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نیه بیح
بعد ہی یہی سید علی حسی
चिकित्सा-चन्द्रोदय । है। इस अवस्थामें, (१) घी पीना, (२) शहद चाटना, (३) दूध पीना, (४) जल पीना और (५) अवगाहन करना हितकारी है । ___ जब विष कफ-स्थानमें-छातीमें- होता है, तब वह श्वास, गलग्रह, खुजली, लार गिरना और वमन होना आदि उपद्रव करता है। इस अवस्थामें, (१) क्षारागद सेवन कराना, (२) स्वेद दिलाना और (३) फस्द खोलना हितकारी है। दूषी विष अगर रक्तगत या खूनमें हो, तो "पंचविधि शिरावेधन" करना चाहिये। . इस तरह वैद्यको सारी अवस्थाएँ समझकर औषधिकी कल्पना करनी चाहिये । पहले तो विषके स्थानको जीतना चाहिये; फिर जिस स्थानके जीतनेसे विष नाश हुआ है, उसपर कोई काम विषचिकित्साके विरुद्ध न करना चाहिये। ___ (३) विषसे मार्ग दूषित हो जाते और छेद रुक जाते हैं, इसलिये वायु रुक जाती है, उसे रास्ता नहीं मिलता। वायुके रुकनेकी वजहसे मनुष्य मरनेवालेकी तरह साँस लेने लगता है। अगर ऐसी हालत हो, पर असाध्य अवस्थाके लक्षण न हों, तो उसके मस्तकपर, तेज चाकू या छुरीसे, चमड़ा छीलकर कव्वेका-सा पञ्जा बनाकर उसपर “चर्मकषा" यानी सिकेकाईका लेप करना चाहिये। साथ ही कटभी- हापरमाली, कुटकी और कायफल-इन तीनोंको पीस. छानकर, इनकी प्रधमन नस्य देनी चाहिये ।
अगर आदमी, विषसे, सहसा बेहोश हो जाय या मतवाला हो जाय, तो मस्तकपर ऊपरकी लिखी विधिसे काकपद बनाकर, उसपर बकरी, गाय, भैंस, मैंदा, मुर्गा या जल-जीवोंका मांस पीसकर रखना चाहिये । ___ अगर नाक, नेत्र, कान, जीभ और कण्ठ रुक रहे हों, तो जंगली बैंगन, बिजौरा और अपराजिता या मालकाँगनी-इन तीनोंके रसकी नस्य देनी चाहिये।
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