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विष उपविषों की विशेष चिकित्सा - "भाँग" ।
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रूखी होती है । ये आमाशय के लिये हानिकारक, पेशाब लानेवाले, स्तम्भन करनेवाले, वीर्यको सोखनेवाले, आँखों की रोशनीको मन्त्री करनेवाले और पेटमें विभताप्रद हैं। बीज । निर्विषैल होते हैं । भाँगमें भी विष नहीं है; पर कितने ही इसे विष मानते हैं । मानना भी चाहिये; क्योंकि यह अगर बेकायदे और बहुत ही ज़ियादा खा ली जाती है, तो आदमीको सदाको पागल बना देती और कितनी ही बार मार भी डालती है । हमने आँखों से देखा है, कि जैपुरमें, एक मनुष्यने एक अमीर जौहरी भंगड़ के बढ़ावे देनेसे, एक दिन अनाप-शनाप भाँग पी ली। बस, उसी दिन से वह पागल हो गया । अनेक इलाज होनेपर भी उसे
आराम न हुआ ।
गाँझा भी भाँगका ही एक भेद है । भाँग दो तरह की होती है:( १ ) पुरुष के नाम से, और ( २ ) स्त्रीके नामसे । पुरुष जातिके चुपसे भाँग के पत्ते लिये जाते हैं। उन्हें लोग घोटकर पीते और भाँग कहते हैं । स्त्री जाति के पत्तों से गाँझा होता है। इस गाँकेने ही चरस बनता है । रातमें, ओस पड़ने से जब गाँफे के पत्ते ओससे भीग जाते हैं, सवेरे ही आदमी उनके भीतर होकर घूमते हैं। ओस और पत्तों का मैल शरीर में लग जाता है । उसे वे मल-मलकर उतार लेते हैं । बस, इसी मैलको “चरस" कहते हैं । चरस काबुल और बलन बुखारेसे बहुत आता है । दोनों तरह के वृक्ष एक ही जगह पैदा होते हैं। इसलिये उनकी जटाएँ नहीं बाँधी जा सकतीं । वैद्य लोग भंग और भंगके बीजोंके सिवा इसके और किसी अंशको काम नहीं लेते, पर गाँझा किसी-किसी नुसखे में पड़ता है । भाँगकी मात्रा ४ रत्तीकी और गाँकेकी आधी रत्ती की है ।
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हिकमत में लिखा है: -- गाँको संस्कृतमें गंजा, फारसी में बंगदस्ती और अरबी में कतबबरी कहते हैं । इसे चिलम में रखकर
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