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मकड़ीके विषकी चिकित्सा ।
३२६. वाली जलन होती है, श्वास चलता है, हिचकियाँ आती हैं और सिरमें दर्द होता है।
हमारे आयुर्वेदमें मकड़ियोंकी बहुत किस्में लिखी हैं। त्रिमण्डल आदि आठ कष्टसाध्य और सौवर्णिक आदि आठ असाध्य मकड़ियाँ होती हैं । ये राईके दानेसे लेकर तीन-तीन और चार-चार इञ्च तक बड़ी होती हैं। ____ बहुत बड़ी और उग्र विषवाली मकड़ियाँ घोर वनोंमें होती हैं, जिनके काटनेसे मनुष्यके प्राणान्त ही हो जाते हैं, परन्तु गृहस्थोंके घरोंमें ऐसी जहरीली मकड़ियाँ नहीं होती; पर जो होती हैं, वे भी कम दुःखदायिनी नहीं होती।
मकड़ियोंकी मुँहकी लार, नाखून, मल, मूत्र, दाढ़, रज और वीर्य सबमें जहर होता है। बहुत करके मकड़ीकी लार या चेपमें जहर होता है । मकड़ीकी लार या चेप जहाँ लग जाते हैं, वहीं दाफड़ददौरे, सूजन, घाव और फुन्सियाँ हो जाती हैं। घाव सड़ने लगता है। उसमें बड़ी जलन होती और ज्वर तथा अतिसार रोग भी हो जाते हैं। यह देखनेमें मामूली जानवर है, पर है बड़ा भयानक, अतः गृहस्थोंको इसे घरमें डेरा न जमाने देना चाहिये । अगर एक मकड़ी भी होती है, तो फिर सैकड़ों हो जाती हैं। क्योंकि एक एक मकड़ी सैकड़ों-हज़ारों, तिलसे भी छोटे-छोटे अण्डे देती है। अगर उनकी लार या चेप कपड़ोंसे लग जाते हैं और मनुष्य उन्हीं कपड़ोंको बिना धोये पहन लेता है, तो उसके शरीरमें मकड़ीका विष प्रवेश कर जाता है। इस तरह अगर मकड़ी खाने-पीनेके पदार्थों में अपना मल, मूत्र, वीर्य या लार गिरा देती है, तो भी भयानक परिणाम होता है, अतः गृहस्थोंको अपने घरोंमें हर महीने या दूसरे-तीसरे महीने सफेदी करानी चाहिये और इन्हें देखते ही किसी भी उपायसे भगा देना चाहिये। औरतें मकड़ीके विकार होनेपर मकड़ी मसलना कहती हैं।
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