SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८ चिकित्सा-चन्द्रोदय । आदमी नहीं जीता । (२) रोगीकी प्रकृत्ति पित्तकी है और साँपके विषकी प्रकृति भी पित्त प्रधान है। फिर मौसम भी गरमीका है। गरमीकी ऋतुमें गरम मिजाजके आदमीको कोई भी साँप काटता है, तो वह नहीं बचता; जिसमें साँपकी प्रकृति भी गरम है, अतः रोगी डबल असाध्य है। (३) चारों दाढ़ बराबर बैठी हैं, दंश सर्पित है और दबकर क्रोधसे काटा है। ये सब मरनेके लक्षण हैं। (४) काटा भी पीपलके नीचे है। पीपल या श्मशान आदि स्थानोंपर काटा हुआ आदमी नहीं बचता। (५) इस समय विषका छठा-सातवाँ वेग है । वाग्भट्टने पाँचवें वेगके बाद चिकित्सा करनेकी मनाही की है। उन्होंने कहा है:-- कुर्यात्पञ्चसु वेगेषु चिकित्सां न ततः परम् । पाँच वेगों तक चिकित्सा करो; उसके बाद चिकित्सा न करो। हमने उदाहरण देकर जितना समझा दिया है, उतनेसे महामूढ़ भी सर्प-विष-चिकित्साका तरीका समझ सकेगा। अब हम स्थानाभावसे ऐसे उदाहरण और न दे सकेंगे। (१६) बहुतसे सर्पके काटे हुए आदमी मुर्दा जैसे हो जाते हैं, पर वे मरते नहीं । उनका जीवात्मा भीतर रहता है, अतः इसी भागमें पहले लिखी विधियोंसे परीक्षा अवश्य करो। उस परीक्षाका जो फल निकले, उसे ही ठीक समझो । वैद्यक-शास्त्रमें भी लिखा है:-- न नस्यैश्चेतनां तीक्ष्णै क्षतात्क्षतजागमः । दण्डाहतस्य नोराजिःप्रयातस्य यमान्तिकम् ।। अगर आप किसीको तेज-से-तेज नस्य सुँघावें, पर उससे भी उसे होश न हो; अगर आप उसके शरीरमें कहीं घाव करें, पर वहाँ खून न निकले और अगर आप उसके शरीरपर बेंत या डण्डा मारें, पर उसके शरीरपर निशान न हो--तो आप समझ लें, कि यह धर्मराजके पास जायगा। For Private and Personal Use Only
SR No.020158
Book TitleChikitsa Chandrodaya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaridas
PublisherHaridas
Publication Year1937
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy