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चिकित्सा-चन्द्रोदय ।
विषकी उत्तर क्रिया । जब विषके वेगोंकी शान्ति हो जाय, पूरी तरहसे आराम हो जाय, तब बन्ध खोलकर, शीघ्र ही डाढ़ लगी या काटी हुई जगहपर पछने लगा--खुरचकर--विषनाशक लेप कर दो, क्योंकि अगर जरा भी विष रुका रहेगा, तो फिर वेग होने लगेंगे।
अगर किसी तरह दोषोंके कुछ उपद्रव बाक़ी रह जायें, तो उनका यथोचित उपचार करो, क्योंकि शेष रहा हुआ विषका अंश फिर उपद्रव और वेग कर उठता है । विषके जो उपद्रव ठहर जाते हैं, सहजमें नहीं जाते।
अगर वातादि दोष कुपित हों, तो बढ़े हुए वायुका स्नेहादिसे उपचार करो। वे उपाय-तेल, मछली और कुल्थीसे रहित-वायुनाशक होने चाहिये।
अगर पित्तप्रधान दोष कुपित हों, तो पित्तज्वर-नाशक काढ़े, स्नेह और बस्तियोंसे उसे शान्त करो। __ अगर कफ बढ़ा हो, तो पारग्वधादिगणके द्रव्योंमें शहद मिलाकर उपयोग करो । कफनाशक दवा या अगद और तिक्त-रूखे भोजनोंसे शान्त करो। विषके घाव और विष-लिपे शस्त्रके घावोंके लक्षण ।
कड़ा बन्ध बाँधने, पछने लगाने-खुरचने या ऐसे ही तेज़ लेपों आदिसे विषसे सूजा हुआ स्थान गल जाता है और विषसे सड़ा हुआ मांस कठिनतासे अच्छा होता है।
नश्तर आदिसे चीरते ही काला खून निकलता है, स्थान पक जाता है, काला हो जाता है, बहुत ही दाह होता है, घावमें सड़ा मांस पड़ जाता है, भयंकर दुर्गन्ध आती है, घावसे बारम्बार बिखरा
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