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राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । ६४१ कुचलकर, रातके समय दस सेर पानीमें भिगो दो। सवेरे ही मन्दाग्निसे औटाओ । जब चौथाई पानी रह जाय, उतारकर छान लो।
इसके बाद, बिना बीजोंके मुनक्के चार तोले, मुलेठी छिली हुई चार तोले और छोटी पीपर आठ तोले, इन तीनोंको सिलपर पीसकर लुगदी बना लो।
इसके भी बाद गायका उत्तम घी दो सेर, तीनों दवाओंकी लुगदी और मुनक्का-मुलेठीका काढ़ा--इन सबको कलईदार कढ़ाहीमें चढ़ाकर, मन्दी-मन्दी आगसे पकाओ। ऊपरसे थन-दुहा गायका दूध आठ सेर भी थोड़ा-थोड़ा करके उसी कढ़ाहीमें डाल दो । जब दूध और काढ़ा जल जाय; तब चूल्हेसे उतारकर छान लो और किसी बासनमें रख दो।
इस घीको रोगीको पिलाते हैं, दाल-रोटी और भातके साथ खिलाते हैं। अगर पिलाना हो, तो धीमें तीन पाव मिश्री पीसकर मिला देनी चाहिये । जिन रोगियोंको घी दे सकते हैं, उन्हें यह दवाओंसे बना द्राक्षादि घृत खिलाना-पिलाना चाहिये क्योंकि खाँसीवालोंको अगर मामूली घी खिलाया जाता है, तो खाँसी बढ़ जाती है। जिस क्षय-रोगीको खाँसी बहुत जोरसे होती है, उसे मामूली घी नुक़सान करता है; पर बिना घी दिये रोगीके अन्दर खुश्की बढ़ जाती है । अतः ऐसे रोगियोंको यही घी पिलाना चाहिये । क्षय और खाँसीवालोंको यह घी अमृत है। यह खुश्की मिटाता, खाँसीको आराम करता और पुष्टि करता है।
च्यवनप्राश अवलेह । १ बेल, २ अरणी, ३ श्योनाककी छाल, ४गंभारी, ५ पाढ़ल, ६शालपर्णी, ७ पृश्निपर्णी, ८ मुगवन, ६ माषपर्णी, १० पीपर, ११ गोखरू, १२ बड़ी कटेरी, १३ छोटी कटेरी, १४ काकड़ासिंगी, १५ भुई आमला, १६
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