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चिकित्सा-चन्द्रोदय । पतिदेव अफ्रीम खाते हैं, पर आज अफ्रीम निपट गई। इसलिये वह 'यहाँसे कोस-भर पर पड़े हैं और अफीम बिना आगे नहीं चलते । वहाँ न तो छाया है, न जल है और डाकुओं का भय जुदा है। अगर आप कृपाकर थोड़ी-सी अफ़ीम मुझे दें, तो मैं जन्म-भर आपका ऐहसान न भूलू ।" उस मर्द ने उस बेचारी अबलासे कहा-"अगर तू एक घण्टे तक मेरे पास मेरी स्त्रीकी तरह रहे, तो मैं तुझे अफीम दे सकता हूँ।" स्त्रीने कहा - पिताजी ! मैं पतिव्रता हूँ। आप मुझसे ऐसी बातें न कहें ।” पर उसने बारम्बार वही बात कही; तब स्त्री उससे यह कहकर, कि मैं अपने स्वामीसे इस बात की आज्ञा ले आऊँ, तब आपकी इच्छा पूरी कर सकती हूँ, वहाँ से वह ठाकुर साहब के पास आई और उनसे सारा हाल कहा । ठाकुरने जवाब दिया-"बेशक, यह बात बहुत बुरी है, पर अफ्रोम बिना तो मेरी जान ही न बचेगी, अतः तू जा और जिस तरह भी वह अफीम दे ले आ।" स्त्री फिर उसी झोंपड़ीमें गई और उस झोंपड़ीवालेसे कहा-"अच्छी बात है, मेरे पति ने
आज्ञा दे दी है। आप अपनी इच्छा पूरी करके मुझे अफीम दीजिये। मैं अपने नेत्रोंके सामने अपने प्राणाधारको दुःखसे मरता नहीं देख सकती । आपसे अफीम ले जाकर उन्हें खिलाऊँगी और फिर आत्मघात करके इस अपवित्र देहको त्याग दूंगी।" यह बात सुनते ही उस आदमीने कहा-“मा ! मैं ऐसा पापी नहीं । मैंने तेरे पतिको शिक्षा देनेके लिये ही वह बात कही थी। तू चाहे जितनी अफीम ले जा । पर अपने पतिकी अफीम छुड़ाकर ही दम लीजो।” कहते हैं, वह स्त्री उसी दिनसे जब वह अपने पतिको अफीम देती, अफ़ीमकी डलीसे दीवारपर लकीर कर देती। पहले दिन एक, दूसरे दिन दो, तीसरे दिन तीन -इस तरह वह लकीरें रोज एक-एक करके बढ़ाती गई। अन्तमें एक लकीर-भर
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