत, हमारे बक्समेंसे अमुक शीशी निकाल लाप्रो । शीशो लाई गई, हमने काग खोलकर उनकी नाकके सामने रखी। कोई दो मिनिट बाद ही रोगिणी हिली और उठकर बैठ गई। कहाँ तो शरीरकी सुध. हो नहीं थी; लाज-शर्मका ख़याल नहीं था; कहाँ दवाका असर पहुँचते ही उठकर कपड़े ठीक कर लिये । सब कोई आश्चर्यमें डूब गये । हमने कहा-श्राश्चर्यकी कोई बात नहीं है । "ऐमोनिया" ऐसी ही प्रभावशाली चीज़ है। __ कई बार हमने इससे भूतनी लगी हुई ऐसी औरतें पाराम की हैं, जिन्हें अनेक स्याने, भोपे और श्रोझे आराम न कर सके थे। दाँत-डाढ़के दर्द और सिरकी भयानक पीड़ामें भी इसके सुंघानेसे फौरन शान्ति मिलती है। __ अगर समयपर ऐमोनिया न हो, तो श्राप ६ माशे नौसादर और ६ माशे पानमें खानेका चूना-दोनोंको मिलाकर एक अच्छी शीशी या कपड़ेकी पोटली. में रख लें और सुंघावें, फ़ौरन चमत्कार दीखेगा। यह भी ऐमोनिया ही है, क्योंकि ऐमोनिया बनता इन्हीं दो चीज़ोंसे है। फर्क इतना ही है कि घरका ऐमोनिया समयपर काम तो उतना ही देता है, पर विलायतवालेकी तरह टिकता नहीं । बहुतसे आदमी हथेलीमें पिसा हुअा चूना और नौसादर बराबर-बराबर For Private and Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४२ , चिकित्सा-चन्द्रोदय । लेकर, जरासे पानीके साथ हथेलियोंमें ही रगड़कर सुंघाते हैं। इसकी तैयारीमें पाँच मिनिटसे अधिक नहीं लगते । (६५) सूखी तमाखू थोड़ी-सी पानीमें भिगो दो, कुछ देर बाद उसे मलकर साँपके काटे हुएको पिलाओ। इस तरह कई बार पिलानेसे साँपका काटा हुआ बच जाता है। ____ नोट-कहते हैं, ऊपरकी विधिसे तमाखू भिगोकर और ३ घण्टे बाद उसका रस निचोड़कर, उस रसको हाथोंमें खूब लपेट कर, मनुष्य साँपको पकड़ सकता है । अगर यही रस साँपके मुंहमें लगा दिया जाय, तो उसकी काटनेकी शक्कि ही नष्ट हो जाय। (६६) नीलाथोथा महीन पीसकर और पानीमें घोलकर पिलानेसे साँपका काटा बच जाता है। ..(६७) आमकी गुठलीके भीतरकी बिजलीको पीसकर, साँपके काटे हुएको फँका दो और ऊपरसे गरम पानी पिला दो। इस दवासे क्रय होगी। कय होनेसे ही विष नष्ट हो जायगा। जब क़य होना बन्द हो जाय, दवा पिलाना बन्द कर दो। जब तक क़य होती रहें, इस दवाको बारम्बार फँकाो । एक बार फँकानेसेही आराम नहीं हो जायगा । एक मित्रका परीक्षित योग है। . (६८) बानरी घासका रस निकालकर साँपके काटे हुए आदमीको पिलाओ। इसी रसको उसके नाक और कानोंमें डालो तथा इसीको साँपके काटे हुए स्थानपर लगाओ। इस तरह करनेसे साँपका जहर फौरन उतर जाता है। .. नोट-यह नुसखा हमें “वैद्यकल्पतरु में लिखा मिला है। लेखक महोदय इसे अपना परीक्षित कहते हैं । बानरी घासका बॅदरिया या कुत्ता घास कहते हैं। इसका पौधा काँगनीके जैसा होता है, और काँगनीके समान ही बाल लगती हैं। यह कपड़ा छूते ही चिपट जाती है और वर्षाकालमें ही पैदा होती है, अतः इस घासका रस निकालकर शीशीमें रख लेना चाहिये। . (६६) "वृन्द-वैद्यक"में लिखा है, लोग कहते हैं, जिसे साँप काटे वह अगर उसी समयं साँपको पकड़कर काट खाय अथवा तत्काल For Private and Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४३ सर्प-विषकी सामान्य चिकित्सा । मिट्टीके ढेलेको काट खाय तो साँपका जहर नहीं चढ़ता। किसीकिसीने उसी समय दाँतोंसे लोहेको काट लेना यानी दबा लेना भी अच्छा लिखा है। नोट--सर्पके काटते ही, सर्पको पकड़कर काट खाना सहज काम नहीं। इसके लिए बड़े साहस और हिम्मतकी दरकार है । यह काम सब किसीसे हो नहीं सकता। हाँ, जिसे कोई महा भयंकर साँप काट ले, वह यदि यह समझकर कि मैं बचूँगा तो नहीं, फिर इस साँपको पकड़कर काट लेनेसे और क्या हानि होगी-हिम्मत करे तो साँपको दाँतसे काट सकता है। ___ यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि साँपको काटनेसे मनुष्य किस तरह बच सकता है ? सुनिये, हमारे ऋषि-मुनियोंने जो कुछ लिखा है; वह उनका परीक्षा किया हुआ है--गंजेड़ियोंकी-सी थोथी बातें नहीं। बात इतनी ही है कि, उन्होंने अपनी लिखी बातें अनेक स्थलोंमें खूब खुलासा नहीं लिखीं; जो कुछ लिखा है, संक्षेपमें लिख दिया है। मालूम होता है, साँपके खूनमें विष-विनाशक शक्ति है। जो मनुष्य दाँतोंसे साँपको काटेगा, उसके मुखमें कुछ-न-कुछ खून अवश्य जायगा। खून भीतर पहुँचते ही विषके प्रभावको नष्ट कर देगा। अाजकलके डाक्टर परीक्षा करके लिखते हैं कि, साँपके काटे स्थान पर साँपके खूनके पछने लगानेसे साँपका विष उतर जाता है। बस, यही बात वह भी है। इस तरह भी साँपका खून विषको नष्ट करता है और उस तरह भी । उसी साँपको काटनेको बात ऋषियोंने इसीलिये लिखी है कि, जैसा ज़हरी साँप काटेगा, उस साँपके खूनमें वैसे जहर को नाश करने की शक्ति भी होगी। दूसरे साँपके खून में विषनाशक शक्ति तो होगो, पर कदाचित् वैसी न हो । पर साँपको काट खाना--है बड़ा भारी कलेजेका काम । अनेक बार देखा है, जब साँप और नौलेकी लड़ाई होती है, तब साँप भी नौलेपर अपना बार करता है और उसे काट खाता है; पर चूँ कि नौला साँपसे नहीं डरता, इस लिये वह भी उसपर दाँत मारता है. इस तरह साँपका खून नौलेके शरीरमें जाकर, साँपके विषको नष्ट कर देता होगा। मतलब यह, कि ऋषियोंकी साँपको काट खानेकी बात फ़िजूल नहीं। हाँ, साँपके काटते ही, मिट्टीके ढेलेको काट खाना या लोहेको दाँतोंसे दबा लेना कुछ मुश्किल नहीं । इसे हर कोई कर सकता है। अगर, परमात्मा न करे, ऐसा मौका पाजाय, साँप काट खाय, तो मिट्टीके देले या लोहेको काटनेसे न चूकना चाहिये। For Private and Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (७०) कालीमिर्चोंके साथ गरम-गरम घी पीनेसे साँपका ज़हर उतर जाता है। नोट--अगर समयपर और कुछ उपाय जल्दीमें न हो सके, तो इस उपायमें तो न चूकना चाहिये । यह उपाय मामूली नहीं, बड़ा अच्छा है और ये दोनों चीजें हर समय गृहस्थके घरमें मौजूद रहती हैं। (७१) शून्यताका ध्यान करनेसे भी साँपका जहर शून्य भावको प्राप्त होता है। यानी जरा भी नहीं चढ़ता । यद्यपि इस बातकी सचाईमें जरा भी शक नहीं, पर ऐसा ध्यान--ध्यानके अभ्यासीके सिवाहर किसीसे हो नहीं सकता। (७२) बायें हाथकी अनामिका अँगुली द्वारा कानके मैलका लेप करनेसे भयंकर विष नष्ट हो जाता है । चक्रदत्तने लिखा है: श्लेष्मणः कर्णजातस्य वामानामिकया कृतः । लेपो हन्याद्विषं घोरं नृमूत्रासेचनंतथा ॥ बायें हाथकी अनामिका अँगुली द्वारा कानके मैलका लेप करने और आदमीका पेशाब सींचनेसे साँपका घोर विष भी नष्ट हो जाता है। नोट-कानके मैलका लेप करनेकी बात तो नहीं जानते, पर यह बात प्रसिद्ध है कि, साँप वग़रःके काटते ही अगर मनुष्य काटी हुई जगहपर तत्काल पेशाब कर दे, तो घोर विषसे भी बच जाय । हाँ, एक बात और हैबंगसेनमें लिखा है: श्लेष्मणः कर्णरूढस्य वामतो नासिकां कृतः । नृमूत्रं सेवितं घोरं लेपो हन्याद्विषं तथा ॥ कानके मैलको नाककी बायीं ओर (?) लेप करनेसे और मनुष्यका पेशाब सेवन करनेसे घोर विष नष्ट हो जाता है। (७३) सिरसके पत्तोंके स्वरसमें, सँहजनेके बीजोंको, सात दिन तक भावना देनेसे साँपके काटेकी उत्तम दवा तैयार हो जाती है। यह दवा नस्य, पान और अञ्जन तीनों कामोंमें आती है। वृन्दकी लिखी हुई इस दवाके उत्तम होने में जरा भी शक नहीं। For Private and Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४५ सर्प-विषकी सामान्य चिकित्सा । नोट-सिरसके पत्त लाकर सिलपर पीस लो और कपड़ेमें निचोड़कर स्वरस निकाल लो। फिर इस रसमें सहजनके बीजोंको भिगो दो और सुखा लो। इस तरह सात दिन तक नित्य ताज़ा सिरसके पत्तोंका रस निकाल-निकालकर बीजोंको भिगोश्रो और सुखाओ। पाठवें दिन उठाकर शीशी में रख लो। इस दवाको पीसकर नाकमें सुंघाने या फुकनीसे चढ़ाने, आँखोंमें आँजने और इसीको पानीमें घोलकर पिलानेसे साँपका ज़हर निश्चय ही नष्ट हो जाता है। वैद्यों और गृहस्थोंको यह दवा घरमें तैयार रखनी चाहिये, क्योंकि समयपर यह बन नहीं सकती। ... (७४) करंजुवेके फल, सोंठ, मिर्च, पीपर, बेलकी जड़, हल्दी, दारुहल्दी और सुरसाके फूल, इन सबको बकरीके मूत्रमें पीसकर आँखोंमें आँजनेसे, सर्प-विषसे बेहोश हुआ मनुष्य होशमें श्रा जाता है। वृन्द। . (७५ ) आकके पत्तेमें जो सफ़ेदी-सी होती है, उसे नाखूनोंसे खुर्च-खुर्चकर एक जगह जमा कर लो। फिर उसमें आकके पत्तोंका दूध मिलाकर घोट लो और चने समान गोलियाँ बना लो। साँपके काटे हुएको, बीस-बीस या तीस-तीस मिनटपर, एक-एक गोली खिलाओ। छै गोली खाने तक रोगीका मुंह मीठा मालूम होगा, पर सातवीं गोली कड़वी मालूम होगी। जब गोली कड़वी लगे, आप समझ लें कि जहर नष्ट हो गया, तब और गोली न दें। परीक्षित है। (७६.) फिटकरी पीसकर और पानीमें घोलकर पिलानेसे भी साँपके काटेको बड़ा लाभ होता है । For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विशेष चिकित्सा। esserersexess o दीकर और राजिलकी अगद । ___ल्हिसौड़े, कायफल, बिजौरा नीबू, श्वेतस्पदा (श्वेतगिरिह्वा ), किणही (किणिही ) मिश्री और चौलाई-इनको मधुयुक्त गायके सींगमें भरकर, ऊपरसे सींगसे बन्दकर, १५ दिन रक्खो और काममें लाओ । इससे दर्बीकर और राजिलका विष शान्त हो जाता है। मण्डली सर्पके विषकी अगद । मुनक्का, सुगन्धा (नाकुली), शल्लकी (नगवृत्ति)-इन तीनोंको पीसकर, इन तीनोंके समान मँजीठ मिला दो। फिर दो भाग तुलसीके पत्ते और कैथ, बेल, अनारके पत्तोंके भी दो-दो भाग मिला दो। फिर सफेद सँभालू , अङ्कोटकी जड़ और गेरू-ये आधे-आधे भाग मिला दो। अन्तमें सबमें शहद मिलाकर, सींगमें भर दो और सींगसे ही बन्द करके १५ दिन रख दो। इस अगदको घी, शहद और दूध वगैरःमें मिलाकर पिलाने, सुँघाने, घावपर लगाने और अञ्जन करनेसे मण्डली सर्पका विष विशेषकर नष्ट हो जाता है। नोट--सुश्रुतमें अञ्जनको १ माशे, नस्यको २ माशे, पिलानेको ४ माशे और वमनको ७ माशे दवाकी मात्रा लिखी है। सूचना-पीछे लिखे सर्प-विषनाशक नुसखोंमेंसे नं० ८ और नं० १५ मण्डली सर्पके विषपर अच्छे हैं। For Private and Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir OctOS ८०.०००००000.000 000०.००% .0 Fola 900.000 .3000१४०० booo God oto . 00000000033000 '.... .. गुहेरेके विषकी चिकित्सा।। Son0000000 ०.०० ....nosa30 00032000 OC वर्णन । KALK हेरे पाँच तरहके होते हैं । इसका विष सर्पकी *गु अपेक्षा भी मारक होता है । “सुश्रुत" में लिखा है, प्रतिNR सूर्य, पिङ्गभास, बहुवर्ण, महाशिरा और निरूपम इस तरह पाँच प्रकारके गुहेरे होते हैं । गुहेरेके काटनेसे साँपके समान वेग होते तथा नाना प्रकारके रोग और गाँठे या गिलटियाँ हो जाती हैं । इसको बहुत कम लोग जानते हैं, क्योंकि यह जीव बहुत कम पैदा होता है । यह घोर बनोंमें होता है। सुश्रुतके टीकाकार डल्लन मिश्र लिखते हैं: कृष्णसर्पण गोधायां भवेद्यस्तु चतुष्पदः । सपो गौधेरको नाम तेन दष्टोन जीवति ॥ काले साँप और गोहके संयोगसे गुहेरा पैदा होता है । इसके चार पैर होते हैं । इसका काटा हुआ नहीं जीता। वाग्भट्टमें लिखा है:-- गोधासुतस्तु गौधेरो विषे दर्वीकरैः समः । गोहका पुत्र गुहेरा होता है और विषमें वह दर्बीकर साँपोंके समान होता है। - गुहेरा गोहके जैसा होता है। गोहपर काली-काली लकीरें नहीं होती; पर इसपर काली-काली धारियाँ होती हैं। इसकी जीभ सर्पके जैसी बीचमेंसे फटी हुई होती है और यह जीभ भी सर्पकी तरह ही निकालता है। For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । 'दिहातके लोग कहा करते हैं, यह अादमीको काटते ही पेशाब करता है । पत्थरपर मुंह मारकर आदमीपर झपटता है। कोई-कोई कहते हैं, जब इसे पेशाबकी हाजत होती है, तभी यह आदमीको काटता है। चिकित्सा। - यद्यपि इसका काटा हुआ आदी नहीं बचता, तथापि काले साँप वगैरः घोर ज़हरवाले साँपोंकी तरह ही इसकी चिकित्सा करनी चाहिये। कनखजूरेकी चिकित्सा। OKO Xologen स्कृतमें कनखजूरेको शतपदी कहते हैं। इसके सौ स पाँव होते हैं, इसीसे “शतपदी" कहते हैं । “सुश्रुत" में 5 इसकी आठ किस्में लिखी हैं:-- (१) परुष, (२) कृष्ण, (३) चितकबरा, (४) कपिल रंगका, (५) पीला, (६ ) लाल, (७) सफेद, और (८) अग्निवर्णका । ___ इन आठोंमेंसे सफ़ेद और अग्निवर्ण या नारङ्गी रंगके कनखजूरे बड़े जहरीले होते हैं। इनके दंशसे सूजन, पीड़ा, दाह, हृदयमें जलन और भारी मूर्छा,--ये विकार होते हैं। इन दोके सिवा,--बाक़ीके छहोंके डंक मारने या डसनेसे सूजन, दर्द और जलन होती है, पर हृदयमें दाह और मूर्छा नहीं होती। हाँ, सफेद और नारङ्गीके दंशसे बदनपर सफ़ेद-सफ़ेद फुन्सियाँ भी हो जाती हैं। ___ कदाचित् ये काटते भी हों, पर लोकमें तो इनका चिपट जाना मशहूर है । कनखजूरा जब शरीरमें चिपट जाता है, तब चिमटी वगैरहसे For Private and Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४६ कनखजूरके विषकी चिकित्सा। खींचनेसे भी नहीं उतरता । ज्यों-ज्यों खींचते हैं, उल्टे पजे जमाता है। गर्मागर्म लोहेसे भी नहीं छुटता । जल जाता है, टूट जाता है, पर पञ्ज निकालनेकी इच्छा नहीं करता । अगर उतरता है. तो सामने ताजा मांसका टुकड़ा देखकर मांसपर जा चिपटता है। इसलिये लोग, इस दशामें, इसके सामने ताजा मांसका टुकड़ा रख देते हैं। यह मांसको देखते ही, आदमीको छोड़कर, उससे जा चिपटता है। गुड़में कपड़ा भिगोकर उसके मुँहके सामने रखनेसे भी, वह आदमीको छोड़कर, उसके जा चिपटता है। ____ “बङ्गसेन" में लिखा है । कनखजूरके काटनेसे काटनेकी जगह पसीने आते तथा पीड़ा और जलन होती है। . . “तिब्बे अकबरी' में लिखा है, कनखजूरके चवालीस पाँव होते हैं । बाईस पाँव आगेकी ओर और २२ पीछेकी ओर होते हैं । इसीसे वह आगे-पीछे दोनों ओर चलता है। वह चारसे बारह अंगुल तक लम्बा होता है। उसके काटनेसे विशेष दर्द, भय, श्वासमें तंगी और मिठाईपर रुचि होती है। कनखजूरेकी पीड़ा नाश करनेवाले नुसखे । (१) दीपकके तेलका लेप करनेसे कनखजूरेका विष नष्ट हो जाता है। नोट--मीठा तेल चिराग़में जलाओ। फिर जितना तेल जलनेसे बचे, उसे कनखजूरेके काटे स्थानपर लगाओ। - (२) हल्दी, दारुहल्दी, गेरू और मैनसिलका लेप करनेसे कनखजूरका विष नाश हो जाता है। . (३) हल्दी और दारुहल्दीका लेप कनखजूरके विषपर अच्छा है। ( ४ ) केशर, तगर, सहजना, पद्माख, हल्दी और दारुहल्दी-- इनको पानीमें पीसकर लेप करनेसे कनखजूरेका विष नष्ट हो जाता है । परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । . (५) हल्दी, दारुहल्दी, सैंधानोन और घी,--इन सबको एकत्र पीसकर, लेप करनेसे कनखजूरेका जहर उतर जाता है । परीक्षित है। नोट--अगर कनखजूरा चिपट गया हो, तो उसपर चीनी डाल दो, छुटजायगा अथवा उसके सामने ताज़ा मांसका टुकड़ा रख दो । (६) “तिब्बे अकबरी" में लिखा है, कनखजूरको ही कूटकर उसकी काटी हुई जगहपर रखनेसे फौरन आराम होता है। (७) "तिब्बे अकबरी' में लिखा है:--जरावन्द, तबील, पाषाणभेद, किनकी जड़की छाल और मटरका आटा-समान भाग लेकर, शराब या शहद पानीमें मिलाकर कनखजूरेके काटे आदमीको खिलाओ। (८) तिरयाक, अरवा, दबाउल मिस्क, संजीरनिया, नमक और सिरका,-इनको मिलाकर दंश-स्थानपर लेप करो । ये सब चीजें अत्तारोंके यहाँ मिल सकती हैं। नोट-दबाउल मिस्क किसी एक दवाका नाम नहीं है । यह कई दवाएँ मिलानेसे बनती है। - बिच्छू-विष-चिकित्सा। बिच्छू-सम्बन्धी जानने-योग्य बातें । == श्रुत" में साँप, बिच्छू प्रभृति जहरीले जानवरोंके सम्बन्धमें ISS सुजितना कुछ लिखा है उतना और किसी भी आचार्य ने == नहीं लिखा । हमारे आयुर्वेदमें तीस प्रकारके बिच्छू लिखे हैं । महर्षि वाग्भट्टने भी उनकी तीन किस्में मानी हैं:-- (१) मन्द विषवाले। . : ..... (२) मध्यम विषवाले। For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिच्छू-सम्बन्धी जानने-योग्य बातें। २५१ (३) महा विषवाले। जो बिच्छू गाय प्रभृतिके गोबर, लीद, पेशाब और कूड़े-कर्कटमें पैदा होते हैं, उनको मन्द विषवाले कहते हैं। मन्द विषवाले बिच्छू बारह प्रकारके होते हैं। जो ईट, पत्थर, चूना, लकड़ी और साँप वगैरके मल-मूत्रसे पैदा होते हैं, वे मध्यम विषवाले होते हैं । वे तीन तरहके होते हैं । ___जो साँपके कोथ या साँपके गले-सड़े फन वगैरःसे पैदा होते हैं, उन्हें महा विषवाले कहते हैं । वे १५ प्रकारके होते हैं। ____ मन्द विषवाले बिच्छू छोटे-छोटे और मामूली गोबरके-से रङ्गके होते हैं। वाग्भट्टने लिखा है,-पीले, सफेद, रूखे, चित्रवर्णवाले, रोमवाले, बहुतसे पर्ववाले, लोहित रङ्गवाले और पाण्डु रङ्गके पेटवाले बिच्छू मन्द विषवाले होते हैं। _ मध्यम विषवाले बिच्छू लाल, पीले या नारङ्गी रङ्गके होते हैं। वाग्भट्ट कहते हैं,--धूए के समान पेटवाले, तीन पर्ववाले, पिङ्गल वर्ण, चित्ररूप और सुर्ख कान्तिवाले बिच्छू मध्यम विषवाले होते हैं । ___ महा विषवाले बिच्छू सफ़ेद, काले, काजलके रङ्गके तथा कुछ लाल और कुछ नीले शरीरवाले होते हैं। वाग्भट्ट कहते हैं, अग्निके समान कान्तिवाले, दो या एक पर्ववाले, कुछ लाल और कुछ काले पेटवाले बिच्छू महा विषवाले होते हैं। - अगर मन्दे विषवाला बिच्छू काटता है, तो शरीरमें वेदना होती है, शरीर काँपता हैं, शरीर अकड़ जाता है, काला खून निकलता है, जलन होती है, सूजन आती है और पसीने निकलते हैं। हाथ-पाँवमें काटनेसे दर्द ऊपरको चढ़ता है। . नोट--यह कायदा है, कि स्थावर विष नीचेको फैलता है, पर जंगम विष-- साँप, बिच्छू अादि जानवरोंका विष-ऊपरको चढ़ता है। कहा है: . अधोगतिः स्थावरस्य जंगमस्योर्ध्वसंगतिः ।..... For Private and Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५२ - चिकित्सा-चन्द्रोदय । अगर मध्यम विषवाला बिच्छू काटता है, तो शरीरमें दर्द, कम्प, अकड़न, काला खून निकलना, जलन होना, सूजन चढ़ना और पसीने आना प्रभृति लक्षण तो होते ही हैं। इनके सिवा जीभ सूज जाती है, खाया-पिया पदार्थ गलेसे नीचे नहीं जाता और काटा हुआ आदमी बेहोश हो जाता है। अगर महा विषवाला बिच्छू काटता है, तो जीभ सूज जाती है, अङ्ग स्तब्ध हो जाते हैं, ज्वर चढ़ आता है और मुँह, नाक, कान श्रादि छिद्रोंसे काला-काला खून निकलता है, इन्द्रियाँ बेकाम हो जाती हैं, पसीने आते हैं, होश नहीं रहता, मुँह रूखा हो जाता है, दर्दका ज़ोर खूब रहता है और मांस फटा हुआ-सा हो जाता है । ऐसा आदमी मर जाता है। ___ बङ्गसेनने लिखा है, बिच्छूका विष आगके समान दाह करता या जलता है। फिर जल्दीसे ऊपरकी ओर चढ़कर, अङ्गोंमें भेदने या तोड़नेकी व्यथा--पीड़ा करता है और फिर काटनेके स्थानमें आकर स्थिर हो जाता है। ... बङ्गसेनने ही लिखा है, बिच्छू जिस मनुष्य के हृदय, नाक और जीभमें डङ्क मारता है, उसका मांस गल-गलकर गिरने लगता और. घोर वेदना या पीड़ा होती है। ऐसा रोगी असाध्य होता है, यानी नहीं बचता। ... "तिब्बे अकबरी' में लिखा है, बीके काटनेकी जगहपर सूजन, लाली, कठोरता और घोर पीड़ा होती है। अगर डक रगपर लगता है, तो बेहोशी होती है और यदि पट्टे पर लगता है तो गरमी मालूम होती और सिरमें दर्द होता है। - एक हकीमी ग्रन्थमें लिखा है, कि उग्र विषवाले या महा विषवाले बिच्छूके काटनेसे सर्पके-से वेग होते हैं, शरीरपर फफोले पड़ जाते हैं, दाह, भ्रम और ज्वर होते हैं तथा मुँह और नाक आदिसे For Private and Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिच्छू-सम्बन्धी जानने-योग्य बातें। काला खून निकलने लगता है, जिससे शीघ्र ही मृत्यु हो जाती है । यही लक्षण “सुश्रुत' में लिखे हैं। "तिब्बे अकबरी'में लिखा है, एक तरहका बिच्छू और होता है, उसे “जरारा" कहते हैं । जिस समय वह चलता है, उसकी पूँछ धरतीपर घिसटती चलती है। उसका जहर गरम होता है; लेकिन दूसरे या तीसरे दिन दर्द बढ़ जाता है, जीभ सूज जाती है, पेशाबकी जगह खून आता है, बड़ी पीड़ा होती है, आदमी बेहोश या पागल हो जाता है तथा पीलिया और अजीर्णके चिह्न देखने में आते हैं । उसके काटनेसे बहुधा मनुष्य मर भी जाते हैं। ___ “तिब्बे अकबरी"में “जरारा" बिच्छूका इलाज अन्य बिच्छुओंके इलाजसे अलग लिखा है। उसमें की कई बातें ध्यानमें रखने योग्य हैं। हम उसके सम्बन्धमें आगे लिखेंगे। “वैद्यकल्पतरु में लिखा है, अगर बिच्छू काटता है, तो सुई चुभानेका-सा दर्द होता है, लेकिन थोड़ी देर बाद दर्द बढ़ जाता है। फिर ऐसा जान पड़ता है; मानो बहुत-सी सुइयाँ चुभ रही हों । बीके डंकका दर्द सर्पके डंकसे भी असह्य होता है और पाँच या दस मिनट में ही चढ़ जाता है। बीके काटनेसे मरनेका भय कम रहता है; परन्तु पीड़ा बहुत होती है। अगर बीळू बहुत ही जहरीला होता है, तो काटे जानेवालेका शरीर शीतल हो जाता है और पसीने खूब आते हैं। ऐसे समयमें शरीरमें गरमी लानेवाली गरम दवाएँ अथवा चाय या काफी पिलाना हित है। नोट-बिच्छूके काटनेपर भी, साँपके काटने पर जिस तरह बन्ध बाँधे जाते हैं, दंश-स्थान जलाया या काटा जाता है, ज़हर चूसा जाता है; उसीतरह वही सब उपाय करने चाहिए। काष्टिक या कारबोलिक ऐसिडसे अगर बिच्छूका काटा स्थान जला दिया जाय, तो ज़हर नहीं चढ़ता । काटे हुए स्थानपर प्याज़ काटकर बाँधना भी अच्छा है । ऐमोनिया लगाना और सुँघाना बहुत ही उत्तम है। प्याज़ और ऐमोनियाके इस्तेमालसे बिच्छूके काटे तो आराम होते ही हैं, इसमें शक नहीं; अनेक साँपोंके काटे हुए भी साफ बच गये हैं।... For Private and Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिच्छकी चिकित्सामें याद रखने-योग्य बातें। (१) मूलीका छिलका बिच्छूपर रखने या मूलीके पत्तोंका स्वरस बिच्छूपर डालनेसे बिच्छू मर जाता है । खीरेके पत्तों और उसके स्वरसमें भी यही गुण हैं। मूलीके छिलके बिच्छूके बिलपर रख देनेसे बिच्छू बाहर नहीं आता । जो मनुष्य सदा मूली और खीरे खाता है, उसे बिच्छूका विष हानि नहीं करता। जहाँ बिच्छुओंका जियादा जोर हो, वहाँ मनुष्योंको मूली और खीरे सदा खाने चाहियें। अगर घरमें एक बिच्छू पकड़कर जला दिया जाता है, तो घरके सारे बिच्छू भाग जाते हैं। वैद्योंको ये सब बातें अपनेसे सम्बन्ध रखनेवालोंको बता देनी चाहिए । (२) अगर मध्यम और महा विषवाले बिच्छू काटें, तो फौरन ही बन्ध बाँधो; यानी अगर बिच्छू बन्ध बाँधने-योग्य स्थानों -हाथ, पाँव, अँगुली प्रभृति--में डंक मारे, तो आप सब काम और सन्देह छोड़कर, डंक मारी हुई जगहसे चार अंगुल ऊपरकी तरफ, सूत, नर्म चमड़ा या सुतली प्रभृतिसे कसकर बन्ध बाँध दो। इतना कसकर भी न बाँधो, कि चमड़ा कट जाय और इतना ढीला भी न बाँधो कि, खून नीचेका नीचे न रुके । एक ही बन्ध बाँधकर सन्तोष न कर लो । जरूरत हो तो पहले के बन्धसे कुछ ऊपर दूसरा और तीसरा बन्ध भी बाँध दो। साँपके काटनेपर भी ऐसे ही बन्ध लगाये जाते हैं । चूँ कि तेज़ ज़हरवाले बिच्छुओं और साँपोंमें कोई भेद नहीं । इनका काटा हुआ भी मर जाता है, अतः सर्पके काटनेपर जिस तरहके बन्ध आदि बाँधे जाते हैं या जो-जो क्रियाएँ की जाती हैं, वही सब बिच्छू-खासकर उग्र विषवाले बिच्छूके काटनेपर भी करनी चाहिये । वाग्भट्टमें लिखा है: For Private and Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिच्छूकी चिकित्सामें याद रखने-योग्य बातें। २५५ साधयेत्सर्पवद्दष्टान्विषोः कीटवृश्चिकैः । । . उग्र विषवाले कीड़े और बिच्छूके डंक मारनेपर साँपकी तरह चिकित्सा करनी चाहिये। ___ बन्ध बाँधनेसे क्या लाभ ? बन्ध बाँधनेसे बिच्छू या साँपका विष खूनमें मिलकर आगे नहीं फैलता। सभी जानते हैं कि, प्राणियोंके शरीरमें खून हर समय चक्कर लगाया करता है। नीचेका खून ऊपर जाता है और ऊपरका नीचे आता है। खून में अगर विष मिल जाता है, तो वह विष उस खूनके साथ सारे शरीरमें फैल जाता है। बन्धकी वजहसे नीचेका खून नीचे ही रहा आता है; अतः खूनके साथ मिला हुआ विष भी नीचे ही रहा आता है। जब तक विष हृदय आदि ऊपरके स्थानोंमें नहीं जाता, मनुष्यकी मृत्यु हो नहीं सकती। बस, इसी गरजसे साँप-बिच्छू आदिके काटनेपर बन्ध बाँधनेकी चाल भारत और योरुप आदि सभी. देशोंमें है। पहले बन्ध ही बाँधा जाता है, उसके बाद और उपाय किये जाते हैं। अगर साँप या बिच्छू वगैरःका काटा हुआ स्थान ऐसा हो; जहाँ बन्ध न बाँधा जा सके, तो काटी हुई जगहको तत्काल चीरकर और वहाँका थोड़ा-सा मांस निकालकर, उस स्थानको तेज आगसे दाग देना चाहिये; अथवा सींगी या तूम्बी या मुंहसे वहाँका खून और जहर चूस चूसकर फेंक देना चाहिये। __ चूसना खतरेसे खाली नहीं। इसमें जरा-सी भूल होनेसे चूसनेवालेके प्राण जा सकते हैं; अतः चूसनेकी जगह तेज़ छुरी, चाकू या नश्तर वगैरःसे पहले चीरनी चाहिये । इसके बाद मैं हमें कपड़ा भरकर चूसना चाहिये । अगर सींगीसे चूसना हो, तो सींगीपर भी मकड़ीका जाला या ऐसी ही और कोई चीज़ लगाकर यानी ऐसी चीजोंसे सींगीको ढककर तब चूसना चाहिये। क्योंकि मैं हमें कपड़ा न भरने अथवा सींगीपर मकड़ीका जाला न रखनेसे ज़हर For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । मिला हुआ खून चूसनेवालेके मुंहमें चला जायगा। इसके सिवा, चूसनेवालेके में हमें कहीं ज़ख्म न होने चाहियें। उसके दाढ़-दाँतोंसे खून न जाता हो और दाँतोंकी जड़ या मसूड़े पोले न हों । अगर मुँहमें घाव होंगे, दाँतोंसे खून जानेका रोग होगा या मसूड़े पोले होंगे, तो चूसा हुआ जहर घाव वगैरःके द्वारा चूसनेवालेके खूनमें मिलकर उसे भी मार डालेगा । खून चूसनेका काम, इस मौके पर, बड़ा ही अच्छा इलाज है । मगर चूसनेवालेको, अपनी प्राणरक्षाके लिये, ऊपर लिखी बातोंका विचार करके खून चूसनेको तैयार होना चाहिये । हाँ, बन्ध बाँधकर, खून चूसनेकी ज़रूरत हो, तो खून चूसनेमें ज़रा भी देर न करनी चाहिये । 'तिब्बे अकबरी"में लिखा है, जो शख्स खून चूसनेका इरादा करे, वह अपने मुँहको “गुले रोग़न" और "बनफशाके तेल" से चिकना कर ले । जो चूसे वह बिल्कुल भूखा न हो, शराबसे कुल्ले करे और थोड़ी-सी पी भी ले । जब खून चूसकर मुंह उठावे, मुंहका लुआब और पानी निकाल दे, जिससे वह और उसके दाँत विपद्से बचें। ___और भी लिखा है, अगर काटी हुई जगह ऐसी हो, जो न तो काटी जा सके और न वहाँ बन्ध ही बाँधा जा सके, तब काटे हुए स्थानके पासका मांस छुरेसे इस तरह काट डालो, कि साफ हड्डी निकल आवे । फिर उस स्थानको गरम किये हुये लोहेसे दाग दो या वहाँ कोई विष-नाशक लेप लगा दो । राल और जैतूनका तेल औटाकर लगाना भी अच्छा है । अगर डसी हुई जगहपर दवा लगानेसे अपने आप घाव हो जाय, तो अच्छा चिह्न समझो । घावको जल्दी मत भरने दो, जिससे जहर अच्छी तरह निकलता रहे; क्योंकि जहरका क़तई निकल जाना ही अच्छा है। खुलासा यह है:.. (१) बिच्छूने जहाँ डंक मारा हो उस जगहसे कुछ ऊपर बन्ध बाँध दो। For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिच्छूकी चिकित्सामें याद रखने योग्य बातें। २५७ . (२) विषको मुँह अथवा सींगी प्रभृतिसे चूसो । .. (३) अगर दागनेका मौक़ा हो, तो डसे हुए स्थानको चीरकर या वहाँ का मांस निकालकर दाग दो अथवा कोई उत्तम विष-नाशक लेप लगा दो। (४) गरम पानी या किसी काढ़ेसे डसी हुई जगहको धोत्रो। (५) जरूरत हो, तो फस्द खोलकर खून निकाल दो, क्योंकि खूनके साथ विष निकल जाता है। (६) वाग्भट्टमें लिखा है, अगर बिच्छूका काटा हुआ मध्यनु बेहोश हो, संज्ञाहीन हो, जल्दी-जल्दी श्वास लेता हो, बकवाद करता हो और घोर पीड़ा हो रही हो, तो नीचे लिखे उपाय करोः__ (क) काटे हुए स्थानपर कोई अच्छा लेप करो। जैसे; हाड़, हल्दी, पीपर, मँजीठ, अतीस, कालीमिर्च और तूम्बीका वृन्त-इन सबको वार्ताकू या बैंगनके स्वरसमें पीसकर लेप करो। . (ख) उग्र विषवाले बिच्छूके काटे हुएको दही और घी पिलाओ। (ग) शिरा बींधो यानी फस्द खोलो। (घ) वमन कराओ; क्योंकि विष-चिकित्सामें वमन कराना सबसे उत्तम उपाय है। (ङ) नेत्रों में विष-नाशक अञ्जन आँजो । (च) नाकमें विष-नाशक नस्य हुँ घाओ । (छ) गरम, चिकना, खट्टा और मीठा वात-नाशक भोजन रोगीको दो; क्योंकि ऐसा भोजन हितकारी है। (ज) अगर बिच्छूका विष बहुत ही भयंकर हो, चढ़ता ही चला जावे, अच्छे-अच्छे उपायोंसे भी न रुके, तो शेषमें डक मारी हुई जगहपर विषका लेप करो। खुलासा यह है, कि अगर विषका जोर बढ़ता ही जावे-रोगीकी हालत खराब होती जावे, तो विषका लेप करना चाहिये, क्योंकि ३३ For Private and Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय। ऐसी हालतमें विष ही विषको नष्ट कर सकता है । दुनियामें मशहूर भी है "विषस्य विषमौषधम्" यानी विषकी दवा विष है। इसीसे महर्षि वाग्भट्टने लिखा भी है:___ "अन्तमें, अगर बिच्छूका विष बहुत ही बढ़ा हुआ हो, तो उसके डक मारे स्थानपर विषका लेप करना चाहिये और उच्चिटिङ्ग के विषमें भी यही क्रिया करनेका क़ायदा है।" । जिस तरह सभी तरहके साँपोंके सात वेग होते हैं, उसी तरह महाविषवाले या मध्यम विषवाले बिच्छुओंके विषके भी सात वेग होते हैं । जिस तरह साँपोंके विषके पाँचवें वेगके बाद और सातवें वेगके पहले प्रतिविष सेवन करानेका नियम है; उसी तरह बिच्छूके विषमें भी प्रतिविष सेवन करानेका क़ायदा है । अगर मंत्र-तंत्र और उत्तमोत्तम विषनाशक औषधियोंसे लाभ न हो, हालत बिगड़ती ही जावे, तो प्रतिविष लगाना और खिलाना चाहिये । जिस तरह ज्वररोगकी अन्तिम अवस्थामें, जब बहुत ही कम आशा रह जाती है, रोगीको साँपोंसे कटाते हैं अथवा चन्द्रोदय आदि उग्र रस देते हैं; उसी तरह साँप और बिच्छू प्रभृति उग्र विषवाले जन्तुओंके काटनेपर, अन्तिम अवस्थामें, विष खिलाते और विष ही लगाते हैं। ____ नोट-जब एक विष दूसरे विषके प्रतिकूल या विरुद्ध गुणवाला होता है, तब उसे उसका "प्रतिविष" कहते हैं । जैसे, स्थावर विषका प्रतिविष जंगम विष और जंगम विषका प्रतिविष स्थावर विष है। (७) ऊपरकी तरकीबोंसे वही इलाज कर सकता है, जिसे इन सब बातोंका ज्ञान हो, सब तरहसे विषोंके गुणावगुण, पहचान और उनके दर्पनाशक उपाय या उतार आदि मालूम हों; पर जिन्हें इतनी बातें मालूम न हों, उन्हें पहले सीधी-सादी चिकित्सा करनी चाहिये; यानी सबसे पहले, अगर बन्ध बाँधने-योग्य स्थान हो, तो बन्ध बाँध देना चाहिये । इसके बाद डङ्क मारी हुई जगहको For Private and Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिच्छूकी चिकित्सामें याद रखने योग्य बातें। २५६ चीरकर वहाँका खून निकाल देना चाहिये । इसके भी बाद, किसी विष-नाशक काढ़े वगैरका उस जगह तरड़ा देना और फिर लेप आदि कर देना चाहिये । साथ ही खानेके लिये भी कोई उत्तम परीक्षित दवा देनी चाहिये। अगर भूख लगी हो या खुश्की हो, तो कच्चे दूधमें गुड़ मिलाकर पिलाना चाहिये । अथवा तज, तेजपात, इलायची और नागकेशर २३ माशे चूर्ण डालकर गुड़का शर्बत बना देना चाहिये। (८) यूनानी अन्थोंमें लिखा है,-बिच्छूके काटे हुएको पसीने निकालनेवाली दवा देनी चाहिये या कोई ऊपरी उपाय ऐसा करना चाहिये, जिससे पसीने आवें। जिस अङ्गमें डंक मारा हो, अगर उस अङ्गसे पसीने निकाले जाय तो और भी अच्छा । बिच्छूके काटनेपर पसीने निकालना, हम्माममें जाना और वहाँ शराब पीना हितकारी है। अगर जरारा बिच्छूने, जिसकी दुम धरतीपर घिसटती चलती है, काटा हो तो नीचे लिखे हुए उपाय करोः- .. (क) पहले पछनोंसे जहरको चूसो। पछनोंके भीतर धुली हुई रूई भर लो, नहीं तो चूसनेवालेपर भी विपद् आ सकती है। (ख) काटे हुए स्थानको चीरकर हड्डी तकका मांस निकालकर फेंक दो और फिर गरम तपाये हुए लोहेसे उस जगहको दाग दो। (ग) इसके बाद फस्द खोलो। (घ) अगर दाग न सको, तो परफयून और जुन्देबेदस्तर उस जगहपर रखो और उसके इर्द-गिर्द गिले अरमनी और सिरकेका लेप करो। (ङ) ताजा दूध पिलाओ। (च) अगर जीभमें सूजन हो, तो नीचेकी रग खोल दो। (छ) कासनीका पानी और सिकञ्जबीन मिलाकर कुल्ले कराओ। (ज) अगर रोगीका पेट फूल गया हो, तो हुकना करो। For Private and Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० चिकित्सा-चन्द्रोदय । - नोट-सेबका रुब्ब, बिहीका रुब्ब, काहूका शीरा, कासनीका शीरा, ककड़ीखीरेका शीरा, लम्बी घीया, जौका पानी और कपूरकी टिकिया-ये भी इस मौकेपर लाभदायक हैं। . (६) बिच्छूके काटे हुए आदमीको ना-बराबर घी और शहद मिला हुआ दूध अथवा बहुत-सी खाँड़ मिलाया हुआ दूध पिलाना हितकारी है। वाग्भट्टने कहा है लेपः सुखोष्णश्च हितः पिण्याको गोमयोऽपि वा। पाने सर्पिर्मधुयुतं क्षीरं वा भूरिशर्करम् ॥ . बिच्छूकी काटी हुई जगहपर खली या गोबरका सुहाता-सुहाता लेप हितकारी है। इसी तरह घी और शहद मिला हुआ दूध या ज़ियादा चीनी मिला दूध पथ्य है । उन्हीं वाग्भट्ट महोदयने बहुत ही भयङ्कर बिच्छूके काटनेपर दही और घी मिलाकर पिलानेकी राय दी है । आप कहते हैं, बिच्छूके काटे हुए आदमीको गरम, चिकना, खट्टा, मीठा, बादीको नाश करनेवाला भोजन देना चाहिये । नोट--यूनानी हकीम भी दूध पीने की राय देते हैं । बिच्छू-विष-नाशक नुसखे । (१) "तिब्बे अकबरी' में लिखा है-साढ़े चार माशे हींगको ३३॥ माशे शराबमें मिलाकर, बिच्छूके काटे हुएको पिलाओ। अवश्य वेदना कम हो जायगी। (२) परीक्षा करके देखा है, थोड़ा-थोड़ा साँभर नोन खिलानेसे बिच्छूके काटे हुएको शान्ति मिलती है। (३) लहसन, हींग और अकरकरा इन तीनोंको शराबमें मिलाकर खिलानेसे बिच्छूका काटा आराम हो जाता है । (४) अरीठे चबानेसे भी बिच्छूका जहर उतर जाता है। For Private and Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir anArrna बिच्छू-विष-नाशक नुसख्ने । २६९ साथही, अरीठे महीन पीसकर बिच्छूके काटे हुए स्थानपर लगाने भी चाहियें। अगर अरीठे चिलममें रखकर तमाखूकी तरह पिये भी जायें, तब तो कहना ही क्या ? परीक्षित है। (५) लहसनका रस तीन तोले और शहद तीन तोले -दोनोंको मिलाकर, बिच्छूके काटेको, तत्काल, पिलानेसे अवश्य आराम होता है। (६) जरा-सा जमालगोटा पानीमें पीसकर बिच्छूके काटे आदमी के नेत्रोंमें आँजो । साथ ही, काटी हुई जगहपर भी जमालगोटा पीसकर मलो। नोट-एक या दो जमालगोटे पानी में पीसकर, काटे स्थानपर लगा देनेसे भयंकर बिच्छूका विष भी तत्काल शान्त हो जाता है। परीक्षित है। (७) तितलीके पत्तोंका स्वरस, थोड़ा-थोड़ा, कई बारमें, पिलानेसे बिच्छू और साँप दोनोंका विष उतर जाता है। नोट-तितलीके पत्तोंका रस काटे हुए स्थानपर लगाना भी ज़रूरी है। (८) कसौंदीका फल भूनकर खिलानेसे भी बिच्छूका विष उतर जाता है। नोट-कादीके बीज, पानीके साथ पीसकर, काटे हुए स्थानपर लगाने चाहिये । परीक्षित है। (६) एक चिलममें मोर-पंख रखकर, ऊपरसे जलते हुए कोयले या बिना धुएँ का अङ्गारा रखकर, बिच्छूके काटे आदमीको तमाखूकी तरह पिलाओ । अवश्य जहर उतर जायगा । परीक्षित है। नोट-साथ ही मोरपंखको धीमें मिलाकर काटे हुए स्थानपर उसकी धूनी भी दो । बड़ी जल्दी आराम होगा। (१०) “जैरुल तिजारब" नामक पुस्तकमें लिखा है, अगर बिच्छूका काटा हुआ आदमी बीस अङ्क उल्टे गिने, तो बिच्छूका पहर उतर जाय। For Private and Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir maar २६२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । - नोट--ऊपरकी बातका यह मतलब है, कि रोगी २०, १६, १८, १७, १६, १५, १४, १३, १२, ११, १०, ६, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २ और १ इस तरह गिने; यानी बीससे एक तक उल्टी गिन्ती गिने । .. (११) भाँगके बीज कूट-पीसकर और मोममें मिलाकर खिलानेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है। (१२) 'मोजिज़" नामक ग्रन्थमें लिखा है- एक मनुष्यको बिच्छूने चालीस जगह काटा । उसने चटपट "इन्द्रायणका हरा फल" लाकर, उसमेंसे आठ माशे गूदा खा लिया। खाते देर हुई, पर आराम होते देर न हुई। - (१३) बिच्छूके काटे स्थानपर प्याजका जीरा मलने और थोड़ासा गुड़ खा लेनेसे बिच्छूका विष उतर जाता है। परीक्षित है। (१४) घीमें कुछ सैंधानोन मिलाकर पीनेसे बिच्छूका ज़हर उतर जाता है । परीक्षित है। विच्छूके काटे स्थानपर लगाने, सूघने, आँजने और __ धूनी देनेकी दवाएँ । (१५) किसी कदर गरम कॉजी बिच्छूके काटे स्थानपर सींचने या तरड़ा देनेसे ज़हर उतर जाता है । (१६) शालिपर्णीका मन्दोष्ण या सुहाता-सुहाता गरम काढ़ा बिच्छूके काटे स्थानपर सींचनेसे जहर उतर जाता है। नोट--शालिपर्णीको हिन्दीमें “सरिवन", बँगलामें शालपानि, मरहठीमें सालवण और गुजरातीमें समेरवो कहते हैं । इसमें विष नाश करनेकी शक्ति है । (१७) गरमागर्म घीमें सेंधानोन पीसकर मिला दो और फिर उसे बिच्छूके काटे हुए स्थानपर सींचो । इसके साथ ही घीमें सेंधानोन मिलाकर, दो-तीन बार पीओ। यह उपाय परीक्षित है। (१८) दूधमें सेंधानोन पीसकर मिला दो और फिर उसे आगपर For Private and Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिच्छू-विष-नाशक नुसख्ने । गरम कर लो । जब गरम हो जाय, काटी हुई जगहपर इस नमकमिले दूधको सींचो । जहर उतर जायगा। - (१६) अशनान और अजवायन-दोनों दो-दो तोले लेकर, पानीमें औटा लो। जब औट जायँ, बिच्छूकी काटी हुई जगहपर इस काढेका तरड़ा दो; फौरन जहर उतर जायगा। सूचना-तरड़ा देना और सींचना एक ही बात है। वैद्य सींचना और हकीम तरड़ा देना कहते हैं। नोट-शनान अरबी शब्द है । यह एक तरह की घास है। इसका स्वरूप हरा और स्वाद कड़वा होता है । यह गरम और रूखी है। साबुन इसका बदल या प्रतिनिधि है । यह घावके मांसको छेदन करके साफ करती है । अरबवाले इससे कपड़े धोते हैं । रंगीन रेशमी कपड़े इससे साफ हो सकते हैं। यह घास रुके हुए मासिक खूनको फौरन जारी करती है। मात्रा १॥ माशे की है, पर रजोधर्म जारी करनेको ३॥ माशे और गर्भ गिरानेको ११ माशे की मात्रा है। (२०) मूली और नमक पीसकर, बिच्छूके काटे हुए स्थानपर रखनेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है । - नोट-बिच्छूपर मूली रखने से बिच्छू मर जाता है । मूली के पत्तोंका स्वरस बिच्छूपर डालने से भी बिच्छू मर जाता है । अगर मूलोके छिलके बिच्छूके बिलपर रख दिये जायें, तो बिच्छू बिलसे न निकले । कहते हैं, मूली और खीरा सदा खानेवालेको बिच्छूका ज़हर हानि नहीं करता। ___ (२१) हरताल, हींग और साँठी चाँवल-इन तीनोंको पानीके साथ पीसकर, बिच्छूकी काटी हुई जगहपर लेप करनेसे जहर उतर जाता है। (२२) घासकी पत्तियाँ घोके साथ पीसकर, बिच्छूके काटे स्थानपर मलनेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है। . (२३) नीबूका रस बिच्छूके काटे स्थानपर मलनेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है । परीक्षित है। .. (२४) नागरमोथा पीसकर और पानीमें घोलकर पीने और For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । . काटी हुई जगहपर इसीका गाढ़ा-गाढ़ा लेप करनेसे बिच्छूका विष नष्ट हो जाता है । परीक्षित है। ___ (२५) हींग, हरताल और तुरंज-इनको बराबर-बराबर लेकर, पानीके साथ महीन पीसकर गोलियाँ बना लो । इन गोलियोंको पानीमें पीसकर, काटे हुए स्थानपर लेप करनेसे बिच्छूका विष नष्ट हो जाता है। ___ (२६) बिच्छूके काटे स्थानपर मोमकी धूनी देनेसे जहर उतर जाता है। (२७) विषखपरेके पत्ते और डाली तथा चिरचिरा-इनको मिलाकर पीस लो और बिच्छूके काटे स्थानपर मलो; जहर उतर जायगा। यह बड़ा उत्तम नुसता है। - नोट-चिरचिरेको अपामार्ग, ओंगा या लटजीरा आदि कहते हैं । विषखपरेको पुनर्नवा या साँठी कहते हैं। चिरचिरेकी जड़को पानो के साथ सिलपर पीसकर डंक मारे स्थानपर लगाने और थोडीसी चिरचिरेकी जड़ मुंहमें रखकर चबाने और चूसनेसे कैसा ही भयंकर बिच्छू क्यों न हो, फौरन विष नष्ट हो जायगा। यह दवा कभी फेल नहीं होती, अनेक बार अाजमायश की है । बहुत क्या, चिरचिरेकी जड़ बिच्छूके काटे आदमीको दो-चार बार दिखाने और फिर छिपा लेने तथा इसके लगा देने या छुला देने मानसे बिच्छूका ज़हर उतर जाता है। अगर चिरचिरेकी जड़ बिच्छू के डंकसे दो-तीन बार छुला दी जाती है, तो बिच्छू और मामूली कीड़ोंकी तरह निर्विष हो जाता है-उसमें ज़हर नहीं रहता। आप लोग चिरचिरेके सर्वाङ्गको अपने घरमें अवश्य रखें। इस जंगलकी जड़ीसे बड़े काम निकलते हैं। __ (२८) कौंचके बीज छीलकर बिच्छूके काटे स्थानपर मलनेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है। (२६) गुबरीला कीड़ा बिच्छूके काटे स्थानपर मलनेसे बिच्छूका विष नष्ट हो जाता है। (३०) बिच्छूके काटे स्थानपर तितलीके पत्ते मलनेसे जहर उतर जाता है। For Private and Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिच्छू - विषनाशक नुसखे । २६५ (३१) बिच्छू के काटे स्थानपर मदार या आकका दूध मलने से फ़ौरन जहर उतर जाता है । (३२) बिच्छू के काटे स्थानपर मक्खीको मलने से फ़ौरन आराम होता है। ( ३३ ) सूखा अमचूर और सूखा लहसन- इन दोनों को पानी के साथ पीसकर, काटे स्थानपर लेप करनेसे फ़ौरन ज़हर उतर जाता है । ( ३४ ) बिच्छू के काटे स्थानपर, समन्दरफल, पानी के साथ पीसकर, लेप करनेसे बिच्छूका विष नष्ट हो जाता है । (३५) मुश्की घोड़े के नाखून पानी में पीसकर लगानेसे बिच्छूका विष नष्ट हो जाता है । परीक्षित है । - नोट—घोड़े के अगले पैरके टखनेके पास जो नाख़ून-सा होता है, उसको पानी में पीसकर बिच्छूके काटे स्थानपर लगाने से भी बिच्छूका ज़हर उतर जाता है । परीक्षित है । मुश्की घोड़ेका नाखून न मिले, तो साधारण घोड़ों के नाव नोंसे भी काम चल सकता है । ( ३६ ) नौसादर, सुहागा और कलीका चूना - इन तीनों को बराबर-बराबर लेकर, महीन पीसकर, हथेली में रखकर मलो और बिच्छू के काटे हुएको सुँघाओ। कई बार सुँघानेसे अवश्य आराम होगा । कई बारका परीक्षित है । ( ३७ ) कसौंदी के बीज, पानी के साथ पीसकर, काटे स्थानपर लगा देने से बिच्छू का जहर उतर जाता है । (३८) चूहेकी मैंगनी, पानीके साथ पीसकर, काटे स्थान पर लगाने से बिच्छू का जहर उतर जाता है । परीक्षित है । नोट -- चूहेकी मैगनियों में विष नाश करनेकी बड़ी शक्ति है । ( ३६ ) बिच्छू काटे स्थानपर, सज्जीको महीन पीसकर और शहद में मिलाकर लेप करो; फौरन लाभ होगा । (४०) पलाशपापड़ा, पानीमें पीसकर, बिच्छू के काटे स्थान पर लगाने से ज़हर उतर जाता है । ३४. For Private and Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । चिकित्सा-चन्द्रोदय । (४१) बिच्छूके काटते ही, तत्काल, बिच्छूके काटे स्थानपर, तिलीके तेलके तरड़े दो अथवा सेंधानोन मिले हुए घीके तरड़े दो। इन दोनोंमेंसे किसी एक उपायके करनेसे बिच्छूका जहर अवश्य उतर जाता है । परीक्षित है। ___ नोट--इन उपायोंके साथ अगर कोई खाने और आँजने की दवा भी सेवन की जाय, तो और भी जल्दी पाराम हो । (४२) काँजीमें जवाखार और नमक पीसकर मिला दो और फिर उसे गरम करो। बारम्बार इस दवाको सींचने या इसका तरड़ा देनेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है । परीक्षित है। (४३) जीरेको पानीके साथ सिलपर पीस लो । फिर उस लुगदीमें घी और पिसा हुआ सेंधानोन मिला दो। इसके बाद उसे आगपर गरम करो और थोड़ा-सा शहद मिला दो। इस दवाका लेप काटी हुई जगहपर करनेसे बिच्छूका विष अवश्य नष्ट हो जाता है। कई बार परीक्षा की है । कभी यह लेप फेल नहीं हुआ। इस लेपको सुहाता-सुहाता गरम लगाना चाहिये । परीक्षित है। (४४) मैनसिल, सेंधानोन, हींग, चमेलीके पत्ते और सोंठइन सबको एकत्र महीन पीसकर छान लो। फिर इस चूर्णको खरलमें डाल, ऊपरसे गायके गोबरका रस दे-देकर घोटो और गोलियाँ बना लो। इन गोलियोंको पानीमें घिसकर लगानेसे बिच्छूका जहर फौरन उतर जाता है। - (४५) पीपर और सिरसके बीज बराबर-बराबर लेकर, पानीके साथ पीसकर, काटी हुई जगहपर लेप करो। कई बार लेप करनेसे बिच्छूका विष अवश्य नष्ट हो जाता है। नोट-अगर सिरसके बीज और पीपलके चूर्णमें "प्राकके दूध"की तीन भावनाएँ भी दे दी जायँ,तो यह दवा और भी बलवान हो जाय । वाग्भट्टमें लिखा है अर्कस्य दुग्धेन शिरीषवीजं त्रिर्भावितं पिप्पलिचूर्णमिश्रम् । एषोगदो हन्ति विषाणि कीटभुजंगलूतोन्दुरुवृश्चिकानाम् ॥ For Private and Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिच्छू-विष-नाशक नुसख्ने । सिरसके बीज और पीपलके चूर्णको मिलाकर, प्राकके दूधकी तीन भाव. नाएँ दो । इस दवाके लगानेसे कीड़े, साँप, मकड़ी, चूहे और बिच्छुओंका विष नष्ट हो जाता है। ___ सूचना-सिरसके बीज और पीपलोंको पीसकर चूर्ण कर लो। फिर इस चूर्णको प्राकके दूधमें डालकर हाथोंसे मसलो और दो-तीन घण्टे उसोमें पड़ा रखो । इसके बाद चूर्णको सुखा दो। यह एक भावना हुई । दूसरे दिन फिर पाकके ताज़ा दूधमें कलके सुखाये हुए चूर्णको डालकर मसलो और सुखा दो। यह दो भावना हुई। तीसरे दिन फिर ताज़ा पाकके दूधमें सुखाए हुए चूर्णको डालकर मसलो और सुखा दो । बस, ये तीन भावना हो गई। इस दवाको शीशोमें भरकर रख दो । जब किसीको साँप या बिच्छू आदि काटें तो इस दवाको अन्दाजसे लेकर, पानीके साथ मिलाकर पीस लो और डंक मारी हुई जगहपर लगा दो । ईश्वर-कृपासे अवश्य आराम होगा । कई बार इसकी परीक्षा की; हर बार इसे ठीक पाया। बड़ी अच्छी दवा है। (४६) ढाकके बीजोंको आकके दूधमें पीसकर लेप करनेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है । परीक्षित है। (४७) कसौंदीके पत्ते, कुश और काँसकी जड़-इन तीनों जड़ियोंको मुखमें रखकर चबाओ और फिर जिसे बिच्छूने काटा हो उसके कानोंमें पू को । इस उपायसे बिच्छूका विष नष्ट हो जाता है। कई बार परीक्षा की है। ____नोट--हमने इस उपायके साथ जब खाने और लगानेकी दवा भी सेवन कराई, तब तो अपूर्व चमत्कार देखा। अकेले इस उपायसे भी चैन पड़ जाता है । . (४८) हुलहुलके पत्तोंका चूर्ण बिच्छूके काटे आदमीको सुंघानेसे तत्काल आराम होता है; यानी क्षणमात्रमें विष नष्ट हो जाता है। नोट-हिन्दीमें हुलहुलको हुरहुर और सोंचली भी कहते हैं। संस्कृतमें इसे श्रादित्यभक्का कहते हैं, क्योंकि इसके फूल सूरज निकलने पर खिल जाते और अस्त होने पर सुकड़ जाते हैं। यह सूरजमुखीके नामसे बहुत मशहूर है । इसके पत्त दवाके काममें आते हैं। (४६) मोरके पंखको घीमें मिलाकर, आगकर डालो और For Private and Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा चन्द्रोदय । .. उसका धूआँ बिच्छूके काटे स्थानपर लगने दो। इस उपायसे जहर उतर जाता है। (५०) ताड़के पत्ते, कड़वे नीमके पत्ते, पुराने बाल, सैंधानोन और घी-इन सबको मिलाकर, बिच्छूके काटे स्थानपर इनकी धूनी देनेसे जहर तत्काल उतर जाता है। __(५१) “तिब्बे अकबरी” में लिखा है, गूगल, अलसीके बीज, सैंधानोन, अलेकुमवतम और जुन्देबेदस्तर- इन सबको मिलाकर, पानीमें पीसकर, लेप करनेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है । (५. ) पोदीना और जौका आटा- इनको तुलसीके पानी में पीसकर लगानेसे बिच्छूका ज़हर उतर जाता है। (५३) बाबूना, भूसी, खंगाली लकड़ी और तुतली - इन सबका काढ़ा बनाकर, उसीसे काटे हुए स्थानको धोने और पीछे कोई लेप लगानेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है। - (५४) लहसनको, जैतूनके तेलमें पीसकर, काटे हुए स्थानपर लगानेसे बिच्छूका जहर नष्ट हो जाता है। (५५) परफयूनका तेल और जम्बकका तेल बिच्छूके काटे स्थानपर मलनेसे आराम होता है। (५६) बबूलके पत्तोंको चिलममें रखकर, ऊपर आग धरकर, तम्बाकूकी तरह पीनेसे बिच्छूका विष उतर जाता है । कोई लाला परमानन्दजी वैश्य इसे अपना आजमाया हुआ नुसता बताते हैं । (५७) निर्मलीके बीज, पानीके साथ पत्थरपर घिसकर, बिच्छूके. काटे स्थानपर लगानेसे बिच्छूका जहर फौरन उतर जाता है। परीक्षित है। - नोट-निर्मलीके फल गोल होते हैं। इनपर कुचले की-सी छाल होती है। विशेष करके इनकी सारी प्राकृति कुचलेसे मिलती है। निर्मलीमें विषनाशक शक्ति है । इससे पानी खूब साफ़ हो जाता है। संस्कृतमें “कतक", बँगलामें For Private and Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिच्छू विषनाशक नुसख्ने । २६६ I "" निर्मल फल" और गुजराती में “निर्मली" कहते हैं। निर्विषी दूसरी चीज़ हैवह एक प्रकारकी घास है । उसमें साँप और बिच्छूका ज़हर नाश करने की भारी सामर्थ्य है । (५८) बिच्छू के काटते ही, काटे स्थानपर, तत्काल पानीकी बर्फ घर देने से दर्द फौरन कम हो जाता है। इससे क़तई आराम नहीं हो जाता, पर शान्ति अवश्य मिलती है। बर्फ़ रखकर, दूसरी दवाकी फ़िक्र करनी चाहिये और तैयार होते ही लगा देनी चाहिये । परीक्षित है । (५६) बकरीकी मैंगनी, पानी में पीसकर, बिच्छू के काटे स्थानपर लगा देने तत्काल जहर उतर कर शान्ति होती है । नोट -- बकरीकी मैंगनी जलाकर खाने और उसी राखका लेप करने से भी फ़ौरन श्राराम होता है । दोनों उपाय आज़मूदा हैं 1 ( ६० ) इमली के चीयों या बीजों को पानी में पीसकर, बिच्छूके काटे स्थानपर लगाने से तत्काल ज़हर उतर जाता है । परीक्षित है । ( ६१ ) सत्यानाशीकी छाल, पानी में रखकर, खानेसे बिच्छूका विष नष्ट हो जाता है । परीक्षित है । (६२) बाँझ ककोड़े की गाँठ पानीमें घिसकर पीने और काटे स्थानपर लेप करने से बिच्छू, साँप, चूहे और बिल्ली सबका जहर उतर जाता है । परीक्षित है । (६३) बाँझ ककोड़ेकी गाँठ और धतूरेकी जड़, -- इन दोनोंको चाँवोंके धोवनमें घिसकर पिलाने और डंक मारे स्थानपर लगानेसे बिच्छू प्रभृति ज़हरीले जानवरोंका विष उतर जाता है परीक्षित है । | ( ६४ ) प्याजके दो टुकड़े करके बिच्छूके डंक मारे स्थानपर लगाने से फ़ौरन आराम होता है । परीक्षित है । (६५) कपास के पत्ते और राई - दोनोंको मिलाकर और पानी के For Private and Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७० चिकित्सा-चन्द्रोदय । साथ पीसकर बिच्छूके काटे हुए स्थानपर लेप करनेसे फौरन आराम होता है । परीक्षित है। (६६) रविवारके दिन खोदकर लाई हुई कपासकी जड़ चबानेसे बिच्छूका विष उतर जाता है । परीक्षित है । (६७) कड़वे नीमके पत्ते या उसके फूलोंको चिलममें रखकर, तम्बाकूकी तरह, पीनेसे बिच्छूका विष नष्ट हो जाता है। परीक्षित है। नोट--कड़वे नीमके पत्ते चबानो और मुखसे भाफ न निकलने दो। जिस तरफ़के अङ्गमें बिच्छूने काटा हो, उसके दूसरी तरफ़के कानमें फूंक मारो। इन उपायोंसे बड़ी जल्दी आराम होता है। परीक्षित है। नोट- कसौदी या नीमके पत्तोंको मुंहमें चबाकर बिच्छूके काटे हुएके कानमें फूंक मारनेसे भी बिच्छूका ज़हर उतर जाता है। वैद्यकमें लिखा है यः कासमई पत्रं वदने प्रक्षिप्य कर्णफूत्कारम् । मनुजो ददाति शीघ्र जयति विषं वृश्चिकानां सः ॥ सूचना-कसैौदी या नीमके पत्तोंको वह न चबावे, जिसे बिच्छूने काटा हो, पर दूसरा आदमी चबावे और मुंहकी भाफ बाहर न जाने दे। जिसे काटा होगा, वह खुद चबाकर अपने ही कानोंमें फूंक किस तरह मार सकेगा ? (६८) एक या दो-तीन जमालगोटे पानीमें पीसकर बिच्छूके काटे स्थानपर लगा दो और साथ ही इनमेंसे ज़रा-सा लेकर नेत्रोंमें आँज दो। भयङ्कर बिच्छूका जहर फौरन उतरकर रोगी हँसने लगेगा। परीक्षित है। (६६) चिरचिरे या अपामार्गकी जड़, पानीके साथ, सिलपर पीसकर बिच्छूके काटे स्थानपर लगाने और इसी जड़को मुँहमें रखकर चबाने और रस चूसनेसे बिच्छूका जहर तत्काल उतर जाता है। देखनेवाले कहते हैं, जादू है। हमने दस-बीस बार परीक्षा की, इस जड़ीको कभी फेल होते नहीं देखा । डबल परीक्षित है। (७०) गो-मूत्र और नीबूके रसमें तुलसीके पत्ते पीसकर For Private and Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिच्छू-विष-नाशक नुसख्ने । २७१ लेप करो और ऊपरसे गोबर गरम करके सुहाता-सुहाता बाँध दो। बिच्छूका विष नष्ट हो जायगा । (७१) कसौंदीके पत्ते मुँह में रखकर और चबाकर, बिच्छूके काटे हुए आदमीके कानमें फूंक मारनेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है। वृन्दवैद्यक । (७२) नीले फूलवाले घमिराके पत्ते मसलकर सू घनेसे बिच्छूका जहर तत्काल उतर जाता है। (७३) जहरमोहरेको गुलाब-जलमें घिस-घिसकर चटाने और इसीको घिसकर डंककी जगह लगानेसे बिच्छू और साँप प्रभतिका जहर तथा स्थावर विष निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। - नोट-ज़हरमोहराकी पहचान हमने इसी भागकी सर्प-चिकित्सामें लिखी है। (७४) मोरके पंख, मुरौके पंख, सैंधानोन, तेल और घी-इन सबको मिलाकर, इनकी धूनी देनेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है। (७५) सिन्दूर, मीठा तेलिया, पारा, सुहागा, चूक, निशोथ, सज्जीखार, सोंठ, मिर्च, पीपर, पाँचों नोन, हल्दी, दारुहल्दी, कमलके पत्ते, बच, फिटकरी, अरण्डीकी गिरी, कपूर, मँजीठ, चीता और नौसादर-इन सब चीजोंको बराबर-बराबर लेकर महीन पीस लो। फिर इस चूर्णको गो-मूत्र, गुड़, आकके दूध और थूहरके दूधमें मिलाकर, साँप, बिच्छू या अन्य विषैले जीवोंके काटे स्थानपर लगाओ । यह विष नाश करने में प्रधान औषधि है। हमने इसे "योगचिन्तामणि" से लिखा है । उक्त ग्रन्थके प्रायः सभी योग उत्तम होते हैं। इससे उम्मीद है, कि यह नुसखा जैसी प्रशंसा लिखी है वैसा ही होगा। इसमें सभी चीजें विष-नाशक हैं। कहते हैं, इस योगके कहनेवाले सारङ्गराज हैं। (७६) हींग, हरताल और बिजौरे नीबूका रस-इन तीनोंको खरल करके गोलियाँ बना लो । जब किसीको बिच्छू काटे, इन For Private and Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । गोलियोंको पानीके साथ पीसकर, काटे हुए स्थानपर इनका लेप कर दो और इन्हींमेंसे कुछ लेकर नेत्रोंमें आँज दो। अच्छी चीज़ है। वैद्योंको पहलेसे तैयार करके पास रखनी चाहियें । ___(७७) कबूतरकी बीट, हरड़, तगर और सोंठ -इनको बिजौरे नीबूके रसमें मिलाकर रोगीको देनेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है । वाग्भट्ट महाराज लिखते हैं, यह “परमोवृश्चिकागदः" है; यानी बिच्छूके काटेकी श्रेष्ठ दवा है। . (७८ ) करंजुवा, कोहका पेड़, ल्हिसौड़ेका पेड़, गोकर्णी और कुड़ा-इन सब पेड़ोंके फूलोंको दहीके मस्तुमें पीसकर बिच्छूके डंकमारे स्थानपर लगाना चाहिये । , (७६) सोंठ, कबूतरकी बीट, बिजौरेका रस, हरताल और सैंधानमक,--इनको महीन पीसकर, बिच्छूके काटे स्थानपर लेप करनेसे बिच्छूका जहर फौरन ही उतर जाता है। (८०) अगर बिच्छूके काटनेपर, जहरका जोर किसी लेप या अंजन और खानेकी दवासे न टूटे, तो एक तिल-भरसे लगाकर दो, चार, छै और आठ जौ-भर तक "शुद्ध सींगिया विष" या "शुद्ध बच्छनाभ विष" अथवा और कोई उत्तम विष रोगीको खिलाओ और इन्हींका डंक मारी हुई जगहपर लेप भी करो। याद रखो, यह अन्तकी दवा है । विष खिलाकर गायका घी बराबर पिलाते रहो । घी ही विषका अनुपान है। (८१) बच, हींग, बायबिडंग, सैंधानोन, गजपीपल, पाठा, काला अतीस, सोंठ, कालीमिर्च और पीपर-इन दसों दवाओंको “दशांग औषध" कहते हैं । यह दशांग औषध काश्यपकी रची हुई है । इस दवाके पीनेसे मनुष्य समस्त जहरीले जानवरोंके विषको जीतता है। नोट-इन दवाओंको बराबर-बराबर लेकर कूट-पीसकर बना लेना चाहिये । समयपर फाँककर, ऊपरसे पानी पीना चाहिये । अगर यह पानीके साथ पीसकर और पानी में ही घोलकर पीयी जावे, तो बहुत ही जल्दी लाभ हो । पर साथ ही For Private and Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७३ बिच्छू-विष-नाशक नुसख्ने । सेंधानोन मिले हुए घीसे डंक मारे स्थानको बारम्बार सींचना चाहिये । बिजौरेके रस और गोमूत्रमें पिसे हुए सँभालूके फूलोंका लेप करना चाहिये अथवा ताज़ा गोबर या खलीको गरम करके, उनका सुहाता-सुहाता लेप करना चाहिये अथवा इन्हें सुहाता-सुहाता गरम बाँध देना चाहिये। पीनेके लिये घी और शहद मिला हुआ दूध या ज़ियादा चीनी डाला हुअा दूध देना चाहिये। .. (८२) हल्दी, सेंधानोन, सोंठ, मिर्च, पीपर और सिरसके फल या फूल-इन सबका चूर्ण बना लो। बिच्छूकी डंक मारी हुई जगहको स्वेदित करके, इसी चूर्णसे उसे घिसना चाहिये । नोट-बिच्छूकी डंक मारी हुई जगहमें पसीना निकालनेको महर्षि वाग्भट्टने जिस तरह अच्छा कहा है, उसी तरह “तिब्बे अकबरी'के लेखकने भी इसे अच्छा बताया है। (८३) बिच्छूके काटे स्थानपर पहले जरा-सा चूना लगाओ, फिर ऊपरसे गंधकका तेजाब लगा दो। फौरन आराम हो जायगा। परीक्षित है। (८४ ) बबूल के पत्तोंको चिलममें रखकर, तमाखूकी तरह पीने और साथ ही डंक-स्थानपर मदारका दूध लगानेसे बिच्छूका जहर उतर जाता है। परीक्षित है। (८५) काष्टिक या कार्बोलिक एसिडसे बिच्छूके काटे स्थानको जला दो । आराम हो जायगा; विष ऊपर नहीं चढ़ेगा। .. (८६) बिच्छूकी काटी हुई जगहपर ऐमोनिया लगाओ और उसे ही नाकमें भी सुंघाओ। नोट-अगर बिच्छू बहुत ज़हरीला हो, शरीरमें पसीने बहुत पाते हों, तो .शरीरको गरम रखनेवाली काई दवा दो और चाय या काफी पिलाते रहो। (८७) बेरकी पत्तियोंको पानीके साथ पीसकर, बिच्छूके काटे स्थानपर लेप करनेसे जहर उतर जाता है। (८८) लाल और गोल लटजीरेके पत्ते खानेसे तत्काल बिच्छूका ज़हर उतर जाता है और मनुष्य सुखी हो जाता है। ३५ For Private and Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । ___ (८६) काली तुलसीका रस और नमक मिलाकर, दो-तीन बार लगानेसे बिच्छू और साँपका विष उतर जाता है। जहरीले जानवरोंके विषपर तुलसी रामवाण है। नोट-तुलसीका रस लगानेसे काले भौरे और बरं वारःका काटा हुआ श्राराम हो जाता है। कानमें एक या दो बूंद तुलसीका रस डालने और तुलसीका हो रस शहद और नमक मिलाकर पीनेसे कानका दर्द आराम हो जाता है। सेंधानोन और काली तुलसीका रस, ताम्बेके बरतनमें गरम करके, नाकमें चारछै बार डालनेसे नाकसे बदबू वारः अाना बन्द हो जाता है। तुलसीका रस ३० बूंद, कच्चे कपासके फूलोंका रस २० बूंद, लहसनका रस ३० बूंद और मधु १॥ डाम--इनको मिलाकर कानमें डालनेसे कानका दर्द अवश्य नाश हो जाता है। * मूषक-विष चिकित्सा। लापरवाहीका नतीजा-प्राणनाश । HARYAN जकलके पाश्चात्य डाक्टर साँप और बावले कुत्ते प्रभृति आ जहरीले जानवरोंके काटे हुए मनुष्योंकी प्राणरक्षाकी HXXX जितनी फिक्र या खोज करते या कर रहे हैं, उसकी शतांश फिक्र भी इस छोटेसे जीव-चूहेके विषसे प्राणियोंको बचानेकी नहीं करते, यह बड़े ही खेदकी बात है। सर्व-साधारण इसको मामूली जानवर समझकर, इसके विषकी भयंकरता और दुर्निवारता न जाननेके कारण, इसके काटनेकी उतनी परवा नहीं करते, यह भारी नादानी है। सर्प-बिच्छू प्रभृतिके काटनेपर, उनका विष फौरन ही भयंकर वेदना करता और चढ़ता है, अतः लोग सुचिकित्सा होनेसे बहुधा बच भी जाते हैं; पर जहरीले चूहोंका विष प्रथम तो उतनी तकलीफ नहीं देता; दूसरे, अनेक बार मालूम भी नहीं होता कि, हमारे शरीरमें चूहेका विष प्रवेश कर गया है। तीसरे, चूहेके विषके खून में मिलनेसे For Private and Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूषक-विष-चिकित्सा। २७५ जो लक्षण देखनेमें आते हैं, वे वातरक्त या उपदंश आदिके लक्षणोंसे मिल जाते हैं, अतः हर तरह धोखा होता है और मनुष्य धीरे-धीरे अनेक रोगोंका शिकार होकर मौत के मुंहमें चला जाता है। धोखा होनेके कारण । चूहोंका विष और ज़हरीले जानवरोंकी तरह केवल दाढ़-दाँतों या नख वगैरः किसी एक ही अंगमें नहीं होता। चूहोंका विष पाँच जगह रहता हैः-- (१) वीर्यमें। (२) पेशाबमें। (३) पाखानेमें। (४) नाखूनोंमें। (५) दाढ़ोंमें। यद्यपि मूषक-विषके रहनेके पाँच स्थान हैं, पर प्रधान विष चूहोंके पेशाब और वीर्यमें ही होता है। हर घरमें कमोबेश चूहे रहते हैं। वे घरके कपड़े-लत्तों, खाने-पीनेके पदार्थों, बर्तनों तथा अन्यान्य चीजोंमें बेखटके घूमते, बैठते, रहते और मौज करते हैं । जब उन्हें पाखानेपेशाबकी हाजत होती है, उन्हीं सबमें पेशाब कर देते हैं। वहीं पाखाना फिर देते और वहीं अपना वीर्य भी त्याग देते हैं। इसके सिवा, ज़मीनपर मल-मूत्र और वीर्य डालनेमें तो उन्हें कभी रुकावट होती ही नहीं। इनके मल-मूत्र प्रभृतिसे खराब हुए कपड़ोंको प्रायः सभी लोग पहनत, ओढ़ते और बिछाते हैं, अथवा इनके मल-मूत्र आदिसे खराब हुई जमीनपर अपने कपड़े रखते, बिछाते और सोते हैं। चूहोंका मल-मूत्र या वीर्य कपड़ों प्रभृतिसे मनुष्य-शरीरमें घुस जाता है; यानी उनका और शरीरका स्पर्श होते ही विषका असर शरीरमें हो जाता है । मजा यह कि, उनका जहर इस तरह शरीरमें घुस जाता और अपना काम करने लगता है, पर मनुष्यको कुछ भी मालूम नहीं होता। लेकिन जब वह-काल और कारण मिल जानेसे--कुपित होता है, तब उसके विकार मालूम होते हैं । पर For Private and Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७६ चिकित्सा-चन्द्रोदय। मनुष्य उस समय भी नहीं समझता, कि यह सब मूषक महाराजकी कृपाका नतीजा है। अब आप ही समझिये कि, यह धोखा होना नहीं तो क्या है ? ___ इतना ही नहीं, जब चूहेके विषके विकार प्रकट होते हैं, तब भी नहीं मालूम होता, कि यह गणेश-वाहनके विषका फल है। क्योंकि चूहेके विषके प्रभावसे मनुष्यके शरीरमें ज्वर, अरुचि, रोमाञ्च आदि उपद्रव होते और चमड़ेपर चकत्ते-से हो जाते हैं। चकत्ते वगैरः वातरक्त, रक्तविकार और उपदंश रोगमें भी होते हैं । इससे अच्छे-अच्छे अनुभवी वैद्य-डाक्टर भी धोखा खा जाते हैं। कोई उपदंशकी दवा देता है, तो कोई वातरक्त-नाशक औषधि देता है, पर असल तह तक कोई नहीं पहुँचता। यद्यपि अनेक बार अटकल-पच्चू दवा लग जाती है, पर रोगका निदान ठीक हुए बिना बहुधा रोग आराम नहीं होता। कुत्ता काटता है, तो उसका विष तत्काल ही कोप नहीं करता, काटते ही हड़कवाय नहीं होती, समय और कारण मिलनेपर हड़कवाय होती है। इसी तरह चूहके काटने या और तरहसे शरीरमें उसका विष घुस जानेसे तत्काल ही विकार नज़र नहीं आते, समय और काल पाकर विकार मालूम होते हैं । पर कुत्ते के काटनेपर ज्योंही हड़कवाय होती है, लोग समझ लेते हैं, कि अमुक दिन कुत्तेने काटा था; पर चूहेके विषसे तो कोई ऐसी बात नज़र नहीं आती। कौन जाने कब किस वस्त्र प्रभृतिके शरीरसे छू जानेसे चूहेका विष शरीरमें घुस गया ? इस तरह चूहेके विषके मनुष्य-शरीरमें प्रवेश कर जानेपर धोखा ही होता है । इसीसे उचित चिकित्सा नहीं होती और चूहेका विष धीरेधीरे जीवनी-शक्तिका ह्रास करके, अन्तमें मनुष्यके प्राण हर लेता है। ___ साँपवाले घरमें न रहने, साँपको घरसे किसी तरह निकाल बाहर करने या मार डालनेकी सभी विद्वानोंने राय दी है। नीतिकारोंने भी लिखा है:- . For Private and Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूषक-विष-चिकित्सा। २७७ दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चो उत्तरदायकः । सस च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः ॥ दुष्टा पत्नी, दगाबाज़ मित्र, जवाबदिही करनेवाला नौकर और साँपवाला घर--ये सब मौतकी निशानी हैं; अतः इन्हें त्याग देना चाहिये। नीतिज्ञोंने इन सबको त्याग देने की सलाह दी है, पर चूहे भगाने या चूहोंसे अलग रहने के लिये इतना जोर किसीने भी नहीं दिया है !! ___ हमने देखा है, अनेकों गृहस्थोंके घरों में चूहोंकी पल्टन-की-पल्टन रहती है । आदमीको देखते ही ये बिलों में घुस जाते हैं, पर ज्योंही आदमी हटा कि ये कपड़ोंमें घुसते, खाने-पीनेके पदार्थोंपर ताक लगाते और कोई चीज़ खुली नहीं मिलती तो उसे खोलते और ढक्कन हटाते हैं; और यदि खाने-पीनेके पदार्थ खुले हुए मिल जाते हैं, तो आनन्दसे उन्हें खाते, उन्हींपर मल-मूत्र त्यागते और फिर बिलोंमें घुस जाते हैं। गृहस्थोंकी कैसी भयङ्कर भूल है ! बेचारे अनजान गृहस्थ क्या जानें कि, इन चूहोंकी वजहसे हमें किन-किन प्राणनाशक रोगोंका शिकार होना पड़ता है ? इसीसे वे इन्हें घरसे निकालनेकी विशेष चेष्टा नहीं करते । सर्प-बिच्छू आदिको देखते ही मनुष्य उन्हें मार डालता है; पागल कुत्तेको देखकर भंगी या अन्य लोग उसे गोली या लाठीसे मार डालते हैं; पर चूहोंकी उतनी पर्वा नहीं करते ! गृहस्थोंको इन घोर प्राणघातक जीवोंसे बचनेकी चेष्टा अवश्य करनी चाहिये क्योंकि निर्विष चूहों में ही विषैले चूहे भी मिले रहते हैं। मालूम नहीं होता, कौनसा चूहा विषैला है। अतः सभी चूहोंको घरसे निकाल देना परमावश्यक है। बहुतसे अन्धविश्वासी चूहोंको गणेशजीका वाहन या सवारी समझकर नहीं छेड़ते । वे समझते हैं, कि गणेशजी नाराज हो जायँगे । अब इस युगमें ऐसा अन्धविश्वास ठीक नहीं । अतः हम चूहोंको भगा देनेके चन्द उपाय लिखते हैं: For Private and Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । चूहे भगानेके उपाय । (१) फिटकरीको पीसकर चूहोंके बिलोंमें डाल दो और जहाँ चूहोंकी जियादा आमदरत हो वहाँ फैला दो। चूहे फिटकरीकी गन्धसे भागते हैं। - (२) एक चूहेको पकड़कर और उसकी खाल उतारकर घरमें छोड़ दो अथवा उसके फोते निकालकर छोड़ दो। इस उपायसे सब चूहे भाग जायेंगे। (३) एक चूहेको नीलके रंगमें डुबोकर छोड़ दो। उसे देखते ही सब चूहे बिल छोड़कर और जगह भाग जायेंगे। जहाँ-जहाँ वह नीला चूहा जायगा, वहाँ-वहाँ भागड़ मच जायगी। (४) भाँगके बीज और केशरको आटेमें मिलाकर गोलियाँ बना लो और बिलोंमें डाल दो । सब चूहे खा-खाकर मर जायेंगे। (५) संखिया लाकर आटेमें मिला लो और पानीके साथ गूंदकर गोलियाँ बना लो। इन गोलियोंको बिलोंमें डाल दो। चूहे इन गोलियोंको खा-खाकर मर जायेंगे, बशर्ते कि उन्हें कहीं जल पीनेको न मिले। अगर जल मिल जायगा, तो बच जायेंगे। (६) गायकी चरबी घरमें जलानेसे चूहे भाग जाते हैं। चूहों के विषसे बचनक उपाय । जिस तरह मनुष्यको साँप, बिच्छू और कनखजूरे प्रभृतिसे बचनेकी ज़रूरत है, उसी तरह चूहोंसे भी बचनेकी ज़रूरत है, अतः हम चूहोंके विषसे बचनेके चन्द उपाय लिखते हैं:-- __ (१) आपके घरमें चूहोंके बिल हों, तो हजार काम छोड़कर उन्हें बन्द कर या करवा दो। इनके बिलोंमें ही साँप या कनखजूरे अथवा और प्राणघाती जीव आकर रह जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७६ मूषक-विष-चिकित्सा। (२) आपके मकानमें जितनी मोरियाँ हों, उन सबमें लोहे या पत्थरकी ऐसी जालियाँ लगवा दो, जिनमें होकर पानी तो निकल जाय, पर चूहे या अन्य जानवर न आ-जा सकें। चूहे मोरियोंमें बहुत रहते हैं। ___ (३ ) घरके कोनों या और स्थानों में फालतू चीजोंका ढेर मत लगा रखो। जरूरतकी चीजोंके सिवा कोई चीज़ घरमें मत रखो। बहुतसे मूर्ख टूटे-फूटे कनस्तर, हाँडी-कूड़े, मैले चीथड़े या ऐसी ही और फालतू चीजें रखकर रोग मोल लेते हैं। ( ४ ) ज़रूरी सामानको, जो रोज़ काममें न आता हो, ट्रकों या सन्दूकोंमें रखो । सन्दूकोंको बैञ्चों या तिपाइयोंपर ऊँचे रखो, जिससे उनके नीचे रोज़ झाड़ लग सके और चूहे, साँप, कनखजूरे या और जीव वहाँ अपना अड्डा न जमा सकें। हर समय पहननेके कपड़ोंको ऐसी अलगनियों या खू टियोंपर टाँगो, जिनपर चूहे न पहुँच सकें क्योंकि चूहे जरा-सा सहारा मिलनेसे दोवारोंपर भी चढ़ जाते और उनपर मल-मूत्र त्याग आते हैं। ___ (५) खाने-पीनेके पदार्थ सदा ढके रखो; भूलकर भी खुले मत रखो। जरा-सी गफलतसे प्राण जानेकी आशङ्का है । क्योंकि खाने-पीनेकी चीजोंपर अगर चूहे, मकड़ी, छिपकली और मक्खी आदि पहुँच गये और उनपर विष छोड़ गये, तो आप कैसे जानेंगे ? उन्हें जो भी खायगा, प्राणोंसे हाथ धोयेगा। मक्खियाँ विषैले कीड़े ला-लाकर उन चीजोंपर छोड़ देती हैं और चूहे मल-मूत्र त्यागकर उन्हें विष-समान बना देते हैं। अतः हम फिर जोर देकर कहते हैं, कि आप खाने-पीनेके पदार्थ ढककर बन्द आलमारियोंमें रखो । इस काममें जरा भी भूल मत करो। - (६) चूहोंके पेशाब और मल-मूत्रसे खराब हुए नीले-नीले बर्तनोंको बिना खूब साफ़ किये काममें मत लाओ। जिन घरोंमें बहुत-सा लोहा लक्कड़ पड़ा हो, उन घरोंमें मत जाओ, क्योंकि वहाँ चूहे प्रभृति For Private and Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७० चिकित्सा-चन्द्रोदय । अनेक ज़हरीले जानवर रहते और विष त्यागते हैं। वह विष आपके कपड़ों या शरीरमें लगकर आपको अनेक रोगोंमें फंसा देगा। अगर वह कपड़ों या आपके शरीरसे न लगेगा, तो साँस द्वारा आपके शरीरमें घुसेगा । फिर धीरे-धीरे आपकी जीवनी-शक्तिका नाश करके आपको मार डालेगा। .. (७) हमेशा धोबीके धुले साफ कपड़े पहनो। अगर उनपर ज़रासा भी दाग़ या नीले-पीले रोगसे बहते दीखें, तो आप उन्हें स्वयं साबुनसे धोकर पहनो। सबसे अच्छा तो यही है कि, आप रोज धुले हुए कपड़े पहनें । अँगरेज़ लोग ऐसा ही करते हैं। आजका कपड़ा कल धुलवाकर पहनते हैं । अंग्रेज अफसर तो धोबियोंको नौकर रखते हैं। ___(८) अपने घरमें रोज़ गन्धक, लोबान या कपूरकी धूनी दिया करो, जिससे विषैली हवा निकल जाय और अनेक विषैले कीड़े भी भाग जाय । जैसे: (क) छरीला और फिटकरीकी धूआँसे मच्छर भाग जाते हैं। (ख) गन्धक या कनेरके पत्तोंकी गन्धसे पिस्सू भाग जाते हैं । (ग) हरताल और नकछिकनीकी धूआँसे मक्खियाँ भाग जाती हैं। (घ) गन्धककी धूआँ और लहसनसे बरं या ततैये भाग जाते हैं। ' (ङ) अफीम, कालादाना, कन्द, पहाड़ी बकरीका सींग और गन्धक-इन सबको मिलाकर धूनी देनेसे समस्त कीड़े- मकोड़े भाग जाते हैं। (६ ) ताज़ा या गरम जलसे रोज स्नान किया करो। अगर पानीमें थोड़ा-सा कपूर मिला लिया करो, तो और भी अच्छा; क्योंकि कपूरसे प्रायः सभी कीड़े नष्ट हो जाते हैं। विष नाश करनेकी शक्ति भी कपूर में खूब है। पहलेके अमीर कपूर के चिराग़ इसी ग़रजसे जलकाते थे। कपूरकी आरतीका भी यही मतलब है । इनसे विषैली हवा निकल जाती और अनेक प्रकारके कीड़े घर छोड़कर भाग जाते हैं। चन्दन, कपूर और सुगन्धवालाका शरीरपर लेप करना भी बड़ा For Private and Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूषक-विष-चिकित्सा। २८१ गुणकारी है । नहाकर ऐसा कोई लेप, मौसमके अनुसार, अवश्य करना चाहिये। (१०) जहाँ तक हो, मकानको खूब साफ रखो। जरा-सा भी कूड़ा-करकट मत रहने दो । इसके सिवा, हो सके तो नित्य, नहीं तो, चौथे-पाँचवें दिन साफ पानी या पानीमें कोई विषनाशक दवा मिलाकर उसीसे घर धुलवा देना बहुत ही अच्छा है । इस तरह जमीन वग़ैर में लगा हुआ चूहे प्रभृतिका विष धुलकर बह जायगा। (११) दूसरे आदमीके मैले या साफ़ कैसे भी कपड़े हरगिज़ मत पहनो। पराये तौलिये या अँगोछेसे शरीर मत पोंछो। कौन जाने किसके कपड़ोंमें कौनसा विष हो ? हमारे यहाँ आजकल एक वातरक्त या पारेके दोषका रोगी कभी-कभी आता है। सारे शहरके चिकित्सक उसका इलाज कर चुके, पर वह आराम नहीं होता। वह हमसे गज़-भर दूर बैठता है, पर उसके शरीरको छूकर जो हवा आती और हमारे शरीरमें लगती है, फौरन खुजली-सी चला देती है । उसके जाते ही खुजली बन्द हो जाती है । अगर कोई शख्स ऐसे आदमीके कपड़े पहने या उसके वस्त्रसे शरीर रगड़े, तो उसे वही रोग हुए बिना न रहे । इसीसे कहते हैं, किसीके साफ़ या मैले कैसे भी कपड़े न पहनो और न छुओ। आजकलके विद्वानोंकी अनुभूत बातें । __ अहमदाबाद के "कल्पतरु"में चूहेके विषपर एक उपयोगी लेख किसी सज्जनने परोपकारार्थ छपवाया था। उसमें लिखा है:--"चूहा मनुष्यको जिस युक्तिसे काटता है, वह भी सचमुच ही आश्चर्यकारी बात है । जिस समय मनुष्य नींदमें ग़र्क होता है, चूहा अपने बिल या छप्परमेंसे नीचे उतरता है । बहुधा सोते हुए आदमीकी किसी उँगलीको ही वह पसन्द करता है । पहले वह अपनी पसन्दकी जगहपर फूंक मारता है । इँ क मारनेसे शायद वह स्थान बहरा या सूना हो जाता For Private and Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । हो । प्रायः जहरीले चूहेकी लारमें चमड़ेके स्पर्श-ज्ञानको नाश करनेकी शक्ति रहती है। चूहेकी कूँ कमें ऐसी ही कोई विचित्र शक्ति होती है, तभी तो वह जब तक काटता और खून निकालता है, मनुष्यको कुछ खबर नहीं होती, वह सोता रहता है । पूँ क मारनेके बाद, चूहा जीभसे उस भागको चाटता और फिर तूं घता है। सोते आदमीकी उँगली अथवा अन्य किसी भागपर (१) फू कनेकी, (२) लार लगानेकी, और (३) चाटनेकी--इन तीन क्रियाओंके करनेसे उसे यह मालूम हो जाता है, कि मेरी शिकार सोती है--जागती नहीं । अपनी क्रिया सफल हुई समझकर, वह फिर काटता है। ___ "उसका दंश कुछ गहरा नहीं होता; तो भी इतना तो होता है, जितनेमें उसके दंशका विष चमड़ेके नीचे खूनमें मिल जावे । कुछ गहराई होती है, तभी तो खून भी निकल आता है । चूहेके काटकर भाग जानेके बाद मनुष्य जागता है । जागते ही उसे किसी प्राणीके काट जानेका भय होता है, पर वह इस बातका निश्चय नहीं कर सकता, कि किसने काटा है--साँपने, चूहेने या और किसी प्राणीने । साँपके काटनेपर तो तुरन्त मालूम हो जाता है, क्योंकि दंश-स्थानमें जोरसे झनझनाहट या पीड़ा होती है और वहाँ दाढ़ोंके चिह्न दीखते हैं; पर चूहेका विष तो उसके दशके समान युक्ति-युक्त व गुप्त होता है । चूहेके दंशकी पीड़ा अधिक न होनेके कारण, मनुष्य उसकी उपेक्षा करता है । मिर्च और खटाई खाता रहता है । थोड़े ही दिनों बाद, समय और कारण मिलनेसे, चूहेका विष प्रत्यक्ष होने लगता है । दो सप्ताह तक . विषका पता नहीं लगता । किसी-किसी चूहेका विष जल्दी ही प्रकट होने लगता है । दंशका भाग या काटी हुई जगह सूज जाती है । चूहेके विषका भाग बहुधा लाल होता है, सूजनमें पीड़ा भी बहुत होती है, शरीरमें दाह या जलन और दिलमें घबराहट होती है। चूहेके विषके ये तीक्ष्ण लक्षण महीने दो महीनेमें शान्त हो जाते हैं; पर For Private and Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूषक-विष-चिकित्सा। २८३ सूजन नहीं उतरती। वह सख्त हो जाती है। इस विषमें यह विलक्षणता है, कि थोड़े दिनों तक रोगीको आराम मालूम होता है। फिर कुछ दिनोंके बाद, वही रोग पल्टा खाकर पुनः उभड़ आता है.। उस समय रोगीको ज्वर होता है । यह क्रम कई साल तक चलता है।" __ एक सजन लिखते हैं:-"चूहा काटता है, तो ज़ियादा दर्द नहीं होता । सवेरे उठनेपर काटा हुआ मालूम होता है। चूहा अगर जहरीला नहीं होता, तब तो कुछ हानि नहीं होती, परन्तु अगर जहरीला होता है, तो कुछ दिनोंमें विष रक्तमें मिलकर चेपक-सा उठाता है। अगर रोयेंवाली जगहपर काटा होता है, तो रतवा रोगकी तरह उस जगह सूजन आ जाती है । इसलिये ज्यों ही चूहा काटे, उसे जहरीला समझकर यथोचित उपाय करो । आठ दिनों तक ‘काली पाढ़'का काढ़ा पिलाओ । काली पाढ़के बदले अगर 'सोनामक्खीके पत्ते' उबालकर कुछ दिन पिलाये जायँ, तो चूहेका विष पाखानेकी राहसे निकल जाय । काटी हुई जगहपर या उसके जहरसे जो स्थान फूल उठे वहाँ दशांग लेपसे काम लो; यानी उसे शीतल पानी या गुलाबजल में घोटकर चूहेके काटे हुए स्थानपर लगाओ । यह लेप फेल नहीं होता।" चूहेके विषपर आयुर्वेदकी बातें । सुश्रुत-कल्पस्थानमें चूहे अठारह तरहके लिखे हैं । वहाँ उनके अलगअलग नाम, उनके विषके लक्षण और चिकित्सा भी अलग-अलग लिखी है । पर जिस तरह बंगसेन और भावमिश्र प्रभृति विद्वानोंने सब तरहके चूहों के विषके अलग-अलग लक्षण और चिकित्सा नहीं लिखी, उसी तरह हम भी अलग-अलग न लिखकर, उनका ही अनुकरण करते हैं, क्योंकि पाठकोंको वह सब झंझट मालूम होगा। चूहेके विषको प्रवृत्ति और लक्षण । जहाँ ज़हरीले चूहोंका शुक्र या वीर्य गिरता है अथवा उनके वीर्यसे For Private and Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८४ चिकित्सा-चन्द्रोदय। ल्हिसे या सने हुए कपड़ोंसे मनुष्यका शरीर छू जाता है; यानी ऐसे कपड़े या अन्य पदार्थ मनुष्य-शरीरसे छू जाते हैं अथवा चूहोंके नाखून, दाँत, मल और मूत्रका मनुष्य-शरीरसे स्पर्श हो जाता है, तो शरीरका खून, दूषित होने लगता है। यद्यपि इसके चिह्न, जल्दी ही नज़र नहीं आते, पर कुछ दिनों बाद शरीरमें गाँठे हो जाती हैं, सूजन आती है, कर्णिका--किनारेदार चिह्न, मण्डल-चकत्ते, दारुण फुन्सियाँ, विसर्प और किटिभ हो जाते हैं । जोड़ों में तीव्र वेदना और फूटनी होती तथा ज्वर चढ़ आता है। इनके अलावा दारुण मूर्छा-बेहोशी, अत्यन्त निर्बलता, अरुचि, श्वास, कम्प और रोमहर्ष--ये लक्षण होते हैं । ये लक्षण “सुश्रुत में लिखे हैं। किन्तु वाग्भट्टने ज्वरकी जगह शीतज्वर और प्यास तथा कफमें लिपटे हुए बहुत ही छोटे-छोटे चूहोंके आकारके कीड़ोंका वमन या कयमें निकलना अधिक लिखा है। - बंगसेन और भावप्रकाशमें लिखा है: - चूहेके काटनेसे खून पीला पड़ जाता है। शरीरमें चकत्ते उठ आते हैं; ज्वर, अरुचि और रोमांच होते हैं, एवं शरीरमें दाह या जलन होती है। अगर ये लक्षण हों, तो समझना चाहिये कि, दूषी विषवाले चूहेने काटा है। असाध्य विषवाले चूहेके काटनेसे मूर्छा-बेहोशी, शरीरमें सूजन, शरीरका रंग और-का-और हो जाना, शब्द या आवाजको ठीक तरहसे न सुनना, ज्वर, सिरमें भारीपन, लार गिरना और खूनकी कय होना-ये लक्षण होते हैं । अगर ऐसे लक्षण हों, तो समझना चाहिये, कि जहरी चूहेने काटा है। - वाग्भट्टने लिखा है, उपरोक्त असाध्य लक्षणोंवाले तथा जिनकी वस्ति सूजी हो, होठ विवर्ण होगये हों और चूहेकी आकारकी गाँठे हो रही हों, ऐसे चूहेके विषवाले रोगियोंको वैद्य त्याग दे; यानी ये असाध्य हैं। .. "तिब्बे अकबरी"में लिखा है:- चूहेके काटनेसे अङ्ग सूजकर घायल For Private and Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूषक - विष- चिकित्सा । २८५ हो जाता है, दर्द होता है और काटा हुआ स्थान नीला या काला हो जाता है। इसके सिवा, काटा हुआ स्थान निकम्मा होकर, भीतरकी ओर फैलकर दूसरे अङ्गको उसी तरह खराब कर देता है, जिस तरह नासूर कर देता है। नोट - यूनानी ग्रन्थोंमें लिखा है, चूहे के काटनेपर नीचे लिखे उपाय करो: --- (१) विषको चूस चूसकर खींचो । ( २ ) काटी हुई जगहपर पछने लगाकर खून निकालो । ( ३ ) अगर देर होनेसे काटा स्थान बिगड़ने लगे, तो फ़स्द खोलो, दस्त कराग्रो, वमन कराओ, पेशाब लानेवाली और विष-नाश करनेवाली दवाएँ दो । ( ४ ) विष खानेपर जो उपाय किये जाते हैं, उन्हें करो । ------- मूषक - विष- चिकित्सामें याद रखने योग्य बातें | D000, 3300CE 200 ( १ ) पहले इस बात का निर्णय करो कि, ठीक चूहेने ही काटा है या और किसी जीवने । बिना निश्चय और निदान किये चिकित्सा आरम्भ मत कर दो । ( २ ) चिकित्सा करते समय रोगी, रोगका बलाबल, अवस्था, प्रकृति, देश और काल आदिका विचार कर लो, तब इलाज करो । ( ३ ) जब चूहेके विषका निश्चय हो जाय, पहले शिरा वेधकर खून निकाल दो और कोई विषनाशक रक्त शोधक दवा रोगीको पिलाओ या खिलाओ। चूहेके दंशको तपाये हुए पत्थर या शीशेसे दाग दो। अगर उसे न जलाओगे, तो बक़ौल महर्षि वाग्भट्ट के तीव्र वेदनावाली कर्णिका पैदा हो जायगी। दंशको दग्ध करके या जलाकर ऊपरसे - सिरस, हल्दी, कूट, केशर और गिलोयको पीसकर लेप कर दो। अगर दागनेकी इच्छा न हो, तो नश्तरसे दंश स्थानको चीरकर या For Private and Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । पछने लगाकर, वहाँका खराब खून एकदम निकाल दो। इस कामके बाद भी वही सिरस आदिका लेप कर दो या घरका धूआँ, मँजीठ, हल्दी और सँधेनोनको पीसकर लेप कर दो। खुलासा यह है: (क) काटी हुई जगहको दाग दो और ऊपरसे दवाओंका लेप कर दो । अथवा नश्तर प्रभृतिसे वहाँका खराब खून निकालकर दवाओंका लेप करो। (ख) शिरा वेधकर या फस्द खोलकर खराब खून और विषको निकाल दो। - (ग) खाने-पीनेको खून साफ़ करने और जहर नाश करनेवाली दवा दो । ये आरम्भिक या शुरूके उपाय हैं। पहले यही करने चाहिये। (४) अगर विष आमाशयमें पहुँच जाय-जब विष आमाशयमें पहुँचेगा, लार बहने लगेगी-तो नीचे लिखे काढ़े पिलाकर वमन करानी चाहिये:-- (क) अरलूकी जड़, जंगली तोरई की जड़, मैनफल और देवदालीका काढ़ा पिलाकर वमन कराओ; पर पहले दही पिला दो, क्योंकि खाली पेट वमन कराना ठीक नहीं है। (ख ) बच, मैनफल, जीमूत और कूटको गो-मूत्र में पीसकर, दहीके साथ पिलाओ। इसके पीनेसे कय होंगी और सब तरहके चूहोंका विष नष्ट हो जायगा। (ग) दही पिलाकर, जंगली कड़वी तोरई, अरलू और अंकोटका काढ़ा पिलाओ । इससे भी वमन होकर विष नष्ट हो जायगा। (घ) कड़वी तोरई, सिरसका फल, जीमूत और मैनफल - इनके चूर्णको दहीके साथ पिलाओ। इससे भी वमनके द्वारा विष निकल जायगा। (५) अगर जरूरत समझो, तो जुलाब भी दे सकते हो; वाग्भट्टजी जुलाबकी राय देते हैं। निशोथ, कालादाना और त्रिफला,-इन तीनोंकाः For Private and Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूषक-विष चिकित्सा। २८७ कल्क सेवन कराओ। इस जुलाबसे दस्त भी होंगे और जहर भी निकल जायगा। (६) इस रोगमें भ्रम और दारुण मूर्छा भी होती है, और ये उपद्रव दिल और दिमारापर विषका विशेष प्रभाव हुए बिना हो नहीं सकते, अतः इस रोगमें नस्य और अंजन भी काममें लाने चाहियें (क ) गोबरके रसमें सोंठ, मिर्च और पीपरके चूर्णको पीसकर नेत्रोंमें आँजो। (ख ) सँभालूकी जड़, बिल्लीकी हड्डी और तगर--इनको पानीमें पीसकर नस्य दो। इससे चूहेका विष नष्ट हो जाता है । (७) केवल लगाने, सँ घाने या आँजनेकी दवाओंसे ही काम नहीं चल सकता, अतः कोई उत्तम विषनाशक अगद या और दवा भी होनी चाहिये । सभी तरहके उपाय करनेसे यह महा भयंकर और दुर्निवार विष शान्त होता है । नीचेकी दवाएँ उत्तम हैं:___ (क) सिरसके बीज लाकर आकके दूधमें भिगो दो। इसके बाद उन्हें सुखा लो । दूसरे दिन, फिर उनको ताजा आकके दूधमें भिगोकर सुखा लो। तीसरे दिन फिर, आकके ताजा. दूधमें उन्हें भिगोकर सुखा लो। ये तीन भावना हुई। इन भावना दिये बीजोंके बराबर “पीपर" लेकर पीस लो और पानीके साथ घोटकर गोलियाँ बना लो । वाग्भट्टने इन गोलियोंकी बड़ी तारीफ की है। यह अगद साँपके विष, मकड़ीके विष, चूहके विष, बिच्छूके विष और समस्त कीड़ोंके विषको नाश करनेवाली है। (ख) कैथके रस और गोबरके रसमें शहद मिलाकर चटाओ । (ग) सफेद पुनर्नवेकी जड़ और त्रिफलेको पीस-छानकर चूर्ण कर लो। इस चूर्णको शहदमें मिलाकर चटाओ। (८) दवा खिलाने, पिलाने, लगाने वगैरसे ही काम नहीं चल सकता । रोगीको अपथ्य सेवनसे भी बचाना चाहिये। इस रोगवालेको For Private and Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir “२८८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । शीतल हवा, पुरवाई हवा, शीतल भोजन, शीतल जलके स्नान, दिनमें सोने, मेहमें फिरने और अजीर्ण करनेवाले पदार्थोंसे अवश्य दूर रखना जरूरी है। इस रोगमें यह बड़ी बात है, कि मेह बरसने या बादल होनेसे यह अवश्य ही कुपित होता है । वाग्भट्ट में लिखा है:-- सशेषं मूषकविषं प्रकुप्यत्यभूदर्शने । यथायथं वा कालेषु दोषाणां वृद्धिहेतुषु ।। बाक़ी रहा हुआ चूहेका विष बादलोंके देखनेसे प्रकुपित होता है अथवा वातादि दोषोंके वृद्धिकालमें कुपित होता है। र मूषक-विष-नाशक नुसखे । १-वमनकारक दवाएँ(क ) कड़वी तोरई और सिरसके बीजोंसे वमन कराओ। (ख ) अरलू , जंगली तोरई, देवदाली और मैनफलके काढ़ेसे वमन कराओ। (ग) कड़वी तोरई, सिरसका फल, जीमूत और मैनफलका चूर्ण दहीमें मिलाकर खिलाओ और वमन कराओ। (घ) सिरस और अङ्कोलके काढ़ेसे वमन कराओ । २-विरेचक या जुलाबकी दवाएँ (क) निशोथ, दन्ती और त्रिफलेके कल्क द्वारा दस्त कराओ। (ख) निशोथ, कालादाना और त्रिफला--इनके कल्कसे दस्त कराओ। ३-लेपकी दवाएँ(क) अङ्कोलकी जड़ बकरीके मूत्रमें पीसकर लेप करो। (ख) करंजकी छाल और उसके बीजोंको पीसकर लेप करो। (ग) कैथके बीजोंका तेल लगाओ। (घ) सिरसकी जड़को बकरीके मूत्रमें पीसकर लेप करो। For Private and Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूषक - विषनाशक नुसखे । - २८६ (ङ) सिरस के बीज, नीमके पत्ते और करंजु के बीजोंकी गिरी इन सबको बराबर के गायके मूत्र में पीसकर गोली बना लो । जुरूरतके समय, गोलीको पानी में घिसकर लेप करो । (च) सिरस, हल्दी, कूट, केशर और गिलोय, - इनको पानी में पीसकर लेप करो । नोट --ख से च तकके नुसख परीक्षित हैं । (छ) काली निशोथ, सफ़ेद गोकर्णी, बेल-वृक्षकी जड़ और गिलोयको पीसकर लेप करो । ( ज ) घरका धूआँ, मजीठ, हल्दी और सेंधानोनको पीसकर लेप करो । (झ) बच, हींग, बायबिडङ्ग, सेंधानोन, गजपीपर, पाठा, अतीस, सोंठ, मिर्च और पीपर - यह "दशाङ्ग लेप" है। इसको पानी में पीस - कर लगाने और इसका कल्क पीनेसे समस्त जहरीले जीवोंका विष नष्ट हो जाता है । मूषक - विषपर यह लेप परीक्षित है । खाने-पीने की औषधियाँ । ( ४ ) सिरसकी जड़को शहद के साथ या चाँवलों के जलके साथ या बकरीके मूत्र के साथ पीनेसे चूहेका विष नाश हो जाता है । परीक्षित है । (५) अंकोलकी जड़का कल्क बकरीके मूत्रके साथ पीनेसे चूहेका विष शान्त हो जाता है । (६) इन्द्रायणकी जड़, अङ्कोलकी जड़, तिलोंकी जड़, मिश्री, शहद और घी - इन सबको मिलाकर पीने से चूहेका दुस्तर विष उतर जाता है | परीक्षित हैं । (७) कसूम के फूल, गायका दाँत, सत्यानाशी, कटेरी, कबूतर की बीट, दन्ती, निशोथ, सेंधानोन, इलायची, पुनर्नवा और राव – इन सबको एकत्र मिलाकर, दूधके साथ पीनेसे चूहेका विष दूर होता है । ३७ For Private and Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ..२६० । चिकित्सा-चन्द्रोदय । (८) कैथके रसको, गोबरके रस और शहद में मिलाकर, चाटनेसे चूहेका विष नाश हो जाता है। (E) गोरख-ककड़ी, बेलगिरी, काकोलीकी जड़, तिल और मिनी- इन सबको एकत्र पीसकर, शहद और घीमें मिलाकर, सेवन करनेसे चूहेका विष नष्ट हो जाता है। (१०) बेलगिरी, काकोलीकी जड़, कोयल और तिल-इनको शहद और घीमें मिलाकर सेवन करनेसे चूहेका विष नष्ट हो जाता है । (११) चौलाईकी जड़को पानीके साथ पीसकर कल्क-लुगदी बना लो। फिर लुगदीसे चौगुना घी और घीसे चौगुना दूध लेकर घी पका लो । इस घीके सेवन करनेसे चूहेका विष तत्काल नाश हो जाता है। . (१२) सफ़ेद पुनर्नवेकी जड़ और त्रिफला- इनको पीस-छानकर शहद में मिलाकर पीनेसे मूषक-विष दूर हो जाता है। (१३) सोंठ, मिर्च, पीपर, कूट, दारुहल्दी, मुलैठी, सेंधानोन, संचरनोन, मालती, नागकेशर और काकोल्यादि मधुरगणकी जितनी दवाएँ मिलें-सबको “कैथके रसमें" पीसकर, गायके सींगमें भरकर और उसीसे बन्द करके १५ दिन रखो। इस अगदसे विष तो बहुत तरहके नाश होते हैं, पर चूहेके विषपर तो यह अगद प्रधान ही है । 1889825 XGGeodesedooX otoxos GeGreetouroGrotkoorcaroooooooooo १९७eam मच्छरके विषकी चिकित्सा। सुश्रुतमें मच्छर पाँच तरहके लिखे हैं:(१) समन्दरके मच्छर। (२) परिमण्डल मच्छर = गोल बाँधकर रहनेवाले। (३) हस्ति मच्छर = बड़े मोटे मच्छर या डाँस । For Private and Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मच्छर-विष-चिकित्सा। २६१ (४) काले मच्छर। (५) पहाड़ी मच्छर। इन सभी मच्छरोंके काटनेसे स्थान सूज जाता है और खुजली बड़े जोरसे चलती है। "चरक" में लिखा है, मच्छरके काटनेसे कुछ-कुछ सूजन औए मन्दी-मन्दी पीड़ा होती है । असाध्य कीड़ेके काटे घावकी तरह, मच्छरका घाव भी कभी-कभी असाध्य हो जाता है। पहले चार प्रकारके मच्छरोंका काटा हुआ तो दुःख-सुखसे आराम हो भी जाता है, पर पहाड़ी मच्छरोंका विष तो असाध्य ही होता है। इनके काटेको अगर मनुष्य नाखूनोंसे खुजला लेता है, तो अनेक फुन्सियाँ पैदा हो जाती हैं, जो पक जाती और जलन करती हैं। बहुधा पहाड़ी मच्छरोंके काटे आदमी मर भी जाते हैं। नोट--शरीरपर बादामका तेल मलकर सोनेसे मच्छर नहीं काटते । 1 मच्छर भगानके उपाय । Xoxoxoxoxoxoxoxoxoxoxoxoexsexoo HAI KAHANIATTARJATAVARTY (१) सनोवर की लकड़ीकी भूसी या उसके छिलकोंकी धूनी देनेसे मच्छर भाग जाते हैं। (२) छरीला और फिटकरी की धूआँसे मच्छर भाग जाते हैं। (३) सरू की लकड़ी और सरू के पत्ते बिछौनेपर रखनेसे मच्छर खाटके पास नहीं आते। (४) इन्द्रायणका रस या पानी मकानमें छिड़क देनेसे पिस्सू भाग जाते हैं। (५) गन्धककी धूनी या कनेरके पत्तोंकी धूनी से पिस्सू भाग जाते हैं। (६) सेहकी चरबी लकड़ीपर मलकर रख देनेसे उसपर सारे पिस्सू इकट्ठे हो जाते हैं। (७) कुदरुके गोंदकी धूनी देनेसे भी मच्छर भाग जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ चिकित्सा-चन्द्रोदय। (८) कनेरके पत्तोंका स्वरस जमीन और दीवारोंपर बारम्बार छिड़कते रहनेसे मच्छर भाग जाते हैं। (६) शरीरपर बादामका तेल मलकर सोनेसे मच्छर नहीं काटते । गन्धकको महीन पीसकर और तेलमें मिलाकर, उसकी मालिश करके नहा डालनेसे मच्छर नहीं काटते; क्योंकि नहानेपर भी, गन्धक और तेलका कुछ-न-कुछ अंश शरीरपर रहा ही आता है। - (१०) मकानकी दीवारोंपर पीली पेवड़ीका या और तरहका पीला रंग पोतनेसे मच्छर नहीं आते । पीले रंगसे मच्छरको घृणा है और नीले रंगसे प्रेम है। नीले या ब्ल्यू रंगसे पुते मकानोंमें मच्छर बहुत आते हैं। (११) अगर चाहते हो कि, हमारे यहाँ मच्छरोंका दौर-दौरा कम रहे, तो आप घरको एकदम साफ़ रखो, कोने-कजौड़ेमें मैले कपड़े या मैला मत रखो। घरको सूखा रखो। घरके आस-पास घास-पात या हरे पौधे मत रखो। जहाँ घास-पात, कीचड़ और अँधेरा होता है, वहीं मच्छर जियादा आते हैं । (१२) मच्छरोंसे बचने और रातको सुखकी नींद सोनेके लिये, पलँगोंपर मसहरी लगानी चाहिये । इसके भीतर मच्छर नहीं आते। बंगालमें मसहरीकी बड़ी चाल है । यहाँ इसीसे चैन मिलता है । (१३) घोड़ेकी दुमके बाल कमरोंके द्वारोंपर लटकानेसे मच्छर कम आते हैं। • (.१४) भूसी, गूगल, गन्धक और बारहसिंगेके सींगकी धूनी देनेसे मच्छर भाग जाते हैं। DIK मच्छर-विष-नाशक नुसखे । ME..... .......... .... * (१) डाँसके काटे हुए स्थानपर "प्याजका रस" लगानेसे तत्काल आराम हो जाता है। X For Private and Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मक्खी-विष-चिकित्सा। २६३ . (२) दो तोले कत्था, एक तोले कपूर और आधा तोले सिन्दूरइन तीनोंको पीसकर कपड़ेमें छान लो । फिर १०१ बार घी या मक्खन काँसीकी थालीमें धो लो। शेषमें, उस पिसे-छने चूर्णको घीमें खूब मिलाकर एक दिल कर लो। इस मरहमको हर प्रकारके मच्छर, डाँस या पहाड़ी मच्छरके काटे स्थानपर मलो । इसके कई बार मलनेसे एक ही दिन में सूजन और खुजली वगैरः आराम हो जाती है। इसके सिवा, इस मरहमसे हर तरहके घाव भी आराम हो जाते हैं। खुजलीकी पीली-पीली फुन्सियाँ इससे फौरन मिट जाती हैं। जलन शान्त करने में तो यह रामवाण ही है । परीक्षित है। . (३) मच्छर, डाँस तथा अन्य छोटे-मोटे कीड़ोंके काटे स्थानपर "अर्क कपूर" लगानेसे जहर नहीं चढ़ता और सूजन फौरन उतर जाती है। नोट-अर्क कपूर बनानेकी विधि हमारी बनाई “स्वास्थ्यरक्षा में लिखी है। यह हर नगरमें बना-बनाया भी मिलता है। (४) अगर कानमें डाँस या मच्छर घुस जाय, ता कसौंदीके पत्तोंका रस निकालकर कानमें डालो । वह मरकर निकल आवेगा। नोट--मकोयके पत्तोंका रस कानमें टपकानेसे भी सब तरहके कीड़े मरकर निकल आते हैं। मक्खीके विषकी चिकित्सा । सुश्रुत और चरकमें लिखा है, मक्खियाँ छै प्रकारकी होती हैं:(१) कान्तारिका बनकी मक्खी। ...(२) कृष्णा ... । काली मक्खी। (३) पिंगलिका • पीली मक्खी. For Private and Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (४) मधूलिका ... गेहूँके रंगकी या मधु-मक्खी । . (५) काषायी ... भगवाँ रंगकी मक्खी। (६) स्थालिका ... .. . ... ... कान्तारिका आदि पहली चार प्रकारकी मक्खियोंके काटनेसे सूजन और जलन होती है, पर काषायी और स्थालिकाके काटनेसे उपद्रवयुक्त फुन्सियाँ होती हैं। . . "चरक" में लिखा है, पहली पाँचों प्रकारकी मक्खियोंके काटनेसे सत्काल फुन्सियाँ होती हैं। उन फुन्सियोंका रंग श्याम होता है। उनसे मवाद गिरता और उनमें जलन होती है तथा उनके साथ मूर्छा और ज्वर भी होते हैं । परन्तु छठी स्थालिका या स्थगिका मक्खी तो प्राणोंका नाश ही कर देती है। नोट--इन मविखयोंमें घरेलू मक्खियाँ शामिल नहीं हैं । वे इनसे अलग हैं। ऊपरकी छहों प्रकारकी मक्खियाँ ज़हरीली होती हैं। 35 मक्खी भगानेके उपाय । हिकमतके ग्रन्थों में मक्खियोंके भगानेके ये उपाय लिखे हैं:(१) हरताल और नकछिकनीकी धूआँ करो। (२) पीली हरताल दूधमें डाल दो; सारी मक्खियाँ उसमें गिरकर मर जायेगी। (३) काली कुटकीके काढ़ेमें भी नं० २ का गुण है। . 