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राजयक्ष्मा और उसकी लिकित्सा । नहीं जाता और चार कदम चला नहीं जाता । चिता और चिन्ता दो बहिन हैं । इन दोनोंमें चिन्ता बड़ी और चिता छोटी है । क्योंकि चिता तो निर्जीव या मुर्दे को जलाकर भस्म करती है, पर चिन्ता जीते हुए को जलाती और मोटे-ताजे शरीरको खाक कर देती है । चिन्तामें इतना बल है, कि वह अकेली ही, बिना किसी रोगके, खून और मांस
आदि धातुओंको चर जाती है। इस रोगमें सारे काम स्वयं चिन्ता करती है, रोगका तो नाम है; अतः चिकित्सकको पहले रोगीका शोक दूर करना चाहिये । क्योंकि रोगके कारण-चिन्ताके मिटे बिना रोग आराम हो नहीं सकता।
___ वार्धक्य शोषके लक्षण । बार्बु क्य शोषवाले या जरा-शोष-रोगीका शरीर दुबला हो जाता है। वीर्य, बल, बुद्धि और इन्द्रियाँ कमजोर या मन्दी हो जाती हैं, कँपकँपी आती है, शरीरकी कान्ति नष्ट हो जाती है, गलेकी आवाज काँसीके फूटे बासन-जैसी हो जाती है, थूकनेसे कफ नहीं निकलता, शरीर भारी रहता और भोजनसे अरुचि रहती है । मुँह, नाक और
आँखों से पानी बहा करता है, पाखाना और शरीर दोनों ही सूखे और रूखे हो जाते हैं।
खुलासा यह है, जो यक्ष्मा रोग जरा अवस्था, बुढ़ापे या ज़ईफ़ीसे होता है, उसमें रोगीका शरीर एकदम दुबला हो जाता है, वीर्य कम हो जाता है, बुद्धि कमजोर हो जाती है, इन्द्रियोंके काम शिथिल हो जाते हैं; आँख, नाक, कान आदि इन्द्रियाँ अपने-अपने काम सुचारु रूपसे नहीं करती, हाथ और मुंह काँपते हैं, खाना अच्छा नहीं लगता, गलेसे फूटे हुए काँसीके बर्तन-जैसी आवाज निकलती है; रोगी घबरा जाता है, पर कफ नहीं निकलता शरीरपर बोझ-सा रखा जान पड़ता है। मुँहका स्वाद बिगड़ जाता है, मुंह, नाक और आँखोंसे
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