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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org .३३६ चिकित्सा - चन्द्रोदय | "भावप्रकाश" में लिखा है - जब दुष्ट रज बहुत ही ज़ियादा बहती है, शरीर टूटता है, अङ्गों में वेदना होती है एवं शूलकी-सी पीड़ा होती है, तब कहते हैं - " प्रदर रोग" हुआ । “वैद्यरत्न" में लिखा हैः - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिमार्गातिगमनप्रभूतसुरतादिभिः । प्रदरो जायते स्त्रीणां योनिरक्तस्र तिःपृथुः ॥ बहुत रास्ता चलने और अत्यन्त परिश्रम करनेसे स्त्रियोंको "प्रदर रोग" होता है । इस रोग में योनिसे खून बहता है । " चरक" में लिखा है - अगर स्त्री नमकीन, चरपरे, खट्टे, जलन करनेवाले, चिकने, अभिष्यन्दी पदार्थ, गाँव के और जलके जीवोंका मांस, खिचड़ी, खीर, दही, सिरका और शराब प्रभूतिको सदा या ज़ियादा खाती है, तो उसका “वायु" कुपित होता और खून अपने प्रमाणसे अधिक बढ़ता है । उस समय वायु उस ख़ूनको ग्रहण करके, गर्भाशयकी रज बहानेवाली शिराओं का आश्रय लेकर, उस -स्थान में रहनेवाले आर्त्तवको बढ़ाती है। चिकित्सा शास्त्र - विशारद विद्वान् उसी बढ़े हुए वायुसंसृष्ट रक्तपित्तको "असृग्दर" या "रक्त प्रदर" कहते हैं । 'वैद्यविनोद" में लिखा है:-- मद्यातिपानमतिमैथुन गर्भपाताजीर्णाध्य शोक गरयोग दिवाति सुतैः । स्त्रीणाम सृग्दरगदो भवतीति तस्य प्रत्युद्गतौ भ्रमरुजौदवथुप्रलापौ ॥ दौर्बल्य मोहमद पाण्डुगदाश्च तन्द्रा तं वातपित्त कफजं त्रिविधं तृष्णा तथा निलरुजो बहुधा भवन्ति । चतुर्थ दोषोद्भवं प्रदररोगमिदं वदन्ति ॥ बहुत ही शराब पीने, अत्यन्त मैथुन करने, गर्भपात होने या गर्भ गिरने, अजीर्ण होने, राह चलने, शोक या रञ्ज करने, कृत्रिम For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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