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विष-उपविषोंकी विशेष चिकित्सा--"आँग"। ८७ उतना शौक नहीं रखते; वे भी मित्रोंके यहाँ जाकर पीते हैं। ऐसे भी लोग हैं, जो इसे नहीं पीते; पर हिन्दुओंको इसके पीनेमें कोई बड़ा ऐतराज नहीं । भंग महादेवजीकी प्यारी बूटी है, यह बात मशहूर है। जो लोग इसे सदा पीते हैं, वे इसे सहजमें छोड़ नहीं सकते; पर अफीमकी तरह इसके छोड़ने में बड़ी-बड़ी मुसीबतोंका सामना नहीं करना पड़ता । छोड़ते समय, दस-पाँच दिन सुस्ती रहती है। समयपर इसकी याद आ जाती है। जिनको इसके पीने बाद पाखाने जानेको
आदत हो जाती है, उन्हें कुछ दिन तक बिना इसके पिये दस्त साफ नहीं होता।
बहुतसे लोग भाँगका घी निकालकर और घीको चाशनीमें डालकर बरफी-सी बना लेते हैं। भाँगको घीमें मिलाकर औटानेसे भाँगका असर धीमें आ जाता है । उस घीको छान लेनेसे हरे रंगका साफ़ घी रह जाता है । यह घो पाकों में भी डाला जाता है और उससे माजून भी बनती है । बहुतसे लोग भाँगमें, चीनी और तिल मिलाकर खाते हैं। इस तरह खाई हुई भाँग बहुत गरमी करती है। पर जिनका मिजाज बादीका है, जिनको घुटी हुई भाँग नुक़सान करती है, पेट फुलाती या जोड़ोंमें दर्द करती है, वे अगर इस तरह खाते हैं, तो हानि नहीं करती। जाड़ेके मौसममें इस तरह खाना उतना बुरा नहीं, पर गरमीमें इस तरह माँग खाना बेशक बुरा है। - बहुतसे लोग भाँगको भिगोकर और कपड़ेमें रखकर खूब धोते हैं। बारम्बार धोनेसे भाँगकी गरमी और विषैला अंश निश्चय ही कम हो जाता है। इसीलिये कितने ही शौक़ीन इसको पोटलीमें बाँधकर, कुएँ के पानीके भीतर लटका देते हैं और फिर खींचकर धोते और सुखा लेते हैं। जो जहरी भाँग पीनेवाले हैं, वे ताम्बेके बासनमें भाँग और पुरानी चालके मोटे ताम्बेके पैसे डालकर आगपर उबालते हैं। इस तरह ौटाई हुई भाँग बहुत ही तेज़ हो जाती
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