080309090909090980 • मक्खी-विषनाशक नुसखे । ÕB0303030303688980 (१) काली बाम्बीकी मिट्टीको गोमूत्र में पीसकर लेप करनेसे चींटी, मक्खी और मच्छरोंका विष नष्ट हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बर्रके विषकी चिकित्सा। २६५ (२) सोया और सेंधानोन एकत्र पीसकर, धीमें मिलाकर; लेप करनेसे मक्खीका विष नाश हो जाता है। परीक्षित है। . ( ३) केशर, तगर, सोंठ और कालीमिर्च-इन चारोंको एकत्र पीसकर लेप करनेसे मक्खीके डंककी पीड़ा शान्त हो जाती है। .. (४) मक्खीके काटे स्थानपर सेंधानोन मलनेसे जहर नहीं चढ़ता। (५) मक्खीकी काटी हुई जगहपर सिंगीमुहरा पानीमें घिसकर लगा देना अच्छा है। (६) मक्खीके काटे हुए स्थानपर आकका दूध मलनेसे अवश्य जहर नष्ट हो जाता है। नोट-बर्र और मक्खीके काटनेसे एक समान ही जलन, दर्द और सूजन वगरः उपद्रव होते हैं, इसलिये “तिब्बे अकबरी” में लिखा है, जो दवाएं बरके ज़हरको नष्ट करती हैं, वही मक्खीके विषको शान्त करती हैं। हमने बरके काटनेपर नीचे बहुतसे नुसखे लिखे हैं, पाठक उनसे मक्खीके काटने पर भी काम ले सकते हैं। 065038B0308088949880 ० बरके विषकी चिकित्सा। 02869000849696868680 NeANC% कमतकी किताबोंमें लिखा है, बर्रके डंक मारनेसे लाल हि लाल सूजन और घोर पीड़ा होती है। एक प्रकारकी बर्र Saxse और होती है, जिसका सिर बड़ा और काला होता है तथा उसके ऊपर बूंदें होती हैं। उसके काटनेसे दर्द बहुत ही ज़ियादा होता है। कभी-कभी तो मृत्यु हो जाती है। "चरक" में लिखा है, कणभ-भौंरा विशेषके काटनेसे विसर्प, सूजन, शूल, ज्वर और वमन--ये उपद्रव होते हैं और काटी हुई जगहमें विशीर्णता होती है। For Private and Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६६ - - चिकित्सा चन्द्रोदय । _. बर्र और ततैये तथा भौंरे वगैरः कई तरहके होते हैं। कोई काले, कोई नारङ्गी, कोई पीले और कोई ऊदे होते हैं। इनमेंसे पीले ततैये कुछ छोटे और कम जहरी होते हैं। परन्तु काले और अदे बहुत तेज़ ज़हरवाले होते हैं । इनके काटनेसे सूजन चढ़ आती है, जलनः बहुत होती है और दर्दके मारे चैन नहीं पड़ता; पर तेज़ ज़हरवालेके. काटनेसे सारे शरीरमें ददोरे हो जाते हैं और ज्वर भी चढ़ आता है। 00000. HD बरोंके भगानेके उपाय | HD (१) गन्धक और लहसनकी धूआँसे बर्र भाग जाती हैं । (२) खतमीका रस या खुब्बाजीका पानी और जैतून के तेलको शरीरपर मल लेनेसे बरं नहीं आती। बर-विष नाशक नुस। (१) पीपर जलके साथ पीसकर, बर्रके काटे-स्थानपर लेप करनेसे फौरन आराम हो जाता है। (२) घी, सेंधानोन और तुलसीके पत्तोंका रस-इन तीनोंको एकत्र मिलाकर, बर्रके काटे स्थानपर, लेप करनेसे तत्काल शान्ति आती है । परीक्षित है। - (३) कालीमिर्च, सोंठ, सेंधानोन और संचर नोन-इन चारोंको नागर पानके रसमें घोटकर, बरकी काटी हुई जगहमर लेप करनेसे फौरन आराम होता है। परीक्षित है। (४) ईसबगोलको सिरकेमें मिलाकर और लुआब निकालकर पीनेसे बर्रका विष उतर जाता है। ... - (५) हथेली-भर धनिया खानेसे बर्रका जहर उतर जाता है। कोई-कोई ३ मुट्ठी लिखते हैं। For Private and Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६७ बर्रके विषकी चिकित्सा। (६) काईको सिरके में मिलाकर, काटे हुए स्थानपर लेप करनेसे बर्रका विष शान्त हो जाता है। (७) खतमी और खुब्बाजीको पानी में पीसकर लुआब निकाल लो। इस लुआबको बर्रके काटे हुए स्थानपर मलो; शान्ति हो जायगी। " (८) बर्रके डङ्क मारे स्थानपर मक्खीमलनेसे आराम हो जाता है। (६) बरके काटे हुए स्थानपर शहद लगाने और शहद ही खानेसे अवश्य लाभ होता है। . (१०) मकोयकी पत्तियाँ, सिरके में पीसकर, बरके काटे हुए स्थानपर लगानेसे आराम होता है। (११) इक्कीस या सौ बारका धोया हुआ घी बर्रकी काटी हुई जगहपर लगानेसे आराम होता है। (१२) बर्रकी काटी हुई जगहको ३।४ बार गरम पानीसे धोनेसे लाभ होता है। (१३) हरे धनियेका रस, सिरके में मिलाकर, लगानेसे बर्रके काटे हुए स्थानमें शान्ति आ जाती है। (१४) कपूरको सिरकेमें मिलाकर लेप करनेसे बर्रका जहर शान्त हो जाता है । परीक्षित है। . (१५) बड़ी बर्रके छत्तेकी मिट्टीका लेप करनेसे बर्रका विष शान्त हो जाता है। कोई-कोई इस मिट्टीको सिरकेमें मिलाकर लगानेकी राय देते हैं। ____ (१६) तिलोंको सिरकेमें पीसकर लेप करनेसे बर्रका विष शान्त हो जाता है। . (१७) गन्धकको पानी में पीसकर लेप करनेसे बर्रका जहर नष्ट हो जाता है। (१८) जिसे बर्र काटे, अगर वह अपनी जीभ पकड़ ले, तो ज़हर उसपर असर नहीं करे। For Private and Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । - (१६) बर्रकी काटी हुई जगहपर ताजा गोबर रखनेसे फौरन आराम हो जाता है। (२०) बर्रकी काटी हुई जगहपर पहले गूगलकी धूनी दो। इसके बाद कोमल आकके पत्ते पीसकर गोला-सा बना लो। फिर उस गोलेको घीसे चुपड़कर, बर्रकी काटी हुई जगहपर बाँध दो। इस उपायसे अत्यन्त लोहित ततैये या बर्रका विष भी शान्त हो जाता है। .. (२१) रालका परिषेक करनेसे, बर्रका बाक़ी रहा हुआ डङ्क या काँटा निकल आता है। . (२२) कालीमिर्च, सोंठ, सेंधानोन और कालानोन-इन सबको एकत्र पीसकर और बन-तुलसीके रसमें मिलाकर, बर्रकी काटी हुई जगहपर, लेप करनेसे बर्रका विष नष्ट हो जाता है। (२३) खतमी, खुब्बाजी, खुरफा मकोय और काकनज-इन सबके स्वरस या पानीका लेप बर्रके विषको शान्त करता है। (२४) एक कपड़ा सिरकेमें भिगोकर और बर्फमें शीतल करके बरकी काटी जगहपर रखनेसे फ़ौरन आराम होता है। ___ (२५) निर्मल मुलतानी मिट्टी या कपूर या काई या जौका आटा--इनमेंसे किसीको सिरकेमें मिलाकर बर्रकी काटी हुई जगहपर रखनेसे लाभ होता है। (२६) ताजा या हरे धनियेके स्वरसमें कपूर और सिरका मिलाकर, बर्रके काटे हुए स्थानपर रखनेसे फौरन शान्ति आती है। परीक्षित है। (२७) सेबका रुब्ब, सिकंजवीन, खट्टे अनारका पानी, ककड़ीका पानी, कासनीका पानी, काहू और धनिया--ये सब चीजें खानेसे बर्रके काटनेपर लाभ होता है। नोट-हिकमतके ग्रन्थों में लिखा है, जब शहदकी मक्खी डङ्क मारती है, तब उसका डङ्क उसी जगह रह जाता है। मधुमक्खीके ज़हरका इलाज बरके इलाज For Private and Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चींटियोंके काटेकी चिकित्सा । २६६. के समान है; यानी एककी दवा दूसरेके विषको शान्त करती है । चींटीके काटे और बर्रके काटेका भी एक ही इलाज है । बड़ी बरं काटे या शरीरमें मवाद हो तो फस्द खोलना हितकारी है। (२८) बर्र या ततैयेके काटते ही घी लगाकर सेक देना परीक्षित उपाय है। इस उपायसे जहर ज़ियादा जोर नहीं करता। . (२६ ) काटे हुए स्थानपर श्राकका दूध लगा देनेसे भी बरका जहर शान्त हो जाता है। - (३०) बरकी काटी हुई जगहपर घोड़ेके अगले पैरके टखनेका नाखून पानीमें घिसकर लगाना भी उत्तम है। .. (३१) बरके काटे स्थानपर ज़रा-सा गन्धकका तेजाब लगा देना भी अच्छा है। - (३२) बहुत लोग बर्रके काटते ही दियासलाइयोंका लाल मसाला पानीमें घिसकर लगाते हैं या काटी हुई जगहपर दो बूंद पानी डालकर दियासलाइयोंका गुच्छा उस जगह मसालेकी तरफसे रगड़ते हैं। फायदा भी होते देखा है । परीक्षित है। .. - (३३) कहते हैं, कुनैन मल देनेसे भी बरी और छोटे बिच्छूका विष शान्त हो जाता है। . . . . . . . , (३४) दशांगका लेप करनेसे बर्रका जहर फौरन उतर जाता है। नोट-दशाङ्गकी दवाएँ पृष्ठ ३०२ के नं. १ में लिखी हैं। (३५) स्पिरिट एमोनिया एरोमेटिक लगाने और चाय या काफी पिलानेसे बर्रका विष शान्त हो जाता है। ODOODOO. .pe. 1000000000 ०००००००० चींटियोंके काटेकी चिकित्सा। चींटीको संस्कृतमें “पिपीलिका" कहते हैं। सुश्रुतमें- स्थूलशीर्षा, संबाहिका, ब्राह्मणिका, अंगुलिका, कपिलिका और चित्र For Private and Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३००. : चिकित्सा चन्द्रोदय । .. वर्णा-छै तरहकी चींटियाँ लिखी हैं । इनके काटनेसे काटी हुई जगहपर सूजन, शरीरके और स्थानोंमें सूजन और आगसे जल जानेकी-सी जलन होती है। खेतों और घरोंमें चींटे, काली चींटी और लाल चींटी बहुतः देखी जाती हैं। इनके दलमें असंख्य-अनगिन्ती चोंटी-चींटे होते हैं। अगर इन्हें मिठाई या किसी भी मीठी चीज़का पता लग जाता है, तो दल-के-दल वहाँ पहुँच जाते हैं। ये सब अँगरेजी फौजकी तरह कायदेसे क़तार बाँधकर चलती हैं। इनके सम्बन्धमें अँगरेजी ग्रन्थों में बड़ी अद्भुत-अद्भुत बातें लिखी हैं। यह बड़ा मिहनती जीव है। लाल-काली चींटी और बड़े-बड़े चींटे, जिन्हें मकोड़े भी कहते हैं, सभी आदमीको काटते हैं । चींटा बहुत बुरी तरहसे चिपट जाता है। काली चींटीके काटनेसे उतनी पीड़ा नहीं होती, पर लाल, चींटीके काटनेसे तो आग-सी लग जाती और शरीरमें पित्ती-सी निकल आती है। अगर यह लाल चोंटी खाने-पीनेके पदार्थों में खा ली जाती है, तो फौरन पित्ती निकल आती है, सारे शरीरमें ददोरेहीददोरे हो जाते हैं। अतः पानी सदा छानकर पीना चाहिये और खानेके पदार्थ इनसे बचाकर रखने चाहिये और खूब देख-भालकर खाने चाहिए। चींटियोंसे बचनेके उपाय । (१) चींटियोंके बिलमें "चकमक पत्थर" रखने और तेलकी धूनी देनेसे चींटियाँ बिल छोड़कर भाग जाती हैं । कड़वे तेलसे चींटे-चींटी बहुत डरते हैं। अतः जहाँ ये जियादा हों, वहाँ. कड़वे तेलके छींटे मारो और इसी तेलको आगपर डाल-डालकर धूनी दो। For Private and Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कीट-विष-चिकित्सा। ३०१ .. (२) तेल में पिसी हुई गंधक मिलाकर, उसमें एक कपड़ेका टुकड़ा भिगोकर आप जहाँ बाँध देंगे, वहाँ चींटियाँ न जायँगी । बहुतसे लोग ऐसे कपड़ोंको मिठाई के बर्तन या शर्बतोंकी बोतलोंके किनारोंपर बाँध देते हैं । इस तरह के गंधक और तेलमें भीगे कपड़ेको लाँघनेकी हिम्मत चींटियों में नहीं। चींटीके काटनेपर नुसखे । (१) साँपकी बमईकी काली मिट्टीको गोमूत्रमें भिगोकर चींटीके काटे स्थानपर लगाओ, फौरन आराम होगा। इस उपायसे विषैली मक्खी और मच्छरका विष भी नष्ट हो जाता है । सुश्रुत । (२) कालीमिर्च, सौंठ, सेंधानोन और कालानोन-इन सबको बन-तुलसीके रसमें पीसकर लेप करनेसे चींटी, बर्र, ततैया और मक्खीका विष शान्त हो जाता है। (३) केशर, तगर, सौंठ और कालीमिर्च-इनको पानीमें पीसकर लेप करनेसे बरं, चींटी और मक्खीका विष नष्ट हो जाता है। (४) सोया और सेंधानोन-इनको घीमें पीसकर लेप करनेसे चींटी, बर्र और मक्खीका विष नाश हो जाता है। कीट-विष-नाशक नुसखे । YGOOK NONOMO द्धिमान वैद्यको विष-रोगियोंकी शीतल चिकित्सा करनी 8 बुर चाहिये; पर कीड़ोंके विषपर शीतल चिकित्सा हानिकारक RsP5 होती है, क्योंकि शीतसे कीट-विष बढ़ता है। सुश्रतमें लिखा है: उष्णवजों विधिः कायों विषार्तानां विजानता । मुक्त्वा कीटविषं तद्धि शीतेनाभिप्रवर्द्धते॥ For Private and Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०२ चिकित्सा-चन्द्रोदयं । . और भी कहा है:-चूँ कि विष अत्यन्त तीक्ष्ण और गरम होता है, इसलिये प्रायः सभी विषों में शीतल परिषेक करना या शीतल छिड़के देने चाहिये पर कीड़ोंका विष बहुत तेज़ नहीं होता, मन्दा होता है। इसके सिवा, उनके विषमें कफवायुके अंश अधिक होते हैं, अतः कीड़ोंके विषमें पसीना निकालने या सेक करनेकी मनाही नहीं है, परन्तु कहीं-कहीं गरम सेककी मनाही भी है। मतलब यह है, चिकित्सामें तर्क-वितर्क और विचारकी बड़ी ज़रूरत है। जिस विषमें वात-कफ हों, उसमें पसीने निकालने ही चाहिएँ, क्योंकि कफके विषसे प्रायः सूजन होती है और सूजनमें स्वेदन कर्म करना या पसीने निकालना हितकारक है। (१) बच, हींग, बायबिडंग, सेंधानोन, गजपीपर, पाठा, अतीस, सोंठ, मिर्च और पीपर इन दसोंको पानीके साथ सिलपर पीसकर पीने और इन्हींका काटे स्थानपर लेप करनेसे सब तरहके कीड़ोंका विष नष्ट हो जाता है। इसका नाम “दशाङ्ग योग” है। यह काश्यप मुनिका निकाला हुआ है। नोट-दशांग योग अनेक बारका श्राज़मूदा है। चूहेके काटेपर भी इससे फ़ौरन लाभ होता है । सभी कीड़ोंके काटने पर इसे लगाना चाहिये। (२) पीपल, पाखर, बड़, गूलर और पारस पीपल,-इनकी छालको पानीके साथ पीसकर लेप करनेसे प्रायः सभी कीड़ोंका विष नष्ट हो जाता है। (३) हींग, कूट, तगर, त्रिकुटा, पाढ़, बायबिडंग, सेंधानोन, जवाखार और अतीस-इन सबको पानीके साथ एकत्र पीसकर लेप करनेसे कीड़ोंका जहर उतर जाता है। (४) कलिहारी, निर्विषी, तूम्बी, कड़वी तोरई और मूलीके बीज इन सबको एकत्र काँजीमें पीसकर लेप करनेसे कीड़ोंका विष नाश हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कीट-विष-चिकित्सा ।. ३०३ ... (५) चौलाईकी जड़को पीसकर, गायके घीके साथ, पीनेसे कीड़ोंका विष नाश हो जाता है । .. (६) तुलसीके पत्ते और मुलहटीको पानीके साथ पीसकर पीनेसे. कीड़ोंका ज़हर नाश हो जाता है। (७) सिरस, कटभी, अर्जुन, बेल, पीपर, पाखर, बड़, गूलर, और पारस पीपल, इन सबकी छालोंको पीसकर पीने और इन्हींका लेप करनेसे जौंकका विष शान्त हो जाता है। (८) हुलहुलके बीज २० माशे पीसकर खानेसे सभी तरहका कीट-विष नाश हो जाता है। (६) हल्दी, दारुहल्दी और गेरू-इनको महीन पीसकर, लेप करनेसे नाखूनों और दाँतोंका विष शान्त हो जाता है। परीक्षित है । (१०) कीड़ोंके काटे हुए स्थान पर तत्काल आदमीके पेशाबके तरड़े देने या सींचनेसे लाभ होता है। ___ (११) सिरस, मालकाँगनी, अर्जुनवृक्षकी छाल, ल्हिसौड़ेकी छाल और बड़, पीपर, गूगल, पाखर और पारस पीपल-इन सबकी छालोंको पानीमें पीसकर पीने और इन्हींका लेप करनेसे जौंकका जहर नष्ट हो जाता है। परीक्षित है। . नोट-ज़हरीले कीड़ोंके काटनेपर, काटे हुए स्थानका खून अगर जॉक लगवा कर निकलवा दिया जाय और पीछे लेप किया जाय, तो बहुत ही जल्दी लाभ हो। (१२) सिरसकी जड़, सिरसके फूल, सिरसके पत्ते और सिरसकी छाल तथा सिरसके बीज-इनका काढ़ा बनालो। फिर इसमें सोंठ, मिर्च, पीपर और सेंधानोन मिला लो । शेषमें शहद भी मिला लो और पीओ। "सुश्रुत में लिखा है, कीट-विषपर यह अच्छा योग है। (१३) बर्र, ततैया, कनखजूरा, बिच्छू, डाँस, मक्खी और चींटी आदिके विषपर “अर्क कपूर" लगाना बहुत ही अच्छा है। परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । बिल्लीके काटेकी चिकित्सा। HEOल्लीके काटनेसे बड़ी पीड़ा होती है। काटी हुई जगह बि हरी और सख्त हो जाती है। अगर बिल्ली काट खाय, O00 तो नीचे लिखे उपाय करोः (१) मैं हसे चूसकर या पछने लगाकर ज़हरको खींचो । (२) काटी हुई जगहपर प्याज और पोदीना पीसकर लगाओ। साथ ही पोदीना खाओ। (३) कालेदानेको पानी में पीसकर लेप करो । (४) काले तिलोंको पानीके साथ पीसकर लेप करो। नोट-किसी भी लगानेकी दवाके साथ-साथ पोदीना खाना मत भूलो । बिल्लीके काटे आदमीको पोदीना बहुत ही मुनीद है । ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※當 । नौलाके काटेकी चिकित्सा। HAMAREKKKRIYAKRAMAYANAKYAKAR a ला अव्वल तो काटता नहीं; अगर काटता है तो बड़ी नत वेदना होती है और दर्द सारे शरीरमें जल्दी ही फैल Me जाता है। अगर गर्भवती नौली मनुष्यको काट खाती है, तो मनुष्य मर जाता है, क्योंकि उसका इलाज ही नहीं है। नौलेके काटनेपर नीचे लिखे उपाय करोः. (१) काटी हुई जगहपर लहसनका लेप करो। (२) मटरके आटेको पानीमें घोलकर लेप करो। .. (३) कच्चे अजीर पीसकर लेप करो। (४) अगर काटे हुए स्थानपर, फौरन, बिना विलम्ब, नौलेका मांस रख दो, तो तत्काल पीड़ा शान्त हो जाय । For Private and Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मगर मछली प्रभृतिके काटेकी चिकित्सा । ३०५ नोट-नौला भी कुत्ते की तरह कभी-कभी बावला हो जाता है। बावला नौला जिसे काटता है, वह भी बावला हो जाता है। अगर ऐसा हो, तो वही दवा करो जो बावले कुत्ते के काटने पर की जाती है। - नदीका कुत्ता, मगर और काली * मछली श्रादिके काटेका इलाज। (१) नमक रूईमें भरकर घावपर लगाओ। (२) पपड़िया नोन शहदमें मिलाकर घावपर लगाओ। (३) बतख और मुर्गीकी चर्बी लगाओ। (४) चर्बी, मक्खन और गुले रोग़न मिलाकर लगाओ। नोट--ऐसे जीवोंके काटनेपर मवाद साफ़ करने और निकालनेवाली दवाएँ लगानी चाहिये। (५) अंकोलके पत्तोंकी धूनी देनेसे अत्यन्त दुःसाध्य मछलीके डंककी पीड़ा भी शान्त हो जाती है । (६) कड़वा तेल, सत्तू और बाल-इनको एकत्र पीसकर धूनी देनेसे मछलीका विष दूर हो जाता है। (७) तेलमें इन्द्रजौ पीसकर लेप करनेसे मछलीके डंककी पीड़ा शान्त हो जाती है। 0.00 ०००40000 ००००००500000000000.. nec000000000 Mongoos 00*80030000...aaaas.००%80-800 ०००. aaaa 00000000030008 ठू आदमीके काटेका इलाज।४ 900000000१०० Emmy दमीके काटने या उसके दाँत लगनेसे भी एक तरहका विष १ चढ़ता है; अतः हम चन्द उपाय लिखते हैं:(१) जैतूनके तेलमें मोम लगाकर काटे हुए स्थानपर लेप करो। For Private and Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । ..(२) अंगूरकी लकड़ीकी राख सिरके में मिलाकर लेप करो। (३) सौसनकी जड़को सिरकेमें पीसकर लेप करो।। (४) सौंफकी जड़की छालको शहद में पीसकर लेप करो। (५) गन्दाबिरोज़ा, जैतून, मोम और मुर्गेकी चर्बी-इन सबको मिलाकर मल्हम बना लो। इसका नाम “काली मल्हम" है। इसके लगानेसे भूखे आदमीका काटा हुआ भी आराम हो जाता है। ___ नोट-भूखे अादमोका काटना बहुत ही बुरा होता है। (६) अगर काटी हुई जगह सूज जाय, तो मुर्दासंगको पानीमें पीसकर लेप कर दो। (७) बाकलेका आटा, सिरका, गुले रोगन, प्याज, नमक, शहद, और पानी,-इनमेंसे जो-जो मिलें, मिलाकर काटे स्थानपर लगा दो । (८) गोभीके पत्ते शहद में पीसकर लगानेसे आदमीका काटा हुआ घाव आराम हो जाता है। नोट-ऊपर जितने लेप आदि लिखे हैं, वे सब साधारण अादमीके काटने पर लगाये जाते हैं। भूखे श्रादमीके काटनेसे ज़ियादा तकलीफ़ होती है। बावले कुत्ते के काटे हुए श्रादमीका काटना, तो बावले कुत्ते के काटनेके ही समान है; श्रतः वैसे आदमीसे खूब बचो। अगर काट खाय, तो वही इलाज करो, जो बावले कुत्ते के काटने पर किया जाता है। MARRIMARRIERRIERRIERREAK छिपकलीके विषकी चिकित्सा। XAMINEMAHANEYAMAMRITAINIK NEXTe% स्कृतमें छिपकलीको गृहगोधिका कहते हैं। छिपकलीके स काटनेसे जलन होती है, सूजन आती है, सूई चुभानेHorse का-सा दर्द होता और पसीने आते हैं । ये लक्षण "चरक" में लिखे हैं। हिकमत के ग्रन्थों में लिखा है, छिपकलीके काटनेसे घबराहट और For Private and Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बावले कुत्ते के काटेकी चिकित्सा । ३०७ ज्वर होता है तथा काटे हुए स्थानपर हर समय दर्द होता रहता है क्योंकि छिपकलीके दाँत वहीं रह जाते हैं। हिकमतमें छिपकलीके काटनेपर नीचे लिखे उपाय लिखे हैं: (१) काटी हुई जगहमेंसे छिपकलीके दाँत निकालनेके लिये उस जगह तेल और राख मलो। (२) पहले काटी हुई जगहपर रेशम मलो, फिर वहाँ तेलमें मिलाकर राख रख दो। (३) उपरोक्त उपायोंसे पीड़ा न मिटे, तो मुंहसे चूसकर जहर निकाल दो । फिर भूसीको पानीमें औटाकर उस जगह ढालो।। ___ (४) थोड़ा-सा रेशम एक छुरीपर लपेट लो। फिर उस छुरीको काटे हुए स्थानपर रखकर, चारों तरफ़ खींचो। इस तरह छिपकलीके दाँत रेशममें इलझकर निकल आवेंगे और पीड़ा शान्त हो जायगी। (५) ऊनके टुकड़ोंको ईसबगोल और बबूलके गोंदके लुआबमें भिगोकर, काटे हुए स्थानपर कुछ देर तक रखो। फिर एक साथ जोरसे उसके टुकड़ेको उठा लो। इस तरह छिपकलीके दाँत काटे हुए स्थानसे बाहर निकल आवेंगे। नोट-ऊपरके पाँचों उपाय छिपकलीके दाँत घावसे बाहर करने के हैं । दाँत निकल आते ही ज्वर जाता रहेगा, और उस जगहका नीलापन और पीप बहना भी बन्द हो जायगा। FEMINARRAIMER श्वान-विष-चिकित्सा। __ बावले कुत्तेके लक्षण । ACHER% श्रत" में लिखा है, जब कुत्ते और स्यार प्रभुति चौपाये सु जानवर उन्मत्त या पागल हो जाते हैं, तब उनकी दुम * सीधी हो जाती है, तथा जाबड़े और कन्धे या तो ढीले For Private and Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०८ . . चिकित्सा-चन्द्रोदय । हो जाते या अकड़ जाते हैं । उनके मुंहसे राल गिरती है। अक्सर वे अन्धे और बहरे भी हो जाते हैं और जिसे पाते हैं, उसीकी ओर दौड़ते हैं। नोट--बावले कुत्ते की पूँछ सीधी होकर लटक जाती है, मुंहसे लार बहुत बहती और गर्दन टेढ़ी-सी हो जाती है। उसकी धुन जिधर लग जाती है, उधर हीको दौड़ता है। दूसरे कुत्तों और आदमियोंपर हमला करता है। कुत्ते उसे देखकर भागते हैं और लोग हल्ला करते हैं, पर वह बहरा या अन्धा हो जानेके कारण न कुछ सुनता है और न देखता है। ये आँखों-देखे लक्षण हैं। __हिकमतके ग्रन्थोंमें लिखा है, जब कुत्ता बावला हो जाता है, उसकी हालत बदल जाती है। बावला कुत्ता खानेको कम खाता और पानी देखकर डरता और थर्राता है। प्यासा मरता है, पर पानीके पास नहीं जाता; आँखें लाल हो जाती हैं; जीभ मैं हसे बाहर लटकी रहतीहै; मुँ हसे लार और झाग टपकते रहते हैं; नाकसे तर पदार्थ बहता रहता है। बावला कुत्ता कान ढलकाये, सिर झुकाये, कमर ऊँची किये और पूँछ दबाये-इस तरह चलता है, मानो मस्त हो। थोड़ी दूर चलता है और सिरके बल गिर पड़ता है। दीवार और पेड़ प्रभृतिपर हमले करता है। आवाज़ बैठ जाती है और अच्छे कुत्ते उसके पास नहीं आते--उसे देखते ही भागते हैं। . कुत्ते क्यों पावले हो जाते हैं ? "सुश्रुत" में लिखा है--स्यार, कुत्ते, जरख, रीछ और बघेरे प्रभृति पशुओंके शरीरमें जब वायु-कफके दूषित होनेसे-दूषित हो जाता है और संज्ञावहा शिराओंमें ठहर जाता है, तब उनकी संज्ञा या बुद्धि नष्ट हो जाती है। यानी वे पागल हो जाते हैं। - पागल कुत्ते प्रभृतिके काटे हुएके लक्षण । जब बावला कुत्ता या पागल स्यार आदि मनुष्योंको काटते हैं, तब उनकी विषैली दाढ़े जहाँ लगती हैं, वह जगह सूनी हो जाती और For Private and Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बावले कुत्तेके काटेकी चिकित्सा । ३०६ वहाँसे बहुत-सा काला खून निकलता है। विष-बुझे हुए तीर आदि . हथियारोंसे लगनेसे जो लक्षण होते हैं, वही पागल कुत्ते और स्यार आदिसे काटनेसे होते हैं, यह बात “सुश्रुत” में लिखी है । पागलपनके असाध्य लक्षण । जिस पागल कुत्ते या स्यार आदिने मनुष्यको काटा हो, अगर मनुष्य उसीकी-सी चेष्टा करने लगे, उसीकी-सी बोली बोलने लगे और अन्य क्रियाओंसे हीन हो जावे--मनुष्यके-से और काम न करे, तो वह मनुष्य मर जाता है । जो मनुष्य अपने-तई काटनेवाले कुत्ते या स्यार आदिकी सूरतको पानी या काँचमें देखता है, वह असाध्य होता है। मतलब यह कि, काटनेवाले कुत्ते प्रभृतिके न होनेपर भी, अगर मनुष्य उन्हें हर समय देखता है अथवा काँच-आईने या पानीमें उनकी सूरत देखता है, तो वह मर जाता है। - अगर मनुष्य पानीको देखकर या पानीकी आवाज़ सुनकर अकस्मात् डरने लगे, तो समझो कि उसे अरिष्ट है; अर्थात् वह मर जायगा । __ नोट-जब मनुष्य कुत्तेके काटनेपर कुत्तेकी-सी चेष्टा करता है, उसीकी-सी बोली बोलता और पानीसे डरता है, तब बोल-चालकी भाषामें उसे "हड़कवाय" हो जाना कहते हैं। हिकमतसे बावले कुत्ते के काटनेके लक्षण । __ अगर बावला कुत्ता या कोई और बावला जानवर मनुष्यको काट खाता है, और कई दिन तक उस मनुष्यका इलाज नहीं होता, तो उसकी दशा निकम्मी और अस्वाभाविक हो जाती है। बावले कुत्ते या बावले स्यार आदिके काटनेसे मनुष्यको बड़े-बड़े सोच और चिन्ता-फिक्र होते हैं, बुद्धि हीन हो जाती है, मुँह सूखता है, प्यास लगती है, बुरे-बुरे स्वप्न दीखते हैं, उजालेसे भागता है, अकेला For Private and Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१० चिकित्सा-चन्द्रोदय । रहता है, शरीर लाल हो जाता है, अन्तमें रोने लगता है और पानीसे डरकर भागता है, क्योंकि पानीमें उसे कुत्ता दीखता है । उसके शरीरमें शीतल पसीने आते, बेहोशी होती और वह मर जाता है । कभी-कभी इन लक्षणोंके होनेसे पहले ही मर जाता है। कभी-कभी कुत्त की तरह दूँ कता है अथवा बोल ही नहीं सकता। उसके पेशाब द्वारा छोटासा जानवर पिल्लेकी-सी सूरतमें निकलता हैं। पेशाब कभी-कभी काला और पतला होता है । किसी-किसीका पेशाब बन्द ही हो जाता है । वह दूसरे आदमीको काटना चाहता है। अगर काँचमें अपना मुँह देखता है, तो नहीं पहचानता, क्योंकि उसे काँचमें कुत्ता दीखता है, इसलिये वह काँचसे भी पानीकी तरह डरता है । जो कुत्तेका काटा आदमी पानीसे डरता है, उसके बचनेकी आशा नहीं रहती। . बहुत बार, बावले कुत्तेके काटनेके सात दिन बाद आदमीकी दशा बदलती है । किसी-किसीकी छै महीने या चालीस दिन बाद बदलती है । कोई-कोई हकीम कहते हैं कि सात बरस बाद भी कुत्तेके काटेके चिह्न प्रकट होते हैं। - बावले कुत्ते या स्यार आदिका काटा हुआ आदमी- दशा बिगड़ जानेपर-जिसे काटता है, वह भी वैसा ही हो जाता है । इतना नहीं, जो मनुष्य बावले कुत्ते के काटे हुए आदमीका झूठा पानी पीता या झूठा खाता है, वह वैसा ही हो जाता है। नोट-यही वजह है कि, हिन्दुओंमें किसीका भी-यहाँ तक कि माँ-बाप तकका भी झूठा खाना मना है। झूठा खानेसे एक मनुष्यके रोग-दोष दूसरेमें चले जाते हैं और बुद्धि नष्ट हो जाती है। सभी जानते हैं, कि कोढ़ीका झूठा खानेसे मनुष्य कोढ़ी हो जाता है। जिसे बावला कुत्ता काटता है, उसकी हालत जल्दी ही एक तरहके उन्मादी या पागलकी-सी हो जाती है। अगर यह हालत जोरपर होती है, तो रोगी नहीं जीता; अतः ऐसे आदमीके इलाजमें देर न करनी चाहिये। For Private and Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३११ बावले कुत्तेके काटेकी चिकित्सा । बावले कुत्ते के काटे हुएकी परीक्षा । . बहुत बार, अँधेरेकी वजहसे या ऐसे ही और किसी कारणसे, काटनेवाले कुत्तेकी सूरत और हालत मालूम नहीं होती, तब बड़ी दिक्कत होती है। अगर काटता है पागल कुत्ता और समझ लिया जाता है अच्छा कुत्ता, तब बड़ी भारी हानि और धोखा होता है। जब हड़कवाय हो जाती है-मनुष्य कुत्तेकी तरह भौंकने लगता है; पानीसे डरता या काँच और जलमें कुत्तेकी सूरत देखता है-तब फिर प्राण बचनेकी आशा बहुत ही कम रह जाती है, इसलिये हम हिकमतके ग्रन्थोंसे, बावले कुत्तेने काटा है या अच्छे कुत्तेने-इसके परीक्षा करनेकी विधि नीचे लिखते हैं। फौरन ही परीक्षा करके, चटपट इलाज शुरू कर देना चाहिये। अच्छा हो, अगर पहले ही बावला कुत्ता समझकर आरम्भिक या शुरूके उपाय तो कर दिये जायँ और दूसरी ओर परीक्षा होती रहे। परीक्षा करनेको विधि । (१) अखरोटकी मींगी कुत्ते के काटे हुए घावपर एक घण्टे तक रखो। फिर उसे वहाँसे उठाकर मुर्गेके सामने डाल दो। अगर मुर्गा उसे न खाय या खाकर मर जाय, तो समझो कि बावले कुत्तेने काटा है। (२) एक रोटीका टुकड़ा कुत्तेके घावके बलराम या तरीमें भरकर कुत्तोंके आगे डालो। अगर कुत्ते उसे न खायँ या खाकर मर जाय, तो समझो कि बावले कुत्तेने काटा है। (३) रोगीको करौंदेके पत्ते पानीमें पीसकर पिलाओ। जिसपर विषका असर न होगा, उसे क़य न होंगी; पर जिसपर विषका असर होगा, उसे तय होंगी। अफीम और धतूरे आदिके विषोंके सम्बन्धमें For Private and Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.iawaniwwwwwwwwwwwwwwwwwwwer ३१२ चिकित्सा-चन्द्रोदय। जब सन्देह होता है, तब इस उपायसे काम लेते हैं। कुत्ते आदिके विषपर इस तरह परीक्षा करनेकी बात कहीं लिखी नहीं देखी। हिकमतसे प्रारम्भिक उपाय। "तिब्बे अकबरी" वगैरः हिकमतके ग्रन्थों में बावले कुत्तेके काटनेपर नीचे लिखे उपाय करनेकी सलाह दी गई है:- (१) बावले कुत्तेके काटते ही, काटी हुई जगहका खून निचोड़. कर निकाल दो अथवा घावके गिर्द पछने लगाओ। मतलब यह, कि हर तरहसे वहाँके दूषित रुधिरको निकाल दो, क्योंकि खूनको निकाल देना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सींगी लगाकर खून-मिला जहर चूसना भी अच्छा है। (२) रोगीके घावको नश्तर वगैरःसे चीरकर चौड़ा कर दो, जिससे दूषित तरी आसानीसे निकल जाय । घावको कम-से-कम ४० दिन तक मत भरने दो। अगर घावसे अपने-आप बहुत-सा खून निकले, तो उसे बन्द मत करो। यह जल्दी आराम होनेकी निशानी हैं। (३) रोगीको पैदल या किसी सवारीपर बैठाकर खूब दौड़ाओ, जिससे पसीने निकल जायँ; क्योंकि पसीनोंका निकलना अच्छा है, पसीनोंकी राहसे विष बाहर निकल जाता है। (४) अगर भूलसे घाव भर जाय, तो उसे दोबारा चीर दो और उसपर ऐसी मरहम या लेप लगा दो, जिससे विष तो नष्ट हो, पर घाव जल्दी न भरे । इस कामके लिये नीचे के उपाय उत्तम हैं:___(क ) लहसन, प्याज और नमक-तीनोंको कूट-पीसकर घावपर लगाओ। । (ख) लहसन, जाबशीर, कलौंजी और सिरका--इनका लेप करो। (ग) राल १ भाग, नमक २ भाग, नौसादर २ भागऔर जाबशीर ३ भाग ले लो। जाबशीरको सिरकेमें मिलाकर, उसीमें राल, नमक For Private and Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बावले कुत्ते के काटेकी चिकित्सा | ३१३ और नौसादर को भी पीसकर मिला दो। इस मरहमके लगानेसे घाव भरता नहीं - उल्टा घायल होता है । (५) जब कि कुत्ते के काटे आदमी के शरीर में विष फैलने लगे और दशा बदलने लगे, तब बादीके निकालने की ज़ियादा चेष्टा करो। इस कामके लिये ये उपाय उत्तम हैं: (क) तिरिया अबा और दवा - उस्सुरतान रोगीको सदा खिलाते रहो। जिस तरह वैद्यक में "अगद" हैं, उसी तरह हिकमत में “तिरियाक" हैं । ( ख ) जिस कुत्ते ने काटा हो, उसीका जिगर भूनकर रोगीको खिलाओ। (ग) पाषाणभेद इस रोगकी सबसे अच्छी दवा है । (घ) नहरी कीकड़े १७|| मारो, पाषाणभेद १७ || माशे, कुँदरु गोंद १०॥ माशे, पोदीना १०|| माशे और गिलेमखतूम ३५ माशे- इन सबको कूट-पीसकर चूर्ण बना लो । इसकी मात्रा ३ || माशे की है । इस चूर्ण से बड़ा लाभ होता है । (६) कुत्ते काटे आदमीको तिरियाक या पेशाब ज़ियादा लानेवाली दवा देनेसे पानीका भय नहीं रहता । (७) कुत्ते का काटा आदमी पानीसे डरता है - प्यासा मर जाता है, पर पानी नहीं पीता । रोगी प्यासके मारे मर न जाय, इसलिये एक बड़ी नली में पानी भरकर उसे उसके मुँह से लगा दो और इस तरह पिलाओ, कि उसकी नजर पानी पर न पड़े । प्यास और खुश्की से न मरने देनेके लिये, तरी और सर्दी पहुँचानेकी चेष्टा करो । ठण्डे शीरे, तर भोजन और प्यास बुझानेवाले पदार्थ उसे खिलाते रहो । (८) तीन मास तक घावको मत भरने दो। काटे हुए सात दिन बीत जायें, तब "आकाशबेल" या "हरड़का काढ़ा " रोगीको पिलाकर शरीरका मवाद निकाल दो | ४० For Private and Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (६) रोगीको पथ्यसे रखो । मांस, मछली, अचार, चटनी, सिरका, दही, माठा, खटाई, गरम और तेज पदार्थ उसे न दो। काँसीकी थालीमें खानेको मत खिलाओ और दर्पण मत देखने दो। नदी, तालाब, कूआ और नहर आदि जलाशयोंके पास उसे मत जाने दो। पानी भी पिलाओ, तो नेत्र बन्द करवाकर पिलाओ। हर तरह पानी और सर्दीसे रोगीको बचाओ। हा आयुर्वेदके मतसे बावले कुत्तोंके काटेकी चिकित्सा । वैद्यक-ग्रन्थों में लिखा है, बावले कुत्तेके काटते ही, फौरन, नीचे लिखे उपाय करोः (१) दाढ़ लगे स्थानका खून निचोड़कर निकाल दो। खून निकालकर उस स्थानको गरमागर्म घीसे जला दो। (२) घावको घोसे जलाकर, सर्प-चिकित्सामें लिखी हुई महा अगद आदि अगदोंमेंसे कोई अगद घी और शहद आदिमें मिलाकर पिलाओ अथवा पुराना घी ही पिलाओ। (३) पाकके दूधमें मिली हुई दवाकी नस्य देकर, सिरकी मलामत निकाल दो। . (४) सफ़ेद पुनर्नवा और धतूरेकी जड़ थोड़ी-थोड़ी रोगीको दो। (५) तिलका तेल, आकका दूध और गुड़-बावले कुत्ते के विषको इस तरह नष्ट करते हैं, जिस तरह वायु या हवा बादलोंको उड़ा देती है। तिलीका तेल गरम करके लगाते हैं। तिलोंको पीसकर घावपर रखते हैं । आकके दूधका घावपर लेप करते हैं। (६) लोकमें यह बात प्रसिद्ध है कि, बावले कुत्ते के काटे आदमीको "हड़कवाय" न होने पावे | अगर हो गई तो रोगीका बचना कठिन है। For Private and Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१५ बावले कुत्ते के काटेकी चिकित्सा। इसके लिये लोग उसे काँसीकी थाली, आइना, पानी और जलाशयोंसे दूर रखते हैं। वैद्यकमें भी, विष अपने-आप कुपित न हो जाय इसलिये, दवा खिलाकर स्वयं कुपित करते हैं। जब विषका नकली कोप होता है, तब रोगीको जल-रहित शीतल स्थानमें रखते हैं । वहाँ रोगीकी नक़ली या दवाके कारणसे हुई उन्मत्तता शान्त हो जाती है। "सुश्रुत में ऐसी नक़ली पागलपन करानेवाली दवा लिखी है: शरफोंकेकी जड़ १ तोले, धतूरेकी जड़ ६ माशे और चाँवल ६ माशे-इन तीनोंको चाँवलोंके पानीके साथ महीन पीसकर गोला-सा बना लो। फिर उसपर पाँच-सात धतूरके पत्ते लपेटकर पका लो और कुत्तेके काटे हुएको खिलाओ । इस दवाके पचते समय, अगर उन्मत्तता-पागलपन आदि विकार नज़र आवें, तो रोगीको जलरहित शीतल स्थानमें रख दो। इस तरह करनेसे दवाकी वजहसे उन्माद आदि विकार शान्त हो जाते हैं । अगर फिर भी कुछ विष-विकार बाक़ी रहे दीखें, तो तीन दिन या पाँच दिन बाद फिर इसी दवाकी आधी मात्रा दो। दूसरी बार दवा देनेसे सब विष नष्ट हो जायगा। जब विष एकदम नष्ट हो जाय, रोगीको स्नान कराकर, गरम दूधके साथ शालि या साँठीके चाँवलोंका भात खिलाओ । यह दवा इसलिये दी जाती है कि, विष स्वयं कुपित न हो, वरन् इस दवासे कुपित हो। क्योंकि अगर विष अपने-आप कुपित होता है, तो मनुष्य मर जाता है और अगर इस दवासे कुपित किया जाता है, तो वह शान्त होकर निःशेष हो जाता है। यह विधि बड़ी उत्तम है । वैद्योंको अवश्य करनी चाहिये । सूचना-कुत्ते के काटेके निर्विष होनेपर उसे स्नान आदि कराकर, तेज़ वमन विरेचनकी दवा देकर शुद्ध कर लेना बहुत ही ज़रूरी है, क्योंकि अगर बिना शोधन किये घाव भर भी जायगा, तो विष समय पाकर फिर कुपित हो सकता है। चूँ कि वमन-विरेचनका काम बड़ा कठिन है, अतः इस प्रकारका इलाज वैद्योंको ही करना चाहिये । वाग्भट्टने लिखा है:-- For Private and Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । अर्कक्षीरयुतं चास्य योज्यमाशु विरेचनम् । आकका दूध-मिला हुआ जुलाब कुत्ते के काटे हुएको जल्दी ही देना चाहिये । नोट-श्राकका दूध, तिलका तेल, तिलकुट, गुड़, धतूरेकी जड़ और सफ़ेद पुनर्नवा--विषखपरा--ये सब कुत्ते के काटेको परम हितकारी हैं। ..... ... ........... o चन्द अपने-पराये परीक्षित उपाय । ... .... . .... अभी गत वैशाख सं० १६८० में, हम अपनी कन्याकी शादी करने मथुरा गये थे। हमारे पासके घरमें एक मनुष्यको कुत्तेने काटा। हमारे यहाँ, कामवनसे, हमारे एक नातेदार आये थे। उन्होंने कहा, कि नीचे लिखे उपायसे अनेक मनुष्य पागल कुत्तेके काटनेपर आराम हुए हैं। इसके सिवा, हमने उनके कहनेसे पहले भी इस उपायकी तारीफ़ दिहातके लोगोंसे सुनी थी:-- पहले कुत्ते के काटे स्थानपर चिरागका तेल लगाओ । फिर लाल मिर्च पीसकर जख्ममें दाब दो। ऊपरसे मकड़ीका जाला धर दो और वहाँ कसकर पट्टी बाँध दो। इस उपायको औरतें भी जानती हैं। यह उपाय बहुत कम फेल होता है । “वैद्यकल्पतरु" में एक सज्जन लिखते हैं:-- (१) पागल कुत्ते के काटते ही, उसके काटे हुए भागको काटकर जला दो। (२) विष दूर हो जानेपर, रोगीको खानेके लिये स्नायु शिथिल करनेवाली दवाएँ--अफीम, भाँग या बेलाडोना प्रभृति दो । . (३) अगर कुत्तेका काटा हुआ आदमी अधिक अफीम पचाले, तो उससे विषके कीड़े निकल जावें और रोगी बच जावे। For Private and Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१७ - बावले कुत्ते के काटेकी चिकित्सा। (४) कुकुरबेल नामकी वनस्पति पिलानेसे खूब दस्त और क़य होते और विषैले जन्तु मरकर निकल जाते हैं। कुत्ते के काटनेपर नीचेके लेप उत्तम हैं:(१) लहसनको सिरके में पीसकर घावपर लेप करो। (२) प्याजका रस शहद में मिलाकर लेप करो। (३) कुचला आदमीके मूत्रमें पीसकर लगाओ। (४) कुचला शराबमें पीसकर लगाओ। (५) शुद्ध कुचला, शुद्ध तेलिया विष और शुद्ध चौकिया सुहागा-इन्हें समान-समान लेकर पीस लो और रख दो। इसमेंसे रत्ती-रत्ती-भर दवा खिलानेसे, बावले कुत्तेका काटा, २१ दिनमें, ईश्वर-कृपासे आराम हो जाता है। (६) ल्हिसौड़ेके पत्ते १ तोले और कालीमिर्च १ माशे-आध पाव जलमें घोटकर ६ या १५ दिन पीनेसे कुत्तेका काटा आदमी आराम हो जाता है। (७) दोनों जीरे और कालीमिर्च पीसकर १ महीने तक पीनेसे कुत्तेका विष शान्त हो जाता है। . (८) अगर कुत्तेके काटनेसे शरीरपर कोढ़के-से चकच हो जाय, तो आमलासार गंधक ६ माशे, नीलाथोथा ६ माशे और जमालगोटा ६ माशे-तीनोंको पीस-छानकर घीमें मिला दो। फिर उस घीको ताम्बेके बर्तनमें रखकर, १०१ बार धोओ। इस घीको शरीरमें लगाकर ३ घण्टे तक आग तापो। अगर तापनेसे सारे शरीरपर बाजरेके-से दाने हो जाय, तो दूसरे दिन गोबर मलकर नहा डालो। बस, सब शिकायतें रफा हो जायेंगी। नोट-इस घीको आँखों और गलेपर मत लगाना। मतलब यह कि, इसे गलेसे ऊपर मत लगाना । For Private and Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३१८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय | श्वान - विष नाशक नुसखे । (१) कड़वी तोरई का रेशे समेत गूदा निकालो। फिर इस गूदेको एक पाव पानी में आध घण्टे तक भिगो रखो । शेषमें, इसको मसल-छानकर, बलानुसार, पाँच दिन तक, नित्य, सवेरे पीओ । इससे दस्त और क्रय होकर विष निकल जाता है। बावले कुत्ते का कैसा भी विष क्यों न हो, इस दवा से अवश्य आराम हो जाता है, बशर्ते कि आयु हो, और जगदीशकी कृपा हो । नोट- बरसात निकल जाने तक पथ्य रखना बहुत जरूरी है। कड़वी तोरई जंगली होनी चाहिये । (२) कुकुर भाँगरेको पीसकर पीने और उसीका लेप करनेसे कुत्त े का विष नष्ट हो जाता है । नोट-भाँगरेके पेड़ जलके पासकी ज़मीनमें बहुत होते हैं । इनकी शाखों में कालापन होता है । पत्तोंका रस काला-सा होता है । सफ़ ेद, काले और 1 पीले-तीन तरहके फूलों के भेदसे ये तीन तरहके होते हैं । इसकी मात्रा २ माकी है। (३) आके दूधका लेप कुत्ते और बिच्छू के काटे स्थानपर लगाने से अवश्य आराम हो जाता है । बहुत ही उत्तम योग है । नोट – ऊपरके तीनों नुसख श्रज़मूदा हैं । अनेक बार परीक्षा की है । जिनकी ज़िन्दगी थी, वे बच गये । "वैद्यसर्वस्व में लिखा है: ---- विषमर्कपयेोलेपः श्वानवृश्चिकयोर्जयेत् । कौक्कुरु पानलेपाभ्यामथश्वानविषं हरेत् || अर्थ वही है जो नं० २ और ३ में लिखा है । तो तत्काल, बिना देर किये, थोड़ा-सा सिन्दूर मिलाकर ( ४ ) अगर किसीको पागल कुत्ता या पागल गीदड़ काट खाय, सफ़ेद आक का दूध निकालकर, उसमें उसे रूईके फाहेपर रखकर, काटे हुए For Private and Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बावले कुत्तेके काटेकी चिकित्सा । ३१६ स्थानपर रखकर बाँध दो । इस तरह नियमसे, रोज ताजा आकके दूधमें सिन्दूर मिला-मिलाकर बाँधो। कितने ही दिन इस उपायके करनेसे अवश्य आराम हो जायगा । जब रूई सूख जाय, उतार फेंको। परीक्षित है। नोट--इस रोगमें पथ्य-पालनकी सख्त ज़रूरत है । मांस, मछली, अचार, चटनी, सिरका, दही, माठा और खटाई आदि गरम और तीक्ष्ण पदार्थ-अपथ्य हैं। ___ (५) अगर बावला कुत्ता काट खाय, तो पुराना घी रोगीको पिलाओ । साथ ही दूध और घी मिलाकर काटे हुए स्थानपर सींचो यानी इनके तरड़े दो। (६) सरफोंकेकी जड़ और धतूरेकी जड़-इन दोनोंको चाँवलोंके पानीमें पीसकर, गोला बना लो। फिर उसपर धतूरेके पत्ते लपेट दो और छायामें बैठकर पका लो । फिर निकालकर रोगीको खिलाओ । इससे कुत्तेका विष नष्ट हो जाता है। (७) धतूरेकी जड़को दूधके साथ पीसकर पीनेसे कुत्तका विष नष्ट हो जाता है। ___ (८) अंकोलकी जड़ चाँवलोंके पानीके साथ पीसकर पीनेसे कुत्तेका विष दूर हो जाता है। .. ( ६ ) कठूमरकी जड़ और धतूरेका फल-इनको एकत्र पीसकर, चाँवलोंके जलके साथ पीनेसे कुत्तेका विष दूर हो जाता है । नोट--कठूमर गूलरका ही एक भेद है। (१०) अंकोलकी जड़के आठ तोले काढ़े चार तोले घी डालकरः पीनेसे कुत्ते का विष नष्ट हो जाता है । परीक्षित है। (११) लहसन, कालीमिर्च, पीपर, बच और गायका पित्ता--इन सबको सिलपर पीसकर लुगदी बना लो । इस दवाके पीने, नस्यकी तरह घने, अंजन लगाने और लेप करनेसे कुत्ते का विष उतर जाता है। नोट—यह एक ही दवा पीने, लेप करने, नाकमें सूंघने और नेत्रोंमें आँजनेसे कुत्ते के काटे श्रादमीको आराम करती है। For Private and Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२० चिकित्सा-चन्द्रोदय। (१२) जलबेंतकी जड़ और पत्त तथा कूट-इन दोनोंको जलमें पका और शीतल करके पीनेसे कुत्तेका विष दूर हो जाता है । परीक्षित है। (१३) जलबेंतके पत्ते और उसीकी जड़को कूट लो । फिर उन्हें पानीमें डालकर काढ़ा कर लो । इस काढेको छानकर और शीतल करके पीनेसे कुत्ते का विष नष्ट हो जाता है । परीक्षित है। (१४) जंगली कड़वी तोरई के काढ़ेमें घी मिलाकर पीनेसे वमन होती और विष उतर जाता है । परीक्षित है। नोट-यह नुसखा, कुरोके विषों आदि अनेक तरहके विषोंपर चलता है। सभीतरहके विषोंमें वमन कराना सर्वश्रेष्ठ उपाय है और इस दवासे वमन होकर विष निकल जाता है। (१५) "तिब्बे अकबरी" में लिखा है, जो कुत्ता काटे उसीका थोड़ा-सा खून निकालकर, पानीमें मिलाकर, कुत्ते के काटे आदमीको पिलाओ । इसके पीनेसे बावले कुत्ते का विष असर न करेगा। _____ नोट--यह उसी तरहका नुसखा है, जिस तरह हमारे आयुर्वेदमें जो साँप काटे, उसीके काटने की सलाह दी गई है। काटनेसे साँपका खून रोगीके पेटमें जाता है और उसके विषको चढ़ने नहीं देता। (१६) कुत्ते के काटे स्थानपर, कुवला आदमीके पेशाबमें औटाकर और फिर पीसकर लेप करनेसे बड़ा लाभ होता है। ___नोट-साथ ही कुचलेको शराबमें श्रौटाकर, उसकी छाल उतार फैंको। फिर उसमेंसे एक रत्तो रोज़ कुत्ते के काटे प्रादमीको खिलायो । अथवा कुचलेको पानीमें श्रौटाकर और थोड़ा गुड़ मिलाकर रोगोको खिलायो । कुचलेकी मात्रा ज़ियादा न होने पावे । बावले कुत्तेके काटनेपर कुचला सर्वोत्तम दवा है । कई बार परीक्षा की है। (१७) जो कुत्ता काटे, उसीकी जीभको काटकर जला लो । फिर उसकी राखको काटे हुए घावपर छिड़को । इस उपायसे जहर असर नहीं करेगा और कुत्तेका काटा घाव भर जायगा। (१८) तलैना नामक दवाको डिब्बीमें रखकर बन्द करदो और For Private and Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बावले कुत्ते के काटेकी चिकित्सा । भीतर ही सूखने दो। फिर इसको एक चने-भर लेकर, थोड़ेसे गुड़में मिलाकर, कुत्तेके काटे आदमीको खिलाओ। इसके सेवन करनेसे कुत्तेके काटनेसे बावला हुआ आदमी भी आराम हो जाता है। एक हकीम साहब इसे अपना आजमूदा नुसता कहते हैं। (१६) अंगूरकी लकड़ीकी राख सिरकेमें मिलाकर कुत्तेके काटे स्थानपर लगानेसे लाभ होता है। (२०) लाल बानातके टुकड़ेके चने-चने समान सात टुकड़े काट लो। फिर हर टुकड़ेको गुड़में मिलाकर, सात गोलियाँ बना लो । इन गोलियोंके खानेसे कुत्तेका काटा आराम हो जाता है । यह एक अँगरेजका कहा हुआ नुसखा है। . (२१) जिस कुत्तेने काटा हो, उसीके बाल जलाकर राख कर लो। इस राखको काटे स्थानपर छिड़को । अवश्य लाभ होगा। . (२२) कलौंजीकी जवारस कुत्ते के काटे आदमीको बड़ी मुफीद है । इसे खाना चाहिये। (२३) कुत्ते की काटी जगहपर मूलीके पत्ते गरम करके रखनेसे अवश्य लाभ होता है। (२४) कुत्ते के काटे स्थानपर चूहेकी मैंगनी पीसकर लगाओ।। (२५) कुत्तेके काटे स्थानपर सम्हालूके पत्ते पीसकर लेप करो। (२६) बाजरेका फूल-जो बालके अन्दर होता है-एक माशे-भर लेकर गुड़में लपेटकर, गोली बनाकर, रोज खिलानेसे कुत्तेका काटा आराम हो जाता है। (२७) चालीस माशे कलौंजी फाँककर, ऊपरसे गुनगुना पानी पीनेसे कुत्तेके काटेको लाभ होता है। तीन दिन इसे फाँकना चाहिये । (२८) कुत्ते के काटे स्थानपर पछने लगाने यानी खुरचने और वन निकाल देनेके बाद राईको पीसकर लेप करो। अच्छा उपाय है। . (२६) विजयसार और जटामासीको सिलपर पीसकर पानीमें छान लो। फिर एक “मातुलुगका फल' खाकर ऊपरसे यही छना For Private and Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । हुआ दवाका पानी पीलो । इस नुसनेसे पागल कुत्तेका काटा निश्चय ही आराम हो जाता है। . (३०) “तिब्बे अकबरी"में लिखा है, कुत्तेके काटे स्थानपर सिरका मलो या ऊनको सिरकेमें भिगोकर रखो। अगर सिरके में थोड़ासा गुले-रोगन भी मिला दो तो और भी अच्छा । ___ ( ३१ ) कुत्तेके काटे स्थानपर थोड़ा-खा पपड़िया नोन सिरकेंमें मिलाकर बाँध दो और हर तीसरे दिन उसे बदलते रहो। (३२) प्याज़, नमक, शहद, पपड़िया नोन और सिरका- इनको मिलाकर लगानेसे कुत्तेका काटा आराम हो जाता है। (३३) नमक, प्याज, तुतली, बाकला, कड़वा बादाम और साफ़ शहद-इनको मिलाकर कुत्तेके काटे स्थानपर लगानेसे आराम होता है। (३४) धतूरेके शोधे हुए बीज इस तरह खाय--पहले दिन १, दूसरे दिन २, तीसरे दिन ३--इस तरह २१ दिन तक रोज़ एक-एक बीज बढ़ाया जाय । फिर २१ बीज खाकर, रोज एक-एक बीज घटाकर खाय और १ पर आ जाय । इस तरह धतूरके बीज बढ़ा-घटाकर खानेसे कुत्तेका विष निश्चय ही नष्ट हो जाता है; पर बीजोंको शास्त्र-विधिसे शोधे बिना न खाना चाहिये । नोट-धतूरेके बीजोंको १२ घण्टे तक गो-मूत्रमें भिगो रखो, फिर निकालकर सुखा लो और उनकी भूसी दूर कर दो। बस, इस तरह वे शुद्ध हो जायँगे । जौकके विषकी चिकित्सा । वर्णन । KORAK के निर्विष और विषैली दोनों तरहकी होती हैं। निर्विष जो जौंकें खून बिगड़ जानेपर शरीरपर लगाई जाती हैं। ये REE मैला या गन्दा खून पीकर मोटी हो जाती और फिर गिर पड़ती हैं । जौंकोंका धन्धा करनेवालोंको जहरी जौंकें न पालनी For Private and Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खटमल भगाने के उपाय । ३२३ चाहियें, क्योंकि जहरीली जौंकोंके काटनेसे खुजली, सूजन, ज्वर और मूर्छा होती है। कोई-कोई लिखते हैं, जलन, पकाव, विसर्प, खुजली और फोड़े-फुन्सी भी होते हैं। कोई सफेद कोढ़का हो जाना भी कहते हैं। विषैली जौंकों की पहचान । विषैली जौंके लाल, सफेद, घोर काली, बहुत चपल, बीचसे मोटी, रोएँ वाली और इन्द्रधनुषकी-सी धारीवाली होती हैं । इन्हींके काटनेसे उपरोक्त विकार होते हैं। ___ आसाम और दार्जिलिङ्गकी तरफ़ ये पाँवों में चिपट जाती और बड़ी तकलीफ देती हैं, अतः जङ्गलोंमें फिरनेवालोंको टखने तक जूते और पायजामा पहनकर घूमना चाहिये। चिकित्सा। सिरस, मालकाँगनी, अर्जुनकी छाल, ल्हिसौड़ेकी छाल और बड़, पीपर, गूलर, पाखर और पारस पीपल--इन सबकी छालोंको पानीमें पीसकर पीने और लगानेसे जौंकका काटा हुआ आराम हो जाता है। नोट-जौंकका विष नाश करनेवाले और नुसख 'कीट-विष-चिकित्सा में लिखे हैं। | खटमल भगानेके उपाय। PA खाटोंके अन्दर रहते हैं । कलकत्तेमें तो दीवारों, किताबों, ये तिजोरियोंकी सन्धों और कपड़ोंमें बाज-बाज़ वक्त बुरी As Pe तरहसे भर जाते हैं । रातको चींटियोंकी-सी कतार निकलती है। तड़का होनेसे पहले ही ये अपने-अपने स्थानोंमें जा छिपते हैं। ये मनुष्यका खून पी-पीकर मोटे होते और रातको नींदभर सोने नहीं देते। For Private and Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३२४ चिकित्सा चन्द्रोदय | अगर इनसे बचना चाहो तो नीचे लिखे उपाय करो: ( १ ) बिस्तर, तकिये और गद्द े खूब साफ़ रखो । उन्हें दूसरे - तीसरे दिन देखते रहो। चादरोंको रोज या दूसरे-तीसरे दिन धो लो या धुलवा लो । पलंगों पर किरमिच या और कोई कपड़ा इस तरह मढ़वालो, कि खटमलोंके रहनेको जगह न मिले । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २ ) जब सफ़ेदी कराओ, चूने में थोड़ी-सी गन्धक भी मिला दो । इस तरह सफ़ेदी करानेसे खटमल दीवारों में न रहेंगे । (३) घर और खाटों में गन्धककी धूनी दो । ( ४ ) जिन चीजों से ये न निकलते हों, उनमें गन्धकका धूआँ पहुँचाओ । अथवा मरुवेके काढ़े में नीलाथोथा मिलाकर, उस पानी से उन्हें धो डालो और घरको भी उसी जलसे धोओ । मरुवे और गन्धककी बू खटमलों को पसन्द नहीं । OOOOOOO... 30005 000000000 शेर और चीतेके किये जख्मोंकी चिकित्सा | 0000000 गसेनमें लिखा है, - बाघ, सिंह, भेड़िया, गीदड़, कुत्ता, चौपाये जानवर और जंगली आदमियोंके नाखूनों और दाँतों में विष होता है । इनके नाखूनों और दाँतोंसे घाव होकर, वह स्थान सूज जाता और खून बहता तथा ज्वर हो आता है । " तिब्बे अकबरी' में लिखा है, चीते और शेर प्रभृति जानवरों के दाँतों और पंजों में ज़हर होता है । अतः पहले पछने लगाकर विष निकालना चाहिये, उसके बाद लेप वग़ैरः करने चाहियें । ( १ ) चाय औटाकर, उसीसे शेरका किया हुआ घाव धोओ। फ़ौरन आराम होगा। For Private and Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शेर और चीतेके किये जख्मोंकी चिकित्सा । ३२५ (२) पछनोंसे मवाद निकालकर, जरावन्द, सौसनकी जड़ और शहद-इन तीनोंको मिलाकर शेर इत्यादिके किये हुए घावोंपर लेप करो। .. (३) ताम्बेका बुरादा, सौसनकी जड़, चाँदीका मैल, मोम और जैतूनका तेल-इन सबको मिलाकर घावपर लगाओ। इस मरहमसे शेर, चीते, बाघ, भेड़िये और बन्दर आदि सभी चौपायोंके किये हुए घाव आराम हो जाते हैं। __ (४) अगर सिंह या शेरका बाल किसी तरह खा लिया जाता है तो बैठते समय पेट में दर्द होता है । शेरका बाल खानेवाला आदमी अगर अरण्डके पत्तेपर पेशाब करता है, तो पत्तेके टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं । यही शेरका बाल खानेकी पहचान है। अगर शेरका बाल खाया हो और परीक्षासे निश्चय हो जाय, तो नीचे लिखे उपाय करोः (क) कसौंदीके पत्तोंका स्वरस ३ दिन पीओ। (ख ) तीन-चार झींगे निगल जाओ। (५) भेड़िया, बाघ, तेंदुआ, रीछ, स्यार, घोड़ा और सींगवाले जानवरोंके काटे हुए स्थानपर तेल मलना चाहिये। (६) मोखेके बीज, पत्ते या जड़-इनमेंसे किसी एकका लेप करनेसे भेड़िये और बाघ आदि नं०५ में लिखे जानवरोंका विष नष्ट हो जाता है। (७) ईख, राल, सरसों, धतूरेके पत्ते, आकके पत्ते और अर्जुनके फूल--इन सबको मिलाकर, इनकी धूनी देनेसे स्थावर और जंगम दोनों तरहके विष नाश हो जाते हैं। जिस जगह यह धूनी दी जाती है वहाँ सर्प, मैंडक एवं अन्य कीड़े कुछ भी नहीं कर सकते । इस धूनीसे इन सबका विष तत्काल नाश हो जाता है। नं० ५ में लिखे जानवरोंके काटनेपर भी यह धूनी पूरा फायदा करती है, अतः उनके काटनेपर इसे अवश्य काममें लाओ। (८) बेलगिरी, अरहर, जवाखार, पाढल, चीता, कमल, कुम्भेर For Private and Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । और सेमल - इन सबका काढ़ा बनाकर, उस काढ़े द्वारा शेर आदिके काटे स्थानको सींचनेसे या इस काढ़ेका तरड़ा देनेसे नं०५ में लिखे सभी जानवरोंका विष शान्त हो जाता है । AKAIRMIRRIMAAIK मण्डूक-विष-चिकित्सा। डक बहुत तरहके होते हैं। उनमें से जहरीले मैंडक आठ प्रकारके होते हैं:-- (१) काला, (२) हरा, (३) लाल, (४ ) जौके रंगका, (५) दहोके रंगका, (६) कुहक, (७) भ्र कुट, और (८) कोटिक । __इनमेंसे पहले छै मैंडकोंमें जहर तो होता है, पर कम होता है । इनके काटनेसे काटे हुए स्थानमें बड़ी खुजली चलती है और मुखसे पीले-पीले भाग गिरते हैं । भ्रकुट और कोटिक बड़े भारी जहरी होते हैं। इनके काटनेसे काटी हुई जगहमें बड़ी भारी खाज चलती है, मैं हसे पीले पीले झाग गिरते हैं, बड़ी जलन होती है, क्य होती हैं, और घोर मूर्छा या बेहोशी होती है । कोटिकका काटा हुआ आदमी आराम नहीं होता। नोट-कोटिक मैंडक बीरबहुट्टीके श्राकारका होता है। "बंगसेन में लिखा हैः-विषैले मैंडकके काटनेसे मैंडकका एक ही दाँत लगता है । दाँत लगे स्थानमें वेदना-युक्त पीली सूजन होती है, प्यास लगती, वमन होती और नींद आती है। ___ "तिब्बे अकबरी” में लिखा है,--जो मैंडक लाल रंगके होते हैं, उनका विष बुरा होता है। यह मैंडक जिस जानवरको दूरसे भी देखता है, उसीपर जोरसे कूदकर आता है। अगर यह किसी तरह नहीं काट सकता, तो जिसे काटना चाहता है उसे फूंकता है। फूंकनेसे भी भारी सूजन चढ़ती और मृत्यु तक हो जाती है । For Private and Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२७ भेड़िये और बन्दरके काटेकी चिकित्सा। नहरी और जंगली मैंडकोंके काटनेसे नर्म सूजन होती है। उनका और शीतल विषोंका एक इलाज है। नोट-लाल मैंडोंके काटने पर "तिरियाक कबीर" देना अच्छा है। मैंडक-विष नाशक उपाय । Q9२७ PRO0299229२७२५७२५७२र७२७2392923929.७ SRO सिरसके बीजोंको थूहरके दूधमें पीसकर लेप करनेसे मैंडकका विष तत्काल शान्त हो जाता है। KHABARRIERREARRERAK भेड़िये और बन्दरके काटेकी चिकित्सा । KAKKAR न्दरके काटनेसे भी मनुष्यको बड़ी पीड़ा होती है और बू कभी-कभी घाव बड़ी दिक्कतसे आराम होते हैं। बन्दरके RAKER काटनेपर नीचेके उपाय बहुत उत्तम हैं:-- ( १ ) मुर्दासंग और नमक पानीमें पीसकर काटी हुई जगहपर मलो। (२) काटी हुई जगहपर कलौंजी और शहद मिलाकर लगाओ। इससे घाव खुला रहेगा और विष निकल जायगा। (३) काटे हुए स्थानपर प्याज पीसकर मलो। (४) जरावन्द, सौसनकी जड़ और शहद-इन तीनोंको मिलाकर घावपर लेप करो। (५) प्याज और नमक कूट-पीसकर बन्दरके घावपर रखो। . (६) ताम्बेका बुरादा, सौसनकी जड़, चाँदीका मैल, मोम और जैतून का तेल-इनको मिलाकर मरहम बना लो। सिरकेसे घावको धोकर, यह मलहम लगानेसे बन्दर और भेड़ियेका काटा For Private and Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२८ - चिकित्सा-चन्द्रोदय । हुआ स्थान अवश्य आराम हो जाता है । इस कामके लिये यह मरहम बड़ी ही उत्तम है। ___ नोट--मोमको गलाकर जैतूनके तेलमें मिला लो। फिर शेष तीनोंको खूब महीन पीसकर मिला दो। बस, मरहम बन जायगी। सूचना-बन्दर या भेड़ियेके काटनेपर पहले पछने लगाकर ज़हर निकाल दो, फिर लेप या मरहम लगायो । 0086863636363666668600 मकड़ीके विषकी चिकित्सा । 0038860606068686868680 0000 हते हैं. किसी समय विश्वामित्र राजा महामुनिवशिष्ठजीके एक आश्रममें गये और उन्हें गुस्सा दिलाया। वशिष्ठजीको OC क्रोध आया, उससे उनके ललाटपर पसीने आ गये। वह पसीने सामने पड़ी हुई गायकी कुट्टीपर पड़े; उनसे ही, अनेक प्रकारके लूता नामके कीड़े पैदा हो गये। .लूता या मकड़ीके काटनेसे काटा हुआ स्थान सड़ जाता है, खून बहने लगता है, ज्वर चढ़ आता है, दाह होता है, अतिसार और त्रिदोषके रोग होते हैं, नाना प्रकारकी फुन्सियाँ होती हैं, बड़े-बड़े चकत्ते हो जाते हैं और बड़ी गंभीर, कोमल, लाल, चपल, कलाई लिये हुए सूजन होती है । ये सब मकड़ीके काटनेके सामान्य लक्षण हैं। .. अगर काटे हुए स्थानपर काला या किसी कदर झाँईवाला, जाले समेत, जलेके समान, अत्यन्त पकनेवाला और क्लेद, सूजन तथा ज्वर सहित घाव हो, तो समझो कि दूषी विष नामकी मकड़ीने काटा है। असाध्य लूता या मकड़ीके काटनेके लक्षण । - अगर असाध्य मकड़ी काटती है, तो सूजन चढ़ती है, लाल सफेद और पीली-पीली फुन्सियाँ होती हैं, ज्वर आता है, प्राणान्त करने For Private and Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir PAAAAAA मकड़ीके विषकी चिकित्सा । ३२६. वाली जलन होती है, श्वास चलता है, हिचकियाँ आती हैं और सिरमें दर्द होता है। हमारे आयुर्वेदमें मकड़ियोंकी बहुत किस्में लिखी हैं। त्रिमण्डल आदि आठ कष्टसाध्य और सौवर्णिक आदि आठ असाध्य मकड़ियाँ होती हैं । ये राईके दानेसे लेकर तीन-तीन और चार-चार इञ्च तक बड़ी होती हैं। ____ बहुत बड़ी और उग्र विषवाली मकड़ियाँ घोर वनोंमें होती हैं, जिनके काटनेसे मनुष्यके प्राणान्त ही हो जाते हैं, परन्तु गृहस्थोंके घरोंमें ऐसी जहरीली मकड़ियाँ नहीं होती; पर जो होती हैं, वे भी कम दुःखदायिनी नहीं होती। मकड़ियोंकी मुँहकी लार, नाखून, मल, मूत्र, दाढ़, रज और वीर्य सबमें जहर होता है। बहुत करके मकड़ीकी लार या चेपमें जहर होता है । मकड़ीकी लार या चेप जहाँ लग जाते हैं, वहीं दाफड़ददौरे, सूजन, घाव और फुन्सियाँ हो जाती हैं। घाव सड़ने लगता है। उसमें बड़ी जलन होती और ज्वर तथा अतिसार रोग भी हो जाते हैं। यह देखनेमें मामूली जानवर है, पर है बड़ा भयानक, अतः गृहस्थोंको इसे घरमें डेरा न जमाने देना चाहिये । अगर एक मकड़ी भी होती है, तो फिर सैकड़ों हो जाती हैं। क्योंकि एक एक मकड़ी सैकड़ों-हज़ारों, तिलसे भी छोटे-छोटे अण्डे देती है। अगर उनकी लार या चेप कपड़ोंसे लग जाते हैं और मनुष्य उन्हीं कपड़ोंको बिना धोये पहन लेता है, तो उसके शरीरमें मकड़ीका विष प्रवेश कर जाता है। इस तरह अगर मकड़ी खाने-पीनेके पदार्थों में अपना मल, मूत्र, वीर्य या लार गिरा देती है, तो भी भयानक परिणाम होता है, अतः गृहस्थोंको अपने घरोंमें हर महीने या दूसरे-तीसरे महीने सफेदी करानी चाहिये और इन्हें देखते ही किसी भी उपायसे भगा देना चाहिये। औरतें मकड़ीके विकार होनेपर मकड़ी मसलना कहती हैं। ४२ For Private and Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३० चिकित्सा-चन्द्रोदय । र मकड़ी-विष-नाशक नुसखे । (१) फूल प्रियंगू , हल्दी, दारुहल्दी, शहद, घी और पद्माख - इन सबको मिलाकर सेवन करनेसे सब तरहके कीड़ों और मकड़ीका विष नष्ट हो जाता है। (२) करंज, प्राकका दूध, कनेर, अतीस, चीता और अखरोट-- इन सबके स्वरसके द्वारा पकाया हुआ तेल लगानेसे मकड़ीका किया हुआ घाव नष्ट हो जाता है। (३) मण्डवा पानीमें पीसकर लगानेसे मकड़ीके विकार फुन्सी वगैरः नाश हो जाते हैं। (४) सफ़ेद जीरा और सोंठ--पानीमें पीसकर लगानेसे मकड़ी के विकार नाश हो जाते हैं ! ( ५ ) केंचुए पीसकर मलनेसे मकड़ीका जहर और उसके दाने आराम हो जाते हैं। नोट--कैंचुए न मिले तो उनकी मिट्टी ही मलनी चाहिये। (६) चूनेको नीबूके रसमें खरल करके मलनेसे मकड़ीके दाने मिट जाते हैं। (७) चूनेको मीठे तेल और चिरौंजी के साथ पीसकर लेप करनेसे मकड़ीके दाने नष्ट हो जाते हैं। (८) लाल चन्दन, सफेद चन्दन और मुर्दासंग--इन तीनोंको पीसकर लगानेसे मकड़ीका जहर नाश हो जाता है। (६) खली और हल्दी पानीमें पीसकर लेप करनेसे मकड़ीका विष नाश हो जाता है। (१०) हल्दी, दारुहल्दी, मँजीठ, पतंग और नागकेशर-इन सबको शीतल जलमें एकत्र पीसकर, काटने के स्थानपर लेप करनेसे मकड़ीका विष शान्त हो जाता है । परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मकड़ी-विष-नाशक नुसख्ने । ३३१ (११) कटभी, अर्जुन, सिरस, बेल और दूधवाले वृक्षों (पाखर, बड़, गूलर, पीपल और बेलिया पीपर) की छालोंके काढ़े, कल्क या चूर्णके सेवन करनेसे मकड़ी और दूसरे कीड़ोंका विष नष्ट हो जाता है। । १२) चन्दन, पद्माख, कूट, तगर, खस, पाढ़ल, निर्गुण्डी , सारिवा और बेल--इन सबको एकत्र पीसकर लेप करनेसे मकड़ीका विष नष्ट हो जाता है। (१३) चन्दन, पद्माख, खस, सिरस, सम्हालू, क्षीरविदारी, तगर, कूट, सारिवा, सुगन्धवाला, पाढर, बेल और शतावर-इन सबको एकत्र पीसकर लेप करनेसे मकड़ीका विष नाश हो जाता है। (१४) चन्दन, पद्माख, कूट, जवासा, खस, पाढ़ल, निर्गुण्डी, सारिवा और ल्हिसौड़ा--इन सबको एकत्र पीसकर लेप करनेसे मकड़ीका विष नाश हो जाता है। परीक्षित है। नोट-नं० १२ और नं० १४ के नुसखे में कोई बड़ा भेद नहीं। उसमें तगर और बेल है, इसमें जवासा और ल्हिसौड़ा है; शेष दवायें दोनोंमें एक ही हैं। (१५) कड़वी खलकी ७ दिन धूनी देनेसे मकड़ीका विष नष्ट हो जाता है। नोट-इसके साथ ही खली और हल्दीको पानीके साथ पीसकर इनका लेप किया जाय, तो क्या कहना, फौरन आराम हो। परीक्षित है। "वैद्यसर्वस्व"में लिखा हैः-- याति गोमयलेपेन कंडूः खजू भवा तथा।। कटुपिण्याक धूमकैः मकरीजंविषं याति सप्ताहपरिवर्तितः ।। (१६) सफ़ेद पुनर्नवाकी जड़को महीन पीसकर और मक्खनमें मिलाकर लगानेसे मकड़ीके विषसे हुए विकार नष्ट हो जाते हैं। (१७) अपामार्गकी जड़को महीन पीसकर और मक्खनमें मिलाकर लगानेसे मकड़ीके चेपसे हुए दाफड़-ददौरे और फुन्सी आदि सब नाश हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (१८) गूलर, पीपर, पारस-पीपल, बड़ और पाखर--इन पाँचों दूधवाले पेड़ोंकी छालोंका काढ़ा करके शीतल कर लो और इससे मकड़ीके विषसे हुए घाव और फुन्सी आदिको धोओ। बहुत जल्दी लाभ होगा। (१६) कत्था २ तोले, कपूर १ तोले और सिन्दूर ६ माशे- इन तीनोंको महीन पीसकर बारीक कपड़ेमें छान लो और १००. बार धुले घी या मक्खनमें मिला दो। इस मक्खनसे मकड़ीके घाव, फुन्सी और सूजन आदि सब नष्ट हो जाते हैं। बड़ी ही उत्तम मरहम है। परीक्षित है। (२०) चौलाईका साग पानीमें पीसकर लगानेसे मकड़ीका विष शान्त हो जाता है। Mailni JALORE (SD LATION For Private and Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir দীছু হচ্ছে ! - - ~ ~-~ For Private and Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * AR ANWRAIWWWNARWwwwwKNOWwwwNNEL.२. स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा । ASTRA NMAMMOH3 प्रदर रोगका बयान । प्रदर रोगके निदान-कारण । OR भी जानते हैं, कि स्त्रियोंको हर महीने रजोधर्म होता है। शाह । जब स्त्रियोंको रजोधर्म होता है; तब उनकी योनिसे एक 80 प्रकारका खून चार या पाँच दिनों तक बहता रहता और फिर बन्द हो जाता है । इसके बाद यदि उन्हें गर्भ नहीं रहता अथवा उनको रजोधर्म बन्द हो जानेका रोग नहीं हो जाता, तो वह फिर दूसरे महीनेमें रजस्वला होती हैं और उनकी योनिसे फिर चार-पाँच दिनों तक आर्तव या खून बहता है। यह रजोधर्म होना,- कोई रोग नहीं, पर स्त्रियोंके आरोग्यकी निशानी है। जिस स्त्रीको नियत समयपर ठीक रजोधर्म होता है, वह सदा हृष्ट-पुष्ट और तन्दुरुस्त रहती है। मतलब यह, इस समय योनिसे खून बहना,-रोग नहीं समझा जाता। हाँ, अगर चार-पाँच दिनसे जियादा, बराबर खून गिरता रहता है, तो औरत कमजोर हो जाती है एवं और भी अनेक रोग हो जाते हैं। इसका इलाज किया जाता है। मतलब यह कि, जब नाना प्रकारके मिथ्या आहार-विहारोंसे स्त्रियोंकी योनिसे खून या अनेक रंगके रक्त बहा करते हैं, तब कहते हैं, कि स्त्रीको “प्रदर सेम" हो गया है। For Private and Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org .३३६ चिकित्सा - चन्द्रोदय | "भावप्रकाश" में लिखा है - जब दुष्ट रज बहुत ही ज़ियादा बहती है, शरीर टूटता है, अङ्गों में वेदना होती है एवं शूलकी-सी पीड़ा होती है, तब कहते हैं - " प्रदर रोग" हुआ । “वैद्यरत्न" में लिखा हैः - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिमार्गातिगमनप्रभूतसुरतादिभिः । प्रदरो जायते स्त्रीणां योनिरक्तस्र तिःपृथुः ॥ बहुत रास्ता चलने और अत्यन्त परिश्रम करनेसे स्त्रियोंको "प्रदर रोग" होता है । इस रोग में योनिसे खून बहता है । " चरक" में लिखा है - अगर स्त्री नमकीन, चरपरे, खट्टे, जलन करनेवाले, चिकने, अभिष्यन्दी पदार्थ, गाँव के और जलके जीवोंका मांस, खिचड़ी, खीर, दही, सिरका और शराब प्रभूतिको सदा या ज़ियादा खाती है, तो उसका “वायु" कुपित होता और खून अपने प्रमाणसे अधिक बढ़ता है । उस समय वायु उस ख़ूनको ग्रहण करके, गर्भाशयकी रज बहानेवाली शिराओं का आश्रय लेकर, उस -स्थान में रहनेवाले आर्त्तवको बढ़ाती है। चिकित्सा शास्त्र - विशारद विद्वान् उसी बढ़े हुए वायुसंसृष्ट रक्तपित्तको "असृग्दर" या "रक्त प्रदर" कहते हैं । 'वैद्यविनोद" में लिखा है:-- मद्यातिपानमतिमैथुन गर्भपाताजीर्णाध्य शोक गरयोग दिवाति सुतैः । स्त्रीणाम सृग्दरगदो भवतीति तस्य प्रत्युद्गतौ भ्रमरुजौदवथुप्रलापौ ॥ दौर्बल्य मोहमद पाण्डुगदाश्च तन्द्रा तं वातपित्त कफजं त्रिविधं तृष्णा तथा निलरुजो बहुधा भवन्ति । चतुर्थ दोषोद्भवं प्रदररोगमिदं वदन्ति ॥ बहुत ही शराब पीने, अत्यन्त मैथुन करने, गर्भपात होने या गर्भ गिरने, अजीर्ण होने, राह चलने, शोक या रञ्ज करने, कृत्रिम For Private and Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रदर रोग। ३३७ विषका योग होने और दिनमें बहुत सोने वगैरः कारणोंसे स्त्रियोंको "अमृग्दर” या “प्रदर" रोग पैदा होता है। इस प्रदर-रोगके अत्यन्त बढ़नेपर भ्रम, व्यथा, दाह-जलन, सन्ताप, बकवाद, कमजोरी, मोह, मद, पाण्डुरोग, तन्द्रा, तृष्णा और बहुतसे 'वात-रोग” हो जाते हैं । यह प्रदर-रोग वात, पित्त, कफ और सन्निपात-इन भेदोंसे चार तरहका होता है। "भावप्रकाश" में प्रदर-रोग होनेके नीचे लिखे कारण लिखे हैं:(१) विरुद्ध भोजन करना। (२) मद्य पीना। (३) भोजन-पर-भोजन करना । (४) अजीर्ण होना । (५) गर्भ गिरना। (६) अति मैथुन करना। (७) अधिक राह चलना । (८) बहुत शोक करना । (६) अत्यन्त कर्षण करना। (१०) बहुत बोझ उठाना । (११) चोट लगना। (१२) दिनमें सोना । (१३) हाथी या घोड़ेपर चढ़कर उन्हें खूब भगाना । प्रदर-रोगकी किस्में । प्रदर-रोग चार तरहका होता है:(१) वातज-प्रदर। (२) पित्तज-प्रदर । (२) काज-प्रदर (४) सन्निपातज-प्रदर । वातज-प्रदके लक्षण । अगर वातज प्रदर-रोग होता है, तो रूखा, लाल, झागदार, व्यथासहित, मांसके धोवन-जैसा और थोड़ा-थोड़ा खून बहा करता है। ___ नोट-"चरक में लिखा है---वातज प्रदरका खून झागदार, रूखा, साँवला अथवा अकेले लाल रंगका होता है । वह देखने में ढाकके काढ़ेके-से रङ्गका होता है। उसके साथ शूल होता है और नहीं भी होता । लेकिन वायु-कमर, वंक्षण, For Private and Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३८ - चिकित्सा-चन्द्रोदय । हृदय, पसली, पीठ और चूतड़ोंमें बड़े ज़ोरोंसे वेदना या दर्द पैदा करता है। वातजनित प्रदरमें वायुका काप प्रबलतासे होता है और वेदना या दर्द करना वायुका काम है, इसीसे बादीके प्रदरमें, कमर और पीठ वगरःमें बड़ा दर्द होता है। पित्तज-प्रदरके लक्षण । अगर पित्तके कारणसे प्रदर-रोग होता है, तो पीला, नीला, काला, लाल और गरम खून बारम्बार बहता है, इसमें पित्तकी वजहसे दाह - जलन आदि पीड़ायें होती हैं। नोट--खट्ट, नमकीन, खारी और गरम पदार्थों के अत्यन्त सेवन करने से पित्त कुपित होता और पित्तजनित या पित्तका प्रदर पैदा करता है। पित्त-प्रदरमें खून कुछ-कुछ नीला, पीला, काला और अत्यन्त गरम होता है; बारम्बार पीड़ा होती और खून गिरता है । इसके साथ जलन, प्यास, माह, भ्रम और ज्वर,-- ये उपद्रव भी होते हैं। कफ़ज प्रदर के लक्षण । अगर कफसे प्रदर होता है, तो कच्चे रसवाला, सेमल वगैरके गोंद-जैसा चिकना, किसी कदर पाण्डुवर्ण और तुच्छ धान्यके धोवनके समान खून बहता है। नोट-भारी प्रभुति पदार्थों के बहुत ही ज़ियादा सेवन करने से कफ कुपित होता और कफज प्रदर-रोग पैदा करता है। इसमें खून पिच्छल या लिबलिबा, पाण्डु रंगका, भारी, चिकना और शीतल होता है तथा श्लेष्म मिले हुए खूनका स्राव होता है । पीड़ा कम होती है, पर वमन, अरुचि, हुल्लास, श्वास और खाँसी-ये कफके उपद्रव नज़र आते हैं । त्रिदोषज-प्रदर के लक्षण । अगर त्रिदोष- सन्निपात या वात-पित्त-कफ-तीनों दोषोंके कोपसे प्रदर-रोग होता है, तो शहद, घी और हरतालके रंगवाला, For Private and Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३४ स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--प्रदर रोग । मजा और शङ्खकी-सी गन्धवाला खून बहता है। विद्वान लोग इस चौथे प्रदर रोगको असाध्य कहते हैं, अतः चतुर वैद्यको इस प्रदरका इलाज न करना चाहिये। नोट- "चरक' में लिखा है-रजस्राव होने, स्त्रीके अत्यन्त कष्ट पाने और खून नाश होने से; यानी सब हेतुओंके मिल जानेसे वात, पित्त और कफ तीनों दोष कुपित हो जाते हैं। इन तीनोंमें "वायु" सबसे ज़ियादा कुपित होकर असाध्य कफका त्याग करता है; तब पित्तकी तेज़ीकेमारे,प्रदरका खून बदबूदार, लिबलिबा, पीला और जला-सा हो जाता है । बलवान् वायु, शरीरकी सारी वसा और मेदको ग्रहण करके, योनिकी राहसे, घी, मजा और वसाके-से रंगवाला पदार्थ हर समय निकाला करता है। इसी वजहसे उक्त स्त्रीको प्यास, दाह और ज्वर प्रभुति उपद्रव होते हैं । ऐसी क्षीणरक्ता--कमज़ोर स्त्रीको असाध्य समझना चाहिये । खुलासा पहचान । वातज प्रदरमें-रूखा, झागदार और थोड़ा खून बहता है। पित्तज प्रदरमें-पीला, नीला, लाल और गरम खून जाता है। कफज प्रदरमें--सफेद, लाल और लिबलिबा स्राव होता है। त्रिदोषज प्रदरमें--बदबूदार, गरम, शहदके समान खून बहता है। नोट--ध्यान रखना चाहिये, सोम रोग मूत्र-मार्गमें और प्रदर रोग गर्भाशयमें होता है। कहा है: सोमरूङ् मूत्रमार्गे स्यात्प्रदरोगर्भवम॑नि । अत्यन्त रुधिर बहनेके उपद्रव ।। अगर प्रदर रोगवाली स्त्रीके रोगका इलाज जल्दी ही नहीं किया जाता, उसके शरीरसे बहुत ही जियादा खून निकल जाता है, तो कमजोरी और बेहोशी प्रभृति अनेक रोग उसे आ घेरते हैं। "भावप्रकाश” और “बङ्गसेन” प्रभृति ग्रन्थों में लिखा है: For Private and Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय। तस्यातिवृत्तौं दौर्बल्यं श्रमोमूर्छा मदस्तृषा । दाहः प्रलापः पाण्डुत्वं तन्द्रा रोगश्च वातजाः ॥ बहुत खून चूने या गिरनेसे कमज़ोरी, थकान, बेहोशी, नशा-सा बना रहना, जलन होना, बकवाद करना, शरीरका पीलापन, ऊँघ-सी आना और आँखें मिचना तथा बादीके रोग--आक्षेपक आदि उत्पन्न हो जाते हैं। प्रदर रोग भी प्राणनाशक है । - आजकल स्त्री तो क्या पुरुष भी आयुर्वेद नहीं पढ़ते । इसीसे रोगोंकी पहचान और उनका नतीजा नहीं जानते । कोई विरली ही स्त्री होगी, जिसे कोई-न-कोई योनि-रोग या प्रदर आदि रोग न हो। स्त्रियाँ इन रोगोंको मामूली समझती हैं, इसलिये लाजके मारे अपने घरवालोंसे भी नहीं कहती। अतः रोग धीरे-धीरे बढ़ते रहते हैं। रोगकी हालतमें ही व्रत-उपवास, अत्यन्त मैथुन और अपने बलसे अधिक मिहनत वगैरः किया करती हैं, जिससे रोग दिन-दूना और रात चौगुना बढ़ता रहता है। जब हर समय पड़े रहनेको दिल चाहता है, काम-धन्धेको तबियत नहीं चाहती, सिरमें चक्कर आते हैं, प्यास बढ़ जाती है, शरीर पीला या सफ़ेद-चिट्टा होने लगता है, तब घरवालोंकी आँखें खुलती हैं। उस समय सवैद्य भी इस दुष्ट रोगको आराम करने में नाकामयाब होते हैं। बहुत क्या-शेषमें मूर्खा अबला इस कठिनसे मिलने-योग्य मनुष्य-देहको त्यागकर, अपने प्यारोंको रोता-विलपता छोड़कर, यमराजके घर चली जाती है। इसलिये, समझदारोंको अव्वल तो इस रोगके होनेके कारणोंसे स्त्रियोंको वाकिफ़ कर देना चाहिये। फिर भी, अगर यह रोग किसीको हो ही जाय, तो फौरनसे भी पहले इसका इलाज करना या करवाना चाहिये । देखिये आयुर्वेदमें लिखा है:-- . . For Private and Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रदर रोग । ३४१ असृग्दरो प्राणहरः प्रदिष्टः स्त्रीणामतस्तं विनिवारयेच्च । सब तरहके प्रदर रोग प्राण नाश करते हैं, इसलिये उनको शीघ्र ही दूर करना चाहिये। ___ असाध्य प्रदरके लक्षण । अगर हर समय खून बहता हो, प्यास, दाह और बुखार हो, शरीर बहुत कमजोर हो गया हो, बहुत-सा खून नष्ट हो गया हो, शरीरका रङ्ग पिलाई लिये सफ़ेद हो गया हो, तो चतुर वैद्यको ऐसे लक्षणोंवाली रोगिणीका इलाज हाथमें न लेना चाहिये। क्योंकि इस दशामें पहुँचकर रोगिणीका आराम होना असम्भव है। ये सब असाध्य रोगके लक्षण हैं। नोट--सुचतुर वैद्य असाध्य रोगीका इलाज करके वृथा अपनी बदनामी नहीं कराते । हाँ, जिन्हें साध्यासाध्यकी पहचान नहीं, वे ही ऐसे असाध्य रोगियोंकी चिकित्सा करने लगते हैं। यही बात हम त्रिदोषज प्रदरके लक्षणोंके नीचे, जो नोट लिखा है उसमें, चरकसे लिख आये हैं । वैद्यको सभी बातें याद रखनी चाहिये । इलाज हाथमें लेकर पुस्तक देखना भारी नादानी है। __ इलाज बन्द करनेको शुद्ध श्रावके लक्षण । . "चरक"में लिखा है:-- मासानिष्पिच्छदाहार्ति पञ्चरात्रानुबन्धि च । नैवाति बहुलात्यल्पमा शुद्धमदिशेत् ॥ यदि स्त्री महीने-की-महीने ऋतुमती हो और उसकी योनिसे पाँच रातसे जियादा खून न गिरे और उस ऋतुका खून दाह, पीड़ा और चिकिनाईसे रहित तथा बहुत ज़ियादा या बहुत कम न हो, तो कहते हैं कि शुद्ध ऋतु हुआ। ___और भी लिखा है,-ऋतुका खून चिरमिटीके रङ्गका, लाल कमलके रङ्गका अथवा महावर या बीरबहुट्टीके रङ्गका हो, तो समझना चाहिये कि विशुद्ध ऋतु हुई। For Private and Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४२. चिकित्सा-चन्द्रोदय । "वैद्य-विनोद" में लिखा है:शशास्रवर्णं प्रतिभासमानं लाक्षारसेनापि समं तथा स्यात् । तदातवं शुद्धमतो वदन्ति नरंजयेद्वस्त्रमिदं यदेतत् ।। अगर स्त्रीके मासिक धर्मका खून या आर्तव खरगोशके-से खूनके जैसा अथवा लाखके रसके समान हो तथा उस खूनमें कपड़ा तर करके पानीसे धोया जाय और धोनेपर खूनका दाग़ न रहे, तो उस आर्तव-- खूनको शुद्ध समझना चाहिये । ___ नोट-जब वैद्य समझे कि रोगिणीका प्रदर-रोग श्राराम हो गया, तब उसे सन्देह निवारणार्थ स्त्रीका प्रार्त्तव-- खून इस तरह देखना चाहिये । अगर स्त्रीका ठोक महीनेपर रजोदर्शन हो, खून गिरते समय जलन और पीड़ा न हो, खूनमें चिकनापन न हो, उसका रङ्ग चिरमिटी, महावर, लाल कमल या बीरबहुट्टीकासा हो अथवा खरगोशके खून या लाखके रस-जैसा हो और उसमें भीगा कपड़ा बेदाग़ साफ़ हो जाय एवं वह खून पाँच दिन तक बहकर बन्द हो जाय, तो फिर उसको दवा देना वृथा है । वह आराम हो गई। पर खूनके पाँच दिन तक बहने और बन्द हो जाने में एक बातका और ध्यान रखना चाहिये; वह यह कि खून चाहे तीन दिन तक बहे, चाहे पाँच दिन अथवा ऋतुके सोलहों दिन तक, पर खूनमें ऊपर लिखे हुए शुद्धिके लक्षण होने चाहियें। यानी उसमें चिकनापन, जलन और पीड़ा श्रादि न हों, उसका रङ्ग ख़रगोशके खून या चिरमिटी प्रभृतिका-सा हो; धोनेसे खूनका दाग़ न रहे। यह बात हमने इसलिये लिखी है कि, अगर स्त्रीका खून ज़ोरसे बहता है, तो तीन दिन बाद ही बन्द हो जाता है। अगर मध्यम रूपसे बहता है, तो पाँच दिनमें बन्द हो जाता है: पर किसी-किसीके पहलेसे ही थोड़ा-थोड़ा खून गिरता है और वह ऋतुके पहले सोलहों दिन गिरता रहता है। सोलह दिन बाद, जब गर्भाशय या धरणका मुंह बन्द हो जाता है, तब खून बन्द हो जाता है । इसमें कोई दोष नहीं; इसे रोग न समझना चाहिये, बशर्ते कि शुद्ध आर्तवके और लक्षण हो । हाँ,अगर सोलह दिनके बाद भी खून बहता रहे तो रोग होने में सन्देह ही क्या ? उसे दवा देकर बन्द करना चाहिये। वैसे खून गिरनेके रोगको औरतें "पैर पड़ना" कहती हैं । इस कामके लिये श्रागे पृष्ठ ३५६ में लिखा हुआ "चन्दनादि चूर्ण" बहुत ही अच्छा है। For Private and Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--प्रदर रोग । ३४३ XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX - प्रदर रोगकी चिकित्सा-विधि । XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX वैद्यको प्रदर रोगके लक्षण, कारण अच्छी तरह समझकर चिकित्सा करनी चाहिये। सब तरहके प्रदरोंमें पहले "वमन" करानेकी प्रायः सभी शास्त्रकारोंने राय दी है; पर वमन कराना ज़रा कठिन काम है । जिनको पूरा अनुभव हो, वे ही इस कामको करें। “बङ्गसेन में लिखा है:--सब तरहके प्रदरोंमें पहले वमन करानी चाहिये और ईखके रस तथा दाखके जलसे तर्पण कराना चाहिये एवं पीपल, शहद, माँड, नागरमोथेका कल्क, जौ और गुड़का शर्बत देना चाहिये। मतलब यह है, इनमेंसे किसीसे तर्पण कराकर वमन करानी चाहिये । "वैद्य-विनोद में लिखा है:-- __सर्वेषपूर्वं वमनं प्रदिष्टं रसेतु मुद्गोदक तर्पणैश्च । सब तरहक प्रदरोंमें, ईखके रस और मुद्गोदक--मूंगके यूषसे तर्पण कराकर वमन करानी चाहिए । यद्यपि यह ढंग बहुत ही अच्छा है, पर साधारण वैद्योंको इस खटखटमें न पड़ना ही अच्छा है । वमन करानेके सम्बन्धमें, हमने “चिकित्सा-चन्द्रोदय" दूसरे भागके पृष्ठ १३६-१४० में जो लिखा है, उसे पहले देख लेना जरूरी है। सूचना-योनिरोग, रक्तपित्त, रक्कातिसार और रकाशका इलाज जिस तरह किया जाता है; उसी तरह चारों प्रकारके प्रदरोंका भी इलाज किया जाता है । "चरक" में लिखा है : योनीनां वातलाद्यानां यद्युक्तमिह भेषजम् । चतुर्णा प्रदराणाश्च तत्सर्वं कारयेभिषक् ।। रक्तातिसारिणांचैव तथा लोहित पित्तिनाम् । रक्तार्शसाश्च यत्प्रोक्तं भेषजं तच्चकारयेत् ।। .. वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातज “योनि-रोगों"की जो चिकित्सा कही गई है, वैद्यको चार प्रकारके प्रदरों में भी वही For Private and Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४४. चिकित्सा-चन्द्रोदय । चिकित्सा करनी चाहिये एवं रक्तातिसार, रक्तपित्त और खूनी बवासीरकी जो चिकित्सा कही गई है, वही वैद्यको प्रदर रोगमें भी करनी उचित है । चरकने तो ये पंक्तियाँ लिखकर ही प्रदर चिकित्साका खात्मा कर दिया है । चक्रदत्तने भी लिखा है:... रक्तपित्तविधानेन प्रदरांश्चाप्युपाचरेत् ॥ - रक्तपित्तमें कहे हुए विधान भी प्रदर रोगमें करने उचित हैं। "बङ्गसेन" में भी लिखा है-- तरुण्याहित सेविन्यास्तदल्पोपद्रवंभिषक् । रक्तपित्त विधानेन यथावत्समुपाचरेत् ॥ - यदि अहित पदार्थ सेवन करनेवाली स्त्रियोंके अल्प उपद्रव हों,. तो रक्तपित्तके विधान या कायदेसे चिकित्सा करनी चाहिये । प्रदर-नाशक नुसखे । XoxoxoxoxoxoxoxoeXeRexexsexsexsexoegen १०GersexeXSEXST OR (गरीबी नुसखे) (१) दो तोले अशोककी छाल, गायके दूधमें पकाकर और मिश्री मिलाकर, सवेरे-शाम, दोनों समय लगातार कुछ दिन, पीनेसे घोर. रक्तप्रदर निश्चय ही आराम हो जाता है । परीक्षित है। . नोट--यह नुसखा प्रायः सभी ग्रन्थों में लिखा हुआ है । हमने इसकी अनेक बार परीक्षा भी की है । वास्तव में, यह रक्कप्रदरपर अक्सीरका काम करता है। अगर अशोककी छालका काढ़ा पकाकर, उसके साथ दूध पकाया जाय और शीतल होने पर सवेरे ही पिया जाय, तब तो कहना ही क्या ? "भावप्रकाश"में लिखा है--अशोककी छाल चार तोले लेकर, एक हाँडीमें रखकर, ऊपरसे १२८ तोले पानी डालकर मन्दाग्निसे पकायो। जब ३२ तोले पानी रह जाय, उसमें ३२ ताले दूध भी मिला दो और फिर पकायो । जब पकते-पकते केवल दूध रह जाय, नीचे उतार लेो । जब दूध खूब शीतल हो जाय, उसमेंसे १६ तोले दूध निकालकर सवेरे ही पीओ। अगर जठराग्नि कमज़ोर हो तो दूध कम पीश्रो । For Private and Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रदर रोग । ३४५ इस तरह, इस दूधके पीनेसे घोर-से-घोर प्रदर भी शान्त हो जाता है । यह तर. कीब सबसे अच्छी है। (२) पके हुए गूलरके फल लाकर सुखा लो । सूखनेपर पीसकूटकर छान लो और फिर उस चूर्णमें बराबरकी मिश्री पीसकर मिला दो और किसी बर्तन में मुंह बाँधकर रख दो । यह चूर्ण, सवेरेशाम, दोनों समय, दूध या पानी के साथ, फाँकनेसे रक्तप्रदर निश्चय ही आराम हो जाता है । परीक्षित है। (३) पके हुए केलेकी फली, दूधमें कई बार सानकर, लगातार कुछ दिन खानेसे, योनिसे खून जाना बन्द हो जाता है। परीक्षित है । (४) पका हुआ केला और आमलोंका स्वरस लेकर, इन दोनोंसे दूनी शक्कर भी मिला लो । इस नुसखेके कुछ दिन बराबर सेवन करनेसे प्रदर रोग निश्चय ही आराम हो जाता है । परीक्षित है। (५) सवेरे-शाम, एक-एक पका हुआ केला छै-छै माशे घीके साथ खानेसे, आठ दिनमें ही प्रदर रोगमें लाभ दीखता है । परीक्षित है। नोट- अगर किसीको सर्दी मालूम हो, तो इसमें चार बूंद 'शहद' भी मिला लेना चाहिये । इस नुसत्र से प्रदर और धातुरोग दोनों श्राराम हो जाते हैं । (६) कलेके पत्ते खूब महीन पीसकर, दूधमें खीर बनाकर, दोतीन दिन, खानेसे प्रदर रोगमें लाभ होता है । परीक्षित है। (७) सफेद चन्दन १ तोला, खस १ तोला और कमलगट्टे की गिरी १ तोला-तीनों दवाओंको, आध सेर चाँवलके धोवनमें, खूब महीन घोट-छानकर, दो तोले पिसी हुई मिश्री मिला दो। इसे दिनमें कई बार पीनेसे योनि-द्वारा खून जाना बन्द हो जाता है । इसपर पथ्य केवल दूध-भात और मिश्री है । परीक्षित है। (८) सवेरे-शाम, पाँच-पाँच नग ताजा गुलाबके फूल तीन-तीन माशे मिश्रीके साथ खाओ । ऊपरसे गायका दूध पीओ । चौदह ४४ For Private and Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । दिन इस नुसख्नेके सेवन करनेसे अवश्य लाभ होता है । इससे प्रदर रोग, धातु-विकार, मूत्राशयका दाह, पेशाबकी सुर्जी, खूनी बवासीर, पित्त-विकार और दस्तकी कब्जियत ये सब आराम होते हैं । परीक्षित है। (६) शतावरका रस “शहद मिलाकर पीनेसे पित्तज प्रदर आराम हो जाता है। परीक्षित है। (१०) शारिवाकी हरी जड़ें लाकर पानीसे धोकर साफ़ कर लो। पीछे उन्हें केलेके ताजा हरे पत्तोंमें लपेटकर, कण्डोंकी आगमें भून लो। फिर जड़ों में जो रेशे-से होते हैं, उन्हें निकाल डालो । इसके बाद साफ़ की हुई शारिवाकी जड़, सफेद जीरा, मिश्री और भूनी हुई सफेद प्याज--सबको एक जगह पीस लो। फिर सब दवाओंके बराबर “घी" मिला दो। इसमेंसे दिनमें दो बार, अपनी शक्ति अनुसार खाओ । इस नुसनेसे सात दिनमें गर्भवतीका प्रदर रोग तथा शरीरमें भिनी हुई गर्मी आराम हो जाती है । परीक्षित है। नोट-शारिवाको बँगलामें अनन्तमूल, कलघण्टि; गुजरातीमें धोली उपलसरी, काली उपलसरी और अँगरेज़ीमें इण्डियन सारसा परिला कहते हैं। हिन्दीमें इसे गौरीसर भी कहते हैं। (११) कड़वे नीमकी छालके रसमें सफेद जीरा डालकर, सात दिन, पीनेसे प्रदर रोग नाश हो जाता है । परीक्षित है। (१२) बाँझ ककोड़ेकी गाँठ १ तोले, शहद में मिलाकर खानेसे श्वेत प्रदर और मूत्रकृच्छ नाश हो जाते हैं । परीक्षित है। नोट-ककोड़ेकी बेल बरसातमें जंगलमें होती है। इसकी बेल झाड़ या बाढ़के सहारे लगती है। ज़मीनमें इसकी गाँठ होती है । ककोड़ेमें फूल और फल लगते हैं, पर बाँझ ककाड़ेमें केवल फूल आते हैं, फल नहीं लगते । इसकी बेल पहाड़ी ज़मीनमें होती है । इसकी गांठमें शहद मिलाकर सिरपर लेप करनेसे वातज दर्द-सिर अवश्य आराम हो जाता है । (१३) कैथके पत्ते और बाँसके पत्त' बराबर-बराबर लेकर For Private and Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--प्रदर रोग । ३४७ ‘सिलपर पीसकर लुगदी बना लो । इस लुगदीको शहद मिलाकर खानेसे तीव्र प्रदर रोग भी नाश हो जाता है । परीक्षित है। (१४) ककड़ीके बीजोंकी मींगी एक तोले और सफेद कमलकी 'पङ्खड़ी एक तोले लेकर पीस लो। फिर जीरा और मिश्री मिलाकर सात दिन पीओ। इस नुसनेसे श्वेत प्रदर अवश्य आराम हो जाता है। (१५) काकजङ्घा की जड़के रसमें - लोधका चूर्ण और शहद मिलाकर पीनेसे श्वेत प्रदर नाश हो जाता है । परीक्षित है । ___नोट—काकजंघाके पत्ते ओंगा या अपामार्ग-जैसे होते हैं। वृक्ष भी उतना हो ऊँचा कमर तक होता है। नींद लाने को काकजंघा सिरमें रखते हैं। काकजंघाका रस कानमें डालने से कर्णनाद और बहरापन आराम होते और कानके कीड़े मर जाते हैं । केवल काकजंघाकी जड़को चाँवल के धोवनके साथ पीनेसे पाण्डुप्रदर शान्त हो जाता है। (१६) छुहारोंकी गुठलियाँ निकालकर कूट-पीस लो। फिर उस चूर्णको “घी में तल लो । पीछे “गोपी चन्दन” पीसकर मिला दो। इसके खानेसे प्रदर रोग आराम हो जाता है । परीक्षित है। (१७) खिरनीके पत्ते और कैथके पत्ते पीसकर “घी" में तल लो और खाओ। इस योगसे प्रदर रोग आराम हो जाता है । परीक्षित है। (१८) कथीरिया गोंद रातको पानीमें भिगो दो । सवेरे ही उसमें "मिश्री' मिलाकर पीलो । इस नुसनेसे प्रदर रोग, प्रमेह और गरमीये नाश हो जाते हैं। परीक्षित है। - नोट--काँडालके पेड़में दूध-सा या गोंद-सा होता है । उसीको “कथीरिया गोंद" कहते हैं । काँडोलका वृत्त सफ़दरङ्गका होता है । इसके पत्ते बड़े और फूल लाल होते हैं । वसन्तमें प्राम-वृक्षकी तरह मौर अाकर फल लगते हैं। फल बादाम जैसे होते हैं । पकने पर मीठे लगते हैं । इसकी जड़ लाल और शीतल होती है । ( १६ ) कपासके पत्तोंका रस, चाँवलोंके धोवनके साथ, पीनेसे प्रदर रोग आराम हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४८. चिकित्सा-चन्द्रोदय ।। नोट--कपासकी जड़ चाँवलोंके धावनमें घिसकर पीने से भी श्वेत प्रदर नाश हो जाता है । परीक्षित है। (२०) काकमाचीकी जड़ चाँवलोंके धोवनमें घिसकर पीनेसे प्रदर रोग आराम हो जाता है । परीक्षित है। ___ (२१) भिण्डीकी जड़ सूखी हुई दस तोले और पिंडारू सूखा हुआ दस तोले लाकर, पीस-कूटकर छान लो । इसमें से 2-छै माशे चूर्ण, पाव-भर गायके दूधमें एक तोले मिश्री मिलाकर मैं हमें उतारो। इस चूर्णको सवेरे-शाम सेवन करो । अगर कभी दूध न मिले, तो हर मात्रामें जरा-सी मिश्री मिलाकर, पानीसे ही दवा उतार जाओ। प्रदर रोगपर परीक्षित है। नोट-कितनी ही श्वेत प्रदरवाली जो किसी भी दवासे आराम न हुई, इससे १६१२० दिनोंमें ही आराम हो गई। कितनी ही बार परीक्षा की है। (२२) सफ़ेद चन्दन, जटामांसी, लोध, खस, कमलकी केशर, नाग-केशर, बेलका गूदा, नागरमोथा, सोंठ, हाऊबेर, पाढी, कुरैयाकी छाल, इन्द्रजौ, अतीस, सूखे आमले, रसौत, आमकी गुठलीकी गिरी, जामुनकी गुठलीकी गिरी, मोचरस, कमलगट्टे की गिरी, मँजीठ, छोटी इलायचीके दाने, अनारके बीज और कूट-इन २४ दवाओंको अढ़ाई-अढ़ाई तोले लेकर, कूट-पीसकर कपड़ेमें छान लो। समयसवेरे-शाम पीओ। मात्रा ६ माशेसे दो तोले तक । अनुपानचाँवलोंके धोवनमें एक-एक मात्रा घोट-छानकर और एक माशे "शहद" मिलाकर रोज पीओ। इस नुसनेके १५ या २१ दिन पीनेसे प्रदर रोग अवश्य आराम हो जाता है। १०० में ८० रोगी आराम हुए हैं। परीक्षित है। . ( २३ ) मुद्गपर्णीके रसके साथ तिलीका तेल पकाओ। फिर उस. तेलमें कपड़ेका टुकड़ा भिगोकर योनिमें रखो और इसी तेलकी बदनमें मालिश करो । इस नुसखेसे खूनका बहना बन्द होता और बड़ा आराम मिलता है । परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रदर रोग। ३४६ नोट-संस्कृतमें मुद्गपर्णी, हिन्दीमें मुगवन, बँगलामें वनमाष या मुगानि, गुजरातीमें जंगली मग और मरहटीमें मुगबेल या रानमूग कहते हैं। इसकी बेल मूगके समान होती है, पत्ते भी मूंगके जैसे हरे-हरे होते हैं और फूल पीले आते हैं। फलियाँ भी मूंगके जैसी ही होती हैं। यह वनके मूग हैं । मुगवनका पंचाङ्ग दवाके काम आता है । मात्रा २ माशेकी है। (२४ ) नीमका तेल गायके दूधमें मिलाकर पीनेसे प्रदर-रोग आराम हो जाता है । परीक्षित है। (२५) मुलेठी, पद्माख, ककड़ीके वीज, शतावर, विदारीकन्द और ईखकी जड़--इन सब दवाओंको महीन पीसकर, १०० बार धुले हुए घीमें मिला दो । इस दवाके योनि, मस्तक और शरीरपर लेप करनेसे प्रदर-रोग आराम हो जाता है। . नोट-किसी और खानेकी दवाके साथ इस दवाका भी लेप कराकर आश्चर्यफल देखा है। अकेली इस दवासे काम नहीं लिया। (२६) मँजीठ, धायके फूल, लोध और नीलकमल--इनको पीसछानकर “दूध के साथ पीनेसे प्रदर-रोग आराम हो जाता है । परीक्षित है। (२७) दो तोले अशोककी छालको कुचलकर, एक मिट्टीकी हाँडीमें, पाव-भर जलके साथ जोश दो । जब चौथाई जल रह जाय, उतारकर, आधाव दूधमें मिलाकर फिर औटाओ । जब काढ़ा-काढ़ा जल जाय, उतारकर रख दो । जब यह आप ही शीतल हो जाय, पी लो। इसको सवेरेके समय पीनेसे बड़ा लाभ होता है। यह योग घोर प्रदर को आराम करता है। परीक्षित है। हमें यह नुसखा बहुत पसन्द है । ___ (२८) रोहितक या रोहिडेकी जड़को सिलपर पीसकर खानेसे हल्के लाल रंगका प्रदर आराम होता है । परीक्षित है। - नोट-इस नुसनको वृन्द, चक्रदत्त और वैद्यविनोदकारने पाण्डु प्रदर (कफजनित श्वेतप्रदर ) पर लिखा है । For Private and Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५० चिकित्सा-चन्द्रोदय। ( २६) दारुहल्दीको सिलपर पीसकर लुगदी बना लो। इस लुगदी या कल्कमें शहद मिलाकर पीनेसे श्वेत प्रदर आराम हो जाता है। (३०) नागकेशरको पीसकर और माठा या छाछमें मिलाकर ३ दिन पीनेसे श्वेत प्रदर आराम हो जाता है। केवल माठा पीनेसे ही श्वेत प्रदर जाता रहता है। परीक्षित है। (३१ ) चाँवलों की जड़को चाँवलोंके धोवनमें औटाकर, फिर उसमें "रसौत और शहद मिलाकर पीनेसे सब तरहके प्रदर रोग नाश हो जाते हैं, इसमें शक नहीं । परीक्षित है। (३२) कुशाकी जड़ लाकर, चाँवलोंके धोवनमें पीसकर, तीन दिन तक, पीनेसे लाल-प्रदर से निश्चय ही छुटकारा हो जाता है। परीक्षित है। नोट- यह नुसता वृन्द, चक्रदत्त और वैद्यविनोद सभी ग्रन्थों में लिखा है। ( ३३ ) रसौत और लाखको बकरीके दूधमें मिलाकर पीनेसे रक्त-प्रदर अवश्य चला जाता है । परीक्षित है। (३४) चूहेकी मैंगनी दहीमें मिलाकर पीनेसे रक्त प्रदर अवश्य नाश हो जाता है । परीक्षित है । कहा है: दध्ना मूषकविष्ठां च लोहिते प्रदरे पिबेत् । बंगसेनमें भी लिखा है: आखोः पुरीषं पयसा निषेव्यं वह्वेर्बलादेकमहद्वर्यहंवा । स्त्रियो महाशोणितवेगनद्याः क्षणेन पारं परमाप्नुवन्ति ॥ चूहेकी विष्ठाको, दूधके साथ, अग्निवलानुसार, एक या दो दिन तक, सेवन करनेसे नदीके वेगक समान बहता हुआ .खून भी क्षण-भग्में बन्द हो जाता है। और भी--चूहेकी मैंगनीमें बराबरकी शक्कर मिलाकर रख लो। इसमेंसे ६ माशे चूर्ण, गायके धारोष्ण दूधके साथ पीनेसे सब तरहके प्रदर-रोग फौरन आराम हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रदर रोग । ३५१ (३५) लाल पूगीफल-सुपारी, माजूफल, रसौत, धायके फूल, मोचरस, चौलाईकी जड़ और गेरू,-इनको बराबर-बराबर लाकर, पीस-छान लो। इसमेंसे ६ माशेसे १ तोले तक चूर्ण, हर रोज, चाँवलोंके धोवनके साथ, पीनेसे प्रदर रोग चला जाता है। इस नुसनेके उत्तम होने में सन्देह नहीं । (३६) चौलाईकी जड़को चाँवलोंके पानीके साथ पीसकर, उसमें “रसौत और शहद" मिलाकर पीनेसे सारे प्रदर रोग अवश्य नाश हो जाते हैं । परीक्षित है । नोट-रसौत और चौलाईकी जड़को, चाँवलोंके पानीमें पीसकर और शहद मिलाकर पीनेसे समस्त प्रकारके प्रदर नाश हो जाते हैं। चक्रदत्त । ( ३७ ) मुँइ-आमलोंकी जड़, चाँवलोंके धोवनमें पीस-छानकर, पीनेसे दो-तीन दिनमें ही प्रदर रोग चला जाता है । नोट- इ-अामलोंके बीज ऊपरकी तरह चाँवलोंके धोवनमें पीस-छानकर पीनेसे प्रदर रोग, लिङ्गसे खून जाना और उल्वण रक्कातिसार ये आराम हो जाते हैं। (३८) काला नोन, सफ़ेद जीरा, मुलहटी और नील-कमल, इनको पीस-छानकर दहीमें मिलाओ; और ज़रा-सा "शहद मिलाकर पी जाओ। इस योगसे वात या बादीसे हुआ प्रदर रोग आराम हो जाता है। नोट-नील-कमल न मिले तो 'नीलोफर' ले सकते हो। चारों चीजें डेढ़-.. डेढ़ माशे, दही चार तोले और शहद आठ माशे लेना चाहिये। (३६) हिरनके खून में शहद और चीनी मिलाकर पीनेसे पित्तज प्रदर रोग आराम हो जाता है। (४०) बाँसे या अड़ सेका स्वरस पीनेसे पित्तज प्रदर रोग आराम हो जाता है। (४१) गिलोय या गुर्चका स्वरस भी पित्तज प्रदर रोगको नष्ट करता है । यह नुसना पित्तज-प्रदरपर अच्छा है। For Private and Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाता है। ३५२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (४२) आमलोंके कल्कको पानीमें मिलाकर, ऊपरसे शहद और मिश्री डालकर पीनेसे प्रदर रोग जाता रहता है। (४३) धायके फूल, बहेड़े और आमलेके स्वरसमें "शहद" डालकर पीनेसे प्रदर रोग नाश हो जाता है। (४४) मकोयकी जड़ चाँवलोंके धोवनके साथ, पीनेसे पाण्डुप्रदर आराम हो जाता है। (४५) दारुहल्दी, रसौत, अड़सा, नागरमोथा, चिरायता, बेलगिरी, शुद्ध भिलावे और कमोदिनी-इनको बराबर-बराबर कुल दो या अढ़ाई तोले देकर काढ़ा बना लो। शीतल होनेपर छानकर "शहद" मिला दो। इस काढ़ेके पीनेसे शूल-समेत दारुण प्रदर रोग आराम हो जाता है। काले, पीले, नीले, लाल या अति लाल एवं सफ़ेद सब तरहके प्रदर रोग या योनिसे खून गिरनेके रोग इस नुसनेसे आराम हो जाते हैं । योनिसे बहता हुआ खून फौरन बन्द हो जाता है । परीक्षित है। ____नोट-भिलावोंको शोधकर लेना ज़रूरी है । हम काढ़ा बनाकर और ६ माशे मिश्री मिलाकर बहुत देते हैं। परीक्षित है। (४६) भारंगी और सोंठके काढ़ेमें "शहद मिलाकर पीनेसे प्रदर रोगवालीका श्वास और प्रदर दोनों आराम हो जाते हैं । अच्छा नुसखा है। (४७) दशमूलकी दशों दवाओंको, चाँवलोंके पानीमें पीसकर, पीनेसे प्रदर रोग नाश हो जाता है । ३ दिन पीनेसे चमत्कार दीखता है। (४८) काली गूगल या कठूमरके फल लाकर रस निकाल लो। फिर उस रसमें "शहद" मिलाकर पीओ। इसपर खाँड़ और दूधके साथ भोजन करो । भगवान् चाहेंगे, तो इस नुसनेसे प्रदर रोग सेग अवश्य नष्ट हो जायगा। नोट--कठूमर और कठगूलरि गूलरके भेद हैं। कठूमर शीतल, कसैला तथा दाह, रक्कातिसार, मुँह और नाकसे खून गिरनेको रोकता है । इस पर फूल नहीं पाते, For Private and Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रदर रोग । शाखात्रोंमें फल लगते हैं । फल गोल-गोल अंजोरके जैसे होते हैं । उनमेंसे दूध निकलता है । कठूमर कफ-पित्त नाशक है। . सूचना-भावप्रकाशमें 'औदुम्बर' शब्द ही लिखा है। इससे यदि काली गूलर या कठूमर न मिले, तो गूलरके फल हो ले लेने चाहिये। ___ (४६) खिरेंटीकी जड़को दूधमें पीसकर और शहद मिलाकर पीनेसे प्रदर रोग शान्त हो जाता है । (५० ) खिरेंटीकी जड़को चाँवलोंके धोवनमें पीसकर पीनेसे लाल रंगका प्रदर नाश हो जाता है। नोट-संस्कृतमें 'बला', हिन्दीमें खिरेटी, बरियारा और बीजवन्द तथा अंगरेजीमें Horn beam leaved कहते हैं। . (५१) बेरोंके चूर्ण में गुड़ मिलाकर, दूधके साथ, पीनेसे प्रदर रोग नाश हो जाता है। (५२ ) मोचरसको कच्चे दूधमें पीसकर पीनेसे प्रदर रोग आराम हो जाता है। (५३ ) कपासकी जड़को चाँवलोंके पानीके साथ पीसकर पीनेसे पाण्डु या कफजनित श्वेत प्रदर नाश हो जाता है। (५४) शास्त्रोक्त औषधियोंसे तैयार हुई मदिरा या शराबके पीते रहनेसे रक्तप्रदर और शुक्ल प्रदर यानी लाल और सफेद प्रदर दोनों नष्ट हो जाते हैं। इसमें शक नहीं। चक्रदत्तमें लिखा है:__ शमयति मदिरापानं तदुभयमपि रक्तशुक्लभदेन । वृन्दमें ऊपरकी लाइनके अलावा इतना और लिखा है: विधिविहितं कृतहीणां वरयुवतीनां न सन्देहः ॥ (५५) मुलेठी १ तोले और मिश्री १ तोले-दोनोंको चाँवलोंके घोवनमें पीसकर पीनेसे प्रदर रोग नष्ट हो जाता है। नोट-बंगसेनमें मिश्री ४ तोले और मुलेठी १६ तोले दोनोंको एकत्र पीसकर चाँवलोंके जलके साथ पीनेसे रक्तप्रदर आराम होना लिखा है। ४५ For Private and Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - चिकित्सा-चन्द्रोदय । -- (५६): कंघीकी जड़को पीस-छानकर, मिश्री और शहदमें मिलाकर, खाने से प्रदर रोग नष्ट हो जाता है। : नोट--कजी, कंगही या ककहिया एक ही दवाके तीन नाम हैं । संस्कृतमें कचीको 'अतिबला' कहते हैं । याद रखो, बला तीन होती हैं:-(१) बला (२) महाबला, और (३) अतिबला । बलाको हिन्दीमें खिरेंटी, बरियारा और बीजवन्द कहते हैं । महाबला या सहदेवीको हिन्दीमें सहदेई कहते हैं और अतिबलाको कङ्घी, कंगही या ककहिया कहते हैं । बला या खिरेंटीकी जड़की छालका चूर्ण दूध और चीनी के साथ खानेसे मूत्रातिसार निश्चय ही चला जाता है । महाबला या सहदेई मूत्रकृच्छ को नाश करती और वायुको नीचे ले जाकर गुदा द्वारा निकाल देती है । कच. या अतिबला दूध-मिश्रीके साथ पी. से प्रमेहको नष्ट कर देती है । ये तीनों प्रयोग अचूक हैं । एक चौथी नागबला और होती है । उसे हिन्दीमें गंगेरन या गुलसकरी कहते हैं। यह मूत्रकृच्छ, क्षत और क्षीणता रोगमें हितकारी है । चारों बलाओं के सम्बन्धमें कहा है:-- ... बलाचतुष्टयं शीतं मधुरं बलकान्तिकृत् । स्निग्धं ग्राहि समीरास पित्तास्र क्षत नाशनम् ॥ - चारों तरहकी बला शीतल, मधुर, बलवर्धक, कान्तिदायक, चिकनी और काबिज या ग्राही हैं । ये वात, रक्त-पित्त, रुधिर-विकार और क्ष्यका नाश करती हैं। - ये चारों बला बड़े ही कामकी चीज़ हैं । इसीसे हमने प्रसंग न होने पर भी, इनके सम्बन्धमें इतना लिखा है। ___ (५७) पवित्र स्थानकी "व्याघ्रनखी” को उत्तर दिशासे लाकर, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रमें, कमरमें बाँधनेसे प्रदर रोग नष्ट हो जाता है। नोट-नख, व्याघ्र नख, व्याघ्रायुध ये नखके संस्कृत नाम हैं। व्याघ्रनख कड़वा, गरम, कसैला और कफवात नाशक है । यह कोढ़, खुजली और घावको दूर करता, एवं शरीरका रङ्ग सुधारता है । सुगन्धित चीज़ है । कहते हैं, यह नदीके जीवोंके नाख न हैं। धूप और तैल आदिमें खुशबूके लिये डाले जाते हैं। नख या नखी पाँच तरहकी होती हैं। कोई बेरके पत्तों-जैसी, कोई कमलके पत्तोंजैसी और कोई घोड़ेके खुरके श्राकारकी, कोई हाथीके कान-जैसी और कोई सूअरके कान-जैसी होती है । इसकी मात्रा २ माशेकी है। (५८) तूम्बीके फल पीस-छानकर चीनी मिला दो । फिर For Private and Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir xxxmrrrrrrrrrrrr D स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रदर रोग। ३५५ शहदमें उसके लड्डू बना लो। इन लड्डुओंके खानेसे प्रदर रोग नाश हो जाता है। (५६) दारुहल्दी, रसौत, चिरायता, अड़सा, नागरमोथा, बेलगिरी, शहद, लाल चन्दन और पाकके फूल-इन सबका काढ़ा बनाकर, और काढ़ेमें शहद मिलाकर पीनेसे वेदना युक्त लाल और सफेद प्रदर नाश हो जाता है। ___(६०) सूअरका मांस-रस, बकरेका मांस-रस और कुलथीका रस इनमें 'दही" और अधिकतर "हल्दी" मिलाकर खानेसे वातज-प्रदर शान्त हो जाता है। (६१) ईखका रस पीनेसे पित्तज-प्रदर आराम हो जाता है। . (६२) चन्दन, खस, पतंग, मुलेठी, नीलकमल, खीरे और ककड़ीके बीज, धायके फूल, केलेकी फली, बेर, लाख, बड़के अंकुर, पद्माखः और कमल-केशर-इन सबको बराबर-बराबर लेकर सिलपर पानीके साथ पीसकर लुगदी बना लो । इस लुगदीमें "शहद" मिलाकर, चाँवलोंके जलके साथ पीनेसे, तीन दिनमें, पित्तज-प्रदर शान्त हो जाता है। (६३) मिश्री, शहद, मुलेठी, सोंठ और दही-इन सबको एकत्र मिलाकर खानेसे पित्त-जनित प्रदर आराम हो जाता है। . . : (६४) काकोली, कमल, कमलकन्द, कमल-नाल और कदम्बका चूर्ण-इनको दूध, मिश्री और शहदमें मिलाकर खानेसे पित्तज-प्रदर आराम हो जाता है। (६५) मुलेठी, त्रिफला, लोध, ऊँटकटारा, सोरठकी मिट्टी, शहद, मदिरा, नीम और गिलोय-इन सबको मिलाकर सेवन करनेसे कफका प्रदर रोग आराम हो जाता है। नोट-सोरठकी मिट्टीको संस्कृतमें "गोपीचन्दन" कहते हैं । सोरठकी मिट्टी न मिले तो फिटकरी ले सकते हो । दोनोंमें समान गुण हैं। For Private and Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (६६) आमलेके बीजोंका कल्क बनाकर; यानी उन्हें जलके साथ सिलपर पीसकर, जलमें मिला दो। ऊपरसे शहद और मिश्री मिला लो । इस जलके पीनेसे ३ दिनमें श्वेत प्रदर नष्ट हो जाता है। - (६७) त्रिफला, देवदारु, बच, अडूसा, खीलें, दूध, पृश्निपर्णी और लजवन्ती-इनका काढ़ा बनाकर, शीतल करके, फिर शहद मिलाकर पीनेसे सब तरहके प्रदर-रोग आराम हो जाते हैं। . (६८) खंज पक्षीकी आँखोंको सिलपर पीसकर, ललाटपर लेप करनेसे प्रदर-रोग अवश्य चला जाता है। इस चीज़में यह अद्भुत सामर्थ्य है। (६६) बथुएकी जड़को दूध या पानीमें पकाकर, ३ दिन तक, पीनेसे प्रदर रोग चला जाता है। - (७०) कमलकी जड़को दूध या पानीमें पकाकर, ३ दिन पीनेसे प्रदर-रोग शान्त हो जाता है। (७१) नीलकमल, भसींडा ( कमल-कन्द ), लाल शालिचाँवल, अजवायन, गेरू और जवासा--इन सबको बराबर-बराबर लेकर, पीस-छानकर, शहदमें मिलाकर पीनेसे प्रदर-रोग नष्ट हो जाता है। (७२) खिरेंटीकी जड़को दूधमें पीसकर, शहदमें मिलाकर पीनेसे प्रदर-रोग नाश हो जाता है। (७३) कुशाकी जड़ और खिरेंटीकी जड़को चाँवलोंके जलमें पीसकर पीनेसे रक्त प्रदर नाश हो जाता है। - (७४) चूहेकी विष्ठाको जलाकर दूध या पानीके साथ पीनेसे रक्तप्रदर नष्ट हो जाता है। (७५) तृणपंचमूलके काढ़ेमें मिश्री मिलाकर पीनेसे प्रदर-रोग नाश हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५७ • स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रदररोग। - नोट-कुश, कांश; शर, दर्भ औरंगना-इन पाँचोंको ‘पञ्चतृण' या पञ्चमूल कहते हैं। ___ (७६) चूहेकी मैंगनी, फिटकरी और नागकेशर,-इन तीनोंको बराबर-बराबर लाकर पीस-छान लो । इस चूर्ण को शहदमें मिलाकर खानेसे हर तरहका प्रदर रोग निश्चय ही आराम हो जाता है। परीक्षित है । मूल लेखकने भी लिखा है आखुपुरीषस्फटिकानागकेशराणां चूर्णम् । मधुसहितं सर्वप्रदररोगे योगोऽयं बहुवारमनुभूतः ॥ .. (७७ ) आँवले, हरड़ और रसौतका चूर्ण--योनिसे ज़ियादा खून गिरने और सब तरहके प्रदरोंको दूर करता है । परीक्षित है। ... (७८) बंसलोचन, नागकेशर और सुगन्धबाला;-इन सबको बराबर-बराबर लेकर पीस-छान लो । फिर, एक-एक मात्रा चाँवलोंके धोवनमें पीस-छानकर पीनेसे प्रदर रोग आराम हो जाता है । परीक्षित है। . (७६) अकेली नागकेशरको चाँवलोंके धोवनके साथ पीसकर और चीनी मिलाकर पीनेसे प्रदर रोग नाश हो जाता है। परीक्षित है। HMMMMMMAKAAMKAMAKAMSK अमीरी नसखे। REAKKKRRRRRRRRRE कुटजाष्टकावलेह। । कौरैयाकी जड़की गीली छाल पाँच सेर लेकर, एक कलईदार देगमें रख, ऊपरसे सोलह सेर पानी डाल, मन्दाग्निसे काढ़ा बनाओ। जब आठवाँ भाग--दो सेर पानी रह जाय, उतारकर छान लो और फिर दूसरे छोटे कलईदार बासनमें डालकर चूल्हेपर रख दो। जब गाढ़ा होनेपर आवे, उसमें पाढ़, सेमर काम्गोंद, धायके फूल, For Private and Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । नागरमोथा, अतीस, लजवन्ती और कोमल बेलका चार-चार तोले पिसाछना चूर्ण, जो पहलेसे तैयार रखा हो, डाल दो। चाटने लायक गाढ़ा रहते-रहते उतार लो । यही "कुटजाष्टक अवलेह" है । - सेवन-विधि---इस अवलेहको गायके दूध, बकरीके दूध या चाँवलों के मॉडके साथ सेवन करनेसे रक्तप्रदर, रक्तपित्त, अतिसार, रक्तार्श और संग्रहणी--ये सब आराम होते हैं । परीक्षित है। . जीरक अवलेह ।। सफेद जीरा एक सेर, गायका दूध आठ सेर, पाव-भर गायका घी और पाव-भर लोध-इनको किसी बर्तनमें रख, मन्दाग्निसे पकाओ । जब यह गाढ़ा होनेपर आवे, इसमें एक सेर मिश्री भी मिला दो। इसके भी बाद पहलेसे पीस-छानकर तैयार की हुई तज, तेजपात, छोटी इलायची, नागकेशर, पीपर, सोंठ, कालाजीरा, नागरमोथा, सुगन्धबाला, दाडिमका रस, काकजङ्घा, हल्दी, चिरौंजी, अड़ सा, बंसलोचन और तवाखीर-अरारोट-इनमेंसे हरेक चार-चार तोले मिला दो । चाटने लायक रहते-रहते उतार लो। फिर शीतल होनेपर, किसी साफ बर्तन में रख, मुंह बाँध दो। इसका नाम “जीरक अवलेह" है। इसके सेवन करनेसे प्रदर रोग, कमजोरी, अरुचि, श्वास, प्यास, दाह और क्षय-ये सब आराम हो जाते हैं। चन्दनादि चूर्ण । ___ सफेद चन्दन, जटामासी, लोध, खस, कमलकेशर, नागकेशर, बेलगिरी, नागरमोथा, मिश्री, हाउबेर, पाढ़ी, कुरैयाकी छाल, इन्द्रजौ, बैतरा-सोंठ, अतीस, धायके फूल, रसौत, आमकी गुठलीकी गिरी, जामुनकी मुठलीकी गिरी, मोचरस, नील कमलका पञ्चांग, मजीठ, इलायची और अनारके फूल-इन चौबीस दवाओंको बराबर-बराबर लाकर, कूट-पीसकर छान लो और एक बर्तन में रखकर मुंह बाँध दो। इसका नाम "चन्दनादि चूर्ण' है। For Private and Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रदर रोग । .. सेवन-विधि-इस चूर्णको, चाँवलोंके धोवनके साथ, ३ माशे शहद मिलाकर, सेवन करनेसे चारों प्रकारके प्रदर, रक्तातिसार और खूनी बवासीर-ये रोग निस्सन्देह नाश हो जाते हैं । परीक्षित है। .. ... इस चूर्णकी एक मात्रा मुँहमें रखकर, ऊपरसे “तीन माशे शहद मिला हुआ चाँवलोंका धोवन" पी लो। अथवा चूर्णको सिलपर भाँगकी तरह चाँवलोंके धोवनके साथ पीसकर, चाँवलोंके धोवनमें छान लो और ३ माशे शहद मिलाकर पी लो। इस तरह सवेरे-शाम दोनों समय पीओ। चाँवलके धोवनकी विधि । . नोट-आधी छटाँक पुराने चाँवल लेकर दो-दो तीन-तीन टुकड़े कर लो। ऐसा न हो कि पाटा हो जाय । फिर उन चाँवलोंको एक पाव जलमें भिगो दो । घण्टे या दो घण्टे बाद खूब मलकर पानी छान लो और चाँवल फेंक दो। यही "चाँबलोंका धोवन" या "तन्दुल जल" है । शास्त्र में लिखा है:-- ... - कंडितं तंडुल पलं जलेऽष्टगुणिते क्षिपेत् । भावयित्वा जलं ग्राह्यं देयं सर्वत्र कर्मसु ॥ _ चार तोले कुचले हुए चाँवल बत्तीस तोले पानीमें भिगो दो। पीछे मलछानकर जल ले लो और सब काममें बरतो।। पुष्यानुग चूर्ण । ..... पाढ़, जामुनकी गुठलीकी गरी, आमकी गुठलीकी गरी, पाषाणभेद, रसौत, मोइया, मोचरस, मजीठ, कमल-केशर, केशर, अतीस, नागरमोथा, बेलगिरी, लोध, गेरू, कायफल, कालीमिर्च, सोंठ, दाख, लाल चन्दन, श्योनाक, कुड़ा, अनन्तमूल, धायके फूल, मुलेठी और अर्जुन-इन सबको “पुष्य नक्षत्र में बराबर-बराबर लेकर, पीस-छानकर रख लो। फिर इस "पुष्यानुग चूर्ण" को शहदमें मिलाकर चाँवलोंके पानीके साथ सेवन करो । परीक्षित है। ___ इस चूर्णके सेवन करनेसे सब तरहका प्रदर रोग, अतिसार, For Private and Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६० चिकित्सा-चन्द्रोदय ।। रक्तातिसार, बालकोंके आगन्तु दोष, योनिदोष, रजोदोष, श्वेतप्रदर, नीलप्रदर, पीतप्रदर, श्यामप्रदर और लालप्रदर, सब रोग नाश हो जाते हैं । महर्षि आत्रेयने इस चूर्णको कहा है। . मात्रा-डेढ़ माशेसे तीन माशे तक। एक मात्रा खाकर, ऊपरसे चाँवलोंके पानीमें शहद मिलाकर पीना चाहिये । परीक्षित है। ..... , नोट-पाषाण-भेदको हिन्दीमें पाखान-भेद, बँगलामें पाथरचूस, गुजराती और मरहटीमें पाषाण-भेद कहते हैं । संस्कृतमें पाषाण-भेद, शिला-भेद, अश्मभेदक आदि अनेक नाम हैं । फारसीमें गोशाद कहते हैं। यह योनिरोग, प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, तिल्ली, पथरी, और गुल्म आदिको नष्ट करता है। _____ माइया हिन्दी नाम है । संस्कृतमें इसे मात्रिका और अम्बष्टा कहते हैं। बँगलामें भी मात्रिका कहते हैं। माइयेका पेड़ मशहूर है। इसके पत्तोंका साग बनता है। दवाके काममें इसका सर्वाङ्ग लेते हैं। मात्रा दो माशेकी है। श्योनाकको हिन्दीमें सोनापाठा, अरलू या टॅटू कहते हैं। बँगलामें शोनापाता या सोनालू, गुजराती में अरलू और मरहटीमें दिंडा या टॅटू कहते हैं । इसकी मात्रा १ माशेकी है । इसका पेड़ बहुत ऊँचा होता है। फलियाँ लम्बी-लम्बी तलवारके समान दो-दो फुटकी होती हैं । फलीके भीतर रूई और दाने निकलते हैं। अर्जुनवृक्ष हिन्दी नाम है । बंगलामें अर्जुन-गाछ और मरहटीमें अर्जुनवृक्ष कहते हैं । हिन्दीमें केशह और काह भी इसके नाम हैं। संस्कृतमें कुकुम कहते हैं । इसके पेड़ वनमें बहुत ऊँचे होते हैं । इसकी छाल सनद होती है। उसमें दूध निकलता है । मात्रा २ माशेकी है । पाढ़ नाम हिन्दी है। इसे हिन्दीमें पाठ भी कहते हैं। संस्कृतमें पाठा. बँगलामें श्राकनादि, मरहटीमें पहाड़मूल और अंगरेज़ीमें पैरोंरूट कहते हैं। इसकी बेलें वनमें होती हैं। - अशोक घृत । अशोककी छाल १ सेर लेकर ८ सेर अलमें पकाओ, जब पकतेपकते चौथाई पानी रहे उतारकर छान लो । यह काढिी हुआ। ... इस काढ़ेमें बी १ सेर, चाँवलोंका धोवन १ सेर, बकरीका दृध १ सेर, जीवकका रस १ सेर और "कुकुरभाँगरेका रस १ सेर इनको भी मिला दोन For Private and Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रदर रोग । कल्कके लिये जीवनीयगणकी औषधियाँ, चिरौंजी, फालसे, रसौत, मुलेठी, अशोककी छाल, दाख, शतावर और चौलाईकी जड़, इनमेंसे प्रत्येक दवाको सिलपर, जलके साथ-पीसू-फीसकर, दो-दो तोले लुगदी तैयार कर लो और पिसी हुई मिश्री ३२ तोले ले लो। . . कलईदार कढ़ाहीमें कल्क या लुगदियों तथा मिश्री और ऊपरके काढ़े वरको डालकर मन्दाग्निसे पकाओ । जब घी-मात्र रह जाय, उतारकर छान लो और साफ बर्तनमें रख दो। __इस अशोक घृतके पीनेसे सब तरहके प्रदर रोग--श्वेतप्रदर, नीलप्रदर, काला-प्रदर, दुस्तर-प्रदर, कोखका दर्द, कमरका दर्द, योनिका दर्द, सारे शरीरका दर्द, मन्दाग्नि, अरुचि, पाण्डु-रोग, दुबलापन, श्वास और खाँसी-ये सब नाश होते हैं । यह घी आयु बढ़ानेवाला, पुष्टि करनेवाला और रंग निखारनेवाला है। इस घीको स्वयं विष्णु भगवान्ने ईजाद किया था। परीक्षित है। शीतकल्याण घृत। ___ कमोदिनी, कमल, खस, गेहूँ, लाल शालि-चाँवल, मुगवन, काकोली; कुम्भेर, मुलेठी, खिरेंटी, कंघीकी जड़, ताड़का मस्तक, बिदारीकन्द, शतावर, शालिपर्णी, जीवक, त्रिफला, खीरेके बीज और केलेकी कच्ची फली--इनमेंसे हरेकको दो-दो तोले लेकर, सिलपर जलके साथ पीसपीसकर, कल्क या लुगदी बना लो। ... गायका दूध ४ सेर, जल २ सेर और गायका घी १ सेर लो। फिर कढ़ाहीमें ऊपरसे कल्क और इन दूध, पानी और घीको मिलाकर, मन्दाग्निसे पकाओ । जब घी-मात्र रह जाय, उतारकर छान लो। इस घीके सेवन करनेसे प्रदर रोग, रक्तगुल्म, रक्तपित्त, हलीमक, बहुत तरहका पित्त कामला, वातरक्त, अरुचि, जीर्णज्वर, पाण्डुरोग, मद और भ्रम ये सब नाश हो जाते हैं । जो स्त्रियाँ अल्प पुष्प For Private and Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । ... वाली या गर्भ न धारण करनेवाली होती हैं, उन्हें इस घीके खानेसे गर्भ रहता है । यह घृत उत्तम रसायन है। ... प्रदरारि लौह । पहले कुरैयाकी छाल सवा छै सेर लेकर कुचल लो। फिर एक कलईदार वासनमें, बत्तीस सेर पानी और छालको डालकर, मन्दीमन्दी आगसे औटाओ । जब चौथाई या आठ सेर पानी रह जाय, उतारकर, कपड़ेमें छान लो और ठूछको फैंक दो। ... इस छने हुए कार्को फिर कलईदार बासनमें डाल, मन्दाग्निसे पकाओ, जब गाढ़ा होनेपर आ जाय, उसमें नीचे लिखी हुई दवाओंके चूर्ण मिला दो और चट उतार लो। कामें डालनेकी दवायें--मोचरस, भारङ्गी, बेलगिरी, बराहकान्ता, मोथा, धायके फूल और अतीस-इन सातोंको एक-एक तोले लेकर, कूट-पीसकर कपड़-छन कर लो। इस चूर्णको और एक तोले "अभ्रक भस्म" तथा एक तोले “लोह-भस्म"को उसी ( ऊपरके) गाढ़ा होते हुए कामें मिला दो। ... सेवन-विधि--कुशमूलको सिलपर पीसकर स्वरस या पानी छान लो। एक मात्रा यानी ३ माशे दवाको चाटकर, ऊपरसे कुशमूलका पानी पी लो। इस लोहसे प्रदर-रोग निश्चय ही नाश होता और कोखका दर्द भी जाता रहता है। प्रदरान्तक लौह । शुद्ध पारा ६ माशे, शुद्ध गन्धक ६ माशे, बङ्ग-भस्म ६माशे, चाँदीकी भस्म ६ माशे, खपरिया ६ माशे, कौड़ीकी भस्म ६ माशे और लोह-भस्म या कान्तिसार तीन तोले- इन सबको खरलमें डालकर, ऊपरसे घीग्वारका रस डाल-डालकर, बारह घण्टों तक घोटो। फिर एक-एक चिरमिटी बराबर गोलियाँ बनाकर, छायामें सुखा For Private and Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रदर रोग। लो और शीशीमें रख दो । इस लौहसे सब तरहके प्रदर रोग निश्चय ही नाश हो जाते हैं। । सेवन-विधि-सवेरे-शाम एक-एक गोली खाकर, ऊपरसे जरा-सा जल पी लेना चाहिए। गोली खाकर, ऊपरसे अशोककी छालके साथ पकाया दूध, जिसकी विधि पहले पृष्ठ ३४४ में लिख आये हैं, पीनेसे बहुत ही जल्दी अपूर्व चमत्कार दीखता है। अथवा गोली खाकर, रसौत और चौलाईकी जड़को पीसकर, चाँवलोंके पानीमें छान लो और यही पीओ । यह अनुपान परीक्षित है। शतावरी घृत। .. शतावरका गूदा या रस आध सेर, गायका घी आध सेर, गायका दूध दो सेर लाकर रख लो। जीवनीयगणकी आठों दवाएँ तथा मुलेठी, चन्दन, पद्माख, गोखरू, कौंचके बीजोंकी गिरी, खिरेंटी, कंघी, शालपर्ण, पृश्निपर्णी, विदारीकन्द, दोनों शारिवा, मिश्री और कुम्भेरके फल - इनमें से हरेक दवाको पानीके साथ सिलपर पीसपीस-कर, एक-एक तोले कल्क बना लो । शेषमें सब दवाओंके कल्क, शतावरका रस, घी और दूध सबको कलईदार बर्तनमें चढ़ाकर मन्दाग्निसे घी पका लो। इस “शतावरी घृत"के सेवन करनेसे रक्त पित्तके विकार, वातपित्तके विकार, वातरक्त, क्षय, श्वास, हिचकी, खाँसी, रक्तपित्त, अङ्ग-दाह, सिरकी जलन, दारुण मूत्रकृच्छ और सर्वदोष-जनित प्रदर रोम इस तरह नाश होते हैं, जिस तरह सूर्यसे अन्धकारका नाश होता है। For Private and Personal Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * सोमरोगकी चिकित्सा। - सोमरोगकी पहचान । OSHO की योनिसे जब प्रसन्न, निर्मल, शीतल, गंधरहित, साफ़, स्त्री सफ़ेद और पीड़ा-रहित जल बहुत ही जियादा बहता 8 रहता है, तब वह स्त्री जलके वेगको रोक नहीं सकती, एकदम कमजोर हो जानेकी वजहसे बेचैन रहती है, माथा शिथिल हो जाता है, मुँह और तालू सूखने लगते हैं, बेहोशी होती, जंभाई आती, चमड़ा रूखा हो जाता, प्रलाप होता और खाने-पीनेक पदार्थोंसे कभी तृप्ति नहीं होती । जिस रोगमें ये लक्षण होते हैं, उसे “सोमरोग" कहते हैं। इस रोगमें जो पानी योनिसे जाता है, वही शरीरको धारण करनेवाला है। इस रोगमें सोमधातुका नाश होता है, इसीलिये इसे “सोमरोग" कहते हैं। - जिस तरह पुरुषोंको बहुमूत्र रोग होता है। उसी तरह स्त्रियोंको "सोमरोग' होता है। जिस तरह पेशाबों-पर-पेशाब करनेसे मर्द मर जाता है; उसी तरह स्त्रियाँ, योनिसे सोम धातु जानेके कारण, गलगलकर मर जाती हैं। साफ़, शीतल, गन्धहीन, सफ़ेद्र, पानी-सा हर समय बहा करता है। यहाँ तक कि बहुत बढ़ जानेपर औरत पेशाबके वेगको रोक नहीं सकती, उठते-उठते धोतीमें पेशाब हो जाता है, इसलिये इस रोगवालीकी धोती हर वक्त भीगी रहती है। यह रोग औरतोंको ही होता है। For Private and Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-सोमरोग । ३६५ सोमरोगसे मूत्रातिसार । - जब स्त्रीका सोमरोग पुराना हो जाता है, यानी बहुत दिनों तक बना रहता है, तब वह “मूत्रातिसार" हो जाता है । पहले तो सोमरोगकी हालतमें पानी-सा पदार्थ बहा करता है। किन्तु इस दशामें बारम्बार पेशाब होते हैं और पेशाबोंकी मिकदार भी जियादा होती है। स्त्री ज़रा भी पेशाबको रोकना चाहती है, तो रोक नहीं सकती । परिणाम यह होता है कि, स्त्रीका सारा बल नाश हो जाता है और अन्तमें वह यमालयकी राह लेती है । कहा है:-- . सोमरोगे चिरंजाते यदा मूत्रमतिस्रवेत् । मूत्रातिसारं तं प्राहुबलविध्वंसनं परम् ॥ सोमरोगके पुराने होनेपर, जब बहुत पेशाब होने लगता है, तब उसे बलको नाश करनेवाला “मूत्रातिसार" कहते हैं। नोट - याद रखना चाहिये, सोमरोग मूत्र-मार्ग या मूत्रकी नलीमें और प्रदर-रोग गर्भाशयमें होता है और ये दोनों रोग स्त्रियोंको ही होते हैं। सोमरोगके निदान कारण । जिन कारणोंसे “प्रदर रोग" होता है, उन्हीं कारणोंसे "सोमरोग" होता है। अति मैथुन और अति मिहनत प्रभृति कारणोंसे शरीरके रस रक्त प्रभृति पतले पदार्थ और पानी, अपने-अपने स्थान छोड़कर, मूत्रकी थैलीमें आकर जमा होते और वहाँसे चलकर, योनिकी राहसे, हर समय या अनियत समयपर बाहर गिरा करते हैं। सोमरोग-नाशक नुसखे । (१) भिण्डीकी जड़, सूखा पिंडारू, सूखे आमले और विदारीकन्द, ये सब चार-चार तोले, उड़दका चूर्ण दो तोले और मुलेठी दो तोलेलाकर पीस-कूट और छान लो। इस चूर्णकी मात्रा ६ माशेकी है। For Private and Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय। एक पुड़िया मुँहमें रख, ऊपरसे मिश्री मिला' गायका दूध पीनेसे सोमरोग अवश्य नाश हो जाता है । दवा सवेरे-शाम दोनों समय लेनी चाहिये । परीक्षित है। - (२) केलेकी पकी फली, आमलोंका स्वरस, शहद और मिश्री इन सबको मिलाकर खानेसे सोमरोग और मूत्रातिसार अवश्य आराम हो जाते हैं। - (३) उड़दका आटा, मुलेठी, विदारीकन्द, शहद और मिश्री-इन सबको मिलाकर सवेरे ही, दूधके साथ सेवन करनेसे सोमरोग नष्ट हो जाता है। (४) अगर सोमरोगमें पीड़ा भी हो और पेशाबके साथ सोमधातु बारम्बार निकलती हो, तो ताज़ा शराबमें इलायची और तेजपातका चूर्ण मिलाकर पीना चाहिये। (५) शतावरका चूर्ण फाँककर, ऊपरसे दूध पीनेसे सोमरोग चला जाता है। (६) आमलोंके बीजोंको जलमें पीसकर, फिर उसमें शहद और चीनी मिलाकर पीनेसे, तीन दिनमें ही श्वेतप्रदर और मूत्रातिसार नष्ट हो जाते हैं। (७) छै माशे नागकेशरको माठेमें पीसकर, तीन दिन तक पीने और माठेके साथ भात खानेसे श्वेतप्रदर और सोमरोग आराम हो जाते हैं। (८) केलेकी पकी फली, विदारीकन्द और शतावर-इन सबको एकत्र मिलाकर, दूधके साथ, सवेरे ही पीनेसे सोमरोग नष्ट हो जाता है। . (E) मुलेठी, आमले, शहद और दूध-इन सबको मिलाकर सेवन करनेसे सोमरोग नाश हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RAMAIRRIERRISMANEERINK * योनि-रोग-चिकित्सा। योनि रोगोंकी किस्में। Years सलमें योनिरोग, प्रदर रोग और आर्तव रोग एवं स्त्री अ पुरुषोंके रज और वीर्यके शुद्ध, निर्दोष और पुष्ट न होने Hasiy वगैरः वगैरः कारणोंसे आज भारतके लाखों घर. सन्तानहीन हो रहे हैं। मूर्ख लोग गण्डा-ताबीज़ और भभूतके लिये वृथा ठगाते और दुःख भोगते हैं; पर असल उपाय नहीं करते, इसीसे उनकी मनोकामना पूरी नहीं होती । अतः हम योनि-रोगोंके निदान, कारण और लक्षण लिखते हैं । आर्तव रोग या नष्टार्तवकी चिकित्सा इसके. बाद लिखेंगे। ____ "सुश्रुत" में और "माधव निदान" आदि ग्रन्थोंमें योनिरोग-भगके रोग--बीस प्रकारके लिखे हैं। उनके नाम ये हैं (१) उदावृता (२) बन्ध्या (३) विप्लुता . ये पाँच योनिरोग वायु-दोषसे होते हैं। (४) परिप्लुता (५) वातला (६) लोहिताक्षरा (७) प्रस्र सिनी (८) वामनी ये पाँच योनिरोग पित्त-दोषसे होते हैं। (६) पुत्रधी ..(१०) पित्तला For Private and Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (११) अत्यानन्दा । (१२) कर्णिनी (१३) चरणा... ये पाँच योनिरोग कफके दोषसे होते हैं। (१४) अतिचरणा (१५) कफजा (१६) षंडी ये पाँचों योनिरोग तीनों दोषोंसे होते हैं। (१७) अण्डिनी ... ( १८ ) महती . (१६) सूचीवकत्रा (२०) त्रिदोषजा योनिरोगोंके निदान-कारण । "सुश्रुत' में योनिरोगोंके निम्नलिखित कारण लिखे हैं:(१) मिथ्याचार। (२) मिथ्या विहार । (३) दुष्ट आर्तव । (४) वीर्यदोष । (५) दैवेच्छा। । आजकल आयुर्वेदकी शिक्षा न पानेसे मर्दोकी तरह स्त्रियाँ भी समय-बेसमय खाती, दूध और मछली प्रभृति विरुद्ध पदार्थ और प्रकृतिविरुद्ध भोजन करतीं, गरम मिजाज होनेपर भी गरम भोजन करतीं, सर्द मिजाज होनेपर भी सर्द पदार्थ खाती, दिन-रात मैथुन करतीं, व्रत-उपवास करती तथा खूब क्रोध और चिन्ता करती हैं। इन कारणों एवं इसी तरहके और भी कारणोंसे उनका आर्तव या मासिक खून गरम होकर, उपरोक्त बीस प्रकारके योनिरोग करता है । इसके सिवा, माँ-बापके वीर्य-दोषसे जिस कन्याका जन्म होता है, उसे भी इन For Private and Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-योनिरोग। ३६६ बीसों योनि-रोगोंमेंसे कोई-न-कोई योनि-रोग होता है। सबसे प्रबल कारण दैवेच्छा है। बीसों योनि-रोगोंके लक्षण । (१) जिस स्त्रीकी योनिसे झाग-मिला हुआ खून बड़ी तकलीफके साथ झिरता है, उसे "उदावृत्ता" कहते हैं। नोट--उदावृत्ता योनि रोगवाली स्त्रीका मासिक-धर्म बड़ी तकलीफसे होता है, उसके पेड़ में दर्द होकर रककी गाँठ-सी गिरती है। ' (२) जिसका आर्तव नष्ट हो; यानी जिसे रजोधर्म न होता हो, अगर होता हो तो अशुद्ध और ठीक समयपर न होता हो, उसे "बन्ध्या " कहते हैं। (३) जिसकी योनिमें निरन्तर पीड़ा या भीतरकी ओर सदा एक तरहका दर्द-सा होता रहता है, उसे "विप्लुता" योनि कहते हैं। (४) जिस स्त्रीके मैथुन कराते समय योनिके भीतर बहुत पीड़ा होती है, उसे "परिप्लुता" योनि कहते हैं। (५) जो योनि कठोर या कड़ी हो तथा उसमें शूल और चोंटनेकीसी पीड़ा हो, उसे “वातला" योनि कहते हैं। इस रोगवालीका मासिक खून या आर्तव बादीसे रूखा होकर सूई चुभानेका-सा दर्द करता है। नोट--यद्यपि उदावृत्ता, बन्ध्या, विप्लुता, और परिप्लुता नामक योनियों में वायुके कारणसे दर्द होता रहता है, पर "वातला" योनिमें उन चारोंकी अपेक्षा अधिक दर्द होता है । याद रखो, इन पाँचों योनिरोगोंमें "वायु"का कोप रहता है। (६) जिस योनिसे दाहयुक्त रुधिर बहता है। यानी जिस योनिसे जलनके साथ गरम-गरम खून बहता है, उसे “लोहिताक्षरा" कहते हैं । ___ (७) जिस स्त्रीकी योनि, पुरुषके मैथुन करनेके बाद, पुरुषके वीर्य और स्त्रीकी रज दोनोंको बाहर निकाल दे, उसे “वामनी" योनि कहते हैं। For Private and Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३७० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा - चन्द्रोदय । 479 (८) जिसकी योनि अधिक देर तक मैथुन करनेसे, लिंगकी रगड़ के मारे, बाहर निकल आवे; यानी स्थानभ्रष्ट हो जाय और विमर्दित करनेसे प्रसव - योग्य न हो, उसे "प्रत्र सिनी" योनि कहते हैं । अगर ऐसी स्त्रीको कभी गर्भ रह जाता है, तो बच्चा बड़ी मुश्किल से निकलता है । ( ६ ) जिस स्त्रीको रुधिर-क्षय होनेसे गर्भ न रहे, वह "पुत्रघ्नी" योनिवाली है । ऐसी योनिवाली स्त्रीका मासिक खून गर्म होकर कम हो जाता और गर्भगत बालक अकाल या असमय में ही गिर जाता है। (१०) जो योनि अत्यन्त दाह, पाक और ज्वर, इन लक्षणोंवाली हो, वह "पित्तला " है । खुलासा यों समझिये कि इस योनिवाली स्त्री की भगके भीतर दाह या जलन होती है और भगके मुँहपर छोटी-छोटी फुन्सियाँ हो जाती हैं और पीड़ासे उसे ज्वर चढ़ आता है । नोट - यद्यपि लेोहिताक्षरा, प्रत्र सिनी, पुत्रघ्नी और वामनीमें पित्तकोप के चिह्न पाये जाते हैं और वे चारों योनिरोग पित्तसे ही होते हैं, पर पित्तला योनि रोगमें पित्तकेोपके लक्षण विशेष रूप से देखे जाते हैं । दाह, पाक और ज्वर पित्तलाके उपलक्षण मात्र हैं । उसमेंसे नीला, पीला और सफ़ ेद आर्त्तव बहता रहता है । ( ११ ) जिस स्त्रीकी योनि अत्यधिक मैथुन करनेसे भी सन्तुष्ट न हो, उसे "अत्यानन्दा" योनि कहते हैं। इस योनिवाली स्त्री एक दिन - में कई पुरुषोंसे मैथुन करानेसे भी सन्तुष्ट नहीं होती। चूँकि इस योनिवाली एक पुरुषसे राजी नहीं होती, इसीसे इसे गर्भ नहीं रहता । (१२) जिस स्त्रीकी योनि के भीतर के गर्भाशय में कफ और खून मिलकर, कमल के इर्द-गिर्द मांसकन्द-सा बना देते हैं, उसे “कर्णिनी" कहते हैं। ( १३ ) जो स्त्री मैथुन करनेसे पुरुषसे पहले ही छूट जाती है और वीर्य ग्रहण नहीं करती, उसकी योनि " चरणा" है । (१४) जो स्त्री कई बार मैथुन करनेपर छूटती है, उसकी योनि "अति चरणा" है । For Private and Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-योनिरोग । ३७१ - नोट-ऐसी यानिवाली स्त्री कभी एक पुरुषकी होकर नहीं रह सकती। चरणा और अतिचरणा योनिवाली स्त्रियोंको गर्भ नहीं रहता। (१५) जो योनि अत्यन्त चिकनी हो, जिसमें खुजली चलती हो और जो भीतरसे शीतल रहती हो, वह “कफजा" योनि है। नोट-अत्यानन्दा, कर्णिनी, चरणा और अतिचरणा--चारों योनियोंमें कफका दोष होता है, पर कफजामें कफ-दोष विशेष होता है। ___ (१६) जिस स्त्रीको मासिक धर्म न होता हो, जिसके स्तन छोटे हों और मैथुन करनेसे योनि लिंगको खरदरी मालूम होती हो, उसकी योनि “पण्डी" है। (१७) थोड़ी उम्रवाली स्त्री अगर बलवान पुरुषसे मैथुन कराती है, तो उसकी योनि अण्डेके समान बाहर लटक आती है। उस योनिको "अण्डिनी" कहते है। नोट-इस रोगवालीका रोग शायद ही आराम हो। इसको गर्भ नहीं रहता। (१८) जिस स्त्रीकी योनि बहुत फैली हुई होती है, उसे "महती" योनि कहते हैं। (१६ ) जिस स्त्रीकी योनिका छेद बहुत छोटा होता है, वह मैथन नहीं करा सकती, केवल पेशाब कर सकती है, उसकी योनिको "सूची वक्त्रा” कहते हैं। __ नोट-ऊपरके योनिरोग वातादि दोषोंसे होते हैं, पर जिस योनि-रोगमें तीनों दोषोंके लक्षण पाये जावें, वह त्रिदोषज है। योनिकन्द रोगके लक्षण । जब दिनमें बहुत सोने, बहुत ही क्रोध करने, अत्यन्त परिश्रम करने, दिन-रात मैथुन कराने, योनिके छिल जाने अथवा नाखून या दाँतोंके लग जानेसे योनिके भीतर घाव हो जाते हैं, तब वातादि दोष, कुपित होकर, पीप और खूनको इकट्ठा करके, योनिमें बड़हलके फल-जैसी गाँठ पैदा कर देते हैं, उसे ही “योनिकन्द रोग" कहते हैं । For Private and Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । · नोट--अगर वातका कोप ज़ियादा होता है, तो यह गाँठ रूखी और फटी-सी होती है। अगर पित्त ज़ियादा होता है, ते गाँठमें जलन और सुर्ती होती है, इससे बुखार भी आ जाता है। अगर कफ ज़ियादा होता है, तो उसमें खुजली चलती और रंग नीला होता है। जिसमें तीनों दोषोंके लक्षण होते हैं, उसे सन्निपातज योनिकन्द कहते हैं। HARYANAKYAYANAMAHARAK योनि-रोग-चिकित्सामें याद रखने-योग्य बातें। HTRAKARMARRORRRRRRRRRRRROR (१) बीसों प्रकारके योनि-रोग साध्य नहीं होते; कितने ही सहजमें और कितने ही बड़ी दिक्कतसे आराम होते हैं । इनमेंसे कितने ही तो असाध्य होते हैं, पर बाज़ औक़ात अच्छा इलाज होनेसे आराम भी हो जाते हैं । चिकित्सकको योनिरोगके निदान, लक्षण और साध्यासाध्यका विचार करके इलाजमें हाथ डालना चाहिये । (२) योनि रोग आराम करनेके तरीके यह हैं:(क) तेलमें रूईका फाहा तर करके योनिमें रखना। (ख) दवाकी बत्ती बनाकर योनिमें रखना। (ग) योनिमें धूनी या बफारा देना। (घ) दवाओंके पानीसे योनिको धोना। (ङ) योनिमें दवाके पानी वगैरःकी पिचकारी देना । (च) खानेको दवा देना। (छ) अगर योनि टेढ़ी या तिरछी हो गई हो अथवा बाहर निकल आई हो, तो योनिको चिकनी और स्वेदित करके; यानी तेल चुपड़कर और बफारोंसे पसीने निकालकर, उसे यथास्थान स्थापित करना एवं मधुर औषधियोंका वेशवार बनाकर योनिमें घुसाना । For Private and Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-योनिरोग । (ज) रूईका फाहा तेलमें तर करके बलानुसार योनिके भीतर रखना। इससे योनिके शूल,पीड़ा,सूजन, और स्राव वगैरः दूर हो जाते हैं। (झ) टेढ़ी योनिको हाथसे नवाना, सुकड़ी हुईको बढ़ाना और बाहर निकली हुईको भीतर घुसाना। (३) वातज योनि-रोगों में--गिलोय, त्रिफला और दातूनिकी जड़-इन तीनोंके काढ़ेसे योनिको धोना चाहिये। इसके बाद नीचे लिखा तेल बनाकर, उसमें रूईका फाहा तर करके, जब तक रोग आराम न हो, बराबर योनिमें रखना चाहिये । ___ कूट, सेंधानोन, देवदारु, तगर और भटकटैयाका फल-इन सबको पाँच-पाँच तोले लेकर अधकचरा कर लो और फिर एक हाँडीमें पाँच सेर पानी भरकर, उसमें कुटी हुई दवाएँ डालकर औटाओ । जब पाँचवाँ भाग पानी रह जाय, उतारकर मल छान लो। फिर एक क़लईदार कढ़ाईमें एक पाव काली तिलीका तेल डालकर, ऊपरसे छना हुआ काढ़ा डाल दो और चूल्हेपर रखकर मन्दी-मन्दी आगसे पकाओ। जब पानी जलकर तेल-मात्र रह जाय, उतारकर, शीतल होनेपर छान लो और काग लगाकर शीशीमें रख दो। नोट-पाँचों वातज योनि-रोगोंपर ऊपर लिखा योनि धानेका जल और यह तेल अनेक वारके परीक्षित हैं। जल्दी न की जाय और आराम न होने तक बराबर दोनों काम किये जायँ, तो १०० में १० को आराम होता है। (४) पित्तज योनि-रोगोंमें योनिको कादोंसे सींचना, धोना, तेल लगाना और तेलके फाहे रखना अच्छा है। पित्तज रोगमें शीतल और पित्तनाशक नुसरन काममें लाने चाहिये । शीतल दवाओंके तरड़े देने और फाहे रखनेसे अनेक बार तत्काल लाभ दीखता है। पित्तज योनिरोगोंमें गरम उपचार भयानक हानि करता है । ___ शतावरी घृत और बला तेल-ये दोनों पित्त-नाशक प्रयोग अच्छे हैं। (५) कफजनित योनि-रोगोंमें शीतल उपचार कभी न करना चाहिये। ऐसे योनि-रोगोंमें गर्म उपचार कायदा करता है। कफजन्य For Private and Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३.७४ चिकित्सा - चन्द्रोदय । योनि रोगों में रूखी और गरम दवायें देना अच्छा है। उधर पृष्ठ ३७७ में लिखी नं० १५ बत्ती ऐसे रोगों में अच्छी पाई गई है । ( ६ ) वातसे पीड़ित योनि में हींगके कल्क में घी मिलाकर योनिमें रखना चाहिये । पित्त से पीड़ित योनि में पंचवल्कलके कल्कमें घी मिलाकर योनिमें रखना चाहिये । कफजन्य योनि रोगोंमें श्यामादिक औषधियोंके कल्क या लुगदी में घी मिलाकर योनि में रखना चाहिये । अगर योनि कठोर हो, तो उसे मुलायम करनेवाली चिकित्सा करनी चाहिये । सन्निपातज योनि-रोग में साधारण क्रिया करनी चाहिये । अगर योनिमें बदबू हो, तो सुगन्धित पदार्थोंके काढ़े, तेल, कल्क या चूर्ण योनि में रखने से बदबू नहीं रहती । जैसे- पृष्ठ ३७८ का नं० १८ नुसखा । (७) याद रखो, सभी तरह के योनि रोगों में " वातनाशक चिकित्सा ” उपकारी है, पर वातज-योनि - रोगों में स्नेहन, स्वेदन और वस्ति कर्म विशेष रूपसे करने चाहियें । कहा हैः सर्वेषु योनिरोगेषु वातघ्नः क्रमइष्यते । स्नेहनः स्वेदनो वस्तिर्वातायां विशेषतः || योनि - रोग नाशक नुमखे । ( १ ) " चरक" में योनि रोगोंपर "धांतक्यादि" तेल लिखा है । उस तेलका फाहा योनि में रखने और उसीकी पिचकारी योनिमें लगानेसे विप्लुता आदि योनि-रोग, योनिकन्द-रोग, योनिके घाव, सूजन For Private and Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा -योनि-रोग | ३७५ और योनि से पीप बहना वग़ैरः निश्चय ही आराम हो जाते हैं । यह तेल हमने जिस तरह आजमाया है नीचे लिखते हैं: 1 धवके पत्ते, आमले के पत्ते कमलके पत्ते, काला सुरमा, मुलेठी, जामुनकी गुठली, आमकी गुठली, कशीश, लोध, कायफल, तेंदूका फल, फिटकरी, अनारकी छाल और गूलरके कच्चे फल- इन १४ दवाओंको सवा-सवा तोले लेकर कूट-पीस लो । फिर एक सेर अढ़ाई पाव बकरी के पेशाब में, ऊपरके चूर्ण को पीसकर, लुगदी बना लो। फिर एक कढ़ाही में ऊपर लिखी बकरीके मूत्रमें पिसी लुगदी, एक सेर काले तिलोंका तेल और एक सेर अढ़ाई पाव गायका दूध डालकर, चूल्हे पर रख, मन्दाग्नि से पकाओ । जब दूध और मूत्र जलकर तेल- मात्र रह जाय, उतारकर छान लो और बोतलमें भर दो । 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नोट-- अगर यह तेल पीठ, कमर और पीठकी रोढ़पर मालिश किया जाय, योनि में इसका फाहा रखा जाय और पिचकारी में भर-भरकर योनिमें छोड़ा जायतो विप्लुता, परिप्लुता, योनिकन्द, योनिकी सूजन, घाव और मवाद बहना अवश्य आराम हो जाते हैं । इन रोगोंपर यह तेल रामवाण है । ( २ ) वातला योनि में अथवा उस थोड़े स्पर्शवाली हो - उसके पर्दे रखना हितकर है। योनिमें जो कड़ी, स्तब्ध और बिठाकर - तिली के तेलका फाहा K S IP 1 ( ३ ) अगर योनि प्रत्र सिनी हो, लिङ्गकी रगड़से बाहर निकल आई हो, तो उसपर घी मलकर गरम दूधका बफारा दो और उसे हाथ से भीतर बिठा दो। फिर नीचे लिखे वेशवारसे उसका मुँह बन्द करके पट्टी बाँध दो । सोंठ, कालीमिर्च, पीपर, धनिया, जीरा, अनार और पीपरामूल-- इन सातोंके पिसे छने चूर्णको पण्डित लोग "वेशवार” कहते हैं । For Private and Personal Use Only ( ४ ) अगर योनि में दाह या जलन होती हो, तो नित्य आमलों के रसमें चीनी मिलाकर पीनी चाहिये । अथवा कमलिनीकी जड़ चावलों के पानी में पीसकर पीनी चाहिये । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mmmmw - चिकित्सा-चन्द्रोदय। :(५) अगर योनिमेंसे राध निकलती हो, तो नीमके पत्ते प्रभृति शोधन पदार्थो को सैंधानोनके साथ पीसकर गोली बना लेनी चाहिये। इन गोलियोंको रोज़ योनिमें रखनेसे राध निकलना बन्द हो जाता है। (६) अगर योनिमें बदबू आती हो अथवा वह लिबलिबी हो, तो बच, अडूसा, कड़वे परवल, फूल-प्रियंगू और नीम-इनके चूर्णको योनिमें रखो। साथ ही अमलताश आदिके काढ़ेसे योनिको धोओ। पहले धोकर पीछे चूर्ण रखो। ... (७) कर्णिका नामक कफजन्य योनिरोग हो-गर्भाशयके ऊपर मांस-सा बढ़ा हो-तो आप नीम आदि शोधन पदार्थोंकी बत्ती बनाकर योनिमें रखवाओ। - (८) गिलोय, हरड़, श्रामला और जमालगोटा,--इनका काढ़ा बनाकर, उस काढ़ेकी धारोंसे योनि धोनेसे योनिकी खुजली नाश हो जाती है। - (E) कत्था, हरड़, जायफल, नीमके पत्ते और सुपारी-इनको महीन पीसकर छान लो। पीछे इस चूर्णको मूंगके यूषमें मिलाकर सुखा लो। इस चूर्णके योनिमें डालनेसे योनि सुकड़ जाती और जलका स्राव या पानी-सा आना बन्द हो जाता है। (१०) जीरा, कालाजीरा, पीपर, कलौंजी, सुगन्धित बच, अड़सा, सैंधानोन, जवाखार और अजवायन--इनको पीस-छानकर चूर्ण कर लो। पीछे इसे जरा सेककर, इसमें चीनी मिलाकर लड्डू बना लो ।' इन लड्डुओंको अपनी जठराग्निके बल-माफिक नित्य खानेसे योनिके सारे रोग नाश हो जाते हैं। नोट-इस खानेकी दवाके साथ योनिमें लगानेकी दवा भी इस्तेमाल करनेसे शीघ्र ही लाभ दीखता है। (११) चूहेके मांसको पानीके साथ हाँडीमें डालकर काढ़ा बना लो । फिर उसे छानकर, उसमें काली तिलीका तेल मिला For Private and Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Sannyand स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-योनिरोग। कर, मन्दाग्निसे पका लो । जब पानी जलकर तेल-मात्र रह जाय, उतारकर छान लो और शीशी में रख दो । इस तेलमें फाहा भिगोकर, योनिमें रखनेसे, योनि-सम्बन्धी रोग निश्चय ही नाश हो जाते हैं। नोट-चूहेके मांसको तेलमें पकाकर, तेल छान लेनेसे भी काम निकल जाता है । इस चूहेके तेलका फाहा योनिमें रखनेसे योन्यर्श--योनिका मस्सा और योनिकन्द--गर्भाशयके ऊपरका मांसकन्द निश्चय ही आराम हो जाते हैं; पर जब तक पूरा आराम न हो, सबके साथ इसे लगाते रहना चाहिये। (१२.चूहेको भूभलमें दाबकर, उसका आम-बैंगन प्रभृतिकी तरह भरता कर लो । जब भरता हो जाय, उसमें सेंधानोन बारीक पीसकर मिला दो । उस भरतेके योनिमें रखनेसे योनिकन्द-गर्भाशयपर गाँठसी हो जानेका रोग-निस्सन्देह नाश हो जाता है, पर देर लगती है। नं० ११ की तरह योनि का मस्सा भी इसी भरतेसे नष्ट हो जाता है।। नोट--नं० ११ और १२ नुसन' परीक्षित हैं। अगर योन्यश--योनिके मस्से और योनिकन्द--यानिकी गाँठ श्राराम करनी हो,तो आप नं० ११ या १२ से अवश्य काम लें । इन दोनों रोगोंमें चूहेका तेल और भरता. अकसीरका काम करते हैं। (१३) करेलेकी जड़को पीसकर, योनिमें उसका लेप करनेसे, भीतरको घुसी हुई योनि बाहर निकल आती है। ... .. (५४) योनिमें चूहेकी चरबी का लेप करनेसे, बाहर निकली हुई योनि भीतर घुस जाती है। (१५) पीपर, कालीमिर्च, उड़द, शतावर, कूट और सेंधानोनइन सबको महीन पीस कूटकर छान लो । फिर इस छने चूर्णको सिलपर रख और पानीके साथ पीसकर, अँगूठे-समान बत्तियाँ बनाबनाकर छायामें सुखा लो। इन बत्तियोंके नित्य योनिमें रखनेसे कफसम्बन्धी योनि-रोग-अत्यानन्दा, कर्णिका, चरणा और अतिचरणा एवं कर्फजा योनि-रोग-निस्सन्देह नष्ट हो जाते और योनि बिल्कुल शुद्ध हो जाती है । यह योग हमारा आजमूदा है। ४८ For Private and Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३७८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय | (१६) तगर, कूट, सेंधानोन, भटकटैया का फल और देवदारु-इनका तेल पकाकर, उसी तेल में रूईका फाहा भिगोकर, योनिमें - लगातार कुछ दिन रखनेसे, वातज योनि-रोग- उदावृत्ता, बन्ध्या; विप्लुता, परिप्लुता और वातला योनि-रोग अवश्य आराम हो जाते हैं। इसका नाम " ताद्य" तेल है । ( इसके बनाने की विधि पृष्ठ ३७३ के नं० ३ में देखो । ) नोट-तेलका फाहा रखनेसे पहले गिलोय, त्रिफला और दातुनिकी जड़'इनके कासे योनिको सींचना और धोना ज़रूरी है। दोनों काम करनेसे पाँचों बादी के योनिरोग निस्सन्देह नाश हो जाते हैं । अनेक बार परीक्षा की है । ( १७ ) तिलका तेल १ सेर, गोमूत्र १ सेर, दूध २ सेर और गिलोयका कल्क एक पाव-- इन सबको कढ़ाही में चढ़ाकर मन्दाग्निसे पकाओ । जब तेल- मात्र रह जाय, उतारकर छानलो । इस तेलमें रूईका फाहा भिगोकर, योनिमें रखनेसे, वातजनित योनि-पीड़ा शान्त हो जाती है । बादी के योनि रोगों में यह तेल उत्तम है । इसका - नाम “गुड़ च्यादि तेल" है । --- (१८) इलायची, धायके फूल, जामुन, मँजीठ, लजवन्ती, मोचरस - और राल- इन सबको पीस-छानकर रख लो। इस चूर्णको योनिमें रखने से योनिकी दुर्गन्ध, लिबलिबापन तथा तरी रहना आदि विकार नष्ट हो जाते हैं । (१६) गिलोय, त्रिफला, शतावर, श्योनाक, हल्दी, अरणी, पियाबाँसा, दाख, कसौंदी, बेलगिरी और फालसे - इन ग्यारह दवाओंको एक-एक तोले लेकर कूट-पीसकर, सिलपर रख लो और पानी के साथ फिर पीसकर, लुगदी बना लो । इस लुगदीको आधसेर 'घी' के साथ कईदार कढ़ाही या देगची में रखकर मन्दाग्नि कालो । इनका नाम "गुड़ च्यादि घृत" है । यह घृत योनि-रोगों और वातविकारों को नष्ट करता तथा गर्भ स्थापन करता है । For Private and Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-योनिरोग। . नोट-गुड़ च्यादि घृत विशेषकर वातज योनिरोगोंमें स्त्रीको उचित मात्रासे खिलाना-पिलाना चाहिये। (२०) कड़वे नीमकी निबौलियोंको नीमके रसमें पीसकर, योनिमें रखने या लेप करनेसे, योनि-शूल मिट जाता है । परीक्षित है। (२१) अरण्डीके बीज नीमके रसमें पीसकर गोलियाँ बना लो। इन गोलियोंको योनिमें रखने या पानीमें पीसकर इनका लेप करनेसे योनि-शूल मिट जाता है। __(२२) आमलेकी गुठली, बायबिडंग, हल्दी, रसौत और कायफल--इनको बराबर-बराबर लेकर और कूट-पीसकर छान लो। पीछे इस चूर्ण को "शहद में मिला-मिलाकर रोज योनिमें भरो । इस नुसनेसे “योनिकन्द" रोग निश्चय ही नाश हो जाता है। पर इसे भरनेसे पहले, हरड़, बहेड़े और आमलेके काढ़ेमें "शहद" मिलाकर, उससे योनिको सींचना या धोना उचित है; अर्थात् इस काढ़ेसे योनिको धोकर, पीछे ऊपरका चूर्ण शहदमें मिलाकर योनिमें भरना चाहिये। काढ़ा नित्य ताजा बनाना चाहिये। (२३) मजीठ, मुलेठी, कूट, हरड़, बहेड़ा, आमला, खाँड़, खिरेंटी, एक-एक तोले, शतावर दो तोले, असगन्ध चार तोले, असगन्धकी जड़ १ तोले तथा अजमोद, हल्दी, दारुहल्दी, फूलप्रियंगू, कुटकी, कमल, बबूला-कुमुदिनी, दाख, काकोली, क्षीरकाकोली, सफेद चन्दन और लाल चन्दन-ये सब एक-एक तोले लाकर, पीसकूटकर छान लो। फिर छने चूर्णको सिलपर रख और जलके साथ पीसकर कल्क या लुगदी बना लो। __चौंसठ तोले गायका घी, १२८ तोले शतावरका रस और १२८ तोले दूध तथा ऊपरकी लुगदी-इन सबको कलईदार कढ़ाहीमें रख, मन्दाग्निसे चूल्हेपर पकाओ । जब घीकी विधिसे घी तैयार हो जाय, उतारकर छान लो और रख दो। इसका नाम “फलघृत" है। For Private and Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८० चिकित्सा-चन्द्रोदय । सेवन-विधि-इस घीको अगर पुरुष पीता है, तो उसकी मैथुनशक्ति अतीव बढ़ जाती है और उसके वीर, रूपवान् और बुद्धिमान् पुत्र पैदा होते हैं। जिन स्त्रियोंकी सन्तान मरी हुई होती है, जिनकी सन्तान होकर मर जाती है, जिनका गर्भ रहकर गिर जाता है अथवा जिनके लड़की-ही-लड़की होती हैं, उनके इस घीके पीनेसे दीर्घायु, गुणवान्, रूपवान् और बलवान् पुत्र होता है। इस घीके पीनेसे योनि-स्राव,--योनिसे मवाद गिरना, रजोदोष--रजोधर्म ठीक और शुद्ध न होना तथा दूसरे योनि-रोग नाश हो जाते हैं। यह घी सन्तान और वायुको बढ़ानेवाला है । इस 'फलघृत'को अश्विनीकुमारोंने कहा है। नोट-हमने यह घत भावप्रकाशसे लिया है । इसमें “साद कटेरीकी जड़" डालना नहीं लिखा है, तथापि वैद्य लोग उसे डालते हैं। वैद्य लोग इसके लिये जिसका बछड़ा जीता हो और जिसका एक ही रंग हो अर्थात् माता और बछड़े दोनों एक ही रङ्गके हों-ऐसी गायका घी लेते हैं और सदासे इसे पारने या जंगली कण्डोंकी श्रागपर पकाते हैं। ____ यह घृत अनेक ग्रन्थों में लिखा है । सबमें कुछ-न-कुछ भेद है। उनमें हींग, बच, तगर और दूना बिदारीकन्द--ये दवाएँ और भी लिखी हैं। वैद्य चाहें तो इन्हें डाल सकते हैं। (२४) घीका फाहा अथवा तेलका फाहा या शहदका फाहा योनिमें रखनेसे, योनिके सभी रोग नाश हो जाते हैं, पर फाहा बहुत दिनों तक रखना चाहिये । परीक्षित है। (२५) मैनफल, शहद और कपूर--इनको पीसकर, अँगुलीसे योनिमें लगानेसे गिरी हुई भग ठीक होती, उसकी नसें सीधी होती और वह सुकड़कर तंग भी हो जाती है । परीक्षित है। नोट-चक्रदत्त में लिया है:-- मदनफलमधुकरपूरितं भवति कामिनीजनस्य । विगलित यौवनस्य च वराङ्गमति गाढं सुकुमारम् ॥ For Private and Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-योनिरोग । ३८१ . बूढ़ी स्त्रीकी भी योनि--मैनफल, शहद और कपूरको योनिमें लगानेसे, अत्यन्त सुन्दर और तंग हो जाती है । (२६) माजूफल, शहद और कपूर-इनको पीसकर, अँगुलीसे, योनिमें लगानेसे गिरी हुई योनि ठीक हो जाती है, नसें सीधी होती और वह सुकड़कर तंग हो जाती है । परीक्षित है। (२७) इन्द्रायणकी जड़ और सोंठ-इन दोनोंको "बकरीके घी में पीसकर, योनिमें लेप करनेसे, योनिका शूल या दर्द शीघ्र ही नाश हो जाता है। "वैद्यजीवन"-कर्ता अपनी कान्तासे कहते हैं-- तरुण्युत्तरणीमूलं छागोसर्पिःसनागरम् । शिवशस्त्राभिधांबाधां योनिस्थाहन्तिसत्वरम् ॥ अर्थ वही है जो ऊपर लिखा है । (२८) कलौंजीकी जड़के लेपसे, भीतर घुसी हुई योनि बाहर आती और चूहेके मांस-रसकी मालिशसे बाहर आई हुई योनि भीतर जाती है। (२६ ) पंचपल्लव, मुलहटी और मालतीके फूलोंको घीमें डालकर, घीको घाममें पका लो। इस घीसे योनिकी दुर्गन्ध नाश हो जाती है । (३०) योनिको चुपड़कर, उसमें बालछड़का कल्क जरा गरम करके रखनेसे, वातकी योनि-पीड़ा शान्त हो जाती है। (३१) पित्तसे पीड़ित हुई योनिवाली स्त्रीको, पञ्चबल्कलका कल्क योनिमें रखना चाहिये। . (३२) चूहीके मांसको तेलमें डालकर, धूपमें पका लो। फिर इसकी योनिमें मालिश करो और चूहीके मांसमें सैंधानोन मिलाकर योनिको इसका बफारा दो। इन उपायोंसे योनिका मस्सा नाश हो जायगा । (३३) शालई, मदनमंजरी, जामुन और धव--इनकी छाल और पंचबल्कलकी छाल--इन सबका काढ़ा करके तेल पकाओ। फिर उसमें रूईका फाहा तर करके योनिमें रक्खो । इससे विप्लुता योनिरोग जाता रहता है। For Private and Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । - (३४) वामिनी और पूत योनियों को पहले स्वेदन करो। फिर उनमें चिकने फाहे रखो। (३५) त्रिफलेके काढ़ेमें "शहद" डालकर योनि-सेवन करने या तरड़ा देनेसे योनिकन्द रोग आराम हो जाता है। (३६ ) गेरू, अंजन, बायबिडङ्ग, कायफल, आमकी गुठली और हल्दी-इन सबका चूर्ण करके और "शहद में मिलाकर योनिमें रखनेसे योनिकन्द नाश हो जाता है। (३७) घोंघेका मांस पीसकर, उसमें पकी हुई तित्तिडिकाका रस मिलाकर, लेप करनेसे योनिकन्द रोग नाश हो जाता है। (३८) कड़वी तोरई के स्वरसमें “दहीका पानी" मिलाकर पीनेसे योनिकन्द रोग नाश हो जाता है। (३६) आगपर गरम की हुई लोहेकी शलाकासे योनिकन्दको दागनेसे, बहुत विकारोंसे हुआ योनिकन्द भी नाश हो जाता है । (४०) अड़सा, असगन्ध और रास्ना--इनसे सिद्ध किया हुआ दूध पीनेसे योनि-शूल नाश हो जाता है । साथ ही दन्ती, गिलोय और त्रिफलेके काढेका तरड़ा भी योनिमें देना चाहिये । नोट--रक्क योनिमें प्रदरनाशक क्रिया करनी चाहिये। (४१) ढाक, धायके फूल, जामुन, लजालू, मोचरस और गल-- इनका चूर्ण बदबू, पिच्छिलता और योनिकन्द आदिमें लाभदायक है। (४२) सिरसके बीज, इलायची, समन्दर-झाग, जायफल, बायबिडङ्ग और नागकेशर---इनको पानीमें पीसकर बत्ती बना लो। इस बत्तीको योनिमें रखनेसे समस्त योनि-रोग नाश हो जाते हैं। (४३ ) बड़ी सोंफका अर्क योनि-शूल, मन्दाग्नि और कृमि-रोगको नाश करता है। (४४) अर्क पाषाणभेद योनि-रोग, मूत्रकृच्छ्र, पथरी और गुल्मरोगको नाश करता है। For Private and Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . . . a 603800 0... . .... 00.00000000000 . .. . . .. . . . . ४ योनि-संकोचन-योग । ... (भग तङ्ग करनेवाले नुसख्ने । ) . मैनफल, मुलेठी और कपूर-तीनोंको बराबर-बराबर लेकर महीन पीस-छान लो। फिर इस चूर्णको तंजेब या महीन मलमलके कपड़े में रखकर स्त्रीकी भगमें रखाओ। उम्मीद है, कि कई दिनोंमें, स्त्रीकी ढीली-ढीली और फैली हुई भग खूब सुकड़कर नर्म हो जायगी। परीक्षित है। (२) कौंचकी जड़का काढ़ा बनाकर, उससे कितने ही दिनों तक योनि धोनेसे योनि सुकड़ जाती है। - . (३) बैंगनको लाकर सुखा लो । सूखनेपर पीसकर चूर्ण कर. लो। इस चूर्ण को भगमें रखनेसे भग सुकड़कर तंग हो जाती है। (४) आककी जड़ लाकर स्त्री अपने पेशाबमें पीस ले । फिर शफा करके, दो घण्टे बाद मैथुन करे । भग ऐसी तंग हो जायगी कि लिख नहीं सकते। ..(५) सूखे कैंचुए भगमें मलनेसे बड़ा आनन्द आता है। - (६) बबूलकी छाल, झड़बेरीकी छाल, मौलसरीकी छाल, कचनारकी छाल, और अनारकी छाल--सबको बराबर-बराबर लेकर कुचल लो और एक हाँडीमें अन्दाजका पानी भरकर जोश दो । औटाते समय हाँडीमें एक सफ़ेद कपड़ा भी डाल दो। जब कपड़ेपर रंग चढ़ जाय, उसे निकाल लो । इस काढ़ेसे योनिको खूब धोओ । इनके बाद, इसी काढ़ेमें रंगे हुए कपड़ेको भगमें रख लो। इस तरह करनेसे योनि सुकड़कर छोकरीकी-सी हो जाती है । For Private and Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । ___ (७) ढाककी कोंपलें या कलियाँ लाकर छायामें सुखा लो। सूखनेपर पीस-छान लो और बराबरकी पीसी हुई मिश्री मिलाकर रख दो। इसमें से एक मात्रा चूर्ण रोज सात दिन तक खाओ । सात दिन बाद साफ मालूम हो जायगा कि, योनि तंग हो गई । अगर कुछ कसर हो, तो और भी कई दिन खाओ। मात्रा-सवा दो माशेसे नौ माशे तक। अनुपान-शीतल जल । (८) सूखी बीरबहुट्टी घीमें पीसकर भगमें मलनेसे भग तंग हो जाती है। (६) बकायनकी छाल लाकर सुखा लो । फिर पीस-छानकर रख लो । इसमेंसे कुछ चूर्ण रोज़ भगमें रखनेसे भग तंग हो जाती है। (१०) खट्टे पालकके बीज कूट-छानकर भगमें रखनेसे भी योनि सुकड़ जाती है। (११) इमलीके बीजोंकी गिरी कूट-छानकर रख लो। सवेरेशाम इस चूर्णको भगमें मलनेसे भग तङ्ग हो जाती है। (१२) समन्दर-झाग और हरड़के बीजोंकी गिरी बराबर-बराबर लेकर पीस लो । इस चूर्णको भगमें रखनेसे भग तङ्ग हो जाती है। (१३) चीनिया गोंद छै माशे लाकर महीन पीस लो और दो तोले फिटकरी लाकर भून लो । जब फिटकरी भुनने लगे और उसका 'पानी-सा हो जाय, उस फिटकरीके पतले रसपर, पिसे हुए गोंदको पानीमें मिलाकर छिड़को। जब शीतल हो जाय पीसो । इसके बाद इसमें जरा-सा "गुलधावा" मिला दो और फिर सबको पीसो । इस दवाको योनिमें रखनेसे अद्भुत चमत्कार नज़र आता है। ."इलाजुलगुर्बा' के लेखक महोदय इसे अपना आजमाया हुआ बताते हैं। (१४) बेंतकी जड़को मन्दाग्निसे पानीके साथ पकाकर - For Private and Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा -- योनि संकोचन योग । ३८ 'काढ़ा कर लो और उससे योनिको धोओ। इससे बालक होनेके बाद, पहले जैसी तंग हो जाती है । कहा है:-- लोधतुम्बीफलालेपो योनि दादर्पं करोति च । वेतसमूलनिःक्वाथक्षालनेन तथैव च ॥ अर्थात् लोध और तूम्बीके लेपसे योनि सख्त हो जाती है। बेंतकी ash काढ़े से भी योनि दृढ़ हो जाती है । (१५) ढाकके फल और गूलरके फल--इनको पीसकर, तिलीके तेल और शहद में मिलाकर, योनिपर लेप करने से योनि तंग हो जाती है । यह योग और भी अच्छा है । ( १६ ) बच, नील-कमल, कूट, गोलमिर्च, असगन्ध और हल्दी के लेपसे योनि दृढ़ हो जाती है । (१७) कड़वी तूम्बीके पत्ते और लोध-- इनको मिलाकर जलके साथ पीस लो और गोली बनाकर योनिमें रखो। इस उपाय से भी योनि कड़ जाती है । (१८) हरड़, बहेड़ा, आमले, भाँग, लोध, दूधी और अनारकी छाल - इन सबको बराबर-बराबर लेकर पीस-छान लो । फिर इस चूर्णको अरणीके रस में घोटकर गोली बना लो। इस गोलीके रातको भगमें रखने से योनि सुकड़ जाती है । नोट - नं० १५,१६ और १८ के नुसख े हमारे एक मित्र अपने आज़मूंदा कहते हैं । (१६) बेरीकी जड़की छाल, कनेरकी जड़की छाल, लोध, माजूफल, पद्मकाठ, बिसकी जड़, कपूर और फिटकरी -- इन सबको बराबरबराबर लेकर पीस-छान लो और फिर इस चूर्णको योनिमें रखो। इस चूर्णसे योनि सुकड़ जाती है। ( २० ) बिसौंटेकी जड़, फिटकरी, लोध, आमली, बेरकी गुठली की मींगी और माजूफल, - इन सबको बराबर-बराबर लेकर, पीस-छान लो । इस चूर्णको योनिमें रखनेसे योनि सिकुड़ जाती है । ४६ For Private and Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (२१) जामुनकी जड़की छाल, लोध और धायके फूल, इन सबको पीसकर, “शहद में मिला लो और योनिमें लेप करो। इससे अवश्य योनि सिकुड़ जाती है। (२२) अकेली छालसे योनिको धोओ । इस उपायसे योनि साफ होकर सिकुड़ जाती है। नोट–अमलताशके बड़े पेड़की जड़की छाल और भाँगको धतूरेके रसमें पीसकर गोली बना लो और छायामें सुखा लो। इन गोलियोंको अपने पेशाबमें घिसकर लिंगपर लेप करो । इससे लिंग दीर्घ, पुष्ट और कड़ा हो जायगा । असगन्ध, कूट, चित्रक और गजपीपल-इनको पीसकर, भैसके घीमें मिला लो और लिंगपर लेप करो । इससे लिंग खूब पुष्ट हो जायगा। मैनसिल, सुहागा, कूट, इलायची और मालतीके पत्तोंका रस, इन सबको कुचलकर तिलके तेलमें डालकर पकानो। इस तेलको लिंगपर मलनेसे लिंग कड़ा हो जायगा। (२३) भाँगकी पोटली बनाकर, योनिमें ३।४ घण्टे रखनेसे, सौ बारकी प्रसूता नारीकी योनि भी कन्याकी-सी हो जाती है । “वैद्यरत्न"में कहा है:___भंगा पोटलिकां दत्वा प्रहरं काममन्दिरे । शतवारं प्रस्तापि पुनर्भवति कन्यका ॥ (२४) मोचरसको पीस-छानकर, योनिमें ३।४ घण्टे तक लगा रखनेसे, सौ बच्चा जननेवालीकी योनि भी सिकुड़ जाती है । “वैद्यरत्न"मैं ही लिखा है:-- मोचरससूक्ष्मचूर्णं क्षिप्तं योनौ स्थितं प्रहरम् । शतवारं प्रसूताया अपि योनिः सूक्ष्मरन्ध्रास्यात् ॥ .. ( २५) देवदारु और शारिवाको “घी” में मिलाकर लेप करनेसे शिथिल योनि भी कड़ी हो जाती है । (२६) कूट, धायके फूल, बड़ी हरड़, फूली फिटकरी, माजूफल, हाऊबेर, लोध और अनारकी छाल, इनको पीसकर और शराबमें मिलाकर लेप करनेसे योनि दृढ़ हो जाती है। For Private and Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wwwwwwwwwwwwwww AASPAAAAAAE : लोमनाशक नुसखे । (बाल उड़ानेके उपाय ) (१) बालोंको उखाड़कर, उस जगह थूहरका दूध लगा देनेसे बाल नहीं आते। (२) कलीका चूना, मुर्गेकी बीट, संखला (शृङ्खला ), धतूरेका रस और घोड़ेका पेशाब-इन सबको मिलाकर, बालोंकी जगह लेप करनेसे बाल उड़ जाते हैं। (३) कपूर, भिलावे, शंखका चूर्ण, सज्जीखार, अजवायन और अजमोद-इन सबको तेलमें पकाकर “हरताल" पीसकर मिला दो। इस तेलके लगानेसे क्षण-भरमें ही बाल गिर जाते हैं। (४) शंखकी राख करके, उसे केलेके डंठलके रसमें मिला दो। पीछे पीसकर बराबरकी हरताल मिला दो। इस दवाके लेपसे गुदा आदिके रोम या बाल नष्ट हो जाते हैं। (५) रक्ताञ्जनाकी पुच्छके चूर्णमें सरसोंका तेल मिलाकर सात दिन रख दो। फिर इसका लेप करो। इस तेलसे बालोंका नाश हो जाता है, इसमें शक नहीं। (६) कसूमके तेलकी मालिश करनेसे ही बाल उड़ जाते हैं। (७) अमलताशकी जड़ ४ तोले, शंखका चूर्ण २ तोले, हरताल २ तोले और गधेका पेशाब ६४ तोले,-इनके साथ कड़वा तेल पकाकर रख लो। इस तेलका लेप करनेसे बाल उड़ जाते और फिर नये पैदा नहीं होते । इसे “आरग्वधादि तैल" कहते हैं। For Private and Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (८) कपूर, भिलावे, शंखका चूर्ण, जवाखार, मैनशिल और हरताल--इसमें पकाया हुआ तेल क्षण-भरमें बालोंको उड़ा देता है । इसका नाम "कर्पूरादि तैल" है । “चक्रदत्त"में कहा है:कर्पूर भल्लातक शंखचूर्ण क्षारो यवानां च मनःशिलाच । तैलं विपक्वं हरितालमिश्रं रोमाणि निर्मूलयति क्षणेन ॥ __ नोट--कपूरादि पाँच दवाओंको, पानीके साथ सिलपर पीसकर, लुगदी बना लो, फिर तेल पका लो । तेल पक जानेपर, इस तेलमें "हरताल" पीसकर मिला दो और बालोंकी जगह लेप करो-यही मतलब है। () सीपी, छोटा शंख, बड़ा शंख, पीली लोध, घंटा और पाटली-वृक्ष-इन सबको जलाकर क्षार बना लो। इस क्षारमें गधेका पेशाब डालकर घोटो और जितना क्षार हो उसका पाँचवाँ भाग "कड़वा तेल" मिला दो और आगपर पका लो। : यह "क्षार तैल" श्रात्रेय मुनिका पूजित और महलोंमें देने योग्य है । जहाँ इसकी एक बूंद गिर जाती है, वहाँ बाल फिर पैदा नहीं होते । इससे बवासीरके मस्से, दाद, खाज और कोढ़ प्रभृति भी आराम हो जाते हैं। -- (१०) शंखका चूर्ण दो भाग और हरताल एक भाग, इन दोनोंको एकत्र पीसकर लेप करनेसे बाल गिर जाते हैं। : (११) कसूमका तेल और थूहरका दूध-दोनोंको मिलाकर लेप करनेसे बाल गिर जाते हैं। (१२ ) केलेकी राख और श्योनाकके पत्तोंकी राख, हरताल, नमक और छोंकरके बीज-इनको एकत्र पीसकर लेप करनेसे बाल गिर जाते हैं। (१३) हरताल १ भाग, शंखका चूर्ण ५ भाग और ढाककी राख १ भाग--इन सबको मिलाकर लेप करनेसे बाल गिर जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाल उड़ानेके नुसखे। ३८६ (१४) कनेरकी जड़, दन्ती और कड़वी तोरई-इन सबको पीसकर, केलेके खार द्वारा तेल पकाओ। यह तेल बाल गिराने में उत्तम है । इसे “करवीराद्य तैल” कहते हैं। (१५) शंखकी राख ६ माशे, हरताल ४॥ माशे, मैनसिल २। माशे और सज्जीखार ४॥ माशे, इनको जलमें पीसकर बालोंपर लगाओ और बालोंको उखाड़ो। सात बार लगानेसे बालोंकी जड़ ही नष्ट हो जाती है। ___(१६) बिना बुझा चूना और हरताल,-दोनोंको बराबर-बराबर लेकर बालोंपर मलो। चूना जियादा होगा तो जल्दी लाभ होगा; यानी बाल जल्दी गिरेंगे। कोई-कोई इसमें थोड़ी-सी अण्डेकी सफेदी भी मिलाते हैं। इसके मिलानेसे जलन नहीं होती। (१७) जली सीप, जली गच और हरताल मिलाकर लगानेसे बाल उड़ जाते हैं। नोट-"तिब्बे अकबरी'में लिखा है,-गुप्त स्थानके बाल न गिराने चाहिए। इससे हानि हो सकती है और काम-शक्ति तो कम हो ही जाती है। गुप्त स्थानके बाल छुरे या उस्तरेसे मूंडनेसे लिङ्ग पुष्ट होता और काम-शक्ति बढ़ती है । इसके सिवा और भी अनेक लाभ होते हैं । * सचित्र वैराग्य-शतक देखिये। मूल्य ५) . . For Private and Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नष्टार्तव-चिकित्सा। ६ बन्द हुए रजोधर्मकी चिकित्सा। मासिम रजोधर्मसे लाभ । HONEY सारकी सभी स्त्रियाँ हर महीने रजस्वला होती हैं। यानी नव हर महीने, उनकी योनिसे रज या एक प्रकारका खून PRGE रिस-रिसकर निकला करता है। इसीको रजोधर्म होना, मासिक-धर्म होना या रजस्वला होना कहते हैं। यह रजोधर्म स्त्रियों में बारह वर्षकी अवस्थाके बाद प्रारम्भ होता और पचास सालकी उम्र तक होता रहता है । वाग्भट्ट महोदय कहते हैं: मासि मासि रजः स्त्रीणां रसजं स्रवति व्यहम् । वत्सरावादशादृवं याति पंचाशतः क्षयम् ।। - महीने-महीने स्त्रियोंके रससे रज बनता है और वही रज, तीन दिन तक, हर महीने उनकी योनिसे झरता है। यह रजःस्राव या रजोधर्म बारह वर्षकी उम्रसे ऊपर होने लगता और पचास सालकी उम्र तक होता रहता है। इसके बाद नहीं होता; यानी बन्द हो जाता है। ____ यह रजका गिरना तीन दिन तक रहता है, पर जिस रहम या गर्भाशयसे यह रज या आर्तव अथवा खून निकलकर बाहर बहता है, वह सोलह दिनों तक खुला रहता है। इसीसे ऋतुकाल सोलह दिनका माना गया है। इसी ऋतुकालके समय, स्त्री-पुरुषके परस्पर मैथुन करनेसे गर्भ रह जाता है । मतलब यह कि इसी ऋतुकालमें गर्भ रहता है । गर्भ रहने के लिये स्त्रीका रजस्वला होना जरूरी है, क्योंकि रज गिरनेके लिये गर्भाशयका मुंह खुल जाता है और वह सोलह दिन तक खुला रहता है । इस समय, मैथुन करनेसे, पुरुषका वीर्य गर्भा For Private and Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-नष्टात्तव । ३६१ शयके अन्दर जाता है और वहाँ रजसे मिलकर गर्भका रूप धारण करता है । अगर सोलह दिनके बाद मैथुन किया जाता है, तो गर्भ नहीं रहता; क्योंकि उस समय गर्भाशयका मुँह बन्द हो जाता है। रजोधर्म होनेके १६ दिन बाद मैथुन करनेसे, पुरुषका वीर्य योनिके और हिस्सोंमें गर्भाशयसे बाहर--गिरता है । उस दशामें गर्भ रह नहीं सकता । "भावप्रकाश"में लिखा है: आर्तवस्रावदिवसातुः षोडशरात्रयः । गर्भग्रहणयोग्यस्तु स एव समयः स्मृतः ॥ आर्त्तव गिरने या रजःस्राव होनेके दिनसे सोलह रात तक स्त्री "ऋतुमती” रहती है । गर्भ ग्रहण करने योग्य यही समय है । __जो बात हमने ऊपर लिखी है,वही बात यह है । स्त्रीके गर्भाशयका मुँह रजोधर्म होनेके दिनसे सोलह रात तक खुला रहता है । इतने समयको “ऋतुकाल” और इतने समय तक यानी सोलह दिन तक स्त्रीको "ऋतुमती” कहते हैं । इसी समय वह पुरुषका संसर्ग होनेसे गर्भ धारण कर सकती है। फिर नहीं । बादके चौदह दिनोंमें गर्भ नहीं रहता; इसीसे बहुत-सी चतुरा वेश्या अथवा विधवा स्त्रियाँ इन्हीं चौदह दिनोंमें पुरुष-संग करती हैं। __पिताका वीर्य और स्त्रीका आर्तव गर्भके बीज हैं। बिना दोनोंके मिले गर्भ नहीं रहता । अनजान लोग समझते हैं, कि केवल पुरुषके वीर्यसे गर्भ रहता है, यह उनकी ग़लती है। बिना दो चीजोंके मिले तीसरी चीज़ पैदा नहीं होती, यह संसारका नियम है । जब वीर्य और रज मिलते हैं, तभी गर्भोत्पत्ति होती है । वाग्भट्टजी कहते हैं: शुद्ध शुक्रात सत्त्वः स्वकर्मक्लेशचोदितः। .. गर्भः सम्पद्यते युक्तिवशादग्निरिवारणौ ॥ जिस तरह अरणीको मथनेसे आग निकलती है, उसी तरह स्त्री-पुरुषकी योनि और लिंगकी रगड़से-वीर्य और आवक For Private and Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । : मिलनेसे--अपने कर्म रूपी क्लेशोंसे प्रेरित हुवा जीव गर्भका रूप धारण करता है। "भावप्रकाश' में लिखा है:.... कामान्मिथुन-संयोगे शुद्धशोणितशुक्रजः ।। ...गर्भः संजायते नार्याः स जातो बाल उच्यते ॥ जब स्त्री-पुरुष दोनों कामदेवके वेगसे मतवाले होकर आपसमें मिलकर मैथुन करते हैं, तब शुद्ध रुधिर और शुद्ध वीर्यसे स्त्रीको गर्भ रहता है। वही गर्भ पैदा होकर - योनिसे बाहर निकलकरबालक कहलाता है। . . . . . . और भी लिखा है: ऋतौ स्त्रीपुसयोयोगे. मकरध्वजवंगतः । . मेदयोन्यभिसंघर्षाच्छरीरोष्मानिलाहतः ॥ पुसः सर्वशरीरस्थं .. रेतोद्रावयतेऽथ तत् । वायुर्मेहनमार्गेण पात्यत्यंगनाभगे ॥ ततः सं त्य तद् व्यात्तमुखं गर्भाशयं व्रजेत् । तत्र शुक्रवदायातेनातवेन युतं भवेत् ॥ शुक्रातवसमाश्लेषो यदेव खलु जायते । जीवस्तदैव विशति युक्तः शुक्रात्तवान्तरः ॥ - काम-वेगसे मस्त होकर, ऋतुकाल में, जब स्त्री-पुरुष आपसमें मिलते हैं--मैथुन-कर्म करते हैं- तब लिंग और योनिके आपसमें रगड़ खानेसे, शरीरकी गर्मी और वायुके जोरसे, पुरुषों के शरीरसे वीर्य द्रवता है । उसको वायु या हवा, लिंगकी राहसे, स्त्रीकी योनिमें डाल देती है । फिर वह वीर्य खुले मुँहवाले गर्भाशयमें बहकर जाता और वहाँ स्त्रीके रजमें मिल जाता है। जब वीर्य और रजका संयोग होता है, जब बीय और रज-गर्भाशयमें मिलते हैं, तब उन मिले हुए वीर्य और रजमें "जीव" आ घुसता है । जिस तरह सूरजकी किरणों For Private and Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--नष्टार्तव । ३६३ और सूर्यकान्त मणिके मिलनेसे आग पैदा होती है, उसी तरह वीर्य और आर्त्तव--रज--के मिलनेसे “जीव" पैदा होता है। ___ इतना लिखनेका मतलब यह है कि, गर्भ रहनेके लिये स्त्रीका ऋतुमती होना परमावश्यक है। जिस स्त्रीको महीने-महीने रजोधर्म नहीं होता, उसे गर्भ रह नहीं सकता । यद्यपि स्त्रियाँ प्रायः तेरहवें सालसे रजस्वला होने लगती हैं। पर अनेक कारणोंसे उनका रजोधर्म होना बन्द हो जाता या ठीक नहीं होता। जिनका रजोधर्म बन्द या नष्ट हो जाता है, वे गर्भ धारण नहीं कर सकतीं, इसीसे कहा है--"बन्ध्या नष्टार्तवा ज्ञया" जिसका रज नष्ट हो गया है, वह बाँझ है; क्योंकि “गर्भोत्पत्तिभूमिस्तुरजस्वला" यानी रजस्वला स्त्रीको ही गर्भ रहता है। यद्यपि बाँझ होनेके और भी बहुतसे कारण हैं। उन्हें हम दत्तात्रयी प्रभृति ग्रन्थोंसे आगे लिखेंगे; पर सबसे पहले हम “नष्टार्तव" या मासिक बन्द हो जानेके कारण और इलाज लिखते हैं, क्योंकि शुद्ध-साफ रजोधर्म होना ही स्त्रियोंके स्वास्थ्य और कल्याणकी जड़ है। जिन स्त्रियोंको रजोधर्म नहीं होता, उनको अनेक रोग हो जाते हैं और वे गर्भको धारण कर ही नहीं सकतीं।। __ प्रकृति, अवस्था और बलसे कम या ज़ियादा रक्तका जाना अथवा तीन दिनसे ज़ियादा खूनका झिरता रहना--रोग समझा जाता है। अगर किसी स्त्रीको महीनेसे दो चार दिन चढ़कर रजोधर्म हो, जरा-सा खून धोतीके लगकर फिर बन्द हो जाय, पेड़ में पीड़ा होकर खूनकी गाँठ-सी गिर पड़े अथवा एक या दो दिन खून गिरकर बन्द हो जाय, तो समझना चाहिये कि शरीरका खून सूख गया है-- खूनकी कमी है। अगर तीन दिनसे जियादा खून गिरे या दूसरा महीना लगनेके दो-चार दिन पहले तक गिरता रहे, तो समझना चाहिये कि खून में गरमी है। अगर खून सूख गया हो या कम हो गया हो, तो For Private and Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । -wammam खून बढ़ानेवाली दवायें या आहार सेवन कराकर खून बढ़ाना चाहिये। अगर ज़ियादा दिनों तक खून पड़ता रहे, तो प्रदर रोगकी तरह इलाज करना चाहिये। ___मासिक धर्म बन्द होनेके कारण । रजोधर्म बन्द होनेके कारण यूनानी ग्रन्थों में विस्तारसे लिखे हैं और वह हैं भी ठीक; अतः हम "तिब्बे अकबरी" और "मीज़ान 'तिब्ब" वगैरःसे उन्हें खूब समझा-समझाकर लिखते हैं: तिब्बे अकबरीमें रजोधर्म या हैज़का खून बन्द हो जानेके मुख्य आठ कारण लिखे हैं: (१) शरीरमें खूनके कम होने या सूख जानेसे रजोधर्म होना बन्द हो जाता है। (२) सर्दीके मारे खून, गाढ़े दोषोंसे मिलकर, गाढ़ा हो जाता और रजोधर्म नहीं होता। (३) रहम या गर्भाशयकी रगोंके मुँह बन्द हो जानेसे रजोधर्म नहीं होता। (४) गर्भाशयमें सूजन आ जानेसे रजोधर्म होना बन्द हो जाता है। (५) गर्भाशयके घावोंके भर जानेसे रगोंकी तह बन्द हो जाती है, और फिर रजोधर्म नहीं होता। (६) गर्भाशयसे रजके आनेकी राहमें मस्सा पैदा हो जाता है और फिर उसके कारणसे रजोधर्म नहीं होता; क्योंकि मस्सेके आड़े आ जानेसे रजको बाहर आनेकी राह नहीं मिलती। (७) स्त्रीके ज़ियादा मोटी हो जानेकी वजहसे गर्भाशयमें रज आनेकी राहें दब जाती हैं, इससे रजोधर्म होना बन्द हो जाता है । (८) गर्भाशयके मुंहके किसी तरफ घूम जानेसे रजोधर्म होना बन्द हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-नष्टार्तव । ३६५ प्रत्येक कारणकी पहचान । पहला कारण । (१) अगर शरीरमें खूनकी कमी होने या खूनके सूख जानेसे मासिक धर्म होना बन्द हुआ होगा, तो स्त्रीका शरीर कमजोर और बदनका रङ्ग पीला होगा। खूनकी कमीके कारण । (१) अधिक परिश्रम करना । (२) भूखा रहना या उपवास करना । (३) मवाद नाशक रोग होना । (४) गुलाब प्रभुति ज़ियादा पीना। (१) शरीरसे खूनका निकलना । खून बढ़ानेवाले उपाय । (१) पुष्टिकारक भोजन । (२) मुर्गीका अधभुना अण्डा । (३) मोटे मुग का शोरवा । (४) जवान बकरीका मांस । (५) दूध, घी और मीठा ज़ियादा खाना । (६) सोना और आराम करना। (७) विशेष तरीके स्थान में नहाना । सूचना-अगर खून सूख गया हो, कम हो गया हो, तो पहले पुष्टिकारक और रक्त-वृद्धि-कारक आहार-विहार या औषधियाँ सेवन कराकर, खून बढ़ा लेना चाहिये । इसके बाद मासिक धर्म खोलनेके उपाय करने चाहिये। ___नोट-हमारे वैद्यकमें भी रस, रक आदि बढ़ानेवाले अनेक पदार्थ लिखे हैं। जैसे (१) अनार प्रसुति खून बढ़ानेवाले फल खाना । (२) पका हुआ दूध मिश्री मिलाकर पीना । For Private and Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६६ चिकित्सा-चन्द्रोदयं । (३) काली मिर्ची के साथ पकाया हुआ दूध पीना । (४) १५ गोलमिर्च चबाकर मिश्री-मिला गरम दूध पीना। (५) एक पाव गरम या कच्चे दूध १० माशे घी, ६ माशे शहद, १ तोले मिश्री और १५ दाने गोलमिर्च-सबको मिलाकर सवेरे-शाम पीना। यह नुसखा परीक्षित है। यह सूखे हुए खूनको हरा करता है और उसे अवश्य बढ़ाता है। (६) स्नान करना, खुश रहना और नींद-भर सोना । शरीरका अधिक दुबला-पतला होना भी एक रोग है। इस विषयमें हम "चिकित्सा-चन्द्रोदय" पहले भागके पृष्ट १६४-१६६ में लिख पाये हैं। प्रसंगवश यहाँ भी दो-चार दवाएँ शरीर पुष्ट और मोटा करनेकी लिखते हैं: (१) असगन्ध, काली मूसली और सफ़ेद मूसली—इन तीनोंको बराबरबराबर लेकर गायके दूधमें पकायो । जब दूध सूख जाय, उतारकर धूपमें सुखा लो। फिर सिलपर पीसकर, चूर्णके बराबर शक्कर मिलादो और रख दो। इसमेंसे हर दिन दो-अढ़ाई तोले चूर्ण लेकर खाओ और ऊपरसे गायका दूध पीश्रो । यह नुसखा दुबली स्त्रियोंको विशेषकर मोटा करता है। परीक्षित है। (२) हर दिन दूधमें रोटी चूरकर खानेसे भी शरीर मोटा होता है। (३) मीठे बादामकी मांगी, निशास्ता, कतीरा और शक्कर बराबर-बराबर मिलाकर रख लो । इसमेंसे, तोले-भर चूर्ण, दूधके साथ, नित्य खानेसे खून बढ़कर शरीर मोटा होता है। दूसरा कारण । (२) अगर सर्दीके कारण खून गाढ़े दोषोंसे मिलकर, गाढ़ा हुआ होगा और उसकी वजहसे मासिक धर्म होना बन्द हुआ होगा, तो स्त्रीका शरीर सुस्त रहेगा, उसके बदनका रङ्ग सफेद होगा, नसोंका रङ्ग नीला-नीला चमकेगा, पेशाब ज़ियादा आवेगा, आमाशयके पचावमें गड़बड़ होनेसे कफ-मिला मल उतरेगा, नीदमें भारीपन होगा और खून-हैज़ या आर्तव अगर आवेगा, तो पतला होगा। रोग-नाशक उपाय । (१) मवादको नर्म करनेवाली चीजें--पारा प्रभृति युनिसे दो, जिससे गाढ़े दोष छुट जायें। For Private and Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६७ स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-नष्टार्तव । ... (२) अजमोदके बोज, रूमी सौंफ, पोदीना, सौंफ और पहाड़ी पोदीना,इनको औटाकर, शहद या कन्दमें माजून बना लो और गाढ़े दोष निकालकर खिलाओ, जिससे खून पतला होकर सहजमें निकल जाय। (३) सोया, दोनों मरुश्रा, पोदीना, तुलसी, बाबूना, अकलोलुलमलिक और सातर,--इनका काढ़ा बनाकर योनिको बफारा दो।। . (४) बालछड़, दालचीनी, तज, हुब्ब, बिलसाँ, जायफल, छोटी इलायची और कूट प्रभुतिसे, जिसमें इत्र पड़ा हो, सेक करो और इन्हीं खुशबूदार दवाओंको प्रागपर डाल-डालकर गर्भाशयको धूनी दो। तीसरा कारण । (३) अगर गर्भाशयकी रगोंके मुँह बन्द हो जानेसे मासिक धर्म होना बन्द हुआ होगा, तो गर्भाशयमें जलन और खुश्की होगी। कारण-(१) गर्भाशयमें नर्मी और खुश्की । (२) अजीर्ण । उपाय-(१) शीरखिश्त, सिमाक, घीयाके बीजोंकी मींगो, खुब्बाजी और सैफको कूटकर, शहद और अण्डेकी ज़र्दी में मिला लो । फिर उसे कपड़ेपर ल्हेसकर; स्त्रीके मूत्र-स्थानपर कई दिनों तक रखो। ____ नोट--जिस तरह गर्भाशयकी रगोंके मुंह गरमीसे बन्द हो जाते हैं, उसी तरह गर्भाशयमें सुकेड़नेवाली सर्दी पैदा होनेसे भी रगोंके मुंह बन्द हो जाते हैं । यद्यपि दुष्ट प्रकृति गर्भाशयमें पैदा होती है, पर उसके चिह्न सारे शरीरमें प्रकट होते हैं, क्योंकि गर्भाशय श्रेष्ठ अंग है । इस दशामें गर्म और मवाद ग्रहण करनेवाली दवा देनी चाहिये, जिससे गर्भाशयमें गरमी पहुँचे; ऐसे नुसखे बाँझ होने के बयानमें लिखे हैं । “बूलकी टिकिया" गर्भाशय नर्म करने में सबसे अच्छी है। बूल १०॥ माशे इस नुसत्र में जो चीज़ घोलनेनिर्विष १७॥ माशे योग्य हों उन्हें घोल लो और जो कूटनेतुलसीके पत्त ७ माशे योग्य हों उन्हें कूट लो। फिर टिकिया पोदीना ७ माशे बना लो । ज़रूरतके माफिक, इसे पहाड़ी पोदीना "देवदारु" के काढ़ेके साथ सेवन मंजीठ हींग करात्रो। यह दवा गर्भाशयका नर्म कुन्दलगोंद करती है । जाबशीर ७ माशे 6 6 6 10y 6 ७ माशे For Private and Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६८ .. चिकित्सा-चन्द्रोदय । उपाय-इस हालतमें, यानी गरमी और खुश्कीसे रोग होनेकी दशामें, तरी पहुँचानेवाली दवा या गिज़ा दो । ऐसी दवाएँ बाँझ-चिकित्सामें लिखी हैं। चौथा कारण । __ (४) अगर सूजन आ जानेकी वजहसे रजका आना बन्द हो गया हो, तो उसका इलाज और पहचान सूजन रोगमें लिखी विधिसे करो। ___ उपाय--हल्दीको महीन पीसकर और घीमें मिलाकर, उसमें रूईका फाहा तर कर लो और उसका शाफा बनाकर गर्भाशयमें रखो । इस नुसख़ से गर्भाशयकी सूजन तो नाश हो ही जाती है, इसके सिवा और भी लाभ होते हैं। पाँचवाँ कारण । (५) अगर गर्भाशयके घाव भर जाने और रगोंकी तह बन्द हो जानेसे मासिक धर्म बन्द हुआ हो, तो इस रोगका आराम होना असम्भव है । पर मासिक बन्द होनेवालीको हानि न हो, इसके लिए उसे फस्द खुलवानी, सदा मवाद निकलवाना और मिहनत करनी चाहिये। छठा कारण । (६) अगर गर्भाशयपर मस्सा हो जाने या गर्भाशयके मुंह और छेदपर ऐसी ही कोई चीज़ पैदा हो जानेसे रज आनेकी राह रुक गई हो और उससे रजोधर्म बन्द हो गया हो या सम्भोग भी न हो सकता हो, तो उचित इलाज करना चाहिये । ऐसी औरतको जब रजोधर्मका समय होता है, बड़ी तकलीफ़ और खिंचाव-सा होता है। उपाय-(१) इलाज मस्सोंकी तरह करो। (२) फस्द प्रभूति खोलो।। सातवाँ कारण । (७) अगर अधिक मुटापेकी वजहसे गर्भाशयके मार्ग दबकर बन्द हो गये हों, तो उचित उपाय करो। उपाय-(१) फस्द खोलो। For Private and Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-नष्टार्तव । ३६१ (२) शरीरको दुबला करो। (३) मासिक धर्मके समय पाँवकी रगकी फस्द खोलो। (४) पेशाब लानेवाली दवाएँ और शबंत दो। (५) खानेसे पहले मिहनत कराश्रो। (६) बिना कुछ खाये स्नान करायो । (७) इतरीफज, सगीर, रूमी सैौफ और गुलकन्द मुफीद हैं। (८) कफनाशक जुलाब दो। (१) एक माशे चन्दरस, दो तोले सिकंजबीन और पानीको साथ मिलाकर पिलायो । भोजनमें सिरका, मसूर और जौकी रोटी खिलाओ। बबूलकी छायामें बैठायो । राँगेकी अँगूठी पहनानो। मोटे कपड़े पहनाओ। ज़मीनपर सुलाभो । सर्दीमें कुछ देर नङ्गो रखो। कम सोने दो। कुछ चिन्ता लगायो । इसमेंसे प्रत्येक उपाय मोटे शरीरको दुबला करनेवाला है । परीक्षित उपाय हैं। नोट-अगर गरमी हो, तो गरम चीज़ काममें न लामो । आठवाँ कारण । (८) गर्भाशय किसी तरफ़को फिर गया हो और इससे मासिक धर्म न होता हो, तो “बन्ध्या चिकित्सा में लिखा हुआ उचित उपाय करो। अन्य ग्रन्थोंसे कारण और पहचान । (१) अगर गर्भाशयमें गरमीसे खराबी होगी, तो हैजका खून या मासिक रक्त काला और गाढ़ा होगा और उसमें गरमी भी होगी। (२) अगर शीतकी वजहसे खराबी होगी, तो हैज़का खून या आर्तव देरसे बिना जलनके निकलेगा। (३) अगर खुश्कीसे रोग होगा; तो पेशाबकी जगह--योनि सूखी रहेगी और हैज़ कम होगा; यानी मासिक-रक्त कम गिरेगा। (४) अगर तरीसे रोग होगा, तो रहम या गर्भाशयसे तरी निकला करेगी। ऐसी स्त्रीको तीन महीनेसे जियादा गर्भ न रहेगा। For Private and Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०० :चिकित्सा-चन्द्रोदय । (५) अगर मवादकी वजहसे रोग होगा, तो उस मवादकी पहचान उसी तरीसे होगी, जो रहम या गर्भाशयसे बह-बहकर आती होगी। (६) अगर शरीरके बहुत मोटे होनेके कारणसे रजोधर्म न होता होगा या गर्भ न रहता होगा, तो स्त्रीको दुबली करनेके उपाय करने होंगे। .. (७) अगर अधिक दुबलेपनसे मासिक धर्म न होता होगा या गर्भ न रहता होगा, तो स्त्रीको खून बढ़ानेवाले पदार्थ खिलाकर मोटी करनी होगी। (८) अगर गर्भाशयमें सूजन आ जाने या मस्सा हो जाने या और कोई चीज़ आड़ी आ जानेसे गर्भ न रहता हो या मासिक खून बाहर न आ सकता हो, तो उनकी यथोचित चिकित्सा करनी चाहिये। (६) अगर गर्भाशयमें गाढ़ी वायु जमा हो गई होगी और इससे मासिक धर्म न होता होगा, तो पेड़ फूला रहेगा और सम्भोगके समय पेशाबकी जगहसे आवाजके साथ हवा निकलेगी। उपाय-वायु-नाशक दवा दो । पेड़ पर वारे लगाओ। रोगन बेदहंजीर १०॥ माशे माउलअमूलमें मिलाकर पिलाओ। (१०) अगर रहम या गर्भाशयका मुँह सामनेसे हट गया होगा और इससे रजोधर्म न होता होगा या गर्भ न रहता होगा, तो सम्भोगके समय योनिमें दर्द होता होगा। (११) जब भगके मुखपर या उसके और गर्भाशयके मुँहके बीचमें अथवा गर्भाशयके मुंहपर कोई चीज़ बढ़कर आड़ी आ जाती है, तब मासिक खून बाहर नहीं आता। हाँ, पुरुष उस स्त्रीसे मैथन कर सकता है । अगर योनिके मुंहपर ही कोई चीज़ आड़ी आ जाती है, तब तो लिंग भीतर जा नहीं सकता । इस रोगको "रतक" कहते हैं। उपाय-बढ़ी हुई चीज़को नश्तर से काट डाला और घावको मरहमसे भर दो । For Private and Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-नष्टार्तव। ४०१ मासिक-धर्म न होनेसे हानि । स्त्रीको महीना-महीना रजोधर्म न होनेसे नीचे लिखे रोग हो जाते हैं: (१) गर्भाशयका भिंचना। (२) गर्भाशय और भीतरी अंगोंका सूजना । (३) आमाशयके रोगोंका होना । जैसे; भूख न लगना, अजीर्ण, जी मिचलाना, प्यास और आमाशयकी जलन । (४) दिमागी रोगोंका होना । जैसे,-मृगी, सिरदर्द, मालिखोलिया या उन्माद और फ़ालिज वगैरः। (५) सीने या छातीके रोग होना । जैसे,-खाँसी और श्वासका तंग होना। (६) गुर्दे और जिगरके रोग । जैसे,--जलन्धर । (७) पीठ और गर्दनका दर्द । (८) आँख, कान और नाकका दर्द । (६) एक तरहका पित्तज्वर । डाक्टरीसे निदान-कारण । अँगरेजीमें रजोधर्मको “ऐमेनोरिया” कहते हैं । डाक्टरी-मतसे यह तीन तरहका होता है:-- (१) जिसमें खून निकलता ही नहीं। (२) जिसमें कम या ज़ियादा खून निकलता है। (३) जिसमें रजोधर्म तकलीफ़के साथ होता है। इसको "डिसमेनेरिया" कहते हैं। कारण । (१) जिसमें खून आता ही नहीं, उसके कारण नीचे लिखे अनुसार हैं: (क) बहुत चिन्ता या फिक्र करना। (ख ) चोट लगना। For Private and Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (ग) ज्वर या कोई और बड़ा रोग होना । (घ) सर्दी लगना या गला रह जाना। (ङ) क्षय-कास होना। (च) बहुत दिनों बाद पति-संग करनेसे दो-तीन महीनेको रज गिरना बन्द हो जाना। (२) जिसमें कम या जियादा खून गिरता है, उसके कारण (क) जिस स्त्रीके ज़ियादा औलाद होती हैं और जो बहुत दिनों तक दूध पिलाती रहती है, उसके अधिक खून गिरता है । इस रोगमें कमजोरी, थकान, आलस्य, कमर और पेड़ में दर्द और मुँहका फीकापन होता है। (३) जिसमें रजोधर्म कष्टसे होता है, उसमें ऋतुकाल के ३६४ दिन पहले, पीठके बाँसे में दर्द होता है, आलस्य, बेचैनी और वेदना, ये लक्षण नजर आते हैं। मासिक-धर्मपर होमियोपैथीका मत । होमियोपैथीवालोंने मासिक-धर्म बन्द हो जानेके नीचे लिखे कारण लिखे हैं:-- (१) गर्भ रहना। (२) बहुत रजःस्राव होना । (३) नये-पुराने रोग। (४) अधिक मैथुन । (५) ऋतुकालमें गीले वस्त्र पहनना। (६) बर्फ खाना या और कोई शीतल आहार-विहार करना । (७) अत्यधिक चिन्ता। इसके सिवा २।३ मास तक ठीक ऋतु-धर्म होकर, फिर दो-एक दिन चढ-उतरकर होता है। इसका कारण--कमजोरी और For Private and Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--नष्टार्तव । ४०१ आलस्य है । एक प्रकारके रजोधर्ममें थोड़ा या बहुत खून तो गिरता है, पर माथेमें दर्द, गालोंपर लाली, हृदय काँपना और पेट भारी रहना,-ये लक्षण होते हैं। इसमें रजोधर्म होते समय तकलीफ होती है और यह तकलीफ रजोधर्मके चार-पाँच दिन पहलेसे शुरू होती है और रजोधर्म होते ही बन्द हो जाती है। इसका कारण कोष्ठबद्ध या क़ब्ज है। एक कृत्रिम या बनावटी ऋतु भी होती है। इसमें रज गिरती या थोड़ी गिरती है । लारके साथ खून आता है। खूनकी क़य होती और योनिसे सफ़ेद पानी निकलता अथवा रजके एवजमें कोई दूसरा पदार्थ निकलता है। शुद्ध आर्तवके लक्षण । "बङ्गसेन में लिखा है--जो आर्तव महीने-महीने निकले, जिसमें चिकनापन, दाह और शूल न हों, जो पाँच दिनों तक निकलता रहे, न बहुत निकले और न थोड़ा-ऐसा आर्तव शुद्ध होता है। ____ जो आर्तव खरगोशके खूनके समान लाल हो एवं लाखके रसके जैसा हो और जिसमें सना हुआ कपड़ा जलमें धोनेसे बेदाग़ हो जाय, उसको शुद्ध आर्तव कहते हैं। मासिक-धर्म जारी करनेवाले नुसखे । AXOXOXoxotxoeXexexoegoexoxoxoxoxoxoxoxoto (१) काले तिल ३ माशे, त्रिकुटा ३ माशे और भारंगी ३ माशेइन सबका काढ़ा बनाकर, उसमें गुड़ या लाल शक्कर मिलाकर, रोज सवेरे-शाम, पीनेसे मासिक-धर्म होने लगता है। नोट--अगर शरीरमें खून कम हो, तो पहले द्राक्षावलेह, माषादि मोदक, दूध, घी, मिश्री, बालाईका हलवा प्रभुति ताक़तवर और खून बढ़ानेवाले पदार्थ For Private and Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०४ .. चिकित्सा-चन्द्रोदय । खिलाकर, तब ऊपरका काढ़ा पिलाने से जल्दी रजोधर्म होता है। ऐसी रोगिणीको उड़द, दूध, दही और गुड़ प्रभुति हित हैं। इनका ज़ियादा खाना अच्छा । रूखे पदार्थ न खाने चाहिये । यह नं० १ नुसखा परीक्षित है। - (२) माल-काँगनी, राई, * विजयसार-लकड़ी और दूधियाबच--इन चारोंको बराबर-बराबर लेकर और कूट-पीसकर कपड़ेमें छान लो। इसकी मात्रा ३ माशेकी है। समय-सवेरे-शाम है। अनुपान--शीतल जल या शीतल-कच्चा दूध है। . नोट--भावप्रकाशमें "शीतेन पयसा" लिखा है । इसका अर्थ शीतल जल और शीतल दूध दोनों ही है। पर हमने बहुधा शीतल जलसे सेवन कराकर लाभ उठाया है । याद रखो, गरम मिज़ाजवाली स्त्रीको यह चूर्ण फायदा नहीं करता । गरम मिज़ाजकी स्त्रीको खून बढ़ानेवाले दूध, घी, मिश्री या अनार प्रभृति खिलाकर खून बढ़ाना और योनिमें नीचे लिखे नं. ३ की बत्ती रखनी चाहिये । मासिकधर्म न होनेवालीको मछली, काले तिल, उड़द और सिरका प्रभृति हितकारी हैं । गरम प्रकृति होनेसे माहवारी खून सूख जाता है; तब वह स्त्री दुबली हो जाती है, शरीरमें गरमी लखाती है एवं खूनकी कमीके और लक्षण भी दीखते हैं । इस दशामें खून बढ़ानेवाले पदार्थ खिलाकर औरतको पुष्ट करना चाहिये, पीछे मासिक खोलनेकी चेष्टा करनी चाहिये। (६) कड़वी तूम्बीके बीज, दन्ती, बड़ी पीपर, पुराना गुड़, मैनफल, सुराबीज और जवाखार--इन सबको बराबर-बराबर लेकर पीस-छान लो। फिर इस चूर्णको "थूहरके दूध" में पीसकर छोटी अँगुलीके समान बत्तियाँ बनाकर छायामें सुखा लो। इनमेंसे एक बत्ती रोज़ गर्भाशयके मुख या योनिमें रखनेसे मासिक-धर्म खुल जाता है। परीक्षित है। ... नोट--नं० २ नुसखा खिलाने और इस बत्तीको योनिमें रखने से, ईश्वरकी दयासे, सात दिनमें ही रजोधर्म होने लगता है । अनेक बार परीक्षा की है। अगर खून सूख गया हो, तो पहले खून बढ़ाना चाहिये। अनार खिलाना बहुत मुफीद ® भावप्रकाशमें माल काँगनीके पत्त, सजोखार, विजयसार और बच,-ये चार दवाएँ लिखी हैं। For Private and Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-नष्टार्तव । ४०५ है। शराब खिंच जाने के बाद देग या भबके में जो तलछट नीचे रह जाती है, उसे ही “सुराबीज' कहते हैं, यह कलारीमें मिलती है । इस बत्तीमें कोई जवाखार लिखते हैं और कोई मुलहटी। (४) घरमें बहुत दिनोंकी बँधी हुई आमके पत्तोंकी बन्दनवारको जलमें पकाकर, उस जलको छानकर, पीनेसे नष्ट हुआ रजोधर्म फिर होने लगता है। ____ (५) लाल गुड़हलके फूलोंको, काँजीमें पीसकर, पीनेसे रजोदर्शन होने लगता है। (६) मालकाँगनीके पत्ते भूनकर, काँजीके साथ पीसकर पीनेसे रजोधर्म होता है। (७) कमलकी जड़को पीसकर खानेसे रजोधर्म होता है। (८) सुराबीजको शीतल जलके साथ पीनेसे स्त्रियोंको रजोधर्म होता है। (६) जवारिश-कलौंजी सेवन करनेसे रजोधर्म जारी होता और दर्द-पेट भी आराम हो जाता है । हैज़का खून जारी करने, पेशाब लाने और गर्भाशयकी पीड़ा आराम करनेमें यह नुसखा उत्तम है। कई बार परीक्षा की है। (१०) काला जीरा दो तोले, अरण्डीका गूदा आध पाव और सोंठ एक तोला-सबको जोश देकर पीस लो और पेटपर इसका सुहाता-सुहाता गरम लेप कर दो। कई रोजमें, इस नुसनेसे रजोधर्म होने लगता और नलोंका दर्द मिट जाता है। (११) थोड़ा-सा गुड़ लाकर, उसमें जरा-सा घी मिला दो और एक कलछीमें रखकर आगपर तपाओ । जब पिघलकर बत्ती बनानेलायक़ हो जाय, उसमें जरा-सा "सूखा बिरौजा" भी मिला दो और छोटी अँगुली-समान बत्ती बना लो। इस बत्तीको गर्भाशयके मुँह या धरनमें रखनेसे रजोधर्म या हैज़ खुलकर होता है। For Private and Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०६ - चिकित्सा-चन्द्रोदय । .. (१२) मालकाँगनीके पत्ते और विजयसार लकड़ी,-इन दोनोंको दूधमें पीस-छानकर पीनेसे रुका हुआ मासिक फिर खुल जाता है। (१३) काले तिल, सोंठ, मिर्च, पीपर, भारङ्गी और गुड़--सब दवाएँ समान-समान भाग लेकर, दो तोलेका काढ़ा बनाकर, बीस दिन तक पिया जाय, तो निश्चय ही रुका हुआ मासिक खुल जाय एवं रोग नाश होकर पुत्र पैदा हो। -- (१४) योगराज गुग्गुल सेवन करनेसे भी शुक्र और आर्तवके दोष नष्ट हो जाते हैं। (१५) अगर मासिक-धर्म ठीक समयसे आगे-पीछे होता हो, तो खराबी समझो । इससे कमजोरी बहुत होती है । इस हालतमें छातियों के नीचे “सींगी" लगवाना मुफीद है। (१६) कपास के पत्ते और फूल आध पाव लाकर, एक हाँडीमें एक सेर पानीके साथ जोश दो । जब तीन पाव पानी जलकर एक पाव जल रह जाय, उसमें चार तोले "गुड़" मिलाकर छान लो और पीओ । इस तरह करनेसे मासिक-धर्म होने लगेगा। (१७) नीमकी छाल दो तोले और सोंठ चार माशे; इनको कूटछानकर, दो तोले पुराना गुड़ मिलाकर, हाँडीमें, पाव-डेढ़ पाव पानी डालकर, मन्दाग्निसे जोश दो; जब चौथाई जल रह जाय, उतारकर छान लो और पीओ । इस नुसनेके कई दिन पीनेसे खून-हैज़ या रजोधर्म जारी होगा । परीक्षित है। (१८) काले तिल और गोखरू दोनों तोले-तोले-भर लेकर, रातको हाँडीमें जल डालकर भिगो दो। सवेरे ही मलकर शीरा निकाल लो। उस शीरेमें २ तोले शकर मिलाकर पी लो । इस नुसनेके लगातार सेवन करनेसे खून-हैज़ जारी हो जायगा; यानी बन्द हुआ आर्त्तव बहने लगेगा । परीक्षित है। (१६) मूलीके बीज, गाजरके बीज और मैंथीके बीज-इन For Private and Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-नष्टार्तव । ४०७ तीनोंको छटाँक छटाँक-भर लाकर, कूट-पीस और छानकर रख लो। इस चूर्णमेंसे हथेली-भर चूर्ण फाँककर, ऊपरसे गरम जल पीनेसे खून-हैज़ जारी हो जाता, यानी रजोधर्म होने लगता है । परीक्षित है । नोट--इस नुसख को तीन-चार दिन लेनेसे खून-हैज़ जारी होता और रहा हुआ गर्भ भी गिर जाता है। परीक्षित है। (२०) काँडबेलको गरम राख या भूभलमें भूनकर, उसका दो तोले रस निकाल लो और उसमें उतना ही घी तथा एक तोले “गोपीचन्दनका चूर्ण' एवं एक तोले "मिश्री" मिलाकर पीओ। इससे औरतोंके रज-सम्बन्धी सभी दोष दूर हो जाते हैं। परीक्षित है। (२१) बिनौलेके तेलमें--एक या दो माशे इलायची, जीरा, हल्दी और सेंधानोन मिलाकर, छोटी अँगुलीके बराबर बत्ती या गोली बनाकर, महीन कपड़ेमें उसे लपेटकर, चौथे दिनसे स्त्री उस पोटलीको योनिमें बराबर रखेगी, तो नष्ट पुष्प या नष्टार्तव फिरसे जी जायगा, रजोधर्म होने लगेगा। रजोधर्म ठीक समयपर न होता होगा, कम-अधिक दिनोंमें-महीनेसे चढ़-उतरकर होता होगा, तो ठीक समयपर खुलकर होने लगेगा। परीक्षित है। (२२) खिरनीके बीजोंकी मींगी निकालकर सिलपर पीस लो। फिर एक महीन वस्त्र में रखकर, उस पोटलीको स्त्रीकी योनिमें कई दिन तक रखाओ । पोटली रोज ताजा बनाई जाय । इस पोटलीसे ऋतुकी प्राप्ति होगी, यानी बन्द हुआ मासिक-धर्म फिरसे होने लगेगा। परीक्षित है। . (२३ ) खीरेतीके फलोंका चूर्ण "नारियलके स्वरस में मिलाकर एक या तीन दिन देनेसे ही रजोधर्म होने लगता है। परीक्षित है। . नोट-खीरेती नाम मरहटी है। संस्कृतमें इसे “फल्गु" कहते हैं। यह पेड़ बहुत होता है । इसके पत्तोंपर पारीके-से दाँते होते हैं। कोंकन देशमें इसके पत्तोंसे लकड़ी साफ़ करते हैं, क्योंकि इनसे लकड़ी चिकनी हो जाती है। कटुम्बरके फल और पत्त-जैसे ही खीरेतीके फल और पत्ते होते हैं। For Private and Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (२४) गाजरके बीज सिलपर पीसकर, पानीमें छान लो और स्त्रीको पिलाओ। इस नुसनेसे बन्द हुआ मासिक होने लगेगा। परीक्षित है। ... ( २५) तितलौकी, साँपकी काँचली, घोषालता, सरसों और कड़वा तेल-इन पाँचोंको आगपर डाल-डालकर, योनिमें धूनी देनेसे, उचित समयपर रजोदर्शन होने लगता है । परीक्षित है। ___ नोट-अंगुलीमें बाल लपेटकर गले में घिसनेसे भी अनेक बार रजोदर्शन होते देखा गया है। ___ (२६) जिन स्त्रियोंका पुष्प जवानीमें ही नष्ट हो जाय-रजोधर्म बन्द हो जाय- उन्हें चाहिये कि “इन्द्रायणकी जड़"को सिलपर जलके साथ पीसकर, छोटी अँगुली-समान बत्ती बना लें और उस बत्तीको योनि या गर्भाशयके मुखमें रखें। इस नुसनेसे कई दिनमें खुलकर रजोधर्म होने लगेगा। परीक्षित है। ... नोट-(१) इस योगसे विधवानोंका रहा हुश्रा गर्भ भी गिर जाता है। इस कामके लिये यह नुसखा परमोत्तम है । “वैद्यजीवन में लिखा है:--- . मूलंगवाक्ष्याः स्मरमन्दिरस्थं, पुष्पावरोधस्य वधं करोति । अभर्तृकानां व्यभिचारिणीनां, योगोऽयमेव द्रुत गर्भपाते ।। - नोट-(२) इन्द्रायण दो तरहकी होती हैं-(१) बड़ी और (२) छोटी । यह ज़ियादातर खारी ज़मीन या कैरों में पैदा होती है। इसके पत्त लम्बेलम्बे और बीचमें कटे-से होते हैं और फूल पीले रङ्गके पाँच पङ्खडोके होते हैं। इसके फल छोटे-छोटे काँटेदार, लाल रंगकी छोटी नारंगीके जैसे सुन्दर होते हैं। इसके बीचमें बीज बहुत होते हैं। - दूसरी इन्द्रायण रेतीली ज़मीनमें होती है। उसका फल पीले रंगका और फूल सनद होता है । दवाके काममें उसके फलका गूदा लिया जाता है। उसकी मात्रा ६. रत्तीसे दो माशे तक है। उसके प्रतिनिधि या बदल इसबन्द, रसौत और निशोथ हैं । इन्द्रायणको बँगला राखालशशा, मरहटीमें लघु इन्द्रावण या लघुकवंडल, गुजरातीमें इन्द्रवारणं और अँगरेजीमें Colocynth. कॉलोसिन्थ कहते हैं । बड़ी इन्द्रायणको बँगलामें For Private and Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-नष्टार्तव । ४०६. बढ़वाकाल, मरहटीमें थोर इन्द्रावण, गुजरातीमें मोटो इन्द्रायण और अँगरेजीमें Bitter apple बिटर एपिल कहते हैं। . (२७) नारंगी, सोंठ, काले तिल और घी-इन चारोंको कूट-पीसकर मिला लो। इसके लगातार पीनेसे बन्द हुआ रजोधर्म निश्चय ही जारी हो जाता है । यह नुसखा “वैद्य सर्वस्व"का है। बहुत उत्तम है । लिखा है: भाङ्गीशूठी तिल घृतं नष्टपुष्पवती पिबेत् । (२८) गुड़के साथ, काले तिलोंका काढ़ा बनाकर और शीतल करके छान लो । इस नुसनेको कई दिन बराबर पीनेसे बहुत समयसे बन्द हुआ रजोधर्म फिर होने लगता है । “वैद्यरत्न"में लिखा है:--. सगुड़ः श्यामतिलानांक्वाथः पीतः सुशीतलो नाया। जनयति कुसुमं सहसागतमपि सुचिरं यमान्तिकम् ।। गुड़के साथ काले तिलोंका काढ़ा बनाकर और शीतल करके पीनेसे, बहुत काल से रजोवती न होनेवाली नारी भी रजोवती होती है। (२६) भारंगी, सोंठ, बड़ी पीपर, काली मिर्च और काले तिल इन सबको मिलाकर दो तोले लाओ और पावभर पानीके साथ हाँडीमें औटाओ। जब चौथाई जल रह जाय, उतारकर छान लो और पीओ। इस नुसनेसे रुका या अटका हुआ आर्तव फिर जारी हो जाता है। यानी खुलासा रजोधर्म होता है । परीक्षित है। वैद्यवर विद्यापति लिखते हैं: भाङ्गीव्योषयुतः क्वाथस्तिलजः पुष्परोधहा । ( ३० ) वही वैद्यवर विद्यापति कहते हैं:-- रामठं च कणा तुम्बीबीजं क्षारसमन्वितम् । दन्ती सेहुण्डदुग्धाभ्यां वत्तिं कृत्वा भगे न्यसेत् । अयं पुष्पावरोधाय नारीगर्भदमुत्तमम् ।। ___ हींग, पीपल, कड़वी तूम्बीके बीज, जवाखार और दन्तीकी जड़ For Private and Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -rrrrrrrr ४१० चिकित्सा-चन्द्रोदय । इन सबको महीन पीस-छानकर, इनके चूर्ण में "सेंहुड़का दूध" मिलाकर छोटी अँगुली-जितनी बत्तियाँ बनाकर, छायामें सुखा लो । इन बत्तियोंमेंसे एक बत्ती, रोज, योनिमें रखनेसे रुका हुआ मासिक-धर्म फिर होने लगता है। _ (३१) जुन्देबेदस्तर ... ... ... ।। माशे नीले सौसनकी जड़ .. ... , पोदीनेका पानी या अर्क ... २ गिलास शहद ... ... ... ... ३१॥ माशे इन सबको मिलाकर रख लो। यह दो खूराक दवा है। इस दवाके दो बार पिलानेसे ही ईश्वर-कृपासे अनेक बार रज बहने लगता है। ( ३२ ) लाल लोबिया ... ... ... १०॥ माशे मेथी दाने ... ... ... १०॥,, रूमी सौफ़ ... ... ... १०॥ ,, मँजीठ ( अधकुचली) ... १४ ,, इन चारों चीजोंको एक प्याले-भर पानीमें औटाओ। जब आधा पानी रह जाय, मल-छान लो और इसमें पैंतालीस माशे “सिकंजबीन" मिलाकर गुनगुना करो और पिला दो । साथ ही, नीचे लिखी दवा योनिमें भी रखाओ:-- बूल __ ... ... ... १४ माशे पोदीना ... ... ... १४ ,, देवदारु ... ... ... २८ .. ततली ... ... ... ३५ ,, मुनक्का (बीज निकाले हुए) ... ७० ,, इन सबको कूट-पीस और छानकर "बैलके पित्ते में मिलाओ । पीछे इसे स्त्रीकी योनिमें रखवा दो । “तिब्बे अकबरी" वाला लिखता है, इस दवासे सात सालका बन्द हुआ खून-हैज़ भी जारी हो जाता है, यानी सात बरससे रजोवती न होनेवाली नारी फिर For Private and Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--नष्टार्तव । ४११ रजोवती होने लगती है। पाठक इस नुसखेको ज़रूर आज़मावें । विचारसे यह नुसखा उत्तम मालूम होता है । (३३) कुर्स मुरमुकी एक यूनानी दवा है । इसको महीनेमें ३ बार, हर दसवें दिन, खानेसे रज बहने लगता है। अच्छी दवा है। नोट-तज, कलौंजी, हुरमुल, जुन्देबेदस्तर, बायबिडङ्ग, बाबूना, मीठा कूट, कबाबचीनी, हंसराज, ऊद, कुर्समुरमुकी, अजवायन, केशर, तगर, सूखा जूफा, करफस, दोनों मरुवे, चनोंका पानी, अमलताशके छिलके, मोथा और तूरमूस प्रभृति दवाएं हैजका खून या रजोधर्म जारी करनेको हिकमतमें अच्छी समझी जाती हैं। (३४) "इलाजुल गुर्बा' में लिखा है-साफनकी फस्द, ऋतुके दिनोंके पहले, खोलनेसे मासिक-धर्मका खून जारी हो जाता है। __ (३५) तोम्बा, सुर्ख मजीठ, मेथीके बीज, गाजरके बीज, सोयेके बीज, मूलीके बीज, अजवायन, सौंफ, तितलीकी पत्तियाँ और गुड़-- सबको बराबर-बराबर लेकर, हाँडीमें काढ़ा पकाओ । पक जानेपर मलछानकर स्त्रीको पिलाओ । इस योगसे निश्चय ही रुका हुआ रज जारी हो जाता और गर्भ भी गिर पड़ता है । परीक्षित है। . (३६) अखरोटकी छाल, मूलीके बीज, अमलताशके छिलके, परसियावसान और बायबिडङ्ग, इनमेंसे हरेक जौकुट करके नौ-नौ माशे लो और गुड़ सबसे दूना लो । पीछे इसे प्रौटाकर औरतको पिलाओ । इससे गर्भ गिरता और खून-हैज़ जारी होता है। नोट--अनेक हकीम इस नुसत्र में कलैंौजी और कपासकी छाल भी मिलाते हैं। यह नुसखा हमारा आज़मूदा नहीं; पर इसकी सभी दवाएं रजोधर्म कराने और गर्भ गिराने के लिये उत्तम हैं । इसलिये पाठक ज़रूर परीक्षा करें । उनकी मिहनत व्यर्थ न जायगी। (३७) अगर ऋतु होनेके समय स्त्रीको कमरमें दर्द होता हो, तो सोंठ ५ माशे, बायबिडङ्ग ५ माशे, और गुड़ ४० माशे--इन सबको औटाकर स्त्रीको पिलाओ । अवश्य आराम हो जायगा। For Private and Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 0 0000000 DOOD. 80000000000 0000000000000000000000000 v ०० Doc0300 000 6.000000 00000000000१००००० 0000000000000001890% बन्ध्या-चिकित्सा । __ बाँझ स्त्रीका इलाज । ou °0000000000000000000 00000000000000000000 OCBOOO000.00. 0 ०००. ancesO00000000000०.० 0 10000000000100%.3006 a.o० .... and "000000000००००.०० 00000000 baqagaa 320 ०००.०००००००००००००० 000. 00000 गर्भ रहने के लिये शुद्ध रज-वीर्यकी ज़रूरत । HOMNCम पहले लिख आये हैं कि स्त्रीकी रज, गर्भाशय और - पुरुषका वीर्य- इन सबके शुद्ध और निर्दोष होनेसे ही sion गर्भ रहता है । अगर स्त्रीको किसी प्रकारका योनिरोग होता है, उसका मासिक-धर्म बन्द हो जाता है अथवा योनिमें कोई और तकलीफ होती है तथा स्त्रीके योनि-फूलमें सात प्रकारके दोषोंमेंसे कोई दोष होता है या प्रदर रोग होता है, तो गर्भ नहीं रहता । इसलिये स्त्रीके योनि-रोग, आर्तव रोग, योनि-फूल-दोष और प्रदर-रोग प्रभृतिको आराम करके, तब गर्भ रहनेका ख्याल मनमें लाना चाहिये । अव्वल तो इन रोगोंकी हालतमें गर्भ रहता ही नहीं--यदि इनमेंसे किसी-किसी रोगके रहते हुए गर्भ रह भी जाता है, तो गर्भ असमय में ही गिर जाता है, सन्तान मरी हुई पैदा होती है, होकर मर जाती है अथवा रोगीली और अल्पायु होती है। ___ इसी तरह अगर पुरुषके वीर्यमें कोई दोष होता है, यानी वीर्य निहायत कमजोर और पतला होता है, बिना प्रसङ्गके ही गिर जाता है, रुकावटकी शक्ति नहीं होती, तो गर्भ नहीं रहता, चाहे स्त्री बिल्कुल निरोग और तन्दुरुस्त ही क्यों न हो । गर्भ रहनेके लिये जिस तरह स्त्रीका निरोग रहना जरूरी है, उसके रज प्रभृतिका शुद्ध रहना आवश्यक है, उसी तरह पुरुषके वीर्यका निर्दोष, गाढ़ा, और पुष्ट होना परमावश्यक है । जो लोग आयुर्वेद या हिकमतके ग्रन्थ For Private and Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--बाँझका इलाज । ४१३ नहीं देखते, वे समझते हैं कि बाँझ होनेके दोष स्त्रियों में ही होते हैं, मर्दो में नहीं। इसीसे वे लोग और घरकी बड़ी-बूढ़ी बच्चा न होनेपर, गर्भ-स्थित न होनेपर, बहुओंके लिये गण्डे-ताबीज और दवाओंकी फिक्र करती हैं, अनेक तरहके कुवचन सुनाती हैं, ताने मारती हैं और सवेरे ही उनके मुख देखनेमें भी पाप समझती हैं। पर अपने सपूतोंके वीर्यकी ओर उनका ध्यान नहीं जाता। पुरुषके वीर्यमें दोष रहनेसे, स्त्रीके गर्भ रहने-योग्य होनेपर भी, गर्भ नहीं रहता। हमने अनेक स्त्री-पुरुषोंके रज और वीर्यकी परीक्षा करके, उनमें अगर दोष पाया तो दोष मिटाकर, गर्भोत्पादक औषधियाँ खिलाई और ठीक फल पाया; यानी उनके सन्तानें हुई। अतः वैद्य जब किसी बाँझका इलाज करे, तब उसे उसके पुरुषकी भी परीक्षा करनी चाहिये। देखना चाहिये, कि पुरुष महाशयमें तो बाँझपनका दोष नहीं है । “बङ्गसेन में लिखा है: एवं योनिष शुद्धासु गर्भ विन्दन्ति योषितः । अदुष्ट प्राकृते बीजे बीजोपक्रमणे सति ॥ इस तरह “फलघृत" प्रभृति योनि-दोष-नाशक औषधियोंसे शुद्ध की हुई योनिवाली स्त्री गर्भको धारण करती है-गर्भवती होती है; किन्तु पुरुषोंके बीजके दूषित न होने–स्वभावसे ही शुद्ध होने या दवाओंसे शुद्ध करनेपर। इसका खुलासा वही है, जो हम ऊपर लिख आये हैं। स्त्रीको आप योनि-रोग वगैरःसे मुक्त कर लें, पर अगर पुरुषके बीजमें दोष होगा, तो स्त्री गर्भवती न होगीगर्भ न रहेगा। इससे सात प्रमाणित हो गया कि, गर्भ रहनेके लिये स्त्रीकी रज और पुरुषका वीर्य दोनों ही निर्दोष होने चाहियें। अगर दोनों ही या कोई एक दोषी हो, तो उसीका इलाज करके, रोगमुक्त करके, तब सन्तान होनेकी दवा देनी चाहिये। दवा For Private and Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir سامی یوسی चिकित्सा-चन्द्रोदय । देनेसे पहले, दोनोंकी परीक्षा करनी चाहिये । परीक्षासे ही रज-वीर्यके दोष मालूम होंगे। नीचे हम परीक्षा करनेकी चन्द तरकीबें लिखते हैं। स्त्री-पुरुष के बाँझपनेकी परीक्षा-विधि । ___ पहली परीक्षा। “बङ्गसेन" में लिखा है: बीजस्य प्लवनं न स्यात् यदि मूत्रञ्च फेनिलम् । पुमान्स्याल्लक्षणरेतेविपरीतैस्तु षण्ढकः ।। जिसका बीज पानीमें डालनेसे न डूबे और जिसके पेशाबमें झाग उठते हों, उसे मर्द समझो। जिसका बीज पानीमें डूब जाय और पेशाबमें झाग न उठे, उसे नामर्द या नपुंसक समझो। नोट--बङ्गसेन लिखते हैं, वीर्य जलमें न डूबे तो मर्द समझो और डूब जाय तो नामर्द समझो । पर अन्य ग्रन्थकार लिखते हैं, अगर वीर्य एकबारगी हो पानीके भीतर चला जाय--डूब जाय, तो उसे गर्भाधान करने लायक समझो। हमने परीक्षा करके भी इसी बातको ठीक पाया है। हाँ, पेशाबमें झाग उठना बेशक मर्दुमीकी निशानी है। "इलाजुल गुर्वा में लिखा है, दो मिट्टीसे भरे हुए नये गमलों में बाकले या गेहूँ के या जौके सात-सात दाने डाल दो। फिर उन गमलोंमें स्त्री-पुरुष अलग-अलग सात दिन तक पेशाब करें। जिसके गमलेके दाने उग आवें, वह बाँझ नहीं है और जिसके गमलेके दाने न उगें, वही बाँझ है। दूसरी परीक्षा। दो प्यालोंमें पानी भर दो। फिर उन प्यालोंमें स्त्री-पुरुष अलग-अलग अपना-अपना वीर्य डालें। जिसका वीर्य पानीमें बैठ For Private and Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज। ४१५ जाय वह बाँझ नहीं है-वह गर्भ रखने या धारण करने योग्य है। जिसका वीर्य पानीके ऊपर तैरता रहे-न डूबे, उसीमें दोष है । तीसरी परीक्षा। स्त्री-पुरुष अलग-अलग दो काहू या कद्दूके वृक्षोंकी जड़ोंमें पेशाब करें। जिसके पेशाबसे वृक्ष सूख जायँ, वही बाँझ है और जिसके मूत्रसे वृक्ष न सूखें, वह दुरुस्त है। ___चौथी परीक्षा। मर्दके वीर्यकी परीक्षा-फूल-काँसीके कटोरेमें गरम पानी भर दो। उसमें मर्द अपना वीर्य डाले । अगर वीर्य एकदमसे पानीमें डूब जाय, तो समझो कि मर्द गर्भाधान करने योग्य है, उसका वीर्य ठीक है। अगर वीर्य पानीपर फैल जाय, तो समझो कि यह गर्भाधान करनेयोग्य नहीं है। अगर वीर्य न ऊपर रहे न नीचे जाय, किन्तु बीचमें जाकर ठहर जाय, तो समझो कि, इस वीर्यसे गर्भ तो रह जायगा, पर सन्तान होकर मर जायगी- जियेगी नहीं। ___ स्त्रीके रजकी परीक्षा-एक मिट्टीके गमले में थोड़ेसे सोयेके पेड़ बो दो । उन वृक्षोंकी जड़ोंमें औरत पेशाब करे। अगर पेशाबसे वृक्ष मुर्भा जायँ, तो समझो कि, स्त्रीका रज निर्दोष नहीं है। अगर वृक्ष न मुर्भावें-जैसे-के-तैसे बने रहें, तो समझो स्त्रीका रज शुद्ध है। _____ नोट-अगर पुरुषका वीर्य और स्त्रीका रज सदोष हों, तो दोनोंको वीर्य और रज शुद्ध करनेवाली दवा खिलाकर, वैद्य रज-वीर्यको शुद्ध करे और दवा खिलाकर फिर परीक्षा करे । अगर दुरुस्त पावे तो गर्भाधानकी आज्ञा दे। रज वीर्य शुद्ध होने की दशामें स्त्री-पुरुष अगर मैथुन करेंगे, तो निश्चय ही गर्भ रह जायगा । “चिकित्सा-चन्द्रोदय" चौथे भागमें वीर्यको शुद्ध, पुष्ट और बलवान् करनेवाले अनेक आज़मूदा नुसत लिखे हैं। रज और वीर्य शुद्ध करनेवाली चन्द दवायें हम यहाँ भी लिखते हैं। For Private and Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । K x nu ... , रज-शोधक नुसखा । बबूलका गोंद ३ तोले छोटी इलायचीके दाने .... १ , नागौरी असगन्ध शतावर इन चारों दवाओंको कूट-पीसकर छान लो और रख दो। इस चूर्णकी मात्रा ३ या ४ माशे तक है । एक एक मात्रा सवेरे-शाम फाँककर, ऊपरसे गायका धारोष्ण दूध एक पाव पीओ। जब तक आराम न हो जाय या कम-से-कम ४० दिन तक इस दवाको खाओ। इसके सेवन करनेसे रज निश्चय ही शुद्ध हो जाती है । परीक्षित है। अपथ्यमैथुन और गरम पदार्थ । वीर्य-शोधक नुसखा । सेमरकी मूसली बीजबन्द मखाने तालमखाना सफेद मूसली गुलसकरी कामराज इन सबको कूट-पीसकर कपड़ेमें छानकर रख लो। मात्रा ६ माशेकी है। सन्ध्या-सवेरे एक-एक मात्रा फाँककर, अरसे मिश्रीमिला गायका धारोष्ण दूध पीओ। कम-से-कम ४० दिन तक इस चूर्णको खाओ । अपथ्य-मैथुन, तेल, मिर्च, खटाई वगैरः गरम पदार्थ । परीक्षित है। बाँझोंके भेद । योनिरोग और नष्टार्तव प्रभृति बाँझ होनेके कारण हैं, पर इनके xxxxxxx For Private and Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज । ४१७ सिवा, गर्भाशयके और दोषोंसे भी स्त्री बाँझ हो जाती है । “दत्तात्रयी" नामक ग्रन्थमें लिखा है :-बाँझ तीन तरहकी होती हैं: (१) जन्म-बन्ध्या । (२) मृत-बन्ध्या । (३) काक-बन्ध्या । "जन्म-बन्ध्या" उसे कहते हैं, जिसके जन्म-भर सन्तान नहीं होती । “मृत-बन्ध्या" उसे कहते हैं, जिसके सन्तान तो होती है, पर होकर मर जाती है। “काक-बन्ध्या" उसे कहते हैं, जिसके एक सन्तान होकर फिर और सन्तान नहीं होती। बाँझ होनेके कारण । ऊपर लिखी हुई तीनों प्रकारकी बाँझ स्त्रियाँ, प्रायः फूलमें नीचे लिखे छै दोष हो जानेसे बाँझ होती हैं: (१) फूल या गर्भाशयमें हवा भर जानेसे । (२) फूल या गर्भाशयपर मांस बढ़ आनेसे । (३) फूलमें कीड़े पड़ जानेसे। (४) फूलके वायु-वेगसे ठण्डा हो जानेसे । (५) फूलके जल जानेसे। (६) फूलके उलट जानेसे । कोई-कोई सातवाँ दोष “भूत-बाधा" और आठवाँ "कर्म-दोष" या पूर्वजन्मके पाप भी मानते हैं। ___ फूलमें दोष होनेके कारण । फूलमें दोष हो जानेके कारण तो बहुत हैं, पर मुख्य-मुख्य कारण ये हैं: (१) बचपनकी शादी। (२) छोटी स्त्रीकी बड़े मर्दसे शादी। For Private and Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (३) स्त्री-पुरुषमें मुहब्बत न होना। (४) असमयमें मैथुन करना। फूलमें क्या दोष है, उसकी परीक्षा-विधि । फूलमें क्या दोष हुआ है, इसको वैद्य स्त्रीके पति-द्वारा ही जान सकता है। वैद्य नाड़ी पकड़कर जान लेय, ऐसा उपाय नहीं । स्त्री जब चौथे दिन ऋतु-स्नान कर ले, तब पति मैथुन करे। मैथुन करनेके बाद, तत्काल ही अपनी स्त्रीसे पूछे तुम्हारा कौनसा अङ्ग दर्द करता है। अगर स्त्री कहे,-कमरमें दर्द होता है, तो समझो, फूलपर मांस बढ़ गया है। अगर वह कहे,-शरीर काँपता है, तो समझो, फूलमें वायु भर गया है। अगर कहे,-पिंडलियोंमें पीड़ा होती है, तो समझो फूलमें कीड़े पड़ गये हैं । अगर कहे, छातीमें दर्द है, तो समझो, फूल वायु-वेगसे शीतल हो गया है । अगर कहे,-सिरमें दर्द जान पड़ता है, तो समझो, फूल जल गया है। अगर जाँघोंमें दर्द कहे,- तो समझो, कि फूल उलट गया है । इसको खुलासा यों समझियेः (१) शरीर काँपना= फूलमें वायु भर गया है। (२) कमर में दर्द = फूलपर मांस बढ़ा है। (३) पिंडलियोंमें दर्द = फूलमें कीड़े पड़ गये हैं। (४) छातीमें दर्द = फूल शीतल हो गया है। (५) सिरमें दर्द = फूल जल गया है। (६) जाँघोंमें दर्द = फूल उलट गया है। फूल-दोषकी चिकित्सा । (१) अगर फूलमें वायु भर गया हो, तो जरा-सी हींगको काली तिलीके तेलमें पीसकर, उसमें रूईका फाहा भिगोकर, तीन दिनों तक योनिमें रखो। हर रोज़ ताजा दवा पीस लो। ईश्वर-कृपासे, तीन दिनमें यह दोष नष्ट हो जायगा। For Private and Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज। ४१६ (२) अगर फूलमें मांस बढ़ गया हो, तो काला जीरा, हाथीका नाखून और अरण्डीका तेल-इन तीनोंको महीन पीसकर, पिसी हुई दवामें रुईका फाहा तर करके, तीन दिन तक, योनिमें रखो और चौथे दिन मैथुन करो। (३) अगर फूलमें कीड़े पड़ गये हों, तो हरड़, बहेड़ा और कायफल-तीनोंको साबुनके पानीके साथ, सिलपर महीन पीस लो। फिर उसमें रुईका फाहा भिगोकर, तीन दिन तक योनिमें रखो । इस उपायसे गर्भाशयके कीड़े नाश हो जायेंगे। (४) अगर फूल शीतल हो गया हो, तो बच, काला जीरा और असगन्ध,-तीनोंको सुहागेके पानीमें पीस लो। फिर उसमें रुईका फाहा तर करके, तीन दिन तक, योनिमें रखो। इस तरह फूलकी शीतलता नष्ट हो जायगी। (५) अगर फूल जल गया हो, तो समन्दरफल, सैंधानोन और जरा-सा लहसन,-तीनोंको महीन करके, रुईक फाहेमें लपेटकर, योनिमें रखनेसे आराम हो जाता है। नोट-अगर इस दवासे जलन होने लगे, तो फाहेको निकालकर फैंक दो। फिर दूसरे दिन उसी तरह फाहा रखो । बस, तीन दिनमें काम हो जायगा । इसे ऋतुकालके पहले दिनसे तीसरे दिन तक योनिमें रखना चाहिये; चौथे दिन मैथुन करना चाहिये। अगर इसी दोषसे गर्भ न रहता होगा, तो अवश्य गर्भ रह जायगा। (६) अगर फूल या गर्भाशय उलट गया हो, तो कस्तूरी और केशर समान-समान लेकर, पानीके साथ पीसकर गोली बना लो। उस गोलीको ऋतुके पहले दिन भगमें रखो। इस तरह तीन दिन करनेसे अवश्य गर्भाशय ठीक हो जायगा । चौथे दिन स्नान करके मैथुन करना चाहिये । ये छहों उपाय परीक्षित हैं। हिकमतसे बाँझ होनेके कारण । जिस तरह ऊपर हमने वैद्यक-ग्रन्थोंके मतसे लिखा है कि, For Private and Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२० . चिकित्सा-चन्द्रोदय । .. गर्भाशयमें छै तरहके दोष होनेसे स्त्रियाँ बाँझ हो जाती हैं; उसी तरह हिकमतके ग्रन्थ "तिब्बे अकबरी"में बाँझ होनेके तेरह कारण, दोष या भेद लिखे हैं। उनमेंसे कितने ही हमारे छै दोषोंके अन्दर आ जाते हैं और चन्द नये भी हैं । उन सबके जान लेनेसे वैद्यकी जानकारी बढ़ेगी और उसे बॉझके इलाज में सुभीता होगा, इसलिये हम उनको विस्तारसे लिखते हैं। अगर वैद्य लोग या अन्य सज्जन हरेक बातको अच्छी तरह समझेंगे, तो उन्हें अवश्य सफलता होगी, “बन्ध्याचिकित्सा"के लिये उन्हें और ग्रन्थ न देखने होंगे। (१) गर्भाशयमें शीतका पैदा होकर, वीर्य और खूनको जमा कर सुखा देना। (२) गर्भाशयमें गरमी का पैदा होकर, वीर्यको जलाकर खराब कर देना। (३) गर्भाशयमें खुश्कीका पैदा होकर, वीर्यको सुखा देना । - (४) गर्भाशयमें तरी का पैदा होकर, गर्भके ठहरानेवाली ताक़तको कमजोर करना । .. (५) वात, पित्त या कफका गर्भाशयमें कुपित होकर वीर्यको बिगाड़ देना। (६) स्त्रीका मोटा हो जाना और शरीर तथा गर्भाशयमें चरबीका बढ़ जाना। (७) स्त्रीका एक दमसे दुर्बल या कमजोर होना । इस दशामें रजके ठीक न होने या रज पैदा न होनेसे बच्चेके शरीर बननेको मसाला नहीं मिलता और उसे भोजन भी नहीं पहुँचता। (८) बालकके भोजन--रजका स्त्रीके शरीरमें किसी वजहसे बन्द हो जाना। (E) गर्भाशयमें गर्म सूजन, सख्ती या निकम्मे घाव होना। (१०) गर्भाशयमें गाढ़ी हवाका पैदा होना,जो वीर्य और बालकको न ठहरने दे। . . . For Private and Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज। ४२१' (११) गर्भाशयमें सख्त सूजन, रतक या मस्सा पैदा होना। (१२) गर्भाशयका मुँह जननेन्द्रियके सामनेसे हट जाय । इस वजहसे उसमें पुरुषका वीर्य न जा सके। (१३) स्त्रीके शरीर या गर्भाशयमें कोई रोग न होनेपर भी, वीर्यको न ठहरने देनेवाले अन्यान्य कारणोंका होना । ऊपरका खुलासा । - गर्भाशयमें सर्दी, गरमी, खुश्की और तरीका पैदा होना; वातादिक दोषोंका गर्भाशयमें कोप करना; स्त्रीका अत्यन्त मोटा या दुबला होना; बालकके शरीर पोषण-योग्य रजका न बनना; गर्भाशयमें सूजन, रतक या मस्सा पैदा होना; गाढ़ी हवाका पैदा होना या गर्भाशयमें भर जाना और गर्भाशयके मुँहका सामनेसे हट जाना-ये ही बच्चा न होने या गर्भ न रहनेके कारण हैं। और भी खुलासा। (१) गर्भाशयमें सर्दी, गरमी, खुश्की या तरी होना। (२) गर्भाशयमें वात, पित्त और कफका कोप । (३) स्त्रीका मोटा या अत्यन्त दुबलापन । (४) स्त्री-शरीरमें रजका न बनना । (५) गर्भाशयमें गाढ़ी हवाका होना। (६) गर्भाशयमें सूजन, मस्सा या रतक होना । (७) गर्भाशयके मुंहका सामनेसे हट जाना । इन कारणोंसे स्त्री बाँझ हो जाती है। उसे हमल नहीं रहता। ... तेरहों भेदोंके लक्षण और चिकित्सा । .. पहला भेद । कारण-सर्दी। नतीजा-वीर्य और खून जम जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । लक्षण(१) रजोधर्म देरमें हो। (२) खून लाल, पतला और थोड़ा आवे और जल्दी बन्द न हो। ३) अगर सर्दी सारे शरीरमें फैल जाय, तो रङ्ग सफ़ेद और छूनेमें शीतल हो । इसके सिवा और भी सर्दीक चिह्न हों। चिकित्सा-- . अगर साधारण सर्दीका दोष हो, तो गरम दवाओंसे ठीक करो। अगर कफका मवाद हो, तो पहले उसे यारजात और हुकनोंसे निकाल डालो। इसके बाद और उपाय करोः-- (क) दीवालमुश्क खिलाओ। (ख) केशर, बालछड़, अकलील-उल-मलिक, तेजपात, पहाड़ी किर्बिया, बतखकी चरबी, मुर्गीकी चरबी, अण्डेकी जर्दी और नारदैनका तेल--इन सबको पीस-कूटकर मिला दो। पीछे एक उनका टुकड़ा तरकर योनिमें रख दो। (ग) रजोधर्मसे निपटकर लाल हरताल, दूध, सरू का फल, सलारस, गन्दाबिरौजा और हब्बुल गारकी धूनी योनिमें दो । इन दवाओंको एक मिट्टीके बर्तन में रखकर, ऊपरसे जलते कोयले भर दो। इस बर्तनपर, बीचमें छेद की हुई थाली रख दो। थालीके छेदके सामने, पर थालीसे अलग, स्त्री अपनी योनिको रखे, ताकि धूआँ भीतर जाय । (घ) योनिको इन्द्रायणके काढ़ेसे धोना लाभदायक है। गर्भ-स्थानपर वारे लगाना भी उत्तम है। (ङ) भोजन-उत्तम कलिया, गरम मसाले डाला हुआ तवेपर भूना पक्षियोंका मांस--दालचीनी या उटंगनके बीज महीन पीसकर बुरकी हुई मुर्गीके अधभुने अण्डेकी जर्दी,--ये सब ऐसी मरीजाको मुफीद हैं। For Private and Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज। ४२३ दूसरा भेद । कारण-गर्भाशयमें गरमी। नतीजा-वीर्य जलकर खाक हो जाता है। लक्षण(१) रजमें गरमी, कालापन और गाढ़ापन । (२) अगर सारे शरीरमें गरमी होगी, तो शरीर दुबला और रंग पीला होगा। (३) बाल ज़ियादा होंगे। चिकित्सा(१) सर्दी पहुँचानेको शर्बत बनफशा, शर्बत नीलोफर, शर्बत नश खाश, शर्बत-सेब या शर्बत चन्दन प्रभृति पिलाओ। (२) मुके बच्चे, हिरन और बकरेका मांस खिलाओ। (३) घीया या पालक खिलाओ। (४) अण्डेकी जर्दी, मुर्गीकी चर्बी और बतखकी चर्बीको बनफशाके तेल में मिलाकर स्त्रीकी योनिमें रखवाओ। (५) जहाँ कहीं पित्त जियादा हो, वहाँसे उसे उचित उपायसे निकालो। तीसरा भेद । कारण-गर्भाशयमें खुश्की। नतीजा-वीर्य सूख जाता है। लक्षण(१) रजस्वला हो, पर बहुत कम । (२) अगर सारे शरीरमें खुश्की हो, तो शरीर दुबला और निर्बल हो । विशेष खुश्कीसे खाल सूखी-सी मालूम हो । (३) मूत्र स्थान सदा सूखा रहे । चिकित्सा(१) शर्बत बनफशा और शर्बत नीलोफर पिलाओ। For Private and Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२४ चिकित्सा-चन्द्रोदय। (२) घीया और नीलोफरका तेल तथा बतन और मुर्गीकी चर्बी मसाने ___ और योनिपर मलो। (३) पाढ़का गूदा, गायका घी और स्त्रीका दूध, इन तीनोंको मिलाकर रख लो । फिर इसमें कपड़ा सानकर, कपड़ेको योनिमें रखवाओ। - चौथा भेद । कारण-गर्भाशयमें तरी। नतीजा-गर्भाशयकी शक्ति नष्ट हो जाती है। इससे उसमें वीर्य नहीं ठहर सकता। लक्षण-- (१) सदा गर्भाशयसे तरी बहा करे । (२) गर्भ ठहरे तो क्षीण हो जाय और बहुधा तीन माससे अधिक न .. ठहरे। चिकित्सा--- (१.) तरी निकालनेको यारजात खिलाओ। (२) इस रोगमें वमन करना मुफीद है। (३) सूखे भोजन दो । जैसे, कवाब गरम और सूखे मसाले मिलाकर । (४) इन्द्रायणका गूदा, अंजरूस, सोया, तुतरूग, बूल, केशर और अगर,--इन सबको महीन पीसकर शहदमें मिला लो। फिर इसमें ऊनका टुकड़ा भरकर योनिमें रखो। (५) गुलाबके फूल, अजफारूतीव, सातर, बालछड़, सुक और तजइनका काढ़ा बनाकर, उससे गर्भाशयमें हुकना करो। पाँचवाँ भेद ।। कारण-वात, पित्त या कफ । नतीजा-गर्भाशय और वीर्य बिगड़ जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--बाँझका इलाज । ४२५ लक्षण(१) कफका दोष होनेसे सफ़ेद तरी, पित्तका दोष होनेसे पीली और __ बादीसे काली तरी निकलती है। नोट-यह विषय पहले पा चुका है, पर पाठकोंके सुभीतेके लिये हमने फिर भी लिख दिया है। चिकित्सा-- (१) सारा मवाद निकालनेको पीनेकी दवा दो। (२) गर्भाशय शुद्ध करनेको हुकना करो। छठा भेद । कारण-मुटाई या मोटा हो जाना । नतीजा--गर्भाशयमें चर्बी बढ़ जाय । लक्षण-- (१) पेट मुनासिब से ऊँचा और बड़ा हो। (२) चलने-फिरनेसे श्वास रुके। (३) जरा भी बादी और मल पेटमें जमा हो जाय, तो बड़ा कष्ट हो । (४) मूत्र-स्थान या योनिद्वार छोटा हो जाय । (५) अगर गर्भ रह भी जाय, तो बढ़कर गिर पड़े। चिकित्सा-- (१) बदन दुबला करनेको फस्द खोलो। . . (२) जुलाब दो। (३) भोजन कम दो। (४) इतरीफल और कम्मूनी प्रभृति खुश्क चीजें खिलाओ। ...... सातवाँ भेद । कारण-दुबलापन । नतीजा--स्त्रीके ज़ियादा कमजोर होनेसे, बच्चेके अङ्ग बननेको, रजका मैला फोक न रहे और रजक न बननेसे गर्भगत बालकके लिए भोजन भी न बने। २४ . . For Private and Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । चिकित्सा-- (१) मोटी करनेके लिये दूध, घी एवं अन्य पुष्टिकारक भोजन दो। (२) खूब आराम कराओ। (३) बेफिक्र कर दो। (४) खूब हँसाओ। (५) .खून बढ़ानेवाली दवा दो । आठवाँ भेद । कारण--रजका न बनना। नतीजा--रजोधर्म न होना । चिकित्सा-- (१) रजोधर्म जारी करनेवाली दवा दो । इस रोगकी दवाएँ “नष्टातैव-चिकित्सा"के पृष्ठ ४०३-४११ में लिखी हैं। नवाँ भेद । कारण--गभाशयमें गरम सूजन, कठोरता या निकम्मे घाव । नतीजा--गर्भ न ठहरे। चिकित्सा--रोगानुसार इलाज करो। दसवाँ भेद । कारण--गर्भाशयमें गाढ़ी हवा।। नतीजा--वीर्य और बालक गर्भ में न ठहरें। लक्षण(१) पेड़, सदा फूला रहे। (२) बादीकी चीजोंसे तकलीफ हो। . (३) अगर गर्भ ठहर जाय, तो बढ़नेसे पहले गिर पड़े। (४) मैथुनके समय योनिसे हवाकी आवाज़ उसी तरह आवे, जैसे गुदासे आती है। चिकित्सा(१) अर्क गुलाब और अक़ सौंफ तथा गुलकन्द आदि दो । For Private and Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज | ४२७ (२) गिलास लगाओ। (३) गरम माजून दो। (४) बादी नाश करनेवाले तेल, लेप और खानेकी दवा दो। वायु बढ़ानेवाले पदार्थोंसे बचाओ। नीचेकी माजून बादी नाश करनेको अच्छी है:(५) कचूर, दरुनज, जायफल, लौंग, अकाकिया, अजवायन, अज मोदके बीज और सोंठ-ये सात-सात माशे लो। सिरकेमें पड़ा हुआ जीरा १७॥ माशे और जुन्देवेदस्तर १॥ माशे इन सबको कूट-छानकर, कन्द और शहदमें मिलाकर, माजून बना लो । मात्रा ४॥ माशे । अनुपान-गुनगुना जल । रोगनाश-बादी । नोट-दसवाँ भेद बादीका है । इसमें कोई भी वायुनाशक दवा समझकर दे सकते हो । ऊपरकी माजून उत्तम है, इसीसे लिखी है । ग्यारहवाँ भेद । कारण-गर्भाशयमें कड़ी सूजन, रितका या रतक अथवा मस्सा। नतीजा-गर्भाशयका मुंह बन्द हो जाता है। इससे वीर्य गर्भाशयमें ___ नहीं जा सकता । असल बाँझ यही स्त्री है। 'चिकित्सा-- (१) इस रोगका इलाज कठिन है। देख-भालकर हाथ डालना चाहिये, ऐसा न हो कि उल्टे लेने के देने पड़ जायें । इस रोगमें मांसको गलानेवाली तेज दवा काम देती है। बारहवाँ भेद । कारण-गर्भ-स्थानका मुँह सामनेसे हट जाय । नतीजा-गर्भाशयमें लिङ्गसे निकला हुआ वीर्य न जा सके। लक्षण(१) मैथुनके समय गर्भ-स्थानमें दर्द हो । दाई अँगुलीसे गर्भाशयको टटोले तो मालूम हो जाय, कि उसका मुँह किस तरफ झुका हुआ है। For Private and Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (२) कदाचित मरोड़ी हो और मल-मूत्र बन्द हो जायें। नोट-अधिक कूदने-फाँदने, दौड़ने, भारी बोझ उठाने या खींचने प्रभूति कारणोंसे यह रोग होता है । इसके टेढ़े होनेके दो कारण हैं।-(१) रगोंका भर जाना और उनमें खिंचाव होना, (२) बिना मवादके रुकावट और सुकड़न होना। चिकित्सा-- (१) अगर रगोंके भर जाने और खिंचावसे गर्भाशय टेढ़ा हुआ हो, तो पाँवकी मोटी नसकी फस्द खोलो। (२) अगर बिना मवादके केवल रुकाव और सूजनसे टेढ़ापन हुआ हो, तो अंजीर, बाबूना, मेथी, कड़के बीजोंकी मींगी और अलसीके बीज-इन सबके काढ़ेमें तिलीका तेल मिलाकर हुकना करो। बाबूनेका तेल, बतख और मुर्गीकी चरबी मलो।। (३) शीतल हम्माम और बफारे, गर्भाशयके सिमटने या रुक जानेमें लाभदायक हैं। (४) अगर गर्भाशयपर तरी गिरनेसे टेढ़ापन हुआ हो, तो “यारज" दो। (५) जब कारण दूर हो जाय; केवल टेढ़ापन और झुकाव बाकी रह जाय, तब दाई उसे अँगुलीसे सीधा कर दे, जिससे गर्भाशय जननेन्द्रियके सामने हो जाय । अँगुली लगानेसे पहले दाईको तेल, चर्बी, या मोम प्रभृति अँगुलीमें लगा लेना चाहिये, जिससे गर्भाशयको तकलीफ़ न हो और वह अपनी जगहपर आ जाय । "दस्तूरुल इलाज" में लिखा है, मवाद निकल जानेके बाद चतुर दाई तिलीके तेलमें उँगली चिकनी करके हाथसे गर्भाशयको सीधा करे और उसकी रगोंको सींचे। इस तरह रोज़ कुछ दिन करनेसे गर्भाशयका मुँह योनिके सामने हो जायगा । उस दशामें मैथुन करनेसे गर्भ रह जायगा। तेरहवाँ भेद ।। (१) स्त्री वीर्य छुटनेके बाद शीघ्र ही उठ खड़ी हो तो गर्भ नहीं रहता। (२) व्रत-उपवास करने या भूखी रहनेसे बालक क्षीण हो जाता है । For Private and Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज । ४२६ (३) गर्भावस्थामें मैथुन करनेसे गर्भ गिर जाता है, इसलिये गर्भकी दशामें मैथुन न करना चाहिये, क्योंकि गर्भाशयका स्वभाव, बाहरको होकर या मुंह खोलकर, वीर्य खींचनेका है। मैथुनसे बच्चा हिलकर भी गिर पड़ता है। (४) नहानेकी अधिकतासे भी गर्भाशय नर्म हो जाता है; इसलिये बालक फिसलकर निकल जाता है। चिकित्सा--जो कारण वीर्यको रोकते, गर्भाशयमें उसे नहीं ठहरने देते, गर्भको क्षीण करते या गिराते हैं, उनसे बचना ही इस भेदका इलाज है। KKKKKKKKKK र गर्भप्रद नुसखे ।। XRINAMANANAANANENERY (१) हाथी-दाँतका बुरादा ४॥ माशे खानेसे गर्भ रहता है । (२) मैथुनसे पहले या उसी समय, हाथीका पेशाब पीनेसे गर्भ रहता है । यह नुसखा अनेक ग्रन्थों में मिलता है। (३) हींगके पेड़का बीज, जिसे बज सीसियालयूस भी कहते हैं, खानेसे अवश्य गर्भ रहता है। हकीम अकबरअली साहब इसे अपना आजमूदा नुसखा लिखते हैं। . (४) सुक, बालछड़, खुसियत्तु स्सालिब (एक प्रकारकी जड़), बिलसाँका तेल, बकायनका तेल और सौसनका तेल--इन सबको पीस-कूटकर मिला लो। फिर इसमें एक कपड़ा ल्हेसकर योनिमें रखो । पीछे निकालकर मैथुन करो। इससे भी गर्भ रह जाता है। ... (५) कायफलको कूट-छानकर और बराबरकी शक्कर मिलाकर रख लो । ऋतुस्नानके बाद, तीन दिन तक हथेली-भर खाओ। पथ्यदूध-भात । पीछे मैथुन करनेसे गर्भ अवश्य रहेगा। .. For Private and Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३० चिकित्सा-चन्द्रोदय । (६) असगन्धको कूट-पीसकर छान लो। इसकी मात्रा ४॥ से माशे तक है । ऋतु प्रारम्भ होनेसे पहले इसे सेवन करना चाहिये । पथ्य-दूध-भात ।। (७) पियाबाँसेकी जड़ी सवा दो माशे लेकर, पानीमें पीसकर; थोड़ेसे गायके दूधके साथ पुरुष खावे और तीन दिन तक स्त्रीको भी खिलावे, उसके बाद मैथुन करे; अवश्य गर्भ रहेगा। (८) काले धतूरेके फूल पीसकर और शहद-धीमें मिलाकर खानेसे गर्भ रहता है। (६) एक समन्दर-फल थोड़े-से दहीमें मिलाकर निगल जानेसे अवश्य गर्भ रहता है । यह नुसखा अनेक ग्रन्थोंमें लिखा है। (१०) करंजवेंकी गिरी स्त्रीके दूधमें पीसकर बत्ती बना लो। इसको गर्भाशयमें रखनेसे गर्भधारण-शक्ति हो जाती है। (११) थोड़ी-सी सरसों पीसकर, ऋतु होनेके तीन दिन बाद, शाफा करो । अवश्य गर्भ रहेगा। (१२) एक हथेली-भर अजवायन कई दिन तक खानेसे गर्भ रहता है। (१३) बाजकी बीट कपड़ेमें लगाकर बत्ती-सी बना लो और ऋतुसे निपटकर भगमें रखो । बाज़की बीटमें थोड़ा-सा शहद मिला: कर खाना भी जरूरी है। इन दोनों उपायोंसे गर्भ रहता है। यह नुसता अनेक ग्रन्थोंमें लिखा है। कोई-कोई बिना शहदके भी बाजकी बीट खानेकी राय देते हैं। (१४) ऋतुके बाद, कबूतरकी बीट भगमें रखनेसे गर्भ रहता है। (१५) असगन्ध, नागकेशर और गोरोचन-इन तीनोंको बराबर-बराबर लेकर पीस-छान लो । इसे शीतल जलके साथ सेवन करने या खानेसे गर्भ रहता है । For Private and Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज। ४३१ ( १६ ) नागकेशरको पीस-छानकर, बछड़ेवाली गायके दूधके साथ खानेसे गर्भ रहता है। ( १७ ) बिजौरे नीबूके बीज पीसकर, बछड़ेवाली गायके दूधके साथ खानेसे गर्भ रहता है। (१८ ) खिरेंटी, खाँड़, कंघी, मुलेठी, बड़के अंकुर और नागकेशर, इनको शहद, दूध और घीमें पीसकर पीनेसे बाँझके भी पुत्र होता है। ( १६ ) ऋतुस्नान करके, असगन्धको दूधमें पकाकर और घी डालकर, सवेरे ही, पीने और रातको भोग करनेसे गर्भ रह जाता है। (२०) ऋतुस्नान करनेवाली स्त्री अगर, पुष्य नक्षत्र में उखाड़ी हुई, सफ़ेद कटेहलीकी जड़को, कँवारी कन्याके हाथोंसे दूधमें पिसवाकर पीती है, तो निश्चय ही गर्भ रह जाता है। (२१ ) पीले फूलकी कटसरैया की जड़, धायके फूल, बड़के अंकुर और नीले कमल,-इन सबको दूधमें पीसकर पीनेसे अवश्य गर्भ रह जाता है। . ( २२ ) जो स्त्री जीरे और सफ़ेद फूलके सरफोंकेके साथ पारसपीपलके डोडेको पीसकर पीती और पथ्यसे रहती है, वह अवश्य पुत्र जनती है। ( २३ ) जो गर्भवती स्त्री ढाकके एक पत्त को दूधमें पीसकर पीती है, उसके बलवान पुत्र होता है । कई बार चमत्कार देखा है। परीक्षित है। ... ( २४ ) कौंचकी जड़ अथवा कैथका गूदा अथवा शिवलिंगीके चीजोंको दूधमें पीसकर पीनेसे गर्भवती स्त्री कन्या हरगिज़ नहीं जनती । ( २५ ) विष्णुकान्ताकी जड़ अथवा शिवलिंगीके बीज जो स्त्री पीती है, वह कन्या हरगिज़ नहीं जनती। उसके पुत्र-ही-पुत्र होते हैं। . (२६ ) दो तोले नागौरी असगन्धको गायके दूधके साथ सिलपर पीसकर लुगदी बना लो । फिर उसे एक कलईदार कदाही या For Private and Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । देगचीमें रखकर, ऊपरसे एक पाव गायका दूध और एक तोले गायका घी भी डाल दो और अत्यन्त मन्दी आगसे पकाओ । इसके बाद उस दूधको कपड़ेमें छान लो । इस दूधको स्त्री ऋतुस्नान करके चौथे दिन सवेरे ही पीवे और दूध-भातका भोजन करे तो अवश्य गर्भ रहे । मैथुन रातको करना चाहिये । यह नुसखा शास्त्रोक्त है, पर हमारा परीक्षित है। (२७) छोटी पीपर, सोंठ, कालीमिर्च और नागकेशर,-इनको बराबर-बराबर लाकर पीस-कूटकर छान लो। इसमेंसे ६ माशे चूर्ण गायके घीमें मिलाकर, ऋतुस्नानके चौथे दिन, अगर स्त्री चाट ले और गतको मैथुन करे, तो अवश्य पुत्र हो । चाहे वह बाँझ ही क्यों न हो। परीक्षित है। नोट-नं० २६ और २७ दोनों नुसख्त "भैषज्यरत्नावली"के हैं। कितनी ही स्त्रियोंको बतलाये, प्रायः सभीको गर्भ रहा । पर यह शर्त है कि स्त्रीको और कोई रोग जैसे, प्रदर-रोग, योनि-रोग, नष्टार्तव-रोग आदि न हों। हमने अनेक स्त्रियों को प्रदर आदि रोगोंसे छुड़ाकर ही यह नुसख सेवन कराये थे। रोगकी दशामें गर्भाधान करना तो महा मूर्खका काम है । "बंगसेन" में लिखा है क्वाथेन हयगन्धायाः साधितं सघृतं पयः । ऋतुस्त्राताऽबला पीत्वा गर्भ धत्ते न संशयः ॥ पिप्पलीशृंगवेरश्च मरिचं केशरं तथा । घतेन सह पातव्यं वन्ध्यापि लभते सुतम् ॥ इसका वही अर्थ है, जो ऊपर लिख पाये हैं। कोई असगन्धको कूट-पीसकर दूध-घीमें पकाते हैं। कोई असगन्धका काढ़ा बनाकर, काढ़े को दूध-घीमें मिलाकर पकाते हैं । जब काढ़ा जलकर दूध-मात्र रह जाता है, दूधको छानकर ऋतुस्नान करके उठी हुई स्त्रीको पिलाते हैं । दूध और घी बछड़ेवाली गायका लेते हैं । असगन्धमें गभोत्पादक शक्कि बहुत है । इसकी अनेक विधि हैं । हमने नं०६ और २६ में दो विधि लिखी हैं । अगर स्त्रीको योनि-रोगप्रसूति न हों,पर ज़रा बहुत रोगकी शंका हो, तो पहले नं०६ की विधिसे ।१० दिन या २१ दिन असगन्ध खानी चाहिये। फिर ऋतुके चौथे दिन नहाकर, उपरकी नं. २६ की विधि से For Private and Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--बाँझका इलाज। ४३३ लेकर, रातको मैथुन करना चाहिये। अगर इस तरह काम न हो, तो चौथेपाँचवें और छठे दिन फिर लेकर तब मैथुन करना चाहिये। सूचना-नं० २७ नुसखा भी कमजोर नहीं है। कहीं-कहीं इससे बड़ा चमत्कार देखने में आया है। "वैद्यविनोद"-कर्त्ताने इसकी जो प्रशंसा लिखी है, सच्ची है। (२८) नागकेशर और सुपारी--इन दोनोंको बराबर-बराबर लेकर पीस-छान लो। इस चूर्णकी मात्रा ३ से ६ माशे तक है। इसके सेवन करनेसे अनेकोंको गर्भ रहा है । परीक्षित है । (२६) पुत्रजीवक वृक्षकी जड़ दूधमें पीसकर पीनेसे दीर्घायु पुत्र होता है । परीक्षित है। . (३०) पुत्रजीवककी जड़ और देवदारु-इन दोनोंको दूधमें पीसकर पीनेसे भी बड़ी उम्र पानेवाला पुत्र होता है। पाँच-सात बार परीक्षा की है । परीक्षित है। (३१) मोथा, हल्दी, दारुहल्दी, कुटकी, इन्द्रायण, कूट, पीपर, देवदारु, कमल, काकोली, क्षीर काकोली, त्रिफला, बायबिडङ्ग, मेदा, महामेदा, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, राना, प्रियंगू , दन्ती, मुलहटी, अजमोद, बच, चमेलीके फूल, दोनों तरहके सारिवा, कायफल, बंसलोचन, मिश्री और हींग-इनमेंसे हरेक दवाको एक-एक तोले लेकर पीस-कूटकर छान लो । फिर उस चूर्णको सिलपर डालकर पानीके साथ पीसकर लुगदी बना लो । शेषमें यह लुगदी, एक सेर घी और चार सेर गायका दूध-इनको अच्छी तरह मथ-मिलाकर, कलईदार कढ़ाहीमें चूल्हेपर रखकर, पारने कण्डोंकी मन्दी-मन्दी आगसे पकाओ। जब दूध जलकर घी-मात्र रह जाय, उतारकर छान लो और रख दो। ___ अगर मर्द इस घीको चार तोले या दो तोले रोज़ पीवे, तो लगातार कुछ दिन पीनेसे औरतोंमें साँड हो जाय। अगर बाँझ पीवे तो पुत्र जनने लगे। जिन स्त्रियोंका गर्भ पेटमें न बढ़ता हो, जिनके एक सन्तान होकर फिर न हुई हो, जिनके बालक होते ही मर जाते For Private and Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . चिकित्सा-चन्द्रोदय । हों या मरे हुए बच्चे होते हों, उन्हें इस घृतके सेवन करनेसे रूपवान, बलवान और आयुष्मान पुत्र होता है। यह “फलघृत" भारद्वाज मुनिने कहा है। परीक्षित है। - नोट---इस नुसख में उस गायका घी लेना चाहिये, जो एक रङ्गकी हो और जिसका बछड़ा जीता हो । इसे पारने--जंगली कण्डोंकी श्रागसे ही पकाना चाहिये । वैद्यविनोद-कर्ता लिखते हैं, इसमें लक्ष्मणाकी जड़ भी ज़रूर डालनी चाहिये । यद्यपि और भी अनेक दवाओंमें पुत्र देनेकी ताक़त है, पर लक्ष्मणा उन सबमें सिरमौर है । शास्त्रोंमें लिखा है: कथिता पुत्रदाऽवश्यं लक्ष्मणा मुनिपुंगवैः । लक्ष्मणाकं तु या सेवेद्वन्ध्यापि लभतेसुतम् ।। लक्ष्मणा मधुराशीता स्त्रीवन्ध्यात्व विनाशिनी । रसायनकरी बल्या त्रिदोषशमनी परा ॥ लक्ष्मणा मुनियोंने अवश्य पुत्र देनेवाली कही है। लक्ष्मणाके अर्कको अगर बाँझ भी सेवन करती है, तो पुत्र होता है । लक्ष्मणा-कन्द मधुर, शीतल, स्त्रीके बाँझपनको नाश करनेवाला, रसायन और बलकारक है। लक्ष्मणाकी बेल पुत्रकके जैसी होती है। इसके पत्तोंपर खूनकी-सी लाललाल छोटी-छोटी बूंदें होती हैं। इसकी प्राकृति और गन्ध बकरेके समान होती है । लक्ष्मणा, और पुत्र-जननी--ये दो लक्ष्मणाके संस्कृत नाम हैं। इनके सिवा और भी बहुतसे संस्कृत नाम हैं। जैसे,-नागपत्री, पुत्रदा, पुत्रकन्दा, नागिनी और नागपुत्री वगरः वगरः। ___ एक ग्रन्थमें लिखा है, लक्ष्मणा बहुत कम मिलती है। यह कहीं-कहीं पहाड़ोंमें मिलती है। इसके पत्ते चौड़े होते हैं। उनपर चन्दनकी-सी लाललाल बूंदें होती हैं। इसके नीचे सफेद रङ्गका कन्द होता है। ___ कहते हैं, लक्ष्मणा गयाके पहाड़ोंपर मिलती है। कोई कहते हैं, हिमालय और उसकी शाखाओंपर अवश्य मिलती है। लक्ष्मणाका वृत्त वन-तुलसीके समान लम्बा-चौड़ा और सूरत-शकलमें भी वैसा ही होता है । वन-तुलसीके पत्तोंपर खूनकी-सी बूंदें नहीं होती, पर लक्ष्मणापर छोटी-छोटी खूनकी-सी बूंदें होती हैं। शरद् ऋतुमें, लक्ष्मणामें फल-फूल आते हैं। उसी मौसममें यानी क्वार कातिकमें, शनिवारके दिन, साँझके समय, स्नान करके, खैरकी लकड़ीकी चार मेखें उसके चारों ओर गाड़कर, उसकी. धूप-दीप आदिसे पूजा करके, वैद्य उसे For Private and Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज। ४३५ निमन्त्रण दे श्रावे। फिर जब पुष्य, हस्त या मूल नक्षत्रोंमेंसे कोई नक्षत्र भावे, तब मंत्र पढ़कर उसे उखाड़ लावे और पीछे न देखे । शास्त्रोंमें लक्ष्मणा लेनकी यही विधि लिखी है। महर्षि वाग्भट्टने इस मौक़ की कई बातें अच्छी लिखी हैं:--. वैद्य, पुष्य नक्षत्रोंमें, सोने-चाँदी या लोहेका पुतला बनाकर, उसे श्रागमें तपाकर लाल करले और फिर उसे दूधमें बुझा दे । फिर पुतलेको निकालकर उस दूधमें से एक अञ्जलि या पाठ तोले दूध स्त्रीको पिला दे। साथ ही गोरदण्ड, अपामार्ग--ोंगा, जीवक, ऋषभक और श्वेतकुरंटा--इनमेंसे एक, दो, तीन या सबको जलमें पोसकर स्त्रीको पुष्य नक्षत्र में पिलावे, तो पुत्रकी प्राप्ति हो। और भी लिखा है: क्षीरेण श्वेतबहतीमूलं नासापुटे स्वयम् । पुत्रार्थ दक्षिणे सिञ्चद्वामे दुहित्वाञ्छया ॥ पयसा लक्ष्मणामूलं पुत्रोत्पादस्थितिप्रदम् । . नासयाऽऽस्येन वा पीतं वटशृंगाष्टकं तथा । ओषधी वनींयाश्च बाह्यान्तरुपयोजयेत् ॥ . सफ़ेद कटेहलीकी जड़को स्त्री स्वयं ही दूधमें पीसकर, पुत्रके लिये नाकके दाहने नथने में और कन्याके लिये बाँये नथने में सींचे। पुत्र देनेवाली लक्ष्मणाकी जड़को स्त्री दूधमें पीसकर नाकसे या मुंहसे पीवे । इसके सिवा, बड़के अंकुर प्रभृति अष्टकोंको भी नाक या मुंह द्वारा पीवे एवं जीवनीयगणकी दसों दवाओंको स्नान और उबटनके काममें लावे तथा भोजन और पानमें भी ले, तो जिसके पुत्र न होता होगा पुत्र होगा और होकर मर जाता होगा तो न मरेगा । जिसके गर्भ न रहता हो या रहकर गिर जाता हो उसको,यदि किसी उपायसे गर्भ रह जाय, तो वह उसी दिन या तीन दिनके अन्दर लक्ष्मणाकी जड़, बड़की कोंपल, पीले फूलकी कंगही अथवा साद फूलका बरियारा-इन चारोंमेंसे जो मिल जाय, उसे बछड़ेवाली गायके दूधमें पीसकर, पुत्रकी इच्छासे, अपनी नाकके दाहिने छेदमें सींचे । अगर कन्याकी इच्छा हो, तो बायें नथने में सींचे । अगर दवा नाकमें डालनेसे गलेमें उतर जाय तो हर्ज नहीं, पर उसे भूलकर भी थूकना ठीक नहीं। इन उपायोंसे गर्भ पुष्ट हो जाता है, गिरनेका भय नहीं रहता । पर, जिस गायका दूध पिया जाय, उसका और बछड़ेका रंग एक ही होना चाहिये । परीक्षित है। बड़का अष्टक, बड़का फुनगा या कोंपल, पीले फूलकी कंगही या गुलसकरी For Private and Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३६ ... चिकित्सा-चन्द्रोदय । अथवा साद फूलका बरियारा, सफ़द कटेहलोकी जड़, ओंगा, जीवक, ऋषभक और लक्ष्मणा ये सभी औषधियाँ बाँझको पुत्र देनेवाली प्रसिद्ध हैं । पर इन सबमें "लक्ष्मणा" सबकी रानी है । अगर लक्ष्मणा न मिले, तो सफ़ द फलकी कटेहली और बड़की कोंपल प्रभूतिसे काम अवश्य लेना चाहिये । कटेहलीका चमत्कार हमने कई बार देखा है । ___ गर्भ-पुष्टिकर उपाय उस समयके लिये हैं, जब मालूम हो जाय कि गर्भ रह गया। अनेक चतुरा रमणियाँ तो गर्भ रहने की उसी क्षण कह देती हैं, कि हमें गर्भ रह गया, पर सबमें यह सामर्थ्य नहीं होती, अतः हम गर्भ रहनेकी पहचान नीचे लिखते हैं। गर्भ रहने से स्त्रीमें ये लक्षण पाये जाते हैं : (१) दिल खुश हो जाता है। (२) शरीरमें कुछ भारीपन होता है। (३) कूख फड़कती है। (४) गर्भाशयमें गया हुआ मर्दका वीर्य बहकर बाहर नहीं आता। (५) रजोधर्मके चौथे दिन भी जो ज़रा-ज़रा खून या भूदरा-भूदरा लाललाल पानी-सा गिरता है, वह नहीं गिरता--बन्द हो जाता है। (६) कलेजा धक-धक करता है। (७)प्यास लगती है। (८) भोजनकी इच्छा नहीं होती। (१) रोएँ खड़े होते हैं। (१०) तन्द्रा या ॐघाई आती और सुस्ती घेरती है। नाकमें लक्ष्मणा प्रभतिका रस डालना ही पुसवन कहलाता है। अगर कोई यह कहे, कि जब गर्भ रहेगा, तब होनहार होगा तो, बच्चा होगा ही । पुसवनसे क्या लाभ ? उसपर महर्षि वाग्भट्ट कहते हैं: बली पुरुषकारो हि दैवमप्यतिवर्त्तते । बलवान् पुरुषार्थ दैव या प्रारब्धको भी उल्लङ्घन करता है । मतलब यह, पुरुषार्थके आगे प्रारब्ध या तकदीर भी हेच हो जाती है । हमारा अपना अनुभव । हमने जिस स्त्रीको किसी योनिरोगसे पीड़ित पाया उसे पहले पृष्ठ ४३७ का “फलघृत" सेवन कराकर आरोग्य किया । जब वह योनिरोगसे छुटकारा पा गई, तब पृष्ठ ४३३ के नं० ३१ का फलघृत सेवन For Private and Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज। ४३७ कराया और साथ ही पुरुषको भी "वृष्यतमघृत" या कोई पुष्टिकर औषधि सेवन कराई । जब देखा, कि दोनों नीरोग हो गये, स्त्रीको योनिरोग, प्रदर रोग या आर्तव रोग नहीं है और पुरुष तथा स्त्रीके वीर्य और रज शुद्ध हैं, तब ऋतुस्नानके चौथे दिन, स्त्रीको पृष्ठ ४३१-३२ के नं० २६ या २७ नुसनोंमेंसे कोई सेवन कराकर, गर्भाधानकी सलाह दी। इस तरह हमें १०० में ६० केसोंमें कामयाबी हुई। योनिरोग-नाशक फलघृत । गिलोय, त्रिफला, रास्ना, हल्दी, दारुहल्दी, शतावर, दोनों तरहके सहचर, स्योनाक, मेदा और सोंठ-इन ग्यारह दवाओंको सिलपर जलके साथ पीसकर लुगदी कर लो। फिर आधसेर घी और दो सेर दूध तथा लुगदीको कलईदर कढ़ाहीमें चढ़ाकर, जंगली कण्डोंकी मन्दी-मन्दी आगसे पकाओ । जब घी-मात्र रह जाय, उतारकर छान लो । यही योनि-रोग नाशक फलघृत है। यह योनिरोगकी दशामें रामवाण है । इस घीके पीनेसे योनिमें दर्द होना, उसका अपने स्थानसे हट जाना, बाहर निकल आना और मुँह चौड़ा हो जाना प्रभृति कितने ही योनि रोग, पित्त-योनि, विभ्रान्त योनि तथा षण्ढ योनि ये सब आराम होकर गर्भ-धारणकी शक्ति हो जाती है। योनि-दोष दूर करनेमें यह फलघृत परमोत्तम है । परीक्षित है। वृष्यतमघृत । विधायरा लेकर पीस-कूटकर छान लो और फिर उसे सिलपर पानीके साथ पीसकर लुगदी बना लो । यह लुगदी, गायका घी और गायका दूध इन सबको मिलाकर, ऊपरकी तरह घी बना लो और उसे सेवन करो। यह घी पुत्र चाहनेवाले पुरुषोंको परमोत्तम है। नोट- अगर कोई और दवा खाकर वीर्य पुष्ट और शुद्ध कर लिया हो, तो भी यदि कुछ दिन यह घी सेवन किया जायगा, तो उत्तम पुत्र होगा। इससे हानि नहीं, वरन् लाभ ही होगा । परीक्षित है । For Private and Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (३२) खिरेंटी, कंगी, मिश्री, मुलेठी, दूध, शहद और घी-इन सातोंको एक जगह मिलाकर पीनेसे गर्भ रहता है। - (३३) लक्ष्मणाकी जड़को, दूधमें पीसकर, बत्तीके द्वारा नाकके दाहिने छेदमें डालनेसे पुत्र और बाएँ छेदमें डालनेसे कन्या होती है। (३४ ) बड़के अंकुरोंको दूधमें पीसकर, बत्ती बनाकर, नाकके दाहिने छेदमें डालनेसे पुत्र और बाएँ में डालनेसे कन्या होती है। (३५) पुष्य नक्षत्रमें सोनेका पुतला बनाकर, उसे आगमें गरम करके, दूधमें बुझाओ । फिर उस दूधमेंसे ३२ तोला दूध स्त्रीको पिलाओ । इस उपायसे भी गर्भ रहता है । चक्रदत्तमें लिखा है: कानकान्राजतान्वापि लौहान्पुरुषकानमून् । ध्माताग्नि वर्णान्पयसो दध्मो वाप्युदकस्य वा। क्षिप्त्वाजलौ पिबेत्पुष्ये गर्भे पुत्रत्वकारकान् ॥ सोने, चाँदी या लोहेका सूक्ष्म पुरुष बनाकर, उसे आगमें लाल कर लो और दूध, दही या पानीकी भारी अंजलिमें डालकर निकाल लो। फिर उस दूध, दही या पानीको औरतको पिला दो। इससे गर्भ में पुत्र होता है। यह काम पुष्य नक्षत्र में करना चाहिये । (३६) तिलका तेल, दूध, दही, राव और घी--इन सबको मिलाकर मथो और फिर इसमें पीपरोंका चूर्ण डालकर स्त्रीको पिलाओ । अगर वह बाँझ भी होगी, तो भी गर्भ रहेगा। ___ (३७) पुष्य नक्षत्रमें लक्ष्मणाकी जड़को उखाड़कर, कन्यासे पिसवाकर, घी और दूधमें मिलाकर, ऋतुकालके अन्तमें, पीनेसे बाँझके भी पुत्र होता है। (३८) पताजिया (जीवक) पुत्रकके बीज, पत्ते और जड़को दूधके साथ पीसकर पीनेसे उस स्त्रीके भी सन्तान होती है, जिसकी सन्तान हो-होकर मर गई है। (३६) सफ़ेद कटेहली (कटाई) की जड़को दूधके साथ पीस For Private and Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज । ४३६ कर, दाहिनी ओरके नाकके छेद द्वारा पीनेसे पुत्र और बाई ओरके नाकके छेद द्वारा पीनेसे कन्या होती है । परीक्षित है। (४०) लक्ष्मणाकी जड़ और सुदर्शनकी जड़को कन्याके हाथोंसे पिसवाकर, घी और दूधमें मिलाकर, ऋतुकालमें, पीनेसे उस बाँझके भी पुत्र होता है, जिसकी सन्तान मर-मर जाती है। (४१) पुष्य नक्षत्रमें बड़के अंकुर, विजयसार और मुंगेका चूर्ण-एक रङ्गकी बछड़ेवाली गायके दूधके साथ पीनेसे पुत्र होता है। (४२) मेदा, मँजीठ, मुलहटी, कूट, त्रिफला, खिरेंटी, सफेद बिलाईकन्द, काकोली, क्षीर काकोली, असगन्धकी जड़, अजवायन, हल्दी, दारुहल्दी, हींग, कुटकी, नील कमल, दाख, सफ़ेद चन्दन और लाल चन्दन, मिश्री, कमोदिनी और दोनों काकोली-इन सबको दो-दो तोले लेकर पीस-कूट-छान लो। फिर सिलपर रख, जलके साथ पीस लुगदी बना लो। फिर गायका घी ४ सेर, शतावरका रस १६ सेर और बछड़ेवाली गायका दूध १६ सेर तथा ऊपरकी दवाओंकी लुगदी,-इन सबको क़लईदार कढ़ाहीमें चढ़ाकर, जंगली कण्डोंकी मन्दी-मन्दी आगसे पकाओ। जब शतावरका रस और दूध जलकर घी-मात्र रह जाय, उतारकर छान लो और बर्तन में रख दो । . यह घी अश्विनीकुमारोंका ईजाद किया हुआ है। यह अव्वल दर्जेका ताक़तवर, स्त्रियोंके योनि-रोग और उन्माद--हिस्टीरियापर रामवाण है । यह स्त्रियोंके बाँझपनको निश्चय ही नाश करके पुत्र देता है। हमारा आजमाया हुआ है। इसकी प्रशंसा सच्ची है। बङ्गसेनमें लिखा है, इस घीको पीनेवाला पुरुष औरतोंमें बैलके समान आचरण करता है। स्त्री अगर इसे पीती है, तो मेधासम्पन्न प्रियदर्शन पुत्र जनती है। जिन स्त्रियोंके गर्भ नहीं रहता, जिनके मरे हुए बालक होते हैं, जिनके For Private and Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४० चिकित्सा-चन्द्रोदय । बालक होकर थोड़ी उम्रमें ही मर जाते हैं, जिनके कन्या-ही-कन्या पैदा होती हैं, उनके सब दोष दूर होकर उत्तम पुत्र पैदा होता है । इससे योनि-रोग, रजोदोष और योनिस्राव रोग भी आराम होते हैं। नोट-बङ्गसेन और चक्रदत्त प्रभृति सभीने इस नुसखेमें लक्ष्मणाकी जड़ और भी मिलानेको लिखा है। इसके मिला देनेसे इसके गुणोंका क्या कहना ? इसका नाम "वृहत फलघृत" है । (४३) बरियारी, मिश्री, गंगेरन, मुलेठी, काकड़ासिंगी और नागकेशर-इनको बराबर-बराबर लेकर पीस-छान लो। इसमेंसे एक तोला चूर्ण घी, दूध और शहदमें मिलाकर पीनेसे बाँझके भी गर्भ रहता है । परीक्षित है। (४४ ) मोरशिखा-मयूर शिखाकी जड़ अथवा सफ़ेद कटेहली या लक्ष्मणाकी जड़को पुष्य नक्षत्र में लाकर, कँवारी कन्याके हाथोंसे गायके दूधमें पिसवाकर, ऋतुस्नान करके पीनेसे अवश्य गर्भ रहता है। नोट-मोरशिखाके चुप होते हैं । इसपर मारकी चोटीके समान चोटी होती है, इसीसे इसे मेरिशिखा कहते हैं। दवाके काममें इसका सींश लेते हैं। इसकी मात्रा २ माशेकी है । फारसीमें इसे असलान और लैटिनमें सिलीसिया क्रिसटाय कहते हैं। (४५) शिवलिंगीके बीज जीरेके साथ मिलाकर, ऋतुस्नानके बाद, दूधके साथ पीनेसे गर्भ रहता है। नोट-संस्कृतमें शिवलिङ्गीके लिङ्गिनी, बहुपुत्री, ईश्वरी, शिवमल्लिका, चित्रफला और लिङ्गसम्भूता श्रादि नाम हैं। बँगलामें शिवलिङ्गिनी, मरहटीमें शिवलिङ्गी, लैटिनमें ब्रायोनिया लेसिनियोसा (Bryonia Laciniosa.) कहते हैं। यह स्वादमें चरपरी, गरम और बदबूदार होती है । यह रसायन, सर्व-सिद्धिदाता, वशीकरण और पारेको बाँधनेवाली है। इसकी बेल चलती है। इसके फल नीले, गोल और बेरके बराबर होते हैं । फलोंके ऊपर सफ़ द चित्र होते हैं, इसीसे इसे “चित्रफला" कहते हैं। फलोंमेंसे जो बीज निकलते हैं, उनकी श्राकृति शिवलिङ्गके जैसी होती है। इसके पत्त अरण्डके समान होते हैं, पर उनसे छोटे होते हैं। शिवलिङ्गी और शंखिनीके फल एकसे होते हैं, परन्तु For Private and Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज। ४४१ शंखिनीके बीज शंख-जैसे होते हैं, जब कि शिवलिंगीके शिवलिंग-जैसे होते हैं । शंखिनीके फल भी पकनेपर लाल हो जाते हैं, पर इनपर शिवलिंगीके फलोंकी तरह सफ़द-सफ़द छींटे नहीं होते । शंखिनीका फल कड़वा और दस्तावर होता है, पर शिवलिंगीका चरपरा और रसायन होता है। (४६) पारस-पीपलके बीज सफ़ेद जीरेके साथ मिलाकर, ऋतुस्नानके बाद, दूधके साथ पीनेसे गर्भ रहता है। नोट--हिन्दीमें पारस-पीपल, गजदण्ड और गजहुण्ड कहते हैं । बंगलामें गजशुण्डी, गुजरातीमें पारशपीपलो और लैटिनमें पोपलनिया कहते हैं। पारस-पीपल दुर्जर, चिकना, फलमें खट्टा, जड़में मीठा, कसैला और स्वादिष्ट मींगीवाला होता है । इसका पेड़ भी पीपरके समान ही होता है। पीपलके पेड़में फूल नहीं होते, पर पारस-पीपरमें भिन्डीके जैसे पीले फूल भी होते हैं । इसके फलके डोरे भिन्डीके श्राकारके होते हैं । इसकी मात्रा २ माशेकी है। (४७) बाराहीकन्द, कैथा और शिवलिंगीके बीज-बराबरबराबर लेकर चूर्ण करलो। ऋतुस्नानके बाद, दूधके साथ यह चूर्ण खानेसे अवश्य गर्भ रहता और पुत्र होता है। (४८) बिदारीकन्दके साथ “सोना-भस्म" खानेसे पुत्र होता है। (४६ ) काकमाचीके अर्क के साथ "सोना-भस्म" खानेसे गर्भ रहता, रजोधर्म शुद्ध होता और प्रदर रोग नष्ट होता है। (५०) असगन्धकी जड़के साथ “चाँदीकी भस्म" बच्च वाली गायके दूधमें पीसकर खानेसे बाँझके भी पुत्र पैदा होता है, इसमें शक नहीं। ___ नोट-परीक्षित है। जिस बाँझको किसी तरह गर्भ न रहता हो, वह इसे ३ दिन सेवन करे, अवश्य गर्भ रहेगा। (५१) मातुलिंगीके बीजोंको बछड़ेवाली गायके दूधमें पीसकर, उसके साथ “चाँदीकी भस्म" खानेसे बाँझके भी पुत्र होता है। इसमें सन्देह नहीं। (५२) शिवलिंगीके बीजोंके साथ, ऊपरकी विधिसे, दूधमें पीसकर, “चाँदीकी भस्म" खानेसे अवश्य पुत्र होता है। For Private and Personal Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (५३) ऋतुस्नान के बाद, नागकेशरको अतिबलाके साथ पीसकर, दूधके साथ पीनेसे अवश्य चिरजीवी पुत्र होता है । परीक्षित है। (५४) ऋतुस्नान करके चौथे दिन, शिवलिंगीका एक फल निगल लेनेसे बाँझ के भी पुत्र होता है, इसमें शक नहीं । “वैद्यरत्न" में लिखा है: शिवलिंगी फलमेकमृत्वन्ते याबला गिलति। __वन्ध्यापि पुत्ररत्नं लभते सानात्रसन्देहः ॥ (५५) "चक्रदत्त में लिखा है--स्त्री सवेरे ही ब्राह्मणको दान दे और शिवकी पूजा करे। फिर सफेद खिरेंटी-बलाकी जड़ और मुलहटी दोनों एक-एक तोले लेकर पीस-छान ले और उसमें चार तोले चीनी मिला दे। फिर; एक रंगवाली बछड़े सहित गायके दूधमें बहुत-सा घी मिलाकर, इसके साथ उपरोक्त चूर्णको फाँके और दिन-भर अन्न न खाय, अगर भूख लगे तो दूध-भात खाय । अगर वीर्यवान बलवान पुरुष अपनी ही स्त्रीमें मन लगाकर मैथुन करे, तो निश्चय ही पुत्र हो । (५६) गोशालामें पैदा हुए बड़की पूर्व और उत्तरकी शाखा लेकर, दो उड़द और दो सफ़ेद सरसों दहीमें मिलाकर, पुष्य नक्षत्रमें पी जानेसे शीघ्र ही गर्भ धारण करनेवाली स्त्रीके पुत्र होता है । चक्रदत्त । - (५७) सफ़ेद सरसों, बच, ब्राह्मी, शंखाहूली, काकड़ासिंगी, काकोली, मुलहटी, कूट, कुटकी, सारिवा, त्रिफला, असवर्ण, पूतिकरंज, अड़ साके फूल, मजीठ, देवदारु, सोंठ, पीपर, भाँगरेके बीज, हल्दी, फूलप्रियंगू , हुलहुल, दशमूल, हरड़, भारंगी, असगन्ध और शतावरइनमेंसे प्रत्येकको आठ-आठ तोले लेकर कुचल लो और सोलह सेर जलमें औटाओ। जब चौथाई पानी रह जाय, उतार कर नितार और छान लो । फिर इस काढ़ेमें एक सेर "घी” मिलाकर, कलईदार कढ़ाहीमें मन्दाग्निसे पकाओ। जब घी-मात्र रह जाय, उतारकर धर लो। सेवन-विधि--अपुत्रा नारीको दो माशे और गर्भवतीको ८ माशे रोज़ खिलाओ। For Private and Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज। ४४३ रोग-नाश-इसे “सोमघृत" कहते हैं । इसके सेवन करनेसे निरोग पुत्र होता है । बाँझ भी शूर और पण्डित पुत्र जनती है । इसके पीनेसे शुक्र-दोष और योनि-दोष दोनों नष्ट हो जाते हैं। सात दिन ही सेवन करनेसे वाणीकी जड़ता और D गापन-मिनमिनापन नाश हो जाते हैं और सेवन करनेवाला एक बार सुनी बातको याद रखनेवाला श्रुतिधर हो जाता है । जिस घरमें यह सोमघृत रहता है, वहाँ अग्नि और वजू आदिका भय नहीं होता और वहाँ कोई अल्पायु होकर नहीं मरता । (५८) सरसों, बच, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, साँठी, क्षीर काकोली, कूट, मुलहठी, कुटकी, त्रिफला, दोनों अनन्तमूल, हल्दी, पाठा, भाँगरा, देवदारु, सूरज बेल, मँजीठ, दाख, फालसा, कभारी, निशोथ, अड़ सेके फूल और गेरू--इन सबको दो-दो तोले लेकर, साढ़े बारह सेर पानीमें काढ़ा बना लो । चौथाई पानी रहनेपर उतार लो । फिर इस काढ़े ६४ तोले घी मिलाकर मन्दाग्निसे पकाओ । जब घी-मात्र रह जाय, उतार लो। तैयार होते ही 'ओं नमो महाविनायकायामृतं रक्षरक्ष मम फलसिद्धिं देहि रुद्रवचनेन स्वाहा"इसमंत्र द्वारा सात दूबसे इस घीको अभिमंत्रित कर लो। .. सेवन-विधि-दूसरे महीनेसे इसे गर्भवती सेवन करे और छठे महीनेसे आगे सेवन न करे । इसके सेवन करनेसे शूरवीर और पण्डित पुत्र पैदा होता है। सात रात्रि सेवन करनेसे मनुष्य दूसरेकी सुनी हुई बातको याद रखनेवाला हो जाता है । जहाँ यह दवा रहती है, वहाँ बालक नहीं मरता। इसके प्रतापसे बाँझ भी निरोग पुत्र जनती है तथा योनि-रोगसे पीड़ित नारी और वीर्यदोषसे दुष्ट हुए पुरुष शुद्ध हो जाते हैं। __(५६) अगर रजस्वला नारी बड़की जटा गायके घीमें मिलाकर पीती है, तो गर्भ रह जाता है। मगर नवीना नारीको जवान पुरुषके साथ संभोग करना चाहिये । कहा है ऋतौरुद्रजटांनीत्वा गोपतेन या च पिबेत् । सा नारी लभते गर्भमेतद्धस्तिकवेर्मतम् ॥ For Private and Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (६०) नागकेशर और जीरा-इन दोनोंको गायके धीमें अगर स्त्री तीन दिन पीती है, तो गर्भ रह जाता है । कहा है:-- नागकेशरसंयुक्तं जीरकं गोघृतेनच । त्रिदिनं या पिबेन्नारी सगर्भा नियतं भवेत् ॥ (६१) रविवारके दिन जड़ और पत्तों समेत साक्षि (सितार) को उखाड़ लाओ। फिर एक रंगकी गायके दूधमें कन्यासे उसे पिसवाओ। इसमेंसे दो तोले रोज़ अगर बाँझ स्त्री, ऋतु-कालमें, सात दिन तक, पीती है तो गर्भ रह जाता है । पथ्य--गायका दूध, साँठी चाँवल और मीठे पदार्थ खाने चाहियें । अपथ्य--चिन्ता, फिक्र, क्रोध, भय, दिनमें सोना, सर्दी, गरमी या धूप सहना मना है। (६२ ) कंघईको पानीके साथ पीनेसे स्त्री गर्भवती होती है। (६३) पारस-पीपलके बीजोंको पीसकर घी और चीनीके साथ खानेसे गर्भ रह जाता है । इसे ऋतुकालमें सेवन करना चाहिये । (६४) लजवन्ती ... ४॥ माशे मिश्री ४|| माशे लौंग ४॥ माशे ईसबगोल ४॥ माशे माजूफल ४॥ माशे बंसलोचन ४॥ माशे मोचरस ४॥ माशे सीपभस्म २। माशे खिरेंटी ४॥ माशे खैर ४॥ माशे सहजना ४॥ माशे गोखरू ४॥ माशे सोंठ ४॥ माशे For Private and Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४५ उटंगन ... ... स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज । ४॥ माशे अजवायन . ... ... ४॥ ,, कमलगट्टा . ... ... जायफल ४॥ " ... ... गजकेशर ... " ... कायफल ४॥ , साँच पथरी ... ... ४॥ , ... ... ... २२॥ ,, इनको कूट-पीस और छानकर रख लो। सवेरे ही गायके घी और शहदके साथ रोज खाओ। ईश्वर-दयासे गर्भ रहेगा। पथ्यदूध-भात । १ मास तक अपथ्य पदार्थ त्यागकर दवा खाओ। (६५) निर्गु एडी __२४ तोले जायफल लजवन्ती जावित्री ईसबगोल मगजी शतावर शिलाजीत (शुद्ध) ... २ तोले सबको कूट-पीस और छान लो, फिर ५ सेर गायके दूधमें औटाओ; जब सूखकर चूर्ण-सा हो जाय, तब तोलकर दवासे दूनी मिश्री मिला दो। फिर एक सेर गायका घी और ४ तोले बंगेश्वर मिला दो। जब सब एक दिल हो जायँ, सुपारीके बराबर रोज़ १ या २ महीने तक खाओ। अपथ्य-खट्टा, मीठा, चरपरा । इसके सेवन करनेसे, ईश्वर-कृपासे, १० मासमें बालक होगा। (६६) अबीध मोती आधा, मूंगा आधा और जायफल आधाइन सबको पीसकर अगर बाँझ तीन दिन पीती है, तो गर्भ रह जाता है। x wwwwwc ५ माशे For Private and Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . 0000.....0.00 % . . 100000000301300 . ४४६ चिकित्सा-चन्द्रोदय। O - - -------- अमीरी नुसरखे। - ------- बृहत कल्याण घृत । नागरमोथा, कूट, हल्दी, दारुहल्दी, पीपल, कुटकी, काकोली, क्षीरकाकोली, बायबिडङ्ग, त्रिफला, बच, मेदा, रास्ना, असगन्ध, इन्द्रायण, फूलप्रियंगू, दोनों सारिवा, शतावर, दन्ती, मुलेठी, कमल, अजमोद, महामेदा, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, चमेलीके फूल, बंसलोचन, मिश्री, हींग और कायफल--इन सबको दो-दो तोले या बराबर-बराबर लेकर, पीस-कूटकर छान लो । फिर इन्हें सिलपर पानीके साथ पीसकर लुगदी या कल्क बना लो। फिर कल्कसे चौगुना दूध लेकर इस कल्क और दूधके साथ घी पकाओ। किन्तु इस घीको पुष्यनक्षत्रमें, ताम्बेके कलईदार बासनमें, मन्दाग्निसे पकाओ । जब धी पक जाय, निकालकर रख लो। दवाएँ अगर दो-दो तोले लोगे, तो सब मिलाकर तीन पाव होंगी। कुटने-पिसने और लुगदी बननेपर भी तीन पाव ही रहेंगी। इस दशामें घी तीन सेर लेना और गायका दूध बारह सेर लेना। सबको चूल्हेपर चढ़ाकर मन्दाग्निसे पकाना । जब दूध जलकर घी-मात्र रह जाय, उतारकर रख देना । खूब शीतल होनेपर छानकर बासनमें भर लेना। रोगनाश- इस घीके उचित मात्राके साथ सेवन करनेसे पुरुष स्त्रियोंमें बैलके समान आचरण करता है। जिस स्त्रीके कन्या-हीकन्या होती हों, जिसकी सन्तान होकर मर जाती हों, जिसके गर्भ ही न रहता हो, जिसके गर्भ रहकर नष्ट हो जाता हो या जिसके पेटसे मरी सन्तान होती हो, उन सबको यह "वृहत कल्याण घृत" परमोप For Private and Personal Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--बाँझका इलाज। ४४७ योगी है । इसके सेवन करनेसे बाँझ स्त्री भी वेदवेदाङ्गके जानने वाला,. रूपवान, बलवान, अजर और शतायु पुत्र जनती है। नोट-यद्यपि इस नुसत में “लक्ष्मणा” की जड़का नाम नहीं आया है, तो भी सुवैद्य इसमें उसे डालते हैं । लक्ष्मणाके मिलाने से निश्चय ही गर्भ रहता और पुत्र होता है। वृहत् फलघृत। मँजीठ, मुलेठी, कूट, त्रिफला, खाँड़, खिरैटी, मेदा, क्षीर-काकोली, काकोली, असगन्धकी जड़, अजमोद, हल्दी, दारुहल्दी, हींग, कुटकी नीलकमल, कमोदिनी -कुमुदफूल, दाख, दोनों काकोली, लाल चन्दन और सफेद चन्दन--इन २१ दवाओंको पहले कूट-पीसकर महीन कर लो। फिर सिलपर रखकर, पानीके साथ भाँगकी तरह पीसकर लुगदी या कल्क बना लो। घी चार सेर और शतावरका रस सोलह सेर तैयार रखो। शेषमें, ऊपरकी लुगदी, घी और शतावरके रसको कलईदार कढ़ाहीमें चढ़ाकर मन्दाग्निसे पकाओ । जब रस जलकर घी-मात्र रह जाय, उतार लो और छानकर साफ़ बासनमें रख दो। रोगनाश--इस घीके मात्राके साथ पीनेसे बन्ध्यादोष, मृतवत्सादोष, योनिदोष और योनिस्राव आदि रोग आराम होते हैं। __जिस स्त्रीको गर्भ नहीं रहता, जिसके मरी सन्तान होती है, जिसके अल्पायु सन्तान होती है, जिसकी सन्तान होकर मर जाती है, जिसके कन्या-ही-कन्या होती हैं, उसके लिये यह “फलघृत” उत्तम है। अगर पुरुष इस घीको पीता है, तो स्त्रियोंकी खूब तृप्ति करता है। इस घृतको अश्विनीकुमारों ने निकाला था। नोट--यद्यपि इसमें "लक्ष्मणा" का नाम नहीं आया है, तथापि वैद्यलोग इसमें उसे डालते हैं। अगर मिले तो अवश्य डालनी चाहिये। "चक्रदत्त" में लिखा है, प्रत्येक दवाको एक-एक तोले लेकर और पीसकर For Private and Personal Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । लुगदी बना लो। फिर घी ६४ तोले और शतावरका रस और दूध दोनों मिला. कर २५६ तोले लो और यथाविधि घो पका लो। हमारे नुसत्र में दूध नहीं है, बङ्गसेनमें भी घीसे चौगुना शतावरका रस और दूध लेना लिखा है। अब यह बात वैद्योंकी इच्छापर निर्भर है, चाहे जिस तरह इस घीको बनावें । हमने जिस तरह परीक्षा की, उस तरह लिख दिया । दूसरा फलघृत। दोनों तरहके पियाबाँसा, त्रिफला, गिलोय, पुनर्नवा, श्योनाक, हल्दी, दारुहल्दी, रास्ना, मेदा, शतावर-इन ग्यारह दवाओंको 'पीस-कूटकर, सिलपर रख, जलके साथ फिर पीसकर लुगदी या कल्क बना लो। इन सब दवाओंको दो-दो तोले लो; घी ६४ तोले लो और गायका दूध २५६ तोले लो। सबको मिलाकर, कढ़ाहीमें रख, चूल्हेपर चढ़ा, मन्दाग्निसे घी पका लो। रोग-नाश--इस घीके पीनेसे योनि-शूल, पीड़िता, चलिता, निःसृता और विवृता आदि योनि-रोग आराम होते और स्त्रीमें गर्भधारणशक्ति पैदा होती है। यह घृत योनि-दोष नाश करके गर्भ रखने में उत्तम है। परीक्षित है। नोट--पुनर्नवा साद, लाल और नीला इस तरह कई प्रकारका होता है। इसका विषखपरा और साँठ या साँठी भी कहते हैं। लालको लाल पुनर्नवा या लाल विषखपरा कहते हैं। नीलेको नीला पुनर्नवा या नीली साँठ कहते हैं। बंगलामें श्वेत गांदावन्ने, रक्तगांदावन्ने और नील गांदावन्ने कहते हैं। कोई. कोई बंगाली इसे श्वेत पुण्या भी कहते हैं । सफ़ेद पुनर्नवा गरम और कड़वा होता है । यह कफ, खाँसी, विष, हृदयरोग, खूनविकार, पीलिया, सूजन और वात-वेदना-नाशक है । मात्रा २ माशेकी है । दोनों पियाबाँसोंसे मतलब दोनों तरहके सहचरों या कटसरैयासे है। यह सहचर या कटसरैया दो तरहकी होती हैं:--(१) कटसरैया या पियाबाँसा, (२) पीली कटसरैया । इस विषयमें हम विस्तारसे अन्यत्र लिख पाये हैं। For Private and Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . श्या स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज। ४४६ श्यानाकको हिन्दीमें सोनापाठा, अरलू या टेंटू कहते हैं। बँगलामें शोनापाता या सोनालू कहते हैं। तीसरा फलघृत । . .. मोथा, हल्दी, दारुहल्दी, कुटकी, इन्द्रायण, कूट, पीपल, देवदारु, कमल, काकोली, क्षीर-काकोली, त्रिफला, बायबिडङ्ग, मेदा, महामेदा, सफ़ेद चन्दन, लाल चन्दन, रास्ना, प्रियंगू, दन्ती, मुलहटी, अजमोद, बच, चमेलीके फूल, दोनों तरहके सारिवा, कायफल, बंसलोचन, मिश्री और हींग--इन तीस दवाओंको एक-एक तोले लेकर, पीस-कूटकर छान लो। फिर सिल पर रख, जलके साथ भाँगकी तरह पीस लो। यही कल्क है। ___फिर एक सेर घी और चार सेर गायका दूध तथा ऊपरकी लुगदी या कल्कको मिलाकर खूब मथो और चूल्हेपर रखकर, आरने उपलोंकी आगसे पकाओ। जब घी तैयार हो जाय, दूध जल जाय, घीको उतारकर छान लो । ___ मात्रा--चार तोलेकी है। पर बलाबल अनुसार कम या इतनी ही लेनी चाहिये। रोगनाश-इस घीको अगर पुरुष पीवे तो औरतोंमें साँड़ हो जाय और बाँझ पीवे तो पुत्र जने। जिन स्त्रियोंको गर्भ तो रह जाता है पर पेट बढ़ता नहीं, जिनके कन्या-ही-कन्या होती हैं, जिनके एक सन्तान होकर फिर नहीं होती, जिनकी सन्तान होकर मर जाती है या जिनके मरे हुए बच्चे होते हैं वे सब इस घीके पीनेसे रूपवान, बलवान और आयुष्मान् पुत्र जनती हैं। इस घीको भारद्वाज मुनिने निकाला था । परीक्षित है । ( यह घी हम पृष्ठ ४३३ में भी लिख आये हैं । ) फलकल्याण घृत । मँजीठ, मुलेठी, कूट, त्रिफला, खाँड़, बरियारेकी जड़, मेदा, बिदारीकन्द, असगन्ध, अजमोद, हल्दी, दारुहल्दी, हींग, कुटकी, For Private and Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . : चिकित्सा-चन्द्रोदय । लाल कमल, कुमुदफूल, दाख, काकोली, क्षीर काकोली, सफेद चन्दन और लाल चन्दन-इन दवाओंको दो-दो तोले लाकर, पीस-कूट लो। फिर सिलपर रख, पानीके साथ, भाँगकी तरह पीसकर लुगदी या कल्क बना लो। फिर गायका घी चार सेर, शतावरका रस आठ सेर और दूध आठ सेर-इनको और ऊपरकी लुगदीको मिलाकर मथ लो। शेषमें, सबको कढ़ाहीमें रख मन्दाग्निसे पकाओ। जब दूध और शतावरका रस जलकर घी-मात्र रह जाय, उतारकर छान लो। . रोगनाश--इस घीके पीनेसे गर्भ-दोष, योनि-दोष और प्रदर आदि रोग शान्त होकर गर्भ रहता है । परीक्षित है। ___ नोट-कल्ककी दवाओंमें अगर मिले, तो लक्ष्मणाकी जड़ भी दो तोले मिलानी चाहिये। प्रियङ्गादि तैल । . प्रियंगूफूल, कमलकी जड़, मुलेठी, हरड़, बहेड़ा, आमले, रसौत, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, मँजीठ, सोवा, राल, सेंधानोन, मोथा, मोचरस, काकमाची, बेलका गूदा, बाला, गजपीपर, काकोली और क्षीर काकोली-इन सबको चार-चार तोले लेकर, पीस-कूटकर, सिलपर रख, पानीके साथ पीसकर लुगदी बना लो। ___काली तिलीका तेल चार सेर, बकरीका दूध चार सेर, दही चार सेर और दारुहल्दीका काढ़ा चार सेर और ऊपरकी लुगदी, इन सबको मिलाकर मन्दाग्निसे तेल पका लो। जब सब पतली चीजें जल जायँ, तेल-मात्र रह जाय, उतारकर छान लो। रोगनाश-इस तेलकी मालिश करनेसे योनि-रोग, ग्रहणी और अतिसार ये सब नाश हो जाते हैं। गर्भ रखने में तो यह तेल रामवाण ही है। अगर फलघृत पिया जाय और यह तेल लगाया जाय, तो For Private and Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir M स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझका इलाज। ४५१ निश्चय ही बाँझके रूपवान, बलवान और आयुष्मान -पुत्र हो । परीक्षित है। शतावर शतावरका रस १६ सेर और बछड़ेवाली गायका दूध १६ सेर तैयार कर लो। फिर मेदा, मँजीठ, मुलहटी, कूट, त्रिफला, खिरेंटी, सफ़ेद बिलाईकन्द, काकोली, क्षीर काकोली, असगन्ध, अजवायन, हल्दी, दारुहल्दी, हींग, कुटकी, नीला कमल, दाख, सफ़ेद चन्दन और लाल चन्दन-इन उन्नीस दवाओंको दो-दो तोले लेकर और सिलपर पीसकर लुगदी बना लो। ___ फिर बछड़ेवाली गायका घी चार सेर, लुगदी, शतावरका रस और दूध सबको चूल्हेपर चढ़ाकर, मन्दाग्निसे पका लो। जब दूध वगैरः जलकर घी-मात्र रह जाय, उतारकर छान लो। - रोगनाश-इस घीके पीनेसे स्त्रियोंके योनि-रोग, उन्माद-हिस्टिरिया एवं बन्ध्यापन-सब नाश हो जाते हैं। इन रोगोंपर यह घी रामवाण है। नोट-यह-का-यही नुसखा हम पहले लिख आये हैं, सिर्फ बनाने में थोड़ा भेद है। हमने इस तरह बनाकर और भी अधिक चमत्कार देखा है, इसीसे फिर पिसेको पीसा है। . वृष्यतम घृत। विधायरेकी जड़ एक छटाँक लाकर, सिलपर पानीके साथ पीसकर, लुगदी बना लो । फिर एक पाव गायका घी और एक सेर गायका दूध-इन तीनोंको कलईदार बर्तनमें रख, मन्दाग्निसे घी पका लो। यह घी अत्यन्त पुष्टिकारक, बलवर्द्धक और वीर्योत्पादक है। इस घीको पुत्रकामी पुरुषको अवश्य पीना चाहिये । परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । नोट--(१) इसी हिसाबसे चाहे जितना घी बना लो, इस घीको दो-चार महीने खाकर, शुद्ध रज और योनिवाली स्त्रीसे अगर पुरुष मैथुन करे, तो निश्चय ही गर्भ रहे और महा बलवान पुत्र हो। यह घी आज़मूदा है। "बंगसेन में लिखा है: वृद्धदारुकमूलेन घृतंपक्वं पयोऽन्वितम् । एतद्देष्यतमं सर्पिः पुत्रकामः पिबेन्नरः ॥ अर्थ वही है, जो ऊपर लिखा है। इसमें साफ़ "पिबेन्नरः" पद है, फिर न जाने क्यों बंगसेनके अनुवादकने लिखा है- "पुत्रकी इच्छा करनेवाली स्त्री पान करे।" - नोट-(२) विधायरेको हिन्दीमें विधारा और काला विधारा कहते हैं। संस्कृतमें वृद्धदारू, जीर्णदारू और फंजी श्रादि कहते हैं । बंगलामें वितारक, बीजतारक और विद्धडक कहते हैं। मरहटीमें श्वेत वरधारा और गुजरातीमें बरधारो कहते हैं । विधारा दो तरहका होता है:-- (१) वृद्धदारू और ( २) जीर्णदारू । जीर्ण दारूको फंजी भी कहते हैं । विधारा समुद्र-शोष-सा जान पड़ता है, क्योंकि समुद्र-शोष और विधारेके फूल, पत्त, बेल आदिमें कुछ भी फर्क नहीं दीखता। कितने ही वैद्य तो विधारे और समुद्र-शोषको एक ही मानते हैं। कोई-कोई कहते हैं, समुद्र-शोष और समुद्रफूल-ये दोनों विधारेके ही भेद हैं। . .. कुमारकल्पद्रुम घृत ।। . पहले बकरेका मांस तीस सेर और दशमूलकी दशों दवाएँ तीन सेर-इन दोनोंको सवा मन पानी में डालकर औटाओ। जब चौथाई यानी १२॥ सेर पानी रह जाय, उतारकर छान लो और मांस वगैराको फैंक दो। ___ गायका दूध चार सेर, शतावरका रस चार सेर और गायका घी दो सेर भी तैयार रखो। . . - कूट, शठी, मेदा, महामेदा, जीवक, ऋषभक, प्रियंगूफूल, त्रिफला, देवदारु, तेजपात, इलायची, शतावर, गंभारीफल, मुलेठी, क्षीर-काकोली, मोथा, नीलकमल, जीवन्ती, लाल चन्दन, काकोली, अनन्तमूल, श्यामलता, सफ़ेद बरियारेकी जड़, सरफोंकेकी जड़, कोहड़ा, बिदारीकन्द, For Private and Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--बाँझ बनानेवाली दवाएँ। ४५३ मँजीठ, सरिवन, पिठवन, नागकेशर, दारुहल्दी, रेणुक, लताफटकीकी जड़, शङ्खपुष्पी, नीलवृक्ष,बच, अगर, दालचीनी, लौंग और केशर--इन ४० दवाओं को एक-एक तोले लेकर, पीस-कूटकर, सिलपर रख, पानीके साथ, भाँगकी तरह पीसकर कल्क या लुगदी बना लो। - शुद्ध पारा एक तोले, शुद्ध गंधक १ तोले, निश्चन्द्र अभ्रक भस्म १ तोले और शहद एक सेर-इनको भी तैयार रखो। ___ बनाने की विधि--मांस और दशमूलके काढ़े, दूध, शतावरके रस और घी तथा दवाओंके कल्क या लुगदी- इन सबको मिलाकर पकाओ। जब घी मात्र रह जाय, उतारकर शीतल करो और घीको छान लो। शेषमें, पककर तैयार हुए शीतल घीमें पारा, गंधक, अभ्रक भस्म और शहद मिला दो । अब यह 'कुमारकल्पद्रुमघृत" तैयार हो गया। - सेवन-विधि--इस घीकी मात्रा ६ माशेकी है। बलाबल-अनुसार कम जियादा खाना चाहिये । इस घीके पीनेसे स्त्रियोंके योनिरोग वगैरः समस्त रोग और गर्भाशयक दोष नष्ट होकर गर्भ रहता है । इस घीकी जितनी भी तारीफ की जाय थोड़ी है। अमीरोंके घरोंकी स्त्रियाँ इसे अवश्य खायें और निर्दोष होकर पुत्र जनें। . नोट-इस घीको खाना और प्रियंगू आदि तेलको मलवाना चाहिये । . ... . .... बन्ध्या बनानेवाली औषधियाँ। गर्भ न रहने देनेवाली औषधियाँ । ००००००...००% . (१) अगर स्त्री-रजोधर्म होनेके समयमें-पीपल, बायबिडङ्ग और सुहागा-इन तीनोंको बराबर-बराबर लेकर, पीस-छानकर रख ले और ऋतुस्नान करके एक-एक मात्रा चूर्ण गरम दूधके साथ फाँके तो कदापि गर्भ न रहे । परीक्षित है। .. For Private and Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । नोट--इस चूर्णको ऋतुकालमें, पाँच दिन तक जल या दूधसे फाँकना चाहिये। . (२) चार तोले हरड़की मींगी मिश्री मिलाकर, तीन दिन, खानेसे रजोधर्म नहीं होता । जब रजोधर्म न होगा, गर्भ भी न रहेगा। (३) दूधीकी जड़को बकरीके दूधमें मिलाकर, तीन दिन, पीनेसे स्त्री रजस्वला नहीं होती। . (४) पुष्यार्क योगमें, धतूरेकी जड़ लाकर कमरमें बाँधनेसे कभी गर्भ नहीं रहता । विधवाओंके लिये यह उपाय अच्छा है। "वैद्यरत्न"में लिखा है:. धत्तरमूलिका पुष्ये गृहीता कटिसंस्थिता । गर्भ निवारयत्येव रंडा वेश्यादियोषिताम् ॥ : (५) पलाश यानी ढाकके बीजोंकी राख शीतल जलके साथ पीनेसे स्त्रीको गर्भ नहीं रहता । “वैद्यवल्लभ"में लिखा है: राक्षांपलाशवीजस्य पीत्वाशीतेन वारिणा । न भ्रूणं लभते नारी श्री हस्तिकविनामतः ॥ (६) पाँच दिन तक हींगके साथ तेल पीनेसे गर्भ नहीं रहता। (७) चीतेके पिसे-छने चूर्णमें गुड़ और तेल मिलाकर, तीन दिन तक, पीनेसे गर्भ नहीं रहता। (८) करेलेके रसके पीनेसे गर्भ नहीं रहता। (६) पुराने गुड़के साथ उड़द खानेसे गर्भ नहीं रहता। : (१०) जाशुकीके सूखे फल खानेसे गर्भ नहीं रहता। ., (११) ढाकके बीज, शहद और घी-इन तीनोंको मिलाकर ऋतु समयमें, अगर स्त्री योनिमें रखे, तो फिर कभी गर्भ न रहे। “वैद्यरत्न"में लिखा है - . पलाशबीजंमध्वाज्यलेपात्सामर्थ्ययोगतः .. । योनिमध्ये ऋतौ धत्ते गर्भ धत्ते न कर्हिचित् ॥ For Private and Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Arum स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझ बनानेवाली दवाएँ। ४५५ (१२) चूहेकी मैंगनी शहदमें मिलाकर योनिमें रखनेसे गर्भ नहीं रहता। . (१३) खच्चरका पेशाब और लोहेका बुझा हुआ पानी मिलाकर अगर स्त्री पीती है, तो गर्भ नहीं रहता। ___ (१४) सूखी हाथीकी लीद शहदमें मिलाकर खानेसे जन्म-भर गर्भ नहीं रहता। (१५) हाथीकी लीद योनिपर रखनेसे भी गर्भ नहीं रहता। . (१६) पाखानभेद महँदीमें मिलाकर स्त्रीके हाथोंपर लगानेसे गर्भ नहीं रहता और रजोधर्म होना बन्द हो जाता है। (१७ ) पहली बार जननेवाली स्त्रीके बच्चा जननेके बाद जो खून निकलता है, उसे यदि कोई स्त्री सारे शरीरपर मल ले, तो उम्र-भर गर्भवती न हो। (१८) लोहेका बुझाया हुआ पानी पीनेसे गर्भ नहीं रहता। (१६) जो स्त्री ऋतुकालमें गुड़हलके फूलोंको आरनाल नामकी काँजीमें पीसकर, तीन दिन तक पीती और चार तोले-भर उत्तम पुराना गुड़ सेवन करती है, वह हरगिज़ गर्भवती नहीं होती। (२०) तालीसपत्र और गेरू--इन दोनोंको दो तोले शीतल जलके साथ चार दिन पीनेसे गर्भ नहीं रहता--स्त्री बाँझ हो जाती है। (२१) ऋतुवती नारी अगर ढाकके बीज जलमें घोटकर तीन दिन तक पीती है तो बाँझ हो जाती है । परीक्षित है। ... (२२) ऋतुवती स्त्री अगर सात या आठ दिन तक खीरेके बीज पीती है, तो बाँझ हो जाती है। - (२३) बेरकी लाख औटाकर और तेलमें मिलाकर, तीन दिन तक, दो-दो तोले रोज़ पीनेसे गर्भ नहीं रहता। - (२४ ) जसवन्तके एक तोले फूल काँजीमें पीसकर, ऋतुकालमें पीनेसे गर्भ नहीं रहता। For Private and Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५६ - चिकित्सा-चन्द्रोदय। ... '. (२५) ऋतुकालमें, तीन दिन तक, एक छटाँक पुराना गुड़ नित्य खानेसे गर्भ नहीं रहता। __(२६) ढाकके बीजोंकी राखमें हींग मिलाकर खाने और ऊपरसे दूध पीनेसे गर्भ नहीं रहता। (२७) अगर स्त्री बाँझ होना चाहे तो उसे हाथीके गूका निचोड़ा हुआ रस एक तोले, थोड़ेसे शहदमें मिलाकर, ऋतुधर्म होनेके पीछे, तीन दिनों तक पीना चाहिये। नोट-हाथीकी सूखी लीद शहदमें मिलाकर खानेसे जीते-जी गर्भ नहीं रहता । हाथीकी लीद योनिपर रखने से भी गर्भ नहीं रहता । (२८) हाथीके गूमें भिगोई हुई बत्ती योनिमें रखनेसे स्त्री बाँझ हो जाती है। (२६ ) नौसादर और फिटकरी बराबर-बराबर लेकर पानीके साथ पीसकर, ऋतुके बाद, योनिमें रखनेसे स्त्री बाँझ हो जाती है। (३०) अगर स्त्री हर सवेरे एक लौंग निगलती रहे, तो उसे कभी ग नर्भ रहे। (३१ ) ऋतुके दिनोंके बाद, इस्पन्द नागौरी जलाकर खानेसे स्त्रीको गर्भ नहीं रहता। (३२) अगर मर्द लिङ्गके सिरमें मीठा तेल और नमक मलकर मैथुन करे, तो गर्भ न रहे । इस दशामें गर्भाशय वीर्यको नहीं लेता। (३३ ) अगर स्त्री रजोदर्शन होनेके पहले दिनसे लगाकर उन्नीसवें दिन तक, हल्दी पीस-पीसकर खाय, तो उसे हरगिज़ गर्भ न रहे। - (३४) अगर स्त्री चमेलीकी जड़ और गुले चीनियाका जीरा बराबर-बराबर लेकर और पीसकर, रजोधर्म होनेके पहले दिनसे तीसरे दिन तक-तीन दिन खाती और ऊपरसे एक-एक घुट पानी पीती है, तो कभी गर्भवती नहीं होती। ' (३५) फर्राश वृक्षकी छाल और गुड़ औटाकर पीनेसे स्त्रीको गर्भ नहीं रहता। For Private and Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-बाँझ बनानेवाली दवाएँ। ४५७' - (३६) मैथुनके बाद, योनिमें कालीमिर्च रखनेसे गर्भ नहीं रहता। (३७) अगर स्त्री ३ माशे ६ रत्ती नील खा ले तो कदापि गर्भवती न हो। (३८) अगर स्त्री चमेलीकी एक कली निगल ले, तो एक साल तक गर्भवती न हो। . . (३६) अगर स्त्री एक रेंडीका गूदा निगल जाय, तो एक साल तक गर्भवती न हो। अगर दो रेडीका गूदा निगल ले, तो दो साल तक गर्भ न रहे। . (४०) मैथुनके समय खानेका नोन भगमें रखनेसे गर्भ नहीं रहता। - (४१ ) अगर किसी लड़केका पहला दाँत गिरनेवाला हो, तो औरत उसका ध्यान रखे । ज्यों ही वह गिरे, उसको हाथमें ले ले, जमीनपर न गिरने दे। फिर उस दाँतको चाँदीके जन्तरमें मढ़ाकर अपनी भुजापर बाँध ले । इस उपायसे हर्गिज़ गर्भ न रहेगा। ( ४२ ) अगर स्त्री मैथुनके समय, मैंडककी हड्डी अपने पास रक्खे, तो कदापि गर्भ न रहे । (४३ ) काकुजके सात दाने, ऋतु-धर्मके पीछे, निगल लेनेसे स्त्रीको गर्भ नहीं रहता। (४४) अगर स्त्री बाँझ होना चाहे, तो थूहरकी लकड़ी लाकर छायामें सुखाले। सूखनेपर उसे जलाकर राख कर ले और राखको पीस-छानकर रख ले। फिर इसमेंसे एक माशे-भर राख लेकर, उसमें माशे-भर शक्कर मिला दे और खा जावे। इस तरह २१ दिन तक इस राखके खानेसे गर्भ-धारण-शक्ति मारी जाती है और गर्भ नहीं रहता।. । (४५) मनुष्यके कानका मैल और एक दाना बाकलेका पश्मीनेमें बाँधकर, स्त्री अपने गले में लटका ले । जब तक गलेमें यह रहेगा, हर्गिज गर्भ न रहेगा। ५८ For Private and Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mmmmmam ४५८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । ..... .. (४६) अगर स्त्री अपने बेटेके पेशाबपर पेशाब करे, तो उसे कभी गर्भ न रहे। (४७) अगर स्त्री हर महीने थोड़ा खच्चरका पेशाब पी लिया करे, तो कभी गर्भ न रहे। (४८) अगर स्त्री चाहे कि मैं गर्भवती न होऊँ , तो उसे माजूफल पानीके साथ महीन पीसकर, उसमें रूई भिगोकर, उसका गोला-सा बनाकर, मैथुनसे पहले, अपनी योनिमें रख लेना चाहिये । इस उपायसे गर्भ नहीं रहता और भोगके बाद अगर गर्भाशय में पीड़ा होती है, तो वह भी मिट जाती है। (४६) पुरुषको चाहिये, मैथुनके समय स्त्रीको बहुत आलिंगन न करे, उसके पाँवोंको ऊँचे न उठावे और जब वीर्य छुटने लगे, लिंगको गर्भाशयसे दूर कर ले, यानी बाहरकी ओर खींच ले। स्त्री और पुरुष दोनों साथ-साथ न छूटें । ज्यों ही वीर्य निकल जाय, दोनों झट अलग हो जायँ । स्त्री मैथुनसे निपटते ही जल्दी उठ खड़ी हो और आगेकी ओर सात या नौ बार कूदे और छीकें ले, जिससे गर्भाशयमें गया हुआ वीर्य भी निकल पड़े। इन बातोंके सिवा पुरुष मैथुन करते समय लिंगकी सुपारीपर तिलीका तेल लगा ले। इस उपायसे वीर्य फिसल जाता है और गर्भाशयमें नहीं ठहरता। सबसे अच्छा उपाय यह है, कि लिंगपर पतला कपड़ा लपेटकर मैथुन करे, जिससे वीर्य कपड़ेमें ही रह जाय । फ्रान्स देशकी विलासिनी रमणियाँ बच्चा जनना पसन्द नहीं करती, इसलिये वहाँवालोंने एक प्रकारकी लिंगकी टोपियाँ बनाई हैं । मैथुन करते समय मर्द उन टोपियोंको लिंगपर चंदा लेते हैं । इससे वीर्य उन टोपियोंमें ही रह जाता है और स्त्रियोंको गर्भ नहीं रहता। ऐसी टोपी कलकत्तेमें भी आ गई हैं। For Private and Personal Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बन्द N W गर्भिणी-रोगकी चिकित्सा । KAV ASHRAM ज्वर-नाशक नुसखे। (१) मुलेठी, लालचन्दन, खस, सारिवा और कमलके पत्तेइनका काढ़ा बनाकर, उसमें मिश्री और शहद मिलाकर पीनेसे गर्भिणी त्रियोंका ज्वर जाता रहता है। . (२) लालचन्दन, सारिवा, लोध, दाख और मिश्री-इनका काढ़ा पीनेसे गर्भिणीका ज्वर शान्त हो जाता है । (३) बकरीके दूधके साथ “सोंठ' पीनेसे गर्भिणी स्त्रियोंका विषमज्वर आराम हो जाता है। अतिसार-ग्रहणी आदि नाशक नुसखे । - (४) सुगन्धवाला, अरलू, लालचन्दन, खिरेंटी, धनिया, गिलोय, नागरमोथा, खस, जवासा, पित्तपापड़ा और अतीस-इन ग्यारह दवाओंका काढ़ा बनाकर पिलानेसे गर्भिणी स्त्रियोंके अतिसार, संग्रहणी, ज्वर, योनिसे खून गिरना, गर्भस्राव, गर्भस्रावकी पीड़ा, दर्द या मरोड़ीके साथ दस्त होना आदि निश्चय ही आराम हो जाते हैं। यह नुसना सूतिका रोगोंके नाश करनेके लिये प्राचीन कालमें ऋषियोंने कहा था । परीक्षित है। (५) आमकी छाल और जामुनकी छालका काढ़ा बनाकर, उसमें "खीलोंका सत्तू" मिलाकर खानेसे गर्भिणीका ग्रहणी रोग तत्काल शान्त होता है। . (६) कुशा, काँस, अरण्डी और गोखरूकी जड़-इनको सिलपर पानीके साथ पीसकर लुगदी बना लो। इस लुगदीको दूधमें रख For Private and Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६० चिकित्सा-चन्द्रोदय । कर दूधको पका और छान लो और पीछे मिश्री मिला दो। इस दूधको पीनेसे गर्भशूल या गर्भवतीका दर्द आराम हो जाता है। (७) गोखरू, मुलेठी, कटेरी और पियाबाँसा,- इनको ऊपरकी विधिसे सिलपर पीसकर, दूधमें मिलाकर, औटा लो। पीछे छानकर मिश्री मिला दो और पिला दो। इस दूधसे गर्भकी वेदना शान्त हो जाती है। (८) कसेरू, कमल और सिंघाड़े-इनको पानीके साथ पीसकर लुगदी बना लो और दूधमें औटाकर दूधको छान लो । इस दूधके पीनेसे गर्भवती सुखी हो जाती है। (E) अगर गर्भवतीके पेटपर अफारा आ जाय, पेट फूल जाय, तो बच और लहसनको सिलपर पीसकर लुगदी बना लो। इस लुगदीको दूधमें डालकर दूधको औटा लो । जब औट जाय, उसमें हींग और काला नोन मिलाकर पिला दो। इससे अफारा मिटकर गर्भिणीको सुख होता है। (१०) शालि धानोंकी जड़, ईखकी जड़, डाभकी जड़, काँसकी जड़ और सरपतेकी जड़,-इनको सिलपर पीसकर लुगदी बना लो और ऊपरकी विधिसे दूधमें डालकर, दूधको पका-छान लो और गर्भिणीको पिला दो। इस पंचमूलके साथ पकाये हुए दूधके पीनेसे गर्भिणीका रुका हुआ पेशाब खुल जाता है । इसके सिवा इस नुसखेसे प्यास, दाह-जलन और रक्तपित्त रोग आराम हो जाते हैं। नोट-गर्भिणीके दाह आदि रोगोंमें वैद्यको शीतल और चिकनी क्रिया करनी चाहिये। गर्भस्राव और गर्भपात । गर्भस्राव और गर्भपात के निदान कारण। ... गर्भावस्थामें मैथुन करने, राह चलने, हाथी या घोड़ेपर चढ़ने, For Private and Personal Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-गर्भिणी-चिकित्सा। ४६१ मिहनत करने, अत्यन्त दबाव पड़ने, कूदने, फलाँगने, गिरने, दौड़ने, व्रत-उपवास करने, अजीर्ण होने, मल-मूत्र आदि वेगोंके रोकने, गर्भ 'गिरानेवाले तेज़ और गर्म पदार्थ खाने, विषम-ऊँचे-नीचे स्थानोंपर सोने या बैठने, डरने और तीक्ष्ण, गर्म, कड़वे तथा रूखे पदार्थ खाने'पीने आदि कारणोंसे गर्भस्राव या गर्भपात होता है। गर्भस्राव और गर्भपातमें फर्क ? चौथे महीने तक जो गर्भ खूनके रूप में गिरता है, उसे "गर्भस्राव" कहते हैं। लेकिन जो गर्भ पाँचवें या छठे महीने में गिरता है, उसे “गर्भपात” कहते हैं। - खुलासा यह, कि चार महीने तक या चार महीनेके अन्दर अगर गर्भ गिरता है, तो वह खूनके रूपमें होता है, यानी योनिसे यकायक खून आने लगता है, पर मांस नहीं गिरता; इसीसे उसे "गर्भस्राव होना" कहते हैं । क्योंकि इस अवस्थामें गर्भ स्रवता या चूता है । पाँचवें महीनेके बाद गर्भका शरीर बनने लगता है और उसके अङ्ग सख्त हो जाते हैं । इस अवस्थामें अगर गर्भ गिरता है, तो मांसके छीछड़े, खून और अधूरा बालक गिरता है, इसीसे इस अवस्थाके गिरे गर्भको "गर्भपात” होना कहते हैं। गर्भस्राव या गर्भपातके पूर्वरूप । - अगर गर्भ स्रवने या गिरनेवाला होता है, तो पहले शूलकी पीड़ा होती और खून दिखाई देता है। - खुलासा यह है, कि अगर किसी गर्भिणीके शूल चलने लगें और खून आने लगे तो समझना चाहिये, कि गर्भस्राव या गर्भपात होगा। गर्भ अकाल में क्यों गिरता है ? .. जिस तरह वृक्षमें लगा हुआ फल चोट वगैरः लगनेसे अकाल या असमयमें गिर पड़ता है; उसी तरह गर्भ भी चोट वगैरः लगने For Private and Personal Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६२ चिकित्सा-चन्द्रोदय। और विषम आसनपर बैठने आदि कारणोंसे असमयमें ही गिर पड़ता है। गर्भपातके उपद्रव । - जब गर्भपात होता या गर्भ गिरता है, तब जलन होती, पसलियों में शूल चलते, पीठमें पीड़ा होती, पैर चलते यानी योनिसे खून गिरता, अफारा आता और पेशाब रुक जाता है । गर्भके स्थानान्तर होनेसे उपद्रव । जब गर्भ एक स्थानसे दूसरे स्थानमें जाता है, तब आमाशय और पक्काशयमें क्षोभ होता, पसलियोंमें शूल चलता, पीठमें दर्द होता, पेट फूलता, जलन होती और पेशाब बन्द हो जाता है; यानी जो उपद्रव गर्भपातके समय होते हैं, वही सब गर्भके स्थानान्तर होनेसे होते हैं। हिदायत । अगर गर्भस्राव या गर्भपात होने लगे, तो जहाँ तक सम्भव हो, चिकित्सा द्वारा उसे रोकना चाहिये । अगर किसीको गर्भस्राव या गर्भपातका रोग ही हो, तो उसे हर महीने "गर्भ-संरक्षक दवा" देकर गर्भको गिरनेसे बचाना चाहिये । अगर गर्भ रुके नहीं-रुकनेसे गर्भिणीकी जानको खतरा हो, अथवा कष्ट होनेकी सम्भावना हो, तो उस गर्भको गर्भ गिरानेवाली दवा देकर गिरा देना चाहिये। हिकमतके ग्रन्थों में लिखा है,-"अगर गर्भवती कम उम्र हो, दर्द सहने-योग्य न हो, गर्भसे उसके मरने या किसी भारी रोगमें फँसनेकी सम्भावना हो, तो गर्भको गिरा देना ही उचित है।" जिस तरह हमने गर्भोत्पादक नुसने लिखे हैं, उसी तरह हम आगे गर्भ गिरानेवाले नुसखे भी लिखेंगे। For Private and Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-गर्भिणी-चिकित्सा। ४६३ गर्भपात और उसके उपद्रवोंकी चिकित्सा। (१) भौंरीके घरकी मिट्टी, मोंगरेके फूल, लजवन्ती, धायके फूल, पीला गेरू, रसौत और राल-इनमेंसे सब या जो-जो मिलें, उन्हें कूट-पीसकर छान लो। इस चूर्णको शहदमें मिलाकर चाटनेसे गिरता हुआ गर्भ रुक जाता है। ___ (२) जवासा, सारिवा, पद्माख, रास्ना, मुलेठी और कमल-- इनको गायके दूधमें पीसकर पीनेसे गर्भस्राव बन्द हो जाता है। (३) सिंघाड़ा, कमल-केशर, दाख, कसेरू, मुलहटी और मिश्री-- इनको गायके दूध पीसकर पीनेसे गर्भस्राव बन्द हो जाता है। (४) कुम्हार बर्तन बनाते समय, हाथमें लगी हुई मिट्टीको पोंछता जाता है । उस मिट्टीको लाकर गर्भिणीको पिलानेसे गिरता हुआ गर्भ थम जाता है। ___ (५) खिरेंटीकी जड़ कँवारी कन्याके काते हुए सूतमें बाँधकर, कमरमें लपेटनेसे गिरता हुआ गर्भ थम जाता है। (६) कुश, कास, लाल अरण्डकी जड़ और गोखरू--इनको दूधमें औटाकर और मिश्री मिलाकर पीनेसे गर्भवतीकी पीड़ा दूर हो जाती है। दवाओंका कल्क १ तोले, दूध ३२ तोले और पानी १२८ तोले लेकर दूध पकाओ । जब दूध-मात्र रह जाय, छान लो। (७) कसूमके रंगे हुए लाल डोरेमें एक करंजुआ बाँधकर गर्भिणीकी कमरमें बाँध देनेसे गर्भ नहीं गिरता। अगर गर्भ रहते ही यह कमरमें बाँध दिया जाय और नौ महीने तक बँधा रहे, तो गर्भ गिरनेका भय ही न रहे। - नोट--कण्टक करा या करंजुएके पेड़ माली लोग फुलवाड़ियोंकी बाढ़ोंपर रक्षाके लिये लगाते हैं । इनके फल कचौरी-जैसे होते हैं। इनके इर्द-गिर्द इतने काँटे होते हैं कि तिल धरनेको जगह नहीं मिलती, फलमेंसे चार-पाँच दाने निकलते हैं। उन दानोंको ही "करंजुवा" या "करंजा" कहते हैं । दानेके ऊपरका For Private and Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । छिलका राखके रङ्गका होता है, पर भीतरसे सफ़ेद गिरी निकलती है। इसे संस्कृतमें कण्टक करञ्ज, हिन्दीमें करना या करंजुश्रा, बँगलामें काँटा करज और अँगरेज़ीमें बोंडकनट कहते हैं। (८) कुहरबा यशमई और दरुनज अकरबी गर्भिणीकी कमरमें बाँध देनेसे गर्भ नहीं गिरता। (E) कँवारी कन्याके काते हुए सूतसे गर्भिणीको सिरसे पाँवके नाखून तक नापो। उसी नापके २१ तार ले लो। फिर काले धतूरेकी जड़ लाकर, उसके सात टुकड़े कर लो और हर टुकड़ेको उस तारमें अलग-अलग बाँध दो। फिर उस जड़ बंधे हुए सूतको स्त्रीको कमरमें बाँध दो । हर्गिज़ गर्भ न गिरेगा। (१० ) गर्भिणीके बायें हाथमें जमुर्रदकी अँगूठी पहना देनेसे खून बहना या गर्भ-स्राव-गर्भ-पात होना बन्द हो जाता है । (११) खतमीके बीज और मुल्तानी मिट्टीको “मकोयके रसमें" पीसकर, योनिमें लगा देनेसे गर्भ नहीं गिरता और भगकी जलन और खुजली मिट जाती है। . (१२) भीमसेनी कपूर, अर्क गुलाबमें पीसकर, भगमें मलनेसे गर्भ गिरना बन्द हो जाता है। (१३ ) गूलरकी जड़ या जड़की छालका काढ़ा बनाकर गर्भिणीको पिलानेसे गर्भ-स्राव या गर्भ-पात बन्द हो जाता है। नोट-अगर गर्भिणीको भूख न लगती हो, तो बड़ी इलायची २ माशे • कन्दमें मिलाकर खिलानो। (१४) गर्भिणीकी कमरमें अकेला “कुहरबा" बाँध देनेसे गर्भ नहीं गिरता। इसी कुहरबेको गलेमें बाँधनेसे कमल-वायु प्राराम हो जाता है और छातीपर रखनेसे प्लेग या ताऊन भाग जाता है । (१५) अगर गर्भ चलायमान हो, तो गायके दूधमें कच्चे गूलर • पकाकर पीने चाहिये। .. For Private and Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-गर्भिणी-चिकित्सा । ४६५ (१६) कसेरू, सिंघाड़े, मद्माख, कमल, मुगवन और मुलेठीइनको पीस-छान और मिश्री मिलाकर दूध के साथ पीनेसे गर्भस्राव आदि उपद्रव नाश हो जाते हैं । इस दवापर दूध-भातके सिवा और कुछ न खाना चाहिये। (१७ ) कसेरू, सिंघाड़े, जीवनीयगणकी दवाएँ, कमल, कमोदिनी, अरण्डी और शतावर--इनको दूधमें औटाकर और मिश्री मिलाकर पीनेसे गर्भ गिरता-गिरता ठहर जाता और पीड़ा नष्ट हो जाती है। (१८) बिदारीकन्द, अनारके पत्ते, कच्ची हल्दी, त्रिफला, सिंघाड़ेके पत्ते, जाती फूल, शतावर, नील कमल और कमल-इन आठोंको दो-दो तोले लेकर सिलपर पीसकर लुगदी बना लो । फिर तेलकी विधिसे तेल पकाकर रख लो । इस तेलकी मालिश करनेसे गर्भशूल, गर्भस्राव आदि नष्ट हो जाते और गिरता-गिरता गर्भ रह जाता है। इस तेलका नाम "गर्भविलास तैल" है । परीक्षित है। (१६) कबूतरकी बीट शालि चाँवलोंके जलके साथ पीनेसे गर्भस्राव या गर्भपातके उपद्रव दूर हो जाते हैं। (२०) शहद और बकरीके दूधमें कुम्हारके हाथकी मिट्टी मिलाकर खानेसे गिरता हुआ गर्भ ठहर जाता है। गर्मिणीकी महीने-महीनेकी चिकित्सा । पहला महीना । पहले महीने में-मुलेठी, सागौनके बीज, असगन्ध और देवदारु--इनमेंसे जो-जो मिलें; उन सबका एक तोला कल्क दूधमें घोलकर गर्भिणीको पिलाओ। दूसरा महीना । दूसरे महीनेमें-अश्मन्तक, काले तिल, मँजीठ और शतावरइनमेंसे जो मिलें, उनका एक तोले कल्क दूधमें घोलकर गर्भिणीको पिलाओ। For Private and Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । तीसरा महीना। तीसरे महीनेमें--वंदा, फूल प्रियंगू, कंगुनी और सफेद सारिवा-- इनमेंसे जो मिलें, उनका एक तोले कल्क दूधमें घोलकर पिलाओ। चौथा महीना । चौथे महीनेमें-सफेद सारिवा, काला सारिवा, रास्ना, भारंगी और मुलेठी-इनमेंसे जो मिलें, उनका एक तोले कल्क दूधमें घोलकर पिलाओ। पाँचवाँ महीना । पाँचवें महीनेमें -कटेरी, बड़ी कटेरी, कुम्भेर, बड़ आदि दूधवाले वृक्षोंकी बहुत-सी छोटी-छोटी कोंपलें और छाल-इनमेंसे जो-जो मिलें, उन सबका एक तोले कल्क दूधमें घोलकर पिलाओ। छठा महीना। छठे महीनेमें-पिठवन, बच, सहजना, गोखरू और कुम्भेर-- इनको एक तोले कल्क दूधमें घोलकर पिलाओ । सातवाँ महीना। सातवें महीनेमें-सिंघाड़े, कमलकन्द, दाख, कसेरू, मुलेठी और मिश्री-इनमेंसे जो मिलें, उनका एक तोले कल्क दूधमें घोलकर पिलाओ। नोट-सातों महीनोंमें, दवाओंको शीतल जलमें पीसकर और दूधमें मिला कर पिलानेसे गर्भस्राव और गर्भपात नहीं होता । इसके सिवाय, गर्भ-सम्बन्धी शूल भी नष्ट हो जाता है। आठवाँ महीना। आठवें महीनेमें--कैथ, कटाई बेल, परवल , ईख और कटेरी-इन सबकी जड़ोंको शीतल जलमें पीसकर, एक तोले कल्क तैयार कर लो। फिर इस कल्कको १२८ तोले जल और ३२ तोले दूधमें डालकर, पकाओ । जब पानी जलकर दूध-मात्र रह जाय, छानकर पिलाओ। For Private and Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-गर्भिणी-चिकित्सा । ४६० नोट-इस मासमें मैथुन क़तई त्याग देना चाहिये । क्योंकि इस महीने में मैथुन करनेसे गर्भ निश्चय ही गिर जाता या अन्धा, लूला, लँगड़ा हो जाता है। नवाँ महीना। नवें महीने में- मुलेठी, सफेद सारिवा, काला सारिवा, असगन्ध और लाल पत्तोंका जवासा - इनको शीतल जलमें पीसकर, एक तोले कल्क लेकर चार तोले दूधमें घोलकर पिलाओ। दसवाँ महीना। दसवें महीनेमें--सोंठ और असगन्धको शीतल जलमें पीसकर फिर उसमेंसे एक तोले कल्क लेकर, १२८ तोले जल और बत्तीस तोले दूधमें डालकर पकाओ । जब दूध-मात्र रह जाय, छानकर गर्भिणीको पिला दो। अथवा सोंठको दूधमें औटाकर शीतल करके पिलाओ। अथवा सोंठ, मुलेठी और देवदारुको दूधमें औटाकर पिलाओ। अथका इन तीनोंके एक तोले कल्कको चार तोले दुधमें घोलकर पिलाओ । ग्यारहवाँ महीना। ग्यारहवें महीनेमें-खिरनीके फल, कमल, लजवन्तीकी जड़ और हरड़--इनको शीतल जलमें पीसकर, फिर एक तोले कल्कको दूधमें घोलकर पिलाओ। इससे गर्भिणीका शूल शान्त हो जाता है। बारहवाँ महीना। बारहवें महीनेमें मिश्री, विदारीकन्द, काकोली और कमलनाल इनको सिलपर पीसकर, इसमेंसे एक तोला कल्क पीनेसे शूल मिटता, घोर पीड़ा शान्त होती और गर्भ पुष्ट होता है। For Private and Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । इस तरह महीने-महीने चिकित्सा करते रहनेसे गर्भस्राव या गर्भपात नहीं होता; गर्भ स्थिर हो जाता और शूल वगैरः उपद्रव शान्त हो जाते हैं। वायुसे सूखे गर्भकी चिकित्सा । योनिस्रावकी वजहसे अगर बढ़ते हुए गर्भका बढ़ना रुक जाता है और वह पेट में हिलने-जुलनेपर भी कोठेमें रहा आता है, तो उसे "उपविष्टिक गर्भ" कहते हैं। अगर गर्भकी वजहसे पेट नहीं बढ़ता एवं रूखेपन और उपवास आदि अथवा अत्यन्त योनिस्रावसे कुपित हुए वायुके कारणसे कृश गर्भ सूख जाता है, तो उसे "नागोदर" कहते हैं । इस दशामें गर्भ चिरकालमें फुरता है और पेटके बढ़नेसे भी हानि ही होती है। __ अगर वायुसे गर्भ सूख जाय और गर्भिणीके उदरकी पुष्टि न करे, पेट ऊँचा न आवे, तो गर्भिणीको जीवनीयगणकी औषधियोंके कल्क द्वारा पकाया हुआ दूध पिलाओ और मांसरस खिलाओ । अगर वायुसे गर्भ संकुचित हो जाय और गर्भिणी प्रसवकाल बीत जानेपर भी; यानी नवाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ और बारहवाँ महीना बीत जानेपर भी बच्चा न जने, तो बच्चा जनानेके लिये, उससे अोखलीमें धान डालकर मूसलसे कुटवाओ और विषम आसन या विषम सवारीपर बैठाओ । वाग्भट्टमें लिखा है,--उपविष्टक और नागोदरकी दशामें वृहंण, वातनाशक और मीठे द्रव्योंसे बनाये हुए घी, दूध और रस गर्भिणीको पिलाओ। हिकमतमें एक "रिजा" नामक रोग लिखा है, उसके होनेसे स्त्रीकी दशा ठीक गर्भवतीके जैसी हो जाती है । जिस तरह गर्भ रहनेपर स्त्रीका रजःस्राव बन्द हो जाता है, उसी तरह 'रिजा में भी रज बन्द हो जाती है। रंगमें अन्तर श्रा जाता है । भूख जाती रहती है । सम्भोग या मैथुनकी इच्छा नहीं रहती। गर्भाशयका मुंह बन्द हो जाता है और पेट बड़ा हो जाता है । गर्भवतियोंकी तरह पेटमें For Private and Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-गर्भिणी-चिकित्सा । ४६६ कड़ापन और गति मालूम होती है । ऐसा जाना पड़ता है, मानों पेटमें बच्चा हो । अगर हाथसे दबाते हैं, तो वह सख्ती दाहिने-बायें हो जाती है। इस रोगके लक्षण बेढंगे होते हैं । कभी तो यह किसी भी इलाजसे नहीं जाता और उम्र-भर रहा पाता है और कभी जलोदर या जलन्धर का रूप धारण कर लेता है। कभी बच्चा जननेके समयका-सा दर्द उठता है और एक मांसका टुकड़ा तर पदार्थ और मैलेके साथ निकल पड़ता है अथवा बहुत-सी हवा निकल पड़ती है या कुछ भी नहीं निकलता । अनेक बार झूठे गर्भका मवाद सड़ जाता है और अनेक बार उस मवादमें जान पड़ जाती है और वह जानवरकी-सी सूरतमें तब्दील हो जाता है । अखबारोंमें लिखा देखते हैं, फलाँ औरतके कछुएकी-सी शकलका बच्चा पैदा हुआ । कई घण्टों तक जीता या हिलता-जुलता रहा । एक बार एक स्त्रीने मुर्गे की सूरतका बच्चा जना । ऐसे-ऐसे उदाहरण बहुत मिलते हैं। सच्चे और झूठे गर्भकी पहचान । अगर रोग होता है, तो पेट बड़ा होता है और हाथ-पाँव सुस्त रहते हैं, पर पेटकी सख्तीकी गति बालककी-सी नहीं होती। पेटपर हाथ रखने या दबानेसे वह इधर-उधर हो जाती है; परन्तु जो अपने-आप हिलता है वह और तरहका होता है । बच्चा समयपर हो जाता है, पर यह रोग चार-चार बरस तक रहता है और किसी-किसीको उम्र-भर । इलाजमें देर होनेसे यह जलन्धर हो जाता है । ___ इसके होनेके ये कारण हैं: (१) गर्भाशयमें कड़ी सूजन हो जानेसे, रज निकलना बन्द हो जाता है और रजके बन्द हो जाने से यह रोग होता है। (२) गर्भाशयके परतोंमें गाढ़ी हवा रुक जाती है, उसके न निकलने से पेट फूल जाता है । इस दशामें जलन्धरके लक्षण दीखते हैं। प्रसवका समय । ____ गर्भिणी नवें, दसवें, ग्यारहवें अथवा बारहवें महीने में बच्चा जनती हैं। अगर कोई विकार होता है, तो बारहवें महीनेके बाद भी बच्चा होता है। वाग्भट्टमें लिखा है: 'तस्मिंस्त्वेकाहयातेऽपि कालः सूतेरतः परम् । वर्षाद्विकारकारी स्यात्कुक्षौ वातेन धारितः॥ For Private and Personal Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७० चिकित्सा-चन्द्रोदय । आठवें महीनेका एक दिन बीतने बाद और बारहवें महीनेके अन्त तक बालकके जन्मका समय है। बारहवें महीनेके बाद, कोखमें वायु द्वारा रोका हुआ गर्भ, विकारोंका कारण होता है। बच्चा होनेके २४ घण्टों पहलेके लक्षण । जब ग्लानि हो, कोख और नेत्र शिथिल हों, थकान हो, नीचेके अंग भारी-से हों, अरुचि हो, प्रसेक हो, पेशाब बहुत हो, जाँघ, पेट, कमर, पीठ, हृदय, पेड़ और योनिके जोड़ों में पीड़ा हो, योनि फटती-सी जान पड़े, योनिमें शूल चलें, योनिसे पानी आदि झिरें, जननेके समयके शूल चलें और और अत्यन्त पानी गिरे, तब समझो कि बालक आज ही या कल होगा; यानी ये लक्षण होनेसे २४ घण्टोंमें बच्चा हो जाता है । देखा है, बच्चा होनेमें अगर २४ घण्टोंसे कमीकी देर होती है, तो पेशाब बारम्बार होने लगते हैं, दर्द जोरसे चलते हैं और पानीसे धोती तर हो जाती है । पानी और जरा-सा खून आनेके थोड़ी देर बाद ही बच्चा हो जाता है। . सूचना-गर्भवतीको गर्भावस्थामें क्या कर्तव्य और क्या अकर्तव्य है, उसे पथ्य क्या और अपथ्य क्या है, पेटमें लड़का है या लड़की, गर्भिणीकी इच्छा पूरी करना परमावश्यक है, गर्भमें बच्चा क्यों नहीं रोता, किस महीने में गर्भके कौन-कौन अङ्ग बनते हैं, इत्यादि गर्भिणी-सम्बन्धी सैकड़ों बातें हमने अपनी लिखी "स्वास्थ्यरक्षा" नामक सुप्रसिद्ध घुस्तकमें विस्तारसे लिखी हैं। चूँ कि "चिकित्सा. चन्द्रोदय" का प्रत्येक खरीदार “स्वास्थ्यरक्षा" अवश्य खरीदता है; इससे हम उन बातोंको यहाँ फिर For Private and Personal Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रसव-विलम्ब-चिकित्सा। ४७१ लिखना व्यर्थ समझते हैं । जिन्हें ये बातें जाननी हों, "स्वास्थ्यरक्षा" देखें। ००. ००००००००० ००.०००.०० 000000000000० 0000.०००००००००००००००००००००० .*०००nas .. .90sa30003 00000 oce 200300 । प्रसव-विलम्ब-चिकित्सा । ४ -- - - ----- --- XXXX भिणी जब बच्चा जन लेती है, तब उसका नया जन्म गू होता है । जिस तरह पेटमें बच्चेके मर जाने पर स्त्रीकी HAKRA जानको खतरा होता है; उसी तरह अनेक कारणोंसे जीते हुए बच्चे के जल्दी न निकलने अथवा ओलनाल, जेर या झिल्लीके पेटमें कुछ देर रुके रहनेसे स्त्रीकी मौतका सामान हो जाता है। इसलिये बच्चा जननेवालीकी जीवन-रक्षा और सुखके लिये चन्द ऐसे उपाय लिखते हैं, जिनसे बालक आसानीसे योनिके बाहर आ जाता है । यद्यपि रुके हुए गर्भ और जेर-प्रभृतिको सहजमें निकाल देने वाले मन्त्र-तन्त्र और योग वैद्यकमें बहुत-से लिखे हैं; पर बालकके रुक जानेके निदान-कारण प्रभृतिका हमारे यहाँ बहुत ही संक्षिप्त जिक्र है। आयुर्वेद की अपेक्षा हिकमतमें इस विषयपर खूब प्रकाश डाला गया है । अतः हम तिब्बे अकबरी, मीजान तिब्ब और इलाजुलगुर्बा प्रभृतिसे दो-चार उपयोगी बातें, पाठकोंके लाभार्थ, नीचे लिखते हैं:हिकमतसे निदान-कारण और चिकित्सा । मुख्य चार कारण । बालकके होनेमें देर लगने या कठिनाई होनेके मुख्य चार कारण हैं: For Private and Personal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MAA ४७२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (१) गर्भवतीका मोटा होना। (२) सर्द हवा या सर्दीसे गर्भाशयके मुखका सुकड़ जाना । (३) बालकके ऊपरकी झिल्लीका बहुतही मोटा होना। (४) प्रकृति और हवाफी गरमी । __ पहले कारणका इलाज । ___(१) अगर स्त्री मोटी होता है, तो उसका गर्भाशय भी मोटा होता है । मुटाईकी वजहसे गर्भाशयका मुंह तंग हो जाता है; यानी जिस सूराख या राहमें होकर बालक आता है, उस सूराखकी चौड़ाई काफी नहीं होती । अगर बालक दुबला-पतला होता है, तब तो उतनी कठिनाई नहीं होती । अगर कहीं मोटा होता है, तब तो महा विपद्का सामना होता है । ऐसे मौकोंके लिये हकीमोंने नीचे लिखे उपाय लिखे हैं:-- (क) बनफशेका तेल, जम्बकका तेल, जैतूनका तेल, मुर्गे और बतनकी चर्बी एवं गायकी पिंडलीकी चर्बी,-इनको बच्चा जननेवाली स्त्रीके पेट और पीठपर मलो । __(ख) बाबूना, सोया और दोनों मरुवोंको पानीमें श्रौटाकर, उसी पानीमें बच्चा जननेवालीको बिटाओ । यह पानी स्त्रीकी हूँ डी-सू डी या नाभि तक रहना चाहिये । इसलिये ढेर-सा काढ़ा औटाकर एक टबमें भर देना चाहिये और उसीमें स्त्रीको बिठा देना चाहिये। (ग) जंगली पोदीना और हंसराज इन दोनोंका काढ़ा बनाकर मिश्री मिला दो और स्त्रीको पिलादो । (घ) काला दाना, जुन्देवेदस्तर और नकछिकनी-इनको पीसछानकर छींक आनेके लिये स्त्रीको सँघाओ। जब छींक आने लगें, तब स्त्रीके नाक और मुंहको बन्द कर दो, ताकि भीतरकी ओर ज़ोर पड़े और बालक सहजमें निकल आवे । For Private and Personal Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा- प्रसव-विलम्ब-चिकित्सा। ४७३ . (ङ) स्त्रीकी योनिको घोड़े, गधे या ‘खच्चरके खुरोंका धूआँ पहुँचाओ। इनमेंसे जिस जानवरका खुर मिले, उसीका महीन चूरा करके आगपर डालो और स्त्रीको इस तरह बिठाओ कि, धूआँ योनिकी ओर जावे। (च) अगर स्त्री मांस खानेवाली हो, तो उसे मोटे मुर्गका शोरवा बनाकर पिलाओ। दूसरे कारणका इलाज । (२) अगर सर्द हवा या और किसी प्रकारकी सर्दी पहुँचनेसे गर्भाशयका मुँह सुकड़ या सिमट गया हो, तो इसका यथोचित उपाय करो। इसके पहचाननेमें कुछ दिक्कत नहीं । अगर गर्भाशय और योनि सर्द या सुकड़े हुए होंगे, तो दीख जायँगे-हाथसे पता लग जायगा। इसके लिये ये उपाय करोः ( क ) स्त्रीको गर्म हम्माममें ले जाकर गुनगुने पानीमें बिठाओ। (ख) गर्म और मवादको नर्म करनेवाले तेलोंकी मालिश करो। (ग) शहदमें एक कपड़ा ल्हेसकर मूत्र-स्थानपर रखो । तीसरे कारणका इलाज । (३) गर्भाशयमें बालकके चारों तरफ एक झिल्ली पैदा हो जाती है। इस झिल्लीको "मुसीमिया" कहते हैं। इससे गर्भगत बालककी रक्षा होती है । यह कद्दानेकी थैली-जैसी होती है, पर उससे जियादा चौड़ी होती है । जब बालक निकलनेको ज़ोर करता है और यदि बलवान होता है, तो यह झिल्ली झट फट जाती है। बालक उसमेंसे निकलकर, गर्भाशयके में हमें होता हुआ, योनिके बाहर आ जाता है; पर झिल्ली पीछे निकलती है । अगर यह झिल्ली जियादा मोटी होती है, तो बालकके जोर करनेसे जल्दी नहीं फटती। बच्चा उससे बाहर निकलनेकी कोशिश करता है और उसे इसमें तकलीफ भी बहुत होती For Private and Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । है, पर झिल्लीके बहुत मोटी होनेकी वजहसे वह निकल नहीं सकता। ऐसे मौके पर बच्चा मर जाता है । बच्चे के मर जानेसे जच्चा या प्रसूताकी जान भी खतरेमें हो जाती है। इस समय चतुर दाई या डाक्टरकी ज़रूरत है। चतुर दाईको बायें हाथसे झिल्लीको खींचना और तेज़ छुरेसे उसे इस तरह काटना चाहिये, कि जच्चा और बच्चा दोनोंको कष्ट न हो। झिल्लीके सिवा और जगह छुरा या हाथ पड़ जानेसे जच्चा और बच्चा दोनों मर सकते हैं। चौथे कारणका इलाज । (४) अगर मिज़ाजकी गरमी और हवाकी गरमीसे बालकके होने में कठिनाई हो, तो उसका उचित उपाय करना चाहिये । यह बात गरमीके होने और दूसरे कारणोंके न होनेसे सहजमें मालूम हो सकती है । हकीमोंने नीचे लिखे उपाय बताये हैं: (क ) बनफशाका तेल, लाल चन्दन और गुलाब,-इनको जच्चाके पेट और पीठपर मलो। (ख ) खट-मिट्ठ अनारका रस, तुरंजबीनके साथ स्त्रीको पिलायो । (ग) गरम चीजोंसे स्त्रीको बचाओ। क्योंकि इस हालतमें गरमी करनेवाले उपाय हानिकारक हैं। स्त्रीको ऐसी जगहमें रखो, जहाँ न गरमी हो और न सर्दी । चन्द लाभदायक शिक्षायें । जिस रोज़ बच्चा होनेके आसार मालूम हों, उस दिन ये काम करो:-- (क) बच्चा होनेके दो-चार दिन रह जाय तबसे, स्त्रीको नर्म और चिकने शोरवेका पथ्य दो । भोजन कम और हलका दो। शीतल जल, खटाई और शीतल पदार्थोंसे स्त्रीको बचाओ। किसी भी कारणसे नीचेके अंगोंमें सर्दी न पहुँचने दो। For Private and Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रसव-विलम्ब-चिकित्सा। ४७५ (ख) जननेवालीको समझा दो, कि जब दर्द उठे तब हल्लागुल्ला मत करना, सन्तोष और सबसे काम लेना तथा पाँवपर जोर देना, जिससे जोरका असर अन्दर पहुंचे। (ग) जब जननेके आसार नमूदार हों, स्त्रीको नहानेके स्थान या सोहरमें ले जाओ। बहुत-सा गर्म जल उसके सिरपर डालो और तेलकी मालिश करो। स्त्रीसे कहो, कि थोड़ी दूर चल-चलकर उकरू बैठे। (घ) ऐसे समयमें दाईको इनमेंसे कोई चीज़ गर्भाशयके मुँहपर मलनी और लगानी चाहिये--अलसीके बीजोंका लुआब या तिलीके तेलका शीरा, बादामका तेल या मुर्गेकी चर्बी या बतखकी चर्बी बनफशेके तेलमें मिली हुई । गर्भाशयपर इनमेंसे कोई-सी चीज़ मलने या लगानेसे बच्चा आसानीसे फिसलकर निकल आता है। (ङ) जब जरा-जरा दर्द उठे, तभी जननेवालीको मलमूत्र आदिसे निपट लेना चाहिये। अगर अजीर्ण हो, तो नर्म हुकनेसे मलको निकाल देना चाहिये। ___ नोट-ये सब उपाय बच्चा जननेवाली स्त्रियोंके लिये लाभदायक हैं। पर, जिनको बालक जनते समय कष्ट हुअा ही करता है, उनके लिये तो इनका किया जाना विशेष रूपसे परमावश्यक है । शीघ्र प्रसव करानेवाले उपाय । - (१) "इलाजुल गुर्वा' में लिखा है--चकमक पत्थर कपड़े में लपेटकर स्त्रीकी रानपर बाँध देनेसे बच्चा आसानीसे हो जाता है। पर "तिब्बे अकबरी” में लिखा है-अगर स्त्री चकमक पत्थरको बायें हाथमें रखे, तो सुखसे बच्चा हो जाय । कह नहीं सकते, इनमेंसे कौनसी विधि ठीक है, पर चकमक पत्थरकी राय दोनोंने ही दी है। (२) घोड़ेकी लीद और कबूतरकी बीट पानी में घोलकर स्त्रीको पिला देनेसे बालक सुखसे हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (३) "तिब्बे अकबरी” और “इलाजुल गुर्बा' में लिखा है कि अठारह माशे अमलताशके छिलकोंका काढ़ा औटाकर स्त्रीको पिला देनेसे बच्चा सुखसे हो जाता है । परीक्षित है। नोट--कोई-कोई श्रमलताशके छिलकोंके काढ़ेमें "शर्बत बनफशा या चनोंका पानी" भी मिलाते हैं। हमने इन दोनोंके बिना मिलाये केवल अमलताशके छिलकोंके काढ़ेसे झिल्ली या जेर और बच्चा अासानीसे निकल जाते देखे हैं । (४) स्त्रीकी योनिमें घोड़ेके सुमकी धूनी देनेसे बच्चा सुखसे हो जाता है। ___ (५) योनिके नीचे काले या दूसरे प्रकारके साँपोंकी काँचलीकी धूनी देनेसे बालक और जेर-नाल आसानीसे निकल आते हैं। हकीम अकबर अली साहब लिखते हैं, कि यह हमारा परीक्षा किया हुआ उपाय है। इससे बच्चा वगैरः निश्चय ही फौरन निकल आते हैं, पर इस उपायसे एकाएकी काम लेना मुनासिब नहीं, क्योंकि इसके जहरसे बहुधा बालक मर जाते हैं । हमारे शास्त्रोंमें भी लिखा है कटुतुम्ब्यहिनिमो ककृतवेधनसर्पपैः । कटुतैलान्वितैयों नेधूमः पातयतेऽपराम् ।। कड़वी तूम्बी, साँपकी काँचली, कड़वी तोरई और सरसों-इन सबको कड़वे तेलमें मिलाकर,--योनिमें इनकी धूनी देनेसे अपरा या जेर गिर जाती है। __हमारी रायमें जब बच्चा पेटमें मर गया हो, उसे काटकर निकालनेकी नौबत आ जावे, उस समय साँपकी काँचलीकी धूनी देना अच्छा है । क्योंकि इससे बच्चा जननेवालीको तो किसी तरहकी हानि होती ही नहीं । अथवा बच्चा जीता-जागता निकल आवे, पर जेर या अपरा न निकले, तब इसकी धूनी देनी चाहिये। हाँ, इसमें शक नहीं कि, साँपकी काँचली जेर या मरे-जीते बच्चे को निकालने में है अकसीर । "तिब्बे अकबरी” में, जहाँ मरे हुए बच्चेको पेटसे निकालनेका For Private and Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ___www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--प्रसव-विलम्ब-चिकित्सा । ४७७ जिक्र किया गया है, लिखा है-साँपकी काँचली और कबूतरकी बीट-इन दोनोंको मिलाकर, योनिमें इनकी धूनी देनेसे बच्चा फौरन ही निकल आता है । अकेली साँपकी काँचलीकी धूनी भी काफी है। अगर यह उपाय फेल हो जाय, मरा हुआ बच्चा न निकले, तो फिर दाईको हाथ डालकर ही जेर या बच्चा निकालना चाहिये । (६) बाबूनेके नौ माशे फूलोंका काढ़ा बना और छानकर, उसमें ३ माशे “शहद मिलाकर स्त्रीको पिला देनेसे बचा सुखसे हो जाता है। (७) बच्चा जननेवाली के बायें हाथमें “मकनातीसी पत्थर" रखनेसे बच्चा सुखसे हो जाता है । "इलाजुल गुर्बा' के लेखक महाशय इस उपायको अपना आजमाया हुआ कहते हैं । नोट-एक यूनानी निघण्टुमें लिखा है, कि चुम्बक पत्थरको रेशमी कपड़ेमें लपेटकर स्त्रीकी बाई जाँघमें बाँधनेसे बच्चा जल्दी और आसानीसे होता है। चुम्बक पत्थरको अरबीमें "हजरत मिकनातीस" और फारसीमें 'संग अाहनरुबा' कहते हैं। यह मशहूरः पत्थर लोहेको अपनी तरफ खींचता है । अगर शरीरके किली भागमें सूई या ऐसी ही कोई चीज़, जो लोहेकी हो, घुस जाय और निकाल नेसे न निकले, तो वहाँ यही चुम्बक पत्थर रखनेसे वह बाहर आ जाती है। (८) "इलाजुल गुर्वा' में लिखा है-बच्चा जननेवालीको हींग खिलानेसे बच्चा सुखसे होता है। "तिब्बे अकबरी" में हींगको जुन्देबेदस्तरमें मिलाकर खिलाना जियादा गुणकारी लिखा है। (E) योनिमें मनुष्यके सिरके बालोंकी धूनी देनेसे बच्चा जनने में विशेष कष्ट नहीं होता। (१०) करिहारीकी जड़, रेशमके धागेमें बाँधकर, स्त्री अपने बायें हाथमें बाँध ले, तो बच्चा जनते समयका कष्ट व पीड़ा दूर हो जाय । परीक्षित है। (११) सूरजमुखीकी जड़ और पाटलाकी जड़ गर्भिणीके कण्ठमें बाँध देनेसे बच्चा सुखसे हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (१२) पीपर और बचको पानीमें पीसकर और रेंडीके तेल में मिला कर, स्त्रीकी नाभिपर लेप कर देनेसे बच्चा सुखसे होता है। परीक्षित है। (१३) बिजौरेकी जड़ और मुलेठीको घीमें पीसकर पीनेसे बच्चा सुखसे पैदा होता है । परीक्षित है । कोई-कोई इसमें शहद भी मिलाते हैं । “वैद्यजीवन में लिखा है:मध्वाज्ययष्टीमधुलुगमूलं निपीय सूते सुमुखी सुखेन । सतंडुलांभः सितधान्यकल्काद्रुतंवमिर्गच्छति गर्भिणीनाम् ॥ जिस स्त्रोको बच्चा जनते समय अधिक कष्ट हो, उसे मुलेठी और बिजौरेकी जड़-इन दोनोंको पानीमें पीस-घोल और गरम करके पिलानेसे बालक सुखसे हो जाता है। जिस गर्भवतीको कय ज़ियादा होती हों, उसे धनियेका चूर्ण खाकर ऊपरसे मिश्री-मिला चाँवलोंका पानी पीना चाहिये । (१४) आदमीके बहुतसे बाल जलाकर राख कर लो। फिर उस राखको गुलाब-जलमें मिलाकर बच्चा जननेवालीके सिरपर मलो । सुखसे बालक हो पड़ेगा। (१५) लाल कपड़ेमें थोड़ा नमक बाँधकर, बच्चा जननेवालीके बायें हाथकी तरफ़ लटका देनेसे, बिना विशेष कष्टके सहजमें बच्चा हो पड़ता है। (१६) अगर बच्चा जननेवालीको भारी कष्ट हो, तो थोड़ी-सी साँपकी काँचली उसके चूतड़ोंपर बाँध दो और उसकी योनिमें थोड़ी-सी काँचलीकी धूनी भी दे दो। परमात्मा चाहेगा तो सहजमें बालक हो जायगा; कुछ भी तकलीफ न होगी। (१७) बारहसिंगेका सींग स्त्रीके स्तनपर बाँध देनेसे भी बच्चा सुखसे हो जाता है। (१८) गिद्धका पंख बच्चा जननेवालीके पाँवके नीचे रख देनेसे बच्चा बड़ी आसानीसे हो जाता है । For Private and Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रसव-विलम्ब-चिकित्सा। ४७६ (१६) सरफ़ोंकेकी जड़ बच्चा जननेवालीकी कमरमें बाँधनेसे बालक शीघ्र ही बाहर आ जाता है। (२०) जीते हुए साँपके दाँत स्त्रीके कंठ या गलेमें लटका देनेसे बच्चा सुखसे होता है। (२१) इन्द्रायणकी जड़को महीन पीसकर और घीमें मिलाकर, योनिमें रखनेसे बच्चा सुखसे हो जाता है। नोट-इन्द्रायणको जड़ योंही योनिमें रखने से भी बालक बाहर श्रा जाता है। यह चीज़ इस कामके लिये अथवागर्भ गिरानेके लिये अकसीरका काम करती है। (२२) गायका दूध आध पाव और पानी एक पाव मिलाकर स्त्रीको पिलानेसे तुरन्त बच्चा हो पड़ता है; कष्ट ज़रा भी नहीं होता। (२३) काग़ज़पर चक्रव्यूह लिखकर स्त्रीको दिखानेसे भी बच्चा जल्दी होता है। (२४) फालसेकी जड़ और शालिपीकी जड़--इनको एकत्र पीसकर, स्त्रीकी नाभि, पेड़ और भगपर लेप करनेसे बच्चा सुखसे होता है। (२५) कलिहारीके कन्दको काँजीमें पीसकर स्त्रीके पाँवोंपर लेप करनेसे बच्चा सुख-पूर्वक होता है। (२६) तालमखाने की जड़को मिश्रीके साथ चबाकर, उसका रस गर्भिणीके कानमें डालनेसे बच्चा सुखसे होता है। ___ नोट-हिन्दीमें तालमखाना, संस्कृतमें कोकिलाक्ष, बंगलामें कुलियाखाड़ा, कुले काँटी, मरहटीमें तालिमखाना और गुजरातीमें एखरो कहते हैं । (२७)) श्यामा और सुदर्शन-लताको पीसकर और उसमेंसे बत्तीस तोले लेकर स्त्रीके सिरपर रखदो । जब तक उसका रस पाँवों तक टपककर न आ जाय, सिरपर रखी रहने दो। इससे बच्चा सुख-पूर्वक होता है। (२८) चिरचिरेकी जड़को उखाड़कर, योनिमें रखनेसे बच्चा सुखसे होता है। For Private and Personal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८० चिकित्सा-चन्द्रोदय । नोट-चिरचिरेको चिरचिरा, लटजीरा और ओंगा कहते हैं । संस्कृतमें अपामार्ग, बँगलामें अपांग, मरहटीमें अवाड़ी और गुजरातो अधेड़ो कहते हैं। इसके दो भेद हैं-(१) सनद, और (२) लाल । यह जंगल में अपने-आप पैदा हो जाता है । बड़े कामकी चीज़ है । __ (२६) पाढ़की जड़को पीसकर योनि पर लेप करने या योनिमें रखनेसे बच्चा सुखसे हो जाता है। ___ नोट-पाढ़ और पाठ, हिन्दी नाम हैं। संस्कृतमें पाठा, बँगलामें आकनादि और मरहटीमें पहाड़मूल कहते हैं । (३०) अड़ सेकी जड़को पीसकर योनिपर लेप करने या योनिमें रखनेसे बालक सुखसे होता है । नोट-हिन्दीमें अड़ सा, वासा और बिसोंटा; बँगलामें बासक, मरहटीमें अड़ सा और गुजरातोमें अरड़ सो कहते हैं । दवाके काममें अडू सेके पत्ते और 'फूल आते हैं । मात्रा ४ माशेकी है। ___ (३१) शालिपर्णीकी जड़को चाँवलोंके पानीमें पीसकर नाभि, पेड़ और भग पर लेप करनेसे स्त्री बच्चा सुखसे जनती है । नोट-हिन्दीमें सरिवन, संस्कृतमें शालिपर्णी, बंगलामें शालपानि, मरहटीमें सालवण और गुजरातीमें समेरवो कहते हैं। (३२ ) पाढ़के पत्तोंको स्त्री के दूधमें पीसकर पीनेसे मूढगर्भकी व्यथासे स्त्री शीघ्र ही निवृत्त हो जाती है। यानी अड़ा हुआ बच्चा निकल आता है। नोट-पाढ़के लिये पिछला नं० २६ का नोट देखिये । (३३) उत्तर दिशामें पैदा हुई ईखकी जड़ उखाड़कर, स्त्रीके बराबर डोरेमें बाँधकर, कमरमें बाँध देनेसे सुखसे बच्चा होता है । (३४) उत्तर दिशामें उत्पन्न हुए ताड़के वृक्षकी जड़को कमरमें बाँधनेसे बच्चा सुखसे पैदा होता है। बच्चा जननेवालीको पीड़ा नहीं होती। (३५) गायके मस्तककी हड्डीको जच्चाके घरकी छतपर रखनेसे स्त्री तत्काल सुख-पूर्वक बच्चा जनती है। For Private and Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रसव-विलम्ब-चिकित्सा। ४८१ __नोट-मरी गायका सूखा मस्तक, जिसमें केवल हड्डी ही रह गई हो, लेना चाहिये। (३६) कड़वी तूम्बी, साँपकी कैंचली, कड़वी तोरई और सरसों-इनको कड़वे तेलमें मिलाकर, इनकी धूनी योनिमें देनेसे अपरा अर्थात् जेर गिर जाती है। (३७) प्रसूताकी कमरमें भोजपत्र और गूगलकी धूनी देनेसे जेर गिर जाती और पीड़ा तत्काल नष्ट हो जाती है । (३८) बालोंको उँगलीमें बाँधकर कण्ठ या मैं हमें घिसनेसे जेर आदि गिर जाती है। (३६) कलिहारीकी जड़ पीसकर हाथ या पाँवोंपर लेप करनेसे जेर आदि गिर जाती है। (४०) कूट, शालि धानकी जड़ और गोमूत्र,-इनको एकत्र मिलाकर पीनेसे निश्चय ही जेर आदि गिर जाते हैं । (४१) सरिवन, नागदौन और चीतेकी जड़ - इनको बराबरबराबर लेकर पीस लो । इसमें से ३ माशे चूर्ण गर्भिणीको खिलानेसे शीघ्र ही बच्चा होता और प्रसवमें पीड़ा नहीं होती। नोट--नागदौन-नागदमन और बरियारा हिन्दी नाम हैं। संस्कृतमें नागदमनी, बँगलामें नागदना, मरहठीमें नागदाण और गुजरातीमें झोपटो कहते हैं। (४२) मैनफलकी धूनी योनिके चारों ओर देनेसे सुखसे बच्चा हो जाता है। ( ४३ ) कलिहारीकी जड़ डोरेमें बाँधकर हाथमें बाँधनेसे सुखसे बच्चा हो जाता है। (४४) हुलहुलकी जड़ डोरेमें बाँधकर हाथ या सिरमें बाँधनेसे शीघ्र ही बालक हो जाता है । परीक्षित है । नोट--सूरजमुखीकी जड़को ही हुलहुल कहते हैं। अगरेज़ीमें उसे सनफ्लावर (Sun flower) कहते हैं। (४५) पोईकी जड़को सिलपर जलके साथ पीसकर, उसमें ६१ For Private and Personal Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । . तिलका तेल मिलाकर, उसे योनिके भीतर रखने या लेप करनेसे स्त्री सुखसे बच्चा जनती है। (४६) कलिहारीकी गाँठ पानीमें पीसकर अपने हाथपर लेप कर लो। जिस स्त्रीको बच्चा जननेमें कष्ट हो, उसके हाथको अपने लेप लगे हुए हाथसे छूओ अथवा उस गाँठमें धागा पिरोकर स्त्रीके हाथ या पैरमें बाँध दो। इस उपायसे बालक सुखसे हो जाता है । परीक्षित है। (४७ ) केलेकी गाँठ कमरमें बाँधो। इसके बाँधनेसे फौरन बच्चा होगा। ज्योंही बच्चा और जेर निकल चुके, गाँठको खोलकर फेंक दो। परीक्षित है। . (४८) गेहूँकी सेमई पानीमें उबालो । फिर कपड़ेमें छानकर पानी निकाल लो। आध सेर सेमईके पानीमें आध पाव ताज़ा घी मिला लो। इसमेंसे थोड़ा-थोड़ा पानी स्त्रीको पिलाओ । ज्योंही पेट दुखना शुरू हो, यह पानी देना बन्द कर दो। जल्दी और सुखसे बच्चा जनानेको यह उपाय उत्तम और परीक्षित है। (४६) कड़वे नीमकी जड़ स्त्रीकी कमरमें बाँधनेसे तुरन्त बच्चा हो जाता है। बच्चा हो चुकते ही जड़को खोलकर फेंक दो। परीक्षित है। ___ (५०) काकमाचीकी जड़ कमरमें बाँधनेसे सहजमें बालक हो जाता है। परीक्षित है। ( ५१ ) कसौंदीकी पत्तियोंका रस स्त्रीको पिलानेसे सुखसे बालक हो जाता है । परीक्षित है। नोट-संस्कृतमें कासमर्द और हिन्दीमें कसौदी कहते हैं । इसके पत्तोंका रस कानमें डालनेसे कानमें घुसा हुअा डाँस या मच्छर मर जाता है। (५२) तूम्बीकी पत्ती और लोध-इनको बराबर-बराबर लेकर, पीस लो और योनिपर लेप कर दो। इससे शीघ्र ही बालक हो जाता है । परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--प्रसव-विलम्ब-चिकित्सा। ४८३ नोट-साथही बिजौरेकी जड़ और मुलहटीको पीसकर, शहद और घीमें मिलाकर स्त्रीको पिला दो । इन दोनों उपायोंके करने पर भी क्या बच्चा जननेवाली को कष्ट होगा ? इसे खिलायो और शालिपीकी जड़को चाँवलोंके पानी में पीसकर स्त्रीकी नाभि, पेड़ और योनिपर लेप कर दो। ये नुसखे कभी फेल नहीं होते । ( ५३ ) सुधा, इन्दु और समुद्र - इन तीन नामोंको जोरसे सुनानेसे गर्भ जल्दी ही स्थान छोड़ देता है। (५४) ताड़की जड़, मैनफलकी जड़ और चीतेकी जड़--इनके सेवन करनेसे मरा हुआ और जीता हुआ गर्भ आसानीसे निकल आता है । चक्रदत्त । ___ (५५) “एरंडस्य बनेः ? काको गंगातीरमुपागतः इतः पिबति पानीयं विशल्या गर्भिणी भवेत् ।” इस मन्त्रसे सात बार पानीको मतरकर पिलानेसे गर्भिणीका शल्य नष्ट हो जाता है, यानी बच्चा सुखसे हो जाता है । चक्रदत्त । ___ (५६) “मुक्ताः पाशा विपाशाश्च मुक्ताः सूर्येण रश्मयः । मुक्ताः सर्व भयाद्गर्भ एह येहि मारिच स्वाहा।” इस च्यवन मन्त्रसे मतरे हुए पानीको पीनेसे स्त्री सुखसे बच्चा जनती है । चक्रदत्त-बंगसेन । नोट--इन मन्त्रोंसे मतरा हुअा जल पिलाया जाय और कड़वी तूम्बी, साँपकी काँचली, कड़वो तोरई और सरसोंको बराबर-बराबर लेकर और कड़वे तेलमें मिलाकर इनकी स्त्रीको योनिमें धूनी दी जाय तो सुखसे बालक होने में क्या शक है ? यह नुसखा जीते और मरे गर्भके निकालने में रामवाण है । परीक्षित है। (५७) तीसका मन्त्र लिखकर, मिट्टीके शकोरेमें रखकर और धूप देकर बच्चा जननेवालीको दिखानेसे सुखसे बालक होता है। यह बात वैद्यरत्न और बंगसेन आदि अनेक ग्रन्थों में लिखी है। ____ नोट--तीसका मन्त्र हमारी लिखी “स्वास्थ्यरक्षा” में मौजूद है। ... (५८) चोंटली यानी चिरमिटीकी जड़के सात टुकड़े और उसीके सात पत्ते कमरमें बाँधनेसे स्त्री सुखसे बच्चा जनती है। For Private and Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । ( ५६ ) पाढ़ और चिरचिरेकी जड़ दोनोंको जलमें पीसकर, योनिमें लेप कर देनेसे तत्काल बच्चा होता है। ___(६० ) हाथ-पैरके नाखूनों और नाभिपर, सेहुँड़के दूधका लेप करनेसे स्त्री फौरन ही बच्चा जनती है । (६१) फालसेकी जड़ और शालिपीकी जड़को पीसकर योनिपर लेप करनेसे मूढगर्भवती स्त्री भी सुखसे बच्चा जनती है। (६२ ) कूट और तालीसपत्रको पानीके साथ पीसकर, कुल्थीके काढ़ेके साथ पिलानेसे सुखसे बच्चा होता है । (६३) बाँसकी जड़ कमरपर बाँधनेसे निश्चय ही सुखसे बालक होता है। (६४) घरके पानी में घरका धूआँ पीनेसे गर्भ जल्दी निकलता है। * मरा हुआ बच्चा निकालने और गर्भ गिरानेके उपाय । गर्भ गिराना पाप है। o में गिराना या हमल इस्कात करना ईश्वर और राजा-- ग दोनोंके सामने महा पाप है । अगर राजा जान पाता है, Foo तो भारी दण्ड देता है और यदि राजाकी नजरोंसे मनुष्य बच भी जाता है, तो ईश्वरकी नज़रोंसे तो बच ही नहीं सकता। हमारी स्मृतियों में लिखा है, भ्रूणहत्या करनेवालेको लाखों-करोड़ों बरसों तक रौरव नरकमें रहना होता है। यहाँ यम-दूत अपराधीको घोर-घोर कष्ट देते हैं। अतः For Private and Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री रोगोंकी चिकित्सा-गर्भ गिरानेके उपाय । ४८५ ईश्वरसे डरनेवालोंको न तो व्यभिचार करना चाहिये और न गर्भ गिराना चाहिये । एक पाप तो व्यभिचार है और दूसरा गर्भ गिराना । व्यभिचारसे गर्भ गिराना हजारों-लाखों गुना बढ़कर पाप है, क्योंकि इससे एक निर्दोष प्राणीकी हत्या होती है । अगर किसी तरह व्यभिचार हो ही जाय, तो भी गर्भको तो भूलकर भी न गिराना चाहिये । जरा-सी लोक-लज्जाके लिये इतना बड़ा पाप कमाना महामूर्खता है । दुनिया निन्दा करेगी, बुरा कहेगी, पर ईश्वरके सामने तो अपराधी न होना पड़ेगा। हम हिन्दुओं में पाँच-पाँच या सात-सात और ज़ियादा-से-ज़ियादा नौ-दश बरसकी उम्र में कन्याओंकी शादी कर दी जाती है। इससे करोड़ों लड़कियाँ छोटी उम्रमें ही विधवा हो जाती हैं। वे जानती भी नहीं, कि पुरुष-सुख क्या होता है । जब उनको जवानीका जोश आता है, कामदेव जोर करता है, तब वे व्यभिचार करने लगती हैं। पुरुषसंग करनेसे गर्भ रह जाता है। उस दशामें वह गर्भ गिरानेमें ही अपनी भलाई समझती हैं। अनेक स्त्री-पुरुष पकड़े जाकर सजा पाते हैं, अनेक दे-लेकर बच जाते हैं और अनेकोंका पुलिसको पता ही नहीं लगता। हमारी रायमें, अगर विधवाओंका पुनर्विवाह कर दिया जाय, तो यह हत्याएँ तो न हों। आर्यसमाजी विधवा-विवाहपर जोर देते हैं, तो सनातनी हिन्दू उनकी मसखरी करते और विधवा-विवाहको घोर पाप बतलाते हैं । पर उन्हें यह नहीं सूझता कि अगर विधवा-विवाह पाप है, तो भ्रणहत्या कितना बड़ा पाप है । भ्रूण-हत्या और व्यभिचार उन्हें पसन्द है, पर विधवा-विवाह पसन्द नहीं !! जो स्त्रियाँ विधवा-विवाहके नामसे कानोंपर उँगली धरती हैं, इसका नाम लेना भी पाप समझती हैं, वे ही घोर व्यभिचार करती हैं। ऐसी घटनाएँ हमने आँखोंसे देखी हैं। हमारी ५० सालकी उम्रमें, हमने इस बातकी बारीकीसे जाँच की, For Private and Personal Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । तो हमें यही मालूम हुआ कि हिन्दुओंकी सौ विधवाओंमेंसे नव्वे व्यभिचार करती हैं, पर ८० फीसदीमें तो हमें जरा भी शक नहीं। हम कट्टर सनातन धर्मी और कृष्णक भक्त हैं, आर्यसमाजी नहीं; पर विधवा-विवाहके मामलेमें हम उनसे पूर्णतया सहमत हैं। हमने हर पहलूसे विचार करके एवं धर्मशास्त्रका अनुशीलन और अध्ययन करके ही अपनी यह राय स्थिर की है। हमने कितनी ही विधवाओंसे विधवा-विवाहपर उनकी राय भी ली, तो उन्होंने यही कहा, कि मर्द आप तो चार-चार विवाह करते हैं, पर स्त्रियाँ अगर अक्षतयोनि भी हों, तो उनका पुनर्विवाह नहीं करते। यह उनका घोर अन्याय है। काम-वेगको रोकना महा कठिन है। अगर ऐसी विधवाएँ व्यभिचार करें तो दोष-भागी हो नहीं सकती; हिन्दुओंको अब लकीरका फ़कीर न होना चाहिये। विधवा-विवाह जारी करके हजारों पाप और कन्याओंके श्रापसे बचना चाहिये । विधवा-विवाह न होनेसे हमारी हजारों-लाखों विधवा बहन-बेटियाँ मुसलमानी हो गई। हम व्यभिचार पसन्द करें, भ्रूण-हत्याको बुरा न समझे, अपनी स्त्रियोंको मुसलमानी बनते देख सकें; पर रोती-विलपती विधवाओंका दूसरा विवाह होना अच्छा न समझे; हमारी इस समझकी बलिहारी है। हमने नीचे गर्भ गिरानेके नुसखे इस ग़रज़से नहीं लिखे कि, व्यभिचारिणी विधवायें इन नुसखोंको सेवन करके गर्भ गिरावें; बल्कि नेक स्त्रियोंकी जीवन रक्षाके लिए लिखे हैं। गर्भ गिराना उचित है। हिकमत में लिखा है, नीचेकी हालतमें गर्भ गिराना उचित है: (१) गर्भिणी कम-उम्र और नाजुक हो एवं दर्द न सह सकती हो । बच्चा जननेसे उसकी जान जानेकी सम्भावना हो। . (२) गर्भ न गिरानेसे स्त्रीके भयानक रोगोंमें फँसनेकी सम्भावना हो। For Private and Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-गर्भ गिरानेके उपाय । ४८७ (३) बच्चा जननेके दर्द चार दिनों तक रहें, पर बालक न हो, तब समझना चाहिये कि बच्चा पेटमें मर गया। उस दशामें गर्भिणीकी जान बचानेके लिए फौरनसे पहले गर्भ गिरा देना चाहिये। अगर मरा हुआ बच्चा स्त्रीके पेटमें देर तक रहता है, तो उसे जहर चढ़ जाता और वह मर जाती है। पेटमें मरे और जीते बच्चेकी पहचान । अगर बालक पेटमें कड़ा पत्थर-सा हो जाय, गर्भिणी करवट बदले तो वह पत्थरकी तरह इधरसे उधर गिर जाय, गर्भिणीकी नाभि पहलेकी अपेक्षा शीतल हो जाय, छाती कमजोर हो जाय, आँखोंकी सफेदीमें स्याही आ जाय अथवा नाक, कान और सिर सफेद हो जाय, पर होंठ लाल रहें, तो समझो कि बच्चा मर गया। बहुत बार देखा है, जब पेटमें बच्चा मर जाता है, तब वह हिलता नहीं--पत्थर-सा रखा रहता है, स्त्रीके हाथ-पाँव शीतल हो जाते हैं और श्वास लगातार चलने लगता है । इस दशामें गर्भ गिराकर ही गर्भिणीकी जान बचायी जा सकती है। याद रखना चाहिये, जिस तरह मरे हुए बालकके देर तक पेटमें रहनेसे स्त्रीके मर जानेका डर है, उसी तरह बच्चेके चारों ओर रहनेवाली झिल्ली, जेरनाल या अपराके देर तक पेटमें रहने से भी स्त्रीके मरनेका भय है। - नोट-यद्यपि हमने "प्रसव-विलम्ब-चिकित्सा" और "गर्भ गिरानेवाले योग" अलग-अलग शीर्षक देकर लिखे हैं; पर इन दोनों शीर्षकोंमें लिखी हुई दवाएं एक ही हैं। दोनोंसे एक ही काम निकलता है । इनके सेवनसे बच्चा जल्दी होता तथा मरा बच्चा और झिल्ली या जेरनाल निकल आते हैं। ऐसे ही अवसरोंके लिए हमने गर्भ गिरानेवाले उपाय लिखे हैं । For Private and Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८ चिकित्सा चन्द्रोदय । A mren गर्भ गिरानेवाले नुसखे । (१) गाजरके बीज, तिल और चिरौंजी-इन तीनोंको गुड़के साथ खानेसे निश्चय ही गर्भ गिर जाता है । “वैद्यरत्न" में लिखा है गृञ्जनस्य च बीजानि तिलकारविक अपि । गुडेनभुक्तमेतत्तु गर्भ पातयति ध्रुवम् ॥ (२) सोंठ तीन माशे और लहसन पन्द्रह माशे दोनोंको पानीमें जोश देकर काढ़ा बना लो । इस नुसख्नेके तीन दिन पीनेसे गर्भ गिर पड़ता है। "वैद्य-वल्लभ"में लिखा है-- विश्वौषधात्पंचगुणं रसोनकमुत्काल्य नारी त्रिदिनं प्रपाययेत् । गर्भस्यपातः प्रभवेत्सुखेन योगोऽयमाद्यः कविहस्तिनामतः ॥ (३) पीपर, पीपलामूल, कटेरी, निर्गुण्डी और फरफेंदू-इनको बराबर-बराबर पाँच-पाँच या छै-छै माशे लेकर कुचल लो और हाँडी में पाव-सवापाव जल डालकर काढ़ा बना लो । चौथाई जल रहनेपर उतारकर छान लो और पीओ । इस नुसनेसे गर्भ गिर जाता है। नोट--फरफंदूका दूसरा नाम इन्द्रायण है। (४) चिरमिटीका चार तोले चूर्ण जलके साथ तीन दिन पीनेसे गर्भ गिर जाता है। (५) अलसीके तेलको औटाकर, उसमें पुराना गुड़ मिला दो और स्त्रीको पिलाओ। इस नुसखेसे ३।४ दिनमें या जल्दी ही गर्भ गिर जाता है। (६) चार तोले अलसीके तेल में 'गूगल" मिलाकर औटा लो और स्त्रीको पिलाओ। इस नुसनेसे गर्भ अवश्य गिर जायगा। (७) इन्द्रायणकी जड़ योनिमें रखनेसे गर्भ गिर जाता है । (८) इन्द्रायणकी जड़की बत्ती बनाकर योनिमें रखनेसे भी गर्भ गिर जाता है। For Private and Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--गर्भ गिराने के उपाय। ४८६. (E) फिटकरी और बाँसकी छाल--इन दोनोंको औटाकर काढ़ा करलो । फिर इसमेंसे ३२ माशे काढ़ा नित्य सात दिन तक पीनेसे गर्भ गिर जाता है। (१०) हज़ार-इस्पन्दके बीज खाने और बिलसाँके तेलमें कपड़ा भिगोकर योनिमें रखनेसे गर्भ गिर जाता है। (११) हकीम लोग कहते हैं, अगर गर्भिणी बखुरमरियमपर पाँव रख दे, तो गर्भ गिर जाय । (१२) इन्द्रायणके पत्तोंका स्वरस निकालकर, गर्भाशयमें पिचकारी देनेसे और इसी स्वरसमें एक ऊनका टुकड़ा भिगोकर योनिमें रखनेसे गर्भ गिर जाता है । परीक्षित है । (१३ ) गावजुबाँकी जड़का स्वरस पिचकारी द्वारा गर्भाशयमें पहुँचाने या इसी स्वरसमें कपड़ेकी बत्ती भिगोकर गर्भाशयमें रखनेसे गर्भ गिर जाता है। (१४) दश माशे चूका-घास सिलपर पीसकर खानेसे फौरन ही गर्भ गिरता है। (१५) साढे दश माशे हींग और साढ़े दश माशे सूखी तुलसीइन दोनोंको मिलाकर, सवेरे-शाम, "देवदारु" के काढ़ेके साथ पीनेसे फौरन गर्भ गिरता है । यह एक खूराक दवा है। (१६) नौसादर ३५ माशे और छरीला १०॥ माशे लाकर रख लो। पहले छरीलेको पीसकर बहुत थोड़े पानीमें घोल दो। ___ इसके बाद नौसादरको महीन पीसकर छरीलेके पानीमें मिला दो और छुहारेकी गुठली-समान बत्ती बनाओ। इस बत्तीको सारी रात गर्भाशयके में हमें रखो और दोनों जाँघोंको एक तकियेपर रखकर सो जाओ । इस उपायसे गर्भ गिर जायगा। __ (१७ ) साँपकी काँचलीकी धूनी योनिमें देनेसे गर्भ गिर जाता है । काले साँपकी काँचली अधिक गुणकारी है। For Private and Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "४६० चिकित्सा-चन्द्रोदय ।। (१८) अगर स्त्री गरम मिज़ाजवाली हो और गर्भ गिराना हो, तो ३३।। माशे खतमी सिलपर पानीके साथ पीसकर, आध सेर जलमें मिला दो और उसे पिला दो। इस दवासे बालक फिसलकर निकल पड़ेगा। (१६) सत्तर माशे तिल कूटकर २४ घण्टों तक पानीमें भिगो रखो । सवेरे ही कपड़ेमें छानकर उस पानीको पीलो । इस नुसनेसे बालक फिसलकर निकल आवेगा। (२०) जङ्गली पोदीना, खगाली लकड़ी, तुर्की अगर, कड़वा कूट, तज, अजवायन, पोदीना, दोनों तरहके मरुवे, नाकरून घासके बीज, मेथी, पहाड़ी गन्दना, काली झाँप, ऊदबिलसाँ और तगरसबको बराबर-बराबर लेकर एक बड़े घड़ेमें औटाकर काढ़ा कर लो। फिर उस काढ़ेको एक टब या गहरे और चौड़े बर्तन में भर दो और उस काढ़ेमें स्त्रीको बिठा दो; गर्भ गिर जायगा। जब गर्भ गिर जाय, गूगल, जुफा, हुमुल, सातरा, अलेकुल-बतम और राई--इनमेंसे जो-जो चीज़ मिलें, उनको आगपर डाल-डालकर गर्भाशयको धूनी दो । इस उपायसे रज गिरता रहेगा-गाढ़ा न होने पावेगा। (२१) इन्द्रायणका गूदा, तुतलीके पत्ते और कूट--इनको सातसात माशे लेकर, महीन पीस लो और बैल के पित्तमें मिलाकर नाभिसे पेड़ और योनि तक इसका लेप करदो, गर्भ गिर जायगा। (२२) इन्द्रायणके स्वरसमें रूईका फाहा भिगोकर योनिमें रखनेसे गर्भ गिर जाता है। ___ (२३) कड़वे तेल में साबुन मिलाकर, उसमें रूईका फाहा भिगोकर, गर्भाशयके मुंह में रखने से गर्भ गिर जाता है । ___ (२४) कड़वी तोरई बीजों समेत पानीके साथ सिलपर पीसकर, नाभिसे योनि तक लेप करने और इसीमें एक रूईका फाहा भिगोकर गर्भाशय में रखनेसे गर्भ गिर जाता है । For Private and Personal Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--गर्भ गिरानेके उपाय । ४६१ .... (२५) मुरमकी गुड़में लपेटकर खाने और परवल पीसकर शाफा करनेसे गर्भ गिर जाता है। - (२६) बथुएके बीज १॥ तोले लाकर, आध सेर पानीमें डालकर काढ़ा बनाओ । जब आधा पानी रह जाय, उतारकर कपड़ेमें छान लो और पिलाओ। इस नुसखेसे अवश्य गर्भ गिर जाता है। बहुत उत्तम नुसखा है। (२७) साढ़े चार माशे अश्नान पीस-क्रूट और छानकर फाँकनेसे गर्भ गिर जाता है। ___ (२८ ) सहँजनेकी छाल और पुराना गुड़--इनको औटाकर पीनेसे गर्भ गिर जाता और जेरनाल या झिल्ली आदि निकल आते हैं। (२६) जङ्गली कबूतरकी बीट और गाजरके बीज बराबरबराबर लेकर, आगपर डाल-डालकर, योनिको धूनी देनेसे गर्भ गिर जाता है। ___ (३०) ऊँटकटारेकी जड़ पानीके साथ सिलपर पीसकर पेटपर लेप करनेसे गर्भ गिर जाता है। (३१) गुड़हल के फूल जलके साथ पीसकर, नाभिके चारों तरफ लेप करनेसे गर्भ गिर जाता है। ___ (३२) गन्धक, मुरमकी, हींग और गूगल, इन चारोंको महीन पीसकर, आगपर डाल-डालकर गर्भाशयको धूनी देनेसे गर्भ गिर जाता है। अगर इनमें बैलका पित्ता भी मिला दिया जाय, तब तो कहना ही क्या ? (३३) घोड़ेकी लीद योनिके सामने जलाने या धूनी देनेसे जीते हुए और मरे हुए बच्चे फौरन निकल आते हैं। (३४) अनारकी छालकी धूनी योनिमें देनेसे गर्भ गिर जाता है। (३५) निहार मुँह या खाली कलेजे दश माशे शोरा खानेसे गर्भ गिर जाता है। For Private and Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६२ चिकित्सा-चन्द्रोदयः। (३६) अरण्डकी नरम टहनीको रेंडीके तेलमें भिगोकर गर्भाशयके मुखमें रखनेसे गर्भ गिर जाता है । (३७ ) गधे के खुर और उसीके गूकी गर्भाशयको धूनी देनेसे गर्भ गिर जाता है। ___ (३८) मेथी हल्दी और फिटकरी बीस-बीस माशे, तूतिया दस माशे और भड़y जेके छप्परका धूआँ दस माशे-इन सबको पानीके साथ पीसो और बत्ती बना लो। पहले गर्भाशयके नर्म करनेको' उसमें घी और पोदीनेकी पट्टी रखो। इसके बाद सवेरे-शाम ऊपरकी बत्ती गर्भाशयके मुखमे रख दो; गर्भ गिर जायगा। ___ जब गर्भ गिर जाय, घीमें फाहा भिगोकर गर्भाशयमें रख दो। इससे पीड़ा नष्ट हो जायगी। साथ ही गोखरू ६ माशे, खरबूजेके बीज १ तोले और सौंफ १ तोलेको औटाकर छान लो और मिश्री मिलाकर स्त्रीको पिला दो। इसके सिवा और कुछ भी खानेको मत दो । पानीके बदलेमें, कपासकी हरी, काली और बाँसकी हरी गाँठ प्रत्येक अस्सी-अस्सी माशे लेकर पानीमें औटा लो और इसी पानीको पिलाते रहो । जिस स्त्रीके पेटसे मरा हुआ बच्चा निकलता है, उसे यही पानी पिलाते हैं और खानेको कई दिन तक कुछ नहीं देते। कहते हैं, इस जलके पीनेसे जहर नहीं चढ़ता। ( ३६ ) गाजरके बीज, मेथीके बीज और सोयेके बीज--तीनों छब्बीस-छब्बीस माशे लेकर, दो सेर पानीमें औटाओ। जब आधा पानी रह जाय, उतारकर मल-छान लो । इस नुसनेके कई दिन पीनेसे गर्भ गिर जाता है। (४०) एलुआ, विषखपरेकी जड़, तूतिया, खिरनीके बीज और महुएके बीज,-बराबर-बराबर लेकर कूट-पीस लो। फिर पानीके साथ सिलपर पीसकर बत्ती बना लो और उसे गर्भाशयमें रखो। For Private and Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-मूढगर्भ-चिकित्सा । ४६३ इस तरह सवेरे-शाम कई दिन तक ताजा बत्ती रखनेसे गर्भ गिर जाता है । परीक्षित है। (४१) अरण्डकी कली २० माशे, एलुआ ४ माशे और खिरनीके बीजोंकी गिरी ४ माशे-इन सबको पानीके साथ महीन पीसकर बत्ती बना लो और गर्भाशयमें रखो । सवेरे-शाम ताजा बत्ती रखनेसे १३ दिनमें गर्भ गिर जाता है। (४२) अखरोटकी छाल, बिनौलेकी गिरी, मूलीके बीज, गाजरके बीज, सोयेक बीज और कलौंजी-इनको बराबर-बराबर लेकर जौकुट कर लो। फिर इनके वज़नसे दूना पुराना गुड़ ले लो । सबको मिलाकर हाँडीमें पानीके साथ औटा लो। जब तीसरा भाग पानी रह जाय, उतारकर पी लो । इस नुसनेसे गर्भ गिर जाता है । परीक्षित है। मूढगर्भ-चिकित्सा। 630 (ceo S.GXGXC मूढगर्भके लक्षण । जो गर्भ योनिके मुंहपर आकर अड़ जाता है, उसे 'मूढगर्भ" is कहते हैं । "भावप्रकाश"में लिखा है: मूढः करोति पवनः खलु मूढगर्भम् । शूलंच योनि जठरादिषु मूत्रसंगम् ॥ अपने कारणोंसे कुपित हुई--कुण्ठित चालवाली वायु, गर्भाशयमें जाकर, गर्भकी गति या चालको रोक देती है, साथ ही योनि और पेटमें शूल चलाती और पेशाबको बन्द कर देती है। खुलासा यह कि, वायुके कुपित होनेकी वजहसे गर्भ योनिके For Private and Personal Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । मुँहपर आकर अड़ जाता है, न वह भीतर रहता है और न बाहर, इससे जननेवाली स्त्रीकी ज़िन्दगी खतरेमें पड़ जाती है। कोई कहते हैं, वह गर्भ चार प्रकारसे योनिमें आकर अड़ जाता है और कोई कहते हैं, वह आठ प्रकारसे अड़ जाता है। पर यह बात ठीक नहीं, वह अनेक तरहसे योनिमें आकर अड़ जाता है। __ मूढ गर्भकी चार प्रकारकी गतियाँ । (१) जिसके हाथ, पाँव और मस्तक योनिमें आकर अटक जाते हैं वह मूढगर्भ कीलके समान होता है, इसलिये उसे "कीलक" कहते हैं। (२) जिसके दोनों हाथ और दोनों पाँव बाहर निकल आते हैं और बाक़ी शरीर योनिमें अटका रहता है, उसे "प्रतिखुर" कहते हैं। (३) जिसके दोनों हाथोंके बीचमें होकर सिर बाहर निकल आता है और बाक़ी शरीर योनिमें अटका रहता है, उसे "बीजक" कहते हैं। (४) जो दरवाजेकी आगलकी तरह, योनि-द्वारपर आकर अटक जाता है, उसे "परिघ” कहते हैं । मूढगर्भकी पाठ गति। (१) कोई मूढगर्भ सिरसे योनि-द्वारको रोक लेता है। (२) कोई मूढगर्भ पेटसे योनि-द्वारको रोक लेता है। (३) कोई कुबड़ा होकर, पीठसे योनि-द्वारको रोक लेता है। (४) किसीका एक हाथ बाहर निकल आता और बाकी शरीर योनि-द्वारमें अटका रहता है। (५) किसीके दोनों हाथ बाहर निकल आते हैं, बाकी सारा शरीर योनि-द्वारमें अड़ जाता है । For Private and Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-मूढगर्भ-चिकित्सा। ४६५ (६) कोई मूढ़-गर्भ आड़ा होकर योनि-द्वारमें अड़ा रहता है। (७) कोई गर्दनके टूट जानेसे, ति मुंह करके योनि-द्वारको रोक लेता है। (८) कोई मूढ गर्भ पसलियोंको फिराकर योनि-द्वारमें अटका रहता है। सुश्रुतके मतसे मूढ़ गर्भकी आठ गति । (१) कोई मूढ़ गर्भ दोनों साथलोंसे योनिके मुख में आता है । (२) कोई मूढ गर्भ एक साथल-जाँघसे कुबड़ा होकर दूसरी साथलसे योनिके मुं हमें आता है। (३) कोई मूढ़ गर्भ शरीर और साथलको कुबड़े करके कूलोंसे आड़ा होकर, योनि-द्वारपर आता है। (४) कोई मूढ गर्भ अपनी छाती, पसली और पीठ इनमेंसे किसी एकसे योनि-द्वारको ढककर अटक जाता है। - (५) कोई मूढगर्भ पसलियों और मस्तकको अड़ाकर एक हाथसे योनि-द्वारको रोक लेता है। (६) कोई मूढ़ गर्भ अपने सिरको मोड़कर दोनों हाथोंसे योनिद्वारको रोक लेता है। (७) कोई मूढ़ गर्भ अपनी कमरको टेढ़ी करके, हाथ, पाँव और मस्तकसे योनि-द्वार में आता है। (८ ) कोई मूढ़ गर्भ एक साथलसे योनि-द्वारमें आता और दूसरीसे गुदामें जाता है। असाध्य मूढ़ गर्भ और गर्भिणीके लक्षण । जिस गर्भिणीका सिर गिरा जाता हो, जो अपने सिरको ऊपर न उठा सकती हो, शरीर शीतल हो गया हो, लज्जा न रही हो, For Private and Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - ४६६ . चिकित्सा-चन्द्रोदय । कोखमें नीली-नीली नसें दीखती हों, वह गर्भको नष्ट कर देती है और गर्भ उसे नष्ट कर देता है। मृतगर्भके लक्षण । मूढ़ गर्भकी दशामें बच्चा जीता भी होता है और मर भी जाता है। अगर मर जाता है, तो नीचे लिखे हुए लक्षण देखे जाते हैं: (१) गर्भ न तो फड़कता है और न हिलता-जुलता है । (२) जननेके समयके दर्द नहीं चलते। (३) शरीरका रंग स्याही-माइल-पीला हो जाता है। (४) श्वासमें बदबू आती है। (५) मरे हुए बच्चे के सूज जानेके कारण शूल चलता है । नोट-बंगसेनने पेटपर सूजन होना और भावमिश्रने शूल चलना लिखा है। तिब्बे अकबरीमें लिखा है, अगर पेटमें गति न जान पड़े, बच्चा हिलता-डोलता न मालूम पड़े, पत्थर-सा एक जगह रखा रहे, स्त्रीके हाथ-पाँव शीतल हो गये हों और साँस लगातार पाता हो, तो बालकको मरा हुआ समझो । पेटमें बच्चेके मरने के कारण । गर्भके पेट में मर जानेके यों तो बहुतसे कारण हैं, पर शास्त्रमें तीन कारण लिखे हैं:(१) आगन्तुक दुःख । (२) मानसिक दुःख । __(३) रोगोंका दुःख । खुलासा यह है कि, महतारीके प्रहार या चोट आदि आगन्तुक कारणोंसे और शोक-वियोग आदि मानसिक दुःखोंसे तथा रोगोंसे पीड़ित होनेके कारण गर्भ पेटमें ही मर जाता है। बहुतसे अज्ञानी सातवें, आठवें और नवें महीनोंमें या बच्चा होनेके दो-चार दिन For Private and Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्रीरोगोंकी चिकित्सा-मूढगर्म-चिकित्सा । ४६७ पहले तक मैथुन करते हैं। मैथुनके समय किसी बातका ध्यान तो रहता नहीं, इससे बालकको चोट लग जाती और वह मर जाता है। इसी तरह और किसी वजहसे चोट लगने या किसी इष्ट-मित्र या प्यारे नातेदारके मर जाने अथवा धन या सर्वस्व नाश हो जानेसे गर्भवतीके दिलपर चोट लगती है और इसके असरसे पेटका बच्चा मर जाता है। इसी तरह शरीरमें रोग होनेसे भी बच्चा पेटमें ही मर जाता है । पेटमें बच्चे के मर जानेसे, उसका बाहर निकलना कठिन हो जाता है और स्त्रीकी जानपर आ जाती है। ___ और ग्रन्थों में लिखा है- अगर गर्भवती स्त्री वातकारक अन्नपान सेवन करती है एवं मैथुन और जागरण करती है, तो उसके योनिमार्गमें रहनेवाली वायु कुपित होकर, ऊपरको चढ़ती और योनि-द्वारको बन्द कर देती है। फिर भीतर रहनेवाली वायु गर्भगत बालकको पीड़ित करके गर्भाशयके द्वारको रोक देती है, इससे पेटका बच्चा अपने मुंहका साँस रुक जानेसे तत्काल मर जाता है और हृदयके ऊपरसे चलता हुआ साँस-गर्भिणीको मार देता है । इसी रोगको “योनि-संवरण" रोग कहते हैं। नोट-बादी पदार्थ खाने-पीने, रातमें जागने और गर्भावस्थामें मैथुन करनेसे योनि-मार्ग और गर्भाशयका वायु कुपित होकर 'योनि-संवरण' रोग करता है। इसका नतीजा यह होता है कि, पेटका बच्चा और माँ दोनों प्राणोंसे हाथ धो बैठते हैं, अतः गर्भवती स्त्रियोंको इन कारणोंसे बचना चाहिये । गर्भिणीके और असाध्य लक्षण । जिस गर्भिणीको योनि-संवरण रोग हो जाता है-जिसकी योनि सुकड़ जाती है, गर्भ योनि-द्वारपर अटक जाता है, कोखमें वायु भर जाता है, खाँसी-श्वास उपद्रव पैदा हो जाते हैं-अथवा मकल शूल उठ खड़ा होता है, वह गर्भिणी मर जाती है । ____ नोट-यद्यपि प्रसूता स्त्रियोंको मक्कलशूल होता है, गर्भिणी स्त्रियोंको नहीं, तो भी सुश्रु तके मतसे जिसके बच्चा न हुआ हो, उसको भी मक्कल-शूल होता है । ६३ For Private and Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । मूढगर्भ-चिकित्सा। मूढगर्भ निकालनेकी तरकीबें । "सुश्रुत"में लिखा है, मूढगर्भका शल्य निकलनेका काम जैसा कठिन है वैसा और नहीं है, क्योंकि इसमें योनि, यकृत, प्लीहा, आँतोंके विवर और गर्भाशय इन स्थानोंको टोह-टोह या जाँच-जाँचकर वैद्यको अपना काम करना पड़ता है । भीतर-ही-भीतर गर्भको उकसाना, नीचे सरकाना, एक स्थानसे दूसरे स्थानपर करना, उखाड़ना, छेदना, काटना, दबाना और सीधा करना-ये सब काम एक हाथसे ही करने पड़ते हैं। इस कामको करते-करते गर्भगत बालक और गर्भिणीकी मृत्यु हो जाना सम्भव है । अतः मूढगर्भको निकालनेसे पहले वैद्यको देशके राजा अथवा स्त्रीके पतिसे पूछ और सुनकर इस काममें हाथ लगाना चाहिये। इसमें बड़ी बुद्धिमानी और चतुराईकी ज़रूरत है। ज़रा भी चूकनेसे बालक या माता अथवा दोनों मर सकते हैं। इसीसे "बंगसेन" में लिखा है:-- गर्भस्य गतयश्चित्रा जायन्तेऽनिलकोपतः ।। तत्राऽनल्पमतिवैद्यो वर्तेत मतिपूर्वकम् ॥ वायुके कोपसे गर्भको अनेक प्रकारकी गति होती हैं। इस मौकेपर वैद्यको खूब चतुराईसे काम करना चाहिये ।। याभिः संकटकालेऽपि बह व्यो नार्यः प्रसाविताः। सम्यग्लब्धं यशस्तास्तु नार्यः कुयु रिमां क्रियाम् ।। जिसने ऐसे संकट-कालमें भी अनेक स्त्रियोंको जनाया हो और इस काममें जिसका यश फैल रहा हो, ऐसी दाईको यह काम करना चाहिये। (१) अगर गर्भ जीता हो. तो दाईको अपने हाथमें घी लगाकर, योनिके भीतर हाथ डालकर, यत्नसे गर्भको बाहर निकाल लेना चाहिये। For Private and Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mon - स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-मूढगर्भ-चिकित्सा। ४६ (२) अगर मूढगर्भ मर गया हो, तो शस्त्रविधि या अस्त्रचिकित्साको जाननेवाली, हल्के हाथवाली, निर्भय दाई गर्भिणीकी योनिमें शस्त्र डाले। (३) अगर गर्भमें जान हो, तो उसे किसी हालतमें भी शस्त्रसे न काटना चाहिये । अगर जीवित गर्भ काटा जाता है, तो वह आप तो मरता ही है, साथ ही माँको भी मारता है । 'सुश्रुत में लिखा है:-- सचेतनं च शस्त्रेण न कथंचन दारयेत् । दीर्यमाणोहि जननीमात्मानं चैव घातयेत् ॥ अगर जीता हुआ बालक गर्भमें रुका हुआ हो, तो उसे किसी दशा में भी न काटना चाहिये । क्योंकि उसके काटनेसे गर्भवती और बालक दोनों मर जाते हैं। (४) अगर गर्भ मर गया हो, तो उसे तत्काल बिना विलम्ब शस्त्रसे काट डालना चाहिये । क्योंकि न काटने या देरसे काटनेसे मरा हुआ गर्भ माताको तत्काल मार देता है। "तिब्बे अकबरी"में भी लिखा है,-अगर बालक पेटमें मर जाय अथवा बालक तो निकल आवे, पर झिल्ली या जेर रह जाय, तो सुस्ती करना अच्छा नहीं। इन दोनोंके जल्दी न निकालनेसे मृत्युका भय है। (५) गर्भगत बालक जीता हो, तो उसे जीता ही निकालना चाहिये । अगर न निकल सके तो "सुश्रुत" में लिखे हुए “गर्भमोक्ष मन्त्र”से पानी मतरकर, बच्चा जननेवालीको पिलाना चाहिये। इस मन्त्रसे मतरा हुआ पानी इस मौकेपर अच्छा काम करता है, रुका हुआ गर्भ निकल आता है। वह मन्त्र यह है:-- मुक्ताः पोशविपाशाश्चमुक्ताः सूर्यण रश्मयः । मुक्तः सर्व भयाद्गर्भ एह्यहि माचिरं स्वाहा ॥ इस मन्त्रको “च्यवन मन्त्र" कहते हैं। इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित किये हुए जलके पीनेसे स्त्री सुखसे जनती है। For Private and Personal Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०० चिकित्सा-चन्द्रोदय । नोट-यह मन्त्र सुश्रुतमें है। उससे चक्रदत्त प्रभृति अनेक ग्रन्थकारोंने लिया है। मालूम होता है, यह मन्त्र काम देता है । हमने तो कभी परीक्षा नहीं की । हमारे पाठक इसकी परीक्षा अवश्य करें । (६) जहाँ तक हो, अटके हुए गर्भको ऊपरी उपायों यानी योनिमें धूनी देकर, कोई दवा गले या मस्तक प्रभृतिपर लगा या रखकर निकालें । हमने ऐसे अनेक उपाय “प्रसव-विलम्ब-चिकित्सा' में लिखे हैं । जब उनमेंसे कोई उपाय काम न दे, तब “अस्त्र-चिकित्सा"का आश्रय लेना ही उचित है । पर इस काममें देर करना हिंसा करना है। "वाग्भट्ट"में लिखा है,-अगर गर्भ अड़ जावे तो नीचे लिखे उपायोंसे काम लोः (क) काले साँपकी काँचलीकी योनिमें धूनीमें दो । (ख ) काली मूसलीकी जड़को हाथ या पैरमें बाँधो । (ग) ब्राह्मी और कलिहारीको धारण कराओ। (घ ) गर्भिणीके सिरपर थूहरका दूध लगाओ। (ङ) बालोंको अँगुलीमें बाँधकर, स्त्रीके तालू या कंठको घिसो। , (च) भोजपत्र, कलिहारी, तूम्बी, साँपकी काँचली, कूट और सरसों-इन सबको मिलाकर योनिमें इनकी धूनी दो और इन्हींको पीसकर योनिपर लेप करो। अगर इन उपायोंसे गर्भ न निकले और मन्त्र भी कुछ काम न दे, तब राजासे पूछकर और पतिसे मंजूरी लेकर गर्भको यत्नसे निकालो। सेमलके निर्यासमें घी मिलाकर हाथको चिकना करो और इसीको योनिमें भी लगाओ। इसके बाद, अगर गर्भ न निकलता दीखे, तो हाथसे निकाल लो। अगर हाथसे न निकल सके, तो मरे हुए गर्भ और शल्यतन्त्रको जाननेवाला वैद्य, साध्यासाध्यका विचार करके, धन्वन्तरिके मतसे, उस गर्भको शस्त्रसे काटकर निकाले । For Private and Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-मूढगर्भ-चिकित्सा। ५०१ .. अगर चोट वगैरः लगनेसे स्त्री मर जाय और उसकी कोखमें गर्भ फड़के, तो वैद्य स्त्रीको चीरकर बालकको निकाल ले। अगर स्त्री जीती हो और गर्भ न निकलता हो, तो वैद्य गर्भाशयको बचाकर और गर्भिणीकी रक्षा करके, एक साथ फुर्तीसे शस्त्र चलानेमें दक्ष वैद्य चतुराईसे काम करे। ऐसा वैद्य धन-धान्य, मित्र और यशका भागी होता है। ___ "सुश्रुत"में लिखा है, अगर बालक गर्भमें मर जाय, तो वैद्य उसे शीघ्र ही जैसे हो सके साबत ही निकाल ले। विद्वान् वैद्यको इसमें दो घड़ीकी भी देर करना उचित नहीं, क्योंकि गर्भ में मरा हुआ बालक शीघ्र ही माताको मार डालता है। वैद्यको अस्त्रसे काम लेते समय मंडलाय नामक यंत्रसे काम लेना चाहिये । क्योंकि इसकी नोक आगेसे तेज़ नहीं होती, पर वृद्धिपत्र यंत्रसे काम न ले, क्योंकि इस औजारकी नोक आगेसे तेज होती है। इससे गर्भवतीकी अाँतें आदि कटकर मर जानेका भय है। हाँ, इस चीर-फाड़के काममें वही हाथ लगावे, जिसे मनुष्य-शरीरके भीतरी अङ्गोंका पूरा ज्ञान हो । लिख आये हैं, कि जीता हुआ बालक गर्भ में रुका हो, तो उसे कदाचित भी शस्त्रसे न काटना चाहिये, क्योंकि जीते बालकको काटनेसे बालक और माँ दोनों मर जाते हैं। गर्भमें बालक मर गया हो, तो वैद्य स्त्रीको मीठी-मीठी हितकारी बातोंसे समझाकर, मंडलाग्र शस्त्र या अँगुली शस्त्रसे बालकका सिर विदारण करके, खोपड़ीको शंकुसे पकड़कर अथवा पेटको पकड़कर अथवा कोखसे पकड़कर बाहर खींच ले। अगर सिर छेदनेकी जरूरत न हो, यदि गर्भका सिर योनिके द्वारपर ही हो, तो उसकी कनपटी या गंडस्थलको पकड़कर उसे खींच ले । यदि कन्धे रुके हों, तो कन्धेके पाससे हाथोंको काटकर निकाल ले। अगर गर्भ For Private and Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । मशककी तरह आड़ा हो या पेट हवासे फूला हो, तो पेटको चीरकर, आँतें निकालकर, शिथिल हुए गर्भको बाहर खींच ले । जो कूले या साथल अटके हों, तो कूलोंको काटकर निकाल ले । ___ मरे हुए गर्भके जिस-जिस अङ्गको वैद्य मथे या छेदे या चीरे, उन्हें अच्छी तरहसे काट-काटकर बाहर निकाल ले। उनका कोई भी अंश भीतर न रहने दे। काटते और निकालते समय एवं पीछे भी चतुराईसे स्त्रीकी रक्षा करे। गर्भ निकल आवे, पर अपरा या जेर अथवा अोलनाल न निकले, तो उसे काले साँपकी काँचलीकी धूनी देकर या उधर लिखे हुए लेप वगैरः लगाकर निकाल ले। अगर इस तरह न निकले, तो हाथमें तेल लगाकर हाथसे निकाल ले । पसवाड़े मलनेसे भी जेर निकल आती है। ऐसे समयमें दाई स्त्रीको हिलावे, उसके कन्धों और पिंडलियोंको मले और योनिमें खूब तेल लगावे। - अपरा या अोलनाल न निकलनेसे हानि । बच्चा हो जानेपर अगर जेर या अम्बर न निकले, तो वह अम्बर दर्द चलाती, पेट फुलाती और अग्निको मन्दी करती है। जेर निकालनेकी तरकीबें । अँगुलीमें बाल बाँधकर, उससे कंठ घिसनेसे अम्बर गिर जाती है । साँपकी काँचली, कड़वी तूम्बी, कड़वी तोरई और सरसों - इन्हें एकत्र पीसकर और सरसोंके तेलमें मिलाकर, योनिके चारों ओर 'धूनी देनेसे अम्बर गिर जाती है । प्रसताके हाथ और पाँवके तलवोंपर कलिहारीकी जड़का कल्क लेप करनेसे जेर गिर जाती है। चतुर दाई अपने हाथकी अँगुलियोंके नख काटकर, हाथमें घी लगाकर, धीरे-धीरे हाथको योनिमें डालकर अम्बरको निकाल ले। जब मरा हुआ गर्भ और ओलनाल दोनों निकल आवें तब, For Private and Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्रीरोगोंकी चिकित्सा-मूढगर्भ-चिकित्सा। ५०३ दाई स्त्रीके शरीरपर गरम जल सींचे, शरीरपर तेलकी मालिश करे और योनिको भी घी या तेलसे चुपड़ दे। वक्तव्य। यहाँ तक हमने मूढगर्भ-सम्बन्धी साधारण बातें लिख दी हैं। यह विद्या-चीर-फाड़की विद्या-बिना गुरुके सामने सीखे आ नहीं सकती । यद्यपि "सुश्रत"में चीर-फाड़के औजारों और उनके चलानेकी तरकीबें विस्तारसे लिखी हैं । पहले के वैद्य ऐसे सब औज़ार रखते थे और चीर-फाड़का अभ्यास करते थे। पर आजकल, जबसे इस देशमें विदेशी राजा अगरेज़ आये, यह विद्या उड़ गई । डाक्टरोंने इस विद्यामें चरमकी उन्नति की है, अतः जिन्हें मूढगर्भको अस्त्र-चिकित्सासे निकालना सीखना हो, वे किसी सरजरीके स्कूलमें इसे सीखें । कोई भी वैद्य बिना सीखे-देखे चीर-फाड़ न करे । हाँ, दवाओंके जोरसे काम हो सके, तो वैद्य करे। बादकी चिकित्सा ।। पीपर, पीपरामूल, सोंठ, बड़ी इलायची, हींग, भारंगी, अजमोद, बच, अतीस, रास्ना और चव्य--इन सबको पीस-कूटकर छान लो । इस चूर्ण को गरम पानीके साथ स्त्रीको खिलाना चाहिये । दोषोंके निकालने और पीड़ा दूर होनेके लिये, इन्हीं पीपर आदि दवाओंका काढ़ा बनाकर, और उसमें घी मिलाकर प्रसूताको पिलाओ। ____ इन दवाओंको तीन, पाँच या सात दिन तक पिलाकर, फिर धी प्रभृति स्नेह पदार्थ पिलाओ। रातके समय उचित आसव या संस्कृत अरिष्ट पिलाओ। ___ जब स्त्री सब तरहसे शुद्ध हो जाय, तब उसे चिकना, गरम और थोड़ा अन्न दो। रोज़ शरीरमें तेलकी मालिश कराओ । उससे कह दो कि क्रोध न करे। For Private and Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०४ - चिकित्सा-चन्द्रोदय । वात-नाशक द्रव्योंसे सिद्ध किया हुआ दूध दस दिन तक पिलाओ। फिर दस दिन यथोचित मांसरस दो। ___जब कोई उपद्रव न रहे, स्त्री स्वस्थ अवस्थाकी तरह बलवती और रूपवती हो जाय और गर्भको निकाले हुए चार महीने बीत जायँ, तब यथेष्ट आहार-विहार करे। प्रसूताको मालिशके लिये बला तैल । "सुश्रुत" में लिखा है योनिके संतर्पण, शरीरपर मलने, पीने और वस्ति-कर्म तथा भोजनमें वायु-नाशक “बलातैल" प्रसूता स्त्रीको सेवन कराओबला (खिरेंटी) की जड़का काढ़ा ८ भाग दशमूलका काढ़ा जौका काढ़ा बेरका काढ़ा कुलथीका काढ़ा दूध तिलका तेल इन सबको मिलाकर पकाओ । पकते समय मधुर गण (काकोल्यादिक ) और सैंधानोन मिला दो। ___ अगर, राल, सरल निर्यास, देवदारु, मँजीठ, चन्दन, कूट, इलायची, तगर, मेदा, जटामासी, शैलेय (शिलारस ), पत्रज, तगर, सारिवा, बच, शतावरी, असगन्ध, शतपुष्प--सोवा और साँठी--इन सबको तेलसे चौथाई लेकर पीस लो और पकते समय डाल दो। जब पककर तेल-मात्र रह जाय, उतारकर छान लो। फिर इसे सोने, चाँदी या चिकने मिट्टीके बासनमें रख दो और मुंह बाँध दो। __ यह तेल समस्त वात-व्याधि और प्रसूताके समस्त रोग नाशक है । जो बाँझ गर्भवती होना चाहे उसको-क्षीणवीर्य पुरुषको, वायुसे Is Isis is a For Private and Personal Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रसूतिका-चिकित्सा। ५०५ क्षीणको, जिसके गर्भमें चोट लगी हो या अत्यन्त चोट लगी हो, टूटे हुए, थके हुए, आक्षेपक आदि वात-व्याधियोंवालोंको तथा फोतोंके रोगवालोंको परम लाभदायक है । खाँसी, श्वास, हिचकी और गुल्म, इसके सेवन करनेसे नाश हो जाते तथा धातु पुष्ट और स्थिरयौवन होता है । यह राजाओंके योग्य है । और तैल। तिलोंको खिरेंटीके काढ़ेकी सात भावनायें दो और फिर कोल्हू में उनका तेल निकालकर-सौ बार उसे खिरेंटीके काढ़ेमें पकाओ। इस तेलको निर्वात स्थानमें, बलानुसार, नित्य पीने और जब तेल पच जाय तब चिकने भातको दूधके साथ खानेसे बड़ा लाभ होता है । इस तरह १६ सेर तेल पीने और यथोक्त भोजन करनेसे १ सालमें खूब रूप और बल हो जाता है। सब दोष नाश होकर १०० वर्षकी आयु हो जाती है। सोलह-सोलह सेर तेल बढ़नेसे सौ-सौ वर्षकी उम्र बढ़ती है। प्रसूतिका-चिकित्सा। सूतिका रोगके निदान । HEAK त्यन्त वातकारक स्थानके सेवन करने आदिसे, अयोग्य अ आचरणसे, दोषोंको कुपित करनेवाले आचरणसे, EX विषम भोजन और अजीर्णसे प्रसूता या जच्चाको जो रोग होते हैं, उन्हें "सूतिका-रोग" कहते हैं। वे कष्टसाध्य हो जाते हैं। ६४ For Private and Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०६ चिकित्सा-चन्द्रोदय। सूतिका रोग। अङ्गोंका टूटना, ज्वर, खाँसी, प्यास, शरीर भारी होना, सूजन, शूल और अतिसार-ये रोग प्रसूताको विशेषकर होते हैं। यह रोग प्रसूताको होते हैं, इसलिये "सूतिका रोग" कहे जाते हैं। "वैद्यरत्न"में लिखा है-- अंगमदी ज्वरः कम्पः पिपासा गुरुगात्रता। शोथः शूलातिसारौ च सूतिकारोग लक्षणम् ॥ शरीर टूटना, ज्वर, कँपकँपी, प्यास, शरीर भारी होना, सूजन, शूल और अतिसार ये प्रसूति-रोगके लक्षण हैं। “बङ्गसेन" में लिखा है प्रलापो वेपथुर्यस्याः सूतिका सा उदाहृता। जिसमें प्रलाप--आनतान बकना और कम्प-कँपकँपी आनाये लक्षण हों, उसे "सूतिका रोग" कहते हैं। नोट-कम्प होना सभीने लिखा है, पर भावमिश्रने "कम्प"के स्थानमें "कास" यानी खाँसी लिखी है । __ ज्वर अतिसार, सूजन, पेट अफरना, बलनाश, तन्द्रा, अरुचि और मैं हमें पानी भर-भर आना इत्यादि रोग स्त्रीको मांस और बलकी क्षीणतासे होते हैं। ये सूतिका रोगोंके विशेष निदान हैं । ये रोग जब सूतिकाको होते हैं, तब सूतिका रोग कहे जाते हैं। इन रोगोंमेंसे यदि कोई रोग मुख्य होता है, तो ज्वर आदि अन्य रोग उसके “उपद्रव" कहलाते हैं। ___ स्त्री कबसे कब तक प्रसूता ? बच्चा जननेके दिनसे डेढ़ महीने तक अथवा रजोदर्शन होने तक स्त्रीको "प्रसूता" कहते हैं । यह धन्वन्तरिका मत है । कहा है-- प्रसूता सार्धमासान्ते दृष्ट वा पुनरावे। सूतिका नामहीना स्यादिति धन्वन्तरेर्मतम् ।। For Private and Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रसूतिका-चिकित्सा । ५०७ प्रसूताको पथ्य पालनकी आवश्यकता । - सूतिका रोग बड़े कठिन होते और बड़ी दिक्कतसे आराम होते हैं । अगर पथ्य पालन न किया जाय, तो आराम होना कठिन ही नहीं, असम्भव है। जिसका सारा दूषित खून निकल गया हो, वह एक महीने तक चिकना, पथ्य और थोड़ा भोजन करे, नित्य पसीने ले, शरीरमें तेल मलवावे और पथ्यमें सावधान रहे। पथ्य--लंघन, हल्के पसीने, गर्भाशय और कोठोंका शोधन, उबटन, तैलपान, चटपटे, कड़वे और गरम पदार्थों का सेवन, दीपन-पाचन पदार्थ, शराब, पुराने साँठी चाँवल, कुल्थी, लहसन, बैंगन, छोटी मूली, परवल, बिजौरा, पान, खट्टा-मीठा अनार तथा अन्य कफवात-नाशक पदार्थ प्रसूताके लिये हित हैं । किसी-किसीने पुराने चाँवल, मसूर, उड़दका जूस, गूलर और कच्चे केलेका साग आदि भी हितकर लिखे हैं । - अपथ्य-भारी भोजन, आग तापना, मिहनत करना, शीतल हवा, मैथुन, मल-मूत्रादि रोकना, अधिक खाना और दिनमें सोना आदि हानिकारक हैं। चार महीने बीत जाय और कोई भी उपद्रव न रहे, तब परहेज़ त्यागना चाहिये। उपद्रवविशुद्धाश्च विज्ञाय वरवणिंनीम् । उर्ध्वं चतुर्यो मासेभ्यः परिहारं विवर्जयेत् ॥ सूतिका रोगोंकी चिकित्सा । सूतिका रोग नाशार्थ वात-नाशक क्रिया करनी चाहिये । जिस रोगका ज़ोर हो, उसीकी दवा देनी चाहिये । दस दिन तक वात-नाशक दवाओंके साथ औटाया हुआ दूध पिलाना चाहिये । सिरसकी लकड़ीकी दाँतुन करानी चाहिये। सूतिका रोगोंकी चिकित्सा हमने "चिकित्सा-चन्द्रोदय" दूसरे भाग, अठारहवें अध्यायके पृष्ठ ४२२-४२७ For Private and Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । में लिखी है। मक्कल-शूलकी चिकित्सा हमने “स्वास्थ्यरक्षा" पृष्टः २३२-२३३ में लिखी है। लेकिन जिनके पास “स्वास्थ्यरक्षा" न होगी, वे तकलीफ पायेंगे; इसलिये हम उसे यहाँ भी लिखे देते हैं। मकल शूल। बच्चा और जेरनालके योनिसे बाहर आते ही, अगर दाई प्रसूताकी योनिको तत्काल भीतर दबा नहीं देती, देर करती है, तो प्रसूताकी योनिमें वायु घुस जाती है। वायुके कुपित होनेसे हृदय और पेड़ में शूल चलता, पेटपर अफारा आ जाता एवं ऐसे ही और भी वायुके विकार हो जाते हैं। वायुके योनिमें घुस जानेसे हृदय, सिर और पेड़ में जो शूल चलता है, उसे "मकल' कहते हैं। ___ "भावप्रकाश" में लिखा है,--प्रसूता स्त्रियोंके रुक्ष कारणोंसे बढ़ी हुई वायु-तीक्ष्ण और उष्ण कारणोंसे सुखाये हुए खूनको रोककर, नाभिके नीचे, पसलियोंमें, मूत्राशयमें अथवा मूत्राशयके ऊपरके भागमें गाँठ उत्पन्न करती है। इस गाँठके होनेसे नाभि, मूत्राशय और पेटमें दर्द चलता है, पक्वाशय फूल जाता और पेशाब रुक जाता है। . इसी रोगको “मकल' कहते हैं। चिकित्सा । (१) जवाखारका महीन चूर्ण सुहाते-सुहाते गरम जल या घीके साथ पीनेसे मक्कल आराम होता है। (२) पीपर, पीपरामूल, कालीमिर्च, गजपीपर, सोंठ, चीता, चव्य, रेणुका, इलायची, अजमोद, सरसों, हींग, भारंगी, पाढ़, इन्द्रजौ, जीरा, बकायन, चुरनहार, अतीस, कुटकी और बायबिडङ्ग--इन २१ दवाओंको "पिप्पल्यादि गण" कहते हैं । इनके काढ़ेमें "सेंधानोन" डालकर पीनेसे मक्कल शूल, गोला, ज्वर, कफ और वायु क़तई नष्ट हो जाते हैं तथा अग्नि दीपन होती और आम पच जाता है। For Private and Personal Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रसूतिका-चिकित्सा। ५०६ (३) सोंठ, मिर्च, पीपर, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेशर और धनिया,-इन सबके चूर्णको, पुराने गुड़में मिलाकर, खानेसे मकल शूल आराम हो जाता है। सूतिका रोग-नाशक नुसखे । (१) सौभाग्य शुण्ठी पाक । घी ८ तोले, दूध १२८ तोले, चीनी २०० तोले और पिसी-छनी सोंठ ३२ तोले,-इन सबको एकत्र मिलाकर, गुड़की विधिसे, पकाओ । जब पकनेपर आवे इसमें धनिया १२ तोले, सौंफ २० तोले, और बायबिडङ्ग, सफेद जीरा, सोंठ, गोलमिर्च, पीपर, नागरमोथा, तेजपात, नागकेशर, दालचीनी और छोटी इलायची प्रत्येक चार-चार तोले पीस-छानकर मिला दो और फिर पकाओ । जब तैयार हो जाय, किसी साफ बासनमें रख दो। इसके सेवन करनेसे प्यास, वमन, ज्वर, दाह, श्वास, शोथ, खाँसी, तिल्ली और कृमि-रोग नाश हो जाते हैं। (२) सौभाग्य शुण्ठी मोदक । कसेरू, सिंघाड़े, पद्म-बीज, मोथा, सफेद जीरा, काला जीरा, जायफल, जावित्री, लोंग, शैलज-शिलाजीत, नागकेशर, तेजपात, दालचीनी, कचूर, धायके फूल, इलायची, सोआ, धनिया, गजपीपर, पीपर, गोलमिर्च और शतावर-इन २२ दवाओंमेंसे हरेक चार-चार तोले, लोहा-भस्म ८ तोले, पिसी-छनी सोंठ एक सेर, मिश्री आधसेर, घी एक सेर और दूध आठ सेर तैयार करो। कूटने-पीसने योग्य दवाओंको कूट-पीस-छान लो; फिर चौथे भागमें लिखे पाकोंकी विधिसे लड्डू बना लो। इसमेंसे छै-छ माशे पाक खानेसे सूतिका-जन्य अतिसार, ग्रहणी आदि रोग शान्त होकर अग्नि वृद्धि होती है। For Private and Personal Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१० चिकित्सा-चन्द्रोदय । (३) जीरकाद्य मोदक । सफ़ेद जीरा ३२ तोले, सोंठ १२ तोले, धनिया १२ तोले, सोवा ४ तोले, अजवायन ४ तोले और काला जीरा ४ तोले-इनको पीस-छानकर, ८ सेर दूध, ६ सेर चीनी और ३२ तोले घीमें मिलाकर पकाओ। जब पकनेपर आवे, इसमें त्रिकुटा, दालचीनी, तेजपात, इलायची, बायबिडङ्ग, चव्य, चीता, मोथा और लौंगका पिसा-छना चूर्ण और मिला दो। इससे सृतिकाजन्य ग्रहणी रोग नाश होकर अग्नि वृद्धि होती है। (४) पञ्चजीरक पाक । सफेद जीरा, काला जीरा, सोया, सौंफ, अजमोद, अजवायन, धनिया, मोथा, सोंठ, पीपर, पीपरामूल, चीता, हाऊबेर, बेरोंका चूर्ण, कूट और कबीला--प्रत्येक चार-चार तोले लेकर पीस-छान लो। फिर गुड़ ४०० तोले या पाँच सेर, दूध १२८ तोले और घी १६ तोले लेकर, सबको मिलाकर पाककी विधिसे पाक बना लो । इसके खानेसे सूतिकाजन्य ज्वर, क्षय, खाँसी, श्वास, पाण्डु, दुबलापन और बादीके रोग नाश होते हैं। (५) सूतिकान्तक रस । शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, अभ्रक-भस्म और ताम्बा-भस्म, इन सबको बराबर-बराबर लेकर खुलकुड़ीके रसमें घोटकर, उड़द-समान गोलियाँ बनाकर, छायामें सुखा लो। इस रसको अदरखके स्वरसके साथ सेवन करनेसे सूतिकावस्थाका ज्वर, प्यास, अरुचि, अग्निमांद्य और शोथ आदि रोग नाश हो जाते हैं। (६) प्रतापलंकेश्वर रस । शुद्ध पारा १ तोले, अभ्रक भस्म १ तोले, शुद्ध गन्धक १ तोले, पीपर For Private and Personal Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रसूतिका-चिकित्सा। ५११ ३ तोले, लोह-भस्म ५ तोले, शङ्ख-भस्म ८ तोले, पारने कण्डोंकी राख १६ तोले और शुद्ध मीठा विष एक तोले-इन सबको एकत्र घोट लो। इसमेंसे २ रत्ती रस शुद्ध गूगल, गिलोय, नागरमोथा और त्रिफलेके साथ मिलाकर देनेसे प्रसूत रोग और धनुर्वात रोग नाश हो जाते हैं। अदरखके रसके साथ देनेसे सन्निपात और बवासीर रोग नाश हो जाते हैं। भिन्न-भिन्न अनुपानोंके साथ यह रस सब तरहके अतिसार और संग्रहणीको नाश करता है । यह रस स्वयं जगत्माता पार्वतीने कहा है। (७) वृहत् सूतिका विनोद रस । सोंठ १ तोले, गोलमिर्च २ तोले, पीपर ३ तोले, सेंधानोन ६ माशे, जावित्री २ तोले और शुद्ध तूतिया २ तोले-इन सबको मिलाकर निर्गुण्डीके रसमें ३ घण्टे तक खरल करके रख लो । इस रसके मात्रासे सेवन करनेसे तरह-तरहके सूतिका रोग नाश हो जाते हैं । (८) सूतिका गजकेसरी रस । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध अभ्रक भस्म, सोनामक्खीकी भस्म,. त्रिकुटा और शुद्ध मीठा विष-सबको बराबर-बराबर लेकर, खरल करके रख लो । मात्रा ४ रत्तीकी है । इसको उचित अनुपानके साथ सेवन करनेसे सूतिका-जन्य ग्रहणी, मन्दाग्नि, अतिसार, खाँसी और श्वास आराम होते हैं। (8) हेमसुन्दर तैल । धतूरेके गीले फल पीसकर, चौगुने कड़वे तेलमें डालकर पकाओ। कोई २५ मिनट में “हेमसुन्दर तैल" बन जायगा । यह तैल मालिश करनेसे दुष्ट पसीने आने और सृतिका रोगोंको नाश करता है। For Private and Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । wwwww ग़रीबी नुसखे । (१०) पद्ममूल, मोथा, गिलोय, गन्धाली, सोंठ और बालाइनके काढ़ेमें ६ माशे शहद मिलाकर पीनेसे सूतिका ज्वर और वेदना नाश हो जाते हैं। (११) सोंठ, काकड़ासिंगी और पीपरामूल-इनको एकत्र मिलाकर सेवन करनेसे प्रसतिका ज्वर और वात रोग नष्ट हो जाते हैं। (१२) दशमूलके काढ़ेमें पीपलोंका चूर्ण डाल और कुछ गरम करके पीनेसे बढ़ा हुआ प्रसूतिका रोग भी शान्त हो जाता है। (१३) हींग, पीपर, दोनों पाढ़ल, भारङ्गी, मेदा, सोंठ, रास्ना, अतीस और चव्य इन सबको मिलाकर पीस-कूट-छान लो। इसके सेवन करनेसे योनिका शूल मिटकर योनि नर्म हो जाती है । ___ (१४ ) बेल और भाँगरेकी जड़ोंको सिलपर पानीके साथ पीसकर, मदिराके साथ पीनेसे योनि-शूल तत्काल नाश हो जाता है। (१५) इलायची और पीपर-बराबर-बराबर लेकर पीस-छान लो। इसमें थोड़ा-सा कालानोन डालकर मदिराके साथ, पीनेसे योनि-शूल नाश हो जाता है। . (१६) बिजौरे नीबूकी जड़, मोतियाकी जड़, बेलगिरी और नागरमोथा--इनको एकत्र पीसकर लेप करनेसे प्रसूताका शिरोरोग नाश हो जाता है। (१७) सोंठ, मिर्च, पीपर, पीपरामूल, देवदारु, चव्य, चीता, हल्दी, दारुहल्दी, हाऊबेर, सफेद जीरा, जवाखार, सेंधानोन, कालानोन और कचियानोन, इनको बराबर-बराबर लेकर, सिलपर जलके साथ पीसकर, गरम जलके साथ लेनेसे सुखसे पाखाना हो जाता है। (१८) पंचमूलका काढ़ा बनाकर, उसमें सेंधानोन डालकर सुहातासुहाता पीनेसे सूतिका रोग नाश हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रसूतिका-चिकित्सा। ५१३ : (१६) पंचमूलके काढ़ेमें गरम किया हुआ लोहा बुझाकर पीनेसे सूतिका रोग नाश हो जाता है। (२०) वारुणी मदिरामें गरम किया हुआ लोहा बुझाकर, उस मदिराको पीनेसे सूतिका रोग नाश हो जाता है। (२१) अगर प्रसूताके शरीरमें वेदना हो, तो सागौनकी छाल, हींग, अतीस, पाढ़, कुटकी और तेजबलका काढ़ा, कल्क या चूर्ण ‘घी" के साथ लेनेसे दोषोंकी शान्ति होकर वेदना नाश होती है। (२२) पीपर, पीपरामूल, सोंठ, इलायची, हींग, भारङ्गी, अजमोद, बच, अतीस, रास्ना और चव्य- इन दवाओंका कल्क या चूर्ण "घी"में भूनकर सेवन करनेसे दोषोंकी शान्ति होकर वेदना नाश होती है। - ( २३) अगर शरीरमें दर्द हो, तो दशमूलका काढ़ा सूतिकाको पिलाओ। (२४) अगर खाँसी हो तो "सूतिकान्तक रस" सेवन कराओ। (२५) अगर अतिसार या संग्रहणी हो, तो “जीरकाद्य मोदक" या “सौभाग्य शुण्ठी मोदक" सेवन कराओ।। स्त्रीकी योनिके घाव वगैरःका इलाज । तूम्बीके पत्ते और लोध-बराबर-बराबर लेकर, खूब पीसकर योनिमें लेप करो। इससे योनिके घाव तत्काल मिट जाते हैं । ढाकके फल और गूलरके फल--इन्हें तिलके तेलमें पीसकर योनिमें लेप करनेसे योनि दृढ़ हो जाती है। प्रसव होनेके बाद अगर पेट बढ़ गया हो, तो स्त्री २१ दिन तक सवेरे ही पीपरामूलके चूर्णको दही में घोलकर पीवे । For Private and Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । X2202 स्तन कठोर करने के उपाय। श्रीपर्णीकी छालके कल्क और उसीके पत्तोंके स्वरसके साथ तेल पकाकर, शीशी में रख लो। इस तेलमें एक साफ़ कपड़ा भिगो-भिगोकर, एक महीने तक, स्तनोंपर बाँधनेसे स्त्रियोंके गिरे हुए ढीले-ठाले स्तन पुष्ट और कठोर हो जाते हैं । कहा है: श्रीपर्णीरसकल्काभ्यांतैलंसिद्ध तिलोद्भवम् । तत्तलं तूलकेनैव स्तनस्योपरि दापयेत् । पतितावुत्थितौस्यातामंगनायाः पयोधरौ ॥ नोट-श्रीपर्णी-अरनी या गनियारीको कहते हैं। पर कई टीकाकारों ने इसका अर्थ विजौरा या शालिपर्णी लिखा है । कह नहीं सकते, यह कहाँ तक ठीक है। यह नुसखा चक्रदत्त, वृन्द और वैद्य-विनोद प्रभुति अनेक ग्रन्थों में मिलता है। यद्यपि हमने परीक्षा नहीं की है, तथापि उम्मीद है कि, यह सोलह आने कारगर हो । जब इसे बनाना हो, श्रीपर्णीकी छाल लाकर, सिलपर पीसकर, कल्क बना लो और इसीके पत्तोंको पीसकर स्वरस निचोड़ लो। जितनी लुगदी हो उससे दूना स्वरस और स्वरससे दूना तेल-काले तिलोंका तेल-लेकर कलईदार, बर्तनमें रखकर, मन्दी-मन्दी श्रागसे पका लो और छानकर शीशीमें रख लो । फिर ऊपर लिखी विधिसे इसमें कपड़ा तर कर-करके नित्य स्तनोंपर बाँधो । (२) चूहेकी चरबी, सूअरका मांस, भैसका मांस और हाथीका मांस-इन सबको मिलाकर, स्तनोंपर मलनेसे स्तन कठोर और पुष्ट हो जाते हैं। (३) कमलगट्टे की गरीको महीन पीस-छानकर, दूध-दहीके साथ पीनेसे खूब दूध आता और बुढ़ापेमें भी स्तन कठोर हो जाते हैं। नोट--कमलगट्टोंको रातके समय, पानी में भिगो दो और सवेरे ही चाकूसे उनके छिलके उतार लो । भीगे हुए कमलगट्टोंके छिलके आसानीसे उतर आते हैं। छिलके उतारकर, उनके भीतरकी हरी-हरी पत्तियोंको निकालकर फेंक दो। क्योंकि वह हानि कारक होती हैं । इसके बाद उन्हें खूब सुखाकर, कूट-पीस और For Private and Personal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-प्रसूतिका-चिकित्सा। ५१५ छान लो । यह उत्तम चूर्ण है । इस चूर्णके बजानुसार, उचित मात्रामें दहीदूधके साथ लगातार कुछ दिन खाने से स्तनोंमें खूब दूध आता और वे कठोर भी हो जाते हैं। (४) गायका घो, भैसका घी, काली तिलीका तेल, काली निशोथ, कृताञ्जली, बच, सोंठ, गोलमिर्च, पीपर और हल्दी-इन दसों दवाओंको एकत्र पीसकर कुछ दिन नस्य लेनेसे एकदमसे गिरे हुए स्तन भी उठ आते हैं। (५) बच्चा जननेके बादके पहले ऋतु-कालमें, चाँवलोंके पानी या धोवनकी नस्य लेनेसे गिरे हुए ढीले स्तन उठ आते और कठोर हो जाते हैं। यह नस्य ऋतुकालके पहले दिनसे १६ दिन तक सेवन करनी चाहिये। एक-दो दिनमें लाभ नहीं हो सकता । विद्यापतिजी भी यही बात कहते हैं: आर्तवस्नानादिवसात् षोडषाहं निरंतरम् । तण्डुलोदकनस्येन काठिन्यं कुचयोः स्थिरम्॥ जिस दिनसे स्त्री रजस्वला हो, उस दिनसे सोलह दिन तक बराबर चाँवलोंके धोवनकी नस्य ले, तो उसके गिरे हुए स्तन कठोर और पुष्ट हो जायँ। (६) भैसका नौनी घी, कूट, खिरेंटी, बच और बड़ी खिरेंटी इन सबको पीसकर स्तनोंपर लगानेसे स्तन कठोर और पुष्ट हो जाते हैं । बढ़े हुए पेटको छोटा करने का उपाय । (७) पीपरोंको महीन पीस-छानकर, मथित नामक माठेके साथ पीनेसे चन्द रोजमें प्रसूताकी कुक्षि या कोख दब या घट जाती है। (८) माधवीकी जड़ महीन पीस-छानकर, मथित-माठेके साथ पीनेसे कुछ दिनों में प्रसूताका पेट छोटा और कमर पतली हो जाती है। For Private and Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । (६) मालतीकी जड़को माठेके साथ पीसकर, फिर उसमें घी और शहद मिलाकर सेवन करनेसे प्रसूताका बढ़ा हुआ पेट छोटा हो जाता है। . (१०) आमले और हल्दीको एकत्र पीस-छानकर सेवन करनेसे प्रसूताका बढ़ा हुआ पेट छोटा हो जाता है । स्तन और स्तन्य-रोगनाशक उपाय। NORDC9514 स्तन रोगके कारण और भेद । Ye % धवाली या बिना दूधवाली स्त्रीके स्तनोंमें दोष पहुँचदू कर खून और मांसको दूषित करके "स्तन रोग" करते * हैं। यह स्तन रोग कन्याओंको नहीं होता। क्योंकि कन्याओंके स्तनोंकी धमनी रुकी हुई होती है, इसलिये उनमें दोषोंका सञ्चार नहीं होता और इसीसे उनके स्तनको स्तन-रोग नहीं होते। "सुश्रत में लिखा है: धमन्यः संवृतद्वाराः कन्यानां स्तनसंश्रिताः । दोषापहरणास्तासां न भवन्ति स्तनामयाः ॥ बच्चा जननेवाली--प्रसूता और गर्भवती स्त्रियोंकी धमनियाँ स्वभावसे ही खुल जाती हैं, इसीसे स्राव करती हैं, यानी उनमेंसे दूध निकलता है। पाँच तरहके स्तनरोगोंके लक्षण, रुधिर-जन्य विद्रधिको छोड़कर, बाहरकी विद्रधिके समान होते हैं। स्तन रोग पाँच तरह के होते हैं: (१) वातजन्य । (२) पित्तजन्य । For Private and Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--प्रसूतिका-चिकित्सा । ५१७ (३) कफजन्य । (४) सन्निपात-जन्य । (५) आगन्तुक | नोट-चोट लगने या शल्यसे जो स्तन-रोग होते हैं, वह भागन्तुक कहलाते हैं । रुधिरके कोपसे स्तन रोग नहीं होते, यह स्वभावकी बात है। हिकमतके ग्रन्थों में लिखा है- खून चलता-चलता स्तनोंकी छोटी नसोंमें गरमी, सर्दी या और कारणोंसे रुककर सूजन पैदा कर देता है। उस समय पीड़ा होती और ज्वर चढ़ पाता है । इस दशामें बड़ी तकलीफ़ होती है । बहुत बार बालकके सिरकी चोट लगनेसे भी नसोंका मुंह बन्द होकर पीड़ा खड़ी हो जाती है। चिकित्सा विधि । अगर स्तनोंमें सूजन हो, तो वैद्य विद्रधि रोगके अनुसार इलाज करे; परन्तु सेक आदि स्वेदन-कर्म कभी न करे । स्तनरोगमें पित्तनाशक शीतल पदार्थ प्रयोग करे और जौंक लगाकर खराब खून निकाले । स्तनपीड़ा नाशक नुसखे । (१) इन्द्रायणकी जड़ पानी या बैलके मूत्रमें घिसकर लेप करनेसे स्तनोंकी पीड़ा और सूजन तुरन्त मिट जाती है। (२) अगर स्तनों में खुजली, फोड़ा, गाँठ या सूजन वगैरः हो जाय, तो शीतल दवाओंका लेप करो। १०८ बार धोये हुये मक्खनमें मुर्दासंग और सिन्दूर पीस-छान कर मिला दो और उसे फिर २१ बार धोओ । इसके बाद उसे स्तनों पर लगादो । इस लेपसे फोड़े-फुन्सी और घाव आदि सब आराम हो जाते हैं । परीक्षित है। (३) जौंक लगवाकर खराब खून निकाल देनेसे स्तन-पीड़ामें जल्दी लाभ होता है। .. (४) हल्दी और घीग्वारकी जड़ पीसकर स्तन पर लगानेसे स्तनरोग नाश हो जाते हैं । किसीने कहा है: For Private and Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । .. कुमारिकारसलेंपो हरिद्रारज सान्वितः ।। कवोष्णः स्तनशोथस्य नाशनः सर्वसम्मतः ॥ घीग्वारके पीठेके रसमें हल्दीका चूर्ण डालकर गरम कर लो। फिर सुहाता-सुहाता स्तनोंकी सूजनपर लेप कर दो । इससे सूजन फौरन उतर जायगी। (५) कर्कोटक और जटामाँसीको पीसकर स्तनोंपर लेप करनेसे जादू की तरह आराम होता है। (६) निबौलियोंके तेलके समान और कोई दवा स्तनपाक मिटानेवाली नहीं है। यानी स्तन पकते हों, तो उनपर निबौलियोंका तेल चुपड़ो । कहा है-- स्तनपाकहरं निम्बतैलतुल्यं न चापरम् । (७) अगर बालक स्तनोंको दाँतोंसे काटता हो, तो चिरायता पीसकर स्तनोंपर लगा दो। नोट-स्तन-पीड़ा नाशक और नुसख' "चिकित्सा-चन्द्रोदय" दूसरे भागके पृष्ठ ४२८-४३० में देखिये । दुग्ध-चिकित्सा । स्त्रीका दूध वातादि दोषोंके कुपित होनेसे दूषित हो जाता है। अगर बचा दूषित दूध पीता है, तो बीमार हो जाता है। - वात-दूषित दूधके लक्षण । अगर दूध पानीमें डालनेसे पानीमें न मिले, ऊपर तैरता रहे और कसैला स्वाद हो, तो उसे वायुसे दूषित समझो। पित्त-दूषित दृधके लक्षण । ... अगर दूधमें कड़वा, खट्टा और नमकीन स्वाद हो तथा उसमें पीली रेखा हों, तो उसे पित्त-दूषित समझो। For Private and Personal Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--प्रसूतिका-चिकित्सा। ५१६ कफ दृषित दूधके लक्षण । अगर दूध गाढ़ा और लसदार हो तथा पानीमें डालनेसे डूब जाय, तो उसे कफ-दूषित समझो । त्रिदोष-दूषित दूधके लक्षण । अगर दो दोषोंके लक्षण दीखें, तो दूधको दो दोषोंसे और तीन दोषोंके लक्षण हों, तो तीन दोषोंसे दूषित समझो। किसीने लिखा है-अगर दूध आम समेत, मलके समान, पानी-जैसा, अनेक रंगवाला हो और पानी में डालनेसे आधा ऊपर रहे और आधा नीचे चला जाय, तो उसे त्रिदोषज समझो । . उत्तम दूधके लक्षण । । जो दूध पानीमें डालनेसे मिल जाय, पाण्डुरङ्गका हो, मधुर और निर्मल हो, वह निर्दोष है । ऐसा ही दूध बालकके पीने योग्य है। बालकोंके रोगोंसे दूधके दोष जानने की तरकीय । अगर दूध पीनेवाले बालककी आवाज़ बैठ गई हो, शरीर दुबला हो गया हो, उसके मलमूत्र और अधोवायु रुक जाते हों, तो समझो कि दूध वायुसे दूषित है। अगर बालकके शरीरमें पसीने आते हों, पतले दस्त लगते हों, कामला रोग हो गया हो, प्यास लगती हो, सारे शरीरमें गरमी लगती हो तथा पित्तकी और भी तकलीफें हों, तो समझो कि दूध पित्तसे दूषित है। . अगर बालकके मुंहसे लार बहुत गिरती हो, नींद बहुत आती हो, शरीर भारी रहता हो, सूजन हो, नेत्र टेढ़े हों और वह वमन या कय करता हो, तो समझो कि दूध कफप्से दूषित है ।........ .. For Private and Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । wwwwwwwww दूध शुद्ध करनेका उपाय। (१) अगर दूध वायुसे दूषित हो, तो माता या धायको तीन दिन तक दशमूलका काढ़ा पिलाओ। (२) अगर दूध पित्तसे दूषित हो, तो माँको गिलोय, शतावर, परवलके पत्ते, नीमके पत्ते, लाल चन्दन और अनन्तमूलका काढ़ा मिश्री मिलाकर पिलाओ। (३) अगर दूध कफसे दूषित हो, तो माँको त्रिफला, मोथा, चिरायता, कुटकी, बमनेटी, देवदारु, बच और अकुवनका काढ़ा पिलाओ। नोट-दो दोष और तीन दोषोंसे दूषित दूध हो, तो दो या तीन दोषोंकी दवाएं मिलाकर काढ़ा बनानो और पिलाओ । (४) परवलके पत्ते, नीमके पत्ते, विजयसार, देवदारु, पाठा, मरोड़फली, गिलोय, कुटकी और सोंठ-इनका काढ़ा पिलानेसे किसी भी दोषसे दूषित दूध शुद्ध हो जाता है । दूध बढ़ानेवाले नुसखे । (१) सफेद जीरा और साँठी चाँवल, दूधमें पकाकर, कुछ दिन पीनेसे स्तनोंमें दूध बढ़ जाता है । परीक्षित है। दूध कम होनेके कारण। स्तनोंमें दूध कम पानेके मुख्य ये कारण हैं:(१) स्त्रीकी कमज़ोरी। (२) स्त्रीको ठीक भोजन न मिलना । नोट-अगर स्त्री कमज़ोर हो, तो उसे ताक़त बढ़ाने वाली दवा और पुष्टिकारक भोजन दो। (२) सफेद जीरा, नानख्वाह और नमक-सङ्ग--इनको बराबरबराबर लेकर और महीन पीस-छानकर, दहीमें मिलाकर खानेसे स्तनोंमें दूध बढ़ता है। For Private and Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा--प्रसूतिका-चिकित्सा। ५२१ - (३) अजमोद, अनीसू, बोजीदाँ और तुरुम सोया-इनको पीसछान और शहदमें मिलाकर, मात्राके साथ सेवन करनेसे स्तनोंमें दूध बढ़ जाता है। (४) अर्क स्वर्णवल्ली सेवन करनेसे दूध बढ़ता और मस्तकशूल आराम हो जाता है। (५) अर्क सोमवल्ली पीनेसे स्तनोंमें दूध बढ़ जाता है । यह रसायन है। (६) कमलगट्टोंका पिसा-छना चूर्ण दूध और दहीके साथ खानेसे स्तनों में खूब दूध आता है। (७) केवल विदारीकन्दका स्वरस पीनेसे स्तनोंमें खूब दूध आता है। (८) दूधमें सफेद जीरा मिलाकर पीनेसे स्तनों में खूब दूध आता है । कहा है: अक्षीरा स्त्री पिबेज्जीरं सक्षीरं सा पयस्विनी । बिना दूधवाली स्त्री अगर दूधमें जीरा पीवे, तो दूधवाली हो जाय । (६) शतावरको दूधमें पीसकर पीनेसे स्तनोंमें दूध बढ़ता है। (१०) गरम दूधके साथ पीपरोंका पिसा-छना चूर्ण पीनेसे स्तनोंमें दूध बढ़ता है। (११) बनकपासकी जड़ और ईखकी जड़-दोनों बराबरबराबर लेकर काँजीमें पीस लो। इसमेंसे ६ माशे दवा खानेसे स्तनोंमें दूध बढ़ता है। (१२) हल्दी, दारुहल्दी, इन्द्रजौ, मुलेठी और चकबड़--इन पाँचोंको मिलाकर दो या अढ़ाई तोले लेकर काढ़ा बनाने और पीनेसे स्तनोंमें दूध बढ़ जाता है। For Private and Personal Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir :५२२ चिकित्सा-चन्द्रोदय। (१३) बच, अतीस, मोथा, देवदारु, सोंठ, शतावर और अनन्तमूल-इन सातोंको मिलाकर कुल दो या अढ़ाई तोले लो और काढ़ा बनाकर स्त्रीको पिलाओ । इस नुसख्नेसे स्तनों में दूध बढ़ जाता है। (१४) सफ़ेद जीरा दो तोले, इलायचीके बीज एक तोले, मग़ज़ खीरेका बीस दाना और मग़जकद्द बीस दाना--इन सबको पीसकूटकर छान लो। इस दवाके सेवन करनेसे स्तनों में दूध बढ़ता और शुद्ध--निर्दोष होता है। ___ सेवन-विधि--अगर जाड़ेका मौसम हो, तो एक-एक मात्रामें पिसी मिश्री मिलाकर स्त्रीको फँकाओ और ऊपरसे बकरीका दूध पिला दो। अगर मौसम गरमीका हो, तो इस दवाको सिलपर घोट-पीसकर 'पानीमें छान लो, पीछे शर्बत नीलोफर मिलाकर पिला दो । केवल शर्बत नीलोफर पिलानेसे ही दूध बढ़ जाता है। नोट-नं. १, ६, ७, ८, ६ और १० के नुसत्र परीक्षित हैं। नं० ११, १२ और १३ भी अच्छे हैं। ऋतुकारुधिर अधिक बहना बन्द करनेके उपाय । Hease% ब रजोधर्मके दिनोंको छोड़कर, स्त्रीकी योनिसे खून *ज गिरता है; यानी नियत दिनोंको छोड़कर, पीछे भी खून GR गिरता है, तो बोल-चालकी भाषामें उसे “पैर पड़ने या पैर जारी होने का रोग कहते हैं । हकीम लोग इस रोगको "इस्तखासा" कहते हैं । हमारे यहाँ इस रोगका वही इलाज है, जो प्रदर रोगका है। फिर भी हम नीचे चन्द ग़रीबी नुसने For Private and Personal Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RA स्त्रीरोगोंकी चिकित्सा-पैर जारी होनेका इलाज। ५२३ ऐसे खूनको बन्द करनेके लिए लिखते हैं । अगर योनिसे खून गिरता हो, तो नीचेके नुसत्रों से किसी एकसे काम लोः (१) छातियोंके नीचे सोंगी लगाओ। (२) बकायनकी कोंपलोंका एक तोले स्वरस पीओ। (३) कपासके फूलोंकी राख हथेली-भर, नित्य, शीतल जलके साथ फाँको। (४) कुड़ेकी छाल सात माशे कूट-छानकर और थोड़ी चीनी मिलाकर पानीके साथ फाँको । (५) मसूर, अरहर और उड़द--तीनों दो तोले और साँठी चाँवल एक तोले--चारोंको जलाकर राख कर लो। इसमेंसे हथेली-भर राख सवेरे-शाम फाँकनेसे योनिसे खून बहना, पैर चलना या पैर जारी होना बन्द हो जाता है। (६) जले हुए चने, तज और लोध--बराबर-बराबर लेकर पीस लो और फिर सबकी बराबर चीनी मिला दो। इसमेंसे हथेली-हथेलीभर फाँको। (७ ) रालको महीन पीसकर और उसमें बराबरकी शक्कर मिलाकर फाँको। ___(८) छोटी दुद्धीको कूट-छानकर रख लो और हर सवेरे उसमें से हथेली-भर फाँको। (६) असगन्धको कूट-पीस और छानकर रख लो। फिर उसमें बराबरकी मिश्री पीसकर मिला दो। उसमेंसे एक तोले दवा शीतल जलके साथ रोज़ फाँको। (१०) बबूलका गोंद भून लो। फिर उसमें बराबरका गेरू मिला दो और पीस लो। उसमें से ७॥ माशे दवा हर सवेरे फाँको। ... (११) हारसिंगारकी कोंपलें जलके साथ सिलपर पीसकर, भाँगकी तरह पानीमें छानकर पी लो । For Private and Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । (१२) मुल्तानी मिट्टी पानीमें भिगो दो। फिर उसका नितरा हुआ पानी दिनमें कई बार पीओ। (१३) सूखा और पुराना धनिया एक हथेली-भर औटा लो और छानकर पीलो। (१४) कचनारकी कली, हरा गूलर, खुरफेका साग, मसूरकी दाल और पटसनके फूल--इन सबको पकाकर लाल चाँवलोंके भातके साथ खाओ। (१५) अनारकी छाल औटाकर एक तोले-भर पीओ। (१६) गधेकी लीद सुखाकर और पोटलीमें बाँधकर योनिमें रखो। . (१७) छै माशे गेरू और ६ माशे सेलखड़ी एकत्र पीसकर पानीके साथ फाँको। (१८) छै माशे मालतीके फूल और ६ माशे शकर मिलाकर फाँको । (१६) बैंगनकी कोंपलें पानी में घोट-छानकर पीओ। (२०) शुद्ध शङ्ख, जीरा और मिश्री बराबर-बराबर लेकर पीसछान लो। इसमेंसे ६ माशे रोज़ खानेसे खून गिरना बन्द हो जाता है । परीक्षित है। (२१) सूखी बकरीकी मैंगनी पीसकर और पोटलीमें रखकर उस पोटलीको गर्भाशयके मुखके पास रखो। अगर इसमें थोड़ा-सा "कुन्दर" भी मिला दो, तो और भी अच्छा । . (२२) सात हारसिंगारकी कोंपलें और सात कालीमिर्च पानीमें पीस-छानकर पी लो। (२३) भुना जीरा और कच्चा जीरा लेकर और लाल चाँवलोंके बीचमें पीसकर भगमें रखो। इससे फौरन खून बन्द हो जाता है। परीक्षित है। (२४) रसौत १ माशे, राल १ माशे, बबूलका गोंद १ माशे और सुपारी २॥ माशे,-इनको सिलपर पानीके साथ पीसकर एक For Private and Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा-पैर जारी होनेका इलाज। ५२५ एक माशेकी टिकियाँ बना लो । इनमेंसे २।३ टिकियाँ खानेसे खून बन्द हो जाता है। (२५) गायके पाँच सेर दूधमें एक पाव चिकनी सुपारी पीसकर मिला दो और औटाओ । जब औट जाय, उसमें आधसेर चीनी डाल दो और चाशनी करो । फिर छोटी माई ५॥ माशे, बड़ी माई ५२॥ माशे, पकी सुपारीके फूल १०५ माशे, धायके फूल १०५ माशे और ढाकका गोंद १० तोले-इन सबको महीन पीसकर कपड़-छन कर लो । जब चाशनी शीतल होने लगे, इस छने चूर्णको उसमें मिला दो और चूल्हसे उतारकर साफ़ बर्तनमें रख दो। मात्रा २० माशेसे ६० माशे तक । इस सुपारी-पाकके खानेसे योनिसे नदीके समान बहता हुआ खून भी बन्द हो जाता है । विज्ञापन । नीचे हम स्थानाभावसे चन्द कभी भी फेल न होनेवाली रामवाण-समान अव्यर्थ और अक्रतीरका काम करनेवाली तीस सालकी परीक्षित औषधियोंके नाम और दाम लिखते हैं। पाठक अवश्य परीक्षा करके लाभान्वित हों और देखें कि, भारतीय जड़ी-बूटियोंसे बनी हुई दवाएं अँगरेजी दवाओंसे किसी हालतमें कम नहीं हैं: (१) हरिवटी-कैसा भी अतिसार, प्रामातिसार, रक्तातिसार और ज्वरातिसार क्यों न हो, दस्त बन्द न होते हों और ज्वर बड़ी-बड़ी डाक्टरी दवाओंसे भी क्षण-भरको विश्राम न लेता हो,--इन गोलियोंकी २ मात्रा सेवन करते ही अपूर्व चमत्कार दीखता है । दाम ॥) शीशी । हर गृहस्थ और वैद्यको पास रखनी चाहिये। (२) शिरशूल-नाशक चूर्ण-कैसा ही घोर सिर-दर्द क्यों न हो, इस चूर्णकी १ मात्रा खानेसे १५ मिनटमें सिरदर्द का.फूर हो जाता है। दवा नहीं जादू है । ८ मात्राका दाम १) रु। (३) नारायण तैल--हाथ-पैरोंका दर्द, जोड़ोंकी पीड़ा, गठिया, पसलियोंका दर्द, अङ्गका सूनापन, लकवा, फालिज, एक अङ्ग सूना हो जाना, पित्ती निकलना, मोच आना वग़रः-वगरः अस्प्ली तरहके वायु-रोग इस तेलसे श्राराम होते हैं । जाड़ेमें इसकी मालिश करानेसे शरीर हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ट होता है.बदनमें चुस्ती-फुर्ती श्राती है। हर गृहस्थ और वैद्यके पास रहने योग्य है। दाम १ पावका ३) रु० । For Private and Personal Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । CAUS 496 Wwwwww WKWwwwxwwwwwwRDA NAVANA नर-नारी की जननेन्द्रियोंका वर्णन। WAM नरकी जननेन्द्रियाँ । पुरुष और स्त्रीके जो अङ्ग सन्तान पैदा करनेके काममें आते हैं, उन्हें "जननेन्द्रियाँ' कहते हैं। जैसे लिंग और भग । पुरुष और स्त्री दोनोंकी जननेन्द्रियाँ एक तरहकी नहीं होती । उनमें बड़ा भेद है। दोनों ही की जननेन्द्रियाँ दो-दो तरहकी होती हैं:-(१) बाहरसे दीखनेवाली और (२) बाहरसे न दीखनेवाली। बाहरसे दीखनेवाली जननेन्द्रियाँ। पुरुषका शिश्न या लिंग और अण्डकोषमें लटकते हुए अण्ड-ये बाहरसे दीखनेवाली पुरुषकी जननेन्द्रियाँ हैं। पुरुषकी तरह स्त्रीकी भग बाहरसे दीखनेवाली जननेन्द्रिय है । भगकी नाक, भगके होठ और योनिद्वार प्रभृति भी भगके हिस्से हैं । ये भी बाहरसे दीखते हैं। भीतरी जननेन्द्रियाँ। पुरुष और स्त्री दोनोंकी भीतरी जननेन्द्रियाँ वस्तिगह्वर या पेड़ की पोलमें रहती हैं, इसीसे दीखती नहीं । शुक्राशय, शुक्रप्रणाली, प्रोस्टेट और शिश्नमूल-ग्रन्थि-ये पुरुषकी पेड़ की पोलमें रहनेवाली भीतरी जननेन्द्रियाँ हैं। इसी तरह डिम्बग्रन्थि, डिम्ब प्रनाली, गर्भाशय और योनि-ये स्त्रीके पेड़ की पोलमें रहनेवाली जननेन्द्रियाँ हैं। For Private and Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नर-नारीकी जननेन्द्रियोंका वर्णन । शिश्न या लिंग। शिश्न या लिङ्ग मर्दके शरीरका एक अङ्ग है । इसीमें होकर मूत्र मूत्राशयसे वाहर आता है और इसीसे पुरुष स्त्रीसे मैथुन करता है। जब लिङ्ग ढीला, शिथिल या सोया रहता है, तब वह तीन या चार इञ्च लम्बा होता है । जब पुरुष स्त्रीको देखता, छूता या आलिंगन करता है, तब उसे हर्ष होता है । उस समय उसकी लम्बाई बढ़ जाती है और वह पहलेसे खूब कड़ा भी हो जाता है। अगर इस समय वह सख्त न हो जाय, तो योनिके भीतर जा ही न सके । जिन पुरुषोंका लिङ्ग हस्तमैथुन आदि कुकर्मोंसे ढीला हो जाता है, वह मैथुन कर नहीं सकते । मैथुनके लिये लिङ्गके सख्त होने की जरूरत है। शिश्न-मणि । लिङ्गके अगले भागको मणि या सुपारी अथवा शिश्नमुण्डलिङ्गका सिर कहते हैं । इसमें एक छेद होता है । उस छेदमें होकर ही मूत्र और वीर्य बाहर निकलते हैं । इस सुपारीके ऊपर चमड़ी होती है, जिसे सुपारीका घू घट भी कहते हैं । यह हटानेसे ऊपरको हट जाती और फिर खींचनेसे सुपारीको ढक लेती है। जब यह चमड़ी या चूंघटकी खाल तंग होती है, तब हटानेसे नहीं हटती; यानी घूघट बड़ी मुश्किलसे खुलती है । मैथुनके समय इसके हट जानेकी ज़रूरत रहती है। अगर इसके बिना हटे मैथुन किया जाता है, तो पुरुषको बड़ी तकलीफ होती है और मैथुन-कर्म भी अच्छी तरह नहीं होता। इसीसे बहुतसे आदमी तङ्ग आकर, इसे मुसलमानोंकी तरह कटवा डालते हैं। कटवा देनेसे कोई हानि नहीं होती। मुसलमानोंमें तो इसका दस्तूर ही हो गया है । बाज-बाज़ औकात छोटे-छोटे बालकोंकी यह चमड़ी अगर तङ्ग होती है, तो उन्हें बड़ा कष्ट होता है । जब उनकी पालने For Private and Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२८ चिकित्सा-चन्द्रोदय। वाली सफाई करनेके लिये इस चूंघटको खोलती है, तब वे रोते-चीखते हैं और कभी-कभी पेशाब करते समय किंच्छते और चिल्लाते हैं। इस मणि या सुपारीके पीछे गोल और कुछ गहरी-सी जगह होती है। वहाँ एक प्रकारकी बदबूदार चिकनी चीज़ जमा हो जाती है। यह चीज़ वहीं बनती रहती है। जब यह जियादा बनती है या सुपारी बहुत दिनों तक धोई नहीं जाती, तब यह बहुत इकट्ठी हो जाती है और वहाँसे चलकर सुपारीपर भी आ जाती है। जो मूर्ख लिङ्गको रोज नहीं धोते, उनकी सुपारी या उसकी गर्दन में इस चिकने पदार्थ से फुन्सियाँ हो जाती हैं । बहुत बार लिङ्गार्श या उपदंश रोग भी हो जाताहै । "भावप्रकाश में लिखा है: हस्ताभिघातानखदन्तघातादधावनादत्युपसेवनाद्वा । योनिप्रदोषाच्चभवन्ति शिश्ने पञ्चोपदंशा विविधापचारैः ॥ हाथकी चोट लगने, नाखून या दाँतोंसे घाव हो जाने, लिङ्गको न धोने, पशु प्रभृतिके साथ मैथुन करने और बालवाली या रोगवाली स्त्रीसे मैथुन करनेसे पाँच तरहका उपदंश या गरमी रोग हो जाता है । लिंगार्श होनेसे सुपारीके नीचे मुर्गेकी चोटीके समान फुन्सियाँ हो जाती हैं। शिश्न-शरीर । सुपारी और लिङ्गकी जड़के बीचमें जो लिङ्गका हिस्सा है, उसे लिङ्गका शरीर कहते हैं । लिङ्गका कुछ भाग फोतों या अण्ड-कोषोंके नीचे ढका रहता है । इसे ही लिङ्गकी जड़ या शिश्न-मूल कहते हैं। लिङ्गका पिछला हिस्सा मूत्राशय या वस्तिसे मिला रहता है । For Private and Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नर-नारीकी जननेन्द्रियोंका वर्णन । ५२६ मूत्राशयके नीचले भागसे लेकर सुपारीके सूराख्न तक पेशाब बहनेके लिये एक लम्बी राह बनी हुई है। इसे मूत्र-मार्ग कहते हैं। पेशाब आनेका एक द्वार भीतर और एक बाहर होता है। जिस जगहसे मूत्रमार्ग शुरू होता है, उसे ही भीतरका मूत्रद्वार कहते हैं और सुपारीके छेदको बाहरका मूत्रद्वार कहते हैं । पुरुषके मूत्र-मार्गकी लम्बाई ७८ इञ्च और स्त्रीके मूत्रमार्गकी लम्बाई डेढ़ इञ्च होती है । भीतरी मूत्रद्वारके नीचे प्रोस्टेट नामकी एक ग्रन्थि रहती है । मूत्र-मार्गका एक इंच हिस्सा इसी ग्रन्थिमें रहता है।। अण्डकोष या फोते लिंगके नीचे एक थैली रहती है, उसे ही अण्डकोष कहते हैं। संस्कृतमें उसे वृष्ण कहते हैं। फोतोंकी चमड़ीके नीचे वसा नहीं होती, पर मांसकी एक तह होती है। जब यह मांस सुकड़ जाता है, तब यह थैली छोटी हो जाती है और जब फैल जाता है, तब बड़ी हो जाती है। सर्दीके प्रभावसे यह मांस सुकड़ता और गर्मीसे फैलता है। बुढ़ापेमें मांसके कमजोर होनेसे यह थैली ढीली हो जाती और लटकी रहती है। इस अण्डकोप या थैलीके भीतर दो अण्ड या गोलियाँ रहती हैं। दाहिनी तरफवालेको दाहिना अण्ड और बाई तरफवालेको बायाँ अण्ड कहते हैं। अण्डकोष या अण्डोंकी थैलीके भीतर एक पर्दा रहता है, उसीसे वह दो भागोंमें बँटा रहता है । उस पर्देका बाहरी चिह्न वह सेवनी है, जो अण्डकोषकी थैलीके बीचमें दीखती है। यह सेवनी पीछेकी तरफ मलद्वार या गुदा और आगेकी तरफ लिंगकी सुपारी तक रहती है। इस अण्डकोषके भीतर दो कड़ी-सी गोलियाँ होती हैं, इन्हें "अण्ड" कहते हैं। ये दोनों अण्ड जिस चमड़ेकी थैलीमें रहते हैं, उसे "अण्डकोष" कहते हैं । इन अण्डोंके ऊपर एक झिल्ली रहती है । इस झिल्लीकी For Private and Personal Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३० चिकित्सा-चन्द्रोदय । दो तह होती हैं । जब इन दोनों तहोंक बीचमें पानी-जैसा पतला पदार्थ जमा हो जाता है; तब अण्ड बड़े मालूम होते हैं । उस समय "जलदोष" हो गया है या पानी भर गया है, ऐसा कहते हैं। - इस अण्डको “शुक्र-ग्रन्थि" भी कहते हैं। इसमें दो-तीन सौ छोटेछोटे कोठे होते हैं। इन कोठोंमें बाल-जैसी पतली आठ-नौ सौ नलियाँ रहती हैं। ये नलियाँ बहुत ही मुड़ी हुई रहती हैं और पीछेकी तरफ जाकर एक दूसरेसे मिलकर जाल-सा बना देती हैं । इस जालमेंसे बीस या पञ्चीस बड़ी नलियाँ निकलती हैं और आगे चलकर इन सबके मिलनेसे एक बड़ी नली बन जाती है। इसीको “शुक्र-प्रनाली" कहते हैं। शुक्र ग्रन्थिकी नलियाँ वास्तवमें छोटी-छोटी नलीक आकारकी प्रन्थियाँ हैं। इन्हींमें वीर्य बनता है । इस वीर्य या शुक्रके मुख्य अवयव शुक्रकीट या शुक्राणु हैं। ___ अण्डकोषको टटोलनेसे, ऊपरके हिस्से में, एक रस्सी-सी मालूम होती है; इसी रस्सीमें बंधे हुए अण्ड अण्डकोषमें लटके रहते हैं। इस रस्सीको अण्डधारक रस्सी कहते हैं । यह पेट तक चली जाती है। कभी-कभी उसी राहसे अन्त्र या आँतोंका कुछ भाग अण्डकोषमें चला आता है, तब फोते बढ़ जाते हैं । उस समय "अंत्रवृद्धि" रोग हो गया है, ऐसा कहते हैं । शुक्राशय। लिख आये हैं, कि अण्ड या शुक्र-प्रन्थिमें शुक्र या वीर्य बनता है। यही शुक्र शुक्र-प्रणाली द्वारा शुक्राशयमें आकर जमा होता है। फिर मैथुनके समय, यह शुक्राशयसे निकलकर, मूत्रमार्गमें जा पहुँचता और वहाँसे सुपारीके छेदमें होकर योनिमें जा गिरता है। यह शुक्राशय भी वस्तिगह्वर या पेड़ की पोलमें, मूत्राशयसे लगा रहता है। शुक्राशयकी दो थैली होती हैं । इनके पीछे ही मलाशय है । For Private and Personal Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नर-नारीकी जननेन्द्रियोंका वर्णन । ५३१ शुक्र या वीर्य । शुक्र या वीर्य दूधके-से रंगका गाढ़ा-गाढ़ा लसदार पदार्थ होता है । उसमें एक तरहकी गन्ध आया करती है । अगर वह कपड़ेपर लग जाता है, तो वहाँ हलके पीले रंगका दाग़ हो जाता है। अगर यही कपड़ा आगके सामने रखा जाता या तपाया जाता है, तो उस दाग़का रंग गहरा हो जाता है। वीर्यसे तर कपड़ा सूखनेपर सख्त हो जाता है। ___ वीर्य पानीसे भारी होता है। एक बार मैथुन करनेसे आधेसे सवा तोले तक वीर्य निकलता है। वीर्यके सौ भागोंमें ६० भाग जल, १ भाग सोडियम नमक, १ भाग दूसरी तरहके नमकोंका, ३ भाग खटिक प्रभृति पदार्थोंका और पाँच भाग एक तरहके सेलोंके होते हैं, जिन्हें शुक्राणु या शुक्रकीट कहते हैं। शुक्राणु या शुक्रकीट । अगर कोई ताजा वीर्यको खुर्दबीन शीशेमें देखे, तो उसे उसमें बड़ी तेजीसे दौड़ते हुए कीड़े दीखेंगे। इन्हींको शुक्राणु, शुक्रकीट या सेल कहते हैं। सन्तान इन्हींसे होती है। जिनके शुक्रमें शुक्रकीट नहीं होते, जिनकी शुक्र-ग्रन्थियोंसे ये नहीं बनते, वे पुरुष सन्तान पैदा कर नहीं सकते। हाँ, बिना इनके कदाचित मैथुन कर सकते हैं । एक बारके निकले हुए वीर्यमें ये कीड़े एक करोड़ अस्सी लाखसे लगाकर बाईस करोड़ साठ लाख तक होते हैं। अगर आप वीर्यको एक काँचके गिलासमें रख दें, तो कुछ देरमें दो तहें हो जायेगी। ऊपरकी तह पतली और दहीके तोड़ जैसी होगी, पर नीचेकी गाढ़ी और दूधके रंगकी होगी। सारे शुक्रकीट नीचे बैठ जाते हैं, इसीसे नीचेकी तह गाढ़ी होती है । नीचेकी तह जितनी ही गहरी और गाढ़ी होगी, उसमें उतने ही शुक्रकीट अधिक होंगे। For Private and Personal Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । शुक्रकीटकी लम्बाई एक इंचसे हजारवें भाग या पाँचसौवें भागके जितनी होती है । इस कीड़ेका अगला भाग मोटा और अण्डेकी-सी शकलका होता है तथा पिछला भाग पतला और नोकदार होता है । अगले भागको सिर, सिरके पीछेके दबे हुए भागको गर्दन, बीचके भागको शरीर और शरीरके अन्तिम भागको दुम या पूँछ कहते हैं। शुक्रकीट या वीर्यके कीड़े वीर्यके तरल भागमें तैरा करते हैं। कमजोर कीड़े धीरे-धीरे और ताकतवर तेजीसे दौड़ते फिरते हैं। इनकी दुम पानी में तैरते हुए या ज़मीनपर रेंगते हुए साँपकी तरह हरकत करती जान पड़ती है। शुक्रकीट कब बनने लगते हैं ? शुक्रकीट चौदह या पन्द्रह बरसकी उम्रमें बनने लगते हैं, परन्तु इस समयके शुक्रकीट बलवान सन्तान पैदा करने-योग्य नहीं होते । अच्छे शुक्रकीट बीस या पच्चीस सालकी उम्रमें बनते हैं। अतः जो लोग छोटी उम्रमें ही मैथुन करने लगते हैं, उनकी अपनी वृद्धि रुक जाती है और जो सन्तान पैदा होती है, वह निर्बल और अल्पायु होती है । इसलिये २०-२५ वर्षकी उम्रसे पहले स्त्री-प्रसंग न करना चाहिये। ___ शुक्र-ग्रन्थियोंसे शुक्रकीट तो बनते ही हैं, इनके सिवा एक और बड़ा काम होता है--एक और कामकी चीज़ बनती है। यद्यपि सन्तान पैदा करनेके लिये उसकी जरूरत नहीं होती, पर वह खून में मिलकर शरीरके भिन्न-भिन्न अङ्गोंमें पहुँचती और उन्हें बलवान करती है। हर पुरुषको शरीर बढ़नेके समय इसकी दरकार होती है। अगर हम किसीके अण्डोंको जवानी आनेसे पहले ही निकाल दें, तो वह अच्छी तरह न बढ़ेगा । उसके डाढ़ी मूंछ वगैरः जवानीके चिह्न अच्छी तरह न निकलेंगे । बैल और साँडका फर्क सभी जानते हैं । जब बछड़ेके अण्ड निकाल लेते हैं, तब वह बैल बन जाता है। बैल न तो For Private and Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३३ नर-नारीकी जननेन्द्रियोंका वर्णन । सन्तान पैदा कर सकता है और न वह साँडके समान बलवान ही होता है। वही बछड़ा अण्ड रहनेसे साँड बन जाता है और खूब पराक्रम दिखाता है; अतः सब अङ्गोंके पके पहले, इन शुक्र-ग्रन्थियोंअण्डोंसे शुक्र बनानेका काम लेना, अपनी और औलादकी हानि करना है। इसलिये २५ सालसे पहले मैथुन द्वारा या और तरह वीर्य निकालना परम हानिकर है । इसीसे सुश्रुतने २४ वर्षके पुरुष और सोलह सालकी स्त्रीको विवाह करके गर्भाधान करनेकी आज्ञा दी है, पर आजकल तो १३।१४ सालका लड़का बहू के पास भेज दिया जाता है ! उसीका नतीजा है, कि हिन्दू क़ौम आज सबसे कमजोर और सबसे मार खानेवाली मशहूर है। KEERTAIMERARAMMEREAK स्त्रीकी जननेन्द्रियोंका वर्णन। MAHARYANAWREVIATEME नारीकी जननेन्द्रियाँ । जिस तरह मर्द के लिङ्ग और अण्डकोष होते हैं, उसी तरह स्त्रीके भग और उसके दूसरे हिस्से होते हैं। भग, भग-नासा, भगके होठ और योनिद्वार ये बाहरसे दीखते हैं । वस्तिगह्वर या पेड़ की पोलमें डिम्बग्रन्थि, डिम्वप्रनाली, गर्भाशय और योनि-ये होते हैं । ये बाहरसे नहीं दीखते। भग। भगके बीचों-बीच में एक दराज-सी होती है। उसके दोनों ओर चमड़ीके झोलसे बने हुए दो कपाट या किवाड़-से होते हैं । चमड़ीके नीचे वसा होनेकी वजहसे वे उभरे होते हैं। अगर ये दोनों कपाट हटाये जाते हैं, तो भीतर दो पतले-पतले कपाट और दीखते हैं। इस For Private and Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । तरह बड़े और छोटे दो कपाट होते हैं। इनको बड़े और छोटे भगोष्ट या भगके होंठ भी कहते हैं। अगर हम अँगुलीसे दोनों भगोष्ठोंको हटावें, तो दरार या फाँकमें दो सूराख नजर आयेंगे। इनमेंसे एक सूराख्न बड़ा और दूसरा छोटा होता है । बड़ा सूराख योनिकी राह है । इसीको योनिद्वार या योनिका दरवाजा भी कहते हैं । मैथुनके समय पुरुषका लिङ्ग इसी छेदमें होकर भीतर जाता है । इसी में होकर, मासिक-धर्मके समय, रज बह-बहकर बाहर आता है और इसी राहसे बालक बाहर निकलता है। इस छेदसे कोई आधा इंच ऊपर दूसरा छेद होता है । यह मूत्रमार्गका छेद और उसका बाहरी द्वार है । पेशाब इसीमें होकर बाहर आता है। जिन स्त्रियोंका पुरुषोंसे समागम नहीं होता, उनके योनि-द्वारपर चमड़ेका पतला पर्दा पड़ा रहता है। इस पर्दमें भी एक छेद होता है। इस छेदमें होकर रजोधर्मका रज या खून बाहर आया करता है । जब पहले-पहल मैथुन किया जाता है, तब लिङ्गके जोरसे यह पर्दा फट जाता है । उस समय स्त्रीको कुछ तकलीफ होती है और थोड़ा-सा खून भी निकलता है । किसी-किसीका यह पर्दा बहुत पतला और छेद चौड़ा होता है। इस दशामें मैथुन करनेपर भी चमड़ा नहीं फटता और लिङ्ग भीतर चला जाता है। जब तक यह पर्दा मौजूद रहता है और उसका छेद बड़ा नहीं होता, तब तक यह समझा जाता है, कि स्त्रीका पुरुषसे समागम नहीं हुआ। इस पर्देको योनिच्छद- योनिका ढकना कहते हैं । बड़े भगोष्ट ऊपर जाकर एक दूसरेसे मिल जाते हैं । जहाँ वे मिलते हैं, वह स्थान कुछ ऊँचा या उभरा-सा होता है । इसे “कामाद्रि" कहते हैं। जवानी आनेपर यहाँ बाल उग आते हैं। कामाद्रिके नीचे और दोनों बड़े होठोंके बीचमें और पेशाबके For Private and Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नर-नारीकी जननेन्द्रियोंका वर्णन । ५३५ बाहरी छेदके ऊपर एक छोटा अंकुर होता है। इसे भग-नासा या भगकी नाक कहते हैं । जिस तरह मर्दके लिंग होता है, उसी तरह स्त्रीके यह होता है । लिंग बड़ा होता है और यह छोटा होता है । जब मैथुन किया जाता है, तब इसमें खून भर आता है, इसलिये लिंगकी तरह यह भी कड़ा हो जाता है। इसमें लिंगकी रगड़ लगनेसे बेतहासा आनन्द आता है । जब मैथुन हो चुकता है, तब खून लौट जाता है, इसलिये यह भी लिंगकी तरह ढीला हो जाता है। डिम्ब-ग्रन्थियाँ। जिस तरह मदके दो अण्ड या शुक्र-ग्रन्थियाँ होती हैं, उसी तरह स्त्रीके भी ऐसे ही दो अङ्ग होते हैं। इनमें डिम्ब बनते हैं, इसलिये इन्हें डिम्ब-ग्रन्थियाँ कहते हैं । स्त्रीके डिम्ब और शुक्राणुके मिलनेसे ही गर्भ रहता है। ये डिम्ब-ग्रन्थियाँ वस्ति-गह्वर या पेड़ की पोलमें रहती हैं। एक ग्रन्थि गर्भाशयकी दाहिनी ओर और दूसरी बाई ओर रहती है। दोनों ग्रन्थियोंमें अन्दाज़न बहत्तर हजार डिम्ब-कोष होते हैं और हरेक कोषमें एक-एक डिम्ब रहता है। डिम्ब-ग्रन्थियोंके भीतर छोटी-बड़ी थैलियाँ होती हैं, उन्हींको डिम्बकोष कहते हैं । गर्भाशय । यह वह अङ्ग है जिसमें गर्भ रहता है । यह वस्ति-गह्वर या पेड़ की पोलमें रहता है । इसके सामने मूत्राशय और पीछे मलाशय रहता है । गर्भाशयके दोनों बगल, कुछ दूरीपर डिम्ब-प्रन्थियाँ होती हैं। गर्भाशयका आकार कुछ-कुछ नाशपातीके जैसा होता है, परन्तु स्थूल भाग चपटा होता है । गर्भाशयकी लम्बाई ३ इञ्च, चौड़ाई २ इञ्च और मुटाई १ इञ्च होती है । वजनमें यह अढ़ाई सेर साढ़े तीन तोले तक होता है। गर्भाशयका ऊपरी भाग मोटा और नीचेका भाग, जो योनिसे जुड़ा रहता है, पतला होता है। नीचेके भागमें एक छेद होता है, For Private and Personal Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । इसे गर्भाशयका बाहरी मुँह कहते हैं । इसे अँगुलीसे छू सकते हैं। ___ गर्भाशय भीतरसे पोला होता है। उसके अन्दर बहुत जगह नहीं होती, क्योंकि अगली-पिछली दीवारें मिली रहती हैं। गर्भ रह जानेपर गर्भाशयकी जगह बढ़ने लगती है । ___ गर्भाशयके ऊपरी भागमें, दाहिनी-बाई ओर डिम्ब-प्रनालियोंके मुख होते हैं । जिस तरह डिम्ब-प्रन्थियाँ दो होती हैं, उसी तरह डिम्बप्रनाली भी दो होती हैं। एक दाहिनी ओर दूसरी बाई ओर। ये दोनों प्रनालियाँ या नालियाँ गर्भाशयसे आरम्भ होकर डिम्ब-ग्रन्थियों तक जाती हैं । जब डिम्ब-ग्रन्थियोंसे कोई डिम्ब निकलता है, तब वह डिम्ब-प्रनाली झालरके सहारे डिम्ब प्रनालीके छेद तक और वहाँसे गर्भाशय तक पहुँचता है। योनि । योनि वह अङ्ग है, जिसमें होकर मासिक खून बाहर आता, मैथुनके समय लिंग अन्दर जाता और प्रसवकालमें बच्चा बाहर आता है। वास्तवमें, योनि भी एक नली है, जिसका ऊपरी सिरा पेड़ में रहता है और गर्भाशयकी गर्दनके नीचेक भागके चारों ओर लगा रहता है। गर्भाशयका बाहरी मुख इस नलीके अन्दर रहता है। __ योनिकी लम्बाई तीन या चार इंच होती है और उसकी दीवारें एक-दूसरेसे मिली रहती हैं। इसीसे कोई चीज़ या कीड़ा-मकोड़ा आसानीसे अन्दर जा नहीं सकता। योनिकी लम्बाई-चौड़ाई दबाव पड़नेपर जियादा हो सकती है। द्वारके पाससे योनि तंग होती है, बीचमें चौड़ी होती है और गर्भाशयके पास जाकर फिर तंग हो जाती है। योनिके द्वारपर योनि-संकोचनी पेशियाँ होती हैं जो उसे सुकेड़ती हैं। योनिकी दीवारोंपर एक बड़ा शिराजाल या नस-जाल है, जो मैथुनके समय खूनसे भर जाता है। इसीक कारणसे मैथुनके समय योनिकी दीवारें पहलेसे मोटी हो जाती हैं। For Private and Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नर-नारीकी जननेन्द्रियोंका वर्णन । स्तन। स्त्रीके स्तन या दुग्ध-ग्रन्थियाँ भी होती हैं। स्तनोंकी बीटनियों या घुण्डियोंमें १२ से २० तक छेद होते हैं। कुमारियोंके स्तन छोटे होते हैं । ज्यों-ज्यों कन्या जवान होती है, उसकी जननेन्द्रियाँ बढ़ती हैं । जवानी आनेपर स्तन भी बढ़ते हैं और भगके ऊपर बाल भी आते हैं। जब स्त्री गर्भवती होती है और वालकको दूध पिलाती है, तब ये स्तन बड़े हो जाते हैं। जिसने गर्भ धारण न किया हो, उस स्त्रीका स्तन-मण्डल हल्का गुलाबी होता है । गर्भके दूसरे मासमें स्तनमण्डल बड़ा और उसका रंग गहरा हो जाता है। अन्तमें वह काला हो जाता है । जब स्त्री दूध पिलाना बन्द करती है, तब स्तन-मण्डलका रंग फिर हल्का पड़ने लगता है; परन्तु उतना हल्का नहीं होता, जितना कि गर्भवती होनेके पहले था। 6 आर्तव-सम्बन्धी जानने-योग्य बातें । NOON जब कन्या जवान होने लगती है, तब उसकी योनिसे एक तरहका लाल पतला पदार्थ हर महीने निकला करता है। इसीको रजोधर्म या रजस्वला होना कहते हैं। रजोदर्शनके साथ ही जवानीके और चिह्न भी प्रकट होते हैं - स्तन बढ़ते हैं और भगके ऊपर बाल आते हैं। ___ आर्तव खून-मिला हुआ स्राव है, जो गर्भाशयसे निकलकर आता है । इस खूनमें श्लेष्मा मिली रहती है, इसीसे यह जल्दी जम नहीं सकता । सब स्त्रियोंके समान आर्तव नहीं होता। यह एकसे तीन या चार छटाँक तक होता है। ___ आर्तव निकलनेके दो-चार दिन पहलेसे जब तक वह निकलता रहता है, स्त्रियोंको आलस्य और भोजनसे अरुचि होती है। ६८ For Private and Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । कमर, कूल्हों और पेड़ में भारीपन होता है। बाज़ी स्त्रियोंका मिजाज चिड़चिड़ा हो जाता है । जो अमीरीकी वजहसे मोटी हो जाती हैं, जिनको क़ब्ज़ और अजीर्ण रहता है, जो जोश दिलानेवाली पुस्तकेंलण्डन-रहस्य या छबीली भटियारी प्रभृति पढ़ती हैं या ऐसी बातें सुनती और करती हैं, उनके पेड़ , कमर और कूल्होंमें बड़ी वेदना होती और उनके हाथ-पैर टूटा करते हैं। ___ इस गरम देशकी स्त्रियोंको बारह या चौदह सालकी उम्रमें रजोधर्म होने लगता है। किसी-किसीको बारह वर्षके पहले ही होने लगता है। यूरोप आदि शीतप्रधान देशोंकी स्त्रियोंको चौदह-पन्द्रह सालकी उम्र में रजोदर्शन होता है। जिन घरोंकी लड़कियाँ खाती तो बढ़िया-बढ़िया माल हैं और काम करती हैं कम तथा जो पतिसंग या विवाह-शादीकी बातें बहुत करती रहती हैं, उन्हें रजोदर्शन जल्दी होता है। गरीब घरोंकी कमजोर और रोगीली लड़कियोंको रजोदर्शन देर में होता है। __बारह या चौदह सालकी उम्रसे रजोधर्म होने लगता और ४५ या ५० सालकी उम्र तक होता रहता है । जब गर्भ रह जाता है, तब रजोधर्म नहीं होता। जब तक स्त्री गर्भवती रहती है, रजोधर्म बन्द रहता है । जो स्त्रियाँ अपने बच्चोंको दूध पिलाती हैं, वे बच्चा जननेके कई महीनों तक भी रजस्वला नहीं होती । ४५ और ४६ सालके दान रजोधर्म होना स्वभावसे ही बन्द हो जाता है । जब तक स्त्री रजस्वला होती रहती है, उसे गर्भ रह सकता है । कभी-कभी रजोदर्शन होनेके पहले और रजोदर्शन बन्द होनेके बाद भी गर्भ रह जाता है। आर्तव निकलनेके दिनोंमें स्त्रीकी बाक़ी जननेन्द्रियोंमें भी कुछ फेर-फार होता रहता है। डिम्ब-प्रन्थि, डिम्ब-प्रनालियाँ और योनि अधिक रक्तमय हो जाती हैं और उनका रङ्ग गहरा हो जाता है। गर्भाशय भी कुछ बढ़ जाता है। For Private and Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नर-नारीकी जननेन्द्रियोंका वर्णन । ५३६ ____ दो आर्तव या मासिक-धर्मों के बीचमें २८ दिनका अन्तर रहता है। किसी-किसीको एक या दो दिन कम या जियादा लगते हैं। बहुधा तीन या चार दिन तक रजःस्राव होता है। किसी-किसीको एक दिन और किसीको जियादा-से-ज़ियादा छै दिन लगते हैं। छ दिनोंसे अधिक रजःस्राव होना या महीने में दो बार होना रोग है। इस दशामें इलाज करना चाहिये। मैथुन । मैथन, केवल सन्तान पैदा करनेके लिये है, पर विधाताने इसमें एक अनिर्वचनीय आनन्द रख दिया है। इससे हर प्राणी इसे करना चाहता है और इस तरह जगदीशकी सृष्टि चलती रहती है। ___ मैथुन करनेसे पुरुषका शुक्र या वीर्य स्त्रीकी योनिमें पहुँचता है । जब ठीक विधिसे मैथुन किया जाता है, तब लिंगकी सुपारी योनिकी दीवारोंसे रगड़ खाती है। इस रगड़का असर नाड़ियों द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचता है । इस समय स्त्री और पुरुष दोनोंको बड़ा आनन्द आता है। योनिकी दीवारें एक श्लेष्ममय रससे भीगी रहती हैं। बहुतसे अनजान इसे स्त्रीका वीर्य समझ लेते हैं। पर इस तर पदार्थमें सन्तान पैदा करनेकी सामर्थ्य नहीं होती। यह खाली योनिकी दीवारोंको गीली रखता है, जिससे लिंगकी रगड़से योनिकी श्लेष्मिक कलाको नुक़सान न पहुँचे। ___ जब सुपारी गर्भाशयके मुंहसे मिल जाती है, तब स्त्रीको बहुत ही जियादा आनन्द आता है। अगर सुपारी या शिश्नमुण्ड गर्भाशयके पास न पहुँचे या उससे रगड़ न खाय, तो मैथुन व्यर्थ है। स्त्रीको ज़रा भी आनन्द नहीं आता। जब सुपारी और गर्भाशयके मुख मिलते हैं, तब वीर्य बड़े जोरसे निकलता और गर्भाशयके मुंहके For Private and Personal Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । पास ही योनिमें गिरता है। गर्भाशयका स्वभाव वीर्यको चूसना है, अतः वह अनेक बार उसे फौरन ही चूस लेता है। वीर्य निकल चुकते ही मैथुन-कर्म खतम हो जाता है। वीर्य निकलते ही खून लौट जाता है, इसलिये लिंग शिथिल हो जाता है। बहुत मैथुन हानिकारक है। अत्यधिक मैथुनसे स्त्री-पुरुष दोनों ही यक्ष्मा या राजरोग प्रभृति प्राण-नाशक रोगोंके शिकार हो जाते हैं। गर्भाधान । जब पुरुषका वीर्य स्त्रीके गर्भाशयमें जाता है, तब उसमें शुक्रकीट भी होते हैं। शुक्रकीटोंका डिम्बोंसे अधिक अनुराग होता है; अतः जिस डिम्ब-प्रनाली में डिम्ब होता है, उसीमें शुक्रकीट घुसते हैं। मतलब यह है कि, शुक्रकीट धीरे-धीरे गर्भाशयसे डिम्ब-प्रनालीमें जा पहुँचते हैं । गर्भ रहने के लिये शुक्रकीटकी ही जरूरत होती है । वीर्यके साथ शुक्रकीट तो बहुत जाते हैं, पर इनमें जो शुक्रकीट जबरदस्त होता है, वही डिम्बके अन्दर घुस पाता है। ___ बहुतसे अनजान समझते हैं कि, गर्भाशयमें अधिक वीर्यके जानेसे गर्भ रहता है । यह बात नहीं है। गर्भ के लिये एक शुक्रकीट ही काफी होता है । इसलिये अगर जरा-सा वीर्य भी गर्भाशयमें रह जाता है तो गर्भ रह जाता है, योनि, गर्भाशय और डिम्ब-प्रनालीमें शुक्रकीट कई दिनों तक जीते रहते हैं; अतः जिस दिन मैथुन किया जाय उसी दिन गर्भ रह जाय, यह बात नहीं है। शुक्रकीटोंके जीते रहनेसे मैथुनके कई दिन बाद भी गर्भ रह सकता है। ___असलमें शुक्राणु और डिम्बके मिलनेको गर्भाधान कहते हैं; यानी इन दोनोंके मिलनेसे गर्भ रहता है। जब एक शुक्राणु या शुक्रके कीड़ेका एक ही डिम्बसे मेल होता है, तब एक ही गर्भ रहता और एक ही बच्चा पैदा होता है। जब कभी दो शुक्रकीटोंका दो डिम्बोंसे मेल हो जाता है, तब दो गर्भ पैदा होते हैं। इस For Private and Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नर-नारीकी जननेन्द्रियोंका वर्णन । दशामें स्त्री एक साथ या थोड़ी देरके अन्तरसे दो बच्चे जनती है। कभी-कभी दो शुक्रकीटोंका एक डिम्बसे मेल हो जाता है, तब जो बालक पैदा होता है, उसके आपसमें जुड़े हुए दो शरीर होते हैं। ऐसे बालक बहुधा बहुत दिन नहीं जीते। शुक्रकीट और डिम्बका संयोग बहुधा डिम्ब-प्रनाली में होता है, पर कभी-कभी गर्भाशयमें भी हो जाता है। इन दोनोंके मेलको ही गर्भाधान होना कहते हैं; और इन दोनोंके मेलसे जो चीज़ बनती है, उसे ही गर्भ कहते हैं। _ नाल क्या चीज है ? भ्रूण, गर्भ या बच्चा गर्भाशयकी दीवारसे एक रस्सी द्वारा लटका रहता है। इस रस्सीको ही नाल या नाभिनाल कहते हैं। क्योंकि नाल एक तरफ़ भ्र ण या बच्चेकी नाभिसे लगा रहता है और दूसरी ओर गर्भाशय-कमलसे । नाभिनाल उतना ही लम्बा होता है, जितना कि भ्रूण या बच्चा । कभी-कभी यह बहुत लम्बा या छोटा भी होता है। कमल किसे कहते हैं ? उस स्थानको जिससे भ्र ण नाल द्वारा लटका रहता है, “कमल" कहते हैं । कमल सामान्यतः गर्भाशयके गात्रमें या तो ऊपरकी ओर या उसकी अगली-पिछली दीवारोंमें बनता है। कभी-कभी यह गर्भाशयके भीतरी मुखके पास भी बन जाता है, यह अच्छा नहीं। इससे बच्चा जनते समय अधिक खून जानेसे जच्चाकी जान जोखिममें रहती है। यह कमल तीसरे महीनेमें अच्छी तरह बन जाता है । कमलके ये काम हैं: (१) कमल भ्रूणको धारण करता और इसके द्वारा भ्रूण माताके शरीरसे जुड़ा रहता है। (२) कमल द्वारा ही भ्रणका पोषण होता है। For Private and Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४२ चिकित्सा-चन्द्रोदय। कमलसे ही भ्र णके साँस लेनेका काम होता है। (३) कमल ही भ्रूणके रक्त-शोधक यंत्रका काम करता है । जिस तरह बच्चेका पोषण कमलके द्वारा होता है, उसी तरह उसके श्वासोच्छ्वासका काम भी कमल द्वारा ही होता है । गर्भका वृद्धि-क्रम । तीन-चार सप्ताहके गर्भकी लम्बाई तिहाई इच और भार सवासे डेढ़ माशे तक होता है। परिमाण चींटीके समान होता है। मुखके स्थानपर एक दरार और नेत्रोंकी जगह दो काले तिल होते हैं। छै सप्ताहका गर्भ- इसकी लम्बाई आध इचसे एक इंच तक और बोझ तीनसे ५ माशे तक होता है। सिर और छाती अलग अलग दीखते हैं। चेहरा भी साफ दीखता है। नाक, आँख, कान और मुँहके छेद बन जाते तथा हाथों में उँगलियाँ निकल आती हैं। कमल बनना भी आरम्भ हो जाता है। दो मासका गर्भ-इसकी लम्बाई डेढ़ इचके क़रीब और भार आठसे बीस माशे तक । नाक, होठ और आँखें दीखती है; परन्तु भ्र ण लड़का है या लड़की, यह नहीं मालूम होता । मलद्वार, फुफ्फुस और सीहा आदि दीखते हैं। तीन मासका गर्भ-इसकी लम्बाई टाँगोंको छोड़कर दो-तीन इंच और भार अढ़ाई छटाँकके करीब होता है। सिर बहुत बड़ा होता है । अँगुलियाँ अलग-अलग दीखती हैं । भग-नासा या शिश्न भी नज़र आते हैं; अतः कन्या है या पुत्र, इस बातके जाननेमें सन्देह नहीं रहता। चार मासका गर्भ-इसकी लम्बाई साढ़े तीन इंचके करीब और टाँगोंको मिलाकर छै इचके लगभग। सिरकी लम्बाई कुल शरीरकी लम्बाईसे चौथाई होती है। गर्भका लिंग साफ़ दीखता है। नाखून बनने लगते हैं। कहीं-कहीं रोएँ दीखने लगते हैं और हाथ-पाँव कुछ-कुछ हरकत करने लगते हैं। For Private and Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नर-नारीकी जननेन्द्रियोंका वर्णन । ५४३ पाँच मासका गर्भ-सिरसे एड़ी तक दस इंचके करीब लम्बा और बोझमें आध सेर होता है। सारे शरीरपर बारीक बाल होते हैं । यकृत अच्छी तरह बन जाता है । आँतोंमें कुछ मल जमा होने लगता है । गर्भ कुछ हिलता-डोलता है । माताको उसका हरकत करना या हिलना-डोलना मालूम होने लगता है । नाखून साफ दीखते हैं । छै मासका गर्भ-इसकी लम्बाई सिरसे एड़ी तक १२ इंच और भार एक सेरके करीब होता है। सिरके बाल और स्थानोंकी अपेक्षा ज़ियादा लम्बे होते हैं । भौं और बरौनियाँ बनने लगती हैं। सात मासका गर्भ--इसकी लम्बाई १४ इंच और भार डेढ़ सेरके लगभग । सिरपर कोई पाँच इंच लम्बे बाल होते हैं। आँतोंमें मल इकट्ठा हो जाता है। इस मासमें पैदा हुए बालकका अगर यत्नसे पोषण किया जाय, तो बच भी सकता है, पर ऐसे बालक बहुधा मर जाते हैं। ____ आठ मासका गर्भ--इसकी लम्बाई १६।१७ इंच और भार दो सेरके क़रीब होता है । इस मासमें पैदा हुआ बच्चा, अगर सावधानीसे पालन किया जाय, तो जी सकता है। नौ मासका गर्भ-इसकी लम्बाई १८ इंच तक और भार सवा दो सेरसे अढ़ाई सेर तक होता है । इस मासमें अण्ड बहुधा अण्डकोषमें पहुँच जाते हैं। दस मासका गर्भ--इसकी लम्बाई २० इंचके लगभग और वजन सवा तीनसे साढ़े तीन सेरके करीब होता है । शरीर पूरा बन जाता है । हाथोंकी अँगुलियोंके नाखून पोरुओंसे अलग दीखते हैं। पैरकी उँगलियोंके नख पोरुओं तक रहते हैं। आगे नहीं बढ़े रहते । टटरीके बाल १ इंच लम्बे होते हैं । अगर बालक जीता हुआ पैदा होता है, तो वह जोरसे चिल्लाता है और यदि उसके होठोंमें कोई चीज़ दी जाती है, तो वह उसे चूसनेकी चेष्टा करता है । For Private and Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । गर्भ गर्भाशयमें किस तरह रहता है ? पहलेके महीनों में जब भ्रूण छोटा होता है, उसका सिर ऊपर और धड़ नीचे रहता है; पर पीछेके महीनोंमें सिर नीचे और चूतड़ ऊपर हो जाते हैं। ६६फी सदी भ्र ण इसी तरह रहते हैं। यानी सिर नीचे और चूतड़ ऊपर रहते हैं। योनिसे पहले सिर निकलता है और पीछे चूतड़ निकलते हैं। लेकिन जब सिर ऊपर और चूतड़ नीचे होते हैं, तब बालक चूतड़के बल होता है। कभी-कभी कन्धे, पैर या हाथ भी पहले निकल आते हैं। सिरके बल होना, सबसे उत्तम और सुखदाई है। बच्चा जनने में किन स्त्रियों को कम और किनको जियादा पीड़ा होती है ? बच्चा जननेवालीको जच्चा या प्रसूता कहते हैं । भ्रूण या बच्चेका शरीरसे निकलकर बाहर आना “प्रसव” या “जनना" कहलाता है। बच्चा जननेमें कमोवेश पीड़ा सभीको होती है। पर नीचे लिखी स्त्रियोंको पीड़ा कम होती हैः-- (१) जो स्त्रियाँ मज़बूत होती हैं । (२) जो मिहनत करती हैं। (३) जो शान्त-स्वभाव होती हैं । ( ४ ) जिनका वस्ति-गह्वर विशाल होता है और जिनके वस्ति गह्वरकी हड्डियाँ ठीक तौरसे बनी होती हैं। देखा है, दिहातियोंकी हृष्ट-पुष्ट स्त्रियाँ बच्चा जननेके दिन तक खेतपर जातीं, वहाँ काम करती और सिरपर घासका बोझा लादकर घर वापस आती हैं। राहमें ही बच्चा हो पड़ता है, तो वे उसे अकेली ही जनकर, लहँगेमें रखकर, घर चली आती हैं। उन्हें विशेष For Private and Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नर-नारीकी जननेन्द्रियोंका वर्णन । पीड़ा नहीं होती; लेकिन अमीरोंकी स्त्रियाँ अथवा नीचे लिखी स्त्रियाँ बच्चा जननेमें बड़ी तकलीफ़ सहती हैं:-- (१) जो दुर्बल या नाजुक होती हैं। (२) जो कम उम्रमें बच्चा जनती हैं । (३) जो अधिक अमीर होती हैं। (४) जो किसी भी तरहकी मिहनत नहीं करतीं। (५) जिनका वस्ति-गह्वर अच्छी तरह बना हुआ नहीं होता, जिनका वस्ति-गह्वर विशाल-लम्बा-चौड़ा न होकर तंग होता है और जिनके वस्ति-गह्वरकी हड्डियाँ किसी रोगसे मुड़ जाती हैं। (६) जो ईश्वरीय नियमों या कानून-कुदरतके खिलाफ काम करती हैं। (७) जिनका स्वभाव चंचल होता है। (८) जो बच्चा जननेसे डरती हैं। बच्चा जननेके समय स्त्रीके दर्द क्यों चलते हैं ? बच्चा जननेका समय नज़दीक होनेपर, स्त्रीके गर्भाशयका मांस सुकड़ने लगता है, पर वह एक-दमसे नहीं सुकड़ जाता, धीरे-धीरे सुकड़ता है। इसी सुकड़नेसे लहरोंके साथ दर्द या वेदना होती है । मांसके सुकड़नेसे गर्भाशयकी भीतरी जगह कम होने लगती है और जगहकी कमी एवं गर्भाशयकी दीवारोंके दबावसे गर्भाशयके भीतरकी चीजें--बच्चा और जेरनाल वगैरः बाहर निकलना चाहते हैं। इतनी तंग जगहोंमेंसे बच्चा अासानीसे कैसे निकल पाता है ? जब बच्चा होनेवाला होता है, तब गर्भके पानीसे भरी हुई पोटलीसी गर्भाशयके मुंहमें आकर अड़ जाती है । इससे गर्भाशयका मुँह चौड़ा हो जाता है और बालकके सिर निकलने लायक जगह For Private and Personal Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । हो जाती है। जब बच्चेका सिर गर्भाशयके मुँहमें आ पड़ता है, तब उसके आगे जो पानीकी पोटली होती है, वह भारी दबाव पड़नेसे फट जाती और गर्भका जल बह-बहकर योनिके बाहर आने लगता है । इस जल-भरी पोटलीके फूटनेके साथ जरा-सा खून भी दिखाई देता है। गर्भ-जलसे योनि और भग खूब तर हो जाते हैं और इसी वजहसे बच्चा सहजमें फिसल आता है। बाहर आते हो बच्चा क्यों रोता है ? । ज्योंही बच्चा योनिके बाहर आता है, वह जोरसे चिल्लाता है। यह चिल्लाकर रोना मुफीद है, इससे वह श्वास लेता और हवा पहली ही बार उसके फुफ्फुसोंमें घुसती है। अगर बालक होते ही नहीं रोता, तो उसके जीनेमें सन्देह हो जाता है; यानी वह मर जाता है। अगर पेटसे मरा बालक निकलता है, तो वह नहीं रोता । अपरा या जेरनालके देरसे निकलने में हानि । अगर बच्चा बाहर आनेके एक घण्टेके अन्दर अपरा या जेरनाल वगैरः बाहर न आ जावें, तो खराबीका खौफ है। इन्हें दाईको फौरन निकालनेके उपाय करने चाहिएँ । बच्चा होनेके बाद पेटसे एक लोथड़ासा और निकलता है, उसीको अपरा या जेरनाल कहते हैं। प्रसूताके लिये हिदायत । जब बच्चा और बच्चे के बाद अपरा या जेरनाल गर्भाशयसे निकल आते हैं, तब गर्भाशय अपनी पहली ही हालतमें होने लगता है । यहाँ तक कि चौदह या पन्द्रह दिनोंमें वह इतना छोटा हो जाता है कि, वस्तिगहर या पेड़ में घुस जाता है । जब तक गर्भाशय पेड़ में न घुस जाय, प्रसूताको चलने फिरने और मिहनत करनेसे बचना चाहिये। चालीस या बयालीस दिनमें गर्भाशय ठीक अपनी असली हालतमें हो जाता है, तब फिर किसी बातका भय नहीं रहता। For Private and Personal Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नर-नारीकी जननेन्द्रियोंका वर्णन । ___ बालक होनेके बारह या चौदह दिनों तक योनिसे थोड़ा-थोड़ा पतला पदार्थ गिरा करता है । इसमें जियादा हिस्सा खूनका होता है। पहले खून निकलता है, पर पीछे वह कम होने लगता है। तीनचार दिन बाद यूँ दरा-दरा पानी-सा गिरता है । एक हफ्ते बाद वह स्राव पीला हो जाता है। इस स्रावमें खून के सिवा और भी अनेक चीजें होती हैं । इसमें एक तरहकी बू भी आया करती है । यदि भीतरसे आनेवाले पदार्थमें बदबू हो या उसका निकलना कम पड़ जाय या वह क़तई बन्द हो जाय, तो ग़फ़लत छोड़कर इलाज करना चाहिये । धन्यवाद ! इस छोटे-से लेखक लिखनेमें हमें "हमारी शरीर-रचना" नामकी पुस्तक और डाक्टर कात्तिक चन्द्रदत्त महोदय एल० एम० एस० भूतपूर्व सिविल सर्जन हैदराबाद, दकनसे, बहुत सहायता मिली है, अतः हम उक्त पुस्तकक लेखक महोदय और डाक्टर साहब मजकूरको अशेष धन्यवाद देते हैं । डाक्टर त्रिलोकीनाथजीको हम विशेष रूपसे धन्यवाद इसलिये देते हैं, कि हम उनके ऋणी सबसे अधिक हैं । हमने इस खण्डमें स्त्री-रोगोंकी चिकित्सा लिखी है। उसका अधिक सम्बन्ध नर-नारीकी जननेन्द्रियोंस है, इसलिए हमें शरीरके इन अङ्गोंके सम्बन्धमें कुछ लिखना जरूरी था। यह मसाला हमें उक्त ग्रन्थमें अच्छा मिला, इसीसे हम लोभ संवरण न कर सके । - For Private and Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । KATARIMARRIERRIA * क्षुद्र रोग-चिकित्सा। माँई और नीलिका वगैरकी चिकित्सा । HKKK लोग ज़ियादा शोच-फिक्र-चिन्ता या क्रोध करते हैं, अपने जो बलसे अधिक परिश्रम या मिहनत करते हैं, हर समय HERE किसी-न-किसी चिन्ता-जनक खयालमें ग़लता-पेचाँ रहते हैं, उनके चेहरोंपर कम उम्र में ही काले, लाल या सफेद दाग़ अथवा चकत्ते-से हो जाते हैं। उनके सुन्दर और दर्शनीय चेहरे असुन्दर और अदर्शनीय हो जाते हैं। आयुर्वेद-ग्रन्थों में लिखा है--क्रोध और परिश्रमसे कुपित हुआ वायु, पित्तसे मिलकर, मुखपर आकर, वेदना-रहित सूक्ष्म और कालासा चकत्ता मुँहपर कर देता है। उसे ही व्यंग और झाँई कहते हैं । किसीने लिखा है, वात और पित्त सुर्ख रंगके दाग़ कर देते हैं, उन्हें ही झाँई कहते हैं । किसीने लिखा है, शरीरपर बड़ा या छोटा, काला या सफ़ेद, वेदना-रहित जो मण्डलाकार दाग़ हो जाता है, उसे "न्यच्छ" कहते हैं । सुर्ख दाराको व्यंग या झाँई और नीलेको नीलिका या नीली झाँई कहते हैं। __ हिकमतमें लिखा है,--तिल्ली, जिगर या पेटके फसादसे, धूप और गरम हवामें फिरनेसे तथा शोच-फिक्र और ग़म करने एवं अत्यन्त स्त्री-प्रसंग करनेसे आदमीका चेहरा स्याह, मैला, बदरूप और दाग़धब्बेवाला हो जाता है; अतः धूप, गरम ह्वा, चिन्ता और स्त्री-प्रसंगको त्यागकर तिल्ली और जिगर प्रभृतिकी दवा करनी चाहिये और मुँहपर कोई अच्छा उबटन मलना चाहिये । For Private and Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४६ झाँई और नीलिका वगैरकी चिकित्सा । चिकित्सा । - (१) अर्जुन-वृक्षकी छाल और सफ़ेद घोड़ेके खुरकी मषी-इन दोनोंका लेप झाँई को नाश करता है। (२) आकके दूधमें हल्दी पीसकर लगानेसे नयी क्या-पुरानी झाँई भी चली जाती है। परीक्षित है। (३) तेलकी, २१ दिन तक प्रतिमर्षण नस्य देनेसे, गालोंपर उठी हुई फुन्सियाँ इस तरह नष्ट हो जाती हैं, जिस तरह धर्मसेवनसे पाप। (४) केशर, चन्दन, तमालपत्र, खस, कमल, नीलकमल, गोरोचन, हल्दी, दारुहल्दी, मँजीठ, मुलहटी, सारिवा, लोध, पतंग, कूट, गेरू, नागकेशर, स्वर्णक्षीरी, प्रियंगू, अगर और लालचन्दन-इन २१ चीजोंको एक-एक तोले लेकर, पानीके साथ, सिलपर महीन पीसकर लुगदी या कल्क बना लो। फिर काली तिलीके एक सेर तेलमें ऊपरकी लुगदी और चार सेर पानी मिलाकर मन्दाग्निसे पकाओ ।जब पानी जलकर तेल-मात्र रह जाय (पर तेल न जले) उतारकर छान लो और बोतलमें भरकर रख दो । ___ इस तेलको राज-रानियों या धनी मनुष्योंको मुखपर लगाना चाहिये। मुहासे, व्यङ्ग, नीलिका, झाँई, दुश्छवि-सूरत बिगड़ना और विवर्णता-मुँहका रङ्ग बिगड़ जाना आदि चेहरेके रोग नष्ट होकर, चेहरा अतीव मनोहर और मुख-कमल केशरके समान कान्तिमान हो जाता है । जिन लोगोंके चेहरे खराब हो रहे हों, वे इस तेलको बनाकर अवश्य लगावें। इस तेलसे उनका चेहरा सचमुच ही मनोहर हो जायगा । परीक्षित है। ___ (५) चेहरेपर खरगोशका खून लगानेसे व्यङ्ग और झाँई नाश हो जाती हैं। (६) मँजीठको शहदमें मिलाकर लेप करनेसे झाँई अवश्य नाश हो जाती है । परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५० - - चिकित्सा-चन्द्रोदय । (७) बड़के अंकुर और मसूर - इन दोनोंको गायके दृधमें पीसकर लगाने या लेप करनेसे झाँई नाश हो जाती है । परीक्षित है। (८) वरनाकी छाल बकरीके दूधमें पीसकर लेप करनेसे झाँई आराम हो जाती है। नोट-चरनाको हिन्दीमें वरना और बरुण तथा बंगलामें बरुण गाछ कहते हैं । यह वातपित्त-नाशक है । () जायफल पानीमें घिसकर लगानेसे झाँई चली जाती है। (१०) बादामकी मींगी पानमें घिसकर मुखपर लेप करनेसे झाँई चली जाती है। (११) मसूरकी दालको दूधमें पीस लो। फिर उसमें जरा-सा कपूर और घी मिला दो । इस ले पसे झाँई या नीली झाँई नाश होकर चेहरा कमल के जैसा मनोहर हो जाता है । परीक्षित है। (१२) एक तरबूजमें छोटा-सा छेद कर लो और उसमें पाव-भर चाँवल भर दो। इसके बाद उस छेदका मुख उसी तरबूज के टुकड़ेसे बन्द करके, सात दिन तक, तरबूजको रखा रहने दो। आठवें दिन, चाँवलोंको निकालकर सुखा लो। ऐसे चाँवलोंको महीन पीसकर, उबटनकी तरह, नित्य, मुखपर लगानेसे झाँई आदि नाश हो जाते हैं। (१३) आमकी बिजली और जामुनकी गुठली लगानेसे झाँई नाश हो जाती है। (१४) नाजबोंकी पत्ती और तुलसीकी पत्ती दोनोंको पीसकर मुखपर मलनेसे झाँई या काले दाग नष्ट हो जाते हैं । (१५) पहले कितने ही दिनों तक, कुलीजन पानीमें पीस-पीसकर झाँई या काले दागोंपर लगाओ। इससे चमड़ेके भीतरकी स्याही नष्ट हो जायगी। इसके कुछ दिन लगानेके बाद, चाँवलोंको पानीमें महीन पीसकर उन्हीं दागोंके स्थानोंपर लेप कर दो। इनसे चमड़ेका रङ्ग एकसा हो जायगा। For Private and Personal Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झाँई और नीलिका वगैरकी चिकित्सा। ५५१ (१६) चौलाईकी जड़ और डाली लाकर जला लो । इस राखको पानी में पीसकर झाँई पर मलो और आध घण्टे तक धूपमें बैठो। जब लेप सूख जाय, उसे गरम पानीसे धो डालो । इसके बाद लाहौरी नमक पीसकर मुखपर मलो। इन उपायोंसे झाँई या काले दारा नष्ट हो जायँगे। (१७) तुलसीकी सूखी पत्तियाँ पानीमें पीसकर मुखपर मलनेसे काले दाग नष्ट हो जाते हैं । (१८) कलमी शोरा और हरताल चार-चार माशे लाकर पीस लो। फिर उस चूर्णके तीन भाग कर लो । एक भागको पानीमें पीसकर मुखपर मलो । आध घण्टे तक धूप में बैठो और फिर गरम जलसे धो लो । दूसरे दिन फिर इसी तरह करो। तीन दिनमें झाँई या दागोंका नाम भी न रहेगा। (१६) करञ्जवेकी गिरी गायके दूधमें पीसकर लेप करो, इससे चेहरा बुकि चमकीला हो जायगा । (२०) नीमके बीज सिरके में पीसकर मलनेसे झाँई नाश हो जाती है। (२१) अंजरूत १ तोले और सफेद कत्था ६ माशे-दोनोंको गायके ताजा दूधमें पीसकर, दिनमें कई बार मलनेसे झाँई खूब जल्दी आराम हो जाती है। (२२ ) कबूतरकी बीट पानीमें पीसकर, हर रोज़, दिन में कई बार मलनेसे झाँई नष्ट हो जाती है । ( २३ ) मसूरकी दाल नीबूके रसमें पीसकर लगानेसे झाँई नाश हो जाती है। ... (२४) हल्दी और काले तिल भैसके दूधमें पीसकर लगानेसे छीप नष्ट हो जाती है। (२५) चीनियाके फूल, छाल और पत्ते-पानीमें पीसकर लगानेसे छीप नाश हो जाती है। For Private and Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । . (२६) चीनियाके फूल नीबूके रसमें पीसकर लगानेसे छीप चली जाती है। (२७) सुहागा और चन्दन पानीमें पीसकर लगानेसे छीप चली जाती है। (२८) पँवारके बीजोंको अधकुचले करके, दहीके पानीमें मिला दो और तीन दिन रखे रहने दो, फिर इस पानीको बदनपर मलकर नहा डालो; छीप नष्ट हो जायगी। . (२६) कलमलीके बीज दूधमें पीसकर, उबटनकी तरह मलनेसे चेहरा साफ हो जाता है। (३०) चिड़ियाकी बीट सुखाकर और पीसकर मुँहपर मलनेसे चेहरा सुन्दर हो जाता है। _(३१ ) पीली सरसों एक पावको दूधमें डालकर औटाओ। जब जलते-जलते दूध जल जाय, सरसोंको निकालकर सुखा दो। फिर रोज इसमेंसे थोड़ी-सी सरसों लेकर, महीन पीसकर उबटन बना लो और मुखपर मलो । चेहरा चमक उठेगा। (३२) चाँवल, जौ, चना, मसूर और मटर-इन सबको बराबरबराबर लेकर महीन पीस लो। फिर इसमेंसे थोड़ा-थोड़ा चून नित्य लेकर, उबटन-सा बना लो और मुखपर मलो। चेहरा एकदम मनोहर हो जायगा। नोट-चाँवल, जौ, चना, मसूर और मटरमेंसे प्रत्येक मुंहको साफ कर सकते हैं। अगर किसी एकका भी उबटन बनाया जाय तो भी लाभ होगा। चेहरा साफ हो जायगा। (३३) समग़ अरबी, कतीरा और निशास्ता,-इनको पीसकर रख लो। नित्य ईसबगोलके लुआबमें इस चूर्णको मिलाकर, सफरमें मुँहपर मलो । राह चलनेके समय जो चेहरेपर स्याही आ जाती है, बह न आवेगी। चेहरा साफ बना रहेगा। (३४) नारियलके भीतरका एक पूरा गोला लेकर, उसमें "मना रहेगा। For Private and Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झाँई और नीलिका वगैरकी चिकित्सा। ५५३. चाकूसे छेद कर लो। फिर २० माशे केशर और २० माशे जवासा, पानीमें पीसकर, उस गोलेमें भर दो और उसीके टुकड़ेसे उसका मुँह बन्द कर दो। इसके बाद एक बर्तनमें आठ सेर गायका दूध भरकर, उसमें वह गोला रख दो और दूधके बर्तनको चूल्हेपर चढ़ाकर मन्दी-मन्दी आगसे औटने दो। जब दूध जलकर सूख जाय, गोले या खोपरेको निकाल लो। फिर इस खोपरेमेंसे दवाको निकालकर पीस लो और चने-समान गोलियाँ बनाकर छायामें सुखाकर रख लो। इसमेंसे एक गोली नित्य पानमें रखकर खानेसे चेहरा खूबसूरत हो जाता है। खासकर स्त्रियोंको तो यह नुसखा परी ही बना देता है। (३५) बंगभस्म और लाखका रस--महातर, इन दोनोंको मिलाकर लेप करनेसे झाँई नष्ट हो जाती है। (३६ ) मँजीठ, लोध, लाल चन्दन, मसूर, फूल प्रियंगू , कूट और बड़की कोंपल-इन सबको पीसकर उबटनकी तरह मुंहपर मलनेसे छायी और माँई आदि नाश होकर चेहरा साफ़ और सुन्दर हो जाता है। (३७) गोंद, कतीरा और निशास्ता-ईसबगोलके पानी या लुआबमें पीसकर मुँहपर मलनेसे मुँहका रङ्ग साफ़-उजला हो जाता है। ___ नोट- चेहरा सुन्दर बनानेवालेको गरम हवा, धूप, स्त्री-प्रसंग और सोचफ़िक्रको, कम-से-कम कुछ दिनोंको त्याग देना चाहिये, क्योंकि बहुत करके इन कारणोंसे ही चेहरा कुरूप हो जाता है; अत: कारणोंके त्यागे बिना, कोरा उबटन या लेप करनेसे क्या होगा ? (३८) चौकिया सुहागा ३ तोले, केशर ३ तोले, शुद्ध सिंगरफ ३ तोले, शुद्ध मैनसिल ३ तोले और मुर्दासंग ६ तोले- इन सबको खरल में डालकर पाँच दिन बराबर घोटो, इसके बाद रख लो। इसमेंसे थोड़ी-थोड़ी दवा तिलीके तेलमें मिलाकर, शरीरपर मलनेसे For Private and Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । सेंहुआ, दाद और मुंहकी झाँई-ये सब रोग नाश हो जाते हैं। यह दवा राजाओंके लायक है। 3 -00- 000 ॐ मुहासोंकी चिकित्सा । -00 -00- 0 वात, कफ और खूनके कोपसे, जवानीमें मुँहपर जो सेमलके काँटोंके समान फुन्सियाँ होती हैं, उन्हें बोलचालकी ज़बानमें "मुहासे" और संस्कृतमें “मुखदूषिका” कहते हैं । इनसे खूबसूरत चेहरा बदसूरत दीखने लगता है । बहुत लोग इस रोगकी दवा तलाश किया करते हैं, अतः हम नीचे मुहासे-नाशक दवाएँ लिखते हैं:_ "तिब्बे अकबरी” और “इलाजुलगुर्बा" आदि हिकमतके ग्रन्थोंमें लिखा है:-- (१) सररूकी फस्द खोलो। (२) जुलाब देकर, शीतल दवाओंका लेप करो । आयुर्वेद-ग्रन्थोंमें लिखा है:-- मुहासे, न्यच्छ, व्यङ्ग और नीलिका इनको नीचेके उपायोंसे दूर करोः ( १ ) शिरावेधन करो-फस्द खोलो। (२) लेप और अभ्यञ्जनादिसे काम लो। मुहासे-नाशक नुसखे । (१) अमलताशके वृक्षकी छाल, अनारकी छाल, लोध, आमाहल्दी और नागरमोथा,-इन सबको बराबर-बराबर लेकर महीन पीस लो। फिर इसे पानीमें मिलाकर, नित्य, मुंहपर मला करो और सूखनेपर धो डाला करो। For Private and Personal Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुहासोंका इलाज। (२) बेरकी गुठलीकी मींगी, मुलहटी और कूट-इनका समानसमान लेकर, पानी में महीन पीसो और मुंहपर नित्य मलो। (३) जवासेका काढ़ा करके, उसीसे नित्य मुँह धोया करो। (४) गायके दूधमें खुरफेके बीज पीसकर, उबटनकी तरह रोज मलो और पीछे मुंह धो लो। (५) नरकचूर और समन्दर-भाग-दोनोंको पानीमें महीन पीसकर, उबटनकी तरह रोज़ लगाओ। (६) थोड़ा-सा कुचला पानीमें भिगो दो । २।३ घण्टे बाद मलकर पानी-पानी छान लो और कुचला फेंक दो । फिर, सफेद चिरमिटीकी गिरी और लाहौरी नोन समान-समान लेकर, कुचलेके पानीमें पीसकर मुहासोंपर लेप करो। (७) केवल नरकचूर पानीमें पीसकर मुहासोंपर लगाओ। (८) नीबूके रसमें पीली कौड़ी पीसकर मिला दो । जब वह सूख जाय, फिर और कौड़ी पीसकर मिला दो। जब यह पिछली कौड़ी भी सूख जाय, इस मसालेको सवेरे-शाम मुँहपर मलो। मुँह साफ हो जायगा। ___() सिरसकी छाल और काले तिल समान-समान लेकर, सिरकेमें पीसकर मुंहपर लेप करो। (१०) कलौंजी सिरकेमें पीसकर, रातको मुँहपर लगाकर सो जाओ । सवेरे ही उठकर पानीसे धो डालो | इस उपायसे, कई दिनोंमें, मुहासे और मस्से दोनों नष्ट हो जायँगे। (११) झड़बेरीके बेरोंकी राख कर लो। उस राखको पानीमें मिलाकर मुंहपर लेप करो। (१२) मजीठ, लालचन्दन, मसूर, लोध और लहसनकी कोंपलइनको पानीके साथ महीन पीसकर, रातको मुहासोंपर लगाकर सो जाओ और सवेरे ही धो डालो। For Private and Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (१३) लोध, धनिया और बच, इन तीनोंको पानीमें पीसकर मुहासोंपर लेप करो। परीक्षित है। (१४) गोरोचन और कालीमिर्चोंको पानीके साथ पीसकर मुहासोंपर लेप करो । परीक्षित है। (१५) सरसों, बच, लोध और सेंधानोन--इनका लेप मुहासे नाश करने में अकसीर है। (१६) बच, लोध, सोंठ, पीपर और कालीमिर्च-इनको समानसमान लेकर पानीमें महीन पीसकर लेप करो। इससे मुहासे निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं । परीक्षित है। (१७) तिल, बालछड़, सोंठ, पीपर, कालीमिर्च और सफेद जीरा-इनको समान-समान लेकर और महीन पीसकर मुखपर लेप करनेसे मुहासे नाश हो जाते हैं । परीक्षित है। ___ (१८ ) सेमलके काँटोंको गायके दूधमें पीसकर लेप करनेसे मुहासे ३ दिनमें नष्ट हो जाते हैं। नोट-वमन कराने से भी लाभ देखा गया है। (१६) लालचन्दन और केशरको पानीमें पीसकर लेप करनेसे मुहासे नष्ट हो जाते हैं। ___ नोट-पके हुए पिण्डालूका लेप करनेसे वातकी गाँठ नाश हो जाती है। (२०) जायफल, लालचन्दन और कालीमिर्च-समान-समान लेकर, पानीमें पीसकर मुंहपर लेप करनेसे मुहासे नष्ट हो जाते हैं। मस्से और तिलोंकी चिकित्सा । शरीरपर वेदना-रहित, सस्त उर्दके समान, काली और उठी हुई-सी जो फुन्सी होती है, उसे संस्कृतमें "माष" और बोल-चालकी जबानमें "मस्सा" कहते हैं। For Private and Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मस्से और तिलोंकी चिकित्सा । वात, पित्त और कफके योगसे, चमड़ेपर, जो काले तिलके जैसे दाग़ हो जाते हैं, उन्हें "तिलकालक" या "तिल" कहते हैं। चमड़ेसे जरा ऊँचा काला या लाल-सा दारा जो चमड़ेपर पड़ जाता है, उसे "जतुमणि" या "लहसन" कहते हैं। नोट - सामुद्रिक शास्त्रमें तिल, मस्से और लहसनके शुभाशुभ लक्षण लिखे हैं । पुरुषके दाहिने और स्त्रीके बायें अङ्गपर होनेसे ये शुभ और इसके विपरीत अशुभ समझे जाते हैं। चिकित्सा। (१) अगर इनको नष्ट करना हो, तो इनको तेज़ छुरी या नस्तरसे छीलकर, इनको क्षार, तेज़ाब या आगपर तपाये लोहसे जला दो बस ये नष्ट हो जायँगे। पीछे कोई मरहम लगाकर घाव आराम कर लो। (२) शरीरमें जितने मस्से हों, उतनी ही कालीमिर्च लेकर शनिवारको न्यौत दो । फिर रविवारके सवेरे ही उन्हें कपड़ेमें बाँधकर, राहमें छोड़ दो । मस्से नष्ट हो जायेंगे । (३) मोरकी बीट सिरकेमें मिलाकर, मस्सोंसर लगानेसे मस्से नष्ट हो जाते हैं। (४) मस्सेको जंगली कण्डेसे खुजा लो और फिर उस जगह चूना और सज्जी पानीमें घोलकर मलो। तीन दिनमें मस्सा जाता रहेगा। (५) धनिया पीसकर लगानेसे मस्से और तिल नष्ट हो जाते हैं । (६) चुकन्दरके पत्ते शहदमें मिलाकर लेप करनेसे मस्से नष्ट हो जाते हैं। (७) खुरफेकी पत्ती मस्सोंपर मलनेसे मस्से नष्ट हो जाते हैं। (८) सीपकी राख सिरकेमें मिलाकर मस्सोंपर लेप करनेसे मस्से नष्ट हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । 85 पलित रोग चिकित्सा। र असमयमें बाल सफ़ेद होनेका इलाज । * ACEB% क और परिश्रम आदिसे कुपित हुआ वायु शरीरकी शो गरमीको सिरमें ले जाता है; उधर मस्तकमें रहनेAGO वाला भ्राजक पित्त भी क्रोधसे कुपित हो जाता है । “प्रकुपित हुआ एक दोष दूसरे दोषको भी कुपित करता है" इस वचनके अनुसार, वात और पित्त कफको भी कुपित करते हैं। कुपित हुआ कफ बालोंको सफेद कर देता है। इस तरह इन तीनों दोषोंके कोरसे बाल सफ़ेद हो जाते हैं । असमयमें बाल सफ़ेद होनेके रोगको “पलित रोग” कहते हैं। चिकित्सा। (१) आमले नग २, हरड़ नग २, बहेड़ा नग १, लोहचूर १ तोले और आमकी मींगी ५ तोले-इन सबको लोहेके बर्तनमें महीन पीसकर, थोड़ा पानी मिला दो और रात-भर खरल में ही पड़ा रहने दो। दूसरे दिन इसका लेप बालोंपर करो। अकाल या जवानीमें हुआ पलित रोग तत्काल आराम हो जायगा; यानी सफेद बाल काले हो जायेंगे। (२) भांगरा, सफेद तिल, चीतेकी जड़ और माठा-इनको मिलाकर खानेसे पलित रोग नाश हो जाता है। (३) आमले और लोहका चूर्ण दोनों पानीमें पीसकर लेप करनेसे पलित रोग नाश हो जाता है। (४) भाँगरा, नीलके पत्ते और लोह-भस्म,--इनको बराबर For Private and Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पलित रोग चिकित्सा। ५५६ बराबर लेकर, बकरीके मूत्रमें पीसकर, लेप करनेसे सिरके बाल काले. हो जाते हैं: अजामूत्रे भृङ्गराज नीलीपत्रमयोरजः । पिष्ट्वा सम्यक् प्रलिम्पेव केशाः स्युभ्रंमरोपमाः ॥ (५) हरड़, बहेड़ा, आमले, नीलके पत्ते, भाँगराऔर लोहका चूर्णइनको भेड़के मूत्रमें पीसकर लेप करनेसे बाल काले हो जाते हैं। (६) कुँ भेरकी जड़, पियाबाँसेकी जड़ या फूल, केतकीकी जड़, लोहेका चूरा, भाँगरा और त्रिफला-इन छहोंका चार तोले कल्क तैयार करो, यानी इन सबको सिलपर पानीके साथ पीसकर लुगदी बना लो । उसमेंसे चार तोले लुगदी ले लो । काली तिलीके पाव भर तेलमें इस लुगदी को रखकर, ऊपरसे एक सेर पानी मिला दो और पकाओ । जब तेल-मात्र रह जाय, उतारकर छान लो । फिर इस तेलको लोहेके बर्तनमें भरकर मुँह बन्द कर दो, और एक महीने तक जमीनमें गाड़ रखो। पीछे निकालकर बालोंमें लगाओ । इस तेलसे काँसीके फूल-जैसे सफेद बाल भी काले हो जाते हैं । इसका नाम "केशरञ्जन तेल" है। नोट---ऊपरको छहों चीज़ोंका रस या मिली हुई लुगदी जितनी हो, उससे तेल चौगुना लेना चाहिये । यह और नं० १ नुसखा उत्तम नुसत्र हैं। (७) लोहेका चूर्ण, भाँगरा, त्रिफला और काली मिट्टी-इन सबको एकत्र पीसकर, ईखके रसमें मिलाकर, एक महीने तक जमीनमें गाड़ रखो और फिर निकालकर लगाओ। इस तेलके लगानेसे जड़ समेत बाल काले हो जाते हैं। (८) लोहचून, पानीमें पिसे हुए आमले और प्रोडहलके फूल--इन सबको पानीमें मिलाकर, इस पानीसे जो सदा स्नान करता रहता है, उसे कदापि पलित रोग या बाल सफेद होनेकी बीमारी नहीं होती। For Private and Personal Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय। (.) नीमके बीजोंको भाँगरेके रसकी और विजयसारके रसकी भावना दो । फिर कोल्हूमें उन बीजोंका तेल निकलवा लो। इस तेलकी नस्य लेने और नित्य दूध-भात खानेसे बाल जड़से काले हो जाते हैं। ____ नोट--भाँगरेके रसमें बीजोंको मसलकर भीगने दो और फिर सुखा लो । दूसरे दिन विजयसारके रसमें भीगने दो और फिर मसलकर सुखा लो । शेषमें कोल्हूमें तेल निकलवा लो। इस तेलको “निम्ब बीज तैल" कहते हैं। (१०) केतकी, भाँगरा, नीलकी पत्ती, अर्जुनके फूल, अर्जुनके बीज, पियाबाँसा, तिल, पीपर, मैनफल, लोहेका चूर्ण, गिलोय, कमल, सारिवा, त्रिफला, पद्माख और कीचड़-इनको सिलपर पीसकर लुगदी बना लो । इनकी जितनी लुगदी हो, उससे चौगुना तिलीका तेल लो । तेलसे चौगुना त्रिफलेका और भाँगरेका काढ़ा पकाकर रख लो । पीछे लुगदी, तेल और दोनों काढ़ोंको कढ़ाहीमें पकाओ । तेल-मात्र रहने पर उतार लो और छानकर बोतलमें भर दो। इस तेलसे बाल अञ्जनके जैसे काले हो जाते हैं और उपजितिक रोग भी नष्ट हो जाता है। इसका नाम .."केतक्यादि तैल" है। (११) कुम्भेर, अर्जुन, जामुन और पियाबाँसा-इन चारके फूल, आमकी गुठली, मैनफल और त्रिफला, इन सबको चार-चार तोले लेकर कल्क बनाओ; यानी पानीके साथ सिलपर पीसकर लुगदी बना लो। इस लुगदीको ३२ तोले तिलीके तेल, १२८ तोले दूध, १२८ तोले भाँगरेका रस और १२८ तोले महुएके फलोंके रसके साथ कढ़ाहीमें रख, मन्दाग्निसे तेल पका लो। जब काढ़े और दूध जलकर तेल-मात्र रह जाय, उतारकर मल-छान लो। इस तेल के बालों में लगानेसे बाल भौरेके समान काले हो जाते हैं। इस तेलकी नास देनेसे भी एक महीने में कुन्द चन्द्रमा और शंख के समान बाल भी काले-स्याह हो जाते हैं। इसका नाम For Private and Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पलित रोग-चिकित्सा। ५६१ "कार्मवाद्य” तैल है । इसके लगानेवाला १०० बरस तक जीता है । (१२) मुलेठीकी पिसी हुई लुगदी ४ तोले, गायका दूध १२८ तोले और भाँगरेका रस १२८ तोले तथा तेल १६ तोले-इन सबको कढ़ाहीमें रखकर पका लो । तेल-मात्र रहनेपर उतार लो । इस "मधुक तैल'की नास देनेसे पलित रोग नष्ट हो जाता है। ___ (१३) पुण्डरिया, पीपर, मुलेठी, चन्दन और कमलको सिलपर एकत्र पीसकर लुगदी बना लो । लुगदीसे चौगुना तिलीका तेल और तेलसे चौगुना आमलोंका रस-इन सबको कढ़ाहीमें डाल, तेल पका लो। इस तेलकी नस्य और मालिशसे मस्तकके सारे सफेद बाल काले हो जाते हैं। (१४) नील, केतकीकी जड़, केलेकी जड़, घमिरा, पियाबाँसा, अर्जुनके फूल, कसूमके बीज, काले तिल, तगर, कमलका सर्वाङ्ग, लोहचूर्ण, मालकाँगनी, अनारकी छाल, गिलोय और नीले कमलकी जड़-ये सब दो-दो तोले, त्रिफला २० तोले, भाँगरेका रस अढ़ाई सेर, काली तिलीका तेल आध सेर,--इन सबको एक लोहेके घड़ेमें भरकर, उसका मुंह बन्द करके कपड़-मिट्टी (खाली मुखपर) कर दो और उसे ज़मीनके गड्ढे में रखकर, उसके चारों ओर घोड़ेकी लीद भर दो। पीछे ऊपरसे मिट्टी डालकर गाड़ दो। चालीस रोज़ बाद, उसे निकालकर आगपर पकाओ । जब रस जलकर तेल-मात्र रह जाय, उतारकर छान लो। ___ हर चौथे दिन इसको बालोंपर लगाओ और चार घण्टे रहने दो। इसके बाद हरड़के पानीसे सिर धो डालो। इसके लगानेसे बाल काले रहेंगे । यह योग "सुश्रुत"का है । इसे हमने २।३ बार आजमाया है, इसीसे लिखा है। ___ नोट-छै घण्टे पहले थोड़ी-सी छोटी हरड़ कुचलकर पानीमें भिगो दो । यही हरड़का पानी है। For Private and Personal Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय। (१५) एक कढ़ाहीमें गेंदेकी पंखड़ी काटकर डाल दो। ऊपरसे एक सेर मीठा तेल भी मिला दो और औटाओ। जब पत्तियाँ गल जाय,उतारकर, एक बर्तनमें मसाले समेत तेलको भर दो और मुंह बन्द करके, ज़मीनमें एक मास तक गाड़े रहो। फिर निकालकर बालोंपर मलो । इससे बाल काले हो जायेंगे। (१६) दो सेर झाऊकी जड़ कूटकर कढ़ाईमें रखो। उसमें दो सेर तिलीका तेल रख दो और चार सेर पानी भर दो। फिर इसे मन्दाग्निसे औटाओ, जब सारा पानी और आधा तेल जल जाय, उतारकर रख लो। इसमेंसे गाढ़ी-गाढ़ी तेल-मिली दवा लेकर सिरमें मलो । थोड़े दिनके मलनेसे ही बाल काले हो जायेंगे और फिर कभी सफेद न होंगे। (१७ ) सौ मक्खियाँ तिलीके तेलमें डालकर चालीस दिन तक धूपमें रखो । फिर तेलको छानकर रख लो। इस तेलके नित्य लगानेसे बाल सदा काले रहेंगे। इन्द्रलुप्त या गंजकी चिकित्सा। निदान-कारण । (O300 मों की जड़में रहनेवाला खून, पित्तके साथ कुपित होकर, रो रोमोंको गिरा देता है, इसके बाद खूनके साथ कफ रोम0000 कूपोंको रोक देता है, इससे फिर बाल पैदा नहीं होते। इस रोगको “इन्द्रलुप्त, खालित्य और रूज्या" कहते हैं। बोल-चालकी भाषामें “गंज या टाँक" कहते हैं। स्त्रियोंको गंज रोग क्यों नहीं होता? यह रोग स्त्रियोंको नहीं होता, क्योंकि उनका खून, रजोधर्म For Private and Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्द्रलुप्त या गंजकी चिकित्सा । होनेसे, हर महीने शुद्ध होता रहता है। इसी वजहसे उनके रोमकूप या बालोंके छेद नहीं रुकते । ___“तिब्बे अकबरी"में बालोंके उड़नेके सम्बन्धमें बहुत-कुछ लिखा है। उसमेंसे दो-चार कामकी बातें हम यहाँ पर लिखते हैं। गंज रोगमें सिरके बाल उड़ जाते हैं और कनपटियोंके रह जाते हैं। अगर यह हालत बुढ़ापेमें हो, तब तो इसका इलाज ही नहीं है। अगर जवानीमें हो, तो दवा करनेसे आराम हो सकता है। अगर सिरपर ज़ियादा बोझा उठानेसे बाल उड़ते हों, तो बोझा उठाना बन्द करना जरूरी है। शेख बूअली सेनाने अपनी किताब 'शिफा' में लिखा है, स्त्रियोंके सिरके बाल नहीं उड़ते, क्योंकि उनमें तरी ज़ियादा होती है और नपुसकोंके भी नहीं उड़ते, क्योंकि उनकी प्रकृतिमें कुछ नपुंसकता होती है। चिकित्सा। (१) रोगीको स्निग्ध और खिन्न करके मस्तककी फस्द खोलो यानी स्नेहन और स्वेदन क्रिया करके, सिरकी या सरेरूकी फस्द खोलो और मैनसिल, कसीस, नीलाथोथा और कालीमिर्च-इनको बराबर-बराबर लेकर, पानीके साथ पीसकर, गंजकी जगह लेप करो। नोट-यह नुसखा सुश्रुतके चिकित्सा-स्थानका है । वैद्यविनोद आदि ग्रन्थों में भी लिखा है। (२) कुटकीको कड़वे परवलके पत्तोंके रसके साथ पीसकर, तीन दिन तक, लगानेसे पुराना गंज रोग भी आराम हो जाता है। (३) कटेरीका रस शहदमें मिलाकर गञ्जपर लगानेसे गञ्ज रोग नाश हो जाता है। (४) हाथी दाँतकी राख में, बकरीका दूध और रसौत मिला For Private and Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । कर, गञ्जपर लेप करनेसे मनुष्यके पैरोंके तलवोंमें भी बाल आ जाते हैं। नोट--यह नुसखा "वैद्यविनोद"का है। इस नुसख को ज़रा-ज़रा-सा उलट फेर करके अनेक वैद्योंने लिखा है और बड़ी तारीफें की हैं। चिकित्साअनमें लिखा है:-- हस्तिदन्तमसीताानिन्द्रलुप्ते प्रलेपयेत् । ज्येन पयसा सार्धसर्वथा तद्विनश्यति ॥ हाथीदाँतकी भस्म और रसौत दोनोंको बराबर-बराबर लेकर, घी और दूधमें मिला लो। जिसके सिरके बाल गिरे जाते हों, उसके सिरमें इसका लेप करो । इस उपायके करनेसे गञ्ज रोग नाश हो जायगा और सिरके बाल फिर कभी न गिरेंगे। "भावमिश्रजी"ने भी इस नुसखेकी तारीफ की है। (५) चमेलीके पत्ते, कनेर, चीता और करञ्ज--इनको समानसमान लेकर, पानीके साथ पीस लो। फिर लुगदीके वजनसे चौगुना मीठा तेल लो और तेलसे चौगुना जल या बकरीका दूध लो। सबको मिलाकर, पका लो। तेल-मात्र रहनेपर उतार लो। इस तेलको सिरपर मलनेसे गञ्ज-रोग नाश हो जाता है। __ नोट--यह नुसखा हम "वैद्यविनोद"से लिख रहे हैं। वास्तवमें यह नुसखा "सुश्रुत" चिकित्सा-स्थानका है । वैद्यविनोदमें होनेसे, हमें विश्वास है, यह नुसखा और ऊपरका नं. ४ का नुसखा ज़रूर उत्तम होंगे। "भावप्रकाश में भी यह मौजूद है । “वरना" और ज़ियादा लिखा है। (६) "भावप्रकाश में लिखा है, कड़वे परवलोंके पत्तोंका स्वरस निकालकर, गञ्जपर मलनेसे, तीन दिन में बहुत पुरानी गञ्ज भी आराम हो जाती है। नोट--इस नुसख और नं. २ नुसख में 'कुटकी'का ही फर्क है। "भावप्रकाश"में-तिक्कपटोल पत्र स्वरसैपृष्टवा शमं याति है और वैद्यविनोदमें-- . तिक्कापटोलपत्र स्वरसै है । तिक्क कड़वेको और तिका कुटकीको कहते हैं। For Private and Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन्द्रलुप्त या गंजकी चिकित्सा । ५६५ __ (७) गञ्ज रोगमें, मस्तकको बारम्बार खुरचकर, चिरमिटीको पानीके साथ पीसकर लेप करना चाहिये। अगर जड़ ज़ियादा नीची हो गई होगी, तो भी इस नुसनेसे लाभ होगा। नोट- यह नुसखा भी सुश्रुतका है, पर हम "वैद्य-विनोद"से लिख रहे हैं। (८) “सुश्रुत में लिखा है, श्योनाक और देवदारुके लेपसे गंजरोग जाता है। (६) गोखरू और तिलके फूलोंमें उनके बराबर घी और शहद मिलाकर, सिरपर लगानेसे सिर बालोंसे भर उठता है। (१०) मुलेठी, नील कमल, दाख, तेल, घी और दूध- इन सबको मिलाकर, सिरपर लगानेसे गञ्ज रोग नाश हो जाता है तथा बाल सघन और दृढ़ हो जाते हैं। (११) भाँगरा पीसकर मलनेसे गञ्ज या बालखोरा रोग नाश हो जाते हैं। (१२) चुकन्दरके पत्तोंका अस्सी माशे स्वरस कड़वे तेलमें जलाकर, तेलका लेप करनेसे गञ्ज रोग आराम हो जाता है । (१३) घोड़े या गधेका खुर जलाकर राख कर लो। फिर इस राख को मीठे तेल में मिलाकर गञ्जपर मलो । इससे गञ्ज रोग चला जायगा। (१४) गंधक पानीमें पीसकर और शहद मिलाकर लगानेसे गञ्ज रोग जाता है। (१५) आमलोंको चुकन्दरके रसमें पीसकर सिरपर लगानेसे ५६ दिनमें बाल आ जाते हैं। (१६) थोड़ा-सा दही ताम्बेके बर्तनमें उस समय तक घोटो, जब तक कि वह हरा न हो जाय, हरा हो जानेपर, उसका लेप करो। इस उपायसे बाल आ जाते हैं। (१७) कुन्दश और हाथीदाँतका बुरादा, मुसकी चरबीमें मिलाकर लगानेसे अवश्य बाल उग आते हैं । लिखा है, अगर हथेलीपर लगाओ, तो वहाँ भी बाल आ जायें । For Private and Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । बाल लम्बे करनेके उपाय । (१) नीमके पत्ते और बेरके पत्ते पीसकर सिरमें लगा लो और दो घण्टे बाद धो डालो । ३१ दिनमें बाल खूब लम्बे हो जायेंगे। (२) कलौंजीको पानीमें पीसकर, उसीसे बाल धोनेसे सात दिनमें बाल लम्बे हो जाते हैं। (३) आमले नीबूके रसमें पीसकर बालोंकी जड़में मलनेसे बाल लम्बे हो जाते हैं। (४) करीलकी जड़ पीसकर बालोंकी जड़में मलनेसे बाल लम्बे हो जाते हैं। (५) नहाते समय काले तिलोंकी पत्तियोंसे बाल धोनेसे बाल लम्बे हो जाते हैं। (६) सरोके पत्ते पाँच तोले और आमले दस तोले-दोनोंको अढ़ाई सेर पानीमें औटाओ । जब गल जाय, तिलीका तेल आध सेर ऊपरसे डाल दो और पकने दो। जब तेल मात्र रह जाय, उतारकर सबको मसल लो । दवाओंको उसीमें रहने देना । इस दवा समेत तेलके सिरमें मलनेसे बाल बढ़ते और काले होते हैं। (७) कसूमके बीज और कसूमके पेड़की छाल - दोनोंको बराबरबराबर लेकर राख कर लो। इस राखको चमेलीके तेल में मिलाकर मल्हम-सी बना लो । बालोंकी जड़ोंमें इस मरहमके मलनेसे बाल लम्बे और नरम हो जाते हैं। (८) भैसके दहीमें ककोड़ेकी जड़ पीसकर सिरमें लेप करनेसे और फिर सिर धोकर तेलकी मालिश करनेसे बाल खूब बढ़ जाते हैं। लेपको २।३ घण्टे रखना चाहिये और २१ दिन तक बराबर उसे लगाना चाहिये । एक मित्र इसे आजमूदा कहते हैं । For Private and Personal Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरुषिका-चिकित्सा । ५६७ अरुषिका-चिकित्सा। HOT9% फ, खून और कीड़ोंके प्रकोपसे, सिरमें, अनेक मुँहवाली क और अत्यन्त क्लेदयुक्त व्रण या फुन्सियाँ होती हैं । इनको * * ही अरुषिका कहते हैं। बोल-चालकी भाषामें इन्हें “वराही" कहते हैं। चिकित्सा। (१) जौंक लगाकर सिरका खराब खून निकाल दो। (२) माठा और सेंधानोनके काढ़ेसे सिरको बारम्बार धोओ। इसके बाद कोई लेप करो। (३) परवल, नीम और अड़ सा--इनके पत्ते पीसकर लेप करो । (४) मिट्टोके ठीकरेमें कूटको भूनकर पीस लो। फिर उसे तेल में मिलाकर लेप कर दो। इससे खुजली, क्लेद, दाह और पीड़ा सब नाश हो जाते हैं। ___ (५) दारुहल्दी, हल्दी, चिरायता, नीमकी छाल, अड़ सेके पत्ते और लालचन्दनका बुरादा-सबको बराबर-बराबर लेकर, सिलपर पीसकर लुगदी बना लो । लुगदीसे चौगुना काली तिलीका तेल और तेलसे चौगुना पानी मिलाकर तेल पका लो। तेल मात्र रहनेपर उतारकर छान लो। इस तेलके लगानेसे अरुषिका, दाह, जलन, मवाद, दर्द तथा अन्य जगहके घाव, फोड़े, फुन्सी जड़से आराम हो जाते हैं। ऐसा कोई चर्म रोग ही नहीं है, जो इस तेलके लगातार लगानेसे आराम न हो । हजारों रोगी आराम हुए हैं। परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । ODEEDODee@@eDEO 8 वृषणकच्छू-चिकित्सा। OBCBCBGB03€8EBEBEO HOMMEN मनुष्य स्नान करते समय शरीरका मैल साफ नहीं करता, जो फोतों और लिंग आदि गुप्त अङ्गोंको खूब अच्छी तरह Miss नहीं धोता, उसके फोतोंमें मैल जम जाता है। जब उस मैलपर पसीने आते हैं, तब खुजली चलने लगती है। खुजाते रहनेसे वहाँ फुन्सी-फोड़े हो जाते हैं, जिनमेंसे राध बहने लगती है। इस रोगको “वृषणकच्छू” कहते हैं । यह फोतोंका रोग कफ और रक्तके .कोपसे होता है। चिकित्सा। राल, कूट, सेंधानोन और सफ़ेद सरसों-इन चारोंको पीसकर उबटन बना लो और फोड़ोंपर मलो। इस उबटनसे वृषणकच्छू या फोतोंकी खुजली फौरन मिट जाती है। नोट--पिछले पृष्ठ ५६७ के नं० ५ तेलसे भी फोतोंकी खुजली वगरः व्याधियाँ आराम होती हैं। KENARMERE RATERMIRE * कखौरीकी चिकित्सा। * हकी बग़लमें, एक महा कष्टदायक फोड़ा होता है, उसे ही AL कखौरी, कँखलाई या काँखहरी कहते हैं। रोग पित्तके कोपसे होता है। चिकित्सा । (१) देवदारु, मैनसिल और कूट-इन तीनोंको पीस और स्वेदित करके लेप करनेसे कफ-वातसे उत्पन्न हुई कँखलाई नष्ट हो जाती है। For Private and Personal Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दारुणक रोग-चिकित्सा । ५६६ (२) जदबार खताईको गुलाबजलमें घिसकर लेप करनेसे कँखलाई जाती रहती है। (३) चकचूनीकी पत्ती और अरण्डकी पत्ती-- इन दोनोंको समानसमान लेकर और पीसकर गरम कर लो। थोड़ा-सा नमक मिलाकर पीस लो और गरम करके बाँध दो । कँखलाई नष्ट हो जायगी। XXX.sexesto16616XXXXXXXXX दारुणक रोग-चिकित्सा। XXXX फ और वातके प्रकोपसे बालोंकी जगह कड़ी और रूखी मक हो जाती है और वहाँ खाज चलती है, इसको "दारुणक RAK रोग" कहते हैं। बोलचालकी जबान में इसे फिहाँसों या खोसी निकलना कहते हैं। चिकित्सा। (१) ललाटकी शिराको स्निग्ध और स्विन्न करके, नश्तरसे छेदकर खून निकालो। फिर अवपीड़ नस्य देकर सिरकी मलामत निकालो और कोई तेल मलो, अथवा कोई लेप आदि करो। नोट--जिसे शिरावेधन करने या फ़द खोलनेका पूरा ज्ञान और अभ्यास हो, जिसे नसोंका ज्ञान हो, वही इस कामको करे, नहीं तो लेने के देने पड़ेंगे। बिना शिरावेधन किये, कोरी दवाओंसे भी यह रोग आराम हो सकता है। (२) प्रियालके बीज, मुलहटी, कूट, उड़द और सेंधानोनइनको पीसकर और शहदमें मिलाकर सिरपर लेप करो। __(३) चिरमिटी पीसकर लुगदी बना लो। फिर लुगदीसे चौगुना मीठा तेल और तेलसे चौगुना भाँगरेका रस लेकर सबको मिला लो और आगपर पकाओ । तेल-मात्र रहनेपर उतारकर छान लो। इस तेलके लगानेसे खुजली, दारुणक रोग, हृद्रोग, कोढ़ और मस्तक-रोग नाश होते हैं। ७२ For Private and Personal Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir moran चिकित्सा-चन्द्रोदय । (४) भाँगरा, त्रिफला, कमल, सातला, लोहचूर्ण और गोबरइनके साथ तेल पकाकर लगानेसे दारुणक रोग नष्ट होता और गिरे हुए बाल सघन और टिकाऊ होते हैं। (५) महुआकी छाल, कूट, उड़द और सेंधानोन,--इनको बराबरबराबर लेकर महीन पीस लो और शहदमें मिलाकर सिरपर लेप करो । इससे दारुणक रोग नष्ट हो जाता है। (६) पोस्तको दूधमें पीसकर लेप करनेसे दारुणक रोग नाश हो जाता है। नोट-पोस्ताके दाने या खसखासके बीजोंको दूधमें पीसकर लगायो । (७) चिरौंजीके बीज, मुलहटी, कूट, उड़द और सेंधानोन-- इनको एकत्र पीसकर और शहदमें मिलाकर लगानेसे दारुणक रोग जाता रहता है। ___ (८) आमकी गुठली और हरड़---दोनोंको समान-समान लेकर दूधमें पीसकर सिरमें लगानेसे दारुणक रोग चला जाता है । (६) नीबूका रस चीनीमें मिलाकर सिरपर लगाने और १६ घण्टे बाद सिर धोनेसे सिरकी रूसी-भूमी नष्ट हो जाती है। (१०) चनेका बेसन आध घण्टे तक सिरके में भिगो रखो। फिर उसे शहदमें मिलाकर सिरपर मलो । इससे रूसी-भूसी और बफा नाश हो जाती है। ___ (११) साबुनसे सिर धोकर तेल लगानेसे रूसी-भूसी नष्ट हो जाती है। (१२) चुकन्दरकी जड़ और चुकन्दरके पत्तोंका काढ़ा बनाकर, उसमें थोड़ा नमक मिला दो । इस काढ़ेको सिरपर डालनेसे रूसीभूसी और जूं नष्ट हो जाती हैं। नोट-पारेको मूलीके पत्तोंके रसमें या पानोंके रसमें पीसकर, उसमें एक डोरा भिगो लो और उसे सिरमें रख दे।। सारी २।३ दिनमें मर जायँगी। For Private and Personal Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा। NADANER यक्ष्माके निदान-कारण । आयुर्वेद-ग्रन्थों में लिखा है:-- वेगरोधातक्षयाच्चैव साहसाद्विषमाशनात् । त्रिदोषो जायते यक्ष्मागदो हेतुचतुष्टयात् ॥ मल-मूत्रादि वेगोंक रोकने, अधिक व्रत-उपवास करने, अति मैथुन आदि धातु-क्षयकारी कर्म करने, बलवान् मनुष्यसे कुश्ती लड़ने अथवा बिना समय खाने-कभी कम और कभी ज़ियादा खाने आदि कारणोंमे "क्षय" "यक्ष्मा" रोग होता है। यह क्षय रोग त्रिदोष या सान्निपातिक है. क्योंकि तीनों दोषोंसे होता है। उपरोक्त चार कारणोंके सिवा इसके होनेके और भी बहुत कारण हैं; पर वे सब इन चार कारणोंके अन्तर्भूत हैं। खुलासा यह है, कि यक्ष्मा रोग नीचे लिखे हुए चार कारणोंसे होता है: (१) मल-मूत्रादि वेग रोकनेसे । (२) अति मैथुन द्वारा धातुक्षय करनेसे । (३) अपनी ताक़तसे जियादा साहस करनेसे । (४) कम-ज़ियादा और समय-बेसमय खानेसे । चारों कारणोंका खुलासा। नोट-(१) ऊपर जो वेग रोकनेकी बात लिखी है, क्या उससे मल, मूत्र, छींक. डकार, जंभाई, अधोवायु, वीर्य, आँसू, वमन, भूख, प्यास, श्वास और For Private and Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । नींद--इन तेरहों वेगोंके रोकने से मतलब है । अगर यही बात है, तो इन तेरह वेगोंके रोकनेसे तो "उदावत" रोग होना लिखा है । कहा है:-- वातविण्मूत्रज़म्भाश्रु बोद्गारवमीन्द्रिय । चुत्तृष्णोच्छ्वास निद्राणां धृत्योदावर्त्तसंभवः ।। यह बात तो ठीक नहीं । कहीं वेगोंके रोकने से "उदावत” होना लिखा हो और कहीं "यक्ष्मा"। चूँकि मल-मूत्र आदि वेगोंके रोकनेसे “उदावत" होता है, इससे मालूम होता है, यहाँ अधोवायु, मल और मूत्र--इन तीनों वेगोंसे मतलब है। "भावप्रकाश में ही लिखा है,-वातमूत्र पुरीषानि निगृहणामि यदानरः” अर्थात् अधोवायु, भूत्र और मलके रोकनेसे "क्षय” रोग होता है । भारद्वाजने स्पष्ट हो वातमूत्र पुरीषाणां ह्रीभयाधैर्यदा नरः । वेगं निरोधयेत्तेन राजयक्ष्मादि सम्भवः । मनुष्य जब शर्म लाज और डरके मारे अधोवायु, मूत्र और मलको रोकता है, तब उसे “राजयक्ष्मा" आदि रोग हो जाते हैं। ___ मतलब यह है, कि जो लोग पास-पास बैठनेवालोंकी शर्मके मारे या अपने बड़ोंके भयसे अधोवायु या गुदाकी हवाको रोक लेते हैं अथवा किसी काममें दत्तचित्त रहने या मौक़ा न होनेसे पाखाने-पेशाबकी हाजतको रोक लेते हैं उनको "क्षय रोग" हो जाता है । यह बड़ी ग़लती है । पर हम लोगोंमें ऐसी चाल ही पड़ गई है, कि अगर कोई सभ्य या ऊँचे दर्जेका आदमी चार श्रादमियोंके बीचमें बैठकर हवा खोलता है, तो लोग उसके सामने ही या उसके पीठ-पीछे उसकी मसखरी करते हैं, उसे गँवार कहते हैं। इस सम्बन्धमें शाहन्शाह अकबर और बीरबलकी दिल्लगी मशहूर है। मर्दो की अपेक्षा औरतोंमें यह बेहूदा चाल और भी ज़ियादा है। कन्याओंको छोटी उम्रमें ही यह पट्टी पढ़ा दी जाती है, कि अपने बड़ों या ख़ासकर सास, ससुर और पति श्रादिकी मौजूदगीमें अधोवायु कभी न खोलना, उसे ऊपर चढ़ा लेना या रोक लेना । इसका नतीजा यह होता है, कि मदों की निस्वत औरत इस मूजी रोगकी शिकार ज़ियादा होती हैं और चढ़ती जवानीमें ही बल-मांस-हीन. हाड़ोंके कङ्काल होकर यम-सदनकी राही होती हैं। मर्द तो अनेक मौकोंपर अधोवायुको खुलने For Private and Personal Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उराक्षतकी चिकित्सा । देते हैं, पर औरतें इसकी ज़ियादा रोक करती हैं । यद्यपि हमारी समाजमें यह भैौड़ी चाल पड़ गई है और सबको इसके विपरीत काम करना बुरा मालूम होता है, तो भी "स्वास्थ्यरक्षा के लिये वेगोंको न रोकना चाहिये। जब ये सब निकलना चाहें, किसी भी उपायसे इन्हें निकाल देना चाहिये । जानवर अपने इन वेगोंको नहीं रोकते, इसीसे ऐसे पाजी रोगोंके पंजोंमें नहीं फंसते । (२) यक्ष्माका दूसरा कारण धातुओंका तय करना है। असलमें धातुओंके क्षयसे ही क्षय रोग होता है। अनेक ना-समझ नौजवान दमादम मैशीन चलाते हैं । उन्हें हर समय स्त्री-प्रसंग ही अच्छा लगता है। एक बार, दो बार या चार-छै बारका कोई नियम नहीं । 'अपनी पूंगी जब चाहे तब बजाई।' नतीजा यह होता है, कि वीर्यके नाश होनेसे मज्जा, अस्थि और मेद, मांस प्रभुति सभी धातुएँ क्षीण होने लगती हैं। इनके अाधारपर ही मनुष्य-चोला खड़ा रहता है । जब अाधार कमजोर हो जाता है या नहीं रहता है, तब चोला गिर पड़ता है । मतलब यह है कि, वीर्यके नाश होनेसे वायु कुपित होता है और फिर वह मजा प्रक्षुति शेष धातुओंको चर जाता है--शरीरको सुखा डालता है, तब मनुष्य क्षीण हो जाता है । अतः दीर्घजीवन चाहनेवालोंको इस निश्चय ही प्राण-घातक रोगसे बचने के लिये अति मैथुनसे बचना चाहिये । शास्त्र-नियमसे मैथुन करना चाहिये । मैथुनसे जाहिरा अानन्द प्राता है, पर वास्तवमें यह भीतर-ही-भीतर जीवनी-शक्निका नाश करता और मनुष्यकी अायुको कम करता है। ____ अति मैथुनके सिवा, व्रत-उपवासोंका नम्बर लगा देना और दूसरोंको देखकर जलना-कुढ़ना या उनसे ईर्षा-द्वष रखना भी क्षयके कारण हैं । इनसे भी धातुएँ क्षीण होती हैं । हम हिन्दुओं और विशेषकर जैनी हिन्दुओंमें व्रतउपवासकी बड़ी चाल है । अाज एकादशी है, कल नरसिंह चौदस है, परसों रविवार है, इस तरह पाठ वारोंमें नौ उपवास होते हैं। जैनियोंमें एक-एक स्त्री महीनोंके उपवास कर डालती है। यही वजह है, कि हिन्दुओंकी अधिकांश स्त्रियाँ राजरोग, क्षय रोग या तपेदिकके चंगुलमें फंसकर भरी जवानीमें उठ जाती हैं । स्वास्थ्य-लाभके लिये उपवासकी बड़ी ज़रूरत है, पर जब स्वास्थ्य नाश होने लगे, तब लकीरके कीर होकर उपवास किये जाना, अपनी मौत श्राप बुलाना है । अतः उचितसे अधिक उपवास हरगिज़ न करने चाहिएँ। (३) यक्ष्माका तीसरा कारण साहस है। जो लोग अपने बलसे ज़ियादा काम करते, रात-दिन कामके पीछे ही पड़े रहते हैं अथवा अपनेसे ज़ियादा ताक़तवरोंसे For Private and Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७४ चिकित्सा-चन्द्रोदय। कुश्ती लड़ते, बहुत भारी चीज़ खींचते या उठाते या ऐसे ही और काम करते हैं, अपनी ताक़तका ध्यान रखकर काम नहीं करते, बदनमें ८ घण्टे मिनहत करनेकी शक्ति होने पर भी १४ घण्टे काम करते हैं, उन्हें क्षय-रोग अवश्य होता है। (४) चौथा कारण विषम भोजन है। जो लोग किसी दिन नाक तक ठूसकर खाते हैं, किसी दिन प्राधे पेट भी नहीं, छटॉक-भर चने चबाकर ही दिन काट देते हैं, किसी दिन, दिनके दस बजे, तो किसी दिन शामके २ बजे और किसी दिन रातके अाठ बजे भोजन करते हैं, यानी जिनके खाने-पीनेका कोई नियम और क़ायदा नहीं है, वे पशु-रूपी मनुष्य क्षय-केशरीके शिकार होते हैं। अतः समझदारोंको खाने-पीने में नियम-विरुद्ध काम न करना चाहिये । हमने इस विषयमें अपनी बनाई सुप्रसिद्ध "स्वास्थ्यरक्षा" नामक पुस्तकमें विस्तारसे लिखा है । जो मनुष्य उस ग्रन्थके अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं, उनके जीवनका बेड़ा सुखसे पार होता है। इन चार कारणोंके अलावः बहुत शोक या चिन्ता-फिक्र करना, असमयमें बुढ़ापा पाना, बहुत राह चलना, अधिक मिहनत करना, अति मैथुन करना और व्रण या घाव होना भी- क्षय रोगके कारण लिखे हैं । पर ये सब इन चारोंके अन्दर पा जाते हैं । देखने में नये मालूम होते हैं; पर वास्तव में इनसे जुदे नहीं हैं। ___ हारीत लिखते हैं-मिहनत करने, बोझा उठाने, लम्बी राह चलने, अजीर्णमें भोजन करने, अति मैथुन करने, ज्वर चढ़ने, विषम स्थानपर सोने और अति शीतल पदार्थोंके सेवन करनेसे कफ कुपित होता है। फिर वह अपने साथी वायु और पित्तको भी कुपित कर देता है । इस तरह वात, पित्त और कफ-इन तीनों दोषोंसे चय रोग होता है। __ और भी लिखा है-खाना कम खाने और कसरत जियादा करने, दिन-रात सवारीपर चढ़कर फिरने, अधिक मैथुन करने और बहुत लम्बी सफर करने या राह चलनेसे क्षय रोग होता है। इनके सिवा, फोड़े-फुन्सियोंके बहुत दिनों तक बने रहने, शोक करने, लंघन करने, डरने और व्रत-उपवास करनेसे मनुष्यको महा भयङ्कर यक्ष्मा रोग होता है। For Private and Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उराक्षतकी चिकित्सा । ५७५ पूर्वकृत पाप भी क्षयरोगके कारण हैं। हारीत मुनि कहते हैं, जो मनुष्य पूर्व जन्ममें देवमूर्तियोंको तोड़ता है, गर्भगत जीवको दुःख देता है, गाय, राजा, ब्राह्मण और बालककी हत्या करता है, किसीके लगाये बाग़ और स्थानका नाश करता है, स्त्रियोंको जानसे मार डालता है-देवताओंको जलाता है; किसीका धन नाश करता है, देवताओंके धनको हड़पता है, गर्भ गिराता या हमल इस्कात करता है और किसीको विष देता हैउस मनुष्यको इन विपरीत कर्मो के फल-स्वरूप महादारुण रोग राजयक्ष्मा होता है। और भी लिखा है, स्वामीकी स्त्रीको भोगने, गुरुपत्नीकी इच्छा करने, राजाका धन हरने और सोना चुरानेसे भी राजयक्ष्मा होता है । कहा भी है कुष्ठं च राजयक्ष्मा च प्रमेहो ग्रहणी तथा । मूत्रकृच्छाश्मरी कासा अतीसार भगन्दरौ । दुष्ट व्रणं गंडमाला पक्षाघातोक्षिनाशनम् । इत्येवमादयो रोगा महापापोद्भवाः स्मृताः ।। कोढ़, राजयक्ष्मा, प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, पथरी, खाँसी, अतिसार,. भगन्दर, नासूर, गण्डमाला, पक्षाघात-लकवा और नेत्र फूट जानाये सब रोग घोर पाप करनेसे होते हैं । यक्ष्मा आदि शब्दोंकी निरुक्ति । "भावप्रकाश में लिखा है-इस रोगका मरीज़ वैद्य-हकीमकी खूब पूजा करता है, इसलिये इसे "यक्ष्मा" कहते हैं। किसीने लिखा है-राजा चन्द्रको क्षय रोग हुआ । वैद्योंको उसके आराम करनेमें बड़ी-बड़ी मुश्किलातोंका सामना करना पड़ा, उन्हें For Private and Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय। बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ दरपेश आई, तब वे लोग इस शोष या क्षय रोगको “यक्ष्मा" कहने लगे। ___ क्षय रोग सब रोगोंसे ज़बर्दस्त है, सबमें प्रबल है और अतिसार आदि इसके भयङ्कर सिपाही है, इससे वैद्य इसे "शेगराज" कहते हैं । वास्तवमें यह है भी रोगोंका राजा ही। ___ सम्पूर्ण क्रियाओं और धातुओंको यह क्षय करता है, इसीसे इसे "क्षय” कहते हैं । "वाग्भट्ट' में लिखा है:--यह देह और औषधियोंको क्षय करता है, इसलिये इसे "क्षय" कहते हैं अथवा इसका जन्म ही क्षयसे है, इसलिये इसे "क्षय” कहते हैं । __ यह रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र--इन सातों धातुओंको सोखता या सुखाता है, इसलिए इसका नाम “शोष" रखा गया है। क्षय, शोष, रोगराज और राजयक्ष्मा-ये चारों एक ही यक्ष्मा रोगके चार नाम या पर्याय शब्द हैं। क्षय रोगकी सम्प्राप्ति । क्षय रोग कैसे होता है ? जब कफ-प्रधान वात आदि तीनों दोष कुपित हो जाते हैं, तब उनसे रस बहनेवाली नाड़ियोंके मार्ग रुक जाते हैं । रसवाहिनी शिराओं या नाड़ियोंके रुकनेसे क्रमशः रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र धातुएँ क्षीण होती हैं। जब सब धातुएँ क्षीण हो जाती हैं, तब मनुष्य भी क्षीण हो जाता है । __ मनुष्य जो कुछ खाता-पीता है, उसका पहले रस बनता है । रससे रक्त या खून, खूनसे मांस, मांससे मेद, मेदसे अस्थि, अस्थिसे मज्जा और मजासे शुक्र या वीर्य बनता है। समस्त धातुओंका कारणरूप “रस" है; यानी मांस, मेद आदि छहों धातुओंको बनानेवाला For Private and Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा। ५७७ "रस" है । रससे ही खून आदि धातुएँ बनती हैं। जब रस ही न होगा, रक्त कहाँसे होगा ? रक्त न होगा, तो मांस भी न होगा। जिन नालियोंमें होकर “रस" रक्त बनानेकी मैशीनमें पहुँचता और वहाँ जाकर खून हो जाता है, उन नालियोंकी राहें जब दोषोंके कुपित होनेसे बन्द हो जाती हैं, तब "रस" रक्त बननेकी मशीनमें पहुँच ही कैसे सकता है ? वह वहाँका वहीं यानी अपने स्थान-हृदय में जलकर, खाँसीके साथ मुँहसे निकल जाता है। रस नहीं रहता और इसीसे खून तैयार करनेवाली मशीनमें नहीं पहुँचता, इसका नतीजा यह होता है, कि खून दिन-पर-दिन कम होता जाता है और खूनके कम होनेसे मांस आदि भी कम होने लगते हैं । “चरक" में लिखा है:- रसःस्रोतःसु रुद्धषु, स्वस्थानस्थो विदह्यते । सऊर्ध्वं कासवेगेन, बहुरूपः प्रवर्त्तते ॥ स्रोतों या छेदों अथवा नाड़ियोंके रुक जानेपर, हृदयमें रहनेवाला रस विदग्ध हो जाता है, जल जाता है। इसके बाद वह, ऊपरकी ओरसे, खाँसीके वेगके साथ, मुंह द्वारा, अनेक तरहका होकर बाहर निकल जाता है। दूसरे शब्दोंमें यों कह सकते हैं, कि रस ही सब धातुओंकी सृष्टि करनेवाला है। जब उस रसकी ही चाल रुक जाती है, उसीकी राहें बन्द हो जाती हैं, तब रक्त आदि धातुओंका पोषण कैसे हो सकता है ? वाग्भट्ट महाराज इसी बातको और ढङ्गसे कहते हैं। उनका कहना है, जिस तरह तन्दुरुस्त आदमियोंके खाये-प्रिये पदार्थ शरीरकी अमि और धातुओंकी गरमीसे फ्कते हैं, उस तरह क्षयरोगीके खाये-पिये पदार्थ शरीर और धातुओंकी गरमीसे नहीं पकते। उसके खाये-पिये पदार्थ कोठोंमें पंचते हैं और पचकर उनका मल बन जाता है, रस नहीं बनता। चूँकि रंस नहीं बनता, मल बनता है, इसलिये रक्त आदि धातुओं का पोषण नहीं होता-उनके For Private and Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७८ चिकित्सा-चन्द्रोदय। बढ़नेको असल मसाला-रस नहीं मिलता। जब रस नहीं, तब. खून कहाँ ? और जब खून नहीं, तब मांसकी तो बात ही क्या है ? क्षयरोगी केवल मल या विष्टाके सहारे जीता है । मल टूटा और जीवन नाश हुआ। यों तो सभी बलका सहारा मल और जीवनका अवलम्ब वीर्य हैं; पर क्षयरोगीको तो केवल मलका ही आसरा है, क्योंकि उसमें वीर्यकी तो कमी रहती है। एक बात और भी है, जिस तरह कारण-भूत या सब धातुओंको पैदा करनेवाले "रस” के क्षय होनेसे-कमी होने या नाश होनेसेकार्यभूत या रससे पैदा हुई धातुओं-खून वगैरः--का क्रमसे क्षय होता है; ठीक उसी तरहपर उल्टे क्रमसे, कार्यभूत शुक्रके क्षयसे कारणरूप मजा आदि धातुओंका क्षय होता है । खुलासा यों समझिये, कि जिस तरह सब धातुओंके पैदा करनेवाले "रस" के नाश होनेसे रक्त, मांस और मेद आदि धातुओंका नाश होता है; उसी तरह रससे बनी हुई रक्त आदि धातुओंमेंसे वीर्यका नाश होनेसे मजा, अस्थि, मेद और मांस आदि धातुओं का भी नाश होता है, यानी जिस तरह रसकी घटतीसे खून आदिकी घटती होती है, उसी तरह शुक्र-वीर्यकी कमीसे उसके पैदा करनेवाली मज्जा आदि धातुएँ भी घट जाती हैंउस हालतमें, वेगोंके रोकने आदि कारणोंसे, वातादि दोष कुपित होते हैं और रस बहानेवाली नाड़ियोंकी राह बन्द कर देते हैं। इसलिये खून बनानेवाली मैशीनमें खून बननेका मसाला “रस" नहीं पहुँचता। रसके न पहुँचनेसे खून नहीं बनता और खून न बननेसे मांस वगैरः नहीं बनते । इस दशामें--उल्टी हालतमें--पहले मैथुनसे वीर्य कम होता है। वीर्यके कम होनेसे वायु कुपित होता है। वायु कुपित होकर मज्जादि धातुओंको शोख लेता है। धातुओंके सूखनेसे मनुष्य सूख जाता है। हम समझते हैं, धातुओंके सीधी और उल्टी राहते क्षय होनेकी बात पाठक अब समझ जायँगे । और भी साफ यों For Private and Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उराक्षतकी चिकित्सा । ५७६ समझिये,- उस दशामें पहले रसका क्षय होता है, रसके क्षयसे मांसका क्षय होता है, मांससे मेदका, मेदसे अस्थिका, अस्थिसे मज्जाका और मज्जासे वीर्यका क्षय होता है। इस दशामें पहले वीर्यका, फिर मज्जाका, फिर अस्थिका, फिर मेद और मांस आदिका क्षय होता है। क्षयके पूर्व रूप। (क्षय होनेसे पहले नजर आनेवाले चिह्न) जब किसीको क्षय-रोग होनेवाला होता है, तब पहले उसमें नीचे लिखे हुए चिह्न या लक्षण नज़र आते हैं:___ श्वास-रोग होता है, शरीर में दर्द होता है, कफ गिरता है, तालू सूखता है, कय होती है, अग्नि मन्दी हो जाती है, नशा-सा बना रहता है, नाकसे पानी गिरता है, खाँसी और अधिक नींद आती है । तात्पर्य यह है, कि जिनको क्षय होनेवाला होता है, उनमें क्षय होनेसे पहले उपरोक्त शिकायतें देखनेमें आती हैं। इन लक्षणोंके सिवाय क्षयके पोंमें फँसनेवाले मनुष्यका मन मांस और मैथुनपर अधिक चलता है और उसकी आँखें सफ़ेद हो जाती हैं। वाग्भट्ट महाराज कहते हैं, जिसे क्षय होनेवाला होता है, उसे पीनस या जुकाम होता है, छींकें बहुत आती हैं, उसका मुंह मीठामीठा रहता है, जठराग्नि मन्दी हो जाती है, शरीर शिथिल और गिरापड़ा-सा हो जाता है, मुँह थूक या पानीसे भर-भर आता है, वमन होती हैं, खानेको दिल नहीं चाहता है। खाने-पीनेपर बल कम होता जाता है, मुँह और पैरोंपर वरम या सूजन चढ़ आती है और दोनों नेत्र सफेद हो जाते हैं। इनके सिवा, क्षय-रोगी खाने-पीनेके शुद्धसाफ बर्तनोंको अशुद्ध समझता है, खाने-पीनेके पदार्थों में उसे मक्खी, तिनका या बाल प्रभृति दीखते हैं, अपने हाथोंको देखा करता है, दोनों भुजाओंका प्रमाण जानना चाहता है, सुन्दर शरीर देखकर भी For Private and Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । डरता है, स्त्री, शराब और मांसकी बहुत ही इच्छा करता है एवं उसके नाखून और बाल भी बहुत बढ़ते हैं। यह सब तो जाग्रत अवस्थाकी बातें हैं। सो जानेपर, स्वनमें, क्षयवाला पतंग, सर्प, बन्दर और किरकेंटा आदिसे तिरस्कृत होता है। कोई लिखते हैं, कौआ, तोता, नीलकण्ठ, गिद्ध, बन्दर और किरकेंटा आदि पशु-पक्षियोंपर अपने तई सवार और बिना जलकी सूखी नदियाँ देखता है तथा हवा, धूएँ या दावानल - बनकी आगसे पीड़ित या सूखे हुए वृक्ष देखता है, बाल, हाड़ या राखके ढेरोंपर चढ़ता है, शून्य या जन-शून्य गाँव या देश देखता है और आकाशसे गिरते हुए तारे और पहाड़ देखता है। यह क्षयरोग होनेसे पहलेके लक्षण या क्षयके पेशवीमे हैं। क्षयके आनेसे पहले ये सब तशरीफ़ लाते हैं। चतुर लोग इन लक्षणोंको देखते ही होशियार और सावधान हो जाते हैं। वहींसे वे रोगके कारणोंको रोकते और मौजूदा शिकायतोंका इलाज करते हैं। ऐसे • लोग क्षयसे बहुत कम मरते हैं। जो क्षयके पूर्व रूपोंको नहीं जानते ' और इसलिये सावधान नहीं होते, उनको फिर नीचे लिखी शिकायतें या उपद्रव हो जाते हैं: .. पूर्व रूपके बादके लक्षण । पहले पूर्व रूप होते हैं, उनके बाद रोग । जब क्षय-रोग प्रकट हो जाता है, तब जुकाम, खाँसी, स्वरभेद-गला बैठना, अरुचि, पसलियोंका संकोचन और दर्द, खूनकी कय और मलभेद-ये लक्षण होते हैं । राजयक्ष्माके लक्षण । त्रिरूप क्षयके लक्षण । - पहला दर्जा। __ जब क्षय-रोग प्रकट होता है, तब पहले कन्धों और पसलियोंमें वेदना होती है, हाथों और पैरोंके तलवे जलते हैं तथा ज्वर चढ़ा रहता है। For Private and Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उराक्षतकी चिकित्सा। ५८१ नोट-लिख चुके हैं कि, यमा तीनों दोषों वात, पित्त और कफके कोपसे होता है। ऊपर जो लक्षण लिखे गये हैं, वे साधारण यक्ष्मा या यक्ष्माके पहले दजेके हैं। इस अवस्था या दर्जेका यक्ष्मा आराम हो सकता है। इस रोगमें सारी धातुओंका क्षय होकर, सारे शरीरका शोषण होता है, ऐसा समझना चाहिये। कन्धों और पसलियोंमें शूल चलना, हाथ-पैर जलना और सारे शरीरमें ज्वर बना रहना-ये तीन लक्षण "चरक"में होनहारके लिखे हैं। "सुश्रुत"में छै लक्षण और लिखे हैं। उन्हें हम नीचे लिखते हैं:-- यक्ष्माके लक्षण। षटरूप क्षय। दूसरा दर्जा। "सुश्रुत में अन्नपर अरुचि, ज्वर, श्वास-खाँसी, खून दिखाई देना और स्वर-भेद - ये लक्षण यक्ष्माके लिखे हैं। खुलासा यों समझिये, कि खानेकी बात तो दूर रही, खानेका नाम भी बुरा लगता है। ज्वरसे शरीर तपा करता है, साँस फूलता रहता है, खाँसी चलती रहती है, थूकके साथ खून गिरा करता और गला बैठ जाता है। यह यक्ष्माके दूसरे दर्जेके लक्षण हैं। इन लक्षणोंके प्रकट हो जानेपर, कोई भाग्यशाली प्राणी सुवैद्यके हाथोंमें जाकर, बच भी जाता है, पर बहुत कम । इसके आगे तीसरा दर्जा है। तीसरे दर्जेवालोंकी तो समाप्ति ही समझिये। वे असाध्योंकी गिनतीमें हैं। ___ हारीत कहते हैं, छातीमें क्षत या घाव होने, धातुओंके क्षय होने, जोरसे कूदने, अत्यन्त मैथुन करने और रूखा भोजन करनेसे, शरीर क्षीण होकर, मन्द ज्वर हो जाता है और ज्वरके अन्तमें सूजन चढ़ आती है; मैल, मल और मूत्र अधिक आते हैं; अतिसार हो जाता है। खाया-पिया नहीं पचता; खाँसी जोरसे चलती है; थूक बहुत आता For Private and Personal Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir nnnnnnnnnnnnnn aamanakaran ५८२ चिकित्सा-चन्द्रोदय। है। शरीर सूखता है; स्त्रीकी इच्छा जियादा होती है और बात सुनना बुरा लगता है । जिसमें ये लक्षण पाये जाय, उसे "राजयक्ष्मा" है। जिस राजयक्ष्मा रोगीके पैर सने हो जाते हैं, जिसे एक ग्रास भोजन भी बुरा लगता है और जिसकी आवाज़ एक दमसे मन्दी हो जाती है, उसका राजयक्ष्मा आराम नहीं होता। दोषोंकी प्रधानता-अप्रधानता । लिख आये हैं कि, यक्ष्मा रोग वातादिक तीनों दोषोंके कोपसे होता है, पर उन तीनों में से कोई-न-कोई दोष प्रधान या सबसे ऊपर होता है। जो प्रधान होता है, उसीके लक्षण या जोर अधिक दीखता है। अगर वायुकी उल्वणता, प्रधानता या अधिकता होती है तो स्वर-भंग-गला बैठना, कन्धों और पसलियों में दर्द और संकोचये लक्षण होते हैं। यानी वायुके बढ़नेसे गला बैठता और कन्धों तथा पसलियों में पीड़ा होती है। ये वाताधिक्य या वायुके अधिक होनेके चिह्न हैं। .. अगर पित्त उल्वण या प्रधान होता है, तो ज्वर, दाह, अतिसार और खून निकलना ये लक्षण होते हैं; यानी पित्तके बढ़नेसे ज्वरसे शरीर तपता, हाथ-पैर जलते, पतले दस्त लगते और मुँ हसे खून आता है। अगर कफ उल्वण या अधिक होता है, तो सिरमें भारीपन, अन्नपर मन न चलना, खाँसी और कण्ठ जकड़ना-ये लक्षण होते हैं; यानी अगर कफ बढ़ा हुआ होता है, तो रोगीका सिर भारी रहता है, खानेका नाम नहीं सुहाता, खाँसी आती और गला बैठ जाता है ।। __"सुश्रुत" में लिखा है-क्षय रोग, तीनों दोषोंका सन्निपात रूप होनेसे, एक ही तरहका माना गया है, तो भी उसमें दोषोंकी उल्वणता या प्रधानता होनेके कारण, उन्हीं उन दोषोंके चिह्न देखने में आते हैं। For Private and Personal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा। ५८३ स्थान-भेदसे दोषोंके लक्षण । वाग्भट्ट कहते हैं, अगर दोष ऊपर रहता है, तो जुकाम, श्वास, खाँसी, कन्धों और सिरमें दर्द, स्वरपीड़ा और अरुचि-ये उपद्रव होते हैं। अगर दोष नीचेके अङ्गोंमें होता है, तो अतिसार और शरीर सूखना-ये उपद्रव होते हैं। अगर दोष कोठेमें रहता है, तो कय या वमन होती हैं । अगर दोष तिरछा होता है, तो पसलियोंमें दर्द होता है। अगर दोष सन्धियों या जोड़ोंमें होता है, तो ज्वर चढ़ता है। इस तरह क्षय रोगमें ११ उपद्रव होते हैं । साध्यासाध्यत्व । साध्य लक्षण । क्षय-रोग साधारणतः कष्टसाध्य है, बड़ी दिक्कतोंसे आराम होता है; पर अगर रोगीके. बल और मांस क्षीण न हुए हों, तो चाहे यक्ष्माके ग्यारहों लक्षण क्यों न प्रकट हो जायँ, वह आराम हो सकता है । खुलासा यह है, कि यक्ष्माके समस्त लक्षण प्रकाशित हो जानेपर भी रोगी आराम हो सकता है, बशर्ते कि, उसके बल और मांस क्षीण न हुए हों। "बङ्गसेन में लिखा है, जिनकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, जिनकी अग्निदीप्त है और जिनका शरीर दुबला नहीं हुआ है, उन यक्ष्मावालोंका इलाज करना चाहिये । वे आराम हो जायेंगे । असाध्य लक्षण । अगर रोगीके बल और मांस क्षीण हो गये हों, पर यक्ष्माके ग्यारह रूप प्रकट न हुए हों; खाँसी, अतिसार, पसलीका दर्द, स्वर-भंग For Private and Personal Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wwwwwwww ५८४ -- चिकित्सा-चन्द्रोदय । गला बैठना, अरुचि और ज्वर ये 2 लक्षण हों अथवा श्वास, खाँसी और खून थूकना-तीन लक्षण हों तो रोगीको असाध्य समझो । ___ अगर रोगीमें जुकाम प्रभृति लक्षण कम भी हों, पर रोगी रोग और दवाके बलको न सह सकता हो, तो वैद्य उसको असाध्य समझकर, उसका इलाज न करे, यह वाग्भट्टका मत है। नोट-अगर रोगीमें जुक्काम आदि सब लक्षण हों, पर वह रोग और दवाके बलको सह सकता हो, तो पाराम हो जायगा । भावमिश्रजी कहते हैं, यशकामी वैद्य ग्यारह या छै अथवा ज्वर, खाँसी और खून थूकना इन तीन लक्षणोंवालोंका इलाज नहीं करते। जो क्षय-रोगी खूब जियादा खाने-पीनेपर भी सूखता जाता है, वह असाध्य है-आराम न होगा। जिस रोगीको अतिसार हो-पतले या आम मरोड़ी वगैरःके दस्त लगते हों, उसका इलाज वैद्यको न करना चाहिये, क्योंकि वह असाध्य है । कहा है मलायत्तं बलं पुंसां शुक्रायत्तं चजीवितम् । तस्माद्यत्नेन संरक्षेद्यचिमणो मल रेतसी ॥ मनुष्योंका बल मलके अधीन है और जीवन वीर्यके अधीन है, अतः क्षय रोगीके मल और वीर्यकी रक्षा यत्नसे-खूब होशियारीसे करनी चाहिये। क्षय-रोगका अरिष्ट । जिस क्षयरोगीकी आँखें सफ़ेद हो गई हों, अन्नमें अरुचि हो-- खानेको मन न चाहता हो और उर्द्ध श्वास चलता हो, उसे अरिष्ट है, वह मर जायगा। जिस रोगीका बहुत-सा वीर्य कष्टके साथ गिरता हो, वह क्षयरोगी मर जायगा। For Private and Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८५ राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । अगर यक्ष्मा-रोगी खूब खानेपर भी तीण होता जाता हो, उसे अतिसार हो या उसके पेट और फोतोंपर सूजन हो, तो समझो कि रोगीको अरिष्ट है, वह मर जायगा। नोट-इन ऊपर लिखे हुए उपद्रवोंमेंसे, यदि कोई एक उपद्रव भी उपस्थित हो, तो यक्ष्मा-रोगीका मरण समझना चाहिये। क्षयरोगीक जीवनकी अवधि । आयुर्वेद-ग्रन्थों में लिखा है, जो यक्ष्मारोगी जवान हो और जिसकी चिकित्सा उत्तमोत्तम वैद्य करते हों, वह एक हजार दिन या दो बरस, नौ महीने और दस दिन तक जी सकता है। कहा है: परं दिनसहस्रन्तु यदि जीवति मानवः । सुभिषभिरुपक्रान्तस्तरुणः शोषपीडितः ॥ मतलब यह है, कि यक्ष्मा-रोग बड़ी कठिनतासे आराम होता है । जिसकी टूटी नहीं होती, जिसपर ईश्वरकी दया होती है, उसे सवैद्य मिल जाते हैं। अच्छे अनुभवी विद्वान् वैद्योंकी चिकित्सासे यक्ष्मा-रोगी आराम हो जाता है; यानी प्रायः पौने तीन बरसकी उम्र बढ़ जाती है। इस अवधिके बाद, आराम हो जानेपर वह फिर यक्ष्मा-रोगमें फँसकर मर जाता है। किसी-किसीने तो यहाँ तक लिख दिया है कि अगर यक्ष्मा-रोगी दवा-दारु करनेसे आराम हो जाय, तो मनमें समझो कि उसे यक्ष्मा-रोग था ही नहीं, कोई दूसरा रोग था। क्योंकि यक्ष्मा-रोग तो किसी भी दवासे आराम होता ही नहीं। हारीत मुनि कहते हैं सजीवेच्चतुरो मासान्षण्मासं वा बलाधिकः । उत्कृष्टश्च प्रतीकारैः सहस्राहं तु जीवति । सहस्रात्परतो नास्ति जीवितं राजयक्ष्मिणः ॥ राजयक्ष्मा रोगी चार महीनों तक जीता है। अगर उसमें ताक़त जियादा है, तो छ महीने जीता है। अगर उत्तम-से-उत्तम चिकित्सा. ७४ For Private and Personal Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । होती रहे, तो हजार दिन या पौने तीन बरस तक जीता है। हजार दिनसे अधिक किसी तरह नहीं जी सकता। क्योंकि इतने दिनों बाद उसके प्राण, बल और वीर्य क्षीण हो जाते और इन्द्रियाँ विकल हो जाती हैं। जो यक्ष्मा कभी घटता और कभी बढ़ता नहीं, बल्कि एक समान बना रहता और उत्तम चिकित्सासे धीरे-धीरे घटता है, वह अन्तमें अच्छे इलाजसे घट जाता है । जिस यक्ष्मावालेकी खाँसी कभी घट जाती और कभी बढ़ जाती है, कभी कफ आता, कभी बन्द हो जाता और फिर बढ़ जाता है, वह यक्ष्मा-रोगी तीन या छै महीनेसे ज़ियादा नहीं जीता-अवश्य मर जाता है। उस समय अमृत भी काम नहीं करता। ___ हिकमतके ग्रन्थों में लिखा है, कि यक्ष्मा या तपेदिक पहले और दूसरे दर्जे का होनेसे आराम हो जाता है, तीसरे दर्जेपर पहुँच जानेसे बड़ी दिक्कतोंसे आराम होता और चौथेमें पहुँच जानेसे तो असाध्य ही हो जाता है। चिकित्सा करने योग्य क्षय-रोगी। जिस क्षय-रोगीका शरीर ज्वरसे न तपता हो, जिसमें चलने'फिरनेकी कुछ सामर्थ्य हो, जो तेज दवाओंको सह सकता हो, जो पथ्य पालन करनेमें मजबूत हो, जिसे खाना पच जाता हो और जो बहुत दुबला या कमजोर न हो, उस क्षय-रोगीकी चिकित्सा करनी चाहिये। ऐसे रोगीकी उत्तम चिकित्सा करनेसे वैद्यको यश मिल सकता है, क्योंकि यह सब क्षय-रोगके पहले दर्जेके लक्षण हैं । “सुश्रुत" आदि ग्रन्थोंमें लिखा है: ज्वरानुबन्धरहितं बलवन्तं क्रियासहम् । उपक्रमेदात्मवन्तं दीप्ताग्निमकृशं नरम् ।। For Private and Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा। ५८७ जो क्षय-रोगी ज्वरकी पीड़ासे रहित, बलवान, चिकित्सा सम्बन्धी क्रियाओंको सह सकनेवाला, यत्न करनेवाला, धीरज धरनेवाला और प्रतीप्त अनिवाला हो और जो दुबला न हो, उसकी चिकित्सा करनी चाहिये। निदान-विशेषसे शोष विशेष । शोष-रोगके और छ भेद । निदान विशेषसे शोष या क्षय-रोग छै तरहका होता है। (१) व्यवाय शोष--यह अति मैथुनसे होता है। (२) शोक शोष-यह बहुत शोक या रंज करनेसे पैदा होता है। (३) वार्द्ध क्य शोष-यह असमय के बुढ़ापेसे होता है । (४) व्यायाम शोष-यह बहुत ही कसरत-कुश्तीसे होता है। (५) अध्ध शोष--यह बहुत राह चलनेसे होता है। (६) व्रण शोष-यह व्रण या घाव होनेसे होता है । उरःक्षत शोष--यह छातीमें घाव होनेसे होता है। नोट-यद्यपि उरःक्षत रोगको यमासे अलग, पर उसके बाद ही कई श्राचार्यों ने लिखा है, पर हम उसे यहाँ इसलिये लिख रहे हैं कि, उसकी और यक्ष्माकी चिकित्सामें कोई प्रभेद नहीं । जो यक्ष्माका इलाज है, वही उरःक्षतका इलाज है। व्यवाय शोषके लक्षण। इस शोषमें, "सुश्रुत में लिखे हुए, वीर्य-क्षय के सब चिह्न होते हैं; यानी लिङ्ग और अण्डकोषों-फोतोंमें पीड़ा होती है, मैथन करनेकी सामर्थ्य नहीं रहती अथवा मैथुन करते समय अनेक बार वीर्य स्खलित होता है; पर बहुत थोड़ा वीर्य निकलता है और रोगीका शरीर पाण्डुवर्णका हो जाता है। इस प्रकारके क्षय-रोगमें पहले वीर्य क्षय होता है। वीर्यके क्षय होनेसे वायु कुपित होकर मज्जा आदि धातुओंको क्षय करता है। For Private and Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८८ ... चिकित्सा-चन्द्रोदय । खुलासा यह है, जो अत्यन्त मैथुन करते हैं, उनका शरीर पीला पड़ जाता है। क्योंकि वीर्यके क्षय होनेसे उलटे क्रमसे धातुएँ क्षीण होने लगती हैं। पहले वीर्य क्षीण होता है, फिर वायु कुपित होता और मज्जाको क्षीण करता है । मज्जाके क्षीण होनेसे अस्थियाँ क्षीण होती हैं । अस्थियोंके क्षीण होनेसे मेद, मेदके क्षीण होनेसे मांस, मांसके क्षीण होनेसे खून और खूनके क्षीण होनेसे रस क्षीण होता है। अथवा यों समझिये कि, जब वीर्य क्षीण हो जाता है, तब मज्जा उसकी कमीको पूरा करती है और खुद कम हो जाती है । मज्जाको कम देखकर, अस्थियाँ उसकी कमीको पूरा करतीं और खुद कम हो जाती हैं। इसी तरह एक दूसरी धातुकी कमी पूरी करनेके लिए प्रत्येक धातु कम होती जाती है। धातुओंके कम होने या क्षीण होनेसे मनुष्य क्षीण हो जाता है। शोक शोषके लक्षण । जिस चीजके न होने या नष्ट हो जानेसे रोगीको शोक होता है, शोक शोषमें, उसी चीजका ध्यान उसे सदैव बना रहता है । उसके अङ्ग शिथिल हो जाते हैं । व्यवाय-शोष-रोगीकी तरह उसकी शुक्र आदि समस्त धातुएँ क्षीण होने लगती हैं । फर्क इतना ही होता है, कि व्याधिके प्रभावसे लिङ्ग और फोतों प्रभृतिमें पीड़ा आदि उपद्रव नहीं होते। खुलासा यह है, जिस तरह अत्यन्त स्त्री-प्रसंग करनेसे शोष-रोग हो जाता है; उसी तरह शोक, चिन्ता या फिक्र करनेसे भी शोष-रोग हो जाता है । शोक-शोष होनेसे शरीर ढीला और गिरा-पड़ा-सा रहता है और बिना धातु-क्षयके भी धातु-क्षयके लक्षण देखने में आते हैं । चिन्ताके समान शरीरकी धातुओंको नाश करनेवाला और दूसरा नहीं है। चिन्तासे क्षण-भरमें हाथ-पैर गिर पड़ते हैं, बैठकर उठा For Private and Personal Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५६ राजयक्ष्मा और उसकी लिकित्सा । नहीं जाता और चार कदम चला नहीं जाता । चिता और चिन्ता दो बहिन हैं । इन दोनोंमें चिन्ता बड़ी और चिता छोटी है । क्योंकि चिता तो निर्जीव या मुर्दे को जलाकर भस्म करती है, पर चिन्ता जीते हुए को जलाती और मोटे-ताजे शरीरको खाक कर देती है । चिन्तामें इतना बल है, कि वह अकेली ही, बिना किसी रोगके, खून और मांस आदि धातुओंको चर जाती है। इस रोगमें सारे काम स्वयं चिन्ता करती है, रोगका तो नाम है; अतः चिकित्सकको पहले रोगीका शोक दूर करना चाहिये । क्योंकि रोगके कारण-चिन्ताके मिटे बिना रोग आराम हो नहीं सकता। ___ वार्धक्य शोषके लक्षण । बार्बु क्य शोषवाले या जरा-शोष-रोगीका शरीर दुबला हो जाता है। वीर्य, बल, बुद्धि और इन्द्रियाँ कमजोर या मन्दी हो जाती हैं, कँपकँपी आती है, शरीरकी कान्ति नष्ट हो जाती है, गलेकी आवाज काँसीके फूटे बासन-जैसी हो जाती है, थूकनेसे कफ नहीं निकलता, शरीर भारी रहता और भोजनसे अरुचि रहती है । मुँह, नाक और आँखों से पानी बहा करता है, पाखाना और शरीर दोनों ही सूखे और रूखे हो जाते हैं। खुलासा यह है, जो यक्ष्मा रोग जरा अवस्था, बुढ़ापे या ज़ईफ़ीसे होता है, उसमें रोगीका शरीर एकदम दुबला हो जाता है, वीर्य कम हो जाता है, बुद्धि कमजोर हो जाती है, इन्द्रियोंके काम शिथिल हो जाते हैं; आँख, नाक, कान आदि इन्द्रियाँ अपने-अपने काम सुचारु रूपसे नहीं करती, हाथ और मुंह काँपते हैं, खाना अच्छा नहीं लगता, गलेसे फूटे हुए काँसीके बर्तन-जैसी आवाज निकलती है; रोगी घबरा जाता है, पर कफ नहीं निकलता शरीरपर बोझ-सा रखा जान पड़ता है। मुँहका स्वाद बिगड़ जाता है, मुंह, नाक और आँखोंसे For Private and Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६० चिकित्सा-चन्द्रोदय । पानी गिरता है, मल या पाखाना सूखा और रूखा उतरता है तथा शरीर भी सूखा और रूखा हो जाता है। नोट-यह शोष रोग उस बुढ़ापेमें बहुत कम होता है, जो जवानी पार होने या अपने समयपर सबको पाता है, बल्कि असमयके बुढ़ापेमें होता है। कहते हैं, यक्ष्मा रोग बहुधा चालीस सालसे कमकी उम्रमें होता है। अध्व शोषके लक्षण । अध्व शोष अधिक रास्ता चलनेसे होता है । इस शोषमें मनुष्यके अङ्ग शिथिल या ढीले हो जाते हैं । शरीरकी कान्ति आगमें भुनी हुई चीज़के जैसी और खरदरी हो जाती है, शरीरके अवयव छूनेसे स्पर्शज्ञान नहीं होता और प्यास लगनेके स्थान--गला और मुँह सूखने लगते हैं। खुलासा यह है कि, इस शोषवालेका सारा शरीर ढीला और बेकाम हो जाता है, शरीरकी शोभा जाती रहती है, हाथ-पैरोंमें चुटकी काटनेपर कुछ मालूम नहीं होता; यानी वे सूने हो जाते हैं और कंठ तथा मुख सूखते हैं। व्यायाम शोषके लक्षण । इस प्रकारके शोषमें अवशोषके लक्षण मिलते हैं और क्षत या घाव न होनेपर भी, उरःक्षत शोषके चिह्न नज़र आते हैं। ध्यान रखना चाहिये, जो लोग अधिक कसरत-कुश्ती या और मिहनतके काम करते हैं, अपने आधे बलके अनुसार कसरत आदि नहीं करते, उनको निश्चय ही यक्ष्मा रोग हो जाता है । जो मूर्ख केवल कसरतसे बलवृद्धि करनेकी हौंस रखते हैं, उन्हें इस बातपर ध्यान देना चाहिये । कसरतके नियम-कायदे हमने अपनी “स्वास्थ्यरक्षा में विस्तारसे लिखे हैं। For Private and Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरक्षितकी चिकित्सा । ५६१ व्रणशोषके निदान-लक्षण । अगर व्रण या फोड़े वाले मनुष्यके शरीरसे रुधिर या खून निकल जाता है अथवा और किसी वजहसे खून घट जाता है, घावमें दर्द होता और आहार घट जाता है, तो उसको शोष रोग हो जाता है। उरःक्षत शोषके निदान । ___ बहुत ज़ियादा तीर कमान चलाने, बड़ा भारी बोझ उठाने, बलवानके साथ युद्ध या कुश्ती करने, विषम या ऊँचे-नीचे स्थानसे गिरने, दौड़ते हुए बैल, घोड़े, हाथी, ऊँट या मोटर गाड़ी आदिके रोकने, लकड़ी, पत्थर या हथियार आदिको ज़ोरसे फेंकने, दूसरोंको मारने, बहुत जोरसे चीखने, वेदशास्त्रोंके पढ़ने, जोरसे भागने या दूर जाने, गहरी नदियोंको तैरकर पार करने, घोड़ेके साथ दौड़ने, अकस्मात् उछलने-कूदने या छलांग भरने, कला खाने, जल्दी-जल्दी नाचने अथवा ऐसे ही साहसके और काम करनेसे मनुष्यकी छाती फट जाती है और उसे भयङ्कर उरःक्षत रोग हो जाता है । जो लोग अत्यन्त चोट लगनेपर भी स्त्री-सङ्गम करते हैं और जो रूखा तथा बहुत थोड़ा प्रमाणका भोजन करते हैं, उन्हें भी उरःक्षत रोग होता है। ___ खुलासा यह है, कि जो लोग ऊपर लिखे काम करते हैं, उनकी छाती फट जाती और उसमें घाव हो जाते हैं । इस छातीमें घाव होने के रोगको ही "उरःक्षत" रोग कहते हैं, क्योंकि उरका अर्थ हृदय और क्षतका अर्थ घाव है। उरःक्षत रोगीको ऐसा मालूम होता है, मानो उसकी छाती फट या टूटकर गिर पड़ना चाहती है। ___ क्षय और उराक्षतके निदान-लक्षण आदि महामुनि हारीतने विस्तारसे लिखे हैं। उनके जाननेसे पाठकोंको बहुत कुछ लाभ होनेकी सम्भावना है, अतः हम उन्हें भी यहाँ लिखते हैं: उरक्षित रोगीकी छाती बहुत दुखती है। ऐसा जान पड़ता है, For Private and Personal Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । मानो कोई छातीको चीरे डालता है या उसके दो टुकड़े किये डालता है, पसलियोंमें दर्द होता है, सारे अङ्ग सूखने लगते हैं, देह काँपने लगती है; अनुक्रमसे वीर्य, बल, वर्ण, कान्ति और अग्नि क्षीण होती है; ज्वर चढ़ता है, मनमें दीनता होती है, मलभेद् या दस्त होते हैं, अनि मन्द हो जाती है। खाँसनेसे काले रंगका, बदबूदार, पीला, गाँठदार, बहुत-सा खून-मिला कफ बारम्बार गिरता है। उरःक्षत रोगी वीर्य और ओजके क्षयसे अत्यन्त क्षीण हो जाता है। - खुलासा यह है, कि जो आदमी अपनी ताकतसे ज़ियादा काम करता है, उसकी छाती फट जाती है। यानी उसके लंग्ज या फेंफड़ों में खराबी हो जाती है, वह फट जाते हैं। उसके फटने या उनमें घाव हो जानेसे मैं हसे खून आने लगता है । अगर उस घावका जल्दी ही इलाज नहीं होता, वह जख्म दवाएँ खिलाकर जल्दी ही भरा नहीं जाता, तो वह पक जाता है । पकनेसे मवाद पड़ जाता है और वही मुँ हसे निकलने लगता है । वह घाव फिर नहीं भरता और नासूर हो जाता है। बस इसीको “उरक्षित" कहते हैं । उरःक्षतका अर्थ हृदयका घाव है। लंग्ज या फेफड़े हृदयमें रहते हैं, इसीसे इसे "उरक्षत" नोट याद रखो, लिवर, कलेना, जिगर या यकृतमें बिगाड़ होनेसे भी मुंहसे खून या मवाद पाने लगता है। अंव: बैंचको अच्छी तरह समझ-बूझकर इलाज करना चाहिये । मनुष्य-शरीर में यकृत वाहिनी ओरकी पसलियोंके नीचे रहता है। इसका मुख्य काम खून और पित्त बनाना है। जब यकृत या लिवरमें मवाद भर जाता या सूजन आ जाती है, तब उसके छूनेसे तकलीफ होती है। अगर दाहिनी तरकी पसलोके नीचे दबानेसे सख्तीसी मालूम हो अथवा फोड़ा-सा दूखे, कुछ पीड़ा हो अथवा दाहिनी करवट लेटने से दर्द हो या खाँसी ज़ोरसे उठे, तो समझो कि यकृतमें मवाद भर गया है। . जब किसी रोगीका पुराना उवर या खाँसी अनेक चेष्टा करने पर भी प्राराम न हों, कम-से-कम तब तो यकृतकी परीक्षा करो । क्योंकि यकृतमें सूजन आये बिना ज्वर और खाँसी बहुत दिनों तक ठहर नहीं सकते। For Private and Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । ५६३ उरःक्षतके विशेष लक्षण । उरःक्षत रोगीकी छातीमें अत्यन्त वेदना होती है, खूनकी कय होती हैं और खाँसी बहुत आती है। खून, कफ, वीर्य और ओजका क्षय होनेसे लाल रंगका खून-मिला पेशाब होता है तथा पसली, पीठ और कमरमें घोरातिघोर वेदना होती है। निदान विशेषसे उराक्षतके लक्षण । ब्रणके अवरोधसे, धातुको क्षीण करनेवाले मैथुनसे, कोठेमें वायुकी प्रतिलोमता और प्रतिलोम हुए मलसे जिसकी छाती फट जाती है,उसका श्वास, अन्न पचते समय, बदबूदार निकलता है। साध्यासाध्यके लक्षण । अगर उरःक्षत रोगके कम लक्षण हों, अग्नि दीप्त हो, शरीरमें बल हो और यह रोग थोड़े ही दिनोंका हुआ हो, तो साध्य होता है। यानी आराम हो जाता है। जिस उरःक्षतको पैदा हुए एक साल हो गया हो, वह बड़ी मुश्किलसे आराम होता है। जिस उरःक्षतमें सारे लक्षण मिलते हों, उसे असाध्य समझकर उसकी चिकित्सा न करनी चाहिये । नोट-अगर कोई उत्तम वैद्य मिल जाता है, तो आराम हो भी जाता है, पर रोगी हज़ार दिनसे अधिक नहीं जीता। अगर मुखसे खून गिरता है यानी खूनकी कय होती हैं, खाँसीका जोर होता है, पेशाबमें खून आता है, पसलियोंमें दर्द होता है और पीठ तथा कमर जकड़ जाती है तो उरक्षत रोगी नहीं जीता, क्योंकि ये असाध्य रोगके लक्षण हैं। For Private and Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 000000 . . १०. 00000000000000000 MP°000000000000०°ati 30 . ००१ .over--ueue 900aaaa. . चिकित्सा-चन्द्रोदय । -- ------ यक्ष्मा-चिकित्सामें चिकित्सकके - याद रखने योग्य बातें । O ........ ...... (१) सभी तरहके यक्ष्मा त्रिदोषज होते हैं। यानी हर तरहके यमा वात, पित्त और कफ तीनों दोषोंके कोपसे होते हैं। यद्यपि यक्ष्मामें तीनों ही दोषोंका कोप होता है, पर तीनोंमेंसे किसी एक दोषकी उल्वणता या प्रधानता होती ही है । अतः दोषोंके बलाबलका विचार करके, शोषवालेकी चिकित्सा करनी चाहिये । "चरक"में लिखा है:- ... यद्यपि सभी यक्ष्मा त्रिदोषसे होते हैं, तथापि वातादि दोषोंके बलाबलका विचार करके यक्ष्माका इलाज करना चाहिये। जैसे कन्धे और पसलियोंमें दर्द, शूल और स्वर-भेद हो, तो वायुकी प्रधानता समझनी चाहिये। अगर ज्वर, दाह और अतिसार हों, एवं खूनकी क़य होती हों, तो पित्तकी प्रधानता समझनी चाहिये । अगर सिर भारी हो, अन्नपर अरुचि हो, खाँसी और कण्ठकी जकड़न हो, तो कफकी प्रधानता जाननी चाहिये । 'जिस तरह दोषोंके बलाबलका विचार करना आवश्यक है; उसी. तरह इस बातका भी विचार करना जरूरी है, कि रोगीके शरीरमें किस धातुकी कमी हो रही है, कौन-सी धातु क्षीण हो रही है। जैसे; रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र - इनमेंसे किस धातुकी क्षीणता है। अगर खून कम हो, तो खूनकी कमी पूरी करनी चाहिये। अगर रस-क्षयके लक्षण दीखें तो रस-क्षयकी चिकित्सा करनी चाहिये । अगर मांस-क्षयके चिह्न हों, तो उसका इलाज करना चाहिये । क्योंकि बिना धातुओंके क्षीण हुए यक्ष्मा-रोग असाध्य नहीं होता । For Private and Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा। अनेक अधूरे या अधकचरे वैद्य यक्ष्माके निदान-लक्षण मिलाकर, रोगीको यक्ष्मा-नाशक उत्तमोत्तम औषधियाँ तो दमादम दिये जाते हैं, पर कौन-कौनसी धातुएँ क्षीण हो गई हैं, इसका ख्याल ही नहीं करते, इसीसे उनको सफलता नहीं होती, उनके रोगी आराम नहीं होते । यह काया इन्हीं रस-रक्त आदि सातों धातुओंपर ठहरी हुई है । अगर ये क्षीण होंगी, तो शरीर कैसे रहेगा ? यहाँ यह रस-रक्त आदि धातुओंके क्षय होनेके लक्षण और उनकी चिकित्सा साथ-साथ लिखते हैं। रस-क्षयके लक्षण । अगर रसका क्षय होता है, तो बड़ी खुश्की रहती है, अग्नि मन्द हो जाती है, भूख नहीं लगती, खाना हजम नहीं होता, शरीर काँपता है, सिरमें दर्द होता है, चित्त उदास रहता है, यकायक दिल बिगड़कर रंज या सोच हो जाता है और सिर घूमता है। . रस बढ़ानेवाले उपाय । . .. अगर क्षय-रोगीके शरीरमें रस या रक्तकी कमीके चिह्न पाये जावें, तो भूलकर भी रस-रक्त-विरोधी दवा न देनी चाहिये, बल्कि इनको बढ़ानेवाली दवा देनी चाहिये । हारीत कहते हैं,--जांगल देशके जीवोंका मांस खाना, गिलोय, अदरख या अजवायनमें पकाया हुआ क्वाथ या जल पीना और कालीमिर्चों के साथ पकाया हुआ दूध रातके समय पीना अच्छा है । इनसे रसकी वृद्धि होती और क्षय-रोग नाश होता है । अन्नोंमें गेहूँ, जौ और शालि चाँवल भी हित हैं। नीचे लिखे हुए उपाय परीक्षित हैं:-- (१) गिलोयका सत्त अदरखके स्वरसके साथ चटानेसे रस-रक्तकी वृद्धि होती है। For Private and Personal Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (२) गिलोयका काढ़ा या फाँट पिलाना भी रस और रक्त बढ़ानेको अच्छे हैं। (३) कालीमिर्चोंके साथ पकाया हुआ गायका दूध अथवा औटाये हुए गायके दूधमें मिश्री और दस-पन्द्रह दाने गोलमिर्च डालकर पीना रस-रक्त बढ़ानेका सर्वश्रेष्ठ उपाय है; पर इसे रातके समय पीना चाहिये । इस तरहका औटाया हुआ दूध जुकामको भी फ़ौरन आराम करता है। नोट-इन उपायोंसे रस और रक्त दोनों बढ़ते हैं। (४) अगर रोगी खानेको माँगे, तो बरस दिनके पुराने गेहूँकी खमीर उठायी रोटी, जौकी पूरी और पुराने और शालि चाँवलोंका भात--ये सब रोगीको दे सकते हो। रक्त-क्षयके लक्षण । अगर रक्त-क्षय या खूनकी कमी होगी, तो पाण्डु-रोग हो जायगा, शरीर पीला पड़ जायगा, काम-धन्धेको दिल न चाहेगा, श्वास-रोग होगा, मैं हमें थूक भर-भर आवेगा, अग्नि मन्द होगी, भूख न लगेगी और शरीर सूखेगा । अगर ये लक्षण दीखें, तो खूनकी कमी समझकर खून बढ़ानेके उपाय करने चाहिएँ । रक्त बढ़ानेके उपाय । हारीत कहते हैं:--घी, दूध, मिश्री, शहद, गोलमिर्च और पीपर-- इनका पना बनाकर पीनेसे खूनकी वृद्धि अवश्य होती है। हारीत मुनिका यह योग हमने अनेक बार आजमाया है, जैसी तारीफ़ लिखी है वैसा ही है:-अगर रोगीका मिजाज सर्द हो तो पावभर दूध औटा लो; अगर मिज़ाज गरम हो तो औटानेकी दरकार नहीं; कच्चे या औटे हुए दूधमें एक तोले घी, ६७ माशे For Private and Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उराक्षतकी चिकित्सा । ५१७ मधु, एक तोले मिश्री, १२० दाने कालीमिर्चोंके और आधी पीपर-इन सबको पीसकर मिला दो और एक-दिल कर लो। इसीको पना कहते हैं। इसको किसी दवाके बाद या अकेला ही सन्ध्या-सवेरे पिलानेसे खून बढ़ता है, इसमें रत्ती भर भी सन्देह नहीं। इस पनेके पीनेसे अनेकों हाड़ोंके पञ्जर मोटे-ताजे और तन्दुरुस्त हो गये। उनका क्षय भाग गया। पर खाली इस पनेसे ही काम नहीं चल सकता । इसके पिलानेसे पहले, कोई यक्ष्मा-नाशक खास दवा भी देनी चाहिये। अगर खूनकी कमी ही हो, कोई उपद्रव न हो और रोगका जोर न हो, तो केवल इस पनेसे ही क्षय आराम होते देखा है। खानेको हल्का भोजन देना चाहिये। मांस-क्षयके लक्षण । मांस-क्षय होनेसे शरीर एकदमसे दुबला-पतला हो जाता और काम-धन्धेको दिल नहीं चाहता, क्योंकि शरीर शिथिल हो जाता है, नींद नहीं आती, किसी-किसीको बहुत ज़ियादा नींद आती है, बातें याद नहीं रहती और शरीरमें ताकत नहीं रहती। मेद-क्षयके लक्षण । मेदकी कमी होनेसे शरीर थका-सा रहता है, कहीं दिल नहीं लगता, बदन टूटता और चलने-फिरनेकी ताक़त कम हो जाती है। श्वास और खाँसीका जोर रहता है। खानेको दिल नहीं चाहता, और अगर कुछ खाया जाता है, तो हज़म भी नहीं होता। मेद बढ़ानेवाले उपाय । "हारीत संहिता" में लिखा है,--अनूपदेशके जीवोंका मांस, हलके अन्न, घी, दूध, कल्प-संज्ञक शराब और मधुर पदार्थ, 'सितो For Private and Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६५ . चिकित्सा-चन्द्रोदय । पलादि चूर्ण', पीपरोंके साथ पकाया हुआ बकरीका दूध--ये सब मेद बढ़ानेको उत्तम हैं। खुलासा यह कि, घी, दूध, मिश्री, मक्खन और मीठे शर्बत, जांगलदेशके जानवरोंके मांसका रस, हल्के और जल्दी हज़म होनेवाले अन्न, सितोपलादि चूर्ण, शहद में मिलाकर सवेरे-शाम चाटना और ऊपरसे मिश्री मिला हुआ बकरीका दूध पीना- मेदक्षयवाले क्षय-रोगीको परम हितकर हैं। इनसे मेद बढ़ती और क्षय नाश होता है। अस्थि-क्षयके लक्षण । अस्थि या हड्डियोंके क्षय होनेसे मन उदास रहता है, कामको दिल नहीं चाहता, वीर्य कम हो जाता है, मुटाई नाश होकर शरीर दुबला हो जाता है, संज्ञा नहीं रहती, शरीर काँपता है, वमन होती हैं, शरीर सूखता है, सूजन आती है और चमड़ा रूखा हो जाता है इत्यादि। __नोट--राजयक्ष्मा या जीर्णज्वर अगर बहुत दिनों तक रहते हैं, तो आदमीकी हड्डियाँ पीली पड़ जाती हैं । विशेषकर, हाथ, पैर, कमर और पसलियोंके हाड़ तो अवश्य ही पतले हो जाते हैं। हड्डियोंके पतले पड़नसे ऊपर लिखे लक्षण होते हैं। अस्थि-वृद्धिके उपाय । - हारीत कहते हैं,--पके हुए घी और दूध अस्थि-वृद्धिके लिये अच्छे हैं । सब तरहके मीठे अन्न और जांगल देशके जीवोंके मांस भी हितकारी हैं। . . . शुक्र-क्षयके लक्षण । शुक्र या वीर्यके क्षय या कमीसे भ्रम होता है, किसी बातपर दिल' नहीं जमता, अकस्मात् चिन्ता या फिक्र खड़ी हो जाती है, धीरज नहीं रहता, रोगी जीवनसे निराश हो जाता है, हाथ-पैर और For Private and Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । ५६ मुँ हपर सूजन आ जाती है, रातको नींद नहीं आती, मन्दा-मन्दा ज्वर बना रहता है; अथवा दाह या जलन होती है, क्रोध आता है, स्त्रियाँ बुरी लगती हैं, शरीर काँपता है, जी घबराता है, जोड़ोंपर सूजन आ जाती है और शरीर रूखा हो जाता है। शुक्र बढ़ानेके उपाय । ... हारीत कहते हैं, अगर वीर्य कम हो गया हो, तो उसके बढ़ानेके लिये नीचे लिखे पदार्थ हित हैं । जैसे,—अच्छी तरह पकाये हुए रस, नौनी घी, दूध, मीठे पदार्थ, ककहीकी जड़की छाल, विदारीकन्द और सेमलकी मूसरीको दूधके साथ मिश्री मिलाकर पीना । चौथे भागके पृष्ठ १८४ में लिखी हुई “धातुवर्द्धक-सुधा" गायको खिलाकर, वही दूध पीनेसे वीर्य खूब बढ़ता है। (२) अगर क्षय-रोगी ताक़तवर हो और उसके वातादिक दोष बढ़े हुए हों तो स्नेह, स्वेद, वमन, विरेचन और वस्ति-क्रियासे उसका शरीर शुद्ध करना चाहिये । पर, अगर रोगीके रस-रक्त आदि धातु क्षीण हो गये हों, तो भूलकर भी वमन विरेचन आदि पंचकर्मो से काम न लेना चाहिये। जो वैद्य बिना सोचे-समझे ऊँटपनेसे क्षयरोगीकी शुद्धिके लिये कय और दस्त आदि कराते हैं, उनके रोगी बिना मौत मरते हैं। मनुष्योंका बल वीर्य के अधीन है और जीवन मलके अधीन है, इसलिये धातुक्षीण-क्षय-रोगीके वीर्य और मलकी रक्षा अवश्य करनी चाहिये। जिसमें क्षय-रोगीका जीवन तो मल हीके अधीन होता है । वाग्भट्टमें लिखा है-- - सर्वधातुक्षयार्त्तस्य बलं तस्य हि बिड्बलम् । . जिसकी समस्त धातुएँ क्षीण हो गई हैं, उस क्षय-रोगीको एक मात्र विष्ठाके बलका ही सहारा है।। . . “वाग्भट्ट" में ही और भी कहा है, कि क्षयरोगीका खाया-पिया, शरीर और धातुओंकी अग्निसे न पककर, कोठोंमें पकता है और For Private and Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०० चिकित्सा-चन्द्रोदय । मल हो जाता है और उसी मलके सहारे वह जीता है। इससे क्षयरोगी अगर बलवान न हो, तो उसे पंचकर्मोंसे शुद्ध न करना चाहिये । अगर दस्त एक दम न होता हो, मल सूख गया हो, तो हल्की-सी दस्तावर दवा देकर एकाध दस्त करा देना चाहिये। .(३) कोई भी रोग क्यों न हो, सबमें पथ्य-पालन और अपथ्यके त्यागकी बड़ी जरूरत है। बिना पथ्य-पालन किये रोगी अमृतसे भी आराम हो नहीं सकता है; जब कि पथ्य-पालनसे बिना दवाके ही आराम हो जाता है। बहुत-से रोग ऐसे हैं, जिनमें रोगीका मन उन्हीं चीजोंपर चलता है, जिनसे रोगीका रोग बढ़ता है अथवा जो चीजें रोगीके हक में नुकसानमन्द हों । खासकर क्षयरोगीका दिल ऐसे ही पदार्थोपर चलता है, जिनसे उसकी रस, रक्त, मांस, मेद आदि धातुएँ क्षीण होनेकी सम्भावना हो । इसलिये क्षय-रोगीका मन जिन-जिन पदार्थोंपर चले, उन-उन पदार्थोंको उसे हरगिज़ न देना चाहिये। उसे ऐसे ही पदार्थ देने चाहियें, जिनसे उसकी धातुएँ बढ़े और गरमी कम हो। क्षयरोगीको मीठे घन पदार्थ सदा हितकारी हैं, क्योंकि इनसे धातुओंकी वृद्धि होती है। (४) अगर जीर्णज्वर और यक्ष्मावालेको उत्तम-से-उत्तम दवा देनेपर भी लाभ न हो, तो उसके यकृतपर ध्यान देना चाहिये। क्योंकि यकृतके दोष आराम हुए बिना हजारों दवाओंसे भी जीर्णज्वर और क्षय-रोग आराम हो नहीं सकते। यकृतमें खराबी होने, सृजन आने या मवाद पड़नेसे मन्दा-मन्दा ज्वर चढ़ा रहता है, भूख नहीं लगती, कमजोरी आ जाती है और शरीर पीला हो जाता है। हमारे शास्त्रोंमें यकृतके निदान-लक्षण बहुत ही कम लिखे हैं। बंगसेनने बेशक अच्छा प्रकाश डाला है । वह लिखते हैं For Private and Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । ६०१ मन्दज्वराग्निः कफपित्तलिंगे रुपद्रुतः क्षीणबलोऽतिपाण्डुः । सब्यान्यपायकृतिप्रदुष्ट ज्ञयं यकृद्दाल्युदरं तथैव ॥ रोगीके शरीरमें मन्दा-मन्दा ज्वर बना रहे, भूख मारी जाय, कफ और पित्तका कोप दीखे, बल नाश हो जाय और शरीरका रङ्ग पीला पड़ जाय, तो समझो कि दाहिनी पसलीके नीचे रहनेवाला यकृतलिवर--कलेजा या जिगर खराब हो गया है। हिकमतकी पुस्तकोंमें लिखा है, अक्सर तपेकोनः, तपेदिक और सिलकी बीमारीवालों यानी जीर्णज्वर, क्षय और उरःक्षत-रोगियोंके यकृतमें सूजन या वरम आ जाती है । यकृत या लिवरमें सूजन आ जानेसे जीर्णज्वर और यक्ष्मा तथा उरःक्षत रोग असाध्य हो जाते हैं। अगर जल्दी ही यकृतका इलाज न करनेसे उसमें मवाद पड़ जाता है, तो उस दशामें मुंहकी राहसे वह मवाद या जरा-जरा-सा खून-मिला मवाद निकलने लगता है । "इलाजुल गुर्बा" में लिखा है, सिल या फेफड़ेमें घाव होनेसे ऐसा बुखार आता है कि वह सैकड़ों तरहके उपाय करनेसे भी नहीं उतरता । खाँसीके साथ खून निकलता और रोगी दिन-दिन बल-हीन होता जाता है । इस हालतमें वासलीककी फस्द खोलना और पीछे ज्वर और खाँसीकी दवा करना हितकारी है। इसकी साफ पहचान यही है, कि यकृतमें सूजन और मवाद पड़नेसे रोगी अगर दाहिनी करवट सोता है, तो खाँसी जोरसे उठती है, अतः रोगी दाहिनी करवट सोना नहीं चाहता और सो भी नहीं सकता । यकृतकी खराबीका हाल वैद्य हाथसे छूकर भी जान सकता है । अगर दाहिनी पसलियोंके नीचे दबानेसे कड़ापन मालूम होता हो, पके फोड़ेपर हाथ लगाने-जैसा दर्द होता हो, तो निश्चय ही. यकृतमें खराबी हुई समझनी चाहिये । इस हालतमें फस्द खोलना, यकृतपर लेप लगाना और यकृत-दोष-नाशक दवा देना हितकारी For Private and Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । है । अगर यकृतमें दर्द हो, तो उसपर तारपीनका तेल मलकर गरम जलसे सेक करना चाहिये अथवा गो-मूत्र को गरम करके और बोतलमें भरकर सेक करना चाहिये अथवा गरम जल या गो-मूत्र में फलालेनका टुकड़ा भिगोकर सेक करना चाहिये । हमने यहाँ दो-चार बातें इशारतन लिख दी हैं। यकृतके निदान-लक्षण और चिकित्सा हमने सातवें भागमें लिखे हैं। - (५) यक्ष्मा-रोग नाशार्थ कोई खास दवा, जैसे लवंगादि चूर्ण, सितोपलादि चूर्ण, च्यवनप्राश अवलेह, द्राक्षारिष्ट, जातीफलादि चूर्ण, मृगांक रस, प्रभृति उत्तमोत्तम रसों या दवाओं में से कोई देनी चाहिये, पर साथ ही ऊपरके उपद्रव जैसे-कन्धोंका दर्द और स्वरभङ्ग आदिके ऊपरी उपाय भी करने चाहिए । इस तरह करनेसे रोगीको उतना ज़ियादा कष्ट नहीं होता । जैसे,—रोगी बहुतही कमजोर हो तो उसे घी, दूध, शहद, कालीमिर्च और मिश्रीका पना बनाकर, किसी दवाके बाद, सवेरे-शाम थोड़ा-थोड़ा पिलाना चाहिये । अथवा नौनी घीमें मिश्री और शहद मिलाकर खिलाना चाहिये । बकरीका दूध पिलाना चाहिये। बकरीके घीमें ज़रा-सी चीनी मिलाकर पिलाना चाहिये । अगर पच सके तो बकरीका मांस खिलाना चाहिये । यक्ष्मा-रोगीको बकरी और हिरन बहुत हितकारी हैं, इसीसे वैद्य लोग क्षय-रोगीके पलँगके पास हिरन या बकरीको बाँध रखते हैं । "भावप्रकाश"में लिखा है: छागमांसं पयश्छागं छागं सर्पिः सनागरम् । छागोपसेवी शयनं छागमध्येतु यक्ष्मनुत् ।। बकरीका मांस खाना, बकरीका दूध पीना, सोंठ मिलाकर बकरीका घी खाना, बकरोंकी सेवा करना और बकरे-बकरियों में सोना-- यक्ष्मा-रोगीको हित है। For Private and Personal Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा। ६०३ अगर कन्धों और पसलियोंमें दर्द हो, तो शतावर, क्षीर-काकोली, गन्धतृण, मुलहटी और घी- इन सबको पीस और गरम करके, इनका लेप दर्द-स्थानोंपर करना चाहिये । अथवा गूगल, देवदारु, सफेद चन्दन, नागकेशर और घी--इन सबको पीस और गरम करके सुहाता-सुहाता लेप दर्द-स्थानोंपर करना चाहिये। अगर खूनकी तय होती हों, तो महावरका स्वरस दो तोले और शहद ६ माशे- इनको मिलाकर पिलाना चाहिये। ___ नोट-पीपल, बेर और शीशम आदि वृक्षोंकी शाखाओंपर जो लाल-लाल पदार्थ लगा रहता है, उसे “लाख" कहते हैं। पीपलकी लाख उत्तम होती है। पीपरकी लाखको गरम जलमें पकाकर महावर बनाते हैं। (६) लिख आये हैं, कि क्षयरोगीके पथ्यापथ्यका खूब ख़याल रखना चाहिये । उसे अपथ्य आहार-विहारोंसे बचाना चाहिये । क्षयवालेको आग तापना, रातमें जागना, ओसमें बैठना, घोड़े आदिपर चढ़ना, गाना बजाना, जोरसे चिल्लाना, स्त्री-प्रसंग करना, पैदल चलना, कसरत करना, हुक्का-सिगरेट पीना, मल-मूत्र आदि वेगोंका रोकना, स्नान करना और कामोत्तेजक कामोंसे बचना चाहिये; क्योंकि इस रोगमें मैथुन करनेकी इच्छा बहुत प्रबल होती है। मैथुन करनेसे वीर्य क्षय होता है और वीर्य-क्षयसे क्षय-रोग होता है । जिस कामसे रोग पैदा हो, वही काम करना सदैव बुरा है। विशेषकर, वीर्यक्षयसे हुए यक्ष्मामें तो इस बातको न भूलनेकी बड़ी ही For Private and Personal Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षय-रोगपर प्रश्नोत्तर। प्र०-क्षयरोगके और नाम क्या हैं ? उ०-क्षयरोगको संस्कृतमें क्षय, यक्ष्मा, शोष और रोगराज कहते हैं। हिकमतमें इसे तपेदिक और सिल कहते हैं।। डाक्टरीमें इसे कनजमशन (Consumption', थाइसिस (Pthisis) और टूबरक्लोसिस ( Tuberculcsis ) कहते हैं। प्र०--क्षयके ये नाम क्यों ? ___ उ०-इस रोगमें, शरीरका रोज-ब-रोज़ क्षय होता है; अथवा यह शरीरकी रस-रक्त आदि धातुओंको क्षय करता है अथवा यह रोग वैद्योंकी चिकित्साका क्षय करता है। इसलिये इसे "क्षय" कहते हैं। यह रोग पहले किसी सोम या चन्द्र नामके राजाको हुआ था, इसलिये इसे "राजयक्ष्मा" कहते हैं। राजाओंके आगे-पीछे अनेक लोग चोबदार मुसाहिब वगैरः चलते हैं; उसी तरह इसके साथ भी अनेक रोग चलते हैं, इसलिये इसे "रोगराज" कहते हैं। यह रस आदि सात धातुओंको सुखाता है। इसलिये इसे "शोष" कहते हैं। कनज़मशनका अर्थ भी क्षय है। इस रोगसे शरीर छीजता है। फेंफड़ोंकी नाशकारिणी शक्ति जल्दी-जल्दी या धीरे-धीरे तरक्की करती है, इसलिये इसे अँगरेजीमें थाइसिस और कनजमशन कहते हैं । इसको टूबरक्लोसिस इसलिये कहते हैं, कि एक टूबरकिल For Private and Personal Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षय-रोगपर प्रश्नोत्तर। ६०५ नामक कीड़ा ( Germ) या कीटाणु फेफड़ोंमें पैदा होकर, उन्हें आहिस्ते-आहिस्ते खा-खाकर नष्ट कर देता है। साथ ही टॉकसाइन नामक एक भयङ्कर विष पैदा कर देता है, जिसका परिणाम बहुत ही भयानक और मारक है। प्र०-डाक्टरीमें क्षयके क्या कारण लिखे हैं ? उ०--आयुर्वेदके मतसे हम इसके पैदा होनेके कारण लिख आये हैं । अब हम डाक्टरीसे इसके कारण दिखाते हैं डाक्टरीमें इसकी पैदायशका कारण, असलमें, कीटाणु या जर्म ( Germ ) है । बहुतसे क्षय-रोगी जहाँ-तहाँ थूक देते हैं। उनके थूकखखारमेंसे कीटाणु श्वास-द्वारा या भोजनके पदार्थोंपर बैठकर दूसरे स्वस्थ लोगोंके फेफड़ों या आमाशयोंमें घुस जाते हैं और इस तरह क्षय रोग पैदा करते हैं। जो लोग मिलों या अञ्जनों वरःमें काम करते हैं, अथवा छापेखानों या टेलरशॉपोंमें काम करते हैं अथवा बहुत शराब वगैरः पीते हैं, उनके शरीर इन कीटाणुओंके डेरा जमानेके लायक हो जाते हैं । जिनके शरीर निमोनिया, प्लेग, इनफ्लूएञ्जा, चेचक या माता वगैरः रोगोंसे कमजोर हो गये हैं, उनपर क्षयके कीड़े जल्दी ही हमला कर देते हैं। जिनके रहनेके स्थान घनी ( Densely-populated ) बस्तीमें होते हैं, जिनके घरों में अँधेरा जियादा होता है, जिनके रहनेके कमरे खूब हवादार ( well ventilated ) नहीं होते, जिनके श्वासमें धूल, धूआँ या गर्द-गुबार जियादा जाता है, उनपर क्षयके कीटाणु अवश्य हमला करते हैं। जिनको रात-दिन नोन तेल लकड़ीकी चिन्ता रहती है, जिन्हें काफी भोजन और पर्याप्त धी-दृध नहीं मिलता, जो भंग, चरस, For Private and Personal Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । अफीम, गाँजा, चन्डू और शराब वगैरः नशीली चीज़ोंको जियादा सेवन करते हैं, जिन्हें घनी बस्तीमें रहनेकी वजहसे साफ हवा नहीं मिलती, जो लोग हस्त-मैथुन-हैन्ड-प्रैक्टिस या मास्टर-बेशन प्रभृति कानून-कुदरतके खिलाफ काम करते हैं, उन सब लोगोंके शरीर क्षयके कीड़ोंके बसनेके लिए उपयुक्त स्थान होते हैं । प्र०-कुछ और भी कारण बताओ । ___ उ०-छातीमें चोट लग जाने, किसी बुरी या बदबूदार चीजके फेंफड़ोंमें यकायक घुस जाने, गरम शरीरमें यकायक सर्दी लग जाने, गरम जगहसे यकायक सर्द जगहमें चले जाने, ठण्डी हवा या लूओंमें शरीर खुला रखने, किसी वजहसे फेंफड़ों द्वारा खून जाने, ऋतुओंमें उल्ट-फेर होने, किसी तेज़ चीज़से छातीके फटने आदि अनेकों कारणोंसे क्षय-रोग होता है। लेकिन आजकल ज़ियादातर यह रोग रातमें जागने, वेश्याओंमें रात-भर घूमने, अति मैथुन करने, रात-दिन घाटेनफेकी चिन्ता करने, बाल-बच्चोंके गुजारेकी चिन्तामें चूर रहने आदि कारणोंसे होता है। प्र०-यह रोग किनको अधिक होता है ? उ०-यह रोग मर्दोकी अपेक्षा औरतोंको एवं बूढ़े और बच्चोंकी अपेक्षा जवानोंको ज़ियादा होता है। कोई-कोई कहते हैं कि, औरतोंकी अपेक्षा मर्दोको यह ज़ियादा होता है। बहुत करके, अठारह सालकी उम्रसे तीस साल तककी उम्रवालोंको यह अपना शिकार बनाता है। काश्मीर प्रभृति उत्तरीय देशों में यह रोग गरमी और जाड़ेमें होता है । पूर्वीय देशोंमें, खरीफकी ऋतुमें होता है । ऐसे लोग सुचिकित्सककी चिकित्सासे आराम हो सकते हैं, पर जिन्हें यह रोग गर्मियोंमें होता है, उनका आराम होना कठिन ही नहीं, असम्भव है। For Private and Personal Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षय-रोगपर प्रश्नोत्तर। ६०७ जिनकी छाती छोटी होती है, जिनकी मर्दन लम्बी और आगेको झुकी हुई होती है, जिनके कन्धोंपर मांस बहुत ही कम होता है, ऐसे लोगोंको यह जियादा होता है। प्र-क्षयकी साफ़ पहचान बताओ। । उ०--अगर नीचे लिखे लक्षण देखे जावें तो क्षय समझोः ( १ ) कन्धे और पसलियोंमें दर्द । - (२) हाथ-पैरोंमें जलन होना। (३) सारे शरीरमें महीन-महीन ज्वर रहना । (४) शारीरिक वजनका नित्य प्रति घटना । प्र०-क्षय रोगीके लक्षण बताओ । उ०--पहले खाँसी आती है। सूखी खाँसी बहुधा होती है। हल्का-हल्का ज्वर रहता है। पीछे कुछ दिन बाद खाँसीमें खून आने लगता है । चेहरा लाल-सुर्ख हो जाता है। नाख्न टेढ़े होने लगते और बहुत बढ़ जाते हैं । आँखें नेत्र-कोषोंमें घुस जाती हैं। पैरोंपर कभी-कभी सूजन चढ़ आती है। जिधरके फेफड़ेमें ाव होता है, उधरकी तरफ़ लेटनेसे तकलीफ होती है । कफ फेफड़ोंके घरोंमें जमा हो जाता है । उसकी गाँठे पड़ जाती हैं । अन्तमें पककर, राध आने लगती है। ___अथवा यों समझिये:रोग होनेसे पहले रोगीको बहुत दिनों तक जुकाम बना रहता है। नाक बहा करती है। छींकें आया करती हैं। पीछे जुकामसे ही बुखार हो जाता है। यह बुखार जरा-सी फुरफुरी या सर्दी लगकर चढ़ता है। फेफड़ोंमें जलन-सी होने लगती है। खाँसी आती रहती है। उसमें कफके साथ थोड़ा-थोड़ा खून आता रहता है। दिलकी धड़कन ( Palpitation of heart) बढ़ जाती है। छातीका दद धीरे-धीरे बढ़ता है। दमेके कारण बड़ी तकलीफ होती है। गला For Private and Personal Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय। सूखता है । हाथोंकी हथेली और पैरोंके तलबोंमें जलन होती है। कभी-कभी कन्धोंके दर्दके मारे रोगी बेचैन-सा हो जाता है । या तो नींद आती ही नहीं या बहुत ज़ियादा आती है । पहले तो जीभ सफेद दीखती है, पर पीछे लाल नज़र आती है । आँखें भीतरको घुस जाती हैं। उनका रंग सफेद हो जाता है । होठ काले या नीले हो जाते हैं। चेहरा लाल हो जाता है। छातीमें सुई चुभानेकी-सी पीड़ा होती है । रोगी बड़ी तकलीफसे छातीको पकड़कर खाँसता है । बड़ी मुश्किलसे थोड़ा झागदार और चेपदार कफ सुर्जी-माइल निकलता है। प्र०--क्षयके लक्षण विशेष रूपसे कहिये। उ०--रोग होते ही जुकाम होता है, फिर सूखी खाँसी आने लगती है, यद्यपि उस समय वह पैदा ही होती है, अपने ज़ोरमें नहीं होती; तो भी उसके मारे रोगीको बड़ी तकलीफ होती है। रोगीके मुखसे पतला-पतला और चिकना-चिकना बलगम निकलने लगता है । इसके भी बाद, उस कफमें खून मिलकर आने लगता है, इसलिए वह स्याहीमाइल होता है । इसके भी बाद, कभी भूरी, कभी पीली और कभी हरी पीप आने लगती है। बहुत दिन बीतनेपर खून-ही- खून ज़ियादा आने लगता है । उसमें घोर दुर्गन्ध होती है। पीपकी बदबू ऐसी होती है, जैसी कि हड्डीके जलनेकी होती है । जिनकी पीप बहुत ही जियादा सड़ जाती है या जिनका जुकाम रोगके शुरूमें बहुत दिन तक बना रहता है, उनको कफ थूकनेके समय खुद ही बदबू मालूम होती है । जो बदबूदार खून कफके साथ आता है, वह पानीमें डालनेसे डब जाता है। रोगीके कफकी परीक्षा, पानीसे गिलास भरकर, उसमें कफ डालकर की जाती है । हकीम लोग जलके भरे गिलासमें कफको डालते हैं। उसे बिना हिलाये-डुलाये, ३।४ घण्टे बाद देखते हैं। अगर कफ पानीपर तैरता रहता है, तो रोगको साध्य मानते हैं; डब जाता है, तो असाध्य मानते हैं। अगर इस तरह जलकी परीक्षासे निर्णय नहीं होता, तो जलते हुए कोयलेपर कफको डालते हैं। अगर For Private and Personal Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षयरोगपर प्रश्नोत्तर। ६६ उसके जलनेसे भयङ्कर बदबू उठती है तो उसे “सिल हक़ीक़ी" कहते हैं । यह अवस्था भयंकर होती है। रोगीका आराम होना असम्भव समझा जाता है । कोई कहते हैं, अगर कफके जलनेपर उससे हड्डीके जलनेकी-सी बू या गन्ध आवे तो समझो कि, रोगीको ठीक "क्षय” रोग हुआ है । क्योंकि क्षयमें ज्वर और खाँसी प्रभृति लक्षण देखने में आते हैं । जीर्ण ज्वर प्रभृतिमें भी ये ही लक्षण होते हैं। इसलिये क्षय-ज्वर और दूसरे ज्वर या क्षयकी खाँसी और अन्य खाँसियोंका पहचानना कठिन होता है। प्र०-क्षयवालेके कफके सम्बन्धमें और भी कहिये। उ०-लिख आये हैं, कि कफ चिपचिपा होता है । कभी वह अत्यन्त गाढ़ा गोंद-सा होता है, कभी मटमैला-सा खून-मिला होता है। उसमें गोंदकी तरह इतना चेप होता है, कि जिस वर्तनमें रोगी कफ थूकता है, उसके उल्टा कर देनेपर भी वह नहीं छूटता। अगर पीप कम पका होता है, तो उसके साथ खून आता है और घावके-से खुरण्टके छिलके निकलते हैं । अगर आप किसी घड़ीसाज़से खुर्दबीन शीशा ( microscope ) लाकर बर्तन में देखें, तो आपको उसमें क्षयरोगको पैदा करनेवाले कीटाणु या जर्म (Germs ) दिखाई देंगे। इनके सिवा खून और चर्बी प्रभृति और कितने ही पदार्थ दीखेंगे। प्र०-आप क्षयके लक्षण साफ तौरपर एक बार और बताइये, पर मुख्तसिरमें। ___ उ०-इस रोगवालेको बुखार हर वक्त चढ़ा रहता है। खाना खानेके बाद कुछ और बढ़ जाता है। इसके सिवा, जुकाम, खाँसी, कफका बहुतायतसे आना, कफके साथ पीप आना, बालोंका बढ़ना, कन्धों और पसलियोंमें वेदना, हाथ-पैरों में जलन, या तो भूख लगना ही नहीं या बहुत लगना, गालों या चेहरेपर ललाई, बदनमें रूखापन या खुश्की, मुँहसे खून आना वगैरः लक्षण अवश्य होते हैं। रोगीकी For Private and Personal Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१० चिकित्सा-चन्द्रोदय । नाड़ी तेज, गरम, बारीक और अन्दरको घुसी हुई चलती है । पेशाबमें चर्बी और चिकनाई आती है । रोगी दिन-ब-दिन सूखता जाता है। . ... प्र०-क्षयके ज्वरके सम्बन्धमें कुछ और कहिये ।। उ०--क्षयरोगमें ज्वर तो मुख्य लक्षण है और खाँसी उसकी सहचरी है। इसमें थर्मामीटर लगाकर देखनेसे ज्वर प्रायः ६८॥ डिग्रीसे १०३ डिग्री तक देखा जाता है । किसीको इस रोगमें दो बार ज्वरके दौरे होते हैं। पहला दौरा दिनके १२ बजेसे दोपहर बाद २ बजे तक होता है। दूसरा दौरा शामके ६ बजेसे रातके ६ बजे तक होता है । पहला १२ बजेवाला दौरा कुछ खानेके बाद होता है। तड़काऊ, रातके तीन बजे, सभी क्षयवालोंको पसीने आते हैं और ज्वर कम हो जाता है। इस पर ज्वरकी कमीसे रोगीको कोई लाभ नहीं होता, उसकी ताक़त रोज-ब-रोज़ घटती जाती है । अन्तमें वह यमालयका राही होता है। हाँ, एक बात और है। प्रायः ज्वरका ताप १०३ डिग्री तक रहता है; पर किसी-किसीको इससे भी जियादा होता है। सवेरे ३ बजे सभी क्षयवालोंका बुखार नहीं उतर जाता। कितनोंका बेशक कम हो जाता है; पर कितनेही तो चौबीसों घण्टों ज्वरके तापसे यकसाँ तपते रहते हैं, यानी हर समय ज्वर एकसा चढ़ा रहता है । जिनका ज्वर तड़काऊ तीन बजे पसीने आकर हल्का हो जाता है, उनका ज्वर भी दिनके १२ बजे, दोपहरको, अवश्य फिर बढ़ जाता है। प्र०- रोगीकी नाड़ीके सम्बन्धमें भी कुछ कहिये । ____उ०-रोगीकी नाड़ी या नब्ज़ तेज़ चलती, गरम और बारीक रहती तथा भीतरको घुसी हुई-सी चलती है। नाड़ीकी चाल बेशक तेज़ रहती है, लेकिन रोगकी कमी-बेशी होनेपर नाड़ीकी चालमें फर्क हो जाता है । रोग होनेपर, आरम्भमें, नाड़ीकी चाल तेज़ होती है, पर ज्यों-ज्यों रोग अपना भयङ्कर रूप धारण करता या बढ़ता जाता For Private and Personal Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षय-रोगपर प्रश्नोत्तर। ६११ है, नाड़ीकी चाल भी तेज होती जाती है। नाड़ीपर उँगली रखकर और दूसरे हाथमें घड़ी लेकर, अगर आप नाड़ीके खटके गिनें, तो आपको ६० से लेकर १०० तक खटके एक मिनटमें गिननेमें आवेंगे। लेकिन कभी-कभी एक मिनटमें ११० बार तक नाड़ीके खटके गिन्तीमें आते देखे जाते हैं। प्र०--क्षय-ज्वरके पसीनों और दूसरे ज्वरोंके पसीनोंमें क्या अन्तर है ? उ०-क्षय-ज्वरमें रातके समय दो-तीन दफा बहुत ही जियादा पसीने आते हैं। यहाँ तक कि ओढ़ने-बिछानेके सारे कपड़े पसीनोंसे तर हो जाते हैं। पसीने इस रोगमें छातीपर अक्सर आते हैं। जब कि और ज्वरों में सारे शरीरमें आते हैं। इस रोगमें पसीने आनेसे रोगी एकदम जल्दी-जल्दी कमजोर होता जाता है । पसीनोंसे उसे सुख नहीं मिलता, उसका शरीर हल्का नहीं होता; जैसा कि दूसरे ज्वरों में पसीने आनेसे रोगीका शरीर हल्का हो जाता और उसे आराम मिलता है। रातमें पसीने आते हैं, उसे डाक्टरीमें रातके पसीने ( Night Perspiration ) कहते हैं । ये रातके पसीने इस क्षय-रोगमें रोगके असाध्य ( Incurable ) होनेकी निशानी हैं। ऐसा रोगी नहीं बचता। प्र०--इस रोगमें पेशाब कैसा होता है ? उ०-क्षय-रोगीके पेशाबमें चर्बी और चिकनाई होती है । पेशाबका रंग किसी क़दर कलाई लिये होता है। जब रोगीका खून क्षयकी वजहसे जलता है, तब पेशाबमें श्यामता या कलाई होती है। जब पित्तकी ज़ियादती होती है तब पेशाबका रंग पीला होता है । अगर क्षय-रोगीका पेशाब सफेद रंगका हो तो समझो कि, रोगीकी ओज धातु क्षीण हो रही है। अगर ऐसा हो, तो रोगीको असाध्य समझो और उसका इलाज हाथमें मत लो। मूर्ख वैद्य रोगीका पेशाब सफ़ेद For Private and Personal Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१२ चिकित्सा-चन्द्रोदय। देखकर मनमें समझते हैं कि, रोगीको आराम है; लेकिन यह बात उल्टी है। क्षयमें पेशाब सफ़ेद होना मरण-चिह्न है। ___ प्र०-अच्छा, क्षय-रोगीकी जीभ कैसी होती है ? .. उ० - क्षय-रोगीकी जीभ शुरूमें सफ़ेद रहती है, लेकिन दिन बीतनेपर वह लाल-लाल दिखाई पड़ती है। ज्यों-ज्यों रोगीका मरणकाल निकट आता जाता है, उसकी जीभ अनेक तरहके रंगोंकी दिखाई देने लगती है। कभी किसी रंगकी होती है और कभी किसी रंग की। - प्र०-क्षय-रोगीके शरीरके किन-किन अंगोंमें वेदना होता है ? ___ उ०-क्षय-रोगीकी छातीमें भयङ्कर वेदना होती है । तीर-से छिदते हैं। उसकी पीठ और पसलियोंमें भी वेदना होती है। इसी तरह कभी कन्धे, कभी पीठ और कभी छाती या पसवाड़ोंमें पीड़ा होती है । अगर एक तरफके फेफड़ेमें रोग होता है, तो पीड़ा एक तरफ होती है । अगर दोनों तरफके फेफड़ों में रोग होता है, तो दोनों तरफ वेदना होती है । खाँसने, साँस लेने और दर्दकी जगहपर हाथ लगाने या दबानेसे बड़ी तकलीफ होती है। । प्र०--क्या क्षय-रोगीके शरीरकी तपत या गरमी कभी कम होती है ? उ०-यद्यपि क्षय-रोगीको पसीने दिन-रातमें कई बार और बहुत आते हैं-रातके समय तो खास तौरसे बहुत पसीने आते हैं, पर इन पसीनोंसे उसकी तपत या शरीरकी गरमी कम नहीं होती। उसका बदन तो पसीनों-पर-पसीने आनेपर भी तपता ही रहता है। अगर ईश्वरकी कृपासे वह आराम ही हो जाता है, तब उसकी तपत कम होती है। प्र०-क्षय-रोगीके मल-त्याग और भूखकी क्या हालत होती है ? उ०—इस रोगीको बहुधा भूख नहीं लगती, क्योंकि आमाशय अपना काम (Function ) बन्द कर देता है। लिवर और तिल्ली For Private and Personal Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षयरोगपर प्रश्नोत्तर। बढ़ जाते हैं। रोगीको वमन होती, जी मिचलाता और पतले दस्त लगते हैं। __प्र०-क्या क्षयरोगीका दिमाग भी खराब हो जाता है ? उ०-आप जानते होंगे, मनुष्य-शरीरमें खून चक्कर लगाया करता है। वह हृदयमें आकर शुद्ध होता है और शुद्ध होकर शरीरके सब अङ्गोंको पोषण करता है। चूँ कि क्षय-रोगमें फेंफड़े कफसे भर जाते हैं, इसलिये वह खूनको शुद्ध नहीं करते । अशुद्ध रक्त ही मस्तकमें जाता है, इसलिये मस्तकमें अनेक विकार हो जाते हैं। रोगीका सिर भारी रहता है । वह मनमानी बकता है। किसी बातपर कायम नहीं रहता, उसे नींद नहीं आती । रात-भर करवटें बदलता है। चैन नहीं पड़ता। करवट भी बदलना कठिन हो जाता है; क्योंकि ताक़त नहीं रहती। सीधा पड़ा रहता है। सीधे पड़े रहनेसे उसकी पीठ लग जाती है, अतः पीठमें घाव हो जाता है। बैठना चाहता है, पर बैठा नहीं रहा जाता, इसलिये फिर पड़ जाता है। मस्तिष्क-विकारोंके कारण रोगीको बड़ी तकलीफ और बेचैनी रहती है। ___ प्र०--कोई ऐसी तरकीब बताइये जिससे साधारण आदमी भी आसानीसे जान सके कि, रोगीको क्षय है या अन्य ज्वर ? उ०--साधारण ज्वरमें, अगर खाना खानेके बाद, ज्वर रोगीपर आक्रमण करता है, तो रोगीको मालूम हो जाता है कि, मुझे ज्वर चढ़ रहा है; पर यक्ष्मामें यह बात नहीं होती। क्षयवालेको भी भोजनके बाद ज्वर बढ़ता है, पर रोगीको पता नहीं लगता। साधारण ज्वरमें, अगर पसीना आता है, तो कमोबेश सारे शरीरमें आता है। पर क्षय-ज्वरमें, पसीना छातीपर जियादा आता है। यह फर्क है। साधारण ज्वरमें, पसीने आनेसे रोगीका बदन हल्का हो जाता For Private and Personal Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१४ चिकित्सा-चन्द्रोदय । है, उसे आराम मालूम होता है। पर क्षय-ज्वरमें पसीना आनेसे शरीर हल्का नहीं होता, बल्कि कमजोरी जियादा जान पड़ती है। साधारण किसी भी ज्वरमें, रोगीके शरीरपर हाथ रखने या उसका बदन छूनेसे उसी समय बदन गरम जान पड़ता है; किन्तु क्षय-रोगीके शरीरपर हाथ रखनेसे, उसी समय, हाथ रखते ही, बदन गरम नहीं मालूम होता । हाँ, थोड़ी देर होनेसे गरमी जान पड़ती है। साधारण कोई ज्वर अपने समयपर चढ़ता और समयपर उतर भी जाता है । और, सवेरेके समय तो ज्वर अवश्य ही उतर जाता है; लेकिन क्षय-रोगीका ज्वर हर समय कमोबेश बना ही रहता है। तीन बजे रातको खूब पसीने आते हैं, पर फिर भी ज्वर नहीं उतरता, कुछन-कुछ बना ही रहता है। विषम-ज्वर या शीत-ज्वर आदिमें किनाइन (Quinine ) देनेसे अवश्य लाभ होता है; लेकिन क्षय-ज्वरमें कुनैन देनेसे कोई फायदा नहीं होता, बल्कि नुक़सान ही होता है। ___ और ज्वरोंके साथकी खाँसियोंमें पीप नहीं आती, कफमें कोई गन्ध नहीं होती; लेकिन क्षयकी खाँसीमें रोगीके कफमें पीप होती है, खून होता है, उसमें बदबू होती है। अगर क्षयवालेका कफ आगके जलते हुए कोयलेपर डाला जाता है, तो उससे हड्डी जलनेकी-सी या पीपकी-सी बुरी दुर्गन्ध आती है। - और ज्वरवाले रोगीका मुँह सोते समय खुला नहीं रहता। अगर खाँसी होती है, तो कभी-कभी खुला रहता है। लेकिन क्षयरोगीका मुंह सोते समय खुला रहता है, क्योंकि उसके फेफड़े कमजोर हो जाते हैं। प्र०-क्षय-रोग तीन दों में बाँटा जाता है, उसके तीनों दोंके लक्षण कहिये। उ०-नीचे हम तीनों अवस्थाओंके लक्षण लिखते हैं: For Private and Personal Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षय-रोगपर प्रश्नोत्तर। ६१५ . पहला दर्जा-सबसे पहले जुकाम होता है, वह बहुत दिनों तक बना रहता है । थोड़ी-थोड़ी सूखी खाँसी आती रहती है। फिर जुकाम बिगड़ जाता और बढ़कर मन्दा-मन्दा ज्वर पैदा कर देता है। यह ज्वर ऐसा होता है कि, रोगीको मालूम भी नहीं होता। खाँसनेपर थोड़ा-थोड़ा पतला-सा कफ आता है। हाथोंकी हथेलियाँ और पाँवोंके तलवे जलते हैं। कन्धे और पसवाड़े दर्द करते हैं । भूखप्यास वगैरःमें जियादा फेर-फार नहीं होता। यह पहला दर्जा है । अगर रोगी यहीं चेत जावे; किसी अनुभवी वैद्यके हाथमें चला जावे, तो जगदीशकी दयासे आराम हो सकता है। दूसरा दर्जा--ग़फ़लत करनेसे जाड़ा लगकर ज्वर चढ़ने लगता है। जिस समय पीप बनने लगती है, ज्वर ठण्ड लगकर रातमें दो बार चढ़ता है। कमजोरी मालूम होती है, खाँसी चलती रहती है, फेंफड़ोंसे खून आने लगता है, हाथ-पाँवों में जलन होती है, मन्दामन्दा ज्वर हर समय बना ही रहता है, ज़रा भी मिहनत करनेसे--मिहनत चाहे दिमागी हो चाहे शारीरिक--फौरन थकान आ जाती है, दिलकी धड़कन बढ़ जाती है, जीभ सफेद हो जाती है, मुँह लाल और होंठ नीले हो जाते हैं । आँखें सफेद और भीतरको नेत्रकोषोंमें घुसी जान पड़ती हैं। छातीमें सुई चुभानेकी-सी वेदना होती है, खाँसी बहुत बढ़ जाती है। खाँसनेसे काँसीके फूटे बासनकी-सी आवाज़ निकलती है। ज्वर थर्मामीटरसे देखनेपर १०३ डिग्री तक देखा जाता है। नाड़ीकी फड़कन प्रति मिनट पीछे ११० या इससे भी अधिक हो जाती है। रोगीकी बेचैनी बढ़ जाती है। नींद नहीं आती। शरीर सूखता और कमजोर होता जाता है। कमज़ोरी बहुत ही ज़ियादा हो जाती है। इस अवस्था या दर्जेमें अगर पूर्ण अनुभवी वैद्यका इलाज जारी हो जावे, तो कुछ लाभ हो सकता है। रोगी कुछ दिन और संसारमें रह सकता है। रोगसे कतई छुटकारा होना असम्भव तो नहीं महाकठिन अवश्य है। For Private and Personal Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१६ 'चिकित्सा-चन्द्रोदय । तीसरा दर्जा-इस दर्जेमें ज्वर और खाँसी सभीका जोर बढ़ जाता है । कफ पहलेसे गाढ़ा होकर अधिकतासे आने लगता है। जहाँ गिराया जाता है, वहाँ गोंदकी तरह चिपक जाता है। उसमें खूनके लोथड़े होते हैं। कफमें जो पीप आती है, उसमें दुर्गन्ध होती है। यह रोगीको स्वयं अपनी नाकसे मालूम होती और बुरी लगती है। रोगीको न सोते चैन न बैठे चैन । उठता है, बैठता है, फिर पड़ जाता है, क्योंकि बैठनेकी ताक़त नहीं होती। उसकी आवाज़ बदल जाती है। गरमीके मौसममें वह चाहता है कि, मैं अपने हाथपाँव बर्फमें डाले रहूँ। कभी हाथ-पैरोंको ठंडे जलसे भिगोता है, कभी निकालता है, पर चैन नहीं पड़ता। सवेरे ही छाती और सिरपर गाढ़ा और चेपदार पसीना बहुत आता है। उसे नींद नहीं आती। पाँवोंपर सूजन चढ़ आती है। बाल गिरने लगते हैं। ज्वर साढ़े अट्ठानवें डिग्रीसे १०३ डिग्री तक होता रहता है । ज्वरके दो दौरे जरूर होते हैं। खाना खाने बाद, अगर आता है, तो १२ बजे ज्वर बढ़ता है और यह दो बजे तक बढ़ी हुई हालतमें रहता है; फिर हल्का हो जाता है। शामको ६ बजेसे रातके 2 बजे तक फिर ज्वरका दौरा हो जाता है। वह रातको तीन बजे तक पसीने आकर कुछ हल्का हो जाता है, पर एकदम उतर नहीं जाता। इस तरह रोगीकी हालत दिनपर-दिन बिगड़ती जाती है और ये सब शिकायतें उसकी जीवनीशक्तिको नाश कर देती हैं। कोई इलाज कारगर नहीं होता । अन्तमें रोगी सब कुटुम्बियोंको रोता-विलपता छोड़कर, यमराजका मेहमान बननेको, इस ना-पायेदार दुनियासे कूच कर जाता है। प्र०--जब रोगीका अन्त समय निकट आ जाता है, तब क्या हालतें होती हैं ? - उ०-जब रोगीका मृत्युकाल पास आ जाता है, तब उसकी भूख खुल जाती है, पहले वह नहीं खाता था तो भी अब कुछ खाने लगता है । उसका आमाशय अपना काम नहीं करता, इसलिये उसका खाया For Private and Personal Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षय-रोगपर प्रश्नोत्तर। ६१७. पिया पतले दस्तों और वमनके द्वारा बाहर निकल जाता है। उसके नेत्र नेत्रकोषोंमें घुसे हुए साफ सफ़ेद चमकते हैं, गाल बैठ जाते हैं, सिर चमकने लगता है और पैरोंकी पीठ सूज जाती हैं। इस तरह होते-होते उसे जोरसे खाँसी आती है। उससे रोगीको खूनकी क़य होती है और वह दूसरी दुनियाको कूच कर देता है । प्र०-कितने दिन पहले हम रोगीके मरणके सम्बन्धमें जान सकते हैं और किन लक्षणोंसे ? उ०--काल-ज्ञानका अभ्यास करनेसे वैद्य या जो कोई भी अभ्यास करे वह, कम-से-कम छै महीने पहले, रोगीके मरण-कालके सम्बन्धमें जान सकता है। जब रोगीके मैं हसे उसके फेफड़ोंके टुकड़े या नसोंके हिस्से निकलने लगते हैं, दोष गाढ़े रूपमें निकलने बन्द हो जाते हैं, पैरोंकी पीठ सूज जाती हैं, उनपर वरम आ जाता है, तब रोगीके मरनेमें प्रायः चार दिन रह जाते हैं। ___ जब रोगीके दोनों जाबड़ोंपर बड़े-बड़े दानों-जैसी कोई चीज़ पैदा हो जाती है, तब उसके मरनेमें ५२ दिन रह जाते हैं। जब रोगीके सिरमें काले रंगका एक बड़ा दाना-सा निकल आता है और उसे दबानेपर पीड़ा नहीं होती, तब रोगीके मरनेमें ४० दिन रह जाते हैं। ___ जब रोगीके सिरपर लाल-लाल फुन्सियाँ निकल आती हैं, उनसे चिकना-सा पीला-पीला पानी निकलता है और अँगूठेपर हरियाली-सी आ जाती है, तब रोगी चार दिनसे अधिक नहीं जीता। प्र०-चिकित्सा न करने-योग्य असाध्य रोगियोंके लक्षण बताइये। उ०-क्षयरोगीका थूक जलके भरे गिलासमें डालनेसे अगर डूब जाये-नीचे पैदेमें बैठ जावे, तो उसका इलाज मत करो; क्योंकि वह नहीं बचेगा । अगर थूक या कफ पानीपर तैरता रहे, तो बेशक इलाज करो । मुमकिन है, अच्छे इलाजसे आराम हो जावे। For Private and Personal Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । - . क्षय-रोगीके कफको जलते हुए कोयलेपर डाल दो। अगर उससे घोर दुर्गन्ध उठे, तो रोगीको असाध्य समझो और उसका इलाज हाथमें मत लो। कफ पानीके भरे बर्तनमें डालनेसे डूब जावे, पैंदेमें बैठ जावे, आगपर डालनेसे दुर्गन्ध दे, बाल गिरने लगें, पतले दस्त लगें, या आमके दस्त आवें, आँखें और पेशाब सफ़ेद हों. खाँसी और जुकामका ज़ोर हो, भोजनपर रुचि न हो, कफ निकलने में बहुत तकलीफ हो, नेत्र आँखोंके खड्डोंमें घुस जावें, कमजोरी बहुत हो जावे, ज्वरका जोर जियादा हो, तब समझ लो कि रोगी नहीं बचेगा। उसका इलाज हाथमें लेकर वृथा बदनामी कराना है।। जिस रोगीको दम-दमपर पतली टट्टी लगती हों, कफके बड़े-बड़े ढप्पे गिरते हों, श्वास बढ़ रहा हो, हिचकियाँ चलती हों, पहले पैरोंपर सूजन आई हो या और अंग सूज गये हों, कन्धों और पसवाड़ों वगैर में पीड़ा बहुत हो, रोगीको चैन न हो, तो समझ लो कि, रोगी हरगिज़ नहीं बचेगा। जिस रोगीको अच्छा वैद्य अच्छी-से-अच्छी दवा दे, पर उसका रोग न घटे, दिन-पर-दिन उपद्रव बढ़ते जावें; कमजोरी अधिक होती जावे, और रोगी अपने मुंहसे बारम्बार कहता हो कि, मैं अब नहीं बचूँ गा, वह रोगी हरगिज़ नहीं बचेगा, अतः ऐसे रोगीका इलाज कभी भी न करना चाहिये। प्र०--डाक्टर लोग क्षय-रोगकी पैदाइश किस तरह कहते हैं ? . उ०–डाक्टर कहते हैं, क्षयका प्रधान कारण कीटाण या जर्म (Germs ) हैं । इनको अँगरेजीमें बैसीलस टूबरक्लोसिस (Bacillus Tuber-culosis) कहते हैं । डाक्टर कहते हैं कि फेंफड़ोंमें इन कीटाणुओंके हुए बिना क्षय रोग नहीं होता । इन कीड़ोंके रहनेकी जगह क्षय-रोगीका थूक-खखार या कफ वगैरः हैं । क्षय-रोगी इधर-उधर चाहे जहाँ थूक देते हैं, उसमेंसे ये कीटाणु, स्वस्थ मनुष्य के शरीरमें, उसके साँस For Private and Personal Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१६ क्षय-रोगपर प्रश्नोत्तर। लेनेके समय, नाक द्वारा, भीतर घुस जाते हैं अथवा भोजनपर बैठकर भोजन-द्वारा अच्छे-भले मनुष्यके आमाशयमें पहुँच जाते हैं। अगर वंशमें किसीको क्षय-रोग होता है और उसके थूक-खखार आदिसे बचाव नहीं रखा जाता, तो उसके थूक वगैरःके कीड़े दूसरों के अन्दर प्रवेश करके क्षय पैदा करते हैं। ___ हवा और धूलमें मिलकर जिस तरह और रोगोंके कीड़े एक जगहसे दूसरी जगह जा पहुँचते हैं, उसी तरह इस क्षय-रोगके कीड़े भी क्षय-रोगीके कफसे निकलकर, हवामें मिलकर, तन्दुरुस्त आदमियोंके नाक और मुंहमें घुसकर, फेंफड़ों तक जा पहुँचते हैं और फिर वहाँ अपना डेरा जमा लेते हैं। __ ये कीटाणु प्रायः नित्य बढ़ते रहते हैं और थूक द्वारा बाहर निकल-निकलकर भले-चंगोंको मारते हैं। ये इतने छोटे होते हैं कि, उनकी छुटाईका कोई हिसाब भी नहीं लगाया जा सकता। ये नङ्गी आँखों ( Naksal eyes ) से नहीं दीखते । हाँ, खुर्दबीन या सूक्ष्मदर्शक यंत्रसे, जिसे अंगरेजीमें माईक्रोसकोप कहते हैं, वे अच्छी तरह नजर आते हैं। __ जब क्षय-रोगी आराम हो जाता है, तब डाक्टर लोग अक्सर क्षय-रोगीके खून और थूककी परीक्षा .खुर्दबीनसे करते हैं। अगर उनमें क्षयके कीटाणु नहीं पाये जाते, तब उसे रोगमुक्त समझते हैं । हाँ, अगर ये पचीस हजार कीटाणु, एक सीधमें, पंक्ति लगाकर, एक दूसरेसे सटकर, रखे जावें तो ये एक इञ्च लम्बी जगहमें आजावेंगे। इसी तरह एक पदम जीवाणुओंका वजन सिर्फ एक माशे-भर होता है । ये बहुत जल्दी बढ़ते हैं। २४ घण्टेमें एक कीटाणुसे तीन पदमके क़रीब हो जाते हैं। इस तरह ये बढ़ते-बढ़ते रोगीके फेफड़ोंमें घाव पैदा करके उन्हें खराब कर देते हैं। घाव हो जानेसे ही रोगीके थूकमें खून और पीप आने लगते हैं। रोगी कमजोर होता जाता है For Private and Personal Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२० चिकित्सा-चन्द्रोदय | और कीड़ोंका वंश बढ़ता जाता है । ये इतने छोटे जीव, जिनको आदमी ध्यानमें भी नहीं ला सकता, दुर्लभ मानव-देहका सत्यानाश कर देते हैं । ये कीटाणु नित्यप्रति बढ़ते रहते हैं, और थूक द्वारा बाहर निकलते हैं; इसलिये रोगीको बारम्बार थूकना पड़ता है । इस वास्ते रोगी थूकनेको एक चीनीका टीनपाट रखना चाहिये । उसमें थोड़ा पानी डालकर चन्द क़तरे कारबॉलिक ऐसिड या फिनाइलके डाल देने चाहिए; क्योंकि वे इन दोनों दवाओंसे फौरन नाश हो जाते हैं। जो लोग ऐसा इन्तज़ाम नहीं करते, थूकको जहाँ तहाँ पड़ा रखते हैं, वह अपनी मौत आप बुलाते हैं, क्योंकि कफके सूख जानेपर, ये कीटाणु हवा में उड़-उड़कर, साँस लेनेकी राहों से, दूसरे लोगों के अन्दर घुसते और उन्हें भी बेमौत मारते हैं । रोगीको खुद ही पराई बुराई या औरोंके नुकसानका खयाल करके दीवारों, फर्शो और सीढ़ियों पर न थूकना चाहिये । आप मरने चले, पर दूसरों को क्यों मारते हैं ? इन कीड़ों की बात हमारे त्रिकालज्ञ ऋषि-मुनि भी जानते थे । यूरोपियनोंने अवश्य पता लगाया है, पर अब लाखों-करोड़ों वर्ष बाद । हमारे " शतपथ ब्राह्मण" में एक श्लोक है- नो एव निष्ठीवेत् तस्मात् यद्यप्यासक्तः । इव मन्येत अभिवातं परीयाच्छ्री सोमः ॥ पाप्मा यमः सयथा श्रेय स्यायति पापीयान् । प्रत्य व हे देव यस्माद्यच्माः प्रत्यवरोहति ॥ अर्थात् हे देव, आप कैसे ही कमज़ोर क्यों न हों, आप उठने-बैठने में असमर्थ क्यों न हों, आप जहाँ-तहाँ न थूकें, क्योंकि यक्ष्मा एक पाप है । वह पापी दूसरोंपर चढ़ बैठता है। यानी यक्ष्मा छुतहा (Contagious या Infectious ) रोग है । वह एकसे दूसरेको लग जाता हैं । अथवा यक्ष्माके कीड़े एकके थूकसे निकलकर, नाक मुख आदि For Private and Personal Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षय रोगपर प्रश्नोत्तर। ६२१ श्वास-मार्गों द्वारा दूसरोंके अन्दर घुस जाते और उनका प्राण-नाश करते हैं। प्र०-यक्ष्मा कहाँ-कहाँ होता है ? उ०-यक्ष्मा शरीरके प्रत्येक अंगमें हो सकता है और होता भी है, पर विशेष रूपसे वह नीचे लिखे अंगोंमें होता है: (१) फेंफड़े, (२) कंठ, (३) हड्डी ( ४ ) हड्डी और उनके जोड़, (५) आँतें और ( ६ ) कंठमाला। मतलब यह कि, उपरोक्त फेफड़े आदिका क्षय बहुत करके होता है। सारे शरीरमें तब होता है, जब कीटाणु टॉकसिन नामक विष पैदा करते हैं और वह विष सारे शरीरमें फैलता है; पर ऐसा कम होता है। आजकल तो बहुत करके फेफड़ोंका ही क्षय होता है और उसीसे रोगी चोला छोड़ चल देता है। शुरूमें यह फेंफड़ेके अगले भागमें होता है। अगर बायें फेंफड़ेपर होता है, तो दाहिने फेंफड़ेसे काम चला जाता है पर ऐसा भी बहुत कम होता है। प्र० -फेंफड़ोंके क्षयके लक्षण तो बताइये। उ०-(१)छाती तंग होती, कन्धे झुक जाते, (२)धीरे-धीरे शरीरमें कमजोरी होती और कभी-कभी एक-दमसे कमजोरी आ जाती है। (३) चमड़ा जरा-जरा पीला-सा हो जाता है । (४) कभी-कभी गालोंपर ललाई दीखती है । (५) जुकाम बहुधा बना रहता है । (६) रोगीका मिजाज बदल जाता है । दयालु स्वभाववाला निर्दयी हो जाता और निर्दयी दयालु हो जाता है। (७) पहले जो चीजें या जो बातें अच्छी मालूम होती थीं; क्षय होनेपर बुरी लगती हैं। रुचि बदल जाती है । (८) काम करनेसे थकाई जल्दी आने लगती है । (६) शामके वक्त मन्दा-मन्दा ज्वर या हरारत रहती है। टैम्परेचर ८॥ से ६६॥ डिग्री तक हो जाता है। (१०) भूख नहीं लगती । (११) दिलकी धड़कन बढ़ जाती है। (१२) छातीमें दर्द होता है। (१३) खाँसी For Private and Personal Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । चलती है। (१४) शामको खाँसी बढ़ जाती है। (१५) आँखें जियादा सफेद हो जाती हैं । (१६) फेफड़ों में दाह या जलन होती है। प्र०-वातप्रधान, पित्तप्रधान और कफप्रधान ज्ञयके लक्षण बताओ। उ० __ वातप्रधान क्षय । (१) सिरमें दर्द, (२) पसलियोंमें दर्द, (३) कन्धों वग़ैर में दर्द, (४) गला बैठ जाना, (५) आवाजमें खरखराहट और (६) मन्दा-मन्दा ज्वर । पित्तप्रधान क्षय । (१) छातीमें सन्ताप, (२) हाथ-पैरों में जलन, (३) पतले दस्त (अतिसार ), (४) खून मुँ हसे आना, (५) मैं हमें बदबू और (६) तेज बुखार । कफप्रधान क्षय । (१) अरुचि, (२) वमन, (३) खाँसी, (४) श्वास, (५) सिरदर्द, (६) शरीरमें दर्द, (७) पसीने आना, (८) जुकाम, (६) मन्दाग्नि, (१०) मुँह मीठा-मीठा रहना, (११) हर समय मन्दा-मन्दा ज्वर । प्र०-यक्ष्माकी मर्यादा कहो। उ०--परं दिन सहस्रन्तु यदि जीवति मानवः । सुभिषग्भिरुपक्रान्तस्तरुणः शोषपीडितः ॥ अगर क्षय-रोगी १००० दिन तक जीता रहे, तो समझो कि, रोगी जवान था और किसी सुचिकित्सकने उसका इलाज किया था। प्र०-हिकमतवाले क्षयपर क्या कहते हैं ? उ०-हकीम लोग क्षयको दिन या तपेदिक़ कहते हैं । इस तपेदिकके लक्षण हमारे प्रलेपक ज्वरसे मिलते हैं। प्रलेपक ज्वर कफ-पित्तसे होता है, पर कोई-कोई उसे त्रिदोषसे हुआ मानते हैं। For Private and Personal Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षयरोगपर प्रश्नोत्तर। .६२३ प्रलेपफ-ज्वरमें हल्का-हल्का ज्वर रहता है, पसीनोंसे शरीर तर रहता. है और ठण्डकी फुरफुरी लगती है। अँगरेजीमें इसे हैटिक फीवर, कहते हैं। ... हिकमतके मतसे कमजोरी, क्षीणता, मन्दाग्नि और अति मैथुन आदि इसके कारण हैं । कहते हैं, उसमें सर्दी लगकर बुखार चढ़ता है, हाथ-पाँवके तलवे गर्म रहते हैं, मन्दा-मन्दा ज्वर रहता है, भूख नहीं लगती, पसीना चीकटा-सा आता है, जीभपर मैल होता है, दस्त लगते हैं, किसी अंगमें पीप पैदा हो जाता है तथा थकान और. वेदना वगैरः लक्षण होते हैं। सारांश यह कि, हकीमोंका दिक़, डाक्टरोंका हैक्टिक फीवर और आयुर्वेदका प्रलेपक-ज्वर राजयक्ष्माकी एक खास अवस्था है; यानी वह किसी अवस्था विशेषमें होता है। __हकीम लोग क्षयको “सिल" भी कहते हैं । हमारी रायमें “सिल" उरःक्षतको कहना चाहिये । सिल शब्दका अर्थ कमजोरी और दुबलापन होता है और दिकका अर्थ भी कमजोर है । ___ हकीम कहते हैं कि, नीचे लिखे कारणोंसे यह रोग होता है: (१) नजलेके पानीके फेफड़ोंपर गिरने और खराश पैदा कर देनेसे दिक्क होता है। (२) न्यूमोनियाका ठीक-ठीक इलाज न होने, उसके दोषोंके पक जाने और फेफड़ों में जलन कर देनेसे दिक होता है। (३) पुरानी खाँसीका अच्छा इलाज न होने, उसके बहुत दिनों तक बने रहने, उसकी वजहसे फेफड़ोंके कमजोर हो जाने, और उनमें खराश होकर घाव हो जानेसे दिक़ होता है। वे इसको दो हिस्सोंमें तक़सीम करते हैं:(१) सिल-हक़ीक़ी। (२ ) सिल-गैरहक़ीक़ी । उनकी तारीफ़ । (१) सिल हक़ीक़ी होनेसे रोगीके थूकमें खून और पीप आते हैं। For Private and Personal Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२४ · चिकित्सा-चन्द्रोदय । . (२) सिल गैर-हक़ीक़ी होनेसे केवल कच्चा कफ आता है । खून और पीप नहीं आते। (१) सिल गैर-हक़ीक़ी--जिसमें खाली कच्चा कफ गिरता है, आराम हो सकती है; पर (२) सिल-हकीक़ी, जिसमें खून और पीप निकलते हैं, आराम होनी मुश्किल है । पहचाननेकी तरकीब । सिल हक़ीक़ी है या गैर-हक़ीक़ी-इसकी पहचान हकीम लोग नीचेकी तरकीबोंसे करते हैं: वे लोग सिलवाले रोगीके थूकको पानीसे भरे गिलासमें डाल देते हैं और उसे बिना हिलाये-डुलाये घण्टे-दो-घण्टे रखे रहते हैं। फिर देखते हैं कि, रोगीका कफ ऊपर तैर रहा है या गिलासके पैंदेमें जा बैठा है। ___ अगर कफ ऊपर तैरता हुआ पाया जाता हैं, नीचे नहीं बैठता, तब रोगको सिल गैर-हक़ीक़ी समझते हैं और रोगीका इलाज हाथमें ले लेते हैं, क्योंकि उन्हें आराम हो जानेकी आशा हो जाती है। ___ अगर कफ पैदेमें नीचे चला जाता है, तो सिल-हक़ीक़ी समझते हैं । ऐसे रोगीका इलाज हाथमें नहीं लेते, क्योंकि सिल-हक़ीक़ीका आराम होना मुश्किल है। और परीक्षा-विधि । अगर इस परीक्षामें कुछ शक रहता है, तो वे रोगीके कफ या थूकको जलते हुए कोयलेपर डाल देते हैं। अगर उससे घोर दुर्गन्ध आती है, तो सिल-हक़ीक़ी समझते हैं और उस रोगीका इलाज नहीं करते। प्र०-रोगी और परिचारकके सम्बन्धमें भी कुछ कहिये । उ०-रोगी और परिचारक यानी मरीज़ और तीमारदारी करनेवाला भी चिकित्साके दो मुख्य अंग हैं । केवल उत्तम औषधि और For Private and Personal Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षय-रोगपर प्रश्नोत्तर। सद्वैद्यसे ही रोग नहीं जा सकता । बहुधा रोगीके जिद्दी और क्रोधी. वगैरः होने तथा सेवा करनेवाले (तीमारदार) के अच्छा न होनेसे, आसानी से आराम हो जानेवाले रोग भी कष्ट-साध्य या असाध्य हो जाते हैं, अतः हम उन दोनोंके सम्बन्धमें यहाँ कुछ लिखते हैं, क्योंकि यक्ष्मा जैसे महा रोगमें इसकी बड़ी जरूरत है। __ रोगीको वैद्यपर पूर्ण श्रद्धा और भक्ति रखनी चाहिये । वैद्यकी आज्ञा ईश्वरकी आज्ञा समझनी चाहिये। दवा और पथ्यापथ्यके मामले में कभी जिद्द न करनी चाहिए। जैसा वैद्य कहे वैसा ही करना चाहिये। रोगी और रोगीके सेवकके कमरे साफ़ लिपे-पुते, हवादार और रोशनीवाले (Woll-ventilated ) होने चाहिएँ । रोगीके बिस्तर सदा साफ़-सफ़ेद रहने चाहिए । थूकने के लिये पीकदानी रक्खी रहनी चाहिये । उसमें राख रहनी चाहिये। अथवा चीनीके टीनपाटमें थोड़ा पानी डालकर, उसमें कुछ कारबोलिक ऐसिड या फिनाइल मिला देनी चाहिये । रोगीके पलँगकी चादर. उसके पहननेके कपड़े रोज़ बदल देने चाहिये। ___ सेवक या परिचारकको रोगीकी कड़वी बातों या गाली-गलौजसे चिढ़ना न चाहिए । बुद्धमान लोग रोगी, पागल और बालककी बातोंका बुरा नहीं मानते । मनमें समझना चाहिये कि, रोगने रोगीको चिड़चिड़ा या खराब कर दिया है। रोगीका इसमें जरा भी कुपूर नहीं। वह जो कुछ करता है, रोगके जोरसे करता है, अपनी इच्छा से नहीं। __ परिचारकको चाहिये, रोगीको सदा तसल्ली दे। वह बात न करना चाहे, तो उसे बात करनेको वृथा न सतावे। ऐसी बातें कहे कि जिनसे उसका दिल खुश हो । अगर रोगी चाहे तो अच्छे-अच्छे ७8 For Private and Personal Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । दिलचस्प किस्से-कहानी सुनावे । रोगीसे बहुत देर तक बातें करनेसे उसमें कमजोरी आती है और कमजोरी बढ़नेसे रोग बढ़ता और मौत पास आती है। रोगीके साफ बिछौनोंपर उत्तमोत्तम सुगन्धित फूल डाले रखने चाहिएँ । उसे खुशबूदार फूलों की मालाएँ पहनानी चाहिएँ । उसके सामने मेज पर गुलदस्ते रखने चाहिएँ । अगर रोगी धनवान हो, तो उसे फूलोंकी शय्यापर सुलाना चाहिए। - रोगीक पीनेका पानी-वैद्यकी आज्ञानुसार-ौटा-छानकर, साफ सुराही में रखना चाहिये। उस सुराहीको रोज़ कपूरसे बसा देना चाहिये । पीनेके पानीपर कपड़ा ढका रखना चाहिये । रोगीके आराम होनेका इसपर बहुत-कुछ दारमदार है । सवेरेका औटाया पानी रातको और रातका औटाया सवेरे नहीं पिलाना चाहिए । जल हमेशा खुले मुँह-बिना ढक्कन दिये-ौटाना उचित है। रोगीके कमरेमें अधिक भीड़-भाड़ न होने देनी चाहिए । लोगोंके जमा होनेसे कमरेकी हवा गन्दी होती है, जिससे रोगीको नुकसान पहुँचता है। उसके कमरेमें धूल-धूआँ वगैरः न होने चाहिएँ । धूल और धूएँ से खाँसी रोग पैदा होता और बढ़ता है और क्षय-रोगीको खाँसी पहले ही होती है। रोगीके कमरे में बिजलीका पङ्खा न होना चाहिये। अगर जरूरत हो तो कपड़ेका पङ्खा लगवा लेना चाहिए-अथवा दूसरे भागमें लिखे हुए तरीकेसे हाथके पंखेकी हवा करनी चाहिए । बिजली या गैसकी रोशनी भी रोगीको हानिकारक होती है। मिट्टीका तेल या किरासिन तेल भी बुरा होता है । चिराग़ देशी ढङ्गका जलाना अच्छा होता है। अगर रोगी अमीर हो, तो कपूरकी बत्तियाँ या घीके दीपक जलाने चाहिए । ग़रीबको तिलीके तेलके चिराग़ जलाने चाहिये । मोमबत्तीकी रोशनी भी अच्छी होती है। For Private and Personal Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षय-रोगपर प्रश्नोत्तर। रोगीके कमरेमें लोबान या गूगलकी धूनी रोज़ सवेरे-शाम देनी चाहिये । गूगलकी धूनी बहुत उत्तम होती है । “अथर्व वेद में लिखा है न तं यक्ष्मा अरुन्धते नैनंशयथाअश्नुते । यं भेषजस्य गुग्गुलो सुरभिर्गन्ध अश्नुते ॥ विश्वञ्चस्तस्माद यक्ष्मा मृगाश्वाइवेरते । यद् गुग्गुल सैन्धव वद्वाप्यसि समुदियम् ॥ जो आदमी गूगलकी सुन्दर गन्धको सँ घता है, उसे यक्ष्मा नहीं सताता । सब तरहके कीटाणु इसकी गन्धसे हिरनोंकी तरह भाग जाते हैं। अतः रोगीके कमरे और आस-पासके कमरों में, गूगल, लोबान, कपूर, छारछरीला, मोथा, सफेद चन्दन और धूप इत्यादिकी धूनी नित्य-प्रति देनी चाहिए। रोगीके कमरे और उसके आस-पासके कमरों में गुलाब-जल और इत्र वगैरः सुगन्धित द्रव्योंका छिड़काव करना चाहिये । द्वारोंपर फूलोंकी मालाएँ, आमकी बन्दनवारें या नीमके पत्तोंको बाँध देना चाहिये, ताकि कमरमें जो हवा आवे वह शुद्ध और खुशबूदार हो। रोगीको नित्य सवेरे सूर्योदयसे पूर्व ही उठा देना चाहिये। फिर उसे किसी ऐसी सवारी में जिसमें बैठनेसे कष्ट न हों, बिठाकर शहरसे बाहर जंगलमें ले जाना चाहिये । वहीं उसे शौच वगैरःसे निपटाना चाहिये । सवेरेकी बेलाको अमृत-बेला कहते हैं । उस समयकी अमृतमय वायुसे खून में लाली और तेजी आती और मन प्रसन्न होता है। हाँ, रोगीको चाहिये, कि वह वहाँ अपने दोनों हाथ सिरपर उठाकर, मुँहसे धीरे-धीरे हवा खींचे और नाक द्वारा धीरे-धीरे निकाल दे । हवाको कुछ देर अपने अन्दर रोककर तब छोड़ना चाहिये। ऐसा व्यायाम नित्य-प्रति करनेसे रोगीको बड़ा लाभ होगा । शामको For Private and Personal Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । भी, सूर्यास्तके पहले ही, रोगीको जंगल में जाना और उसी तरह मुँ हसे श्वास खींच-खींचकर, कुछ देर रोककर, नाकसे छोड़ना चाहिये । अगर मौसम बरसात हो, तो जंगलमें न जाकर अपने घरके बाहर किसी सायादार और खुली जगहमें ताजी हवा खानी चाहिये, पर बरसाती ठण्डी हवासे बचना भी चाहिये । मौसम गरमीमें, रोगी धनवान हो तो, जरूर शिमला, मसूरी, दार्जिलिंग प्रभृति शीतल स्थानोंमें चले जाना चाहिए। क्षयरोगीको गरमी बहुत लगती है । अगर वह ऐसे ठण्डे स्थानोंमें जाकर अपना इलाज करावे, तो बड़ी जल्दी रोग-मुक्त हो । क्षय-रोगीको स्नानकी मनाही नहीं है। अगर उसमें ताक़त हो, तो डुबकी लगाकर नहावे । अगर वह इस लायक न हो, तो शीतल जलमें तौलिया भिगो-भिगोकर शरीरको रगड़-रगड़कर धोवे और फिर पोंछकर साफ धुले हुए वस्त्र पहन ले । अगर रोगी कमजोर हो, तो निवाये जलसे यह काम करे । समुद्र-स्नान अगर मयस्सर हो, तो जरूर करे । वह, क्षय-रोगीको मुफीद है। ___ जब रोगी बाहर टहलने जावे, तब घरके दूसरे लोग उस घरको साफ करके, उसके पलँगकी चादर वगैरः बदल दें । क्षयवालेके पलँगकी चादरको नित्य बदल देना अच्छा है; क्योंकि वह उसके पसीनोंसे रोज़ गन्दी हो जाती है । उसको कपड़े भी नित्य-की-नित्य धोबीके धुले हुए या घरके धुले पहनाने चाहिये । कुछ भी न हो तो रोगीके कपड़ोंको खूब उबलते हुए जलमें डाल दें और उसमें थोड़ा-सा कारबोलिक ऐसिड भी डाल दें ताकि क्षयके कीटाणु वगैरः नष्ट हो जावें । रोगीके कपड़े घरके और लोग हरगिज़ काममें न लावें । रोगीको खाने-पीनेको पथ्य पदार्थ देने चाहिये । इस रोगमें तन्दुरुस्त गधीका दूध हितकर समझा जाता है। पर उसे यानी गधीको गिलोय और अड़ सा वगैरः खिलाना चाहिये । गायका दूध दो, तो तन्दुरुस्त गायका दो। बहुत-सी गायोंको यक्ष्मा होता है । उनका दूध पीनेसे अच्छे For Private and Personal Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ~~~~ ~~~~~ ~~~~~~ ~ क्षय-रोगपर प्रश्नोत्तर। ६२६ भलोंको क्षय हो जाता है । हाँ, गायका दूध कच्चा कभी न पिलाना चाहिये, औटाकर पिलाना चाहिये। शुक्रजन्य क्षयरोगीको दूध-घी, मांस-रस या शोरवा अथवा शतावर आदिके साथ बनाये पदार्थ या दूध आदि हितकर हैं । जिसे शोकसे क्षय हुआ हो उसे मीठे, ठण्डे, चिकने दूध वगैरः पदार्थ देने चाहिएँ । उसको तसल्ली देनी चाहिये और ऐसी बातें कहनी चाहिए, जिनसे उसका दिल खुश हो । क्षयवालेको उसका दाह शान्त करने, ताक़त लाने और कफ नाश करनेके लिये आगे लिखा हुआ 'षडंग यूष" देना चाहिए। अध्वशोष (राह चलनेसे हुए शोष ) वाले रोगीको ठण्डी, मीठी और पुष्टिकारक दवाएँ और पथ्य देने चाहिए। उसे दिनमें सुलाना और हर तरह आराम देना चाहिए । क्षय-रोगीको, आम तौरपर, गेहूँका दलिया, गेहूँ के दरदरे आटेके फुलके, जौका आटा, साँठी चाँवल, घी, दूध, मक्खन, बकरेके मांसका शोरवा, बथुएकी तरकारी, कमलकी जड़, तोरई, हरा कर्दू , पुराने चाँवलोंका भात, पुराने गेहूँकी खमीर उठायी रोटी, जौकी पूरी, कालीमिर्चोंके साथ पकाया मिश्री-मिला गायका दूध पिलाना चाहिए और आसानीसे पच जानेवाली खानेकी चीजें रोगीको देना अच्छा है । साबूदाना, अरारूद, मैलिन्सफूड आदि पथ्य हलके होते हैं । बहुत ही कमजोरको यही देने चाहिएँ । जंगली पक्षियों और हिरन आदिका मांस-रस, हल्की शराब, बकरीका घी, जौका माँड, मूंगका जूस और बकरके मांसका शोरवा विशेष हितकर है । यह शोरवा, जुकाम, सिरदर्द, खाँसी, स्वास, स्वरभंग और पसलीकी पीड़ा-क्षय-सम्बन्धी छहों विकारोंके शान्त करने में बहुत अच्छा समझा जाता है। बहुत-सी उपयोगी बातें हमने “यक्ष्मा-चिकित्सामें याद रखनेयोग्य बातें" शीर्षकके अन्तर्गत लिखी हैं। उन सबपर रोगी और चिकित्सकको खूब ध्यान देना चाहिये। For Private and Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३० चिकित्सा-चन्द्रोदय । रोगीके सब काम नियम और बधे टाइमसे होने चाहिए। उसे शारीरिक और मानसिक (Physical & Mental) परिश्रम, स्त्री-प्रसंग, चिन्ता-फिक्र और बहुत ज़ियादा खाने-पीने प्रभृतिसे बचना चाहिये । बैंगन, बेलफल, करेला, राई, .