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विष-वर्णन । विषकी उत्पत्ति क्रोधसे है। इस पर भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं, कि जिस तरह पुरुषोंका वीर्य सारे शरीरमें फैला रहता है, और स्त्री आदिकके देखने के हर्षसे, वह सारे शरीरसे चलकर, वीर्यवाहिनी नसों में श्रा जाता है और अत्यन्त
आनन्दके समय स्त्रीकी योनिमें गिर पड़ता है, उसी तरह क्रोध प्रानेसे साँपका विष भी, सारे शरीरसे चलकर, सर्पकी दाढ़ोंमें आ जाता है और सर्प जिसे काटता है, उसके घावमें गिर जाता है। जब तक साँपको क्रोध नहीं आता, उसका विष नहीं निकलता । यही वजह है, जो साँप बिना क्रोध किये; बहुधा किस को नहीं काटते । साँपोंको जितना ही अधिक क्रोध होता है, उसका दंश भी उतना ही सांघातिक या मारक होता है।
सुश्रुतमें लिखा है, चूंकि विषकी उत्पत्ति क्रोधसे है, अतः विष अत्यन्त गरम और तीचण होता है। इसलिये सब तरहके विषोंमें प्रायः शीतल परिषेक करना; यानी शीतल जलके छोटे वगैरः देना उचित है। 'प्रायः' शब्द इसलिये लिखा है, कि कितने ही मौकोंपर गरम सेक करना ही हितकर होता है । जैसे; के डोंका विष बहुत तेज़ नहीं होता, प्रायः मन्दा होता है। उनके विषमें वायु और कफ ज़ियादा होते हैं । इसलिये कीड़ोंके काटनेपर, बहुधा गरम सेक करना अच्छा होता है, क्योंकि वात-कफकी अधिकतामें, गरम सेक करके, पसीने निकालना लाभदायक है । बहुधा, वात-कफके विषसे सूजन आ जाती है, और वह वात-कफकी सूजन पसीने निकालनेसे नष्ट हो जाती है। पर, यद्यपि केड़ोंके विषमें गरम सेककी मनाही नहीं है, तथापि ऐसे भी कई कीड़े होते हैं, जिनमें गरम सेक हानि करता है।
दो एक बात और भी ध्यानमें जमा लीजिये। पहली बात यह कि, विषमें समस्त गुण प्रायः तीक्ष्ण होते हैं, इसलिए वह समस्त दोषों-वात, पित्त, कफ और रक्त-को प्रकुपित कर देता है। विषसे सताये हुए वात श्रादि दोष अपनेअपने स्वाभाविक कामोंको छोड़ बैठते हैं-अपने-अपने नित्य कर्मों को नहीं करते
-अपने कर्तव्योंका पालन नहीं करते । और विष स्वयं पचता भी नहीं--इसलिये वह प्राणोंको रोक देता है। यही वजह है कि, कफसे राह रुक जानेके कारण, विषवाले प्राणीका श्वास रुक जाता है। कफके आड़े आ जानेसे वायु या हवाके श्राने-जानेको राह नहीं मिलती, इससे मनुष्यका साँस आना-जाना बन्द हो जाता है। चूंकि राह न पानेसे साँसका आवागमन बन्द हो जाता है, इसलिये वह आदमी या और कोई जीव-न मरनेपर भी-भीतर जीवात्माके मौजूद रहनेपर भः–बेहोश होकर मुर्देक तरह पड़ा रहता है। उसके ज़िन्दा होनेपर भी--
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