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चिकित्सा-चन्द्रोदय । होती रहे, तो हजार दिन या पौने तीन बरस तक जीता है। हजार दिनसे अधिक किसी तरह नहीं जी सकता। क्योंकि इतने दिनों बाद उसके प्राण, बल और वीर्य क्षीण हो जाते और इन्द्रियाँ विकल हो जाती हैं।
जो यक्ष्मा कभी घटता और कभी बढ़ता नहीं, बल्कि एक समान बना रहता और उत्तम चिकित्सासे धीरे-धीरे घटता है, वह अन्तमें अच्छे इलाजसे घट जाता है । जिस यक्ष्मावालेकी खाँसी कभी घट जाती और कभी बढ़ जाती है, कभी कफ आता, कभी बन्द हो जाता
और फिर बढ़ जाता है, वह यक्ष्मा-रोगी तीन या छै महीनेसे ज़ियादा नहीं जीता-अवश्य मर जाता है। उस समय अमृत भी काम नहीं करता। ___ हिकमतके ग्रन्थों में लिखा है, कि यक्ष्मा या तपेदिक पहले और दूसरे दर्जे का होनेसे आराम हो जाता है, तीसरे दर्जेपर पहुँच जानेसे बड़ी दिक्कतोंसे आराम होता और चौथेमें पहुँच जानेसे तो असाध्य ही हो जाता है।
चिकित्सा करने योग्य क्षय-रोगी। जिस क्षय-रोगीका शरीर ज्वरसे न तपता हो, जिसमें चलने'फिरनेकी कुछ सामर्थ्य हो, जो तेज दवाओंको सह सकता हो, जो पथ्य पालन करनेमें मजबूत हो, जिसे खाना पच जाता हो और जो बहुत दुबला या कमजोर न हो, उस क्षय-रोगीकी चिकित्सा करनी चाहिये। ऐसे रोगीकी उत्तम चिकित्सा करनेसे वैद्यको यश मिल सकता है, क्योंकि यह सब क्षय-रोगके पहले दर्जेके लक्षण हैं । “सुश्रुत" आदि ग्रन्थोंमें लिखा है:
ज्वरानुबन्धरहितं बलवन्तं क्रियासहम् । उपक्रमेदात्मवन्तं दीप्ताग्निमकृशं नरम् ।।
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