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चिकित्सा-चन्द्रोदय । देनी चाहिये। सिरमें विषका प्रभाव होनेसे ही उपरोक्त उपद्रव होते हैं । जब दिमाग़में विषका खलल होता है, तभी मनुष्य बेहोश होता है । इसीसे विषके छठे वेगमें अत्यन्त तेज अञ्जन और अवपीड़ नस्यकी शास्त्राज्ञा है । कहा है
षष्ठेऽजनं ततस् तीक्ष्णमवपीडं च योजयेत् ॥ मतलब यह है, इस हालतमें नेत्रों में तेज अञ्जन लगाना और नस्य देनी चाहिये, जिससे रोगीकी उपरोक्त शिकायतें रफ़ा हो जायँ ।
(१६) बहुत बार ऐसा होता है, कि मनुष्यको सर्प नहीं काटता और कोई जीव काट लेता है; पर उसे साँपके काटनेका खयाल हो जाता है। इस कारणसे वह डरता है। डरनेसे वायु कुपित होकर सूजन वगैरः उत्पन्न कर देता है। अनेक बार ऐसा होता है, कि साँप आदमीके काटनेको आता है, उसका मुँह शरीरसे लगता है, पर वह आदमी उसे झटका देकर फेंक देता है। इस अवस्थामें, सर्पका दाँत अगर शरीरके लग भी जाता है, तो भी जल्दी ही हटा देनेसे दाँत-लगे स्थानमें जहर डालनेका साँपको मौका नहीं मिलता, पर वह आदमी अपने-तई काटा हुआ समझता और डरता है- अगर ऐसा मौका हो, तो आप रोगीको तसल्ली दीजिये । उसके मनमें साँपके न काटने या विष न छोड़नेका विश्वास दिलाइये, जिससे उसका थोथा भय दूर हो जाय । साथ ही मिश्री, वैगन्धिक-इ गुदी, दाख, दूधी, मुलहटी और शहद मिलाकर पिलाइये और मतरा हुआ जल दीजिये । यद्यपि इस दशामें साँपका दाँत लग जानेपर भी, जहर नहीं चढ़ता, क्योंकि घावमें विष छोड़े बिना विषका प्रभाव कैसे हो सकता है ? ऐसे दंशको “निर्विष दंश" कहते हैं। ' (१७) कर्केतन, मरकतमणि, हीरा, वैडूर्यमणि, गर्दभमणि, पन्ना, विष-मूषिका, हिमालयकी चाँद बेल--सोमराजी, सर्पमणि, द्रोण
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