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२४२.
चिकित्सा-चन्द्रोदय । "वैद्य-विनोद" में लिखा है:शशास्रवर्णं प्रतिभासमानं लाक्षारसेनापि समं तथा स्यात् । तदातवं शुद्धमतो वदन्ति नरंजयेद्वस्त्रमिदं यदेतत् ।।
अगर स्त्रीके मासिक धर्मका खून या आर्तव खरगोशके-से खूनके जैसा अथवा लाखके रसके समान हो तथा उस खूनमें कपड़ा तर करके पानीसे धोया जाय और धोनेपर खूनका दाग़ न रहे, तो उस आर्तव-- खूनको शुद्ध समझना चाहिये ।
___ नोट-जब वैद्य समझे कि रोगिणीका प्रदर-रोग श्राराम हो गया, तब उसे सन्देह निवारणार्थ स्त्रीका प्रार्त्तव-- खून इस तरह देखना चाहिये । अगर स्त्रीका ठोक महीनेपर रजोदर्शन हो, खून गिरते समय जलन और पीड़ा न हो, खूनमें चिकनापन न हो, उसका रङ्ग चिरमिटी, महावर, लाल कमल या बीरबहुट्टीकासा हो अथवा खरगोशके खून या लाखके रस-जैसा हो और उसमें भीगा कपड़ा बेदाग़ साफ़ हो जाय एवं वह खून पाँच दिन तक बहकर बन्द हो जाय, तो फिर उसको दवा देना वृथा है । वह आराम हो गई। पर खूनके पाँच दिन तक बहने और बन्द हो जाने में एक बातका और ध्यान रखना चाहिये; वह यह कि खून चाहे तीन दिन तक बहे, चाहे पाँच दिन अथवा ऋतुके सोलहों दिन तक, पर
खूनमें ऊपर लिखे हुए शुद्धिके लक्षण होने चाहियें। यानी उसमें चिकनापन, जलन और पीड़ा श्रादि न हों, उसका रङ्ग ख़रगोशके खून या चिरमिटी प्रभृतिका-सा हो; धोनेसे खूनका दाग़ न रहे। यह बात हमने इसलिये लिखी है कि, अगर स्त्रीका खून ज़ोरसे बहता है, तो तीन दिन बाद ही बन्द हो जाता है। अगर मध्यम रूपसे बहता है, तो पाँच दिनमें बन्द हो जाता है: पर किसी-किसीके पहलेसे ही थोड़ा-थोड़ा खून गिरता है और वह ऋतुके पहले सोलहों दिन गिरता रहता है। सोलह दिन बाद, जब गर्भाशय या धरणका मुंह बन्द हो जाता है, तब खून बन्द हो जाता है । इसमें कोई दोष नहीं; इसे रोग न समझना चाहिये, बशर्ते कि शुद्ध आर्तवके और लक्षण हो । हाँ,अगर सोलह दिनके बाद भी खून बहता रहे तो रोग होने में सन्देह ही क्या ? उसे दवा देकर बन्द करना चाहिये। वैसे खून गिरनेके रोगको औरतें "पैर पड़ना" कहती हैं । इस कामके लिये श्रागे पृष्ठ ३५६ में लिखा हुआ "चन्दनादि चूर्ण" बहुत ही अच्छा है।
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