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राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । ६३६ धूप और रातको ओस लगे। जब महीना भर हो जाय, मुँह खोलकर सबको मथो और छानकर बोतलों में भर दो और काग लगा दो। बस यही सुप्रसिद्ध "द्राक्षारिष्ट" है । ध्यान रखो, यह कभी बिगड़ता नहीं।
इसकी मात्रा ६ माशेसे दो तोले तक है। इसे अकेला ही या "लवंगादि चूर्ण" और "जातीफलादि चूर्ण” सवेरे-शाम देकर, दोपहरके बारह बजे, सन्ध्याके ४ बजे और रातको दस बजे चटाना चाहिये । इस अकेलेसे भी उरःक्षत रोग नाश होता है । अगर कफके साथ हर बार खून आता हो, तो इसे हर दो-दो घण्टेपर देना चाहिये । मुखसे खून आनेको यह फ़ौरन ही आराम करता है । इसके सेवन करनेसे बवासीर, उदावत, गोला, पेटके रोग, कृमिरोग, खूनके दोष, फोड़े-फुन्सी, नेत्ररोग, सरके रोग और गलेक रोग भी नाश हो जाते हैं। इससे अग्निवृद्धि होती, भूख लगती, खाना हजम होता और दस्त साफ़ होता है। अनेक बारका परीक्षित है।
दूसरा द्राक्षारिष्ट । बड़े-बड़े बिना बीजके मुनक्के सवा सेर लेकर, चौगुने जल यानी पाँच सेर पानीमें डालकर, कलईदार बासनमें मन्दाग्निसे औटाओ। जब सवा सेर या चौथाई पानी बाक़ी रह जाय, उतारकर मल-छान लो। फिर उसमें पाँच सेर अच्छा गुड़ मिला दो और तज, इलायची, नागकेशर, महँदीके फूल, कालीमिर्च, छोटी पीपर और बायबिडंग - दो-दो तोले, लेकर, महीन पीस-छानकर उसीमें डाल दो और कलईदार कढ़ाहीमें उड़ेलकर फिर औटाओ। औटाते समय कलछीसे चलाना बन्द मत करो। अगर न चलाओगे तो गुठले-से हो जायेंगे। जब औट जाय, इसे अमृतबानोंमें भर दो। इसकी मात्रा एक से चार तोले तक है। बलाबल देखकर मात्रा मुक़र्रर करनी चाहिये। इसके सेवन करनेसे छातीका दर्द, छातीके भीतरका घाव,. श्वास, खाँसी, यक्ष्मा, अरुचि,
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