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चिकित्सा-चन्द्रोदय ।
विषको निकाल देना चाहिये। लेकिन विष पीनेवाले प्राणीके हृदयको रक्षा सबसे पहले करनी चाहिये । उसके हृदयको विषसे बचाना चाहिये, क्योंकि प्राण हृदयमें हो रहते हैं। अगर तुम और उपायों में लगे रहोगे, हृदय-रक्षाको बात भूल जाओगे, हृदयको विषसे न छिपाश्रोगे, तो तुम्हारा सब किया-कराया वृथा हो जायगा; अतः सबसे पहले हृदयको विषसे छिपायो, हृदयको विषसे छिपानेके लिये मांस, घी, मज्जा, गेरू, गोबर, ईखका रस, बकरी आदिकका खून, भस्म और मिट्टी-इनमें से जो उस समय मिल जाय, उसीको ज़हर पीनेवालेको फौरन खिला-पिला दो। इसका यह मतलब है, कि विव इन चीज़ों में लिपट जायगा और उसकी कारस्तानी इन्हींपर होती रहेगी, हृदयको नुकसान न पहुँचेगा । इतने में तो आप वमन कराकर विषको निकाल ही दोगे। अगर आप पहले ही इनमेंसे कोई चीज़ न पिलानोगे, तो हृदयपर ही विषका सीधा हमला होगा । यही वजह है, कि अनुभवी वैद्य संखिया या अफ़ीम आदि खानेवालेको सबसे पहले 'घी' पिला देते और फिर वमन कराते हैं। घी पी लेनेसे हृदयको रक्षा हो जाती है। संखिया आदि विष, घीमें मिलकर या लिपटकर, कय द्वारा बाहर आ पड़ते हैं। __ (३) तीसरे वेगमें--अगद या विष-नाशक दवा पिलानी चाहिये, नाकमें नस्य देनी चाहिये और आँखोंमें विष-नाशक अञ्जन आँजना चाहिये।
(४) चौथे वेगमें--घी मिलाकर अगद-विष-नाशक दवा पिलानी चाहिये।
नोट-चरकमें लिखा है, चौथेमें; कैथका रस, शहद और घीके साथ गोबरका रंस पिलाना चाहिये।
(५) पाँचवें वेगमें--शहद और मुलहटीके काढ़ेमें अगद-विषनाशक दवा--मिलाकर पिलानी चाहिये ।।
(६) छठे वेगमें-दस्त बहुत होते हैं, इसलिये अगर विष बाक़ी हो, तो वैद्यको उसे निकाल देना चाहिये । अगर न हो, तो अतिसारका इलाज करके दस्तों को बन्द कर देना चाहिये। इसके सिवा, अवपीड़ नस्यको काममें लाना चाहिये। क्योंकि नस्य देनेसे होश-हवास ठीक हो सकते हैं।
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