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चिकित्सा-चन्द्रोदय |
और कीड़ोंका वंश बढ़ता जाता है । ये इतने छोटे जीव, जिनको आदमी ध्यानमें भी नहीं ला सकता, दुर्लभ मानव-देहका सत्यानाश कर देते हैं ।
ये कीटाणु नित्यप्रति बढ़ते रहते हैं, और थूक द्वारा बाहर निकलते हैं; इसलिये रोगीको बारम्बार थूकना पड़ता है । इस वास्ते रोगी थूकनेको एक चीनीका टीनपाट रखना चाहिये । उसमें थोड़ा पानी डालकर चन्द क़तरे कारबॉलिक ऐसिड या फिनाइलके डाल देने चाहिए; क्योंकि वे इन दोनों दवाओंसे फौरन नाश हो जाते हैं। जो लोग ऐसा इन्तज़ाम नहीं करते, थूकको जहाँ तहाँ पड़ा रखते हैं, वह अपनी मौत आप बुलाते हैं, क्योंकि कफके सूख जानेपर, ये कीटाणु हवा में उड़-उड़कर, साँस लेनेकी राहों से, दूसरे लोगों के अन्दर घुसते और उन्हें भी बेमौत मारते हैं । रोगीको खुद ही पराई बुराई या औरोंके नुकसानका खयाल करके दीवारों, फर्शो और सीढ़ियों पर न थूकना चाहिये । आप मरने चले, पर दूसरों को क्यों मारते हैं ?
इन कीड़ों की बात हमारे त्रिकालज्ञ ऋषि-मुनि भी जानते थे । यूरोपियनोंने अवश्य पता लगाया है, पर अब लाखों-करोड़ों वर्ष बाद । हमारे " शतपथ ब्राह्मण" में एक श्लोक है-
नो एव निष्ठीवेत् तस्मात् यद्यप्यासक्तः । इव मन्येत अभिवातं परीयाच्छ्री सोमः ॥ पाप्मा यमः सयथा श्रेय स्यायति पापीयान् । प्रत्य व हे देव यस्माद्यच्माः प्रत्यवरोहति ॥
अर्थात् हे देव, आप कैसे ही कमज़ोर क्यों न हों, आप उठने-बैठने में असमर्थ क्यों न हों, आप जहाँ-तहाँ न थूकें, क्योंकि यक्ष्मा एक पाप है । वह पापी दूसरोंपर चढ़ बैठता है। यानी यक्ष्मा छुतहा (Contagious या Infectious ) रोग है । वह एकसे दूसरेको लग जाता हैं । अथवा यक्ष्माके कीड़े एकके थूकसे निकलकर, नाक मुख आदि
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