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जंगम-विष-चिकित्सा--सोका वर्णन । १७३ "सुश्रुत” में दर्बीकरोंके ये भेद लिखे हैं:--कृष्ण सर्प-काला साँप, महा कृष्ण--घोर काला साँप, कृष्णोदर-काले पेटवाला, श्वेतकपोतसफेद कपोती, महाकपोत, बलाहक, महासर्प, शंखपाल, लोहिताक्ष, गवेधुक, परिसर्प, खंडफण, कुकुद, पद्म, महापद्म, दर्भपुष्प, दधिमुख, पुण्डरीक, भृकुटीमुख, विष्किर, पुष्पाभिकीर्ण, गिरिसर्प, ऋजुसर्प, श्वेतोदर, महाशिरा, अलगद और आशीविष । इनके सिरपर पहिये, हल, छत्र, साथिया और अंकुशके निशान होते हैं और ये जल्दी-जल्दी चलते हैं। दर्बी संस्कृतमें कलछीको कहते हैं । जिनके फन कलछीके जैसे होते हैं, उन्हें दीकर कहते हैं । इनके काटनेसे वायुका प्रकोप होता है; इसलिये नेत्र, नख, दाँत, मल-मूत्र आदि काले हो जाते हैं, शरीर काँपता है, जंभाई आती हैं तथा राल बहना, शूल या ऐंठन होना वगैरःवगैरः वायु-विकार होते हैं । इनके विषके लक्षण हम आगे लिखेंगे ।
मण्डली। (२) मण्डली या चित्तीदार-इनके बदनपर चित्तियाँ होती हैं। इसीसे इन्हें चित्तीदार सर्प कहते हैं । ये धीरे-धीरे मन्दी चालसे चलते हैं। इनमेंसे कितनों ही पर लाल, कितनों ही पर काली और कितनों ही पर सफ़ेद चित्तियाँ होती हैं। कितनों ही पर फूलों जैसी, कितनों ही पर बाँसके पत्तों-जैसी और कितनों ही पर हिरनके खरजैसी चित्ती या चकत्ते होते हैं । ये पेटके पाससे मोटे और दूसरी जगहसे पतले या प्रचण्ड अग्निके समान तीक्ष्ण होते हैं। जिनपर चमकदार चित्तियाँ होती हैं, वे बड़े तेज़ ज़हरवाले होते हैं। इनकी प्रकृति पित्त-प्रधान होती है, इसलिये इनके विषमें भी पित्तकी प्रधानता होती है। ये जिसे काटते हैं, उसमें पित्तके प्रकोपके लक्षण नज़र आते हैं । इनका विष गरम होता है और गरमी पित्तका लक्षण है। इनकी मुख्य पहचान ये हैं:-- १) चित्ती, चकत्ते या विन्दु, २) पेटके पाससे मोटापन, और (३) मन्दी चाल ।
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