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सर्प-विषकी सामान्य चिकित्सा ।
(११) करञ्जके बीज, त्रिकुटा, बेल-वृक्षकी जड़, हल्दी, दारुहल्दी; तुलसीके पत्ते और बकरीका मूत्र-इन सबको एकत्र पीसकर, नेत्रों में आँजनेसे, विषसे बेहोश हुआ मनुष्य होशमें आ जाता है।
(१२) सेंधानोन, चिरचिरके बीज और सिरसके बीज-इन सबको मिलाकर और पानीके साथ सिलपर पीसकर कल्क या लुगदी बना लो। इस लुगदीकी नस्य देने या सुंघानेसे विषके कारणसे मूच्छित हुआ मनुष्य होशमें आ जाता है । - (१३) इन्द्रजौ और पाढ़के बीजोंको पीसकर नस्य देने या सुँघाने या नाकमें चढ़ानेसे बेहोश हुआ मनुष्य चैतन्य हो जाता है। . . . नोट--नस्यके सम्बन्धमें हमने चिकित्सा-चन्द्रोदय, दूसरे भाग के पृष्ठ २६७-२७२ में विस्तारसे लिखा है। उसे अवश्य पढ़ लेना चाहिये। . (१४) सिरसकी छाल, नीमकी छाल, करञ्जकी छाल और तोरई-इनको एकत्र, गायके मूत्रमें, पीसकर प्रयोग करनेसे स्थावर
और जङ्गम-दोनों तरहके विष शान्त हो जाते हैं। __ नोट-मुख्यतया विष दो प्रकारके होते हैं--(१) स्थावर और (२) जङ्गम । जो विष ज़मोनकी खानों और वनस्पतियोंसे पैदा होते हैं, उन्हें स्थावर विष कहते हैं । जैसे, संखिया और हरताल वारः तथा कुचला, सींगीमोहरा, कनेर और धतूरा प्रभुति । जो विष साँप, बिच्छू, मकड़ी, कनखजूरे प्रभुति चलनेफिरनेवाले जन्तुओं में होते हैं, उन्हें जगम विष कहते हैं।
(१५) दाख, असगन्ध, गेरू, सफेद कोयल, तुलसीके पत्ते, कैयके पत्ते, बेलके पत्ते और अनारके पत्ते-इन सबको एकत्र पीसकर और "शहद में मिलाकर सेवन करनेसे "मण्डली" सोका विष नष्ट हो जाता है। - नोट-यह खानेकी दवा है । सर्प-विषपर, ख़ासकर मण्डली सर्पके विषपर, अत्युत्तम है । इसमें जो "सक द कोयल" लिखी है, वह स्वयं सर्प-विव-नाशक है । कायल दो तरहकी होती हैं--(१) नोली और (२) सनद । हिन्दीमें साद कोयल और नीली कोयल कहते हैं । संस्कृतमें अपराजिता, नील अपराजिता और विष्णुकान्ता आदि कहते हैं । बंगलामें हापरमाली, अपराजिता या
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