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aamanakaran
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चिकित्सा-चन्द्रोदय। है। शरीर सूखता है; स्त्रीकी इच्छा जियादा होती है और बात सुनना बुरा लगता है । जिसमें ये लक्षण पाये जाय, उसे "राजयक्ष्मा" है। जिस राजयक्ष्मा रोगीके पैर सने हो जाते हैं, जिसे एक ग्रास भोजन भी बुरा लगता है और जिसकी आवाज़ एक दमसे मन्दी हो जाती है, उसका राजयक्ष्मा आराम नहीं होता।
दोषोंकी प्रधानता-अप्रधानता । लिख आये हैं कि, यक्ष्मा रोग वातादिक तीनों दोषोंके कोपसे होता है, पर उन तीनों में से कोई-न-कोई दोष प्रधान या सबसे ऊपर होता है। जो प्रधान होता है, उसीके लक्षण या जोर अधिक दीखता है।
अगर वायुकी उल्वणता, प्रधानता या अधिकता होती है तो स्वर-भंग-गला बैठना, कन्धों और पसलियों में दर्द और संकोचये लक्षण होते हैं। यानी वायुके बढ़नेसे गला बैठता और कन्धों तथा पसलियों में पीड़ा होती है। ये वाताधिक्य या वायुके अधिक होनेके चिह्न हैं। .. अगर पित्त उल्वण या प्रधान होता है, तो ज्वर, दाह, अतिसार
और खून निकलना ये लक्षण होते हैं; यानी पित्तके बढ़नेसे ज्वरसे शरीर तपता, हाथ-पैर जलते, पतले दस्त लगते और मुँ हसे खून आता है।
अगर कफ उल्वण या अधिक होता है, तो सिरमें भारीपन, अन्नपर मन न चलना, खाँसी और कण्ठ जकड़ना-ये लक्षण होते हैं; यानी अगर कफ बढ़ा हुआ होता है, तो रोगीका सिर भारी रहता है, खानेका नाम नहीं सुहाता, खाँसी आती और गला बैठ जाता है ।। __"सुश्रुत" में लिखा है-क्षय रोग, तीनों दोषोंका सन्निपात रूप होनेसे, एक ही तरहका माना गया है, तो भी उसमें दोषोंकी उल्वणता या प्रधानता होनेके कारण, उन्हीं उन दोषोंके चिह्न देखने में आते हैं।
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