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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ज ] पाठक ! आप ही विचारिये, अगर पङ्कहीन उड़ने लगे, पंगु दौड़ने लगे, नेत्रहीन देखने लगे, बहुरा सुनने लगे, गूँगा बोलने लगे, मूक व्याख्यान फटकारने लगे और निरक्षर लिखने लगे, तो क्या आपको अचम्भा न होगा ? मेरे जैसे आयुर्वेद की ए बी सी डी भी न जाननेवाले विद्या-बुद्धिहीन ढीठ लेखककी लिखी हुई "स्वास्थ्यरक्षा" और "चिकित्सा-चन्द्रोदय" आदि पुस्तकोंको पबलिक इतने चावसे क्यों पढ़ती है ? इस नगण्य लेखककी लिखी हुई पुस्तकोंका प्रचार भारतके घर-घर में, रामायणकी तरह, क्यों होता जा रहा है ? हिन्दी और आयुर्वेदको नफ़रतकी नज़र से देखनेवाले आधुनिक बाबू, जज, डिप्टी कलक्टर, तहसीलदार, मुन्सिफ सदर आला, स्टेशन मास्टर और एम० ए०, बी० ए० की डिग्रियोंवाले प्रजुएट प्रभृति इस तुच्छ लेखककी लिखी हुई “चिकित्सा - चन्द्रोदय" और "स्वास्थ्यरक्षा" को बड़े आदर सम्मान और इज्जतकी नज़र से क्यों देखते हैं ? इन प्रश्नोंका सही उत्तर निकालने की कोशिश में, मैं कोई बात उठा नहीं रखता, पर फिर भी जब मैं इन सवालोंका ठीक जवाब निकाल नहीं सकता, इन सवालोंको हल कर नहीं सकता, तब मेरा अन्तरात्मा - कॉन्शेन्स कहता है - इन ग्रन्थोंकी इतनी प्रसिद्धि, इतनी लोकप्रियता और इज्जतका कारण तेरी योग्यता और विद्वत्ता नहीं, वरन् जगदीशकी कृपामात्र है । अन्तरात्माका यह जवाब मेरे दिल में जँच जाता है, मेरी उलझन सुलभ जाती है और मुझे राई-भर भी संशय नहीं रहता । अगर मैं विद्वान होता, शास्त्री या आचार्य परीक्षा पास होता, आयुर्वेद - मार्त्तण्ड या आयुर्वेद - पञ्चानन प्रभृति पदवियोंको धारण करनेवाला होता, तो कदाचित् मुझे अन्तरात्माकी बातपर सन्देह होता । इस लम्बी-चौड़ी प्रसिद्धि और लोकप्रियताको अपनी योग्यता और विद्वत्ताका फल समझता, पर चूँकि मैं अपनी योग्यताको अच्छी तरह जानता हूँ, For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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