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विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा-"वत्सनाभ"। ४३ इसी तरह जब कोई स्थावर विष--बच्छनाभ, अफीम आदि--खा लेता है और किसी उपायसे भी आराम नहीं होता, रोगी अब-तबकी हालतमें हो जाता है, तब साँपसे उसे कटवाते हैं; क्योंकि विषकी अत्यन्त असाध्य अवस्थामें एक विषको दूसरा प्रतिविष ही नष्ट कर सकता है। कहते भी हैं,-"विषस्य विषमौषधम्' अर्थात् विषकी दवा विष है।
अनुपान । - तेज़ विष खिला-पिलाकर रोगीको निरन्तर "घी" पिलाना चाहिये । भारङ्गी, दहीके मंडसे निकाला हुआ मक्खन, सारिवा और चौलाई,--ये सब भी खिलाने चाहियें। ..
नित्य विष-सेवन-विधि । घीसे स्निग्ध शरीरवाले आदमीको, वमन-विरेचन आदिसे शुद्ध करके, रसायनके गुणोंकी इच्छासे, नित्य, बहुत ही थोड़ी मात्रामें, शुद्ध विष सेवन करा सकते हैं। विष-सेवन करनेवाले सात्विक मनुष्यको, शीतकाल और बसन्त ऋतुमें, सूर्योदयके समय, विष उचित मात्रामें, सेवन कराना चाहिये । अगर बीमारी बहुत भारी हो, तो गरमीके मौसममें भी विष सेवन करा सकते हैं, पर वर्षाकाल या बदलीवाले दिनोंमें तो, किसी हालतमें भी, विष सेवन नहीं करा सकते।
विष सेवनके अयोग्य मनुष्य । .... नीचे लिखे हुए मनुष्योंको विष न सेवन कराना चाहियेः
(१) क्रोधी, (२) पित्त दोषका रोगी, (३) जन्मका नामर्द, (४) राजा, (५) ब्राह्मण, (६) भूखा, (७) प्यासा, (८) परिश्रम या राह चलनेसे थका हुआ, (६) गरमीसे पीड़ित, (१०) संकर रोगी, (११) गर्भवती, (१२) बालक, (१३) बूढ़ा, (१४) रूखी देहवाला, और (१५) मर्मस्थानका रोगी। . नोट-मर्मस्थानके रोगमें विष न सेवन कराना चाहिये और मर्मस्थानों के ऊपर इसका लेपन श्रादि भी न करना चाहिये ।
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