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चिकित्सा-चन्द्रोदय। .."सुश्रुत में मण्डली सॉंके ये भेद लिखे हैं:-आदर्शमण्डल, श्वेतमण्डल, रक्तमण्डल, चित्रमण्डल, पृषत, रोध्र, पुष्य, मिलिंदक, गोनस, वृद्ध गोनस, पनस, महापनस, वेणुपत्रक, शिशुक, मदन, पालिहिर, पिंगल, तन्तुक, पुष्प, पाण्डु षडंग, अग्निक, वभ्र, कषाय, कलुश, पारावत, हस्ताभरण, चित्रक और ऐणीपद । इनके २२ भेद होते हैं, पर ये ज़ियादा हैं, अतः आदर्शमण्डलादि चारोंको १, गोनस-वृद्धगोनस को १ और पनस-महापनसको १ समझिये। चूँ कि ये पित्त-प्रकृति होते हैं, अतः इनके काटनेसे चमड़ा और नेत्रादि पीले हो जाते हैं, सब चीजें पीली दीखती हैं, काटी हुई जगह सड़ने लगती है तथा सर्दीकी इच्छा, सन्ताप, दाह, प्यास, ज्वर, मद और मूर्छा आदि लक्षण होते और गुदा आदिसे खून गिरता है। इनके विषके लक्षल. हम आगे लिखेंगे।
राजिल । (३) राजिल या धारीदार-इन्हें राजिमन्त भी कहते हैं । किसीके शरीरपर आड़ी, किसीके शरीरपर सीधी और किसीके शरीरपर बिन्दियोंके साथ रेखा या लकीरें-सी होती हैं। इन्हींकी वजहसे ये धारीदार और गण्डेदार कहलाते हैं। इनका शरीर खूब साफ, चिकना
और देखने में सुन्दर होता है। इनकी प्रकृति कफ-प्रधान होती है, इसलिये इनके विषमें भी कफकी प्रधानता होती है । ये जिसे काटते हैं, उसमें कफ-प्रकोपके लक्षण नज़र आते हैं । इनका विष शीतल होता है और शीतलता कफका लक्षण है। ___"सुश्रुत में लिखा है, राजिल या राजिमन्तोंके ये भेद होते हैं:-- पुण्डरीक, राजिचित्रे, अंगुलराजि, विन्दुराजि, कर्दमक, तृणशोषक, सर्षपक, श्वेतहनु, दर्भपुष्पक, चक्रक, गोधूमक और किकिसाद । इनके दस भेद होते हैं, पर ये अधिक हैं; अतः राजिचित्रे, अंगुलराजि और विन्दुराजि, इन तीनोंको एक समझिये । चूँकि इनकी प्रकृति कफकी
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