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विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"अफ्रीम"। ११७ नशा उतर जाता है, तब तो वे मरी-मिट्टी हो जाते हैं। उबासियों-परउबासियाँ आती हैं, आँखों में पानी भर-भर आता है, नाकसे मवाद या जल गिरता और हाथ-पैर भड़कने लगते हैं। हाँ, जब वे अफीम खा लेते हैं, तब घड़ी-दो-घड़ी बाद कुछ देरको मर्द हो जाते हैं। उनमें कुछ उत्साह और फुर्ती आ जाती है। हर दिन अफीम बढ़ानेकी इच्छा रहती है। अगर किसी दिन बाजरे-बराबर भी अफीम कम दी जाती है, तो नशा नहीं आता; इसलिये फिर अफीम खाते हैं। अगले दिन फिर उतनी ही लेनी पड़ती है, इस तरह यह बढ़ती ही चली जाती है। अगर अफ़ीम न बढ़े और बहुत ही थोड़ी मात्रा में खाई जाय तथा इसपर मन-माना दूध पिया जाय, तो हानि नहीं करती; बल्कि कितने ही रोगोंको दबाये रखती है। पर यह ऐसा पाजी नशा है, कि बढ़े बिना रहता ही नहीं। अगर यह किसी समय न मिले, तो आदमी मिट्टी हो जाता है, राह चलता हो, तो राहमें ही बैठ जाता है, चाहे फिर सर्वस्व ही क्यों न नष्ट हो जाय। मारवाड़में रहते समय, हमने एक अझोमवी ठाकुर साहबकी सच्ची कहानी सुनी थी। पाठकोंके शिक्षा-लाभार्थ उसे नीचे लिखते हैं:___ एक दिन, रेगिस्तानके जंगलों में, एक ठाकुर साहब अपनी नवपरिणीता बहूको ऊँटपर चढ़ाये अपने घर ले जा रहे थे । दैवसंयोगसे, राहमें उनकी अफ़ीम चुक गई। बस, आप ऊँटको बिठाकर, वहीं पड़ गये और लगे ठकुरानीसे कहने- "अब जब तक अफीम न मिलेगी, मैं एक कदम भी आगे न चल सकूँगा। कहींसे भी अफ़ीम ला । स्त्रीने बहुत-कुछ समझाया-बुझाया कि, यहाँ अफीम कहाँ ? घोर जङ्गल है, बस्तीका नाम-निशान नहीं। पर उन्होंने एक न सुनी । तब वह बेचारी उन्हें वहीं छोड़कर स्वयं अकेली ऊँटपर चढ़, अफ़ीमकी खोजमें आगे गई। कोस-भरपर एक झोंपड़ी मिली । इसने उस झोंपड़ीमें रहनेवालेसे कहा - "पिताजी ! मेरे
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