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२१८
चिकित्सा-चन्द्रोदय । निशान करके उस निशानपर खून-मिला चमड़ा या ताज़ा मांस रखना चाहिये।
नोट-इन तीनों तरहके साँपोंकी वेगानुरूप चिकित्सामें कुछ फर्क है । दर्बीकरकी चिकित्सामें, चौथे वेगमें वमन कराते हैं: पर मण्डली और राजिलकी चिकित्सामें, दूसरे वेगमें ही वमन कराते हैं। क्योंकि मण्डली साँपका विष पित्तप्रधान और राजिलका कफप्रधान होता है । राजिलकी चिकित्सामें, दूसरे वेगमें वमन कराने के सिवा और सब चिकित्सा २१७ पृष्ठमें लिखी वेगानुरूप चिकित्साके समान ही करनी चाहिये । मण्डलीकी चिकित्सा करते समय-दूसरे वेगमें वमन करानी, तोसरे वेगमें तेज़ जुलाब देना और छठे वेगमें काकोल्यादिगणसे पकाया दूध देना और सातवें वेगमें विष-नाशक अवपोड़ नस्य देना उचित है । अगर गर्भवती, बालक और बूढ़ेको साँप काटे, तो उनका शिरावेधन न करना चाहिये । यानी फ़द न खोलनी चाहिये । अगर ज़रूरत ही हो-काम न चले, तो कम खून निकालना चाहिये । इनकी फस्द न खोलकर, मृदु उपायोंसे विष नाश करना अच्छा है। इसके सिवाय, जिनका मिज़ाज गर्म हो, उनका भी खून न निकालना चाहिये; बल्कि शीतल उपचार करने चाहिये ।
दर्बीकरोंकी वेगानुरूप चिकित्सा । ( १ ) पहले वेगमें - खून निकालो । (२) दूसरे वेगमें-शहद और घोके साथ अगद दो। (३) तीसरे वेगमें-विषनाशक नस्य और अञ्जन दो । (४) चौथे वेगमें- वमन कराकर, विषनाशक यवागू दो। (५-६ ) पाँचवें और छठे वेगमें-तेज जुलाब देकर, यवागू दो ।
(७) सातवें वेगमें--खूब तेज अवपीड़ नस्य देकर सिर सान करो और मस्तकपर, काकपद करके, ताजा मांस या खून-आलूदा चमड़ा रखो। .
नोट--गर्भवती, बालक, बूढ़े और गरम मिज़ाजवालेका खून न निकालो; निकाले बिना न सरे तो कम निकालो और मृदु उपायोंसे विष नाश करो। गरम मिज़ाजवालेको शीतल उपचार करो।
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