गुस्सा, दिनमें सोना, मीठा खाना और मैथुन करना क्षयवालेको परम अहितकारक हैं । राह चलनेकी थकानसे हुए अध्वशोषमें दिनमें सोना बुरा नहीं है। हाँ, एक बात और सबसे जरूरी कहकर हम अपने प्रश्नोत्तर ख़त्म करेंगे । वह यह है कि क्षय-रोगीको, जहाँ तक संभव हो, बकरीका ही दूध, दही और घी देना चाहिए । क्योंकि बकरीके दूध-घी आदिमें अधिक गुण होते हैं । वह जो आक, नीम प्रभृतिके पत्ते खाती है, इसीसे उसके घी-दूध आदिमें क्षय-रोगनाशक शक्ति होती है। क्षय और प्रमेहका बड़ा सम्बन्ध है। प्रमेहीको बकरियोंके बीच में सोना और बकरीकी मींगनी वगैरः खानेसे आराम होना अनेक प्राचार्योंने लिखा है । आगे यक्ष्मा-नाशक नुसखा नम्बर २ देखिये । thani FA For Private and Personal Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक्ष्मा - नाशक नुसखे । (१) अर्जुनकी छाल, गुलसकरी और कौंच के बीज - इनको दूधमें पीसकर, पीछे शहद, घी और चीनी मिलाकर पीनेसे राजयक्ष्मा और खाँसी - ये रोग नाश हो जाते हैं । नोट – इन दवाओं के ६ माशे चूर्ण को - पावभर बकरीके कच्चे दूधमें, ३ माशे शहद और ६ माशे चीनी मिलाकर उसीके साथ फाँकना चाहिये । परीक्षित है । ( २ ) बकरीका मांस खाना, बकरीका दूध पीना, बकरीके घीमें सोंठ मिलाकर पीना और बकरे बकरियों के बीच में सोना -- क्षय-रोगीको लाभदायक है । इन उपायोंसे गरीब यक्ष्मा - रोगी निश्चय ही आराम हो सकते हैं । ( ३ ) शहद, सोनामक्खीकी भस्म, बायबिडङ्ग, शुद्ध शिलाजीत, लोह भस्म, घी और हरड़ - इन सबको मिलाकर सेवन करने और पथ्य पालन करनेसे उग्र राजयक्ष्मा भी आराम हो जाता है । नोट - बंगसेनके इसी नुसख़ में सोनामक्खी नहीं लिखी है । ( ४ ) नौनी घी में शहद और चीनी मिलाकर खाने और ऊपर से दूध सहित भोजन करनेसे क्षय-रोग नाश हो जाता है । परीक्षित है । (५) ना-बराबर शहद और घी मिलाकर चाटने से भी पुष्टि होती और क्षय नाश होता है। घी १० माशे और शहद ६ माशे इस तरह मिलाना चाहिये । परीक्षित है । (६) खिरेंटी, असगन्ध कुम्भेरके फल, शतावर और पुनर्नवा - -इनको दूध में पीसकर नित्य पीने से उरःक्षत रोग चला जाता है । For Private and Personal Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय। (७) बकरेके चिकने मांस-रसमें पीपर, जौ, कुलथी, सोंठ, अनार, आमले और घी-मिलाकर पीनेसे पीनस, जुकाम, श्वास, खाँसी, स्वरभङ्ग, सिर-दर्द, अरुचि और कन्धोंका दर्द--ये छै तरहके रोग नाश होते हैं। (८) असगन्ध, गिलोय, भारङ्गी, बच, अड़ सा, पोहकरमूल, अतीस और दशमूलकी दशों दवाएँ-इन सबका काढ़ा पीने और ऊपरसे दूध और मांसरस खानेसे यक्ष्मा-रोग नाश हो जाता है। (६) बन्दरके मांसको सुखाकर पीस लो। इसके सूखे मांस-चूर्णको खाकर, दूध पीनेसे यक्ष्मा नाश हो जाता है । कहाः कपिमांसं तथा पीतं क्षयरोगहरं परम् । दशमूल बलारास्नाकषायः क्षयनाशनः । बन्दरका मांस भी बकरीके दूधके साथ पीनेसे, क्षयको नष्ट करता है । दशमूल, खिरेंटी और रास्नाका काढ़ा भी क्षयको दूर करता है । परीक्षित है। (१०) हिरन और बकरीके सूखे मांसका चूर्ण करके, बकरीके दूधके साथ पीनेसे क्षय-रोग चला जाता है। (११) बच, राना, पोहकरमूल, देवदारु, सोंठ और दशमूलकी दशों दवाएँ--इनका काढ़ा पीनेसे पसलीका दर्द, सिरका रोग, राजयक्ष्मा और खाँसी प्रभृति रोग नाश हो जाते हैं। . (१२) दशमूल, धनिया, पीपर और सोंठ, इनके काढ़ेमें दालचीनी, इलायची, नागकेशर और तेजपात--इन चारोंके चूर्ण मिलाकर पीनेसे खाँसी और ज्वरादि रोग नाश होकर बल-वृद्धि और पुष्टि होती है। - " (१३) दो तोले लाख, पेठेके रसमें पीसकर, पीनेसे रक्तक्षय या मुँ हसे खून गिरना आराम होता है। . For Private and Personal Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उराक्षतकी चिकित्सा । ६३३ (१४) चव्य, सोंठ, मिर्च, पीपर और बायबिडङ्ग-इन सबका चूर्ण घी और शहद में मिलाकर चाटनेसे क्षय-रोग निश्चय ही नाश हो जाता है। - (१५) त्रिकुटा, त्रिफला, शतावर, खिरेंटी और कंघी-इन सबके पिसे-छने चूर्ण में "लोह-भस्म" मिलाकर सेवन करनेसे अत्यन्त उग्र यक्ष्मा, उरःक्षत, कंठरोग, बाहुस्तम्भ और अर्दित रोग नाश हो जाते हैं । (१६) परेवा पक्षीके मांसको धूपमें, नियत समयपर, सुखाकर, शहद और घीमें मिलाकर, चाटनेसे अत्यन्त उग्र यक्ष्मा भी नाश हो जाता है। (१७ ) असगन्ध और पीपलके चूर्ण में शहद, घी अरौ मिश्री मिलाकर चाटनेसे क्षय-रोग चला जाता है। (१८) मिश्री, शहद और घी मिलाकर चाटनेसे क्षय नष्ट हो जाता है। ना-बराबर घी और शहद मिलाकर चाटने और ऊपरसे दूध पीनेसे ज्ञय-रोग चला जाता है । परीक्षित है। ... (१६) सोया, तगर, कूट, मुलेठी और देवदारु,-इनको धीमें पीसकर पीठ, पसली, कन्धे और छातीपर लेप करनेसे इन स्थानोंका दर्द मिट जाता है। (२०) कबूतरका मांस बकरीके दूधके साथ खानेसे यक्ष्मा नाश हो जाता है । कहा हैसंशोषितं सूर्यकरैर्हि मांसं पारावतं यः प्रतिघसमत्ति । सर्पिमधुभ्यां विलिहन्नरो वा निहन्ति यक्ष्माणमतिप्रगल्भम् ॥ कबूतरका मांस, सूरजकी किरणोंसे सुखाकर, हर दिन खानेसे अथवा उसमें घी और शहद मिलाकर चाटनेसे अत्यन्त बढ़ा हुआ राजयक्ष्मा भी नाश हो जाता है । परीक्षित है। (२१) दिनमें कई दफा दो-दो तोले अंगूरकी शराब, महुएकी शराक या मुनक्केकी शराब पीनेसे यक्ष्मा नाश हो जाता है। For Private and Personal Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा-चन्द्रोदय । . नोट- यक्ष्मा-रोगमें शराब पीना हितकर है, पर थोड़ी-थोड़ी पीने से लाभ होता है। (२२) गायका ताजा मक्खन ६ माशे, शहद ४ माशे, मिश्री ३ माशे और सोनेके वरक़ १ रत्ती इनको मिलाकर खानेसे यक्ष्मा अवश्य नाश हो जाता है । यह नुसना कभी फेल नहीं होता । परीक्षित है। (२३) बकरीका घी बकरीके ही धमें पकाकर और पीपल तथा गुड़ मिलाकर सेवन करनेसे भूख बढ़ती, खाँसी और क्षय नाश होते हैं। परीक्षित है। (२४) अगर क्षय या जीर्णज्वरवालेके शरीरमें ज्वर चढ़ा रहता हो, हाथ-पैर जलते हों और कमजोरी बहुत हो, तो "लाक्षादि तैल" की मालिश कराना परम हितकर है। अनेकों बार परीक्षा की है । कहा भी है दौर्बल्ये ज्वर सन्तापे तैलं लाक्षादिकं हितम् । सघृतान्राजमाषान्यो नित्यमश्नाति मानवः । तस्य क्षयः क्षयं याति मूत्रमेहोश्च दारुणः ॥ कमजोरी, ज्वर और सन्तापमें लाक्षादि तैल हितकारी है। जो मनुष्य राजमाष-एक प्रकारके उड़दोंको घीके साथ खाता है, उसका क्षय और अति दारुण प्रमेह-रोग नाश हो जाता है । धान्यादि क्वाथ । धनिया, सोंठ, दशमूल और पीपर-इन तेरह दवाओंको बराबरबराबर कुल मिलाकर दो या अढ़ाई तोले लेकर, काढ़ा बनाकर, पिलानेसे यक्ष्मा और उसके उपद्रव -पसलीका दर्द, खाँसी, ज्वर, दाह, श्वास और जुकाम नाश हो जाते हैं । परीक्षित है। त्रिफलाद्यावलेह । त्रिफला, त्रिकुटा, शतावर और लोह-चूर्ण-हरेक दवा चार-चार तोले लेकर कूटकर रख लो । इसमेंसे एक तोले चूर्णकी मात्रा शहदके साथ चटानेसे उरःक्षत और कण्ठ-वेदना नाश हो जाते हैं। For Private and Personal Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरक्षितकी चिकित्सा। बिडंगादिलेह । बायबिडंग, लोहभस्म, शुद्ध शिलाजीत और हरड़-इनका चूर्ण घी और शहद के साथ चाटनेसे प्रबल यक्ष्मा, खाँसी और श्वास आदि रोगोंका नाश होता है। परीक्षित है। सितोपलादि चूर्ण । तज १ तोले, इलायची २ तोले, पीपर ४ तोले, बंसलोचन ८ तोले और मिश्री १६ तोले-इन सबको पीस-छानकर रख लो । यही “सितो. पलादि चूर्ण" है । इस चूर्णसे जीर्णज्वर-पुराना बुखार और क्षय या तपेदिक़ निश्चय ही आराम हो जाते हैं । परीक्षित है। ___नोट--इस चूर्णको मामूली तौरसे शहदमें चटाते हैं । अगर रोगीको दस्त लगते हों तो शर्बत अनार या शर्बत बनफशामें चटाते हैं । इन शर्बतोंके साथ यह खूब जल्दी अाराम करता है। इसकी मात्रा १॥ माशेसे ३ माशे तक है । यक्ष्मावालेको एक मात्रा चूर्ण, शहद ४ माशे और मक्खन या घी १० माशेमें मिलाकर चटानेसे भी बहुत बार अच्छा चमत्कार देखा है । जब इसे घी और शहदमें चटाते हैं, तब "सितोपलादि लेह या चटनी" कहते हैं। "चक्रदत्त"में लिखा है-इस सितोपलादिको घी और शहदमें मिलाकर चटानेसे श्वास, खाँसी और क्षय नाश होते हैं तथा अरुचि, मन्दाग्नि, पसलीका दर्द, हाथ-पैरोंकी जलन, कन्धोंकी जलन और दर्द, ज्वर, जीभका कड़ापन, कफ-रोग, सिरके रोग और ऊपरका रक्तपित्त, ये भी आराम होते हैं । इस चूर्णकी प्रायः सभी प्राचार्यों ने भर-पेट प्रशंसा की है और परीक्षामें ऐसा ही प्रमाणित भी हुआ है। हमारे दवाखाने में यह सदा तैयार रहता है और हम इन रोगोंमें बहुधा पहले इसे ही रोगियोंको देते हैं । मुस्तादि चूर्ण। नागरमोथा, असगन्ध, अतीस, साँठकी जड़, श्रीपर्णी, पाठा, शतावरी, खिरेंटी और कुड़ाकी छाल- इनका चूर्ण दूध के साथ पीनेसे श्वास और उरःक्षत रोग नाश होते हैं । परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .: , चिकित्सा-चन्द्रोदय । . वासावलेह । . अड़ सा और कटेरीका रस शहद और पीपर मिलाकर, पीनेसे शीघ्र ही दारुण श्वास आराम हो जाता है । परीक्षित है । दूसरा वासावलेह । अड़ सेके आध सेर स्वरसमें शुद्ध सोनामक्खी, मिश्री और छोटी पीपर-ये तीनों चार-चार तोले मिलाकर मन्दाग्निसे पकाओ । जब गाढ़ा हो जाय उतार लो और शीतल होनेपर उसमें चार तोले शहद मिला दो और अमृतबान या शीशी में रख दो। इसमेंसे एक तोले रोज़ खानेसे खाँसी, कफ, क्षय और बवासीर रोग नष्ट हो जाते हैं। परीक्षित है। तालीसादि चूर्ण । ... तालीस-पत्र १ तोले, गोलमिर्च २ तोले, सोंठ ३ तोले, पीपर ४ तोले, बंसलोचन ५ तोले, छोटी इलायचीके दाने ६ माशे, दालचीनी ६ माशे और मिश्री ३२ तोले-इन सबको पीस-कूटकर कपड़-छन कर लो और रख दो । इसकी मात्रा ३ से ६ माशे तक है। इसके अनुपान शहद, कच्चा दूध, बासी पानी, मिश्रीकी चाशनी, अनारका शर्बत, बनफशाका शर्बत या चीनीका शर्बत है। यानी इनमेंसे किसी एकके साथ इस चूर्णको खानेसे श्वास, खाँसी, अरुचि, संग्रहणी, पीलिया, तिल्ली, ज्वर, राजयक्ष्मा और छातीकी वेदना-ये सब आराम होते हैं। इस चूर्णसे पसीने आते हैं और हाड़ोंका ज्वर निकल जाता है। अनेक बार आजमायश की है। इसे बहुत कम फेल होते देखा है। अगर इसके साथ-साथ “लाक्षादि तैल"की मालिश भी की जाय, तब तो कहना ही क्या ? परीक्षित है। For Private and Personal Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । लवंगादि चूर्ण । लौंग, शुद्ध कपूर, छोटी इलायची, कल्मी-तज, नागकेशर, जायफल, खस, बैतरा-सोंठ, कालाजीरा, काली अगर, नीली झाँई का बंसलोचन, जटामासी, कमलगट्ट की गिरी, छोटी पीपर, सफेद चन्दन, सुगन्धवाला और कंकोल - इन सबको बराबर-बराबर लेकर महीन पीसकर कपड़ेमें छान लो। फिर सब दवाओंके वज़नसे आधी "मिश्री" पीसकर मिला दो और बर्तनमें मुँह बन्द करके रख दो । इसका नाम "लवंगादि चूर्ण" है । इसकी मात्रा ४ रत्तीसे २ माशे तक है । यह चूर्ण राजाओंके खाने-योग्य है । यह चूर्ण अग्नि और स्वाद बढ़ाता, दिलको ताक़त देता, शरीर पुष्ट करता, त्रिदोश नाश करता, बल बढ़ाता, छातीके दर्द और दिलकी घबराहटको दूर करता, गलेके दर्द और छालोंका नाश करता, खाँसी, जुकाम, 'यक्ष्मा', हिचकी, तमक श्वास, अतिसार, उरःक्षत-कफके साथ मवाद और खून आने, प्रमेह, अरुचि, गोला और संग्रहणी आदिको नाश करता है । परीक्षित है। नोट-कपूर खूब सफेद और जल्दी उड़नेवाला लेना चाहिये और कमलगट्टे के भीतरकी हरी-हरी पत्ती निकाल देनी चाहिये, क्योंकि वह विषवत् होती हैं । जातीफलादि चूर्ण । यह नुसखा हमने “चिकित्सा-चन्द्रोदय" तीसरे भागके संग्रहणी प्रकरणमें लिखा है, वहाँ देखकर बना लेना चाहिये । इस चूर्णसे संग्रहणी, श्वास, खाँसी, अरुचि, क्षय और वात-कफ-जनित जुकाम ये सब आराम होते हैं । बादी और कफका जुकाम नाश करने और उसे बहानेमें तो यह रामवाण है। इससे जिस तरह संग्रहणी आराम होती है, उसी तरह क्षय भी नाश होता है । जिस रोगीको क्षयमें जुकाम, For Private and Personal Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । संग्रहणी, खाँसी, श्वास आदि उपद्रव होते हैं, उसके लिये बहुत ही उत्तम है। इसके सेवन करनेसे रोगीको नींद भी आती है और वह अपने दुःखको भूल जाता है। अगर क्षय-रोगीको इसे देना हो, तो इसे, शामके वक्त, शहदमें मिलाकर चटाना और ऊपरसे निवाया-निवाया दूध मिश्री मिलाकर पिलाना चाहिये । शामको इसके चटाने और सवेरे "लवंगादि चूर्ण" खिलानेसे अवश्य लाभ होगा। यह अपना काम करेगा और वह खाना हज़म करेगा, भूख लगायेगा, नींद लायेगा और दस्तको बाँधेगा। नोट-अगर क्षय-रोगीको पाखाना साफ़ न होता हो अथवा कफके साथ खून पाता हो या कफमें बदबू मारती हो, तो "द्राक्षारिष्ट' दिनमें कई बार चटाना चाहिये। जिन क्षयवालोंको कब्ज़की शिकायत रहती हो, उनके लिये "द्राक्षारिष्ट" रामवाण है। हमने इन चूर्णों और दाखोंके अरिष्टसे बहुत रोगी श्राराम किये हैं। द्राक्षारिष्ट । उत्तम बड़े-बड़े बीज निकाले हुए मुनक्के सवा सेर लेकर, कलईदार देग या कढ़ाहीमें रखकर, ऊपरसे दस सेर पानी डालकर, मन्दी-मन्दी आगसे पकाओ। जब अढ़ाई सेर पानी बाकी रह जाय, उतारकर शीतल कर लो और मल-छान लो। पीछे उसमें सवा सेर मिश्री भी मिला दो । इसके बाद दालचीनी २ तोले, छोटी इलायचीके बीज २ तोले, नागकेशर २ तोले, तेजपात २ तोले, बायबिडङ्ग २ तोले और फूल-प्रियंगू २ तोले, कालीमिर्च १ तोले और छोटी पीपर १ तोले,-इन सबको जौकुट करके उसी मुनक्कोंके मिश्री-मिले काढ़े में मिला दो। पीछे एक चीनी या काँचके बर्तनमें चन्दन, अगर और कपूरकी धूनी देकर, यह सारा मसाला भर दो। ऊपरसे ढकना बन्द करके कपड़मिट्टीसे सन्धे बन्द कर दो । हवा जानेको साँस न रहे, इसका ध्यान रखो। फिर इसे एक महीने तक ऐसी जगहपर रख दो, जहाँ दिनमें For Private and Personal Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । ६३६ धूप और रातको ओस लगे। जब महीना भर हो जाय, मुँह खोलकर सबको मथो और छानकर बोतलों में भर दो और काग लगा दो। बस यही सुप्रसिद्ध "द्राक्षारिष्ट" है । ध्यान रखो, यह कभी बिगड़ता नहीं। इसकी मात्रा ६ माशेसे दो तोले तक है। इसे अकेला ही या "लवंगादि चूर्ण" और "जातीफलादि चूर्ण” सवेरे-शाम देकर, दोपहरके बारह बजे, सन्ध्याके ४ बजे और रातको दस बजे चटाना चाहिये । इस अकेलेसे भी उरःक्षत रोग नाश होता है । अगर कफके साथ हर बार खून आता हो, तो इसे हर दो-दो घण्टेपर देना चाहिये । मुखसे खून आनेको यह फ़ौरन ही आराम करता है । इसके सेवन करनेसे बवासीर, उदावत, गोला, पेटके रोग, कृमिरोग, खूनके दोष, फोड़े-फुन्सी, नेत्ररोग, सरके रोग और गलेक रोग भी नाश हो जाते हैं। इससे अग्निवृद्धि होती, भूख लगती, खाना हजम होता और दस्त साफ़ होता है। अनेक बारका परीक्षित है। दूसरा द्राक्षारिष्ट । बड़े-बड़े बिना बीजके मुनक्के सवा सेर लेकर, चौगुने जल यानी पाँच सेर पानीमें डालकर, कलईदार बासनमें मन्दाग्निसे औटाओ। जब सवा सेर या चौथाई पानी बाक़ी रह जाय, उतारकर मल-छान लो। फिर उसमें पाँच सेर अच्छा गुड़ मिला दो और तज, इलायची, नागकेशर, महँदीके फूल, कालीमिर्च, छोटी पीपर और बायबिडंग - दो-दो तोले, लेकर, महीन पीस-छानकर उसीमें डाल दो और कलईदार कढ़ाहीमें उड़ेलकर फिर औटाओ। औटाते समय कलछीसे चलाना बन्द मत करो। अगर न चलाओगे तो गुठले-से हो जायेंगे। जब औट जाय, इसे अमृतबानोंमें भर दो। इसकी मात्रा एक से चार तोले तक है। बलाबल देखकर मात्रा मुक़र्रर करनी चाहिये। इसके सेवन करनेसे छातीका दर्द, छातीके भीतरका घाव,. श्वास, खाँसी, यक्ष्मा, अरुचि, For Private and Personal Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४० चिकित्सा-चन्द्रोदय । प्यास, दाह, गलेके रोग, मन्दाग्नि, तिल्ली और ज्वर आदि रोग नाश हो जाते हैं । अनेक बारका परीक्षित है। कभी फेल नहीं होता। द्राक्षासव । बड़े-बड़े दाख सवा सेर, मिश्री पाँच सेर, झड़बेरीकी जड़की छाल अढ़ाई पाव, धायके फूल सवा पाव, चिकनी सुपारी, लौंग, जावित्री, जायफल, तज, बड़ी इलायची, तेजपात, सोंठ, मिर्च, छोटी पीपर, नागकेशर, मस्तगी, कसेरू, अकरकरा और मीठा कूट-इनमेंसे हरेक आध आध पाव तथा साफ पानी सवा छत्तीस सेर-इन सबको एक मिट्टीके घड़ेमें भरकर, ऊपरसे ढकना रखकर, कपड़-मिट्टीसे मुख बन्द कर दो। फिर जमीनमें गहरा गड्ढा खोदकर, उसीमें घड़ेको रखकर ऊपरसे मिट्टी डालकर दबा दो और १४ दिन मत छेड़ो। पन्द्रह दिन बाद घड़ेको निकालकर, उसका मसाला भभकमें डालकर, अर्क खींच लो। इस अळमें दो तोले केशर और एक माशे कस्तूरी मिलाकर, काँचके भाँडमें भरकर रख दो और तीन दिन तक मत छेड़ो। चौथे दिनसे इसे पी सकते हो । सवेरे ही ६ तोले, दोपहरको १० तोले और रातको १५ तोले तक पीना चाहिये। ऊपरसे भारी और दूध-घीका भोजन करना चाहिये। इस आसवके पीनेसे खाँसी, श्वास और राजयक्ष्मा रोग नाश होते, वीर्य बढ़ता, दिल खुश होता और जरा-जरा नशा आता है। इसके पीनेवालेकी स्त्रियाँ दासी हो जाती हैं। भाग्यवानोंको ही यह अमृत मयस्सर होता है । यक्ष्मावालेके लिए यह ईश्वरका आशीर्वाद है। कई दफाका परीक्षित है। द्राक्षादि घृत। . .. .. . बिना बीजके मुनक्के दो सेर और मुलेठी तीन पाव--दोनोंको खरलमें For Private and Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । ६४१ कुचलकर, रातके समय दस सेर पानीमें भिगो दो। सवेरे ही मन्दाग्निसे औटाओ । जब चौथाई पानी रह जाय, उतारकर छान लो। इसके बाद, बिना बीजोंके मुनक्के चार तोले, मुलेठी छिली हुई चार तोले और छोटी पीपर आठ तोले, इन तीनोंको सिलपर पीसकर लुगदी बना लो। इसके भी बाद गायका उत्तम घी दो सेर, तीनों दवाओंकी लुगदी और मुनक्का-मुलेठीका काढ़ा--इन सबको कलईदार कढ़ाहीमें चढ़ाकर, मन्दी-मन्दी आगसे पकाओ। ऊपरसे थन-दुहा गायका दूध आठ सेर भी थोड़ा-थोड़ा करके उसी कढ़ाहीमें डाल दो । जब दूध और काढ़ा जल जाय; तब चूल्हेसे उतारकर छान लो और किसी बासनमें रख दो। इस घीको रोगीको पिलाते हैं, दाल-रोटी और भातके साथ खिलाते हैं। अगर पिलाना हो, तो धीमें तीन पाव मिश्री पीसकर मिला देनी चाहिये । जिन रोगियोंको घी दे सकते हैं, उन्हें यह दवाओंसे बना द्राक्षादि घृत खिलाना-पिलाना चाहिये क्योंकि खाँसीवालोंको अगर मामूली घी खिलाया जाता है, तो खाँसी बढ़ जाती है। जिस क्षय-रोगीको खाँसी बहुत जोरसे होती है, उसे मामूली घी नुक़सान करता है; पर बिना घी दिये रोगीके अन्दर खुश्की बढ़ जाती है । अतः ऐसे रोगियोंको यही घी पिलाना चाहिये । क्षय और खाँसीवालोंको यह घी अमृत है। यह खुश्की मिटाता, खाँसीको आराम करता और पुष्टि करता है। च्यवनप्राश अवलेह । १ बेल, २ अरणी, ३ श्योनाककी छाल, ४गंभारी, ५ पाढ़ल, ६शालपर्णी, ७ पृश्निपर्णी, ८ मुगवन, ६ माषपर्णी, १० पीपर, ११ गोखरू, १२ बड़ी कटेरी, १३ छोटी कटेरी, १४ काकड़ासिंगी, १५ भुई आमला, १६ " For Private and Personal Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । दाख, १७ जीवन्ती, १८ पोहकरमूल, १६ अगर, २० गिलोय, २१ हरड़, २२ वृद्धि, २३ जीवक, २४ ऋषभक, २५ कचूर, २६ नागरमोथा, २७ पुनर्नवा, २८ मेदा, २६ छोटी इलायची, ३० नील कमल, ३१ लालचन्दन, ३२ विदारीकन्द, ३३ अड़ सेकी जड़, ३४ काकोली, ३५ काकजंघा, और ३६ बरियारेकी छालः-- ___ इन ३६ दवाओंको चार-चार तोले लो और उत्तम आमले पाँच सौ नग लो । इन सबको ६४ सेर पानीमें डालकर, कलईदार बासनमें औटाओ । जब १६ सेर पानी बाकी रहे, उतारकर काढ़ा छान लो। ___इसके बाद, छाननेके कपड़े से आमलोंको निकाल लो । फिर उनके बीज और ततूरे या रेशा निकालकर, उनको पहले २४ तोले घीमें भून लो । इसके बाद उन्हें फिर २४ तोले तेलमें भून लो और सिलपर पीसकर लुगदी बना लो। - अब अढ़ाई सेर मिश्री, ऊपरका छना हुआ काढ़ा और पीसे हुए आमलोंकी लुगदी-इन सबको कलईदार बासनमें मन्दाग्निसे पकाओ। जब पकते-पकते और घोटते-घोटते लेहके जैसा यानी चाटने-लायक हो जाय, उतारकर नीचे रखो। फिर तत्काल बंसलोचन १६ तोले, पीपर ८ तोले, दालचीनी २ तोले, तेजपात २ तोले, इलायची २ तोले और नागकेशर २ तोले-इन छहोंको पीस-छानकर उसमें मिला दो। जब शीतल हो जाय उसमें २४ तोले शहद भी मिला दो और घीके चिकने बर्तनमें रख दो। इसकी मात्रा ६ माशेसे दो तोले तक है। इसे खाकर ऊपरसे बकरीका दूध पीना चाहिये । कमजोरको ६ माशे सवेरे और ६ माशे शामको चटाना चाहिये । कोई-कोई इसपर गायका गरम दूध पीनेकी भी राय देते हैं। इसके सेवन करनेसे विशेषकर खाँसी और श्वास नाश होते हैं; क्षतक्षीण, बूढ़े और बालककी अग्नि वृद्धि होती है; स्वरभंग, छातीके For Private and Personal Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । ६४३ रोग, हृदय रोग, वातरक्त, प्यास, मूत्रदोष और वीर्य दोष नाश होते हैं। इसके सेवन करनेसे ही महावृद्ध च्यवन ऋषि जवान, बलवान और रूपवान हुए थे। यह कमजोर और धातुक्षीणवाले स्त्री-पुरुषोंके लिए अमृत समान है। जो इसको बुढ़ापेकी लैन डोरी आते ही सेवन करता है, वह जवान - पट्टा हो जाता है । इसकी कृपासे उसकी स्मरण शक्ति, कान्ति, आरोग्यता, आयु और इन्द्रियोंकी सामर्थ्य बढ़ती, स्त्री-प्रसंग में आनन्द आता, शरीर सुन्दर होता और भूख बढ़ती है । वृहत् वासावलेह | अड़ की जड़ की छाल १२|| सेर लाकर ६४ सेर पानीमें डालकर पकाओ, जब चौथाई या १६ सेर पानी बाक़ी रहे, उतारकर छान लो । फिर उसमें १२ सेर चीनी और त्रिकुटा, दालचीनी, तेजपात, इलायची, कायफल, नागरमोथा, कूट, कमीला, सफ़ेद जीरा, काला जीरा, तेवड़ी, पीपरामूल, चव्य, कुटकी, हरड़, तालीसपत्र और धनिया- इनमें से हरेकका चार-चार तोले पिसा-छना चूर्ण मिलाकर पकाओ और घोटो; जब अवलेहकी तरह गाढ़ा होनेपर आवे, उतारकर शीतल कर लो । जब शीतल हो जाय, उसमें एक सेर शहद मिला दो । इसकी मात्रा ६ माशेसे १ तोले तक है। अनुपान - गरम जल है । इसके सेवन करने से राजयक्ष्मा, स्वरभंग, खाँसी और अग्निमान्द्य आदि रोग नाश होते हैं । वासावलेह | सेका स्वरस १ सेर, सफ़ेद चीनी ६४ तोले, पीपर ८ तोले और घी ३२ तोले, - इन सबको एक क़लईदार बासन में डालकर, मन्दाग्नि से पकाओ । जब पकते पकते अवलेह के समान हो जाय, उतार लो । जब खूब शीतल हो जाय, ३२ तोले शहद मिलाकर किसी अमृतबान में रख दो। इसके सेवन करनेसे राजयक्ष्मा, श्वास, For Private and Personal Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४४ चिकित्सा - चन्द्रोदय | खाँसी, पसलीका दर्द, हृदयका शूल, रक्त-पित्त और ज्वर ये रोग नाश होते हैं। कर्पूराय चूर्ण | कपूर, दालचीनी, कंकोल, जायफल, तेजपात और लौंग प्रत्येक एक-एक तोले, बालछड़ २ तोले, गोलमिर्च ३ तोले, पीपर ४ तोले, सोंठ ५ तोले और मिश्री २० तोले - सबको एकत्र पीसकर कपड़े में छान लो । यह चूर्ण हृदयको हितकारी, रोचक, क्षय, खाँसी, स्वरभङ्ग, क्षीणता, श्वास, गोला, बवासीर, वमन और कण्ठके रोगोंको नाश करत है । इसको सब तरह के खाने-पीने के पदार्थों में मिलाकर रोगीको देना चाहिये। जो लोग दवा के नामसे चिढ़ते हैं, उनके लिए यह अच्छा है । षडंग- यूप । जौ ४ तोले, कुल्थी ४ तोले और बकरेका चिकना मांस १६ तोले इन सबको ठगुने या १६२ तोले ( २ सेर डेढ़ पाव ) जलमें पका । जब पकते - पकते चौथाई पानी रह जाय, चार तोले घी डालकर बघार दे दो। फिर इसमें १ तोले संधानोन, जरा-सी हींग, थोड़ा-थोड़ा अनार और आमलोंका स्वरस, ६ रत्ती पानी के साथ पिसी हुई सोंठ और छै ही रत्ती पानी के साथ पिसी हुई पीपर डाल दो। इसी मांसरसका नाम " षडंगयूष" है । इस यूषके पीनेसे क्षयवालेके जुकाम या पीनस आदि सभी विकार नष्ट हो जाते हैं । चन्दनादि तेल | चन्दन, नख, मुलेठी, पद्माख, कमलकेशर, नेत्रवाला, कूट, छारछरीला, मँजीठ, इलायची, पत्रज, बेल, तगर, कंकोल, खस, चीढ़, For Private and Personal Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । ६४५ देवदारु, कचूर, हल्दी, दारुहल्दी, सारिवा, कुटकी, लौंग, अगर, केशर, रेणुका, दालचीनी और जटामासी--इन सबको पहले हमामदस्तेमें कूट लो। फिर कुटे हुए चूर्णको सिलपर रख पानीके साथ पीसकर लुगदी बना लो। - पीपर-वृक्षकी लाख सवा सेर लाकर, पाँच सेर पानीमें डालकर औटाओ । जब चौथाई या सवा सेर पानी रह जाय, उतारकर छान लो। अब एक कलईदार कढ़ाही में तीन सेर तिलीका तेल, अढ़ाई सेर दहीका तोड़, सवा सेर लाखका छाना हुआ पानी और ऊपरकी लुगदी रखकर मन्दाग्निसे पकाओ । आठ-नौ घण्टे बाद जब पानी और दहीका तोड़ जलकर तेल-मात्र रह जाय, उतार लो और छानकर बोतलमें भर दो। . इस तेलकी नित्य मालिश करानेसे ज्वर, यक्ष्मा, रक्त-पित्त, उन्माद, पागलपन, मृगी, कलेजेकी जलन, सिरका दर्द और धातुके विकार नाश होकर शरीरकी कान्ति सुन्दर होती है । जीर्ण-ज्वर और यक्ष्मापर कितनी ही बार आजमायश की है । परीक्षित है। नोट-जब झाग उठने लगें तब घीको पका समझो और जब झाग उठकर बैठ जायँ, झागोंका नाम न रहे, तब समझो कि तेल पक गया । यह चन्दनादि तैल क्षय और जीर्णज्वरपर ख़ासकर फ़ायदेमन्द है। शरीर पुष्टि करनेवाला चन्दनादि तैल हमने "स्वास्थ्यरक्षा में लिखा है। लाक्षादि तैल । इस तैलकी मालिशसे जीर्ण-ज्वरी और क्षय-रोगीको बड़ा फायदा होता है। प्रत्येक ग्रन्थमें इसकी तारीफ़ लिखी है और परीक्षामें भी ऐसा ही साबित हुआ है। इसके बनानेकी विधि "चिकित्सा-चन्द्रोदय" दूसरे भागके पृष्ठ ३६४ में लिखी है । यद्यपि उस विधिसे बनाया तेल बहुत गुण करता है, पर उसके तैयार करनेमें समय For Private and Personal Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । ज़ियादा लगता है, इसलिये एक ऐसी विधि लिखते हैं, जिससे १२ घण्टेमें ही लाक्षादि तैल तैयार हो जाता है। . पीपलकी लाख एक सेर लाकर चार सेर पानीमें डालकर औटाओ। जब एक सेर या चौथाई पानी बाक़ी रहे, उतारकर छान लो। फिर उस छने हुए पानीमें काली तिलीका तेल १ सेर और गायके दहीका तोड़ ४ सेर मिला दो। __ इन सब कामोंसे पहले ही या लाखको चूल्हेपर रखकर, सौंफ, असगन्ध, हल्दी, देवदारु, रेणुका, कुटकी, मरोड़फली, कूट, मुलेठी, नागरमोथा, लाल चन्दन, रास्ना, कमलगट्टे की गरी और मंजीठ एकएक तोले लाकर, सिलपर सबको पानीके साथ पीसकर लुगदी कर लो। __एक कलईदार कढ़ाहीमें, लाखके छने पानी, तेल और दहीके तोड़को डालकर, इस लुगदीको भो बीचमें रख दो और मन्दाग्निसे बारह घण्टे पकाओ । जब पानी और दहीका तोड़ ये दोनों जल जायँ, केवल तेल रह जाय, उतारकर शीतल कर लो और छानकर बोतलोंमें भर दो । इस तेलके लगाने या मालिश करानेसे जीर्णज्वर, विषमज्वर, तिजारी, खुजली, शरीरकी बदबू और फोड़े-फुन्सी नाश हो जाते हैं। इससे सिरके दर्द में भी लाभ होता है। अगर गर्भिणी इसकी मालिश कराती है, तो उसका गर्भ पुष्ट होता और हाथ-पैरोंकी जलन मिटती है । यह तेल अपने काममें कभी फेल नहीं होता। राजमगाङ्क रस। ... मारा हुआ पारा ३ भाग, सोना-भस्म १ भाग, ताम्बा-भस्म १ भाग, शुद्ध मैनसिल २ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग और शुद्ध हरताल २ भाग - इन सबको एकत्र महीन पीसकर, एक बड़ी पीली कौड़ीमें भर लो। फिर बकरीके दूधमें पीसे हुए सुहागेसे कौड़ीका मुंह बन्द For Private and Personal Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कित्सा। राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । कर दो। इसके बाद उस कौड़ीको एक मिट्टीके बर्तनमें रखकर, उस बर्तनपर ढकना रखकर, उसका मुंह और दराज कपड़-मिट्टीसे बन्द कर दो और सुखा लो। अब एक गज-भर गहरा, गज-भर चौड़ा और उतना ही लम्बा गढ़ा खोदकर, उसमें जंगली कण्डे भरकर, बीचमें उस मिट्टीके बासनको रख दो और आग लगा दो । जब आग शीतल हो जाय, उस बासनको निकालकर, उसकी मिट्टी दूर कर दो और रसको निकाल लो । इसका नाम "राज मृगाङ्क रस" है। इसमेंसे चार रत्ती रस, नित्य, १८ कालीमिर्च, दस पीपर, ६ माशे शहद और १० माशे घीके साथ खानेसे वायु और कफ-सम्बन्धी क्षय-रोग तत्काल नाश हो जाता है। अमृतेश्वर रस । . पाराभस्म, गिलोयका सत्त और लोहा-भस्म--इनको एकत्र मिलाकर रख लो । इसीका नाम "अमृतेश्वर रस" है । इसमें-से २ से ६ रत्ती तक रस ना-बराबर घी और शहद में मिलाकर नित्य चाटनेसे राजयक्ष्मा शान्त हो जाता है। यह योग “रसेन्द्रचिन्तामणि" का है। कुमुदेश्वर रस । सोनाभस्म १ भाग, शुद्ध पारा १ भाग, मोती २ भाग, भुना सुहागा १ भाग और गन्धक १ भाग--इनको काँजीमें खरल करके, गोला बना लो। गोलेपर कपड़ा और मिट्टी ल्हेसकर उसे सुखा लो। फिर एक हाँडीमें नमक भरकर, बीचमें उस गोलेको रख दो । इसके बाद हाँडीपर पारी रखकर, उसकी सन्ध और मुँह बन्द करके, उसे चूल्हेपर चढ़ा दो और दिन-भर नीचेसे आग लगाओ। जब दिन-भर या १२ घण्टे आग लग ले, उसे उतारकर शीतल कर लो। शीतल For Private and Personal Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । होनेपर, उसमेंसे सिद्ध हुए रसको निकाल लो । इसीका नाम "कुमुदेश्वर रस” है। इसकी मात्रा एक रत्तीकी है, अनुपान घी और कालीमिर्च है। एक मात्रा खाकर, ऊपरसे कालीमिर्च-मिला घी पीना चाहिये । इसके सेवन करनेसे अत्यन्त खानेवाला, प्रमेही, अतिसार-रोगी नित्य-प्रति क्षीण होनेवाला रोगी और जिसके नेत्र सफ़ेद हो गये हों ऐसा मनुष्य, खाँसी और क्षय रोगवाला रोगी निश्चय ही आराम होते हैं। मृगाङ्क रस। शुद्ध पारा १ तोले, सोनाभस्म ३ तोले और सुहागेकी खील २ माशे-इन सबको कॉजीमें पीसकर और गोला बनाकर सुखा लो। फिर उसे मूषमें रखकर बन्द कर दो । इसके बाद एक हाँडीमें नमक भरकर, उसके बीच में दवाओंके गोलेवाली मूष रखकर हाँडीपर ढकना देकर, हाँडीकी सन्धे और मुख बन्द कर दो। फिर आगपर चढ़ाकर ४ पहर तक पकाओ । पीछे उतारकर शीतल कर लो। इसकी मात्रा २ से ४ रत्ती तक है । एक मात्रा रसको शहदमें मिलाकर, उसमें १० कालीमिर्च या १० पीपर पीसकर मिला दो और चाटो। इस रससे राजयक्ष्मा और उसके उपद्रव नाश होते हैं। महामृगाङ्क रस । . सोना-भस्म १ भाग, पाराभस्म २ भाग, मोती-भस्म ३ भाग, शुद्ध गंधक ४ भाग, सोनामक्खीकी भस्म ४ भाग, मूं गा-भस्म ७ भाग और सुहागेकी खील ४ भाग, इन सबको शर्बती नीबूके रसमें ३ दिन तक खरल करो और गोला बनाकर तेज़ धूपमें सुखा लो। सूखनेपर उस गोलेको मूषमें रखकर बन्द करो । फिर एक हाँडीमें नमक भरकर, उसके बीचमें मूषको रखकर, हाँडीका मुख अच्छी तरह For Private and Personal Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । ६४६ बन्द कर दो और हाँडीको चूल्हेपर चढ़ा १२ घण्टों तक बराबर आग लगने दो। इसके बाद उतारकर शीतल कर लो। इसकी मात्रा २ रत्तीकी है । अनुपान गोलमिर्च और घी अथवा पीपलोंका चूर्ण और घी । इसके सेवन करनेसे राजयक्ष्मा, ज्वर, अरुचि, वमन, स्वर-भंग और खाँसी प्रभृति रोग आराम होते हैं। ___ यक्ष्मा, तपेदिक या जीर्णज्वरपर स्वर्ण मालतीबसन्त सर्वोत्तम दवा है। उसकी विधि हमने दूसरे भागमें लिखी है, पर यहाँ फिर लिखते हैं:सुवर्ण भस्म १ तोले मोती गुलाबजल में घुटे २ ,, शिंगरफ शुद्ध रूमी कालीमिर्च धुली-छनी जस्ता-भस्म पहले सोनेकी भस्म और शिंगरफको खरल में डालकर ६ घण्टों तक घोटो । फिर इसमें मोतीकी खाक, मिर्च और जस्ता-भस्म भी मिला दो और तीन घण्टे खरल करो। इसके भी बाद, इसमें गायका लूनी घी इतना डालो कि मसाला खूब चिकना हो जावे । अन्दाजन ६ तोले घी काफी होगा। घी मिलाकर, इसमें कागजी नीबुओंका रस डालते जाओ और खरल करते रहो, जब तक घी की चिकनाई क़तई न चली जावे, बराबर खरल करते रहो । चाहे जितने दिन खरल करनी पड़े; बिना चिकनाई गये, मालती बसन्त कामका न होगा। कोई-कोई इसे ४६ दिन या सात हफ्ते तक खरल करनेकी राय देते हैं । कहते हैं, ७ हफ्ते घोटनेसे यह रस बहुत ही बढ़िया बनता है। अगर इसपर खूब परिश्रम किया जावे, तो बेशक हुक्मी दवा बने । नोट-अगर सोना भस्म न हो, तो सोनेके वर्क मिला सकते हो, पर सोनेके वर्क जाँचकर ख़रीदना । अाजकल इनमें कपट-व्यवहार होने लग गया है । अगर सुवर्ण-भस्मकी जगह सोने के वर्क मिलायो, तो सोनेके वर्क और ८२ For Private and Personal Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org '६५० चिकित्सा - चन्द्रोदय । 1 शिंगरफ या हिंगुलको तब तक घोटना जब तक कि वक़ों की चमक न चली जावे । बसन्तमालतीमें शुद्ध सूरती खपरिया-भस्म डाली जाती है, पर वह आजकल ठीक नहीं मिलती, इसलिये जस्ता भस्म मिलाई जाती है और क़रीब क़रीब उसीके बराबर काम देती है । सेवन विधि -- इसकी मात्रा कम-से-कम १ रत्तीकी है । सवेरे शाम खानी चाहिये | सितोपलादि चूर्ण शहद असली मालती बसन्त १ माशे ६ माशे १ रत्ती तीनोंको मिलाकर चाटने से जीर्णज्वर, तपेदिक्क, क्षय थाइसिस, तपेकोनः, कमजोरी, क्षयकी खाँसी, साधारण खाँसी, अतिसार या संग्रहणी के साथ रहनेवाला ज्वर, औरतोंका प्रसूतज्वर आदि इसके सेवन से निस्सन्देह जाते रहते हैं। किसी रोगके आराम हो जानेपर जो कमज़ोरी रह जाती है, वह भी इससे चली जाती और ताक़त आती है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथवा गिलोयका सत्त छोटी पीपरोंका चूर्ण छोटी इलायचीका चूर्ण बसन्त मालती बसन्त मालती छोटी पीपरका चूर्ण २ माशे २ रत्ती २ रती १ रत्ती शहद ४ माशे इन सबको मिलाकर चाटने से जीर्णज्वर और क्षयज्वरमें निश्चय ही लाभ होता है । अथवा १ रती २. रत्ती For Private and Personal Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ तोले राजयक्ष्मा और उराक्षतकी चिकित्सा । . शहद ३ माशे इस तरह चाटनेसे भी पुराना ज्वर चला जाता है। नोट-छोटी पीपरोंको २४ घण्टे तक गायके दूधमें भिगोकर और पीछे निकालकर, छायामें सुखा लेना चाहिये । ऐसी पीपर सितोपलादि चूर्णमें डालनी चाहिएँ और ऐसी ही मालती बसन्तके साथ खानी चाहिएँ। अथवा मक्खन मिश्री १ तोले मालती बसन्त १ रत्ती मिलाकर खानेसे बल-वीर्य बढ़ता और सूखी खाँसी आराम हो जाती है। एक और बढ़िया बसन्त मालती। जस्ता-भस्म २ तोले कालीमिर्च (साफ) २ तोले सोनेके वर्क १ तोले अबीध मोती शुद्ध शिंगरफ छोटी पीपरका चूर्ण २ तोले शुद्ध खपरिया गिलोयका सत्त २ तोले अभ्रक भस्म (निश्चन्द्र) १ तोले कस्तूरी आधे तोले अम्बर आधे तोले बनानेकी विधि। (१) कालीमिर्च, पीपर, गिलोयका सत्त-इनको पीसकर कपड़ेमें छान अलग-अलग रख दो। तोले तोले तोले For Private and Personal Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५२ चिकित्सा-चन्द्रोदय । (२) मोतियोंको खरलमें पीसकर, एक दिन, अर्क वेदमुश्क डाल-डालकर खरल करो और अलग रख दो। - (३) शुद्ध शिंगरफ और मोतियोंको खरलमें डाल घोटो और कालीमिर्च, पीपरका चूर्ण, खपरिया-भस्म, गिलोयका सत्त, अभ्रकभस्म-ये सब मिलाकर ३ घण्टे घोटो। अन्तमें सोनेके वर्क भी अलग पीसकर मिला दो और खूब खरल करो। जब तक सोनेके वर्ककी चमक न चली जावे, खरल करते रहो।। (४) जब सब दवाएँ मिल जावें, तब इसमें १० तोले गायका मक्खन मिला दो और खरल करो। (५) जब मक्खनमें सब चीजें मिल जावें, तब काग़ज़ी नीबुओंका रस डाल-डालकर खूब खरल करो; जब तक चिकनाई कतई न चली जावे खरल करते रहो, उकताओ मत । चिकनाई चली जानेसे ही दवा अच्छी बनेगी। (६) जब चिकनाई न रहे, उसमें कस्तूरी और अम्बर भी मिला दो और घोटकर एक-एक रत्तीकी गोलियाँ बनाकर छायामें सुखा लो । बस; अमृत-सच्चा अमृत बन गया। नोट-छोटी पीपर पीस-छानकर उस चूर्णमें नागरपानोंके रसकी २१ भावनायें देकर सुखा लो और शीशी में रख लो। सेवन-विधि । अड़ सेके नौ पत्तोंका रस, जरा-सा शहद, एक माशे ऊपरकी भावना दी हुई पीपरोंका चूर्ण और १ रत्ती मालती बसन्त--सबको मिलाकर चटनी बना लो। सवेरे-शाम इस चटनीको चटाना चाहिये। इसके अलावः दिनके २ बजे, च्यवनप्राश २ तोले ताजा गायके दूधमें सेवन कराना चाहिये और रातको, सोनेसे पहले, २ रची सोना-भस्म, ६ माशे सितोपलादि चूर्णमें मिलाकर सेवन कराना. चाहिये। For Private and Personal Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा | ६५३ इस तरह २ महीने बसन्त - मालती - यह ख़ास तौर से बनाई हुई बसन्तमालती - सेवन करानेसे कैसा भी क्षय ज्वर क्यों न हो, अवश्य लाभ होगा। इतना ही नहीं, रोग आराम होकर, एक बार फिर नई जवानी आ जावेगी । (२५) कुमुदेश्वर रस भी क्षय रोगमें बड़ा काम करता है । उसके सेवन से वह रोगी, जिसकी आँखें सफेद हो गई हैं और जो नित्यप्रति क्षीण होता है, आराम हो जाता है । हमने कुमुदेश्वर रसकी एक विधि पहले लिखी है, यहाँ हम एक और कुमुदेश्वर रस लिखते हैं, जो बहुत ही जल्दी तैयार होता और क्षयको मार भगाता है । ग़रीबों के लिये अच्छी चीज़ है:-- शुद्ध पारा शुद्ध गन्धक अभ्रक भस्म हज़ार पुढी शुद्ध शिंगरफ शुद्ध मैनशिल लोह भस्म इन सबको समान समान लेकर, खरल में डाल, २ घण्टे तक खरल करो। फिर इसमें शतावर के स्वरसकी २१ भावनाएँ देकर सुखा लो । बस, कुमुदेश्वर रस तैयार है । कुमुदेश्वर रस मिश्री कालीमिर्च का चूर्ण शहद Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नोट-लोह भस्म वह लेना, जो मैनशिल द्वारा फूँ की गई हो और ५० आँचकी हो, अगर ताज़ा शतावर न मिले, तो शतावरका काढ़ा बनाकर भावना देना । सेवन विधि | ३ रत्ती २ माशे ५ नगका ४ माशे For Private and Personal Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६५४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सा - चन्द्रोदय | इस तरह मिलाकर सवेरे शाम और दोपहरको चटाओ । अगर रोगीको क्षय या और ज्वर के कारण दाह - जलन हो, तो इस रसमें १ माशे बंसलोचन और ११२ रत्ती छोटी इलायचीका चूर्ण मिलाकर देना चाहिए | दो मात्रा में ही जलन दूर हो जावेगी । अगर रोगीका पेशाब पीला आता हो, और उसमें जलन होती हो, तो रोगीको चन्दनादि अर्क ६ तोला और शर्बत बनफ़शा ४ तोले मिलाकर दिन में ३ बार पिलाना चाहिए । यह अर्क पेशाब की जलन और पीलेपन को दो-चार मात्रामें ही नाश कर देता है । इस अका कुमुदेश्वर रस सेवन कराते हुए, उसके साथ-साथ, दूसरे टाइमपर देते हैं । यह अर्क ज्वर नाश करनेमें भी अपूर्व चमत्कार दिखाता है । चन्दनादि अर्क Į सफ़ेद चन्दन, लालचन्दन, खसकी जड़, पद्माख, नागरमोथा, ताजा गिलोय, शाहतरा, नीमकी छाल, गुलाब के फूल, फूल-नीलोफर, त्रिफला, दारूहल्दी, कासनी, कौंच के बीजोंकी गरी, सौंफ, नेत्रवाला, धनिया, तुलसी के बीज, धमासा, मुण्डी, मुलहटी, छोटी इलायची, पोस्तके डोडे, बहेड़े की जड़, गन्नेकी जड़, जवासेकी जड़, कासनीकी जड़ और गाव जुबाँ - ये सब एक-एक तोले, पेठेका रस १ सेर, लम्बी लौकीका रस १ सेर, काहू १ छटाँक और कुलफा १ छटाँक । इनमेंसे पेठे और लौकीके रस अलग रख दो और शेष दवाओंको जैकुट कर लो । बादमें, एक चीनी के टीनपाट में पेठे और लौकीका रस डाल, उसमें दवाओंका चूर्ण डालकर शामको भिगो दो; सवेरे उसमें १०।१२ सेर जल डाल दो | भभकेके मुँ हमें १ माशे केशर, १ माशे कस्तूरी, १ माशे अम्बर और ३ माशे कपूरकी पोटली बना लटका दो । फिर अर्ककी विधिसे अ खींच लेा, पर आग मन्दी रखना । दस बोतल या ७ || सेर अर्क खींच For Private and Personal Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजयक्ष्मा और उराक्षतकी चिकित्सा । सकते हो । अगर इसे और भी बढ़िया बनाना हो, तो इस अर्क में बकरीका दूध मिला-मिलाकर, दो बार फिर अर्क खींच लेना चाहिये । नोट--ये तीनों नुसख पं० देवदत्तजी शर्मा--वैद्यशास्त्री, शङ्करगढ़ ज़िला गुरुदासपुरके हैं; अतः हम शास्त्रीजीके कृतज्ञ हैं। हमने ये परोपकारार्थ लिये हैं। श्राशा है, श्राप क्षमा करेंगे । “परोपकाराय सतां विभूतयः ।” (२६) क्षय-रोग-नाशक एक और उत्तम औषधि लिखते हैं इलायची, तेजपात, पीपर, दालचीनी, जेठी मधु, चिरायता, पित्तपापड़ा, खैरकी छाल, जवासा, पुनर्नवा, गोरखमुण्डी, नागकेशर, बबूलकी छाल और अड़ सा--इन सबको एक-एक छटाँक लेकर जौकुट करो और सबका ६४ भाग--छप्पन सेर पानी डालकर, कलईदार कढ़ाहीमें काढ़ा पकाओ। जब चौथाई यानी १४ सेर पानी रह जावे, उतारकर, उसमें १ सेर शहद मिलाकर, चीनीके पुख्ता भाँड़में भर दो। उसका मुँह बन्द करके, सन्धोंपर कपरौटी कर दो और ज़मीनमें गढ़ा खोदकर एक महीना गाड़े रखो। ___ एक महीने बाद निकालकर छान लो। अगर इसे बहुत दिन टिकाऊ बनाना हो, तो इसमें हर दो सेर पीछे सवा तोले रैक्टीफाईड स्पिरिट मिला दो। इसकी मात्रा तीन माशेकी होगी। हर मात्रा २ तोले जलमें मिलाकर, रोगीको, रोगकी हर अवस्थामें, दे सकते हैं। यह बहुत उत्तम योग है। यह पेटेण्ट दवाके तौरपर बेचा जा सकेगा, क्योंकि यह बिगड़ेगा नहीं। (२७) हमने पीछे इसी भागमें "द्राक्षासव"का एक नुसना अपना सदाका आजमूदा लिखा है। यहाँ एक और नुसता लिखते हैं। यह भी उत्तम है: (१) ढाई सेर बीज निकाले मुनक्के लेकर कुचल लो और साढ़े पच्चीस सेर जलमें डाल, कलईदार कढ़ाहीमें काढ़ा पका लो। जब For Private and Personal Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५६ चिकित्सा-चन्द्रोदय । चौथाई जल रहे उतार लो । उस काढ़ेको एक मजबूत मिट्टी या चीनीके बर्तनमें भर दो। फिर उसमें १० सेर एक सालका पुराना गुड़ डाल दो। ६४ तोले धायके फूल कूटकर डाल दो और बायबिड़ङ्ग, पीपर, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागकेशर और कालीमिर्च हरेक चार-चार तोले भी डाल दो। इसके बाद उसका मुँह बन्दकर सन्धोंपर कपरौटी करके जमीनमें १ महीने तक गाड़ रखो। ____एक महीने बाद, छानकर काममें लाओ। यह उत्तम "द्राक्षासव" है। अगर इसे और बढ़िया करना हो, तो इसका भभके द्वारा अर्क खींच लो। अगर इसे कम मात्रामें ज़ियादा गुणकारी और बहुत दिन तक न बिगड़नेवाला बनाना चाहो, तो इसमें हर सौ तोलेमें एक तोले रैक्टीफाइड स्पिरिट मिला देना । सेवन-विधि । ___ अगर स्पिरिट न मिलावें, तो इसकी मात्रा आधा तोलेसे २ तोले तक हो सकती है, पर स्पिरिट मिलानेपर इसकी मात्रा १॥ माशेसे ३ माशे तक है । इसे शीतल जलमें मिलाकर पीना चाहिये। (२८) हमने उधर सितोपलादि चूर्ण, 'तालीसादि चूर्ण और लवंगादि चूर्ण लिखे हैं। वहाँ हमने उनके बनानेकी विधि और गुण लिखे हैं, पर यह नहीं लिखा कि रोगकी किस-किस अवस्थामें कौन-सा चूर्ण देना चाहिये, अतः यहाँ लिखते हैं: सितोपलादि चूर्ण । अगर क्षय या जीर्णज्वर रोगीको खाँसी, श्वास, हाथ-पैरोंके तलवोंमें जलन या सारे शरीरमें जलन हो अथवा अरुचि, मन्दाग्नि, पसलीका दर्द, कन्धोंकी जलन, कन्धों का दर्द, जीभका कड़ापन, सिरमें रोग आदि हों, तो सितोपलादि चूर्ण १॥ माशेसे ३ माशे तक For Private and Personal Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५७ राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा। शहद ४ माशे. मक्खन १० माशे में मिलाकर सवेरे-शाम चटाओ। अथवा मक्खन २ तोले मिश्री १ तोले के साथ एक-एक मात्रा चटारो । अगर क्षय या जीर्ण-ज्वरवालेको पतले दस्त लगते हों तो शर्बत अनार या शर्बत बनफशा में सितोपलादि चूर्णकी मात्रा चटाओ। दस्तोंको लाभ होगा। - अगर जल्दी ही फायदा पहुंचाना हो, तो इसमें स्वर्ण-मालती-बसन्त भी एक-एक रत्ती मिला दो, जैसा पीछे लिख आये हैं। लवङ्गादि चूर्ण । अगर रोगीको भूख न लगती हो, छातीमें दर्द रहता हो, श्वासकी शिकायत हो, खाँसी हो, भोजनपर रुचि न हो, शरीर कमजोर हो, हिचकियाँ आती हों, पतले दस्त लगते हों, दस्तमें लसदार पदार्थ आता हो, पेटमें रोग हो, पेशाबकी राहसे पेशाबमें वीर्य प्रभृति धातुएँ जाती हों, तो आप उसे “लवंगादि चूर्ण' ४ रत्तीसे १॥ या दो माशे तक शहदमें मिलाकर दो। अगर क्षय-रोगीको पतले दस्त लगते हों, कफके साथ मवाद और खून जाता हो, दिल घबराता हो, मैं हमें छाले हों और संग्रहणी हो, शरीर एकदम कमजोर हो गया हो, तब इसे जरूर देना चाहिये। अगर रोगीको खाँसी जोरसे आती हो, ज्वर उतरता न हो, पसीने For Private and Personal Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - "चिकित्सा-चन्द्रोदय । आते न हों, तिल्ली, पीलिया, अतिसार, संग्रहणी और छातीमें दर्द वगैरः लक्षण हों तब आप : तालीसादि चूर्ण-- तीनसे ६ माशे तक, नीचेके अनुपानोंके साथ, समझ-बूझकर दीजियेः (१) शर्बत अनार, (२) शर्बत बनफशा, (३) मिश्रीकी चाशनी, (४) मिश्रीका शर्बत, (५) कच्चा दूध, (६) बासी जल, (७) शहद । ___ कर्पूरादि चूर्ण । अगर रोगीको स्वर-भंग, सूखी ओकारी, खाँसी, श्वास, गोला, बवासीर, दाह, कंठमें छाले या कोई और तकलीफ हो, तब “क:रादि चूर्ण" २ से ३ माशे तक, नीचेके अनुपानोंके साथ, जरुरत होनेसे, रोगके उपद्रव रोकनेको देना चाहिये; यानी मुख्य दवाओंके बीचमें, उपद्रव शान्त करनेको, किसी मुनासिब वक्तपर, दे सकते हो। अनुपानः-- (१) अर्क गुलाब, (२) शहद, (३) जल, (४) केलेके खंभका जल । अश्वगन्धादि चूर्ण । अगर उरःक्षतके कारण कोखमें दर्द हो, पेटमें शूल चलते हों, मन्दाग्नि, क्षीणता आदि लक्षण क्षय-रोगीमें हों, तो आप "अश्वगन्धादि चूर्ण" २ से ३ माशे तक, नीचे लिखे अनुपानोंके साथ, सवेरेशाम दीजिये। (१) शहद या गरम जलके साथ-वातज-क्षयमें। .. (२) बकरीके घीके साथ-पित्तज-क्षयमें । ' (३) मधुके साथ--कफज-क्षयमें । For Private and Personal Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___ २० तोले २० " x. or or nor राजयक्ष्मा और उराक्षतकी. चिकित्सा । ६५६ (४) मक्खनके साथ-धातु-क्षयमें। . (५) गायके दूधके साथ-मूर्छा और पित्तज विकारोंमें। इसके बनानेकी विधि हमने पहले नहीं लिखी थी, इसलिये यहाँ लिखते हैं:असगन्ध ... ... ४० तोले सोंठपीपरमिश्रीदालचीनी-- तेजपात-- नागकेशरइलायची-- लौंगभारंगीकी जड़तालीस-पत्र-- कचूर-- सफेद जीराकायफल-- कवाबचीनी-- नागरमोथारास्नाकुटकी जीवन्ती मीठा कूट-- ... ... १ " सबको अलग-अलग कूट-छानकर, पीछे तोल-तोलकर मिला दो। यही “अश्वगन्धादि चूर्ण' है। or or or or w a r or or or or For Private and Personal Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६० चिकित्सा-चन्द्रोदय । .... क्षय-ज्वर या जीर्ण-ज्वरको नाश करने में "जयमंगल-रस" एक ही है। उससे सब तरहके जीर्ण-ज्वर, धातुगत-ज्वर, विषम-ज्वर आदि आठों ज्वर नाश हो जाते हैं । क्षयमें भी वह खूब काम करता है, इसीसे यहाँ लिखते हैं:हिंगुलोत्थ पारा ४ माशे . शुद्ध गंधक ४ माशे शुद्ध सुहागा माशे ताम्बा-भस्म ४ माशे बंग-भस्म ४ माशे सोनामक्खी-भस्म ४ माशे सैंधानोन ४ माशे कालीमिर्चका चूर्ण ४ माशे सोना-भस्म ४ माशे कान्तलोह-भस्म चाँदी-भस्म ४ माशे इन सबको एकत्र मिलाकर, एक दिन “धतूरेके रस में खरल करो। दूसरे दिन “हारसिंगारके रस" में खरल करो। तीसरे दिन “दशमूलके काढ़े के साथ खरल करो और चौथे दिन “चिरायतेके काढ़े" के साथ खरल करो और रत्ती-रत्ती-भरकी गोलियाँ बना लो। सफेद जीरेके चूर्ण और शहदमें एक रत्ती यह रस मिलाकर चाटनेसे समस्त ज्वरोंको नाश करता है । यह जीर्ण-ज्वर या क्षय-ज्वरकी प्रधान औषधि है। ४ माशे For Private and Personal Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Alexacxectoxaxexcxoctorotocxoxotoxaayaakaayaakaaran NCE6%be SGY उरःक्षत-चिकित्सा। (१) एलादि गुटिका । छोटी इलायचीके बीज, तेजपात, दालचीनी, मुनक्का और पीपर दोदो तोले तथा मिश्री, मुलेठी, खजूर और दाख-चार-चार तोले लेकर, सबको महीन पीस-छानकर, खरल में डालकर और ऊपरसे शहद देदेकर घोटो । जब घुट जाय, एक-एक तोलेकी गोलियाँ बना लो। इनमें से, अपने बलाबल-अनुसार, एक या श्राधी गोली नित्य खानेसे खाँसी, श्वास, ज्वर, हिचकी, वमन, मूर्छा, नशा-सा बना रहना, भौंर आना, खून थूकना, प्यास, पसलीका दर्द, अरुचि, तिल्ली, आमवात, स्वरभंग, क्षय और राजरोग आराम हो जाते हैं। ये गोलियाँ वीर्य बढ़ानेवाली और रक्तपित्त नाश करनेवाली हैं। परीक्षित हैं। उरःक्षतवाले इन्हें जरूर सेवन करें। नोट-हम इन गोलियोंको छ-छै माशेकी बनाते हैं और उरःक्षतवालेको दोनों समय खिलाकर, ऊपरसे बकरीका ताज़ा दूध मिश्री-मिला पिलाते हैं। (२) दूसरी एलादि गुटिका । इलायचीके बीज ६ माशे, तेजपात ६ माशे, दालचीनी ६ माशे, पीपर २ तोले, मिश्री ४ तोले, मुलेठी ४ तोले, खजूर या छुहारे ४ तोले और दाख ४ तोले,--इन सबको महीन पीस-छानकर, शहद मिलाकर, एक-एक तोलेकी गोलियाँ बना लो। इनमेंसे एक गोली नित्य खानेसे For Private and Personal Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : चिकित्सा-चन्द्रोदय । पहली एलादि गुटिकामें लिखे हुए सब रोग नाश होते हैं। यह बीट उरःक्षतपर प्रधान हैं । कामी पुरुषों के लिये परम हितकारी हैं। नोट--राजयचमाको हिकमतमें तपेदिक या दिक़ कहते हैं और उरःक्षतको सिल कहते हैं। इनमें बहुत थोड़ा फ़र्क है। उरःक्षतमें हृदयके भीतर ज़ख्म ही जाता है, जिससे खखारके साथ खून या मवाद अाता है, ज्वर चढ़ा रहता है, खाँसी आती रहती है और रोगीको ऐसा मालूम होता है, मानों कोई उसकी छातीको चीरे डालता है। (३) बलादि चूर्ण । - खिरेंटी, असगन्ध, कुम्भेरके फल, शतावर और पुनर्नवा-इनको दूधमें पीसकर नित्य पीनेसे उरःक्षत-शोष नाश हो जाता है। (४) द्राक्षादि घृत । बड़ी-बड़ी काली दाख ६४ तोले और मुलहटी ३२ तोले,-इनको साफ पानीमें पकाओ। जब पकते-पकते चौथाई पानी रह जाय, उसमें मुलहटीका चूर्ण ४ तोले, पिसी हुई दाख ४ तोले, पीपरोंका चूर्ण ८ तोले और घी ६४ तोले-डाल दो और चूल्हेपर चढ़ाकर मन्दाग्निसे पकाओ । ऊपरसे चौगुना गायका दूध डालते जाओ। जब दूध और पानी जलकर घी-मात्र रह जाय, उतारकर छान लो। फिर शीतल होनेपर, इसमें ३२ तोले सफेद चीनी मिला दो । यही "द्राक्षादि घृत" है । इस घीके पीनेसे उरःक्षत रोग निश्चय ही नाश हो जाता है। इससे ज्वर, श्वास, प्रदर-रोग और हलीमक रोग, रक्तपित्त भी नाश हो जाते हैं। . .. नोद-हम यच्मा-चिकित्सामें भी "द्राक्षादि घृत" लिख पाये हैं। दोनों एक ही हैं। सिर्फ बनानेके ढंगमें फर्क है। यह शास्त्रोक्त विधि है। वह हमारी अपनी परीक्षित विधि है। For Private and Personal Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उरःक्षत-चिकित्सा--गरीबी नुसखे । उरःक्षतपर ग़रीबी नुसखे । (५) धानकी खील ६ माशे लेकर, गायके आध-पाव कच्चे दूध और ६ माशे शहद में मिलाकर पीओ और दो घण्टे बाद फिर गायका कच्चा दूध एक-पाव मिश्री मिलाकर पीओ। इस नुसखेसे उरःक्षत या सिल-रोगमें लाभ होता है । परीक्षित है। . (६) पोस्तके दाने ३ तोले और ईसबगोल १ तोले,-दोनोंको मिलाकर, आध सेर पानीमें, काढ़ा बनाओ । जब पाव-भर काढ़ा रह जाय, छान लो और कलईदार बर्तन में डाल दो। ऊपरसे मिश्री आधसेर, खसखस ६ माशे और बबूलका गोंद : माशे पीसकर मिला दो। शेषमें, इसे आगपर थोड़ी देर पकाओ और उतारकर बोतल में भरकर काग लगा दो । इसमेंसे एक तोले-भर दवा नित्य खानेसे उरःक्षत या सिलका रोग अवश्य नाश हो जाता है । परीक्षित है। (७) ६।७ माशे मुल्तानी मिट्टी, महीन पीसकर, सवेरे ही, पानीके साथ, कुछ दिन खानेसे उरःक्षत या सिल-रोग जाता रहता है। परीक्षित है। (८) पीपरकी लाख ३ या ६ माशे, महीन पीसकर, शहद में मिलाकर, खानेसे उरक्षत रोग नाश हो जाता है। कई बारका परीक्षित नुसना है। (६) एक माशे लाल फिटकरी, महीन पीस-छानकर, ठण्डे पानीके साथ फाँकनेसे उरःक्षत और मुँ हसे खखारके साथ खून आना बन्द हो जाता है । मैं हसे खून आना बन्द करनेकी यह आजमूदा दवा है। - नोट-अगर खखारके साथ मुंहसे खून प्रावे, तो हृदयकी गर्मीसे समझो। अंगर बिना खखारके अकेला ही मुखसे खून श्रावे, तो मस्तिष्क या भेजेके विकारसे समझो । अगर खाँसीके साथ खून आवे, तो कलेजेमें विकार समझो । (१०) अगर उरःक्षत रोगीको खूनकी कय होती हों और खून आना बन्द न होता हो, तो दो तोले फिटकरीको महीन पीसकर, एक For Private and Personal Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६४ चिकित्सा-चन्द्रोदय। सेर पानीमें घोल लो और ऊपरसे पानीकी बर्फ़ भी मिला दो । इस पानीमें एक कपड़ा भिगो-भिगोकर रोगीकी छातीपर रखो । जब पहला कपड़ा सूख जाय, दूसरा भिगोकर रखो। साथ ही बिहीदानेके लुआबमें मिश्री मिलाकर, उसमेंसे थोड़ा-थोड़ा यही लुआब रोगीको पिलाते रहो । जब तक खून आना बन्द न हो, यह क्रिया करते रहो। बदनपर "नारायण तैल" या "माषादि तैल"की मालिश भी कराते रहो । तेलकी मालिशसे सर्दी पहुँचनेका खटका न रहेगा । एक काम और भी करते रहो, रोगीके सिरपर "चमेलीका तेल” लगवाकर सिरको गुलाब-जलसे धो दो और सिरपर खस या कपड़ेके पंखेकी हवा करते रहो, ताकि रोगी बेहोश न हो। इस उपायसे अनेक बार उरःक्षतवालोंका मुँ हसे खून आना बन्द किया है । परीक्षित है। (११) अगर ऊपरकी दवाका भिगोया कपड़ा छातीपर रखनेसे लाभ न हो-- खून बन्द न हो, तो सफेद चन्दन, लालचन्दन, धनिया, नस, कमलगट्टे की गरी, शीतल मिर्च ( कवाबचीनी), सेलखड़ी, कपूर, कल्मीशोरा और फिटकरी-इन दसोंको महीन पीसकर, सेर-डेढ़-सेर पानीमें घोल दो और उसीमें कपड़ा भिगो-भिगोकर छातीपर रखो। बीच-बीचमें दूध और मिश्री मिलाकर पिलाते रहो। अगर इस दवासे भी लाभ न हो, तो “इलाजुल गुर्बा'की नीचेकी दवासे काम लो। (१२) बबूलकी कोंपल १ तोले, अनारकी पत्तियाँ १ तोले, आमले १ तोले और धनिया ६ माशे--इन सबको रातके समय शीतल जलमें भिगो दो। सवेरे ही मल-छानकर, इसमें थोड़ी-सी मिश्री मिला दो। इसमेंसे थोड़ा-थोड़ा पानी दिनमें तीन-चार बार पिलानेसे अवश्य मुँ हसे खून आना बन्द हो जायगा । परीक्षित है। . (१३) अगर ऊपरकी दवासे भी लाभ न हो, तो "गुलस्त्रैरु" एक For Private and Personal Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उरःक्षत - चिकित्सा - ग़रीबी नुसते । ६६५' तोले भर, रात के समय, थोड़े-से पानी में भिगो दो और सवेरे ही मल- छान-: कर रोगी को पिला दो। इस नुसनेसे अन्तमें ज़रूर फायदा होता है । (१४) गिलोय एक तोले और अड़ सेकी पत्तियाँ १ तोले- इन दोनोंको औटाकर छान लो और फिर सम्म अरबी ८ माशे पीसकर मिला दो और पिलाओ। इस नुसखे से भी ख़ून थूकना बन्द हो जाता है । (१५) ८० माशे चूके के बीज, पुराना धनिया ८ माशे, कतीरा ४ माशे, सम्मग़ अरबी ४ माशे, सहजना ४ माशे और माजूफल ४ माशे - इनको पीस कूटकर टिकिया बना लो। इनमें से आठ माशे खानेसे खून थूकना बन्द हो जाता है । नोट- अगर रोगीको दस्त भी लगते हों और दस्त बन्द करनेकी ज़रूरत हो, तो इस नुसख़ में अढ़ाई रत्ती 'शुद्ध अफ़ीम' और मिला देनी चाहिये । ( १६ ) सम्म अरबी, मुलतानी मिट्टी और कतीरा - बराबरबराबर लेकर महीन पीस लो । फिर इसमें से सात माशे चूर्ण खशस्त्राश और अदरखके रसमें मिलाकर पीओ । इस उपाय से भी ख़ून थूकना आराम हो जाता है । (१७) असेकी सूखी पत्ती ६ माशे महीन पीसकर और शहद में मिलाकर खानेसे मुँहसे ख़ून थूकना अवश्य आराम होता है । परीक्षित है । नोट - अगर अड़ सेकी पत्तियाँ गीली हों, तो १ तोले लेनी चाहियें | (१८) पानी में पीसी हुई गोभी चार माशे खानेसे खून थूकना आराम होता है । इससे ख़ूनकी क्रय भी बन्द हो जाती है । (१६) थोड़ी-थोड़ी अफीम खानेसे भी ख़ून थूकना बन्द हो जाता है । नोट – तोरई, कद्द ू, पालकका साग, खुरफा, लाल साग, छिले हुए मसूर, कचनार और उसकी कोंपलें – ये सब खून थूकनेको बन्द करते हैं । • (२०) संग - ज़राहत, ज़हर - मुहरा, सफ़ेद कत्था, कतीरा, सम्म अरबी, निशास्ता, सफेद खशनाश, ख़तमीके बीज और गेरू - प्रत्येक ८४ For Private and Personal Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६६ चिकित्सा चन्द्रोदय | चार-चार माशे और अफीम १ माशे-इन दसों कर गोलियाँ बना लो । इन गोलियोंसे सिल या हो जाता है । दो-तीन बार परीक्षा की है । दवाओंको कूट- छान उरःक्षत रोग आराम नोट- - अगर ज्वर तेज़ हो, तो इस नुसख़ में रोगीके मिज़ाजको देखकर, थोड़ा-सा कपूर भी मिलाना चाहिये । कपूरके मिलानेसे ज्वर जल्दी घटता है । अगर रोगी के मरनेका भय हो, तो वासलीककी फ़स्द खोल देनी चाहिये । फिर उसके बाद ज्वर और खाँसीकी दवा करनी चाहिये | अगर मुँह से खून आता हो, तो छातीपर दवाके पानी में भीगे कपड़े रखकर या गुलख़रु आदि पिलाकर पहले खून बन्द कर देना चाहिये । जब तक बटी” वग़ैरः कोई मुख्य दवा न देनी चाहिये दूधका साबूदाना या दूध-भातके सिवाय और , खून बन्द हो जाय, जो दवा उचित समझी जाय देनी चाहिये । खून बन्द न हो जाय, "ऐलादि और खाने को भी दूध-मिश्री, कुछ न देना चाहिये । ज्यों ही (२१) गेंगटे या केंकड़ेकी राख ४० माशे, निशास्ता ८ माशे, सफेद खशखाश = माशे, काली खुशखाश ८ माशे, साफ़ किये हुए खुर के बीज १२ माशे, छिली हुई मुलहटी १२ माशे, छिले हुए ख़तमी के बीज १२ माशे, सम्मग़ अरबी ४ माशे, कतीरा गोंद ४ माशे-इन सब दवाओंको पीस-छानकर " ईसबगोल " के लुआबमें घोटकर, टिकियाँ बनाकर छाया में सुखा लो। इसकी मात्रा - माशेकी है । इस टिकिया से दिन और सिल यांनी यक्ष्मा और उरःक्षत दोनों नाश हो जाते हैं । " (२२) अंजुबारकी जड़ चार तोले, मीठे अनार के छिलके २ तोले, हुब्बुल्लास २ तोले और बुरादा सफ़ेद चन्दन १८ माशे -- इन सबको रात के समय, एक सेर पानी में भिगो दो और मन्दी आगसे पकाओ । जब आधा पानी रह जाय, मलकर छान लो । फिर इसमें आध सेर मिश्री और ताजा बबूल की पत्तियों का स्वरस आध-पाव मिला दो और चाशनी पका लो। इस शर्बत को, दिनमें ६ बार, एक-एक तोलेकी मात्रासे, चाटने से, खून थूकना या खूनकी क्रय होना बन्द हो जाता है | परीक्षित है । " For Private and Personal Use Only C Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उरःक्षत-चिकित्सा-ग़रीबी नुसख्ने । लिख आये हैं कि यकृतमें सूजन या मवाद आ जानेसे ही जीर्णज्वर, यक्ष्मा और उरःक्षत रोग जड़ पकड़ लेते हैं। इन रोगोंमें यकृतमें बहुधा विकार हो ही जाते हैं। वैद्यको चाहिये, कि रोगीके यकृतपर हाथसे टोहकर और रोगीको दाहिनी करवट सुलाकर, इस बातका पता लगा ले, कि यकृतमें मवाद या सूजन तो नहीं है। अगर मवाद या सूजन होगी, तो रोगीको दाहिनी करवट कल नहीं पड़ेगी, उस ओर सोनेसे खाँसीका ज़ोर होगा और छूनेसे पके फोड़ेपर हाथ लगानेका-सा दर्द होगा । जब यह मालूम हो जाय, कि यकृतमें खराबी है, तब यह देखना चाहिये कि, सूजन गरमीसे है या सर्दीसे; अगर सूजन गरमीसे होगी, तो यकृत-स्थान छूनेसे गरम मालूम होगा, यकृतमें जलन होगी और वहाँ खुजली चलती होगी। अगर सूजन सर्दीसे होगी, तो छूनेसे यकृतकी जगह कड़ी--सस्त्रत और शीतल मालूम होगी। (२३) अगर सूजन सर्दीसे हो, तो दालचीनी १० माशे, सुगन्धबाला १० माशे, बालछड़ १० माशे और केशर ४ माशे, इनको "बाबूनेके तेल में पीसकर यकृतपर धीरे-धीरे मलो। (२४) अगर सूजन गरमीसे हो, तो तेजपात ३ माशे, कपूर ३ माशे, रूमी मस्तगी ३ माशे, गेरू ६ माशे, गुलाबके फूल ६ माशे, गुलबनफशा ६ माशे, सफेद चन्दन ६ माशे और सूखा धनिया ६ माशे-इन सबको खूब महीन पीसकर, दिनमें चार-पाँच बार, यकृतपर लेप करो। छहों प्रकारके शोष-रोगोंकी चिकित्सा-विधि। व्यवाय शोषकी चिकित्सा । ऐसे रोगीका मांसरस, मांस और घी-मिले भोजन तथा मधुर और अनुकूल पदार्थोंसे उपचार करना चाहिये । For Private and Personal Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६८ - . चिकित्सा-चन्द्रोदय। शोक-शोषकी चिकित्सा । शोक-शोषवालेका हर्ष बढ़ानेवाले और शोक मिटानेवाले पदार्थोंसे उपचार करो। उसे धीरज बँधाओ, दूध-मिश्री पिलाओ तथा चिकने, मीठे, शीतल, अग्निदीपक और हल्के भोजन दो । व्यायाम-शोषकी चिकित्सा । व्यायाम-शोषवालेको चिकने, शीतल, दाह-रहित, हितकारक, हल्के पदार्थ देने चाहियें। शोक, क्रोध, मैथुन, परनिन्दा, द्वेष-बुद्धि आदिको त्याग देने और शान्ति तथा सन्तोष धारण करनेकी सलाह देनी चाहिये । इस रोगीकी शीतल और कफ बढ़ानेवाले वृहण पदार्थोंसे चिकित्सा करनी चाहिये। अध्वशोषकी चिकित्सा। ऐसे मनुष्यको उत्तम मुलायम आसन, गद्दी या पलँगपर बिठाना चाहिये, दिनमें सुलाना चाहिये, शीतल, मीठे और पुष्टिकारक अन्न और मांस-रस खानेको देने चाहियें। व्रण-शोषकी चिकित्सा। इस रोगीको चिकने, अग्निको दीपन करनेवाले, मीठे, शीतल, जरा-जरा खट्ट' यूष और मांस-रस आदि खिला-पिलाकर चिकित्सा करनी चाहिये। उरःक्षतमें पथ्यापथ्य । । उरःक्षत-रोगीके पथ्यापथ्य ठीक व्यायाम शोषकी चिकित्सा लिखे अनुसार हैं। For Private and Personal Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wwwmar राजयक्ष्मा और उरक्षितमें पथ्यापथ्य । यक्ष्मा और उरःक्षत-रोगमें पथ्यापथ्य । पथ्य। मदिरा-शराब, जङ्गली जानवरोंका सूखा मांस, मूंग, साँठी चाँवल, गेहूँ, जौ, शालि चाँवल, लाल चाँवल, बकरका मांस, मक्खन, दूध, घी, कच्चा मांस खानेवाले पक्षियोंका मांस, सूर्यकी तेज किरणों और चन्द्रमाकी किरणोंसे तपे हुए और शीतल लेह्य-चाटनेके पदार्थ, बिना पके मांसका चूरा, गरम मसाला, चन्द्रमाकी किरण, मीठे रस, केलेकी पकी गहर, पका हुआ कटहल, पका आम, आमले, खजूर, छुहारे, पोहकरमूल, फालसे, नारियल, सहजना, ताड़के ताजा फल, दाख, सौंफ, सैंधानोन, गाय और भैंसका घी, मिश्री, शिखरन, कपूर, कस्तूरी, सफेद चन्दन, उबटन, सुगन्धित वस्तुओंका लेप, स्नान, उत्तम गहने, जल-क्रीड़ा, मनोहर स्थानमें रहना, फूलोंकी माला, कोमल सुगन्धित हवा, नाच, गाना, चन्द्रमाकी शीतल किरणोंमें विहार, वीणा आदि बाजोंकी आवाज, हिरणके जैसी आँखोंवाली स्त्रियोंको देखना, सोने, मोती और जवाहिरातके गहने पहनना, दान-पुण्य करना और दिल खुश रखना-ये सब क्षय-रोगीको हितकारी हैं। जो रोगी अधिक दोषोंवाला पर बलवान हो, उसे हलका जुलाब देकर दवा सेवन करानी चाहिये। जिस क्षयवालेका मांस सूखा जाता हो, उसे केवल मांस खानेवाले जानवरोंका मांस जीरेके साथ खिलाना चाहिये। शाम-सवेरे हवा खिलानी चाहिये । दवाओंके बने हुए “चन्दनादि तैल" या "लाक्षादि तैल" वगैरमेंसे किसीकी मालिश करवाकर शीतकालमें गरम जलसे और गरमीमें शीतल जलसे स्नान कराना चाहिये । For Private and Personal Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७० चिकित्सा-चन्द्रोदय । . .. गरमीकी ऋतुमें छतपर, जाड़ेमें पटे हुए मकानमें और वर्षा-कालमें हवादार कमरे में सोना चाहिये, फूल-माला पहननी चाहिएँ और रूपवती स्त्रियोंसे मन प्रसन्न करना चाहिये, पर मैथुन न करना चाहिए । अपथ्य। .. जियादा दस्तावर दवा खाना, मल-मूत्र आदि वेग रोकना, मैथुन करना, पसीना निकालना, नित्य सुर्मा लगाना, बहुत जागना, अधिक मिहनत करना, बाजरा, ज्वार, चना, अरहर आदि रूखे अन्न खाना, एक खाना पचे बिना दूसरा खाना खाना, अधिक पान खाना, लहसन, सेम, ककड़ी, उड़द, हींग, लालमिर्च, खटाई, अचार, पत्तोंका साग, तेलके पदार्थ, रायता, सिरका, बहुत कड़वे पदार्थ, क्षार पदार्थ, स्वभाव-विरुद्ध भोजन, कुन्दरु और दाहकारी पदार्थ- ये सब पदार्थ भी अपथ्य हैं। समाप्त HEOR992५७ Nocia" सूचना-चिकित्सा-चन्द्रोदय छठे और सातवें भाग तैयार हैं। छठेका मूल्य ४) और सातवेंका ११) क्योंकि वह सबसे डबल है। उसमें १२१६ सके और ४० चित्र हैं। For Private and Personal Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir n - स्वास्थ्यरक्षा और चिकित्सा - चन्द्रोदय आदि ग्रन्थोंके लेखक, वयोवृद्ध बाबू हरिदासजीकी, तीस बरसकी हज़ारों बार आजमाई हुई, कभी भी फेल न होनेवाली आषधियाँ । आनन्दवर्द्धक चूर्ण | ( सिर्फ गरमी मौसममें मिलता है ) इस चूर्ण के सेवनसे तत्काल ही जो विचित्र तरी आती है, उसे यह बेचारी जड़ क़लम लिखकर बता नहीं सकती । यह अनेक शीतल, खुशबूदार और दिल-दिमाग़ में तरी लानेवाली दवाओंसे बनाया गया है । इसको नियमसे पीनेवालेको लूह लगने या हैजा होने का डर तो सुपने में भी नहीं रहता । इससे धातुपर तरी पहुँचती है । यह गर्म मिज़ाज़ यानी पित्त प्रकृतिके लोगोंको दस्त साफ़ लाता और भाँग पीनेवालोंको उष्ण वात (गरम वायु ) की बीमारी नहीं होने देता । औरतोंको इसके पिलाने से उनका मासिक-धर्म ठीक महीने में होने लगता है । यह खूनकी कमी - बेशीको ठीक करता और जिनका मासिक-धर्म गर्मीसे बन्द हो गया है, उनका मासिक-धर्म खोल देता है । भाँग पीनेवाले इसे भाँगमें मिलाकर पी सकते हैं, क्योंकि इसमें नमकीन चीजें नहीं हैं । रोगी इसे यदि.. घोटकर पिये, तो बिना परहेज रहनेसे भी आँखोंकी जलन, माथेकी घुमरी, चक्कर आना, आँखोंके सामने अँधेरा रहना, हाथ-पैरके तलवे जलना, दस्त - पेशाब जलकर होना, बदनका बिना बुखार गर्म रहना, नाक या मुँह से ख़ून जाना वग़ैरः गर्मी और उष्णवातकी ऊपर लिखी सारी शिकायतें रफ़ा हो जाती हैं। इसके समान शीतल दवा और For Private and Personal Use Only • Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहीं नहीं है। गरीब-अमीर सब पी सकें और अपनी गृह-लक्ष्मियोंको भी पिला सकें, इस कारण हमने इसका दाम घटाकर केवल १) लागतमात्र कर दिया है। तुधासागर चूर्ण । यह चूर्ण इतना तेज़ है, कि पेट में पहुँचते ही अजीर्णकी तो गिन्ती ही नहीं, पत्थरको भी भस्म कर देता है। भूख लगाने, खाना हजम करने और दस्तको कायदेसे लानेमें यह चूर्ण अपना सानी नहीं रखता; औरतें इसे खूब पसन्द करती हैं। इतने गुणकारक स्वादिष्ट चूर्णकी एक शीशीका दाम हमने केवल ) रक्खा है। एक शीशीमें ३० खूराक चूर्ण है । घरमें लेजाकर रखनेसे समयपर यह वैद्यका काम देता है। हिंगाष्टक चूर्ण। इस चूर्णके खानेसे भोजनपर रुचि होती है, भूख बढ़ती है, खाना हजम होता है और पेट हलका रहता है । भूख बढ़ानेमें तो यह चूर्ण रामवाण ही है । सुस्वादु भी खूब है। दाम १ शीशीका ॥) अाना । क्षारादि चूर्ण। इसके सेवनसे अजीर्ण तो तत्काल ही भस्म हो जाता है । अम्लपित्त, खट्टी डकार आना, वमन या क्रय होना, जी मिचलाना, गलेमें कफ सूखकर लिपट जाना, गला और छाती जलना आदि रोग आराम करने में यह अक्सीरका काम करता है । कई प्रकारके स्वदेशी क्षारोंसे यह चूर्ण बनता है। खानेकी तरकीब डिब्बीपर छपी है। दाम १ शीशीका ॥) आना। उदर-शोधन चूर्ण । आजकल कलकत्ता-बम्बई में करीब-करीब १०० मेंसे १० आदमियों For Private and Personal Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir को दस्त साफ न होनेकी शिकायत बनी रहती है। इसके लिये लोग मारे-मारे फिरते हैं । जरा-सी बातको विदेशी दवा लेकर अपने धनधर्मको जलांजलि दे बैठते हैं। यह चूर्ण रातको फाँककर सो जानेसे सवेरे एक दस्त खूब साफ हो जाता और भूख खुलती है । दस्त साफ रहनेसे कोई और रोग भी नहीं होता । खाने में दिक्कत नहीं । परहेजकी ज़रूरत नहीं। दाम १० खुराककी शीशीका ॥) आना मात्र है। प्रदान्तक चूर्ण । ___ अजीर्ण, गर्भपात, अतिमैथुन, अत्यन्त भोजन, दिनमें सोने और सोच करनेसे स्त्रियोंको चार प्रकारका प्रदर-रोग होता है। इसमें गुप्तस्थानसे लाल, पीला, काला मांसके धोवनके समान जल बहता है। इसका इलाज न होनेसे औरतोंको बहुमूत्र रोग हो जाता है। फिर वे बेचारी शर्म-ही-शर्ममें अपने प्यारे माँ-बाप, भाई-बन्धु व पतिको रोताकलपता छोड़ यम-सदनको सिधार जाती हैं। इस वास्ते इस रोगके इलाजमें ढिलाई करना नादानी है । हमारा आजमूदा प्रदरान्तक चूर्ण, पथ्यसहित, कुछ दिन सेवन करनेसे, चारों प्रकारके प्रदरोंको इस तरह नाश करता है, जैसे सूर्य भगवान् अन्धकारका नाश करते हैं। दाम १ शीशी २) सर्व सोजाक-नाशक चर्ण । __ यह चूर्ण पेशाबके समस्त रोगोंपर रामवाणका काम करता है। इसको विधानपत्रानुसार सेवन करनेसे पेशाबकी जलन, पेशाबका बूंदबूंद होना, पेशाबके साथ .खून या पीप आना, धोतीमें पीला-पीला दाग़ लगना, पेड़ का भारी रहना, बालकोंका पेशाब चूना-सा जम जाना, पेशाब बन्द हो जाना, पेशाब मट-मैला, गदला या तेल-सा होना अथवा गर्म होना आदि समस्त पेशाबकी बीमारियाँ इस चूर्णसे निस्सन्देह नाश हो जाती हैं । जिनका सोजाक पुराना पड़ गया हो ८५ For Private and Personal Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कभी-कभी पेशाब बन्द हो जाता हो-मूत्रमार्ग सकड़ा हो जानेसे सलाई फिरानेकी ज़रूरत पड़ती हो, वह घबरा नहीं और लगातार इस चूर्णको सेवन करें; निस्सन्देह उनकी इच्छा पूरी होगी। इस चूर्णके सेवनसे अधिक प्यासका लगना भी मिट जाता है। पेशाबके रोगियोंको यह चूर्ण दूसरा अमृत है। एक शीशी सेवन करते-करते ही लोग खुद तारीफके दरिया बहाने लगते हैं । दाम १ शीशी २॥) _ अकबरी चूर्ण । यह अमृत-समान चूर्ण दिल्लीके बादशाह अकबरके लिये उस जमानेके हकीमोंने बनाया था । क़लममें ताक़त नहीं जो इस चूर्णके पूरे गुण लिख सके। यह चूर्ण खानेमें दिल खुश और सुस्वाद है, अग्निको जगाता और भोजनको पचाता है। कैसा ही अधिक खाना खा लीजिये, फिर पेट खाली-का-खाली हो जायगा । अजीर्ण (बदहजमी) को पेटमें जाते ही भस्म कर देता है। खट्टी डकारें आना, जी मिचलाना, उल्टी होना, पेट भारी रहना, पेटकी हवा न खुलना, पेट या पेड़ का कड़ा रहना, पेटमें गोला-सा बना रहना, पाखाना साफ न होना आदि पेटके सारे रोगोंके नाश करने में रामवाण या विष्णु भगवान्का सुदर्शन चक्र है । दाम छोटी शीशी ।।) बड़ीका ।।।) है। नवाबी दन्तमञ्जन ।। इस मंजनको रोज़ दाँतोंमें मलनेसे दाँतोंसे खून आना, मसूड़े फूलना, मैं हमें बदबू आना, दाँतोंमें दर्द होना या कीड़ा लगना आदि समस्त दन्तरोग आराम हो जाते हैं। हिलते हुए दाँत वजूके समान मजबूत होकर मोतीकी लड़ीके समान चमकने लगते हैं । बादशाही ज़माने में नवाब और बादशाह इसे लगाया करते थे, इसीसे इसका नाम नवाबी दन्तमंजन है । दाम १ शीशी ॥) भोजन-सुधाकर मसाला । यह मसाला खानेमें निहायत मज़ेदार है । जो एक बार इसे चख For Private and Personal Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेता है, उसे इसकी चाट पड़ जाती है। दाल-सांगमें जरा-सा मिलानेसे वह खूब जायकेदार बन जाते हैं। पत्थर या काँचकी कटोरीमें जरा देर भिगोकर, जरा-सी चीनी मिलाकर, खानेसे सुन्दर चटनी बन जाती है। मुसाफिरी या परदेशमें जहाँ अच्छा साग-तरकारी या आचार नहीं मिलता, यह बड़ा ही काम देता है। बालक, बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब इसे खूब पसन्द करते हैं । दाम १ डि० ॥) आना । लवणभास्कर चूर्ण । - यह चूर्ण हमने बहुत अच्छी विधिसे तैयार कराया है। हमने खूब जाँचकर देखा है, कि पेटकी पुरानी-से-पुरानी बीमारी इसके १ हफ्ते सेवन करनेसे ही आराम होनेका विश्वास हो जाता है । “शाङ्गधर संहिता में इसे संग्रहणी रोगपर अच्छा लिखा है, मगर हमने इससे अपने कल्पित किये अनुपानोंके साथ संग्रहणी, आमवात, मन्दाग्नि, वायुगोला, दस्तक़ब्ज़, तिल्ली और शरीरकी सूजन वगैरः आराम किये हैं । विधि-पत्र चूर्णके साथ है । दाम १ डि० १) नमक सुलेमानी। यह नमक आजकल बहुत जगह मिलता है; परन्तु लोग ठीक विधिसे नहीं बनाते और एक-एकके दश-दश करते हैं । हम इसे असली तौरपर तैयार कराते हैं और बहुत कम मूल्यपर बेचते हैं । इसके सेवनसे अजीर्ण, बदहज़मी, भूख न लगना, पेट भारी रहना, खट्टी डकारें आना, जी मिचलाना, वमन या कय होना आदि समस्त शिकायतें रफा हो जाती हैं । चूर्ण खानेमें खूब जायकेदार है। दाम' अढ़ाई तोलेका ॥) है। बालरोग-नाशक चूर्ण । इस चूर्णके सेवन करनेसे बालकोंका ज्वरातिसार, ज्वर और पतले दस्त, खाँसी, श्वास और वमन क्रय होना-ये सब आराम हो For Private and Personal Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाते हैं । इस नुसस्नेको चढ़े हुए ज्वरमें भी देनेसे कोई हानि नहीं । यह शहदमें मिलाकर चटाया जाता है । बालकको ज्वर या अतिसार अथवा दोनों एक साथ हों तथा खाँसी वगैरः भी हों, आप इसे चटावें, फौरन आराम होगा। हर गृहस्थको इसे घर में रखना चाहिये। दाम १ शीशीका ।) सितोपलादि चूर्ण । इस चूर्णके सेवनसे जीर्ण ज्वर या पुराना ज्वर निश्चय ही आराम होता है । इससे अनेक रोगी आराम हुए हैं । जो रोगी इससे आराम नहीं हुए, वे फिर शायद ही आराम हुए । जीर्ण ज्वरके सिवा इससे श्वास, खाँसी, हाथ-पैरोंकी जलन, मन्दाग्नि, जीभका सूखना, पसलीका दर्द, अरुचि, मन्दाग्नि, भोजनपर मन न चलना और पित्तविकार प्रभृति रोग भी आराम हो जाते हैं । मतलब यह कि जीर्णज्वर रोगीको ज्वरके सिवा उपरोक्त शिकायतें हों, तो वह भी आराम हो जाती हैं । अगर किसीको पुराना ज्वर हो, तो आप इसे मँगाकर अवश्य खिलावें, ज़रूर लाभ होगा। यह चूर्ण शहद, शर्बत बनाशा, शर्वत अनार या मक्खनमें चटाया जाता है। दवा चटाते ही गायके थनोंसे निकला गरमागर्म दूध (आगपर गरम न करके ) पिलाना होता है । हाँ, अगर जीर्ण-ज्वरीको पतले दस्त भी होते हों, तो यह चूर्ण शहदमें न चटाकर, शर्बत अनारमें चटाते हैं और ऊपरसे दूध नहीं पिलाते । अगर दस्त बहुत होते हों, तो हमारे यहाँसे "अतिसार-गजकेशरी चूर्ण" या "बिल्वादि चूर्ण" मँगाकर बीच-बीचमें यथाविधि खिलाना चाहिये । साथ ही “लाक्षादि तैल" की मालिश करानी चाहिये; क्योंकि जीर्णज्वरीका बदन बहुत ही रूखा हो जाता है । यह तेल रूखेपनको नाश करके ज्वरको नाश करता है । दाम १ शीशीका १) और १॥) अतिसार-गज-केशरी चूर्ण । इस चूर्णके सेवनसे आँव-खूनके दस्त, पतले दस्त यानी हर तरहका For Private and Personal Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ७ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घोर अतिसार भी बात की बात में आराम हो जाता है। आज़मूदा दवा है । हर 'गृहस्थको एक शीशी पास रखनी चाहिये । दाम १ शीशीका || = ) कामदेव चूर्ण | 1 इस चूर्ण के लगातार २ महीने खानेसे धातु क्षीणता और नई नामर्दी आराम होती है । स्त्री-प्रसंग में अपूर्व आनन्द आता है । जिनकी स्त्रीइच्छा घट गई हो, स्त्री- प्रसंगको मन न चाहता हो, वे इस चूर्णको चुपचाप मन लगाकर २ मास तक खावें । इसके सेवन से उन्हें संसारका आनन्द फिरसे मिल जायगा । आजकल लोगोंने जो विज्ञापन दे रखे हैं, उनके धोखे में न फँसिये । वह कोरी धोखेबाजी है । जिन्हें एक अक्षर भी वैद्यकका नहीं आता, उन्होंने भोले लोगों को ठगनेके लिये खूब चमकीले भड़कीले विज्ञापन दे दिये हैं और आदमीको शेरसे कुश्ती करता दिखा दिया है । उनसे कहिये कि पहले आप शेरसे लड़कर हमें तमाशा दिखा दें, तब हम आपकी दवाके १०० गुने दाम देंगे । हमें धर्मका भय है, अतः मिथ्या लिखना बुरा समझते हैं । कोई भी धातु-पुष्टिकी दवा बिना ६० दिन के फ़ायदा नहीं कर सकती, क्योंकि आजकी खाई वाकी धातु ४० दिनमें बनती है। फिर दस-पाँच दिनमें धातु रोग कैसे चला जायगा ? आप इस चूर्णको मँगाकर प्रेमसे खाइये, मनोरथ पूरा होगा । दाम १ शीशीका २||) रु० । धातु-पुष्टिकर चूर्ण | इस चूर्ण के सेवन करने से पानी-जैसी पतली धातु कपूर के समान सफेद और खूब गाढ़ी हो जायगी । पेशाबके आगे या पीछे धातुका गिरना या सूत-सा निकलना बन्द हो जायगा । साथ ही स्त्री - प्रसंगकी खूब इच्छा होगी । अगर आप स्त्री-प्रसंग न करें और १२ महीने इसे खा लें तो निस्सन्देह आप सिंहसे दो-दो हाथ कर सकेंगे । आपकी उम्र पूरे १०० या १२० सालकी हो जायगी तथा आपका पुत्र सिंहके समान For Private and Personal Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी होगा। आप इसे मँगाकर, और नहीं तो चार महीने तो सेवन करें। इन चूर्णो के सेवन करनेमें जाड़ेकी कोई कैद नहीं, हर मौसममें ये खाये जा सकते हैं । हम फिर कहते हैं, आप ठगोंके धोखेमें न आकर, इन दोनों चूर्णो को सेवन करें। भगवान् कृष्णकी दयासे आपकी मनोवाञ्छा पूरी होगी । दाम १ शीशीका २॥) रु० । हरिबटी। इन गोलियोंके सेवन करनेसे सब तरहकी संग्रहणी, अतिसार, ज्वरातिसार, रक्तातिसार, निश्चय ही, आराम हो जाते हैं। इन्हें हर गृहस्थ और मुसाफिरको सदा पास रखना चाहिये। समय पर बड़ा काम देती हैं । हजारों बार आजमाइश हो चुकी है । दाम १ शीशीका ।।) नोट-अभी हाल ही में इन गोलियोंने एक पुराने ज्वर और प्रामातिसारसे मरणासन्न रोगिणोकी जान बचाई है, जिसे नामी-नामी डाक्टर त्याग चुके थे। इन गोलियोंसे दस्त तो पाराम हुए ही, पर किसी भी दवासे न उतरनेवाला, हर समय बना रहनेवाला ज्वर भी साफ़ जाता रहा । इन्हें केवल ज्वरमें न देना चाहिये । अगर घर और दस्तोंका रोग दोनों साथ हों तब देकर चमत्कार देखना चाहिये। नपुंसक संजीवन बटी । - कलममें ताक़त नहीं, जो इन गोलियोंकी तारीफ कर सके। इनके सेवनसे नामर्द भी मर्द हो जाता है तथा प्रसंगमें खूब स्तम्भन होता है। शामको दो या चार गोलियाँ खा लेनेसे अपूर्व स्वर्गीय आनन्द आता है । बदनमें दूनी ताक़त उसी समय मालूम होती है। स्त्री-प्रसंगमें दूनी तेज़ी और डबल रुकावट होती है। साथ ही प्रमेह, शरीरका दर्द, जकड़न, गठिया, लकवा, बहुमूत्र, खाँसी और श्वासको भी ये गोलियाँ आराम कर देती हैं । जिन लोगोंको प्रमेह, बहुमूत्र, खाँसी और श्वासकी शिकायत हो, उन्हें ये गोलियाँ सवेरे-शाम दोनों समय खाकर मिश्री-मिला गरम दूध पीना चाहिये। भगवत्की दयासे अद्भुत चम For Private and Personal Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्कार दीखेगा । दाम की शीशी १) या २) या ४) गरम मिजाजवालोंको ये गोलियाँ कम फायदा करती हैं। . . _कास-गज-केसरी बटी।। ये गोलियाँ तर और खुश्क यानी सूखी और गीली दोनों प्रकारकी खाँसियोंमें रामवाणका काम करती हैं । एक दिन-रात सेवन करनेसे ही भयङ्कर खाँसीमें लाभ नज़र आने लगता है। इनके चूसनेसे मुँहके छाले भी आराम हो जाते हैं । १०० गोलीकी शीशीका दाम ॥) शीतज्वरान्तक गोलियाँ। __ये गोलियाँ बहुत तेज़ हैं। इनके २।३ पारी सेवन करनेसे सब तरहके शीतपूर्वक ज्वर यानी पहले ठण्ड लगकर आनेवाले बुखार निस्सन्देह उड़ जाते हैं। रोज-रोज़ आनेवाले, दिनमें दो बार चढ़नेउतरनेवाले, इकतरा, तिजारी, चौथैया आदि कष्टसाध्य ज्वरोंको अक्सर हमने “इन्हीं शीतज्वरान्तक गोलियों से एक ही दो पारीमें उड़ा दिया है। सिये तापों या जूड़ी-ज्वरपर यह गोलियाँ कुनैनसे हजार दर्जे अच्छी हैं । दाम ४० गोलीकी शीशीका ॥) नेत्रपीड़ा-नाशक गोली।। ये गोलियाँ आँख दुखनेपर अक्सीरका काम करती हैं। कैसी ही आँखें दुखती हों, लाल हो गई हों, कड़क मारती हों, रात-दिन चैन न आता हो, एक गोली साफ-चिकने पत्थरपर बासी जलमें घिसकर आँजनेसे फौरन आराम होता है। बच्चे और स्त्रियोंकी आँखें अक्सर दुखा करती हैं; इस वास्ते हर गृहस्थको एक शीशी पास रखनी चाहिये। दाम ६ गोलीकी शीशीका ।) असली नारायण तेल । (वायुरोगोंका दुश्मन) इस जगत्-प्रसिद्ध "नारायण तैल" को कौन नहीं जानता ? वैद्यक For Private and Personal Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १० ) शास्त्रमें इसकी खूब ही तारीफ़ लिखी है। आज़मानेसे हमने भी इसे अनेक अगरेजी दवाओंसे अच्छा पाया है। लेकिन आजकल यह तैल असली कम मिलता है, क्योंकि अव्वल तो इसकी बहुत-सी जड़ीबूटियाँ बड़ी मुश्किल और भारी खर्चसे मिलती हैं; दूसरे, इसके तैयार करने में भी बड़ी मिहनत करनी पड़ती है, इसी वजहसे कलकतिये कविराज इसे बहुत महँगा बेचते हैं। हमारे यहाँ यह तेल बड़ी सफाई और शास्त्रोक्त विधिसे तैयार किया जाता है। यही कारण है कि, अनेक देशी वैद्य लोग इसे हमारे यहाँसे ले जाकर अपने रोगियोंको देते और धन तथा यश कमाते हैं। यह तैल हमारा अनेक बारका आजमाया है । हजारों रोगी इससे आराम हुए हैं। हम विश्वास दिलाते हैं कि, इसकी लगातार मालिश करानेसे शरीरका दर्द, कमरका दर्द, पैरोंमें फूटनी होना, शरीरका दुबलापन या रूखापन, शरीरकी सूजन, अर्धाङ्ग वायु, लकवा मार जाना, शरीरका. हिलना, काँपना, मुखका खुला रह जाना या बन्द हो जाना, शरीर डण्डेके समान तिरछा हो जाना, अंगका सूनापन, झनझनाहट, चूतड़से टखने तकका दर्द आदि समस्त वायु-रोग निस्सन्देह आराम हो जाते हैं । यह तैल भीतरी नसोंको सुधारता, सुकड़ी नसोंको फैलाता और हड्डी तकको नर्म कर देता है; तब बादी या वायुके नाश करनेमें क्या सन्देह है ? गठिया और शरीरका दर्द आदि आराम करने में तो इसे नारायणका सुदर्शन चक्र ही समझिये । दाम आध-पावकी १ शीशीका ११॥) मात्र है। मस्तक-शूल-नाशक तेल । (सिरदर्द-नाशक अद्भुत तैल) इस तैलको स्नान करनेसे पहले रोज, सिरमें लगानेसे सिरके सारे रोग नाश हो जाते हैं। इसकी तरीकी तारीफ नहीं हो सकती। यह तैल बालोंको काले, रसीले और चिकने रखता है । आँख-नाकसे For Private and Personal Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ११. ) मैला पानी निकालकर मगज़ और आँखोंको ठण्डा कर देता है । पढ़नेलिखने में चित्त लगाता और माथेकी थकानको दूर कर देता है । गरमी, सर्दी, जुकाम या बादीसे कैसा ही घोर सिर-दर्द हो; लगाते ही ५ मिनटोंमें छूमन्तर हो जाता है। सिर-दर्दकी इसके समान जल्दी आराम करनेवाली दवा और नहीं है। आप कामसे छुट्टी पाकर इसे लगाकर शीतल पानीसे सिर धो लीजिये । फिर देखिये, कि यह स्वदेशी पवित्र तैल कैसा स्वर्गका आनन्द दिखाता है। वकील, मास्टर, मुनीम, विद्यार्थी, दलाल, दूकानदार सबको इस अद्भुत तैलको खरीदकर परीक्षा करनी चाहिये । सुन्दर सुडौल २ औन्सकी शीशीका दाम भी हमने केवल ॥) ही रक्खा है। बङ्ग देशमें इसका खूब प्रचार है । कोई गृहस्थ इससे खाली न रहना चाहिये । कृष्णविजय तैल। (चर्म-रोगका शत्र) अगर आपको या आपके मित्र-पड़ोसियोंको खून-फ्रिसादका रोग है, अगर बदनमें लाल लाल या काले-काले चकत्ते हो जाते हैं, अगर दाद, खाज, खुजली, फोड़े, फुन्सियोंसे शरीर खराब हो रहा है या शरीरमें घाव हैं, तो आप हमारा मशहूर "कृष्णविजय तैल" क्यों नहीं लगाते ? __ हमारे तीस बरसके परीक्षित कृष्णविजय तैलसे सूखी-गीली खाज, खुजली, फोड़े, फुन्सी या गर्मीकी सूजन, अपरस, सेंहुआ, सफेद दाग़ भभूत आदि चमड़ेके ऊपर होनेवाले समस्त रोग जादूकी तरह आराम होते हैं । जिनका बिगड़ा खून अँगरेजी सालसेकी शीशियोंपर-शीशियाँ पीनेसे न आराम हुआ हो, जिनके शरीरके घाव अँगरेजी नामी दवा “कारबोलिक आयल" या "आयडोफार्म से न आराम हुए हों, वे एक बार इस नामी "कृष्णविजय तैल"की परीक्षा ज़रूर करें। यह तैल कभी निष्फल नहीं होता। गये ३० बरसमें इसने लाखों रोगियोंको सड़नेसे बचाया है। जिसके नाखन गलकर गिर गये हों, For Private and Personal Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२ ) -यदि वह शख्स भी इस अमृत समान 'कृष्णविजय तैल" को कुछ दिन बराबर लगाता जावे, तो निस्सन्देह उसके फिर नये ना. खून निकल आवेंगे । यदि यह "कृष्णविजय तैल" किसी अँगरेजी दवाखाने में होता तो अच्छे लेबल, चमकदार शीशी और दवाखानेके अनाप-शनाप ख़र्च के कारण २) रुपये शीशीसे कममें न बिकता । परन्तु हमने स्वदेशी दवाका प्रचार करने और गरीब-अमीर सबको फ़ायदा पहुँचाने की गरज से इसकी दश तोलेकी शीशीका दाम सिर्फ़ लागत - मात्र १) रक्खा है । कर्ण रोगान्तक तैल । इस तेलको कान में डालनेसे कान बहना, कान में दर्द होना, सनसनाहट होना आदि कानके सारे रोग अवश्य आराम हो जाते हैं । ४ ६ महीने का बहरापन भी जाता रहता है । दाम १ शीशीका १) रुपया । तिला नामर्दी | यह तिला नामर्दके लिये दूसरा अमृत है । इसके लगातार ४० दिन लगाने से हर प्रकारकी नामर्दी आराम हो जाती है । नसोंमें नीलापन, टेढ़ापन, सुस्ती और पतलापन आदि दोष, जो लड़कपनकी बुरी आदतों से पैदा हो जाते हैं, अवश्य ठीक हो जाते हैं । इस तिलेके लगाने से छाले - आवले भी नहीं पड़ते और न जलन ही होती है । चीज़ अमीरोंके लायक़ है । बाजारू तिलों के लिये ठगाना बेवकूफी है । यह आजमाई हुई चीज़ है; जिसे दिया वही आराम हुआ । धातु-दोष तिलेसे आराम न होगा । अगर धातु कमजोर हो, तो हमारी "नपुंसक संजीवन बटी " या " धातु पुष्टिकर चूर्ण" या "कामदेव चूर्ण" भी सेवन - करना उचित है । दाम १ शीशी तिलेका ५) विषगर्भ तैल | यह तैल अत्यन्त गर्म है । शीतप्रधान वायु रोगों में इससे बहुत For Private and Personal Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३ ) उपकार होता है । सन्निपात या हैजेमें जब शरीर शीतल और नाड़ी गति-हीन हो जाती है, तब इस तेलमें एक और तेल मिलाकर मालिश करनेसे शरीर गरम हो जाता और नाड़ी चलने लगती है । गृहस्थ और वैद्य लोगोंको इसे अवश्य पास रखना चाहिये । दाम आध'पावका २) चन्दनादि तैल। यह तैल तासीरमें शीतल है। इसकी मालिश करनेसे सिरकी गर्मी, हाथ-पैर और आँखोंकी जलन आदि निश्चय ही आराम हो जाती हैं । बदनमें तरी व ताक़त आती है। धातुक्षीणवाले यदि इसे खानेकी दवाके साथ, शरीरमें मालिश कराकर स्नान किया करें, तो अठगुणा फायदा हो । दाम आध पावका २) कामिनी-रञ्जन तैल । - इस तैलका नाम “कामिनी-रञ्जन तैल" इस वास्ते रक्खा गया है, कि यह तैल दिल्लीके बादशाह जहाँगीरका मन चुरानेवाली अलौकिक सुन्दरी-नूरजहाँ बेगमको बहुत ही प्यारा था। ____ चार वर्ष तक इसके गुणोंकी परीक्षा करके हमने इस अपूर्व तैलको प्रकाशित किया है। कामिनी-रञ्जन तैल मस्तिष्क ( Brain) शीतल करनेवाली औषधियोंके योगसे तैयार होता है। इसकी मीठी सुगन्धसे दिमाग मवत्तर हो जाता है। इसकी हल्की खुशबू चटपट नहीं उड़ जाती, बल्कि कई दिनों तक ठहरती है । सदा इस तैलके व्यवहार करनेसे बाल भौंरेके समान काले और चिकने बने रहते हैं; असमयमें ही नहीं पकते। औरतोंके बाल कमर तक फर्राने लगते हैं और उनकी असली सुन्दरताको दूना करते हैं । बालोंको बढ़ाने, चिकना और काला करनेके सिवा, इस तैलके लगातार लगानेसे शिरकी कमजोरी, आँखोंके सामने अंधेरा आना, चक्कर आना, माथा घूमना, सिर-दर्द, आँखोंकी कमजोरी, बातोंका याद न रहना आदि दिमाग़ For Private and Personal Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (. १४ ) सम्बन्धी समस्त सिरके रोग आराम हो जाते हैं । इस तैलकी जिस कदर तारीफ की जाय थोड़ी है। लेकिन हम स्थानाभावसे इसकी प्रशंसा यहीं खतम करते हैं। इस तैलको राजा-महाराजा, सेठ-साहूकारोंके सिवा औसत दरजेके सज्जन भी व्यवहार कर सकें, इसलिये इसकी कीमत की शीशी ।।) रक्खी है। महासुगन्ध तैल । इस तैलका लगानेवाला कैसा ही बेढंगा मोटा क्यों न हो, धीरेधीरे सुन्दर और सुडौल हो जाता है। इसके सिवाय इसके लगानेवालेका रूप खिल उठता है तथा शरीर सुन्दर और खूबसूरत हो जाता है। इसके लगानेसे धातु बढ़ती है तथा खाज, खुजली प्रभृति चमड़ेके रोग नाश हो जाते हैं। यह तैल अमीरों और राजा-महाराजाओंको सदा लगाना चाहिये। इसके समान धातुको पुष्ट करनेवाला, ताक़तको बढ़ानेवाला, शरीरको सुडौल और खूबसूरत बनानेवाला और तैल नहीं है। जिनकी मुटाई कम करनी हो, वे अगर हमारा “खूनसफा अर्क" भी शहद मिलाकर पीवें, तो और भी जल्दी मुटाई कम होगी। दाम १ शीशीका २॥) __ माषादि तैल । यह तैल निहायत गरम है । इसके लगानेसे गठिया, बदनका दर्द, जकड़न, लकवा, पक्षाघात प्रभृति शीतवायुके रोग निश्चय ही आराम हो जाते हैं। जिनके रोगमें शीत या सर्दी अधिक हो, वे इसे ही लगावें । दाम १ शीशीका २) दादनाशक अर्क । इस अर्कके रूईके फाहे द्वारा लगानेसे दाद साफ़ उड़ जाते हैं। खूबी यह कि, यह अर्क न लगता है और न जलता है। सबसे बड़ी बात यह है, कि आप बढ़िया-से-बढ़िया कपड़े पहने हुए इसे लगावें,. For Private and Personal Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५ ) कपड़े खराब न होंगे। आज तक ऐसी चीज़ कहीं नहीं निकली। अगर आपके दाद हों, तो इस अर्कको मँगाइये और लगाकर दादोंसे निजात पाइये । दाम १ शीशीका ॥) आना। स्तम्भन बटी। यथा नाम तथा गुण है। सन्ध्या-समय १ या २ गोली खाकर ऊपरसे दूध-मिश्री पी लीजिये । फिर देखिये कितना आनन्द आता है। इसकी अधिक तारीफ़ यहाँ लिख नहीं सकते। अगर आप कामिनीके प्यारे बनना चाहते हैं, तो १ शीशी पास रखिये और आनन्द लूटिये । दाम १ शीशीका ॥) लिंग स्थूलकारक बटी। अगर फोतोंकी सूजन, नसोंकी कमजोरी या धातुकी कमीसे लिंगेन्द्रिय दुबली हो-ठीक मोटी न हो, तो इस गोलीके १ मास या २ मास लगाते रहनेसे लिंगेन्द्रिय अवश्य मोटी हो जाती है। अनेक आदमियोंको लाभ हुआ है । दाम १ शीशीका २) अर्क खूनसफा । इस अर्ककी जितनी तारीफ करें थोड़ी समझिये । आज १८ वर्षसे हम इस अर्ककी परीक्षा कर रहे हैं। इस अर्कके सेवनसे १०० में १०० रोगियोंको फायदा हुआ है। अधिक क्या कहें, जिनके शरीरमें खून खराब होने या पारेके दोषसे चलनीके-से छेद हो गये थे, जिनके शरीरमें अनगिनती काले-काले दाग़ और चकत्ते हो गये थे, जिनके पास बैठनेसे लोग नाक-भौं सकोड़ते थे, जिनको कितनी ही शीशियाँ सालसेकी पिलाकर डाक्टरोंने असाध्य कहकर त्याग दिया था, इस सालसे अर्थात् “अर्क खूनसफा" के लगातार नियम-पूर्वक पीनेसे वही रोगी बिल्कुल चंगे हो गये। अधिक प्रशंसा करनेसे लोग बनावटी समझेगे, मगर इस अमृतसमान अर्कके पूरे गुण लिखे विना भी रह नहीं सकते। इसके पीनेसे For Private and Personal Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १६ ) १८ प्रकारके कोढ़, सफेद दाग, बनरफ या भभूत, सुन्नबहरी, आतशक या गर्मी रोग, पाके दोष, हाथी-पाँव, अर्धाङ्गवायु, लकवा, शरीरकी बेढङ्गी गुटाई, खाज-खुजली, दाफड़ या चकत्ते आदि सारे चर्म रोग निस्सन्देह नाश हो जाते हैं। लेकिन ध्यान रखिये, कि नया खून और नयी धातु पैदा करना छोकरोंका खेल नहीं है । जन्म-भरका कोढ़ एक आदित्य बारमें आराम नहीं हो जाता । खून साफ़ करनेवाली और धातु पुष्ट करनेवाली दवाएँ लगातार कुछ दिन सेवन करनेसे ही फ़ायदा होता है । इन दोनों रोगों में जल्दबाजी करनेसे कार्य-सिद्धि नहीं होती । साधारण रोगमें ४ बोतल और पुराने या असाध्य रोग में १ दर्जन बोतल पीना चाहिये। अगर इस अके साथ हमारा "कृष्ण-विजय तैल" भी मालिश कराया जाय, तब तो सोनेमें सुगन्ध ही हो जाय । यह अर्क रेलवे द्वारा मँगाना ठीक है । दाम एक बड़ी बोतलका २ ) नोट- यह कम-से-कम तीन बोतल मँगाना चाहिये । अव्वल तो बिना तीन बोतल पिये साफ़ तौरसे फ़ायदा नज़र नहीं आता, दूसरे, एक और तीन बोतलका रेलभाड़ा एक ही लगता है । मँगानेवालेको कम-से-कम आधे दाम पहले भेजने चाहियें और अपने नज़दीकी रेलवे स्टेशनका नाम लिखना चाहिये । गरमी रोगकी मलहम । इस मलहमके लगानेसे गर्मी के घाव, टाँचियाँ, जलन और दर्द फ़ौरन आराम होते हैं। मलहम लगाते ही ठण्डक पड़ जाती है । अगर इन्द्रियपर सूजन हो, मुख न खुलता हो, तो मलहम लगाकर ऊपरसे हमारे "कृष्ण- विजय तैल" की तराई करनेसे सूजन और घाव सब आराम हो जाते हैं । साथ ही "अर्क खूनसफ़ा " भी पीना जरूरी है । दाम १ शीशीका II) गर्मीका बुरका | यह सूखा बुरका है । इसके घावोंपर बुरकनेसे घाव जल्दी For Private and Personal Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूखकर आराम हो जाते हैं। इसमें अगरेज़ी पीली बुकनीकी तरह बदबू नहीं आती । दाम ॥) डि० . दादकी मलहम । यह मलहम दादके लिये बहुत ही अच्छी है । ५।६ बार धीरे-धीरे मलनेसे दाद साफ हो जाते हैं। लगती बिल्कुल नहीं। लगानेमें भी कुछ दिक्कत नहीं । दाम 1-) शीशी। कपूरादि मलहम । यह मलहम खुजलीपर, जिसमें मोतीके समान फन्सियाँ हो जाती हैं, अमृत है । आज़माकर अनेक बार देख चुके हैं, कि इसके लगानेसे गीली खुजली, जले हुए घाव, छाले, कटे हुए घाव, मच्छर आदि जहरीले कीड़ोंके दाफड़, फोड़े-फुन्सी तथा औरतोंके गुप्तस्थानकी खुजली और फुन्सियाँ निश्चय ही आराम हो जाती हैं। कलममें ताक़त नहीं है, जो इसके पूरे गुण वर्णन कर सके । दाम १ शीशीका ) हर गृहस्थको पास रखनी चाहिये । शिरशूल-नाशक लेप । ___ इसको जरासे जलमें पीसकर मस्तकपर लेप करनेसे मन-भावन सुगन्ध निकलती है और गरमीका सिर-दर्द फौरन आराम हो जाता है । गरमीके बुखार और गर्मीसे पैदा हुए सिर-दर्दमें तो यह रामवाण ही है । दाम १ डि०॥) असली बङ्गेश्वर । असली बंगसे मनुष्यका बल बढ़ता है, खाना पचता है, भूख खुलती है, भोजनपर रुचि होती है और चेहरेपर कान्ति और तेज छा जाता है। यह भस्म तासीरमें शीतल है। मनुष्यके शरीरको आरोग्य रखती है, धातुको गाढ़ा करती, जल्दी बूढ़ा, नहीं होने देती For Private and Personal Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८ ) और क्षय-रोगको नाश करती है । अनुपान और विधि-स्‍ हमारा बंगेश्वर सेवन करनेसे २० प्रकारके प्रमेह नाश होते हैं इसके सेवन करनेवालोंका वीर्य सुपने में भी नहीं गिर सक ज़ियादा क्या लिखें, स्त्री वश करनेवाली और कामिनियोंका घ नाश करनेवाली इसके समान दूसरी चीज़ नहीं है । इसे बेर सेवन कीजिये । यह हमने स्वयं सेवन किया है और अनेक धनी• लोगोंको खिलाया है । इसीलिये इतने जोरसे लिखा है । दाम २ और ८) रुपया तोला । शिर-शूलान्तक चूर्ण | बहुत लिखना व्यर्थ है, आपने आज तक सिरका दर्द नाश व वाली ऐसी जादू के समान चमत्कारी दवा देखी न होगी । सिर में दर्द हो, आप एक पुड़िया फाँककर घड़ी देख लें। ठीक 1. मिनटमें आपका सिर दर्द काफूर हो जायगा । आप माः एक शीशी अवश्य पास रखिये । न जाने किस समय सिर में द खड़ा हो | इस दवा में एक और भी गुण है - वह यह कि आपके में दर्द हो या हल्का-सा ज्वर हो, आप एक मात्रा खाकर सो फौरन पसीने आकर शरीर हल्का हो जावेगा। दाम ८ मा - शीशीका १) और चार मात्राका || ) दवा मिलने का पता हरिदास एण्ड कम्पनी. ( कलकत्ते वाली) गंगा - भवन, मथुरा सिटं For Private and Personal Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir tLE pueweb CPOSTO puiko be YSUJ SUALS For Private and Personal Use Only