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राजयक्ष्मा और उराक्षतकी चिकित्सा। ५८१ नोट-लिख चुके हैं कि, यमा तीनों दोषों वात, पित्त और कफके कोपसे होता है। ऊपर जो लक्षण लिखे गये हैं, वे साधारण यक्ष्मा या यक्ष्माके पहले दजेके हैं। इस अवस्था या दर्जेका यक्ष्मा आराम हो सकता है।
इस रोगमें सारी धातुओंका क्षय होकर, सारे शरीरका शोषण होता है, ऐसा समझना चाहिये। कन्धों और पसलियोंमें शूल चलना, हाथ-पैर जलना और सारे शरीरमें ज्वर बना रहना-ये तीन लक्षण "चरक"में होनहारके लिखे हैं। "सुश्रुत"में छै लक्षण और लिखे हैं। उन्हें हम नीचे लिखते हैं:--
यक्ष्माके लक्षण।
षटरूप क्षय।
दूसरा दर्जा। "सुश्रुत में अन्नपर अरुचि, ज्वर, श्वास-खाँसी, खून दिखाई देना और स्वर-भेद - ये लक्षण यक्ष्माके लिखे हैं। खुलासा यों समझिये, कि खानेकी बात तो दूर रही, खानेका नाम भी बुरा लगता है। ज्वरसे शरीर तपा करता है, साँस फूलता रहता है, खाँसी चलती रहती है, थूकके साथ खून गिरा करता और गला बैठ जाता है। यह यक्ष्माके दूसरे दर्जेके लक्षण हैं। इन लक्षणोंके प्रकट हो जानेपर, कोई भाग्यशाली प्राणी सुवैद्यके हाथोंमें जाकर, बच भी जाता है, पर बहुत कम । इसके आगे तीसरा दर्जा है। तीसरे दर्जेवालोंकी तो समाप्ति ही समझिये। वे असाध्योंकी गिनतीमें हैं। ___ हारीत कहते हैं, छातीमें क्षत या घाव होने, धातुओंके क्षय होने, जोरसे कूदने, अत्यन्त मैथुन करने और रूखा भोजन करनेसे, शरीर क्षीण होकर, मन्द ज्वर हो जाता है और ज्वरके अन्तमें सूजन चढ़ आती है; मैल, मल और मूत्र अधिक आते हैं; अतिसार हो जाता है। खाया-पिया नहीं पचता; खाँसी जोरसे चलती है; थूक बहुत आता
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