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राजयक्ष्मा और उरःक्षतकी चिकित्सा । अगर यक्ष्मा-रोगी खूब खानेपर भी तीण होता जाता हो, उसे अतिसार हो या उसके पेट और फोतोंपर सूजन हो, तो समझो कि रोगीको अरिष्ट है, वह मर जायगा।
नोट-इन ऊपर लिखे हुए उपद्रवोंमेंसे, यदि कोई एक उपद्रव भी उपस्थित हो, तो यक्ष्मा-रोगीका मरण समझना चाहिये।
क्षयरोगीक जीवनकी अवधि । आयुर्वेद-ग्रन्थों में लिखा है, जो यक्ष्मारोगी जवान हो और जिसकी चिकित्सा उत्तमोत्तम वैद्य करते हों, वह एक हजार दिन या दो बरस, नौ महीने और दस दिन तक जी सकता है। कहा है:
परं दिनसहस्रन्तु यदि जीवति मानवः ।
सुभिषभिरुपक्रान्तस्तरुणः शोषपीडितः ॥ मतलब यह है, कि यक्ष्मा-रोग बड़ी कठिनतासे आराम होता है । जिसकी टूटी नहीं होती, जिसपर ईश्वरकी दया होती है, उसे सवैद्य मिल जाते हैं। अच्छे अनुभवी विद्वान् वैद्योंकी चिकित्सासे यक्ष्मा-रोगी आराम हो जाता है; यानी प्रायः पौने तीन बरसकी उम्र बढ़ जाती है। इस अवधिके बाद, आराम हो जानेपर वह फिर यक्ष्मा-रोगमें फँसकर मर जाता है। किसी-किसीने तो यहाँ तक लिख दिया है कि अगर यक्ष्मा-रोगी दवा-दारु करनेसे आराम हो जाय, तो मनमें समझो कि उसे यक्ष्मा-रोग था ही नहीं, कोई दूसरा रोग था। क्योंकि यक्ष्मा-रोग तो किसी भी दवासे आराम होता ही नहीं। हारीत मुनि कहते हैं
सजीवेच्चतुरो मासान्षण्मासं वा बलाधिकः । उत्कृष्टश्च प्रतीकारैः सहस्राहं तु जीवति ।
सहस्रात्परतो नास्ति जीवितं राजयक्ष्मिणः ॥ राजयक्ष्मा रोगी चार महीनों तक जीता है। अगर उसमें ताक़त जियादा है, तो छ महीने जीता है। अगर उत्तम-से-उत्तम चिकित्सा.
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